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पत्र २४१-२५.
लोक रचना के अनेक प्रकार
गर्शमाचार
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ते एवं परियायावासि, है एवं विवेगमाकजंति, वे नियति के कारण ही बाल्य, युवा और बुद्ध है एवं विहाणमागच्छति, ते एवं संगइपति ।
अवस्था (पर्याय) को प्राप्त करते हैं, वे नियतिवशात् ही शरीर से पृथक (मृत) होते हैं, वे नियति के कारण ही काना, कुबड़ा आदि नाना प्रकार की दशाओं को प्राप्त करते हैं, नियति का
आश्रय लेकर ही नाना प्रकार के सुख-दुःखों को प्राप्त करते है। उबेहाए जो एवं बिपरिवेति, सं जहा-किरिया ति वा (श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बू स्वामी से कहते है--) इस जाव-णिरए ति वा अणिरए ति वा।
प्रकार नियति को ही समस्त अच्छे बुरे कार्यों का कारण मानने की कल्पना (उत्प्रेक्षा) करके (निःसंकोच एवं कर्मफल प्राप्ति से निश्चिन्त होने से) नियतिवादी आगे कही जाने वाली बातों को नहीं मानते-क्रिया, अश्मिा से लेकर प्रथम सुत्रोक्त नरक और
नरक से अतिरिक्त गति तक के पदार्थ । एवं ते विकवस्वेहि कम्मसमारंभेहि विषयमाई काममोगाई इस प्रकार वे नियतिवाद के चक्र में पड़े हुए लोग नाना समारमंति भोयणाए। एवामेव हे अगारिया विपजियाणा प्रकार के सावद्यकमों का अनुष्ठान करके काम-भोगों का उपभोग तं सागहमाणा-जाब-इति ते पो हवाए णो पाराए, अंतरा करते हैं, इसी कारण (नियतिवाद में श्रद्धा रखने वाले) के कामभोगेसु विसपणा।
(नियतिवादी) अनार्य हैं, वे भ्रम में पड़े हैं। वे न तो इस लोक के होते हैं और न परलोक के, अपितु काम-भोगों में फंसकर
कष्ट भोगते हैं। पजत्थे पुरिसजाते णियइवाइए ति आहिए।
यह चतुर्थपुरष नियतिवादी कहलाता है । इस्चेते पत्तारि पुरिसमाता गाणापन्ना पाणाछंवा जाणासीला इस प्रकार ये पूर्वोक्त चार पुरुष भिन्न-भिन्न बुद्धि वाले, णाणाविट्ठी जाणारई गाणारंमा गाणशयसाणसंजुत्ता विभिन्न अभिप्राय बाले, विभिन्न शील (आचार) वाले, पृथक्पहीणपुरुषसंजोया आरियं मागं असंपत्ता,
पृथक् दृष्टि (दर्शन) वाले, नाना रुवि वाले, अलग-अलग आरम्भ धर्मानुष्ठान वाले तथा विभिन्न अध्यवसाय (पुरुषार्थ) बाले हैं। इन्होंने माता-पिता आदि गृहस्थाश्रमीय पूर्वसंयोगों को तो छोड़
दिया, किन्तु आर्यमार्ग (मोक्षपथ) को अभी तक पाया नहीं है। इति से गो हस्वाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसम्णा ।। इस कारण वे न तो इस लोक के रहते हैं और न ही परलोक के -सूय. मु. २, अ. १, सु. ६६३-६६६ होते हैं, किन्तु बीच में ही (सांसारिक) काम-भोगों से ग्रस्त होकर
कष्ट पाते हैं। विविहा लोगरयण-पहवणा
लोक रचना के अनेक प्रकार२५०.गमन्नं तु अण्णाणं हमेगेसिमाहियं ।
२५०. (पूर्वोक्त अज्ञानों के अतिरिक्त) दूसरा अशान यह भी बेवजते अयं लोगे बंभ उत्ते ति आवरे ॥
है-"इस लोक (दार्शनिक जगत) में किसी ने कहा है कि यह लोक (किसी) देव के द्वारा उत्पन्न किया हुआ है और दूसरे कहते हैं कि ब्रह्मा ने बनाया है।"
१ आघायं पुणं एगेसि उचवन्ना पुरे जिया । वेदवंति सुहं दुक्ख अदुवा लुप्यति ठाणओ ।।
न तं सयंकडं दुक्खं को अन्नकडं च णं । मुहं वा जइ वा दुई सेहिवं वा असेहियं ।। न सयं करणं अन्नेहिं वेदयन्ति पुढो जिया । संगतियं तं तहा तेसि इभेगेहिमाहियं ।। एवमेताइं जपंता बाला पंडियमाणिणो । णियया-अणिययं संतं अजाणता अबुद्धिया ॥ एवमेगे उ पासत्या ते भुज्जो विपब्भिया । एवं उदिता संता गं ते दुषखविमोक्खया ।।
-सूय. सु. १,अ.१, उ. २, गर.२८-३२