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सूत्र ८१६-२२
अवर्णवाद आदि का निषेध
चरणानुयोग
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तस्थिमा ततिया भासा, जं वदित्ताऽण तप्पती।
नरकमा : य भाषा (सत्या-मृषा) जं छन्नं तं न बसवं, एसा आणा नियंठिया ।। है, उसे साधु न बोले क्योंकि ऐसी भाषा बोलने के बाद पश्चा-सूप. सु १, अ. ६, गा. २५-२६ तार करना पड़ता है जिस बात को सब लोग छिपाते (गुप्त
रखते) हैं अथवा जो छन्न (हिंसा) प्रधान भाषा है ऐसी भाषा भी
न बोले । यह निबन्ध (भगवान) की आज्ञा है। एवं च अदुमन्न वा, जंतु नामेह सासर्य।
विचारशील माधु, सावध और कर्कश भाषाओं का तथा इसी सभासं सच्चमोसं च, तंपि धीरो थिवजए । प्रकार की अन्य भाषाओं का भी' 'जो वोली हुई पुरुषार्थ मोक्ष की
विघातक होती हैं चाहे फिर वे मित्रभाषा हों या केवल सत्य
भाषा हो, विशेष रूप से परित्याग करे। वितहं पि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो।
जो मनुष्य सत्य पदार्थ की आकृति के समान आकृति वाले तम्हा सो पुट्ठो 'पावणं, कि पुण जो मुसं वए। असत्य पदार्थ को भी सत्य पदार्थ कहता है, वह भी जब पाप कर्म
--दस.अ.७, गा. ४-५ का बंध करता है, तो फिर जो केवल असत्य ही बोलते हैं, उनके
विषय में कहना ही क्या है ? अवण्णयायाइयस्स णिसेहो
अवर्णवाद आदि का निषेध१. अखणवायं च परम्महस्स पस्वपखओ परिणीयं च मासं। १६. जो पीछे से अपर्णवाद (गिन्दा वचन बोलता ओहारिणिं अप्पियकारिणिं च
सामने विरोधी वचन नहीं कहता, जो निश्चयकारिणी और भासं न भासेज्ज सया स पुन्जो ॥ अप्रियकारिणी भाषा नहीं बोलता वह पूज्य है।
-दस.भ.उ.३,गा." सावज्ज बयण णिसेहो
सावध वचन का निषेध५२०. तेहेव सावज जोगं परस्सट्टाए निट्टियं ।
८२०. दूसरे के लिए किए गए या किए जा रहे सावध व्यापार कोरमागं ति वा नच्चा सावज नाऽलवे मुणो॥ को जानकर मुनि सावध वचन न बोले ।
- दस. अ. ७, गा, ४० गिहत्थस्स सक्कारा णिसेहो
गृहस्थ के सत्कारादि का निषेध५२१. तहेवाऽसंजय धोरो, आस एहि करेहि वा ।
८२१ इसी प्रकार धीर और प्रशावान मुनि असंयति (गृहस्थ) सय चिट्ठ वयाहि त्ति, नेवं भासेज्ज पन्नयं ।।
को बंठ, इधर आ, अमुक कार्य कर, सो, ठहर या खड़ा हो जा,
-दस. अ.७, मा. ४७ चला जा। इस प्रकार न कहे।। पारिपहियाण सावज्ज पण्हाणमुत्तरदाण णिसेहो- पथिकों के सावध प्रश्नों के उत्तर देने का निलेश ८२२.से भिव वा भिक्षुणी चा गामाणुयाम दूइज्जमाणे अंतरा २२. ग्रामानुग्राम रिहार करते हुए साध या साध्वी के मा में
से पारिपहिया आगच्छेग्जा, ते गं पाडिपहिया एवं चंदेज्जा- कुछ पथिक सामने आ जाएँ और वे यो पुछे कि"आउसंतो समणा! अवियाई एसो पडिपहे पासह मणुस्सं आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने मार्ग में किसी माय को वा. गोणं वा, महिसं वा, पसं या, पक्विं बा, सरीसवं वा, मृग की, भसे को, पशु या पक्षी को, सर्प को या किसी जलचर जलचरं वा,
जन्तु को जाते हुए देखा है ? से तं मे आइक्खह, वंसह ।"
यदि देखा हो तो हमें बताओ कि वे किस ओर गए हैं,
हमें दिखाओ। तंगो आइखेज्जा, णो सेउजा, गो तस्स तं परिणाणेज्मा, ऐसा कहने पर साधु न तो उन्हें बताए न मार्ग-दर्शन करे, मुसिणीए उबेहेज्जा, जाणं वा णो जाणं ति वदेज्जा । ततो न उनकी बात को स्वीकार करे, बल्कि कोई उत्तर न देकर मौन संजयामेव गामाणणाम जेज्जा ।
रहे। अथवा जानता हुआ भी (उपेक्षा भाव से) ' मैं नहीं जानता" ऐसा कहे । फिर यतनापूर्वक प्रामानुग्राम विहार करे।