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कृष्णदास संस्कृत सीरीज १
साहित्यदर्पणम्
'चन्द्रकला' संस्कृत-हिन्दीव्याख्योपेतम्
व्याख्याकारः आचार्य शेषराज शर्मा रेग्मी
परिच्छेदान्तो भागः)
अकादम
गदास अन
वाराणसी
कृष्णदास अकादमी, वाराणसी
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कृष्णदास संस्कृत सीरीज
॥ श्रीः
॥
साहित्यदर्पणम्
'चन्द्रकला' संस्कृत-हिन्दीव्याख्योपेतम्
व्याख्याकारः आचार्य शेषराजशर्मा रेग्मी
भूतपूर्व-प्राध्यापकः काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य, नेपालस्थत्रिभुवन विश्वविद्यालयस्य
वाल्मीकिसंस्कृतमहाविद्यालयस्य च ।
hall The
कृष्णदास अकादमी, वाराणसी
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प्रकाशक : कृष्णदास अकादमी; वाराणसी मुद्रक :पौखम्बा प्रेस वाराणसी संस्करण : तृतीय; वि० सं० २०५० मूल्य : प्रथम भाग : 1-६ परिच्छेद रू. १००-..
द्वितीय भाग : ७-१० परिच्छेद रू. ८०-..
© कृष्णदास अकादमी
पो० बा० १११८ चौक, (चित्रा सिनेमा बिल्डिंग), वाराणसी- २२१००१ (भारत)
फोन : ५२३५
अपरं च प्राप्तिस्थान चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस
के० ३७/९९, गोपाल मन्दिर लेन पो० वा० १००८, वाराणसी-२२१००१ (भारत)
फोन : ३१३४५८
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KRISHNADAS SANSKRIT SERIES
SĀHITYA DAR PA NA
OF
SRI VISHWANATHA KAVIRAJA
EDITED WITH THE
"CHANDRAKALA' SANSKRIT-HINDI COMMENTARIES
By
ACHARYA SHESHARAJA SHARMA REGA
210
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The Hill
वाराणसी
KRISHNADAS Academy
VARANASI
1993
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Publisher
Printer
Edition
: Krishnadas Academy, Varanasi
: Chowkhamba Press, Varanasi
: Third, 1993
KRISHNADAS ACADEMY
Oriental Publishers & Distributors
POST BOX No. 1118
*
Chowk, (Chitra Cinema Building), Varanasi-22100)
( INDIA ) Phone: 52358
Also can be had from
CHOWKHAMBA SANSKRIT SERIES OFFICE
K. 37/99, Gopal Mandir Lane Post Box 1008, Varanasi-221001 (India) Phene 333458
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श्रीः उदाहार
साहित्यदर्पणके विषय में कुछ लिखनेके पहले हम "साहित्य" पदके विषयमें कुछ विचार करते हैं। "सहितस्य भावः कर्म वा साहित्यम्" इस व्युत्पत्तिसे सहित पदसे ध्यन् प्रत्यय होकर "साहित्य" पद निष्पन्न होता है। इस प्रकार साहित्य पदका सामान्य अर्थ होता है सहितका भाव वा कर्म । यह हुआ इसका योगिक अर्थ । परन्तु संस्कृत. वाल्मयमें "हितेन सहिती शब्दाऽयो सहिनी, तयोर्भावः कर्म वा साहित्यम्" ऐसी व्युत्पत्तिसे पूर्ववत् ष्यम् प्रत्ययसे यह पद योगरूढ हो जाता है। इस प्रकार साहित्यका अर्थ हुआ काव्य । राजर्षि भर्तृहरिने अपने नीतिशतकमें
"साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः। .
तृणं न खादपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥" . ऐसा लिखकर काव्यके अर्थमें साहित्य शब्दका प्रयोग किया है। इसी प्रकार महाकवि विलणने भी अपने विक्रमादेवचरितकाम्यमें
"साहित्यपाथोनिधिमन्थनोत्थं कर्णाऽमृतं रक्षत हे कवीन्द्राः!
यदस्य दैत्या इव लुण्ठनाय काव्याऽर्थचौरा: प्रगुणीभवन्ति ॥ १-११
ऐसा लिखकर साहित्यका अर्थ काव्य ही मान लिया है। साहित्यदर्पणके . रचयिता विश्वन थ कविराजने भी इसी अर्थमें साहित्य शब्दका व्यवहार किया है। जैसे दर्पणसे मुखमण्डलका पूर्ण रूपसे दर्शन होता है उसी प्रकार साहित्यदर्पणसे हमें काव्यका लक्षण, काव्यशरीर-शब्द और अर्थ, अर्थबोधक अभिधा आदि वृत्तियां; रसधर्म प्रसाद आदि गुण, काव्य लक्षणमें घटित रस, रसाभास, भाव, ध्वनि और काव्यके भेद दृश्य और बग्य आदि, काव्यमें परित्याज्य श्रुतिकटु आदि दोष, पदसंघटना वंदर्मी मादि रोतियां, काव्यसौन्दर्यके आधायक शब्दाऽलङ्कार और अर्थाऽलङ्कार आदि, तन्मूलक संसृष्टि और संकर इत्यादि समस्त आलङ्कारिक विषयोंका आमूलचूड दर्शन मिलता है। अतः साहित्यदर्पण साहित्यका लक्षणग्रन्थ अर्थात् अलङ्कारशास्त्र वा साहित्यविद्या है । इसे आधुनिक संकेतके अनुसार "काव्यशास्त्र" भी कह सकते हैं। काव्यमीमांसाकार राजशेखरने भी "शन्दाऽयोर्यथावत्सहभावेन विद्या साहित्यविद्या" ऐसा लिखकर काव्यके अर्थमें साहित्यका सकृत कर "साहित्यविद्या" पदसे अलङ्कारशास्त्रका निर्देश किया है। अंग्रेजीमें इसे रिटोरिक्स (Rhetorics) कहते हैं । अब "अलङ्कारशास्त्र" के विषयमें कुछ कहना मावश्यक
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हो गया है। "अलकरणमलङ्कारः" ऐसी व्युत्पत्तिसे "भावे" इस सूत्रसे भावमें घन् प्रत्यय होकर "अलकार" शब्द साहित्यविधाका बाचक होता है ।
अलक्रियेते शब्दाऽर्थावनेनेत्यलङ्कारः। . इस व्युत्पत्तिसे करणमें घञ् प्रत्यय करनेसे "अलङ्कार" शब्द अनुप्रास और उपमा आदि शब्द और अर्थके अलङ्कारका वाचक होता है। इस प्रकार हम साहित्य और काव्यको समानाऽर्थक और अलङ्कार, अलम्कारशास्त्र, साहित्यविद्या भोर काव्यशास्त्र इनको पर्यायवाचक पाते हैं।
अब कास्यपदकी न्युत्पत्ति करते हैं काध्यशब्दकी प्रकृति कविशब्द हैं। यह पद अदादिगणस्थ "कु शन्दे" इस धातुसे "कोति" इस व्युत्पत्तिसे 'अच इ." इस सूत्रसे इ प्रत्यय कर निष्पन्न होता है। भ्वादिस्य "कुङ् शब्दे' इस धातुसे भी यह पद निष्पन्न होता है, परन्तु भ्वादिस्थ कुङ धातुः अव्यक्त शब्दमें है अतः प्रकृतमें पूर्वोक्त अदादि गणस्थ घासुसे कविशब्द निष्पन्न होता है, अतः जो रमणीय अर्थके प्रतिपादक शब्दोंका उच्चारण करता है वह "कवि" कहा जाता है यह सिद्ध होता है। "कवेर्मावः कर्म वा काव्यम्" ऐसी व्युत्पत्ति कर कवि शन्दसे “गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्म च” इस सूत्र से ज्यन् प्रत्यय होकर काव्यशब्द निष्पन्न होता है, अर्थात् कविके भाव वा कर्मको "काव्य" कहते हैं। यह हुआ व्युत्पत्तिलभ्य काव्य शब्दका अर्थ । कान्यके लक्षणके विषयमें विद्वानोंका बहुत मतभेद देखा जाता है। १ व्यासमुनिने अग्निपुराणमें काव्यका लक्षण किया है
"काव्यं स्फुटदलङ्कारं गुणवदोषवर्जितम् ।” ३३७ अ० । अर्थात् स्फट अलङ्कार और गुणसे युक्त दोषरहित अभीष्ट अर्थसे युक्त पदावलीको ''काव्य" कहते हैं। २ कान्याऽलङ्कारकार भामहके मतमें
_ "शब्दाऽर्थो सहितौ काव्यम्" अर्थात् सम्मिलित शब्द और अर्थ काव्य है । ३ काव्यादर्शकर्ता दण्डीका मत
. "शरीरं तावदिष्टाऽर्थव्यवच्छिन्ना पदावलो। काव्यम्" पूर्वोक्त अग्निपुराणके लक्षणके ही समान है। . ४ काव्याऽलकार सूत्रके रचयिता वामनके मतमें
"काव्यं ग्राह्यमलढारात्" १-१-१ इस सूत्रके अनुसार गुण और अलङ्कारसे संस्कृत शब्द और अर्थ ही काव्य है । ५ काव्याऽलङ्कारके उद्भट लेखक रुद्रटके मतमें
"शब्दाऽर्थों काव्यम्"
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(. ७
)
यह भामहके लक्षणके ही समान है। ६ ध्वनिकार आनन्दवर्द्धनके मतमें
"काव्यस्यात्मा ध्वनिः" १-१ अर्थात काव्यकी आत्मा ध्वनि है। वे ही अन्यत्र काव्य के सामान्य लक्षणके रूपमें लिखते हैं
"सहृदयहृदयाह्लादिशब्दाऽर्थमयत्वमेव काव्यलक्षणम्'
अर्थात् सहृदयके हृदयको आह्लादित करनेवाले शब्द और अर्थ ही काव्यस्वरूप हैं।
७ वक्रोक्तिजीवितकार कुन्तकके मतमें___ "शब्दाऽथौं सहितौ बक्रकविव्यापारशालिनि ।
बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि ॥" १-७ अर्थात कविक शक्त व्यापारसे शोभित, काव्यके जाननेवालोंको आह्लाद करनेवाले बन्ध ( गुम्फ ) में व्यवस्थित सम्मिलित शब्द और अर्थ काव्य है।
८ व्यक्तिविवेककार :जानक महिमभट्टके मतमें"विभावादिसंयोजनात्मा रसाऽभिव्यक्तथव्यभिचारी कविव्यापारः काव्यम्"
अर्थात् विश्राव आदिके संयोजनस्वरूप, रसकी अभिव्यक्ति में अव्यभिचारी कविव्यापार "काव्य" है। ९ सरस्वतीकण्ठाभरणमें भोजदेवके मत में
"निर्दोषं गुणवत्काव्यमलङ्काररलककृतम् ।
रसाऽन्त्रितं कविः कुर्वन्कीर्तिं प्रीतिं च विन्दति ।।" अर्थात दोषरहित, गुणसहित, अलङ्कारोंसे अलङ्कृत और रससे युक्त "काव्य"को बनानेवाला कवि कोर्ति और प्रीतिको प्राप्त करता है।
शृङ्गारप्रकाशमें वे ही “गन्दाऽथों सहितौ काव्यम्" ऐसा लक्षण देते हैं। १० औचित्यविचारच कार क्षेमेन्द्र के मतमें
. "औचित्यं काव्यजीवितम्" इस उक्तिके अनुसार औचित्य ही काव्यका जीवन है। वे ही अपने कविकण्ठाभरणमें लिखते हैं
"काव्यं विशिष्टशब्दाऽर्थसाहित्यसदलस्कृति ।" अर्थात् उत्तम अलङ्कारसे युक्त विशिष्ट शब्द और अर्थ "काव्य" है। ११ काव्यप्रकाशकार मम्मट भट्टके मतमें- ।
'तददोषौ शब्दाऽर्थौ सगुणावनलसकती पुनः काऽपि ।'
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( ८ )
अर्थात् दोषरहित, गुणसहित और अलङ्कारसे अलङ्कृत शब्द और अर्थको "काव्य" कहते हैं: हाँ, वह शब्दाऽर्थ युगल कहीं स्फुट अलङ्कारसे रहित हो तो भी कुछ हर्ज नहीं ।
१२ प्रतापरुद्रीकार विद्यानाथके मतमें
"गुणाऽलङ्कारसहितौ शब्दाऽर्थो दोषवर्जितौ । "काव्यं काव्यविदो विदुः ॥"
अर्थात् गुण और अलङ्कारसे सहित, दोषसे वर्जित, शब्द और अर्थको काव्यके जानकार "काव्य" जानते हैं ।
१३ काव्यानुशासनकार वाग्भटके मतमें
" शब्दाऽर्थो निर्दोषौ सगुणौ प्रायः साऽलङ्कारौ काव्यम् ॥
अर्थात् दोषरहित, गुणसहित और प्राय: ( अकसर ) अलङ्कारसे अलङ्कृत शब्द और अर्थ "काव्य" माना गया है।
१४ कविकुलशेखर राजशेखर अपनी काव्यमीमांसा में लिखते हैं
"गुणवदतं वाक्यमेव काव्यम्" ।
अर्थात् गुणविशिष्ट और अलङ्कारसे अलङ्कृत वाक्य ( पदसमूह ) ही "काव्य है । १५ वाग्मटाऽलङ्कारके कारक वाग्भटके मतमें-
"साधुशब्दाऽर्थसन्दर्भ गुणाऽलङ्कारभूषितम् । स्फुटरीतिरसोपेतं काव्यं कुर्वीत कीर्तये ॥
१-२
अर्थात् गुण और अलङ्कारसे भूषित, स्फुट रीति और रससे युक्त साधु शब्दाऽर्थगुम्फको "काव्य" कहते हैं, कवि अपनी कीर्तिके लिए उसकी रचना करे ।
१६ "काव्यानुशासन" के कर्ता हेमचन्द्रके मतमें—
"अदोषौ सगुणौ सालङ्कारौ च शब्दार्थों काव्यम्" ।
अर्थात् दोष से रहित गुण और अलङ्कारसे सहित शब्द और अर्थको "काव्य" कहते हैं ।
१७ चन्द्रालोकके निर्माता जयदेवके मत में -
"निर्दोषा
लक्षणवती सालङ्काररसाऽनेकवृत्तिर्वाकू
अर्थात् श्रुतिकटु आदि दोषसे रहित, अक्षरसंहति आदि लक्षणसे सहित, पाचाली आदि रीति से युक्त, श्लेष, प्रसाद आदि गुणसे भूषित, अनुप्रास और उपमा आदि अलङ्कार सहित एवं शृङ्गार आदि रस तथा मधुरा आदि और उसी तरह अभिधा आदि वृत्तियोंसे युक्त शब्दको "काव्य" कहते हैं ।
सरी तिर्गुणभूषणा ।
"काव्यनामभाकू ।" १-७
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१८ शौद्धोदनिके मत में -
( ९ ) :
"काव्यं रसादिमद्वाक्यं श्रुतं सुखविशेषकृत् ।"
अर्थात् रस आदिसे विशिष्ट, सुखविशेष उत्पन्न करनेवाला वाक्य "काव्य" सुना गया है ।
१९ प्रकृत आलङ्कारिक विश्वनाथ कविराजके मतमें भी" वाक्यं रसात्मकं काव्यम् ।"
अर्थात् रस रूप आत्मा ( जीवनाधायक ) वाला वाक्य "काव्य" है ।
२०. अलङ्कारशेखर के कर्ता केशव मिश्र के मत में
"रसाऽलङ्कारयुक्तं सुखविशेषसाधनं काव्यम || "
अर्थात् रस और अलङ्कारसे युक्त सुखविशेष ( अनिर्वचनीय आनन्द ) का साधन काव्य है ।
२१ रसगङ्गाधर पण्डितराज जगन्नायके शब्दों में-
" रमणीयाऽर्थप्रतिपादकः हः शब्दः काव्यम् ।"
अर्थात् रमणीय अर्थका प्रतिपादक शब्द काव्य है ।
याद रखना चाहिए पण्डितराज शब्दको काव्य मानते हैं, मम्मट भट्ट शब्द और अर्थ दोनों को काव्य मानते हैं ।
म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने शब्द मात्र काव्य होता तो शब्द मात्र में विद्यमान दोष, गुण, अलङ्कार और ध्वनिका निरूपण होता अयंगत दोष गुगादिकों का निरूपण नहीं होता अतः काव्यत्व उभयनिष्ठ है ऐसा लिखकर मम्मटभट्टके मतक समर्थन किया है । म० म० नागेशभट्टने भी "काव्यं पठितं श्रुतं काव्यं, बुद काव्यम्" इन प्रयोगों शब्द और अर्थ दोनों में काव्य पदका व्यवहार देखनेसे काव्य पदका प्रवृत्तिनिमित्त व्यासज्यवृत्ति है ऐसा लिखकर प्राचीन आचार्यके मतक समर्थन किया है ।
२२. एकावली में विद्याधर कहते हैं
“शब्दाऽर्थवपुस्तावत् काव्यम्"
अर्थात् काव्य, शब्द और अर्थ रूप शरीरवाला है । २३ प्रतापरुद्रीय में विद्यानाथने लिखा है
"गुणाऽलङ्कारसहितौ शब्दाऽय दोषवर्जितौ । गद्यपद्योभयमयं कात्र्यं काव्यविदो विदुः !”
अर्थात् गुण और अलङ्कार से सहित, दोषसे वर्जित शब्द और अर्थ, गद्य और प दोनोंको "काव्य" कहते हैं ।
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.( १० ) २४ साहित्यसारमें अच्युतराज कहते हैं
"तत्र निर्दोषशब्दाऽर्थगुणवत्त्वे सति स्फुटम् ।
गद्यादिबन्धरूपत्वं काव्यसामान्यलक्षणम् ॥" अर्थात् दोषरहित शब्द और अर्थ गुणसे युक्त होकर गद्य शीर पद्यसे निबद्ध जो सन्दर्भ है वह काव्यका सामान्य लक्षण है। २५ साहित्य रत्नाकरमें धर्मसूरि लिखते हैं
_ "सगुणाऽलस्कृती काव्यं पदाऽर्थों दोषवर्जितौ।" अर्थात् गुण और अलङ्कारसे सहित, दोषते रहित शब्द और अर्थको "कान्य" कहते हैं। २६ अलङ्कारचन्द्रिकामें न्यायवागीशके मत में
"गुणाऽलङ्कारसंयुक्तो शब्दाऽर्थो रसभावगौ।
नित्यदोषविनिर्मुक्तौ काव्यमित्यभिधीयते ।।" अर्थात् गुण और अलङ्कारसे संयुक्त, रस और भावके प्रतिपादक और नित्य: दोषसे रहित शब्द और अर्थको "काव्य" कहते हैं।
२७ काव्यप्रकाशकी "प्रदीपिका" टीकाके रचयिता चण्डीदास 'आस्वादजीवातुः पदसन्दर्भः काव्यम्" रसका जीवनौषध पदसन्दर्भ "काव्य" है, ऐसा उल्लेख करते हैं।
इस प्रकार यहाँ २७ आचार्योंके मतानुसार काव्यका लक्षण लिखा गया हैं, इनमें मम्मटमट्ट, विश्वनाथ कविराज और पण्डितराज जगन्नाथके मत अधिक प्रसिद्ध और विद्वज्जनोंसे समादत हैं । अब काम्य के प्रयोजनके विषय में कुछ लिखते हैं । काव्यप्रकाशमें मम्मटभट्टका वक्तव्य है
"काव्यं यशसेऽर्थकते. व्यवहारविदे शिवतरक्षतये ।
सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥ अर्थात् काव्य यश, अर्थ ( धन ) और व्यवहारका परिज्ञान 'अकल्याणके परिवारके और तत्क्षण ( सुनने वा देखनेके अनन्तर ) ही कान्ताके समान उपदेश देनेके लिए कारण होता है।
वाक्यके तीन भेद होते हैं प्रभुसम्मित, सुहृत्सम्मित और कान्तासम्मित इनमें पहला वेदवाक्य "अहरहः सन्ध्यामुपासीत' प्रतिदिन सन्ध्याकी उपासना करे ऐसा
आदेशवाला वाक्य "प्रभृम्मित" है । लोकमें भी प्रभु भृत्यको इष्ट और अनिष्ट समस्त कार्य में प्रवृत्त करता है, अतः प्रभुसम्मित वाक्य में इष्ट प्राप्तिका उपाय और मनोहरता नहीं है । दूसरा शक्य सुहृत्सम्मित है, जैसे मित्र अपने मित्रको इष्टप्राप्तिमें प्रवर्तक वाक्य कहता है, इस कोटिमें इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्रके वाक्य
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( ११ ) आते हैं, परन्तु इसमें भी मनोहरता नहीं है। तीसरा वाक्य कान्तासम्मित है। जैसे कान्ता (स्त्री) अपने पतिको मनोहर पदावलीसे हितकार्यमें उपदेश देकर प्रवृत्त करती है, वह वाक्य कान्ता पम्मित है, काव्य भी कान्तासम्मित वाक्य है, वह मनोहरतासे हितका आधान करनेवाला है। . साहित्यदर्पणमें विश्वनाथ अविराज लिखते हैं----
"चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि ।
काव्यादेव" अर्थात् अलाबुद्धिवालों को भी काव्य ही सुखपूर्वक चतुर्वर्ग ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) फलकी प्राप्ति होती है ।
इसी प्रकार बहुतसे विद्वानोंने लमण करनेके अवसरमें कायको निरतिशय आनन्द, यश और अर्य आदिकी प्राप्तिका कारण बताया है । अब अलङ्कारशास्त्र लक्ष्यभूत कुछ ग्रन्थों की चर्चा करते हैं ।
पद्य-काव्य १ वाल्मीकिरामायण ( आदि काव्य ) श्लोकसंख्या २४००० ( प्रायः अनुष्टुप् छन्द ) कर्ता-वाल्मीकि मनि । समय-त्रेतायुग।
२ जाम्बवती विजय वा पातालविजय काव्य, कर्ता-महावैयाकरण अष्टाध्यायीकार पाणिनि मुनि । पूर्णोक्त काव्य अभी उपलब्ध नहीं, पर बहुत ग्रन्थोंमें उसका उल्लेख है । समय-हृष्टपूर्व-३४३-३२१ । डॉ० रामकृष्ण भाण्डारकर और गोल्डष्ट्रकरके मताऽनुसार पाणिनिका समय ईसासे ७०० वर्ष पूर्व है। युधिष्ठिर मीमांसकके मतमें वि० पू० २८०० वर्ष समय है।
३ स्वर्गारोहणकाव्य, कर्ता-अष्टाध्याशीपर वातिककार कात्यायन मुनि । जैसे राजशेखरने लिखा है
"नमः पाणिनये तस्मै, यस्मादाविरभूदिह ।
आदी व्याकरणं, काव्यमनुजाम्बवती जयम् ।।" यह काव्य भी अभी उलब्ध नहीं, पर बहुत ग्रन्थों में इसकी चर्चा की गई है। महाभाष्य-४-३-११० में इसका "वाररुच काव्य"के रूप में उल्लेख है। महाराज समुद्रगुप्तके कृष्णचरित काल में इस विषयपर ऐसा प्रकाश डाला गया है
“न केरलं व्याकरणं पुपोष दाक्षीसुतस्येरितवार्तिकर्यः । काव्येऽपि भूयोऽनुचकार तं वै कात्यायनोऽसौ कविकर्मदक्षः॥" इसी प्रकार नहाभाष्यकार पतञ्जलि मुनिने भी "बलिबन्ध" और "कंसवध" आदि नाटकोंका उल्लेख किया है, "जघान कसं किल वासुदेवः' इत्यादि उदाहरण भी दिया है । परन्तु उक्त दो ग्रन्थ भी अभी उपलब्ध नहीं हैं। इसी तरह “वाररुचं काव्यम्" लिखकर भाष्यकारने संभवतः "स्वर्गारोहण" काम्पका निर्देश किया है एवम् महाभाष्यमें "वासवदत्ता" "सुमनोत्तरा" और "भैमरथी" मादि आख्यायिकाओंके भी.
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( १२ ) उल्लेख मिलते हैं, परन्तु उनमें एक भी उपलब्ध नहीं। सम्प्रति काव्योमें लघुत्रयी और बृहत्तयीका प्रचुर प्रचार है।
लघुत्रयी-लघुत्रयी कहनेसे कुमारसंभव, मेघदूत और रघुवंश ये तीन कान्य लिये जाते हैं । ये तीनों काव्य कालिदासरचित हैं।
४ कुमारसंभव -- यह महाकाव्य है. इसमें १७ सर्ग हैं। इसमें राजकुमार( कार्तिकेय ) की उत्पत्तिको कथा है। इसपर कोलाचल मल्लिनाथकी टीका है। इसमें प्रथम सर्गमें पार्वतीके जन्मका वर्णन, द्वितीयमें तारकाऽसुरसे पीडित देवताओंका ब्रह्मदेव के समीप जानेका वर्णन, तृतीयमें कामदाहका वर्णन, चतुर्थ में रतिविलाप, पञ्चममें पार्वती की तपश्चर्या, षष्ठमें पार्वतीका वाग्दान, सप्तममें पार्वतीका विवाहवर्णन, अष्टममें पावतीकी रतिक्रीडाका वर्णन, नवममें कैलासगमन, दशममें कुमारकी उत्पत्ति. का वर्णन, एकादशमें कुमारकी क्रीडाका वर्णन, द्वादशमें कुगरके सेनापतित्वका वर्णन, त्रयोदशमें कुमारका सेनापतित्वमें अभिषेक, चतुर्दशमें देवसेनाका प्रयाण, पञ्चदश में देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंका संघटन, षोडशमें देवताओं और दैत्योंका संग्रामवर्णन और सनदशमें तारकासुरके वध का वर्णन है । इस महाकाव्यमें ८ सर्गतक ही मल्लिनाथकी सञ्जीवनी टीका है। पाश्चात्त्य विद्वान् ८ सर्गतक ही कालिदासको रचना मानते हैं, शेष सर्ग किसी विद्वान्से प्रक्षिप्त मानते हैं। कालिझासने ऋतुसहारकी रचना कर इसकी रचना की है ऐसा प्रतीत होता है ।
५ मेघदूत--मेघदुर खण्डकाव्य है। इसमें दो बंश है पूर्वमेघ और उत्तरमेघ, इसमें कुवेरशापसे दातादियुक्त रामगिरि स्थित किसी यक्षने अलकापुरीमें स्थित अपनी प-नीको सन्देश देने के लिए मेघसे प्रार्थना की है।
इसमें पूर्व मेघमें ६३ और उत्तरमेघमें ५२ पद्य हैं । छोटा होते हुए भी यह जगत्प्रसिद्ध मनोहर काव्य है। इसके अनुकरणमें उद्धवदूत, मनोदून, हंससन्देश आदि कई दूत काव्योंकी रचना हुई है, यहां तक कि विदेशमें भी इसका अनुकरण हुआ है। इसमें दक्षिणावर्तनाथ, वल्लभदेव और मल्लिनाथकी सजीवनी टीका प्रति प्रसिद्ध है। मेघनके कथानकका उपजीव्यब्रह्मवैवर्तपुराणस्थ योगिनी नाम की अषाढ कृष्ण - दशी के माहात्म्य की एक कथा है, जिसे भगवान श्रीकृष्णने महाराज युधिष्ठिरको बतलाई है।
६ रघुवंश--यह महाकवि कालिदासका अत्यन्त परिष्कृत मनोहर महाकाव्य है इसमें रघुवंशके राजाओंका संक्षिप्त और सारगर्भ वर्णन है। इसमें .९ सगे हैं। जिनमें प्रथम सर्ग में रघके पिता दिलीपके वशिष्ठके आश्रममें जानेका वर्णन, द्वितीयमें दन्दिनीका दिलीपको वरप्रदानका वर्णन, तृतीयमें रखका जन्म और सुझावस्थाप्राप्त उनका राज्याभिषेक, चतुर्थमें विश्वजित् यज्ञके लिए र दिग्विजय, पञ्चममें रघुके पुत्र अजके स्वयंवरमें गमतका वर्णन है, पष्ठमें इन्दुमतीका
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( १३ ) . - वयंवरवर्णन, सप्तममें इन्दुमतीसे अजका विवा, अष्टममें इन्दुमतीके असामयिक मरणसे अजके विलापका वर्णन, नवममें अबके पुत्र दशरथका मृगयावर्णन, दशममें रामके अवतारका वर्णन, एकादशमें राम आदि राजकुमारोंके विवाहका वर्णन, द्वादशमें रामका वनगमन और रावणका सीताहरण तथा सुग्रीवकी सहायतासे रामकृत रावणवधका वर्णन, त्रयोदशमें रामके सीता और लक्ष्मणके साथ अयोध्या लौटनेका वर्णन, चतुर्दश में लोकाऽपवादके कारण सीताके परित्यागका वर्णन, पञ्चदशमें कुखको राज्याभिषेक देकर रामके स्वर्गारोहणका वर्णन, षोडशमें कुशका कुमुवतीसे परिषयका वर्णन, सप्तदश में कुशपुत्र अतिथिका वर्णन, अष्टादशमें रघुका वंशाऽनुक्रा वर्णित है, तथा एकोनविंश सर्गमें रघुवंश के राजा अग्निवर्णके शृङ्गारका वर्णन है ।
रघुवंश संक्षिप्त होते हुए भी आवश्यक वनोंसे विभूषित है इसमें कविके अद्भुन और परिणत मस्तिष्कका परिचय मिलता है। इसमें अनुष्टप, वशस्थ, हरिणी, मन्दाक्रान्ता आदि अनेक छन्दोंका प्रयोग मिलता है, कालिदासकी रचनामें प्रसाद गुण वैदर्भी रीति और उपमा आदि अलङ्कारोंकी विशेषताके विषयमें क्या कहता है ? आर्यसंस्कृतिको उनके प्रत्येक ग्रन्थमें आदर्शकी झांकी प्रचुर मात्रामें मिलती है। कलिदास ईसासे ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य के नवरत्नों में अन्यतम महान् रत्न थे।
बृहत्त्रयीमें तीन महाकाव्य परिमणित हैं, किरातार्जुनीय, शिशुपालवध और नैषधीयचरित ।
७ किरातार्जुनीय-किरातार्जुनीयके कर्ता भारवि । समय-महाकवि भारवि ईसाकी षष्ठ शताब्दीके उत्तराई में हुए हैं। इसका कथानक महाभारत के आधारपर अवलम्बित है । इसमें अठारह सर्ग हैं। तपश्चरणके लिए जब अर्जुन इन्द्रकील पर्वत गये, उस समय उनकी शक्तिपरीक्षाके लिए महादेवने किरातका रूप लेकर उनसे युद्ध किया है, इतने ही विषयको भित्तिपर यह महाकाव्य अवलम्बित है । पदोंके सरल हनेपर भी इसमें अर्थगाम्भीर्य अधिक है, अतः "भारवेरथंगौरवम्" यह उक्ति प्रसिद्ध है। अत एव इसके घण्टापथनामक टीकाके कर्ता मल्लिनाथने भी भारविके वचनको "नारिकेलफलसम्मित" लिखा है। प्रकृतिका वर्णन अति गय मनोहर शैलीमे इसमें प्रस्तुत किया गया है। अपनी राजनीतिकी अभिज्ञता भी कविने दरसाई है, संस्कृत भाषा और व्याकरणमें कविका पूर्ण अधिकार देखा जाता है। पन्द्रहवें सममें इहोंने चित्रकाव्यके शिल्पका भी प्रदर्शन किया है। इसमें १ श्लोक वो केवल "न" वर्णपर अवम्बित है।
८ शिशुपालवध, समर-ख० सप्तम शतक । शिशुपालवधके कर्ता "माषकवि" है, अतः इसको "माघकाव्य" भी कहते हैं। माघका जन्म गुजरातके "मीवमान
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नगरमें हुआ था। इनके पितामह सुप्रभदेव गुजरातके राजा वर्मलातके प्रधान मन्त्री ये। इनके पिताका नाम दत्तक था। माघकवि धनाढ्य और दानशील थे। इनका समय लगभग ६७५ ईसवी है। शिशुपालवधमें युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें चेदि देशके राजा शिशुपालके बधकी कथाका मविस्तर वर्णन पाया जाता है। इसमें कुल २० मर्ग और १६५० पद्य हैं । इसमें कविने बहुत स्थानोंपर भारविका अनुकरण किया है । इसमें राजनीतिके साथ-साथ पर्वत, समुद्र, ऋतु और जलक्रीडा आदि विषयोंका बड़ी प्रोढिसे अलङ्कारपूर्ण वर्णन किया गया है। चित्र काव्यमें भी कवि भारविसे आगे बढ़े है। माघ कवि वैयाकरण थे, अतः संस्कृत भाषामें उनका पूग अधिकार था । 'माघे सन्ति त्रयो गुणाः" इस उक्तिके अनुसार माघमें उपमा, अर्थगौरव और पदलालित्य इन तीनों गुणोंकी समष्टिकी चर्चा पाई जाती है। इनका पन्थ शिशूपाल वध मात्र उपलब्ध है। इनके नामसे फुटकर कुल पद्य सुभाषितग्रन्थ आदिमें मिलते हैं। शिशुपालवधमें १७ टीकाओंकी प्रसिद्धि है। उनमें वल्लभदेवकी सन्देहनिषौषधि, चारित्रवर्द्धनकी टीका और मल्लिनाथकी सर्वकषा टीका बहुत प्रसिद्ध हैं ।
९ नैषधीयचरित समय-ख० १२ शताब्दी, नैषधीयचरितके कर्ता श्रीहर्ष मिश्र हैं । ये दर्शनशास्त्रके महान् विद्वान् और खण्डनखण्डखाद्य जैसे अप्रतिम ग्रन्थ के रचयिता है। इनके पिताका नाम हीर और माताका नाम मामल्लदेवी वा अल्लदेवी था। इन्होंने चिन्तामणि मन्त्रका अनुष्ठान किया था जिसके फलस्वरूप यह कृति "नैषधीयचरित" है। ये काशीनरेश विजयचन्द्रके सभापण्डित थे ! इनका समय ईसवी १२ शताब्दी है । नैषधीयचरितमें निषधनरेश नलके दमयन्तीसे पाणिग्रहणके विषयका अवलम्बन किया है । कथानकका उपजीव्य मूलतः महाभारत है। महाकविने अपनी कल्पनाकुचिकासे अतिशय मनोहर रचना की है। स्थान-स्थानपर वैदर्भी ओर गोडी रीतिका, प्रसाद और ओज गुणका मणिकाञ्चनसंयोगके समान संमिश्रण है। रस, ध्वनि, और भावका आधिक्य और उपमा, श्लेष आदि अलङ्कारोंका विलास और अनेक प्रकारके छन्दोंका इन्होंने स्वच्छन्दतापूर्वक चमत्कार दिखलाया है। संस्कृत भाषापर इनका पूर्ण अधिकार था, क्या लौकिक क्या शास्त्रीय सभी विषयपर इन्होंने आधिकारिक रूपमें प्रकाश डाला है और पूर्ववर्ती सव कवियोंको पीछे छोड़ दिया है। अत एव कहा जाता है-"उदिते नैषधे भानो क्व माघः क्व च भारविः" : अत एव कहा जाता है "नैषधं विद्वदौषधम्"। प्रत्येक सर्गमें सौसे अधिक पद्य हैं । यह महाकाव्य २२ सर्गतक ही उपलब्ध है, परन्तु नलके दमयन्तीपरिणयतकके चरित्रके देखे जानेसे अन्य सर्गों की भी सत्ताकी कल्पना होती है, अस्तु । इस प्रकार अति.प्रसिद्ध लघुत्रयी और बृहत्प्रयी नामके काव्योंकी चर्चा की गई। इसी प्रकार संस्कृत. साहित्यमें पक्ष काव्योंकी पठनप्रणाली पहले रही उनमें पूर्वोक्त रघुवंश, कुमार.
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संभव, किरातार्जुनीय, शिशुपालवध और , नैषधीयचरित ही पञ्च काध्यकी प्रसिद्धिवाले हैं इनका सामान्य परिचय दे चुके हैं ।
१०. बुद्धचरित-समय-ख. द्वितीय शताब्दी, बौद्ध दार्शनिक अश्वघोषने बुद्धचरितकी रचना की है । इसमें गौतम बुद्धके चरितका वर्णन है । यह चौदह सर्गोतक ही उपलब्ध है। इसमें पहले २८ सर्ग थे, जो चीनी और तिब्बती अनुवादों से जाने जाते हैं । प्रसाद गुणसे अलङ्कृत यह काव्य है, इसके और अश्वघोषके ही सौन्दरनन्दके कतिपय पद्य कालिदासके कुमारसंभव और रघुवंशके पद्योंसे मिलते जुलते हैं, परन्तु कालनिर्णयसे कालिदासका अनुकरण अश्वघोषने किया है यह सावित होता है।
११ सौन्दरनन्द-यह महाकाव्य भी मश्वषोषकी रचना है। इसमें १९ सर्ग हैं इसमें गौतम बुद्धके सौतेले भाई नन्द, एवम् नन्दकी पत्नी सुन्दरीकी मनोहर कथाका चित्रण है । बुद्धके उपदेशसे नन्द बुद्धधर्ममें दीक्षित होता है, परन्तु अपनी पत्नी सुन्दरीमें आसक्ति भी छोड़ने में असमर्थ होता है। वासना और त्यागका संघर्ष इसमें मनोहर रूपमें दर्शाया है, अन्त में सरसङ्गति और सदुपदेशके फलस्वरूप नन्द वासनाके उच्छेदमें समर्थ होता है।
१२ हरविजय महाकाव्य (कवि-रत्नाकर)-समय ० नवम शताब्दी । प्राचीन संस्कृत साहित्यमें यह सबसे बड़ा महाकाव्य है । इसमें ५० सर्ग हैं। इसमें महादेवजीके अन्धकाऽसुरके वधकी कथाका विस्तीर्ण और मनोहर शैलामें वर्णन है। इसके कर्ता महाकवि रत्नाकर हैं। इसमें इन्होंने बाणभट्टको शंलीका अनुकरण स्वीकार किया है । इसमें यमक तथा अन्य शब्दालङ्कार तथा चित्र कान्यकी रचना प्रचुर होनेपर भी अर्थालङ्कारोंको भी स्थान-स्थानपर अच्छी तरहसे दरसाया है। इसमें प्रचुर छन्दोंका भी प्रयोग किया गय है । इस महाकाव्यकी अलकविरचित "विषमपदोद्योत" नामक टीका प्रकाशित हुई है। .. १२ विक्रभादेवचरित, कवि-विहण-समय ख० ११ शताब्दी । यह ऐतिहासिक महाकाव्य है। इसमें छठे विक्रमादित्यके जीवनचरित्रका वर्णन है। इसमें १८ सर्ग हैं। इसमें पहले सर्गसे तेरहवें सर्गतक विक्रमादित्यके पूर्वजोका और पिछले चौदहवेसे अठाहरवें अर्थात् ५ सर्गोमें विक्रमादित्यका वर्णन है । यह उच्चकोटिका महा. काव्य है। इसमें महाकवि विलणने कालिदासका अनुकरण किया है। कर्मी रीति प्रसाद गुण, ध्वनि, रस आदि और अलङ्कारोंका प्रयोग यहाँ स्थान-स्थानपर मिलता है।
१३ स्तुतिकुसुमाञ्जलि (कवि-जगदरभट्ट) (समय ई० १३०० करीब) काश्मीरके जगद्धरभट्टकी स्तुति कुसुमाञ्जलि उत्कृष्ट काव्य है। शान्त रससे बोतप्रोत यह कान्य अतिशय मनोहर शैलीसे विरचित है। इसमें भगवान् शङ्करकी चित्ताकर्षक भक्तिसे परिपूर्ण कुल ३८ स्तोत्र हैं, अन्तमें सोलह पद्योंमें कविने अपने वंशका
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( १६ ) वर्णन किया है। ग्रन्थमें समष्टि श्लोकसंख्या १४३९ है। इसमें प्रत्येक स्तोत्र भित्र पिन छन्दोंमें महाकाव्यके सर्गके ढङ्गपर लिखे गये हैं। इसमें प्रसाद और माधुर्य गुण परिपूर्ण है, इसका परिपाक भी बहुत आकर्षक है। इसमें १७०० ईस्वीमें राजानक रत्नकण्ठसे विरचित "लघुपश्चिका" नामकी टीका उपलब्ध है।
गद्यकाव्य १ दशकुमारचरित-कवि-दण्डी। ( समय ६०० ईस्वी लगभग ) यह ग्रन्थ कथारूप है। इसमें अभी ३ विभाग उपलब्ध है, पूर्वपीठिका, दशकुमारचरित और उत्तरपीठिका । पूर्वपीठिका में पाँच उच्छ्वास, दशकुमारचरितमें आठ उच्छ्वास हैं और उत्तरपीठिका संक्षिप्त है। दण्डीका यह अन्य विकल रूपमें उपलब्ध नहीं हैं। इसका कुछ अश नष्ट हुआ और कुछ अंश पीछेसे जोड़ा हुआ प्रतीत होता है । जो हो, इसमें दशकुमारों जिनमें राजवाहन और शेष ९ मन्त्रिपुत्रोंके चरित्रका वर्णन है। पूर्वपीठिकामें दो कुमारोंका चरित्रवर्णन है, कुमारचरितके आठ उच्छ्वासोंमें ८ कुमारोंके चरित्र वर्णित हैं। उत्तरपीठिकामें कथासमाप्ति की गई है। इसकी शैली सुबन्धुकी वासवदत्ताकी-सी श्लेषबहुल और गौडीमें निबद्ध नहीं है, न बाणभट्टकाःसा वर्णनविस्तर है। कुछ अश्लीलता होकर भी इसकी कथाएं अद्भुत और चित्तको आकृष्ट करनेवाली है । स्थल-थलपर अनुप्रासकी प्रचुरता प्रन्थको अलंकृत करनेवाली है।
२ वासवदत्ता-कवि-सुबन्धु । (समय ख० सप्तमशतकका आरम्म) संस्कृत साहित्यमें सबसे प्राचीन गद्य काव्य वासदत्ता है, इसके कर्ता कविवर सुबन्धु हैं, इनके विषयमें ऐसी प्रसिद्धि है
सुबन्धुर्वाणभट्टश्च कविराज इति त्रयः।
- वक्रोक्तिमार्गानपुणश्चतुर्थो विद्यते न वा॥ इसकी कथा न इतनी सिद्ध और न रोचक ही है, पर कविने इसमें अपने काव्यशिल्पकी हद कर दी है, इनका ग्रन्थ प्रत्यक्षरश्लेषमय है, इसको कविने स्वयम् स्वीकार किया है । बाणभट्ट कविने
"कवीनामगलर्को नूनं वासवदत्तया" ऐसा लिखकर इनकी प्रशंसा की है। महापण्डित सुबन्धुने कवित्वसे अधिक अपने पाण्डित्य का ही प्रदर्शन किया है। वासवदत्तामें कादम्बरीके समान लम्बे लम्बे पद और वाक्य नहीं हैं, पर श्लेषको बतिप्रचुरतासे सोचते सोचते पाठकका धैर्य टूटने लगता है। जो हो इसकी शैली पाण्डित्यपूर्ण है, इसमें सन्देह नहीं।
३ हर्षचरित-कवि-बाणभट्ट ( समय-ख० षष्ठ शताब्दी ), थानेसरके महाराज
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हर्षवर्द्धनके चरित्र के प्रकाशनमें प्रसिद्ध हर्षचरित ऐतिहासिक आख्यायिका ग्रन्थ हैं। इनमें ८ उच्छ्वास हैं। प्रथम और द्वितीय उच्छवासमें कविने अपने वंशका अनुकीर्तन किया है, अवशिष्ट छः उच्छ्वासोंमें हर्षवर्द्धनका अतिमनोरम शैलीमें वर्णन किया है। यद्यपि कादम्बरीके सदृश इसमें परिष्कृत प्रौढि नहीं है, यह कविके गद्यकाव्यमें प्रारम्भिक कृति विदित होती है । तथाऽपि स्थल-स्थल में इस में करुणरससे ओत-प्रोत अत्यन्त हृदयद्रावक वर्णन मिलता है । बीच बीचमें वीररस और शान्तरसकी मनोरम झांकी भी मिलती है । पहलेके दो उच्छ्वासोमें रौद्र और शृङ्गार रसका अतिमनोरम चित्रण किया गया है। आरम्भमें कई पद्योंमें पूर्ववर्ती कालिदास आदि कवियोंकी प्रशंसा अतिशय मनोहर है । श्रीहर्षदा पूरा चरित वणित न होने से यह ग्रन्थ अधूरा-सा प्रतीत होता है । इसका कारण अज्ञात है।
४ कादम्बरी-कवि-बाणभट्ट । समय-ख० सातवीं शताब्दीका आरम्भ । कादम्बरी बाणभट्टकी लोकाऽतिशायिनी कृति है। यह कयाके रूपमें लिखी गई है, इसकी क्या कथा, क्या लेखनशैली क्या वर्णनकी मधुरता, देखते ही बनती है । स्थल-स्थलपर गोडी रीतिका आडम्बर होनेपर और उपमा और श्लेष आदि अलङ्कारोंकी प्रचुरता होनेके साथ-साथ कुछ दुरूहता होनेपर भी काव्यरसके आस्वादकी लोलुपतासे उत्सुकता निरन्तर बढ़ती रहती है-तबीयत ऊबती नहीं है । महाश्वेता और पुण्डरीकके प्रणयका; तथा कादम्बरी और चन्द्रापीडके अनुरागका, विन्ध्याऽटवीका तथा जाबालिके आश्रमका वर्णन किसे आकृष्ट नहीं करता है ? विश्वके गद्यकाव्योंमें यह अप्रतिम और मनोहर है। बृहत्कथाके आधारपर इसका कथानक है। परन्तु दुःखकी बात है कि यह ग्रन्थ अधूरा ही है, पूर्वाद्ध मात्र कविने लिखा है उत्तरार्द्ध उनके पुत्रने लिखकर ग्रन्थको पूर्ण किया है।
. नाटक रूपक आदि १ स्वप्नवासवदत्ता : नाटक, कर्ता-कविवर भास । समय-ईसा-पूर्व चतुर्थ शताब्दीका आरम्भ । स्वप्नवासवदत्ता आदि तेरह रूपक भासके नामसे पाये गये हैं। उनमें स्वप्नवासवदत्ता और चारुदत्त सबसे उत्तम हैं। भासके सभी रूपक प्राञ्जल चली, वर्णनकी उदात्तता, सूक्ष्म मनोविज्ञान और शृङ्गार, वीर आदि रसोंकी मधुरतासे किस सहृदयके हृदयको आकृष्ट नहीं करते हैं ? मृच्छकटिकका उपजीव्य ग्रन्थ "चारुदत्त" प्रतीत होता है । महाकवि कालिदासने भी अपने पूर्ववर्ती कवियोंमें सबसे प्रथम भासका उल्लेख किया है। भासके १३ रूपक उपलब्ध हैं, जैसे-प्रतिज्ञायौगन्धरायण, स्वप्नवासवदत्त, प्रतिमा नाटिका, पञ्चरात्र, अभिषेक, बाल परित, मध्यमव्यायोग, दूतबाक्प, दूतघटोत्कच, कर्णभार. ऊपभङ्ग, चारुदत्त और अविमारक।
२ अभिज्ञानशाकुन्तल : नाटक, कर्ता-महाकवि कालिदास । समय-ईसासे ५७ वर्ष पूर्व : अभिज्ञानशाकुन्तल कालिदासका सर्वश्रेष्ठ नाटक है । महाभारतके आधारपर इसका कथानक है । शकुन्तला और दुष्यन्नका प्रणय, उनका विप्रलम्भ शृङ्गार, इसमें देखते ही बनता है। कहा भी जाता है
२ सा० भू.
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"काव्येषु नाटकं रम्यं, तत्राऽपि च शकुन्तला ।”
अन्तर्जगत् और बहिर्जंग का चित्रण करने में कवि अपनी सानी नहीं रखते हैं । विश्वर्वाचित यह नाटक है ।
३ मालविकाग्निमित्र नाटक : कवि कालिदास । मालविका और अग्निमित्रके प्रणय और परिणय इसमें अतिमनोरम शैलीसे प्रदर्शित है। कातिके रूपकों में यह प्रथम रचना जान पड़ती है ।
४ विक्रमोर्वशी : इस त्रोटकर्ता भी महाकवि कालिदास हैं । श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में वर्णित अप्सरा उर्वशी और चन्द्रवंश के महाराज पुरूरवाके प्रणय और विप्रलम् शृङ्गार इस ग्रन्थ में बहुत ही कुशलतासे प्रदर्शित हैं ।
५ रत्नावली, प्रियदर्शिका, (नाटिका) नागानन्द ( नाटक) : कवि - श्रीहर्ष । समय - ६०६-६४६ ईवी । थाने के महाराज श्रीहर्ष वा हर्बर्द्धन के तीन रूपक प्रसिद्ध हैं, उनमें रत्नावली और त्रिवदर्शिका उररूपकके भेद नाटिका है । रत्नावली - इसमें राजा उदयन और रत्नावलीकी प्रणयकथा मनोरन रूपसे वर्णित है । इसमें नाट्यशास्त्र के प्रचुर नियमों का परिपालन किया गया है। इसमें ४ अङ्क हैं। प्रियदर्शिका : इसमें भी राजा उदयन और राजा दृढवर्मा की पुत्र प्रका प्रणयकथा वर्णित है । इसमें भी ४ अङ्क हैं ।
६ नागानन्द | यह पाँत्र अक्कों का नाटक है, इसमें विद्याधर राजपुत्र जीमूतवाहन और मलयवतीकी प्रणयकथाका वर्णन है । इसमें जीमूतवाहन, गरुड भोज्य एक नागके वेदले अपना शरीर सौंन कर उसकी रक्षा करते हैं, और नागों को आनन्द देते हैं । कथाके आधारपर इसका कथानक है ।
७ महावीरचरित, उत्तरराम वरित और मालतोमात्र ये तीनों कविवर मत्रसूतिकी कृतियाँ हैं | भभूतिका समय-ईसाकी सातवीं शताब्दी है ।
महावीरचरित और उत्तररामचरित नाटक हैं और मालतीमाधव प्रकरण है । महावीर भगवान् रामचन्द्रके युद्धकाण्डका चरित्रचित्र है, इसमें प्रधान और रप है -अन्य रस योग हैं। वह समास की अधिकता विष्ट है, परन्तु कतिपय इसमें अल मनोहर है। इसमें ७ अङ्क हैं ।
८ उत्चरित : होता है कर तेजी
T
नेकी क हैं ।
गाव
उसका
भूका उत्कृष्ट संगोवाल नाटक है। सीतानिर्वासन से सके कि कविने जातकको पराकाष्ठा सेना
जीपी
है। इसमें दश हैं। इसमें वीके
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राजाके मन्त्री भूरिवसुकी कन्या माउतीका विदर्भराजके मन्त्री देवरातके पुत्र माधवके साथ प्रणय और परिणयका मनोहर वर्णन है, इसमें अनेक सङ्कट और इनके परिहारका विशद और मनोरम चित्रण है। इसमें कई पद्य मेघदूतके टक्करके हैं, पर रूपके लिए अनुपयुक्त पाण्डित्यपूर्ण शैलीमें यह रचना है ।
१० अनर्घराघव नाटक: कवि-मुरारि, सपय ८५० ईसा-पूर्व । श्रीरामचरितमें आश्रित यह नाटक है। इसके कर्ता मुरारि कवि मीमांसाके महान् विद्वान थे, जैसे मीमांसामें भट्ट और गुरुके सम्प्रदायोंसे इनका निराला मार्ग है वैसे ही इनका नाटकमें भी निराला मार्ग है, अतः यह प्रसिद्ध उक्ति है-"मुरारेस्तृतीयः पन्थाः" ।
इस ग्रन्थसे इनका प्रौढ़ पाण्डित्य परिलक्षित होता है परन्तु काव्यमाधुयंग आस्वाद कम ही मिलता है । समस्त और दुरूह पदों के भरमारसे नाटक बहुत क्लिष्ट है । इसमें ७ अङ्क है।
११ मुद्राराक्षस : कवि-विशाखदत । समय-ई० ८५०, इसमें सात अक्क हैं । इसमें चाणक्यकी सहायतासे अपने पिता नन्दके सिंहासनार आरूढ चन्द्रगुप्तका वृतान्त वर्णित है । नन्दके पूर्व मन्त्री राक्षस और चाणक्यके राजनीतिक दावचछा इसमें पूर्णतया वर्णन है । नाटक प्रौढ पाण्डित्यपूर्ण और मनोहर है ।
१२ प्रसन्नराघव : कवि-जयदेव । समय ई० १२०० और १३०० का मध्य भाग । यह नाटक भी भगवान रामके चरित्रपर अवलम्बित है। इसमें रामके वनवाससे लेकर युद्धकाण्डतकको घटनाका मनोरम और कुतूहलबर्चस वर्णन है। कवित्व का परिणाम देखा जाता है । क व जयदेव मिथिलाके प्रखपात ताकि और अलङ्कारशास्त्री भी थे, इनका अलङ्कार ग्रन्थ चन्द्रालो सुपसिद्ध है।
१३ मृच्छकटिक प्रकरण : कवि-शूदक ! समय-ईसाकी द्वितीय शताब्दी । य॥ दश अङ्कोंसे युक्त है । इसमें उज्जयिनीके सार्थवाह ब्राह्मग चारुत्त और वसन्तसेवा नामको वारविलासिनीकी प्रणयघटनाका मनोरम वर्णन है। इसमें राजनीतिक कान्तिका भी सबीर चित्रग है । संस्कृत साहित्यमें यह बेजोड़ है। इसके पूर्व चार अङ्क मासके पादत्त नाटक मिलते-जु से हैं। इसमें राजश्याल शारकी दुष्टता; चारुदतकी उदारता और वसन्तसेनाका अकृत्रिम प्रणय इत्यादि विषयोंका अतिशय आकर्षक वर्णन है । शुतार और करुण रस हा परि इसमें देखते ही बनता है।
१४ वेणीसंहार नाटक: कवि-भट्टनारायण। समय-ई० ६७५ । इसमें सात अङ्क हैं। महाभारतके पाण्डव-कौरवयुद्ध का इसमें ओज गुगसे परिपूरित वर्णन है, बीच-बीवमें प्रसाद गुगका भी इसमें निबाह हुआ है । नाटके बहुत से निगमों। परिपालन इसमें किया गया है। इसमें मुख्य वीर रस है, स्पल-स्यलार काग और शृङ्गार रस मी वागत हैं। अनमें भीम अग्नी प्रतिज्ञाके अनुसा दुःशासनके रुधिरसे
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द्रौपदीकी वेणीका संहरण करनेकी घटनाका इसमें वर्णन है । यह उच्चकोटिका बाटक है ।
चम्पूकाव्य
संस्कृत साहित्य में चम्पूकाव्य की भी विशेषता है । हम कुछ चम्पूकाव्योंका वर्णन करते हैं । गद्यपद्यमय काव्यको “चम्पू" कहते हैं ।
१ नलचम्पू : कवि - त्रिविक्रम भट्ट । समय ई० ९१५ । संस्कृत साहित्य के चम्पूग्रन्थो में नलचम्पू वा दमयन्तीकथाका स्थान महत्त्वपूर्ण है । त्रिविक्रम भट्ट देवादित्य के पुत्र थे। कहते हैं कि ये पहले बहुत मूर्ख थे, पार्वतीके प्रसादसे पीछे बड़े विद्वान् हुए । मलचम्पूमें ७ उच्छ्वास हैं । इसमें दमयन्ती के स्वयंवरमात्रका वर्णन होनेसे यह अधूरी मालूम होती है । यह पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ है, इसमें विशेष कर श्लेषका गुम्फन प्रचुर मात्रा में हैं, उसे सुलझानेके लिए मस्तिष्क चकरा जाता है परन्तु वासवदत्तासे यह सरल और सरस है । अर्थालङ्कारकी अपेक्षा शब्दालंकार में कवि का अधिक संरम्भ प्रतीत होता है। इसके गद्यभागमें ओजोगुणका तथा पद्यभागमें पाञ्चाली रीतिका अनुसरण पाया जाता है । इसकी टीकाओं में चण्डपालकी विषमपदप्रकाश टोका प्राचीन प्रसिद्ध और उपलब्ध है । इसके कतिपय पद्य अति मनोहर और प्रसिद्ध हैं ।
२ रामायणचम्पू : कबि - राजा भोज । समय- ई० १०५० । भोजकृत यह चम्पू पाँच काण्डों तक ही उपलब्ध है । इसको पूर्ण करनेके लिए लक्ष्मण भट्टने षष्ठ काण्डकी और वेटराय दीक्षितने सप्तम काण्डकी रचना की है।
रामायणचम्पू में रामायणकथाका मनोहर वर्णन है । यह चम्पू शब्दाऽलंका रोंसे सजी हुई है। इसमें कविका पाण्डित्य और शब्दाऽलंकार में सविशेष अभिनिवेश होने से रचना क्लिष्ट है ।
३ विश्वगुणादर्श चम्पू : कवि - वेङ्कटाऽध्वरी । समय - ई० १६४० | वि श्रीसम्प्रदाय के थे । इसमें भारत के प्रसिद्ध तीर्थं आचार्य, और नगर आदिके गुण और दोषोंका मनोहर रूप में वर्णन है । इसमें कुल १३ प्रकरण है । अलंकारोंपर कविने खूब ध्यान दिया है, भाषा कुछ क्लिष्ट है । अपने विषयका यह अनूठा ग्रन्थ है ।
४ भारतचम्पू : कवि - अनन्त ! समय - कदाचित ११ वीं शताब्दी । इन्होंने भागवतचम्पू और भारतचम्पू दोनों ग्रन्थोंकी रचना की है । भारतचम्पूमें महाभारतकी कथा दी गई है। इसमें १२ स्तबक हैं। इसमें शब्दालंकार और अर्थालंकार प्रचुर परिमाण में हैं, श्लेषकी भी न्यूनता नहीं है। कुछ क्लिष्ट होनेपर भी इसमें माधुर्यं और प्रसाद गुण भी यथेष्ट हैं । वर्णनशैली बड़ी मनोरम है, यह समस्त चम्पू ग्रन्थोंमें श्रेष्ठ है। इसमें नारायण सूरिकी प्राचीन टीका उपलब्ध है ।
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५ विद्वन्मोदतरङ्गिणी : चम्पू कवि - वामदेव रामदेव वा विरजीव भट्टाचार्य, समय३० १७०३ | वामदेव, रामदेव वा चिरञ्जीव मट्टाचार्य राघवेन्द्र के पुत्र थे । इनके दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, अलङ्गारशास्त्रमे काव्यविलास और चम्पूमें विद्वन्मोदतरङ्गिणी । विद्वन्मोदतरङ्गिणी छोटी सी चम्पू है, इसमें ८ तरङ्ग हैं। इसमें कविने अपना परिचय देकर शैव और वैष्णव आदि सम्प्रदायोंके आचायोंके शास्त्रार्थका प्रदर्शन कर क्रमपूर्वक समी दर्शनों का परिचय दिया है. रचना प्रौढ है । इसमें न्यायशास्त्र की विशेषता दिखलाई गई है । अन्तमें हरि और हरका अभेद प्रदर्शित है । इसमें कवित्वसे अधिक पाण्डित्यका अंश है । यह अलङ्कारशास्त्र अलङ्कारशास्त्र के लक्ष्यभूत कुल काव्यों की संक्षिप्त चर्चा है । इसमें कालक्रमका अनुसरण न कर स्मृतिपथप्राप्त कुछ ग्रन्थोंका परिचय देनेका प्रयास किया है । अब अलङ्कारशास्त्र अलङ्कारग्रन्थोंका और उनके रचयिताओंका वर्णन करते हैं ।
१ अग्निपुराण, कर्त्ता - व्यास, समय- द्वापरयुगका अन्तिम भाग | व्यासके १८ पुराणों में अन्यतम । संस्कृत वाङ्मय में इतिहास में महाभारत और पुराण में अग्निपुराण विश्वकोषके रूप में माने गये हैं । श्रीकाणे इसे भरत, भामह, दण्डी, आनन्दवर्द्धन और संभवतः भोजके भी अनन्तरवर्ती मानते हैं। अग्निपुराण में क्रमबद्ध रूपसे अनेक विषयों का सङ्कलन है । इसकी श्लोकसंख्या १२००० है । कलकत्ता में मुद्रित मोर- संस्करण के अनुसार ३३७ वें अध्यायसे ३४७ वें अध्याय तक कुल ११ अध्यायोंमें साहित्य विषयोंका निरूपण किया गया है । जैसे- काव्यादिलक्षण, नाटकनिरूपण, शृङ्गारादि: रसनिरूपण, रीतिनिरूपण, नृत्यादिरङ्गकर्मनिरूपण, अभिनयादिनिरूपण, शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार, शब्दाऽर्थाऽलङ्कार, काव्यगुण विवेक और काव्यदोषविवेक । इसमें काव्य ३ भेद किये गये हैं- गद्य, पद्य और मिश्र । गद्यका लक्षण है- "अपद: पदसन्तानः " अर्थात् चरणरहित पदसमूहको “गद्य" कहते हैं। उसके भी ३ भेद हैंचूर्णक, उत्कलिका और वृत्तगन्धि । गद्यकाव्य ५ भेद होते हैं-आख्यायिका, कथा; खण्डकथा, परिकथा और कथानिका । इन सबके पृथक् पृथक् लक्षण हैं । चतुष्पदी अर्थात् जिसके ४ चरण होते हैं उसे "पद्य" कहते हैं। उसके २ भेद होते हैं - वृत्त और जाति । जहां वर्णोंका परिगणन होता हैं उसे "वृत्त" और जहाँ मात्राओंका परिगणन होता है उसे "जाति" कहते हैं। वृत्तके भी ३ भेद होते हैं—सम, अर्द्धसम
और विषम | काव्यके फिर ७ भेद होते हैं— महाकाव्य, कलाप, पर्याबन्ध विशेषक, कुलक, मुक्तक और कोष । इसी प्रकार इसमें दृश्य काव्य अर्थात् नाटकआदिका भेद लक्षणपूर्वक किया गया है । इसी प्रकार शृङ्गार आदि ९ रस, स्थायी भाव और विभाव आदि भाव, नायकों के भेद, नायकोंके सहचर, नायिकाभेद नायक ८ गुण, नायिकाके १२ विभाव, पाञ्चाली आदि ४ रीतियां, भारती यादि ४ वृत्तियाँ, नृत्तका निरूपण, सात्विक आदि ४ अभिनय, सलक्षण शब्दालङ्कार
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( २२ ) अनुप्रासयमक के १० भेद, चित्र काव्य के ७ भेद, प्रहेलिकाके १६ भेद, गोमूत्रिका और सर्वतोभद्र आदि बन्ध, उपमा, रूपक, सहोक्ति आदि अर्थाऽलङ्कार, शब्दाऽर्थाऽलङ्कार, कान्यके गुण और दोष : इत्यादि बहुतसे विषयोंका वर्णन अग्निपुराणमें उपलब्ध होता है।
२ नाट्यशास्त्र, कर्ता-भरत मुनि, समय-त्रेतायुग, नवीन मतमें ई० पू० प्रथम शताब्दी । भरत मुनि इस सम्प्रदायके सबसे प्राचीन आचार्य हैं। नाटयशास्त्र में संगीत, नृत्य नादि विषयोंका विस्तृत निरूपण है। भरत मुनिने उपमा, रूपक, दीपक गोर यमक ४ अलंकारोंका विवेचन किया है। इसमें नाटकको लक्ष्य कर शृङ्गार बादि रसोंका (शान्तको छोड़कर) निरूपण किया गया है। नाट्यशास्पके नये संस्करणमें ३७ अध्याय और चौखम्बासंस्कृतसोरीज के संस्करण में ३६ अध्याय पलब्ध होते हैं, अभिनवगुप्ताचार्यने इसकी "अभिनवभारती” नामकी उत्कृष्ट टीकाकी रचना की है। उनके मताऽनुसार इसकी प्रलोकसंख्या ६००० है । भवभूतिने उत्तररामचरितके चतुर्थ अङ्क में भरतमुनिकी "तौर्यत्रिकसूत्रकार" लिखा है । नाटय. शास्त्रके प्रथम अध्याय में नाटककी उत्पत्तिका वर्णन मिलता है । सत्ययुगमें नाटककी बावश्यकता नहीं थीं, पीछे भनुष्योंकी प्रीतिके लिए. "जग्राह पाठ्यमृग्वेदात्सामभ्यो गीतमेव च ।
यजुर्वेदादभिनयान रसानाथर्वणादपि ॥" अर्थात् ऋग्वेदसे पाठय, सामवेदसे गीत, यजुर्वेदसे अभिनय और अथर्ववेदसे रसोंको लेकर नाटकका प्रणयन हुआ है । इसीमें लिखा है कि शिवजीने ताण्डव, पार्वतीने लास्य नत्य विष्णुने नाटयरीतिका दान किया, तब भरतमुनिने नाटयशास्त्र. की रचना कर मनुष्यलोकमें प्रचार किया। इस प्रकार प्रकृत नाटयशास्त्र भारतीय साहित्य, संगीत और नृत्यकलाके महान् कोषके रूपमें है। इसमें नाटयकी प्रधानता होनेपर भी उसके उपकारक छन्द, अलंकार और संगीतके मूल सिद्धान्तका भी प्रति. पादन किया गया है। इसमें कारिका, सूत्र और अनुवंश्य श्लोकके रूपमें ३ प्रकार. की रचनाएँ पाई जाती हैं ! अभिनवगुप्तकी टीका के अनुसार अनुवंश्य श्लोक प्राचीन प्राचार्योसे निर्मित है ऐसा प्रतीत होता है । अभिनवगुप्तने नाट्यशास्त्रको "भरतसूत्र" मोर नान्यदेव नाम के विद्वान्ने भरतको “सूत्रकृत्" शब्दसे उल्लेख किया है।
मेधावी भामहने अपने ग्रन्थमें "मेधावी" नामके अलंकारशास्त्रीका दो वार उल्लेख किया है । संप्रति इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।
३ विष्णुधर्मोत्तर पुराण, कर्ता-ज्यासमुनि, समय द्वापरका अन्त्य भाग इसके
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(२३) तृतीयखण्डमें १७ अलंकारोंकी चर्चा है और नाटके महत्वपूर्ण विषर्योका उल्लेख हैं। इसमें प्रायः नाटयशास्त्रका अनुसरण है।
४ काव्याऽलङ्कार, लेखक-भामह । समय-ई. सप्तम शताब्दीका आदि भाग-बहुत विद्वान् भामहको आदिभ अलंकारशास्त्री मानते हैं। इनके और दण्डीके पूर्वाऽपरभावमें बहुत मठभेद देखा जाता है। काव्यालंकारमें छः परिच्छेद हैं और ४०० पद्य है। प्रथम परिच्छेदमें काव्यशरीरका निर्णय. द्वितीय और तृतीयमें अलंकार निर्णय, चतुर्थमें ५० पद्योंमें दोषनिर्णय, पश्चममें न्यायनिर्णय अर्थात् न्याय और वैशेषिकके प्रमाण और पञ्चाऽवयव वाक्योंका विचार है । और षष्ठ परिच्छेदमें शब्दशुद्धिका विवेचन किया गया है। उद्भट भट्टने इसकी टीका की है और प्रतिहारेन्दुः राजने लघुवृत्ति लिखी है। विद्यानाथ, स्य्यक, अभिनवगुप्त और मम्मटभट्ट आदि आचार्गाने भामहका संमानपूर्वक उल्लेख किया है। रस ही काव्यका मूल है इस बातको भामहने स्वीकार नहीं किया है । दण्डीके ही समान उन्होंने गुण और अलंकारके विशेष भेदका उल्लेख नहीं किया है। भामह अलंकारसम्प्रदायके प्रवर्तक के रूपमें माने गये हैं। ग्रन्थके अन्त में उन्होंने अपनेको "रक्रिलगोमिसूनु" लिखा है, इस. लिए उन्हें कुछ लोग बौद्ध मानते हैं, परन्तु यह मत सर्वसम्मत नहीं है। क्योंकि मामाने अपने ग्रन्थ में कहीं भी बुद्धका उल्लेख नहीं किया है, संभवतः वे काश्मीरनिवासी ब्राह्मण थे । काव्याऽलंकारमें अधिकांश अनुष्टुप् छन्द हैं, बीच बीच में अन्य छन्द भी हैं । काव्यकी आधारभूत भाषाओंमें उन्होंने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीन भाषाओंको माना है । काव्य के गद्य और पद्य दो भेद दिये हैं। फिर विषयकी दृष्टि से भामहने वृत्तदेवादिचरितशंसि, उत्पाद्यवस्तु, कलाश्रय और शास्त्राश्रय इस प्रकार काव्यका विभाजन किया है । उन्होंने काव्यके ५ भेदोंका भी परिगणन किया है, जैसे-सर्गबन्ध ( महाकाव्य ), अभिनेयाऽर्थ ( दृश्यकाव्य ), आख्यायिका, कथा धौर अनिबद्ध । इनमें भामहने अभिनेयार्थका केवल उद्दश लिखकर विशेष चर्चा नहीं की है । गौडी और वैदर्भीके भेदको भामहने निरर्थक कहा है।
काव्यादर्श, लेखक-दण्डी, समय-ई० सप्तम शताब्दीका उत्तरार्द्ध। कविराट दण्डीके काव्यादर्शमें तीन परिच्छेद हैं। कुछ लोगोंने तृतीय परिच्छेदके कुछ श्लोकोंको अलग कर चतुर्थ परिच्छेद बना डाला है। इसकी पद्यसंख्या ६६० है । इसमें अधिकतर अनुष्टुप छन्द हैं, बीच बीच में अन्य छन्दोंका भी प्रयोग किया गया है । काव्यादर्शमें प्रथम परिच्छेद में कार का लक्षण और उसके भेद, महाकाव्यका लक्षण, गद्यके भेद, कथा और आख्यायिका में अभेद, मिश्र काव्य, काव्य में भाषाओंका भेद, हैदर्भी और गोडी मार्ग (रीति ), वैदर्भीके १० गुण, कवित्वकी उत्पत्ति इतने विषय हैं । द्वितीय में अलंकारका लक्षण अलंकारोंके नाम और ३५ अर्थालंकारों
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लक्षण और उदाहरण हैं । तृतीयमें शब्दाऽलंकारका वर्णन है, जैसे-यमक गोमूत्रिका, अर्द्धभ्रम, सर्वतोभद्र, स्वरनियम, स्थाननियम, वर्णनियम, और प्रहेलिका, इतने विषयोंका निरूपण है। काव्यादर्शके प्रारम्भमें
"चतुर्मुखमुखाऽम्भोजवनहंसवधूर्मम ।
मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्ला सरस्वती ॥" इस श्लोकसे मङ्गलानरण किया है । वस्तुतः यह श्लोक सरस्वतीरहस्योपनिषदका है, दण्डीने उसका उद्धरण किया है। काव्यादर्शमें काव्यके ३ भेदोंका उल्लेख किया है-गद्य, पद्य और मिश्र । मिश्रसे उसमें नाटक और चम्पूका निर्देश किया गया है। काव्य में प्रयोज्य भाषाको दण्डीने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश और मिश्र इस प्रकार ४ भेदों में विभक्त किया है । वे लिखते हैं
"संस्कृतं नाम देवी पागन्याख्याता महर्षिभिः । तद्भवस्तत्समो देशीत्यनेका प्राकृतक्रमः॥" १-३३ "महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः।
सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ॥” १-३४ अर्थात् महषियोंने संस्कृतको "देववाणी" कहा है । प्राकृत भाषाके ३ भेद हैंतद्भव, तत्सम और देशी । महाराष्ट्रमें व्यवहृत भाषा उत्कृष्ट प्राकृत है। सूक्तिरूप रस्नोंके समुद्रस्वरूप "सेतुबन्ध" आदि काव्य जिस महाराष्ट्र भाषामें रवित है। इसी प्रकार देशभेदसे प्राकृत भाषाके शौरसेनी, गौडी और लाटी आदि भेद हैं। आभीर आदिकी भाषा अपभ्रंश रूपमें मानी जाती है। सामान्यतः संस्कनसे भिन्न भाषा अपभ्रंश भाषा मानी जाती है ।
अलंकारशास्त्रियों के दो प्रस्थान देखे जाते हैं, उनमें एक व्यास और भरत मुनिसे उपदिष्ट प्राचीन, जिसके राजा भोज आदि मनुयायी हैं, दूसरा अभिनवगुप्ताचार्य आदि विद्वानोंसे उद्भावित अभिनव, जिसके मम्मटभट्ट आदि विद्वान् अनुगामी हैं। काव्यादर्शमें भी प्राचीन प्रस्थानका अनुगमन किया गया है । काव्यादर्श रीतिमार्गका प्रतिष्ठापक ओर अलंकारमार्गका प्रतिपादक है। कहा जाता है कि भामहने मेवीके मतका अनुसरण किया है और दण्डीने उसका खण्डन किया है । ___ दण्डीका निवास स्थान काञ्ची नगरी थीं। कुछ विद्वान् वैदर्मी रीतिके प्रशंसक होनेसे उन्हें विदर्भ ( बरार ) के निवासी कहते हैं। दण्डीकी प्रशंसा में ऐसी उक्ति है
"जाते जगति वाल्मीको कविरित्यभिधाऽभवत् । कवी इति ततो व्यासे, कवयस्त्वयि दण्डिनि ।।
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इसी तरह दण्डोकी रचनाके विषय में शाङ्गधरपद्धति के
त्रयोऽग्नयस्त्रयो वेदास्त्रयो देवानयो गुणाः ।
त्रयो दण्डिप्रबन्धाश्च त्रिषु लोकेषु विश्रुताः ।। ___ इस पद्यके अनुसार उनके ३ प्रबन्धोंकी चर्चा मिलती है, उनमें पहला दशकुमार: चरित, दूसरा प्रकृत काव्यादर्श और तीसरा प्रबन्ध छन्दोविचिति जो अभी अनुपलब्ध है, कुछ विद्वान् उसके स्थानपर अवन्तिसुन्दरीकथाको रखते हैं।
६ अलङ्कारसारसंग्रह, कर्ता ... उद्भट, समय-ई० ८०० के लगभग। उद्भटभट्ट काश्मीर के निवासी थे। उनके अलङ्कारसारसंग्रहपर प्रतीहारेन्दुराजकी "लघुवृत्ति" नामको टीका है । प्रतीहारेन्दुराजका समय ई० ९५० के करीब है। इनका नाम “इन्दुराज'' भी है । उद्भटने भामहके "का कार" पर "भामहविवरण" नामकी टीका की थी ऐसा उल्लेख पाया जाता है, पर यह अभीतक उपलब्ध नहीं। अलङ्कारसारसंग्रहमें ६ वर्ग हैं, इसमें कारिकाओं की संख्या ७९ है, जिनमें ४१ अलङ्कारोंका वर्णन है, उनके करीब १०० उदाहरण दिये गये हैं। प्रतीहारेन्दुराजकी उक्तिके अनुसार यह ग्रन्थ भामहविवरणका संक्षेप है। इस ग्रन्यकी रचनाके अनन्तर भामहके काव्याऽलङ्कारका प्रचार रुक गया। यह ग्रन्थ अलङ्कारमार्गका प्रतिष्ठापक माना जाता है। इसमें उद्भटने भामहलिखित कुछ अलङ्कारोंको छोड़ भी दिया है । उद्भटने कुमासंभव नामके काव्य की रचना भी की थी ऐसी प्रसिद्धि है, पर अभी वह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । राजतरङ्गिणीके
"विद्वान्दीनारलक्षण प्रत्यहं कृतवेतनः ।
भट्टोऽभूदुद्भटस्तस्य भूमिभर्तुः सभापतिः ।। इस उक्तिसे उद्भट, राजा जयापीडकी पण्डितसभामें सभापति थे ऐसा विदित होता है।
७ काव्यालङ्कारसूत्र, कर्ता-वामन, समय-ई० ८ वीं शताब्दी लगभग। इस ग्रन्थ में ३ अंग हैं । सूत्र, उसकी वामनकृत वृत्ति और उदाहरण । इसमें ५ अधिकरण और १२ अध्याय हैं। प्रथम अधिकरणमें ३ अध्याय हैं जिनमें कमसे प्रपोजनस्थापना, अधिकारिचिन्ता और रीतिनिश्चय तथा काव्यके अङ्ग और काव्यविशेषोंका निरूपण है। दोषदर्शन नामके द्वितीय अधिकरणमें क्रमसे पद-पदार्थ-दोषविभाग और वाक्याऽर्थदोषविभाग हैं। गुणविवेचन नामके तृतीय अधिकरणमें दो अध्याय हैं, जिनमें क्रमसे गुण और अलङ्कारका तथा शब्द और गुणका विवेक और अर्थगुणका विवेचन है। आलङ्कारिक नामक चतुर्थ अधिकरणमें ३ अध्याय हैं, जिनमें क्रमसे शब्दाऽलङ्कारविचार, उपमाविचार और उपमाप्रपञ्चाऽधिकार हैं। "प्रायोगिक" नामक पञ्चम अधिकरणमें २ अध्याय हैं, जिनमें कमसे काव्यसमय और परशुद्धिका
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निरूपण किया गया है। ध्वन्यालोकलोचन, काव्यप्रकाश, अलङ्कारसर्वस्व और साहित्यदर्पण आदि ग्रन्थोंमें वामनके मतका उल्लेख किया गया है। कलणकी राजतरङ्गिणीके
"मनोरथः शङ्खदत्तश्चटकः सन्धिमांस्तथा।
बभूवुः कवयस्तस्य वामनाद्याश्च मन्त्रिणः॥ इस उक्तिसे वामन, जयापीडके मन्त्री और उद्भटके समकालिक थे ऐसा प्रतीत होता है। काशिकाकार नमन इनसे पूर्ववर्ती थे। “काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात्' इस सूत्रके अनुसार वामनके मतमें गुण और अलङ्कारसे संस्कृत शब्द और अर्थ ही काव्य है। वामन रीति मार्गके प्रवर्तक माने जाते हैं। "विशिष्टा पदरचना रीतिः" यह रीतिका लक्षण है। वामनने वृत्ति में अमरुशतक, महावीरचरित, उत्तररामचरित, वेणीसंहार, शाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय, कादम्बरी, हर्षचरित, किरातार्जुनीय, कुमारसंभव; मृच्छकटिक, मेघदूत, रघुवंश, शिशुपालवप आदि ग्रन्थोंका उदाहरण दिया है । काव्यालङ्कारसूत्र में महेश्वरकी और गोपेन्द्र त्रिपुरहर भूपालकी “कामधेनु” नामकी व्याख्या उपलब्ध है।
८ काव्यालङ्कार, कर्ता-रुद्रट, समय-ई० ८५० के लगभग-रुद्रटका दूसरा नाम शतानन्द था। ये भट्टवामुकके पुत्र और सामवेदी थे। इनका निवासस्थान काश्मीर था। इनके काव्याऽलङ्कारमें १६ अध्याय हैं । इस ग्रन्थ में काव्यशास्त्रके प्रायः स मी अङ्गोंका वर्णन है । इसकी रचना आर्या छन्दमें है परन्तु अध्याय के अन्त में अन्य छन्दों का भी प्रयोग है। पद्यसंख्या ७३४ है। इसमें समस्त उदाहरण कविनिर्मित हैं। प्रथम अध्याय में ५ शब्दाऽलङकार, ४ रीतियाँ, भाषाके प्राकृत, संस्कृत, मागध, पिशाचभाषा, सूरसेनी और अपभ्रंश इस प्रकार ६ भेद और अनुप्रासको ५ वृत्तियां वर्णित हैं। तृतीयमें यमकका सविस्तर वर्णन है। चतुर्थ में श्लेष और उसके ८ भेद निरूपित हैं। पञ्चम में चित्रकाव्यका प्रतिपादन है । षष्ठमें पद और वाक्यके दोषोंका निरूपण है। सप्तममें शब्दके ४ भेद, प्रभेद और वास्तव, इनपर आधारित २३ अलङ्कारोंके लक्षण हैं ! अष्टममें औपम्यके २१ अलङ्कार निरूपित हैं । नवम में अतिशय. के १२ अलङ्कारोंका वर्णन है। दशममें शुद्ध श्लेषके १० और सङ्करके २ भेदोंका प्रतिपादन है । एकादशमें नौ प्रकारके अर्थदोष और चार प्रकारके उपमादोष वणित हैं। द्वादश में १० प्रकारके रस, शृङ्गारका लक्षण और भेद उसके संभेग और विप्रलम्भ २ भेद, नायकके गुण, उसके सहायकोंका वर्णन और नायक तथा नायिका के भेदों का वर्णन है। त्रयोदशमें संभोग-शृङ्गार और देश और काल के भेदोंसे नायिकाकी विभिन्न चेष्टाओंका वर्णन है । चतुर्दश में विप्रलम्म शृङ्गार, उसकी १० अवस्थाएँ, खण्डिता नायिकाके अनुनयके छः उपाय वर्णित हैं। पञ्चदशमें वीररस और अन्यरसोंका प्रतिपादन है।
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( २७ ) षोडशमें काव्यभेद, कथा और आख्यायिका आदि गद्यकाव्योंका और अन्य विशेषताओं का वर्णन है । मम्मट और विश्वनाथने स्थान-स्थानपर इसकी सामग्रीका उपयोग किया है । नमिसाधु नामके श्वेताम्बर जैनने काव्यालङ्कारकी टीका की है, यह प्राचीन और प्रौढ है । यह विक्रमसंवत् ११२५ में निर्मित है।
९ ध्वन्यालोक, कर्ता-आनन्दवर्द्धन, समय-ई० ८५०-ध्वनिमार्गके प्रवर्तक आनन्दवर्द्धन आचार्यने ध्वनिकारिका और उसकी वृत्ति आलोककी रचना की है, इस प्रकार यह ग्रन्थ "ध्वन्यालोक" नामसे विख्यात है। कुछ विद्वान् ध्वनिकारिका और उसकी आलोक वृत्तिके रचयिता भिन्न-भिन्न पुरुष हैं ऐसा कहते हैं. इसमें बहुत मतभेद है, जो हो अलङ्कारशास्त्रमें ध्वन्यालोक आकर ग्रन्थ माना जाता है । मम्मटभट्ट, विश्वनाथ कविराज और पण्डितराज जगन्नाथ सभी इनका सम्मान करते हैं । जगन्नाथ. ने इनको "अलङ्कारसरणिव्यवस्थापक" ऐसा लिखा है। इनका निवास स्थान भी काश्मीर हैं । इनका "देवीशतक" नामका स्तोत्रग्रन्य उपलब्ध है, उसके अन्तिम पद्यसे पता चलता है कि ये "नोण' नामरे पण्डितके पुत्र थे । राजतरङ्गिणीके
मुक्ताकणः शिवस्वामी कविरानन्दवर्द्धनः ।
प्रथा रत्नाकरश्वाऽगात्साम्राज्येऽवन्तिवमणः ।। इस श्लोकसे जाना जाता है कि ये ई० ८५५-८८३ में स्थित काश्मीरराज अवन्तिवर्माके सभापण्डित थे। इन्होंने अपने ग्रन्थमें उद्भट का उल्लेख किया है । राजशेखरने इनकी चर्चा की है। आनन्दवर्द्धनके ग्रन्थ ध्वनि, आलोक, अर्जुनचरित, विषमबाणलीला; धर्मकीतिके प्रमाणविनिश्चयकी टीका धर्मोत्तमा, देवीशतक और तत्वालोक माने गये हैं। इनमें अभी ध्वनि, आलोक और देबीशतक ये ३ ग्रन्थ उपलब्ध हैं । जल्हणने सूक्तिमुक्तावली में राजशेखरसे प्रदर्शित
"ध्वनिनाऽतिगभीरेण काव्यतत्वनिवेशिना ।
आनन्दवर्द्धनः कस्य नासीदानन्दवर्द्धनः ॥" इस श्लोकसे आनन्दवर्द्धनकी प्रशंसा की है, अर्थात्-काव्यतत्त्वको स्थिर करने. पाली अत्यन्त गम्भीर ध्वनिसे आनन्दवर्द्धन किसके आनन्दका वर्द्धन करनेवाले नहीं थे। ध्वन्यालोक, अलङ्कारशास्त्रके सिद्धान्तोंका प्रतिष्ठापक माना जाता है : ध्वनिग्रन्थमें ३ अंश हैं-कारिका, वृत्ति और उदाहरण । कारिकाओंकी संख्या १२९ है । वृत्ति में कारिकाकी व्याख्या है । उदाहरण प्राचीन कवियोंके ग्रन्थोंसे लिये गये हैं। इसमें ४ उद्योत हैं। प्रथम उद्योतमें ध्वनिके विरोधियोंके मतका खण्डन है। द्वितीय और तृतीयमें ध्वनि भेदोंका सविस्तर विवेचन है। चतुर्थ में ध्वनिकी उपयोगिताका निरूपण किया गया है । ये मम्मट भट्टके समान केवल भावक विद्वान नहीं थे प्रत्युत कारक विद्वान् भी थे, देवीशतक स्तोत्रकाव्यसे इनकी कवित्व
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( २८ ) शक्तिका परिचय मिलता है। दुर्भाग्यसे इनके अन्य दो ग्रन्थ उपलब्ध नहीं। इन्होंने ज्यजनावृत्तिसे प्रतिपाद्य ध्वनिको ही काव्यकी आत्मा मानकर उसीके प्रतिपादन
और भेद प्रभेदके वर्णनमें अपनी पूरी शक्तिका प्रयोग किया है। स्फोटनाद ही ध्वनिसंप्रदायकी मूलभित्ति है । ध्वन्यालोकम वेणीसटारका उल्लेख मिलता है।
अभिनवगुप्तपादाचाय ई० ११ शताब्दीके पूर्वभागस्थित अभिनवगुप्त 0 4 ने 5वन्याला फकी 'लोचन" नामको याख्या की है । इस लोचन ग्रन्थसे विदित रोता है कि अभिनवगुप्तके किसी पूर्वज विद्वान्ने भी ध्वनि ग्रन्थकी टीका की थी। अभिनताप्त, तो रेन्दुराज और भट्ट. तोतके शिष्य एव शैवसंप्रदायके महान विद्वान और मभट्टके गुरु थे । ये आवाल ब्रह्मचारी थे ! इनकी लोचन दीका मूलग्रन्थ के समान माहित्यशास्त्रीय अनेक सिद्धान्तोंका आकर ग्रन्थ है । कह सकते हैं कि वाचम्पतिमिश्रकी भामती व्याख्यासे शङ्कराचार्यके ब्रह्मसूत्र-मायकी तरह अभिनवगुप्तकी लोचन व्याख्यासे ध्वन्यालोककी श्रीवृद्धि हुई है। अतएव अभिनवगुप्तकी ही
"कि लोचनं विनालोको भाति चन्द्रिकयाऽपि हि ।
तेनाऽभिनवगुप्तेन लोचनोन्मीलनं व्यधात् ॥" यह उक्ति पूर्णरूपसे सत्य है । इन्होंने बीससे भी अधिक ग्रन्थोंकी रचना की है। उनमें तन्त्रालोक, प्रत्यभिज्ञाविमशिनी, भरतनाट्यशास्त्रकी अभिनवभारतो टीका आदि ग्रन्थ हैं । रसके विषय में अभिनवगुप्तका सिद्धान्त सर्वसम्मत और वैज्ञानिक है जिसे मम्मटभट्टने सिद्धान्तके रूपमें प्रस्तुत किया है। . १० काव्यमीमांसा, कर्ता-राजशेखर, समय-ई० दशमशताब्दीका पूर्वभाग । काव्यमीमांसा अन्य अलङ्कारशास्त्रके ग्रन्थोंसे भिन्नरूप है, इसमें रस, उनि अलङ्कार आदिका विवेचन न होकर काव्यरचनाके लिए अनेकानेक महत्वपूर्ण विषयोंग वैज्ञानिक संकलन किया गया है। इसमें १८ अध्याय हैं । प्रथम अध्यायमें शास्त्रसंग्रह है, उसमें श्रीकण्ठसे ब्रह्मा और विष्णु आदि ६४ शिष्योंको दिये गये काव्यशास्त्रके उपदेशोंका वर्णन है और अने 6 आचार्योंके अनेक छात्रों को काव्यके तत्तद्विषयोंके अध्यापन का उल्लेख है । द्वितीयमें शास्त्रनिर्देश और काव्य आदिके भेदोंका सलक्षण वर्णन है । रामशेखर वेदार्थज्ञान के लिए उपकारक होनेसे अलङ्कारको सप्तम वेदाङ्ग मानते हैं। तृतीय में ब्रह्माजीके वरदानसे सरस्वतीसे काव्यपुरुषका जन्म, साहित्यविद्यावधू और काव्यपुरुषके वेषभूषादिसे तत्तद्दिशाओं में तत्तवृत्ति और रीतिकी उत्पत्ति आदि विषयोंका वर्णन है। चतुर्थमें शिष्यों के बुद्धिमान और आहार्यबुद्धि आदि भेद, प्रतिभाका लक्षण और भेद, कवके सारस्वत आदि ३ भेद और लक्षण, भावकत्व और कवित्वका भेद, भावकके ४ भेद इत्यादि अनेक विषयों का वर्णन है।
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( २९ ) पञ्चममें व्युत्पत्ति और प्रतिभाकी व्याख्या, कवियोंके शास्त्रकवि आदि भेद और उपभेदोंकी चर्चा है । काव्यकविके रचनाकवि आदि ८ भेदोंका सलक्षण और सोदाहरण उल्लेख, कविकी दश अवस्थाएँ, पाकभेद, ९ प्रकारके काव्य इत्यादि अनेक विषय वर्णित हैं । षष्ठमें पदकी व्याख्या, उसकी सुत्ति आदि ५ वृत्तियाँ, अभिधा व्यापार, वाक्य के दश भेद इत्यादि प्रचुर विषय हैं। सप्तम में ब्रह्मा आदि कर्ताओं के भेदसे पुराण आदिके मतसे वाक्यके ३ भेद, वैदी आदि ३ रीतियाँ, काकुभेद आदि अनेक विषय वणित हैं । अष्टममें श्रुति स्मृति आदि काव्याऽर्थोंके सोलह कारण और उनके उदाहरण वमित हैं। नवम में दिव्य आदि ( अर्थ, उनके भेद प्रभेद आदि प्रचर विषय हैं। दशममें कविचर्या और राजचर्या आदिसे सम्बद्ध अनेक विषय हैं। एकादशमें पूर्वक वियोंके शब्द और अर्थ के अनुकरणके प्रकार आदि विषयों का वर्णन है। द्वादशमें पूर्वकविके अर्थक अनुकरणके प्रकार, कवियोंके प्रभेद प्रतिबिम्बकल्प, विकल्पकी समीक्षा आदि अनेक विषयों का वर्णन है। त्रयोदशमें दूसरेके अर्थ के अनुकरणमें आलेख्यप्रख्यके अनेक भेद दिये गये हैं। चतुर्दशमें कविसमय, उसमें जाति, द्रब्ध, क्रियाके समयको स्थापनाका वर्णन है। पञ्चदशमें गुण के समयकी स्थापना है। षोडशमें स्वर्ग और पातालके कवियोंके समय ( संकेत ) की स्थापना है। सप्तदश अध्यायमें देशके विभागोंका वर्णन है । अष्टादशमें कालके विभागोंका वर्णन है। राजशेखर काव्यमीमांसाको १६ भागोंमें लिखना चाहते थे, उनमें यह प्रथम भाग प्रतीत होता है। राजशेखर, पुराण न्याय आदि चौदह विद्याओंसे अतिरिक्त
"सकलविद्यास्थानकायतनं पञ्चदशं काव्यं विद्यास्थानम्" "अर्थात समस्त विद्याओंका एकमात्र आधारभूत काव्य पन्द्रहवीं विद्याके स्थानमें है." ऐसा लिखते हैं। यह ग्रन्थरस्न न केवल काव्यरचनाके इच्छुकोंको बल्कि शास्त्रजिज्ञासु समस्त जनोंको पुरातन शास्त्र और इतिहास भूगोल आदि अगणित विषयोंका व्युत्पादक है-पूर्ण ग्रन्थ के निरीक्षणसे ऐसा जाना जाता है।
___ राजशेखर यायावरवंशमें उत्पन्न महाराष्ट्र ब्राह्मण थे, इनके प्रपितामह अकालजलद नामके थे, पितामह दुर्दुम नामके राजाके मन्त्री थे और माता शीलवी नामकी थी। ये कान्यकुब्ज वा महोदय के नरेश निर्भय वा महेन्द्रपालके गुरु थे । चौहानवंशकी अवन्ति सुन्दरी नामकी विदुषीरो इनका विवाह हुआ था । राजशेखरने काव्यमीमांसामें अवन्ति सुन्दरीके मतोंका उद्धरण दिया है। कर्पूरमञ्जरी सट्टक में इनकी "वालकवि" और "कविराज" उपाधि देखी जाती है । महेन्द्रशालके पुत्र नरेः देवको राजशेखरने प्रचण्डपाण्डव वा बालभारत में अपना संरक्षक लिखा है । यशस्तिलक और तिलकमजरी आदि ग्रन्थोंमें भी इनका उल्लेख पाया जाता है। राजशेखरके बनाये हुए
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( ३० ) अन्य छः ग्रन्थोंका भी उल्लेख मिलता है जैसे-बालरामायण ( नाटक), विद्धशालमजिका ( नाटिका ), प्रचण्डपाण्डव वा बालभारत (नाटक), कपूरमञ्जरी ( सट्टक ). हरविलास ( महाकाव्य ) और भुवनकोष (भूगोलशास्त्र )।
९ अभिधावृत्तिमातृका, कर्ता-मुकुलभट्ट, समय-ई० दशमशताब्दीका प्रथम भाग--- मुकुलभट्टके पिता का नाम कल्लट भट्ट है, वे काश्मीरनरेश अवन्तिवर्माके ( ई० ८५५-८८३ ) सभापण्डित थे। माणिक्यचन्द्र के काव्यप्रकाशटीका सङ्केतमें मुकुल भट्टका वार-वार उल्लेख पाया जाता है। प्रतीहारेन्दुराज मुकुल भट्टके शिष्य थे। अभिधावृत्तिमातृकामें कुल १५ कारिकाएं हैं इसकी वृत्ति भी ग्रन्थकारने स्वयम् की है । इसमें अभिधा और लक्षणा वृत्तिका प्रतिपादन है, और लक्षणाके छ: भेद प्रदर्शित हैं। इसकी वृत्ति में उद्भट, कुमारिलभट्ट, ध्वन्यालोक, भर्तृमित्र, महाभाष्य, विज्जका, वाक्यपदीय और शबरस्वामीका उल्लेख पाया जाता है।
१० काव्यकौतुक, कर्ता-भट्टतौत वा भट्टतोत, समय-ई० ९६०-९९० । यह ग्रन्य अनी प्राप्त नहीं है। भट्टतौत अभिनवगुप्तके गुरु थे। क्षेमेन्द्रने औचित्यविचारचर्चा में और हेमचन्द्रने अपने काव्याऽनुशासनमें इनका उल्लेख किया है। हेमचन्द्रने अपने विवेक में लिखा है कि भट्टतोतका मत श्रीशकुकके "अनुकरणरूपो रसः" इस उक्तिके विरुद्ध है। इन्होंने शान्तरसको नवम माना है। ध्वन्यालोकलोचनसे प्रतीत होता है कि अभिनवगुप्तने इसकी "विवरण" टीका की थी। .
११ हृदयदर्पण, कर्ता-भट्टनायक, समय-ई. ९०० से १००० का मध्यभाग-भरतमुनिके रससूत्रके ४ व्याख्याताओंमें अन्यतम व्याख्याता भट्टनायक हैं । ये सांख्यशास्त्रके विद्वान् माने जाते हैं। इनका सिद्धान्त अभिनवभारती, व्यक्तिविवेक, काव्यप्रकाश और माणिक्यचन्द्रकृत काव्यप्रकाशकी टोका संकेतमें उद्धृत है। इन्होंने साधारणीकरण सिद्धान्तको प्रदर्शित कर रसमें भक्तिवादका प्रवर्तन किया है । इनका ग्रन्थ अभी उपलब्ध नहीं है।
१२ नक्रोक्तिजीवित, कर्ता-कुन्तक, समय-ई० १०५५ । राजानक कुन्तक कश्मीरनिवासी थे । इनका जीवनचरित्र कुछ भी उपलब्ध नहीं है । अधिकतर ये "मक क्तिजीवितकार" पदसे प्रसिद्ध हैं। वक्रोक्ति नीवितमें . राजशेखरके पक्षका उल्लेख होनेसे ये राजशेखरके परवर्ती हैं । ई० ११ शताब्दीके द्वितीय भागमें उद्भूत पहिमभट्टने कुन्त के सतकी चर्चा की है, अत: ये कुन्तकके समकालि और उनसे कुछ वृद्धतर थे। “वक्रोक्तिः काव्य नीवितम्" कहकर उन्होंने वक्रोक्तिको काव्यका जीसित या आत्मा मान लिया है। वक्रोक्तिजीवित अतिशय प्रौढ ग्रन्थ है। इसमें ४ उन्मेष हैं । इस ग्रन्यमें कारिका, वृत्ति और उदाहरण हैं । इसमें उदाहरणोंको संख्या
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( ३१ ) लगभग ५०० है। प्रथम उन्मेषमें सरस्वतीकी स्तुति, काव्यका प्रयोजन, लक्षण, शब्दाऽलङ्कार और काव्यालङ्कारका निवेश, वक्त्रोक्तिका लक्षण और उसका महत्त्व, वैचित्र्य आदि ५ गुण और तीन प्रकारके मार्ग इत्यादि विषयोंका प्रतिपादन है। द्वितीय में वर्णविन्यासक्रत्वका विवरण, वृत्तियां, पदपूर्वार्द्धवक्रताके अनेक भेद, विशेषगवक्रता और संवतिवकता, इनका सोदाहरण प्रतिपादन और वृत्तिवैचित्र्यवक्रता आदि अनेक विषय निर्दिष्ट हैं। तृतीयमें वाक्य वैचित्र्यवक्रताका उपसादन है, इसमें वस्तुवक्रतारा भी समावेश है। रसवत, प्रेयः और ऊर्जस्वी आदिके अलङ्कारत्वका खण्डन और अलङ्कार्यत्वका मण्डन और २० प्रधान शब्दालङ्कारों का विवेचन है। चतुर्थ में प्रकरण वक्रता और प्रबन्धवक्रताका उपपादन है। प्राचीन ग्रन्यों में बहुचर्चित होकर भी यह ग्रन्थ अप्राप्त था, हाल ही में प्राप्त हुआ है । प्रचुर प्रसिद्धि होनेपर भी दुभाग्यवश इसकी कोई भी संस्कृतव्याख्या उपलब्ध नहीं है । डाक्टर "दे" से प्रकाशित संस्करण में इसके ३ उन्मेष थे; पीछे आचार्य विश्वेश्वरकी हिन्दी टीका और डा० नगेन्द्रको विस्तृत भूमिकावाले संस्करणमें ४ उन्मेष मिलते हैं, तथा दोनों संस्करणोंमें पर्याप्त पाठभेद भी है।
१३ दशरूपक, कती-धनञ्जय, समय --- ई० १००० के लगभग-दशरूपक नाटयशास्त्रका ग्रन्थ है। इसके कर्ता धनञ्जय और अवलोक नामक टीकाके कर्ता धनिक थे । दोनों सहोदर भाई, विष्णु के पुत्र थे । ये दोनों विद्वान् राजा मुञ्ज( ई० ९७४-९९४ ) को समामें थे । धनञ्जय समापण्डित थे और धनिक महासाध्यपालके अधिकारसर आरूढ थे । धनिकने दशरूपककी अवलोक टीका, राजा मुञ्जके उत्तराधिकारी सिन्धुराज ( ई० ९९४-१०१० ) के शासनकाल में लिखी थी। ई० चतुर्दश शताब्दीके विश्वनाथ कविराज और प्रतापरुद्रयशोभूषणकार विद्याधरने धनञ्जयकी कारिकाएँ धनिकके नामसे उद्धृत की हैं।
दरारूपको ४ प्रकाश और लगभग ३०० कारिकाएं हैं। अवलोक टोकामें उदाहरणोंके पद्य ३०० से अधिक हैं, जिनमें २० से अधिक प्राकृत और संस्कृत पद्य धनिक के रचिा ही हैं। धनञ्जयने “अवस्थाऽनुकृतिर्नाटयम्" अवस्थाका अनुकरण (नकल ) नाटय है ऐसा लिखा है। उन्होंने रूपकके नाटक, प्रकरण, माण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथी, अङ्क, और ईहामृग इस प्रकार १० भेदों का उल्लेख कर लक्षण और उदाहरण दिये हैं।
नाट्यविषय में बड़ो रोचकता और विद्वत्तासे इसमें प्रकाश डाला गया है । परवर्ती नयथारों ने दशरूपकको अतिशय प्रामाणिक माना है। इसमें प्रथम प्रकाशमें रूपकके १० भेद, पाँच सन्धियाँ, उनके अङ्ग, विष्कम्भ, चूलिका, अङ्कास्य, अङ्कावतार और प्रवेश के लग और उदाहरण हैं । द्वितीयमें नायक-नायिकाओंके भेद, उनके
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( ३२ ) स्वभाव, और सहचरोंका वर्णन, चार वत्तियां और उनके अङ्ग वणित हैं। तृतीयमें नाटककी स्थापना और दश रूपकोंके लक्षण वणित हैं । चतुर्थ प्रकाशमें इसका सविस्तर निरूपण है । दशरूपककी प्राचीन ३ टीकाएं हैं । अवलोकके अवलोकनसे मालूम होता है,कि धनिकने "काव्यनिर्णय" नामका ग्रन्थ भी लिखा था, जिसके कई श्लोक इसमें उदधृत हैं । इसमें स्थित रसनिरूपणका आधार भट्टनायकका ग्रन्थ है ।
११ व्यक्तिविवेक, कर्ता-महिमभट्ट, समय-ई० १०२५-१०६०-राजानक महिमभट्ट काश्मीरनिवासी थे। इनके पिताका माम श्रीधर्य था, और महाकवि श्यामल इनके गुरु थे । क्षेमेन्द्रने सुवृत्ततिलक और औचित्य विचारज में श्यामलके पद्योंका उद्धरण दिया है। महिम मट्ट महानयायिक और आलङ्कारिक थे, इन्हें ने ध्वनिकी पृथक्सत्ताका खण्डन कर उसे अनुमानमें अन्तर्भूत किया है। राजानक सय्यकने अपने अलङ्कारसर्वस्व में व्यक्तिविवेकके सिद्धान्तोंका संग्रह किया है। काव्यप्रकाशके बहुतसे टीकाकारोंका मत है कि मम्मटने काव्यप्रकाशके पञ्चम उल्लास में व्यक्तिविवेकका खण्डन किया है और सप्तम उल्लासमें दोषोंका उदाहरण व्यक्ति विवेक आधारपर दिया है । व्यक्तिविवेकमें बालरामायण के श्लोकोंका उद्धरण और वक्रोक्तिजीवित और लोचनका खण्डन उपलब्ध होता है। महिम मट्ट रसको काव्यात्मा मानते हैं । व्यक्तिविवेकमें ३ विमर्श हैं। प्रथम विमर्श में ध्वनिका लक्षण देकर उसका अनुमानमें अन्तर्भाव किया है। द्वितीय में अनौचित्यका विचार, भेद, अन्तरङ्ग अनौचित्य और बहिरङ्ग मनौचित्य और उनके ५ दोष और उदाहरण है। तृतीयमें ध्वन्यालोकके ४० उदाहरणोको अनुमानमें अन्त भूत किया है।
१५ सरस्वतीकण्ठाभरण, शृङ्गारप्रकाश, कर्ता--राजा भोज, समय-ई० ९५६-१०५१-धाराधराधीश महाराज भोजने पूर्वोक्त दो अलङ्कार ग्रन्थोंका प्रणयन किया है । ये सिन्धुराज वा सिन्धुलके पुत्र और महान् विद्वान् थे तथा विद्वानोंको पुरस्कृत करनेवालोंमें अप्रतिम सहृदय थे, "प्रत्यक्षरं लक्ष दौ" यह उक्ति इनकी गुणग्राहिता और दानशीलताको प्रसिद्ध करने वाली है। पूर्वोक्त दो अलङ्कारके ग्रन्थोके अतिरिक्त अन्य विषयोंमें इनके निम्नलिखित ग्रन्थ अत्यधिक प्रख्यात हैं
साक रणमें शब्दानुशासन, आयुर्वेदमें राज.मृगाक, यो में भोगति वा राजमाड, कोषमें नाममालिका, कला में शालिहोत्र और समराङ्गणसूत्रधार, रत्नादिपरीक्षामें युकि कल्पतरु इत्यादि हैं । प्रकृत सरस्वतीय ण्ठाभरण और शृङ्गारपकाश पर कार ग्रन्म हैं। सरस्वतीकण्ठाभरणमे ५ परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेदमें १६ पददोष, उतने ही वाक्यदाप, उतने ही वाक्याऽर्थदोष, २८ शब्दगुण और स्तने ही वाक्याऽर्थगृश पणित हैं । द्वितीयमें २४ शब्दाऽलङ्गकार सविस्तर निरूपित हैं । तृतीय: में २४ अर्थालङ्कार उसी तरह निरूपित हैं। चतुर्थमें २४ उभयाऽलङ्कार
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(शब्दाऽर्थाऽलङ्कार ) निरूपित हैं । पञ्चममें रस, भाव, नायक, नायिका, उनके लक्षण, भेद, ५ सन्धियां, ४ वत्तियां अन्य भी अनेक विषय निरूपित हैं। इसमें ६४३ कारिकाएं हैं. इनमेंसे दण्डीके काव्यादर्शसे लगभग ५०० और ध्वन्यालोकसे भी कुछ कारिकाएं ली गई हैं । प्राचीन कवियोंके करीब १५०० पर उदाहरणके तौरपर इसमें उद्धृत हैं । इसको ३ टीकाएं हैं, उनमें ई० १४ शताब्दीके तिरहुतके राजा रामसिंहदेवसे आज्ञप्त म० म० रत्नेश्वर मिश्रकी रत्नदर्पण टीका सर्वोत्तम है।
शृङ्गारप्रकाश, कर्ता-राजा भोज । समय-ई० ९९६-१०५१ इसमें नाट्य और काव्य दोनोंका विवेचन है । इसमें अभिमान और अहसारका प्रतीक शृङ्गार हो मूल रस है ऐसा प्रतिपादन किया है। शृङ्गारप्रकाशमें ३६ अध्याय हैं। इन्होंने अलङ्कारके शब्दाऽलङ्कार, अर्थाऽलङ्कार और उभयाऽलङ्कार इस प्रकार ३ भेद मानकर फिर प्रत्येकके २४ भेद कर कुल अलङ्कारोंके ७२ भेदोंका निरूपण किया है।
१६ औचित्यविचारचर्चा, कविकण्ठाभरण, कर्ता-क्षेमेन्द्र, समय ई० १०२८-८० क्षेमेन्द्र काश्मीरनिवासी थे, इनके पिताका नाम प्रकाशेन्द्र था। क्षेमेन्द्र अपनेको "व्यासदास" लिखते थे । इनको औचित्यविचारचर्चामें ३९ कारिकाएँ है। उनकी वृत्ति भी उन्होंकी रचना है । क्षेमेन्द्र मोचित्यका लक्षण लिखते हैं
"उचितं प्रादुराचार्याः सदृशं किल यस्य यत् ।
उचितस्य च यो भावस्तदौचित्यं प्रचक्षते ॥" अर्थात् आचार्य, जिसका जो सदृश है उसे "उचित" कहते हैं, उचितका जो भाव है उसे "ओचित्य" कहते हैं । इन्होंने अपने इस ग्रन्थमें पद, वाक्य, प्रबन्धाऽर्थ, गुण, अलङ्कार, रस, क्रिया, कारक, लिङ्ग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपात, काल, देश, कुल, व्रत, तत्त्व, सत्त्व अभिप्राय, स्वभाव, सारसंग्रह, प्रतिमा, अवस्था, विचार, नाम और आशीर्वाद इतने विषयोंमें औचित्यका प्रदर्शन कर वृत्तिग्रन्थमें उनके उदाहरणोंको सविस्तर प्रौढिपूर्वक प्रदर्शित किया है। उदाहरणोंमें बहुत से कवियोंकी रचनाएँ हैं । क्षेमेन्द्रने अपनी रचना में भी उदारतापूर्वक अनौचित्यका प्रदर्शन किया है।
औचित्यविचारचर्चापर मद्राससे "सहृदयतोषिणी" नामकी एक टीका प्रकाशित है।
कविकण्ठाभरण, कर्ता-क्षेमेन्द्र, समय-ई० १०२८-८० इस ग्रन्थमें क्षेमेन्द्रने काव्यरचनामें विघयजनोंके लिए बहुत-से उपयोगी विषयोंकी अवतारणा की है । इसमें ५ सन्धियाँ हैं । "कवित्वप्राप्ति" नामकी प्रथम सन्धिमें २४ कारिकाएँ हैं । "शिक्षाकथन" नामको द्वितीय सन्धिमें २३ कारिकाएँ हैं। "चमत्कारकथन" नामकी तृतीय सन्धिमें ३ कारिकाएं हैं, और "गुणदोषविभाग” नामकी चतुर्थ सन्धिमें
३ साल
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( ३४. ) २ कारिकाएं और "परिषयप्राप्ति" नामक पाम सन्धिमें ३ कारिकाएं हैं, इस प्रकार इस ग्रन्थमें कुल ५५ कारिकाएं हैं और वृत्तिमें समस्त विषयोंको स्पष्ट किया है । इसमें शिष्योंके ३ और कविके ५ भेदोंका उल्लेख किया है, तथा काव्यके गुणदोषविचारमें नाटय, व्याकरण और तर्कके विषयमें उपदेश दिया है। काश्मीरके राजा अनन्तदेवके राज्यमें इसकी रचनाका उल्लेख मिलता है । मेमेन्द्र के इन दो ग्रन्थोंके अतिरिक्त बहुत-से ग्रन्थ हैं उनमें कुछ ग्रन्थोंकी सूची दी जाती है-रामायणमजरी, भारतमञ्जरी, बृहत्कथामञ्जरी, दशाऽवतारचरित प्रभृति लगभग ५० ग्रन्थ शेमेन्द्रनिर्मित हैं । राजतरङ्गिणीमें इनकी नपावली नामकी कृतिका उल्लेख है परन्तु इसकी अभीतक उपलब्धि नहीं हुई है।
१७ काव्यप्रकाश, कर्ता-मम्मटभट्ट, समय-ई० १०५० से ११०० तक । काश्मीरवासी राजानक मम्मटभट्ट काव्यजगत्में काव्यप्रकाशके प्रसिद्ध लेखक हैं। ये अभिनवगुप्तपादके शिष्य, शैवसम्प्रदायवाले महान् वैयाकरण थे । काव्यप्रकाश, अलङ्कारशास्त्रके प्रन्थोंमें आकर माना जाता है। मम्मटमट्टने नाटयशास्त्रसे आरम्भ कर ध्वन्यालोक आदि समस्त प्राचीन ग्रन्थोंका आकलन कर अपने ग्रन्यको पुष्पित और फलित किया है । काव्यप्रकाशमें दृश्यकाव्यको छोड़कर भव्यकाक सम्पूर्ण विषयोंका साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है। इसमें दश . उल्लास और ११२ कारिकाएं हैं। इनकी वृत्ति इनकी स्वरचित है और उदाहरण अनेक कवियोंके ग्रन्थोंसे दिये गये हैं । इसकी कारिकाएं भरतनिर्मित हैं और वृत्तिमात्र मम्मटभट्टकी है ऐसा कुछ बङ्गीय विद्वानोंका कथन निमूल है । हां, इसकी कुछ कारिकाएं भरतके नाटयशास्त्रसे उद्धृत की गई हैं, यह सत्य है । काव्यप्रकाशके प्रथम उल्लासमें काव्यका प्रयोजन, कारण, लक्षण और भेदोंका प्रतिपादन है । द्वितीय में शमके वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक ३ भेद और उनके वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय तीन प्रकारके अर्थोका निरूपण है और तार्यार्थका निरूपण कर अभिहिताऽन्वयवादी और अन्विताऽभिधानवादीके सिद्धान्तोंका प्रदर्शन किया है । इसी तरह अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जनाके भेदोंका निरूपण किया है । तृतीय उल्लासमें अर्थव्यजकता
और व्यञ्जनावृत्ति का विवेचन है। चतुर्थमें ध्वनिके अविवक्षितवाच्य और विवक्षिताऽन्यपरवाच्य इनके भेद और उपभेदोंके प्रतिपादनके साथ रसका स्वरूप, स्थायी भाव, विभाव, व्यभिचारी भाव तथा रससम्बद्ध चार सिद्धान्तोंका विवेचन है। पांचवें उल्लासमें मध्यम काव्य गुणीभूतव्यङ्गयके भेदोंका सोदाहरण वर्णन है। संपूर्ण ध्वनियों के भेदोंको दिग्दर्शन कर व्यञ्जनाके विरोधियोंके तर्कका खण्डन कर व्यञ्जनावृत्तिका स्थापन किया गया है। षष्ठ उल्लासमें काव्यके तीपरे भेद चित्र वा अधम कामके दो भेद-शब्दचित्र और अर्थचित्रका निरूपण किया है। सप्तम उल्लासमें दोषका लक्षण और पर, वाक्य, अर्थ और रसके दोषोंका निरूपण
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( ३५ ) कर दोषाङ्कुश अर्थात् कतिपय स्थलमें दोषमें भी दोषत्वका अभाव वर्णित है । अष्टममें गुण और अलङ्कारका भेद दिखलाकर माधुर्य, ओज, प्रसाद गुणोंके लक्षण और उदाहरण प्रदर्शित कर उनमें अन्यप्रतिपादित गुणोंका अन्तर्भाव वा उन्हें दोषाऽभाव. स्वरूप बतलाया गया है । साथ साथ तत्तद्वर्णों को तत्तद्गुणत्यजकता दिखाई गई हैं। नवममें दो प्रकारको वक्रोक्ति, अनुप्रास, ३ वृत्तियां लाटाऽनुप्रास, यमकोंके भेद; श्लेष. चित्र ( खङ्गवन्ध आदि ) और पुनरुक्तवदामास इत्यादि विषय प्रतिपादित हैं । दशममें ६१ अलङ्कारोंका निरूपण और अलङ्कारदोषोंका सप्तम उल्लासमें प्रदर्शित दोषोंमें अन्तर्भावका प्रकार दिया गया है। ___ काव्यप्रकाशमें अन्य ग्रन्थोंसे लगभग ६२० पद्य उद्धृत है। इसमें ७० से अधिक टीकाए है । इसकी रचनाके ५० वर्षों के भीतर ही माणिक्यचन्द्रने सङ्केत नामकी टीका लिखी, उस समयसे लेकर अभीतक इसकी टीकाओंका निर्माण होता रहा है । स्थान-स्थानपर यह ग्रन्थ अत्यन्त दुरूह है, अतएक महेश्वर भट्टाचार्यने अपनी टीका लिखा है।
"काव्यप्रकाशस्य कृता गृहे गहे टीका, तथाऽप्येष तथैव दुर्गमः । सुखेन विज्ञातुमिमं य ईहते, धीरः स एनां निपुणं विलोकताम् ॥
प्राचीन टीकाओंसे विदित होता है कि मम्मटभट्टने काव्यप्रकाशके परिकर अलङ्कारतकका भाग लिखा, उसके अनन्तरवर्ती भागको अल्लट वा अलकरिने लिख: है । काव्यप्रकाशके कुछ प्रसिद्ध टीकाएं और उनके कर्ताओंके नाम लिखे जाते हैं
१ गुर्जरदेशीय माणिक्य चन्द्रसूरिकी सङ्केतटीका, समय-ई० ११६० २ आन्ध्रदेषीय सरस्वतीतीर्थकी बालचित्ताऽनुरञ्जिनी, समय-ई० १२४२ ३ गुजर जयन्त भट्टकी काव्यप्रकाशदीपिका, समय-ई० १२९३ ४ कान्यकुब्जदेशीय सोमेश्वरभट्टकी सङ्केत टीका, समय-ई० १२५० से पूर्व । . ५ भट्ट गोपालकी साहित्यचूडामणि, ये भावप्रकाशकार शारदातनय के पिता थे, समय-ई० १३०० ।
६ उत्कलदेशीय चण्डीदास की दीपिका टीका, ये विश्वनाथ कविराजके पितामह नारायणदासके छोटे भाई थे, समय-ई० १४ शताब्दी। ७ विश्वनाथ कविराजकी काव्यप्रकाशदर्पण,टीका, समय-१४ शताब्दी। ८ परमानन्द चक्रवर्ती की विस्तारिका टीका, समय-ई० १५ शताब्दी। ९ म० भ० नरसिंह ठक्कुरकी नरसिंहमनीजा, समय-ई० १७ शताब्दी । १० श्रीवत्सलाञ्छन भट्टाचार्यको सारबोधिनी, समय-ई० १५ शताब्दी । इन्होंने काव्यप्रकाशखण्डन ग्रन्थ भी लिखा है। ११ म० म० गोविन्द ठक्कुरकी प्रदीपटीका, समय-ई० १७ शताब्दी ।
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१२ म० म० नागेश भट्टकी प्रदीपटीका उद्योत, समय-१० वीं शताब्दी । १३ वैद्यनाथभट्टकी प्रदीपटीका प्रभा, समय-१७ वीं शताब्दी। १४ महेश्वर भट्टाचार्यकी काव्यप्रकाशादर्श टीका, समय-ई० १६०० शताब्दी । १५ भीमसेन दीक्षितकी सुधासागर टीका, समय-ई० १८३६ । १६ म० म० गोकुलनाथकी काव्यप्रकाशविरणटीका, समय-ई० १८०० श० । १७ म० म० वामनाचार्यकी बालबोधिनी, समय-ई० १८८२। मम्मटभट्ने अपने ग्रन्यमें अभिनवगुप्त और नबसाहसाङ्कचरितका उल्लेख किया है।
उन्होंने उदात्तालङ्कारमें राजा भोजकी प्रशंसांका पद्य दिया है अतः ये भोजके समकालिक वा कुछ पीछे हुए हैं । अलङ्कारसर्वस्वमें रुय्यकने भी इनका निर्देश किया है ।
१८ अलङ्कारसर्वस्व, कर्ता-रुय्यक, समय-ई० १२ शतक। स्य्यक काश्मीरनिवासी थे, इनका दूसरा नाम रुचक था । इन्होंने अपने पिता तिलकसे ही साहित्यका अध्ययन किया था। ये काश्मीरके राजा जयसिंहके सान्धिविग्रहिक मङ्ख वा मङ्खकके गुरु थे । इनके अन्य ग्रन्थ अलङ्काराऽनुसा रणी, काव्यप्रकाणसङ्केत, नाटकमोमांसा, व्यक्तिविवेकविधार, श्रीकण्ठस्तव, सहृदयलीला, साहित्यमीमांसा, हर्षचरितवार्तिक, अलङ्कारमजरी और अलङ्कारवातिक है। इनका प्रकृत ग्रन्थ अलकार. सर्वस्व, अलङ्कारशास्त्रका प्रख्यात ग्रन्थ और ध्वनिमार्गका अनुयायी है । इसमें सूत्र, वृत्ति और उदाहरण हैं। इसमें कुल ८८ सूत्र है, उदाहरण अन्य ग्रन्थोंसे लिए गये है। इसमें काव्यप्रकाशसे अधिक अलङ्कार हैं। इसमें शब्दाऽलङ्कार, अर्थाऽलङ्कार, एवम् रसवत्, प्रेयः, ऊर्जस्वी, समाहित, भावोदय, भावसन्धि, भावशबल, संसृष्टि और सङ्कर इतने अलङ्कारवर्ग सविस्तर और सोदाहरण वणित हैं । इस ग्रन्थमें तीन टीकाएं है, जिनमें काश्मीरवासी जयरथने स्थ्यकके ५० वर्षों के अनन्तर "विमशिनी" नामकी टीका लिखी है। दूसरी टीका केरलके समुद्रबन्ध से विरचित है । यह लगभग ई० १६०० शताब्दीकी है । इनके सिवाय अन्य टोका उन्हीके शिष्य श्रीकण्ठचरित महाकाव्यके कर्ता मङ्खककी भी सुनी गई है। इसी तहर विद्याचक्रवर्तीकी “अलङ्कारः सञ्जीविनी" नामकी तीसरी टीका है । विश्वनाथ कविराजने दशम परिच्छेदमें बहुत जगह इस ग्रन्थका आश्रय लिया है और कहीं-कहीं खण्डन भी किया है । एकाबली और कुवलयानन्दमें भी अलारसर्वस्वका प्रभाव पड़ा है। रुय्यकने पुनरुक्तवदाभास, छेकाs. नुप्रास, वत्यनुप्रास, यमक, लाटानुप्रास और चित्रका निरूपण किया है ! इन्होंने अपने ग्रन्थमें उपमा आदि ७५ अर्थाऽलङ्करोंका विवचन किया है तथा जिनमें विकल्प और विचित्र दो नवीन अलङ्कारोका भी समावेश है।
१९ वाग्भटाऽलङ्कार, कर्ता-वाग्भट, समय-ई० ११४० वाग्भट नामके दो अलङ्कारशास्त्री प्रसिद्ध हैं, दोनों ही जैन हैं, उनमें ये प्रथम हैं। इनका प्राकृत नाम "वाहड" है, सिंहदेवके पुत्र भी "वाग्भट" नामबाले थे, जो आयुर्वेदके प्रख्यात ग्रन्थ.
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कार थे । "सोम"के पुत्र प्रकृत वाग्मट चालुक्यवंशमें उत्पन्न जयसिद्धराज (ई० १०९४ - -११४३ ) के महामात्य थे, यह बात वाग्भटाऽलङ्कारके टीकाकार सिहदेवणिके कथनसे प्रतीत होती है । इनकी दूसरी कृति नेमिनिर्णण महाकाव्य है ।
वाग्भटालिङ्कारमें ५ परिच्छेद हैं, उनमें कुल २६० कारिकाएँ हैं। प्रथम परिच्छेदमें काव्यलक्षण, प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यासका लक्षण तथा कविशिक्षाकी चर्चा है । द्वितीयमें काव्यका आधार-संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और भूतभाषित (पैशाची भाषा ) ये चार भाषाएं मानी गई हैं एवम् पद और वाक्यके ८ दोष वर्णित हैं । तृतीयमें दश गुणोंके लक्षण और उदाहरण दिये गये हैं । चतुर्थमें ४ शब्दाऽलङ्कार और उनके भेद, ३५ अर्थाऽलङ्कार; वैदर्भी और गौडी २ वृत्तियां वर्णित हैं। पञ्चम में ९ रसोंका निरूपप, नायक-नायिकाओंके भेद और तत्सम्बद्ध विषय हैं। कान्याऽलङ्कारमें 5 टीकाए हैं, जिनमें जिनवर्द्धनसूरि ( ई० १४१९ ) और सिंहदेव. गणिकी टीका प्रसिद्ध और प्रकाशित हैं।
२० काव्याऽनुशासन, कर्ता-हेमचन्द्रसूरि, समय-ई० १०८८-११७२ श्वेताम्बर जैनाचार्य हेमचन्द्र महान विद्वान् थे अतः "कलिकालसर्वज्ञ" इस उपाधिसे विभूषित थे । इनके अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमे जैनन्यायमें प्रमाणमीमांसा ( अपनी टीकाके साथ ), योग और कोषके ग्रन्थ, सिद्धराज. जयसिहकी आज्ञासे निर्मित शब्दानुशासन (व्याकरण ) इत्यादि । प्रकृत कामगाऽनुशासनमें - अध्याय है, इसमें सूत्र वृत्ति और उदाहरण हैं । उदाहरण अन्य ग्रन्थोंसे लिये गये हैं । वृत्तिका नाम “अलङ्कार. चूडामणि" है इसके प्रथम परिच्छेदमें काव्यका प्रयोजन, हेतु और प्रतिभाके सहकारी काव्यलक्षण, शब्द और अर्थका स्वरूप, मुख्य, लक्ष्य और व्यङ्गय ३ प्रकारके अोंका विचार है । द्वितीय में रस, स्थायी भाव व्यभिचारी भाव, और सात्त्विक भाव वणित है । तृतीयमें शब्द, वाक्य और अर्थके दोषोंका निरूपण है । चतुर्थ में तीन गुण, और उनके द्योतक वर्णों का निरूपण है । पञ्चममें शन्दाऽलङ्कारोंका निरूपण है । षष्ठमें २९ अर्थाऽलङ्कार जिन में संसृष्टि, सङ्कर, पर्याय और परिवृत्ति आदि हैं, इनका विवेचन
है। सप्तममें नायक और नायिकाके भेदोंका वर्णन है । अष्टममें काव्यके भेद और . प्रभेदोंका निरूपण है। काव्याऽनुशासनमें १५०० उदाहरण भिन्न भिन्न ग्रन्थोंसे लिये गये हैं।
२१ चन्द्रालोक, कर्ता-जयदेव (पीयूषवर्ष), समय-ई० १३०० मिथिलानिवासी जयदेव, पीयूषवर्ष और पक्षधर नामसे भी विख्यात थे । ये महानया. यिक, कवि और अलङ्कारशास्त्री थे। ये यज्ञविद्याचतुर महादेवके पुत्र और सुमित्रा देवीके गर्भज थे । अलङ्कार ग्रन्थोंमें जयदेवका चन्द्रालोक; प्रौढ, बहुत प्रसिद्ध और उपादेय है । यह अनुष्टुप् छन्दमें रचित है। इसमें १० मयूख और २७५ कारिकाएँ हैं। चन्द्रालोकके प्रथम मयूख में काव्यका लक्षण, हेतु और शब्दके ३ भेद वर्णित हैं।
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द्वितीयमें शब्द, मथं और वाक्य आदिके दोष और तीन प्रकारके दोषाङ्कुश ( दोषत्व. निवारक.) वणित हैं । तृतीयमें काव्य में शोभाका आधान करने वाले अक्षरसंहति आदि दश काव्यलक्षण निरूपित हैं। चतुर्थ में श्लेष आदि दश गुण दिये गये हैं । पञ्चममें शब्दाऽलङ्कार और १०० अर्थालङ्कार निरूपित हैं । इसमें जयदेवने अलङ्कारसर्वस्वका भी अवलम्बन किया है।
षष्ठमें विभाव आदि, शृङ्गार आदि ९ रन, भावकाव्य आदि, व्यभिचारी भाव, रसाभास, भावाभास, मावशान्नि, भावोदय, भावसन्धि, भावशबलता और पाञ्चालिकी आदि ५ रीतियां और मधुरा आदि ५ वत्तियाँ निरूपित हैं । सप्तममें व्यञ्जनाव्यापार और ध्वनियोंके भेद वर्णित हैं । अष्टममें गुणीभूतव्यङ्गयके ८ भेद निरूपित हैं । नवम में लक्षणाके भेद दिये गये हैं । दशम मयख में अभिधाके छ: भेदों का वर्णन है । चन्द्रालोकर्म छः टीकाएं हैं, जैसे प्रद्योतन भट्टका शरवागम, गागाभट्ट वा विश्वेश्वरका राकागम, वैद्यनाथ पायगुण्डे ( बालंभट्ट ) की रमा आदि। चन्द्रालाकके पचम मयूखके भागको विस्तृत कर अप्पय्य दीक्षितने "कुबलयानन्द" नामक अलङ्कः : ग्रन्थका रचनां की है । जयदेवने चन्द्रालोके सिवाय "प्रसन्न राधब" नामक अति मनोहर नाटककी भी रचना की है। केशवमिश्रकी रचना और बहच्छाङ्गधरपद्धतिमें इसके पद्योंका उद्धरण दिया गया है।
२२ एकावली, कर्ता-विद्याधर, समय-ई. १२ शतकका आरम्भ । विद्याधर, कलिङ्गके केसरिनरसिंह और प्रतापनरसिंह नामक राजाओंके सभापण्डित थे। ये "महामहेश्वर" और 'वैद्य" उपाधिसे विभूषित थे। इनके अलङ्गकार ग्रन्थ एकावली में कारिका, वत्ति और उदाहरण ये ३ अंश हैं । उदाहरणके पद्य विद्याधर. रचित और नृसिंहदेवके प्रशंसापरक हैं। इसमें ८ उन्मेष हैं । प्रथममें काव्यके हेतु और लक्षण और भामह और महिमभट्ट आदिके सिद्धान्तोंका वर्णन है । द्वितीयमें ३ प्रकारके शब्द शोर ३ प्रकारकी वृत्तियां वणित हैं । तृतीयमें ननिके भेद, चतुर्थ में गुणीभूतव्यङ्गयका निरूपण है । पञ्चममें तीन गुण और तीन रीतियां वर्णित हैं । षष्ठमें दोषका निरूपण, सप्तममें शन्दाऽलङ्कार और अष्टममें अर्थालङ्कार वणित हैं। इसके प्रथम उन्मेषमें ध्वन्यालोकका, अलङ्कारप्रकरणमें अलङ्कारसर्वस्वका तथा अन्यत्र काव्यप्रकाशका अनुकरण किया गया है। सिंह भूपालके रसाऽर्णवसुधाकरमें एकावलोका उल्लेख मिलता है। विद्याधरने "केलिरहस्य" नामक कामशास्त्रविषयक ग्रन्थ भी लिखा है । एकावलीपर मल्लिनाथकी "तरका" नामकी टीका है।
२३ प्रतापरुद्रीय, कर्ता-विद्यानाथ, समय-ई० १४ शताब्दीका प्रथमपाद।
प्रतापरुद्रीय वा प्रतापरुद्रयशोभूषणके कर्ता विद्यानाथ, आन्ध्रके राजा प्रतापपद्रदेवके सभापण्डित थे। इन्होंने "प्रतापरुद्रकल्याण" नाटककी भी रचना की है।
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( १९ ) प्रतापगद्रीय की दक्षिणमें बड़ी प्रसिद्धि है। इसमें भी कारिका, वृत्ति और उदाहरण हैं। उदाहरण पतापरुद्र के प्रशंसापरक हैं । इस ग्रन्थमें ५ प्रकरण हैं, जिनमें क्रमसे नायक, काव्य, नाटक, रस, दोष, गुण, शब्दाऽलङ्कार अर्थाऽलङ्कार और शब्दार्थालङ्कार वणित हैं । नाटक प्रकरणमें "प्रतापरुद्रकल्याण" नाटकके उदाहरण दिये गये हैं । इस ग्रन्यका उपजीव्य काव्यप्रकाश और अलङ्कारसर्वस्त्र है। इसपर मल्लिनायके पुत्र कुमारस्वामीकी "रत्नार्पण" नामकी टीका है।
"रत्नशाण" नामकी एक अधूरी टीका भी उपलब्ध है, जिसमें "रत्नापण" का उल्लेख है।
२१ काव्यानुशासन, कर्ता-वाग्भट, समय-ई. १४ शताब्दी । काव्यानुणागनके कर्ता द्वितीय वाग्मट हैं । यह ग्रन्थ म्वके रूप में है, इसकी “अलङ्कार. ति" नामकी सविस्तर वृत्ति अन्धकारने स्वयम् लिखी है। इसमें पांच अध्याय हैं। उदाहरण अन्य ग्रन्थों लिये गये हैं। प्रथम अध्यायमें काव्यका प्रयोजन, हेनु ( प्रतिभा उसका सहारक व्युतानि और अभ्यास ) कविसमय, काव्यलक्षण, काव्यके भेद-गद्य, रय गौर मिश्र, महाकाव्य, आख्यायिका, कथा, चम्पू, मिश्र काव्य ( दशरूपक और गे: लक्षण संनिविष्ट हैं । द्वितीयमें पद और वाक्यके १६ दोष, अर्बके १४ मेष, दण्डी बार वामनसे निरूपित १० गुण आदि विषयों का निरूपण है । वाग्भटके सिद्धातमें माधुर्य, ओज और प्रसाद ये ३ ही गुण हैं । इसमें वैदर्भी, गोडी और पाञ्चाली रीतिका भी वर्णन है । तृतीयमें ६३ अर्यालङ्कार हैं । चतुर्थ में चित्र, श्लेष, शब्दाsलङ्कार और इनके भेदोंका विवेचन है। पञ्चममें रस और विभाव आदि भाव, नायकनायिका भेद और रसदोषोंका निरूपण है। ये जैन थे। इन्होंने ऋषभदेवचरित महाकाव्य और इन्दोऽनुशासन नामके गायोंकी रचना की थी ऐसा प्रतीत होता है । __२१ साहित्यदर्पण, कर्ता-विश्वनाथ कविराज, समय-ई० १४ शताब्दी। विश्वनाथ कविराज उस्कलदेशवासी वैष्णव ब्राह्मण थे। ये १८ भाषाओंके जानकार थे। इनके पिता चन्द्रशेखर भी १४ भाषाओंके जानकार थे। पिता और पुत्र दोनों ही कलिङ्गनरेशसे 'सन्धिविग्रहिक महारान" उपाधिसे विभूषित थे। विश्वनाथ कविराजके प्रपितामहका नाम "नारायण" था, ये भी बड़े विद्वान् थे तथा उन्होंने भी अलङ्कारशास्त्रपर अन्य लिखा था । साहित्यदर्पणके अतिरिक्त इनके कुछ अन्योंके नाम नीचे दिये जाते हैं
प्रभावतीपरिणय (नाटक)।२ चन्द्रकला (नाटिका ) ३ राधवविलास ( महाकाव्य ) ४ नरसिंहविजय (खण्डकाव्य)। ५ कसवध (काव्य )। ६ कुव. लयाश्वचरित (प्राकृतकाव्य)। ७ प्रशस्ति रत्नावली (सोलह भ षाओंसे निर्मित वरम्भक)। ८ काव्यप्रशिदर्पण ( काव्यप्रकाशटीका)।
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( ४० ) इनके सिवाय साहित्यदर्पणमें इन्होंने अपने नामसे कितने ही पद्योंका उद्धरण दिया है, ये किन किन ग्रन्थोंके हैं, यह विदित नहीं है।
पद्यपि अलङ्कारशास्त्रपर रचित ग्रन्थ अत्यधिक हैं, उनमें भी प्राचीनताकी दृष्टिसे भामहका काव्याऽलङ्कार, दण्डीका काव्यादर्श, मानन्दवर्धनका ध्वन्यालोक, मम्मटभट्टका काव्यप्रकाश एवं नवीन और प्रोढिको दृष्टिसे रसगङ्गाधर और अलङ्कारकोस्तुभ आदि अनेक ग्रन्थ विद्वानोंसे बहुचर्चित है तथाऽपि साहित्य के प्रमेय अंशकी प्रचुरतामें इससे टक्कर लेने वाला कोई भी ग्रन्थ नहीं है । यह सत्य है कि काय. प्रकाश आदिके समान इसमें अतिशय पाण्डिल्य और दुरूहना नहीं है, परन्तु ध्वनिस्थापन करनेमें और व्यञ्जनाके प्रतिस्पर्धी अनुमानके खण्डनमें इनका पाण्डित्य किस विद्वानको चमत्कृत नहीं करेगा? साहित्यदर्पणमें दश्य और अव्य काव्यपर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है, कि बहुना केवल रूपकका निरूपक दशरूपेकसे भी अधिक इसमें प्रमेयोंका वर्णन है । इन सब कारणोंसे अलंकार ग्रन्थों में इसका अत्यधिक प्रनार है और बङ्गदेशमें तो इसीका बोलबाला है। साहित्यदर्पणपर विश्वनाथ कविराजके पुत्र अनन्तदासकी लोचा टीका बहुत प्रौढ है, इसमें विषमस्थलोंपर पर्याप्त प्रकाश डाला गया हैं । ई० १७०१ में निर्मित रामचरण तर्कवागीशकी विवृति, उसी तरह तर्काऽलकार महेश्वर भट्टाचार्यकी विज्ञप्रिया प्रचलित टीकार है । भ० म० हरिदम सिद्धान्तवागीशकी कुसुमप्रतिमा टीका बहुत प्रौढ और सर्वाङ्गपूर्ण है, इसमें स्थानस्थानपर विवति टीका खण्डन है । जीवानन्द विद्यासागरको विमला टीका भी ग्रन्थ लगानेवाली है । नवीन टीकाओं में आचार्य कृष्णमोहन ठबकुरको टीका विस्तृत और प्रचलित हैं । इसी तरह हिन्दीमें मी शालग्रामशास्त्रीकी टीका बहुन प्रसिद्ध और प्रचलित हैं। _ साहित्यदर्पणमें दश परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेदमें मङ्गलाचरण, काव्यका प्रयोजन, मम्मट भट्टके काव्यलक्षणका खण्डन और स्वमतका स्थापन हैं । द्वितीय वाक्य और पद, आभिधा, आदि शब्दकी तीन उत्तियों का सविस्तर लक्षणपूर्वर निरूपण है। काव्यप्रकाशमें लक्षणाके छः भेद हैं, चन्द्रालोकमें बहुत ही सूक्ष्मता से लक्षणाके प्रचुर भेद पणित हैं, परन्तु साहित्यदर्पणमें ८० भेदोंका चमत्कार पूर्ण निरूपण है । तृतीय में रस, भाव और उनसे सम्बद्ध विषय, नायकले ४८. और नायिकाके ३८४ भेद, नायकके सहाय, दूतभेद, नायक और नायिकाके गुण और अलंकार आदि विषयों का सविस्तर निरूपण है। चतुर्थमे काव्यके भेद, ध्वनियोंके ५१ भेद, और उनके संसृष्टि और सङ्करसे कुल ५३५५ भेदोंका निरूपण है । काव्यप्रकाश के अनुसार ध्वनिके कुल १०१४४ भेद हैं। इसी प्रकार इसमें गुणीभूत व्यलयके ८ भेदोंका निरूपण- कर मम्मटसम्मत चित्रकाव्यका खण्डन किया गया है । पञ्चपमें व्यञ्जनाविरोधीके मतका खण्डन कर ५ कारिकाओंसे व्यञ्जनावृत्तिका स्थापन
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किया है। बष्ट काव्यके दृश्य और श्रव्य भेद, दृश्यके २ भेद - रूपक और उपरूपक एवम उकके नाटक आदि दश भेद, उपरूपकके नाटिका आदि १८ भेदोंक लक्षण और उदाहरण आदिका प्रदर्शन किया हैं, इसी तरह श्रव्यकाव्यके भेद, गद्य और पद्य गद्य काव्यके कथा और आख्यायिका आदि तथा पद्यकाव्यके खण्डकाव्य और महाकाव्य आदि भेदोंका वर्णन है । सप्तममें दोषका लक्षण कर पद, पदांश, वाक्य, अर्थ और रसके दोषोंका सविस्तर वर्णन है । अष्टम में काव्यके प्रसाद माधुर्य और ओज ३ गुणोंका निरूपण है, अन्य आचार्योंसे सम्मत दश शब्दगुणों और दश अर्थात तीन गुणोंमें अन्तर्भाव और कहीं कहीं खण्डन किया गया है। नवममें वैदर्भी, गोडी, पाचाली और लाटी ४ रीतियोंका सलक्षण और सोदाहरण विवेचन है । दशममें शब्दाऽलङ्कारों और अर्थाऽलङ्कारोंका तथा मिश्र - संसृष्टि और सङ्कर के तीनों भेदों का सविस्तर निरूपण किया गया है। स्थान-स्थानपर अन्य आचार्यक मतोंका खण्डन भी किया है ।
२६ रसतरङ्गिणी, रसमञ्जरी, कर्ता-भानुदत्त, समय - ई० १४ शताब्दीका आरम्भ - भानुदत्त मिथिलाके शेव ब्राह्मण थे। ये पण्डित गणेश्वरके पुत्र थे । रसतरङ्गिणी - तरङ्गों में विभक्त है। प्रथम तरङ्गमें भावका लक्षण और स्थायी भावके भेद है, द्वितीय में विभावका लक्षण और भेद है। तृनमें अनुभावका वर्णन है । चतुर्थ में ८ सात्विक भावोंका निरूपण है । पश्चममें व्यभिचारी भावका वर्णन है । षष्ठमें रसका लक्षण और शृङ्गार रसका विस्तृत वर्णन है । सप्तममें हास्य और अन्य रसोंका निरूपण है । अष्टम में स्थायी भावके ८ भेद, व्यभिचारी भावके २० भेद, रसके ८ भेद इन तीनोंसे उत्पन्न दृष्टिया और उनके कुछ उदाहरण वर्णित हैं। इस ग्रन्थकी १० टीकाएं हैं, उनमें वेणीदत्त तकंागीश ( ई० १५५३ ) की रसिकरञ्जन, जीवराजको सेतु टीका ( ई० १६७५ ), गङ्गाराम जड़े ( ई० १७३८ ) की नौका और नागेशभट्ट ( ई० १८ शताब्दी ) की टीका अधिक प्रसिद्ध हैं | भानुदत्तने अपने दोनों ही ग्रन्थों में उदाहरण प्रायः स्वरचित ही दिया है । "रसमवरी" इनकी पूर्वकृति मालूम पड़ती है । इन दो ग्रन्थोंके अतिरिक्त भानुदतने गीतगौरीपति वा गीतगौरीण काव्य, कुमारभार्गवीय, अलंकारतिलक, शृङ्गारदीपिका इतने ग्रन्थोंका निर्माण किया है ऐसा कहा जाता है। रसमञ्जरीके तृतीय भाग में केवल नायिकाभेदका विस्तृत वर्णन है । शेष भागों में दूती, शृङ्गारनायत, उनके भेद, नायकमित्र, सात्त्विक ८ गुण, शृङ्गारके २ भेद और विप्रलम्भ शृङ्गारकी १० अवस्थाएं वर्णित हैं। इसकी ११ टीकाएं हैं ।
२७ उज्ज्वलनीलमणि, कर्ता - रूपगोस्वामी, समय - ई० १५२०, रूपगोस्वाभी बंगालके वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभुके शिष्य थे । ये मुकुन्दके पौत्र और कुमारके पुत्र थे । इनके मूल पुरुष कर्नाटक ब्राह्मण थे । उज्ज्वलनीलमणिके
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अतिरिक्त इनके विदग्ध माघव ( नाटक ), उत्कलिकावल्लरी, नाटकचन्द्रिका, वैष्णवतोषिणी ( व्याकरण ) और 'पद्यावलि" नामक स्तोत्रों और सुभाषितोंका संग्रह ग्रन्थ भी हैं ।
वैष्णव संप्रदाय के "उज्ज्वलनीलमणि" नामक अलङ्कारशास्त्रमें उज्वल रस अर्थात् राधा और कृष्ण के शृङ्गाररसका विश्लेषण किया गया है। इसमें नायकके ९६ भेद दिखलाये गये हैं और नायकके चेंट विट, विदूषक, पीठन और प्रियसख आदि सहचर प्रदर्शित हैं। कृष्णकी स्वकीया नायिकाओंकी सख्या १६१०८ है, वे सब द्वारकानिवासिनी हैं । इसमें भक्तिरसका विस्तृत वर्णन है। सभी उदाहरण रूपगोस्वामीने अपने ग्रन्थोंसे दिये है । उज्ज्वलनीलमणिमें रूपगोस्वामीके भतीजे जीवगांस्वामीसे निर्मित लोचनरोचनी और विश्वनाथ चक्रवर्ती रचित आनन्दचन्द्रिका प्रसिद्ध टोकाग्रन्थ हैं ।
नाटकचन्द्रिका नाट्यशास्त्रपरक ग्रन्थ है, इसमें ८ प्रकरण हैं । यह ग्रन्थ मुलिका अनुयायी नही है ।
२८ अलङ्कार शेखर, कर्ता - केशवमिश्र, समय - ई० १६ शताब्दीका उत्तरार्द्ध । वे शनि मैथिल ब्राह्मण थे। इन्होंने अलङ्कार शेखर को राजा माणिक्यचन्द्रकी प्रेरणा से लिखा है । केशवमिश्र ने अपने ७ अलङ्कार ग्रन्थोंका उल्लेख किया है, जिनमें अलङ्कारसर्वस्व और वाक्यरत्न वा काव्यरत्न, इनका नाम से निर्देश किया है । अलङ्कारशेखर में कारिका, वृत्ति और उदाहरण हैं, इनके कथनके अनुसार कारिकाके रचयिता कोई "शौद्धोदन" नामके विद्वान् थे । अलङ्कारशेखर में ८ रत्न और २२ मरीचियाँ हैं । प्रथम मरीचिमें काव्यका लक्षण और हेतु, द्वितीय में ३ रीतिया, उक्ति और मुद्राके प्रकार, तृतीय में शब्दके ३ व्यापार, चतुर्थ में ८ पददोष, पञ्चममें १२ वाक्यदोष, षष्ठमें ८ अर्थदोष, सप्तम में ५ शब्दगुण, अष्टम में ४ अर्थगुण, और नव में कतिपय दोपोका गुणरूप से निरूपण, दशम में ८ शब्दालङ्कार, एकादशमे १४ अर्था ऽलङ्कार, द्वादशमे रूपकके भेद, त्रयोदश में अन्य अलङ्कार, चतुर्दशमें नायकनिरूपण, पञ्चदशमे कविसमयका निरूपण और सादृश्यवाचक शब्द षोडश में विषयनिरूपण, सप्तदश में प्रकृति के अनेक पदार्थों का वर्णन, अष्टादश में संख्यावाचक शब्दोंका निरूपण, एकोनविंश में समस्या पूरण, विशमें ९ रस, नायक और नायिकाका भेद उपभेद तथा विभिन्न भाव और एक विश में रसदोष और द्वाविंश में रसपोषक वर्ण निरूपित हैं ।
वृत्तिवाति आदि ३ ग्रन्थ, कर्ता - अप्पय्यदीक्षित, समय - ई० १.२० - १५९३ अप्पय्यदीक्षित रङ्गनाथ अध्वरीके पुत्र थे, इनका नाम कहीं-कहीं अप्पयदीक्षित और अप्पदीक्षित भी देखा जाता है। ये राजा वेङ्कटपतिके आश्रित महान् विद्वान् थे । मधुसूदन सरस्वतीने इनके लिए "सर्वतन्त्र स्वतन्त्र " ऐसे पदसे उल्लेख दिया है ! अप्पय्यदीक्षित महावैयाकरण भट्टोजिदीक्षित के गुरु थे । इनके चित १०४ ग्रन्थ हैं ऐसी
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किवदन्ती है। उनमें अलङ्कारशास्त्रमें वृत्तिवार्तिक, चित्रमीमांसा और कुवलयानन्द हैं । इनके सिवाय प्रसिद्ध और इनके प्राप्यग्रन्थ इस प्रकारसे हैं-१ सिद्धान्तलेशसंग्रह, ब्रह्मसूत्रकी टीका न्यायाऽमणि, विशिष्टाऽद्धतमें नयमयूख मालिका, वेङ्कटदेशिकके यादवाऽभ्युदय महाकाव्यकी टीका, शैवविशिष्टाऽद्वैत में शिक्षाकमणिदीपिका ग श्रीकण्ठ. भाष्य, माध्ववेदान्तमें ब्रह्मसूत्रकी व्याख्या न्यायमुक्कावलि, मीमांसामें विधिरसायन और उसकी सुखबोधिनी टीका, व्याकरणमें वादनक्षत्रावलि, रामायणतात्पर्यनिर्णय और महाभारततात्पर्यनिर्णय, प्राकृतव्याकरणमें प्राकृतचन्द्रिका, वेदान्त लादि दर्शनों का संग्रह ग्रन्थ मतसारसंग्रह, कोषमें नाम ग्रहमाला इत्यादि ।
१ वृत्तिवार्तिक-इसके दो ही परिच्छेन उपलब्ध हैं, अत: यह ग्रन्थ अधूरा है। इसमें रूढि योग और योगरूढि ३ प्रकारकी अभिधाएँ, लक्षणाके ४ और शब्दशक्तिके - २ भेदोंका निरूपण है। लक्षगाके रद्धा और गौणी २द दिये गये हैं, और प्रत्येक अनेक भेदोंका उल्लेख है।
२चित्रमीमांसा : इसमें कारिकाएं और उनकी वृत्ति है। इसमें पहले ध्वनि, गुणीभूतव्यङ्गय और वित्र इस प्रकार काव्यके ३ भेदोंका प्रतिपादन किया गया है। अव्यङ्गय काव्यके शावर और जयचित्र इन दो भेदोंमें अर्थचियका ही इसमें विशेष प्रतिपादन है। इसमें उग्मा आश्रित २२ अलङ्कार निरूपित हैं । अलङ्कारप्रकरण अतिशयोक्तिपर्यन्त हैं। इस प्रकार यह ग्रन्थ भी अधूरा है। जगन्नाथ पण्डित राजने "चित्रमीमांसाखण्ड" नामक खण्डनग्रन्थ लिखा है, वह भी अपहनुति तक ही उपलब्ध होनेसे अधूरा ही प्रतीत होता है। चित्रमीमांसामें घशानन्दको सुश और बालकृष्ण पायगुण्डे की गढाऽर्थ प्रकाशिका ये दो टीकाएं प्रसिद्ध हैं।
६ कुवलयानन्द । यत्र ग्रन्थ वेङ्कट सिके आदेशसे निर्मित है, इसमें अलखारोंका विशद वर्णन है। इसका आधार जयदेवनिर्मित चन्द्रालोकका पञ्चम मयूख है, जैसा कि इन्होंने लिखा है--
__ "येषां चन्द्रालाके दृश्यन्ते लक्ष्यलक्षणश्लोकाः।
प्रायत एव तेषामितरेषां त्वभिनवा विरध्यन्ते ॥" अर्थात् इसमें जिन-जिन लहारोंके चन्द्रालोकमें लक्ष्य और लक्षणोंके श्लोक देखे जाते हैं प्रत्र: वे ही, और अन्य अलङ्कारोंके तो नये लक्ष्यलक्षण-श्लोक रचे जाते हैं। इस प्रसार इन्द्रालकको कारिकाओंका कहीं कहीं परिवर्तन, और परिवईन कर अध्ययपदीक्षितने प्रौढतापूर्वक व्याख्या की है, उदाहरण अस ग्रन्थोंसे दिये गये हैं। कुवलयानन्दमें चन्द्रालोकके उपमा आदि मौ अलङ्कार देकर १५ अन्य अलङ्कारोंका भी समावेश किला गया है। कुवलयानन्दको ९ टीकाएँ हैं, उनमें आशाधरभट्टकी अलङ्कारदीपिका और द्रविडदेशके रामचन्द्रपुत्र वैद्यनाथ तत्सत्की अलङ्कारचन्द्रिका टीका प्रसिद्ध हैं। आशाधरभट्टने वृत्तिनिरूपणपर "कोविदानन्द" और "त्रिवेणिका"
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( ४४ ) नामक ग्रन्थकी, काव्यप्रकाशकी उदाहरणचन्द्रिका और काव्यप्रदीपकी "प्रमा" नामक टीकाकी भी रचना की है। आधुनिक विद्वान् जग्गू वेडकटाचार्यकी "कुवलयानन्द चन्द्रिकाचकोर" नामकी टीका आलोचनात्मक और प्रौढ है।
३० रसगङ्गाधर, कर्ता--जगन्नाथ पण्डितराज, समय-ई० १६२०-१६६० व्याकरणमें महाभाष्य, नव्यन्यागमें तत्त्वचिन्तामणि और वेदान्त में शाङ्करभाष्यको जैसी प्रतिष्ठा है वैसे ही अलङ्कारशास्त्रमें जगन्नाथ पण्डितरा के रसगङ्गाधरकी भी है । ये पेरुभट्टके पुत्र और शिष्य तथा लक्ष्मीके गर्भज थे। इनके पिताने काशीमें ज्ञानेन्द्र भिक्षुसे वेदान्तका महेन्द्रसे वैशेषिक और न्यायका और खण्डदेवसे मीमांसाका अध्ययन किया था रसगङ्गाध में ऐसा लिखा है। दिल्लीके मुगल बादशाह शाहजहांने इन्हें "पण्डितराज" पदवीसे विभूषित किया था, उसके पुत्र दाराशिक'इने इनसे अध्ययन किया था। इन्होंने दिल्ली में अपना यौवन बिता दिया था । अनेक शास्त्रोंके अध्ययनसे परिणतमस्तिष्क पण्डितराज जगन्नाथने नव्यन्यायकी शैलीसे रसगङ्गाधरकी रचना को है । इन्होंने अपने ग्रन्थमें कई स्थानोंमें प्राचीन विद्वानोंको कड़ी आलोचना की है। उनमें भी अप्पय्यदीक्षितकी धज्जी उड़ाई है। इस प्रसङ्गमें कहीं-कहीं मर्यादा और युक्तिका व्यतिक्रम भी हुआ है। भट्टोजिदीक्षितकी प्रौढमनोरमाकी इन्होंने 'मनोरमाकुचदिनी" नामक ग्रन्यसे खण्डन भी कर डाला है। ये यवनी स्त्री के प्रणयी थे ऐसी किंवदन्ती प्रसिद्ध है, पर इसमें कुछ भी प्रमाण नहीं है । इनकी प्रतिष्ठा और पाण्डि-पसे अभिभूत होकर असूयापरवश पण्डितोंने यह मिथ्या प्रचार किया है। इन्होंने . मथुरापुरीमें देहत्याग किया था। रसगङ्गाधरमें ५ आनन होने चाहिए पर दुर्भाग्य से दो ही आनन अधूरे रूपमें उपलब्ध हैं। यह ग्रन्थ पूरा होता तो अलङ्कार गास्त्रके कई मौलिक और महत्त्वपूर्ण विषय उपलब्ध होते । तो भी इसमें जितने अंश विद्यमान हैं, उतनेसे भी बहुनसे साहित्यिक तत्त्वोंके मानदण्ड · इसमें उन्नत किये गये हैं। रसंगङ्गाधरमें सूत्र, वृत्ति और उदाहरण हैं। उनमें तीनों अगर के अपने हैं । उदाहरणके विषयमें उन्होंने लिखा है"निर्माय नूतनमुदाहरणाऽनुरूपं काव्यं मयाऽत्र विहितं, न परस किश्चित् । किं सेव्यते सुमनसां मनसाऽपि गन्धः कस्तूरिकाजननशक्तिभृता मृगेण १" ।।
अर्थात् इस ग्रन्थमें उदाहरणके योग्य नये काव्यकी मैंने रचना कर रखी है, दूसरोंकी कुछ नहीं रखी है। कस्तूरी उत्पन्न करनेकी शक्तिवाला मृग फूलोंके गन्धका मनसे मी क्या सेवा करता है ? इस प्रकार हम देख रहे हैं पण्डितराज जगन्नाथ आत्माऽ. पिमानी और महान् आलङ्कारिक होनेसे अपनी सानी नहीं रखते थे। रसगङ्गाधरके प्रथम आननमें मङ्गलाचरणके अनन्तर इन्होंने सबसे विलक्षण काव्य का लक्षण लिखा है । ये शब्द और अर्थको नहीं केवल शब्दको काव्य मानते हैं। इस प्रकार वे ग्रन्थके आरम्भमें ही मम्मट और विश्वनाथके मतोंका खण्डन करते हैं । पण्डितर।जने प्रतिभाको
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काम्या कारण मानकर सलक्षण और सोदाहरण काव्य के ४ भेदोंको माना हैं । ये रस स्वरूप लिखकर उसमें ११ सिद्धान्तियोंके मत देते हैं । स्थायी भाव, विभावादिस्वरूप, ९ रस और उनके उदाहरण, रसमें अन्य ज्ञातव्य विषय, रसदोष, गुणनिरूपण, गुणमें वामन आदि आचार्योंके मत, शब्द और अर्थ के गुणोंके लक्षण, उन सबका पूर्वोक्त ३ गुणोंमें अन्तर्भाव, गुण व्यजिका रचना, रचनामें वर्जनीय, भावध्वनि, भावलक्षण, व्यभिचारी भाव, उनके लक्षण और उदाहरण, रसाभास, भावशान्ति, भावोदय, भाव. सन्धि और भावशबलता आदि विषयोंका वर्णन है। -
द्वितीय आननमें संलक्ष्मक्रमध्वनि, नानाोंमें शक्ति नियामक संयोग आदि, शब्द. शक्तिमूलक निमें अलङ्कारध्वनि, वस्तुध्वनि, अर्थशक्ति मूलकध्वनि, लक्षणामूलध्वनि, अभिधाशक्तिनिरूपण, लक्षणाक्तिनिरूपण, लाक्षणिकं वाक्योंका शाब्दबोधनिरूपण, अलङ्कारांनरूपण, उसमें उपमासे लेकर उत्तर अलङ्कारतक कुल ७० अलङ्कारोंका निरूपण है । उत्तर अलङ्कारके उदाहरणमें"किं कुर्वते दरिद्राः ? कासारवती धरा मनोज्ञतरा । कोपावनखिलोक्याम्"।
इतना ही अश उपलब्ध है। यह रसगङ्गाधरस्थ विषयोंकी आपाततः की गई सूची है । इस ग्रन्थपर पण्डितराजके ५० वर्षों के अनन्तरं महावयाकरण नागेशभट्टने "गुरुमर्मप्रकाशिका" नामकी संक्षिप्त टीका लिखी है। कहीं-कहीं इसमें अध्यय्यदीक्षितके पक्षका अनुसरण कर मूलप्रन्यका खण्डन भी है।
. पण्डित पुरुषोत्तम चतुर्वेदीने नागरीप्रचारिणी सभासे रसगङ्गाधरका हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित किया है । नवीन विद्वानोंमें भट्ट मथुरानाथ शास्त्रीने "सरला" नामक संक्षिप्त टीका की है इसमें कहीं कहीं नागेश भट्टपर आक्षेप भी किया गया है। इसी तरह कविशेखर बदरीनाथशाजीने प्रथम आननपर पण्डित मदनमोहन झाजीने द्वितीय आनन रर सविस्तर चन्द्रिका टीका हिन्दी अनुवाद साहत की है । एवम् आचार्य मधुसूदनशास्त्रीने नवीन टीका, हिन्दी अनुवाद और विस्तृत भूमिका आदि हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रकाशित किया है। इसी तरह पण्डितप्रवर श्रीकेदारनाथ ओझाजीने संस्कृतविश्वविद्यालयसे "रसन्द्रिका" नामक प्रोढ टोका प्रकाशित की है। .
पण्डितराज जगन्नाथके अन्य ग्रन्थ इस प्रकार हैं
१चित्रमीमांसाखण्डन । २ मनोरमाकुचमदिनी । ३ गङ्गालहरी। ४ अमृतलहरी ( यमुनास्तुति ) । ५ करुणालहरी (कृष्णनुति )। ६ लक्ष्मीलहरी। ७ सुधालहरी ( सूर्यस्तुति )। ८ भामिनीविलासं, इसमें प्रास्ताविकविलास, शृङ्गारविलास, कष्णविलास और शान्तविलास, कुल ४ विलास संकलित हैं। ९ सफलारी। १० प्राणाभर" ( कामरूपनरेशका प्रशंसापरक ) और ११ जगदाभरण (जयसिंह राणाका वर्णन)।
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(४६) २१ अलङ्कारकौस्तुभ, कर्ता-कवि कर्णपूर, समय-ई. १५२४ के अनन्तरये कवि कर्णपूर ग कर्णपूर गोस्वामी पहले "परमानन्दसेन" नामसे प्रसिद्ध थे। ये चैतन्य महाप्रभुके शिष्य शिवानन्द सेनके पुत्र और गुरु श्रीनाथके शिष्य थे।
अलङ्कारकौस्तुभमें किरणोंकी संख्या दश है। इसके प्रथम किरणमें काव्यका लक्षण, द्वितीयमें शब्द और अर्थ, तृतीयमें ध्वनि, चतुर्थ में गुणीभूतमझ्य, पञ्चममें रस, भाव और उनके भेद, षष्ठमें गुण, सप्तममें शब्दाऽलङ्कार, अष्टममें अर्थाऽलङ्कार, नवममें रीति और दशम किरणमें दोषोंका निरूपण है । यह ग्रन्थ रूपगोस्गमीके उज्ज्वलमणिसे अधिक विस्तृत है। इसके उदाहरणमें राधा और कृऽपकी स्तुतियाँ अधिक हैं । अलङ्कारकौस्तुभमें उज्ज्वलनीलमणिका अनुकरण किया गया है। इस ग्रन्थपर चार टीकाएँ, उनमें प्रथम उन्होंकी किरण टीका है । द्वितीय विश्वनाथ चक्रवर्ती ( ई० १८८५) की सारबोधिनी है । तृतीय वृन्दावनचन्द्र चक्रवर्तीको दीधितिप्रकाशिका और चतुर्थ लोकनाथ चक्रवर्ती की टीका प्रख्यात है ! अलका रकौस्तुभके सिवाय कवि कर्णपूरके अन्य ग्रन्थ इस प्रकार हैं
१ चैतन्यचन्द्रोदय (नाटक) । २ गोराङ्गगणोद्देशदीपका । ३ आनन्दवन्दावनचम्पू । ४ उक्त चम्पूकी टीका चमकार जन्द्रिका । ५ बृहत्कृष्णगणोद्देशदीपिका । ६ वणरकाश ( कोषग्रन्थ )
३२ अलङ्कारकौस्तुभ, कर्ता-विश्वेश्वर पर्वतीय, समय- ई० अठारहवीं शताब्दी । लक्ष्मीघ के पुत्र विश्वेश्वर पण्डित सवंतन्त्रस्वतन्त्र विद्वान थे । ये उत्तर प्रदेशके अल्मोड़ा जिले के निवासी थे; इन्होने भी भव्य न्यायकी शैलीपर अलंकारशास्त्रका ग्रन्थ लिखा है । अलंकारकौस्तुभपर इन्होंने स्वयम् टीका लिन्द्री है, ..! रूपक अलंकार पर्यन्त उपलब्ध है । काव्य प्रकाशमें वणित ६१ अलंकारोंका इन्होंने पाण्डित्य. पूर्वक विवेचना कर अन्य अलंकारोंका उन्हीमें अन्नाव किया है । इन्होने रुय्यक, शोभाकर मित्र विश्वनाथ कपिराज, अप्पय्य दीक्षित, पण्डितराज जगन्नाथ, इनके मतोंका कई जगह खण्डन किया है। अन्य के उदाहरणोंके लिए इन्होंने स्वरचित मनोहर पद्य दिये हैं. ये ग्रन्थके अन्त में लिखते हैं ---
"अन्यरुदीरितमलंकरणान्तरं यत् काव्यप्रकाशकथितं तदनुप्रवेशात् । सक्षेपतो बहुनिबन्धविभावनेनाऽलंकारजातमिह वारुतया न्यरूपि ॥" इनके अलका में अन्य ग्रन्थ इस प्रकार हैं
अलंकारप्रदीपः अलंकारमुक्तावली, कवीन्द्रकर्णाऽऽरण, यह चित्र काव्य है तथा धर्मदासमूरिक विदग्धमुखमण्डनके अनुरूप ही नहीं उससे अधिक पाण्डित्यपूर्ण है। काव्यतिलक ग्सचन्द्रिका और उसको टीका व्यङ्गयाऽर्थ कौमुदी।' रसचन्द्रिकामें उनकी एक अन्य पुस्तक शृङ्गारमञ्जरीका भी उल्लेख है।
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( ४७ ) ब्याकरणमें काशिकाके ढंगपर अष्टाध्यायीका व्याख्यान "व्याकरणसिद्धानसुधानिधि" विशाल ग्रन्थ है। अद्वैतवादका खण्डनग्रन्थ तर्ककुतूहल और न्यायमें दीधिति प्रवेश ।
३३ अलङ्काररत्नाकर, कर्ता--कवि शोभाकर मित्र, समय-सं० १२५० मे १३५० के बीच। अलंकाररत्नाकरके कर्ता कवि श्रीशोमाकरमित्र त्रयीश्वरमित्रके तुम थे । इस ग्रन्थ में सूत्र, वृत्ति और उदाहरण हैं । मङ्गलाचरणके अनन्तर इसमें ११२ सूत्र हैं । यहा आरम्भके छः सूत्रोंमें शब्दालंकारके अनन्तर १०४ अर्थाऽलकारोंकी बड़ी प्रौढिसे निरूपण किया गया है । इन्होंने कई नये अलंकारोंका उद्भावन भी किया है ।
३४ काव्यविलास, कर्ता-चिरन्जीव भट्टाचार्य, समय-ई० १७०३ चिरजीव भट्टाचार्य विद्वदर राघवेन्द्र के पुत्र थे । इनका नाम वामदेव वा रामदेव भी था। इसके ग्रन्थ काव्यविलासमें दो भङ्गियो ( परिच्छेद ) हैं । प्रथम मङ्गिमें मङ्गला. चरणके अनन्तर काव्यस्वरूपनिरूपण, काव्यप्रयोजन, काव्यकारण, शृङ्गार आदि रसोंके स्थायी भाव, इसके कारणभूत विभावके दो भेद, कार्यभूत अनुभाव, व्यभिचारी भाव, संयोगशृङ्गार और विप्रलम्भ शृङ्गारके दो भेद. हास्य, करुण, रौद्र और वीररस, उसके ३ भेद, भयानक, बोभत्स, अद्भुत और शान्तरस, इनके स्वरूप और देवताएं, मायाके दामरस:वका खण्डन । विप्रलम्भ शृङ्गारका करुणरसमें अन्तर्भाव आदिका खण्डन, और भावकाव्य आदि सोदाहरण वणित हैं।
द्वितीय भङ्गिमें अलकारका लक्षण, अर्यालंकार सौर शब्दालंकारका उद्देश, उपमासे लेकर अत्युक्तिनक ८९ अर्थालकार और शब्दालंक रोंमें चित्र, ४ अनुप्रास, यमक, पुनरुक्त प्रतीकाण इस प्रकार ७ अलंकार सलक्षण और सोदाहरण निरूपित हैं।
चिरजीव भट्टाचार्यके अन्य ग्रन्थ निम्नलिखित हैं१ माघवचम्मू (प्रकाशक-जीवानन्दविद्यासागर, कलकत्ता)। २ विद्वन्मोदतरङ्गिणी चम्पू (प्रकाशक-वेङ्कटेश्वर प्रेस, बम्बई )। ३ शृङ्गारतटिनी। ४ वृत्तरत्नावली (छन्द.शास्त्र ) ।
३५ वृत्तालबार, कर्ता-छबिलाल सूरि, समय-वि० सं० १९३८-१९६७ । वृत्तालङ्कारमें कतिपय छन्द और अलङ्कारों के लक्षण और स्वकृत मनोरम उदाहरण वर्णित है । इनके अन्य पन्ध कुशलवोदय और सुन्दरचरित नाटक; और विरक्तिः तङ्गिणी खण्डकाव्य आदि हैं। ये नेपालनरेश श्री ५ पृथ्वीवीरविक्रमशाहके शासन कालमें सरदार उपाधियुक्त होकर शासन कार्य में नियुक्त थे और तपम्बीके समान जीवन बिताते थे । प्रो० मैक्समूलरने इनकी रचना की भूरिप्रशसा और संस्कृत लिखने. में अपनी असमर्थताका प्रकाश किया थ! ।
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( ४८ )
उदाहारपरिशिष्ट कविकृतिपरिचय १. कादम्बरीकथासार, कवि-अभिनन्द, समय खु० दशमशताब्दी, इसमें उत्कृष्ट अनुष्टुप् छन्दोंमें निर्मित दश सोंमें कादम्बरीकी कथाका बुतिमधुर वर्णन है । कवि न्यायमञ्जरीके कर्ता सुप्रसिद्ध जरनैयायिक जयन्त भट्टके सुपुत्र थे। इन्होंने योगवाशिष्ठसार भी लिखा है।
२. यादवाऽभ्युदय महाकाव्य, कवि-वेङ्कटनाय वा वेदान्तदेशिका समय५० चतुर्दश शताब्दी । ये श्रीसम्प्रदायके महान दार्शनिक आचार्य थे, इस सुन्दर काव्य. पर दार्शनिकप्रकाण्ड अप्यय दीक्षितने टीका लिखी है। महाकविने पादुकासहस्र और हंससन्देश आदि बहुत-से ग्रन्थ लिखे हैं ।
३. भक्तविजय, पृथ्वीन्द्रवर्णनोदय, कवि-ललितावल्लभ, समय-वि० सं० १७७९-१८३२ । भक्तविजय, उपेन्द्रवजा आदि छन्दोमें विरचित १०९ पद्योंका सालङ्कार मनोहर काव्य है। इसमें नेपालकी एकराष्ट्रियताके प्रतिष्ठायक श्री ५ पृथ्वीनारायण शाहके भक्तपुरविजयका उदात्त दर्णन है। पृथ्वीन्द्र वर्णनोदय, इसमें पूर्वोक्त महाराज के प्रताप और विजयका शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा आदि छन्दोंमें अलङ्कारगमित प्रोट और मनोरम वर्णन है। इसमें ३ सर्ग हैं, उनमें एक ही सर्ग प्रकाशित है।
४. कवितानिकषोपल, कवि-लक्ष्मण, समय-१७७९-१८३२, यह काव्य पूर्वोक्त महाराज श्री ५ पृथ्वी नारायण शाहके सुपुत्र युवराज श्री ५ प्रतापसिंहने अपने पिताके नेपालविजयके अवसरपर बालाजू नामक स्थानमें एक बृह। कविसम्मेलन किया था। उसमें भारत के मिथिला, पटना, द्राविड आदि बहुत से राज्योंके और नेपालके भी अनेक कवि उपस्थित हुए थे। नेपालके लक्ष्मण कविने सबकी रचनाओंकी व्याकरणकी सूक्ष्म पद्धतिसे पाण्डित्यपूर्ण आलोचना की थी, इसमे उस विषयका मनोहर वर्णन है। इन्हीं श्री ५ प्रतापसिंह शाहने वि० सं० १८३२-१८३४ मे "पुरश्चर्यार्णव" नाम बृहत तन्त्रशास्त्रकी रचना की थी। इन्हींके पौत्र श्री ५ गीर्वाणयुद्ध विक्रम शाहने वि० स० १८५५-१८७३ में जयसिंहकल्पद्रुमके समान धर्मशास्त्र और कर्मकाण्डका निबन्ध "गीर्वाणरत्नावली' वा ' सत्कर्मरत्नावली" नामक बृहत् ग्रन्थका प्रणयन किया था।
५.शिवराजविजय, गद्यकाव्य, कवि-साहित्याचार्य अम्बिकादत्त व्यास। "घटिकाशतक" "भारतरत्न" उपाधियोंसे विभूषित, समय ख० १८५९-१९०० । इनका अभिजन जयपुर और निवास वाराणसी है । ये पटनास्थ राजकीय संस्कृत महाविद्यालय में प्राध्यापक थे। प्रकृत ग्रन्यमें दक्षिणके छत्रपति शिवाजीके विजय और प्रताप बादिका मनोहर और अलकृत वर्णन है । इसका कथानक बङ्गालके उपन्यासकार बार० सी० दत्तके एक उपन्यासपर आधृत है। संस्कृत और हिन्दी मे इनके
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ग्रन्योंकी संख्या ७५ है। ये सनातन धर्मके प्रसिद्ध व्याख्याता थे। इन्होंने स्वामी दयानन्दके जीवन काल में ही उनके ग्रन्थों में व्याकरणकी त्रुटियोंका निदर्शन कर उन्हें निरुत्तर कर दिया था, और मूर्तिपूज', अवतारवाद आदि शास्त्रीय विषयोंमें शास्त्रीय और तकपूर्ण ग्रन्थ लिखे थे।
६. भागवतमञ्जरी. कवि- साहित्याचार्य विद्याभूषण कुलचन्द्र गौतम, समयवि० सं० १९६९-२०११, भागरतमञ्जरी, कवीन्द्र क्षेमेन्द्रकी भारतमञ्जरीकी सदृश रचना है । इसमें श्रीमद्भागवतस्थ कथाका लालित्यपूर्ण, अलङ्कृत और प्राञ्जल वर्णन है। इसके सिवाय कविजीने गङ्गागौरव, श्रीकृष्णकर्णामृत और हरिवरिवस्था आदि अनेक काव्य लिखे थे।
७, आदर्शराघव-पुष्पाञ्जलि, प्रकाशन समय वि-सं०२००५.कवि-पण्डितराजसोमनाथ सिग्याल, जन्म सं० १९४० । इस लघु कवितासंग्रहमें आध्यात्मिक काण्ड, आधिदैविक काण्ड और आधिभौतिक काण्ड ये ३ काण्ड हैं। प्रति काण्डमें तत्तत स्तबकोंमें बहुत-से पद्य संदीत है। भक्तिरससे ओतप्रोत, साऽलङ्कार, सरस और प्रढ ये पद्य अत्यन्त मनोहर और आकर्षक हैं । नेपालके प्रसिद्ध वेदान्ती अध्यापक ५० जगन्नाथशर्माके ज्येष्ठपुत्र सोमनाथ शर्माजी अपने पिता, प्रसिद्ध बयाकरण ५० विष्णुहरि रिमाल-म०म०लाश चन्द्रभट्टाचार्य और म०म०गङ्गाधरशास्त्रीके शिष्य, एवम् न्यायोपाध्याय और काव्यतीर्थ आदि उपाधियोंसे विभूषित थे । वे नेपालके राजकीय संस्कृत पाठशालाके प्रधानाध्यापक, राजकीय संस्कृत महाविद्यालयके प्राचार्य एवम् नशा प्रज्ञाप्रतिष्ठान (नेपाल राजकीय एकेडेमी) के सदस्य थे । लगभग बाधी शताब्दी तक अध्यापनरत होकर आपने साहित्य, सांख्य, सर्वदर्शन, वेदान्त और धर्मशास्त्रमें कई छात्रोंको पढ़ाकर काशी में शिवसायुज्य प्राप्त किया । आपके अन्यग्रन्थ-प्रतिसंस्कृता सिद्धान्तकौमुदी (व्याकरण में ), नेपाली भाषामें बादशराघव महाकाव्य, मध्यचन्द्रिका और लघुन्द्रिका ( व्याकरणमें ) साहित्यप्रदीप बोर अनुगदचन्द्रिका आदि अनके ग्रन्थ हैं । हालहीमें नेपालमें. बापका शताब्दीसमारोह धूमधामके साथ मनायागया।
८. पारिजातहरण, कवि- उमापति द्विवेद कविपति, अन्य प्रकाशनकाल ख० सं० १९५८ हरिवंशके कथानकपर इस मनोरम महाकाव्यका निर्माण हुआ है। ... ५. रुक्मिणीहरण, कवि-श्रीकाशीनाथ द्विवेदी, ग्रन्थप्रकाशनकाल-५० सं० १९६६, श्रीमद्भागवतके वाधारपर यह मनोहर काव्य निर्मित है।
१०. भारतीवैभव, गणेशगौरव और ऊर्मिमाला ( फुटकर कवितासंग्रह)। कवि-माधवप्रसाद देवकोटा स्मृति शास्त्री, सांख्ययोगाचार्य कविरत्न, पूर्वकाव्यनिर्माणकाल वि० सं० २०१० उक्त तीनों काव्य प्रौढ, अलङ्कारसंपन्न और मनोहर हैं ।
११. सत्यश्निन्द्र महाकाव्य, कवि-मीमांसाचार्य प.पूर्णप्रसाद ब्राह्मण, ४ सा० भृ
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( ५० ) जन्म वि० सं० १९७८ । इस महाकाव्यमें ब्राह्मणजीने पुराणकालके आदर्श राजर्षि हरिश्चन्द्र के चरित्रका प्राजल और मनोरम शैलीमें साकार और सगुण रूपमें पधुर वर्णन किया है। महाकविने "विश्वे देवाः" नामक ग्रन्थमें अपने अपने विषयके आदर्श बहुतसे व्यक्तिओंका मनोहर वर्णन किया है। इनका नेपाली भाषामें भी "एक्काइस कथा" नामको अनूठी कवाओंका संग्रह है। - १२ शाहवंशचरित महाकाव्य, कवि-व्याकरणाचार्य हरिप्रसाद आचार्य, समय वि० सं० २०११ है । इसमें शाहवंशके राजाओंका सिलसिलेवार प्राञ्जल वर्णन है।
१३ महेन्द्रोदय महाकाव्य, कवि-भरतराज घिमिरे शास्त्री; काध्यतीर्थ; काव्यरचनासपय वि० सं० २०१२, इसमें नेपालेन्द्र श्री ५ महेन्द्रवीरविकमशाहका साऽलङ्कार और मनोहर वर्णन है, कविकी संस्कृत और नेपाली भाषामें गिरिबाला और नेपालीमें देवयानी महाकाव्य आदि अन्य रचनाएं भी हैं।
१४ श्रीकृष्णचरिताऽमृत महाकाव्य, कवि-कृष्णप्रसाद घिमिरे शास्त्री; काव्यतीर्थ, विद्यावारिधि, कविरल, ग्रन्थप्रकाशनकाल वि० सं० २०२८, श्रीमद्भागवतके भारम्भिक भागपर आश्रित ५८ सोंमें निर्मित अलङ्कारपूर्ण प्राञ्जल और सरस इस महाकाव्यमें सर्गसंख्या में और वर्णनमें अद्भुत चूडान्त कल्पनाकोशल दिखलाया है । महाकविके अन्य भी नाचिकेतस महाकाव्य, ययातिचरित, सम्पातिसन्देश और रामविलाप मावि काव्य और नेपाली भाषामें शाहवंशचरित महाकाव्य बादि अनेक काव्य और संस्कृत के अनूदित ग्रन्थ है।
१५ गुरुगोविन्दसिंहचरित महाकाव्य, कवि-डाक्टर सत्यव्रतशास्त्री, ग्रन्थ. निर्माण समय-५० सं० १९४७ है, ऐतिहासिक यह काम्य वीररसप्रधान, मनोहर
. १६ विन्ध्यवासिनी महाकाव्य, शुम्भवधमहाकाव्य, कपि-वसन्त त्र्यम्बक शेबड़े, रचनाकाल-१० सं० १९८२-१९८३ । महाकाव्यको रचनाएं पौराणिक दुर्गाचरितपर आश्रित मलकारपूर्ण, सरस, प्राञ्जल और मनोहर हैं, इनके सिवाय इनकी वृत्तमचरी, दुर्गास्तवमयूषा बोर श्रीकृष्णचरित आदि अनेक रचनाएं हैं।
अपाक्षिकत्वेन, गुणाग्रहेण, दृष्टः श्रुतेश्चाऽपि समाश्रयेण। ।
संपूरितोऽयं लघुरोषभागस्टौ क्षमाऽहों द्विजशेषराजः ॥ १॥ अपघट्टः काशी
शेषराजशर्मा वि० सं० सं० २०४१
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टीकाकारस्याऽन्यरचनाः १ मट्टिकाव्यं, सम्पूर्णम्, सं० टीका, भूमिका, अनुवादश २ उत्तररामचरितनाटकम् , ,
टिप्पणी प ३ मालतीमाधवप्रकरणम् ,, , ४ प्रसनराघवनाटकम् , ५ स्वप्नवासवदत्तनाटकम् , ६ रघुवंशम् प्रथमसर्मः ॥ ७ रघुवंशम् १३-१४ सगो, , ८ किरातार्जुनीयमहाकाव्यम् ३-६
॥ ९ तर्कसंग्रहः साऽनुवाद: १० तर्कसंग्रहपदकस्यम्, सानुवादम् न्यायपारिभाषिकशब्दकोषः। ११ हितोपदेशः मित्रलामः
॥ १२ शिशुपालवधम् चतुर्थसर्गः । १३ नैषधीयचरितम् १-९ , १४ कारम्बरी पूर्वम् १५ साहित्यदर्पणः
विस्तृतभूमिका च १६ विक्रमाचरितकाव्यम् १ सर्गः , १७ विदग्धमुखमण्डनम्
। १८ दशकुमारचरितपूर्वपीठिका - १९ काव्यमीमांसा १-५ अनुवादोपेता । २० कुमारसंभवं साऽनुवादं सटिप्पणम् ( मुद्रयमाणम् ) २१ व्याकरणबोधः ( नेपाल्याम् ) २२ नेपालीरवनाप्रमशः ( नेपाल्याम् )।
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॥ श्रीः॥
ईषद्वक्तव्यम् श्रीदेवचन्द्रबुध-हेमकुमारिदेवी- जातः, सदेव गुरुवर्गविधेयचित्तः। श्रीकृष्णचन्द्रविबुधाऽवरजस्तथैव
श्रीपूर्णचन्द्रबुधकाऽग्रियबन्धुरस्मि ॥ १ ॥ माता, पिता, तदनु हृद्यसहोदरौ मे
शेषा न, दुविधिवशादहमेव शेषः । स्रोतस्विनीतटजभूमह सन्निभोऽहं
हा ! हन्त ! हन्त ! समयं ननु यापयामि ॥२॥ विद्याविलासपरिभासकऽणदास
पुत्रेण गुप्तचर विट्ठलदासकेन । अभ्यथितो विहितवान् विवृति नवीनां ... साहित्यदर्पणकृतौ खलु सानुवादाम् ॥ ३ ॥ छात्रोपकारपर एष मम प्रयासः
संख्यावतां धुरि निज पदमादधाति ! स्यादन्न संभ्रमनिभ्रम आत्तरूपः
क्षम्यो हि मानुषकृतिः स्खलनम्वभावा॥४॥ अस्यां कृतौ प्रथम मेव कृतप्रयासा
ये कोविदा मम सहायकरा अभूवन्। सर्वेषु तेषु महितेषु विचक्षणेषु
- संषा चकास्ति सततं कृतवेदिता में ॥५॥ झोपायः सहृदयो बुधरामचन्द्रः
- सूच्यादिभिः कृतिमिमां कृतवान् सनाथाम् । .. दृष्ट्वा तदीयगुणमर्थनमन्तरेण .. जातोऽस्म्यहं तदुपकारभराऽवनम्रः ॥६॥ श्रावणी पूर्णिमा वि० सं० २०३९
-शेषराजशर्मा ब्रह्मघट्टः, वाराणसी
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विषयाऽनुक्रमणिका
पृष्ठाहरा
१०६
११२
९१४
१०७
११७ ११८
विषयाः
पृष्ठाङ्काः | विषयाः (१) प्रथमपरिच्छेदः रसस्य ज्ञाप्यस्वादिखण्डनम् भारम्भे मङ्गलम्
रसस्य ज्ञानान्तरग्राह्यस्वखण्डनम काव्यफलानि
रसस्य स्वप्रकाशत्वम्
विभावः काव्यलक्षणदूषणानि
विभावभेदौ काग्यस्वरूपम्
नायकः दोषस्वरूपम्
तत्र धीरोदात्तः गुणस्वरूपम्
धीरोद्भुतः. (२) द्वितीयपरिच्छेदः
धीरललितः वाक्यस्वरूपम्
धीरशान्तः महावाक्यम्
नायकानां फोडश भेदा: पदलक्षणम्
दक्षिणनायकः अर्थत्रैविध्यम्
पृष्टनायकः अभिधा
अनुकूलनायक संकेत:
शठनायक: लक्षणा
नायकानां ४८ भेदाः लक्षमाभेदाः
पीठमर्दः व्यञ्जना
शृङ्गारसहायाः तात्पर्यार्थनिर्णायकः
| विट: तात्पर्यवृत्तिः.
विदूषकः (३) तृतीयपरिच्छेदः
मन्त्री
अन्तःपुरसहायाः रसस्वरूपम्
दण्डसहायाः रसास्वादनप्रकारः
धर्मसहाया: करुणादीमा रसस्वस्थापनम्
दूतभेदा: विभावादिन्यापारः
तत्र निसृष्टार्थः विभावादीनां साधारण्यम्
मितार्थकः विभावादीनां लौकिकत्वम्
संदेशहारक: रसोद्बोधे विभादीनां कारणस्वम् १८ साखिकनायकगुणाः विभावादीनां रसरूपेण परिणामः १८ तत्र-शोभा विभावामन्यतमाक्षेपेऽपि रसोद्बोधः १०१
विलासः रसस्यानुकार्यगतस्वखण्डनम् १०. माधुर्यम् रसस्यानुकतुंगतस्वखण्डनम् १०२ गाम्भीर्यम्
१२०
१२१
.
१२२ १२२ १२३ १२५
१२३
१२७
१२८ १२८
१२१
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विषयाऽनुक्रमणिका
विषयाः
पृष्ठाहर
धैर्यम्
तेजः ललितम्
औदार्यम्
१७२
१७४
१७१ १७६
१४४
१७७
१७६
पृष्टाना , विषयाः १३० लीला
(विलासः विग्छित्तिः विम्वोक:
किलकिचितम् १३२
मोहायितम्
कुट्टमितम् १३६ विनमः
ललितम् १४१
मदः विहृतम् तपनम्
मोऽध्यम् १४६
विषेपः कुतूहलम् हसितम् चकितम् केलिः मुग्धाकन्ययोरनुरागेजितानि सर्वासामनुरागेजितानि
दूत्यः १५४
दूतीगुणाः प्रतिनायकः उद्दीपनविभावाः अनुभावाः सास्विका तत्र स्तम्भादयः स्वम्भादीनां लक्षणानि
व्यभिचारिणः ૧૧ર
तत्र निवेदः भावेगः
१
नायिकाभेदाः स्वनी मुग्धा मध्या अगलमा मध्याधीरा-मध्याधीराधीरा प्रगल्भाधीरा प्रगल्भाधीराधीरा मेवाल्यानम् कुलटा कन्या वेश्या दाख्यानम् भनाधीनमतका কারিনা अभिसारिका भाभिसारिकामेदाः काभिसारस्थानानि कलहान्तरिता विप्रलन्धा प्रोषितभतका बासकासा विरहोत्कण्ठिता
-0
१८
"
१८२ १८७
१५५
१८१
भेदाल्यानम्
१५३
नायिकालंकाराः तान-भावः
१६६
१६४
श्रमः
टेला शोभा कान्तिः, दीतिः माधुर्यम्
१६५ १६६ । मदः
जडता उग्रता
प्रागल्भता
२०१ २०२
गौदार्यम् धैर्यम्
१८ | मोहः
विबोधः
२०३
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विषयाः
स्वप्नः अपस्मारः
गर्नः
मरणम्
आलस्यम्
अमर्षः
निद्रा
भवहित्या
औत्सुक्यम्
उन्मादः शङ्का
स्मृतिः
मतिः
व्याधिः
त्रासः
व्रीडा
हर्षः
असूया
विषादः
धृतिः.
चपलता
ग्लानिः
चिन्ता
तर्कः
स्थायिनोऽपि संचारिभावित्वम्
स्थायिभावः
स्थायिभावभेदाः
स्थायिभावानां लक्षणानि
भावपदनिरुकिः
रसभेदाः
तत्र शृङ्गारः
शृङ्गारभेदौ
विप्रलम्भस्वरूपम् - विप्रलम्भभेदाः तत्र पूर्वरागः
कामदशाः
तत्र मरणे विशेषः पूर्व रागभेदाः
विषयानुक्रमणिका
पृष्ठाङ्काः विषयाः
२०४ मानः
२०२
39
२०६ | मानभङ्गोपायाः
२०७
प्रणयमानः ईर्ष्यामान:
"
२०८ | प्रवासभेदाः २०६ | करुणविप्रलम्भः
::
२१५
२१६
२१० संभोगः
२११ | संभोगभेदाः
२१२
२१३
२१४
प्रवासः
एकादश कामदशाः
99
हास्यः
हास्यभेदाः हास्याश्रयप्रतीतिः
39
२१७ | युद्धवीरात् करुणस्य भेदः
२१८ वीरः
99
करुणः
करुणभेदः करुणविप्रलम्भात्
रौद्रः
वीरभेदाः
"
२१६
भयानकः
२२० | बीभत्सः
२२१ अद्भुतः शान्तः
२२२
२२३
२२४
२२१
शान्तस्य भेदाः
शान्तस्य रसत्वस्थापनम्
"
२२७ रसाभास-भावाभासौ २२८ | अनौचित्यप्रदर्शनम् भावशान्त्यादिः
२२८
२३०
वत्सलः
रसानां मियो विरोधाख्यानम्
भावः
(४) चतुर्थपरिच्छेदः
काव्यभेदौ ध्वनिकाव्यम्
99
२३१ | अभिधामूलकध्वनिः
२३५ | लक्षणामूलध्वनिः
२३८ | लक्षणामूलध्वनेर्भेदौ
५५
पृष्ठाङ्काः
२३३
99
२४२
२४३
२४५
99
२४५
२५०
२५१
२५२
२५४
२११
२५७
२१८
२६०
99
२६२
२६३
99
ધ
२६७
२६६
२७१.
: 33.
२७१
२०७
२७३
२८१
२८५
२८६
२६१
२३५
39
३०२
39
33
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विषयाऽनुक्रमणिका
पृष्ठा ४०१
४०२
४०४
४०६ १०७ ४०८ ४०८
oc
४१८
विषयाः
पृष्ठाका विषयाः अभिधामूलध्वने दो
भारतीवृत्तिः रसादेरेकविध्यम्
भारतीवृत्तेरनानि संलक्ष्यक्रमव्यायध्वनेनैविध्यम् ३०४
आमुखम् (प्रस्तावना) शब्दशक्त्युद्भवम्यग यस्य द्वैविध्यम् ३०५
प्रस्तावनाभेदाः अर्थशक्त्युद्भवव्यङ्ग यस्य द्वादशोभेदाः ३०८ उद्घात्यक: शब्दार्यशक्स्युद्भवभ्यङ्ग यस्यैकविध्यम् ३३६ कथोद्घातः भवनेरष्टादशविधत्वम् ३२० प्रयोगातिशयः सप्तदशभेदानां पदवाक्यगतरुवम् ३२१ प्रवर्तकम् अर्थशक्स्युद्भवचनेः प्रबन्धेऽतिदेशः ३३१
अवलगितम् पदांशादिष्वसंलक्ष्य
| नखकुष्टमतनिरूपणम् क्रमव्ययस्याख्यानम्
वस्तुनो दैविध्याल्यानम् ध्वनिभेदाख्यानम्
आधिकारिकवस्तुलक्षणम् गुणीभूतव्ययम्
प्रासङ्गिकवस्तुलनम् गुणीभूतम्यङ्गयस्य भेदाः
१-४ पताकास्थानम् गुणीभूतव्ययस्थापि ध्वनिस्वम्
कविशिक्षा व्यब्यचित्रकान्यखण्डनम् . ३५५
अर्थोपोपकाः (५) पञ्चमपरिच्छेदः
विष्कम्भकः ज्यअनास्वरूपम्
३५८
प्रवेशक: अभिधातोव्यञ्जनायाः पार्थक्ये हेतवः ३६५ अभिधालवणयोः
अवतार: रसादिप्रतिपादने
प्रमुखम् अचमत्वनिरूपणम्
३६६ [कविशिक्षा व्यायबोधने अनुमानस्यातमत्वम् ३०२ अर्थप्रकृतयः म्यानोपसंहारः
बीजम् (६) षष्ठपरिच्छेदः
बिन्दुः काव्यस्य दृश्यश्रव्यभेदी
पताका
प्रकरी रूपकसंज्ञाकारणम्
कार्यम् अभिनयः
कार्यावस्था रूपकभेदाः
आरम्भः उपरूपकभेदाः
प्रयत्नः नाटकलक्षणम्
प्राप्स्याशा अङ्कलपणम्
३६३ नियताप्तिः गर्भाकलक्षणम्
| फलयोगः (फलागमः) नाटकरचनापरिपाटी
३६४ सन्धिः सन्धिभेदाः पूर्वरङ्गः
३६४ । तत्र मुखम्
। प्रतिमुखम् नान्धनन्तरेतिकर्तव्यता
३६७ । गर्भः
"
४२०
४२१
४२३
१२४
"
४२८
"
नान्दीलपणम्
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयाः
विमर्शः
निर्वहणम् मुखसन्धेरङ्गाि तत्र उपक्षेपः
परिकरः
परिन्यासः
विलोभनम्
युक्तिः
प्राप्तिः
समाधानम्
विधानम्
परिभावना
उद्भेदः
करणम्
भेदः
प्रतिमुखसन्धेरङ्गानि तत्र विलासः
परिसर्पः
विधुतम्
तपनम्
नर्म
नर्मद्यतिः
प्रगमनम्
विरोधः
पर्युपासनम्
पुष्पम्
वज्रम्
उपन्यासः
वर्ण संहाराः गर्भसन्धेरङ्गानि
तत्र अभूताहरण म्
मार्गः
रूपम्
उदाहरण म्
क्रमः
संग्रहः
अनुमानम् प्रार्थना
विषयानुक्रमणिका
विषयाः
क्षिप्तिः
त्रोटकम्
पृष्ठाङ्काः
४३२
४३३
99
- ४३४
४३५
४३५ | विमर्श सम्धेरङ्गानि
४३६ तत्र अपवादः
४३७ संकेतः
४३८ | व्यवसायः
द्रवः
"
४३६ युतिः
४४०
19
४४३
४४४
23
४५१ | खेदः
99
४४२
•
प्रतिषेधः
४४२ विरोधनम्
प्ररोचना
"
४४६
४४७
39
"1
अबिलम्
उद्वेगः विद्रवः
४४८
४४६
""
४५१
शक्तिः
""
४५२ |
प्रसङ्गः
99
आदानम्
छादनम्
निर्वहण सन्धरङ्गानि
तत्र, सन्धिः
विबोधः
प्रथनम्
निर्णयः
परिभाषण मुं
कृतिः
प्रसादः
आनन्दः | समयः
उपगूहनम्
भाषणसू पूर्ववाक्यम्
99
४५३ काव्य संहारः ४५४ प्रशस्तिः
चतुषष्टयङ्गोपसंहारः
39
४५५ | फलनिरूपणम्
अङ्गानां फलम्
पृष्ठाङ्काः
४१६
४१७
,
"
४९६
"
"
४६१
०६१
४६२
४६३
४६४
४६२
२३६
""
२३७
४६८
४३६
२७०
19
२७१
19
४७२
५७३
"
३१४
*
1
292
395
२७
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयाऽनुक्रमणिका
२१२
५१४
"
१८७
११८
विषयाः
पृष्ठादा विषयाः रसव्यक्तयनुरोधेनाजानां सपिवेश- प्राप्तिः . निरूपणम्
४७६ विचारः
४८.दिष्टम् तत्र, कौशिकी
उपदिष्टम् कौशिक्या महानि
गुगातिपातः तन्त्र, उत्थापका
गुणातिशयः तत्र, नमः
विशेषणम् नर्मस्फूर्ज
| निरुतिः नर्मस्फोटः
| सिद्धिः नर्मगर्भः
४८४
| भ्रशः सारवती
म | विपर्ययः सास्वत्या अशानि
दाक्षिण्यम् सांधात्यः
१४६
अनुनयः संलाप: परिवर्तक
माला भारभटी
अर्थापत्तिः आरभव्या अशानि
गहंगम् तन्न, वस्तूस्थापनम्
पुण्छा संफेटः
प्रसिदिः संक्षिप्तिः
सारून्यम् अवपातनम्
संक्षेपः नाट्योक्तयः
गुणकीर्तनम् नामकरणम्
११२|लेशः आलापोचितशब्दनिर्देशः १६३
मनोरथः भाषाविभागः
१६७
अनुक्तसिद्धिः षट्त्रिंशलपणादीनामाम्यानम् प्रियोक्तिः लक्षणानामुद्देशः
नाव्यालंकातः तत्र, भूषणम् अक्षरसंघात
आक्रन्दः शोभा
कपटम् भक्षमा
गर्वः संशयः
आश्रयः दृष्टान्तः
उत्प्रासनम् तुल्यतः पदोश्चयः
सोमः निदर्शनम्
५०७ पश्चात्ताप: अभिप्रायः
उपपत्तिः
५२०
५२२
तत्र, आशी
१२४
उद्यमः
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयाः
आशंसा
अध्यवसायः
विसर्पः
उल्लेखः
जनम्
परीवादः
नीतिः
अर्थविशेषणम्
प्रोत्साहनम्
साहाय्यम्
अभिमानः
अनुवर्तनम् कीर्तनम्
याचना
परिहारः
निवेदनम्
वर्तनम्
आख्यानम्
युक्तिः
प्रहर्षः
उपदेशनम्
लास्याङ्गानि
तत्र, गेय पदम्
स्थितपाठ्यम्
आसीनम्
पुष्पगण्डिका
प्रच्छेदकः
त्रिगूढकम्
सैन्धवम्
द्विगूढकम्
उत्तमोत्तमकम्
उक्तप्रत्युक्तम् महानाटकम् प्रकरणम्
भाणः
व्यायोगः समवकारः डिमः
विषयानुक्रमणिका
पृष्ठाङ्काः विषयाः ५२१ | ईहामृगः
ਸ
99
५३० वीथी
39
१३१ तत्र, प्रपञ्चः त्रिगतम्
99
१३२ | छलम्
د.
99
५३३ अधिबलम्
गण्डम्
५३४ | अवस्यन्दितम् नालिका
99
५३५ असत्यप्रलापः
व्याहारः
99
५३६ | मृदवम्
99
वीथ्यङ्गानि
प्रहसनम्
२३७ | प्रहसनभेदाः
""
५३८
21
५४०
वाक्केल:
99
२४३
39
२४१ प्रस्थानकम्
५४२ उल्लाप्यम्
काव्यम्
प्रेङ्खणम्
रासकम्
संलापकम्
""
99.
५४५
79
नाटिका
त्रोटकम् गोष्ठी
सदृकम्
नाट्यरासकम्
श्रीगदितम् शिल्पकम्
99
५४४ विलासिका
दुर्मल्लिका
प्रकरणिका
99
हलीशः २४७ भाणिका
२४८ श्रव्यकाव्यानि
५४१ |पद्यलक्षणम् ५५२ / मुक्तकादिलचणम्
५९
पृष्ठाङ्काः
५५३·
५५५
१५७
*19
99
99
५६०.
५६२
५६३
१६४
५६१
39
१६७.
१६३
२७०
५७०
२७२.
२७३
२७४
99
५७२
२७६..
99
२७७
२७८
99
५८०.
99
१८१
५८३.
99
२८१
39.
39
१८७०
२६८.
"
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०
विषयाऽनुक्रमणिका
पृष्ठाकर ६४०
६४१ ६४२
६४५
६४७
चम्पू: विरुदम्
६१२
६५६
६५८
विषयाः
पृष्ठावाः | विषयाः महाकाव्यम्
१० | सन्ध्यश्लीलस्वम् खण्डकाब्बम
सन्धिकष्टत्वम् कोषः
अर्धान्तरैकपदत्वम् गद्यलक्षणम्
समाप्तपुनरात्तत्यम् कथा
अभवन्मतसंबन्धत्वम् आख्यायिका
अक्रमत्वम् | अमतपरार्थत्वम्
| वाध्यस्थानभिधानम् करम्भकम्
भग्नप्रक्रमस्वम् (७) सप्तमपरिच्छेदः प्रसिद्धित्यागः दोषस्वरूपम्
अस्थानस्थपढ़ता
अस्थानस्थयमासता दोपाणां विभागः
६०२ संकीर्णस्वम् दुःश्रवस्वादिदोषपरिहारः
गर्भतिता दुःश्रवत्वम्
६०३ अश्लीलस्वम्
अर्थदोषाः अनुचितर्थस्वम्
तत्र, अपुष्टत्वम्
दुष्क्रमत्वम् अप्रयुक्तस्वम्
ग्राम्यत्वम् ग्राम्यस्वम्
व्याहतत्वम् अप्रतीतत्वम्
अश्लीलत्वम् सन्धिग्धत्वम्
कष्टार्थत्वम् नेयार्थतवम्
अनवीकृतस्वम् निहतार्थत्वम्
" नवीकृतत्वम् अवाचकस्वम् क्लिष्टत्वम्
६०६ प्रकाशितविरुद्धत्वम् विरुद्धमतिकृतित्वम्
सन्धिग्धस्वम् अविमृष्टविधेयांशत्वम्
" पुनरुक्तता वाक्ये दुःश्रवस्वादीनां कीर्तनम् ६१५ प्रसिद्धिविरुद्धता वाक्यदोषाः
६१६ । विद्याविरुद्धता तर, प्रतिकूलत्वम्
६३० । सकाङ्क्षता लुप्तविसर्गस्वम्
६३२ सहचरभिन्नत्वम् आहतविसर्गस्वम्
, अविशेषे विशेषः अधिकपदत्वम्
६३५ अनियमे नियमः न्यूनयत्वम्
६३४ विशेषेऽविशेषः पुनमनवम्
" नियमेऽनियमः हनवृत्तत्वम्
६३३ विध्ययुक्तता अनुप्रासप्रकर्षस्वम्
६३८ अनुवादायुक्तता सन्धिविश्लेषत्वम्
६३६ निमुनपुनरुक्तता
६६२
६०७
६६४
६०८ निहतुस्वम्
६५७
६३८
६७०
६७२
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयाऽनुक्रमणिका
"
७०२
७४१
विषयाः पृष्टाकाः ) विषयाः
पृष्टाकाः रसदोषाः ६७६ प्रसादव्यञ्जकशब्दाः
७४० काव्यदोषेभ्यः पृथगलंकारदोपागाम- श्लेषादीनामोजस्यन्तर्भावाख्यानम् ७४१ __संभवत्वम्
६८४
असमासस्य माधुर्यव्यञ्जकत्वम् ७४४ दुःश्रवस्वस्य गुणत्वप्रतिपादनम् ६६० अव्यक्तः प्रसादगुणेऽन्तर्भावः अश्लील वस्य गुणत्वप्रतिपादनम् , ग्राम्यदुःश्रावत्याजेन कान्तिसुकुमारश्लेषादौ निहतार्थाप्रयुक्तयोरदोषत्वा तयोः संग्रहः प्रतिपादनम्
७००
समताया गुणदोषयोरन्तःपातः अप्रतीवत्वस्य गणत्वाख्यानम्
ओजआदीनां दोषाभावत्वेनांगीकारः ७४८ कथितपदस्यस्य गणत्वाख्यानम्
अर्थव्यक्तिकान्त्यो स्वभावोक्त्यादिना सन्धिम्धरवस्य गुणत्वाख्यानम् ७०६
संग्रहः कष्टत्वदुःश्रवरवयोगुणत्वाख्यानम् ७०७
श्लेषसमतयोवैचित्र्यादोपग्राम्यत्वस्य गुणत्वाख्यानम् ७०८
तयोरन्तर्भावः निहेतुताया दोपामावनिरूपणम् ख्यातविरुद्धताया गुणत्वम्
समाधेगुणत्वाभावः खण्डनोपसंहारः ७५२ कविसमयख्यातानि
(९) नवमपरिच्छेदः पुनरुक्तस्य गुणत्वाख्यानम् । ७१२ न्यूनपढ़ताया गुणत्वाख्यानम्
रीतीनां चातुर्विध्यम् न्यूनपदत्वस्य गुणदोषत्वाभाव
तत्र, वैदर्भी निरूपणम्
७१५ गौडी
७५८ अधिकपदत्वस्य गुणत्वाख्यानन् ७१७
पाञ्चाली क्वचित् समासपुनरातत्वस्य गुणदोषाभावानिरूपणम्
७६० गर्मितत्वस्य गुणस्वाख्यानम्
। वक्त्राचौचित्येन रचनावस्थानम् पतरप्रकर्षताया गुणस्वनिरूपणम्
(१०) दशमपरिच्छेदः व्यभिचारिणः स्वशब्देनोक्तं
अलंकाराः दोपाभावकीर्तनम् पुनरुक्तवदाभासः
७६६ विरुदरसविभावादिसंग्रहस्य
अनुप्रासः गणत्वनिरूपणम् छेकानुप्रासः
७६१ विरुद्धरसयोः समावेशः
वृत्यनुप्रासः अनुकरणे दोषाणामदोषत्वाख्यानम् श्रुत्यनुप्रासः
अन्स्यानुप्रासः (८) अष्टमपरिच्छेदः
लाटानुप्रास: गुणाः
यमकम् गुणानां त्रैविध्यम् तत्र, माधुर्यम्
वक्रोक्तिः
७८२
भाषासमः माधुर्यव्याकवर्णादिः
७८३ ओजः ओजोग्याकवर्णादिः
सभङ्गश्लेषः प्रसादः
७४० / अभङ्गश्लेषः
15 लाटी
७६०
७१३
७६५
७६८
७७२
७७४
७७३.
श्लेषः
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२
विषयाऽनुक्रमणिका
१४४
पृष्ठाहाः| विषयाः ७६१ श्लेषः ८०७ अप्रस्तुतप्रशंसा
ब्याजस्तुतिः ८१ पर्यायोक्तम्
अर्थान्तरन्यासः काव्यलिङ्गम् अनुमानम्
१६२
१६८
१६६ १७४
१७८
१८२
६३.
8८४ १८७
विषयाः समझामारलेषः चित्रम् प्रहेलिकावा अलंकारत्वलण्डनम् उपमा पूर्णोपमा श्रौती उपमा भार्थी उपमा वदिते समासे वाक्ये
श्रौत्यापमा लुप्तोपमा एकदेशविवर्तिन्युपमा रशनोपमा मालोपमा अनन्यवः उपमेयोपमा स्मरणम् रूपकम् रूपकभेदाख्यानम् 'परिंगामः सन्देहः भ्रान्तिमान् उल्लेखः अपहनुतिः निश्चयः उत्प्रेश उत्प्रेक्षादेभेदाः अतिशयोक्तिः तुल्ययोगिता दीपकम् प्रतिवस्तूपमा हटान्तः निदर्शना न्यविरेका सहोक्तिः विनोक्तिः समासोक्तिः परिकरः
"
१६२
१३४
अनुकूलम् भाक्षेपः विभावना विशेषोक्तिः विरोधः असंगतिः विषमम्
समस् ८३६ विचित्रम्
अंधिकम् अन्योन्यम् विशेष: व्याघातः कारणमाला मालादीपकम् एकावली सार:
यथासंख्मम् ८६४ पर्यायः १०॥ परिवृत्तिः
परिसंख्या उत्तरम् अर्थापत्तिः विकल्पः समुच्चयः समाधिः
प्रत्यनीकम् १२० प्रतीपम् ६५२ मीलिवम्
१००३ १००४ १००७
१.१२ १०१४ १०१६ १०२० १.२१
१२५
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयाऽनुकमणिका
विषयाः सामान्यम्
उष्टा १०३२
तद्गुणः
अतद्गुणः सूक्ष्मम् ब्याजोकि स्वभावोक्ति
पृष्ठाः विषयाः १०२५ भाविकम् १०२६/ उदातम्
रसवदाचलंकाराः १०२८ | भावोदयाचलंकाराः १०३० संसृष्टि-संकरालंकारी १०३, अन्धकतप्रन्थान्ताकोको
१०४१ १०४६ १०५१
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूलोक्तकारिकाऽनुक्रमणिका
कारिकाः
पृष्ठाङ्क:
२५२ ५३४
२२५
१७५
४२३
३६३
१८६
४१६
१८४
७०
५६२ ४२३ ७३३
१८२
भकाण्डे प्रथनच्छेदो मक्षमा सा परिभवः भक्का जवनिकाख्याः भवदर्शनीया या अङ्कश्च दशभिर्धारा मोदरप्रविष्टो यो यः अङ्गहीनो नरो यद्वद् अङ्गी रौद्ररसस्तन अगष्ठाग्रेण लिखति भज्ञानादिव या पृच्छा अतिविस्तृतिरङ्गस्य अत्र नारभटी नापि अत्रोक्ता मागधी भाषा अथ कारकमेकं स्याद् अथ नायिका-त्रिभेदा अद्भुतस्य पदार्थस्य अधिकारः फले स्वाम्यम् अधिकारूढवैशिव्यम् अधिक्षेपापमानादेः अतिः स्यादनालम्बः मनालम्बता चापि अनुकार्यस्य रत्यादेः अनुकूलं प्रातिकूल्यम् अनुकूल एकनिरतः अनुप्रासः शब्दसाम्यम अनुभावा दैवनिन्दा अनुभावास्तथालेपः अनुभावोऽक्षिसङ्कोचः अनुभावोऽत्र वैवर्ण्यम भनुभूतार्थकथनम् भनुमानं तु विच्छित्त्या
५ सा० भू०
पृष्ठावाः कारिकाः
अनुलेपनभूषाचा ६७६ | अनुवृत्तिः भूतकार्या०
अनेकार्थस्य शब्दस्य
अन्तरैकार्थसम्बन्धः ४१६
| अन्तर्जवनिकासंस्थैः २४५
अन्यदीर्घसमासाख्यम्
अन्यस्त्रियाः प्रगल्भायाः ४७८ अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् | अन्या च विस्तरा सूच्या
अन्यापदेशेनाश्वास १७८ अन्यासक्तं पति मत्वा
अन्योन्यवाक्याधिक्यो.
अन्योऽन्येन तिरोधानम् ४६८
अन्येषामपि दोषाणाम् अन्यैः प्रवर्तितां शश्वत्
अपभ्रंशनिबद्ध ऽस्मिन् १०३२ अपरं तु गणीभूत ४०१ अपवादोऽथ संफेटः
अपायाभावतः प्राप्तिः १३० अपुष्टदुष्क्रमग्राम्य.
अपेक्षित परित्याज्यम् | अप्रतिपत्तिर्जडता १०१ अप्रस्तुतात् प्रस्तुतम्
अभवन्मतसम्बन्धा० ११८ अभिधादित्रयोपाधि०
अभिप्रायस्तु सादृश्य २५८ अभिलाषः स्पृहा चिन्ता
अभिलाषश्चिन्तास्मृति २५५ अभिसारयते कान्तम् २६६
अभेदेन विभावादि० ४७२ अमुना चोत्तमः शेते ९६६ / अर्थप्रकृतयः पञ्च
५९७ ३४२ ४५६ ४२८ ६५८ ४२२
२०. १४४
१६८
७६८
२३१ २३१ ११२२
४२३.
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठाकाः ११७
४३८
७०४
કર૭ १७
२६३
०१५
१८६
४९०
२८२
११०
५२२.
५२३
एम
कारिकाः अर्थव्यक्तिः पदानाम् अर्थव्यक्तिः स्वभावोक्त्या अर्थशक्त्युद्भवो व्यायः अर्थान्तरं संक्रमितम् . अर्थान्तरसंक्रमित अर्थोपक्षेपकं यत्तु अर्थोपक्षेपकाः पञ्च अपंणं स्वस्य वाक्याथे अलक्ष्यवाक्प्रलापः अलौकिकविभावत्वम् अवपातनमित्युक्तम् . अवस्थाभिर्भवन्त्यष्टा अवाचकत्वं क्लिष्टत्वम् अविकत्थनः क्षमावान् अविरुवं तु यद् वृत्तम् अविरुद्धा विरुद्धा वा भविशेषे विशेषश्च अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा अश्रुपातादयस्तद्वद् अष्टादश प्राहुरुप. असत्प्रलापो यद्वाक्यम् असूत्रधारमेकाङ्कम् असूयान्यगुणर्झनाम् असौष्ठवं मलापत्तिः अस्यास्त्रयोदशाङ्गानि भस्योपकरणार्थ तु भलयम्भोज निशायाम्
मा . आकाडता रमणीयः आख्यायिका कथावत्स्यात् आगन्तुं कृतचित्तोऽपि भाच्छादयति वागावैः आतोद्यमिश्रितं गेयम्
दावेव तदाऽस्याद् भादौ नमस्क्रियाशीर्वाद भादौ वाच्यः स्त्रियां रागः आधारकर्मविहिते
मूलोतकारिकाऽनुक्रमणिका पृष्ठाकाः | कारिकाः ७४५ आधिक्यमुपमेयस्यो ७४४
आपाततो यदर्थस्य ३०८
आभीरेषु तथाभीरी २१६ आयुष्मन् रथिनं सूतः
आरम्भयत्नप्राप्त्याशा. ४१२
आरोपाध्यवसानाभ्याम् आलम्बनविभावस्तु आलम्बनस्य चेष्टायाः आवेगः संभ्रमस्तत्र | आशंसनं स्यादाशंसा | आशंसातर्कसंदेह
| आशंसाध्यवसायौ च ६०२ आशीराक्रन्दकपटा० ११४ आशीरिष्टजनाशंसा
भाशीर्वचनसंयुक्ता २२४ माश्रयाश्रयिणोरेक०
६५८ •३७,७१७
| इति पञ्चास्य भेदाः इति भेदास्तु चत्वारः इति साष्टाविंशतिशतम्
इतिहासोद्भवं वृत्तम् ५७६ इदं पुनर्वस्तुबुधैः
इष्टजनावर्जनकृत्तत् २४६
इष्टनष्टानुसरणम् ५५७
इष्टनाशादनिष्टाप्तेः.४१०
इष्टनाशादिभिश्चैते ७११
इष्टाद्धर्षाः शुचोऽनिष्टात ५२७
इष्टानवाप्तेरौत्सुक्यम् १५८
ईया॑मानो भवेत्स्वीणाम्
ईषद्विकासिनयनम् १४२
ईहामृगो मिश्रवृतः उक्तावानन्दमग्नादेः उक्तिवैचित्र्यमानं सा
उक्तैर्विशेषणैः साभिप्रा. ८1८/ उक्त्य नुक्स्योः प्रस्तुतस्य
५३० ४८८
४४
२११ ४०६
४४३
.२५०
२२५
२
५६८
२४२ २५६
४२२
७१४ ८०१
२३७
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांकाः
मूलोक्तकारिकाऽनुक्रमणिका पठांकाः | कारिका
| एकार्थमुपनीयन्ते १०२२ एकोऽपि धर्मः सामान्य
| एतेष्वधिकालज्जानि २८७ | एभिर्दक्षिणपृष्टान २६३ एवं कृताभिसाराणाम् १२६ एषां च त्रैविध्याद् २७६ एषां शब्दगुणत्वं च
एषापि मदनायत्ता
१२४
१२० ७४०
५७५
२८६.
७४८
कारिकाः उक्त्यनुक्स्योर्निमित्तस्य उक्त्वा चात्यन्तमुस्कर्षम् उच्चार्यत्वायदेका उत्तमपात्रगतत्वे उत्तमप्रकृतिर्वीरः उत्तमाः पीठमाद्याः उदात्तनायकं दिव्य उदात्तनायकं तटस्पीठ० उदात्तनायिका मन्द. उदात्तभावविन्यासः उदास्ते सुरते तत्र उदाहरणमुत्कर्ष उदीर्यते यद्वचनम् उद्दीपनानि तच्चेष्टा उद्घात्यकः कथोद्घात उबुद्धमात्रः स्थायी उद्रेकः कस्यचित्क्वापि उन्मादादिर्न तु स्थायी उपदिष्टं मनोहारि उपनायकसंस्थायाम् उपमानानुपादाने उपमेयस्य लोपे तु उपर्यो द्वयोर्वा उपाध्यायेति चाचार्यों उपायादर्शनं यत्तु उपायाभावजन्मा तु उपालम्भविशेषेण उभयोर्भावमुन्नीय उल्लाप्य बहुसंग्राम ऋतुं च कञ्चित्प्रायेग
२१८ १४८
है.
..
१०६
२८५
३०८ १५१
२३
८२६ ।
२८२
ऐश्वर्येण प्रमत्तस्य . १४४
| ओजः प्रसादो माधुर्यम्
कथाशानां व्यवच्छेदः ४०३ कन्या स्वजातोपयमा
करुणादावपि रसे
कलहान्तरिता विप्र.. २८० कलापकं चतुर्भिश्च
कवेः प्रौढोक्तिसिद्धो वा कान्तो रतिगुणाकृष्टः काममङ्गीकृतमपि कार्यकारणयोनिम्न कार्य-कारण-सञ्चारित कार्यदर्शनमुल्लेख: कार्यसंग्रह आदानम्
कार्यस्य करणं दैवा. ५३२ कार्यास्पयोपगमनम् १२७ कार्यारम्भेषु संरम्भः | कार्यों विष्कम्भको नाव्य. कालं प्रवृत्तमाश्रित्य काव्यं ध्वनिर्गुणीभूत
| काव्यमारभटीहीन० ३६० | काव्यार्थस्य सुमुत्पतिः ६०१ | किं ब्रवीपीति यन्नाव्ये २६१ | किञ्च तेषु यदा दुःखम्
| कितवचतकारादि० ५४६ | कुट्टिन्यम्बेत्यनुगतैः
४४४
४६८
२१८
४६६ २२६ ४२२
२१५
एक एव भवेदङ्गी एकधर्माभिसम्बन्धः एकवृत्तमयः पयः एकाङ्क एक एवात्र एकाकश्च भवेदस्त्री
१०
५४७
५४६
Page #69
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________________
कारिकाः
पृष्ठादा
५८. .१५१ ४४६ ७३५
२३८
२११
४०३
कुदालोतरा वाचः कुतोऽपि दवितस्याने कुन्देन्दुसुन्दरच्छायः कुरुते मण्डनं बस्याः कुसुम्भरागं तत्प्राहुः कुसुमवसन्ताथमिधः कृताशा अपि निःश केशस्तनावरादीनाम् क्रिया क्रियाद्रव्याभ्याम् क्वचिदन्न भवेदायाँ क्वचिदन्योन्यसायम् क्वचिद् भेदाद् ग्रहीतृणाम् क्वचिदुक्तौ स्वशब्देन क्वचिदोषस्तु समता . क्वचिद्विशेषः सामान्यात्
क्वापि कुन्तलसंव्यान. , क्षेत्रं वाटी भग्नदेवा०
मूबोतकारिकाऽनुक्रमणिका
पृष्ठा | कारिका: ४४० | चत्वारः पञ्च वा मुख्याः १८० चत्वारः शिल्पकेऽका २७१ चाटुकारमपि प्राण. १५७/चातुर्वण्योपगमनम्
| चित्तद्रवीभावमयः चित्तसंमोह उन्मादः चित्रैर्वाक्यैः स्वकार्योत्थैः चिराय सविधे स्थानम् | चेतःसंमीलनं निद्रा ५५८
| छन्दोबद्धपदं पद्यम् ८६३
जडता हीनचेष्टस्वम् जातप्रायं तु तद्वाच्यम्
जुगुप्सावेगसंमोह. १८३ जुगुप्सास्थायिभावस्तु
जम्भते स्फोटयस्य ज्ञानाभीष्टागमायैस्तु ज्येष्ठानां स्मितहसिते
७४
१७८
२००
२८८
७२०
२३२
११४
२३५ २६७ २६७
१८४
२१८
ख
S
१९४
३६४
खण्डकाव्यं भवेकाम्य. खेदो रत्यध्वगत्यादेः ख्यातेतिवृत्तो व्यायोगः गद्यपद्यमयी राज. गर्भविमर्शरहितं गर्भो यत्र समुभेदः गर्भ सन्धौ विमरों वा गर्वो मदः प्रभावः गुणः स्यादप्रतीतस्वम् गुणाश्चिरन्तनरुक्ताः गुणौ क्रिये वा युगपद् हणंग्रगुणवत्कार्यम्
२५५
७..
५४८ । शटित्यन्यसमाक्षेपे ६०० ५७८ तत्र पूर्व पूर्वरङ्गः ४३५ तत्र प्रियवासाम ४२५ | तत्र व्याजाश्रयं वाक्यम् २०५ | तत्र संकेतितार्थस्य
| तत्र स्याहतुषट्कम् | तत्रायो रसभावादिः तत्रेतिघृत्तमुत्पाद्यम् तथा समासो बहुलः तथैवाङ्गारकारादौ तद्गुणः स्वगुणत्यागा. तदकमुखमिण्याहुः
तद्भावभाविते चित्त ११८ | तद्र पाः सात्त्विका भावाः २३६ | तदष्टधापि प्रत्येकम्
३५ ૨૨ ३०३
७४१
५४८
१०१७
४८०
१०२६ ४२०
चतस्रो वृत्तयो ह्येताः चतुःषष्टिविधं होत. चतुर्वर्मफलप्राप्तिः चतुर्विधोऽपि साम्यस्य . चन्द्रचन्दनरोलम्ब.
१६१
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________________
मूलोककारिकाऽनुक्रमणिका
१५५
२६७
६०२
१२०
३८७
६०२ २२६ ४११
४६७
२२६
६३०
कारिकाः तत्वज्ञानापदीयादेः तनिष्पत्तिः परिन्यासः तपस्विभगवद्विप्र० तर्जनोहजने प्रोक्ता तर्जयेत्ताडयेदन्या तस्कराः पाण्डका मूर्खाः तस्मादलौकिकः तस्मान्न कार्यः वस्याः प्ररोचना वीथी तात्पर्यास्यां वृत्तिमाहुः हुल्यतर्को यदर्थेन ते धीरा चाप्यधीरा तेनार्थमथ पात्रं वा तेनैव चेदुपायेन तेनेव नाम्ना वाच्यो तेनोपमाया भेदाः स्यक्तवौग्रथमरणालस्या त्यागः प्रसिद्धरस्थाने स्यागी कती कुलीनः प्रयाणां वानुपादेन त्रिनालिः प्रथमोकास्याम् त्रिपताककरणान्यान् त्रिशृङ्गारस्त्रिकपटः स्वरया हर्षरागादेः दण्डापूपिकमान्या दण्डे सुहृत्कुमारा० दत्तं किमपि कान्तेन दत्तां सिद्धां च सेनां च दन्तच्छेचं नखच्छेद्यम् दर्शनस्पर्शनादीनि दर्शयन्नतको नैव दाक्षिण्यं चेष्टया दाक्षिण्यानुनयौ माल. दिनावसाने कार्यम् दिव्यस्त्रियमनिच्छन्ती दिव्यमत्य स यद्र पः
पृष्ठांकः | कारिकाः . ११६ | दिव्यत्रीहेतुकं युद्धम् ४३५ दिष्टोपदिष्टे च गुणातिपाव ५७० | दुर्गन्धमांसरुधिर ४६२ दुर्मल्ली चतुरकर १४५ दुःश्रवत्रिविधारलीला.
दूतीसम्प्रेषमैौर्या दूरानुवर्ति स्यात्तस्य दूरावानं वधो युद्धम दूषणोद्घोषणायां तु दृप्तादीनां भवेद् भ्रंशः दृश्यश्रव्यस्वभेदेन दृष्ट्वा दर्शयति ब्रीडाम दोषाः केचिद्भवन्त्येषु दोषेक्षणादिभिर्गही
द्वयों वचनविन्यासः ८२४
द्वात्रिंशद्विधतां यान्ति विगूढ़ रसावभाव्यम् द्वितीयेऽके चतसृभिः द्विधा समासे वाक्ये
देतद्धिते समासेज्य ५८४ ४५ धनुयादिषु शन्देषु ५५० धर्मिगामेकधणेग १७४ धर्मिधर्मगतत्वेन
धाष्टर्थाभावो बीडा 1००६
धीरा दृष्टिगयितश्चित्रा १८१
धीराधीरा तु रुदितैः ४६२
धीरोदात्तो धीरोद्धत.
धीरोद्धतः पापकारी ३६३
ध्यानं चिन्ता हितानाप्तेः २११ १०२ न चातिशोभते यन्ना ११४ नटी विदूषको वापि १०२ न निर्विकल्पकं ज्ञानम् ४१७ | न मुञ्चति च तं देशम् ११४ नरदिग्यावनिवमी ३१७ नर्मगो व्यवहविः
१११
८२५
१६
७१२ १११
२६
१२८
१२५
११४
१८
२२१
२३८ ४०२
128
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७०
मूठोक्तकारिकाऽनुक्रमणिका
पृष्ठांकाः । कारिकाः
कारिकाः
४८१ निष्ठीवनास्यवलन०
नर्म नर्मस्फूर्जः नर्मस्फूर्जः सुखा० नर्मद्युतिः प्रगमनम् नर्म नर्मधु तिश्चैव
निष्पत्या चवर्णस्या
४८२ ४४२ निसृष्टार्थी मितार्थश्च
४४२ | नीतिमार्गानुसृत्यादेः ७१२ | नृणामपि समुद्रादि० ३८ नृपादिजनिता भीतिः ३८८
प
६३० १५४ ४३६
न स्याज्जाती वसन्ते नाटकं ख्यातवृत्तं स्यात् नाटकमथ प्रकरणं 'नाटिका क्लृप्तवृत्ता स्यात् नाटिका त्रोटक गोष्ठी नाटिकैव प्रकरणी नाना कार्यवशाद्यस्याः नानाभिनयसंबन्धान् नानाविधानं संयुक्तः भानावृरामयः कापि भानुमानं रसादीनाम् मानेकादननिर्वर्त्य • मापि भविष्यन् गामास्य सर्वोपाο भायं ज्ञाप्यः भायिका कुलजा क्वापि नामका देवगन्धर्व नायिकानायकाख्याना● निःश्वासोच्छ्वासः बिखिलातोधरहितम् निद्रापगमहेतुभ्यः निन्दाक्षेपापमानादेः निन्दास्तुतिभ्यां वाच्या०
१७२ | पतत्प्रकर्षता सन्धौ ३८८ पताकानायका दिव्याः १६५ पतिर्यथा तथा वाच्या १५६ | पदवाक्यगतत्वेन २२७ पदसंघटना रीतिः ३११ पदांशवर्णरचना० ५६१ पदाघातादशोके ३७२ पदानि स्वगतार्थानि ३६१ पदे पदे मानवती १०५ वद्मगर्भच्छविर्वणः २६३ पद्माथाकार हेतुत्वे परं परं प्रति यदा परकीया द्विधा प्रोक्ता
६२ ७६ ३३३. ७११ ४०३ · १७३
5
१०३ २४६
२७८ ८०७ ३६४ १४७ २१२ २७१
TE
२१३ | वरक्रौर्यात्मदोषाचैः ४४३ परमात्मस्वरूपं वा २४५ परस्य न परस्येति २४२ परिणामो भवेत्तुल्या० २.३ परिपन्थिरसाङ्गस्य २०७ परिसंख्या उत्तरं प्रश्न० २४ परिहार इति प्रोक्तः १७८ | परोढां वर्जयित्वा तु १४६ |पर्यायेण द्वयोरेत० ६२८ पार्श्वमेति प्रियो यस्याः
++ ६७६ १००४
५३६ २२८ ८३७
१५१.
२६६
नियुद्धसम्फेटयुक्तं निर्गुणानपि न द्वेष्टि निर्मात पुनरुत्वम् निर्वेदमोहापस्मार• निर्वेदवाक्यव्युत्पत्तिः निर्वेदहर्ष स्मरणम् निर्वेदावेग दैन्यश्रम ० निर्हेतुता तु ख्याते निश्चिन्तो मृदुरनिशम्
२५६ | पीतद वस्तु लोक० १८६ पुलकानन्दवाप्पाचा:० २७२ | पुष्पं व्रज्रमुपन्यासः १६२ | पूर्व विधायैव
२७८ ४४२ ३६७ ५१२ ७४५ ८६६
. ७०६ पूर्वसिद्धार्थकथनम् ११५ पृथक्पदत्वं माधुर्यम् ३६६ पौर्वापर्यात्यय कार्य ●
विषेधाभास आचेपः
पृष्ठाङ्क:
२६८:
१०८
१२६.
२१४
१२ ४५८
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________________
मूलोतकारिकाऽनुक्रमणिका
कारिकाः
पृष्ठांका
११६
५५३
पृष्ठांकाः कारिकाः ४२६ | प्रियः कृत्वापि संकेवम् ८६६ प्रियाभैरप्रियाक्यैः ४४१ प्रीतिप्रयोजितैलीलाम्
प्रेरणः कुटिलगामित्वात् प्रोत्साहनं च साहाय्यम्
५०
४२४
३६३
१८२
२८६
फलं पृथक्पृथक्तेषाम्
फलस्य प्रथमो हेतुः ३६०
| बहुधा पृच्छयमानापि १०२०
बालानां षण्डकानांच ३६४
बाला प्रबजिता काहः ४१/बीजस्यागमनं यत्तु ११८ | बीजोपगमनं सन्धिः १३२ बोदरस्वरूपसंख्या०
४३८
३६५
४६४
प्रकरी नामकस्य स्यान प्रकृतं प्रतिपिध्यान्य. प्रकृतार्थसमारम्भः प्रख्यातवंशो राजर्षिः प्रख्यातवृत्त मेकाम् प्रच्छेदकस्त्रिगूढंच प्रतिनायकनिष्ठस्वे प्रतीयमानः प्रथमम् प्रत्यक्षचित्रचरितैः प्रत्यक्षनेतृचरितः प्रत्यनीकमशक्तेन प्रत्याहारादिकान्यता प्रत्येक केवलं माला प्रत्येकं स्यान्मिलित्वा प्रथमावतीर्णयौवन प्रपागकरसन्याया० प्रमाता तदभेदेन प्रयत्नस्तु फलावाप्ती प्ररोचना विमर्श स्याद् प्रलयः सुखदुःखाभ्याम् प्रवर्तनं तु कार्यस्य प्रवर्तनाख्यानयुक्ति. प्रवासो भिन्नदेशित्वम् प्रवेशकोऽनुदात्तोक्स्या प्रश्नादप्रश्नतो वापि प्रसिद्धस्योपमानस्य प्रसिद्धिोकसिद्धाथैः प्रस्थाने नायको दासः प्रहर्षः प्रमदाधिक्यं प्राकृतं वचनं वक्ति माकृतनंवभिः पुभिः प्राकृतनिर्मित तस्मिन् प्रागसस्वाद्रसादेनों प्राच्या विदूषकादीनाम् प्रायेण ण्यन्तकः साधिः प्रारब्धादन्यकार्याणाम् प्रारम्भेण समायुक्ता०
५३७
२७६ २६६
२४५ भल
८३२
३८७
४२७ भगवन्निति वक्तव्याः ४५१ भद्रसौम्यमुखेत्येव १६३ भयगौरवलज्जादेः
| भयानकेन करुणेनापि ५२३ भयामको भयस्थायि
। भत्र्सना तु परीवादः ४१६
| भवति क्रियते वा १००४ भवेतां यत्र साम्यस्य १०२१ / भवेत् संभावनोत्प्रेषण ११८ | भवेदभिनयोऽवस्था ५७६ भवेदुत्कलिकाप्रायम् ५३८ भवेद्विरोधो नान्योन्यम् ५४४ भवेयुः पुरसंरोध० ५७४ भाणवत्सन्धिवृत्यगा० ५६३ भाणवरसन्धिसन्ध्यङ्ग. ३६६ भाषिका श्लक्षणनेपथ्या ४६८ भारतीवृत्तिबहुलम् ४६३ भावस्य शान्तावुदये ४८७ भाषणं पूर्ववाक्याच ४३० भाषाविभाषा नियमाः
७२३ ५८०. ५५६
२८१
४७०
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________________
पृष्ठांका
कारिकाः मिन्ने बिम्बानुबिम्बत्वम् भीशोकक्रोधहर्षायः भूषाणामर्धरचना भेदो ध्वनेरपि द्वावु० भ्रूनेत्रादिविकारैस्तु भूविभङ्गौष्टनिर्दश०
२६१
७३६
२६१
५२८ २६८ २०२
१५३ २१५
८४०
१४६
६
२३०
२०५
मूलोक्तकारिकाऽनुक्रमणिका पृष्ठांकाः । कारिकाः
८३० मुख्यार्थबाधे तय कः १२६ मुख्यास्येतराक्षेपः १७८ मुष्टिप्रहारपातन २९५ मूर्ध्नि वर्गान्त्यवर्णेन १६४ मोहामर्षादयस्तत्र २६१ मोहावधीरितार्थस्य
मोहोऽपस्मार आवेगः मोहो विचित्तता भीतिः यः सामान्यगुणोद्रेक यस्किञ्चिदपि संवीच यत्र कस्यचिदारोपः यत्र कस्याश्रिदार्थतव० | यत्र तु रतिः प्रकृष्टा ४१८ यत्राकोऽवतरत्येषः
यत्रार्थानां प्रसिद्धानाम् यत्राथै चिन्तितेऽन्यस्मिन् यत्रैकत्र समावेशा. यत् स्यादद्भुत पत् स्यादनुचितं वस्तु यथासंख्यमनू देश
यथासंख्यमवस्थाभिः २१९ यदाधेयमनाधार १८ पदि प्रयोग एकस्मिन् २३६ यदि श्लेषेणान्यथा
यहेश्यं नीचपात्रंतु
| यत एवालद्वारा ८४७]
यद्वारम्भस्य वैफल्यम्
यन्नाव्यवस्तुनः पूर्वम् ७१० यस्मादुत्पद्यते भीतिः
यस्य हासः स चेत् क्वापि १२७ यावस्प्रसन्नेन्दु.
या श्लक्षणनेपथ्य. ५५८ युक्तवियुक्तदशायाम् १०२३ युक्तिःप्राप्तिः समाधानम् १५) यूनोरकतरस्मिमगतवति ५७५ | योज्यान्यत्र यथालाभम्
२८६
१२२
मङ्गल्यशङ्खचन्द्राब्जा मदमूर्वताभिमानी. मदसंमदपीडाद्यैः मदस्खलितसंलापा. मधुरस्वरं विहसितम् मध्याप्रगल्भयोझेदाः मध्या विचित्रसुरता मध्येन मध्यमाभ्यां वा मनःक्षेपस्वपस्मारः मनश्चेष्टासमुत्पन्नः मन्त्रार्थदेवशक्स्यादेः मन्त्री स्यादर्थानाम् मन्यते बहु तच्छीलम् महत्मानो वधप्राप्ता. महापुरुषसझाय: मात्सर्यद्वेषरागादेः माधुर्य नर्मविज्ञानम् मानः कोपः स तु धा मायापरः प्रचण्ड मायेन्द्रजालसंग्राम. मालाकेवलरूपस्वात् माला स्याबदभीष्टार्थ मालिन्यं ज्योम्नि पापे मालोपमा यदेकस्य मितार्थभाषी कार्यस्य . मिथोऽनपेक्षयैतेषाम् मिथो वाक्यमसद्भूतम् मीलितं वस्तुनो गुतिः मुक्तात्मश्लाघना धैर्यम् मुखनिर्वहणे सन्धिः
४०८ ४७४ ४१६
११०
२७॥
११५
१८ ३६१
१०४७
२५७ १०७ ४८० २७५ ४३४
४०
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________________
कारिकाः योषिरसखीनाल. यौवने सत्वजास्तासाम्
मूलोक्तकारिकाऽनुक्रमणिका पृष्ठानमः | कारिकाः
| लोकातिशयसम्पत्ति १६२
लोकोत्तरचमत्कार
पृष्ठांकाः १०३६
५००
६९७ १७६ • ७४
४११ १९२ ४७६
२०२ २८२ २६२
रजप्रसाद्य मधुरैः रतिर्मनोऽनुकलेऽथे रतिर्हासश्च शोकाच रत्यायासमनस्ताप रत्यादयोऽप्यनियते रत्यादिज्ञानता० रत्याधु बोधका लोके रम्यवस्तुसमालोके रसभावौ तदाभासौ 'रसवस्प्रेय ऊर्जस्वि रसव्यक्तिमपेक्ष्यैषा रसस्यानित्वमाप्तस्य. रसानुगुणतां वीचय रसापकर्षका दोषाः रसोऽत्र करुणः स्थायी रहस्यार्थस्य भेदः रागप्राप्तिःप्रयोगस्य राजर्षिभिर्वयस्येति राजर्षिरथ दिव्यो वा राजविद्रवजादेस्तु रासकं पञ्चपात्रम् रूपकं रूपितारोपाद्वि० रौद्रः क्रोधस्थायिभावः रौद्रस्तु हास्यश्चमार०
३३
४१२
५५८
२४
४७५
४०१, वक्तरि क्रोधसंयुक्त २२५/ वक्तव्यकालेऽप्यवचः २२५ | वक्तृबोम्यवाक्यानाम् २२० वचः सातिशयं श्लिष्टम् २२३ वपुजलोद्गमः स्वेदः १०६ वरप्रदानसंप्राप्तिः ११२ वर्णानां प्रतिकूलत्वम् १७६ वर्णनाऽक्षरसंघात. १०३७ वर्णनात्र श्मशानादेः १०३७
वर्णनीया यथायोगम् ४७४
वर्णमात्रादड्डलिका ७३४ वर्णाः पदं प्रयोगाई. ४७७
वसन्तादिषु वर्ण्यस्य वस्वलकाररूपत्वात् | वाक्केल्याधिवले ४५६ | वाक्यं रसात्मकम्
वाक्यं स्यायोग्यता वाक्ये शब्दार्थशक्स्यु. वाग्वेशयोमुधुरता
वाच्येवादिप्रयोगे स्याद् ५७८ वाच्योऽर्थोऽभिधया ३६ वाच्यौ नटीसूत्रधारा २६० विकारान् सास्विकानस्य २७६ | विकृतं तु विदुयंत्र
विकृताकारवाक् चेष्टम् ७३ विकृताकारवाग्वेप० ४३० | विचारो युक्तिवाक्यैः ७६० विचित्रोज्ज्वलवेषा तु ५८२ विच्छिन्नावान्तरैकार्थः ५.1 वितर्कावेगसंभ्रान्ति ५४१ | विनयावादियुक्ता १६३ विभावनादिव्यापार ५०२ विभावना विना हेतुम् ११० | विभावादिपरामर्श
३.
१३३
१९७
३४
१८५
२५५ २५५ ५० १५३
लक्षणोपास्यते यस्य लषयालय इवोझेदः लाटी तु रीतिवैदर्भी लाभविस्मुनिसंफेटा० लास्यानानि दश कांस्ये दशविधम् लीला विलासो विच्छित्तिः लेशो मनोरथोऽनुक्त. लोके यः कार्यरूपः
.२७०
१३२
१०६
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________________
७४ कारिकाः विभावेनानुभावेन विलासान्वितगीतार्थम् विलासालस्यवाष्पाणि विवक्षिताभिधेयोऽपि विशेषस्तु विलासः स्याद्
OF ७६४ ३०४
७८२ २
४८१
१६३
11
विशैषा इति चत्वारः विशेषार्थीहावस्तारः विषादम दोषार्थ : विस्फारश्चेतसो यस्तु विहितस्यानुवाद्यत्वे विहृतं तपनं मौग्ध्यम् वीथ्यङ्गानि च तत्र ateयामेको भवेद्रः वीरवीभत्सरौद्रेषु वृत्तं बहूनां धृष्टानाम् वृशं समवकारे तु वृत्तयः कैशिकीहीनाः वृरावर्तिष्यमाणानाम् वृत्तीनां विश्रान्तेः वैदर्भी चाय गौडी च वैयाकरणमुख्ये तु
मूलोककारिकाऽनुक्रमणिका पृष्ठांकाः । कारिकाः ८३ | शब्दार्थयोः पौनरुक्त्यम्ं २४५ शब्दार्थयोरस्थिरा ये २८२ शब्दार्थो भयशक्त्य • ३०२ | शब्दैरेकविधैरेव १७० | शरदिन्दुसुन्दररुचिः शरा मरणं जीव० ५२१ | शान्ते च हीननिष्ठे शान्ते जुगुप्सा कथिता २२६ शापार्थः सान्तरायश्च ७०४ | शिष्योऽनुजश्च वक्तव्यः १६३ | शुद्ध गानं गेयपदम् ५५० शुद्धो निश्चयगर्भोऽसौ २५७ शुश्रूपादिः प्रसादः ७३८ | शूरता दक्षता सत्यम् ५७१ शृङ्ग हि मन्मथोद्भेदः ५४१ शृङ्गारवीरशान्तानाम्
२०६. २८६ २२४ ४३२४६२*r ८१८ ४७४ १२८. २२८
.
शृङ्गारहाम्यकरुण०
२२८.
२५३
४१८ | शृङ्गारबहुलैकाङ्का शृङ्गारवीर रौद्राख्य० ७५७ शृङ्गारे कौशिकी वीरे
१८३ २७६
३१८
४८०
२७३
७०७
शृङ्गारेण तु बीभत्स० १३२ | शृङ्गारेऽस्य सहायाः
१२१
म प्रलयः वैशिष्टचादन्यमर्थम् व्यङ्गयस्य गूढागूढत्वाद्
७४ शृङ्गारोऽङ्गी नायकस्तु ५६ शोकस्यायितय भिन्नः ७७३ शोकोऽत्र स्थायिभावः
२४६. २६० २५८ १६२ १६५
४६१ शोभा कान्तिश्च दीप्तिश्च ५६४ शोभा प्रोक्ता शैव कान्तिः १०३० | शोभा विलासो माधुर्यम्
व्यजनं चेद्ययावस्थम् व्यवसायश्च विज्ञेयः व्याख्यानं स्वरसोक्तस्य व्याजोक्तिर्गोपनं व्याजा० व्याधिज्वरादिर्वातार्थ: व्यापारोऽस्ति विभावादेः व्यापि प्रासङ्गिकं वृत्तम् व्याहारो यत्परस्यार्थे व्रज्याक्रभेण रचितः
२१४ | शौर्यापराधादिभवम् ६५ | श्रवणं तु भवेत्तत्र
१२७ २०१ २३१ २३०
४२५ श्रवणादर्शनाद्वापि ५६७ श्रीचन्द्रशेखरमहाकवि ० ५६५ श्रीरासीना श्रीगदिते नौती यथेववाशब्दाः ४६७ : श्लिष्टरलक्षणचित्तार्था ४६८ : श्लिष्टैः पदैरनेकार्था०
८० श्लेषो विचित्रतामात्र म्
श शकादयश्च संभाष्याः शवराणां शकादीनाम शब्दबोध्यो व्यनक्त्यर्थः
पृष्ठांक
५६०
१०५६ २८१
८१२:
१.३
७८३
७५०
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर
मूलोककारिकाऽनुक्रमणिका
प्रष्ठांकाः | कारिकाः
कारिकाः इलेषाद्विभक्तिवचन
पृष्ठांका
५४६.
७४.
१८७.
८४४
४२६
७१८ ७५८ १२७. ४०६ ११४
२१२
४८ ११०
१२१
४पर १०२९
३५०
७८१
सन्धी द्वावन्स्ययोस्तद्वत्
सप्ताष्टनवपञ्चाम् १०॥
स प्रसादः समस्तेषु समं स्यादानुरूप्येण
समर्पणं निवृत्तिश्च VER समस्तु वस्तु विषयः
समापनं तु यस्सिय समाप्तपुनरात्तत्वम् ममासबहुला गौड़ी समासोक्तिः समैर्यत्र समाश्रित्यापि कर्तव्य
समुच्चयोऽयमेकस्मिन् ५४७ सम्प्रवतेत नेतास्याम्
सम्फेटस्तु समाधातः सम्भवन् वस्तुसम्बन्धी सरोपा स्यान्निगीर्णस्य सर्वश्राव्यं प्रकाशम् सर्वावस्थाविशेषेषु स लेशो भण्यते वाक्यम् सविकल्पकसंवेद्यः सहर्षा सुद्र कारा सहसैवार्थसंपत्तिः
सा चेयं व्यम्जना नाम १८३
सादृश्येतरसंबन्धाः साधम्येणेतरेणार्था
साधो इति तपस्पीच ५७४ २६३
साध्यतेऽभिमतश्चार्थ
सा पूर्णा यदि सामान्य | सामदानार्थसंपन्नः ७७७ | साम भेदोऽथ दानं च
सामादौ तु परिक्षीणे ८५ सामान्यं वा विशेषण २१३ सा वृत्तिय॑जना ११०. सा सहोक्तिमूलभूता ६५८ साहाय्यं सङ्कटे यत्स्यात्
सिद्धत्वेऽध्यवसायस्य २८० । सुकुमारतयानानाम्
षट्त्रिंशल्लसणान्यत्र पग्णालिकस्तृतीयस्तु संक्षिप्तिः स्थान्निवृत्ती संक्षेपो यत्तु संक्षेप संख्यातुमशक्यतया संग्रहश्वानुमानं च संदिग्धप्राधान्यं तु संध्यासूर्येन्दुरजनी० संपादयतां संध्यगम् संबोधनोक्तिप्रत्युक्ती संभोगविप्रलम्भौ च संभोगहीनसंपविट० संयुक्ता वधवधायः संलक्षितस्तु सूचमोऽर्थः संलापकं श्रीगदितम् संलापके वाचस्वारः संलीना स्वेषु गात्रेषु संशयोऽज्ञाततत्त्वस्य संस्कृतं संप्रयोक्तव्यम् संहार इति च प्राहुः सखीमध्ये गुणान् ब्रते सरेण त्रिरूपेण सट्टकं प्राकृताशेष० सम्चारिणस्तु एतिमति. सन्चार्यादेविरुद्धस्य सति हेतौ फलाभावे सत्यर्थे पृथगाया: सस्वमात्रोद्भवस्वात्त सत्वोद्रेकादखण्डस्व. सहमज्ञानचिन्तायैः सदशः क्षत्रियो वापि सन्दिग्धपुनरुत्वे सन्धिविबोधो ग्रथनम् सन्धिः शबलता चेति
२८०
४८९
३८६
५८७
१५३
१७५
५०४. ८२ ४५४ २४३ २४४
१११
६४ १२२ ५३३ ८६४
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________________
७६
-कारिकाः
मूलोक्त कारिकाऽनुक्रमणिका
पृष्ठांकाः / कारिकाः
३८१ स्मितशुष्क रु दिवह सिवनास० स्वात्पर्युपासनं पुष्पम्
६१६
सुखदुःखसमुद्भूतिः सुरतारम्भगोष्ठ यादा • सुरापानसमायोगा सूचयेद्भूरि शृङ्गारम् सूत्रधारस्य वाक्यं वा सूत्रधारो मारिषेति
-सोपालम्भवचः कोप०
सौरसेनी प्रयोक्तव्या स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमान्चः स्त्रीवेषधारिणां पुंसः
-स्थाप्यतेऽपोद्यते वा
स्थिता दृष्टिपथे शश्वत् स्नानानुलेपने चैभिः स्फुटं चमस्मारितया
स्मरान्धा गाढतारुण्या
१७६ स्यादन्तःपुरसम्बद्धा० २१७ | स्वप्नो निद्रामुपेतस्य
४०४
स्वभावजावच भावाद्याः
४९४ स्वाभाविकः कृत्रिमश्च
१८६ | स्वेच्छया नामभिर्विप्रैः
४६७
२७० |हल्लीश एक एवाङ्कः
५४३
हावहेलान्वितं चित्रः
६
१८३
३६२
२७७ | हेतुसंशयष्टान्तः ३८१ / हेलात्यन्तसमालच्य०
होना गर्भविमर्शाभ्याम्
हेतुत्वं शोकहर्षादे:
पृष्ठांकाः
૧૦૨
४४७
२७२
२०४
१६३
२११
४६४
१८२
५४४
५७४
१
२०१
१६४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका
पृष्ठाङ्काः | प्रतीकाः अनुरागवन्तमपि
प्रतीकाः अ
अकलङ्कं मुखं तस्याः अकस्मादेव तन्वङ्गी
अङ्गानि खेदयि
अचला अबला वा स्युः
अजस्य गृहतो जन्म अजायत रतिस्तस्याः
अतिगाढगुणायाश्च अथ निमज्जइ
अत्युन्नत स्तनयुगा अत्रान्तरे किमपि अत्रासीत्फणिपाश० अत्रास्मार्षमुपाध्याय ०
अथ तत्र पाण्डुतनयेन
अद्य प्रचण्डभुजदण्ड० अद्यापि देहि वैदेहीम् अद्यापि स्तनशैलदुर्ग • अधः कृताम्भोधरमंण्ड० अधरः किसलयरागः
अधरे करजक्षतं मृगाच्याः अध्यासितुं तव चिरात्
अनङ्गमङगलभुवः अनणुरणन्मणिमेखलम् अनलंकृतोऽपि सुन्दर ! अनन्यसाधारणधीः अनन्वये च शब्दैक्य ०
अनातपत्रोऽप्ययमत्र
अनायासकृशं मध्यम् अनुयान्त्या जनातीतम् अनुरागवती संध्या
१६ | अनुलेपनानि कुसुमानि अन लोकगुरुणा
१८०
अनेन चिच्छन्दता मातुः
२१६
६६५
अनेन पर्यासयताश्रु० अन्तःपुरीयसि रणेषु
३७६
अन्तरिछद्राणि भूयांसि
६७८
६२०
अन्तिकगतमपि मामिय अन्यदेवाङ्गलावण्यम्
१६
३४०
अन्यासु तावदुपमर्दसहासु
अन्यास्ता गुणरत्नरोहण ०
अप्राधान्यं विधिर्यत्र
अप्रियाणि करोत्वेष
१७०
५३५
७०८
२२७ | अभ्युक्षता पुरस्तादवगाढा
अमितः समितः प्राप्तैः
५६२
अमुं कनकवर्णाम्
५३५
६५५ अमुक्ता भवता नाथ !
१०३६ | अयि ! मयि मानिनि !
२०६ | अयमुदयति मुद्रा० ६६७ | अयं मार्शण्डः किम् ?
५६३ अयं रत्नाकरोऽम्भोधि० ७३७ । अयं स रशनोत्कर्षी
६६३
अयं सर्वाणि शास्त्राणि १४५ | अरविन्दमिदं वीच्य
३२६
अरातिविक्रमालोक० अरुणे च तरुणि ! १०३२|| अर्घ्यमर्घ्यमिति
६८३७
६७४ | अलमलमतिमात्रम्
२०४ | अस्थित्वा श्मशानेऽस्मिन्
१०४६ | अलिभपसुत्तभ
पृष्ठाङ्काः
६६४
६०२
३४६
६४४:
७७
८१६.
६१२:
१८६
८६७
२२०
६३७.
६१२:
४७०.
४४३
३०७
३३२
६११
६३६
७६०
८१६
६८२
३४३
७८६
६३८
८२७
१०१७
१३७
४११
३३१
२३६
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________________
७८
उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका
प्रतीकाः अलिकुल मन्जुलकेशी - अविदिगुणापि भणितिः अविरलकर वालकम्पनैः अव्यूढाङ्गमरूढपाणि० अशक्नुवन् सोढुमधीर०
अश्रच्छलेन सुदृशः अश्वत्थामा हत इति असमाप्तजिगीषस्य असावन्तश्चन्चद्विकच० असंसृतं मण्डनमङ्गयष्टेः
६२८
H
पृष्ठाङ्काः । प्रतीकाः ५६६ | आसमुद्र क्षितीशानाम् ६०८ आसादितप्रकटनिर्मल १०४० आसीदज्जनमत्रेति ७४७ | आहवे जगदुद्दण्ड ! २६० आहारे विरतिः समस्त० ८८७ आहूतस्याभिषेकाय ४५१ | आहूतेषु विहङगुमेषु इ-ई ११ | इति गदितवती रुषा १६५ | इति यावत्कुरङ गाती २२४ | इत्थमाराध्यमानोऽपि ११८ इदं किलाभ्याज० ५२१, ५६२ | इदं वक्त्रं साक्षात् ८६७ | इदमाभाति गगने १०२३ | इन्दुर्लिप्त इवान्जनेन १२८ इन्दुर्विभाति कर्पूर० | इन्दुर्विभाति यस्तेन
असंशयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा अस्माकं सखि वाससी अस्य वक्षः क्षणेनैव अस्याः सर्गविधौ अहमेव गुरुः सुदारुणानाम् अहमेत्र मतो महीपतेः अहि अओअर
ग
१०५५
आ
आकृष्टि वेगविगलद्ο
इन्द्रजिरचण्डवीर्योऽसि १४८ | इयं स्वर्गाधिनाथस्य इह पुरोऽनिल कम्पित•
१०२
आक्षिपन्त्य र विन्दानि आचरति दुर्जनो यत्
इहैव त्वं तिष्ठ द्रुतम्
७१७
ईससे यत् कटाक्षेण
६६६
आज्ञा शक्रशिखा० आत्मा जानाति यत्
उ ऊ
उअ णिच्चल निष्पन्दा
आदाय बकुलगन्धान् आदित्योऽयं स्थितो मूढाः
७६६ ३३२
उत्कृत्योत्कृत्य कृत्तिम् उत्क्षिप्तं करकड कणद्वय०
३८१
आनन्दममन्दमिमम् श्रानन्दयति ते नेत्रे आनन्दयति ते नेत्रे योऽधुना
६.१७
उत्तिष्ठ दूति ६१६ | उत्फुल्लकमलकेसर ०
आनन्दाय च विस्मयाय आनतिस्पsat आपतन्तममुं दूराद् आपांतर भोगे आमीलितालसविवर्त्ति० आवर्त एव नाभिस्ते
४८५ उत्साहातिशयं वत्स ६७४ उदन्वछिन्ना भूः ३२१ उदेति सविता ताम्रः ६७१ उदेति पूर्वं कुसुमं ततः १०३८ उerates fear o
आशीः परम्परां वन्द्याम् आश्लिष्टभूमिं रसितारमुच्चैः
६७० उद्यत्कमललौहित्यैः ६०६ | उन्नमितैकभ्रूलत० २०५ | उन्मज्जज्जलकुञ्जरेन्द्र •
पृष्ठाङ्काः
६११
३६६
१०३३
८४१
३३५
१३०
६६१
१६१
५८
६६१
२०७
१२४
१०५०
६४६
६४१
६२२
५३१
२०१
८०२
६३
६४३
७६ २६८
१५२
१५६
२४१
४४०
६५१
६४६
५२२
४१४
६१६
४१४
७४२
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________________
पृष्ठाकाः
६०७ २२२ २३७ १८६
६६६
६३३
.६३४
५५४ ६८५ ११२ २०१८ १६८
४४३ २८८
८७० ६४८
उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका प्रतीकाः
पृष्टाकाः प्रतीकाः उन्मीलनमधुगन्धलब्धम
७७१ | कमले चरणाघातम् उन्मीलन्ति नखैलुनीहि । ११८
कमलेण विअसिएण उपकृतं बहु तत्र किमुच्यते
| कमलेव मतिर्मतिरिव उपदिशति कामिनीनाम्
करमुदयमहीधरस्तनाग्रे उय॑सावत्र ताली
६४० करिहस्तेन सम्बाधे उवाच मधुरां वाचम्
कर्ता चूतच्छलानां उवाच मधुरं धीमान्
| करखण्ड इव राजति उरुः कुरङ्गकदृशः
८७६ | कलयति कुवलयमाला०
कलुषंञ्च तवाहितेष्वकस्मात् एकं ध्याननिमीलनात्
कस्स व ग होइ रोसो एकः कपोतपोतः
कानने सरिदद्देशे एकस्मिन् शयने पराङ मुखतया कामं प्रिया न सुलभा एकस्येव विपाकोऽयम्
कान्तास्त एव भुवन० एकत्रासनसंस्थितिः
कान्त तथा कथमपि एतद्विभाति चरमाचल.'
काप्यभिख्या तयोरासीद् एवमुक्तो मन्त्रिमुख्यैः
काyि यातु तन्वङ्गी एवंवादिनि देवर्षों
कालरात्रिकरालेयं एष दश्च्यवनं नौमि
कालान्तककरालास्यम् एष मूत्तों यथा धर्मः
काले कोकिलवाचाले एसा कुडिलघणेण
२२८
काले वारिधराणाम् एसो ससहरबिम्बो
कालो मधुः कुपित एष च . ऐन्द्रं धनुः पाण्डु
का विसमा देव्वगई ऐशस्य धनुषो भङ्गम्
किरोषि करोपान्ते ओ औ
किं रुद्धः प्रियया कथा ओवट्टा उल्लट्ट
किं शीकरैः औत्सुक्येन कृतत्वरा
किं तारुण्यतरिरोयम्
कि तावत् सरसि कटाक्षणापीषत् ..
१०५४
कि भूषणं सुदृढमत्र
किमधिकमस्य ब्रूमः कटिस्ते हरते मनः
किमाराध्यं सदा पुण्यम् कथमीले कुरङ्गाक्षीम्
किरणा हरिणाङ्कस्य कथमुपरि कलापिनः
किसलयमिव मुग्धम् कदली कदली करभः
२९७
कुजं हन्ति कशोदरी कदा वाराणस्यामिह
२७६ कुपिताऽसि यदा तन्वि! कपोलफलकावस्याः
'८७८ कुमारस्ते नराधीश कपोले जानक्या:
कुर्या हरस्यापि कमलालिङ्गितस्तार . . ६८६ | कुर्वन्तवाता हतानाम्
६८०
७८१
१००८ २८९
१५८
९६० १००४
२३३
१००५ ७८२ २२१ ६२६ १६६
४६३
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________________
उदाहृतको काऽनुक्रमणिका
प्रतीकाः कूजन्ति कोकिलास्साले
कृतप्रवृतिरन्यार्थे कृतमनुमतं दृष्टं वा
७७३
घ
११ घटितमिवाञ्जनपुञ्ज : १२१ घोरो वारिमुचां रवः
४०४
कृत्वा दीननिपीडनम् कृष्ट केशेषु भार्या केद्रमास्ते क वा प्रामे के यूयं स्थल एव केयूरायितमङ्गदैः केशः काशस्तवकविकासः कोsa भूमिवलये. कोकिलोऽहं भवान् काकः करग्रहः स केतुः क्वचित्ताम्बूलाक्तः क्व वनं तरुवल्कलभूषणम् क सूर्यप्रभवो वंशः काकार्य शशलक्ष्मणः क्षात्रधर्मोचितैर्धमैः . चिपसि शुकं घृषदंशक० चिप्तो हस्तावलग्नः क्षीणः क्षीणोऽपि शशी क्षीरोदजावसतिजन्मभुवः क्षेमं ते नम्र पचमलाति
च १३६ चकोर्य एव चतुराः १८६ चक्राधिष्ठिततां चक्री
१५ | चञ्चद्भुजभ्रमित० २१३ | चण्डाल इव राजाऽसौ
H
५०७ चण्डीशचूडाभरण ११६ ७२६ १२०
चन्द्रं मुञ्च कुरङ्गाचि ! | चन्द्रमण्डलमालोक्य | चन्द्रायते शुक्लरुचापि
६०६ चरणपतनप्रत्याख्यानात् २५३ चरणानतकान्तायाः
ख
ख़ड्गः क्ष्मासौविदल्लः
८४८
चलण्डामरचेष्टितः चलापाङ्गां दृष्टि स्पृशसि
ग
चारुणा स्फुरितेनायम्
गङ्गाम्भसि सुरत्राण । गच्छ गच्छसि चेत् कान्त !
८७७ चिन्तयन्त्री १७३ | चिन्ताभिः स्तिमितं मनः
६४७ चिररति परिखेदप्राप्त० ६३२
चित्रं चित्रमनाकाशे ४८४ चिरं जीवतु ते सूनुः
गच्छामीति मयोक्त या गता निशा इमा वाले मनमल शून्या दृष्टि गर्दभति श्रुतिपरुषम् गाङ्गमम्बु सितमम्बु गाढकान्तदशनचतव्यथा गाढालिङ्गनवामनीकृत कुच •
८२४
१०२७
ज जइ संहरज्जइ ३११ जन्तुविसं घृतविकाशि०
७१४ जगाद वदनछद्म ०
गाण्डीवी गाम्भीर्येण समुद्रोऽसि
६२६ जघनस्थलनद्धपत्रवहली ८६८ जनस्थाने भ्रान्तम्
८०
पृष्ठाङ्काः | प्रतीकाः ८१० गीतेषु कर्णमादते ६१.६ | गुरुपरतन्त्रतया बत २६२ | गुरुतर कलनूपुरानुनादम् २२६ | गुरोर्गिरः पञ्चदिनान्यधीत्य ४६० | गृहिणी सचिवः सखी १७८ | गृहीतं येनासीः ७८० | गृह्यतामर्जितमिदम् ८० | प्रश्नामि काव्य शशिनम्
पृष्ठाङ्काः
६०८
७८
१७२
२५७.
६६१
६६४.
४५२
६८४.
प
६५२
६०७
६६६.
४३६
६८१
६७.
६१६.
६७७
८३३.
२६२
६४८
६४०
३३३
१२०
३२८.
२४६
२०३
७०५
६६१.
५१०
६३१
१०२६
२८६
३४४.
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________________
प्रतीकाः जन्मेन्दोविमले कुले जन्मान्तरणरमण
जन्मेदं बन्ध्यतां नीतम् जल के लितरलकरतल०
जसरणन्ते उरए जाता लज्जावती मुग्धा
जानीमहेऽस्या हृदि जीयन्ते जयिनोऽपि
जुगोपात्मानमत्रस्तः ज्ञानीतिर्मनसि ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ
ज्योत्स्ना इव सिता
ज्योत्स्नाचयः पयः पूरः ज्वलनु गगने रात्रौ
प
वरितं जुअजुअलं
त ततश्चचार समरे
तत्पश्येयमनङ्गमङ्ग
तदङ्गमादेवं द्वदुः तदवितथमवादीर्यन्मम
तदप्राप्तिमहादुःख० तद्गच्छ सिद्ध कुरु
agri यदि मुद्रित तद्विच्छेदकृशस्य द्वेषोऽसदृशोऽन्याभिः
तनुस्पर्शादस्यादर तन्वङ्गथाः स्तनयुग्मेन तव कितव किमाहितैः
तव विरहे मलयमरुत् तव विरहे हरिणाक्षी तवास्मि गीतरागेण तस्य व
तस्या मुलेन सदृशम् तस्यास्तद्र सौन्दर्य तह ते झति पत्ता
६ सा० भू०
उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका
पृशङ्काः ४६२
१०४१
६१४
३७६
३१
६७८
प्रतीकाः
तां जानीथाः परिमितकथाम्
तामिन्दुसुन्दरमुखीम्
तामुद्वीच्य कुरङ्गाक्षीम्
तारुण्यस्य विलासः
२०१
तिष्टेत् कोपवशात्
तीर्थे तदीये
तीर्णे भीष्ममहोदधौ
६६६
४८८ | तीत्राभिपङ गप्रभवेण
६१३ तृष्णापहारी
४६२ | ते हिमालयमामन्त्रय
८०७
६६०
६४३
१६६
त्यागः त्रस्चन्ती - विभागशेपासु निशासु त्वया तपस्विचाण्डाल
त्वद्वाजिरा जिनिधू त० त्वया सा शोभते तन्वी त्ययि दृष्टे कुरङगाच्याः ६६७ | स्वयि सङगरसम्प्राप्ते १२ वामस्मि वच्मि विदुषाम् स्वामामनन्ति प्रकृतिम् ३०३
द
१४०
दत्ते सालसमन्थरं भुवि
३२८
१०२१
६२३ | दत्वा कटाक्षमेणाक्षी दत्वाभयं ३६७ | दधद्विद्युल्लेखामिव ६१२ | दन्तप्रभापुष्प चिता दलति हृदयं
१६३
८७ | दलिते उत्पले एते
१६० | दशाननकिरीटेभ्यः ३७१ दानं विसाहतं वाचः ७८ दाता
४०० | दिङ्मातङ्गङ्गघटा विभक्त० १००३ दिन में स्वयि सम्प्राप्ते ८२३ | दिवमप्युपयातानाम् १६८ दिवाकराद्वक्षति
१६५ दिवि वा भुवि वा
८१
पृष्ठाङ्काः
१५६
६२१
६७७
१६३
७१२
६५३
४६७
२०२
५१२
६५०
२६४
१८०
२३४
५२७
२८३, ६६३
६६०
६०६
६६५
३२२
७०२
१३४
१००३
५१६
-४७१
३३४
४६२
६३६
३१४
६०३
८४७
७१६
६०८
९६१
६८६
२८३
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________________
पृष्ठाचा १०१८
२०६
न
१६० १५२
३३१
२०७
१७७
६.३
प्रतीकाः दिशि मन्दायते दीधीदेवीट्समः कश्चित् दीपयन् दीयतामजितं विचम् दीर्घा शरदिन्दुकान्ति दुगोललितविग्रहः दुल्लहवाणुरामो दूरं समागतवति दूरागतेन कुशलम् दृशारिविजये राजन् ! इशा दग्धं मनसिजम् दृश्येते वन्दि ! यावेतो दृष्टा दृष्टिमधो ददाति दृष्टिं हे प्रतिवेशिनि ! दृष्टिस्तृगीकृतजगत्त्रयः दृष्टया दृष्ट्वैकासनसंस्थिते देवः पावादपायान्न देशः सोऽयमराति. देहि में दोर्दण्डाधिवचन्द्र इयं गतं सम्प्रति द्वीपादन्यस्मादपि
१०१२
६८९
२९९
६१२
१२६ ३१२
उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका
पृष्टांकाः । प्रतीकाः ___३१० धुनोति चासिम्
७०७ / घृतायुधो यावदहम् ३१७ १०१३
न खलु वयममुष्य न च मेऽवगच्छति न चेह जीवितः
न तज्जलं यत्र १०१ न तथा भूपयत्यङ्गम्
नधते शिरसा गङ्गाम्
न ते परुषां गिरम् ७७२ | नमयन्तु शिरांसि ५२१ | न मे शमयितानेऽपि १३४ नयनज्योतिषा भाति
नयनयुगासेचनकम् नवजलधरः मनदोऽयम
नवनखपदमजम् १४६
नवपलाशपलाशवनम् १०४० नष्टं वर्षवरैर्मनुष्यगणना.
नाभित्रभिवाम्बुरुहासनेन ६५६ नाशयन्तो धनधान्तम्
नाहं रतन
निजनयनप्रतिबिम्बैः ३६६ | निरर्थकं जन्म गतम्
निर्माणकौशलं धातुः निर्वाणवैरपहनाः निर्वीर्य गुरुशापभाषित. निःशेषच्यतचन्दनम् निसर्गसौरभोद्धान्त | निश्वासान्ध इवादर्शः निहताशेषकौर-य:
मीनानामाकुलीभावम् ३१४ ने खञ्जनगलने ६. नेरिवोत्पलैः पद्मः ६२५ नेदं नभोमग्दुलमाबु ३॥ नो चाटु श्रवणं कृतं न च ६३२ न्यारो ह्ययमेव मे..
७७.
१२५
५३२
६४१
६४६
४६६ ७५३
६५७
४०१ ११७
१०६
१३३
१५०
२६६
धनिनोऽपि निरन्मांदा धन्यः स एष धन्यासिया कथयसि धन्यासि वैदर्भि ! गुगैः धन्याः खलु वने नाताः धम्मिल्लमर्धमुक्तम् धम्मिल्लस्य न कस्य धम्मिल्ले धवलयति शिशिररोचिपि धातुमत्ता गिरिधत्ते धिन्वन्स्यमूनि .. धीरो वरो नरो याति
७८८
३.
८६६
Page #84
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________________
पृष्ठांकाः
५१५ १७६ २४८
४५८ २०८
७१
८६४
५६८
રૂર
६३८
उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका प्रतीकाः
पृष्टाङ्काः ! प्रतीकाः
प्रसाधय पुरी लकाम पणअविआण दोन्हवि २४० प्रसाधिकालान्वितमग्र. पद्मोदयदिनाधीशः
८४१ प्रस्थामं बलयैः कृतम् पन्थि ण एत्थ
३०५ प्रागेव हरिणाक्षीणाम् पन्यिव पिआसिओ
1८७ ! प्राणप्रयाणदुःखार्त०. परोपकारनिरतः
१६५ प्राणेशेन प्रहितनखरे परिवदियकृषिणाम्
प्रातिभं त्रिसरण गतानाम् परिसरन्मीनविष०
२२५ प्राप्तायकरथारुढी पच्छन्तौ परिहरति रति मतिम्
६७६ प्रायश्चित्तं चरिष्यामि पर्वतभेदिपवित्रं जैत्रम
प्रायेणैव हि दृश्यन्ते पल्लवोपमितिसाम्य
प्रिय इति गोपवधूभिः पल्लवाकृतिरकोष्ठी
प्रियजीवितताक्रौर्यम् पश्यन्न्यसंग्यपथगाम् ३२६, ६६३ प्रेमादाः प्रणयस्पृशः पश्यामि
५२६ प्रज्ज्वलज्ज्वलनज्वाला. पश्येत् कश्चिमचल चपल रे!
१०४२ गणिः पल्लयपेलवः
बलमार्त्तभयोपशान्तये पागिरोधमविरोधित
अलावलेपादधुनापि पाण्डवानां सभामध्ये
बालभ ! गाहं दूदी पाण्टु नामं वदनं हश्यम्
बाले ! नाविमञ्च पादाघातादशोकस्ते
। वृहासहायः कायांन्तम् पाढाहतं यदुत्थाय .
ब्राह्मणातिक्रमत्यागः पान्तु यो जलदश्यामा:
८४३ पारं जलं नीरनिधेरपश्यन्
भन्निभवे न विभवे पुंस्त्वादपि
भग्नं भीमेन भवतो परिते रोदमी ध्यानः
• भम धम्मिा वीसत्थो पर्यन्तां सलिलेन
भल्लापज्जितैस्तेपाम् पृथुकार्तस्वरपात्रम्
भाति कर्णावतंसस्ते पृथ्वि ! स्थिरा भव
भाति पद्मः सरोवरे प्रज्वलजलधारावत् प्रणमत्युन्नति हेतोः
भानुः सकृयुक्ततुरङ्गः
भिक्षो! मांसनिवेपणम् । प्रणयिसबीसलील. प्रतिकुलतामुपगते
मिसिणीअलसअपीए प्रधानत्वं विधर्यत्र
भुनिमुनिकृदेकान्त. प्रयाणे तय गजेन्द्र !
भुजङ्गकुण्डलीव्यक्त. प्रवत्तयन क्रिया:
भुजलतां जडतामबलाजनः प्रवृद्ध यहरं मम म्बल
४३५ भूतयेऽस्तु भवानीशः प्रससार शनवायुः
६०४ भूमौ क्षिप्तम्
१०४
१४०
६६०
७२
४१३ २६४ २८
७०
७१३
६०५
६६०
९९८
२०१
२३५ ३२५ ७६६
Page #85
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________________
उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका
प्रतीकाः भूयः परिभवकलान्ति० भो लङकेश्वर ! दीयताम् भ्रातर्द्विरेफ भवता भ्रभङ्गे रबितेऽपि
पृष्ठांकाः
८२८ ८८८
१२
म
E७८
पृष्ठांकाः , प्रतीकाः ४॥ मारमा सुषमा चारु० २२५ मुबोत्करः सङ्कटशुक्ति. २११ मुलं चन्द्र इवाभाति २४१ मुग्वं तव कुरजाति !
मुग्वमिन्दु र्यथा पाणिः ४३४ मुखमेणीदृशो भाति ७६२ मुग्णा दुग्धधिया २१४ पुश्श मानं हि मानिनि! २४६ निर्जयति योगीन्द्रः
२७ नुहुरङ्गलिसंवृत्ताधरोष्ठम् १०४१ मुहुरुपहसितामिवा० माय मूर्द्धव्याधूयमान ७५६ मृगरूपं परित्यज्य
मृणालन्यालवलया मृत्कुम्भयालु कारन्ध्र० । म्रियते म्रियमाणे या
६२६
:०३३ ३३४
2.-४०
१६१ ६६८ ५२४ १७०
१४०
५२८
१०२०
W
६१८
मखशतपरिपूतम् , मञ्जुलमणिमञ्जीरे
मत्वा लोकमदातारम् मथ्नामि कौरवशतम् मधु दिरेफः कुसुमैकपात्रे मधुपानप्रवृत्तास्ते मधुरः सुधावदधरः मधुरया मधुबोधित. अधुरवचनैः सभ्रूभङ गैः मध्यं तव सरोजाति! मध्यस्य प्रथिमानमेति मध्येन तनुमध्या मे मनःप्रकृत्यैव चलम् मनोजराजस्य सितातपत्रम् मन्थायस्तार्णवाम्भः० मन्दं हसन्तः पुलकम् मन्ये शक ध्र प्रायः मया नाम जितम मयि सापट किंचिस्कापि महदे सुरसन्धम्मे मल्लिकाचितधम्मिल्लाः मल्लिकामुकुले चण्डि! मल्लीनतल्लीषु वनान्तरेषु महिलासहस्सभरिए मा गर्वमुबह कपोलतले मातः किमप्यसदृशम् मानं मा कुरु तन्वति! मा मा मानद मानमस्या निराकर्तुम् मानोन्नतां प्रणयिनां मामाहाशप्रणिहितभुनम्
१६७ २१४ १६२
७६०
४५२ यः कौमारहरः स एव ८४३ यः स ते नयनानन्दकरः ७६२ यं सर्वशैलाः परिकल्प्य ७७४ , यत्र ते पतति सुभ्र ! ८८८ यत्र पतस्यबलानां दृष्टिः ४४६ यत्रोन्मदानां प्रमदाजनानाम् २१२ यत्त्वन्नेत्रसमानकान्ति
यत्सत्यवतमङ्ग १०२५
| यथारुचि यथार्थत्वम् | यदाह धाच्या प्रथमोदितम्
यदि मग्यर्पिता दृष्टिः
यदि समरमपास्य १७६
यदि स्यान्मण्डले ५३४
यदेतच्चन्द्रान्तर्जलद.
तद्विरहदुःखं मे ७१६ यद्वीयं कूर्मराजस्य १०१६ | यदै छु तमिव
यमुनाशम्बरमम्बरम् २०४ | ययातेरिव शर्मिष्ठा
२७८
२६९
३१७
६३४ २२८ ८९८ ८६३ ६२३
५०६ ६००
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उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका
पृष्ठांकाः
२०६ ३९८
६५१
२६
४०६ १२४ १०२४
९६०
१३२ ७३७
१०३२
४३४
प्रतीका:
पृष्ठांकाः | प्रतीका: ययोरारोपितस्तारः
१००१ | राज्ये सारं वसुधा यशसि प्रसरति भवतः ८२८ राममन्मथशरेण ताडिता यशोऽधिगन्तु सुखलिप्रया
रामो मूनि निधाय यस्य न सविधे दयिता
७७६ रावणस्यापि रामास्तः यस्पालीयत शल्कसीस्नि
रावणावग्रहक्लान्तम् यां विनामी वृथा प्राणाः ६४२ रोलम्बाः परिपूरयन्तु य' यधीमनोजस्य
६४२ यासः मुन्दरि ! याहि
२४७ लङ्करस्य भवने याला सत्यपि
१७२ लाणेन समं रामः यान्ति नीलनिचोलिन्यः ६७ लक्ष्मीवक्षोजकलारी यार्थान्तराभिव्यक्ती
३७५ लग्नं रागावृताङ्गया 'यावदर्थपदां वाचम्
लज्जापज्जत्तपसाहणाइ युक्तः कलाभिस्तमसाम्
७०३ लताकुझं गुञ्जन्० युगान्तकालप्रतिसंहतात्मनः १८ लतेव राजसे तन्विं ! युष्माकं कुरुतां भवात्तिशमनन् । लागूलेनाभिहत्य युष्मान् हेपयति क्रोधाल्लोके ४३८ लाक्षागृहानल विषान येना ध्वस्तमनोभवेन
७६२ लावण्यं तदसौ कान्तिः यैरेकरूपमखिलास्वपि
१४० लावण्यमधुभिः पूर्णम् योऽनुभूतः कुरङ्गाक्ष्याः
लिम्पतीव तमोऽङ्गानि योगेन दलिताशयः
६०६ / लीलागतैरपि तरङ्गयतः यो यः शस्त्र विभति
वक्त्रस्यन्दिस्वेदविन्दुप्रबन्धः रक्तप्रसादितभुवः
वत्सस्य में रक्तोत्फुल्लविशाललोल
बदनं अगशावाक्ष्याः रवान्यपि पुरःस्थातुन्
वदनमिदं न सरोजम् रजनीपु विमलभानोः
३१३ । वदनाम्बुजमेणाक्ष्याः रञ्जिता नु विविधास्ता
वनेऽखिलकलासक्ताः रतिक्रेलिकलः किञ्चित
वनेचराणां वनितासखानाम् रतिलीलाश्रमं भिन्त
वर्ण्यते किं महासेनः ध्यान्तश्चरतस्तथा रमणे चरणप्रान्त
वर्षत्येतदहप॑तिर्न तु गजते मृगलोचना
वल्लभोत्सङ्गसङ्गन
८२६ राजनारायणं लक्ष्मी
१०५२ वसन्तकनिबद्धनावम् राजन ! राजसुता
१५. सचमुवाच कौत्सः राजदः सुतनिविशेषमधुना ४७६ वाणीरकुडङ्ग इडीगसउणि. राजीवमिव राजीवम्
८३६ वाप्यो भवन्ति विमलाः रा:यं च वसु देवश्व
२६४ । वारिजेनेव सरसी
३२३ ८५६ ८८
१०२६
८२४ ८७३ १०५३ १०३६
६२४ ६६६
६३३
३४
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पृष्टांकाः
३१५
२६५
५०६ २४
६०४
उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका पृष्ठांकाः । प्रतीका:
६४० शिरीषमृद्वी गिरिपु ७५ शिवरिणि क्व नु नाम ६३६ शिरसि धृतमुरापगे १२६ शिगमः स्यन्दत. ८९० शीतांशर्मुम्ब मुत्पले १०. शुश्र षस्व गुरून कुरु २५२ शन्य वासगृहम्
रतां यान्ति २६ शेफालिकां विलिताम्
शलेन्द्रप्रतिपाद्यगानगिरिजा. शोणं वीक्ष्य मुत्रम् श्रवगैः पेयमनेक
श्राद्धभोजनशीलो हि ६२२ श्रीरेषा पाणिरप्यस्याः
श्रीहर्षों निपुणः कविः |श्रतं कृतधियान् श्रुतान्वयादनाकातम् श्रुताप्सरोगीतिरपि
श्रुस्वा यान्तं बहिः ११६ : श्वासान् मुञ्चति भतले
२३६ १०३०
१७
प्रतीका: वासवासामुग्वे भाति विकसन्नेत्रनीलाब्जे विकसितसहकारभार. विकसितमुनी रागा. विकासिनीलोत्पल. विचरन्ति विलासिन्यः विदधे मधुपश्रेणीमिह विदृरे कयूरे कुरु विधति मुगाजमरः : विनयति सुदृशो दृशोः विना जलदकालेन विपिने छ जटानिवन्धनम् विपुलेन सागरशयस्य विभाति मृगशावाती विमल एव रविविशदः विरहे तव तन्वङ्गी विराजति व्योमवपुः विललाप स बापगद्गदम् विलोकनेनैव तवामुना विलोक्य वितने व्योग्नि विवृण्वती शैलसुतापि विषयस्यानुगदाने विसृज सुन्दरि! विसृष्टरागादधरानिवर्तितः वीक्षितुं न समा श्वः वेदान्तेषु यमाहुरेक पुरुषम् वृद्धोऽन्धः पतिरेषमञ्चक ग्यतिक्रमल के मे ज्यपोहितं लोचनतो. म्यवहारोऽथवा तत्व ग्याजस्तुतिस्तव पयोद ! व्याधूय यसनम्
६१४ ४४८
१६४
Cate
१३.
१०११ २८३
१७१
१६४
"
६३
HWSI
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4G
संकेतकालमनसम् ४८३
। संधौ सर्वस्वहरणम्
! संगमविरहविकल्पे १०००
संग्रामे निहताः शूराः
संततमुपलागार १३८
स एकस्त्रीणि जयति स एव सुरभिः कालः सकलकलं पुरमेतत् । सज्जनो दुर्गनी मग्नः
। सज्जेहि सुरहिमालो १२८ सतीमपि ज्ञातिकुलक०
सत्पता मधुरगिरः 118 सदाचरति य भानुः
७ सदाशिवं नौमि २०१६ सदेव शोणोत्पलकुण्डलस्य
१६३ ८०१ ६६८
५३२
६६३
दाठान्यस्याः शशिनमुपगतेयम् शशी दिवसधूसरः
१०२५
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उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका
WWn
८१४
१६८
२२३
७२४
0
001
6
२१
प्रतीकाः सधः करस्पर्शमवाप्य चित्रम् सद्यः पुरीपरिसरेऽपि सयो मुण्डितमत्तहूण. सदंशसम्भवः शुद्धः सन्ततमुसला. सममेव नराधिपेन सा सममेव समाक्रान्तम् समय एवं करोति समाश्लिष्टाः समाश्लेषैः समीक्ष्य पुत्रस्य चिरात् सम्प्रति सन्ध्यासमयः सरसिजमनुविधं शैवले सरागया खुतनधर्म सरो विकसिताम्भोजम् सर्वक्षितिभृताम् . सम्वं हर सांस्य सवः शशिकलामौले सहकारः सदामोदः सह कुमुदकम्बः स हत्वा बालिनं वीरः सहभृत्यगणं सबान्धवम् सह सालिजः स्निग्धैः सहसा विदधीत सहाधरदले नास्याः सान्द्रानन्दमनन्त. सा पत्युःप्रथमापराध. सा बाला वयमप्रगल्भमनसः सायं स्नानमुपासितम् सार्थकानकदम् सार्धं मनोरथशतैः सुचरणविनिविष्टः मुतमु ? जहिहि कोपम् सुधेव विमलश्चन्द्रः सुनयने नयने निधेहि
पृष्ठांकाः। प्रतीकाः
पृष्ठांकाः १९१ | सुभग! स्वत्कथारम्भ १६६ सुभगे ! कोटिसंख्यत्वमुपेत्य ७५२ / सूचीमुखेन सकृदेव
७४० ५०३ सूर्याचन्द्रमसौ यस्य
सपा स्थली यत्र सौजन्याम्बुमरुस्थली सौरभमम्भोरुहवत् स्तनयुगमुक्तामरणाः
१५४ स्तनावद्रिसमानौ
६८६ स्तोकेनोन्नतिमायाति स्थिताः क्षणं परमसु म्नाता तिष्ठति कुन्तलेश्वरसुता स्निग्धश्यामलकान्ति. स्पृष्टास्ता नन्दने स्मरशरगतविधुरायाः स्मरात्यन्धः कदा लमये स्मिनेनोपायनं दुरात् स्मेरं विधाय नयनम्
२३१ । स्मेराजीवनयने
स्रगियं पदि जीवितापहा स्वपिहि त्वं समीपे मे. स्वर्गग्रामटिकाविलुण्ठन०
६.० ६६६ / स्वच्छाग्भः स्नपनविधी ८१६ स्वामिन् मगुरयालकर
१४. २८ स्वामी निःश्वसिते १३५ | स्वामी मुग्धतरो वनम्
२८० ९८३ | स्वेच्छोपजातविषयोऽपि ३२७ ।
हंसश्चन्द्रवाभाति । १४३ हहो धीर समीर ! हन्त जननम् । 10१४ ७४३ हते जरनिगाये २६९ हनुमदाय यशसा मया હરર ६. हन्त ! सततमेतस्याः
६३५ ७०५ | हन्त सान्द्रेण रागेण
६०
.
१४७
१०२७.
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पृष्ठांकाः
४६६ १०१०
प्रतीकाः हन्त हन्त गतः कान्तः हन्तुमेव प्रवत्तस्य हरन्ति हृदयं यूनाम् हरवनीलकण्ठोऽयम् हरस्तु किञ्चित्० हसति परितोपरहितम्
उदाहृतश्लोकाऽनुक्रमणिका पृष्ठांकाः । प्रतीकाः
७०५ हा पूर्णचन्द्रमुखि ! ६६१ | हारोऽयं हरिगातीणाम् ६६० | हिताम यः संशृणुते ६८५ | हिममुक्तचन्द्र० ।। २८४ | हीरकाणां निधेरस्य ५०८ | हृदि विसलताहारः ।
६७० ८७३
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________________
॥श्रीः ॥
साहित्यदर्पण: 'चन्द्रकला संस्कृत-हिन्दी-व्याख्योपेतः
प्रथमः परिच्छेदः
(प्रारम्भ-मङ्गलम्) प्रन्थारम्भे निर्विघ्नेन प्रारिप्सितपरिसमाप्तिकामो पास्मयाधिकृततया .
टीकाकारकृत मङ्गलाचरणम्यास्ते प्रसादसहिता मृदुलस्वभावा जाग्यापनोदनपरा निजभक्तिभागम् । भक्तं समीहितवरेण कृतार्थयन्ती. तो भारती सततमेव नमस्करोमि ॥१॥ बीविश्वनाथकविराजतं तमेतं साहित्यर्पणमहं. प्रगुणीकरोमि । संप्राथये भगवती भवतीं प्रणत्या "मातर्मम अमिमं सफलीकुरुष्व" ॥२॥
अथ तत्र भवानालङ्कारिकचूडामणिः काम्य-तच्छास्त्रप्रणयनतो विसमाजे लोकोत्तरप्रतिष्ठया विराजमानो विश्वनाथकविराजो मीदेवीप्रार्थनारूपस्य स्वकीयमङ्गला. परणस्यौचित्यं समर्थयितुमुगु ङ्क्ते-ग्रन्थारम्भ इति । पन्थारम्भे एकार्यको वाक्य: सन्दर्भो ग्रन्थः, सच प्रकृते साहित्यदर्पणरूपोऽलङ्कारशास्त्रम्, तस्य बारम्भेप्राक्काले, निविघ्नेन =समीहितकर्मप्रतिबन्धकः पापविशेषों विघ्नः, तस्याऽभावो निर्विघ्नं, तेन: अर्याऽभावे "अव्ययं विभक्ती" त्यादिनाऽव्ययीभावः । "तृतीयासप्तम्योबहुलम्" इत्यनेन बाहुल्येन अम्भावात्पक्षान्तरे तदभावात्तृतीया। प्रारिप्सितपरिसमाप्तिकामा प्रारमिष्टः साहित्यदर्पणरूपो ग्रन्थः, तस्य परिसमाप्ति: सम्राक् चरमवर्णध्वंसः,तं कामयते इच्छतीति, प्रारमिष्टस्य साहित्यदर्पणस्य सम्यक् समाप्तिः स्यादिति कामनासम्पनी प्रन्थकार इति भावः । वाङ्मयाऽधिकृततया-वाचां समूहो वाङ्मयं समस्तं शास्त्रम्, प्राचुर्याय मयट
अन्यके आरम्भ में निर्विघ्नपूर्वक प्रारिप्सित प्रारम्भ करनेके लिए अभीष्ट (साहित्यदर्पण ) की समाप्तिकी इच्छा करनेवाले पन्थकार शास्त्रोंमें अधिकत होनेसे वाग्देवता (सरस्वती) की अनुकूलताका आधान करते हैं।
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साहित्यदर्पणे
वाग्देवतायाः सांमुख्यमांधते
शरदिन्दुसुन्दररुचिश्वेतसि ‘सो मे गिरा देवी।
अपहृत्य तमः सन्ततमर्थानखिलान् प्रकाशयतु ॥१॥ अस्य ग्रन्थस्य काव्याङ्गतया काव्यफलैरेव फलवत्त्वमिति काव्यफलान्याह
प्रत्ययः । तस्मिन् अधिकृता, तस्या भावस्तत्ता, तया, अधिकारसम्पन्नत्वेन, "सामान्ये नपुंसकम्” इति नपुंसकत्वम् । वाग्देवतायाः = सरस्वत्याः, सांमुख्यं = संमुखत्वं, जाड्य. हरणेनाऽऽनुकूल्यमिति भावः । आपत्ते = विदधातीति भावः । मूलवृत्तिकृतोरैक्यात्कर्ष प्रथमपुरुषप्रयोग इति नाराङ्कनीयम् । प्रायेण ग्रन्थकारा अहङ्कारपरिहरणाऽर्थ मुत्तमपुरुषप्रयोगं विहाय प्रथमपुरुषप्रयोगेण स्वस्य विनयत्ति प्रदर्शयन्ति । सन्ति चैतादृशाः प्रयोगाः
"मनुमेकाऽग्रमासीनमभिगम्य महर्षयः । प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं वचनमब्रुवन् ॥” ( मनु० १-१)। "योगीश्वरं याज्ञवल्क्यं संपूज्य मुनयोऽब्रुवन् ।
वर्णाश्रमेतराणां नो ब्रहि धर्मानशेषतः ॥" याज्ञवल्क्यस्मृतिः १-१ इत्यादयः शरदिन्दिति । शरदिन्दुसुन्दररुचिः सा गिरी देवी मे चेतसि सन्ततं तमः अपहृत्य अखिलान् अर्थान् प्रकाशयतु इत्यन्वयः।
__शरदिन्दुसुन्दररुचिः शरदि (शरदृती ) इन्दुः ( चन्द्रः) । सुन्दरी (मनोहरा) कचिः (प्रमा) यस्याः सा । शरदिन्दुरिव सुन्दररुचिः, "उपमानानि सामान्यवचनः" इति समासः । सा = श्रुतिस्मृतिपुराणप्रसिद्धा, गिरा = वाचा, देवी अधिष्ठात्री, सरस्वतीति भावः । मे = मम ग्रन्थकारस्य, विश्वनाथकविराजस्येति भावः । चेतसि = चित्ते, सन्ततं = विस्तृतं, तमः तमस्तुल्यंमज्ञानम्, अपहृत्य = विनाश्य, अखिलान् = समस्तान अर्थान् = प्रमेयान्, प्रकाशयतु-प्रकटीकरोतु, शरदिन्दुर्यथाऽन्धकारं दूरीकृत्य घटपटादी. नर्यान्प्रकाशयति तथैव सरस्वत्यपि मद्धृदये विद्यमानमन्धकारं विनाश्य समस्तानलवारशास्त्रप्रमेयान्प्रकटीकरोत्विति भावः । सन्ततपदं क्रियाविशेषणत्वेन का योजनीयम् । सन्ततं = निरन्तरं, प्रकाशयतु । उपमाऽलङ्कारः । आर्यावृतम् ॥ १ ॥
ननु "प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते ।" इति न्यायादस्य ग्रन्थस्य प्रयोजनं यावन्न प्रतिपाद्यते तावत्कथमत्र व्युत्पित्सूनां प्रवृत्तिरित्यत आह -अस्य ग्रन्यस्येति । अस्य=
शरत् ऋतुके चन्द्रकी समान सुन्दर कान्तिवाली श्रुति, स्मृति और पुराण आदिमें प्रसिद्ध वाणीकी अधिष्ठात्री (सरस्वती) देवी मेरे वित्तमें विस्तृत अज्ञानरूप अन्धकारका. अपहरण करके समस्त प्रमेयरूप अर्यों का प्रकाश करें ॥१॥
यह ग्रन्थ काव्योंका अङ्ग है अतः काव्योंके फलोंसे ही इसकी फलवता है, इसलिए काव्यफलोंको कहते हैं ।
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प्रथमः परिच्छेदः
चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादसधियामपि । काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते ॥ २ ॥
चतुर्वर्गफलप्राप्तिर्हि काव्यतो 'रामादिवत्प्रवर्तितव्यं न रावणादिवत्' इत्यादि कृत्याकृत्य प्रवृत्तिनिवृत्त्युपदेशद्वारेण सुप्रतीतेव ।
=
.
= प्रया•
उपक्रम्यमाणस्य, ग्रन्थस्य = साहित्यदर्पणस्य, काव्याङ्गतया, काव्यस्य = : रघुवशादे:अङ्गतया : = अप्रधानकारणतया, काव्यफलैः एव = अङ्गिभूतस्य काव्यस्य, फलैः एव चतुर्वर्गादिरूपैः साध्यैः एव फलवत्वं फलसहितत्वम् इति = अस्माद्धेतोः, काव्यफलानि = अङ्गिभूतस्य काव्यस्य फलानि = कार्याणि आह = प्रतिपादयति । अयं भावः, दर्शपौर्णमासादयो यागा अङ्गिभूताः, प्रयाजादयो यागा अङ्गभूताः, "फलवत्सनिधी अफलं तदङ्गम्” फलवताम् = अङ्गिनां दर्शपौर्णमासादीनां सन्निधौ तदङ्गम् जादियागाः तदङ्गभूताः ते च अफला भवन्ति तेषां पृथक् फलं न भवति, प्रधानयागस्य दर्शपौर्णमासादे: फलेनेव तत्फलवत्ता भवति इति भावः प्रकृते च अङ्गिभूताः रघुवंशादय:, तेषां यत्फलं चतुर्वर्गप्राप्तिरूपं तेनैव अङ्गभूतस्य = रघुवंशादेर्निरूपण रस्य अस्य अलङ्कारग्रन्थस्य साहित्यदर्पणस्य फलवत्त्वं = फलसहितत्वम्, न पृथक् फलम् । इति = अस्माद्धेतोः, काव्यफलानि = काव्यप्रयोजनानि आह - चतुर्वर्गेति । यतः अल्प धियाम् अपि सुखात् काव्यात् एव चतुर्वर्गफलप्राप्तिः, तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते इत्यन्वयः । यतः यस्मात्कारणात्, अल्पधियाम् अपि = अल्पबुद्धीनाम् अपि न केवलं महाधियामिति भाव:, सुखात्=अनायासात्, काव्यात् एव = रघुवंशादेः कविकृतेरेव चतुर्वर्गफलप्राप्तिः= धर्मार्थकाममोक्षरूपफलप्रापणं, भवतीति शेषः तेन कारणेन, तत्स्वरूपं = तल्लक्षणं, निरूप्यते प्रतिपाद्यते ॥ २ ॥
=
aafoni विवृणोति चतुर्वर्गफलेति । चतुर्वर्गफलप्राप्तिः धर्मार्थ काम मोक्षरूपफलासादनं, रामादिवत् = रामादिना' तुल्यं, प्रवर्तितव्यं = चेष्टनीयं, गुरुजनाज्ञापालन सज्जनसंरक्षणदुष्टनिग्रहरूपा प्रवृत्तिः करणीयेति भावः । न रावणादिवत् प्रवर्तितव्यं रावणादिना तुल्यं, परदारहरणसज्जन संहरणादिरूपा प्रवृत्तिनं करणीयेति भावः । इत्यादिना । कृत्येषु = कर्तव्येषु प्रवृत्तिः = प्रवर्तनम् अकृत्येषु = अकरणीयेषु, निवृत्तिः = निवर्तनं, तदुपदेग द्वारेण = तदुपदे गव्यापारेण, सुप्रतीता एव = सुविदिता एव । एतत्कयनेन काव्यस्प शास्त्रत्वं प्रदर्शितम्
जिस कारणसे अल्प बुद्धिवालोंको भी काव्यसे ही अनायास चतुर्वर्ग ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) रूप फलकी प्राप्ति होती है उस कारण से उसके स्वरूप( लक्षण ) का निरूपण किया जाता है || २ ||
काव्यसे चतुर्वर्गफलकी प्राप्ति राम आदिके समान आचरण करना चाहिए रावण आदिके समान आचरण नहीं करना चाहिए इस तरह कर्तव्य विषय में प्रवृत्ति और अकर्तव्य विषयमें निवृत्तिके उपदेशके द्वारा प्रख्यात ही है ।
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उक्तं च (भामहेन ) -
साहित्यदर्पणे
'धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च ।
करोति कीर्तिं प्रीतिं च साधुकाव्यनिषेवणम् ॥ इति ।
किन काव्याद्धर्मप्राप्तिर्भगवन्नारायणचरणारविन्दस्तवादिना, 'एकः शब्दः सुप्रयुक्तः सम्यग्ज्ञातः स्वर्गे लोके कामधुग्भवति' इत्यादिवेदवाक्येभ्यश्च सुप्रसिद्धैव । अर्थप्राप्तिश्च प्रत्यक्ष सिद्धा । कामप्राप्तिश्चार्थद्वारेव । मोक्षप्राप्तिश्चै
यदाहु:- "प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा नित्येन कृतकेन वा ।
पुंसां येनोपदिश्येत तच्छास्त्रमिति कथ्यते ।।" इति ।
अत्र प्राचीनानां सम्मति प्रदर्शयति-उक्तं चेति । धर्मार्थेति । साधुकाव्यनिषेवणं धर्मार्थकाममोक्षेषु कलासु च वैचक्षण्यं कीर्ति प्रीति च करोतीत्यन्वयः । साधुकाव्यनिषेवर्ण = साधुकाव्यस्य ( सत्काव्यस्य ) निषेवणम् ( परिशीलनं करणं च ) । चतुरंगें कलासु = नृत्यगीतादिचतुःषष्टिभेदासु च वैचक्षण्यं = पाण्डित्यं तथा कीर्ति = यशः सत्काव्य परिशीलनकरणजनितमिति भावः एवं च प्रीति च = अनुरागं च, करोति = विदधाति । पचमेतत्काव्यालङ्कारकर्तुं राचार्य भामहस्य बोद्धव्यम् ।
1
उक्तमर्थं विवृणोति - किं चेति । भगवन्नारायणस्य, चरणाऽरविन्दस्तवादिना = पादकमलस्तोत्रादिना । एकोऽपि शब्दः सुप्रयुक्तः = शब्दशुद्धिपूर्वकं प्रयोगविषयींकृतः, सम्यग्ज्ञातः = प्रकृतिप्रत्ययविवेचनपूर्वकं ज्ञानविषयीकृतः सन्, स्वर्गे = परलोके; लोके = इह लोके च कामधुक् = कामान्दोग्धीति, इच्छापूरक इत्यर्थः । इत्यादि वेदवाक्येभ्यश्च = भाष्यकाराद्य, घृतश्रुतिवाक्येभ्यश्च सुप्रसिद्धा । अर्थप्राप्तिश्च = काव्याद्धनप्राप्तिरभीष्टप्राप्तिञ्च, प्रत्यक्ष सिद्धा, श्रीहर्षादेर्धावकबाणभट्टादीनामर्थ प्राप्तिरिवेति भावः । अर्थप्राप्तिः = प्रयोजन सिद्धिः सूर्यशतकादिनिर्माणेन मयूरादीनां कुष्ठादिरोगनिवृत्त्या 'स्वास्थ्यला भरूपप्रयोजनसिद्धिः । कामप्राप्तिः = विषयभोगप्राप्तिश्च, अर्थद्वारंव ।
कहा भी गया है
उत्तम काव्यकी सेवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ( चतुर्वर्ग) में तथा कलाओंमें विद्वत्ता और कीर्ति और प्रसन्नताको उत्पन्न करती है ।
/
काव्यसे धर्मकी प्राप्ति भगवान् नारायणके चरणकमलोंके स्तोत्र आदिसे तथा बच्छी तरह से जाना गया और प्रयोग किया गया एक भी शब्द इस लोक में और स्वर्गलोकमें कामधुक् = इच्छाको पूर्ण करने वाला होता है इत्यादि वेदवाक्योंसे सुप्रसिद्ध ही है | काव्यसे अर्थ = धन वा अभीष्ट विषयकी प्राप्ति प्रत्यक्षसिद्ध है । काम - ( विषय सुख ) की प्राप्ति अर्थद्वारा होती हैं । काव्यसे उत्पन्न धर्मके फलकी अपेक्षा न करनेसे
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प्रथमः परिच्छेदः,
1
तज्जन्यधर्मफलाननुसंधानात् माक्षोपयोगिवाक्ये व्युत्पत्याधायकत्वाच्च । चतुर्वर्गप्राप्तिर्हि वेदशास्त्रेभ्यो नीरसतया दुःखादेवं परिणतबुद्धीनामेव जायते । परमानन्दसंदोहजनकतया सुखादेव सुकुमारबुद्धोनामपि पुनः काव्यादेव |
मोक्षप्राप्तिश्च एतज्जन्यधर्म फलाऽननुसन्धानात् = एतज्जन्यः = सत्काव्य निषेवणोत्पन्नः, यो धर्म:, तत्फलस्य अनुसन्धानात् = अनपेक्षणात्, निष्कामकर्माश्रयणादिति भावः । मोक्षोपः योगिवाक्ये उपनिषदादिस्थ पदसमूहे, व्युत्पत्याधाय कत्वाच्च विशिष्टज्ञानसाधकत्वाच्च । काव्यप्रकाश कारेण मम्मटभट्ट ेनाऽपि -
"काव्यं यशसेऽर्थकृते, व्यवहारविदे, शिवेतरक्षतये ।
सद्यः
इति काव्यस्य षड्विधं प्रयोजनं प्रदर्शितम् । इत्यं संक्षेपतोंऽत्र काव्यस्य अनुबन्धचतुष्टयं प्रदर्शितम् । तद्यथा -
"विना विषयसम्बन्धी तथैवाऽर्थाऽधिकारिणी ।
अव्याख्येयो भवेद् ग्रन्थस्तस्मादेतच्चतुष्टयम् ॥"
परनिर्वृतये, कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥” १२ ।
तथा
चात्र शब्दार्थ काव्यलक्षणरसठवन्यलङ्का रगुणदोषादयो विषयाः तेः सहास्य ग्रन्थस्य प्रतिपाद्यप्रतिपादक मावः सम्बन्धः, चतुर्वर्गफलप्राप्तिरूपोऽर्थः प्रयोजनमिति भावः । अधीत काव्य कोशादिरनधीताऽलङ्कारशास्त्रो जनोऽत्राधिकारीति एवे अनुबन्धा आपाततो दर्शिता इत्यवधेयम् ।
ननु चतुर्वर्गफलप्राप्तिर्वेदशास्त्रेभ्योऽपि जायते तर्हि किमिति काव्ये श्रमः कर्तव्या इत्याशङ्कय समाधत्ते – चतुर्वर्गफलप्राप्तिर्हति । चतुर्वर्गफलप्राप्तिर्वेदशास्त्रेभ्योषि भवति परं नीरसतया दुःखादेव तथा परिणतबुद्धीनाम् = परिपक्वमतीनाम् एव जायते; एतद्वैपरीत्येन परमानन्दसन्दोहजनकतया लोकोत्तरहर्ष समूहोत्पादकतया सुखादेव = अनायासादेव, सुकुमारबुद्धीनाम् = राजकुमारादीनाम् अपि कठोरशास्त्राऽध्ययन भीरूणामपीति भावः । काव्यादेव विनाऽऽयासं चतुवर्गफलप्राप्तिर्भवति, अतः काव्ये प्रवृत्ति: कर्तव्येति सिद्धम् ।
मोक्ष प्राप्ति होती है । अथवा मोक्ष के उपयोगी वाक्य (उपनिषत् आदि) में व्युत्पत्ति कराने से भी ( काव्यसे मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है ) ।
वेद और शास्त्रोंसे चतुर्वर्गकी प्राप्ति नीरसता से और दुःखसे ही और परिपक्व बुद्धिवालोको ही होती है । उत्तम आनन्द समूहका जनक ( उत्पादक ) होनेसे सुखसे ही सुकुमार बुद्धिवालों को भी काव्यसे ही चतुर्वर्गकी प्राप्ति हो जाती है ।
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साहित्यदर्पणे
ननु तर्हि परिणतबुद्धिभिः सत्सु वेदशास्त्रेषु किमिति काव्ये यत्नः करणीय इत्यपि न वक्तव्यम् । कटुकोषधोपशमनीयस्य रोगस्य सितशर्करोपशमनीयस्वे कस्य वा रोगिणः सितशर्कराप्रवृत्तिः साधीयसी न स्यात् ? किञ्च । काव्यस्योपादेयत्वमग्निपुराणेऽप्युक्तम्
'नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ।।' इति । पुनराशजूध समाधत्ते-ननु ताँति । यद्यवं तहिं अधिकारिभेदेन कार्यभेदः, परिणतबुद्धिभिवेदशास्त्रेभ्यः, सुकुमारबुद्धिभिः काव्यत एव चतुर्वर्गफलप्राप्त्यर्थं यतनीपमिति मनसिकृत्य प्रतिपादयति-परिणतबुद्धिभिः = परिपक्वमतिभिः, वेदशास्त्रेषु, सत्सु विद्यमानेषु, काव्ये-कविकर्मणि, किमिति = किमर्थ, यत्नःप्रयासः, करणीयः = कर्तव्यः, इत्यमाशय समाधत्ते-इत्यपि न वक्तव्यं-न कथनीयम् । यथा कटुकोषधोपशमनीयस्य तिक्तभेषजनिवारणीयस्य, रोगस्य = रुजः, सितशर्करोपशमनीयत्वे = सितशर्करया ( शुक्लसितया ) उपशमनीयत्वे ( निवारणीयत्वे ), कस्य वा रोगिणः = बामयाविनः, सितशर्कराप्रवृत्तिः स्वादुसिताग्रहणचेष्टा, साधीयसी साधुतरा न स्यात् । इत्यमेव सुकुमारमतीनामिव परिणतबुदीनामपि सरसतया अनायासादेव चतुर्वर्गफल'प्राप्तिसाधनभूते काव्ये प्रवृत्तिः कथमिव साधुतरा न स्यादिति भावः ।
कि चेति । काव्यस्य उपादेयत्वं प्राह्यत्वम् । . नरत्वमिति । लोके-भुवने, नरत्वं मनुष्यत्वं, दुर्लभं= दुष्प्राप्यम् । चतुरशीतिमक्षसंख्यकासु योनिषु नरयोनिदुर्लभेति भावः । तत्र-नरत्वेऽपि, विद्या = शास्त्रबोधः, सुदुलंमा = आतशयदुष्प्राप्या, नरत्वे लब्धेऽपि शास्त्रप्राप्ति: जन्मान्तरस्कृताऽतिश-, यादेव जायन इति भावः । तत्र = विद्याप्राप्तो जातायामपि, कवि वं = काव्यकर्तृत्वं, दुर्लभं, कवित्वप्राप्तिरपि जन्मान्तरसुकृतपुञ्जपरिपाकादेव भवतीति भावः । तत्र-कवित्वे येन केनाऽपि प्रकारेण लब्धेऽपि शक्तिः = कवित्वबीजरूपः संस्कारविशेषः, सुदुर्लभा = अत्यन्तदुष्प्राप्या निरतिशयपुण्यपुञ्जपरिपाकादेव भवतीति भावः ।
प्रश्न-तब तो परिपक्व बुद्धिवालोंको वेद और शास्त्र आदियोंके रहनेपर काव्यमें क्यों यत्न करना चाहिए !
उत्तर-ऐसा नहीं कहना चाहिए, कड़वी दवासे हटाये जानेवाला रोग यदि चीनी आदिसे दूर हो तो किस रोगीको चीनी आदिमें प्रवृत्ति बेहतर नहीं होगी? (इसी तरह परिपक्व बुद्धिवालोंको भी काव्यमें प्रवृत्ति क्यों नहीं होगी? )।
काव्यको ग्रहणीयताको अग्निपुराणमें भी कहा है
लोकमें मनुष्य होना दुर्लभ है, मनुष्य होनेपर भी विद्या अत्यन्त दुर्लभ है । विद्याके होनेपर भी कवि होना दुर्लभ है, कवि होनेपर भी शक्ति ( प्रतिभा ) अत्यन्त दुर्लभ है ।
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प्रथमः परिच्छेदः
'त्रि वर्गसाधनं नाट्यम्' इति च । विष्णुपुराणेऽपि--
'काव्यालापाश्च ये केचिद् गीतकान्यखिलानि च । .. शब्दमूर्तिधरस्यते . विष्णोरंशा महात्मनः ॥' इति । तेन हेतुना तस्य काव्यस्य स्वरूपं निरूप्यते । एतेनाभिधेयं च प्रदर्शितम्।
त्किस्वरूपं तावत्काव्यमित्यपेक्षायां कश्चिदाह-'तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुनः कापि' इति ।
त्रिवर्गेति । नाटय = नटप्रयोज्यं काव्य, दृश्यकाव्यं नाटकादिकमिति भावः । त्रिवर्गसाधनम् धर्माऽर्थकामरूपस्य त्रिवर्गस्य, साधनं-जननकारणम् । विष्णुपुराणेऽपिकाव्यालापाश्चेति । ये केचित् काव्यालापाः, अखिलानि गीतकानि च एते शब्दमूर्तिधरस्य महात्मनो विष्णोः अंशाः । ये केचित् = दृश्यरूपाः श्रव्यरूपा वा, काव्यालापा रसाभिव्यजकाः शब्दार्थाः। एवं च अखिलानि-समस्तानि, गीतकानि च = गीतानि च, एते = इमे, सर्वेऽपि, शब्दमूर्तिधरस्य = शब्दब्रह्मणः । महात्मनः= महत्त्वसंपन्नस्य, भगवतो विष्णोः = नारायणस्य, अंशाः = अवयवाः ।
तेनेति । तेन = चतुर्वर्गफलप्राप्तिसाधनत्वेन, तस्य = पूर्वोक्तस्य, काव्यस्य = कविकर्मणः, स्वरूपं = स्वेन रूप्यते इतरव्यावर्तकतया ज्ञाप्यत इति, स्वं लक्ष्यपदार्थः रूप्यते = लक्ष्यते अनेन इति वा स्वरूपं = लक्षणं, निरूप्यते प्रतिपाद्यते । एतेन%D "चतुर्वर्गफलप्राप्तिः" इत्यादि श्लोकेन, अभिधेयम् = काव्यस्य विषयादिकम्, चशब्देन प्रयोजनसम्बन्धयोर्लाभः।
खण्डनार्थ मम्मटभट्टसम्मतं काव्यलक्षणं प्रदर्शयितुमुपक्रमते-तदिति । तत = तस्मात्कारणात, तावत् = आदो, किस्वरूपं = किंलक्षणं काव्यम्, इत्यपेक्षायाम् = बाकाङ्क्षायाम, कश्चित्-काव्यप्रकाशकार इति भावः । आह-प्रतिपादयति-तरिति । पूर्वपक्षरूपे काव्यप्रकाशकारसंमतं काव्यलक्षणमुपस्थापयति । अदोषी = दुःश्रवादिदोषरहितो, सगुणी = प्रसादादिगुणोपेतो, पुनः = भूयः, क्वाऽपि = कुत्रचित्, अन
नाट्य अर्थात् दृश्य काव्य, त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम ) का साधन (हेतु) है ( अग्निपुराण )।
विष्णुपुराणमें भी है-काव्य और समस्त गीत, ये सब शब्दरूप मूर्तिको धारण करनेवाले महात्मा विष्णुके अंश हैं। इस कारणसे ( चतुर्वर्गका साधन होनेसे) उस काव्यके स्वरूपका निरूपण किया जाता है। इस कारिकासे काव्यका अभिधेय (विषय ) और "च" शब्दसे प्रयोजन और सम्बन्धका प्रदर्शन किया गया।
___ अब काव्यका क्या लक्षण है ? ऐसी आकाङ्क्षा होनेपर कोई ( काव्य प्रकाशन कार ) कहते हैं-"दोषरहित, गुणयुक्त और अलङ्कारोंसे अलङ्कृत परन्तु कहींपर स्फुट अलङ्कारसे युक्त न हो तो भी ऐसे शब्द और अर्थको काव्य कहते हैं"।
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साहित्यदर्पणे
एतचिन्त्यम्। तथाहि-यदि दोषरहितस्यैव काव्यत्वाङ्गोकारस्तदा-- -
'न्यक्कारो अयमेव मे यदरयस्तत्राऽप्यसौ तापसः, सोऽप्यत्रैव निहन्ति राक्षसकुलं, जीवत्यहो रावणः ।
.
लकती= स्फुटाऽलङ्काररहितो, शब्दाऽयों = वाचकवाच्यो, तद्-काव्यम्, इति । पत्र "शब्दाऽयो" इदं काव्यशरीरं, तस्य. विशेषणानि-"अदोषो" "सगुणो" "साऽलङ्कारों" इति । शेषं पश्चादभिधास्यते । अत्र काव्यत्वं व्यासस्य वृत्तितया शब्दार्थोभयपर्याप्तम् । पूर्वोक्त लक्षणे "अदोषो" इति लक्षणस्थमंशं दूषयितुमुपक्रमते-एतच्चिन्त्यमिति । एतद लक्षणं, चिन्त्यं%3Dविचारणीयम् ।
तथाहि-दोषरहितस्य = दुःश्रवत्वादिदोषरहितस्य, शब्दाऽयंयुगलस्येतिशेषः काव्यत्वाऽङ्गीकारो यदि-काव्यत्वस्वीकारश्चेत् । तदातहिं । सदोषत्वेन शब्दार्थयुगलेव्याप्तिदोषं प्रदर्शयितु लक्ष्यविशेषमुदाहरति-न्यक्कार इति। हनुमन्नाटकस्थं पमिदम् रामविक्रमेण लङ्कायां नितान्तमाक्रान्तायां निदाऽतिशयमापनस्य रावणस्य उक्तिरियंपक्कार इति । अयमेव न्यक्कारो हि । यत् मे अरयः । तदाऽपि असौ तापसः, सोऽपि बत्रय राक्षसकुलं निहन्ति; अहो ! रावणो जीवति । शक्रजितं धिक् धिक् । प्रबोधितवता कुम्भकर्णेन वा किम् ? स्वर्गग्रामटिकाविलुण्डनवृषोच्छून; एभिः भुजैः किम् ? इत्पन्वयः ।
अयमेव न्यक्कारः = तिरस्कारः, हिनिश्चयेन, "हि हेताववधारणे" इत्यमरः । न्यक्कार प्रदर्शयति-यत् = यस्मात् कारणाद, मे = रावणस्य, बरयः = शत्रवः, मम , अरिः अनौचित्यप्रयोजकः, तत्रापि न अरिः, नैवाऽरी प्रत्युत परयः प्रचुरसंख्यका अरय इति ध्वनिः । तत्रापि अरिष्वपि, प्रधानरूपेण असौ = अरिः, राम इति भावः । तापसः = तपस्वी, न तु कोऽपि विक्रान्तः । सोऽपि = तापसरूपोऽपि अरिः, एक एव । अत्र एव = अस्मिन्नेव, मदधिष्ठिते लक्षाप्रदेशे एव, न तु दण्डकारण्यादा वेवेति शेषः । राक्षसकुलं = राक्षसंवंशं, न राक्षसं नो राक्षसी, नैव राक्षसान् अपि, प्रत्युत राक्षसानां कुलम् = शम् एव, निहन्ति =नो हन्त्येव, निःशेषेण व्यापादयतीति ध्वनिप्रकर्ष।। अहो = आश्चर्यम्, तथापि रावणो जीवति = प्राणान् धारयत्येव, तादृशे व्यतिकरेऽपि
यह मत विचारणीय है, दोषरहित शब्द और अर्थको ही काव्य मानेंगे तो
रावण कहता है-मेरे लिए शत्रुओं का होना ही तिरस्कार है, उस पर भी यह तपस्वी मेरा शत्रु है, उसपर भी यहींपर ( लङ्क में ही ) राक्षसोंके कुल का विनाश कर रहा है । रावण जी रहा है, आश्चर्य है । इन्द्रको जीतनेवाले मेघनादको धिक्कार है।
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प्रथमः परिच्छेदः
धिग्धिक्छऋजितं, प्रबोधितवता किं कुम्भकर्णन वा
स्वर्गग्रामटिकाविलुण्ठनवृथोच्छूनैः किमेभिभुजैः' ॥ इति ।
अस्य श्लोकस्य विधेयाबिमर्शदोषदुष्टतया काव्यत्वं न स्यात् । प्रत्युत ध्वनि (स) त्वेनोत्तमकाव्यताऽस्याङ्गीकृता, तस्मादव्याप्तिलक्षणदोषः। उच्छ्वसित्येवेति भावः । शनजितं = घनादं धिक्, धिक्, येन पुरा इन्द्रोऽपि रणमुखे पराजितः तं धिक, धिक्, शक्रजितो निन्दा इति भावः । प्रबोधितवता = मासषट्कं यावन्निद्रातिशयमनुभूतवता, सम्प्रति प्रयत्नाऽतिशयेनोत्थापितेनेति भावः । कुम्भकर्णेन वा = विक्रान्ताऽग्रसरेण मन्मध्यमाऽनुजेन वा, किम् = कि फलं संजातमिति शेषः । कि बहुना-स्वर्गग्नामटिकाविलुण्ठनवृथोच्छुनः स्वर्गरूपक्षुद्रग्रामविधूननव्यर्थस्फीतः, एभिः = सनिकृष्टस्थितः, भुजः = बाहुभिः, विंशतिसंख्यकर्भारभूतर्मम बाहुभिः, कि=fक फलं, न कियपीति भावः ॥
___ अस्य-पूर्वोक्तस्य, श्लोकस्य = पद्यस्य, विधेयाऽविमर्शदोषदुष्टतया = अविमृष्टः विधेयांशदोषयुक्ततया, काव्यत्वं = काव्यलक्षणाक्रान्तत्वं, न स्यात् न भवेत्, प्रत्युत - वपरीत्ये, ध्वनित्वेन = व्यङ्गयस्य वाच्याऽतिशयित्वेन; अस्य = पूर्वोक्तस्य पद्यस्य उत्तमकाव्यता=अनिकाव्यता, अङ्गीकृता। तस्मात् = कारणाद, अव्याप्ति: लक्ष्यका देशाऽवृतित्वरूपा, लक्षणदोषः = लक्षणदूषणम् । अयं भावः । पद्यमिदं ध्वनिकाव्यत्वे नोत्तमं काव्यं, भवता च लक्षणघटकशब्दे "अदोषी शब्दाय?" इति प्रतिपादितम् । परमत्र विधेयाऽविमर्शी नाम दोषः । तस्य लक्षणमुद्देश्यविधेयपदपोवोपर्यविरहत्वम् । सच द्विविधः पदगतो वाक्यगतश्चेति, अत्रोपयगतो दोषः, यथा न्यक्कारः अयम् एव इत्यत्रेदमा उद्देश्यस्य 'न्यक्कार' पदेन विधेयस्याऽवगमो भवति, परमत्र तत्पौर्वापर्यविरहेण पदद्वयस्य क्रमविपर्ययेण स्थापितत्वाद् वाक्यगतो विधेयाऽविमर्शः । एवं च 'स्वर्गग्रामटिके"त्यत्र उच्छूनत्वमुद्दिश्य वृथात्वस्य विधेयत्वं समासे गुणीकृतमतोऽत्र पदगतो विधेयाऽविमर्शः । विधेयाऽविमर्शस्यैव नामान्तरम् अविमृष्टविधेयोऽश इति। पदाऽर्थस्तु विधेयस्य अविमर्शः= अनिर्देशः, औचित्यतः स्थापनाऽभाव: इति भावः । लक्षणया पदस्याऽस्य दोषविशेष। जगाये गये कुम्भकर्णसे भी क्या हुआ ? स्वर्गरूप छोटे गाँवको लूटनेसे व्यर्थ सूजे गये इन ( मेरे ) हाथोंसे भी क्या हुआ?
यहाँपर "अयम् एव" यह उद्देश्यवाचक पद पीछे और "न्यक्कारः" यह विधेय पद पहले प्रयुक्त हुआ है अत: वाक्यगत "विधेयाऽविमर्श" दोष हुआ है, और "विलुण्ठनवृथोच्छूनः” यहाँ पर "उद्देश्य" "उच्छून" पद पीछे और "वृथा" यह विधेय पद पहले होनेसे पदगत विधेयाविमर्श दोष हुआ है इसलिए यह श्लोक विधेयाऽविमर्श दोष रहनेसे निर्दोष नहीं है अतः यह काव्य नहीं होगा। किन्तु ध्वनिके रहनेसे यह उत्तम काव्य माना गया है, अतः इस लक्षणमें अव्याप्ति नामका लक्षण दोष हैं ।
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साहित्यदर्पणे
ननु कश्चिदेवांशोऽत्र दुष्टी न पुनः सर्वोऽपीति चेत् , हि यत्रांशे दोषः सोऽकाव्यत्वप्रयोजकः, यत्र ध्वनिः स उत्तमकाव्यत्वप्रयोजक इत्यंशाभ्यामु. भयत आकृष्यमाणमिदं काव्यमकाव्यं वा किमपि न स्यात् । न च कंचिदेवाचकत्वमथ वा विधेयस्य अविमर्शो यस्मिन् सः (व्यधिकरणबहुव्रीहिः) । अविमृष्टविधे. यांश इत्यस्याऽर्थस्तु अविमृष्टः = प्राधान्येन अनिदिष्टः ( अप्रतिपादितः ) विधयांऽशो यस्मिन् सः । एवं च अस्य श्लोकस्य="न्यक्कारो ह्ययमेवे"त्यादिरूपस्य, विधेयाऽविमर्शदोषदुष्टतया काव्यत्वं = काव्यलक्षणाऽवच्छिन्नत्वं, न स्यात् प्रत्युत = एतद्वैपरीत्येन, ध्वनित्वेन = व्यङ्गयाऽर्थप्रधानत्वेन, उत्तमकाव्यता, "वाच्याऽतिशयिनि व्यङ्गये ध्वनिस्तत्काव्यमुत्तमम् ॥" (४-१) इति लक्षणाऽनुसारेणेति भावः । अत्र ध्वनित्वं प्राचुर्येणाऽवभासते। तथाहि-"अरय" इति बहुवचनस्य, "तापस" इत्येकवचनस्य, "अव" इति सर्वनाम्नः, "निहन्ति" इति "जीवति" इति च तिङः, "अहो" इत्य. व्ययस्य "ग्रामटिका" इति करूपतद्धितस्य "विलुण्ठन” इति व्युपसर्गस्य "भुजः" इति बहुवचनस्य च व्यञ्जकत्वम् ।
ग्रन्थकारेणैव चतुर्थपरिच्छेदे श्लोकस्याऽस्य ध्वनित्वप्रदर्शनेनोत्तमकाव्यताङ्गीकृता। तस्मात् = हेतोः, अध्याप्तिः = अव्याप्तिर्नाम, लक्षणदोषः = लक्षणत्वाप्रयोजनत्वरूपो दोषः । अयं भाव: ।। अव्याप्त्यतिव्याप्त्यसम्भवदोषरहितत्वे सति असाधारणधर्मत्वं लक्षणम् । तत्र लक्ष्य कदेशाऽवृत्तिरव्याप्तिर्नाम लक्षणदोषः । यथा गोः कपिलत्वमिति लक्षणे कृते लक्ष्या = गौः, तदेकदेशः शुक्ला गौः, तत्र अवृत्तित्वं कपिलस्य, अतः गो: कपिलत्के अव्याप्तिर्नाम लक्षणदोषः । एवं च कपिलत्वं गोनं लक्षणं प्रत्युत लक्षणाऽभासः । तथैव प्रकृतेऽपि लक्ष्यं = काव्यं, तदेकदेशः निर्दोषत्वावच्छिन्नशब्दाऽर्थयुगलं, तत्राऽवृत्तित्वं दोषत्वाऽवच्छिन्नशब्दाऽर्थ युगलस्य अतः अव्याप्ति म लक्षणदोषः ।
विहितं दोषमुद्धर्तुमाशङ्कते-नन्विति । ननु अत्र=अस्मिन्काव्ये, कश्चित् एव= अल्प एव, अंशः भागः दुष्टः = दोषयुक्तः, न पुनः सर्व एव = सकल एवांशो दोषयुक्त इति चेत् ? दूषयति-तहि, यत्र = यस्मिन्, अंशे दोषः = न्यारोह्ययमेव, इति स्वर्गग्रामटिकेत्यत्र च विधेयाऽविमर्श:, सः= अंशः, अकाव्यत्वप्रयोजकः = काव्यलक्षणविघातकः, यत्र-यस्मिन् अंश, ध्वनिः = व्यङ्गयार्थप्राधान्यं, स उत्तमकाव्यत्वप्रयोजक:= काव्योत्कर्षनिर्वाहक इति,अंशाभ्यां दुष्टाऽदुष्टभागाभ्याम, उभयत: उभयत्र, आकृष्यमाणं
इस पद्यमें कुछ ही अंश दुष्ट ( दोषयुक्त ) है, संपूर्ण अश नहीं, ऐसा कहें तो जिस अंशमें दोष है वह काव्यलक्षणका निवारक होमा और जिस अंशमें ध्वनि है वह काव्यके उत्कर्षका निर्वाहक होगा। इस प्रकार दो विरोधी अंशोंसे खींचा जाकर गह काव्य वा अकाव्य कुछ भी नही होगा। वास्तवमें श्रुतिदुष्ट आदि दोष काव्यके किसी अंशको ही दूषित करते हैं यह बात भी नहीं, वे संपूर्ण काव्यको ही दूषित करते हैं।
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प्रथमः परिच्छेदः
वांशं काव्यस्य दूषयन्तः अतिदुष्टादयो दोषाः, किं तहि सर्वमेव काव्यम् । तथाहि काव्यात्मभूतस्य रसस्यानपकर्षकत्वे तेषां दोषत्वमपि नाङ्गीक्रियते । अन्यथा नित्यदोषानित्यदोषत्वव्यवस्थाऽपि न स्यात् ! यदुक्तं ध्वनिकृता
'अतिदुष्टादयो दोषा अनित्या ये च दर्शिताः।
ध्वन्यात्मन्येव शृङ्गारे ते हेया इत्युदाहृताः ॥ इति । व्यावर्यमानं सत्, इदं = न्यक्कारो ह्ययमेवेत्यकारकं पद्य काव्यम् अकाव्यं वा, किमपि= एकतरदपि, न स्यात् । ननु एकदेशविकृतमनन्यवद्भवतीति न्यायेन स्वल्पाऽशेन न सर्वांशो दूषितो भवति इति समाधातुमुपक्रमते-न चेति । श्रुतिदुष्टादयः = दुःश्रवत्व. प्रभृतयः, दोषाः, काव्यस्य, कंचिदेव अंशं = स्वल्पमेव भागं, दूषयन्तः = दोषमापादयन्तः, भवन्ति, इति न, अपि तु सर्वम् एव = सकलम् एव अवयविभूतं काव्यं दूषयन्ति इति भावः । उक्तमर्थमुपपादयति-तथा होति ।
काव्यात्मभूतस्य = काव्यस्य आत्मभूतस्य ( स्वरूपभूतस्य ) रसस्य, अनपकर्ष. कत्वे = अपकर्षाऽवर्तृत्वे सति, तेषां - श्रुतिदुष्टादीनां, दोषत्वम् अपि = दूषणत्वमपि, न अङ्गीक्रियते=न अभ्युपगम्यते, "रसाऽपकर्षका दोषा" इति दोषलक्षणत्वादिति भावः । अन्यथा = सिद्धान्तस्याऽस्य अनङ्गीकारे, नित्यदोषाऽनित्यदोषत्वव्यवस्था अपिअयं नित्यदोषः, अयम् अनित्यदोष इत्याकारिका व्यवस्था (मर्यादा), न स्यात्-नो भवेत अयं भाव: श्रुतिकटुप्रभृतयो दोषा अनित्यदोषाः, रौद्रवीरादिरसेषु अतिकट्वादिदोषाणां गुणत्वं स्वीकृतं, तथा च श्रुतिकट्वादीनां वन्यात्मके शृङ्गारादावेव दोषहेतुत्वमभ्यु.. पगतम् । अस्मिन्मथै आत्मसम्मति प्रदर्शयति- यदक्तमिति । ध्वनिकृता-आनन्दवर्धनाचार्येण । श्रुतीति । श्रुतिदुष्टादयो ये अनित्या दोषा दर्शिताः, ते ध्वन्यात्मनि शृङ्गारे एव हेया इत्युदाहृता इत्यन्वयः ।
श्रुतिदुष्टादयः = श्रुतिदुष्टाऽर्थदुष्टादयः ये अनित्या दोषा दर्शिताः । ते दोषाः ध्वन्यात्मनि शृङ्गारे एव-ध्वनिस्वरूपे शृङ्गारे एव, हेया परित्याज्या इति उदाहृताःकथिता इत्यर्थः । उक्तलक्षणे दूषणान्तरमुद्भावयितुमुपक्रमते-किचेति । जैसेकि काव्यका आस्मभूत जो रस है उसका अपकर्ष न करें तो उन श्रुतिदुष्ट आदियोंको दोष नहीं माना जाता है । यह नहीं मानेंगे तो नित्य दोष और अनित्य दोष इनकी व्यवस्था भी नहीं होगी जैसाकि ध्वनिकार ( आनन्दवर्धनाचार्य ) ने कहा है-श्रुतिदुष्ट आदि जो अनित्य दोष दिखलाये गये हैं, वे ध्वन्यात्मक शृङ्गारमें ही त्याज्य बतलाये गये हैं।
लक्षणमें "अदोषो" इस पदका निवेश करनेसे काव्यका विषय अत्यन्त विरल वा निविषय होगा सर्वथा निर्दोष तो असंभव ही है।
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साहित्यदर्पणे
किन एवं काव्यं प्रविरलविषयं निर्विषयं वा स्यात्, सर्वथा निर्दोषस्यैकान्तमसंभवात् ।
१२
नवीषदर्थे नमः प्रयोग इति चेत्तर्हि 'ईषदोषौ शब्दार्थों काव्यम्' इत्युक्ते निर्दोषयोः काव्यत्वं न स्यात् । सति संभवे 'ईषदोषौ' इति चेत्, एतदपि काव्यलक्षणे न वाच्यम् रत्नादिलक्षणे कीटानुवेधादिपरिहारवत् । नहि कीटानुवेधादयो रत्नस्य रत्नत्वं व्याहन्तुमीशाः किन्तूपादेयतारतम्यमेव
=
किंच = लक्षणे "अदोषी" इति पदस्य निवेशे सति, काव्यं लक्ष्यं प्रविरलविषयं = स्वल्पविषयं पदाद्यधिकरणेषु दोषाणां बाहुल्यात्काव्यस्य विषयोऽपि स्वल्पः स्यात् या निर्विषयं कस्यापि दोषस्य सत्त्वसंभवात् काव्यं निर्लक्ष्यं स्थात्, अत्र युक्ति प्रदर्शयति-सर्वथा==सर्वैः प्रकारैः, निर्दोषस्य दोषरहितस्य शब्दाऽर्थयुगलस्य, एकान्तम् = अत्यन्तम् असंभवात् तथा सति निरुक्तलक्षणे न केवलमव्याप्तिः प्रत्युत लक्ष्यमात्रावर्तनात् असंभवोऽपि लक्षणदोष: स्यादिति भावः ।
पुनः शङ्कते - नत्रः षडर्था भवन्ति । ते हि -
" तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता । अप्राशस्त्यं, विरोधश्च ननर्थाः षट् प्रकीर्तिताः ॥”
ततश्च अनुदरा कन्या इतिवत् "अदोषी" इत्यत्रापि ईषदर्थे नञः प्रयोग इति चेतहि "ईषद्दोषी शब्दाऽय काव्यम्” इति लक्षणं स्यात्तदा निर्दोषयोः शब्दार्थयोः काव्यत्वं न स्यात् !
पुनराशङ्कते - सतीति । सति संभवे दोषस्येति शेषः । " ईषद्दोषी" इति चेत् । - दूषयति - एतत् अपि = दोषस्य संभवे सति " ईषद्दोषी शब्दाऽय काव्यम्” इति चेतुः एतत् = संशोधनम् अपि काव्यलक्षणे अवाच्यं न कथनीयम् । रत्नादिलक्षणे कीटाऽनुवे. धादिपरिहारवत् । अयं भावः । कीटेन अनुविद्धेऽपि रत्ने रत्नत्वं यथा तिष्ठति तथैव दोष सत्यपि शब्दार्थयुगले काव्यत्वं तिष्ठत्येवेति भावः । परं कीटानुविद्धं रत्नं जना यथा परिहरन्ति तथैव सदोषं काव्यमपि जनाः परिहरेयुः इति भावः । उक्तमयं समर्थयतेन हीति । हि अस्मात्कारणात्, कीटाऽनुवेधादयः = कीटदष्टत्वादयो दोषाः, रत्नस्य रत्नत्वं, व्याहन्तुं = निवारयितुं, न ईशाः = न समर्थाः, किंतु उपादेयतारतम्यं = उपादेयस्य ( रत्नादेः ) तारतम्यं ( न्यूनाधिक्यम् ) एव कतु = विधातुम्, ईशा::
-
"अदोषी" यहाँपर अल्पार्थक नञ्प्रयोग मानकर अल्प दोषवाले शब्द और अर्थ में काव्यका लक्षण घटित नहीं
अर्थ काव्य है" ऐसा कहें तो दोषरहित शब्द और होगा | 'सति सम्भवे' इनका निवेश करके दोषों की शब्द और अर्थ काव्य हैं यह भी नहीं कहना चाहिए आदिका परिहार नहीं किया जाता है उसी तरह काव्यके
।
संभावना होने पर कम दोषवाले
रत्नके लक्षण में जैसे कीटाऽनुवेध
लक्षण में भी दोष का परिहार
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प्रथमः परिच्छेदः
कर्तुम् । तदा श्रुतिदुष्टादयोऽपि काव्यस्य । उक्तं च
'कीटानुविद्धरत्नादिसाधारण्येन काव्यता। ...
दुष्टेष्वपि मता यत्र रसाधनुगमः स्फुटः ॥ इति । . किञ्च । शब्दार्थयोः सगुणत्वविशेषणमनुपपन्नम् । गुणाना-रसकधर्म: त्वस्य 'ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः' इत्यादिना तेनैव प्रतिपादिसमर्थाः । तद्वत् = तेन तुल्यम्, अत्र = काव्ये दार्टान्तिके, श्रुतिदुष्टादयोऽपि = दुःश्रव. 'खादयो दोषा अपि, काव्यस्य काव्यत्वं व्याहन्तु = निवारयितु, न ईशा:-न समर्था इति.
भावः । उपादेयतारतम्यमेव कर्तु मीशाः । इति शेषः । - अत्राऽर्थे प्राचीनमतं निदर्शयति-कोटाऽनुविदेति । दुष्टेषु अपि, यत्र स्फुटः रसायनुगमः तत्र काव्यता कीटाऽनुविचरत्नादिसाधारण्येन मता इत्येन्वया । दुष्टेषु अपि बुतिकट्वादिदोषसहितेषु अपि रसायविषातकेचु इति शेषः यत्र-शब्दाऽययुगलेषु, स्फुटः = व्यक्तः, रसाधनुगमः = शृङ्गारादिरसाथ पलम्मा; आदिपदेन ध्वन्यादे. परिवहः । तत्र, काव्यता = काव्यलक्षणोपेतो धर्मः, कीटाऽनुविदरत्नादिसाधारण्येन% कोटरष्टरत्नादिसामान्येन, मता = सम्मता । अयं भावः । यथा कीटदष्टेष्वपि रत्नेषु रलत्वमव्याहतं तिष्ठति, तथैव श्रुतिदुष्टादिदोषयुक्तेष्वपि शब्दार्थयुगलेषु रसध्वन्याचपसम्मश्चेत् काम्यता = काव्यत्वप्रयोजकधर्मः, मता = अभिमता, अव्याहतत्वेनेति शेषः ।
इत्थं च लक्षणकोटिप्रविष्टी "मदोषो" इति पदं दूषयित्वा "सगुणो" इति पदं दूषयितुमुपक्रमते-कि चेति । शब्दार्ययोः = काव्यस्य शरीरस्थानीययोरित्यर्थः । सगुणत्वविशेषणं = सगुणत्वरूपो भेदकधर्मः इत्यर्थः । अनुपपन्नम् = उपपत्तिशून्यम् । अत्र हेतुमाह-गुणानामिति । गुणानां = माधुर्यादीनां, रसकधर्मत्वस्य = शृङ्गारादिरसमात्रधर्मत्वस्य आत्मनः शोर्यादय इव, अङ्गिनो रसस्य ये धर्माः= माधुर्यादयः । नहीं किया जा सकता है । कीड़ेसे दष्टत्व आदि दोष जैसे रत्नके रत्नत्वको नहीं हटा सकते हैं बल्कि ग्राह्यत्व में ही निकर्ष वा प्रकर्ष कर सकते हैं उसी तरह अतिदुष्ट आदि दोष भी काव्यके काव्यत्वको नहीं हटा सकते हैं केवल निकर्ष वा प्रकर्ष ही कर सकते हैं । श्रुतिदुष्ट आदि दोष भी काव्यत्वको नहीं हटा सकते हैं केवल उत्कर्षको न्यून कर सकते हैं । कहा भी है
कीड़ेसे अनुविद्ध ( दूषित ) रत्न आदिके समान दोषयुक्त शब्द और अर्थमें भी जहाँपर रस आदिकी प्रतीति स्फुट होती है वहां काव्यत्व रहता है।
इसी तरह शब्द और अर्थका "सगुणत्व" विशेषण भी उचित नहीं है, गुण रसके ही धर्म हैं यह बात गुणके लक्षणमें-"जैसे आत्माके गुण शूरता आदि है वैसे ही काव्य के आत्मरूप रसके धर्म माधुर्य आदि गुण हैं इत्यादि श्लोकसे उन्होंने ( काव्य:
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१४
साहित्यदर्पणे
तत्त्रात् । ' रसाभिव्यञ्जकत्वेनोपचारत उपपद्यत इति चेत् ? तथाऽप्ययुक्तम् । तथाहि तयोः काव्यस्वरूपेणाभिमतयोः शब्दार्थयो रसोऽस्ति, न वा ? नास्ति चेत्, गुणवत्त्वमपि नास्ति, गुणानां तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् । अस्ति चेत् ? कथं नोक्तं रसवन्ताविति विशेषणम् । गुणवत्त्वान्यथानुपपत्त्यैतल्लभ्यत इति चेत् ? तर्हि सरसां वित्येव वक्तुं युक्तम्, न सगुणाविति । नहि प्राणिमन्तो ते गुणाः" इति तेन एव = काव्यप्रकाशकारेण एव प्रतिपादितत्वात् = साधितत्वात् । तथा च काव्यलक्षणकोटावङ्गिनो रसस्य सद्भाव आवश्यको न त्वङ्गभूतस्य गुणस्येति भावः । लक्षणे पुनः 'सगुण' पदसद्भावं समर्थयते - रसाऽभिव्यञ्जकत्वेनेति । रसानां= शृङ्गारादीनाम्, अभिव्यञ्जकत्वेन = अभिव्यजन कर्तृत्वेन, उपचारतः = परम्परासम्बन्धेन, उपपद्यते = उपपन्नं भवति, शब्दार्थयोः सगुणत्व विशेषणमिति शेषः । इति चेत्, खण्डयितुमुपक्रमते - तथाऽप्ययुक्तमिति ।
तथाऽपि = उपचारतोऽपि, अयुक्तम् = अनुपपन्नम् । काव्य स्वरूपत्वेन = काव्यलक्षण· त्वेन, अभिमतयोः = सम्मतयोः, तयोः शब्दार्थयोः = वाचकवाच्ययोः, रसः = शृङ्गारादिः, अस्ति = वर्तते, न वा = नो वर्तते वा । आदौ द्वितीयदलं प्रदर्श्य निराकरोति - नाऽस्ति चेत = शब्दाऽर्थयोः रसो नाऽस्ति चेत् = नो वर्तते इति यदि, तर्हि = तदा, गुणवत्स्वमपि गुणसहितत्वम् अपि नास्ति = नो वर्तते, गुणांनां = माधुर्यादिगुणानां; तदन्वय- व्यतिरेकानुविधायित्वात् = रसाऽन्वयव्यतिरेकाऽनुसारित्वात् । तत्सत्त्वे तत्सत्त्वम् अन्वयव्याप्तिः, तदभावे तदभावो व्यतिरेकव्याप्तिः । एवं च रससत्त्वे गुणसत्त्वं रसाऽभावे गुणाभाव इत्यन्वयव्यतिरेकव्याप्तिभ्यामिति भावः ।
=
पूर्वदलं प्रदशयपालभते - अस्तीति । प्रस्तीति चेत् = शब्दाऽर्थयो रसो वर्तते यदि ? कथं शब्दार्थयोः "रसवन्ती" इति विशेषणं, नोक्तं = नाऽभिहितम् ।
-
काव्यप्रकाशका रमतं समयं पुनर्दूषयति – गुणेति । गुणवत्त्वाऽन्यथाऽनुपपत्या = गुणवत्वस्य ( गुणसहितत्वस्य ), अन्यथा ( रूगन्तरेण = रसव्यतिरेकेणेति भावः ) प्रकाशकार ने ) ही कहा है । अपने आश्रय रसके अभिव्यञ्जक होने से परम्परा सम्बन्ध से शब्द और अर्थ भी सगुण होते हैं. ऐसा कहें तो, वह भी अनुचित है-जैसे कि काव्यके लक्षण के तौर पर अभिमत शब्द और अर्थ में रस रहता है कि नहीं ? नहीं रहता है तो गुण भी नहीं रह सकते हैं, क्योंकि अन्वय व्यतिरेक सहचारसे रसमें गुण रहते हैं शब्द और अर्थमें रस है तो "रसवन्ती" ऐसा विशेषण क्यों नहीं दिया ? यदि कहें कि विना रसके गुणोंके नहीं रहने से "सरसी" ऐसा अर्थ आ ही जाता है, तो भी "सरसी" ही कहना चाहिए न कि " सगुणी " । क्योंकि "प्राणिमान् देश है" ऐसा सूचित करने के लिए शौर्यादिमान् देश है" ऐसा कोई भी नहीं कहता है । यद्यपि शौर्य प्राणीमें रहता है तथाऽपि ऐसा प्रयोग कोई नहीं करता है ।
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प्रथमः परिच्छेदः
देशा इति केनाऽप्युच्यते । ननु 'शब्दार्थौ सगुणों' इत्यनेन गुणाभिव्यञ्जको शब्दार्थी काव्ये प्रयोज्यावित्यभिप्राय इति चेत् ? न, गुणाभिव्यञ्जकशब्दार्थवत्त्वस्य काव्ये उत्कर्षमात्राधायकत्वम्, न तु स्वरूपाधायकत्वम् । उक्तं हि - 'काव्यस्य शब्दार्थौ शरीरम्, रसादिश्वात्मा, गुणाः शौर्यादिवत् ' दोषाः काणत्वादिवत् तयोऽत्रयत्र संस्थानविशेषवत्, अलङ्काराः कटककुण्डलादिवत्' इति ।
१५
अनुपपत्त्या ( उपपत्त्यभावेन ), एतत् = "रसवन्ती" इति विशेषणं, लभ्यते प्राप्यते इति चेत् । तर्हि=तदा, सरसी शब्दाऽथ इत्येव वक्तु = प्रतिपादयितुं युक्तम् = उपपन्नम्। न सगुणी शब्दार्थों इति ।
1
सिद्धान्ती स्वोक्ति समर्थयते - न हीति । प्राणिमन्तो देशा इति वक्तव्ये शो मन्तो देशा इति नहि केनाऽपि उच्यते । अयं भावः । शौर्यादिधर्मो यद्यपि प्राणिषुषु एव तिष्ठति यथा प्राणिमन्तो देशा इति अकथयित्वा शौर्यादिमन्तो देशा इति न केनाऽपि उच्यते तथैव गुणादयो धर्मा धर्मिषु रसेषु तिष्ठन्ति तथाऽपि गुणवन्ताविति पदेन रसवन्तौ शब्दार्थाविति मनसिकृत्य सवेत्सा न केनाऽपि प्रयुज्यत इति भावः । पूर्वपक्षी सगुणाविति 'विशेषणस्याऽभिप्रायान्तरं दर्शयति - शब्दाऽर्थाविति । शब्दार्थो सगुणावित्यनेन गुणाऽभियञ्जको = गुणानाम् (माधुर्यादीनाम् ) अभिव्यञ्जको (अभिव्यञ्जः कर्तारौ ) शब्दार्थी, - काव्ये प्रयोज्यौ = प्रयोक्तुमहाँ इत्यभिप्रायः = इत्याशय इति चेत् दूषयति-न गुणाभिव्यञ्जक शब्दाऽर्थवत्त्वस्य अपि = माधुर्यादिगुणाभिव्यञ्जकशब्दाऽर्थसहितत्वस्य धर्मस्य अधि काव्ये = धर्मिस्वरूपे, उत्कर्ष मात्रा धायकत्वं = प्रकर्ष मात्र धान कर्तृत्वं न तु स्वरूपाश्रा- यकत्वं = लक्षणप्रयोजकत्वम् ।
स्वोक्ति प्राचीनमत निदर्शनेनोपपादयति-उक्तं हीति । काव्यस्य = लक्ष्यस्य शब्दाऽर्थी, शरीरं देहम्, रसादिश्व आत्मा, आदिपदेन ध्वनिरसाभासादीनां ग्रहणम् । गुणा: माधुर्यादयः पुरुषस्य शौर्यादिवत् उत्कर्षाधायका इति भावः । दोषाः = श्रुत कवादयः पुरुषस्य काणत्वादिवत्, अपकर्षका इति भावः । रीतयः = पदसंघटनाः, वैदर्भातोडीपावालीलाट्य इति भावः पुरुषस्य अवयवसंस्थानवत् वर्णपदबन्धाद्यवयवभूत इति भावः । अलङ्काराश्च=अनुप्रासोपमादयश्च पुरुषस्य कटककुण्डलादिवत् शब्दामा तिशायिनो धर्मा इति भावः ।
"शब्दाऽथ सगुणी " ऐसा कहनेसे गुणों के अभिव्यञ्जक शब्द और अयोका काव्यमें प्रयोग करना चाहिए यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि गुणोंके अभिव्यञ्जक शब्द और अर्थ काव्य में उत्कर्षका ही आधान करते हैं न कि लक्षणका आधान । कहा गया है - शब्द और अर्थ काव्यके शरीर हैं, रस आदि आत्मा है । गुण शौर्य आदि हैं । दोष काणत्व आदिके सदृश हैं । वैदर्भी आदि रीतियाँ काव्य के अवयवसंस्थानविशेषकी तुल्य हैं । उपमा आदि अलङ्कार कटक और कुण्डल आदि के समान रहते हैं ।
समान
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साहित्यदर्पणे
एतेन 'अनलकृती पुनः क्वापि' इति यदुक्तम, तदपि परास्तम् । अस्यार्थः-सर्वत्र सालङ्कारौ कचित्त्वस्फुटालद्वारावपि शब्दार्थों काव्यमिति । तत्र सालङ्कारशब्दार्थयोरपि काव्ये उत्कर्षमात्राधायकत्वात् । .
___ एतेन 'वक्रोक्तिः काव्यजीवितम्' इति वक्रोक्तिजीवितकारोक्तमपि परास्तम् । वक्रोक्तरलङ्काररूपत्वात् ।
____एतेन माधुर्यादीनां गुणानामुपमादीनामलङ्काराणां च काव्यस्य न स्वरूपाधायकत्वं, शौर्यादीनां कटककुण्डलादीनां च यथा मानवस्योत्कर्षाधायकत्वमेव न स्वरूपाधायकत्वं तथवाऽत्रापि बोद्धव्यम् । "अनलकृती" इत्यंशस्य दूषणार्थम् उपक्रमत एतेनेति । एतेन% अलङ्कारादीनां कटककुण्डलादिसामान्यताकथनेन "अनलङ्कृती पुनः क्वाऽपि" इति यदुक्तं तदपि परास्तं-प्रत्याख्यातम् । उपपादयति-प्रस्य ह्यर्थ इति । सर्वत्र साऽलसारी= अलङ्कारसहितौ शब्दाऽर्थी, क्वचित्तु अस्फुटाऽलङ्कारी= अव्यक्ताऽलङ्कारी अफि शब्दाऽयो काव्यम्" इति काव्यप्रकाशस्य यदभिमतं तद् दूषयति-तत्रेति । तत्र = तस्मिन्विषये सालङ्कारशब्दार्थयोरपि = अलङ्कारोपेतशब्दार्थयोरपि काव्ये उत्कर्षमात्राधायकत्वात = प्रकर्षमात्राधानकारकत्वात्, हेतोः पूर्वप्रदशितदिशा न काव्यस्वरूपाधायकत्वमितिशेषः ।
वक्रोक्तिजीवितकारस्य कुन्तकस्य मतं बण्डयति-एतेनेति । एतेन = बलकाराणामुत्कर्षमात्राधायकत्वेन, काव्यलक्षणेऽप्रवेश्यत्वेनेति भावः । "वक्रोक्तिः काम्यजीवितम्" वक्रा ( विचित्रा ) उक्तिः (भणितिः ), सा इव काव्यजीवितं = काव्य: स्वरूपाधायकत्वेन जीवनस्थानीयं, न तु रसादिरिति शेषः, इति वक्रोक्तिजीवितकारोक्तम् अपि-कुन्तकप्रतिपादितम् अपि, पराऽस्त-निरस्तम् । अत्र हेतु प्रतिपादयतिचक्रोक्तेःअलकाररूपत्वात, वैचित्र्याधायकत्वेनेति शेषः, तथा च वक्रोक्तरुत्कर्षमात्राधायकत्वं न तु स्वरूपाधायकत्वमिति भावः । इत्थं च काव्यप्रकाशकारेण प्रतिपादितकाव्यलक्षणं साकल्येन दूषयित्वा तत्सम्मतमस्फुटालङ्कारोदाहरणं दूषयितुमारभते-यच्चेति । क्वचित् = कुत्रचित्, काव्यप्रकाश इति भावः, अस्फुटाऽलङ्कारे उदाहृतं निदर्शितम् ।
ऐसे पूर्वोक्त वचनोंसे "अनलकृती पुनः क्वाऽपि" अर्थात् कहींपर स्फुट अलङ्काररहित शब्द अर्थ भी काव्य हैं, यह कथन भी खण्डित हो गया। इसका अर्थ है-सर्वत्र अलङ्कारवाले कहींपर अस्फुट अलङ्कारवाले. शब्द और अर्थ भी काव्य होते हैं । उसमें अलङ्कारयुक्त शब्द और अर्थ भी काव्यमें उत्कर्षमात्रका आधान करते हैं, अर्थात लक्षणरूप नहीं हो सकते हैं।
इस कथनसे "वक्रोक्ति काव्यका जीवन है" ऐसा वक्रोक्तिजीवितकार (कुन्तक) का कथन भी खण्डित हो गया। क्योंकि वक्रोक्ति भी अलङ्कार है, उसका लक्षणमें निवेश नहीं हो सकता है। जो यह कहींपर ( काव्य प्रकाशमें ) अस्फुटाऽलङ्कारका उदाहरण दिया है
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प्रथमः परिच्छेदः
यच्च क्वचिदस्फुटालङ्कारत्वे उदाहृतम्- .
यः कौमारहरः स एव हि वरस्ता एव चत्रक्षपा-11 .... __स्ते चोन्मोलितमालतीसरभयः प्रौढाः कदम्मानिला। . सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधौ
रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कण्ठते । इति ।.. एतच्चिन्त्यम् । अत्र हि विभावनाविशेषोक्तिमूलस्य संदेहसङ्करालकारस्य स्फुटत्वम् ।
यः कौमारहर इति। यः कौमारहरः स एव वरो हि । ता एव चैत्रक्षपा हि । उन्मीलितमालतीसुरभयः ते एव प्रोढा: कदम्बाऽनिलाः हि । सा च एव अस्मि हि। तथाऽपि तत्र रेवारोधसि वेतसीतस्तले सुरुतव्यापारलोलाविधी चेतः समुत्कण्ठते इत्यन्वयः।
___स्वाऽधीनपतिकाया: कस्याश्चिन्नायिकाया वरोपकरणादिष्वसकृदुपभुक्तेष्वपि सखी प्रति तत्र लालसासूचिकोक्तिरियम् । हे सखि | यः कोमारहर: कुमारीभावाऽपहारकः, स एव = उपभुक्त एव, न अन्य इति भावः, वरः = परिणेता, हि = निश्चयेन, वाक्यान्तरेष्वपि इदं सम्बध्यते । एतेन उभयाऽनुरागो व्यज्यते । ता एव = पूर्वोपभुक्ता एव, चैत्रक्षपा:= मधुरात्रयः, हि । उन्मीलितमालतीसुरभयः = उन्मीलिता (विकसिता) या मालती ( वासन्तिकलता ), तया सुरभय: ( मनोहरगन्धाः ), अत्र मालतीपदेन जातिन ग्राह्या, तस्याश्चत्रे असंभवात् । ते एव = पूर्वोपभुक्ता एव, प्रौढाः= उद्दीपनप्रागल्भ्यशालिनः, कदम्बाऽनिला:धूलीकदम्बपुष्पवाता:, हि। सा च एव - तववस्था एव, हि । अस्मि = अहम् अस्मि । तथाऽपि = उपभुक्तसकलसामग्रीसत्वेऽपि, तत्र = उपभुक्ते, रेवारोधसि = नर्मक्षतटे, वेतसीतरुतले = वेतसलताऽधोभागे, सुरतव्यापार. लीलाविधी = रतिक्रियाविलासविधाने, चेतः= चित्तं; समुत्कण्ठते समुत्सुकं भवति । अत्र तावद्विभावनाविशेषोक्ती प्रतीतिपथमवतरत एव परं न स्फुटे । तद्यथा
"विमावना विना हेतु कार्योत्पत्तियंदुच्यते।" इति हि विभावनालक्षणम्
अस्मिन्पो उत्कण्ठारूपस्य कार्यस्य वरसङ्गमाभावादिकारणाऽभावेऽपि उत्पत्तेः कि विभावनाऽस्ति, उताहो कारणे वरसङ्गमादौ सत्यपि उत्कण्ठाऽभावरूपस्य फलस्य अनुत्पत्तेः विशेषोक्तिरस्ति इति द्वयोरपि विभावनाविशेषोक्तिरूपयोरलङ्कारयोः अस्फुटत्वम् इति काव्यप्रकाशकारमतम् । एतच्चिन्त्यम् = दूष्यत्वेन विचारणीयमिति भावः । तत्प्रतिपादयति-पत्र होति ।
"जिसने कुमारीभावका हरण किया है वही वर हैं, वे ही चैत्र मासकी रात्रियों हैं, और विकसित वासन्तीलतासे सुगन्धयुक्त प्रौढ ( उद्दीपन करनेवाले ) वही कदम्बवनका वायु है और मैं भी वही हूँ, इस प्रकार ये सब पहले अनुभव किये गये हैं; तोभी नर्मदाके तटमें बेतके पेड़ोंके नीचे रमण करनेके लिए चित्त उत्कण्ठित हो रहा है।"
अस्फुटालङ्कारके उदाहरणकी तौरपर दिया गया यह पद्य विचारणीय है। २सा०
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साहित्यदर्पणे
एतेन
"अदोषं गुणवत्काव्यमलङ्कारैरलस्कृतम् ।
रसान्वितं कविः कुर्वन् कीर्ति प्रीतिं च विन्दति ॥' इत्यादीनामपि काव्यलक्षणत्वमपास्तम्।। यस ध्वनिकारेणोक्तम्-'काव्यस्यात्मा ध्वनिः-' इति तरिक वस्त्व
अत्र अस्मिन् पद्य, विभावनाविशेषोक्तिमूलस्य-विभावनाविशेषोक्तिनिरूपितस्य, सन्देहसङ्कराऽलङ्कारस्य स्फुटत्वम् । अतः कथमिदमुदाहरणमस्फुटालङ्कारस्य संगच्छते । सरस्वतीकण्ठाभरणकारसम्मत काव्यलक्षणं खण्डयति-एतेनेति। एतेन="तददोषा". वित्याक्लिक्षणस्य काव्यलक्षणत्वखण्डनेन । प्रदोषमिति । कविः अदोषं गुणवत् अलङ्कारः अलङ्कृतं रसाऽन्वितं काव्यं कुर्वन् कीति प्रीति च विन्दति इत्यन्वयः ।
कविः कवयिता, अदोष-दुःश्रवत्वादिदोषरहितं, गुणवत् = माधुर्यादिगुणोपेतम्, अलङ्कारः उपमाद्यलङ्कारः, अलङ्कृतं = भूषितं, रसाऽन्वितं = शृङ्गारादिरससमन्वितं, काव्य-कविता, कुर्वन-विदधत, कीर्तिम् यशः, प्रीति च-हर्ष च, विन्दति लभते ।
इत्यादीनामपि = एवंप्रभृतीनामपि, काव्यलक्षणत्वं काव्यस्वरूपत्वम्, अपास्त= निरस्तम् । दोषगुणाऽलङ्काराणा लक्षणेऽनपेक्षितत्वादितिभावः । सम्प्रति रसमात्रध्वनेः काव्यत्वं सिसाधयिषुर्वस्त्वलङ्कारयोस्तनिरस्यन् ध्वनिकारमतं खण्डयितु प्रवर्ततेयत्त्विति । ध्वनिकारेण = आनन्दवर्द्धनाचार्येण, यद, उक्तम् = अभिहितम् । “काव्यस्याऽऽत्मा ध्वनि" रिति । ध्वनिः =वाच्याऽतिशायी व्यङ्गयः, काव्यस्य आत्मा = इसमें विभावना ओर विशेषोक्ति हेतुवाला सन्देहसङ्कर बलङ्कार स्फुट है इससे इसे अस्फुट अलङ्कार कहना उचित नहीं।
___ कारणके विना जहाँ कार्यकी उत्पत्तिका वर्णन है वहीं विभावना अलङ्कार होता है, जैसे कि यहाँप र वरसङ्गम आदिके अभाव आदि कारणके न होनेपर भी उत्कण्ठारूप कार्यकी उत्पत्ति होनेसे विभावना अलङ्कार हो सकता है, इसी तरह वर आदि कारणोंके होनेपर भी उत्कण्ठाके अभावरूप फलको उत्पत्ति न होनेसे विशेषोक्ति अलङ्कार हो सकता है, इस प्रकार दोनों अलङ्कारोंको अस्फुटता है मत एव यह अस्फुट अलङ्कार है काव्यप्रकाशकारका यह कथन भी अनुचित है क्योंकि यहाँपर विभावना. विशेषोक्तिमूलक सन्देहसङ्कर अलङ्कार स्फुट है।
____इस कथनसे-अदोषम् । दोषसे रहित, गुणवाला, अलङ्कारोंसे अलङ्कृत रससे युक्त काव्यकी रचना करनेवाला कवि कीति और प्रीतिको प्राप्त करता है। इत्यादि कान्यलक्षण भी खण्डित हो गया, क्योंकि अदोषत्व, सगुणत्व, अलङ्कारसहितत्व इनका काव्यके लक्षणमें समावेश नहीं हो सकता है।
ध्वनिकारने जो कहा है- "काव्यस्यात्मा ध्वनिः" अर्थात् काव्यकी आत्मा
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प्रथमः परिच्छेदः
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लवाररसादिलक्षणनिरूपी ध्वनिः काव्यस्यात्मा, उत रसादिरूपमात्रो वा ? नाद्यः,-प्रहेलिकादावतिव्याप्तः। द्वितीयश्चेदोमिति ब्रूमः।
ननु यदि रसादिरूपमात्रो ध्वनिः काव्यस्यात्मा, तदा
अत्ता एत्थ णिमज्जइ, एस्थ अहं, दिप्रस पलोएहि । ___ मा पहिल रत्तिअन्धिअ ! सेज्जाए मह णिमज्जहिसि ।। आत्मस्थानीय इति । तन्मतं खण्डयितुमनुयुङ्क्ते-तदिति । तत् = तहि, वस्त्वलहाररसादिलक्षणः = वस्तु ( अनलङ्कारं वस्तुमात्रम् ) अलङ्कारः ( शब्दाऽर्थयोः शोभाऽतिशायी धर्मः), रसः (शृङ्गारादिः), आदिपदेन रसभावाभासादयः असंलक्ष्यक्रमभेदाः, लक्षणं यस्य सः इत्थं च त्रिरूप:-त्रिप्रकारः, ध्वनिः, काव्यस्याऽत्मा, उतअथवा, रसादिरूपमात्रो वा । अत्र मात्रपदेन वस्त्वलकारव्यावृत्तिः । न आद्यः = न प्रथमः त्रिरूपो ध्वनिर्न काव्यस्याऽऽत्मेति भावः । तत्र हेतुमुपन्यस्यति-प्रहेलिकादावतिव्याप्तेः । प्रहेलिकादो-वस्तुरूपे ध्वनौ, अतिव्याप्तेः अतिप्रसक्तेः । लक्ष्यवृत्तित्वे सति अलक्ष्यवृत्तित्वं हि अतिव्याप्तेः स्वरूपम् । यथा गोलक्षणे शृङ्गित्वस्य लक्ष्यभूते गवि वृत्तित्वेऽपि अलक्ष्ये महिषेऽपि वृत्तेः शृङ्गित्वस्य यथा अतिव्याप्तिस्तथा प्रकृतेऽपि त्रिरूपे ध्वनी काव्यात्मनि मते, अलक्ष्ये प्रहेलिकादावपि अतिव्याप्तिः ( अतिप्रसक्तिः) स्यात् । प्रहेलिका नाम व्यङ्गयाऽर्थविशेषो नीरसो वाक्यविशेषः । यथा
"तरुण्यालिङ्गितः कण्ठे नितम्बस्थलमाश्रितः । गुरूणां सन्निधानेऽपि कः कुजति मुहुर्मुहुः ? ॥" इत्यादावित्यर्थः । अत्र किश्चिदूनजलघटरूपं वस्तु व्यङ्गयम् । अस्य रसपरिपन्थित्वान्नाऽङ्कारत्वं किमुत काव्यत्वमिति भावः ।
द्वितीयं पक्षमुपस्थापयति-द्वितीयश्चेत् = रसादिरूपमात्रो वा यदि, काव्यस्यात्मेतिशेषः । स्वीकरोति-मोमिति बमः। ओमित्यङ्गीकाराऽर्थकमव्ययम् । "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' इत्यस्मत्पक्षत्वात् । पुनराशङ्कते-नन्विति । द्वितीयपक्षाऽनुसारेण रसादिरूपमात्रः = वस्त्वलङ्काररहितः । ध्वनिः = व्यङ्गचविशेषः, काव्यस्य आरमा = स्वरूपं, यदि = चेत्, तदा = तहि-प्रत्तेति । रात्र्यन्धत्वेन कथितात्मानं निजगृहे कृतावासं पान्थं प्रति स्वयं दूत्या उक्तिरियम् । अत्र अत्ता निमज्जति, अत्र अहं, ध्वनि है। यहां हम पूछते हैं वस्तु अलङ्कार और रसादिक इन सबकी ध्वनियोंको आप काव्यको आत्मा मानते हैं वा केवल रसादिकी ध्वनिको? इनमें पहला पक्ष ठीक नहीं है, प्रहेलिका ( पहेली) आदि वस्तुरूप ध्वनिमें अतिव्याप्ति हो जायगी। जहां अलक्ष्य में लक्षण जाता है उसे अतिव्याप्ति कहते हैं। इनमें दूसरा पक्ष-केवल रसादिकी ध्वनिको काव्य मानते हैं तो हम मजूर करते हैं।
फिर प्रश्न करते हैं-केवल रसादि ध्वनिको काव्यकी आत्मा मानते हैं तो"श्वश्रूरत्र निमज्जति०॥
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साहित्यदर्पणे
[श्वश्रूरत्र निमज्जति, अत्राह, दिवसकं प्रलोकय ।
मा पथिक ! राज्यन्धक ! शय्यायां मम निमक्ष्यसि ॥]
इत्यादौ वस्तुमात्रस्य व्यङ्गयत्वे कथं कान्यव्यवहार इति चेत् ? न,अत्रापि रसाभासवत्तयैवेति नमः, अन्यथा 'देवदत्तो प्रामं याति' इति वाक्ये तभृत्यस्य तदनुसरणरूपव्यकथावगतेरपि काव्यत्वं स्यात् । अस्त्विति चेत् ? न, रसवत एव काव्यत्वाङ्गीकारात्।
___ काव्यस्य प्रयोजनं हि रसास्वादसुखपिण्डदानद्वारा वेदशास्त्रविमुखानां दिवसकं प्रलोकय । रात्र्यन्धक हे पथिक ! आवयोः शय्यायां मा निमक्ष्यसि इत्यन्वयः । अत्र = अस्मिन्स्थाने, अत्ता = श्वश्रूः, श्वश्रूवाचकोऽत्ताशब्दो देशीभाषायां प्रयुज्यते । निमज्जति जलमग्ना इव तिष्ठति, मृतप्रायेव वतंत इति भावः । अहं = नायिका, अत्र, तिष्ठामि; दिवसक = दिवसम् एव प्रलोकय = सम्यक् पश्य-हे रात्र्यन्ध पथिक ! आवयोः = श्वश्रूस्नुषयोः, शय्यायां = शयनस्थाने, मा निमक्ष्यसि = नो मज्जनं करिष्यसि, इत्यादी = लक्ष्ये, वस्तुमात्रस्य = ममैव शम्यायां निर्भयं समा. गच्छेति वस्तुमात्रस्य, व्यङ्गयत्वे व्यञ्जनावृत्या प्रतीयमानत्वे, कथं केन प्रकारेण, काव्यव्यवहार: काव्यव्यपदेशः, अत्र रसप्रतीतेरभावादितिशेषः, इति चेत् ? समाधत्ते-नेति। न-इत्थमाशङ्का न कर्तव्या, अबाऽपि = अस्मिन्नपि, रसाभासवत्ता एव = रसाऽऽभासविशिष्टता एव, काव्यव्यवहारकारणमिति ब्रूमः । अयं भावः । अत्र स्वयं दूत्याः पुंश्चल्या नायिकाया उपनामकरूपपथिकसंस्थायां रतौ शृङ्गाराऽभासत्वमिति भावः । अन्यथा = वस्तुमात्रस्य व्यङ्गयस्वेऽपि काव्यत्वस्वीकारे, "देवदत्तो ग्रामं याति" इति वाक्ये, तद्भत्यस्य = देवदत्ताऽनुचरस्य, तदनुसरणरूपव्यङ्गयाऽवगतेरपि = देवदत्तानुगमनरूपव्यङ्गयज्ञानस्य अपि । काव्यत्वं स्यात्, अस्विति चेत् ? रसवत एव-रसविशिष्टवाक्यस्य एव 'काव्यत्वाङ्गीकारात् । नीरसस्य वाक्यस्य काव्यत्वाऽस्वीकारे हेतुमाह-काव्यस्य प्रयोजनमिति । काव्यस्य प्रयोजनम् = उद्देश्य, रसास्वादसुखपिण्डदानद्वारा = रसा
"इस स्थानपर मेरी सास निद्रामें निमग्न होती है और यहाँपर मैं सो जाती हूं। हे रतौंधीवाले पान्थ ! यह दिनमें ही देख लो, कहीं मेरी शय्यापर नहीं आना।" यह स्वयं दूतीकी उक्ति है । इत्यादि स्थलमें जहां वस्तुमात्र व्यङ्गय होता है वहां कंसे काव्यका व्यवहार होगा ? उत्तर देते हैं, यहाँ भी रसाभास होनेसे ही हम काव्य मानते हैं। यहां स्वयं दूतीकी उपनायकरूप पथिकमें रति होनेसे यह शृङ्गाराभास है यह तात्पर्य है । आस्वादका विषय होनेसे यह भी काव्यकोटिमें आ सकता है। - ऐसा न मानें तो "देवदत्त गांवको जाता है" इस वाक्यमें देवदत्तके नौकरके उसका अनुसरणरूप व्यङ्गय अर्थमें भी काव्यका लक्षण जायगा। ऐसा ही हो, क्या हर्ज है ? ऐसा कहना नहीं चाहिए, क्योंकि हम रसयुक्त वाक्यको ही काव्य मानते हैं । काव्यका उद्देश्य शृङ्गार आदि रसका आस्वादनरूप हर्षसमूहके दानरूप उपायसे वेद
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प्रथमः परिच्छेदः
सुकुमारमतीनां राजपुत्रादीनां विनेयानां 'रामादिवत्प्रवर्तितव्यं न रावणादिवत' इत्यादिकृत्याकृत्यप्रवृत्तिनिवृत्त्युपदेश इति चिरन्तनरप्युक्तत्वात् । तथा चाग्नेयपुराणेऽप्युक्तम्-'वाग्वेदग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम्' इति ।
__ व्यक्तिविवेककारेणाऽप्युक्तं-'काव्यस्यात्मनि संज्ञिनि, रसादिरूपे न कस्यचिद्विमतिः' इति । ध्वनिकारेणाऽप्युक्तम्-'नहि कवेरितिवृत्तमात्रनिर्वाहेणात्मपदलाभः, इतिहासादेरेव तत्सिद्धेः' इत्यादि। स्वादः (शृङ्गारादिरसास्वादनम् ) एव सुखपिण्डं ( हर्षसमूहः ), "मुखपिण्डम्" इति पाठान्तरे प्रधानकवल इत्यर्थः । तद्दानद्वारा = तद्वितरणोपायेन, वेदशास्त्रविमुखानां = श्रुतिशास्त्रपराङ्मुखाना, काठिन्याद्वेदशास्त्राऽध्ययनाऽसमर्थानामिति भावः । सुकुमारमतीनाम् = अतिकोमलबुद्धीना, राजपुत्रादीनां राजकुमारप्रभृतीनां, विनेयानां = शिक्षणीयानां, रामादिवत् राघवादिवत्, प्रवर्तितव्यं चेष्टनीयं, पित्राज्ञापरिपालनादा. वितिभावः । रावणादिवत्-दशाननवत्, न प्रवर्तितव्यं न चेष्टनीयं, परदारहरणादाविति भावः । इत्यादिकृत्याऽकृत्यप्रवृत्तिनिवृत्युपदेशः कृत्ये ( कर्तव्गे ) प्रवृत्तेः ( प्रवर्तनस्य ), अकृत्ये (अकर्तव्ये निषिद्धकार्य इति भाव:) निवृत्तेः (निवर्तनस्य) च, उपदेशः (शिक्षणम्)। इति, चिरन्तनरपि = प्राचीनैराचार्यः अपि, उक्तत्वात् = अभिहितत्वात् । तदुक्तं
"स्वादुकाव्यरसोन्मित्रं वाक्याऽर्थमुपयुञ्जते।
प्रथमाऽऽलीढमधवः पिबन्ति कटु भेषजम् ॥” इति । काव्यस्य रसस्वरूपत्व आप्तसम्मती: प्रदर्शयति-तथा चेति । "वाग्वदग्ध्यप्रधानेऽपि = उक्तवंचित्र्य प्रमुखेऽपि, अत्र = अस्मिन् काव्ये, रस एव = शृङ्गारादिरेव, जीवित = जीवनं, नो गुणाऽलङ्कारादिति परिसंख्या ( आग्नेयपुराणम् )। व्यक्तिविवेककारेण-आचार्यमहिमभट्ट न, अपि उक्तं-काव्यस्येति । रसाऽऽदिरूपे संज्ञिनि = रसादिनामधेये, काव्यस्य, आत्मनि आत्मस्वरूपे, कस्यचित् = कस्याऽपि, सहृदयस्याचार्यस्येति शेषः, विमतिः = विरुद्धा मतिः, न = नो वर्तत इति भावः । “सङ्गिनि" इति अपपाठः, व्यक्तिविवेके तादृशपाठाऽनुपलम्मात् । ध्वनिकारेणाऽपि = आनन्दवर्द्धनाचार्येणाऽपि, उक्तम-इतिवृत्तमात्रनिर्वाहेण केवलयथार्थचरित्रनिर्वहणेन, आत्मलाभः = कविसंज्ञाप्राप्तिः, न, इतिहासादेरेव = इतिहासपुगणादेरेव, तत्सिद्धेः = इतिवृत्तलामात् । आदि शास्त्रों में विमुख, शिक्षाके योग्य, राजपुत्र आदि सुकुमार बुद्धिवालोंको राम आदिके समान आचरण करना चाहिए, रावण आदिके समान नहीं, इत्यादि कर्तव्यमें प्रवृत्ति और अकर्तव्यमें निवृत्तिका उपदेश देना है ऐसा प्राचीन आचार्योने भी कहा है । उसी तरह अग्निपुराणमें भी कहा है-"काव्यमें उक्तिचित्र्यकी प्रधानता होनेपर भी रस ही जीवन है"। "व्यक्तिविवेककार ( महिमभट्ट ) ने भी कहा है-रस आदि नामवाले काव्यके स्वरूपमें किसीको विवाद नहीं है। ध्वनिकार ( आनन्दवर्धनाचार्य ) ने भी कहा है-इतिवृत्त ( चरित्र ) मात्र लिखनेसे कविको कविपदकी प्राप्ति नहीं होती है, क्योंकि चरित्रमात्रकी सिद्धि तो इतिहास पुराण आदिसे ही हो जाती है ।
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साहित्यदर्पणे
ननु तहि प्रबन्धान्तवर्तिनां केषांचिन्नीरसानां पद्यानां काव्यत्व न स्यादिति चेत् ? न, रसवत्पद्यान्तर्गतनीरसपदानामिव पद्यरसेन, प्रबन्धरसेनंव तेषां रसवत्ताङ्गीकारात् । यत्त नीरसेष्वपि गुणाभिव्यञ्जकवर्णसद्भावाहोषाभावादलकारसद्भावाच काव्यव्यवहारःस रसादिमत्काव्यबन्धसाम्याद् गौण एव ।
यत्त वामनेनोक्तम्-'रीतिरात्मा कान्यस्य' इति, तन्न, रोतेः संघटनाविशेषत्वात्। संघटनायाश्चावयवसंस्थानरूपत्वात् , आत्मनश्च तद्भिन्नत्वात् ।
पुनराशते-नन्विति । ननु = रसवदेव काव्यं यदि, तहि = तदा, प्रबन्धाऽ. न्तर्वतिनां = काव्यमध्यस्थिताना, नीरसानां = रसरहिताना, पद्यानां छन्दोबद्धपदानां, काव्यत्वं = काव्यलक्षणघटितत्वं, न स्यात् इति चेत्,
समाधत्ते-नेति । रसवत्पद्याऽन्तर्गतनीरसपदानां = रसयुक्तपद्यान्तःस्थितरसरहितशम्दानां, पद्यरसेन इव = पद्यस्थितशृङ्गारादिरसेन इव, तेषां = नीरसानां पद्यानां, प्रबन्धरसेनव-काव्यस्थितशृङ्गारादिरसेनव, रसवत्ताऽङ्गीकारात्-रसयुक्ततास्वीकारात् । पुनराशय समाधते-यत्त्विति । यत्तु नीरसेष्वपि = रसरहितेष्वपि, वाक्येष्विति शेषः । गुणाऽभिव्यञ्जकवर्णसद्भावात् = माधुर्यादिगुणाऽभिव्यञ्जनकारकाऽक्षरसत्त्वात्, दोषाऽभावात् दुःश्रवत्वादिदोषाऽभावात् । अलङ्कारसद्भावात्र-उपमाद्यलङ्कारमत्त्वाच्च । काव्यन्यवहारः = काव्यव्यपदेशः, सः = व्यपदेशः । रसाऽऽदिमत्काव्यप्रबन्धसाम्यात् = शृङ्गारादिरसविशिष्टकाव्यप्रबन्धसादृश्याद्धेतो., गौण एव-अमुख्य एव इति भावः।
पुनः प्राचीनं मतद्वयं खण्डयितुमुपक्रमते । तत्राचार्यवामनमतं प्रथम खण्डयतियत्त वामनेन = काव्याऽलङ्कारक; आचार्यवामनेन । काव्यस्य आत्मा, रीतिः = वंदर्यादिरिति भावः, सिद्धान्तो खण्डयति-तन-रीते: काव्यस्य आत्मत्वं नेति भावः । स्वमतमुपपादयति रीते:-वेदादेः, संघटनाविशेषत्वात् = पदसंघटनाभेदत्वात्, गुणाभिव्यञकशब्दविन्यासरूपत्वादिति भावः । संघटनायाश्व-संयोजनायाश्च । अवयवसंस्थानरूपत्वात् = तत्तदङ्गसंनिवेशस्वरूपत्वात् । आत्मनश्च = अङ्गिभूतस्य काव्यम्य,
प्रश्न करते है कि रसयुक्त वाक्य ही काव्य होते हैं तो प्रबन्ध ( काव्य ) के भीतर रहे हुए कुछ नीरस पद्य भी काव्य होंगे, इसका उत्तर देते हैं-पद्योंके भीतर रहे हुए कुछ नीरस पद जैसे उस पद्यके रससे रसवाले माने जाते हैं वैसे ही प्रबन्धके रससे वे नीरस पद्य भी सरस माने जाते हैं। जो नीरस वाक्योंमें भी गुणोंके अभिव्यञ्जक वर्णोके होनेसे दोषोंके न होनेसे और अलङ्कारोंके होनेसे काव्यका व्यवहार होता है वह रस आदिसे युक्त काव्यको रचनाकी तुल्यताके कारण गौण ( लाक्षणिक ) प्रयोग है।
वामन आचार्यने "काव्यको आत्मा रीति है" ऐसा जो कहा है वह ठीक नहीं। रीति संघटना ( पदरचना ) स्वरूप है, संघटना अवयवसंस्थानस्वरूप है, आत्मा उससे भिन्न होती हैं । इसलिए वैदर्भी आदि रीति काव्यकी आत्मा नहीं हो सकती है।
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प्रथमः परिच्छेदः
यच्च ध्वनिकारेणोक्तम्'अर्थः सहृदयश्लाघ्यः काव्यात्मा यो व्यवस्थितः ।
वाच्यप्रतीयमानाख्यौ तस्य भेदावुभौ स्मृतौ ॥ इति ।
अत्र वाच्यात्मत्वं 'काव्यस्यात्मा ध्वनि:-' इति स्ववचनविरोधादेवापास्तम्।
तत्किं पुनः काव्यमित्युच्यते
तद्भिन्नत्वात अवयवसंस्थानभिन्नत्वात् । इत्थं रीतेः काव्यात्मस्वं निरस्य पुनर्वनिकारमत निरसितुमारभते-यच्वेति । . ध्वनिकारेण = आनन्दवर्धनाचायेंण, उक्तम् = अभिहितम् ।
अर्थ इति । सहृदयश्लाध्यः योऽर्थः काव्यात्मा व्यवस्थितः । तस्य वाच्यप्रतीयमानाख्यो उभो भेदी स्मृतावित्यन्वयः।
सहृदयश्लाघ्य:- हृदयालुभिः प्रशंसनीयः, यः, अर्थः = अभिधेयः, काव्यात्मा= काव्यस्य आत्मभूतः, व्यवस्थितः प्रतिपादितः, तस्य = अर्थस्य, वाच्यप्रतीयमानाख्यो वाच्यप्रतीयमाननामधेयो, उभो-द्वौ, भेदो प्रकारो, स्मृतो= चिन्तितो। .
___ऽवनिकारमतं खण्डयति-प्रति । अत्र-अस्यामुक्ती, वाच्यस्य अभिधावृत्तिप्रतिपाद्यस्य अर्थस्य, आत्मत्वम् = आत्मस्थानीयत्वम्, "काव्यस्यात्मा ध्वनिः" इति स्ववचनविरोधात-पूर्वप्रतिपादितनिजवाक्यविरोधात् एव, अपास्तं खण्डितम् ।
ननु भवता मम्मट भट्टस्य, आनन्दवर्धनाचार्यस्य, वामनस्य च मतानि खण्डितान्येव परं स्वमतं न प्रदर्शितम् ।
किमियं वितण्डा ? इति पराक्षेपमाशङ्कय स्वसिद्धान्ताऽनुसारेण काव्यलक्षणं प्रदर्शयितमपक्रमते-तदिति । तत्=तहि, किं पुनः काव्य-निर्दुष्टं काव्यलक्षणं किम् ? इति उच्यते = अप्रिधीयते ।
वाक्यमिति । रसात्मकं वाक्यं काव्यम् । रसस्वरूपं = रसलक्षणं, निरूपयिध्यामः = प्रतिपादयिष्यामः । तृतीयपरिच्छेदे इति शेषः ।
ध्वनिकारने जो कहा है-"सहृदयोंसे प्रशंसनीय जो अर्थ काव्यकी आत्माके रूपमें व्यवस्थित है, उसके वाच्य और प्रतीयमान दो भेद होते हैं" यहाँपर वाच्य अर्थको जो आत्मा मान लिया है वह उनके पूर्वकथित "काव्यकी आत्मा ध्वनि है" इस वन्नसे विरद्ध होनेसे खण्डित हो गया है ।
तब फिर काव्यका लक्षण क्या है ? उस प्रश्नका उत्तर देते हैं-रसस्वरूप वाक्यको काव्य कहते हैं । रसके स्वरूपका निरूपण ( तृतीयपरिच्छेदमें ) करेंगे।
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साहित्यदर्पणे
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वाक्यं रसात्मकं काव्यम्रसस्वरूपं निरूपयिष्यामः। रस एयात्मा साररूपतया जीवनाधायको यस्य, तेन विना तस्य काव्यत्वाऽभावस्य प्रतिपादितत्वात् । 'रस्यते इति रसः' इति व्युत्पत्तियोगाद् भावतदाभासादयोऽपि गृह्यन्ते।
तत्र रसो यथाशुन्यं पासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय कित्रिच्छने
निद्राब्याजमुपागतस्य सुचिरं निर्वर्ण्य पत्युमुखम् ।
"रसात्मकम्” इति पदं व्युत्पादयति । रस एवेति । अत्र रसपदेन असंलक्ष्यक्रमभेदानां सर्वेषां परिग्रहः । अत्र अन्ययोगव्यवच्छेदाऽर्थकेन एवपदेन गुणाऽलङ्कारादीनां व्यवच्छेदः । साररूपतया स्थिरांऽशरूपत्वेन, जीवनाधायकः = काव्यलक्षणप्रयोजकः । तेन विना=रसेन विना तस्य-वाक्यस्य, काव्यत्वाऽभावस्य, प्रतिपादितत्वात् "देवदत्तो ग्रामं याती"त्यादि ग्रन्थेनेति भावः । रस्यते आस्वाद्यत इति रस:-"रस आस्वादने" इति धातो कर्मकर्तरि घन, इति व्युत्पत्तियोगात् = प्रकृतिप्रत्ययविवेचनसम्बन्धात । भावतदामासादयोऽपि =भावा:, तदाभासा:-रसाभासा भावाभासाश्च । एव च आदिपदेन भावशान्तिः, भावोदयः, भावसन्धिर्भावशबलता चंते सर्वेपि गृह्यन्ते । तेषां सर्वेषा. मास्वादविषयत्वादिति भावः।
तत्र रसो यथा-शन्यमिति । बाला वासगृहं शून्यं विलोक्य शनैः किञ्चित उत्थाय निद्राव्याजम उपागतस्य पत्युर्मुखं सुचिरं निर्वर्ण्य विश्रब्धं परिचुम्ब्य जात पुलकर गण्डस्थलीम् आलोक्य लज्जानम्रमुखी (सती) हसता प्रियेण चिरं चुम्बिता इत्यन्वयः ।
वाला = तरुणी, नवपरिणीता वधूरित्यर्थः। वासगृहं = गर्भाऽगारं, शून्यं = विविक्तं, सखीजनरहितमिति भावः । विलोक्य दृष्ट्वा, शनः मन्दं, निःशब्दमिति भावः । किञ्चिद, उत्थाय-उत्थानं कृत्वा, निद्राच्या = स्वापच्छलम्, उपागतस्य प्राप्तस्य, नायिकायाः कार्यदर्शनार्थमिति भावः। पत्युः = भतु:, प्रियस्येत्यर्थः । मुखम् = आननं, सुचिर-दीर्घकालं, निर्वर्ण्य = दृष्ट्वा, अयं निद्राणोऽस्ति नोवेति परीक्षार्थमिति शेषः ।
सारस्वरूप होनेसे रस ही जिसके जीवनका आधान करने वाला है ऐसे रसात्मक वाक्यको काव्य कहते हैं । रसके विना वाक्यमें काव्यता नहीं रहती है इस बातका प्रतिपादन कर चुके हैं। जिसका आस्वादन किया जाता है वह रस है" ऐसी व्युत्पत्ति करनेसे भाव और रसाभास आदियोंका भी ग्रहण होता है। उनमें रसका उदाहरण देते हैं-"नवोढा नायिकाने कमरेको ( सखी आदियोंसे ) शून्य देकर पलंगसे धीरे धीरे उठकर नींदके बहानेसे लेटे हुए पति के मुखको बहुत समय तक देखकर विभास
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प्रथमः परिच्छेदः
विस्रब्धं परिचुम्ब्य जातपुलकामालोक्य गण्डस्थलीं जनमुखी प्रियेण हसता बाला चिरं चुम्बिता ॥ अत्र हि संभोगशृङ्गाराख्यो रसः ।
भावो यथा महापात्र राघवानन्द सान्धिविग्रहिकाणाम्
२५
विश्रब्धं = विश्वासपूर्वक, निःशङ्कमिति भावः, यथा स्यात्तथा परिचुम्ब्य = परिचुम्बनं कृत्वा, तदनु जातपुलकां = रोमान्चयुक्तां, गण्डस्थलों = कपोलफलकं, पत्युरिति शेषः । आलोक्य = दृष्ट्वा, लज्जानम्रमुखी = व्रीडाऽवनतवदना सती, सा बाला, हसता = हा कुर्वता, प्रियेण = वल्लभेन, पत्या इत्यर्थः । चिरं = बहुकालं यावत् चुम्बिता = चुम्बनविषयीकृता ।
अत्र बाला प्रियश्च आलम्बनविभावो । शून्यवासगृहादिरुद्दीपनविभावः, बालाकृतविलोकनादयः प्रियविहितव्याज निद्रादयश्चाऽनुभावाः । लज्जाहासादयो व्यभिचारिभावाः, एतैर्व्यक्तः रत्याख्यः स्थायिभावो रसरूपतां प्राप्तः । स च रसः शृङ्गारः, स च द्विविध: संभोगो विप्रलम्भश्च । अत्र कतरो रस इत्याकाङ्गायामाह - अत्र हीति । अत्र = अस्मिन् पद्म े, संभोगशृङ्गाराख्यो रसः ।
भावो यथेति - "सधारिणः प्रधानानि देवादिविषया रतिः । उद्बुद्धमात्र: स्थायी च भाव इत्यभिधीयते ॥ "
इत्युक्तलक्षणं भावमुदाहरति - ( ३- २६० )
महापात्रेति । महापात्रः = ब्राह्मणविशेषः, महामन्त्री इति कचित् । सान्धिविग्रहिक इति सन्धिविग्रहकार्यनियुक्तो राजकर्मचारिविशेषः । भावकाव्यमुदाहरति यस्थालीयतेति । अत्र तावद्भगवतो दशावतारवर्णनम् । यस्य शल्कसीम्नि जलधि: अलीयत, पृष्ठे जगन्मङ्गलम् ( अलीयत ) । दंष्ट्रायां धरणी ( अलीयत । नखे दितिसुताऽधीशः ( अलीयत ), पदे रोदसी ( अलीयेताम् ), क्रोधे क्षत्रगण: ( अलीयत), शरे दशमुखः ( अलीयत ), पाणी प्रलम्बाऽसुरः ( अलीयत ), ध्याने विश्वम् ( अलीयत ), असौ free (अलीयत ) कस्मैचित् अस्मै नम इत्यन्वयः ।
पूर्वक चुम्बन किया, परन्तु उसके कपोलको रोमान्चित जानकर वह लज्जासे अवनतमुखवाली हो गई ।
तब हँसते हुए नायकने बहुत समयतक उसका चुम्बन किया। इस पद्यमें संभोगशृङ्गार नामका रस है ।
महापात्र राघवानन्द सान्धिविग्रहिककृत भावका उदाहरण- इस पद्यमें विष्णु के दश अवतारोंका वर्णन है जिस ( मत्स्य ) के वल्कलके अवयवमें समुद्र लीन हुआ, जिस ( कच्छप ) की पीठपर भूमण्डल लीन हुआ। जिस ( वराह ) की दंष्ट्रा ( ढाढ़ )में पृथ्वी लीन हुई । जिस (नृसिंह ) के नखमें दैत्योंका अधिपति ( हिरण्यकशिपु )
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साहित्यदर्पणे
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यस्यालीगत शल्कसीम्नि जलधिः, पृष्ठे जगन्मण्डलं'
दंष्ट्रायां धरणी, नखे दितिसुताधीशः, पदे रोदसी। क्रोधे क्षत्रगणः, शरे दशमुखः, पाणी प्रलम्बासुरो,
ध्याने विश्वमसावधार्मिककुलं, कस्मैचिदस्मै नमः ।। अत्र भगवद्विषया रतिर्भावः।
यस्य = नारायणस्य, शल्कसीम्नि = वल्कलकदेशे. जलधिः = समुद्रः, अलीयत= लीनोऽभवत्, पदमिदं दशस्वपि वाक्येषु प्रयोज्यम् । अनेन मत्स्याऽवतारो वर्णितः । यस्य पृष्ठे = तनोश्चरमभागे, जगन्मण्डलं = लोकचक्रवालम, अलीयत, अनेन कच्छपाऽवतारो वर्णितः । यस्य दंष्ट्रायां = दशनमण्डले, धरणी = पृथ्वी, अलीयत लीनाऽभवत्, एतेन वराहावतारः । यस्य नखे = नखरे, दितिसुताऽधीशः = दैत्याऽधीश्वरः, हिरण्यकशिपु. रिति भावः अलीयत । अनेन नृसिंहाऽवतारः। यस्य पदे = पादे, रोदसी = आकाशपृथिव्यो, "अलीयेताम्" इति वचनविपरिणामः । लीने अभवतामित्यर्थः, अनेन वामनावतारः । यस्य क्रोधे = कोपे, क्षत्त्रगणः = राजन्य समूहः, अलीयत, अनेन परशुरामाऽवतारः । यस्य शरे = बाणे, दशमुखः = रावणः, अलीयत एतेन रामाऽवतारः । यस्य पाणी = करे, प्रलम्बाऽसुरः = प्रलम्बदत्य:, अलीयत, एतेन बलरामाऽवतारः । यस्य ध्याने = चिन्तने, विश्वं = जगत, अलीयत, एतेन बुद्धायतारः एवं च यस्य सौ = खड्गे, अधार्मिककुलं = म्लेच्छादिनास्तिकसमूहः, अलीयत = लीनमभवत् : 'स्मेचित् अनिर्वचनीयमहिम्ने, अस्म = भगवते नारायणाय नमः ।
नन्वत्राऽष्टमावतारे भगवन्तं श्रीकृष्णं विहाय कथ बलरामस्योक्तिरिति चेत् ? न "अन्ये चांऽशकलाः प्रोक्ताः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्" इति उचनेन भगवतः श्रं कृष्णस्य सर्गऽवतारमूलभूतं भगवत्त्वं व्यपदिष्टम् । अत्र भक्तस्य नारायणविषयावा रतव्यंज्यमानत्वात्, भावकाव्यस्योदाहरणं संगच्छते।
लीन हो गया। जिस ( वामन ) के चरणमें पृथवी और आकाश लीन हो गय । जिस ( परशुराम ) के क्रोधमें क्षत्रियसमूह लीन हो गया, जिस ( राम ) के बाणमें रावण लीन हुआ, जिस (बलराम ) के हाथमें प्रलम्ब नामका दैत्य लीन हुआ, जिस ( बुद्ध ) के ध्यानमें विश्वका लय हुआ और जिस ( कल्की ) के तलवारम अधर्मीलोगोंका लय हुआ ऐसे अनिर्वचनीय महिमावाले भगवान् नारायणको मेरा नमस्कार है ॥
इस पद्यमें भगवद्विषयक रतिके व्यङ्गय होनेसे भावकाव्यका उदाहरण प्रतिपादित है।
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प्रथमः परिच्छेदः
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रसाभासो यथामधु द्विरेफः कुसुमैकपात्रे पपौ प्रियां स्वामनुवर्तमानः ।
शृङ्गेण च स्पर्शनिमोटिताक्षी मृगीमकण्ड्यत कृष्णसारः ।। ३-३६ अत्र सम्भोगशृङ्गारस्य तियग्विषयत्वाद्रसाभासः। एवमन्यत् । दोषाः पुनः काव्ये किंस्वरूपाः । इत्युच्यन्ते
दोषास्तस्यापकषकाः। श्रुतिदुष्टापुष्टार्थत्वादयः कारणत्वखञ्जत्वादय इव, शब्दार्थद्वारेण ___ रसाऽभासमुदाहरति-मधुद्विरेफ इति। स्वां प्रियाम् अनुवर्तमानो द्विरेफः कुसुमकपात्रे मधु पपो। कृष्णसारश्च शृङ्गण स्पर्शनिमीलिताक्षी मृगीम् अकण्डूयत श्यन्वयः ।
कुमारसंभवे मदनप्रादुर्भावाऽनन्तरं वसन्तवर्णनमिदम् । स्वां = स्वकीयां, प्रियां वल्लभां, विरेफीमिति भावः, अनुवर्तमानः अनुसरन्, द्विरेफः = भ्रमरः, लक्षितलक्षणया द्विरेफपदं भ्रमरवाचकम् । कुसुमैकपात्रे = पुष्परूपैकभाजने, मधु = पुष्परसं, पपी = पीतवान् । एवं च कृष्णसारश्च-मृगविशेषश्च शृङ्गेण विषाणेन, स्पर्शनिमीलिताक्षीम् = आमर्शनमुद्रितनयनां, मृगी = हरिणीन, अकण्डूयत गात्रविधर्षणेन सेवितवानिति भावः । अत्र मंभोगशृङ्गारस्य तिर्यग्विषयत्वात् = मानवेतरजन्तुविषयत्वात् रसाऽमास: । एव. मन्यत बोद्धव्यम् । विश्योऽयं तृतीयपरिच्छेदे सविशेष निरूपयिष्यते । इत्थं रस्यमानत्वयोगाद्रसं, भावं, रसाभासं च सामान्य दर्शयित्वा दोषसामान्यस्वरूपं दर्शयितुमुप. क्रमते दोषा इति । दोषा: = च्युतसंस्कृत्यादयो दोषाः, तस्य-काव्यस्य, अपकर्षका:= अपकर्षकारकाः, रसाऽपकर्षत इति शेषः ।
कारिकांऽशं वित्रणोति-श्रुतीति । काणत्वखञ्जत्वादयो दोषा देहद्वारेण देहिनम् इव श्रुतिदुष्टाऽपुष्टाऽर्थत्वादयो दोषा: शब्नाऽर्थद्वारेण काव्यस्यात्मभूतं रसमपकर्षन्ति, एवं च
रसाभास जैसे—यह कुमारसम्भवमें वसन्त ऋतुको साथमें लेकर कामदेवका आविर्भाव होने का वर्णन है। भौंरा अपनी प्रियाका अनुसरण करता हुआ पुष्परूप एक पात्रमें पुष्परस पीने लगा, उसी तरह कृष्णसार मृग स्पर्शसे नेत्रोंको मूंदने वाली मृगीको सींगसे खुजलाने लगा।
__ इस पद्यमें मनुष्य से इतर तिर्यगजातिमें संभोगशृङ्गारका वर्णन होनेसे रसाभास हुआ है । इसो तरह अन्य रसों और भावोंके उदाहरण समझ लें।
काव्यमें दोषों का क्या स्वरूप है ? ऐसी आशङ्का होनेपर कहते हैं-दोष काव्यके अपकर्षक होते हैं ।
जैसे काणत्व और खञ्जत्व आदि दोष शरीरद्वारा शरीरी ( आत्मा ) को अपकृष्ट करते हैं उसी तरह श्रुतिदष्ट और अपुष्टार्थत्व आदि दोष शब्द और अर्थके
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२८
साहित्यदर्पणे देहद्वारेणेव, व्यभिचारिमावादेः स्वशब्दवाच्यत्वादयो मूर्खत्वादय इव साक्षात्काव्यस्यात्मभूतं रसमपकर्षयन्तः काव्यस्यापकर्षका इत्युच्यन्ते। एषां विशेषोदाहरणानि वक्ष्यामः।
गुणादयः किंस्वरूपा इत्युच्यते
उत्कर्षहेतवः प्रोक्ता गुणालङ्काररीतयः ।। ३ ।। गुणाः शौर्यादिवत् , अलङ्काराः कटककुण्डलादिवत् , रीतयोऽवयव. संस्थानविशेषवत् , देहद्वारेणेव शब्दार्थद्वारेण तस्यैव काव्यस्यात्मभूतं रसमुस्कर्षयन्तः काव्यस्योत्कर्षका इत्युच्यन्ते । इह यद्यपि गुणानां रसधर्मत्वं तथापि मूर्खत्वादयो यथा देहिनं साक्षात् अपकर्षन्ति तथैव-निवेदादिव्यभिचारिभादे स्वशब्दवाच्यत्वाश्यो दोषाः साक्षात्काव्यस्यात्मभूतं रसमपकर्षन्ति, अतस्ते दोषाः काव्यस्याऽप. कर्षका उच्यन्ते इत्यन्वयाऽनुसारी विवरणांऽशः । एषां = दोषाणां विशेषोदाहरणानि, वक्ष्यामः कथयिष्यामः, सप्तमे परिच्छेद इति भावः । एतेन काव्यस्यापकर्षहेतवो दोषा इति प्रतिपादितम् । अथ काव्यस्योत्कर्षहेतवः के इति जिज्ञासायामाह-उत्कर्षहेतव इति । गुणाऽलङ्काररीतय उत्कर्षहेतवः प्रोक्ताः ॥ ३ ॥ विवृणोति-गुणा इति । गुणा:= माधुर्णदयः, देहिनां शौर्यादिवत्, अलङ्काराः = उपमादयः, देहिना कटककुण्डलादिवत् = वलयकर्णवेष्टनादिवत्, रीतयः = दादयः, देहिनाम् अवयवसंस्थानविशेषवत् = हस्तपादाद्यवयवस्थितिविशेषवत, शौर्यादयो गुणा देहिनां देहद्वारेणेव माधुर्यादयो गुणाः शब्दार्थद्वारेण तमेव काव्यस्णत्मभूतं रसमुत्कर्षयन्तः, काव्यस्योत्कर्षका: = उत्कर्षकारकाः, इत्युच्यन्ते। द्वारा काव्यके आत्मभूत रसको दूषित करते हैं । इसी तरह मूर्खत्व आदि दोष जैसे साक्षात् आत्माको अपकृष्ट करते हैं उसी तरह निर्वेद आवेग आदि व्यभिचारी भाव स्वशब्दवाच्यत्व ( अपने वाचक शब्दोंसे कहना ) आदि दोषसे काव्यके आत्मभूत रसका साक्षात् अपकर्ष करते हैं; इसलिए दोषोंको काव्यका अपकर्षक कहते हैं। इनके विशेष उदाहरण ( सप्तम परिच्छेदमें ) कहेंगे।
काव्यमें गुणों का क्या स्वरूप है ? ऐसी आकाक्षाका समाधान करते हैं-गुण, अलङ्कार और रीतियां काव्यमें उत्कर्षके कारण हैं ॥ ३॥
शूरता आदि गुण, कटक और कुण्डल आदि अलङ्कार और हस्तपाद आदि अवयवोंकी स्थिति जैसे देहद्वारा आत्मभूत देही ( मनुष्य) को उत्कृष्ट करनेसे उनके उत्कर्षक होते हैं वैसे ही माधुर्य आदि गुण, यमक और उपमा आदि अलङ्कार और वैदर्भी आदि रीतियां ये सब शब्द और अर्थके द्वारा कान्यके आत्मभूत रसको उत्कृष्ट बनाते हुए उनके उत्कर्षक कहे जाते हैं । यद्यपि गुण रसके धर्म हैं तथाऽपि गुण शब्दकी यहाँ पर गुणके अभिव्यञ्जक शब्द और अर्थमें लक्षणा होती है । इसी
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प्रथमः परिच्छेदः
२९
गुणशब्दोऽत्र गुणाभिव्यञ्जकशब्दार्थयोरुपचर्यते। अतश्च गुणाभिव्यञ्जकाः शब्दा रसस्यात्कर्षकाः' इत्युक्तं भवतीति प्रागेवोक्तम् । एषामपि विशेषोदाहरणानि वक्ष्यामः। इति श्रीमन्नारायणचरणारविन्दमधुव्रत-साहित्यार्णवकर्णधार ध्वनिप्रस्थापनपरमाचार्य-कविसूक्तिरत्नाकराऽष्टादशभाषावारविलासिनीभुजङ्ग-सान्धिविहिक:महापात्र-बीविश्वनाथ कविराजकृती साहित्यदर्पणे ___ काव्यस्वरूपनिरूपणो नाम प्रथमः परिच्छेदः ।
ननु रसमात्रधर्माणां गुणानां कथ शब्दार्थोत्कर्षकत्वमित्याशङ्कप समाधत्तेइहेति । गुणशब्दः रसाऽभिव्यञ्जकशब्दार्थयोः, उपचर्यते = लक्ष्यते । एषामपि = गुणानामपि । विशेषोदाहरणानि वक्ष्यामः = कथयिष्यामः, अष्टमपरिच्छेदे इति शेषः ।
इतीति भगवन्नारायणस्य, चरणारविन्दे = चरणी अरविन्दे इव तयोः, मधुव्रतः = भ्रमरः, साहित्यम् एव अर्णवः = समुद्रः, तस्य कर्णधारः = नाविकः । ध्वनिप्रस्थापने = ध्वनिप्रतिष्ठाकरणे, परमाचार्यः श्रेष्ठदेशिकः, कविसूक्तय एव रत्नानि, तेषाम् आकर:-खनिः, उत्पत्तिस्थानम् इति भावः । अष्टादशभाषा एव, वारविलासिन्य:गणिकाः, तासां भुजङ्गः विटः, सान्धिविग्रहिक:= सन्धिविग्रहाऽधिकारी, महापात्रः = प्रधानमन्त्री विश्वनाथकविराजः= कवीनां राजा कविराजः, कविश्रेष्ठः । कविराजलक्षणं यथा काव्यमीमासायां राजशेखरः- "यस्तु तत्र तत्र भाषाविशेषे, तेषु तेषु प्रबन्धेषु, तस्मिस्तस्मिश्च रसे स्वतन्त्रः स कविराजः" इति विश्वनाथश्चाऽसौ कविराजः, तस्कृती तद्रचनायां साहित्यदर्पणे काव्यस्वरूपनिरूपण नाम प्रथमः परिच्छेदः । इति श्रीशेषराजशर्मप्रणीतायां चन्द्रकलाऽभिख्यायां साहित्यदर्पण.
टीकायां प्रथमः परिच्छेदः ।। इति ।
कारणसे गुणके अभिव्यञ्जक शब्द और अर्थ रसके उत्कर्षक होते हैं यह तात्पर्य है, यह पहले ही कहा गया है। इनके भी विशेष उदाहरण (अष्टम परिच्छेदमें) कहेंगे॥३॥
___ यह श्रीमान् नारायणके चरणकमलोंके भ्रमर, साहित्यरूप समुद्रके कर्णधार ( नाविक ), ध्वनियोंके स्थापनमें परम आचार्य, कवियोंके सूक्तिरूप रनोंके रत्नाकर (समुद्र), अष्टादश भाषारूप वारविलासिनियोंके भुजङ्ग (विट), सन्धिविग्रह करनेवाले महापात्र श्रीविश्वनाथ कविराजकी कृषिरूप साहित्यदर्पणमें काव्यके स्वरूपका निरूपण करनेवाला प्रथम परिच्छेद समाप्त हुवा ॥
साहित्यदर्पणके अनुवादमें प्रथम परिच्छेद समाप्त हुआ।
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द्वितीयः परिच्छेदः
वाक्यं स्याद्योग्यताकाङ्क्षासत्तियुक्तः पदोच्चयः ।
योग्यता = पदार्थानां परस्पर संबन्धे बाधाभावः । पदोच्चयस्यैतदभावेऽपि वाक्यत्वे 'वह्निना सिञ्चति' इत्याद्यपि वाक्यं स्यात् । आकाङ्क्षा=प्रतीतिपर्य
-वाक्यस्वरूपमाह -
"वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” इति काव्यलक्षणं प्रतिपादितम् । तत्र किं नाम वाक्यं कश्च रस इति जिज्ञासायां काव्यलक्षणकुक्षि प्रविष्टं वाक्यं लक्षयितुमुपक्रमते वाक्यस्वरूपमिति । स्वम् = असाधारण, रूपं = स्वरूपं, लक्ष्यस्येतरव्यावर्त को धर्म, लक्षणमिति भावः ।
वाक्यलक्षणमाह - वाक्यमिति । योग्यताऽऽकाङ्क्षाऽऽसत्तियुक्तः पदोच्चयो वाक्यं स्यात् इत्यन्वयः । योग्यतया आकाङ्क्षया आसत्त्या च युक्तः पदोच्चयः = पद. -समूहो वाक्यमिति भावः ।
कारिकां विवृणोति - योग्यतेति | पदार्थानां = पदजन्य प्रतीतिविषयाणां, गवादीनामिति भावः । परस्परसम्बन्धे = मिथः संसर्गे, बाधाऽभावः = प्रतिबन्धाऽभावो - योग्यता इत्यर्थः ।
= पद
योग्यतायाः सार्थकता प्रदर्शयति-पदोच्चयस्येति । पदोच्चयस्य समूहस्य, एतद भावेऽपि = योग्यताऽभावेऽपि वाक्यस्वे अभ्युपगत इति शेषः "वह्निना "सिखति" इत्याद्यनि=पदयुग्ममिति शेषः, वाक्यं स्यात् = भवेत् । अयं भावः - " :- "वह्निना सिद्धति" इत्यत्र सेकं प्रति वह्नेः करणतायां योग्यताऽभावान्न वाक्यत्वम् । सेकं प्रति जलादिद्रवद्रव्यस्यैव करणत्वाज्जलेन सिवति इत्यादेरेव वाक्यत्वं न "वह्निना सिवति" इत्यस्येति भावः ।
अबाऽवसरप्राप्तामाकाङ्क्षां लक्षयति- प्राका क्षेति । प्रतीतिपर्यवमान विरह आकाङ्क्षेति । प्रतीतिः = ज्ञानं तत्पर्यवसानं = तत्समाप्ति:, तद्विरहः = तदभावः । वाक्यका लक्षण कहते हैं
योग्यता, आकाङ्क्षा और आसत्तिसे युक्त पदसमूहको वाक्य कहते हैं। पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध में बाध न होनेको "योग्यता" कहते हैं। योग्यताके न होनेपर भी पदसमुदायको जाक्य मानें तो "वह्निना सिखति" अर्थात् आगसे सेचन करता है, इत्यादि प्रयोग भी वाक्य होगा । सेचन क्रियामें वह्निकी करणता न होने से ( योग्यता न होने से ) यह वाक्य नहीं है ।
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द्वितीयः परिच्छेदः
वसानविरहः । स च श्रोतुर्जिज्ञासारूपः । निराकाङक्षस्य वाक्यत्वे, 'गौरश्वः पुरुषो हस्ती' इत्यादानामपि वाक्यत्वं स्यात् । आसत्तिर्बुद्धयविच्छेदः । बुद्धिविच्छेदेऽपि वाक्यत्वे इदानीमुच्चारितस्य देवदत्तशब्दस्य दिनान्तरोच्चारितेन गच्छतीति पदेन सङ्गतिः स्यात् । अत्राकाङ्क्षा योग्यतयोरात्मार्थधर्मत्वेऽपि पदोच्चयधर्मत्वमुपचारात् ।
३१
स च = प्रतीतिपर्यवसानविरहश्च श्रोतुः = आकर्णयितुः, जिज्ञासारूपः, अयं भाव:पदसमूहश्रवणाऽनन्तरमपि यत्र श्रोतुजिज्ञासा विद्यते सा आकाङ्क्षा, यथा घटाऽभावाऽभावः घटो भावरूपो भवति तथैव साऽऽकाङ्क्षाऽपि भावरूपैव ।
=
आकाङ्क्षायाः सार्थकतां प्रदर्शयति- निराकाङ्क्षस्येति । निराकाङ्क्षस्य आकाङ्क्षारहितस्य, पदोच्चयस्येति शेषः, वाक्यत्वे अभ्युपगते "गौरश्वः पुरुषो हस्ती" " इत्यादीनामपि = पदानां वाक्यत्वं स्यात् । अयं भावः – गौरश्वः पुरुषो हस्तीत्यत्र आकाङ्क्षाया अभावेन न वाक्यत्वम् ।
आसत लक्षयति - श्रासत्तिरिति । बुद्ध्यविच्छेदः = बुद्धेः = ( पदार्थोपस्थितेः) अविच्छेदः=(अव्यवधानम्) आसत्तिः । पदार्थानां मिथो व्यवधानाऽभाव आसत्तिरिति भावः ।
आसत्तेः सार्थकतां दर्शयति - बुधिविच्छेदेऽपि पदार्थोपस्थितिविच्छेदेऽपि वाक्यत्वेऽभ्युपगत इति शेषः । इदानीम् = अधुना, अस्मिन् समय इति भावः । उच्चरि तस्य = प्रयुक्तस्य, देवदत्तशब्दस्य = देवदत्तपदस्य दिनान्तरोच्चरितेन = दिनान्तरपदं कालान्तरोपलक्षकं, त्तश्च कालान्तरत्रयुक्तेनेत्यर्थः । गच्छतीति पदेन, संगतिः = वाक्यव्यवहारोपयोगिसम्बन्धः स्यात् । अयं भावः आसत्तेरभावेऽपि पदोन्चयस्य वाक्यत्वे - भ्युपगते इदानीमुच्चरितस्य "देवदत्त" इति पदस्य कालान्तरे उच्चरितेन " गच्छती " ति पदेन संगतिः स्यात् परं तत्र बुद्धिविच्छेदेन वाक्यत्वं न भवति ।
ननु आसत्तेविषयतासम्बन्धेन पदोच्चयधर्मत्वेऽपि "इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानात्मनो लिङ्गम् ( न्या० द० १ - १ - १० ) इति न्यायदर्शनानुसारेण आकाङ्क्षाया: ( इच्छायाः ) आत्मधर्मत्वात्कथं पदोच्चयधर्मत्वमितिचेन्न, उपचारात् = स्वजन्यजनकत्वरूपात् परम्परासम्बन्धात्, स्वपदेन आकाङ्क्षा गृह्यते, तज्जन्यो वाक्यार्थः, तज्जनकत्वं पदोच्चये ततश्च तादृशात् परम्परासम्बन्धात् आकाङ्क्षायाः पदोच्चयधर्मत्वम् ।
ज्ञानकी समाप्तिके अभावको 'आकाङ्क्षा' कहते हैं । वह श्रोताकी जिज्ञासारूप है । आकाङ्क्षासे रहित पदसमूहको वाक्य मानें तो "गौरश्वः पुरुषो हस्ती" "गाय; घोड़ा; पुरुष, हाथी" इत्यादि पदसमूह भी वाक्य हो जायगा । आकाङ्क्षाके न रहने से यह वाक्य नहीं है । बुद्धिका विच्छेद अर्थात् व्यवधान न होनेकी "आसत्ति" कहते हैं बुद्धिविच्छेद होनेपर भी पदसमूहको वाक्य मानें तो इस समय में उच्चारण किये गये "देवदत्तः” शब्दका दूसरे दिनमें उच्चारण किये गये " गच्छति" जाता है इस पदके
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साहित्यदर्पणे
वाक्योच्चयो महावाक्यम्योग्यताकारक्षासत्तियुक्त इत्येव।
इत्थं वाक्यं द्विधा मतम् ॥ १॥ इत्थमिति वाक्यत्वेन महावाक्यत्वेन च । उक्तं च तन्त्रवार्तिके
'स्वार्थबोधसमाप्तानामनाङ्गित्वव्यपेक्षया। वाक्यानामेकवाक्यत्वं पुनः संहत्य जायते ॥' इति ।
एवमेव योग्यतायाः पदाऽर्थधर्मत्वेऽपि स्वाश्रयोपस्थापकत्वसम्बन्धरूपात उपचाराद, स्वपदेन योग्यता गृह्यते, तदाश्रयः पदार्थः, तदुपस्थापकत्वसम्बन्धः पदोच्चये, ततश्च तादशात्परम्परासम्बन्धायोग्यताया अपि पदोच्चयधर्मत्वं बोध्यम् । योग्यतयाऽऽकाङ्क्षयाsसत्या च युक्तानि पदानि वाक्यमिति तल्लक्षणं पर्यवसन्नम् ।
महावाक्यं लक्षयति-"वाक्योच्चयो महावाक्यम्" इति । अवयवधर्मस्याsवयविन्यपि गृह्यमाणत्वाद्योग्यताऽऽकामासत्तियुक्त एव वाक्योच्चयो महावाक्यम् ।
वाक्यं संकलयति-इत्थमिति । इत्थ-वाक्यत्वेन महावाक्यत्वेन च, वाक्यं, • द्विधा = प्रकारद्वयेन, मतं संमतम् । अत्र प्राचां संवादमाह-स्वार्थबोष इति ।
कुमारिलभट्टस्य तन्त्रवार्तिकस्थं पद्यमेतत् । स्वाऽर्थबोधे समाप्तानां वाक्यानाम् अङ्गाऽऽ. ङ्गित्वव्यपेक्षया पुनः संहत्य एकवाक्यत्वं जायत इत्यन्वयः। स्वार्थबोधे=निजाऽभिधेयज्ञापने, समाप्ताना=निराकामाणां, वाक्यानां पदोच्चयानाम्, अङ्गाऽङ्गित्वव्यपेक्षया. गोणमुख्यत्वपर्यालोचनया, पुनः= भूयः, संहत्य=मिथः समेत्य, एकवाक्यत्व-विशिष्टकार्यप्रतिपादकत्वं, जायते उत्पद्यते।
साथ सगति होगी, अतः बुद्धिविच्छेदके होनेसे यह वाक्य नहीं है। यहाँपर आकाङ्क्षा आत्माका धर्म है और योग्यता पदार्थका धर्म है तथाऽपि परम्परासम्बन्धसे ये पद. समूहके भी धर्म माने गये हैं।
योग्यता, आकाक्षा और आसत्तिसे युक्त वाक्यसमूहको "महावाक्य" कहते हैं । इस प्रकार वाक्यके दो भेद है-वाक्य बोर महावाक्य ॥१॥
कहा भी है-अपने अपने अर्थका बोधन कर समाप्त हुए वाक्योंका अङ्गाङ्गि भाव सम्बन्धसे फिर मिलकर एक वाक्यता ( महावाक्यता ) हो जाती है ।
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द्वितीयः परिच्छेदः
तत्र वाक्यं यथा-'शून्यं वासगृहम्-' इत्यादि ( २६ पृ०) । महावाक्य यथा-रामायण-महाभारत-रघुवशादि।
पदोच्चयो वाक्यमित्युक्तम्। तत्र किं पदलक्षणमित्यत आह
वर्णाः पदं प्रयोगार्हानन्वितैकार्थबोधकाः । यथा-घटः । प्रयोगाहेंति प्रातिपदिकस्य व्यवच्छेदः । अनन्वितेति
उदाहति-तत्रेति । तत्र वाक्यमहावाक्ययोमध्ये, वाक्यं यथा="शून्यं वासगृहम्" उत्पादि (:४पृ.) । अत्राऽनेकपदानां संघातेनैकवाक्याऽन्तःपातित्वं महावाक्यत्वम्, ययो
पायणमहाभारतरघुवंशादि । अत्र तत्तत्काण्डषु तत्तत्पर्वसु च स्थितानां वाक्याना संघातेन ग्रन्थरूपमहावाक्याऽन्त.पातित्वं जायत इति भावः ।
* पदं लक्षयति-वर्णा इति । प्रयोगाऽ ऽनन्वितकाऽर्थबोधका वर्णाः पदमित्कन्वयः । प्रयोगा: = प्रयोगयोग्याः, सुप्तिविभक्तियुक्ता इति भावः, अनन्वितः = मिथोऽन्वयरहितः, य एकोऽर्थः, तद्बोधका:= तत्प्रतिपादकाः, वर्णाः = स्वरम्यानमा अक्षरा:, पदम्, इति पदलक्षणम् । अत्र वर्णा इति बहुवचनमविवक्षितं, तेन क्वचिदेवास्प जातुविद् द्वयोरपि वर्णयोः परिग्रहो भवति ।
___ उदाहरति-यथा घट इति । घट इत्यत्र धकारोतरवर्ती अकारस्तपा टकारो. तरवर्ती अकारो विसर्जनीयश्चेत्थं वर्णसंघातेन अनन्वितः = पदान्तरेणाऽन्वयरहिता, कम्बुग्रीवादिमान् एकः पदार्थोऽवबुद्धयते । पदलक्षणे पदकृत्यं प्रदर्शयति-प्रयोगाहति। प्रयोगाऽर्हः = प्रयोगयोग्यः, प्रयोगाऽहत्वं च विभक्त्यत्तत्वं, तच्च सुविभक्तियुक्तारक तिविभक्तियुक्तत्वं वा, तेन च प्रातिपदिकस्य = सुन्विभक्तिरहितस्य अवयम्यस्य व्यवच्छेदः = व्यावृत्तिः । अत्र प्रातिपदिकशब्देन भूवाप्रभूतिधातोत्र प्रहर्ष, हया। "प्रयोगाई" पदेन तिविभक्तिरहितस्य “भूवा" प्रभृतिधातोत्र व्यवच्छेदों भवती. त्येषोऽर्थोपि समुचितो भवति । अनन्वितेति । अनन्वितपदेन वाक्यमहावाक्ययोः = व्यवच्छेदः इति शेषः । अयं भावः, वाक्यानि महावाक्यानिच बन्चितानि भवन्ति, अनन्वितकयनेन वाक्यमहावाक्ययोर्ध्यावृत्तिभवति ।
उनमें वाक्य जैसे - "शून्यं वासगृहम्" इत्यादि, महावाक्य जैसे-रामायण, महाभारत और रघुवंश आदि हैं ॥१॥
पदसमूहको "वाक्य" कहा है तो पदका लक्षण क्या है ?
यह कहते हैं-वर्णा इति । प्रयोगके योग्य, अनन्वित, एक अर्यके बोधक वर्णोको "पद" कहते हैं । जैसे-. 'घटः" यह पदका उदाहरण है । 'प्रयोगाऽहं" कहनेसे नि. पदिक और भू वा प्रभृति धातुओंकी व्यावृत्ति होती है, सुप विभक्ति की उत्पत्तिके विना प्रातिपदिक और तिङ् विभक्तिकी उत्पत्तिके विना धातु प्रयोगाऽहं अर्थात् अपद होनेसे
३ सा०
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३४
साहित्यदर्पणे
वाक्यमहावाक्ययोः। एकेति साकाक्षानेकपदवाक्यानाम् । अर्थबोधका इति कचटतपेत्यादीनाम् । वर्णा इति बहुवचनमविवक्षितम् ।
अर्थो वाच्यश्च लक्ष्यश्च व्यङ्गयश्चेति त्रिधा मतः ॥ २ ॥ एषां स्वरूपमाहवाच्याऽर्थोऽभिधया बोध्यो लक्ष्यों लक्षणया मतः । व्यङ्गयो व्यञ्जनया ताः स्युस्तितः शब्दस्य शक्तरः ।। ३ ।।
एकेति । 'एक' पदेन, साकाङ्क्षाऽनेक रदवाक्यानाम् साकाङ्क्षाणाम् आकाङ्क्षायुक्तानाम् अनेकपदानाम् अनेकवाक्याना च व्यवच्छेदः :: व्यावृत्तिर्भवति । यथा "शून्यं वासगृहं विलोक्य" इत्यत्र साकाङ्क्षाणामनेकपदानां तथा "यस्थाऽ लो। शल्फसीम्नि जलधि:" इत्यत आरभ्य "असावधामिरुकुलम्" इत्यन्तं यावत् साकाङ्क्षाणामनेकवाक्यानां ( महावाक्यानाम् ) च व्यवच्छेदो भवति ।
अर्थबोषका इति ! "अर्थबोधका" इति विशेषणेन काटतपे:यादीनां वर्णानां व्यवछेदः । वां इति बहुवचनमविवक्षितम् । अब भाव:-क्वचित् "अः" इति कवनेन एकेनाऽपि वर्णेन-"अकारो वासुदेव: स्यात्" इति कोशप्रमाणतः वासुदेवरूपाऽर्थबोधनात्पदत्व भवति । एवमेव "गो" रिति पदेन गकारोत्तरवत्यौंकाररूपाद्वर्णद्वयात्सास्नालागू. लादियुक्तस्य पशोर्बोधो भवत्यत: वर्णा इति बहुवचनम् अविवक्षितम्, वक्तु न इष्टमित्यर्थः ।
____ अथ पदपदार्थयोः सम्बन्धस्य नित्यत्वात्पदलक्षणाऽनन्तरं अर्थ निरूपयितुमुप. क्रमते-पर्य इति । वृत्या पदप्रतिपाद्यत्वम् अर्थत्वम् । स चाऽर्थस्त्रिविधः इति त्रैविध्यं प्रतिपादयति अर्थ इति ॥ २॥ एषांवाच्यादीनामनामेकैकश: स्वरूपम् (लक्षणम्)
आह-वाच्योर्थ इति । अभिधया वाच्योऽर्यो बोध्यः, लक्षणया लक्ष्योऽर्थो मतः; व्यजनया . व्यङ्गयोऽर्थो मतः । शब्दस्य ता: अभिधाद्याः, तिस्रः शक्तयः-वृत्तय इति भावः ।
___ वस्तुतस्तु अत्र ग्रन्थकारेण विश्वनाथकविराजेन शक्तिपदं वृत्यर्थं प्रयुक्तम् । शकि पदमभिधार्थमेव प्रयुञ्जन्ति विद्वांसः । वर्ततेऽर्थोऽनया इति वृत्तिः ।। ३ ।। प्रयोगयोग्य नहीं होते हैं । "अनन्वित" कहनेसे वाक्य और महावाक्यकी व्यावृत्ति होती है, क्योंकि ये अन्वित है "एक' कहनेसे साकाङ्क्ष, अनेकपद और अनेक वाक्योंकी व्यावृत्ति होती है । "अर्थबोधक" कहनेसे "कचटतप" इत्यादि वर्गों की व्यावृत्ति होती है । "वर्णाः" यहाँ पर बहुवचन विवक्षित नहीं हैं, क्योंकि एक वर्णवाले और दो वर्णोवाले भी पद होते हैं।
वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय इस प्रकार अर्थ के तीन भेद होते हैं । २॥
अर्थोका लक्षण कहते हैं--अभिधासे वाच्यअर्थका, लक्षणा से लक्ष्यअर्थका और व्यञ्जनासे व्यङ्गयअर्थका बोध होता है, इसप्रकार की तीन शक्तियाँ ( पत्तियाँ) होती हैं ।। ३ ।
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द्वितीयः परिच्छेदः ।
ता अभिधाद्याः।
तत्र संकेतितार्थस्य बोधनादप्रिमाभिधा । उत्तमपद्धन मध्यमवृद्धमुद्दिश्य 'गामानय' इत्युक्त तं गवानयनप्रवृत्तमुपलभ्य बालोऽस्य वाक्यस्य 'सास्नादिमत्पिण्डानयनमर्थः' इति प्रथमं प्रति
अभिधां निरूपयति-तत्रेति । तत्र अभिधाऽऽदिषु मध्ये । सङ्केतिताऽर्थस्य = मुख्याऽर्थस्य, बोधनात् = बोधजननात्, अग्रिमा = आदिमा, शक्तिः, अभिधा = अभिधाऽऽख्या।
अयं भावः । इदं पदममुमर्थ बोधयतु इति, अस्मात्पदादयमों बोद्धव्य इति वा इच्छा सङ्केतः, स संजातः अस्य सङ्केतितः स चाऽसौ अर्थः मुख्योऽर्थः, तद्बोधयित्री अभिधेति भावः। अत्र मुख्यत्वं च लक्ष्यव्यङ्गयाऽर्थाऽपेक्षया प्रथमोपस्थितिविषयत्वं वोध्यम् । तत्र इदं पमित्यत्र इदं पदमेतदर्थविषयकबोधजनकं भवतु इति । अस्मात् इत्यादेरर्थस्तु अयमर्थ एतत्पदजन्यबोधविषयतावान् भवतु इति । इत्यं च सङ्केतिताऽयं. बोधजनकवृत्तित्वमभिधात्वमिति लक्षणं पर्यवसन्नम् ।
पुरात विद्भिः सङ्केतग्रहोपायाः प्रदर्शिताः, ते यथा"शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाऽऽस्तवाक्याद् व्यवहारतश्च ।
वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ॥"
व्याकरणात्, उपमानात, कोशाद, आप्तवाक्यात, व्यवहारात्, वाक्यशेषात्, विवृतेः सिद्धपदस्य सान्निध्याच्च इत्थं प्रकाराष्टकात् वृद्धाः शक्तिग्रहं वदन्ति । अत्र प्रकारत्रयं प्रदशितं विश्वनाथकविराजेन । तत्रादी व्यवहाराच्छक्तिग्रहं प्रदर्शयति-उत्तमवद्धनेति। उत्तमवृद्धेन = संकेतग्रहवता प्रयोजकेन, मध्यमवृक्ष = प्रयोज्यम्, उद्दिश्य = अनूध, “गाम् आनय" इत्युक्ते, तं = प्रयोज्यवृद्धं, गवानयनप्रवृत्तं = धेन्वानयनतत्परम्, उपलभ्य = अनुमाय, गवानयनक्रिययेति शेषः । बाल: = संकेतग्रहाऽभाववान् माणवकः, अस्य = पूर्वोक्तस्य, वाक्यस्य = पदसमूहस्य, “गाम् आनये"त्याकारकस्येति भावः । सास्नादिमत्पिण्डानयनं = गलकम्बललागूलादिमज्जन्त्वानयनम्, अर्थः = अभिधेयः,
उनमें सङ्केतित ( मुख्य ) अर्थका बोध करनेसे पहली वृत्तिको "अभिधा" कहते हैं।
उत्तम बुद्ध के मध्यम द्धको उद्देश्य करके "गाय लाओ" ऐसा कहनेपर मध्यम वृद्धको गाय लानेके लिए तत्पर अनुमान कर बालक इस वाक्यका "सास्ना (गलकम्बल) आदिसे युक्त पिण्डको लाना अर्थ है ऐसा पहले समझ लेता है। पीछे “गायको बाँधो" "घडेको लाओ" इत्यादि वाक्य में अन्वय और व्यतिरेकसे गोशब्दका सास्ना ( गलकम्बल ) वाला पिण्ड अर्थ है और आनयन पदका लाना अर्थ है ऐसे संकेत ( शति. ) को निश्चय करता है । इसप्रकार व्यवहारसे शक्तिग्रहका यह उदाहरण है।
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साहित्यदर्पणे
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पद्यते, अनन्तरं च 'गां बधान' 'अश्वमानय' इत्यादावावापोद्वापाभ्यां गोशब्दस्य 'सास्नादिमानर्थः' आनयनपदस्य च 'आहरणमर्थः' इति संकेतमवधारयति । कचिञ्च प्रसिद्रपदसमभिव्याहारात, यथा--'इह प्रभित्रकमलोदरे मधूनि मधुकरः पिबति' इत्यत्र । कचिदाप्तोपदेशात् , यथा-'अयमश्वशब्दवाच्यः' इत्यत्र । तं च तस्केतितम) बोधयन्ती शब्दस्य शक्त्यन्तरानन्तरिता शक्तिरभिधा नाम। इति = एवं, प्रथमं = प्रतिपदक्तिग्रहात्पूर्व, प्रतिपद्यते = अनुमानेन बुध्यते । अनन्तरं च = अखण्डवाक्यज्ञानस्य पश्चादिति भावः । “गा बधान, अश्वमानय” इत्यादीउक्ते सति, आवापोद्वापाभ्याम् = अन्वव्यतिरेकाभ्याम् । तत्सत्त्वे तत्सत्त्वम् अन्वयः, तदभावे तदभावो व्यतिरेकः । गोशब्दस्येति । गोशब्दसत्त्वे सास्नादिमत्पदार्थबोधसत्त्वम्, इत्यन्वयः । आनय शब्दाऽभावे बानयनपदार्थबोधाभावः इति व्यतिरेकः । गां बधान = गोशब्दसत्त्वे सास्नादिमत्पदार्थबोधसत्त्वम्, इति अन्वयः । बधानेति शब्दाऽभावे बन्धन. पदार्थबोधाऽभावः इति व्यतिरेकः ।।
"अश्वम् आनय" इत्यत्र अश्व राब्दसत्त्वे पृच्छाऽऽदिमत्पदार्थबोधसत्त्वम्, इत्यन्वयः। "आनये"तिशब्दासस्वे आहरणपदार्थबोधाऽभाव इति व्यतिरेकः ।
इति सङ्केतं = शक्तिम्, अवधारयतिनिश्चिनोति ।
सङ्केतग्रहस्य प्रकारान्तरं प्रदर्शयति-- क्वचिच्चेति । क्वचिच्च = कुचिच्च । प्रसिद्धपदसमभिव्याहारात् = प्रसिद्धस्य ( गृहीतसङ्केतस्य ), पदस्य ( शब्दस्य ) सम. भिव्याहारात् ( समीपोच्चारणात् ), यथा-इहेति । मधुकरपदशक्ति ज्ञान रहितस्य पुरुषस्य इह = अस्मिन्, प्रभिन्नकमलोदरे = विकसितकमलमध्ये, मधुकरः, मधूनि = पुष्परसान् पिबति = धयति । अस्मिन् वाक्ये इहेत्यादीनां गृहीतशक्तिकानां पदानां समीपोच्चारणात् व्युत्पित्सुः पुरुषो मधुकरपदस्य भ्रमरे शक्तिम् अवधारयति ।
सङ्केतग्रहस्य अन्य प्रकार निदर्शयति-क्वचिदिति । क्वचित् = कुत्रचित, आप्तोपदेशात-आप्तस्य (यथार्थवक्तः) उपदेशात् (शिक्षणात् ) शक्तिम अवधारयति इति शेषः । रागादिवशादपि यो नाऽन्यथावादी स आप्त इति चरके पतञ्चलिः । उदाहरति-अयम् अश्वशब्दवाच्यः अयं भावः-अश्व शब्दस्य शक्ति ग्रहाऽभाववान पुरुषः, कस्मिश्चिन्मांसपिण्डे -"अयमश्वशब्दवाच्य” इति आप्तोपदेशेन शक्तिमवधारयति । ...... ग्रन्थकारेणाऽनुक्ता अन्येऽपि शक्तिग्रहप्रकाराः पूर्वनिर्शितपद्याऽनुसारेण प्रदर्श्यन्ते ।
कहींपर प्रसिद्ध अर्थवाले पदके समीप उच्चारणसे शक्ति ग्रह होता है । जैसे"इस विकसित कमलके बीच में बैठकर मधुकर शहद पी रहा है" यहाँ पर प्रसिद्धार्थ पद कमलके समीपोच्चारणसे मधुकर पदका भ्रमरमें शक्ति ग्रह होता है । कहीं पर आप्त: (यथार्थ वक्ता) के उपदेशसे शक्ति ग्रह होता है। जैसे यह अश्व शब्दसे कहा जाता है।
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द्वितीयः परिच्छेदः
सङ केतो गुह्यते जातो गुणद्रव्यक्रियासु च ॥ ४ ॥ जातिगोपिण्डादिषु गोत्वादिका । गुणो विशेषाधानहेतुः सिद्धो वस्तु
१. तत्र व्याकरणादपि शक्तिग्रहो भवति । यथा-दक्षस्याऽपत्यं पुमान् दाक्षिः इति "अत इब" इति सूत्रेग इप्रन्ययेन सिद्धस्य दाक्षिपदस्य व्याकरणाऽनुसारेण दक्षाऽपत्यरूपेऽर्थे शक्तिग्रहो भवति ।
२. क्वचित उपमानाच्छक्तिग्रहः । उपमानं नाम सादृश्यज्ञानं, तृतीयं प्रमाणं, तस्मादपि शक्तिग्रहो भवति । यथा-गवयपदार्थमजानन् पुरुष: "यथा गौस्तथा गवय" इतिवाक्यापमानात् गोसदृशे मांसपिण्डे गनयपदस्य शक्तिमवधारयति ।
___३. क्वनिकोशाच्छक्तिग्रहः । मरुत्वत्पदार्थमजानन्पुरुषः "इन्द्रो मरुत्वान्मघवा बिडोजा: पाकशासनः । "इति कोशान मरुत्वत्पदस्य इन्द्रे शक्तिग्रहमवधारयति ।
४. आप्तवाकाच्छक्ति ग्रहस्योदाहरणं ग्रन्थकारदिगा वणितम् । ५. व्यवहारच्छक्ति ग्रहोऽपि तथैव पूर्व प्रदर्शितः ।।
६. क्वचिद्वाक्यशेषाच्छक्तिग्रही भवति । यथा “यवमयश्वरुर्भवति" इत्यत्र आर्यप्रसिद्धया यवशब्दो दीर्घश्के प्रसिद्धः, म्लेच्छप्रसिद्धया कङ्गो प्रसिद्धः, अतो यव पदस्य शक्तिग्रहे सन्दिग्धे सति यत्राऽन्या ओषधयो म्लायन्ते अर्थते मोदमाना इवोत्तिष्ठन्ति" इति वाक्यशेषात यवशब्दस्य दीर्घशूके शक्ति ग्रहः।
७. क्वचित विवृतेः ( विवरणात् ) शक्तिग्रहो भवति । यथा--"शक्तिः कवित्वबीजरूपः संस्काविशेष" इति । अस्या विवृतेः शक्तेः संस्कारविशेषे शक्तिग्रहः ।
८. क्वचित्सिद्धपदसान्निध्याच्छक्तिग्रहः स च ग्रन्थकारोक्तदिशा प्रदर्शित एव । उक्तसर्थ निगमर्यात-तं चेति । तं च = तादृशं च, सङ्केतितं = जातसङ्केतम्, अयं = पदाऽर्थ, बोध्यन्ती प्रतिपादयन्ती, शब्दस्य-पदस्य, शक्त्यन्तराऽनन्तरिता = शक्त्यन्त. राभ्याम् (अन्यवृत्तिभ्याम्), लक्षणा व्यञ्जनाभ्याम् इति भावः, अनन्तरिता (अव्यवहिता) शक्तिः=वृत्तिः, अभिधा नाम लक्षणाव्यञ्जनाभ्यां प्रथममुपस्थिता मुख्या वृत्तिरभिधेति भावः । सङ्केतग्रहस्थानानि परिगणयति-सङकेत इति । जाती= सामान्ये, गुणद्रव्यक्रियासु च सङ्केतो गृह्यते इत्यन्वय: । ४ ।।
. कारिकां विवृणोति-जातिरिति । नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्व जातिवं यहाँपर आप्तके उपदेशसे घोड़े में अश्व शब्दका शक्तिग्रह हुआ है । उस सङ्केतित ( मुख्य ) अर्थका बोध करानेवाली, शब्दका किसी दूसरी शक्ति ( वृत्ति ) से व्यवधानशून्य शक्ति (पत्ति ) को "अभिधा" कहते हैं। जा' ...ण, द्रव्य और क्रियामें सङ्केत (शक्ति ) का ग्रहण किया जाता है ॥ ४॥
शब्द चार प्रकारके होते हैं-जातिवाचक, गुणवाचक, द्रव्यवाचक और क्रियावाचक ।
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साहित्यदर्पणे
धर्मः । शुक्लादयो हि गवादिकं सजातीयेभ्यः कृष्णगवादिभ्यो व्यावर्तयन्ति ! द्रव्यशब्दा एकव्यक्तिवाचिनो हरिहरडित्थडवित्थादयः । क्रियाः साध्यरूप वस्तुधर्माः पाकादयः । एषु हि अधिश्रयगावैश्रयणान्तादिपूर्वापरीभूतो
३८
=
नित्या सती या अनेकासु गवादिव्यक्तिषु समवायसम्बन्धेन वर्तते सा जातिरिति भावः । जातिमुदाहरति-जातिरिति । गोपिण्डादिषु = व्यक्तिषु विद्यमाना गोत्वादिका जातिः । गुणं लक्षयति- विशेषाधानहेतुत्वे सति सिद्ध वस्तुधर्मत्वं ( द्रव्यधर्मत्वम् ) गुणत्वम् । शुक्लत्वादिविशेषाधानहेतु: सिद्ध: ( निष्पन्न:, न तु साध्य: ) क्रियारूप: वस्तुधर्मः द्रव्यधर्मः गुण इति भावः । विशेषाधीन हेतुरित्यनेन जातेर्व्यावृत्तिः । गुणं विवृणोति - शुक्लादयो हीति । शुक्लादयः = गुणाः, गवादिकं = वस्तु, सजातीयेभ्य: = समानजातीयेभ्यः, कृष्णगवादिभ्यः, व्यावर्तयन्ति = व्यवच्छिन्दन्ति । सङ्केतग्रहस्थानं द्रव्यं विवृणोति -- द्रव्यशब्दा इति । एकव्यक्तिवाचिनः = एकव्यक्तिवाचकाः, हरिहरडित्थविरथादयो द्रव्यशब्दा 'यदृच्छाशब्दा वा उच्यन्ते । क्रियां विवृणोति - वस्तुधर्माः द्रव्यधर्माः, साध्यरूपाः = जन्यस्वभावाः, पाकादयः क्रियाः । एषु = साध्यरूपवस्तुधर्मेषु, पाकादिष्विति भाव: । अधिश्श्रयणाऽव श्रयणान्तादिपूर्वापरीभूतः = अधिश्रयणम् ( चुल्ल्यां पाल्या आरोपणम् ) अवश्रयणम् (चुल्ल्या: स्थाल्या अवरोपणम्), अधिश्रयणावश्रयणे ( द्वन्द्वः ) । आदिश्व अन्तश्च अन्तादी ( द्वन्द्व ), "राजदन्तादिषु परम्" इत्यनेन अन्तपदस्य पूर्वनिपातः । अधिश्रयणावश्रयणे अन्तादी यस्य सः, "अनेकमभ्यपदार्थों" इति बहुव्रीहिः । पूर्वश्च अपरश्च पूर्वापरी (द्वन्द्वः) । अपूर्वापरी पूर्वापरो यथा सम्पद्यते तथाभूतः पूर्वापरीभूतः । अधिचरणाऽवश्रयणान्तादिश्चाऽसौ पूर्वापरीभूतः (कर्मधारय.) । 'अयं भावः । अधिश्रयणम् आदिभूतः, श्रवश्रयणम् अन्तभूतः एतादृशो यो व्यापारकलापः = क्रियासमूहः स पाकादिशब्दवाच्य क्रियाशब्द इत्यर्थः । अत्र मुख्यो धात्वर्थंस्तु फलं, यथाsत्र पचेवि क्लित्तिः । अत्र पूर्वः अधिश्रयणादिः, अपरः अवश्रयणादिः, तौ च पाकक्रियाऽवयवरूप, तत्र पूर्वस्य परं प्रति साधनत्वम्, अपरस्य पूर्वं प्रति साध्यत्वम् अस्ति ।
1
=
'गो' आदि व्यक्ति में रहनेवाले गोत्व आदि धर्मको "जाति" कहते हैं । विशेष अर्थके आधानके हेतुभूत सिद्ध वस्तुधर्मको "गुण" कहते हैं। जैसे कि शुक्ल आदि गुण गौ आदि व्यक्तिको सभातीय कृष्णं गौ आदिसे अलग करते हैं । अतः शुक्ल नील आदि वस्तुके सिद्ध धर्म गुण है। एक व्यक्तिके वाचक हरि, हर, डित्थ और share आदि द्रव्यशब्द हैं। इनसे एक ही व्यक्तिका बोध होता है । साध्यरूप पाक आदि वस्तुanni "क्रिया" कहते हैं । इन साध्यरूप वस्तुधमोंमें चूल्हेपर चढ़ाना, पीछे उतारना इत्यादि पूर्व और अपर सम्पूर्ण क्रियासमूहको "पाक" आदि शब्द कहते हैं । व्यक्तिकी इन चार उपाधियोंमें संकेत ( शक्ति) का ग्रहण होता है न कि व्यक्ति । यदि सकल व्यक्तियोंमें सङ्केतग्रह होगा तो व्यक्तियोंके आनन्त्यसे आनन्त्य
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द्वितीयः परिच्छेदः
३९
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व्यापारकलापः पाकादिशब्दवाच्यः । एज्वेव हि व्यक्तरुपाधिष संकेतो गृह्यते,. न व्यक्ती, आनन्त्यव्यभिचारदोषापातात् । अथ लक्षणा
मुख्यावाचे तद्य तो ययान्योऽर्थः प्रतीयते ।
रूढः प्रयोजनाद्वाऽसौ लक्षणा शक्तिरर्पिता ॥५॥ अतोऽवयवाना पूर्वाऽपरीभावो भवति । ततो बहवो व्यापारा मिलिता एका मुख्या जिया भवति । तदुक्तं वाक्यपदीये
_ 'यावत्सिद्धमसिद्ध वा साध्यत्वेनाऽभिधीयते ।
आश्रितक्रमरूपत्वात्सा क्रियेत्यभिधीयते ।। इति । , इत्थं च सङ्केतग्रहस्थानानि चत्वारि जातिगुंणो द्रव्यं क्रिया चेति ।
भाष्यकारेणाऽप्युक्तं-"गौः शुक्लनको डित्य इति चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्ति". रिति । उक्तमर्थमुपसंहरति-एज्वेवेति । एषु एवजातिगुणद्रव्याक्रियारूपेषु, व्यक्तेः उपाधिषु-धर्मेषु, संकेतः = शक्तिः, गृह्यते = स्वीक्रियते । ननु अर्थक्रियाकारितया = अर्थाय ( दुग्धादिरूपप्रयोजनाय ) या क्रिया ( गोगनयनादिक्रिया ) तत्कारितया ( तन्निर्वाहकत्वेन ) प्रवृत्तिनिवृत्तियोग्या गादिरूपा व्यक्तिरेव, अतः तव = गवादि. व्यक्तावेव सङ्केतः = शक्तिः, अस्तु इति चेत्--
खण्डयति-नेति। व्यक्ती सरूतो न गृह्यते । तत्र हेतु प्रदर्शयतिप्रानन्त्येति । गाव्यिक्तानामानन्त्येन सर्वत्र शक्तिग्रहे आनन्त्यदोषापातः । यदि च एकव्यतावेव संकेतग्रहस्तदा व्यभिचारदोषापातः । अयं भावः । सकलव्यक्तिषु शक्तिकल्पने नानाशक्तिकल्पनागौरवम् । कस्यांचियक्ती क्तिकल्पने तदतिरिक्तव्यक्तिषु. व्यभिचार:- अप्रसक्तिः । अतो व्यक्तरुपाधिषु जात्यादिषु सङ्केत ग्रहः ।
अभिधाऽनन्तरं लक्षणं निरूपयति-मल्याऽर्थवाघ इति । मुख्याऽर्थबाधे रूढः प्रयोजन'त् वा यया तद्य क्तः अन्यः अर्थः प्रतीयते असो लक्षणा शक्तिः, ( सा च ) अपिता इत्यन्वयः ॥ ५॥
मुख्याऽर्थबाधे-मुख्याऽर्थस्य (शक्याऽर्थस्य "गङ्गायां घोषः" इत्यादी गङ्गाऽऽदि. राब्दस्य जलमयाद्यर्थस्य ) बाधे (घोष इत्यादी आधेये, प्राचीनमते अन्वयाऽनुपपत्ती, नवीनमते तात्पर्यानुपपत्ती ), रूढः = प्रसिद्धः, अथवा प्रयोजना = लक्षणाफलात, दोष होगा। किसी व्यक्ति में संकेतग्रह करें तो उससे इतर व्यक्तियों में अप्रसक्ति होनेसे व्यभिचार होगा। इस प्रकार व्यक्ति की पूर्वोक्त चारे उपाधियों में संकेतका ग्रहण होता है ।। ४॥
अब लक्षणाका निरूपण करते हैंअभिधा शक्तिसे निरूपित मुख्य अर्थका बाध (प्राचीनोंके मतमें अन्वयकी
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साहित्यदर्पणे
साहसिकइत्यादौ कलिङ्गादिशब्दो देशविशेषादिरूपे स्वार्थेsसंभवम् यया शब्दशक्त्या स्वसंयुक्तान् पुरुषादीन् प्रत्याययति, यया च सत्यपावनत्यादिरूपाविति भावः । अत्र-"ल्यबलोपे कर्मण्यधिकरणे च" इति ल्यब्लोपे कर्मणि परमी बतो कार्ड प्रयोजनं वा उद्दिश्येत्यर्थः । यया = शक्त्या, वृत्येत्यर्थः । प्रयुक्त मुख्यान येन केनचित्सम्बन्धेन सम्बदः, अन्यः अर्थः = मुख्याऽर्थभिन्नः अर्थः सहाविरिति भावः। प्रतीयते = बोध्यते, असौ = व्यापारः, लक्षणा शक्तिः, सा च पिता स्वाभाविकेतरा ईश्वरानुद्भाविता वा । अत्र "मुख्याऽर्थबाधे" इत्यत्र बाधपदस्थ प्राचीनमतानुसारेण "बन्वयाऽनुपपत्तिरूपेऽर्थे सति "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्" इत्यादी उपादानलक्षणोदाहरणे काकपदस्य मुख्याऽर्थे अन्वयाऽनुपपत्तेरभावात लक्षणाया अप्रसक्तिः स्यात् बतः मुख्याऽस्य बाधे-तात्पर्याऽनुपपत्ती इत्यर्थः करणीयः, ततः मुख्यार्थस्य तात्पर्यानुपस्या. वध्युपपातके लक्षणा । इत्थं चाऽत्र लक्षणायां हेतुत्रयं बोध्यं-मुख्याऽर्थबाधः, मुख्याध्यसम्बन्धो रूडिप्रयोजनाऽन्यतरश्चेति । तत्र च मुख्याऽर्थबाधमुख्याऽर्थसम्बन्धबोगचकादिन्यायेन मिलितयोरेव कारण, रूढिप्रयोजन योस्तु तृणाऽरणिमणिन्यायेन कारपताप्रत्येकमेव कारणता । अयं भावः, यथा घटकार्योत्पत्यर्थ मिलितानामेव दण्डचक्रा. दीनां कारणता भवति तव लक्षणायामपि मुख्याऽर्थबाधमुख्यार्थसम्बन्धयो मिलितयोरेव कारन्ता, न पार्थक्येन। एवंच बग्नि प्रति तृणाऽरणिमणीना प्रत्येकमेव कारणता । तृत.
हितोत्तरवतिनं अग्नि प्रति तृणस्य कारणता, अरणिमन्थनाऽव्यवहितोत्तरवर्तिनमग्नि प्रति बरणे कारणता तथा सूर्यकान्तमण्यव्यवहितोत्तरवर्तिनमग्नि प्रति सूर्यकान्तमणे कारणता, इत्वं च अग्नि प्रति तृणादीनां प्रत्येकस्य कारणता, तथैव कलिङ्गः साहसिक इति रूढिमरण लक्षणायां रूढः कारणता, एवं च "गङ्गायां घोषः" इति प्रयोजनवत्यां लक्षणायां प्रयोजनस्य कारणता बोध्या।
कारिकां विवणोति कलिङ्ग इति । कलिङ्गः साहसिकः, कलिङ्ग ="जगन्ना. पात्पूर्वभागे कृष्णातीरालरे शिवे । “कलिङ्गदेशः" इत्युक्तलक्षणलक्षितो देशविशेष', साहसिका साहसयुक्तः इत्यादी, साहसस्य चेतनधर्मत्वात् कलिङ्गादिशब्दो देशविशेषादिरूपे अचेतने, स्वाऽर्थे = वाच्यरूपे, असंभवन् अन्वयाऽनुपपत्या अनुपपद्यमानः, यया शब्दशक्त्या = पदवृत्या, स्वयंयुक्तान् = स्वेन ( मुख्याऽर्थेन देशविशेषेण ) संयुक्तान = अनुपपत्ति, नवीनोंके मतमें तात्पर्य की अनुपपत्ति होनेपर रूढि ( प्रसिद्धि ) वा प्रयोजन का उद्देश्यकर जिस ( वत्ति ) से अन्य अर्थकी प्रतीति होती है उसे “लक्षणा" कहते हैं । यह शक्ति बस्ति अर्थात् स्वाभाविकसे भिन्न है वा ईश्वरसे उद्भावित नहीं है ।।५।।
"कलिङ्गः साहसिकः" अर्थात् "कलिङ्गदेश साहसी है" इत्यादि वाक्यमें कलिङ्गः आदि शब्द देशविशेष आदि रूप स्वार्थ ( मुख्य अर्थ ) में अनुपपन्न होकर जिस शब्द शक्तिसे स्व-मुख्य अर्थ देशविशेष, उसके साथ संयुक्तः-संयोगसम्बन्धसे वर्तमान पुरुषआदियोंकी प्रतीति करता है ( रूढिमती लक्षणामें ) ।
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द्वितीयः परिच्छेदः
'गङ्गायां घोषः' इत्यादौ गङ्गाशिब्दो जलमयादिरूषार्थवाचकत्वात्प्रकृतेडसंभवन स्वस्य सामीप्यादिसंबन्धसंबन्धिनं तटादि बोधयति, सा शब्दस्यापिता स्वाभाविकेतरा ईश्वरानुद्भाविना वा शक्तिलक्षणा नाम । पूर्वत्र हेतू रूढिः प्रसिद्धिरेव। उत्तरत्र 'गङ्गातटे घोषः' इनि प्रतिपादनालभ्यस्य शीतत्वपाबनतानिशयस्य बोधनरूपं प्रयोजनम् । हेतु विनापि यस्य कस्यचित्संबन्धिनो लक्षणेऽनिमः स्यान , इत्युक्तम्-रूढेः प्रयोजनाद्वाऽसौ' इति । मंगोगाम्ब-धमम्मद्धान् चेतनान् पुरुषान, प्रत्याययति = वोधयति, इत्थं रूढिमती लक्षणामुदाहृत्य प्रयोजनवनीमुदाहरति-यया च शब्दशक्रया 'गङ्गायां घोष:" गङ्गाया = गङ्गाप्रवाहे घोष - आभीरपल्ली, इत्यादी गङ्गाऽऽदिशब्दः अभिधाशक्त्यां जलमयाऽऽदिरूपाऽर्थवाचकत्वात्, प्रकृते = गङ्गायां घोष इति प्रस्तुते प्रयोगे, असंभवन् घोषाधारत्वेन अन्वयए अलभमानः, स्वस्य = अत्मनः, जलमयावर्थस्य, सामीप्यादि. सम्बन्धसम्बन्धिन - सामीपसम्बन्धसम्बद्धं, तट दि = तीरादिरूपमर्थ, बोधर्या = प्रत्याययति, सातादशी शब्दस्थ = पदस्थ, अर्पिता = स्वाभाविकेतरा ईश्वराऽनुद्भाविता वा शक्तिर्लभणा नाम । अयं पावः, भाट्टमते स्वाभाविकः शब्दव्यापारः अभिधा तत इकरा लक्षणा, नैयायिकमते "अस्माच्छब्दादयमों बोद्धव्यः इतीश्वरसङ्केतः शक्तिः, सा च ईश्वरोद्भाविना त्यतः अर्थादायाता, ईश्वराऽनुद्भाविता शक्तिर्लभ णा नाम । पूर्वत्र "कलिङ्गः साहसिक" इति पूर्वस्मिन्नुदाहरणे हेतुः = कारणं, रूढिः = प्रसिद्धिरेव, उत्तरत्रः- रत्तरस्मिन "गङ्गायां घोषः" इति उदाहरणे, गङ्गातटे घोष इति प्रति. पादनात = लक्षणया के गलत टरूपाऽर्थप्रकाशनात, अलभ्यस्य = अप्राध्यस्य, शीतत्वपावनत्याऽतिशयस्य, बोधनरूपम् =अतिशोते अतिपावने तीरे घोषः इति व्यारूपं, प्रयोजन-लक्षणाफलम् । हेतु विनाऽपि = रूढियो जनयोरन्यतरस्कारणमन्तरेणाऽपि, यस्य कस्यचित् सम्ब'धन: = मुख्याऽर्थ सम्बन्धयुक्तस्य, लक्षणे -- लक्षणाकरणे, अतिप्रसङ्गः = अतिव्याप्तिः स्यात् । अयं भावः, रूढिं प्रयोजनं च हेतुविना लक्षणाकरणे 'कमले चरणाऽऽघातं मुखं सुमुखि तेऽकरोत् ।" इत्यत्र निजितत्वं लक्ष्यं परमत्र
. उगी तरह 'गङ्गायां घोषः" अर्थात् "गङ्गापर आभीरोंका ग्राम है" इत्यादि वाक्य में गङ्गादि शन्द जलमयादि (प्रवाह रूप अर्थका वाचक होनेसे प्रकृत ( प्रस्तुत ) गङ्गा शब्दमे, अन्वयमें अनुपपन्न होकर अपने जिस शब्दशक्तिसे गङ्गा शब्दके सामीप्य आदि सम्बन्धसे सम्बद्ध तट आदिका बोध कराती है, वह शब्दकी अपिता = अर्थात् स्वाभाविकसे भिन्न अथवा ईश्वरसे अनुद्भावित शक्तिको "लक्षणा" कहते हैं।
पहले "कलिङ्गः साहसिकः" इस वाक्य में हेतु रूढि अर्थात् प्रसिद्धि ही हैं । दूसरे "गङ्गायां घोषः" इन नाक्य में "गङ्गातटमें घोष है" ऐसे प्रतिपादनसे अध
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साहित्यदर्पणे
केचित्त 'कर्मण कुशल:' इति रूढावुदाहरन्ति । तेषामयमभिप्रायः -- कुशाँल्लातीति व्युत्पत्तिलभ्यः कुशप्रतिरूपो मुख्योऽर्थः प्रकृतेऽसंभवन् विवेचकत्वादिसाधम्यसम्बन्धसम्बन्धिनं दक्षरूपमथं बोधयति । तदन्ये न मन्यन्ते । कुशप्रा हिरूपार्थस्य व्युत्पत्तिलभ्यत्वेऽपि दक्षरूपस्यंव मुख्यार्थत्वात् । अन्यद्धि हेत्वभावात् नेयाऽभिधानां दाषः, स च सप्तमे परिच्छेदे वक्ष्यते, अत उक्त—“रूढेः प्रयोजनाद्वाऽसो" इति ।
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अथ काव्यप्रकाशकारस्य रूढिमत्या लक्षणाया उदाहरणं दूषयति- केचित्विति । केचित् = काव्यप्रकाशकारादयः । " कर्मणि कुशल" इति रूढो उदाहरन्ति । तेषां = काव्यप्रकाश काराणाम्, अयम्, अभिप्राय: = आशय: - "कुशल" इत्यत्र "कुशं लाति” ( आदत्ते ) इति "आतोऽनुपसर्गे कः" इति सूत्रेण कप्रत्ययेन निष्पन्नस्य कुशलशब्दस्य व्युत्पत्तिलभ्यः = अवयवाऽर्थप्राप्यः, कुशग्राहिरूपः = कुशग्राहकरूपः, मुख्यः = शक्यः, अर्थः, प्रकृते = प्रस्तुतकर्मपदान्वये, असंभवन् = योग्यतामलभमानः, विवेचकत्वा दिसाधर्म्य सम्बन्धसम्बन्धिनं विवेचकत्वादि ( दुर्वातृणादिपरिहारकत्वरूपं यद्विवेचनः बतृत्वम् ) यत् साधर्म्यं ( समानधर्मवत्त्वम् ) तद्रूपो यः सम्बन्ध: तेन सम्बन्धिनं ( सम्बद्धम् ) दशरूपं निपुणरूपम्, अर्थ बोधयति लक्षणया प्रतिपादयति = अयं भाव:, ' कर्मणि कुशल” इत्यत्र कुशलपदस्य कुशग्राहकस्वरूपो व्युत्पत्ति लभ्यो यो मुख्यार्थ: सः "कर्मणी' त्यत्र अन्वयम् अलभमानः लक्षाणया कुशग्रहणे दुर्लातृणादिपरिहारकत्वरूपं द्विवेचकत्वं तत्साधर्म्यसम्बन्धेन सम्बन्धिनं कर्मणि दक्षरूपमर्थं प्रत्याययति ।
पूर्वोक्तं काव्यप्रकाशका रमतं दूषयति - तदन्य इति । तत् = मतम्, अन्ये = आचार्याः अत्र विश्वनाथ कविराजस्यापि परिग्रहः । न मन्यन्ते = न स्वीकुर्वन्ति । तत्र हेतुमुपपादयति- कुशेति । कुशाग्रा हिरूपाऽर्थस्य = कुशग्राहकरूपवाच्यम्य, व्युत्पत्तिलभ्यत्वेऽपि=प्रकृतिप्रत्यग्बधप्राप्यत्वेऽपि दक्षरूपस्यैव, मुख्यार्थत्वात् = शक्याऽर्थत्वात् अतो मुख्यार्थबाधाभावात् कथं लक्षणेति भावः । हेत्वन्तराम्युपन्यस्यति - प्रन्यद्धीति । शब्दाना = पदानां व्युत्पत्ति निमित्त = व्युत्पत्तेः ( अवयवा प्रतीतेः ) निमित्तम् ( कारणम् ), व्युत्पत्ति लभ्याऽर्थप्रतीतो प्रकारीभूतो धर्मों व्युत्पत्तिनिमित्तं यथा गोशब्दस्य शीतलत्व और पावनत्व के आधिक्यका बोध करना प्रयोजन है। हेतुके विना जिस किसी भी सम्बन्धी = मुख्य अर्थ के सम्बन्ध से युक्तकी लक्षणा करेंगे तो अतिप्रसङ्ग ( अव्यः प्ति ) होगा इसलिए कहा है- "रूढे: प्रयोजनाद्वाऽसौ " कुछलोग काव्यप्रकाशकार ) कर्मणि कुशल:" इसको रूढिमती लक्ष्णाका उदाहरण बताते हैं । उनका यह अभिप्राय है, ' कुशान् लाति” अर्थात् कुशोंको लाता है, इसमें कुशल पदका व्युत्पत्ति से लभ्य कुशग्राहकत्व रूप मुख्य अर्थ यहाँपर अनुपपन्न होता हुआ विवेचकत्व ( दूर्वा तृण आदिका परिहारकत्वरूप ) आदि साधर्म्य सम्बन्धसे सम्बद्ध दक्ष ( निपुण ) रूप अर्थका बोधन
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द्वितीयः परिच्छेदः
शब्दानां व्युत्पत्तिनिमित्तभन्यच्च प्रवृत्तिनिमित्तम् । व्युत्पत्तिलभ्यस्य मुख्याथत्वे 'गौः शेते' इत्यत्रापि लक्षणा स्यात् । 'गमेझैः' ( उणादि-२।६७) इति गमधातो?प्रत्ययेन व्युत्पादितस्य गोशब्दस्य शयनकाले प्रयोगात्।
तद्भ दानाहमुख्याथस्येतराक्षेपो वाक्यार्थऽन्वयसिद्धये ।
स्थादात्मनोऽप्युपादानादेषोपादानलक्षणा ॥६॥ गमनकर्तृत्वम् । अन्यत् = अपरं, प्रवृत्तिनिमित्तं = प्रवत्तेः ( शब्दानामर्थबाधनशक्तेः ) निमित्तं ( कारणं, प्रयोजकमित्यर्थः ), शक्यताऽवच्छेदकमिति भावः । संकेतग्रहे प्रकारीभूतो धर्मः प्रवृत्तिनिमित्तं यथा गोत्वम् ।। • दृष्टान्तोपादानेन काव्यप्रकाशकारमते अस्वसतां प्रदर्शयति-व्युत्पत्तिलभ्यस्येति। व्युत्पत्तिलभ्यस्य = अवयव ऽर्थप्रतीतिप्राप्यस्याऽर्थस्य, मुख्याऽर्थत्वे = शक्याऽर्थत्वे, 'गौः शेते" इत्यत्राऽपि लक्षणा स्यात्, अत्र हेतुमुपपादयति-"गोंः " इति। "गमेडों: इति उंणादिसूत्रेण गम्लधातोः व्युत्पादितस्य कृतव्युत्पत्तेः, गोशब्दस्य शयनकालेऽपि प्रयोगात् ।
अयं भावः । गोशब्दस्य व्युत्पत्तिरूपोऽयों गमन र्तृत्वरूपः, प्रवृत्तिरूपोऽर्थो गोत्वजातिरूपः, तस्यैव मुख्याऽर्थत्वम् । व्युत्पत्तिलभ्यस्य = गमनकर्तृत्वरूपस्य, मुख्याऽर्थ वे = शक्राऽर्थत्वे "गौः शेते" इत्यत्रापि लक्षणा स्यात्, गमनकर्तृत्वरूपस्य गोशब्दस्य "गोः शेते" इत्यत्राऽपि प्रयोगात् मुख्याऽयंबाधात् लक्षणा स्वीकर्तव्या, परं गोशब्दस्य प्रवतिनिमित्तं गोत्वं शक्यतावच्छेदकमतः मुख्याऽर्थबाधाऽभावात् लक्षणाया अप्रसक्तिः । प्रकृते च व्युतत्तिनिमित्तस्य प्रवृत्ति निमित्तस्य चाऽर्थस्य भिन्नत्वात् "कर्मणि कुशल" इति प्रयोगे कुशलपदस्य दशरूपाऽर्थस्यव मुख्याऽर्थत्वात्, अतोऽत्र बाधाऽभावाल्लक्षणाया अप्रसक्तिः । तद्भदान = तयोः ( रूढियोजनाभ्या द्विधोक्तयोलंक्षणयोः ), भेदान् = विशेषान् आह । भिद्यतेऽनेनेति भेदः = विशेषः ।
तत्रोपादानलक्षणा लक्षयति मुख्याऽर्थस्येति । ( यया ) मुख्याऽर्थस्य वाक्याऽय अन्वयसिद्धये इतराऽऽक्षपः, (तत्र ) आत्मनः अपि उपादानात एषा उपादानलक्षणा इत्यन्वयः । ( यया = पक्त्या) मुख्याऽर्थस्य = शक्याऽर्थस्य, वाक्याऽर्थे = समीपोंकरता है । उनसे भिन्न और लोग इस बातको नहीं मानते हैं। व्युत्पत्तिसे कुशल पदका कुशग्राहक रूप अर्थको प्राप्ति होनेपर भी इसका दक्षारूप ही मुख्य अर्थ है । क्योंकि शब्दोंकी व्युत्पत्तिका निमित्त और प्रवृत्तिका निमित्त मिन्न भिन्न होता है। व्युत्पत्तिलभ्य अर्थको मुख्य अर्थ मानेंगे तो "गौः शेते" गाय सोती है यहाँ भी लक्षणा होगी, क्योंकि "गमेडोंः” इस सूत्रसे गमधातुसे डो प्रत्ययसे निष्पन्न गो शब्दका शयन कालमें. प्रयोग होनेसे यहां भी लक्षाणा करनी पड़ेगी।
लक्षणाके भेद बतलाते हैं-वाक्यार्थ में मुख्य अर्थके अन्वयकी सिद्धिके लिए
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साहित्यदर्पणे
रूढावुपादानलक्षणा यथा-'श्वेतो धावति'। प्रयाजने यथा-'कुन्ताः प्रविशन्ति' । अनमोहिं श्वेतादिभिः कुन्तादिभिश्चाचेनितया केवलर्धावनप्रवेशनक्रिययोः कर्तृतयान्वयमलभमानैरेतसिद्धये आत्मसम्बन्धिनोऽश्वादयः पुरुषादयश्चाक्षिष्यन्ते । पूर्वत्र प्रयोजनाभावादिः , उत्तरत्र तु कुन्तादीनाच्चारितपदसमूहे, अन्वयसिद्धये = संसर्गनिर्वाहाय, इतराऽऽक्षोपः = इतरस्य ( मुख्याऽर्थभिन्नाऽर्थस्य ) आक्षेपः = प्रत्यायनम्, तत्र च आत्मनः अपि = मुख्याऽर्थस्य अपि, उपादानात् = ग्रहणात्, एषा = इयम् उगदानलक्षणा ।। ६ ॥
उदाहरति-रूढाविति । अनयोः = "श्वेतो धायति" "कुन्ताः प्रदिशान्ति" एतयोः । अचेतनतया = जडत्वेन, वस्तुतस्तु = गुणत्वेन अचेतनत्वेन, केवलैः = श्वेतत्व. कुन्तत्वविशिष्टः, धावनप्रवेशनक्रिययोः = शीघ्रगमनप्रवेशकरणकर्मणोः, कर्तृतया = व्यापाराश्रयत्वेन, अन्वयं = क्रियापदसंसर्गम्, अलभमानः = अप्राप्नुवाद्भ., एतल्लिद्धये = धावनप्रवेशनकर्तृत्वाऽन्वयनिर्वाहाय, आत्मसम्बन्धितः - श्वेतकुन्तसम्बन्धयुक्ताः, श्वेतगुणसमवायिनः कुन्तसंयोगिन इति यथायथं बोध्याः । अश्वादर: पुरुषादयश्र आक्षि. प्यन्ते = प्रत्याय्यन्ते । अयं भावः, श्वेतो धावति इत्यत्र श्वेतपाय गुणवाचकत्वात्तस्य धावन क्रियाया कर्तृत्वेन अन्वयाऽपपत्ते' कर्तृत्वाऽन्वयनिर्वाहाय मवायसम्बन्धेन श्वेतगुणयुक्तोऽश्वः आक्षिप्यते । अत्र प्रयोजनामावाढिः । वैयाकरणमते तु अत्र लक्षणा नाऽऽवश्यकी। श्वेतः ( गुणः ) अस्यास्तीति ज्वेत:, श्वेतशात "रसादिभ्यश्चे"ति सूत्रेण मतुप्प्रत्ययः, तस्य च "गुणवचनेभ्यो मतुपो लुगिष्टः” इति वार्तिकेन लुकि सति श्वेत इत्यस्य श्वेतगुणयुक्त इत्यर्थो भवति, ततश्व शक्तिग्रहः हेतुभूताद्वचारणाद, "गुणे शक्लादयः पुंसि गुणिलिङ्गास्तु तद्वति" इति कोशाच्चं "श्वेत' इत्यस्य श्वेतगुणयुक्त इति शक्यार्थः, तस्य धास्तीत्यत्र अन्वयोपपत्तिः, ततश्चाऽत्र लक्षणा नेष्य । परं नैयायिका आलङ्कारिकाश्च "श्वेतो धावति" इत्यत्र प्राथमिकोपस्थितिविषयता श्वेतगुणस्यैव प्रतिपत्तिः, तस्य च धावनक्रियायामन्वयाऽनुपपत्तेः, लक्षणाया गुणिनोऽश्वादेः प्रतीतिरिति वदन्ति । जाँ अन्य अर्थका आक्षेप होता है वहाँपर मुख्य अर्थका भी ग्रहण होनेसे उसे "उपादानलक्षणा" कहते हैं ।। ६॥
__रूढिमें उपादानलक्षणा जैसे-'श्वेतो धावति" ( सफेद दौड़ रहा है)। प्रयोजनमें उपादान लक्षणा जैसे-कुन्ताः प्रविशन्ति (भाले प्रवेश कर रहे हैं। ) इन दो उदाहरणोंमें "श्वेतो धावति" यहाँपर केवल श्वेत आदि और "कुन्ताः प्रविशन्ति" . यहाँपर केवल कुन्त आदि अचेतन ( जड़) होनेसे धावन और प्रवेशन क्रिया कर्ता होकर अन्वित नहीं हो सकते हैं अतः अन्वयकी सिद्धि के लिए श्वेत वर्णवाले अश्व आदिका और कुन्तके धारण करनेवाले पुरुष आदिका आक्षेप करते हैं । "वेतो
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द्वितीयः परिच्छेदः
मतिगहनत्वं प्रयोजनम् । अत्र प्त मुख्यार्थस्यात्मनोऽप्युपादानम् ! लअणलक्षणायां तु परस्यैवोपलक्षणमित्यनयोर्भेदः । इयमेवा जहत्स्वार्थेत्युच्यते ।
अर्पणं वय वाक्यार्थे परस्यान्यसिद्धये । उपलक्षण हेतुत्वादेष!
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लक्षणलक्षणा ॥ ७ ॥
रूढि प्रयोजनयोर्लक्षणलक्षणा यथा - 'कलिङ्गः साहसिक : ' 'गङ्गायां घोषः' इति च । अनयोहिं पुरुषतटयोर्वाक्यार्थेऽन्वयसिद्धये कलिङ्गगङ्गाशब्दावात्मानमर्पयतः ।
एवं च “कुन्ताः प्रविशन्ति” इत्यत्र कुन्तानामचेतनत्वेन प्रदेशनक्रियायां वर्तृत्वेन अन्वयाऽनुपपत्तेः कर्तृत्वाऽन्वयनिर्वाहाय कुन्तसंयोगयुक्ताः पुरुषा आक्षिप्यन्ते । अत्र कुन्तयुक्ताः पुरुषाः प्रविशन्तीति अभिधानादलभ्यं कुन्तादीन तिनत्वं प्रयोजनम् (लक्षणाफलम् ) । अत्र च = उपादानलक्षणायां मुख्याऽर्थस्य आत्मन: ( श्वेतस्य कुन्तस्य च ) अपि उपादानं = ग्रहणम्, अत इयमुपादानलक्षणापदवाच्या । लक्षणलक्षणायां तु परस्य == लक्ष्याऽर्थस्य एव, उपलक्षण = मुख्याऽयं विहायोपस्थापनम् । इयम् एव = उपादानलक्षणा एव अजहत्स्वार्था अजहत् ( अत्यजन् ) स्वार्थ: ( मुख्याऽर्थः ) यांसा, "अजहल्लक्षणं" त्यपि अस्या नामान्तरम् || ६ ||
लक्षणलक्षणां लक्षयति- प्रणमिति । ( यत्र ) वाक्यार्थे परस्य = अमुख्य !-- र्थस्य, अन्वगसिद्धये == संसर्गनिर्वाहाय, यया (वृत्या ), स्वस्य = मुख्याऽर्थस्य, गङ्गादेरिति भावः । अर्पण = परित्यागः, उपलक्षणहेतुत्वात् = अमुख्याऽर्थ मात्रबोधनकारणत्वात्, एषा = इय, लक्षणलक्षणा ॥ ७ ॥
लक्षणलक्षणामुदाहरति- रूढिप्रयोजनयोरिति । रुढिप्रयोजनयोर्लक्षणलक्षणा यथा "कलिङ्ग: साहसिकः " "गङ्गायां घोष" इति च । अनयोः = उदाहरणयो:, पुरुषतटयोः = "कलिङ्गः साहसिकः" इत्यत्र पुरुषस्य, "गङ्गायां घोष" इत्यत्र तटस्येजि धावति" यहापर प्रयोजन न होनेसे रूढिमती लक्षणा । "कुन्ताः प्रविशन्ति" यहाँ पर कुन्तोंकी अतिगइनता प्रयोजन है । उपादान लक्षणामें मुख्यार्थका भी ग्रहण होता है। लक्षणलक्षणा में तो लक्ष्य अर्थ का ही उपलक्षण होता है यह इन दोनोंका भेद है । इसे ही अजहत्स्वार्था' कहते हैं ॥ ६ ॥
लक्षणलक्षणाका लक्षण करते हैं- वाक्यार्थ में पर = मुख्य अर्थ से भिन्न अर्थकी अन्वयसिद्धिके लिए जहां मुख्य अर्थका समर्पण होता है वहाँ लक्षणलक्षणा होती है । यह उपलक्षण ( अमुख्य अर्थमात्रके बोधन ) का कारण होती है ।। ७ ॥
रूढिमें लक्षणलक्षणा - " कलिङ्गः साहसिकः” । प्रयोजन में लक्षणलक्षणा जैसे
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साहित्यदपणे
यथा वा'उपकृतं बहु तत्र किमुच्यते, सुजनता प्रथिता भवता परम् । विदधदीदृशमेव सदा सखे ! सुखितमारस्व ततः शरदां शतम् ।।'
अत्रापारादीनां वाक्यार्थेऽन्वयसिद्धये उपकृतादयः शब्दा आत्मानमपयन्ति। अपकारिणं प्रत्युपकारादिप्रतिपादनान्मुख्यार्थबाधो वैपरीत्यलक्षणः सम्बन्धः, फलमपकारातिशयः । इयमेव जहत्स्वार्थत्युच्यते । भावः । वाक्याऽर्थे, अन्वयसिद्धये = संसर्गनिहाय, कलिङ्गगङ्गादिशब्दौ = मुख्याऽौं, आत्मानं = स्वस्वार्थमर्पयतः = समर्पयतः ।
उदाहरणान्तरं प्रदर्शयति---उपकृतमिति । सखे | भवता बहु उपकृतं सुजनता परं प्रथिता । तत्र किम् उच्यते ? ईदृशम् एव सदा विदधत् ततः शरदां शत सुखितम् आस्त्वेत्यन्वयः । __कंचिदपकारिणं प्रति कस्य चित्पीडितस्योक्तिरियम् । हे सखे ! = हे मित्र !, भवता-त्वया, बहु-अधिकम्, उपकृतम्--उपकारः कृत इति भावः, एवं च सुजनता = सौजन्यं, परम् = अत्यन्तं, प्रथिता = प्रकाशिता । तत्र तयोः त्वदुपकारसौजन्ययोविषय इति भावः । किम्, उच्यते = अभिधीयते, ईदृशम् एव = एतादृशम् एव उपकरण. सौजन्यप्रकाशनम् एव, सदासर्वदा, विदधत् = कुर्वन्, ततः = तदनन्तरं, शरदां-शतवर्षशतं यावत्, सुखित = सुखयुक्तं यथा तथा, आस्व = तिष्ठ, इत्थं मुख्योऽर्थः ।
अत्र = अस्मिन्पद्य, अपकारादीनाम् = अपकारदुर्जनताशत्रुदुःखितानां पदानां, वाक्याऽर्थे अन्वयसिद्धये - संसर्गनिर्वाहाय, उपकृतादयः = उपकृतसुजनतासखिसुखित. रूपाः शब्दाः = पदानि, आत्मानं स्वम्, अर्पयन्ति = परित्यजन्ति, ततश्च उपकृतम् इत्यस्य लक्ष्याऽर्थः "अपकृतम्" "सुजनता" इत्यस्य "दुर्जनता", "सखे" इत्यस्य "शत्रो" "सुखितम्" इत्यस्य दुःखितम् इति यथास्वं लक्ष्याऽर्था बोद्धव्याः ।
___ अपकारिणं प्रति = अपकारकारिणं प्रति = उपकारादिप्रतिपादनात् = उपकारादिशब्दप्रयोगात, मुख्याऽर्थबाधः = शक्याऽर्थबाध:, लक्षणाया हेतुविशेषः, वैपरीत्य. लक्षाणः = वैपरीत्यस्वरूपः, सम्बन्धः, फलम्, अपकाराऽतिशयः = अपकृत्यधिकता लक्षणायाः प्रयोजनमिति भावः । इयम् एव = लक्षाणलक्षाणा एव, "जहत्स्वार्था" इत्युच्यते । अस्या नामान्तरं जहल्लक्षणाऽपि । जहत् = परित्यजन्, स्वाऽर्थः = मुख्याऽर्थो याम् इति बहुव्रीहिसमासः । "गङ्गायां घोषः"। इन दोनोंमें क्रमसे वाक्यार्थमें पुरुष और तटके अन्वयकी सिद्धि के लिए "कलिङ्ग” और गङ्गा शब्द अपने मुख्यार्थका समर्पण करते हैं।
.. अथवा-उपकृतम्० अपकारीको कोई कहता है-- "हे मित्र ! आपने बहुत उपकार किया है, क्या कहना है आपने अत्यन्त सौजन्यका विस्तार किया है। आप ऐने
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द्वितीयः परिच्छेदः
आरोपाध्यवसानाभ्यां प्रत्येकं ता अपि द्विधा । ताः पूर्वोक्ताश्चतुर्भेइलक्षणाः।
विषयस्यानिगीणभ्यान्यतादात्म्यातीतिकृत् ॥ ८ ॥ सारोका, स्पान्निगीणस्य मता सामानिका।
पुनरपि लक्ष माया वैविध्य प्रतिपादयति-मारपेति । आरोपाऽवताभ्या ता: प्रत्येकाप द्विधा अत्यन्वयः। आरोपाऽध्यवसानानाम् -विषयविषयिण देन उपन्यास आरोपः, विषयिणा विषयस्य तिरोभाव: अध्यबसानम्, ताभ्यां, ता:लक्षणाः, प्रत्येकमपि, द्विधा - द्वाभ्या प्रकाराभ्यां, बोद्धमा इति शेषः । लाः- पूर्वोता: चतुर्भेदलक्षणा: = दो प्रयोजने च-उपादानलक्षणा लक्षणलक्षणा चानयोः भेदाभ्याम् 'इति शेषः ।
___अथ साऽरोपां लक्षणां लक्षयति-विषयस्येति । (विषयिणा ) अनिगीर्णस्य विषयस्य अन्यतादात्म्यकृत् साऽऽरोपा स्यादित्यन्वयः ॥ ८ ॥
(विषयिणा = आरोप्यमाणेन, लक्ष्याऽर्थेन श्वेतगुणविशिष्टेन इति भावः ), अनिगीर्णस्य अतिरोहितस्य, विषयस्य = आरोपनिषयस्य, अन्यतादात्म्यप्रतीतिकृत्= अन्येन (विषयिणा = श्वेतगुणविशिष्टेन लक्ष्यार्थेन ) तादात्म्यप्रतीतिकृत् ( अभेदप्रतीतिकृत ) या लक्षणा, सा सारोपा स्यात् । आरोपेण सहिता सारोपा ॥८॥ ही कर्मको करते हुए सौ साल तक सुखपूर्वक जीते रहे। इस वाक्यार्थमें अपकार आदियोंके अन्वाकी सिद्धि के लिए अपकृत आदि शब्द अपने स्वरूपका समर्पण करते हैं। अपकारीके प्रति. उपकार आदिका प्रतिपादन करनेसे मुख्याऽर्थका बाध ( अन्वयाऽनु. पात्ति ) है । वैपरीत्यरूप सम्बन्ध है। अपकारका आधिक्य फल ( प्रयोजन ) है । इसे ही जहत्स्वार्या ( जहल्लक्षणा ) कहते हैं ॥ ७ ॥
आरोप और अध्यवसायसे पूर्वोक्त चार भेदोंवाली लक्षणाके फिर दो भेद होते हैं । विषय ( उपमेय ) और विषयी ( उपमान ) के भेदसे स्थितिको “आरोग्" और जहाँ पर विषयी ( उपमान ) से विषय ( उपमेय ) का तिरोभाव हो जाता है उसे "अध्यवसान" कहते हैं। इस प्रकार फिर दो भेद हो जाते हैं, यह अभिप्राय है । अनिगीर्ण = अनाच्छादित अर्थात् (शब्दसे प्रतिपादित ) विषय ( उपमे)का अन्य. (विषयी अर्थात् उपमान ) से नादात्म्य (अभेद) की प्रतीति करने वाली को "सारोपा" कहते हैं ।। ८ ॥
निगीग:-आच्छादित अर्थाः (मन्दसे) अतिरादित विषय (उपमेय) का अन्य. (विषयी अर्थात् उपमान ) से तादात्म्य ( अभेद ) की प्रतीति करनेवालीको साध्यवसानि का कहते हैं।
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साहित्यदर्पणं
विषयिणा अनिंगीर्णस्य विषयस्य तेनैव सह तादात्म्यप्रतीतिकृत्सारोपा। इयमेव रूपकालङ्कारस्य बीजम् ।।
रूढावुपादानलक्षणा सारोपा एथा-'अश्वः श्वेतो धावति' । अत्र हि श्वेतगुणवानग्धोऽनिगीणस्वरूपः स्वसमवेतगुणतादात्म्येन प्रतीयते ।
प्रयोजने यथा-'एते कुन्ताः प्रविशन्ति' । अत्र सर्वनाम्ना कुन्तधारि पुरुषनिदेशात् सारोपत्वम् ।
साध्यवसानि का लक्ष्यात-निगोर्णस्यति । ( विपना = आशष्यमाणेन, श्वेतगुण विशिष्टेनेति भावः), निगोणस्य = तिरोहितस्य, पियस्य = मुख्माऽर्य-य अश्वादेरिति भावः । अन्यतादात्म्यप्रतीतिकृत = अन्धन (लक्ष्याऽर्थेन तादात्म् प्रतीतिकृत् ( अभेदप्रतीतिकृत ) साध्य व सानिका, मता = अभिगता ।
तत्र इयम् एव = सारोपा लक्षणा एव, रूपकाऽलङ्करस्य वीज = मिनिम् । रूढी उपादानलक्षणा साऽऽरोपा यथा-अश्वः श्वेतो धाति । अत्र हि श्वेत गुणवान् अश्व आरोपविषयः, विषयिणा आरोप्यमाणेन श्वेतेन, अनिगीणस्वरूपः = अतिरोहितस्वरूपः, स्वसमवेतगुणतादात्म्येन-स्वस्मिन् ( आरोपविषये अश्वे ) समवेतः ( समवायसम्बन्धेन वर्तमान. ) यः श्वेनगुणः, तस्य तादात्म्येन ( अभेदेन ) प्रतीयते = ज्ञायते । लक्ष्याऽर्थप्रतीतेः प्रागिति भावः । प्रयोजने उपा० सारोपा यथा-"एते कुन्ताः प्रविशन्ति"। अत्र विषयिणा=आरोप्यमाणेन कुन्तपदेन, अनि गीर्णस्य-शब्दप्रतिपादितस्य, दिषयस्य= आरोपविषयस्य एतत्पदवाच्यस्य पुरुषस्य; अन्यतादात्म्यप्रतोतिकृत-अन्येन (विषयिणा आरोप्यमाणेन कुन्तपदेन ) तादात्म्यप्रतीतिकृत् ( अभेदप्रतीतिकृत् ) सारोपा । अत्र = उदाहरणे, सर्वनाम्ना = एतत्पदेन, आरोपविषयेणेति भावः । कुन्नधारिपुरुषनिदेशात् =.
वृत्तिमें इनका स्पष्टीकरण करते हैं। विषयी ( उपमान ) से अनिगीर्ण अनाच्छादित अर्थात् शब्दसे प्रतिपादित विषय ( उपमेय ) का उसी (विषयी ) के साथ तादात्म्य ( अभेद ) की प्रतीति करनेवालीको "सारोपा" कहते हैं । यही सारोपा लक्षणा रूपक अलङ्कारका बीज है।
रूढिमें उपादान लक्षणा सारोपा-"अश्वः श्वेतो धावति"। । सफेद घोड़ा दौड़ रहा है । ) यहाँ श्वेत गुणवाला अश्व अपने विषयी ( उपमान ) से अनिगीणस्वरूप अर्थात् शब्दसे प्रतिपादित स्वरूप विषय ( उपमेय ) होकर स्वसमवेतगुणतादात्म्यसे अर्थात् 'स्व' हुआ आरोपित विषय अश्व, उसमें समवेत (समवाय सम्बन्धसे विद्यमान ) गुण हुआ श्वेतगुण उसके तादात्म्यं ( अभेद ) से प्रतीत होता है।
श्वेत शब्दकी श्वेतगुण विशिष्टमें प्रसिदिसे रूढि है । श्वेत गुण अपने वाच्यार्य: के साथ लक्ष्याऽर्थ अश्वको भी प्रतिपादित करता है इसलिए उपादान लक्षणा हुई और विषयी श्वेतसे अनिगीणं स्वरूप अश्व (विषय ) के साथ श्वेतका तादात्म्य (अभेन)
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'द्वितीयः परिच्छेदः
रूढौ लक्षणलक्षणा सारोपा यथा-' - 'कलिङ्गः पुरुषो युध्यते । अत्र कलिङ्गपुरुषयोराधाराधेयभावः सम्बन्धः ।
प्रयोजने यथा - ' आयुघृतम् । अत्रायुष्कारणमपि घृतं कार्यकारणभावसम्बन्ध सम्बन्ध्या युस्तादात्म्येन प्रतीयते । अन्यवेलक्षण्येनाव्यभिचारेणाकरत्वं प्रयोजनम् ।
सारोपात्वम् । कुन्तादीनामतिगहनत्वं प्रयोजनम् । काव्यप्रकाशकारमते तु अत्र विषयस्य सामान्यवाचिना सर्वनाम्ना निर्देशेऽपि विशेषरूपेण उपस्थितेरभावान्नेयं सारोपा अपि तु साध्यवसानं परं सन्निकृष्टादिकालेषु इदमादिशब्दानां वाचकपदवदुपस्थितिविषयाद अनिगीर्णरूपत्वात्सारोपात्वमिति विश्वनाथ कविराजमतम् । रूठो लक्षणलक्षणा सारोपा यथा - "कलिङ्गः पुरुषो युध्यते" । कलिङ्गपदस्य मुख्याऽर्थस्य देशविशेषस्य परित्यागालक्षणलक्षणा, पुरुषपदेन लक्ष्यार्योपादानादनिगीर्णत्वम् । अत्र कंलिङ्गपुरुषयोराधाराऽऽधेयभावः सम्बन्धः । प्रयोजने लक्षण ० सारोपा यथा - "आयुर्धृ तम्" । अत्रायु:पदेन मुख्यार्थस्य परित्यागाल्लक्षणलक्षणा; अनिगीर्णस्वरूपे आरोपविषये घृते आयुष आरोपात् सारोपा, अत्र आयुष्कारणमपि घृतं कार्यकारणभावसम्बन्धेन सम्बन्धि (कार्यतासम्बन्धवत् ) यत् आयुः तस्य तादात्म्येन ( अभेदेन ) प्रतीयते = ज्ञायते । अन्यबैलक्षण्येन = अम्नादिवसादृश्येन, अव्यभिचारेण = व्यभिचाराऽभावेन च हेतुना, आयु6करत्वं = जीवित कालवर्धकवं, प्रयोजनं = लक्षणाफलम् । अत्रायें -
"अन्नादिष्टगुणं विष्टं, विष्टादष्टगुणं पयः । पसोऽष्टगुणं मांसं मांमादष्टगुणं धृतम् ॥ घृतादष्टगुणं तैलं, मर्दयेन्न तु भक्षयेत् ।
प्रतीत होता है यह उदाहरण हुआ ।
प्रयोजनमें उपादानलक्षणा सारोपा - "एते कुन्ताः प्रविशन्ति" । ( ये भाले प्रवेश करते हैं) । यहाँपर "एते" इस सर्वनामसे कुन्नधारी पुरुषोंका निर्देश होनेसे और कुन्तोंके साथ उनका तादात्म्य प्रतीत होता है अतः सारोपा हुई और लक्ष्याऽर्थ के साथ कुन्तोंकी भी प्रतीति होती है इसलिए उपादान है । कुन्तोंका अति गहनत्व प्रयोजन है । रूढिमें लक्षणलक्षणा सारोपा - "कलिङ्गः पुरुषो युध्यते" ।
( कलिङ्ग पुरुष युद्ध करता है ) । कलिङ्गपद मुख्याऽयं देशविशेषका परित्याग करके कलिङ्ग देशवासी पुरुषका उपलक्षण है । पुरुषपदके साथ तादात्म्य ( अभेद ) - प्रतीदि से सरोपा है | कलिङ्ग और पुरुषका आधाराऽऽधेयभाव सम्बन्ध है ।
आरोप हुआ इस प्रकार रूढिमें सारोपा उपादानलक्षणाका यह
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प्रयोजनमें लक्षणलक्षणा सारोषा - "आयुर्धृतम्" । (आयु घी है) घी आयुका कारण है, तो भी वह कार्यकारणभाव सम्बन्धसे सम्बन्धी आयुके साथ अभेदरूपसे प्रतीत
४ सा०
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साहित्यदर्पणे
यथा बा - राजकीये पुरुषे गच्छति 'राजासों गच्छति' इति । अत्र स्वस्वामिभावलक्षणः सम्बन्धः । यथा वा अग्रमात्रेऽवयवभागे 'हस्तोऽयम्' । अत्रावयवावयविभावलक्षणसम्बन्धः । 'ब्राह्मणेऽपि तक्षाऽसौ' । अत्र
इत्यायुर्वेदशास्त्रोक्ति: प्रमाणम् । ( एवमेव “आयुरेवेदम्” इति शुद्धायाः साध्यवसावाया लक्षणामा उदाहरणं प्रदर्शितम् । अत्र इदंशब्देन सर्वनाम्ना सन्निकृष्टत्वरूपेणैव खादेरु स्थितिः न तु घृतत्वादिरूपेणेति आरोपविषयवाचकपदाऽभावेन न सारो पात्वमिति ) ।
are लक्षणां बीजं विविधं क्यसम्बन्धं दर्शयन् सारोपाया एव बहून्युदाहरणानि दर्शयति- - यथा वा राजकीय इति । राजकीये = राजसम्बन्धिनि, पुरुष, गच्छति— "राजाऽसौ गच्छति" इति । इयमपि सारोपा प्रयोजनवती लक्षणलक्षणा । अत्र "असो" इनि सर्वनामपदेन लक्ष्यार्थे पुरुषे निर्दिष्टे राज्ञोऽभेदारोपात् सारोपा । अत्र स्वस्वामिभावलक्षण: सम्बन्धः । पुरुषः स्वं राजा च स्वामी राजसदृशोज्ज्वलवेशत्वं राजसहसाऽलङ्घयशासनत्वं वा प्रयोजनम् ।
यथा वा प्रप्रमात्र इति । अग्रमात्रे अवयवमागे "हस्तोऽयम्” इति इयं रूमिती सारोपा लक्षणलक्षणा । अत्र प्रयोजनाभावाद्रूढिरेव । एवं च वत्र अवयवा - वयविभावलक्षण: सम्बन्धः । हस्तः अवयवी, तदग्रभागः अवयवः । हस्ताऽवयवे अग्रेऽपि हस्त शब्दप्रयोगः । पटकदेशे दग्धेऽपि पटो दग्ध इति व्यवहारवत् ।
ब्राह्मणोऽपि " तक्षाsसौ" । इयं प्रयोजनवती सारोपा लक्षणलक्षणा । अत्र तात्कर्म्यलक्षणः सम्बन्धः । तात्कर्म्यमत्र तक्षसदृशकथं कारित्वम् । ब्राह्मणोऽपीत्यत्र अपिपदेन तक्षेतरक्षत्रियादिपरिग्रहः । समस्ततक्षकर्मणि नैपुण्यं प्रयोजनम् ।
होता है । अन्न आदिसे विलक्षणतासे और अव्यभिचारसे आयु बढ़ाना इसका प्रयोजन है। अथवा राजाके किसी पुरुषके जानेके समयमें "राजा असो गच्छति" "यह राजा जाता है" ऐसा प्रयोग होता है, यह साऽऽरोंपा प्रयोजनवती लक्षलक्षणा है । यहाँ "असो" इस सर्वनाम पदसे लक्ष्यार्थ पुरुषका निर्देश होनेसे उसका राजाके साथ अभेद आरोपसे "सारोपा" है, स्वस्वामिभावसम्बन्ध है, पुरुषमें "स्वत्व" है और राजा में "स्वामित्व" है । राजाका सदृश उज्ज्वलवेश होना वा राजाके समान अलङ्घय शासन होना प्रयोजन है । अथवा हाथके अग्रमात्र अवयवभागमें “हस्तोऽयम्" यह हाथ है ऐसा प्रयोग होता है उसमें अवयवाऽवयविभावसम्बन्ध है । हाथ अवयवी है, उसका अग्र भाग अवयव है । यह रूढिमती सारोपा लक्षणलक्षणा है ।
बढ़ई का काम करनेवाले ब्राह्मणको भी "तक्षासो" कहते हैं, यह प्रयोजनवती सारोपा लक्षणलक्षणा है। इसमें तात्कर्म्यलक्षण सम्बन्ध है । यहाँपर तक्षा ( बढ़ई ) के सदृश कर्म करना ही तात्कर्म्य सम्बन्ध है ।
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द्वितीयः परिच्छेदः
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तात्कर्म्यलक्षणः । इन्द्रार्थासु स्थूणासु 'अमी इन्द्रा: । अत्र तादर्यलक्षणः सम्बन्धः। एवमन्यत्रापि। निगीर्णस्य पुनर्विषयस्यान्यतादात्म्यप्रतीतिकत्साध्यवसाना । अस्याश्चतुर्षु भेदेषु पूर्वोदाहरणान्येव । तदेवमष्टप्रकारा लक्षणा ।
____इन्द्रार्थाऽसु = इन्द्रपूजाऽर्थं निर्मितासु, स्थूणासु = स्तम्भेषु "अमी इन्द्राः"। इयं प्रयोजनवती सारोपा लक्षणलक्षणा। अत्र तादथ्यलक्षण: सम्बन्धः । तादथ्यमत्र इन्द्रप्रयोजनकत्वम् । सर्वनाम्नः "अमी" इत्यस्य निर्देशन अमिगीर्णत्वम् । बत्र सदशः पूज्यमानत्वं प्रयोजनम् ।
अथ साध्यवसानां लक्षयति-निगीर्णस्य मता साध्यवसानिका" । इति । ( विषयिणा = आरोप्यमाणेन लक्ष्यार्थेन श्वेतादिनेतिभावः ) निगीणस्य = तिरोहितस्य, विषयस्य = आरोपविषयस्य, अन्यतादात्म्यप्रतीतिकृत् = अन्येन (विषयिणा लक्ष्याऽर्थेन श्वेतगुणविशिष्टेन ), तादात्म्यप्रतीतिकृत = अभेदप्रतीतिकृत, लक्षणा साध्य. वसानिका, मता=अभिमता इति कारिकाशेषभागाऽर्थः । वृत्तावपि अयमेवाऽर्थः सूषितः । इयं साध्यवसाना अतिशयोक्त्यलङ्कारस्य बीजम् । अस्याः साध्यवसानाया लक्षणायाः; चतुषु = चतुःसंख्यकेषु, भेदेषु = प्रकारेषु पूर्वोदाहरणान्येव । ता यथा
१. रूढी उपादानलक्षणा साऽध्यवसाना-"श्वेतो धावति" अत्रारोपविषयस्य अश्वस्य निगरणात साध्यवसानात्वमेवमन्यत्राऽपि ।
२. प्रयोजने उपादानलक्षणा साऽध्यवसाना-"कुन्ताः प्रविशन्ति"। ३. रूढी लक्षणलक्षणा साऽध्यवसाना-"कलिङ्गः साहसिकः"।
४. प्रयोजन लक्षणलक्षणा साध्यवसांना-गङ्गायां घोषः" इति । तदेवमष्टप्रकारा लक्षणा । शुद्धागोणीभेदतो लक्षणादविध्य प्रतिपादयति-सादश्यतर.
इन्द्र के लिए गाड़ीगई स्थूणाओं ( खम्मों) में "बमी इन्द्राः" ऐसा प्रयोग होता है, यह प्रयोजनवती सारोपा लक्षणक्षणा है । यहां पर तादर्य सम्बन्ध है, इन्द्रके लिए होना यह तादयं है । अन्यत्र भी ऐसा ही जानना चाहिए ॥८॥
ये सब सारोपा लक्षणाके उदाहरण है । अब साध्यवसानाका लक्षण कहते हैं"निंगीर्णस्य मता साध्यवसानिका" । निगीण अर्थात् शब्दसे अप्रतिपादित विषयका अन्य. (विषयी ) के साथ अभेद प्रतीति करानेवाली लक्षणा साध्यवसानिका" कहलाती है। इसके चारों भेद पहले ही कहे गये हैं। जैसे
१ रूढिमती उपादानलक्षणा साध्यवसाना "श्वेतो धावति"। २ प्रयोजनवंती उपादानलक्षणा साध्यवसाना-"कुन्ताः प्रविशन्ति"। ३ रूढिमती लक्षणलक्षणा साध्यवसाना-"कलिङ्गः साहसिकः" । ४ प्रयोजनवती लक्षणलक्षणा साध्यवसाना--"गङ्गायां घोषः" । इस प्रकार सारोपाके चार और साध्यवसानाके चार लक्षणाके आठ भेद हो गये।
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साहित्यदर्पणे
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सादृश्येतरसंवन्धाः शुद्धास्ताः सकला अपि ।
सादृश्यात्तु मता गौण्यस्तेन षोडश भेदिताः ॥ ९॥ ताः पूर्वोक्ता अष्टभेदा लक्षणाः। सादृश्येतरसंबन्धाः कार्यकारणभावादयः। अत्र शुद्धानां पूर्वोदाहरणान्येव । रूढावुपादानलक्षणा सारोपा गौणी यथा-'एतानि तैलानि हेमन्ते सुखानि' । अत्र तेलशब्दस्तिलभवस्नेहरूपं मुख्यार्थमुपादायव सार्षपादिषु स्नेहेषु वर्तते । प्रयोजने यथासम्बन्धा इति । सादृश्येतरसम्बन्धाः ताः सकला अपि शुद्धाः सादृश्यात्तु गोण्यो मताः, तेन षोडश भेदिता इत्यन्वयः ।
सादृश्येतरसम्बन्धाः = सादृश्यात् इतरे ( भिन्नाः ), कार्यकारणभावादिरूपाः सम्बन्धा आसां, ताः = पूर्वोक्ता अष्टभेदा लक्षणा:, सकला अपि = संपूर्णा अपि, शुद्धाः परिभाषिताः॥९॥
सादृश्यात्तु गोण्ये लक्षणाः, मताः = अभिमताः, तेन कारणेन, षोडशभेदिता:षोडशसंख्यकत्वेन भेदयुक्ताः । शुद्धाः = कार्यकारणभावादिरूपाः, गोण्यः = गुणयोगादिति भावः । गुणात् आगता गोण्यः, "तत आगतः" इत्यण 'टिड्ढाणन्" इत्यादिना डीप् ।
विवृणोति-सादृश्येतरसम्बन्धाः कार्यकारणभावादयः । तत्र शुद्धानां लक्षणानां पूर्वोदाहरणान्येव "अश्व: श्वेतो धावती"त्यादीनि । गोण्यो लक्षणाः प्रदर्श्यन्ते ।
.. तत्र रूढी उपादानलक्षणा सारोपा गौणी यथा "एतानि तैलानि हेमन्ते सुखामि" तिलानां विकारास्तैलानि, "तस्य विकार" इत्यण् । अत्र अस्मिन् उदाहरणे, तेलशब्दः, तिलभवस्नेहरूपं, मुख्यायं = शक्याऽर्थम्, उपादाय एव = गृहीत्वा एव, सार्षपाऽऽदिस्नेहेषु = सर्षपविकारादिस्नेहमात्रेषु लक्ष्याऽर्थेषु वर्तते । अत्र सर्षपादिस्नेहाना
अब लक्षणाके शुद्धा और गौणी इन दो भेदोंको दिखलाते हैं । सादृश्यसे भिन्न सम्बन्धोंवाली पहले बतलाई गई सब लक्षणाएँ "शुद्धा" कही जाती है ।। ९॥
__ सादृश्यसे "गोणी" लक्षणाएं होती हैं, गुणके योगसे "गोणी" लक्षणा होती है। इस प्रकार शुद्धाके आठ और गोणीके आठ कुल सोलह भेद हो जाते हैं ।
सादृश्यसे भिन्न सम्बन्ध कार्यकारणभाव आदि होते हैं। शुद्धा लक्षणाओंके आठ भेद पहले के उदाहरण ही हैं ।
१. रूढिमती उपादानलक्षणा सारोपा गौणी-"एतानि तैलानि हेमन्ते सुखानि" यहाँपर तेल शब्दका मुख्य अर्थ तिलसे उत्पन्न स्नेह है उसीको लेकर सादृश्यसे सरसों मादिके स्नेहको भी "तेल" कहते हैं।
२. प्रयोजनवती उपादानलक्षणा सारोपा गौणी-राजकुमार और उनके सदृश
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द्वितीयः परिच्छेदः
राजकुमारेषु तस्सदृशेषु च गच्छत्सु 'एते राजकुमारा गच्छन्ति' । रूढावुपादानलक्षणा साध्यवसाना गौणी यथा - 'तैलानि हेमन्ते सुखानि' । प्रयोजने 'यथा - 'राजकुमारा गच्छन्ति' रूढौ लक्षणलक्षणा सारोपा गौणी यथा'राजा गौडेन्द्रं कण्टकं शोधयति' । प्रयोजने यथा - ' - 'गौर्बाहीकः' । रूढौ तिल वत्वाऽभावान्मुख्यार्थबाधः । तैलसार्षपयोरुभयोरपि स्नेहरूपत्वात्सादृश्यलक्षणः सम्बन्धः । एतानीति सर्वनाम्ना सारोपात्वम् । एवमन्यत्राऽपि । प्रयोजने उपा० सा० गौणी यथा- राजकुमारेषु तत्सदृशेषु गच्छत्सु " एते राजकुमारा गच्छन्ति” । अत्र राजकुमारसदृशेषु राजकुमारणन्दप्रयोगात् मुख्याऽथं बाधः शोयंसौन्दर्य वेशभूषाऽऽदिभिः सादृश्यं सम्बन्ध:, राजकुमारवदादरणीयत्वं प्रयोजनम् । एतानीति सर्वनाम्ना सारोपात्वम् । रूठो उपा० साक्ष्यव० गोणी यथा - " तैलानि हेमन्ते सुखानि" । अत्र एतानीति सर्वनाम्ना निर्देशाऽभावाद्विषयस्य निगीर्णत्वेन साध्यवसानात्वम् । प्रयोजने उपा० साध्यव० गोणी यथा - "राजकुमारा गच्छन्ति" । प्रयोजनं निर्दिष्टमेव । रूढौ लक्षणलक्षणा सारोपा गौणी यथा - " राजा गोडेन्द्र कण्टकं शोधयति ।" अत्र गौडेन्द्रे कण्टकशब्दस्य प्रयोगे प्रयोजनाभावाद्रूढिः । क्षुद्रदुःखदायित्वं सादृश्यं सम्बन्धः । कण्टकशब्दस्य प्रकृते स्वार्थपरित्यागात् लक्षणलक्षणा । "क्षुद्रशत्रौ च कण्टक" इत्यादिकोषोऽपि निरूढलक्षणाया एव ग्राहकः । गोङेन्द्रस्य आरोपविषयस्याऽनिगरणात् सारोपात्वम् ।
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प्रयोजने लक्षण० सारोपा गोणी यथा - गोर्वाहकः । वाहीको हलवाहकः । अथवा वाहीको नाम देशविशेषः । यथा
अन्य कुमारोंके जानेपर - "एते राजकुमारा गच्छन्ति" यहांपर राजकुमारोंके सदृश आदरणीय होना प्रयोजन है ।
पूर्वोक्त दोनों उदाहरणों में विषयवाचक "एतत् " पदको हटानेसे 'साध्यवसानां' के उदाहरण हो जाते हैं । जैसे
३. रूढिमती उपादानलक्षणा साध्यवसाना गोणी- " तैलानि हेमन्ते सुखानि" यहां पर सर्वनाम से निर्देश न होनेसे विषय निगीर्ण हो गया है अतः यह साध्यवसाना हुई । ४. प्रयोजनवती उपादानलक्षणा साध्यवसाना गोणी - राजकुमारा गच्छन्ति । प्रयोजनका पहले ही निर्देश किया गया है ।
५. रूढिमती लक्षणलक्षणा सारोपा गौणी " राजा गोडेन्द्रं कण्टकं शोषयति" राजा गौडेन्द्र कण्टकको निवारण करते हैं । यहाँपर गौडेन्द्रमें कण्टक शब्दके प्रयोगमें प्रयोजन न होनेसे रूढि है, क्षुद्र दुःख देना सादृश्य सम्बन्ध है, कण्टकशब्दका प्रकृतमें अपने अर्थका परित्याग करनेसे लक्षणलक्षणा है । आरोपविषय गौडेन्द्रका निगरण न होनेसे सरोपा हुई है ।
६. प्रयोजनवती लक्षणलक्षणा सारोपा गोणी - "गौर्वाहिक: " । बाहीक देशका
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लसणाणा साध्यवसाना मोणी यथा-'राजा कण्टकं शोधयति । प्रयोजने यथा-'गोर्जल्पति'।
पकानां सिन्धुषष्ठानां नदीनां येऽन्तरश्रिताः ।
तान धर्मबाबानशुचीन वाहीकान्परिवर्जयेत् ॥” महाभारत कर्णपर्व । - पचानां शतगु-विपाशेरावतीचन्द्रभागावितस्तानां (भाषायां तु सतलज-व्यासरावी-बनाव-मेलमपदवाच्यानाम् ) सिन्धुषष्ठाना=सिन्ध्या नद्या षष्ठानां नदीनां के अन्तरविता: मध्यस्थिताः, पञ्चनवपद (पञ्जाब)-शाच्या देशाः, धर्मबाह्यान्-धर्मबहिधूतान, मधुचीन अपवित्रान्, तान् =मशान, वाहीकान् = तदाख्यान देशान्, पञ्चनद (पञ्जाब ) वाच्यान्, परिवर्जयेत् परित्यजेद, तत्र न वसेदिति भावः । वाहीका: ( देशाः) सन्ति यस्य स वाहीकः (पाहीकदेशवासिपुरुषः ), "अशं आदिभ्योच्” इति सूत्रेण अच् प्रत्ययः । केचित्त बाटजात्युत्पन्नं जनं "वाहीकम्" कथयन्ति । अपरे तु वयोमेंदाऽभावात बहिर्भवो बाही इति "बहिस्" शब्दात् "बहिषष्टिलोपो यञ्च" "ईकक्
" इति वारिकाम्याम् ईका प्रत्ययष्टिलोपत्र । आचाररहितो जनो बाहीक इत्याहुः । मत्र गोवाहीकयोरभेदेन अन्वयाऽनुपपत्तेः गोशब्दस्य मुख्याऽर्थबाधः । अतः गोशब्देन स्वार्थस्य समर्पणात लक्षणलक्षणा । बारोपविषयस्य वाहीकशब्दस्याऽनिगरणात साऽरोपा। जाग्यादिसादृश्यसम्बन्धाद् मोणी । वाहीकस्य जाडपातिशयबोधनं प्रयोजनम् ।
रुढी लक्षणलक्षणा साऽऽयवसावा गोणी यया-राजा कण्टकं शोधयति । शोधयति = निवारयति ।
अत्र कण्टकपदेन स्वाऽर्थस्य समर्पणाल्लक्षणलक्षणा । आरोपविषयस्य गौवेन्द्रस्य विषयिणा कन्टकेन निगरणासाभ्यवसाना, शुद्रदुःखदायित्वं सादृश्यं सम्बन्धः । कण्टक. . बकुखमातृत्वेन गोणी।
प्रयोजने लक्षण साध्यव० गोणी यथा-गोल्पति । अत्र जल्पनस्य (व्यक्त वाक्योच्चारणस्य ) गवि असंभवान्मुन्याऽयंदाधः । योफ्रेन स्वाऽर्थस्य परित्यागाल्लक्षण. निवासी पुरुष बैल है। यहां पर गौ और बाहीकके अभदसे अन्वयमें अनुपपत्ति होनेसे गोशमके मुख्या में बाध हुआ है। बतः गो शब्दके स्वार्थका समर्पण करनेसे लक्षणः लक्षणा । आरोपविषय बाहीक शब्दका निगरण न होनेसे सारोपा है । जाडय आदिके सादृश्य सम्बन्धसे गौणी है । बाहीकके अतिशय जाडयका बोधन प्रयोजन है।
___७. रूढिमती लक्षणलक्षणा साध्यवसाना गौणी - "राजा कण्टकं शोधयति" यहां कण्टक पदसे स्वार्थका समर्पण करनेसे लक्षणलक्षणा और आरोपविषय गौडेन्द्रका विषय, कण्टकसे निगरण करनेसे "साध्यवसाना" । क्षुद्र दुःख देना सादृश्य सम्बन्ध है । कण्टककी तरह दुःख देनेसे गौणी।
८. प्रयोजनवती लक्षणलक्षणा साध्यवसाना गौणी-"गोल्पति" बल बोलता
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द्वितीया परिच्छेदः
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अत्र केचिदाहुः-गोसहचारिणो गुणा जाडयमन्धिादयो लक्ष्यन्ते । ते च गोशब्दस्य वाहीकार्थाभिधाने निमित्तीभवन्ति । तदयुक्तम्-गोशब्दस्यागृहीतसङ्केतं वाहीकार्थमभिधातुमशक्यत्वाद् गोशब्दार्थमात्रबोधनाच । लक्षणा । तथा च विषयिणा = आरोप्यमाणेन गोपदेन, कारोपविषस्य = वाहीकस्य निगरणात् साध्यवसाना। जाडचादिसादृश्यसम्बन्धादगोणी। सम्बम्धतिसयबोधनं प्रयोजनम् ।
अथ "गोर्वाहीक' इत्यत्र शाब्दबोधभेदान्दर्शयन्परमतं निरस्यति अत्रेति । अत्र केचित् = आचार्याः, आहुः कथयन्ति । “गोर्वाहीक" इत्यत्र गोसहचारिण: गोव-यो ( गोत्वसमानाऽधिकरणाः ) गणा: जाडयमान्द्यादयः, लक्ष्यन्ते-लक्षणया प्रतिपाद्यन्ते । तत्र जाड्यम् ( अज्ञत्वम् ) मान्द्यम् ( निपुणकर्माऽसमर्थत्वम् ), आदिपदेन दुःखसहिष्णुत्वादिपरिग्रहः, ते च लक्ष्यन्ते लक्षणया बोध्यन्ते, ते च-जाड्यमान्द्यादयो गुणाः, गोशब्दस्य, बाहीकार्थाभिधाने = बाहीकाऽर्थस्य अभिधया बोधने, निमित्तीभवन्ति = प्रवृत्तिनिमित्ततामुपयान्ति । तथा च जडत्वेन रूपेण शक्त्यैव, गोर्वाहीक इति प्रतीतिरिति जाड्यमान्द्यादयो लक्ष्यन्ते इति तत्सिद्धान्तः ।
मतमेतत्खण्डयति-तव्यक्तमिति । तत = पूर्वोक्तं, मतम्, अयुक्तम् = अनुचितम्, तत्र हेतु प्रदर्शयति-गोशब्दस्येति । गोशब्दस्य = गोपवस्य, अगृहीतसंकेत संकेतग्रहण विना, बाहीकाऽर्थ = बाहीकरूपाःर्थम्, अभिधातुम् अभिधापल्या प्रतिपादथितुम, असामर्थ्यात् = सामर्थ्याऽमावाद, मोशब्बार्थमात्रबोधनाच-सङ्केतेन मोपदार्थमात्रप्रतिपादनाच्च । अयं भावः । यदुक्तं लक्षणया उपस्थिता गोसहचारिणो जाड्यमान्द्यादयो गुणा गोशब्दात बाहीकार्थस्य अभिधया बोधने निमित्तीभवन्ति, सदयुक्तम् । गोशब्दस्य गोरूपार्थ एव सङ्केतः, न बाहीकाऽर्थे, अतस्तस्य बाहीकाऽर्थमभिधया बोधयितु न सामर्थ्यम् । ननु पुनरभिधया गोशब्देन बाहीकार्थे सकेतः स्यादिति चेत् तत्राह-- अभिधाया इति । अभिधाया विरतत्वात-गोशब्देन सङ्केतितं सास्नादिमन्तमथं प्रतिपाद्य, है । यहाँपर बैलमें जल्पन ( स्पष्ट वाक्यका उच्चारण ) के असंभव होनेसे मुख्य अर्थमें बाध है । गोपदसे स्वार्थका परित्याग करनेसे लक्षणलक्षणा, विषयी ( आरोप्यमाण) गोपदसे आरोपविषय ( बाहीक ) का निगरण करनेसे साध्यवसाना, जाड्यादिके सादृश्य सम्बन्धसे गोणी, जाध्यादिके आधिक्यका बोधन प्रयोजन है।
अब "गोर्वाहोकः” इस वाक्य में शाब्दबोधके भेदोंको दिखलाते हैं
१--"अत्र केचिदाहुः । “गोर्वाहीक:" अर्थात वाहीक गौ है, यहाँपर "गो" शब्दसे बैलकी और 'बाहीक" शब्दसे 'बाहीक देशवासी पुरुषकी प्रतीति अभिधा वृत्तिसे होती है परन्तु गौ और बाहीकका सामानाऽधिकरण्य अनुपपन्न होनेसे गोशब्दसे बैलमें रहने वाले जाडच और मान्ध आदि गुणोंका लक्षणासे बोध होता है, वे गुण गोशब्दके
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साहित्यदर्पणे
अभिधाया विरतत्वाद् विरतायाश्च पुनरुत्थानाभावात्।। . अन्ये च पुनर्गाशब्देन वाहीकार्थो नाभिधीयते, किन्तु स्वार्थसहचारि. गुणसाजात्येन वाहीकार्थगता. गुणा एव लक्ष्यन्ते । तदप्यन्ये न मन्यन्ते । तथाहि-अत्र गोशब्दाद्वाहीकार्थः प्रतीयते, नवा ? आये गोशब्दादेव वा ? लक्षिताद्वा गुणात् ? अविनाभावाद्वा ? तत्र, न प्रथमः, वाहीकार्थस्याअभिधायाः शक्ते, विरतत्वात विश्रान्तत्वात्, विरतायाश्च विश्रान्तायाश्च अभिधायाः "शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराऽभावः” इति न्यायेन पुनरुत्थानाऽभावात्-पुनरागम. नाऽभावादिति भावः । अतः अभिवाऽन्तरकल्पने गौरवमित्याशयः । श्लेषादौ तु युगपदनेकाऽर्थाऽभिधानं स्वीक्रियते, अत्राऽपि तथाकरणे लक्षणाया निरर्षकत्वादिति भावः । मतान्तरमाह-प्रन्ये च पुनरिति । अन्ये च = अपरे च आचार्याः, पुनः गोशब्देन = गोपदेन, बाहीकाऽर्थः = बाहीकरूपाऽर्थः, न अभिधीयते = अभिधावृत्या न प्रतिपाद्यते, गोपदेन संकेतेन गोपदार्थ एवं प्रतिपाद्यते । किन्तु स्वाऽर्थसहचारिगुणसाजात्येन-स्वाऽर्थो गोत्वं, तत्सहचारिगुणाः = गोसहचरणशीलगुणाः . जाडघम न्द्यादयः, तेषां साजात्येन = सजातीयतासम्बन्धेन, बाहीकार्थगता गुणा एव = जाडयमान्यादय एव, अत्र एवकारेण गृणिनो व्यावृत्तिः । लक्ष्यन्ते लक्षणया बोध्यन्ते । अस्मिन्मते गोशब्देन पूर्वमताऽनुसारेण बाहीकार्थोभिधया न प्रतिपाद्यते किन्तु गोसहचारिगुणसाजात्येन बाहीकार्यगता जाडय. मान्द्यादयो गुणा एव लक्षणया बोध्यन्त इति भावः । - तदपि = तन्मतमपि, अन्ये = आचार्याः, न मन्यन्ते = न स्वीकुर्वन्ति । तत्र हेतुमाह-यथेति । तथाहि अत्र = "गोर्वाहीक" इत्यत्र । गोशब्दात्, वाहीकार्थः = वाहीकरूपार्थः, प्रतीयते = ज्ञायते, न वा = न प्रतीयते वा, न ज्ञायते वा। आद्य = प्रथमपक्षे प्रतीतिपक्षे, गोशब्दात् एव वा (१), लक्षिता लक्षणावृत्या प्रतिपादितात, गुणात = स्वनिष्ठ जाडयमान्याद्वा (२), अविनाभावाद्वा=व्याप्तेर्वा प्रतीयते वाहीकाऽर्थ अभिधावृत्तिसे वाहीक अर्थका प्रतिपादन करने में प्रवृत्ति निमित्त होते हैं यह कुछ विद्वानों का कहना है।
इसका खण्डन करते है। यह अनुचित है। सङ्केतग्रहण किये बिना गोशब्द वाहीक अर्थका प्रतिपादन नहीं कर सकता है । केवल गो अर्थका प्रतिपादन करता है।
गोरूप अर्थमात्रका बोधन कर अभिधा विरत हो जाती है, "शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः" इस नियमके अनुसार विरत अभिधाका फिर उत्थान नहीं हो सकता है।
अन्ये ति अन्य विद्वान् ऐसा कहते हैं-पोशब्दसे बाहीक अर्थ अभिधासे प्रतिपादित नहीं होता है, किन्तु स्वाऽर्थ-गोत्व उसके सहचारिगुण जाडघमान्य आदिके साजात्य-सजातीयता सम्बन्धसे अर्थात् सादृश्यसे बाहीक अर्थ में रहने वाले जाडच मान्य आदि गुणोंकी ही लक्षणा होती है । (जाड्य मांब आदि गुण ही लक्षित होते हैं ).।
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द्वितीयः परिच्छेदः
संकेतित्वात । न द्वितीयः। गोगवयचन्द्रमुखादिशब्दद्वन्द्वानामवयवप्रसादादिसाम्येऽप्यन्योन्यस्याऽन्यतमशब्दार्थाऽनभिधायकत्वात् । न तृतीयः । अविनाभावलभ्यस्यार्थस्य शान्देऽन्वये प्रवेशासंभवात शाब्दी ह्याकाङ्क्षा इति शेष: । ( ३ ) न प्रथमः = 'गोशब्दाद्वाहीकाऽर्थः प्रतीयते" इत्याकारकः प्रथमः पक्षो न । अत्र हेतु प्रदर्शयति-वाहो काऽर्थस्थाऽसंकेतितत्वात् । गोशब्दे वाहीकाऽर्थस्यासंकेताऽभावात् गोशब्दाद्वाहीकार्थो न प्रतीयते इति भावः । न द्वितीयः, "गोशब्देन लक्षिताद् गुणाद् गोणन्दादेव" इत्याकारकः बाहीकार्थः प्रतीयत इति पक्षोऽपि न, अत्र हेतुमुपन्यस्यति-गोगवयेत्यादिः । “गोर्गवयः" "मुखं चन्द्र" इत्यादिशब्दद्वन्द्वानां; लक्षणयाऽवयवप्रसादादिसाम्येऽपि = "गोर्गवय" इत्यादी गोगवयोरवयवसाम्येऽपि, तथा "मुखं चन्द्रः" इत्यादी प्रसादत्वस्य ( आह्लादकत्वस्य ) साम्येऽपि ( सादृश्येऽपि) अन्योन्यस्य = परस्परस्य, अन्यतमशब्दाऽर्थाऽनभिधायकत्वात् = समभिव्याहृतपदार्थाऽवाचकत्वात, अयं भावः । 'गोर्गवय" इत्यत्र लक्षणयाऽवयवसादृश्यरूपस्याऽर्थस्य प्रतीतावपि तथा "मुखं चन्द्र" इत्यत्र लक्षणया प्रसादत्वस्य ( आह्लादकत्वस्य ) साम्येऽपि, गोगवयोर्मुख चन्द्रयोश्च यर्थकस्यापरणब्दार्थाऽवाचकत्वं तथव प्रकृतेऽपि "गोर्वाहीक इत्यत्र लक्षणया गोपदाज नाड्यमान्द्यादिरूपस्याऽर्थस्य लक्षितत्वेऽपि एकस्याऽपरशब्दाऽर्थावाचकत्वमतो लक्षिताद् गुणादपि गोशब्दाद् बाहीकाऽर्थप्रतीतिर्नेति भावः । ।
न तृतीयः । अविनाभावाढाहीकाऽयंप्रतीतिरिति पक्षोऽपि नेति भावः । तत्र हेतुमाह-अविनाभावलभ्यस्य = व्याप्तिलभ्यस्य, अर्थस्य, शाब्दे = शब्दजन्ये, अन्वये3 संसर्गे, प्रवेशाऽसंभवात् = निवेशाऽसंभवाद, यतः शाब्दी = शब्दसम्बन्धिन्याकाङ्क्षा, शब्देनैव = न तु अविनाभावलभ्याऽर्थेन पूर्यते ।
__ मतमेतच्छन्दाऽव्याहारवादिनां नैयायिकानाम् । अर्याऽव्याहारवादिनां मीमांसकानां मते तु अविनभावलभ्यस्याऽप्यर्थस्य शाब्दबोधविषयत्वाऽङ्गीकारानंतदूषणम् ।
द्वितीयं पक्षं खण्डयति-न द्वितीय इति । गोशब्दाद्वाहीकाऽर्थो न प्रतीयत इति पक्षः । यदि हि अत्र गोशब्दात् बाहीकार्थो न प्रतीयेत = न ज्ञायेत, तदा = तहि
- न कि गुणी . बाहीक भी, खण्डन करते हैं इसे भी अन्य विद्वान् नहीं मानते हैं । जैसे कि- "गोर्वाहीकः" यहाँपर गो शब्दसे बाहीक अर्थ प्रतीत होता है ? वा प्रतीत नहीं होता है ? पहले पक्षमें ( गो शब्दसे बाहीक अर्थ प्रतीत होता है तो गो शब्दसे ही प्रतीत होता है (१) वा गो शब्दसे लक्षित जाडय मान्द्य आदि गुणोंसे प्रतीत होता है (२) अथवा अविनाभाव ( व्याप्ति ) से प्रतीत होता है ( ३ ) इनमें पहला पक्ष-गो शब्दसे ही वाहीक अर्थ प्रतीत होता है, यह ठीक नहीं है, क्योंकि गो शब्दका वाहीक अर्थमें जब सङ्केत ही नहीं हैं तो कैसे उससे वाहीक अर्थकी प्रतीति होगी? । दूसरा पक्ष-गो शब्दसे लक्षित जाडय आदि गुणोंसे वाहीक अर्थकी प्रतीति होती
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साहित्यदर्पले
मिल पा र मामा की सीमा
शब्देनैव पूर्यते। न द्वितीया-यांद हि गोशब्दावाहीकार्थो न प्रतीयते, सदाऽस्य वाहीकशब्दस्य च सामानाधिकरण्यमसंगतं स्यात् ।
तस्मादत्र गोशब्दो मुख्यया वृत्त्या वाहीकशब्देन सहान्वयमलममानोऽज्ञत्वादिसाधर्म्यसंबन्धाद्वाहीकार्थ लक्षयति। वाहीकस्याज्ञत्वाधतिशयबोधनं प्रयोजनम् । अस्य = गोशब्दस्य, वाहीकशब्दस्य च, सामानाऽधि करण्यम् = एकार्थप्रतिपादकत्वम असंगतम् = अयुक्तं स्यात, तस्मात् = कारणाद, अत्र = अस्मिन् स्थले "गौर्वाहीक इत्यत्रेति भावः । गोशब्दः = गोरूपाऽर्थः, मुख्यया वृत्त्या = अभिधाशक्त्या, वाहीव शब्देन सह = वाहीकरूपाऽर्थेन समम्, अन्वयम् = अभेदसम्बन्धेन ससर्गम्, अलभमानः% अप्राप्नुवन्, अज्ञत्वादिः, साधर्म्यसम्बन्धात् = तुल्यधर्मतासम्बन्धात्, वाहीकाऽर्थ-वाहीक रूपाऽर्थ, लक्षयति लक्षणया प्रतिपादयति, गोसदृशत्वेन रूपेणेति शेषः वाहीकस्य "वाही कोऽज्ञा" इति प्रतिपादनादलभ्यम् अज्ञत्वातिशयं, प्रयोजनं लक्षणाफलम् । अत्राहार्याऽ भेदातीतिः प्रयोजनमिनि काव्यप्रकाशकारः । इत्थं च एतस्या गौणीवृत्त्या मुख्याऽर्थबाधाहै, यह मत भी ठीक नहीं है, क्योंकि गौ गवय, चन्द्र मुख आदि युग्म शब्दोंमें जैसेकि गो और गवयमें अवयवमें समता और चन्द्र और मुखमें प्रसाद ( आह्लादकत्व )की समता होनेपर भी गो गवय अर्थको और मुख चन्द्ररूप अर्थको अभिधा वृत्तिसे प्रतिपादन नहीं कर सकता है । वैसे ही गो शब्द जाड्याद्यतिमयकी लक्षणासे भी वाहीक अर्थको अभिधासे प्रतिपादन नहीं कर सकता है। तीसरा पक्ष-अविनाभाव (ज्याप्ति ) से गो शब्द वाहीक अर्थकी प्रतीति करता है, यह मत भी ठीक नहीं है, क्योंकि अविनाभाव (व्याप्ति). से लभ्य अर्थका शब्दजन्य अन्वयमें प्रवेश असंभव है, क्योंकि शब्दसम्बन्धिनी आकाशा शब्दसे ही पूर्ण होती है अविनाभावसे लभ्य अर्थसे नहीं, ( अर्थाऽध्याहारवादी मीमांसक आदिके मतमें तो अविनाभावलभ्य अर्थसे भी आकाङ्क्षा पूर्ण होती है)।
अब द्वितीय पक्ष-गो शब्दसे वाहीक अर्थ प्रतीत नहीं होता है, इस मतका खण्डन करते है । गो शब्दसे वाहीक अर्थ प्रतीत नहीं होता है तो उसका औरवाहीक शब्दका सामानाधिकरण्य ( एक आश्रय में रहना ) असंगत होगा।
अब सिवान्त पक्ष दिखलाते हैं-इस कारणसे गो शब्द मुख्य (अभिधा) वृत्तिसे . वाहीक शब्दके साथ अन्वय (अभेद सम्बन्धसे संसर्गको) न पाकर अज्ञत्व आदि साधर्म्य( तुल्यधर्मता) के सम्बन्धसे वाहीक स्वरूप अर्थको. लक्षणासे प्रतिपादन करता है। व्यञ्जनासे वाहीककी अत्यन्त अज्ञता आदिका प्रतिपावन करना प्रयोजन है। यह लक्षणा मुण (अशत्व आदि साधारण धर्म) के योगसे "गौणी" कही जाती है । पहली (सादृश्यसे अतिरिक्त सम्बन्धसे युक्त) लक्षणा उपचारके मिश्रण न होनेसे "शुद्धा" कही जाती है।
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द्वितीया परिच्छेदः
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. इयं च गुणयोगाद् गौणीत्युच्यते। पूर्वा तूपचारामिश्रणाच्छुद्धा । उपचारो हि नामात्यन्तं विशकलितयोः शब्दयोः सादृश्यातिशयमहिम्ना भेदप्रतीतिस्थगनमात्रम्। यथा-'अग्निमाणवकयोः। शुक्लपटयोस्तु नात्यन्तं भेदप्रतीतिः, तस्मादेवमादिषु शुद्धव लक्षणा।
व्यङ्गयस्य गूढाऽगूढत्वाद् द्विधा स्युः फललक्षणाः ॥१०॥
प्रयोजने या अष्टभेदा लक्षणा दर्शितास्ताः प्रयोजनरूपव्यङ्गयस्य दित्रितयहेतुकत्वाल्लक्षणायामन्तर्भावः स्फट एव इत्याशयः । इयं च = लक्षणा, गुणयोगात् = सादृश्यधर्मयोगात्, “गोणी" त्युच्यते। पूर्वा तु = सादृश्ययाऽतिरिक्तसम्बन्धयुक्ता तु, उपचाराऽमिश्रणात् = उपचारमिश्रणाऽभावात्, शुद्धा । उपचारं निरूपयतिउपचार इति । उपचारो नाम अत्यन्तं = साऽतिशयं, विशकलितयोः = भिन्नयोः, पदार्ययोः सादृश्याऽतिशयमहिम्ना = अतिशयतुल्यत्वसामर्थ्यन, भेदप्रतीतिस्थगनमात्रभेदज्ञानाच्छादनमात्रम् । न तु अभेगारोप इत्यर्थः । यथा अग्निमाणवकयोः । शुक्लषटयोस्तु न अत्यन्तं भेदप्रतीतिः, तस्मात् एवमादिषु शुद्धव लक्षणा ।
प्रयोजनवत्या लक्षणाया वैविध्यं प्रतिपादयति-व्यङ्गयस्येति । व्यङ्गयस्य= व्यञ्जनावत्तिप्रतिपाद्यस्य प्रयोजनस्य, गूढाऽगूढत्वात् = गूढत्वात् अगूढत्वाच्च । फललक्षणाः= प्रयोजनवल्यो लक्षणाः। द्विधा = द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां, स्युः = भवेयुः इति कारिकाऽर्थः ॥ १० ॥
कारिकां विवृणोति-प्रयोजन इति । प्रयोजने या अष्टभेदा लक्षणा शिताः, ता:-लक्षणाः,प्रयोजनरूप व्यङ्गयस्य लक्षणाफलरूपव्यञ्जनाप्रतिपाद्यार्थस्य, गूढागूढत्या
अत्यन्त भिन्न. दो पदार्थोका अतिशय सादृश्य ( समानता ) की महिमासे भेद प्रतीति के स्थगन करनेको "उपचार" कहते हैं।
जैसे अग्नि और माणवका, इनमें तेजस्वितारूप समानताकी महिमासे "अग्निर्माणवकः" इस प्रकार दोनोंका भेद आच्छादित हो गया है। यह गोणी लक्षणाका उदाहरण है । परन्तु "शुक्ल: पट:" यहाँपर शुक्ल और पटमें शुक्ल गुण और पट द्रव्य, भिन्न होनेपर भी अग्नि और माणवककी तरह ये अत्यन्त भिन्न नहीं है अत एव. ऐसे प्रयोगों में शुद्धा लक्षणा ही होती है।
इस रूढिमती लक्षणाके आठ भेद और प्रयोजनवती लक्षणाके आठ भेद हो गये हैं। इनमें प्रयोजनवती लक्षणाडोंमें प्रयोजनरूप व्यङ्गयके गूढ और अगूढ़ होनेसे दो दो भेद होकर प्रयोजनवती लक्षणाके सोलह भेद होते हैं ॥१०॥
उनमें "गूढ व्यङ्ग" काव्याऽर्थक परिशीलनमें परिपक्व बुद्धि-सम्पत्तिबालोंसे ही ज्ञात हो सकता हैं-"जैसे उपकृत बहु तत्र, इत्यादि। अत्यन्त स्पष्ट होनेसे सब जनोंसे ज्ञेय व्यङ्गयको "अगूढ व्यङ्ग" कहते हैं। जैसे--"उपदिशति."
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साहित्यदर्पणे
गढाऽगढतया प्रत्येकं द्विधा भूत्वा षोडश भेदाः। तत्र गढः, कान्यार्थभावनापरिपकबुद्धिविभवमात्रवेद्यः। यथा-'उपकृतं बहु तत्र- इति। अगढः% अतिस्फुटतया सर्वजनसंवेद्यः । 'यथा
उपदिशति कामिनीनां यौवनमद एव ललितानि॥
अत्र 'उपदिशति' इत्यनेन 'आविष्करोति' इति लक्ष्यते । आविष्कारातिशयश्वाभिधेयवत्स्फुटं प्रतीयते ।
. धर्मिधर्मगतत्वेन फलस्यता अपि द्विधा । ___एता अनन्तरोक्ताः षोडशभेदा लक्षणाः फलस्य धमिगतत्वेन धर्मगतत्वेन च प्रत्येक द्विधा भूत्वा द्वात्रिंशभेदाः । गूढतया अगूढतया च, प्रत्येकं, द्विधा ८४२ = षोडश भेदाः । तत्र गूढः काव्याऽर्यभावनापरिष्कृतबुद्धिविभवमात्रवेद्यः = काव्याऽर्थस्य भावनया परिशीलनेन, परिष्कृतः परिष्कारयुक्तो यो बुद्धिविभवः घीसम्पत्तिः । तन्मात्रवेद्यः = तन्मात्रज्ञेयः, काव्याऽर्थपरिशीलनसूक्ष्मबुद्धिवेद्य इति भावः । गूढः = यथा-"उपकृतं बहु तत्रे"त्यादि: । अपकाराऽतिशयरूप प्रयोजनं काव्याऽर्थभावनापरिष्कृतबुद्धिविभवमात्रवेद्यम् । अगूढ अतिस्फुटतया ( अतिस्पष्टत्वेन ) सर्वजनसवेद्यः, यथा
__"उपदिशति कामिनीनां योवनमद एव ललितानि ।"
कामिनीनां = रमणीनां, यौवनमद एव-तारुण्यमद एव, ललितानि-शृिङ्गारचेष्टितानि, उपदिशति-उपदेशं करोति, अत्र अचेतनत्वेन यौवनमदस्योपदेशे तात्पर्याऽ. नुपपत्तेः "उपदिशति" इत्यनेन "आविष्करोति" इति लक्ष्यते = लक्षणया ज्ञाप्यते । -तत्र आविष्काराऽतिशयरूपं प्रयोजनं व्यङ्गय (व्यजनावृत्तिप्रतिपाद्यम्) तदपि अभिधेय. , वत्-शक्याऽर्थवत्, स्फुट-व्यक्तं, प्रतीयते व्यज्यते। अतोऽगूढव्यङ्गयस्योदाहरणम् । आभ्यामेव व्यङ्गयस्य गूढाऽगूढत्वाम्यां ध्वनिगुणीभूतव्यङ्गधनामको काव्यभेदो वक्ष्येते ।
पुनरपि प्रयोजनवत्या लक्षणाया वैविध्यं प्रतिपादयति-धमिधर्मगतत्वेनेति । एताः फलस्य धर्मिधर्मगतत्वेन अपि (पुनः) द्विधा इत्यन्वयः । विवृणोति-एता इति । एता:= अनन्तरोक्ताः, षोडशभेदा लक्षणा:, फलस्यप्रयोजनस्य, धमिधर्मगतत्वेन-धर्मी लक्ष्यः, धमः-लक्ष्यवृत्तिपदार्थः । मिगतत्वेन धर्मगतत्वेन अपि, प्रत्येक द्विधा भूत्वा द्वात्रिंशद्भदा:। रमणियोंके तारुण्य मदको हो शृङ्गारचेष्टाओंका उपदेश करते हैं । यहाँपर "उपदिशति" इस पदका "उपदेश करता है" यह वाच्यार्थ है, उपदेश करना चेतनका धर्म है यौवनमद अचेतन है अतः अनुपपत्ति होनेसे आविष्करोति आविष्कार ( प्रकट) करता है यह लक्ष्यार्थ हुआ । आविष्कारका आधिक्य वाच्याऽर्थके समान स्पष्ट रूपसे प्रतीत होता है। अब अन्य भेदोंको दिखलाते हैं। प्रयोजनके मिगत और धर्मगत होनेसे प्रयोजनवती -लक्षणाएं फिर से प्रकारकी होती हैं । इसप्रकार प्रयोजनवती लक्षणाएं १६ + १६=३२
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द्वितीयः परिच्छेदः
दिलमात्रं यथा'स्निग्धश्यामलकान्तिलिप्तवियतो वेल्लबलाका घना
वाताः शीकरिणः पयोदसुहृदामानन्दकेकाः कलाः। कामं सन्तु, दृढं कठोरहृदयो रामोऽस्मि सर्व सहे
वैदेही तु कथं भविष्यति हहा ! हा देवि ! धीरा भव ॥'
दिङ्मात्रं = दिग्दर्शनमात्र, यथा। धमिधर्मगतफलयोरेकैकमुदाहरणं प्रदयंत इति भावः।
तत्र मिगतप्रयोजनवती लक्षणामुदाहरति-स्निग्धेति । स्निग्धश्यामलकान्तिलिप्तवियता वेल्लद्वलाका घनाः, शीकरिणो वाताः, पयोदसुहृदां कलाः मानदकेकाः । ( एते ) कामं सन्तु । दृढं कठोरहृदयः रामः अस्मि, सर्व सहे । तु वैदेही कथं भविष्यति हहा हा देवि ! धीरा भव इत्यन्वयः ।
वर्षावुपस्थिते सीताविप्रयुक्तस्य रामस्योक्तिरियम् । स्निग्धश्यामलकान्तिलिप्तवियतः = स्निग्धा ( सान्द्रा ) श्यामला (नीला ) या कान्तिः (शोभा ) तया लिप्तं (लेपनविषयीकृतं, लक्षणया व्याप्तम्) वियत् (आकाशम्) यस्ते । तथा वेल्लबलाका वेल्लन्त्यः ( चलन्त्यः ) बलाकाः (बिसकण्ठिकाः ) येषु, ते तादृशाः घनाः= मेघाः । शीकरिणः = जलकणयुक्ताः, शीतला इति भावः । तादृशा वाताः = वायवः, वान्तीति शेषः । पयोदसुहृदां पयोदाः ( मेघाः ), तेषां सुहृदाम् ( मयूराणाम् ), कलाः मधुराः आनन्दकेकाः = हर्षपरिपूरितानि कूजितानि । ( एते-पूर्वोक्ताः पदार्याः), मदनोद्दीपका इति भावः, कामं = पर्याप्तं यथा तथा, सन्तु = भवन्तु । दृढं बाढं यथा तथा, कठोरहृदयः = कठिनचित्तः, रामः = राघवः, दुःखसहनशील इति भावः । अस्मि=भवामि; सर्व = सकलं दुःखमिति शेषः । सहे = सहनं करोमि, । तु=परन्तु, वैदेही = सीता, कथं = केन प्रकारेण, भविष्यति भविता, उद्दीपकपदार्थानां सन्निधाने कथं स्थास्यतीति शेषः । हहा हा = हन्त हन्त !, हे देवि = हे जानकि ! धीरा-धर्यवती, भव । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ भेदोंवाली हो जाती हैं । दिग्दर्शन करते हैं-सीताके विरही रामचन्द्रजीकी उक्ति है। चिकनी और श्याम - कान्तिसे आकाशका लेपन करनेवाले और बगलियां जिनके आस पास उड़ रही हैं ऐसे मेघ हैं । जलके कणोंसे सम्बद्ध हवाएं बह रही हैं । मेघके सुहर मयूरोंके हर्षपरिपूरित मधुर कूजित सुने जा रहे हैं। भले ही ये सब हों, मैं अतिकठोर. हृदय राम हूँ, सब सहता हूं, परन्तु सीता कसे सहेगी? हाय हाय ! हे देवि ! तुम धैर्य धारण करो॥
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साहित्यदर्पणे
अत्रात्यन्तःदुःखसहिष्णुरूपे रामे धर्मिणि लक्ष्ये तस्यैवातिशयः फलम् । 'गायां घोषः' इत्यत्र तटे शीतत्क्पावनत्वरूपधर्मस्यातिशयः फलम् ।
तदेवं लक्षणामेदाचत्वारिंशन्मता बुधैः ॥ ११ ॥ रूढावष्टौ फले द्वात्रिंशदिति चत्वारिंशन्नक्षमाभेदाः। किन
' पदवाक्यगतत्वेन प्रत्येकं ता अपि द्विधा ।
ता अनन्तरोक्ताश्चत्वारिंशद्भदाः। तत्र पदगतत्त्वे यथा-'गङ्गायां घोषः। वाक्यगतत्वे यथा-'उपकृतं बहु तत्र' इति । एवमशीतिप्रकारा लक्षणा।
धमिगतप्रयोजनवत्या लक्षणाया उदाहरणं विवृणोति-पत्रेति । अत्र-उदाहरणे, अत्यन्तदुःखसहिष्णु रूपे रामे मिणि लक्ष्ये लक्षणावृत्तिप्रतिपाद्य अर्थे, तस्यैव-दुःखसहिष्णुत्वस्य, अतिशयः = आधिक्यं, फलं = प्रयोजनम् । रामस्य सर्वसहत्वस्थाऽप्रसिद्ध मुंख्याऽर्यबाधः।
धर्मगतप्रयोजनवती लक्षणामुदाहरति-गङ्गायां घोष इति । अत्र तटे लक्ष्याऽर्थे, शीतत्वपावनस्वाऽदिरूपधर्मस्य अतिशयः, फलं प्रयोजनम् । सामीप्यरूपः सम्बन्धः ।
लक्षणाभेदान् सकलयति-तदेवमिति । तत्-तस्मात्कारणात, बुध: विद्भिः , -एवम् इत्थं, चत्वारिंशत्-चत्वारिंशत्संख्यकाः, लक्षणाभेदाः, मता: संमताः ॥११॥
विवृणोति-रूढी अष्टी, फले प्रयोजने वात्रिशदिति संहत्य चत्वारिंशल्लक्षणा. भेदा ८+३२-४० ॥११॥
लक्षणायाः पुनर्वविध्यं प्रतिपादयति-पदवाक्यंगतत्वेनेति। ताः लक्षणाः, ' पदवाक्यगतत्वेन - पदगतत्वेन वाक्यगतत्वेन अपि, द्विधा ।
इस पबमें अत्यन्त दुःखके सहनशील रामरूप धर्मी लक्ष्य = लक्षणासे शावके विषयमें दुःखसहिष्णुत्वका अतिशय फल (प्रयोजन) है । बतः यह धर्मिगत-प्रयोजनवती लक्षणाका उदाहरण हुवा।।
"गङ्गायां पोषः” यहाँपर तटमें शीतल्य-पावनस्वरूप धर्मका अतिशय फल प्रयोजन ) है, अतः यह धर्मगत-प्रयोजनक्ती लामाका उदाहरण हुआ।
तदेवमिति । रूढिमें बाठ और फल (प्रयोजन) में बतीस इसप्रकार लक्षणाके चालीस भेद पण्डिताने माने हैं ॥ ११ ॥
अनन्तरोक्त वे पोलीस प्रकारको लक्षणाएं पदगत और वाक्यगत होनेसे पिर दो प्रकारोंकी हो जाती हैं । पदगत लक्षणा जैसे-'गङ्गायां घोषः" । वाक्यगत लक्षणा जैसे-"उपकृतं बहु० ०" इत्यादि । पदगत चालीस और वाक्यगत चालीस इस प्रकार लक्षणाके अस्सी भेद होते हैं।
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द्वितीयः परिच्छेदः
विवृणोति-ता:= अनन्तरोक्ताः चत्वारिंशद्भदाः। तत्र पदगतत्वेन यथा"गङ्गायां घोष" इति । वाक्यगतत्वेन यथा-"उपकृतं बहु तो"ति । एवमशीतिप्रकारा लक्षणा । अशीतिप्रकाराया लक्षणायाः सोदाहरणं निदर्शन यथा:१ शुद्धा रूढिमती उपादानलक्षणा सारोपा=अश्वः श्वेतो धाति । २, रूढिमती उपादानलक्षणा साध्यवसाना = श्वेतो धावति । ३। रूढिमती लक्षणलक्षणा सारोपा=कलिङ्गः पुरुषो युध्यते । ४। रूढिमती लक्षणलक्षणा साध्यवसाना = कलिङ्गः साहसिकः । ५ गौणी रूढिमती उपादानलक्षणा सारोपा= एतानि तैलानि हेमन्ते सुखानि ।
, रूढिमती उपादानलक्षणा साध्यवसाना-तैलानि हेमन्ते सुखानि । ७, रूढिमती लक्षणलक्षणा सारोपा = राजा गौडेन्द्रं कण्टकं शोधयति । 4 रूढिमती लक्षणलक्षणा साध्यवसाना = राजा कण्टकं शोधयति ।
इमा प्रष्टौ रूढिमत्यो लक्षणाः १ शुद्धा प्रयोषनवती उपादानलक्षणा सारोपा = एते कुन्ताः प्रविशन्ति । २॥ प्रयोजनवती उपादानलक्षणा साध्यवसाना=कुन्ताः प्रविशन्ति । ३, प्रयोजनक्ती लक्षणलक्षणा सारोपा-आयुर्घतम्। ४, योजनबती लक्षणलक्षणा साध्यबसाना-मनायां घोषः। '५ गोणी प्रयोजनवती उपादामलक्षणा सारोषा = एते राजकुमारा गच्छन्ति । ६, प्रयोजनवती उपादानलक्षणा साध्यवसाना = राजकुमारा गच्छन्ति । ७, प्रयोजनवती लक्षणलक्षणा सारोपा = गोर्वाहीकः । ८, प्रयोजनवती लक्षणलक्षणा साध्यवसाना = गोल्पति। .
इमा प्रष्टो प्रयोजनमत्यो लक्षणाः। इमा गूढ प्रयोजनाः ८,अगूढप्रयोजनाः ८,इत्यं संहत्य १६,भेदाः पुनः मिगतप्रयोजनवत्यः १६, धर्मगतप्रयोजनवत्यश्च १६,इत्यं संहत्य प्रयोजनवस्यो लक्षाणाः,वाशिवाः । रूढिमत्यो लक्षणा: अष्टो, प्रयोजनवत्यो द्वात्रिंशत, संहत्य लक्षणामेवाः चत्वारिंशत् ।
पुनश्च ता लक्षणाः पदगताः ४०, वाक्यगताध ४०, संहत्य लक्षणा अशीतिसंख्यका ज्ञातव्याः । काव्यप्रकाशकारमते तु लक्षणा षड्विधा । तत्र पूर्व शुद्धा गोणी चेति द्विविधा। शुद्धा-उपादानलक्षणा लक्षणलक्षणा चेति द्विविधा । ते द्विविधे अपि सारोपा साध्यवसाना चेति द्विविधे, इत्थं संहत्य शुद्धा लक्षणातुर्विधाः । नौणी तु सारोपा साध्यवसाना चेति द्विविधा । इत्थं संहत्य लक्षाणा: षट्प्रकागः । .
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साहित्यदर्पणे
प्रय व्यञ्जनाविरताखभिधाद्यासु ययाऽर्थो वाध्यतेऽपरः ॥ १२ ॥
सा वृत्तिय॑ञ्जना नाम शब्दस्वार्थादिकस्य च । 'शब्दबद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः' इति नयेनाभिधालक्षणातात्पर्याख्यासु तिसृषु वृत्तिषु स्वं स्वमर्थ बोधयित्वोपक्षीणासु ययाऽन्योऽर्थों बोध्यते सा शब्दस्यार्थस्य प्रकृतिप्रत्ययादेश्व शक्तिय॑ञ्जनध्वननगमनप्रत्यायनादिव्यपदेशविषया व्यञ्जना नाम ।
अथ क्रमप्राप्तां व्यञ्जना नाम वृत्ति निरूपयति विरतास्विति । अभिधाद्यासु विरतासु यथा अपरः अर्थः बोध्यते ।। १२ ॥
सा शब्दस्य अर्थादिकस्य च व्यञ्जना नाम वृत्तिरित्यन्वयः ।
अभिधाद्यासु = अभिधालांणातात्पर्यासु तिसृषु वत्तिषु, विरतासु = उपक्षीणासु सतीषु, यया = वृत्या, अपरः अन्यः, वाच्य-लक्ष्यतात्पर्याऽर्थभिन्न इत्यर्थः । व्यङ्गयत्वेन निरूपयिष्यमाणः वस्त्वलङ्काररसलक्षणः अर्थः, बोध्यते प्रतिपाद्यते, सा शब्दस्य अर्यादिकस्य च, आदिपदेन प्रकृतिप्रत्ययादेः परामर्शः । व्यञ्जना नाम वृत्तिः । व्यज्यते अर्थः अनया इति व्यञ्जना।
इत्यं च व्यञ्जना वृत्तिस्तावद् द्विविधा-शाग्दी प्रार्थो चेति । तत्र शाब्दया व्यञ्जनायाः पदधर्मत्वम्, आास्तु वाक्यधर्मत्वम् । विवृणोति-शवबुद्धिकर्मणामिति। शब्दबुद्धिकर्मणां = शब्दस्य ( घटादेः) बुद्धः ( ज्ञानस्य प्रत्यक्षादेः) कर्मणश्च, तेषां , विरम्य = स्वविषयमुपस्थाप्य विरामाऽनन्तरं, व्यापाराभावः पुनः स्वविषयोपस्थापनाऽभाव इति नयेन = न्यायेन, अभिधालक्षणातात्पर्याख्यासु-शक्तिभक्तितात्पर्यानाम्नीषु, उत्तिषु = शक्तिषु, स्वं स्वमर्थप्रातिस्विकं विषयं, बोधयित्वा प्रतिपाद्य, उपक्षीणासुपिरतासु, यया = वृत्या, अन्यः = अपरः अर्थः, बोध्यते = प्रतिपाद्यते, सा = शब्दस्य अर्यस्य, प्रकृतिप्रत्ययादेश्च वृत्तिः शक्तिः, व्यञ्जयध्वननगमनप्रत्यायनादिव्यपदेशविषया व्यञ्जनादिव्यवहारविषया व्यञ्जना नाम ।
प्रथ व्यञ्जना अभिधा आदि वृत्तियोंके विरत होनेपर जिस वृत्तिसे अन्य अर्थका बोधन होता है ॥ १२॥
वह शब्दमें तथा अर्थ आदिमें रहनेवाली वृत्ति "व्यजना" कहलाती है। शम्देति । शब्द, बुद्धि (ज्ञान) और कर्म इनका अपने विषयको उपस्थापित कर विराम होनेके अनन्तर फिर अपने विषयका उपस्थापन नहीं होता है, इस नीतिसे अभिषा, लक्षणा और तात्पर्य नामकी तीन वृत्तियोंका बोधन कर उपक्षीण होने पर जिस वृत्तिसे
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द्वितीया परिच्छेदः
तत्रअभिधालक्षणामूला शब्दस्य व्यञ्जना द्विधा ॥ १३ ॥ अभिधामूलामाह- .
अनेकार्थस्य शब्दस्य संयोगार्नियन्त्रिते ।
एकत्रार्थेऽन्यधीहेतुळजना सानिमिधाश्रया॥१४॥ अयं भावः । अभिधा वाच्यार्य, लक्षणा लक्ष्याय्यं तात्पर्यवृत्तिश्च तात्पयोऽयं बोधयित्वा निवर्तते ततश्च ता अर्थान्तरबोधनेऽसमर्था भवन्ति, तदनन्तरं या वाच्याद्यर्थातिरिक्तमर्थ बोधयति सावृत्तियंजना नाम । केचित "शब्दबुद्धिकर्मणाम्" इत्यत्र शब्दबुद्धिः ( शब्दज्ञानम् ) एव कर्ग (व्यापारः) यासां, तासामभिधालक्षणातात्पर्यवृत्तीनां, विरम्य= स्वस्वार्थबोधनेन विरामानन्तरं' व्यापाराऽभावः अर्थान्तरबोधनव्यापाराऽभाव एतादृशं व्याख्यानं कुर्वन्ति । सकृदुच्चरितः शब्दः सकृदेवाऽयं गमयतीति न्यायादिति भावः । अत्र अभिहिताऽन्वयवादिना भाट्टमीमांसकानां मतेन तात्पर्यवृत्तिग्रहणम् । अन्विताऽभिधानवादिनां प्रभाकरमताऽनुयायिनां मते तु तात्पर्यवृत्तिर्नावश्यकी। व्यञ्जन वनन गमनं प्रत्यायनं चेति व्यञ्जनस्य पर्यायशब्दा: तत्र व्यञ्जनं व्यञ्जनाव्यापारः, ध्वननं वन्वर्थः व्यञ्जनं, गमनम् अवगतिव्यञ्जनं प्रत्यायनं प्रतीतिकरणम् इत्यादयो व्यपदेशाः= व्यवहाराः, विषया यस्याः, स वृत्तिव्यंजना इति भावः ।
व्यम्जनां विभवते-अभिषालक्षणामूलेति । शब्दस्य अभिधालक्षणामूला-अभिघामूला लक्षणामूला चेति व्यञ्जना द्विधा ॥ १३ ॥
___ अभिधमूलां लक्षयति-अनेकार्यस्येति । अनेकाऽस्य सदस्य एकत्र अर्थ संयोगाय : नियन्त्रिते सति ( या ) अन्यधीहेतुः सा अभिधाश्रया आध्वना इत्यन्वयः ।
अनेकार्थस्य = बह्वयंस्य; शब्दस्य = पदस्य, एकत्र = एकस्मिन्, अर्थ= अभिधेये, संयोगाय: संयोगप्रप्रभृतिभिः, नियन्त्रिते = एकत्र नियमिते सति, (या) अन्यधीहेतुः अपराऽर्थबोधकारणं, सा, अभिधाश्रया-अभिधामूला, व्यञ्जना ॥१४॥ अन्य अर्थ प्रतिपादित होता है वह शब्दमें, अर्थमें और प्रकृति प्रत्यय आदिमें रहने वाली शक्ति व्यञ्जना कहलाती है । वह व्यञ्जन, ध्वनन, गमन और प्रत्यायन आदि शब्दोंसे व्यवहृत होती है.। उसमें शाब्दी व्यञ्जनाके दो भेद होते हैं, अमिधामूला और लक्षणामूला ॥ १३ ॥
अभिधामला व्यञ्जनाका लक्षण कहते हैं
संयोग आदियोंसे अनेकाऽर्थक शब्दके एक अर्थके नियन्त्रित होनेपर जिससे दूसरा अर्य उपस्थित होता है उसे "अभिधामूला" व्यञ्जना कहते हैं ॥ १४ ॥
सा०५
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- साहित्यदर्पणे
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आदिशब्दाद्विप्रयोगादयः । उक्तं हि
संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्य विरोधिता । अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य संनिधिः॥ सामर्थ्यमौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः।
शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः ॥' इति । 'सशङ्खचक्रो हरिः' इति शङ्खचक्रयोगेन हरिशब्दो विष्णुमेवाभिधत्ते । आदिशब्दाद विप्रयोगादयः = दियोगादयः ।
भर्तृहरिकारिकाऽनुसारेण संयोगादीनुद्दिशति-संयोग इति । संयोगः सम्बन्ध विशेषः, विप्रयोगः-वियोगः, साहचर्य = सहचरत्वं, विरोधिता = वरम्, एतच्चतुष्टयं समीपोच्चारितपदार्थान्तरेण बोध्यम्, अर्थः तात्पर्यम्, प्रकरणं = प्रस्तावः । लिङ्ग = चिह्नम्। अन्यस्य = अपरस्य, शब्दस्य = पदस्य, सन्निधिः = सामीप्यं, सामर्थ्य = तत्कारणनियमः, ओचिती= औचित्यं, प्रकृतोपयोगित्वमित्यर्थः । देशः = समीपो. चारितस्याश्रयस्थानम्, काल:= समीपोच्चारितस्य समयविशेषः । ब्यज्यते स्त्रीत्वादिकमनयेति, लिङ्गमित्यर्थः । स्वरादयः = उदात्तादयः, आदिपदेन चेष्टादयो गृह्यन्ते । शब्दार्थस्य = पदार्थस्य, अनवच्छेदे = संदेहे सति, एते = पूर्वोक्ता: संयोगादयः, विशेषस्मृतिहेतवः विशेषस्मृतः (प्रकृताऽर्थोपस्थितेः ), हेतवः ( कारणानि )।
। क्रमेण संयोगादीनां नियन्त्रणमुदाहरति-सशसचक्र इति। "सशङ्खचक्रो हरिः" इत्यत्र हरिपदस्य "यमाऽनिलेन्द्रचन्द्राकविष्णुसिंहांऽशुवाजिषु । शुकाहिकपिभेकेषु. हरिना कपिले त्रिषु" इति कोशतः यमाऽनिलाधनेकार्थत्वेऽपि हरिपदं "सशङ्खचक्र" इति पदेन शङ्खचक्रसंयोगेन विष्णमेव अभिधत्ते प्रतिपादयति ।
"अशङ्खचक्रो हरिः" इत्यत्र "अशङ्खचक्र" इति पदेन शङ्खचक्रविप्रयोजेन हरिशब्दो विष्णुमेव अभिधत्ते।
आदि शब्दसे विप्रयोग आदि लिये जाते हैं। कहा गया है-संयोग, विप्रयोग, साहचर्य विरोधितों ( विरोध ) अर्थ, प्रकरण, लिङ्ग (चिह्न ), अन्य शब्दका सामीप्य सामयं, औचित्य, देश, काल व्यक्ति (लिङ्ग), स्वर आदि ये सब शब्दके अर्थका अनवच्छेद ( सन्देह ) होनेपर विशेष ज्ञानके कारण होते हैं।
संयोग आदिका क्रमसे उदाहरण देते हैं।
"सशङ्खचक्रो हरिः" यहाँपर "हरि" शब्दके यम, अनिल आदि अनेक अर्थ होनेपर भी शङ्ख और चक्रके संयोगसे "विष्ण" का ही बोध होता है।
"अशङ्खचक्रो हरिः" यहाँपर शङ्ख और चक्रके विप्रशंग (वियोग ) से हरि पदसे विष्णुका बोध होता है।
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द्वितीयः परिच्छेदः
६७
'अशङ्खचक्रो हरिः' इति तद्वियोगेन तमेव । 'भीमार्जुनौ' इति अर्जुनः पार्थः। 'कर्णार्जुनौ' इति कर्णः सूतपुत्रः। 'स्थाणुं वन्दे' इति स्थाणुः शिवः। 'सर्व जानाति देवः' इति देवो भवान् । 'कुपितो मकरध्वजः' इति मकरध्वजः कामः । 'देवः पुरारिः' इति पुरारिः शिवः। 'मधुना मत्त पिकः' इति मधु
"भीमाऽर्जुनो" इत्यत्र अर्जुनपदस्य "अर्जुनः ककुभे पार्थ कार्तवीर्यमयूरयोः । मातुरेकसुतेऽपि स्वाद्धवले पुनरन्यवत् । नपुंसकं तृणे नेत्ररोगे" इति अनेकार्थत्वेऽपि भीमसाहचर्येण अर्जुनः पार्थः, तृतीयपाण्डव इति भावः । “कर्णाऽर्जुनी" इत्यत्र “कर्णः प्रयासुते ज्येष्ठे सुवर्णालो श्रुतावपि ।" इति मेदिनीकोशतोऽनेकाऽर्थत्वेऽपि विरोधितया कर्ण: सूतपुत्रः । “स्थाणु वन्दे' इत्यत्र स्थाणुपदस्य "स्थाणुः कीले हरे पुमान् अस्त्री ध्रुवे” इति मेदिनीकोशतोऽनेकाऽर्थत्वेऽपि वन्दनरूपप्रयोजनात् स्थाणुः शिवः ।
" "सर्व जानाति देवः' इत्यत्र देवशब्दस्य "देवः सुरे धने राजि" इति विश्वकोशतोऽनेकाऽर्थत्वेऽपि प्रकरणाद्देवो भवान् ।
"कुपितो मकरध्वज' इत्यत्र मकरध्वजशब्दस्य कामदेव-समुद्रवाचकत्वेऽपि कोपरूपाल्लिङ्गात् ( चिह्नात् ), मकरध्वजः कामो न तु अचेतनः समुद्रः ।
'देवः पुरारिः" इत्यत्र 'पुरारि" पदस्य त्रिपुरारि ( शिव ) वाचकत्वमथवा शत्रुनगराऽरिवाचकत्वमिति सन्देहे "देव" इति अन्यशब्दस्य सान्निध्यात्, पुरारिः शिवः ।
__ "मधुना मत्तः पिक' इत्यत्र "मधु" पदस्य "मधुपद्य पुष्परसे क्षौद्रेऽपि" इति कोशादने काऽर्थत्वेऽपि पिकमादनसामर्थ्यात् मधुर्वसन्तः ।
___"भीमाऽर्जुनो" यहाँपर अर्जुन पदके अर्थ वृक्षविशेष, शुक्लगुण आदि अनेक हैं परन्तु भीमके साहचर्य (सहचारित्व) से अर्जुनका अर्थ पार्थ (पृथापुत्र ) ज्ञात होता है ।
__ "कर्णाऽर्जुनौ" यहांपर अर्जुनसे विरोधके कारण 'कर्ण' पदसे सूतपुत्र कर्णका बोध होता है कानका नहीं।
"स्थाणु वन्दे" यहांपर "वन्दे" इस क्रियापदके योगमें वन्दनरूप तात्पर्यसे "स्थाण"से "शङ्कर" लिये जाते हैं खम्भा आदि नहीं ।
"सर्व जानाति देवः" यहाँपर देव शब्दका देवता राजा आदि अनेक अर्थ होनेपर भी प्रकरणसे "आप" ऐसा अर्थ होता है, आप सब जानते हैं यह भाव है।
"कुपितो मकरध्वजः" यहाँपर कोपरूप लिङ्ग (चिह्न) से मकरध्वजका अर्थ समुद्र आदि नहीं होता है, समुद्र अचेतन है; उसका कोप संभव नहीं, अतः "कामदेव" ऐसा अर्थ लिया जाता है।
"देवः पुराऽरिः" यहाँपर पुर पदका अर्थ देह और नगर भी है परन्तु अन्य. पसान्निध्य अर्थात् "देव' पदके सान्निध्यसे त्रिपुरके शत्रु शङ्कर ऐसा अर्थ होता है।
मधु पदके मा, पुप्परस और शहद आदि अनेक अर्थ होते हैं परन्तु "मधुना मतः पिकः" यहाँपर कोयलोंये नादन में सामर्थने 'मधु' पदका अर्थ क्रान्त होता है।
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साहित्यदर्पले
वसन्तः । 'पातु वो दयितामुखम्' इति मुखं सांमुख्यम् । 'विभाति गगने चन्द्रः' इति चन्द्रः शशी। 'निशि चित्रभानुः' इति चित्रभानुहिः । 'भाति रथाङ्गम्' इति नपुंसकम्यक्त्या रथाङ्गं चक्रम् । स्वरस्तु वेद एव विशेषप्रतीतिकृन्न काव्य इति तस्य विषयो नोदाहृतः ।
__ "पातु वो दयितामुखम्" इत्यत्र "मुख" पदस्य मुख-सांमुख्योभयार्थवाचकत्वेऽपि औचित्यान्मुख सांमुख्यम् ।
. "विभाति गगने चन्द्रः" । इत्यत्र "चन्द्र" पदस्य "चन्द्रोऽम्बुकाम्ययोः। स्वर्ण सुधांऽशो कर्पूरे काम्पिल्ये मेचकेऽपि च” इति हैमकोशादनेकार्थत्वेऽपि गगनरूपदेशाच्चन्द्रः शशी।
"निशि चित्रभानुः" इत्यत्र "चित्रभानु" पदस्य "सूर्यवह्री चित्रभानू" इति कोशादनेकाऽर्थत्वेऽपि निशारूपकालाच्चित्रभानुर्वह्निः ( अग्निः )। "भाति रथाऽङ्गम्" इत्यत्र "रथाऽङ्ग" पदस्य "रथाङ्गन द्वयोश्चक्रे, ना चक्राङ्गविहङ्गमे ।" इति मेदिनी. कोशात् अनेकाऽर्थत्वेऽपि नपुंसकव्यक्त्या = क्लीबलिङ्गन रथाङ्गं चक्रम् ।
स्वरस्तु = उदात्ताविस्वरस्तु, वेद एव = श्रुतावेव, विशेषप्रतीतिकृत् = एकतरज्ञानकुत्, इति = अस्मात्कारणात, तस्य = स्वरस्य, विषयः = प्रदेशः, न उदाहृतः = न प्रतिपादितः।
"मुख" पदका अर्थ मुख और सांमुख्य भी होता है परन्तु "पातु वो दयिता: मुखम् “यहाँपर औचित्यसे 'मुख'का वर्ष सोमुख्य होता है, दयिता (प्रिया ) के मुखसे रक्षणमें कुछ औचित्य नहीं है।
'चन्द्र' पदके मेघ, सुवर्ण, और कपूर आदि अनेक अर्थ होते हैं परन्तु "विभाति गगने चन्द्रः" यहाँपर गगन ( माकाश ) रूप देशमें चन्द्रकी ही प्रतीति होती है, सुवर्ण आदिकी नहीं।
"चित्रभानु" पदके भी सूर्य, अग्नि आदि अनेक अर्थ हैं परन्तु "निशि चित्रभानु." यहाँपर निशा ( रात्रि ) रूप कालमें अग्निकी हो प्रतीति होती हैं सूर्यकी नहीं । "रथाऽङ्ग" पदका अर्थ चक्रवाक और रयका अङ्ग (पहिया) भी होता है परन्तु "माति रथाङ्गम्" यहाँपर व्यक्ति ( लिङ्ग ) अर्थात् नपुंसक लिङ्गसे चक्र ही अर्थ होता है चक्रवाक नहीं, क्योंकि चक्रवाकके लिए "रथाऽङ्गो भाति" ऐसा पुंलिङ्ग प्रयोग होता है।
स्वर ( उदात्त ) आदि वेदमें ही विशेष अर्थकी प्रतीति करनेवाला होता है काव्य में नहीं, इस कारण उसके भेदका उदाहरण नहीं दिया गया है।
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द्वितीयः परिच्छेदः
इदं च केऽप्यसहमाना आहुः-स्वरोऽपि काक्वादिरूपः काव्ये विशेषप्रतीतिकृदेव। उदात्तादिरूपोऽपि मुनेः पाठोपदिशा शृङ्गारादिरसविशेषप्रतीतिकदेव' इति एतद्विषये उदाहरणमुचितमेव इति, तन्न, तथाहि-स्वराः काक्वादयः उदात्तादयो वा व्यायरूपमेव विशेषं प्रत्याययन्ति, न खलु प्रकृतोक्तमनेकार्थशम्दस्यैकार्थनियन्त्रणरूपं विशेषम्। किञ्च यदि यत्र क्वचिदनेकार्थशब्दानां प्रकरणादिनियमाभाषादनियन्त्रितयोरप्यर्थयोरनुरूप
इदं च मतं, केऽपि आचार्याः, चण्डीदासराघवानन्दप्रभृतय इति भावः । असहमाना: अमृण्यन्तः सन्तः, आहुः = कथयन्ति । काक्वादिरूपः = काकुप्रभृतिरूपः, स्वरः अपि, काव्ये कविकर्मणि, विशेषप्रतीतिकृदेव = विशेषज्ञानकर एव । उदात्तादिरूपोऽपि उदात्तप्रभृतिस्वरूपोऽपि, मुनेः भरतमुनेः, पाठोक्तदिशा = पठनप्रतिपादितदिशाया, यथाह मुनिर्भरतः="हास्यशृङ्गारयोः स्वरितोदात, वीररोद्राऽद्भुतेषु उदात्तकम्पितं, करुणबीभत्सभयानकेषु अनुदात्तकम्पितम् उत्पादयेत्” इति । शङ्गारादिरसविशेषप्रतोतिकृदेव = शृङ्गारादिरसभेदज्ञानकर एव । इति = अस्मात्कारणात् । एतद्विषये = स्वरविषये, उदाहरणं = दृष्टान्तप्रदर्शनम्, उचितम् एव = योग्यम् एव । मतमेतत् खण्डयति-तन्न इति । तेषां वचनमयुक्तम् । खण्डनप्रकारं प्रदर्शयति-तथाहोति । स्वराः = काक्वादिरूपा', कः कुर्नाम 'काकुः स्त्रियां विकारो यः शोकभीत्या. दिभिध्र्धनेः ।" इति कोशतः शोकभीत्यादिभिर्हेतुभिः ध्वनिविकारविशेषः । उदात्तादयो वा = उदात्तप्रभृतयो वा, व्यङ्गयरूपम् एव व्यवनावृत्तिप्रतिपाद्यरूपम् एव, विशेष= भेदं, प्रत्याययन्ति बोधयन्ति, प्रकृतोक्तम् । अस्मिन् प्रकरणे उक्तम्, “संयोगो विप्रयोगश्चे"त्यादिना भर्तृहरिणा उक्त = कथितम् ।
अनेकाऽर्थशब्दस्य = बह्वर्थपदस्य, एकाऽर्थनियन्त्रणरूपम् = एकाऽभिधेयनिय. मनरूपं, विशेष = भेदं, न खलु बोधयन्ति = न खलु प्रत्याययन्ति ।
किञ्च = पुनर्दूषयितुमुपक्रमते । यत्र = यस्मिन्, क्वचित् = कुत्रचित् स्थले, अनेकाऽर्थशब्दानां = बह्वर्थपदानां, प्रकरणादिनियमाऽभावात् = प्रस्तावादिनियमनाऽभागत, अनियन्त्रितयोरपि = अनियमितयोरपि, अर्थयोः = अभिधेययोः, अनुरूपस्वर
इस मतको न सहनेवाले कुछ आचार्यलोग (चण्डीदास और राघवानन्द आदि) कहते हैं- "काकु आदि कण्ठस्वर भी काव्यमें विशेष अर्थकी प्रतीति करता ही है । उदात्त आदि स्वर भी भरतमुनिके पाठमें कही हुई रीति से हास्य और शृङ्गारमें स्वरितोदात्त, वीर, रौद्र और अद्भुतमें उदात्तकम्पित तथा करुण, बीभत्स और भयानकमें अनुदात्तकम्पित स्वर करना चाहिए इस प्रकारसे स्वर शृङ्गार आदि रसविशेषकी प्रतीति करता ही है । इस कारणसे स्वरके विषयमें उदाहरण देना उचित ही है । यह ठीक नहीं हैं, जैसे कि काकु आदि वा उदात्त आदि स्वर, व्यङ्ग्यरूप विशेष अर्थको ही बोधन करते हैं न कि प्रकृतमें कहे गये अनेकार्थक शब्दका एकार्थी
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साहित्यदर्पणे
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स्वरवशेनेकत्र नियमनं वाक्यं, तदा तथाविधस्थले श्लेषानङ्गीकारप्रसङ्गः न च तथा, अत एवाहुः श्लेपनिरूपणप्रस्तावे- 'काव्यमागें स्वरो न गण्यते' इति च नयः, · इत्यलमुपजीव्यानां मान्यानां व्याख्यानेषु कटाक्षनिक्षेपेण । आदिशब्दात 'एतावन्मात्रस्तनी' इत्यादौ हस्तादिचेष्टादिभिः स्तनादीनां कमलकोरकायाकारत्वम् । वशेन = अनुकूलोदात्तादिस्वरवशेन, एकत्र = एकतस्मिन् अर्थे, नियमनं = नियन्त्रणं, वाच्यं = कथनीयं, यदि = चेत्, तदा = तर्हि, तथाविधस्थले = तादृशप्रदेशे, श्लेषाऽनङ्गीकारप्रसङ्गः = श्लेषाऽलद्धाराऽनभ्युपगमाऽवसरः, आपते दिति शेषः, उदात्तादिस्वरादेव एकत्राऽर्थे नियमिते, श्लेषस्याऽनङ्गीकारः प्रसज्येत इति भावः । न च तथा = तच्च तेन प्रकारेण न भवति । अत एव = अस्मात्कारणादेव, प्लेषनिरूपणप्रस्तावे = श्लेषालङ्कारप्रतिपादनाऽवसरे, आहुः = कथयन्ति, विद्वांस इति शेषः । काव्यमार्गे :काव्यपद्धती, स्वरः = उदातादिः, न गण्यते = न स्वीक्रियते, इति । नयः = सिद्धान्तः, उदात्तादिस्वरमभ्युपगम्य काव्ये श्लेषस्याऽनङ्गीकारो न कर्तव्य इति भावः ।
उपसंहरति-इत्यलमिति । इति इत्यम्, उपजीव्याना = स्वसिद्धान्तानामवलम्बनभूतानां, मान्याना-पूज्यानां विदुषां, व्याख्यानेषु सिद्धान्तप्रतिपादनेषु, कटाक्षनिक्षेपेण-दोषन्यासेन, अलम्, मान्यानां व्याख्यानेषु कटाक्षनिक्षेपेण साध्यं नास्तीति भावः । स्वरादय इत्यत्र आदिशब्दात, "ए तावन्मात्रस्तनी" इत्यादी स्थले कमलकोरनियन्त्रणरूप विशेष अर्थको। यदि जहाँ कहींपर अनेकाऽर्थक शब्दोंका प्रकरण आदि नियमोंके अभावसे अनियन्त्रित दो अर्थोका अनुरूप स्वरके अनुसार एक अर्थमें नियमन स्वीकार करें तो वैसे स्थलमें श्लेषका अङ्गीकार न करनेका प्रसङ्ग होगा, परन्तु ऐसा नहीं होता है । अत एव श्लेषके निरूपणके अवसरमें कहते हैं- "काव्य मार्गमें स्वर नहीं माना जाता है" ऐसा सिद्धान्त है । स्वरभेद होनेपर भी श्लेषसे लभ्य अर्थकी प्रतीति मानी जाती है इसलिए उपजीव्य ( आषयभूत ) मान्यजनोंकी व्याख्यामें कटाक्षपात नहीं करना चाहिए। कालो व्यक्तिः स्वरादयः" यहाँ पर "आदि" पदसे "एतावन्मात्रस्तनी"
१. "एतावन्मात्रस्तनिका एतावन्मात्रैरक्षिपनः । एतावन्मात्राऽवस्था एतावन्मात्रदिवसः" ।।
अस्या आर्यायाः प्राकृतं मूलम् "ए।हमेत्तथिणि आ एइहमेतहिं अच्छिवत्तेहिं । एदहमेत्तावत्था एहहमेत्तेहि दिअएहि" ॥ इति ।
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द्वितीयः परिच्छेदः
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एवमे कस्मिअर्थऽभिधया नियन्त्रिते या शब्दार्थस्यान्यार्थबुद्धिहेतुः शक्तिः साऽभिधामूला व्यन्जना।
यश मम तातपादानां महापात्रचतुर्दशभाषाविलासिनीभुजङ्गमहाकवीश्वरश्रीचन्द्रशेखरसान्धिविग्रहिकाणाम्
'दुर्गालधितविग्रहो मनसिजं संमीलयंस्तेजसा काद्याकारत्वं पद्मकुङ्मनाद्याकृतित्वम् । एतावत्पदस्य नानाकारबोधकत्वेन अनेकाऽर्थत्वम्। चेष्टाविशेषस्तु आकारविशेषस्मारकः ।
अभिधामूलां व्यञ्जनामुपसंहरति एवमिति । एवम् = इत्थम्, एकस्मिन् = एकत्र, अर्थे = वाच्ये, अभिधया = शक्या, नियन्त्रिते = नियमिते, या, शब्दाऽर्थस्य = पदार्थस्य, अन्गऽर्थबुद्धिहेतुः = अपरार्थज्ञानकारणं, शक्तिः = वृत्तिः, सा, अभिधामूला ब्यजना । अयं भावः । यत्र अर्थद्वयस्य अभिधया तात्पर्य स श्लेषः, यत्र तु एकाऽर्यस्य अभिधया प्रतीतिः द्वितीयार्थस्य यया प्रतीतिः सा व्यञ्जना।
यथेति । मम-विश्वनाथकविराजस्य, तातपादानां पितृचरणानां "महापात्रे"ति राजसंमान्यपदयुक्तानां, चतुर्दश भाषा एव विलासिन्यः ( विलसनशीला रमण्यः ) तासां भुजङ्गानां (विटानाम् ) महाकवीश्वराणां श्रीचन्द्रशेखरसान्धिविग्रहिकाणाम् । सन्धिविग्रहाभ्यां चरन्तीति सान्धिविग्रहिकाः, तेषां सान्धिविग्रहिकाणां मन्त्रिणामित्यर्थः । "सन्धिविग्रह" शब्दात् "चरति" इति सूत्रेण ठज् । ठस्येकः, अदिवृद्विश्च ।
अभिधामूलां व्यञ्जनामुदाहरति-दुर्गालधितविग्रह इति।। दुर्गालधितविग्रहः तेजसा मनसिज सम्मीलयन् प्रोद्यद्राजकल: गृहीतगरिमा भोगिभिः विष्वग्वृतः नक्षत्रेणकृटेक्षणो गिरिगुरी गाढा रुचि धारयन् गाम् आक्रम्य विभूति. भूषिततनुः उमावल्लभो राजति इत्यन्वयः । अत्र अभिधावत्या प्रकृतमहादेव्या उमाया वल्लभो भानुदेवनामको नृपतिर्वर्ण्यते । स यथा-दुर्गालवितविग्रहः = दुःखेन गम्यते अति दुर्गाणि गिरिदुर्गादीनि, “सुदुरोरधिकरणे" इति उप्रत्ययः । दुर्गभेदा यथा:--
"धन्त्रदुर्ग महीदुर्गमब्दुर्ग वार्शमेव वा।
नृदुर्ग गिरिदुर्ग वा समाश्रित्य वसेत्पुरम् ॥ मनः ७-७१ । दुर्गः-धन्वदुर्गादिभिः; अलधितः प्रतिरोधमगरित, विग्रहः (युद्धम्) यस्य सः, दुर्ग भित्वाऽपि युद्धाऽनुष्ठान. इत्यादिमें हाथ आदिसे की गई चेष्टा आदियोंसे स्तन आदियोंका कमलके कुङ्मल आदिके समान आकार होना जाना जाता है।
इस प्रकार अभिधासे एक अर्थ नियन्त्रित होनेपर जो शब्दार्थका भिन्न अर्थके ज्ञानका कारण शक्ति है वह "अभिधामूला व्यञ्जना" है । इसका उदाहरण मेरे पिता महापात्र, चौदह भाषाओंके विज्ञाता महाकवीश्वर चन्द्रशेखर सान्धिविग्रहिकका हैदुर्गेत्यादि । शत्रुओंके किलोंको भेदन कर लडनेवाले वा किलोंमें न रहकर भी युद्ध करने
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२
साहित्यदर्पणे.
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प्रोद्यद्राजकलो गृहीतगरिमा विष्वग्वृतो भोगिभिः । नक्षत्रेशकृतेक्षणो गिरिगुरौ गाढां रुचिं धारयम्
गामाक्रम्य विभूतिभूषिततनू राजत्युमावल्लभः ।।'
शील इति भावः । अथवा दुर्गः अलक्षितः = अनतिक्रान्तः, विग्रहः यस्य सः, दुर्गध्यवधानं विनव युद्धाऽनुष्ठानशील इति भावः । तेजसा = शरीरकान्त्या, मनसिज = कामदेवं, संमीलयन् = पराभवन, प्रोद्यद्राजकलः = प्रोगन्ती ( समुदीयमाना ) राजकला (भूपांऽशः ) यस्य सः। गृहीतगरिमा = गृहीतः (प्राप्तः ) गरिमा ( गौरवम् ) येन सः । भोगिभिः = सुखोपमोगसंपन्नः जनः, विष्वक् = सर्वतः, वृतः = परिवेष्टितः । नक्षत्रेशकृतेक्षणः क्षात्रेशेषु (मात्रियश्रेष्ठसु राजसु) कृतेक्षणः ( कृतनिरीक्षणः ) न क्षात्रे. शकृतेक्षणः = श्रेष्ठभूपालेषु अपि प्रतापातिशयेन तिरस्कर्ता इति भावः । गिरिगुरी-गिरिः (हिमालयः ) गुरुः ( पूज्यः ) श्वशुरत्वेनेति भावः यस्य स गिरिगुरुः शिवः, तस्मिन् । गाढां = दृढां, रुचिम्-अभिलाषं, भक्तिमिति भावः । धारयन् = दधानः, गां - भूमिम. आक्रम्य = अधिकृत्य, विभूतिभूषिततनुः = विभूत्या ( ऐश्वर्येण ) भूषिता (अलङ्कृता) तनु: ( शरीरम् ) यस्य सः, तादशः. उमावल्लभः = उमानाम्न्या महादेव्याः वल्लभः (प्रिय:) भानुदेव इति भावः । राजति = शोभते । अत्र दुर्गाऽऽदिपदान्यनेकार्थकानि प्रकरणवशात्पूर्वप्रदर्शिताऽर्थे नियन्त्रिते सति तत्तच्छब्दा व्यञ्जनयाऽर्थान्तर बोधयन्ति । तथा हि--दुर्गालवितविग्रहः = दुर्गया (पार्वत्या ) लङ्धितः (आलिङ्गनेन आक्रान्तः) विग्रहः (शरीरम् ) यस्य सः । तेजसा = नयनज्योतिषा, मनसिजं = कामदेवं, संमीलयन् विनाशयन्, प्रोद्यद्राजकल:=प्रोद्यन्ती (प्रकाशमाना ) रागः (द्विजराजस्य चन्द्रमस इत्यर्थः ) कला ( अंशः ) यस्य सः, शिरसि इति शेषः । गृहीतगरिमा = गृहीतः (स्वीकृतः ) गरिमा ( जगद्गुरुगौरवम् ) येन सः । भोगिभिः सः, विष्वक्-समन्ततः, तुतः = वेष्टितः, अलङ्कारस्वेनेति शेषः । नक्षत्रशकृतेक्षणः-नक्षत्रेशेन (चन्द्रमसा) कृतम् (विहितम् ) ईक्षणं ( नेत्रम् ) येन सः, शिवस्य सूर्य केन्द्रवह्निनेत्रत्वादिति भावः । गिरिगुरौ = कलासपर्वते, गाढां-दृढां, चिम्-निवासाऽभिलाषं, धारयन् = दधानः, गांवृषम्, आक्रम्य, स्थित इति शेषः । विभूतिभूषिततनुः = विभूत्या ( भस्मना ) भूषिता ( अलङकृता ) तनुः ( शरीरम् ) यस्य सः । तादृशः उमावल्लभः = पार्वतीप्रियः, शिव
इति भावः । राजति = शोभते । वाले, अपने सौन्दर्य से कामदेवको पराभूत करनेवाले, राजकलासे सम्पन्न, गौरव (महत्त्व).. को प्राप्त करनेवाले, सुखका उपभोग करनेवाले जनोंसे घिरे हुए, श्रेष्ठ क्षत्रिय राजाओंपर अभिमानसे दृष्टिपात भी न करनेवाले, शिवजीमें दृढ प्रीति रखनेवाले पृथ्वीको अधिकारमें रखकर ऐश्वर्यसे अलस्कृत शरीरवाले "उमा" नामकी महारानीक पवि भानुदेव नामक
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द्वितीयः परिच्छेदः
अत्र प्रकरणेनाभिधया उमावल्लभशब्दस्योमानाम्नीमहादेवीवल्लभभानुदेवनृपतिरूपेऽर्थे नियन्त्रिते व्यञ्जनयव गौरीघल्लभरूपोऽर्थो बोध्यते। एवमन्यत् ।
लक्षणामूलामाह
लक्षणोपास्यते यस्य कृते तत्तु प्रयोजनम् ।
यया प्रत्याय्यते सा स्याद्वयञ्जना लक्षणाश्रया ॥ १५ ॥ विवृणोति । अत्र अस्मिन् पद्य, प्रकरणेन = प्रस्तावेन, उमावल्लभणब्दस्य = उमावल्लभपदस्य, उमा नाम, महादेवी = कृताभिषेका महाराजी, तबल्लभभानुदेवनपतिरूपेऽर्थे अभिधया, नियन्त्रिते सति = नियमिते सति । व्यञ्जनया एव अप्रकृतों गोरीवल्लभरूपोऽर्थो बोध्यते । ततश्च महेश्वरभानुदेवयोरुपमानोपमेयभावः कल्प्यते, तेन उमावल्लभ इवेत्युपमाध्वनियंजनयव बोध्यते ।
___"व्यञ्जनया एव" इत्यत्र एवकारस्य अयमभिप्रायः । इह खलु उमावल्लमशन्दे येयं द्वितीयाऽर्थप्रतीतिः, तत्र अभिधायाः प्रकृताऽर्थमात्रबोधनेन विरामात्, लक्षाणायाश्च मुख्याऽर्थबाधहेतुकत्वात्, तात्पर्यवृत्तेरपि पदार्थमिथःसंसर्गमात्रबोधननयत्यात् विरामात व्यम्कानावृत्या एव अप्रकृताऽर्थप्रतीत्या उपमाध्वनिरिति भावः ।।
एवमन्यत् । लक्षणामूला व्यञ्जना प्रतिपादयति-लक्षणेति । यस्य कृते लक्षणा उपास्यते, तत् प्रयोजनं यया प्रत्याय्गते; सा तु लक्षणाऽऽश्रया व्यञ्जना इत्यन्वयः ।
यस्थ-प्रयोजनस्य, कृते = निमित्त, लक्षणा = तदाख्या वृत्तिः, उपास्यते = आद्रियते, सत् प्रयोजनं, यया = वृत्या, प्रत्याय्यते = बोध्यते । सा तु लक्षणाऽश्रया = लक्षणामूला, व्यञ्जना इत्यर्थः ।। १५ ।। राजा शोमित हो रहे हैं। यहाँपर प्रकरणसे उमावल्लभ शब्दका उमा नामको महारानीके वल्लभ ( प्रिय ) भानुदेव नामके राजा ऐसा अर्थ नियन्त्रित होनेपर व्यञ्जनासे ही उमा अर्थात् गौरी ( पार्वती ) के वल्लभ (प्रिय ) महादेव ऐसा अर्थ समझा जाता है । जैसे कि-उमा अर्थात् पार्वतीसे लङ्कित भर्थात् आलिङ्गनसे आक्रान्त शरीरवाले, तेजसे कामदेवको भस्म करनेवाले, शिरमें चन्द्रकलासे शोभित, गुरुत्व(जगद्गुरुत्व) को ग्रहण करनेवाले, साँसे घिरे हुए, चन्द्रको नेत्र बनानेवाले, कैलास पर्वतमें दृढ़ प्रीति रखनेवाले, बैलपर आरूढ और भस्मसे भूषित शरीरवाले उमावल्लभ अर्थात् पार्वतीके प्रिय शङ्कर शोभित होते हैं इसी तरह और उदाहरण भी जानना चाहिए।
अभिधामूला व्यञ्जनाका वर्णन हुआ, अब लक्षणामूला व्यञ्जनाको कहते हैं। लक्षणोपास्यते इति । लक्षणा जिसके लिए की जाती है वह प्रयोजन जिस वृत्तिसे प्रतीत होता है उसे लक्षणामूला व्यञ्जना कहते हैं ।। १५ ॥
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साहित्यदर्पणे
'गङ्गायां घोषः' इत्यादौ जलमयाद्यर्थबोधनादभिधायां तटाद्यर्थबोधनाच्च लक्षणायां विरतायां यया शीतत्वपावनत्वाद्यतिशयादिर्बोध्यते सा लक्षणामूला व्यञ्जना। एवं शाब्दी व्यन्जनामुक्त्वाऽऽर्थीमाह
वक्तृवोद्धव्यवाक्यानामन्यसंनिधिवाच्ययोः । प्रस्तावदेशकालानां काकोश्चेष्टादिकस्य च ।। १६ ॥
वैशिष्ट्यादन्यमर्थ या बोधयेत्साऽर्थसंभवा । व्यन्जनेति सम्बन्ध्यते। तत्र वक्तृवाक्यप्रस्तावदेशकालवैशिष्टये यथा मम--- 'कालो मधुः, कुपित एष च पुष्पधन्वा,
धीरा वहन्ति रतिखेदहराः समीराः । विवणोति-"गङ्गायां धोष" इति । विरताया=निवृत्तायाम् । स्पष्टमन्यत् । आर्थी व्यञ्जनां लक्षयति-वक्तबोद्धव्यवाक्यानामिति ।
वक्तृबोद्धव्यवाक्यानां वक्ता ( प्रतिपादक: ) बोद्धव्यः ( प्रतिपाद्यः ), वाक्यं (पदसमूहः ), तेषां, वैशिष्ट्यात इत्यत्र सम्बन्धः । एवमन्यत्राऽपि । अन्यसन्निधि. नाच्ययोः = भन्यसनिधि: ( अपरसन्निधानं ) वाच्यः ( अर्थः), तयोः वैशिष्टयात् । प्रस्तावदेशकालाना = प्रस्ताव (प्रकरणं) देशः ( स्थानम् ) काल: ( समयः ), तेषां वैशिष्ट्यात् । काको: ध्वनिविकारस्य, चेष्टादिकस्य च, वैशिष्टयात-वैलक्षण्यात्, यावृत्तिः, अन्यम् = अपरं प्राचीनवाच्यादिविलक्षणम्, अर्थ, बोधयेत् = प्रतिपादयेत, सा अर्थसम्भवा = आर्थी. व्यसनेति सम्बद्धयते ॥ १६ ॥
तत्र वक्तृवाक्य प्रस्ताव-देश-कालवैशिष्ट्ये यया मम काल इति। काल: समयः, मधुः = वसन्तः, एषः = अनुभूयमानः, पुष्पधन्वा च = कामश्च कुपितः = क्रुद्धः । धीराः = मन्दा:, अत: रतिखेदहराः = रमणपरिश्रमहरणशीलाः, समीरा: = वाताः,
गङ्गायां घोषः" इत्यादि स्थलमें जन्मय आदि अर्थका बोधन कर अभिधाके निवृत्त होनेपर और तट आदि अर्थका बोधन कर लक्षणाके निवृत्त होनेपर जिस वृत्तिसे शीतलत्व और पावनत्व आदिके आधिक्य आदिका बोध होता है उसे "लक्षणामूला" व्यञ्जना कहते हैं। इस प्रकार शाब्दी व्यञ्जनाका प्रतिपादन कर आर्थी व्यञ्जना कहते हैंबक्तबोद्धव्यति। वक्ता, बोद्धव्य, वाक्य, अन्यका सामीप्य, वाच्य ( अर्थ ) प्रस्ताव (प्रकरण) देश, काल, काकु (ध्वनिविकार ), और चेष्टा आदि इनकी विशेषतासे जो शक्ति अन्य अर्थका बोधन करती है उसे “आर्थी व्यञ्जना" कहते हैं ॥ १६ ॥
उनमें वक्ता, वाक्य, प्रस्ताव, देश, और काल इनकी विशेषतामें जैसे ग्रन्याकारका पद्य-"कालो मधुः"कोई नायिका अपनी सखीको कहती है। वसन्त ऋतुका समय है । यह कामदेव कुपित है। रतिक्रीडाके परिश्रमको हटानेवाली गम्भीर हवा
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द्वितीयः परिच्छेदः
केलीवनीयमपि वजुलकुब्जमज.
दूरे पतिः कथय किं करणीयमय ? ॥" ___अत्रेतं देशं प्रति शीघ्रं प्रच्छन्न कामुकस्त्वया प्रध्यतामिति सखी प्रति कयाचिद् व्यज्यते। बोद्धव्यवैशिष्टये यथा-- 'निःशेषच्युतचन्दनं स्तनतट, निम॒ष्टरागोऽधरो
नेत्रेदरमनब्जने, पुलकिता तन्वी तवेयं तनुः। . वहन्ति-वान्ति, इयम् एषा, केलीवनी अपि = क्रीडाऽपवनमपि, वजुलकुञ्जमञ्जुः= अशोकलतागृहमनोहरा, पतिः = भर्ता, न तु प्रिय इति भावः, दूरे विप्रकृष्टप्रदेशे, ‘वर्तत इति शेषः । अद्य = एतादृशे अस्मिन् दिने, किं, करणीयं = कर्तव्यं, कथय = वद । वसन्ततिलका वृत्तम् । अयं भावः । अत्र वत्र्याः कामुकत्वस्य रमणेच्छाबोधकस्य वाक्यस्य, रतिखेदहरत्वेन समीरवहनस्य, पतिदूरस्थितिरूपस्य प्रस्तावस्य, वज़ुलकुञ्जमजोः केलीवनीरूपदेशस्य, वसन्ततुरूपस्य कालस्य च वैशिष्टयात् ।
अत्र एतं = केलीवनीरूपं, देशं = स्थानं प्रति, शीघ्रं प्रच्छन्नका मुकस्त्वया प्रेष्यताम् इति कयाचिद्वतश्या नायिकया व्यज्यते ।
बोद्धव्यवैशिष्टये-निःशेषच्युतचन्दनमिति नायकमानेतु प्रेषितां तं संभुज्यागतां स्नानव्याज प्रदर्शयन्तीं दूतौं प्रति नायिकाया उक्तिरियम् । मिथ्यावादिनि ! बान्धवजनस्य अज्ञातपीडागमे ! हे दूति ! तब स्तनतट निःशेषच्युत चन्दनम् । ( तव ) अधरः निसृष्ट रागः । ( तब ) ने दूरम् अनजने । ( तब ) तन्वी इयं तनुः पुलकिता। इतः
चल रही है । अशोकके कुञ्जोंसे सुन्दर यह छोटा-सा क्रीडावन है। पति दूर देश में हैं, हे सखि ! आज क्या करना चाहिए ? कहो। इस पद्यमें "इस स्थानमें शीघ्र प्रच्छन्न कामुकको तुम भैज दो" यह बात कोई नायिका अपनी सखी के प्रति व्यञ्जनासे वक्ता ( वक्त्री-कहनेवाली अर्थात् स्वयम् ) वाक्य, प्रस्ताव (प्रकरण ) देश और कालकी विशेषतासे व्यक्त कर रही है।
' बोद्धव्य ( कहे जानेवाले ) की विशेषतामें --जैसे निःशेषच्यतचन्दनमिति । नायकको लानेके लिए भेजी गई परन्तु स्वयम् नायकका उपभोग कर स्नान करनेके छलका प्रदर्शन करनेवाली सखीको नायिका कहती है । हे सखि ! तुम्हारे स्तनतटसे चन्दन बिलकुल मिट गया है । अधरसे राग (लौहित्य ) निःशेष हो गया है । नेत्र दूर तक अञ्जनसे रहित हैं और तुम्हारा पतला शरीर रोमाञ्चित हो रहा है । बन्धुजन
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७६
साहित्यदपणे
मिथ्यावादिनि ! दूति ! बान्धवजनस्याज्ञतपीडागमे ! ___ वापी स्नातुमितो गतासि न पुनस्तस्याधमस्यान्तिकम् ॥'
अत्र तदन्तिकमेव रन्तुं गतासीति विपरीतलक्षणया लक्ष्यम् । तस्य च रन्तुमिति व्यङ्ग प्रतिपाद्यं दूतीवैशिष्टयाद् बोध्यते । अन्यसंनिधिवैशिष्टये यथा--
'उअ णिश्चल ! णिप्पन्दा भिसिणीपत्तम्मि रेहइ बलाआ। वापी स्नातु गता असि, पुनः तस्य अधमस्य अन्तिकं न गता असि इत्यन्वयः ।
ममाऽनुनयेन अपि तव कान्तो नागत इति कथनेन हे मिथ्यावादिनि = है मृषा: भाषिणि !, बान्धबजनस्य = सखीजनस्य, अज्ञातपीडागमे = अन्तकलितदुःखोऊमे !, हे दूति %Dहे सन्देशहरे !, तव = भवत्याः, स्तनतटंकुचतट, निःशेषच्युतचन्दनं = समस्ताऽपगतश्रीखण्डम्, अधरः = निम्नोष्ठः, निमष्टरागः = निःशेषाऽपगतलौहित्यः, नेत्रे = नयने, दूरम् = अतिशयं यथा तथा । अनजने = कज्जलरहिते, तन्वी कृशा, तनुश्च = शरीरंच, पुलकिता= संजातरोमाञ्चा, अस्तीति शेषः । अतः स्वम्, इतः = अस्मात्स्थानात्, स्नातु= स्नानं कर्तु, वापी = दीधिकां, गता = प्राप्ता, असि पुनः = भूयः, तस्य, अधर्मस्य = निकृष्टस्य । मदल्लभस्येतिभावः । अन्तिकं = निकटं, न गता असि = न प्राप्ता वर्तसे ।
__ अत्र "स्तनतटम्" इत्यत्र तट = समीपः; स च समप्रायो देशः तत्रव आलिङ्गनवशाच्चन्दनं नि शेषच्युतं, स्तनाग्रादिषु च शेषम् । अधरः चुम्बनात् निर्मुष्टरागः, न तु उत्तरोष्ठः । नेत्रे चुम्वनात् दूरमनञ्जने, निकटे तु साञ्जने, अञ्जनस्य कुत्रचिदवशेषः सूचितः । तया च इयं तनुः स्नानाद्बहुकालाऽनन्तरमपि इदानीं पुलकिता । अधर्मस्य = प्रागपि ज्ञात निकृष्टत्वस्य, एषां च पदार्थानां वापीस्नानविरुद्धानामनुसन्धानादेव वापीस्नानाऽभावस्य उद्गमात् तदन्तिकं न गताऽसीत्यत्र विपरीतलक्षणाया "गताऽसी" ति गमनं लक्ष्यं, तस्य च रन्तुमिति रमणं व्यङ्गय, प्रयोजनम् तच्च बोद्धव्यदूतीवैशिष्टयाबोध्यते ।
अन्यसन्निधिवैशिष्टये यथा--उग्र इति । ( सखी ) की पीडाको न जाननेवाली हे मिथ्याभाषिणि दूति ! तू यांसे बावलीमें स्नान करने गई परन्तु उस अधम जन ( मेरे प्रिय ) के पास नहीं गई ।
____ इस पद्यमें विपरीतलक्षणासे उस ( अधम ) के समीप ही तू गई यह अर्थ लक्षित होता है । उसका "रन्तुम्" रमण करनेके लिए ऐसा व्यङ्गय मर्य प्रतिपाद्य (बोद्धव्य ) दूतीकी विशेषतासे बोधित होता है।
अन्यसन्निधिकी विशेषताका. उदाहरण जैसे-उमः । रमण करनेके लिए
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द्वितीया परिच्छेदः
७
णिम्मलमरगअभाअणपरिट्ठिा ( दा) समुत्ति व्व ॥' . [ पश्य निश्चलनिस्पन्दा बिसिनीपत्रे राजते बलाका ।
निर्मलमरकतभाजनपरिस्थिता शङ्खशुक्तिरिव ॥] अत्र बलाकाया निःस्पन्दत्वेन विश्वस्तत्वम् , तेनास्य देशस्य विजनत्वम्, . अतः संकेतस्थानमेतदिति कयापि संनिहितं प्रच्छन्नकामुक प्रत्युच्यते । अत्रैव स्थाननिर्जनस्वरूपं व्यङ्गथार्थवैशिष्यं प्रयोजनम् ।
___भिन्नकण्ठध्वनिर्धारः काकुरित्यभिधीयते' इत्युक्तप्रकारायाः काकोर्भेदा आकरेभ्यो ज्ञातव्याः। एतद्वैशिष्टय यथा--
"पश्य निश्चलनिःस्पन्दा, बिसिनींपत्त्रे राजते बलाका ।
निर्मलमरकतभाजनपरिस्थिता शङ्ख शुक्तिरिव ॥" हे निश्चल ! बिसिनीपत्त्रे निःस्पन्दा बलाका निर्मलमरकतभाजनपरिस्थिता शङ्खशुक्तिरिव राजत इत्यन्वयः ।
रमणाऽथं कृतसकेताया नायिकाया जनागमनशङ्कया निश्चेष्टं विटं प्रत्युक्तिरियम् । हे निश्चल हे निरुद्यम विट !, बिसिनीपत्त्रे= कमलिनीदले, निःस्पन्दा-निश्चलः, बलाका=बिसकण्ठिका, बकजायेत्यर्थः । निर्मलकरकतभाजनपरिस्थिता : स्वच्छनीलमणिपात्रस्थिता, शङ्खशुक्तिः इव = शङ्खघटितं शुक्त्याकारं पात्रम् इव, राजते = शोभते, उअ = पश्य । हालकविकृतायां गाथासप्तशत्यां पद्यमिदम् । अत्र "उअ" इति देशीभाषाशब्दः ।
___ अत्र = अस्मिन् पद्य, बलाकाया: बकजायायाः, नि:स्पन्दत्वेन =निश्चलत्वेन, विश्वस्तत्व = विश्वासयुक्तत्वं, तेन अस्य देशस्य = स्थानस्य, विजनत्वं = विविक्तत्वम्, अतः सङ्केतस्थानमेतदिति कयाऽपि = नायिकया, सन्निहितं = निकटवर्तिनं, प्रच्छन्नकामुकं प्रति = गुप्तकामयितारं प्रति, उच्यते = सूच्यते व्यञ्जनयेतिभावः । अत एव= अस्मिन् उदाहरण एव, स्थाननिर्जनस्वरूपं = देशविजनरूपं, व्यङ्गयाऽर्थवैशिष्टयं = व्यञ्जनावृत्तिप्रतिपाद्यार्थविशिष्टत्व प्रयोजनम् = लक्षणाफलम् ।
___ काकोलक्षणं प्रतिपादयति-भिन्नकण्ठध्वनिरिति। धीरैः = विद्भिः, सङ्केत करनेवाली नायिकाकी निश्चेष्ट विटके प्रति उक्ति है-हे निश्वल ! कमलिनीके पत्तेपर अत्यात निश्वष्ट होकर बैठी हुई बगुली निर्मल पन्नेके बतंतमें रहे हुए शङ्ख. पात्रके समान शोभित हो रही है। इस पद्यमें बगुलीके निश्चल होनेसे विश्वस्तत्व, उससे उस स्थानकी निर्जनता, इस कारणसे यह संकेतस्थल है यह बात कोई नायिका निकटस्थित प्रच्छन्न कामुकको व्यञ्जनासे सूचित करती है । इस उदाहरणमें ही स्थाननिर्जनतारूप व्यङ्गय अर्थकी विशेषता प्रयोजन है।
जिसमें कण्ठस्वर भिन्न होता है उसे "काकु" कहते हैं ऐसे लक्षणसे युक्त
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साहित्यदर्पणे
'गुरुपरतन्त्रतया बत दूरवरं देशमुद्यतो गन्तुम् ।
अलिकुलकोकिलललिते नेष्यति सखि ! सुरभिसमयेऽसौ १ ॥' अत्र नैष्यति ? अपि तर्हि एष्यत्येवेति काक्वा व्यज्यते-- चेष्टावैशिष्टये यथा--
'संकेतकालमानसं विटं ज्ञात्वा विदग्धया। भिन्नकण्ठध्वनिः = भिन्नः ( स्वाभाविककण्ठध्वनितो भेदयुक्तः ) यः कण्ठध्वनिः ( कण्ठस्वरः ) स "काकुः" इति अभिधीयते = कथ्यते, इति = इत्थम्, उक्तप्रकारायाः = कथितलक्षणायाः, काकाः भेदाः, आकरेभ्यः उपजीव्यमूलग्रन्थेभ्यः, ज्ञातव्याः- बोद्ध व्याः।
काकुवैशिष्टयमुदाहरति-गुरुपरतन्त्रतयेति । हे सखि ! बत ! गुरुपरतन्त्रतया दूरतरं देशम् गन्तुम् उद्यतः असो अलिकुलकोकिलललिते सुरभिसमये न एष्यति ? इत्यन्वयः ।
प्रवासोद्यतभर्तृकाया नायिकायाः सखी प्रत्युक्तिरियम् । हे सखि = हे वयस्ये, बतेति खेदद्योतकमव्ययम् । गुरुपरतन्त्रतया = गुरोः ( पितुः ) परतन्त्रतया ( अधीनस्वेन ), दूरतरं = विप्रकृष्टतरं, देशं = स्थान, गन्तु = यातुम्, उद्यतः = तत्परः, असो = अयम्, अलिकुलकोकिलललिते = भ्रमरसमूहपिकमनोहरे, सुरभिसमये = वसन्तकाले, न एष्यति = न आगमिष्यति, अत्र = अस्मिन् उदाहरणे, न एष्यति = न आग'मिष्यति; इति नायिका निषेधाऽभिप्रायेण कथयति, सख्याः "न एष्यति ?" इति काक्वा प्रश्नतः "एष्यति एव" इति विधिरूपोऽर्थो व्यज्यते । चेष्टावैशिष्ट्ये यथा-सहतेकालमनसमिति। विदग्धया विटं सङ्केतकालमनसं ज्ञात्वा हसन्नेत्राऽपिताकूतं लीलापन निमीलितमित्यन्वयः । विदग्धया = निपुणया नायिकया, विटं = षिङ्गम्, उपपतिमिति भावः सङ्केतकालमनस = सङ्केतकाले मनो यस्य तं, सङ्केतकालजिज्ञासुमिति भावः । काकुके भेद आकरग्रन्थों ( नाट्यशास्त्र आदियों) से जानने चाहिए। काकुकी विशेषतामें जैसे
गृहपरतन्त्रतया इति । नायिका सखीसे कहती है । हे सखि ! गुरुजन (पिताआदि ) के अधीन होनेसे बहुत दूर देशमें जानेके लिए तत्पर मेरे प्रिय भ्रमरों और कोयलोंसे मनोहर वसन्त ऋतुमें नहीं आयेंगे।
. यहांपर नायिकाने "न एष्यति" नहीं आयेंगे ऐसा निषेधके अभिप्रायसे कहा, सखी "न एष्यति" ? नहीं आयेंगे? ऐसी काकुसे प्रश्नकर "आयेंगे" ऐसे विविधरूप अर्थको व्यक्त करती है।
चेप्टावैशिष्टयका उदाहरण देते है-सतेति । चतुर नायिकाने विटको संकेतज्ञानका इच्छुक समझकर विकसित नेत्रोंसे अभिप्राय भूचित कर लीलाकमलको
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द्वितीयः परिच्छेदः
हसन्नत्रापिताकृतं लीलापन निमीलितम् ।।' अत्र संध्या संकेतकाल इति पद्मनिमीलनादिचेष्टया कयाचिहयोत्यते । एवं वक्त्रादीनां व्यस्तसमस्तानां वैशिष्टये बोद्धव्यम् ।
वैविध्यादियमर्थानां प्रत्येकं विविधा मता ॥ १७ ॥
अर्थानां वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयत्वेन त्रिरूपतया सर्वा अप्यनन्तरोक्का व्यकजनास्त्रिविधाः। तत्र वाच्यार्थस्य व्यजना यथा-'कालो मधु:इत्यादि । लक्ष्यार्थस्य यथा--'निःशेषच्युतचन्दनम'--इत्यादि । व्यङ्गपार्थस्य ज्ञात्वा=अवबुध्य, हसन्नेत्राऽपिताऽकूतं = हसती ( विकसती ) ये नेत्रे ( नयने ) ताभ्याम् अर्पितम् ( सूचितम् ) आकूतम् ( अभिप्रायः ) यस्मिन् कर्मणि तद्यथा तथेति क्रियाविशेषणम् । लीलापन लीलाकमलं, निमीलितं सङ्कोचितम् । अत्र = अस्मिन्नुदाहरण, सन्ध्या सायङ्कालः, सङ्केतकाल इति पनिमीलनादिचेष्टया = कमलसङ्कोचनादिचेष्टया, कयाचित्-नायिकया, द्योत्यते = व्यज्यते । पद्यमिदं ध्वन्यालोके वर्तते । पूर्वोक्तानामेषामुदाहरणानां गुणीभूतव्यङ्गयत्वमग्रे स्फुटीभविष्यति । अत्र तु व्यञ्जनाया आर्षत्वमात्रेणोदाहरणम् । चेष्टादीत्यादिशब्देन वर्णनीयनायिकादिगतसात्त्विकादिपरिग्रहः । एवं वक्त्रादीनां व्यस्तसमस्तानां = व्यस्तानां (पृथनिर्दिष्टानाम् ) समस्तानाम् (मिलितानाम् ) च, वैशिष्टये = विशिष्टत्वे, बोद्धव्यम् ।।
आर्थव्यञ्जनायास्त्रविध्यं प्रतिपादयति विध्यादिति । अर्थानाम् वाच्यादीनां विध्यान = त्रिविधत्वाद, इयम् आर्थी व्यञ्जना, प्रत्येकं, त्रिविधा त्रिप्रकारा, मता = अभिमता ॥ १७॥
सोदाहरणं विवृणोति प्रर्थानामिति । अर्थानाम् = अभिधेयाना, वाच्य लक्ष्यध्यङ्गयत्वेनः-अभिधालक्षणाव्यञ्जमाप्रतिपाद्यत्वेन, विरूपतया = त्रिप्रकारत्वेन, अनन्तरोक्ताः = अधुनाऽभिहिताः, सर्वा अपि = सकला अपि, व्यञ्जना:=व्यक्तयः, त्रिविधा: त्रिप्रकाराः। तत्र-तासु, वाच्याऽर्थस्य-अभिधावृतिप्रतिपाद्याऽर्थस्य व्यञ्जना-'कालो मधुः' इत्यादि, लक्ष्याऽर्थस्य लक्षणावृत्तिप्रतिपाद्याऽर्थस्य व्यञ्जना यथा-निःशेषच्युतचन्दनम् ।" सकूचित कर दिया । इस पबमें कमलके सङ्कोचन आदि की चेष्टासे "सन्ध्या सर्वोत समय है । यह कोई नायिका सूचित करती है। इसी तरह वक्ता आदिके अलग-अलग और मिले हुए उदाहरणोंको जानना चाहिए।
विध्यादिति । अर्थोके तीन भेद होनेसे यह आर्थी व्यजना तीन प्रकारोंवाली होती है ।। १७ ।।
वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय तीन प्रकारके अर्थ होनेसे अभी कही गई मब व्यजनाएं भी तीन प्रकारकी होती है। उसमें वाच्य अर्थकी व्यञ्जना जैसे-"कालो मधुः" इत्यादि । लक्ष्य अर्थकी व्यजना "नि.शेषच्युतचन्दनम्" इत्यादि । व्यङ्गयार्थकी
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साहित्यदर्पणे
यथा--' उअ पिच्चट -' इत्यादि । प्रकृतिप्रत्ययादिव्यव्जकत्वं तु प्रपच
यिष्यते ।
८०
शब्दबोध्यो व्यनक्त्यर्थः शब्दोऽप्यर्थान्तराश्रयः ।
एकस्य व्यञ्जकत्वे तदन्यस्य सहकारिता ॥ १८ ॥ यतः शब्दो व्यव्जकत्वेऽप्यर्थान्तरमपेक्षते, अर्थोऽपि शब्दम्, तदेकस्य व्यञ्जकत्वेऽन्यस्य सहकारितावश्यमङ्गीकर्तव्या ।
इत्यादि, व्यङ्गघार्थस्य जयञ्जनाप्रतिपाद्यार्थस्य व्यञ्जना उअ णिच्चल इत्यादि । प्रकृतिप्रत्ययादिव्यञ्जकत्वं = प्रकृति: ( यतः प्रत्ययोत्पत्तिः), धातुप्रातिपदिकादिरूपा इत्यर्थः । प्रत्ययः ( सुप्तिकृत्तद्धितादिरूपः ), तदादिव्यञ्जकत्वं तदादीनां व्यञ्जनया बोधकत्व तु, प्रपचयिष्यते विस्तारयिष्यते, असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गयध्वन्युदाहरण इति भावः ।
व्वञ्जकत्वे शब्दाऽथं योमिथः सहकारितां प्रतिपादयति शब्दबोध्य इति । अर्थः शब्दबोध्यः व्यनक्ति, शब्दोऽपि अर्थान्तराश्रयो व्यनक्ति । तत् एकस्य व्यञ्जकत्वे अन्यस्य सहकारिता इत्यन्वयः । अर्थः = वाच्यः, शब्दबोध्यः = शब्दप्रतिपाद्यः सन्, व्यनक्ति = व्यङ्गार्थं प्रतिपादयति, तथैव शब्दोऽपि = वाचकोऽपि अर्थान्तराश्रयः = अभ्याऽथपस्थापक: सन्, व्यनक्ति = व्यङ्गयाऽयं प्रतिपादयति, तत् = तस्मात्कारणात् शब्दार्थयोः एकस्य एकतरस्य, व्यञ्जकत्वे व्यञ्जनोपाधिकत्वे सति, अन्यस्य = शब्दाऽर्थयोरन्यतरस्य, सहकारिता = अप्रधानकारणता, भवतीतिशेषः ॥ १८ ॥
विवृणोति - यत इति । यतः यस्मात्कारणात् शब्दः = वाचकः, व्यञ्जकत्वे= अञ्जनोपाधिकत्वे सति, अर्थान्तरम् = अन्यमर्थम् = अपेक्षते = सहकारित्वेन अपेक्षां करोति । तथैव अर्थोऽपि = वाच्योऽपि व्यञ्जकत्वे = सति, शब्द = वाचकम्, अपेक्षते= सहकारित्वेन अपेक्षां करोति । तत् तस्मात्कारणात् एकस्य = शब्दाऽर्थयोरेकतरस्य, व्यञ्जकत्वे अन्यस्य = शब्दाऽर्थयोरन्यतस्य, सहकारिता = अप्रधानकारणता अवश्यम् अङ्गीकार्या= स्वीकार्या, परन्तु यत्र शब्दार्थयोर्मध्ये यस्य शक्तिः प्रधानरूपा, तत्र तन्मूलो व्यञ्जकत्वव्यवहारः कर्तव्य इति भावः ॥
व्यञ्जना--" उअ णिच्चन" इत्यादि । प्रकृति और प्रत्यय आदिकी व्यञ्जकता का पीछे विस्तार करेंगे ।
अर्थ, शब्दसे बोध्य होकर व्यञ्जक होता है, उसी तरह शब्दभी दूसरे अर्थका आश्रय लेकर व्यञ्जक होता है, अतः जहाँ एक शब्द वा अर्थ व्यञ्जक होता है वहा दूसरा यथाक्रम अर्थ वा शब्द सहकारी होता है ॥ १८ ॥
क्योंकि शब्द व्यञ्जक होनेपर अर्थकी अपेक्षा करता है उसी तरह अर्थ भी व्यञ्जक होनेपर शब्दकी अपेक्षा करता है, इस कारणसे एककी व्यञ्जकता में दूसरे की सहकारिताको अवश्य मानना चाहिए।
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द्वितीयः परिच्छेदः
अमिघादित्र्योपाधिवशिष्टात्त्रिविधो मतः । शब्दोऽपि वाचकस्तद्वलक्षको व्यञ्जकस्तथा ॥ १९ ॥
अभिधोपाधिको वाचकः । लक्षणोपाधिको लक्षकः । व्यचनोपाधिको
व्यञ्जकः ।
किन
तात्पर्याख्यां वृत्तिमाहुः पदार्थान्वयबोधने ।
तात्पर्यार्थं तदर्थं च वाक्यं तद्बोधकं परे ।। २० ।।
८१
एकैकपदार्थबोधनविरमाद्वाक्यार्थरूपस्य पदार्थाम्ययस्य
अभिधाया
अभिधादिवृत्तत्रयं निरूप्य तत्प्रयुक्तं शब्दस्याऽपि त्रिविधत्वं प्रतिपाश्यति - प्रभिधावति । अभिधाऽऽदित्रयोपाधि वैशिष्टयात् शब्दोऽपि वाचकः, तद्वत् लक्षको व्यञ्जकश्व मत इत्यन्वयः, अभिधादित्रयोराधिवैशिष्ट्यात् = अभिधादित्रितय व्यापारपिशिष्टत्वात्, शब्दोऽपि अभिधोपाधिको वाचकः, लक्षणोपाधिको लक्षको व्यञ्जनीपाधिको व्यञ्जको मतः । इत्थं शब्दानां त्रैविध्यं निरूपितम् ।। १९ ।।
अभिधायाः पदार्थस सबोधने सामर्थ्याभावात्तात्पर्य वृनि निरूपयति तात्पर्यास्यामिति । पदार्थाऽन्वयबोधने तात्पर्याख्यां वृत्तिम् आहुः । तदर्थं तात्पर्यार्थं तद्द्बोधकं वाक्यम् इति परे इत्यन्त्रयः । पदार्थानाम् (पदजन्यप्रतीतिविषयाणां शब्दानामिति भावः ) 'अन्वयबोधने = संसर्ग प्रतिपादने, तात्पर्याख्यां तात्पर्यनामिकां वृति शक्तिमू, आहुः = कथयन्ति : तदर्थ = तात्पर्यवृत्यर्थं तात्पर्य वृत्यर्थम् एवं च तद्बोधकं तात्पर्यार्थबोधकं च वाक्यमिति परे अभिहिताऽन्वयवादिनः = भाट्टमीमांसकनैयायिका इति भावः ॥ २० ॥
1
विवृणोति - प्रभिषाया इति । अभिधायाः = शक्तः, एकैकपदार्थबोधनविरमात् = एकैकशब्दार्थ प्रतिपादन विश्रामात, "शब्द बुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराऽभाव" प्रभिषेति । अभिधा आदि तीन उपाधियों की विशेषतासे शब्द भी वादक, लक्षक और व्यञ्जक तीन प्रकारका माना जाता है ।। १९ ।।
जिसमें अभिधाका व्यापार है वह वाचक, लक्षणाका व्यापारवाला लक्षक और व्यञ्जनाका व्यापारवाला शब्द व्यञ्जक कहलाता है ।
तात्पर्याख्यामिति । कुछ आचार्यलोग (अभिहितान्वयवादी) पदार्थों परस्पर अन्वयका बोध करनेके लिए 'तात्पर्य" नामकी वृत्तिको मानते हैं, और तात्पर्यको उस वृत्तिका प्रतिपाद्य अर्थ मानते हैं वाक्यको तात्पर्य अर्थका बोधक मानते हैं ||२०|| afar वृत्तिके एक एक पदार्थका बोधकर निवृत्त होनेपर वाक्यार्थस्वरूप पदार्थान्वयका बोध करानेवाली तात्पर्यनामक वृत्ति है, उस वृत्तिका अर्थ है तात्पर्यार्थ ६ सा०
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साहित्यदर्पणे
बोधिका तात्पर्य नाम वृत्तिः । तदर्थश्च तात्पर्यार्थः। तद्बोधकं च वाक्यमित्यमित्यभिहितान्वयवादिनां मतम् । " इति श्रीमन्नारायणचरणारविन्दमधुव्रत-साहित्यार्णवकर्णधार-ध्वनिप्रस्थापनपरमाचार्य-कविसूक्तिरत्नाकराऽष्टादशभाषावारविलासिनीभुजङ्ग सान्धि. विहिक-महापात्र-श्रीविश्वनाथकविराजकृती साहित्यदर्पणे
काव्यस्वरूपनिरूपणो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।
इति नयेनेति भावः । वाक्यार्थरूपस्य = पदार्थान्वयस्य, बोधिका = प्रतिपादिका, तात्पर्य नाम वृत्तिः = शक्तिः । तदर्थश्च = तात्पर्यवत्यर्थश्च तात्पर्यार्थः । तद्बोधकं च = तात्पर्याऽर्थबोधकं च, वाक्यमिनि अभिहिताऽन्वयवादिनां मतम् ।
अयं भावः । घटं करोति इत्यादिवाक्ये अभिधा घटपदेन कम्बुग्रीवादिमन्तं पदार्थम्, अम् विभक्त्या कर्मत्वमभिधाय विरमति वृत्तिता तु न कस्याऽपि इति अपदार्थोऽपि वृत्तिता तात्पर्यवृत्तिवशात् अनयोः संसर्गविधया भासते। इत्थं तात्पर्यवृत्त्येव पदार्थानां मिथः अन्वयो भवतीति अभिहितान्वयवादिनः ।
'अन्विताऽभिधानवादिना प्रभाकरमीमांसकानां मते तु पदार्थसंसर्गस्य पदशक्यस्वाङ्गीकारेण तात्पर्यवृत्तिर्नावश्यकी । . इति साहित्यर्पणे चन्द्रकलाख्यायां व्याख्यायां द्वितीयः परिच्छेद इति ।
और उसका बोधक वाक्य होता है यह अभिहिताऽन्वयवादियोंका सिद्धान्त है । अभिहि ताऽन्वयवादी भाट्टमीमांसक हैं उनका मत अलङ्कारशास्त्रमें स्वीकृत है। .
अन्विताभिधानवादी प्रभाकर मीमांसकके मतमें पदार्थीका अन्वय स्वतः होता है उसके लिए तात्पर्य वृत्तिको मानना अनावश्यक है।
साहित्यदर्पणके अनुवादमें द्वितीय परिच्छेद समाप्त हुआ।
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तृतीयः परिच्छेदः
अथ कोऽयं रस इत्युच्यते
१ ॥
विभावेनानुभावेन व्यक्तः संचारिणा तथा । रमतामेति रत्यादिः स्थायी भावः सचेतसाम् ॥ विभावादयो वक्ष्यन्ते । सात्त्विकावानुभावरूपत्वात् न पृथगुक्ताः, व्यको दध्यादिन्यायेन रूपान्तरपरिणतो व्यक्तीकृत एव रसो न तु दीपेन घट पूर्वसिद्धो व्यज्यते ।
"वाक्यं रसात्मकं काव्य" मित्युक्तत्वाद्रसस्य प्राप्ताऽवसरत्वं दर्शयति प्रथेति । अथ = वाक्यस्वरूपनिरूपणाऽनन्तरम्, कोऽयं रस इति = अपेक्षायाम्, उच्यते = रसस्त्ररूपं निरूप्यते । रसं लक्षयति विभावेनेति । विभावेन अनुभावेन तथा संचारिणा व्यक्तः सचेतसां रत्यादिः स्थायी भावः रसताम् एति इत्यन्वयः । विभावेन = रत्यादेरालम्बनोद्दीपनाख्य कारणद्वयेन, अनुभावेन = तत्कायेंण, तथा = तेन प्रकारेण, संचारिणा = व्यभिचारिणा, निर्वेदादिरूपेणेत्यर्थः । व्यक्तः = अञ्जनावृत्या प्रतिपादितः सचेतसां सहृदयानाम् । रत्यादिः = रतिहासप्रभृतिः स्थायी भावः रसतां = रसस्वरूपताम् एति = प्राप्नोति ।
विवृणोति - विभावादय: = विभावानुभावव्यभिचारिरत्यादयः, वक्ष्यन्ते = कथयिष्यन्ते, अस्मिनेव परिच्छेद इति शेषः । सामान्यतस्तु -
"कारणानि च कार्याणि सहकारीणि यानि च । रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाटचकाव्ययोः ॥ विभावा अनुभावाश्च कथ्यन्ते व्यभिचारिणः । "
=
इत्युक्तप्रकाराः । सास्विकाञ्च स्तम्भस्वेदादयोऽष्टविधाः । अनुभावरूपत्वात् न पृथक् उक्ताः = अभिहिताः । व्यक्तः = दध्यादिन्यायेन यथा दुग्धं दधिरूपेण परिण: मति तथैव व्यक्तकृत इत्यर्थः । आदिपदेन प्रपाणकादिपरिग्रहः । तथा च विभावादिरेव दध्यादिन्यायेन रूपान्तरपरिणतः सन् रसपदेन व्यवह्नियत इति भावः । न तु दीपेन घट
अब रस क्या है ? ऐसा प्रश्न कर उसका निरूपण करते हैं ।
विभावेन । विभाव (आलम्बन और उद्दीपन ) अनुभाव और सवारीभावसे व्यञ्जना वृति से अभिव्यक्त सहृदयोंके हृदय में विद्यमान रति आदि स्थायी भाव रसके स्वरूप में परिणत होता है ॥ १ ॥
4
विभाव आदि पीछे कहे जायेंगे । स्तम्भ स्नेह आदि अठ सात्विक भाव अनुभाव अन्तर्भूत होनेसे पृथक नहीं कहे गये । "व्यक्त" कहने से जैसे दूध ही दूसरे रूपमें
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साहित्यदर्पणे .
तदुक्तं लोचनकारी:- रसाः प्रतीयन्त इति त्वोदनं पचतीतिवद् व्यवहारः' इति । अत्र च रत्यादिपदोपादानादेव प्राप्ते स्थायित्वे पुनः स्थायिपदोपादानं रत्यादीनामपि रसान्तरेऽवस्थायित्वप्रतिपादनार्थम् । ततश्च हास
इव पूर्वसिद्धो व्यज्यते । अयं भावः । न खल्मोदनः पूर्वसिद्धो व्यज्यते किन्तु तण्डुलसमूहः पक्यः सन् ओदनो भवति तय विभावादिसमूहोऽपि स्थायिभावेन सह व्यञ्जनया प्रतिपादितः सन् रसो भवति । रूपान्तरपरिणामे प्राचीनसंवादमाह-तदुक्तमिति । लोचनकार: अभिनवगुप्तपादाचार्यः, रसाः शृङ्गारादयः, प्रतीयन्ते ज्ञायन्ते इति तु, ओदनं पचतीतिवत् व्यवहारः । अयं भावः । तण्डलाः पाकानन्तरमेव यथा ओदनपदन व्यवहार. योग्या भवन्ति, एवं सति मोदन पर्चात इत्यय प्रयोगो यथा उपचारेण भवति तथैव रसास्तु ज्ञानरूपाः, विभावादीनां व्यञ्चनया रसरूपे परिणामाऽनन्तरमेव ते रसपदेन व्यवहार्या भवन्ति, प्रतीतेः पूर्व न रसानां सता । यथा ओदनं पत्रतीति व्यवहार उपचारेण तथैव ,रसा: प्रतीवन्ते" अपमपि उपचारेणवेति तात्पर्यम् ।
प्रत्र चेति । अत्र = "विभावनानुभावेन" इत्याकारिकायां कारिकायां, रत्यादिपदोपादानात् = रत्वादिषन्दग्रहणात् । स्थायित्वे प्राप्तेऽपि ते रसाऽन्तरेषु भिन्नरसेषु । व्यभिचारिण एव = व्यभिचारिभाषा एव, न स्थायिभावाः । अय भावः । पूर्वोक्तकारिकायां रत्यादिपाहणादेव रत्यादीनां स्थायिभावत्वे प्राप्तेऽपि पुनः स्थायिपदग्रहणं तेषां भिन्नरसेषु अस्थायित्वप्रतिपादनाऽर्थ बोध्यम् । यथा - हासः हास्यरस एव स्थायिभावो भवति शृङ्गारे व्यभिचारभाव एव-तथैव क्रोधोऽपि रौद्ररसे स्थापि,
परिणत होकर दही हो जाता है वैसे ही रति आदि स्थायी भाव ही दूसरे रूपमें परिणत होकर, अभिव्यक्त होकर ही "रस" हो जाता है। जैसे दीपसे पूर्वसिद्ध घट व्यक्त (प्रकाशित) होता है उस तरह पूर्वसिद्ध रूपमें रस व्यक्त नहीं होता है। इस बात को लोचनकार ( अभिनव गुप्त आचार्य ) ने कहा-"रस प्रतीत होते हैं" यह "भात पकाता है" ऐसे कथनके अनुसार व्यवहार है। जैसे पकनेके बाद ही चावलोंमें भातका व्यवहार होता हैं, पकनेके पहले नहीं उसी तरह विभाव आदि भावोंसे व्यजनावृत्तिके द्वारा रति आदि स्थापीभाव अभिव्यक्त होकर ही इसकी प्रतीति होती है प्रतीतिके पहले नहीं, यह अभिप्राय है। पूर्वसिद्ध ही घट जिस तरह दीपसे प्रकाशित होता है उस तरह प्रतीतिके पूर्व रस प्रकाशित नहीं होता है यह अभिप्राय है।
पूर्व कारिकामें रति आदि पदके ग्रहणसे ही स्थायित्वकी प्राप्ति होने पर भी फिर स्थायि पदका ग्रहण, रति आदियोंका भिन्न रसोंमें स्थायिता नहीं होती है यह जाननेके लिए है । जैसे कि हास्य रसमें हास स्थायी भाव है उसी तरह रौद्र रसमें क्रोध स्थायी
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तृतीयः परिच्छेदः क्रोधादयः शृङ्गारवीरादौ व्यभिचारिण एव । तदुक्तम्
'रसावस्थः परम्भावः स्थायितां प्रतिपद्यते' इति । अस्य स्वरूपकथनगर्भ आस्वादनप्रकारः कथ्यते
सवांद्रेकादखण्डस्वप्रकाशानन्दचिन्मयः । वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो ब्रह्माखादसहोदरः ॥ २ ॥ लोकोत्तरचमत्कारप्राणः कैश्चित् प्रमाभिः । स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमाखाद्यते रसः ।। ३ ॥
भावः, वीररसे तु व्यभिचारभाव एव वक्ष्यति चनमयं पश्चात् -'शृङ्गारवीरयोहासो वीरे क्रोधस्तथा मतः ।। ३-१७२ ॥ शान्ते जुगुप्सा कथिता व्यभिचारितया पुनः इति । अत्र प्राचां संवादमाह-तदुक्तमिति ।
__रसाऽवस्थ इति । रस एव अवस्था ( स्थितिः) यस्य सः, एतादृशः भावः = रत्यादिः, स्थायितां = स्थायिभावं, प्रतिपद्यते = प्राप्नोति । प्रत्येति । अस्य रसस्य, स्वरूपकथनगर्भः = स्वरूपकथनं ( लक्षणप्रतिपादनम् ) गर्भ ( अभ्यन्तरे ) यस्य सः; तादृशः, आस्वादनप्रकारः = आस्वादनभेदः, रसस्य आस्वादनाऽनतिरिक्तत्वादयमुपचारप्रयोगः कथ्यते ।
सस्वोरोकादिति । सत्वोद्रेकात = सत्त्वस्य (गुणस्य), उद्रेकात् (आधिक्याव); अखण्डस्वप्रकाशानन्दचिन्मयः = अखण्डः . विभावादिसमूहालम्बनत्वात् एकः) स्वप्रकाशः ( स्वतः प्रकाशमानः ) आनन्दमयः ( सुखमयः) चिन्मयः ( ज्ञानस्वरूपः )। वेद्याऽन्तरस्पर्शशून्यः = ज्ञेयान्तरसंपर्करहितः । ब्रह्माऽऽस्वादसहोदरः = ब्रह्मसाक्षात्कारसदृशः । लोकोत्तरचरचमत्कारप्राणः=अलौकिकाऽऽश्चर्यजीवनरूपः । कश्चित, प्रमातृभिः प्रमापकः, स्वाकारवत् = आत्माऽऽकृतिवा, अभिन्नत्वेन = भेदरहितत्वेन, अ- रसः, आस्वाद्यते = अनुभूयते इति कारिकाऽर्थः ।
भाव है, परन्तु ये दोनों शृङ्गार और वीर आदि रसमें स्थायी नहीं है व्यभिचारी भाव हैं । जैसे कि महा है-रसाऽवस्थः । रसकी अस्थाको प्राप्त भाव ही स्थायीभाव होता है, अन्य नहीं । रसके स्वरूपका कथन और बास्वादनका प्रकार कहते हैं । सत्त्वोन्द्र कात् इति सत्व गुणके भाधिक्यसे अखण्ड, स्वतः प्रकाशवाग, आनन्दमय, चिन्मय ( ज्ञानस्वरूप ) दूसरे वेद्य पदार्थके संपर्कसे रहित, ब्रह्मसाक्षात्कारके सदृश ॥ २ ॥ अलौकिक 'चमत्कारस्वरूप प्राणवाला रस कुछ विद्वानोंसे अपने आकारके समान अभिन्नरूपसे आस्वाइन किया जाता है ॥ ३ ॥
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साहित्यदर्पणे
'रजस्तमोभ्यामस्पृष्टं मनः सत्त्वमिहोच्यते' इत्युक्तप्रकारो बाह्यमेयविमुखतापादकः कश्चनान्तरो धर्मः सत्त्वम् । तस्योद्रेको रजस्तमसी अभिभूय आविर्भावः । अत्र च हेतुस्तथाविधालौकिककाव्यार्थपरिशीलनम्।
अखण्ड इत्येक एवायं विभावादिरत्यादिप्रकाशसुखचमत्कारात्मकः । अत्र हेतुं पक्ष्यामः । स्वप्रकाशत्वाचपि वक्ष्यमाणरीत्या। चिन्मय इति स्वरूपार्थे मयट ।
चमत्कारश्चित्तविस्ताररूपो विस्मयापरपर्यायः । तत्प्राणत्वश्चास्मद्वद्धप्रपितामहसहृदयगोष्ठीगरिष्ठकविपण्डितमुख्यश्रीमन्नारायणपादरुक्तम् । तदाह धर्मदत्तः स्वप्रन्थे
विवृणोति- रजस्तमोभ्यामिति । रजस्तमोभ्यां = रजस्तमोगुणाभ्याम; अस्पृष्टं सम्परहितं, मनः, सत्त्वम् उच्यते । अयं भावः । "सत्त्वं सुखे रञ्जयति" इति भगववेचनात, त्रिगुणात्मके मनसि यदा सस्वस्याऽधिक्यं भवति तदा सुखोत्पत्तिः । इत्युक्तप्रकार:= इत्यभिहितभेदः, बाह्ममेयविमुखताऽऽपादकः = घटपटादयो ये बाह्यपदार्थाः, तेषु पराङ्मुखत्वप्रयोजकः, कश्मन आन्तरः = अन्तर्वर्ती, धर्मः= गुणः, सत्त्वम् । तस्य उद्रेकः = रजस्तमसी । अभिभूय = स्वकार्यासमर्थ कृत्वा, आविर्भाव: प्रादुर्भावः । तत्र च हेतु: कारणं, तथाविधाऽलोकिककाव्याऽर्थपरिशीलनं-तथाविधानि (तादशानि) अलोकिकानि ( लोकोत्तराणि ) यानि (काव्यानि ) तेषामर्थाः; (विभावादयः ) तेषां परिशीलनम् ( निरन्तरमभ्यसनम् )। अखण्ड इति विभावादिरत्यादिप्रकाश. सुखचमत्कारात्मकः = विभावादीनां (भावानाम् ) रत्यादीना (स्थायिभावानाम् ) ये प्रकाशसुखचमत्कारा: ( ज्ञानानन्दविस्मयाः ) तदात्मकः (तत्स्वरूपः ) । वक्ष्यामःकथयिष्यामः । चिन्मयः = चिदेव, "तत्प्रकृतवचने मयट्" इति स्वरूपाऽर्थ मयट् । चमत्कारः, चित्तविस्ताररूप: = चित्तप्रसारस्वरूपः, आनन्दोत्पत्तिः, विस्मयाऽपर.
ग्रन्थकार ही कारिकाओंका विवरण करते हैं। "रजस्तमोम्यामिति"। रजोगुण और तमोगुणसे अस्पृष्ट मनको “सत्त्व' कहते हैं, ऐसी उक्ति के अनुसार घट पट आदि वाह्य पदार्थोसे विमुख करनेवाला कोई अन्तःकरणका धर्म "सत्त्व" कहा जाता है। उसका उद्रेक रजोगुण और तमोगुणको दबाकर प्रादुर्भाव होना है । उसका हेतु है वैसे अलौकिक काव्योंके अर्थ विभाव आदिका परिशीलन । “अखण्ड" कहनेसे विभाव आदि भावोंका और रति आदि स्थायी भावोंका प्रकाश, सुख और चमत्कारस्तरूप वह एक ही है । इसमें हेतुको पीछे कहेंगे । स्वप्रकाशस्य आदि पीछे कही जाने वाली रीतिसे जानना। "चिन्मय" यहाँ पर स्वरूप अर्थमें मयट् प्रत्यय हुआ है। चित्तविस्तारको "चमत्कार" कहते हैं, इसका पर्याय ( समानाऽर्थक शब्द ) “विस्मय" है। रसमें चमत्कार ही प्राण है इस बात को हमारे वृद्ध प्रपितामहके सहृदय विद्वानोंकी सभाके श्रेष्ठ कवि और पण्डित श्रीनारायणजी ने कहा है। इस बात को धर्मदत्तने अपने ग्रन्थ में कहा
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तृतीयः परिच्छेदः
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'रसे' सारश्चमत्कारः सर्वत्राऽप्यनुभूयते । तधमत्कारसारत्वे सर्वत्राऽप्यद्भुतो रसः।
तस्मादद्भुतमेवाह कृती नारायणो रसम्' ।। इति । कैश्चिदिति प्राक्तनपुण्यशालिभिः । यदुक्तम्
'पुण्यवन्तः प्रमिण्वन्ति योगिवद्रससन्ततिम्' । इति ।
यद्यपि 'स्वादः काव्यार्थसम्भेदादात्मानन्दसमुद्भवः' इत्युक्तदिशा रसस्यास्वादानतिरिक्तत्वम्, तथापि 'रसः स्वाद्यते' इति काल्पनिक पर्याय: = विस्मयाऽन्यसमानार्थकः । तत्प्राणत्वं = चमत्कारप्राणत्वम् । रस इति । तच्चमत्कारसारत्वे = तस्य ( रसस्य ) चमत्कारसारत्वे ( चमत्कारस्थिरांऽशत्वे ) सर्वत्र अनुभूतो रसः । चमत्कार एव सर्वरसप्राणभूत इति भावः। __ - पुण्यवन्त इति । पुण्यवन्तः सुकृतिनः, योगिवत् रससम्मति-शृङ्गारादिरसपरम्परां, प्रमिग्वन्ति--साक्षात्कुर्वन्ति । यथा योगिनः शुद्धं ब्रह्म स्वप्रकाशानन्दचिद्रूपतया साक्षात्कुर्वन्ति तथा पुण्यवन्तो रत्याद्यशकर्बुरितमपि रसमास्वादयन्तीति भावः ।
यद्यपीति । काव्याऽर्थसंभेदात् = काव्याऽर्थस्य ( विभावादेः ) संभेदात् (परिशीलनात ); "संभेवात्" इत्यत्र ल्यब्लोपे पञ्चमी । काव्याऽर्थसंभेदं कृत्वा, तेन विभावादिसंवलित इत्यर्थः; एतादृशः आत्माऽऽनन्दसमुद्भेदः = आत्मनि (स्वस्मिन् ) आनन्दसमुद्भवः, स्वादः आस्वादः । इत्युक्तदिशा, रसस्य आस्वादानतिरिक्तत्वम् = मास्वा: दरूपत्वमिति भावः । तथापि "रसः स्गद्यते" इति काल्पनिकभेदम् = औपचारिकभेदम् "राहोः शिर" इतिवदिति भावः । उररीकृत्य = अङ्गीकृत्य, वा = अथवा, कर्मकर्तरि, "कर्मवत्कर्मणा तुल्यक्रियः" इति सूत्रेण "ओदनः पच्यते" इतिवद् "रसः स्वाद्यते" = स्वयमेव आस्वाद्यते एतादृशः प्रयोगः । है-रस इति । रसमें सार चमत्कार है इस बातका सर्वत्र अनुभव किया जाता है। इसमें चमत्कार ही सार होता है इसलिए सर्वत्र ही अद्भुत रस होता है । उस कारणसे विद्वान नारायणने रसको अद्भुत ही कहा है। "कैश्चित्" इसका अर्थ है प्राचीन पुण्योंसे शोभित जनोंसे । जैसे कि कहा गया है-पुण्यवन्त इति ! पुण्यात्मालोग योगियोंके समान शृङ्गार आदि रसोंकी परम्प का साक्षात्कार करते हैं । जैसे योगी शुद्ध ब्रह्मको स्वप्रकाश आनन्द चैतन्यरूपतासे साक्षात्कार करते हैं उसी प्रकार पुण्यात्मा लोग रति आदिसे चित्रित रसका आस्वादन करते हैं यह भाव है।
यद्यपीति । यद्यपि काव्याऽर्थ ( विभाव आदि ) परिशीलनसे अपनेमें आनन्द की उत्पत्ति को "स्वाद" कहते हैं ऐसी उक्ति के अनुसार रस आस्वादसे अतिरिक्त नहीं है अर्थात् आस्वादस्वरूप ही है तथाऽपि "रसः स्वाद्यते" अर्थात रस आस्वादन किया जाता है ऐसा काल्पनिक भेदको स्वीकार कर वा कर्मकर्ता में रसः स्वाद्यते = स्वयमेव
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साहित्यदर्पणे
भेदमुररीकृत्य कर्मकर्तरि वा प्रयोगः। तदुक्तम्--रस्यमानतामात्रसारत्वात् प्रकाशशरीरादनन्य एव हि रसः' इति । एवमन्यत्राप्येवंविधस्थलेषूपचारेण प्रयोगो ज्ञेयः।
नन्वेतावता रसस्याज्ञेयत्वमुक्तं भवति । व्यन्जनायाश्च ज्ञानविशेषत्वाद् द्वयोरेक्यमापतितम् । ततश्च
स्वज्ञानेनान्यधीहेतुः सिद्धेऽर्थे व्याजको मतः।। तदुक्तमिति। रस्यमानतामात्रसारत्वात् आस्वाद्यमानतामात्रस्वरूपत्वात् । प्रकाशशरीराव-ज्ञानस्वरूपात, अनन्य: अभिन्नः एव रसः । ज्ञानस्वरूप एवेति भावः । अन्यामाशङ्कां प्रदर्शयति नन्विति। एतावता = प्रबन्धेन, प्रकाशशरीरादनन्य एव रस इति कथनाऽऽनुसारमिति भावः । रसस्य == शृङ्गारादेः, अज्ञेयत्वम् = स्वभिन्नज्ञानाऽग्राह्यत्वमित्यर्थः । स्वेनैव स्वस्य ग्राह्यत्वेन घटादिवज्ज्ञेयत्वाऽसिद्धेरिति भावः । ततश्च रसस्य ज्ञानविशेषत्वमापतितम् । एवं च व्यञ्जनायाश्च वृत्तेः ज्ञानविशेषत्वात् द्वयोव्यञ्जनारसयोः, ऐक्यम् एकत्वं, ज्ञानविशेषत्वमिति भावः, आपतितं, ततश्च कथं रसस्य व्यङ्गयत्वम् । ततश्च = तस्मादेतोः।
व्यङ्गयव्यजकमावयोभिन्नतां प्रतिपादयति-स्वज्ञानेनेति। सिद्धे अर्थ स्वज्ञानेन अन्यधीहेतुः व्यञ्जको मतः, यथा दीपः। अन्यथाभावे अस्य कारकात को विशेष इत्यन्वयः ।
सिदे = निष्पन्ने, न तु साध्य इति भाव:, अर्थे = पदार्थे, स्वजानेन = स्वम्य (व्यजक्रत्वेनाऽभिमतस्य आत्मनः) ज्ञानेन ( बोधनेन ) सह अन्यत्रीहेतुः = अन्यस्य ( व्यङ्गयस्य पदार्थस्य ) धीहेतुः (प्रत्यक्षादिज्ञानकारणम् ) ।
व्यञ्जकः=ज्ञापकोः हेतुः, मन:-अभिमतः । न खलु दीपो घटादिकं करोति किन्तु सिद्धमेव तं स्वप्रकाशेन प्रकाशयति ज्ञापकहेतृत्वादिति भावः, यया दीपः । आस्वाद्यते अर्थात् रस स्वयम् ही आस्वादित होता है ऐमा प्रयोग होता है । नदुक्तमिनिरस्यमानतेति । रसमें रस्यमानता ( आस्वाद्यमानता ) मात्र सार होनेसे रस प्रकाश शरीर अर्थात् ज्ञानस्वरूपसे अन्य ( भिन्न ) नहीं है। अर्याद ज्ञानस्वरूप है। इसी प्रकार अन्यत्र भी ऐसे स्थलोंमें उपचारसे प्रयोग जानना चाहिए ।
___ दूसरी आशङ्का करते हैं । नन्विति । "प्रकाशशरीरादनन्य एव रसः" इस उक्तिके अनुसार रसको ज्ञानस्वरूप मानते हैं तो वह अज्ञेय होगा क्योंकि जैसे घटज्ञान अपने विषय ( ज्ञेय ) घटसे अलग होता है। इस प्रकार रस भी ज्ञानस्वरूप है। व्यञ्जना=जिससे रसकी प्रतीति होती है और रस ये दोनों ज्ञानविशेष हो गये तो दोनोंकी एकता हो जायगी तब तो-स्वज्ञानेनेति। जो अपना ज्ञान कराकर दूसरेका ज्ञान कराता है वह सिद्ध पदार्थमें (न कि साध्य पदार्थ में) व्यञ्जक (ज्ञापक) हेतु कहलाता
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तृतीयः परिच्छेदः
यथा दीपोऽन्यथाभावे को विशेषोऽस्य कारकात्' १॥
इत्युक्तदिशा घटप्रदीपवद् व्यायव्यन्जकयोः पार्थक्यमेवेति कथं रसस्य व्यङ्गयतेति चेत्, सत्यमुक्तम। अत एवाहुः-'विलक्षण एवायं कृतिज्ञप्तिभेदेभ्यः स्वादनाख्यः कश्चिद्वयापारः। अत एव हि रसनास्वादनचमकरणादयो विलक्षणा एव व्यपदेशाः' इति अभिधादिविलक्षणव्यापारमात्रअन्यथाभावे = असिद्धस्य साधने, अस्य = व्यञ्जकहेतोर्दीपस्य, कारकात् = उत्पादकहेतोः, दण्डचक्रादेरिति भावः । कः, विशेषः = भेदः । अतो व्यञ्जकः कारकश्च ति द्वी हेतू स्वीकरणीयाविति तात्पर्यम् ।
इत्युक्तदिशा = ध्वनिकारागु क्तमार्गेण, व्यङ्गघव्यञ्जकयोः = रसव्यञ्जनयोः, पार्थक्यम् एव = पृथग्भाव एव, न खलु घटस्य दीपप्रकाशेनैक्यमिति भावः । अभिनव. गुप्तपादाचार्योक्तदिशा समाधत्ते-मत एवाहुरिति । अत एव = यतो ज्ञानरूप एव रस इत्यर्थः । आहुः = कथयन्ति, प्राचीनाचार्या इति शेषः । अयं, स्गदनाख्यः = आस्दननामकः, कश्चित् = अलौकिकः, व्यापारः = व्यापारविषयाद्रसादभिन्नः, कृतिज्ञप्तिभेदेभ्यः करणं कृतिः, ज्ञानं ज्ञप्तिः, तद्भेदेभ्यः, कारकज्ञारिकव्यापारेभ्यः । विलक्षण एव = विसदृश एव । अत एव = विलक्षणव्यापारत्वादेव, रसनाऽऽस्वादनचमत्करणादयः = रस्यतेऽनेनेति रसनम्, आस्वाद्यतेऽनेनेति आस्वादनं, चमत्क्रियतेऽनेनेति चमत्करणं, तदादयः ( तत्प्रभृतयः ), सर्वत्र करणे ल्युट् प्रत्ययः, विलक्षणाः विसदृशाः; व्यपदेशाः = संज्ञाः ।
निगमयति-अभिवाऽऽदिविलक्षणव्यागरमात्रप्रसाधनग्रहिलैः = अभिधा आदि. सां ता अभिधादयः, आदिपदेन लक्षणातात्पर्ययोः परिग्रहः । अभिधादिभ्यो विलक्षणः ( भिन्नः ) यो व्यापार: ( व्यञ्जना ) तन्मात्रप्रसाधनग्रहिलैः ( तन्मात्रसंसाधन प्रयत्नपर ) अस्माभिः = आलङ्कारिकः, रसादीनां शृङ्गारादीनाम्, व्यङ्गयत्वं = व्यञ्जनाहै, जैसे दीप, अन्यथा ऐसा नहीं मानेंगे तो व्यञ्जक (ज्ञापक) हेतुका कारक हेतुसे क्या भेद होता । इसका भाव है, हेतु (कारण) के दो भेद होते हैं, ज्ञापक और कारक । उनमें ज्ञापक दीप अपना ज्ञान कराकर पूर्वसिद्ध पदार्य अर्थात् घट आदिके ज्ञानका हेतु होता है। और दूसरा कुम्भकार आदि है जो कि मृत्तिका, दण्ड चक्र और चीवरसे साध्य पदार्थ घटका कारक हेतु होता है । इस उक्तिके अनुसार घट और प्रदीपके समान व्यङ्गय ( रस ) और व्यञ्जक ( व्यञ्जना ) का पार्थक्य ( भेद ) ही है तो कैसे रसव्यङ्गय होगा ? अभिनवगुप्ताचार्यकी उक्तिसे समाधान करते हैं - सत्यमक्तम् । ठीक कहा । इसीलिए कहते हैं-कारक हेतुका व्यापार कृति, ज्ञापक हेतुका व्यापार ज्ञप्ति, इनसे स्वादन नामका कोई व्यापार भिन्न ही होता है जो ( स्वादन गपार ) रसकी प्रतीति कराता है । इसी कारणसे रसन, आस्वादन और चमत्करण आदि इसके विभिन्न
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साहित्यदर्पणे
प्रसाधनग्रहिलैरस्माभी रसादीनां व्यत्यत्वमुक्तं भवतीति ।
ननु तर्हि करुणादीनां रसानां दुःखमयत्वाद्रसत्वं ( तदुन्मुखत्वं ) न स्यादित्युच्यते-
करुणादावपि रसे जायते यत्परं सुखम् ।
सचेत सामनुभवः प्रमाणं तत्र केवलम् || ४ ||
आदिशब्दाद बीभत्सभयानकादयः । तथाऽप्यसहृदयानां मुखमुद्रणाय पक्षान्तरमुच्यतेकिश्च तेषु यदा दुःखं न कोऽपि स्यात्तदुन्मुखः ।
वृत्तिबोधविषयत्वम् उक्तं भवति । पश्वमे परिच्छेदे वक्ष्यति च - " - "वृत्तीनां विश्रान्तेरभिघातात्पर्य लक्षणाऽऽख्यानाम् । अङ्गीकार्या तुर्या वृत्तिर्बोधे रसादीनाम् ।" इति ॥ २ ॥ रसस्यानन्दमयस्त्र ं आशङ्कते - नन्विति । उच्यते = समाधानं प्रतिपाद्यते । करुणादावपीति । करुणादी अपि = रसे आदिशब्दाद् बीभत्सभयानकादयो गृह्यन्ते । यत् परम् = अत्यन्तं सुखं जायते, तत्र = = तस्मिन्विषये, सचेतसां = सहृदयांनां, रसाऽभिज्ञानामिति भाव: । अनुभवः = अनुभूतिः केवलं प्रमाणम् || ३ ||
तथाऽपि = सचेतसां सुखानुभवे सत्यपि । असहृदयानाम् = अमनस्विनां मुख. मुद्रणाय = वदन व्यापारसंङ्कोचनाय सिद्धान्तखण्डनायेति भावः पक्षान्तरम् = 'अन्य: पक्ष:, सिद्धान्तः इत्यर्थः ।
उच्यते । कि = अपि च तेषु = करुणाऽऽदिषु यदा दुःखं, तहि कोऽपि = सहृदय:, तदुन्मुखः = तत्परः, करुणादिरसास्वादनोत्कण्ठितः, न स्यात् ॥ ४ ॥
नाम से व्यवहार होते हैं । इस प्रकारसे अभिधा, लक्षणा और तात्पर्य इनके व्यापारोंसे भिन्न व्यञ्जनाव्यापार मात्रकी सिद्धके लिए प्रयत्न करने वाले हम आलङ्कारिकोंसे रस आदिकी व्यङ्गघता कही जाती है ।
रसके आनन्दमयत्वमें आशङ्का करते हैं- नन्विति । रसको आनन्दमय ही मानेंगे तो करुण अदि रसोंका आनन्दसे भिन्न दुःखमय होनेसे रसत्व नहीं होगा, इस आक्षेपका उत्तर देते हैं । करुणादौ द्दति । करुणा आदि रसमें जो परम सुख होता है सहृदयोंका अनुभव ही प्रमाण है ॥ ४ ॥
आदि शब्द से बीभत्स और भयानक आदि रस लिये जाते हैं । तथाऽपि तो भी जो सहृदय नहीं हैं उनका मुखमुद्रण करनेके लिए दूसरा पक्ष दिखाते हैं
कि चेति । करुण आदि रसोंमें दुःख होता हो तो उनका आस्वादन करने के
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तृतीयः परिच्छेदः
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नहि कश्चित् सचेतन आत्मनो दुःखाय प्रवर्तते। करुणादिषु च सकलस्यापि साभिनिवेशप्रवृत्तिदर्शनात् सुखमयत्वमेव ।
अनुपपत्त्यन्तरमाह
तथा रामायणादीनां भविता दुःखहेतुता ॥ ५॥
करुणरसस्य दुःखहेतुत्वे करुणरसप्रधानरामायणादिप्रबन्धानामपि दुःखहेतुताप्रसङगः स्यात् । ननु कथं दुःखकारणेभ्यः सुखोत्पत्तिरित्याह
हेतुत्वं शोकहर्षादेगतेभ्यो लोकसंश्रयात् ।
शोकहर्षादयो लोके जायन्तां नाम लौकिकाः ॥ ६ ॥ विवणोति-न होति । सचेतनः = सहृदयः । सकलस्याऽपि = जनस्य । करुणादिषु = करुणबीभत्सभयानकादिषु, साऽभिनिवेशप्रवृत्तिदर्शनात् = साऽभिनिवेशा ( आग्रहसहिता ) या प्रवृत्तिः ( चेष्टा ) तदर्शनांत ( तद्विलोकनात् )।
अनुपपत्यन्तरम् = अन्याम् अनुपपति, करुणादीनां दुःखमयत्व इतिशेषः । तथेति। तथा = तेनैव प्रकारेण, रामायणादीनां प्रबन्धानां, दुःखहेता = दुःख जनकता, भविता = भविष्यति ॥ ५ ॥
विवृणोति-दुःखहेतुताप्रसङ्गः = दुःखजनकताऽवसरः । स्याद = भवेत् ।
करुणादी सुख जनकतामाशङ्कते-नन्विति। दुःखकारणेभ्यः = रामायणादी दुःखहेतुभ्यः = दुःखकारणे यो रामादिनिभावेभ्य इति भावः । कथं सुखोत्पत्तिः= आनन्दाऽऽविर्भावः । इति == आशङ्कायाम्, आह = कथयति ।
कारिकायां समाधत्ते-हेतत्वमिति । लोकसंश्रयात् = ल्यब्लोपे पञ्चमी, लोकाऽऽश्रयं प्राप्य, शोकहर्षादे:--मन्युप्रमोदादेः, हेतुत्वं कारणत्वं, गतेभ्यः प्राप्तेभ्यः, तेभ्य: -- रामवनवासादिभ्यः, लोके = जगति, न तु काव्ये इति शेषः । लोकिकाः = लोकोत्पन्ना: न. तु अलौकिकाः, गोकहर्षादयो जायन्तां नाम = उत्पद्यन्ता नाम । नामेति प्रसिद्धौ ।। ६॥ लिए काई तत्पर नहीं होता। न होति । काई भी सहृदय अपन दुःखके लिए प्रवृत्त नहीं होता है, परन्तु करण आदि रसोंमें सभी की आग्रहपूर्वक प्रवृत्ति देखनेसे वे भी मुखमय ही हैं। दुगरी अनुपपत्ति देते हैं-तथेति । करुण रसको दुःखमय मानेंगे तो करुप प प्रधान रामायण आदि प्रयन्त्र भी दुःखके हेतु होंगे ।। ५ ॥
फिर प्रश्न करते है - नन्विति । तव तो दुःखके कारणों से कैसे मुखकी उत्पत्ति होगी? इसपर कहते हैं-हेतुत्वमिति । लोकके आश्रयसे शोक और हर्ष आदिके हेतुभूत राम आदिके वनवास आदिसे लौकिक शोक और हर्ष जादि भले ही हो जायं ।। ६ ।।
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साहित्यदर्पणे
अलौकिकविभावत्वं प्राप्तेभ्यः काव्यसंश्रयात् ।
सुखं सजायते तेभ्यः सर्वेभ्योऽपीति का क्षतिः ।। ७ ।। ..'ये खलु रामवनवासादयो लोके दुःखकारणानि' इत्युच्यन्ते त एव हि काव्यनाट्यसमर्पिता अलौकिकविभावनव्यापारवत्तया कारणशब्दवाच्यतां विहाय अलौकिकविभावशब्दवाच्यत्वं भजन्ते। तेभ्यश्च सुरते दन्तघातादिभ्य इव सुखमेव जायते। अतश्च 'लौकिकशोकहर्षादिकारणेभ्यो लौकिकशोकहर्षादयो जायन्ते' इति लोक एवं प्रतिनियमः।
परं काव्यसंश्रयात्=पूर्ववल्ल्यब्लोपे पञ्चमी । काव्यसंश्रयं प्राप्य, अलौकिकविभा. वत्वं = लोकोत्तररामादिविभावत्वं प्राप्तेभ्यः, तेभ्यः = पूर्वोक्तभ्यः, सर्वेभ्य: सकलेभ्यः, रामवनवासादिभ्य इति भावः । सुखम् = आनन्द एव, संजायते = समुत्पद्यते, इति = अस्थिन् विषये, का, क्षतिः = आपत्तिः ॥ ७ ॥
विवृणोति-ये खल्विति। लोके = जगति, ते एव = रामवनवासादयः, काव्यनाट्यसमपिताः = श्रव्यरूपकगुम्फिताः सन्तः, अलौकिकविभावनव्यापारवत्तया = अलौकिका ये विभावनादिव्यापाराः तद्वत्तया लौकिकविभावनव्यापारविलक्षणतया। अत्र 'विमावनपदमनुभावनसंनारणयोरप्युपलक्षकं बोध्यम् । विभावनादिस्वरूणणि वक्ष्यन्ते । कारणशब्दवाच्यता = लौकिकहेतुपदप्रतिपाद्यताम् अत्राऽपि कारणपदं कार्यसहकारिणोरप्युपलक्षकं बोध्यम् । विहाय = त्यक्त्वा, कारणकार्य सहकारिकारणपदवाच्यतां त्यक्त्वेति भावः, अलौकिकविभावशब्दवाच्यत्वं = लोकोत्तरविभावादिपदप्रतिपाद्यताम् । तेभ्यः = रामवनवासादिभ्यः, सुरते = रतिक्रीडायां, दन्तघातादिभ्य इव = दशनक्षता. दिभ्य इव, अत्रादिपदेन केशग्रहणादिह्यते । सुखमेव जायते । अनेन देशकालादिविशेषण
परन्तु काव्यके आश्रयसे अलौकिक विभावत्वको प्राप्त राम आदिके वनवास आदि समस्त क्रियाकलापोंसे सुख उत्पन्न हो जाता है, इस बातके स्वीकार करनेमें क्या नुकसान है ? ।। ७॥
विवरण करते हैं-लोकमें वनवास आदि जो कुछ दुःखके कारण कहे जाते हैं वे ही काव्य ( श्रव्य ) और नाट्य ( दृश्य ) में विन्यस्त होकर अलौकिक विभावन व्यापार युक्त होनेसे कारण शब्दसे व्यवहृत न होकर अलौकिक विभाव शब्दसे कहे जाते हैं।
सुरतमें जैसे दन्तघात नखक्षत आदिसे सुख होता है वैसे ही वनवास आदि विषय काव्यमें समर्पित होनेसे उनसे सुख ही होता है। इस कारणसे लौकिक शोक हर्ष आदि कारणोंसे लौकिक शोक हर्ष आदि उत्पन्न होते हैं यह लोकमें ही नियम है।
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तृतीयः परिच्छेदः
काव्ये पुनः 'सर्वेभ्योऽपि विभावादिभ्यः सुखमेव जायते' इति नियमान्न कश्चिद्दोषः ।
कथं तर्हि हरिश्चन्द्रादिचरितस्य काव्यनाट्ययोरपि दर्शनश्रवणाभ्यामश्रुपातादयो जायन्त इत्युच्यते
९.३
अश्रुपातादयस्तद्वद्द्रुतत्वाच्चेतसा मताः ।
तर्हि कथं कान्यतः सर्वेषामीदृशी रसाभिव्यक्तिर्न जायत इत्यत आहन जायते तदास्वादां विना रत्यादिवासनाम् ॥ ८ ॥
वासना चेदानीन्तनी प्राक्तनी च रसास्वादहेतु:, तत्र यद्याद्या न सुखमयस्यापि दुःखमयत्व, दुःखमयस्याऽपि सुखमयत्वं भवतीति सिद्धम् । काव्ये = अलौकिकायें | विभावादिभ्यः = विभावानुभावसञ्चारिभावादिभ्यः ।
पुनराशङ्कते - कथं तति । करुणादिरसेभ्योऽपि सुबं जायते चेत्, हरिवन्द्रादिचरितस्य = आदिपदेन युधिष्ठिरादीनां परिग्रहः । उच्यते = समाधीयते । समाधत्ते - प्रभु पातावय इति । चेतसः = मनसः, द्रुतत्वात् = द्रवीभावात्. रसोदबोधे सतीति शेषः ।
=
आशङ्कान्तर प्रदर्शयति-नन्विति । वहि तदा, करुणादिरसादेरपि सुखजनकत्वे सति सर्वेषां जनानाम्, ईदृशी = एतादृशी, रसाऽभिव्यक्ति: = रसास्वाद: कथं, न जायते = नोत्पद्यते ? इति मत्र, आह = समाधत्ते । समाधत्ते- - न जायत इति । तदास्वादः = रसास्वादः, रत्यादिवासनां विना = रत्यादितादात्म्येन ज्ञायमाना वासना ( संस्कारविशेषम् ) बिना, न जायते ।
विभागपूर्वकं वासनां निरूपयति - वासना चेति । रसास्वादहेतुः सा वासना द्विविधा — इदानीन्तनी = अधुनातनी, प्राक्तनी = पुरातनी चेति । तत्र यदि आबा = काव्य में पति समस्त विभावादियोसे सुख ही उत्पन्न होता है ऐसा नियम होने से कुछ भी दोष नहीं है ।
फिर प्रश्न करते हैं - कथमिति । काव्य में समर्पित विभाव आदिसे सुख ही होता है तो हरिश्चन्द्र आदिके चरित्रका काव्य ( श्रव्य ) और नाटय ( दृश्य ) में भी दर्शन और श्रवणसे कैसे अधुपत आदि होते हैं ? इस प्रश्नका समाधान करते हैंप्रभु पातावय इति । चितके पिघलने से अनुपात आदि होते हैं न कि दुःखसे तब काव्यसे सब लोगों को ऐसी रसकी अभिव्यक्ति क्यों नहीं होती हैं ? इस आक्षेपका समाधान करते हैं- न जायत इत्यादि । रति आदिकी वासना ( संस्कारविशेष ) के विना रसका आस्वाद नहीं होता है ॥ ८ ॥
वह वासना इस जन्मकी और पूर्व जन्मकी दो प्रकारकी होनी चाहिए। पहली ( इस जन्म की ) वासनाको नहीं लेंगे तो वैदिक और प्राचीन मीमांसकों को भी रसका
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साहित्यदर्पणे
स्यात्तदा श्रीत्रियजरन्मीमांसकादीनामपि स स्यात् । यदि द्वितीया न स्यात्तदा यद्रागिणामपि केषाद्रि सोद्बोधो न दृश्यते तन्न स्यात् ।
उक्तञ्च धर्म्मदत्तेन—
९४
'सवासनानां सभ्यानां रसस्यास्वादनं भवेत् । निर्वासनास्तु रङ्गान्तः काष्ठकुडचाश्मसन्निभाः ॥ इति ।
ननु कथं रामादित्याद्युदुबोधकारणः सीतादिभिः सामाजिकरत्याशु - दुबोध इत्युच्यते
प्रथमा, तदानीन्तनी, न स्यात्तदा श्रोत्रियजरन्मीमांसकादीनाम् = वैदिकप्राचानमीमांसकादीनामपि सा = रसानुभूतिः स्यात् = भवेत्, परभिदानीन्तनवासनाऽभावेन श्रोत्रियादीनां रसानुभूतिनं भवति । द्वितीया = प्राक्तनी वासना, न स्यात्तदा रागिणा = काव्यबोधानुभववताम् अपि रसोदबोधः = रसानुभूतिः, न दृश्यते, परं प्राक्तन वासनाभावेन तेषां रसाऽनुभूतिर्न भवति ।
उक्ताऽर्थ आप्तसंबाद प्रदर्शयति । उक्तं च धर्मदत्तेन - सवासनानामिति । सवासनानां = वासनासहितानां सभ्यानां = सामाजिकानां, रसस्य = शृङ्गारादेः, आस्वादनं भवेत् । निर्वासना = वासनारहितास्तु, रङ्गाऽन्तः = नृत्यशालामध्ये, काष्ठकुडघाऽश्मसंनिभाः = काष्ठं ( दारु ) कुडयम् ( भित्ति: ) अश्मा ( पाषाण ) तैः सदृशाः ( तुल्याः ), रसास्वादनाऽभावादिति भावः । साधारणीकरणव्यापारतः सामाजिकानां त्याद्यद्बोधं प्रतिपादयितुमाशङ्का मुत्थापयति- नन्विति । ननु कथं रामादिरत्याद्य• द्बोधका रणः = रामादीनां ( नायकानाम् ) यो रत्यादि:, ( स्थायिभावः ) तस्य उद्बोध. कारण: ( अनुभूति हेतुभिः ) सीतादिभि: ( नायिकाभिः दृश्यश्रव्यकाव्यप्रतिपादिता: भिरिति शेषः ) सामाजिक रत्याद्य बोधः = सामाजिकानां ( सभ्यानाम् ) यो रत्यादिः, तदुद्बोध: ( तदनुभूति: ) । तद्देशस्थतात्कालिक रामादिरस्याद्य दबोधकारणः अत्रत्येदानीन्तनानां सामाजिकानां कथं रत्याद्य दुबोध इत्याशङ्काबीजमिति भावः ।
• आस्वाद होता । दूसरी ( पूर्वजन्मकी) वासनाको नहीं लेंगे तो कुछ रागियों को भी
•
'रसका आस्वाद नहीं देखा जाता है, वह नहीं होना चाहिए। धर्मंदत्तने कहा भी हैसवासनानामिति । वासना (संस्कारविशेष) वाले सभ्योंको रसका आस्वादन होगा। जिनको वासना नहीं है वे तो रङ्गभूमिके काष्ठ, दीवार और पत्थरोंके समान . अनुभवसे रहित ही रहते हैं ।
आशङ्का करते हैं- नन्विति । काव्य और नाटकमें राम आदि नायककी रति आदिके उद्बोध कारणोंसे अर्थात् सीता आदिसे सामाजिक अर्थात् सभ्य द्रष्टा और श्रोताओं को कैसे रति आदिका उद्बोध होता है ? समाधान करते हैं
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तृतीयः परिच्छेदः
. व्यापारोऽस्ति विभावादेनाम्ना साधारणीकृतिः । तत्प्रभावेण यस्यासन् पाथोधिप्लवनादयः ॥ ९॥
प्रमाता तदभेदेन स्वात्मानं प्रतिपद्यते । ननु कथं मनुष्यमात्रस्य समुद्रलानादावुत्साहोद्वोध इत्युच्यतेउत्साहादिसमुद्बोधः साधारण्याभिमानतः ।। १० ।। नृणामपि समुद्रादिलङ्घनादौ न दुष्यति ।
समाधत्ते-व्यापारोऽस्तीति । विभावादेः = आदिपदेन अनुभावसञ्चारि. भाषयोः परिग्रहः, तेन विभावाऽनुभावसञ्चारिभावानां, नाम्ना अभिधानेन, साधारणीकृतिः = साधारणीकरणं, व्यापारः अस्ति, तत्प्रभावेण = साधारणीकरणव्यापारसामर्थ्येन, यस्य = रामादेः, पाथोधिप्लवनादयः = समुद्रलङ्घनादयः, आसन् = अभवन, प्रमाता = सामाजिकः, दृश्यकाव्यस्य द्रष्टा, श्रव्यकाव्यस्य बोद्धेति शेषः । तदभेदेन = रामाद्यभेदेन, समुद्रलङ्घनादिकति शेषः । स्वात्मानं = स्वं, प्रतिपाद्यते % जानाति । साधारणीकरणव्यापारेण सामाजिको रामादावभेदबुद्धघा तद्गतां रतिमनुभवतीति भावः।
पुनराशङ्कते-नन्विति । ननु कयं-केन प्रकारेण, मनुष्यमात्रस्य = मानवमात्रस्य सामाजिकस्य, समुद्रलङ्घनादौ-पाथोधिप्लवनादौ, उत्साहोद्बोधः-उत्साहानु. भूतिः । इति = अत्र विषये, उच्यते - कथ्यते, समाधीयत इति भावः ।
समाधत्ते-उत्साहाजिसमबोष इति । उत्साहादिसमुद्बोधः=उत्साहायनु. भूतिरपि। साधारण्याऽभिमानतः = साधारणीकरणाऽभिमानतः। अत: नृणामपि = मनुष्याणाम् अपि, सामाजिकानां, समुद्रादिलङ्घनादौ पापोधिप्लवनादी, न दुष्यति।
व्यापार इति । विभाव आदि = अर्थात् अनुभाव और सचारी भावोंका साधारणीकरण नामका व्यापार होता है। उसके प्रभावसे जिन राम आदियोंका समुद्रलङ्घन आदि कार्य हुए थे ॥९॥
प्रमाता = सभ्य, राम आदिके अभेदसे मैंने ही समुद्रलङ्घन आदि कार्य किया है ऐसा समझने लगता है। मनुष्यमात्रका समुद्रलङ्घन आदिमें कैसे उत्साहका अनुभव , होता है इस शङ्काका परिहार करते हैं-उत्साहादीति । साधारणीकरण व्यापारसे समुद्र लखनके कर्ता राम आदिमें अभेद भावनासे समुद्रलङ्घन आदिमें उत्साह होनेमें दोष नहीं है ॥ १० ॥
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साहित्यदर्पणे.
रत्यादयोऽपि साधारण्येनेव प्रतायन्त इत्याह
साधारण्येन रत्यादिरपि तद्वत्प्रतीयते ।। ११ ।। रत्यादेशप स्वात्मगतत्वेन प्रतीतो सभ्यानां ब्रांडातकादिर्भवेत् । परगतत्वेन त्वरस्यतापातः। विभावादयोऽपि प्रथमतः साधारण्येन प्रतीयन्त इत्याह
परस्य न परस्येति ममेति न ममेति च । तदास्वादे विभावादेः परिच्छेदा न विद्यते ।। १२ ।।
रत्यादीनामपि साधारणीक रणव्यापारेण प्रतीतिरिति प्रतिपादयति-साधा. रण्येनेति । तद्वद् =विभावादिवत् । रत्यादिरपि-तत्तद्रसस्थायिभावोऽपि, साधारण्येन= साधारणीकरणव्यापारेण, प्रतीयते = ज्ञायते ॥ ११ ॥
साधारणीकरणस्य सार्थक्यं प्रतिपादयति-रत्यावेरपीति । रत्यादेरपि = स्थायिभावस्य, आत्मगतत्वेन-आत्ममात्रगतत्वेन, प्रतीतो = ज्ञान, सम्यानां = सामाजिकाना, व्रीडातकादिः = व्रीडा ( लज्जा) आतङ्कादिः ( भयादिः ) । सामाजिकसन्निधौ स्वरतिप्रकाशने लज्जा आतहादिश्च भवेदिति भावः । परगतत्वेन = अन्यगतत्वेन, रत्यादिप्रतीताविति श्रेषः। बरस्याऽपातः = अनास्वागतापातः, परगतत्वेन रत्यादिप्रतीतो स्वस्य भास्वादकतत्वं न स्यादिति भावः । अता साधारणीकरणं. सार्थकमिति तात्पयंम् ।.
विभावादीनामपि प्रथमतः साधारणीकरणेन प्रतीति प्रतिपादयितुमुपक्रमतेविभावादयोऽपि भावाः, प्रथमतः = रसबोधात्प्राक् । साधारण्येन = साधारणीकरणव्यापारेण । प्रतीयन्ते = ज्ञायन्ते, इति आह = कथयति । परस्यति । स्वादे %D रसास्वादे विषये, परस्य अन्यस्य, रामादेनायकस्य, न परस्य = न रामादेनायकस्य । ममसामाजिकस्य, न मम, इति विभावादेः, परिच्छेदः = निर्धारणं, सम्बन्धविशेषस्य स्वीकारः परिहारो वेति भावः, न विद्यते ॥ १२॥
साधारणीकरण व्यापारसे रति वादियोंकी भी प्रतीति होती है ऐसा प्रतिपादन करते हैं-साधारण्येन । साधारणीकरण व्यापारसे उसी तरह रति आदिकी भी प्रतीति होती है ॥ ११ ॥
सभ्योको स्वगत रूपसे रति आदिकी प्रतीति होगी, तो लज्जा और भय आदि उत्पन्न होंगे, परगत रूपसे प्रतीति होगी तो उनको आस्वादकी अनुभूति नहीं होगी अतः साधारणीकरण व्यापारसे ही सभ्योंको रति आदिकी प्रतीति होती है। इसी तरह विभाव आदि भी पहले साधारणीकरणसे प्रतीत होते हैं यह कहते हैं-परस्येति । रसके आस्वादके समयमें विभाव आदिका यह दूसरेका है अथवा दूसरेका नहीं है, मेरा है अथवा मेरा नहीं है, इसप्रकार सम्बन्ध विशेषका स्वीकार वा परिहार नहीं होता है ॥१२॥
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तृतीयः परिच्छेदः
ननु तथापि कथमलौकिकत्वमेतेषां विभाषादीनामित्युच्यते
विभावनादिव्यापारमलौकिकमुपेयुषाम् ।
अलौकिकत्वमेतेषां भूषणं न तु दूषणम् ॥ १३ ॥ आदिशब्दादनुभावसञ्चारणे । तत्र विभावनं = रत्यादेविशेषेणास्वा. दाकुरणयोग्यतानयनम । अनुभावनमेवम्भूतस्य रत्यादेः समनन्तरमेव रसादिरूपतया भावनम् । सञ्चारणं तथाभूतस्यैव तस्य सम्यक् चारणम् ।
विभावादीनां यथासख्यं. कारणकार्यसहकारित्वे कथं त्रयाणामपि रसोद्बोधे कारणत्वमित्युच्यते
विभावादीनामलौकिकत्वं प्रतिपादयितुमुपक्रमते-नन्विति । तथाऽपि साधा. रणीकरणव्यापारस्वीकरणेऽपि, विभावादीनां कथमलौकिकत्वमिति ।।
समाधत्ते-विभावनावीति । अलौकिकं = लोके पूर्वमविद्यमानं, विभावनादिव्यापार = विभावनाऽनुभावनस चारणव्यापारम्, उपेयुषां = प्राप्तवताम्, एषां = विभा. वाऽनुमावसञ्चारिभावानाम्, अलौकिकत्वं, भूषणम् = अलङ्काररूपम् गुण एव, न तु दूषणं = दोषः ॥ १३ ॥
विवृणोति-विभावनादीत्यत्र आदिशब्दात् अनुभावनसंचारणे ज्ञातव्ये । तत्र विभावनं-र-यादेः भावस्य विशेषेण आस्वादाऽङकुरणयोग्यताया आनयनम् (प्रापणम्)। एवंभूतस्य = रसत्वेन अङ्करणयोग्यताऽनीतस्य रत्यादेः, समनतरमेव = अनन्तरसमय एव, रसादिरूपतया = शृङ्गारादिस्वरूपतया, भावनं = प्रतिपादनम्, सञ्चारणं-तथाभूतस्य एव = तादशस्य एव, रसादिरूपतया भावितस्य एवेति भावः । एतस्य-रत्यादेः, सम्यक् चारणं-परिपोषणम् । विभावादीनां कारणकार्यसहकारित्वेऽपि रसोद्बोधे समष्टि
तथाऽपि विभाव आदियोंकी अलौकिकता कैसे होती है ? इसे प्रतिपादित करते हैं-विभावनादीति । विभावन, अनुभावन और सञ्चारण ऐसे अलौकिक व्यापारको प्राप्त करनेवाले विभावादिकोंका अलौकिकत्व भूषण है दूषण नहीं ।। १३ ॥
विभावनाऽदि० यहाँपर आदि पदसे अनुभावन और सञ्चारणको लेना चाहिए। रति आदि भावोंकी आस्वादके अङ्कुरण = सूक्ष्म रूपसे उत्पत्तिके योग्य बनानेको "विभाव" कहते हैं । तदनन्तर ऐसे रत्यादिको रस आदिके रूपसे प्रतिपादन करनेको "अनुभावन" कहते हैं। तब वैसे रसादिका अच्छी तरहसे चारण अर्थात् परिपोषण करने को "सञ्चारण" कहते हैं । विभाव, अनुभाव और सञ्चारी भावके यथा क्रम ये तीन व्यापार हैं । क्रमसे विभावकी कारणता, अनुभावकी कार्यता और सचारी बाउकी सहकारिता होनेपर भी रसकी अनुभूतिमें इन तीनोंकी कैसे कारणता होती है
७ सा०
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१८
साहित्यदर्पणे
काय-कारणसश्चारिरूपा अपि हि लाकतः । रसोद्बोधे विभावाद्याः कारणान्येव ते मताः ।।१४।। ननु तर्हि कथं रसास्वादे तेषामेकः प्रतिभास इत्युच्यते
प्रतीयमानः प्रथमं प्रत्येकं हेतुरुच्यते । ततः संमिलितः सर्वो विभावादिः सचेतसाम् ॥ १५ ॥
प्रपाणकरसन्यायाच्चव्यमाणा रसो भवेत् । रूपेण कथं कारणत्वमिति ममाधत्ते-कार्यकारणसंचारिरूपा इति । ते = पूर्वोक्ताः, विभावाद्याः = विभावाऽनुभावसञ्चारिभावाः, लोकतः = लोकव्यवहारात् कार्यकारणसञ्चारिरूपा अपि, रसोद्बोधे = शृङ्गारादिरसाऽऽविर्भावे, कारणानि एव । अयं भावः, लोकव्यवहारात् यद्यपि विभावा रत्यादेः कारणरूपाः, अनुभावाः कार्यरूपाः; सञ्चारिभावाः सहकारिरूपा वर्तन्ते तथाऽपि शृङ्गारादिरसाविर्भावे ते सर्वेऽपि विमावाऽनुभावसञ्चारिभावाः समष्टिरूपेण कारणरूपा अभिमताः । रसास्वादे विभावादीनां कथमेकत्वेन प्रतीतिरित्युपपादयति प्रतीयमान इति । प्रथम = प्राक्, प्रतीयमानः=ज्ञायमानः, विभावादिः, प्रत्येकं, रत्यादि प्रतिहेतुः = कारणम्, उच्यते = अभिधीयते । ततः = प्रत्येकप्रत्ययाऽनन्तरं, संमिलितः= संविलितः, सर्वः = विभावादिः, प्रपाणकरसन्यायातप्रपाणकद्रवसादृश्यात्, चळमाणः = आस्वाद्यमानः, रसः = शृङ्गारादिः, भवेत् । रसस्य चर्वणास्वरूपत्वेऽपि काल्पनिकभेदमाश्रित्य चळमाणत्वम् इति ।। १५ ॥
.. कारिकां विवृणोति यथेति । यथा खण्डमरिचादीनां, खण्डं = शर्कराखण्ड, मरिचादयः = कोलकादयः, प्रपाणकरससाधनपदार्थाः, तेषां सम्मेलनात् = संमिश्रणात, अपूर्व इव = उपकरणद्रव्येभ्यो विलक्षण इव, कश्चित् = अनिर्वाच्यः, आस्वादः = आस्वादनं, प्रपाणकरसे - प्रपाणकद्रवे, संजायते = समुत्पद्यते, विभावादिसंमेलनात् = विभावादिसंमिश्रणाद, इह अपि = अत्र अपि, तथा = रसप्रताातः ।
अयं भावः । यथा प्रपाणकरसे उपकरणद्रव्याणां खण्डमरिचकर्पूरादीनां संमिश्रणात्प्राविभिन्ना आस्वादाः पर संमिश्रणाऽनन्तरं तेषां समष्टया कश्चिदपूर्व आस्वादः इस आशङ्काका समाधान करते हैं-कार्येति । रसकी अनुभूतिमें अनुभाव, विभाव और सञ्चारी भाव ये तीन लोकमें क्रमके अनुसार कार्य, कारण और सकारी माने गये हैं तो भी वस्तुतः ये समष्टिरूपमें कारण ही माने गये हैं ॥ १४ ॥
तब कैसे रसके आस्वादमें उन तीनोंका एक रसके रूपमें परिणाम होता है इसका समाधान करने हैं -प्रतीयमान इति ।
पहले प्रतीत होनेवाले विभाव आदि प्रत्येक हेतु कहे जाते हैं तब वे सम विभाव
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तृतीयः परिच्छेदः
__ . ५९
यथा खण्डमरिचादीनां सम्मेलनादपूर्व इव कश्चिदास्वादः प्रपाणकरसे सञ्जायते, विभावादिसम्मेलनादिहापि तथेत्यर्थः ।
____ ननु यदि विभावानुभावव्यभिचारिभिर्मिलितैरेव रसस्तत् कथं तेषामेकस्य द्वयोर्वा सद्भावेऽपि स स्यादित्युच्यते
सद्भावश्चेद्विभावादेद्वयोरेकस्य वा भवेत् ॥ १६ ॥ झटित्यन्यसमाक्षेपे तदा दोषो न विद्यते । अन्यसमाक्षेपश्च प्रकरणादिवशात् । यथा
'दीर्घाक्षं शरदिन्दुकान्तिवदनं बाहू नतावंसयोः प्रतीयते, तथैव विभावादीनामपि सम्मेलनात्प्राक् तेषां प्रातिस्विकी भिन्ना प्रतीतिः, परं तेषां सम्मेलनाऽनन्तरं रसस्वरूपेणापूर्वः प्रतिभासो भवति ।। १५ ॥
विभावादीनां द्वयोरेकस्य वा सद्भावे कथं रसप्रतीतिरिति आशजूध समाधत्तेसदभाव इति । विभावादेः = विभावाऽनुभावव्यभिचारिणां मध्ये, द्वयोः = भावयोः; एकस्य वा = भावस्य, सद्भावः = सत्ता, भवेच्चेत् = स्याद्यदि, तहिं झटिति-शीघ्रम्, अन्यसमाक्षेपे = अन्यस्य ( अप्रतिपादितस्य एकस्य भावस्य ) अन्ययोः ( अप्रतिपादितयोः द्वयोर्वा भावयोः ) समाक्षेपे सति = व्यञ्जनया बोधे सति, तदा =तहि, दोषो = दूषणं, न विद्यते = नो वर्तते ॥ १६ ॥
अन्येषां = भावानाम्, आक्षेपश्च = व्यञ्जनया' बोधश्च, प्रकरणादिवशाद । अनुभावसञ्चारिभावाक्षेपोदाहरणं प्रतिपादयति-दीर्घाक्षमिति । आदि संमिलित होकर प्रपाणक रसके समान सहृदयोंको आस्वायमान होकर रस हो जाते हैं ।। १५॥
यथेति । जैसे मिश्री, मरीच आदि पदार्थोंको मिलानेसे शर्बतमें उन सम्मिलित पदार्थोसे भिन्न कोई अपूर्व आस्वाद पैदा होता है उसी तरह विभाव आदियोंके सम्मेलनसे यहां भी विभाव आदिसे विलक्षण रसकी प्रतीति होती है ।
आशङ्का करते हैं-नन्विति । जब कि संमिलित विभाव, अनुभाष और व्यभिचारी भावसे ही रसको प्रतीति होती है तो उन विभाव आदिमें एक अथवा दो ही भावोंके रहनेपर भी कैसे रसकी प्रतीति होगी ? इसका समाधान करते हैं-सद्भाव इति। विभाव आदिमें एक वा दोके रहनेपर भी झटसे अनुक्त अन्यका आक्षेप करनेमें कोई दोष नहीं होता है ।। १६ ॥
अनुक्त अन्यका आक्षेप प्रकरण आदिसे होता है।
जैसे कि - मालविकाग्निमित्र नाटकमें नृत्यके आरम्भमें राजा अग्निमित्रका किया हुआ मालविकाका रूपवर्णन है। मालविका का मुख मण्डल दीर्घ नेत्रोंवाला और शरद ऋतुके चन्द्रकी समान कान्तिसे युक्त है। दोनों बाह कन्धोंमें झुके हुए हैं।
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१००
साहित्यदर्पणे
सङ्क्षिप्तं निविडोन्नतस्तनमुरः, पार्श्वे प्रमृष्टं इव । मध्यः पाणिमितो नितम्ब जघनं, पादावुदप्राऽङ्गुली छन्दो नर्त्तयितुर्यथैव मनसः सृष्टं तथास्या वपुः ।' मालविकामभिलषतोऽग्निमित्रस्य
अत्र
वर्ण सारिणामौत्सुक्यादीनामनुभावाना चित्यादेवाक्षेपः एवमन्या क्षेपेऽप्यूह्यम् ।
मालविकारूपविभावमात्रनयनविस्फारादीनामौ
मालविकाग्निमित्रे नृत्यारम्भे अग्निमित्रकृतं मालविकारूपवर्णनम् ।
=
अस्या: =मालविकायाः, वदनं = मुखमण्डलं, दीर्घाक्ष दीर्घे अक्षिणी यस्मिस्तत् आयतनयनयुक्तम् | "बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात् षच्” इति समासान्तः षच् प्रत्ययः, शरविन्दुकान्ति = शरदिन्दोरिव कान्तिर्यस्य तत् व्यधिकरणबहुव्रीहिः । शरच्चन्द्रसुन्दरमित्यर्थः । बाहू = भुजौ, अंसयोः = स्कन्धयोः, नतो = अवनती, उरः = वक्षःस्थलं, संक्षिप्तं = विस्ताररहितं स्त्रीणामुरसः अविस्तीर्णस्यैव प्रशस्तत्वादिति भावः । निबिडोन्नतस्तनं = निबिडो ( घनी ) उन्नतौ ( उच्ची ) स्तनौ ( पयोधरी ) यस्मिंस्तत् पार्श्वे = बाहुमूलाधोभागों, प्रसृष्टे इव : परिमार्जिते इव । मध्यः अवलग्नं, पाणिमितः = करेण परिमातुं शक्यः कृश इति भावः । जघनं = कटिपुरोभागः, नितम्ब= विपुलनितम्बयुक्तं, पादो = चरणी, उदग्राऽङ्गुली = उन्नताऽङ्गुलियुक्ती, नर्तयितुः = नृत्यशिक्षकस्य गणदासनामकस्येति भावः । मनसः = चित्तस्य, छन्दः = अभिप्रायः, यथा = येन प्रकारेण एव तथा तेन प्रकारेण अस्या: = मालविकायाः, वपुः = शरीरं, सृष्टं = रचितं विधात्रा इति शेषः । अत्रोत्प्रेक्षाऽलङ्कारः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । उदाहरणश्लोकं विवृणोति । अत्र = अस्मिन् पद्य, मालविकां = तदाख्यां कुमारीम्, अभिलषतः = इच्छतः, अग्निमित्रस्य = तन्नामकस्य राज्ञः, मालविका रूपविभावमात्रवर्णनेऽपि = मालविकारूप: ( मालविकास्वरूपः ) यो विभाव: ( आलम्बनविभावः ) तन्मात्रवर्णनेऽपि, ओचित्यात् = वाच्यस्य आलम्वनविभावस्य वैशिष्टयात्, सञ्चारिणा = व्यभिचारिभावानाम्, औत्सुक्यादीनाम् = उत्कण्ठाप्रभृतीनाम्, अनुभावानां च, नयनविस्फारादीनां = नेत्र प्रसारादीनां च, आक्षेप: = व्यञ्जनया बोधः । एवम् = अनेनैव प्रकारेण, अन्याक्षपेऽपि = अन्येषाम् ( विभावादीनाम् ) आक्षेपेऽपि ( व्यञ्जनया छाती संक्षिप्त, घन और उन्नत स्तनोंसे युक्त है। पार्श्व ( बाहुमूलके अधोभाग ) परिमार्जितके समान हैं। कमर पतली है जघनस्थल विपुल नितम्बसे युक्त है । चरण ॐ अङगुलियोंसे सुन्दर हैं। नृत्यशिक्षक गणदासके मनकी इच्छा के अनुसार इस ( मालविका ) के शरीर की रचना हुई है । इस पद्य में मालविका में अभिलाष करनेवाले राजा अग्निमित्र ने केवल ( आलम्बन ) विभाव मालविकाका वर्णन किया है, तथाऽपि औत्सुक्य आदि संचारी भाव और नयनविस्फार आदि अनुभाव इनके ओचित्यसे आक्षेप करनेसे रसकी प्रतीति होती है इसीप्रकार अन्य विभाव आदिके आक्षेप में भी रसकी प्रतीति करनी चाहिए।
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तृवीयः परिच्छेदः
१०१
'अनुकार्यगतो रसः' इति वदतः प्रत्याह
पारिमित्याल्लौकिकत्वात्सान्तरायतया तथा ॥ १७ ।।
अनुकार्यस्य रत्यादेरुद्बोधो न रसो भवेत् । सीतादिदर्शनादिजो रामादिरत्यायुधोधो हि परिमितो लौकिको नाट्यकाव्यदर्शनादेः सान्तरायश्च, तस्मात् कथं रसरूपताभियात् । बोधेऽपि ) ऊह्यं = कल्पनीयम् । रसस्याऽनुकार्यगतत्वं खण्डयितुमुपक्रमते अनुकार्यगत इति । अनुकार्यगतः = अनुकत्तुं योग्य: अनुक यः, अनुकरणक्रियायाः कर्मभूतो रामादिनामकः, तद्गतो रसः इति वदतः = प्रतिपादयतः, भट्टलोल्लटादीन्, प्रत्याह = प्रति वदति, दूषयतीति भावः ।
निराकरोति-पारिमित्यादिति । पारिमित्यात्-परिमितत्वात, नायकमात्रगतत्वेनेति शेषः । लौकिकत्वात् = साधारणलोकभवल्यात, तथा = तेनैव प्रकारेण, साऽन्त रायतया - विघ्नसहितत्वेन चेत्येतद्धेतुत्रयेण ।। १७ ।।
अनुकार्यस्य-रामादेन यकस्य, रत्यादेः = सीताऽऽदिविषयकरत्यादेः, उद्बोध:= आविर्भावस्वरूपः, रसो न भवेत् ।
कारिका) वृत्तौ विवणोति---सीताविवर्शनादिज इति। अनुकार्यगतो रस इति स्वीकारे सीतादिदर्शनादिजः = सीतादेः ( नायिकादेः ) दर्शनादिजः (विलोकनायु त्पन्नः ), रामादिरत्या बोधः = रामादेः (नायकादेः ) रत्यादेः ( रतिप्रभृतेः ) उद्बोधः ( आविर्भावः ), परिमितः ( अल्पपरिमाण: ) अल्पव्यक्ति. नियतत्वादिति भावः । लौकिक: = निर्दिष्टलोकमात्रभवः, एवं च नाट्य काव्यदर्शनादेःनाट्ये ( नटकर्मणि ) काव्ये ( श्रव्यकाव्ये ) दर्शनादेः ( विलोकनश्रवणादेः ) साऽन्त.
रस अनुकार्य ( अनुकरणीय ) राम आदिमें प्रतीत होता है ऐसा माननेवाले भट्टलोल्लट आदिके मतका खण्डन करते हैं-पारिमित्यात् । परिमित (सीमित) होनेसे वास्तविक लोक में रहने से और विघ्न युक्त होनेसे भी ।। १७॥ .
अनुकार्य राम आदिमें रति आदिका आविर्भावरूप रस नहीं हो सकता है ।
सीतादीति । सीता आदिके दर्शन आदिसे उत्पन्न राम आदिको रति आदिका । आविर्भाव, परिमित ( सीमित ) लौकिक होनेसे और नाट्य (दृश्यकाव्य) तथा काव्य (श्रव्य काव्य ) में दर्शन और श्रवण आदिसे विघ्नयुक्त भी होता है उस कारणसे कैसे रसरूपको प्राप्त करेणा? रस तो इन तीन धर्मों (परिमितत्व, लौकिकत्व और साऽन्तरायत्व ) से भिन्न धर्मवाला है । अर्थात् रस तो अपरिमित है, केवल राम आदि अनु
कार्यमें रहनेगला नहीं है । रस अलौकिक है अर्थात् निर्दिष्ट लोकमात्रमें रहनेवाला नहीं। .. है। रस निरन्तराय है अर्थात् दृश्यकाव्य ( नाटक ) और श्रव्य काव्यमें दर्शन औ.
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१०२
साहित्यदर्पणे
रसस्येतद्धर्मत्रितयविलक्षणधर्मकत्वात्।
अनुकत्र्तगतत्वञ्चास्य निरस्यति
शिक्षाभ्यासादिमात्रेण राघवादेः स्वरूपताम् ॥ १८ ॥ दर्शयमतको नैव रसस्यास्वादको भवेत् । किन
काव्याथमावनेनायमपि सभ्यपदास्पदम् ।। १९ ।। रायच = विघ्नसहितश्च, प्रतिबन्धयुक्तश्चेति भावः। तस्मात् = हेतोः, कथं = केन प्रकारेण, रसरूपतां = रसस्वरूपताम्, इयात् = प्राप्नुयात् । रसस्य = शृङ्गारादेः, एतधर्मत्रितयविलक्षणत्वात् = एतत् (पूर्वप्रतिपादितम् ) यत् धर्मत्रितयं ( धर्मत्रयम् ); पारिमित्यं, लौकिकरवं सान्तरायत्वं चेति भावः, तस्मात् विलक्षणत्वात् (विसदृशत्वात)। रसः अपरिमितः, अलोकिको निरन्तरायश्चेति न अनुकार्यगत इति भावः ।
रसस्याऽनुकर्तृगतस्वं निरसितु प्रक्रमते-पनुकर्तगतत्वमिति। अस्य = रसस्य, अनुकर्तृगतत्वम् = अनुकरोतीति अनुकर्ता, नट इत्यर्थः, तद्गतत्व = तनिष्ठत्वं, निरस्यति = निराकरोति । रसो नटगतः, रसस्यास्वादं नट: करोतीति श्रीशकुकादीनां मतम् । रसस्य नटनिष्ठत्वं खण्डयति-शिक्षाऽभ्यासाऽऽविमात्रणेति । शिक्षाऽभ्यासादिमात्रेण = गुरुत उपदेशग्रहणं शिक्षा, तत्परिशीलनम् = अभ्यासः, तदादिमात्रेण, राघवाऽऽदेः = श्रीरामादेः, सरूपताम् अनुकरणेन समानरूपता, दर्शयन् प्रदर्शयन, नर्तकः = नटः, अनुत्तेति भावः, रसस्य = शृङ्गारादेः, आस्वादकः = अनुभविता, नंव भवेत् ॥ १८ ॥ ... कुत्रचिदनुकतुंरपि रसास्वादकत्वं प्रतिपादयति-काव्याज्यंभावनेनेति। अयमपिनटोऽपि, काव्याऽर्थभावनेन = काव्यस्य । दृश्यकाव्यस्य ) अर्थभावनेन ( अर्थ. पर्यालोचनेन ), सभ्यपदास्पद = सामाजिकस्थानापन्नः, रसास्वादकः इति भावः । भवेदिति शेषः । एतावता प्रायेण सभ्यनिष्ठ एव रस इति प्रतिपादितं भवति ।। १९ ॥ श्रवणमात्रसे साऽन्तराय (विघ्नवाला) नहीं है। इस कारणसे रस राम आदि अनुकार्यमें स्थित नहीं हैं वह सभ्यगत होता है यह भाव है।
___ अब रस अनुकर्ता ( नट ) में रहता है श्रीशङ्कु आदिसे अभिमत इस बातका खण्डन करते हैं-शिक्षति । शिक्षा और अभ्यास आदिमात्रसे रामचन्द्र आदिके रूपका अभिनय करनेवाला नर्तक ( नट ) रसका आस्वादक नहीं होता है ।। १८ ॥
काव्यायति । काव्यके अर्थकी भावनासे यह (नट) भी सभ्यपदको प्राप्त कर सकता है, ( रसका आस्वादक हो सकता है ) ॥ १९ ॥
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तृतीयः परिच्छेदः
१०३
यदि पुनर्नटोऽपि कायार्थभावनया रामादिस्वरूपतामात्मनो दर्शयेत् तदा सोऽपि सभ्यमध्य एव गण्यते ।
नायं ज्ञाप्यः स्वसत्तायां प्रतीत्यव्यभिचारतः । यो हि ज्ञाप्यो घटादिः स सन्नपि कदाचिदज्ञातो भवति, न ह्ययं तथा; प्रतीतिमन्तरेणाभावात्।
यस्मादेष विभावादिसमूहालम्बनात्मकः ।। २० ॥
रसस्य स्वप्रकाशत्वं ज्ञापयितु ज्ञानान्तरग्राह्यत्वं निराकरोति-नाऽयमिति । अयं रसः न ज्ञाप्यः=न स्वभिन्नप्रत्यक्षविषयः, स्वसत्तायाम् आत्मसद्भावे, प्रतीत्यब्यभिचारतः प्रतीतो ( सभ्यानां ज्ञाने ) अव्यभिचारतः ( व्यभिचाराऽभावात् ), साक्षात्कार विना असत्त्वात्, रसस्तु साक्षात्कारदशायामेव आविर्भवति । अन्यदा तु रत्यादिरेव, घटादित्वसाक्षात्कारदशायामपि घटादिस्तस्तद्वलक्षण्यम् । अतोऽयं ज्ञाप्यो नेति भावः ।। २० ॥
वृत्तौ विवृणोति-योऽयमिति । योऽयं ज्ञाप्यो घटादिः सः सन्नपि भवनपि, कदाचित अज्ञातो भवति, प्रकाशाऽभावे इति भावः । घटादेाप्यत्वात् (ज्ञानविषयत्वात्), अन्धकारादिना तस्य ज्ञानाऽभावेऽपि तस्य सत्तायां न व्यभिचारः। रसस्तु न तथा प्रतीति-ज्ञानम्, अन्तरेण = विना, अभागत् साक्षात्कारे एव तस्य रसत्वं, तदभावे तु स रत्यादिरूपत्वेन अवतिष्ठते, अतस्तस्य स्वप्रकाशत्वं सियति इति भावः ।
___रसस्य कार्यत्वं निराकरोति-यस्मादेष इति । यस्मात् = कारणात्, एषः= रंसः, विभावाऽऽदिसमूहाऽऽलम्बनात्मकः = विभावाऽनुभावसञ्चारिभावसमूहाऊलम्बनज्ञानस्वरूपः ।। २० ॥
नट भी काव्याऽर्थकी भावनासे राम आदिकी स्वरूपताको दिखालाएगा तो वह भी सभ्यके मध्य में परिगणित होता है । रसकी स्वप्रकाशता ज्ञापित करनेके लिए अन्य ज्ञानसे उसकी ग्राह्यताका खण्डन करते हैं-नाऽयमिति । यह रस ज्ञाप्य नहीं है, क्योंकि अपनी सत्ता ( अस्तित्व ) में सामाजिकोंकी प्रतीतिमें व्यभिचारवाला नहीं होता है।
विवरण करते हैं-यो होति । जो घट आदि ज्ञाप्य (दीप आदिसे प्रकाशनीय) होता है, वह कभी कभी विद्यमान होकर भी ( अन्धकार आदिके कारण) प्रतीत (ज्ञात) नहीं होता है। यह रस ऐसा नहीं है क्योंकि प्रतीतिके विना इसकी सत्ता ही नहीं रहती है । रसके कार्यत्वका खण्डन करते हैं-यस्माविति । जिस कारणसे यह रस विभाव, अनुभाव, सञ्चारी भाव और रत्यादि स्थायी भाव इन सबका समूहा. लम्बनात्मक है अतः वह कार्य नहीं है ॥ २० ॥
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१०४
तस्मान्न कार्यः
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साहित्यदर्पणे
यदि रसः कार्यः स्यात्तदा विभावादिज्ञानकारणक एव स्यात् । ततश्च रसप्रतीतिकाले विभावादयो न प्रतीयेरन् कारणज्ञानतत्कार्य्यज्ञानादीनां युगपददर्शनात् । नहि चन्दनस्पर्शज्ञानं तज्जन्यसुखज्ञानकदा सम्भवति । रसस्य च विभावादिसमूहालम्बनात्मकतयैव प्रतीतेर्न विभावादिज्ञानकारणकत्वमित्यभिप्रायः ।
=
तस्मात् कार्यो न = कार्यस्वरूपो न, विभावादिज्ञानजन्यो नेति भावः । वंसे सत्यपि प्रागभावो यथा जन्यो न तथैव रसोऽपि स जन्यो नेति भावः ।
वृत्ती विवृणोति यदीति । यदि रसः कार्यः = जन्यः स्यात्, तदा = तह, विभावादिज्ञानकारणकः विभावादिज्ञानं कारणं ( जनकम् ) यस्य सः, एतादृश: स्यात् । विभावादिज्ञानानन्तरमेव रस उत्पद्यतेति भावः । ततश्च = कारणात्, प्रतीत काले = रसज्ञानसमये, विभावादयः विभावाऽनुभावसंचारिणः, न प्रतीयेरन् = प्रतीति• विषया न स्युः । अत्र हेतुमुपपादयति - कारणज्ञानेति । कारणज्ञान-तत्कार्यज्ञानादीनां, युगपददर्शनात् [ = समकालोत्पत्यदर्शनात् । अत्र दृष्टान्तं प्रदर्शयति- न हीति । चन्दनस्पर्शज्ञानं = सुखका रणभूत श्रीखण्डामर्शनज्ञानं, तज्जन्यं ( कार्य ) सुखज्ञानं च = चन्दनस्पर्शजन्यसुखज्ञानं च एकदा एककालाऽवच्छेदेन, न सम्भवति ।
अयं भावः - सुखकारणचन्दनस्पर्शज्ञान तज्जन्यसुखज्ञानं च योगपद्य ेन न सम्भवति । कार्यनियतपूर्ववृत्तित्वं कारणत्वम्, प्रागभागप्रतियोगित्वं कार्यत्वमिति नियमेन कार्यकारणयोरेककालाऽवच्छेदेन प्रतीतिर्न भवति ।
फलितमाह - प्रकृते रसस्य = शृङ्गारादेः, विभावादिसमूहालम्बनात्मकतया एव = विभावानुभावसञ्चारिभावसमूहालम्बनात्मकतया एव, प्रतीतेः ज्ञानात्, अत्र एवकारात् समूहालम्बनजन्यत्वव्यवच्छेदः । अतो रसस्य न विभावादिज्ञानकारणकत्वं := विभावादिज्ञानं कारणं यस्य तस्य भावः । ततश्व अप्राप्यकारणान्तरस्य रसस्य न कार्यत्वमिति भावः ।
विवरण करते हैं - यदीति । रस कार्य होता तो उसका कारण विभाव आदिका ज्ञान होता । तब तो रस ( कार्य ) की प्रतीतिके कालमें कारण विभाव आदि प्रतीत न होते क्योंकि कारणका ज्ञान और उसके कार्यका ज्ञान एक ही समय में नहीं देखे जाते हैं । जैसे कि चन्दनस्पर्श ( कारण ) का ज्ञान और तज्जन्य ( कार्य ) सुखका ज्ञान एक ही समय में संभव नहीं है । विभाव आदि समूहालम्बनात्मक होकर ही विभावादि ज्ञान रसका कारण नहीं है। अतः रस कार्य नहीं है यह अभिप्राय है । रसकी
रसकी प्रतीति होने से,
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तृतीयः परिच्छदः
-नो नित्यः पूर्वसवेद नोज्झितः ।
असंवेदन काले हि न भावोऽप्यस्य विद्यते ॥ २१ ॥
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न खलु नित्यवस्तुनोऽसंवेदनकालेऽसम्भवः ।
नापि भविष्यन् साक्षादानन्दमय प्रकाशरूपत्वात् । कार्यज्ञाप्यविलक्षणभावान्नो वर्त्तमानोऽपि ।। २२ ।।
A
रसस्य कार्यत्वाभावं ससाध्य नित्यत्वभावं प्रतिपादयति-नो नित्य इति । एष इति पदमनुवर्तते । एषः = रस, पूर्वसवेदनोज्झिनः पूर्वसंवेदनात विभावादिज्ञानाद्यत्पूर्वज्ञानं तस्मात् ) उज्झित: ( त्यक्त: ), नो नित्यः = न प्रागभावाप्रतियोगी । यदि रसो नित्यः स्यातहिं विभावादिज्ञानात्प्रागपि ज्ञायेतेति भावः । हेत्वन्तरमुपपादयति - प्रसवेदनकाल इति । अस्य = रसस्थ, असंवेदनकालेऽपि = अप्रतीतिसमयेऽपि, भावः = अस्तित्वं न विद्यते = नो वर्तते । तस्मान्नो नित्यः ।। २१ ।।
वृत्ती विवृणोति - न खत्विति । नित्यस्य वस्तुनः = पदार्थस्य, असंवेदनकाले = अप्रतीतिसमये, न असंभव: = संभवः एव अस्तित्वमेवेति भावः । रसस्य तु न तथात्वमतोऽनित्यत्वमिति भावः ।। २१ ।।
रसस्य भविष्यत्त्वं निरस्यति - नाऽपीति । साक्षात् = प्रत्यक्षतः नाटय काव्यास्त्रादकाल एव, आनन्दमय प्रकाशरूपत्वात् = सुखमय प्रकाशस्वरूपत्वात्, भविष्यन् अपि = भाव अपि न । साक्षादनुभूयमानस्य रसस्य कथं भविष्यत्त्वमिति भावः ।
=
सस्य वर्त्तमानत्वं प्रतिषेधति कार्येति । अयं रसः, कार्यज्ञाप्यविलक्षगभावात् कार्यं, ( जन्यम् ) ज्ञ'प्यं ( ज्ञानविषयीभूतं ) वस्तु ताभ्यां विलक्षण मात्रात् ( वैसादृश्यात), नो वर्तमानोऽपि = नो वर्तमानकालविषयोऽपि । अयं भावः । कश्चित् पदार्थों घटादिः कार्यः = जन्यः, ज्ञाप्यश्च कश्चिच्च आकाशादिरूपो ज्ञाप्यः, ज्ञानविषयीनित्यताका खण्डन करते हैं--नो नित्य इति । रस नित्य भी नहीं है क्योंकि विभाव आदि ज्ञानसे पूर्व उसका संवेदन ( ज्ञान ) नहीं होता है । अर्थात् रस यदि नित्य होता तो विभावादि ज्ञानसे पहले भी उसका ज्ञान होता अत: वह नित्य नहीं है । अज्ञान कालमें उसकी सत्ता नहीं रहती है ॥ २१ ॥
नित्य वस्तु आकाश आदिका अज्ञान कालमें असंभव नहीं संभव ही है, रस ज्ञानकाल में ही रहता है, अज्ञान कालमें नहीं; अतः वह नित्य नहीं है । प्रत्यक्षतः आनन्दमय और प्रकाशस्वरूप होनेसे रस भविष्यत् कालमें होनेवाला भी नहीं है । संसार में पदार्थ के दो भेद होते हैं, कार्य और ज्ञाप्य, जन्य पदार्थको कार्य कहते हैं, जैसे घट आदि । ज्ञाप्य अर्थात् ज्ञानका विषयोभूत अर्थात् आकाश आदि, उनको ज्ञाप्य कहते हैं । परन्तु रस न कार्य है न ज्ञाप्य ही है इसलिए वह वर्तमान पदार्थ भी नहीं है । पहले ही
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साहित्यदर्पण
विभावादिपरामर्शविषयत्वात् सचेतसाम् । परानन्दमयत्वेन संवेद्यत्वादपि स्फुट . २३ ।। न निर्विकल्पकं ज्ञान तस्य ग्राहकमिष्यते ।
तथाऽभिलाषसंसर्गयोग्यत्वविरहान सः ।। २४ ।। . भूतः एव न जन्योऽपि, ताभ्यां विलक्षणत्वात् अयं रसो वर्तमानोऽपि न । रसस्य कार्यत्वं ज्ञाप्यत्वं च प्रथममेव प्रत्याख्यातम् । कालप्रसङ्गतोऽत्राऽपि प्रतिपादितम् ।। २२ ।।
रसस्य निर्विकल्पकज्ञानविषयत्वं निराकरोति--विभावादीति । सचे।सां = सहृदयानां, विभावादिपरामर्शविषयत्वात् = विभावादीनो (विभावाऽनुभावसञ्चारिभावानाम् ) परामर्शविषयत्वात् (विवेननविषयत्वात् )। परानन्दमयत्वेन-परमानन्दस्वरूपत्वेन, संवेद्यत्वात् अपि = ज्ञानविषयत्वात् अपि हेतोः, स्फुटव्यक्तम् ॥ २३ ।।
निर्विकल्पकं ज्ञानं = निष्प्रकारकं ज्ञानं, तस्य = रसस्य, ग्राहकं ज्ञापकं, न इष्यते = न अभिलष्यते, निर्विकल्पकज्ञानेन रसो नाऽनुभूयत इति भावः । अयं भावः, ज्ञानं. द्विविधं निर्विकल्पकं सविकल्पकं च । तत्र निष्प्रकारकं ज्ञानं निर्विकल्पकम् । तदुक्तं भाषापरिच्छेदे -"प्रकारताऽऽदिशून्यं हि सम्बन्धाऽनवगाहि तत् ।" इति । प्रकारताविशेष्यतासंसर्गतेतिविविधविषयतारहितं सम्बन्धाऽनवगाहि ज्ञानं निर्विकल्पकामति भावः । रसे विभावादय आनन्दमयत्वं च प्रकारतया भासन्ते, अतः स न निर्विकल्पकज्ञानविषय इति तात्पर्यम् ।
सप्रकारकं ज्ञानं सविकल्पकम् । रसो निर्विकल्पकज्ञानसंवेद्यो न स्यात्तहि सविकल्पकज्ञानसंवेद्यः स्यादित्यत्राह-तथेति। तथा = तेन प्रकारेण अभिलापसंसर्गयोग्यत्व. विरहात् = अभिलाषः ( शब्द: ), तस्य संसर्गः ( सम्बन्धः ) तद्योग्यताविरहात्
इस बातको प्रतिपादित कर चुके हैं । कालके प्रसङ्गसे यहां भी प्रतिपादन किया गया है ॥ २२॥
रस निर्विकल्पक ज्ञानका विषय नहीं है इसको सिद्ध करते हैं-विभावाविति। निष्प्रकारक ( विशेषणताशून्य ) ज्ञानको निर्विकल्पक" कहते हैं, परन्तु सहृदयोंको विभाव आदिका परामर्श ( विशिष्टवैशिष्ट्यावगाही ज्ञान ) विषय होनेसे और परम आनन्दमय होकर ज्ञान हा विषय होनेसे भी निर्विकला ज्ञानसे भी रसकी प्रतीति नहीं होती है ।। २३ ॥
रस सविकल्पक ज्ञानका भी घिषय नहीं है इसे प्रमाणित करते हैं-तथेति । उसी तरह शब्दप्रयोगकी योग्यता न होनेसे घट पट आदि पदार्थों के समान रस सवि. कल्पक ज्ञानसे भी नहीं जाना जा सकता ॥ २४ ।।
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तृतीयः परिच्छेदः
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सविकल्पकसंवेद्यःसविकल्पकज्ञानसंवेद्यानां हि वचनप्रयोगयोग्यता, न तु रसस्य तथा ।
-साक्षात्कारतया न च । परोक्षस्तत्प्रकाशो नापरोक्षः शब्दसंभवात् ।। २५ ।। तत्कथय कीहगस्य तत्त्वमश्रुताऽदृष्टपूर्वनिरूपणप्रकारस्येत्याह
तस्मादलौकिकः सत्यं वेद्यः सहृदयरयम् ।
( शब्दसम्बन्धयोग्यताभावात् ) न सविकल्पकसंवेद्यः = रसो न सविकल्पज्ञानज्ञेयः । व्यङ्गयत्वेन शब्दसम्बन्धयोग्यताया अभावेन रसो न सविकल्पकज्ञानेन बोध्यो भवतीति भावः ॥ २४ ॥
वृत्ती विवणोति-सविकल्पकेति। सविकल्पकज्ञानसंवेद्यानां = सविकल्पकज्ञानज्ञेयाना विषयाणां, वचनप्रयोगयोग्यता-शब्दप्रयोगयोग्यता, न तु रसस्य-शृङ्गारादेः, तथा = शब्दप्रयोगयोग्यता, व्यङ्गयत्वादिति भावः ।
रसस्य परोक्षत्वं निषेधति-साक्षात्कारतयेति । साक्षात्कारतया = प्रत्यक्षात्मकतया, रसः, न च परोक्षः = न च प्रत्यक्षभिन्नः, अतीन्द्रिय इतिभावः, अनुभवविषयत्वेन रसो न परोक्ष इति भावः ।
रसस्य प्रत्यक्षत्वं प्रतिषेधति-तत्प्रकाश इति । शब्दसंभवात् = काव्यनिष्ठ-- शब्दोत्पत्तेः, न अपरोक्ष: = न प्रत्यक्षात्मक इति भावः ।। २५ ॥
__रसतत्त्वं प्रतिपादयितुमुपक्रमते-तत्कथयति । तत् = तस्मात्कारणात्, रसे ज्ञाप्यत्वादिधर्माणां प्रतिषेधात्, अश्रुताऽदृष्टपूर्वनिरूपणप्रकारस्य अनाकणिताऽनवलोकितः पूर्वप्रतिपादनधर्मस्य, अस्य = रसस्य, तत्त्वं = स्वरूपं, कीदक् = कीदृशं, कथय-ब्रूहि, इति = जिज्ञासायाम, आह = प्रतिपादयति । तस्माविति । तस्मात् = कारणावः सहृदयः = दयालुभिः, अयं = रसः, सत्यम्, अलौकिकः = लौकिकेतरः, वेद्यः-ज्ञेयः ।
सविकल्पक ज्ञानसे ज्ञेय पदार्थमें वचनप्रयोगकी योग्यता होती है परन्तु रस वसा ( वचनप्रयोगका योग्य ) नहीं।
साक्षात्कार होनेसे रस परोक्ष भी नहीं है । शब्दसे उत्पन्न होनेसे रस अपरोक्ष (प्रत्यक्ष ) भी नहीं है ।। २५ ॥
रसका निरूपण प्रकार न सुना गया न देखा गया है तब फिर इसका तत्व कसा है ?
इस कारणसे रस अलौकिक है और सहृदय जनोंसे ही जाना जा सकता है।
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साहित्यदर्पणे
तरिक पुनः प्रमाणं तस्य सद्भाव इत्याह
प्रमाणं चणेवात्र स्वाभिन्ने विदुषां मतम् ॥ २६ ॥
चर्वणा आस्वादनम् । तच 'स्वादः काव्यार्थसंभेदादात्मानन्दसमुद्भवः' इत्युक्तप्रकारम् ।
ननु यदि रसो न कार्यस्तत्कथं महर्षिणा 'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः' इति लक्षणं कृतमित्युच्यते
निष्पच्या चर्वणस्यास्य निष्पत्तिरुपचारतः ।
तत्र प्रमाणं प्रतिपादयितुमुपक्रमते-तदिति । तत् = तस्मात्कारणात्, तस्य = रसस्य, सद्भावे = अस्तित्वे, किं, प्रमाणं प्रमाजनकम्, इति = जिज्ञासायाम्, आह = ब्रूते-प्रमाणमिति । स्वाऽभिन्ने = चर्वणाऽभिन्ने, चर्वणस्वरूपे, अत्र = रसे, चर्वणा एव = आस्वादनम् एव, प्रमाणं = प्रमाकरणं, मतम् = अभिमतम् ॥ २६ ॥
वृत्ती विवृणोति-चर्वणेति। चर्वणा = आस्वादनं, तच्च = आस्वादनं च, काव्याऽर्थसंभेदात्--काव्याऽभिधेयज्ञानात्, आत्माऽऽनन्दसमुद्भवः = रसाऽऽनन्दस मुद्भूतः, स्वादः = आस्वादनम्, इत्युक्तप्रकारम् = इत्युक्तलक्षणम् ।
रसस्य कार्यत्वाऽभाव आशङ्कते-नन्विति । कथं = केन प्रकारेण, महर्षिणा = भरतेन । विभावाऽनुभावव्यभिचारिसंयोगात् = विभावादीनां सम्मेलनात्, रसस्य, निष्पत्तिः = उत्पत्तिः । निष्पत्तिपदेन रसस्य जन्यत्वं सूच्यते तत्कथं तस्य कार्यवाभाव इति प्रश्नस्याकूतम् ।
समाधत्ते-निष्पत्यति। चर्वणस्य = काव्याऽर्थभावनेन आस्वादनस्य, निष्पत्या = उत्पत्या, उपचारात् = रसचर्वणयोरभेदारोपात्, अस्य रसस्य, निष्पत्तिः= उत्पत्तिः । अतो रसस्य कार्यत्वं नेति भावः ।
तत्किमिति-रसके अस्तित्वमें क्या प्रमाण है ? सो कहते है
प्रमाणमिति । चर्वणासे अभिन्न इस ( रस में ) प्रमाण चर्वणा ही विद्वानोंसे माना गया है ।। २६ ॥
आस्वादनको "चर्वणा" कहते हैं। वह "काव्यार्थके ज्ञानसे रसके आनन्दसे उत्पन्न स्वादको "आस्वादन ( चर्वणा )" कहते हैं ऐसा लक्षण जानना चाहिए ।
ननु यदीति। रस कार्य नहीं है तो महर्षि भरतने "विभाव अनुभाव और व्यभिचारी भावोंके संयोगसे रसकी उत्पत्ति होती है" ऐसा लक्षण कैसे किया ? ऐसी आशङ्काका उत्तर देते हैं-निष्पत्या इति। रसके आस्वादकी उत्पत्तिसे रसकी उत्पत्ति
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तृतीयः परिच्छेदः
१०९
यद्यपि रसाभिन्नतया चर्वणस्यापि न कार्यत्वं, तथापि तस्य कादाचित्कतया उपचरितेन कार्यत्वेन कार्यत्वमुपचर्यते ।
अवाच्यत्वादिकं तस्य वक्ष्ये व्यञ्जनरूपणे ॥ २७ ॥ तस्य रसस्य । आदिशब्दादलक्ष्यत्वादि ।
ननु यदि मिलिता रत्यादयो रसास्तत्कथमस्य स्वप्रकाशत्वं कथं वाऽखण्डत्वमित्याह
रत्यादिज्ञानतादात्म्यादेव यस्माद्रसो भवेत् । रसचर्वणयोरभिन्नत्वेन कथं चर्वणस्य निष्पत्तिरित्याशङ्कय परिहरतियद्यपीति । यद्यपि रसाभिन्नतया, चर्वणस्य, अपि = आस्वादनस्य अपि, कार्यत्व न = जन्यत्वं न, तथाऽपि-चर्वणस्य कार्यत्वाऽभावेऽपि, तस्य = चर्वणस्य, कादाचित्कतया = आविर्भावतिरोभाववशेन कदाचिद्भावत्वेन, उपचरितेन = लक्षणया प्रतीतेन, कार्यत्वेन= जन्यत्वेन । कार्यत्वं-जन्यत्वम्, उपचर्यते-आरोप्यते ।
रसस्य अवाच्यत्वादिकं प्रति जानीते-प्रवाच्यत्वादिकमिति । तस्यरसस्य, अवाच्यत्वादिकम् =अवचनीयत्वादिकम् , आदिशब्दादलक्ष्यत्वादि, व्यञ्जनरूपणे व्यञ्जना. निरूपणे, पञ्चमपरिच्छेद इति भावः । वक्ष्ये कथयिष्यामि ।। २७ ॥
___ रसस्य स्वप्रकाशत्वमखण्डत्वं च आशङ्कते-नन्विति । ननु मिलिता: = विभावाऽनुभावसञ्चारिभावः संमिलिताः, रत्यादयः = स्थायिभावाः, रसा यदि = शृङ्गारादयश्चेत्, तत् = तहि, अस्य = रसस्य, कथं = केन प्रकारेण, स्वप्रकाशत्वं "सत्त्वोद्रेकादखण्डस्य प्रकाशानन्दचिन्मयः” इत्युक्तप्रकारेण स्वप्रकाशत्वमखण्डस्व च ? इप्याशङ्कय समाधत्ते-रत्यादिज्ञानेति । यस्मात-कारणात्, रत्यादिज्ञानतादात्म्यात् एव-रत्यादिज्ञानस्य तादात्म्यात् ( ऐक्शत् ) ज्ञानरूपतया परिणामादेवेत्यर्थः । रसः उपचारसे कही गई है । यद्यपीति । यद्यपि रससे भिन्न न होनेसे चर्वण ( आस्वादन ) भी कार्य नहीं है, तो भी वह आस्वादन कमी होता है और कभी नहीं भी होता है इसलिए उसके उपचरित कार्यत्वसे उसके कार्यत्वका उपचार किया जाता है । गौणवृत्तिसे रसमें कार्यत्व माना जाता है यह तालर्य है।
अवाच्यत्वादिकमिति। रसका अवाच्यत्व और अलक्ष्यत्व आदि व्यञ्जनाके निरूपण (पञ्चम परिच्छेद ) में कहूंगा ।। २७ ।।
नन्विति । आशङ्का करते हैं-मिले हुए रति ( स्थायिभाव ) और विभाव आदि यदि रस होते हैं तो रसका स्वप्रकाशत्व और अखण्डत्व कैसे होगा?
समाधान कहते हैं-रत्यादीति । रति आदि ज्ञानिके तादात्म्य (ऐक्य )से रस
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११०
- साहित्यदर्पणे
ततोऽस्य स्वप्रकाशत्वमखण्डत्वं च सिध्यति ।। २८ ।।
यदि रत्यादिकं प्रकाशशरीरादतिरिक्तं स्यात्तदेवास्य स्वप्रकाशत्वं न सिध्येत्, न च तथा, तादात्म्याङ्गीकारात् । यदुक्तम्-'यद्यपि रसानन्यतया चर्वणापि न कार्या, तथापि कादाचित्कतया कार्यत्वमुपकल्प्य तदेकात्मन्यनादिवासनापरिणतिरूपे रत्यादिभावेऽपि व्यवहार इति भावः' इति । 'सुखादितादात्म्याङ्गीकारे चास्माकी सिद्धान्तशय्यामधिशय्य दिव्यं वर्षसहस्रं भवेत् । अतः अस्मात् कारणात्, अस्य-रसरय स्वप्रकाशत्वम अखण्डत्वं च सिद्धयति पूर्वाऽभिहितरीत्येति भावः ।। २८ ।।
___वृत्तो विवृणोति । रत्यादिकं-रतिविभावादिभावसमूहः, प्रकाशशरीरात ज्ञानस्वरूपात अतिरिक्तं-भिन्नं, स्यात् यदि भवेच्चेत्, तदा एव = तर्हि एव, अस्य-रसस्य, स्वप्रकाशत्वं-स्वतः प्रकाशमानत्वम्, न सिद्धयत्-नो निष्पद्यत, न च तथा : रत्यादिकं प्रकाशशरीरात् अतिरिक्तं न, तादात्म्याऽङ्गीकारात्-रत्यादितज्ज्ञानयोरक्याऽभ्युपगमात् ।
अत्राऽर्थे अभियुक्ताऽभिमतमाह-यद्यपि रसाऽनन्यतया रसात् अभिन्नत्वेन, चर्वणा = आस्वादनं, न कार्या = न कार्यरूपा, न जन्येति भावः, तथाऽपि, कादाचित्कतया= कदाचिद्भवत्वेन, कार्यत्वं = कार्यरूपत्वम्, उपकल्प्य = आरोप्य, चर्वणा. मिति शेषः, तदेकात्मनि = चर्वणकस्वरूपे, अनादिवासनाया: = चिरन्तनसंस्कारविशेषस्य; परिणतिरूपे = परिणामस्वरूपे, रत्यादिभावेऽपि = रत्यादिस्थायिभावेऽपि, व्यवहार: लक्षणया विभावादिकार्यत्वेन चर्वणाया व्यवहार इति भावः । सुखादिता. हात्म्याङ्गीकारेः-रसस्य सुखचैतन्यचमत्काराऽभेदस्वीकारे, आस्माकिनीम् अस्मदीयाम, अलङ्कारशास्त्रसम्बन्धिनीमिति भावः । सिद्धान्त शय्यां = रस आनन्दमयः चिन्मयश्चमकारमयश्च इत्याकारकः, सिद्धान्तः = राद्धान्त एव, शय्या = विश्रामस्थानं, तत् अधिशय्य = आश्रित्य; दिव्यं = दिविभवं, वर्षसहस्रं = हायनसहस्रं, "मासेन स्यादहोता है अतः रसका स्वप्रकाशत्व और अखण्डत्व सिद्ध होता है ।। २८ ॥
यदीति । रति आदि प्रकाश ( ज्ञान ) स्वरूपसे अतिरिक्त होगा तो उसका स्वप्रकाशत्व अखण्डत्व सिद्ध नहीं होगा । परन्तु ऐसा नहीं, रत्यादि ज्ञानको तादात्म्य स्वीकार किया गया है । जो कि कहा गया है-"यद्यपि रससे भिन्न न होनेसे उसकी चर्वणा ( आस्वादन ) भी कार्य नहीं है, तथापि वह चर्वणा ( आस्वादन ) कभी होती है कभी नहीं होती है इसलिए उसके कार्यत्वकी कल्पना करके उस चर्वणासे एकात्मा ( एकरूप.) और अनादि वासनाके परिणामस्वरूप रत्यादि भावमें भी कार्यका औपचारिक व्यवहार किया गया है । यह भाव है। सुखादीति । रसके सुख, चैतन्य और चमत्कारके साथ तादात्म्य ( अभेद ) के अङ्गीकारमें हमारी सिद्धान्त शय्यामें सोकर देवताओंके एक हजार वर्षों तक आप सुखनिद्राको प्राप्त करें।
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तृतीयः परिच्छेदः
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प्रमोदनिद्रामुपेयाः' इति च । 'अभिन्नोऽपि स प्रमात्रा वासनोपनीतरत्यादितादात्म्येन गोचरीकृतः' इति च। ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वमनङ्गीकुर्वतामुपरि वेदान्तिभिरेव पातनीयो दण्डः । तादाम्यादेवास्याखण्डत्वम् ।
- रत्यादयो हि प्रथममेकेशः प्रतीयमानाः सर्वेऽप्येकीभूताः स्फुरन्त एव रसतामापद्यन्ते । तदुक्तम्--
'विभावा अनुभावाश्च सात्त्विका व्यभिचारिणः । होरात्रः पंत्रो वर्षेण देवतः ।" इत्युक्तसमयपरिच्छिन्नं, प्रमोदनिद्राम्, हर्षनिद्राम्, उपेयाः= प्राप्नुहि । अभिन्नोऽपि = भेदरहितोऽपि, स्वस्मादिति शेषः = सः = सः, प्रमात्रा = सामाजिकेन, वासनोपनीतरत्यादितादात्म्येन = वासनया ( संस्कारविशेषेण ), उपनीतः ( काव्शऽनुभवसमये उपस्थापितः ), यो रत्यादिः, तस्य, तादात्म्येन ( अभेदेन) गोचरीकृतः = विषयीकृतः ।
ननु ज्ञानस्याऽनुव्यवसायेनैव ग्रहो भवति, कथं ज्ञानरूपस्य रसस्य त्वत्रकाशत्वमिति वदतो नैयायिकानाक्षिपति-ज्ञानस्येति । ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वम्, अनङ्गीकुर्वताम् = अस्वीकुर्वताम्, उपरि, वेदान्तिभिरेव = अद्वैतवादिभिरेव, दण्ड: पातनीयः । नैयायिकानां मते अनुव्यवसायेनैव ज्ञानं भवति, तथाहि अयं घट इति प्रत्यक्षानन्तरं, घटमहं जानामीत्यनुव्यबसायेनैव घटज्ञानं भवति अतः कथं ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वमिति । वेदान्तिनस्तन्मतं नौ मन्यन्ते । ज्ञानस्य अनुव्यवसायेन ज्ञानं भवति चेत् अनुव्यवसायस्याऽपि तृतीयेन ज्ञानेन, एवं तस्याऽप्यपरेण वेति अप्रामाणिकाऽनन्तरूपा कल्पना अनवस्थाऽपरपर्याया आपतेदतः ज्ञानस्य स्वतः प्रकाशत्वमङ्गीकर्तव्यमिति भावः ।
तादात्म्यात्, ज्ञानस्य अभेदात् एव, अस्य = रसस्य, अखण्डत्वम् । रत्यादयः= भावाः प्रथम प्राक्, एकैकशः = एककत्वेन, प्रतीयमानाः=ज्ञायमानाः, सर्वेऽपि = सकला अति, एकीभूताः = एकरूपतामापन्नाः, स्फुरन्त एव =चिद्भावं प्राप्नुवन्त एव, रसतां = रसभावम्, आपद्यन्ते = प्राप्नुवन्ति । तदुक्तम् । तत्र शिष्टसम्मतिं प्रदर्शयति-- विभावा इति । विभावा अनुभावाः सात्त्विक व्यभिचारिणश्च भावाः, प्रथम = प्राक;
वह रस आत्मस्वरूपसे अभिन्न होकर भी सामाजिकसे वासना (संस्कारविशेष). से उपस्थापित रत्यादिके तादात्म्य ( अभेद) से गृहीत होता है।
ज्ञानके स्वप्रकाशत्वको स्वीकार न करनेवाले नैयायिकोंपर वेदान्तियोंको ही दण्ड देना चाहिए । ज्ञानके साथ तादात्म्य होनेसे ही रसकी अखण्डता है।
रति आदि भाव पहले एक एक करके प्रतीत होकर सब एकरूप होकर चिद्भावको प्राप्त करते हुए ही रसरूपको प्राप्त करते हैं ।
कहा भी है-विभावा इति । विभाव, अनुभाव, सात्त्विकभाव और व्यभिचारी
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साहित्यदर्पणे
प्रतीयमानाः प्रथमं खण्डशो यान्त्यखण्डताम् ।।' इति । 'परमार्थतस्त्वखण्ड एवायं वेदान्तप्रसिद्धब्रह्मतत्त्वद्वदितव्यः' इति च । अथ के ते विभावानुभावव्यभिचारिण इत्यपेक्षायां विभावमाह-- __रत्याधुबोधका लाके विभावाः काव्यनाटघयोः ।
ये हि लाक रामादिगतरतिहासादीनामुबोधकारणानि सीतादयस्त एव काव्ये नाट्य च निवेशिताः सन्तः 'विभाव्यन्ते आस्वादाकुरप्रादुर्भावयोग्याः क्रियन्त सामाजिकरत्यादिभावा एभिः' इति विभावा उच्यन्ते । खण्डअः = भिन्नरूपेण, प्रतीयमाना: = ज्ञायमानाः सन्तः, अखण्डता = व्यञ्जनया एकरूपता, यान्ति-प्राप्नुवन्ति । अत्र सात्त्विकभावानामनुभावान्तर्गतत्वेऽपि गोबलीवर्दन्यायेन पार्थक्येन ग्रहणम् ।
अय = रस, परमाऽर्थतस्तु = वस्तुतस्तु, वेदान्तप्रसिद्धब्रह्मतत्त्ववत् = वेदान्तप्रसिद्धं ( ब्रह्मविद्याविख्यातम् ) यद् ब्रह्मतत्त्वं तद्वत् (तत्तुल्यम्) अखण्ड एव, वेदितव्यः ज्ञातव्यः यया व्यवहारदशायां धटपटादिभेदेन पदार्थानां भिन्नरूपेण प्रतीतावपि ब्रह्म. रूपेण ऐक्यप्रतीतिस्तथैव रसस्य विभावादिरूपेण भिन्नत्वेऽपि व्यञ्जनया एकरूपेण प्रतीतिरिति भावः।
अथ विभावादीनां जिज्ञासायां प्रथम विभावं प्रतिपादयति रत्यायुद्बोधका इति । लोक = संसारे, रत्याद्य द्बोधकाः = रत्यादेः, ( भापस्य ) उद्बोधकाः ( उद्बोधकारका: ) काव्यनाट ययोः (श्रव्यदृश्यकाब्ययोः ) विभावाः ।
विवृणोति-ये होति । ये हि, लोके = जगति, रामादिगतरतिहासादीनां = रामादिगताना ( रामादिनायकस्थितानाम् ) रतिहासादीनाम् ( तत्तत्स्थायिभावानाम् ) उद्बोधकारणानि = प्रादुर्भावहेतवः, सीतादयः, ते एव, काव्ये = श्रव्यकाव्ये, नाट्य च = दृश्यकाव्ये च, निवेशिताः= स्थापिताः सन्तः, विभाव्यन्ते = विभावनाविषयीक्रियन्ते, विशेषेण आस्वादाऽङ्करप्रादुर्भावयोग्याः क्रियन्ते, सामाजिकरत्यादिभावाः = प्राश्निकरत्यादिभावा एभिरिति विभावा इत्युच्यन्ते । भाव ये पहले खण्डशः प्रतीत होते हैं पीछे अखण्ड स्वरूपको प्राप्त करते हैं। वास्तवमें यह वेदन्ति प्रसिद्ध ब्रह्मत्वके समान अखण्ड ही है यह जानना चाहिए ।
____ अब वे विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव क्या है ? ऐसी अपेक्षामें विभावको कहते हैं-रत्यादीति ।
लोकमें जो रति आदिके उद्बोधक हैं, वे काव्य (श्रव्य ) और नाटय ( दृश्यकाब्य ) में "विभाव" कह जाते हैं ।
ये होति । लोकमें जो राम आदिमें प्राप्त रति और हास आदिके उद्बोधके कारण सीता आदि हैं, वे ही सब श्रव्य काव्य और दृश्यकाब्यमें निवेशित होते हुए
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तृतीया परिच्छेदः
तदुक्तं भर्तृहरिणा
'शब्दोपहितरूपांस्तान् बुद्धेविषयतां गतान् ।
प्रत्यक्षानिव कंसादीन् साधनत्वेन मन्यते ॥ इति । तद्भदावाह
आलम्बनोद्दीपनाख्यौ तस्य भेदावुभौ स्मृतौ । स्पष्टम् । तत्र
आलम्बनं नायकादिस्तमालम्ब्य रसोद्गमात् ॥ २९ ।।
आदिशब्दान्नायिकाप्रतिनायिकादयः। अत्र यस्य रसस्य यो विभावः स तत्स्वरूपवर्णने वक्ष्यते। तत्र नायक:
अत्र भर्तृहरिसंवादं प्रकाशयति-शब्दोपहितरूपानिति । शब्दोपहितरूपान्= शब्दः ( काव्यनाटयस्थितशब्दः ) उपहितानि ( स्थापितानि ) रूपाणि ( स्वरूपाणि ) येषा तान्, बुद्धः = ज्ञानस्य, विषयतां = विषयभावं, गतान् = प्राप्तान, तान-प्रसिवान, कंसादीन् = कंस प्रभृतीन्, प्रत्यक्षान इव = चाक्षषज्ञानगोचरान् इव, साधनस्वेन = वीरसोपकरणत्वेन, मन्यते = जानाति, सामाजिक इतिशेषः । इति ।
विभावभेदावाह-मालम्बनोद्दीपनाख्याविति । तस्य = विभावस्य, मालम्बनोद्दीपनाख्यौ = आलम्बनोद्दीपननामको, उमो = दो, भेदै = प्रकारो, स्मृती%3D स्मृतिविषयीकृतो।
___ आलम्बनं प्रतिपादयति-पालम्बनमिति। नायकादिः = नायकप्रभूतिः; आदिशब्दात् नायिकाप्रतिनायिकादयः । आलम्ब्यते अनेनेति आलम्बनं करणे ल्युट् प्रत्ययः, त = नायकादिम् आलम्ब्य = अवलम्ब्य रसोदयात् = रसप्रादुर्भावात् ॥ २९ ॥ विभावित होत हैं = आस्वादके प्रादुर्भावके योग्य किये जाते हैं सामाजिकोंके रतिभाव जिनसे ऐसी व्युत्पत्ति द्वारा "विभाव" हे जाते हैं । भर्तृहरिने कहा है-काम्य और .नाट्यसे स्थापित स्वरूपवाले और ज्ञान के विषयको प्राप्त कंस आदिको प्रत्यक्ष समान सहृदय पुरुष वीररसका उपकरण जानता है ।
विवके भेदोंको कहते है--आलम्बन और उद्दीपन विभावके दो भेद माने गये हैं । आलम्बन, नायक आदि होता है उसीका आलम्बन कर रसकी उत्पत्ति होती है ॥२९॥
आदिशब्दसे नायिका और प्रतिनायिका आदिको लेना चाहिए । यहां जिस रसका जो विभाव है वह उसके स्वरूपवर्णनमें कहा जायगा । नायकका लक्षण देते हैं
सा०
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साहित्यदर्पणे त्यागी कृती कुलीनः सुश्रीको रूपयौवनोत्साही । दक्षोऽनुरक्तलोकस्तेजोवैदग्भ्यशीलवान्नेता ॥ ३१ ॥
दक्षः क्षिप्रकारी। शीलं सवृत्तम् । एवमादिगुणसम्पन्नो नेता नायको भवति। - सरदानाह
धीरोदात्तो धीरोद्धतस्तथा धीरललितश्च । धीरप्रशान्त इत्ययमुक्तः प्रथमश्चतुभेदः ॥ ३१ ॥
तत्र धीरोदात्त:
अविकत्थनः क्षमावानतिगम्भीरो महासत्वः ।
तत्र = आलम्बनोद्दीपनयोर्मध्ये नायकं लक्षयति त्यागी इति । त्यागी = दानशीलः, कृती = कुशलः,= कुलोनः = उच्चकुलप्रसूतः, सुश्रीकः = सम्पत्तिसम्पन्न, रूपयौवनोत्साही = सौन्दर्यतारुण्योत्साहसम्पन्नः, दक्षः= क्षिप्रकारी, अनुरक्तलोकः =' अनुरक्ताः ( अनुरागयुक्ताः ) लोकाः ( जनाः ) यस्मिन् सः । तेजोवेदग्ध्यशीलवान् = तेजः ( अन्यकृतानिन्दाद्यसहिष्णुता), वैदग्ध्यं ( नैपुण्यं ) शीलं ( सवृत्तम् ), तानि सन्ति यस्मिन् सः । एतादृग्विशेषणसम्पन्नौ जनः, नेता=नायको भवति ॥ ३० ॥
नायकभेदानाह धीरोदात्त इति । धीरः ( धैर्ययुक्तः ) सन् उदात्त; श्रेष्ठः ) धीरोखतः = धीरः सन् उत्तः ( अविनीतः), तथा धीरललितः = धीरः सन् ललितः ( कोमलस्वभावः )। धीरप्रशान्तः = धीरश्चाऽसौ प्रशान्तः (शान्तियुक्तः ) । इति चतुर्भेदः = भेदचतुष्टययुक्तो नायकः ॥ ३१ ॥ .
धीरोदात्तं लक्षयति-अविकत्थन इति । अविकत्थनः = आत्मश्लाघारहितः, क्षमावान् = क्षमाशीलः । अतिगम्भीरः = अतिगाम्भीर्ययुक्तः, महासत्त्वः = हर्षशोकादौ अनभिभूतः ( अविकृतः) । स्थेयान् = स्थिरतरः, निगूढमानः = निगूढः (विनयेन त्यागी इति । दानी, कुशल, कुलीन, सम्पत्तिवाला, सौन्दर्य, जवानी और उत्साहसे युक्त, शीघ्रं कर्म करनेवाला, लोकको अनुरक्त करनेवाला, प्रताप, निपुणता और सच्चरित्र; इनसे युक्त पुरुष नायक होता है ॥ ३० ॥
नायकके भेदोंको कहते हैं-धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीरप्रशान्त इस प्रकारसे पहले नायकके चार भेद होते हैं ।। ३१ ।।
धीरोदात्तका लक्षण करते हैं-अपनी प्रशंसा न करनेवाला, सहनशील, अत्यन्त गम्भीर, महासत्त्व अर्थात् हर्ष शोक आदिमें भी जिसका स्वभाव स्थित रहता है, स्थिर
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तृतीयः परिच्छेदः
स्थेयाभिगूढमानो धीरादाचो दृढव्रतः कथितः ॥ ३२ ॥
अविकत्थनोऽनात्मश्लाघाकरः । महासरस्वो
हर्षशोकाद्यनभिभूतस्व
भावः । निगूढमानो विनयच्छगर्वः । दृढत्रतोऽङ्गीकृतनिर्वाहकः । यथा—
रामयुधिष्ठिरादिः । अथ भीरोद्धत:
मायापरः
आत्मश्लाघानिरतो धीरे धीरोद्धतः
प्रचण्ड थपलोऽहङ्कारदर्पभूयिष्ठः ।
भीमसेनादिः ।
अथ धीरललित:
कथितः ॥ ३३ ॥
निश्चिन्तो मृदुरनिशं कलापरां धीरललितः स्यात् ।
कला नृत्यादिका । यथा - रत्नावल्यादी वत्सराजादिः ।
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आच्छादित ) मान: ( गर्वः ) यस्य सः । दृढव्रतः = अङ्गीकृतस्य ( स्वीकृतस्य विषयस्य) निर्वाहक: (निर्वहणशील: ) । यथा - - रामयुधिष्ठिरादि ॥ ३२ ॥
धीरोद्धतं लक्षयति- मायापरः = छलपर:, प्रचण्डः = अत्यन्त कोपनः, चपल: = चञ्चल:, अहङ्कारदर्पभूयिष्ठः = अभिमानशौयं वीर्याद्यतिशययुक्तः । आत्मश्लाघानिरतः = स्वप्रशंसनतत्परः, नायकः, धीरैः = विद्वद्भिः, धीरोद्धतः कथितः = अभिहितः ॥ ३३ ॥ यथा - भीमसेनादिः ।
धीरललितं लक्षयति – निश्चिन्त इति । निश्चिन्तः = राज्यचिन्तारहितः मन्त्रिषु निक्षिप्तभार इति भावः । मृदुः = कोमलस्वभावः अनिशं = निरन्तरं, कलापरः = नृत्यगीताद्यासक्तः, तादृशो नायक: धीरललितः स्यात् । यथा रत्नावल्यादी वत्सराजादिः । वत्सराज उदयनः ।
तर, नम्रतासे गर्वको छिपानेवाला, दृढव्रत अर्थात् अङ्गीकृत विषयका निर्वाह करने वाले ऐसे नायकको " धीरोदात्त" कहते हैं। जैसे- राम और युधिष्ठिर आदि ।
धीरोद्धत - छलमें तत्पर, अत्यन्त क्रोधी, चन्चल, अहङ्कार और दर्पसे युक्त • अपनी प्रशंसा करने में तत्पर ऐसे नायकको विद्वान् " धीरोद्धत" कहते हैं ॥ ३३ ॥ जैसे भीमसेन आदि ।
धीरललित - निश्चिन्त, कोमल स्वभाववाला, निरन्तर नृत्य आदि कला में तत्पर ऐसा नायक "धीरललित" कहा जाता है । जैसे रत्नावली आदिमें उत्सराज ( उदयन ) आदि ।
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साहित्यदर्पणे
अथ धीरप्रशान्त:
सामान्यगुणभूयान् द्विजादिको धीरशान्तः स्यात् ॥ ३४ ॥ यथा-मालतीमाधवादी माधवादिः । एषां च शकारादिरूपत्वे भेदानाह
एमिदक्षिणधृष्टानुकूलशठरूपिभिस्तु षोडशधा ।
तत्र तेषां धीरोदात्तादीनां प्रत्येकं दक्षिणधृष्टानुकलशठत्वेन षोडशप्रकारो नायकः।
. एषु त्वनेकमहिलासमरागो दक्षिणः कथितः ।। ३५ ।।
द्वयोस्त्रिचतुःप्रभृतिषु नायिकासु तुल्यानुरागो दक्षिणनायकः । यथा-स्नाता तिष्ठति कुन्तलेश्वरसुता, बारोऽगराजस्वसु.
धीरप्रशान्तं लक्षयति-सामान्यगणेरिति । सामान्य गुणः = त्यागित्वप्रभृतिभिर्नायकसाधारणगुणः, भूयान् = प्रचुरः, द्विजादिकः = ब्राह्मणादिः, एतादृशो नायको धीरप्रशान्तः स्यात् । यथा मालतीमाधवादी माधवादिः ॥ ३४ ॥
एषा च शृङ्गारादिरूपत्वे पुनश्चतुरो भेदानाह-एभिरिति । एभिः = धीरोदातादिभिः । नोडशधा = षोडशप्रकारो नायकः । दक्षिणनायकं लक्षयति--एग्विति । एषु = दक्षिणादिषु मध्ये । अनेकमहिलासमरागः = अनेकमहिलासु (द्वित्रिचतुःप्रभृतिषु नायिकासु) समराग ( तुल्यानुरागः) नायकः, दक्षिणः कथितः ॥ ३५॥
दक्षिणमुदाहरति-नातेति । अन्तःपुरस्थितासु सकलनायिकासु कस्यचिद्राज्ञो दाक्षिण्यं प्रतिपादयति कश्चिदन्तःपुरचरः। कुन्तलेश्वरसुता = कुन्तलेश्वरस्य (कुन्तल. देशाधिपतेः) मुता ( राजकुमारी), स्नाता - ऋतुस्नाता, तिष्ठति = भवत्सङ्गमं प्रतीक्षत इति भावः । अङ्गराजस्वसुः = अङ्गराजस्य (अङ्गदेशपतेः ) स्वसुः (भगिन्या.)
पीरप्रशान्त-स्यागी कृती इत्यादि सामान्य गुणों से युक्त ब्राह्मण आदि "धीरशान्त" नायक होता है । जैसे मालतीमाधव आदिमें माधव आदि ॥ ३४ ॥
इन नायकोके शृङ्गार आदि रूपमें अन्य भेदोंको कहते हैं दक्षिण, धृष्ट अनुकूल और शठ इन भेदोंसे धीरोदात्त आदि नायकोंके भेद सोलह होते हैं ।
उन धीरोदात आदि नायकोंके प्रत्येकमें दक्षिण, धृष्ट, अनुकूल और शठ इस प्रकार "नायक" सोलह भेद होते हैं, यह भाव है।
दक्षिण-इनमें अनेक नायिकाओंमें तुल्यरूपसे अनुराग करनेवाले नायकको दक्षिण" कहते हैं ॥ ३५॥
दो, तीन, चार इत्यादि नायिकाओंमें तुल्य प्रेम रखनेवाला "दक्षिण" मायक होता है ! जैसे कि-राजाके अन्तःपुरमें अधिकृत कोई पुरुष कहता है । कुन्तल देशके राजाको पुत्रो ऋतुस्नान करके स्थित हैं, महाराजके पास रहनेकी पारी अङ्ग देशके राजागी
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तृतीया परिच्छेद
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द्यते रात्रिरियं जिता कमलया, देवी प्रसाद्याद्य च । इत्यन्तःपुरसुन्दरीः प्रति मया विज्ञाय विज्ञापिते
देवेनाप्रतिपत्तिमूढमनसा द्वित्राः स्थितं नाडिकाः ।। कृतागा अपि निःशस्तर्जितोऽपि न लज्जितः । दृष्टदोषोऽपि मिथ्यावाकथितो धृष्टनायकः ॥ ३६ : यथा ममशोणं वीक्ष्य मुखं विचुम्बितुमहं यातः समीपं सतः ।
वारः भवत्समागमे पर्याय: । कमलया = कमलाऽभिधानया कयाचिद्वाजपल्या इत:= अमक्रीडाभि: इयं = वर्तमाना, रात्रि: रजनी, समागमाऽर्थम् । जिता स्वायत्तीकृता । अद्य = अस्या रात्री, देवी = महिषी, प्रसाद्या = प्रसादनीया, केनाऽपि कारणेन कुपिता सतीति शेषः । इति -- इथं, पूर्वोकपकारेण, अन्तःपुरसुन्दरीः प्रति = शुद्धान्तरमणीः प्रति, मया विज्ञाय-विशेषेण ज्ञात्वा, विज्ञापिते आवेदिते सति, अप्रतिपत्तिमूढमनसाअप्रतिपत्या ( अनिश्चयेन ) पढमनसा ( आकुलचित्तेन), देवेन = राज्ञा, द्वित्राः = दे वा तिस्रो वा, नाडिका: = घटी:, "काल:ऽऽवनोरत्यन्तसंयोगे" इति द्वितीया । स्थितंअवस्थानं कृतम् । अत्र उतसृष्वपि नायिकासु नायकस्य तुल्याऽनुरागदर्शनादाक्षिण्यमवसेयम् ।
__ धृष्टनायकं लक्षयति-कृतागा प्रपि । कृतागा अपि-विहिताऽपराधोऽपि, निःशङ्कः = ङ्कारहितः । तजितः अपि = भत्सितः अपि, न लज्जितः न सबीडः, दृष्टदोषोऽपि = अवलोकितदूषणोऽपि, मिथ्यावाक् = असत्यवचनः, एतादृशो जनः धृष्टनायकः, कथितः ।। ३६ ॥
अष्टनायकमुदाहरति-स्वमित्रसमीपे कस्यचिद् अष्टनायकस्य उक्तिरियम् । अहं, शोणं = रक्तवर्ण मुखम् = आननं, प्रियाया इति शेषः । विचुम्बितु = चुम्बनं कतुं, समीप = निकटं, यातः = प्राप्तः । अत्र नायकस्य नायिकान्तरसमागमज्ञानान्नायिकाया मुखस्य शोणत्वं बोध्यम् । नाकस्य कृताऽपराधस्याऽपि चुम्बनायं गमनानिःशकृत्वं प्रथम
भगिनीकी है, कमला देवीने आजकी रात जुए जीत ली है तथा रुष्ट महारानीको आज मनाना है; इसप्रकार समझ बूझकर अन्तःपुरकी सुन्दरियोंका वृत्तान्त मेरे निवेदन करनेपर अनिश्चयसे मोहयुक्त बुद्धिवाले महाराज दो तीन घड़ी तक वैसे ही बैठे रहे
पृष्टनायक-अपराध करनेपर भी निःशक, भत्सना करनेपर भी निलंज्ज अपने दोषके देखें जानेपर भी झूठ बोलनेवाले नायकको "धृष्ट" कहते हैं । उदाहरण-घृष्ट नायक किसीसे कह रहा है-कोपशील नायिकाका लाल मुंह देखकर मैं चुम्बन करनेके
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साहित्यदर्पणे
पादेन प्रहतं तया, सपदि तं धत्वा सहासे मयि । किवितत्र विधातुमक्षमतया बाष्पं सजन्त्याः सखे! - यातश्चेतसि कौतुकं वितनुते कोपोऽपि वामभ्रवः ।।
अनुकूल एकनिरतःएकस्यामेव नायिकायामासकोऽनुकूलनायकः । यथा
अस्माकं सखि ! वाससी न रुचिरे, अवेयकं नोज्ज्वलं,
नो वका गतिरुखतं न हसितं, नेवास्ति कश्चिन्मदः। मुदाहरणं ज्ञातव्यम् । ततस्तण = प्रियया, पादेन = चरणन करणभूतेन, प्रहृतं प्रहारः कृतः । तं = पादं, धृत्वा = गृहीत्वा, मयि = नायके; सहासे = हासयुक्ते सति, तत्र = अवसरे, किञ्चित् = किमपि, विधातु = प्रतिविधानं कर्तुम्, अक्षमतया = असमर्थतया कारणेन, वाष्पम् = मधु, स्यबनया: = मुञ्चन्त्याः, वामभ्रवः = सुन्दर्याः, कोपोऽपि = कोषोऽपि, बेतसि =चित्ते, ध्यातः स्मृतः सन्, कौतुकं = कौतूहलं, वितनुते = करोति, एवं च पादप्रहारेऽपि अलज्जितत्वं धृष्टनायकस्य द्वितीयमुनाहरणं बोद्धव्यम् । दृष्टदोषेऽपि मिथ्यावाक्त्वस्योदाहरणं मृग्यम् । ३६ ।।
अनुकूलनायकं लक्षति-अनुकल इति । एकनिरतः = एकस्याम् ( नायिका. याम् एव ) निरतः ( आसक्तः ) अनुकूलनायकः । "एकस्याम्" अत्र “सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः" इति पुंबद्भावः।
अनुकूलनायकमुदाहरति-अस्माकमिति । काचिन्नायिका सखी प्रति नायकस्या आनुकूल्यं वर्णयति । हे सखि = हे वयस्ये !, अस्माकं = मम, "अस्मदो द्वयो" इति एकत्ये विवक्षिते अस्मदो बहुवचनम् । वाससी-बसने, उत्तरीयाऽधरीयरूपे इति भावः । कषिरें = मनोहरे, न, ग्रंवेयकं = कण्ठभूषणम्, उज्ज्वलम् = अतिविशदं, न = नो वर्तते । गतिः = गमन, नो वक्रा = न शृङ्गारव्यजिका कुटिला, हसितं = हास्यं, न उखतं =न औद्धत्ययुक्तं. कान्तचिन्तावकमित्यर्थः । कवि = कोऽपि, मदः यौवनादि. लिए उसके समीप गया, उसने लात मारी। झटपट उस ( लात ) को पकड़कर मेरे हंसनेपर कुछ भी करनेके लिए असमर्ष होनेसे आंसू गिरानेवाली कुटिल भौंहोंवाली उस नायिकाका कोप भी चिन्तन करनेपर कुतूहल प्रकट करता है।
अनुकल नायक-एक ही नायिकामें अनुरक्त रखनेवालेको "अनुकूल" कहते हैं । उदाहरण-नायिका सखीसे कहती है-हे सखि ! मेरे वस्त्र भी सुन्दर नहीं हैं, न तो कण्ठभूषण उज्ज्वल है। चाल भी वक्र नहीं है, हास्य उढत नहीं है और न कुछ मद
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तृतीयः परिच्छेदः
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किन्त्वन्ये ऽपि जना वदन्ति सुभगोऽप्यस्याः प्रियो नान्यतो दृष्टिं निक्षिपतीति विश्वनियता मन्यामहे दु:स्थितम् ।।
-शठोऽयमेकत्र बद्धभावो यः । दर्शितवहिरनुरागो विप्रियमन्यत्र गूढमाचरति ॥ ३७॥
यः पुनरेकस्यामेव नायिकायां बद्धभावो द्वयोरपि नायिकयोबहिदशितानुरागोऽन्यस्यां नायिकायां गूढं विप्रियमाचरति स शठः।
यथा'शठान्यस्याः काशीमणिरणितमाकर्ण्य सहसा
यदाश्लिष्यन्नेव प्रशिथिलभुजग्रन्थिरभवः । जनित: अहङ्कारः, नवाऽस्ति = नव वर्तते। किन्तु = परन्तु, अन्ये = अपरे, जनाः = युवतिजना इति भावः, वदन्ति = कथयन्ति । सुभगः = सुन्दरः, अस्याः= ममेति भावः, प्रियः = वल्ल ::', निरिति भावः । अन्यतः = अन्यस्यां, ललनायां, मदतिरिक्तायामित्यर्थः । दृष्टि = नेत्र, न निक्षिपति = नो विन्यस्पति, इति, इयता = एतावता, भाषणेन, विश्वं = विश्ववति ललनावृन्द, दुःखितं = दुःखेन स्थितं, मन्यामहे = जानीमहे, मदपेक्षयाऽल्पसौभाग्यादिति भावः । अत्र नायकस्यकस्यामेव नायिकायां निस्तत्वा. दनुकूलनायकत्वम् ।
शठनायक लक्षयति-शठोऽयमिति । यः = नायकः, एकत्र = एकस्यां नायिकायां, बदभावः = कृताऽनुरागः, दशितबहिरनुरागः = दर्शितः ( प्रदर्शितः ) बहिर• नुरामः = ( बाह्यप्रीतिः ) येन सः, उभयत्रेति शेषः । अन्यत्र = अन्यस्यां, गूढ-गुप्तं, विप्रियम् = अप्रियम् । आचरति = विदधाति ॥ ३७॥
___ शठनायकोदाहरणं यथा-शठेति । हे शठ = हे धूर्त !, आश्लिष्यन् एव %3D आलिङ्गनेव, मत्सखीमिति भावः। सहसा = अकित एव, काञ्चीरणितं = रशनाझङ्कारम्, आकर्ण्य = श्रुत्वा, अन्यस्या नायिकाया इति शेषः । प्रशिपिलभुजयन्यिः - प्रशिथिलः ( प्रकर्षेण श्लथः ) भुजग्रन्थिः (बाहुवेष्टनम् ) यस्य सः, अभवः बभूः । ही है । किन्तु और लोग कहते हैं कि "इसका प्रिय दूसरी स्त्रीमें दृष्टिपात नहीं करता है" ऐसे कथनसे मैं विश्वकी अन्य स्त्रीको दुःख में स्थित समझती हूँ। ___शठका लक्षण करते हैं-जो एक ही नायिकामें अनुराग कर दोनों नायिकाओंमें बाहरी अनुराग दिखलाकर अन्य नायिकामें गुप्तरूपसे अप्रिय आवरण करता है उसे "शठ" नायक कहते हैं । ३७ ॥
___ उदाहरण-नायिकाकी सखी शठ नायकसे कहती है-हे शठ ! दूसरी नायिका. की काञ्चीके रत्नोंका शब्द अकस्मात् सुनकर अपनी नायिकाको मालिङ्गन करनेके समयमें ही तुमने बाहुबन्धनको शिथिल कर डाला। इस बातको मैं कहाँ कहूँ?
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साहित्यदर्पणे
तदेतत्कवाचक्षे घृतमधुमयत्व बहुवचोविषेणाघूर्णन्ती किमपि न सखी मे गणयति ॥' च जैविध्यादुत्तममध्याधमत्वेन । नायक मेदाचत्वारिंशत्तथाऽष्टौ च ॥ ३८ ॥
एषां
उक्ता
एषामु षोडशभेदानाम् ।
अथ प्रसङ्गादेतेषां सहायानाह -
दूरानुवर्तिनि स्यात्तस्य प्रासङ्गिकेतिवृत्ते तु । किश्विद्गुणहीनः सहाय एवास्य पीठमदांख्यः ॥ ३९ ॥
तत् = तादृशम्, एतत् = इदं त्वदीयं चरितमिति भावः । क्व = कुत्र, आक्षे= कथयामि यतः घृतमधुमयस्वद्बहुवचोविषेण = घृतमधुमयम् (समभागमिश्रघृत क्षौद्रस्वरूपम् ) यत् स्वद्बहुवचः = ( भवत्प्रचुरवचनं), तदेव विषं ( गरलम् ), तेन, समभागसंश्लिष्टं घृतमधु विषतुल्यं भवतीति भावः । आघूर्णन्ती विमुह्यन्ती सती, मेमन, सखी = वयस्या, किमपि = मदुक्तं स्वहस्यमिति भावः, न गणयति = नो विचारयति घृतमधुमयत्यद्वचोविषेण मत्तत्वाद्विचारयितुं न शक्नोतीति भावः । अत्र एकत्र नायिकायां बद्धभावत्वेन अन्यस्याम् आलिङ्गनमात्रेण बहिरनुरागप्रदर्शनपूर्वकं विप्रियाचरणान्नायकस्य ठत्वं द्योतितं भवतीति बोध्यम् ।
=
उत्तमादिभेर्दर्नायकभेदान्स लयति - एषामिति । एषाम् = एतेषां सर्वेषा: सकलानां नायकानां षोडशभेदानाम्, पुनः उत्तम मध्याऽधमत्वेन = उत्तमश्वेन, मध्य. मत्वेन अधमत्वेन च त्रैविध्यात् = त्रिविधस्थात्, नायकभेदाश्वत्वारिंशत्तथाऽष्टौ च = " अष्टाचत्वारिंशत्संख्यकाः, उक्ताः = अभिहिताः । १६ x ३=४८ ।। ३८ ।।
अथ नायकसहाय प्रसङ्गे पीठमदं लक्षयति- दूरानुर्वातनीति । तस्य = नायकस्य, दूरानुवर्तिनि = बहुव्यापिनि, प्रासङ्गिकेतिवृत्ते = प्रसङ्गागतचरित्रे, किश्चित्तद्गुणहीनः = स्तोकनायकगुणरहितः, पीठमर्दाख्यः = पीठमर्दनामकः, सहाय एव = शृङ्गाररसेतरः सहायक एवं ।। ३९ ।।
घी और शहदसे सने हुए तुम्हारे बहुत से खुशामदवाले वचनरूप विषसे मोहित होकर मेरी सखी कुछ भी विचार नहीं कर सकती है ।
सोलह प्रकारके पूर्वोक्त नायकोंके फिर उत्तम, मध्यम और अधम इस प्रकार तीन भेदोंसे कुल अड़तालीस भेद होते हैं ।। ३८ ॥
प्रसङ्गसे नायकोंके सहायकोंका निरूपण करते हैं--दूर तक व्याप्त होने वाले tress प्रसङ्गगत चरित्रमें नायकके पूर्वोक्त सामान्य कुछ गुणोंसे न्यून सहायकको
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तृतीयः परिच्छेदः
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तस्य नायकस्य बहुव्यापिनि प्रसङ्गसगते इतिवृत्तेऽनन्तरोक्त नायकसामान्यगुणैः किञ्चिदूनः पीठमईनामा सहायो भवति । यथा - रामचन्द्रादीनां सुग्रीवादयः ।
अथ शृङ्गारसहायाः --
शृङ्गारेऽस्य सहावा विटचेट विदूषकाद्याः स्युः | भक्ता नर्मसु निपुणाः कुपितवधूमान भञ्जनाः शुद्धाः ||४०|| आदिशब्दान्मालाकार रज कताम्बूलिकगान्धिकादयः ।
तत्र विट:
कलैकदेशज्ञः ।
संभोगहीन संपद्विस्तु धूर्त्तः वेशीपचारकुशलो वाग्मी मधुरोऽथ बहुमतां गोष्ठ्याम् ॥ ४१ ॥
तस्येति-- यथा रामचन्द्रादीनां सुग्रीवादयः ।
=
नायकस्य शृङ्गारसहायान परिगणयति शृङ्गार इति । अस्य = नायकस्य, भक्ता: = अनुरक्ताः, नर्मसु परिहासादिषु निपुणाः प्रवीणाः । कुपित धूमानभञ्जना:= = कुपितवधूनां ( मानिनीनाम् ) मानवञ्जना: ( मानभङ्गे समर्था: ), शुद्धा:= सच्चरित्राः, विटटविदूषकाद्या: विटप्रभृतयः, एतेषां लक्षणानि सम्प्रत्येन अमिघास्यन्ते, आद्यशब्दान्मालाकारताम्बुलिकगान्धिकादयः । मालाकारः = मालिकः, ताम्बुलिकः = ताम्बूलविक्रेता, गायक: = गद्रव्य क्रेता ।। ४० ।।
= संभोगेन
धूर्त = तकृत्
विटं लक्षयति- सम्भोगही नसम्पदिति । संभोगहीन सम्पत् ( भोगाऽतिशयेन ) हीना ( विनाशिना ) सम्पत् ( सम्पत्ति: ) येन सः । कलंक देशज्ञः = कलानाम् (नृत्यगीतादीनाम् ) एकदेश: ( एकावयवः ) तज्ज्ञ ( तदभिज्ञ: ) । वेशोपचारकुशल: = वेशे ( वेश्यालये ) ये उपचारा: ( व्यवहारा ); तेषु कुशल: ( प्रवीणः ) वाग्मी = वाचोयुक्तिपटुः, प्रशस्ता वाक् अस्ति यस्य सः "वाचो ग्मिनिः " इति वाचो ग्मिनिप्रत्ययः । मधुर = मनोहरः, गोष्ठ्यां = सभायां, बहुमतः = अधिकसमाः । पूर्वोक्त गुणसंपन्नो विटः । अस्योदाहरणं मृच्छकटिकादो द्रष्टव्यम् ॥ ४१ ॥ "पीठमर्द" कहते हैं ! जैसे रामचन्द्र आदि नायकोंसे सुग्रीव आदि ।। ३९ ।।
नायकके शृङ्गारके सहायक - नायकके भक्त, परिहास आदिमें निपुण, क्रुद्ध बधूके मानको हटानेवाले, सच्चरित्रविट, चेट और विदूषक आदि शृङ्गारमें सहायक होते है - ४०० आदि शब्द से माली, धोबी, तमोली और गन्धी आदिका ग्रहण होता है । विटका लक्षण करते हैं- भोगसे सम्पत्तिको नष्ट करनेवाला, धूर्त, नृत्य गीत आदि कलाओंके एक भाग को जाननेवाला, वेश्यालयके व्यवहार में निपुण, बोलनेमें पटु, सुन्दर और सभा में सम्मानित पुरुषको "विट" कहते हैं ।। ४१ ।।
=
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साहित्यदर्पणे
चेटः प्रसिद्ध एव।
कुसुमयसन्ताद्यभिधः कर्मत्रपुर्वेषभाषायेः ।
हास्यकरः कलहरतिर्विदूषकः स्यात् स्वकमज्ञः।। ४२ ।। म्वकर्म = हास्यादि। अर्थचिन्तने सहायमाहमन्त्री स्यादर्थानां चिन्तायाम्अर्थास्तन्त्रावापादयः। यत्वत्र सहायकथनप्रस्तावे-'मन्त्री स्वं चोभयं वापि सखा तस्यार्थचेट:= मृत्यः ।
विदूषक लक्षयति-कुसुमेति । कुसुमवसन्ताद्यभिधः कुसुमवसन्तादिः अभिधा ( नाम ) यस्य सः । अत्र कुसुमनामधेयो विदूषको रसालकादिः, वसन्तनामधेयः = वसन्तकः, माधवादिश्च । कर्मवपुर्वेशभाषा:ऽय: = कर्मणा ( कार्येण ) वपुषा (शरीरेण) वेषेण ( नेपथ्येन ) भाषाद्य : ( भाषणप्रभृतिभिः), हास्य गर: ( हास्योत्पादकः ) कलहरतिः = कलहे (विवादे ) रतिः (प्रीतिः ) यस्य सः विवादप्रिय इति भावः । स्वकर्मशः = स्व कर्म (हास्यादि) तज्ज्ञः ( तर्दा भज्ञः ), कुभचित् "भोजनादि" इति पाठः, तनाः= बोदरिक इति भाव: । एतादग्गुणसम्पन्नो विदूषको भवति ।। ४२॥
अर्थचिन्तने सहायमाह-मन्त्रीति । अर्यानां = तन्त्रावापादीनां, चिन्तायां = विचारे, मन्त्री=धीसचिवः । तत्र स्वराष्टे क्रियमाणं कर्मतन्त्र परराष्ट्र क्रियमाण कर्म बावापः । नादिपदेव शनिग्रहादयो बोदव्याः ।।
दशरूपककारधनञ्जयमतं खण्डयितुमुपक्रमते-यत्त्वत्रेति । तस्य = राशः, अचिन्तने = कार्यविचारे, मन्त्री = एकाकी धीसचिवः, स्वं च = स्वयं च, उभयं च3
चेट-भूत्य यह प्रसिद्ध ही है ।
विदूषकका लक्षण करते हैं-किसी फूल और वसन्त आदिके नामवाला, कार्य, शरीर, वेष, और भाषा आदिसे हंसानेवाला, दूसरोंके कलह करानेमें प्रीति करनेवाला और अपना कर्म हास्य आदि उसका जानकार ऐसे पुरुषको "विदूषक" कहते हैं ।।४२।।
नायक राजाके अर्थ चिन्तनमें सहायकको कहते हैं । अपने राष्ट्र में किया जाना पाला कर्म "तन्त्र" और परराष्ट्रमें किया जानेवाला कर्म "अवाप" कहा जाता है, इनकी चिन्तामें सहायकको “मन्त्री" कहते हैं।
___ दशरूपककार धनञ्जयके मतका खण्डन करते हैं । जो कि यहाँ सहायकोंके कथनके अवसरमें "नायकके अर्थचिन्तनमें किसी ( दशरूपककार धनञ्जय ) ने लक्षण कियामन्त्री और स्वयम् राजा ये दोनों राजाके अर्थ चिन्तनमें सहायक होते है" । वह राजाके
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तृतीयः परिच्छेदः
१२३
-
चिन्तने' इति केनचिल्लक्षणं कृतम् , तदपि राज्ञोऽर्थचिन्तनोपायलक्षणप्रकरणे लक्षयितव्यम् न तु सहायकथनप्रकरणे।
'नायकस्यार्थचिन्तने मन्त्री सहाय' इत्युक्तेऽपि नायकस्यार्थत एष सिद्धत्वात्।
यदप्युक्तम्-'मन्त्रिणां ललिताः, शेषा मन्त्रिष्वायत्तसिद्धयः' इति, तदपि स्वलक्षणकथनेनैव लक्षितस्य धीरललितस्य मन्त्रिमात्रायत्तार्थचिन्तनोपपत्तेर्गतार्थम् । न चाचिन्तने तस्य मन्त्री सहायः, किं तु स्वयमेव संपादकः; तस्यार्थचिन्तनाद्यभावात्। अथान्तः पुरसहाया:
-तद्वदवरोधे। द्वयं च, इति केनचित् = जनञ्जयेन, लक्षणं कृतम् । तदपि अर्थचिन्तनोपायलक्षणप्रकरणे = अर्थचिन्तनम्य ( कार्यविचारस्य ) ये उपायाः ( साधनानि ), तेषां लक्षणानां प्रकरणे (प्रस्तावे ) लक्षितव्यम (लक्षणं कर्तव्यम्) न तु सहायकवनप्रकरणे, नायकस्य: रायः । अयंत एव सिद्धत्वात् । आत्मानं प्रति आत्मनः सहायस्वकथनमनावश्यामिति भावः । दूषणान्तरं प्रतिपादयति-यदप्युक्तमिति । ललितः = धीरललिताख्यो नायकः, मन्त्रिणा = धीसचिवेन आयत्तसिद्धिरिति शेषः । शेषाः = अवशिष्टा धीरोदात्तादया नायकाः मन्त्रिणः, स्वेनोमयेन वा, आयत्तसिद्धयः अधीनसिद्धयः । स्वलक्षणकथनेन सित्ता मृदुर्राश कलापरो धीरललितः स्यात्" इत्याकारकलक्षणाऽभिधानेन एव मन्त्रिमात्रायत्तायनिन्तनोपपत्तेः केवलमन्यधीनाऽचिन्तनोपपत्तेः, गताऽर्थचरितार्थम् । अस्य = धीरललितस्य ।
अन्तःपुरसहायानुल्लिखति-तद्वदवरोधे इति। अवरोधे = अन्त.पुरे ।
अर्थचिन्तनके उपायलक्षणके प्रकरणमें कहना उचित था न कि सहायक कथनके प्रकरणमें । 'नायकके अर्थचिन्तनमें मन्त्री सहायक होता है" ऐसा कहने पर भी नायककी अर्थसे ही सिद्धि है । इसलिए "स्वं" ऐसा लिखना अनावम्यक है । यह भी जो कहा है-धीरललित नायक मन्त्रीसे सिद्धिवाला है, शेष अवशिष्ट धीरोदात्त, धीरोढत और धीप्रशान्त ये तीन नायक नन्त्रियोंके साथ स्वयम् कार्यका विचार करते हैं। "वह भी लक्षण करनेसे ही जान गये धीरललितका मन्त्रीमें ही अधीन अर्थ चिन्तन है यह बात गताऽर्थ है : अर्थचिन्तन में धीरललितका मन्त्री सहाय नहीं है, किंतु स्वयम् ही सम्पादक है, उसका अर्थ (तन्त्र और अवाप आदि ) का अभाव है, ( मन्त्री ही सब कुछ करता ) है।
राजाके भन्तःपुर-सहायोंको कहते हैं-उसी तरह अन्तःपुरमें बौने, नपुंसक
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१२४
साहित्यदर्पणे
वामनशण्ढकिरातम्लेच्छाभीराः शकारकुब्जाद्याः ॥ ४३ ॥ मदमूर्खताभिमानी दुष्कुलतैश्वर्यसंयुक्तः । सोऽयमनूढाम्राता राज्ञः श्यालः शकार इत्युक्तः ॥ ४४ ।।
आद्यशब्दान्मूकादयः । तत्र शण्ढवामनकिरातकुब्जादयो यथा रत्नावस्याम्नष्टं वर्षवरमनुष्यगणनाभावादपास्य त्रपा
मन्तः कचुकिकञ्चकस्य विशति त्रासादयं वामनः।
वामनादयः वामनः = ( खर्वः, ) भण्ड:= ( नपुंसकः,) (किरात: हीनजातिविशेषः ) म्लेच्छः= (अनायविशेषः) । आभीराः=( गोपाला: ) शकार:=(अनातरमेव वक्ष्यमाणः) कुन्जः = ( गडुल: ) । आद्यपदेन मूकादयो गृह्यन्ते ॥ ४३ ।।
शकार लक्षति-मदमूर्खताऽभिमानीति । मदः = (मद्यादिविकारः), मूर्खता= (बालिशता) अभिमानः-अहङ्कारः तद्वान् = तद्य क्तः । दुष्कुलतंश्वर्यसंपन्नः = दुष्कुलता ( दुष्टवंशोत्पन्नता) ऐश्वर्यम् ( प्रभुता ) ताभ्यां संयुक्तः । राज्ञः = भूपतेः, अनूढाभ्राता=अनूढायाः ( अपरिणीताया: जायायाः ) भ्राता, राजः श्याल: "शकारः" इति नामधेयेन, उक्तः ॥ ४४ ॥
तत्र शण्डादीनुल्लिखति-नष्टमिति। रत्नावलीनाटकायां वानराद्राजोऽन्तःपुरस्य मीतेवर्णनमिदम् । वर्षवरः = शण्ढः, कर्तृभिः, मनुष्यगणनाभावात - भतृष्येषु स्त्रीपुंसात्मकेषु (मानवेषु) गणनाऽभावाद (संख्यानामावाद), अपोला . अय% त्यक्त्वा, नष्टम् अन्तहितम् । अयम् एषः, वामनः-खो जनः प्रासाद् = गयाखेतोः, कञ्चककञ्चक्रस्य-कञ्चुकिनः ( अन्तःपुरचरवृद्धब्राह्मणस्य ) कञ्चुकल्य ( सर्वाङ्ग
किरात म्लेच्छ ( अनार्य विशेष ), आभार ( अहीर ), शकार और कुम्ज आदि राजाके अन्तःपुरमें सहायक होते हैं ।। ४३ ॥
शकारका लक्षण-मदवाला, मूर्ख, अभिमानी, दुष्टवंशमें उत्पन्न, ऐश्वर्ययुक्त, राजाकी अविवाहित स्त्री ( रखेल ) का भाई "शकार" कहा जाता है ॥४४॥
"शकारकुब्जाद्याः" यहाँपर "प्राध" शब्दसे मूक आदि लिये जाते हैं । उनमें नपुंसक, वामन, किरात कुब्ज आदिका उदाहरण रत्नावलीमें-दानरके कारण राजाके अन्तःपुरमें भयका वर्णन है। पुरुषोंमें गिनती न होनेसे लज्जा छोड़कर नपुंसक लापता हो गये । यह बिना पुरुष त्रासके कारण कञ्चुकीके कञ्चुक (जामे ) के भीतर
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तृतीयः परिच्छदः
५२५ः
पर्यन्ताश्रयिभिर्निजस्य सदृशं नाम्नः किरातः कृतं
कुब्जा नीचतयेव यान्ति शनकैरात्मे . णाशङ्किनः ।। शकारो मृच्छकटिकादिपु प्रसिद्धः। अन्येऽपि यथादर्शनं ज्ञातव्याः। अथ दण्डसहायाःदण्डे सुहृत्कुमाराटविकाः सामन्तसैनिकाद्याश्च । दुष्टनिग्रहो दण्डः । स्पष्टम् ।
ऋत्विकपुरोधसः स्युब्रह्मविदस्तापसास्तथा धर्मे ॥ ४५ ॥ व्यापकवस्त्रस्य ), अन्तः = अभ्यन्तरं, विशति = प्रविशति । पर्यन्ताश्रायभि. पर्यन्तम् आश्रयन्ते तच्छीला' पर्यन्ताश्रयिणः, तैः पर्यन्तदेशाश्रयशील:, किरात: हीनजातिविशेषः, नाम्नः = स्वसंज्ञायाः, सदृशं = तुल्यम्, कृतं विहितम् । किरम् ( पर्यन्तदेशम् ) अतन्ति ( सातत्येन गच्छन्ति ) इति ब्युत्पत्त्यनुसारेण किरतः पर्यन्तदेशा प्राप्ता इति भावः । आत्मेक्षणाशङ्कितः = आत्मनः ( स्वस्य) यत् ईक्षणम् ( अवलोकनम् ) तत् शङ्कन्ते तच्छीलाः, कुब्जाः = गडुलाः शनकैः शनैरेव "अव्ययसर्वनाम्नामकच प्राक्टेः" इति सूत्रेण स्वाऽर्थे अकचप्रत्ययः । मन्दं मन्दमित्यर्थः । नीचतया एव-खर्वत्वेन एव, यान्ति= गच्छन्ति । अन्ये = म्लेच्छा मीरादयः ।
दण्डसहायानिदिशति-दण्डे इति । दण्डे-दुष्टनिग्रहे, सुहरकुमाराऽऽटविकाः= सुहृदः ( मित्राणि ) कुमारा: (पुत्राः) आटविकाः (वनचारिणः ), सामन्तसैनिकाद्याश्च = सामन्ताः ( मण्डलेश्वराः) सनकाद्याश्च (सनप्रभृतयश्च) विज्ञेया इति शेषः ।
धर्मसहायानिर्दिशति-ऋत्विगिति। ऋत्विकपुरोधसः=ऋत्विजः (याजकाः) पुरोधसः ( पुरोहिता: ), ब्रह्मविदः = वेदविद आत्मविदो वा, तथा तापसाः तपस्विनः, धर्म = विषये, नायकस्य सहाया इति शेषः । घुस गया। किरातोंने अपने नाम के अनुसार "किरं = पर्यन्तदेशम् अतन्ति = सातत्येन गच्छन्ति" इस व्युत्पत्तिके अनुसार पर्यन्त देश ( कोनों ) में आश्रय लिया। कुबड़े अपने देखे जानेकी शङ्कासे बहुत ही झुककर जा रहे हैं।
"शकार" मृच्छकटिक आदिमें प्रसिद्ध है । अन्य म्लेच्छ, आभीर आदि ग्रन्थान्तरमें दर्शनके अनुसार जानने चाहिए।
दण्डके सहायक-दण्डमें मित्र, राजपुत्र, आटविक (वनमें घूमनेवाला), सामन्त ( मण्डलेश्वर ) और सैनिक आदि राजाके सहायक होते हैं। दुप्टको सजा देनेको "दण्ड" कहते हैं ।
धर्मके सहायक-ऋत्विक् ( यज्ञ करानेवाले ) पुरोहित, ब्रह्मवेता और तपस्यो राजाके धर्मके सहायक होते हैं ॥ ४५ ॥
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१२६
साहित्यदर्पणे
ब्रह्मविदो वेदविदा, आत्मविदो वा। अत्र च
उत्तमाः पीठमर्दाद्या:आयशब्दान्मन्त्रिपुरोहितादयः।
. -मध्यौ विटविषको । तथा शकारचेटाया अधमाः परिकीर्तिताः ।। ४६ ॥ पाचशब्दात्ताम्बूलिकगान्धिकादयः । अथ प्रसङ्गावदूतानां विभागगर्भलक्षणमाह
निसृष्टार्थों मितार्थश्च तथा संदेशहारकः ।
कार्यप्रेष्यात्रिधा दूतो दूत्यश्चापि तथाविधाः ॥ ४७ ॥ तत्र कार्यप्रेष्यो दूत इति लक्षणम्।
सहायान्विमजत-उत्तमा इति । पीठमर्दाद्याः = पीठमर्दप्रभृतयः । पीठमर्दलक्षणं प्राक्प्रतिपादितम् । आद्यशब्दान्मन्त्रिपुरोहितादयः । मध्याविति । विटविदूषको विट: "संभोगहीनसम्पदि"त्यादिलक्षणप्रतिपादितः, विदूषक: "कुसुमवसन्ताभिद्य" इत्यादिलक्षणप्रतिपादितः । एतो मध्यो = मध्यमो ज्ञेयो। तथा प्राकारचेटाद्या:-शकारः "मदमूर्खताऽभिमानी"त्यादिलक्षणलक्षितः, चेटः = मृत्यः, आद्यशब्दात् ताम्बूलिकगान्धिकादयः अधमा: परिकीर्तिताः ।। ४६ ॥
दूतानां विभागगर्भ लक्षणं प्रतिपादयति-निसष्टार्थ इति । कार्यप्रेष्यत्वं दूतत्वमिति दूतलक्षणम् । ते च दूताः-निसृष्टार्थों मिताऽर्थः सन्देशहारकश्चेति त्रिधा= त्रिप्रकाराः । दूत्यश्चाऽपि तथाविधाः = तादृश्यः, निसृष्टाऽर्थाः मिताऽर्थाः, सन्देश हारिकाश्नेति त्रिप्रकायाः ।। ४७ ॥
"ब्रह्मविदः" इस पदका अर्थ वेद अथवा आत्माको जाननेवाले ऐसा है । यहांपर पीठमद, मन्त्री और पुरोहित आदि उत्तम सहायक माने जाते हैं। विट और विदूषक मध्यम सहायक हैं तथा शकार और चेट तमोली और गन्धी आदि अधम सहायक माने जाते हैं ।। ४६ ॥
____ अब प्रसङ्गसे विभागपूर्वक दूतोंका लक्षण करते हैं कार्यप्रेष्य (कार्यमें भेजेजानेवाले ) को "दूत' कहते हैं । उसके तीन भेद होते हैं, निसष्टाऽर्थ, मिताऽर्थ और -सन्देशहारक । दूतियां भी वैसी ही होती हैं ।। ४७ ।।
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तृतीयः परिच्छेदः
१२०
तत्र
उभयोर्भावमुन्नीय स्वयं वदति चोत्तरम् ।
सुश्लिष्टं कुरुते कार्य निसृष्टार्थस्तु स स्मृतः ॥ ४८ ।। उभयोरिति येन प्रेषितो यदन्तिके प्रेषितश्च ।
मितार्थभाषी कार्यस्य सिद्धिकारी मितार्थकः ।
यावद्राषितसंदेशहारः संदेशहारकः ॥ ४९ ।। अथ सात्त्विकनायकगुणा:
शोभा विलासो माधुर्य गाम्भीय धैयतेजसी ।
ललितौदार्यमित्यष्टौ सत्त्वजाः पौरुषा गुणाः ॥ ५० ।। निसृष्टाऽयं लक्षयति-उभयोरिति । उमयोः = येन प्रेषितः (प्रहितः ), यदन्तिके ( यत्समीपे ) प्रेषितश्च तयोः, भावम् = अभिप्रायम्, उन्नाय = ऊहित्वा; स्वयम् = आत्मना, उत्तरं = प्रतिवाक्यं, वदति = कथयति । कार्य च = कृत्यं च; सुश्लिष्टं सुशोभनं, कुरुते विदधाति, स निसृष्टाऽर्थः स्मृतः । अयमुत्तमो दूतः ॥४८॥
___ मिताऽर्थ लक्षयति-मिताऽर्थभाषीति । मितः (परिमितः) यः अर्थः, (अभिः धेयः), तं भाषते तच्छील: अल्पभाषीत्यर्थः । कार्यस्य, सिद्धिकारी-सिद्धि (सफलताम्) करोतीति तच्छीलः, कार्यसाफल्यप्रयोजक इत्यर्थः । एतादृशो दूतो मिताऽर्थको विज्ञेयः ।
सन्देशहारकं लक्षयति यावदिति । यावद्भाषितसन्देशहारकः प्रेरकेण यावद ( यत्परिमाणं यथा तथा ) भाषितः ( अभिहितः ) यः सन्देशः ( वाचिकं ) तं हरति = प्रापयति इति यावद्भाषितसन्देशहारकः । स "सन्देशहारकः ।" अयं दूतेष्वधमः परिकीर्तितः ।। ४९ ॥
सात्त्विकनायकगुणानुद्दिशति-शोभेति। शोमात औदार्यपर्यन्तमष्टौ सत्त्वजाः= सत्त्वगुणोत्पन्नाः, पौरुषाः = पुरुष ( नायक ) निष्ठा गुणा बोध्याः । यद्यपि अनुभाव विशेषाः स्तम्भादयोऽपि सत्त्वजाः, परं ते स्त्रीपुंसोभयनिष्ठा गुणाः, एते तु पुरुषनिष्ठा एवेति विवेकः ।। ५० ॥
निसष्टाऽर्थ-जिससे और जिसके समीप भेजा गया है, दोनोंका अभिप्राय समझ कर जो स्वयम् उत्तर कहता है और कार्यको सम्पन्न करता है वह निसृष्टाऽर्थ" है ।।४८॥
मिताऽर्थ-परिमित भाषण कर कार्यकी सिद्धि करनेवालेको "मिताऽर्थ" कहते हैं।
सन्देशहारक--भेजनेवालेके कहे वाक्य के अनुसार सन्देश देनेवालेको "सन्देशहारक" कहते हैं ।। ४९ ।।
नायकोंका सात्त्विकगण -शोभा, विलास, माधुर्य, गाम्भीर्य; धर्य, तेज; ललित और औदार्य ये आठ नायकोंके सात्त्विक गुण हैं ॥ ५० ॥
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१२८
साहित्यदर्पणे
तत्र-
शूरता दक्षता सत्यं महोत्साहोऽनुरागिता | नीचे घृणाधिके स्पर्धा यतः शांमेति तां विदुः ।। ५१ ।।
तन्त्रानुरागिता यथा
अहमेव मतो महीपतेरिति सर्वः प्रकृतिष्वचिन्तयत् । उदधेरिव निम्नगाशतेष्यभवन्नास्य विमानना कचित् ॥ एवमन्यदाप | अथ विलासः-
धीरा दृष्टिर्गतिचित्रा विलासे सस्मितं वचः ।
शाभां लक्षयति शूरतेति । शूरता = शौर्य, दक्षता = क्षिप्रकारता, सत्यं = तथ्यं महोत्साहः = महान् ( गुरुतर: ) य उत्साहः ( अध्यवसाय: ) । अनुरः गिता = स्नेहभाव:, नीचे = अधमे, घृणा = जुगुप्सा, अधिके = स्वाऽपेक्षया अधिकतरे, स्पर्धा = संघषधीः, यतः = यस्याः, तां " शोभा" इति विदुः = जानन्ति ।। ५१ ।।
तत्र अनुरागितामुदाहरति- प्रहमेवेति रघुवंशस्थमजवर्णन मिदम् । प्रकृतिषु = प्रजासु मध्ये, सर्वः = सकलो जनः, अहम् एव = अन्यो नेत भावः, महीपतेः = राज्ञः, मतः= अभिमतः, अनरागभाजनत्वेनेति शेषः । इति इत्थम् अचिन्तयत् = चिन्तितवान ।
=
अत्र दृष्टान्तं प्रदर्शयति - उदधेरिति । उदधेः समुद्रस्य नायकस्य, निम्नगाशतेषु इव = नदीशतेषु इव, अस्य = अजस्य, क्वचित् = कुत्राऽपि जने, विमानना = तिरस्कारः, न अभवत् = न आसीत्, उपमालङ्कारः । अत्र अजस्य अनुरागिताऽऽत्मशोभागुणः प्रदर्शितः । एवम् = इत्थम्, अन्त्राऽपि = शूरतादिरूपगुणेऽपि उदाहरणं मृग्यम् । विलासगुणं लक्षयति-- घोरेति । विलासे = तन्नामके गुणे, नायकस्य दृष्टि: = नयनं, धीरा = चाल्यरहिता गतिः = गमनक्रिया, चित्रा = वैचित्र्यपूर्णा, तथा वचश्च = वचनं च, सस्मितं = मन्दहास्ययुक्तं च भवतीति शेषः ।
शोभा -- शौर्य, दक्षता ( शाघ्र काम करना ), सत्य, महान् उत्साह, अनुराग करना, नीचमें घृणा और अधिक में स्पर्धा इनके हेतुको “शोभा" कहते है ।। ५१ ।। उनमें अनुरागिता जैसे-- राजा अजका वर्णन कहते हैं। प्रजाओं में सब कोई, राजाका में ही अनुरागपात्र हूँ ऐसा समझता था। जैसे समुद्रका सैकड़ो नदियोंमे किसीपर तिरस्कार नही होता था उसी तरह अजका किसीपर भी तिरस्कार नहीं था। इसी तरह शूरता आदि गुणोंका उदाहरण जानना चाहिए ।
विलास -- विलास में दृष्टि गम्भीर हाती है, गति विचित्र होती है और मन्दहास्यपूर्वक वचन होता है ।
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यथा
तृतीयः परिच्छेदः
दृष्टिस्तृणीकृतजगत्त्रयसत्त्वसारा
धीरोद्धता नमयतीव गतिर्धरित्रीम् ।
कोमारकेऽपि गिरिवद् गुरुतां दधानो - बीरो रसः किमयमेत्युत दर्प एव ॥
संक्षोमेष्वप्यनुद्वेगो माधुर्य परिकीर्तितम् ।। ५२ ।।
ऊह्यमुदाहरणम् ।
मीशोकको हर्षाद्य गम्भीर्य निर्विकारता ।
·
१२९
विलासोदाहरणं यथा - दृष्टिरिति । उत्तररामचरिते कुशदर्शनानन्तरं रामस्योक्तिरियम् । दृष्टिः = नयनं, तृणीकृतजगत्त्रयसंस्त्वसारा = तृणीकृतो ( तुच्छीकृती ) जगत्त्रयस्य ( लोकत्रितयस्य ) सरवसारी ( उत्साहबले ) यया सा धीरोद्धता = धीरा ( युक्ता) उद्धता ( वर्पसहिता ) च एतादृशी गतिः = गमनव्यापारः, धरित्रीं = भूमि, नमयति इव = नतां करोति इव । कौमारके अपि = कुमारभावे अपि गिरिवत् = पर्वतवत्, गुरुतां = गोरखं, भारवस्त्वमित्यर्थः । दधानः = धारयन, अयं = सन्निकृष्टस्थः वीरो रसः, उत = अथवा दर्पः = अहङ्कारः, पुति = आगच्छति । अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः । वसन्ततिलका वृतम् । धीरदृष्ट्या चित्रगत्या च कुशस्य विलासवस्वं प्रतीयते ।
i
=
माधुर्य लक्षयति- संक्षोभेष्विति । संक्षोभेषु अपि उपकारनेषु सत्स्यपि, अनुद्वेगः = उद्वेगाऽभावः, अवा श्वत्यमित्यर्थः । माधुर्य, परिकीर्तितम । ऊ = वितर्क्यम् ।। ५२ ।।
गाम्भीर्य लक्षयति- भोशोकको धहर्षाचैरिति । भीशोकक्रोधहुर्षार्थ : = भयमन्युक्रोपप्रमोदादिभिः, निर्विकारता = विकारराहित्यं, माम्भीर्यम् ।
उदाहरण- उत्तररामचरितमें कुशको देखकर श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं ! इसकी दृष्टि त्रैलोक्यके उत्साह और बलको तृणके समान समझनेवाली है, बम्भीर और उद्धत गति मानों धरतीको झुका रही है । बाल्यावस्था में भी पर्वतके समान गुरुस्वको धारण करनेवाला यह बालक वीररस अथवा दर्प हीं जा रहा है क्या ?
माधुर्य-विकारकारणके उपस्थित होनेपर भी उद्वेग न होनेको "माधुर्य" कहते हैं ।। ५२ ।।
इसके उदाहरणका ऊछ करना चाहिए ।
गाम्भीर्य-भय, शोक, क्रोध और हर्ष आदिसे भी विकार न होनेको "गाम्भीर्य " कहते हैं । ९ सा०
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१३०
साहित्यदर्पणे
यथा
आहूतस्याभिषेकाय विसष्टस्य वनाय च। न मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः ।। व्यवसायादचलनं धैर्य विघ्ने महत्यपि ।। ५३ ।।
अताप्सरोगीतिरपि क्षणेऽस्मिन् हरः प्रसंख्यानपरो बभूव । आत्मेश्वराणां न हि जातु विघ्नाः समाधिभेदप्रभवो भवन्ति ।।
अधिक्षेपापमानादेः प्रयुक्तस्य परेण यत् । - गाम्भीर्योदाहरणं यथा-पाहतस्येति । अभिषेकाय = यौवराज्याभिषेकाय, आहूतस्य आकारितस्य, परं वनाय-वनं गन्तु, विसृष्टस्य-परित्यक्तस्य तस्य-रामस्य, मया स्वल्पोऽपि स्तोकोऽपि, आकारविभ्रमः = आकृतिचाञ्चल्यं, न लक्षितः= नाऽवलोकितः । अत्र शोकहर्षयोः प्रसङ्गेऽपि विकारामांवादामचन्द्रस्य गाम्भीर्य लक्ष्यते ।
· धैर्य लक्षयति-व्यवसायाविति । महति, विघ्ने = अन्तराये, उपस्थिते अपि; ध्यवसायात् = उद्योगाद, अवलनं = स्खलनाऽभावः, धैर्यम् ।
धैर्यमुदाहरति-भूताप्सरोगातिरिति । कुमारसंभवस्य तृतीयसर्गस्थ पद्यमिदम् । अस्मिनु क्षणे = वसन्जांविर्भावाऽवसरे, हरः = महादेवः, श्रुताऽप्सरोगीतिरपिपता ( आकणिता ) अप्सरोगीतिः (अप्सरोगानम् ) येन सः, तथापि प्रसख्यानपर:= समाधितत्परः, बभूव । हरो मन्मयोद्दीपकमप्सरोगानं श्रुत्वाऽपि समाधिप्रवणो बभूवेति भावः । उक्तमर्थमर्थान्तरन्यासेनालकारेण द्रात-हियस्मात्कारणात, आत्मेभराणा = जितेन्द्रियाणां, विघ्नाः - अन्तरायाः, जातु = कदाचिदपि, समाधिभेदप्रभवः = समाधिमङ्गसमर्थाः, न भवन्ति । उपजातिवृत्तम् । अत्र अप्सरोगानश्रवणरूपे महाविघ्नेऽपि हरस्य समाधेरविरामरूपं धैर्य प्रदर्शितम् ।। ५३ ॥
तेजो लक्षयति-प्रधिक्षपाऽपमानावेरिति । परेण = अन्येन, प्रयुक्तस्य =
उदाहरण-यौवराज्याभिषेकके लिए बुलानेपर और वनवासके लिए रुखसत करनेपर भी मैंने (दशरथ ) मैं और रामचन्द्र में पोड़ा भी फर्क नहीं देखा। .
र्य-बड़े विघ्नके आ पड़नेपर भी उद्योगसे विचलित न होनेको "य" कहते हैं ॥ १३ ॥
बाहरण-कुमारसंभवमें महादेवजीकी तपस्याका वर्णन है । अप्सरामोंका गाना सुनकर भी महादेवजी उस समय (तपोवनमें वसन्तऋतुका आविर्भाव होनेपर) समाधिमें तत्पर हुए, क्योंकि इन्द्रियोंको जीतनेवाले पुरुषोंकी समाधिको भन करनेके लिए.विघ्न कभी भी समर्थ नहीं होते हैं।
तेव-दूसरेसे किये गये आक्षेप और अपमानको प्राण जानेके प्रसङ्गमें भी सहन
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तृतीयः परिच्छेदः
समुदाहृतम् ॥ ५४ ॥
प्राणात्ययेऽप्यसनं तत्तेजः वाग्वेशयोर्मधुरता, तद्वच्छङ्गारचेष्टितं ललितम् । दानं सप्रियभाषणमादाय्य शत्रुमित्रयोः समता ।। ५५ ।।
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एषामुदाहरणान्युद्मानि ।
नायकसामान्यगुणैर्भवति
अथ नायिका त्रिभेदा स्वाऽन्या साधारणा खीति । यथासंभव का ॥ ५६ ॥ नायिका पुनर्नायक सामान्गुणैस्त्यागादिभिर्यथासम्भवैर्युक्ता भवति । सा च स्वस्त्री अन्यत्री साधारण स्त्रीति विविधा ।
कृतस्य,
अधिक्षेपाऽपमानादेः = अधिक्षेपस्य ( निन्दावचनस्य) अपमानादेः (अवमानादेख ) यत् प्राणात्ययेऽपि = जीवननाश संभावनायामपि, असहनम् = अमर्षणं, तत् तेजः समुदाहृतं अभिहितम् ।। ५४ ।।
ललितं लक्षयति- वाग्वेशयोरिति । वाग्वेशयोः = वाणीनेपथ्ययोः, मधुरता = सौन्दर्य, तद्वत् शृङ्गारचेष्टितं = शृङ्गारचेष्टा, “ललितम्” । गोदार्य लक्षयति-वानमिति । सप्रियभाषणं = प्रियवाक्ययुक्तं दानं = वितरणं, शत्रु मित्रयोः = रिपुसुहृदो:, समता = तुल्यभाव: "औदार्यम्" अभिहितम् ।। ५५ ।।
एषां = तेजोललितौदार्याणाम्, उदाहरेणानि, कह्यांनि=वितकर्माणि ॥ ५५ ॥
अथ नायिकां विभजति --प्रथ नायिकेति । नायिका स्वा = स्वकीया अन्या=परकीया साधारणा = सामान्या स्त्री इति, त्रिभेदाभेदत्रययुक्ता भवति । सा च यथासंभवः = संभवानुसारिभिः, नायकसामान्यगुणैः = नेतृसाधारणगुणैः "ध्यामी कृती कुलीन" इत्यादिभिः पूर्वकषितः, युक्तासहिता भवति ॥ ५६ ॥
न करनेको "तेज" कहते हैं ।। ५४ ।।
ललित- -वचन और वेषकी मनोहरता और शृङ्गारकी चेष्टाको "ललित" कहते हैं ।
मौदार्य - प्रियवचनके साथ दान, तथा शत्रु और मित्रमें समान जाबको "प्रोदार्य" कहते हैं ॥ ५५ ॥
इनके उदाहरणोंका ऊह करना चाहिए ।
नायिकाभेद - नायकके पूर्वोक्त त्याग आदि यथासंभव सामान्य गुणोंसे युक्त नमिका होती है । उसके तीन भेद होते हैं, स्वकीया ( अपनी ), परकीया ( दूसरे की ), और साधारणा (वेश्या) ।। ५६ ।।
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साहित्यदर्पणे.
तत्र स्वस्त्रीविनयावादियुक्ता गृहकम परा पतिव्रता स्वीया।
यथा
'लज्जापज्जत्तपसाहणा. परभत्तिणिप्पिवासाइ। अविणअदुम्मेधाई धण्णाण घरे कलत्ताई।
( लज्जापर्याप्तप्रसाधनानि परभर्तृनिष्पिपासानि । ___ अबिनयदुर्मेधानि धन्यानां गृहे कलत्राणि ।। ) साऽपि कथिता त्रिभेदा मुग्धा मध्या प्रगल्मेति ॥ ५७ ।।
प्रथमावतीर्णयौवनमदनविकारा रतौ वामा ।
स्वकीयां लक्षयति --विनयावावियुक्तेति । विनयाऽऽजवादियुक्ता=विनयेन (नम्रतया आर्जवेन (ऋजुभावेन ) सरलतथेत्यर्थः, तदादिगुणः, युक्ता एवं च गृह कर्मपरा-गेहव्यागरकरणतसरा, स्वीया स्वस्त्री, भवति ।
स्वीयामुदाहरति--लज्जेति। लज्जापमाप्तप्रसाधनानि परमर्तृनिपिपासानि । मविनयदुर्मेधानि धन्यानां गृहे कलत्राणि "( संस्कृतच्छाया)। लज्जापर्याप्तप्रसाध. मानि-सज्जा एव (व्रीडा एव) पर्याप्तं (यथेष्टग) प्रसाधनम् (अलङ्कारः) येषां तानि, परभर्तनिणिपासानि = परमतूंषु (परपुरुषपु) निपिपासानि ( अभिलाषरहितानि ), अविनयदुधानि अबिनये (अनम्रतायाम्) दुर्मेधानि-(अज्ञानि), एतादृशानि कलत्राणि= भार्याः, "करून श्रोणिभार्ययोः" इत्यमरः । धन्यानां-पुण्यवता. गृहे-भवने, भवन्तीति शेषः ।। गाथा वृत्तम् ।
स्वीयां विभजति-साऽपीति । साऽपि = स्वीया नायिकाऽपि, मुग्धादिभेदः, त्रिभेदा= भेदत्रयवती, कथिता ॥ ५७ ॥
तत्र मुग्धाया विभागानाह-प्रथमेति। प्रथमाऽवतीर्णयौवनमदनविकारा = प्रथमाऽवतीर्णयौवना (प्रथम-प्राक, अवतीर्णम्-उत्पन्नं, यौवनं = तारुण्यं यस्याः सा)
स्वकीया-नम्रता, सरलता आदि गुणोंसे युक्त, गृहकममें तत्पर पतिव्रता स्त्रीको स्वीया ( स्वकीया ) कहते हैं।
उदाहरण-लज्जारूप पर्याप्त भूषणवाली, परपुरुषको तृष्णासे रहित, अविनयकी बुद्धिसे हीन अर्थात् विनीत ऐसी पत्नी भाग्यवान् पुरुषके घरमें होती है।
. स्वकीया के भेव-मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा इस प्रकार स्वकीयाके तीन भेद-होते हैं ।। ५७ ।।
: मुग्याके भेद-प्रथमाऽवतीर्णयौवना ( पहले आविर्भूत तारुण्यवाली ) १, प्रथमाऽवतीर्णमदनविकारा (पहले आविर्भूत कामविकारसे युक्त ) २, रमणमें कुटिल
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द्वितीयः परिच्छेदः
कथिता मुदुश्च माने समधिकलज्जावती मुग्धा ॥ ५८ ॥ तत्र प्रथमावतीणयौवना यथा मम तातपादानाम्मध्यस्य प्रथिमानमेति जघनं, वक्षोजयोर्मन्दता
दूरं यात्युदरं च, रोमलतिका नेत्रार्जवं धावति । कन्दपं परिवीक्ष्य नूतनमनोराज्याभिषिक्तं क्षणा
___दङ्गानीव परस्परं विदधते निर्लुण्ठनं सुभ्रषः । १. प्रथमाऽवतीणंसदनविकारा = प्रथमाऽवतीर्णः ( प्रागुत्पन्नः ), मदनविकारः ( मन्मथविकृति: ) यस्याः सा २. रतौ = रमणे, वामा = कुटिला, प्रतिकूलेत्यर्थः ३..माने = प्रणयकोपे, मृदुः-कोमला, ४ समधिकलज्जावती-प्रचुरखीडोपेता ५. मुग्धाया इति भेदाः भवन्ति ।। ५८ ।।
___ इत्थं च मुग्धायाः पञ्चभेदाः प्रकीर्तिताः । तत्र प्रथमाऽवतीर्णयौवनामुदाहरति मध्यस्येति ।
जंघनं = कटिपुरोभागः, सुध्रुव इति भावः, एवं परत्राऽपि । मध्यस्य = अवलग्नस्य, प्रथिमानं = मृथत्वं, स्थूलत्वमिति भावः । एति = प्राप्नोति । सुध्रुवो मध्यस्य या पृथुता सा जघनं प्राप्नोति, अत: मध्यं कुशं, जघनं सुन्दर्याः स्थूलं वर्तत इति भावः । वक्षोजयोः = सुभ्रवः पयोधरयोः, मन्दता = अल्पता, दूरम् = अत्यन्तम्, उदरंजठरं, याति = प्राप्नोति, उदरस्य स्थूलता पयोधरी प्राप्नोतीति भावः । रोमलतिका = लोमराजिः, नेत्राऽऽर्जवं = नयनसरलतां, धावति = शीघ्रं गच्छति, नेत्रं च रोमलतिकायाः कौटिल्यं प्राप्तुत इति भावः । अतः सुध्रुव: सुन्दर्याः, अङ्गानि = जघनादयो देहावयवाः, कन्दपं = कामदेवं, नूतनमनोराज्याभिषिक्तं = प्रत्यप्रचेतोराज्ये गृहीताऽभिषेकं, परिवीक्ष्य = दृष्ट्वा, परस्परम् = अन्योन्यं, निलुण्ठनं परिमोषणव्यापारम्, अन्योन्य-, वस्त्वपहरणं, विदघते इव = कुर्वन्ति इव । उत्सवे जना यथा मिथः पदार्थाऽपहरणं कुर्वन्ति तथैव सुन्दर्या अङ्गान्यपि मिथो गुणापहरणं कुर्वन्तीति भावः । ग्रन्थकारस्य ततपादानां पद्यमिदम् । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । अत्रोत्प्रेक्षाऽलखारः।।
(प्रतिबन्धडालनेवाली) ३. अभिमान करनेमें कोमल स्वभाववाली ४. और अधिक लज्जासे युक्त ५ ये पाँच भेद होते हैं । प्रथमाऽवतीर्णयौवना मुग्धाका उदाहरण ग्रन्थकारके पिताक है कमरकी स्थूकताको सुन्दरीके कटिका पूर्वभाग ले रहा है, स्तनोंको मन्दता दूर उदरको प्राप्त कर रही है । रोमपङ्क्ति नेत्रोंकी सरलताको प्राप्त करती है । कामदेवको नूतन मनके राज्यमें अभिषिक्त देखकर सुन्दरीके अङ्ग मानों परस्पर वस्तुकी लूटखसोट कर रहें हैं।
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साहित्यदर्पणे
प्रथमावतीर्णमदनविकारा यथा मम प्रभावतीपरिणयेदते सालसमन्थर भुवि पदं, निर्याति नान्तःपुरात्,
नोदामं हसति, क्षणात्यलयते हीयन्त्रणां कामपि । किंचिद्भावगभीरषक्रिमलबस्पष्टं मनाग्भाषते,
सनं भामुदीक्षते प्रियकथामुल्लापयन्ती सखीम् ॥ रतौ वामा यथा
'दृष्टा दृष्टिमधो ददाति, कुरुते नालापमाभाषिता.
. शय्यायां परिवृत्त्य तिष्ठति, बलादालिङ्गिता वेपते । प्रथमाऽवतीर्णमदनविकारामुदाहरति-वत्त इति। विश्वनाथकविराजस्य प्रभावतीपरिणयनाटकस्यं पद्यमिदम् ।
सा = प्रभावती, भुवि = भूमी, अलस..न्थरम् = अलसम् (आलस्यपूर्णम् ) अत एव मन्थरम ( मन्दं यथा तथा ), पदं = चरणं, धत्ते=स्थापयति । अन्तःपुरातअवरोधात, न निति = नो निगच्छति । उद्दामम् = उद्धतं, न हसति = हास्यं न करोति । क्षणाद = अल्पकालादेव, कामपि = अनिर्वचनीयां, ह्रीयन्त्रणां= लज्जाजनितपीडगं, कलयते = अनुभवति । किश्चिद्भावगभीरबक्रिमलवस्पृष्टं = (किञ्चित् यथा स्यातथा, यो भावः = अभिप्रायः, तेन गभीर = गम्भीरः, दुर्बोध इति भावः, एतादृशो यो पक्रिमा कुटिलत्वं तस्य लव:= लेशः, तेन स्पृष्टंसंसर्गयुक्तम् ) मनाक् = ईषत्; भाषते = वदति । प्रियकयां = बल्लभचर्चाम, उल्लासयन्ती = प्रकाशयन्ती, सखी = स्ववयस्यां, सभ्रूभङ्ग भ्रूङ्गब्यापारसहितं यया तथा, उदीक्षते = उत्पश्यति । शाटूलविक्रीडितं वृतम् । रतो वामामुदाहरति-दष्टेति । नवोढा = नूतनपरिणीता, प्रिया वल्लभा, दृष्टा =विलोकिता सती, मयेति शेषः, एनमन्यत्राऽपि । दृष्टि नेत्रम्, अधःअधोभागे, ददाति, आभाषिता = आलपिता सती, मालापम् = माभाषणं, न कुरुते = नो विदधाति, न प्रतिमावत इति भावः । शय्यायां = शयने, परिवृत्य परिवर्तनं कस्वा, महमुख्यं कृत्वेति भावः । तिष्ठति = स्थिति मजति । बलात् = हठाव, अलिङ्गिता =
प्रथमाऽवतीर्णमवनविकारा-(पहले आविर्भूत कामविकारवाली स्वकीया) का उदाहरण ग्रन्थकाररचित प्रभावतीपरिणय में स्थित
वह (प्रभावती) जमीनपर आलस्यपूर्वक धीरे धीरे पैर रखती है, अन्तःपुरसे बाहर नहीं निकलती है, उखत भावसे नहीं हंसती हैं, थोड़े ही समयमें लज्जासे अनिर्वचनीय पीसका अनुभव करती है, कुछ अभिप्रायसे गम्भीर कुछ कुटिलतासे युक्त होकर थोड़ा ही भाषण करती है। अपने प्रियकी चर्चा करती हुई सखीको भौहोंको कुटिल कर देखती है।
रमणियामें कुटिल स्वकीया-कोई नायक नवपरिणीता पलीका चरित्र अपने मित्रसे कहता है । नवपरिणयशाली मेरी प्रिया मेरे देखनेपर नजर नीची करती.
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तृतीयः परिच्छेदः
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निर्यान्तीषु सखीषु वासभवनाग्निर्गन्तुमेवेहते,
जाता वामतयैव संप्रति मम प्रीत्ये नवोढा प्रिया ।' माने मृदुर्यथा
'सा पत्युः प्रथमापराधसमये सख्योपदेशं विना
नो जानाति सविभ्रमानवलनावक्रोक्तिसंसूचनम्। स्वच्छरच्छकपोलमूलगलितः पर्यस्तनेत्रोत्पला
बाला केवलमेव रोदिनि लुठल्लोलालकैरश्रुभिः ।। आश्लिष्टा सती, वेपते = कम्पते । सखीषु = वयस्यासु, वासभवनात् = गर्भाऽगारात, निर्यान्तीषु = निर्गच्छन्तीषु सतीषु, निर्गन्तु = निर्यातुम् एव, ईहते-चेष्टते । इत्थं च नवोढा = प्रिया, सम्प्रति = अधुना, वामतया एवं = रतौ प्रतिकूलतया एव, मम = नायकस्य, प्रीत्य = हर्षाय, जाता = संवत्ता । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । ।
माने मृदुमुदाहरति-सा पत्यरिति। सा= बाला, पत्युः = बल्लभस्य, प्रथमाऽपराधसमये = प्राथमिकनायिकान्तरसहवासज्ञानकाले, सख्योपदेशं ( सख्येन सुहृद्भावेन ) य उपदेशः (शिक्षाप्रदानम् ), तं विना, सविभ्रमाङ्गवलनावक्रोक्ति: संसूचनं = सविभ्रमा ( सविलासा ) या अङ्गवलना (देहाऽवयवपरावर्तनम्, असंमुखस्व. मितिभावः ), सा च वक्रोक्तिश्च ( कुटिलोक्तिन) तयोः संसूचनम् (प्रकाशम् ) नो जानाति = नो वेत्ति । तहि किं कुरुत इत्याह-स्वच्छरिति । स्वच्छः = अतिनिर्मलः, अच्छकपोलमूलगलितः = अच्छयो: (निर्मलयोः) कपोलयोः ( गण्डफलकयोः) मूलात् (प्रान्तात् ) गलित: ( अवस्रस्तः ), लुठल्लोलाऽलकः = लुठन्तः ( परिवतं. मानाः ) लोला: ( चञ्चलाः ) अलकाः (चर्ककुन्तला; ) येषु तानि, तैः, तादृशः अश्रुभिः = बाष्पः, पर्यस्तनेत्रोत्पला = पर्यस्ते (आकुले ) नेत्रोत्पले (नयकमले) यस्याः सा तादृशी सती, केवलं रोदिति एव = अधूणि मुञ्चति एव, न कश्चिदुपायं जानातीति भावः । एतेन माने मृदुत्वं प्रतीयते । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । है, मेरे बोलनेपर भी बात नहीं करती है, बिछोनेपर मुंह फेरकर बैठती है, जबर्दस्तीसे आलिङ्गन करनेपर कांपती है, कमरेसे सखियोंके निकलनेपर वह भी वहाँसे निकलना. ही चाहती है । नवपरिणयवाली मेरी प्रिया इस समय रमणमें कुटिलतासे ही मेरी प्रीतिके लिए हो रही है।
मानमें मदु-वह ( युवति ) अपने पतिके पहले अपराध ( दूसरी नायिकासेसम्पर्क ) के समय में सखीके उपदेशके विना विलासपूर्वक शरीरको सम्मुख न करना और कुटिल वचन कहना कुछ भी नहीं जानती हैं । निर्मल कपोलोंके प्रान्तमागसे गिरे हुए, चञ्चल अलकोंसे सम्बद्ध निर्मल आसुओंसे आकुल नेत्रकमलोंसे युक्त होकर केवल रोती है।
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साहित्यदर्पणे
समधिकलज्जावती यथा
'दचे सालसमन्धरम्-'इत्यत्र ( २३४ पृ० ) श्लोके।
बत्र समर्षिकलज्जावतीत्वेनापि अन्धाया रतिवामताया विच्छित्तिविशेषवत्या पुनः कथनम्। अथ मध्या
मध्या विचित्रता परूढमरयौवना।
ईपत्प्रगल्भवचना मध्यमत्रीडिता मता ।। ५९ ।। विचित्रसुरवा यथा___ 'कान्ते तथा कथमपि प्रथितं नृपक्ष्या चातुर्यमुद्धतमनोभवया रतेषु ।
समधिकलज्जावती यथा--"इते साऽलसमन्यरम्" इत्यत्र (पृ० १३४) श्लोके विच्छित्तिविशेषवत्तया चमत्काराधिक: त्वेन ।
मध्यामेदाभिदिशति-मध्यति। दिचित्रसुरता अद्भुतनिधुवना १. प्रख्ढस्म'.. यौवना = प्रस्तस्मरा ( सजातमदनाविका ) २. प्ररूढयौवना ( आविर्भूततारुण्या) ३. इषत्प्रगल्भवचना = स्तोकपृष्टभाषिणी, ४. मध्यमवीडिता = मध्यमं वीडितं (लज्जा ) यस्याः सा, एतादृशी नायिका, ५. मध्या मता = अभिमता, इत्थं च मध्यायाः पंच भेदाः । प्रीडितमित्यत्र वीसनं वीडितं, "नपुंसके भावे क्त" इति त. प्रत्ययः ॥९॥
तत्र विचित्रसुरतां मध्यामुमहरति । कान्ते तयेति । उद्धतमनोभवया = उत्तः (अतिशयितः ) मनोभवः ( मदनः ) यस्याः सा, तया मृगाया = हरिणनयनया, सुन्दर्या इत्यर्थः । रतेषु := निधुवनव्यापारेषु, कान्ते = वल्लभे, तया = तेन प्रकारेण, कथमपि - केनाऽलि प्रकारेग, चातुर्य = नंपुण्यं, भणितस्येति शेषः । प्रथितं = प्रका.
समषिकलक्जावती-"दसे साऽलसमन्परम्" (पृष्ठ १३४) । यहाँपर अत्यन्त लज्मावाली होनेसे रतिमें बामताकी होनेपर भी अधिक चमत्कार होनेमें रतिवामताका पृथक उदाहरण दिया गया है।
मध्यामेद-विचित्रसुरता, प्ररूढस्मरा, प्ररूढयौवना, ईषत्प्रगल्भवचना और मध्यमवीडिता इसप्रकार मध्याके पांच भेद होते हैं ॥ ५९॥
-विचित्ररता-जिसका अनूठा सुरत ( रमण) होता है उसे "विचित्र सुरेता" कहते हैं। जैसे-कोई स्त्री अपनी सखीको कहती है-उत्कट स्मरविकारवाली सुदरीने रतिक्रीडाओंमें प्रियमें बसी चतुरता किसी प्रकारसे दरसाई जैसे कि उसके
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तृतीयः परिच्छेदः
१३७
मना
तत्कूजितान्यनुवदद्भिरनेकवारं शिष्यायितं गृहकपोतशतैर्यथाऽस्याः ।।'
प्ररूढस्मरा यथात्रैवोदाहरणे। प्ररूढयौवना यथा मम'नेत्र खसनगब्जने, सरसिजप्रत्यर्थि पाणिद्वयं,
उलोजौ करिकुम्भविभ्रमकरीमत्युभति गच्छतः । सन् काश्चनचम्पकप्रतिनिधिर्वाणी सुधास्यन्दिनी,
स्मेरेन्दीवरदामसोदरवपुस्तस्याः कटाक्षच्छटा ।' एवमन्यत्रापि। शितम् तस्कूजितानि :- तम्याः ( मृगाक्ष्याः ) कूजितानि ( भणितरूपाणीति भावः ) । अनेकवारं = बहुवारम्, अनुवद्भिः = अनुवाद कुर्वद्भिः, अनुकुर्वद्भिरिति भावः । गुहकपोतशतैः = राहे ( करने ) ये कपोताः (पारावता: ) तेषां शतैः ( वर्गः ), अस्था:भृगाक्ष्याः, वि. पायरः = शिष्यवदाचरितम् । वसन्ततिलका वृत्तम् । प्ररुढस्मरेति । अत्रैव -- "कान्ते :था" इत्यादिपो "उद्धतमनोभवया" इति कथनेन ।
ल्ढयौवनामुमाहरति-नेत्र इति। तस्याः = मध्याऽख्याया नायिकाया:, नेप्रे-नयने, बजाञ्जने = खजरीटपराभवकारिणी, तस्या नेत्र खजननेत्राभ्यामपि मनोहरतरे :ति भाजः । पाणिद्वयं = रतयं, सरसिजप्रत्यथि = कमलप्रतिस्पर्धीति भावः । वक्षाजी :- सोधरो, करिकुम्भविभ्रमकरी = हस्तिमस्तकपिण्डविलासकारिणीम्, अत्युन्नतिम् = अत्युररता, गच्छत: = प्राप्नुतः, कान्तिः = शरीरशोभा, काञ्चनचम्पकप्रतिनिधिः - सुवर्ण वमन :दशी, वाणी = वाक्, सुधास्यन्दिनी = अमृतवर्षिणी, एवं च तस्याः .टाक्षच्छटा = अपाङ्गदर्शनधारा, स्मेरेन्दीवरदामसोदरवपुः = स्मेरं (विकसितम् ) यद इन्दीवरदाम ( नीलकमलमाला) तस्याः सोदर ( सदृशम् ) वपुः (स्वरूपम् ) यस्याः सा, तादृशी, वर्तत इति शेषः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । इत्य यौवनस्य प्ररूढन्वेन नायिकाया: प्ररूढयोवनात्वं सम्पद्यत इति भावः । एवम् = इत्यमेव, अन्यत्राऽपि == ईषत्प्रगल्भवचनामध्यमवीडियोरपि, उदाहरणे संग्राह्ये।। रतिकूजितका नकल करते हुए घरके सैकड़ों कबूतरोंने उसके शिष्योंके समान आचरण किया। - प्रख्ढस्मरा-इसी उदाहरणमें स्पष्ट है।
प्ररूढयौवना-जसे ग्रन्थकारका है-उस नायिकाके नेत्र खञ्जन पक्षीको मात करनेवाले हैं, दोनों हाथ कमलोंका मुकाबला करनेवाले हैं, पयोधर हाथोके कुम्भस्थलोंके विलासको पैदा करनेवाली अत्यन्त ऊंचाईको प्राप्त करते हैं । इसकी कान्ति सुवर्ण और चम्पक पुष्पके समान है, वाणी अमृतकी वृष्टि करनेवाली है और कटाक्षोंकी परम्परा विकसित नीलकमलोंकी मालाके समान सुन्दर है।
इसी प्रकार अन्य उदाहरणोंका भी ऊह करना चाहिए।
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१३८
साहित्यदर्पणे
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अथ प्रगल्भी
स्मरान्धा गाढतारुण्या समस्तस्तकोविदा ।
भावोन्नता दरब्रीडा प्रगल्भाक्रान्तनायका ।। ६० ॥ स्मरान्धा यथा
'धन्यासि या कथयसि प्रियसंगमेऽपि
विश्रब्धचाटुकशतानि रतान्तरेषु । नीवी प्रति प्रणिहिते तु करे प्रियेण
सख्यः ! शपामि यदि किंचिदपि स्मरामि ।। अथ प्रगरमां लक्षयति-स्मराऽन्धेति। प्रकर्षेण गल्भतः = स्मराऽतिशयेन धाष्टयं प्रकर्शयतीति प्रगल्भेति यौगिकोऽर्थः। प्रगल्भा षडविधा, यथा स्मराऽन्धा, गाडतारुण्या, समस्तरतकोविदा भावोन्नता, दरव्रीडा आक्रान्तनायका चेति ।
तत्र स्मरान्धा यथा-धन्याऽसीति । सखीषु रमणसमये आलापकारिणी काश्चिदुपहसन्त्याः कस्याश्चिन्नायिकाया उक्तिरियम् । या = त्वं, प्रियसङ्गमे = प्रियसमागमकाले, रसाऽन्तरेषु अपि = रतं ( रमणम् ), तस्य अन्तरेषु अपि ( मध्यकालेषु अपि, न आदो न अन्ते प्रत्युत मध्यकालेषु अनिर्वचनीयानन्दानुभूतिसमयेष्वपि ) विश्रब्ध. चाटुकशतानि = विस्रब्धेन (विश्वासेन ) चाटुकशतानि ( बहूनि प्रियवचनानि ), कथयसि-वदास, तादृशी त्वं धन्याऽसि भाग्यवती वर्तसे, वस्तुतस्तु तादृशाऽनिर्वचनीयसुखाऽनुभूतिसमयेऽपि भाषणशीलत्वात् अधन्याऽसीति तात्पर्यम् । तत्प्रसङ्गात् स्वाऽनुभूति सखीषु प्रतिपादयति-हे सध्यः = हे वयस्याः । तु= परन्तु, प्रियेण = कान्तेन; नीवी प्रति = मम वसनग्रन्थि प्रति, करे = हस्ते, प्रणिहिते = नीवीमोक्ष य स्थापित एव, किश्चित्, स्मरामि यदि = स्मरणं करोमि चेत्, अहमिति शेष: । तहि शपामि = शपथं करोमि । अत्र कान्तेन स्वनीवी प्रति करप्रणिधानानन्तरभववृत्तस्य स्मरणाऽभावान्नायि. कायाः स्मराऽन्यत्वं प्रतीयते । अत्र शपामीत्यत्र "शप आक्रोशे" इति धातुरुभयपदी वर्तते, परं "शप उपालम्भे" इति वातिकेन शपधातुरुपालम्भ आत्मनेपदी, परन्तु उपलम्भन. मित्यस्य प्रकाशनमर्थः, अतः शपथप्रकाशने आत्मनेपदी, अत्र तु शपथमात्रस्य विवक्षितत्वानात्मनेपदीति बोध्यम् । अत्र कयित्री स्मरान्धा बोध्या । वसन्ततिलका वृत्तम् ।
__ प्रगल्भाभव-स्मरान्धा ( कामविकारसे अन्धप्राया ), गाढतारुण्या ( प्रगाढ पवानीवाली ) समस्तरतकोविदा = संपूर्ण रतिक्रीडाओंकी जानकार, भावोन्नता दरव्रीडा ( थोड़ी लज्जावाली) और आक्रान्तनायका ( नायकको आज्ञा देनेसे अतिक्रमण करनेवाली प्रगल्भाके ये छः भेद होते हैं ।। ६० ।।
स्मरान्धा-कोई स्त्री अपनी सखीको कह रही है। सखि ! तुम धन्य हो, जो कि प्रियके संगममें रतिके मध्यकालोमें भी विश्वासपूर्वक सैकड़ों प्रियवचन कहती हो। में तो वस्त्रग्रन्थिमें प्रियके हाथ रखनेपर कुछ भी याद रखती हो तो कसम खाती हूँ।
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तृतीयः परिच्छेदः
गाढतारुण्या यथा
'अत्युतस्तनमुरो नयने सुदीर्घे, वक्रे भ्र वावतितरां वचनं ततोऽपि । मध्योऽधिकं तनुरनूनगुरुर्नितम्बो मन्दा गतिः किमपि चाद्भुतयौवनायाः ॥' समस्तरतको विदा यथा
'कचित्ताम्बूलाः
कचिद्गुरुपङ्काङ्कुमलिनः,
चिचूर्णोद्गारी, कचिदपि च सालक्तकपदः । बलीभङ्गाभोगेरलकपतितैः शीर्णकुसुमैः
स्त्रियाः सर्वावस्थं कथयति रतं प्रच्छदपटः ॥'
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गाढ तारुण्यामुदाहरति । अद्भुतयौवनाया: = विचित्रतारुण्यायाः अस्या नायिकायाः, उरः = वक्षःस्थलम्, अत्युन्नतस्तनम् = अत्युन्नतो ( अत्युच्चो ) स्तनौ ( कुचो) यस्मिस्तत् । नयने= नेत्रे, सुदीर्घे = अत्यायते, ध्रुवौ = अक्षिलोमनी, वक्रे = मध्यमम्,वचनं वाक्यं, ततोऽपि = ब्रुयुगादपि, अतितरां वक्रतरमिति भावः । मध्यः = मध्यमम्, अधिकं यथा तथा तनुः = कृशः, नितम्बः = कटिपश्चाद्भागः, अनूनगुरुः = अधिक -- विशाल:, गतिश्च = गमनं च, किमपि = यथा स्यात्तथा मन्दा = मन्थरा । अत्र प्रगल्माया उरोऽस्युन्नतस्तनत्वेन, नितम्बस्य च अनूनगुरुत्वेन गाढतारुण्यं प्रतीयते । वसन्तलिका वृत्तम् ।
समस्तरतको विदा मुदाहरति- क्वचिदिति । क्वचित् = कुत्रचित् स्थाने, ताम्बूलाऽक्तः = नागवल्लीदलरागयुक्तः, क्वचित् अगुरुपङ्काऽङ्कमलिनः = अगुरुपङ्काय ( कृष्णाऽगुरुद्रवस्य ) यः अङ्कः ( चिह्नम् ) तेन मलिन: ( मलीमसः ) । क्वचित् चूर्णोद्गारी = चूर्णम् (विष्टाताऽऽदिक गन्धद्रव्यम् ) उगिरतीति ( निःसारयतीति ) । क्वचित् अपि च साऽलक्तकपदः = अलक्तरूपदेन ( लाक्षारसचिह्नेन ) सहितः । वली -- भङ्गाभोगं: = चन्दन-व चितैः, उदररेखात्रयविस्तारः, उपलक्षितः, अलकपतितैः = अलकेभ्य: ( चूर्णकुन्तलेभ्यः ) पतितै: ( स्रस्तै: ) । शीर्णकुसुमैः = उपमर्दित पुष्प:उपलक्षितः, "इत्थभूतलक्षणे" इति तृतीया । एतादृश: प्रच्छदपटः = शय्याऽऽस्तरण:वस्त्र, स्त्रिया:= रमण्याः, सर्वाऽवस्थं = सकलप्रकार, रतं
=
रमणं, कथयति = प्रका
गाढतारुण्या - अद्भुत तारुण्यसे युक्त उस सुन्दरीका वक्षःस्थल अतिशय उन्नत कुचोंसे शोभित है, नेत्र विशाल हैं, भौहें अत्यन्त कुटिल ( टेढ़ी) हैं, वचन उनसे भी कुटिल है, कमर बहुत ही पतली है, नितम्ब ( कटिका पिछला भाग ) ज्यादा भारी और गति अतिशय मन्द है ।
समस्तरतको विदा - शय्यापर बिछानेकी चद्दर, कहींपर पानसे लिप्त, कहीं पर आदि सुगन्धित पदार्थोके चूणवाली कहींपर कहीं पर चन्दनचचित तीन उदररेखाओंके
अगुरुके पङ्कसे मलिन, कहींपर पिष्टात महावरसे रंगे पैरोंके चिह्नसे युक्त,
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साहित्यदर्पणे
भावोन्नता यथा
'मधुरवचनैः सभ्र भङ्गः कृताम्गुलितर्जन
रभसरचितेरजन्यासमहोत्सवबन्धुभिः । असकृदसकृतस्फारस्फारपाङ्गविलोकिते.
त्रिभुवनजये सा पञ्चषोः करोति सहायताम् ॥' स्वल्पत्रीडा यथा
'धन्यासि या कथयसि-' इत्यत्रेव ( १३८ पृ.) आक्रान्तनायका यथा'स्वामिन् ! भन्गुरयालक, सतिलकं भालं विलासिन् ! कुरु ,
प्राणेश ! त्रुटितं पयोधरतटे हारं पुनर्योजय। इत्युक्त्वा सुरतावसानसमये सम्पूर्णचन्द्रानना शयति एतेन नायिकाया बहुविधरतद्योतनेन समस्तरतकोविदात्वं प्रतीयते । अत्र समस्तपदं बह्वर्थकम् । शिखरिणीवृत्तम् । ___भावोन्नतामुदाहरति-मधुरवचनरिति। सा = नायिका, सभ्रूभङ्गः = भ्रूविलासोपेतः, मधुरवचनैः = मनोहरवाक्यः, कृताऽगुलितर्जनः = कृतानि (विहितानि ) अगुल्या ( कर शाखया ) तर्जनानि ( भर्सनसूचनानि ) येषु तेः, रभसरचितः हर्षकृतः, महोत्सवबन्धुभिः = महोत्सवसहायः, अङ्गन्यासः = देहाऽवयवविक्षेपः, असकृत् असकृत् =वारं वारं, स्फारस्फारः = अतिदीर्घः, अपाङ्गविलोकितैः = कटाक्षविलोकनः, त्रिभुवनजये = लोकत्रयविजये, पञ्चषोः = पञ्चबाणस्य, कामदेवस्येत्यर्थः । सहायता = साहाय्यं, करोति = विदधाति । हरिणी छन्दः । भ्रमणादिभिः भावः ( अनुभावः) इयमुन्नता । हरिणी वृत्तम् ।
. स्वल्पव्रीडा यथा-धन्याऽसि या० इति । सखीसमक्षं प्रियसङ्गमवृत्तान्तसूचनादियं स्वल्पवीडः।
आक्रान्तनायकामुदाहरति - स्वामिनिति। संपूर्णचन्दानना = संपूर्णचन्द्रा (षोडशकलोपेतश्चन्द्रः ) इव आननं ( मुखम् ) यस्याः सा। तादशी नायिका, सुरताऽवसानसमये = रतिसमाप्तिकाले, मिन् = हे प्रभो ! अलकं = मदीयं चूर्णविस्तारोंसे उपलक्षित, और कहींपर अलकोंसे गिरे हुए फूलोंसे उपलक्षित होकर स्त्रीके अनेक प्रकारकी रतिक्रीडाको सूचित करती है।
भावोन्नता-वह ( नायिका ) मधुर वचनोंसे, भ्रूभङ्गापूर्वक उंगली उठाकर तर्जनोंसे, हर्षसे किये गये, महोत्सवके सहायक अङ्गन्यासोंसे पारंबार अतिदीर्घ कटाक्षपूर्वक निरीक्षणोंसे कामदेवके त्रैलोक्यविजयमें सहायता करती है।
वरग्रीडा (स्वल्पव्रीडा)-"धन्याऽसि यो कथयति०" (पृ० १३८ )। प्राक्रान्तनायका-सोलह कलाओंसे युक्त चन्द्रके समान मुखसे शोभित
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तृतीयः परिच्छेदः
१४१
स्पृष्ठा तेन तथैव जातपुलका प्राप्ता पुनर्मोहनम् ।।' मध्याप्रगल्भयो/दान्तराण्याह
ते धीरा चाप्यधीरा च धीराधीरेति षडविधे। ते मध्याप्रगल्भे।
तत्र
प्रियं सोत्प्रासवक्रोफ्त्या मध्या धीरा दहेद्रुषा ॥ ६१ ॥
धीराधीरा तु रुदितैरधीरा परुषाक्तिभिः । कुन्तलं भगुरय = भङ्गीयुक्तं कुरु, हे विलासिन् = हे विलसन शील ! भालं = मम ललाटं, सतिलकं = तिलकयुक्तं, कुरु =विधेहि, हे प्राणेश-हे प्राणनाथ !, त्रुटित छिन् हार, पयोधरतटे = मम स्तनतटे, पुनः = भूयः, योजय = संयोजय, इति = इत्थम्, उक्त्वा अभिधाय, तेन=स्वामिना, तथा एवं = तेन प्रकारेग एव, उक्ताऽनुसारम् एवेति भावः, स्पृष्टा-ततत्स्थानेषु आमृष्टा, जातपुलका-संजातरोमाञ्चा सती, पुनः= भूयः, मोहन = पुनरपि रतिलीलया पैचित्यं, प्राप्ता = आसादितवती। अत्र स्वामिनित्याज्ञाकरणात् इयमाक्रान्तनायका ॥६॥
तेषीरा इति । ते मध्याप्रगल्भे, धीरा, अधीरा धीराऽधीरा चेति षड्विधे= षट्प्रकारे ।
मध्याधीरां लक्षयति-प्रियमिति । मध्याधीरा नायिका, कृषा = क्रोधेन नायिकान्तरसम्पर्कज्ञानजनितेनेति शेषः । सोत्प्रासबक्रोक्त्या = सोत्प्रासया ( ईषद्धास्य. सहितया ) वक्रोक्त्या ( कुटिलोक्त्या ), प्रियंकान्त, बहेव = तापयेत् ।। ६१ ॥
मध्यां धीराधीरा लक्षयति-मध्या धीराऽधीरा तु रुदित: बथुमोचनः, प्रिय दहेत। सुन्दरीने रतिक्रीडाके अन्त में पतिको "हे स्वामिन् ! मेरे अलकोंको फिर सजाइए, हे बिलासशील ! मेरे ललाटमें तिलक लगा दीजिए, हे प्राणेश्वर ! मेरे स्तनतटमें हरे हुए हारको फिर जोड़ दीजिए", ऐसा कहा तब पतिके इसी तरह स्पर्श करनेसे रोमाशयुक्त होकर वह फिर मोहको प्राप्त हुई।
मया और प्रगल्भा नायिकाके अन्य भेदोंको कहते हैं-मध्या और प्रगल्भाके पीरा, अधीरा और धोराऽषीरा इस प्रकार छ: भेद होते हैं।
उनमें- मध्याधीरा क्रोधसे मन्दहास्यके साथ कुटिल उक्तिसे प्रियको सन्तप्त करेगी॥ ६१॥
धीराधीरा रोदनोंसे और अधीरा नायिका कठोर वचनोंसे प्रियको सन्तप्त करेगी।'
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१४२
साहित्यदर्पणे
तत्र मध्या धीरा यथा
'तदवितथमवादीयन्मम त्वं प्रियेति
प्रियजनपरिभुकं यद दुकूलं दधानः । मदधिवसतिमागाः कामिनां मण्डनमी
व्रजति हि सफलत्वं वल्लभालोकनेन ।' मध्येव धीराधीरा यथा'बाले ! नाथ ! विमुश्च मानिनि ! रुषं, रोषान्मया किं कृतं? __ खेदोऽस्मासु, न मेऽपराध्यति भवान् सर्वेऽपराधा मयि ।
मध्याऽधीरां लक्षयति-प्रधोरेति । मध्याऽधीरा; परुषोक्तिभिः-कठोरवचनैः, प्रियं दहेत् ।
मध्यां धीरामुदाहरति । तदवितथमिति । अन्यस्या ललनायाः समागमोत्सरं तस्या दुकूलं परिधाय आगतं नायकं प्रति नायिकाया वचनम् । पद्यमिदं शिशुपालवधस्थम्। हे नाथ ! त्वं मम प्रिया = वल्लभा, इति यत् अवादीः= त्वमुक्तवान्, तद् = वचनम् अवितयं = सत्यम् । यत् = यस्मात्कारणाद, प्रियजनपरिभुक्तं = वल्लभाजनपरिहित, दुकूलं = वस्त्रं, दधानः धारय सन्, मदधिवसतिमद्वासस्थानम्, आगा=आगतवान् । हि= यस्माकारणाद, कामिनां= विलासिनां जनानां, मण्डनश्रीः = लङ्कारशोभा, वल्लभाऽऽलोकनेन = प्रियाऽवलोकनेन, सफलत्वं = साफल्यं, व्रजति = प्राप्नोति । अत्र सस्मितकुटिलोक्त्या नायकसन्तापजननादियं मध्या धीरा "मालिनी वृत्तम्"।
मध्यामेव धीराऽधीरामुदाहरति-बाले इति । ललनान्तरासक्तनायकस्य नायिकायाश्चोक्तिप्रत्युक्तिरूपं पद्यमिदम् ।।
नायकः सम्बोधयति-बाले इति ।नायिका उत्तरयति नाय इति । नायकः अनुरुणदि-हे मानिनि = हे मानवति !, रुषं = कोपं विमुख परित्यय । नायिका प्रत्युत्तरयति । मया, रोषात कोपात्, कि, कृतं विहितम् । नायकः कथयति-अस्मासु मयि, खेदः = विषादः, जनित इति शेषः, तब रोषान्मयि विषादो जनित इति भावः । नायिका प्रत्युत्तरयति-भवान्, मे = मह्यम्, "क्रुधदुहेासूयाऽर्थानां यं प्रतिकोप" इति सम्प्रदानत्वाच्चतुर्षी न अपराध्यति अपराधं न करोति, प्रत्यूत सर्वे = सकलाः उनमें मध्याधीरा--(हे नाथ ! ) "तुम मेरी प्रिया हो" ऐसा जो आपने कहा, वह सब है, जिस कारणसे कि अपनी प्रणयिनी (मेरी सौत ) से उपभुक्त वस्त्र पहनकर आप मेरे पास आये हैं । कामुक जनोंकी अलंकारशोमा प्रियाके देखने पर हो जाती है।
धीराधीरा मध्या-यह पच नायक और नायिकाके प्रश्न और उत्तरके रूपमें हैं। नायक-बाले !, नायिका-नाय !, नायक-है मान करनेवाली ! क्रोध छोड़ दो। नायिका-मैंने क्रोधसे क्या किया? नायक-तुमने मुझमें खेद उत्पन्न कर
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तृतीयः परिच्छेदः
तरिक रोदिषि गद्गदेन वचसा, कस्याप्रतो रुद्यते,
नन्वेन्मम, का तवास्मि १ दयिता, नास्मीत्यतो रुद्यते ।।' इयमेवाधीरा यथा
'साधं मनोरथशतैस्तव धूत ! कान्ता
सेव स्थिता मनसि कृत्रिमहावरम्या। अस्माकमस्ति नहि कश्चिदिहावकाश
स्तस्मात्कृतं चरणपातविडम्बनाभिः॥' अपराधाः, मयि = वर्तन्त इति शेषः । नायकः पृच्छति-तत् = तहि, गद्गदेन = अव्यक्तेन, वचसा = वाक्येन, कि = किमर्थ रोदिषि = रोदनं करोषि, नायिका-उत्तरस यति-कस्य, अग्रतः = पुरतः रुद्यते = रोदनं क्रियते । नायकः कथयति-मम अग्रतः; एतत् = रोदनं, तवेति शेषः, तव = भवतः का अस्मि, इति पत्युललनान्तरविलसनखिन्नाया नायिकायाः प्रश्नः । नायक उत्तरयति-दयिता- प्रिया, त्वं ममेति शेषः । नायिका कथयति-न अस्मि, तव प्रियेति शेषः, इत्यतः, = हेतोः, रुद्यते-रोदनं क्रियते। अत्र उत्तरप्रदानान्नायिकाया धीरात्वं रोदनाच्च अधीरात्वं तत्र तत्र प्रतीयते शार्दूल विक्रीडितं वृत्तम्।
इयम् एव = मध्या एव, अधीरा। ___मध्यामधीरामुदाहरति । पादपतितं नायकं प्रति मध्याया अधीराया उक्तिरियम् हे धूर्त = हे प्रतारणपर ! कृत्रिमहावरम्या कृत्रिमः ( क्रियानिवृत्तः अस्वाभाविक इति मावः यो हावः ( भावविशेषः ) तेन रम्या ( मनोहरा ) सा एव-त्वदीया प्रिया एव, मनोरथशत: बहुभिरभिलाषः, साधं = समं, तव = भवतः, मनसि = चित्ते, स्थिता वर्तमाना, शेष । इह = अस्मिन् तव मनसीति भावः । कश्चित् अवकाशः निवासस्थानम्, न अस्ति, तस्मात् - कारणात् चरणपातविडम्बनाभिः = पादपतन. प्रतारणाभिः, कृतं = पर्याप्तं, चरणापातविडम्बनाभिः साध्यं नास्तीति भावः । अत्र वसन्ततिलका वृत्तम् । अत्र परुषोक्तिमि यकसन्तापनात इयमधीरा मध्या। दिया । नायिका--आपने मेरा अपराध नहीं किया। सब अपराध मेरे ही हैं । नायकतब क्यों गदगद स्वरसे रो रही हो? नायिका मैं किसके सामने रो रही हूँ? नायकयह मेरे सामने ही तो रो रही हो। नायिका-मैं आपकी कौन हूँ? नायक-तुम प्रिया हो। नायिका- मैं आपकी प्रिया नहीं हूँ, इसी कारणसे रो रही हूँ।
अधीरा मध्या-हे धूर्त ! सैकड़ों मनोरषोंके साथ बनावटी भावविशेषसे सुन्दरी वही प्रिया तुम्हारे मनमें रह रही है । यहां हमारा कुछ भी स्थान नहीं है, इसलिए पैरोंपर पड़नेकी विडम्बनाओंकी कुछ जरूरत नहीं है।
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१४४
साहित्यदर्पणे
प्रगल्भा याद धीरा स्याच्छनकापाकृतिस्तदा ।। ६२ ।।
उदास्ते सुरते तत्र दर्शयन्त्यादरान् बहिः । तत्र प्रिये। यथा-'एकत्रासनसंस्थितिः परिहता प्रत्युद्गमाद् दूरत
स्ताम्बलानयनच्छलेन रभसाश्लेषोऽपि संविधिनतः। आलापोऽपि न मिश्रितः परिजनं व्यापारयन्त्यान्तिके
कान्तं प्रत्युपचारतश्चतुरया कोपः कृतार्थीकृतः ।।'
धीराधीरा तु साल्लुण्ठभाषितैः खेदयत्यमुम् ।। ६३ ।। प्रगल्भां धीरां लक्षयति प्रगल्भेति । प्रगल्भा नायिका यदि धीरा स्यात् तदा छन्नकोपाकृतिःछना (प्रच्छन्ना ) कोपाकृतिः ( क्रोधाकारः ) यस्याः सा, तत्रनायके, बहिः आदर दर्शयन्ती, सुरते = रतिक्रीडायाम, उदास्ते = उदासीना भवति ।। ६२ ॥
प्रगल्मां धीरामुदाहरति-एकत्रेति । प्रगल्मा धीग आयान्तं कान्तं दृष्ट्वा दूरतः = विप्रकृष्टप्रदेशात, प्रत्युद्गमाव-प्रत्युद्गर्म विधाय, ल्यब्लोपे पञ्चमी । एकत्रएकस्मिन् स्थाने, आसनस्थितिः = उपवेशनसम्बन्धः, परिहता=परित्यक्ता । ताम्बूकानयनच्छलेन = ताम्बूलस्य ( नागवल्लीदलस्य ) आनयनम् ( आहरणम् ) तस्य छलेन (केतवेन), रमस:अश्लेषोऽपि = हर्षालिङ्गनम् अपि, सविधिनतः = सम्यक प्रतिबद्धः । अन्तिके = समीपे, कान्तस्येति शेषः । परिजनं = सखोजन, व्यापारयन्त्या नियोजयन्त्या, कार्यविशेष इति शेषः । मालापाऽपि = नामाषणम् अपि, न मिश्रितः= उत्तरेण युक्तो न कृतः । इत्य च चतुरयाचातुर्ययुक्तया नायिकया, कान्तं प्रति = नायकं प्रति, प्रमदाऽन्तरासक्तमिति शेष । उपचारतः = कृत्रिमप्रीतिहेतुव्यापारेभ्यः ।, कोपः = कोधः, कृतार्थीकृतः - सफलीकृत: संभोगप्रतिरोध: कोपफलम् । तनव कान्तो वशीकृत इति भावः । तथा चेयं धौरा प्रगल्भा । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।।
धीराधीरां लक्षयति-पीराऽधोरेति । प्रममा धीराधीरा सु, सोल्लुन्छभाषितः = आपातमधुरैः कटुमाषणः, अमुमायकं, खेदयत् खेदयुक्तं कुर्यात् ।।
बीरा प्रगल्भा-हो तो क्रोधके आकारको छिपाती हुई ।। ६२ ।। बाहरसे प्रियमें आदर दिखाकर रोतक्रीडामें उदासीन होती है।
जैसे-चतुरा (नायिका ) ने प्रियको आते हुए देखकर दूरसे ही बगवानी कर उनके साथ एक ही आसनमें स्थितिका परिहार किया, पान लानेके छलसे हर्षपूर्वक मालिङ्गनमें भी विघ्न डाला। पास ही सखीजनको काममें लगाती हुई उसने परस्पर बात भी नहीं मिलाई, प्रियके प्रति सत्कारके बहानेसे अपने क्रोधको सफल बना डाला।
घोराऽधीरा प्रगल्भा-धीराधीरा प्रगल्भा मधुर उपालम्भों ( उठाहनों ) 8 नायकको खिन्न बनाती है ।। ६३ ।।
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तृतीयः परिच्छेदः
४४
अमुं नायकम् । यथा मम
'अनलस्कृतोऽपि सुन्दर ! हरसि मनो में यतः प्रसमम् । किं पुनरलष्कृतस्त्वं सम्प्रति नखरझतैस्तस्याः॥' तजयेत्ताडयेदन्या
अन्या अधीरा । यथा-'शोणं वीक्ष्य मुखम्' इत्यत्र (७२ पृ०)। पत्र च सर्वत्र 'रुषा' इत्यनुवर्तते ।
-प्रत्येकं ता अपि द्विधा । कनिष्ठज्येष्ठरूपत्वानायकप्रणयं । प्रति ॥ ६४॥ ता अनन्तरोक्ताः षडभेदा नायिकाः।
धीराऽधीरा प्रगल्भामुगहरति-मनलस्कृत इति । हे सुन्दर = हे मनोरम :, अनलकृतोऽपि = अलङ्काररहितोऽपि, यतः = यस्मात्कारणाद, मे= मम, मनः%= चित्तं, प्रसभं = हठात्, हरसि = आकर्षसि, अतः सम्प्रति = अधुना, तस्याः = उपनायिकायाः, नखरक्षतैः = नखक्षतचिह्नः, रमणसमयकृतरिति शेषः, अलतः = भूषितः सन, किं पुनः = किं वक्तव्यम् । आर्या वत्तम् ।। ६३ ॥
अधीरां प्रगल्भां लक्षयति-तजयदिति । अन्या = अधीरा प्रगल्भा, वर्जयेत= भर्सयेत्, साडयेत् = प्रहरेत्. नायकमिति शेषः ।
___ अधीरां प्रगल्भामुदाहरति-'शोणां वीक्ष्य मुखम्" इत्यत्र । (पृ०७२) । अत्र नायक प्रतिपादप्रहारादियं नायिका अधीराप्रगलमा । यत्रएषु, सर्वत्र सर्वेषु स्थलेषु, धीरा:धीरादीनां कार्येषु लक्षणेषु च "रुषा" (कोपेन ) इत्यनुवर्तते ।
पुनः-षड्भेदा नायिका द्विधा विभजते-प्रत्यकमिति । ता:=पूर्वोक्ता धीग, अधीरा धीराऽधीरा चेति विध्यात् मध्यप्रगल्भयोः षड्विधा नायिका, अपि नायक. प्रणयं प्रति = नायकाऽनुरागं प्रति, कनिष्ठज्येष्ठरूपत्वात = अल्पाधिकस्वरूपत्वात पुनद्विधा ।। ६४ ॥
जैसे कि-हे सुन्दर ! जो आप अलङ्कारके बिना भी मेरे मनको आइष्ट करते हैं, उस ( नायिका अर्थात् मेरी सोत) के नखक्षतोंसे अलकत हैं तो फिर क्ण कहना है ?
अधीरा प्रगल्भा यह तर्जन और ताडन करती है। जैसे-"शोणं वीक्ष्य मुखम्" (पृ.७२ ) सर्वत्र "प्रियं सोत्प्रासवक्रोवक्ता." इत्यादि कारिकासे "उषा" ( क्रोधसे ) इस पदकी अनुवृत्ति होती है।
अभी कही गई ये छहों नायिकाएं नायकके प्रेममें न्यून और अधिक होनेसे दो दो भेदोंबाली होती हैं ।। ६४ ॥
१० सा०
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साहित्यदर्पणे
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पया'दृष्टवकासनसंस्थिते प्रियतमे पश्चादुपेत्यादरा
देकस्या नयने पिधाय विहितक्रीडानुबन्धच्छलः। ईपद्वक्रितकन्धरः सपुखकः प्रेमोल्लसन्मानसा
मन्तहसिलसत्कपोलफलकां धूर्ताऽपरां चुम्बति ।। मध्याप्रगल्भयोमदास्तस्माद् द्वादश - कीर्तिताः । मुग्धा त्वेकर, तेन स्युः स्त्रीयामेदात्रय दश ॥ ६५ ॥
ज्येष्ठ कनिष्ठा नायिकामुदाहरति-पष्टवेति । धूर्तः = नायकः, एकाऽसनसंस्थिते = एकासनोपविष्टे, प्रियतमे = वल्लभतमे, पल्यो, इत्यर्थः, दृष्ट्वा = अव. लोक्य, बावराव संमानाद, उभयत्र बाक्षिण्यवशात आदरं विधाय, ल्यब्लोपे पञ्चमी । पसात पृष्ठतः, उपेस्य = बावत्य, विहितक्रीडाऽनुबन्धच्छलः = विहितं (कृतम् ) क्रीमयाम् (खेलायाम् ) अनुबन्धः (आरम्भः) एव छलम् (कपटम् ) येन सः । एकस्याः परम्या, स्यने = नेत्रे, पिधाय = अपिधाय; पाणिभ्यामाच्छाति भावः । ईषतकितकन्वर - पद ( स्तोकं यथा स्यात्तथा ) वक्रिता (वक्रीकृता) कन्धरा (पीवा) येन सः। सपुलकः ( सरोमासः) सन्, प्रेमोल्लसन्मानसा = प्रेम्णा (प्रणयेन हेतुना ) उल्लस (हृष्यत्) मानसं (चित्तम् ) यस्याः, ताम् । तथा च अन्तहसिकसकपोलफलकाम् अन्तः (अभ्यन्तरे ) हासेन (हास्येन ) · लसती (बोप्यमाने ) कपोलफलके (गणस्पलें ) यस्याः, ताम्, अपराम् =अन्यां प्रियतरा, पत्नी, मुम्बति वक्तसंयोगं करोति । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।
सत्र धूर्तन कान्तेन पस्या नयने अपिहिते, सा कनिष्ठा, चुम्बनस्याऽप्राप्तेः । या चुम्बिता सा ज्येष्ठा, अधिकसम्मानाविति स्पष्टम् ॥ १४ ॥
वीयामेवान्सालयति-मध्यप्रगल्भयोरिति । तस्मात् = कारणाद, मध्याप्रगल्भयोः बादश मेवाः प्रकीर्तिताः । धीरा, अधीरा धीराऽधीरेति भेदैः मध्या प्रगल्भा च परभेदाः । तत्रापि ज्येष्ठा कनिष्ठेति भेदायात् ६x२-द्वादशभेदाः, मुग्धा नायिका तु एकंव, इत्वं समष्ट्या स्वीयामास्त्रयोदश मेवा बोदव्याः ॥ ६५ ॥
से कि-धूर्त नायक एक बासनपर बैठी हई दोनों प्रियाओं को देखकर पीछेसे आकर मदरसे क्रोगके छलसे एक प्रियाकी आँखोंको मुंदकर गर्दनको कुछ टेढ़ो कर रोमासयुक्त होकर प्रेमसे प्रसन्न वित्तवाली तथा अन्तःकरणमें हेसनेसे स्थूल पोलीस युक्त दूसरी मायिकाको चूम लेता है।
कार मध्या और प्रगल्भाके बारह भेद कहे गये हैं, और मुग्धाका एक बेह, सदरह स्वीया नायिकाके तेरह भेद हो गये हैं ।। ६५॥
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तृतीयः परिच्छेदः
१४७
परकीया द्विधा प्रोक्ता परोढा कन्यका तथा । तत्र
यात्रादिनिरताऽन्योढा कुलटा गलितत्रपा ।। ६६ ।। यथा'स्वामी निःश्वसितेऽप्यसूयति, मनोजिघ्रः सपत्नीजनः,
___ श्वश्रुरिङ्गितदैवतं, नयनयोरीहालिहो यातरः । तदूरादयमञ्जलिः, किमधुना हग्भङ्गिभावेन ते,
वैदग्धीमधुरप्रबन्धरसिक! व्यर्थोऽयमत्र श्रमः ॥' परकीयां विभजति-परकीयेति । परोढा = परेण ऊठा (विवाहिता) कन्यका चेति परोया नायिका द्विविधा।
परोढां लक्षयति-यात्राविनिरतेति । यात्रादिनिरता = उत्सवादिविलोकनतत्परा, कुलटा = परमर्तृगामिनि, गलितत्रपा = निलंज्जा, सा अन्योढा = अन्येन ऊढा. परोढा भवतीति भावः ।। ६६ ।।
परकीयामुदाहरति-स्वामीति । उपनायकं प्रति परोढाया उक्तिरियम् स्वामी-भर्ता, परिणेतेति भावः । निःश्वसिते. अपि = निःश्वासकरणे अपि । असूयतिदोषानाविष्करोति, मानसव्यभिचारमाशङ्कत इति भावः । सपत्नीजनः = एकभर्तृ. काजनः, मनोजिघ्रः = चित्ताघ्राता, मम परपुरुषविषये मानसमनुमिनोतीति भावः । "मनोजिघ्र" इत्यत्र मनो जिघ्रति इति "पाघ्रामाधेडदशःशः" इति शप्रत्ययः । श्वश्रःभर्तृजननी, इङ्गितदैवतम् = इङ्गितस्य ( इस्तादिचेष्टादेः ) दैवतम् ( देवता, इङ्गिताsशिक्षेति भावः ) । यातरः = पति भ्रातृपत्न्यः, नयनयोः नेत्रयोः, ईहालिहः = चेष्टाऽनुमापिकाः, तत्-तस्मात्कारणात्, दूरात-विप्रकृष्टप्रदेशात् एव, अयमञ्जलि:=सम्पुटितकरद्वयं, मया समर्म्यत इति शेषः । अधुना = सम्प्रति, ते = तव, दृगङ्गिमावेन = नेत्र. विच्छित्यभिप्रायेण, मेत्रसङ्केतव्यापारेणेति भावः किं =fक फलम् ? अतः हे वैदग्धीमधुरप्रबन्धरसिक = वैदग्ध्या ( रसिकत्वेन ) यः मधुरः ( मनोहरः ) प्रबन्धः (व्यापारः) तत्र रसिकः ( अनुरागी), तत्सम्बुद्धी, अत्र = अस्मिन्स्थाने, धमः = परिश्रमः,
परकीयाके दो भेद होते हैं-परोढा (विवाहिता ) और कन्या ।
यात्रा आदिमें तत्पर और लज्जासे हीन कुलटाको अन्योता वा परोठा कहते हैं ।। ६६ ॥
परोढाका उदाहरण-स्वामी सांस लेनेमें भी ईर्ष्या करते हैं, सपत्नी (सौत) मनकों सूघती है अर्थात् अभिप्रायको भांपनेके लिए कोशिश करती है । सास अभिप्राय जाननेके लिए देवता है जेठनियां और देगरानियां चेष्टाको चाटती हैं अर्थात् मेरी चेष्टाका अनुमान करती रहती हैं, इसलिए मैं दूरसे ही अजलि जोड़ती हूं, रसिकतासे
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साहित्यदर्पणे
अत्र हि मम परिणेताऽन्नाच्छादनादिदातृतया स्वाभ्येव न तु वल्लभः । त्वं तु वैदग्धीमधुरप्रबन्धरसिकतया मम वल्लभोऽसीत्यादिव्यङ्गयाथवशादस्याः परनायकविषया रतिः प्रतीयते ।
कन्या त्वजातोपयमा सलजा नवयौवना । ... अस्याश्च पित्राद्यायत्तत्वात्परकीयात्वम् । यथा मालतीमाधबादौ मालत्यादिः।
धीरा कलाप्रगल्भा स्याश्या सामान्यनायिका।। ६७ ॥ . समागमसंकेतात्मक इति भावः, व्यत्वदीय इति शेषः । व्यर्थः = निष्फलः, त्वदीयमभिलाषं पूरयितुमसमर्थाऽस्मीति भावः ।
स्तोक विवृणोति-पत्रेति । अत्र = इह, स्थाने, परिणेता = विवाह कर्ता, अन्नाच्छादनादिदातृतया = भाजनवस्त्रादिवितरकत्वेन, स्वामी एव = भर्ता एव, न तु वल्लभः = प्रियः, एतद्वैपरीत्येन त्वं तु वैदग्धीमधुरप्रबन्धरसिकतया = रसिकतामनोहरव्यापाराऽनुरागितया, वल्लभोऽसि इत्यादि व्यङ्गयार्थवशात् = व्यञ्जनावृतिप्रतिपाद्यार्थवशात्, अस्याः = वक्त्र्याः , परनायकविषया = परपुरुषविषया, रतिः = अनुरागः, प्रतीयते = ज्ञायते ॥ ६६ ॥ .
कन्या लक्षयति-कन्येति । अजातोपयमा = अनिवत्तविवाहा, सलज्जा = वीडायुक्ता, नवयोवना-प्रत्यग्रतारुण्या, एतादृशः न्यारूपा परकीया नायिका भवति ।
अस्याश्च = कन्यायाऽश्च, पित्राद्यायत्तत्वात्, जनकाद्यधीनत्वात, आदिपदेन मातृभ्रात्रादीनां परिग्रहः, परकीयात्वम् ।
साधारणा नायिका लक्षयति-धीरेति । धीरा = विदुषी, सुरतपण्डितेति भावः । कलाप्रगल्भा = कलासु ( नृत्यगीतवादित्रादिषु ) प्रगल्भा ( प्रतिमाऽन्विता ), वेश्या = वारस्त्री, सामान्यनायिका = साधारणा नायिका भवति ।। ६७ ॥ मधुर क्रियामें हे अनुरागवाले आपके नेत्रों के सकेतसे क्या होता है ? यहाँपर आपका यह परिश्रम व्यर्थ ( बेकार ) है। .
यहाँपर मुझसे विवाह करनेवाले अन्न और वस्त्र आदिको देनेसे केवल स्वामी हैं प्रिय नहीं है, तुम तो रसिकतासे मधुर क्रिया में अनुरागी होनेसे मेरे प्रिय हो इत्यादि . व्यङ्गय अर्थके कारण इस वक्त्रीको परपुरुषमें रतिकी प्रतीति होती है ।
कन्या-जिसका विवाह नहीं हुआ है, लज्जा और नूतन तारुण्यसे युक्त ऐसी नायिकाको “कन्या" कहते है । यह पिता आदिकी अधीन होनेसे "परकीया" हैं। जैसे मालतीमाधव आदिमें मालती आदि । ... साधारणा ( वेश्या)-धैर्यवाली नृत्यगीत आदि कलाओं में प्रवीण वेश्याको "साधारणा" नायिका कहते हैं ।। ६७ ।।
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तृतीयः परिच्छेदः
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निगुणानपि न दृष्टि न रज्यति गुणिज्वपि । वित्तमानं समालोक्य सा राग दर्शयेबहिः ॥ ६ ॥ काममङ्गीकृतमपि परिक्षीणधनं नरम् । मात्रा निःसारयेदेषा पुनःसंधानकाझ्या ॥ ६९ ॥ तस्कराः पण्डका मूर्खाः सुखप्राप्तधनास्तथा ।
लिङ्गिनश्छन्नकामाया अस्याः प्रायेण बल्लभाः ।। ७० ।।
सामान्यनायिका ( वेश्याम् ) वशेषतः परिचाययति निर्गुणानिति । सा च= सामान्यनायिका ( वेश्या ), निर्गुणानपि पुरुषाम्, न द्वेष्टि-तत्र द्वेषं न करोति , गुणिषु अपि, सगुणेषु अपि पुरुषेषु, न रज्यति = अनुरक्ता न भवति । सा, वित्तमात्रं = धनमात्रं, कामुकपुरुषस्येति शेषः । समालोक्य दृष्ट्वा, बहिः = कृत्रिमरूपम् इति भावः; रागम् अनुरागं, दर्शयेत्, न तु अन्तःस्थितं इति शेषः ।। ६८ ॥
एषा = सामान्यनायिका, कामम् = अत्यर्थम्, अङ्गीकृतम् अपि = प्रियत्वेन स्वीकृतम् अपि, परिक्षीणधनं = नष्टद्रव्यं, नरं = कामुकजनं, पुनः = भूयः, सन्धानकाङ्क्षया समागमेच्छया, धनार्जनार्थमिति शेषः । मात्रा जनन्या शम्भल्या, निष्कार' सयेत्-निराकुर्याद्, पुनर्धनसंयोगे सति मातरं दूषयित्वा परिग्राहयितुमिति भावः ॥६९:
सामान्यनायिकाया वल्लभानुद्दिशति-तस्करा इति । तस्कराः = चौराः, पण्डकाः = वातपाण्ड्वादयः, वस्तुत:-पण्डका इत्यत्र पण्डा एव पण्डका:, स्वाऽर्थे कन् । "तृतीयाप्रकृतिः षण्ढः क्लीब: पण्डो नपुंसके” इत्य नरः । पण्डकाः = नपुंसकाः, वातपण्डका: वातेन ( रोगविशेषेण ) पण्ड्रकाः ( नपुंसकाः । "पण्ड्रकाः” इति पाठान्तरस्वीकारे तस्य प्रयोगो नोपलभ्यते । मूर्खा: अज्ञाः, सुखप्राप्तधनाः-सुखेन ( अनायासेन ) प्राप्त ! लब्धम् ) धनं (द्रव्यम् ) यस्ते, पित्राजितधनसपनाः, दुःखाजितधनस्य व्ययितुमशक्यत्वादिति भावः । लिङ्गिनः = लिङ्गम् (चिह्नम् ) स्ति येषां ते; तापसब्रह्मचार्यादिवेशधारिणः । छन्नकामाद्याः छन्नः ( प्रच्छन्नः ) कामः ( मदनावेशः ) येषां ते, अथवा छन्नं कामयन्ते इति, कर्मण्यण् । ते आद्या येषां ते। प्रच्छन्नकामा जनाः
वह निर्गुणों से भी द्वेष नहीं करती है गुणियों में भी अनुरक्त नहीं होती है केवल धनको देखकर बाहर अनुराग दिखाती है ॥ ६८ ।।
अच्छी तरहसे अङ्गीकृत पुरुषकोभी धनसे क्षीण होनेपर फिर समागमकी इच्छासे अपनी माताके द्वारा निकलवाती है ॥ ६९ ।।
___ चोर, पण्डक ( वातपाण्डुरोगवाले वा नपुंसक ), मूर्ख, जिनसे अनायास ही धन प्राप्त हो सके वैसे पुरुष, तपस्वी और ब्रह्मचारी आदिके वेष लेनेवाले, जिनका कामावेश
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साहित्यदर्पणे
एषापि मदनायता क्वापि सत्यानुरागिणी । रक्तायां वा विरक्तायां रतमस्यां सुदुर्लभम् ।। ७१ ।।
पण्डको पातपाण्ड्वादिः । छन्नं प्रच्छन्नं ये कामयन्ते ते छनकामाः । तत्र रागहीना यथा लटकमेलकादौ मदनमञ्जर्यादिः। रक्ता यथा मृच्छकटिकादौ वसन्तसेनादिः।
पुनश्चअवस्थाभिभवन्त्यष्टावेताः षोडशमेदिताः । स्वाधीनमत का तद्वत्खण्डिताऽथाभिसारिका ।। ७२ ।।
S
स्वकामावेशगोपनाऽर्थ बहु बितरन्ति, एते चना मस्याः = वेश्यायाः, प्रायेण = प्रायशः, वल्लभाः= प्रियाः ।। ७० ॥
एषा अपि = वेश्या अपि, क्वाऽपि-कुत्रचित्पुरुषे, सत्याऽनुरागिणी = यथार्थ. रूपेण प्रणयशीला भवति । रक्तायाम् = अनुरक्तायां, विरक्तायाम् = अपरक्तायां वा, अस्यां = वेश्यायां, ग्तं = रमणं, सुदुर्लभम् = अतिशयदृष्प्राप्यं, भवति । विवृणोति. रागहीना = विरक्ता, यथा लटकमेलकादो मदनमर्यादिः । रक्ता = अनुरक्ता, यथा मृच्छकटिकादो वसन्तसेनादिः ।। ७१ ॥
पुनर्भदाऽण्टकमुद्दिशति-अवस्थाभिरिति । षोडशभेदिता: स्त्रीयाः त्रयोदश, परकीये है, साधारणा एका इति षोडशभेदयुक्ताः, एताः = नायिका, अवस्थाभिः = दशाभिः पुनरष्टी भवन्ति ।
परिगणयति-स्वाधीनभर्तकेति । स्वाधीनो भर्ता यस्याः सा, "नघतश्चे" ति कप् । पणिता, अभिसारिका-॥७२॥ प्रच्छन्न है अथवा गुप्तरूपसे चाहनेवाले इत्यादि पुरुष प्रायः ( अकसर) इसके प्यारे होते हैं ॥७॥
यह ( साधारण स्त्री) भी किसी पुरुष में सच्चे अनुरागवाली होती है यह (साधारणा) अनुरक्त हो वा विरक्त हो इसमें रति अत्यन्त दुर्लभ है ॥ ७१ ॥
रागहीन साधारणा जसे- लटकमेलक आदिमे मदनमजरी आदि । अनुरक्त साधारणा जैसे- मृच्छकटिक आदिमें वसन्तसेना आदि ।
अन्य भेद कहते हैं:-सोलह भेदोंवाली ये नायिकाएं अवस्याओंसे फिर पाठ प्रकारकी होती हैं । जैसे कि-स्वाधीनभर्तृका, खण्डिता, अभिसारिका । 100
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तृतीयः परिच्छेदः
कलहान्तरिता विप्रलब्धा प्रोषितभर्तृका । अन्या वासकसजा स्याद्विरहोत्कण्ठिता तथा ॥ ७३ ॥
तत्र
कान्तो रतिगुणाकृष्टो न जहाति यदन्तिकम् । विचित्रविभ्रमासक्ता सा स्यात्खाधीनभर्तृका ।। ७४ ।। यथा— 'अस्माकं सखि वाससी - ' ( ७२ पृ० ) । इत्यादि । पार्श्वमेति प्रियो यस्या अन्यसंयोगचिह्नितः ।
सा खण्डितेति कथिता धीरेरीयकषायिता ।। ७५ ।।
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कलहान्तरिता कलहेन अन्तरिता ( व्यवहिता .) कान्तेनेति शेषः, विप्रलब्धा = वखिता, कान्तेनेति शेषः । प्रोषितभर्तृका = प्रोषितः ( प्रवास उषितः) भर्ता ( प्रियः ) यस्याः सा, समासान्तः कप् । वासकसज्जा = वासकं (वस्त्रम् ) तेन संज्ञा ( संनद्धा ) । विरहोत्कण्ठिता = विरहेण ( प्रियवियोगेन) उत्कण्ठिता ( उत्सुका) ।। ७३ ।।
स्वाधीनभर्तृका लक्षयति- कान्त इति । रतिगुणाऽऽकृष्टः रविगुणेन ( अनुरागगुणेन ) आकृष्टः ( जाताकर्षणः ), कान्तः = वल्लभः, यदन्तिकं = यस्याः ( नायिकाया: ) अन्तिकं ( समीपम् ), न जहाति = न त्यजति । विचित्रविभ्रमाऽऽसक्ता = अनेकविलास सक्तियुक्ता सा = तादृशी नायिका, स्वाऽधीनभर्तृका स्यात् । उदाहरति - " अस्माकं सखि वाससी" ( पृ०७२ ) ॥ ७४ ॥
खण्डितां लक्षयति- पार्श्वमिति । अन्यसंयोगचिह्नितः = अन्यस्याः ( नायिकायाः ) संयोग: ( संयोजनम्), तेन चिह्नितः (नखदशनक्ष ताचि ह्रयुक्तः ); कान्तः प्रियः यस्था: = नायिकायाः, पार्श्व = निकटम् एति = आगच्छति, ईर्ष्याकषायिता = ईया ( असूयया ) कक्षा पिता ( कलुषितचित्ता ), सा= नायिका, धीरैः = विद्वद्भिः, खण्डितेति कथिता = अभिहिता ॥ ७८ ॥
कलहान्तरिता, विप्रलब्धा, प्राषितभर्तृका, वासकसज्जा और विरही स्कण्ठिता ।। ७३ ।।
-
स्थान का अनुराग गुणसे आकृष्ट प्रिय जिसका सामीप्य नहीं छोड़ता है, विचित्र विलासवाली उसको “स्वाधीनभर्तृका" कहते हैं ॥ ७४ ॥
जैसे – “अस्माकं सखि ! वाससी” पृ० ७२ ।
खण्डिता - दूसरी स्त्रीके संयोगसे चिह्नित प्रिय जिसके पास जाता है। ईर्ष्याि कलुषित चित्तवाली उसको विद्वान् "खण्डिता" कहते हैं ।। ७५ ।।
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१५२
साहित्यदर्पणे
यथा-'तदवितथमवादी:-' (८५ पृ०)। इत्यादि ।
अभिसारयते कान्तं या मन्मथवशंवदा ।
खयं वाभिसरत्येषा धीरैरुक्ताभिसारिका ।। ७६ ॥ क्रमाद्यथा
न च मेऽवगच्छति यथा लघुतां, करुणां यथा च कुरुते स मयि । . निपुणं तथैनमभिगम्यं वदेरभिदूति काचिदिति संदिदिशे॥ 'उरिक्षप्तं करकणद्वयमिदं, बद्धा दृढं मेखला,
यत्नेन प्रतिपादिता मुखरयोमञ्जीरयोर्मुकता। . खण्डिताया उदाहरणं-"तदवितथमवादीः" इत्यादि (पृ० ८५ ) ।।७।।
अभिसारिका लमयति-प्रभिसारयत इति । मन्मथवशंव -मन्मथस्य (कामस्य) वशंवदा ( वश्या ) सती, या नायिका, कान्तं प्रियम्, अभिसारयते-दूत्यादिमुखास्कुत्रचित्स्थाने प्रापयति, वा अथवा, स्वयम् आत्मना, अभिसरति = कान्तसमीपं गच्छति, एषा = इयं नायिका, धीरः=विद्वद्भिः, अभिसारिका, उक्ता = कथिता ॥ ७६ ॥
कान्तमभिसारयन्त्या नायिकाया उदाहरणं-न चेति । ( हे दूति = हे सन्देश हरे ! ) सः = मत्प्रियः, यथा = येन प्रकारेण, मे = मम, लघुतां = लाघवं, न अव. गच्छति = न जानाति, ए च यथा, मयि = विषये, कणाम् = अनुकम्पा, कुरुते - विदधाति । एनं =तं कान्तम्, अभिगम्य-= सम्मुखं गत्वा, निपुणं = कुशलं, तथा = तेन प्रकारेण, वदेः = बहि, इति काचिन = अभिसारिका, अभिदूति = दूती लक्ष्यीकृत्य, संदिदिशे = सन्दिष्टवती, कान्तमभिसारयन्तीयं प्रयमाऽभिसारिका ।
स्वयमभिसरन्त्या उदाहरणमाह-उत्क्षिप्तमिति । अभिसारिका स्वसखीं कथयति-हे प्रियसखि ! इदं करकङ्कणद्वयंपाणिवलयद्वितयम्, उरिक्षप्त मणिबन्धा. दूध्वं न्यस्तम्, शब्दनिवारणार्थमिति भावः । एवं परत्राऽपि । मेखला च = नानाविध. रत्नखचिता काञ्ची च, दढ = गाढं, बद्धा नद्धा। मुखरयोः = शब्दायमानयोः, मञ्जीरयोः= नुपुरयोः, मूकता = निःशब्दता, यत्नेन=प्रयासेन, प्रतिपादिता सम्पादिता ।
जैसे-"तदविसथमवादी: ( पृ. ८५ ) । इत्यादि ।
अभिसारिका-कामके वशमें रहनेवाली जो प्रियको संकेत स्थल में बुलाती है वा स्वयम् उसके पास जाती है, उसे विद्वान् “प्रभिसारिका" कहते हैं ।। ७६ ॥
प्रियको बुलानेवाली प्रभिसारिका-"जिस तरहसे वे मेरी लघुताको न समझें और मेरे ऊपर दया करें, उसके पास जाकर अच्छी तरहसे कहो" इस प्रकार किसी नायिकाने दूतीको सन्देश दिया।
प्रियके पास स्वयम् जानेवाली मभिसारिका-इन दोनों करकङ्कणोंको मैंने मणिबन्धोंके ऊपर रक्खा, मेखला (करधनी ) को मजबूतीके साथ बांधा, शन.
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तृतीयः परिच्छेदः
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आरब्धे रमसान्मया प्रियसखि ! क्रोडाभिसारोत्सवे,
चण्डालस्तिमिरावगुण्ठनपटक्षेपं विधत्ते विधुः।' संलीना स्वेषु गात्रेषु मूकीकृतविभूषणा । • अवगुण्ठनसंचीता कुलजाऽभिसरेद्यदि ।। ७७ ।।
विचित्रोज्ज्वलवेषा तु रणन्नूपुरकङ्कणा । प्रमोदस्मेरवदना स्याद्वेश्याऽभिसरेद्यादि ।। ७८ || -
मदम्खलितमलागा विभ्रमोत्फुल्ललोचना । अनन्तरं च कान्तसमागमसमये इति शेषः, मया, क्रीडाऽभिसारोत्सवे = क्रीडार्थम्, (विहाराऽर्थम् ) अभिसारोत्सवे ( अभिसरणरूपक्षणे ), रमसात् -वेगावर्षाद्वा, मारब्धे= प्रक्रान्ते सति, चण्डालः = चण्डालसमः, क्रूर इति भावः । विधुः = चन्द्रः, तिमिराऽ. वगुण्ठनपटक्षेपं = तिमिरम् ( अन्धकारः ) एव अवगुण्ठनपट: ( आवरणवस्त्रम् ), तस्य क्षेपम् (अपसारणम्), विधत्ते कुरुते, चन्द्रोदयेन अभिसारस्य नष्फल्यं जातमिति भावः । स्वयमभिसरणात् इयं द्वितीयाऽभिसारिका । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।। ७६ ॥
कुलजाया अभिसारिकाया अभिसरणप्रकारमाह संलोनेति । कुलजा-कुलीना अभिः सारिका, अभिसरेत यदि अभिसरणं कुर्याच्चेत्, स्वेषु-आत्मीयेषु, गात्रेषुः अङ्गेषु, लक्षणया एषोऽर्थः । संलीना-संश्लिष्टा, अतीवसकुचितेति भावः । मूकीकृत विभूषणाः-नि.शब्दीकृताऽलङ्कार, एवं, च अवगुण्ठनसंवीता आवरणवस्त्रपरिवेष्टिना, भवतीति भावः।।७७॥
वेश्याया अप्रिसारिकाया अभिसरणप्रकारमाह-विचित्रोउज्वलवेशेति । वेश्या वारस्त्री अभिसारिका, अभिसरेत् यदि, तदा विचित्रोज्ज्वलवेशा = विचित्र: ( अनेकवर्णः ) उज्ज्वल: ( स्वच्छः ) वेशः ( नेपथ्यम्) यस्याः सा, तथा च प्रमोदस्मेरवदनाप्रमोदेन ( हर्षेण ) स्मेरं ( विकसितम् ) वदनं ( मुखम् ) यस्याः सा, एता- , दशी स्यात्, जनमनोमोहनाऽर्थमिति शेषः ॥ ७ ॥
प्रेष्याः ( भृत्यायाः) अभिसारिकाया अभिसरणप्रकारमाह मवेति । प्रेष्या= भृत्या अभिसारिका अभिसरेत् यदि तदा मदस्खलिनसंलापा-मदेन (मदनमदेन) स्खलितःकरनेवाले नपुत्रों को यत्नपूर्वक शब्दहीन बनाया, इसप्रकार वेगसे क्रीडाके लिए अभिसार. के उत्सवका प्रारंभ करनेपर चण्डाल चन्द्र अन्धकाररूप आवरणवस्त्रको हटा रहा है ।७६।
कुलीन स्त्री अभिसार करेगी तो अपने शरीरके अवयवोंमें सिकुड़कर भूषणोंको शब्दहीन बनाकर धूघट काढ़ेगी ।। ७७।।।
वेश्ण अभिसार करेगी तो विचित्र और उज्ज्वल वेषको धारण कर नपुर और करणोंको बजाती हुई हर्षसे विकसित मुखवाली होगी ।। ७ ।।
भृत्या ( नौकरानी ) अभिसार करेगी तो मदसे विकृत बातचीत करती हुई
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साहित्यदर्पणे
आविद्धगांतसंचारा स्यात्प्रध्याभिसरेद्यदि ॥ ७९ ॥ तत्राद्ये 'उरिक्षप्तम्' इत्यादि (९१ पृ०)। अन्ययोः ऊह्यमुदाहरणम् । प्रसङ्गादभिसारस्थानानि कथ्यन्ते
क्षेत्रं वाटी भग्नदेवालयां दूतीगृहं वनम् । मालापश्चः श्मशानं च नद्यादीनां तटी तथा ॥ ८ ॥ एवं कृताभिसाराणां पुश्चलीनां विनोदने ;
स्थानान्यष्टौ तथा वान्तच्छन्ने कुत्रचिदाश्रये ॥ ८१ ।। (विकृतः ) सलापः (मिथाभाषणम् ) यस्याः सा । विभ्रमोत्फुल्ललोचना = विघ्रमेण (विलासेन ) उत्फुल्ले (विकसिते ) लोचने ( नयने ) यस्याः सा । तथा च आविद्यः गतिसबारा = आविदः (स्खलितः) गतिसञ्चारः (गमनव्यापारः) यस्याः सा, तादृशी स्यात् ॥७९॥
तत्र तेषु, अभिसरणभेदेष्वित्यथः । माये =कुलजाऽभिसरणे, उत्क्षिप्तम् इत्यादि (९१ पृ.) । अन्ययो.-अनन्तरवतिन्योः वेश्याप्रेश्ययोरिति भावः उदाहरणम्, ऊह्यम्तकनीयम् ।
__ अभिसारस्थानानि यथा-- क्षेत्रमिति । क्षेत्र = केदारः, वाटी - गृहोद्यानम् । भग्नदेवाऽऽलयः = जीणदेवमन्दिरन, दूतीगृहं = शम्भलीगेहम् । वनम् = अरण्यम्, मालापश्चः पुष्पोद्यानं मालाना (पुष्पमालानाम् ) पञ्चः (व्यक्तीकरणम् ) यस्मिन् इति व्यधिकरणबहुव्रीहिः । अथ वा मालाप च । मा (न) आलापः (आभाषणम् ) यस्मिन तत माऽऽलापं = निर्जनस्थानमिति भावः । श्मशानं = पितृवनम्, नद्यादीनां तटीं = तटम् ॥ ८०॥
एवं कृताऽभिसाराणां = विहित ऽभिसाराणां, पुंश्चलीना-कुलटाना, विनोदनेमनोमोदने, अष्टौ स्थानानि, “स्थान न्यष्टो प्रवदति मुनिः पुंधलीनां विनोद" इत्युक्तेरनु, साराज्ज्ञातव्यानि । एवं च ध्वान्ताच्छन्ने = अन्धकारावते, कुचिद् आश्रमे स्थानेऽपि पुंश्चलीनां विनोदन भवतीति भावः ।। ८१॥ विलाससे विकसित नेत्रोंवाली होकर रुक रुक कर चलेगी॥७९॥ - कुलीन प्रभिसारिकाका उदाहरण-"उत्क्षिप्तम्" (पृ० ९१)। वेश्या और भृत्या अभिसारिकाओंका उदाहरणोंका कह करें।
प्रसङ्गसे अभिसार के स्थानों को कहते हैं-खेत, घरका बगीचा, जीर्ण देवमन्दिर, दूतीका घर, वन, निर्जनस्थान, श्मशान, नदी मादिका किनारा ॥ ५० ॥ इसप्रकार अभिसार करनेवाली कुलटाओंके ये आठ स्थान, अन्धकारसे मावृत कोई अन्य स्थान भी होते हैं ॥१॥
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तृतीयः परिच्छेदः
चाटुकारमपि प्राणनाथं रोषादपास्य या । पश्चात्तापमवाप्नोति कलहान्तरिता तु सा ।। ८२ ॥
यथा मम तातपादानाम् --
'नो चाटुश्रवणं कृतं न च दृशा हारोऽन्तिके वीक्षितः, कान्तस्य प्रियहेतवो निजसखीवाचोऽपि दूरीकृताः । पादान्ते विनिपत्य तत्क्षणमसौ गच्छन्मया मूढया पाणिभ्यामवरुध्य हन्तं ! सहसा कण्ठे कथं नापितः ॥'
अथ प्रसङ्गपतितां कलहाऽन्तरितां लक्षयति-चाटुकारमिति ! या = नायिका, चाटुकारमपि प्रियवाक्येन अनुनयशीलमपि । प्राणनाथं = प्रियं, रोषात् = क्रोधाद्धेतोः अयास्म = बहिष्कृत्य, अनन्तरं पश्चात्तापम् = अनुतापम् अवाप्नोति, सा कलहान्तरिता बोध्या ।। ८२ ।।
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कलहान्तरिता मुदाहरति-नो चाटुश्रवणमिति । अनुनयन्तं प्रियं प्रत्य पश्चादनुतप्तायाः कलहान्तरिताया नायिकाया उक्तिरियम् । चाटुश्रवणं = कान्तस्य प्रियवचनाकर्णनं, नो कृतं = न विहितम् । अन्तिके = निकटे हारः = - प्रियेणाऽनुनयार्थ सममाणा मुक्तावली, दृणा = दृष्या, न वीक्षितः = नाऽवलोकितः । तथा च कान्तस्य = प्रियस्य, प्रियहेतव: - अभीष्टकारणभूताः, निजसखीवाचोऽपि स्वसहचरोवचनान्यपि, दूरीकृताः = परित्यक्ताः किंबहुना असो = कान्तः पादाऽन्ते = चरणप्रान्ते, अनुन-: यार्थमिति शेषः । नित्य सप्राप्य, तत्क्षणं = तत्कालमेव, गच्छन् = नैराश्येन दूरं व्रजन्नपि मूढदा प्राप्तमोहया, क्रोधवशादिति शेषः । मया, पाणिभ्यां कराभ्याम्, अवरुध्य निरुध्य, सहसा = अतर्कित एव कण्ठे = तस्य गले, कथं = केन प्रकारेण, न अर्पितः न समर्पितः प्रत्यनुनयार्थं कान्तस्य कण्ठे मया पाणिः कथं न निहित इति भावः । अनुनयन्तं कान्तं बहिष्कृत्य अनुतप्तेयं नायिका कलहान्तरिता ।। ६२ ।
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१५५
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'कलहान्तरिता - जो खुशामद करनेवाले प्राणनाथको भी क्रोध से पहले ठुकराकर पीछे पछताती है उसे "कलहान्तरिता" कहते हैं । ८२ ॥
इसके उदाहरण में अपने पिताजीका पद्य देते हैं
मैंने अपने प्रियके प्रियवचनको भी नहीं सुना, निकट स्थित हारको भी नहीं देखा, प्रियके प्रीतिसम्पादनकी हेतुभूत प्रियसखी के वचनोंकों भी ठुकरा दिया। मेरे पैरों-पर गिरकर उसी क्षण निराश होकर जाते हुए उनको मोहवाली मैंने रोककर सहसा उनके गले में आलिङन क्यों नहीं किया ? हाय !
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१५६
साहित्यदर्पणे
प्रियः कृत्वापि संकेत यस्या नायाति सनिधिम् । विप्रलब्धा तु सा ज्ञेया नितान्तमवमानिता ॥ ८३ ।। यथा'उत्तिष्ठ दृति ! यामो यामो यातस्तथापि नायातः । याऽतः परमपि जीवेजीवितनाथो भवेत्तस्याः॥'
नानाकार्यवशायस्या दूरदेशं गतः पतिः । . सा मनोभवदुःखार्ता भवेत्प्रोषितभत का ।। ८४ ॥
यथा
'तां जानीयाः परिमितकथां जीवितं मे द्वितीयं
विप्रलब्धां लक्षयति प्रिय इति । प्रियः = कान्तः, संकेतं = समागमस्थाननिर्देशं, कृत्वाऽपि = विधायाऽपि, नायिकायाः, सन्निधिं = समीपं, न आयाति = ना गच्छति, सा तु, नितान्तम् । एकान्तम्, अवमानिता = तिरस्कृता, विप्र लब्धा, ज्ञेया = बोध्या ।। ८३॥
विप्रलब्धामुदाहरति-उत्तिष्ठति । सङ्केतस्थानमागस्य चिरप्रतीक्षाऽनन्तरमपि कान्तस्याऽनागमेन खिन्नाया विप्रलब्धाया दूनी प्रति कथनमिदम् । हे दूति ! = हे सन्देशहरे !, उत्तिष्ठ = उत्थानं कुरु, यामः = गच्छामः, “यमिति शेषः । यामः--प्रहरः, अत्रायतयोरवयोरिति शेषः। यात: = पतीतः, तथाऽगि, न आयातः -- आगतः, कान्त इति शेषः । अत: :- अस्मात्कालात, अपि, या जीवेत् = प्राणान् घारयेत, तस्या एव, जीवितनाथ: == प्राणनाथ: भवेत, न तु अधीराया ममेति भाव: । सङ्कत विधायाऽपि ., कान्तस्याऽनागमेन इयं विप्रलब्धा नायका ।। ८३ ॥
प्रोषितभर्तृकां लक्षयति --- नानाकार्यवशादिति । यस्याः-नायिकायाः पतिःवल्लभः, नानाकार्यवशात = अनेककर्माऽधीनत्वाद्धेतोः, दूरदेश सिप्रकृष्टप्रदेशं, गतः = प्राप्तः, मनोभवदुःखिता-मदनवेदनापीडिता, सानायिका, प्रोपितभर्तृक। भवेन ॥४॥
प्रोषितभर्तृकामुदाहरति - तां जानीया इति । कुबेरशापेन पत्नीविप्रयुक्तस्य
विप्रलब्धा-प्रिय संकेत करके भी जिसके समीप नहीं आता है, अत्यन्त अपमानित उसे "विप्रलब्धा" कहते है ।। ८३ ॥
उदाहरण- दूति ! उठो। हम लोग चलें, एक प्रहर बीच चुका फिर भी वे नहीं आए । इसके अनन्तर भी जो जीयेगी उसके प्राणनाथ होंगे।
प्रोषितभर्तृका-जिसका पति अनेक कामोंमें व्यस्त होकर दूर देशमें गया है, कामदेवसे पीडित उस नायिकाको "प्रोषितभत का" कहते हैं ।। ८४ ।।
उदाहरण-मेघदूतमें यक्ष मेघसे कह रहा है-"हे मेघ ! मुझ सहचरके दूर
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तृतीयः परिच्छेदः
दूरीभूते मयि सहचरे चक्रवाकीमिवैकाम् । गाढोत्कण्ठां गुरुषु दिवसेष्वेषु गच्छत्सु बालां
जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनीं वान्यरूपाम् ॥' कुरुते मण्डनं यस्याः सज्जिते वासवेश्मनि । सा तु वासकसज्जा स्याद्विदितप्रियसङ्गमा ॥ ८५ ॥ यथा राघवानन्दानां नाटके
'विदूरे केयूरे कुरु, करयुगे रत्न वलय
कान्ते, दूरीभूते=
-
मम, द्वितीय
।
रलं, गुर्वी ग्रीवाभरणलतिकेयं किमनया । कस्यचिद्यक्षस्य मेघं प्रति उक्तिरियम् । सहचरे = सहचारिणि, मयि दूरदेशं प्राप्ते सतिं एकाम् = एकाकिनीं, चक्रवाकीम् इव चक्रवाकजायाम् इष, स्थिताम्, परिमितकथाम् च अल्पभाषिणीं तां = पूर्वोद्दिष्टां नायिकां, मे जीवितं = जीवनं, जानीया: - विद्धि । गुरुषु = दुर्वहेषु, विरहेणेति शेषः वासरेषु, गच्छत्सु सत्सु, गाठोत्कण्ठां = मदर्थं भूशोत्कण्ठितां तां तरुणीं, शिशिरमथितां = हिमक्लिष्टां पद्मिनीं = कमलिनी, वा इव, अन्यरूपां रूपान्तरं प्राप्तां,, मन्ये उत्प्रेक्षे । यक्षवगितेय नायिका प्रोषितभर्तृका ज्ञेया ॥ ६४ ॥ वासकसज्जां लक्षयति — कुरुत इति । सज्जिते = परिष्कृते, शय्याप्रदीपादि -- भिरुपकरणैरिति शेषः । वासवेश्मनि = निवासभवने, यस्थाः = नायिकायाः, मण्डनम् - अलङ्करणं, कुरुते = विदधाति सखीति शेषः । विदितप्रियसङ्गमा - ज्ञावकान्त समागमा, • नायिका तु, वासकसज्जा स्यात् ।। ७५ ।।
एषु, दिवसेषु = पूर्वोक्ता, बालां
=
सा =
वासकसज्जा मुदाहरति - विदूरे इति । अलङ्कुर्वतीं सखीं प्रति वासकसज्जाया उक्तिरियम् । हे सखि ! केयूरे = अङ्गदे, विदूरे = दूरवर्तिनी, कुरु = विधेहि, केयूरे अपनयेति भावः । करयुगे = पाणियुग्मे, रत्नवलयं: = मणिकङ्कणैः, अलं पर्याप्तं, रत्नवलयानां प्रयाजनं नेति भावः । इयम् एषा, ग्रीवाऽऽभरणलतिका = कण्ठभूषालता, गुर्वी = महती, भारयुक्तेति भावः । अतः अनया ग्रीवाऽऽभरणलतिकया, अलं वर्ती होनेपर चक्रवाकी ( चकवी ) की तरह अल्पभाषिणी और अकला उसको तुम मेरा दूसरा जीवन जान लो, गाठ उत्कण्ठावाली वह युवति बिरहके कारण दीघ इन दिनोंके बीतने पर पाले से पीडित कमलिनीके समान दूसरे ही रूपको प्राप्त हो गई होगी मैं ऐसी तर्कना करता हूँ ।
वासकसज्जा - जिसके सजाएहुए वासभवनमें सखी अलङ्कार पहनाती है प्रियसङ्गमको जाननेवाली उस ( नायिका ) को "वासक सज्जा" कहते हैं ॥ ८५ ॥ जैसे राघवानन्दके नाटक में हे सखि ! बाजूवन्दों को दूर करो, रत्नकङ्कणोंकी हाथों में जरूरत नहीं, यह ग्रीवाका भूषण भारी है, इसकी अपेक्षा नहीं । अरी सखि - !
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=
१५७.
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-
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१५८
साहित्यदर्पणे
वामेकामेकावलिमयि ! मयि त्वं विरचयेर्न नेपथ्यं पथ्यं बहुतरमनङ्गोत्सवविधौ ।' आगन्तु कृतचित्तोऽपि देवान्नायाति यत्प्रियः । तदनागमदुःखार्ता विहोत्कण्ठिता तु सा ॥ ८६ ॥
यथा
किं रुद्धः प्रियया कयाचिदथवा सख्या ममोद्वेजितः,
किंवा कारण गौरवं किमपि, यन्नाद्यागतो वल्लभः । इत्यालोच्य मृगीदृशा करतले विन्यस्य वक्त्राम्बुजं
दीर्घं निःश्वसितं चिरं च रुदितं, क्षिप्ताञ्च पुष्पस्रजः ॥' पर्याप्तम् । " गम्यमानाऽपि क्रिया कारकविभक्तो प्रयोजिका" । अनया साध्यं नाऽस्तीति भावः अपि = हे सखि ! त्वं मयि विषये, एकाम् एककां, नवां नूतनगुम्फिताम् । एकावलिम् - एकष्टिकहारं विरचयः सज्जीकुरु यतः अनङ्गोत्सवविधौ = कामकेलिविधाने, बहुतरम् अधिकतर, नेपथ्यं वेशरचन, पथ्यं हितं न नो वर्तते । "शिखरिणी वृत्तम् इयं वक्त्री वासकसज्जा नायिका ।। ८५ ।।
"
"
विरहोत्कण्ठितां लक्षयति- श्रागन्तुमिति । यत्प्रियः यस्या: ( नायिकायाः ) प्रिय: ( वल्लभ), आगन्तुम् = आयातु, नायिकासमीपमिति शेषः । कृतचित्तोऽपि - व्यवसितोऽपि देवात् = भाग्यवशात् । न आयाति=न आगच्छति, तदनागमदुःखाऽऽर्ता= प्रियानागमन पीडाssकुला सा तु नायिका विरहोत्कण्ठिता, ज्ञेयेति शेषः । ८ विरहोत्कण्ठितामुदाहरति - किं रुद्ध इति । कान्तस्थानागमनेन पीडिताया नायिकाया उक्तिरियम् । कयाचित् प्रियया वल्लभया, रुद्धः कि प्रतिरुद्ध कि, कान्त इति शेषः । अथवा, मम सख्या = वयस्यया, कि वा अथवा, किमपि = अज्ञातं, कारणगौरवं प्रयोजनगुरुता, यत् यस्मात्कारणात् वल्लभः = प्रिय:, न आगतः न आयातः । इति = इत्थम्, आलोच्य = विचिन्त्य; मृगीदृशा = हरिणीनयनया सुन्दर्या इत्यर्थः करतले = पाणि-ले, वक्त्राऽम्बुजं = मुखकमलं, विन्यस्य = निधाय, दीर्घम् - आयतं निःश्वसितं निःश्वासः कृतः, चिरं च = बहु नई एकावली (एक लड़ीवाला हार) मुझे पहना दो । कामोत्सव के विधानमें बहुत भूषण हितकारक नहीं होते हैं ।
उद्वेजितः किम् = उद्वेगं प्रापितः किम् ।
=
विरहोत्कण्ठिता-आनेके लिए मन होनेपर भी जिस नायिकाका प्रिय देवयोगसे नहीं आता है, उसके न आने के दुःख से ग्रस्त उस नायिकाको “विरहोत्कण्ठिता" कहते हैं ।। ६६ ।।
जैसे- क्या दूसरी प्रियाने रोक दिया ? अथवा उन्हें मेरी सखीने उद्विग्न कर - दिया । कारणकी कैसी गुरुता आ पड़ी जो कि आज मेरे प्रिय नहीं आये हैं। मृगनयनाने
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=
.
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तृतीयः परिच्छेदः
इति साष्टाविंशतिशतमुत्तममध्याधमस्वरूपेण । चतुरधिकाशातियुतं शतत्रयं नायिकाभेदाः ॥ ८७ ॥
इह च 'परस्त्रियां कन्यकान्योढे संकेतात्पूर्वं विरहोत्कण्ठिते, पश्वाद्विदूषकादिना सहाभिसरन्त्यावभिसारिके, कुतोऽपि संकेतस्थानमप्राप्ते नायके विप्रलब्धे, इत्यवस्थैवानयोरस्वाधीनप्रिययोरवस्थान्तरायोगात् ।' इति
कश्चित् ।
-
कालं यावत्, रुदितं = रोदन कृत, पुष्षस्रजश्च कुनुममालाश्च क्षिप्ताः कण्ठान्निष्कासिताश्च । एषा कान्ताकागमनाद्विरहोत्कण्ठिता । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ ८६ ॥ नायिकाभेदान्समष्ट्या परिगणयति - इतीति । इति उक्तप्रकारेण, साऽष्टाविशतिशतम् - अष्टाविंशत्यधिकं शतम् अष्टाविंशतिशतम्, तत्सहितम् । मध्यमपदलोपि समासः । षोडशसंख्यकानां पूर्वोक्तानां नायिकानामवस्थाविशेषतः स्वाऽधीनभर्तृकादिभिः अभेदाभि ने अष्टाविंशतं भवति १६+ ८ अष्टाविंशतिशतेन सहितम् साष्टाविशतिशतं नायिकाऽभिदाः, उत्तममध्यमाऽघमस्वरूपतः उत्तमा, मध्यमा अधमा चेति तासां स्वरूपः । गुणनेन समष्टधा नायिकाभेदानां चतुरधिकाऽशीतियुतं चतुरधिका या अशीतिः, तद्यतं शतत्रयं स्यात् । १२८ + ३ नायिकाभेदप्रकरणे । परस्त्रियों अत्र मतान्तरं प्रदर्शयति- इह चेति । इह च कन्यकाऽन्योढे । कुमारी परोढे अस्वाधीने इति भावः । अभिसरन्त्यो अभिसरणं कुर्वत्यो । अनयोः कन्यकाऽन्योढयो, अस्वाधीनप्रिययोः = अनायत्त कान्तयोः । अवस्थान्तराऽयोगात् = अवस्थान्तरस्य ( दशान्तरस्य ) अयोगात् ( असम्बन्धात् ) इति कश्चित् - आचार्यधनिकः । अत्र " कश्चित्" इति लेखनेन ग्रन्थकारस्याऽस्मिन्मते अरुचिः प्रतीयते । तो जयदेवकृते गीतगोविन्दे विश्वनाथस्थ कंसवधे च परोढाया राधिकाया अष्टावप्यवस्था व्यक्तरूपेण प्रकाशिताः कन्यकाविषयेऽपि, इत्थमेव अवस्थाऽष्टकं संभवति ।
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३५४ ।
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१५९
=
=
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ऐसा विचार कर हाथपर मुख कमलको रखकर लम्बा श्वास लिया और वह बहुत समय तक रोई तथा उसने फूलोंकी मालाएं फेंक दीं ॥
इसप्रकार नायिकाओंके अर्थात् सोलह भेदोंमे आठ भेदोंसे गुणन करनेपर नायिकाओंके एक सौ अट्ठाईस भेद होते हैं, फिर उनमें उत्तम, मध्यम और अघम इस प्रकार तीन भेदोंसे गुणन करनेपर कुल तीन सौ चौरासी भेद हो जाते हैं ।। ८७ ।।
प्राचार्य धनिकका मत दिखाते हैं - यहाँपर परकीया अर्थात् कन्या और अन्योढा (परोढा ) सङ्केन से पहले विरहोत्कण्ठिता होती हैं। पीछे पिक आदिके साथ अभिसार करनेपर "अभिसारिका" होती हैं। किसी कारण से संकेतस्थान में नायकके न पहुँचने पर वे "विप्रलब्धा" होनी हैं, दोनों की ऐसी तीन अवस्थाएँ होती हैं ।
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१६०
साहित्यदर्पणे
क्वचिदन्योन्यसाय मासां लक्ष्येषु दृश्यते ।।
यथा
'न खलु षयममुष्य दानयोग्याः पिबति च पाति च यासको रहस्त्वाम् । विट ! विटपममुं ददस्व तस्यै भवति यतः सदृशोश्चिराय योगः ॥ तव कितव! किमाहितैर्वृथा नः क्षितिरुहपल्लवपुष्पकर्णपूरः । ननु जनविदितैर्भवद्वयलीकैश्चिरपरिपरितमेव कर्णयुग्मम् ॥
क्वचिन्नायिकानामन्योन्यसायं प्रदर्शयति-क्वचिदिति । आसाम् = उप. दर्शितनायिकानां, क्वचित् = कुत्रचित्, अन्योन्यसायं = मिथः समिश्रणं, लक्ष्येषु = महाकविप्रबन्धेषु । दृश्यते = अवलोक्यते ।
अन्योन्यमाङ्कर्य मुद हरति-न खल्विति । पुष्षपल्लवसहितां वृक्षशाखां ददतं नायकं प्रति नायिकाया उक्तिरियम् । हे विट = हे भुजङ्ग , वयम्, अमुष्य = विटपस्य, दानयोग्नया = वितरणार्हा न, असक = असौ एव, "अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक्टेः" इति सूत्रेण अकच् प्रत्ययः । या = तव प्रिया, रहः = विजने, त्वा = भवन्त, पिबति - चुम्बनोति भावः, पाति च = नायिकाऽन्तरात् रक्षति च, तस्य = नायिकाय, अमुं विटपं = शाखां, विटं पाति इति विटपः, नायिकायामपि विटरक्षणात् विटपत्वमिति भावः । ददस्व = वितर । यत. = यस्मात्कारणात, चिराय = बहु कालपर्यन्तं, सदृशो:तुल्ययो: पदाऽर्षयोः, योगः = सम्बन्धः भवतीति शेषः । तवेति । हे कितव = हे धूत !; वथा = व्यर्थ मेव, आहितः = निहितः, मत्कर्णयोरिति शेषः । क्षितिरुहपल्लवपुष्पकर्णपूरैः = क्षितिरुहाणां ( वृक्षाणाम् ) पल्लवपुष्पाणि (किसलयकुसुमानि ) एव कर्णपूराः (कर्णभूषणानि ) तः, नः = अस्माकं, ममेति भावः । किं = कि प्रयोजनमिति भावः । मन = भोः, जनविदितः = लोकज्ञातः, भवदधलीकैः = तव कामजाऽपराधः, कर्णयुग्म बोत्रयुगलं, चिरपरिपूरितम् एव-चिरकालात् परिपूर्णम् एव, आधानस्थानाऽभावात्पल्लव: पुष्पकर्णपूराणां न कश्चिदवकांशः ।।
प्रियके स्वाधीन न होनेपर अन्य पांच अवस्याएं नहीं हो सकती हैं । ऐसा कोई कहते हैं।
कुछ लक्ष्योंमें इनका परस्पर संमिश्रण भी देखा जाता है।
जैसे- पुष्पों और पल्लवोंके साथ वृक्षशाखाको देनेवाले नायकको नायिका कह रही है-- "हे विट ! हम इस वृक्षशाखाको पानेके लिए योग्य नहीं है, जो तुम्हारी प्रिया तुम्हें चुम्बन करती है और रक्षा भी करती है इसे उसीको दे दो क्योंकि दो समान पदार्थोका ही बहुत समयतक सम्बन्ध बना रहता है"।
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तृतीयः परिच्छेदः
१६१
'मुहुरुपहसितामिवालिनादैवितरसि नः कलिकां किमर्थमेनाम् । वसतिमुपगतेन धाम्नि तस्याः शठ ! कलिरेष महांस्त्वयाद्य दत्तः ॥' _ 'इति गदितवती रुषा जघान स्फुरितमनोरमपक्ष्मकेसरेण ।
श्रवणनियमितेन कान्तमन्या सममसिताम्बुरुहेण चक्षषा च ।।'
इयं हि वक्रोक्त्या परुषवचनेन कर्णोत्पलताडनेन च धीरमध्यताऽ. धीरमध्यताऽधीरप्रगल्भताभिः संकीर्णा।
मुहुरिति । अलिनाद: कलिकास्थभ्रमरझङ्कारः, मुहुः == वारंवारम, उपहसिताम् इव -- कृतोपहासाम इव, एना, कलिकां = कुसुमकोरकं, न: - अस्मभ्यं, किमर्थ = कस्मै प्रयोजनाय, वितरसि = ददासि, यतः, हे शठ -- हे धूर्त !, तस्याः -- अन्यथा वल्लभायाः, धाम्नि = भवने, वसति == निवासम्, उपगतेन - प्राप्तेन त्वयाः भवर्ता, महान् = दुःसहः, कलिः -- कलहः, अद्य = अस्मिन्दिने, दत्तः -- वितीर्णः । अतो महति कलौ सति किमर्थं कल्यन्तरवितरणमिति भावः ।।
इतीति । इति इत्थं, गदितवती = उतरती, अन्या = अपरा नायिकेति भावः, रषा = रोषेण, स्फुरितमनोरमपक्षमकेसरेण = स्फुरितानि (दीप्नानि ), मनोरमाणि (सुन्दराणि ) पक्ष्माणि ( लोमानि ) इव केसराणि ( किजल्काः ) यस्य, तेन, धवणनियमितेन कर्गनिहितेन, असिताऽम्बुरुहेण = नीलकमलेन, एवं च स्फुरितमनोरम. पक्ष्मकेसरेण = स्फुरितानि (चलितानि ) मनोरमाणि ( मनोहराणि ) पक्ष्माणि (नेत्ररोमाणि ) एव केसराणि (किजल्काः ) यस्य, तेन, एवं च श्रवणनियमितेन = कर्णपर्यन्तं विस्तृतेन असिताऽम्बुरुहेण = नीलकमलेन, जातावेकवचनम् । समं = युगपत, कान्तं = प्रियं, जघान = ताडितवती, सारं विवणोति - इयं हीति । इयं = पूर्वोक्तस्य पद्यत्रयस्य अभिधात्री नायिका, प्रथमपद्य वक्रोक्त्या धीरमध्यतया, द्वितीयप परुषवचनेन
__ "हे धूत" ! मेरे कानोंमें तुमसे व्यर्थ ही रक्खे गये इन वृक्षोंके पल्लव, और पुष्परूप कर्णभूषणोंसे क्या प्रयोजन ? क्योंकि लोगोंसे जाने गये तुम्हारे कामजन्य अपराधोंसे मेरे दोनों कान बहुत समयसे पूर्ण ही किये गये हैं।
भौंरोंके झङ्कारोंसे उपहास करनेवालीके समान फूलोंकी इस फलीको हमें क्यों दे रहे हो ? हे शठ ! उस ( मेरी सोत ) के गृहको प्राप्त तुमने महान कलि ( कलह ), को आज दे दिया है । ऐसा कहनेवाली दूसरी नायिकाने क्रोघसे सुन्दर रोमके समान केसरवाले कानमें पहनाये गये नीलकमलसे और सुन्दर किञ्जकके समान नेत्ररोमवाले कान तक विस्तीर्ण नेत्रोंसे क्रोधपूर्वक एक ही बार प्रियको ताडन किया।ये शिशुपालवध महाकाव्यके पद्य हैं। ।
यह नायिका वक्र उक्तिसे धीरमध्यता, कठोरवचनसे अधीरमध्यता और कर्णोत्पलके ताडनसे अधीर प्रगल्भतासे सङ्कीर्ण हैं । अर्थात् पूर्वोक्त पद्योंके अनुसार यह नायिका
११ साल
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१६२
साहित्यदर्पणे
एवमन्यत्राऽप्यूलम् । इतरा अप्यसंख्यास्ता नोक्ता विस्तरशङ्कया ॥ ८८ ॥ ता नायिकाः। अथासामलकाराः
यौवने सखजास्तासामष्टाविंशतिसंख्यकाः । अलङ्कारास्तत्र भावहावहेलासयोऽङ्गजाः ॥ ८९ ॥ शोभा कान्तिश्च दीप्तिश्च माधुर्य च प्रगल्भता ।
औदार्य धैयमित्येते सप्तव स्युरयत्नजाः ॥ १० ॥ ( कठोरवचनेन ) अधीरमध्यतया, तृतीयपये कर्णोत्पलताडनेन अधीरप्रगल्भतया संकीर्णा = सङ्करयुक्ता।
एतत्पबचतुष्टयं शिशुपालवधमहाकाव्यस्य सप्तमसर्गस्थ बोढव्यम् । 'पुष्पिताया वृत्तं त्रिष्वपि पचेषु'।
नायिकाभेदमुपसंहरति-इतरा इति । ताः = नायिकाः, इतरा अपि = अन्या अपि, असंख्याः अपरिमिताः, दिव्यादिभिः पपिन्यादिभिश्च भेदैरिति भावः । विस्तर. शख्या = ग्रन्थबाहुल्यशङ्कया, न उक्ताः = न कषिताः ॥ ८ ॥
___नायिकानामलङ्कारान् उद्दिशति-यौवन इति । तासां-नायिकाना, यौवने- . ताहव्ये, अष्टाविंशतिसंख्यकाः, सत्त्वजाः = सत्त्वगुणजाताः, अलङ्काराः = अलकियते । (भूष्यते) एभिरिति भूषणानि भवन्ति, तत्र-तेषु अलङ्कारेषु, भावहावहेलाः, त्रयःत्रिसंख्यकाः, अङ्गजाः = अङ्गजन्याः, अलङ्काराः ॥ ९॥
__शोभेति । भोभातो धैर्यपर्यन्ताः सप्त अयत्नजाः = सरीरमनःस्वभावजन्या अप्रयासजा अलङ्काराः ॥९॥ धीरामध्या, बधीरामध्या और अधोराप्रगल्मा नायिकाओंके लक्षणोंसे युक्त है । इसी तरह अन्यत्र भी ऊह करना चाहिए । और भी असंख्य नायिकाएं कही गई हैं अन्यके विस्तरकी शासे वे यहाँपर उल्लिखित नहीं है ।। ८८ ॥..
नायिकामों के प्रलवार-यौवनमें नायिकाओंके सत्त्वजन्य ( सात्विक ) अठाईस मलकार होते हैं, । उनमें भाव, हाव, और हेला ये तीन 'अङ्गज' 'अलङ्गार कहलाते हैं ।। ८९॥
शोभा, कान्ति, दीप्ति, माधुर्य, प्रगल्मता, औदार्य और धैर्य ये सात अयत्नज बाद विना पलके उत्पन्न होते हैं ॥ ९० ॥ .
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तृतीयः परिच्छेदः
१६३
लीला विलासो विच्छितिर्विव्योकः किलकिश्चितम् । मोट्टायितं कुट्टमितं विभ्रमो ललितं मदः ॥ ९१ ॥ विहृतं तपनं मौग्ध्यं विक्षेपश्च कुतूहलम् । हसितं चकित केलिरित्यष्टादशसंख्यकाः ॥ ९२ ॥
स्वभावजाश्च भावाद्या दश पुंसां भवन्त्यपि ।
पूर्व भावादयो धैर्यान्ता दश नायकानामपि संभवन्ति । किंतु सर्वेऽप्यमी नायिकाश्रिता एव विच्छित्तिविशेष पुष्णन्ति |
तत्र भावः
निर्विकारात्मके चित्ते भावः प्रथमविक्रिया ॥ ९३ ॥ • जन्मतः प्रभृति निर्विकारे मनसि उद्बुद्धमात्रो विकारो भावः । यथा
'स एव सुरभिः कालः, स एव मलयानिलः ।
सैवेयमबला, किंतु मनोऽन्यदिव दृश्यते ॥' लोलेति । लीलात आरभ्य केलिपर्यन्ता अष्टादशाऽलङ्काराः ॥ ९१-९२ ॥
स्वभावजाश्च । एते, स्वभावजाः-रत्यादिस्वभावजन्याः, चकारात कृत्रिमाश्च भावाद्या दश-भावात् आरभ्य धैर्य यावत्, पुंसां नायकानामपि भवन्ति किन्तु सर्वेऽप्यमी अलङ्कारा नायिकाश्रिता एव विच्छिनिविशेष = वैचित्र्यविशेष, पुष्णन्ति-पुष्टं कुर्वन्ति ।
तत्र भावं लक्षति-निविकारात्मक इति । निर्विकारात्मके = विकाररहिते, चित्ते = मनसि, प्रथमविक्रिया = आद्यो मदनविकारः, भावः । उद्बुद्धमात्रः = आविर्भूतमात्रः ।। ९३ ॥
भावमुदाहरति-स एवेति । स एव = पूर्वाऽनुभूत एव, सुरभिः कालः = वसन्तऋतुः, स एव, मलयाऽनिलः = दाक्षिणात्यो वातः । संवेयम् अबला = नायिका,
लीला, विलास, विच्छिति, विव्वोक, किलकिञ्चित, मोट्टायित, कुट्टमित, विभ्रम, ललित, मद ।। ९१ ॥
विहृत, तपन, मोग्य, विक्षेप, कुतूहल, हसित, चकित और केलि ये अठारहस्वभावसिद्ध और कृत्रिम भी होते हैं ।। ९२ ॥
__ स्वभावज ( स्वाभाविक ) और चकार पाठसे कृत्रिम भी होते हैं। इनमें भावसे धर्यतक नायकों के भी हो सकते हैं। परन्तु ये सब नायिकामें आश्रित रहनेपर ही विशेष वैचिश्यकी पुष्टि करते हैं। भाव-ज मसे विकाररहित चित्तमें प्रथम उवु : विकारको "भाव" कहते हैं ।९३।
उ.-वही वसन्तका समय है वही मलयका वायु है यह स्त्री भी वही है किन्तु
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. १६४
अथ हाव:
=
नेत्रादिविकारस्तु संभोगेच्छाप्रकाशकः ।
भाव वापसंलक्ष्य विकारां हाव उच्यते ।। ९४ ।।
साहित्यदर्पणे
यथा
'विवृण्वती शैलसुतापि भावभङ्गः स्फुरद्वालकदम्बकल्पैः । साचीकृता चारुतरेण तस्थौ मुखेन पर्यस्तविलोचनेन ॥' अथ हेला
हेलात्यन्तसमालक्ष्य विकारः स्यात् स एव तु ।
स एव भाव एव ।
किन्तु मनः = अस्याश्चित्तम्, अन्यत् इव = अपरम् इव दश्यते । अत्र मदनविकारस्याऽऽ भासात् भावः प्रतीयते ।। ९३ ।।
हावं लक्षयति- नेत्रादिविकारैरिति । श्रूनेत्रादिविकारं भूनेत्रादीनां ( धूनयनादीनाम् ) विकारै: ( चपलतादिविकृतिभिः ), संभोगेच्छाप्रकाशक: रमणकामना व्यञ्जकः, अल्पसंलक्ष्यविकारः = स्तोकज्ञेयविकृतिः, भाव एव हाव: हि हरति- विवृण्वतीति । शिवतपोवने मदनप्रादुर्भावाऽनन्तरं पार्वत्या वर्णनमिदम् । र सभवस्थं पद्यमेतत् । शैलसुताऽपि = पार्वत्यपि, स्फुरद बालकदम्बकल्पः = विकसन्नूतनकदम्ब कुसुमसदृशंः, रोमाञ्श्वयुक्तेरिति भावः, अङ्गः = देहावयवैः, भावं शिवदत् प्रथम मनोविकार, विवृण्वती = प्रकटयन्ती, चास्तरेण = सुन्दरतरेण, पर्यंस्तविलोचनेन = शिवे परिक्षिप्तनेत्रेण, मुखेन वदनेन, साचीकृता = वक्रीकृता सती, तस्थौ = स्थिता । उपजातिवृतम् । अत्र बालकदम्बेत्यनेन पुलकस्याऽल्पत्वं तेन च भावस्याऽल्पलक्ष्यत्व - प्रकाशनाद हावो ज्ञेयः ।। ९४ ।।
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हेला लक्षयति- हेलेति । अत्यन्तसमा लक्ष्य विकारः = भृशसंदर्शनीय विकृतिः । स एव भाव एव, हेला स्यात् । तत्र च अल्पसंलक्ष्यविकारो भावो हावः, अधिकसमा. लक्ष्यविकारो भावो हेलेति विवेक: । हेलामुदाहरति-तदेति ।
इसका मन कुछ अन्य के समान ही देखा जाता है ।
हाव-मोहें और नेत्र आदिके विकारोंसे संयोगकी इच्छाका प्रकाशक कुछ विकारवाला भाव ही "हाव" कहा जाता है ।। ९४ ॥
उ०- शिवजीके तपोवनमें कामदेवका प्रादुर्भाव होनेपर पार्वतीकी अवस्थाकी वर्णन है। पार्वती भी खिले हुए कदम्बके पुष्पोंके समान अपने अङ्गोंसे मनके विकारको प्रकट करती हुई शिवजीमें नेत्रोंको लगाकर मुखको कुछ तिरछा कर खड़ी हो रहीं । यह कुमारसंभवका पद्य है ।
हेला - अत्यन्त विकारसे युक्त उसी भावको "हेला" कहते हैं ।
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तृतीयः परिच्छेदः
यथा
'तह से झत्ति पउत्ता बहुए सव्यङ्गविन्भमा सअला। संसइअमुद्धभावा होइ चिरं जइ सहीणं पि॥' ( तथा तस्या झटिति प्रवृत्ता वध्वाः सर्वाङ्गविभ्रमाः सकलाः । संशयितमुग्धभावा भवन्ति चिरं यथा सखीनामपि ।।) अथ शोभा
रूपयौवनलालित्यभोगाधरणभूषणम् ॥ ९५ ॥ शोभा प्रोक्ता-- तत्र यौवनशोभा यथा'असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टेरनासवाख्यं करणं मदस्य।
कामस्य पुष्पन्यतिरिक्तमत्रं बाल्यात्परं साऽथ वयः प्रपेदे ।'
तस्या वध्वाः = नवपरिणीतायाः, झटिति = द्राक्, सकलाः = संपूर्णाः; सर्वाऽङ्गविभ्रमाः = सकलाऽवयवविलासाः, तथा = तेन प्रकारेण, प्रवृत्ताः = प्रादुर्भूताः; यथा = येन प्रकारेण, सखीनाम् अपि = वयस्यानाम् अपि, चिरं = बहुकालपर्यन्तं, संशयितमुग्धभावाः = सशयितः ( संशयास्पदीभूतः) मुग्धभावः (शैशवम् ) येषां ते, तादृशा भवन्ति । अत्र वध्वाः सर्वाऽङ्गेषु मावस्य अत्यन्तसमालक्ष्यत्वाद हेला ज्ञेया।
शोभा लक्षयति-रूपेति। रूपयौवनलालित्यभोगाद्यः = रूपं ( सौन्दर्यम् ); यौवनं (तारुण्यम् ), लालित्यं ( कोमलता) भोगः । (सक्वन्दनाय पयोगः) तदाब :, अङ्गभूषणम् = देहाऽवयवमण्डनं शोभा प्रोक्ता ।। ९५ ।।
यौवनशोभामुदाहरति-प्रसंभृतमिति। कुमारसंभवस्थं पार्वतीयौवनवर्णनमिदम् । अथ = अनन्तरं, सा = पार्वती, अङ्गपष्टे: = शरीरलतायाः, असंभृतम् - अयत्नसिद्ध, स्वाभाविकमिति भावः । मण्डनम् = अलङ्करणं, मवस्य = मतताया:;. अनासवाख्यम् = आसवनामरहितं करणं = साधनं, कामस्य = मदनस्य, पुष्पव्यति रिक्तं = कुसुमाऽधिकम्, अस्त्रम् आयुधस्वरूपं, बाल्यात्-शंशवाद, परम् अनन्तरवति,
उ०-उस नव वधूके समस्त अङ्गोके विलास झटपट उस तरह प्रादुर्भूत हुए जिससे उसके सखियोंको भी उसकी मुग्धतामें बहुत समयतक शङ्का होने लगी।
शोभा-सौन्दर्य, तारुण्य, कोमलता और उपभोग आदिसे होनेवाले अङ्गके भूषणको “शोमा" कहते हैं ।। ९५ ॥
यौवनशोभा जैसे-पार्वतीने अयत्नसिद्ध शरीरका अलङ्कारस्वरूप, आसव(मदिरा ) से भिन्न मद पैदा करनेवाला, पुष्पसे भिन्न कामदेवका अस्त्रभूत, वाल्यांकन
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साहित्यदर्पणे
एवमन्यत्रापि। अथ कान्ति:
सैव कान्तिमन्मथाप्यायितद्य तिः । मन्मथोन्मेषेणाति विस्तीर्णा शोभव कान्तिरुच्यते । यथा'नेत्रे खञ्जनगञ्जने-' इत्यत्र (पृ०८२)। अथ दीप्तिःकान्तिरेवातिविस्तीर्णा दीप्तिरित्यभिधीयते ॥ ९६ ॥ यथा मम चन्द्रकलानामनाटिकायां चन्द्रकलावर्णनम्
'तारुण्यस्य विलासः समधिकलावण्यसंपदो हासः ।
धरणितलस्याभरणं युवजनमनसो वशीकरणम् ॥' वयः = अवस्था, यौवनमिति भावः । प्रपेदे = प्राप्तवती। अत्र पार्वत्या यौवनेन अङ्गानां भूषणाच्छोमा ॥ ९५ ॥
___ कान्ति लक्षयति-सैवेति। मन्मथाप्यायितद्य तिः = मन्मथेन (मदनेन ) आप्यायिता ( संवद्धिता ) द्यतिः ( कान्तिः ) यस्याः सा, सा एशोभा एव, कान्तिः ।
कान्तिमुदाहरति-"नेत्रे खजनगजने" इत्यादि ( पृ० ८२)।
दीप्ति लक्षयति- कान्तिरिति । अतिविस्तीर्णा-अतिविस्तारं प्राप्ता, कान्तिरेव, दीप्तिरिति, अभिधीयते = कथ्यते ॥ ९६ ।.
दीप्तिमुदाहरति - तारुण्यस्येति । तारूण्यस्य -- यौवनस्य, विलासः = विल. सनम् । तारुण्यस्य विलासस्थानमिति भावः, समधिकलावण्य सम्पदः = अतिरिक्तसौन्दर्यसम्पत्तेः, हासः हास्यस्थानम् । घरणितलस्य = भूतलस्य, आभरणम् = अलङ्कारास्पदं, तथैव युवजनमनसः = तरुणजनचित्तस्य, वशीकरणं = वशक्रियासाधनं, सा चन्द्रकलाऽस्तीति भावः । शुखसारोपा इयं लक्षणा । तारुण्यविलासादीनामतिशयो लक्षणा. प्रयोजनम् । अत्र कान्तर्रातविस्तीर्णत्वाद्दीप्तिामाऽलङ्कारः । ग्रन्थकारस्य पद्यमेतत् ।। वस्थाके अनन्तर उसप्रकारके वय ( अवस्था ) को प्राप्त किया । पह कुमारसंभवका पद्य है । इसी प्रकार औरोंको भी जानना चाहिए।
कान्ति-कामदेवसे बढ़ी हुई कान्तिवाली शोभाको ही "कान्ति" कहते हैं । जैसे-"नेत्रे खञ्जनगञ्जने" (पृ० ८२ ) इत्यादि ।
दीप्ति-अत्यन्त विस्तीर्ण कान्तिको ही "दीप्ति" कहते हैं ।। ९६ ॥
७०-प्रन्थकारकी चन्द्रकला नाटिकामें चन्द्रकलाका वर्णन-चन्द्रकला तारुण्य ( जवानी ) का विलास है, प्रचुर लावण्यसंपनिका हास है, भूतलका भूषण है और युवकोंके मनको वशमें करनेका साधन है।
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तृतीयः परिच्छेदः
१६७
अथ माधुर्यम्___ सर्वावस्थाविशेषेषु माधुर्य रमणीयता।
यथा--
'सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं,
मलिनमपि हिमांशोलक्ष्म लक्ष्मी तनोति । इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी,
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ॥' अथ प्रगल्भता
निःसाध्वसत्वं प्रागल्भ्यम्
माधुर्य लक्षयति-सर्वाऽवस्थाविशेषेष्विति । सर्वाऽवस्थाविशेषेषु = सकल. दशाभेदेष्वपि, रमणीयता = मनोहरता, माधुर्यम् ।
माधुर्यमुदाहरति-सरसिजमिति । वल्कलेनाऽपि मनोहररूपा शकुन्तला पश्यतो राज्ञो दुष्यन्तस्योक्तिरियम् । पद्यमिदमभिज्ञानशाकुन्तलस्थम् ।
शवलेन -- जलनील्या, अनुविद्धं = व्याप्तमपि, सरसिज = कमलं, रायं - मनोहरम्, मलिनम् अपि = मलीमसम् अपि, कृष्णवर्णम् अपि । हिमांऽशोः = चन्द्रमसः, लक्ष्म = कलङ्कः, लक्ष्मी = शोभा, तनोति = विस्तारयति । तथैव इयं = सन्निकटस्था, तन्वी = कृशोदरी, शकुन्तलेति भावः । वल्कलेन अपि-तरुत्वचा अपि, अधिकमनोज्ञाभृशं मनोहरा । उक्तमर्थमर्थान्तरन्यासेन द्रढयति-किमिवेति । हि-यतः, मधुराणां = मनोहराणाम, आकृतोनाम् = आकाराणां, किमित्र = किं वस्तु, मण्डनम् = प्रसाधनसाधनं, न, प्रत्युत मनोहराणामाकृतीनां सकलमपि वस्तु भूषणसाधन भवतीति भावः । अत्र वल्कलपरिधानाया: शकुन्तलाया अनलङ्काराऽवस्थायामपि रमणीयताप्रतिपादनामाधुर्य नामाऽलङ्कारः ।
प्रगल्भता लक्षयति-निःसाध्वसत्वमिति । निःसाध्वसत्वं = भीतिरहितत्वं, प्रागल्भ्यं = प्रगल्भता।
माधुर्य-सब अवस्थाओंमें मनोहरताको "माधुर्य" कहते हैं।
उ०-दुष्यन्त शकुन्तलाको देखकर कहते हैं । कमल सेवारोंसे सम्बा होकर भी मनोहर है । चन्द्रमाका कलङ्क मलिन होनेपर भी शोभाका विस्तार करता है। यह कृशोदरी ( शकुन्तला ) वल्कलको धारण करनेपर भी अधिक सुन्दरी है, मनोहर आकारोंको कौन सा पदार्थ भूषणका साधन नहीं होता है ?
प्रगल्भता-भय न होनेको "प्रगल्भता" कहते हैं।
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१६८
साहित्यदपणे
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यथा-'समाश्लिष्टाः समाश्लेषेश्चुम्बिताश्चुम्बनैरपि ।
दष्टाश्च दंशनैः कान्तं दासीकुर्वन्ति योषितः ॥' अथौदार्यम्
-औदार्य विनयः सदा ।। ९७ ॥ यथा'न ब्रूते परुषां गिरं वितनुते न भ्रयुगं भङ्गुरं,
नोत्तंसं क्षिपति क्षितौ श्रवणतः सा मे स्फुटेऽप्यागसि । कान्ता गर्भगृहे गवाक्षविवरब्यापारिताक्ष्या बहिः
सख्या वक्त्रमभि प्रयच्छति परं पर्यश्रुणी लोचने ।' प्रवल्भतामुदाहरति-समाश्लिष्टा इति । योषितः ललना समाश्लिष्टाः= आलिङ्गिताः, कान्तेनेति शेषः । समाश्लेषः आलिङ्गनः, चुम्बिता: = कृतचुम्बनाः सत्यः, चुम्बनः = वक्त्रसंयोगः, दष्टाश्च : कान्तेन कृताधरदशनाः सत्यं दर्शनैःदन्तमतश्च कान्तं = प्रियं, दासीकुर्वन्ति :- दासवद्विदधति । अत्र कान्तकृताऽऽलिङ्ग. नादीनां प्रत्यालिङ्गनादिमिनिर्भयत्वप्रदर्शनात् प्रगल्भता नामाऽलङ्कारः ।।
. औदार्य लक्षयति-प्रौदार्यमिति । सदा = सर्वस्मिन्काले, विनयः = नम्रता, औदार्यम् ॥ ९ ॥
औदार्यमुदाहरति-नत इति । प्रियायाश्चरितं मित्राय कथयतो नायकस्योक्तिरियम् । कान्ता = मम प्रिया, मे = मम, आगसि = अपराधे, स्फुटे अनि = व्यक्ते अपि; परुषां = कठोरां, गिरं = वाणी, न ब्रते = नो राषते । भ्रूयुगं = नयनलोमयुग्मं, भङ्गुरं = भङ्गशील, कुटिलमिति भावः । न नितनुते = न करोति । उत्तंसं = कर्णभूषण, श्रवणतः = कर्णात्, क्षिती = भूमो, न क्षिपति = न निरस्यति । परं =/ केवलं, गर्भगृहे = स्वकीयवासगृहे, बहिः=बहिः प्रदेशात, गवाक्षविवरव्यापारिताक्ष्याः= गवाक्षविवरेण ( वातायनच्छिद्रेण ) व्यापारिते (सञ्चारिते ) अक्षिणी ( नेत्रे ) यया, तस्थाः, सख्याः = वयस्यायाः, वक्त्रं = वदनम् अभि = लक्ष्यीकृत्य, पर्यश्रुणी = अश्रुः व्याप्ते, लोचने = नयने, प्रयच्छति = प्रददाति । शार्दूलविकीडित वृत्तम् । अत्र कान्तकृताऽपराधस्य स्फुटत्वेऽपि विनयस्य प्रदर्शनात, औदार्य मामाऽलङ्कारः ॥ ९७ ॥
उ.-स्त्रियां मालिङ्गित होनेपर आलिङ्गनोंसे, चुम्बित होकर चुम्बनोंसे और प्रियके अधरक्षत करनेसे स्वयं भी अधरक्षत करके अपने प्रियको दासके समान बनाती है । . मौवार्य-सर्वदा नम्रता दिखानेको "औदार्य" कहते हैं ॥ ९७ ॥
उ०-कोई नायक अपनी नायिकाका चरित्र मित्रसे कहता है । मेरे अपराधके प्रकाशित होनेपर भी मेरी प्रिया कठोर वचन नहीं बोलती है, भौहोको टेढ़ी नहीं करती है, न तो कर्णभूषणोंको कानोंसे उतारकर जमीनपर फेंकती है, किन्तु कोठरीमें बाहर झरोखेके छेदसे नेत्रों को देनेवाली सखीके मुंहके सम्मुख आंसुओंसे भरे हुए नेत्रों को लगाती है ।
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तृतीयः परिच्छेदः
अथ धैर्यम्
मुक्तात्मश्लाघना धैर्य मनोवृत्तिरचञ्चला । यथा'ज्वलतु गगने रात्रौ रात्रावखण्डकलः शशी,
दहतु मदनः, किंवा मृत्योः परेण विधास्यति । मम तु दयितः श्लाध्यस्तातो जनन्यमलान्वया,
__कुलममलिनं, न त्वेवायं जनो न च जीवितम् ।।' अथ लीला
अङ्गेवरलङ कारैः प्रेमभिर्वचनैरपि ॥ १८ ॥
धर्य लक्षति-मुक्तात्मश्लाघनेति । मुक्तात्मश्लाघना-त्यक्तात्मविकस्थना। अचञ्चला = अचपला, या मनोवृत्तिः = चित्तवृत्तिः, तद् धैर्यम् ।
धैर्यमुदाहरति-ज्वलत्विति ।मालतीमाधवे लवङ्गिको प्रति मालत्या उक्तिः । रात्री रात्री = प्रतिरात्रि, गगने = आकाशे, अखण्ड कलः = पूर्णकलः, षोडशकलासहित इत्यर्थः । शशी = चन्द्रमाः, ज्वलतु = मां वह्निरिव दहतु । एवं च मदनः = मन्मथः, दहतु = भस्मीकरोतु, मृत्योः परेण = मृत्यु विहायेति भावः, किं वा = किम्, विधास्यति = करिष्यति । मम तु दयितः = प्रियः, तातः = पिता च । श्लाध्यः = प्रशंसनीयः, जननी = माता, अनलाऽन्वया = निर्मलवंशोत्पन्ना, ततः कुलं च = वंशश्च, अमलिनं = निर्दोषम्. अयम् = एषः, जनः = मद्रूपः, जीवितं च = जीवनं च, ननो भविष्यतः । अत्र अात्मश्लाघारहिताया मनोवृत्तेश्वाञ्चल्याऽभावेन घेयं नाम नायिकाs. लङ्कारः । विषमाऽलङ्कारः । हरिणी वृत्तम् ॥
लीलां लक्षयति-प्रङ्गरिति । प्रीतिप्रयोजितः = हर्षसंपादितः, अङ्गः = देहावयवः, वेषः = नेपथ्यः, अलङ्कारः = भूषणः, एवं च प्रेमभिः = प्रणयपूर्णः, वचनैरपि वाक्यरपि।
धैर्य-आत्मश्लाघा ( स्वप्रशंसा ) से रहित स्थिर मनोवृत्तिको "धैर्य" कहते हैं।
उ.-मालतीमाश्वमें लवङ्गिका सखीके प्रति मालतीकी उक्ति-प्रत्येक रात्रिमें आकाशमें संपूर्ण कलाओसे युक्त होकर चन्द्रमा प्रज्वलित हों और कामदेव दाह करे । ये लोग मृत्युसे अधिक क्या करेंगे ? मेरे तो प्रिय और पिताजी प्रशंसनीय हैं और मेरी माताजी निर्मल वंशमें उत्पन्न हैं, तथा कुल निर्मल हैं, परन्तु मैं न रहूंगी और म मेरा जीवन ही रहेगा।
लोला-हर्षसे सम्पादित अङ्ग, वेष, अलङ्कार, प्रेमपूर्ण वचनोंसे भी प्रियके अनुकरणको "लीला" कहते हैं ।। ९८ ॥
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१७०
साहित्यदर्पणे
प्रीतिप्रयोजितैलीलां प्रियस्यानुकृतिं विदुः ।
मृणालव्यालवलया वेणीबन्धकपर्दिनी । हरानुकारिणी पातु लीलया पार्वती जगत् ॥ अथ विलास :
यानस्थानासनादीनां मुखनेत्रादिकर्मणाम् ॥ ९९ ॥ विशेषस्तु विलासः स्वादिष्ट सन्दर्शनादिना ।
यथा
यथा-
'अत्रान्तरे किमपि वाग्विभवातिवृत्त वैचित्र्य मुल्लसितविभ्रममायताक्ष्याः । तद्भूरिसात्त्विकविकारमपास्तधैर्यमाचार्यकं विजयि मान्मथमाविरासीत् ॥'
प्रियस्य कान्तस्य, अनुकृतिम् = अनुकरण, लीलां विदुः जानन्ति, आलङ्कारिका इति भावः ।
E
लीलामुदाहरति- मृणालव्यालवलयेति । मृणालव्यालवलया मृणालम् ( बिसम् ) एव व्याल्वलयं ( सर्परूपकङ्कणम् ) यस्याः सा । वेणीबन्धकर्पादिनी वेणीबन्धेन ( केशवेशेन ) कर्पादनी ( जटाजूटयुक्ता ), इत्थंच हराऽनुकारिणी- शिवाऽनुकरणशीला, पार्वती • उमा, लीलया = विलासेन, प्रियाऽनुकरणरूपेणेति भाव:, जगत् लोकं, पातु रक्षतु । अत्र मृणालवलयादिवेषादिभिः प्रियानुकृतेर्लीला नामाऽलङ्कारः । विलामं लक्ष्यत - यातेति । इष्टसंदर्शनादिना - इष्टस्य ( प्रियस्य ) सन्दर्शनादिना ( साक्षात्करणादिना ), यानस्थानासनादीनां एवं च मुखनेत्रादिकर्मणां वदननयनादिक्रियाणां विशेष: वैलक्षण्यं, विलासः स्यात् । विलासमुदाहरति-प्रत्राऽन्तर इति । मालतीमाधवे माघवस्य स्वसखं मकरन्दं
मनस्थित्युपवेशनादीनाम्,
प्रत्युक्तिरियम् । अत्र अस्मिन, अन्तरे = अवसरे, आयताक्ष्याः = • विशाललोचनायाः, मालत्या इत्यर्थः किमपि = अनिर्वाच्यं वाग्विभवाऽतिवृत्त = वचनसम्पत्यतीत वैचित्र्यम्, उल्लसितविभ्रमं प्रकाशितविलासं भूरिसात्त्विक विकारं
प्रभूतस्तम्भादिविकृति,
उ० – कमलनालरूप सर्पकङ्कणके धारण करनेवाली, वेणीबन्धको जटाजूट बनानेवाली लीलासे शिवजीका अनुकरण (नकल) करनेवाली पार्वती जगत्की रक्षा करें। विलास - प्रियके दर्शन आदिसे गमन, स्थिति और उपवेशन आदिके तथा मुख और नेत्रादिके कर्मोकी विलक्षणताको “विलास” कहते हैं ।। ९९ ।।
उ०- - मालतीमाधव में माधव अपने मित्र मकरन्दको कहते हैं। इस अवसरमें उस सुन्दरी ( मालती ) का अनिर्वचनीय वचन सम्पत्तिको लङ्घन करनेवाले वैचित्र्यसे सम्पन्न, शृङ्गारकी चेष्टा से उद्भासित, स्तम्भ और स्वेद आदि प्रचुर सात्त्विक विकारोंसे
=
==
=
=
===
=
=
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तृतीयः परिच्छेदः
अथ विच्छित्ति:स्तोकाप्याकल्परचना विच्छित्तिः कान्तिपोषकत् ।
यथा'स्वच्छाम्भःस्नपनविधौतमङ्गमोष्ठस्ताम्बूलद्युतिविशदो विलासिनीनाम् । वासस्तु प्रतनु विविक्तमस्त्वितीयानाकल्पो यदि कुसुमेषुणा न शून्यः ॥'
अथ विव्योकः
विवोकस्त्वतिगण वस्तुनीष्टेऽप्यनादरः ॥ १०० ॥ अपास्तधैर्य = निरस्तधीरत्वम्, अतः विजयि = विजयशीलं, मान्मथं = मदनसम्बन्धि, आचार्यकम् = आचार्यभावः, आविरासीद = प्रादुरासीत् ॥ - अत्र माधवदर्शनेन मालत्या यानस्थानादीनां वैशिष्टयवर्णनाद्विलासो नाम नायिकाललार, वसन्ततिलका वृत्तम् ॥ ९९ ॥
विच्छित्ति लक्षयति-स्तोकेति । कान्तिपोषकृत-सौन्दर्यपुष्टिकरी, स्तोकाऽपि अल्पाऽपि, आकल्परचना = वेशनिर्माणं, विच्छित्तिः ।
विच्छित्तिमुदाहरति - स्वच्छाऽम्भ इति । शिशुपालवधस्थं पद्यमिदम् । विलासिनीना = विलसनशीलानां, रमणीनामित्यर्थः। अङ्ग = शरीरं, स्वच्छाम्मःस्नपनविधीतं स्वच्छाऽम्भसा (निर्मल जलेन ) यत् स्नपने ( मज्जनम् ), तेन विधीतम् ( प्रक्षालितम् ), ओष्ट: = अधरः, ताम्बूलद्य तिविशद:=नागवल्लीरागोज्ज्वलः, वासःबस्त्रं, प्रतनु = सूक्ष्म, विविक्तं च = निर्मलं च, बाकल्पः = वेशः, कुसुमेषुणा = कामदेवेन, शून्यो न यदि रहितो न चेत, इति इयान् == एतावान्, आकल्पः, अस्तु = भवतु, अधिकस्य प्रयोजनं नास्तीति भावः । अत्र अल्पाकल्परचनया सौन्दर्यपोषस्य वर्णनात विच्छित्तिर्नामाऽलङ्कारः । प्रहर्षिणी वृत्तम् ॥
विवोकं लक्षयति -विध्वोक इति । अतिगण अत्यभिमानेन, इष्टे अभीष्टे, वस्तुनि अपि = पदार्थे अपि, अनादरः - उपेक्षा, विनोकः ।। १०० ।। युक्त, धैर्यको दूर करनेवाला और विजयशील प्रसिद्ध कामदेवका आचार्यभाव आविर्भूत हो गया।
विच्छित्ति-कान्तिकी पुष्टि करनेवाली थोड़ी भी वेष रचनाको "विच्छित्ति" कहते हैं।
उ.-विलासिनी स्त्रियोंका शरीर निर्मल जलमें स्नान करनेसे प्रक्षालित, . ओष्ठ ताम्बूलके वर्णसे उज्ज्वल, वस्त्र महीन और स्वच्छ, कामविकारसे रहित न हो तो इतना ही वेष पर्याप्त है। . विवोकः-अत्यन्त गर्वसे अभीष्ट वस्तुमें भी आदर न करनेको "विन्वोक" कहते हैं ।। १००॥
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१७२
साहित्यदर्पणे
यथा'यासां सत्यपि सद्गुणानुसरणे दोषानुवृत्तिः परा,
याः प्राणान् वरमर्पयन्ति, न पुनः सम्पूर्ण दृष्टिं प्रिये । अत्यन्ताभिमतेऽपि वस्तुनि विधिर्यासां निषेधात्मक
स्तास्सैले क्यविलक्षणप्रकृतयो वामाः प्रसीदन्तु ते ॥' अथ किलकिश्चितम्
स्मितशुष्करुदितहसितत्रासक्रोधश्रमादीनाम् । साङ्कय किलकिश्चितमभीष्टतमसङ्गमादिजादात् ॥ १०१॥
विव्वोकमुदाहरति-यासामिति । कञ्चित्कामिनं प्रति मित्रस्याशीर्वचनामिदम् । यासां = वामानां, सद्गुणाऽनुसरणे अपि = उत्तमगुणाऽनुरोधनसामर्थ्य, सत्यपि == विद्य. मानेऽणि, परा = अधिका, दोषानुवृत्तिः = दूषणाऽनुसरणम् । याः = वामाः; वरं प्राणान् = असून, अर्पयन्ति = समर्पयन्ति, पुनः = परं, प्रिये = कान्ते विषये, संपूर्णदृष्टि = प्रणयपूरिताऽवलोकनं, न अर्पयन्ति, गर्वात्कटाक्षमात्रं समर्पयन्तीति भावः । यांसा = वामानाम्, अत्यन्ताऽभिमते = अतिशयसम्मते, वसनभूषणादिरूप इति भावः, वस्तुनि अपि = पदार्थे अपि, निषेधात्मकः = प्रतिषेधस्वरूपः, विधि: == विधानं, प्रत्याख्यानरूपमिति भावः । त्रैलोक्यविलक्षणप्रकृतयः = त्रिभुवनाऽसाधारणस्वभावाः, ताः = पूर्वप्रतिपादिताः वामाः = ललनाः, ते = तव विषये, प्रसीदन्तु अनुगृह्णन्तु अत्राऽभीष्टे वस्तुन्यपि अनादराद्विन्त्रीको नामाऽलङ्कारः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।। १००। ।
किलकिञ्चितं लक्षयति - स्मितेति । अभीष्टतमसंगमादिजात् - प्रियतमसमागमादिजनितात्, हर्षात् = प्रमोदात, स्मितशुष्करुदितहसितत्रासक्रोधश्रमादीना - स्मितं ( मन्दहास्यम् ) शुष्करुदितं (कृत्रिमरोदनम् ), हसितं ( हास्यम् ) त्रासः ( भीतिः) क्रोधः ( कोपः ) श्रमः ( परिश्रमः ), इत्येतेषां, सायं = सम्मिश्रणं, किलकिञ्चितं नामाऽलङ्कारः ।। १०१॥
उ.-जिन स्त्रियोंके उत्तम गुणोंका अनुसरण हानेपर भी ज्यादा की दोषका अनुवर्तन है । जो प्राणोंको भले ही अर्पण कर दें पर प्रियके प्रति पूरी दृष्टि नहीं देती हैं । अत्यन्त अभीष्ट वस्तुमें भी जिनकी निषेधरूप प्रवृत्ति है, त्रैलोक्यमें असाधारण स्वभावसे युक्त वैसी सुन्दरियाँ तुमपर प्रसन्न हों।
किलकिञ्चिद-अत्यन्त प्रिय पुरुषके संगम आदिसे उत्पन्न हर्षसे मन्द हास्य; शुष्क रोदन, हास्य, भय क्रोध और परिश्रम आदिके संमिश्रणको "किलकिञ्चित" कहते हैं ॥ १०१॥
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यथा
'पाणिरोधमविरोधितवाञ्छं भर्त्सनाच मधुरस्मितगर्भाः । कामिनः स्म कुरुते करभोरुहरि शुष्करुदितं च सुखेऽपि ॥' अथ मोट्टायितम्
तृतीयः परिच्छेदः
यथा
'सुभग ! त्वत्कथारम्भ कर्णकण्डूतिलालसा | उज्जृम्भवदनाम्भोजा भिनन्त्यङ्गानि साऽङ्गना ॥'
-
तद्भावभाविते चित्ते वल्लभस्य कथादिषु । मोट्टायितमिति प्राहुः कणकण्डूयनादिकम् ।। १०२ ।।
1
किलकिचितमुदाहरति - पाणिरोधमिति । करभोरु:- सुन्दरी, अविरोधितवाञ्छम् = अप्रतिबद्धप्रियमनोस्थं यथा तथा कामिनः प्रियस्य, पाणिरोधं नीवीमोक्षप्रवृत्त करनिवारणं, मधुरस्मितगर्भाः मधुरं ( मनोहरम् ) स्मितं ( मन्दहास्यम् ) गर्भे ( अभ्यन्तरे) यासां ताः, भर्त्सना: तर्जनवचनानि एवं च सुखेऽपि = हर्ष समयेऽपि, हारि = मनोहरं, शुष्करुदितं च = कृत्रिमरोदनं च कुरुते स्म == विदधाति स्म । अत्र नायिकायाः स्मितशुष्करुदितयोः साङ्कर्यात्किलकिञ्चितम् । वृत्तम् ।। १०१ ।।
स्वागता
मोट्टाति लक्षयति - तद्भावभावित इति । वल्लभस्य प्रियस्य, कथाssदिषु = सख्या सह कयाप्रसङ्गादिषु, चित्ते मनसि नायिकाया इति शेषः । तद्भावभाविते सति प्रियानुरागनिषेविते सति । कर्णकण्डूयनादिकं = श्रोत्रविघर्षणादिकं, मोट्टायितम् इति । प्राहुः = कथयन्ति, अलङ्कारशास्त्रिण इति शेषः ॥ १०२ ॥
मोट्टायितमुदाहरति - सुभगेति । नायिकासखी नायकं प्रति नायिकाया नायकप्रणयं प्रतिपादयति । हे सुभग = हे सौभाग्यशालिन् !, त्वत्कथाऽऽरम्भे = भवत्कथनो. पक्रमे सति, कर्णकण्डूतिलालसा - श्रोत्रविघर्षणभृशोत्लुका, तथा उज्जृम्भवदनाऽम्भोजा= उज्जृम्भम् ( उद्गतजृम्भणम् ) वदनाऽम्भोजं ( मुखकमलम् ) यस्याः सा तादृशी, सा = भवदुपभुक्ता, अङ्गना = नायिका, अङ्गानि = देहाऽवयवान्, भिनत्ति मर्दयति । अत्र कर्णकण्डूतिवदनजृम्भगाङ्गभेदन करणान्मोट्टायितं नामालङ्कारः ।। १०२ ।
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१७३
=
25
O
उ० – सुन्दरी | इच्छाका विरोध न होनेके तौरपर हाथकी रुकावट, मन्दहास्यपूर्वक तर्जन, और सुखमें भी मनोहर शुष्करोदन करती है ।
पोट्टायित प्रियकी चर्चा आदिके प्रसङ्गोंमें, उसके अनुरागसे व्याप्त चित्त होनेपर कानको खुजलाना आदि कर्मको "मोट्टायित" कहते हैं ।। १०२ ।।
उ०- हे सौभाग्यशालिन् ! तुम्हारे कथन के आरम्भ में वह सुन्दरी कान बुजलाने में लालसा करती है, जंभाई लेती है और अंगड़ाई लेती है ।
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१७४
साहित्यदर्पणे
अथ कुट्टमितम्
केशस्तनाधरादीनां ग्रहे हर्षेऽपि सम्भ्रमात् ।
आहुः कुट्टमितं नाम शिरस्करविधूननम् ।। १०३ ।। यथा'पल्लवोपमितिसाम्यसपक्षं दष्टवत्यधरबिम्बमभीष्टे । पयेकूजि सरुजेव तरुण्यास्तारलोलवलयेन करेण ।।' अथ विभ्रमः
त्वरया हपरागादेदयितागमनादिषु । अस्थाने भूषणादीनां विन्यासो विभ्रमो मतः ।। १०४ ।।
कुट्टमितं लक्षयति-केशस्तनाऽघरादीनामिति । केशस्तनाऽधरादीनां = कचपयोधरोष्ठादीनां, ग्रहे = ग्रहणे, नायकेनेति शेषः, हर्षेऽपि = प्रमोदेऽपि, संभ्रमात् == त्वरायाः, शिरःकरविधूननं = मस्तकहस्तकम्पन, कुट्टमितं नाम, प्राहुः = कथयन्ति, आलङ्कारिका इति शेषः ।। १०२ ॥
कुट्टमितमुदाहरति-पल्लवोपमितिसाम्यसपक्षमिति । अभीष्टे -- प्रिये, पल्लवोपमितिसाम्यसपक्षं = किसलयोपमानसमतासदशम्, अधरविम्बम् = ओष्ठबिम्ब, दष्टवति = क्षतयुक्तं कुर्वति सति, सरुजा इव = पीडायुक्तेन इव, तारलोलवलयेन = उच्चस्वरचक्षलकङ्कणेन, तरुण्या: = युवत्याः, करेण = हस्तेन, पर्यकूजि-परिकूजितम्, निषेधाऽर्थमिति भावः । अत्र नायिकायाः शिरःकरकम्पनात् कुट्टमितं नामाऽलङ्कारः। उत्प्रेक्षा नामाऽर्थालङ्कारः । स्वागता वृत्तम् ।। १०३ ।।
विभ्रमं लक्षयति-त्वरयेति । दयिताऽऽगमनादिषु = दयितस्य (प्रियस्य ) आगमनादिषु (आगमनप्रभृतिषु), अत्रादिपदेन उत्सवादिषु इत्यों बोध्यः । हर्षरागादेः प्रमोदाऽनुरागादेः, आदिपदेन दयिताभिसरणादेच, त्वरया = संभ्रमेण, भूषणादीनाम्= . अलङ्कारादीनां, विन्यासः = स्थापनं, विभ्रमः, मतः = संमतः ॥ १०४ ॥
कुट्टमित-केश, स्तन और अधर आदि अङ्गों में नायकके ग्रहण करनेसे हर्ष होनेपर भी घबराहटके साथ शिर और हाथोंको कम्पित करनेको "कुट्टमित" कहते हैं१०३
उ०-प्रियसे पल्लवके समान अधरके दष्ट होनेपर तरुणीके उच्चस्वरयुक्त चञ्चल कङ्कणसे विभूषित हाथने पीडितके समान होकर आवाज की।
विभ्रम-प्रियके आगमन आदिमें हर्ष और अनुराग आदिके हेतुसे जल्दबाजीके कारण अस्थानमें ( बेठिकाने ) अलङ्कार आदि पहननेको "विभ्रम" कहते हैं ।।१०४॥
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तृतीयः परिच्छेदः
१७५
यथा
'श्रुत्वायान्तं बहिः कान्तमसमाप्तविभूषया।
भालऽञ्जनं शोर्लाक्षा कपोले तिलकः कृतः ।।' अथ ललितम्
सुकमारतयाङ्गानां विन्यासो ललितं भवेत् । यथा
गुरुतरकलनूपुरानुनादं सललितनर्तितवामपादपद्मा।
इतरदनतिलोलमादधाना पदमथ मन्मथमन्थरं जगाम ।।'
विभ्रममुदाहरति-स्वेति । बहिः = बाह्यप्रदेशे, आयातम्-आगतं, कान्त= प्रियं, धुत्वा = आकर्ण्य, असमाप्तविभूषया = असमाप्तप्रसाधनया कयाचित् कान्तयेति शेषः । भाले = ललाटे, दृशोः स्थाने इति शेषः । व्यञ्जनं कज्जलं, दृशोः = नयनयोः, लामा = पादरागः, एवं च कपोले = गण्डफलके, तिलकः = विशेषकः, ललाटस्थान इति शेषः, कृतः विहितः । अत्र दयिताऽऽगमनहर्षेण कान्तया अजनलाशातिलकानामस्थानेषु विन्यासाद्विभ्रमः । अनुष्ट वृत्तम् ।। १०४ ॥
ललितं लक्षयति-सुकूमारतयेति । अङ्गाना = शरीराऽवयवानां, सुकुमारतया = कोमलत्वेन, विन्यासः = स्थापनं, ललितं भवेत् ।
ललितमुदाहरति-गुरुतरेति । अथ = अनन्तरं, सललितनतितवामपादपासललितं ( कोमलतापूर्वकम् ) नतितं (नृत्यविषयीकृतम् ) वामं ( दक्षिणेतरद ) पादपन ( चरणकमलम् ) यया सा; तादृशी नायिका, अनतिलोलम् = बनतिवपलम, इतरत् = वामेत रत, दक्षिणमित्यर्थः । पद ( चरणम् ) आदधाना = भूमी विन्यस्यन्ती सती, गुरुतरकलनूपुराऽनुवादं = गुरुतरः ( अतिमहान ), कलः (मधुरः) नूपुरानुवादः (पादाङ्गदध्वनिः ) यस्मिन् कर्मणि तयथा तथा । मन्मथमन्परं = सन्मयेन (मदनाssवेशेन ) मन्थरं ( मन्दम् ) यथा तथा, जगाम = गता । अत्र ललितभावेन पदविन्यासोल्ललित नामाऽलङ्कारः ।
उ०-नायिकाने प्रियको बाहर आये हुए सुनकर ( जल्दबाजीसे ) अलकार धारणको अधूरा रखकर ललाटमें अञ्जन ( काजल ), नेत्रोंमें महावर बोर कपोलमें तिलक लगा लिया।
ललित-सुकुमारतापूर्वक अङ्गोंको स्थितिको "ललित" कहते हैं।
उ.-नपुरकी गम्भीर और मनोहर आवाज करती हुई सुकुमारतापूर्वक बाएं चरण कमलको नवाती हुई बोर दूसरे (दाहिने ) परगको भी ज्यादा पालन कर रखती हुई सुन्दरी कामविकारसे मन्दगति पूर्वक चली।
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१७६
अथ मदः -
यथा
दो विकारः सौभाग्य यौवनाद्यवलेपनः ।। १०५ ।।
अथ विहृतम्-
साहित्यदपणे
' मा गर्व मुद्रह कपोलतले चकास्ति
कान्तस्वहस्तलिखिता मम मञ्जरीति । अन्यापि किं न खलु भाजनमीदृशीनां वैरी न चेद्भवति वेपथुरन्तरायः ।।
वक्तव्यकालेऽप्यवचो व्रीडया विहृतं मतम् ।
कान्तवाल्लभ्यता
मदं लक्षयति मद इति । साभाग्ययौवनाद्यवलेपजः रुण्याद्यभिमानजन्यः, विकारः = विकृतिः, भदः = तन्नामकोऽलङ्कारः ॥ १०५ ॥
=
मदमुदाहरति- मा गर्वमिति । आत्मनः सोभाग्याद्यभिमानजन्यं मदं प्रकाशयन्ती सखी प्रति तत्सख्या उक्तिरियम् ।। हे सखि ! ) मम, कपोलतले = गण्डफलके, कान्तस्वहस्तलिखिता = | प्रियात्मकरचित्रिता, मञ्जरी = मञ्जरीप्रकृतिः, इति, गर्वम् = अवलेयं मा उद्वह = नो धारय । यतः वैरी = शत्रुतुल्यः, वेपथुः = कम्पः प्रियस्पर्शजन्य इति शेषः । अन्तरायः = विघ्नस्वरूपः, न भवति चेत् = न विद्यते यदि, तदा अपराऽपि = त्वदितराऽपि, ईदृशीनां = मञ्जरीणां, भाजनं पात्र, न खलु न भवेत्, निश्वयेन भवेदेवेति भावः । अत्रोभयोरपि सख्योः सौभाग्याद्यभिमानजन्यविकारान्मदोनामाऽलङ्कारः ।। १०५ ।।
विहृतं लक्षयति वक्तव्यकाल इति । वक्तव्य कालेऽपि - भाषणीयसमयेऽपि लज्जया हेतुना, अवचः = अभाषणं, विहृतं
तन्नामाऽलङ्कारः, मतम् =
-
=
व्रीडया
सम्मतम् क्वचित् "विकृतम्” इति पाठान्तरम् ।
मद - सौभाग्य और तारण्य आदिके गर्व से उत्पन्न विकारको "मद' कहते हैं ।। १०५ ।।
उ०—कोई सखी किसी नायिकासे कहती है- मेरे कपोलतल में प्रियत+के हाथ से लिखी गई मञ्जरी शोभित हो रही है ऐसा सोचकर तुम घमण्ड मत करो, शत्रुस्वरूप कम्प विघ्न नहीं करता तो अन्य नायिका 'भी ऐसी मञ्जरियोंका पात्र न होती ?
विहृत - लज्जा के कारण बोलनेके लिए उचित समय में भी न बोलनेको "विहृत" कहते हैं ।
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यथा
'दूरागतेन कुशलं पृष्टः नोवाच सा मया किचित् । पर्यश्रेणी तु नयने तस्याः कथयाम्बभूवतुः सर्वम् ॥'
अथ तपनम्-
तृतीयः परिच्छेदः
तपनं प्रियविच्छेदे स्मरावेगोत्थचेष्टितम् ।। १०६ ।।
यथा मम -
श्वासान्मुति, भूतले विलुठति, स्वन्मार्गमा लोकते,
दीर्घ रोदिति, विक्षिपत्यत इतः क्षामां भुजावल्लरीम् । किञ्च, प्राणसमान ! काङ्क्षिती स्वप्नेऽपि ते सङ्गमं,
१७७
विहृतमुदाहरति- दूरागतेनेति । मित्रं प्रति कस्यचिन्मित्रस्योतिरियम् । दूरागतेन दूरात् ( विप्रकृष्टात्प्रदेशात् ) आगतेन ( आयातेन ), मया, कुशलं क्षेमं, पृष्टा = अनुयुक्ता सा = प्रिया, किश्वित् = किमपि न उवाच =न जगाद । तु = परन्तु, पर्यश्रुणी = अश्रुपरिव्याप्ते, तस्था: = प्रियायाः, नयने नेत्रे, सर्व = सकलं प्रवासदुःखं, मदागमने हर्षाऽतिशयं च कथयाम्बभूवतुः = सूचितवती । अत्र प्रियेण कुशलप्रश्ने कृतेऽपि ब्रीडया अभाषणात् विहृतं नामालङ्कारः । आर्यावृत्तम् ॥
=
तपनं लक्षयति - तपनमिति । प्रियविच्छेदे = कान्तविप्रयोगे, स्मराऽऽवेगोत्थचेष्टितं = स्मरावे गोत्थं ( मदनजनितचाञ्चल्यजन्यम् ) चेष्टितम् चेष्टा ), तपनं = तपनं नामाऽलङ्कारः । "आवेग " स्थाने कुत्रचित् "आवेश" इति पाठान्तरम् ।। १०६ ।।
=
=
तपनमुदाहरति-— श्वासानिति । प्रवासिनं प्रियं प्रति नायिकासख्या उक्ति रियम् । हे प्राणसमान = मत्सख्याः प्राणसदृश !, प्रवासान् = निश्वासान्, मुवति जति त्वद्विरहेण मत्सखीति शेषः एवं परत्राऽपि । भूतले = भूमितले, विलुठति : विलुण्ठनं करोति त्वन्मार्ग = भवत्यथम्, आलोकते = पश्यति । दीर्घदीर्घ समयपर्यन्तं, रोदिति = अश्रूणि विमुञ्चति । अत इतः = यत्र तत्र, क्षामा = कृशां विरहेणेति शेषः । भुजावल्लरीं = बाहुलता, विक्षिपति = प्रेरयति । किख, स्वप्नेऽपि = स्वापेऽपि, ते तब,
उ०- कोई नायक अपने मित्र से कहता है-दूर से आये हु मैंने उससे कुशल पूछा, पर उस (प्रिया) ने कुछ भी नहीं कहा, पर आँसे भरे हुए उसके नेत्रोंने सब कुछ बता दिया ।
तपन - प्रियके वियोग में कामचाञ्चल्यसे उत्पन्न चेष्टाको "तपन" कहते हैं १०६ उ०- ग्रन्थकार अपना पद्म प्रस्तुत करते हैं । नायिकाकी सखी अपनी सखीकी अवस्था उसके प्रियसे कहती है- हे मेरी सखीके प्राणतुल्य ! ( वह मेरी सखी ) लम्बे 'श्वासों को छोड़ती हैं, जमीनपर लौटती है, तुम्हारा मार्ग देखती है, बहुत समय तक रोती है । पतली बाहुलत को इधर उधर पटकती है, स्वप्न में भी तुम्हारा समागम चाहती १२ सा०
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१७८
साहित्यदर्पणे
निद्रां वाञ्छति, न प्रयच्छति पुनर्दग्धो विधिस्तामपि ॥'
अज्ञानादिव या पृच्छा प्रतीतस्यापि वस्तुनः । वल्लभस्य पुरः प्रोक्तं मौग्ध्यं तत्तच्चवेदिभिः ।। १०७ ॥
अथ मौग्ध्यम्
यथा
'के मारते ? क्व वा ग्रामे ? सन्ति केन प्ररोपिताः ? | नाथ! मत्कङ्कणन्यस्तं येषां मुक्ताफलं फलम् ॥'
अथ विक्षेप:
भूषाणामर्धरचना मिथ्या विष्वगवेक्षणम् । रहस्याख्यानमीषश्च विक्षेपो दयितान्तिकं ।। १०८ ॥
कान्तस्य, संगमं
समागम, काङ्क्षितवती = दृष्टवती, सती, निद्रां = सुप्ति, वाञ्छति= इच्छति परं किन्तु, दग्धः = हतकः, विधिः भाग्यं ताम् अपि = निद्राम् अपि न प्रयच्छति = नो ददाति । अत्र स्मरावेगेन नायिकाया निःश्व पनादिचेष्टित वर्णनात् तपनं नामालङ्कारः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।। १०६ ।
मौग्ध्यं लक्षयति- प्रज्ञानादिवेति । वल्लभस्य = कान्तस्य, पुरः = अग्रे, प्रतीतस्य अपि = ज्ञातस्य अपि वस्तुनः = पदार्थस्य, अज्ञानात् इव = अबोधात् इव,
या पृच्छा = प्रश्नः, तत्ववेदिभिः = नायिकाऽलङ्कारस्वरूपज्ञातृभिः, तत् मौख्यं
प्रोक्तम् = अभिहितम् ॥ १०७ ॥
. मौग्यमुदाहरति-क इति । नायिका मुक्ताफलमनूद्य नायकं पृच्छति । हे नाथ = स्वामिन, महणन्यस्तं = मद्वलयखचित, मुक्ताफलं = मौक्तिकं, येषां = वृक्षाणां, फलं = सस्यं, ते, के द्रुमाः = के वृक्षा, किनामका द्रुमा इत्यर्थः । वा = अथवा, क्व = कस्मिन्, ग्रामे = संवसथे, केन जनेन प्ररोपिताः = उप्ताः सन्तीति शेषः । अत्र पूर्वं ज्ञातस्याऽपि मौक्तिकस्य नायिकया अज्ञानादिव प्रश्नतः मौग्ध्यं नःमाऽलङ्कारः।१०७। विक्षेपं लक्षयति-भूषाणामिति । दयिताऽन्तिके = कान्तसमीपे, भूषाणाम् = अलङ्काराणाम्, अर्धरचना = अपूर्णरचनं, नायिकाया इति शेषः एव परत्राऽपि । मिथ्या = व्यर्थ, विष्वक् = सर्वतः, अवेक्षणम् अवलोकनम् ईषत् = अल्प, रहस्याहुई निद्राकी इच्छा करती है, परंतु उसका जला हुआ भाग्य उसे निद्रा भी नहीं देता है । मौग्य-जाने हुए पदार्थको प्रियके पास अनजान-सी होकर पूछनेको साहित्य के तत्त्ववेत्ता "मौग्ध्य" कहते हैं ।। १०७ ।।
उ०- नायिका मोतीके बारेमें अपने प्रियसे पूछती है - हे नाथ ! मेरे कङ्कणमें स्थित मुक्ताफल जिनका फल है वैसे पेड़ किस गांव में हैं और किनसे बोये गये हैं ? विक्षेप - प्रियके समीपमें भूषणोंकी आधी रचना और विना कारण के ही
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तृतीयः परिच्छेदः
यथा
'धम्मिल्लमर्धमुक्तं कलयति तिलकं तथाऽसकलम् ।
किश्चिद्वदति रहस्यं चकितं विध्वग्विलोकते तन्वी॥' अथ कुतूहलम्
रम्यवस्तुसमालोके लोलता स्यात्कुतूहलम् । यथा
'प्रसाधिकालम्बितमप्रपादमक्षिप्य काचिद् द्रवरागमेव ।
उत्सृष्टलीलागतिरागवाक्षादलक्तकाकां पढ़वीं ततान ।' ख्यानं च = गुह्यभाषर्ण च, विक्षेपो नामाऽलङ्कारः ॥ १०८ ।।
. विक्षेपमुदाहरति-धम्मिल्लमिति । तन्वी = कृशोदरी, धम्मिल = बद्धकेशसमूहम्, अर्धमुक्तम् = अर्धत्यक्तं, कलयति = करोति, तथा तिलकं = विशेषकम्, असकलं = अपूर्णम्, "शकलम्" इति पाठान्तरोपि खण्डमात्रं, न अखण्डं = पूर्ण, स एव अर्थः । कलयति = करोति । रहस्यं = गोप्यवृत्तान्तं, किञ्चित् = ईषत्, वदति = कथयति, चकितं = चकितं यथा स्यात्तथा, विष्वक् = सर्वतः, विलोकते = पश्यति । अत्र दयिताऽन्तिके नायिका भूषाणामधरचनादिना विक्षेपो नामाऽलङ्कारः ॥ १०८ ॥ ____ कुतूहलं लक्षयति-रम्यवस्तुसमालोक इति । रम्यवस्तुसमालोके = मनोहरपदार्थदर्शने, लोलता चञ्चलता, नायिकाया इति शेषः । कुतूहलं कुतूहलं नामाऽलङ्कारः ।
कुतूहलमृदाहरति-प्रसाधिकाऽऽलम्बितमिति । इन्दुमतीस्वयंवृतस्याऽजस्य नगरप्रवेशे दर्शनेच्छोः कस्याश्चित्कामिन्या वर्णनमिदम् । काचित् = पुरस्त्री, प्रसाधिकालम्वितं = प्रसाधिकया ( मण्डनका ) आलम्बिम् ( गृहीतम् ), अग्रपाद = चरणाऽयं, द्रवरागम् एव = आर्द्रलाक्षारागयुक्तम् एव, आक्षिप्य = आकृष्य, उत्सृष्ट. लीलागतिः = उत्सृष्टा ( त्यक्ता), लीलागतिः ( विलासगमनम् ) यया या, शीघ्र. गमनयुक्ता सतीति भावः । आ गवाक्षात् = वातायनपर्यन्तम् अलक्तकाऽङ्का = लाक्षाअसरागयुक्तां, पद्रवी = मार्ग, ततान = विस्तारितवती ।। पद्यमिदं रघुवंशे कुमारसंभवे चारों बोर देखना और एकान्तमें कुछ रहस्य कहनेको "विक्षेप" कहते हैं ॥ १०८ ॥
उ०-सुन्दरी केशोंकी आधी रचना करती है उसी तहर तिलक भी अधूरा ही लगाती है, कुछ रहस्य कहती है और आश्चर्य पूर्वक चारों ओर देखती रहती है।
कुतहल-सुन्दर पदार्थ देखनेमें चञ्चल होनेको "कुतूहल" कहते हैं ।
उ०- इन्दुमतीके स्वयंवरमें अजके नगरप्रवेशके अवसरपर उनको देखनेकी इच्छा करनेवाली किसी स्त्रीका वर्णन है। किसी स्त्रीने प्रसाधन करनेवाली स्त्रीसे गृहीत महावरवाले गीले परको हो खींचकर विलासपूर्वक गतिको छोड़कर जाती हुई
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१८०
अथ हसितम् -
यथा
अथ चकितम्
हसितं तु वृथासो यौवनादभेदसम्भवः ।। १०९ ।
यथा-
साहित्यदर्पणे
'अकस्मादेव तन्वङ्गी जहास यदियं पुनः । नूनं प्रसूनवाणोऽस्यां स्वाराज्यमधितिष्ठति ।।'
कुतोऽपि दयितस्य चकितं भयसम्भ्रमः ।
'त्रस्यन्ती चलशफरी विघटिटतोरूर्वामोरूर तिशयमाप विभ्रमस्य ।
च वर्तते । रघुवंशे अजर्शनाऽर्थं, कुमारसंभवे हरदर्शनाऽर्थं स्त्रिया लालतया कुतूहल वर्णनात् कुतूहलं नामालङ्कारः ॥ उपजातिवृत्तम् ।
हसितं लक्षयति हसितमिति । योवनोद्भ ेदसम्भवः = : यौवनस्य ( तारुण्यस्य) य उभेदः ( उत्पत्तिः), तत्सम : ( तज्जनितः), वृथाहासः = व्यर्थ हास्यं ललनाया इति शेषः । हसितं नामाऽलङ्कारः ।। १०९ ।।
हसितमुदाहरति- प्रकस्मादिति । अकस्माद्धसन्तीं ललनां विलोक्य कस्यचि दुक्तिरियम् । इय तन्वङ्गी = कृशोदरी, यत् = यस्मात्कारणात्, पुनः भूयः, जहास = हसितवती, (तत् = तस्मात्कारणात् ) प्रसूनवाणः = पुष्पबाणः, काम इत्यर्थः । अस्यां= तन्त्रङ्गयां, स्वाराज्यं =स्वर्ग राजस्वम्, अधितिष्ठति = आंश्रयति, नूनम् इति उत्प्रेक्षायाम् । इयं स्वर्गो नु इति भावः । अत्र नायिकायास्तारुण्योत्पन्नस्य वृथाहासस्य वर्णनाद्धसितं नामालङ्कारः ।। १०९ ।।
चकितं लक्षयति- कुतोऽपीति । दयितस्य = प्रियस्य, अग्रे = पुरतः, कुतोऽपि = 'कस्मादपि कारणात्, भयसंभ्रमः = भीतिजनिता स्वरा, चकितं नामालङ्कारः । चकित मुदाहरति- त्रस्यन्तीति । कोऽपि नायकः स्वमित्रं प्रति दयिताया जल क्रीडां वर्णयति । चलशफरीविघट्टितोरूः = चला ( चञ्चला ) या शफरी ( प्रोष्ठी तया विघट्टितः ( ताडित: ) ऊरु: ( सकिय: ) यस्याः सा तादृशी, वामोरूः = सुन्दर सक्थिः, प्रिया । विभ्रमस्य विलासस्य, अतिशयम् = उत्कर्षम्, आप = प्राप । अहो
=
झरोखें तक मार्गको महावरके चिह्नवाला बना डाला ।
हसित - तारुण्यके आविर्भाव से उत्पन्न वृथा हास्यको “हसित" कहते हैं । १०९ उ.- - जो कि यह कृशोदरी अकस्मात् हँसी, इसी कारणसे निश्चय कामदेव इसमें स्वर्गके राज्यका अधिकार कर लेता है ।
चकित - प्रियके सम्मुख किसी भी कारणसे भयसे होनेवाली घबराहटको " चकित" कहते हैं ।
उ०-- जलक्रीडाके समयमें कोई सुन्दरी चश्चल छोटी-सी मछली से अपने
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तृतीयः परिच्छेदः
क्षुभ्यन्ति ! प्रसभमहो ! विनापि हेतोर्लीलाभिः किमु सति कारणे तरुण्यः ।।' अथ केलि:
बिहारे सह कान्तेन क्रीडितं केलिरुच्यते ॥ ११० ॥
यथा-
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'व्यपोहितुं लोचनतो मुखानिलेर पारयन्तं किल पुष्पजं रजः । पयोधरेणोरसि काचिदुन्मनाः प्रियं जघानोन्नतपीवरस्तनी ॥' अथ मुग्धाकन्ययोरनुरागेङ्गितानि -
दृष्ट्वा दशयति व्रीडां सम्मुखं नैव पश्यति ।
प्राश्वर्यम् । तथा हि तरुण्यः युवतयः, हेतोविनाऽपि कारणं विनाऽपि, लीलाभिः =शृङ्गारपेष्टाभिः प्रसभ = हठात् "प्रततम्" इति पाठान्तरे अतिशयं यथा तथेत्यर्थः । क्षुभ्यन्ति= चलन्ति कारणो सतितो विद्यमाने किमु = किं वक्तव्यम् । अत्र दयितस्य अग्रे नायिकाया भयसंभ्रमाच्चकितं नामालङ्कारः प्रहर्षिणी वृत्तम् । शिशुपालवधस्थं पद्यमिदम् ।
foot - बिहार इति । कान्तेन = प्रियेण सह, विहारे = रमणे, क्रीडितं = क्रीडनं, नायिकाया इति शेषः । केलिरुच्यते ॥ ११० ॥
केलिमुदाहरति - व्यपोहितुमिति । किरातार्जुनीयस्थं पद्यमिदम् । उन्नतपीवररेशमी उन्नती ( उच्ची ) पीवरी ( पुष्टी ) स्तनो (कुची ) यस्याः सा एतादृशी, काचित् = अनिर्दिष्टनामधेया नायिका, उन्मनाः = उत्कण्ठिता सती, रमणाऽर्थमिति शेषः । मुखाऽनिलः वदनवातः, लोचनतः = स्वनेत्रात्, पुष्पजं = कुसुमजनितं रजः = रागं व्यपोहितुं निरसितुम्, अपारयन्तम् = अशक्नुवन्तं प्रियं = वल्लमम्, उरसि = पक्ष:स्थले, पयोधरेण = कुचेन, जघान = ताडितवती । अत्र कान्तेन सह विहारे नायिकाक्रीडावर्णनात् केलिर्नामालङ्कारः । वंशस्थं वृत्तम् ॥ ११० ॥
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मुग्धःकन्यकयोर्नायिकयोः सामान्यान्यनुरागेङ्गितानि उद्दिशति बृष्ट्वेति । प्रिये = वल्लभे, अनुरागिणी = अनुरागयुक्ता, बाला = तरुणी, मुग्धा कन्यका चेति भावः । दृष्ट्वा = विलोक्य, प्रियमिति शेषः, "दृष्टेति पाठान्तरे कान्तेनाऽवलोकिता सतीत्यर्थः । व्रीडां = लज्जां दर्शयति, सम्मुखम् = अभिमुखं प्रियस्येति शेषः । नैव पश्यति, लज्ज
हमें ठोकर लगने से अतिशय भयको प्राप्त हुई युवती स्त्रियाँ विना कारणके भी विलासपूर्वक अत्यन्त चञ्चल हो जाती हैं, कारणके रहनेपर फिर क्या कहना है ?
केलि - वनविहार में प्रियके साथ क्रीडाको "केलि” कहते हैं ॥ ११० ॥ उ०- उन्नत और पुष्ट स्तनोंसे युक्त रमणीने उत्कण्ठित होकर अपने नेत्रमें पड़े हुए फूल परागको मुखकी हवासे नहीं हटा सकनेवाले प्रियको उसकी छातीमें स्तनसे घाटन किया।
मुग्धा और कन्यानोंकी अनुरागचेष्टाएँ- मुग्धा और कन्या प्रियको
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१८२
साहित्यदर्पणे
"IT
प्रच्छन्नं वा भ्रमन्तं वातिक्रान्तं पश्यति प्रियम् ॥ १११ ।। बहुधा पृच्छयमानापि मन्दमन्दमधामुखी । सगद्गदखरं किश्चिन् प्रियं प्रायेण भाषते ।। ११२ ।। अन्यः प्रवर्तितां शश्वत्सावधाना च तत्कथाम् ।
शृणोत्यन्यत्र दत्ताधी प्रिये बालानुरागिणी ।। ११३ ।। अथ सकलानामपि नायिकानामनुरागेषितानि
चिराय सविधे स्थानं प्रियस्य बहु मन्यते ।
विलोचनपथं चास्य न गच्छत्यनलङ कृता ।। ११४ !! येति भावः । प्रच्छन्न = मित्यादिव्यवहितं, भ्रमन्तंभ्रमणं कुर्वन्तम्, अतिक्रान्तं वा = दूरे गतं वा, प्रियं = वल्लभं, पश्यति = अवलोकयति ॥ १११॥
बहुधा = बहुप्रकारः, पृच्छयमानाऽपि = अनुयुज्यमानाऽपि, बालेति शेषः । मन्दमन्दं = शनैः शनैः, सगद्गदस्थर गद्गद्स्वरसहितं यथा तथा, प्रायेण = अनेकशः, प्रियं = बल्लभं, किञ्चित् = स्तोकं, भाषते - ब्रूते ॥ ११२ ।।
.. साऽवधाना = एकाऽग्रमानसा, अन्यत्र = स्थानान्तरे, दत्ताक्षी = दत्तनयना सती, अन्यः = अपरंर्जनः, प्रवर्तिता = प्रचालितां तत्कथा = प्रियकथां, शश्वत् = सर्वदा, शृणोति = आकर्णयति ।। ११३॥ .. सकलानामपि समस्तानामपि, नायिकानां सामान्यतोऽनुरागेङ्गितानि सूचयतिचिरायेति । अनुरक्ता = अनुरागयुक्ता, नितम्बिनी = सुन्दरी, प्रियस्य = वल्लभस्य, सविधे = समीपे, स्थानं = स्थिति, बहु = अधिकं यथा तथा, मन्यते = अवबुध्यति । अनलकृता = अभूषिता सती, अस्य = प्रियस्य, विलोचनपथं = दृष्टिमार्ग, न गच्छति ॥ ११४॥ देखकर लज्जा दिखाती है, संमुख होकर नहीं देखती है, दीवार आदिसे व्यवहित, घूमते हुए, प्रियको देखती रहती है ।। १११ ।।
अकसर प्रियके बारंबार पूछनेपर भी अधोमुख होकर गद्गदस्वरके साथ थोड़ा बोलती है ॥ ११२॥
___अनुराग करनेवाली वह, प्रियके विषयमें दूस से की गई वार्ताको दूसरी ओर नेत्रोंको लगाकर सुनती रहती है ।। ११३ ॥
अब सब नायिकाओंकी अनुराग-चेष्टाओंको बतलाते हैं-बहुत समयतक प्रियके पास रहना पसन्द करती है। अलङ्कार किये बिना प्रियके पास नहीं जाती है ॥११४॥
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तृतीयः परिच्छेदः
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वापि कुन्तलसव्यानसंयमध्यपदेशतः । बाहुमूलं स्तनौ नाभिपङ्कजं दर्शयेत् स्फुटम् ॥ ११५ ।। आच्छादयति वागाय: प्रियस्य परिचारकान् ।। विश्ववसित्यस्य मित्रेषु बहुमानं करोति च ।। ११६ ।। मखीमध्धे गुगान् ब्रूते स्वधनं प्रददाति च । सुप्ते स्वपिति दुःखेऽस्य दुःख धत्ते सुखे सुखम् ।। ११७ ।। स्थिता दृष्टिपथे शश्वत्प्रिये पश्यति दूरतः ।
आभाषते परिजनं सम्मुखं स्मरविक्रियम् ॥ ११८ ।।
क्वाऽपि = कुत्राऽपि स्थाने, कुन्तलसंव्यानसंयमव्यपदेशतः = कुन्तलानां ( चर्गकुन्तलानाम् ), संव्यानस्य च ( उत्तरीय वस्त्रस्य ) संयमस्य (बन्धनस्य परिधानस्य च), व्यपदेशतः (छलतः ) । बाहुमूलं, भुजमूलं, स्तनो = कुधी, नाभिपङ्कजं च%3D नामिकमलं च । स्फुटं = व्यक्तं, दर्शयेत् = प्रदर्शयेत् ।। ११५॥
प्रियस्य = वल्लभम्य, परिवारकान् == मेव कान्, वागाछ: वचनभूषणप्रदानप्रभ तिभिः, आच्छादयति-वशीकरोतीति भावः । अस्य-प्रियस्य, मित्रेषु-सुहृत्सु, विश्वसिति विश्वासं करोति, मानं = सम्मान. बहु =अधिकं यथा तथा, करोति विदधाति ।।११६॥
___ सखीमध्ये = वयस्यामध्ये, गुणाम् =दयादाक्षिण्यादीन्. कान्तस्येति शेषः । ब्रूते= अभिधत्ते, स्वधनं = निजद्रव्यं, प्रददाति च = वितरति प, प्रियायेति शेषः । सुप्ते = निद्राणे, प्रिय इति शेषः, स्वपिति-स्वयमपि शेते । अस्य=प्रियस्य, दुखे दुःखं, सुखे सुखं, धत्ते = अनुभवतीति शेषः ॥ ११७ ।।
प्रिये = कान्ते, पश्यतिविलोकयति सति, दूरत. विप्रकृष्टप्रदेशात्, दृष्टिपथेनेत्रमार्गे, स्थिता = अवस्थिता सती, परिजनम् = शुश्रुषुजनम्, अभिमुखं सम्मुखम् = स्वरविक्रियं = स्मरस्य ( मदनस्य ) विक्रिया ( विकारः ) यस्मिन् कर्मणि तयथा तथा, "मन र क्रियम्" इति पाठान्तरे स्वरविकारपूर्वकमित्यर्थः । आभाषते-आलपति ॥११॥ कहींपर केशोंको बाँधना और वस्त्र पहननके पहानेसे अपने बाहुमूल स्तनों और नाभिकमलको स्पष्टरूपसे दिखलाती है ।। ११५ ॥
प्रियके नौकरोंको प्रियवचन आदिसे वशमें करती है प्रियके मित्रोंमें विश्वास रखती है और बहुत समान करती है ॥ ११६ ।।
__सखिोंके बीचमें प्रियके गुणोंको कहती है और अपना धन दे देती है। प्रियके सोनेर सोती है, उसके दुःखमें दुःख, और सुख में सुख मानती है ॥ ११७ ॥
प्रियके दूरसे देखनेपर उनके दृष्टिमार्गमें रहती हुई अपने परिजन ( सखी) के संमुख कामविकारको प्रकट कर बातचीत करती हैं ।। ११८॥
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१८४.
साहित्यदर्पणे
यत्किश्चिदपि संवीक्ष्य कुरुते हसितं मुधा। . कणकण्डूयनं तत्कवरीमाक्षसंयमौ ।। ११९ ॥ जुम्मते स्फोटयत्यङ्गं बालमाश्लिष्य चुम्बति । भाले तथा वयस्याया रचयेत्तिलकक्रियाम् ।। १२० ॥ अङ्गुष्ठायण लिखति सकटाक्षं निरीक्षते । दशति स्वाधरं चापि ते प्रियमधोमुखी ॥ १२१ ।। न मुश्चति च तं देशं नायको यत्र दृश्यते ।
आगच्छति गहं तस्य कार्यव्याजेन केनचित् ।। १२२ ।।
यत्किश्चित् अपि = वस्तु, संवीक्ष्य अबलोक्य, मुधा -- मृपा, व्यर्थमिति भावः । हसितं = हास्यं, कुरुते = विदधाति । एवं कर्णकण्डूयन = श्रोत्र कण्डूति, तद्वत् कबरी मोक्षसंयमो = कबरीमोक्षं ( केश वेशमोचगम ), कयरीसंयम च ( के गवेशवन्धनं च ) कुरुते = विदधाति ।। ११९ ।।
- जम्मते-जम्भगं करोति । अङ्ग-देहाऽवयवम् अङ्गल्यादिकमिति भावः । स्फोटयति शब्दयति । बालं-शिशुम्, आश्लिष्य-आलिङ्गय, चुम्बति -चुम्वनं करोति । तथा वयस्यायाः सख्याः, भाले ललाटे, तिलकक्रिया विशेषकरणं, रचयेत् कुर्यात् ।।१२०॥
अगुष्ठाऽग्रेण = चरणस्येति शेषः, लिखति - भूमि विदारयतीति भावः । सकटाक्षंकटाक्षसहितं, निरीक्षते विलोकयति, प्रियमिति, प्रियमिति शेषः । स्वाऽधरं= निजोष्ठं, दशति = स्वदशनर्दष्टं करोति । अधोमुखी = अवनतवदना सती, प्रिय = कान्तं, ब्रूने = भाषते ॥ १२१॥
यत्र = यस्मिन्देशे, नायक:-प्रियः, दृश्यते - अवलोक्यते, तं देशं, न मुञ्चति= न त्यजति। केनचित् कार्यव्याजेन = कर्मच्छलेन, तस्य = नायकस्य, गृहं = भवनम्, आगच्छति = मायाति ॥ १२२ ॥
- कुछ भी वस्तुको देखकर व्यर्थ ही हंसती है, कानको खुजलाती है, चोटी । खोलती है और बांधती है ॥ ११९॥
जमुहाई लेती है, शरीरके अवयवको बजाती है, (चुटकी आदि लेती है)। बालकको आलिङ्गन करती है और चूमती हैं । सखीके ललाट (लिलार)में तिलक लगती है ।१२०।
परके अंगूठेकी मोकसे जमीनको कुरेदती है, कटाक्षके साथ देखती है । अपने होंठको चबाती है अधोमुख होकर प्रियसे बोलती है ॥ १२१ ।।
- जहाँपर नायक देखा जाता है उस जगहको नहीं छोड़ती है । प्रियके घर में किसी कामके बहानेसे आती है ॥ १२२ ॥
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तृतीयः परिच्छेदः
दत्तं किमपि कान्तेन धृत्वाङ्ग मुहुरीक्षते ।
मलिना कशा ।। १२३ ।। मन्यते प्रियम् ।
नित्यं हृष्यति तद्योगे वियोगे मन्यते बहु तच्छीलं तत्प्रियं प्रार्थयत्यल्पमूल्यानि सुप्ता न परिवर्तते ।। १२४ ॥ विकारान् साच्चिकानस्य सम्मुखी चाऽधिगच्छति । भाषते नृतं स्निग्धामनुरक्ता नितम्बिनी ।। १२५ ।। एतेष्वधिकखानि चेष्टितानि नवस्त्रियाः ।
१८५
कान्तेन = प्रियेण, दत्त = वितीणं, किमपि = तुच्छमपि वस्तु, इति भावः । अङ्ग = शरीरावयवे, धृत्वा = निप्राय, मूहु:- वारं वारम्, ईक्षते पश्यति । तद्योगे = प्रिय संयोगे; नित्य = निरन्तरं, हृष्यति = हृष्टा भवति, वियोगे - विप्रयोगे, प्रियस्येति शेषः । मलिना= मलीमसा, देहसंस्काररहितेति भावः, कृशा = दुर्बला च भवतीति शेषः ॥ १२३ ॥
तच्छीलं = प्रियस्वभावं, बहु = अधिकं मन्यते = आद्रियते । तत्प्रियं = प्रियस्य अभीष्टं, प्रियं = प्रीतिपात्रं मन्यते = जानाति । अल्पमूल्यानि यूनद्रव्यलभ्यानि वस्तुनि प्रार्थयति = याचते, प्रियमिति शेषः । सुप्ता = शयनस्थिता सनी, न परिवर्तते परिवर्तनं न करोति, कान्तस्य पुरतः पृष्ठदेशं न विदधातीति भावः ॥ १२४ ॥
SHIP
अस्य =
प्रियस्य, संमुखी = संमुखस्या सती, सास्विकान् = सत्त्वसंभूतान, विकारान् - विकृती:, स्तम्भस्वेदादिका इति भावः । अधिगच्छति = प्राप्नोति, प्रकाशयति इति भाव: । तथा च अनुरक्ता - अनुरागयुक्ता, नितम्बिनी सुन्दरी, नायिका । स्निग्धां = स्नेहयुक्तां सखीमिति भावः । सूनृतं सत्यं प्रियं च यथा स्यात्तथा, भाषते - अभिधत्ते । "स्निग्धम् " इति पाठान्तरे, प्रियं स्निग्धं = स्नेहपूर्णं यथा यथा सूनुतं भाषते इत्यर्थः ।। १२५ ।।
=
एतेषु = नायकस विधाऽवस्थानादिषु इङ्गितेषु, नवस्त्रियाः मुग्धायाः कन्यायाश्च, चेष्टितानि = चेष्टा, अधिक लज्जानि = अधिकव्रीडायुक्तानि मध्याः नायिकायाः;
प्रियसे दिये गये किसी भी पदार्थको अङ्गमें रखकर बारंबार देखती रहती है। उसके संयोग में निरन्तर प्रसन्न रहती है और वियोग में मलिन और दुर्बल हो जाती है ॥ १२३॥ प्रियंके स्वभावको पसन्द करती है उसके अभीष्टको प्रिय मानती है। कम दामवाले पदार्थों को माँगती है, शय्या में पतिसे पराङ्मुख होकर नहीं सोती है ॥ १२४ ॥
• प्रियके सम्मुख स्तम्भ और स्वेद आदि सात्विक विकारोंको प्राप्त करती है; अनुरक्त होकर नायिका सत्य और प्रियवचन सखीसे कहती है ।। १२५ ।।
इन नायिकाओं में मुग्धा और कन्याकी चेष्टाएं अधिक लज्जासे युक्त होती हैं
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१८६ .
साहित्यदर्पणे
मध्यव्रीडानि मध्यायाः स्रंसमानत्रपाणि तु ॥ १२६ ..
अन्यस्त्रियाः प्रगल्भायास्तथा स्युवारयोषितः । दिङमात्रं यथा
'अन्तिकगतमपि मामियमवलोकयन्तीव हन्त ! दृष्टवाऽपि । सरसनखक्षतलक्षितमाविष्कुरुते
भुजामूलम् ।। तथा
लेख्यप्रस्थापनैः स्निग्धैर्वीक्षितैमृदुभाषितैः ॥ १२७ ।। चेष्टितानि, मध्यव्रीडानि = मध्यमलज्जायुक्तानि भवति। अन्यस्त्रियाः = अपरललनायाः, प्रगल्भाया: नायिकायाः, तथा वारयोषितश्च वेश्यायाश्च, चेष्टितानि-चेष्टाः, संसमानत्रपाणि = स्रंसमाना ( अवस्रंसमाना ) त्रपा ( लज्जा ) येषु तानि, लज्जारहितानीति भावः । स्युः= भवेयुः ।। १२६ ॥
दिग्दर्शनं यथा-प्रन्तिकगतमिति । नायकस्य मित्रं प्रति उक्ति रियम् । हन्तेति हर्षद्योतकमव्ययम् । इयं = मदीया प्रिया, अन्तिकगतम् अपि = निकट प्राप्तम् अपि, मां = नायक, दृष्ट्वा अपि = विलोक्य अपि, अलोकयन्ती अपश्यन्ती इव, अभिनीयेति शेषः । सरसनखक्षतलक्षितं = सरसम् (आम् ) यत् नखक्षतं ( नख रक्षतम् ) तेन लक्षितं (चिह्नितम् ). भुलामूलं = बाहुमूलम्, भुजतीति भुजा, "भुजो कौटिल्ये" इति धातो: "इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः" इति कप्रत्यये टाप, "अथो भुजा। द्वयोर्बाही करे" इति मेदिनी। आविष्कुरुते प्रकाशयति, कुन्तलसंयमव्यपदेशेनेति भावः । नायक लक्ष्यीकृत्य बाहुमूलप्रदर्शनं नायिकाया अनुरागेङ्गितं द्योतयति । आर्या वृत्तम् ।
नार्या भावाऽभिव्यक्तिसाधनानि प्रदर्शयति-लेल्यप्रस्थापनरिति । लेख्यप्रस्थापनः = पस्त्रप्रेषणः, स्निग्धः = स्नेहपूर्णः, वीक्षितः = अबलोकनः, मृदुभाषितः= कोमलभाषणः, दूतीसंप्रेषणः = सन्देशहराप्रस्थापनश्च, नार्याः = नायिकायाः, भावाऽभिव्यक्तिः = अभिप्रायप्रकाशनम्, इष्यते = इष्टा भवति । तत्र लेख्यप्रस्थापनस्योदाहरणं श्रीमद्भागवते रुक्मिण्याः कृष्णस्य समीपे ब्राह्मणद्वारा स्फुटम् । अन्यन्मृग्यम् ।। १२७ ।। और मध्या नायिकाकी कम लज्जासे युक्त होती हैं एवम् ।। १२६ ।। ___ अन्य नायिका जैसे प्रगल्भा और वेश्या उनकी चेष्टाएं लज्जासे रहित होती है।
नायिकाकी चेष्टाओंका दिग्दर्शन, जैसे ग्रन्थकार अपना पद्य देते है-कोई नायक मित्रको कहता है-यह ( नायिका ) मेरे निकटवर्ती होनेपर भी नहीं देखा-सा भाव दिखाकर ताजे नखक्षतसे चिह्नित अपने बाहुमूलको प्रकाशित करती हैं।
तथा-पत्रप्रेषणोंसे, स्नेहपूर्ण अवलोकनोंसे, कोमल भाषणोंसे ।। १२७ ।।
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तृतीयः परिच्छेदः
१८७
दूतीसम्प्रषणेर्नार्या भावाभिव्यक्तिारष्यते । दूत्यश्च
दृत्यः सखी नटी दासी धात्रेयी प्रतिवेशिनी ।। १२८ ॥
बाला प्रव्रजिता कारू शिल्पिन्याद्याः स्वयं तथा ।
कारू रजकीप्रभृतिः। शिल्पिनी चित्रकरादिखी। आदिशब्दात्ताम्बूलिकगान्धिकस्लीप्रभृतयः। तत्र सखी यथा-'श्वासान्मुञ्चति-' इत्यादि ।
म्वयंदूती यथा ममपन्थि । पिआसिओ विअ लच्छीअसि जासि ता किमण्णत्तो। ण मणं वि वारओ इध अस्थि घरे घणरसं पिअन्ताणं !!'
दूतीभेदान्प्रदर्शयति । दूत्य इति । सखी = वयस्या, नटी- अभिनेत्री, दासीपरिचारिका, धात्रेयी-धात्रीपुत्री, धात्र्या अपत्यं स्त्री "स्त्रीभ्यो ढक्" इति ढक् प्रत्ययः । प्रतिवेशिनी स्वनिकटगृहनिवासिनी. बाला = बालिका, प्रवलिया संन्यस्ता, कारू = रजकीप्रमतिः । शिम्पिनी = चित्रकरादिस्त्री । क्रिय कौसलं शिल्पं, तदस्ति यस्याः सा, "अत इनिठनो" इति इनिप्रत्ययः, स्त्रीत्वविवक्षायाम ऋन्नेभ्यो ङप" इति डीप् । 'शिल्पिन्याद्या' इत्यत्र आद्यपदेन ताम्बलिकगान्धिकस्त्रीप्रभूतया बोध्या: । तथा स्वयं = स्वयं दूती । एता नायिकानां दूत्यः ।
तत्र सखी यथा-"श्वासान्मुञ्चति०' इत्यादि ( १०४ पृष्ठे )। स्वयं दूती यथा-पन्थिन इति।
"पथिक ! 'शासित इत लक्ष्यसे यासि तकिमन्यत्र । न मनागरिक रहाऽस्ति गृहे धनरसं पिबताम् ॥” (संस्कृतच्छाया),
पथिकेति कश्चित पान्थं प्रति कुलटाया उक्तिरियम् । हे पथिक = हे पान्थ ! त्वं पिपासित इव = पिधासुरिव, कामुक इवेति भावः । लक्ष्यसे-प्रतीयसे, तत्-तहि । अन्यत्र = अन्यस्मिन् स्थाने, कि = किमर्थ, यासि = गच्छति । इह = अस्मिन्, गृहे =
और दूतियों को भेजनेसे भी नायिकाके अनुरागकी अभिव्यक्ति होती है ।।१२८।।
दूतियाँ-सखी ( सहेली ), नटी, दासी, धाई की पुत्री, पड़ोसिन, बालिका,. संन्यासिनी (बौद्धसंन्यासिनी!, कारू ( शिल्पकारस्त्री, धोबिनी आदि ), शिल्पिनी (चित्रकार आदिकी रपी)। "आद्य" शब्दसे तमोलिन, गन्धिनी ( रंगरेजिन) आदि, एवम् स्वयम् (खुद) भी नायिका दूती हो सकती है। उनमें सखी, जैसे( श्वासान्मुञ्चति०) (१०४ पृष्टे)।
स्वयं दूती, जैसे प्रन्थकारका पद्य-"हे पान्थ ! तुम प्यासेसे मालूम हो
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२८
साहित्यदर्पणे
एताश्च नायिकाविषये नायकानामपि दूत्यो भवन्ति । दूतीगुणानाह
कलाकौशलमुत्साहो भक्तिश्चित्तज्ञता स्मृतिः ॥ १२९ ।। माधुयं नर्मविज्ञानं वाग्मिता वेति तद्गुणाः ।
एता. अपि यथोचित्यादुत्तमाधममध्यमाः ।। १३० ।। एता दूत्यः । अथ प्रतिनायक:
धीरोद्धतः पापकारी व्यसनी प्रतिनायकः । यथा रामस्य रावणः। भवने, ममेति शेषः । धनरसं = जल, पक्षान्तरे सभोगमुखं, पिबताम् = अनुभवताम, मनाक अपि = ईषत् अपि, वारक: = निवारकः, प्रतिबन्धक इति भावः । न अस्ति, मया सह यथेच्छ विहरेति भावः । अत्र स्वयमेव दूत्यकरणादियं नायिका स्वयंदूती बोध्या आर्यावृत्तम् ॥
दुतीगुणाग्निर्दिशति-कलाकोशलमिति । कलाकोशल कलातु (नत्यगीतवादित्रादिषु चतुःषष्टिसंख्धकासु) कौशलम् (कुशलता), उत्साहः= अध्यवसायः, भक्तिः प्रभु प्रति पूज्यबुद्धिः, चित्तज्ञता-प्रेषकस्य अभिप्रायाभिज्ञता, स्मृति:-स्मरणशक्तिः।।१२९॥
माधुर्य = मनोहरत्वं, नर्मविज्ञानं = क्रीडाभिज्ञता, वाग्मिता = वाचोयुक्तिपटुत्वं, चेति तद्गुणाः = दूतीगुणाः । एताः = दूत्यः, अपि यथोचित्यात = औचित्याऽनुसारात, उत्तमाऽधममध्यमाः ज्ञेयाः ॥ १३० ॥
, प्रतिनायकं लक्षयति-धीरोद्धत इति । धीरोद्धतः पूर्वलक्षितो नायकविशेषः ! पापकारी-पापाचरणशील:, व्यसनी कामजक्रोधजव्यसनयुक्तः, एतादृशः प्रतिनायको भवति । प्रतिकलो नायकः प्रतिनायकः, "कुगतिप्रादय" इति समासः । कामजानि कोपजानि च अष्टादशप्रकाराणि व्यसनानि । कामजानि दर्शावधानि, यथाऽऽह भगवान्मनु:रहे हो इसलिए अन्यत्र क्यों जा रहे हो ? । इस घरमें घन-रस ( जल वा सभोगसुख ) का अनुभव करनेवालों को कुछ भी रोकनेयाला कोई नहीं है।
पूर्वोक्त सखी आदि नायकोंकी भी दूतियाँ होती है।
दूतीके गुण-कलाओंमें निपुणता, उत्साह, स्वामिभक्ति, अभिप्रायको जानना; स्मरणशक्ति ॥ १२९ ॥
मनोहरता, क्रीडाओंकी जानकारी, बोलनेमें अति पटुता, ये दूतीके गुण हैं । ये दूतियां भी औचित्यके अनुसार उत्तम; मध्यम और अधम होती हैं ।। १३०॥
प्रतिनायक-धीरोद्धत (पूर्वोक्त नायकविशेष ), पापी, व्यसनवाला "प्रवि. नायक होता है । जैसे रामचन्द्रजीका रावण ।
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तृतीयः परिच्छेदः
अथाद्दीपनविभावा:उद्दीपनविभावास्ते
रसमुद्दीपयन्ति
ये ॥ १३१ ।।
आलम्बनस्य चेष्टाद्या देशकालादयस्तथा।.
चेष्टाया इत्याद्यशब्दाद्रूपभाषणादयः। कालादीत्यादिशब्दाच्चन्द्रचन्दनकोकिलालापभ्रमरमतारादयः। तत्र चन्द्रोदयो यथा मम
'करमुदयमहीधरस्तनाग्रे गलिततमःपटलांशुके निवेश्य । . विकसितकुमुदेक्षणं विचुम्बत्ययममरेशदिशो मुखं सुधांशुः ॥'
"मृगयाऽक्षो दिवास्वप्नः परिवाद: स्त्रियो मदः ।
तोर्यत्रिकं यथाऽटया च कामजो दशको गणः ॥” (७-४७ )। कोपजानि अष्टविधानि, तानि यथा
"पैशुन्यं साहसं द्रोह ईयाऽसूयाऽर्थ दूषणम् ।
वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्ट कः ॥” ( म. स्मृ. ७.४८) उद्दीपनविभावान् लक्षयति-उद्दीपनविभावा इति । ये = विभावाः, रसं = शृङ्गारादिकम्, उद्दीपयन्ति = उद्दीप्तं कुर्वन्ति, ते उद्दीपनविभावाः ॥ १३१॥
उद्दीपनविभागनिर्दिशति-मालम्बनस्येति। आलम्बनस्य = नायकादेः, चेष्टादयः = नेत्रविक्षेपादयः, तथा देशकालादयः =स्थानसमयादयः । चेष्टाया इत्यत्र आधशब्दादूपभूषणादयः, देशकालादय इत्यत्राऽऽदिशब्दात् चन्द्रचन्दनकोकिलालापभ्रमरशङ्कारादयो यथायथं ग्राह्याः ॥ १३१ ।।
चनोदयो यथा करमिति । अयम् = एषः, सुधांऽशुः = चन्द्रः, नायकः । गलिततमःपटलांऽशुके = गलितम् ( अपगतम्, निजकिरणेनेति शेषः) तमःपटलम् ( अन्धकारसमूहः) एव अंशुकम् ( वस्त्रम् ) यस्मात, तस्मिन् । उदयमहीधरस्तनाग्रेउदयमहीधरः ( उदयपर्वतः ) एव स्तनः (कुचः ) तस्य अग्रे ( ऊर्श्वभागे चूचुके ); कर किरणं, हस्तं च, निवेश्य = निधाय, विकसितकुमुदेक्षणं = विकसितं ( प्रफुल्लम् )
उहीपन विभाव-जों रसको उद्दीप्त करते हैं उन्हें “उद्दीपन विभाव" कहते हैं ॥ ३१॥
वे-आलम्बन ( नायक आदि ) की चेष्टा आदि, आदि शब्दसे रूप भाषण आदि लिये जाने चाहिए, और देश काल आदि, यहाँ भी आदि शब्दसे चन्द्र, चन्दन, कोकिलका आलाप और भ्रमरमङ्कार आदिको लेना चाहिए।
चन्द्रोदय जैसे प्रन्थकारका ये चन्द्र अन्धकारसमूहरूप वस्त्रसे रहित उदयपर्वतरूप स्तनके अग्र भागमें कर (किरण अथवा हाथ ) को रखकर विकसितः
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साहित्यदर्पणे
यो यस्य रसस्याहीपनविभावः स तस्वरूपवर्णने वक्ष्यते । अथानुभावा:
उद्बुद्धं कारणेः स्वः स्वैबहिर्भाव प्रकाशयन् ।। १३२ ॥ लोके यः कार्यरूपः सोऽनुभावः काव्यनाट्ययोः ।
यः खलु लोके सीतादिचन्द्रादिभिः स्वः स्वरालम्बनोहीपनकारणेरामादेरन्तरुबुद्धं रत्यादिकं बहिः प्रकाशयन् कार्यमित्युच्यते, स काव्यनाट्ययोः पुनरनुभावः।
कुमुदम् ( करवम् ) एव ईक्षणम् ( नेत्रम् ) यस्य तत् तादृशम्, अमरेशदिशः = इन्द्रदिशायाः प्राच्याः, नायिकायाश्च । मुखम् = अग्रभाग, वदनं न । विचुम्बति = पिबति, स्पृशति च । अत्र चन्द्रदिशो: समासोक्त्यलङ्कारेण नायकनादिकयोश्चरित्रदर्शनात उद्दीप्तस्य वक्तृशृङ्गारस्य चन्द्र उद्दीपनविभावः ।।
___अनुभावं लक्षयति-उद्बद्धमिति । स्वः स्वः = निर्जनिजः, कारण:-हेतुभिः, उबुद्ध = जनितं, भावं = रत्यादिकं, बहिः, प्रकाशयन = प्रकाशितं कुर्वन्, लोके = जने, यः, कार्यरूपः, सः, काव्यनाटययोः = श्रव्यदृश्यकाव्ययोः, अनुभावः = अनुभावरूपेण वर्ण्यते ॥ १३२॥
विवणोति । लोके बाह्यजने, सोताऽदिचन्द्रादिभिः, यथासंख्येनालम्बनोद्दीपनकारणः, रामादेः = नायकस्य, अन्तः अन्तःकरणे, उबुङ = जनितं, रत्यादिकं, बहिः= वाह्यजने, प्रकाशयन्, कार्यमित्युच्यते स काव्यनाटययोः = श्रव्यदृश्यकाव्ययोः 'पुनरनुभावः॥ कुमुदरूप नेत्रोंसे युक्त इन्द्रदिशा (पूर्वदिशा ) रूप नायिकाके मुख ( मुख का अग्रभाग) का चुम्बन करता है । यहाँपर चन्द्रमा और दिशामें समासोक्ति अलङ्कारसे नायक और नायिकाके व्यवहारका आरोप होनेसे उद्दीप्त शृङ्गारका चन्द्रमा उद्दीपन विभाव है । जो जिस रसका उद्दीपन विभाव है, वह उसके लक्षणवर्णनमें कहा जायगा।
अनुभाष-अपने अपने कारणोंसे उत्पन्न रति आदि भावको बाहर जनमें प्रकाशित करता हुआ लोकमें जो कार्यरूप है वह श्रव्यकाव्य और दृश्यकाव्य ( नाट्य ) में "अनुभाव" कहा जाता है ॥ १३२॥
जो लोकमें सीता आदि तथा चन्द्रमा आदि अपने अपने आलम्बन और उद्दीपन कारणोंसे राम आदिके अन्तःकरणमें उत्पन्न रति आदि भावको बाहरके जनमें प्रकाशित करता हुआ "कार्य" कहा जाता है वह काव्य और रूपकमें "अनुभाव" कहा जाता है।
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तृतीयः परिच्छेदः
१९१
का पुनरसावित्याह
उक्ताः स्त्रीणामलङ्कारा अङ्गजाश्च स्वभावंजाः ।। १३३ ॥
तद्रूपाः साविका भावास्तथा चेष्टाः परा अपि ।
तद्रूपा अनुभावस्वरूपाः । तत्र यो यस्य रसस्यानुभावः स तत्स्वरूपवर्णने वक्ष्यते। तत्र सात्त्विका:
विकाराः सत्यसंभूताः साचिकाः परिकीर्तिताः ।। १३४ ।। सत्त्वं नाम स्वात्मविश्रामप्रकाशकारी कश्चनान्तरो धर्मः।
. सवमात्रोद्भवत्वात्ते मिन्ना अप्यनुभावतः ।
अनुभाभेदानिर्दिशति- उक्ता इति । स्त्रीणां = योषिताम्, उपलक्षणमेतत पुरुषाणामपि निर्देशः । अङ्गजा: = भावहावहेलाः, स्वभावजाः = लीलात आरभ्य केल्यन्ता अष्टादश अलङ्काराः, स्वभावजाः = लीलादयः, तद्रूपाः = अनुभावस्वरूपाः, सात्त्विका भावाः = स्तम्भस्वेदादयो वक्ष्यमाणाः, तथा परा अपि = अन्या अपि. याश्चेष्टाः = कटाक्षादयः, ते सर्वेऽपि, तद्रूपाः अनुभावस्वरूपा ज्ञेयाः, शोभाकान्त्यादीनां सप्तानां रत्यादिप्रकाशकत्वाऽभावान्नाऽनुभावरूपता ।
सात्त्विकभावान् लक्षयति-विकाराः। सत्त्वसंभूताः = सत्त्वाख्याऽन्तःकरण. धर्मनिष्पन्नाः, विकाराः = विकृतयः, सात्त्विकाः परिकीर्तिताः ।
विवृणोति-सत्त्वमिति । सत्त्वं नाम, स्वात्मविश्रामप्रकाशकारी= स्वस्य ( सामाजिकस्य ) आत्मनि ( अन्तःकरणे ) यो विश्रामः ( स्थितिः ), तत्प्रकाशकारी (तत्प्रकाशकरणशील: ), कश्चन, आन्तरः ( अन्तःकरणस्य ) धर्मः (गुणः) ॥१३४ ॥
सात्विकभावानामनुभावात्किञ्चिद्वलक्षण्यं प्रदर्शयति-सत्त्वमात्रोद्भवत्वाविति । ते = सात्त्विका भावाः, सत्त्वमात्रोद्भवत्वात् = केवलसत्त्वगुणजन्यत्वात् । अनुभावतः = "उबुद्धं कारणः" इत्यादिकारिकालक्षितात् अनुभावात्, मिन्ना अपि=
अनुभावको कहते हैं-पहले कहे गये स्त्रियोंके अङ्गज और स्वभावज अलङ्कार ॥ १३३ ॥
अनुभाव स्वरूप स्तम्भ स्वेद आदि सात्त्विक भाव तथा अन्य कटाक्ष आदि चष्टाए ये सब "अनुभाव" स्वरूप हैं । इनमें जो जिस रसका अनुभाव है वह उसके स्वरूप वर्णनमें कहा जायगा।
सात्विक भाव-सत्त्वगुणसे उत्पन्न, अर्थात् सामाजिकोंके अन्तःकरणमें स्थिति और प्रकाश करनेवाला अन्तःकरणका धर्म सत्व है उससे उत्पन्न रिकारोंको “सात्विक" कहते हैं ॥ १३४ ॥
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१९२
साहित्यदर्पणे
'गोबलीवरन्यायेन' इति शेषः । के त इत्याह
स्तम्मः स्वेदोऽथ रोमाश्वः स्वरभङ्गोऽथ वेपथुः ॥ १३५ ॥ वैवण्यमश्रु प्रलय इत्यष्टो साचिकाः स्मृतोः ।
स्तम्भश्चेष्टाप्रतीघातो भयहर्षामयादिमिः ॥ १३६ ॥ वपुलोद्गमः स्वेदो रतिधर्मश्रमादिभिः ।
हर्षाद्भुतभयादिम्यो रोमाशो रोमविक्रिया ।। १३७ ।। भेदयुक्ता अपि, अपीतिपदेन अनुभावतोऽभिमा बपि.गोबलोवन्यायेन भिन्ना अपि सन्तीति भावः । गोपदेन सुरभेवलीवर्दस्याऽपि बोधो भवति । बलीव सुरभिरूपाया गोदः बलीवर्दरूपस्य च गोरभेदः तथा सात्त्विकभावे स्तम्भस्वेदादो भावहावादिरूपानुभावस्य भेदः स्तम्भस्वेदाऽऽदिरूपानुभावस्य च अभेव इति तात्पर्यम् । सात्त्विकभावानामतो निदिति स्तम्भ इति । तसम्भः स्तब्धावं, स्वेदः = श्रमजलं, रोमाञ्चः रोमविक्रिया, स्वरभङ्गः- वैस्वयं, वेपथु, वेपथुः = कम्पः ।। १३५॥
वैवयं = विवर्णता, अश्रु नयनजर, प्रलयः नष्टचेष्टता इत्यष्टौ सात्त्विका भावाः स्मृताः।
अथ क्रमेण सात्त्विकमावाग्विवृणोति-स्तम्भ इति । भयहर्षाऽमयादिभिः = भीत्यानन्दरोगादिभिर्हेतुभिः, चेष्टाप्रतीषात: शारीरकर्मप्रतिबन्धः स्तम्भः ।। १३६ ।।
रतिधर्मश्रमादिभिः = रमणग्रीष्मायासादिभिः, वपुर्जलोद्गमः = देहसलिल, निस्सरणं स्वेदः । हर्षाद्भुतभयादिभ्यः = बानन्दाऽऽश्वर्यभीत्यादिभ्यः, रोमविक्रिया = लोमविकारः रोमाञ्चः ।। १३७ ॥
केवल सत्त्वगुणसे उत्पन्न होनेसे गोबलीवदं न्यायसे अनुभावसे भिन्न भी है।
सात्त्विक भावका परिगणन करते हैं-स्तम्भ, स्वेद, रोमाञ्च, स्वरमा वेपथ ( कम्प ) ॥ १३५॥
वैवर्ण्य, अधु और प्रलय ये आठ "सात्त्विक.' भाव कहे जाते है। स्तम्भ-भय, हर्ष और रोग आदिसे षष्टा न होनेको "स्तम्भ" कहते है ।१३६।
स्वेद- रतिक्रीडा; घाम और परिश्रम आदिसे शरीरसे निकलनेवाले जलको "स्वेद" ( पसीना ) कहते हैं।
रोमाञ्च-हर्ष, आश्चर्य और भय आदिसे रोमविकारको "रोमा कहते हैं ॥ १३ ॥
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तृतीयः परिच्छेदः
मदसंभदपीडाद्य स्वयं गद्गदं विदुः । रागद्वेषश्रमादिभ्यः कम्पो गात्रस्य वेपथुः ।। १३८ ॥ विषादमदरोपाद्य वर्णान्यत्वं विवर्णता । अश्रु नेत्रोद्भवं बारि क्रोधदुःखप्रहर्पजम् ॥ १३९ ॥
प्रलयः सुखदुःखाभ्यां चेष्टाज्ञाननिराकृतिः । यथा मम-'तनुस्पर्शादस्या दरमुकुलिते हन्त ! नयने,
उदश्चद्रोमाञ्चं व्रजति जडतासङ्गमखिलम्। मदसम्मदपीडाद्य : = मत्तताहषव्यथाप्रभृतिभिः हेतुभिः, गद्गदं = गद्गदभावं, वस्वयं = विस्वरता, स्वर मङ्गमिति भावः विदुः = जानन्ति, विद्वांस इति शेषः । रागद्वेषश्रमःदिभ्यः = अनुरागाऽप्रीतिपरिश्रमप्रतिभ्यो हेतुभ्यः, गात्रस्य = शरीरस्य, कम्पः = कम्पनं, 'वेपथुः' ।। १३८ ॥
विषादमदरोषाद्य = खेदमत्तताक्रोधादिभिः हेतु भः, वर्णाऽन्यत्वं वर्णभिन्नत्वं, "विवर्णता" वैवर्ण्यमित्यर्थः। क्रोधदुःखप्रहर्षजं = कोपपीडानन्दजन्यं, नेत्रोद्भवं = नयनोत्पन्न, वारि = जलम्, "अश्रु" || १३९ ।। .
___ सुखदुःखाभ्यां = प्रमोदबाधाभ्यां हेतुभ्यां, चेष्टाज्ञाननिराकृतिः = शारीरकर्मचैतन्य ऽभावः, "प्रलयः" ।।
सात्त्विक मावानुदाहरति-तनुस्पर्शाविति । नायिकाया उपभोक्तु यकस्य स्वकीयावस्थावर्णनपरं पद्यम् । हन्तेति हर्षद्योतक मव्ययम्, अस्याः = प्रियायाः, तनु. स्पर्शात् =शरीरस्पर्शात्, नयने = नेत्रे, दरमुकुलिते = ईषन्मुद्रिते। "नयने” इत्यत्र 'ईदेद्विवचनं प्रगृह्यम्” इति सूत्रेण प्रगृह्यमज्ञायां "लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्" इति सूत्रेण प्रकृतिभावात् “उदञ्चत्” इति पदेकदेशे परवतिनि सति सन्ध्यभावः । उदश्च. द्रोमाञ्चम् = उदञ्चन्तः ( प्रादुर्भवन्तः ) रोमाञ्चा: ( रौमविकारा: ) यस्मिस्तादृशम्,
स्वरभङ्ग ( वैस्वर्य )-मद, हर्ष और पीडा आदिसे होनेवाले गद्गदभावको 'स्वर्य ( स्वर भङ्ग )" कहते हैं।
वेपथ ---अनुराग, द्वेष, श्रम आदिसे शरीरके कम्पको "वेपथु” कहते हैं । १३८।
विवर्णता ( वैवर्ण्य)-विषाद, मद और रोष आदिसे भिन्न वर्ण होनेको "विवर्णतः ( वैवर्ण्य )" कहते हैं।
प्रश्र-क्रोध, दुःख और अधिक हर्षसे होनेवाले नेत्रजलको "अश्रु" कहते हैं। १३९। प्रलय-सुख वा दुःखसे चेष्टा और चैतन्यके अभावको "प्रलय" कहते हैं।
उदाहरण, (ग्रन्थकारका हो)-नायिकाके उपभोगसे नायकको अवस्थाका वर्णन हैं । इस ( नायिका ) के शरीरस्पर्शसे नेत्र कुछ मुद्रित हो गये हैं । संपूर्ण अङ्ग
१३ सा०
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१९४
साहित्यदर्पणे
कपोलो धर्माद्रौं, ध्रवमुपरताशेषविषयं
मनः सान्द्रानन्दं स्पृशति झटिति ब्रह्म परमम्॥ एवमन्यत्। अथ व्यभिचारिणः
विशेषादाभिमुख्येन रणाद्वयभिचारिणः ।
स्थायिन्युन्मग्ननिमग्नास्त्रयस्त्रिंशच तद्भिदाः।। १४० ॥ अखिलं = समस्तम्, अङ्ग = देहाऽवयवः, जडता = स्तम्भ, व्रजति = प्राप्नोति । कपोलो = गण्डो, धर्मार्टो-धर्मण ( स्वेदेन ) आद्रौ ( क्लिन्नौ ), सम्जाताविति शेषः । उपरताऽशेषविषयम् उपरताः (निवृत्ताः), अशेषाः(समस्ताः)विषयाः (ज्ञेयाः) यस्मात्तत्, तादृशं मनः = चित्तम, ध्रुवं = निश्चितं, सान्द्रानन्दं = सान्द्रः ( धनः ) आनन्दः (सुखम् ) यस्मिस्तत्, तथाविधं, परमम् = अनिर्वचनीयं, ब्रह्म = शुद्धचैतन्यं, झटिति % सत्वरं, स्पृशति = आमृशति, साक्षात्करोतीति भावः । मनो ब्रह्मानन्दे प्रलोनमिति तात्पर्यम् । ब्रह्मनिविष्टमानसस्य यथा चेष्टाबाह्यज्ञानोपरमो भवति तथैव नायिकानिविष्टचेतसो जनस्याऽपीति निष्कृष्टोऽर्थः । अत्र रोमाञ्चस्तम्भस्वेदप्रलयरूपाः सात्विका भावाः प्रतिपादिताः । शिखरिणी वृत्तम् । . ..
एवमन्यम् । , तद्यथा-"बाले ! नाथ ! विमुञ्च मानिनि ! रुपम्" (पृ.१४२) इत्यत्र स्वरभङ्गः, "मा गर्वमुदह" (पृ. १७६ ) इत्यत्र वेपथः । “शोणं वीक्ष्य" (पृ. ११७) इत्यत्र वैवयंमत्रु चेति रामचरणतकंवागीशः। ___ व्यभिचारिभावं लक्षयति-विशेषादिति । विशेषाद अतिरेकाद, विभावाsनुभावापेक्षयेति शेषः । आभिमुख्येन=सांमुख्येन रसप्रकाशनार्थमिति शेषः । चरणात सचरणात, तथा स्थायिनि = रत्यादौ स्थायिभावे, उन्मग्ननिर्मग्नाः = उन्मग्नाः (प्रादुर्भूताः, जले बुबुदवदिति शेषः ) निर्मग्नाः (तिरोभूताः, बिलम्बप्रतीतिकत्वेनेति रोषः ), तादृशा व्यभिचारिणः कथ्यन्ते । तद्भिदाः= तभेदाः, त्रयस्त्रिशद =प्रयस्त्रिसत्संख्यकाः, सन्तीति शेषः ॥ १४० ॥ रोमाञ्चयुक्त होकर स्तब्ध भावको प्राप्त हो रहा है। कपोल पसीनेसे आर्द्र हो रहे हैं । समस्त विषयोंके निवृत्त हो जानेसे गाढ मानन्दवाला मन झटपट परम ब्रह्मका साक्षात्कार कर रहा है। इस पद्यमें रोमान्च, स्तम्भ, स्वेद और प्रलय इतने सात्त्विक भावोंका प्रतिपादन है । औरों को भी इसी तरह जानना चाहिए।
. व्यभिचारी भाव--विशेष रूपसे सांमुख्यसे संचरणके कारण तथा रति आदि स्थायिभावमें कभी प्रकट और कभी तिरोभूत होनेसे "व्यभिचारिभाव" कहे जाते हैं। उनके भेद तेतिस होते हैं ।। १४० ।।
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तृतीयः परिच्छेदः
१९५
स्थिरतया वर्तमाने हि रत्यादौ निदादयः प्रादुर्भावतिरोभावाभ्यामाभिमुख्येन चरणाद् व्यभिचारिणः कध्यन्ते । के त इत्याहनिवेदावेगदैन्यश्रममंदजडता औग्रघमोहौ विवोधः खप्नापस्मारगर्वा मरण मलसतामर्षनिद्रावहित्थाः । औत्सुक्योन्मादशङ्काः स्मृतिमतिसहिता व्याधिसंत्रासलज्जा हर्षासूयाविषादाः सधृतिचपलता ग्लानिचिन्तावितकोः ।।१४१॥
विवृणोति-स्थिरतयेति । स्थिरतया स्थैर्येण, वर्तमाने विद्यमाने, रत्यादी स्थायिभाव इति भावः। निदादयः = अभिधास्यमानाः, प्रादुर्भावतिरोभावाभ्यां = प्रकाशाऽप्रकाशाभ्याम्, आभिमुख्येन = सांमुख्येन, रसव्यञ्जनार्थमिति शेषः । चरणात् = प्रवर्तनात्, व्यभिचारिणः = व्यभिचारिभावाः । कथ्यन्ते = प्रतिपाद्यन्ते ।। १४० ॥ ___व्यभिचारिभावानुद्दिशति-निवेदावेगेति । निर्वेदः = वैराग्यम्, आवेगः = संभ्रमः, दैन्य = दीनता, श्रमः = परिश्रमः, मदः=मतता, जडता = सन्धत्वम् । औग्र्यं = क्रूरता, मोहः- मूढता । विबोधः = प्रबोधः । स्वप्नः = स्वापः, अपस्मार:= मनाक्षेपः, गर्वः = अहङ्कारः, मरणं = मृत्युः । अलपता = आलस्यम् । अमर्षः:: असहनं, निद्रा = चित्तसंमीलनम् । अवहित्था = आकारगुप्तिः । औत्सुक्यम्-उत्सुकता, उन्मादः = चिनविभ्रमः। शङ्का = अनर्थतकः, स्मृतिः= स्मरणम्, मतिः = अर्थनि. भयबुद्धिः । व्याधिः == रोगः, संत्रासः = भीतिः । लज्जा = व्रीडा । हर्षः = मानन्दः, असूया = गुणेषु दोषाविष्करणम् । विषादः = खेदः । धृतिः = मन्तोषः । चपलता= चावल्यम् । ग्लानिः = इर्षक्षयः, चिन्ता = आध्यानं, वितर्क: = विचारः । उद्देशक्रमेण व्यभिचारिभावानामेककशः पर्यायाः प्रदर्शिताः । अनुपदमेव सर्वेषां लक्षणानि प्रतिपादयिष्यन्ते । स्रग्धरावृत्तम् ॥ ११ ॥
स्थिरतासे वर्तमान रति आदिमें निर्वेद आदि प्रादुर्भाव और तिरोभावसे रसव्यञ्जनके लिए संमुख होकर संचरण करनेसे "व्यभिचारिभाव" कहे जाते हैं।
व्यभिचारी भावका परिगणन-निर्वेद, आवेग, दैन्य, श्रम, मद, जडता. श्रोग्य, मोह, विवोध, स्वप्न, अपस्मार, गर्व, मरण, बलसता, अमर्ष, निद्रा, अहित्या, औत्सुक्य, उन्माद, शङ्का, स्मृति, मति, व्याधि, संत्रास, लज्जा, हर्ष, असूया, विषाद, द्य ति, चपलता, ग्लानि, चिन्ता, और वितर्क ये तेतिस व्यभिचारी भाव हैं ।। १४१॥
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१९६
साहित्यदपणे
तत्र निवेदः
तत्वज्ञानापदादेनिवेदः खावमाननम् ।
दैन्यचिन्ताश्रु निःश्वासवैवर्योच्छ्वसितादिकृत् ॥ १४२ ।। तत्त्वज्ञानानिदो यथा
'मृत्कुम्भवालुकारन्ध्रपिधानरचनार्थिना ।
दक्षिणावर्तशङ्खोऽयं हन्त ! चूर्णीकृतो मया ।।' अथावेग:
आवेगः संभ्रमस्तत्र वपजे पिण्डिताङ्गता। निर्वेद लक्षयति-तत्त्वेति । तत्वज्ञानाऽऽपदीयादेः-तत्त्वज्ञानम् ( यथार्थवस्तुबोधः ), आपत् ( विपत्तिः ) ईर्यादेः ( अक्षान्त्यादे.), आदिपदेन पुराणश्रवणादेः परिग्रहः, तथा च तत्त्वज्ञानादेखिभावात् । दैन्यचिन्ताऽऽदिकृद् = दैन्यम् ( दीनता ), चिन्ता ( आध्यानम् ) अश्रु ( नयनजलम् ) निश्वास. ( नि:श्वस म ), वैवर्ण्य ( विवर्णता ), उच्छ्वसितादि ( ऊर्वश्वासादि ) आदिएदेन स्वकुकर्मोद्भावनादि, तत् करोतीति, दैन्याद्यनुभावकारकं, तादृशं स्वाऽवमाननं = निजाऽपमानकरणं, निर्वेदः, इति निर्वेदलक्षणम् ॥ १४२ ॥
___तत्र तत्त्वज्ञानानिदोदाहरणं-मत्कुम्भेति । तत्त्वज्ञ नाज्जातनिर्वेदः कश्चिकथयति । मृत्कुम्भेत्यादि= मृत्कुम्भः ( मृतिकाकलशः ), तस्य वालुका सदृशं यत् रन्ध्र (छिद्रम् ) तस्य पिधानरचनम् ( आच्छादननिर्माणम् ) तत् अर्थयते तच्छील:, तेन, तादृशेन मया ( मूर्खेण ), अयं = सन्निकृष्टस्थः, दक्षिणावर्तशङ्खः दुष्प्राप्यः शङ्खविशेषः, चूर्णीकृतः = चूर्णनामकद्रव्यविशेषीकृतः । तथा मृत्कलच्छिद्रस्यावरणार्थं दक्षिणावर्त शङ्खस्य चूर्णीकरणं तथैवमयाऽनित्यतुच्छविषयसुखोपभोगाऽर्थ मोक्षसाधनभूतं जीवन दुरुपयोगेन विनाशितं, हन्तेति खेदद्योतनमियं कस्यचिनिविण्णस्योक्तिः तया निर्वेदः प्रतीयते । निदर्शनाऽलङ्कारः ॥
___ आवेग लक्षयति-मावेग इति। संभ्रमः = त्वरा "आवेगः" इति आवेमलक्षणम् । तस्य कार्यभेदा निदश्यन्ते-तत्र वर्षजे = वृष्टिजन्ये आवेगे पिण्डिताऽङ्गता
निर्वेद-तत्त्वज्ञान, आपत्ति और ईर्ष्या आदिसे अपना अपमान करना "निवेद" कहा जाता है । उसमें, दीनता, चिन्ता, अश्रुपात, निःश्वास, विवर्णता, और उच्छ्वास आदि होता है ।। १४२ ॥
तत्वज्ञानसे निबंद-उदा० कोई तत्त्वज्ञानसे विरक्त पुरुष कहता है । मिट्टीके घड़में बालके सदृश छेदको बन्द करनेके लिए मैंने इस दक्षिणावर्त शङ्खको फोड़ गला, हाय !
मावेग-बबड़ाहटके 'मावेग" कहते हैं, वृष्टिमे उत्पन्न आवेपमें अवयक
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तृतीयः परिच्छेदः
१९७
उत्पातजे सम्तताऽङ्गे, धूमाद्याकुलताऽग्निजे ।। १४३ ॥ राजविद्रवजादेस्तु शस्त्रनागादियोजनम् । गजादेः स्तम्भकम्पादि, पास्वाद्याकुलताऽनिलात् ।। १४४ ॥
इष्टाद्धर्षाः, शुचोऽनिष्टाज्ज्ञेयाश्चान्ये यथायथम् । तत्र शत्रजो यथा
'अर्घ्यमय॑मिति वादिनं नृपं सोऽनवेक्ष्य भरताग्रजो यतः । सङ्कुचिताऽवयवत्वं भवति । उत्पात जे-उपसर्गजन्ये आवेगे-अङ्गे देहाऽवयवे, मस्तताशिथिलता, अग्निजे-अनल जन्ये आवेगे-धूमाद्याकुलता-घूमतापादिव्याकुलता ।। १४३ ॥.
राजविद्रय जादेस्तु = राजपलायनजन्यप्रभृतेः अवेगात् तु, अत्राऽऽदिपदेन शत्रुज आवेगो गृह्यते, ततश्च शस्त्रनागादियोजनम् आयुधगजादिसंग्रहणं भवति, अत्रादिनदादश्वा. दीनां परिग्रहो भवति । गलादेः =हस्त्यादेः आवेगात्, अत्र पुनः गजपदेन आरण्यकगजस्य परिग्रहः, एवं च आदिपदेन अन्यारण्यकपशूनां परिग्रहो बौद्धव्यः, ततश्च, स्तम्भकम्मादि स्तब्धता-वेपथुप्रभृतिः, अत्राऽऽदिपदेन मूर्छादेः परिग्रहः, तादृशं कार्य भवति । अनिलात्= वायोः, जायमानाशवेगादिति शेषः । पास्वाद्याकुलता = धूल्यादिव्याकुलता, अत्राऽदि. पदेन, तृणपर्णादीनां परिग्रहः ।। १४४ ।।
इष्टात् = अभीष्टादावेगात् हर्षाः = आनन्दाः, अनिष्टात् = अप्रियादावेगात् शुचः = शोकाः, इत्थं च अन्ये = अपरेऽपि आवेगाः, अनयव दिशा, यथायथं = यथास्वं, परिकल्पनीया इति शेषः ।
तत्र शत्रुजमावेगमुदाहरति-अयमयमिति । रघुवंशे रामादीनां परिणयाs. नन्तरमयोध्यागमनकाने परशुरामस्य वर्णनमिदम् । सः = परशुरामः, अयम् अयम् = अर्घार्थमुदकम् अर्घार्थमुदकम्, आनीयतामिति शेषः । इति = इत्थं, वादिनं = कथयन्तं, नृपं = राजानं, दशरथमिति भावः अनवेक्ष्य = अदृष्ट्वा , उपेक्ष्येति भावः । यतः = यस्मिन् स्थाने. सार्वविभक्तिकस्तसिः । भरतागजः = दाशरथी रामः, ततः = तस्मिन् सङ्कुचित होता है उत्सातजन्य आवेगमें शरीरमें शिथिलता होती है और अग्निजन्य आवेगमें धूम और ताप आदिसे व्याकुलता होती है ॥ १३ ॥
__राजाके भागने आदि आवेगमें हथियार और हाथी आदिको योजना, हाथी आदिसे होनेवाले आवेगमें स्तम्भ और कम्प आदि, वायुसे होनेवाले आवेगमें धूलि आदिसे आकुलता होती है । १४४ ।।
अभीष्ट आवेगसे हर्ष, अनिष्ट आवेगसे शोक होता है, और भी यथायोग्य जानने चाहिए।
शत्रुजन्म मावेग - उ० । परशुरामजीने "अर्घ्य लाओ अर्घ्य लाओं" ऐसा कहनेवाले राजा दशरथकी अपेक्षा ( परवाह ) न कर जिस ओर रामचन्द्रजीरे उसी
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१९८
साहित्यदर्पणे
क्षत्रकोपदहनाचिष ततः सन्दधे दृशमुदप्रतारकाम् ॥'
एषमन्यदूह्यम् । अथ देन्यम्
दौर्गत्याधरनौजस्यं दैन्यं मलिनतादिकृत् ।। १४५ ।।
यथा
वृद्धोऽन्धः पतिरेष मञ्चकगतः, स्थूणावशेषं गृहं,
कालोऽभ्यर्णजलागमः, कुशालनी वत्सस्य वार्तापि नो। यत्नात्सश्चिततैलबिन्दुघटिका भग्नेति पर्याकुला
दृष्ट्वा गर्भभरालपां निजवधूं श्वश्रूश्चिरं रोदिति ॥ स्थाने, क्षत्रकोपदहनाविष:क्षत्त्रेषु ( क्षत्रियेषु ) कापः ( क्रोधः ) एव दहनः (अग्निः), तस्य अषिम् ( ज्वालारूपाम् ), उदग्रतारकाम्-उन्नतकनीनिकां, दृशं दृष्टि, सन्दधे संहितवान् । अत्र दशरथस्य शत्रुरूपस्य भार्गवस्य दर्शने आवेगः । रथोद्धता वृत्तम् ।।
देयं लक्षयति-दोर्गत्याधरिति दोगत्याद्य:= दारिद्रयादिभिः, आद्यपदेन, इष्टाऽलाभेन चिन्तया द, भलिनताऽऽदिकृतं = मालिन्यादिकारकम्, अनौजस्यं = तेजोहानिः, "दैन्यम्" ।। १५१ ।।
दन्यमुदाहरति-वद्ध इति । वृद्धः = जरठः, अन्धश्च = नयनविकलश्च, एषः= अतिसन्निहितः, पतिः = मम मा, मञ्चकगतः = खट्वास्थितः, चलितुमसमर्थ इति भावः । गृहं = मदीयं गेह, स्थूणाऽवशेष-स्तम्भमात्राऽवशेषम् उपरिपटलपतनेनेति शेषः । कालः = समयः, अभ्यर्णजलागमः = निकटवर्षतुः, अतो गृहभङ्गमयं संभाव्यमिति शेषः । वत्सस्य = पुत्रस्य, देशान्तरगतस्येति शेषः; पार्ता = प्रवृत्तिः, कुशलिनी = कुशलसूचिका, नो = न आप्यते । यत्नात् = प्रयासात्, सश्चिततैलबिन्दुघटिका = अचितस्नेहपृथतक्षुद्रपात्रम्, मग्ना-प्राप्तभङ्गा, इति = कारणात्, पर्याकुला-अतिशयखिन्ना, श्वश्रूः । निजवधू - स्वस्नुषां, गर्भभराऽलसां-भ्रूण मारेणालस्थमन्थरां, दृष्ट्वा-विलोक्य, चिरं बहुसमयं यावत्, रोदिति = अश्रूणि विमुञ्चति ।। शार्दूलविक्रीडितं वृतम् ।। १४५ ।। ओर क्षत्रियोंके प्रति कोपाऽग्निकी ज्वालास्वरूप ऊंची पुतलीपाली दृष्टिका सन्धान किया । यह रघुवंशका पद्य है।
देन्य-दारिद्रय आदिसे उत्पन्न तेजके अमावको दैन्य ( दीनता) कहते हैं, उससे मालिन्य आदि होता है !! १४४ ॥
-उ०-बुढ्ढे और अन्धे ये पति खटियापर पड़े हैं, घरमें खाली स्तम्भ बाकी रहा है । प्रचुर वृष्टि होनेका समय है । पुत्रकी कुशलवात भी नहीं मिल रही है । यत्नसे सञ्चित तैलबिन्दुका छोटा-सां पात्र भी फूट गया है इस कारणसे अत्यन्त आकुल सास गर्भके भारसे अलसाई हुई अपनी पुत्रवधु (बहू) को देखकर बहुत समयतक रोती रहती है।
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तृतीयः परिच्छदः
१९९
अथ श्रमः
खेदो रत्यध्वगत्यादेः श्वासनिद्रादिकृच्छमः ।
यथा
'सद्यः पुरीपरिसरेऽपि शिरीषमृद्वो
सीता जवास्त्रिचतुराणि पदानि गत्वा । गन्तव्यमस्ति कियदित्यसकृब्रुवाणा ।
रामाश्रणः कृतवती प्रथमावतारम् ॥'
अथ मदः--
संमोहानन्दसंभेदो मदो मद्योपयांगजः ।। १४६ ।। अमुना चोत्तमः शेने, मध्यो हसति गायति ।
श्रमं लक्षयति-खेव इति । रत्यध्वगत्यादेः = रतिः ( निधुवनम् ), अध्व. पत्यादेः = मार्गगमनादेः, आदिपदाद्भारवहनादिपरिग्रहः । श्वासनिद्रादिकृत्-उच्छवासस्वापादिकारकः, खेदः = आयातः, "श्रमः"
___ श्रममुदाहरति--- सद्य इति । वनवासकाले सीताया अवस्थावर्णनम् । शिरीष. मृती - शिरीषकुसुमकोमला, सीता-जानको, पुरीपरिसरे = अयोध्यानगरीपर्यन्तभुवि, सद्य. = सपदि एव, जवात् = वेगात्, त्रिचतुराणि-त्रिचतुःसंख्यकानि, पदानि गत्वा= पादन्यासान् विधायेति भावः । कियत्-किंपरिमाणं, गन्तव्यं -गमनीयम्, वन इति शेषः । अस्ति = वर्तते, इति = इत्थम्, असकृत-वार वारं, ब्रुवाणा भाषमाणा सती, रामाऽ भ्रूणः = रामनयनसलिलस्य, प्रथमाऽवतारं = प्राथमिकोद्गम, कृतवती = अकार्षीद । अत्र सीतायाः श्रमो वगितः । वसन्ततिलका वृत्तम् ॥ १५२ ॥
मदं लक्षति-सम्म हेति। मद्योपयोगजः - आसवपानतः, सम्मोहानन्द. संभेदः = वैचित्यहर्षमिश्रणं, "मदः" । मदस्य कार्यविणे प्रदर्शयति अनगि अमुना = मदेन, उत्तमः = धीरस्वभावो जनः, शेते = स्वपिति, मध्यः = म-यमस्वभावो
धम-रतिक्रीडा और मार्ग में चलन आदिसे उत्पन्न खेदको "श्रम" कहते हैं। उससे श्वासकी अधिकता और निद्रा आदि होती है ।
उ-शिरीष पुष्पके समान कोमल सीताजीने अयोध्यापुरीके पास भी वेगसे तीन चार पग तक चलकर "कहाँ तक चलना है" ऐसा वारंवार पूछकर रामके आँसूका पहला आविर्भाव कर डाला।
मद-मद्यके उपयोगसे उत्पन्न बेहोशी और आनन्दके मिश्रणको "मद" कहते हैं ।। १४६ ॥ - इस मदसे उत्तम पुरुष सोता है, मध्यम पुरुष हँसता है और गाता है और
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२००
- साहित्यदर्पण
अधमप्रकृतिश्चापि परुषं वक्ति रादिति ।। १४७ ।। यथा
'प्रातिभं त्रिसरकेण गतानां वक्रवाक्यरचनारमणीयः ।
गूढसूचितरहस्यसहासः सुभ्र वां प्रववृते परिहासः ॥' अथ जडता
अप्रतिपत्तिर्जडता स्थादिष्टानिष्टदर्शनश्रुतिभिः ।
अनिमिषनयननिरीक्षणतूष्णीभावादयस्तत्र ॥१४८ ।। जन:, हसति = हास्यं करोति, गायति = गानं च करोति । अधमप्रकृतिः = अधीर. स्वभावो जनः, परुषं = कठोरं यथा तथा, वक्ति = परिभाषते, रोदिति च = अधूणि विमुञ्चति च ।। १४७ ॥
__मदमुदाहरति-प्रातिभमिति। त्रिसरकेण = त्रिवारमद्यपानेन, "सरकं शीधुपात्रे स्याच्छीधुपाने च शीधुनि ।" इति विश्व: : प्रातिभं = प्रतिभाविशेष, प्रतिभाया आगतः प्रानिभस्तं, "तत आगत" इत्यण् । गतानां = प्राप्तानां, सुध्रुवां= सुन्दरीणां, वक्रवाक्यरचनारमणीयः = वक्रवाक्यस्य ( कुटिलवचनस्य, व्यङ्गयोक्ते रिति भावः ), रचना ( निर्माणम्, प्रयोग इति भावः ) तया रमणीयः ( मनोहरः ) गूढ सूचितरहस्यराहासः = गूढानि ( सवानि, पुरा लज्जयेति शेषः ) सूचिनानि ( प्रकाशितानि, अधुना मदेनेति शेषः ), तादृशानि यानि रहस्यानि ( रमणादिगोप्यव्यवहारः ) यस्मिन, स चाऽसौ सहास: ( हास्यसहितः ) एकादशः परिहास: = क्रीडा, "द्रवकेलि. परीहासाः क्रीडा खेला च नर्म च ।" इत्यमरः । प्रववृत्ते-प्रवृत्तः ! पद्यमिदं शिशुपार. वधमहाकाव्यस्य सप्तदशसर्गस्थम् । स्वागता वृत्तम् ।। १४७ ।।
जडतां लक्षयति-प्रप्रतिपत्तिरिति । इष्टानिष्टदर्शनश्रुतिभिः इष्टाऽनिष्टयोः ( अभीष्टाऽन भीष्टयोः ) दर्शनश्रुतिभिः ( विलोक्नश्रवणव्यापारः ), अप्रतिपत्तिः = बोधाऽभावः, कर्तव्यस्यानिश्चय इत्यर्थः । सा "जडता", तत्र-तस्याम्, अनिमिषेत्यादि:= अनिमिषे ( निमेषभ्यापाररहिते ) ये नयने (ने) ताभ्यां निरीक्षणम् ( अवलोकनम् ) तूष्णीभावः ( तूष्णीकत्वम् । तदादयः ( तत्प्रतिव्यापाराः ) भवन्तीति शेषः । अधम प्रकृतिगला पुरुष कठोर वाक्य बोलता है और रोता है ॥ १४७ ।।
उ०-तीन वार मद्य पीनेसे प्रतिभाविशेषको प्राप्त सुन्दरियोंका कुटिल. ( व्यङ्गय ) वाक्योंकी रचनासे मनोहर गुप्त रहस्यों की सूचना करनेवाला हास्ययुक्त क्रीडा प्रवृत्त हो गई।
जडता-इष्ट और अनिष्टको देखनेसे और सुननेसे उत्पन्न कर्तव्यके अनिश्चय. का "जडता" कहते हैं। उसमें पलकन मारकर देखना और चुपचाप रहना आदि कार्य होते हैं ।१४८ ॥
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यथा मम कुवलयाश्वचरिते प्राकृतकाव्ये -
अथोप्रता
यथा
'णवरिअ तं जुअजुअलं अण्णोष्णं णिहिदसजलमन्थरदिटिंठ । आलेक्खओपिअं विअ खणमेत्तं तत्थ संट्ठिअं मुअसणं ॥
शौर्यापराधादिभवं
तृतीयः परिच्छेदः
तत्र
उ०
मण्डवमुग्रता |
स्वेदशिरः कम्पतर्जनाताडनादयः ॥ १४९ ॥
'प्रणयिसखी सलील परिहासरसाधिगतै
२०१
जडतामुदाहरति-- णवरिश्र इति ।
"केवलं तद्यवयुगलमन्योन्यनिहित सजलमन्थरदृष्टि ।
आलेख्य'ऽपितमिव क्षणमात्रं तत्र संस्थितं मुक्तसङ्गम् ||" (संस्कृतच्छाया) । वरिशब्दः केवलार्थे देशीय भाषा । तत्र = तस्मिन् स्थाने, अन्योन्यं निहितसजलमन्थरदृष्टि = अन्योन्यस्मिन् ( मिय: ) निहिता (स्थापिता ) सजला ( अश्रुसहिता ) मन्थरा ( निचला ) दृष्टि: ( दर्शन क्रिया ) यस्मिंस्तत् तादृशं तत् = पूर्वोक्त, युवयुगलम् = युवतियुवयुग्मम्. केवलम् = एव, आलेख्यापितम् हव चित्रमरितम् इव, क्षणमात्रं = कञ्चित्कालं, मुक्तसङ्ग त्यक्तसंसर्ग, स्थितम् = अतिष्ठत् । अष्टदर्शनाज्जडता । अत्र स्कन्ध्रकनामकं प्राकृतच्छन्दः ॥ १४८ ॥
=
उग्रतां लक्षयति-शौर्यापराधाविभवमिति । शौर्यापराधादिमवं = शूरताऽऽगःप्रभृतिजन्यं, चण्डत्वम् = अत्यन्तकोपनत्वम्, "उग्रता " भवेत् । तत्र तस्यां स्वेदशिर:कम्पतर्जनाताडनादयः = स्वेद: ( घर्मसलिलम् ), शिरकम्प: ( मस्तकवेपथुः ), तर्जनं ( भर्त्सनम् ) ताडनाद: ( प्रहारादय: ), भवन्तीति शेषः ॥ १४९ ॥
प्रकरणे मालतीं हन्तु
उग्रतामुदाहरति- प्रणयीत्यादिः । मालतीमाधवे तत्परमघोरघण्टं कापालिकमुद्दिश्य माधवस्य कथनमिदम् । सखीसलीलपरिहासरसाऽधिगतः = प्रणयिनीनां ( प्रेमयुक्तानाम् ) सलील: ( मविलासः ) य: परिहासरस: ( क्रीडारागः ), तेन
यत् = वपुः, प्रणयिसखीनां ( वयस्यानाम् ) अधिगतः ( प्राप्तः ),
--- ग्रन्थकार स्वग्रन्थ प्राकृतकाव्य कुवलयाश्वचरितका उदाहरण देते हैंउस स्थानमें परस्परमें आँसू भरी दृष्टियोंको रखनेवाली वह तरुणी और तरुणकी जोड़ी मात्र चित्रमें समर्पितके समान होकर कुछ समय तक संसर्ग छोड़कर बड़ी रही ।
उपता - शूरता और अपराध आदिसे उत्पन्न कोपशीलताको 'उग्रता" कहते हैं, उसमें स्वेद, शिरका कम्प तर्जन और ताडन आदि होते हैं ।। १४९ ।।
उ०- मालतीमाधवमें मालतीको मारनेमें उद्यत कापालिक अघोरघण्टको उद्देश्य करके माघवकी उक्ति है -- प्रणययुक्त सखीजनोंके परिहास में रागसे प्राप्त कोमल
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अथ मोह:
यथा
साहित्यदर्पणे
ललितशिरीषपुष्पहननेरपि ताम्यति यत् । वपुषि वधाय तत्र तव शस्त्रमुपक्षिपतः पततु शिरस्यकाण्डयमदण्ड इवैष भुजः ॥'
मोहो विचित्तता भीतिदुःख। वेगानुचिन्तनैः । मूच्र्छनाज्ञानपतनभ्रमणादर्शनादि कृत् ।। १५० ।।
'तीव्राभिषङ्गप्रभवेण वृत्ति मोहेन संस्तम्भयतेन्द्रियाणाम् । अज्ञातभर्तृव्यसना मुहूर्त कृतोपकारेव रतिर्बभूत्र ॥'
ललित शिरीषपुष्पहननैः अपि = ललितानि ( कोमलानि ) यानि शिरीषपुष्पाणि ( शिरीषकुसुमानि ), तं हननंरपि ( प्रहारैरपि ), ताम्यति = ग्लायति । तत्र = तस्मिन् वपुषि : = मालत्याः शरीरे, शस्त्रम् = आयुधं, खड्गरूपम्, उपक्षिपतः प्रेरयतः; तव = अघोरघण्टस्य, शिरसि = मस्तके, अकाण्डयमदण्ड इव अकाण्डे ( अनवसरे ) यमदण्ड इव ( कृतान्तदण्ड इत्र ), एषः समीपतरवर्ती, भुजः = बाहु:, ममेति शेषः, पततु | = पातं करोतु | अत्राऽघोरघण्टाऽपराधेन माधनस्योप्रता । अत्रोपमालङ्कारः । कुटकं वृत्तम् || १४९ ।।
=
--
मोहं लक्षयति- मोह इति । भीतिदुःखाऽऽवेगाऽनुचिन्तनः = भीति: ( भयम् ), दुःखम् (व्यथा ), आवेग: ( संभ्रमः ), अनुचिन्तम् ( अत्यन्त चिन्ता ), तैर्भीत्यादिभिः, हेतुभिः, मूर्च्छनाज्ञानपतन भ्रमणादर्शनादिकृत् = मूर्च्छनम् ( मूर्च्छाकरणम् ) अज्ञानम् ( अल्पज्ञानम् ) पतनं ( स्खलनम् ), भ्रमणम् (अनवस्थानम् ) अदर्शनम् ( दर्शनाSSभाव: ) इत्यादिविकारकृत विचितता = ज्ञानलोपः " मोहः " ।। १५० ।।
मोहमुदाहरति- तीव्राऽभिषङ्गप्रभवेणेति । कुमारसंभवे चतुर्थ सर्गे मदनदहनाऽनन्तरं रतेरवस्थावर्णनमिदम् । रतिः = मदनपत्नी, तीव्राऽभिषङ्गप्रभवेण = तीव्र: ( तीक्ष्ण:, दुःसह इतिभावः ) य: अभिषङ्गः ( शोकः, पतिदाहजन्य इति भाव: ), तत्प्रभवेण ( तज्जन्येन ), इन्द्रियाणां = श्रोत्रादीनां हृषीकाणाम्, वृति = शब्दादिविषयग्रहणव्यापार, संस्तम्भयता = प्रतिबधनता, मोहेन = मूच्छंया हेतुना, अज्ञातभर्तृशिरीष पुष्पोंके प्रहारसे भी जो ( मालतीका) शरीर म्लान हो जाता है । वैसे शरीर में मारने के लिए शस्त्र उठाते हुए तेरे शिरपर अचानक पड़नेवाले यमराजके दण्डके समान यह मेरा बाहु पड़े |
-
मोह - भय, दुःख, घबड़ाहट और अधिकचिन्तासे उत्पन्न चेतनाशून्यताको "मोह" कहते हैं । उसमें मूर्च्छा, अज्ञान, पतन, भ्रमण और अदर्शन आदि होते हैं । १५० । उ०- यह कुमारसभव में महादेव के नेत्राग्निसे कामदेवके दाहके अनन्तर रति
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तृतीयः परिच्छेदः
२०३
अथ विबोध:
निंद्रापगमहेतुभ्यो विबोधश्चेतनागमः । जुम्भाङ्गभङ्गनयनमीलनाङ्गावलोककृत् ॥१५१ ॥
यथा
'चिररतिपरिखेदप्राप्तानिद्रासुखानां ___ चरमनपि शयित्वा पूर्वमेव प्रबुद्धाः। अपरिचलितगात्रा कुर्वते न प्रियाणा
मशिथिलभुजचक्राश्लेषभेदं तरुण्यः ॥' व्यसना = अविदितपतिविपत्तिः सती, मुहूर्त = कंचित्कालं, कृतोपकाग इव = विहितोपकृतिः इव, बभूव = संवृत्ता । अत्र पतिनिधनेन रतेर्मोहः । उपजातिवृत्तम् ।। १५०॥
विबोधं लक्षयति-निद्राऽपगमहेतुभ्य इति । निद्राऽपगमहेतुभ्यः = स्वापाsभावकारणेभ्यः, जृम्भाऽऽदिकृत् = जम्मा (जृम्भणम् ), अङ्गभङ्गः ( शरीराऽवयवभङ्गः ) नयनमीलनम् ( नेत्रोन्मीलनम् ) अङ्गाऽचलोक ( शरीराऽवयवविलोकनम् ) इत्यादिव्यपारकृत, चेतनाऽऽगमः = चैतन्यप्राप्तिः, "विबोधः" ।। १५१ ।।
विबोधसुदाहरति-चिरेति। चरम = पश्चिम, प्रियस्वापाऽनन्तरम् इति भावः, शयित्वा अपि = शयनं कृत्वाऽपि, पूर्वम् एव = प्रिया प्रथमम् एव, प्रबुद्धाः = जागरिताः, तरुण्यः = युवतयः, अपरिचलितगात्राः = अचलितदेहाऽवयवाः, सत्यः, प्रियनिद्राभङ्गभीतेरिति शेषः, चिररतिपग्खेिदप्राप्तनिद्रासुखाना = चिरं (बहुकालं यावत् ), या रतिः (सुरतम्), तेन यः परिखेदः (परिश्रम ), तेन प्राप्तम् (आसादितम्) निद्रासुखं ( स्वापानन्दः ) यः, तेषाम् । प्रियाणा कान्तानाम्, अशिथिलभुजचक्राऽऽश्लेषभेदम् गाढबाहुमण्डलाऽऽलिङ्गभङ्ग, न कुर्वते = न विदधति । अत्र युवतीनां विबोधः । मालिनी वृत्तम् ।। १५ ॥ की अवस्था का वर्णन है । रति देवी दुःसह शोकसे उत्पन्न और इन्द्रियोंकी वृत्ति रोकने वाली मूर्छासे पविपत्तिके अनुभव से रहति होकर कुछ समय तक उपकृत. सो हो गई।
विबोध-निद्रा हर कारणोंसे चैतन्यके आगमनको "विबोध" कहते हैं। इसमें जमुहाई, अंगड़ाई नेत्राको खोलना, और अङ्गोंको देखना इत्यादि कार्य होता है ।। १५१॥
उ.-प्रियके पीछे सोकर भी पहले ही जगी हुई तरुणियां प्रियके जागनेके भयसे शरीरको न हिलाती हुई बहुत समय तक रतिक्रीडाके परिश्रमसे निद्रासुखको प्राप्तः । पतिके गाढ बाहुमण्डलके आलिङ्गनका भङ्ग नहीं करती हैं ।।।
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साहित्यदर्पणे
अथ स्वप्न:
स्वप्नो निद्रामुपेतस्य विषयानुभवस्तु यः । कोपावेगभयग्लानिसुखदुःखादिकारकः ॥ १५२ :
यथा
'मामाकाशप्रणिहितभुजं निर्दयाश्लेषहेतो
लब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्नसन्दर्शनेन । पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थलीदेवतानां
मुक्तास्थूलास्तरुकिसलयेष्वथलेशाः पतन्ति ।।'
स्वप्नं लक्षयति-स्वप्न इति । कोपावेगादिका रकः = कोपः ( क्रोधः ), आवेगः ( संम्रमः ), भयं ( भीतिः ), ग्लानिः (ग्लानता ), सुखं ( हर्षः ), दुःखं ( कष्टम् ) तदादिकारकः, निद्राम् = स्वापम्, उपेतम्य = प्राप्तस्य, यः विषयाऽनु भवः= पदार्थाऽनुभूतिः, स "स्वप्न.” ॥ १५२ ॥
स्वप्नमुदाहरति- मामिति । मेघदूते यक्षस्य मेघद्वारा पत्नी प्रत्युक्तिरियम् । मया = यक्षेण, स्वप्नसन्दर्शनेन = स्वापविलोकनेन, कथमपि-महता कष्टेन, लब्धाया:= प्राप्तायाः, ते = तद, प्रियाया इत्यर्थः । निर्दयाऽऽश्लेषहेतोः = गाढालिङ्गनकारणस्य, आकाशप्रणिहितभुजम् = अम्बरोतोलितबाहुं, शून्याऽपितबाहुमिति भावः : मां = यक्षं, पश्यन्तीनां =: विलोकयन्तीनां, स्थलीदेवतानां = वनदेवतानां, मुक्तास्थूलः: - मोक्तिकतुल्यस्थुलाकाराः, अश्रुलेशाः = नयनजलबिन्दवः, तरुकिसलयेषु = वृक्षपन्लवेषु, बहुश:= अनेकवारं, न पतन्ति न = न स्खलन्ति इति न अपि तु पतन्त्येव । तादृशं विप्रयुक्त मां दृष्ट्वा वनदेवता अपि अधूणि मुञ्चन्तीति भावः ।
अत्र यक्षस्य प्रियतमालिङ्गनार्थमाकाशे भुजप्रणिधानकारक: स्वप्न । उपमा:लङ्कारः । मन्दाक्रान्ता वृत्तम् ।। १५२ ।।
स्वप्न-निद्रित पुरुषके विषयके अनुभवको "स्वप्न" कहते है । उसमें क्रोध, घबड़ाहट, भय, ग्लानि, सुख और दुःख आदि होते हैं ।। १५२ ।।
उ०-यक्ष मेघसे, पत्नीका सन्देश कह रहा है-"हे प्रिये ! स्वप्न देखनेके अवसर. में मुझसे जब तुम किसी प्रकार पाई जाती हो तब तुम्हारे गाढ आलिङ्गनके लिए .आकाशमें हाथोंको फैलाये हुए मुझको देखती हुई बनदेवताओं की मोतियोंके समान बड़ी
आँसुओंकी बूदें वृक्षोंके पल्लवोंमें कई वार नहीं गिरती है क्या ? अर्थात् गिरती ही रहती हैं।
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तृतीयः परिच्छेदः
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अथापस्मार:
मनःक्षेपस्त्वपस्मारो ग्रहाद्यावेशनादिजः ।
भूपातकम्पप्रस्वेदफेनलालादिकारकः ॥१५४ ।। 'आश्लिष्टभूमि रसितारमुच्र्लोलभुजाकारबृहत्तरङ्गम् । फेनायमानं पतिमापगानामसावपस्मारिणमाशशङ्के । अथ गर्वः
गर्वो मदः प्रभावश्रीविद्यासत्कुलतादिजः । अवज्ञासविलासाङ्गदर्शनाविनयादिकृत् ॥१५४ ।। ।
अपस्मार लक्षयति-मनःक्षेप इति। ग्रहाद्यावेशनादिजः = सूर्याद्यधिष्ठा. नादिजन्यः, आदिपदेन वातादिधातुवैषम्यपरिग्रहः । भूपातकारकः = भूपातः ( भूमिनिपतनम् ) कम्पः ( वेपथुः, ), प्रस्वेदः (धर्मसलिलम् ), फेनः ( मुखे कफविकार ) लाला ( सृणिका ), आदिपदेन चैतन्या भावपरिग्रहः इत्यादिकारकः, मनःक्षेपः = चितप्रेरणं, विषयग्रहणाऽसामर्थ्यमिति भावः । सोऽयमपस्मार: ।। १५३ ।।।
अपस्मारमुदाहरति-प्राश्लिष्टभमिमिति । शिशुपालवधमहाकाव्ये समुद्रवर्णनमिदम् । असो = श्रीकृष्णः, आश्लिष्टभूमिम् = आलिङ्गितधरणीकम्, उच्चैः = तारस्वरेण, रसितारं - शब्दं कुर्वन्त, लोलद्भुजाकारवृहत्तरङ्ग = लोलन्तः ( चलन्तः ) भुजाकाराः ( बाहुसदृशाः ) बृहन्तः ( महान्तः ) तरङ्गाः (भङ्गाः) यस्य सः, तम्, फेनाय मानं = फेनमुद्वमन्तम्, आपगाना = नदीनां, पति = स्वामिनं, समुद्रमित्यर्थः, अपस्मारिणम् =अपस्माररोगयुक्तम्, आशशङ्क-आशङ्कितवान् । अत्र समुद्रे आरोप्यमाणः पुरुषे स्मर्यमाणो भूपात फेनकारकोऽपस्मारः उपजातिवृत्तम् ।। १५३ ॥
गर्व लक्षयति-गर्व इति । प्रमावादिजः = प्रभावः (प्रतापः, राज्ञः कोश. दण्डादिजन्य इति भावः ). श्रीः ( सम्पत्तिः ), विद्या ( शास्त्रादि: ) सत्कुलता ( महा. वंशोत्पत्तिः), तदादिजः, अवज्ञादिकृत् = अवज्ञा ( शत्रुषु अनादरः) सविलासम्
अपस्मार-ग्रह आदिके आवेश आदिसे उत्पन्न मनके विक्षेपको "अपस्मार" कहते हैं । उसमें भूमिपतन, कम्प, प्रस्वेद, फेन और लार आदि होते हैं ।। १५३ ॥
उ०-शिशुपालवध महाकाव्य में समुद्रका वर्णन है। भगवान् श्रीकृष्णने पृथ्वीको आलिङ्गन करनेवाले, ऊंचा शब्द करते हुए भुजाओंकी सदृश बड़ी बड़ी तरङ्गों से युक्त बोर फेनको निकालते हुए समुद्रको अपस्मारी (मिरगी रोगवाला ) समझ लिया।
-प्रभाव, सम्पत्ति, विद्या और विशाल कुलमें उत्पत्ति, इत्यादि गुणोंसे
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साहित्यदर्पणे
तत्र शौर्यगर्यो यथा
'धतायुधो यावदहं तावदन्यः किमायुधः ।
यद्वा न सिद्धमस्त्रेण मम तत्केन साध्यताम् ॥' अथ मरणम्
शराय मरणं जीवत्यागोऽङ्गपतनादिकत् ।
यथा
-
-
'राममन्मथशरेण ताडिता दुःसहेन हदये निशाचरा।
गन्धवद्रधिरचन्दनोक्षिता जीवितेशवसतिं जगाम सा ।' ( विलासपूर्वकम् ) अङ्गदर्शनम् ( आत्मदेहप्रदर्शनम् ) अविनयः ( वम्रताऽभावः ) तदादिकृत, मद: = मतता, "गर्वः" ।। १६० ।।
शौर्यगर्वमुदाहरति-घतायुध इति। वेणीसंहारे कर्णस्य वचनमिदम् । यावत् = यत्कालपर्यन्तम्, अहं = कणं, धृतायुधः = अस्त्रधारी, अस्मीति शेषः । तावत् तत्कालपर्यन्तम, आयुधः = अस्त्रः, अन्येषामिति शेषः । किं = किं प्रयोजनम् । वा = अथवा, यत् = कार्य, मम = कर्णस्य, अस्त्रेण = आयुधेन, न सिद्धं = नो निष्पन्न, तत् = कार्य, केन = जनेन, साध्यतां = निष्पाद्यतां, न केनाऽपि इति भावः । अत्र कर्णस्य स्वप्रभावादिजनितो गर्वः । अनुष्टुब् वृत्तम् ।। १५४ ॥
- मरणं लक्षयति-शरार्धरिति । शरायः = बाणाद्यः, आद्यपदेन खड्गादिपरामर्शः । अङ्गपतनादिकृतदेहपातादिकारकः, जीवत्यागः = जीवनत्यागः "मरणम्"।
मरणमुदाहरति-राममन्मथशरेणेति। रघुवंशस्थताडकावधवर्णनमिदम् । सा = पूर्वोक्ता, निशाचरी = रात्रिञ्चरी, राक्षसी ताडकेति भावः । रात्री अभिसारिका: नायिका च । दुःसहेन = दुर्मर्षणेन, राममन्मथशरेण = रामः ( दाशरथिः ) एव मन्मथः .( कामदेवः ), तस्य शरेण ( बाणेन ), हृदये = वक्षःस्यले, ताडिता = अभिहता सती, गन्धवधिरचन्दनोक्षिता = राक्षसीपने = गन्धवत् ( दुर्गन्धम् ) रुधिरम् ( रक्तम् ) एव चन्दनं ( श्रीखण्डः ), तेन उक्षिता ( सिक्ता ) सती नायिकापक्षेगन्धवत् ( सुगन्धि ) रुधिरचन्दनं ( रक्तचन्दनम् ) तेन उक्षिता (सिक्ता ) सती उत्पन्न घमण्डको "ग" कहते हैं, इसमें . अवज्ञा ( तिरस्कार करना ), विलासपूर्वक अङ्ग दिखाना और अविनय आदि होता है ॥ १५४ ॥
शौर्यगर्व-जबतक में अस्त्रधारी हूँ तबतक औरोंके अस्त्रोका क्या प्रयोजन है ? अथवा मेरे अस्त्रसे काम नहीं हुआ तो किससे सिद्ध किया जायगा? ।
मरण-बाण आदिके प्रहारसे प्राणत्याग करनेको "मरण" कहते हैं । इसमें अङ्गपतन आदि होता है।
उ०-रघुवंशमें ताडकावधका वर्णन है । असह्य रामरूप कामदेवसे हृदय में
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तृतीयः परिच्छेदः
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अथालस्यम्
आलस्यं श्रमगर्भायर्जाडपं जम्भाऽऽसितादिकृत् ॥ १५५ ॥ यथा
'न तथा भूषयत्यहं न तथा भाषते सखीम् ।
जम्भते मुहुरासीना बाला गर्भमरालसा ।।' अथामर्षः
__ निन्दाक्षेपापमानादेरमर्षोऽभिनिविष्टात ।
'नेत्ररागशिरःकम्पभ्रूभङ्गोत्तर्जनादिकृत् ॥१५६ ।। जीवितेशवसति-राक्षसीपक्षे-यमालयम् । नायिकापक्षे-प्राणेश्वरभवनम् । जगाम : गता । अत्र शरेण ताडकामरणम् । अत्र समासोक्तिरलम्हारः । रथोद्धता वृत्तम् ।
आलस्यं लक्षयति-प्रालस्यमिति। श्रमगर्भाधः = श्रमः (परिश्रमः) गर्भः (गर्भधारणम् ) तदाद्यः = उत्प्रभृतिभिः भावः, जृम्भाऽसिताऽऽदिकृत = जुम्भः ( जम्भणं) आसितम् ( उपवेशनम् ) तदादिकृत् "जम्भाऽस्मितम्" इति पाठे जम्मण. युक्तमन्दहास: असमर्थः । जाडय जडता, स्तम्भ इति भावः । तत् "आलस्यम्"॥१५॥
- आलस्यमुदाहरति-न तथेति । गभराऽलसा = भ्रूणभारेण आलस्ययुक्ता, बाला = युवतिः, तथा = तेन प्रकारेण, पूर्ववदिति भा': । अङ्ग-शरीरं, न भूषयति: 'न मण्डयति, तथा = पूर्ववत्, सखी - वयस्यां, न भाषते = न आलपति, मासीना= उपविष्टा ( सती), मुहुः-वारं वारं. जम्भते = जृम्भणं करोति । अत्र गर्भधारणाबालाया जम्मासिताभ्यामालस्यम् ॥ १५ ॥
___ अमर्ष लक्षयति-निन्देति । निन्दाऽऽक्षेपाऽपमानादे: = निन्दा (अन्यस्य दोषोद्भावनम् ) आक्षेपः ( उपालम्भः) अपमानः ( अनादरः ) तदादेः, नेत्ररागादिकृत० = मेत्ररागः (नयनलोहित्यम् ) शिर:कम्पः ( मस्तकवेपथुः), भ्रूमङ्गः (नेत्रलोमकौटिल्यम् ), उत्तर्जनम् ( उच्चभंसनम् ) .दादिकृत अभिनिविष्टता = अमिनिवेशयुक्तता, आग्रहप्रवणतेति भावः । "अमर्षः” । १५६ ॥ ताडित वह राक्षसी ताडका गन्धयुक्त रक्तरूप चन्दनसे लिप्त होकर जीवनके ईश्वरः ( यमराज ) के स्थानपर प्राप्त हो गई।
पालख्य-परिश्रम और गर्भमार आदिसे होनेवाली जडता (स्तन्धता ) को "बालस्य" कहते हैं । इसमें जमुहाई और बैठे ही रहना इत्यादि होता है ।। १५५ ।।
-गर्भके भारसे आलस्यपूर्ण युवति न पहलेके समान शरीरको भूषित करती है और न सखीसे ही भाषण करती है, बैठी हुई वारं वार जमुहाई लेती रहती है।
प्रमर्ष-निन्दा, आक्षेप और अपमान आदिसे अभिनिवेश ( जिद) करनेको "अमर्ष' कहते हैं । उसमें आँखोंमें लाली, शिरमें कम्प, भौंहों की कुटिलता और तर्जन आदि होता है ।। १५६ ।।
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२०८
साहित्यदर्पणे
यथा
प्रायश्चित्तं चरिष्यामि पूज्यानां वो व्यतिक्रमात् ।
न त्वेव दूयिष्यामि शस्त्रग्रहमहाव्रतम् ।।' अथ निद्रा
चेतःसंमीलनं निद्रा अम्क्लममदादिजम् । जम्भाक्षिमीलनोच्छ्वासगात्रभङ्गादिकारणम् ।। १५७ ।।
यथा
"सार्थकानर्थकपदं ब्रवती मन्थराक्षरम् । अमर्षमुदाहरति-प्रायश्चित्तमिति । महावीरचारते वशीष्ठादीनुद्दीश्य परशु. रामस्य वचनमिदम् । पूज्यानां प्रतीक्ष्याणां, व:=युष्माक, व्यतिक्रमात् = शस्त्रत्यागरूपोपदेशोल्लङ्घनाद, प्रायश्चित्त = पापविशोधनरूप कम, चरिष्यामि = करिष्यामि, तु = परन्तु, एव = भवदुक्तोपदेशेन, शस्त्रग्रहमहाव्रतम् = आयुधग्रहणरूप महत् कर्म, न दूषयिष्यामि = न दूषितं करिष्यामि, शस्त्रग्रहणपरित्यागेनेति भावः। अत्र रामेण हरधनुषि भग्ने सति स्वगुरोरपमानेन परशुरामस्य अमर्षः ।। १५६ ।।
निद्रा लक्षयति-चेतःसंमीलनमिति । श्रमक्लममदादिजं = श्रमः ( परि. धमः ), क्लमः ( ग्लानिः ) मदः ( मत्तता ) तदादिजं ( तदाद्य त्पन्नम् ) । जृम्भाऽक्षि० कारणम् = जम्प्रः ( ज़म्भणम् ), अक्षिमीलनम् ( नेत्रमुद्रणम् ) उच्छ्वासः ( दीर्घश्वासः ) गात्र भङ्गः ( शरीरप्रसारणम् ), तदादेः, कारण = हेतुभूतं, चेत.सम्मीलनं = चेतसः ( चित्तस्य ) सम्मीलनम् ( भेव्यानाडीप्रवेशेन निश्चलत्वम् ) "निद्रा" ||१५७॥
निद्रामुदाहरति-साऽर्थकाऽनर्थकपदमिति । निद्राणां प्रिया स्मरतः कस्यचित्पुरुस्योक्तिरियम् । निद्रार्धमीलिताक्षी = निद्रया अर्धमीलित ( अर्धमुद्रिते ) अक्षिणी ( नेत्रे ) यस्याः सा । एवं च साऽर्थकानर्थकादं साऽर्थकानि ( अर्थयुक्तानि ) अनर्थकानि ( अर्थरहितानि ) पदानि ( शब्दा: ) यस्मिन् कर्मणि तद्यया तथेति क्रियाविशेषणम् । मन्थराऽक्षर = मन्दवणं यथा तथा, अस्फुटाक्षरं यथा तथेति भावः । ब्रुवती =
उ०-महावीर चरितमें वशिष्ठ आदिमें परशुरामकी उक्ति है । पूजनीय आपलोगोंके वचन के उल्लङ्घनका प्रायश्चित करूंगा, परन्तु शस्त्र ग्रहणके महाव्रतको दूषित नहीं करूंगा।
निद्रा-परिश्रम ग्लानि और मद आदिसे उत्पन्न चित्तकी निश्चलताको निद्रा" कहते हैं, उसमें जमुहाई, आँखोंको मू दना, दीर्घश्वास, और शरीर फैलना आदि कार्य होते हैं ।। १५७ ॥
उ.- मन्द भावसे साऽर्थक और अनर्थक पदको कहती हुई निद्राके कारण
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तृतीयः परिच्छेदः
___निद्रार्धमीलिताक्षी सा लिखितेवास्ति मे हृदि ।' अथावहित्था
भयगौरवलजादेहषांद्याकारगुप्तिरवाहित्था ।
व्यापारान्तरसक्त्यन्यथावभाषणविलोकनादिकरी ॥ १५८ ।। यथा
'एवंवादिनि देवर्षों पाधैं पितुरधोमुखी।
लीलाकमलपत्त्राणि गणयामास पार्वती ।।' उच्चारयन्ती. सा= प्रिया, मे = मम, हृदि = मानसे, लिखिता इव = चित्रिता इव, अस्ति = वर्तते। अत्र श्रमजन्याऽक्षिमीलनकारिणी फस्याश्चिनिद्रा । अत्र भाविकाsलङ्कारः ॥ १५७ ॥
___ अवहित्था लक्षयति-भयगौरवलज्जादेरिति । भयगौरवलज्जादेः = भयं (भीतिः ) गोरवं ( गुरुता) लज्जा ( व्रीडा ) तदादेः हेतोः व्यापाराऽन्तर० करो= व्यापाराऽन्तरे ( कार्यान्तरे ) सक्तिः ( आसक्तिः ) अन्यथाऽवभाषणम् ( अनारब्ध. कथनम् ) अन्यथाविलोकनम् (विषयान्तरदर्शनम् ), तदादिकरी (तदादिकारिणी) हर्षाद्याका रगुप्ति: आनन्दाद्याकृतिनिगूहनम्, "अवहित्या", अत्र आदिपदेन सामान्य. क्रियायाः परिग्रह । "अवहित्थाऽऽकारगुप्ति:" इत्यमरकोशे सामान्येनोक्तिः ॥ १५८ ।।
अवहित्थामुदाहरति-एवं वादिनीति । देवर्षिणाऽङ्गिरसा हिमालयसनिधी शिवेन सह पार्वत्या विवाहस्य प्रसङ्ग उत्थापिते पार्वत्या वर्णनमिदम् । देवी = सुरषों अङ्गिरसि, पितुः = जनकस्य हिमालयस्य, पावें = समीपे, एवादिनि = इत्यंभाषिणि सति, पार्वती = हैमवती, लीलाकमलपत्त्राणिविलासपपदलानि, गणयामास-गणित. बती अत्र स्वविवाहवर्णनश्रवणाजातस्य पार्वतीहर्षस्य लीलाकमलदलगणनेन गोपनात 'अहित्या। अस्मिन् श्लोके "देवर्षों" इत्यत्र नारदे इति लिखन्तः सर्वेऽपि प्राचीना नवीनाश्च टीकाकारा प्रान्ताः । सप्तर्षीणामन्यतमोऽङ्गिरा एवाऽत्र अभिमतः ॥१५॥ अर्धमुद्रित नेत्रोंवाली वह ( मेरी प्रिया ) मेरे हृदयमें चित्रित सी रह रही है।
प्रवाहित्या-भय, गौरव और लज्जा आदिके कारण हूषं आदिके आकारको छिराना "अहित्वा" कही जाती है। उसमें दूसरे कार्यमें आसक्ति, अन्यथा भाषण ( अनारन्ध भाषण), अन्यथा विलोकन ( दूसरे विषयको देखना ) इत्यादि कार्य होते हैं ॥ १५८ ॥
२०-हिमालय पर्वतके समीप शिवजीके साथ पार्वतीके विवाहप्रसङ्गको देवर्षि अङ्गिराके उठानेपर पार्वतीका वर्णन है। देवर्षि अङ्गिराके ऐसा कहनेपर पिता ( हिमालय ) के समीप अधोमुखी होकर पार्वती लीला-कमलके पत्तोंको गिनने लगीं।
१४ सा०
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२१०
"अथौत्सुक्यम्
यथा-
साहित्यदर्पणे
इष्टानव प्रौत्सुक्यं कालक्षेपासहिष्णुता । चित्ततापत्वरा स्वेददीर्घनिःश्वसितादिकत् ।। १५९ ॥
'यः कौमारहरः स एव हि वरः - ' इत्यादौ ( १७ पृ० ) अत्र यत् काव्यप्रकाशकारेण रसस्य प्राधान्यमित्युक्तम्, तद्रसनधर्मयोगित्वाद्वयभिचारिभावस्यापि रसशब्दवाच्यत्वेन गतार्थ- मन्तव्यम् ।
औत्सुक्यं लक्षयति- इष्टाऽनवाप्तेरिति । इष्टाऽनवाप्तेः इष्टस्य. (अभीष्टस्य पदार्थस्य ') अनवाप्तेः ( अप्राप्तेर्हेतोः ), चित्तताप० अदिकृत् = चित्तताप: ( मनस्ताप : ) स्वरां (संभ्रमः ), स्वेद: ( धर्मसलिलम् ) दीर्घनिश्वसितम् ( ऊर्ध्वनिःश्वासः ), तदादिकृत् ( तदादिकारिणी), कालक्षेपाऽसहिष्णुता = कालक्षेपस्य ( समययापनस्य ) असहिष्णुता ( असामर्थ्यम् ) " औत्सुक्यम्" । उत्सुकस्य भावः कर्म वा औत्सुक्यम्, इति तस्य पदस्य व्युत्पत्तिः, ष्यञ् प्रत्यथः ॥ १५९ ।।
औत्सुक्यमुदाहरति- "यः कौमारहरः स एव हि वरः " पद्यमिदं प्रथमपरिच्छेदे व्याख्यातपूर्वम् ।
. प्रत्रेति । अत्रदं पद्यमौत्सुक्यरूपस्य व्यभिचारमा वस्योदाहरणत्वेनोपन्यस्तं परं काव्यप्रकाशकारेण शृङ्गाररसोदाहरणत्वेन विवृतं कथमेतदिति वैमत्यं परिहरति प्रत्रेति । मंत्र = अस्मिन् पद्य, यत् काव्यप्रकाशकारेण = मम्मटभट्ट ेन, रसस्य = संभोगशृङ्गारस्य, प्राधान्यं = मुख्यत्वम् इति उक्तम् = अभिहितम् । तत् = कथनम्, रसनध मंयोगित्वात् = आस्वादधर्मयुक्तस्वात्, व्यभिचारिभावस्य अपि = औत्सुक्यरूपसश्वारिभावस्य अपि रसशब्दवाच्यत्वेन = रसपदाऽभिधेयत्वेन गतार्थ = चरिताऽथं, मन्तव्यं = बोद्धव्यम् । रसे व्यभिचारिभावे चोभयत्राऽपि आस्वादनधर्मसत्वादिति भावः ।। १५९ ।।
प्रौत्सुक्य - अभीष्ट पदार्थको न पानेसे समय बिताने के लिए असमर्थताको "ओत्सुक्य" कहते हैं, उसमें मनमें ताप, शीघ्रता, पसीना, दीर्घनिःश्वास आदि होता है ।। १५९ ॥
२० - जैसे- "यः कौमारहरः स एव हि वर: ० ( पृ० १७ ) यहाँपर जो harsenic रसकी प्रधानता कही है वह रसन ( आस्वादन ) धर्मसे युक्त होने से . व्यभिचारिमाव ( प्रकृत- औत्सुक्य ) को भी रसशब्दसे कहे जानेसे गतार्थ समझना चाहिए ( कुछ विरोध नहीं ) ।
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अथोन्मादः -
यथा मम-
तृतीयः परिच्छेदः
चित्तसंमोह उन्मादः कामशोकमयादिभिः । अस्थानहासरुदितगीतप्रलपनादिकृत्
'भ्रातर्द्विरेफ ! भवता भ्रमता समन्तात् प्राणाधिका प्रियतमा मम वीक्षिता किम् ?
( भंकारमनुभूय सानन्दम् । )
=
२११
॥ १६० ॥
किममिति सखे ! कथया
मे किं किं व्यवस्यति कुतोऽस्ति च कीदृशीयम् ? ॥'
उन्मादं लक्षयति-चित्तसंमोह इति । कामशोकभयादिभिः = मदनावेशमन्युभीत्यादिभिः हेतुभिः, अस्थानहासादिकृत् अस्थानहासः अस्थाने ( अनवसरे ) हास: (हास्यम् ), रुदितं ( रोदनम् ) गीतं ( गानम् ) प्रलपनम् ( अनर्थकवचभाषणम् ) तदादिकृत् ( तदादिकारक: ) त्रित्तसंमोह: - चित्तस्य ( मनसः ) संमोहः ( वैचित्यं, विवेकाsभाव इत्यर्थः ) । "उन्मादः " ।। १६० ।। उन्मादमुदाहरति-भ्रातरिति । हे भ्रातः द्विरेफः
भ्रमर 1, समन्तात् = समन्ततः, भ्रमता = पर्यटता, भवता स्वया, प्राणाऽधिका = प्राणाऽतिरिक्ता, मम, प्रियतमा = वल्लभतमा, वीक्षिता कि = दृष्टा किम् ( झङ्कारम् = झङ्कारशब्दम्, अनुभूय = उपलभ्य, सानन्दं = हर्षपूर्वकम् ) । नायको भूयः कथयति — ब्रूष इति । ओम् इति "ओम् " इदं स्वीकाराऽर्थ कमव्ययम् ओम् एवं दृष्टेत्यर्थः, इति, बूषे कि - कथयसि किं तत् = तहि, मे = मह्यम्, क्रियाग्रहणाच्चतुर्थी । आशु - शीघ्रं कथय - ब्रूहि, कि कि, व्यवस्यति = कतु चेष्टते, कुत्रः कुत्र अस्ति = वर्तते, इयम् = एषा, मदीया प्रिया, कीदृशी = किविधा, अस्ति ? |
H
B
=
=
अत्र भ्रमरस्योत्तरणाऽसामर्थ्यस्य ज्ञानाऽभावान्नायकस्य प्रलापकारी उन्मादः । वसन्ततिलका वृत्तम् ।। १६० ।।
=
उन्माद - काम, शोक और भय आदिसे होनेवाले चित्तके संमोहको "उन्माद" कहते हैं, उसमें अनवसरमें - हास्य, रोदन, गाना और प्रलाप ( अनर्थक वचन ) आदि होते है ॥ १६० ।।
उ० -- ग्रन्थकारका है । कोई वियोगी पुरुष कह रहा है- हे भैया 'भ्रमर । चारों ओर घूमने वाले तुमने प्राणोंसे भी अधिक मेरी प्रियतमा को देखा है क्या ? झङ्कार ध्वनि सुनकर ओनन्दपूर्वक – हे मित्र ! हाँ ( देखा है ) कहते हो क्या ? तो फिर मुझे शीघ्र बताओ, वह क्या क्या करने की चेष्टा कर रही है ? कहाँ है ? और कंसी ? है ।
१.
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२१२
.
साहित्यदर्पणे
अथ शङ्का
परक्रौर्यात्मदोषाधः शङ्काऽनर्थस्य तकणम् । वैवर्ण्यकम्पवैस्वर्यपालिोकास्यशोषकृत् ॥ १६१ ॥ .
यथा मम
'प्राणशेन प्रहितनखरेष्वङ्गकेषु क्षपान्ते
जातातका रचयति चिरं चन्दनालेपनानि । धत्ते लाक्षामसकृदधरे दत्तदन्तावशते . - क्षामाङ्गीयं चकितमभितश्चक्षुषी विक्षिपन्ती ॥'
शङ्कां लक्षयति-परेत्यादि। परकोर्यात्मदोषाद्यः = परस्य ( अन्यस्य ) कोर्यम् ( क्रूरता ) आत्मदोषः (स्वदोषः) तदाद्य : (तदादिभिः हेतुभिः) वैवर्ण्य० कृत् = . ववर्य (विवर्णता ), कम्पः (वेपथुः ), वस्वयं (विकृतस्त्ररता), पाश्र्वाऽलोकः(पार्श्वयोः = बाहुमूलाऽधोभागयोः, आलोकः = अवलोकनम् ) आस्यशोषः ( मुखशोषः ), तत्कृत् (तस्कारकम् ), अनर्थस्य = अनिष्टस्य, तर्कणं = संभावन, "शला" ।। १६१ ॥
___ शङ्कामुदाहरति--प्राणेशेनेति । इयम् = एषा, क्षामाऽङ्गी = कृशाङ्गी, क्षपान्ते = प्रात काले, जाताऽनङ्का उत्पन्नाशङ्का = सती, सखीनामिति शेषः, चकितं यथा तथा, अभितः = परितः, चक्षुषी = मेत्रे, विक्षिपन्ती = प्रेरयन्ती सती, प्राणेशेन - प्राणेश्वरेण, प्रहितनखरेषु = प्रेहितनखरेषु, कृतनखक्षतेषु इति भावः । अङ्गकेषु = अनुकम्पितदेहाऽत्रयवेषु, पयोधरादिषु इति भावः । चन्दनालेपनानि = श्रीखण्डवलेपनानि, रचयति = विदधाति । तथा प्राणेशेन, दत्तदन्ताऽवधाते = विहितदशनक्षते, अधरे अधरोष्ठे च, लाक्षाम् = अलक्तद्रवम् , असकृत = बार वारं, धत्ते = धारयति । अत्र नायिकया अन्योपहासरूपाऽनर्थस्य तर्कणाच्छङ्का । मन्दाक्रान्ता वृत्तम् ।। १६१ ॥
शवा-दूसरेकी क्रूरता और अपने दोष आदिसे अनिष्टकी संभावना करनेको "श" कहते हैं । उसमें विवर्णता, कम्म, स्वरभङ्ग, अगल बगल झांकना और मुल सूखना इत्यादि होता है ।। १६१ ।।
. उ०-ग्रन्थ कारका है । यह कृशोदरी ( नायिका ) रातके बीतनेपर चकित होकर चारों ओर दृष्टिपात करती हुई प्राणेश्वरसे नखक्षत किये गये अङ्गोंमें चन्दनका लेप करती है और प्राणेश्वरके दशनसे क्षत अपने अधरोष्ठको वारंवार लाक्षारागसे रजित करती है।
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तृतीयः परिच्छेदः
अथ स्मृति:
सदृशज्ञानचिन्ता भ्रूसमुनयनादिकृत् । .
स्मृतिः पूर्वानुभूतार्थविषयज्ञानमुच्यते ॥ १६२ ॥ यथा भम
'मयि सकपटं किंचित्क्वापि प्रणीतविनोचने
किमपि नयनं प्राप्ते तिर्यग्विजम्मिततारकम् । स्मितमुपगतामाली . दृष्ट्वा सलजमवाञ्चितं
कुवलयदृशः स्मेरं स्मेर स्मरामि तदाननम् ।' स्मृति सक्षयति-सवज्ञानचिन्तारिति । सदशज्ञानचिन्ता: सशस्य ( समानस्य पदार्थस्य ) ज्ञानचिन्ता (ज्ञानं = साक्षात्कारः, चिन्ता = भावनाऽऽख्यः संस्कार) तदाद्यः (तत्प्रभृतिभिः)। भ्रूसमुन्नमनादिकृत्-ध्रुवोः (अमिलोम्नोः) समुन्नमनम् (ऊर्वीकरणम्) तदादिकृत, (तदादिकारि) पूर्वाऽनुभूऽनुभूतार्थविषयज्ञानम् (पूर्व-पुरा, अनुभूतः = उपलब्धः, यः अर्थः = पदार्थः, तद्विषयज्ञानं = तद्विषयबोधः) "स्मृतिः" । "संस्कारमांत्रजन्य ज्ञान स्मृतिः" इत्यपरं तल्लक्षणम् ।। १६२ ॥
स्मृतिमुदाहरति-मयोति। मित्रसमीपे कस्यचिनायकस्य वचनमिदम, क्वाऽपि = कस्मिन्नपि पदार्थे, सकपटं = सम्पाजं यथा तया, प्रणीतविलोचने प्रणीते (निक्षिप्ते ) विलोचने (नेत्रे) येन, तस्मिन्, तथाविध मयि, किमपि = केनाऽपि प्रकारेण, नयनं = नेत्रपथं, प्राप्ते = आसादिते सति, तिर्यक् = कुटिलं यथा तथा; विजम्भिततारकं = विजृम्भिते (प्रेरिते ) तारके ( कनीनिके.) यस्य तत्, स्मितं = मन्दहास्यम्, उपगतां = प्राप्तां, मन्दहास्यं कुवंतीमित्यर्थः । तादृशीम आही- सुखी, दृष्ट्वा = विलोक्य, सलज्ज-सव्रीडम्, अतः अवाचितं = नमितं, स्मेरंस योभूयः स्मितयुक्त, कुवलयदशः = उत्पलनयनायाः, तत् = असकृदृष्टम्, माननं = मुखं, स्मरामि = स्मृति विषयीकरोमि । अत्र नायकस्य संस्कारवशेन, पूर्वावलोकितनायिकामुखस्य स्मृतिः। हरिणी वृत्तम् ।। १६२ ।
स्मृति- सदश पदार्थ के ज्ञानकी भावना आदिसे पहले अनुभव किये गये पदार्थविषयक ज्ञानको "स्मृति" कहते हैं । उसमें भौंहोंको ऊपर चढ़ाना आदि क्रिया होती है ।। १६२॥
उ०-कोई गायक अपने मित्रसे कहता है कहापर काय दृष्टि लगाने वाले मेरे उस सुन्दरीसे किसी प्रकार दृष्टिमार्गको प्राप्त होनेपर आँखोंकी पुतलियोंको चक्र कर मुसकरानीवाली सखीको देखकर लज्जासे झुकाये गये मन्दहास्ययुक्त सुन्दराक उस मुखको मैं स्मरण कर रहा हूँ।
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२१४
अथ मतिः
यथा
-
नीतिमागांनुसृत्यादेरर्थ निर्धारण मतिः । स्मेरता धृतिसंतोषौ बहुमानश्च तद्भवाः ॥ १६३ ॥
साहित्यदर्पणे
'असंशयं क्षत्त्रपरिग्रहक्षमा, यदार्यमस्यामभिलाषि मे मनः । सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः ।।' अथ व्याधिः
--
व्याधिज्वरादिर्वाताद्य भ्रंशच्छोत्कम्पनादिकृत् ।
मति लक्षयति- नीतीत्यादिः । नीतिर्मार्गानुमृश्यादेः नीतिमार्गः ( नयशास्त्रम् ) तस्य अनुसृतिः ( अनुसरणं ) तदादेः, आदिपदेन अनुमानादे: हेतोः परिग्रहः || अर्थनिर्द्धारणं = तत्त्वनिर्णयः "मतिः” । स्मेरता मन्दहास्यता, घृतिसन्तोषी - धैर्य परितोषी, बहुमानश्च - अधिक सत्कारच एते विषयाः, तद्भवाः = मतेरुत्पन्ना भवन्तीति भावः ॥ १६३ ॥
=
मतिमुदाहरति- प्रसंशयमिति । अभिज्ञानशाकुन्तले कण्वतपोवने शकुन्तलां दृष्ट्वा दुष्यन्तस्योक्तिरियम् । इयं = शकुन्तला क्षत्रपरिग्रहक्षमा = क्षत्रस्य (क्षत्रियस्य ) परिग्रहक्षमा ( विवाहयोग्या ) अत्र विषये संशय: संशयस्य अभाव:, अर्थाभावे अव्ययीभावः । यत् = यस्मात्कारणात्, आयं = श्रेष्ठं, मे मम मनः = चित्तम्, अस्यां = शकुन्तलायाम्, अभिलापि = अभिलाषुकम्, अस्तीति शेषः । पूर्वोक्तं विषयमर्थान्तरन्यासाऽलङ्कारेण द्रढयति--सतामिति । हि यस्मात्कारणात्, सन्देहृपदेषु = शङ्काऽऽस्पदेषु, वस्तुषु=पदार्थेषु सतां = शिष्टानाम्, अन्तःकरणवृत्तयः = चेतोव्यापारा:, प्रमाणं = यथार्थज्ञानबीजभूता भवन्तीति शेषः । अत्र दुष्यन्तस्य नीतिमार्गानुसृतेन आत्मसन्तोषेण शकुन्तलायाः स्वपरिणययोग्यता निर्धारणान्मतिः । वंशस्थं वृत्तम् ॥१६३ ॥ व्याधि लक्षयति - व्याधिरिति । वाताद्य वायुप्रभृतिभिः हेतुभिः आद्यपदेन पित्त कफयोः परिग्रहः । भूमीच्छोत्कम्पनादिकृत् भूमीच्छा ( भूपतनस्पृहा ), उत्कम्पनम् (वेपथ: ), तदादिकृत् ( तदादिकारकः ) ज्वरादिः = ज्वरप्रभृतिः, करनेको "मति" कहते हैं,
... ..
--
मति - नीतिमार्ग के अनुसरण आदिसे तत्त्वनिश्चय इसमें मन्दहास्य. धैर्यमन्यो मोर अधिक संमान होता है || ६ ||
=
उ०- कण्व के आश्रम में शकुन्तलाको देखकर दुष्यन्त कहते हैं - यह शकुन्तला क्षत्रिय के विवाह के योग्य है इससे सन्देह नहीं है, क्योंकि मेरा श्रेष्ठ मन इसकी इच्छा करने वाला है । जैसे कि शिष्टों के सन्दिग्ध पदार्थोंमें उनके अन्तःकरण की प्रवृत्ति प्रमाण होती है । व्याधि - वात, पित्त और कफ आदिसे होनेवाले ज्वर आदिको 'व्याधि"
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तृतीयः परिच्छेदः
तत्र दाहमयत्वे भूमीच्छादयः । शैत्यमयत्वे उत्कम्पनादयः । स्पष्टमुदा
हरणम् ।
अथ त्रास:
२१५
निर्घातविद्यदुल्काद्य वासः कम्पादिकारकः ।। १६४ ॥
'परिस्फुरन्मीनविघट्टितोरवः सुराङ्गनात्रासविलोलदृष्टयः । उपाययुः कम्पितपाणिपल्लवाः सखीजनस्यापि विलोकनीयताम्।।'
"व्याधिः " । तस्य तत्तद्धेतुक - कार्यभे दाम्प्रदर्शयति - तत्रेति । तत्र ज्वरव्याधी, दानयत्वे = तापस्वरूपत्वे, भूमीच्छादयः = भूतनेच्छादयः, शैत्यमयत्वे = शीत रूपत्वे, उत्कम्पादयः == वेपथुप्रभृत्यः क्रियाः भवन्तीति शेषः । स्पष्टमुदाहरणम् - "भूमौ पतति तापार्ता विप्रयुक्ता वधूरिव ।
कदली वाऽनिलोद्भूता ज्वरार्ता कम्पते प्रिया ।।" महेश्वरतर्काऽलङ्कारः । त्रासं लक्षयति--निर्घातेत्यादि । निर्घातविद्य दुल्काद्य : निर्घातः ( पवनाहतपनजन्यः शव्दविशेष अथवा भूमिचलनम् ) । विद्युत् ( तडित् ) उल्का ( गगनपतितो रेखाऽऽकारस्ते. पुञ्ज.), तदाद्य: (हेतुभिः) कम्पादि कारक: वेपथुप्रभूतिकर्ता, " त्रासः "।
त्रासमुदाहरति परिस्फुरदिति । किरातार्जुनीयस्थं जलक्रीडावर्णनमिदम् । परिस्फुरन्नविघट्टितोरवः परिस्फुरन्तः ( परितः संचलन्तः ) ये मीना: ( मत्स्या: ) तं विघट्टिताः सन्ताडिता: ) ऊरव: ( सक्थीनि ) यासां ताः अतः त्रासविलोलदृष्टयः = त्रासेन ( भयेन हेतुना ) विलोला ( विशेषेण चञ्चलाः ) दृश्य : ( नयनानि ) थासां ताः, तथा च कम्पितपाणिपल्लवाः = कम्पयुक्तकरकिसलयाः, तादृश्यः सुराऽङ्गनाः= अप्सरसः, सखीजनस्य अपि = वयस्यागणस्य अपि, नायकानां कि वक्तव्यमिति भावः । बिलोकनीयतां दर्शनीयताम्, उपायः समाप्ताः ॥ वंशस्थं वृत्तम् । अत्र सुराङ्गनानां मी विघट्टित्वात्कम्पकारकस्त्रासः ।। । ६४ ॥
यथा →
कहते हैं, उसमें जमीनपर लोटने की इच्छा और कम्प आदि होता है। उसमें तापमय व्याधि में भूमिकी इच्छा आदि और शीतमय व्शधिमें कम्प आदि होते हैं । उदाहरण स्पष्ट है ।
त्रास - वायुमे ताडित् वायुजन्य शब्द वा भूकम्प, बिजली और उल्का (आकाश से गिरा हुआ रेखाssकार तेजः पुञ्ज) इत्यादिसे होनेवाले कम्प आदिके हेतुको " त्रास " कहते हैं । १६४ ।।
उ० – किरातार्जुनीय स्थित जल क्रीडाका वर्णन है । तैरती हुई मछलियोंसे हमें ठोकर लगने से भय से चन्चल नेत्रोंवाली पल्लवके समान हाथोंको कम्पित करनेवाली सुन्दरियां सखियों से भी दर्शनीय भावको प्राप्त हुईं ||
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२१६
अथ व्रीडा
धाष्टर्षाभावो व्रीडा वदनानमनादिकृद् दुराचारात् ।
'मयि सकपटम् -' इत्यादि ।
हर्षस्त्विष्टावाप्तेर्मनःप्रसादोऽश्र गद्गदादिकरः || १६५ ॥
'समीक्ष्य पुत्रस्य चिरात्पिता मुखं निधानकुम्भस्य यथैव दुर्गतः । मुदा शरीरे प्रबभूव नात्मनः पयोधिरिन्दूदयमूच्छितो यथा ॥'
यथा
अथ हर्ष:
यथा
साहित्यदर्पणे
व्रीडां लक्षयति- धाष्टर्याऽभाव इति । दुराचारात् = दुष्टक्रियाया हेतोः, वदनाऽऽनमनादिकृत् वदनस्य ( मुखस्य ) आनमनम् ( आनतिः ) तदादिकृत् धाष्टर्याऽभावः = घृष्टता राहित्य, "व्रीडा" ।
व्रीडामुदाहरति — "मयि सकपटम्" इत्यादि २१३ पृष्ठे ) । पूर्व स्मृताबुढाहरणम् । अत्र तु नायकदर्शनात् नायिकाया वदनानमनकारिण्यां व्रोडायाम् ।
हर्ष लग्नयति- इष्टाऽवाप्तेः = इष्टस्य ( अभीष्टस्य पदार्थस्य ) अत्राप्तेः ( प्राप्तेर्हेतोः ) अनुगद्गदादिकरः = अश्रु ( नयन जलपात ) गद्गद : ( अस्फुटशब्द ) तदादिकरः, मनःप्रसादः = मनस: ( चित्तस्य ) प्रसादः ( प्रसन्नता ) ' हर्ष. " |
तनयस्य
हर्ष मुदाहरति- समीक्ष्येति । रघुवंशे रघुजन्मानन्तरं दिलीपस्य हर्षवर्णनमिदम्, पिता = जनकः, दिलीप: । चिरात = बहुकालाऽनन्तरं पुत्रस्य रो:, मुखम् = आननं, समीक्ष्य = दृष्ट्वा यथा येन प्रकारेण, दुर्गतः = दरिद्रः, निधानकुम्भस्य = निधिकलशस्य मुखम् = अग्रभागं दृष्ट्वा इव = अवलोक्य इव, इन्द्रक्ष्यमूच्छितः = इन्दोः ( चन्द्रस्य ) उदयेन ( उद्गमेन ) मूच्छितः ( समृद्धः, समृद्धजल इति भाव: ), पयोधिः समुद्रः यथा इव, मुदा हर्षेण हेतुना, आत्मनः = स्वस्य शरीरे = देहे, देहचेष्टायामिति भावः । न प्रबभूव
न समय
L
=
=
=
=
=
=
व्रीडा - दुराचारके कारण धृष्टताके अभावको “व्रीडा" कहते हैं, इसमें मुखको .. अवनत करना टि कार्य होता है ।
उ०- "मयि सकपटम्" इत्यादि ( पृ० २१३ )
हर्ष - अभीष्ट पदार्थ की प्राप्तिसे चित्तकी प्रसन्नताको "हर्ष" कहते हैं । उसमें अनुपात और गद्गदस्वर आदि होते हैं ।। १६५ ।।
उ०- रघुवंशमें रघुके उत्पन्न होनेपर यह दिलीप के हर्षका वर्णन है । बहुत समय के अनन्तर पुत्र रघुका मुख देखकर पिता दिलीप जैसे कोई दरिद्र निधि कलश के
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अथाऽसूया -
यथा
तृतीयः परिच्छेदः
असूयान्यगुणद्ध नामौद्धत्यादसहिष्णुता 1 दोपोद्घोष विमेदाज्ञाक्रोधेङ्गितादिकृत् ॥ १६६ ॥
'अथ तत्र पाण्डुतनयेन सदसि विहितं मधुद्विषः । मानमसहत न चेदिपतिः परवृद्धिमत्सरि मनो हि मानिनाम् ॥'
२१७.
=
=
बभूव । उपमाऽलङ्कारः वंशस्थं वृत्तम् । अत्र अभीष्टस्य पुत्रस्य प्राप्तेदिलीपस्य हर्षः ॥ १६ 11 असूयां लक्षयति- प्रसूयेति । दोषोदघोष • कुत् दोषोदघोष: ( अन्यस्त्र दूषणघोषणम् ) भूविभेद: ( अक्षि रोमकौटिल्यम् ) अवज्ञा ( अन्यस्य अनादर: ) क्रोधेङ्गितम् (कोपचिह्नं मुखरागादि ) इत्यादिकृत् ( इत्यादिकारिका ), ओढत्यात् - उद्धतभावात्, अहङ्कारादिति भावः । अन्यगुणद्धनाम् = अन्यस्य ( अपरस्य ) गुणद्धनाम् ( विद्यादिगुणससृद्धीनाम् ) असहिष्णुता = अमहनशीलता । " असूया" ।। १६६ । असूया मुदाहरति- प्रवेति । अथ = युविष्ठिरस्य राजसूये श्रीकृष्णस्य अग्रपूजायां जातायां, चेदिपति: शिशुपालः, तत्र = तस्मिन् सदसि सभायां पाण्डु नयेन पाण्डवेन युधिष्ठिरेणेति भावः । मधुद्विषः = श्रीकृष्णस्य, विहितं = कृतं, मानम् = अग्रपूजारूपं सम्मानं, न असहत न सोढवान् । उकमर्थमर्थान्तरन्यायेन द्रढयनि परेति । हि यस्मात्कारणात् मानिनाम् = अभिमानिनां मनः = चित्तं परवृद्धिमत्सार = परवृद्धी ( अन्यस्थ उत्कर्षे ), मत्सरि ( द्वेषकारकम् ) भवतीति शेषः । अत्र श्रीकृष्णस्य मानरूपायां समृद्धी शिशुपालस्य "असूया" । अत्राऽर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः । उद्गता वृत्तम् ।। १६६ ।।.
==
=
मुखको देखकर प्रसन्न होता है, चन्द्रोदयसे वैसे ही प्रसन्न हुए समृद्ध जलवाले समुद्रके समान हर्षसे अपने शरीरमें न समा सके ।
प्रसूया - उद्धत भावके कारण दूमरेके गुणोंकी समृद्धिका सहन न करना "असूया" कही जाती है, उसमें दोषोंका उद्घोषण, भौंहोंकी कुटिलता, अनादर और क्रोधके चिह्न आदि होते हैं ॥ १६६ ॥
उ०- शिशुपालवधमें युधिष्टिर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्णकी अग्रपूजा होनेपर शिशुपालकी असूयाका वर्णन है ।
उस सभा में युधिष्ठिरसे की गई श्रीकृष्णकी अग्रपूजा का चेदिपति ( शिशुपाल ) - ने सहन नहीं किया, क्योंकि अभिमानी पुरुषोंका मन दूसरेकी समृद्धिमें द्वेष करनेवाला होता है ॥
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२१८
साहित्यदपणे
अथ विषादः
उपायाभावजन्मा तु विषादः सत्यसंक्षयः ।
निःश्वासोच्छवासहृत्तापसहायान्वेषणादिकृत ।। १६७ ।। यथा मम
एषा कुडिलघणेन चिरकडप्पेण तुह णिबद्धा वेणी ।
मह सहि ! दारइ डंसइ आअसजट्टिव्व कालउरइव्व हिअअं॥ अथ धृतिः
ज्ञानाभीष्टागमा यस्तु सपूर्णस्पृहता धृतिः । विषाद लक्षयति-उपायाऽभावजन्मेति। उपायाऽभावजन्मा = उपायः ( अनर्थप्रतिकारहेतुः ) तस्य योऽभावः ( शून्यता ) ततः जन्म ( उत्पत्तिः ) यस्य सः । एव च निःश्वास० कृत् = निःश्वासः ( मुखनासानिर्गतश्वासः ) उच्छवासः ( अन्तर्मुखश्वासः ), हृत्तापः ( चित्तसन्तापः ), सहागन्वेषणं ( सहायकगवेषणम् ) इत्यादिकृत सत्त्वसंक्षयः = बलहानि:, "विषादः" ।। १६७ ।।
विषादमुदाहरति -- एषा इति। "एषा कुटिलघनेन चिकुरकलापेन तव निवद्धा वेणी।
मम सखि ! दारयति दशत्यायसयष्टिरिव कालोरगीव हृदयम् ।।" बद्धवेणिकां प्रोषितभतृकां सखीं दृष्ट्वा कस्याश्चित्सख्या विषादोक्तिरियम् । हे सखि ! =हे वयस्ये !, कुटिलघनेन = वक्रनिबिडेन, चिकुरकलापेन = केशपाशेन, निबद्धा = संनद्धा, तव = भवत्याः, वेणी = असंस्कृत के शश्रेणी, आयसयष्टिः इव = लोहयष्टिः इव, मम = सख्याः, हृदयं = वक्षःस्थलं, दारयति = भिन्ते, कालोरगी इव = कृष्णसी इव, मम हृदयं, दशति च-दंशयति च । उपमा अलङ्कारः । आर्यागोतिश्छन्दः । अत्र वियोगनिवारणस्य उपायाभावेन हृत्तापकृ द्विषादः ॥ १७ ॥
धृति लक्षयति-ज्ञानाऽभीष्टागमाचरिति । ज्ञानाऽभीष्टागमाद्य: == ज्ञानम् तत्त्वबोध: ) अभीष्टाऽऽगमः (अभिलषितवस्तुप्राप्तिः ), तदाद्य विषयः, सौहित्य०
विषाद--उपायके अभावसे उत्पन्न बलहीनताको "विषाद" कहते है, उसमें नि:श्वास ( मुख और नाकसे निकला हुआ श्वास ) उच्छ्वास ( भीतरका श्वास ) हृदयका ताप और सहाय ढूढ़ना आदि होते हैं । १६७ ।।
उ०-प्रोषितभर्तृका नायिकाको देखकर कोई सखी कहती हैं-हे सखि ! कुटिल और घने के शकलापसे बाँधी हुई तुम्हारो चोटी लोहेकी यष्टिकी तरह मेरे हृदयको विदीर्ण करती है और कृष्ण सर्पिणीकी तरह डसती है।
घति-तत्त्वबोध और अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति आरिसे अभिलाषकी पूर्णताको
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तृतीयः परिच्छेदः
२१९
सौहित्यवचनोल्लाससहासप्रतिभादिकृत् ॥ १६ ॥ • यथा मम
'कृत्वा दीननिपीडनां, निजजने बद्ध्वा वचोविग्रह,
नैवालोच्य गरीयसीरपि चिरादामुष्मिकीर्यातनाः । द्रव्यौघाः परिसंचिताः खलु मया यस्याः कृते सांप्रतं
नीवाराञ्जलिनापि केवलमहो ! सेयं कृतार्था तनुः ।। अथ चपलता
मात्सय ट्रेषरागादेवापल्यं त्वनवस्थितिः । कृत् - सौहित्यवचनम् ( तृप्तिकथनम् , उल्लासः ( हर्षः ), सहासप्रतिभा ( हास: = हास्यं ) प्रतिभा (प्रत्युतान्नबुद्धिः), (तत्सहिता) तदादिकृत् (तदादिकारिणी ), तादृशी संपूर्णस्पृहा = संपूरिताऽभिलाषता "धृतिः" ।। १६८ ।।
तिमुदाहरति-कृत्वेति । पूर्वाऽनुष्ठितकृत्ये पश्चात्तापं कुर्वतः कस्यचिद्विरक्तस्योक्तिरियम् । दीननिपीडना-दीना ( दरिद्राणाम् ) निपीडनां (परिपीडनम् ), कृत्वा = विधाय, निजजने, = आत्मीयजने, वचोविग्रहं = वाग्विवादं, बवा-कृत्वेति भावः । चिरात् = चिरसमयस्थायिनी: गरीयसीः = गुरुतरा:, आमुष्मिकीः = पारलौकिकीः, यातना अपि = तीव्रवेदना अपि, नारकीरिति शेषः । नव आलोच्य = न पर्यालोच्य एव, मया यस्याः = तन्वाः, कृते = निमित्ते। द्रव्योधाः = धनसमूहः, परिसञ्चिताः = परित एकत्रीकृताः, सा =: प्राक्परिपोपिता, इयं-सनिकृष्टस्था, तन:मदीयं शरीरं, साम्प्रतम् इदानी, तत्त्वज्ञानसाय इति भावः ! नीबाराञ्जलिना अपि3 अलिपरिमिततृणधान्येन अपे, कृतार्था = कृतकृत्या, केवलम् = एव, तदयं न. बहुपदार्याऽपेक्षेति भावः । अहो = आश्चर्यम् । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । अत्र विरक्तस्य वक्तस्तत्त्वबोधेन नीव राञ्जलिगाऽपि स्पृहायाः संपूर्णत्वात् धृतिः ॥ १६८ ।।
चापल्यं लक्षयति-मात्सर्यद्वेषरागादेः = मात्सर्यम् ( अन्य शुभद्रेषः ), द्वेषः ( अप्रीति: ). रागः (विषाविनापः) इन्यादेः, अनवस्थितिः = अस्थिरत्वं, "धृति" कहते हैं, उसमें तृप्तिका कयन, हर्ष, हास्य और प्रतिभा आदि होते हैं।।१६८।।
उ०-अपना पत्र प्रस्तुन करते हैं । दोनों को पीडित कर अपने बान्धवोंमें वचनसे कलह कर दुःसह परलोककी यातनाओंका भी विचार न कर जिस ( शरीर ) के लिए मैंने द्रव्योंका सञ्चय किया वह शरीर केवल मुट्ठी भर मुन्यन्नसे भी कृतकृत्य है। आश्चर्य है !
चपलता-दूसरोंकी भलाईमें द्वेष, विरोध और राग आदिसे होनेवाली.
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२९०
साहित्यदर्पणे
तत्र
भत्सनपारुष्यस्वच्छन्दोचरणादयः ।। १६९ ।।
यथा
'अन्यासु तावदुपमर्दसहासु भृज!
लोलं विनोदय मनः सुमनोलतासु । मुग्धामजातरजसं . कलिकामकाले
व्यर्थ कदर्थयसि किं नवमालिकायाः ।।' अथ तानिः
रत्यायासमनस्तापक्षुत्पिपासादिसंभवा "चापल्यम्" चपलता। तत्र = चापल्ये, भत्र्सनादयः = भत्सनं (तर्जनम् ) पावष्यं .( कठोरता ) स्वच्छन्दाचरणम् (स्वेच्छाचारः ) इत्यादयो विषया भवन्ति । १६९ ।।
. चापल्यमुदाहरति-प्रन्यास्विति ।' अप्राप्तोपभोगसमयाया बालिकाया उपभोक्तारं कञ्चित्कायितारं. प्राप्तिकस्य चिसुरुषस्योक्तिरियम् । हे भङ्ग = हे प्रमर, पक्षान्तरे हे कामुक !, तावत् = तत्कालपर्यन्तम्, अन्यासु = अपरासु, उपमदंसहासु = स्वच्चरणभारसहनसमर्थासु पुष्परसपाने इति शेषः, कलिकापक्षे अयमर्थः । बालिकापले तु, उपमर्दसहासु = रमणकालिकचुम्बनादिसहनसमासु, लोलं = चञ्चलं, मनः= चित्तं, विनोदय = पुष्परसपानेन समागमेन व आनन्दय, मुग्धां = विकासरहिताम, अजातरजसम् = अनुत्पन्नपरागाम् ( कलिकापक्षे ), अनुत्पन्नातवाम् (बालिकापक्षे), नवमालिकायाः = सप्तप्लायाः, पक्षातरे कस्यानित स्त्रियाः, कलिका = कोरकं, पक्षान्तरे-बालिका, व्यर्थ = निष्फलं, कि = किमर्थ, कदर्थयसि = दूषयसि । अत्र समासोक्तिरलङ्कारः, वसन्ततिलका वृत्तम् । अस्मिन् पो भुङ्गस्य हठकामुकस्य च रागात्स्वच्छन्दाचरणस्य कारणभूतं चापल्यम् ।। १६९॥
ग्लानि लक्षयति-रत्यायासेति । रत्यायांस० संभवा = रत्यायासः ( सभोग. परिश्रमः ), मनस्तापः ( चित्तताप: ), क्षुत् (बुभुक्षा) पिपासा ( जलपानेच्छा ),
आस्थरताको 'चपलता" कहते हैं, इसमें तर्जन ( दूसरोंको घुड़कना ), कठोरता और स्वच्छन्द आचरण ( मनमाना कर्म ) आदि होते हैं ।। १६९ ।।
उ.-उपभोगके लिए अनुपयुक्त बालिकापर आसक्त कामुकके प्रति किसीकी उक्ति है-हे भ्रमर ! उपमर्दनको सहने वाली अन्य ही पुष्पलताओमें तुम अपने चञ्चल -सनका विनोद करो। मुग्धा और परागरहित नवमालिकाको अनवसरमें ही क्यों दूषित कर रहे हो?
ग्लानि- सुरतका परिश्रम, मनका ताप, भूख और प्यास आदिमे
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- तृतीयः परिच्छेदः .
.
२९१
ग्लानिनिष्प्राणता कम्पकाऱ्यांनुत्साहतादिकृत् ।। १७० ।। यथा'किसलयमिव मुग्धं बन्धनाद्विप्रलूनं
हृदयकुसुमशोषी दारुणो दीर्घशोकः । ग्लपयति परिपाण्डु क्षाममस्याः शरीर
___ शरदिज इव धर्मः केतकीगर्भपत्त्रम् ॥' । अथ चिन्ता
__ ध्यानं चिन्ता हितानाप्नेः शून्यताश्वासतापकृत् ।
तदादिसंभवा ( तत्प्रभृत्युत्पन्ना ) । एवं च कम्पादिकृत् = कम्प- ( वेपथः ), काश्यम् ( दुर्बलता ) अनुत्साहता (. उत्साहाऽभावता ), तदादिकृत् ( तदादिकारिका) या निष्प्राणता = असमर्थता, सा ग्लानिः ।। १७० ॥
. ग्लानिमुदाहरति-किसलयमिति। उत्तररामचरिते गोदावरीलदानित गच्छन्ती सीतां दृष्ट्वा मुरलाया नद्या उक्तिरियम् । हृदयकमलशोषी-हृदयम एवं कमलं, तच्छोषयति तच्छील:-हृत्पद्मशोषकः । दारुणः = कठोरः, दीर्घशोकः-चिरस्थायिमन्युः, बन्धनात् = वृनात्, विप्रलनं = छिन्नं, मुग्धं = सुन्दरं, किसलयम् इव = पल्लवम् इव, परिपाण्डु = अतिशयश्वेतं, रामवियोगेनेति शेषः । तथा च क्षामं = कृशम्, अस्याः = सीतायाः, शरीरं = देह, शरदिजः = शरदृतूत्पन्नः, धर्मः = आतपः, केतकीगर्भपत्रम् इव-केतकीकुसुमाऽभ्यन्तरदलम् इव, ग्लपति-ग्लानं करोति । अत्र रूपकस्योपमाढयेन सङ्करः । मालिनी वृत्तम् । अत्र मनस्तापसंभवा काश्यकृत् सीताया ग्लानिः ॥ १७० ।।
चिन्तां लक्ष्यति-ध्यानमिति। हिताऽनाप्तेः = हिताऽप्राप्ते., शुन्यताश्वा. सतापकृत = शून्यता ( मनसः शून्यभावः, ) श्वासः ( निःश्वासः ), तापः ( सन्तापः) तान् करोतीति, तादृशं ध्यानं = चिन्तनं, "चिन्ता"। असामर्थ्यको “लानि'' कहते हैं उसमें कम्प, कृशता और काम करनेमें अनुत्साह आदि होते हैं ।। १७०॥
उ.-उतररामचरितमें गोदवरीके ह्रदसे निकलती हुई सीताको देखकर मुरला. नदीकी उक्ति है । जैसे शरत् ऋतुको धूप केतकीके फूलके भीतरी पत्तेको मलिन कर देती है; उसी तरह हृदयकमलको सुखानेवाला, कठोर, बहुत बड़ा शोक वृन्त (डंठल) से टूटे हुए सुन्दर पल्लवकी तरह पीली और दुबल सीताके शरीरको मलिन करता है।
चिन्ता-हितको न पानेसे ध्यान करनेको "चिन्ता" करते हैं, इसमें शून्यता श्वास और ताप होते हैं।
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२२२
साहित्यदर्पणे
यथा मम
'कमलेण विअसिएण , संजोएन्ती विरोहिणं ससिबिम्ब ।
करअलपल्लत्यमुही किं चिन्तसि सुमुहि ! अन्तराहिअहिअआ ?॥' अथ तर्कः
तर्को विचारः संदेहाद् भूशिरोऽशुलिनर्तकः ॥ १७१ ।। 'किं रुद्धः प्रियया-'इत्यादि (१५८ पृ०)। चिन्तामुदाहरति-कमलेण इति । संस्कृतच्छाया
"कमलेन विकसितेन संयोजयन्ती विरोधिनं शशिबिम्बम् । करतलपर्मस्तमुखी किं चिन्तयसि सुमुखि ! अन्तराहितहृदया।"
नायकं चिन्तयन्तीं विप्रयुक्तां नायिका प्रति कस्याश्चित्सख्या उक्तिरियम् । हे सुमुखि = हे सुन्दरि ! अन्तराहितहृदया = अन्तः ( अभ्यन्तरे ) आहितं ( निहितम् ) हृदयं ( चित्तम् ) यया सा तादृशी, एवं च करतलपर्यस्तमुखी = करतलें (हस्ततले ) पर्यस्तं ( पतितम् ) मुखम् ( आननम् ) यस्याः सा, तादशी त्वम्, विकसितेन-प्रफुल्लेन, कमलेन = पद्यन, विरोशिनं = विद्वेषिणम्,' कमलनिमीलनकारित्वादिति भावः । शशिबिम्बं = चन्द्रमण्डलं, संयोजयन्ती = संयुक्तं कुर्वती सती, किं चिन्तयसि = कि व्यायसि ? अत्र करतलं विकसित कमलं, मुखं च शशिबिम्ब, ततस्तादृशे करतले मुख. संयोजनात् कमले तद्विरोधी शशिबिम्बः सयोजित इति भावः । आर्यागीतिश्छन्दः । अत्र नायिकाया हितस्य नायकस्य अनाप्तेः "चिन्ता"।
वितर्क लक्षयति-तर्क इति । सन्देहात् = आशङ्काया हेतोः, धूशिरोऽङगुलि. नर्तकः = भ्रवो ( नेत्रलोमनी ) शिरः ( मस्तकः) अगुलयः ( करशाखाः ), ताता नर्तकः ( चालकः ) विचारः = विमर्शः, तर्कः = वितर्कः ॥ १७१॥
वितकमुदाहरति- "कि रुद्धः प्रियया" इत्यादि (विरहोत्कण्ठितोदाहरणे ) तत्र च नायिकाया नायकाऽनागमने अनेकविचाररूपो वितर्कः ।। १७१।।
उ०-ग्रन्थकार अपना पद्य देते है-प्रियको चिन्ता करती हुई विरहिणी नायिकाको सखी कह रही है । हे सुन्दरि ! अतःकरणके भीतर अभिप्राय रखती हुई ( अर्थात् प्रकाश न करती हुई ) तुम विकसित कमल ( करकमल) से चन्द्रमण्डल (चन्द्रके समान अपने मुख ) को संयुक्त करती हुई किस बातको चिन्ता कर रही हो?
वितक-सन्देहके कारश किसी बातका विचार करना "तर्क" कहा जाता है, इसमें भौहोंका, शिरका और उंगलियोंका चालन होता है ।। १७१।।
उ०-"कि रुद्ध प्रिया." इत्यादिः (पृ० १५८ ) ।
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तृतीयः परिच्छेदः
२२३
-
'एते च त्रयस्त्रिंशद्व्यभिचारिभेदा' इति यदुक्तं तदुपलक्षणेमित्याह
ग्त्यादयोऽप्यनियते रसे स्युर्व्यभिचारिणः । तथाहि
शृङ्गारेऽनुच्छिद्यमानतयावस्थानाद् रतिरेव स्थायिशब्दवाच्या, हासः पुनरुत्पद्यमानो व्यभिचार्येव, व्यभिचारिलक्षणयोगात्। तदुक्तम्
'रसावस्थः परं भावः स्थायितां प्रतिपद्यति ।' इति । तत्कस्य स्थायिनः कस्मिन रसे.सञ्चारित्वमित्याह
शृङ्गारवीरयाहासो वीरे क्रोधस्तथा मतः ॥ १७२ ॥
एते चेति । त्रयस्त्रिशद्वयभिचारभेदा इति यदुक्त तदुपलक्षणम् । रत्यादीनामपि स्थलान्तरे व्यभिचारिभावत्वादिति भावः। तनिदर्शयति-रत्यादयोऽपीति। रत्यादयोऽपि
सामान्यतः स्थायिभावत्वेन प्रसिद्धा रतिहासादयोऽपि, अनियते रसे-स्वनिर्दिष्टरसभिन्ने रसे, यथा रते: स्वनिर्दिष्टरसः शृङ्गारः तद्भिन्नहासाटी रसे रत्यादयो व्यभिचारिणः = व्यभिचारिभावा भवन्ति न स्थायिभावा इति भावः ।
वताविममर्थ विवणोति -तथाहोति । शृङ्गारे रसे, अनुच्छिद्यमानतया - अनभिभवनीयत्वेन, अवश्यं स्थायित्वेनेति भावः । अवस्थानात् = स्थितेः, रतिरेव = न हासादिरिति भावः । स्थायिशब्दवाच्यः = स्थायिपदेन अभिधेया। एतवपरीत्येन हासः पुनरुत्पद्यमानः = जन्यमानः, व्यभिचारी एव = सञ्चारी एव, व्यभिचारिलक्षणयोगात् == "विशेषादाभिमुख्येने" त्यादिकारिका (पृ० १९४) प्रतिपादितलक्षणसम्बन्धात् । हासः स्वनियतहास्यरसे एव स्थायिशब्दवाच्य इति तात्पर्यम् । तदुक्तं"रसावस्थः परं भाव:०" कारिकार्द्धमिति व्याख्यातपूर्वम् (पृ० ८५)।
कस्य स्थायिनः कस्मिन्रसे सञ्चारित्वमिति विविनक्ति-शकारवीरयोरिति । शृङ्गारवीरयोः = सयो, हासः, व्यभिचारितया = सञ्चारितया, मतः = अभिमतः । . नया पुनः धीरे = रसे, क्रोधः, सञ्चारी मतः ॥ १७२ ॥
ये तेतिस व्यभिचारी भावके भेद हैं ऐसा जो कहा गया है वह उपलक्षण है ऐसा बतलाते हैं-सामान्यतः प्रसिद्ध रति आदि भाव भी अनियत अर्थात् स्वनिर्दिष्ट रससे भिन्न रसमें अर्थात् रतिका निर्दिष्ट रस शृङ्गारसे भिन्न हास आदिमें वह (रति) व्यभिचारिभाव हो जाती है। इसी तरह अन्यत्र भी जानना चाहिए। जैसे शृङ्गारमें अविच्छिन्न रूपसे स्थित रहनेमे रति ही स्थायिभार हो जाती है, हास बीच में उत्पन्न होनेसे व्यभिचार भाव हो जाता है, व्यभिचारिभावका लक्षण- घटित होनेसे उस समय हास स्थायिभाव नहीं होता है। जैसे कि रसकी अवस्थाको प्राप्त रति आदि भाव ही स्थायित्वको प्राप्त करता है तब कौन सा स्पयिभाव किस रसमें संचारी होता है यह कहते हैं । शृङ्गार और वीरमें हास, और वीरमें क्रोध ।। १७२ ॥
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२२४
साहित्यदर्पणे
शान्त जुगुप्सा कथिता व्यभिचारितया पुनः ।
इत्यायन्यत्समुन्नेयं तथा भावितबुद्धिभिः ॥ १७३ ॥ अथ स्थायिभावः
अविरुद्धा विरुद्धा वा यं तिरोधातुमक्षमाः । आस्वादाकुरकन्दोऽसौ भावः स्थायीति संमतः ॥ १७४ ।।
यदुक्तम्
'स्रक्सूत्रवृत्त्या भावानामन्येषामनुगामकः । • नतिरोधीयते स्थायी तैरसौ पुष्यते परम् ॥' इति ।
शान्ते = रसे जुगुप्सा व्यभिचारितया काथता । भावितबुद्धिभिः = परिष्कृत. मतिभिः, अलङ्कारशास्त्रालोचनेनेति शेषः । इत्यादि. अन्यत् = अपरमपि, स्वयम् = आत्मना एव, समुन्नंयम् = ऊह्यम् ॥ १७३ ॥
... स्थायिभावं लक्षयति-प्रविरुदा इति । अविरुद्धाः विरोधरहिताः, अनुकुला इति भावः । विरुद्धा वा = विरोधयुक्ताः, प्रतिकूला वा भावाः, यं-भावं, तिरोधातुतिरोहितं कर्तुम, अक्षमाः असमर्थाः, प्राधान्याऽभावादिति शेषः । आस्वादाङकुरकन्दःरसाऽनुभवाऽकुरमूलरूपः, असो - अयं, भावः, “स्थायि" इति सम्मतः = अभिमतः । अयंभवः उद्दीपनादयोऽनुभावादयो व्यभिचारिणश्च भावा: यं तिरोधातुन क्षमन्ते, प्रत्युत रसाविर्भाव यस्यानुकूल्येन साहाय्यमाचरन्ति असो स्थायभावः ।। १७४ ।।
. अत्राऽर्थे वृद्धसम्मतिमुपस्थापयति-त्रसूत्रवत्येति । सक्सूत्रवृत्या = पुष्प. माल्यतन्तुन्यायेन, अन्येषाम् - अपरेषामनुमादादीनां भावादीनाम्, अनुगामुकः - अनुगमनशीलः, असो, स्थापीभावः = रस्यादिः, तेः = भावः, न तिरोधीयते = नो बुद्धचविषयीक्रियते, प्रत्युत परम् = अत्यर्थ, पुष्यते = पुष्टः क्रियते, रसरूपता नीत्वेति शेषः ॥१७
और शान्तमें जुगुप्सा ये सब व्यभिचारी भाव हो जाते हैं। परिपक्व बुद्धिवाली. को इत्यादि विषय स्वयम् समझ लेना चाहिए ।। १७३ ॥ .
स्थायिभाव-अविरुद्ध (अनुकूल) वा विरुद्ध (प्रतिकूल ) भाव जिसे तिरोहित करनेमें असमर्थ हो जाते हैं रसके अनुभवका मूलरूप वह "स्थायी भाव" माना गया है ।। १७४ ।।
___ जैसे कि कहा गया है-फूलोंकी मालामें जैसे एक ही सूत्र अनुगत होता है उसी तरह अन्य भावोंमें अनुगमन करनेवाला स्थायी भाव किसीसे तिरोहित नहीं होता है बल्कि वह अन्य मावोंसे पुष्ट होता है।
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तृतीयः परिच्छेदः
२२५
तद्भदानाह
रतिहासश्च शोकश्च क्रोधोत्साही भयं तथा । जुगुप्सा विस्मयश्चेत्थमष्टौप्राक्ताः शमोऽपि च ॥ १७५ ।।
तत्र
रतिमनोऽनुकूलऽथे मनसः प्रवणायितम् । वागादिवैकुतैश्वेतीविकासो हास 'इष्यते ॥ १७६ ।। इष्टनाशादिमिधेतावक्लव्यं शोकशब्दभाक् ।
प्रतिकूलेषु वैश्ण्यस्यावबोधः क्रोध इष्यते ॥ १७७॥ __ स्थायिभावभेदानाहरतिरिति रतिमारभ्य विस्मयं यावत् केपीचिन्मते अष्टो प्रोक्ताः, भरतमुनिमताऽनुसारं शमोऽपि, चकारपाठसामर्थ्याद् वत्सलता च ।।१७।।
___ स्थायि भावानानुपूर्येण लक्षयति, तत्र प्राग्रति लक्षति रतिरिति । मनोऽनुकले. चित्ताऽनुगुणे, प्रिय इति भावः, अर्थे = वस्तुनि, मनसः = चित्तस्य, प्रवणायितं = तत्परवदाचरितं, "रतिः" शृङ्गारस्य स्थायिभावः ।
हासं लक्षयति-वागादिवंकृतरिति। नागादिवकृतः, = वचनादिविकारः हेतुभिः आदिपदादेशपरिग्रहः । चेतोविकासः = मानसप्रफुल्लता "हासः" हास्य. स्थायिभावः ॥ १७६ ॥
शोक लक्षयति-इष्टनाशादिभिरिति । इष्टनाशादिभिः = अभीष्टविनाशप्रभृतिभिहेतुभिः, चेतोवक्लव्यं = वित्तविह्वलता, शोकशब्दमा शोकशब्दं भजतीति, "भजो ण्विः" । "शोकः" करुणस्य स्थायिभावः ।
क्रोधं लक्षयति-प्रतिकूलेब्विति । प्रतिकूलेषु = विरोधिषु, तक्ष्ण्यस्य - तीक्ष्णतायाः, प्रतीकारेच्छाया इति भवः, अवबोधः = ज्ञानम् "क्रोधः" इष्यते । रौद्रस्य स्थायिभावः॥ १७७॥
स्थायिभावोंको कहते हैं - रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय इस तरह आठ और शमको संयुक्त कर ये नौ स्थायिभाव हैं ।। १७५ ॥
उनमें, रति-मनके अनुकूल पदार्थमें मनकी तत्परताको "रति" कहते हैं । हास-वचन आदिके विकारोंसे चित्त के विकासको "हास" कहते हैं ।।१७६॥ शोक-इष्टनाश आदिसे चित्तकी विह्वलताको "शोक" कहते हैं ।
क्रोध-शत्रु आदि प्रतिकूलों में प्रतिकारकी इच्छा होनेको "क्रोध' कहते हैं ॥ १७ ॥
१५ मा
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२२६
साहित्यदर्पणे
कायारम्भेषु संरम्भः स्थेयानुत्साह उच्यते । रौद्रशक्त्या तु जनितं चित्तवक्लव्यजं भयम् ।। १७८ ॥ रिभिष जुगुप्सा विषयोद्भवा । विविधषु पदार्थेषु लाकसीमातिवतिषु ।। १७९ ।। विस्फारश्चेतसां यस्तु स विस्मय उदाहृतः । शमां निराहारस्थायां स्वात्मविश्रामजं सुखम् ।। १८० ।।
उत्साह लक्षयति-- कार्यारम्भेष्विति । कार्यारम्भेषु कर्मारम्भेषु, स्थेयान् - स्थिरतरः, रारम्भ: - उत्कट आवेश: "उत्साहः" उच्यते । "उत्साहः " वीररसस्य स्थायिभावः ॥
लक्षयति रौद्रशक्त्येति । रौद्रशक्त्या उग्र सामर्थ्येन, जनितम् उत्पादित चित्तवैक्लव्यज मनसि विह्वलताया उत्पादकं "भयम्" । "भय" रौद्रस्य स्वावियावः । " वैकल्यम्" इति पाठान्तरे विकलता इत्यर्थः ।। १७८ ॥
जुगुप्सां लक्षयति- दोषक्षणादिभिरिति । दोषेक्षणादिभिः = दूषणदर्शनप्रतिभिः आदिपदेन स्पर्शनप्राणनादीनां परिग्रहः, विषयोद्भवाविषयोत्पन्ना, गर्हा - गुण।, "जुगुप्सा" । बीभत्सरतस्य स्थायिभाव: "जुगुप्सा ॥
विस्मयं लक्षयति- विविधेविति । विविधेषु अनेकप्रकारेषु, लोकसीमानिवतिपु जगद्वयवहारायिक्रान्तेषु इति भावः । पदार्थेषु वस्तुषु ।। १७९ ।।
"विस्मयः " | अद्भुतरमस्व
चेतसः मनस:, य: विस्तारः, विस्फारः, स स्थायीभावो "विस्मयः " ॥
=
विश्रामजं
शमं लक्षयति--शम इति निरीहावस्थायां निःस्पृहाऽवस्थायां स्वात्मस्वस्थ ( जीवस्य ) आत्मनि ( परमात्मनि विषये ) विश्वाम: ( अवस्थानम् ) तज्जं ( तज्जातम् ) वन् सुखम् ( आनन्दः ) स "शम : " । शान्तरसस्य स्वायिभावः " शमः' | काव्यप्रकाशकारस्य मम्मटाचायस्य मते तु शान्तरमस्य स्थागी भावो निर्वेदः ॥ १८० ॥
"स्व" कहते है । १७९ ।।
उत्साह - कार्य आरम्भोंमें अत्यन्त स्थिर आवेशको “उत्साह" कहते है ! भय - रौद्र की भक्ति से उत्पन्न वित्त की वासे उत्पन्न भावको भय कहते हैं १७८ जनुके दर्शन सादिसे होनेवाली घृणा को "जुगुप्सा" कहते है । विस्मय - लोककी सीमा पानि वित्त विस्तारको
पनि
हम निराह पवस्थाने जीवात्मामें हमसे उत्पन्न मुखको
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तृतीयः परिच्छेदः
२२७
यथा मालतीमाधवे रतिः। लटकमेलके हासः। रामायणे शोकः । महाभारते शमः । एवमन्यत्रापि । एते ह्येष्वन्तरा उत्पद्यमानैस्तैस्तैर्विरुद्धरविरुद्धश्च भावैरनुच्छिन्नाः प्रत्युत परिपुष्टा एव सहृदयानुभवसिद्धाः। किं च
नानाभिनयसंवन्धान भावयन्ति रसान् यतः ।
तस्माद्भावा अभी प्रोक्ताः स्थायिसंचारिमाचिकाः ।।१८।। यदुक्तम्
'सुखदुःखादिभिर्भावर्भावस्तद्भावभावनम् ।
विवृणोति-मालतीमाधवे प्रकरणे स्थायी भावो रतिः। लट कमेलके प्रहसने हासः, रामायणे महाकाव्ये शोकः । महा भारत इतिहासे स्थायी भावः शोकः । एवम् अन्यत्राऽपि = अपरवाऽपि स्थले यथायथ स्थायि भावा ऊह्या इति भावः । एते रत्यादयः, एतेषु - रसेपु, अन्तरा = मध्ये, अनुच्छिन्नाः - उच्छेदमनापन्नाः ॥१८॥
भावानां सामान्यलक्षणमाह-नानाऽभिनयसम्बन्धानिति । यतः = यस्मात् कारणात्, नानाऽभिनयसम्बन्धान -- नानाऽभिनयानाम (अनेकविधानामवस्थानुकरणानाम् ) सम्बन्ध: ( संश्लेषः ) येषां, तान्, रसान् = शृङ्गारादीन्, भावयन्ति । ज्ञापयन्ति, तस्मात् कारणा, अमी - एते स्थायिसञ्चारिसात्त्विकाः, भावा: -भावपदवाच्याः, प्रोक्ताः = अभिहिताः । सात्त्विकपदमनुभावमात्रोपलक्षणम् । बहुवचनाद्विभावपरिग्रहः ।। १८१।।
अत्र प्राचां संवादमाह-सुखदुःखादिभिरिति । सुखदुःखादिमिः = युखदुःखप्रभृतिभिः, भावः धर्मः, तद्भावभावनं - तद्भावस्य ( रत्यादिसत्तायाः) भावगम् ( उद्बोधनम् ), अतो गत्यादिको भावः इत्यर्थः ॥ १८१।।
उदाहरण-मालनीमाश्वमें रति, लटकमेलकमें हास, रामायण मे शोक, महाभारत में शम म्यायिणाव है। इसी तरह अन्यत्र भी जानना। ये रति आदि साव इन शङ्गार आदि रसोंमे बीचमें उत्पन्न होनेवाले उन उन विरद्ध और भविरुद्ध माता विच्छिन्न नहीं होने है बल्कि परिपुष्ट होकर सहृदयोंके अनुभव में सिद्ध हैं।
भावपद निक्ति--जिले कि ये अनेक अभिनयोंके सम्बन्धवाले मादि रमोंको
कारणले ग स्याती, पचार और ना भान" कहलान ।
जो Pa, आम धमोदि भालोका उद्भाव :
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२२८
साहित्यदर्पणे
अथ रसस्य भेदानाह--
शृङ्गारहास्यकरुणरौद्रवीरभयानकाः ।
बीभत्सोऽद्भुत इत्यष्टौ रसाः, शान्तस्तथा मतः ।। १८२ ।। तत्र शृङ्गारः--
शृङ्ग हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः । उत्तमप्रकृतिप्रायां रसः शृङ्गार इष्यते ।। १८३ ।। परोढां वजेयित्वा तु वेश्यां चाननुरागिणीम् ।
आलम्बन नायिकाः स्युदक्षिणाद्याच नायकाः ।। १८४ ।। रसस्य भेदानाह-शृङ्गारेत्यादिः । शृङ्गारादारभ्य अद्भुतं यावत् अष्टो रसाः सर्वेषां मते । दशरूपककारो धनिस्तु "पुष्टिर्नाट्येषु नैतस्ये"तिं वदन् शान्तस्य रसरूपत्वं प्रत्याचल्यो । नाट्यशास्त्र कृतो मुनेभरतस्य मते शान्तो रसः, 'तथा' इति कयनेन वत्सलस्याऽपि रसत्वेन परिगणनं बोद्धव्यम् । अव तस्याऽपि विवरणमग्रे भविष्यति ।। १८२॥
शृङ्गार लक्षयति-शृङ्गमिति। शृङ्ग = मन्मथोद्भेदः । मन्मथस्य ( मदनस्य ) उद्रेकः ( आविर्भाव: ), तदागमनहे तुकः -- मदनप्राप्तिकारणभूतः, उत्तम. प्रकृतिप्रायः = उत्तमप्रकृतिः ( श्रेष्ठस्वभावो नायकः ) प्राय: ( प्रचुर. ) यस्मिन्, म रसः शृङ्गार इष्यते । रसेषु मध्ये शृङ्गम् (प्राधान्यम्) इयतीति शृङ्गारः, शृङ्गोपपदपूर्वकात् "ऋ गतौ” इति धातो: "कर्मण्यण्" इति सूत्रेण अणि प्रत्यये कृते शृङ्गार. पदनिष्पत्तिः ॥ १-३॥
___ अत्र शृङ्गारे-पालम्बनं वर्णयति । परोढाम् अन्यपरिणीता स्त्रियं, तथा अननुरागिणीम् == अनुरागरहितां, वेश्यां च-वारस्त्रियं च, वर्जयित्वा त्यक्त्वा, अन्या: सर्वा नायिकाः, दक्षिणाद्याश्च = दक्षिणादयन सर्वे नायक':, आलम्बनम् = आलम्बनविभावरू:, स्युः । "अननुरागिणीम्" इति देश्याया विशेषणत्वेन अनुरागिणी वेश्या आलम्बनत्वेन परिगृहीता भवतीति बोध्यम् । ततश्च मृच्छकटिकस्य वसन्तसेनाया वेश्याया अनुरागिणीत्वेन आलम्ब नत्वं सुरक्षितं भवतीति भावः ॥ १८४ ॥
रसों के भेव-शङ्गार हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक बीभत्स और अद्भुत ये आठ रस हैं, उसी तरह शान्त भी रप माना गया है ।। १८२ ॥
शङ्गार-कामदेवके आविर्भावको ‘शृङ्ग" कहते हैं, उसका आगमनकारण, इसमें प्राय: उत्तभस्वभाव वाला नायक होता है, ऐसे -सको 'शृङ्गार" कहते हैं 1१८३॥
परोढा और अनुरागरहित वेश्या ( साधारणी स्त्री) को छोड़कर अन्य नायिकाएं और दक्षिण आदि नायक इसके “आलर वन विभाव" है ।। १८४ ॥
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तृतीयः परिच्छेदः
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चन्द्रचन्दनरोलम्बरुताद्य द्दीपनं मतम् । भ्रूविक्षेपकटाक्षादिरनुभावः
प्रकीर्तितः ।। १८५ ।। त्यक्त्वौग्रथमरणालस्यजुगुप्सा व्यभिचारिणः । स्थायिभावी रतिः, श्यामवोऽयं विष्णुदैवतः ।। यथा
'शू यं वासगृहम्--' इत्यादि (पु० २४ )। तत्रोक्तस्वरूपः पतिः, उक्तस्वरूपान बाल: आलम्बनविभावौ । शून्यं वासगृहम-उद्दीपनविभावः । चुम्बनम्-अनुभावः। लज्जाहासौ-व्यभिचारिणौ। एतैरभिव्यक्तः
शृङ्गारे उद्दीपन निरूपयति-चन्द्र त्यादि । चन्द्रचन्द्र नरोलम्बरुतादि = इन्दुश्रीखण्डभ्रमरझङ्कारादिकम् अत्रादिपदेन कोकिलकूजितादिपरिग्रहः । उद्दीपनं मतम् - उद्दीपनविभावत्वेनाऽभिमतम् ।।
शृङ्गारेऽनुभावं निरूपयति-भ्र विक्षेपादिः । भ्रू विक्षेपकटाक्षादिः= 5 विक्षेपः (धूप्रेरणम् ) कटाक्षादिः (अपाङ्गदर्शनादिः ), आदिपदेन सङ्केतादेः परिग्रहः । "अनुभावः" सम्मतः ।। १८५ ॥
शुङ्गारे व्यभिचारिभावाग्निदिशति-त्यक्त्वेति । औप्रघमरणालस्यजुगुप्साः= औषधम् ( उग्रता ), मरणम् ( मृत्युः ), आलस्यम् ( अलसता ), जुगुप्सा (घृणा), सर्वा एतास्त्यवस्था = विहाय अन्ये निदादयः, व्यभिचारिणः = व्यभिचारिभावाः ।।
___ शृङ्गारस्य स्थायिभाव-वर्ण-देवतानि प्रदर्शयति-स्थायिभाव इति । शृङ्गारस्य स्थायिभावो रतिः, वर्णः = श्यामवर्णः, अयं विष्णुदेवतः, विष्णुर्देवतं यस्य सः, शृङ्गारस्य देवता विष्णुरित्यर्थः । सत्त्वगुणस्याऽधिष्ठाता देवों विष्णुः । सत्त्वगुणस्य सुखरूप वाद, शङ्गारेऽपि नायिकानायकानां सुखानुभूतिः । विपलम्भशृङ्गारस्य दुःखमयत्वेऽपि वर्णना. भिनयरूपादिव्यापारः पार्यन्तिक सुखमेव जन्यत इत्यपि बोद्धव्यम् ।। १८५॥ ___उदाहरति-शून्यं वासगृहमिति । एतः = भावः, अभिव्यक्तः = अभिक्ति
चन्द्र, चन्दन, भ्रम झङ्कार आदि इसमें "उद्दीपन विभाव" होते हैं। भौहोंको चलानां और कटाक्ष आदि इसमें "अनुभाव" माने जाते हैं । १८५॥
उग्रता, मृत्यु, आलस्य और जुगुप्साको छोड़कर अन्य निर्वेद आदि इसमें "व्यभिचारिभार" होते हैं । शृङ्गारका स्थायिभाव "रति" है और इसका वर्ण श्याम है तथा इसके देवता भगवान् विष्णु हैं ।। १८६ ॥
उ.-जैसे "शून्यं वासगृहम्" इत्यादि (पृ. २४ ) यहाँपर उक्तस्वरूप पति और पत्नी आलम्बनविभाव, शून्य वासगृह उद्दीपनविभाव, चुम्बन अनुभाव है और
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साहित्यदर्पणे सहृदयविषयो रतिभावः शङ्गाररसरूपतां भजते ।
तद्भदावाह-- - विप्रलम्भोऽथ संभोग इत्येष द्विविधो मतः ।। १८६ ।। तत्र
यत्र तु रतिः प्रकृष्टा नाभीष्टमुपैति विप्रलम्भोऽसौ । अभीष्टं नायकम् , नायिका वा स च पूर्वरागमानप्रवासकरुणात्मकचतुर्धा स्यात् ।। १८७ ।।
तत्र
श्रवणादर्शनाद्वापि मिथः संरूढरागयोः ।
दशाविशेषो योऽप्राप्तौ पूर्वरागः स उच्यते ।। १८८ ।। नीतः सहृदय विषयः = हृदयालुविषयकः, रतिभावः = अनुरागाविर्भावः ।।
शृङ्गारभेदावाह-विप्रलम्भ इति । एष: = शृङ्गारः, विप्रलम्भः संभोगश्वे ति द्विविधः -- द्विप्रकारः, मतः ।। १८६ ॥
विप्रलम्भशृङ्गारं: लक्षयति-यत्रेति । यत्र = यस्मिन् शृङ्गारे रतिः = अनुरागः, प्रकृष्टा = उत्कृष्टा सी, अभीष्टं = स्वेप्सितं, नापिका नायक, नायको नायिका वा इति भावः, न उपति - न प्राप्नोति, अन्तरायापातादिति शेषः । असो = एषः, विप्रलम्भः = विप्रलम्भशृङ्गारः।
विप्रलम्भस्य भेदचतुष्टयमुद्दिशति-स चेति । स च -- विप्रलम्भशृङ्गारश्च, पूर्वराग मान प्रवास-करुणात्मकः = पूर्वरागो मानः प्रवास: करुणः आत्मा ( स्वरूपम् ) यस्य सः, इत्थं चतुर्द्धा = चतुभिः प्रकारः, परिगणितः स्यादितिः भावः ।। १८७ ॥
पूर्वरागं लक्षयति-श्रवणादिति । अभीष्टसौन्दर्यादेः श्रवणात् = दूतादि. मुखादाकर्णनात्, दर्शनात् = इन्द्र जालस्वप्नाभ्यां चक्षुभ्यां वा विलोकनात, वाऽपि, मिथ= परस्पर, संरूढरागयोः = जाताऽनुरागयोः नायिकानायकयो:, अप्राप्तो = अनासादने, यो लज्जा और हास्य व्यभिचारिभाव हैं । इनसे अभिव्यक्त, सहृदयोंको होनेवाला रतिभाव शृङ्गाररसके स्वरूपको प्राप्त करता है।
शनारके भेष-विप्रलम्भ और संभोग इसप्रकार शृङ्गारके दो भेद हैं ।१८६।
विप्रलम्भ-जिस शृङ्गारमें रस्ते ( अनुराग ) उत्कृष्ट होकर भी परन्तु अभीष्ट नायक वा नायिकाको प्राप्त नहीं करती है उसे "विप्रलम्भ" कहते हैं।
विप्रलम्भके भेद --विप्र. म्भ शृङ्गारके चार भेद हैं- पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण ।। १८७ ॥
पूर्वराग-अभीष्ट (नायक वा नायिका) के सौन्दर्य आदिको सुननसे वा देखनेसे
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तृतीयः परिच्छेदः
श्रवणं तु
भवेत्तत्र
दूतबन्दिसखीमुखात् ।
इन्द्रजाले च चित्रे च साक्षात्स्वप्ने च दर्शनम् ।। १८९ ।।
1
अभिलाषश्चिन्तास्मृतिगुणकथनाद्वेगसंप्रलापाच उन्मादोऽथ व्याधिजंडता मृतिरिति दशात्र कानदशाः || १९० ।।
अभिलाषः स्पृहा, चिन्ता प्राप्युपायादिचिन्तनम् । उन्मादया परिच्छेदश्चेतनाचेतनेष्वपि
॥ १९१ ॥
अवस्थाविशेषः, स पूर्वगग उच्यते । पूर्वरागो नाम अभीष्ट प्राप्तेः पूर्वो
२३१
दशाविशेषः
रागः ॥ १८८ ॥
श्रवणं निरूपयति-श्रवणमिति । तत्र - पूर्वरागे, दूतबन्दिसखीमुखात् दूत: ( सन्देशहर: ), बन्दी ( स्तुतिपाठक ), सखी ( वयस्था ), तन्मुखात् ( तक्षननात ) तु "श्रवणं" भवेत् । तत्र बन्दिमुखाच्छ्रवणं नंषधीयचरिते महाकाव्ये | सखीमुखात् = बुद्धरक्षितामुखात् श्रवण मालतीमाधवे । इन्द्रजालं नाम इन्द्रेण (कौशला
श्वर्येण) जालम् (द्रष्टुत्रावरणम् ) । तादृशे इन्द्रजाले, चित्रे = आलेख्ये, मालविकाऽग्निमित्रे नटके अग्निमित्रेण राजा मालविकायाचित्रे दर्शनम् । साक्षात् माक्षादर्शनम्, यथा अभिज्ञानशाकुनले दुष्यन्त कुन्तलाभ्यामन्योन्यम् । स्वप्ने दर्शनं - श्रीमद्भागवत महापुराणे उषया अनिरुद्धस्य ॥ १८९ ॥
J
=
दश कामदशा उद्दिशति - प्रभिलाष इति । अभिलाषः = काम:, चिन्ता = आध्यानं स्मृतिःस्मरणम्, गुणकथनं = सौन्दर्यादिगुणप्रतिपादनम्, उद्वेगः = विरह जन्यो दुःखोद्गमः, संप्रलापः - अनधकं वचः, उन्मादः - चित्तविभ्रमः व्याधिः - रोग:, जडता - निश्चेष्टत्वम् मृतिः मरणम् इत्थं च अत्र = पूर्वरः गे, दश, कामदशा:= कामकृता अवस्थाः ।। १९० ।।
=
=
तत्र का दिशा विवृणीति - प्रभिलाष इति । अभिलाषः = स्पृहा । चिन्ता = नायिकाया नायकस्य वा प्राप्युपायादिचिन्तनम् । उन्मादः = चेतनाऽचेतनेषु अपि परस्परमें अनुरागनाले नायिका वा नायककी अप्राप्ति में जो अवस्थाविशेष है उसे "पूर्व • राग " कहते हैं ।। १-८ ॥
उसमे दूत बन्दी (स्तुतिपाठक ) और सखीके मुखसे "श्रवण" होता है । इन्द्रजाल में, चित्र में, स्वप्न में अथवा प्रत्यक्ष "दर्शन" होता है ।। १८९ ..
=
कामदशाएं-- अभिलाष, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद ( पागलपन ), व्याधि, जडता ( चेष्टाहीनता ), और मरण विप्रलम्भ शृङ्गारमें ये दश कामदशाएं होती हैं ॥ १९० ॥
स्पृहाको "अभिलाष" नायक अथवा नायिकाको पानेके लिए उपाय आदिके
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२३२
साहित्यदर्पणे
अलक्ष्यवाक्प्रलापः स्याच्चेतसा भ्रमणाद् भृशम् । व्याधिस्तु दीघनिःश्वासपाण्डुताकृशतादयः ॥ १९२ ।। जडता हीनचेष्टत्वमङ्गानां मनसस्तथा ।
शेष स्पष्टम् । क्रमेणोदाहरणानि
'प्रेमार्दाः प्रणयस्पृशः परिचयादुद्गाढरागोदया
स्तास्ता मुग्धदृशो निसर्गमधुराश्चेष्टा भवेयुर्मयि। . चेतनजडेषु अपि पदार्थेषु, अपरिच्छेदः = विशेषनिश्चयाऽभावः । उन्मादो यथा विक्रमोर्व. शीत्रोटके पुरूरवसः ।। १९१ ।।
संप्रलापः = चेतसः (चित्तस्य ), भयम् = अत्यर्थ, भ्रमणात् --- अनवस्थानात हेतोः, अलक्ष्यवाक्-निविषयं वचः "प्रलापः" कथ्यते । व्याधिः । दीर्घनिःश्वासपाण्डुता. कृशतादयः, दीर्घनिःश्वास: ( आयतः श्वासः ), पाण्डुता (पाण्डरता ) कुशता (दुर्बलता ), तदादयः ॥ १९२ ।।
जडता-अङ्गानाम् = अवयवानाम्, तथा मनसः = चित्तस्य, हीनचेष्टत्वम् -- चेष्टामावः ।।
शेषम् = उक्तभ्योऽन्यत् = गुणकथनोद्वेगमृतिरूपं त्रितय, स्पष्ट = व्यक्तं, निगदव्याख्यातमिति भावः ।
अभिलाषमुदाहरति--प्रेमाऽऽ इति । मालतीमाधवे प्रकरणे मालतीमुद्दिश्य माधवस्योक्तिरियम् । प्रेमााः = प्रेम्णा ( अनुरागेण हेतुना ) आर्द्राः ( सरसा: )। प्रायस्पृशः = प्रणयम् ( उपचारः प्रकृष्टं प्रेमविशेषम् ) स्पृशन्तीति प्रकृष्टप्रेमाश्रयित्य इत्यर्थः । एवं परिचयात् -- संस्तवात् । उद्गाढरागोदयाः = उद्गाढः (प्रौढः ) यो रागः ( अनुरागः ) तस्योदयः ( अविर्भावः ) पासु ताः । निसर्गमधुराः = प्रकृतिमनोहरा', मृग्यदृशः = सुन्दरनयनाया:, मालत्या इति भावः । तास्ताः असकृत्पूर्वाऽ चिन्तनको 'चिन्ता" चेतन और अचेतनमें निश्चचयके अभावको "उन्माद" कहते है १९१
चित्तकी अत्यन्त अस्थिरतासे विपयरहित वचनको "प्रलाप" और दोनिःश्वास पाण्डुता और दुर्वलता आदिको "व्याधि" कहते हैं ।। १९२ ॥
अङ्गोंकी और मनकी चेष्टाशून्यताको 'जडता"कहते हैं । अवशिष्ट स्पष्ट है ।क्रमसे उदाहरण पहले अभिलापका मालतीमाधवमें मालतीको उद्देश्य करके माधवका कथन हैअनुरागसे सरस, प्रकृष्ट प्रेमको आश्रम करनेवाली, परिचयसे प्रौढ अनुरागके आविर्भाव. वाली, स्वभावसे मनोहर सुन्दरी ( मालती ) के वारं वार पूर्वाऽनुभूत कटाक्ष आदि चेष्टाएं मेरे ऊपर होंगी? आशा से रचित होनेपर भी जिनमें तत्काल ही नेत्र आदि बाह्य
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तृतीयः परिच्छेदः
यास्वन्तःकरणस्य बाह्यकरणव्यापाररोधी क्षणादाशंसापरिकल्पितास्वपि भवत्यानन्दसान्द्रो लयः ॥'
श्रत्र मालती साक्षाद्दर्शनप्ररूढरागस्य मोघबस्याभिलाषः । 'कथमीक्षे कुरङ्गाक्षी साक्षाल्लक्ष्मीं मनोभुवः । इति चिन्ताकुलः कान्तो निद्रां नैति निशीथिनीम् ॥ अत्र कस्याश्चिन्नायिकाया इन्द्रजालदर्शनप्ररूढ रागस्य नायकस्य चिन्ता । इदं मम ।
'मयि सकपटम् ' -- इत्यादौ नायकस्य स्मृतिः । ? 'नेत्रे खञ्जन गजने' ( पृ० १३७ ) इत्यादौ गुणकथनम् । 'श्वासान्मुश्चति' - इत्यादौ ( पृ० १७७) उद्वेगः ।
=
नुम्भूताः, चेष्टा: कटाक्षादय:, मय = प्रणयिनि, माधवे । भवेयुः = स्युः, आशंसायां लिङ । आशंस परिकल्पितासु = आशंसया ( आशया ) परिकल्पितासु ( रचितासु ) अपि यासु = पूर्वोक्तासु चेष्टासु, क्षणात् तत्कालात्, बाह्यकरणव्यापाररोधी = बहिरिन्द्रियक्रया निवारणशीलः, आनन्दसान्द्रः प्रमोदनिरन्तर अन्तकरणस्य == चित्तस्य, लय: = विलीनता, भवति = वर्तते । शार्दूलविक्रीडितं वनम् ॥
111
=
प्रत्यक्ष •
चिन्तामुदाहरति - कथमिति । मनोभुवः = कामदेवस्य साक्षात् रूपां लक्ष्मीं = कमलां, कुरङ्गाक्षी - मृगनयनां सुन्दरी, कथं केन प्रकारेण, ईक्षे पश्यामि, इति = एवं चिन्ताकुल: = आध्यानव्याकुलः, कान्त: नायक: निशीथिनीं = समग्रां रात्रि, "कालाssवनोरत्यन्तसंयोगे" इति कालाऽत्यन्तसंयोगे द्वितीया । निद्रां = स्वापं न एति न प्राप्नोति ॥
अत्रेति । इन्द्रजालदर्शनप्ररूढराजस्य - इन्द्रजालदर्शनेन (इन्द्रजालविलोकनेन ) प्ररूढः उत्पन्न: ) राग : ( अनुरागः ), यस्य तस्थ, नायकस्य ।
=
२३३
1=
=
इन्द्रियोंके दर्शन आदि क्रियाओंका राकनेवाली और आनन्दसे गाढ चित्तको विलीनता ( तन्मयता ) हो जाती है। इसमें मानती के साक्षात् दर्शन से उत्पन्न अनुरागवाले माधवका अभिलाष है ।
"कामदेवकी प्रत्यक्ष लक्ष्मीरूप उस मृगनयनाको मैंने कैसे देखूंगा ? ऐसी चिन्तासे आकुल प्रियतमको रात भर नींद नहीं आती है ।
इस पद्य में किसी नायिकाको इन्द्रजालमें देखनेसे उत्पन्न अनुरागवाले नायककी चिन्ताका वर्णन है । "मयि सकपटम् " ( पृ० २१३ ) इत्यादि पद्यमें नायककी स्मृति है । “नेत्रे खञ्जनगञ्जने” ( पृ० १३७ ) इत्यादिमें गुणकथन है । " श्वासन्मुखाति” ( पृ० १७७ ) इत्यादिमें उद्वेग है ।
19
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२३४
साहित्यदर्पणे
'त्रिभागशेषासु निशासु च क्षणं निमील्य नेत्रे सहता व्यबुध्यत । क्व नीलकण्ठं ! व्रजसीत्यलक्ष्यवागसत्यकण्ठापितबाहुबन्धना ॥ अत्र प्रलापः। 'भ्रातविरेफ'–इत्यादौ (पृ० २११ ) उन्मादः।
'पाण्डु क्षामं वदनं, हृदयं सरसं, तवालसं च वपुः ।
आवेदयति नितान्तं क्षेत्रियरोगं सखि! हृदन्तः ।।' प्रलापमुदाहरति - विभागशेषास्थिति। कुमारसंभवे वणिवेशधारिणं विं प्रति सखीकृतं पार्वत्याः शिवानुरागवर्णनमिदम् (५,५७ )। विभाग शेषासु = तृतीयभागाऽवशिष्टामु. निशासु == रात्रिषु, क्षणं-कश्चित्कालं यावत्, अत्यतन्मयोगे द्वितीया । नेत्रे = नयने, निमील्य == मुद्रयित्वा, हे नीलकण्ठ = हे शिव !, क्व = कुत्र, व्रजसि = गच्छसि, इति = एवम्, अलक्ष्यवाक् = अलक्ष्या ( अविषया) वाक् ( वाणी ) यस्याः सा, तादृशी पार्वती, असत्यकातिबाहुबन्धना = असत्यः (मिथ्याभूतः ) यः कण्ठः (गल: ), शिवस्येति शेषः । तस्मिन् अपितं ( न्यस्तम् ) बाहुबन्धनं ( भुभदन्धनम्, आलिङ्गनमिति भा: ) यया सा, तादृशी सती । सहसा = अतक्तिरूपेण, व्यबुद्धयत = जागरिता । अब प्रलापो जागरश्च । वंशस्थं वृत्तम् ॥
___ व्याधिमुदाहरति--पाण्डिवति । हे सखि हे वयस्ये !, पाण्डु- पाण्डुरं, मामकृशं च, तव - भवत्याः , वदनं - मुखं, सरसं = साऽनुरागं, तव हृदयम्, तथा अलसक र्याऽसमर्थ न, लव वपुः = शरीरं, हृदन्तः = हृदयमध्ये, क्षेत्रियरोगं = शरीराऽन्तर. चिकत्स्यरुजाम्, आवेदयति = ज्ञापयति क्षेत्रिय इत्यत्र "क्षेत्रियच् परक्षेत्र चिकित्स्य" इति निपातः ।
त्रिभागशेषा० । कुमारसंभवमें ब्रह्मचारीका वेष लिए हुए शिवजीको पार्वतीकी सखी पार्वतीका शिवजीमें स्थिन अनुरागका वर्णन करती है-रात्रिके अन्तिम प्रहरमें कुछ काल आखोंको मूंदकर "हे नीलकण्ठ ! आप कहाँ जाते हैं ?" ऐसा प्रलाप करती हुई पार्वती शिवजीके कल्पित कण्ठमें बाहुबन्धनको अर्पित करती हुई (आलिङ्गन करती हुई ) अकस्मात् जाग जाती हैं। "भ्रातद्विरेफ०” (पृ० २११) इत्यादिमें उन्माद है।
ध्याधिका उ० - हे सखि ! पाण्डुवर्ण और कृश तुम्हारा मुख, सरस हृदय, आलस्यपूर्ण ऐसा तुम्हारा शरीर हृदयके भीतर रहे हुए क्षेत्रिय ( असाध्य अर्थात दूसरे शरीरमें चिकित्साके योग्य ) रोगकी सुचना कर रहा है । इसमें व्याधि हैं।
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तृतीयः परिच्छेदः
२३५ अत्र व्याधिः। 'भिसिणीअलसअणीए निहिअं सव्वं सुणिञ्चलं अङ्गं । दीहो णीसासहरो एसो साहेइ जीअइत्ति परं॥ अत्र जडता । इदं मम। रसविच्छेदहेतुत्वान्मरणं नैव वण्यते ॥ १९३ ॥ जातप्रायं तु तद्वाच्यं चेतसाकाक्षितं तथा। वर्ण्यतेऽपि यदि प्रत्युञ्जीवनं स्वाददूरतः ॥ १९४ ॥ जडतामुदाहरति-भिसिणीति ।
"विमिनीदलशयनीये निहितं सर्व सुनिश्चलमङ्गम् । दीर्घो नि.श्वासभर एष साधयति जीवतीति परम् ॥” इति संस्कृतच्छाया ।
काचित्स्वसखों प्रति मदन गैडिताया: कस्याश्रिज्जडतां वर्णयति । विसिनीदलशयनीये == कमलिनीपत्त्रशय्यायां, निहितं :- न्यस्तं, सर्व-सकलम्, अङ्ग-देहाऽन्यवः । सुनिश्चलम् = अतिशयाऽवलम् । एतन्मृतिसूचकं, परं-किन्तु दीर्घ आयतः, एषः-अयं, निःश्वासभर: -- उच्छ्वासाऽतिशयः, जीवति -प्राणान् धारयतीति, साधयति = सूचयतीति भावः । गाथा वृत्तम् ।
दशमी कामदशां वर्णयति-रसविच्छेदहेतुत्वादिति । रमविच्छेदहेतुत्वात् = शृङ्गाररसविनाशकारणत्वात्, मरणं = मृतिः, नव वर्ण्यते-नव प्रतिणद्यते, मरणवर्णने सति तु करुण सस्याऽऽपतनं स्यादिति भावः ।। १९३ ।।
यद्यवं तहि कामदशासु तस्याऽन्यतमत्वप्रतिपादनं किमर्थमित्यत आह-जातप्रायमिति । तु=किन्तु, तत् = मरणं, जातप्रायम् = उत्पन्नप्रायं, तथा चेतसा=चित्तेन, आकाक्षितम् = अभीष्टम्, एव च-अदूरतः मरणस्य कियत्कालात्, प्रत्युज्जीवनम्= आलम्बनस्य पुनर्जीवनं, स्यात् यदि - भवेच्चेत्, तहि तादृग्रूपेण मरणं 'वर्ण्यते । १९४।।
जडताका उ०-कमलके पत्तोंकी शय्यापर रक्खा गया पूरा शरीर निश्चल और यह लम्बा निःश्वास “यह प्राणोंका धारण कर रही है" इस बात को सिद्ध कर रहा है । यहाँ जडता है । यह पद्य ग्रन्धकारका है।
रसविच्छेदका कारण होनेसे मरणका वर्णन नहीं किया जाता है ॥ १९३ ॥
उत्पन्नप्राय रूपसे, चितके अभीष्टरूपसे और कुछ कालके अनन्तर आलम्बनका फिर जीवन हों तो मरण का भी वर्णन किया जाता है ।। १९४ ।।
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“२३६
साहित्यदर्पणे
तत्राद्यं यथा
'शेफालिकां विदलितामवलोक्य तन्वी
प्राणान् कथंचिदपि धारयितुं प्रभूता । आकर्ण्य संप्रति रुतं चरणायुधानां
किं वा भविष्यति न वेनि तपस्विनी सा ।' द्वितीयं यथा'रोलम्बाः परिपूरयन्तु हरितो झङ्कारकोलाहलै ।
मन्दं मन्दमुपैतु चन्दनवनीजातो नभस्वानपि । माधन्तः कलयन्तु पूतशिखरे केलीपिकाः पञ्चम,
प्राणाः सत्वरमश्मसारकठिनागच्छन्तु गच्छन्त्वमी ।' तत्र (मरणभेदेषु ) आद्य प्रयम, जातप्रायं मरणमुदाहरति शेफालिकामिति । प्रभातप्रायायां रजन्यां नायिकासख्या नायकं प्रत्युक्तिरियम् । तन्वी = कृशोदरी, तपस्विनी = शोचनीया, सा-सखी, शेफालिका निगुण्डीपुष्पं, विदलिता-विकसिताम्' अवलोक्य-दृष्टवा, शेफालिकाविदलनकालो निशीथः (अर्धरात्रः) बोध्यः । कथंनिदपिकेनाऽपि प्रकारेण महता कष्टेनेतिभावः । प्राणान् = असून, धारयितु = धतु, प्रभूतासमर्था आसीत । परं, सम्प्रति इदानीं, रात्रिशेषयामाघे इति भावः । चरणायुधानां = कुक्कुटानां, रुतं वाशितम्, आकर्ण्य-श्रुत्वा, किंवा भविष्यतिकिंवा भाविनी, इति । न वेभिः-नो जानामि । भवतोऽनागमनासा नैराश्यात् मृतप्राया इति संभाव्यत इति भावः ।
___ द्वितीयं = चेतसामाक्षित मरणं यथा - रोलम्बा इति । रोलम्बा: = भ्रमराः, झङ्कारकोलाहल: :- प्रकृतिकलकलः, हरित: = दिशः, परिपूरयन्तु = परिपूर्णा. कुर्वन्तु । चन्दनवनीजातः = श्रीखण्डवनोत्पन्नः, नभस्व'न् अपि = वातः अपि, मन्दं मन्दं = मनः शनैः, उपेतु = प्राप्नोतु । केलीपिका: = क्रीडाकोकिलाः, गृहपालिता इति शेषः । माद्यन्तः-मत्ता भवन्तः, बसन्तागमनेनेति भावः । वृतशिखरेआम्रवृक्षोर्वमागे, पञ्चमं = स्वरं, कलयन्तु = उच्चारयन्तु । एनादृश्यां दशायामपि स्थायिनः अत एव अश्मसारकठिना: = पाषाणस्थिरांशकठोराः, अमी --- एते, प्राणाः = असवः, मदीया इति शेषः । सस्वरं = शीघ्र, गच्छन्तु गच्छन्तु-व्रजन्तु वजन्तु, पीडायो द्विक्तिः । अत्र मदनवेदनों सोढुमसमर्थया नायिकया स्वचेतसा मरणमाकाक्षितम् ॥ ..
१ उत्पन्नप्राय मरणका उ०-कुशाङ्गी निर्गुण्डी पुष्पको विकसित देखकर किसी तरह प्रागोंको धारण करनेमें समर्थ हुई थी, इस समय मुरगोंका बांग सुनकर वह शोचनीया कैसी होगी ? मैं नहीं जानती हूँ।
२ चित्तसे प्रभीष्ट मरणका उ०-ौरे मबारके कोलाहलोंसे दिशाओंको परिपूर्ण करें। चन्दनवनमें उत्पन्न हवा भी मन्दमन्द बहती रहे । मत्त होते हुए क्रीडाके कोकिल पञ्चम स्वरका आलाप करें। पत्थरके सारके समान कठोर ये मेरे प्राण शीघ्र चले जायें, चले जायें। ये दोनों पद्य ग्रन्थकारके हैं ।
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तृतीयः परिच्छेदः
-
ममतौ। तृतीयं यथा
कादम्बर्या महाश्वेतापुण्डरीकवृत्तान्ते। एष च प्रकारः करुणविप्रलम्भ विषय इति वक्ष्यामः । केचित्तु
'नयनप्रीतिः प्रथम, चित्तासङ्गस्ततोऽथ संकल्पः । निद्राच्छेदस्तनुता, विषयनिवृत्तिनपानाशः ॥
उन्मादो मूस्मृितिरित्येताः स्मरदशा दर्शव स्युः।' इत्याहुः । तत्र च
आदौ याच्यः स्त्रिया रागः पुसः पश्चात्तदिङ्गितः । इङ्गितान्युक्तानि । यथा रत्नावल्यां सागरिकावत्सराजयोः। आदौ पुरुषानुरागे संभवत्यप्येवमधिकं हृदयङ्गमं भवति ।
तृतीयम् = अदूरतः प्रत्युज्जीवनपर्यवसायि मरगम् । वक्ष्यामः = कथयिष्यामः ! केचित्तु = वात्स्यायनादयस्तु --
मतान्तरेण स्मरदशा वर्णयति-नयनप्रीतिरिति । चित्तासङ्गः = चित्तस्य आसङ्गः ( आसक्तिः ), सङ्कल्पः = मानसं कम, प्राप्त्युपायादिचिन्तेति भावः । तनुता कार्यम् । विषयनिवृत्तिः विषये ( विषयभोगे) निवृत्तिः ( निरभिलाषता )। पानाशः = लज्जानाशः । मृतिः = मरणम् ।
रागे विवेकं प्रतिपादयति-प्रादाविति । आदी = प्रथमे, स्त्रियाः = नार्याः, पश्चात -- अनन्तर, तदिङ्गितः तस्याः (स्त्रियाः ) इङ्गितः ( चेष्टाविशेषः ), पुसः= पुरुषस्य, रागः = अनुरागः, वाच्यः = वक्तव्यः । एवं सति हृदयङ्गमं भवतीति भावः ।
३. पालम्बनके पुनर्जीवनका उ०-कादम्बरीमें महाश्वेता और पुण्डरीकके वृत्तान्तमे। यह भेद करुणविप्रलम्मविषयक है, यह पीछे कहेंगे। कुछ विद्वान् ( वात्स्यायन आदि ) तो-पहले नेत्रप्रीति, फिर चित्तको आसक्ति, तब सङ्कल्प (प्राप्ति के उपाय आदिको चिन्ता ), अनन्तर निद्रानाश, फिर कृशता, विषयों में मप्रवृत्ति, लज्जानाश, उन्माद, मूर्छा और मरण ये ही कामदेवकी दश दशाएं हैं।
पहले स्त्रीके पीछे उसकी चेष्टाओंसे पुरुषके अनुरागको कहना चाहिए । इङ्गितोंको पहले कह चुके हैं। जैसे कि रत्नावलीमें सागरिका और वत्सराज ( उदयन ) का अनुराग । पहले पुरुषके अनुरागका संभव होनेपर भी पहले स्त्रीका अनुराग होनेसे अधिक हृदयङ्गम.( मनोहर ) होता है ।
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साहित्यदर्पणे
नीली कुसुम्भं मजिष्ठा पूवरागोऽपि च त्रिधा ।। १९५ ॥ तत्र
न चातिशोभते यन्नापेति प्रेम मनागतम् । तनीलीरागमाख्यातं यथा श्रीरामसीतयोः ॥ १६६ ॥ कुसुम्भरागं तत्प्राहुर्यदपैति च शोभते ।
मजिष्ठारागमाहुस्तद् यन्नापत्यतिशोभते ॥ १९७ ॥
पूर्वरागस्य श्रीवध्यमुद्दिशति-नीलोति । नीली = नीलीरागः, कुसुम्भं = कुसुम्भरागः । मञ्जिष्ठा = मजिष्ठारागः । इत्थं पूर्वरागः, विधा = त्रिभिः प्रकार: सभवतीति भावः ।
नीलीरागं लक्षयति-न चेति। मनोगत - चित्तगत, नायिकानायकयोरिति शेषः, यत् प्रेस :- अनुरागः, न च अतिशोभते-न च अत्यर्थ शोभां प्राप्नोति, अविस्पष्टत्वात, न अपति -- न अपगच्छति, श्रीरामसीतयोः, यथा = इव, तत् (प्रेम) नीलीरागम् अख्यातम्, तत्र च नीलीरागनामकः पूर्वराग इत्यर्थः । नोल्या ३व रागो यस्य तत् । नीलीरागरक्ते वस्त्रे स रागः नाऽत्यर्थं शोभते, जलेन न चापगच्छति तथैव नीलीरागः पूर्वरागः । श्रीरामस्य धीरोदात्तनायकत्वात् सीतायाश्च विनयाजवादियुक्तत्वात पुरूरवस उर्वश्या नाऽत्यन्तप्रलापादिकं भवतीति तात्पर्यम् ।। १९६ ॥
कुमुम्भरागं लक्षयति-कुसुम्भरागमिति । तद = प्रेम, कुसुम्भरागं =: कुमुम्भस्य ( महारजनस्य पुष्पविशेषस्य ) इव रागो यस्य तंत् । यत् = प्रेम, अपे'त = अपगच्छति, शोभते च । तत्र कुमुम्भरागनामकः पूर्वरागः । कुसुम्भेन रक्ते वस्त्रे क्षालने कृते सति स रागः 'अपति, तदनन्तरं शोमते, तथैव कुसुम्भरागनामकः पूर्वराग इति भावः।
. मजिठारागं लक्षयति-मधिष्ठारागामति । यत् -- प्रेम, न अपति-न अपगच्छति, अतिशोभने च, तत् प्रेम ममिष्ठारामम् = मञ्जिष्ठायाः ( विकसायाः, पुपविशेषस्य ) इव रागः ( रजनम् ) यस्य न (प्रेम), आहुः, तत्र मञ्जिष्ठाराग
पूर्वराग भी तीन प्रकारका होता है-नीलीराग, कुसुम्भराग और मनिष्ठाराग ॥ १९५ ॥
नोलोराग--मनोगत जो प्रेम अतिशय शोभाको प्राप्त नहीं करता है, परन्तु गता से नहीं, जैसे श्रीजीता और श्रीरामका प्रेम नोलोराग नामक है, वैसा राग जिसमें हो उम पूर्वगगको "मीलोराग" कहते हैं, जैसे श्रीसीता और श्रीरामका ।। १९६ ॥
कुमुम्भराग --जो जाता है और शोभित भी होता है वह कुसुम्भराग (प्रेम) है. बैगा प्रेम जहाँ है उस पागको "कुगुराग" करते हैं।
मा राग-- जो नहीं जाता है और अत्यन्त शोभित होता है वह प्रेम
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अथ मान:
तृतीयः परिच्छेदः
,
मानः कोषः स तु द्वेधा प्रणये द्वयोः प्रणयमानः स्यात् प्रमोदं प्रेम्णः कुटिलगामित्वात् कोषां यः कारणं विना | द्वयोरिति नायकस्य नायिकायाश्च उभयोश्च प्रणयमानो वर्णनीयः ।
उदाहरणम् । अत्र नायकस्य यथा-
'अलिअपमुत्तअ ! णिमिलिअच्छ ! देसु सुहअ ! मज्झ ओआसं । गण्टपरिम्बणपुल अङ्ग ! ण पुण चिराइस्सं ॥'
समुद्भवः । सुमहत्यपि ॥ १९८ ।।
२३९
नामकः पूर्वरागः । मञ्जिष्ठारागेण रक्ते वस्त्रे प्रक्षालनादिनाऽपि यथा रागो न अपगच्छति अशिोभते च तथा एवं कुसुम्भरागनामकः पूर्वराग इति भावः । यथा मालतीमावयोः ॥ १९७ ॥
=
विप्रलम्भशृङ्गारस्य द्वितीयं भेदं मानं सविभागं लक्षयति मान इति । कोपो मान इति मानस्य सामान्यलक्षणम् । प्रणयेर्ष्णासमुद्भवः प्रेमाऽसूयोत्पन्नः स तु मानस्तु, द्वेधा द्विविध इत्यर्थः । प्रणयमान ईर्ष्यामानश्चेति मानो द्विप्रकार इति भावः । प्रणयमानं लक्षयति- द्वयोरिति । कारणं विशिष्टं हेतु, विनाऽपि = अन्तरेणाऽपे, प्रेम्णः प्रणवस्य कुटिलगामित्वात् = वक्रगतेः हेतोः सुमहति अपि अतिप्रचुरेऽपि प्रमोदे हर्षे, मुमहति अपि अतिप्रचुरे अपि द्वयोः उभयोः, नाविकावा नायकस्य, उभयोर्वा, य, कोपः क्रोधः, स प्रणयमानः ।। १२५ ।।
-
13
23
नायकस्य मानमुदाहरति - श्रलिन इति ।
अलीकप्रसुनक ! निमीलिताक्ष । देहि सुभग ! मह्यमवकाशम् । गण्डपरिचुम्बन पुलकिताङ्ग ! न पुनविरयिष्यामि || संस्कृतच्छाया ।
विलम्बन कोपेनाङलीकसुप्त नायकं प्रति नायिकाया उक्तिरियम् । हे अमुक हे मिथ्यापित !, हे विनिमीलिताक्ष हे मुद्रितनयन ! हे शुभम हेमालिन, ह्य नायिकार्य, अवकाश स्थानात शेषः । द प्रय हे गण्डपरिचुम्बन पुलकिताऽङ्ग कपोलनुम्बनरोमाञ्चिताजयव ! पुनः मञ्जिष्ठा राग है, मञ्जिष्ठाराग वाले पूर्वरागका "मञ्जिष्ठाराग" कहते है ॥ १२७ ॥ मानक "मान" कहते हैं. यह दो प्रकारका हाता है १ प्रणय से उक्त आर र ईनि उन। अति प्रतुर हर्ष होकर भी नायिका और नापक दानापमान होता है। १८ ॥
"
प्रेम गति कुटिल ( टेडी ) होता हैं इसलिए कारणके बिना भी कोष हूं। । है । नायक के प्रणयमानका उ-नायिका बहती है-झूठमूठ सोने का बहाना
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२४०
साहित्यदर्पणे
नायिकाया यथा कुमारसंभव संध्यावणनावसरे। उभयोर्यथा
'पणअकुविआण दोण्ह वि अलिअसुत्ताणं माणइल्लाणं। णिच्वलणिरुद्धणोसासदिण्णअण्णाणं को मल्लो ।।'
अनुनयपर्यन्तासहत्वे त्वस्य न विप्रलम्भभेदता, किन्तु संभोगसञ्चार्याख्यभावत्वम् । भूयः, न चिरयिष्यामि = न चिरं करिष्यामि, आगमनविलम्व नो रिधास्यामीति भावः । गाथा वृत्तम् । अत्र नायकस्य प्रगयमान: । नायिकाया: प्रणयमानः कुमारसंभव अष्टमसर्ग। उभयोः प्रणयमानमुदाहरति-पणम इति ।
प्रणयकुपितयोद्वयोरप्यलीकसुप्तयोर्मानविज्ञयोः ।
निश्चलानरुद्धनिःश्वासदत्तवर्णयोः का मल्लः ? ॥ संस्कृतछाया । प्रणयकुपितयोः = प्रेममानद्धयोः, अतः अलीकसुप्तयो: == मिथ्यानिद्राणयोः, निद्राया अभिनय कुर्वतोरित भावः । मानविज्ञयोः = अभिमानाऽभिज्ञयोः, निश्चलनिरुद्ध. निःश्वासदत्तकणया: = निश्चल यथा तथा निरुद्धाः (संरद्धाः ) ये निःश्वासाः ( परस्परयोः उच्छ्वासाः ), तेषु दत्तकर्णया: = श्रवणव्यापारयुक्तयोः, द्वयोरपि = नायिकानायकयोरपि मध्ये, कः = कतरः, मल्ल. = प्रबल., स्वमानरक्षणसमर्थः ? 'गाथा वृत्तम् । अत्र उभयोरपि प्रणयमानः ।
मानस्य विवेकमाह-अनुनयपर्यन्ताऽसहत्व इति । अनुनयपर्यन्ताऽसहत्वे = मानभङ्गाऽयं प्रियवचनादिकमनुनयः, तत्पयन्तमास्थरत्वे तु, अस्य = मानस्य, न विप्रलम्मभेदता = नो विप्रलम्भशृङ्गारविशेषता, किन्तु सभोगसंचार्याख्यभावत्वं = संभोगे ( संभोगशृङ्गारे ), संचार्याख्यभावत्वम् ( व्यभिचारीयानामकमावत्वम् )।
करके आँखोंको मूदनेवाले ! हे प्रिय ! मुझे भी जगह दे दो। कोलपर चुम्बन करनेसे गेमाश्चित अङ्गगले ? मैं फिर बिलम्ब नहीं करूंगी।
नायिकाका प्रणयनान से कुमारसभवमें सन्ध्यावर्णनके अवसरपर ( अष्टम सगमें)।
नायिका और नायक दोनोंका प्रणयमान-प्रणयसे कुपित, झठमूठ सोये. हुए, प्रगयमान करने में जानकार, निश्चलरूपसे रोके गये निःश्वासोंपर कान लगाने. नाले नायिका और नायकरूप दो मल्लोंमें कौन जबर्दस्त है ?
___ मनाने तक स्थिर न होनेपर यह प्रणयमान विप्रलम्भ शृङ्गारका भेद नहीं होता है किन्तु संभोगसञ्चारो नामका भाव होता है । जैसे--
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तृतीयः परिच्छेदः
क्या
'भ्र भने रचितेऽपि दृष्टिरधिकं सोत्कण्ठमुदीक्षते,
रुद्धायामपि वाचि सस्मितमिदं दग्धाननं जायते । कार्कश्यं गमितेऽपि चेतसि तन् , रोमाञ्चमालम्बते,
दृष्टै निर्वहणं भविष्यति कथं मानस्य तम्मिञ्जने १ ॥ स्था वा. 'एकस्मिनशयने परामुखतया वीतोत्तरं ताम्यतो
___ रन्योन्यस्य हृदि स्थितेऽप्यनुनये संरक्षतोौरवम् । तदेवोदाहरति-भ्र भङ्ग इति । मानस्योपदेष्ट्री सम्बी प्रति कस्याविनायिकाया सक्तिरियम् । भ्रभने = प्रकौटिल्ये, रचितेऽपि = कृतेऽपि मानप्रदर्शनार्थमिति शेषः । दृष्टिः = मदीयं नेत्रम, अधिकम् = अत्यर्थ, सोत्कण्ठम् = उत्कण्ठापूर्वकं यथा तथा; पदीक्षते-विलोक्यति, प्रियमिति शेषः । वाचि = वचने, रुखायाम, अपि = निवारिसायाम अपि, इदम = एतद, दग्धाननं = कोपेन दग्धप्रायं मदीयं मुखं, सस्मितं - मन्दहाम्यसहितं, जायते = वर्तते । एवं च चेतसि = चित्ते, कार्कश्यं = कठोरता, पमित ऽपि- प्राफिऽपि, तनुः = मदीयं शरीरं, रोमा रोमकण्टकम्, मालम्बते =' बाधयति । अतः तस्मिन्=असकृत उपमुक्ते, जने = मदीये प्रिये, दृष्टे = अवलोकिते सति, मानस्य प्रणयकोपस्य । निर्वहणं %Dनिर्वाहः, कपं% केन प्रकारेण, भविष्यति - पविता, न कथमपीति भावः । अत्र वत्र्या नायिकाया नायकस्याऽनुनयात्प्रागेव मानस्य भङ्गादयं मानो न विप्रलम्भशृङ्गारमानभेदः किन्तु संभोगशृङ्गारमानवमिति भावः । मायिकानायकयोदयोरप्यनुनगत्प्रागेव मानभङ्गस्योदाहरणं प्रदर्शयति-एकस्मिमिति । एकस्मिन्, शयने शय्यायां, पराङ्मुखतया = विमुखत्वेन, स्थितयोरिति शेषः । एवं पपीतोत्तरं = त्यक्तोत्तरव्यापार यथा तपा, तूष्णीमित्यर्थः, ताम्यतो: = काक्षतोः; समागममिति शेषः । अत: अन्योन्यस्य = परस्परस्य, हृदि = चित्ते, अनुनये प्रीतिबचने, मानमङ्गाऽर्थमिति शेषः। स्थितेऽपि = विद्यमानेऽपि, गौरवं- गुरुत्वं, प्राति
नायिका मानभङ्गका० उ०-भौहोंको टेढ़ी करनेपर भी नेत्र अत्यन्त उत्कण्ठाके साब देखता ही रहता है। वचनको रोकनेपर भी यह जला हुआ मुंह मन्दहास्यवाला हो जाता है । चित्तको कठोर करनेपर भी शरीर रोमाञ्चका अवलम्बन करता है। उनके देखे जानेपर मान (प्रणयकोप ) का निर्वाह कसे होगा? ॥
नायिका पोर नायक दोनोंके मानभनका उ०--एक ही शय्यापर विमुख और चुपचाप होकर रहे हुए समागमकी इच्छा करनेवाले परस्पर वित्तमें बनुनयकी इच्छाके रहनेपर भी गौरवकी रक्षा करते हुए, धीरे धीरे नेत्रप्रान्तोंके सञ्चालन
१६ सा०
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२४२
साहित्यदर्पणे
दंपत्योः . शनकैरपागवलनान्मिश्रीभवच्चक्षुषो
भग्नो मानकलिः सहासरभसव्यासक्तकण्ठग्रहः । पत्युरन्यप्रियासने दृष्टेऽथानुमिते श्रुते ॥ १९९ ।। ईOमानो भवेत्स्त्रीणां, तत्र वनुमितिस्त्रिधा ।
उत्खप्नायितमागाङ्कगोत्रस्खलनसम्भवा ॥२०० ।। वत्र दृष्ट यथा
'विनयति सुदृशो दृशोः परागं प्रणयिनि कोसुमनाननानिलेन । स्विमिति शेषः । सरक्षतोः = धारयतोः । तया शनकः = मन्दं मन्दम्, अगम: बलनात = नयनान्तसंचालनात, मिश्रीमान्चक्षुषोः = संपिलन्नयनयोः, दम्पत्योः = वाधिकानायकयोः, सहासरमसयासतकण्डग्रहः = सहासं ( हास्यपूर्वकं यया तया ) रमसेन ( वेगेन) व्यासक्तः ( सम्बद्धः) कण्डग्रहः ( आलिङ्गनम् ) यस्मिन् सः वादृशः मानकलि:=प्रगयक्रोधकलह, भग्नः = नष्ट: । अब नायि घानायकोरुभयोरपि बनुनयामागेव मानस भाः । सार्दूलविक्रीडितं वृतम् ॥
सविभागमीर्घामानं विलम्भं लक्षयति-पत्युरिति । पत्युः = नायकस्य; अन्यप्रियाने = आरवल्लमापता, दृष्टे अबलोमिते, अनुमिो = लक्षणेन विदिते, जय = अनन्तरं, श्रुते = आकगिते सति, स्त्रीणां यः प्रगपकोः स ईीमानो भवेत् ।। प्रणयमानयनायकस्याऽहं न भवति । तत्र दृष्टादिषु, उत्स्वप्नायित-भोगाऽङ्कगोवस्खलनसंमवा-उत्स्वप्नायितसंभवा, भोगाऽङ्कसमया गोत्रस्वलसंभाच अनुमितिस्त्रिधा। १९९॥
तत्र च उत्स्वप्नवदाचरितम् उत्स्वप्नायितम्, तच्च स्वप्ने पत्युरन्यप्रियासन. दर्शनातप्रकाशनम् । भोगाङ्कसंभवम् = अमोगचिह्नोत्पन्नम् । गोत्रस्खलनसंभवं = नामविपर्गसोत्पन्नं, तच्च पत्या स्वनाम्नि उच्चारणीये, अन्यस्या नाम्न उच्चारणम् । इत्यं च पत्युरन्यप्रियासङ्गस्य अनुमितिस्त्रिधा ।। २०० ॥
- दृष्टे ईमिानमुदाहरति-विनयतीति । प्रणयिनि-कान्ते, आननाऽनिलेन= मुखमारुतेन, सुदृशः = सुनयनायाः समन्याः, कोयुमं = कुसुमसम्बन्धिनं, परागं = से परस्पर नेत्रोंके सम्मेलन होनेसे नायिका और नायकका हास्यपूर्वक वेगसे आलिङ्गन होनेसे प्रणयकोपका कलह भग्न हो गया ।
ईर्ष्यामान-पतिकी दूसरी प्रियामें आसक्तिको देखनेपर, अनुमान करनेपर वा किसीसे सुनने पर ॥१९९॥
_ स्त्रियोंको "ईामान" होता है। उसमें स्वप्नमें दूसरी प्रियाके उत्कीर्तनसे; उपभोगके चिह्नसे और अपने नामके बदले दूसरी प्रियाका नाम लेनेपर इसप्रकार तीन प्रकारका अनुमान होता है ॥ २०० ॥
पतिकी दूसरी प्रिया में मासक्तिके दर्शनका उ०-नायकको बन्य प्रियाये
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एतीया परिच्छेदा
२४१
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तदहितयुक्तेरभीक्ष्णमक्ष्णायमपि राषरजोमिरापुरे ।।' संभोगविहे नानुमिते यथा
'नवनखपदमनं गोपयस्यंशुकेन
स्थगयसि पुनरोष्ठं पाणिना दन्तदष्टम् । प्रतिदिशमपरस्त्रीसङ्गशंसी विसर्प
नवपरिमलगन्धा केन शक्यो वरातुम् ।।' एवमन्यदपि।
साम, भेदोऽथ दानं च नत्युपेक्षे, रसान्तरम् ।
तद्भङ्गाय पतिः कुर्यात् षडुआयानिति करत् ।। २.१ ॥ रजः, विनयति = निरस्यति सति । तदहितयुवतेः = तस्याः (सुदूशः) आहेतयुक्तेः ( अहितायाः = सपत्न्या, युवतेः = तरुण्याः) अक्योः नेत्रयोः, यमपिद्विवयमपि, रोषरजोभिः = कोपपरागः, आपुपूरे = आपूर्णम् । अंत्र पत्युः अन्यप्रियासने दृष्टे नायिकाया ईर्ष्यामानः । पुष्पिताग्रा वृतम् ।।
. संमोगचिह्ननाऽनुमितं ईयारागमुनाहरति-नवनखपदमिति । नायकं प्रति मानिन्या उक्तिरियम् । (हे कान्त ! ) नवनखाद-नवं (नतनम् ), नखर (सपत्न्या नखक्षतचिह्नम् ) यस्मिस्तद, तादशम् अङ्ग = देहाऽजयवम्, शुकेन - बसनेना गोपयसि = निगृहसि । पुन:= भूयः, दन्तदष्टं = दशनदष्टम्, अन्यस्या नायिकाया इति शेषः । ओष्ठम् = अबरं, पाणिना = स्वस्य करण, स्यगयसि = आच्छादयसि । परं प्रतिदिशं = दिशं दिशं प्रति, विसर्पन = प्रसरन्, वायुनेति शेषः । परस्त्रीसङ्गशंसीअन्यललनासंसर्गसूचकः, नवपरिमलगन्धः = नूनविमईलग्नकुसुमादिसोरम, केन - उपायेन, वरीतु- गोपयितु, शक्यः = शक्तिविषयः, न केनाऽनीति भावः । पद्यमिवं शिशुपालवधमहाकाव्यस्य । अत्र संमोगचिह्नन अन्यप्रियासले अनुमिते नायिकाया ईर्ष्यामानः । एवमन्यदपि । मालिनी वृतम् ॥
मानमङ्गस्य षडयायानिदिशति-सामेति । पतिः प्रियः; मानभङ्गाय = मानिन्या मानानयनाय, साम = सान्त्वं, भेदः - भेदनम्। उपजापः । नेत्रोंमें पड़े हुए फूलके परागको मुखकी हवासे हटानेपर सपत्नी नायिकाके दोनों नेत्र क्रोधके रजोंसे पूर्ण हो गये । यह पद्य शिशुपालवध-महाकाव्यके सप्तम सर्ग में है।
संभोग चिह्नसे अनुमित ईामान-नायिका दूसरी स्त्रीमें आसक्त नायकको कहती है-"नये नखक्षतके विह्नवाले अङ्गको वस्त्रसे छिपाते हो, दशन-शत ओष्ठको हाथसे ढंकते हो लेकिन दूसरी स्त्री के समागमको सूचना करनेवाले प्रत्येक दिशाओंमें फैलते हुए इस नवीन परिमल गन्धको किस उपायसे छिपा सकोगे ?" इसी तय भोर भी जानना चाहिए।
मानभनके कारण-पति मानभङ्ग करनेके लिए साम, भेद, दान, नति
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२४४
साहित्यदर्पणे
तत्र प्रियवचः साम, मेदस्तत्सख्युपार्जनम् । दानं व्याजेन भूषादेः पादयोः पतनं नर्तिः ॥ २०२ ॥ सामादौ तु परिक्षीणे स्यादुपेक्षावधीरणम् । रमसत्रासहर्षादेः कोपभ्रंशो रसान्तरम् ॥ २०३ ॥
'नो चाटुश्रवणं कृतम् -' ( पृ० १५५ ) इत्यादि । अत्र सामादयः पक सूचिताः । रसान्तरमूह्यम् ।
"दानं - वितरणं, नतिः = नमनम् । उपेक्षणं, रसान्तरं - रभसादेः कोपभ्रंश इति क्रमात् - क्रमतः, षड् उपायान् कुर्यात् = विदधीत ॥ २०१ ॥
मानभङ्गोपायान् विवृणोति तत्रेति । तत्र = षड्विधेषु मानभङ्गोपायेषु प्रियवचः - प्रीतिपूर्ण बचनं, मानिनीं प्रतीतिशेषः "साम" । तत्सख्युपार्जनं = तस्या: ( मानिन्याः ) सखीनाम् ( वयस्यानाम् ) उपार्जनं ( स्वपक्षस्थापनम् ) "भेद" । ब्याजेन = केनाऽपि च्छलेन, भूषादे:-भूषणादे, आदिपदेन वसनादीनां संग्रहः । "दानं" = वितरणं, मानिन्थं इति शेषः ।
=
पादयोः - चरणयो:, मानिन्या इति शेषः, पतनं प्रणमनं, "नतिः " ॥ २०२॥ सामादी - सामाद्य पायचतुष्टये, परिक्षीणे अऩमर्थे, मानभङ्गायेति शेषः, अवधी. रणम् अवज्ञा, "उपेक्षा" । रमसत्रासहर्षादेः = संभ्रमभीत्यानन्दादेर्हेतोः, कोपभ्रंश: = कोवनाशः " रसान्तरः " शुन्यो रसः, विप्रलम्भशृङ्गाराऽपगमेन संभोगशृङ्गारा पतनमिति भावः ॥ २०३ ॥
1=
माङ्गार्थमुपाय पञ्चकमुदाहरति- "नो चाटुश्रवणं" कृतमिति (पृ. १५५) । यत्र - श्लोके; "नो पाट्श्रवणं कृतम्" इत्यत्र "साम', "न च दृशा हारोऽन्तिके बीशितः" इत्यत्र "दानम्", "कान्तस्य प्रियहेतवे निजसखीवाचोऽपि दूरीकृताः “इत्यत्र
( नमस्कार ), उपेक्षा और रसान्तर इन छः उपायोंको क्रमसे करे ।। २०१ ॥ साम - प्रियवचनको "साम" कहते हैं।
भेद - प्रियाकी सखीको अपनी ओर करनेको “भेद" कहते हैं ।
दान- बहाने से भूषण आदि देनेको “दान” कहते हैं ।
नति - पैरोंपर गिरनेको "नति" कहते हैं ।। २०२ ॥
उपेक्षा - साम आदि उपायोंके निष्फल होनेपर अवज्ञा करना "उपेक्षा" है । रसान्तर - घबड़ाहट, भय और हर्ष आदिसे क्रोध हटनेको "रसान्तर" 'हैं ॥ २०३ ॥
जैसे- "नो चाटुश्रवणं कृतम् " ( पृ० १५५ ) इत्यादि । यहाँ पर साम आदि
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सृतीयः परिच्छेद
अथ प्रवास:
प्रवासो भिन्नदेशित्वं कार्याच्छापाच संभ्रमात् । तत्राङ्गचेलमालिन्यमेकवेणीधरं शिरः ॥ २०४ ॥ निःश्वासोच्छ्वासरुदितभूमिपातादि जायते ।
किन
अङ्गेबसौष्ठवं तापः पाण्डुता कशतारुचिः ॥ २०५॥
अधृतिः स्यादनालम्बस्तन्मयोन्मादमूछनाः । भेदः, “पादाऽन्ते विनिपत्य" इत्यत्र "नतिः" तथा च "गच्छन्" इत्यत्र "उपेक्षा सूचिता । इत्थं च अत्र श्लोके नायकेन मानिन्या मानभङ्गायाचरिताः सामादया पञ्चोपायाः सचिताः ।
रसान्तरमूह्यम् । ऊह्यं =वितक्यम् । यथा मालविकाग्निमित्रे चतुर्याकुमारे वसुलक्ष्म्याकृतया वानरविहितत्र सवृतान्तेनैव इरावत्या मानमः।
प्रवासरूपं विप्रलम्मशृङ्गारं लक्षयति-प्रवास इति । कार्यात्-कर्मणः, शापादन आक्रोशात, संम्रमात्-वरायाश्च हेतोः, भित्रदेशिस्वंमाथिकानायकयोर्देशान्तरवासित्वम्।
प्रवासे स्थितिभेदानिदिशति-तत्रति। तत्र = प्रवासे, अङ्गचेलमालिन्याअङ्गानां (हस्तपादादीनां देहाऽवयवानाम् ), चेलस्य ( वस्त्रस्य ) च मालिन्यम् ( मलिनता ), शिरः = शीर्षम्, एकवेगीधरम् = एकप्रवेणीधरं, केशसंस्काररहितमिति भावः ।। १४० ॥ निःश्वासोच्छ्वासरुदितभूमिपातादि=निःश्वासः (मुखनासिकानिर्गता श्वासः ), उच्छवासः ( अन्तर्मुखच्छ्वासः ), रुदितं ( रोदनम् ) भूमिपातः (भूमिः पतनम् ), तदादि जायते = संभवति, आदिपदेन विह्वलतादेः संग्रहः ।
प्रवासे मतान्तरेण दश स्मरदशा निर्दिशति-प्रविति । अङ्गेषु = देहाऽवयवेषु, असौष्ठवं = संस्काराऽभावः । तापः = सन्तापः । ततश्च पाण्डुता = पाण्डुरता, विवर्णतेति भावः । कृश ता = दुर्बलता। अरुचिः = रुच्यभावः ।
अधृतिः धैर्याऽभावः । अनालम्बः आधारराहित्यम् । तन्मयोन्मादमूना:तन्मयेन (तन्मय मावेन ) उन्मादाः ( उन्मत्तताः) मूर्छना' (मूर्छाः ), . पांच उपाय दिखाये गये हैं । “रसान्तर" के उदाहरणका अन्यत्र ऊह करना चाहिए ।
प्रवास-कार्य, शाप और त्वराके कारण भिन्न देशमें रहनेको "प्रवास' कहते हैं । उसमें अङ्गों और वस्त्रोंमें मलिनता, शिरमें एक ही वेणीको बनाना ॥२०॥
निःश्वास, उच्छ्वास, रोना, जमीनपर गिरना इत्यादि कार्य होते हैं । अङ्गोंमें संस्कारका अभाव, ताप, पाण्डुता, दुर्बलता, अरुचि ।। २०५॥
अति, अनालम्बनता, तन्मय मावसे उन्माद बोर मच्छ वषा मरण इसप्रकार
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साहित्यदर्पणे
मृतिश्चेति क्रमाज्ञया दश स्मरदशा इह ॥ २०६ ॥ असौष्ठवं मलापत्तिस्तापस्तु विरहज्वरः । अरुचिर्वस्तुवैराग्यं, सर्वत्रारागिताऽधृतिः ॥ २०७॥ मनालम्बनता चापि शून्यता मनसः स्मृता।
तन्मयं तत्प्रकाशो हि पायाभ्यन्तरतस्तथा । शेष सष्टम्।
एकदेशतो यथा मम तातपादानाम्
_ 'चिन्ताभिः स्तिमितं मनः, करतले लीना कपोलस्थली, सम्मयभावेनासकदुन्मादमच्छंनाप्रादुर्भावाद् बहुवचनं संगच्छते । मृतिः-मरणम्, इति .सा, स्मरवशाः= कामाऽवस्थाः, दश = दशसंख्यकाः क्रमाज्ज्ञयाः ।। २०६ ।।
ता एव किंचितिवर्णाति-प्रसौष्ठवमिति। असौष्ठवं = मलायत्तिः, अङ्गसंस्काराभावादिति भावः । अनायत्तिरिति पाठे अस्वाधीनतेत्यर्थः । तापा-विरहज्वरः, विहसन्तापः । अरुचिः वस्तुनि ( पदार्थे ) वैराग्यम् (विरक्तिः )। अधृतिः = सर्वत्र सर्वेषु विषयेषु, परागिता = अभिलाषाऽभावः ॥ २०७॥
बनासम्बनता = मनसः ( चित्तस्यः) शून्यता (विषयाग्राहकल्लम्)। तन्मय पाह्याभ्यन्तरतः (बहिर्देशाऽभ्यन्तरदेशात ) तत्प्रकाशः (स्य = नायकस्य, तस्या:पायिकायाा )प्रकाशः (दर्शनम् )। शेषं स्पष्टम् । उन्मादो मर्छना मृतिश्चेति पल निगदव्याख्यातमिति भावः ॥
एकदेशत उदाहरति-चिन्ताभिरिति । काचित्सखी कंचित्प्रति विरहिण्याः स्वसल्या अवस्था वर्णयति । अस्याः = सड्याः, मनः = चित्तं, चिन्ताभिः = चिन्ता सिया, स्तिमितं = निमलम् । एतेनाऽनालम्बनता सूचिता । कपोलस्थलीगण्डस्थली, महापर कमसे दस काम दवाबोंको जानना चाहिए ।। २०६॥
कुछ पदोंका विवरण करते हैं । मलिनताको "असौष्ठव" विरहज्वरको "ताप" बस्तुबोंमें वैराग्यको "अरुचि" सभी विषयों में अभिलाष न होनेको "अति" ॥२०७॥
मनकी शून्यताको बनालम्बता, नायिका वा नायकके निरन्तर भावनासे बाहर पौर भीतर प्रकाश होनेको तन्मय कहते हैं, उससे उन्माद और मूछना होती है। बाकी स्पष्ट है।
इनमेंसे कुछके उदाहरण अपने पिताके पद्यसे ग्रन्थकार प्रस्तुत करते हैं। कोई स्त्री मायकसे अपनी सबी नायिकाकी अवस्थाका वर्णन कर रही है । इसका मन चिन्तायोस निम पोड करतलमें स्थित है। मुख प्रात: कालके चन्द्र के समान
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तृतीयः परिच्छेदः
प्रत्यूषक्षणदेशपाण्डु वदनं, श्वासंकखिन्नोऽधरः। अम्भःशीकरपद्मिनीकिसलय पति तापः शम,
कोऽस्याः प्रार्थितदुर्लभोऽति ? सहते दीनां दशानीदृशीम् ॥' भावी भवन्भूत इति त्रिधा स्यात्तत्र कायजः ॥ २०८ ॥ कार्यस्य बुद्धिपूर्वकत्वात्रैविध्यम् । वत्र भावी यथा मम
'यामः सुन्दरि, याहि पान्थ, दयिते ! शोकं वृथा मा कृथाः; करतले = हस्ततले, लीना = अवस्थिता । वदनं = मुखं, प्रत्यूषक्षणदेशपाण्डु = प्रत्यूषे (प्रातःकाले ) क्षणदायाः ( रात्रैः ) ईशः ( स्वामी, यन्द्रः ), स इव पाण्ड (पाण्डुरं; कान्तिहीनमिति भावः) । एतेन तापाऽनुभावो वर्णितः । अधरः = ओष्ठः, श्वासक. खिन्नः = श्वासमात्रपरिहतः, न तु कान्तदशनक्षतचिह्नित इति भावः । तापः= देहसन्तापः, अम्भःशीकरपधिनी किसलयः = अम्भःशीकरः (जलबिन्दुभिः), पमिनीकिसलयश्च (कर्मालनीपल्लवंश्च ) उपाय:, शमं = शान्ति, न उपति = नो लभते, एतेन तपः प्रकाशितः । अस्याः= सख्या:, कः प्रार्थितदुर्लभः प्रार्थितश्चाऽसौ दुर्लभः ( दुष्प्राप्यः ) अस्ति, येन कारणेन, ईदृशीम् = एतादृशी, दीना = दयनीयां, दशाम् = अवस्था, सहते = मृष्यति । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥
पुनः कार्यजं प्रवासं विभजति-भावीति । तत्र = तेषु, त्रिविधप्रवासेषुः कार्यजः = कार्यजन्यः प्रवास: । भावी = भविष्यन्, भवन् = वर्तमानः, भूतः = अतीत इति, त्रिधा = त्रिभिः प्रकारः, स्यात् = भवेत् ॥ २०८ ॥
कार्यस्थ-कर्मणः, बुद्धिपूर्वकत्वात् = मतिपूर्वकत्वाद, विध्यं = त्रिप्रकारत्वम् ।
भाविप्रवासमुदाहरति-याम इति । प्रवासार्थमुद्यतस्य नायकस्य नायिकया बहोक्तिप्रत्युत्तरूपं पद्यमिदम् । याम इति । नायको ब्रूते-हे सुन्दरि ! यामः = पच्छामा, अह गच्छामीति भावः । “वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवता" इति सूत्रेण वर्तमानसमीपे भविष्यति वर्तमानता । नायिका उत्तरयति-हे पान्य = हे पथिक !, याहि = पाण्डवर्ण वाला है । अधर श्वाससे परिम्लान है, इसका ताप जलबिन्दुओंसे और कमलके पल्लयोंसे भी दूर नहीं होता है । इसका दुष्प्राप प्रार्थित पुरुष कौन है ? जो कि इसकी ऐसी शोचनीय अवस्थाकी भी उपेक्षा कर रहा है ?॥
कार्यज प्रवास-कार्यज प्रवास, भावी ( पीछे होनेवाला, भवन् (वर्तमान ) बोर भूत ( अतीत ) इसप्रकार तीनभेदोंसे युक्त है ॥ २० ॥
कार्यके बुनिपूर्वक होनेसे तीन भेद होते हैं । २०८।।
भावि-प्रवास-(उ०), ग्रन्थकारका पद्य है । इसमें प्रवासके लिए तत्पर पायककी नायिका के साथ उक्ति और प्रत्युक्ति है। नायक-"सुन्दरि ! हम जा रहे है"!
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२४८
साहित्यदर्पणे
शोकस्त गमने कुतो मम, ततो बाष्पं कथं मुञ्चसि १ । शीघ्रं न व्रजसीति, मां गमयितुं कस्मादियं ते त्वरा ? भूयानस्य सह त्वया जिगमिषोर्जीवस्य मे संभ्रमः ॥'
भवन् यथा
'प्रस्थानं बलयेः कृतं प्रियसखेर रजस्रं गतम्,
धृत्या न क्षणमा सितम् व्यवसितं चित्तेन गन्तुं पुरः ।
गच्छ, भवत्कृते प्रवास एवाऽभीष्टो नाऽहमिति आक्षेपाः गम्यत । नायकः सान्त्वयतिदयिते = हे प्रिये ! वृथा = व्यर्थप्रायं शोकं = मन्युं मा कृथाः = नो विवेहि । नायिका' वचनतस्ताटस्थ्यं दर्शयति - (हे कान्त ! ), ते तत्र गमने प्रयागे, मम, शोखः । कुतः = कस्माद्धेतोः भवेदिति शेषः । नायको ब्रूने ततः = तर्हि वाष्पम् = अश्रु कुतः = कारणात्, मुञ्चसि = त्यजसि शो काऽमावश्चेर बापमोचनं कुत इति भावः । नायिका ब्रूते शीघ्रं = सत्वरं न व्रजसि = नो गच्छसि इति = हेतोः, बाज्धं मुखान
,
गमन कारथितुमिति भावः
शीघ्रता । नायिका
1
=
मां
कान्तं गमयितु
तव, इयं वर्तमाना, स्वरा
मीति शेषः । नायकः पृच्छति कस्मात् = कारणात्, ते प्रत्युत्तरयति - त्वया सह = भवतासमं, जिगमिषोः गन्तुमिच्छो, मे जीवनस्य, भूयान् = प्रचुरः, संभ्रमः = स्वरा, स्वरप्रस्थाने मम प्राणी अपि शरीरं त्यक्षयन्तोति भावः । अत्र "यामः सुन्दरी" त्यनेन सन्दर्भेण नायकस्य भावी प्रवासः सूचितः ।
= मम, जीवस्य =
--
=
1
भवन्तं ( वर्तमानं ) प्रवासमुदाहरति - प्रस्थानमिति । प्राणोवतं कान्तं दृष्ट्वा नायिकायाः स्वजीवित प्रत्युक्तिरियम् । प्रियतमे = दयिततमे, यातुं = गन्तु निश्चितचेतसि = निर्णीतचित्ते सति वलयेः = कङ्कणैः, प्रस्थानं = प्रयाणं कृतं = विहितम्, काश्यॆन वलयभ्रंश इत्यवधेयम् । प्रियसः = अमीष्टमित्रः, असे अशुभिन बजस्रं = निरन्तरं गतं = प्रयाणं कृतम्, अश्रुधारा प्रवृत्तेति भावः । धृत्या धेर्येण क्षणम् = अल्पकालमपि, "कालाssवनों रत्यन्तसंयोगे" इति द्वितीया । न आसितं अवस्थितम् । एतेन विरहाशङ्कया नायिकाया अधीरता द्योत्यत्ते । चितेन = चेतसां नायिका - "पथिक ! जाओ" । नायक "प्रिये ! व्यर्थ शोक मत करो" । नायिका"तुम्हारे गमन में मुझे शोक क्यों होगा" ? नायक - "तब तुम आँसू क्यों गिरा रही हो ?" नायिका - तुम शीघ्र नहीं जाते हो ( इसलिए आँसू गिरा रही हूँ ) " । नायक - "मेरी यात्रा कराने के लिए क्यों तुम ऐसी शीघ्रता चाहती हो ?" नायिका - "तुम्हारे साथ जाने की इच्छा करनेवाले मेरे जीवनकी बहुत ही जल्दबाजी है" ।
वर्तमान प्रवास - नायिका नायकको प्रस्थानमें तत्पर देखकर अपने जीवनसे कहती है । प्रियतमके जानेके लिए निश्चितचित्त होनेपर सबके सब एक ही वार चल पड़े, जैसे कि -- कोंने प्रस्थान किया, तुम्हारे प्रिय मित्र आँसूओने भी निरन्तर
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तृतीया परिच्छेदः
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-
यातुं निश्चितचेतसि प्रियतमे सर्वे समं प्रस्थिता
गन्तव्ये सति जीवित ! प्रियमहत्सार्थः किमुत्यज्यते १॥' भूतो यथा-'चिन्ताभिः स्तिमितम्-' (पृ० २४६) इत्यादि । शापाद्यथा-'तां जानीया:-(पृ० १५६) इत्यादि।
संभ्रमो दिव्यमानुषनिर्घातोत्पातादिजः। यथा
विक्रमोर्वश्यामुर्वशीपुरूरवसोः।
अत्र पूर्वरागोक्तानामभिलाषादीनामत्रोक्तानां चाङ्गासौष्ठवादीनामपि दशानामुभयेषामप्युभयत्र सम्भवेऽपि चिरन्तनप्रसिद्धथा विविच्य प्रतिपादनम्। पुरतः अग्रत, एव, प्रियतमस्य यात्रायाः प्रागेवेति भावः । गन्तु = यातु, व्यवसितंव्यवसायः कृतः । एवं च सर्वे = सकलाः, मदोगः परिकरा इति भावः । समं युगरक, प्रस्थिताः = कृतप्रस्थानाः, अतएव हे जीवित हे जीवन!, गन्तव्ये सति गमनीये सति प्रियसुहृत्सार्थ: अभीष्टमित्रसङ्घः, किमु =कथं, त्यज्यते-मुच्यते, यात्रायां प्रियसुहत्सार्थोऽनुगन्तव्य इति भावः । अत्र भवर प्रवासः सूचितः । शार्दूलविक्रीडितं वृतम् ।।
भूतः प्रवासो यथा-"चिन्ताभिः स्तिमितम्" इत्यादिः ( २४६ तमे पृष्ठे )।
शापमूलकः प्रवासो पथा-"तां जानीयाः" इत्यादिः (१५६ तमे पृष्ठे)। संभ्रमः=दिव्यमानुषनिर्धातोत्पातादिजः, दिव्योत्पातजः =देवविध दुल्कादिजः' मानुषो. त्पातजः = राजाद्य त्पातजः, निर्घातोत्पातजः = पवनजन्यपवनजः, यया विक्रमावश्यामुर्वशीपुरूरवसोः । कामदशां विविनक्ति-मनोति । उभयेषाम् द्विविधानाम्, उभयत्रद्वयोः, पूर्वरागे प्रवासे च । चिरन्तनप्रसिधा-पुरातनालङ्कारिकप्रसिद्ध्या, विविच्य=3 विवेकं कृत्वा। गमन किया, धैर्य क्षणभर भी नहीं टिका और चित्तने पहले ही जाने के लिए व्यवसाय किया है । हे जीवन ! जाना ही है तो प्रिय मित्रोंका साथ तुम क्यों छोड़ रहे हो ?
भूत प्रवास-"चिन्ताभिः स्तिमितम्" इत्यादि ( २४६ पृष्ठमें)। शापज प्रवास--"तां जानीयाः" इत्यादि (१५६ पृष्ठमें )।
संभ्रमज प्रवास-सामान्यतः इसके तीन भेद होते हैं-१ दिगोत्पातज अर्थात् देवता, विजली और उल्का आदिसे उत्पन्न, २ मानुषोत्पातज-अर्थात् राजा अादिक उत्पातसे उत्पन्न, ३ निर्धातोत्पातज-अर्थात् वायुसे ताडित वायुमे उत्पन्न उत्पातसे जैसे विक्रमोर्वशीयमें उर्वशी और पुरूरवाका प्रवास । यहाँपर पूर्वरागमें कही गई अभिलाष आदि और यहाँपर कही गई अङ्गाऽसौष्ठव आदि कामदशाएं दोनों स्थानों में (पूर्वराग और प्रवासमें ) हो सकती हैं तो भी प्राचीन आलङ्कारिकोंकी प्रसिदिके बनुसार पृथक् रूपसे लिखी गई हैं।
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२१०
ear करुणविप्रलम्भ:
साहित्यदर्पणे
यूनोरेकतरस्मिन्गतवति लोकान्तरं विमनायते यदेकस्ततो भवेत् करुणविप्रलम्भाख्यः ॥ २०९ ॥
पुनर्लभ्ये ।
यथा
कादम्बयों पुण्डरीकमहाश्वेतावृत्तान्ते ।
पुनरलभ्ये शरीरान्तरेण वा लभ्ये तु करुणाख्यं एव रसः । किचात्राकाशसरस्वती भाषानन्तरमेव
शृङ्गारः,
तेरुद्भवात् । प्रथमं तु करुण एव, इत्यभियुक्ता मन्यन्ते ।
संगमप्रत्याशया
करुणविप्रलम्भं लक्षयति – यूनोरिति । यूतोः = युवतिश्च युवा च युवानी, तयो:, : पुमान् स्त्रिया" इत्येकशेषः । तरुणीतरुणयोः नायिकानायकयोरित्यर्थः । छोकान्तरं = परलोकं, गतवति = प्राप्तबति, एकतरस्मिन् = अन्यतरस्मिन् नायिकाजने मायके वा इति भाव:, पुनः = भूयः, लभ्ये = प्राप्ये सति, जीवता जनेनेति शेषः । एकः = एकतरः, नायिकानायकयोरिति शेषः । यदा = यस्मिन्समये, विमनायते = विमना भवति, तदा तस्मिन्समये, करुणविप्रलम्भाख्यो रसो भवेत् ॥ २०९ ॥
करुणविप्रलम्भमुदाहरति-यथा कादम्बर्यामिति । प्रथमं पुण्डरीको नायक उपरतः, तदा नायिका महाश्वेता विमनायते, कालान्तरे सा तं प्राप्तवती । इत्थं चात्र ब करणो रसः, प्रत्युत करुणविप्रलम्भो रसः ।
एतद्वैपरीत्येन पुन: भूयः, अलभ्ये = अप्राप्ये, शरीरान्तरेण देहान्तरेण वा लभ्ये सति एक्तरस्मिस्तु करुण एव रसः ।
अत्र विशेषमाह - किचेति । अत्र = कादम्बर्याम् । आकाशसरस्वती भाषामन्तरम् एव = अशरीरिवाप्यनन्तरम् एव शृङ्गारः सङ्गमप्रत्याशया - समागमप्रत्याशया; रते:- शृङ्गारस्थायिभावस्य उद्भवात् = आविर्भावात् महाश्वेताया इति शेषः । प्रथमस्तु = बाकाशसरस्वती भाषायाः प्रागिति भावः । करुण एव = शोकस्थायिको रस एव,
=
करुणविप्रलम्भ - नायिका और नायक इनमें एकके मर जानेपर दूसरा जो दुःखित होता है, और फिर वह मृत व्यक्ति लभ्य हो जाता है उसे "करु णविप्रलम्भ कहते हैं ।। २०९ ॥
जैसे कादम्बरी में पुण्डरीक और महाश्वेताके वृत्तान्त में है । एकके फिर अलभ्य बा दूसरे शरीरमें लभ्य होनेपर तो " करुणरस" ही होता है ।
इसमें विशेष विषय कहते हैं - यहाँपर पुण्डरीकके मरनेपर आकाशवाणी होनेके बाद ही फिर समांगम की आशा से रतिके आविर्भाव होनेसे महाश्वेताका शृङ्गारः रस है । आकाशवाणी से पहले तो करुणरस ही है ऐसा प्रामाणिक लोग मानते हैं
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तृतीया परिच्छेदः
२५१
यच्चात्र 'सलमप्रत्याशानन्तरमपि भवतो विप्रलम्भशृङ्गारस्य प्रवासाख्यो भेद एवं' इति केचिदाहुः, तदन्ये 'मरणरूपविशेषसंभवात्तद्भिन्नमेव' इति मन्यन्ते। अथ संभोग:
दर्शनस्पर्शनादीनि निषेवेते विलासिनी ।
यत्रानुरक्तावन्योन्यं संभोगोऽयमुदाहृतः ॥ २१० ॥ पादिशब्दादन्योन्याधरपानचुम्बनादयः । यथा-'शून्यं वासगृहम्-' (पृ०२४ तमे ) इत्यादि। अभियुक्ताः = प्रामाणिकाः । यच्च अत्र = कादम्बर्याम् । संगमप्रत्याशानन्तरम् =समागमप्रत्याशायाः पश्चात्, आकाशवाणीत इति शेषः। भवतः= विद्यमानस्य, विप्रलम्भपङ्गारस्य, प्रवासाख्य = प्रवासनामकः, भेदः = प्रकारः इति केचित् । कादम्बयाँ प्रथम करुणः, आकाशसरस्वतीभाषानन्तरं = प्रवासशृङ्गार इति धनिकादयः । तदन्येतेभ्यो भिन्नाः । मरणरूपविशेषसम्भवात् = मरणरूपः ( मृतिस्वरूपः ) यो विशेषः ( भेदः) तत्संभवात् ( तदुत्पत्तेः) तद्भिन्नम् अपि = प्रवासभिन्नम् अपि । पूर्वोक्तमतद्वयेऽपि विश्वनाथकविराजस्याऽरुचिः सूचिता, यतः पुण्डरीकस्य, तदात्वे मरणेऽपि आकाशवाण्यनुसारं पाज्जीवनात् न करुणों रसः एवं च तदात्वे मरणान्न प्रवासात्मको विप्रलम्मः बङ्गार, अपि तु करुणविप्रलम्भ एवेति भावः ॥ २०९ ॥
___ संभोगशङ्गारं लक्षयति-दर्शनस्पर्शनादीनीति । यत्र = यस्मिन् स्थले, बन्योन्यं = मिथः, अनुरक्ती = अनुरागयुक्ती, विलासिनौ= विलासिनी विलासी च; "पुमान् स्त्रिया" इत्येकशेषः । दर्शनस्पर्शनादीनि = विलोकनामर्शनप्रभृतीति, कर्माणि निषेवेते =कुरुतः, अयं संभोगः = संभोगशृङ्गारः, उदाहृतः। "मिथ:" पदेन केवलमेकस्य अनुरागप्रकाशने नाऽतिप्रसक्तिः ॥ २१० ॥
संभोगशृङ्गारमुदाहरति-"शून्यं वासगृहम्" इत्यादि (पृ. २४ तमे) ॥२१०॥ बोकि यहाँपर आकाशवाणीसे समागमकी आशाके अनन्तर भी होनेवाले विप्रलम्म पङ्गारका 'प्रवास' नामका ही भेद होता है ऐसा कुछ लोग ( आचार्य धनिक आदि) कहते हैं। उनसे भिन्न आचार्यलोग मरणरूप विशेष भेद होनेसे प्रवाससे भिन्न ही मानते हैं।
संभोग-एक दूसरे में अनुराग करनेवाले विलासी नायिका और नायक जहांपर परस्पर दर्शन और स्पर्श आदि करते हैं उसे "संभोग शृङ्गार" कहते हैं ।। २१० ॥
बादि शब्दसे परस्पर अधरपान और चुम्बन आदि लिये जाते हैं । जैसे-"शून्यं. भागहम्" (पृ० २४ ) इत्यादिमें ।
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२५२
साहित्यदर्पणे
संख्यातुमशक्यतया चुम्बनपरिरम्भणादिबहुमेदात् ।
अयमेक एव धीरः कथितः संभोगशृङ्गारः ॥ २११ ॥ तत्र स्याहतुषट्कं चन्द्रादित्यौ तथोदयास्तमयः । जलकेलिबनविहारप्रभातमधुरानयामिनीप्रभृतिः ॥२१२ ॥ अनुलेपनभूषाद्या वाच्यं शुचि मेध्यमन्यच्च ।
तथा च भरतः-'यत्किंचिल्लोके शुचि मेध्यमुज्ज्वलं दर्शनीयं वा तत्सर्व शृङ्गारेणोपमीयते ( उपयुज्यते च )' इति ।
सभोगशृङ्गारे विशेषमाह-संख्यामिति । चुनसाररम्भ मावहता-वृना : परिरम्भणादिः ( वक्त्रसंयोगालिङ्गनादिः) यो बहुभेदः ( अधिकप्रकारः) तस्माद हेतोः, सख्यातु = परिगणयितुम्, अशक्यतया = अशक्तिविषयत्वेन, अयं संभोगजारः धीरः = विद्वद्भिः, एक एव, कथितः = अभिहितः ।। २११ ॥
तत्रति। तत्र%संमोगशङ्गारे, ऋतुषटकम् = ऋतूनां ( वसन्तादीनाम् ) षट्कम् (षट्समूहः ), चन्द्रादित्यो = इन्दुमूगों, उद्यानमयः = उदयास्तमनकालो, जलकेलीत्यादिः = जलकेलिः ( सलिल क्रीडा ) वनविहारः ( उपवनक्रीडा), प्रभातम् (प्रातःकालः ), मधुपानं (मद्यपानम् ) यामिनी ( रात्रिः ), तत्प्रतिः (तदादिः) वाच्य इति शेषः । २१२ ॥
एव च अनुलेपनभूगद्याः = अनुलेपन ( चन्दनाद्यनुलेपनम् ) भूषा ( भूषणं भूषणपरिधानम् इत्यर्थः ) तदाद्याः ( तत्प्रभृतयः ), वाच्या इति शेषः । तथा च शुचिशुक्लं वस्त्रादीत्यर्थः मेध्यं = पवित्रम्, अन्यच्च = अपरं च वाच्यं = कथनीयम् ।
___ अत्राऽर्थे भरतोक्ति प्रदर्शयति-तथा चेति । शुचि = शुक्लं, मेध्यं = पवित्रम् उज्जलं = निर्म लम्, दर्शनीय = द्रष्टव्यम्, शय्यागृहादीति भावः । तस्, सर्व = सकलं; शृङ्गारेण = आदिरसेन, उपनीयते = उमितिविषयीक्रियते, उपयुज्यते च = उपयोगविषयी क्रियते, उद्दीपकत्वेनेति शेषः ।
चुम्बन और आलिङ्गन आदि अनेक भेद होनेसे परिगणन नहीं किये जा सकनेसे विद्वानोंने इस संभोग शृङ्गारका एक ही भेद मान लिया है ॥ २११ ॥
शृङ्गाररसमें छः ऋतु. सूर्य, चन्द्र, उनका उदर और अस्त होना जल क्रीडा वनविहार, प्रातःकाल, मदिरापान, रात्रि इत्यादि विषयों का वर्णन होता है ॥ २१२ ।
चन्दन आदिका लेपन, अलङ्कारधारण आदि और अन्य भी सफेद और पवित्र पदार्थ जो हैं उनका भी वर्णन होता है।
जैसे कि भरत मुनिने कहा है-लोकमें जो कुछ सफेर, पवित्र और उज्वल 'बीर दर्शनीय पदार्य हैं वे सब शङ्गारसे अमिा हो हैं अयोगविषय किये जाते हैं ।
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तृतीयः परिच्छेदः
यदुक्तम्
२५३
कथितश्चतुर्विधोऽसावानन्तर्यात्तु पूर्वरागादेः ॥ २१३ ॥
'न विना विप्रलम्भेन संभोगः पुष्टिमश्नुते । कषायते हि वस्त्रादौ भूयान् रागो विवर्धते ।।' इति । तत्र पूर्वरागानन्तरं संभोगो यथा कुमारसम्भवे पार्वतीपरमेश्वरयोः । प्रवासानन्तरं सम्भोगो यथा मम तातपादानाम् -
'क्षेमं ते ननु पक्ष्मलाक्षि ! किसअं खेमं मदङ्गं दिढं,
पूर्वरागाद्यानन्तर्येण संभोगशृङ्गारस्य चातुविध्यं वर्णयति कथित इति । असौ= संभोगशृङ्गारः पूर्वरागादेः = आदिपदेन मानादीनां परिग्रहः । आनन्तर्यात् = अनन्तरधावित्वात् तु चतुविध: - चतुष्प्रकारः कथितः ।
--
raise rate संवादं प्रदर्शयति-न विनेति । विप्रलम्भेन विना = विप्रलम्भशृङ्गारमन्तरेण, संभोगः= संभोगशृङ्गारः, पुष्टि = पोषं न अश्नुते = न प्राप्नोति । हि यतः वस्त्रादी = वसनादी, वषायिते = कषायेण रक्ते, भूयान् = प्रचुरः, रागः = लौहित्यं विवर्द्धते विवृद्धि प्राप्नोतीति भावः ॥ २१३ ॥
पूर्वरागानन्तरं संभोगशृङ्गारः, कुमारसंभवेऽष्टमसंगें ।
प्रवासाऽनन्तर संभोगशृङ्गारमुदाहरति-क्षेमंमिति । प्रवासाऽनन्तरभोगस्य नायको नायिकां पृच्छति - हे पक्ष्मलाक्षि = प्रचुरपक्ष्मयुक्तनयने सुन्दरि ! ते तव, क्षेमं = कुशलं, ननु = किम् ? नायिकोत्तरयति प्राकृते - किसनं इति । "कृशकं क्षेमं मदङ्गं दृढम्" इति संस्कृतच्छाया । मदङ्गं मदीयो देहाऽवयवः यत् दृढं गाढं, अत्यन्तमित्यर्थः । कृशकं = दुर्बलं जातं, सदेव क्षेमं कुशलम् । नायकः पुनः पृच्छति
यह ( संभोग शृङ्गार ) पूर्वराग आदिके अनन्तर होनेसे चार प्रकारका कहा गया है अर्थात् पूर्वरागके बाद होने वाला १ मानके बाद होने वाला २ प्रवास के बाद होनेवाला ३ और करुणविप्रलम्भके बाद होने वाला ४ जो कि कहा गया है- विप्रलम्भ शृङ्गारके बिना संभोग शृङ्गार पृष्ठ नहीं होता है । कषायसे रंगे वस्त्र में प्रचुर लोहित्य ( लालिमा ) बढ़ता है। उनमें पूर्व रागके अनन्तर संभोग जैसे कुमारसंभवमें पार्वती और परमेश्वरका है ।
प्रवासके अनन्तर संभोगका उदाहरण जैसे ग्रन्थकारके पिताका है ।
प्रवाससे प्रानेवर नायक - "हे सुन्दरि ! तुम्हारा कुशल है क्या ? नायिका!! यह मेरा शरीर अत्यन्त दुर्बल है" यही कुशल है । नायक - ' - " ऐसी दुर्बलता कैसे
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२५४
साहित्यदर्पणे
एतादृक्कशता कुतः ? तुह पुणो पुट्ठे सरीरं जदो । केनाहं पृथुलः प्रिये ! - पण इणोदेहस्स सम्मेलणात्,
त्वत्तः सुत्र ! न कापि मे, जइ इदं खेमं कुदो पृच्छसि १ ॥' एवमन्यत्राप्युह्यम् ।
अथ हास्यः
विकृताकारवाग्वेपचेष्टादेः कुहकाद्भवेत् ।
=
एतादृगिति । एतादृक् = एतादृशी, कृशता = दुर्बलता, त्वद्देहस्येति शेषः । कुतः कस्मात्कारणात् जातेति शेषः । नायिकोत्तरयति - तुह इति । " तव पुनः पुष्टं शरी यत" इति संस्कृतच्छाया । यतः = यस्मात्कारणात्, तव = भवतः, शरीरं = देवः ? पुष्टं = स्थूलम् । अत एव मदीया कृशतेति भावः । नायकः पुनः पृच्छति - केनेति । हे प्रिये = हे दयिते ! अहं केन कारणेन, पृथुलः पुष्टः, जात इति शेषः ।
=
नायिकोत्तरयति - पणइणीति । " प्रणमिनी देहस्य सम्मीलनात्" इति संस्कृतच्छाया । प्रणयिनीदेहस्य प्रियाशरीरस्य, संमीलनात् = संयोगात्, एवं पुष्टः प्रवासकाल इति शेषः । नायको ब्रूते स्वत्त इति । हे सुभ्रु = हे शोभन प्रयुक्ते - सुन्दरि !, स्वत्तः स्वद्, विनेति शेषः, मे मम, काऽपि प्रणयिनीति भावः ।
1=3
न = नो वर्तते । नायिका प्रत्युत्तरयति
1
इति । "यदि इदं क्षेमं कुतः पृच्छसि ? " इति । इदं यदि मदन्या काऽपि तव प्रणयिकी नाऽस्ति चेत्, तदेति शेषः । क्षेमं कुशलं, मदीयमिति शेषः । कुतः = कस्मात्कारणाद्, पृच्छसि = अनुयुनक्षि । प्रणयिवियोगे प्रणयिन्याः क्षेमं कथं पृच्छसीति भावः शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।।
उपसंहरति-- एवमन्यत्राऽपि : कहां = कल्पनीयम् ।
हास्यरसं वर्णयति - विकृताकारेत्यादिः । विकृताऽऽ का रवाग्वेषचेष्टाऽऽदेः = विकृतः ( विकारयुक्तः, स्वाभाविकभिन्न इत्यर्थः ) आकार : ( आकृति:), विकृता वाक् ( वाणी ), विकृतो वेश: ( नेपथ्यम् ) विकृता चेष्टा ( हस्तपादादिसंचालनम् ) यस्य सः, तदादेः, कुहकात् = चतुरात् जनात्, हास्यरसो भवति । स च हासस्थायि हुई?" नायिका - तुम्हारा शरीर पुष्ट है इसलिए मेरी दुर्बलता हुई । नायक - "प्रिये । मैं किस कारणसे पुष्ट हूँ" । नायिका -- प्रिया के शरीरके सम्मेलन से । नायक हे सुन्दरि ! तुम्हारे सिवाय मेरी कोई भी प्रिया नहीं है । नायिका - जब ऐसा है तो मेरा कुशल क्यों पूछते हो ? ॥
इसी तरह अन्यत्र ( ईर्ष्या आदिमें ) भी समझना चाहिए ।
हास्य - चतुरजनसे विकारयुक्त-वाणी वेष मोर चेष्टा बाविसे हास्य रस
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तृतीयः परिच्छेद
२५५
हास्यो हासस्थायिभावः श्वेतः प्रमथदैवतः ॥ २१४ ॥ विकृताकारवाक्चेष्टं यमालोक्य हसेज्जनः। .
तमत्रालम्बनं प्राहुस्तच्चेष्टोद्दीपनं मतम् ।। २१५ ।। अनुभावोऽक्षिसङ्कोचवदनस्मेरतादयः निद्रालस्यावहित्थाया अत्र स्युर्व्यभिचारिणः ॥ २१६ ।। ज्येष्ठानां स्मितहसिते, मध्यानां विहसितावहसिते च ।। नीचानामपहसितं दथातिहमितं तदेष पड़मेदः ।। २१७ ।। भावः = हासः ( हास्यम् ) स्थायी भावो यस्य सः, श्वेतः = श्वेतवर्णयुक्तः । प्रमथदेवतः = प्रमथः ( शिवपारिषदः) देवतं ( देवः ) यस्य सः, तादृशो भवति ॥ २१४ ।।
विकृताकारवागिति । विकृताऽऽकारवाक्चेष्टं = विकृताः (विकारयुक्ताः) आकारवाक्चेष्टाः ( आकृतिवाणीचेष्टनानि ) यस्य सः, तम् । तादृशं यं = पदार्थम्। आलोक्य = दृष्ट्वा , जनः, हसेत् = हास्यं कुर्याद, अत्र = अस्मिन् हास्यरसे, तं = जनम् आलम्बनम् = आलम्वनविभावं, प्राहुः कथयन्ति, तच्चेष्टा आलम्बनचेष्टा, उद्दीपनम्उद्दीपनविभावः, मतं = सम्मतम् ॥ २१५ ॥
अनुभाव इति । अत्र = हास्यरसे। अक्षिसङ्कोचवदनस्मेरतादयः. बक्षिसङ्कोचः ( नयनसंकोचनम् ) वदनस्मेरता (मुखविकासः ), तदादयः (तत्प्रभृतयः) अनुभावः । निद्रालस्याऽत्रहित्याद्या = निद्रा ( स्वाप:) आलस्यम् (अलसता) अवहित्था ( आकारगोपनम् ) तदाद्याः, व्यभिचारिणः = व्यभिचारिभावाः ।। २१६ ।।
हास्यभेदानाह-ज्येष्ठानां = श्रेष्ठानाम्, उत्तमप्रकृतीनामिति भावः, स्मितहसिते; भवत इति शेषः। मध्यानां = मध्यमानां जनानां, विहसिताऽवहसिते, भवतः । नीचानाम् = अधमप्रकृतीनां जनानाम्, अपहसितं, लथा अतिहसितं, भवत इति शेषः । तत् %D तस्मात्कारणात्, हासः = हास्यः, पड़भेदः =षट् भेदा यस्य सः, तादृशो भवतीति भावः । अनुपदमेषां लक्षणानि प्रतिपाद्यन्ते ॥२१७ ॥ प्रकट होता है, इसका स्थायी भाव 'हास' है वर्ण शुक्ल और देवता 'प्रमय' माने गये हैं ।। २१४॥
विकारयुक्त-आकार, वाणी और चेष्टासे युक्त जिसको देखकर लोग हमें वह आलम्बन होता है और उसको चेष्टा उद्दीपन होती है ।। २१५॥
नेत्रसङ्कोच और मुख विकास आदि अनुभाव होते हैं निद्रा, आलस्य और अवहिल्या ( आकारको छिपाना ) आदि इसमें व्यभिचारिभाव होते हैं ॥ २१६ ।।
उत्तमजनोंका स्मित और हसित, मध्यम जनोंका विहसित ओर अवहसित तथा नीच जनोंका अपहसित और अतिहसित इसप्रकार इसमें हारके छः भेट होई हैं ।११॥
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२५६
साहित्यदर्पणे
स्पन्दिताधरम् । कथितं बुधः ॥ २९८ ॥
ईषद्विकासिनयनं स्मितं स्याद् किश्चिल्लक्ष्यद्विजं तत्र हसितं मधुरस्वरं विहसितं सांसशिरः वयमवहसितम् । अपहसितं सास्राक्षं विक्षिप्ताङ्गं च भवन्यतिहसितम् ॥ २१ ॥
स्मितं लक्षयति - ईषदिति । ईर्षाद्वका सिनयनं = ईषत् = अल्पं यथा तथा विकासिनी ( विकसनशीले) नयने (नेत्रे ) यस्मिस्तत् । तथा स्पन्दिताऽघरं = स्पन्दितः ( किच्चिलितः ) अधरः ( ओष्ठः ) यस्मिस्तत्, तादृशं हास्यं "स्मितं” स्यात् = भवेत् ॥
हसितं लक्षयति - किचिदिति । तंत्र = हास्ये, किचिल्लक्ष्यद्वजं = किचित् * ( ईषत् यथा तथा ) लक्ष्या: ( दृश्या: ) द्विजाः ( दम्ताः ) यस्मिस्तत्, तत् हसित मिति बुधः = विद्वद्भिः कथितम् = प्रतिपादितम् ।। २१८ ।।
विहसितं लक्षयति- मधुरस्वरमिति । मधुरस्वरं = मधुरः ( मनोहरः ) स्वरः ( शब्दः ) यस्य तत् तादृशं हास्यं "विहसितम् " कथ्यते ।
अवहसितं लक्षयति- सांऽसशिरः कम्पं = अंसश्च शिरश्च अंशशिरः, "द्वन्द्वक्ष प्राणितूर्यसेनाऽङ्गानाम्” इति प्राण्यङ्गत्वात्समाहारद्वन्द्वः । अंसशिरसः कम्पः, अंसःशरः कम्पेन सहितम्, स्कन्धमस्तककम्पसहितं हास्यम् "अवहसितम्" कथ्यते ।
अपहसितं लक्षयति-- सास्राक्षं = अस्रेण ( अश्रुणा ) सहिते सासे, तादृशे बक्षिणी यस्मितत. तादृशं हास्यम् " अपहसितम्" । अतिहितितं लक्षयति-विक्षिप्ताऽङ्ग= विक्षिप्तानि ( इतस्ततः प्रेरितानि ) अङ्गानि ( देहावयवा: ) यस्मस्तत्, तादृशं हास्यम्. "अतिहसितम्" ।। २१९ ।।
स्मित- जिस हास्य में नेत्र कुछ विकसित हों और ओष्ठ कुछ हिले उसे "स्मित" कहते हैं ।
हसित - जिस हास्यमें दाँत कुछ देखे जायें उसे पण्डित लोग " हसित " कहते हैं ।। २१८ ॥
विहसित - मधुर स्वरवाले हास्यको “विहसित" कहते हैं ।
प्रवहसित - कन्धे और शिरमें कम्पके साथ होनेवाले हास्यको "अवहसि"
कहते हैं ।
पहसित - जिस हास्यमें आंखोंसे आँसू आ जाय उसे " अपहसित" कह? हैं । प्रतिहसित - जिस हास्यमें हाथ पैर आदि अङ्ग पटके जायें उसे "अतिइसित" कहते हैं ।। २१९ ॥
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तृतीयः परिच्छेदः
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यथा
गुरोगिरः पञ्चदिनान्यधीत्य, वेदान्तशास्त्राणि दिनत्रयं ।। अमी समाघ्राय च तर्कवादान्समागताः कुक्कुटमिश्रपादाः॥' अस्य लटकमेलकप्रभृतिषु परिपोषो द्रष्टव्यः । अत्र च
यस्य हासः, स चेत् क्वापि साक्षान्नैव निबध्यते । तथाप्येष विभावादिसामर्यादुपलभ्यते ॥ २२० । अभेदेन विभावादिसाधारण्यात्प्रतीयते । सामाजिकैत्तता हास्यरसाऽयमनुभूयते ॥ २२१ ॥
हास्यरसमुदाहरति-गुरोरिति । अमी = एते, कुक्कुट मिश्रपादा:= कुक्कुट मिश्रचरणाः, गुरोः-प्रभाकरभट्टस्प, गिर:=मीमांसाशास्त्रविशेषरूपाः, पञ्च दिनानि = पञ्च दिवसान्, वेदान्तशास्त्राणि = उत्तरमीमा सादर्शनग्रन्थान्, दिनत्रयं = दिवसत्रितयम्, "उभयत्र" कालाऽऽवनोरत्यन्तसंयोगे । इति द्वितीया। अधीत्य = पठित्वा, तर्कवादांश्चन्यायदर्शनवादांश्च, समाघ्राय =सम्यक् घ्राणगोचरीकृत्य समागताः = सम्प्राप्ताः । अत्र कुक्कुटमिश्रादा आलम्बनम् । तेषां पञ्चत्रिदिनाऽध्ययनादय उद्दीपनानि । शरीरच्छ्वा. सननेत्रसङ्कोचादयोऽनुभावाः, हर्षाऽवहित्थादयो व्यभिचारिभावाश्च अनुक्ता अपि 'झटित्यन्यसमाक्षेपे तथा दोपो न विद्यते” इति वचनानुमारात् सामर्थ्यांदूह्याः, हासः स्थायि. भावः एवमन्यत्रःऽपि ।
अस्यति । अस्प = हास्यरसस्य, लटकमेलकप्रभृतिषु = लटकमेलकादिपु, प्रभृतिपदेन हास्याऽर्णवादीनां परिग्रहः । परिपोष: परिपोषणम् ।। २१९ ॥
हास्यरसे विशेषमाह-यस्येति । यस्य हासः = गत्सम्बन्धी, यदाळम्बन इति भाव. । स = आलम्बनविभावः, क्वाऽपि = कुत्रनित्स्थले, साक्षात् = वचनत , नैव निबध्यते चेत् नैव प्रतिपाद्यते यदि, तथाऽपि, एषः = आलम्बनविभावरूप:, विभावादिसामर्थ्यात = यथास्थितविभावाऽनुभावादिसामर्थ्यान्; उपलभ्यते-कल्प्यते, सामाजि: कैरिति शेषः । ततः = अनन्तरं, सामाजिकः - मध्यः, विभावादिसाधारात् :विभावादीनां साधारण्यात् = साधारणीकरणव्यापारात्, अभेदेन = स्वपरसाधारणत्वेन,
उ.-ये कुक्कुटमिश्रजी प्रभाकर मीमांसकक ग्रन्थोंको पाँच दिनो तक और वेदान्तशास्त्रोंको तीन दिनों तक पढ़कर और न्यायदर्शनोंके वाक्यों को सूघकर आ गये हैं । हास्य रसका परिपोष लटकमेलक आदि प्रहसनाम दधना चाहिए। जिसका हाम किसी अन्य साक्षात् निबद्ध नहीं किया गया है तो भी यह विभाग आदि सामर्थ्य से उपलब्ध होता है ।। २२० ।
१७ साल
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साहित्यदर्पण
एवमन्येष्वपि रसेषु बोद्धव्यम् । . अथ करुणः
इष्टनाशादनिष्टाप्तः करुणाख्यो रसो भवेत् । धीरैः कपोतवर्णोऽयं कथितो यमदैवतः ।। २२२ ।। शोकोऽत्र स्थायिभावः स्याच्छोच्यमालम्बनं मतम् । तस्य दाहादिकावस्था भवेदुद्दीपनं पुनः ॥ २२३ ।। अनुभाग दैवनिन्दाभूपातकन्दितादयः ।
वैवोच्छवासनिःश्वासस्तम्भप्रलपनानि च ॥ २२४ ।। प्रतीयते = ज्ञायते, अनुक्ता विभावादिरिति शेषः । ततश्च अयं हास्यरसः = द्वितीयो रसः, अनुभूयते अनुभूतिविषयीक्रियते । पूर्वोक्तोऽनुवाद एषः ।। २२० ।।
एवमिति । एवम् = इत्थमेव, अन्येषु अपि = अपरेषु अपि, रसेषु, बोद्धव्यं = बोध्यम् ।। २२१ ।।
करुणरसं वर्णयति-इष्टनाशादिति । इष्टनाशात्-प्रियनाशात्, अनिष्टाप्ते.= अनभीष्टविषयप्राप्तः, करुणाऽऽख्यः = करुणनामकः, रसो भवेत् । धीरः = विद्भिः , अयं = करुणरसः, कोतवर्णः = पारावतवर्णः, यमदैवतः = यमः ( यमराजः ) देवतं ( देवता ) यस्य सः कथितः ।। २२२ ॥
शोक इति । अत्र = करुणरसे, शोकः स्थायिभायः स्यात् । शोच्यं शोचनीय, शोकविषयीभूतं वस्तु, आलम्बनम् = आलम्बनविभावः, मतम् । पुनः = भूयः, तस्य = शोन्यस्य, दाहाऽऽदिकाऽवस्था = दहनप्रभृतिदशा, उद्दीपनम् = उद्दीपनविभावो भवेत् ॥ २२३ ।। ।
अनुभावा इति । देवनिन्दाभूपातक्रन्दितादय- -- देवनिन्दा ( भाग्यकुत्सा ), भूपातः (भूमिनिपतनम्), क्रन्दितं (रोदनम्) तदादयः (तत्प्रभृतयः), तथा वैवर्योच्छवासनिःश्वासस्तम्भप्रलपनानि च-वैवर्ण्यम ( विवर्णा ), उच्छ्वासः ( अन्तर्मुखश्वासः ), फिर विभाव आदिके साधारणीकरण व्यापारसे अनुक्त होनेपर भी विभाव आदि प्रतीत होता है, तब सामाजिकोंको हास्य रसका अनुभव होता है ।। २२१ ॥
इसी तरह अन्य रसोंमें भी समझना चाहिए।
करुण-इष्टके नाश और अनिष्टकी प्राप्तिसे करुण रस होता है विद्वानोंने इसका कपोत-सावर्ण और यमराजको देता बताया है ।। २२२ ।।
इसमें स्थायी भाव शोक है और शोचनीय वस्तु विनष्टबंधु आदि आलम्बन माना गया है. शोचनीयको दाह आदि अवस्था "उद्दीपन" होता है ।। २२३ ॥
भाग्यकी निन्दा, जमीनपर गिरना, रोना आदि, विवर्णता, उच्छ्वास, नि:श्वास,
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तृतीयः परिच्छेदः
२५९
निवेदमोहापस्मारव्याधिग्लानिस्मृतिश्रमाः । विषादजडतोन्मादचिन्ताद्या व्यभिचारिणः ।। २२५ ।। शोच्यं विनष्टबन्धुप्रभृति। यथा मम राघवविलासे'विपिने क जटानिबन्धनं ? तव चेदं क मनोहरं वपुः १ ।
अनयोर्घटनाविधेः स्फुटं ननु खड़गेन शिरीषकर्त्तनम् ।।' निःश्वासः (मुखनासाभ्यां निर्गतो वायुः), स्तम्भः (जड मावः, चेष्टाराहित्यमिति भावः, प्रलपनम् ( अनर्थकवचन कथनम् ), एतानि चाऽनुभावाः ।। २२४ । '
करुणरसे व्यभिचारिभावानाह-निर्ववेत्याधिः । निर्वेदः ( विरक्तिः ), मोहः ( मूर्छा ), अपस्मारः ( रोगविशेष: ) व्यावि: ( सामान्यरोगः) ग्लानिः ( म्लानिः ), स्मृतिः ( स्मरणम् ), श्रमः ( परिश्रमः )। एवं च विषादादिः = विषादः ( खेदः ), जडता ( स्तब्धता ), उन्मादः ( चित्तविभ्रमः ) चिन्ता ( आध्यानम् ), इत्याद्याः व्यभिचारिणः ।। २२५ ॥
शोच्यं = शोचनीय, विनष्टबन्धुपभूति ।
करुणरसमुदाहरति-विपिन इति । वनगमनतत्परं रामं दृष्ट्वा दशरथस्योक्तिरियम् । विपिने = धने, तव, जटानिबन्धनं = जटाधारणं, क्व = कुत्र, इदं दृश्यमान, मनोहरं = सुन्दरं, वपुश्च = शरीरं च, क्व = कुर; उभयोमहदन्तरमिति भाव: । अत एव पूर्वा विषमाऽलङ्कारः । विधेः = ब्रह्मणः, अनयोः = जटानिबन्धनमनोहरवपुषोश्च, घटनाविधेः = एकत्र संघटनाविधानात्, खड्गेन = असिना, शिरीषकर्तनं = शिरीषपुठाच्छेदनं, स्फुटं = व्यक्तं, ननु = निश्चयेन । उत्तरार्द्ध निदर्शनाऽलङ्कारः, तथा चैतयो. योरलङ्कारयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः । अत्र राम आलम्बनविभावः, तस्य वनगमनोद्यम उद्दीपनविभावः, शोकः स्थायिभावः, देव निन्दा अनुभावः, ग्लान्याद्या व्यभिचारिभावा: आक्षेपलभ्या: । वियोगिनी वृत्तम् । बडभाव, प्रलाप ( निरर्थक वचन ) ये सब करुण रसमें अनुभाव होते हैं ।। २२४ ।।
निर्वेद ( विरक्ति ), मोह, अपस्मार (मिरगी रोग), व्याधि ( सामान्यरोग), ग्लानि, स्मरण, परिश्रम, विषाद, जडता, उन्माद, और चिन्ता आदि. इसमें व्यभिचारी भाव हैं ।। २२५ ॥
उ० -ग्रन्थकारके "राघवविलास" नामके ग्रन्थका पद्य है-वनमें जानेके लिए तत्पर रामको देख कर महाराज दशरथ कहते हैं-जङ्गलमें जटाओं को बाँधना कहाँ और तुम्हारा यह सुन्दर शरीर कहाँ, देवसे की गई इन दो विषयोंकी योज: खड्गसे शिरीष पुष्पको काटनेके समान है।
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२६०
साहित्यदर्पणे
अत्र हि रामवनवासजनितशोकात्तस्य दशरथस्य देवनिन्दा। एक बन्धुवियोगविभवनाशादावप्युदाहार्यम् । परिपोषस्तु महाभारते स्त्रीपर्वणि द्रष्टव्यः। अस्य करुणविप्रलम्भाद् भेदमाह- ..
शोकस्थायितया भिन्नो विप्रलम्भादयं रसः ।
विप्रलम्भे रतिः स्थायी पुनः संभोगहेतुकः ।। २२६ ।। अथ रौद्रः
रौद्रः क्रोधस्थायिभावा रक्तो रुद्राधिदेवतः ।
आलम्बनमरिस्तत्र तच्चेष्टोद्दीपनं मतम् ।। २२७ ।। पत्रेति । रामेत्यादि-रामस्य ( राघवस्य ) यो वनयासः ( अरण्यनिवासः ), तेन जनितः ( उत्पादितः ) यः शोकः ( मन्युः ) तेन आर्तस्य ( पीडितस्य ) । बन्धुवियोगेत्यादिः = बन्धुवियोगे ( बान्धवविरहे ) विभवनाशादो (सम्पतिनाशादी ) अपि उदाहार्यम् = उदाहरणीयम् ॥ २२६ ।।
प्रस्यति । अस्य = करुणस्य, करुणविप्रलम्मात्, भेदं = व्यावृत्तिम् । आह-- शोकस्थायितयेति । अयं, करुणो रसः, गोकस्यायितया शोकस्य स्थायि मावत्वेनेत्यर्थः । विप्रलम्मात् = करुणविप्रलम्भात्, भिन्नः = भेदप्राप्तः । विप्रलम्भे = करुणविप्रलम्भे, पुनः = भूयः, संभोगहेतुकः = संमोगकारणः, स्थायी = स्थायी भावो, रतिः, शोकस्तु अप्रधानत्वेन प्राग्वर्तीति भावः।
रौद्ररसं वर्णयति-रौद्र इति । रौद्र:-रौद्ररसः, क्रोधस्थायिभावः क्रोधः स्थायी भावो यस्य सः । रक्त:-रक्तवर्णः, रुद्राऽधिदेवत: रुद्रः ( हरः) अधिदेवतम् (अधिष्ठाता देवः ) यस्य सः । तत्र = रोद्ररसे, आलम्बनम् = आलम्बनविभावः, अरिः = शत्रुः, तच्चेष्टा = अरिचेष्टा, उद्दीपनं मतम् = उद्दीपनविभावः सम्मतः ।। २२७ ।।
इस पद्यमें रामके वनवासस उत्पन्न शोकस पीडित दशरथसे की गई देवानन्दा है। इसी प्रकार बन्धुवियोग और धननाश आदिमें भी उदाहरण देना चाहिए । करुणरसका परिपोष महा मारतमें स्त्रीपर्वमें देखना चाहिए।
करुण रसका करुण-विप्रलम्भसे भेद बताते हैं
करुणरस, शोक स्थायी होनेसे करुणविप्रलम्भसे भिन्न है। करुण-विप्रलम्ममें फिर संभोगका हेतु स्थायी भाव रति है ।। २२६ ॥
रोज-रोदरसका स्थायी भाव क्रोध है, इसका वर्ण लाल है और देवता रुद्र हैं । उसमें आलम्बन विभाव शत्रु होता है और उसकी चेप्टा उद्दीपन है ।। २२७ ।।
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तृतीयः परिच्छेदः
२६१
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मुष्टिप्रहारपातनविकृतच्छेदावदारणेश्चैव । संग्रामसंभ्रमाद्यैरयोद्दीप्तिभवेत् प्रौढा ॥ २२८ ।। भ्रूविभङ्गोष्ठनिर्दशबाहुस्फोटनतर्जनाः । आत्मावदानकथनमायुधोत्क्षेपणानि च ॥ २२९ ॥ अनुभावास्तथाक्षेपकरसंदर्शनादयः । उग्रतावेगरामाश्चस्वेदवेपथवो मदः ॥ २३० ॥
मोहामषादयस्तत्र भावा स्युव्यभिचारिणः । .. मुष्टिपवम् । मुष्टीत्यादि.=मुष्टिप्रहारः (मुष्टिताडनम्) मुष्टिपदम् अङ्गान्तरोपलक्षकम् । पातनम् ( अरेभूमिपातनम् ), विकृत (विरुद्धाचरणम् ), छेदः (द्वधीकरणं, खड्गादिना अरेश्छेदनम् ) अवदाहरणम् (शूलादिना अरेविदारणम् ), एवं प संग्रामसंभ्रमाद्यः = युद्धत्वरादिभिः, अस्य-रौद्ररसस्य, प्रौढा = महती, उद्दीप्तिःउद्दीपनं भवेत् ।। २२८ ।।
विभङ्गोष्ठेत्यादिः । शैद्ररसाऽनुभावाग्निदिशति-भ्र विभः। (भ्रुकुटिदर्शनम् ) ओष्ठनिर्दशः ( दशनेन अधरदंशनम् ), बाहुस्फोटनं ( भुजताडनम् ), तर्जना (भर्सनगिरः)। आत्माऽत्रदानकथनम् आत्मनः (स्वस्य) अवदानं ( कृतं शौर्यकर्म)। तस्य कयनं ( कीर्तनम ) आयुधोत्क्षेपणानि-अस्त्रोत्प्रेरणानि ।। २२९ ।।
अनुभावा इति । तथा तेनैव प्रकारेण, आक्षेपः = अपवादः, क्रूरसन्दर्शनं - कठोरदृष्टिः, तदादयः, अनुभाषा: = रोदरसस्येति शेषः ।
रोदरसस्य व्यभिचारिभावाग्निदिशति-उग्रतेत्यादिः। उग्रता ( रोद्रता ) वेगः ( जवः ) रोमाञ्चः ( रोमकण्टकः ), स्वेदः ( धर्मजलम् ), वेपथुः ( कम्प: ), मदः = अहङ्कारः ।। २३० ।।
व्यभिचारिभावाग्निदिशति-मोहाऽमर्षादय इति । मोहः ( वैचित्यम् ) अमर्षः (कोपः ) इत्यादयः, तत्र रौद्ररसे व्यभिचारिणो भावाः ।।
मुष्टिसे प्रहार, गिराना, विरुद्ध आचरण, काटना, फाड़ना, संग्राममें सत्वरता रत्यादि कर्मोंसे इसका अधिक उद्दीपन होता है ।। २२८ ॥
भ्र कुटिको टेढ़ी करना ओष्ठको चबाना, ताल ठोंकना, भर्सन करना, अपनी शूरताका कीर्तन, शस्त्रोंको उठाना ॥ २२९ ॥
आक्षेप और कठोर दृष्टि ये सब रोद्रके अनुभाव हैं। उग्रता, आवेग, रोमाञ्च, स्वेद, कम्प और मद ।। २३० ।। मोह तथा क्रोध आदि उसमें व्यभिचारिभाव होते हैं ।
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२६२
साहित्यदर्पणे
यथा
'कृतमनुमतं दृष्ट वा यरिदं गुरुपातकं
मनुजपशुभिर्निमर्यादेर्भवद्भिदायुधैः । नरकरिपुणा साधं तेषां सभीमकिरीटिना
मयमहमसम्मेदोमांसः करोमि दिशां बलिम् ॥' अस्य युद्धवीराद्भ दमाह
रक्तास्यनेत्रता चात्र मेदिनी युद्धवीरतः ।। २३१ ।।
रौद्र समुदाहरति-कृतमिति । वेणीसंहारनाटकस्थं पद्यम् । स्वपितुāणस्य वधेन क्रुद्धस्याऽश्वत्थाम्न उतिरियम् । मनुजपशुभिः = नरपशुभिः, धर्माऽधर्मज्ञानराहित्येन पशुसदर्शरिति भावः । निर्यादैः = मर्यानारहितः, गुरुत्वमर्यादाज्ञानशून्यरिति भावः, उदायुधः - उत्तोलितशस्त्रः, येः भवद्भिः युष्माभिः, इदं = सपोऽनुष्ठितं गुरु = महत्, पातकं = पातित्यावहं पापं, गुरुहत्यारूपमिति भावः । कृतं = विहित, धृष्टद्युम्नेनेति शेषः, अनुमतम् अनुमोदनं कृतम्, दष्टं वा-अवलोकितं वा, नरकरिपुणा साध श्रीकृष्णेन समं, सभीमकिरीटिनां = भीमसेनाऽर्जुनसहितानां, तेषां = सर्वेषाम् एवं, अयं = सेषो सन्निकृष्टस्थः, अहम् = अश्वत्थामा, असृङ्मेदोमांसः = रुधिरवसा• पललः, दिशा = दिगवस्थितशगालादीनाम्, बलिम् = उपचारतव्यं, करोमि = विदधामि । अस्मिन्पचे धृष्टद्युम्नादय आलम्बनविभावाः, तस्कृतद्रोणहत्यादय उद्दीपनविभावाः, रिपूर्णा हननप्रतिज्ञा अनुभावः, आक्षेपलभ्या गळदयाँ व्यभिगरिभावाः । क्रोधः स्थायीभावः ।
अस्य युद्धवीराद्भदमाह-रक्तास्यनेत्रतेति । अत्र = रोदरसे, रक्ताऽऽस्यनेत्रता = रक्त ( लोहितवणे ) आस्यनेत्रे ( मुखनयने ) यस्य सः, तस्य पुरुषस्य भावः, रौद्ररसस्य स्थायीभावः क्रोध इति भावः । युद्धवीरतः = युद्धवीरात्, भेदिनी = भेदकारिणी, रोदरसे वीररसे चोभयत्र अरेरालम्बनस्वेऽपि क्रोधाविर्भावे रौद्रः, उत्साहा. विर्भावे वीर इत्यनयो द इति भावः ॥ २३१ ॥
रौद्र उ०-वेणी संहार में अपने पिता द्रोणाचार्यके वधसे क्रुद्ध अश्वत्थामाको उक्ति है । नरपशु, मर्यादाशून्य और शस्त्रोंको धारण करनेवाले जो तुम लोगोंने यह महापातक किया है, अनुमोदन किया है वा देख लिया है, श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन इन सबका रुधिर, चर्बी और मांससे मैं दिशाओंको बलि देता हूँ।
रौद्र रसका युद्धवीरसे भेद कहते हैं-रौद्र रसमें मुख और नेत्र लाल वर्णके होते हैं, यही वीररसके युद्धवीरसे भेद करनेवाला है। दोनों रसोंमें शत्रु आलम्बन होता है परन्तु रौद्र रसमें स्थायी भाव क्रोध और चीररसमें उत्साह स्थायी भाव होता है ॥ २३१॥
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अथ वीरः
तृतीयः परिच्छेदः
उत्तमप्रकृतिवर
उत्साहस्थायिभावकः । महेन्द्रदेवतो हेमवर्णोऽयं समुदाहृतः ॥ २३२ ॥ आलम्बन विभावास्तु विजेतव्यादयो मताः । विजेतव्यादिचेष्टाद्यास्तस्योंद्दीपनरूपिणः 1
अनुभावास्तु तत्र स्तुः सहानान्वेषणादयः || २३३ ॥ सञ्चारिणस्तु धृतिमतिगर्वस्मृतितर्करोमाञ्चाः । सच दानधर्मयुद्धैर्देयया च समन्वितश्चतुर्धा स्यात् ।। २३४ ॥
२६३
वीररसं वर्णपति-- उत्तमप्रकृतिरिति । उत्तमा ( श्रेष्ठा, धीरोदात्तरूपेति भावः) प्रकृति: ( नायकः स्वभावो वा ) यस्य सः । उत्साहस्थायिभावकः = उत्साहः स्थायिभाव' यस्य सः । एतादृशो वीररसः । महेन्द्रदैवतः = महेन्द्रः दैवतं ( देवता ) यस्य सः, अयं = वीररसः, हेमवर्ण: = हेम्नः ( सुवर्णस्य ) इव वर्णो यस्य सः । अयं वीररसः, समुदाहृतः = उक्तः ॥ २३२ ॥
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विजेतव्यादय: = विजेयत्वप्रभृतयः, आलम्बनविभावा मताः ।
अत्र आद्यशब्देन दानवीरे सम्प्रदानभूतपात्रादिः, धर्मवीरे धर्मादिः, युद्धवीरे शत्रुरूपविजेतव्यादिः दयावीरे च दीनाविश्वालम्बनविभावो यथायथं बोद्धव्यः । तस्य = वीररसस्य, विजेतव्यादिचेष्टाद्याः = युद्धवीरे विजेतव्यानां ( शत्रुप्रभृतीनाम् ) चेष्टाद्या: ( अनिष्टाचरणाद्याः), उद्दीपनरूपिणः = उद्दीपनविभावाः । तत्र = वीररसे, सहायाऽन्वेषणादय: सहकारिगवेषणादयः, आदिपदेन दानवीरे दानाऽर्थसंग्रहादयः, धर्मवीरे यज्ञाचरणादयः, युद्धवीरे सन्धिविग्रहादिप्रयोगाः, दयावीरे च सान्त्वनवाक्यादयोऽनुभावाः ॥ २३३ ॥ | वीररसस्य सञ्चारिभावान्प्रतिपादयति - सञ्चारिणस्तु । घृत्यादयः सवारि भावाः । धृतिः = धैर्य सन्तोषों वा । मतिः = अर्थनिर्द्धारणम् । गर्वः = अभिमानः । स्मृति: = स्मरणम्, तर्कः = ऊहः । रोमाञ्चः = रोमाञ्चजनको हर्षः, रोमाञ्श्वस्य सञ्चारिभावत्वाऽभावालक्षणया मर्यो बौद्धव्यः । स च = वीररसश्च दानधर्मयुर्द्धर्दयया च समन्वितः = युक्तः, चतुर्धा स्यात् ॥ २३४ ॥
वीर-वीर रसमें प्रकृति ( नायक ) उत्तम होता है, इसमें स्थायी भाव उत्साह और इसके देवता महेन्द्र और इसका वर्ण सुवर्णके समान कहा गया है ॥२३२॥ जीतने के योग्य शत्रु आदि इसमें आलम्बन विभाव माने गये हैं, उनकी चेष्टा आदि उद्दीपन विभाव होते हैं, इसमें सहायका अन्वेषण आदि अनुभाव होते हैं ।। २३३ ।। (सन्तोष) मति, गर्व, स्मरण, तर्क और रोमाञ्च इसमें सवारिभाव होते हैं। वीरके चार भेद होते हैं- दानवीर, धर्मवीर, युद्धवीर और दयावीर ॥ २३४ ॥
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साहित्यदर्पणे
स च वीरो दानवीरो धर्मवीरो युद्धवीरो दयावीरश्चेति चतुर्विधः । तत्र दानवीरो यथा परशुरामः
१६४
'त्यागः सप्तसमुद्रमुद्रित नही निव्र्याजदानावधि:' इति ।
अत्र परशुरामस्य त्यागे उत्साहः स्थायिभावः संप्रदानभूतब्राह्मणैरालम्बन विभावः सत्त्वाध्यवसायादिभिश्वोद्दीपन विभावर्विभावितः सर्वस्वत्यागादिभिरनुभावेरनुभावितो हर्षधूत्यादिभिः संचारिभिः पुष्टिं नीतो दानवीरतां भजते ।
धर्मवीरो यथा युधिष्ठिरः
'राज्यं च वसु देहच भार्या भ्रातृसुताश्च ये । यश लोके ममागतं तद् धर्माय सदोद्यतम् ॥'
दानवीरो धर्मवीरो युद्धवीरो दयावीरश्चेति वीररसश्चतुविधः ॥ २३४ ॥ दानवीर: परशुराम यथा-त्याग इति । सप्तसमुद्रमुद्रित महीनिर्व्याज दानाऽवधिः = सप्तभि: ( सप्तसंख्यक: ) समुद्र: ( सागर ) मुद्रिता ( वेष्टिता ) या मही ( पृथिवी ) तस्या निर्व्याजं ( निश्छलम् ) यत् दानं ( . वितरणम् ) तदेव अवधि: ( सीमा ) यस्य
'
सः तादृशः; त्यागः = बितरणं, परशुरामस्येति भावः । अत्र = अस्मिन् उदाहरणे, ब्राह्मण : = विप्रैः कश्यपादिभिरिति भावः । सत्त्वाऽध्यवसायादिभिः = सत्वम् ( स स्वगुण: ), अध्यवसाय : ( उत्साह: ) तदादिभि: ( तत्प्रभृतिभि: ), उद्दीपनविभाव:, विभावितः = सञ्जातविभावः । अनुभावितः -- सञ्जाताऽनुभावः । पुष्टि = पोषण, नीत: प्रापितः, दानवीरतां दानवीररसपावं, भजते = आश्रयति ।
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धर्मवीरमुदाहरति — राज्यमिति । युधिष्ठिरो ब्रूते - राज्यं = राष्ट्र, वसु = अन्ये = अपरे, भ्रातृसुताः प्रातरः आयत्तम् = अधीनम् अस्ति तत् = सकलं, सर्वदा, उद्यतं = प्रस्तुतमस्तीति शेषः ।
अत्र युधिष्ठिरस्य धर्मे उत्साहः स्थायी भावः । धर्म आलम्बनविभात्रः, धर्मस्येष्टसाधनताज्ञानमुद्दीपनविभावः । एतादृशी उक्तिरनुभावः । प्रतिहर्षादयः सञ्चारि भावाः । एतेषां संयोगाद धर्मवीररसस्य निष्पत्तिः ।
धनं देहः = शरीरं, भार्या पत्नी, ये सुताश्च एवं च लोके = भुवने, यच्च मम, धर्माय = धर्मार्थम्, सदा
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जानवर जैसे परशुराम - सात समुद्रोंसे वेष्टित पृथ्वीको निश्छल भावसे करना देना जिन ( परशुराम ) के त्यागकी सीमा है । इस पद्य में परशुराम के त्याग में उत्साह स्थायी भाव है, सम्प्रदानरूप ब्राह्मण-आलम्बन विभावोंसे, सत्त्वगुण और उत्साह आदि उद्दीपन विभावसे विभावित होकर सर्वस्वत्याग आदि अनुभावोंसे अनुमावित होकर और हर्ष और धैर्य आदि सञ्चारिभावोंसे पुष्ट होकर दानवीरके रूपको प्राप्त करता है। धर्मवीर जैसे युधिष्ठिर । युधिष्ठिर कहते हैं । राज्य, धन, शरीर, पत्नी, भाई और पुत्र आदि लोक जो मेरे अधीन हैं. वे सब धर्म के लिये सदा तैयार हैं ।।
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तृतीयः परिच्छेदः
२६५
युद्धवीरो यथा श्रीरामचन्द्रः'भो लल्केश्वर ! दीयतां जनकजा, रामः स्वयं याचते,
__कोऽयं ते मतिविभ्रमः १ स्मर नयं, नाथापि किंचिद्गतम् । नैवं चेत् खरदूषत्रिशिरसां कण्ठासृजा पडिल:
पत्त्री नेष सहिष्यते मम धनुर्ध्यावन्धबन्धूकृतः॥' दयावीरो यथा जीमूतवाहन:
'शिरामुखैः स्यन्दत एव रक्तमद्यापि देहे मम मांसमस्ति ।
युद्धवीररसमुदाहरति-भो लश्वर इति। बालरामायणस्थं पमिदम् । भगवतः श्रीरामस्य गवणं प्रत्युक्तिरियम् । भो लङ्केश्वरहे रावण !, जनकजा = जानकी, सीतेत्यर्थः । दीयतां = प्रतिपाद्यतां, मामिति शेषः । रामः राघवः, स्वयम्आत्मना एव, याचते = याचनां कुरुते, न तु दूतादिनेति भावः । तब = रावणस्य, अयं; कः = कीदृशः, मतिविभ्रमः = बुद्धिप्रान्तिः। नयं = नीति, स्मर = चिन्तय, परदारपरस्वाहरणमनिष्टफलमिति चिन्तयेति भावः । अद्याऽपि-एतत्कालपर्यन्तमपि, किंचित किमपि न गतं = न जातं, परं दुष्कर्मणः परिणाम आसन्न इति भावः । एवम = इत्थं, मवाचनस्वीकरणमिति भावः, न चेवन करोषि यदि, तहि खरदूषणत्रिशिरसां-खरदूषणत्रिमूर्धानां मद्धतानां रक्षसाँ, कण्ठाऽसृजा गलरक्तेन, पङ्किल:=पङ्कयुक्तः, कण्ठरुधिररक्त इति भावः । धनुावन्धबन्धूकृतः धनुषः (कार्मुकस्य) या ज्या (मौर्वी), तस्यां बन्धेन (सम्बन्धेन) बन्धकृत. ( बान्धवीकृतः ), एषः = समीपतरवर्ती, मम रामस्य, पत्त्रीबाणः, न सहिष्यते नो मर्षयिष्यति, त्वां हनिष्यतीति भावः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।
___ अत्रोत्साहः स्थायी भावः । रावण आलम्बनविभाव: । रावणकृतसीताहरण. मुद्दीपनविभाव: । रामस्य शौर्य पूर्णोक्तिरनुभावः । गर्वादयोः व्यभिचारिभावाः । एषां संयोगेन सामाजिकेषु युद्धवीररसस्यास्वादनम् ।
दयावीरसमुदाहरति--शिरामखैरिति। श्रीहर्षकृतनागानन्दनाटकस्थं पद्य. मिदम् । स्वमांसं किञ्चिद्भक्षयित्वा विरतं गरुडं प्रति जीमूतवाहनस्योक्तिरियम् । हे गस्त्मन् = हे गरुड !, शिरामुखैः = मम नाडीमुखैः, रक्तं = रुधिरं, स्यन्दत एव = स्रवति एक, अशाऽपि -- अधुनाऽपि, मम देहे = शरीरे, मांसं = पललम्, अस्ति %3
युद्धवीर जैसे श्रीरामचन्द्र हैं। बालरामायण में श्रीरामचन्द्र रावणको उत्तर देते हैं । "हे लङ्कापते ! जनककन्या (सीता) को दे दो राम स्वयम् याचना कर रहा है। यह क्या तुम्हारी बुद्धि-भ्रान्ति है ? नीतिका स्मरण करो, अभी तक कुछ नहीं हुआ है। हमारे कथन के अनुसार नहीं करोगे तो खर, दूषण और त्रिशिराके कण्ठके रक्तसे पङ्क युक्त बनुषकी प्रत्यञ्चामें चढ़ाया गया यह मेरा बाण सहन नहीं करेगा।
दयावीर जैसे जीमूतवाहन अपने मांसको कुछ खाकर निवृत्त होनेवाले गरुडको कहते हैं। हे गरुडजी ! मेरी नाडीके मुखोंसे रुधिर वह ही रहा है, अभी तक मेरे
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साहित्यदर्पणे
तृप्तिं न पश्यामि तवापि तावत् किं भक्षणावं विरता गरुत्मन् ! ।'
एज्वपि विभावादयः पूर्वोदाहरणवद्ह्याः । अथ भयानकः
भयानको भयस्थायिभावो कालाऽधिदेवतः । स्त्रीनीचप्रकृतिः कृष्णा मतस्तत्वविशारदः ।। २३५ ।। यस्मादुत्पद्यते भौतिस्तदत्रालम्बनं मतम् । चेष्टा घारतरास्तस्य भवेद्दीपन पुनः ।। २३६ ।।
अनुभावाऽत्र वैवयगद्गदस्वरभाषणम् । वर्तते । तव आप = भवतः अपि, तावत्, तृप्ति = सौहित्यं, न पश्यामि = नो विलोकयामि न जानामीति भावः । भक्षणात प्रत्यवसानाद, कि= किमर्थ, विरतः=निवृत्तः, असीति शेषः । उपजातिवृत्तम् । अत्र शङ्खचूडनाग आलम्बनविभावः, तस्म कातरोक्तिः उद्दीपनविभावः । जीमूतवाहनस्य परोपकाराज्जा मान आनन्दोऽनुभावः । धृयादय: सञ्चारिभावाः । जीमूतवाहनस्य दयायामुत्साहः स्थायिभावः । एषां संयोगात्सामाजिकेषु दयावीररस: प्रादुर्भवति ।। २३४॥
भवानकरसं वर्गति-भयानक इति । भयानको रसः, भयस्थायिभावः = भयं स्थायिभावो यस्य सः । बालाऽधिदेवतः = कालः ( यमराजः ) अधिदैवतम् । यस्य सः, "कालो दण्डघरः श्राद्धदेवो वैवस्वतोऽन्तकः ।" इत्यमरः । क्वचित् "भूताऽधि-- देवत" इति गठः । स्त्रीनीचप्रकृतिः स्त्रियो नीचाच प्रकृतयः ( आश्रयाः ) यस्य सः । तत्त्वविशारदः = साहित्यप्रमेयनिपुणः, कृष्णः = कृष्णवर्णः, मत:-सम्मतः।।२३५॥
. यस्मात् = वस्तुतः, भीतिः = भयम्, उत्पद्यते = संजायते, तत् == वस्तु, अत्र = भयानकरसे, आलम्बनं = विभावालम्बनं, मतम् । तस्य = वस्तुनः, घोरतराः = भयङ्करतराः, चेष्टा: = चेष्टनानि, उद्दीपनम् = उद्दीपनविभावः भवेत् ।। २३६ ॥
अनुभाव इति । अत्र भयानकरसे. वैवण्यंगद्गदस्वरभाषणं = वैवयं ( मुखशरीरमें मांस है । तुम्हारी तृप्ति भी मैं नहीं देख रहा हूँ। तुम खानेसे क्यों निवृत्त हो गये हो? इन उदाहरणोंमें भी विभाव आदिको पहलेके उदाहरणके समान जानना चाहिए ।
भयानक-भयानक रसमें स्थायी भाव भय है, इसके देवता काल (यमराज) हैं, स्त्री और नीच जन इसके आश्रय होते हैं और तत्यके जानकारोंने इसका वर्ण कृष्ण माना है ।। २३५॥ ___ जिससे भय उत्पन्न होता है वह इसमें आलम्बन विभाव और उसको भयङ्कर चैष्टाएं उद्दीपन विभव है ।। २३६ ॥
विवर्णता, गद्गद स्वरसे भाषण, मूर्छा, स्वेद, रोमाञ्च, कम्प, दिशाओंको
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तृतीयः परिच्छेदः
२६७
प्रलयस्वेदरोमाञ्चकम्पदिका क्षणादयः ।। २३७ ।। जुगुप्सावेगसंमोहसंगासग्लानिदीनताः ।
शङ्कापस्मारसम्भ्रान्तिमृत्य्वाद्या व्यभिचारिणः ।। २३८ ॥ यथा
'नष्टं वर्षवर:-' (पृ० १२४ ) इत्यादि। अथ बीभत्स:
जुगुप्सास्थायिभावस्तु बीभत्सः कथ्यते रसः । नीलवर्णो महाकालदेवतोऽयमुदाहृतः ॥२३९ ।।
दुर्गन्धमांसरुधिरमेदांस्यालम्बनं मतम् ।। विवर्णता ) गद्गदस्वरेण ( अव्यक्तशब्देन भाषणम् ( वदनम् ), प्रलयेत्यादिः = प्रलयः ( नष्टचेष्टता) स्वेदः (धर्मजलम् ) रोमाञ्चः (रोमकण्टकः ) कम्पः ( वेपथः ) दिक्प्रेक्षणादयः ( दिशानिरीक्षणादयश्च ) एते अनुभावाः ।। २३७ ।।
भयानकस्य व्यभिचारिभावाग्निदिशति-ज गुप्सेत्यादि । जुगुप्सा (घृणा) आवेग: ( संचलनम् ) संमोहः (वै,ित्यं ) संभ्रान्तिः । संत्रास: ग्लानिः, दीनता, शङ्का, अपस्मारः मृत्युः = मरणम्, इत्याद्या व्यभिचारिभावाः ।। १३८ ।
भयानकमुदाहति-नष्टमिति । ( १२४ तमे पृष्ठे ) अत्र वर्षवरादीनां भयं स्थायीभावः । सहसाऽऽगतो वानर आलम्बनविभावः । तत्कृतं भीत्युत्पादनमुद्दीपनविभावः । वर्षवरादीनामदश्यतादयोऽनुभावाः । शङ्कादयश्च व्यभिचारिभावशः । एषां संयोगात्सामाजिकानां भयानकरसाविर्भावः ॥ २३८ ॥
__ बीभत्सरस निर्दिशति- जुगप्सेत्यादिः। जुगुप्सा स्थायिभावः = जुगुप्सा (घृणा) स्थायी भावो यस्य सः । तादृशो बीभत्सो रसः कथ्यते । अयं = बीभत्सः नीलवर्णः, महाकालदेवतः = महाकाल: देवतम् (अधिष्ठाता देव:) यस्य सः ।। २३९ ।।
बीभत्सस्यालम्बनविभावं निर्दिशति-दुर्गन्धर्मासरुधिरमेटासि = दुर्गन्धानि ( दुर्गन्धीनि, दुर्जन्धयुक्तानीति भाव: ) मांसरुधिरमेदांसि- ( पललरक्तवसाः ) आलम्बनं मतम् = आलम्बनविभावा: सम्मताः । देखना इत्यादि इसके अनुभाव होते हैं ।। २३७ ॥
जुगुप्सा, आवेग, संमोह, सत्रास, ग्लानि, दीनता, शङ्का, अपस्मार, संभ्रम, मृत्यु इत्यादि भयानक रसके व्यभिचारि भाव हैं ॥ २३ ॥
उ०. "नष्टं वर्षवरः" इत्यादि (१२४ पृष्ठ)।
बीभत्स-बीभत्स रस में स्थायी भाव जुगुप्सा है, इसका वर्ण नील और देवता महाकाल हैं ।। २३९ ॥
दुर्गन्धयुक्त मांस, लोहू और चर्बी आदि इसके आलम्बन विभाव हैं । उन्हीं
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२६८
साहित्यदपणे
तौर कृमिपातायमुद्दीपनमुदाहृतम् ।। २४० ।। निष्ठीवनास्यवलननेगसङ्कोचनादयः । अनुभावास्ता मतास्तथा स्युव्यभिचारिणः ।। २४१ ।।
मोहोऽपस्मार आवेगी व्याधिश्च परणादयः ।। न्यथा'उत्कृत्योत्कृत्य कृत्तिं प्रथममथ पृथूच्छोयभूयांसि मांसा.
न्यंसस्फिक्पृष्ठपिण्डाद्यवयवसुलभान्युप्रतीनि जग्ध्वा । आर्तः पर्यस्तनेत्रः प्रकटितदशनः प्रेतरङ्गः करवा
बीभत्सस्योद्दीपनं निर्दिशति-तत्रैवेति । तत्रैव-दुर्गन्यमांसादिषु, कृमिपाताद्य क्रिमिपतनप्रभृति, उद्दीपनम् = उद्दीपनविभावः, उदाहृतम्-उदाहरणीकृतम् ॥ २४० ॥
बीभत्सेऽनुभावानिर्दिशति-निष्ठीवनाऽऽस्यवलननेत्रसङ्कोचनादयः = निष्ठीवनम् (थुकरणम् ) आस्यवलनं ( मुखसंवरणम् ) नेत्रसङ्कोचनं ( नयनकणनम् ) तदाक्यः, तत्र = बीभत्सरसे, अनुभावा: मताः ।
बीभत्से व्यभिचारिभावानिदिशति-तथा स्युर्व्यभिचारिणः ॥ २४१ ।।
मोहः = वैचित्यम्, अपस्मारः = कााचिकत्वेन स्मृतिनाशको रागविशेषः, व्याधिः = सामान्यरोगः, मरणादयश्च व्यभिचारिणो भावाः ॥
बीभत्सरसमुदाहरति-उस्कृत्येति । मालतीमाधवे श्मशाने शवं भक्षयन्तं पिशाचं दृष्ट्वा माधवस्योक्तिरियम् । पर्यस्तनेत्रः = पर्यस्ते (अन्तनिक्षिप्ते, दुबलत्वादिति 'भाव: ) नेत्रे ( नयने ) यस्य सः । प्रकटितदशनः = प्रकटिताः (प्रकाशिता: ) दशनाः ( दन्ताः ) येन सः, मांसचर्वणलोलुपत्वेनेति भावः । आत: = व्याकुलः, सत्वरमांसभक्षणाऽर्थमिति शेषः प्रेतरङ्कः = प्रेतेषु रङ्गः (दरिद्रः ), प्रथमम् = आदी कृति= चर्म, उत्कृत्य उत्कृत्य = पुनः पुनश्चित्त्या, नखरर्दन्तश्चेति शेषः अथ = चमच्छेदनाऽनन्तरं पृथुच्छोथभ्यांसि = पृथुः ( महान ) य उच्छोथः ( उत्पन्नशोथरोगः ) तेन भूगंसि (प्रचुराणि )। उग्रपूतीनि = उपा ( उत्कटा, दुःसहेति भावः ) पूतिः ( दुर्गन्धः ) येषां तानि । असस्फिक्पृष्ठपिण्डाद्यवयवसुलभानि = अंसो (स्कन्वी) (मांस आदि ) में कीड़े पड़ना आदि उद्दीपन विभाव है ।। २४० ।।
थूकना, मुंह मोड़ना, नेत्रोंको सङ्कुचित करना आदि अनुभाव हैं।
मोह, अपस्मार, आवेग, व्याधि और मरण आदि बोभत्स रसमें व्यभिवारिभाव हैं।
७०-मालतीमाधवमें श्यशान ( मरघट ) में शव ( मुर्दे ) को खाते हुवे पिशाचको देखकर माधवकी उक्ति है। गड़े हुए नेत्रों वाला दांतोंको दिखाता हुआ
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तृतीयः परिच्छेदः
दङ्कस्थादस्थिसंस्थं स्थपुटगतमपि क्रव्यमव्यप्रमत्ति ।' अथाद्भुत:
अद्भुतो विस्मयस्थायिभावो गन्धर्वदेवतः ॥ २४२ ॥ पीतवर्णों वस्तु लोकातिगमालम्बनं मतम् । गुणानां तस्य महिमा भवेदुद्दीपनं पुनः ॥ २४३ ॥
स्फिची (कटिस्थमांसपिण्डो) पृष्ठपिण्डं च प्राण्यङ्गत्वात्समाहारद्वन्द्वः, तत् आदिः (प्रकारः) येषां ते, ते च ते अवयवाः ( अङ्गानि ), तेषु सुलभानि ( सुप्राप्याणि, स्थूलत्वात्सो. लभ्येन अनायासप्राप्तव्यानीति भाव: । तादृशानि मांसानि = व्याणि, जग्ध्वा = भक्षयित्वा, अङ्कस्थात = उत्सङ्गस्थिताद, करङ्कात् = शिरसः, शवस्येति शेषः । "करङ्को मस्तकेऽपि स्यात्" इति धरणिः । अस्थिसंस्थं कीकसंस्थितं, तथा स्थपुटगतम् अपि = निम्नोन्नतविषमस्थानस्थितन् अपि, क्रव्यं = मांसं, "पिशितं तरसं मांसं पललं क्रव्यमामिषम् ।" इत्यमरः । अव्यग्रम् = आकुलतारहितं यथा तथेति क्रियाविशेषणं, धैर्यपूर्व कमिति भावः। अति = भक्षयति । स्रग्धरा वृत्तम् । अब शवमासम् आलम्बनं, तत्कर्तनं मांसादनं चोद्दीपनं, माधवस्य निष्ठीवनादयोऽनुभावाः । तदर्शनान्मोहादयो व्यभिचारिभावाः । जुगुप्सा च स्थायिभावः । इत्थ च सामाजिकेषु बीभत्सरसप्रकाशः ।।
___ अद्भुतरसं वर्णयति-अद्भत इति । अद्भुतो रसः, विस्मयस्यायिभावः = विस्मयः स्थायी भावो यस्य सः। गन्धर्वदेवतः = गन्धर्वः ( देवयोनिविशेषः ) देवतम ( अधिदेवः ) यस्य सः नाट्यशास्त्रे तु "अद्भुतो ब्रह्मदेवतः” इति दृश्यते ।। २४२ ।।
पीतवर्णः -- पीतः ( हरिद्राऽऽभः ) वर्णो यस्य सः । लोकाऽतिगं = लोकाऽतिवति, वस्तु = पदाऽर्थः, आलम्बनं मतम् -- आलम्बन विभावः संमनः । तस्य : लोका. तिगवस्तुनः, महिमा = महत्त्वम्, उद्दीपनम् = उद्दीपनविभावः, उदाहृतं = प्रकीर्तितम् ॥ २४३ ॥
व्याकुल यह दरिद्र प्रेत चमड़ेको नोच नोच कर, बड़े सूजवाले अत्यन्त दुर्गन्ध कन्धे
और फटिमें स्थित म'सपिण्ड तथा पीठ आदि अवयवोंमें सुलभ मांसोंको खाकर अपनी गोदमें स्थित शवके शिरसे हड्डी में स्थित और निम्न उन्नत तथा विषय स्थानमें पड़े हुए मासका भी धैर्यपूर्वक खा रहा है ।।
प्रभुत -- इस रसमें स्थायी भाव विस्मय और देवता गन्धर्व हैं ॥ २४२ ।। ____ इसका वर्ण पीला है और अलौकिक वस्तु आलम्बन विभाव है, उसके गुणोंकी महिमा उद्दीपन विभाव है ॥ २४३ ॥
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२७०
यथा
साहित्यदर्पणे
स्तम्भः स्वेदाऽथ रोमाश्चगद्गद खरसंभ्रमाः । तथा नेत्रविकासाद्या अनुभावाः प्रकीर्तिताः ।। २४४ ॥ बितर्कावेगसंभ्रान्तिहर्षाद्या व्यभिचारिणः ।
'दोर्दण्डाति चन्द्रशेखर धनुर्दण्डाभको चतष्टंकारध्वनिरार्य बालचरितप्रस्तावनाडिण्डिमः । द्राक्पर्यस्त कपाल संपुट मिलद्ब्रह्माण्डभाण्डो दर
अद्भुतरसस्याऽनुभावानिदिशति - स्तम्भ इति । स्तम्भः = गत्यभावः, स्वेदः = घर्मजलं, रोमा खगद्गदस्वरसंभ्रमाः = रोमाश्वः (रोमकण्टकः ), गद्गदस्वरः ( अस्पष्ट - -स्वरः ) संभ्रमः ( त्वरा ), तथा च नेत्रविकासाद्या: नयनविकाशप्रभृतयः, "अनुभावाः” : प्रकीर्तिताः = वर्णिताः ॥ २४४ ॥
अद्भुतरसस्य व्यभिचारिभावानिदिशति -वितर्काऽऽ वेग संभ्रान्तिहर्षाद्याः = 'वितर्कः ( विविधस्त : ) कल्पना, आवेग ( जवाऽतिशय ) संभ्रान्तिः ( भ्रमः ), हर्ष (आनन्द) इत्यादयो व्यभिचारिणः = व्यभिचारिभावाः ।।
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अद्भुतरसमुदाहरनि - दोर्दण्डाऽवितेत्यादिः । महावीरचरिते रामकृतहर धनुर्भङ्गश्रुत्वा लक्षणस्योक्तिरियम् । दोर्दण्डाऽश्चित चन्द्र शेखरधनुर्दण्डावभङ्गोद्यतः= दोर्दण्डाभ्याम् (भुजदण्डाभ्याम्) अश्वितम् ( उत्क्षिप्तम् ) यत् चन्द्रशेखरधनु: ( हरचापम् ) तस्य अवभङ्गेन ( आमदनेन ) उद्यत: ( उद्गतः ) | आर्यबालचरित' प्रस्तावनाडिण्डिभः = आर्यस्य ( पूज्यस्य, श्रीरामस्य ) यत् बालचरितं (शिशुचरित्रम् ) तस्य या प्रस्तावना ( आरम्भ: ), तत्र डिण्डिम : ( वाद्यविशेषः, प्रकाशक इति शेषः ) | · तादृशो यष्टङ्कारध्वनि : ( टङ्कुतिशब्द: ) । द्राक्पर्यस्तेत्यादिः = द्राक् ( शीघ्रम् ) पर्यस्ते ( विक्षिप्ते ) ये कपालसं पुटे ( कपालोऽधोभागी ) ताभ्यां मिलत् (संगच्छत् ) यत् ब्रह्माण्डरूपं भाण्डं ( पात्रम् ) तस्योदरे ( अभ्यन्तरभागे ) भ्राम्यन् ( भ्रमन् )
स्तम्भ, स्वेद, रोमाच, अस्पष्ट स्वर, घबड़ाहट, तथा नेत्र विकास आदि इसके अनुभाव हैं ।। २४४ ।।
वितर्क, आवेग, भ्रान्ति और हर्ष आदि व्यभिचारिभाव हैं ।
उ०- महावीर चरितमें श्रीरामके शिवधनुको तोड़ने पर उत्पन्न शब्दको सुनकर लक्ष्मणजीकी उक्ति है । बाहुदण्डोंसे उठाये गये शिवधनुके भङ्गसे उत्पन्न, पूज्य( रामचन्द्रजी ) के बाह्य चरित्रके प्रारम्भके डिण्डिम वाद्य ( ढिढोरा ) के समान - टङ्कार शब्द, शीघ्र विक्षिप्त कपाल के ऊंचे और नीचे दो भाग उनसे मिले हुए ब्रह्माण्ड
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७
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तृतीयः परिच्छेदः भ्राम्यत्पिण्डिचण्डिमा कथमहो ! नाद्यापि विश्राम्यति ॥' अथ शान्त:
शान्तः शमस्थाथिभाव उत्तमप्रकृतिमतः ॥ २४५ ॥ कुन्देन्दुसुन्दरच्छायः श्रीनारायणदेवतः । अनित्यत्वादिनाऽशेषवस्तुनिःमारता तु या।। २४६ ।।
परमात्मस्वरूपं वा तस्यालम्बनमिष्यते । पिण्डितः ( बहुलीकृत: ) चण्डिमा ( तीक्ष्णत्वम् ) यस्य, तादृशः सन् कयं = केन प्रकारेण, अद्याऽपि = इदानीमपि, न विश्राम्यति = नो विरमति, प्रतिध्वनिरूपेण परिस्फुरत्येवेति अहो आश्चर्यम् । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । अत्र धनुष्टङ्कार आलम्बनविभावः, तस्य विस्तीर्णतोद्दीपनविभावः । तस्य वर्णनमनुभावः, हर्षादयश्च व्यभिचारि. भावाः । लक्ष्मणस्य विस्मयः स्थायिभावः, एतेषां समवायेन सामाजिकानामद्भुत. रसप्रतीतिः ॥
शान्तरसं वर्णयति-शान्त इति। "शान्तः" शमस्थायिभावः = शमा ( शान्तिः ) स्थायी भायो यस्य सः । अत उत्तमप्रकृति. = उत्तमा प्रकृतिः (प्रधान, पुरुषः, नायकः ) यस्य सः, तादृशो मतः = अभिमतः ।। २४५ ॥
कुन्देन्दुसुन्दरच्छायः = सुन्दरी ( मनोहरा) छाया (कान्तिः), यस्य सः । कुन्देन्दु ( माध्य पुष्पचन्द्रौ ) इव सुन्दरच्छायः । श्रीनारायणदेवतः = श्रीनारायणः देवतं यस्य सः।
. शान्तरसस्यालम्बनं निर्दिशति-अनित्यत्वादिनेति। अनित्यत्वादिना = नश्वरत्वादिना, या अशेषवस्तुनिःसारता-समस्तपदार्थानां सारशून्यता ।। २४६ ।।
वा = अथवा, परमात्मस्वरूपं = परमेश्वरस्वरूपं, तस्य = शान्तरसस्य, आलम्बनम् =आलम्बनविभावः, इष्यते = अभिलष्यते ।
शान्तरसस्योद्दीपनविभावाग्निदिशति-पुण्याषमहरिक्षेत्रतीर्थरम्यवनादयः = रूप भाण्डके भीतरी भागमें घूमती हुई फैलाई गई तीक्ष्णतासे युक्त होकर कैसे अभी तक विश्रान्त नहीं हो रहा है।
शान्त-शान्तरस में स्थायी भाव शम है, उत्तम जन इसका भाश्रय होता है ॥ २४५ ॥
कुन्दपुष्प और चन्द्रमाके समान इसकी कान्ति सुन्दर होती है, इसके देवता श्रीनारायण हैं । अनित्यत्व आदिसे समस्त वस्तुओंकी निःसारता ।। २४६ ॥
अषवा परमात्माका स्वरूप शान्तरसका आलम्बन विभाव है । पश्चि बाथम,
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साहित्यदर्पणे
पुण्याश्रमहरिक्षेत्रतीथरम्यवनादयः ॥२४७।। महापुरुषसङ्गाद्यास्तस्योद्दीपनरूपिणः । रोमाश्चाद्याथाऽनुभावास्तथा स्युयभिचारिणः ।। २४८ ।।
निवेदहर्षस्मरणमतिभूतदयावयः । तथा'रध्यान्तश्चरतस्तथा धृतजरत्कन्थालवस्याध्वगैः
सत्रासं च सकौतुकं च सदयं दृष्टस्य ते परः। निर्व्याजीकृतचित्सुधारसमुदा निद्रायमाणस्य मे पुग्याधमः ( परित्राश्रम. ), हरिक्षेत्र ( विष्णुक्षेत्रम् ), तीर्थ (प्रयागादिकम् ) रम्यवनम् ( सन्दरकाननं, नैमिषारण्यादिकम् ), तदादयः ।। २४७ ॥
एवमेव महापुरुषसङ्गाद्या: = लोकोत्तरजनसंसर्गाद्याः, तस्य = शान्तरसस्य उद्दीपनरूपिणः = उद्दीपनविभावरूपाः ॥
___ शान्तरसस्याऽनुभावाग्निदिशति-रोमाञ्चाद्या इति। रोमाञ्चाद्याः = रोमकण्ट काद्याः, आद्यशब्दात् संन्यासादयश्च, "अनुभावाः" ॥ २४८ ।।
___ शान्तरसस्य व्यमिचारिभावाग्निदिशति-तथा स्युरिति । तथा निर्वेदहर्ष स्मरणमतिभूतदयादयः=निर्वेदः ( वैराग्यम् ), हर्षः ( आनन्दः ) स्मरणम् ( स्मृतिः) मतिः, भूतदण ( भूतेषु = प्राणिषु, दम = अनुकम्पा), इत्यादयो व्यभिचारिणः = व्यभिचारिभावाः ।
शान्तरसमुदाहरति-रच्याऽन्त इति । कस्यचिद्विरक्तस्योक्तिरियम् । रथ्याऽन्तः= प्रतोलीमध्ये, "रथ्या प्रतोली विशिखा' इत्यमरः । चरतः = भिक्षार्थ भ्रमतः, तथा धृतजरत्कन्थालवस्य = धृतः ( परिहितः ) जरन् ( जीर्णः ) कन्थालवः ( जोर्णवस्त्रखण्डम् ) येन, तस्य । अध्वर्गः पथिकः, नायरः-नगरनिवासिभिर्जनः, सत्रास = सभयं, विकृताकारत्वादिति शेषः । सकौतुकं सकुतूहलं च, अदष्टपूर्वत्वादिति शेषः । सदयं च= सपं च, दृष्टस्यः-अवलोकितस्य, निर्व्याजीकृतचित्सुधाररसमुदा-निर्व्याजीकृत: (छलेन भगवान् विष्णुका क्षेत्र, तीर्थ नैमिषारण्य आदि सुन्दरवन, आदि ॥ २४७ ।।
महात्माओंका सत्संग आदि शान्तरसके उद्दीपन विभाव है। रोमाञ्च आदि इसमें अनुभाव होते हैं ।। २४८ ॥
निर्वेद, हपं, स्मरण, मति और प्राणियोंमें दया आदि शान्त रसमें व्यभिचारिभाव होते हैं।
उदा०-किसी विरत पुरुषकी उक्ति है। रास्ते में चलते हुए और जीणं काथाके टुकड़े को पहने हु', त्रास, कौतुक और दयाके साथ नगरवासियोंसे देखे गये तथा निश्छल से किये गये ज्ञानामृतके आस्वादके हर्षसे निद्राको प्राप्त मेरे हाथमें रक्खे
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तृतीयः परिच्छेदः
निःशङ्कः करटः कदा करपुटीभिक्षां विलुण्ठिष्यति ।। पुष्टिस्तु महाभारतादौ द्रष्टव्या। अस्य दयावीरादेः सकाशाद् भेदमाह
निरहङ्काररूपत्वात् दयावीरादिरेष नो ॥ २४९ ॥ दयावीरादौ हि नागानन्दादौ जीमूतवाहनादेरन्तरा मलयवत्याधनुरागादेरन्ते च विद्याधरचक्रवर्तित्वाव्याप्तदर्शनादहङ्कारोपशमो न दृश्यते । अविहितः ) यः चित्सुधारसः (ज्ञानाऽमृताऽऽस्वादः ), तस्य मुदा ( आनन्देन ), निद्रायमाणस्य=निद्रामाचरतः, मुद्रितनयनस्येति भावः । तादृशस्य मे = मम, करपुटी. मिक्षा = हस्ततलस्थभिक्षान्न, निःशङ्क:-शङ्कारहितः, निर्भय इति भावः । करटः = काकः, कदा = कस्मिन्काले, विलुण्टिष्यति = आच्छिद्य नेष्यति ? "शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । ___ अत्र शमः स्थायी भावः । समस्तवस्तुनिःसारता आलम्बनविभावः । हरिक्षेत्रादिदर्शनम् ( आक्षेपलभ्यम् ) उद्दीपनविभावः । आक्षेपलभ्या रोमाञ्चादयोऽनुभावाः । निर्वेद. हर्षादयो व्यभिचारिभावाः । एषो संघटनेन सहृदयेषु शान्तरसप्रतीतिः ॥
ननु दयावीरादो आदिपदेन धर्मवीरदेवताविषयरस्यादिषुच कथं न शान्तरसस्याऽ. न्तर्भाव होत आक्षेपे कृते समाधत्ते-निरहङ्काररूपत्वादिति। निरहङ्काररूपत्वातअहङ्काररहितस्वरूपत्वाद्धेतो, एषः = शान्तरसः, नो दयावीरादिः = न दयावीराधन्तर्भूत इति भावः । दयावीरादिषु अहङ्कारस्य सत्त्वादत्र च शान्तरसे तदभावादस्य स्वातन्त्र्येणाऽस्तित्वमिति तत्त्वम् ।। २४९ ॥
उक्तमयं विवणोति । दयावीरादौ = दयावीरधर्मवीरादी, जीमूतवाहनादोजोमूतवाहनयुधिष्ठिरादो, अन्तरा=मध्ये, स्वजीवनमिति शेषः । मलयवत्याधनुरागादेःदयावीरस्य जीमूतवाहनस्य मलयवत्यनुरागात, धर्मवीरस्य युधिष्ठिरस्य धर्माऽनुरागा. दिस्पर्षः । अन्ते च विद्याधरचक्रवर्तित्वाद्व्याप्तेः दयावीरस्य जीमूतवाहनस्य विद्याधरचक्रवर्तित्वप्राप्तेः, धर्मवीरस्य युधिष्ठिरस्य भारतसाम्राज्यप्राप्तेरिति भावः । दर्शनाव गये भिक्षाके अन्नको निःशङ्क होकर कौआ कब छीन लेगा? 'इस रसकी पुष्टि महा. भारत आदिमें देखनी चाहिए।
___ अहङ्काररहित होनेसे यह शान्त रस दयावीर आदिमें अन्तर्भूत नहीं होता है ।। २४९ ।।
नागानन्द आदिमें दयावीर जीमूतवाहन आदिको पहले मलयवती आदिका बनुराग और अन्त में विद्याधरोंके चक्रवर्तित्व आदिकी प्राप्ति देखनेसे अहङ्कारकी निवत्ति नहीं देखी जाती है । सब प्रकारसे अहङ्कारका निवृत्तिरूप होनेसे शान्तरस दयावीर
१८ सा०
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साहित्यदर्पणे
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शान्तस्तु सर्वाकारेणाहङ्कारप्रशमैकरूपत्वान्न तत्रान्तर्भावमईति । ततः नागानन्दादेः शान्तरसप्रधानत्वमपास्तम् । ननु -
'न यत्र दुःखं न सुखं न चिन्ता न द्वेषरागौ न च काचिदिच्छा । रसः स शान्तः कथितो मुनीन्द्रेः सर्वेषु भावेषु समप्रमाणः ॥'
इत्येवंरूपस्य शान्तस्य मोक्षावस्थायामेवात्मस्वरूपापत्तिलक्षणाय प्रादुर्भावात्तत्र सचार्यादीनामभावात् कथं रसत्वमित्युच्यते
अहङ्कारोपणमः = दर्पनिवृत्तिः, न दृश्यते । एतद्वैपरीत्येन शान्तस्तु - शान्तरसंस्तु सर्वाकारेण = सर्वप्रकारेण, अहङ्कारप्रशमं करूपत्वात् - अहङ्कारनिवृत्तिप्रधानस्वरूपत्वात् तत्र = दयावीररसे धर्मवीररसे चं, न अन्तर्भावम् अर्हति = न अन्तभवतीति भावः अतश्च=अस्मात्कारणाच्च, नागानन्दे शान्तरसप्रधानत्वम् अपास्तं = निराकृतम् ।
केषांचिन्मतेन शान्तस्य रसत्वेऽनुपपति प्रदर्शयति- न तत्रेति । यत्र = 1 शान्ते दुःखं न सुखं न, द्वेषरागो ( द्वेषः = अप्रीतिः, रागः, अनुरागः ) न काचित् इच्छा न ततश्व सर्वेषु = सकलेषु भावेषु पदार्थेषु, लोष्ठकाञ्चनादिविभावेष्विति भावः । सम प्रमाणः ( समं = तुल्यं, प्रमाणं = प्रतीतिः यस्य सः ), समदशित्वमिति भावः । मुनीन्द्रः = भरतादिभिः सः शान्तो रसः कथितः ॥
अत्र "शमः प्रधान" एतादृशः पाठो न मनोरमः, "क्लीने प्रधानं प्रमुख प्रवेकाऽनुतमोत्तमाः । इति कोशाऽनुशासनता प्रधानशब्दस्य नपुंसकलिङ्गत्वात् । "समप्रधान" इति पाठेऽपि शमसत्त्वे सत्यभावः । अतः इत्येवरूपस्य शान्तस्य = वादिना रसस्वेनाऽभि. मतस्य, आत्मस्वरूपापत्तिलक्षणायां = स्वस्वरूपाऽवाप्तिस्वरूपायां, मोक्षाऽवस्थायां = मुक्तिदशायां प्रादुर्भावात् = आविर्भावात्, तत्र = शास्त्रे, सञ्चार्यादीनां = व्यभिचारि भावादीनाम् अत्रादिपदेन आलम्बोद्दीपनानुभावानामपि परामर्शः, अभावात् = राहित्यात् कथं रसत्वम् ? इत्याशङ्कय व समाधत्ते
. आदिमें अन्तर्भूत होने के लिए योग्य नहीं है। इस कारणसे नागानन्द आदि शान्तरसप्रधान है यह कथन खण्डित हो जाता है ।
शान्तको रस न माननेवाले आचार्यके मतको उपस्थित करते हैं
जिसमें न दुःख, न सुख, न चिन्ता, न द्वेष, न राग और न किसी प्रकारकी इच्छा ही रहती है अतः समस्त पदार्थों में तुल्य प्रतीतिवाले उसको भरत आदि मुनीन्दोंन 'शान्तरस' कहा है। ऐसे स्वरूपवाले शान्तरसकी स्वस्वरूपापत्तिरूप मोक्षावस्था में प्रादुर्भाव होने से, वैसे शान्त में सचारी आदि भावोंके न होनेसे कैसे रसत्वका उपपादन होगा ?
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तृतीयः परिकलेदः ।
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युक्तवियुक्तदशायामवस्थिता यः शमः स एव यतः । रसतामेति तदस्मिन् सञ्चार्यादेः स्थितिश्च न विरुद्धा ॥२५०॥
यश्चास्मिन्सुखाभावोऽप्युक्तस्तस्य - वैषयिकसुखपरत्वान्न विरोधः । उक्तं हि
'यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् । युक्तवियुक्तवशायामिति । युक्तवियुक्तदशायां = युक्तः, समाधिमान योगीति भावः, तद्दशायाम् । वियुक्तः = योगरहितः, संसारीति भावस्तद्दशाणम् । एवं च युक्तवियुक्तदशाया = युक्तश्चाऽसौ वियुक्तः । युक्तोऽपि (योगयुक्तोऽपि ) वियुक्तः ( कर्मशील: ), "कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवाऽपि संपश्यन्कर्तुमर्हसि । (गीता० ३-२० ), इति भगवदुक्तेः । युक्तवियुक्तस्य दशा, तस्याम् । यः शमः अवस्थितः, स एव शमो यतः रसतां शान्तरसभावम्, एति = प्राप्नोति, तत= तस्मात्कारणात, अस्मिन् = शान्तरसे, सञ्चार्यादेः = व्यभिचार्यादिभावस्य, आदिपदेन आलम्बनोद्दीपनविभावानुभावानों परामर्शः, स्थितिः = अवस्थानं, न विरुद्धा = नो विरोधयुक्ता, निवेदरूपसञ्च रिभावस्थितिरस्मिन्नस्त्गेति भावः ॥ २५० ॥
यच्चेति । अस्मिन् = शान्तरसे । तस्य = सुखाऽभावस्य, वैषयिकसुखपरत्वात इन्द्रियजन्यसुवपरत्वात्, न विरोधः ।
यच्चेति । लोके = अस्मिन् लोके, यच्च कामसुख = प्रमदासहवासादिजन्यं विषयसुखम्, ऐहलौकिकमिति भावः । यच्च दिव्यं = स्वर्गवासादिजं, महत सुखम् ।
इस प्राशङ्काका उत्तर देते हैं-युक्त = योग ( समाधि ) युक्त अर्थात योगी, उसकी अवस्थामें, वियुक्त = योगरहित अर्थात् संसारी उसकी अवस्थामें, एवम् युक्तवियुक्त = युक्त ( योगी ! होकर भी वियुक्त (कर्मशील) "कर्मणव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवाऽपि संपश्यनकतुं महंसि" (गीता ३-२० ) ऐसी भगगन् श्रीकृष्णकी - उक्तिसे युक्त ( योगी ) होकर भी लोकसंग्रहके लिए फलाशाकी अपेक्षा न कर शास्त्रोक्त कर्मके अनुष्ठानमें तत्पर राजर्षि जनक आदि उनकी अवस्थामें भी जो शम ( स्यायिभाव ) है वह शान्तरसके भावको प्राप्त करता है, अतः शान्तरसमें संचारी आदि, आदि पदसे आलम्बन उद्दीपन विभाव और अनुभाव इनकी स्थिति में कुछ भी विरोध नहीं है ॥ २५० ॥
शान्तरसमें जो मुखका अभाव कहा है वह सुख विषयजन्य सुख है उसीका अमाव होता है अतः विरोध नहीं है।
वा भी है लोकमें जो विषयजन्य सुख है और जो दिव्य ( स्वर्गवास आदिसे
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साहित्यदर्पणे
तृष्णाक्षयसुखस्यते नाहतः षोडशी कलाम् ।। 'सर्वाकारमहङ्काररहितत्व व्रजति चेत् ।
अत्रान्तर्भावमर्हन्ति दयावीरादयस्तथा ॥' आदिशब्दादमवीरदानवीरदेवताविषयकरतिप्रभृतयः। तत्र देवताविषया रतियथाकदा वाराणस्यामिह सुरधुनीरोधसि वसन्
वसानः कौपीनं शिरसि निदधानोऽञ्जलिपुटम् । अये गौरीनाथ ! त्रिपुरहर! शंभो ! त्रिनयन!
पारलौकिकमिति भावः । एते = वैविधे अपि सुखे, तृष्णाक्षमसुखस्य = तृष्णाभावजनितब्रह्मानन्दस्य षोडशी लाम् = पोडशभागकभागम् अपि, न अर्हतः = न प्राप्नुतः । - सर्वाकारमिति। दयावीरादयः = दीरधर्मवीरादिरसाः, सर्वाकारं = सकलप्रकारम्, अहङ्काररहितत्वम् = अहङ्काराऽभावं, व्रजन्ति चेत् = प्राप्नुवन्ति यदि, तक्षा = तह, अत्र = शान्तरसे, अन्तर्भायम् अर्हन्ति = अन्तनिवेशार्थ योग्या भवन्ति, इत्यं च शान्तरसे तेषामन्तर्भावो न तु दयावीरादिपु शान्तरसस्याऽन्तर्भाव इति भावः । अतः शान्तरसोऽङ्गीकार्य इति भावः । ____ आदिशब्दात धर्मवीर-दानवीर देवताविषयरतिप्रभृतयः । अत्र प्रभृतिशब्दात मुनिराजादिविषयाणां रतिभावानां परामर्शः ।
देवताविषयां रतिमुदाहरति कदेति । कश्चिच्छन: भगवच्छिवविषयां रति प्रकाशयति । कदा = कस्मिन् समये, इह = अत्र, वाराणस्यां = काश्य, सुरधुनीरोधसिगङ्गातटे, वसन् = निवसन्, कोपीन = गुह्येन्द्रियाच्छादकं वस्त्र, दधानः = धारयन् शिरसि = मूनि, बलिपुटं = सम्पिण्डितपाणिद्वितस्पुटं, निदधानः = स्थापयन्, हे गौरीनाव = हे पार्वतीपते, है त्रिपुरहर = त्रिपुरनाशक, हे शम्भो ! हे त्रिनयन = हे
जन्य ) महासुख हैं ये दोनों सुख तृष्णाक्षय सुखके सोलहवें भावको पानेके लिए भी योग्य नहीं है ।
. दयावीर आदि रस सब प्रकारसे अहङ्कार रहित होंगे तो इसी ( शान्त रस ) में अन्तर्भूत होने के लिए योग्या होंगे।
आदि शब्दसे धर्मवीर, दानवीर और देवताविषयक रति आदिका ग्रहण होता है। उसमें देवता विषय रति जैसे-कोई भक्त शिवविषयक रतिको प्रकाशित करता हैमैं किस समयमें इस वाराणसीमें गङ्गाजीके किनारे निवास करता हुआ और कौपीनको पहना हुआ शिरमें अञ्जलिको रखकर हे गौरीनाथ ! हे त्रिपुरहर ! हे शम्भो !
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तृतीयः परिच्छेदः
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प्रसीदेति क्रोशन् निमिषमिव नेष्यामि दिवसान् ।' अथ मुनीन्द्रसंमतो बत्सलः
स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रसं विदुः । स्थायी वत्सलतास्नेहः, पुत्राद्यालम्बनं मतम् ॥ २५१ ॥ उद्दीपनानि तच्चेष्टा विद्याशौर्यदयादयः । आलिङ्गनाङ्गसंस्पर्शशिरथुम्बनमीक्षणम् ॥२५२ ॥
त्रिलोचन !, प्रसीद = प्रसादं कुरु, इति = एवं, क्रोशन = आह्वयन, दिवसान = बहुनि दिनानि, निमिषम् इव = निमेषपातपरिमितमल्पं मणम् इव, "कालाऽध्वनो. रस्यन्तसंयोगे" इति कालाऽत्यन्तसंयोगे द्वितीया । नेष्यामि = यापयिष्यामि । शिखरिणी वृत्तम् । अत्राहकारराहित्येन नो धर्मवीरो रसः सचार्यादिभिः परिपुष्टेरभावान्न च शान्तरसः, शिवविषयं रतिभावमात्र प्रतीयते। ____ अथ भरतमुनिसम्मतं वत्सलरसमुदाहरति-स्फुटमिति । स्फुटं = व्यक्तं यया तया, चमत्कारितया = चमत्कारजनकत्वेन, वत्सल च रसं = वत्सलनामकं, रस, विदुः = जानन्ति, विद्वांस इति शेषः । वत्सलतास्नेहः = वत्सलतारूपः स्नेहः, स्थायीस्थायी भावः । पुत्रादि = तनयादि, आदिपदेन तनयाघ्रात्रादीनां परिग्रहः । आलम्बनं मतम् = आलम्बनविभावः संमतः ।। २५१ ।।
वत्सलस्योद्दीपनविभावाग्निदिशति-उद्दीपनानीति। तच्चेष्टा-पुत्रादिचेष्टा, विवाशौर्यदयादयः = विद्या ( वेदादिशास्त्रज्ञानम् ) शौर्य (शूरता) दयादयः (करुणादयः ) उद्दीपनानि = उद्दीपनविभावाः । ___ वत्सलरसस्यानुभावानिदिशति-पालिङ्गानालसंस्पर्शशिरश्चुम्बनम् । आलिङ्गनम् ( आश्लेष: ), अङ्गसंस्पर्शः (देहाऽवयवाऽऽमर्शनम् ), शिरश्चुम्बनम्. (मस्तकचुम्बनम् ; ईक्षणम् अवलोकनम् ।। २५२ ।'
हे त्रिनयन ! "आप प्रसन्न हों" ऐसा कहता हुआ कई दिनोंको भी एक निमेषके समान बिताऊंगा।
मुनीन्द्र (भरत) सम्मत वत्सलरस-स्पष्ट रूपसे चमत्कारी होनेसे वत्सलको भी रस मानते हैं, इसमें वात्सल्य स्नेह स्थायी भाव और पुत्र आदि आलम्बन विभाव माने गये हैं ॥ २५१॥
पुत्र आदिकी चेष्टा, विद्या, शूरता और दया आदि उद्दीपन विभाव है। बालिङ्गन, अङ्गस्पर्श, शिरका चुम्बन, देखना ॥ २५२ ॥
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२७८
साहित्यदर्पणे
पुलकानन्दबाष्पाचा अनुभावाः प्रकीर्तिताः । सञ्चारिणोऽनिष्टशवाहर्षगर्वादगे मताः ॥ २५३ ।।
पमगर्भच्छविवर्णो देवतं लोकमातरः । यथा'यदाह धाच्या प्रथमोदितं वचो ययौ तदीयामवलम्ब्य चाङ्गलाम् । अभूच नम्रः प्रणिपातशिक्षया पितुर्मुदं तेन ततान सोऽर्भकः ।।'
पुलकाऽऽनन्दबाष्पाद्या: = पुलकः : रोमाञ्चः ) आनन्दब ष्पम् (हर्षाs. श्रुपातः ), तदाद्याः अनुभावाः, प्रकीर्तिताः = व्याख्याताः।
वत्सलरसस्य सञ्चारिभाग्निदिशति-संचारिण इति। अनिष्टशङ्काहर्षगर्वादयः = अनिष्टशङ्का ( पुत्रादीनामरिष्टाशङ्का ) हर्षः ( आनन्दः ), गर्वः ( अमिमानः ), तदादयः, सञ्चारिणः = व्यभिचारिभावाः, मताः = अभिमताः ।। २५३ ।।
वत्सलरसस्य वर्णदैवतं वर्णयति-पद्मवर्णच्छविः = कमलकोशकान्तिः, वर्णः, दैवतम् = अधिदेवः, लोकमातरः = ब्रहम्यादयः सप्त मातरः ।
वत्सलरसमुदाहरति-यवाहेति । रघुवंशस्थ रघुशैशववर्णनमिदम् । सः, अर्भक:बाल, रघुरिति भावः, धात्र्या - उपमात्रा, प्रथमोदितं - प्रथमम् ( प्राक् ) उदितम् (उक्तम् ), वचः = वचनं, यत्, माह-अवदत् । तदीयां = धात्रीसम्बन्धिनीम्, अगुली च = करशाखां च. अवलम्ब्य = आलम्ब्य, यत, ययो - जगाम । प्रणिपातशिक्षया = प्रणामोपदेशेन, नम्रश्न, = नमनशीलच, अभूत् == अभवत्, तेन = कर्मसमूहेन, सः = पूर्वोक्तः, अर्भकः = बाल:. घरिति भावः । पितुः = जनकस्य, दिलीपस्येत्यर्थः । मुद= हर्ष, ततान = विस्तारितवान् ।
. अत्र दिलीपवत्सलता स्थायी भावः, रघुरालम्बनविभावः, तथाविधभाषणादिक. मुद्दीपनविभावः, आलिङ्गनादिकमनुभावः, हर्षादयः सञ्चारिभावः । एतेषां समवायेन सामाजिकानां वत्सलरस आविर्भवति । वंशस्थं वृत्तम् ॥
. रोमाञ्च, हर्षावका पतन आदि अनुभाव कहे गये हैं । अनिष्टको शङ्का, हर्ष और गर्व आदि संचारिभाव माने गये हैं ।। २५३ ॥
कमलके कोशके समान इसका वर्ण होता है, ब्राह्मी आदि सात माताएं इसकी देवताएं मानी गई हैं।
उ.-रघुवंशमें रघुकी शैशव-अवस्थाका वर्णन है । वह बालक ( रघु ) घायसे पहले कहे गये वचनको कहता था और उसकी उंगलीको पकड़कर चलता था, प्रणाम करनेकी शिक्षाके अनुसार नम्र भी होता था, ऐसे कर्मसे उसने पिताके हर्षको बढ़ाया।
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तृतीयः परिच्छेदः
एतेषां च रसानां परस्परविरोधमाह
आद्यः
भयानकेन करुणेनापि हास्यो विरोधभाक् ।
करुणो हास्यशृङ्गाररसाभ्यामपि तादृश: ।। २५५ ।। रौद्रस्त हास्यशृङ्गारभयानकरसैरपि ।
करुणवीभत्सरौद्रवीरभयानकैः ॥ २५४ ॥
1
भयानकेन शान्तेन तथा वीररसः स्मृतः ।। २५६ ।। शृङ्गारवीर रौद्र रूप हास्यशान्तैर्भयानकः शान्तस्तु वीरशृङ्गाररौद्रहास्यभयानकैः शृङ्गारेण तु बीभत्स इत्याख्याता विरोधिता ।
।। २५७ ।।
=
रसानां मिथो विरोध प्रदर्शयति - प्राद्य इति । आद्यः प्रथमः, शृङ्गाररस इत्यर्थः, करुणबीभत्सरौद्रवीरभयानकं रसः, "विरोधभाक् " इति परस्थितेन पदेन सम्बन्धः । विरोधं भजतीति विरोधभाक् । शृङ्गारस्य करुणेन, बीभत्सेन रौद्रेण, वीरेण भयानकेन च रसेन विरोध इति भावः ।। २५४ ।।
भयानकेनेति । हास्यः = हास्यरसः, भयानकेन करुणेन अपि रसेन विरोधभाक् । तथैव करुणः करुणरसः, हास्यशृङ्गाररसाभ्याम् अपि तादृशः = विरोधभाक् ।। २५५।। रौद्र इति । रौद्रस्तु = रौद्ररसस्तु हास्यशृङ्गारभयानकरसः अपि विरोधभाक् । तथा वीररसः भयानकेन शान्तेन च रसेन, तथा विरोधभाक् स्मृतः ॥ २५६ ॥ भयानकः शृङ्गारवीररौद्राख्य हास्यशान्तः, विरोधभाक् । एवं शान्तस्तु वीरशृङ्गाररोद्रहास्यभयानकै रसैः विरोधभाक् ॥ २५७ ॥
बीभत्स: शृङ्गारेण, विरोधभाक् इति शेषः । इति = इत्थं विरोधिता = रसानां मिथो विरोधभाव:, आख्याता = आख्यायि ||
२७९
=
इन रसोंका परस्परमें विरोध कहते हैं- -आद्य ( शृङ्गार) रसका करुण, बीभत्स, रौद्र, वीर और भयानक रससे विरोध है ।। २५४ ॥
हास्य रसका भयानक और करुणसे भी विरोध है । करुण रसका हास्य भर शङ्गाररससे विरोध है ।। २५५ ।।
रौद्र रसका हास्य शृङ्गार और भयानक रससे विरोध है । वीर रसका भयानक और शान्त से विरोध है ।। २५६ ।।
भयानक रसका शृङ्गार, वीर, रौद्र, हास्य और शान्तसे विरोध है । शान्त रसका वीर, शृङ्गार, रौद्र, हास्य और भयानकसे विरोध है ।। २५७ ।। बीभत्स रसका शृङ्गारके साथ विरोध कहा गया है ।
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२०
साहित्यदर्पणे
आद्यः शृङ्गारः । एषां च समावेशप्रकारा वक्ष्यन्ते । कुतोऽपि कारणात्क्वापि स्थिरतामुपयन्नपि ।। २५८ ।।
उन्मादादिर्न तु स्थायी, न पात्रे स्थैयमेति यत् । यथा विक्रमोर्वश्यां चतुर्थेऽङ्के पुरूरवस उन्मादः।।
रसमावौ तदामासौ भावस्य प्रशभादयौ ।। २५९ ॥ सन्धिः शबलता चेति सऽपि रसनाद्रमाः।
एषां = विरोधिनां रसानां, समावेशप्रकाराः = स्थापनप्रकाराः, वक्ष्यन्ते = अभिधास्यन्ते, सप्तमपरिच्छेदे इति भावः ।
ननु उन्मादादीनां स्थायित्वं शृङ्गारादो कथं नोक्तमिति आशङ्कय समाधत्तेकुतोऽपीति । कुतोऽपि कारणात्-कस्माच्चिदपि हेतोः, स्थिरतां स्थायिता, कंचिस्कालं यावदिति शेषः । उपपन्नपि = प्राप्नुवन्नपि ।। २५८ ।।
उन्मादादिः - उन्मादप्रभूतिः भावः, आदिपदेन निर्वेदादीनां परामर्शः । न तु स्थायी = स्थायिभावपदवाव्यस्तु न भवति, अत्राऽर्थे हेतुमाह-न पात्रे इति । यत् = यस्मात्कारणाद, सः - उन्मादादिः, पात्रे = नायकादो, स्थैर्य-स्थिरत्व, स्थायिभावस्व, न एति = न प्राप्नोति, उन्मादादिः रत्यादिवद् बहुकालं यावत्स्थयं न प्राप्नोति अतः स न स्थायी भाव इति भावः।
उदाहरति-यथा विक्रमोर्वश्यां = त्रोटके, चतुर्थेऽङ्के, पुरूरवस: = नायकस्य उन्मादः, चतुर्षाऽहं यावदेव तस्य स्थितेः स न स्थायिभावत्व प्राप्नोतीति भावः।
रसनधर्मसम्बत्वाद् भावादीनामपि रसस्व परिगायनि-रसभावाविति । रसमावो = रसः ( शृङ्गारादिः) भावः ( सञ्चार्यादिः ), तदाभासो = रसाभासभावा. भासो, भावस्य प्रशमोदयो = भावप्रशमो भावोदयश्च ।। २५९ ।।
सन्धिः भावसन्धिः, शबलता-भावशबलता च, सर्वेऽपि पूर्वोक्ता: सकला अपि, रसनादरसनधर्मयोजिस्मत,दश्यश्रव्यकाव्ययोरास्वादजननाद, रसाः-रसपदव्यपदश्याः।
इन विरोधी रसोंके समावेशके प्रकार (सप्तम परिच्छेद में) कहे जायेंगे। किसी कारणसे किसी पात्रमें कुछ समय तक स्थिर होता हुआ भी ।। २५८ ॥
उन्माद आदि (व्यभिचारिभाव) स्थायिभाव नहीं होता है क्योंकि वह (उन्माद बादि) पात्रमें आदिसे अन्ततक स्थिर नहीं रहता है। जैसे विक्रमोर्वशीमें पुरूरवाका उन्माद (कुछ समय तक रहनेपर भी स्थिर नहीं है, अतः स्थायिभाव नहीं है)।
रसन ( आस्वादन) किये जाने वालोंके भेद बतलाते हैं-रस, भाव, रसा. भास, भावाभास, भावप्रशम भावोदय ॥ २५९॥ ... भावसन्धि, भावशवलता ये सब दृश्य और श्रव्य काव्यमें रसन ( बास्वादन )को उत्पन्न करनेसे "रस" पसे व्यवहार किये जाते हैं।
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. तृतीयः परिच्छेदः
२६१
रसनधर्मयोगित्वाद्भावादिष्वपि रसत्वमुपचारादित्यभिप्रायः । भावादय उच्यन्ते
सञ्चारिणः प्रधानानि देवादिविषया रतिः ।। २६० ॥ उद्बुद्धमात्रः स्थायी च भाव इत्यभिधीयते।
'न भावहीनोऽस्ति रसो न भावो रसवर्जितः।
परस्परकृता सिद्धिरनयो रसभावयोः॥ इत्युक्तदिशा परमालोचनया परमविश्रान्तिस्थानेन रसेन सहैव
रसं विहाय भावा अपि रसनाद्धेतोः लक्षणया एव रसपदगच्याः, न तु मुख्यवृत्त्या रत्यादिस्थायिभावानामभावेनेति भावः ॥
भावादीनुद्दिशति-सञ्चारिण इति । प्रधानानि संचारिणः = रसान्मुख्यतरा: व्यभिचारिभावाः, देवादिविषयाः = सुरादिविषयाः, आदिपदेन मुनिगुरुनूपपुत्रादीनां परामर्शः, रतिः = अनुरागः ।। २६० ॥ ___उबुद्धमात्र:=प्रादुर्भूतमात्रः, ने पुनविभावादिभिः परिपुष्टिमानीत इति भाव । स्थायी = रत्यादिश्व, "भाव" इति, अभिधीयते = कथ्यते ।
- सञ्चारिभावानां प्रधानत्वं प्राचीनोक्त्या चोपपादयति-न भावहीन इति । रसः = शृङ्गारादिः, भावहीनः निर्वेदादिष्यभिचारिभावरहितः, न अस्ति । निवेदादि. व्यभिचारिभावैरेव रसस्य परिपोष इति भावः । तथा भावः निर्वेदादिव्यंभिचारिभाव:, रसबजित:-शङ्गारादिरसरहितः, न अस्ति, रससाहित्येनैव व्यभिचारिभावानामपि परिपोषो भवतीति भावः । अतः अनयोः पूर्वोक्तयोः, रसभावयोः-शृङ्गारादिरसनिदादिव्यभिचारिभावयोः, परस्पर कृता-अन्योन्यविहिता, सिद्धिः निष्पत्तिः ।।
___ इत्युक्त दिशा-इति प्रतिपादित दिशया, परमालोचनया = सूक्ष्मविचारेण, परमविधान्तिस्थानेन उत्कृष्ट विश्रमाऽवस्थानेन, रसेन = शृङ्गारादिना, सह एव=समम्
रसन (आस्वादन ) धर्मके साथ सम्बन्ध होनेसे भाव आदिमें भी गोणी लक्षणासे "रस" शब्दसे प्रयोग किया जाता है, यह अभिप्राय है।
भाव प्रादिका स्वरूप-रससे मुख्यतर सञ्चारिभाव, देवता आदिमें रहनेवाली रति ( अनुराग) ॥२६॥
____ और उबुद्धमात्र ( केवल प्रादुर्भूत, विभाव आदिसे अपरिपुष्ट ) रति आदि स्थापोभावको भी "भाव" कहते हैं ।। .
इसी विषयको प्राचीन उक्तिसे पुष्ट करते हैं-निर्वेद आदि भावके विना शृङ्गार आदि रस नहीं और शृङ्गार आदि रसके विना निर्वेद आदि भाव नहीं, अतः इन रस और भावोंकी सिद्धि परस्परमें एकसे दूसरेकी होती है। ऐसा कहनेके अनुसार बच्छी तरहसे विचार करनेसे परम विश्रामस्थान रसके साथ ही रहते हुए भी राजासे
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२८२
साहित्यदर्पणे
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वर्तमाना अपि राजानुगतविवाहप्रवृत्तभृत्यावदापाततो. यत्र प्राधान्येनाभिव्यक्ता व्यभिचारिणो देवमुनिगुरुनृपादिविषया च रतिरुबुद्धमात्रा विभाषादिमिर परिपुष्टतया रसरूपतामनापद्यमानाश्च स्थायिनी भाषा भाषशब्दकाच्याः।
तत्र व्यभिचारी यथा'एवंवादिनि देवर्षों-' (पृ० २०९) इत्यादि । अत्रावहित्था
देवविषया रतिर्यथा मुकुन्दमालायाम्एव, वर्तमाना अपि विद्यमाना अपि, राजाऽनुगतविवाहप्रवृत्तभत्यवत = राजाऽनुगतः (भूपालाऽनुसृतः ) विवाहप्रवृत्तः, ( परिणयतत्परः ) यो भत्यः ( राजाऽनुचरः ) तद्वत् यत्रयस्मिन् स्थले, प्राधान्येन प्रधानतया, अभिव्यक्ता: व्यञ्जनावत्या प्रतिपादिताः, व्यभिचारिणः = सञ्चारिभाषा निदादयः, एवं च देवमुनिगुरुनुपादिविषया = सुरऋष्याचार्य राजादिविषया, रतिः = स्थायिभावः, उबुढमात्रा = प्रादुर्भूतमात्रा, विभावादिभिः = भावः, अपरिपुष्टतया. = पुष्टिमप्राप्तत्वेन, रसरूपता = रसस्त्ररूपताम्, अनापद्यमानान=अप्राप्नुवन्तश्च, स्थायिनो भावाः = रत्यादिस्थायिभावाः, भावशब्दवाच्या:=भावशब्देन प्रतिपाद्याः, भवन्तीति शेषः । अयं भावः । राज्ञः कस्यचिद् भृत्यस्य विवाहे राजा समागतोऽपि तत्र परिणेतु त्यस्यैव प्राधान्यं, प्रभुत्वेऽपि रास्तत्र न प्राधान्यं तथैव रसेन सह वर्तमानस्य व्यभिचारिभावस्य प्राधान्यं, विभावादिभिरपरिपुष्टत्वावसस्य न प्राधान्यमिति भावः ।
तत्र प्रधानव्यभिचारभावमुदाहरति-एवं भाववादिनेति। कुमारसंभवस्थं पद्यमे, तदा पार्वतीयाचनार्थ हिमालयसकाशे शङ्का दूरत्वेनागतस्याऽङ्गिरसो वचनाऽनन्तरं पार्वत्या अहित्थाया वर्णनमिदम् । अस्य प्रसङ्गस्य पूर्णश्लोकोऽयम्-(पृ० २०९)
. "एववादिनि देवी पार्वे पितुरधोमुखी।
लीलाकमलपत्त्राणि गणयामास पार्वती ।।" (कु. सं. ६.८४ )। अत्र शिवप्रसङ्गजातहर्षसूचकस्य मुख रागादेर्लज्जया गोपनमवहित्था सा चाधोमुखव्यङ्ग पलज्जया हेतुना लीलाकमलपत्रगणनरूपन्यापाराऽऽसक्त्या च झटिति प्रतीयते इति तस्याः एव प्रधानत्वं, विभावादीनामपरिस्फुटतया शृङ्गाररसस्याप्रधानत्वम् । अनुगत ओर विवाहमें तत्पर भृत्यके समान सरसरी निगाहसे प्रधानके समान प्रतीत होनेवाले व्यभिचारिभव मौर देवता, मुनि, गुरु और राजा आदिमें रहनेवाली रति २ प्रकटमात्र होकर विभाव मादिसे परिपुष्ट न होनेसे रसरूपको प्राप्त न होनेवाले रति आदि स्थायिभाव ३ ये सब भाव सम्दसे कहे जाते हैं। उनमें १ प्रधानके समान प्रतीत होने वाला व्यभिचारी भाव जैसे-"एव वाहिनि देवर्षी" (पृ० २०९) इसमें रस प्रधान नहीं है अहित्यारूप व्यभिचारी भाव प्रधान है।
२-देवता विषयक रति जैसे मुकुन्दमालामें भक्त हरिसे प्रार्थना करता है
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तृतीयः परिच्छेदः
'दिवि वा भुवि ममास्तु बासो नरके वा नरकान्तक ! प्रकामम् । अवधीरितशारदारविन्दौ चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि ॥ मुनिविषया रतिर्यथा
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'विलोकनेनैव तवामुना मुने ! कृतः कृतार्थोऽस्मि निबर्हितांहसा । तथापि शुश्रूषुरहं गरीयसीर्गिरोऽथवा श्रेयसि केन तृप्
( शिशु० १-२९ )
राजविषया रतिर्यथा मम
'स्वद्वाजिस जिनि तली पटलपङ्किलाम ।
देवविषयां रतिमुदाहरति- विवीति । भक्तो हरि प्रार्थयते । हे नरकान्तक1 हे नरकनाशक ! या नरकासुरनाशक ! दिवि = स्वर्गे, भूवि = पृथिव्यां वा, वा नरकेनिरये, मम, प्रकामं = पर्याप्तं यथा तथा, वासोऽस्तु मम न किविद्धत्त व्यमिति भावः । तथाऽपि परणेऽपि = प्राणत्यागाऽवस्थायामपि, अवधीरितशारदाऽरविन्द अवधीरितं ( तिरस्कृतं, सौन्दर्यपराकाष्ठयेति शेषः ) शारदम् ( सरदृतुभवम् ) अरविन्दं ( कमलम् ) याभ्यां तो, तादृशी ते तव चरणी - पादो, चिन्तयामि ध्यायामि । अत्र भक्तस्य कृष्णविषय करते रुदयाद्भाव काव्यमिदं कान्ताविषय करते रमावं. न शृङ्गाररसत्वमिति बोद्धव्यम् ॥ मुनिविषयां रतिमुदाहरति - विलोकनेनेति । शिशुपालवधमहाकाव्यस्य प्रथमसर्गस्थं पद्यमिदम् । नारदाऽऽगमनाऽनन्तरं भगवतः श्रीकृष्णस्योक्तिः । हे मुने = हे ऋषे !, निबहिताऽहसा = निवारितपापेन, अमुना = एतेन तव भवतः, 'विलोकनेन
एव = संदर्शनेन एव, कृताऽयं = कृतकृत्यः कृतः = विहितः, अस्मि तथाऽपि = मम कृतार्थत्वे सत्यपि, अहं कृष्णः, गरीयसी: = गुरुतरार्थयुक्ताः, तत्र, गिरः = वचनानि, शुश्रूषुः = श्रोतुमिच्छुः अस्मीति शेषः । अथवा, श्रेयसि = कल्याणप्राप्तिविषये, केन = जनेन, तृप्यते = तृप्तेन भूते, न केनाऽपीति भावः । अत्र कृष्णस्य नारदमुनि विषय करतेर्भावकाव्यत्वम् ।
राजविषयां रतिमुदाहरति- स्वद्वाजीत्यादिः । कश्विद्राजान प्रति कस्यचि दुक्तिरियम् । (हे राजन् ! ) हरः = शिव:, त्वद्वाजिराजीत्यादि: तव वाजिराज्या: ( हथसमूहेन ) निघू तम् ( उत्थापितम् ) यत् धूलीपटलं ( रजोराशि: ) तेन पङ्किलाहे नरकान् ! मेरा भले ही स्वर्ग में वा भूमि में अथवा नरक में वास हो शरत् ऋतुके कमलको मात करनेवाले आपके चरणोंका मरणसमय में भी चिन्तन करता हूँ । २. मुनिविषयक रति - शिशुपालबध में आये हुए नारद मुनिको भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं । हे मुने ! पावको हटानेवाले आपके दर्शनमात्रसे मैं कृतार्थ किया गया हैं, तथापि आपको गौर पूर्ण वाणीको सुननेकी इच्छा करता हूँ अथवा कल्याण' प्राप्ति के विषय में कौन तृप्त होता है ? ।
२ राजविषयक रति-जैसे ग्रन्थकारका ही पद्य है । कोई कवि किसी राजाको
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२३.
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२८४
एवमन्यत् ।
साहित्यदर्पणे
धत्ते शिरसा गङ्गां भूरिभारभिया हरः ॥'
उद्बुद्धमात्र स्थायिभावो यथा
"हरस्तु किंचित्परिवत्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशि: । उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि ॥' (कु० सं०३६७) अत्र पार्वतीविषया भगवतो रतिः ।
नक्तं प्रपाणकरसवद्विभावादीनामेकोऽव भासो रस इति ( ३.५८ ) । तत्र सचारिणः पार्थक्याभावात्कथं प्राधान्येनाभिव्यक्तिरित्यच्यते
( सञ्जातकर्दमाम्), तादृशीं गङ्गां = भागीरथीं, भूरिभारभिया = प्रचुरभरभीत्या, शिरसा = मस्तकेन, न धत्ते = नो धारयति । अत्र वक्तू राजविषयकरतिभवः । · एवम् = इत्थम्, अन्यत् = अपरं, गुर्वादिविषयकरतिभावोदाहरण, मृग्यम् ।।
=
उद्बुद्धमात्र स्थायिभावस्योदाहरणं यथा-हरस्त्विति । आकालिके वसन्तप्रादुर्भावे कामदेवेन धनुषि आरोपिते हरस्य धैर्यं परावृत्तेरुदाहरणम् । पद्यमिदं कुमारसंभवस्थम् । हरस्तु = हरोऽपि चन्द्रोदयाऽरम्भे = इन्दूदयप्रारम्भे, अम्बुराशिरिव - समुद्र इव; किञ्चित्परिवृत्तधैर्यः = स्तोकपरिवर्तितधृतिः, बिम्बफलाधरोष्ठे-बिम्बफलम् इव (बिम्बफलसदृश: ) अधरोष्ठो यस्मिन् तस्मिन्, उमामुखे = पार्वतीवदने, विलोचनानि - त्रीण्यपि नेत्राणि, व्यापारयामास : योजयामास । अत्र भगवतः पार्वतीविषयाया रतेरुदुबुद्धमात्रत्वेन विभावादिभिरपरिपुष्टत्वेन न रसत्वम् ।
=
सञ्चारिणः प्राधान्यमाशङ्कते - नन्विति । प्रपाणकरसवत विभावादीनाम् = विषानुभावसचारिणाम, एक: = अद्वितीयः समष्टिरूपेण संमिलित इति भावः । एतादृशः योऽवभासः = प्रतीतिः सरसः, इति पुरोक्तम्, तत्र = उक्ती सञ्चारिणः offiभावस्य पार्थक्याऽभावात् पृथक्प्राधान्याऽभावात् कथ, प्राधान्येन प्रधानभावेन, अभिव्यक्तिः = अभिव्यञ्जनम् इति उच्यते = कथ्यते
"
=
=
=
कहता है । हे राजन् ! आपके घोड़ोंकी पङ्क्तिमे उठी हुई धूलिसे कीचड़वाली गङ्गाको शिवजी ज्यादा भार ढोनेके भगसे शिरसे धारण नहीं करते हैं ।
३ - उदबुद्ध ( प्रकट ) मात्र स्थायिभाव - कुमारसंभवमें वसन्तप्रादुर्भाव • होकर कामदेव के सरसन्धान करनेपर शिवजीके धर्यविचलनका वर्णन है। शिवजीने भी चन्द्रोदय के आरम्भ में समुद्रके समान कुछ परिवृत्त घर्यंवाले होकर बिम्बफल के समान ओष्ठवाले पार्बतीके मुख में नेत्रोंको लगाया। इसमें पार्वतीमें भगवान् की रति (अनुराग) प्रकटमात्र है, परिस्फुट नहीं । व्यभिचारिभावकी प्रधानता में शङ्का उठाते हैं। पहले - प्रपाणक (शर्बत ) रसकी तरह विभाव आदि जुटकर एक आस्वाद होता है, कहा है तो उसमें सवारी भावकी पृथक्ता न रहनेसे कैसे उसकी प्रधानता से अभिव्यक्ति होगी ? इसका समाधान करते हैं
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तृतीयः परिच्छेदः
२८५
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यथा मरिचम्बन्डादरेकोभावे प्रपाणके ।। २६१ ।। उद्रेका कसचित्वापि तथा सञ्चारिणो रसे । अथ रसाभासभावाभासौ
अनौचित्यप्रवृत्तत्व आभासो रसभावयोः ॥ २६२ ।।
अनौचित्यं चात्र रसानां भरतादिप्रणीतलक्षणानां सामग्रीरहितत्वे एकदेशयोगित्वोपलक्षणपरं बोध्यम् । ..
तञ्च बालव्युत्पत्तये एकदेशतो दयते
उपनायकसस्थायां मुनिगुरुपत्नीगतायां च ।
यथेति । यथा प्रपाणके = रसे, खण्डमरीचादेः सिताखण्डमरिचादेः, आदिपदेन त्रुट्यादेः परामर्शः । एकीभावे = संनिधणे ॥ २६१ ॥
क्वापि = कुत्रचित्स्थले, कस्यचित् = सिताखण्डस्य, मरीचस्य सूक्ष्मलादेवा, उद्रेकः प्रचुरत्वम्, आस्वादे तीव्रतरत्वमितिभावः । तथा तेनैव प्रकारेण, सञ्चारिणः= प्राधान्येन अनुभूयमानस्य व्यभिचारिमावस्य, उद्रेकः -प्रचरत्वम्, प्राधान्यनाभिव्यक्तिरिति भावः । रसे आस्वादे प्रतीयत इति शेषः ।
रसाभासभावाभासो प्रतिपादयति-अनौचित्यप्रवत्तत्व इति । रसभावयो:शृङ्गारादिरसव्यभिवारभावयोः, अनौचित्यप्रवृत्तत्वे अनाचित्येन ( औचित्याऽभावेन) प्रवृत्तत्वे (वर्तमानत्वे) सति, आभास: रसाभासो भावाभासश्च भवतीति भावः ॥२६२॥
वृत्तावनीचित्यं व्युत्तादयति-अनौचित्यं च प्रत्र । भरतादिपणीतलक्षणानां= भरतमुनिव्यासादिविहितलक्षणानां, रसाना, सामग्रीरहितत्वे = विभावादिरूपसमग्रकारणाऽसत्त्वे सति, एकदेशयोगित्वोपलक्षणपरम् = एकदेशयोगित्वस्य ( यत्किञ्चि ल्लक्षणसम्बन्धस्य ) उपलक्षणपरम् (बोधतात्पर्यकम् )। बोध्यं = ज्ञेयम् ।
तत्र तावच्छृङ्गारेऽनौचित्यं प्रदर्शयति-उपनायकसंस्थायामिति ।
उपनायकसंस्थायां रतो = परिणीताया मायिकाया नायकं विहाय उपनायक. जैसे मरिच और मिश्री आदिके संमिश्रणस्वरूप प्रपाणक ( शर्बत ) में ॥ २६१ ।।
जैसे कहींपर किसी मरिच आदिका आधिक्य होता है उसी तरह बास्वादनमें संचारीका भी आधिक्य हो जाता है।
___ रसाभास और भावाभास-रस और भाव अनुचित भावसे प्रवृत्त हों तो उन्हें क्रमके अनुसार "रसाभास" और "भावामास" कहते हैं ।। २६२ ।।
___ यहाँपर रसोंका अनौचित्य कहनेसे भरत आदि आर्यप्रणीत लक्षणोंकी पूर्णता न होकर एक भागमें मात्र सम्बन्ध होना उपलक्षण है ऐसा समझना चाहिए। बालकों की व्युत्पत्तिके लिए उसका कुछ अंश दिखाया जाता है।
शुभारमें पनौचित्य-रति ( अनुराग ) के उपनायक ( नायकसे भिन्न
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२६.
.. साहित्यदाणे
बहुनायकविषयायां रतौ तथानुभयनिष्ठायाम् ।। २६३ ॥ प्रतिनायकनिष्ठत्वे तदधमपात्रतियंगादिगते । शृङ्गारेऽनौचित्यं, रौद्रे गुर्वादिगतकोपे ॥ २६४ ।। शान्ते च हीननिष्ठे, गुर्वाधालम्बने हास्ये ।
ब्रह्मवधाधु त्साहेऽधमपात्रगते तथा वीरे ।। २६५ ॥ स्थितायां रतो ( अनुरागे). शृङ्गाररसाभासत्वम् । मुनिगुरुपत्नीगतायां रतौ-पुरुषस्य मुनिपत्नीगतायां गुरुपलीगतायां च रतो (अनुरागे) शङ्गारेऽनौचित्यम् । वेश्यायाः कन्याया या बहुनायकविषयायां रती ( अनुरागे ) शृङ्गारामासत्वम् ३ । एवं च अनुभयनिष्ठायां ‘रती उभयत्र अस्थिते अनुरागे, यत्र नायिकाया एवाऽनुरागो नायकस्य न, तथा नाय. कस्यैवाऽनुरागो नायिकाया न, तादृशे अनुरागे शृङ्गाराभासत्वम् ४। ॥ २६३ ।।
नायिकाया रतेः प्रतिनायकनिष्ठत्वे = नायकविरोधिस्थितत्वे शृङ्गाराभास: सम् ५ तद्वत् अधमपात्रतिर्यगादिगते = अधमपात्रगते ( नीचकुलोत्पन्नपात्रगते ) तिर्यगादिगते च पशुपक्ष्यादिप्राप्ते ) च शृङ्गारे अनौचित्यम् ६॥
गैद्ररसेऽनौचित्यं प्रतिपादयति-रौद्र इति । गुर्वाधिगतकोपे = पूज्यजनस्थितक्रोधे, रौद्रे = रसे, अनौचित्यं भवति ।। २६४ ॥
. शान्तेऽनौचित्यं प्रतिपादयति-शान्ते चेति । हीननिष्ठे = जघन्यजनस्थिते, राम इति शेषः, शान्ते अनौचित्यम् ।
हास्येऽनौचित्यं प्रतिपादयति-गुर्वाधालम्बने पूज्यजनालम्बनभावे, हास्येऽनी. चित्यम् ।
वीरेऽनौचित्यं प्रतिपादयति-ब्रह्मवधा त्साहे ब्राह्मणहत्या त्माहे, अधमपात्रगते = निकृष्टपात्रस्थिते उत्साहे वारे अनौचित्यम् ॥ २६५ ॥ दूसरे ही पुरुष ) में रहनेसे. १, मुनि वा गुरुकी पत्नीमें रहनेसे २, बहुतसे नायकोंमें रहनेसे ३, नायक और नायिका दोनोंमें न रहनेसे ( एकमें ही रहनेसे ) ॥ २६३ ।।
.., ४, प्रतिनायक ( नायकके विरोधी ) में रहनेसे ५, अधम पात्रमें रहनेसे ६, तिर्यक ( मनुष्यसे इतर आदि ) में रहने से ७, शृङ्गारमें अनौचित्य होता है।
रौद्र में अनौचित्य-गुरु आदिमें क्रोध रहनेपर रौद्रमें अनौचित्य होता है २६४ शान्तमें अनौचित्य-नीच पुरुषमें शमके रहनेपर शान्त में अनौचित्य होता है। हास्यमें अनौचित्य--गुरुजन आदि आलम्बन हों तो हास्यमें अनौचित्य
होता है।
वीररसमें अनौचित्य-ब्राह्मणवध आदिमें उत्साह होनेपर अथवा नीच पात्रमें उत्साहो रहनेपर वीररसमें अनौचिता होता है ।। २६५॥
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तृतीयः परिच्छेदः ।
उत्पात्रगतत्वे भयानके ज्ञेयमेवमन्यत्र । .. तत्र रतेरुपनायकनिष्ठत्वे यथा मम'स्वामी मुग्धतरो वनं घनमिदं, बालाऽहमेकाकिनी
क्षोणीमावृणुते तमालमलिनच्छाया तमःसन्ततिः । तन्मे सुन्दर ! मुश्च कृष्ण ! सहसा वत्मेति गोप्या गिरः
श्रुत्वा तां परिरभ्य मन्मथकलासक्तो हरिः पातु वः॥' भयानकेऽनौचित्यं प्रतिपादयति-उत्तमपात्रगतत्वे श्रेष्ठपात्रगतत्वे सति, भयस्येति शेषः, भयानकेऽनौचित्य भवति । एवम् = इत्थम्, अन्यत्र = स्थानान्तरे, प्रकृतिव्यव. हारादीनामनौचित्यमूह्यमिति भावः ।।
तत्रोपनायकसंस्थायां रतो शृङ्गाराभासमुदाहरति-स्वामीति ।
सन्ध्यासमये मार्गरोधकं श्रीकृष्णं प्रति कस्याभिद् गोप्या उक्तिरियम्, हे कृष्ण !, स्वामी-मम परिणेता, मुग्धतर: अतिमूढः, अतो ममः कामतुष्टिजननेऽयोग्य इति भावः। इदम् = एतद, वनम् = अरण्यं, धन = लतागुल्मादिना निबिडम् । अहम् एकाकिनी = एकका, बाला = प्रोढिरहिता, कोऽप्यन्यो जनो नाऽस्ति, इत्यतो विलम्बो न कार्य इति भावः । तमालमलिनच्छाया = तापिच्छमलीमसकान्तिः, तमःसंहतिः = तिमिरपक्तिः, क्षोणी = भवम्, आवृणोति = आच्छादयति । तत् = तस्मात् कारणात्, हे सुन्दर हे मनोहर, कृष्ण = गोपाल !, सहसा अतक्ति एव, वत्म = मार्ग, मुञ्च = त्यज, इतिएवं, गोप्या: आभीरनार्याः, गिर:= वाचः, श्रुत्वा = आकर्ण्य, ता = गोपी, परिरभ्य :आलिङ्गय, मन्मथकलाऽऽसकः । कामकलाऽऽसक्तियुक्तः, समागमतत्पर इति भावः । हरिः = श्रीकृष्ण:, वः = युस्मान् पातु-रक्षतु । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । अत्र "स्वामी मुग्धतर" इत्यनेन परोढाया नायिकाया उपनायकरूपकृष्णसंस्थाया रतेः प्रतिपादनात शृङ्गाररसाभासत्वम् ।
भयानको अनौचित्य-उत्तम पात्र में भयके रहनेपर भयानक रसमें अनौचित्य होता है । इसी तरह अन्यत्र भी जानना चाहिए। · अनौचित्य होनेपर रसाभास होता है।
उपनायकमें रतिके रहनेपर शृङ्गाराभास-सन्ध्याकालमें श्रीकृष्णके मार्गको रोकनेपर कोई गोपी कहती है । मेगा : ज्यादा अल्हड़ है, यह वन धना है, मैं युवती हूं तथा अकेली हूँ। तमालके-समान मलिन कान्तिवाली अन्धकारकी पक्ति पृथ्वीको आच्छादित कर रही है। इस कारणगे हे गुन्दर ! हे कृष्ण ! मरे मार्ग को शीघ्र छोड़ी, गोपीकी ऐसी बात सुनकर उसको आलिङ्गन कर कामकलामें आसक्त भगवान .. श्रीकृष्ण तुम्हारी रक्षा करें।
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२८८
साहित्यदर्पणे
बहुनायकनिष्ठत्वे यथा
‘कान्तास्त एव भुवनत्रितयेऽपि मन्ये
येषां कृते सुतनु ! पाण्डुरयं कपोलः।' अनुभयनिष्ठत्वे यथा-मालतीमाधवे नन्दनस्य मालत्याम् ।
'पश्चादुभयनिष्ठत्वेऽपि प्रथममेकनिष्ठत्वे रतेराभासत्वम्' इति श्रीमल्लोचनकाराः।
तत्रोदाहरणं यथा-रत्नावल्यां सागरिकाया अन्योन्यसंदर्शनात्प्राग्वत्सराजे रतिः।
प्रतिनायकनिष्ठत्वे यथा-व्यग्रीववधे हयग्रीवस्य जलक्रीडावर्णने ।
रतेबहुनायकनिष्ठत्वमुदाहरति-कान्ता इति । कश्चित्पुरुषो बहुनायकासक्तां नायिका बूते । हे सुतनु = हे सुन्दर !, येषां = जनाना, कृते = निमित्ते, अयं सन्नि. कृष्टस्थः, कपोल: = गण्डफलकः, विरहेण, पाण्डः = पाण्डरवर्णः, जात इति शेषः । भुवनत्रितयेऽपि लोकत्रयेऽपि, ते एव-नायकाः कान्ताः=सुन्दराः इति मन्ये विचारयामि, अत्र "कान्ता" इति बहुवचनात् नायिकाया बहुनायकविषय रतिः प्रतीयते ।
रतेरनुभयनिष्ठत्वमुदाहरति-मालतीमाधवे = तदाख्ये प्रकरणे, नन्दनस्य %3D तन्नामकस्य राज्ञो नमसुहृदः एव मालत्या रतिः, न तु मालत्या नन्दने, अतो रतरतुभयनिष्ठत्वम् । . . .
अत्र लोचनकारमतं प्रदर्शयति-पा-अनन्तरम्, उभयनिष्ठत्वेऽपि-नायिकानायकस्थितत्वेऽपि. प्रथम = प्राक्, एकनिष्ठत्वे = नायिकानायकाऽन्यतरस्थितत्वे रतः, भाभासत्वम = शृङ्गाररसाभासत्वमिति, श्रीमल्लोचनकाराः = अभिनवगुप्तपादाः । तत्रोदाहरणं. यति । अन्योन्यदर्शनात्प्राक-मिथोऽवलोकनात प्राक् । वत्सराजे-उदयने ।
रतेः प्रतिनायकनिष्ठत्वं प्रदर्शयः-हयग्रीववधे-तदाख्यमहाकाव्ये, हयग्रीवस्यतदाख्यदत्यस्य ।
रतिके बहुत नायकोंमें रहनेसे शृङ्गाराभासका उ०-कोई पुरुष बहुतेरे नायकोंमें आसक्त नायिकासे कहता है-हे सुन्दर ! मैं तीनों लोकोंमें उन्हें ही सुन्दर समझता हूं, जिनके लिए तुम्हारे कपोल पाण्डवर्णवाले हो गये हैं।
रतिके उभयनिष्ठ न होनेसे (नायिका और नायक दोनोंमें न रहनेसे) मृङ्गाराभास - जसे मालतीमाधवमें नन्दनकी मालतीमें रति (अनुराग)। पीछे रतिके दोनोंमें रहनेपर भी पहले एक हीमें रहनेसे शृङ्गारामास होता है ऐसा श्रीमल्लोचनकार(अभिनवगुप्ताचार्य ) का मत है। उसमें उदाहरण रत्नावलीमें सागरिकाकी परस्पर दर्शनके पहले ही वत्सराज ( उदयन ) में रति ।
रतिके प्रतिनायकमें रहनेपर शृङ्गाराभास जैसे-हयग्रीववधमें हयग्रीवकी जलक्रीडाके वर्णनमें।
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तृतीयः परिच्छेदः
२०२
अधमपात्रगतत्वे यथा
'जघनस्थलनद्धपत्रवल्ली गिरिमल्लीकुसुमानि कापि भिल्ली ।
अवचित्य गिरौ पुरो निषण्णा स्वकचानुत्कचयाञ्चकार भर्चा ।' तिर्यगादिगतत्वे यथा
'मल्लीमतल्लीषु वनान्तरेषु वल्ल्यन्तरे वल्लभमाह्वयन्ती।
चश्चद्विपश्चीकलनादभङ्गीसंगीतमङ्गीकुरुते स्म भृङ्गी ॥'
आदिशब्दात्तापसादयः । गद्राभासो यथा
'रक्तोत्फुल्लविशाललोलनयनः कम्पोत्तराङ्गो मुहु
रतेग्धमणत्रगतत्वमुदाहरति-जघनस्थलनद्धपत्त्रवल्ली = जघनस्थले ( कटिपुरोभागाऽवकाशे ) बद्धा ( बदा) पत्रवल्ली ( पत्रलता ) यया सा, तादृशी काऽपि = काचित, भिल्ली = मिल्लजातीया स्त्री, गिरी = पर्वते, गिरिमल्लीकुसुमानि = कुटजपुष्पाणि, अवचित्य = संगृह्य, पुनः = अगे, भतुरिति शेषः । निषण्णां = उपविष्टां सती, पर्चा = स्वपतिना, स्वकचान् = आत्मकेशान्, उत्कचगाञ्चकार = बन्धयामास । मालमारिणी वृतम् । अत्र रतेभिल्लीरूपाधमपात्रगतत्वेन शृङ्गागभासः ।
रते स्तिर्यगादिगतत्वमृदाहरति-मल्लीमतल्लीष्विति। भृङ्गी = भ्रमरी, पल्लीमतल्लीषु = प्रशस्तमल्लीषु, वनान्तरेषु = वि'िनाऽभ्यन्तरेषु वल्ल्यन्तरे = विन्नलतार्या, स्थितमिति शेषः । वल्लभं = प्रियं, भ्रमरमिति भावः । आह्वयन्ती = माकारयन्ती, रमणाऽयमिति शेषः । चञ्चद्विपञ्चीकलनादभङ्गीसंगीतं = चचन्ती (क्वणन्ती ) या विपञ्ची ( वीणा ) तस्या: कलनादभङ्गीसंगीतं ( मधुण्डस्फुटध्वनिविच्छित्तिगानम् ), अङ्गीकुरुते स्म = स्वीचकार । इन्द्रवज्रा वृत्तम् ।
अत्र रतेस्तिर्यग्जातिगतत्वेन शृङ्गाराभासः । अत्र आदिशब्दात् तापसादयः । रोतामासमुदाहरति-कर्णवधाऽभावेन गाण्डीवं निन्दन्तं कर्णदीडितं युधिष्ठिरं इन्तुमुद्यते अर्जुने कस्यचिदुक्तिरियम् । रक्तोरफुल विशाललोलनयतः = रक्ते ( अरुणवर्णे
रतिके अधमपात्र में रहनेपर शृङ्गाराभास जैसे-जघनस्यलमें पत्त्रलताको बांधने पाली किसी भिल्ल स्त्रीने कुटजपुष्पोंको इट्टा कर पर्वतमें पति के पास बैठकर उससे अपने केशोंको अलङ्कृत कराया ॥
रतिके तिर्यक् आदिमें रहनेपर शृङ्गाराभास जैसे-भ्रमरीने वनके भीतर बढ़िया चमेलीके फूलोंमें लताके बीचमें प्रिय (भ्रमर) को बुलाकर बीनके समान मनोहर स्वरसे गुरुजन शुरू किया । “तिर्यगादि" में आदि पदसे तपस्वी आदिमें रहनेवाली रनिको ग्रहण करना चाहिए।
रौद्राभास जैसे- कर्ण से पीडित युधिष्ठिरके कर्णकी हत्या न करनेसे गाण्डीवकी ५९ सा
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२९० ..
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साहित्यदर्पले
मुक्त्वा कर्णमपेवभीधृतधनुर्वाणो हरेः पश्यतः। माध्मातः कंटुकोक्तिभिः स्वमसकदोविक्रम कोर्तय- अंसास्फोटपटुयुधिष्ठिरमसौ हन्तुं प्रविष्टोऽर्जुनः॥' भयानकामासो यथा
'अशक्नुवन् सोढुमधीरलोचनः सहस्ररश्मेरिव यस्य दर्शनम् ।
प्रविश्य हेमाद्रिगुहागृहान्तरं निनाय बिभ्यदिवसानि कौशिकः ॥' क्रोधेनेति शेषः ) उन्फुल्ले ( विकसिते ) विशाले (आयते ) लोले (चञ्चले ) नयने (नेत्रे ) यस्य सः । मुहुः - वारं वारम् । कम्पोत्तराङ्गः = कम्पः (वेपथः) उत्तर (प्रचुरः) येषां, तादृशानि अङ्गानि ( हस्तपादाखवयवाः ) यस्य सः । कर्ण - सूतपुत्रं मुक्त्वा = त्यक्त्या, अपेतभीः = अपगतमयः, धृतधनुर्बाणः = (धुताः - गृहोता 'धनुर्वाणाः = कार्मुकशराः येन सः ), कटुकोक्तिभिः = तीक्ष्णवचनः. युधिष्ठिरस्येति शेषः । आध्माता = दग्धः, अंसास्फोटपटुः = अंसयोः ( स्कन्धयोः ) आस्फोटे ( करेगा। पाते ) पटुः (तत्परः) । असौ अर्जुनः, असकत-मुहुर्मुहुः, स्वकीयम् आत्मीय,दोविक्रम बाहुपराक्रम, कीर्तयन्-वर्णयन्, पश्यतो हरेः पश्यन्तं हरिम्, अनादृत्येति भाव, “षष्ठी बाऽनादरे" इति षष्ठी। युधिष्ठिर-स्वकीयाऽग्रज,हन्तु व्यापादयितु', प्रविष्टः-प्राविशदा अत्रार्जुनक्रोधस्य ज्येष्ठप्रातृरूपगुरुगतस्वाद्रौदरसाभासः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । ..
भयानकामासमुवाहरति-प्रशक्नुवनिति । शिशुपालवधे महाकाव्ये नारदस्य रुष्पं प्रति कौशिकमयप्रतिपादकं वचनम् । कौशिकः = इन्द्र उलकच । सहसरस्मेः इस- सूर्यस्य इव, यस्य = रावणस्य, दर्शनं = विलोकन, सोद् = मषितुम्, अशक्तुबन् बसहमानः, अत एव अधीरलोचनः = कातरनयनः, बिभ्यत् = त्रस्यन, हेमाऽद्विगुहागृहाऽन्तरं = हेमाद्रेः (सुमेरोः), गुहा (दरी) इव गृह (भवनम् ) तस्य अन्तरं (मध्यम् ), प्रविश्य = प्रवेशं कृत्वा, दिवसानि = दिनानि, निनाय = यापितवान् । वंशस्थं वृत्तम् । अत्र भयस्य देवराजरूपोतमपात्रगतत्वेन भयानकरसाभासत्वंम् । निन्दा करनेपर जब अर्जुन उनको मारनेके लिए तत्पर हुए थे उस समय किसीकी उक्ति है। लाल और विकसित बड़े और चञ्चल नेत्रोंसे युक्त, प्रचर कम्प वाले हस्तपाद आदि अवयवोंसे युक्त, कर्णको छोड़कर निर्भय होकर धनुष और बाणोंको लेकर युधिष्ठिरके तीक्ष्ण वचनोंसे जलकर कन्धोंको ताडन करने में तत्पर होकर अर्जुनने वारं वार अग्ने बाह पराक्रमका बखान करके श्रीकृष्णके देखते देखते अपने बड़े भाई युधिष्ठिरको मारनेके लिए प्रवेश किया।
. भयानकाऽऽभास जैसे-शिशुपालवध महाकाव्यमें नारद श्रीकृष्णजीसे इन्द्रका भय बतलाते हैं -उ०-जैसे उल्लू सूर्यको देखने में समर्थ नहीं होता है वैसे ही इन्द्र सूर्यके समान तेजस्वी रावणको देखने में असमर्थ होकर डरते हुए सुमेरु पर्वतके गुफारूप घरके भीतर प्रवेश कर दिन बिताते थे।
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तृतीयः परिच्छेदः
२९१ नीनीचविषयमेव हि भयं रसप्रकृतिः । एवमन्यत्र ।
मावामासो लज्जादिके तु वेश्यादिविषये स्यात् ॥ २६६ ॥ स्पष्टम्।.
भावस्य शान्तोदये संधिमिश्रितयोः क्रमात् ।
भावस्य शान्तिरुदयः संधिः शवलता मता ॥ २६७ ॥ अमेण यथा
'सुतनु ! जहिहि कोपं, पश्य पादानतं मां
न खलु तव कदाचित्कोप एवंविधोऽभूत् । ___भयस्य उचिताधारं दर्शयति । हि = यतः, स्त्रीनीचविषयं = स्त्री ( योषित ) नीयः ( अधमजनः ), विषयः (आधारः ) यस्य तस्, एतादृशं भयमेव, रसप्रकृतिः= भयानकरसस्थायिभावः ।
- एवम् = इत्थमेन, अन्यत्र = शमादावपि हीनपात्रगतत्वे उदाहतंव्यम् । भावा. भासं प्रतिपादयति-भावाभास इति । वेश्याऽदिविषये गणिकाद्याधारे, लज्जादिके सति-प्रीडादिके सति, "भावाभासः" स्यात् । अत्राऽदिपदेन निर्वेदादिकं बोध्यम् ।
भावशान्त्यादिकं प्रतिपादयति-भावस्येति । मावस्य = कस्यचियभिचारि. मावस्य, शान्तो-प्रशमे, पास्वाये सति इति शेषः, भावशान्तिः। भावस्य उदयं भावोदयः, मावस्य सन्धी भावसन्धिः । भावेषु मिश्रितेषु भावशबलता, मता-अभिमता; . पाहारिकरिति शेषः ॥ २६७ ॥
भावशान्तिमुदाहरति-सुतन्विति । कृताऽपराधस्य कस्यचिन्नायकस्य मानिनी नायिका प्रति अनुनयवचनमिदम् । हे सुसनु = सुन्दरि !, कोरं - क्रोध, जहिहि त्यज । पादानतं = चरणाऽवनतं, मा-प्रियं, पश्य - विलोकय । तव = भवत्याः , कदाचित् - पातुचिदपि, एवंविधः = एतादृशः, कोपः = क्रोधः, न अमूत् = नो जातः ।
भयके आषय स्त्री और नीच पुरुष ही होते हैं, यहां उत्तमपात्रइन्द्र भयके आश्रय हर है इस कारण यहाँ भयानकाभास है । ऐसे ही अन्यत्र भी जानना चाहिए।
भावाभास-वेश्या आदिमें लज्जा आदि हो तो भावाभास होता है ॥२६६॥
भावशान्ति प्रादि-किसी भावकी शान्तिमें भावशान्ति, किसी भावके उदयमें भावोदय, किसी भावकी सन्धिमें भावसन्धि और भावोंके संमिश्रणमें भावशबलता होती है ॥ २६७ ॥
भावशान्ति उ०-कोई नायक अपनी मानिनी नायिकासे अनुनय करता है। हे सुन्दरि ! कोप छोड़ो, तुम्हारे पैरोंपर मुके हुए मुझे देखो। तुम्हारा कमी भी ऐसा
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साहित्यदर्पणे
इति निगदति नाथे तिर्यगामीलिताझ्या ..
_ नयनजलमनल्पं मुक्तमुक्तं न किञ्चित् ।।' पत्र वाष्पमोचनेनेाख्यसञ्चारिभावस्य शमः । 'चरणपतनप्रत्याख्यानात्प्रसादपराङ्मुखे
निभृतकितवाचरित्युक्त्वा रुषा परुषीकृते । व्रजति रमणे निःश्वस्योच्चैः स्तनस्थितहस्तथा __ नयनसलिलच्छन्ना दृष्टिः सखीषु निवेशिता ॥
अत्र विषादस्योदयः। पावे- पत्यो, इति - इत्यं, निगदति = वदति सति, नियंगामीलिताझ्या = तिर्यक ( भाव यथा तपा) मामीलिताक्ष्या (मुदितनयनया), अनल्पं 3 प्रचुरं, नयनबळ = पापसलिलं, मुक्तं त्यक्त, किन्तु किश्चिद = किमपि, न उक्तं = न अभिशिवम् । मालिनी वृत्तम् । बत्र बाष्पमोचनेन = अविसर्जनेन, ईर्ष्याऽख्यसञ्चारिमावस्य समः- शान्तिः । विरुखसामग्रीप्राबल्येन भावशान्तिरितिभावः ।
भावोदयमुदाहरति-परणेत्यादि। कृताऽपराधं कान्तं प्रति मानिन्या पायिकाया व्यवहारं प्रतिपादयति । चरणपतनप्रत्याख्यानात = चरणयोः ( स्वपादयोः) पतनेऽपि (कान्तस्य निपतनेऽपि ) प्रत्याख्यानात ( कान्तस्य निराकरणाव, कोपेनेति सेवः) स्तः प्रसादपराङ्मुखे ( प्रसन्नतारहिते ) कान्त इति शेषः । हे निभुतकितपापार-हे प्रच्छन्नधूर्तव्यवहार !, इति = एवम्, उक्त्वा - अभिधाय, रुषा = कोपेन हेतुना, परुषीकृते निष्ठुरीकृते, रमणे=कान्ते, प्रजति नैराश्येन गच्छति सति । ऊन्चः= कध्वं, निश्वस्य=निःश्वासं कृत्वा, स्तनस्थितहस्तया पयोधरनिहितकरया, नायिकयेति शेषः । नयनसलिलच्छन्नाबाष्पजलावता, दृष्टि: नेत्रं, सखीषु-वयस्यासु, निवेशिताअर्पिता । हरिणी वत्तम् । अत्र विषादस्य = तन्नामकव्यभिचारिभावस्योदयः ।
स्वसामग्रीमाहात्म्येन व्यभिचारिभावस्योद्गभावस्था भावोदयः । पत्र नायकप्रत्याख्यानरूपसामग्या विषादाख्यो व्यभिचारिभाव आस्वाद्यते ।। 'कोप नहीं हुआ था। पतिके ऐसा कहनेपर नेत्रोंको तिरछा करनेवाली सुन्दरीने आंसू तो पर गिराया पर कुछ भी नहीं बोली।
इसमें आंसू गिरानेसे ईर्ष्या नामक संचारी भावकी शान्ति होनेसे यह भावः शान्ति है।
- भावोदय उ.-अपराध किये हुए प्रियके प्रति मानिनी नायिकाका व्यवहार दिखलाते हैं। परोंमें पड़नेपर भी क्रोधसे हटाये जानेसे प्रियके अप्रसन्न होनेपर 'हे प्रच्छन्न धूर्तके व्यवहारको करनेवाले !" ऐसा कहकर निष्ठर होकर उसके जानेपर भी अम्बा पास लेकर स्तनोंमें हाथोंको रखने वाली नायिकाने आंसूसे भरी दृष्टि सखियोंके पर डाली। इस पचमें विवाद कप पावका उदय होनेमे यह भावोदय है ।
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तृतीयः परिच्छेदः
'नयनयुगासेचनकं मानसवृत्त्यापि दुष्पापम् ।
रूपमिदं मदिराक्ष्या मदयति हृदयं दुनोति च मे ॥' अत्र हर्षविषादयोः संधिः। काकार्य ?, शशलक्ष्मणः क च कुलं ?, भूयोऽपि दृश्येत सा ?,
दोषाणां प्रशमाय मे श्रुतमहो!, कोपेऽपि कान्तं मुखम् । भावसन्धिमुदाहरति-नयनयुगासेचनकमिति । नयनयुगासेचनक-नयनयुक्त नित्रद्वयस्य) आसेचनकम् (अतितृप्तिजनकम्) । एवं च मानसवृत्या अपि-मनोव्यापारेष बपि, दुष्प्रापं = दुर्लभं, मदिराक्ष्याः = मदिरस्य (खञ्जनस्य) इव अक्षिणी (ने) ययाः सा मदिराक्षी, तस्याः, खजननयनाया इत्यर्थः । इदम् - एतद, - सौन्दय मे = मम, हृदयं = चित्तं, मदयति = आह्लादयति, नयनयुगासेवनचत्वादिति भावः। एवं च दुनोति च = उपतापयति च, मनोवत्याऽपि दुष्प्रापत्वादिति पाकः । बायो वृत्तम् । अत्र नायकस्य हर्षविषादयोः सन्धिः। उमयसामग्रीयोमेन परस्परविय भावसन्धिः ।
भावशबलतामुदाहरति-क्वाऽकार्यमिति । विक्रमोवंगीत्रोटके उर्वशीविदेश पीड्यमानस्य पुरूरक्स उक्तिरियम् । अकार्य = कुकार्य, स्त्रीविरहेग आत्मघातरूपमिति भावः, क्व = कुत्र, शशलक्ष्मणः = चन्द्रस्य, कुलं च = वंशन, व-कुत्र, उपयर महदन्तरमिति भावः । अतो विषमाइलद्वारः, एवं परत्राऽपि, एतेन वाक्यदयेन वितर्कः। भूयोऽपि = पुनरपि, सा = उर्वशी, दृश्येत = अवलोक्येत, इति काकुजन्यः प्रश्नान इत्योत्सुक्यम् । दोषाणां = दुष्टकार्याणां, प्रशमाय = निवारणाय, मे = मम, वृतम् - बध्ययनम्, अतो मयाऽऽत्मघातरूपं निषिद्धकार्य न कर्तव्यमिति भावः, एतेन मतिम्पो व्यभिचारभावः । “नोतिमार्गाऽनुसृत्यादेरर्थनिर्धारणं मतिः ।" इति मतिम पूर्व प्रतिपादितम् (२१४ पृष्ठे )। अहो = आश्चर्यम् । कोपेऽपि - कोवे सस्पणि मुखं = वदनम्, उर्व इति शेषः । कान्तं = सुन्दरम् । एतेन स्मृतिरूपो व्यभिचारिस
भावसन्धि उ०-कोई नायक अपनी प्रियाकी बात अपने मित्रसे कहता है। दोनों नेत्रोंको अत्यन्त तृप्त करनेवाला और मनके व्यापारसे भी दुष्प्राप्य, खजनोंके समान नेत्रोंवालीका यह सौन्दर्य मेरे हृदयको आनन्दित करता है और दुष्प्राप्य होनेसे पीडित भी करता है। यहां हर्ष और विषाद नाम के व्यभिचारि भावों की सन्धि है। . भावशबलता उ.-विक्रमोर्वशी त्रोटकमें उर्वशीके विरइसे पीडित राजा पुरूरवाको उक्ति है कुकार्य कहां और चन्द्रवंश कहाँ ? २ क्या वह फिर भी देवी बायगी ? । ३ दोषों को हटानेके लिए मेरा शास्त्र का अध्ययन है, बाश्चर्य है गोधर्म भी उसका सुन्दर मुख है ५ निष्पाप विद्वान्लोग मुझको क्या कहेंगे ? ६ स्वभमें भी
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साहित्यदपणेः .
A
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किं वक्ष्यन्त्यपकल्मषाः कृतधियः १, स्वप्नेऽपि सा दुखमा,
चेतः स्वास्थ्यमुपैहि, कः खलु युषा धन्योऽधरं धास्यति ॥ पत्र वितर्कोत्सुक्यमतिस्मरणशङ्कादैन्यधृतिचिन्तानां शबखता। इति श्रीमन्नारायणचरणारविन्दमधुव्रत-साहित्यार्णवकर्णधार ध्वनिप्रस्थापन.. परमाचार्य-कविसूक्तिरलाकराऽष्टादशभाषावारविलासिनीभुजङ्गसान्धिविहिक महापात्र-श्रीविश्वनाथकविराजकृती साहित्यदर्पणे
सादिनिरूपणो नाम तृतीयः परिच्छेदः ।
भावः । अपकल्मषाः = पापरहिताः, कृध्यिः = द्विांसः, कि, वक्ष्यन्ति-कथयिष्यन्ति, दुपतिनं मामिति शेषः । एतेन शङ्कास्पो व्यभिचारिभावः । साउर्वशी, स्वप्ने पि= स्वापेऽपि, दुर्लभा - दुष्प्राप्या, एतेन दैन्यरूपो व्यभिचारिभाव: । हे चेतः = हे चित !, स्वास्थ्यं = सुस्थितिम्, उपैहि = प्राप्नुहि, एतेन धृतिरूपो व्यभिचारिभावः । कः = कतमः, युवा = तरुणः, धन्यः = सुकृती सन्, अधरम् = ओष्ठम्, उर्वश्या इति शेषः । पास्यति = पास्यति, एतेन चिन्ताऽस्यो व्यभिचारिभावः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।
कत्र = अस्मिन्पचे वितकोत्सुक्यमतिस्मरणदैन्यधृतिचिन्तानां = तदाख्यानां व्यभिचारिभावानां शबलता= विचित्रता,पूर्वपूर्वोपमर्दैन उत्तरोत्तरोत्पत्तिः शबलतेति भावः। इति श्रीशेषराजशर्मप्रणीतायां चन्द्रकला भिड्यायां साहित्यदर्पण
टीकायां तृतीयः परिच्छेदः ।।
वह दुर्लभ हो गई ७ हे चित! तू सुस्थितिको प्राप्त कर ८ कोन सा भाग्यवान युवक उसका अधरपान करेगा? इस पछमें क्रमके अनुसार १ दित २ औत्सुक्य ३ मति ४ स्मरण ५ शङ्का ६ दीनता ७ धृति और ८ चिन्ता इन व्यभिचारि भावोंके मिश्रणसे बह भावशबलताका उदाहरण है।
साहित्यदर्पणके अनुवादमें तृतीय परिच्छेद समाप्त हुआ ।
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चतुर्थः परिच्छेदः
काव्यं ध्वनिर्गुणीभूतव्यङ्गय चेति द्विधा मतम् ।
ar काव्यभेदमाह–
त्र
वाच्यातिशयिनि व्यङ्गथ ध्वनिस्तत्काव्यमुत्तमम् ॥ १ ॥ वाच्यादधिकचमत्कारिणि व्यङ्ग्यार्थे ध्वन्यतेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या ध्वनिर्नामोत्तमं काव्यम् ।
भेदौ ध्वनेरपि द्वावुदीरितौ लक्षणाभिधामूलौ । अविवक्षितवाच्योऽन्यो विवक्षितान्यपरवाच्यश्च ॥ २ ॥
काव्यलक्षण - वाक्य पदादिस्वरूप र साऽऽदिनिरूपणाऽनन्तरं काव्यस्य भेदानुद्दिशा सिं काव्यमिति । ध्वनिर्गुणीभूतव्यङ्गयं चेति भेदाभ्यां काव्यं द्विधा = प्रकारद्वयेन, मतंसम्मतम् । तत्र ध्वन्यते ( व्यज्यते ) व्यङ्गघार्थ : ( व्यञ्जनावृत्तिप्रतिपाद्योऽर्थः ) शब्दादिना यस्मिन् ( काव्ये ) इति ध्वनिः । तथैव गुणीभूतः (अप्रधानीभूतः ) व्यङ्गघः ( व्यञ्जनावृत्तिप्रतिपाद्योऽर्थ : ) अस्मिन्निति गुणीभूतव्यं जय इति व्युत्पत्तिः ।
तत्र = तस्मिन् काव्यद्वये, ध्वनि लक्षयति-वाच्याऽतिशयिनीति |
-
व्यङ्गथे = ब्यञ्जनावृत्तिप्रतिपाद्यो ऽर्थे, वाच्याऽतिशयिनि - वाच्यात् (अभिधावृतिप्रतिपाद्यादर्थात् ) अतिशयिनि ( अधिकचमत्कारिणि ) सति ध्वन्यते ( व्यञ्जनावृत्या प्रतिपाद्यते ) अर्थ: यस्मिन्निति ध्वनिर्नामोत्तमं काव्यम् ॥ १ ॥
ध्वनिभेदी प्रतिपादयति-भेदाविति । अविवक्षितवाच्यः =लक्षणामूलः, अन्यः=' अपरः, विवक्षिताऽन्यपरवाच्यश्च = अभिधामूलच इति = एवम् ध्वनेरपि ..काव्यस्याऽपि, लक्षणाऽभिधामूली, द्वौ - द्विसंख्य को, भेदो प्रकारी, उदीरिती कथित ॥ २ ॥
उत्तम
काव्यभेद कहते हैं- काव्य के दो भेद होते हैं, ध्वनि और गुणीभूतव्यङ्ग । ध्वन्यते ( व्यज्यते ) व्यङ्गधार्थः अस्मिन् ऐसी व्युत्पत्ति कर "ध्वन शब्दे" इस धातुसे अधिकरण अर्थ में इ प्रत्यय होकर "ध्वति" शब्द निष्पन्न होता है । वाच्य ( अभिधावृत्तिसे प्रतिपाद्य ) अर्थसे जहाँवर व्यंजय ( व्यञ्जना वृत्तिसे प्रतिपाद्य ) of अधिक चमत्कारी होता है उसे "ध्वनि" कहते हैं, वह उत्तमकाव्य है । १ ।
af भी दो भेद होते हैं लक्षणामूल घोर प्रभिधामूल । लक्षणामूल होने से ही जहाँपर वाच्य अर्थ अविवक्षित ( बाधितस्वरूप ) होता है, ऐसे प्रथमको अविवक्षितवाच्य कहते हैं । विवक्षित है अन्यपर ( व्यङ्ग्यनिष्ठ ) वाच्य अर्थ जिसमें वैसे द्वितीयको विवक्षितान्यपरवाच्य अर्थात् "अभिधामूल ध्वनि" कहते हैं ॥ २ ॥
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साहित्यदर्पणे
तत्राविवक्षितवाच्यो नाम लक्षणामूलो ध्वनिः । लक्षणामूलत्वादेवात्र वाच्यमविवक्षितं बाधित स्वरूपम् ।
२९६
विवक्षितान्यपरवाच्यस्त्वभिधामूल:, अत एवात्र वाच्यं विवक्षितम् । अन्यपरं व्यङ्गयनिष्ठम् । अत्र हि वाच्योऽर्थः स्वरूपं प्रकाशयन्नेव व्यथाथस्य प्रकाशकः । यथा- प्रदीपो घटस्य । अभिधामूलस्य बहुविषयतया पंचानिर्देशः ।
अविवक्षितवाच्यस्य भेदावाह -
अर्थान्तरं संक्रमिते वाच्येऽत्यन्तं तिरस्कृते । अविवक्षितवाच्योऽपि ध्वनिद्वैविध्यमृच्छति ॥ ३ ॥
200
तत्रेति । अविवक्षितवाच्यः - अविवक्षितं (न वस्तुमिष्टं - बाधितस्वरूपमिति ) वाच्यम् यस्मिन्सः तादृशो लक्षणामूलो अनिः । विवक्षितान्यपरवाच्यः - विवक्षितम् ( वक्तुम् इष्टम् ) अन्यपरम् (व्यङ्गघनिष्ठम् ) वाच्यं यस्य सः अभिधाः मूल ध्वनिः ।
अत्रेति । अत्र = अविवक्षितवाच्ये, वाच्योऽर्थः - ओभघावृत्ति प्रतिपाद्योऽर्थः । स्वरूपं निजाऽयं, प्रकाशयशेव-प्रतिपादयशेव, व्यङ्गघाऽर्थस्य - व्यजना वृत्तिप्रतिपाद्याऽर्थस्य, प्रकाशकः = प्रतिपादक: । अभिधामूलस्य = विवक्षिताऽऽन्य परवाच्यस्य ध्वनेः, बहुविषयतया विषयाऽऽधिक्येन पचान निर्देशः पञ्चात्प्रतिपादनम् । अल्पवक्तव्यत्वेन सूची कटान्यायेन लक्षणामूलध्वनेः प्रानिर्देश इति भावः ॥ २ ॥
-
अविवक्षितवाच्यस्य = लक्षणामूलध्वनेः, भेदी - प्रकारी, आह-पर्यान्तर इति । वाच्ये = अभिधावृत्ति प्रतिपाद्य अर्थ, अर्थाऽन्तरम् - वाच्य भिन्नमन्यम् अर्थम सक्रमिते = प्रापिते तथा च अत्यन्तं ; साऽतिशयम्, तिरस्कृते - लक्षणलक्षणया ज्ञानाविषयं प्रापिते सति । अविवक्षितवाच्यः - लक्षणामूलः ध्वनिरपि, द्वैविध्यं
-
इसमें वाच्य अर्थ अपने स्वरूपको प्रकाशित करता हुआ हो व्यङ्गय अर्थका प्रकाश करता है। जैसे प्रदीप घटको प्रकाशित करता हुआ अपने स्वरूपको प्रकाशि करता है । अभिधामूल ध्वनिका विषय बहुत होनेसे उसका पीछे निर्देश किया है और लक्षणामूos safter विषय थोड़ा है इसलिए सूचीकटाहन्यायसे उसका पहले निर्देश किया गया है ।
प्रविवक्षित वाच्यके दो भेद कहते हैं - वाच्यके दूसरे अर्थ में संक्रान्त होनेसे अर्यान्तरसंक्रमितवाच्य, और वाच्यके अत्यन्त तिरस्कृत होनेपर अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य इसप्रकार अविवक्षितवाच्य ( लक्षणामूल ) ध्वनिके दो भेद होते हैं। जिस स्थल में स्वयम् प्रकृत अन्वयमें बाधित होकर वाच्य अर्थ दूसरे अर्थ में
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चतुर्थः परिच्छेदः
२९७
अविवक्षितवाच्यो नाम ध्वनिरर्थान्तरसमितवाच्योऽत्यन्ततिरस्कृतवाच्यश्चेति द्विविधः।
यत्र स्वयमनुपयुज्यमानो मुख्योऽर्थः स्वविशेषरूपेऽर्थान्तरे परिणमति, वत्र मुख्यार्थस्य स्वविशेषरूपार्थान्तरसंक्रमितत्वादर्थान्तरसमितवाच्यत्वम्। यथा
'कदली कदली, करभः करभः, करिराजकरः करिराजकरः ।
भुवनत्रितयेऽपि बिभर्ति तुलामिदमूरुयुगं न वमूरदृशः ॥' द्विप्रकारताम्, ऋन्छति = अच्छति । अविवक्षितवाच्यस्य वनेः अर्यान्तरसंक्रमित, पाच्योऽत्यन्ततिरस्कृतवाच्यश्चेति दो भेदो भवत इति भावः ।
अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यं विवृणोति-योति । यत्र = यस्मिन् स्थले, स्वयंस्वरूपेण, अनुपयुज्यमानः = प्रकृताऽन्वये बाध्यमान इति भावः, मुख्यः = वाच्यः, अर्कः स्वविशेषरूपे = निजभेदरूपे, अर्यान्तरे = अन्यस्मिन्नर्थे, वाच्यलक्ष्यसाधारणेऽयं इति भावः । परिणमति = परिणामं प्राप्नोति, उपादानलक्षणयाऽर्थान्तरं प्राप्नोतीति भावः । तत्र = तस्मि-स्थले, मुख्याऽर्थस्य = वाच्याऽर्थस्य, स्वविशेषरूपाऽर्थान्तरसंक्रमितस्यात् - निजभेदरूपवाच्यान्तरसक्रमयुक्तत्वात्, अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यत्वम् ।
अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यमुदाहरति-कालोति । प्रसन्नराघवे प्रथमेले पद्यमिवं चर्तते । छद्मवेशी रावणः सीतायाः सौन्दर्य वर्णयति । कदली-रम्मा, कस्ली-शैत्याऽ. तिशययुक्ता कदली एव, करमः = मणिबन्धादाकनिष्ठं करस्य प्रदेशः, करमः-साऽतिशयखर्वः करमः एव, करिराजकरः = करिराजस्य ( गजेन्द्रस्य ) करः ( शुण्डादण्डः ), करिराजकरः = अतिशयपरुषः करिराजकर एव, अतः चमूरुदशः = चमूरोः ( मृगः विशेषस्य ) इव दृशो ( नयने ) यस्याः सा, मृगनयनायाः सीताया इति भावः । इदं - दृश्यमानम्, अरुयुगं = सक्यियुग्मं, भुवनत्रितये अपि = लोकत्रये अपि, तुलां = सादृश्य
परिणत होता है. वहाँपर मुख्य ( वाच्य ) अर्थ दूसरे अर्थमें संक्रान्त होनेसे अर्यान्तरसंक्रमित वाच्य होता है ॥ ३ ॥
__जैसे-प्रसन्नराघवमें छद्मवंशी रावण सीताके सौन्दर्यका वर्णन करता है। कदली ( रम्मा ) कदली ही है । करम ( ऊरूके आकारका हायका पार्श्वभाग ) करभ ही है। गजेन्द्रको सूड भी गजेन्द्र सूड ही है। मृगनयना ( सीता ) के ये दोनों ऊरू तीनों जोकोंमें अपनी सानी नहीं रखते है ( १-३७ ) यहांपर दूसरा कदली शब्द पुनरुक्तिके भयसे सामान्यकदली रूप मुख्य अर्थमें बाधित होकर शैत्य आदि गुण विशिष्ट कदलीप
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२९८
साहित्यदर्पणे
अत्र द्वितीयंकदल्यादिशब्दाः पोनरुक्त्यभिया सामान्यकदल्यादिरूपे मुख्यार्थे बाधिता' जाडयादिगुणविशिष्टकदल्यादिरूपमर्थ बोधयन्ति । जाड्याचतिशयश्च व्यङ्गयः। .
- यत्र पुनः स्वार्थ सर्वथा परित्यजन्नर्थान्तरे परिणमति, तत्र मुख्यार्थस्यात्यन्ततिरस्कृतत्वादत्यन्ततिरस्कृतवाच्यत्वम् । कस्याऽपीति शेषः । न बिति-नो धारयति । मृगीदश ऊरुयुगं कदलीकरभशुण्डादण्डा• अपमानाऽपेक्षया विशिष्टत्वाल्लोकत्रयेऽपि सादृश्यं न बिभर्तीति भावः । ___लक्ष्य उदाहरणं विवणोति-प्रति अत्र अस्मिन्नुदाहरणे, द्वितीयकदल्यादिप्र.ब्दाः = द्वितीयकदली करभ-करशब्दाः, पोनरुक्त्यभिया पुनरुक्तिदोषभीत्या, सामान्यकदल्यादिरूपे = साधारणकदलीकरभकरिराजकस्वरूपे, मुख्याऽर्थे, ब्राधिताः = अन्वयमप्राप्नुवन्त:, जाड्यादिगुणविशिष्टकदल्यादिरूपं जाउयखवंत्वपरुषत्वगुणयुक्तकदलीकरभ. करिगजकररूपम्, अर्थ बोधयन्ति = उपादानलक्षणया प्रतिपात्यन्तीत्यर्थः । लक्षणायाः प्रयोजनं प्रतिपादयति-जाउयातिशयश्व-जाडयखर्वत्वपरुषत्वाऽतिशयश्च, व्यङ्गयःक्षणामूलव्यञ्जनया प्रतिपाद: । द्वितीयकदलीकरभकरिराजकरेष्विति शेषः ।
अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यमुपपादयति-पत्रेति। यत्र = यस्मिन् ध्वनी, स्वार्थ मुख्याऽयं सर्वथा = सर्वेः प्रकारः, विशेष्यत्वेन विशेषणत्वेन च । परित्यजत् = अस्वी. कुर्वत, अर्थान्तरे=मुख्याऽर्थभिन्ने, परिणमति परिणाम प्राप्नोति, लक्षणलक्षणयेति शेषः । नत्र - तस्मिन्स्थले, मुख्याऽर्थस्य = वाच्याऽर्थस्य, अत्यन्ततिरस्कृतत्वात् = सर्वथा बाध्यत्वात, अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यत्वम् ।
अर्थको उपादान लक्षणासे बोधित करता है शेयका अतिशय व्यङ्गय है, यही लक्षणाका प्रयोजन है।
इसी तरह दूसरा करम शब्द पूर्ववत् सामान्य करमरूप मुख्य अर्थ में बाधित होकर बर्वत्वगुणविशिष्ट करमरूप अर्थको लक्षणासे बोधित करता है। खर्वस्वका अतिशय व्यङ्गय है। इसी प्रकार दूसरा करिराजकर ( गजेन्द्रकी सूड ) शब्द भी पुनरुक्तिके भयसे सामान्य करिराजकर-रूप मुख्य अर्थमें बाधित होकर परुषत्वरूप अर्थको लक्षणासे बोधित करता है। परुषत्वका अतिशयरूप व्यङ्गय अर्थ लक्षणामूल-व्यञ्जनासे प्रतिपाद्य है।
प्रत्यन्त तिरस्कृत वाच्य-जहाँ शब्द अपने मुख्य अर्थको सर्वथा छोड़कर दूसरे अर्थमें परिणत होता है, वहां मुख्य अर्थके अत्यन्त तिरस्कृत होनेसे अत्यन्ततिरस्कृतपाच्य ध्वनि होती है।
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चतुर्थः परिच्छेदः
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२९९
प्रया
निःश्वासान्ध इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते। : अत्रान्धशब्दो मुख्यार्थे बाधितेऽप्रकाशरूपमर्थ बोधयति, अप्रकाशातिशयश्च व्यङ्गयः। अन्धत्वाप्रकाशत्वयोः सामान्यविशेषभावाभावान्ना
र्थान्तरसंक्रमितवाच्यत्वम्बवा
भम धमिअ ! वीसत्थो, सो सुणओ. अज मारिओ देण ।
गोलाणइकच्छकुडङ्गवासिणा दरिअसीहेण । • अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यमुदाहरति-निःश्वासान्ध इति। निःश्वासान्धः = नि:श्वासन ( निःश्वासवान ) अन्धः (अप्रकाशः) आदर्श इव = दर्पण इव, चन्द्रमाः = इन्द्रः, न प्रकाशतेनो दीप्यते। पञ्चवटयां हेमन्तवर्णनप्रसङ्गे रामस्योक्तिरियम् । एतत्पूर्वाद तु-"रविसंक्रान्तसौभाग्यस्तुषाराऽवृतमण्डलः ।" इति ।
विवृणोति-प्रति। अत्र अन्धशब्दो मुख्याऽर्थे = दर्शनशक्तिरहितरूपे वाच्याऽर्थे, बाधिते = प्रतिबद्ध सति, अप्रकाशरूपमर्थम् अस्वच्छरूपं वाच्यं, बोधयतिअवगमयति, लकणलक्षणयेति शेषः । अप्रकाशाऽतिशयश्च = अस्वच्छताऽतिशयश्च, व्यङ्गय व्यसनात्तिप्रतिपाद्यः । अन्धत्वाऽप्रकाशस्वयोः शक्यत्वलक्ष्यत्वयोः, सामान्यविशेषभावाभावात् = सामान्यविशेषभावरहित्याद, न अर्थान्तरसक्रमितवाच्यत्वम् । शक्यत्वलक्ष्यस्वयोः सामान्यविशेषभाव एव अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यत्वमिति भावः । यथा कदली कदलीत्यादी । "भम धम्मिम" इत्यत्र केषांचिद्विपरीतलक्षणाभ्रमं निरसिटुमाहअमेति।
"भ्रम धार्मिक ! विश्वस्तः स श्वाऽद्य मारितस्तेन।
गोदानदीकच्छकुञ्जवासिना दप्तसिंहेन ।" इति संस्कृतच्छाया।
कुत्रचिदुद्याने परपुरुषसमागमकाले पुष्पाऽवचार्यार्थ भ्रमन्तं धार्मिक प्रति स्वैरिण्या उक्तिरियम् । हे धार्मिक-धर्माचरणशील!, विश्वस्तः, श्वदंशनभयाऽभावेन, विश्वस्तः . बाश्वस्तः सन्, भ्रम = भ्रमणं कुरु ।
उ.-निःश्वासको हवासे अधे दर्पणके समान चन्द्रमा प्रकाशित नहीं होता । है । यहाँपर "अन्ध" शब्द अपने 'नेत्रहीन' अर्थको सर्वथा छोड़कर लक्षणलक्षणासे बप्रकाशरूप दूसरे अर्थका प्रतिपादन करता है। अत्यन्त अप्रकाशरूप अर्थ व्यङ्ग्य है । यहाँपर ( अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य में ) अन्धत्व और अप्रकाशत्वका सामान्य विशेषभाव पहोनेसे बर्थान्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि नहीं है।
"भम धम्मि" इस पद्यमें कुछ विद्वानोंके विपरीतलक्षणाके भ्रमको निवारण करनेके लिए उक्त पद्यको उपस्थित करते हैं। कोई कुलटा स्त्री संकेत स्थान किसी
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३००
साहित्यदर्पणे
अत्र 'भ्रम धार्मिक--' इत्यतो भ्रमणस्य विधिः प्रकतेऽनुयुज्ममानतया भ्रमणनिषेचे पर्यवस्यतीति विपरोतलक्षणाशङ्का न कार्या। यत्र खलु
अत्राऽर्थे हेतु प्रदर्शयति-गोलाणह इति । स श्वेति । अद्य अस्मिन् दिने गोदानदीकच्छकुञ्जवासिना=गोदानद्याः ( गोदावरीसरितः ) यः कच्छः (जलप्रायः देशः), तस्मिन् (तन्निकटे) यः कुञः ( लतादिपिहितस्यानम् ), तद्वासिना (तनि. बसनशीलेन ), तेन-प्रसिद्धन, दृप्तिसिंहेन = दर्पयुक्तकेसरिणा• सः = प्रसिद्धः, श्वा= सारमेयः, मारितः हतः । पुरा सारमेयदंशनाशवाऽसीदद्य तु साक्षादृप्तः सिंहः समागतः जतो भ्रमणं मा कार्षीरित्यभिप्रायः।।
अत्र विपरीतलक्षणाऽऽशङ्का परिहरति-पोति । अत्र-पो, “प्रम धार्मिक इत्यतः = इत्यस्माद्वाक्यात्, भ्रमणस्य = भ्रमिक्रियायाः, विधिः - विधानं, प्रकृतेस्वरिण्या अमोष्टे अनुपयुज्यमानतया = अप्राप्तोपयोगतया, भ्रमणनिषेधे - प्रमिडियाप्रतिषेधे, पर्यवस्यति = पर्यवसितो भवति, इति विपरीतलक्षणाशङ्का, न कार्या - न कर्तव्या । विपरीतलक्षणायाः प्रसङ्ग दर्शयति-योति। यत्र = यस्मिन् स्थाने विधिनिषेधौ = विधानप्रतिषेधी, उत्पद्यमानी एव, वाक्याऽर्थज्ञानोत्पत्तिदशायाम् एक विषेधविध्योः = प्रतिषेधविधानयोः, पर्यवस्यतः-पर्यवसितो भविष्यतः, तत्रैव - स्थाने दवसरः -- विपरीतलक्षणाप्रसङ्गः । यथा च विधेनिषेधे पर्यवसानम् -
"ओनिद्रय दौर्बल्यं चिन्ताऽलसत्वं सनिःश्वसितम् ।
मम मन्दमागिन्याः कृते सखि ! वामपि परिभवति ।" हे सखि = हे वयस्ये !, ओनिद्रयम् = उन्निद्रता, दौर्बल्यं = दुर्बलता, सनिःश्वसितं = निःश्वाससहितं, चिन्ताऽलसत्वम् = आध्यानालस्य, मन्दमागिन्याः= अल्पभाग्यायाः, मम = संख्याः, कृते = निमित्ते, त्वाम् अपि = भवतीम् अपि, परित भवति अभिभवति । रुष्टं कान्तमनुनेतुप्रहितायां सख्या स्वयं कान्तेन संसृष्टायो नायिका तामुपालभते । अत्र "मम कृते" इति विधिरुत्पद्यमान एव "न मम कृते" इति लक्षणया निषेधे पर्यवस्यति, अत एतादृशस्थल एव विपरीतलक्षणा। .
उद्यानमें फूल तोड़नेके लिए घूमते हुए किसी धार्मिक पुरुषको कहती है । हे महात्मा । विश्वस्त होकर भ्रमण करो। आज गोदावरीके जलप्राय देशके निकटवर्ती लतागृहमें रहने वाले दर्पयुक्त सिंहने उस कुत्तेको मार डाला। इस पद्यमें "भ्रम धामिक" इन पदोंसे भ्रमगकी विधि प्रकृतमें उपयुक्त न होनेसे भ्रमणके निषेधमें पर्यवसित होती है इस कारणसे विपरीतलक्षणाकी शङ्का नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जहाँपर विधि बोर निषेध उत्पन्न होनेके साय ही विधि निषेधमें और निषेध विधिमें पर्यवसित हो जाते है वहीं पर विपरीतलक्षणाका प्रसङ्ग है, इसके विपरीत जहाँपर प्रकरण आदिको पर्या
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चतुर्थः परिच्छेदः
पिधिनिषेधावुत्पत्स्यमानावेव निषेधविध्योः पर्यवस्यतस्तत्रैव तदवसरः । यत्र पुनः प्रकरणादिपर्यालोचनेन विधिनिषेधयोनिपेधविधी अवगम्यते तत्र वनित्वमेव । तदुक्तम्
'कचिद् वाध्यतया ख्यातिः, कचित ख्यातस्य बाधनम् ।
पूर्वत्र लक्षणंव स्यादुत्तरत्राभिधैव तु॥' निषेधस्य विधौ पर्यवसानं यथा
मा पथिक | संत्र्यन्धक! शय्यायां मम निमडक्ष्यसि । (पृ० २०)।
अत्र स्वयं दूतिकाया उक्ती "मम शय्यायां मा निमवसि ॥" इति निषेध उत्पद्यमान एव "मम शय्यायां निमव" इति विधौ पर्यवस्यति इत्थं यत्र विधिनिषेधावृत्पद्यमानी एव यत्र निषेधविध्योः पर्यवस्यतस्तव विपरीतलक्षणा भिधाना लक्षणलक्षणा भवतीति तात्पर्यम् ।
ध्वनिप्रसङ्ग प्रदर्शयति-यति । एतद्वपरीत्येन यत्र = स्थाने, प्रकरणादिपर्यालोचनेन - प्रकरणादीनां (प्रकरणप्रभृतीनाम् ) पर्यालोचनेन ( विमर्शनेन ), विधिनिषेधयोः - विधानप्रति वेधयोः, निषेधविधी-प्रतिषेधविधाने, अवगम्येते ज्ञायेते, तत्रतस्मिन् स्थले, ध्वनित्वम् एव = व्यङ्गयत्वम् एव, अभिधामूलध्वनित्वम् एवेति भावः ।
पत्राऽर्थे प्राचीनोक्ति प्रदर्शयति-तदुक्तमिति । क्वचिदिति । क्वचित - कुत्रचित्स्थले, बाध्यतया = शब्दस्याऽन्वये अनुपपद्यमानतया, ख्यातिः = प्रतीतिः । क्वचित् = कुत्रचित्स्थले, ख्यातस्य - अबाध्यत्वेन प्रथमं प्रतीतस्य शब्दस्य, बाधनं = प्रकरणादिपर्यालोचनया विपरीताऽर्थपर्यवसानम् । तयोः पूर्वत्र = बाध्यतया ख्याती; छमणा एव स्यात् = लक्षणामूलध्वनिरेव स्यात्,, उत्तरत्र तु = च्यातस्य बाधने तु; अभिधा एव-अभिधामूलध्वनिरेव । तथा चाऽत्र "भम धम्मिम" इत्यत्र बाधज्ञानाऽभावान पक्षणा, परं प्रकरणपर्यालोचनतः "भ्रम" इत्यस्य विधेः "न प्रम" इति निषेधरूप. ध्यङ्गयांर्थपरतया अभिधामूलध्वनित्वमिति भावः। .
लोचनासे विधि निषेध अर्थ में और निषेध विधि अर्थ में प्रतीत हो जाते हैं वहां ध्वनि ही हो जाती है लक्षणा नहीं।
इस विषयके समर्थनके लिए प्राचीन उक्तिका प्रदर्शन करते है । १ कहीं वाध्यता(शब्दके अन्वयमें अनुपपत्ति ) से प्रतीति और कहींपर बाध्य न होनेसे प्रतीत शब्दका प्रकरण आदिके विचारसे विपरीत अर्थ में पर्यवसान होता है, उनमें प्रथममें लक्षणामूल ध्वनि होती है और द्वितीयमें अभिधामूल ननि होती है।
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३०२
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साहित्यदर्पये
अत्राये मुल्यार्थस्यार्थान्तरे संक्रमणं प्रवेशः, न तु विरोभावः । बव ‘एवात्राजहत्स्वार्था लक्षणा । द्वितीये तु स्वार्थस्यात्यन्त तिरस्कृतत्वात हत्स्वार्था।
विवक्षिताभिधेयोऽपि विमेदः प्रथमं मतः। .. .
असंलक्ष्यक्रमो यव व्यङ्गयो लक्ष्यक्रमस्तथा ॥ ४॥ विवक्षितान्यपरवाच्योऽपि ध्वनिरसंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यः संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यश्चेति विविधः।
लक्षणामूलव्वनी लक्षणाविवेकं प्रतिपादयति-पत्रेति । पत्र = लक्षमामूलध्वनी, आये = प्रथमे, अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य इति भावः । मुख्यायस्य-वाच्याज्यस्य "कदली कदली" त्यादी द्वितीयकदल्यादिशब्दस्य, अर्थान्तरे = शैत्यादिगुणयुक्तकदल्यादि रूपे, संक्रमणं - प्रवेशः, न तु तिरोभावः, अत एवाऽत्र जहत्स्वार्था लक्षणा । द्वितीये तुअत्यन्ततिरस्कृतवाच्य तु "निःश्वासाऽन्ध" इत्यादी, स्वार्यस्य = अन्धशब्दवाच्याज्यस्य दृष्टिशक्तिरहिदस्य, अप्रकाशरूपार्यस्य अत्यन्त तिरस्कृतत्वात् जहत्स्वार्था लमणा ॥३॥
विवमिताऽन्वपरवाच्यस्य अभिधामूलध्वनेमेंदी दर्शयति-विवक्षिताऽ. मिषयोऽपीति । विवक्षिताऽभिधेयः-विवक्षितः ( वक्तमिष्टः ) अभिधेयः (वाच्याइर्षः) यस्मिन् सः विवक्षितान्यपरवाच्य इत्यर्थः । अभिधामूलध्वनिरिति भावः । प्रथम प्राक विभेदः - दो भेदी (कारो) यस्य सः, मंतः, यत्र-बनो, असंलक्ष्यक्रमः = असंलक्ष्यः (बज्ञेयः ) क्रमः ( पौर्वापर्यम्) यस्य सः । संलण्यामा संलक्ष्यः (ज्ञेयः) क्रमः ( पौर्वापर्यम् ) यस्य सः । विवक्षिताऽन्यपरवाव्यस्य (अभिवामूलस्य) ध्वने पर मक्यक्रमः संलक्ष्यक्रमश्वेति हो भेवाविति भावः ॥४॥
यहाँ ( लक्षणामूल ध्वनिमें ) प्रपम (अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य ध्वनि ) में दूसरे वर्ष में संक्रमण (प्रवेश.) होता है, न कि तिरोभाव, इसीलिये यहॉपर बहत्त्वा
..तीय ( अत्यन्ततिरस्कृत पाच्य पनि) में स्वार्थ अत्यन्ततिरस्कृत होता है इसलिए महत्वाषा कक्षणा है।
...अभिषामनयमिक वो मेर-विनितान्यपर पाय व्यनिके हो मेर होते है-पहला असंलक्ष्य कमव्याप वाव जिसमें व्यङ्गप वाईबा म कक्षित नहीं । पौर दूसरा संभल्यामपाप वर्षात जिसमें पनप वर्षका राम, क्षित है ॥४॥
. पसंलक्यकामबाप-नमें एन.असंख्यकमन्परपके उदाहरण रस मोर भाव बावि है, बाविपक्से सामा..बापामास सन्धिानमा बाविका मान होता है।
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चतर्थः परिच्छेदः
३०३
तत्रायो रसभावादिरेक एवात्र गण्यते ।।
एकोऽपि भेदोऽनन्तत्वात् संख्येयस्तस्य नैव यत् ॥ ५॥
उक्तस्वरूपो भावादिरसंलक्ष्यक्रमव्यङ्गयः । अत्र व्यङ्गथप्रतीतेर्विभावादिप्रतीतिकारणत्वात् क्रमोऽवश्यमस्ति किन्तूत्पलपत्त्रशलव्यतिभेदवल्लाघवान संलक्ष्यते । एषु रसादिषु एकस्यापि च भेदस्यानन्तत्वात्संख्यातुम
अलक्ष्यक्रमव्यङ्गयध्वनि निरूपयति-तत्रेति। तत्र = असंलक्ष्यक्रमसंलक्ष्य क्रमव्यङ्गधयोर्मध्ये, अत्र = अलङ्कारशास्त्रे, आद्यः-प्रथमः, असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गयो ध्वनिः रसभावादिः, आदिपदेन रसाभासभावाभाससन्धिशबलतानां ग्रहणम् । एक एव = एक प्रकार एव, गण्यते = संख्यायते । रसभावादीनामेकमात्रग्रहणे हेतुमाह-यत = यस्माकारणाव, तस्य = रसभावादेः, एकोऽपि भेदः = शृङ्गाररसस्य संभोगशृङ्गाररूपः एकोऽपि प्रकारः, अनन्तत्वात् = चुम्बनाउनुभावभेदानामसंख्ययात् संख्येयः - परिगणनीयः, नैव ॥५॥
विवृणोति-उक्तस्वरूप इति । अलक्ष्यक्रमत्वमुपपादयति-पत्रेति । अत्र मसंलक्ष्यकमव्यङ्गय, व्यङ्गयप्रतीतेः = व्यङ्गयाना ( रसामावादीनाम् ) प्रतीते. (मानस्य ), विभावादिप्रतीतिकारणत्वाद =विभावादीनां (विभावाऽनुभावव्यभिचारिभावानाम् ) प्रतीतिः (ज्ञानम् ) एव कारण ( हेतुः ) यस्याः सा, तस्या भावः तस्मात् । क्रमः पौर्वापर्यम्, कारणस्य (विभावस्य ) पूर्ववर्तिता, कार्यस्य (अनुमावस्य) परवर्तिता इति भावः, अवश्यमस्ति, किन्तु-उत्पलपत्त्रशतव्यतिभेदवत् = उत्पलाना (कमलानाम् ) पत्त्राणां (दलानाम् ) यत् शतं (बहुसंख्या ), तस्य व्यतिभेदवत्युगपद्विदारणवत्, लाघवाद = अतिशीघ्रत्वाद, न संलक्ष्यते = नो ज्ञायते । यया सूच्या उत्पल बहुपत्त्राणां भेदने क्रमोऽवश्यमस्ति पर क्षिप्रताऽतिशयात् यथा तेषां पौर्वापर्य न शायते तथैव असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गयोऽपि क्षिप्रतातिशयात् क्रमो न ज्ञायत इति भावः ।।
असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यध्वनेरेकत्वं प्रतिपादयति । एग्विति । एषु च रसादिषु -
इसप्रकार असंलक्ष्य क्रम व्यङ्गयका एक ही भेद है क्योंकि एकका भेद भी अनन्त होनेसे वे सब नहीं गिने जा सकते हैं ॥ ५॥ ..
पूर्वोक्त स्वरूपवाला भाव आदि असंलक्ष्यक्रम व्यङ्गय है। यहाँपर व्यङ्गप प्रतीतिरूप कार्यका बिभाव आदिका प्रतीतिरूपकारण होनेसे क्रम अवश्य है किन्तु कमलके सैकड़ों पत्तोंको सुईसे छेद करें तो उनमें क्रमके रहनेपर भी शीघ्रताके कारण जैसे क्रम ( पौर्वापर्य ) नहीं जाना जाता है वैसे ही यहांपर शीघ्रताके कारण क्रमका ज्ञान नहीं होता है। इन रस आदियोंमें एक भेदका भी अन्त न होनेसे नहीं गिने जा सकनेसे असंलक्ष्यकम व्यङ्ग ध्वनि नामके काव्यका एक ही भेद माना गया
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साहित्यदर्पणे
शक्यत्वादसंलक्ष्यक्रमव्यङ्गयध्वनि म काव्यमेकभेदमेवोक्तम्। तथाहिएकस्यैव 'शृङ्गारस्यैकोऽपि संभोगरूपो भेदः परस्परालिङ्गानाधरपानचुम्ब.' नादिभेदात् प्रत्येकं च विभावादिवैचित्र्यात्संख्यातुमशक्यः, का गणना सर्वेषाम् ।
शब्दार्थोभयशक्त्युत्थे व्यङ्ग्येऽनुखानसन्निभे । ध्वनिर्लक्ष्यक्रमव्यङ्गयस्त्रिविधः कथितो बुधैः ॥ ६ ॥
क्रमलक्ष्यत्वादेवानुरणनरूपो यो व्यङ्गयस्तस्य शब्दशक्त्युद्भवत्वेन, अर्थशक्त्युद्भत्वेन, शब्दार्थशक्त्युद्भवत्वेन च त्रैविध्यात्संलक्ष्यक्रमव्यङ्गय. नाम्नो ध्वनेः काव्यस्यापि त्रैविध्यम् । बङ्गारादिषु, एकस्यः अपि = शृङ्गारस्य संभोगरूपस्य अपि, भेदस्य = प्रकारस्य, बनन्तत्वंम् = असंख्यत्वम्, असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गयध्वनि म काव्यम्, एकभेदम् एव - एकप्रकारम एव उक्तम्, पूर्वोत्तमर्थमुपादयति-तथाहोति । एकस्यैव शृङ्गारस्य रसस्य, एकोऽपि सभोगरूपः = संभोगशृङ्गाररूपः; भेदः = प्रकारः, परस्परांलिङ्गानाऽधर. पानचुम्बनादिभेगत = अन्योन्याश्लेषाऽधरधयनवासंयोगादिप्रकारात्, एवं च प्रत्येक विभागादिचित्र्यात - विभावादीनां वैचित्र्यात ( विविधत्वात ), संख्यातुम्=परिगणयितुम्. अशक्य:न शक्तिविषयः, सर्वेषां = सकलानां रसानाम् ।' का गणना = का संख्या ॥६॥
असंलक्ष्य क्रमव्यङ्गयध्वनि निरूप्य संलक्ष्यक्रमव्यङ्गयस्य विध्यं प्रदर्शयतिशब्दार्थोभयशक्त्युत्य इति। ध्यङ्गय अर्थ अनुरणनसन्निभे = अनुरणनसदृश, बन्दाऽर्योभयशक्त्युत्थे सति = शब्दशक्त्युत्थे सति, अर्थशक्त्युत्थे सति, ( उभय) सक्त्युत्थे सति ( शब्दार्थशक्त्युत्थे चं सति ) लक्ष्य क्रमव्यङ्गयो ध्वनिः, बुधैः विद्वद्भिः विविध: = त्रिप्रकारः, कथितः = उक्तः । अयं भावः, यत्र क्रमलक्ष्यस्वेन प्रतिध्वनिरूपो है। जैसे कि एक ही शृङ्गाररसका एक ही संभोगरूप भेद भी परस्पर आलिङ्गन अधरपान और चुम्बन आदि भेदोंसे और प्रत्येक विभाव आदिकी विचित्रता होनेसे महीं गिना जा सकता है तो सब रसोंके भेदोंके गिननेकी क्या बात हो सकती है ?
संलक्ष्यक्रम ध्यङ्गय ध्वनिके तीन भेद-अनुरणन (प्रतिध्वनि ) के सदृश व्यङ्गय अर्थके शब्दशक्ति मूलक, अर्थशक्ति मूलक और उभय (शब्दाऽर्थ)शक्तिमूलक होनेसे विद्वानोंने लक्ष्यक्रमध्यङ्गय ध्वनिको तीन प्रकारका माना है ॥ ६ ॥
जैसे किसी बाजाको ताडन करनेपर उसकी ध्वनिको उत्पत्तिके अनन्तर उससे भी मन हर उसकी प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है उसी तरह जहांपर प्रतिध्वनिके सदृश ध्यङ्गप अर्थ, शब्दशत्ति से उत्पन्न होगा तो उसे शब्दशक्तिमूलक ध्वनि, अर्थशक्तिसे
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वस्त्वलहाररूपत्वाच्छन्दशक्त्युबो द्विधा । बलकारशब्दस्य. पृथगुपादानादनलङ्कारं वस्तुमात्र गृह्यते। तत्र बस्तुरूपः शब्दशक्त्युद्भवो व्यङ्गयो यथा
'पन्थिा ! ण एत्थ सत्थरमंत्थि मणं पत्थरत्थले गामे ।
उण्णअपओहर पेक्खिऊण जइ षससि ता. वससु ।। ध्यङ्गपाऽर्थः प्रतीयते स संलक्ष्यक्रमध्यङ्गपो ध्वनिः, स च त्रिविधः । शब्दशक्तिमूलाs. मुरणनव्यङ्गपः, अर्थशक्ति मूलाऽनुरणनध्यङ्ग उभय ( शब्दार्थ ) शक्ति मलाऽनरणसव्यजयश्च ॥ ६॥
विवृणोति-ऋमलक्ष्यत्वाविति । अनुरणनरूपः = प्रतिध्वनिरूपः ॥ ६ ॥
शब्दशक्तिमूलाऽनुरणनव्यङ्गयस्य वैविध्यं प्रतिपादयति-वस्त्वलहाररूपत्वाविति । व्यङ्गस्य वस्त्वलङ्काररूपत्वात= वस्तुरूपत्वात् अलङ्काररूपत्वचा, सन्दशक्त्युद्भवः शब्दशक्तमूलाऽनुरणनव्यङ्गपः, विधाद्विप्रकारो भवतीति भावः ।
विवणोति-प्रललारशम्बस्येति । अलङ्कारशब्दस्य पृथक उपादानात = महणात् वस्तुपदेन अनलारम्-अलङ्कारहितं, वस्तुमात्रं गृह्यते। तत्र = द्वयोमध्ये, वस्तुरूपशब्दशक्त्युद्भवं व्यङ्गपमुशहरति-पश्यिम इति ।
“पथिक! नात्र स्रस्तरमस्ति मनाक्प्रस्तरस्थले ग्रामे ।
, उन्नतपयोधरं प्रेक्ष्य यदि बससि तवस ॥"इति संस्कृतच्छाया उत्पन्न होगा तो अर्थशक्तिमूलक ध्वनि और उभय ( शब्दार्थ) शक्तिसे उत्पन्न होगा तो उभयशक्तिमूलक ध्वनि होती है, यह भाव है।
व्य जप अर्यके क्रमके लक्ष्य होनेसे ही अनुरणन (प्रतिध्वनि ) स्वरूप जों पाप अर्थ है वह शब्दशक्तिसे उत्पन्न होनेसे, अर्थ शक्ति से उत्पन्न होनेसे और शब्द बोर बर्थ दोनोंकी शक्ति से उत्पन्न होनेसे भी इस प्रकार तीन भेदोंसे युक्त होनेसे संसक्ष्यक्रमव्यङ्गप नामके ध्वनिकाव्यके भी शब्दशक्तिमूल अनुरणनव्यङ्गय, अर्थशक्तिमूल अनुरणनध्यङ्गप और शम्दाऽर्थ ( उभय ) शक्ति मूल अनुरणनव्यङ्गय इस प्रकार तीन भेद होते हैं । उनमें
शम्पशक्तिमूल मनुरपन व्यगचके दो भेद-वस्तुरूप और अलङ्काररूप · होनेसे शम्दशक्ति मूल व्यङ्गगके दो भेद होते हैं।
... बलङ्कार शब्दका पृथक् ग्रहण करनेसे वस्तुपदसे अलङ्काररहित वस्तुमान मिया पाता है।
शमशक्तिमूल बातुस्वरूपध्याय उ०-रातमें वास. वाहनेवाले पषिकको स्वयंदूतीकी शक्ति है। पाराषपूर्ण स्वरुवामे इस गांवों कुछ भी सस्तारण
२०मा०
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साहित्यदर्पणे
अत्र सत्यरादिशब्दशक्त्या यद्युपभोगक्षमोऽसि तदास्स्वेति वस्तु व्यज्यते अलङ्काररूपो यथा - 'दुर्गालङ घितविग्रहः' इत्यादौ । ( ७१ तमे )
अत्र प्राकरणिकस्य उमानाममहादेवी - वल्लभस्य - भानुदेवनाम - नृपतेवर्णने द्वितीयार्थसूचितमप्राकरणिकस्य पार्वतीवज्ञभस्य वर्णनमसम्बद्धं मा
साथिन पथिक प्रति स्वयं दूत्या उक्तिरियम् । हे पथिक हे गन्ध !, प्रस्तरस्थले = पाषाणपूर्णस्यले, अत्र = अस्मिन् ग्रामे = संवसथे, मनाक् = अल्पमपि, स्नस्तरं=शयनायाऽऽस्तरणं, न अस्ति नो वर्तते, उन्नतपयोधरम् = उद्भूः मेषं प्रेक्ष्य = दृष्ट्वा, वससि यदि शयनीयास्तरणाऽमावेऽपि अवस्थानं करोषि चेत् वप निवासं कुछ | गाथा वृत्तम् ।
=
विवृणोति - छत्रेति । अत्र = अस्मिन् पद्य, सत्य रादिशब्दशक्त्या = सत्थर स पत्थरपओहारादिशब्दसामर्थ्यन, उपभोगक्षमोऽसि यदि = उपभोगसमर्थोऽसि चेत्, तदातह, वस उपविश इति वस्तु = व्यज्यते = व्यञ्जनावृत्या प्रत्याप्यते ।
अयं भाव: । पूर्वोक्ताऽर्थस्य प्रतिध्वनिरूपेण - हे पान्य ! अत्र प्रस्तरस्थले ग्रामे = कामशास्त्रज्ञानाऽभावेन प्रस्तरप्रायजडनयुक्ते ग्रामे, स्रस्तरं = शास्त्र, कामशास्त्रं नास्ति कामशास्त्रज्ञाता विदग्धो नास्ति, मम उन्नतपयोधरं यौवनत्र शाहुच्वस्तनं वीक्ष्य उपभोगव क्षमोऽसि चेद्वसेति स्रस्तरपयोधरशब्दयोः परिवृत्य स हत्वाच्शब्दशक्तिमूलो वस्तुध्वनिः ।
1
=
शब्दशक्तिमूलमलङ्कारध्वनिमुदाहरति-दुर्गालधितविग्रह इति । (पृ. ७१ ) व्याख्यातपूर्वमिदं पद्यम् । अत्र = अस्मिन् पद्य, प्राकरणिकस्य = प्रकरणागतस्य, उमानाम महादेवी वल्लभ - भानुदेवनृपतेर्वर्णने द्वितीयाऽयं सूचितमप्राकरणिकस्य = अप्रकरणामतस्य, पार्वतीवल्लभस्य = शङ्करस्य, वर्णनम्, असम्बद्धं = सम्बन्धरहित, मा प्रसाङ्क्षीत् - आदिकी शय्या नहीं है ऊंचे पयोधर ( स्तन वा मेघ ) को देखकर रहते हो तो खु जाओ। इस पद्य में "सत्थर" ( स्रस्तर ) और "पहर" ( पयोधर ) आदि शब्दोंकी शक्ति से सत्थर ( सस्तर ) अर्थात् शास्त्र ( रतिशास्त्र ) का जानकार कोई विदग्ध पुरुष नहीं है उन्नत 'पओहर' ( पयोधर ) मेरे उन्नत स्तनोंको देखकर उपभोग में समर्थ हो तो रह जाओ, इसप्रकार " स्रस्तर" और "पयोधर" शब्दका परिवर्तन नहीं किया जा सकने से ऐसा वस्तु ( अलङ्काररहित ) मात्र व्यङ्गय होता है ।
शब्दशक्तिमूल प्रलङ्कारव्यय उ०- "दुर्गालङ्घित विग्रहः" इत्यादि ( पृ० ७१ ) । इस पद्य में प्राकरणिक उमा नामकी महारानीके पति मानुदेव नामके महाराजके वर्णन में द्वितीय अर्थ में सूचित अत्राकरणिक पार्वती के पति महादेवका वर्णन सम्बद्ध प्रसक्त न हो इसलिए ईश्वर (महादेव) और भानुदेवका उपमानोपमेयभाव अर्थात् श्वरका उपमानभाव और मानुदेवका उपमेयभाव कल्पित होता है। इस
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=
चतुर्थः परिच्छेदः प्रसाङ्गीदिति ईश्वरभानुदेवयोरुपमानोपमेयभावः कल्प्यते । तदत्र उमावलम उमावल्लभ श्वेत्युपमालङ्कारो व्यङ्गथः । यथा वा
___ 'अमितः समितः प्राप्तरुत्कर्षहर्षद ! प्रभो !।
अहितः सहितः साधुयशोभिरसतामसि ।।' अनामित इत्यादावपि शब्दाभावाद्विरोधाभासो व्यङ्गयः। व्यङ्गय-प्रसक्तं मा भूदित्यर्थः, इति ईश्वरभानुदेवयोः = शङ्करभूपालविशेषयोः उपमानोपमेयभावः कल्प्यते ।' तत् = तस्मात्कारणात्, अत्र = अस्मिन्पा, उमावल्लम इवेति शब्दशक्तिमूल उपमाऽलङ्कारो व्यङ्गपः ।
शब्दशक्त्या व्यङ्गय विरोधाभासाऽलङ्कारमाह-अमित इति । अविवमान मितं प्रमाणं यस्य सः अमित: (मन्बहुव्रीहिः); मितेन (परिमाणेन ) सहित इति समितः इत्युभयोविरोधः । एवं च अविद्यमानं हितं यस्य सः ( नब्बहु० ) अहितः । हितेन सहितः सहित इत्युभयोविरोधः । विरोधपरिहारस्तु हे हर्षद ! - बानन्यपर.! हे प्रभो = हे राजन्, स्वं, समितः = युद्धात, प्राप्तः = आसादितः, उत्कर्षः -प्रमः अमितः = अपरिमितः । एवं च असता = दुर्जनानाम्, पहितः - शत्रुः, साधुयशोभिः उत्तमकीतिभिः, सहितः युक्तः, असि = वर्तसे ॥
विवृणोति-पत्रेति । अत्र-अस्मिन् श्लोके, अमित इत्यादी आदिपदेन “अहिल" इत्यस्याऽपि परिग्रहः। अपिसन्दाऽभावात, विरोधोऽऽमासो व्यङ्गयः व्यञ्जनाप्रतिपाः। अपिशब्दाऽभावादित्युपलक्षणम्, अन्येषामपि चकारादीनाममावे विरोधाभासस्य व्यङ्गयत्वं बोध्यम् ।
नन्वत्र ध्वनित्वेन कथं विरोधाभासस्याऽलङ्कारस्वमित्याशखां परिहरतिध्यङ्गयस्येति । व्यङ्गयस्य = व्यञ्जनावृत्या प्रतिपाद्यस्य विरोधाभासस्य, अलावं. कारणसे यहाँपर उमावल्लभ अर्थात् र नी उमाके पति भानुदेव उमावल्लम अर्यात देवी उमाके पति महादेवके समान हैं यह उपमा अलङ्कार व्यङ्गय होता है।
प्रथवा ( दूसरा उदाहरण)-कोई कवि किसी रामा का वर्णन करता है। हे हर्षको देनेवलि राजन् ! आप समित् (युद्ध) से प्राप्त उत्कर्षोसे अपरिमित, दुर्जनों के . अहित ( शत्रुरूप ) और उत्तम कीतियोंसे सहित हैं । इस पक्ष में विरोधामासके द्योतक "अपि" शब्दके न होने से "अमितः" "समितः" "अहितः" "सहितः" इत्यादि पदोंमें विरोधाभास अलङ्कार व्यङ्गय है। ध्वनि होनेसे यहाँपर विरोधाभास के अलवार
इस माशाका परिहार करते हैं-यहाँपर विरोधामासके अलार्य होने पर भी ब्राह्मण श्रमण न्यायसे अलकारस्वका उपचार किया जाता है । कोई ब्राह्मण घमण ( संन्यासी ) हो जाता है तो भी उसके भूतपूर्व ब्राह्ममा आश्रय करके जैसे
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. साहित्यदर्पणे स्वाणकार्यत्वेऽपि प्रागणश्रमणन्यायादलङ्कारत्वमुपचर्यते।
वस्तु बालकृतिर्वापि द्विधार्थः सम्भवी खतः ॥ ७॥ कवेः ठोक्तिसिद्धो वा तमिबद्धस्स वेति षट् ।
पमिस्तैय॑ज्यमानस्तु वस्त्वलकाररूपकः ॥ ८॥ . अर्थशक्त्युद्भवो व्यङ्गयो याति द्वादशमेदताम् ।
लेपि, ब्राह्मणधमणन्यायात = ब्राह्मण; (विप्रः) स चासो धमणः ( संन्यासी) साह्मणश्रमणः, तन्न्यायात, श्रमणत्वस्वीकारेण ब्राह्मणत्वाऽभावेऽपि यथा भूतपूर्व ब्राह्मणसमाधिस्य "ब्राह्मणश्रमण" इति प्रयुज्यते तथैवाऽत्राऽपि अप्यादिशब्दसहकृतमलङ्कारस्वमाश्रित्य बलकार्याऽवस्थायामपि अलङ्कारशब्दः प्रयुज्यत इति भावः।. . .. इत्यं वाऽत्र भब्दशक्तिमूलं ध्वनि निरूप्याऽर्थशक्तिमूलं ध्वनि विभजतेबस्विति। अर्थशक्तिमूलो ध्वनिः प्राग् वस्तुरूपोऽलङ्काररूपश्चेति द्विविधः । तयोर्दपोरपि पुनः स्वतःसंभवी अर्थः = औचिंत्याबहिरपि संभाव्यमानः, कवेः प्रौढोक्तिसिद्धः विनिवड ( वयत ) प्रौढोति सिद्धश्चेति त्रिभिः गुणने अर्थशक्तिमूलध्वनेः षड़ भेदाःमिः तः व्यज्यमानः, वस्त्वलङ्काररूपक: वस्तुरूपः अलङ्काररूपश्चेति अर्थशक्त्युद्भवो। बङ्गपो द्वादशप्रकारतां प्राप्नोति ॥ ७-८ ।।
अर्षशक्तिमूलध्वनेर्वादश भेदा यथा(१) स्वतःसंभविना वस्तुना वस्तुध्वनिः । (२) स्वतःसंभवग्निा वस्तुना अलङ्कारध्वनिः । (३) स्वतःसंभाविना अलङ्कारेण वस्तुध्वनिः। (४) स्वतःसंभविना अलङ्कारेण अलङ्कारध्वनिः । (५) कवि प्रौढोक्तिसिद्धेन वस्तुना अलङ्कारध्वनिः ।
(६) कविप्रौढोक्ति सिद्धेन वस्तुना अलङ्कारध्वनिः । पाह्मण कहते हैं वैसे ही यहाँपर भी अपि आदि शब्दसे सहकत अलकारत्वका आश्रय करके अलंकार्य अवस्थामें भी अलङ्कार शब्दसे व्यवहार किया जाता है यह तात्पर्य है।
अर्थशक्तिमूल ध्वनि-वस्तु ( अलङ्कारभिन्न ) और अलङ्कार इस प्रकारसे पदार्थके दो भेद होते हैं । ये दोनों ही फिर १ स्वतःसंभवी अर्थात् औचित्यसे बाहर भी हो सकता है ।। ७ ।।
२ कविको प्रौढ उक्तिसे सिद्ध, जिसकी औचित्यसे सिद्धि नहीं हो सकती है। और, ३ कविमे वर्णित जनकी प्रौढ उक्तिसे सिद्ध इन तीन भेदोंसे कुल छ: भेद होते हैं।
उन छ भनि व्यङ्गय कोई वस्तु और कोई अलङ्कार रूप होते हैं ॥८॥ इस प्रकार प्रयशक्ति मूल व्यङ्गप (ध्वनि ) के बाप भेद होते हैं।
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चतुर्थः परिच्छेदः
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स्वतः सम्भवी = औचित्याद् बहिरपि सम्भाव्यमानः प्रौढोकपा सिद्ध:, न त्वौचित्येन ।
तत्र क्रमेण यथा
'दृष्टि हे प्रतिवेशिनि ! क्षणमिहाप्यस्मद्गृहे दास्यसिं
प्रायेणास्य शिशोः पिता न विरसाः कौपीरपः पास्यति । एकाकिन्यपि यामि सत्वरमितः स्रोतस्तमालाकुलं नीरन्धास्तनुनालिखन्तु जरठच्छेदा नलग्रन्थयः ॥'
( ७ ) कविप्रौढोक्तिसिद्धेन अलङ्कारेण वस्तुध्वनिः । (८) कविप्रोढोक्तिसिद्धेन अलङ्कारेण अलङ्कारध्वनिः । ( ९ ) कविनिबद्ध वक्तृप्रौढोक्तिसिद्धेन वस्तुना वस्तुध्वनिः । (१०) कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धेन वस्तुना अलङ्कारध्वनिः । (११) कविनिबद्धवक्तृप्रोढोक्तिसिद्धेन अलङ्कारेण वस्तुध्वनिः । (१२) कविनिबद्ध वक्तृ प्रौढोक्तिसिद्धेन अलङ्कारेण अलङ्कारणानिः ।
कारिकास्थं "स्वतसंभवी” तिपदं विवृणोति औचित्यात् - उचितत्वात् याथार्थ्यादितिभावः, बहिरपि = तादृशशब्दाऽतिरिक्तस्थानेऽपि, संभाव्यमानः-- संभावनाविषयीक्रियमाणः । न तु औचित्येन = याथार्थ्येन ।
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स्वतः संभविवस्तुना वस्तुवनिमुदाहरति दृष्टिमिति । काचित्स्वैरिणी निकट, गृहवासिनीं प्रति कथयति । हे प्रतिवेशिति हे निकटगृहवासिनि !, इह = अत्र अस्मद्गृहेऽपि = मद्भवनेऽपि, क्षण = कंचित्कालं, दृष्टि नेत्रं दास्यसि = वितरिष्यसि दृष्टिदानस्य प्रयोजनं प्रतिपादयति- प्रायेणेति । अस्य - निकटस्थितस्य, सिसो:: - बालकस्य, मत्पुत्रस्येति भावः । पिता जनकः, मत्पतिरिति भावः । प्रायेण - बहुधा ; विरसा : नीरसाः, कौपीः = कूपप्रदाः, अपः - जलं, न पास्यति = नो धास्यति । इतः = अस्मात्कारणात्, एकाकिनी अपि = एकाऽपि, सहायरहिताऽपीति भाव: : सत्वरं = शीघ्रं, तमालाऽऽकुलं - तापिच्छवृक्षावृतं स्रोतः = जलाशयं, स्वतोऽम्बुसरण - स्थानमिति भावः । यामि गच्छामि । ततश्च नीरन्ध्राः = निरन्तराः, धना इंडि भावः । जरठच्छेदाः = कठोरच्छिन्नभागाः नळग्रन्थयः = नलतृणपर्वाणि, नु
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१ स्वतः संभवि वस्तुसे वस्तुध्वनि उ०—कोई कुलटा स्त्री अपनी पड़ोसिन - मैं कहती है - हे पड़ोसिन ! यहाँ हमारे घरमें भी कुछ समय दृष्टि दे दो। इस बच्चे के बाबूजी (हमारे पति ) बहुत ही अस्वादु कुएके जलको नहीं पीयेंगे। इसलिए अकेली ही मैं जल्दी ही तापिच्छों से ढके हुए सोतपर जा रही हूँ, घनी पुरानी नलों की गांठें भले ही शरीरको विदीर्ण करें। यहांपर स्वतः संभत्री वस्तुसे इसको कहनेवाली के
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साहित्यदपके
अत्र स्वतः सम्भाविना वस्तुना सत्प्रतिपादिकाया भाविपरपुरुषोपभोगजनखक्षतादिगोपनरूपं वस्तुमात्रं व्यज्यते ।
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'दिशि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि । तस्यामेव रघोः पाण्ड्याः प्रतापं न विषेहिरे ।।'
अत्र स्वतः सम्भविना वस्तुना रवितेजसो रघुप्रतापोऽधिक इति व्यतिरेकालङ्कारो व्यज्यते ।
बच्छरीरम्, आलिखन्तु - विदारयन्तु । पतिपरायणया मया सर्व कष्टं सोढव्यमिति भावः । मत्र शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥
वृत्तौ पूर्वोक्तं वस्तुनि विशदयति - प्रथेति । अत्र - इह स्वतः संभविना बोचित्याद्बहिरपि संभवता, वस्तुना, तत्प्रतिपादिकायाः = तस्य ( वाक्यार्थस्य ) प्रतिपादिकाया: - ( प्रतिपादनक: ), भाविषर पुरुषोप भोगजनखक्षतादिगोपनरूपं - पावि ( भविष्यत् ) यत् परपुरुषस्य ( जा रस्य ) उपभोगजं ( समागमजन्यं ) शतादि ( नखक्षताऽधरर्दशनादि ) तद्गोपन रूपम् ( तब्रक्षणरूपम् ) वस्तुमात्रं, ग्रन्थिलेखन प्रकाशन व्यापारेणेति भावः । व्यज्यते = व्यञ्जनावृत्या प्रत्याय्यते ॥
=
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२ - स्वतः संभविवस्तुनाऽलङ्कारध्वनिमुदाहरति- विशीति । रघुवंशस्वं रोदिग्विजयवर्णनमिदम् । दक्षिणस्याम् अवाच्यां दिशि = काष्ठायां वेपि = सूर्यस्याऽपि, तेजः = तापः, मन्दायते मन्दवदाचरति मन्दं भवतीति भावः । दक्षिणायननियमादिति तात्पर्यम् । परं तस्याम् एव दिशि दक्षिणस्याम् । पाण्ड्याः= पाण्डदेशीयाः राजानः, रघोः = दिलीपपुत्रस्य, प्रतापं = तेजः, न विषेहिरे = न सोडवन्तः, सोढुमसमर्था जाता इति भावः । सूर्याऽभिभाविनामपि पाण्ड्यानां विजेता खुरिति भावः ॥
वृत्ती ध्वनि प्रदर्शयति-प्रत्रेति । अत्र - इह, स्वतः संभविना = औचित्यादद्बहिःसंभाव्य नानेन, वस्तुना = वस्तुमात्रेण, रवितेजसो मन्दत्वरूपेण, रवितेजसः = उपमानलुतसूर्यप्रतापात, रघुप्रतापः = उपमेयभूतर घुतेजः, अधिकः - महत्तर इति व्यतिरेकाकङ्कारो व्यज्यते व्यञ्जनया प्रत्याय्यते ॥
B
H
शारीरमें परपुरुष समागमसे होनेवाले नखक्षत मादिके गोपनरूप वस्तुमात्र व्यव होता है ।
स्वतः संभवि वस्तुसे प्रलङ्कारध्वनि उ०- रघुवंशमें रघुके दिग्विजयका वर्णन हैं । दक्षिणदिशा में ( जानेसे ) सूर्यका भी तेज मन्द हो जाता है, किन्तु उसी for दिशा में पाण्डुदेश के राजा ( पाण्ड्य ) लोग रघुके प्रतापको सहने के लिए असमर्थ हो गये। यहां पर स्वतः संभवी वस्तुसे सूर्यके तेजसे भी रघुका प्रताप अधिक है इसप्रकार व्यतिरेक अलङ्कार व्यङ्ग्य होता है ।
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चतुर्थः परिच्छेदः
'आपतन्तममुं
दूरादूरीकृतपराक्रमः ।
बलोsवलोकयामास मातङ्गमिव केसरी ॥' अत्रोपमालङ्कारेण स्वतः सम्भविना व्यञ्जकार्थेन बलदेवः क्षणेनैव
वेणुदारिणः क्षयं करिष्यतीति वस्तु व्यज्यते ।
यः ।
'गाढकान्तदशनक्षत व्यथासङ्कटाविधूजनस्य ओष्ठषिद्रुमदलान्यमोचयन्निर्देशन युधि रुषा निजाधरम् ॥'
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३ – स्वतः संभविना अलङ्कारेण वस्तुध्वनिमाह प्रापतन्तमिति । शिशुपालबधमहाकाव्ये युद्धवर्णनमिदम् । ऊरीकृतपराक्रमः = अङ्गीकृतविक्रमः, बल: = बलरामः; बामंषः देशे नामग्रह्णमिति न्यायात् । केशरी = सिंह, मातङ्गम् इव हस्तिनम् इब, दूरात् = विप्रकृष्ट प्रदेशात आपतन्तं = सम्मुखमागच्छन्तम्, अमुं = वेणुदारिनाम बाणासुरपुत्रम्, अवलोकयामास = ददर्श ॥
=
वृत्ती ध्वनि प्रदर्शयति — प्रत्रेति । अत्र = अस्मिन् श्लोके, स्वतः संभविना; उपमालङ्काररूपेण, व्यञ्जकाऽर्थेन = व्यङ्गयप्रतिपादकाऽर्थेन, बलदेवः केशरी मातङ्क मिय, क्षणेनैव = अल्पकालेनैव, "अपवर्गे तृतीया" इति सूत्रेणात्र तृतीया । वेणुदारिणःबाणासुरपुत्रस्य, क्षयं नाशं करिष्यतीति वस्तु, व्यज्यते व्यञ्जनया प्रत्याय्यते ॥ अलङ्कारेणाऽलङ्कारध्वनिमुदाहरति - गाढेति । अत्र
=
=
४ - स्वतः संभविना कचित्पराक्रमी राजा वण्यंते । यः वीरः, युधि संग्रामे, रुषा = क्रोधेन, निजाऽधरं = स्वीयमोष्ठं, निर्दशन् = नशनेन दष्टं कुर्वन्, गाढकान्तदशनक्षतव्यथासङ्कटात् गाडं ( दृढम् ) यत् कान्तस्य ( प्रियस्य ) दशनक्षतं ( दन्तक्षतम् ) तस्मात् या व्यथा ( दुःखम् ) एव सङ्कटं, ( आपत् ), तस्मात् । अरिवधूजनस्य = शत्रुप्रमदालोकस्य, बोष्ठ विद्रुमदलानि = अधरप्रवालपत्त्राणि, अमोचयत् = मोचितवान् । अरीणां वधात्पुनस्तइंशनाऽसंभवादिति भावः । रथोद्धता वृत्तम् ||
=
स्वतःसंभवी अलङ्कारसे बस्तुध्वनि उ०- शिशुपालवधमहाव्यमें युद्धका वर्णन है । पराक्रम करनेवाले बलरामने जैसे सिंह हाथीको देखता है उसी तरह दूसरे संमुख आते हुए उस ( वेणुदारी देस्य ) को देखा । यहाँ स्वतः सम्भवी उपमा बलङ्काररूप व्यञ्ज क अर्थसे सिंहके समान बलदेव हाथी के समान वेणुदारीको अल्पकालमें ही मार डालेंगे ऐसी वस्तु व्यङ्ग्य होती है।.
स्वतः संभवी अलङ्कारसे प्रलङ्कारध्वनि उ० - इसमें किसी पराक्रमी राजाका वर्णन है । जिस वीरने युद्ध में क्रोध से अपने ओष्ठको दांत से काटकर शत्रुकी स्त्रीके पल्लदपत्रों के समान ओष्ठको उसके पति के गाढ दन्तक्षतकी वेदनासे छुड़ा दिया ।
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___ अत्र स्वतःसम्भविना विरोधानहारेपानले निर्दछ शत्रयो सापादिताश्चेति समुच्चयालङ्कारो व्यायः।
-'सज्जेहि सुरहिमासो णदाव बप्पर जुबइजणलक्खमुहे।। .. अहिणवसहआरंमुहे णवपल्लवपंचले अस्स सेरे। अत्र वसन्तः शरकारः, कामो धन्वी, युपतयो लक्ष्यम् , पुष्पाणि राय
बती ध्वनिमुपपादयति-पत्रेति । बत्र = बस्मिन् पर्व, स्वतःसंभावना = बौचित्यास माव्यमानेन, विरोधाऽलकारेण-राजा निशाचरनिदेखनेव अरिवदनस्या:परदंशनं मोचितवान् इति प्रतीयमानविरोशलारेणेति भावः। राजाऽधरो निर्दष्टम तलाणमेव शत्रवश्व व्यापादिता:-हता इति समुच्चयाउलारो व्यापा, कार्यकारणकामविपर्ययरूपाऽतिशयोक्तिमूलक्रियायोगपवरूपसमुच्चयाऽलङ्कारस्वनिरिति भावः ।।
कविप्रौढोक्तिसिद्धेन वस्तुना वस्तुध्वनिमुदाहरति-सम्बई इति। "सज्जयति सुरभिमासो न तावतयति युवतिजनलक्ष्यमुखान् । अभिनवसहकारमुखानवपल्लवपत्त्रलाननङ्गस्य शरान् ॥” इति संततच्छाया ।
सुरभिमासः = वसन्तसमयः, युवतिजनलक्ष्यमुखान् - युवतियनाः (तपी. बनाः) एव लक्ष्याणि (शरव्याणि ) तानि मुखानि ( आदयः) येषा, तान्, "सहे. पाठान्तरे तानि सहन्ते = भेत्तुं शक्नुवन्तीति, तान इत्यर्थः । अभिनवसहकारमुखान् - बभिनवानि (नूतनानि ) यानि सहकाराणि ( अतिसौरभाम्रपुष्पाणि.) गनि मुखानि .(बादयः) येषां, तान् । नवपल्लवपत्त्रलान् = नवानि ( नूतनानि) पल्लवानि (किसलयानि ) पत्त्राणि ( दलानि), च तानि लान्ति (गृहन्ति ) इति, तात् । बातोऽनुपसर्मे कः" इति कप्रत्ययः । तादृशान् अनङ्गस्य,= कामदेवस्य, शरान् - बागान्, न तावत् सज्जयति = सज्जान् करोति । निर्मिमीत इति भावः । अर्पयति भ-कामाय समर्पयति चेति भावः । गाथा वृत्तम् । - वकि विवृणोति-प्रोति। अत्र-अस्यां गाथायाम् ! वसन्तः = तदा
अतुः, सरकारः = बाणकर्ता, शरसज्जनादिति भावः । कामः - मदनः, धन्वी. धनुर्धारी, "अनङ्गस्य शरान्" इति निर्देशादिति भावः । युवतयः - तरुण्यः, लवं-.
इस पद्यमें स्वतःसंभवी विरोध वर्षात राजाने कोषसे दांठसे अपना बोष्ठ काटकर अनुस्त्रीके अधर-दंशनके कष्टको छड़ा दिया ऐसे प्रतीत होनेवाले विरोध अलङ्कारसे कोषसे अपने ओष्ठको दांतसे काट डाला उसीजण शत्रुओंको भी मार डाला यह समुन्वय माहार व्यङ्गय है।
कविप्रोढोक्तिसिद्ध-वस्तुसे वस्तुध्वनि उ०-वसन्तसमय, युति समूहरूप लक्ष्य (निशाने) अग्रभागोंसे युक्त, होकर नये सहकार बादि नये पल्लवों बोर पत्तोंको लाने वाले बाणोंको बना ही नहीं रहा है कामदेवको अर्पण भी कर रहा है ।
इस पद्यमें वसन्त ऋतु घरकार (घर बनानेवाले ), कामदेव धनुर्धारी
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चतुर्थः परिच्छेदः
११३
कृति कविप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु प्रकाशीभवद् मदनविजम्मणरूपं वस्तु व्यनक्ति । 'रजनीषु विमलभानोः करजालेन प्रकाशितं वीर ! | 'घयलयति भुवनमण्डलर्माखलं तव कीर्तिसंततिः सततम् ॥' अत्र कविप्रौढोक्तिसिद्धेन वस्तुना कीर्तिसन्ततेश्चन्द्रकरजालादधिककालप्रकाशकत्वेन व्यतिरेकालङ्कारो व्यङ्गयः ।
चरव्यं, पुष्पाणि = सहकारकुसुमानि शराः = बाणा इति कविप्रौढोक्तिसिद्धं = कवि'प्रोक्त्या ( कवयितृकाल्पनिकवचनेन, न तु लोकसिद्धेन ) उक्त्या ( वचनेन ) सिद्ध ( निष्पन्नम् ) वस्तु = अनलङ्कारः पढार्थः, प्रकाशोभवत् = व्यक्तीभवत्, मदनविजृम्भण:रूपं - कामदेव संवर्द्धन स्वरूपं, वस्तु - पदार्थ, व्यनक्ति = व्यञ्जनया प्रतिपादयति । अत्र -बसन्तादीनां शरकारत्वादिक वस्तु अलीकत्वान्न लोकसिद्धमतः कविप्रौढोक्तिसिद्धवस्तुना वस्तुध्वनेरुदाहरणमिदं संगच्छते ।
=
कस्य ●
कविप्रौढोक्ति सिद्धवस्तुनाऽलङ्कारध्वनिमुदाहरति — रजनीव्विति । चिद्राज्ञ: स्तुतिरियम् । हे वीर = हे शूर, तव = भवतः, कीतिसन्ततिः = यशः पङ्क्तिः विमलभानोः = निर्मलकिरणस्य, चन्द्रस्येत्यर्थः । करजालेन = किरणसमूहेन, रजनीषु - रात्रिषु प्रकाशितं - दीपितम्, अखिलं समस्तं भुवनमण्डलं = लोकसमूह, सततं निरन्तरें, रात्रिन्दिवमिति भावः । धवलयति = धवलं करोति, "तस्करोति तदाचष्ट" इति बिजन्ताल्लट् । अत्र आर्या वृत्तम् ।
·
अत्र = अस्मिन्पद्य कविप्रौढोक्तिसिद्धेन = कवेः ( काव्यकर्तुः ) प्रौढोक्तिसिद्धेन ( न तु लोकसिद्धेन ) वस्तुना, कीर्तिसन्ततेः = यशः परम्परायाः, चन्द्रकरजालात् = इन्दुकिरणसमूहात, अधिककालप्रकाशकत्वेन - बहुसमयं यावत् प्रकाशकारित्वेन, व्यतिইकाऽलङ्कारः, व्यङ्गघः - व्यञ्जनया प्रतिपाद्यः । चन्द्रकरजालं रात्रावेव प्रकाशक न तु दिवा पर राजकीर्तिसन्ततिस्तु अहदिव प्रकाशिका अत उपमानाच्चन्द्रकरजालादुपमेयाः कीर्तिसन्ततेरा धिक्याद्वयतिरेकालङ्कारो व्यङ्ग्य इति भावः ।
बुबतियाँ लक्ष्य, और पुष्प शर हैं इस प्रकारसे कविकी प्रोढ उक्तिसे सिद्ध वस्तु (न कि बाह्य जगत में सिद्ध प्रकाशित होकर कामदेवके संवर्द्धनस्वरूप वस्तुको व्यञ्जनासे प्रतिपादित करता है ।
कविप्रोढोक्तिसिद्ध वस्तुसे प्रलङ्कार ध्वनि उ०- कोई कवि किसी राजाकी स्तुति करता हैं । हे वीर ! आपकी कीर्तिपरम्परा निर्मल किरणवाले चन्द्रमाके किरणसमूहसे रात्रियों में प्रकाशित समस्त लोक मण्डलको निरन्तर (दिन रात ) सफेद कर रही है ।। इस पद्य में कविकी प्रौढ उक्तिसे सिद्ध वस्तुसे कीर्तिकी परम्पराका चन्द्रमाके किरणसमूहसे भी अधिक समयतक प्रकाशन होनेसे व्यतिरेक अलङ्कार व्यङ्ग्य है ।
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साहित्यदर्पणे
"दशाननकिरीटेभ्यस्तक्षणं राक्षसश्रियः।
मणिव्याजेन पर्यस्ताः पृथिव्यामश्रुबिन्दवः ॥' अत्र कविप्रौढोक्तिसिद्धेनापहनुत्यलङ्कारेण भविष्यद्रोक्षसश्रीविनाशरूपं वस्तु व्यज्यते।
'धम्मिल्ले नवमल्लिकासमुदयो हस्ते सिताम्भोरुह, ___ हारः कण्ठतटे, पयोधरयुगे श्रीखण्डलेपो धनः। एकोऽपि त्रिकलिङ्गभूमितिलक ! त्वत्कीविराशिययो ___नानामण्डनतां पुरन्दरपुरीधामावां विग्रहे ॥'
कविप्रौढोक्तिसिद्धनाऽलङ्कारेण वस्तुध्वनिमुदाहति-शाननकिरीटेम्य इति । रघुवंशमहाकाव्ये दशमसर्गे रामजन्मवर्णनमिदम् । तरक्षणं - तस्मिन् क्षणे, रामजन्मकाले, "अत्यन्त संयोगे चेति समासः । राक्षसधियः = रक्षोलक्ष्म्याः, अश्रुबिन्दवः - नयनालपृषताः, दशाननकिरीटेभ्यः = रावणमुकुटेभ्यः, मणिव्याजेन = रत्नपतन. छलेन, पृथिव्यां = भुवि, पर्यस्ता: = पतिताः ॥ अनुष्टुब वृत्तम्।
ध्वनि विवणोति-अत्र कविप्रौढोक्तिसिद्धन अपह्नत्यलङ्कारेण ( प्रकृतं = मणिपतनं प्रतिषिध्य, अप्रकृतस्य = अधुबिन्दुपतनस्य स्थापनरूपेणेति भावः ) भविष्यद्राक्षसधीविनाशरूपं भविष्यतः (भावी ) राक्षसश्रीविनाशः । रक्षोलक्ष्मीनाशः) वपं वस्तु व्यज्यते = व्यञ्जनया प्रतिपाद्यते ॥
कविप्रोढोक्तिसिनालङ्कारेणालङ्कारध्वनिमुदाहरति-धम्मिल इति।। विकलिङ्गदेशाऽधिपतेर्वर्णनमिदम् । हे... त्रिकलिङ्गभूमितिलक = त्रिकलिङ्गदेशा:बीबर!, एकोऽपि = एकाक्यपि, स्वकीर्तिराशिः अवयशःसमूह, पुरन्दरपुरीबामवाम् = अमरावतीसुन्दरीणां, विग्रहे-शरीरे, धम्मिल्ले - संयतकचेषु, नवमल्लिकासमुदायः नतमभूपदीपुष्पसमूहः, अस्तीति शेषः, त्वत्कोतिराशिम्मिल्ले नवमल्लिका. पुष्पसदृशः शुभ्रोऽस्तीति भावः । एवमन्यत्रापि । हस्ते = करे, सिताऽम्भोरुहं = श्वेत. कमलं, कण्ठतटे = गलभागे, हार: मौक्तिकमाला । पयोधरयुगे = स्तनयुगले, धन::
कविप्रौढोक्तिसिद्धमलकारसे वस्तुध्वनि उ० -यह रघुवंश महाकाव्यके दशम सर्गमें श्रीरामके जन्मका वर्णन है। श्रीरामके जन्मकालमें राक्षसोंकी बक्ष्मी अषोंकी बूदे रावणके मुकुटोंसे रत्नोंके छलसे जमीनपर गिर पड़ीं। इस पद्यमें कविकी प्रौढ उक्ति से सिट अपह्नुति अलङ्कारसे राक्षस लक्ष्मीके भावी विनाश-- रूप वस्तु व्यङ्ग्य है।
कवि प्रौढोक्तिसिद्ध लङ्कारसे पलङ्कारध्वनि उ०-कोई कवि विकलिङ्ग ( तैलङ्ग ) देशके राजाका वर्णन करता है । हे त्रिकलिङ्ग देशके अधीश्वर ! एकमात्र होती हुई भी आपकी कोतिराशि अमरावतीकी सुन्दरियोंके शरीरमें जैसे कि
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तुर्वः परिच्छेदः
अत्र कषिप्रौढोक्तिसिद्धन रूपकालङ्कारेण भूमिष्ठोऽपि स्वर्गस्थानामुपकारं करोषीति विभावनालङ्कारो व्यज्यते ।
'शिखरिणि क नु नाम कियच्चिरं किमभिधानमसावकरोत्तपः ।
सुमुखि ! येन तवाधरपाटलं दशति बिम्बफलं शुकशावकः ॥' निबिडः, श्रीखण्डलेपः = चन्दनद्रवलेपः, इत्थं च नानामण्डनता = बहुविधाऽलङ्कारतां, बयो जगाम ! शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ ... ध्वनि विवणोति । अत्र = अस्मिन्पद्य, कविप्रौढोक्तिसिखेन, रूपकाऽलङ् कारेण राजकीतिराशौ नवमल्लिकासमुदायादीनामारोपरूपेण, भूमिष्ठोऽपि पृथिवीस्थोऽपि स्वर्गस्थाना = सुरलोकस्थितानां पुरन्दरपुरीवामभ्रुवाम्, उपकारम् = उपकृति, करोषीति विभावनाऽलङ्कारः, स्वर्गाऽवस्थानमेव स्वर्गस्थानामुपकारकारणं, तदभावेऽपि स्वर्गस्योप. कारकरणरूपकार्योत्पतिरूपा विभावनेति भावः । सा च वाचकशब्दाऽभावात् व्यङ्ग्या । वस्तुतो नाऽत्र विभावना कार्यकारणयोभिन्नदेशाऽवस्थिते रसङ्गतिरलङ्कारः ।।
कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धेन वस्तुना वस्तुध्वनिमुदाहरति-शिखरिणीति । विम्बफलं दशन्तं शुकशावकं दृष्ट्वा कविनिबद्धः कश्चित्प्रोढो जनः कांचित सुन्दरी प्रति कथयति-शिखरिणीति । हे सुमुखि हे सुन्दरि ।, असौ = अयं, शुकशावकः = कीरशिशुः, क्व शिखरिणि = कस्मिन्पर्वते, कियच्चिरं = कंचिद्दीर्घसमयं यावद, किमभिधानंकिमाख्यं, तपः = तपस्याम्, अकरोत् = कृतवान् । येन - कारणेन, तव = भवत्याः, अपरपाटलम् = श्रोष्ठमिव रक्त, बिम्ब फलं, दति = दंष्ट्रया खण्डयति । अधरसमवस्तुवंशममपि तपःफलमिति भावः । द्रुतविलम्बितं वृत्तम् । बांधे गये केशोंमें मल्लिका पुष्पोंका समूह, हाथमें श्वेत कमल, गलेमें मोतियोंकी माला, स्तनयुगमें सान्द्र बन्दनका लेप इसप्रकार अनेक अलङ्कारोंके भावको प्राप्त हुई है। . . .यहाँपर कविकी प्रौढ उक्तिसे सिद्ध (राजाकी कोतिराशि में नवमल्लिका. अमुतय आदिके आरोपसे ) रूपक अलबारसे आप भूमिमें रहते हुए भी स्वर्ग में रहनेबाली सुन्दरिगेका उपकार करते हैं इसप्रकार विभावना अलस्कार व्यङ्ग्य है । वस्तुतः 'बापर विभावना नहीं है कार्य और कारणकी भिन्न देशमें अवस्थितिसे असंगति बलकार है। - , कविनिबद्धवक्तप्रौढोक्तिसिद्धि वस्तुसे , वस्तुध्वनि उ०-बिम्ब: फलको खाते हुए तोतेके बच्चेको देखकर कविनिबद्ध कोई प्रौढ पुरुष किसी सुन्दरीको कहता है । हे सुन्दरि ! इस तोतेके बच्चेने किस पर्वत में कितने समय तक कौन सी तपस्या की है जिससे तुम्हारे ओष्ठके समान लाल बिम्बफल ( कुन्दरू.) को खा रहा है। यहाँपर कविनिबद्ध किसी कामी पुरुषकी इस प्रोढ उक्तिसे सिद्ध वस्तुसे तुम्हारा बार अतिशय पुण्यसे लभ्य है ऐसी वस्तु व्यङ्ग्य होती है ।
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साहित्यदर्पणे अत्रानेन. कविनिबद्धस्य कस्यचित्लामिनः प्रौढोक्तिसिद्धन वस्तुना तवाधरः पुण्यातिशयलभ्य इति वस्तु प्रतीयते।
'सुभगे ! कोटिसंख्यत्वमुपेत्य मदनाशुगैः।
वसन्ते पञ्चता त्यक्ता पश्चतासीद्वियोगिनाम् ॥ अत्र कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धन कामशराणां कोटिसंख्यत्वप्राप्त्या निखिलवियोगिमरणेन वस्तुना शराणां पञ्चता शरान विमुच्य वियोगिनः
ध्वनि विवृणोति-पत्रेति । अत्र कविनिबद्धस्य = कविना निबढस्य(निबन्धप्रतिपादितस्य) कस्यचित् कामिनः = कामुकस्य, प्रौढोक्तिसिद्धेन = न तु वास्त विकेन, वस्तुना = अनलङ्कारपदार्थेन, "तव अधरः पुण्याऽतिशयलभ्यः" इति वस्तु: प्रतीयते = व्यञ्जनया प्रतिपाद्यते।
कविनिबद्धवक्तृप्रोढोक्तिसिद्धेन वस्तुनाऽलङ्कारध्वनिमुदाहरति-सुभग इति । कविनिवद्धवक्ता कश्चिज्जनः नायिकां प्रति वसन्तती पान्थदशां प्रतिपादयति । हे सुभगेहे सुन्दरि !, वसन्ते = वसन्ततो, मदनाशुगः = कामबाणः, कोटिसंख्यत्वं = कोटिपरिमितसंख्यायुक्तत्वम्, उपेत्य = प्राप्य, पञ्चता = पञ्चसंख्यता, त्यक्ता = मुक्ता उतश्च, वियोगिनां = विरहिणां, पञ्चता = पञ्चत्वप्राप्ति: मरणमिति भावः । मासीदबभवत् । अनुष्टबु वृत्तम् ॥
ध्वनि विवृणोति -पत्रेति । अत्र, कविनिबद्धवक्तः या प्रौढोक्तिः (न तु वास्तविकी उक्तिः), तत्सिद्देन, कामशराणां = मदनबाणानां कोटिसंख्यत्वप्राप्त्या, निखिलवियोगिमरणेन = समस्तविरहिमृत्युरूपेण वस्तुना, शराणां पचता = पञ्चसंख्यता: शरान् विमुच्य = त्यक्त्वा, वियोगिनः = विरहिणः, बिता = पञ्चत्वरूपेण
कविनिबद्धवक्तप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तुसे अलवारध्वनि उ०-कविनिवड कोई वक्ता नायिकासे वसन्त ऋतुमें पान्यकी दशाका प्रतिपादन करता है । हे सुन्दरि । बसन्त ऋतुमें कामदेवके बाणोंने करोड़ोंकी संख्याको प्राप्त कर पञ्चता ( पांच-संख्याके भाव) का त्याग किया, उससे वियोगियोंकी पञ्चता (पञ्चस्वप्राप्ति) अर्थात मृत्यु हो गई। इस पद्यमें कविनिबद्ध वक्ताकी प्रौढ उक्तिसे सिद्ध कामदेवके बाणोंकी कोटि संख्याकी प्राप्तिसे संपूर्ण वियोगियोंके मरण रूप वस्तुसे शरोंकी पञ्चता (पञ्चसंख्यता ) ने शो ‘छोड़कर वियोगियोंको प्राप्त किया है क्या ? इस प्रकार उत्प्रेक्षा अलङ्कार व्यमय है ?
कविनिबद्ध-वक्तप्रौढोक्तिसिद्ध अलस्कारसे वस्तुध्वनि उ.मानिनी नायिकाके मान : प्रणय कोप ) हटानेके लिए कविनिबट वक्ता मानिनी कहता है । हे चण्डि ( हे कोपने ! ) चमेलीके मुकुलमें गुञ्जन करता हुआ भौरा कामः देवकी विजययात्रामें मानों शङ्खध्वनि कर शोभित हो रहा है ।
इस पद्यमें कविनिबद्ध वक्ताकी प्रौढ उक्तिसे सिद्ध उत्प्रेक्षा बलकारते
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. चतुर्वः परिच्छेदः मितेवेत्युत्प्रेक्षालङ्कारो व्यज्यते।
'मल्लिकामुकुले चण्डि ! भाति गुञ्जन् मधुव्रतः ।
प्रयाणे पञ्चबाणस्य शङ्खमापूरयन्निव ॥' अत्र कविनिबद्धवक्तृप्रोढौक्तिविद्धनोत्प्रेक्षालङ्कारेण कामस्यायमु न्मादकः कालः प्राप्तस्तत्कथं मानिनि ! मानं न मुञ्चसीति वस्तु व्यज्यते ।
'महिलासहस्सभरिए तुह हिअए सुहअ ! सा अमाअन्ती।
अणुदिणमणण्णकम्मा अङ्गं तणुअं. पि तणुएइ ।' पाश्रिता इवेति उत्प्रेक्षाऽलङ्कारो व्यज्यते । कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धेनाऽलङ्कारेण वस्तु. ध्वनिमुदाहरति मल्लिकामकुल इति । मानिन्या मानप्रशमाय कश्चित्कविनिबद्धवक्ता पानिनी कथयति । हे चण्डि = हे अत्यन्तकोपने !, मल्लिकामुकुले भूपदीपुष्पकुड्मले, पुजन् गुञ्जनं कुर्वन्, मधुव्रतः = भ्रमरः, पञ्चबाणस्य कामदेवस्य. प्रयाणे - विजय-. बात्राया, शङ्ख = कम्बुम्, आपूरयन् इवं = आधमन् इव, भाति = शोभते ।
ध्वनि विवृणोति-प्रोति । अत्र, कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धेन = कविनिबद्धवक्तुः प्रौढोक्तिसिद्धन प्रौढोक्त्या बहिर्जगति असंभाव्यमानकथनेन, सिद्धेन निष्पन्नेन उत्प्रेक्षाऽलङ्कारेण, कामस्य = मदनस्य, अयम्, उन्मादकः = उन्मादकारकः, काल:= समयः, वसन्तऋतुरिति भावः । तत् = तस्मात्कारणात, हे मानिनि%=हे मानशीले ! कथं, मानं, न मुञ्चसि = न त्यजसि, इति वस्तु = अनलङ्कारः पदार्थः व्यज्यते = ध्य नया प्रतिपाद्यते । अनुष्ट वृत्तम् । . .. कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धनालिसारेणाऽलङ्कारध्वनिमुदाहरति-महिलेति ।। बहुपत्नीकं नायकं प्रति कस्याश्चिनायिकासख्या उक्तिरियम् ।
"महिलासहस्रभरिते तव हृदये सुभग ! सा अमान्ती । - अनुदिनमनन्यकर्मा अङ्गं तन्वपि तनयति ॥” इति संस्कृतच्छाया।
हे सुभग = हे सौभाग्यशालिन् !, महिलासहस्रभरिते महिलानां (प्रमदानाम्) सहस्रेण ( दशशत्या) भरिते (पूरिते ), तव = भवतः. हृदये = हृदि, अमान्ती = कामदेवका यह उन्मादक काल प्राप्त है । हे मानिनि ! तुम कैसे मानका त्याग नहीं करती हो ऐसी वस्तु व्यङ्ग्य होती है ।
कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध प्रललकारसे अलस्कारध्वनि उ0बहुत पत्नीवाले किसी नायकसे किसी नायिकाकी सखी कहती है। हे सुन्दर । हजारों स्त्रियोंसे भरे हुए तुम्हारे हृदयमें न समाती हुई वह कामिनी प्रतिदिन और कुछ कर्म न होनेसे अपने कृश शरीरको भी कृश बना रही है। इस पद्यमें "अमाअन्ती", ( अमान्ती ) इस कविनिबद्धवक्त्रीकी प्रौढ उक्तिसे सिद्ध काव्यलिङ्ग अलङ्कारसे शरीरको पतला करनेपर भी आपके हृदय में नहीं समाती हैं यह विशेषोक्ति बलहार'
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१८
साहित्यदर्पणे
अत्रामा अन्तीति कविनिबद्धव प्रौढोक्तिसिन 'काव्यलिङ्गालङ्कारेण तनोस्तनूकरणेऽपि तव हृदये न वर्तत इति विशेषोक्त्यलङ्कारो व्यज्यते ।
न खलु कवेः कविनिबद्धस्यैव रागाद्याविष्टता, अतः कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिः कविप्रौढोक्तेरधिकं सहृदयचमत्कारकारिणोतिः पृथक्प्रतिपादिता ।
एषु चालङ्कृतिव्यञ्जनस्थले रूपणौत्प्रेक्षणव्यतिरेचनादिमात्रस्य मानम् (अवकाशम् ) अलभमाना, सा= नायिका, भवत्पत्नी अनुदिनं प्रतिदिनम्। अनन्यकर्मा = कर्मान्तररहिता सती भवद्दृश्येऽवकाशलामार्यमिति शेषः । तनु अपि = कृशम् अपि अङ्ग = शरीरं, तनयति = तनूकरोति । "तत्करोति तदाचष्ट" इति जिन्तात् तनुशब्दाल्लट् ।
=
वन विवृणोति । अत्र अमा अन्तीति कविनिबद्धवक्तुः ( सखीजनस्य ) 2 प्रौढोक्ति सिद्धेन मनसोऽणुत्वान्मानासंभवेन बाह्य जगति असंभाव्यमानेनेति भावः ॥ काव्यलिङ्गाऽलङ्कारेण - अवकाशप्राप्त्यर्थं वनोस्नुकरणस्य हेतुत्वात् इति भावः ॥ तनोः = शरीरस्य, तनूकरणेऽपि कृशीकरणेऽपि, तब = भवतः, हृदये मनसि न वर्तते नो विद्यते इति विशेषोक्यलङ्कारः; तंनकरणरू रहेती सत्यपि अवकाश-प्राप्ति रूपफलाभावादिति शेषः । व्यज्यते = वाचकपदाभावाद्वय जना प्रतिपाद्यते । कविप्रोढोक्तेः कविनिबद्धवक्तृप्रोढोक्तेश्य भेदं विशदयति समिति + कवेः कवयितुः, कविनिबद्धस्य इव कविता स्थनिबन्धे प्रतिपादिनस्य वक्तुरिव नः खलु - रागाद्या विष्टताः रागोत्साहावेशयुक्तता, अतः अस्मात्कारणात्, कविनिबद्धवस्तृप्रौढोवितः कविप्रोढोक्तेः अधिकं सहृदयचमत्कारिणी सहृदयानो (हृदयानाम् ) चमत्कारिणी ( चमत्कार कारिका), अस्मात्कारणात् पृथक् पृथग्रूपेण, प्रतिपादिता । जगन्नाथ पण्डितराजस्तु कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिरपि वस्तुतः कविप्रौढोक्तिरेवातः अलं पृथक् चर्चया इत्याह एषु च प्रागुक्तेषु द्वादशविधेषु अर्थगक्ति मूलानुरणनरूपव्ययेषु, अलङ्कृति· व्यजनस्यते = अलङ्कारम्पब्जनस्थले, रूपणोत्प्रेक्षणव्यतिरेचनादिमात्रस्य = उपमेय• उपमानारोपण रूपणं यथा--"धम्मिल्ले नवमल्लिकास मुदय" इत्यादी, कीर्ति राशी नव मल्लिकासमुदयादीनामा रोपणम्, उत्प्रेक्षण- उरमेधस्योपमानात्मना संभावनं, यथा"मल्लिका मुकुले चण्डि" इत्यादी मधुव्रत गुञ्जने शङ्खवादनवस मावनं व्यतिरेचनम् = उपमेयस्योपमानादाधिक्यस्य म्यूनत्वस्य वा प्रतिपादनम् न दिशन्दादुपमा निर्वाहकायाव्यङ्ग्य होता है । कविनिबद्ध वक्ता के समान कविहृदयमें अनुराग आदिका आवेश नहीं होता है इस कारण कविनिबद्ध वक्वाकी प्रौढ उक्ति कविकी प्रोढ उक्ति से भी अधिक सहृदयों को चमत्कार करनेवाली होती है इसलिए उसका पृथक् प्रतिपादन किया गया है। इन उदाहरणोंमें अलङ्कारके व्यञ्जना वृत्तिसे प्रतिपादन के स्थल में रूपण ( उप-मेयमें उपमानका बारोपण), उत्प्रेक्षण ( उपमेयकी उपमानकरसे संभावना ) और -व्यतिरेचन ( उपमेयके उपमानसे माधिक्य वा न्यूनताचा प्रतिपाच) हत्यादि नामकी
=
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चतुर्थः परिच्छेदः
.
३११
प्राधान्यं सहृदयसंवेद्यम् , न तु रूप्यादोनामित्यलकृतेरेव मुख्यत्वम् । .
एकः शब्दार्थशक्त्युत्थे
उभयशक्त्युद्भवे व्यङ्ग्य एको ध्वने दः । यथा
'हिममुक्तचन्द्ररुचिरः सपद्मको मदयन् द्विजाञ्जनितमीनकेतनः।
अभवत्प्रसादितसुरो महोत्सवः प्रमदाजनस्य स चिराय माधवः ।। मुपमानोपमेयसमीकरणादीनां ग्रहणम् । इत्यादिमात्रस्य प्राधान्यं = प्रधानत्वं, सहृदय. संवेद्य सहृदयसंवेदनीयं, न तु रूप्यादीनाम् = आरोप्याणां मुखादीनाम, इति= अस्मात्कारणाद, अलङ्कृतेः एव =.अलङ्कारस्य एव, मुख्यत्वं प्राधान्यम् । .
उभयशक्तिमूलध्वने दमाह-एक इति । शब्दार्थ शक्त्युत्थे = शब्दार्ययोः शक्त्या उत्तिष्ठतीति, तस्मिन् = उपयशास्त्युद्भवे व्यङ्ग्ये एको ध्वनेर्भवः ।।
उभयक्तिमूलं ध्वनिमुदाहरति-हिममुक्तचन्द्राचिर इति। शिशुपालवधमहाकाव्ये भगवतः श्रीकृष्णस्येन्द्रप्रस्थे वर्णनमिदम् । हिममुक्तचन्द्ररुचिरः = हिममुक्तनाऽसो चन्द्रः, स इव रुचिरः ( सुन्दरः ) कृष्णपक्षेऽयमर्थः । हिममुक्तचन्द्रेण रुचिर वसन्तपक्षेऽयमर्थः । सपनकः = पद्या (लक्ष्मीः ), तया सहितः; कष्णपक्षेऽयमषः । “पदमः ( कमलैः ) सहितः, वसन्तपक्षेऽयमयः । द्विजान् = ब्राह्मगान, मान-हर्षयन, श्रीकृष्णपक्षे । द्विजान् = पिकादीन् पक्षिणः, मदयन् । जनितमीनकेतनः = अनित: ( उत्पादितः ) मीनकेतनः (प्रद्युम्नः ) येन सः, श्रीकृष्णपक्षे जनितो मीनकेतनः ( कामः ) येन सः, वसन्तपक्षे। प्रसादितसुरः = प्रसादिताः ( हर्षिताः ) सुराः ( देवाः ) दैत्यवधादिने त भावः ( श्रीकृष्णपक्षे )। प्रसादिता (विमलीकृता ) सुरा प्रधानता सहृदयोंसे सवेद्य है रूप्य (आरोग्य मुख.) आदि वस्तुका नहीं इस कारणसे. अलङ्कारकी ही प्रधानता है। - .. उभयशक्तिमूल ध्वनि-शब्द और अर्थ उभयशक्तिमूलक व्यङ्ग्यमें एक ही भेद होता है।
उभयशक्तिमूल ध्वनि उ०-शिशुपालवध महाकाव्यमें इन्द्रप्रस्थमें भगवान् श्रीकृष्णका यह वर्णन हैं। इसमें वसन्तका भी वर्णन व्याय है। हिम ( तुषार ) से मुक्त चन्द्रमाके समान सुन्दर (श्रीकृष्ण ): हिमसे मुक्त चन्द्रसे सुन्दर ( वसन्त )। सपाक, पद्मा = लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीसे युक्त (श्रीकृष्ण ); पों. (कमलों ) से युक्त ( वसन्त ) । द्विजों ( ब्राह्मणों ) को प्रसन्न करते हुए (पीकृष्ण ); द्विजों ( कोकिल आदि पक्षियों ) को प्रसन्न करता हुआ (बसन्त ), जनितमीनकेतनः मीनकेतन (प्रधुम्न) को उत्पन्न करनेवाले (श्रीकृष्ण ), मीनकेतन (कामदेवको ) उत्पन्न करनेवाला (बसन्त ) । प्रसारितसुर = सुरों (देवतागों ) को प्रसन्न करने..
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साहित्वपपणे
बत्र माधवः कृष्णो माधवो वसन्त इवेत्युपमालङ्कारो व्यग्यः। एवं च व्ययभेदादेव व्यञ्जकानां काव्यानां भेदः । ।
तदष्टादशधा ध्वनिः ॥ ९ ॥ ... अविवक्षितवाच्योऽर्थान्तरसंक्रमितवाच्योऽत्यन्ततिरस्कृतवाच्यश्चेति विविधः। विवक्षितान्यपरवाच्यस्तु असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यत्वेनैकः । संलक्ष्य क्रमव्यग्यत्वेन च शब्दार्थोभयशक्तिमूलतया पञ्चदशेत्यष्टादशभेदो ध्वनिः। ( मदिरा ) येन सः ( वसन्तपक्षे )। सः = श्रुतिस्मृतिपुराणप्रसिद्धः, माधवः = श्रीकृष्णः, वसन्तश्च । प्रमदाजनस्य-रमणीगणस्य, चिराय=चिररात्राय । महोत्सक-. महोत्सवस्वरूपः, अभवत् । मञ्जुभाषिणी वृत्तम् ।
ध्वनि प्रदर्शयति-प्रोति । अत्र = पद्य, माधवः कृष्णः, माधव: वसन्त:,. इवेति वाचकपदाऽभावादुपमाऽलङ्कारो व्यङ्ग्यः अत्र, "प्रसाक्तिसुरः" "द्विजान" इत्यादिशब्दानां परिवृत्यसहत्वात् गब्दशक्तिमूलत्वं तथा "हिममुक्त" "मीनकेतना"दि. शब्दाना परिवत्तिराहत्वादशक्तिमूलत्वमेवं चोभयशक्तिमूलत्व ज्ञेयम् ।
निगमयति-एवं चेति व्यङ्ग्यभेदात् एव = व्यङ्ग्यवस्त्वलङ्कारभेदात् एकः व्यग्जकानां काव्यानां भेदः।
ध्वनीन् परिगणयति-तदष्टारशा ध्वनिः ॥ ९॥ तत-तस्मात्कारणात, ध्वनिः, अष्टादशधा-अष्टादशप्रकारो भवति ॥९॥
भेदान् सङ्कलयति-प्रविवक्षितवाच्य इति । अविवक्षितबाच्यः = लक्षणा-- मूलध्वनि:-अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यः, अत्यन्त तिरस्कृतवाच्यश्चेति विविधः-विप्रकार
विवक्षिताऽन्यपरवाच्यः = अभिधामूलध्वनिस्तु-असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यः संलक्ष्यकमध्यङ्ग्यश्चेति द्विविधः । तत्र असेलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्य एक एव । संलक्ष्यक्रमव्ययः ध्वनिस्तु-शवशक्तिमूलः, सर्वशक्तिमूलः, उभयशक्तिमूलश्चेति निविधः । तत्र शब्दशक्तिमूलो विविधः । पाने (बीकृष्ण)। सुरा ( मदिरा ) को विमल करनेवाला (बसन्त ), ऐसे माधव % श्रीकृष्ण वा वसन्त ऋतु स्त्री जनोंके बहुत काम तक उत्सव स्वरूप हुए।
इस पद्यमें माधव-कृष्ण, माधव = वसन्तके समान इसप्रकार उपमा अल शर. ध्यग्य है । यहाँपर "प्रसादितसुरः" "विजान्" इन शब्दोंका परिवर्तन न किया पा सकनेसे शब्दशक्तिमूल और "हिमयुक्त" "मीनकेतन" आदि शब्दोंका परिवर्तन किया जा सकनेसे अर्थशक्तिमूल इसप्रकार उपयशक्तिमूल नि है। इसप्रकार व्यङ्ग्य · (वस्तु और अलङ्कार आदि ) भेदसे ही व्यञक काव्योंका भेव होता है। बनियोंका परिगणन करते हैं-रा प्रकार अठारह प्रकारकी पनि होती है।॥९॥
अविवक्षितवाच्य ( लक्षाणागुल पनि) के पर्यान्तर संक्रमित पाच्य बोर: अत्यन्ततिरस्कृत पाच्य इस प्रकार को भेष होते है।
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चतुर्थः परिच्छेदः
वाक्ये शब्दार्थशक्त्युत्थस्तदन्ये पदवाक्ययोः । तत्रार्थान्तरसंक्रमितवाच्यो ध्वनिः पदगतो यथा
'धन्यः स एव तरुणो नयने तस्यैव, नयने च।
युवजनमोहनविद्या भवितेयं यस्य संमुखे सुमुखी ॥' अत्र द्वितीयनयनशब्दो भाग्यवत्तादिगुणविशिष्टनयनपरः । अर्थक्ति मूलो द्वादविधः । उभ्यशक्ति मूल एकविधः । .
इत्थं च संलक्ष्यक्रमव्यङग्यो ध्वनिः = समष्ट्या पञ्चदविधः । असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्य एकविधः । इत्थमभिधामलध्वनिः षोडशविधः। लक्षणामूलध्वनिद्विविधः । इत्यं च संहत्य अष्टादशधा वान ।।
भेदान्तरं प्रदर्शयितुमुपक्रमते- एष चेति । एषु = अष्टादशप्रकारेषु ध्वनिषु ।
वाक्य इति । शब्दाऽर्थशक्न्युत्थः = उभयशक्तिमूलध्वनिः, वाक्ये-पदसमूहे एव भवति, न पद इति भावः । तस्योदाहरणं "हिममुक्तचन्द्ररुधिर" इति पूर्वोदाहृतपद्यम् । बदन्ये तद्भिन्नाः सप्तदशप्रकारा व नयस्तु पदवाक्ययोः= पदे वाक्ये च, भवन्तीति शेषः ।
तत्राऽर्थान्तरसमितगच्यध्वनि पदगतमुदाहरति-- धन्यः स एवेति । परमरमणीयां रमणीं दृष्ट्वा कस्य चिक्तिरियम् । स एव, तरुणः= युवा, धन्यः = पुण्यवान्, तस्य एव = तरुणस्य एव, नयने = नेत्रे, नयने च= सफले नेत्रे। इयम् एषा, युवजनमोहनविद्या = तरुणजनवशीकरण विद्यारूपा, सुमुखी = सुन्दरी, यस्य = तरुणस्य, संमुखे = अभिमुखे, भविता = भविष्यति । आर्या वृत्तम् ॥
विवृणोति-अति । अत्र-अस्मिन् पधे, आदिपदेन सफलस्वादेरुपस्थितिः । बत्र ध्वनेरेकमात्रनयनपदगतत्वात्पदगतत्वम् । नेत्ररूपस्य वाच्याऽर्थस्य भाग्यवत्तादिगुणविशिष्टनेत्ररूपाऽर्थे संक्रमणादस्य अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यध्वनित्वम् ।
विवक्षिताऽन्यपरवाच्य के असंलक्ष्यक्रम व्यङ्ग्य और सलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्य इसप्रकार दो भेद होते हैं । असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्य (रस भाव आदि) का एक भेद होता है । संलक्ष्यकमव्यङ्ग्य के शब्दशक्तिमूल, अर्थशक्तिमूल, और उभयशक्तिमूल इसप्रकार पन्द्रह भेद होते हैं, इसप्रकार ध्वनिके अठारह भेद हो जाते हैं। इनमें उभयक्तिमूल (शब्दाऽयं. तिमूल ध्वनि केवल वाक्य में होता है और उससे भिन्न ध्वनि पद तथा वाक्य दोनों में होते हैं। उनमें पदगत अर्थान्तरसंक्रमित ध्वनि--वही युवा पुरुप धन्य है उसीके नेत्र नेत्र हैं, जिसके संमुख युवकोंकी वशीकरण विद्यारूपा यह सुन्दरी होगी। इसमें दूसरा "नयन" शब्द भाग्यवत्व आदि गुणोंसे युक्त नयनरूप अर्थमें संक्रान्त होनेसे परमत वर्षान्तरसंक्रमितवाच्य ध्वनि है।
२१ सा०
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३२२
साहित्यदर्पणे
वाक्यगतो यथा
'स्वामस्मि वच्मि विदुषां समवायोऽत्र तिष्ठति ।
आत्मीयां मतिमास्थाय स्थितिमत्र विधेहि तत् ॥' अत्र प्रतिपाद्यस्य संमुखीनत्वादेव लब्बे प्रतिपाद्यत्वे त्वामिति पुनर्वचनमन्यव्यावृत्तिविशिष्टं त्वदर्थ लायति । एवं बच्मीत्यनेनेव कर्तरि लब्धेsस्मीति पुनर्वचनम् । तथा विदुषां समवाय इत्यनेनैव वक्तुः प्रतिपादने सिद्ध पुनर्वच्मीति वचनमुपदिशामीति वचनविशेषरूपमर्थ लक्षयति । एतानि च
____ वाक्यगतमुदाहरति -स्वामस्मीति-विद्वत्परिषदं गच्छन्त प्रति कस्यचिदुक्तिरियम् । हे महाशय ! अस्मि = पदमिदमहमर्थे अव्ययम् । अहं, त्वा = भवन्तं वच्मि= वदामि, अत्र = अस्यां परिषदि, विदुषां = पण्डितानां, समुदायः = समूहः, तिष्ठति = विद्यते, तत्-तस्मात्कारणात, आत्मीयां = स्वकीयां, मति = बुद्धिम्, आस्थाय = अवलम्ब्य, अत्र = परिषदि, स्थितिम् = अवस्थानं, विधेहि = कुरु । अनुष्टुब् वृत्तम् ।
___ध्वनि प्रदर्शयति-पति । अत्र = पद्य, प्रतिपाद्यस्य = बोद्धव्यस्य, संमुखीनस्वाद एव = संमुखे स्थितत्वात् एव, प्रतिपायवे लब्धे प्राप्ते "स्वाम्" इति पुनर्वचनंपुनः कथनम्, अन्यव्यावृत्तिविशिष्टम् = अपरण्यावर्तनयुक्तं, त्वदर्थ = स्वाम एव वच्मि न अन्यं जनम् इति, लक्षयति = लक्षणया प्रतिपादयति । एवं वच्मि इत्यनेनैव कर्तरि = कर्तृरूपे अहम् इतिपदे, लब्धे प्राप्ते "अस्मत्तम" इति सूत्रः बलादिति शेषः । अस्मीति अहमर्थकस्याऽव्ययस्य पुनर्वचनम्, अन्यव्यावृत्तिविशिष्टं मदर्ष लक्षयतीति शेषः । ततश्च अहंपदवाच्यस्य स्वस्य आप्तत्वं व्यज्यते एतानि-"स्वाम, अस्मिः वच्मि" इति त्रीणि पदानि । लक्षितानि = लक्षणया निरूपितानि सन्ति, स्वाऽतिशय =
वाक्यगत प्रर्थान्तरसंक्रमितवाच्य ध्वनि उ०-विद्वानोंकी सभामें जातेहुए किसी पुरुषको कोई विद्वान् कहता है-हे महाशय ! मैं तुम्हें कहता हूँ यहाँ विद्वानों समुदाय है, इस कारणसे अपनी बुद्धिका अवलम्बन कर यहॉपर स्थित हो। इस पचमें जिसे कहना है उसके सम्मुख ही रहनेपर भी फिर "स्वाम्" कहनेसे दूसरे भिन्न तुम्हें ही कहता हूँ ऐसा अर्थ लक्षित होता है । उसी तरह "वच्मि" करनेसे ही कर्तृरूप "अहम्" अर्यात् “मैं" ऐसे अर्यके रहनेपर भी फिर "बस्मि" कहनेसे दूसरे भिन्न मैं ही कह रहा हूँ ऐसा अर्थ लक्षित होता है। उससे वक्तामें "बाप्तत्व" व्यस्म होता है। इसी तरह "विदुषां समवायः" इन पदोंसे ही वक्ताका प्रतिपादन सिख है फिर भी "वच्मि" कहनेसे उसका "उपदिशामि" अर्याद उपदेश करता हूँ इसप्रकार ववनका विशेषरूप अर्थ लक्षित होता है। इसप्रकार "स्वाम्" "अस्मि" और "वच्मि". ये तीन पद लक्षित होकर अपने अर्थकी अधिकताका व्यञ्जन करते हैं । इससे मेरा
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स्वातिशयं व्यञ्जयन्ति । एतेन मम वचनं सवात्यन्तं हितं तदवश्यमेव कर्तव्यमित्यभिप्रायः । तदेवमयं वाक्यगतोऽर्थान्तरसंक्रमितवाच्यो ध्वनिः ।
अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यः पदगतो यथा-'निःश्वासान्ध-(पृ०२९९) इत्यादि । वाक्यगतो यया-'उपकृतं बहु तत्र-(४६ पृ.) इत्यादि । अन्येषां वाक्यगतत्वे उदाहृतम् । पदगतत्वं यथा
'लावण्यं तदसौ कान्तिस्तद्रूपं स वचाक्रमः ।
तदा सुधास्पदमभूदधुना तु उबरो महान् ॥' स्वेषाम् ( स्वार्थानाम् ) अतिशयम् ( अधिकाऽर्थम् )। व्यञ्जयन्ति = व्यञ्जनावृल्या प्रतिपादयन्ति । एतेन = उक्तवाक्येन । एतेन मम वचनं तवाऽन्यत्तं हितं तदवश्यं कर्तव्य मित्यभिप्रायः = आशयः । व्यज्यत इति शेषः । तत् = तस्मात्, एवंम् - इत्यं वाक्य गतोऽर्यान्तरसंक्रमितवाच्यो ध्वनिः । पदगतोऽत्यन्ततिरस्कृतवाच्यो ऽवनिर्यथा नि:श्वासाश्य इवेत्यादि ( २९९) । वाक्यगाः ( अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यो. ध्वनिः ) यथा उपकतं बह तत्रेत्यादिः ।
अन्येषाम् ( असंउपक्रमव्यङ्गयसंजयक्रमव्यङ्गयभेदानाम् ) वाक्यगतत्वे, ''शून्यं वासगृहम्' (पृ. २४) इत्यादिकमसंलक्ष्यक्रमम्यङ्गस्य, "पन्थिन ग एवं" (पृ. १८७) इत्यादिकं संलक्ष्यक्रमव्यङ्गयस्य, उदाहृतम् ।।
___ पदगतत्वे ( असं लक्ष्यक्रमव्यङ्गयस्य पदप्रकाश्यत्वे) लावण्यमिति । कस्या चिद्विप्रलम्भवर्णनमिदम् । तत् - असाधारणं, लावण्यं - सौन्दर्यातिलयः, सर्वावयवक्ता प्रियाया इति शेषः । लावण्यलक्षणं यथा रसमञ्जम् -
"मुक्ताफलस्य छायायां . तरलत्यमिवान्तरा।
प्रतिमाति यदङ्गेषु तल्लावण्यमिहोच्यते ॥” इति । असो = अनिर्वाच्या, कान्तिः = शोभा, तद् = असकृदनुभूत, रूप-सौन्दर्यम् । सः = असकतनुमून, वचःक्रमःचनविन्यासः, तदा = तस्मिन् समये, प्रियासंनिशानसमय इति भावः । सुगपदं - पीयूषाधारसमम्, अभून । तु = परन्तु, अधुना = वचन तुम्हारा अत्यन्त हितकारक है, उसे अवश्य करना चाहिए यह अभिप्राय व्यय होता है । इसप्रकार यह वाक्यगत अर्यान्तरसंक्रमितवाच्य अनि है ।
पदगत प्रत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि उ०-"निःश्वासाऽन्ध इव" इत्यादि (पृ० २९९ )।
वाक्यगत :अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि ३०-"उपकृत बहु तत्र" इत्यादि (पृ० ४६)। औरोंके वाक्यगत उदाहरण दे चुके हैं।
पदगत असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गय ध्वनि उ०-कोई वियोगी कहता है-का लावण्य, वह कान्ति ओर वह वचनक्रम उस समय ( संयोगकालमें ) बमृतके माधार थे
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साहित्यदर्पणे
अत्र लावण्यादीनां ताहगनुभषेकगाचरताव्यञ्जकानां तदादिशब्दानामेव प्राधान्यम्, अन्येषां तु तदुपकारित्वमेवेति सन्मूलक एवं ध्वनिव्यपदेशः। वदुळं ध्वनिकृता
'एकावयवसंस्थेन भूषणेनेव कामिनी ।
पदद्योत्येन सुकवेर्ध्वनिना भाति भारती ॥' एवं भावादिष्वप्यूह्यम् । बस्मिन् समये, प्रियाया असन्निधानसमय इति भावः, महान् = दुवेहः ज्वर:-सन्तापकः बस्तीति शेषः । अनुष्टुब् वृत्तम् ।
अस्मिन् श्लोके ध्वनेर्वाक्यगतत्वं निरस्य पदगतत्वं स्थापयति-पत्रेति। पत्र - अस्मिन् श्लोके, लावण्यादीनां = लावण्यप्रभुतीनां पदानां, तादृगनुभवकगोचरता. व्यञ्जकानां = तादक (तादृशः) यः अनुभवः (असाधारणत्वरूपेण ज्ञानम् ) तस्य एकगोचरता (एकमात्रग्राह्यता ) तव्यञ्जकानां (व्यक्तिकारकाणाम ) तदादिशब्दानाम् एव प्राधान्यं = प्रधानता, अन्येषां-लावण्यादिशब्दानां, तदुपकारित्वम् एव % तेषाम् ( तदादिशब्दानाम् ) उपकारित्वम् एव (व्यञ्जने सहकात्विम् एव ), इति = पस्माकारणाद, तन्मूल एव = तदादिपदमूल एव, ध्वनिव्यपदेशः = ध्वनिव्यवहार, म तु.वाक्यमूलः, "प्रधाने हि व्यपदेशा भवन्ती"ति न्यायादिति भावः ।
अत्राऽर्थे ध्वनिकारपचं प्रमाणत्वेनोपन्यस्यति-एकावयवसंस्थेनेति । एकाऽ. यवसंस्थेन = कण्ठा काङ्गस्थितेन, भूषणेन = वेयकाधलङ्कारेण, कामिनी इव = कलना इव, पदद्योत्येन = पदमात्रप्रकाश्येन, ध्वनिना, सुकवेः = सत्कवेः, भारती = वाक्यं, भाति = शोभते।
एवम् = इत्यमेव, भावादिषु = भावरसाभासादिष, ऊह्यं = कल्पनीयम् । बभी (वियोगकालमें ) तो अत्यन्त संतापकारक हो गये हैं । यहाँ लावण्य आदिक बनुभवके एकमात्र ग्राह्यताके व्यञ्जक 'तद्' आदि शब्दोंकी ही प्रधानता है, अन्य गन्द उनके उपकारकमात्र हैं । तद् आदि पद ही ध्वनिके कारण हैं न कि वाक्य । जैसे कि ध्वनिकार (आनन्दवर्द्धनाचार्य ) ने कहा है जैसे एक अवयवमें पहने गये भूषण सुन्दरी शोभित होती है वैसे ही सुकविके एक पदसे प्रकाश्य ध्वनिसे गक्य गोमिन होता है। इसी तरह भाव आदिमें भी पदगत ध्वनिका उदाहरण समझें।
पबगत शवशक्तिमूल वस्तुध्वनि उ०-उपपतिको देखकर कोई कामिनी बहती है।
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चतर्थः परिच्छेदः
१२१
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'भुक्तिमुक्तिकृदेकान्तसमादेशनतत्परः ।
कस्य नानन्दनिस्यन्दं विदधाति सदागमः। अत्र सदागमशब्दः सन्निहितमुपनायकं प्रति सच्छानार्थमभिधाय सतः पुरुषस्यागम इति वस्तु व्यनक्ति। ननु सदागमः सदागम इवेति न कथमुपमाध्वनिः ? सदागमशब्दयोरुपमानोपमेयभावाविवक्षणात्। रहस्यस्य सन्दशक्तिमूलं पदगतं वस्तुध्वनिमुदाहरति-भुक्तोति । उपपत्तिं दृष्ट्वा कस्याश्चिकामिन्या उक्तिरियम्, वाच्यपक्षे= मत्र विशेष्यपदं सदागमः, तथा च सदागमः - संचाऽसो मागमः सच्छास्त्रमित्यर्थः, एकान्तसमादेशनतत्परः = एकान्तं (नितान्तम् ) यद समादेशनं ( तत्त्वज्ञानोपदेशः ) तस्मिन् तत्परः (प्रसृतः) तादृशः सन्, भुक्तिमुक्तिकतयागाद्यनुष्ठानकारित्वेन, मुक्तिकृत (स्वर्गमोबहारी ) एवं श्रवणमनननिदिध्यासना। दिभिः, ब्रह्मज्ञानोत्पादनेन मुक्तिकृत (मोक्षकारी) भूवा, कस्य-जनस्य, बानन्दनिस्यन्वं इषप्रवाहं, न विदधातिन करोति, अपि तु सर्वस्यानन्दनिस्यन्दं विदधातीति भावः ।
व्यरुग्यपक्षे-सदागमः - सतः (सज्जनपुरुषस्य, भवादास्येति भावः) बागमः (आगमनम् , भुक्तिमुक्तिकृत्-मुक्तिक (रतिक्रीडया भोगकुद ) मुक्तिकर (साधारणगृहकर्मत्यागकृत ) तथा च समादेशनतत्परः = एकान्ते समादेशनं ( रहस्यो, 'पदेशः ), तस्मिन् तत्परः ( प्रसितः) तादृशः, कस्य = सहृदयस्य, मद्विधजनस्पति भावः । आनन्दनिस्यन्दं - हर्षप्रवाहं, न विश्वाति - न करोति, सर्वस्यैवानन्दनिस्यन्द 'विदधातीति भावः । अनुष्टुब वृत्तम् ।
ध्वनि प्रदर्शयति-प्रोति । अत्र = अस्मिन् श्लोके, सदागमभन्दः सनिहित 'निकटवर्तिनम्, उपनायकम् = उपपति प्रति, सच्छास्त्रार्थ - संचासो यामम इति कर्मधारयसमासेन तादृशम् अयं == वाच्यम्, अभिधाय = अमिधावृत्या प्रतिपाद, सतः ( सज्जनस्य ) पुरुषस्य आगमः (आगमनम् ) इति. वस्तु, भ्यनक्ति = व्यञ्जनया प्रतिपादयति। अत्राऽर्थे आशङ्कने-नन्विति। सदागमः (संधाऽसी आगमः) समागमः (सतः बागमः)
वाच्य पक्षमें-सदागमा सन् आगमः अर्थात उत्तम शास्त्र, तस्वज्ञानके उपर देशमें अत्यन तत्पर होकर याग आदिके अनुष्ठानसे भुक्ति और ब्रह्मज्ञानको उत्पन्न करनेसे मुक्ति करनेवाला होकर किसके हर्षप्रवाहको उत्पन्न नहीं करता है। . व्यस्य पक्षमें-सदागमः सतः आगमः अर्याद बाप सरीखे सज्जन पुरुषा आगमन, भाग करता हुआ और अन्य गृहकार्यसे मुक्ति (छुटकारा) दिलाता हुआ एकान्तमें रहस्यके उपदेशमें तत्पर होकर मेरे सरीखे किसकी सौवरपरम्पराको उत्पा नहीं करता है ? यहाँ "सदागम" शब्द निकट स्थित.उपनायकको उतम शास्त्र ऐशा वर्षे बभिधासे कहकर सज्जन पुरुषका बागमन ऐसी वस्तुको मनमा प्रतिपादन करतो
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साहित्यदर्पणे सङ्गोपनार्यमेव हि इचर्यपदप्रतिपादनम्। प्रकरणादिपर्यालोचनेन च सच्छामाभिधानस्यासम्बन्धत्वात् ।
'अनन्यसाधारणधी ताखिलवसुन्धरा ।
राजते कोऽपि जगति स राजा पुरुषोत्तमः ॥' पत्र पुरुषोत्तमा पुरुषोत्तम इवेत्युपमाध्वनिः । अनयोः शब्दशक्तिमूली संलक्ष्यक्रमभेदो।
वेति न कयमुपमाध्यनिरिति चेन्न । बत्र सदागमशम्दार्ययोः उपमानोपमेयभावाऽवि. बक्ष गात-उपमानोपमेयभावस्य (उपमानोपमेयत्वस्य) अविवक्षणावं (विवक्षाराहित्यात्)!
अविवक्षणे हेतु प्रदर्शयति- रहस्यसंगोपनार्थमिति। रहस्यस्य ( उपपतेरनुरागस्य ) संगोपनाऽयम् एव, न तूपमानोपमेयभावबोधनाऽयं हि व्यर्थपदप्रतिपादने व्यर्षानो पदानां प्रतिपादनम् । प्रकरणादिपर्यालोचनेन = प्रकरणादीनाम्, आदिपदेन तात्पर्यादीनाम् पर्यालोचनेन (अनुसन्धानेन) सच्छास्त्राभिधानस्य = सदागमपदेन सच्छास्त्रकयनस्य, असम्बन्धत्वात = प्रकृते उपयोगराहित्यादित्यर्थः । शब्दशक्तिमूलं संलक्ष्यक्रममूल पदप्रकाश्यमलखारध्वनिमाह-प्रनयति । कश्चित् कंचिद्वाजानं प्रशंसति । बनन्यसाधारणधीः - अनितरसामान्यबुद्धिः, बसाधारणबुद्धिसम्पन्न इत्यर्थः । ताऽखिला बसुन्धरः = घृता (कच्छपरूपेण धारिता राजरूपेण पालिता च ) अखिला ( समस्ता) बसुन्धरा ( पृथ्वी ) येन सः । पुरुषोत्तमः = पुरुषेषु ( नरेषु ) उत्तमः (श्रेष्ठः)
गति = लोके, कोऽपि = निर्वाच्यः, सः = प्रसिदः, राजा = भूपतिः, पुरुषोत्तमः । राबते - शोभते । अनुष्टुब वृत्तम् ।
विवृणोति-प्रति । अत्र अस्मिन्पचे, पुरुषोत्तम इत्यस्य पुरुषधेष्ठः (राषपो ), पुरुषोत्तमः ( विष्णः ) इव इति उपमाध्यनिः । अनयोः = बोरदाहरणयो. पदाक्तिमूली संलगक्रमभेदो-वस्त्वलकाररूणविति भावः ।
प्राशझा करते हैं-यहाँपर "सदागमः" कहनेसे “सदागमः सदागम इव" अर्थात् उत्तमशास्त्र, सज्जन पुरुषके समान "हिममुक्तचन्द्ररुचिरः" इस पथके समान कैसे उपमा ध्वनि नहीं है ?
समाधान करते है-सदागम शब्दके दोनों अर्थोंमें उपमानोपमेयभावकी विवक्षा नहीं है । रहस्य को छिपानेके लिए दो अर्थोदाले पदका प्रयोग किया जाता है। यहाँपर प्रकरण आदिके अनुसन्धानसे सदागम शब्दका सच्छारत्ररूप रूप अर्थ कहने में सम्बन्ध नहीं रह जाता है । इस कारणसे यहाँ उपमाध्वनि नहीं है। .
पदगत शब्दशक्तिमल अलङ्कारस्वनि उ०- कोई कवि किसी राजाकी प्रशंसा करता है । असाधारण बुद्धिसे सम्पन्न संपूर्ण पृथ्वीको धारण करनेवाले जगत् में बे कोई पुरुषोत्तम राजा शोभित होते हैं ।
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चतुर्थः परिच्छेदः.
३२७
'सायं स्नानमुपासितं, मलयजेनाङ्गं समालेपितं,
यातोऽस्ताचलमौलिमम्बरमणिविस्रब्धमत्रागतिः । आश्चर्य तव सौकुमार्यसभितः क्लान्तासि येनाधुना
नेत्रद्वन्द्वममीलनव्यतिकरं शक्नोति ते नासितुम् ॥' अत्र स्वतःसंभविना वस्तुना कृतपरपुरुषपरिचया स्नातासीति वस्तु
१ अर्थशक्तिरूपेण स्वतःसंभविवस्तुना, पदगतवस्तुध्वनि मृदाहरति सायमिति । उपपतिनोपभुक्तां सखी प्रति कस्याश्चित्सख्या उक्तिरियम् । हे सखि ! सायं = सन्ध्या.
से, स्नानं = मज्जनम, उपासितम् = विहितम् । मलयजेन = चन्दनेन, अङ्गम् = देवाऽवयवः, समालेपितं = संलिप्तं विहितम् । अम्बरमणिः = सूर्यः, अस्ताऽचलमौलिम्= बस्तपर्वतशिखरं, यातः = प्राप्तः । तस्मादातपतापो नाऽस्तीति भावः । अत्र अस्मिन्, पत्समीपस्थाने, विस्रब्ध = स्वच्छन्दं यथा तथा, आईत: आगमनम् । ततश्चागमनबराऽपि न संभाव्यत इति भावः । परम् आश्चर्य = आश्चर्यजनकम्, अपूर्वमिति भावः । तव = भवत्याः, सौकुमार्य, = कोमलता, अस्तीति शेषः । येन = कारणेन. अमितः = सर्वतः, बहिरन्तश्चेति भाव: क्लान्ता = परिश्रान्ता, असि = विद्यसे अतः, ते = तव, नेत्रहन्त = नयनद्वितयम्, अमीलनव्यतिकरं = निमीलनसम्बन्धरहितं सत्, आसितु = स्वातु, न शक्नोति - न प्रभवति । श्रमाधिक्याऽनुभूतेस्तव नयनद्वितयं मुद्रितमतस्तव सौकुमार्यमसाधारणतयाऽश्चर्यजनकमिति भावः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । उदाहरणं विवृणोति-पत्रेति । अत्र अस्मिन्पद्य, स्वतःसंभाविना = बाह्यजगति संभाव्य. पानेन, वस्तुना, कृतपरपुरुषपरिचया = विहितोपपतिसमागमा, स्नाताऽसि = कृत
__ यहाँपर पुरुषोत्तम नामके राजा पुरुषोत्तम ( विष्ण ) के समान है ऐसी उपमाध्वनि है।
इन दोनों पद्योंमें शब्दशक्तिमूल संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्य ध्वनिके वस्तुरूप और बबट्टाररूप दो भेद दिये गये हैं।
१पदगत प्रर्थशक्तिमूल स्वतःसंभविवस्तुसे वस्तुध्वनि उ०-उपपतिसे उपभुक्त सखीको कोई सखी कहती है । हे सन्धि ! तुमने मायं कालमें स्नान किया, चन्दनसे अङ्गमें लेप किया, सूर्य अस्तपर्वतकी चोटीमें चले गये हैं, स्वच्छन्दतासे यहां बाई हुई हो, पर तुम्हारी कोमलता आश्चर्यको उत्पन्न कर रही है, जिससे कि तुम सब तरहसे परिधान्त हो रही हो इस कारणसे तुम्हारे दोनों नेत्र मुद्रित न होकर नहीं रह सकते हैं।
इस पद्यमें स्वत:संभ विवस्तुसे परपुरुषसे समागम करनेसे तुम थकी हुई हो ऐसी वस्तु व्यङ्ग्य होती है । इस समय थकी हुई हो, पहले कभी भी तुम्हारी ऐसी
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३२८
• साहित्यदर्पणे
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व्यज्यते । तच्चाधुना क्लान्तासि, न तु पूर्व कदाचिदपि तवैवंविधः क्लमो दृष्ट इति बोधयतोऽधुनापदस्थेवेतरपदार्थोत्कर्षादधुनापदस्यैव पदान्तरापेक्षया वैशिष्टयम्
'तदप्राप्तिमहादुःखविलीनाशेषपातका । तच्चिन्ताविपुलाहलादक्षीणपुण्यचया तथा ।। चिन्तयन्ती जगत्सूर्ति परं ब्रह्मस्वरूपिणम् ।
निमज्जना, असि, इति वस्तु-अनलक्षारं वस्तुमा व्यज्यते-व्यञ्जनया प्रत्याय्यते, तच्च-वादृशभ्यायं च, अधुना = इदानीं क्लान्ताऽसि = परिश्रान्ताऽसि न तु, पूर्व = प्रथम कदाचिदपि = जातुचिदपि, तव = भवत्याः, एवंविधः = एतादृशः, क्लमः = परिश्रमः दृष्टः-शातः, इति = एवं, बोधयतः = न्यजनया प्रतिपादयतः, अधुनापदस्यैव, इतर. पदार्थोत्कर्षात = पदार्थान्तराणामुस्कर्षाधानात्, अधुना पदस्यैव पदार्थान्तराऽपेक्षया = इतरपदार्थापेक्षया, वैशिष्टयं = प्राधान्यम् ।। : २ स्वतःसंमविवस्तुना पदगतमलङ्कारध्वनिमुदाहरति-तवप्राप्तीति । श्रीमद्भागवते श्रीकृष्णस्य रासक्रीडायां पत्यादिप्रतिषेधेन गन्तुम गरमन्त्याः कश्याधिक दगोया मोक्षवर्णनमिदम् । तदप्राप्तिमहादुःखविलीनाऽशेषपातका = तस्य ( श्रीकृष्णस्य) अप्राप्स्या ( वियोगेन ) यत् महादुःखं ( कष्टाऽतिशयः ), तेन हेतुना विलीनानि (नष्टानि ) अशेषाणि (समस्तानि, अनेकजन्माऽजितानीति भावः ) पातकानि (पापानि) यस्याः सा । तथा तच्चिन्ताविपुलालादमीणपुग्चया = तस्य (श्रीकृष्णस्य ) या चिन्ता (भावना ) तया हेतुना यो विपुलः (महान ) आह्लाद: ( आनन्दः ), तेन हेतुना क्षीणः ( नष्ट:) पुण्यचयः ( सुकृतसमूहः ) यस्याः सा, पापं पुण्यं यमपि भोगजनकत्वेन मुक्तिप्रतिबन्धकमतः भगवतोऽप्राप्त्या अनुभूतेन महादुःखेन समस्तपापक्षयं भगवञ्चिन्तनाऽनुभूतेनानन्दप्रकर्षेण समस्तसुकृतध्वंसं च कृत्वा कषायनिरसनोत्तरजगत्सूति = संसारोत्पत्तिकारणं, परं = सर्वोत्कृष्टं, ब्रह्मस्वरूपिणं = भगवन्तं श्रीकृष्णं; चिन्तयन्ती = भावनया साक्षात्कुवंती, अन्या = अपरा, गुरुजनोपरुद्धेति भावः । थकावट देखी नहीं गई थी इस बातको व्यञ्जनासे प्रतिपादन करनेवाले "अधुना" पदका ही अन्य पदार्थ से उत्कर्ष होनेसे उसीको अन्य पदोंसे प्रधानता है।
२ स्वतःसंभविवस्तुसे पदगत अलङ्कारध्वनि उ.-श्रीमद्भागवतमें श्रीकृष्णकी रासक्रीडामें पति आदिके निषेधसे जानेमें असमर्थ किसी गोपीका मोक्षवर्णन है । श्रीकृष्णकी अप्राप्तिसे उत्पन्न अत्यन्त दुःखसे जिसके अशेष ( समस्त ) पातक विलीन हो गये हैं, श्रीकृष्णके चिन्तनसे उत्पन्न प्रचुर आनन्दसे जिसके पुण्योंका चय ( समूह ) क्षीण हो गया है । जगतकी उत्पत्तिके कारण सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मस्वरूप
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चतुर्थः परिच्छेदः
३२९
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निरुच्छवासतया मुक्तिं गताऽन्या गोपकन्यका ॥' (युग्मकम् )
अत्राशेषचयपदप्रभावादनेकजन्मसहस्रभोग्यदुष्कृतसुकृतफलराशि . तादात्म्याध्यवसिततया भगवद्विरहदुःखचिन्ताहलादयोः प्रत्यायनमित्यतिशयोक्तिद्वयप्रतीतिरशेषचयपदद्वयद्योत्या। अत्र च व्यञ्जकस्य कविप्रौढोक्तिमन्तरेणापि संभवात्स्वतःसंभविता ।
'पश्यन्त्यसंख्यपथगां त्वदानजलवाहिनीम। गोपकन्यका = गोपकुमारी, निरुच्छवासतया=निरुद्धप्राणतया । मुक्तिम्-अपवर्ग, गता= 'प्राप्ता । अनुष्टुब वृत्तम् ।
पद्यद्वयं विवणोति-प्रोति । अत्र-अस्मिन पद्यद्वये, 'अशेष-चय' पदप्रभावात्प्रथमश्लोकपूर्वार्दोत्तरार्द्धस्थितपदद्वयसामर्थ्यात्, अनेकजन्मसहस्रमोग्यदुष्कृतसुकृतफल, राशितादात्म्याऽध्यवसिततया = अनेकानि ( बहूनि ) यानि जन्मसहस्राणि ( जननसहस्राणि ) तेषु भोग्यः ( भोक्तु योग्यः ) यो दुष्कृतसुकृतफलराशिः ( पापपुण्यफल: समूहः), तस्य तादात्म्येन ( अभेदेन ) अध्यवसिततया ( आरोपितप्रकारेण) भगवद्विरहदुःख-चिन्ताह्लादयोः = भगवद्विरहेण (श्रीकृष्णवियोगेन) दुःखस्य (कष्टस्य) भगवच्चिन्तया ( श्रीकृष्णभावनया ) आह्लादस्य ( आनन्दस्य ), प्रत्यायन = प्रकरण, वैशिष्ट्येन प्रतीतिकरणम्, इति अतिशयोक्तिद्वयप्रतीति: अशेषचयपदव्यङ्ग्या । .
प्रयं भावः । अनेकजन्मसहस्रमोग्यदुःखस्य तात्कालिककृष्णाप्राप्तिदुःखस्य च भेदेऽपि "विलीनाऽशेषपातका" अवस्थाऽशेषपदेनाऽभेदाऽध्यवसायापेता अतिशयोक्तिस्तथा अनेकजन्मसहस्रभोग्यसुखस्य तात्कालिककृष्णचिन्ताजन्यसुखस्य च भेदेऽपि 'क्षीणपुण्यचया' अत्रस्थचयपदेन अभेदाऽध्यवसायादन्याऽतिशयोक्तिरिति अतिशयोक्तिद्वयमित्यर्थः । अत्र = अस्मिन्पद्य, व्यजकस्य = अशेष वय-रूपपदद्वयरूपस्य वस्तुनः कविप्रौढोक्तिम् अन्तरेण = विनाऽपि संभवात् स्वतःसंभविता ।
__ कविप्रौढोक्तिसिद्धालङ्कारेण पदगतमलङ्कारध्वनिमुदाहरति पश्यन्तीति। कश्चित्कवि: कंचिद्राजानं वर्णयति । हे देव = हे महाराज !, त्रिपथगा=गङ्गा, पयित्रया मात्रगामिनी, स्वद्दानजलवाहिनी = भवद्वितरणसलिलोत्पन्ननदीम् असंख्यपथगाम् = भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करती हुई दूसरी गोपकन्या प्राणोंका निरोध होनेसे मुक्तिको प्राप्त हुई।
इन दो पद्योंमें "अशेष" और "चय" इन दो पदोंके प्रभावसे अनेक हजार जन्मोंमें भोगी जानेवाली पापों और पुण्योंकी फलराशिके अभेदसे आरोपित होनेसे भगवान्के विरहसे दुःख और उनके चिन्तनसे आनन्दकी प्रतीति "अशेष" और "चय" पदसे व्यङ्ग्य है। यहाँपर व्यजक "अशेष" और "चय" ये दो पदरूप वस्तुओंकी कविकी प्रोढ उक्तिके विना भी हो सकनेसे स्वतःसम्भविता है।
कविप्रौढोक्तिसिद्ध प्रलङ्कारसे पदगत अलङ्कारध्वनि उ०-कोई कवि किसी राजाका वणन करता है। हे राजन् ! तीन पदों ( मार्गों) से चलने वाली
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साहित्यदर्पणे
देव ! त्रिपथगाऽऽत्मानं गोपयत्युग्रमूर्धनि ।'
इदं मम । अत्र पश्यन्तीति कविप्रौढोक्तिसिद्धेन काव्यलिङ्गालङ्कारेण न केऽप्यन्ये दातारस्तव सदृशा इति व्यतिरेकालङ्कारोऽसंख्यपदद्योत्यः एवमन्येष्वप्यर्यशक्तिमूलसंलक्ष्यक्रमभेदेषूदाहार्यम् ।
सदेवं ध्वनेः पूर्वोक्तेष्वष्टादशसु भेदेषु मध्ये शब्दार्थशक्त्युत्थो व्ययो वाक्यमात्रे भवन्नैकः । अन्ये पुनः सप्तदश वाक्ये पदे चेति चतुस्त्रिंशदिति पतत्रिंशद्ध दाः ।
1
अपरिमितमा गंगामिनीं पश्यन्ती सती, आत्मानं स्वाम्, उग्रमूर्धनि = हरशिरसि, गोपयति = रक्षति, असंख्यपथगाया भवद्वितरणसलिलजाया नद्या दर्शनेन त्रिपथगा बङ्गाऽऽत्मानं शिवशिरसि लज्जया गोपयतीति भावः । अनुष्टुब् वृत्तम् ।
विवृणोति - - अत्र = अस्मिन्पद्य, "पश्यन्ती" तिपदनिष्ठेन कविप्रौढोक्तिसिद्धेन = बहिजंगति असंभाव्येन काव्यलिङ्गालङ्कारेण = गोपयतीति पदार्थहेतुककाव्यलिङ्गाऽलङ्कारेणेति भावः, न केऽपि, अन्ये - अपरे, दातास्तव सदृशा इति व्यतिरेकाऽलङ्कारः, असंख्य पदच्चोत्यः - असंख्यशब्दव्यङ्ग्यः, अतोऽस्य वनेः पदगतत्वमिति भावः ।
=
एवमिति । अन्येषु = उदाहृतेभ्योऽपरेषु, अर्थशक्तिमूलसंलक्ष्यक्रमभेदेषु, उदाहार्यम्-दाह योग्यम् । अत्र दिग्दर्शनमात्रं कृतमिति भावः ।
सकुलयति - तदेवमिति । शब्दाऽयं शक्त्युत्यः = उभयशक्तिमूलो व्यङ्ग्यः । बङ्गाणी असख्य पथों ( मार्गों ) से जानेवाली आपके दानजलसे बहनेवाली नदीको देखकर अपनेको शिवजीके सिरमें छिपाती है ।
यह ग्रन्थकारका पद्य है ।
इस पद्य कविकी प्रोढ उक्ति से सिद्ध काव्यलिङ्ग अलङ्कारसे और कोई भी याता आपके समान नहीं हैं यह व्यतिरेक अलङ्कार 'असंख्य' पदसे व्यङ्ग्य है । इसी तरह अन्य भी अर्थशक्तिमूल संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्य ध्वनिके भेदोंमें भी उदाहरणोंको जानना चाहिए। इस प्रकार ध्वनिके अठारह भेदोंके बीच में शब्दाऽर्थशक्तिमूल वाक्य मात्र में होनेसे एकप्रकारका है । लक्षणामूल ध्वनिमें अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य और अत्यन्त तिरस्कृतवाच्य इस प्रकार दो भेद, अभिधामूल ध्वनिमें असंलक्ष्मक्रमव्यङ्ग्यका एक भेद, संलक्ष्य क्रमव्यङ्ग्य में शब्दमूलके दो भेद, अर्थमूलके बारहभेद और पूर्वोक्त उभयशक्तिमूल व्यङ्ग्य एक भेद मिलाकर सबके भेद अठारह हुए । इनमें उभयशक्तिमूल ध्वनिको छोड़कर अन्य सत्रह ध्वनियोंके पद और वाक्य दोनोंमें होनेसे चौंतीस मद हुए, कुल भेद पैंतीस हो गये ।
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चतुर्थः परिच्छेदः
प्रबन्धेऽपि मतो धीरे रथशक्त्युद्भवो ध्वनिः ॥ १० ॥ 'अनन्तरोकद्वादशभेदोऽर्थशक्युत्थः । यथा
प्रबन्धे = महावाक्ये | महाभारते गृध्रगोमायुसंवादे -
'अलं स्थित्वा श्मशानेऽस्मिन् गृध्रगोमायुसंकुले | काल बहले घोरे सर्वप्राणिभयङ्करे ।
न चेह जीवितः कश्चित्कालधर्ममुपागतः । प्रियो वा यदि वा द्वेष्यः प्राणिनां मतिरीदृशी ।'
..
३३१
इति दिवा प्रभवतो गृध्रस्य श्मशाने मृतं बालमुपादाय तिष्ठतां तंपरित्यज्य गमनमिष्टम् ।
प्रबन्धेऽपि । अर्थशक्त्युद्भवो ध्वनिः = अनन्तरोक्त द्वादशभेदः, प्रबन्धेऽपि = महावाक्येऽपि, बीरेः = विद्वद्भिः, मतः = संमतः ॥ १० ॥
उदाहरति - प्रलं स्थित्वेति । महाभारते शान्तिपवंस्थं श्लोकद्वयम् । श्मशाने मृत बालकमत्यजतस्तद् बन्धुप्रति गृध्रवाक्यम् । गृध्रगोमायुस कुले = गृधः ( दाक्षाय्यैः ) बोमायुभि: ( शृगालः) च सकुले ( व्याप्ते ), कङ्काल बहले = कङ्कालः ( शरीराऽ. स्थिभि: ) बहले ( प्रचुरे ), सर्वप्राणिभयङ्करे = सकलजन्तु भीत्युत्पादके, अत एवं घोरे = भयङ्करे, अस्मिन् श्मशाने = पितृवने स्थित्वा = अवस्थाय, अलं - पर्याप्तम्, बत्राऽवस्थितिनं कार्या इति भावः ॥
कालधर्मम् = मृत्युधर्मम्, उपागतः = संप्राप्तः, प्रियो वा अभीष्टो वा द्वेष्यों बा = शत्रुर्वा, कचित् = कोऽपि, इह = अस्मिन् श्मशाने, न जीवितः - जीवनं न प्राप्तः प्राणिनां = जन्तूनाम्, ईदशी - एतादृशी, गतिः = स्थितिः । बालकजीवनाशयाऽत्राऽवस्थानं व्यर्थमिति भावः । व्यङ्ग्याऽयं विवृणोति - इतीति । श्मशाने पितृवने, मृतम् - उपरतं, बालं = शिशुम्, उपादाय = गृहीत्वा तिष्ठतां = स्थिति कुर्वतां जनाना, दिवसे - दिन एव, त = बालं, परित्यज्य = विहाय, गमनं = गतिः, इष्टम् = उचितम् इति = एवं दिवा = दिने, शक्तस्य - समर्थस्य, गृध्रस्य = दाक्षाय्यस्य वचनम् । वक्तुगृ प्रस्य मृतं चालं त्यक्त्वा तद्वन्धूनां गमनमिष्टमिति प्रयोजनमिति भावः ।
अर्थशक्तिमूलक ध्वनि प्रबन्ध अर्थात् महावाक्य में भी होता है ।। १० ।।
जैसे महाभारत में गृध्र ( गीध ) और स्थारके संवादमें मरे हुए बालकको लेकर श्मशान में रहे हुए उसके बान्धवोंको कोई गीध कहता है ।
गृधों और स्यारोंसे व्याप्त, अस्थिपञ्जरोंसे भरे हुए, सब प्राणियोंको भयङ्कर ऐसे श्मशान ( मरघट ) में रहना नहीं चाहिए । कालधर्मको प्राप्त प्रिय हो वा अप्रिय यहां पर कोई भी नहीं बचा, प्राणियों की गति ऐसी ही होती है ।।
दिन में शव खाने में समर्थं ग्रधका मत बालकके बन्धुओंके प्रति यह वचन है ।
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साहित्यदर्पणे
'आदित्योऽयं स्थितो मूढाः ! स्नेहं कुरुत साम्प्रतम् । बहुविघ्नो मुहूर्तोऽयं जीवेदपि कदाचन ।। अमुं कनकवर्णाभं बालमप्राप्तयौवनम् ।
गृध्रवाक्यात्कथं मूढास्त्यजध्वमविशङ्किताः॥' इति निशि समर्थस्य गोमायोदिवसे परित्यायोऽनभिलषित इति वाक्यसमूहेन द्योत्यते। अत्र स्वतःसंभवी व्यन्जकः। एवमन्येष्वेकादशभेदेपूदाहार्यम् । एवं वाच्यार्थव्यन्जकत्वे उदाहृतम् । लक्ष्यार्थस्य यथा'निःशेषच्युतचन्दनम्-' (पृ० ७५ ) इत्यादि । ।
प्रादित्योऽयमिति । गृध्रवाक्यमनुसृत्य बालकशवं परित्यज्य गमनतत्परांस्तदा बन्धन्प्रति गोमायोर्वचनमिदम् । हे मूढाः = हे मुर्खाः ! अयम् = एषः, आदित्यः = सूर्यः, स्थितः = अवस्थितः, साम्प्रतम्-अधुना, स्नेह वात्सल्यं, कुरुत-विदधत, अयम्एषः, मुहूर्तः–समयः, बहुविघ्नः भूताचावेशविविधप्रत्यूहः, कदाचन = जातुचित्, जीवेत् अपि = प्रत्युज्जीवनं प्राप्नुयात् अपि, कनकवर्णासं = सुवर्णकान्तिसदृशम, बप्राप्त. यौवनम् = अनासादिततारुण्यम्, अमुम् = अमुत्र गतमिति संभावितं, बालं =शिक्षु गृध्रवाक्यात् = दाक्षाय्यवचनमात्राद, अविशङ्किताः = संशयरहिताः सन्तः, कथं केव प्रकारेण, त्यजध्वं = जहत ॥
ध्यङ्ग्याऽयं विवृणोति-इतीति । इति = एवं, निशि = रात्री, समर्थस्य = मृतबालकमांसभक्षणसमर्थस्य । गोमायोः = शुगालस्य, दिवसे = दिने, परित्यागः = मृतबालपरिहानम्, अनभिलषितः = अनमीष्टः, इति वाक्यसमूहेन = वाक्यकदम्बकेन: द्योत्यत = व्यज्यते । अत्र = अस्मिन्नुदाहरणे, स्वतःसंभवी = स्वतःसंभाव्यमाना; प्रबन्धद्वयाऽर्थो व्यञ्जकः । एवं वाच्याऽर्थव्यञ्जकत्वे उदाहृतम् । "दृष्टि हे प्रतिवेशिनि" इत्यादिकमिति भावः । लक्ष्याऽर्थस्य व्यञ्जकत्वं यथा-"नि:शेषच्युतचन्दनम्" इत्यादि । अत्र स्नातुं गताऽसीत्यत्र न स्नातु गताऽसीति विपरीतलक्षणया लक्ष्याऽपस्वरूपेण स्वतःसंभत्रिवस्तुना तदन्तिकमेव रन्तुगताऽसीति वस्तुवनिरधमपदव्यमयः ।
गृध्रके वाक्यका अनुसरण कर बालकके शवको छोड़कर जानेके लिए तत्पर मृत बालकके बन्धुओंके प्रति स्यारका यह वचन है। हे मूर्यो ! अभी सूर्य विद्यमान है। अभी कुछ स्नेह तो करो। अनेक विघ्नोंवाला यह समय है, यह बालक कदाचित् जी भी जाय । सोनेके समान वर्णवाला और यौवनको अप्राप्त इस बालकको मूर्ख होकर तुमलोग गृध्रके वचनसे कुछ भी शङ्का नहीं मानकर कैसे छोड़ोंगे? ॥
रातमें शव खाने में समर्थ शृगालको दिन में बालकका परित्या अभीष्ट नहीं है यह बात पूर्णोक्त वाक्पसमूहसे व्यङ्ग्य है। यहाँपर दोनों उक्तियों में व्ययक वाक्या • स्वतःसंभवी है । इसीप्रकार अन्य ग्यारह भेदोंमें भी उदाहरण देने चाहिए ।
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चतुर्थः परिच्छेदः
३३३
व्यग्यार्थस्य यथा उअ णिचल-' (पृ०७६) इत्यादि। अनयोः स्वतःसंमविनोर्लक्ष्यव्यङ्ग्यार्थी व्यञ्जको । एवमन्येष्वेकादशभेदेषूदाहार्यम् ।
पदांशवर्णरचनाप्रवन्धेष्वस्फुटकमः । ____ असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यो ध्वनिस्तत्र पदांशप्रकृतिप्रत्ययोपसर्गनिपातादिभेदादनेकविधः । यथा
'चलापानां दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमती
__ रहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णाऽन्तिकचरः। व्यङ्गयाऽर्थस्य व्यञ्जकत्वं यथा-"उस णिच्चल." इत्यादि । अत्र बलाकाया निष्पन्दतया तद्देशस्य विजनत्वरूपेण स्वतःसंभवविना व्यङ्गयाऽर्थवस्तुना सङ्केतस्थानमेतदिति वस्तुध्वनिनिष्पन्दपदव्यङ्ग्या । स्वतःसंभविनो-स्वत:संभाव्यमानयोः, अनणे:निःमेषच्युतचन्दनम्' "उअ णिच्चल णिप्पंदा" इत्याचोदाहरणयोः ।
अलक्ष्यक्रमव्यङ्गयध्वने दानाह-पदांशति । - अस्फुटक्रमः = अलक्ष्यक्रमः म्यमयो ध्वनिः, पदांऽशवर्णरचनाप्रबन्धेषु = पदांऽशे, वणे, रबनायां, प्रबन्धे, पदे, वाक्ये पेति षडविधो बोध्यः ।
पदांशध्वनिभेदान्प्रदर्शयति-प्रकृतीति । पदांऽशध्वनिः, प्रकृतिप्रत्ययोपसर्गनिपातादिभेदात् = प्रकृतिः ( यतः प्रत्ययोत्पत्तिः सा ), प्रत्ययः (प्रकृतिमवधीकृत्य विधीयमानः स्थाऽर्थबोधकः शब्दविशेषः ), उपसर्गः (प्रादिः), निपातः (चादिशब्द. समूहः ), इत्यादिभेदात्, आदिपदेन वचनादिपरिग्रहः ! भनेकविधः नेकप्रकारः ।
प्रकृतिरूपपदांशध्वनिमुदाहरति-चलाऽपानामिति । अभिज्ञानशाकुन्तले शकुन्तयां पीडयन्तं भ्रमरं प्रति राज्ञो दुष्यन्तस्योक्तिरियम् । हे मधुकर हे भ्रमर ! त्वं पलापानां= चलः ( चञ्चलः ) अपाङ्गः (नयनप्रान्तभागः ) यस्याः सा, ताम, अमरदंशनभियेति शेषः । अतः वेपथुमती = कम्पयुक्तां, दृष्टि = नयनं, स्पृशसि = बामृगसि । रहस्याख्यायी इव-गोप्यवार्ताभाषी इव, कर्णाऽन्तिकचरः = श्रोत्रनिकटपारी सन्, मृदुः कोमलम्, अस्फुटं यथा तथेति भावः । स्वनसि = रवीथि । करं =
प्रसंलक्ष्यक्रमव्यङ्गय ध्वनिके भेद-पदांश, वर्ण, रचना, प्रबन्ध आदिमें बसंलख्यकमव्यङ्गय ध्वनि होती है ।
असंलक्ष्यक्रमव्यायके पदांऽश अर्थात् प्रकृति,प्रत्यय, उपसर्ग और निपात एवम् प्रबन्ध तथा आदि पढमे, पद, वाक्य, और वचन आदि भेद होते हैं। जैसे-प्रकृतिरूप पदांऽशके ध्वनि का उदाहरण अभिज्ञानशाकुन्तल नाटकमें शकुन्तलाको पीडित करनेवाले भ्रमरके प्रति गजा दुष्यन्तको उक्ति है। हे भ्रमर ! तू चञ्चल अपाङ्गोंवाली और कम्पसे युक्त दप्टिको वारवार स्पर्श कर रहा है गोप्य वार्ता कहनेवालेके समान होकर कानके समीप जा
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३५४
साहित्यदर्पणे
कर व्याधुन्वत्याः पिबसि रविसर्वस्वमधरं
वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर ! हतास्त्वं खलु कती ॥' ((शाकु. १२०), अत्र 'हताः' इति न पुनः 'दुःखं प्राप्तधन्ता' इति हन्प्रकृतेः । 'मुहरगुलिसंवृताधरोष्ठं प्रतिषेधाक्षरविक्लवाभिरामम् ।
मुखमंसविषतिपक्ष्मलाक्ष्याः कथमप्युन्नमितं न चुम्बितं तु॥'(शाकु.३-२२)। हस्तं, व्याधुन्वन्त्याः = कम्पयन्त्याः, त्वनिवारणाय इतस्ततश्वालयन्त्या इति भावः। शकुन्तलाया इति शेषः । रतिसर्वस्वं = रतो ( रमणे ) सर्वस्वम् (सर्वस्वमिवा. दरणीयम् ), अधरम् = अधरोष्ठं, पिबसि = धयसि.। तत्त्वाऽन्वेषात् सत्या: न्वेषणात्, इयं कुमारी क्षत्रस्य मम परिणेया नो वेति तेथ्यगवषणादिति भावः । हताःवञ्चिता इति भावः, त्वं मधुकरः, कृती-नेपुण्यवान्, असीति शेषः । शिखरिणी वृत्तम् ।
____व्यायं निरूपयति-प्रोति । अत्र अस्मिन् पद्य, "हताः" इति हतप्रायाः म पुनर्दुःखं प्राप्तवन्त इति हन्यकृतेः = "हन् हिंसागत्योः” इति हनधातुरूपप्रकृतेः. दुःखाऽतिशयव्यञ्जकत्वमिति शेषः।
निपातरूपपदांशध्वनिमुदाहरति-मुहुरिति । अभिज्ञानशाकुन्तले गोतम्या शकुन्तलायां नीतायामनुतापयुक्तस्य दुष्यन्तस्योक्तिरियम् । मुहुः वारं वारम्, अङ्गुलि. संवृताऽधरोष्ठम् =अगुल्या ( करशाखया ) संवृतः ( धावृतः ) अधरोष्ठः (निम्नोष्ठः) यस्य तत् । प्रतिषेधाऽमरविक्लवाऽभिरामं - प्रतिषेधाऽमरे (निषेधद्योतकवर्णसमूहे ) विक्लवः ( विह्वलमावः ), तेन अभिरामम् (सुन्दरम् ), एवं च अंसविवति से (स्कन्धे ) विवर्तते (परावर्तते ) तच्छीलं, तादृशं पक्ष्मलाक्ष्याः = लोमप्रचुरनयनशालिन्याः, शकुन्तलाया. इति भावः । मुखं = वदनं, कथमपि = केनाऽपि प्रकारेण, उन्नमितम् = ऊकृतं, नयनपतितपरागनिरसनव्याजेनेति भावः । न चुम्बितं तु - वक्त्रसंयुक्तं न कृतं तु । औपच्छन्यसिक वृत्तम् । . कर अस्फुट झङ्कारशब्द कर रहा है । हायको कम्पित करती हुई रमणोके रतिसर्वस्व अधरका पान कर रहा है, हम तत्त्वके अन्वेषणसे अर्थात् यह क्षत्रियसे विवाह के लिए योग्य है कि नहीं इस बातको पता लगानेसे ही मारे. पये अतः तू ही कृताऽर्थ बन गया है ।
. इस पद्यमें "हताः" कहनेसे "दु:खं प्राप्तवन्तः" "दुःखको प्राप्त हुए" ऐसा नहीं कहनेसे 'हनु' धातुरूप प्रकृतिका दुःखाऽतिशयस्वरूप व्यङ्ग्यका व्यञ्जकत्व है।
- निपातरूप पदांऽशकी ध्वनिका उदाहरण-अभिज्ञानशाकुन्तलमें गौतमीके साए शकुन्तलाके जानेपर पश्चात्तापसे युक्त दुष्यन्तको उक्ति है । वारं वार उंगलीसे ठेवे गये ओष्ठसे युक्त, निषेधद्योतक वर्गों में विह्वल भावसे मनोहर; कन्धे में घूमने वाले सुन्दरीके मुखको मैंने किसी प्रकारसे उठाया ही पर चुम्बन नहीं किया ।
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चतुर्थः परिच्छेदः
३३१
अत्र "तु" इति निपातस्यानुतापव्यञ्जकत्वम् ।
'न्यक्कारो ह्ययमेव मे यदरयः- (पृ०८)। इत्यादौ 'अरयः' इति बहुवचनस्य, 'तापसः' इत्येकवचनस्य, 'अत्रैव' इति सर्वनाम्नः, 'निहन्ति' इति 'जीवति' इति च तिङः, 'अहो' इत्यव्ययस्य 'ग्रामटिका' इति करूपतद्धितस्य, 'विलुण्ठन' इति व्युपसर्गस्य, 'भुजैः' इति बहुवचनस्य च व्यञ्जकत्वम् ।
___ 'आहारे विरातः, समस्तविषयग्रामे निवृत्तिः परा,
व्यङ्ग्यं निरूपयति-प्रोति । अत्र = अस्मिन् पचे, तु इति निपातस्य "चुम्बितम्” इति पदांऽशत्वेन, अनुतापव्यञ्जकत्वं = पश्चात्तापव्यञ्जकत्वम् । प्रत्ययापसर्गप्रभृतीनां व्यङ्ग्यानि दर्शयति-न्यक्कारो ह्ययमेवेति । पद्यमिदं प्रथमपरिच्छेद एव व्याख्यातपूर्व, तथा वृत्तिदिशा किञ्चिद्व्याख्यायते 'अरय' इति बहुवचनस्य मच्छत्रसत्ताऽनुचितेति सम्बन्धानौचित्यरूपव्यङ्ग्यस्य व्यञ्जकत्वम् । “तापस" इत्येकवचनस्य पौरुषकथाहीनत्वरूपस्य व्यङ्ग्यस्य व्यञ्जकत्वम्, "अव" इति सर्वनाम्नः स्वाधिष्ठित. देशाऽधिकरणत्वरूपव्यङ्ग्यस्य व्यञ्जकत्वम् । “निहन्ती"ति तिङ: निःशेषेण राक्षसबलहननरूपव्यङ्ग्यस्य व्यञ्जकत्वम् । “जीवती"ति तिङ: कुत्सितजीवनधारणरूपस्य व्यङ्ग्यस्य व्यञ्जकत्वम्, 'अहो' इत्य व्ययस्य परमाश्चर्यरूपस्य व्यङ्ग्यस्य ।
___ प्रत्ययादिध्वनिमुदाहरति-माहार. इति । प्रियतमवियुक्तां काञ्चिन्नायिका प्रति सख्या उपहासोक्तिरियम् । भोः सखि = हे वयस्ये !, ते=तव, आहारे = भोजन, व्यापारे, विरतिः-रामाऽभावः, न केवलमाहार एव विरतिः प्रत्युत समस्तविषयग्रामे - समस्ते (सकले ) विषयप्रामे (शब्दस्पर्शादिविषयसमूहे), परा = अत्यधिका,
इस पद्यमें "तु" इस निपातका अनुतापरूप व्यङ्ग्य अर्थका व्यञ्जकत्व है। . वचनादि ध्वनिका उ०-"न्यक्कारो ह्ययमेव मे यदरयः” (पृ०८)। इस पूर्वोदाहृत पद्यमें "अरयः" यह बहुवचन मेरा शत्रु होना ही अनुचित है इसप्रकार सम्बन्धके अनौचित्यरूप व्यङ्ग्यका व्यञ्जक है । "तापसः यह एक वचन पौरुषकी चर्चासे होन ऐसे व्यङ्ग्यका व्यञ्जक है।। यत्र" यह सर्वनाम मेरे आश्रयरूप देशमं ही ऐसे व्यायका व्यञ्जक है । "निहन्ति" यह तिङ् प्रत्यय नि.शेष रूपसे राक्षसमूहके हननरूप व्यङ्ग्यका व्यजक है। "जीवति" यह तिङ् प्रत्यय कुत्सित जीवनके धारणस्वरूप व्यङ्ग्यका व्यञ्जक है । "अहो" यह अव्यय परम आश्चर्यरूप व्यायका व्यञ्जक है। "प्रामटिका" यह कप्रत्ययरूप तद्धितप्रत्यय सम्मानके अयोग्यरूप व्यङ्ग्यका व्यञ्जक है। "विलुण्ठन" इस पदमें वि-उपसर्ग निर्दयतापूर्वक अपहरणरूप व्यङ्ग्य अर्यका व्याक है और "भुजः" यह बहुवचन मारमात्ररूप व्यङ्ग्य अर्थका व्य क है । पंद्यका पूरा अर्थ पहले ही दिया गया है।
प्रत्यय प्रादि ध्वनिका उ०-वियोगिनी किसी नायिकाको उसकी सखी कहती है । हे सखि ! तुम्हें खानेमें रुचि नहीं है, सब विषयोंमें अनिणय निर्वृति है।
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३३६
साहित्यदपणे
नासाग्रे नयनं, तदेतदपरं यच्चकतान मनः। मौनं चेदमिदं च शून्यमधुना यद्विश्वमाभाति ते, तदनयाः सखि ! योगिनी किमसि, भोः! किं वां वियोगिन्यसि ।'
अत्र तु 'आहारे' इति विषयसप्तम्या, 'समस्त' इति 'परा' इति च विशेषणद्वयस्य, 'मौन' 'चेदम्' इति प्रत्यक्षपरामर्शिनः सर्वनाम्नः, 'आभाति' इत्युपसर्गस्य 'सखि' इति प्रणयस्मारणस्य 'असि भोः' इति. सोन्प्रामस्य निवृत्तिः = निवर्तनम् । नासाग्रे = नासिलाऽग्रभागे, नग्नं लोचनम्, अस्तीति शेषः । तदेतत् अपरम् =अन्यत्, यच्च एकसानम् = एकाऽयं, कस्मिंश्चिद्ध्यातव्यम् इति शेषः । मनः चित्तम् । इदं च = विद्यमानं च, मौनं = तूष्णीकत्वम् इदं च विश्वं = जगद, अधुना = इदानी, ते = तव, शून्य = शून्यप्रायम्, आभाति = आभारी वर्तने, तत् = तस्मात्कारणात् त्वं किं योगिनी = योगाऽभ्यासशालिनी, असि = विद्यसे, किंवा = बधवा, वियोगिनी = वियोगयुक्ता, असि, आहारविरत्यादिधर्माणां योगे वियोगे. चेत्युभयत्र संभवादियं पृच्छेति भावः । पृथ्वी वृत्तम् ।।
__व्यङ्ग्यानि विवृणोति-पत्र विति । "आहार" इति विषयसप्तम्या आहारमात्रे न तु योगिन्या इव कट्वम्लाद्याहारविशेष एवेति भावः । व्यञ्जकत्वमिति शेषः एवं सर्वत्र । “समस्त" इति "परा" इति च विशेषणद्वयस्य, योगिया उपभोगविषयेषु एव निवृत्तिः परं शरीरपरिग्रहसाधनभिक्षानादिविषये न निवृत्तिः तव तु परा% बात्यन्तिकी निवृत्तिः, अत एव विशेषणद्वितयस्य सार्थकत्वम् । “मौनं चेदम्" इति वर्तमानज्ञानपरामशिनः सर्वनाम्नः, योगिन्या ध्यानसमय एवेदमिति प्रतीयते । “आमाति" इति "आङ्" रूपस्य उपसर्गस्य प्रयोगेण मिथ्यात्वरूपं सम्यक् प्रतिभाति । "सखी"ति प्रणयस्मरणस्य, योगिन्या न कुत्राऽपि प्रणयस्तवं तु मयि सख्यां प्रणयोऽस्तीति । 'असि भोः' नासिकाके अग्रभागमें नेत्रको लगा रही हो । यह दूसरी बात है कि तुम्हारा मन एकाग्र हो रहा है यह तुम्हारा मौन प्रतीत हो रहा है। इस समय तुम्हें विश्व हो शून्यके समान लग. रहा है। इसलिए हे सखि ! बताओ तो सही, दम योगिनी हो वा क्यिोगिनी हो ? ॥
इस पद्यमें "आहारे" यह विषयमें सप्तमीविभक्ति आहारमात्र रूप व्यङ्ग्य वर्यका न कि योगिनीकी तरह कटु, मम्ल आवि राजस पदार्थ मात्रमें ऐसे व्यङ्ग्य अर्थका व्यञ्जक है। "समस्त" यह विशेषण पद न केवल निषिद्ध विषयमें प्रत्युत विधिविहित धर्मानुष्ठान बादि विषयोंमें भी ऐसे व्यङ्ग्य अर्थका व्यक है। उसी तरह "परा" यह विशेषण थोड़ी-सी नहीं पूरी निवृत्ति हैं ऐसे व्यङ्ग्य अर्थका व्यञ्जक है । "मोनं घेदम्" इस वर्तमान शानका परामर्श करनेवाले सर्वनामका, "आमाति" यहांपर "आङ्' उपसर्गका प्रयोग होनेसे मिथ्यावस्वरूपकी सम्यक् प्रवीति होती है। "सखि" ऐत सम्बोधनसे योगिनीको किसीमें भी प्रणय नहीं होता है पर तुम्हारा मुझपर प्रणय है इस तरह प्रणयका स्मरण करानेका "बसि मोः" यहाँपर उपहासपूर्वक मन्दहास्या ,
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चतुर्थः परिच्छेदः
'किंवा' इत्युक्त पक्षदायसूचकस्य वाशब्दस्य, 'असि' इति वर्तमानोपदेशस्य च तत्तद्विषयगञ्जकत्वं सहृदयसंवेद्यम् ।
वर्णरचनयोरुदाहरिष्यते । प्रबन्धे यथा-महाभारते शान्तः। रामायणे करुणः। मालनीमाधव-रत्नावल्यादौ शृङ्गारः। एवमन्यत्र ।
तदेवमेकपश्चाशद्भेदास्तस्य वनेमताः ॥ ११ ॥ इति सोपहासात्प्रासस्य = उपहाससहितस्थ मन्दहासस्य, "कि वा” इति उत्तरपक्षदायसूचकस्य = उत्तापक्षवियोगिनित्वदृढतासूचकस्य वाशब्दस्य, "असि" इति वर्तमानोपदेशस्य = वर्तमानकालद्योतकस्य लटः सिप्रत्ययस्य, ततद्विषयव्यञ्जकरवं = तत्तद्विषयाणां व्यञ्जनया बोधकत्वं, सहृदयसंवेद्य = सहृदयः ( हृदयालुभिः, काव्याऽर्थभावनया परिपक्वाऽन्तःकरणरिति भावः ।।
वर्णरचनयोरिति । वर्णः = माधुर्यादिगुणव्यञ्जकः, रचना = पदविन्यासविशेषः, साऽपि माधुर्यादिव्यजिका, तथा च तयोर्व्यञ्जकत्वम्, उदाहरिष्यते अष्टमपरिच्छेदे नवमपरिच्छेदे च उदाहरणं दास्यते ।
प्रबन्धे-महावाक्ये यथा-महाभारते शान्तः = शान्त रसः, गमायणे करुणः= करुणरसः, मालतीमाधवरत्नादल्यादो शृङ्गार:=शृङ्गाररसः व्यङ्ग्यः । एवम् = इत्यम्, अन्यत्र प्रबन्छ, तत्तद्रसा व्यङ्ग्या ज्ञेया इति भावः ।
ध्वनीन् सङ्कलयति-तदेवमिति । तत् = तस्मात्कारणात, एवम् = उक्तप्रकारेण, तस्य = पूर्वोत्तस्य, ध्वनेः एकपञ्चाशत् = एकाधिका पञ्चाशत, भेदा:=प्रकाराः, मताः = अभिमताः ॥ ११॥
तेषामत्र पोनरुक्त्ये सत्यपि छात्राणां बोधवेशद्यार्थम्, दिग्दर्शनं क्रियते । ध्वनिद्विविधो लक्षणामूलोऽभिधाभूलनेति ।
तत्र लक्षणामूल: ( अविवक्षितवाच्यः) पुनद्विविध:१-अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यः ।
२-अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यश्चेति । "fक वा" यहांपर "तुम योगिनी ही हो" ऐसा उत्तरपक्षको दृढताका सूचक वा शब्दका और "असि" इस क्रियाग्दसे नमान कालके उपदेशका तत्तद् विषषरूप व्यङ्ग्य अर्थका व्यजकत्व सहृदयजनोंके ज्ञानका विषय है।
वर्ण और रचनाका व्यञ्जकत्व अष्टम और नवम परिच्छेदमें दिखाया जायगा। प्रबन्धमें जैसे महाभारतमें शान्तरस, रामायण में करुण रस और मालतीमाधव और रत्नावली यादिमें शृङ्गार रस व्यङ्गय होकर सहृदयजनोंके ज्ञानका विषय है। इसी तरह अन्य प्रबन्धमें तत्तद्रस व्यङ्गय होते हैं। , इस प्रकार उस ध्वनिके इक्कावन भेद माने गये हैं ॥ ११॥
२२ सा०
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३३८
साहित्यदपणे
द्वावप्येतो पदगतत्वेन वाक्यगतत्वेन च पुनमतुर्भदो। १-लक्षणामूलध्वनिः संहत्य चतुर्विधः । २–अभिधामूलध्वनिः ( विवक्षितान्यपरवाच्यः ); विविधः१-असलक्ष्यक्रमव्यङ्गयः ( रसमावादिरूपः)। २-संलक्ष्यक्रमव्यङ्गपश्चेति । १-असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गपःषविष:१. पदगतः, २. पदांऽशगतः, ३. वाक्यगतः, ४. महावाक्यमतः, ५. वर्णवतः . ६. रचनागतश्चेति । . . २-संलक्ष्यक्रमण्यङ्गपः त्रिविधः१. शब्दशक्तिमूलः, २. अर्यशक्तिमूल, ३. उभयक्तिमूलन। १-शब्दशक्तिमूलो द्विविधः-वस्तुरूपः, अलङ्काररूपश्च । स प पवाक्य
गतत्वेन चतुर्विधः। २-अर्थशक्तिमूलः द्वादविषः, स प पदवाक्यप्रवन्धगतत्वेन विविधः ३६
प्रकाराः। ३-उभयशक्तिमूलः एकविधः ( वाक्यगतः) अभिधामूलध्वनो संलक्ष्यकमव्यङ्गयस्य १५ भेदाः इत्यं च संलक्ष्यकमव्यङ्ग अर्थशक्तिमूलाऽनुरणनव्यम्यस्य ३६ भेदाः । उभयक्तिमूलः एकविधः, शब्दशक्तिमूलस्य पत्वारो भेदाः। इत्थं च संलक्ष्यक्रमव्यङ्गयध्वनेः ४१ भेदाः।
ध्वनिभेदका सामान्य दिग्दर्शन किया जाता है । सामान्यतः ध्वनिके दो भेद होते हैं अविवक्षितवाच्य (लक्षणामूल ) और विवक्षिताऽन्यपरवाच्य (बभिधामूल)। लसणामूल ध्वनिके दो भेद होते हैं-अर्यान्तरसंक्रमितवाच्य और अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य । पदगत और वाक्यगत होनेसे लक्षणामूल ध्वनिके कुल चार भेद होते हैं ।
विवक्षिताऽन्यपरवाच्य ( अभिधामूल ) ध्वनिके दो भेद होते हैं संलक्ष्यक्रमव्यङ्गय और असंलक्ष्यक्रमङ्गय । रस, माव आदि असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गघमें अन्तर्भूत होते हैं । पद, पदांश, वाक्य, वर्ण, रचना और प्रबन्ध इनसे असंलक्ष्यक्रमध्यङ्गयके छः भेद होते हैं। - संलक्ष्यक्रमव्यङ्गय ध्वनिके तीन भेद हैं । शब्दशक्तिमूल, अर्थशक्तिमूल और अलङ्काररूप । पदगत और वाक्यगत होनेसे शब्दशक्तिमूलके चार भेद होते हैं।
अर्थशक्तिमूल संलक्ष्यक्रमव्यङ्गयके बारह भेद हैं । पदगत, वाक्यगत और प्रबन्धगत होनेसे अर्थशक्तिमूल संलक्ष्यक्रमव्यङ्गय ध्वनिके छत्तीस भेद होते हैं । इसप्रकार शब्दशक्तिमूलके पार भेद, अर्थशक्तिमूलके छत्तीस भेद और केवल वाक्यमें रहनेवाले
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चतुर्थः परिच्छेदः
सङ्करेण त्रिरूपेण संसृष्ट्या चैकरूपया । वेदखाग्निशराः (५३०४) शुद्धेरिषुवाणाग्निसायकाः (५३५५) ॥ १२ ॥
असंलक्ष्यक्रमध्यङ्ग्यो ध्वनि: ( रसभावादिः ) षड्विधः ।
१ - पद-पदांश - वाक्य - महावाक्य वर्ण रचनागतः । इत्थं च अभिधामूलबने: ४७ भेदाः ।
तत्र लक्षणामूलध्वनेर्भेदचतुष्टयस्य योजनात् । वने रेकपञ्चाशद्भ ेदाः ।.
पुनर्भेदान्तराणि परिगणयति - सङ्करेणेति । त्रिरूपेण = त्रिविधेन, मङ्गाङ्गस्वरूपेण, एकाश्रयाऽनुप्रवेशरूपेण । सन्दिग्धस्वरूपेण चेति त्रिरूपेणेति भावः । तादृशेव सङ्करेण, एकरूपया = मिथोऽनपेक्षा स्थितिरूपया संसृष्ट्या च योजनेन, वेदखाऽग्निशराः = बानां वामतो गतिरिति न्यायेन वेदाश्वत्वारः, ख = शून्यम्, अग्नयस्त्रयः, शराख .: पचति ५३०४ चतुरुत्तरशतत्र पाऽधिकपन्या सहस्रसंख्यका ध्वनयः, तत्र च शुद्धः = एकपाप्रकारयजनेन, इषुबाणाऽग्निसामकाः = इषव: ५, बाणा: ५, अग्नयः ३ सायकाः ६ इत्थं च समष्टी पञ्चपञ्चाशदुत्तरशतत्र ययुतपश्च सहस्रसंख्यकाः ५३५५ ध्वनेर्भेदाः ।
ननु एकपञ्चाशत्सख्यकेषु वनिषु त्रिरूपेण सङ्करेण एकरूपया संसृष्ट्या समष्ट्या चतुर्गुणनेन वनेर्भेदैश्वतुरधिकद्विशतसंख्यकैर्भाव्यम् इति चेन्न ।
५१ संकेषु ध्वनिषु सजातीय एकः, विजातीयाः ५० संख्यकाः संहृत्य २१ । heater
संहृत्य ५०
४९
γε
४७
21
"
19
१
१.
१
१
"
४९,
४५
४७
४६
३३९
"
11
".
एका सेन ५१ तमे स्थाने सजातीयः १, विजातीयः शून्यम् एवं च संहृत्य नेर्भेदाः सामान्यतः षविशत्यधिका त्रयोदशशती १३२६ ।
·
उभय शक्तिमूलका एक भेद सब मिलाकर संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्य ध्वनिके इकतालिस भेव होते हैं | असंलक्ष्यणा क्रमव्यङ्ग्यके छः भेद ४१ + ६ = ४७ और लक्षणामूलध्वनिके चार भेद कुल मिलाकर ध्वनिके इक्यावन भेद हो जाते हैं ।
इनमें प्रथमभेद सजातीय एकसे और विजातीय ५० से संसृष्ट होकर ५१
संसृष्ट होकर ५०
द्वितीय भेद सजातीय एकसे और विजातीय ४९ से तृतीय, भेद सजातीय एकसे और विजातीय ४८ से संसृष्ट होकर ४९ चतुर्थ, भेद सजातीय एकसे और विजातीय ४७ से संसृष्ट होकर ४८
इसी तरह पश्चम आदिमें भी संसृष्टि होकर एक एक न्यून होकर अन्तिम ५१. भेद सजातीय एकसे संसृष्ट विजातीय शून्य हो जाता है ।
इस प्रकार कुल १३२६ ( तेरह सौ छन्न्रीस ) भेद हो जाते हैं । उनमें
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३४.
साहित्यदर्पणे
शुख शुद्धभेदरेकपञ्चाशता योजनेनेत्यर्थः । दिल्मात्रं तदाहियते
अत्युमतस्यनयुगा तरलायताक्षी द्वारि स्थिता तदुपयानमहोत्सवाय । सा पूर्णकुम्भनवनीरजतोरणम्रकसंभारमङ्गलमयत्नकृतं विधत्ते ।।
तत्र पत्रिविधैः संकरैरेकविधया संसृष्ट्या च चतुभिर्गुणने ५३०४ तत्र च शुद्ध बेवानाम् एकपञ्चाशत्संख्यकानां संकलनेन ५३०४+ ५१ = ५३५५ एवं च पञ्चपञ्चा. बदुत्तरमतत्रयाऽधिकपञ्चसहस्रसंख्यका ध्वनेर्भेदाः। ध्वनिसङ्करस्य दिग्दर्शनं विदधाति प्रत्युमतहसनयति । प्रवासादागतं नायकं पुत्वा वासगृहद्वारि स्थिताया नायिकाया वर्णनमिदम् । अत्युनतस्तनयुगा = अत्युनतम् ( अत्युच्चम् ) स्तनयुगं ( पयोधरयुग्मम् ) यस्याः सा। तरलाध्यताक्षी = तरले (चञ्चले ) आयते ( दीर्घ) अक्षिणी (नेत्रे) कल्याः सा, "बहुव्रीही सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात् षच्” इति समासाऽन्तः षच् प्रत्ययः । वित्वात् "विदनीरादिभ्यः" इति कीन् । सा-नायिका, द्वारि = वारे, स्थिता = विद्यमावा. सती, तदुपयानमहोत्सवाय = तस्य (नायकस्य ) यत् उपयानम् ( उपगमः, स्वगृहप्रवेश इति भावः); स एव महोत्सवः ( महान क्षणः), तस्मै । अयत्नकृतम (बनायासविहितम् ), पूर्णकुम्भनवनीरजतोरणसक्संभारमङ्गलं = पूर्णकुम्भी ( पूर्ण कलशो, महोत्सवे द्वारोभयपाश्वयोः स्थापनीयौ इति भावः कुचतयेनेति शेषः), नवनीर. पानां (नूतनकमलानाम् ) तोरणम्रजः (तोरणे - बहिरि, सजः= पुष्पमालाः ) स्थापनीयाः तासां सम्मारः ( संघटनम् ) एव मङ्गलं (मङ्गलाचारम् ) विधत्ते = विदधाति । वसन्ततिलका वृत्तम् ।
बङ्गाङ्गिभावरूप एकावयाऽनुप्रवेश रूप और सन्दिग्धरूप इसप्रकार तीन प्रकारके ...सरोंसे और एक प्रकारकी संसृष्टि से कुल चार संख्यासे गुणन करनेसे वेदखाऽग्निशरा:पर्याद "अट्टानां वामतो गतिः" बोकी बाई ओरसे गति होती है कहनेसे वेद 3D४;
= शून्यं, अग्नि = ३, और शर= ५ अर्थात् ५३०४ (पांच हजार, तीन सौ चार) इतने भेद होते हैं, फिर ५३०४ ( पांच हजार तीन सौ चार ), इनमें शुद्ध ५१ (इक्यावन ) भेदोंको जोड़नेसे ध्वनिकी एषुवाणाऽग्निसायकाः = अर्थात् इषु ५, वाण - ५, अग्नि ३, और सायक ५ अर्थात् ध्वनिको सामष्टि संख्या ५३५५ ( पांच हजार तीन सौ पचपन ) हो जाती है ।। १२ ॥
संक्षेपसे उदाहरण दिया जाता है-प्रवाससे लौटे हुए नायकके आगमन का वृत्तान्त सुनकर स्वागत करने के लिए घरके द्वारपर खड़ी हुई नायिकाका वर्णन है । अति उन्नत स्तनोंवाली, चञ्चल और दीर्घ नेत्रोसे युक्त नायिका. उसके आगमनके उत्सवके लिए द्वारपर खड़ी थी। वह पूर्ण कलश, नये कमलोंकी बन्दनवारकी सामग्रीके मङ्गलको अयत्नसे सिद्धरूप कर रही है ।
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चतुर्थः परिच्छेदः
अत्र स्तनावेव पूर्णकुम्भौ, दृष्ट्रय एव नवनीरजस्रज इति रूपकध्वनिरसध्वन्यो रे काश्रयानुप्रवेशः सङ्करः ।
'धिन्वन्त्यमूनि मदमूर्च्छदलिध्वनीनि धूता ध्वनीनहृदयानि मधोर्दिनानि । निस्तन्द्रचन्द्रवदनावदनारविन्द सौरभ्यसौहृद गर्वसमीरणानि ॥ अत्र निस्तन्द्रत्यादिलक्षणामूलध्वनीनां संसृष्टिः ।
३४१
सङ्करं विवृणोति प्रत्रेति । अत्र = अस्मिन् पब, स्तनो एव पूर्णकुम्भो दृष्टय एव नवतोरणस्रज इति रूपकध्वनिरसत्रन्योः एकाश्रयाऽनुप्रवेशरूपः सङ्करः । गर्थ भावः । स्तनद्वये पूर्णकुम्भद्वितयस्य, तथा दृष्टिषु नवतोरणस्रजः साक्षादारोपस्याऽभावेन रूपकस्य व्यङ्ग्यत्वाद्रूपकवतिः । पूर्वोक्ताभिः स्तनयुगदृष्टिभिर्नाम करते रुद्दीपनात्तयोर्द्वयोः एकाश्रयाऽनुप्रवेशरूपः सङ्करः ।
वन्योः संसृष्टिमुदाहरति--धिन्वन्त्यमूनीति । वसन्तर्तोर्वर्णनमिदम् । मबमूर्च्छदलिनी नि मदेन ( हर्षेण हेतुना ) मूर्च्छन्तः (वर्धमानाः ) अलीना ( नराणाम् ) हनय: ( गुञ्जनानि ) येषु तानि । घृताऽध्वनीनहृदयानि - धूतानि ( कम्पितानि ) मदावेशादिति शेषः । अध्वनीनानां ( पाम्थानाम् ) हृदयानि (चितादि) स्तानि । निस्तन्द्रचन्द्रवदनादिः - निस्तन्द्रः ( निर्गता तन्द्रा - निमीलनं यस्य सः बभ्युदित: ) यः चन्द्र: ( इन्द्र ) स इव वदनं ( मुखम् ) यासां तासां वदनाऽरविन् ( मुखकमलम् ) तस्य सोरम्यं ( सुरभिस्वम् ) तस्य सौहृदं ( सोहार्दम् ) सम्बन्ध इति भाव:, तेन सगर्व: (साऽभिमानः) समीरणः (वायुः) येषु तानि तादृशानि मघो:वसन्ततौः, अमूनि दिनानि - दिवसाः, धिन्वन्ति - प्रीणयन्ति । वसन्ततिलका वृत्तम् ॥
ध्वनिसंसृष्टि विवृणोति — प्रत्रेति । अत्र निस्तन्द्रपदेन तन्द्रारहित उच्यते तन्द्रा ator, चन्द्रे निस्तन्द्रत्वस्य बाध्यमानत्वाज्जहल्लक्षणया प्रकाशरूपोऽर्थो लक्ष्यते, प्रकाशा तिशयबोध: प्रयोजनम् । तच्च व्यञ्जनया प्रतीयते इत्येकोऽत्यन्ततिरस्कृतवाच्यो ध्वनिः । एवं सौहृदगर्वावपि चेतनधर्मौ तयोरचेतने वायो बाधात् सम्बन्धे उत्कृष्टत्वरूपे च जहल्लक्षणा। तयोरतिशयबोधश्च प्रयोजनं तच्च व्यंजनया प्रतीयते । इत्थं च अस्यन्ततिरस्कृत वाच्यरूपाणां त्रयाणां पदगत लक्षणा मूलध्वनीनां मिथोऽनपेक्षया स्थिते: ससृष्टिरेव 11921
=
इस पद्य में स्तन ही पूर्ण कलश और नेत्र ही नये कमलों की मालाएँ इसप्रकार रूपक soft और asafar एक एक पदरूप एक एक आश्रयमें अनुप्रवेश होनेसे ससुर है ॥
दो ध्वनियोंकी संसृष्टिका उदाहरण देते हैं। यह वसन्त ऋतुका वर्णन है। हर्षसे फैलनेवाले भ्रमरोंके गुञ्जनसे युक्त, पथिकोंके हृदयको कम्पित करनेवाले उगे हुए चन्द्रके समान मुखसे युक्त सुन्दरियोंके मुख कमलके सौरभके सम्बन्धसे गर्वयुक्त बायुवाले ऐसे वसन्तके दिन आनन्दित कर रहे हैं ।
इस पंचमें निस्तन्द्र, सौहृद और गर्व शब्द यथाक्रम प्रकाशमान, सादृश्य और उत्कृष्ट इन अर्थों में पर्यवसित होने से अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यलक्षणामूलक ध्वनियोंकी संसृष्टि है ।
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साहित्यदर्पणे
भय गुणीभूतव्वायम्
अपरं तु . गुणीभूतव्यङ्ग्यं वाच्यादनुत्तमे व्यङ्ग्ये । अपरं काव्यम् । अनुत्तमत्वं न्यूनतया साम्येन च संभवति । तत्र स्यादितराङ्ग कायाक्षिप्तं च वांच्यसिद्धयङ्गम् ॥ १३ ॥ संदिग्धप्राधान्यं तुल्यप्राधान्यमस्फुटमगूढम् । व्यङ्गयमसुन्दरमेवे मेदास्तस्योंदिता अष्टौ ॥ १४ ॥
ध्वनि निरूप्य गुणीभूतव्यङ्गयं निरूपयति-अपरं स्विति । व्यङ्ये व्यञ्जनया प्रतिपाने अथे, वाच्याव-अभिधाप्रतिपाचात् अर्थात्, अनुत्तमे = अनुस्कृष्टे सति, गुणीभूतव्यङ्ग्यं - गुणीभूतः (अप्रधानीभूतः) व्यङ्ग्यः ( व्यञ्जनाप्रतिपाद्यः अर्थः) यस्मिस्तव, तन्नामधेयम्, अपरम् = अन्यत्, ध्वनिभिन्नं वा काव्यं भवतीत्यर्थः ।
कारिका विवृणोति-प्रपरमिति । व्यङ्ग्याऽर्थस्य अनुत्तमत्वं च, न्यूनतया बाच्यापेक्षया होनतया, साम्येन चतुल्यत्वेन च संभवति ।
गुणीभूत व्यङ्ग्यस्य भेदानामग्राह निर्दिशति-तंत्र स्यादिति।
तत्र = गुणीभूतव्यङ्ग्ये, इतराऽङ्गम् = इतरस्य ( रसस्य, . भावादेः वा) बङ्गम् ( अवयवः, परिपोषकम् ) इतरानं नाम व्यङ्ग्यम् एकम् । काक्वाक्षिप्तं % काक्वा ( भिन्नकण्ठध्वनिना ) आक्षिप्तम् (कृताक्षेपम् ) व्यङ्ग्यं द्वितीयम् । वाच्य. सिद्धयङ्ग - वाच्यसिद्धः - वाच्याऽर्थस्य सिद्धः (निष्पत्तेः) अङ्गम् (प्रयोजकम् ) माम व्यङ्ग्यं तृतीयम् ॥ १३ ॥ .
सन्दिग्धप्राधान्य - सन्दिग्धं (संशयितम् ) धान्यम् (प्रधानभावः ) यस्य पद, तादृशं व्यङ्ग्यं तच्चतुर्थम् । तुल्यप्राधान्य-तुल्यं (समानम्) प्राधान्यं (प्रधानभावः) यस्य तव व्यङ्ग्यं पञ्चमम् । अस्फुटम् - अध्यक्तं, सहृदयैरपि झटिति अप्रतीयमानमिति भाषा, व्यङ्ग्यं षष्ठम । जगढम् - अतिस्फुटं वाच्याऽयं सदशं व्यङ्ग्यं, सप्तमम्, इति - एवं, तस्य = गुणीभूतव्यङ्ग्यस्य, अष्टौ = अष्टसंख्यकाः, भेदः = प्रकारा, उदिताःकषिताः ॥१४॥
गुणीभूत व्यग्य-जहाँपर वाच्य अर्थसे व्यङ्ग्य अर्थ उत्तम नहीं होता है, वहाँ गुणीभूतव्यङ्ग्य नामक द्वितीय श्रेणीका काव्य होता है । वाच्य अर्थसे न्यून होनेसे पा वाच्य अर्थक तुल्य भावसे रहनेसे व्यङग्य अर्थ अनुत्तम होता है।
गनीमत व्यग्यके भेद-इतराऽङ्ग व्यङ्ग्य, काक्वाक्षि व्यङ्ग्य, वाच्यसिद्धघन व्यङग्य ॥ १३ ॥
सन्दिग्ध प्राधान्य व्यङ्ग्य, तुल्यप्राधान्य व्यङग्य, अस्फुटव्यङ्ग्य, अगूढव्यङ्ग्य, और असुन्दर व्यङ्ग्य इसप्रकार : गुणीभूत व्यङ्ग्य काव्यके आठ भेद होते हैं ॥ १४॥
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यथा-
चतुर्थः परिच्छेदः
इतरस्य रसादेरङ्गं रसादिव्यङ्गयम् ।
'अयं स रसनोत्कर्षी पीनस्तन विमर्दनः । नाभ्यूरुजघनस्पर्शी नीवीविस्रंसनः करः ॥'
३४३
अत्र शृङ्गारः करुणस्याङ्गम् ।
'मानोन्नतां प्रणयिनीमनुनेतुकामस्त्वत् सैन्यसागर रवोद्गतकतापः । हा ! हा ! कथं नु भवतो रिपुराजधानी प्रासादसंततिषु तिष्ठति कामिलोकः ।।'
इतरस्येति । इतरस्य = रसादेर्भावादेर्वा, अगं = रसादिरूपं व्यङ्ग्यं, रसादिव्यङ्ग्यम् ।
=
इतराङ्गमुदाहरति - प्रयमिति । महाभारते भूरिश्रवसः समरपतितं हस्तम - वलोक्य तत्पत्न्या उक्तिरियम् । अयं दृश्यमानः, सः प्रागनुभूतः, रसनोत्कर्षी = रन्तु मेखलोत्कर्षंणशीलः पीनस्वनविमर्दनः = पुष्ट कुच विमर्दकः, नाभ्यूरुजघनस्पर्शी = नाभिस क्षिकटिपुरोभागस्पर्शी, नीवीविस्रंसनः = वसनग्रन्ध्यपसारकः, करः = हस्तः अस्तीति शेषः । अनुष्टुप् । अत्र शृङ्गार रसालम्बनस्य भूरिश्रवसो विच्छेदेन रतेरसाश्रयतया स्मर्यमाणानां शृङ्गाररसाऽङ्गानां शोकोद्दीपकतया करुणाऽनुकूलताऽतः खण्डरसः शृङ्गारः करुणाङ्गम् । करुणविरुद्धोऽपि शृङ्गारः शोकोद्दीपकत्वेनाऽङ्गं भवतीति सप्तमपरिच्छेदे वक्ष्यते । अनुष्टुब् वृत्तम् ।
रसस्य भावाऽङ्ग तथाऽपर मिसराङ्ग व्यङ्ग्यमुदाहरति- मानोन्नतामिति । कस्यचिद्राज्ञ: स्तुतिरियम् । ( हे राजन् ! ) भवतः = तव रिपुराजधानी प्रसाद-- सन्ततिषु = रिपुराजधान्या : ( शत्रु राजधान्याः ), प्रासादसन्ततिषु ( सोधपरम्परासु ) । मानोन्नताम् = उनतमानां प्रणयिनों = प्रियाम्, अनुनेतुकामः = अनुनेतुमिच्छुः । कामिलोकः = कामुक समूहः, त्वत्सैन्यसागररवोद्गत कर्णचापः = तव ( भवतः ) सैन्यसागर: ( सैनिकसमुद्रः ), तस्य रवेण ( शब्देन, कोलाहलेनेति भावः ), उद्गतः
१ उनमें जहाँपर व्यङ्ग्य अर्थ इतर (अन्य ) रस आदिका अड्ग होता है उसे इतराऽङ्ग व्यङ्ग्य कहते हैं। जैसे - महाभारत में समर में भूरिश्रवाके कटे हुए हाथको देखकर उसकी पत्नीकी उक्ति है । मेखलाको खींचने वाला, पुष्ट 'स्तनोंका विमर्दन करनेवाला और नाभि, उरु और जघन (कटिके पूर्वभाग ) का स्पर्श करनेवाला यह हाथ है। आलम्लन ( नायक ) का विच्छेद होनेसे शृङ्गार रस यहांपर इतर (अन्य ) रस करुणका अङ्ग हुआ है, अतः यह इतराऽङ्गव्यङ्ग्य नामक गुणी. भूत व्यङ्ग्यका उदाहरण है ।
दूसरे इतराऽङ्गव्यङ्ग्यका उदाहरण देते हैं। कोई कवि किसी राजाका वर्णन करता है । हे राजन् ! आपके शत्रु राजाकी राजधानीके प्रासादोंमें प्रणयकोप करने
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३४४
साहित्यदर्पणे
अत्रौत्सुक्यत्राससन्धिसंस्कृतस्य करुणस्य राजविषयरतावतभावः। 'जनस्थाने भ्रान्तं कनकमृगतृष्णान्धितधिया
वचो वैदेहीति प्रतिपदमुदा प्रलपितम् । ( उत्सनः ) कर्णतापः (श्रोत्रेन्द्रियपीडा ) यस्य सः, तादृशः सन्, कथं = केन प्रकारेण, तिष्ठति नु = विद्यते नु। हा हा = कामिलोकस्य शोच्यत इति भावः । वसन्तः तिलका वृत्तम् ।
विवृणोति-पत्रेति । अत्र = अस्मिन् पद्ये । औत्सुक्यत्राससन्धिसंस्कृतस्य = प्रथमपादेन औत्सुक्यं, द्वितीयपादन च त्रासो व्यज्यते, अत: औत्सुक्यवासयोः यः सन्धिः (सङ्गमः ), तेन संस्कृतस्य ( परिपोषितस्य ) करुणस्य, राजविषयरतो = वर्ण्यमान: राजविषयकाऽनुरागे, अङ्गभावः = अङ्गस्वम् । अत्र करुणस्योत्सुक्यादीनां भावानामगर स्वमेव । तेषामपि पायार्थानां वाच्यार्याऽतिशायित्वाऽमावेन गुणीमूतव्ययत्वम् । बसन्ततिलका वृत्तम् ।
___ शब्दशक्तिमूलकवनेच्याऽर्थाऽङ्गतामुदाहरति-जनस्थान इति। धनार्थ प्रयतमानस्य निराशय कस्यचिद्दरिद्रस्योक्तिरियम् । नकमृगतृष्णाऽन्धितधिया = कनके (घने ) या मृगतृष्णा (प्राप्तीच्छा !, तया अन्धिता ( तत्वज्ञानाऽसम कृता) घीः ( बुद्धिः ) यस्य, तेन तादृशेन, मया, जनस्थाने = जनानाम् (आयजनानाम् ) स्थाने, प्रान्तं = भ्रमणं कृतम् । प्रतिपदं = प्रत्याउघस्थानं, देहि = वितर, इति, वय:वचनम्, उदश्रु-उद्गतम् अश्रु ( नयनसलिकम् ) यस्मिन् कणि तबथा तथेति किया विशेषणम् । प्रतिपर्द - प्रतिवरणन्यासं, प्रलंपित-प्रलापः कृतः । निरर्थकत्वेन उन्चरितम्
वाली अपनी नायिकाको मनानेकी इच्छा करनेवाला कामुकसमूह उसी समय आपके सेनाः रूप समुद्रके कोलाहलसे कानमें सन्ताप उत्पन्न होने से किस प्रकार रहता है हाय! हाय !"
- इस पद्यमें प्रथम चरणमें औत्सुक्य और द्वितीय चरणमें त्रास व्यङ्ग्य होता है • इसप्रकार ओत्सुक्य और बासकी सन्धिसे परिपोषित करुणरसका राजविषयक रति
( अनुराग में अङ्गभाव है। शब्दशक्तिमूलक वनिको इतर ( वाच्यार्थ) की अङ्गताका उदाहरण देते हैं । धनके लिए प्रयत्न करनेवाले किसी निराश दरिद्रको उक्ति है । इस पद्यमें वक्ता और राममें सादृश्य दिखलाया है । वक्ताके पक्षमें -सुवर्ण पानेकी मृगतृष्गासे अन्धी बुद्धि होनेसे जनोंके स्थान ( अनेक देश) में भ्रमण किया। रामके पक्षमें - सोनेके मृग ( मारीच ) को पानेकी तृष्णासे अन्धी बुद्धि होनेसे जनस्थान अर्थात् दण्डकारण्य के एक भागमें भ्रमण किया । वक्ताके पक्षमें - देहि == दो ऐसा वचन पग पगमें आँखों में आंसू भर कर कहा । रामके पक्ष में-हे देहि = हे सीते ! ऐसा वचन पग पगमें आँसू भरकर कहा । वक्ताके पक्षमें-भा अर्थात् धनसम्मन्न स्वामोकी मुख:
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चतुर्थः परिच्छेदः ।
कृता लङ्काभर्तुर्वेदनपरिपाटीषु घटना ।
मयाप्तं रामत्वं कुशलवसुता न त्वधिगता ॥' अत्र रामत्वं प्राप्तमित्यवचनेऽपि शब्दशक्तरेव रामत्वमवगम्यते । वचनेन तु सादृश्यहेतुकतादात्म्यारोपणमाविष्कुर्वता तद्गोपनमपाकृतम् । भर्तुः = धनसम्मन्नस्य, जातावेकवचनम् वदनपरिपाटीषु = मुखाद्यवयवाऽनुक्रमेषु, का - कीदृशी, घटना = संघटनक्रिया, अलं = पर्याप्तं यथा तथा, कृता = विहिता । मया रामत्व प्राप्तं, परं कुशलवसुता ता = कुशलं (निपुणं, दारिद्रयाऽपनोदकमिति भावः) वसु (धनम् ) यस्य सः, तस्य भावस्तत्ता धनसमृद्धिरिति भावः । न अधिगता - न प्राप्ता।
रामपक्षे-कनकमृगतृष्णाऽन्धितधिया = कनकमृगः ( सुवर्णहरिणः; मारीच इति भावः) तस्मिन् या तृष्णा ( लालसा) जनकसुताऽभिलषितपूरणायिकेति भावः। तया अन्धिता ( विवेकदृष्टिरहिता ) धीः ( बुद्धिः ), तया । जनस्थाने =दण्डकारण्यकता देशे, भ्रान्तं = भ्रमणं कृतम् । प्रतिपदं = प्रतिपादन्यासं, हे वैदेहि = हे सोते ।। उदश्रु = उद्गतनयनजलं यथा तथा, प्रलपितं =प्रलापः कृतः । एवं च लङ्काभतु:लक्षाऽधिपतेः, रावणस्येत्यर्थः वदनपरिपाटीपुघटना = वदनानां (मुखानाम् ) परिपाटयाम् (पङ्क्ती ) इषुघटना ( बाणसंघटना ), कृता = विहिता। इत्थं च मया रामत्वं दाशरथित्वम्, आप्त, प्राप्तम्, तु-परन्तु, कुशलवसुता कुशलवी (तदाख्यौ) सुतो (पुत्री ) यस्याः सा, तादृशी सीता, न अधिगतान प्राप्ता । शिखरिणी वृत्तम् ।
गुणीभूतत्वं विशदयति-प्रति । अत्र = अस्मिन् पद्य, "रामत्वं प्राप्तम्" इति अवचनेऽपि = अप्रतिपादनेऽपि । शब्दशक्तेरेव = सरूप:ब्दसामर्थ्यादेव, रामत्वं = रामसादृश्यम्, अवगम्यते = व्यञ्जनया जायते । वचनेन तु = "मयाऽऽप्तं रामत्वम्" इति वाक्येन तु, सादृश्यहेतुकतादात्म्यारोपणं = साम्यकारणकरामाऽभेदारोपम्, आवित परम्परामें दैन्यपूर्ण नेष्टा पर्याप्य की। रामके पक्षमें - लङ्काभर्ता (रावण ) के वदनपरिपाटी ( मुखपाक्त ) में इषुघटना अर्थात् बाणका प्रहार किया । वक्ताके पक्ष मेंइसप्रकार मैंने रामत्व अर्यात् गमभाव तो प्राप्त कर लिया पर कुशलवसुता अर्याद धनाढयता नहीं पाई, रामपक्ष में कुशलवसुता अर्थात जिसके कुश और लव सुत (पुत्र) हैं ऐसो सीताको नहीं पाया ।।
___ इस पद्यमें वक्ताके "रामत्वं प्राप्तम्” अर्थात् मैंने रामभाव तो प्राप्त कर लिया ऐसा न कहनेपर भी तुल्यरूप शब्दोंके सादृश्यसे ही उसमें रामत्वका बोध हो जाता। परन्तु पूक्ति वाक्यसे तो शब्द सादृश्यसे होने वाला रामके साथ उसका तादात्म्य शब्दसे ही प्रकाशित हो गया, व्यञ्जनासे होनेवाला उसका गोपन खण्डित हुआ । इस कारण वक्ताका रामके सादृश्य वाच्य होकर रामके सादृश्यके प्राप्तिरूप वासार्यक
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साहित्यदर्पण
तेन वाच्यं सादृश्यं वाक्यार्थान्वयोपपादकतयाङ्गतां नीतम् । . काकाक्षिप्तं यथा'मध्नामि कौरवशतं समरे न कोपा दुःशासनस्य रुधिरं न पिबाम्युरस्तः। संचूर्णयामि गदया न सुयोधनोरू सन्धि करोतु भवतां नृपतिः पणेन ।' ___ अत्र मध्नाम्येवेत्यादिव्यङ्गय वाच्यस्य निषेधस्य सहभावेनैव स्थितम् । उकुर्वता = प्रकाश्यता, तद्गोपनं = रामसादृश्यगृहनम्, अपाकृतं = खण्डितम् । तेन = कारणेन, वास्यं = बाच्यवझटिति प्रतीयमानं, सादृश्यं = वक्तरि रामसदृशस्वं, वाक्याऽर्थाऽन्वयोपपादकतया वाक्याऽयंस्य ( रामसादृश्यप्राप्तिरूपस्य ) अन्वयोपपादक. सया ( सम्बन्धसाधारया ), wङ्गता = गुणीभूतता, नीतं = प्रापितम् । अतो व्यङ्ग्याऽर्थरूपस्य वक्तरि रामसादृश्यस्य गच्याऽर्थाऽतिशायिस्थाऽभावेन गुणीभूतव्यङ्ग्यत्वं प्रतीयत इति भावः।
काक्वाक्षिप्तं गुणीभूतव्यङ्ग्यमुदाहरति.-मनामीति। वेणीसंहारनाटके दुर्योधनेन समं युधिष्ठिरस्य सन्धिप्रवृत्ति धृत्वा कुपितस्य भीमसेनस्य सहदेव प्रत्युक्ति. रियम् । समरे = युद्धे, कोपात = क्रोधाद्धेतोः, कोरवशतं = कोरवाणां (दुर्योधनादीनां). शतं, न मध्नामि = पूर्वप्रतिज्ञामनसृत्य न मथिष्यामि, मथिष्याम्येव, एवं परत्राऽपि । "वर्तमान सामीप्ये वर्तमानवद्वा" इति भविष्यदर्थे लट् । दुःशाशनस्य दुर्योधनमध्यमा:मुजस्य, उरस्तः वक्षःस्थलाद, धिरं = रक्तं, न पिबामिन पास्यामि ? स्याम्येव । एवं च गदया कासूनामकाऽऽयुधविशेषेण, सुयोधनोरू = दुर्योधनसक्थिनी, न संचूर्ण. यामि = न संचूर्णयिष्यामि ? संचयिष्याम्येव । भवतां = युष्माकं, नृपतिः = राजा अधिष्ठिरः, पणेन = इन्द्रप्रस्थादिनामपनकग्रहणरूपेण सन्धि - पणबन्धं, करोतु - विदधातु । वसन्ततिलका वृत्तम् ॥
काकुव्यङ्गपविणोति-प्रोति । अत्र अस्मिन् पो मध्नामि एव इत्यादिव्यङ म्यं = व्यञ्जनाप्रतिपाद्य वस्तु, वाच्यस्य % अभिधावृत्तिप्रतिपाचस्य, निषेधस्य - न मनामीति मक्यरूपस्य, सहभावेन = साहित्येन, स्थितं = विद्यमानम, अस्तीति अन्वयमें उपपादक होनेसे वाच्याऽर्थका अङ्ग हो गया है। अतः गुणीभूतमय काव्य हुआ । काक्वाक्षिप्त व्यङ्ग्य जैसे-मध्नामि । वेणीसंहार नाटकमें दुर्योधनके साथ युष्टिष्ठिरकी सन्धिका वृत्तान्त सुनकर सहदेवके प्रति भीमसेनकी उक्ति है । युद्धमें क्रोधसे सैकड़ों कारोंका मथन नहीं करूंगा? दुशासनकी छातीसे रुधिर नहीं पियूगा? गदासे दुर्योधन के ऊरओंको चूर चूर नहीं करूंगा? आपके राजा ( युधिष्ठिर ) इन्द्रप्रस्थ आदि पांच ग्रामोंको लेनेकी शर्तपर सन्धि कर लें। . इस पहमें "ध्नामि एव", इत्यादि व्यङ्ग्य ( व्यञ्जनासे प्रतिपाद्य ) वस्तु
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चतुर्थः परिच्छेदः
'दीपयन् रोदसीरन्ध्रमेष ज्वलति सर्वतः।
प्रतापस्तव राजेन्द्र ! वैरिवंशदवानलः ॥' अत्रान्वयस्य वेणुत्वारोपणरूपो व्यङ्गयः प्रतापस्य दावानलत्वारोपसिद्धयङ्गम् ।
'हरस्तु किंचित्परिवृत्तधैर्य:--' (पृ० २८४) इत्यादौ विलोचनन्यापारधुम्बनाभिलाषयोः प्राधान्ये सन्देहः । शेषः । अतो ध्वनित्वं निरस्तमिति भावः । अस्य काक्वाक्षिप्तिगुणीभूतव्यङ्ग्यस्य गूढ-. घ्यङ्गयस्याऽन्तःपातित्वेऽपि काकुरूपवैचित्र्यस्य विशेषत्वात्पार्थक्येन ग्रहणम् ।
वाच्यसिद्धयङ्ग गुणीभूतव्यङ्गयमुदाहरति-वीपयन्निति । कश्चित्कविः कंचिद्राजान प्रशंसति । हे राजेन्द्र = हे नपश्रेष्ठ !, वैरिवंशदवाऽनलः = वैरिणः (शत्रोः ) बंश: (कुलम् ) एव वंशः ( वेणुः ), तत्र दावाऽनलः ( वनाऽग्निस्वरूपः )। एषः अयं, तवमवतः प्रतापः = तेज, रोदसीरन्ध्र = रोदस्योः ( द्यावापृथिव्योः । रन्ध्रम् (छिद्रम्, अवकाशमित्यर्थः ), दीपयन् = प्रकाणयन्, सर्वतः = समन्तात, ज्वलति = दीप्यते । अनुष्टुब् वृक्तम् ॥
वाच्य सिद्धघनमुपपादयति-प्रति । अत्र = अस्मिन् श्लोके, अन्वयस्य = "सन्ततिर्गोत्रजननकुलान्यभिजनान्वयो। वंशोज्ववायः सन्तानः" इत्यमरात् वंशशब्द.. पाच्यस्य कुलस्य वेणुस्वाऽऽरोपणरूपः = वंशत्वारोपस्वरूपः, व्यङ्गयः = व्यञ्जनावृत्ति, प्रतिपाद्यः अर्यः, प्रतापस्य - राजतेजसः, दावाऽनलत्वाऽरोपसिद्धयङ्गम् = दावाऽनलस्वाऽऽरोपसिद्धः (वनाऽग्नित्यारोपणसिद्धः), वाच्यार्यस्य अङ्गम् (प्रयोजकः),. अतः व्यङ्गयाऽर्यस्य वाच्यसिद्धेरङ्गत्वेन चमत्काराऽतियित्वाऽभावेन वाच्यसिद्धयङ्ग माम गुणीभूतव्यङ्गयमुदाहृतम् ।
सन्दिग्धप्राधान्य नाम दुणीभूतव्यङ्गयमुदाहरणनिर्देशन उपपादयतिहरस्त्विति । उद्बुद्धमात्रस्थायिभावस्योदाहरणे कुमारसंभवस्थं पद्यमिदं तृतीयपरि-- च्छेदे ( २८४ पृष्ठे ) प्रदर्शितम् । आकालिकवसन्तप्रवृत्ती पार्वती पश्यतो परस्य धैर्य-. वाच्य ( अभिधावृत्ति से प्रतिपाय ) बस्तु "न मथ्नामि” इसके सहभावसे स्थित होनेसे यह गुणीभूतव्यङ्ग्य हुआ।
बाच्यसिद्धचा व्यङग्य-दीपयन् । कोई कवि किसी राजाकी प्रशंसा करता है । हे राजेन्द्र ! शत्रुके वंश (कुल) ही जो वंश ( बांस ) उसको जलानेमें बनके अग्निस्वरूप आपका प्रताप आकाश और पृथिवीके मध्यभागको प्रकाशित करता हया चारों ओरसे प्रदीप्त हो रहा है।
- यहाँपर वंश (कुल) में वंश ( बांस ) का आरोप व्यङ्ग्य है वह प्रेतापमें दावानरवके आरोपरूप वाच्यार्थकी सिद्धिका अङ्ग है अतः गुणीभूतव्यङ्ग्य हुआ है।
- सन्दिग्धप्राधान्य व्यङ्ग्य-"हरस्तु किञ्चित्परिवृत्त.” (पृ. २८४ ) ।
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३४८
साहित्यदपणे
'ब्राह्मणातिक्रमत्यागो भवतामेव भूतये।
जामदग्न्यश्च वो मित्रमन्यथा दुर्मनायते ॥' अत्र परशुरामो रक्षाकुलक्षयं करिष्यतीति व्यङ्गयस्य पाच्यस्य च समं प्राधान्यम्।
'सन्धौ सर्वस्वहरणं विग्रहे प्राणनिग्रहः । विपर्ययवर्णनमिदम्, अत्र हरस्य उमामुखे विलोचनव्यापारो वाच्यः (अभिधाप्रतिपाय). मुखमात्रे विलोचनव्यापारात चुम्बनाऽभिलाषः व्यङ्गयः (प्यजनाप्रतिपाय:), तयार विलोचनव्यापारचुम्बनाऽभिलाषयोः ( वाच्यव्यङ्गयाऽर्षयोः) प्राधान्ये - प्रधानभावे। सन्देहः, अत इदं सन्दिग्धप्राधान्यं नाम गुणीभूतव्यङ्गयमित्युपपद्यते।
___ तुल्यप्राधान्यं नाम गुणीभूतम्यङ्गयमदाहरतिमाह्मणातिकम इति। महावीरचरित नाटके रावणं प्रति परशुरामस्य सन्देशोक्तिरियम् । ब्राह्मणाऽतिक्रमत्यावःब्राह्मणानाम् (विप्राणाम ) अतिक्रमः ( उल्लङ्घनं, परामव इति भावः ), तस्य त्यावर (हानम् ), भवताम् एव = युज्माकं राक्षसानाम् एव, भूतये - ऐश्वर्याय, कल्याणायेति भावः । भविष्यति । अन्यथा = अन्येन प्रकारेण, ब्राह्मणाऽतिक मे सतीति भावः ।% युष्माकं, मित्र-सखा, परशुरामस्य रावणस्य चेत्युभयोरपि शिवोपालकत्वेन मित्रत्वमिति। बामदग्न्यः जमदग्नेरपत्य पुमान्, "गर्गादिभ्यो यम्" इति यम् । परशुराम इति भावः। दुर्मनायते = दुर्मना इव आचरति, "क: क्यङ्मलोपत्र" इति क्यमत्ययः सलोपन लट् च । विमना भविष्यतीति भावः । अनुष्टुर वृत्तम् ।
तुल्यप्राधान्यसुपपादयति-अत्रेति। अत्र = अस्मिन्गलोके परशुरामः रम:कुलक्षयं - राक्षसवंशनाशं, करिष्यतीति "दुर्मनायत" इति पदप्रतिपा बस्य व्यङ्गयस्य मित्रमित्यनेन मित्रब्राह्मणाऽतिक्रमस्यागजन्यस्य विभूतिप्राप्तिरूपस्य वाच्यस्य च तुल्पप्राधान्यात्तुल्यप्राधान्यरूपं गुणीभूतव्य ग्यमुदाहृतम् ।
अस्फुटव्यङ्ग्यरूपं गुणीभूतव्यङ्ग्यमुनाहरति-सन्चाविति। सन्धी = पणबन्धे, अल्लावदीनाख्येन खिलजीवंशोद्भवेन यवनाऽधिपतिना सहेति शेषः, सर्वस्वइत्यादि पद्यमें पार्वती के मुख में महादेवका विलोचनव्यापार वाच्य है और चुम्बनाsभिलाष व्यङ्ग्य है इस प्रकार वाच्यार्थ और व्यङ्ग्याऽर्यके प्राधान्यमें सन्देह होनेसे गुणीभूत व्यङ्ग्य हुआ है।
तुल्यप्राधान्य व्यङ्ग्य-"ब्राह्मणाऽतिक्रम"। महावीरचरित नाटक रावणके प्रति परशुरामके सन्देशका वर्णन है। ब्राह्मणोंके उल्लङ्घनका त्याग तुम्हारे ही ऐश्वय के लिए है, नहीं तो मित्र परशुराम विरक्त हो जायेंगे।
इस पद्यमें "परशुराम राक्षस वंशका क्षय कर देंगे" इस व्यङ्ग्यका और यथाश्रुत वाचा अर्थ का भी तुल्य प्राधान्य होनेसे गुणीभूतव्यङ्ग्य हुआ है।
प्रस्फुटव्यङग्य-"सन्धौ०"। राधि करनेर सर्वस्वहरण और विग्रह
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पतुः परिच्छेदः
३४९
अल्लावदीननृपतो न सन्धिर्न च विग्रहः ।।' अत्राल्लावदीनाख्ये नृपतौ. दानसामादिमन्तरेण नान्यः प्रशमोपाय इति व्यङ्गय व्युत्पन्नानामपि मटित्यस्फुटम् ।
अनेन लोकगुरुणा सतां धर्मोपदेशिना।
अहं व्रतवती स्वरमुक्तेन किमतः परम् ? ।' अत्र प्रतीयमानोऽपि शाक्यमुनेस्तिर्यग्योषिति बलात्कारोपभोगःहरणं - सकलसम्पतिग्रहणं, विग्रहे - तेनैव सह युद्धाचरणे, प्राणनिग्रहः = प्राणदण्डः, बतः बल्लाउदीननृपतीतदाख्ये राजनि, न सन्धिः न विग्रहः, कर्तव्य इति शेषः । बनुष्टुब् वृत्तम् ।
___ अस्फुटव्यङ्ग्यमुपपादयति-प्रति । अत्र अस्मिन् पर्छ । अल्लावदीनाख्येवनामके, नृपतौ राज्ञि, दानसामादिम् अन्तरेण = वितरणसान्त्वप्रयोगं विना, न बन्यः = अपरः, प्रशमोपायः = शान्त्युपायः, इति व्युत्पन्नानाम् अपि = विदग्धानाम् बपि, मटिति - शीघ्रम्, अस्फुटम् - अध्यकम् अतः अस्य वाच्यात् = अर्थात् अनुत्ता पत्वमतः अस्फुटव्यङ्ग्यस्य गुणीभूतव्यङ्ग्यस्योदाहरणमिदम् ।
___अगूढव्यङ्ग्यं नाम गुणीभूतव्यङ्ग्यमुदाहरति-अनेनेति । शाक्यमुनिना बलादुपमुक्तायास्तियंग्योषित उक्तिरियम् ।
सता = शिष्टानां, धर्मोपदेशिना = धर्मोपदेशकेन, लोकगुरुणा-जनाचार्येण; अनेन - शाक्यमुनिना, व्रतवतो = पातिव्रत्यवियमयुक्ता, अहम्, अतः परम् - अस्मात् अधिकं, स्वरं = स्वच्छन्दं यथा तथा, उक्तेन - कथितेन, वृत्तान्तेनेति शेषः, कि- कि प्रयोजनमिति भावः । पतिव्रतया स्वदूषणं स्फुटं न वक्तव्यमिति भावः । अनुष्टुब् वृत्तम्।
अगूढव्यङ्ग्यं विवणोति-प्रोति । बत्र - अस्मिन् पो । प्रतीयमानोऽपिव्यञ्जनावत्या ज्ञायमानोऽपि । शाक्यमुनेः = शाक्यसिंहस्य, निर्यग्योषिति = तिर्यग्जाति( युद्ध) करनेपर प्राणदण्ड राजा ( अल्लावदीन खिलजी ) में न सन्धि और न तो विग्रह ही उचित है।
इस पद्यमें अल्लावदीन नामके राजामें दान और साम आदिके विना और उपाय शान्ति के लिए नहीं है यह व्यङ्ग्य अर्थ चतुर जनोंकी भी शीघ्र स्फुट ( व्यक्त) नहीं है अतः यह अस्फुटव्यङ्ग्य है ।। ...अगढ व्यङग्य-"अनेन"। शाक्यमुनिसे बलात्कारपूर्वक उपभुक्त किसी
नीच जातिकी स्त्रीकी उक्ति है। लोकके गुरु सज्जनोंको धर्मका उपदेश करनेवाले .. इन्होंने पातिव्रत्य से युक्त मुझे जबर्दस्तीसे इसके बाद कहनेसे क्या? इस पद्यमें शाक्य
मनिका नीच जाति की स्त्रीमें बल पूर्वक उपभोग ध्यङ्ग्य होकर भी स्पष्ट होनेसे वाच्यके
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साहित्यदर्पणे
स्फुटतया वाच्यायमान इत्यगूढम् ।
'वाणीरकुडगुड्डीणसउणिकोलाहणं सुणन्तीए ।
घरकम्मवावडाए बहुए सीअन्ति अङ्गाई।' अत्र दत्तसंकेतः कश्चिल्लतागृहं प्रविष्ट इति व्यायात् 'सीदन्त्यमानि' इति वाच्यस्य चमत्कारः सहृदयसंवेद्य इत्यसुन्दरम् । स्त्रियां, बलात्कारोपमोगः = हठपूर्वक धर्षण, अङ्ग्य स्फुटतया = व्यक्ततपा, वा बाक्षेपाऽलकारमहिम्ना, वाच्यायमानः = वाच्यवत् पाचरन्, प्रतीपते इति अगूढं नाम गुणीभूतव्यङ्ग्यमुदाहृतं भवति। . असुन्दरं व्यङ्ग्यं नाम गुणीभूतव्यङ्ग्यमुदाहरति-वाणीरेति।
"वानीरकुञोड्डीनशकुनिकोलाहलं पृण्वन्त्याः ।
गृहकर्मव्यापृताया वध्वाः सीदन्त्यङ्गानि ॥” इति संस्कृतच्छाया । वानीरकुञ्ज उपनायके कृतसङ्केतायाः परं गृहकार्यव्यग्रतया गन्तुमभक्ताया नायिकाया अवस्थावर्णनमिदम् । वानीरकुजोड्डोनशकुनिकोलाहलं = वानीरकुजाता (वैतसलवाग्रहाव) उड्डीनाः (उत्पतिताः) नायकागमनण्यापारेणेति शेषः। ये शकुनयः (पक्षिणः ) तेषां कोलाहलम् (कलम् )। शुजन्स्याः = बाकर्णयन्त्याः, गृहकर्मव्यापृतायाः - गृहकर्मणि (गेहकृत्ये ) व्यापृतायाः ( व्यायाः), वध्वाः-नायिकाया बङ्गानि = देहाऽवयवाः, सीदन्ति = अवसाद प्राप्नुवन्ति । गापा वृत्तम् ।
___ बसुन्दरं गुणीभूतव्यङ्ग्यं विवृणोति-पति। बत्र - अस्यो गाथायां, दत्त, सङ्केतः - दत्तः सङ्केतो यस्मै सः, गृहीतसंकेतः, कश्रित - पुरुषः लतागृहं - वानीरकुज, प्रविष्टः - कृतप्रवेशोऽस्ति इति व्यङ्ग्यात्-व्यञ्जनावृत्तिप्रतिपावादाद, सीदन्ति अङ्गानि इति सर्वाङ्गाऽवसादप्रसरणरूपस्य वाच्याऽर्थस्यैव उत्कण्ठाऽतिशयसमान अगूढ हो गया है इसलिए यह गुणोभूत व्यङ्ग्य हुआ है।
सुन्दर व्यङग्य-वेतके लतागृहमें उड़े हुए पक्षियोंका कोलाहल सुननेवाली घरमें काममें व्यग्र वधूके अङ्ग शिथिल होते हैं। इस पबमें आनेके लिए सङ्ग्रेसको पाया हुआ कोई पुरुष लतागृहमें पहुंच गया इस व्यङ्ग्य अयंसे "सीइन्स्यङ्गानि" अर्थाव सुकुमारताके कारण विड़ियोंके कोलाहलसे उसके अङ्ग शिथिल हो जाते हैं - ऐसे वाच्य अर्थका चमत्कार सहृदय जनोंसे संवेदनोप है इसलिए यह गुणीभूतम्यङ्ग्य हुमा है।
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चतुर्थः परिच्छेदः
किश्च यो दीपकतुल्ययोगितादिषूपमाघलङ्कारो व्यायः स गुणीभूतव्यङ्गय एव । काव्यस्य दीपकादिमुखेनेव चमत्कारविधायित्वात् । तदुकं ध्वनिकता
'अलङ्कारान्तरस्यापि प्रतीतो यत्र भासते।
तत्परत्वं न काव्यस्य नासौ मार्गो ध्वनेर्मतः॥' यत्र च शब्दान्तरादिना गोपनकृतचारुत्वस्य विपर्यासः। पर्यवसन्नत्वासौन्दर्यमिति वाच्यस्य चमत्कारः, सहृदयसंवेदः = सहृदयः ( हृदयालुभिः) संवेवः (संवेदनीयः ) इति असुन्दरं गुणीभूतव्यङ्ग्यम् । ___असुन्दरगुणीभूतव्यङ्मयस्य उदाहरणान्तराणि दर्शयति-किञ्चेति। दीपकतुल्ययोगिताऽऽदिषु-अलङ्कारेषु, २ उपमाद्यलङ्कारो व्यङ्ग्यः = व्यञ्जनया प्रतिपाद्यः, स गुणीभूतव्यङ्ग्य एव । अत्र हेतु प्रदर्थयति-वाच्यस्य - अभिधावृत्तिप्रतिपाद्यस्य अर्यस्य क्वचित् "काव्यस्य" इति पाठान्तरम् । दीपकादिमुखेन एव = दीपकतुल्ययोगितादिद्वारेण एव । अत्र एवपदेन व्यम्योपमादिव्यावृत्तिः । चमत्कारविधायित्वात-चमकास प्रतिपादकत्वात् । अत्राऽर्षे ध्वनिकृत्संवादं प्रदर्शयति-प्रलकारान्तरस्येति ।
यत्र-यस्मिन् स्थले, अलङ्कारान्तरस्य = प्रदशितेऽलकारे बन्यस्य बलका कारस्य, प्रतीतो अपि - व्यञ्जनया ज्ञाने सत्यपि, काव्यस्य, तत्परत्वं = ब्यङ्ग्याऽ. लङ्कारपरत्वं, न भासते = न प्रतीतं भवति, ध्वनेः = ध्वमिकाव्यस्य; मार्गः विषयः न मतः - न अभिमतः, प्रत्युत गुणीभूतव्यङ्ग्यविषय इति भावः ।
'गुणीभूतव्यङ्ग्यप्रकारान्तरं दर्शयितुमुपक्रमते-यत्र चेति। यत्र - यस्मिन् स्थले, शब्दान्तरादिना = अन्यशब्दादिना, गोपनकृतचारुत्वस्य = गोपनेन ( ब्यजना, वृत्त्या जनितेन गहनेन ) यत् चामत्वं ( चमत्कारजनकत्वम् ), तस्य, विपर्यासः - विपर्ययः, सोऽपि गुणोभूतब्यङ्ग्य एव इति पूर्वेणाऽन्वयः ।।
कि चेति । दीपक और तुल्ययोगिता आदि अलङ्कारों में जो उपमा अलङ्कार व्यङ्गय है वह गुणीभूतव्यङ्ग्य ही है, व्यङ्ग्य ( मुख्य ध्वनि ) नहीं, क्योंकि दीपक आदि अलङ्कारोंके द्वारा चमत्कारकी प्रतीति होती है। जैसे कि ध्वनिकार ( आनन्द. वर्द्धनाचार्य ) ने कहा है-जहाँपर प्रदर्शित अलङ्कारमें व्यसनासे दूसरे अलङ्कारको प्रतीति होनेपर भी काव्यमें उसमें चारुत्वका तात्पर्य नहीं भासित है यह ध्वनिका मार्य नही है । अर्थात् वह गुणीभूत ध्यङ्ग्यका ही विषय है ।
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११२
साहित्यदर्पणे
यथा'दृष्टया केशव ! गोपरागहतया किंचिन्न दृष्टं मया
तेनात्र स्खलितास्मि नाथ ! पतितां किं नाम नालम्घसे एकस्त्वं विषमेषु खिन्नमनसां सर्वाबलानां गति___ उदाहरति-दष्ट्यति । केशवं प्रति कस्याश्चिद्गोप्या उक्तिरियम् । हे केशव हे कृष्ण !, मया गोपरागहतया = गवां (धेनूनाम् ) परागा: (पादीस्थितधूलयः ), तेः हतया ( दर्शनशक्तिरहितया दृष्टया नेत्रेण, किञ्चित् =मार्गदिकं, न दृष्टं-न अवलो. किताः । तेन-दर्शनाऽभावेन, अत्र = अस्मिन् स्थले, तव अग्रे इति भावः । स्खलिना = पतिताऽस्मि पतितां मामिति शेषः । कि = किमर्थ, न आलम्बसे = नो घारसि ? विषमेषु = वातवर्षाऽदिसङ्कटेषु, खिन्नमनसां = विषण्णचिताना, सर्वाऽबलानां 3 सर्वेषाम् ( समेषाम् ) अबलानां ( वलरहितानाम् ), त्वं = भवान्, एकः = एकमात्रमः एव, मति: - रक्षकः।
- शिलष्टाऽयों यथा-गोपरामहतया = गोपे (गोणले, भवति ) यो रागः अनुरागः ), तेन हेतुना हृतया ( आकृष्ट्या ) तादृग्या दृष्ट्या = ज्ञानेन, मया किञ्चित् = पतिकुलादिकं किमपि न दष्टं = नो विमृष्टम् । तेन - कारणेन, अत्र = बासु गोपी मध्ये, स्खलिता - पतिता. अस्मि, मर्यादामार्गादिति शेषः । हे नाथ!; पतितां = भवच्चरणपतितां मां = गोपी, कि= किमर्थ, न आलम्बसे = अनुगृह्मासि ।
परस्त्रियां मदनुग्रहो नोचित इति चेत्तत्राह-एक इति । विषयेषु-खिन्नमनसां= विषमाः (पञ्चसंख्यकाः ) इषवः (बाणाः) यस्य स विषमेषुः (कामः ), तेन खिन्नं (पीडितम् ) मनः (चित्तम् ) यासा, तासाम् । सर्वाऽवलानां = सर्वासाम् ( सकलानाम ) अबलानाम् / स्त्रीणाम् ), एक:- एकमात्र, स्वम् एव गतिः = गन्तव्यस्थानं, गुणीभूत व्यङ्ग्यका दूसरा प्रकार दिखलात है। दष्टयति । श्रीकृष्णजीके प्रति किसी गोपीकी उक्ति है । हे केशव ! गायोंके खुरोंको धूलिसे देखनेकी शक्तिसे रहित नेत्रसे भने कुछ भी नहीं देखा इसलिए मैं यहाँ पर गिर पड़ी हूँ। गिरी हुई मुझें आप क्यों. सहारा नहीं देते हैं ? सजाटोंमें पड़कर खिन्न वित्तवाले सव निबंश जनोंके आप एक मात्र गति ( रक्षक ) हैं। इस प्रकार गोपीसे गोष्ठमें लेह (पलेष ) से कहे गये श्रीकृष्ण तुम लोगोंकी चिरकाल तक रक्षा करें।.. .
....निष्ट दूसरा अर्थ जैसे-स्वयं दूती गोपी कृष्णजीसे कहती है-है केशव ! गोपरूप आपके अनुरागसे आकृष्ट होनेसे मैंने पति; कुल आदि कुछ भी नहीं देखा। इस कारणसे मैं सदाके मार्गसे फिसल गई हूँ, हे नाथ ! आपके चरणमें पड़ीहुई मुझको आप क्यों नहीं सहारा दे रहे हैं ? विषम वाणवाले कामदेवसे खिन्न मनसे युक्त
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चतुर्मः परिच्छेदः
३५३
गोप्यैवं गदित' सलेशमवताद् गोष्ठे हरिर्वश्विरम् ॥' । अत्र गोपरागादिशब्दानां गोपे राग इत्यादिव्यङ्गयार्थानां सलेशमिति पदेन स्फुटतयावभासः । सलेशमिति पदस्य परित्यागे ध्वनिरेव ।
किञ्च । यत्र वस्त्वलङ्काररसादिरूपव्यङ्गथानां रसाभ्यन्तरे गुणीमावस्तत्र प्रधानकृत एव काव्ययवहारः। तदुक्तं तेनैव
_ 'प्रकारोऽयं गुणीभूतव्यङ्ग्योऽपि ध्वनिरूपताम् । बदनपीडाऽपहारकत्वादिति भावः । इत्थं च गोष्ठे-व्रजे, गोप्या = गोपवधूट्या एवम् =
प्रकारेण, सलेशं = सश्लेषं, गदितः = अभिहितः, हरिः = कृष्णः, वः = युष्मान्, विरं = बहुकालपर्यन्तम्, अवता = रक्षतात् शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।
बस्य पयस्य गुणीभूतव्यङ्गपत्वं स्फुटयति-प्रति। अत्र = अस्मिन् पद्य, प्रोपरागादिशब्दानां = पूर्व प्रतिपादितामाम् । गोपे राग इत्यादिव्यङ्गयाऽर्थानाम् । तशम्" इति पदेन, स्फुटतया = स्पष्टरवेन, अचमासः = प्रतीतिः । “सलेशम्" इति पदस्य परित्यागे, स्वनिरेव । तथा च कामिनीकुवकलशवद् गूढ चमत्करोति, भगूढं तु स्फुटतया वाघ्यायमानमिति मुणीभूतमेवेति भाषः ।
क्वचित्त व्याये गुणीभूतेऽपि ध्वनिकाम्यम्यवहार इति उपपादयति-किचेति । सम्वस्मिन् । स्थले, वस्त्वलकाररसादिरूपव्यङ्गपाना = वस्स्वलड़काररसाइदि. माणां, व्यन्यानाम् (यजनावतिप्रतिपायामाम् ), अत्र आदिपदेन भावादीनां बहपम् । रसाऽभ्यन्तरे = अन्यरसमध्ये, गुणीभावः = उपसर्जनीभाव:, अप्रधानस्पेणोपस्थितिरिति प्रायः । तत्र = तस्मिन् स्थने, प्रधानकृत एव = प्रधानरसकृत एव, काव्यव्यवहारः, "प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ती" ति न्यायादिति भावः ।
अत्राय ध्वनिकृन्मतमुपन्यस्यति । तदुक्तं तेनेव, तेन एव = ध्वनिकृता एव, सदा उक्तम् । कि तदित्याह-प्रकारोऽयमिति । अयं गुणीभूतव्यङ्ग्योऽपि, प्रकारः = सब अबलाओंके बाप एकमात्र रक्षक हैं, इसप्रकार गोष्ठमें गोपीसे श्लेष पूर्वक कहे गये बोकृष्ण तुम लोगोंको चिरकाल पर्यन्त रक्षा करें।
इस पद्य में गोपराग आदि शब्दोंके गोपे रग इत्यादि व्यङ्ग्य अर्थोकी "सलेशम्" इस पदसे स्पष्ट रूपसे प्रतीति हुई है । अतः गुणीभूतव्यङ्ग्य हुआ है । "सलेशम्" इस पदका परित्याग करनेपर ध्वनि ही हो जाती है ।
किञ्च-जहाँपर वस्तुरूप, अलङ्काररूप और रसादिरूप व्यङ्ग्पोंका अन्य रसमें गुणीभाव हो जाता है वहाँपर प्रधान रसके कारण ही काव्यव्यवहार होता है।
यह बात उन्होंने ( ध्वनिकारने ) ही कही है-यह गुणीभूतव्यङ्ग्य काव्यभेद भी रस आदिमें तात्पर्यकी पर्यालोचनासे फिर ध्वनि के स्वरूपको प्राप्त करता
२३ सा०
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३५४
साहित्यदर्पणे
धत्ते रसादितात्पर्य पर्यालोचनया
पुनः ॥' इति
'यत्रोन्मदानां प्रमदाजनानामभ्रंलिहः शोणमणीमयूखः । संध्याभ्रमं प्राप्नुवतामकाण्डेऽप्यनङ्गनेपथ्यविधि विधत्ते ॥' इत्यादौ रसादीनां नगरीवृत्तान्तादिवस्तुमात्रेऽङ्गत्वम्, तत्र तेषामतात्पर्यविषयत्वेऽपि तैरेव गुणीभूतः काव्यव्यवहारः ।
काव्यभेदः, रसादितात्पर्य पर्यालोचनया = रसादी ( रसभावादी ) यत् तात्पर्यं ( कवें प्रायः), तत्पर्यालोचनया ( तदनुसन्धानेन ), पुनः ध्वनिरूपतां ध्वनिस्वरूपता । धत्ते = प्राप्नोति । यथा " अयं स रसनोत्कर्षी"त्यादी शृङ्गारस्य गुणीभावेऽपि तं भावमव म्य मध्यमकाव्यव्यवहारो न कर्तव्यः, किन्तु अङ्गिनं तत्र प्रधानरसं करणमाश्रित्य काव्यव्यवहार एव कर्तव्य इति भावः । स्थले तु
स्थिति । यंत्र
=
एव सिद्धान्तस्याऽनवकाशस्थलं निर्दिशति - यत्र अत्रेति । कश्चित्कविः कांचिन्नगरीं वर्णयति । यत्र नगर्याम्, अभ्रंलिहः - अनं लेढोति, "वह्नाऽभ्रे लिहः" इति खण् । मेवस्पर्शी, शोजमणीक्यूखः - शोणमणी (पद्मरागाणाम् ) मयूखः ( किरणः ) । अकाण्डे - अनवसरे, सन्ध्याभ्रमं - सायम्काल प्रान्ति, प्राप्नुवता = लभमानानां पद्मरागकिरणप्रसरणादिति भावः । उन्मदानाम् = उद्गतमदानां, प्रमदाजनानां = ललनाजनानाम्, अनङ्गनेपथ्यविधि = कामसंभोग वेशविधानं, विधत्ते - सम्पादयति । अत्र भ्रान्तिमदलङ्कारः । उपजातिवृत्तम् ।
तथ्यं विवृणोति - इस्पादाविति । इत्यादी स्थले, रसादीनां = शृङ्गाराचीनाम् । नगरीवृतान्तादिवस्तु मात्र = केवलनगर्यु दन्त रूपवस्तुविषये । अङ्गत्वं = पोषकत्वम् ॥ तत्र= नगरीवृत्तान्तादिवस्तुमात्रे, तेषां रसादीनाम्, अतात्पर्यविषयत्वेऽपि तात्पर्यविषयाऽ भावत्वेऽपि, गुणीभूतैः = अप्रधानः, तैरेव = रसादिभिरेव काव्यव्यवहारः = काव्यव्यपदेशः । है। जैसे कि "अयं स रसनोत्कर्षी" इत्यादि स्थलमें शृङ्गारका गौणभावसे मध्यमकाव्यका व्यवहार न कर अङ्गी करुण रसको लेकर उत्तम काव्यका ही व्यवहार करना चाहिए यह भाव है !
गुणीभूतव्यङ्गचका स्थल दिखलाते हैं- यत्र तु जहाँपर तो - जिस ..नगरी में आकाशको स्पर्श करनेवाली पद्मरागमणिकी किरण अपने प्रकाशके कारण अनवसर में ही सन्ध्याकाल हो गया ऐसी प्रान्तिको प्राप्त करनेवाली सुन्दरियोंका काम भोग करने के लिए वेशविधानका सम्पादन कर देती है ।।
यत्र तु —
-
इत्यादि स्थलमें व्यङ्ग्य होनेवाले शृङ्गार आदि रस नगरी वर्णनरूप वस्तुमात्रमें बङ्ग होते हैं, वे रस आदि तात्पर्य विषय नहीं होते हैं । तथाऽपि उन्हीं ( रमों ) से गुणीत काम्यवहार है, अर्थात् यहाँ शृङ्गाररस नमरीवर्धनका भङ्ग हुआ है।
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चतुर्थः परिच्छेदः
_ 'तदुक्तमस्मत्सगोत्रकविपण्डितमुख्यश्रोचण्डोदासपादैः-वाक्या (काव्या) बस्णखण्डबुद्धिवेद्यतया तन्मयोभावेनास्वाददशायां गुणप्रधानभावावभा. सस्तावन्नानुभूयते, कालान्तरे तु प्रकरणादिपर्यालोचनया भवन्नप्यसो न काव्यव्यपदेशं व्याहन्तुमोशः, तस्यास्वादमात्रायत्तत्वात्' इति ।
केचिच्चित्राख्यं तृतीयं काव्यभेदमिच्छन्ति ।
अयं भावः। अत्र प्रकरणात् पुरीप्रकर्षवर्णने कवेस्तात्पर्याद अनङ्गनेपथ्यविधिव्यङ्गयस्य शङ्गारस्य तात्पर्यविषयत्वाऽभावेऽपि, आपाततश्चमस्कारविषायकत्वेन शुङ्गारकाव्यरूप एव व्यवहारः कर्तव्यः ।
अस्मिन्नर्थेऽमियुक्ततमानां चण्डीदासपादानां संवादं प्रदर्शयति-तदुक्तमिति । अस्मत्सगोत्रकविपण्डितमुख्यश्रीचण्डीदासपादः - अस्माकं सगोत्राः (समानयोत्राः), फविपण्डितमुख्याः ये श्रीचण्डीदासपादाः, तः उक्तम्-वाक्यार्यस्येति । वाक्याऽर्थस्यपदार्थसमूहस्थस्य, अखण्डबुद्धिवेद्यतया = एकाग्रबुद्धिज्ञेयतया, तन्मयोमावेन - बखन्ड बुद्धिस्वरूपमावेन, आस्वाददशायाम् = अनुभवाऽवस्थायां, गुणप्रधानभावाऽवभासःबङ्गाङ्गिभावप्रतीतिः, तावत् = तत्कालं, न अनुभूयते = नो ज्ञायते, काव्यापं. भाषकैरिति शेषः । कालाऽन्तरे तु= आस्वादाऽनन्तरकाले तु, प्रकरणादिपर्यालोचनयाप्रकरणादीनां ( प्रसङ्गप्रभृतीना विषयाणाम् ), पर्यालोचनया भवन्नपि-उत्पद्यमानोऽपि बसौ गुणप्रधानभावप्रतीतिः, काव्यव्यपदेशं = रसादिकाव्यम्यवहार, पाहन्तु-निवारयितु, न ईश:=न समर्थः, अत्र हेतुमुपन्यस्यति-स्येति । तस्य - काव्यव्यपदेशस्य: आस्वादमात्राऽऽयत्तत्वात् = रसायनुभवमात्राऽधीनत्वात् । काव्यप्रकाशकारस्य चित्राख्यं तृतीयं काव्यभेदं खण्डयितुमुपकमते-केचिदिति । केचित् = काव्यप्रकाशकारा:: चित्राऽऽख्यं = चित्रकाव्यनामकं, तृतीयं, काव्यभेदं काव्यप्रकारम्, इच्छन्ति । तदाहु:शब्दचित्रमिति। . अतः अपराङ्गव्यङ्ग्यनामकगुणीभूतव्यङ्ग्यके एक भेदका उदाहरण समझना चाहिए। इस बातको ग्रन्थकार अपने सगोत्र कवि पण्डित श्रीचण्डीदासकी उक्ति समर्थन करते हैं-काव्यका दिमाव आदि अर्थ एकाग्रबुद्धिसे ज्ञेय होता है, तन्मयी. भावसे उसके अनुभवकी अवस्थामें यह अङ्ग है और अङ्गो है ऐसी प्रीति नहीं होती है, आस्वादके अनन्तर समयमें प्रकरण आदिकी पर्यालोचनासे अङ्ग पोर बङ्गीको प्रतीति होनेपर भी वह ( प्रतीति ) रसादि काव्यव्यवहारका निवारण नहीं कर सकती है क्योंकि वह काव्यव्यवहार आस्वादमात्रके अधीन होता है । काव्यप्रकाश, कारसंमत चित्र काव्यका खण्डन करते हैं।
कोई विद्वान ( काव्यप्रकाशकार ) चित्रनामक तीसरा काव्य है ऐसा वर्णन करते हैं । जैसा कि-व्यङ्ग्य रहित काव्य अधम ( तृतीय श्रेणीन) होता है, उसके
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.. साहित्यदर्पये
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तदाहुः
'शब्दचित्रं वाच्यचित्रमव्यङ्गय त्वरं स्मृतम् ।' इति ।
तन्न, यदि हि अव्यङ्गथत्वेन व्यङ्गयाभावस्तदा तस्य काव्यत्वमपि नास्तीति प्रागेवोक्तम् । ईषव्यग्यत्वमिति चेत्, किं नामेषव्यङ्ग्यत्वम् ? भास्वाद्यव्यङ्ग्यत्वम् , अनास्वाद्यव्यग्यत्वं वा ? आये प्राचीनभेदयोरेवान्तःपातः । द्वितीये त्वकाव्यत्वम् । यदि चास्वाद्यत्वं तदाऽक्षुद्रत्वमेव क्षुद्रतायामनास्वाद्यत्वात् ।
काध्यं त्रिविषम-उत्तम, मध्यमम्, अधमं चेति । तत्र व्यङ्ग्यं काव्यमुतमम्, गुणीभूतव्यङ्गय मध्यमम्, अव्यङ्गयम्, अवरम् = अधम, तस्य भेदद्वयं-शब्द. चित्रवाच्यचित्र चेति । तन्मतं दूषयति-तस्येति । अव्यङ्गयत्वेन - व्यङ्गयाऽयंरहितत्वेन, व्यङ्गघाऽभावो यदि = रसादिव्यङ्ग्याऽर्थाऽभावश्च द, तदा - तहि, तस्य - भव्यङ्ग पस्य, काव्यत्वम् अपि - कास्यव्यपदेशविषयत्वम् अपि, नाऽस्तीति, प्रागेवअक्मपरिच्छेद एव उक्तम् ।
पुनराशय सण्डपति-अव्यङ्गयमित्यत्र नम् ईषदर्थे वर्तते। ततः बव्यङ्गपम्, इत्यस्य अर्थ ईषद्व्यङ्ग्यम् इति चेत् तत्र पुनः प्रश्न:-किं नामेषद्वघनघस्वमी बास्वायव्यङ्गयत्वं = यत्र व्यङ्गपस्याऽऽस्वादो भवति, अथवा अनास्वाद्यव्यङ्ग्यत्वम् - पत्र व्यङ्गस्य आस्वादो न भवति ) आद्य = आस्वाद्यव्यङ्ग्यत्वे, प्राचीनभेदयोः = ध्यङ्ग गुणीभूतव्यङ्ग्ये चेति द्वयोः पूर्वोक्तभेदयोरेव, अन्तःपातः = अन्तर्भावः । द्वितीये अनास्वाद्यव्यङ्ग्यत्वे, तु अकाव्यरवं-काव्यत्वाऽभावः । यदि च आस्वाद्यत्वम्आस्वाद्यव्यङ्गयत्वम्, तदा अक्षुद्रःवम् एव = अनवरत्वम् एव, क्षुद्रतायाम् व्यङ्गपाऽर्थरहितत्वेन अवरतायाम, अनास्वाद्यत्वात् = आस्वादविषयराहित्यात् । दो भेद होते हैं-शब्दचित्र और प्रर्थचित्र ।
___ ग्रन्यकार इस मतका खण्डन करते हैं-यह ठीक नहीं । अव्यङ्गय कहनेसे आप व्यङ्गयका अभाव कहते हैं तो वह काव्य ही नहीं है यह बात पहले ही कह चुके हैं।
यदि कहें कि 'अव्यङ्ग्य' पदमें नका अर्थ ईषत् ( थोड़ा ) है तो उसका अर्थ हुआ ईषद्वयङ्ग्य अर्थात थोड़ा व्यङ्ग्य । फिर प्रश्न करते हैं-ईषद्वयङ्गय क्या है ? मास्वाद्यव्यङ्ग्य ( व्यङ्ग्य अर्यका आस्वाद किया जानेवाला ) वा अनास्वाद्यव्यङ्ग्य ( व्यङ्ग्य अर्थका आस्वाद नहीं किया जानेवाला )। यदि पहला भेद मास्वाद्य व्यङ्ग्य मानें तो पहले के दो भेदों ( व्यङ्गय और गुणीभूतव्यङ्गय ) में ही अन्तर्भाव हो जाता है दूसरा भेद अनास्वाद्य व्यङ्गय मानें तो वह काव्य ही नहीं हो सकता है । आस्वाद्य मानें तो वह अक्षुद्र (क्षुद्र = अधमसे भिन्न ) ही हुआ । क्षुद्र
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चतुर्थः परिच्छेदः
तदुक्तं ध्वनिकृता
'प्रधानगुणभावाभ्यां व्यग्यस्यैवं व्यवस्थिते ।
उभे काव्ये, ततोऽन्यद्यत्तचित्रमभिधीयते ॥ इति । इति श्रीमन्नारायगवर गारविदमधुवा-साहित्यार्णवकर्णधार-ध्वनिप्रस्थापनपरमाचार्य-कविसूक्तिरत्नाकराऽष्टादशभाषावारविलासिनीभुजङ्गसान्धि. .. विग्रहिक महापात्र-श्रीविश्वनाथकविराजकृती साहित्यदर्पणे ध्वनिगुणीभूतव्यङ्ग्यात्यकाम्यभेदनिरूपणो
नाम चतुर्पः परिच्छेदः ।
उक्तार्थे ध्वनिकृत्संवादं प्रदर्शयति-तदुक्तमिति । प्रधानगुणमावास्यामिति । बङ्गयस्य = अर्यस्य, प्रधान गुणभावाभ्या प्रशानमावेन गुणमावेन वेति भावः, एवम् उd, काव्ये, व्यवस्थिते =निरूपिते । व्यङ्गयाऽर्थस्य यत्र प्रधानमावस्ता ध्वनिस्वं लप गुण मावस्तंत्र गुणीभूतव्यङ्ग्यस्वमिति काव्ये विप्रकारे निरूपिते इति भावः; ततः = ताम्गं भेदाभ्यां यत् अन्यत् = आरं, तर चित्र-चित्रनामकं काव्याऽऽमासरूपम्, अभिधीयते = प्रतिपाद्यते ।। इति श्रीशेषराजशर्मप्रणीतायां चन्द्रकलाऽभिख्यायां साहित्यदर्पण:
टीकायां चतुर्थः परिच्छेदः ॥
(अधम ) मानें तो वह आस्वादका विषय नहीं होता है। इस बात को ध्वनिकारने कहा है-इस प्रकार गङ्ग्य अर्यका प्रधान और गुण ( मप्रधान ) भावसे व्यवस्था होनेपर प्रधान = ध्वनि और गुण ( अप्रधान ) गुगीभूतव्यमय दो प्रकारके काव्य हो गये, इनसे जो भिन्न है उसे "चित्र" कहते हैं ।
साहित्यदर्पणके अनुवादमें चतुर्थ परिच्छेद समाप्त हुआ ।
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पञ्चमः परिच्छेदः अथ केयममिनवा व्यञ्जना नाम वृत्तिरित्युच्यते
वृत्तीनां विश्रान्तेरभिधातात्पर्यलक्षणाख्यानाम् ।
अङ्गीकार्या तुर्या वृत्तिवोंधे रसादीनाम् ॥ १॥ अभिधायाः संकेतितार्थमात्रबोधनविरताया न पस्त्वलङ्काररसादि... बनेगुंणीभूतव्यङ्ग्यस्य च द्वयोपि काव्यभेट्योव्यंजनाजन्यत्वात् नयायिकस्तस्याः चण्डनाद व्याजमायाः समर्थनस्य चाऽवश्यकत्वात्तव्यं पञ्चमः परिच्छेद आरभ्यते ।
तत्र च प्रथमं व्यञ्जनानिरूपणमुपक्रमते-प्रति । अथ काव्यभेदनिरूपणाऽनन्तरम्, इयं = प्यायबोधिका, अभिनवा = नूतना, आलङ्कारिकमात्रः स्वीकृता, नैयायिकरमजोततेतीति भावः, यत्तिः = अर्थबोधिका, इति इत्याशङ्कप, उच्यते, अभिधीयते ।
यजनायाः स्वीकार उपत्ति प्रदर्शयति-व्रत्तीनामिति । अभिधातात्पर्यक्षणाख्यानाम् - पूर्वोक्तानामभिधा-तात्पर्य लक्षणानामिकानां, वृत्तीना = शक्तीनां; विश्रान्तः = विधामाव, स्वं स्वमर्थ बोधयित्वा निवर्तनादिति भावः । रसादीना = रसवस्त्वलारादीनाम, रसपदेनाऽऽस्वाधमात्रग्रहणम् । रसस्य प्राधान्यात्प्रथमं निर्देशः । बास्वादविषयत्वादाविपदेन रसाभास-भाव-भावाभासभावोदयभावसन्धिभावशबलताना बग्रहणम् । तुर्या = चतुर्थी वृत्तिः, अङ्गीकार्या=स्वीकरणीया । यद्यपि द्वितीयपरिच्छेदे *विरतास्वभिधाऽऽद्यासु०" अस्यां कारिकायां व्यन्जनाया लक्षणस्य सत्त्वेपि तत्प्रामाण्योपन्यासाय पुनरारम्भः । अतः पीनरुक्त्यं न शकुनीयम् ॥१॥
कारिको विवृणोति-अभिषाया इति । सहूतिताऽर्थमात्रबोधनविरताया:= पतितः (इतसतः ) 4 वर्षः (पदार्थः), तन्मात्रबोधनविरतायाः (तन्मात्र. प्रतिपादननिवृत्तायाः.), विरताया पुनरुत्थानाऽभावात् अभिधायाः = मुख्यवृत्तः, परवलकाररसादिव्यङ्गयोधने-वस्त्वलङ्काररसादिरूपा ये व्यङ्ग्याः ( व्यञ्जनावृत्ति
यह नई व्यञ्जना नामकी वृत्ति क्या है ऐसी शङ्काका समाधान करते हैंवृत्तीनाम् इत्यादि । अभिधा, लक्षण और तात्पर्य नामकी वृत्तियों के अपने अपने अर्थका बोधन कर "शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः" इस नियमसे विधान्त होनेसे पस्तु, अलङ्कार और रसरूप व्यन्य अर्थका बोध करनेके लिए व्यञ्जना नामकी पौत्री वृत्तिको बङ्गीकार करना चाहिये ॥१॥
पतित वर्षपात्रका बोधन करके विरत होनेवाली अभियाका वस्तु अलार
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पचमः परिच्छेदः
व्यबोधने क्षमत्वम् । न रसादिः । नहि विभावाद्यभिधानमेव तदभिधानम्, तस्य तदैकरूप्यानङ्गाकारात् । यत्र च स्वशब्देनाभिधानं तत्र प्रत्युत दोष एवेति वक्ष्यामः । कचिश्च 'शृङ्गाररसोऽयम्' इत्यादौ स्वशब्दनाभिधानेऽपि न तत्प्रतीतिः, तस्य स्वप्रकाशानन्दरूपत्वात् ।
अभिहितान्वयवादिभिरङ्गीकृता तात्पर्याख्या वृत्तिरपि संसर्गमात्रै प्रतिपाद्याः अर्थाः ) तेषां दोधने ( प्रतिपादने ) न क्षमत्वं = न सामर्थ्यम् । रसादिः कथं न सङ्केतित इत्याश चाह - न चेति । रसादिका = व्यङ्ग्याऽयं, न सङ्केतितः व] सङ्केतविषयः, वाच्यार्थः ।
ननु विभावादिभिरेव रसभावादिः सङ्केतित इत्यत्राह - न होति । न हि विधाबाभिधानम् एव = विभावादीनाम् अभिधानम् ( अभिधया प्रतिपादनम् ) एव तदभिधानम = तेषाम् ( रसानाम् ) अभिधानम् ( अभिधया प्रतिपादनम् ), तस्य = विभावादेः, तदेकरूप्याऽनङ्गीकारात - तेषाम् ( रसानाम् ) ऐकरूप्यस्य ( अभिन्नत्वस्य ) मनङ्गीकारात् ( स्वीकारात् ) । विभावादयो ज्ञेयविशेषा रसादयश्च ज्ञानविशेषा इति भाव: । अतो रसस्याऽभिघाबोध्यत्वं नेति भावः । रसस्याऽभिधाबोध्यत्वे बाघ कान्तरमाहयत्र चेति । यत्र च = यस्मिन् स्थले च, रसस्य स्वशब्देन = रसशब्देन शृङ्गारादिशब्देन च, अभिष्ठानं - अभिधया प्रतिपादनं तत्र प्रत्युत = वैपरीत्येन दोष एवेति वक्ष्यामः = कथयिष्यामः, "रसस्योक्तिः स्वशब्देन" इत्यादिरूपेण सप्तमपरिच्छेद इति भाव: । वयचिच्च = लौकिक यावये. "शृङ्गारस्सोऽयम्" इत्यादी = स्थले, स्वशब्देन = शृङ्गारशब्देन, अभिधानेऽपि = अभिधावत्या प्रतिपादनेऽपि न तत्प्रतीतिः न रसप्रतीतिः; तत्र हेतुमुपन्यस्यति - तस्येति । तस्य = रसस्य स्वप्रकाशाऽऽनन्दरूपत्वात् पूर्वोक्तरीत्या स्वप्रकाशानन्दस्वरूपत्वात् ।
दशरूपककार धनिक मतानुसारेण तात्पर्यवस्या रसादिबोधः स्यादिति म सुण्डयति - प्रभिहिताऽन्वयवादिभिरिति ।
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और रस आदि व्यङ्ग्य अर्थका बोधन करने में क्षमता ( सामथ्यं ) नहीं है । वस्तु अहङ्कार और रस आदि सङ्केत के विषय नहीं हैं । विभाव आदिका अभिधासे प्रतिपादन करना ही रस आदिका प्रतिपादन नहीं है, विभाव आदिका रस आदिसे अभेदका स्वीकार नहीं किया गया है जहाँपर रसका स्वशब्द से अर्थात् रस शब्द से वा शृङ्गार बादि शब्द से प्रतिपादन किया जाता वहाँपर दोष हो जाता है इस बात को आगे सप्तम परिच्छेद में वर्णन किया जायगा । वहीं कहीं लौकिक वाक्य में "शृङ्गाररसोऽयम्" यह शृङ्गार रस है इस तरह स्वशन्दसे कहनेपर भी शृङ्गार रसकी प्रतीति नहीं होती है, है, क्योंकि रस स्वतः प्रकाश और आनन्दस्वरूप है । अतः अभिधावृत्ति से रसकी प्रतीति नहीं हो सकती है।
महिलाऽन्ययवादी (ब्राट्टमीमांसक ) से स्वीकृत तात्पर्यं नामकी वृत्ति भी
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साहित्यवप
परिक्षीणा न व्यङ्ग्यबोधिनी ।
यच केचिदाहुः -- ' सोऽयमिषोरिवं दीर्घदीर्घतरोऽभिधाव्यापारः' इति । यच धनिकेनोक्तम्
तात्पर्याव्यतिरेकाच व्यञ्जकत्वस्य न ध्वनिः ।
अभिहिताऽन्वयवादिभिः = भाट्टमीमांसकैः, अङ्गीकृता=स्वीकृता, तात्पर्याऽख्या= तात्पर्यनामिका, वृत्तिरपि शक्तिरपि, संसर्गमात्रे = पदानां परस्पराऽन्वयबोधमात्रेः परिक्षीणा = विरता सती, व्यङ्गधबोधिनी = व्यङ्गघार्थरसादिप्रतिपादिका न, "शब्द बुद्धिकर्मणां विरभ्य व्यापाराऽभावः" इति नयेनेति शेषः ।
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अभिधावृत्यैव रसादिबोधो भवतीति भट्टलोल्लटमतमुपन्यस्यति - यच्चेति । 've केचित् = भट्टलीलटादय:, आहुः - कथयन्ति कि तदित्याह - सोऽयमिति । सः = तादृशः, अयम् = एषः, इषोः इव = बाणस्य इव, दीर्घदीर्घतरः- उत्तरोत्तरदीर्घः अभिधाव्यापारः = अभिधावृत्तिकार्यम् इति । अयं भावः । यथा धानुष्केण मुक्तो बाण एकेनैव वेगरूपव्यापारेण शत्रोर्वक्षःस्थलं मित्वा प्राणांश्च हरति तवैव एक एक अभिया व्यापारः सङ्केतितमर्थं प्रतिपाद्य रसादिरूपं व्यङ्ग्याऽयं च बोधयति ।
तात्पर्यवृत्तिरेव पदानामन्वयं बोधयित्वा रसादिरूपं व्यङ्गयं बोधयतीति धनिकाः मतमुपस्थापयति- यच्चेति । कञ्जकत्वस्य = व्यञ्जनाया, तात्पर्याऽव्यतिरेकात् = तात्पर्यस्य ( तात्पर्य वृत्तेः ) अव्यतिरेकात् ( अनतिरिक्तत्वात् ), ध्वनिः न = ध्वनि: न व्यञ्जनाप्रतिपाद्यः प्रत्युत ध्वनिः तात्पर्यवृत्यैव प्रतिपाद्यों भवतीति भावः । मनु तात्पर्यवृत्तिस्तु पदानामन्वयमात्रे जनयित्वा निवर्तते इत्याशङ्कां परिहरतिसंसर्गमात्र अर्थात् पदार्थोका परस्पर अन्वयमात्रका बोध कर परिक्षीण होती है, वह व्यङ्ग्य ( रस आदि ) का बोधन करनेमें असमर्थ है ।
अभिधा वृत्तिसे ही रस आदिका बोध होता है ऐसा कहने वाले भट्टलोल्लटा मत उपस्थित करते हैं - यचव० इति बाणके समान अभिधाका व्यापार भी दीघं और तर होता है अर्थात् धनुर्धारीसे छोड़ा गया बाण एकमात्र वेगरूप व्यापारसे शत्रुके • वक्षःस्थलका छेदन कर उसके प्राणों को भी हर लेता है उसी तरह अभिधाका व्यापार : भी सङ्केतित अर्थका बोधन कर रस आदि व्यङ्गय अर्थका भी प्रतिपादन करता है ।
तापर्य वृत्ति ही पदोंका अन्वयबोध कर रस आदि व्ययका भी प्रतिपादन - करती है ऐसा माननेवाले घनिक आचार्य मतको उपस्थित करते हैं—निक ने जो कहा है - तात्पर्याव्यतिरेकाच्च ० तालर्य ही व्यञ्जक है, अर्थात् व्यङ्गय अर्थका तात्पर्यसे ही बोध होता है, तात्पर्य वृत्तिसे अतिरिक्त ज्ञ्जना नामकी कोई वृत्ति नहीं है । अर्थात् व्यञ्जना से प्रतिपाद्य ध्वनि नहीं है । तात्पर्यवृत्ति तो पदार्थों का अन्वय बोधन कर निवृत्त हो जाती है अत: कैसे उससे ध्वनिका प्रतिपादन होता है ऐसी आशङ्काका समाधान करते
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पञ्चमः परिच्छेदः
यावत्कार्यप्रसारित्वात्तात्पर्य न तुलाधृतम् ।।' इति । तयोरुपरि 'शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः' इति वादिभिरेव पातनीयो दण्डः ।
___ एवं च किमिति लक्षणाऽप्युपास्या ? दीर्घदीर्घतराभिधाव्यापारेणापि तदर्थबोधसिद्धेः । किमिति च "ब्राह्मण ! पुत्रस्ते जातः, कन्या ते गर्भिणो" यावत्कार्येति । यावत्कार्यप्रसारित्वात् = यावत्कार्य ( यावद्वयापारम् ) तावत् प्रसरणशीलत्वात् । तात्पर्य = तात्रयंवृत्तिः, तुलाधृतं-तुलया ( तुलायन्त्रेण ) घृत (मापितम्) न = न वर्तते । अयं भावः । तात्पर्य इत्तिःपदार्यससगै बोधयित्वा व्यङ्गयाऽर्थं च बोध, यति, अनः सा न तुलाधता, संसर्गमात्रबोधनेन न नियन्त्रिता, अतो रसादीनां बोधे कृतं व्यञ्जनयेति मतद्वयं खण्डयितुमुपक्रमते-तयोरुपरोति । तयोः = दीर्घीपतराऽभिधाव्यापारेण व्यङ्गयार्थबोध इति वादिनो भट्टलोल्लटस्य, तात्पर्यवृत्यैव व्यङ्गया, चंबोध इति वादिनो धनिकस्येति भावः, उपरि, "शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराला भावः" इति वादिभिः एव दण्डः पातनीयः । अयं भावः । अभिधा सङ्केतिताऽयं बोधः यित्वा विरता सती कथं व्यङ्गयाऽयं बोधयेत् । तथैव तात्पर्यवृत्तिश्च वाक्ये पदानामन्वर्य बोधयित्वा विरता सती कथं व्यङ्गयाऽर्थ बोधयेदिति ।
भट्टलोल्लटमते दूषणान्तरमुद्भावयति-एवं चेति । एवं च = अभिधयेय व्यङ्गयाऽयंबोधस्वीकारे च । किमिति = किमर्थ, लक्षणाऽपि = लक्षणावृत्तिरपि, उपास्या - स्वीकरणीथा, दीर्घदीर्घतराभिधान्यापारेण = पूर्वोक्तेनैव, तदर्थबोधसिबेलक्ष्याऽर्थज्ञानोत्पत्तेः।
.. एवं चाऽत्र दोषान्तरमाह-किमिति चेति । किमिति च = किमर्ष च, प्रवासिनं ब्राह्मणं प्रति-"ब्राह्मण ! पुत्रस्ते जातः" इत्यत्र प्रसादेन हर्षस्य न वाच्यत्वं = अभिधया प्रतिपाद्यत्वम् । एवं "कन्या ते गर्भिणी" इत्यत्र शोकस्य न हैं यावत्कार्यप्रसारित्वात् । जितने कार्य हों उतना तात्पर्यका प्रसार ( फैलाव ) होनेसे तात्पर्य तराजूसे नहीं नापा गया है अर्थात तात्पर्य वृत्ति ही पदार्थोके अन्वयका बोध कराकर व्यङ्गय अर्थ (ध्वनि ) का भी बोध कराती है अतः व्यञ्जनाकी कोई आवश्यकता नहीं है यह भाव है।
ग्रन्थकार भट्टलोल्लट और धनिक दोनोंके मतका खण्डन करते हैंइन दोनोंके ऊपर "शब्दबुद्धि कर्मणां विरम्य व्यापाराऽभावः" इस न्यायको माननेवालोंको ही दण्ड देना चाहिए। अर्थात् सकेजित अयंका बोध कराकर जैसे अभिधा निवृत्त होती है उसी तरह पदाका अन्वय बोध कराकर तात्पर्य वृत्ति भी निवृत्त होती है उनसे रस आदि व्यङ्गय अर्थका प्रतिपादन नहीं हो सकता है।
भट्ट लोल्लटके मतमें दूसरा दोष दिखलाते हैं-जब कि अभिधाका व्यापार दीर्घ और दीर्घतर होता है लक्षणाको क्यों मानते हो ? अर्थात् लक्षणासे होने,
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साहित्यदर्पणे
इत्यादावपि हर्षशोकादीनामपि न वाच्यत्वम् ।
यत्पुनरुक्तं 'पौरुषेयमपौरुषेयं च वाक्यं सर्वमेव कार्यपरम् , अतत्परत्वेऽनुपादेयत्वादुन्मत्तवाक्यवत् । ततश्च काव्यशब्दानां निरतिशयसुखास्वादव्यतिरेकेण प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोः . प्रवृत्त्यौपयिकप्रयोजनानुपलब्धेनिरतिशयसुखास्वाद एव कार्यत्वेनाऽवधार्यते । 'यत्परः शब्दः स शब्दार्थः' इति पाच्यत्वम् । अयं भावः । "ब्राह्मण ! पुत्रस्ते जातः” इत्यत्र मुखप्रसादरूपेण लिङ्गेन अनुमितस्य हर्षग्य यथा अनुमेयत्वं तथैव "कन्या ते गर्भिणी" इत्यत्र व्यभिचाराशङ्कया मुखमालिन्येनाऽनुमितस्य शोकस्याऽपि न वाच्यत्वम् । अतो हदियो यथा न वाच्या. स्तथैव व्यङ्गयाऽर्था अपि अभिधाव्यापारेण न वाच्याः।
प्रभाकरमीमांसकमतं खण्डयति- यत्पुनरुक्तमिति। पौरुषेयं = पुरुषकर्तृक लोकिकवाक्यं “गामानये" त्यादिरूपम् । अपौरुषेयं = पुरुषकर्तृकभिन्न वैदिकवाक्यं "ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत" इत्यादिरूपम् । इत्थं च सर्वमपि वाक्यं =पदसमूहरूपं, कार्यपरम्, अतत्परत्वे = कार्यपरत्वाऽभावे, अनुपादेयत्वात = अग्राह्यत्वात्, उन्मत्तवाक्यवत = उन्मत्तप्रयुक्तपदसमूहवत, ततः प्रकृते किमायातमित्यत्राह-ततश्चेति । ततश्च = तस्माद्धेतोः । काव्यशब्दानां - काव्यप्रयुक्तपदसमूहानां, निरतिशयसुखास्वादव्यतिरेकेण = निरतिशय: ( साऽतिशयः ) यः सुखास्वादः (हर्षाऽनुभूतिः ), रसादि. रूपोऽर्थ इति भावः । तद्वतिरेकेण =तं विना, प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोः = प्रतिपाद्य; ( बोद्धव्यः, श्रोता इति भावः ) प्रतिपादकश्च ( बोधकः, वक्ता इति भावः ), तयोः, प्रवृत्यौपायकप्रयोजनान्तराऽनुपलब्धेः- प्रवृत्तेः ( काव्यश्रवणादो चेष्टायाः ) ओयिकम् (उपायरूपं, प्रयोजकमिति भावः), यत् प्रयोजनान्तरम् (अन्यत् प्रयोजनम् उद्देश्यविषयीभूतम् ), तस्य अनुपलब्धेः ( अप्राप्तेहेतोः ) निरतिशयसुखास्वाद एव-रसाद्यनुभव एव वाला लक्ष्य अर्थका भी बोध अभिधासे हो जायगा। इसी तरह-"ब्राह्मण ! तुम्हारा पुत्र उत्पन्न हुआ कहने पर चेहरेमें प्रसन्नता झलकनेसे हर्ष और "ब्राह्मण ! तुम्हारी कन्या गभिणी" हई कहने पर चेहरे में झलकने वाली मलिनतासे शोक भी क्यों नहीं वाच्य मानते हो ? अतः जैसे यहां हर्ष और शोक वाच्य नहीं उसी तरह रस आदि व्यङ्गय अर्थ भी वाच्य नहीं हो सकते हैं इस कारण दीर्घदीर्घतर अभिधा व्यापारको माननेवाले भट्टलोग्लटकी बात कट गई।
अन्विताऽभिधानवादी प्रभाकर मीमांसकके मतका खण्डन करते हैं। जो कि कहते हैं चाहे पौरषेय ( पुरुषकर्तृक अर्थात् लौकिक ) वा अपौरुषेय ( वैदिक ) वाक्य हो सभी वाक्य कार्यपरक होते हैं, कार्यपरक नहीं मानेंगे तो उन्मत्त पुरुषके वाक्य के समान वे. अग्राह्य होंगे इस कारणसे काव्यशब्दोंका भी निरतिशय ( बेहद ) हर्षके आस्वादके बिना श्रोता और वक्ताको काव्यश्रवणकी चेष्टामें उपायरूप दूसरे प्रयोजनकी प्राप्ति न होनेसे निरतिशय (बेहद ) हर्षका आस्वाद ही कार्यके रूपमें निश्रित होता है, क्योंकि
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पञ्चमः परिच्छेदः
३६३
न्यायात्' इति । तत्र प्रष्टव्यम्-किमिदं तत्परत्वं नाम, तदर्थत्वं वा, तात्पर्यवृत्त्या तबोधत्वं वा ? आये न विवादः । व्यङ्गयत्वेऽपि तदर्थतानपायात । द्वितीये तु-केयं तात्पर्याख्या वृत्तिः ? अभिहितान्वयवादिभिरगीकृता, तदन्या वा ? आद्ये दत्तमेवोत्तरम् । अर्थः, कार्यत्वेन = कृतिविषयत्वेन, अवधार्यते = तात्पर्यत्वेन प्रतिपाद्यते, "यत्परः शब्दः स शब्दाऽर्थ" इति न्यायात इति । यस्मिन् ( अथें ) परः ( प्रतिपादनपरः ) शब्दः, सः = अर्थः, तस्य शब्दाऽर्थः । यथा यस्मिन् ( कम्बुग्रीवादिति ) अर्थ = पदार्थे, परः = प्रतिपादनपरः ) शब्दः ( घटशब्दः ) सः = कम्बुग्रीवादिमान् अर्थः तस्य घटशब्दाऽर्थः = घटशब्दाऽर्थ इति भावः । तथा च काव्यशब्दानां रसा धनुभवं विना वक्तृबोव्ययोः चेष्टोपायरूपप्रयोजनाप्राप्तेः रसायनुभव एव कृतिविषयत्वेन निश्चीयत इति भावः ।
___उक्तमतं दूषयितुमुपक्रमते-तत्रेति । तत्र-तस्मिन्मते, प्रष्टव्यं प्रष्टुं योग्यम् । किमिदं तत्परत्वं नाम ? पूर्वम् "अतत्परत्वे अनुपादेयत्वात्" इति लेखनेन "तत्परत्वे उपादेयत्वम्” इति प्रतीयते, तत्र "तत्परत्वं" किम् ? तदर्थत्वं वा तात्पर्यवृत्या तद्बोधः कत्वं वा ? । इत्थं कोटिद्वयं समुपस्थाप्य आद्यकोटि दूषयति = आद्य प्रथमे, तदर्थत्व इति भावः । न विवादः = न विरुदो वादः, व्यङ्ग्यत्वेऽपि = अस्मदगीकृतव्यञ्जना. वृत्या तदर्थप्रतिपाद्यत्वेऽपि, तदर्थताऽनपायात = तत्प्रतीति प्रयोजनकत्वाऽविनाशात् ।। जिस अर्थमें जिस शब्दका तात्पर्य है वही शब्दाऽर्थ है ऐसा सिद्धान्त हे । इसप्रकार अभिधासे ही रसाऽदिरूप व्यङ्ग्य अर्थका बोध होता हैं यह एकदेशी मीमांसकका मत है। इस मतका खण्डन करते हैं। इस मतमें हमे पूछना है कि यह "तत्परत्व" क्या है ? । तदर्थत्व है वा तात्पर्य वृत्तिसे उसका बोधकत्व है । पहला पक्ष तदर्थत्व अर्थात् उस शब्दको अर्थत्व मानें तो उसमें विवाद नहीं है क्योंकि व्यङ्ग्यमें भी तदर्थत्वका अपाय (नाश ) नहीं होता है। दूसरा पा अर्थात् तात्पर्य वृत्तिसे उसका बोधकत्व माने तो यह तात्पर्य नामको वृत्ति कौन-सी है ? अभिहिताऽन्वयवादियों ( भाट्टमीमांसको ) से स्वीकृत है या उससे भिन्न ही कोई है तो पहला पक्ष अर्थात् अभिहितान्वयवादियोंसे स्वीकृत ही है माने तो उसका उत्तर "तयोरुपरि पातनीयो दण्डः" इन पक्तियोंसे दे ही चुके हैं। दूसरा पक्ष अर्थात् अभिहिताऽन्वयवादियोंकी स्वीकृत्तिसे भिन्न मानें तो नाममात्र में विवाद रहा क्योंकि आप व्यङ्ग्य अर्थका बोध स्वीकृत तात्पर्य वृत्तिसे अतिरिक्त तात्पर्य वृत्तिसे होता है कहते हैं । चौथी वृत्ति अर्थात् अभिधा, लक्षणा, अभिहिताऽन्वयवादियोंसे स्वीकृत तात्पर्य वृत्ति और उससे भिन्न चौथी तात्पर्य वृत्तिकी सिद्धि हो गई । अर्थात् हम चौथी वृत्तिको व्यञ्जना कहते हैं आप अतिरिक्त तात्पर्यवृत्ति
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साहित्यदर्पणे ____ द्वितीये तु-नाममात्रे विवादः, तन्मतेऽपि तुरीयवत्तिसिद्धेः । नन्वस्तु युगपदेव तात्पर्यशक्त्या विभावादिसंसर्गस्य रसादेश्च प्रकाशनम्-इति चेत् ? न, तयोहे तुफलभावाङ्गीकारात् । यदाह मुनिः-'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः' इति । सहभावे च कुतः सव्येतरविषाणयोरिव कार्यकारणभावः ? पौर्वापर्यविपर्ययात् ।
तात्पर्यवृत्या बोधकत्वमिति द्वितीयपक्षं दूषयति द्वितीये विति । द्वितीये तु र तात्पर्यवृत्या बोधकत्वमिति पक्षे तु, अनुयुङ्क्ते-केयं तात्पर्याख्या वृत्तिः ? अभिहिताग्वयवादिभिः = भाट्टमीमांसकः, अङ्गीकृता, = स्वीकृता, तदन्या वा = तद्भिन्ना वा ? | आद्य = प्रथमे, अमिहिताऽन्वयवादिभिरङ्गीकृता इति पक्षे, उत्तरं = समाधानं, दतम् एव = वितीर्णम् एव, पदानामन्वयबोधनेन परिक्षीणत्वात्तात्पर्यवृत्तेः व्यङ्गयार्थबोधना। • सामध्यमिति उत्तरं उत्तम् एवेति भावः । द्वितीये तु तदन्या वा इति पक्षे तु, अभिहिताऽन्वयवादिभिरङ्गीकृतायास्तात्पर्यवृत्तभिन्ना वा इति पक्षे तु इति भावः। नाममात्रेसंज्ञामात्रे, विवादः विरुद्धो वादः, तन्मतेऽपि = "तदन्या" इति स्वीकतु मतेऽपि तुरीय, वृत्तिसिद्धः । तेऽपि व्यङग्यार्थबोधने तुरीयां-चतुर्या वृत्ति, वारपर्यनामिकां स्वीकुर्वन्ति वयं व्यञ्जनाख्या वृत्ति स्वीकुर्मः, उभयत्र तुरीयवृत्तिसिद्धर्नाममात्र विवाद इति भावः । - अथ तात्पर्यवृत्या योगपर्धन विभावादिसंसर्गस्य रसादेन प्रकाशनं खण्डयतिनन्विति । ननु युगपत् = समकालम् एव, तात्पर्यशक्त्या = तात्पर्यवृत्या, विभावादिसंसर्गस्य - विभावादिसम्बन्धस्य रसादेव = व्यञ्जनाप्रतिपाद्यवस्त्वलकाररसादेशा प्रकाशनं - प्रतिपादनम्, इति चेत् ? न, तयोः - विभावादिसंसर्गरसायोः, हेतुफलभावाङ्गीकारात् = कारणकार्यत्वाऽभ्युपगमात् । विभावादिसंसर्गस्य कारणत्वं रसादेन कार्यत्वम् इति स्वीकारादिति भावः । अत्रार्थे भरतमुनिवचनं प्रदर्शयति-पबाहेति । मुनिः-भरतमुनिः, यत् माह ( स्म) = अकथयत् "विभावाऽनुभावव्यभिचारिसंयोगात् रसनिष्पत्तिः", इति । सहभावे च = विभावादिसंसर्गरसाद्योः युगपदुत्पत्तिस्वीकारे= योगपद्यन उत्पत्तिस्वीकारे, सव्येतरविषाणयोरिव-गोर्वामदक्षिणशृङ्गयोरिव, कुतः कार्य, कारणभाव:-फलहेतुत्वम् । पौर्वापर्यविपर्ययात-पूर्वाऽपरमावस्ययात् । यथा गवादेमिदक्षिणशृङ्गयो: उत्पत्तो सहमावेन कारणकार्यभावो नाऽस्ति, तथैव विभावादिसंसर्ग
प्रब तात्पर्य वत्तिसेव्यग्य रस मादिके प्रतिपादनका खण्डन करते हैंयदि कहें कि तात्पर्य वृत्तिसे विभाव आदिके सम्बन्धका और रस आदिका प्रकाशन एक ही वार होता है ऐसा मानें तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विभाव आदिका संसर्ग रस आदिका हेतु है और रस आदिका प्रकाशन फल माना गया है। जैसे कि भरतमुनिने कहा है"विभाव, अनुभाव और व्यभिचारियव इनके संयोगसे रसकी सिद्धि होती है" । कारण पहले होता है और कार्य पीछे होता है, अतः विभाव आदिका संयोगरूप कारण पहले होता है, उससे रस निष्पत्तिरूप कार्य पीछे होता है । इन दोनोंका सहभाव अर्थात् एक
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पनामा परिच्छेदः
... 'गङ्गायां घोषः' इत्यादौ तटाद्यर्थमात्रबोधविरताया लक्षणायाश्च कुतः शीतत्वपावनत्वादिव्यङ्ग्यबोधकता। तेन तुरीया वृत्तिरूपास्यवेति निर्विवादमेतत् ।
किंचबोद्धृस्वरूपसंख्यानिमित्तकार्यप्रतीतिकालानाम् ।
आश्रयविषयादीनां भेदाद्भिन्नोऽभिधेयतो व्यङ्गधः ॥ २ ॥ रसाद्यो: सहमावे कारणकायंभावो न भविष्यति । “अन्यथासिद्धिशून्यत्वे सति कार्यनियतपूर्ववृत्तित्वं कारणत्वम्" इति कारणलक्षणाऽनुसारेण विभावादिसंसर्गः पूर्ववृत्तित्वा-. कारणरूपः, "प्रागभावप्रतियोगित्वं कार्यत्वम्” इति लक्षणाऽनुसारेण रसादेच कायत्वं, तयोः सहभावे सध्येतरविषाणयोरिव कथं कार्यकारणभाव इति भावः ।
अय लक्षणाया रसादिबोधे असामर्थ्य प्रतिपादयति-गमायामिति । "गङ्गायां: घोषः" इत्यादी तटावर्षबोधनविरतायाः= तटापर्थबोधनेनविरतायाः ( उपक्षीणायाः सक्षणायाः कुतः -कस्मात, शीतस्वपावनत्वादिव्यङ्ग्यबोधकता? "शब्दबुद्धिकर्मण विरम्य व्यापाराऽभाव" इति पूर्वोक्तनियमेनेति भावः । तेन हेतुना, तुरीया - चतुर्थी,
त्तिः = व्यञ्जनाऽऽख्या, उपास्या सेवनीया एव, अङ्गीकार्या एवेति भावः, इत्येतत् निर्विवाद = विवादरहितम् । व्यङ्ग्यार्थस्य वाच्यार्थाद्भिधत्वमुपपादयति-बोदय: स्वरूपेति । बोद्धा प्रतिपादः, ज्ञाता इत्यर्थः । स्वरूपं-प्रकृतिः, संख्या - एकत्वादिः, निमित्तं = कारणं, कार्य-फलं, प्रतीतिः-ज्ञानं, काल:-समयः, तेषाम् । "भेवात" इत्यत्र सम्बन्धः । पूर्वोक्तानामेतेषां भेदात्तथा आश्रयविषयादीनाम् आश्रय:-आधारः विषयः - ही समय में होना मानेगे तो गायके बायें और दाहिने सींगके समान कैसे कार्यकारण भाव होगा? कारण और कार्य में यथाक्रम पूर्वभाव और परभाव होता ही है परन्तु गायके बाएं और दाहिने सींग एक ही बार होते हैं यह अभिप्राय है।
इसप्रकार अभिधा और तात्पर्य इन दोनों वृत्तियोंसे रस आदि व्यङ्ग्य अर्थका बोध नहीं हो सकता है, यह सिद्ध हुआ। अब तीसरी वृत्ति लक्षणासे भी रस आदिका बोध नहीं हो सकता है इस विषयको दिखलाते हैं । "गङ्गायां घोषः” इत्यादि स्थलमें लक्षणा तट आदिरूप अर्थमात्रका बोधन करके विरत हो जाती है अतः वह कैसे शीतत्व और पावनत्व आदि व्यङ्ग्य अर्थका बोधन कर सकती है ? इस कारणसे रस आदि व्यङ्ग्य अर्थका बोध करनेके लिये चौथी वृत्ति (व्यञ्जना)को अङ्गीकार ही करना चाहिए इसमें कुछ भी विवाद नहीं है ।
अब दाच्या अर्थसे मार प्य अर्थका भेद दिखलाते हैं, बोधस्वरूपेति । बोला, स्वरूप, संख्या, निमित्त ( कारण ), कार्य, प्रतीति ( ज्ञान ), काल, आश्रय और विषय
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साहित्यदर्पणे वाच्यार्थव्यङ्ग्यार्थयोर्हि पदतदर्थमात्रज्ञाननिपुर्णरपि वैयाकरणैरपि सहृदयैरेव च संवेद्यतया बोद्धृभेदः ।
. 'भम धम्मिम इत्यादौ-' (पृ० २९९ ) कचिद्वाच्ये विधिरूपे निषेधरूपतया, कचित् 'निःशेषच्युतचन्दनम् –' (पृ०७२ ) इत्यादौ निषेधरूपे विधिरूपतया च स्वरूपभेदः। उद्देश्यम्, तदादीनां भेदात् = प्रकारात, व्यङ्ग्यः - व्यजनावृत्तिप्रतिपाद्यः अहः। अभिधेयतः = अभिधाप्रतिपाद्यात् वाच्याऽर्थात्, भिन्नः = भेदयुक्तः ॥२॥
कारिकां विवणोति-चाच्याऽर्थेति । तत्र तावत्प्रथमं बोद्धभेदं प्रदर्शयतिः वाच्याऽर्थव्यङ्गयाऽर्थयोः = वाच्याऽर्थस्य (अभिधाप्रतिपाचार्थस्य ), व्यङग्याऽर्थस्य ( व्यञ्जनाप्रतिपाद्याऽर्थस्य ) च यथासंख्येन-वाच्याऽर्यस्य, पदतदर्थज्ञानमात्रनिपुणः = शब्द-शब्दार्थबोधमात्रप्रवीणः, वैयाकरणः = व्याकरणाऽभिजः, अत्र मात्रपदेन व्यङ्ग्याऽर्थनिरासः । व्यङ्ग्याऽर्थस्य, सहृदयः एक-हृदयालुभिः एव संवेद्यतया = शेयम्वेन, बोधभेदः प्रतिपाद्यभेदः । शब्दं शार्थ - वयाकरणाः सहृदयान जानन्ति परं व्यङ्ग्याऽयं काव्याऽर्थवेत्तारः सहृदया एव जानन्तीति पाश्रयभेद इति भावः । . स्वरूपभेदं प्रदर्शयति-ममेति । "भम धम्मि" इत्यादी "म" "भ्रम" इति विधिरूपे वाच्ये = अभिधाप्रतिपाद्यऽर्थ, निषेधरूपतया - "न भ्रम" इति प्रतिषेधरूपतया। एतद्वपरीत्येन क्वचित् = कुत्रचित "निःशेषच्युतचन्दनम्" इत्यादी "तस्यायमस्याऽन्तिकं न गताऽसि" इति निषेधरूपे वाच्ये "तस्य एव अन्तिकं गताऽसि" इति व्यङ्ग्यस्य विधिरूपतया च स्वरूपभेदः, इति वाच्याऽर्थव्यग्यायोः स्वरूपभेदः । आदिके भेदसे व्यन्य (व्यञ्जना वृत्तिसे प्रतिपाय ) अर्थ अभिधेय (अभिधावृत्तिमे प्रतिपाद्य ) अर्थ अर्थात् वाच्यार्थसे भिन्न होता है ।। २॥
क्रमपूर्वक भेदका उपपादन करते हैं। वाच्य अर्य पद और पदार्थ मात्रके जानने में निपुण वैयाकरण जानते हैं परन्तु व्यय अयं केवल सहृदय जानते हैं, इस. प्रकार वाच्यार्थ और व्यङ्ग्याऽर्थमें बोढाबों भेद हुवा।
"भ्रम धम्मिन" ("भ्रम धार्मिक" ) (पृ० २९९) इत्यादि स्थलमें "भम" (--भ्रम" ) इत्यादि स्थलमें कहीं भ्रमण करों ऐसे विषिरूप वाच्य वर्ष में "मा प्रय" "अर्थात् भ्रमण मत करो" इसप्रकार निषेधरूप होनेसे तपा निःशेषच्युतचन्दनम्" (पृ०७५) इत्यादिमें "तस्याऽधमस्यान्तिकं न गताऽसि" "अर्थात् उस समय के पास तुम नहीं गई हो" इसप्रकार वाच्याऽर्थ निषेधरूप है परन्तु "तस्याऽमस्यैव वन्तिकं गतास अर्थात् "उस अधमके ही समीपमें तुम गई हो" इस प्रकार व्यङ्ग्या शिक्षित है. इस प्रकार वाच्याऽयं और व्यायाऽर्थके स्वरूपमें भेद है।
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पञ्चमः परिच्छेदः
'गतोऽस्तमर्क:' इत्यादौ च वाच्योऽर्थ एक एव प्रतीयते । व्यङ्ग्यस्तु तद्वद्भ्रादिभेदात् कचित् 'कान्तमभिसर' इति, 'गावो निरुध्यन्ताम्' इति, 'नायकस्यायमागमनावसरः' इति, 'संतापोऽधुना नास्ति' इत्यादिरूपेणानेक इति संख्याभेदः ।
तथाविधप्रतिभानैर्मल्या
वाच्यार्थः शब्दोच्चारणमात्रेण वेद्यः, एष तु
दिनेति निमित्तभेदः ।
प्रतीतिमात्रकरणाश्चमत्कारकरणाश्च कार्यभेदः ।
संख्याभेदं प्रदर्शयति – "गत" इति । "गतोऽस्तमर्कः" इत्यादी "अर्कोऽस्तं गतः” इति अर्ककर्तृकमस्तपर्यंत गमनम्” इति वाच्योऽर्थ:, एक एव प्रतीयते = ज्ञायते । व्यङ्ग्यस्तु तद्बोधादिभेदात् = तस्य ( वाक्यस्य) बोद्घादिभेदात् इति (प्रतिपाद्यादिभेदात् ), क्वचित् कान्तं प्रियम् अभिसरं इति अभिसारिकायां बोद्धयाम्, "गावो निरुध्यन्ताम् " सत्वरणार्थं वियुक्ताः गावो निरुध्यन्ताम् = निवार्यताम् इति गोपाले बोर, " नायकस्याऽयमागमनाऽवसर " इति प्रोषितभर्तृकायां बोद्धयाम् "सन्तापोऽघुना नाऽस्ति" इति निदाघपीडिते बोद्धरि ।
=
३६७
'निमित्तभेदं दर्शयति- "वाच्याऽर्थ " इति । वाच्याऽर्थः शब्दोच्चारणमात्रेण; वेद्यः - ज्ञेयः । एवं तु = व्यङ्ग्यार्थस्तु तथाविधप्रति मानल्यादिना - तादृशबुद्धिनिर्मलत्वादिना, इति निमित्तभेदः - कारणभेदः । कार्यभेदं दर्शयति - प्रतोतिमात्रेति । वाच्येऽर्थे प्रतीतिमात्रकरणात् = ज्ञानमात्र विधानात् मात्रपदेन चमत्कारव्यवच्छेदः । व्यङ्ग्येऽर्थे ज्ञानविधानेन समं चमत्कारकरणाच्च, कार्यभेदः = फलभेदः । प्रतीतिभेदं
.
"गवोsस्तमर्क" अर्थात् सूर्य अस्त पर्वतको चले गये हैं इत्यादिमें वाच्य अर्थ तो एकमात्र प्रतीत होता है परन्तु व्यङ्ग्य अर्थ तो उस वाक्यको सुननेवालोंके भेद से कहीं ! पर (अभिसारिका में ) "कान्त के पास अभिसार करो" कहींपर ( चरबा हेंमें ) "चरती 'हुई गायोंको रोको" कहींपर ( प्रोषितभर्तृका में ) "नायकका यह आनेका अवसर है" (दिनकी गरमी से पीडितजनमें ) अब सन्ताप नहीं है इत्यादि रूपसे व्यङ्ग्य अर्थ अनेक प्रतीत होते हैं अतः संख्याभेदसे वाच्य अर्थसे व्यङ्ग्य अर्थ भिन्न होता है ।
वाच्य अर्थ शब्दों के उच्चारणमात्र से जाना जाता है, व्यङ्ग्य अर्थ तो वैसी प्रतिभा की निर्मलता आदि कारणसे जाना जाता है इसप्रकार निमित्तभेदके कारण व्यङ्ग्य वाच्यसे भिन्न होता है ।
वाच्य अर्थमें केवल पदार्थ की प्रतीति कार्य होता है परन्तु व्यङ्ग्य अर्थमें चमत्कारकी प्रतीतिरूप कार्य होता है अतः वाच्य और व्यङ्गय अर्थ कार्यभेदके कारण भिन्न भिन्न होते हैं ।
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क
साहित्यवर्पणे
केवलरूपतया चमत्कारितया च प्रतीतिभेदः। पूर्वपश्चाद्भावेन च कालभेदः। शब्दाश्रयत्वेन शब्दतदेकदेशतदर्थवर्णसंघटनाश्रयत्वेन चाश्रयभेदः ।
'कस्स व ण होइ रोसो दण पिाएँ सब्वणं अहरं ।
. सब्भमरपडमग्याइणि! वारिआवामे ! सहसु एहिं ॥ : दर्शयति-केंवलेति । वाच्येऽर्थे केवलरूपतया शब्दाऽर्थमात्रबोधनरूपतया, व्यङ्गयोऽर्थे चमत्कारितया च = चमत्कारप्रतीतिकारितया चेति प्रतीतिभेदः ।
कालभेदं दर्शयति-पूर्वेति । वाच्येऽर्थे पूर्वकालता, व्यङ्गधेऽर्थे उत्तरकालतेति कालभेदः ।
. .आषयविषयादीनाम् = आश्रयस्य, विषयस्य च, इत्यादीनां भेदात् । आधयःमेदं दर्शयति- वाऽभयत्वेनेति वाच्येऽय शब्दाधयत्वेन - शब्दमावाऽधारत्वेन, माथे शब्दतदेकदेशतदर्थवर्णसंघटनावयत्वेन पशब्दः पदं, तदेकदेशः = प्रतिप्रत्ययादिरूपः, तवर्षः-वाच्यलक्ष्यात्मकः, वर्ण:-गुणाऽभिव्यजक: बारसमूह संघटना = रचना च, तवाश्रयत्वेन - तवाधारस्वत आश्रयभेदो भवति ।
विषयभेदमुदाहरति-कस्य हतिः।.... "कस्य पान भवति ऐषो दृष्ट्वा प्रियायाः सवणमधरम् । .
अभ्रमरपाघ्रामिण! बारितवामे । सहस्वेदानीम्॥ (इति संमतच्छाया). . उपनायकदष्टाधरी नायिका प्रति तत्पतिप्रबोधनाऽर्थकस्पाश्चित्सख्या उक्तिरियम् । प्रियायाः = कान्तायाः, अधरम् = बोष्ठ, सवर्ण - दशनक्षतिचिह्नयुक्त, दृष्ट्वा = विलोक्य, कस्य वा = पत्युः, रोषः = क्रोधः न भवति ? सर्वस्यैव भवतीति भावः ।
'गच्य अर्थ में शब्दाऽर्थ मात्रकी प्रतीति होती है, परन्तु व्यङ्गप अर्थमें चमत्कार की भी प्रतीति होती है अतः प्रतीतिभेदसे भी वाच्यार्य और व्यङ्गपाऽयंकी भिमता होती है।
वाच्य अर्थकी पहले प्रतीति होती है व्यङ्गय अर्थकी पीछे प्रतीति होती है अतः कालभेदसे वाच्य और व्यङ्गय अर्थ भिन्न भिन्न है।
- वाच्य अर्थका आश्रयं शब्द है परन्तु व्यङ्गय अर्थका शब्द, शब्दका एकदेश (प्रकृति प्रत्यय आदि), शब्दार्थ (वाच्याऽर्थ लक्ष्याऽर्थ), वर्ण (गुणोंका अभिव्यञ्जक वर्णसमूह ) संघटना (रचना), ये सब. आश्रय होते हैं अतः आश्यभेदसे भी वाच्याऽर्थ पोर व्यङ्गयाऽर्थकी भिन्नता स्पष्ट रूपसे प्रतीति होती है।
विषयभेदका उदाहरण देते हैं । कस्स वेति । (कस्य वा न भवति० ) प्रियाके अधरको व्रणयुक्त देखकर किसे
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पञ्चमः परिच्छेदः
३६९
इति सखीतत्कान्तविषयत्वेन विषयभेदः । तस्मान्नाभिधेय एव व्यङग्यः। तथा
प्रागसत्त्वाद्रमादेनों बोधिके लक्षणाभिधे ।
. किश्च मुख्यार्थवाधस्य विरहादपि लक्षणा ॥ ३ ॥ हे सभ्रमरपद्माघ्रायिणि = हे समधुपकमलाघ्राणगीले !, सभ्रमर ( भ्रमरसहितम् ) यत् पद्म ( कमलम् ) तत् आजिघ्रतीति तत्सम्बुद्धौ। हे वारितवामे = निषिद्धे विषयेऽपि हे प्रतिकलगीले ! वारितेवामा तत्सम्बुद्धो । सभ्रमरं कमलं मा जि ति मया निवरिता त्वं तादशं कमलमाघ्रातवतीति भावः, अतस्त्वत्पतिस्त्वच्चरित्रे सन्दिहानोऽस्ति, तत. इदानीं, सहस्व = पति कृतं कोपं मर्षयेति भावः । गाथा वृत्तम् ।।
अत्र विष्यभेदं विवृणोनि--इतीति । इति = अस्मिन् पद्य, सखीतत्कान्त. विषयत्वेन = सखीविषयत्वेन तत्कान्तविषयत्वेन च विषयभेदः । अत्र वाच्याऽर्थबोधे विषयभूता सखी, भ्रमरेण अस्या अधरो दष्टो न पुनः पुरुषाऽन्तरेणेति व्यङ्गयाऽर्थबोधे विषय भूतो नायक इति विषयभेदः । अत्रोमाभ्यामेव नायिकानायकाभ्यां व्यङ्गयाऽर्थो बुद्ध इति नाऽत्र बोभेद इत्यवधेयम् । निगमयति--अस्मादिति । तस्मात् = पूर्वोक्ताद् बोद्मादिभेदात्, अभिधेय:- वाच्यार्थः, नव व्यङ्गयः, इत्थमुभयोर्भेदसत्त्वादिति भावः।।२।। . लक्षणाऽभिधयो रसादेोधनाऽक्षमत्वं प्रतिपादयति- प्रागसत्वादिति । रसादेः = रसभावादेव्यङ्गयस्य, प्राक् = प्रथमम्, बोधात्पूर्वमिति भावः । असत्त्वात् = अविद्यमानत्वात्, लक्षणाऽभिधे = लक्षणा अभिधा च, नो बोधिके = न प्रतिपादिके । प्रयाणामपि व्यङ्गयानां मुख्यार्थबोधविरहादपि न लक्षणा बोधिका । प्रमाणान्तरसिद्धमेव धस्तु लक्षणाऽभिधे बोधयत इति भावः ।
लक्षणाया रसादेर्बोधनाऽक्षमत्वे हेत्वन्तरमुपन्यस्यति--किचेति । मुख्याऽर्थ. वाधस्य = वाच्याऽर्थप्रतिबन्धस्य, विरहात अपि = अभावात् अपि, लक्षणा = भक्तिः, नो बोधिकेति शेषः । मुख्यार्थबाध एव लक्षणा प्रवर्तते मुख्याऽर्थवाधाभावात् लक्षणा रसादि नो बोधयतीति भावः ॥ क्रोध न होगा? भ्रमरयुक्त कमलको सूघनेवालो ! निषिद्ध विषय में भी प्रतिकूल आचरण करनेवाली ! अब तुम पति जो करें सहन कर लो। यहाँपर थथाश्रुत वाच्य अर्थमें विषयभूत सखी है और "भौंरेने इसके अधरको काटा न कि परपुरुषने" इस व्यङ्गय अर्थके बोधमें विषय नायक है, इस प्रकार वाच्य अर्थमें और व्यङ्गय अर्थमें विषयोंका भेद होता है, अतः अभिधेय ( वाच्य अर्थ ) ही व्यङ्गय अर्थ नहीं होता है । अभिधा और लक्षणाकी रस आदिके प्रतिपादन में असामर्थ्य दिखाते हैं--रस भाव आदि व्यङ्गयके पहले न होनेसे लक्षणा और अमिधा उनका बोध करनेवाली नहीं हो सकती हैं । इसी तरह मुख्य अर्थका बाध न होनेसे लक्षणा भी रस बादि व्यङ्गय अर्थका बोध नहीं करा सकती है ॥ ३ ॥
२४ सा
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३७०
साहित्यदर्पणे .
'न बोधिका' इति शेषः। नहि कोऽपि रसनात्मक व्यापाराना रसादिपदप्रतिपाद्यः पदार्थः प्रमाणसिद्धोऽस्ति, यमि लक्षणाभिवे बोधयेत म्। 'किञ्च, यत्र 'मलायां घोषः' इत्यादावुपात्तशब्दार्थानां बुभूषनवा. वयोऽनुपपत्त्या बाध्यते तत्रैव हि लक्षणायाःप्रवेशः। यदुक्तं न्यायकुसुमाञ्जलावुदयनाचार्य:
'श्रु तान्वयादनाकारूवं न वाक्यं प्रन्यदिच्छति।
पदार्थान्वयषेधुर्यात्तदाक्षिप्तेन सङ्गतिः॥' रसादेोधासासस्व दर्शयति-न होति । रसनात्मकव्यापाराद्भिन्नः = व्यञ्जनात्मकव्यापाराद्भिश्नः, रसादिपदप्रतिपास, कोऽपि पदार्थः नहि प्रमाणसिद्धोऽस्ति, यम् इमे लक्षणाऽभिधे, बोधयेताम् = प्रतिपादयेताम् ।
___ मुख्याऽर्थबावाभावाल्लक्षणाया अप्रसक्ति दर्शयति--किञ्चति । यत्र "गङ्गाया घोषः” इत्यादी = स्थले उपातशब्दार्थानाम् - उच्चारितपदार्थानां, गङ्गाप्रवाहे घोषः ( नाभीपल्ली ) इति वाच्यार्यानाम्, अन्वयः = मिथः सम्बन्धः, बुभूषन् एव = 'पान्तुम इच्छन् एव, अनुपपत्या - असङ्गतिबोधन, बाध्यते-प्रतिबध्यते, तत्रैव हि % रास्मिन् एक हिस्थले, लक्षणायाः, प्रवेशः = निवेशः ।
. उक्ताऽर्थे उदयनाचार्यसंवादं प्रदर्शयति--अताऽन्वयादिति । श्रुताऽन्वयात् = श्रुतानाम् ( आकणितानाम् ) पदानाम् ( शब्दानाम् ) अन्वयात् = मिथःसम्बन्धात्, अनाकासम् = अन्तरस्य आकाङ्क्षारहितं, वाक्यं पदसमूहः, अन्यत्-पदाऽथान्तरं, न..इति =न वाञ्छति । पदाऽर्थाऽन्वयवधुर्यात् = पदार्थाऽन्वयस्य ( मुख्याऽर्थाऽस्वयस्य) वैधुर्यात् ( अनुपपत्तिग्रहात् ) हेतोः, "गङ्गायां घोषः" इत्यादाविति भावः । तदाक्षिप्तेन = तेन (मुख्याऽर्थन ) आक्षिप्तेन (सम्बद्धन ) तटादिनेति भावः । सङ्गतिः = अन्वय इत्यर्थः । एतेनोदयनाचार्यमतेऽपि मुख्याऽर्थबाघ एव लक्षणेत निरूपितम् ।
रसन (मास्वादन ) व्यापारसे भिन्न रस बादि पदका प्रतिपाद्य कोई भी पदार्थ प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, जिसका ये लक्षणा ओर अभिधा बोधन करें। और फिर "गङ्गायां
क" इत्यादि स्थलमें उच्चारित पदार्थोका अन्वय होने में अनुपपरिसे (गङ्गामें आभीर होके न हो सकनेसे) बाधित हो जाता है, वहीं पर लक्षणाका प्रवेश होता है, जिसे न्यायकुसुमाकबलिमें उदयनाचार्यने कहा है-श्रुतपदोंके अन्वयसे आकाङ्क्षासे रहित वाय-अन्यायाऽसे भिन्न पदार्थकी अपेक्षा नहीं करता है। परन्तु जहाँपर "गङ्गायां पोषा" स्यादि स्वछमें पदार्थों के अन्वयमें अनुपपत्ति होती है वहांपर बाक्षिप्त तटादि. रूप लक्षणीय असे सङ्गति हो जाती है ।
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पचमः परिच्छेदः
'न पुनः 'शून्यं वासगृहम् -' इत्यादी ( २४ पु० ) मुख्यार्थबाधः । यदि च 'गङ्गायां घोष:' इत्यादौ प्रयोजनं लक्ष्यं स्यात्, वीरस्य मुख्यार्थत्वं बाधितत्वं च स्यात् । तस्यापि च लक्ष्यतया - प्रयोजनान्तरं | स्यापि प्रयोजनान्तरमित्यनवस्थापातः । न चापि प्रयोजनविशिष्ट एव
प्रकृते मुख्यार्थबाधाऽभावं दर्शयति--न पुनरिति । "शून्यं वासगृहम्" इत्यादी ★ मुख्यार्थबाधः = मुख्याऽयें ( वाच्यायें ), बाघ : ( प्रतिबन्धः ) येन लक्षणया रसप्रतीतिः स्यात् ।
surस्य लक्षण बोध्यत्वाऽङ्गीकारेऽनवस्थादोषमाह-यदि चेति । यदि च 'गङ्गायां घोष" इत्यादी प्रयोजनं-शेस्यपावनत्वादिकं लक्ष्यं = लक्षणाप्रतिपाद्य स्यात् रस्य गङ्गावदनुख्यार्थत्वं तस्य बाधितत्वं च स्यात् यतो मुख्यायंबाध एवं लक्षणा नवति तस्याऽपि लक्ष्यमाणप्रयोजनस्यावि, लक्ष्यतया लक्षणा प्रतिपाद्यतया, प्रयोजनान्तरम् = अन्यत् प्रयोजनं तस्याऽपि द्वितीय प्रयोजनस्यापि, लक्ष्यंतयां लक्षणाप्रतिपाद्यतया, प्रयोजनान्तरम् = अन्यत् प्रयोजनम्, इति= इत्थम्, अनवस्थापात: अनवस्थाप्रसक्तिः । अप्रामाणिकाऽनन्तकल्पनाऽने वस्था । "एवमप्यनवस्था स्याद्या मूळक्षतिकारिणी ।" (का.प्र.)
=
'विशिष्टलक्षणावादिनां मतं दूषयति-न चाऽपीति । प्रयोजनविशिष्ट एव = संत्यपावनत्वरूपप्रयोजन विशिष्ट एव, तीरे तंटे, लक्षणाऽपि न, विषय प्रयोजनयोः = विषय: ( कारणीभूतज्ञानविषय:, तीरादिः ) प्रयोजनं ( फलीभूत ज्ञान विषयः, पावनस्वादिकम् ) तयी, युगपत्प्रतीत्यनभ्युपगमात् = एककालाऽवच्छेदेन ज्ञानाऽनङ्गीकारात् । कारणभूतं तीरं प्राग् ज्ञायते फलमूतं शैत्यपावनत्वादिकं पञ्चाज्ज्ञायते इत्थं च तयोयौगपद्येन ज्ञानासंभव इति भावः ।
"शून्यं वासगृहम्" इत्यादि स्थलमें मुख्य अर्थका बाघ नहीं हैं, इसलिए वहां पर satara नहीं है । यदि "गङ्गाया घोषः" इत्यादि स्थलमें शेष्य पावनत्व
(लक्षणा प्रतिपांच ) होगा और तीरको मुख्यार्थ मानकर अन्वय में बाघितत्व भी होगा, क्योंकि जहाँपर मुख्य अर्थमें बाघ होता है वहीं पर लक्षणा होती है । शैस्य पानवको लक्ष्य मानने से दूसरा प्रयोजन मानना होगा। उस 'प्रयोजनका भी लंक्ष्व मानेंगे तो फिर दूसरा प्रयोजन मानना होगा इसप्रकार अनवस्थादोष होगा ।
प्रयोजनविशिष्ट पदार्थ में लक्षणा होती है ऐसे मतका खण्डन करते हैं-प्रयोजन( शैत्य पावनस्व आदि ) युक्त तीरमें ही लक्षणा होती है यह कहना भी ठीक नहीं हैं । क्योंकि विषय ( कारणीभूत ज्ञानविषय तीर आदि) और प्रयोजन ( फलीभूत ज्ञानविषय शैत्य पावनस्व आदि) इनका एक ही साथ ज्ञान नहीं हो सकता है । कारणभूत ती की पहले प्रतीति होती है और फलभूत शैत्य और पावनत्व आदिकी पीछे प्रतीति होती है ! कारण और कार्यका एक ही वार ज्ञान नही हो सकता है । क्रमसे उनकी प्रीति होती है यह भाव है ।
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साहित्यदर्पणे
तीरे लक्षणा । विषयप्रयोजनयायुगपत्प्रतीत्यनभ्युपगमात् । नीलादिसंवेदनानन्तरमेव हि ज्ञातताया अनुव्यवसायस्य वा सभवः।
नानुमानं रसादीनां व्यङ्गघानां बोधनक्षमम् ।
आभासत्वेन हेतूनां स्मृतिन च रसादिधीः ॥ ४ ॥
फलफलिनोयिमतेन मीमांसकमतन च पूर्वाऽपरभावं दर्शयति-नीलादीति। नीलमहमजासिषमिति नीलादिसंवेदनाऽनन्तरमेव = नीलादिज्ञानाऽनन्तरमेव, ज्ञातता= प्रत्यक्षज्ञानस्य फलरूपा उत्पद्यते, मीमांसकमतमेतत् । नयायिक मते तु नीलादिज्ञानं व्यवसायः, तदनन्तरमेव नीलो ज्ञात इति फलरूपः अनुव्यवसाय. उत्पद्यते । अतश्च कारणीभूतलक्ष्याऽर्यज्ञानं फलरूपं व्यङ्गयाऽर्थज्ञानमेककालाऽवच्छेदेन न सभवतीति सिद्धम् ।
काव्यं रसादिमत विभावादिमत्वादि'त्यनुमानेन व्यञ्जनां निरस्यतो महिमभट्टस्य मतमुपस्थाप्य खण्डयितुमुपक्रमते।
___ अनुमानेन रसादिव्यङ्ग्याना प्रतीतिरिति वादिना महिमभट्टानां मतं खण्डयतिनाऽनुमानमिति । अनुमान व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताज्ञान, हेतूनां साधनानाम्, आमा. सत्वन-व्यभिचारादिदोषग्रस्तत्वेन, व्यङ्गयांनाम् आलङ्कारिकसम्मतव्यञ्जनाप्रतिपाद्यानां, रसादीनां-वस्त्वलकाररसादिरूपाणां, बोधनक्षम-बोधने (प्रतिपादने क्षमं (समर्थम) न ।
रसादिज्ञानस्य स्मृतित्वं खण्डयति-स्मतिरिति । हेतुनाम् आभासत्वेन रसादिधी:- रसादिज्ञानं च, स्मृतिः - संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं न ॥ ४ ॥
इसी बातको भीमासा और न्यायके मतसे दिखलाते हैं
"नीलको मैंने जाना" इस प्रकार नील आदिके प्रत्यक्षज्ञानके अनन्तर उसका फलरूप ज्ञातता वा प्रकटता उत्पन्न होती है यह मीमांसाका मत है। न्यायमतमें "यह नील है" इसप्रकार नील आदिके प्रत्यक्ष ज्ञानके अनन्तर 'नीलको मैंने जाना" ऐसा फलस्वरूप अनुव्यवसाय उत्पन्न होता है। इन दोनोंके मतके अनुसार लक्ष्यपदार्थका ज्ञान कारणस्वरूप है और व्यङ्ग्य अर्थका मान फलरूप है फलतः एक ही समय कारण और कार्यका ज्ञान नहीं हो सकता है । इसी बातको काव्यप्रकाशकारने
"प्रयोजनेन सहित लक्षणीयं न युज्यत ।
ज्ञानस्य विषयो पन्यः फलमन्यदुदाहृतम् ।।" का० प्र० इस कारिकामें कहा है।
अनुमानसे रस आदि पदार्थोका बोध होता है ऐसा मत माननेवाले महिमभट्टक मतका उपन्यास कर खण्डन करते हैं --
हेतुओंका व्यभिचार बादि दोषसे युक्त होनेसे अनुमान (व्याप्तियुक्त पक्षधर्मताका ज्ञान, रस आदि व्यय पदार्थाका प्रतिपादक नहीं हो सकता है । इसी तरह स्मृति (संहारमात्रजन्यमान ) मी हेत्वाभास होनेसे रसादि अन्य पदार्थोका बोधन नहीं कर सकती है ॥४॥
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पचमः परिच्छेदः
व्यक्तिविवेककारेण हि यापि विभावादिभ्यो रसादीनां प्रतीतिः सानुमान एवान्तर्भवितुमर्हति । 'विभावानुभावव्यभिचारिप्रतीति रसादिप्रतीतेः साधनमिष्यते' । ते हि रत्यादीनां भावानां कारण कार्य सहकारिभूतास्ताननुमापन्त एवं रसादीनष्पादयन्ति । त एव प्रतीयमाना आस्वादपदव गताः सन्तो रसा उच्यन्ते इत्यवश्यंभावी तत्प्रतीतिक्रमः केवलप्राशुभावितयाऽसौ न लक्ष्यते, यतोऽयमद्याप्यभिव्यक्तिक्रम:' इति यदुक्तम् । तत्र
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"
काvिai विवृणोति - व्यक्तिविवेककारेणेति । व्यक्तिविवेककारेण = व्यक्ति+ विवेकनामक ग्रन्थकारेण महिम बट्टेन, अस्य पदस्य "यदुक्तम्" इति पदद्वयेन सम्बन्धः । 'विभावादिभ्यः = विभावाऽनु पावव्यभिचारिभ्यः याऽपि रसादीनां - वस्त्वलङ्कार रसादीनां प्रतीति: ज्ञानम्, सा=प्रतीति: अनुमान एवं = व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताज्ञान एव, अन्तर्भवितुम् = अन्तः स्थातुम् अर्हति = योग्या भवति । हि = यस्मात्कारणात् विभावानुभावव्यभिचारिप्रतीतिः = विभावानुभावव्यभिचारिज्ञानं रसादिप्रतीते:रसादिज्ञानस्य, साधनं = हेतु:, इष्यते = अभिलष्यते । हि यस्मात्कारणात्, ते = विभावानुभावव्यभिचार्याकयः, रत्यादीनां = रतिप्रभृतीनां भावानां पदार्थानां यथाक्रमं कारणकार्य सहकारिभूताः सन्तः तान् रसादीन्, अनुमापयन्त एव = = अनुमानेन बोधयन्त एव, रसादीन् = रसप्रभृतीन्, निष्पादयन्ति = बोधयन्ति । त एव हि विभावादय एव हि प्रतीयमानाः = श्रव्यदृश्य काव्ययोर्ज्ञायमानाः, आस्वादपदवीं = चाप, गताः प्राप्ताः सन्तः रसाः, उच्यन्ते कथ्यन्ते । नसु एतादृश कार्यकारणभावस्वीकारे रसादेरस लक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यत्वं कथमुपपद्यते ? इत्याशङ्कयाह - श्रवश्यं भावीति । तत्प्रतीतिक्रमः = रसज्ञानपौर्वापर्यम् । अवश्यम्भावी = अवश्यम् भवनशीलः, आशुभावितया = शीघ्रभावित्वेन, केवलम् = एव, न लक्ष्यते = नो ज्ञायते, यतः = यस्मात् कारणात्, अयं = रसादिः, अद्यापि अभिव्यक्तिक्रम: = अभिव्यक्ती (स्फुटसायाम् ) भ्रमः (पौर्वापर्यम् . ) यस्य सः । तत्प्रतीतिक्रमप्रकार एष:- आदी विभावादिलिङ्गज्ञानं ततो रत्यनुमितिः, ततः पुनः पुनरनुशीलनं तत आस्वादः । एतादृश
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1
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३७३
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व्यक्तिविवेककारने विभाव आदिसे जो रस आदिकी प्रतीति ( ज्ञान ) है वह अनुमानमें ही अन्तर्भूत हो जाती है। क्योंकि विभाव, अनुभाव और व्यभिचार भावकी प्रतीति रस आदिको प्रतीतिका साधन मानी जाती है वे विभाव अनुभाव, और सवारी भाव रति आदि भावों यथाक्रम कारण, कार्य और सहकारी होकर उन रस आदिको अनुमान से प्रतिपादन करते हुए ही रस आदिका प्रतिपादन करते हैं। विभाव आदि ही श्रव्य और दृश्यका में जाने जाते हुए आस्वाद पदवीको प्राप्तकर "रस" कहे जाते हैं इसप्रकर उनका प्रतीतिक्रम ( पूर्वाऽपरभाव ) अवश्य है परन्तु शीघ्रताके कारण नहीं जाना जाता है जिससे कि यह अभी भी क्रमको अभिव्यक्तिवाला है अर्थात् पहले विभाव
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· साहित्यदर्पणे
प्रष्टव्यम्-किं. शम्दाभिनयसमर्पितावभावादिप्रत्ययानुमितरामादिगतरांगाविज्ञानमेव रसत्वेनाभिमतं भवतः, तद्भावनया भावकैर्भाव्यमानः स्वप्रकाशानन्दो वा। आयें न विवादः, किन्तु 'रामादिंगतरागादिज्ञानं रससंझया नोच्यतेऽस्माभिः' इत्येव विशेषः । कमस्वेऽपि सूक्ष्मकालतया शंतपत्तव्यविभेदक्त न लक्ष्यत इति भावः । इति यदुक्तम् "एतदन्तो मामो महिमभट्टपक्षोपन्यासरूपेण उद्धतः ।
पापण उधतः ।। पूर्वोक्तं महिममट्टमतमनुमानगम्य रसादिज्ञानमिति खुण्डयितुमुपक्रमते तत्र प्रष्टव्यः मिति । प्रश्ने कोटिद्वयं समुपस्थापयति । तत्र प्रथमा कोटिरियं-किमिति । शब्दाs. भिनयेत्यादिः = शब्दः (अन्यकाव्यम् ), अभिनयः (दृश्यकाव्यम्), तयोः समर्पितः (जनितः ) यः विभावादिप्रत्ययः (विभावादीना, प्रत्यय:-शानम् ), तेन अनुमितः ( अनुमितिविषयीकृतः.) यः रामादिगतः ( रामचन्दादिगतः ) रागादिः ( सीतादिविषयानुरागादिः), तज्ज्ञानमेव (तदबोच एव ) भवतः = तव, रसत्वेन = रसरूपेण, अभिमतं = स्वीकृतम् । वा = अथ वा, तद्भावनया - राभादिगतरागादिविप्तया, भावकः = सामाजिक, भाब्यमानः = आस्वाबमानः, स्वप्रकाशानन्दः - स्वेन (आत्मना ) प्रकाशः ( भासनम् ) यस्य सः, बानन्द मानन्दस्वरूपन, भवतो रसत्वेन अभिमत इति लिङ्गव्यत्यनेन पूर्वपदपरामर्शः । आचपमं विविनक्ति-पाच इति । आवे-प्रथमे पड़े, रामादिगतसीता विविषयकानुरागादे रसत्वे, न विवादः, आवयोन विप्रतिपत्तिः । रत्यादेरनुमान व्यञ्जना चेति विवादो नाऽऽपातत इति भावः । रामः सीताविषयकरतिमान सीताविषयककटाक्षादिभावातु, अस्याऽनुमानस्य हेत्वाभासवानिति भावः । किन्तु रामादिगतरागादिशानं - रामादिगतप्रीतादिविषयकाऽनुरागादिज्ञानमनुमानसंमवं, रसंसंशया रसनाम्ना, मोच्यते-नाऽभिधीयते, अस्मामिः-मालवारिकः। तत्र रसाऽभावादिति भावः । ..... . आदिका शान, तब रतिकी अनुमिति अनन्तर वारंवार अनुशीलन, तबरसकी निष्पत्ति होती. है, शीघ्रताके कारण ही सैकड़ों उत्पलपत्रोंके एक ही बार वेधे जानेसे जैसे क्रमका शान नहीं जाना जाता है, उसी तरह इसका भी कम नहीं जाना जाता है । ऐसा.जो कहा है। उसमें पूछना चाहिए शब्द ग अभिनयमै समपित विभाव आदिके ज्ञानसे अनुमित राम आदिमें स्थित राग मादि ज्ञानको ही आप रस मानते हैं अथवा राम आदिमें स्थित राम आदिकी भावनासे सामाजिकोंसे आस्वादन किया जानेवाला स्वतःप्रकाशित आनन्दस्वरूप चमत्कारको? पहले पक्षमें कोई विवाद नहीं है परन्तु राम आदिमें स्थित राग आदिके ज्ञानको हमलोग रस नहीं मानते हैं, यही भेद है।
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पञ्चमः परिच्छेदः
द्वितीयस्तु व्याप्तिग्रहणाभावाद्धेतोराभासतयाऽसिद्ध एव । यच्चोक्तं तेनेव
'यत्र यत्रैवंविधानां विभावानुभावसात्विकसञ्चारिणामभिधानमभिनयो वा तत्र तत्र शृङ्गारादिरसाविर्भावः' इति सुग्रहैव व्याप्तिः पक्षधर्मता च। ... तथा
'याऽर्थान्तराभिव्यक्ती वः सामग्रीष्टा निबन्धनम् ।
द्वितीयपक्षेऽनुमेयत्वाऽसंभवं प्रदर्शयति-द्वितीयस्त्विति । सामाजिकगतः स्व. प्रकाशानन्दरूपः । तत्र व्याप्तिग्रहणाऽभावाद = साध्यसाधनयोरेकाधिकरणतित्वज्ञानाऽ. भावाद । हेतोः = साधनस्य, भाभासतया = व्यभिचारदुष्टतया, असिद्ध एव = असिद्धनामको हेत्वाभास एव । सीतारूपविभावस्य राममात्रवत्तेनं सामाजिके, अतः स्वरूपाऽ. सिद्धरूपो हेत्वाभासः ।
इदानी विभावनादिव्यापारमागित्वेन हेतु विशेष्य व्यभिचारं वारयित्वा व्यादिन. ग्रहमुपतादयतो महिमभट्टस्य मतं द्रूषयितुमुपक्रमते यच्चोक्तमिति । तेनैव = महिममट्टनेव । यच्च, उक्तम् यत्र यत्र = स्थले, एवंविधानाम = एतादृशाना, विभावादि. व्यापारमागिनामिति भावः। विभावानुमावसात्त्विकसञ्चारिणां = तत्तद्भावानाम, अभिधानं = स्वस्वशब्देनोपस्थाग्नम्, अभिनयो वा = नटचेष्टादिभिपस्थापनं वा, तत्र तत्र = स्थले, शृङ्गारादिरसाविर्भावः, इति ब्याप्तिः = यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निरिति साध्यसाधनयोः साहचर्यनियमः । . पक्षधर्मता च = व्याप्यस्त्र (धूमादेः) पर्वतादि. पक्षवृत्तित्वम् । सुग्रहा एव = सुखेन ग्रहीतु शक्या एव । तथा च व्याप्त्या सामान्यसिद्रिः, पक्षधर्मतया च विशेषसिद्धिः । यथा वह्निपान धूमादित्या व्याप्त्या सामान्यसिद्धिः, पक्षधर्मतया च पर्वते वह्निमत्त्वादिविशेषसिदिः । तथेति ।
. स्वमतेनाऽनुमानसामग्री प्रदर्शयति-येति । अर्थान्तराऽभिव्यक्ती = अर्थान्त- . रस्य ( रसस्य ) भिव्यक्ती ( आस्वादने) निबन्ध - कारण, वः = युष्माकं, व्यञ्जनावृत्ति स्वीकुर्वतामिति भावः । या, सामग्री = शब्दबोधादिरूप: कारणसमूहः, .
दूसरे पक्षमें व्याप्तिग्रहणके अभावसे हेतुका आभास होनेसे असिद्ध नामका हेत्वाभास ही हो जाता है।
____ जो कि उन्होंने ( महिमभट्टने ) ही कहा हे-"जहां जहां ऐसे ( विभावन आदि व्यापारवाले ) विमाव, अनुभाव, सात्त्विक और संचारी इन भावोंका अपने अपने शब्दसे उपस्थापन धा अभिनव है वहां वहां शृङ्गार आदि रसोंका आविर्भाव होता इस प्रकारसे व्याप्ति ( साध्य और साधनका साहचर्यनियम ) और पक्षधर्मता (ब्याच्या का पर्वत आदि पक्ष में रहना) सुग्रह ही है। वे यह भी कहते हैं
दूसरा अर्थ ( रस आदि ) की अभिव्यक्तिमें तुम (व्यञ्जनाको माननेवाले),जिस .
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साहित्यदर्पणे
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सैवानुमितिपक्षे नो गमकत्वेन ' संमता ।' इति । . इदमपि नो न विरुद्धम् । न ह्य विधा प्रतीतिरास्वाद्यत्वेनास्माकम: भिमता, किन्तु-स्वप्रकाशमात्रविश्रान्तः सान्द्रानन्दनिर्भरः । तेनात्र सिषाधयिषितादर्थादर्थान्तरस्य साधनाद्धतोराभासता। यच्च 'भम धम्मिअ-' इत्यादौ (पृ० २५९) प्रतीयमानं वस्तु।
'जलकेलितरलकरतलमुक्तपुनःपिहितराधिकावदनः । इष्टी- अभिमता, सा एव-सामग्री एव, विभावादिरूपा इति भावः, नः - अस्माकम्, अनुमितिवादिनामिति भावः । गमकत्वेन-रसानुमापकत्वेन, समता-समभिमता । इति ।
इदमपि - एतस्कथनमपि, नः = व्यजनावादिना, न विरुद्ध - न सविरोधम् ।
तहि अभ्युपगम्यतेति चेत्तत्राह-नहोति । एवंविधा = एतादृशी, प्रतीतिः = शानम्, अनुमानजनितमिति भावः । आस्वाचस्वेन - आस्वाविषयस्वेन, अस्माकं = व्यञ्जनावादिनां, न अभिनता = न स्वीकृता।
भेदं प्रदर्शयति-किनिस्वति । स्वप्रकाशमात्रविश्रान्तः-स्वस्वरूपमात्र विषयीकृतः, सान्द्रानन्दनिर्भरः - निररसुखाऽतिशयः । तेन - तादृशाऽनुतिरास्वादत्वस्वीकारेण, सिसायिषितात् साधयितुमिण्टाद अर्थात- स्वप्रकाशानन्दरूपात, अर्थान्तरस्य = भिन्नपदार्थस्य रामाऽदिनिष्ठसीतादिविषयकरतिज्ञानस्य, साधनात् = अनुमापनात्, आभासता = दुष्टता।
इत्यं रसादेस्नुमानाऽगोचरत्वं व्यवस्थाप्य वस्त्वलङ्गाररूपयोर्व्यङ्गययोरपि अनुमानाऽऽगोचरत्वं दर्शयति-पच्चेति । यच्च = "भम धम्मि" इत्यादी, प्रतीयमानं वस्तु "भ्रम" इत्यनेन विधिना "न भ्रम" इति व्यज्यमान वस्तु ।
जलकेलीति.। जलकेलीत्यादिः । जलकेको (जलक्रीडायाम) राधिकया सहेति भावः। तरले (चञ्चले, जलप्रेरणया इति भावः ) ये करतले (इस्लतले ) ताभ्यां सामग्रीको कारणस्वरूप मानते हो, उसीको हम अनुमितिपक्ष में रसके अनुमापके . रूपमें स्वीकार कर लेते है । ऐसा कहना भी.हम व्यञ्जनावादियोंको विरुद्ध नहीं है। .. अनुमानसे उत्पन्न ऐसे ज्ञानको हम लोग आस्वादविषय नहीं मानते हैं, किन्तु स्वप्रकाशमात्रमें विश्रान्त सान्द्र आनन्दके अतिशयको आस्वादविषय मानते हैं । इस कारणसे यहाँपर सिद्ध करनेके लिए अभीष्ट अर्थसे भिन्न अर्थको सिद्ध करनेसे हेतुकी दुष्टता ( हेस्वाभासता )। अर्थात् रसका अनुमान नहीं हुआ रागगत सीताविषयक अनुराग अनुमित हुआ इसलिए हेत्वाभास हो गया यह अभिप्राय है। .. अब वस्तु और अलङ्गाररूप व्यङ्ग्य अर्थ भी अनुमानसे ग्राह्य नहीं हैं इस विषयका प्रतिपादन करते हैं जो "भम धम्मि" ( भ्रम धार्मिक ) इत्यादिमें "भ्रम" इस विधिसे प्रतीयमान (व्यङग्य ) "न भ्रम" ऐसी वस्तु तथा "जलक्रीडाके समय में
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पञ्चमः परिच्छेदः
जगदवतु कोकयुनोर्विघटनसंघटनकौतुकी कृष्णः ।।
इत्यादौ च रूपकालङ्कारादयोऽनुमेया एव । तथाहि-'अनुमानं नाम पक्षसत्त्वसपनसत्त्वविपक्षव्यवृत्तत्वविशिष्टाल्लिङ्गालिङ्गिनोज्ञानम्। ततश्च वाच्यादसंबद्धोऽर्थस्तावन्न प्रनीयते । अन्यथाऽतिप्रसङ्गः स्यात्, इति बोध्य(प्राक् मुक्तं = त्यक्तं, पश्चात् पुन विहितम् (आच्छादितम् ) राधिकावदनम् (राधिका. मुखम ) येन सः. अत: कोकयूनोः (चक्रगकदम्पत्योः) विघटनसंघटनकोनकी (वियोजन. संयोजनकौतुकशाली ), कृष्ण = वासुदेव , जगत = लोकम्, अवतु - रक्षतु । . अयंभावः । रात्री चक्रवाकदम्पत्योवियोगः पुनदिवसे संयोगो भवतीति कविप्रसिद्धिः। राधिका मुखं च चन्द्रसदृशम् । कृष्णेन करतलाभ्यां राधिकावदने मुक्त सति तत्र तत्र चन्द्रबुद्धया रात्रिज्ञानेन कोकदम्पत्योविघटन, पुन: विहिते सति चन्द्राऽ. भावेन राश्यभावज्ञानेन तयोः संघटनम् । अत्र राधिकावदने चन्द्रत्वारोपणे वाच्यत्वाऽभावात रूपकालङ्कारादयः, अनुमेया एव = अनुमितिज्ञेया एव ।
अनुमानं निरूपयति तपाहीति । पक्षसत्त्वविशिष्टात्सपक्षसत्त्वविशिष्टाद्विपक्षव्यावृत्तत्वविशिष्टात्, लिङ्गात (हेतोः, धूमादेः) लिङि गनः (साध्यस्य.वह्नयादेः) ज्ञान. मनुमानम् । सिषाधयिषाविरहविशिष्टसिद्धयमाववान् पक्षः पर्वतादिः । निश्चितसाध्यवान् सपक्षः महानसादिः । साध्याऽभाववान् विपक्षो जलह्रदादिः । तथा च पक्षसत्त्वेन सपक्षसत्त्वेन विपक्षव्यावृत्तत्वेन च विशिष्टात् लिङगात = साधनात, धूमादेः । लिङिगनः= साध्यस्य वह्नयादेः ज्ञानम् अनुमानम् । तथा च "पर्वतो वह्निमान् मात्" इत्यत्र पर्वतः पक्षः, महानसादिः सपक्षः, जलह्रदादिविपक्षः, तत्र धूमो न वर्तते, धूमदर्शनेन पक्षे साध्यरूपो वह्निरनुपीयते ।
ततश्च = अनुपानात्, वाच्यात् = मुख्याऽर्थाद, असम्बद्धः = सम्बन्धरहित अर्थः = पदाऽर्थः, न प्रतीयते = नो ज्ञायते । अन्यथा = असम्बद्धप्रतीतिस्वीकारे, अतिचञ्चल का तलसे राधिकाके मुखको कभी छोड़नेवाले और कभी ढांकनेवाले इसप्रकार चक्रवाकदम्पतिको कभी विघटन (वियोजन ) और कभी संघटन (संयोजन )के कौतुक करनेवाले श्रीकृष्ण जगत्की रक्षा करें"।
. इत्यादिमें रात्रि में चक्रवाक-दम्पतिका वियोग और दिनमें फिर संयोग होता है। राधिका का मुख चन्द्र के सदृश है । - इसप्रकार यहां रूपक अलङ्कार व्यङग्य है । कृष्णके करतलसे राधिकाके मुखको आच्छादित न करनेपर उसमें चक्रवाकोंको चन्द्रबुद्धिसे रात्रिका ज्ञान होनेसे उनका विघटन होता है मानादित करनेपर चन्द्र के अभावसे रात्रिके अभावज्ञानसे ( अर्थात् दिनका ज्ञान होनेसे ) फिर उनका संघटन होता है। इस पद्यमें राधिकाके मुख में चन्द्रत्वके आरोपणमें वाच्यत्वके अभावसे रूपक अलङ्कार अनुमेय ही है। अनुमानका निरूपण करते हैं। पर्वत आदि पक्षमें रहनेवाले सपक्ष अर्थात
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३०८
- साहित्यदर्पणे
बोधकयोरर्थयोः कश्चित्संबन्धोऽस्त्येव । तंतश्च बोध कोऽर्थो लिङगम , बोध्यश्च लिको, बोधकस्य चार्थस्य पक्षसत्त्वं निबद्धमेव । सपक्षसत्त्वविपक्षव्यावृत्तत्वे अनिबद्ध अपि सामर्थ्यादवसेये। . .
.. तस्मादत्र याच्यालिकरूपाल्लिनिनो व्यग्यार्थस्यावगमस्तद'नुमान एव पर्यवस्यति' इति । तन्न, तथा छत्र 'भम धम्मिअ-' इत्यादौ गृहे श्वनिवृत्त्या विहितं भ्रमणं 'गोदावरीतीरे सिंहोपलब्धेरभ्रमणमनुमापयति' इति यद्वक्तव्यं, तत्रानकान्तिको हेतुः। भीरोरपि गुरोः प्रभोर्वा निदेशेन
प्रसङ्गः, स्यात् = अतिव्याप्तिः स्यात, इति = अस्मात्कारणात, बोध्यबोधकयोः साध्यसाधनयोः, अर्थयो:-पदार्थयोः, कश्चित् सम्बन्धः वारीत्यरूपः अस्त्येव । ततश्च बोधक: अर्थ:-लिङ्ग, बोध्यश्च लिगी । बोधकस्य च = गोदावरीतीरे सिंहसस्वरूपस्य अर्थस्य; पक्षसत्त्वं = गोदावरीतीररूपपक्षसत्त्वं, निबद्धमेव । निबद्धम् एव = वकत्र्या नायिकया प्रतिपादितमेव । सपक्षसत्त्वविपक्षव्यावृत्तत्वे - अरण्यसत्त्वगृहव्यावृत्तत्वे, अनिबद्धे अपिअकथिते अपि, सामर्थ्यात् अव्यभिचारिसहचारात्, अबसेये-ज्ञातव्ये । तस्मादर यद्वाच्याऽ. र्थात् लिङ्गरूपात = भ्रमणविधिरूपात, लिङ्गिनः = व्यङ्ग्याऽर्थस्य भ्रमणनिषेध रूपस्य, अवगमः = ज्ञानम्, तत् अनुमाने एव = अनुमानप्रमाणे एव, पर्यवस्यति = पर्यवसितो भवति ।" इति ।
महिमभट्टमतं. खण्डयति-तन। तथाहि अत्र = "भम धम्मि" इत्यादी गृहे खनिवृत्या विहितं भ्रमणं गोदावरीतीरे सिंहोपलब्धः = सिंहप्रायः, अभ्रमणम् अनुमाग्र्यात = सहृदयेष्विति शेषः, अनुमानं यथा-गोदावरीतीरं, भीरुभ्रमणाऽयोग्य, सिंहसत्त्वात, यनवं तन्वं यथा गृहम् इति यद्वक्तव्यं तत्र अनेकान्तिकः = साध्यव्यभिचारी हेतुः, यतः भीरोरपि० गमनस्य संभवात । महानस आदिमें रहनेवाले तथा विपक्ष अर्थात् जलद आदिमें न रहनेवाले लिङ्ग (हेतु)से लिंङगी ( साध्य )के ज्ञानको अर्थात् "पर्वतो वह्निमात्र मात्" पर्वन वह्निवाला है धूम होनेसे, ऐसे ज्ञानको अनुमान कहते हैं। अनुमानसे वाच्यसे असम्बद्ध अर्थकी प्रतीति नहीं होती है, असम्बद्ध अर्थकी प्रतीति मानेगे तो अतिप्रसङ्ग अतिव्याप्त) होगा इस कारणसे बोध्य ( साध्य ) और बोधक ( साधन ) पदार्थोका कोई सम्बन्ध है हो । प्रकृतमें 'भ्रम धार्मिक." यहां पर परीत्यसम्बन्ध है । तब बोधक अर्थ लिङग ( हेतु ) और बोध्य अर्थ लिङगी (साध्य ) है । "गोदावरीतीरे भीरुणा धामिकेण न भ्रमणीयं, तत्र सिंहसत्त्वात्" अर्थात् गोदावरीके तीरमे डरपोक धार्मिकोंको भ्रमण नहीं करना चाहिए वहां सिंहके होनेसे ऐसे अनुमानमें बोधक ( हेतु ) अर्थ सिंहका रहना है उसका धार्मिक रूप पक्षमे वृत्तित्वका नायिकाने प्रतिपादन ही किया है, सपक्षसत्त्व (सपक्ष अर्थात् अरण्य आदिमें रहना) और पक्ष गृहादिमें व्यावृत्तस्वको नही कहा है तो भी उन्हें
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पञ्चमः परिच्छेदः
३७९
प्रियानुरागेण या गमनस्य ,संभवात्, पुंश्चल्या वचणं प्रामाणिकं न वेति . संदिग्धासिद्धश्च ।
. जलकेलि-' इत्यत्र 'य आत्मदर्शनादर्शनाभ्यां चक्रथाकविघटनसंघटनकारी स.चन्द्र एवं' इत्यनुमितिरेवायमिति न वाच्यम् , उत्त्रासकादाव
हेतोदोषान्तरमाह-पुंश्चल्या इति । पुश्चल्या:-कुलटायाः । प्रामाणिक = प्रमाजनक, न वेति सान्दिग्धाऽसिद्धश्च । पक्षे गोदावरीतीरे, हेतो:-सिंहसत्त्वस्य सन्देहात सन्दिग्धाऽसिरित्यर्थः ।,
अलङ्काराऽनुमानं दूषयति-जलकेलीत्यत्र । जलकेलीत्यादिपद्य "राधिकावदनं, चन्द्रः, आत्मदर्शनाऽदर्शनाभ्यां कोक मिथुन विघटनसंघटनकारित्वात्" इत्यनुमानेन राधिकावदने चन्द्रत्वारोपेण रूपकाऽलङ्कारप्रतीतिः इति अनुमितिरेव न व्यंजना, इत्यपि न वाच्यं - नो वक्तव्यम्, उत्त्रासकादो = भयदादी, यस्य करतालदानादिनोवासेन पक्षिणो विघटन्ते तदभावे संघटन्ते । स उत्त्रासकः, तदादो। अनेकान्तिकत्वात् = सव्यभिचारवाद । उत्त्रासकादिनाऽपि चक्रवाकमिथुनस्य विघटनं भवति तदभावे च संघटनं च भवति अतो व्यभिचार इति भावः । सामर्थ्यसे समझाना चाहिए । इस कारणसे यहाँपर भ्रमणविधिरूप वाच्यार्य लिङ्गसे भ्रमणनिषेधरूप व्यङ्ग्याऽयं लिङ्गी ( साध्य ) का ज्ञान अनुमानमें ही पर्यवसित होता है, जैसे “पर्वतो वह्निमान धूमाद" इस अनुमानमें धूमरूप लिङ्ग (हेतु ) से पर्वतमें वह्निरूप साध्यका ज्ञान होता है वैसे ही "गोदावरीतीरं मीरुभ्रमणाऽयोग्य, सिंहसत्त्वात्" अर्थात् गोदावरीका तीर, भीरुओंके भ्रमणके योग्य नहीं है, सिंहके रहनेसे इस अनुमानसे लिङ्गरूप वाच्यार्थ सिंहसत्त्व (सिंहके रहने ) से लिङ्गो भीरुभ्रमणके निषेधरूफ अर्थका ज्ञान होता है, वह अनुमानमें ही पर्यवसित होता है, इतना अंश महिमभट्टके मतका प्रदर्शक है । अब ग्रन्थकार उसका खण्डन करते हैं । यह ठीक नहीं। क्योंकि "मम धम्मिअ" इस पद्यमें घरमें कुत्तेसे दूर होनेसे विहित भ्रमण, गोदावरीके तीरमें सिंहकी उपलब्धिसे अभ्रमण ( भ्रमण निषेध ) का अनुमान करता है, ऐसा जो वक्तव्य हैं उसमें हेतु अनेकान्तिक ( ब्यभिचारयुक्त ) है, क्योंकि भीरु पुरुषका भी गुरु वा प्रभुकी आज्ञासे अथवा प्रियाके अनुरागसे भ्रमण हो सकता है। इसी तरह कुलटाका बन . प्रामाणिक है या नहीं ऐसा सन्देह होनेसे असिद्ध नामका हेत्वाभास भी है।
इसी तरह “जलकेलि." : इत्यादि पद्य में "जो ( राधिकाका मुख) अपने दर्शनसे चक्रवाकोंका वियोग और अदर्शनसे उनका संयोग करानेवाला है वह चन्द्र ही है। यहाँपर अनुमानका स्वरूप-राधिकावदनं (पक्ष ), चन्द्र ( साध्यम् ) आत्मदर्शनादर्शनाभ्यां कोकमिथुनविघटनसंघटनकारित्वात् (हेतु) ऐसा होना चाहिए । यह अनुमान ही है. ऐसा जो महिमभट्टका कथन है, वह भी उचित नहीं है। पास करानेवाले किसी..
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३८.
साहित्यदर्पणे
नेकान्तिकत्वात् ।. 'एवंविधोऽर्थ एवंविधार्थबोधक एवंविधार्थत्वात, यन्नव तन्नैवम्' इत्यनेमानेऽप्याभाससमानयोगक्षेमो हेतुः । 'एवं विधार्थत्वात्' इति हेतुना एवंविधानिष्ठसाधनस्याऽप्युपपत्तेः । तथा 'दृष्टिं हे प्रतिवेशिनि ! क्षणमिहाऽप्यस्मद्गृहे-' इत्यादौ (३०९ पृ०) नलग्रन्थीनां तनूल्लेखनम् , एकाकितया च स्रोतोगमनम, तस्याः परकामुकोपभोगस्य लिङ्गिनो लिङ्गमित्युच्यते; ___ व्यभिचारभयेन पक्षमात्र हेतुकवस्त्वलङ्काराऽनुमानमाह-एवमिति । एवंविधोऽर्थ:"भम धम्मिअ" इत्यादी गोदावनीकुञ्जसमीपे भ्रमणविधिरूपोऽर्थः (पक्षः ), एवं विधाऽर्थबोधकः-तत्र भ्रमणाऽभावरूपनिषेधाऽर्थबोधकः ( साध्यः ). एवंविधाऽर्थत्वात्गोदावरीकुञ्जसमीपे सिंहागमनरूपाऽर्थत्वात् ( हेतुः ), यन्वैवं, तन्नवम् अर्थात् देवदत्तो भवतीति वाक्यार्थत्वात ( दृष्टान्तः )। इत्यनुमानेऽपि = पक्षमात्रहेतुकवस्त्वलङ्काराऽ: नुमानेऽपि, आभाससमानयोगक्षेमः = आशससमाने ( हेत्वाभाससमाने ) योगक्षेमे अलब्धलाभ लब्धपरिपालने ) यस्य सः, तादृशो हेतुः ( साधनम् ) हेत्वाभास, इति भावः । यतः "एवंविधाऽयंत्वात" इति हेतुना, एवंविधाऽनिष्ठार्थसाधनस्य अपि = एतादृशाऽनिष्ठार्थहेतोरपि, उपपत्तेः = संभवाद, अनिष्टः = वक्तरनभीष्टः। .
उदाहरणान्तरे व्यभिचारं दर्शयति-तथेति । तथा = तेनैव प्रकारेण यत दृष्टि हे प्रतिवेशिनि ! ० इत्यादी नलगन्थीनां = नलतृणपर्वणां, तनलेखनं = शरीरविदारणम्, "तनूल्लिखनम्" इति लेखनं व्याकरणविरुवं, "तन्नलेखनम्" इति प्रयोगेण भाव्यम् । एकादितया = एककत्वेन, स्रोतोंगमनं = जलाशयगमनम्, एतच्च पुरुषके होनेपर भी ऐसा हो सकता है, अर्थात त्रास करनेवाला अपने कृत्यसे चक्रवाकोंका विघटन और न करनेसे संयोजन करता है इसप्रकार यह हेतु अनेकान्तिक (सव्यभिचार ) है।
अब दूसरा अनुमान दिखलाते है-इस प्रकारका अर्थ, अर्थात "भम धम्मि०" इस पद्यमें गोदावरीके कुञ्जके समीपमें भ्रमणविधिरूप अर्य ( पक्ष), ऐसे अर्थका बोधक है अर्थात वहाँपर भ्रमणके अथावरूप निषेध अर्थका बोधक है ( साध्य ) ऐसा अर्थ होनेसे अर्थात् गोदावरीके कुञ्जके समीपमें सिंहका आगमनरूप अर्थ होनेसे ( हेतु ), जो ऐसा नहीं है वह एसा नहीं है अर्थात् देवदत होता है ऐसे वाक्यार्थके समान दिष्टान्त ) ऐसे अनुमानमें भी हेत्वाभासके समान कार्य होता है, क्योंकि "एवं. 'विधाऽर्थत्वात्" ऐसा अर्थ होनेसे ऐसा कहनेसे ऐसे अनिष्टार्थ रूप साधनको भी ले सकते हैं, अतः यहाँ भी हेत्वाभास ही है। वैसे ही "ष्टि हे प्रतिवेशिनि ! क्षणमिहाऽप्य. स्मद्गृहे." इत्यादिमें नलोंकी गांठोंसे शरीरका विदारण, अकेली होकर जलाशयमें जाना, उस नायिकाका परपुरुषका उपमोगरूप साध्यका साधन कहा है इसमें अनुमानका ऐसा स्वरूप होगा-"दृष्टि हे प्रतिवेशिनि" इत्यादि पदस्य वक्त्री नायिका (पक्ष), परपुरुषसंगता (साध्य ); एकाकित्वेन स्रोतोगमनाद तन्वालेखनवत्वाच्च
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पञ्चमः परिच्छेदः ..
३८१
तञ्चात्रेवाभिहितन स्वकान्तस्नहनाऽपि संभवतीत्यनेकान्तिको हेतुः।।
___ यच्च 'निशेषच्युतचन्दनम्-' इत्यादौ ( ७५ पृ०) दूत्यास्तत्कामुकोपभोगोऽनुमीयते तत्कि प्रतिपाद्यतया दृत्या, तत्कालसंनिहितैर्वान्यः, तत्काव्यार्थभावनया वा सहृदयः ।
आद्ययोर्न विवादः । तृतीये तु. तथाविधाभिप्रायविरहस्थले व्यभिचारः। तस्या = वक्तृनायकायाः, परकामुकोपभोगस्य = पतोतरकामिसमागमस्य, लिङ्गिनः= साध्यस्य, लिङ्ग = हेतुः, इति उच्यते । .
तथा चाऽत्राऽनुमानं-दृष्टि हे प्रतिवेशिनी"त्यादिपद्यस्य वक्त्री नायिका ( पक्षः ), परपुरुषसंगता ( साध्यम् ) एकाकिकत्वेन स्रोतोगमनात्तन्वालेखनवस्वाच्च ( हेतुः ) इति । तच्च = तादृशं लिङ्गं च । अत्रैव = अस्मिन् पद्य एव, अभिहितेन = "प्रायेणाऽशिशो:०" इत्यादिना कथितेन, स्वकान्त नेहेन अपि = स्पीयपतिप्रेम्णा अपि,. संभवति, इति = अ(न) कारणेन, अनेकान्तिकः = सव्यभिचारः, हेतुः साधनम् ।।
अन्यस्मिन्नदाहरणेऽपि व्यभिचारं दर्शयति- यच्चेति । यच्च "निःशेषच्युतचन्दनम् इत्यादो, दूत्या: सन्देशहरायाः, तत्कामुकोपभोगः नायिकाकामिसमागमः, सनु. मीयते = अनुमितिविषयीक्रियते। तत् अनुमानं, प्रतिपाद्यतया-बोद्धव्यतया, दूत्या = सन्देशहरया, अनुमीयते, अथवा तस्कालसंनिहितः = पूर्वोक्तपद्यकथनसमसमयवर्दिभिः, अन्यः = अपरंजनैः, अथवा तत्काव्याऽर्थभावनया-तत्पद्याऽर्थविचारंणणं, सहृदयः = हृदयालुभिः अनुमोयते। अनुमानस्वरूप च-दूती (पक्षः), नायिकाकामुकोपभोगवती ( साध्यम् ), चन्दनच्यवनादिः ( हेतु: ), इति । आद्ययोः पूर्वस्थितयो: यो: पक्षयोः दूत्यां, तत्कालसन्निहितेषु अन्येषु च.न विवादः = नो विप्रतिपत्तिः, चन्दनच्यवनादीना स्नानादिनाऽपि संभवात् । तृतीये तु = सहृदयपक्षे तु, तथाविधाऽभिप्राय( हेतु)। ऐसा कहना उचित नहीं, नलको गॉठोंसे शरीरका विदारण और अकेली जलाशयमें जाना यह हेतु इसी पद्यमें कहे गये अपने पतिके स्नेहसे भी संभव है अतः यहाँपर यह हेतु अनेकान्तिक अर्थात् सव्यभिचार है।
जो कि निःशेषच्युतचन्दनम्", इत्यादिमें दूतीका नायिकाके कामुकका उपभोग अनुमित होता है, चन्दनच्युति आदि इसमें हेतु है, अनुमानका स्वरूप हैप्रतिपावा दूती ( पक्ष ), नायिकाके कामुकके साथ उपभोग करनेवाली है ( साध्य ), . स्नान वादिसे विलक्षण चन्दनकी च्युतिसे ( हेतु) । वह अनुमान बोद्धव्य होनेसे दूतीसे; . उस समय समीपस्थ अन्य जनोंसे । इस काव्यके अर्थकी भावनासे सहृदयोंसे किया जाता है ? पूर्वस्थित दोनों पक्षोंमें अर्थात दूती वा उस समय निकटस्थित अन्यजनोंमें कोई विवाद नहीं, क्योंकि चन्दनका मिट जाना आदि विषय स्नान आदिसे भी हो सकते है। तीसरे बर्वाद सहयोंके पक्ष में तो बसायभिप्राय अर्थात दूतीकी बंसी स्थिति
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साहित्यदर्पण ..
ननु वक्त्रायवस्थासहकतत्वेन विशेष्यो हेतुरिति न वाच्यम् । एवंविषव्याप्त्यनुसंघानस्याभावात् ।
विश्वंविधानां काव्यानां कषिप्रतिमामात्रजन्मनां प्रामाण्यानावश्यकत्वेन संदिग्धासिद्धत्वं हेतोः।
विरहस्यले = निःशेषाधिपदानां संभोगमन्यत्वबोधाभिप्रायाऽभावस्पले, व्यभिचार: अनेकान्तिकः ।
हेतुविशेषणेन व्यभिचाराऽभाव इत्याशय दूषयति-नन्विति । वक्त्रायवस्थासहकृतत्वेन = वक्त्रादेः (प्रतिपादक अनादेः) अवस्थासहकृतत्वेन ( दशासहकृतस्वेन) हेतुः = साधकः, चन्द च्यवनाविरिति भावः, विशेष्यः = विशेषणीयः, वक्त्री गशीमवस्था प्राप्य तमोतवती सा अवस्था हेतोविशेषणीकर्तव्यतिभावः, इति, न वाध्य = न कथनीयम् ।
____तत्र हेतुमुपन्यस्यति-एवंविघेति । एवंविधव्याप्त्यनुसन्धानस्य = एतादर्श: विशेषणघटितव्याप्त्य सन्धानस्य अभावाद - विरहाद न हि पचे तादृशं विशेषणमस्तीति, अतोऽत्र अनुमानेन व्यङ्ग्यार्थबोधेन व्यभिचारः।
तादृशाऽनुमाने हेतोः सन्दिग्धत्वमपि प्रदर्शयति-किञ्चति । कि = अपर च, एवंविधानाम् - एतादृशाना, कविप्रतिमामात्रजन्मना ! कविकल्पनामात्रप्रसूतानी, काव्याना = रचनानां, प्रामाण्याऽनावश्यकत्वेन = प्रामाण्यस्य (प्रमाणभावस्य ) अनावश्यकत्वेन ( आवश्यकत्वाऽभावेन ); हेतोः = धनस्य, सन्दिग्धाऽसिमत्वम् । हतो सन्दिग्धत्वमिति भावः । संभोगके कारण हुई है ऐसा मान न होनेके स्थलमें व्यभिचार ( अनेकान्तिक) दोष ही पाता है । यदि कहें कि वनी ( नाविका ) ने जैसी अवस्थाको प्राप्त कर बता कहा उस अवस्थाको हेतु ( चन्दन च्युति बोदि) का विशेषग बनायेंगे ऐसा भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि व्याप्तिका ऐसा अनुसन्धान (शब्दसे उपस्थित में होनेसे) नहीं हो सकता है।
केवल कविप्रतिमासे उत्पन्न ऐसे काव्योंका सामान्य आवश्यक नहीं होनेसे हेतु भी सन्दिग्धाऽसिद्ध होता है। व्यक्ति (व्यञ्जना ) माननेवालेने "अधम" पदो युक्त ही चन्दनच्यवन आदि इन पदार्थीको व्यंधक वर्षका प्रतिपादक बतलाया है । धर्म पदसे उसके नायकका अधमत्व-प्रामाणिक है कि नहीं ऐसे सन्देहके बने रहनेसे कैसे
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अनुमान होगा?
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पञ्चमः परिच्छेदः
३८३
व्यक्तिवादिना चाधमपदसहायादामेषैषां : पदार्थानां व्यञ्जकत्वमुक्तम् , तेन च तत्कान्तस्याधमत्वं प्रामाणिकं न वेति कथमनुमानम् ? एतेनापत्तिवेद्यत्वमपि व्यङ्गथानामपास्तम् । अर्थापत्तरपि पूर्वसिद्धण्याप्ती. च्छामुपजीव्येव प्रवत्तेः। यथा-'यो जीवति स कुत्राऽप्यवतिष्ठत्ते, जोवति चात्र गोष्ठयामविद्यमानश्चंत्रः' इत्यादि । . निदोषत्वेन व्यञ्जनावादिमतमुपस्थापयति-व्यक्तिवादिना चंति।
व्यज्यतेऽर्थोऽनयेति व्यक्तियंजना । व्यक्तिवादिना व्यञ्जनावादिना, अधमपदसहायानाम् एव = अधमशब्दसहचारिणाम् एव, एषां = पूर्वोक्ताना, पदार्थानां = चन्दनच्यवनावीना, व्यञ्जकत्वं = व्यङ्ग्याऽर्थप्रतिपादकत्वम् , उक्तम् । तेन च- अधमपदेन च, तत्कान्तस्य = तस्या नायकस्य, अधमत्वं = नीचत्वं, प्रामाणिकत्वं - प्रमाणविषयत्वं, न वेति, कथ = केन प्रकारेण, अनुमानम् । इत्थं च हेतोः सन्दिग्धत्वाद कयमनुमानम् इति भावः।
___ व्यङ्ग्यानामापत्तिवेद्यत्वं निरस्यति-एतेनेति। एतेन = हेतोरामासत्वेन, ब्यङ्ग्याना = व्यञ्जनावृत्तिप्रातपाद्यानाम् अर्थानाम् , अर्यापत्तिवेद्यत्वम् - अर्थापत्ति: ज्ञयत्वम्, अपास्तं = निरस्तम् । अयं भावः । मीमांसकाः अर्थापत्तिनामकं पञ्चमं प्रमाणे मन्यन्ते । उपपाद्यज्ञानेन उपपादककल्पनम् मर्यापत्तिः । "पीनो देवदत्तो दिवा न भक्तो" इत्यत्र दिवाऽभुजानस्य रात्रिभोजनं विनानुपपन्नम् उपपाद्य पीनस्वम् । रात्रिभोजनं च उपपादकम् । तथाच उपपाद्यज्ञान करणम् । उपपादकज्ञानं च फलम् । मैयायिकमठे व्यतिरेकव्याप्त्या अनुमाने अन्तर्भावात् अर्यापत्तिः न प्रमाणान्तरम् । तथा च अर्थापत्तेरपि पूर्वांसद्धब्याप्तीच्छां-पूर्वसिद्धा (प्रथमनिष्पन्ना ) याव्याप्तीच्छा ( ब्याप्तिग्रहः ), ताम् उपजीव्य एव = आश्रित्य एव, प्रवृत्तेः समवाद ।
अर्थापत्तिमुदाहरति-'य इति । यो जीवति स कुत्राप्यवतिष्ठते, जीवति पात्र गोष्ठ्यामविद्यमानश्चरः।
अस्या गोष्ठ्याम विद्यमानो जीवी चैत्रः कुत्राऽपि विद्यते, नो चेव बीवनाऽसस्वाद इत्यस्या अर्यापत्तेरनुमानरूपत्वात व्याप्तीच्छा व्याप्तिग्रहम् , उपजीव्य एव आश्रित्य
व्यङ्ग्य अर्थ अर्यापत्तिसे जाना जाता है यह कथन भी हेत्वाभास होनेसे खण्डित हो गया। मीमांसासम्मत अर्यापत्ति प्रमाणका न्यायके अनुसार अनुमानकी व्यतिरेकव्याप्तिमें अन्तर्भाव होता है । अर्थापत्ति का पूर्वसिद्ध व्याप्तिग्रहका आश्रय करके प्रवृत्ति होती है जैसे कि-"जो जीता है. यह कहों रहता है इस सभामें न रहते हुए भी चंत्र जीता है" इत्यादि । देवदत्तके जीते रहनेपर भी इस सभामें न रहनेसे उसकी अन्यत्र सत्ता मीमांसाके अर्यापत्ति प्रमाणसे वेद्य है, यह अर्थापत्ति- "इस सषामें अविद्यमात्र : जीवित यंत्र (पक्ष ), कहीं भी रहता है (साध्य), नहीं तो उसका जीवन नहीं होने से
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साहित्यदर्पणे
tea वविक्रयादो तर्जनीतालनेन दशसंख्या दिवत्सूचन नबुद्धिवेद्यो व्ययं न भवति, सूचनबुद्धेरपि सङ्क ेतादिलौकिक प्रमाण सापेक्षत्वं नानुमानप्रकारताङ्गीकारात् ।
यच्च 'संस्कारजन्यत्वाद्रसादिबुद्धिः स्मृतिः' इति केचित् । तत्रापि प्रत्यभिज्ञायामनैकान्तिकतया हेतोराभासता ।
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एव, प्रवृत्तं = सभवात् इत्थच अर्थापत्तिरनुमानप्रमाणरूपा, व्यङ्ग्यानां पूर्वयुक्त्या अनुमानाविषयत्वेन हेतुना नाऽर्थापत्तिविषयत्वमिति सिद्धम् इति भावः ।
व्यङ्गघानां सूचना वेद्यत्वं निरस्यति - किचति । वस्त्रविक्रयादी = वसवविक्रयादौ, तर्जनीतोलनेन = देशिन्युत्क्षेपदर्शनेन, दशसंख्यादिवत्, सूचनावुद्धिरेद्योऽपि = सूच्यत्नेन इति सूचना (हस्त चेष्टाऽऽदिरूप : संकेतः) तद्बुद्धिवेद्य: (सूचनाव्यापारज्ञानविषयोऽपि ) व्यङ्गाऽर्थ इति शेषः, न भवति सूचनवेद्योपि ( तबुद्धिजन्यबोधविषयः ) अपि, अयं = व्यङ्गघार्थः, न भवति । तादृश्याः सूचनबुद्धेरपि, संकेतादिलौकिक प्रमाणसापेक्षत्वेन = सङ्केतादि ( सङ्केतप्रभृति ) यत् लौकिकप्रमाणं ( लोकसिद्धप्रमितिकरणम् ) तत्साऽपेक्षत्वेन ( तदपेक्षिस्वेन ), अनुमानप्रकारताऽङ्गीकारात् = अनुमानभेदत्वाऽभ्युपगमात् यत्रोऽवं तर्जनी तत्र दशसंख्येति व्याप्तेरिति शेषः । व्यङ्गस्याऽनुमानगम्यत्वात् अनुमानप्रकार सूचना बुद्धिवेद्यस्वमपि निरस्तं भवतीति भावः ।
सादिव्यङ्गघाऽस्य स्मृतिरूपत्वाऽभावं प्रतिपादयति । यच्चेति । केचित् = केपि विद्वांस, रसादिबुद्धिः - रसादिज्ञान ( पक्ष: ), स्मृति: ( साध्यम् ), सस्कारजन्यत्वात्=भावनाख्यं संस्कारजन्यज्ञानत्वात्, ( हेतु: ), इत्यनुमानेन रसादिव्यङ्ग्यार्थ : ज्ञानस्य स्मृतिरूपत्वं प्रतिपादयन्ति तत्राऽरि तन्मतेऽपि प्रत्यभिज्ञायां- "सोऽयं देवदत्त " इत्यादिज्ञानरूपायाम, अनैकान्तिकतया = साध्यं बिना विद्यमानतया, हेतोः = संस्कार. जन्यज्ञानत्वस्य, आभासता ।
( हेतु ) न्याय के व्यतिरेक व्याप्तिवाले अनुमानमें अन्तर्भूत है। इस प्रकार व्यंग्य अर्थ अनुमानसे वेद्य नहीं हो सकता है, यह पहले ही कह चुके हैं ।
किचेति । वस्त्रविक्रय आदिमें तर्जनी उठानेसे दश संख्या आदिकी सूचना होती है वह सूचना बुद्धि भी सङ्केत आदि लौकिक प्रमाणमें अपेक्षा रखनेसे अनुमानका ही भेद माना गया है, तब तोध्यंग्य अर्थका बोध पूर्वोक्त युक्तिसे उससे भी नहीं हो सकता है ।
N
यच्चेति । कुछ विद्वान् वासना संस्कारसे उत्पन्न होनेसे रस बादिके ज्ञानको स्मृति मानते हैं । उसमें अनुमानका ऐसा आकार होता है- रसादिज्ञानम् ( पक्षः ) स्मृति: ( साध्य ), भावनाऽऽख्यसंस्कारजन्यज्ञानत्वात् ( हेतु ) । इसमें भी "सोऽयं देवदत्तः" इत्यादि प्रत्यभिज्ञामें अनैकान्तिक ( सव्यभिचार ) होनेसे हेत्वाभास है ।
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पञ्चमः परिच्छेदः
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'दुर्गा घित-' इत्यादी ( ७१ पृ० ) च द्वितीयार्थी नास्त्येव - इति यदुक्तं महिमभट्टेन तदनुभवसिद्धमपलपतो गजनिमीलिकैव ।
तदेवमनुभवसिद्धस्य तत्तद्रसादिलक्षणार्थस्याशक्यापलापतया तत्तच्छदाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायितया चानुमानादिप्रमाणावेद्यतया चाभिघादिवृत्तित्रयाबोध्यतया च तुरीया वृत्तिरुपास्यैवेति सिद्धम् । इयं च व्याप्त्याद्यनुसन्धानं विनापि भवतीत्यखिलं निर्मलम् ।
अयं भाव: । "सोऽयं देवदत्तः" इत्याकारिकायां प्रत्यभिज्ञायां - "सः" इत्यत्रांऽशे स्मृतिः, "अयम्" इत्यत्रांऽशे प्रत्यक्षं तथा चेयं प्रत्यभिज्ञाऽपि संस्कारजन्या, परं संस्कारमात्र जन्यत्वाऽभावेन नेयं स्मृतिः, अतोऽत्र हेत्वाभासत्वमिति भावः ।
अभिधामूलव्यञ्जनामनङ्गीकुर्वतो महिमभट्टस्य मतं दूषयति - "दुर्गालङ्घित इत्यादी= स्थले, द्वितीयाऽर्थः = अप्राकरणिकाऽर्थ:, उमावल्लभ ( महेश ) रूपव्यङ्ग्यार्थं इति भाव:, नास्त्येव इति यदुक्तं महिमभट्टेन तत् अनुभवसिद्धम्, अपलपतः = 1 निह्नकमानस्य, अनङ्गीकुर्वत इति भावः तस्येति शेषः । गजनिमीलिका एव = उपेक्षा एव, पर्यालोचनं विनेति शेषः ।
व्यञ्जनायाः समर्थनमुपसंहरति-तदेवमिति । तत् = तस्मात्कारणात्, एवं = पूर्वोक्तप्रकारेण, अनुभवसिद्धस्य = अनुभूति निष्पन्नस्य तत्तद्रसादिलक्षणार्थस्य तत्तद्रसभावादिस्वरूपाऽर्थस्य, अशक्याऽपलापतया = अपलापं कर्तुमशक्यतया, तत्तच्छन्दाद्यन्वयतिरेकानुविधायितया = तत्तच्छन्दादीनां ( " शून्यं वासगृहम्" इत्यादि काव्यशब्दानाम् अर्थप्रस्तावादीनां च ) अन्वयव्यतिरेकानुविधायितया ( अन्वयव्यतिरेकव्याप्त्यनुसारितया ), तादृशशब्दसत्वे रसादिव्यङ्गयाऽसत्त्वं तादृशशब्दाऽभावे रसादिव्यङ्ग्यार्थाऽभावः इति नियमेन, अभिधाऽऽदिवृन्मित्रयाऽबोध्यंतया = अभिघादिकं यत् वृत्तित्रयम् ( अभिधालक्षणातात्पर्यरूपम् ) तेन अबोध्यतया ( अज्ञेयत्वेन ), इत्यादिकारणकलापेन तुरीया = चतुर्थी, व्यञ्जनारूपेति भावः । उपास्या एव = सेवनीया एव, अङ्गीकरणीया एवेति सिद्धम् = निष्पन्नम् । इयं = व्यञ्जना, व्याध्या"दुर्गालङ्घित०" इत्यादि पद्य में महिमभट्टने दूसरा ( अप्राकरणिक ) उमावल्लभ ( महेश ) रूप अर्थ प्रतीत ही नहीं होता है ऐसा जो कहा है वह गजनिमोलिका ( उपेक्षा ) ही है ।
"
व्यञ्जनाके समर्थनका उपसंहार करते हैं- इसप्रकार अनुभवसे सिद्ध उन उन रस, भाव, आदि स्वरूपवाले पदार्थका अपलाप नहीं कर सकनेसे उन उन शब्द after अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तिका अनुसरण करनेसे, अनुमान आदि प्रमाणसे अज्ञेय होनेसे और अभिधा, लक्षणा और तात्पर्य वृत्तिसे अबोध्य होनेसे भी चौथी ( व्यञ्जना )
२५ सा०
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साहित्यदर्पणे तत्किनामिकेयं वृत्तिरित्युच्यते
सा चेयं व्यञ्जना नाम वृचिरित्युच्यते बुधैः । रसव्यक्ती पुनत्ति रसनाख्यां परे विदुः ॥ ५ ॥ एतच विविच्योकं रसनिरूपणप्रस्ताव इति सर्वमवदातम् । इति श्रीमन्नारायणचरणारविन्दमधुव्रतसाहित्यार्णवकर्णधार-ध्वनिप्रस्थापन • परमाचार्य-कविसूक्तिरनाकराऽष्टादशभाषावारविलासिनीभुजङ्गसानिध. विग्रहिक-महापात्र-श्रीविश्वनाथकविराजंकृती साहित्यदर्पणे
व्यञ्जनाव्यापारनिरूपणो नाम पञ्चमः परिन्छेदः ।
अनुसन्धान विनाऽपि = व्याप्त्यादेः ( साध्यसाधनयोः साहचर्यनियमादेः) अनुसन्धान (मानं ) विनाऽपि भवतीति अखिलं निर्मलम् ।
किनामिकेयं वृत्तिरिति आकाङ्क्षा समाधत्ते-सा चेति । सा च = तादशी प, इयं = सम्प्रत्येव प्रतिपादिता वृत्तिः = शक्तिः, व्यजना नाम = नाम्ना व्यञ्जना इति, बुधः = आलङ्कारिकविद्धिः । उच्यते = अभिधीयते ।
रसव्यक्तावस्या नामान्तरं प्रतिपादयति-रक्तव्यक्ताविति। रसव्यक्ती रसभावादिप्रतिपादने, रसनाऽख्या - रसनाऽभिधेयां, पत्ति = व्यापार, परे = अन्ये, अभिनवगुप्ताचार्यऽवलम्बिनः, विदुः जानन्ति । एतच्च-सिद्धान्तकदम्बकम्, विविच्य= विवेचनं कृत्वा, रसनिरूपणप्रस्तावे = रसप्रतिपादनाऽवसरे, तृतीयपरिच्छेदे, उक्तम् = अपिहितम्, इति सर्व = सकलम्, अवदातम् = उज्ज्वलम् अनयमिति भावः ॥ इति श्रीशेषराजशर्मप्रणीतायां चन्द्रकलाऽभिख्यायां साहित्यदर्पण.
___टीकायां पञ्चमः परिच्छेदः ॥
वृत्ति,माननी ही पड़ती है यह वात सिद्ध हो गई। यह (ब्यञ्जना ) ब्याप्ति. आदिके अनुसन्धारके विना भी हो जाती है यह सब विषय स्पष्ट हो गया।
"तब इस वृत्तिका नाम है"? इस प्रश्नका उत्तर देते हैं-विद्वज्जन इस वृत्तिको व्यञ्जना कहते हैं। अन्य विद्वान् ( अभिनवगुप्त आचार्यके अनुयायी) रसके प्रतिपादनमें रसन नामकी वृत्तिको जानते हैं ॥ ५॥
इन सब बातोंकी विवेचना करके रसनिरूपणके प्रस्ताव में कहा हैं, इसप्रकार सब कुछ स्पष्ट है।
साहित्यदर्पणके अनुवादमें पञ्चम परिच्छेद समाप्त हुआ।
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षष्ठः परिच्छेदः एवं ध्वनिगुणीभूतव्यङ्गयत्वेनं काव्यस्य भेदद्वयमुक्त्वा पुनदृश्यश्रव्यभेदद्वयमाह
दृश्यश्रव्यत्वभेदेन पुनः काव्यं द्विधा मतम् ।
दृश्यं तत्राभिनेयम्तस्य रूपकसंज्ञाहेतुमाह
__-तद्रूपारोपात्तु रूपकम् ॥१॥ . तद् = दृश्यं काव्यं नटे रामादिस्वरूपारोपाद्रूपकमित्युच्यते । कोऽसावभिनय इत्याह
भवेदभिनयोऽवस्थानुकारः, स. चतुर्विधः ।
आङ्गिको वाचिककश्चैवमाहायः सात्विकस्तथा ॥ २॥ यो विश्वरङ्गभुवि जीवगणं च पात्र कृत्वा ततोऽभिनवकाभिनयान्प्रदश्य। , . : ख्यातोऽस्ति कोऽपि कुतुको चिरसूत्रधारापायात्स शिष्टनिवहं निखिलाबपायात ॥१॥
___ अथ दृश्यकाव्यं निरूपयितुमुपक्रमते एवमिति । दृश्येति । अभिनेयम् अभिनेतु योग्यं तव रूपकम् ॥१॥
.. नटे = अनुकतरि । भेदप्रदर्शनपूर्वकमभिनयं लक्षयति-भवेदिति । अवस्थाऽ. नुकारः अवस्थाऽनुकरणम् अभिनयः ।
तस्य भेदं प्रदर्शयति-पातिक इति। अनेन निवृत बालिका, बागमत इति भावः । तेन निवृत्तम्" इति ठक् । वचसा निवृतः वाचिकः । आहार्यः=
इस प्रकार ध्वनि और गुणीभूत व्यंग्यके रूपसे काष्पके दो भेदोंको बतलाकर फिर दृश्य और अव्यके रूपमें दो भेदोंको कहते हैं___दृश्य और श्रव्यके रूपमें काव्य फिर दो प्रकारका माना गया है। उसमें बभिनयके योग्य काव्यको "दाय" कहते हैं।
उसके 'रूपक' नाम होने में कारण बतलाते हैं- .
नटमें राम बादिके स्वरूपका आरोप होनेसे उस दृश्य काव्यको "रूपक" भी कहते हैं ॥१॥
"अभिनय" किसे कहते हैं ? यह बतलाते हैं
नटोंसे गम और युधिष्ठिर आदिकी अवस्थाके अनुकरणको "अभिनय" कहते हैं, यह चार प्रकारका होता है- आङ्गिक ( मनसे होनेवाला ), वाधिक (बचनसे
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साहित्यदर्पणे _ नटैरकादिभी रामयुधिष्ठिरादीनामवस्थानुकरणमभिनयः । रूपकस्य भेदानाह
नाटकमथ प्रकरणं माणघ्यायोगसमवकारडिमाः । ईहामृगावीथ्यः प्रहसनमिति रूपकाणि दश ॥ ३॥
नाटिका त्रोटकं गोष्टी सट्टकं नाट्यरासकम् । प्रस्थानोल्लाप्यकाव्यानि. प्रेक्षणं । रासकं : तथा ॥ ४ ॥ संलापकं श्रीगदितं. शिल्पकं च विलासिका । दुमल्लिका प्रकरणी हल्लीशो माणिकेति च ॥५॥ अष्टादश प्राहुरुपरूपकाणि मनीषिणः ।
विना विशेष सर्वेषां लक्ष्म नाटकवन्मतम् ॥६॥ बाहतुं योग्यः, वेषरचनादिनिष्पाच इत्यर्थः । सात्त्विकः सत्त्वं स्वेदस्तम्भादि, तेव निवृत्तः, स्तम्भस्वेदादिनिष्पाद्य इत्यर्थः ॥ ३ ॥
नटैरिति । अवस्थानुकरणम् = अवस्थायाः ( रामयुधिष्ठिरादीनां दशायाः) अनुकरणम् ( तादृप्येण प्रत्यायनम् )। ___ रूपकभेदा:-नाटकमिति ॥३॥
उपरूपकभेदा:-नाटिकेति । मनीषिण: विद्वांसः । लक्ष्म-लक्षणम् ।। ४.६ ॥ होनेवाला ), आहार्य (वेष रचना आदिसे होनेवाला.) और सात्त्विक (स्तम्भ और स्वेद आदि स्वरूपवाला ।। २ ॥
रूपकके भेदोंको कहते हैं
नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग, अछु, वीथी और प्रहसन इसप्रकार रूपकके वश भेद होते हैं ॥ ३ ॥ . उपरूपकके भेदोंको कहते हैं-नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाट्यरासक, प्रस्थान, उल्लाप्य, काव्य, प्रेङ्खण और रासक ॥ ४ ॥
.. संलापक, श्रीगदित, शिल्पक, विलासिका, दुमल्लिका, प्रकरणी, हल्लीश और माणिका ॥ ५।
इसप्रकार उपरूपकके अठारह भेद बतलाते हैं, विशेष लक्षणके
इन सब प्रकरण बाटि रूपकोंका और नाटिका आदि उपरूपकोंका सामान्य लक्षण नाटकके समान माना गया है ॥ ६ ॥
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षष्ठः परिच्छेद
३९
तत्र
सर्वेषां प्रकरणादिरूपकाणां नाटिकाद्युपरूपकाणां च ।
नाटक ख्यातवृत्तं स्यात् पञ्चसाधसमन्वितम् । विलासर्धादिगुणवद्युक्तं नानाविभूतिभिः ॥ ७॥ सुखदुःखसमुद्भूति · नानारसनिरन्तरम् । पश्चादिका देशपरास्तत्राङ्काः परिकीर्तिताः ॥८॥ प्रख्यातवंशो राजर्षिीरोदासः ‘प्रतापवान् ।
दिव्योऽथ दिव्यादिव्यो वा गुणवान्नायको मतः ॥ ९ ॥ . . नाटकं लक्षयति-नाटकमिति । ख्यातवृत्तं = ख्यातम् प्रसिद्धम्, इतिहासपुराणादिष्विति शेषः ) वृत्तं ( चरित्रम् ) यस्य तत् । पञ्चसन्धिसमन्वितं = पञ्चभिः सन्धिभिः ( मुखप्रतिमुखादिभिः ) समन्वितम् ( युक्तम् )। विलासर्यादिगुणवत् = "धीरा दृष्टिगतिश्चित्रा विलासे सस्मितं वचः" इत्युक्तलक्षणो नायकगुणविशेषो विलासः । ऋद्धिः ( अभ्युदयः ) इत्यादिगुणवत् । नानाविभूतिभिः = बहुविधश्वर्यः । युक्तम् = उपेतम्, महासहायमिति भावः ।। ७॥
सुखदुःखसमुद्भूति:-सुखदुःखयोः समुद्भूतिः (समुद्भवः) यस्मिस्तत्, सुखदुःख. समुद्भवच रामपुधिष्ठिरादिचरित्रेषु अभिव्यक्तः । नानारसनिरन्तरं नानारसः (शृङ्गारादिभिः) निरन्तरम् (अव्यवहितम्) । सर्व नाटकविशेषणम् । तत्र-नाटके, पञ्चदिका:पञ्च आदयो येषां ते । दशपराः दशसु पराः ( तत्सराः)॥८॥
नाटके नायकसामान्यस्वरूपमाह-प्रख्यातवंश इति। राजर्षिः = राजा ऋषिरिव, जनकादिरिति भावः । धीरोदात्तः="अविकत्यन०" ( ३-३२) इत्यादि: लक्षणलक्षितः। प्रतापवान् = प्रतापसम्पन्नः । गुणवान् = दयादाक्षिण्यादिगुणयुक्तः । कभिन्नायकः, दिव्यः श्रीकृष्णादिः, कश्चित् अदिव्यः मनुष्यः, कश्चिच्च दिव्याऽदिव्यः= दिव्यभाऽसौ अदिव्यः, दिव्योऽप्यात्मनि नराऽभिमानी यथा श्रीरामचन्द्रः ॥ ९॥
__उनमें-नाटकका चरित्र इतिहास और पुराण आदिमें प्रसिद्ध होना चाहिए । यह मुख आदि पांच सन्धियोंसे और अनेक विभूतियोंसे युक्त ( महासहायसंपन्न) ॥ ७॥ . सुख और दुःख को उत्पत्तिवाला, जैसे कि राम और युधिष्ठिर आदिके वृत्तान्तोंमें स्पष्ट है । शृङ्गार आदि अनेक रसोंसे अव्यवहित होता है। उसमें पांचसे लेकर दश बकु तक कहे गये हैं।। ८ ॥ ___ · नायक-प्रख्यात वंशका राजर्षि जैसे दुष्यन्त आदि धीरोदात्त और प्रतापी, दिव्य से श्रीकृष्ण आदि और दिव्याऽदिव्य अर्थात् जो दिव्य होकर भो. अपनेमें नरत्वका अभिमान करनेवाले जैसे राम आदि और गुणवान होना चाहिए ॥९॥
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साहित्वदपणे. .
एक एव भवेदङ्गी शृङ्गारो वीर एव वा। अङ्गमन्ये रसाः सर्वे, कार्यों निर्वहणेऽद्भुतः ॥ १० ॥ चत्वारः पञ्च वा मुख्याः कार्यव्यापृतपूरुषाः ।
गोपुच्छाग्रसमानं तु वन्धनं तस्य कीर्तितम् ॥ ११ ॥ ख्यात रामायणादिप्रसिद्ध वृत्तम् । यथा-रामचरितादि । सन्धयो पक्ष्यन्ते । नानाविभूतिभिर्युक्तमिति महासहायम् । सुखदुःखसमुद्भूतत्वं रामयुधिष्ठिरादिवृत्तान्तेष्वभिव्यक्तम् । राजर्षयो दुष्यन्तादयः । दिव्याः श्रीकृष्णादयः । दिव्यादिव्य:-यो दिव्योऽध्यात्मनि नराभिमानी । यथा श्रीरामचन्द्रः ।
_ गोपुच्छाप्रसमाप्रमिति 'क्रमेणाङ्काः सूक्ष्माः कर्तव्याः' इति केचित् । अन्ये त्याहुः- यथा गोपुच्छे केचिद्वाला हस्वाः केचिदीर्घास्तथेह कानिचि. कार्याणि मुखसन्धौ समामानि कानिचित्प्रतिमुखे। एवमन्येष्वपि कानिचित्कानिचित् इति ।
प्रत्यक्षनेतचरितो रसमावसमज्ज्वलः। ___. नाटके अङ्गी-प्रधान, रस एक एक, स च शृङ्गारो वीर एव वा भवेत् । अन्ये अपरे, रसाः- हास्यपादयः । बझम् = बप्रधानम । निर्वहगे - निर्वहणसन्धी; अमृतरसः कार्यः= कर्तव्यः ॥१०॥
चत्वारः पञ्च वा जनाः, मुख्या:-प्रधानानि,. कार्यव्यापृतपूरुषाः कर्मतत्परजना भवेयुः । तस्य = नाटकस्य, गोपुच्छाग्रसमान = गोपुच्छाअतुल्यपूर्वभागं, बन्धनं - बन्धः, कीतितकषितम् । क्रमेणाऽवाः, सूक्ष्माः = लघवः । अन्ये त्वाः। बालाः = रोमाणि । समाप्तानि = अवसितानि ॥ ११ ॥
अकुलक्षणमाह-प्रत्योति। प्रत्यक्षनेतृचरितः = प्रत्यक्षम् (अपरोक्षम् ) नेतुः ( नायकस्य ) चरितं (चरित्रम् ) यस्मिन् सः। रसभावसमुज्ज्वलः = रस: (ममारादिभिः) भावः (नायिकानायकाऽफूर्तः) समुज्ज्वलः ( सुप्रकाशः) ।
अली ( प्रधान रस) एक ही होना चाहिए शुल्गार या वीर । अन्य सब रस अड्ग ( अप्रधान) होते हैं । निर्वहण सन्धिमें अद्भुत रस होना चाहिए ॥१०॥ ... नाटकमें चार वा पाँच मुख्य पुरुष कार्य में लगे रहते हैं । गोपुच्छके बनमायके समान अढोंको क्रमसे सूक्ष्म करना चाहिए या जैसे गोपुच्छमें कुछ बाल छोटे और कुछ छम्बे होते हैं वैसे ही इसमें कुछ कार्योको मुखसन्धिमें और कुछ कार्य प्रतिमुखसन्धिमें समाप्त करना चाहिए ऐसी भी व्याख्या की जाती है ॥ ११॥ . . नायकका चरित्र प्रत्यक्ष होना चाहिए, रस और भाव उज्ज्वल अपेक्षित है।
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षष्ठः परिच्छेदः
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. ३९५
भवेदगूढशब्दाः क्षुद्रचूर्णकसंयुतः ॥ १२ ॥ विच्छिन्नावान्तरैकार्थः किञ्चित्संलग्नबिन्दुकः । युक्तो न बहुभिः काबीजसंहृतिमान च ॥ १३ ॥ नानाविधानसंयुक्तो नातिप्रचुरपद्यवान् । आवश्यकानां कार्याणामविरोधाद्विनिर्मितः ॥ १५ ॥ नानेकदिननिवर्त्यकथया संप्रयोजितः ।
आसन्ननायकः पा–यु तस्त्रिचतुरैस्तथा ॥ १५ ॥ अगढशब्दाऽर्थः अगूढः (अति गहितः ) शब्दाऽर्थः (पदाऽर्थः ) यस्मिन् सः। क्षुद्रचूर्णक. संयुत:-क्षुद्राणि (अल्पानि) यानि चूर्णकानि (अल्पसमासगद्यानि) तैः संयुतो भवेत् ।।१२।।
विच्छिन्नाऽवान्तरकाऽर्थः = विच्छिन्नः ( समाप्तः ) अवान्तरकाऽर्थः ( एकदेशरूपाऽर्थः) यस्मिन् सः । किञ्चित्संलग्नबिन्दुकः = किञ्चिसंलग्नाः ( किश्चित्सम्बद्धाः) बिन्दवः ( अवान्तराऽर्थविच्छेदे अविच्छेदकारणभूताः अर्थप्रकृतिविशेषाः ) यस्मिन् सः । 'शेषाद्विभाषा" इति समासाऽन्तः कप् । बहुभिः कार्ययुक्तो न, तथा बीजसंहतिमान् नबीजस्य (फलप्रथमहेतोः) संहतिः ( समाप्तिः ), तद्वान् न स्यात् । बीजसमातियुक्तोऽडो न कार्य इति भावः ।। १३ ॥ - नानाविधानसंयुक्तः = नानाविधान: ( अनेककर्मभिः ) संयुक्तः। अतिप्रपुर. पद्धवान् = अत्यधिकपद्ययुक्त : न नरन्तर्येण अधिकपद्यान्यके. नो भवेयुरिति भावः। पावश्यकानां कार्याणां = सन्ध्यावन्दनादोताम् ।।
अविरोधात् विनिर्मितः = रचितः, अङ्को भवेत् ॥ १४ ॥ .
अनेकदिननिर्वयं कथया = बहुदिवससमापनीयकथया, संप्रयोजितः = संयोजितः न स्यात् । आसन्ननायकः = आसन्न: (निकटस्थः ) नायकः (नेता, धीरोदात्तादिः) यस्मिन् सः । तथा त्रिचतुरैः = त्रीणि चत्वारि वा त्रिचतुराणि, :, त्रिचतुःसंख्यकः । पात्रः = सहायः युत: स्यात् । त्रिचतुरंरित्यत्र "संख्ययाऽव्ययासनादूराऽधिकसंख्याः संख्येये” इति समासः, "बहुव्रोही संख्येने डजबहुगणात्" इति समासान्तो डच् ॥ १५॥ गढ अर्य नहीं होना चाहिए, छोटे छोटे समासवाले गद्य चाहिए ॥ १२॥
___ अवान्तर अर्थ समाप्त होना चाहिए और कुछ विन्दु लगा रहना चाहिए । बहुत कार्योंसे युक्त नहीं होना चाहिए और बीजका उपसंहार न हो ॥ १३॥ .
___ अनेक विधानोंसे युक्त न हो, पद्य भी ज्यादा न हो आवश्यक कार्योंकी विरोध. के बिना रचना होनी चाहिए ॥ १४॥
अनेक दिनों में समाप्त होनेवाली कथाका प्रयोग नहीं हो नायक निकट हो और धीन चार पात्रोंसे युक्त हो ॥१५॥
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३९२
साहित्यदर्पणे
दूराद्दानं वधो युद्ध राज्यदेशादिविप्लवः । विवाहो भोजनं शापोत्सर्गों मृत्यू रतं तथा ॥ १६ ॥ दन्तच्छेद्य नखच्छेद्यमन्यद् व्रीडाकरं च यत् । शयनाधरपानादि नगराधवरोधनम् ॥ १७ ॥ स्नानानुलेपने चैभिर्वर्जितो नातिविस्तरः । देवी परिजनादीनाममात्य वणिजामपि
॥ १८ ॥
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अथ नाटके वर्जनीय विषयानाह — दूरावानमिति । दूराह्वानं = दूरात् ( विप्रकृष्टप्रदेशात् ), आह्वानम् ( आकारणम् ) । वधः = व्यापादनं युद्धं संग्रामः | राज्यदेशादिविप्लव: - राज्यदेशादे: ( राष्ट्रजनपदादे: ), आदिपदेन ग्रामखर्वटादीनां परिग्रहः, विप्लव: ( उपद्रव: ) । विवाहः = परिणयः । भोजनं = भक्षणम् । शापोरसर्गः =शापः ( आक्रोशः ) उत्सर्ग: ( मलमूत्रत्यागः ) मृत्युः = मरणम् | रतं = रतिक्रिया, 'एभिर्वजित" इति अष्टादशश्लोकस्यपदाभ्यां सम्बन्धः । पूर्वोक्तानां विषयाणां रूपके प्रदर्शनं न कर्तव्यमिति भावः । एवं परत्राऽपि ।। १६ ।।
दन्तच्छेद्य - दशनच्छेदनीयं वस्तु । नखच्छेद्य = नखरच्छेदनीयं वस्तु । अन्यत् = अपरम् । यत् व्रीडांकरं = लज्जोत्पादकम् । शयनाऽघरपानादि = शयनं ( स्वापक्रिया ), अधरपानादि ( चुम्बनादि ) । नगराद्यावरोधनं पुरादिप्रतिरोधनम्, एभि: - पूर्वोक्तंविषयः, वजितः = रहितः, मङ्को भवेदिति भावः ॥ १७ ॥
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स्नानानुलेपने = स्नानं ( मज्जनम् ) अनुलेपन चन्दनाद्यनुलेप:, एभिः = पूर्वोक्तः, विषयर्वजितोऽङ्कः स्यादिति भावः । नाऽतिविस्तरः- नाऽतिदैर्घ्यसम्पन्नः, अङ्कः स्यादिति भावः । देवीपरिजनादीनां देवी ( कृताऽभिषेका राजपत्नी ) परिजनादीनाम् (अनुगत जनादीनाम् ), अमात्यवणिजाम् अपि = मन्त्रिवाणिजकादीनाम् अपि ।। १८ ।।
अमें प्रत्यक्ष दिखलानेके लिए अयोग्य विषयोंका निरूपणं करते हैंवराह्वानम् । दूरसे बुलाना, वध, युद्ध, राज्यविप्लव और देश आदिका विप्लव, विवाह भोजन, शाप, मलत्याग, मरण और रतिक्रीडा ॥ १६ ॥
दन्तक्षत, नखच्छेद और भी लज्जाका उत्पादक विषय, शयन और अधरवान आदि, नगर आदिका घिराव ॥ १७ ॥
स्नान और चन्दन आदिका अनुलेपन, इनसे वर्जित हो और ज्यादा फैलाव न हो। देवी ( रानी ) और उनके परिजन ( भृत्य ) आदिका मन्त्री और व्यापारियोंके ॥ १८ ॥
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षष्ठः परिच्छेदः प्रत्यक्षचित्रचरितैयुक्तो मावरसंवः ।
अन्तनिष्क्रान्तनिखिलपात्रोऽङ्कः इति कीर्तितः ॥ १४ ॥ बिन्द्वादयो वक्ष्यन्ते । आवश्यक संध्यावन्दनादि । अङ्कप्रस्तावाद् गर्भाङ्कमाह-- .. ___ अहोदरप्रविष्टो यो रङ्गद्वारामुखादिमान् ।
अकोऽपरः स गर्माहा. सबीजः फलवानपि ॥ २०॥ यथा बालरामायणे रावणं प्रति कोहलः-.
___ 'श्रवणैः पेयमनेकैदृश्य दीर्घश्च लोचनैर्बहुमिः।
· भवदर्थमिव निबद्धं नाट्यं सीतास्वयंवरणम् ।।'
भावरसोद्भवः-भावरसनिष्पत्तियुक्तः। प्रत्यक्षचित्रचरितः = अपरोक्षामृतचरित्रः; युक्तः = संवन्तितः। अतः स्यादितिभावः । अङ्कस्य तटस्थलक्षणं निर्दिश्य स्वरूपलक्षणं प्रदर्शयति-प्रन्तेति । अन्तनिष्क्रान्तनिखिलपात्रः = अन्ते (अवसाने) निष्क्रान्तानि (निर्गतानि ) निधिलानि ( समस्तानि ) पात्राणि ( नायकादिसहायाः) " यस्मिन् सः, "अङ्क" इति कीर्तितः कथितः ॥ १९ ॥
गर्भाऽझं लक्षयति-प्रकोवरप्रविष्ट इति । यः, अकोदरप्रविष्टः - अनु. मध्यनिविष्टः, रङ्गद्वाराऽऽमुखादिमान् = रङ्गद्वारम् ( सूत्रधारक्रियमा मङ्गलम् ) आमुखं (प्रस्तावना) तदादिमान ( तदादिसंयुक्तः)। सबीजः- वक्ष्यमाणबीजसहितः, फलवान् अपि-प्रधानप्रयोजनयुक्तः अपि । अपरः अन्यः, अतः स गर्भाङ्कः ।।
उदाहरति यथेति । कोहल: नाट्यशास्त्रप्रवक्ता, "कोहलो वाद्यभेदे स्यानाटय. शास्त्रप्रवक्तरि ।" इति मेदिनी। श्रवणरिति । अनेकः - बहुभिः, श्रवणः = श्रोत्र:, पेयं = गतव्यम्. आदरेण श्रवणीयम् । बहुभिः = प्रचुरैः, दीः = विशाल:, लोचन:नयनः, दृश्यं = दर्शनीयम् । भवदर्थम् इव = स्वदर्थम् इव, सीतास्वयंवरणं, नाट्यं = नटकर्म, निबद्ध = निमितम् ।
भाव ओर रससे युक्त प्रत्यक्ष विचित्र चरित्रोंसे युक्त हो, जहाँपर अन्तमें सब पात्र निकल जाते हैं उसे "अङ्क" कहते हैं ।। १९॥
बिन्दु आदिको पीछे कहेंगे। आवश्यक कार्य सन्ध्यावन्दन आदि । गर्भाऽङ्कजो अङ्कके मध्य में प्रविष्ट हो और रङ्गद्वार और आमुख आदिसे युक्त हो और जिसमें बीज और फल हो उस अङ्कको "गर्भाऽङ्क" कहते हैं ।। २० ॥
जैसे बालरामायणमें रावणको कोहल कहता है
अनेक कानोंसे पेय (श्रोतव्य), बहुतेरे दीर्घ लोचनोंसे दर्शनीय सीतास्वयंवरण माट्य मानों आपके लिए रचा गया है।
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साहित्यदर्पणे :
इत्यादिना विरचितः सीतास्वयंवरो नाम ग़र्भावः।
तत्र पूर्व पूरङ्गः, समापूजा ततः परम् ।
. कथनं कविसंज्ञादेनाटकस्याऽप्यथामुखम् ॥ २१ ॥ तत्रेति नाटके।
यन्नाटयवस्तुनः पूर्व रङ्गविघ्नोपशान्तये । कुशीलवाः प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः स उच्यते ॥ २२ ॥ प्रत्याहारादिकान्यङ्गान्यस्य भूयांसि यद्यपि ।
तथाऽप्यवश्यं कर्तव्या नान्दी विघ्नोपशान्तये ॥२३॥ तस्याः स्वरूपमाह.... आशीर्वचनसंयुक्ता स्तुतियस्मात्प्रयुज्यते । .....
अभिनये नाटके पूर्वकृत्यमांह-तति । तत्र-नाटके, पूर्वप्रथम, पूर्वरङ्गः= वक्ष्यमाण कुशीलवकृत्यं, ततः परं - तदनन्तरं, कविसंज्ञादेः - कविनामादः, नाटकस्य 'बपि = रूपकविशेषस्य अपि, कथनम् - अभिधानं, अथ = अनन्तरम्, आमुखं = प्रस्तावना, भवेदिति शेषः ॥ २१॥
पूर्वरङ्गलक्षणमाह-यविति। नाट्यवस्तुनः = अभिनेतव्यनाटकादे, पूर्व = प्रथम, रङ्गमविघ्नोपशान्तये =, नृत्यशालाऽन्तरांयनिवारणाय, कुशीलवाः - नटाः, यद, प्रकुर्वन्ति - विदधति, स पूर्वरङ्ग उच्यते ॥ २२ । .
... यद्यपि, अस्य-पूर्वरङ्गस्य, प्रत्याहारादिकानि-प्रत्याहारप्रभृतीनि, भूयासि-बहूनि, बङ्गानि अवयवाः, सन्ति, तथापि, विघ्नोपशान्तये-विघ्ननिवारणाय, नान्दी-आशीर्ववचनसयुक्ता देव द्विजनुपादिस्तुतिः, अवश्यम् अनिवार्य यथा तथा, कर्तव्या-विधेया॥२३॥
नान्दी लक्षयति-प्राशीरित्यादि। यस्मात् =हेतोः, देवद्विजनृपादीनां - सुरगाह्मणराजादीनाम्, आशीर्वचनसंयुक्ता आशीर्वादवाक्यसहिता, स्तुतिः - गुणकीर्तन,
इत्यादि विरचित सीतास्वयम्बर नामक गर्भाख है।
सत्रति । नाटकमें पहले पूर्वरङ्ग, उसके बाद सभापूजा तब कवि और नाटकके नाम आदि और तदनन्तर आमुख हो ॥ २१ ॥
नाट्यवस्तुके पहले रङ्ग ( नाट्यशाला ) के विघ्नोंको हटानेके लिए नटलोग पो बभिनय करते हैं उसे "पूर्वरङम" कहते हैं ॥ २२ ॥ - यद्यपि इसके प्रत्याहार आदि बहुत-से अङ्ग होते हैं तो भी विघ्नोंकी उपशान्तिके लिए मान्दी अवश्य करनी चाहिए ॥ २३ ॥..
नाम्दीका स्वरूप-देवता, ब्राह्मण बोर राजा बादिकी आशीर्वादयुक्त
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षष्ठः परिच्छेदः
____३९५
देवद्विजनृपादीनां तस्मानान्दीति संज्ञिता ।। २४ ॥ मङ्गल्यशङ्खचन्द्राजकोककैरवर्शसिनी .. ।
पयुक्ता द्वादशभिरष्टाभिर्वा पदैरुत ॥ २५ ॥
अष्टपदा यया अनर्घराघवे-'निष्प्रत्यूहम्' इत्यादि । द्वादशपदा यथा मम तातपादानां पुष्पमालायाम्
शिरसि धृतसुरापगे स्मरारावरुणमुखेन्दुरुचिगिरीन्द्रपुत्री। अथ.चरणयुगानते स्वकान्ते स्मितसरसा भवतोऽस्तु भूतिहेतुः॥ .
एवमन्यत्र । प्रयुज्यते = अनुष्ठीयते, तस्मात् = हेतोः, नान्दी इति संज्ञिता जासंज्ञा, अस्तीति शेषः ।। २४ ॥
नान्थाः प्रकारानाह-मङगल्यत्यादिः। मङ्गल्यशचन्द्राऽजकोककौरवशंसिनी-मङ्गलप्रयोजनकम्बुविधुकमल चक्रवाककुमुदसूचि का, नान्दीति शेषः, द्वादशभिः द्वादशसंख्यकः, उत वा अथवा, अष्टाभिः अष्टसंख्यकः, पदैः = शब्दः । युक्ता सहिता, भवेदिति शेषः ॥ २५।
तातपादानां = पितृचरणानाम्-शिरसीति । गिरसि= मूर्डिन, धृतसुरापगेधृता (धारिता) सुराऽऽपगा (गङ्गा ) येन, तस्मिन्, गङ्गाधारक इति भावः, तादृशे, स्मराऽरो = कामशत्रो, शङ्करे इति भावः । अरुणमुखेन्दुः = रक्तमुखचन्द्रा, पतिशिरसि सपल्याः स्थितत्वादिति भावः । अथ = अनन्तरं, स्वकोपदर्शनाऽनन्तरमिति भावः, स्वकान्ते - निज मर्तरि, चरणयुगानते = पादयुग्मप्रणते सति, स्मितसरसा = स्मितेन (मन्दहास्येन) सरसा (साऽनुरागा), गिरोन्द्रपुत्री = गिरीन्द्रस्य (पर्वतराजस्य हिमालयस्य ) पुत्री (दुहिता, पार्वतीति भावः) । भवतः तव, भूतिहेतुः-ऐश्वर्यकारणम्, अस्तु = भवतु ।। पुष्पितामा वृत्तम् । स्तुति की जाती है, अतः इसे “नान्दी" कहते हैं ॥ २४ ॥
इसमें मालिक पदार्थ, शङ्ख, चन्द्र, कमल, चक्रवाक (चकवा) और कुमुदका वर्णन होता है । इसमें बारह या आठ पद होते हैं । २५॥
बष्टपदा नान्दी जैसे अनर्घराघवमें "निष्प्रत्यूहम्" इत्यादि । द्वादशपदा नान्दी जैसे चन्द्रशेखर महापात्रकी पुष्पमालामें शिरसीति । शिवजीके शिरमें गङ्गाजीको धारण करनेपर कोरसे पार्वतीका मुख लाल हो गया, अनन्तर शिवजीके अपने चरणोंपर सकनेपर मन्दहास्यसे अनुरागवाली पार्वती आपके ऐश्वर्यकी हेतु हों ।।
• ऐसे ही अन्यत्र जानना चाहिए ।
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साहित्यदर्पणे
.एतन्नान्दीति कस्यचिन्मतानुसारेणोक्तम् । वस्तुतस्तु 'पूर्वरजस्य नद्वाराभिधानमङ्गम्' इत्यन्ये। यदुक्तम्
'यस्मादमिनयो पत्र प्राथम्यादवतार्यते । . . रणद्वारमतो ज्ञेयं वागङ्गाभिनयात्मकम् ॥इति। ...
उक्तप्रकारायाश्च नान्द्या रणद्वारा प्रथम नटेरेवं कर्तव्यतया न महर्षिणा निर्देशः कृतः।
कालिदासादिमहाकविप्रबन्धेषु च-.. वेदान्तेषु यमाहुरेकपुरुषं व्याप्य स्थितं रोदसी __यस्मिन्नीश्वर इत्यनन्यविषयः शब्दो यथार्थाक्षरः ।
इयं द्वादशपदा नान्दी। एतत् = पूर्वोक्तं पद्यद्वयम् । “कस्यचित्” इतिपदेन अन्यकारस्याऽसम्मतिञ्जयते ।
स्वकीयं मतं द्योतयति-वस्तृतस्विति। रङ्गम्य पूर्वरङ्गदाराऽभिधानं = रङ्गद्वारनामकम्, अङ्गम् अवयवः । "अन्ये" इत्यत्र बहुवचनेन ग्रन्थकारस्याऽप्यत्राsन्तर्भावो घोत्यते।
पत्राऽर्थे मुनिसम्मति प्रदर्शयति-यस्मादिति । अत्र-इह, यस्मात-कारणात, प्राथम्यात = प्रथमत्वात्, अभिनयः = अवस्थाऽनुकारः, अवतार्यते नटेरवतरणं क्रियते; अतः = अस्मात्कारणात, वागड़गाऽभिनयात्मकं-वचनदेहाऽयवाऽभिनयस्वरूपं, रगद्वारं, ज्ञेयं = ज्ञातव्यम् ॥
उक्तप्रकारायाः अभिहितस्वरूपाया:, नान्याः, द्वादशपदाऽष्टपदस्वरूपाया इति भाषः। कर्तव्यतया विधेयत्वेन । महर्षिणा=भरतेन । निर्देशः कर्तव्यत्वेन आदेशः, कृतः ।
वेदान्तेष्विति। रोदसी = द्यावापृथिव्यौ, व्याप्य = व्याप्तिविषये कृत्वा, स्थितं = विद्यमान, यं = परमात्मानं, वेदान्तेषु = उपनिषदादिवेदभागेषु, एकपुरुषमअद्वितीयं पुरुषम्, आहुः = कथयन्ति, वैदान्तिका इति शेषः । यस्मिन् = परमात्मनि, अनन्यविषयः = अनपरविषयः, तन्मात्रप्रतिपादक इति भावः। ईश्वर इति शब्द: %3D ईश्वर इति पदं, यथार्थाऽक्षर: = अनूगताऽर्थपद: "ईष्ट इति ईश्वरः" इति व्युत्पत्याऽ
इन पद्योंको किसीके मतसे "नान्दी" कहा है. गस्तवमें पूर्वरङ्गका रङ्गद्वार नामका अङ्ग है ऐसा अन्यलोग कहते हैं । जो कि कहा है
यस्मादिति । जिस कारणसे यहाँपर पहले अभिनयका अवतरण होता है अतः यह वचन और अङ्गके अभिनयसे युक्त "रङ्गद्वार" है। पूर्वलक्षित नान्दोका रङ्गद्वारसे • पहले नटोंसे ही किये जानेसे महर्षिने निर्देश नहीं किया है।
कालिदास आदि महाकवियोंके प्रबन्धोंमें
वेदान्तेविति। वेदान्तोंमें जिन्हें आकाश और पृथिवीको व्याप्त कर रहनेवाला "अद्वितीय" पुरुष कहते हैं। जिसमें औरोंमें प्रयुक्त न होनेवाला "ईश्वर" पद यथार्थ
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षष्ठः परिच्छेदः
अन्तर्यश्च मुमुक्षु भिनियमितप्राणादिभिर्मृग्यते
स्थाणुः स्थिर भक्तियोग सुलभों निःश्रेयसायास्तु वः ॥ एवमादिषु नान्दीलक्षणायोगात् । उक्तं च- 'रङ्गद्वारमारभ्य कविःकुर्यात् -' इत्यादि । अत एव प्राक्तनपुस्तकेषु 'नान्द्यन्ते सूत्रधारः' इत्यनन्तरमेव 'वेदान्तेषु - ' इत्यादि श्लोकले ( लि) खनं दृश्यते । यश्च पश्चात् 'नान्द्यन्ते सूत्रधार :' इति ले (लि) खनं तस्यायमभिप्रायः - 'नान्द्यन्ते सूत्रधार इदं प्रयोजितवान् इतः प्रभृति मया नाटकमुपादीयत इति कवेरभिप्रायः सूचित' इति । पूर्वरङ्गं विधायैव सूत्रधारो निवर्तते । । प्रविश्य स्थापकस्तद्वत्काव्यमास्थापयेत्ततः ।। २६ ।। दिव्यमत्यें स तद्रूपो मिश्रमन्यतरस्तयोः ।
न्वर्थशब्द इति भावः । यश्च स्थाणुः शङ्करः । नियमित प्राणादिभिः = वशीकृतवाय्वादिभिः मुमुक्षुभिः = मोक्षेच्छुभिर्जनः, अन्तः = अन्तःकरणे, मृग्यते = अन्विष्यते, स्थिरभक्तियोगसुलभ : = अचलानुरक्तिसमाधिसुलभ, सः = श्रुत्यादिप्रसिद्धः ! स्थाणु:शङ्करः, व: - युष्माकं निःश्रेयसाय - मोक्षाय, अस्तु भवतु, शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । एवमादिषु - इत्यादिषु नाटकेषु नान्दीलक्षणाऽयोगात् = द्वादशपदत्वाऽष्टपदत्वरूपलक्षणाऽसम्बन्धात् । प्राक्तनपुस्तकेषु = प्राचीनग्रन्थेषु । उपादीयते - आरभ्यते ।
पूर्वरङ्गमिति । पूर्वरगं विधाय = कृत्वा, सूत्रधारः प्रधाननटः, निवर्तते = निर्गच्छति । ततः = अनन्तरं, स्थापक: = rose स्थितिकारकः प्रविश्य तद्वत् सूत्रधारवत्, काव्यं = दश्यकाव्यम्, आस्थापयेत् = सभापूजादिपूर्वकं सूचयेत् ॥ २६ ॥ -दिव्यमय आस्थापनप्रकारमाह - दिव्यमत्यें इति । 'स्वर्ग मर्त्यलोकवस्तुनी, तद्रूपः = स्वर्गलोकशववस्तुनि स्वर्गलोकभववस्तुरूपः मर्त्यलोकभववस्तुनि मर्त्यलोकभववस्तुरूप इत्यर्थः । तयोः = स्वर्गमर्त्यलोकभववस्तुनोः मिश्रम् = दिव्या - है। प्राण आदिका निग्रह करनेवाले मुमुक्षुओंसे जो हृदयके भीतर ढूंढा जाता है, स्थिर भक्तियोग से सुलभ वे महादेव आपके मोक्षके लिए हों ॥।
इत्यादि पद्योंमें नान्दीका लक्षण नहीं मिलता है । कहा भी है- " रङ्गद्वारको आरम्भ करके कवि नाटककी रचना करें" । अत एवं प्राचीन पुस्तकोंमें "नान्द्यन्ते सूत्रधारः” इसके बाद ही "वेदान्तेषु" इत्यादि श्लोकोंका लेख देखा जाता है । जो पीछे "नाद्यन्ते सूत्रधारः" ऐसा लेख है उसका यह आशय है- "नान्दीके अन्त में सूत्रधारने ऐसा प्रयोग किया है, यहाँ मैं नाटकको उपस्थित करता हूँ यह कविका अभिप्राय सूचित है । पूर्व रङ्गका विधान कर सूत्रधार जाता है, तब सूत्रधारके समान स्थापक काव्यका आस्थापन करे ॥ २६ ॥
aat वस्तु दिव्य हो तो देवरूप और मर्त्यलोककी वस्तु हो तो मनुष्यरूप
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३९७
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साहित्यदर्पणे
सूचयेद्वस्तु बीजं वा मुखं पात्रमथापि वा ।। २७ ।।
काव्यार्थस्य स्थापनात्स्थापकः । तद्वदिति सूत्रधारसदृशगुणाकारः । - इदानीं पूर्व रजस्य सम्यक्प्रयोगाभावादेक एव सूत्रधार: सर्व प्रयोजयतीति व्यवहारः । सस्थापको दिव्यं वस्तु दिव्यो भूत्वा मत्यं मर्त्यो भूत्वा मिश्र दिव्यमर्त्ययोरन्यतरो भूत्वा सूचयेत । वस्तु - इतिवृत्तम्, यथोदात्तराघवे
च
रामो मूर्ध्नि निधाय काननमगान्मालाभिवाज्ञां गुरोस्वद्भक्त्या भरतेन राज्यमखिलं मात्रा सहैवोज्झितम् । तौ सुग्रीवविभीषणावनुगतौ नीतौ परामुन्नति प्रोत्सिक्ता दशकन्धरप्रभृतयो ध्वस्ताः समस्ता द्विषः !! दिव्यरूपसङ्करम्, अभ्यतरः उभयोरेकतररूपः सन् दिव्यमर्त्ययोरन्यतरो भूत्वेति भाव: । वस्तु = इतिवत्त, दृश्यकाव्यचरित्र मित्यर्थः । बीजं - कारणं, मुखं वक्ष्यमाणं, वाग्विशेष, पात्रम् = नायकसहायादिकं सूत्रयेत् शापयेत् ।। २७ ।।
यथोदात्तराघवे नाटके - राम इति । रामः ।
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३९८
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जनन्या, कैकेय्या, सह एव
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रामचन्द्र:, गुरोः = पितुः, · दशरथस्य, आज्ञाम् = आदेश, मालाम् इव = संजन इव, मूनि = शिरसि, निधाय स्थापयित्वा काननं = वनम् अगमत् = गतः । भरतेन = कैकेयीसुतेन तद्भक्या = - तस्मिन् (रामे ) भक्त्या ( पूज्यबुद्ध्या ), मांत्रा समम् एव, अखिलं = समस्तं राज्यं = राष्ट्रम, उज्झितं = त्यक्तम् । अनुगतो - राम मनुसृतवन्तो, तो = प्रसिद्धो, सुग्रीवविभीषणी, पराम् = उत्कुष्टां, सम्पदं सम्पति, राज्यप्राप्तिरूपामिति भावः । नीतौ प्रापितो, बालिरावणहननाऽनन्तरं रामेणेति शेषः । एवं च प्रोत्सिक्ताः = अतिशयदर्पयुक्ताः, दशकन्धरप्रभृतयः रावणादयः समस्ताः = निखिलाः, द्विषः = शत्रवः ध्वस्ताः - विनाशिताः, रामेणेति शेषः ।
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तथा मिश्र वस्तु हो तो देवता का मनुष्य में एकरूप धारण कर वस्तु, बीज, मुख वा पात्र की सूचना करे ।। २७ ।।
toursiस्येति । काव्याऽर्थं की स्थापना करनेसे "स्थापक" कहते हैं । तद्वत्= सूत्रधारके सदृश गुण वा आकारसे युक्त पुरुष स्थापक हो। इस समय पूर्वरङ्गका उचित प्रयोग न होनेसे एक सूत्रधार ही सब कुछ करता है ऐसा व्यवहार है। वह स्थापक दिव्य वस्तुको देवरूप होकर मनुष्य लोककी वस्तुको मनुष्य होकर मिश्र वस्तु हो तो दोनों में एकका रूप लेकर वस्तु, बीज, मुख वा पात्रकी सूचना करे। स्थापकसे वस्तु
( इतिवृत्त ) की सूचना जैसे उदात्तराघव में
रामचन्द्रजी गुरु (पिता) की आज्ञाको मालाके समान शिरमें रखकर वनको
चले गये। उनकी भक्तिसे भरतने माताके साथ ही सब राज्यका त्याग कर दिया । रामका साथ देनेवाले सुग्रीव और विभीषण उत्तम उन्नतिको प्राप्त हुए । वर्गसे उद्धत रावण आदि समस्त शत्रुलोग ध्वस्त किये गये ||
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.. षष्ठः परिच्छेदः
बीजं यथा रत्नावल्याम्द्वीपादन्यस्मादपि मध्यादपि जलनिधेदिशोऽप्यन्तात् ।
आनीय झटिति घटयति विधिरभिमतमभिमुखीभूतः ॥
अत्र हि समुद्रे प्रवहणभङ्गमग्नोस्थिताया रत्नावल्या अनुकूलदेव. लालितो वत्सराजगृहप्रवेशो यौगन्धरायणव्यापारमारभ्य रत्नावलीप्राप्तौ बीजम् । मुख-श्लेषादिना प्रस्तुतवृत्तान्तप्रतिपादको वाग्विशेषः ।
यथाआसादितप्रकटनिर्मलचन्द्रहासः प्राप्तः शरत्समय एष विशुद्धकान्तिः। अत्र संपूर्णमुदात्तराघवनाटकेतिवृत्तं स्थापकेन समासतः सूचितम् ।
बीजं थथा रत्नावल्यां नाटिकायाम्-द्वीपादिति । अभिमुखीभूतः= संमुखीभूतः; अनुकूल इति भावः । विधिः = भाग्यम्, अन्यस्मात् मपि = अपरस्मात् अपि, द्वीपात् = अन्तरीपात्, जलनिधेः = समुद्रस्य; मध्यात् अपि = अन्तरात् अपि, दिशः= काष्ठायाः, अन्तात् अपि = अन्त्यात् अपि, अभिमतम्-अभीष्टं वस्त, झटिति शीघ्रम, आनीय = प्रापय्य, घटयति = संयोजयति । आर्या वृत्तम् ॥
प्रति। प्रवहणभङ्गमग्नोत्थिताया: = प्रवहणस्य ( नौकायाः) मङ्गः (भेदः), तेन प्राक् मग्ना (बुडिता ) पश्चात् उत्थिता ( उत्तीर्णा ), तस्याः, रलावल्याः = तन्नापकनाटिकानायिकायाः, अनुकलंदैवलालितः = अनुगुणभाग्यप्रसाधितः; वत्सराजगृहप्रवेशः = 'उदयनभूपभवनप्रवेशः, योगन्धरायणव्यापारम्-उदयनमन्त्रिकर्म, आरभ्य-उपक्रम्य, रत्नावलीप्राप्तो= उदयनकर्तृकरत्नावल्यासादने, बीजं = हेतुः ।
मुखं लक्षयति-श्लेषादिना = श्लेषप्रभृतिनाऽलङ्कारेण, आदिपदेन समासोक्स्य प्रस्तुतप्रशंसाऽऽदेर्गहणम्, प्रस्तुतवृत्तान्तप्रतिपादकः = प्रकृतोदन्तसूचका, वाग्विशेषः । उदाहरति-प्रासादितेति । आसादितप्रकटनिमलचन्द्रहास: विशुद्ध कान्तिः संभूतबन्धु. जीवः एष शरत्समयः, गाढतमसम् उग्रं घनकालम् उत्खाय आसादिक्षप्रकटनिर्मलचन्द्रहासः विशुद्धकान्तिः संभृतबन्धुजीवः रामः गाढतमसम् उग्रं घनकालं दशाऽऽस्यम् उत्खाय इव प्राप्तः इत्यन्वयः। . आसादितप्रकटनिर्मलचन्द्रहासः = आसादितः (प्राप्तः) प्रकटः ( व्यक्तः)
बीज से रत्नावलीमें-अनुकूल भाग्य दूसरे द्वीपसे, समुद्रके मध्यसे दिशाके अन्तसे भी अभीष्ट पदार्थको झटपट छाकर मिला देता है। प्रत्रेति । यहाँपर जहाज टूटनेसे समुद्रमें डूबकर भी उतरी हुई रत्नावलीका अनुकूल भाग्यसे लालित वत्सराज: (उदयन ) के प्रासादमें प्रवेश योगन्धरायणके उद्योगको आरम्भ कर रत्नावलीकी प्राप्ति में बीज (सन्धि ) है।
श्लेष आदिसे प्रस्तुत वृत्तान्तका प्रतिपादन करनेवाले वचन विशेषको "मुख" कहते हैं। जैसे-दृढ तमोगुणवाले, भयङ्कर और मेघके समान कृष्णवर्ण रावणको
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४००
साहित्यदर्पणे उत्खाय गाढतमसं घनकालमु रामो दशास्यमिव संभृतवन्धुजीवः । पात्रं यथा शाकुन्तले
तवास्मि गीतरांगेण हारिणा प्रसभं हृतः।
एष राजेव दुष्यन्तः सारङ्गणातिरंहसा ।। (१-५) निर्मलः ( स्वच्छः ) चन्द्रस्य ( इन्दोः ) हासः ( विकासः ) येन सः । विशुद्धकान्तिः = विशुद्धा (स्वच्छा, मेघाऽभावेनेति शेषः) कान्तिः (शोभा ) यस्य सः । संभृतबन्धुजीवः = संभूतानि ( सञ्चितानि ) बन्धुओवामि ( बन्धूकपुष्पाणि ) येन सः; एषः = समीपतरवर्ती, शरत्समयः = शरत्कालः, गाढतमसंगाढान्धकारं, मेघाच्छादनादितिशेषः । उम्र = भयङ्करं, घनकालं = मेघसमयं, वर्षतु मितिभावः । उत्खाय = उन्मूल्य, आसादितप्रकनिर्मलचन्द्रहासः सादितः (घृतः) प्रकटः (व्यक्तः) निर्मलः ( मलरहितः, शोणनादिति शेषः ) चन्द्रहासः (खड्गः ) येन सः । विशुद्धकान्तिः = स्वच्छशोमः, संभृतबन्धुजीवः = संभूताः ( रक्षिताः रावणादिवधेनेति शेषः), बन्धूनां (बान्धवानां, सुग्रीवविभीषणादीनाम् ) जीवाः ( जीवनानि ) येन सः । रामः = दाशरथिः, गाढतमसं = गाढं (प्रबलम् ) तमः ( तमोगुणः) यस्य सः तम् । उग्रं = भयङ्कर, घनकालं = घनः (मेघः) इव कालः (कृष्णवर्णः ), तम्, दक्षाऽऽस्यं = रावणम्, उत्खाय = व्यापाद्य, इव, प्राप्तः = आयातः । उपमाऽलङ्कारः । वसन्ततिलका वृत्तम् ।
अत्र श्लेषेण प्रस्तुतो रामवृत्तान्तः सूषितः ।
पात्रं शाकुन्तले-तवाऽस्मीति । सूत्रधारो नटी प्रति प्रतिपादयति । (हे प्रिये !) हारिणा = मनोहरेण, सारङ्गगपक्षे-दूरमपहारकेण । तव = भवत्याः, गीतरागेण = गानाऽनुरागेण, अतिरंहसा = अतिवेगयुक्तेन, सारङ्गेण = मृगेण, एषः = अयं, राजा %3D भूपतिः, दुष्यन्तः, इव, प्रसभं = बलात्, हृतः = आकृष्टः, अस्मि भवामि । अनेन दुष्यन्तरूपपात्रप्रवेशः सूचितः। मारकर बन्धु ( सुग्रीव और विभीषण ) जनोंके जीवनको संरक्षित करनेवाले तथा प्रकाशरूप निर्मल खड्गको प्राप्त करनेवाले विशुद्ध कान्तिवाले रामके समान गाढ अन्धकारवाले भयङ्कर मेघसमय ( वर्षा ऋतु ) को ध्वस्त कर बन्धुजीव (दोपहरिया) आदि पुषोंको बढानेवाला और प्रकाशरूप और निर्मल चन्द्ररूप हास्यको प्राप्त करनेवाला तथा विशुद्ध कान्तिवाला इस शरत् ऋतुका समय प्राप्त हुआ है ॥
पात्र जैसे शाकुन्तलमें-जैसे ये राजा दुष्यन्त वेगवाले मृगसे खींचे गये थे से ही तुम्हारे मनोहर गीतके रागसे मैं हठात् खींचा गया हूँ।
यह सूत्रधार नटीसे कहता है।
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षष्ठः परिच्छेदः
रङ्गं प्रसाद्य मधुरः श्लोकः काव्यार्थसूचकः । रूपकस्य कवेराant गात्राद्यपि स कीर्तयेत् ॥ २८ ॥ ऋतु च कश्चित्प्रायेण: भारतां वृत्तिमाश्रितः । सस्थापकः । प्रायेणेति कचिहतोरकीर्तनमपि । यथा रत्नावल्याम् भारतीवृत्तिस्तु
भारती संस्कृतप्रायो वाक्यापार नटाश्रमः ॥ २९ ॥ संस्कृतबहलो वाक्यप्रधानो व्यापारो भारती । -
तस्याः प्ररोचना वीथी तथा प्रहसनामुखे । अङ्गान्यवोन्मुखीकारः प्रशंसातःप्ररोचन्म ।। ३० ।।
४०१
रङ्गमिति । सः स्थापकः, मधुरैः = मनोहरैः काव्याऽर्थसूचकैः = रूप्यकवृत्तान्तप्रतिपादकः, श्लोकैः = पद्य:, बहुवचनमविवक्षितम्, रङ्ग = रङ्गस्थसम्यस मूह, प्रसाद्य = प्रसन्नं विधाय, रूपकस्य =. प्रस्तुत दृश्य काव्येस्य कवेः = कवयितुः, आस्या = नाम, गोत्रादि अपि = वंशादिकम् अपि, आदिपदेन वासस्थानादिकम् अपि कीर्तयेत् प्रकाशयेत् ।। २८ ।।
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प्रायेण = बाहुल्येन, कंचित् ऋतु = वसन्तादिकं च प्रायेणेति कथनात् कचित् ऋतोरकीर्तनमपि । यथा रत्नावल्याम् । भारती - तदाखर्श, वृर्ति = व्यापारम्, अश्रितः = कृताश्रयः सन् कीर्तयेत् ।
भारतीं वृत्ति लक्षयति-भारतीति । संस्कृतप्रायः = संस्कृतप्रचुरः । नटाश्रयः=कुशीलवप्रभोज्यः, "नराश्रय" इति पाठान्तरम् वाग्व्यापारः = वाक्य प्रधानः व्यापारः = वृत्तिः, भारती ।। २९ ।।
भारत्या अङ्गान्याह - तस्या इति । तस्याः = भारत्याः, प्ररोचना, वीथी, प्रहसनम् आमुखं चाऽङ्गानि । तत्र प्ररोचनां लक्षयति — प्रत्रेति । अत्र - एषु अङ्गेषु प्रशंसातः = गुणकीर्तनात्, उन्मुखीकारः = प्रवृत्युत्पादनं प्ररोचना ॥ ३० ॥
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वह स्थापक मधुर और काव्यार्थकी सूचना करनेवाले श्लोकोंसे रङ्गभूमि(सभा) को प्रसन्नकर रूपक और कविके नाम और गोत्र आदिका कीर्तन करे ।। २८ ।। भारती वृत्तिका आश्रय कर प्रायः किसी ऋतुका भी वर्णन करे। "प्रायः " कहने से कहीं पर ऋतुका कीर्तन नहीं होता है। जैसे रत्नावली में ।
नटसे की जानेवाली संस्कृत प्रचुर वचनव्यापारको "भारती" कहते हैं ।। २९॥ प्ररोचना, वीथी, प्रहसन और आमुख "भारती" के अङ्ग हैं।
इनमें प्रस्तुत अभिनयों में प्रशंसा ( तारीफ ) से श्रोताओंकी प्रवृत्तिको आकृष्ट करना ही "प्ररोचना" है ।। ३० ।।
२६ सा०
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४५
साहित्यदपणे
प्रस्तुताभिनयेषु प्रशंसातः श्रोतृणां प्रवृत्त्युन्मुखीकरणं प्ररोचना । यथा रत्नावल्याम् ।
'श्रीहर्षी निपुणः कविः, परिषदप्येषा गुणग्रहिणी,
लोके हारि च वत्सराजचरितं, नाटये च दक्षा वयम् । वस्त्वेककमपीह वाञ्छितफलप्राप्तेः पदं, किं पुन
___ मद्भाग्योपचयादयं सनुदितः सर्वो गुणानां गणः ॥' वीथीप्रहसनें वक्ष्येते।
नटी विदूषको चापि पारिपार्श्विक एव वा। स्त्रधारेण महितः. सलापं यत्र कुमते ।। ३१ ॥
बत्ती प्ररोचनां विशदयति-प्रस्तताऽभिनयेष्विति । प्रस्तुताभिनयेषु प्रकृताsवस्थाऽनुकरणेषु, प्रशंसाप्तः, श्रोत णाम् = आकर्णयितणां सभ्यानां, प्रवृत्त्यन्मुखीकरण = प्रपत्तेः ( प्रवर्तनस्य ) उन्मुखीकरण प्ररोचना । या रत्नावल्या-श्री हर्ष इति । श्रीहर्षः = तदाख्यः, निपुणः = प्रवीण: नाटकनिर्माण इति शेषः । कविः = कवयिता। एषा, परिषत् = सभा, अपि, गुणग्राहिणी = गुणग्रहणशीला । वत्सराजचरित च = उदयनचरित्रं च, लोके = भुवने, हारि = मनोहरम् । वयं च = नटाच, नाट्रय = नटकममि, दक्षा: = निपुणाः । इह = अत्र, अभिनयविषये, एककम् अपि = कवि. निपुणत्वप्रभूत्यपि । वस्तु = पदाऽर्थः, वाञ्छितफलप्राप्तेः = अभीष्टफललाभस्य, पदं - स्थानम् । मद्भाग्योपचयात = मम ( सूत्रधारस्य ) भाग्यं ( भागधेयम् ) तस्यः उपचयः (वद्धिः), तस्माद, अय = सन्निकृष्टस्थः, सर्वः = सकलः, गुणानां = निपुणकवि. स्वादीनां, गणः = समूहः, समृदितः = समुत्पन्नः, पुनः = भूयः, कि = किंवक्तव्यमिति भावः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । प्रशंसातः श्रोतप्रवृत्तेरुन्मुखीकरणादियं प्ररोचना । वीथीप्रहसने = तन्नामके भारत्या अङ्गे, पश्चाव = अनन्तरं, वक्ष्येते = कथयिष्यते ।
आमुखं लभ यति-नटोति । नटी सूत्रधारभार्या, विदूषकः - पूर्वोतलक्षण: विशेषः, वा-- अथवा, पारिवारिकक एव == सूत्रधारपालचारी नट एव । सूत्र धारेण = प्रदाननटेन, सहिताः = सम्मिलिताः सन्त', यत्र = यस्मिन् रने,
जैसे रत्नावलीमें-श्रीहर्ष निपुण कवि हैं, यह सभा भी गुणग्राहिणी है । लोकमें वत्सराज (उदयन) का चरित्र भी मनोहर है और हम लोग नाटय (अभिनय). में प्रवीण हैं । यहाँपर एक एक वस्तु भी अभीष्ट फलकी प्राप्तिमें कारण होती है तो मेरे भाग्यकी प्रचुरता है कि यह सब गुणों का गण (समूह) जुट गया है तो फिर क्या कहना है ?॥
वीथी और प्रहसनको पीछे कहेंगे । प्रामुख-नटी, विदूषक अथवा पारिपाश्विक सूत्रधारके साथ जहाँगर अपने
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पपरिच्छेदः
४०३
चित्रवाक्यः स्वकार्योत्थैः प्रस्तुतापभिमिथः ।
आमुखं तत्तु विज्ञेयं नाम्ना प्रस्तावनापि सा ।। ३२ ।। सूत्रधारसदृशत्वात् स्थापकोऽपि सूत्रधार उच्यते । तस्यानुचरः पारिपाविका, तस्भात्किचिदनो नटः । .
उद्घात्य (त) कः कथोद्घातः प्रयोगातिशयस्तथा । प्रवर्तकावलगिते पश्च प्रस्तावनाभिदा ।। ३३ ।। तत्रपदानि त्वगतार्थानि तदर्थगतये नराः ।
योजयन्ति पदैरन्यः स. उद्धात्य (त) क उच्यते ।। ३४ ।। सार्योत्यंः = स्वकर्तव्यविषयोत्पन्नः, प्रस्तुताऽऽक्षेपिभिः = प्रस्तुतं (प्रकृतं रूपकम् ) आक्षिपन्ति ( सूचयन्ति ) इति प्रस्तुताक्षेपीणि, तैः, चित्रः = अनेकप्रकारः, वाक्यः = वचनैः, मिथः अन्योन्यं, संलापं-मिथोभाषणं, कुर्वते विदधति । तद, आमुखं, विज्ञेयंवोध्यं, रूपकस्यारम्भे प्रयोज्यत्वादिति भावः । नाम्ना अभिधानेन, सा, प्रस्तावना, विज्ञेया ज्ञातव्या ।। ३१-३२ ।।
प्रस्तावनाभेदानुद्दिशति-उद्घात्यक इति । पञ्च प्रस्तावनाभिदा:-प्रस्तावनाभेदाः ।। ३३ ॥
उद्घात्यकं लक्षयति-पवानीति । यत्र नराः = नटाः, अगताऽर्थानि = अगताः ( अज्ञाता: ) अर्थाः (वाच्याः ) येषां तानि, तादृशानि पदानि = शब्दान्, तदर्थगतये-तदभिप्रेताऽर्थज्ञानाय, अन्यः = अपरैः, पदः = शब्दः, योजयन्ति %= सक्रमयन्ति, अभिप्रेताऽर्थ इति शेषः। स:=प्रस्तावनाविशेषः । उद्घात्यक:-तनामकः; उच्यते-अभिधीयते ॥ ३४ ॥ कार्यके उपयुक्त और प्रस्तुत विषयके सूचक विचित्र वाक्योंसे परस्पर वार्तालाप (बात. चीत ) करते हैं उसको "आमुख' या "प्रस्तावना' जानें ।। ३१-३२ ॥ __सूत्रधारके समान होनेसे स्थापक भी "सूत्रधार" कहा जाता है।
उसका अनुचर पारिसावक है । उससे कुछ कम नट होता है।
उद्घास्यक कयोद्घात, प्रयोगाऽतिशय प्रवर्तक और अवलगित प्रस्तावनाके ये पांच भेद होते हैं ।। ३३ ॥ • जहाँपर मनुष्य अज्ञात अर्थवाले पदोंको उनका अर्थ जानने के लिए अन्य पदोंसे योजना करते हैं उसे "उद्घात्यक'' कहते हैं ।। ३४ ॥
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५८४
साहित्यदर्पणे
यथा मुद्राराक्षसे सूत्रधारः... 'ऋरग्रहः सकेतुश्चन्द्रमसम्पूर्णमण्डलमिदानीम् । अभिभवितुमिच्छति बलात-'... इत्यनन्तरम् -( पथ्ये।) :
आः, क एष मयि जीवति चन्द्रगुप्तमभिभवितुमिच्छति ।' इति । अत्रान्यार्थवन्त्यपि पदानि हृदयस्थार्थागत्या अर्थान्तरे संक्रमय्य पात्रप्रवेशः।
सूत्रधारस्य वाक्यं वा समादायाथमस्य वा।
'भवेत्पात्रप्रवेशश्चेत्कथोद्घातः स उच्यते ॥ ३५॥ . यथा मुद्रारामसे = तन्नामके नाटके, सूत्रधार:-रग्रह इति । क्रूरग्रहः = कठोरग्रहः, अनिष्टफलप्रद इति भावः। स: = प्रसिद्धः, केतुः = एकशरीरत्वेन भेदाsभावात राहुरिति भावः । पूर्णमण्डलं = षोडशकलोपेतं चन्द्र = चन्द्रमसम्, इदानीम् अधुना, बलात्-बलमाश्रित्य, ल्यवलोपे पञ्चमी, अभिभवितुम्-प्रसितुम्, इच्छति = कामयते । श्लिष्टाऽर्थस्तु --क्रूरग्रहः = क्रूरः ( कठोर: ) ग्रहः ( आग्रहः चन्द्रगुप्ताऽभिभवरूपः ) यस्य सः। सः, केतुः = 'नामैकदेशे नामग्रहणम्" इति नयेन मलयो तुरित्यर्थः । असंपूर्णमण्डलम् अस्याधीनराज्यमण्डलम्, अचिरप्राप्ताऽधिकारस्वेनेति भावः । चन्द्र-चन्द्रगुप्तम्, इदानीम् अधुना, बलात, अभिवितु-पराभवितुम् इच्छति ।
नन्तरमिति-जीवति = प्राणान् धारयति सति । अत्र = सूत्रधारोक्तो, अन्याऽर्थवन्ति अपि-अर्थान्तरवन्ति अपि, पदानि-राहुचन्द्रादीनि इति भावः । हृदयस्थाऽर्थागत्या - हृदयस्थान (चित्तस्थितानाम = मलयकेतुचन्द्रगुप्तादिरूपाणाम, अर्थाना = पदार्थानाम् ) अगत्या (अबोधेन ), अर्थान्तरे = भिन्नार्थ, वक्तुभिप्रेतादिति शेषः । संक्रमय्य सञ्चाय, पात्रप्रवेशः चाणक्यप्रवेशः । .
___ कयोद्घातं लक्षयति-सूत्रधारस्येति । सूत्रधारस्य, वाक्यं = पदसमूहम, "अस्य = सूत्रधारस्य, अर्थम् = अभिधेयं वा, समादाय = गृहीत्वा, पात्रप्रवेशो भवेच्वेद, स कयोद्घातः, उच्यते = अभिधीयते ॥ ३५॥ . .
जैसे मुद्राराक्षसमें सूत्रधार
क्रूर ग्रह वह केतु इस समय पूर्ण मण्डलवाले चन्द्रको, जबर्दस्तीसे अभिभूत करनेकी इच्छा करता है।
इसके बाद-( नेपथ्यमें ) ओह ! यह कौन मेरे जीते रहनेपर चन्द्रगुप्तको अभिभूत करनेकी इच्छा करता है ?
यहांपर अन्य अर्थवाले पदोंको हृदयस्थ अर्थगतिसे दूसरे अर्थ में संक्रमण कराकर पात्रका प्रवेश है । जैसे-केतु-मलयकेतु,असंपूर्णमण्डलं चन्द्रम्-असंपूर्णमण्डल चन्द्रगुप्तको ।
सुत्रधारके वाक्य वा उसके अर्थको लेकर पात्रका प्रवेश हो तो उसे "कयोद्धाव" ' कहते हैं ।। ३५ ॥
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. षष्ठः परिच्छेद
४.५
वाक्यं यथा रत्नावल्याम्-'द्वीपादन्यस्मादपि-' (पृ. ३९८ ) इत्यादि सूत्रधारेण पठिते-( नेपथ्ये ) एवमेतत् । कः सन्देहः ? द्वीपादन्यस्मादपि-' इत्यादि पठित्वा यौगन्धरायणस्य प्रवेशः ।
वाक्यार्थो यथा वेण्याम्'निर्वाणवैरदहनाः प्रशमादरीणां
. नन्दन्तु पाण्डुतनयाः सह माधवेन । रक्तप्रसाधितभुवः क्षतविग्रहाश्च
स्वस्था भवन्तु कुरुराजसुताः सभृत्याः।।' वाक्यमिति । द्वीरादित्यादि वाक्यं सूत्रधारपठितं गृहीत्वा पात्रप्रवेशः योगन्धरायणरूपपात्र प्रवेशः । अयमेकप्रकारः।
वाक्याकों यथा वेण्याम्-निर्वाणति बरीणी = शंबेगां, दुर्योधनादीनाम् । प्रक्षमात् = शान्तेः, सन्धिकरणादिति शेषः । निर्वाणवरदहना: निर्वाणः ( अपगतः) वरदहनः ( शतारूपाऽग्निः ) येषो ते । तादृशाः, पाण्डुतनया: = पाण्डवाः, युधिष्ठिरादय इति भावः । माधवेन = श्रीकृष्णेन, सह = समं, नन्दन्तु - समृमा भवन्तु । रक्तप्रसाधितभुवः = रक्ता ( अनुरञ्जिता ) प्रसाधिता (अलङकृता ) भूः (भूमिः) यस्ते । एवं च क्षतविग्रहाः = क्षेतः ( भग्नः ) विग्रहः (कलहः ) पेषां ते, तादृशः; सभृत्याः साऽनुचराः, कुरुराजसुता: धतराष्ट्रपुत्रा इति भावः। स्वस्थाः - कुखिनः; भवन्तु विद्यन्ताम्. सन्धिफलं पक्षद्वय मनुभवस्विति भावः । वसन्ततिलका वृत्तम् ।
- द्वितीयाऽर्थस्तु-परीणां प्रशभात् = बिनाशात्, निर्वाणवरदहनाः, पाण्ड. तनयाः । रक्तप्रसाधितभुवः रक्तः ( रुधिरैः ) प्रसाधिता (भूषिता) भूः (भूमिः ) यः । क्षतविग्रहाः = क्षतः ( नष्टः ) विग्रहः (शरीरम् ) येषां ते। सभृत्याः = साऽनुचराः, कुरुराजसुता: = धृतराष्ट्रपुत्राः, स्वस्थाः (स्थ: स्वर्गे तिष्ठन्ति इति ) "खपरे शरि वा विसर्गलोपो वक्तव्यः” इति विसर्गलोपः, परलोकवासिनो भवन्तु ।
वाक्य जैसे रत्नाबलीमें-"दोपादन्यस्मावपि" ऐसा.सूत्रधारके पढ़नेपर-(नेपथ्यमें) यह ऐसा ही है । क्या सन्देह है ? "द्वीपादन्यस्मा" इत्यादि पढ़कर योगन्धरायण प्रविष्ट होता है।
वाक्यार्थ जैसे वेणीसंहार में
शत्रुओंके नाशसे विरोधरूप अग्निके बुझ जानेसे पाण्डवलोग माधव (श्रीकृष्णजी) के साथ आनन्दित हों । रुधिरसे भूमिको अलङ्कृत करनेवाले और नष्ट शरीरवाले धृतः राष्ट्रपुत्र ( दुर्योधन आदि ) अपने भृत्योंके साथ स्वर्गस्थ हों।
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४०६
साहित्यदर्पणे -
इति सूत्रधारेण पठितस्य वास्यस्यायें गृहीत्वा -- (नेपथ्ये) आः दुरास्मन् ! पृथा मङ्गलपाठक ! कथं स्वस्था भवन्तु मयि जीवति धार्तराष्ट्राः ?' ततः सूत्रधारनिष्क्रान्तौं भीमसेनस्य प्रवेशः।
यदि प्रयोग एकस्मिन् प्रयोगोऽन्यः प्रयुज्यते । तेन . पात्रप्रवेशश्चेत्प्रयोगातिशयस्तदा ॥ ३६ ॥ यथा कुन्दमालायाम् -'(नेपध्ये ) इत इत इतोऽवतरत्वार्या। सूत्रधारः-कोऽयं खल्वार्याहानेन साहायकमपि मे सम्पादयति । (विलोक्य ) कष्टमतिकरुष वर्तते। लङ्केश्वरस्य भवने सुचिरं स्थिति
समेण लोकपरिवादभयाकुलेन। इतीति । अर्थ = वाच्य, गृहीत्वा = आदाय, कुरुराजसुस्थीभवनरूपमर्थमिति भावः । मयि = भीमसेने, बीवति = प्राणान्धारयति सति । स्वस्था: - सुस्थाः ।
प्रयोगाऽतिशय लक्षयति-पवीति । एकस्मिन् प्रयोगे, अन्य प्रयोगः, प्रयुज्यते यदि = अनुष्ठीयते चेत् ॥ ३६॥
उदाहरति-यति । आर्या = पूज्या; मत्र आर्या-सीता, इति नेपध्ये नटी: रूपस्तु सूत्रधारेणाऽवगत इति बोध्यः। संहायकं = साहाय्यम् । अतिकरणम् = अतिशयशोकाबहम
लकेश्वरस्यति । सीता लश्वरस्य भवने सुचिरं स्थिता इति लोकपरिवाद. भयाऽकुलेन रामेण गर्भगुर्गम् अपि जनपदाद निर्वासिता सीतां वनाय अयं लक्ष्मणः परिकर्वति इत्यन्धयः ।
सोता - जानकी, नवरा = रावणस्य, भवने = मन्दिरे, सुचिर-बहुकालं, दशमाससंमितमिति भावः । स्थिता = अवस्थिता इति = इत्थं, लोकपरिवादभयाऽऽकुलेन =.लोकानां (जनानाम् ) यः परिवार: ( अपवादः ) तस्मात् भयं ( भीतिः ),
सूत्रधारसे पठित ऐसे वाक्यका अर्थ लेकर- ( नेपथ्यमें ) ओह ! दुष्टस्वभाव! व्यर्षमङ्गलपाठक ! कैसे : स्वस्था भवन्तु मयि जीवति धार्तराष्ट्राः" अर्थात् "मेरे जीते हनेपर कैसे धार्तराष्ट्र ( दुर्योधन आदि) स्वस्थ ( सुस्थित ) हों" ऐसा वाक्याऽर्थ लेकर सूत्रधारके जानेके बाद भीमसेन का प्रवेश होता है।
'यदि एक प्रयोगसे दूसरा प्रयोग प्रयुक्त हो और उससे पात्रका प्रवेश हो तो उसे "प्रयोगाऽतिशय" कहते हैं ।। ३६ ॥ । सेकुन्दमालामें-(नेपथ्यमें ) आर्या यहाँसे उतरें यहाँसे उतरें।
सूत्रधार-यह कौन मेरी पत्नीके आह्वाहनसे मानों मेरी सहायता कर रहा है। ( देखकर ) कष्ट है अत्यन्त शोकजनक विषय है। रावणके भवन में बहुत समय तक
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षष्ठः पस्च्छेिन्ः
निर्वासितां जनपदादपि गर्भगुर्वी
__ सीतां वनाय परिकर्षति लक्ष्मणोऽयम् ॥' अत्र नृत्यप्रयोगार्थ स्वभार्याद्वानमिच्छता सूत्रधारेण 'सीतां बनाय परिकर्षति लक्ष्मणोऽयम्' इति सीतालक्ष्मणयोः प्रवेशं सूचयित्वा निष्क्रान्तेन स्वप्रयोगमतिशयान एव प्रयोगः प्रयोजितः। .. कालं प्रवृत्तमाश्रित्य सूत्रधृग्यत्र वर्णयेत् ।
तदाश्रयश्च पात्रस्य प्रवेशस्तत्प्रवर्तकम् ॥ ३७॥ - यथा
'आसादितप्रकट-' (पृ. ३९९) इन्यादि । 'ततः प्रविशति यथामिदिष्ट राम:' तआकुलेन = ध्याकुलेन, रामेण = राघवेण, गर्भगुर्वीम् - गर्मेण ( क)-मुमै ( भारयुक्ताम् ) अपि, जनपदात = देशात्, निर्वासितां = बहिष्कृता; सीता-जानकी, वाय अरण्याय, अयं, लक्ष्मणः, परिकर्षति-अ'कर्षति । बसन्ततिलका वृत्तम् ।
प्रयोगाऽतिशयं “व्युत्पादयति-प्रति। नृत्यप्रयोगाऽयं माऽनुष्ठानाय; स्वभाऽऽह्वान = स्वस्य ( आत्मनः) भार्या ( सहमिणी, नटील - शेकः ) तस्याः आह्वानम् (आकारणम्) । स्वप्रयोगम् आत्मप्रयोगं, नृत्यरूपमिति भावः । भतिशयान:अतिक्रामण एव; प्रयोगः-सीताया वनपरिकर्षणरूप इति भावः।
प्रवर्तकं लक्षयति-कालमिति । सूत्रधृक्-सूत्रधारः, यत्र-यस्मिन्, प्रवृत्ततदा वर्तमानं काल = समयं, शरदादिरूपमिति भावः । वर्णयेत् - वर्णन कुर्यात, तदाश्रयः = प्रवृत्त कालवर्णनाधारः। पात्रस्य - अभिने तुः, प्रवेशः - प्रवेशनं, तत् प्रवर्तकम् । अभिनये पात्र प्रवर्तयतीति प्रवर्तक मिति व्युत्पत्तिः ॥ ३७॥ रही हुई है ऐसे लोगोंके अपवादके भयसे आकुल रामसे देशसे भी निर्वासिनी सीताको लक्ष्मणजी बन जाने के लिए आकृष्ट कर रहे हैं।
यहाँपर नृत्यके प्रयोगके लिए अपनी पत्नीको बुलाने की इच्छा करनेवाले सूत्रधारने "ये लक्ष्मण वन जानेके लिए सीताको आकृष्ट कर रहे हैं." कहकर सीता और लक्ष्मणके प्रवेशको सूचित कर निकलकर अपने प्रयोग ( नृत्य ) को उत्कृष्ट करके प्रयोग दिखलाया है।
'जहांपर सूत्रधार प्रस्तुत समयका आश्रय कर वर्णन करे और उसीका आश्रय कर पात्रका प्रवेश हो वह "प्रवर्तक" है ।। ३७ ॥
जैसे "आसादित प्रकट." इत्यादि ( तब तथा निर्दिष्ट राम प्रवेश करते हैं)।
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४०८
साहित्यदर्पये
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यत्रेका समावेशात्कायमन्यत्प्रसाध्यते । : प्रयोगे खलु तज्ज्ञयं नाम्नावलगितं बुधैः ॥ ३८॥ यथा शाकुन्तले--
सूत्रधारो नटी प्रति । 'तवाऽस्मि गीतरागेण-' (पृ.४००) इत्यादि। ततो राज्ञः प्रवेशः।
। योज्यान्यत्र यथालाभं वीथ्यगानीतराण्यपि ।
अत्र आमुखे। उद्घात्य ( त ) कावलगितयोरितराणि वीथ्यङ्गानि वक्ष्यमाणानि ।
नखकुट्टस्तु.. - नेपथ्योक्तं श्रुतं- यत्र त्वाकाशवचनं तथा ॥ ३९ ॥ ..
अवधगितं लक्षयति-यकत्रेति । यत्र - यस्मिन् प्रयोगे, एकत्र = एकस्मिन् विषये, समावेशात-सादृश्योद्भावनात् हेतोः, अन्यत्-अपर, कार्य-कृत्यं, साध्यते = निवपते, सूत्रधारेणेति शेषः । बुधः = विद्भिः , तव आमुखं, नाम्ना=अभिधानेन, "प्रत्यादिभ्य स्पसंख्यानम्" इति तृतीया । ज्ञेयंबोदव्यम्, अवलगनम् अवसजनम् इति अवलगितम् ॥ ३८ ॥
योज्यानोति । अत्र = आमुखे, प्रस्तावनायाम् । यषालाभ-यथाप्राप्ति, अथासंभवमिति भावः । इतराणि अपिअन्यानि अपि, उद्घात्मकावलगितिमिन्नान्यपीति भावः। वीथ्यङ्गानि = वीथ्याः ( वक्ष्यमाणरूपविशेषस्य ) अङ्गानि ( अवयवाः ), योज्यानि-संयोजनीयानि, कविनेति शेषः । .. भामुखस्यते पर भेदाः प्रविष्टपात्रसूचितपात्रान्तरप्रवेशयुक्ताः उक्ताः । अथाऽप्रविष्टसूचितपात्रयुक्तोऽपि नखकुट्टामा षष्ठो भेदः प्रदर्श्यते-नखकुट्टस्त्विति । यत्र= यस्मिन् कस्मिन्नपि नाटके, नेपथ्योक्तं = नेपथ्ये ( वेशरचनास्थले ) उक्त-वाक्यं, तथा
- जहाँपर एक प्रयोगमें सादृश्यका समावेश करके दूसरा कार्य सिद्ध किया जाता है उसे विद्वान् “अवलगित" कहते हैं ।। ३८ ।।
जैसे शाकुन्तलमें सूत्रधार नटीके प्रति-"तवाऽस्मि गीतरागेण इत्यादि । तब राजाका प्रवेश होता है।
आमुख ( उद्घात्मक और अवलगित ) में यथालाभ और भी वीथीके अङ्गों की योजना करनी चाहिएं।
बीपीके अङ्ग पीछे कहे जायेंगे।
नखकुट्ट-नेपथ्यका वचन अथवा आकाशवचन सुनकर उनका आश्रय कर नाटक आदियों में आमुख करना चाहिए।
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षष्ठः परिच्छेदः
समाश्रित्यापि कर्तव्यमामुखं नाटकादिषु । एषामामुखभेदानामेकं कञ्चित्प्रयोजयेत् ॥ ४० ॥ तेनार्थमथ पात्रं वा समाक्षिप्येव सूत्रधृक् । प्रस्तावनान्ते निर्गच्छेतो वस्तु प्रयोजयेत् ॥ ४१ ॥ वस्त्वितिवृत्तम् ।
इदं पुनर्वस्तु बुधैर्द्विविधं परिकल्प्यते । आधिकारिकमेकं स्यात्प्रासङ्गिकमथापरम् ।। ४२ ॥ अधिकारः फले खाम्यमधिकारी च तत्प्रभुः । तस्येतिवृत्तं कविमिराधिकारिकमुच्यते ॥ ४३ ॥
पूर्वोक्तानाम्,
= आमुख •
आकाशवचनम् = आकाशभाषितं श्रुतम् - आकणितं समाश्रित्य - विधाय, नाटकादिषु, आमुख - प्रस्तावना | कर्तव्यं = विधेयम्, सूत्रधृक् = सूत्रधारः, एषां आमुखभेदानां = प्रस्तावनाविशेषाणाम्, एक, प्रयोजयेत् = कुर्यात् । तेन प्रयोगेण अर्थ - वस्तु, अथ अथवा, पात्रं, समाक्षिप्य= समाश्रित्य एव प्रस्तावनाऽन्तेआमुखाऽवसाने, निर्गच्छेत्, ततः - अनन्तरं वस्तु - इतिवृत्त, प्रयोजयेत् = विदधीतः अभिनयाऽर्थमिति शेषः ।
वस्तुविषयं प्रदर्शयति- इदमिति । बुधः - विद्वद्भिः, इदं वस्तु = इतिवृत्तं द्विविधं - द्विप्रकार, परिकल्प्यते = विरच्यते, तयोरेकम्, आधिकारिकम् = अधिकारिण: ( फलस्वामिनः ) इतिवृतम् ( वस्तु ) । अपरम् = अत्यच्च प्रासङ्गिकं - प्रसङ्गेन निर्वृत्तम् ॥ ४२ ॥
कारिकायामेव तद्वयं विवृणोति - प्रधिकार इति । फले = प्रधानफले, स्वाम्यं = स्वामित्वं, मुख्यफलभोक्तृत्वम्, अधिकारः । तत्प्रभुश्च तस्य ( मुख्य फलस्य ) प्रभुः (भोक्ता ), अधिकारी । कविभिः, तस्य - अधिकारिणः, इतिवृत्तं वृत्तान्तः, आधिकारिकमुच्यते ॥ ४३ ॥
सूत्रधार इन उद्घात्मक आदि भेदोंमें किसी एक भेदका प्रयोग करें ॥ ४० ॥ उससे वृतान्त अथवा पात्रका आक्षेप कर प्रस्तावनाके अन्त में बाहर निकल जाय, तब इतिवृत्तका प्रयोग करें ॥ ४१ ॥
वस्तुको विद्वान् लोग दो प्रकारकी मानते हैं आधिकारिक और प्रासङ्गिक || ४२ ॥
मुख्य फलमें स्वामित्व अधिकार है उसका स्वामी अधिकारी है उस अधिकारीके इतिवृत्तको विद्वान् "आधिकारिक" कहते हैं ॥ ४३ ॥
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साहित्यदर्पणे
फले प्रधानफले । यथा बालरामायणे रामचरितम् । __अस्योपकरणार्थ तु प्रासङ्गिकपितीप्यते ।
अस्याधिकारिकेतिवृत्तस्य उपकरणनिमित्तं यच्चरितं तत्प्रासङ्गिकम् । यथा सुग्रीवादिचरितम् ।
पताकास्थानकं योज्यं सुविचार्यह वस्तुनि ॥ ४४ ॥ इह नाट्येयत्राथें चिन्तितेऽन्यस्मिंस्तल्लिङ्गोऽन्यः प्रयुज्यते ।
आगन्तुकेन भावेन पताकास्थानकं तु तत् ॥ ४५ ॥ तद्भदानाह-- -.. . सहसैवार्थसंपत्तिगुणवत्युपचारतः ।
पतांकास्थानकमिदं प्रथमं परिकीर्तितम् ।। ४६ ॥ प्रासङ्गिक वस्तु निरूपयति-प्रस्येति । अस्य = आधिकारिकेतिवृत्तस्य, उपकरणाऽयं = पोषणाऽयं तु, प्रासङ्गिक - प्रसङ्गन निवत्तं चरितं, कविभिः इज्यतेअभिलष्यते।
पेताकेति । इह = नाट्ये वस्तुनि, सुविचार्य - सम्यग्विमृश्य, पताकास्थान वक्ष्यमाणप्रकारं, योज्यं = योजनीयम् ॥ ४४ ॥
.. पताकास्थानकं लक्षयति-यति । यत्र = यस्मिन् स्थाने, अन्यस्मिन्, अर्थविषये, चिन्तिते-विचारिते, आगन्तुकेन-प्रस्तुतादिरेण, मावन = प्रकारेण, सहिलङ्गःतत्सदृशः, अन्य:अपरः, अर्थः । प्रयुज्यते - क्रियते, तत् पताकास्थानकम् ।। ४५ ।।
द्र दानाह-सहसेति । यत्र, सहसा एवअकितकारणेन एव, उपचारतःप्रीत्यनुकूलव्यापारात, गुणवती = उत्कृष्टगुणसंपन्ना, अर्थसम्पत्तिः = फलसमृद्धिः भवति, इदं प्रथमं पताकास्थानं, परिकीर्तितं = व्याख्यातम् ।। ४६ ।। .. ... जैसे बालरामायणमें रामचरित "आधिकारिक" है।
आधिकारिक इतिवृत्तके पोषणके लिए जो चरित्र है उसे "प्रासङ्गिक" कहते हैं, जैसे सुग्रीव आदिका चरित्र ।
नाटकमें पताकास्थानकी योजना अच्छी तरह विचार कर करनी चाहिए।।४४.।
जहाँपर एक विषयकी चिन्ता करनेपर आगन्तुक प्रकारसे उसी प्रकारका दूसरा विषय उपस्थित होता है उसे "पताकास्थान" कहते हैं ॥ ४५ ॥
पताकास्थानके भेदोंको कहते हैं
जहाँपर सहसा उपचार ( प्रीतिके अनुकूल व्यापार ) से उत्कृष्ट फलप्राप्ति हो उसे पहला "पताकास्थान" कहा गया है ।। ४६ ।।
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षष्ठः परिच्छेदः
यथा रत्नावल्याम्
___ 'वासवदत्तेयम्' इति राजा यदा तत्कण्ठपाशं मोचयति तदा तदुक्त्या 'सागरिकेयम्' इति प्रत्यभिज्ञाय 'कथं प्रिया मे सागरिका ?
अलमलमतिमात्रं साहसेनामुना ते,
त्वरितमयि ! विमुञ्च त्वं लतापाशमेतम् । चलितमपि निरोधु जीवितं जीवितेशे! ..
क्षणमिह मम कण्ठे बाहुपाशं विधेहि ॥' अत्र फलरूपार्थसंपत्तिः पूर्वापेक्षयोपचारातिशयाद् गुणवत्युत्कृष्टा । __ वचः सातिशयं श्लिष्टं नानावन्धसमाश्रयम् ।
उदाहरति-यथेति । राजा = उदयनः, मोचयति - बन्धनापासं त्याजयति, तदुक्त्या = सागरिकावचनेन, प्रत्यभिज्ञाय = प्रतिबुध्य,। वासवदत्तेयमिति । भ्रमाऽपगमेति शेषः । प्रलमिति । अयोति कोमलामन्त्रणे, प्रिये सागरिके इति भावः । अमुनाएतेन; ते-तव, साहसेन-प्राणपरित्यागरूपेण बलात्कारकर्मणा. अतिमात्रम् अत्यर्थम्, अलम् अलम = पर्याप्तमिति भावः । संभ्रमे द्विरुक्तिः । त्वम्, एउम्, = इम, लतापाशं = बल्ली. बन्धन; त्वरितं - शीघ्र', विमुच = स्यज। जीवितेशे = हे प्राणेश्वरि ! चलित-गन्तु प्रवृतम् अपि, जीवितं - जीवन, निरोधु = निवारयितुम, दह-अस्मिन्, मम - प्रणयिनः, कण्ठे = गले, बाहुपाशं = भुजवन्धन, क्षणं = कश्चित्कालं, निधेहि-स्थाग्य । मालिनीवत्तम्।
इति = एवं, फ़ रूपा = सागरिकारूपोद्दिष्टफलस्वरूपा, अर्थसम्पत्तिः = फल.. संझाप्तिः, पूर्वाऽपेक्षया-वासवदत्ताज्ञानापेक्षया, उपचाराऽक्षिणयात् = प्रीत्याधिक्योत्पादनादिति भावः, गुणवती = विशिष्टगुण संपन्ना, उत्कृष्टा = उत्तमा।
___द्वितीयं पताकास्थानकं निर्दिशति-वच इति । यत्र, साऽतिशयश्लिष्टम् =: अतिशयश्लेषसहितं, नाना बन्नसमाश्य-नानाबन्धः ( अनेकविशेषणसम्बन्धः ) तत्समा.
जैसे रत्नावलीमे सागरिकाको राजा 'यह वासवदत्ता है" ऐसा समझकर उसके कण्ठपाश को छुड़ाते हैं तब उसकी सक्तिसे "यह सागरिका है ऐसा पहचानकर" यह कैसे मेरी प्रिया सागरिका है।
"तुम इस साहसको मत करो मत करो। हे प्रिये ! तुम इस लतापाशको जल्दी छोड़ो । जाने के लिए प्रवन भी प्राणको रोकने के लिए कुछ समय तक मेरे गले में बाहुपाशको रातो॥
इस प्रकारसे फलरूप अर्थसंपत्ति पहलेसे भी उपचारकी अधिकतासे उत्कृष्ट है ! जहां अनेक बन्धोमें आश्रित अत्यन्त श्लेषयुक्त वचन हो यह दूसरा "पताका,
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४१२
साहित्यदर्पणे
पताकास्थानकमिदं द्वितीयं परिकीतितम् ॥ ४७ ।। यथा वेण्याम्रक्तप्रसाधितभुवः क्षतविग्रहाश्च स्वस्था भवन्तु कुरुराजसुताः सभृत्याः ।'
अत्र रक्तादीनां रुधिरशरीरार्थहेतुकश्लेषवशेन बीजार्थप्रतिपादनान्नेतमङ्गलप्रतिपत्तौ सत्यां द्वितीयं पताकास्थानकम् ।
___ अर्थोपक्षेपकं यत्तु लीनं सविनयं भवेत् ।
श्लिष्टप्रत्युत्तरोपेतं तृतीयमिदमुच्यते ॥ ४८॥ श्रय ( सद्विषयकम् ), वचः = वाक्यं, भवतीति शेषः । तत् द्वितीयं पताकास्थानक, परिकीर्तितम् ।। ४७ ॥
____ उदाहरति-यथा वेण्या-"रक्तप्रसाधितभुवः" । व्याख्यातपूर्वमिदं पद्याचम् । सूत्रकारवचनमिदं क्रोधाद्भीमसेनेनाऽनूक्तम् ।
प्रति । अत्र = अस्मिन्पधे, रक्तादीना = रक्तादिशब्दानां, रुधिरशरीराऽर्थहेतुकश्लेषवशेन = रक्त दस्य रुधिराऽर्थे, एवं च विग्रहपदस्य शरीराऽर्थे श्लेषाऽलङ्कारवशेनेति भावः । एवं च "स्वस्था" इति पदस्य "स्वर्गस्था' इति श्लेषेणेति शेषः, बीजाऽर्थप्रतिपादनात् = भीमक्रोधोपचितयुधिष्ठिरोत्साहसूचनात, नेतृमङ्गलप्रतिपत्ती = सत्यां नेतुः ( नायकस्य युधिष्ठिरस्य ) मङ्गलप्रतिपत्ती (शत्रुनाशतो राज्यलाभरूपशुभबोधे सति) द्वितीयं पताकास्थानम् ॥ ___तृतीयं पताकास्थानं निर्दिशति-प्रर्थोपक्षेपकमिति । यत्तु वचः अर्थोपनेपकम् = अर्थस्य (प्रस्तुतवस्तुनः ) उपक्षेपकं ( सूचकम् ), लीनाम् = अव्यक्ताऽर्थम् । सविनयं = विशेषनिश्चयप्राप्त्या सहितम् । श्लिष्टप्रत्युत्तरोपेतं = श्लिष्टं ( श्लेषयुक्त; सम्बन्धयोग्यमभिप्रायाऽन्तरप्रयुक्तमिति भावः) यत् प्रत्युत्तरं, तेन उपेतं ( युक्तम ) भवेत इदं तृतीय भताकास्थानम्, रच्यते ।। ४८ ॥ स्थान" कहा गया है ।। ४७ ।।।
जैसे वेणीसंहारमें-"रक्तप्रसाधितभुवः'। जिन्होंने पृथ्वीको अनुरागसे अधीन कर लिया है, वा रक्त ( रुधिर ) से अलङ्कृत कर दिया है । "क्षतविग्रहाः" कलहको नष्ट करनेवाले वा नष्ट शरीरवाले कौरवलोग "स्वस्थाः" सुस्थितिसे युक्त वा मारे जानेसे स्वर्ग में स्थित, इसप्रकार रक्त आदि पदोंका रुधिर और शरीररूप अर्थ के हेतु श्लेष अलङ्कारसे बोज अर्थ ( कौरवोंका नाश ) के प्रतिपादनसे नायकके मङ्गलका ज्ञान होनेसे दूसरा पताकास्थान हो गया है । - जो अर्थोपक्षेपक ( दूसरे अर्थका सूचक ) लीन ( अस्पष्ट अर्थसे युक्त) श्लिष्ट (सम्बन्धयोग्य दूसरे अभिप्रायसे प्रयुक्त ) प्रत्युत्तरोंसे युक्त और सविनय (विशेष निश्चयको प्राप्तिसे युक्त ) हो उसे "तीसरा पताकास्थान कहते हैं ।। ४८ ।।
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षष्ठः परिच्छेदः
४१३
लीनमव्यक्ताथम् , श्लिष्टन = सम्बन्धयोग्येनाभिप्रायान्तरप्रयुक्तेन प्रत्युत्तरेणोपेतम् , सविनयं = विशेषनिश्चयप्राप्त्या सहितं संपाद्यते यत्तत्ततीयं पताकास्थानम् ।.
यथा वेण्यां द्वितीयेऽङ्क'कञ्चुकी-देव ! भग्नं भग्नम् । राजा-केन ? कञ्चुकी-भीमेन । राजा-कस्य ? कञ्चुकी-भवतः। राजा-आः ! किं प्रलपसि ? कञ्चुकी-(सभयम् ) देव ! ननु ब्रवीमि । भग्नं भीमेन भवतः। राजा - धिंग वृद्धापसद ! कोऽयमद्य ते व्यामोहः ? कचुकी-देव ! न च्यामोहः। सत्यमेव-भग्नं भीमेन भवतो मरुता रथकेतनम्।
___ पतितं किङ्किणीकाणबद्धाक्रन्दमिव झितौ ।' विवृणोति । लोनम्-अन्य ताऽर्थम् । अव्यक्तः. ( अस्पष्टः ) अर्थः ( वक्त्रभि. प्रायः ) यस्मिस्तत् । सम्बन्धयोग्येन = प्रस्तुनाऽन्धयोचितेन ।
उदाहरति-यथा वेश्यां ततीय इति । भीमेन = भयङ्करेण, भीमसेनेन । प्रलपसि = अनर्थ ब्रवीषि । नन्धिति निश्चये । वृवापसद-बद्धाऽधम । व्यामोहः= विशिष्टमज्ञानम् । भग्नमिति । भीमेन महता भग्न भवतो रथकेतन किङ्किणीजालबद्धाकन्दम् इव क्षिठो पातितमित्यन्वयः । ___ कञ्चुकी दुर्योधनं प्रति वायुकृतं रथपताकारातन सूचयति । हे महाराज !, भीमेन= भयानकेन, मरुता = वायुना, भग्नम्-आदितं, भवतः = तव, रयकेतनं = ध्वजः, किङ्किणीजालबद्धाक्रन्दम् हकिङ्किणीजालेन (मुद्रघण्टिकासमूहेन ) बद्धः ( कृतः) बाक्रन्दः ( रोदनध्वनि: ) येन तद, तादृशं सत् । शितो-भूमी, पातितं निपातितम् । अनुब वृत्तम् । उत्प्रेक्षाऽलङ्कारः । .
जैसे वेणीसंहारमें दूसरे प्रहमें-कञ्चुकी-"महाराज ! भग्न हुआ"। राजा किससे ? । कञ्चुकी-भीमसे। राज-किसका ? कञ्चुकी-आपका। राजामोह ! क्या प्रलाप करते हो ? कञ्चुकी ( भयके साथ ) महाराज ! मैं कह रहा हूँ। भीमने आपका मन किया । राजा-धिक्, अधम बद्ध ! यह तुम्हारा कैसा मोह है ? कचुकी-महाराज ! मेरा मोह नहीं। सचमुच ही।
भीम ( भयङ्कर ) वायुसे भग्न आपके रथका ध्वज किङ्किणीसमूहके शब्दसे रोते हुएके समान होकर जमीनपर गिर पड़ा।
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४१४
साहित्यदर्पणे
भत्र दुर्योधनोरुभङ्गरूपप्रस्तुतसंक्रान्तमथोपक्षेपणम् ।
द्वयों वचनविन्यासः सुश्लिष्टः काव्ययोजितः ।
प्रधानार्थान्तरक्षेपी पताकास्थानकं परम् ॥ १९ ॥ यथा-रत्नावल्याम
'दुद्दामोत्कलिकां विपाण्डुररुचं प्रारब्धज़म्भा क्षणा
दायासं श्वासनोद्गमैरविरलैरातन्वतीमात्मनः ।
अप्रति । अत्र = अस्मिन्पद्य, दुर्योधनोरुमङ्गरूपप्रस्तुतसक्रान्तं = दुर्योधनस्य (सुयोधनस्य ) ऊरुमनरूपं ( सक्थिमनस्वरूपम् ) यत् प्रस्तुत (प्रकृतं वृत्तम् ), तस्मिन् संक्रान्तम् (पर्यवसन्नम् )। अर्थोपक्षेपणम् = अर्थस्य (रपकेतनमङ्गरूपस्य वाच्यस्य ) उपक्षेपणम् ( सूचनम् .)। .
चतुर्थं पताकास्थान निर्दिशति-द्वयर्थ इति । ( यत्र ) द्वयर्थः सुश्लिष्ट: काय. योजितः प्रधानाऽर्थाऽन्तराऽऽक्षपी वचनविन्यासः, सः, परं-पठाकास्थानमित्यन्वयः ।
यत्र, द्वयर्थः = दो ( उभी ) अथों (वाच्यौ ) यस्य सः, सुश्लिष्ट:-सुसम्बद्धः, अर्थद्वयेऽपीति शेषः । काव्ययोजित:= काव्ये ( पद्य ) योजितः (निवेशितः) । प्रधानाs
ऽन्त राक्षेपी प्रधान ( मुख्यम् ) यत् अर्थान्तरम् ( फलान्तरम् ) तत् आक्षिपति ( सूचयति ) इति प्रधानाऽर्थाऽन्तराऽक्षेपी, तादृशो वचनविन्यासः = वाक्यविन्यासः, सः, परम् = अपरं, पताकास्थानकम ॥ ४९ ॥ . उदाहरति-यथा रत्नावल्यामिति । उद्दामेति । अहम अद्य उद्दामोत्कलिका विपाण्डुररुचं प्रारब्धजम्भाम् अविरलः श्वसनोद्गमः क्षणात आत्मन आयासम् आतन्वतीम् अन्यां समदनां नारीम् इव इमाम् उदानलतां पश्यन् देव्या मुकं ध्रुवं कोपविपाटला ति करिष्यामीत्यन्वयः।
.उद्यानलतायां नायर्या च श्लिष्टोऽर्थः । अहम् = उदयनः, अद्य = अस्मिन्दिने, उद्दामोत्कलिकाम् = उधानलतापक्षे-उद्दोमा ( समधिका ) उदमताः ( उत्पन्नाः ) कोलकाः । कोरकाः ) यस्यां, ताम् । नारीपक्षे-उद्दामा ( समधिका) उत्कलिका ( उत्कण्ठा ) यस्यां ताम् । विपाण्डुररुचम्-उद्यानलतापक्ष-विपाण्डुरा ( अधिकपाण्डुः, पुष्पविकासादिति शेषः ) रुक ( कान्तिः ) यस्याः, ताम् । नारीपक्षे-विरहादिति शेषः । प्रारब्धजम्माम-उद्यानलतापक्षे-प्रारब्धा (प्रकर्षेण भारब्धा) जम्मा (विकासः)
यहाँ दुर्योधनके उरुमङ्गरूप प्रस्तुत विषयमें दूसरे वर्षका सूचक हुआ है। - जहाँ दो बर्थोवाला, सुसम्बद्ध, काव्यमें निवेशित और दूसरे प्रधान अर्थका सूचक वचनका विन्यास है, वह तीसरा पताका स्थान है ॥ ४९॥ .
जैसे रत्नावलीमें है-से बढ़ी हुई कलियोंसे युक्त, दूसरे पक्षमें-अतिशय उत्कण्ठासे युक्त, पुष्पविकाससे सफेद कान्तिसे युक्त, दूसरे पक्षमें-सफेद वर्णसे युक्त,
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षष्ठः परिच्छेदः
४१५
अद्योद्यानलतामिमां समदनां नारीमिवान्यां ध्रवं
पश्यन् कोपविपाटलद्युति मुखं देव्याः करिष्याम्यम् ।।' अत्र भाव्यर्थः सूचितः।
एतानि चत्वारि पताकास्थानानि कचिन्मङ्गलाथं कचिदमङ्गलार्थ सर्वसन्धिषु भवन्ति । काव्यकर्तुरिच्छावशाद् भूयो भूयोऽपि भवन्ति ।
यत्पुनः केनचिदुक्तम्-'मुखसन्धिमारभ्य सन्धिचतुष्टये क्रमेण भवन्ति' इति । तदन्ये न मन्यन्ते, एषामत्यन्तमुपादेयानामनियमेन सर्वत्रापि सर्वेषामपि भवितुयुक्तत्वात्। . यस्याः, ताम् । नारीपक्षे-प्रारब्धा जम्मा (मुखविकासः ) यया, ताम् । तथाच; उद्यानलतापक्षे-अविरलः = निरन्तरः, श्वसनोद्गमः = वातोद्गमनः, नारीपक्षेश्वसनोद्गम:=निःश्वासोद्गमनः, क्षणात अल्पकालादेव, आत्मनः-स्वस्याः, बायासम् । उद्यानलतापक्षे-इतस्ततो विक्षेप, नारीपक्षे-मदनखेदम् . बातम्वती-कुर्वसीम, अन्याम् = अपरा, समदनाम् == उद्यानलतापक्षे-मरुवकाऽपरपर्यायमदनवक्षसहिताम् । नारीपक्षे-कामावेशोपेतां, गारीम् इव = रमणीम् इव, इमां = सन्निकृष्टस्थिताम्। उद्यानलताम् = आक्रीडवल्ली, पश्यन् = विलोकयन्, देव्याः कृताऽभिषेकाया राश्या:; वासवद्दताया इति भावः । मुखं = बदन, ध्रुवं = निश्चितं, कोपविपाटलयति = कोपेन (क्र धेन ) महिलम्बोत्पनेनेति शेषः। विपाटला (विशेषेण रक्तवर्णा) द्युतिः (कान्तिः) यस्याः; तत्, तादृश, करिष्यामि-विधास्यामि । घलेषाऽलङ्कारः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्।।
प्रत्रेति । अत्र = इह, अस्मिन् पद्य। भावी भविष्यन्, विरहत्विन्नसागरिकासंगमरूपः, वासवदताकोपरूपो वा मुख्यः अर्थः = वस्तु, सूचितः = संकेतितः ।
एतानीति । क्वचि:=कुत्रचित् । अत्र तु चत्वार्येव पताकास्थानानि मङ्गला न्ये वेति बोद्धव्यम्, भूयोऽपि = चतुर्योऽधिकमपीति भावः । सर्वत्राऽपि = सर्वेष्वपि पञ्चसन्धिष्वपीति भावः । विकासबाली, दूसरे पक्ष में जमुहाई लेनेवाली, लगातार हवा चलनेसे कम्पित होनेवाली, दूसरे पक्ष में निरन्तर निःशासोंसे कामवेदनाको प्राप्त करनेवाली, दूसरी कामवासनासे युक्त नारीकी समान मदन वृक्षसे युक्त इस उद्यानलताको देखता हुआ महारानी वासवदत्ताके मुखको निश्चय ही क्रोधसे लाल वर्णवाला करूंगा ।। . इसमें भावी अर्थकी गूचना की गई है। ___ये चार पताकास्थान कहीं मङ्गलके लिए और कहीं अमङ्गलके लिए सब सन्धियोंमें होते हैं । काव्यकर्ताकी इच्छासे वारंवार भी होते हैं । किसीने कहा है कि"मुखसन्धि को आरम्भ कर चार सन्धियों में क्रमसे होते हैं ।" इसे और लोग नहीं मानते हैं । अत्यन्त उपादेय होनेसे विना नियमके ही ये सब सन्धियोंमें हो सकते हैं।
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साहित्यदर्पणे
यत्स्यादनुचितं वस्तु नायकस्य रसस्य वा।
विरुद्धं तत्परित्याज्यमन्यथा वा प्रकल्पयेत् ।। ५० ।। अनुचितमितिवृत्तं यथा-रामस्य छमना बालिवधः। तच्चोदात्तराघवे नोक्तमेव । वीरचरिते तु वाली रामवधार्थमागतों रामेण हत इत्यन्यथा कृतः ।
अङ्कवदर्शनीया या वक्तव्येव च संमता। या च स्वाद्वर्षपर्यन्तं कथा दिनद्वयादिजा ॥ ५१ ॥
अन्या च विस्तरा सूच्या सार्थोपक्षेपकैबुधैः । यविति । यत् वस्तु नायकस्य रसत्य वा अनुचित विरुद्ध ग, दत् परित्याज्यम्, वा अन्यथा प्रकल्पये दिस्यन्वयः ।
यत् वस्तु = इतिवृत्त, नायकस्य = नेतुः, रसस्य वा = शृङ्गारादिरसस्य वा, अनुचितम् अयोग्य, विरुद्ध वा - पुराणादिविरोधयुक्त वा, तद - दशमितिवतं, परित्याज्यं परिवर्जनीयं, वा-अथवा, अन्यथा-प्रकारान्तरेण, प्रकल्पयेत् =रचयेत् ॥ ५० ॥
विवृणोति-अनुचितमिति । . अनुचितम् = इतिवृत्त वस्तु, यथा रामस्य = राघवस्य, मर्यादापुरुषोत्तमस्येति भावः, छपना = छलेन, असम्मुखयुद्धरूपेणेति भावः । बालिबधः-बालिनिषूदनम् । तच्च = बालिवधरूपमनुचितवस्तु, उदात्तराघवे-मायुराज. कते नाटकविशेषे । न. उक्तं =न प्रतिपादितम् । वीरचरिते भवभूति कृते महावीरचरिते नाटके । अन्यथा = रूपान्तरेण, कृतः = विहितः ।
प्रविति । या = युद्धादिका, अखेषु, अदर्शनीया = "दूराह्वानं वो युटम्" इत्यादिना निषिद्धरूपेण दर्शनाऽनहीं, कथा, परं वक्तव्या = सूचनीया एक, सम्मता%= अभिमता, या च कथा दिनदयादिजा = दिवसद्वितयजाता, वर्षपर्यन्तं - संवत्स राऽन्त, व्याप्ता ॥ ५१॥
___ अन्या = अपरा च, विस्तरा = अतिविस्तृता च, सा= कथा, बुध: कविभिः, वर्षीपक्षेपकः = कथासंसूचकः, वक्ष्यमाणविष्कम्भकादिभिरिति भावः, सूच्या सूचनीया ।
जो वस्तु नायक वा रसके अनुचित हो अथवा विरुद्ध हो उसे छोड़ना चाहिए अथवा बदलना चाहिए ॥ ५० ॥
अनुचित इतिवत्ति जैसे-रामका छलसे बालीको मारना, उसे उदात्त. राघवमें नहीं कहा है । वीरचरितमें तो रामको मारनेके लिए आये हुए बालीको रामने मार डाला इस तरह उसे बदल दिया है।
जो कथा युद्ध आदिकी कथा अजोंमें दिखाने योग्य नहीं है किन्तु बतानेके योग्य है, अथवा दो दिनोंसे लेकर वर्ष पर्यन्त में होने वाली है ॥ ५१ ।।
और विस्तृत कथा हो उन्हें अर्थोपक्षेपकोंसे सूचित करना चाहिए ।
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षष्ठः परिच्छेदः
अङ्कषु अदर्शनीया कथा युद्धादिकथा ।
वर्षावं तु यद्वस्तु तत्स्याद्वर्षादधोभवम् ।। ५२ ॥ उक्तं हि मुनिना
'अङ्कच्छेदे कार्य मासकृतं वर्षसनितं वापि ।
तत्सर्व कर्तव्यं वर्षाध्वं न तु कदाचित् ।।' एवं च चतुर्दशवर्षव्यापिन्यपि रामवनवासे ये ये विराधवधादयः कथांशास्ते ते वर्षवर्षावयवदिनयुग्मादीनामे कतमेन सूचनीया न विरुवाः।
दिनावसाने कार्य यहिने नैवोपपद्यते ।
अर्थोपक्षेपकैर्वाच्यमङ्कच्छेदं विधाय तत् ॥ ५३ ॥ वर्षाऽधिकालव्यापिन्यां कथायां नियमं प्रतिपादयति-वर्षामिति । यत् वस्तु = वृत्तान्तः, वर्षात् - हायनान, ऊर्ध्वम् = अधिककालव्यापि, तत्-वस्तु, वर्षात्, अधोमवं = न्यूनकालव्याप्यं, वर्षाऽभ्यन्तरनिर्वत्यमितिभावः, स्यात्-मवेत् ।। ५ ।।।
अत्राऽर्थे मुनिसम्मतिमाह-प्रच्छेद इति । मासकृतम् = एकमासनिर्वय॑म्, वा = अथवा, वर्षसञ्चितम् = संवत्सरनिवत्यं, सर्व, कार्यम् = इतिवृत्तम्, अच्छेदे = अङ्कसमाप्ती, कर्तव्यं = विधातव्यं, तु-परन्तु, कदाचित् =जातुचित्, वर्षात् संवत्स रात, ऊर्ध्वम् = अधिकम्, न कर्तव्यं, वर्षाऽधिककालनिर्वयं, न कार्यमिति भावः ।।
विवणोति-एवं चेति । वर्षेति । वर्ष = संवत्सरः, वर्षाऽवयवः = मासः, दिनयुग्म-दिवसयुगल, सदादीनाम, आदिशब्देन एकदिनं ग्राह्यम् । एकत मेन अन्यतमेन, सूचनीयाः = सूच्याः, न विरुद्धाः = नो विरोधयुक्ताः ।।
विनावसान इति । यत् = कार्य, दिनेन एव-सम्पूर्णदिवसेन एव, उपपद्यते= निष्पद्यते, तत् = कार्यम्, अवच्छेदम् = अखस्य छेदं ( समाप्तिम् ) विधाय, दिनाs. वसाने = दिनस्य अवसाने ( अन्त्यभागे ), अर्थोपक्षेपकः = विष्कम्भकादिमिः, वाच्यं = वक्तव्यं, नाटककारेणेति शेषः ।। ५३ ।।
जो कथा वर्ष से अधिक कालकी हो उस वर्षसे कम समय को करना चाहिए।५२।
मनि ने भी कहा है-जो कथा मास पर्यन्तकी वा वर्षपर्यन्तकी है उसे अङ्कच्छेद ( निष्कम्मक आदि )में सूचित करे कथाको वर्षसे अधिक समयवाली
मत करे।
एवं चेति । चौदह वर्षों तकके रामके वनवास में जो जो विराधवध आदि कथांऽश हैं उन उनको वर्ष, वर्षाऽवयव ( मास ); दो दिन और एक दिनमें सूचित करना, विरोध नहीं है। जो कार्य पूरे दिनसे होता हो उसे भी अकूकी समाप्ति कर दिन के शेष भागमें अर्थों पक्षेपकोंसे सूचित करें ॥ ५३ ॥
२७ सा०
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४१८
. साहित्यदर्पणे
अथ केतेऽर्थोपक्षेपका इत्याह
अर्थोपक्षेपकाः पञ्च विष्कम्भक प्रवेशको । चूलिकाङ्काऽवतारोऽथ स्यादङ्कमुखमित्यपि ॥ ५४ ॥ वृत्तवर्तिष्यमाणानां कथांशानां निदर्शकः । संक्षिप्तार्थस्तु विष्कम्भ आदावङ्कस्य दर्शितः ।। ५५ ।। .मध्ये मध्यमाभ्यां वा पात्राभ्यां संप्रयोजितः । शुद्धः स्यात्स तु संकीर्णो नीचमध्यमकलितः ॥ ५६ ॥ तत्र शुद्धो यथा— मालतीमाधवे श्मशाने कपालकुण्डला । सङ्कीर्णो यथारामाभिनन्दे क्षपणककापालिकौ ।
अर्थोपक्षेपकानुद्दिशति - अर्थोपक्षेपका इति । अर्थात् = कथावस्तूनि, उपनिपन्ति = उपस्थापयन्तीति अक्षेपकाः तेन पञ्च = पञ्चविधा यथा विकटकः, प्रवेशकः, चूलिका, अङ्काऽवतारोऽङ्कमुखं चेति ।। ५४ ।।
=
विष्कम्भकं लक्षयति- वृरोति । वृत्तविष्यमाणानां = वृत्ताः (अतीताः ) वर्तिष्यम: (आगामिनः ) ये कथांणा: ( कथाभागाः) तेषां निदर्शक: ज्ञापक, संक्षिप्ताऽर्थः = स्वरूपं कथावस्तु, अङ्कस्य, आदी पूर्व भागे, दर्शित: - प्रकाशितः, स विष्कम्भः । ५५॥ fararrer भेदो प्रतिपादयति तत्र शुद्धं लक्षयति मध्येनेति । मध्येन = मध्यमेन, नोच्चेन नो वा नीचेनेकपात्रेण, वा = अथवा, मध्यमाभ्यां द्वाभ्यां पात्राभ्यां संप्रयोजितः = संविहितः, "शुद्धः" स्यात् ।
सङ्कीर्ण लक्षयति--स स्थिति । सः नीचमध्यमकल्पितस्तु = नीचम् (अधमम् ) मध्यमं ( मध्यम् ) यत् पात्रं ताभ्यां कल्पितस्तु ( प्रयोजितस्तु ) सङ्कीर्ण: मिश्रः स्यात् ।। ५६ ।।
=
द्वाप्युदाहरति तत्रेति । मालतीमाधवे - तन्नामके प्रकरणे (रूपकविशेषे ) । तत्र च विष्कम्म शुद्ध त्राणं संस्कृतभाषित्वं मध्यमपात्राणां प्राकृतभाषित्यं लक्ष्यंपु
Ebarber
nararhi को बतलाते हैं
अर्थ उपक्षेपक (प्रस्तुत करनेवाले ) पांच हैं- विष्कम्भक, प्रवेश, चूलिका, अङ्काऽवतार और अङ्कमुख ।। ५४ ।।
बीते (भूत) और आनेवाले ( भविष्यत्) कथांशोका सूचक संक्षिप्त अर्थवाला 'विष्कम्भक" कहा जाता है । वह अङ्क आदिमें होता है ।। ५५ ।।
मध्यम वा दो मध्यम पात्रोंसे किये गये किम्भकको "शुद्ध विष्कम्भक" कहते हैं । नीच और मध्यम पात्रोंसे प्रयुक्त विष्कम्भकको "संकीर्ण विष्कम्भक" कहते हैं ।। ५६ ।। शुद्ध विonम्भक जैसे - मालतीमाधत्र ( प्रकरण ) में श्मशान में कपल
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षष्ठः परिच्छेद
४१९
अथ प्रवेशक:
प्रवेशकोऽनुदात्तोऽक्त्या नीचपात्रप्रयोजितः ।
अङ्कद्वयान्तर्विज्ञेयः शेषं विष्कम्भके यथा ॥ ५७ ॥ अक्कद्वयस्यान्तरिति प्रथमाङकेऽस्य प्रतिषेधः। यथा-वेण्यामश्वत्थामाङ्क राक्षसमिथुनम् । ‘अथ चूलिका
अन्तर्जवनिकासंस्थैः सूचनार्थस्य चूलिका । यथा वीरचरिते चतुर्थाङ्कत्यादौ-( नेपथ्ये ) भो भो वैमानिकाः, प्रवर्तन्त रङ्गमङ्गलानि' इत्यादि। 'रामेण परशुरामो जितः' इति नेपथ्ये पात्रः सूचितम् । दश्यते । प्राकृतभाषाया भेदी यथा भाषाऽर्णवे--
"भाषा मध्यमपात्राणां नाटकादो विशेषतः । __महाराष्ट्री सौरसेनीत्युक्ता भाषा द्विधा बुधैः ॥” इति । प्रवेशकं लक्षति-प्रवेशक इति । अद्वयस्य = अद्वितयस्य, अन्तः % मध्ये, अनुदात्तोक्मा - प्राकृतभाषया, बीचपात्रप्रयोजितः = अधमपात्रविहितः, नीच, पात्रेण= नीचपात्राभ्यां नीचपार्वा प्रयोजित: अर्थोपक्षेपकः, प्रवेशकः, विज्ञेयः वेदनीयः, शेयम् = अवशिष्ट लक्षणं, विष्कम्भके, यथा = इव, ज्ञेयम् । "वृत्तवतिष्यमाणाना" मित्यादि पूर्वोल्लिखितं लक्षणं ज्ञातव्यमिति भावः ।।.५७ ।।
__प्रथमाऽङ्के प्रवेश कस्य प्रतिषेधः । उदाहरति-वेण्यामिति । वेण्या = वेणीसंहारनाटके।
अथ चूलिकां लक्षयति-अन्तरिति । अन्तर्जवनिका संस्थ:-तिरस्करिण्यात:स्थितैः पात्र: अर्थस्य = वस्तुविशेषस्य, सूचना = विज्ञापना, चुलिका।
चूलिकामुदाहरति-यथावीरचरित इति । धैमानिकाः = विमानचारिणः; कुण्डला । सङ्कीर्ण विष्कम्भक जैसे-रामाऽभिनन्दमें क्षपणक और कापालिका ।
नीच युक्तिसे नीच पात्रसे प्रयोजित अर्थोपक्षेपकको "प्रवेशक" कहते हैं; वह दो अकों के बीचमें होता है, अवशिष्ट विषय विष्कम्भकके समान होते हैं ॥ ५७ ॥
"अङ्कद्वयस्य अन्तः" ऐसा कहनेसे प्रथम अङ्क में इसका निषेध है । जैसे वेणीसंहारमें अश्वत्थामाङ्कमें राक्षसोंकी जोड़ी। . जहाँ पर्देके भीतर रहे हुए पात्रोंसे वस्तुकी सूचना होती है वह 'चूलिका" है । जमे वीरचरित में चौथे अखके आदिमें-(नेपथ्यमें) हे वैमानिको ! रङ्गभूमिमें
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४२०
.
साहित्यदर्पणे
अथाङ्कावतार:
अङ्कान्ते सूचितः पास्तदकस्याविभागतः ।: ५८ ॥
यत्राङ्कोऽवतरत्येषोऽवावतार रति 'मृतः । यथा
अभिज्ञाने पञ्चमाङ्क पानेः सूचितः पठाइस्तदस्याङ्गविशेष इवावतीर्णः। अथाङ्कमुखम् -
या स्यादक एकस्मिनङ्कानां सूचनाऽखिला ॥ ५९ ॥
तदनमुखमित्याहुबीजाथख्यापकं च तत् । रङ्गमङ्गलानि = रङ्गस्थलोत्सवाः । प्रवर्तन्ता- कुर्वन्तु । "प्रवय॑न्ताम्" इति पाठान्तरे क्रियन्तामित्यर्थः ।
___ अङ्गाऽवतारं लक्षयति-प्रान्त इति । अहाते = बस्य ( यस्य कस्यचिदस्य ) अवसाने ( विरामे), पात्रः = नाटकस्य पात्रः, यत्र अङ्कः सूचित:प्रयोजितः, तदङ्कस्य = तस्य अङ्कस्य, अविभागतः = अविभागात ॥ ५ ॥ . बकः = अन्योऽङ्कः, अवतरति-प्रादुर्भवति, एषः = अयम् अङ्गाऽवतारः, स्मृतः स्मृतिविषयीकृतः । यति । मभिन्नाने अभिज्ञानशाकुन्तलनाटके । पञ्चमा पञ्चमाऽकान्ते । तदकस्य - अङ्गकाऽवतारस्य ।
अङ्कमुखं लक्षति-पोति। यत्र, एकस्मिन), बहकानाम, अकस्या, वस्तूनाम्, अखिला = समस्ता, सूचना-विज्ञप्तिः ॥ ५९॥
__अखिलानामङ्काना सूपना स्यादित्यर्थः । तत् "अमुखम्" इति आलङ्कारिकाः कथयन्ति । तच्च बीजाऽर्थख्यापक = बीजाऽर्थस्य ( वक्ष्यमाणस्याऽर्थप्रकृतिविशेषस्य ) ख्यापकं (सूचकम् ) भवतीति भावः । बड़ाऽवतारे तबमात्र सूचना; बमुखे तु समस्ताऽस्चनेति विशेषः । । मङ्गलोंको प्रवृत्त करें । इत्यादि । “रामने परशुरामको जीत लिया" इसप्रकार नेपथ्यमें
पात्रोंने सूचना को। . . पूर्व अङ्कके अन्तमें पात्रोंसे सूचित जो दूसरा 'अङ्क अवतीर्ण होता है उसे - "अाऽवतार" कहते हैं, वह अङ्क पहलेके अङ्कमें अविभक्त होता है ।। ५८ ।।
जैसे अभिज्ञानशाकुन्तलमें पांचवें अङ्कसे पात्रोंसे सूचित छठवा अक है वह ' उस अक ( अङ्काऽवतार ) का अङ्ग विशेषके समान अवतीर्ण है।
जहाँ एक अङ्गकमें सब अकोंकी समग्र सूचना होती है और जो बीजभूत अर्थका प्रतिपादमें करता है उसे "अङ्कमुद्ध" कहते हैं ॥ ९ ॥
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षष्ठः परिच्छदः
४२१
यथा
मालतीमाधवे प्रथमातादौ कामन्दक्यवलोकिते. भरिवसुप्रभृतीनां भाविभूमिकानां परिक्षिप्तकथाप्रबन्धस्य च प्रसङ्गात्सन्निवेशं सूचितवत्यौ ।
अङ्कान्तपाचैर्वाङ्कास्यं छिन्नाङ्कस्यार्थमूचनात् ।। ६० ।।
अङ्कान्तपात्रैरकान्ते प्रविष्टः पात्रैः। यथा वीरचरिते द्वितीयाऽक्वान्ते(प्रविश्य )
सुमन्त्र:-भगवन्तौ वशिष्ठविश्वामित्रौ भवतः सभार्गवानाह्वयतः । इतरे-क भगवन्तौ ? सुमन्त्र:-महाराजदशरथस्यान्तिके।
इतरे-'तत्तत्रैव गच्छामः' इत्यङ्कपरिसमाप्तौ।-(ततः प्रविशन्त्युपविष्टा वशिष्ठविश्वामित्रपरशुरामाः)' इत्यत्र पूर्वाङ्कान्त एव प्रविष्टेन सुमन्तपात्रेण शतानन्दजनक कथाविच्छेदे उत्तराङ्कमुखसूचनादकास्यम्' इति ।
उदाहरति-यति । प्रथमाऽङ्कादौ = प्रथमाऽङ्कस्य आदी (पूर्वभावे): भाविभूमिकाना = भाविनी ( भविष्यन्ती) भूमिका ( तत्तद्वषरचना ) येषां, तेषाम् । "भूरिवसुप्रभृतीनाम्" इत्यस्य विशेषणम् । परिक्षिप्तकथाप्रबन्धस्य = उपन्यस्तसकलगतान्तस्य, सग्निवेशं = स्थितिम् । मालतीमाधवप्रकरणे तु "अङ्कमुखस्य" स्याने "विष्कम्भक'' इत्युल्लेखो दृश्यते।
दशरूपककारधनञ्जयमतमनुसृत्याऽङ्कमुखं . लक्षयति-प्रड्वान्सपात्ररिति । अवाऽन्तपात्रः = अङ्कान्ते ( अङ्काऽवसाने ) प्रविष्टः, पात्रः (पात्रविशेषः)। छिन्नस्य = विच्छिन्नस्य, अतीताऽङ्कस्येति भावः । अर्थसूचनात् = वृत्तान्तज्ञापनाता, मङ्कास्यम् = अङ्कमुखं, भवेदिति शेषः ।। ६० ।।
विवणोति-प्रवाऽन्तपात्ररिति । वीरचरिते महावीरचरिते । समार्गवान = परशुरामसहितान् ।
जैसे मालतीमाधवमें प्रथम अङ्कके आदिमें कामन्दकी और अवलोकिताने. पोछे ततद्वेष लेनेवाले भूरिवसु आदियोंक और उपक्षिप्त कथाप्रबन्धकी भी स्थितिको श्री प्रसङ्गसे सूचित किया। अङ्कके तमें प्रविष्ट पात्रोंसे परवर्ती अङ्कके अर्थ की सूचना करनेसे भी “अङ्कास्य" होता है ।। ६० ॥
जैसे वीरचरितमें दूसरे प्रहके अन्त में-(प्रवेश कर ) सुमन्त्र-भगवान् वशिष्ठ और विश्वामित्र आपलोगोंको परशुरामके साथ बुला रहे हैं। और लोगभगवान् वशिष्ठ और विश्वामित्र कहाँ हैं ? सुमन्त्र-महाराज दशरथके समीपमें । और लोम-सब वहीं जायें । इसप्रक.र अङ्ककी समाप्तिमें। (तब बैठे हुए वशिष्ठ विश्वामित्र और परशुराम प्रवेश करते हैं ) । यहाँ पूर्व मधुमें ही प्रविष्ट सुमन्त्र पात्रसे शतानन्द और जनकके वार्तालापके बन्तमें उत्तरवर्ती अङ्कमुखकी सूचनासे "अङ्कास्य" है ।
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साहित्यदर्पणे
: एतच धनिकमतानुसारेणोक्तम् । अन्ये तु - ' अङ्कावतरणेनेवेदं ''गतार्थम्' इत्याहुः ।
अपेक्षितं परित्याज्य नीरसं वस्तु विस्तरम् । यदा संदर्शयेच्छेपमामुखानन्तरं तदा ।। ६१ ।। कार्यो विष्कम्भको नाट्य आमुखाक्षिप्तपावकः ।
यथा - रत्नावल्यां यौगन्धरायणप्रयोजितः !
यदा तु सरसं वस्तु मूलादेव प्रवर्तते ।। ६२ ।। आदावेव तदाऽङ्क े स्यादाखाक्षे संश्रयः ।
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ध्वनिक मतानुसारेण ध्वनिकस्य ( धनञ्जयस्य) मतानुसारेण, श्रन्ये स्थिति । अङ्काऽवतारेणैव = अङ्काऽवतारकक्षणेनैव, इदम् उपन्यस्तवीरचरितस्थानम् । गताऽयं - विगतप्रयोजनम् । अस्य प्रयोजनं नाऽस्तीति भावः । विश्वनाथकविराजमतेन तु इदमकमुखस्य प्रकारान्तरमेव ।। ६१ ।।
पेक्षितमिति । यदा, अपेक्षितम् = आकाङ्क्षितं, नीरसंरसरहितं विस्तरं दीर्घ, वस्तु = इतिवृत्तं, परिस्थस्य = विहाय, शेत्र = सरसं वस्तु यदा संदर्शयेत् = प्रदर्शयेद्, तदा, आमुखाऽनन्तरं = प्रस्तावनाऽनन्तरं, आमुखाऽऽक्षिप्त पात्रकः = आमुखेन ( प्रस्तावनया ) आक्षिप्तम् ( आनीतम् ) पात्रम् ( अभिनेता ) यस्य सः तादृशः किक, नाट्येकीपनाटके, कार्य:- कर्तव्यः, विष्कम्भकपदं प्रवेशका देवलक्षकम् || उदाहरति- यथेति ।
यदेति । यदा तु मूलात् एव = आरम्भात् एव सरसं वस्तु = वृत्तान्तः; प्रवर्तते = अवतिष्ठते ॥ ६२ ॥
तदा, आमुखाऽक्षेपसंश्रयः - आमुखेन ( प्रस्तावनया ) पात्रस्य य आक्षेप: ( प्रवेश सूचनम् ) तत्संश्रयः = तदाश्रयः, अङ्कः, आदावेत्र स्थात् ।
यह धनिकके मत अनुसार कहा है। अन्य लोग - " अङ्काऽवतारसे ही यह गताऽर्थ है " ऐसा कहते हैं ।
जो वस्तु आकाङ्क्षित होनेपर भी नीरस है उसे और विस्तर ( दीर्घ ) को छोड़कर शेष सरसको दिखलाता है तो प्रस्तावनाके अनन्तर उसीमें पात्रों की सूचना कर विष्कम्भक करना चाहिए ।। ६१ ।।
जैसे रत्नावली में यौगन्धरायणसे कराया गया है।
आरम्भ से ही सरस वस्तु प्रवृत्त हो तो प्रस्तावना से पात्र प्रवेशकी सूचना वाला. बक प्रारम्भ में ही हो ॥ ६२ ॥
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वष्ठः परिच्छेदः
यथा-शाकुन्तले। विष्कम्भकारपि नो वधो वाच्योऽधिकारिणः ॥ ६३ ।।
अन्योऽन्येन तिरोधानं न कुद्रिसवस्तुनोः । रस शृङ्गारादिः । यदुक्तं धनिकेन
चातिरसतो वस्तु दूरं विच्छिन्नतां नयेत् । रसं वा न तिरोध्याद्वस्त्वलकारलक्षणः ।।' इति ।। बीजं विन्दुः पताका च प्रकरी काय मेव च ।। ६४ ।।
अर्थप्रकृतयः पञ्च ज्ञात्वा योज्या यथाविधि । उदाहरति । यथा शाकुन्तल इति ।
विष्कम्भकायरिति । विष्कम्भकाद्य रपि, अधिकारिणः = प्रधानफलप्रमोः, नायकादेरिति भावः । वध: व्यापादनं, नो वाच्यः न वक्तव्यः, कविनेति शेषः ।।६३।
अपि शब्दादकैरपि नो वाच्य इति सूचितम्, रसविच्छेदादिति भावः । तथा अन्योन्येन = मिथः, रसवस्तृनोः = अमीष्टरसवृत्तान्तयोः, तिरोधानं = व्यवधान, न कुर्यात -- नो विदधीत कविरिति शेषः ।
उक्ताऽयं धनिकमतेन समर्थयते-न चेति । अतिरसतः = अतिशयरससम्पत्,ि वस्तु = वृत्तान्तं, दूर = विप्रकृष्टं। विच्छिन्नता = विच्छेदं, न नयेत् =न प्रापयेत्, एवं च वस्त्वङ्कारलक्षणः = वृत्तान्ताऽलङ्कारस्वरूपः वा, रसं = शृङ्गारादिरसं, न तिरोदध्यात = न तिरोहितं कुर्यात्कविरिति शेषः ।
. अर्थप्रकृतीरुद्दिशति-बीजमिति । बीजं, 'बिन्दुः पताका प्रकरी कार्य पेति ।। ६४॥
पञ्च प्रकृतयः = अर्थसिद्धिहेत :, ज्ञास्वा = विदित्वा, यथाविधि = विधिपूर्वकं,. योज्या = योजनीया:, कविनेति शेषः । एता एवाऽर्थप्रकृतयः प्रथम नाटकलमण. प्रकरणे-नाटकं ख्यातवृत्तं स्यात्पञ्चसन्धिप्त मन्वितम् ।" इति सन्धिपदेन ध्यपदिष्टा इति बोध्यम्। .
जैसे शाकुन्तल में। . विष्कम्भक आदिसे भी अधिकारीका वा नहीं करना चाहिए ।। ६३ ॥ शृङ्गार आदि रस और दस्तुका परस्परमें व्यवधान न करे।
धनिकने जो कहा है-वस्तुको रससे दूर तक व्यवहित न करे और वस्तु और अलङ्करके सन्निवेश से राको भी विहित न करे ।
बीज, बिन्द्र, पताका, प्रकरी और कार्य ।। ६४ ॥
ये पाँच अर्थ-प्रकृतियाँ ( प्रयोजन की सिद्धि के कारण ) हैं इनकी विधिपूर्वक योजना करनी चाहिए।
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४२४
साहित्यदर्पण
अर्थप्रकृतयः प्रयोजनसिद्धिहेतवः । तत्र बीजम्
अल्पमानं समुद्दिष्टं बहुधा यद्विसर्पति ।। ६५ ।।
फलस्य प्रथमो हेतु/जं तदभिधीयते । • यथा--रत्नावल्यां वत्सराजस्य रत्नावली प्राप्तिहेतुदेवानुकूल्यलालितो यौगन्धरायणव्यापारः । यथा वा--वेण्यां द्रौपदीकेशसंयम नहेतुर्भीमसेनक्रोधो. पचितो युधिष्ठिरोत्साहः।
अवान्तराथविच्छेदे बिन्दुरच्छेदकारणम् ।। ६६ ।। बीज लक्षयति-मल्पमात्रमिति । यत पुरा, अल्पमात्रं-स्तोकमात्र, समुदिष्टंविनिदिष्टं, पश्चात्, बहुधा = बहुभिः प्रकारः, विसपंति = विस्तारं प्राप्नोति ।। ६५ ।।
फलस्य प्रधानफलस्य, प्रथमो हेतु: मुख्य कारणं, तत्, बीजम्, अभिधीयते निगद्यते ।
___ बोजमुदाहरति-रत्नावल्यामिति । बस राजस्य = उत्यनस्य । रत्नावली. प्राप्तिः = फलं, तद्धतः ( तत्कारणम् ) । देवाऽनुकल्यलालितः = देवस्य (भाग्यस्य) यानुकूल्पम् ( अनुकूलता), तल्लालितः ( तत्सम्पादितः ) यौगन्धरायणव्यापारः योमन्धरायणस्य (.वत्सराजमन्त्रिणः ), व्यापारः ( क्रियाकलापः ), बीजम् । उदाहर. शान्तरमाह पति । वेष्यां-"नामैकदेशे नामग्रहणम्" इति न्यायेन वेणीसंहारे, द्रोपदी. केशसंयमनहेतुः = द्रौपचाः (पाञ्चास्याः) यस्के शसंयमनं (कपसंहरणम् ) ततः (तत्कारणम्); भीमसेनक्रोधोपचितः = भीमसेनस्य (द्वितीयपाण्डवस्य ) यः क्रोधः (कोपः ) तेन उचितः ( उत्पादितः ) युधिष्ठिरोत्साहः, बीजम् ।
बिन्दु लमयति-प्रवान्तरेति । अवान्तराऽविच्छेदे अमान्तराऽर्षस्य (वृत्ता. -न्तकदेशस्प ) बिच्छदे ( समाप्तिप्रसङ्ग प्राप्ते सति ) अच्छेदकारणम् = असमातिहेतुः, बिन्दुः ।। ६६ ॥
जो शुरूमें अल्प मात्र अङ्कुरित होकर अनेक प्रकारसे विस्तारको प्राप्त करता है । ६५ ।।
. फलका प्रथम हेतुभूत उसको "बीज" कहते हैं। जैसे-रत्नावलीमें भाग्यकी अनुकूलतासे युक्त यौगन्धरायणका व्यापार वत्सराज ( उदयन ) का रत्वावलीको प्राप्तिमें कारण है । जैसे-वेणी संहारमें द्रौपदीके केशसंयमनमें कारणभूत भीमसेनके क्रोधसे बढा हुआ युधिष्ठिरका उत्साह है। अवान्तर कयाके विच्छेदमें अविच्छेदके कारणको "बिन्दु" कहते है ।। ६६॥ . .
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षष्ठः परिच्छेदः
सति
यथा - रत्नावल्यामनङ्गपूजा परिसमाप्तौ काव्यार्थ विच्छेदे 'उदयनस्येन्दोरिवोद्वीक्षते ' इति सागरिका श्रुत्वा ' ( सहर्षम) कथं एसो सो उदअणणरिन्दो' इत्यादिर बान्तरार्थहेतुः ।
व्यापि प्रासङ्गिकं वृत्तं पताकेत्यभिधीयते ।
४२५
यथा - रामचरिते सुग्रीवादेः, वेण्यां भीमादेः, शाकुन्तले विदुषकस्य
चरितम् ।
पताकानायकस्य स्थान स्वकीयं फलान्तरम् || ६७ ॥ गर्भे सन्धौ विमर्शो वा निर्वाहस्तस्य जायते । यथा - सुग्रीवादेः, राज्यप्राप्त्यादि । यत्त मुनिनोक्तम्'आ गर्भाद्वा विमर्शाद्वा पताका विनिवर्तते ॥ इति । उदाहरति-- रत्नावल्यामिति । कथाऽर्थविच्छेत्रे = कथाऽर्थस्य ( वृत्तान्तकदेशस्य ) विच्छेदे ( अवसाने प्राप्त ) सति ।
उताको लक्षयति-व्यापीति । व्यापि = व्यापकम्, उपसंहारं यावत्स्थायीति । तादृशं प्रासङ्गिकं = प्रसङ्गवशादुपस्थितं वृत्तं = बृत्तान्तः, "पताका" इति अभिधीयते । उदाहरति- रामचरित इति । रामचरिते सुग्रीवादेर्वेणीसंहारे भीमसेनादेः शाकुन्तले विदूषकस्य चरितं "पताका" इति ।
ताकायां विशेषमाह - पताकानाबकस्येति । पताकानायकस्य = सुग्रोवादे ! स्वकीयम् - आरमीयं स्वमात्रोपकारीति भावः । फलान्तरम् = अन्यत् फलं न स्यात् ॥६७॥ गर्भे विमर्श वा सन्धी, तस्य = पताका नायकस्वकीय फलस्य, निर्वाह = निरणं, समाप्तिरिति भाव: । जायते = निष्पद्यते । उदाहरति यथा सुप्रीवादेः राज्यप्राप्यादि ।
मुनिवाक्यं विविनक्ति - यत्विति । यत्तु मुनिना = भरतमुनिना । आ गर्भा= सन्धिपर्यन्तम् आ विमर्शात् = विमर्शसन्धिपर्यन्तं वा पताका विनिवर्तते = समाप्ति
जैसे रस्नावली में कामदेवको पूजाकी समाप्तिमें कथार्थक विच्छेद होनेपर " ददयनस्येन्दोरिवोद्वीक्षते " इत्यादि पद्य सुनकर सागरिका ( हर्ष के साथ ) "कैसे ये बे उदयन राजा है" सागरिका का यह कथन अवान्तर कथाके अविच्छेदका कारण है ।
व्यापक और प्रासङ्गिक चरित्रको “पताका" कहते हैं ।
जैसे रामचरितमें सुग्रोव आदिका, वेणीसंहार में भीम आदिका और शाकुन्तल में विदूषकका चरित्र साका" है ।
पताका नायकका अपना मित्र फल नहीं होता है ।। ६७ ।।
गर्भ वा विमर्श सन्धि में उसका निर्वाह होता है ।
जैसे सुग्रीव आदिकी राज्यप्राप्ति आदि । मुनिने जो कहा है- गर्भसन्धिके पूर्व विमर्श सन्धि के पूर्व पताका समाप्त होती है ।
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४२६
साहित्यदपणे
तत्रं . पताकेति । पताका नायकफलं निर्वहणपर्यन्तमपि पताकाया: प्रवृत्तिदर्शनात्' इति व्याख्यातमभिनवगुप्तपादः।
प्रासङ्गिक प्रदेशस्थं चरितं प्रकरी मता ।। ६८ ।। . यथा-कुलपत्यक्के रावणजटायुसंवादः।
प्रकरी नायकस्य स्यान स्वकीयं फलान्तरम् । यथा-जटायोः मोक्षप्राप्तिः।
अपेक्षितं तु यत्साध्यमारम्भो यभिवन्धनः ।। ६९ ॥
समापनं तु यत्सिद्य तत्कायमिति संमतम् । यथा-रामचरिते रावणवधः।
अवस्था. पञ्च कार्यस्य प्रारब्धस्य फलार्थिभिः ।। ७० ॥ . प्राप्नोति । तत्र पताकापदस्याऽथः पताकानायकफलत्वेन विवक्षितः, निम्हणपर्यन्तमपि पताायाः प्रवृत्तिदर्शनादिति अभिनवगुप्तपादाचार्यः व्याख्यातम् ।
प्रकरों लभयति-प्रासनिकमिति । शासङ्गिक प्रसङ्गात उपस्थितं प्रदेशस्थम्एकदेशमात्रस्थितं, चरित-चरित्रं, प्रकरी मताप्रकरीत्वेनाऽभिमता ॥ ६८॥
उदाहरति-कुलपत्य इति ।
प्रकरीनायकस्येति । प्रकरीनायकस्य -जटायुप्रभृतेः, स्वकीयं = नजं, फला. न्तरम् = अन्यत् फलं (प्रयोजनम), न स्यात, आनुषङ्गिकत्वेने'त भावः । तद अपेक्षित कंतु मिष्ट, यत साध्यं साधनीयं, यनिबन्धनः यदुद्देश्यकः, आरम्मः-प्रथमप्रवृत्तिः ।६९।
____ यसिद्धप-यस्य सिद्धच ( निष्पत्यै ), समाग्न सामग्रीसंग्रहः, तत् "कार्यम्" इति संमतम् = विदुषामभिमतम् ।
उदाहरति-यथा रामचरित इति ।
कार्यस्य पञ्चाऽवस्था निर्दिशति-प्रवस्था इति। फलाथिभिः = प्रयोजना. काक्षिभिः, पुरुषः, प्रारब्धस्य कृताऽरम्मस्य, कार्यस्य पञ्च-पञ्चसंध्यकाः, अवस्था:= अङ्गानि, भवन्तीति शेषः ॥ ७० ॥
उसमें "पताका" शब्दसे पताकाके नायक का फल लिया जाता है, निर्वहण सन्धि पर्यन्त मी पताकाकी प्रवृत्ति देखनेसे ऐसी अभिनवगुप्तपादाचार्यने व्याख्या की है।
प्रसङ्गसे आये हुए एक देशस्थित चरित्रको "प्रकरी" कहते हैं ॥ ६८ ॥ जैसे कुलपत्यङ्कमें रावण ओर जटायुका संवाद "प्रकरी" है।
प्रकरीके नायकका अपना भिन्न फल नहीं होता है। जो साध्य अपेक्षित है, जिसके लिए आरम्भ है ।। ६९ ॥
जिसकी सिद्धि के लिए उपायसग्रह है, वह "कार्य" माना गया है। जैसे रामचरितमें 'रावणवध' कार्य है। फलकी इच्छा करनेवालोंसे प्रारब्ध कार्यको पाँच अवस्थाएं होती हैं ॥७॥
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षष्ठः परिच्छेदः
आरम्भयत्नप्राप्त्याशानियताप्तिफलागमाः
तत्र-
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भवेदारम्भ
औत्सुक्य यन्मुख्यफलसिद्धये ॥ ७१ ॥
यथा--- रत्नावल्यां रत्नायश्यन्तः पुरनिवेशाथं यौगन्धरायणस्थीत्सुक्यम् । एवं नायकनायिकादीनामत्यौत्सुक्यमा करेषु बोद्धव्यम् ।
प्रयत्नस्तु फलावाप्तौ व्यापाराऽतित्वरान्वितः ।
यथा रत्नावल्याम् - 'वह िण अस्थि अण्यो दंसण उबाओ ति जधा तथा आलिहिअ जधासमीहिदं करइस्सम' इत्यादिना प्रतिपादितो रत्नावल्याचित्रलेखनादिर्वत्सराज सङ्गमोपायः । यथा च-रामचरिते समुद्रबन्धनादिः ।
नामतस्ता निर्दिशति - प्रारम्भेति । आरम्भो यत्नः प्राप्त्याशा, नियताप्ति:फलागमति ।
आरम्भं लक्षयति- भवेदिति । मुख्यफलसिद्ध = नुख्यफलस्य ( नायक- प्रधानप्रयोजनस्य ) सिद्धये (निष्पत्तये ) यत् औत्सुक्यं = नायकादेशेत्कण्ठ्य, स आनो भवेत् ।। ७१ ॥
आरम्भमुदाहरति-- यथा रत्नावल्यामिति । आरुरेषु - उपजीव्य प्रत्येषु । प्रयत्नं लक्षयति-- प्रयत्नस्त्विति । फलावाप्तौ = नायकस्य नायिकाया वा मुख्यप्रयोजनप्रती विषये, अतिस्वराऽन्वितः = अतिशय क्षिप्रतायुक्तः, व्यापारः क्रिया प्रयत्नो भवेत् ।
-
प्रयत्नमुदाहरति- -- यथा रत्नावल्यामिति । "तथाऽपि नास्ति अन्यो दर्शनो-पाय इति यथा तथा आलिय यथासमीहितं करिष्यामीति संस्कृतच्छाया | ओलिख्य = चित्रयत्वा वत्सराजमूर्ति मिति शेषः यथासमीहितम् अभीष्टानुसारम् ।
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जैसे --- आरम्भ, यल, प्रत्याशा, नियंताप्ति और फलागम ।
मुख्य फलकी सिद्धिके लिए जो उत्कण्ठा है वह "आरम्भ" है ।। ७१ ।
जैसे रत्नावली में रत्नावलीको अन्तःपुरमें रखने के लिए यौगन्धरायणकी उत्कण्ठा
है । इसी प्रकार नायक और नायिका अदियोंकी उत्कण्ठाको आकर ( मूल ) ग्रन्थों में जानना चाहिए । फल की प्राप्तिके विषय में अत्यत शीघ्रतासे युक्त व्यापार 'प्रयत्न" है जैसे रत्नावली में - "तो भी दर्शनके लिए दूसरा उपाय नहीं है इसलिए किसी भी प्रकार से लिखकर इच्छा के अनुसार करूंगी।" इत्यादि वाक्यसे प्रतिपादित रत्नावलीका चित्रलेखन आदि वत्सराजके समागम का उपाय " प्रयत्न" है। जैसे रामचरित में समद्र-बन्धन आदि ।
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.४२८
साहित्यदर्पणे
-
उपायापायशङ्काभ्यां प्राप्त्याशा प्राप्तिसम्भवः ।। ७२ ।।
यथा-रत्नावल्यां तृतीयेऽङ्क वेषपरिवर्तनाभिसरणादेः सङ्गमोपायाद्वासवदत्तालक्षणाऽपायशङ्कया चानिर्धारितकान्तसमरूपफलप्राप्तिः प्राप्त्याशा।
एवमन्यत्र
अपायाभावतः प्राप्तिर्नियताप्तिस्तु निश्चिता ।
अपायाभावाग्निर्धारितकान्तफलप्राप्तिः। यथा रत्नावल्याम्-'राजादेवीप्रसादनं त्यक्त्वा नान्यमत्रोपायं पश्यामि ।' इति देवीलक्षणापायस्य प्रसादनेन निवारणामियतफलप्राप्तिः सूचिता।
__ प्राप्त्याशां लक्षयति-उपायाऽपायेति । उपायाऽपायशङ्काभ्याम् - उपाय: (फलसिदिसाधनम् ) अपायः ( फलसिद्धी प्रतिबन्धः ) तच्छङ्काभ्यां (तत्सन्देहाभ्याम) प्राप्तिसंभवः = फलप्राप्तिसंभावना, प्राप्त्याशा ॥७२॥
प्राप्त्याशामुदाहरति-यया रत्नावल्यामिति । वासवदत्तालक्षणाऽपायशङ्कया : वासवदत्तास्वरूपप्रतिबन्धकसन्देहेन । अनिदारिता अनिधिता, या एकान्ते ( रहसि ), संगमरूपकफलप्राप्तिप्रत्याशा संगमरूपस्य ( उदयनसमागमरूपस्य ) फलस्य (प्रयो. जनस्य ) प्राप्तेः ( लाभस्य ) प्रत्याणा।
नियताऽऽप्ति लक्षयति-प्रपायाऽभावत इति । अपायाऽभावतः - प्रतिबन्धाऽभावात । निश्चिता निर्धारिता, प्राप्तिः फललाभः । नियताऽऽदिः ।
विवृणोति-पायाऽभावात् = प्रतिबन्धाऽभावाद ।
उदाहरति-यति । देवीप्रसादनं वासवदत्तासन्तोषणम् । इति = अनया उक्त्या, देवीलक्षणाऽपायस्य - वासवदत्तारूपप्रतिबन्धस्य।
उपाय ( कारण ) और अपाय ( विघ्न ) को शकाओंसे प्राप्तिकी समावना को 'प्रात्याशा" कहते हैं ।। ७२ ॥
जैसे रत्नावली में तीसरे अकमें वेष बदलना और अभिसरण आदि संगम के उपायसे वासवदत्तारूप विघ्नको शङ्कासे अनिश्चित अवश्य संगमरूप फल की प्राप्तिकी आशा "प्रात्याशा" है।
इसी तरह अन्यत्र भी जानें। - विघ्नके अभावसे निश्चित एकान्तफल प्राप्तिको "नियताप्ति" कहते हैं ।
जैसे रत्नावलीमें राजा-"देवी ( वासवदत्ता) का प्रसादन (प्रसन्न कराना) छोड़कर यहां पर अन्य उपाय नहीं देखता हूँ।" इस प्रकार देवीरूप विघ्नका प्रसादन प्रसन्न कराने ) से निवारण होनेसे निश्चित फलप्राप्तिकी सूचना है।
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षष्ठः परिच्छेदः
सावस्था फलयोगः स्याद्यः समग्रफलोदयः ॥ ७३ ॥ यथा - रत्नावल्यां रत्नावली लाभश्चक्रवर्तित्वलक्षणफलान्सर लाभसहितः ।
एवमन्यत्र ।
यथासंख्यमवस्थाभिराभिर्योगात्तु पञ्चभिः । पञ्चधवेतिवृत्तस्य भागाः स्युः पञ्च सन्धयः ॥ ७४ ॥
तल्लक्षणमाह
अन्तर कार्थसम्बन्धः सन्धिरेकान्वये सति ।
प्रयोजनेनान्वितानां
४२९
एकेन सन्धिः । तद्भ ेदानाह
कथांशानामवान्तरे कप्रयोजनसम्बन्धःः
फलागम ( फलभोगम् ) लक्षयति - साऽवस्येति । यः समग्रफलोदयः = समग्राणां (संपुर्णानाम् ) फलानां ( प्रयोजनानाम् ) उदय (उद्भव ) सः, फलयोग: = फलागमः, सा अवस्था, स्वात् = भवेत् ॥ ७३ ॥
फलाऽऽगम मुदाहरति — यथेति । चक्रवर्तिलक्षणेत्यादिः = चक्रवतित्वलक्षणं ( साम्राज्यस्वरूपम् ) यत् फलान्तरम् ( अन्यत् फलं = प्रयोजनम् ) तल्लाभसहितः ( तत्प्राप्तिसहकृत: ) ।
सन्धीन्निर्देष्टुमुपक्रमते - यथासंख्यमिति । आभिः - पूर्वोक्ताभिः । पञ्चभिः, अवस्थाभिः, आरम्भादिभिः । यथासंख्यां = सक्रमं योगात् = सम्बन्धात्, इतिवृत्तस्यरूपकवृत्तान्तस्य पञ्चधा एव प्रकारपञ्चकेन एव, भागाः = अंगाः, पव सन्धयः स्युः ।। ७४ ॥
सन्धिलक्षणमाह - प्रन्तरंकेति । एकाऽन्वये एकस्य ( मुख्यप्रयोजनस्य ) अन्वये ( सम्बन्धे ) सति, अन्तरेकाऽर्थसम्बन्धः (अवान्तरं कप्रयोजनसम्बन्धः, "सन्धिः" । विवृणोति - एकेनेति । एकेन, प्रयोजनेन - मुख्यफलेन, अन्वितानाम्-अ =अन्वयसम्बद्धानां कथाsशानां वृत्तान्तभागानाम्, अवान्तरैकप्रयोजनसम्बन्धः = रूपकैकः देशप्रयोजनयोगः, सन्धिः ।
जो समस्त फलका उदय है उस अवस्थाको “फलागम" कहते हैं ॥ ७३ ॥ जैसे रत्नावली में रत्नावलीका लाम और चक्रवर्तित्व प्राप्तिरूप दूसरे फल से सहित है । इसी तरह अन्यत्र भी समझें ।
इन पाँच अवस्थाओंके सम्बन्धसे इतिवृत्तके पाँच माग हो यथासंख्य ( क्रम ) से पांच सन्धिय होती है ।। ७४ ॥
उनका लक्षण कहते हैं- एक प्रयोजनसे अन्वित कथाशोंके अवान्तर एकप्रयोजनसे सम्बन्धको "सन्धि" कहते हैं । सन्धिके मेदोंको कहते हैं
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४३०
साहित्यदपणे
मुखं प्रातमुखं गर्भो विमर्श उपसहतिः ।। ७५ ।।
इति पश्चाऽस्य भेदाः स्युः क्रमाल्लक्षणमुच्यते । यथोदशं लक्षणमाह
यम्र बीजसमुत्पत्तिर्नानाथरससम्भवा ।। ७६ ।।
प्रारम्मेण समायुक्ता तन्मुख परिकीर्तितम् । यथा-रत्नावल्यां प्रथमेऽङ्क।
फलप्रधानोपायस्य मुखसन्धिनिवेशिनः ।। ७७ ॥
लक्ष्यालक्ष्य इकोर्दोदो यत्र प्रतिमुखं च तत् । यथा-रत्नावल्यां द्वितीयेऽक्के वत्सराजसागरिकासमागमहेतोरनु
सन्धिभेदानुद्दिशति-- मुखमिति । अस्य सन्धेः । भेदा: = प्रकाराः । कमात्उद्देशक्रमात् । यथोंद्देशम् = उद्देशाऽनुसारम् । नाममात्रेण वस्तुसंकीर्तनमुद्देशः ।। ७५ ।।
मुख लमयति-यति। यत्र = यस्मिन्, सन्धौ । नानाऽर्थरससंभवा = अनेकवृत्तान्तरसोत्पन्ना ।। ७६ ॥
प्रारम्भेण = पूर्वोत्ताऽवस्थाविशेषेण, समायुक्ता = सम्बद्धा, बीजसमुत्पत्तिः= बीजस्य ( पूर्वोक्तस्याऽर्थप्रकृतिविशेषस्य ) समुत्पत्तिः (प्रादुर्भावः ), तत्, मुख = मुखसन्धिः, परिकीर्तितम् । उदाहरति -यथेति ।
प्रतिमुखं लक्षयति-फलप्रधानोपायस्येति । यत्र = यस्मिन सन्धी, मुखसन्धि. निवेशिन:-मुखसन्धौ निविशते तच्छीलस्तस्य, मुखसन्धिप्रवेशिनः । फलप्रधानोपायस्य= फलस्य (प्रयोजनस्य) यः प्रधानोपाय: (मुख्यकारणम्), तस्य । लक्ष्यालक्ष्यः किञ्चिज्ज्ञेयः, इव । उद्भेदः = प्रकाशः, भवति । तत् प्रतिमुखं प्रतिमुखसन्धिः ।। ७७ ।।
प्रतिमुखमुदाहरति-यथा रत्नावल्यामिति । वत्सराजसागरिकासमागम हेतोः= व सराजसागरिकयोः (उदयसागरिकयो: ), समागमः ( सङ्गमः ), तद्धेनोः
मुख, प्रतिमुख, गर्म, विमर्म और उपसंहार ।। ७५ ॥ सन्धिके ये पांच भेद होते हैं । उनका लक्षण क्रमसे कहते हैं ।
जहां अनेक अर्थ और अनेक रसोंका सूचक बीजकी उत्पत्ति प्रारम्भ नामक अवस्थासे युक्त हो उसे "मुख" कहते हैं ।। ७६ ॥
जैसे रत्नावलीके प्रथम अङ्कमें।
जहां मुखसन्धिमें निवेशित फल प्रधान उपायका विकास कुछ लक्ष्य और कुछ अलक्ष्य हो उसे 'प्रतिमुख" कहते हैं ।। ७७ ।।
जैसे रत्नावलीमें दूसरे अङ्कमें वत्सराज और सागरिकाके समागमका हेतु
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षष्ठः परिच्छेदः
४३१ रागवीजस्य प्रथमाङ्कोपक्षिप्तस्य : सुसंगता--विदूषकाभ्यां ज्ञायमानतया किंचिल्लक्ष्यस्य वासवदत्तया चित्रफलकवृत्तान्तेन किश्चिदुन्नीयमानस्योदेशरूप उभेदः।
फलप्रधानारायस्य प्रागुद्भिन्नस्य किश्चन ।। ७ ।।
गर्भो यत्र समुभेदो हासान्वेषणवान्मुहुः । फलस्य गर्भीकरणादर्भः। यथा रत्नावल्यां द्वितीयेऽङ्के--'सुसंगतासहि, अदक्खिणा दाणिं सि तुमं जा एवं भट्टिणा हत्थेण गहिदा वि कोवं ण मुश्चसि' इत्यादौ समुद्भेदः । पुनर्वासदत्ताप्रवेशे ह्रासः । तृतीयेऽङ्के-'तद्वार्तान्वेषणाय गतः कथं चिरयति वसन्तकः' इत्यन्वेषणम् । विदूषकः-ही ही भोर, कोसम्बीरब्जलम्भेणावि ण तादिसो पिअवअस्सस्स परितोसो जादिसो मम (तत्काल ), प्रथमाको क्षिप्तस्य = प्रथमाझे कृतोपक्षेपस्य । अनुरागबीजस्य - आसक्तिरूपबीजस्य. उन्नीयमानस्य-अनुमीयमानस्य । उद्देशरूप:-प्रकाश स्वरूपः।
गर्भ लक्षात-फलप्रधानोपायस्येति । प्राक् = पूर्वसन्धिद्वये, किचन उद्धिन्नस्प - किञ्चित् प्रकाश प्राप्तस्य, फलप्रधानोपायस्य = फलस्य (प्रयोजनस्य) यः प्रधानोपाय: ( मुख्य कारणम् ), तस्य । यत्र = सन्धी, मुहुः - वारं वारं, ह्रासाs. न्वेषणवान् = ह्रासः (तिरोमावः) अन्वेषणम् ( अनुसन्धानम् ) तद्वान् ( तक्तः ), समुद्भेदः = प्रारट्यं भवति, सगर्भ:-गर्भसन्धिः । स्मृतः चिन्तितः ॥ ७८ ॥
_ विवृणोति-फलस्यति । फलर-प्रयोजनस्य, गर्भीकरणात् = अभ्यन्तरी. करण' गर्भः । उदाहरति-यथेति। "सखि ! अदक्षिणा इदानीम् असि त्वं या एवं भ हस्तेन गृहीता अपि कोप न मुञ्चसि।" इति संस्कृतच्छ'या। समुद्भः प्राकटयम्। अनुरागस्येति शेष: । ह्रासः-तिरोभावः । ८. नुराग यीज का पहले अङ्क में उप क्षप्त है उसे सुमंगता और विदूषकने जाना अतः वह कुछ लक्ष्य हुआ एवम् वासवदत्ताने चित्रके वृत्तान्त से कुछ कल्पना करली अतः अलक्ष्य भी हुआ। .
पूर्वसन्धिमें कुछ प्रकाशित हुए फलप्रधान उपायका जहाँ ह्रास और अन्वेषणसे युक्त होकर बारंबार विकास हो उसे "गर्भसन्धि" करते हैं ॥ ७८ ॥ .
फलको भीतर रखनेसे "गर्भ" सन्धि कहते हैं। जैसे रत्नावलीके दूसरे अमें सुसंगता - राख ! तुम अनुसार हो जो इस प्रकार स्वामीसे हाथसे गृहीत होकर भी क्रोध नहीं छोड़ती हो । इत्यादिमें समुद्भेद है। फिर वासवदत्ताके प्रवेश में हास है। तीसरे अङ्क में "उसके वृत्तान्त के अन्वेपणके लिए गये हुए वसन्तक कैसे विलम्ब कर रहे हैं' यह अन्देषण है। विपक-वाह वाह ! कौशाम्बी राज्यले लाभसे भी प्रिय .
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साहित्यदपणे
आसादा पियवअण सुणिअ भविस्सदि इत्यादावुद्भदः । पुनरपि वासवदत्ताप्रत्यभिज्ञानाद् ह्रासः । सागरिकायाः सङ्केतस्थानगमने ऽन्वेषणम् । पुनर्द्धतापाशकरणे उद्भेदः ।
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अथ विमर्श:
यत्र मुख्य फलोपाय उद्भिलो गर्भतोऽधिकः ।। ७९ ।। शापाद्यः सान्तरायश्च स विमर्श इति स्मृतः ।
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यथा शाकुन्तले चतुर्थाङ्कादौ - 'अनसूया - पिअंवदे, जइवि गन्धव्त्रेण विवाहेण निबुत्तकल्ला सही सउन्तला अणुरुवभन्तुभाइणी संयुत्तति निरुद मे हिअअम्, तह वि एत्तिअं चिन्तणिब्जम्' इत्यत आरभ्य सप्तमाङ्को पक्षिप्ताच्छकुन्तला प्रत्यभिज्ञानात्प्रागर्थसच्चयः शकुन्तलाविस्मरणरूपविघ्नालिङ्गितः ।
1
" ही ही भोः ! कौशाम्बी राज्यलाभेऽपि न तादृशः प्रियवयस्यस्य परितोष यादृशो मम सकाशात् प्रियवचनं श्रुत्वा भविष्यती" ति संस्कृतच्छाया । अन्वेषणम् = अनुसन्धानम् ! विमर्श लक्षयति-यत्रेति । यत्र = सन्धो, मुख्यफलोपाय: = मुख्य फलस्य ( प्रधानप्रयोजनस्म) उपायः ( हेतुः ) । गर्भतः - गर्भसन्धेः अधिकः - प्रचुरः, उद्भिन्नःप्रकाशितो भवति, एवं च शापाद्यं := दुरेषण प्रभृतिभिः, माद्यपदेन भयादिग्रहणम् । साऽन्तरायश्र = प्रतिबन्धयुक्त भवति स विमर्शः विमर्शनामा सन्धिः स्मृतः चिन्तितः ।। ७९ ।।
विमर्श मुदाहरति-- यथाशाकुन्तले इति । "प्रियंवदे ! यद्यपि गान्धर्वेण विवाहेन निर्वृत्तकल्याणा प्रियसखी शकुन्तला अनुरूप भर्तृभागिनी संवृत्तेति निर्वृत्तं मे हृदयं तथाऽप्येतावच्चिन्तनीयम् ।" इति संस्कृतच्छाया । अर्थसश्वयः = वृत्तान्तसमूहः । शकुन्तला विस्मरणेत्यादिः ० ।
"विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा तपोधनं वेत्सि न मामुपस्थितम् । स्मरिष्यति त्वां न स बोधितोऽपि सन्कथां प्रमत्तः प्रथमोदितामिव ।।' ( शाकुन्तले ४
- १ ) ।
इति दुर्वाससः शापेनाऽविस्मरणम् ।
मित्रको मेसा परितोष नहीं होगा जैसे कि मुझसे प्रिय वचन सुनकर होगा" इत्यादिमें उभेद है। फिर भी वासवदत्ताको पहचाननेसे ह्रास है । सागरिका के सङ्केतस्थानमें atter अन्वेषण है । फिर लतापाश बनानेसे उभेद हो गया है ।
जहाँ मुख्य फलका उपाय गर्भसन्धि से अधिक उद्धिन्न हो, परन्तु शापादियों से विघ्नयुक्त हो वह "विमर्श सन्धि" है ।। ७९ ।।
जैसे माकुन्तल के चतुर्थं अकके आरम्भमे, अनसूया - "प्रियंवदे ! यद्यपि गान्धर्व विवाहसे कल्याणभागिनी प्रियसखी योग्य पतिको प्राप्त करनेवाली हो गई इस कारण मेरा चित्त सुखी है, तो भी इतना विचार करना चाहिए" यहाँसे आरम्भ कर सातवें में रखे गये शकुन्तलाके प्रत्यभिज्ञान ( पहचान ) से पहले का कथा भाग शकुन्तला के विस्मरणरूप विघ्नसे युक्त है ।
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षष्ठः परिच्छेदः
अथ निर्वहणम् -
बोजवन्तो मुखाद्या विप्रकीर्णा यथायथम् ॥ ८ ॥
एकाथमुपनीयन्ने यत्र निर्वहणं हि तत् ।। यथा-वेण्याम् , 'कञ्चुकी-(उपसृत्य, सहर्षम् ) महाराज ! वर्धसे। अयं खलु भीमसेनो दुर्योधनक्षतजारुणीकृतसर्वशरीरो दुर्लक्ष्यव्यक्तिः' इत्यादिना द्रौपदीकेशसंयमनादिमुखसन्ध्यादिबीजानां निजनिजस्थानोपक्षितानामेकार्थयोजनम्। ___ यथा वा-शाकुन्तले सप्तमाङ्के शकुन्तलाभिज्ञानादुत्तरोऽर्थराशिः । । एपामङ्गान्याह
उपक्षेपः परिकरः परिन्यासो विलोभनम् ॥ ८१.।। निर्वहणम् ( उपसंहृतिम् ) लक्षयति-बीजवन्त इति । यथायथं - यथास्वं, विप्रकीर्णाः = कविना उपक्षिप्ता:, बीजवन्तः = पूर्वोक्तबीजाऽर्थयुक्ताः, मुखाद्याः = मुखादिसन्धिचतुष्टयविषयाः, यत्रसन्धौ, एकाऽर्थ = मुख्यफलप्रयोजनम, उपनीयन्ते= युज्यन्ते, तत् निर्वहणम् - उपसंहतिः, हि = निश्चयेन ।
उपसंहृतिमुदाहरति-यथा वेण्यामिति । दुर्योधनेत्यादिः = दुर्योधनस्य ( सुयोधनस्य ) अतजेन ( ऊरुभङ्गजाता धिरेण ), अरुणीकृतं (रक्तीकृतम् ) सर्व. शरीरम् (सम्पूर्ण देहः) यस्य सः। दुर्लक्ष्यव्यक्तिः दुर्लक्ष्या (दुर्जेया) व्यक्तिः (प्रकाशः) यस्य सः, सोऽयं. भीमसेनः । एकाऽयोजनम् = एकस्य (प्रधानफलस्य द्रोपदीकेशसंहारादेः ) अर्थ ( निमित्त ) योजनम् ( उपकरणत्वेन सम्बन्धनम् )।
उदाहरणान्तरमाह-यथा वेति । अपर:शि:विषयसमूहः ।
मुखादिसन्धीनामङ्गेषु प्रामुखसन्धरङ्गान्यदिशति-उपोप इति । उपक्षेप. मारभ्य विलोमनं यावच्चत्वार्यङ्गानि ॥१॥
बीज वाले मुख आदि सन्धियाँ बिखरी जाकर जहाँ एक प्रयोजनमें लाई जाती हैं यह "निर्वहरण सन्धि" है ।। ८० ॥
जते वेगीसंह रमें -- कञ्चुकी-(पास जाकर हर्षपूर्वक) महाराज ! आपकी जय हुई है । ये भीमसेन दुधिनके रुधिरसे सब शरीर लाल हो जानेसे दुःखसे पहचाने जाते हैं । इत्यादिसे अपने अपने स्थानमें उपक्षिप्त द्रौपदीके केशसंयमन आदि मुखसन्धि आदि बीजों को एक अर्थ में गेजना की गई है। अथवा शाकुन्तलके सातवें अङ्कमें शकुन्तलाके अभिज्ञान शुष्ट अर्थ है। मुनिक बलों की करते हैं- उपक्षेपसे विलोभन तक चार' ॥१॥ ८सा
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साहित्यदर्पणे
युक्तिः प्राप्तिः समाधानं विधानं परिभावना ।
उद्भदः करणं मेद एतान्यानि वै मुखे ॥ ८२ ॥ यथोद्देशं लक्षणमाह-.
काव्यार्थस्य समुत्पतिरुपक्षेप इति स्मृतः । ... काव्यार्थः इतिवृत्तलक्षणप्रस्तुताभिधेयः । यथा वेण्याम्-'भीमःलाक्षागृहानलविषानसभाप्रवेशैः ।
प्राणेषु वित्तनिचयेषु च नः प्रहृत्य । आकृष्य पाण्डववधूपरिधानकेशान्
स्वस्था भवन्ति मयि जीवति धार्तराष्ट्राः ॥ युक्तिरिति । पक्तिमारभ्य भेदं यावदष्टौ संहत्य द्वादशसंख्यकानि एतानि अङ्गानि मुखे भवन्तीति शेषः ॥ २ ॥
तोऽपक्षपं लक्षयति-काम्याज्यस्योति । काव्याऽयंस्यदृश्यकाव्यादर्शनीय. वृत्तान्तस्य । समुत्पत्ति: संक्षेपेणोपक्षेपणम् उपक्षेप इति, स्मृतः चिन्तितः ।
विवृणोति-काव्या इति। काव्याऽर्थः = इतिवृत्तलक्षणप्रस्तुताऽभिधयः = इतिवृत्तं लक्षणं ( स्वरूपम् ) यस्य सः तादृशः प्रस्तुताऽभिधेयः (प्रस्तुत: = प्रातः, अपिधेयः = कथनीयः ) स कायार्थः।
उपक्षेपमुदाहरति यथा वेण्या भीम इति । लामाऽमलेति। 'स्वस्था भवन्तु कुरुराजसुता: समस्याः" इति सूत्रधारस्योक्ति श्रुत्वा प्रविष्टस्य भीमायोक्तिरियम् । पार्तराष्ट्राः धृतराष्ट्रपुत्रा दुर्योधनादयः । लामेस्यादिः०. लाक्षागृहाउनल: (लाक्षागृहे= जतुभवने, अनल: अग्निसंयोजनम ) । विषाऽन्नं (विषमयभक्ष्यप्रधानम् ); सभाप्रवेशः (छलबूतविधानाय गोष्ठीप्रवेशनम् ) । इत्येते. कार्यः, मः = अस्माकं पाण्डवानां, प्राणेष अतुप, जीवनविषयेविति भावः । वित्तनिचयेषुष-धनसमूहेषु ष, प्रहत्य'प्रहारं कृत्वा, ततश्च पाण्डववधूपरिधानकेशान् = गण्डववध्वाः (द्रौपचाः) परिधान (वस्त्र, शाटिकारूपम् ) के शान् = शिरोरुहान, आकृष्य = आकर्षणं कृत्वा, एतानि कुकर्माणि कृत्वात भावः, मयि भीमसेनेन, जीवति-प्राणान्धारयति सति । स्वस्था:स्वास्थ्ययुक्ताः, भवन्ति-भविष्यनि, "वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवढे"ति भविष्यत्सामी ये लद । काकुप्रश्नेनं न स्वस्था भविष्यन्तीति भावः । वसन्ततिलका वृत्तम् । .. युकिसे लेकर भेद तक बाठ, इस प्रकार मुखसन्धिमें बारह भेद होते है ।।२।।
काव्याऽर्थ अर्थात् इतिवृत्तकी उत्पत्तिको "उपक्षेप" कहते हैं। जसे वेणीसंहारमे भीमसेन कहते हैं
लाक्षागृहमें अग्नि लगाना,विषयुक्त अन्न खिलानेसे और तसभामें प्रवेश करानेसे हमारे प्राणोमें और धनराशियोंमें प्रहार कर पाण्डवोंकी वधू (द्रौपदी ) के वस्त्र और केशोंको गोचकर धृतराष्ट्रके पुत्र ( दुर्योधन आदि ) मेरे जीते जी स्वस्थ होंगे?
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षष्ठः परिच्छेदः
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समुत्पन्नाथबाहुल्यं ज्ञेयः परिकरः पुनः ॥ ८३ ॥ यथा तत्रैवप्रवृद्धं यद्वैरं ममे खलु शिशोरेव कुरुभि
म तत्रार्यो हेतुर्न भवनि किरीटी न च युवांम् । जरासन्धस्योरःस्थलमिव विरूढं पुनरपि
Qधा भीमः सन्धि विघटयति, यूयं घटयत ।। तनिष्पतिः परिन्यासःअत्र नाटके युद्धरूपेतिवृत्तसमुत्पत्तेरुपक्षेपरूपं सन्ध्यङ्गम् । .
परिकर नाम सन्ध्यङ्ग लक्षयति-समुत्पन्नेति । समुत्पन्नस्य (सातस्य) अर्थस्य ( वृत्तान्तस्य ) यत् बाहुल्यम् ( साऽतिशयसूचनम् ) पुन: "परिकरः" शेयः = ज्ञातव्यः ॥ २३ ॥
परिकरमुदाहरति-तत्रैवेति । प्रवदमिति। वेणीसंहारे भीमसेनस्य सहदेवं प्रत्युक्तिरियम् । १-१०॥ शिशोः एव = बालकस्य एव, मम भीमसेनस्य, कुरुभिःकौरवः, दुर्योधनादिभिरिति भावः। सह, यद खलु, वर = विरोधः, प्रलं = प्रद्धिमुपगतम्, तत्र = तस्मिन्धरे, बार्यः = पूज्यः, युधिष्ठिर इति भावः। हेतुः = कारण न = नो वर्तते, किरीटी च = अजुनच, न हेतुः, युवा = नकुलसहदेवो अपि, न हेतू । अतः, भीमः, ऋषा - कोपेन, जरासन्धस्य = मगधाऽधिपस्य, उरस्थकम् इव = वक्ष:स्थलम् इव, विरूढं = जात, कृष्णदोत्येनेति शेषः। सन्धि = पणबन्ध, पुनरपि - भूयोऽपि, विघटयति वियोजयति, यूयं-युधिष्ठिरादयः षटयत योजयतः , जरासन्धस्य जन्मादिवृत्तान्तो महामारते समापर्वणि द्रष्टव्यः । शिखरिणी वृत्तम् । अत्र समुत्पन्नस्य वररूपाऽर्थस्याऽतिशयसूचनापरिकरो नाम सन्ध्यङ्गम् ।
परित्यासं लक्षायति-तन्निम्पत्तिरिति। तसिम्पति: तस्य :(काव्येतिवृत्तस्य ) निष्पत्तिः ( उत्पत्तिः) "परिन्यासः'।
, उत्पल अर्थको प्रचुरताको "परिकर" कहते हैं ।। ६३ ॥
उ०-मेरा बचपनसे ही जो कौरवोंसे विरोध बढ़ा, उसमें पूज्य (युधिष्ठिर) अर्जुन और तुम दोनों (नकुल और सहदेव ) इनमें कोई भी कारण नहीं है । अत्र एव भीमसेन क्रोधसे जरा राक्षसीसे विरूड ( जोड़े गये ) जरासम्धके वक्षःस्थलके समान कृष्ण आदिकी चेष्टासे विरूढ ( उत्पन्न ) सन्धि (सुलह ) को फिर भी विघटित करता है तुम लोग सुटित कर दो।
उत्पन्न अर्थको सिडिको "परिन्यास" कहते है।
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४३६
साहित्यदर्पणे
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यथा तत्रैव
चम्चद्भुजभ्रमितचण्डगदाभिघातसंचूर्णितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य । . स्त्यानावनद्धघनशोणितशोणपाणिरुत्तंसयिष्यति कचांस्तव देवि ! भीमः ।।
अत्रोपक्षेपो नामेतिवत्तलक्षणस्य काव्याभिधेस्य संक्षेपेणोपक्षेपणमात्रम् । परिकरस्तस्यैव बहुलीकरणम् । परिन्यासस्ततोऽपि निश्चयापत्तिरूपतया परितो हृदये न्यसम्, इत्येषां भेदः । एतानि चाङ्गानि उक्तेनैव पौर्वापर्येण भवन्ति, अङ्गान्तराणि त्वन्यथापि ।
-गुणाख्यानं विलोभनम् । परिन्यासमुदाहरति-यथा तत्रैवेति। चञ्चद्भुजेत्यादिः । द्रौपदी प्रति भीमसेनस्याक्तिरियम् । हे देवि = हे राजहिगि ! द्रौपदि !, चञ्चद्भुजेत्यादिः०=चञ्चन ( सञ्चरन् ) यो भुजः ( बाहुः ), तन भ्रमन्ती ( घूर्णन्ती ) चण्डी ( कठोरा ) या गदा ( कासूः, आयुधविशेषः ) तस्यः यः अभिघतः ( आघात: ), तेन सञ्चूर्णितम् ( चूर्णीकृतम् ) ऊरुयुगलं (सक्थियुग्मम्) यस्य, तस्य, स्त्यानाऽधनद्धेत्यादि:०स्त्यानम् (धनम्) बवलग्न ( सलग्नं ) घनं ( गाढम् .) यत् शोणितं ( रक्तम् ) तेन शोणः ( रक्तवर्णः ) पाषिः (कर:) यस्य सः, तादृशः, सः, भीमः भीमसेनः, तव-भवत्याः, कचान्-कुन्तलान, दुःशासनाकर्षणेन शिथिलितानिति भावः । उत्तंसयिष्यति = भूषयिष्यति । वसन्ततिलका वृत्तम् । अत्र दुर्योधनोहभङ्गरूपस्य भाविकार्यस्य निष्पते. परिन्यासो नाम सन्ध्यङ्गम् !
विवृणोति--प्रत्यति । इतिवृत्तलक्षणस्य वृत्तान्तरूपस्य, काव्याऽभिधेयस्यदृश्यकाव्यप्रतिपादनीयस्य, संक्षेपेण = समासेन, उपक्षेपणमात्रम् = उपस्थापनमात्रम् । भेदः = विशेषः । एतानि = उपक्षेपादीनि त्रीणि । पौर्वापर्येण = अनुक्रमेण !
___ अङ्गान्तराणि = अन्यानि अङ्गानि, विलोभनादीनि इति भावः । अन्यथाऽपि % अक्रमेणाऽपीति भावः ।
विलोमनं लक्षयति-गुणाख्यानमिति । गुणाऽऽख्यानं = गुणानाम् (पात्रस्थितशौर्यादीनाम् ) आख्यानं (प्रकथनम् "विलोभनम्"। विलुभ्यतेऽनेनेति व्युत्पत्तिः ।
___वह भी वेणीसंहार में ही है-हे देवि ! चलती हुई बाइसे घुमाई गई प्रचण्ड गदाके ताडनसे चूर चूर ऊरुयुगलवाले दुर्योधरके बढ़े हुए संलग्न गाढ रुधिरसे लाल हाथसे युक्त भोमसेन तुम्हारे केशों को भूषित करेगा।
इसमें इतिवृत्त रूप काव्य के अर्थका सक्षेपसे उपस्थापनमात्र है। उसीको फैलाना "परिकर" है । इससे भी अधिक निश्चय कर हृदयमें बस ओरसे रखना "परिन्यास" है। यह इनका भेद है ये अङ्ग इसी क्रमसे होते हैं; और अङ्ग भिन्न क्रमसे भी होते हैं । । गुणको "विलोपन" कहते हैं।
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षष्ठः परिच्छेदः
४३७
यथा तत्रैव, द्रौपदी-'णाध ! किं दुक्कर तुए परिकुविदेण' । यथा वा मम चन्द्रकलायां चन्द्रकलावर्णने-सेयम् , तारुण्यस्य विलासः-' (१६६ पृ०) इत्यादि। यत्तु शाकुन्तलादिषु 'ग्रीवाभङ्गाभिरामम्-' इत्यादि मृगादिगणवर्णनं तबीजार्थसम्बन्धाभावान्न संध्यङ्गम् । एवमङ्गान्तराणामप्यूह्यम् ।
संप्रधारणमर्थानां युक्ति:यथा-येण्या-सहदेवो भीमं प्रति "आर्य ! किं महाराजसन्देशोऽयमव्युत्पन्न एवायण गृहीतः" ? इत्यतः प्रभृति यादद्भीमवचनम् ।
विलोभनमुदाहरति-यथा तत्रैवेति। द्रौपदी-नाथ ! कि दुष्करं त्वया परिकुपितेन" इति संस्कृतच्छाया । अत्र भीमसेनस्य शोर्याख्यानेन दुर्योधनादिवधे लोभ: जननाद्विलोभनम् ।
उदाहरणान्तरमुपस्थापयति--चन्द्र कलायामिति । 'सेयं, तारुण्यस्य विलासः" अत्र नायिकाया रूपादिगुणाख्यानात्स्वस्य लोभजननाद्विलोभनम् । विलोभनाऽभावस्थलं निर्दिशति-ग्रीवाभाभिराममिति ।
'ग्रीवाभङ्गाऽभिरामं मुहुरनुपनति स्यन्दने बद्धदृष्टिः पश्चार्द्धन प्रविष्ट: शरपतनभयाद् भूयसा पूर्वकायम् । दभैर ऽवलीद्वैः श्रमविवृतमुख ध्रशिभिः कीर्णवा
पश्योप्रप्लुत स्वाद्वियति बहुतरं स्तोकमुया प्रयाति ॥' इति समस्त: श्लोकः । ( अभिज्ञान० १-७)। बीजाऽर्थसम्बन्धाऽभावात् = शकुन्तला प्रति दुष्यन्ताऽनुरागबीजार्थसम्बन्धाऽभावात् न सन्ध्यङ्गम् ।
युक्ति लश्शयति- सम्प्रधारणमिति । अर्थानां कर्तव्यविषयाणां, संप्रधारणं निश्चयः, "युक्तिः" सन्ध्यङ्गम्
युक्तिमुदाहरति-यथा वेण्यामिति । अव्युत्पन्नः = तात्पर्याऽविषयः ।
जैसा वहीं ( वेणीसंहार ) पर-द्रौपदी--नाथ ! आपके क्रुद्ध होनेपर क्या दृष्कर है ? अथवा --चन्द्रकलाके वर्णन में "तारुण्यस्य विलास:०" जो शाकुन्तल आदिमें "ग्रीवाभङ्गाऽभिरामम् (१-७)" इत्यादि जो मृगका गुणवर्णन है बीज अर्थसे सम्बन्ध न होनेसे वह सन्धिका अङ्ग नहीं है इसी प्रकार अन्य अङ्गोंमें भी ऊह करना चाहिए।
अर्थोके निश्चय करनेको "युक्ति" कहते हैं।
जसे वेणीसंहारमें सहदेव भीमसेनको कहते हैं-पूजनीय ! क्या आपने महाराजका सन्देश अविचारित रूपके समान गृहण किया है ? यहाँसे शुरू कर भीमसेनके बचनपर्यन्त ।
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४३८
साहित्यदर्पणे
'युष्मान हृपयति क्रोधाल्लोके शत्रु कुलक्षयः । न लज्जयति दाराणां सभायां केशकर्वणम्' || इति ॥ - प्राप्तिः सुखागमः ॥ ८४ ॥
यथां तत्रैव - 'मध्नामि कौरवशतं समरे न कोपात्- ' (३६पृ० ) इत्यादि । 'द्रौपदी - ( श्रुत्वा सहर्षम् ) गांध ! अस्सुवपुब्व क्खु एवं वाणम्, ता पुणो पुणो भण।'
जस्यागमनं यत्तु तत्समाधानमुच्यते ।
यथा तत्रैव - ' ( नेपथ्ये ) भो भो विराटद्रुपदप्रभृतयः ! श्रूयताम् I
युष्मानिति । क्रोधात् = कोपाद्धेतोः शत्रुकुलक्षय: = रिपुवंशविनाशः; लोके= जनसमूहे, युष्मान् = भवतः, ह्रेपयति = लज्जयति, "ही लज्जायाम्" इति धातोः "अति हो ब्लीकन यक्ष्माय्यात पुणी " इति णिचि लटि पुमागमः । किन्तु सभायां = गोष्ठयां, वाराणां-पत्न्याः, द्रोपया इति भावः । केशकर्षण - शिरोरुहाकर्षः, युष्मान् = भवतः, न लज्जयति-नो हृपयति । ( १ - १७) । अनुष्टुब् वृत्तम् । अत्र शत्रुकुलक्षयरूपाऽर्थस्य सम्प्रधारणाद्य क्तिर्नाम सन्ध्यङ्गम् ।
प्राप्ति लक्षयति- प्राप्तिरिति । सुखाऽऽगमः आनन्दप्राप्तिः, पात्रस्येति शेषः । "" प्राप्तिः " = प्राप्तिर्नाम सन्ध्यङ्गम् ॥ ६४ ॥
'प्राप्तिमुदाहरति-यथा तत्र वेति । "मध्नामी "त्यादि द्रौपदी सहर्षम् - "नाथ ! 1 अश्रुतपूर्वं खलु इदं वचनम् । तत्पुनः पुनर्भण ।” इति संस्कृतच्छाया । अत्र "मध्ना मी " त्यादिभीमवाक्यश्रवणेन द्रौपद्याः सुखप्राप्तेः प्राप्तिर्नाम सन्ध्यङ्गम् ।
1
समाधानं सन्ध्यङ्ग लक्षयति- बीजस्येति । बीजस्य = अल्पमात्रं समुद्दिष्टम्” इत्यादिलक्षणलक्षितस्य फलप्रथम हेतोः यत् आगमनं प्रधाननायकसम्मतत्वेन कथनं, तत् समाधानं समाधान नामकं सन्ध्यङ्गम् ।
=
क्रोध से शत्रुकुल का क्षय लोकमें तुमलोगोंको लज्जित करता है, परन्तु सभामें पत्नीके केशका आकर्षण लज्जित नहीं करता है ।
सुनिए -
सुख आ. मनको "प्राप्ति" कहते हैं ॥ ८४ ॥
जैसे वहीं पर - "मध्नामि कोरवशतं समरे न कोपात्" इत्यादि । द्रौपदी - ( सुनकर हर्षपूर्वक ) "यह वचन पहले नहीं सुना था, उसे बारंबार कहिए ।" बीजके आगमनको "समाधान" कहते हैं।
जैसे वहीं (बेणीसंहार) पर - (
• (नेपथ्य में) हे विराट् और द्रुपद आदि सज्जनो !
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पळ परिच्छेदः
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यत्सत्यव्रतभङ्गभीरुमनसा यत्नेन मन्दीकृतं
यद्विस्म मपीहितं शमवता शान्ति कुलस्येच्छता। तधूसारणिसंभृतं नृपसुताकेशाम्बराकर्षणः
'क्रोधज्योतिरिदं महत्कुरुवने यौधिष्टिर जम्भते' ॥ अत्र 'स्वस्था भवन्तु मयि जीवति- (३४६ पृ० ) इत्यादि बीजस्य प्रधाननायकाभिमतत्वेन सम्यगाहितत्वात्समाधानम्।
सुखदुःखकृतो योऽर्थस्तद्विधानमिति स्मृतम् ॥ १५ ॥
समाधानमुदाहरति-यथा तत्रैवेति। यदिति। युधिष्ठिरस्य · स्वपक्षस्थितान्विराटद्रुपदप्रभुतीन्प्रत्युक्तिरियम् । सत्यव्रतमभीरुमनसा = सत्यव्रतस्य (सत्यपालनरूपाचरणस्य ) भङ्गात (विच्छेमत् ) भीरु ( कातरम् ) मनः (चित्तम् ) पस्य, तेन । मयेति शेषः । यत्नेन = प्रयासेन, यत् = क्रोधज्योतिः, मन्दीकृतम्-अलली. कृतम् । तथा च कुलस्य = वंशस्य, गान्ति = शमम्, इच्छता = वाञ्छता, शमवताअन्तरिन्द्रियनिग्रहसपन्नेन, मया, यत् = क्रोधज्योतिः, विस्म = विस्मरण कर्तुम् अपि, ईहित = चेष्टितम् । द्यू तारणिसंभृतं-धूतम् ( अमक्रीडा ) एव अरणि: ( अग्निमन्थनकाष्ठम्) तेन संभृतं ( जनितम् ), नपसुताकेशाऽम्बराकर्षणः- नृपसुतायाः (राजकुमार्याः, द्रौपद्याः ) केशानाम् ( कचानाम् ) अम्बरस्य (वस्त्रस्य ) च आकर्षणैः ( आक्षेपः) सन्दीपितमिति शेषः । तत् = तादृशम्, इदम् - एतत, महत = समृद्धं, यौधिष्ठिरं = युधिष्ठिरसम्बन्धि, क्रोधज्योतिः - कोपाऽनलः, कुरुवने = कौरवरूपाऽरण्ये, जम्भते = . पद्धते । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । (१-२४)।
विवृणोति-प्रति। बीजस्य, प्रधाननायकाऽभिमतत्वेन-प्रधाननायकस्य (भीमसेनस्य ) अभिमतत्वेन ( संमतस्वेन ) समाहितत्वात् ( सम्यगाहितत्वात् ) समाधानम् ।
विधानं लक्षति-सुखदुःखकृत इति । सुखेन दुःखेन च कृतः ( विहितः ) यः अर्थः ( विषयः ) तत् "विधानम्" इति स्मृतं = चिन्तितम् ॥ २५॥
सत्यव्रतके भनमें भयशील मनवाले मुझसे जिसको यत्नसे मन्द किया था। कुलकी शान्तिको चाहनेवाले शान्तिवाले मैंने जिसे भूलनेके लिए भी कोशिश की।
___छ तरूप अरणि (काष्ठ ) से उत्पादित और राजकुमारी.(प्रौपदी ) के केश और वस्त्र के आकर्षणमे प्रदीप्त बह युधिष्ठिरका महान् क्रोधाऽग्नि कुरुवंशरूप वनमें
यहाँ "स्वस्था भवन्तु मयि जीवति." इत्यादि बीजका प्रधान नायक युधिष्ठिरसे अभिमत होकर अच्छी तरह आहित ( स्थापित ) होनेसे "समाधान" हुआ है।
सुख और दु.खसे किये गये विषयको "विधान" कहते हैं ।। ८५॥
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४४०
साहित्यदपणे
यथा बालचरिते
'उत्साहातिशयं वत्स ! तब बाल्यं च पश्यतः ।
मम हर्षविषादाभ्यामाकान्तं युगपन्मनः ॥' यथा वा मम प्रभावत्याम्-नयनयुगासेचनकम्-' (२९३ पृ०) इत्यादि ।
कुतूहलोतरा वाचः प्रोक्ता तु परिभावना । यथा-वेण्यां द्रौपदी युद्धं स्यान्न वेति संशयाना तूर्यशब्दानन्तरम् ‘णाध ! किं दाणि एसो पलअजलहरत्थणि दमत्थरो खणे खणे समरदुन्दुभी ताडीअदि।'
बीजाथस्य प्ररोहः म्यादुद्भेदःविधानमुदाहरति-यथा बालचरित इति श्रीराम प्रति परशुरामस्योक्ति रियम् । हे वत्स = हे वात्सल्यभाजन !, नव= भवतः, उत्साहाऽतिशयम् = अध्यवसागाधिक्यं, बाल्य = शैशवं, च पश्यतः = विलोक्यतः, मम । मनः = चित्तं, युगपत्एकपद एव, हर्षविषादाभ्याम् = आनन्दखेदाभ्याम्, आक्रान्तम् = अधिकृतम् । उत्साहा तिशयेनाऽनन्दः शैशवे हन्त व्यत्वेन विषाद इति भावः । अनुष्टुब् वृत्तम् ।
विधानस्योदाहरणान्तरं प्रदर्शयति-नयनयगासेचनकम् । अत्र प्रभावतीरूपस्य सुखदुःखोत्पादकत्वाद्विधानम् ॥ ८५॥
परिभावनां नाम सन्ध्यङ्गं लक्षयति-कुतूहलोत्तरा इति । कुतूहलोत्तरा: = कौतुकप्रधानाः, बाधः = वाक्यानि, तु, "परिभावना" प्रोक्ता = कथिता ।
परिभावनामुदाहरति-यथा वेण्यामिति । संशयाना-सन्दिहाना । सूर्यशब्दाऽ. नन्तरं वाबध्वन्यनुपदम् । "नाथ ! किमिदानीमेष प्रलयजलघरस्तनितमन्थरः क्षणे क्षणे समरदुन्दुभिस्ताड्यते" इति संस्कृतच्छा ग । प्रलयप्रलय जलधरस्य (कल्पान्तमेधस्य) यत् स्तनितं ( गजितम् ) तदिव मन्थर: ( गम्भीरः ) । अत्र द्रौपया वाचः कुतूहलोत्तर स्थापरिभावना नाम सन्ध्यङ्गम् ।
उभेदं नाम सन्ध्यनं लक्षयति-बीजाऽयस्यति । वीजाऽर्थस्य = "अल्पमत्रं समुद्दिष्टम्" इत्यादिलक्षणलक्षितस्य आदिकारणस्य, प्ररोहः- अङ्कुरणम्, "उभेदः" स्यात्।
जैसे बालचरित में-“हे वस्स ! तुम्हारे उत्साहकी अधिकता और बचपनको देखते हुए मेरा मन हर्ष और विषादसे एक ही बार आक्रान्त हो गया है। अथवा ग्रन्थकारको प्रभावती ( नाटिका ) में "नयनयुगासेचनकम्" इत्यादि । - कौतुकयुक्त वचनोंको "परिभाषना" कहते हैं ।
जैसे वेणी० में द्रौपदी युद्ध होगा वा नहीं ऐसा सशय करती हुई वाघोंके शब्द होनेके अनन्तर "नाथ ! क्यों इस समय प्रलय समयके मेघ गर्जनके समान गम्भीर युद्धकी दुन्दुभि ( वाघतिशेष ) क्षण क्षणमें बजाई जा रही है ।।"
बीजभूत अर्थकी उत्पत्तिको :"उभेद" कहते हैं ।
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षष्ठः परिच्छेदः
४४१
यथा तत्रैव-'द्रौपदी-णाध!, पुणोवि तए समास्सासइव्वा । भीम:
भूयः परिभवक्लान्तिलज्जाविधुरिताननम् । अनिःशेषितकौरव्यं न पश्यसि वृकोदरम् ॥'
-करणं पुनः ।। ८६ ।। प्रकृतार्थसमारम्भ:यथा तत्रैव-'देवि ! गच्छामो वयमिदानी कुरुकुलक्षयाय' इति ।
-भेदः संहतभेदनम् । उभेदमुदाहरति-यया तत्रैवेति । द्रौपदी-' नाथ ! पुनरपि त्वया समाश्वा. सयितव्या" । समाश्वासस्तुिमही इत्यर्थः । भूय इति । द्रोपदीवाक्यमाकण्यं भीमः कषयति । परिभवेत्वादिः = परिमवेन (शत्रुकृततिरस्कारेण) क्लान्तिः (ग्लानिः)लज्जा ( व्रीडा ) च ताभ्यां विधुरितम् (विह्वलीकृतम् ) आननं ( मुखम ) यस्य, तथा अनिः शेषितकोरव्यम् अनिःशेषिताः (समूलम् महताः) कौरब्या ( दुर्योधनादयः ) येन, त, तादृशं वकोदरं = भीमसेन, मां, भूयः-पुतः, न पश्यसि-नो द्रक्ष्यसि, "वर्तमान. सामीप्ये वर्तमानवद्वा" इति भविष्यत्सामीप्ये लट् । अत्र शत्रुमररूपस्य बीजाऽर्थस्य प्ररोहादुद्भेदः ।
करणं लक्षयति-करणमिति प्रकृताऽसमारम्भः = प्रकृतार्थस्य (प्रस्तुतविषयस्य ) समारम्भः ( सम्यगनुष्ठानम् ) "करणम्" ॥८६॥
करणं नाम सन्ध्यङ्गमुदाहरति-यया तत्र वेति । अत्र प्रकृताऽधस्य = युटस्य समारम्भाकरणं नाम सन्ध्मङ्गम् ।।
भेदं नाम सन्ध्यङ्ग लायति-भेद इति । संहृतभेदनं = संहतानां (सई युक्ताना, मिलितानामिति भावः ) यद् भेदनं ( सङ्घात्पृयवकरणम् ) "भेदः" भेदो नाम सन्ध्यङ्गम् ।
जैसे वहीं पर-द्रौपदी-फिर भी आपको मुझे आश्वासन देना चाहिए ।
भीममेन--( हे देवि ! ) तिरस्कार, ग्लानि और लज्जासे विह्वल मुखवाले भीमसेनको कौरवोंको नि:शेष किये विना फिर नहीं देखोगी।
' प्रस्तुत विषयके आरम्भको "करण" कहते हैं ।। ८६ ॥ ... जैसे वहीं (वेणी.) पर- देवि ! हम लोग इससमय कुरुवंशके फिनाशके लिए
मिले हुओंको अलग करनेको "भेद" कहते हैं।
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साहित्यदर्पणे
यथा तत्रैव - 'अत एवाद्यप्रभृति भिन्नोऽहं भवद्भयः ' केचित्तु - 'भेदः प्रोत्साहना' इति वदन्ति । अथ प्रतिमुखाङ्गानि -
विलासः
४४२
तत्र-
परिसर्पश्च विधुतं तापणं तथा ॥ ८७ ॥
नर्म नर्मद्य तिश्चैव तथा प्रगमनं पुनः ।
S
विरोधथ प्रतिमुखे तथा स्यात्पयु पासनम् ॥ ८८ ॥ पुष्पं वज्रमुपन्यासो वर्णसंहार इत्यपि ।
समीहा रतिभोगार्था विलास इति कथ्यते ।। ८९ ।। -
भेदाहरति यथा तत्र वेति । अत्र भीमसेनेन स्वस्यः प्रातृषमाद पृथक्करणा भेदः ।
दशरूपककारमतं प्रदर्शयति- केचिदिति । केचितः = दशरूपक का रादयः प्रोत्साहना "भेदः" इति वदन्ति ।
तम्मवेनोदाहरणं यथा---
अन्योन्यास्फालभिन्नद्विप रुधिरवसा सान्द्रमस्तिष्क प भग्नान" यदनानामुपरिकृतपदन्यासविक्रान्तपती । स्फोरसृक्पान गोष्ठी रसदशिव शिव शिव सूर्यनृत्यस्क बन्छी संग्रामकाऽर्णवान्तःपयसि विचरितु ं पण्डिताः पाण्डुपुत्राः ॥” (बेणी०) इत्यनेन विषण्णाया दोपखाः क्रोधोत्साहबीजानुगुण्येनैव प्रोत्साहनाद्भेदः । प्रतिमुखाऽङ्गानि निर्विशति - विलास इति । विलासात्तापनं यावत् चत्वासि८७॥ ततो नर्मतः पर्युपासनं यावत् पच ॥ ६८ ॥
ततः पुष्पाद्वर्णसंहारं यावत् चत्वारि । सहत्य त्रयोदशविधानि प्रतिमुखङ्गानि ज्ञेयानि ।
प्रतिमुख सन्ध्यङ्गं विलासं लक्षयति- समीहेति । रतिभोगार्था रतेः रतिलक्षणस्य भावस्य ) यो भोग: ( अनुभूतिः ) तदर्थं ( तत्प्रयोजना ) समीहा ( इच्छा ) "विलासः " प्रतिमुखाङ्गम् ।। ८९ ।।
जसे वहीं ( वेणी ) पर --' अत एव आजसे मैं आप लोगोंसे भिन्न हो गया। हूं।" कुछ लोग उत्साह करने को "भेद" कहते हैं ।
प्रतिमुखके प्रङ्ग - विलाससे तापस तक चार || ८० ॥
नर्म से पर्युपासन तक पाँच ॥ ८८ ॥
पुष्पसे वर्ण संहार तक चार, इस प्रकार प्रतिमुख सन्धिमें तेरह अङ्ग हैं।
रतिरूप भावका कारणभूत भोग-विषय, अर्थात् स्त्री वा पुरुष, उसके लिए होने वाली इच्छाको "विलास" कहते हैं ।। ८९ ।।
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षष्ठः परिच्छेदः
-
४४
रतिलक्षणस्य भावस्थ यो हेतुभूतो भोगो विषयः प्रमदा पुरुषो वा तदर्था समीहा विलासः। यथा शाकुन्तले
'काम प्रिया न सुलभा मनस्तु तद्भावदर्शनायासि ।
अकृतार्थेऽपि मनसिजे रतिमुभयप्रार्थना कुरुते ।।' (२-१)
इष्टनष्टानुसरणं परिसपेश्च कथ्यते । यथा शाकुन्तले
राजा-भवितव्यमत्र तया। तथा हि. अभ्युन्नता पुरस्तादवगाढा जघनगौरवात्पश्चात ।
ग्रन्थकार: प्रकारान्तरेण स्वीयां कारिकां विवृणोति-इतिलक्षणस्यति । रतिलक्षणस्य = रागस्वरूपस्य, भावस्य = क्रियायाः, यो हेतुभूतो विषयः = पात्रं, प्रमदा-स्त्री, पुरुषो बा, तदर्था = तयोरेकतरविषया, समीहा=इच्छा "विलासः" इति ।
विलासमुदाहरति-यथा शाकुन्तले। काममिति । दुष्यन्तस्यात्मगतो. किरियम् । प्रिया = वल्लभा, शकुन्तलेत्यर्थः, काम = यथेष्ट, सुलमा = सुप्राप्या, न । तु = परन्तु. मनः - मदीयं चित, तद्भावदर्शनायासि = तस्याः ( शकुन्तल या:) भावदर्शनेन ( कटाक्षादिचेष्टाविलोकनेन ) आयासि ( अतिप्रयत्नशील, तत्प्राप्त्यर्थमिति शेषः )। "आभासी"ति पाठान्तरे आश्वस्तमित्यर्थः । मनसिजे-कामे, अकृताऽर्थेऽपि3 अकृतकार्येऽपि, संभोगाऽमावेनेति शेषः । उभयप्रार्थना = उभयोः ( नायिकानायकयो.योरपि ) प्रार्थना (मिथ:प्राप्तीच्छा), रतिम् =अनुरागं, कुरुते विदधाति । अत्र आर्या. वृत्तम् । अत्र दुष्यन्तस्य शकुन्तलाप्राप्तीच्छारूपो विलासः।।
परिसर्प नाम प्रतिमुखाऽङ्ग लक्षयति-इष्टनष्टाऽनुसरणमिति । इष्टनानुसरणम् = इष्टस्य ( अभीष्टस्य ) नष्टस्य ( अदृष्टस्य ) सतः पदार्थस्य; अनुसरणम् ( अन्वेषणम् ), परिसर्पः "परिसर्पनामकम्"प्रतिमुखाङ्गम् ।
- परिसर्पमुदाहरति-यथा शाकुन्तल इति। अत्र = लतामण्डपे, तया - शकुन्तलया, भवितव्यं = भाव्यम् । अभ्युनतेति । ( ३-५)। पाण्डुसिकते = पाण्डः (पाण्डुरवर्णा ) सिकता ( बालका) यस्मिस्तस्मिन्, एतेन तत्प्रतिबिम्बयोग्यत्वं ध्वनितम् । अस्य-लतामण्डपस्य, द्वारे = प्रतिहारे। पुरस्तात् = अग्रतः, अभ्युनता = उच्चा, जघनगौरवात -नितम्बगुरुत्वात् । पश्चात पश्चाद्भागे, पाणिदेश इति भावः ।
जैसे शाकुन्तलमें-प्रिया शकुन्तला अत्यन्त ही सुलभ नहीं है । मन तो उसकी चेष्टाके दर्शनसे अत्यन्त उत्कण्ठित है। कामदेवके कृतार्थ म होनेपर भी नायक और नायिकाकी परस्पर प्राप्तिकी इच्छा अनुराग करती है।
अभीष्ट पदार्यके अदृष्ट होनेपर उसके अन्वेषणको "परिसर्प" कहते हैं। जैसे शाकुन्तलमें-राजा-यहां शकुन्तला होनी चाहिए। क्योंकि सफेद
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४४४
साहित्यदर्पणे
द्वारेऽस्य पाण्डुसिकतेपदपछि कश्यतेऽभिनवा ।। ( ३-५ ) कृतस्यानुनयस्यादौ विधुतं त्वपरिग्रहः ।। ६० ।। यथा तत्रैव-'अलं वो अन्तेडरविरहपज्जुस्सुएण राएसिणा उबरुद्वेण ।' केचित्तु - 'विधुतं स्यादति:' इति वदन्ति । उपायादर्शनं यत्तु तापनं नाम तद्भवेत् ।
अवगाढा=
= ईषद्गभीरा, अभिनवा = नूतना, अचिरभवेति भावः । पदपङ्क्तिः = चरणन्यासरेखा, दृश्यते = अवलोक्यते । अतोऽत्र लतामण्डपे तथा भाव्यमिति भावः । आर्या -वृत्तम् । अत्र दुष्यन्तेन दर्शनमप्राप्ताया अभीष्टशकुन्तलाया अनुसरणात् परिसर्पः ।
विधुतं लक्षयति-कृतस्येति । आदी = प्रथमं कृतस्य = विहितस्य, अनुनयस्य = प्रसादनस्य अपरिग्रहः = अस्वीकारः । विधुतम् = विधुतं नाम प्रतिमुखाऽङ्गम् । दशरूपककारेण "विद्यूतम्" इति लिखितम्, क्वचित् "विद्युत "मित्यपि दृश्यते ॥ ९० ॥
विधुतमुदाहरति-यथा तत्र वेति । "अलं वः अन्तःपुरविरहयु रसुकेन राजर्षिणा “उपरुद्धेन” इति संस्कृतच्छाया । अन्तःपुरविरपर्युत्सुकेन = अन्तःपुराणां (लक्षणयाऽन्तः • पुरः स्थितललनानाम् ) विरहेण ( वियोगेन ) पर्युत्सुकेन ( उत्कण्ठितेन ) । राजर्षिणा = दुष्यन्तेन वः = युष्माकं युष्माभिरिति भावः, उपरुद्ध ेन - अनुरुद्ध ेन मदर्थमनुनीतेनेति भावः । अल. कृतम्, अन्तःपुरसुन्दरीषूरकण्ठिते दुप्यन्ते मदर्थमनुनयो न कर्तव्य इति भावः । अत्र शकुन्तलया प्रथमं कृतस्याऽनुनयस्य सखीभ्यां करयितुमस्वीकरणाद्विघुतं जाम प्रतिमुखाऽङ्गम् ।
विधुतविषये मतान्तरं दर्शयति — केचित्विति । केचित् = दशरूपककारादयः "अरति : अप्रीतिः, "विधुतम्" इति कथयन्ति ।
तानं लक्षयति — उपायावर्शनमिति । यत्तु उपायाऽदर्शनम् = उपायस्य ( कारणस्य, अभीष्टप्राप्तिकारणस्येति भावः ), अदर्शनम् ( अविलोधनम् ), तत् "तापनं नाम' प्रतिमुखाङ्गविशेषो भवेत् ।
वालुओं से युक्त इस लतामण्डपके द्वारमें चरणके अग्रभाग में ऊँची और नितम्ब के भार पिछले भाग में कुछ गम्भीर नई चरणन्यासकी पङ्क्ति देखी जा रही है।
पहले किये गये अनुनयको स्वीकार न करनेको "विद्युत" कहते हैं ।। ९० ।। " विधुत " ऐसा पाठान्तर है । जैसे वहीं पर- अन्तः पुरके वियोगसे उत्कण्ठित राजर्षिको रोकना नहीं चाहिए ।" यह शकुन्तलाकी उक्ति है । कुछलोग तो (दशरूपककार आदि) अप्रीतिको "विधुत" रहते हैं ।
उपायके अदर्शनको "तापन" कहते हैं ।
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षष्ठः परिच्छेदः
यथा रत्नावल्याम् – 'सागरिका
दुल्लहजणाणुराओ लज्जा गुरुई परव्वसो अप्पा। पियसहि.! विसमं पेम्मं मरणं सरणं णवरि एक्कम् ॥'
परिहासवचो नमयथा रत्नावल्याम्
'सुसंगता-सहि ! जस्स किदे तुम आअदा सो अअंदे पुरदो चिट्ठदि । सागरिका-(साभ्यसूयम् ) "कस्स किदे अहं आअदा ? 'सुसंगता-अलं अण्णसंकिदेण | णं चित्तफलअस्स ।'
_ -द्युतिस्तु परिहासजा ।। २१ ।। नमधु तिःतापनमुदाहरति यथा रत्नावल्यां, सागरिका-दुल्लहेति ।
"दुर्लभजनाऽनुरागो लज्जा गुर्वी परवश आत्मा।
प्रियसखि ! विषमं प्रेम, मरण शरणं केवलमे कम्।।" इति संस्कृतच्छाया। हे प्रियसखि = अभीष्टवयस्य !, दुर्लभजनाऽनुरागः = दुर्लभजने ( दुष्प्राप्य जन, उदयनरूपे, मादृश्या इति. शेषः ) अनुरागः (प्रणयः ), लज्जा - अपा, गुर्वी =: महती, दुहेति भावः । आत्मा = मदीयो देहः, परवश: = पराधीनः । अतः विषमम् = अतिमहद, प्रेम = प्रणयः, अतः एक केवलम् : : एकमात्र, मरणं - प्रागत्यागः, शरणं.. रक्षक, दुःखनिवारणार्थीमति भावः । णवरिशब्द: केवलाऽर्थो देशी । गाया वृत्तम् । अत्र. सागरिकयोदयनप्राप्तेरुपायाऽदर्शनात्तापनं नाम प्रतिमुखाऽङ्गम् ।
नर्म लक्षयति-परिहासवच इति । परिहासवच:-उपहासवचन, "नर्म"। यथा रत्नावल्यां, सुसंगता-"सखि ! यस्य कृते त्वमागता, सोऽद्य ते पुरतास्तष्ठति । सागरिका"कस्य कृते अहमागता? ।" सुसंगता-"अलमन्यशङ्कितेन ननु चित्रफलकस्य ।" इति संस्कृतच्छाया।
नर्मद्यति लक्षयति-द्युतिस्स्विति । परिहासजा = उपहासजन्या, द्युतिः = कान्तिः, "नर्मयुतिः"। "धृति "रिति पाठान्तरे धैर्यमित्यर्थः ।। ९१॥
जैसे रत्नावलीमें-सागरिका-दुर्लभ जनमें प्रेम, लज्जा दुवंह, शरीर दूसरेके अधीन है, प्रेम विषम है । अत एव हे सखि ! एकमात्र मरण ही मेरा शरण है। । उपहासके वचनको "नर्म" कहते हैं। ..
जैसे रत्नावलीमें-सुसंगता-सखि ! सखि I जिसके लिए तुम आई हो वह आज तुम्हारे सामने मौजूद है।
सारिका--( ईर्ष्याके साथ ) "मैं पिसके लिए आई ?"।
सुसंगता-और शङ्का मन करो। इसी चित्रके लिए ! तुम आई हो ) : परिहासम होनेवाली क्रान्तिको " मद्य नि कहते हैं ।। ९१ ।।
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यथा तत्रैव
'सुसंगता सहि ! अदक्खिणा दाणि सि तुमं जा एवं भट्टिणा हत्थावलम्विदावि कोष ण मुखसि ।
सागरिका - ( सभ्रूभङ्गमीषद्विहस्य ) सुसंगदे ! दाणि वि कीलिंदु न
विरमसि ।'
साहित्यदर्पणे
केचित्तु – 'दोषस्याच्छादनं हास्यं नर्मद्युतिः' इति वदन्ति । - प्रगमनं वाक्यं स्यादु चराचरम् ।
यथा विक्रमोर्वश्याम्
'उर्वशी - जअदु जअदु महाराओ ।
राजा
मा नाम जितं यस्य त्वया जय उदीर्यते ।' इत्यादि ।
न तिमुदाहरति यथा तत्रैवेति। सुसंगता - "सखि ! अदक्षिणेदानीसि त्वं या एवं भत्र हस्ताऽवलम्बिताऽपि कोपं न मुखसि" इति संस्कृतच्छाया । सागरिका - "सुसंगते ! इदानीमपि क्रीडितुं न विरमसि ।" इति संस्कृतच्छाया । बंदक्षिणा = अनुदारा ।
न ती मतान्तरमाह-- केचित्विति । दोषस्य, आच्छादनम् = आवरणकरं हास्यं "नर्मद्यति:" इति । भरतमुनिरप्याह-- "दोषप्रच्छादताऽयं तु नर्मद्य तिरिति स्मृतम् ।" इति । काव्येन्दुप्रकाशकार आह- "नमं तिः कोपगुनि” रिति ।
प्रगमनं लक्षयति-- प्रगमनमिति । उत्तरोत्तरम् = उत्तरम् (त्कृष्टतरम् ) उत्तरं (प्रतिवाक्यम्) यस्मिंस्तत्, तादृशं वाक्यं “प्रगमनं " स्यात् । क्वचित् "प्रशंसनम्” इति नामान्तरम् ।
:
प्रगमनमुदाहरति-- यथा विक्रमोर्वश्याम् । उर्वशी -- जयतु जयतु महाराजः " इति संस्कृतच्छाया ।
जैसे वहीं पर है- सुसंगता - " सखि । तुम इस समय अनुदार हो गई हो जो इस प्रकार स्वामीके हाथसे अवलम्बन करनेपर भी क्रोध नहीं छोड़ रही हो" । सागरिका( के साथ कुछ हंसकर ) “सुसंगते। अभी भी क्रीडा करनेसे बाज नहीं आती "हो" । कुछ लोग तो दोषको छिपाने वाले हास्यको "नर्मद्य ति" कहते हैं ।
उत्कृष्ट उत्तर स्वरूप वाक्यको " प्रगमन" कहते हैं ।
जैसे विक्रमोर्वशी में-- उर्वशी - "महाराजकी जय हो जय हो" । राज 'मैंने जीत लिया. तम जिसकी जय कह रही हो" इत्यादि ।
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षष्ठः परिच्छेदः
षष्ठ पार
।
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विरोधी व्यसनप्राप्ति:यथा चण्डकौशिके
'राजा-नूनमसमीक्ष्यकारिणा ‘मया अन्धेनेव स्फुरच्छिखाकलापो ज्वलनः पद्भया समाक्रान्तः ।'
-कुतस्यानुनयः पुनः ।। ९:२ ।। स्थात्पयु पासनंयथा रत्नावल्याम्'विदूषकः-भो, मा कुप्य । एसा हि कदलीघरन्तरं गदा' इत्यादि।
. -पुष्पं विशेषवचनं मतम् । . यथा तत्रैव-(राजा हस्ते गृहीत्वा स्पर्श नाटयति)
विरोधं लक्षयति-विरोष इति । व्यसनप्राप्तिः = व्यसनस्य ( विपदः ) प्राप्तिः ( आसादनम् ) "विरोधः" ।
विरोधमुदाहरठि-यथा चण्डकोशिके । राजा = हरिश्चन्द्रः ।
ननमिति । . स्फुरच्छिखाकलापः = स्फुरम् (दीप्यमानः ) शिखाकलापः ( ज्वालासमूहः ) यस्य सः, सादृशो ज्वलनः = वह्निः। अत्र हरिश्चन्द्रस्य कोशिकाघसनप्राप्तेविरोधः ।
पर्युपासनं लक्षयति-कृतस्येति । कृतस्य = विहितस्य दोषस्य निवारणाय, पुनरनुनयः = प्रसादनं, "पयुपासन" स्यात् ॥ ९२ ॥
पर्युपासनमुदाहरति-यथा रत्नावल्याम् । विदूषकः-भोः, मा कुप्य । एषा हि कदलीगृहान्तरं गता।" इति संस्कृतच्छाया इत्यादि । एषा = सागरिका ।
पुष्पं लक्षयति-पुष्पमिति । विशेषवचनम्-उत्कर्षबोधकवच: "पुष्पं" मतम् ।
पुष्पमुदाहरति-यया तौष । राजा = उदयनः, हस्ते गृहीत्वा, सागरिकाया इति शेषः ।
विपत्तिकी प्राप्तिको "विरोष" कहते है। ..
जैसे चण्डकौशिकमें-राजा ( हरिश्चन्द्र)-बिना विचारके कार्य करनेवाले मैंने अधेके समान चमकनेवाली ज्वालासे युक्त अग्निको परोंसे आक्रमण किया"। किये हुए दोषके निवारणके लिए अनुनयको ‘पर्युपासन" कहते हैं ॥ ९२ ॥
जैसे रत्नावलोमें विदूषक -"महाराज ! कोप मत करें। यह कदलीगृहके भीतर चली गई हैं"। इत्यादि। ..
विशेष वचनको "पुष्प" कहते हैं। जैसे महींपर-( राजा हायमें लेकर स्पर्शका अनुभव करते हैं )।
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४४०
साहित्यदर्पणे
विदूषकः-भो वअस्स ! एसा अपुब्वा सिरी तए समासादिदा । राजा-वयस्य ! सत्यम् --
श्रीरेषा, पाणिरप्यस्याः पारिजातस्य पल्लवः।
कुतोऽन्यथा स्रवत्येष स्वेदच्छमामृतद्रवः ।।
प्रत्यक्षनिष्ठुरं वज्रम्यथा तत्रैव
राजा-कथमिहस्थोऽहं त्वया ज्ञातः ?
सुसंगता ण केवल तुम सम चित्तफलएण। ता जाय गदुअ देवीए णिवेदइस्सम् ।'
विदूषकः-'भो वयस्य ! एषा अपूर्वा श्रीस्त्वया समासादिता।" इति संस्कृतच्छाया । एषा = सागरिका । राजा-श्रीरिति। एषा = अतिसमीपस्थिता सागरिकेति भावः । श्रीः साक्षाल्लक्ष्मीः, अस्याः, पाणिपि-हस्तोऽपि, पारिजातस्य देवतरुविशेषस्य, पल्लव:-किसलयम्, अन्यथा अन्येन प्रकारेण, नोचेदिमिति भावः, कुतः-कस्मादेतोः, स्वेच्छया = स्वदः (धर्मजलं, सात्विकभावरूपमिति शषः) छा ( छलम् ) यस्य सः, एतादृशः अमृतद्रवः = पीयूषरसः, स्रवति = विगलात पाणे रिति शेषः । अब तवाऽपहनुतरलङ्कार. । अनुष्ट वृत्तम् । अत्र सागरिकायाः सौन्दया. देरुत्कर्षवर्णनात्पुष्पम् ।
__ वन लक्षांत-प्रत्यक्षनिष्ठुरमिति। प्रत्यक्षनिष्ठुरं = साक्षात्कठोरवचन, "वजम्" । वत्रसमदुःसहत्वादनम् । - यवमुदाहति-यथा तौवेति। राजा = उदयनः, सुसंगता-"न केवलं त्वं समं चित्रफलकेन। तद्यावद् गत्वा देव्यै निवेदयिष्यामि"। इति संस्कृच्छाया । देव्यैवासवदत्ताय, अत्र क्रियाग्रहणाच्चतुर्थी । अस्य वाक्यस्य प्रत्यक्षनिष्ठुरत्वाद्वज्रत्वम् ।
विदूषक - "हे मित्र ! आपने इस अपूर्व लक्ष्मीको प्राप्त किया"। राजा-"भिम ! सचमुच"।
यह लक्ष्मी है इसका हाथ पारिजातका पल्लव है। नहीं तो यह पसीनेके छलसे अमृताने द्राको विगलित करता" ?
प्रत्यक्ष पाठोर वापयको "वज्र कहते हैं।
जैसे वहों ( रत्नावलीमें)-राजा-"मैं यहाँ हैं, यह तुमने कैसे जाना?" गुरागता --"' ही नहा चित्रको गी"। इस कारण जाकर महारानीको निवेदन
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षष्ठः परिच्छेदः
४४९
-उपन्यासः प्रसादनम् ।। ९३ ॥ यथा तत्रैव_ 'सुसंगता-भटुण ! अलं सङ्काए। मए वि भट्टिणीए पसादेण कीलिदं जेव एदिहिं । ता कि क्षण्णाभरणेण। अदो वि मे गरुअरो पसादो एसो, जं तुए अहं एत्थ आलिहिदत्ति कुविदा मे पिअसही साअरिआ। एसा जेव पसादीअदु।'
केचित्त--'उपपत्तिकतो पर्थ उपन्यासः सं कीर्तितः।' इति वदन्ति । उदाहरन्ति च, तत्रैव-.-'अदिमुहरा खुसा गम्भदासी' इति ।
चातुर्योपगमनं वणेसंहार इष्यते ।
उपन्यासं लक्षयति-उपन्यास इति। प्रसादनं-प्रसादोत्पादनम् "उपन्यासः" ।। ९३ ॥
उपन्यासमुदाहरति- यथा तत्रवेति । सुसंगता-"भर्त: ! अलं शङ्कया। मयाऽपि माः प्रसादेन क्रीडितमेव एतः । तत्कि कर्णाऽऽभरणेन ? अतोऽपि मे गुरुतरः प्रसाद एषः, यत्त्वया अहमत्र आलिखितेति कुपिता मे प्रियसखी सागरिका । एषव प्रसाद्यताम् ।" इति संस्कृतच्छाया । अत्र राज्ञः प्रसादजननादुपन्यासः ।
___ उपन्यासे मतान्तरमुपन्यस्यति-केचित्विति । केचित-नाटयशास्त्रकार:"उपपत्तिकृतो ह्यर्थः उपन्यासः स कीर्तितः।" इति वदन्ति । योऽर्थः = पदाऽर्थः, उपपत्तिकृतः = युक्तिविहितः, स उपन्यासः । उदाहरन्ति च तत्रैव- रत्नावल्यामेव, "अतिमुखरा खलु सा गर्भदासी' इति । यत इयं दासीग जाता गर्भदासो अतः अति. मुखरा इति उपपल्या अतिमुख रत्वस्य साधनादुपन्यासः।
वर्णसंहारं लक्षयति-चातुर्योपगमन मिति । चातुर्वण्र्योपगमन = चरवारो वर्णाचातुर्वण्यंम । ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य शुद्राः "चतुर्वर्णादीनां स्वार्य उपसंख्यानम्" इति स्वाऽर्थे (प्रकृत्यर्थे ) ध्वज । चातुर्वर्ण्यस्य उपगमनं = मेलनं, "वर्णसंहारो" नाम प्रतिमुखस्थाऽङ्गविशेषः ।
प्रसन्न करनेको "उपन्यास" कहते हैं ।
जैसे वहींपर -सुसंगता-"स्वामिन् ! शङ्का मत की.जए । मैंने भी महारानी. के अनुग्रहसे इन (भूषणों) से क्रीडा की है । इस कारण कर्णके भूषणसे क्या करना है ? इससे भी अधिक मेरे कार यह अनुग्रह है कि आपने यहां मुझे लिख दिया है इसलिए मेरो प्रिय सखी सागरिका कुपित हो गई है। इसे ही मना लें" । कुछलोग "उपपति(युक्ति ) से किये गये अर्थको "उपन्यास" कहते हैं । “ऐसा कहते हैं और वहीं" पर उदाहरण भी देते है- "यह गर्भदासी अत्यन्त वावाल है"।
चारों वर्गों की उपस्थितिको "उपसंहार" कहते हैं। २९ सा०
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साहित्यदर्पणे
यथा महावीरचरिते तृतीयेऽक्के-- 'परिषदियमृषीणामेष वीरो युधाजित् सह नृपतिरमात्यर्लोमपादश्च वृद्धः । अयमविरतयझो ब्रह्मवादी पुराणः प्रभुरपि जनकानामा ! भो याचकरते ॥'
इत्यत्र ऋषिक्षत्रादीनां वर्णानां मेलनम् ।
अभिनवगुप्तपादास्तु-वर्णशब्देन पात्राण्युपलक्ष्यन्ते । संहारो मेलनम्' इति व्याचक्षते।
उदाहरन्ति च रत्नावल्यां द्वितीयेऽङ्के-'अदो वि मे अअं गुरुअरो पसादो
इत्यादेरारभ्य ‘णं हत्थे गेण्हिअ पसादेहि णम् ।' . वर्णसहारमुदाहरति-परिषदिति । अङ्ग = भोः हे जामदग्न्य !, इयम्, ऋषीणां-मन्त्रद्रष्टणा, परिषत् = सभा, एषः, वीरः = विक्रान्तः, युधाजित् = केकय. देशाऽधिपतिः । 'अमात्यः-मन्त्रिभिः, सह = समम्, एषः, वृद्धः =प्रवयाः, लोमपादो नाम, नृपतिः-राजा, अङ्गदेशनरेश इति भावः । अविरत यज्ञः अनवरतयागाऽनुष्ठाता, पुराणः = प्राचीनः; ब्रह्मवादी = ब्रह्मव्याख्याता, अयमपि, जनकानां = जनकवंशोंपन्नानां राज्ञां, प्रभु. = श्रेष्ठः, सीरध्वज इति भावः । एते सर्वेऽपि, ते = तव, समीप इति शेषः । याचका:-शमप्रार्थकाः, सन्तीति शेषः । अत्र "अङ्ग भोः" इत्यत्र 'अद्रुह" इति पाठान्तरम् । अद्रुहः= द्रोहरहिता इत्यर्थः । मालिनी वृत्तम।.
इत्यत्रोति । अस्मिन् पद्य, ऋषिक्षत्रादीनां वर्णानां, मेलनम् ।
अभिनवगुप्त मतं दर्शयति-अभिनवेति । अभिनवगुप्तपादा: = भरतनाटयशास्त्रव्याख्यातारः वर्णशब्दः, पात्रोपलक्षकः, संहारो मेलनम्, इति व्याचक्षते = व्याख्यानं कुर्वन्ति ।
तन्मते नोदाहरणं-रत्नावल्याम् । प्रदो वि इति । "अतोऽपि मे अयं गुरुतरः प्रसादः" इत्यादेरारभ्य -"ननु हस्ते गृहीत्वा प्रसादय एनाम्" इति संस्कृतच्छाया । अत्र गजविदूषकसागरिकासुसंगताऽऽख्यानां पात्राणां मेलनम् ।
जैसे महावीरचरित मे तो परे अहमें_ 'यह ऋषियोंकी सभा है । ये वीर युधाजित् ( केकयनरेश ) हैं । वृद्ध राजा लोमपाद ( अङ्गनरेश ) मन्त्रियोंके साथ हैं । निरन्तर यज्ञ करनेवाले ब्रह्मवादी प्राचीन जनकवंशके राजाओंमें श्रेष्ठ (सीरध्वज) भी आपके शान्तियाचक हैं । यहाँपर ऋषि और क्षत्रिय आदि वर्गों का संमेलन है।
अभिनवगुप्तपाद तो वर्णशब्दसे पात्र उपलक्षित होते हैं उनका संहार-मेलन है ऐसी व्याख्या करते हैं और उदाहरण भी देते हैं
रत्नावलीके दूसरे में-"इससे भी मुझपर यह अधिक अनुग्रह है" इत्यादिसे आराम कर पाय में लेकर इसे प्रसन्न करें।
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षष्ठः परिच्छेदः
राजा - क्वाऽसौ ' १ क्वाऽसौ १ इत्यादि । अथ गर्भाङ्गानि
अभूताहरणं मार्गों रूपोदाहरणे क्रमः ॥ ९४ ॥ संग्रहवानुमानं च प्रार्थना क्षिप्तिरेव च ।
"
श्री (तो) टकाधिबलोद्वेगा गर्भे स्यु विद्रवस्तथा ॥ ९५ ॥
तत्र व्याजाश्रयं वाक्यमभूताहरणं मतम् ।
Terrainor
-
'अश्वत्थामा हत इति पृथासूनुंना स्पष्टमुक्त्वा स्वैरं शेषे गज इति पुनर्व्याहृतं सत्यवाचा | तच्छ्रुत्वाऽसौ दयिततनयः प्रत्ययान्तस्य राज्ञः -
४५१
गर्भाऽङ्गान्युद्दिशति-श्रभूताहरणमिति । अभूताहरणात्क्रमपर्यन्तं पच ॥ ९४ ॥ संग्रहाद्विद्रवपर्यन्तम् अष्टौ । इत्थं संहृत्य त्रयोदशविधानि गर्भाऽङ्गानि ।। ९५ ।। अभूतप्रहरणं लक्षयति-तोति । तत्र - तस्मिन् गर्भे - गर्भसन्ध्यङ्गे, व्याजाश्रयं = छलसम्बद्धं, वाक्यं - पदसमूहः, "अभूताहरणं" मतम् ।
..
=
'अभूताहरण मुदाहरति - प्रश्वत्थामेति । द्रोणाचार्येण प्राणत्यागे कृते अश्वत्यामानं प्रति सूतस्योक्तिरियम् । सत्यवाचा = तथ्य वचनेन पृथासूनुना = युधिष्ठिरेण, अश्वत्थामा = द्रोणपुत्रः, हतः = व्यापादितः इति = एवं स्पष्टं = व्यक्तं, श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्वेन उक्त्वा . अभिधाय, शेषे = वाक्यसमाप्ति बमये, गजः = हस्ती, एवम् = इत्थं, स्वरं=मन्दं, श्रोत्रेन्द्रियाऽग्राह्यत्वेनेति भावः । व्याहृतम् = उक्तं किल = निश्चयेन, तत् = अश्वत्थामा हत इति वाक्यं श्रुत्वा = आकण्यं तस्य = सत्यवाचः, राज्ञः = भूपतेयुधिष्ठिरस्येति भावः । प्रत्ययात् = विश्वासात् दयिततनयः दयितः ( प्रियः ) तनय: ( पुत्रः ) यस्य सः । असौ = विप्रकृष्टस्थः, प्राणत्यागेनेति शेषः, द्रोणाचार्य इति
1
=
राजा - "दह कहाँ है ? वह कहाँ है ?" इत्यादि ।
गर्भ सन्धिके प्रङ्ग - अभूताहरणसे लेकर क्रमतक पाँच ।। ९४ ।।
संग्रहसे लेकर विद्रव तक आठ ।। ९५ ।।
इस प्रकार गर्भसन्धिके तेरह अङ्ग होते हैं | छलयुक्त वाक्यको 'अभूताहरण" कहते हैं । जैसे ( वेणी ) अश्वत्थामाऽङ्क में
"अश्वत्थामा मारे गये " इसप्रकार सत्य बोलनेवाले युधिष्ठिरने स्पष्ट कहकर अन्तमें मन्द रजरसे "हाथी " ऐसा फिर कहा । ऐसा सुनकर पुत्रमें प्रीति करनेवाले
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४५२
साहित्यदपणे
शस्त्राण्याजो नयनसाललं चापि तुल्यं मुमोच ।।'
तस्वार्थकथनं मार्गः-- यथा चण्डकौशिके'राजा-भगवन् !
गृह्यतामर्जितमिदं भार्यातनयविक्रयात्। . शेषस्यार्थे करिष्यामि चण्डालेऽप्यात्मविक्रयम् ॥
-रूपं वाक्यं वितकवत् ॥ ९६ ॥ यथा रत्नावल्याम् .. 'राजा
मनः प्रकृत्यैव चलं दुर्लक्ष्यं च तथापि मे। भावः। बाजी = युळे, शस्त्राणि = आयुधानि, नयनसलिलं = नेत्रजलम, अर्थ, च, तुल्यं = सम, युगपदिति भावः । मुमोच-तत्याज । मन्मक्रान्ता वृत्तम् ।
अत्र युधिष्ठिरस्य कपटाश्रयवाक्यादभूताहरणम् ।
मार्ग लक्षयति-तत्वाऽर्थकयनमिति । तत्वाऽर्थ कयनं - यथार्थविषयप्रति पादनं, "मार्गः" मागों नाम गर्भसन्ध्यङ्गम् ।
मार्गमुदाहरति-चण्डकौशिक-राजा-गृह्यतामिति। राजा हरिश्चन्द्रों विश्वामित्र कथयति-हे भगवन् !, भार्यातनयविक्रयात् = पत्नीपुत्रविनिमयाद, अजितम् - उपार्जितम्, इदं-द्रव्यं, गृह्यता-स्वीक्रियतां, शेषस्य = अवशिष्टस्य प्रदेयस्य द्रव्यस्य, अर्थ - निमित्ते, चण्डालेऽपि = मातङ्गेऽपि असच्छूद्रेऽपि, आत्मविक्रयं = स्वविक्रय, करिष्यामि = विधास्यामि । अनुष्टुबु वृत्तम् । अत्र हरिश्चन्द्रस्य तत्वाऽर्थकथनान्मार्गों माम मर्भसन्ध्यङ्गम् । __ रूप लक्षयति-रूपमिति । वितर्कवत = ठहयुक्तं वाक्यं "रूपम्" ९६ ।
रूपमुदाहरति-मन इति। राजा = वत्सराजः स्वगतं कथयति-मनः = अन्तःकरणं, प्रकृत्या एव = स्वभावेन एव, चलं - चञ्चलम्, अतो दुर्लक्ष्यं च = दुःखेन द्रोणाचार्यने युधिष्ठिरके विश्वाससे युद्धभूमिमें शस्त्रोंको और आंसूको भी एक ही बार छोड़ दिया।
यथार्य विषय कहनेको "मार्ग" कहते हैं। जसे चण्डकौशिकमें-राजा (हरिश्चन्द)-भगवन् ! - पत्नी और पुत्र के विक्रयसे उपाजित इस द्रव्यको ले लें। शेष द्रव्य के लिए चण्डाल में भी अपनेको वेचूंगा। वितर्कसे युक्त वाक्यको "रूर" कहते हैं ।। ९६ ।। जैसे रत्नावलीमें-राजा ( वत्सराज )-मन स्वभावसे ही चाल और
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षष्ठः परिच्छेदः
कामेनैतत्कथं विद्धं समं सवैः शिलीमुखैः॥
उदाहरणमुत्कर्षयुक्तं वचनमुच्यते । यथा अश्वत्थामास्के'यो यः शत्रं विभर्ति स्वभुजगुरुमदः पाण्डवीनां चमूनां,
यो यः पाञ्चालगोत्रे शिशुरधिक्वया गर्भशय्यां गतो वा। यो यस्तत्कर्मसाक्षी, चरति मयि रणे यश्च यश्च प्रतीप:
क्रोधान्धस्तस्य तस्य स्वयमिह जगतामन्तकस्यान्तकोऽहम् ।।' लक्षयितुं शक्यं च, तथापि, कामेन = मदनेन, मे = मम, एकत=मनः, सर्वेः सकलः, शिलीमुखैः = बाणः, कथं, समं = युगपदेव, विद्धं - ताडितम् । अनुष्टुब् वृत्तम् । अत्र वाक्यस्य वितर्कयुक्तत्वाद्रूपम् ।
उदाहरणं लक्षयति --उदाहरणमिति । उत्कर्षयुक्तं = स्वस्य प्रकर्षसहितं, वचनं = वचः, "उदाहरणम्" उच्यते ।
उदाहरणमुदाहरति--अश्वत्थामाऽके। यो य इति । वेणीसंहारे कर्ण प्रत्यश्वत्थाम्न उक्तिरियम् । पाण्डवीनां%पाण्डवसम्बन्धिनीनां; चमूनां - सेनानां, मध्ये % अन्तरे, स्वभुजगुरुमदः स्वभुजयोः (आत्मगाह्रोः ) गुरुः (दुर्वहः ) मकः (अभिमानः) यस्य सः । तादृशो यो यः = यः कोऽपीति भावः । शस्त्रम् - आयुधं; बिति - धारयति । पाञ्चालगोत्रे-पदराजवंशे, यो यः यः कोऽपि, शिशुः-बालः, अधिकवया:अधिकाऽवस्थः, युवा वृद्धो वेति भावः । किं बहुना-गर्भशय्यां = भ्रूणशयनं, गतो वान प्राप्तो वा, गर्भस्थो वेति भावः । यो यः = यः, कोऽपि जनः, तत्कर्मसाक्षी = तत्कर्मण: (मज्जनस्वधस्य ) साक्षी ( साक्षाद्दष्टा), रणे = युद्ध, मयि-अश्वत्थाग्नि, परतिसंचरति सति, यश्च यश्च, प्रतीपः = प्रतीकला,, मदुयोगनिवारक इति भावः । जगतां 3 लोकानाम्, अन्तकस्य = यमराजस्य, अपि सतः, तस्य तस्य - पूर्वोत्तस्य समस्तस्य जास्य, क्रोधाऽग्धः = कोपाऽन्धः, अहम् = अश्वस्थामा, स्वयम् - अन्तकः संहारका, अस्मीति शेषः । स्रग्धरा वृत्तम् । अत्राऽश्वत्थाम्न उत्कर्षयुक्तवचनादुदाहरण नाम गर्मसन्रङ्गम् । दुर्लक्ष्ध भी है, तो भी कामदेवने मेरे मनको समस्त बाणोंसे कैसे एक ही बारवाडित किया।
उत्कर्षयुक्त वचनको "उदाहरण" कहते हैं।
जैसे प्रश्वत्थामाङ्कमें है-पाण्डवोंकी सेनाओंके मध्यमें अपनी बाहुओंमें अधिक घमण्ड करनेवाला जो कोई भी शस्त्र लेता है, द्रुपदके वंशमें जो कोई भी बालक और अधिक उम्रवाला जवान वा वृद्ध अथवा गर्भस्थित बालक जो कोई भी उस कर्म(मेरे पिता की हत्या) का साक्षी है और जो कोई भी युद्ध में मेरे चलनेपर प्रतिकूल है, क्रोधसे अन्धा होकर लोकके यमराजका भी मैं अन्त करनेवाला हूंगा ।।
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४५४
साहित्यदर्पणे.
भावतच्चोपलब्धिस्तु क्रमः स्यात् -
यथा शाकुन्तले
'राजा
स्थाने खलु विस्मृतनिमेषेण चचुषा प्रियामवलोकयामि । तथाहि
.
उन्नमितेका लतमाननमस्याः पदानि रचयन्त्याः । पुलकाशितेन कथयति मय्यनुरागं कपोलेन ॥' संग्रहः पुनः ।। ९७ ।। सामदानार्थसंपन्नः
क्रमं लक्षयति- भावेति । भावतत्त्वोपलब्धिः भावस्य ( अभिप्रायस्य अनुरागस्वरूपस्येति भावः ) यत् तस्त्वं ( याथार्थ्यम् ) तस्य उपलब्धि: ( अनुभव: ). "क्रमः" स्यात् ।
क्रममुदाहरति यथा शाकुन्तल इति । राजा=दुष्यन्तः । विस्मृत निमेषेण - निमेष व्यापाररहितेनेति भावः । तादृशेन चक्षुषा, प्रियां = वल्लभां, शकुन्तलामिति भावः । अवलोकयामि, स्थाने = युक्तम् ।
w
-
उम्नमितेति । पदानि = सुप्तिङ्न्तानि रचयन्त्याः = निर्मात्र्याः, अस्याः शकुन्तलाया, उन्नमिर्तक भूलतम् = उन्नमिता (ऊर्ध्वकृता ) एका भ्रूलता (अक्षिलोमबल्ली ) यस्मिस्तत् । मुखं वदनं कर्तृ, पुलकाऽखितेन = रोमाश्वितेन कपोलेन = गण्डफलकेन, मयि, अनुरागं = प्रणयं कथयति सूचयति । आर्या वृत्तम् । अत्र पदरचनेन शकुन्तलाया अनुरागस्योपलब्धेः "क्रमः” ।
S
संग्रह लक्षयति- संग्रह इति । सामदानार्यसम्पन्नः = साम ( सान्त्वं, प्रियवचनमिति भावः), तेन दानेन च ( वितरणेन च ) अर्थसम्पन्न : ( धनाद्यर्थसम्पत्तिः ), पुनः तु, "संग्रहः" अङ्गम् ॥ ९७ ॥
संग्रहमुदाहरति- यथेति । राजा-उदयनः । अत्र साम्ना दानेन च अर्थसम्पत्तेः संग्रह नाम गर्भसन्धिः ॥
=
-
अभिप्राय तस्वके अनुभवको ' क्रम" कहते हैं ।
जैसे शाकुन्तलमें - राजा - निमेवव्यापार से रहित नेत्रसे मैं प्रिया - ( शकु. ला) को देख रहा हूं, यह उचित है। जैसे कि पदोंकी रचना करनेवाली शकुन्तलाका जिसकी एक भूलता कुछ ऊपर उठी है ऐसा मुख रोमान्चित कपोलसे मुझमें अनरागक सूचित कर रहा है।
साम और दानसे धन आदि अर्थकी सम्पत्तिको "क्रम" कहते हैं ।। ९७ ॥
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यथा जानकीराघवे नाटके
'रामः
यथा रत्नावल्याम्
'राजा -- साधु वयस्य ! इदं ते पारितोषिकम् ' ( इति कटकं ददाति ) । - लिङ्गादोऽनुमानता ।
षष्ठः परिच्छेदः
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४५५
=
लीलागतेरपि तरङ्गयतो धरित्रीमालोकनेर्नमयतो जगतां शिरांसि । तस्यानुमापयति काञ्चनकान्तिगौर कायस्य सूर्यतनयत्वमधूष्यतां च ॥' रतिहर्षोत्सवानां तु प्रार्थना भवेत् ॥ ९८ ॥
अनुमानं लक्षयति-लिङ्गात् = व्याप्तिबलेन यद्यस्य गमकं तत्तस्य लिङ्ग (हेतु:), तस्मात, कह· = साध्यज्ञानम्, अनुमानता = अनुमानं नाम गर्भसन्धिः ।
अनुमानमुदाहरति- लीलागतैरिति । लीलागतैः = लीलया ( विलासेन ). गते ( गमनं ), अपि धरित्रीं = भूमि, तरङ्गयतः = कम्पयतः, आलोक नंः = नेत्र. निक्षेपैः, अपि, जगतां = लोकानां, शिरांसि - मस्तकान् नमयतः = अवनतानि कुर्वतः कवकान्तिगौरकायस्य = काश्वनकान्तिः ( सुवर्णद्य ुतिः ) इव गौर : ( पीतवर्ण: ) ( शरीरम् ) यस्य । तस्य लक्ष्मणस्य, सूर्यतनयत्वं = सूर्यवंशोद्भवत्वम्, अघृष्यताम् = अघर्षणीयताम्, अन्यैरिति शेषः । अनुमापयति = अनुमितिविषयीकरोति । वसन्ततिलका वृत्तम् ।
अत्र लीलागमन - जगच्छिरोनामरूपाल्लिङ्गात् ( हेतोः ) लक्ष्मणे सूर्यतनय.. स्वावृष्यरूपस्य साध्यस्य ज्ञानादनुमानं नाम गर्भसन्धेरङ्गम् ।
प्रार्थनां लक्षयति-रतीत्यादि । रतिहर्षोत्सवादीनां = रति: (सुरतम् ) हर्षः ( आनन्दः ) उत्सव : ( क्षण:) तदादीनां प्रार्थन याचनं, "प्रार्थना” गर्भसन्धेरङ्गम् ।। ९८ ।।
=
जैसे रत्नावली में - राजा - बाह ! मित्र ! यह तुम्हें पारितोषिक ( पुरस्कार ) देता हूँ | ( ऐसा कहकर कङ्कण देते हैं ) ।
साधन ( हेतु ) से साध्य के ज्ञानको "अनुमान" कहते हैं ।
जैसे जानकीराघव नाटक में - राम कहते हैं-विलासपूर्ण गमनोंसे मी धरतीको कम्पित करनेवाले, देखनेसे ही सबके शिरको झुकानेवाले, सुवर्णकी कान्तिके समान गौर शरीरवाले उसकी सूर्यके वंश में उत्पत्ति और अधर्षणीयता औरोंसे अनुमानका विषय होता है ।
रतिक्रीडा, हर्ष और उत्सव आदिकी याचनाको "प्रार्थना" कहते हैं ॥ ९८ ॥
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४५६
साहित्यदर्पणे
यथा रत्नावल्याम
'प्रिये सागरिके! शीतांशुमंखमुत्पले तव दृशो, पद्मानुकारौ करो,
रम्भास्तम्भनिभं तयोरुयुगलं, बाहू मृणालोपमो। .. इत्याहलादकराखिलागि ! रभसानिःशम्कमालिकाच मा
महानि त्वमनङ्गतापविधुराण्यो हि निर्वापय ॥' इदं च प्रार्थनाख्यमङ्गम् । यन्मते निर्वहणे भूतावसरत्वात्प्रशस्तिनामाङ्ग नास्ति तन्मतानुसारेणोक्तम् , अन्यथा पञ्चषष्टिसंख्यत्वप्रसङ्गात् ।
रहस्यार्थस्य तूभेदः क्षिप्तिः स्यात्प्रार्थनामुदाहरति-शीतांऽशुरिति । वत्सराजस्य सागरिका प्रत्युक्तिरियम् । हे प्रिये !, लव = भवत्याः, मुखं = वदनं, शीताऽशुः = चन्द्रः, दृशो - नेत्रे, उत्पलेकुवलये, करी - हस्ती, पपाऽनुकरी = कमळसदृशो, पप्रमनुकुरुत इति, "कर्मरायण" इत्यण, तथा तेनैव प्रकारेण, ऊरुयुगलं = सक्थियुग्मं, रम्भास्तम्भनिभं = कदली. स्तम्भसदृशं, बाहुभुजी, - मृणालोपभो = विससदशी, इति = एवम्, हे आह्लादकगs. खिलागि = बाहावकराणि ( सुखोत्पादकानि ) अखिलानि ( समस्तानि) अङ्गानि (देहाऽवयवाः ) यस्याः सा, तत्सम्बुझौ । त्वं, रभसात - वेगाद, एहि = आगन्छ, निःशवं शङ्कारहितं यथा तथा, मां = वत्सराजम्, आलिङ्गय = आश्लिष्य, अनङ्ग. तापविधुराणि-अनङ्गस्य ( कामस्य ) यः तापः ( सन्तापः ), तेन विधुराणि (विक्ल. वानि ) अङ्गानि-देहाऽवयवान्, ममेति शेषः । निर्वापय = शीतलानि कुरु । शार्दूल. विक्रीडितं वृत्तम् । अत्र रते: प्रार्थनात्प्रार्थना नाम गर्भसन्धेरङ्गम् ।
विविनति-इबञ्चेति। निर्वहणे = उपसंहारनामकान्तिमसन्धो, भूताऽवसरस्वात-प्राप्तविषयत्वात्; अन्यथा अत्र प्रार्थनाया अङ्गान्त रत्वस्वीकारे, पञ्चषष्टिः संख्यत्वप्रसम्गाद, महर्षिणा चतुःषष्टिसंख्यकान्येवाऽङ्गान्युक्तानीति भावः ।
मिप्ति लक्षयति-रहस्याऽर्थस्येति। रहस्पाऽर्थस्य = गोपनीयविषयस्य, उद्भव-प्रकाशनं, तु क्षिप्ति" स्यात् । - जैसे रत्नावलीमें-( राजा.) प्रिये, सागरिके ! तुम्हारा मुख चन्द्र है, नेत्र नीलकमल हैं, हाथ कमलके सदृश है, वैसे ही तुम्हारे ऊरु कदलीस्तम्भोंके समान हैं। बाहू मृणालके समान हैं । हे मालादकर अमोंवाली । तुम वेगसे आओ और मुझे मालिङ्गन कर कामसन्तापसे विह्वल मेरे अङ्गोंको ठम्या करो।।
.. यह प्रार्थना मामक! अङ्ग है। जिनके मतमें निर्वहण (उपसंहार ) सन्धिमें गताऽयं होनेसे प्रशस्ति नामका अङ्ग नहीं है, उनके मतके अनुसार यह कहा गया है। बन्यथा सन्धिके पैसठ अङ्ग हो जायेंगे।
गोपनीय अर्थका प्रकाश करनेसे क्षिप्ति" अग होता है ।
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षष्ठः परिच्छेदः
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यथाश्वत्थामाङ्के
'एकम्यैव विपाकोऽयं दारुणो भुवि वर्तते । केशप्रहे द्वितीयेऽस्मिन्सूनं निःशेषिताः प्रजाः ॥'
-त्रो (तो) टकं पुनः। संरब्धवाक्यथा चण्डकौशिके-- 'कौशिक:-आ, पुनः कथमचापि न सम्भूनाः स्वर्णदक्षिणाः ।'
-अधिबलममिसंधिश्छलेन यः ।। ९९।। यथा रत्नावल्याम्--
'काञ्चनमाला-भट्टिणि, इयं सा चित्तसालिआ। वसन्तअस्स सणं करोमि' इत्यादि।
, मिप्तिमुदाहरति-एकस्येति । वेणीसंहारे कृपाचार्यस्पोक्तिरियम् । एकस्यद्रौपदीकेशाकर्षणस्य, एव, अयं = सन्निकृष्टस्थः युद्धरूपः, दारुणः= भयङ्करः, पाक: = फलं, तावद, भुवि-भूमी, वर्तते = विद्यते, द्वितीये = द्वयोः पूरणे, अस्मिन् = साम्प्रतिके, केशग्रहे-द्रोणाचार्यकेशग्रहणे, प्रजा:-जनाः, निःशेषिता: विनाशिताः, "ननं निश्चयेन, नूनं तऽर्य निश्चये" इत्यमरः । अत्र प्रजानाशरूपस्य रहस्याऽर्थस्योद्भेदामिप्तिर्नाम गर्भस धेरङ्गम् ।
त्रोटकं लक्षयति-त्रोटकमिति । संरब्धवाक् =संरब्धस्य ( कुपितस्य ) वाक् ( वाणी ) "त्रोटकम्"।
त्रोटकमुदाहरति-यथेति । कौशिकः = विश्वामित्रः । संभूताः = सम्पन्नाः । अत्र कोशिकस्य कोपपूर्णवाच: 'श्रोटकम्” । .
अघिवलं लक्षयति--प्रधिबलमिति । छलेन = कैतवेन, यः, अभिसन्धिः - अभिप्रायज्ञान, तत् "अधिबलं" नाम गभांऽङ्गम् ।। ९९ ॥
अधिबलमुदाहरति-यथेति । काञ्चनमाला-"भत्रि ! इयं सा चित्रशालिका।
जैसे अश्वत्थामाङ्कम- एक ही ( द्रौपदीके केशग्रहण ) का यह भयङ्कर परिणाम पृथिवी में हो रहा है । इस दूसरे ( द्रोणाचार्यके ) के शग्रहणमें निश्चय सबलोग समाप्त हो जायंगे।
__ क्रोधयुक्तके वचनको त्रो ( तो ) टक कहते हैं। जैसे चण्डकोशिकमें-कौशिक ( विश्वामित्र)-"अभीतक क्यों सुवर्ण दक्षिणाएं नहीं दी गई हैं ?"
छलसे अभिप्राय ज्ञानको "अधिवल" कहते हैं ।। ९९ ॥ जैसे रत्नावलीमें-काश्चनमाला-"स्वामिनि ! यह चित्रशालिका है।
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४५८
साहित्यदर्पणे
नृपादिजनिता भीतिरुद्व ेगः परिकीर्तितः ।
यथा वेण्याम् - :
'प्राप्तावेकरथारूढौ पृच्छन्तौ त्वामितस्ततः । स कर्णारिः स चक्ररो वृककर्मा वृकोदरः ।।' शङ्काभयत्रासकृतः सम्भ्रमो विद्रवां मतः ।। १०० ।। 'कालान्तककरालाभ्यं क्रोधोद्भूतं दशाननम |
विलोक्य वानरानी के सम्भ्रमः कोऽप्यजायत ।'
•
वसन्तकस्य सज्ञां करोमि इति संस्कृतच्छाया । सङ्केतम् = संज्ञ म् । अत्र कान्वनमालया वासवदत्तया च छलेन राजविदूषकयोरभिप्रायज्ञानात् "अधिबलं" नाम गर्भसन्धेरङ्गम् । उद्वेगं लक्षयति- नृपादिजनितेति । नृपादिजनिता = राजाद्य त्पन्ना, आदिपदेन सपत्नादीनां परामर्शः । भीतिः- भयम्, "उद्वेगः " परिकीर्तितः ।
उद्वेगमुदाहरति प्राप्ताविति । धृतराष्ट्रादीनां समीपे सूतस्योक्तिरियम् । सः - प्रसिद्धः, कर्णादिः = कर्णशत्रुः, अर्जुन इति भावः । स च क्रूरः = निर्दयः, "क्र. रो कठिन नियो" इत्यमरः । वृककर्मा - वृकस्य ( ईहामृगस्य ) इव कर्म ( बहुभोजन रूपा अधिक हिंसनरूपा वा क्रिया ) यस्य सः, वृकोदरः = भीमसेनश्च एतो, इतस्ततः = यंत्र तत्र, त्वां = भवन्तं दुर्योधनमित्यर्थः पृच्छन्ती = प्रश्न विषयं कुर्वन्तो, एकरथाऽऽरूठो = एकस्यन्दनाऽवस्थित सन्तो, प्राप्तो = उपस्थिती । अनुष्टुब वृत्तम् । अत्र दुर्योधनस्य शत्रुरूपाऽर्जुनभीमजनिताया भीटे रुद्वेगो नाम गर्भसन्धेरङ्गम् ।
विद्रवं लक्षयति- शङ्क ेति । शङ्काभयत्रासकृतः =शङ्का ( अनिष्टसंभावना ) भयं ( भीतिः ) त्रासः ( उद्वेगः ) तत्कृत: ( तद्विहित ) यः संभ्रमः त्वरा स विद्रवो" मतः ॥ १०० ॥
=
विद्रवमुदाहरति-- कालाऽन्तकेत्यादि । कालान्तककरालाऽऽस्यं = काले ( प्रलय समये ) : अन्तकः ( यमराजः ) तस्यैव करालानि (भयङ्कराण ) आस्यानि (मुखानि ) यस्य, तम् । तथा क्रोघोघृत = क्रोधेन (कोपेन हेतुना ), उद्यूतम् ( उत्कम्पित शरीरम् ); वादृशं दशाननं रावणं, विलोक्य-दृष्ट्वा, वानरानीके = वानराणाम् = ( कपीनाम् ) अनीके ( सैन्ये ) कोऽपि = अनिर्वचनीयः, संभ्रमः = स्वरा, पलायनार्थमिति शेषः । अजायत = आविर्भूतः। अनुष्टुब वृत्तम । अत्र वानरानी कस्य शङ्खादिकृतात्संभ्रमाद्विद्रवः । वसन्तको सङ्केत ( इशारा ) करती हूँ । इत्यादि राजा आदिसे उत्पन्न भयको “उद्वेग” कहते हैं । जैसे वेणीमें-- कर्णशत्रु (अर्जुन) और क्रूर वृक् ( भेड़िया ) के समान कर्म करनेवाले भीमसेन एक ही रथमें चढ़ हुए आपको सर्वत्र पूछ रहे हैं ।
"
शङ्का, भय और उद्वेगसे उत्पन्न घबड़ाहटको "विद्रव" कहते हैं ।। १०० ।।
जैसे -- प्रलयकालके यमराजके समान भयङ्कर मुखवाले और क्रोध से कम्पित शरीरवाले रावणको देखकर बानरोंकी सेना में अनिर्वचनीय घबड़ाहट हो गई ।
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षष्ठः परिच्छेदः
४५९
अथ विमर्शातानि
अपवादोऽथ संफेटो व्यवसायो द्रयो द्युतिः । शक्तिः प्रसङ्गः खेदश्च प्रतिषेधो विरोधनम् ।। १०१ ।। . प्ररोचना विमर्श स्थादादानं छादनं तथा ।
दापप्रख्यापवादः स्यात्यथा वेण्याम्
'युधिष्ठिरः-पाश्चालक ! कचिदासादिता तस्य दुरात्मनः कौरव्यापसदस्य पदवी। .
पाञ्चालक:-न केवलं पदवी, स एव दुरात्मा देवीकेशपाशस्पर्शपातकप्रधान हेतुरुपलब्धः।'
संफेटो रोषभाषणम् ।। १०२ ।। विमर्शाऽङ्गान्युद्दिशति-अपवाद इति । अपवादाविरोधनपयन्त दश ।।१०१।। ततश्च प्ररोचनायाश्छादनपर्यन्तं त्रीणि संहत्य विमर्श त्रयोदशाऽऽङ्गानि ।
अपवादं लक्षयति-दोषप्रत्येति । शेषप्रख्या = दोषस्य (दूषणस्य ) प्रख्या (प्रख्यापनम् ) "अपवादः" स्यात् ।।
अपवादमुदाहरति-यथेति । कौरव्याऽपसदस्य-कुरोरपत्यानि पुमांसः कौरव्याः, "कुरुनादिभ्यो ज्य" इति ण्यप्रत्ययः । कौरव्येषु ( कुरुवंशोत्पन्नेषु क्षत्रियेषु ) अपसदस्य ( अघमस्य ) । तस्य = दुर्योधनस्य, पदवी = मार्गः । देवीत्यादिः = देव्या: ( कृताsभिषेकायाः, द्रौपद्या · इत्ययः ) केशपाशस्य (कुन्तल कलापस्य ) स्पर्शः ( आकर्षणरूपमामर्शनम् ) स एव पातक ( पापम् ) तस्य प्रधानहेतुः (मुख्य कारणम्), उपलब्धः= प्राप्तः । बत्र दुर्योधनस्य दोषप्रख्यापनात् "अपवादः" विमर्शस धेरङ्गम् ।
___ संफेट लक्षयति-संफेट इति । रोषमाषणं = रोषेण (क्रोधेन) भाषणम् (वचनम् ) संफेटो नाम विमर्शाङ्गम् ।। १०२ ॥
विमर्शसन्धिके प्रल-अपवादसे विरोधनतक दश ॥ १०१ ।। प्ररोचनासे छादनतक तीन, विमर्शमें कुल तेरह अङ्ग होते हैं।
दोष फैलानेको 'अपवाद" कहते हैं। जैसे वेणीसंहारमें-"पाञ्चालक ! दुरात्मा उस अधम कौरव ( दुर्योधन ) के मार्गका कहीं पता लगाया?"
पाञ्चालक-उसका मार्ग ही नहीं पाया, रानी ( द्रौपदी ) के केशपाशके स्पर्शरूप पापका प्रधान कारण उस दुरात्माको ही पा लिया।
क्रोधपूर्वक भाषण करनेको "संफेट" कहते हैं ॥ १०२ ।।
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४६०
साहित्यदर्पणे
यथा तत्रैव
'दुर्योधन:--अरे रे मरुत्तनय ! वृद्धस्य राज्ञः पुरतो निन्दितमध्यात्मकर्म श्लापसे । शृणु रे!
कष्टा केशेषु भार्या तव तव च पशोस्तस्य राज्ञस्तयोर्व प्रत्यक्षं भूपतीनां मम भुक्नपतेराज्ञया घतदासी। तस्मिन् वैरानुबन्धे बद किमपकृतं तेहता ये नरेन्द्रा
बाहोर्यातिभारद्रविणगुरुमदं मामजित्वेव दर्पः ।। भीम:--(सक्रोधम् ) आः पाप। दुर्योधन:-आः पाप !' इत्यादि ।
संफेटमुदाहरति-यति । राजा = भूपः, दुर्योधन इति भावः । मस्तनय - वायुपूत्र, भीमसेन इति भावः । वायुपुत्रत्वाद्वायुतुल्यत्वं सूच्यते । यतस्य राज्ञः- ध्रतराष्ट्रस्येत्यर्थः । आत्मकर्म = स्वक्रियां, गोत्रहत्यादिरूपामिति भावः । श्लाघसे-प्रशंससि ।
कृष्टेति। दुर्योधनस्य भीमसेनार्जुनौ प्रत्युक्तिरियम् । भवनपतेः = लोकाशीश्वरस्य, मम = दुर्योधनस्य, आज्ञया = आदेशेन, घ तदासी: घने (अक्ष क्रीडायाम् ) दासी (निजितत्वाहासीतुल्या ), पगोः = पशुसदशम्य, तव = भीमस्य, तव अर्जुनस्य च, तस्य राज्ञः = युधिष्ठिरस्य, तयोर्वा = नकुलसहदेवयोश्च, भार्या = पत्नी द्रौपदी, भूपतीनां = सभास्थितानां राज्ञां च, प्रत्यक्षं = समक्षम् एव, केशेषु कुन्तलेषु, कृष्टा= आकृष्टा, अस्मिन्, वैराऽनबन्धेविरोधकारणे जाते सति, ये नरेन्द्रा:- राजानः, हताःब्यापादिताः, तैः = हर्नरेन्द्रः, किम, अपकृतं-युष्माकमपकारः कृतः ? वद = कथय, एराऽपराधेन निर्दोषाणां दण्डप्रदत्वेन यूयं पशुसमा इति भावः । बाह्वोः = स्वभुजयोः; बीर्याऽतिभारद्रविणगुरुमदं = वीर्याऽतिभारः (बलाऽतिशयः ) एव द्रविणं (धनम् ) तेन गुरु: ( दुर्वहः ) मदः ( अहङ्कारः ) यस्य, तं, तादृशं, मां = दुर्योधनम्, अजित्वा एव = अपराजित्य एव, पः= अहङ्कारः, युष्माकमिति शेषः । स्रग्धरा वृत्तम् ॥
भीम इति । पाप = पापयुक्त । "त्रिषु द्रव्ये पापं पुण्यं सुखादि चे"त्यमरः । पत्र रोषेण भाषणात् "संफेटः" ।
जैसे वहींपर-राजा ( दुर्योधन)-अरे वायुपुत्र! वृद्ध राजाके सामने निषिद्ध अपने कर्मकी मी तारीफ करता है ? सुन रे ! लोकस्वामी मेरी आज्ञासे जुएमें जीती गई दासी पशुसदृश तेरे ( भीमसेनकी ) तेरे ( अर्जुनकी ) राजा ( युधिष्ठिर ) की और नकुल और सहदेवकी पत्नी द्रौपदी राजाओके सम्मुख ही केशोमें खींची गई, ऐसा विरोधका कारण होनेपर जो राजा मारे गये उन्होंने तुम्हारा क्या अपराध (कसूर) किया था ? कहो। अपनी बाहुओंके पराक्रमरूप धनसे महान दर्पसे युक्त मुझे जीते बिना ही तुम लोगोंका दर्प है।
भीमसेन-(क्रोधपूर्वक ) "ओह पापिन् !" राणा ( दुर्योधन )-"ओह नापिन् !" इत्यादि।
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षष्ठः परिच्छेदः
व्यवसायश्च विशेषः प्रतिज्ञाहेतुसंभवः ।
यथा तत्रैव'भीमः -
यथा तत्रेष
निहताशेषकौरव्यः क्षीबो दुःशासनशा सृजाः । भक्ता दुर्योधनस्योर्भीमोऽयं शिरसा नतः ॥ द्रवो गुरुव्यतिक्रान्तिः शोकावेगादिसम्भवा ॥ १०३ ॥
४६१
'युधिष्ठिरः - भगवन् ! कृष्णाग्रज ! सुभद्राभ्रातः ।
व्यवसायं लक्षयति – व्यवसायश्चेति । प्रतिज्ञाहेतुसंभवः - प्रतिज्ञा ( कार्यनिर्देश:), हेतु: ( साधन निर्देशः ) ताभ्यां संभव: (निष्पत्ति: कार्यस्येति शेष: ) 1"व्यवसाय:" विज्ञेयः बोद्धव्यः ।
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व्यवसायमुदाहरति-निहतेत्यादिः । भीमसेनस्य दुर्योधनस्योरुभङ्गोत्तरं युधिष्ठिरं प्रत्युक्तिरियम् । निहताऽशेषकौरव्यः = निहताः ( व्यापादिता: ) अशेषाः ( समस्ताः ) कौरव्याः ( कुरुवंशोत्पन्ना दुर्योधनादय इति भावः ) येन सः । दुःशासनाऽसृजा - दुःशासनस्य ( मध्यमधार्तराष्ट्रस्य ) असृजा ( रुधिरेण ), श्रीब: मतः "मत्ते शोण्डोत्कट-क्षीबाः" इत्यमरः । भीमे कीबत्वारोपेणाऽसृजो मधुस्वारोपणं व्यङ्गयम् । एवं च - दुर्योधनस्य = सुगोधनस्य, ऊर्वोः - सक्थ्नोः, "कर्तृकर्मणोः कृति" इति कर्मणि षष्ठी "सक्थि क्लीबे पुमानूरु” रित्यमरः । भङ्क्ता-भञ्जकः, अयं = सन्निकृष्टवर्ती, भीमः - भीमसेनः, शिरसा = मस्तकेन, नतः प्रणतः, भवतीति शेषः । अनुष्टुब् वृत्तम् । अत्र द्रौपदी| केशाकर्षणाद्धेतोः = ऊरुभञ्जनरूपाया: प्रतिज्ञायाश्च निष्पत्तेः "व्यवसायः " ।
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द्रवं लक्षयति- द्रव इति । शोकावेगादिसंभवा = शोक: ( मन्युः ) आवेगः(संभ्रमः) तदादिसंभवा ( तदाद्य त्पना ), गुरुव्यतिक्रान्तिः - गुरोः ( पूज्यजनस्य ) व्यतिक्रान्ति: ( मर्यादालङ्घनम् ) " द्रवः " ॥ १०३ ॥
प्रतिज्ञा और हेतुसे कार्यकी निष्पत्तिको "व्यवसाय" कहते हैं ।
जैसे वहीं पर - भीमसेन समस्त कौरवोंका संहार करनेवाला, दुःशासनके रुधिर ( लोहु ) से मत्त और दुर्योधनके ऊरुमोंको भग्न करनेवाला यह भीम शिरसे अवनत होता है ।
शोक और संभ्रम से उत्पन्न: पूज्यजनके मर्यादालङ्घनको "द्रव" कहते हैं ।। १०३ ॥ जैसे वहीं पर - युधिष्ठिर - भगवन ! श्रीकृष्णके अग्रज ! सुभद्राके भाई !.
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४६२
साहित्यदर्पणे
ज्ञातिप्रीतिमनसि न कृता, क्षत्रियाणां न धर्मो
रूढं सख्यं तदपि गणितं नानुजस्याजुनेन।' तुल्यः कामं भवतु भवतः शिष्ययोः स्नेहबन्धः
कोऽयं पन्था यदसि विमुखो मन्दभाग्ये ममि त्वम्।।'
तजनोद्वेजने प्रोक्ता घुतिःयथा तत्रैव दुर्योधनं प्रति भीमेनोक्तम
''जन्मेन्दोविमले कुले व्यपदिशस्यद्यापि धत्ते गदा, ___ मां दुःशासनकोष्णशोणितमधुनीवं रिपुं मन्यसे ।
द्रवमुदाहरात-ज्ञातिप्रीतिरिति । भीमदुर्योधनयोगदायुद्धे मर्यादालचिन भीम प्रति कुपितं बलदेवं प्रति युधिष्ठिरस्योक्तिरियम् । ज्ञातिप्रीतिः वंशस्नेहः, बलदेवभीमसेनयोरुभयोरपि चन्द्रवंशोत्पन्नत्यादिति भाव: । मसि-चित्त, न कृता-नो विहिता। क्षत्रियाणां -- बाहुजानां; धर्मः = उचिताचारोऽपि, न कृत इति लिङ्गविपर्ययः । अयुध्य. मानवधर्वमुख्यं क्षत्रियाणां धर्म इति भावः। अनुजस्यअवरजस्य, श्रीकृष्णस्येति भावः, अर्जुनेनग ण्डीविना, यत्, रुढं-प्रसिद्ध, सख्यं मंत्री, तर, न गणितं नो विचारितम् । भवतेति शेषः । शिष्ययो:-विनेययोः भीमदुर्योधनयोरुभयोरेव विषये, भवतः-तव, रनेहबन्धः = वात्सल्यबन्धनं, काम-पर्याप्तं यथा तथा, तुल्यः = समानः, भवतु-अस्तु, किन्तु मन्दमाग्ये = अल्पभागधेये, मयि, स्वं, यत्, विमुखः = पराङ्मुखः, भीम प्रति कुपितत्वादिति भावः । असि = वर्तसे, अयम् = एषः, का, पन्थाः आचारपद्धतिः । अत्र युधिष्ठिरस्य शोकांवेगादिजन्यात पूज्यबलदेवमर्यादालङ्घनाद् द्रवो नाम विमर्शसन्धेरङ्गम् ।
यति लक्षयति--सर्जनोद्वेजने इति । तर्जनोजनेतर्जनं ( भर्सनम् । उद्वेजनं ( भयोत्पादनम् ) ते यत्र तत्र 'द्युतिः" प्रोक्ता= अभिहिता।
द्युतिमुदाहरति-जन्मेन्वोरिति । भीमसेनस्य दुर्योधनं प्रत्युक्तिरियम् । इन्दोः= चन्द्रस्य, विमलेनिमले, कुले = वशे, जन्म %D उत्पत्ति, व्यदिशसि = कथयसि, अद्य अपि = अधुना अपि, गदां= कासूम् आयुधविशेष, धरसे = धारयसि । मां - भीमसेनं, दु शासनेत्यादिः = दुःशासनस्य (स्वाऽनुजस्य ) कोष्णम् (ईषदुष्णं, मन्दोष्णमित्यर्थः ) यत् शोणितं ( रुधिरम ) एवं मधु ( मद्यम् ) तेन, तत्पानेनेति भावः । क्षोब = मत्तं,
आपने ज्ञातिमें प्रीतिका भी विचार नहीं किया, क्षत्रियका उचित आचार भी नहीं किया । अर्जुनके साथ अपने भाईको प्रसिद्ध मंत्रीकी भी गणना नहीं की। अपने दो शिष्यों ( भीम और दुर्योधन) के विषयमें आपका स्नेहबन्धन तुल्य हो, किन्तु मन्दभाग्य मेरे विषय में जो आप विमुख हैं, यह आपका कौन-सा मार्ग (आचारपद्धति) है?
जिसमें सना ( घुड़कना ) और भयका उत्पादन होता है उसे " ति" कहते हैं। जैसे वहीं दुर्योधनको भीमने कहा है-चन्द्रके निर्मल वंशमें अपना जन्म कहते हो । आज भी गदाको धारण कर रहे हो। तुम आज भी मुझे दःशासनके मन्दोष्ण
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षष्ठः परिच्छेदः
.४६३
दोन्धी मधुकैटभाषि हरावयुद्धतं चेष्टसे, त्रासान्मे नृपशो ! विहाय समरं पाकेऽधुना लीयसे ।'
-शक्तिः पुनभवेत् । विरोधस्य प्रशमनम्यथा तत्रैव-- 'कुर्वन्त्वाप्ता हतानां रणशिरसि जना भस्मसाद् देहमारा
नश्रून्मिभं कश्चिदतु जलममी बान्धवा बान्धवेभ्यः। मार्गन्तां ज्ञातिदेहान् हतनरगहने खण्डितान् गृध्रकल्के
रस्तं भास्वान् प्रयातः सहरिपुभिरयं संहियन्तां बलानि ।' मन्यसे = अवबुध्यसे, दर्पान्धः = गर्वाऽन्धः सन्, मधु कैटभतिषि = मधुकैटभदैत्यशत्री, हरी = श्रीकृष्णे, अपि, उद्धतं = निमर्यादं चेष्टसे-व्यवहरसि, हे नृपशो-हे नरपशो! मस्त्रासात्-मद्भयात्, समररणाऽङ्गणं, विहाय-त्यक्त्वां, अधुना=इदानीं, पर कर्दमे, लीयसे प्रच्छन्नो भवसि । अत्र विषमाऽलङ्कारी व्यङ्गयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । अत्र दुर्योधनस्य तर्जनोद्वेजनोत्पादनेन छ तिमि विमर्शसन्धेरङ्गम् ।
शक्ति लमयति--शक्तिरिति। विरोधस्य = वैरस्य; प्रशमनं = निवारणं, पुन:-तु "शक्तिः " भवेत् । . . शक्तिमुदाहरति-कुर्वन्त्विति। कौरवपराजयाऽनन्तरं नेपथ्यतः संप्राप्तोक्तिरियम् । आप्ता:बान्धवाः, जनाः- लोकाः, रणशिरसि युद्धक्षेत्रोपरि, हतानां व्यापादितानां बन्धूनां,देहभारान्-शरीरसमूहान् वह्निसात् कुर्वन्तु अग्न्यधीनान विदधतु "विभाषा साति कात्स्न्ये" इति सातिप्रत्ययः । अमी=एते, बान्धवाः बन्धवः,बान्धवेभ्यः स्वजनेभ्यः,प्र. मित्रं नयनसलिलमिश्रितं,जलंसलिलं,ददतु-वितरन्तु "अदभ्यस्तात्" इति सस्यात् । हननरंगहने व्यापादितमानवसमूहे, गृध्रकडू: दाक्षाय्यलोहपृष्ठः, खण्डितान्दलितान्, ज्ञालिदेहान् बान्धवशरीराणि, मार्गन्ताम् =अन्विष्यन्तु, दग्धुमिति शेषः । अयम्-एषः; भास्वान सूर्यः,रिपुभिः शत्रुभिः,सह-समम्,अस्तम् अस्तपर्वत, प्रयातः-प्रमतः,रिपवन नाशं प्रयाता इत्यर्थः । अतः बलानि = आत्मसन्यानि, संह्रियन्ताम् = एकत्रीक्रियन्तारुधिररूप मद्यसे मत शत्रु मान रहे हो। घमण्डसे अन्धा होकर मधु और कैटभके शत्रु श्रीकृष्णमें भी उद्धत व्यवहार करते हो । हे नरपशो! मेरे भयसे रणभूमिको छोड़कर अभी तालाबके कीचड़ में छिप रहे हो। ।
विरोध के निवारणको "शक्ति" कहते हैं। जैसे वहीं--बान्धवलोग युद्ध में मारे गये बन्धुओंके शरीरोंका दाहसंस्कार करें। ये बान्धव अपने बान्धवोंको आँसूसे मिले हुए जलाजलि दें। मारे गये मनुष्यों के समूहमें गृघ्र ( गीध ) और कङ्कापक्षियोंसे
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४६४
साहित्यदपणे
*-प्रसङ्गा गुरुकीत्तनम् ।। १०४ ।। यथा मृच्छकटिकायाम्
'चाण्डालक:-एसो क्खु सागलदत्तस्स सुओ अज्जविस्सदत्तस्स णत्तिओ चालुदत्तो वावादि, बमठाणं णिज्जइ । एदेण किल गणिमा वसन्तसेणा सुअण्णलोहेण पावादिदेत्ति। चारुदत्तः- . मखशतपरिपूतं गोत्रमुदासितं यत्
सदसिनिविडत्यब्रह्मघोषः पुरस्तात् । मम निधनदशायां वर्तमानस्य पाप
स्तदसहशमनुष्यैर्युष्यते घोषणायाम् ॥' मित्यर्थः । अत्र सहोक्तिरलङ्कारः । स्रग्धरा वृत्तम् । अत्र बलसंहरण कथनेन विरोधस्य प्रशमनाच्छक्तिः।
प्रसङ्ग छक्षयति--प्रसा इति। गुरुकीर्तनं = गुरोः ( पित्रादेः ) कीर्तनम् (उच्चारणम् ) "प्रसङ्गः" विमर्शसन्धेरङ्गम् ।। १०४ ।।
प्रसङ्गमुदाहरति यति। चाण्डाल:--"एष खलु सागरदत्तस्य सुन बार्यविश्वात्तस्य नप्ता चारुदत्तो व्यापादयितुं वध्यस्थानं नीयते । एतेन किल गणिका वसन्तसेना सुवर्णलोभेन व्यापादिते"ति संस्कृतच्छाया। नप्ता-पोत्रः ।।
मखेत्यादिः। मखशतपरिभूतं = मखशतः (बहुयज्ञाऽनुष्ठानः ) परिभूतं (पवित्रम् ) यत् गोत्रं = वंशः, निबिडचत्यब्रह्मघोषः = निबिड ( श्रोत्रियजनव्याप्त) चंत्ये (आयतने ) ब्रह्मघोषः ( वेदध्वनिभिः ), "वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म ब्रह्मा विप्रः प्रजा: पतिः ।" इत्यमरः । पुरस्तात-पूर्वम्, उद्भासितं यशसा प्रकाशितमासीत् । निधन. दशायां-मरणाऽवस्थाया, वर्तमानस्य-विद्यमानस्य, मम% चारुदत्तस्य, तद्-गोमम्। असदृश्यमनुष्यः अयोग्यमानवैः, चाण्डालरिति मायः । पापैः-पापवृत्तान्तः, "सुवर्ण. लोभन वसन्तसेना व्यापादित"ति स्वरूपैरिति भावः। षोषणायाम अपवादवायध्वनी धुष्यते-उच्चः शब्दयते । मालिनी वृत्तम् । खणित कुटुम्बशरीरोंको दू। ये सूर्य शभुषोंके साप अस्तपर्वतको चले गये, इसलिए अपनी सेनामोको इकट्ठा करो।
पूज्य बनका उच्चारण करनेको "प्रसङ्ग" कहले हैं ॥ १०४॥
जसे मृच्छकटिकमें--पाण्डाल-- साबरदतके पुत्र, बायं विश्वदत्त के नाती (पौत्र). चारुदत्त, बपके लिए वध्यस्थानमें पहुंचाये जाते हैं। इन्होंने वेश्या वसन्तसेनाको सोनेके लोभसे मार डाला है।
चावत्त-संकड़ों यज्ञोंसे पवित्र जो वंश सभामें जनप्रचुर भवनमें वेदध्वनियोंसे पहले प्रकाशित था। मरनेकी दशामें विद्यमान मेरा वही बंश पयोम्य मानवोंसे पापपूर्ण वृत्तान्तोंसे घोषणामें घोषित कर रहे है।
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षष्ठः परिच्छेदः
इत्यनेन चारुदत्सवधाभ्युदयानुकूलप्रसङ्गाद् गुरुकीर्तनमिति प्रसङ्गः।
मनश्चेष्टासमुत्पन्न श्रम खेद इति स्मृतः । मनःसमुत्पन्नो यथा मालतीमाधवे'दलति हृदयं गोढोद्वेगो द्विधा न तु भिद्यते
वहति विकलः कायो मोहं, न मुऋति चेतनाम् । ज्वलयति तनूमन्तदोहः, करोति न भस्मसात्
प्रहरति विधिर्ममच्छेदी, न छन्तति जीवितम् ।।' रवं चेष्टासमुत्पन्नोऽपि।
लक्ष्ये लक्षण संगमयति-इत्यनेनेति । इति = एवम्, अनेन = गद्यपद्यात्मकवाक्यसमूहेन, चारुदत्तेत्यादिः = चारुदत्तस्य वद्याऽभ्युदययोः ( व्यापादनोन्नत्योः ) अनुकूलप्रसङ्गात् ( अनुगुणाऽवसरात् ) गुरुकीर्तनमिति "प्रसङ्गमः ।"
खेदं लक्षयति -- मनश्चेष्टासमुत्पन्न इति । मनश्चेष्टासमुदामः - मनसा ( चित्तेत ) चेष्टया ( शरीरब्यापारेण ) च समुत्पन्नः ( संजातः ) श्रमः खेदो" नाम विमर्शसन्धेरङ्गन् ।
मनः समुत्पन्नं खेदमुदाहरति-वलतीति । मालतोशाकान्माषवस्योक्तिरियम् । गाढोद्वेगः = प्रियाविरहाद्वदुःखावेगः, हृदय = हृद, दलति = खण्डयति, तु= परन्तु, द्विधा = प्रकारद्वयेन, न भिद्यते = नो विदीर्यते । विकल: = विह्वलः, कायः = शरीरं, मोहं = मूर्छा, वहति = प्राप्नोति, पर चेतना = चैतन्यं, न मुञ्चति = न त्यजति । अन्तर्दाहः = अन्तःकरणसन्तापः, तनू = शरीरं ज्वलयति = सन्तापयति, किन्तु भस्मसात् = भस्माऽधीनं, न करोति = नो विदधाति । मर्मच्छेदी = मर्मस्थलविवारकः, विधिः - नियतिः, प्रहरति = ताडयति, परं जीवित = जीवनं, न कृन्ततिन छिनति, हरिणी वृत्तम् । अत्र माधवस्य मालतीशोकेनोत्पन्नस्य श्रमस्य मनःसमुत्पन्नत्वात्खेदो नाम विमशंसन्धेरङ्गम् ।।
इस पयसे चारुदत्तका वध और अभ्युदयके अनुकूल प्रसङ्गसे 'गुरुकीर्तन" होनेसे "प्रसङ्ग" हुआ है । मन और शरीरकी चेष्टासे उत्पन्न परिश्रमको खेद" कहते हैं । मनसे उत्पन्न परिश्रम ''खेद" जैसे मालतीमाधवमें-विरहसे दृढ उद्वेग हृदयका खण्डित कर रहा है, परन्तु हृदय विदीर्ण नहीं होता है । विह्वल शरीर मूर्छाको प्राप्त कर रहा है, परन्तु चैतन्यको नहीं छोड़ता है । अन्तःकरणका सन्ताप शरीरको सन्तप्त कर रहा है किन्तु भस्य नहीं करता है । मर्मस्थल में भेदन करनेवाला भाग्य प्रहार कर रहा है, पर जोबनको नष्ट नहीं करता है । इसी तरह शरीरकी चेष्टासे उत्पन्न खेदका की ऊह करें।
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. साहित्यदपणे
ईप्सितार्थप्रनीघातः प्रतियेध इतीयते ।। यथा मम प्रभावत्यां विदूषकं प्रति-.
प्रथम्नः-सखे ! कथमिह त्वमेकाकी वर्तसे ? क नु पुनः प्रियसखी जनानुगम्यमाना प्रियतमा मे प्रभावती ?
विदूषकः-असुरवइणा आआरिअ कहिं वि णीदा। प्रद्युम्नः-( दोघं निःश्वस्य ) हा पूर्णचन्द्रमुखि ! मत्तचकोरनेत्रे!
मामानताङ्गि ! परिहाय कुतो गतासि ? गच्छ त्वमद्य ननु जीवित ! तूर्णमेव
देवं कदर्थनपरं . कृतकृत्यमस्तु ।' कार्यात्पयोगमनं विरोधनमिति स्मृतम् । प्रतिषेधं लक्षयति-ईप्सितार्थप्रतिघात इति । ईप्सितार्थस्य ( अमीष्टाऽ र्थस्य ) प्रतीघातः ( प्रतिबन्धः, प्राप्ताविति शेषः ) "प्रतिषेधः" इति ईर्यते = कथ्यते ॥ १०५ ।।
___ प्रतिषेधमुदाहरति-यथेति । विदूषकः-"असुरपतिना आकार्य कुत्राऽपि नीता।" इति संस्कृतच्छाया।
हा पूर्णचन्द्रमुखीति । हा पूर्णचन्द्रमुखि = पूर्णेन्दुवदने !, मत्तचकोरनेत्रे = क्षीबचकोरनयने !, हे आनतागि = हे अवनतदेहे !, भां = प्रियं, परिहाय = संत्यज्य, कुतः = कुत्र, गता = याता, असि । ननु जीवित = हे जीवन !, त्वम्, अद्य == अधुना तूर्णम् एव = शीघ्रम् एव, गच्छयाहि, कदर्थनपरं = पीडनतत्पर, दैवं = भाग्य, कृन. कृत्यं कृतार्थम्, अस्तु भवतु । वसन्ततिलका वृत्तम् । अब ईप्सिताऽर्थस्य प्रभावती. रूपपदार्थस्य प्राप्ती प्रतीघातात्प्रतिषेधः ।
विरोधनं लक्षयति-कार्याऽत्ययोपगमन मिति । कार्य ( कर्तव्ये ) अत्ययस्य ( विध्नस्य ) उप गमनं ( प्राप्तिः ) "विरोधनम्” इति स्मृतम् ।
अभीष्टअर्थकी प्राप्ति में प्रतिबन्ध (रुकावट) को "प्रतिषेध" कहते हैं ॥१०॥ ग्रन्थकारकी प्रभावती ( नाटिका ) में विदूषको प्रद्युम्न-"मित्र ! यहाँ तुम क्यों अकले रह रहे हो ? प्रिय सखीजनोंसे अनुसृत मेरी प्रियतया प्रभावती कहां हैं ?
विदूषक--दैत्यपति उन्हें बुलाकर कहीं ले गये हैं।
प्रद्युम्न-( लम्बा श्वास लेकर ) हा ! पूर्णचन्द्र के समान मुखवाली ! गन चकोरके समान नेत्रोंवाली ! हे अवनत अङ्गोगली ! तुम मुझे छोड़कर कहां गई हो ? हे मेरा जीवन!तू आज शीघ्र ही चला जा । पीड! करने में तत्परा मेरा भाग्य कृतार्थ हो।
कार्य में विघ्नके आ पड़ने को "विरोधन" कहते हैं। .
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यथा वेण्याम् - 'युधिष्ठिर:
षष्ठः परिच्छेदः
४६७
भीष्ममहोदधौ कथमपि द्रोणानले निर्वृते कर्णाशीविषभोगिनि प्रशमिते, शल्ये च याते दिवम् । भीमेन प्रियसाहसेनं रभसादल्पावशेषे जये
सर्वे जीवितसंशयं वयममी वाचा समारोपिताः ॥' प्ररोचना त विज्ञेया संहारार्थप्रदर्शिनी ॥ १०६ ॥ .
तु
यथा वेण्यम्
'पाञ्चालकः अहं देवेन चक्रपाणिना सहितः (इत्युपक्रम्य) कृतं सन्देहेन । विरोधनमुदाहरति-तीर्ण इति । भीष्ममहोदधी = भीष्म: (तामहः एव महोदधौ ( महासागरे ), तीर्णे = तरणविषयीकृते निहत इति भावः । द्रोणानले - द्रोणः (द्रो चार्य ) एव अनल: ( अग्निः ), तस्मिन् । कथमपि = केनाऽपि प्रकारेण, शिखण्डितं पुरस्कृत्येति भावः । निर्वृते = निर्वाणतां गमिते, मृत इति भावः । कर्णाशी - विषभोगिन = कर्ण: ( राधेयः ) एव आशीविष: ( आशिषि = दंष्ट्रायां विषं = गरलं यस्य सः । दंष्ट्राविष इत्यर्थः ) स एव भोगी ( सर्प: ) तस्मिन् प्रशमिते = प्रशम गमिते, व्यापादित इति भावः । शल्ये च = तदाख्ये मद्रवेशाऽधीशे च । दिवं = स्वर्ग, याते = प्राप्ते सति, तथा च जये = विजये, अल्पाऽवशेष = स्तोकाऽवशिष्ट सति, प्रियसाहसेन - अभीष्टसाहसकर्मणा, भीमेन भीमसेनेन रभसात् = वेगात् वाचा = वाण्या "अस्मासु येन केनाऽपि समं युध्यताम्" इत्याकारिकया। अभी एनं. सर्वे सकलाः, वयं=पाण्डवाः, जीवितसंशयं = जीवनसंदेहम्, समारोपिताः संप्रापिताः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।
अत्र युद्ध विजयरूपे कार्ये भीमवाचा विघ्नप्राप्तेविरोधनं नामाऽङ्गम्,
प्ररोचनां लक्षयति- प्ररोचनेति । संहाराऽयं प्रदर्शनी तु उपसंहाररूपविपय सूचिका तु वाणीति भावः । " प्ररोचना" अङ्गम् ॥ १०६ ॥
=
जैसे वेणीमें-- युधिष्ठिर
भीमरूप महासागर के तीर्ण होनेपर, द्रोणरूप अग्नि के किसी प्रकार बुझ जाने पर कर्णरूप दंष्ट्रा (दाढ ) में विषवाले सर्पके शान्त किये जानेपर और शल्यके भी स्व प्राप्त करानेपर, विजय थोड़ी ही बाकी रहनेपर प्रिय साहसवाले भीमसेन से देगते
•
. अपने वचन से ये हम सब ( पाण्डव ) जीवन में संशयारूढ बनाये गये हैं ।
उपसंहारकी सूचना करनेवाली वाणीको "प्ररोचना" कहते हैं ।। १०६ ।। जैसे वेणीमें-- पाञ्चालक - में भगवान् कृष्ण के साथ हूँ । ( ऐसा कहकर कुछ दूर चलकर ) - सन्देह नहीं करें ।
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४६८
साहित्यदर्पणे
पूर्यन्तां सलिलेन रत्नकलशा राज्याभिषेकाय ते
कृष्णात्यन्तचिरोज्झिते तु कबरीबन्वे करोतु क्षणम् । रामे शातकुठारभास्वर करे, क्षत्रद्रुमोच्छे दिन,
- क्रोधान्धे च वृकोदरे परिपतत्याजौ कृतः संशयः ? ॥' कार्य संग्रह आदानम् -
यथा वेण्याम्- 'भो भोः समन्तपञ्चकचारिणः !
=
=
प्ररोचनामुदाहरति- पूर्यन्तामिति । पाञ्चालकस्य युधिष्ठिरं प्रत्युक्तिरियम् । हे राजन् ! ते तव, राज्याभिषेकाय = राज्ये ( राष्ट्र ) अभिषेकाय ( अभिषेचनसंस्काराय ), सलिलेन - तत्तत्तीर्थजलेन, रत्नक्लशा:- मणिखचितकुम्भाः, पूर्यन्तां प्रियन्ताम् । कृष्णा = द्रौपदी, तु, अत्यन्तचिरोज्झिते - अतिचिरकालपरित्यक्ते, कबरीबन्धे - केशवेशबन्धने, क्षणम् = उत्सवं, "वक्षण उद्धर्षो मह उद्धव उत्सवः " इत्यमरः । करोतु = विदधातु । शातकुठारभास्वरकरे-शात : ( 'शाणादिना तीक्ष्णीकृतः ) य: कुठारः ( परशुः ) तेन भास्वर : ( दीप्तिसम्पन्न : ) करः ( हस्तः ) यस्य सः, तस्मिन् । तथा च क्षत्रद्रुमोच्छेदिनि = = क्षत्रा: ( क्षत्रियाः ) एव द्रुमाः ( वृक्षाः ) ताम् उच्छिनत्तीति तस्मिन् । क्षत्रियरूपवृक्षोच्छेदक इति भावः । तादृशे रामे - जामदग्न्ये, क्रोधाऽन्धे = कोपाऽन्ध, वृकोदरे भीमसेने, च, आजी = युद्धे, परिपतति = प्रविशति सति, सर्वत्र " यस्य च भावेन भावलक्षणम्" इति सम्मी । कुतः कस्माद्धेतोः सशय:सन्देहः, युद्धजय इति शेषः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।
=
अत्र पूर्वार्द्धस्थवाक्यद्वयेन युद्धोपसंहारप्रदर्शनात्प्ररोचना ।
आदानं लक्षयति- कार्यसंग्रह इति । कार्यसंग्रहः कार्याणां ( कर्मणाम् ) संग्रह: (सङ्कलनम् ) "आदावम्" नामाऽङ्गम् ।
1
आदानमुदाहरति - यथेति । समन्तपञ्चकसंचारिणः समन्तपञ्चकाख्यस्थान सचरणशीलाः !, समन्तात ( समन्ततः) पञ्चकं ( नदपचम् ) यस्मिंस्तत्, तीर्थभेदः । कुरुक्षेत्रं वा तनिकटस्थ प्रदेश: !
( हे राजन् ! ) आपके राज्याभिषेक के लिए रत्न कलश तीर्थजल से पूर्ण कि जायें । द्रौपदी बहु समयसे छोड़े गये केशवेशके संस्कार के लिए उत्सव करें। ती फरसे से चमकते हुए हाथवाले क्षत्रियरूप वृक्षोंको काटनेवाले ऐसे परशुराम के क्रोध से अन्धे भीमसेनके संग्राम भूमिमें आ पड़ने पर युद्ध - जय में कैसे सन्देह होगा ?
कार्योंका संग्रह करनेको "आदान" कहते हैं ।.
जैसे बेणीमें- हे समन्तपसमें सम्वरण करनेवाले !
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षष्ठः परिच्छेदः
४६९
नाहं रक्षो, न भूतो, रिपुरुधिरजलालादिताङ्गः प्रकामं
निस्तीर्णोरप्रतिज्ञाजलनिधिगहनः क्रोधनः क्षत्रियोऽस्मि । भो भो राजन्यत्रीराः ! समरशिखिशिखामुक्तशेषाः ! कृतं व___ स्वासेनानेन लीनईतकरितुरगान्तहितरास्यते यत् ॥' अत्र समस्तरिपुषधकार्यस्य संगृहीतत्वादादानम्।
-तदाहुश्छादनं पुनः कार्यार्थमपमानादेः सहनं खलु यद्भवेत् ॥ १०७ ॥
नाहमिति । युद्ध विजयलामाऽनन्तरं भीमसेनस्योक्तिरियम् । अहं, रक्षो नराक्षसो न, भूतो न - देवयोनिविशेषो न । किन्तु रिपुरुधिरजलाह्लादिताऽङ्ग:-रिपूणां (शत्रूणाम् ) रुधिराणि ( रक्तानि ) एव जलानि (द्रवद्रव्याणि ) तः आह्लादितानि ( आमोदितानि ) अङ्गानि ( देहाऽवयवाः ) यस्य सः । तथा प्रकामं यथेष्टं, निस्तीर्णो. प्रतिज्ञाजलनिधिगहनः = निस्तीर्णः ( उत्तीर्णः ) उरुः (महान्.) प्रतिज्ञाजलविधिः
प्रतिज्ञा = सन्धा, एव जलनिधिः - समुद्रः येन सः, अत एव गहनः = दुरवगाहः) कोधनः = कोपशीलः, क्षत्रियः = मूर्वाऽभिषिक्तः, अम्मि । अतो भो भोः समरशिखि. शिखाभुक्तशेषाः = समर: ( युद्धम् ) एव शिखी ( अग्निः ) तस्य शिखा ( ज्वाला) तया, भुक्त शेषाः ( भुक्तेभ्यः भक्षितेभ्यः, व्यामादिभ्य इति भावः, शेषा:-अवशिष्टाः); हे राजन्यवीरा: हे क्षत्रियविक्रान्ताः !, इतकरितुरगाऽन्तहितैः-हताः ( व्यापादिताः) ये करिणः (हस्ति नः ) तुरगाः (अश्वाः ), तेषु अन्तहितं. ( अभ्यन्तरस्थितः )। : अत एव लीनः ( प्राप्त लयरिव स्थितः युष्माभिः यत् = यस्मात्कारणात, आस्यते = अवस्थीयते, अनेन = एतेन, वः = युष्माक, त्रासेन = भयेन, कृतं = पर्याप्तम् । त्रासेन साध्यं नाऽस्तीति भावः । स्रग्धरा वृत्तम् ।
लक्ष्ये लक्षणं संगमयति-अत्रेति।
छादनं लक्षयति-तवाहरिति । कार्याऽर्थ-कृत्यसंपादनाऽर्थ, यद अपमानादे:अवमानादेः, सहन = मषंणं, भवेत, तत् "छदनम् ' आहुः ॥ १० ॥
(भीमसेन )-मैं राक्षस नहीं हूं और न भूत ही हूं किन्तु शत्रुओंके रुधिर जलसे आनन्दित अङ्गोंवाला और पर्याप्त रूपसे महान् प्रतिज्ञास्वरूप समुद्रको पार. किया हुआ अत एव गहन ( दुरवगाह ) कोधी क्षत्रिय हूँ। युद्धरूप अग्निकी ज्वालासे जलनेसे अवशिष्ट (बचे खुचे.) हे क्षत्रिय वीरो ! मारे गये हाथी और घोड़ोंके शरीरके भीतर छिपकर तुम लोग रह रहे. हो, ऐसा त्रास तुमलोगोंको नहीं करना चाहिए।
यहाँ समस्त शत्रुवधरूप कार्य संगृहीत होनेसे "भादान" है। कार्य सम्वादनके लिए अपमान आदि सहनेको "छादन" कहते हैं । १०७ ।।
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साहित्यदर्पणे
यथा तत्रैव'अर्जुन:-आर्य ! प्रसोद । ... अप्रियाणि करोत्वेष वाचा शक्तो न कर्मणा ।
हस्तभ्रातृशतो दुःखी प्रलापरस्य का व्यथा ?' अथ निर्वहणाङ्गानि।
सन्धिर्विबोधो ग्रथनं निर्णयः परिभाषणम् । कृतिः प्रसाद आनन्दः समयोऽप्युपगृहनम् ।। १०८ ॥ भाषणं पूर्व वाक्यञ्च काव्यसंहार एव च । प्रशस्तिरिति संहारे ज्ञयान्यङ्गानि नामतः ॥ १०९ ॥
बीजोपगमनं सन्धिः-- छादनमुदाहरति-प्रप्रियाणीति। हतभ्रातृशतः = हतं (ब्यापादितम् ) भ्रातृशतं ( सोदरशतम् ) यस्य सः । अतो दुःखी, एषः = दुर्योधनः, वाचा = वचनेन, अप्रियाणि = अनीप्सितानि, कटुवचनरूपाणीति भावः, करोतु-विदधातु, परं कर्मणा= कार्येण, अप्रियाणि कर्तुं न शक्तः = न समर्थः, अतः अस्य = दुर्योधनस्य, प्रलाप: अनयंकवचोभिः, का व्यपा = किं दुःखं, न किमपीति भावः ।
निर्वहणाऽङ्गान्युद्दिशति-सैन्धे रुपमूहनपर्यन्तं दश ॥ १०८॥
भाषणाप्रशस्तिपर्यन्तं चत्वारि, संहत्य संहारे ( निर्वहणे ) चतुर्दशाऽङ्गानि मेयानि ॥ १.९॥
सन्धि लक्षयति-बीजोपगमनमिति। बीजस्य (मुखसन्धौ निहितस्य बीजाऽर्थस्य ) उपगमनम् ( उपस्थापनम ) सन्धिः " ।
से वहीं ( वेणीसंहारमें ) अजु-आर्य !
सौ भाइयोंके मारे जानेसे दुःखी यह ( दुर्योधन ) वचनसे कटुवचन कहे परन्तु कर्मसे अप्रिय करनेको समर्थ नहीं है। इसलिए इसके प्रलापोंसे क्या दुःख है ? निर्वहण ( उपसंहार) के बग- .
'सन्धिस उपगृहन तक दश ॥ १० ॥ भाषणसे प्रशस्तिक बार इस प्रकार संहारमें वीव्ह जनों को जानें ॥ १०९॥ बीच" सन्धि उपस्थापनको "सन्धि" कहते हैं।
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षष्ठः परिच्छेदः
यथा तत्रैव ( वेण्याम् )
'भीमः-भवति ! यज्ञवेदिसम्भवे ! स्मरति भवती यन्मयोक्तम्'चश्वभुजे'त्यादि ।' (पृ० ४३६) अनेन मुखे क्षिप्तबोजस्य पुनरुपगमनमिति सन्धिः ।
-विबोधः कार्य मार्गणम् । यथा तत्रैव'भीमः-मुञ्चतु नामार्यः क्षणमेकम् । युधिष्ठिरः-किमपरमवशिष्टम् ? .. .
भीमः-सुमहदवशिष्टम् । समापयामि तावदनेन सुयोधनशोणितोक्षितेन पाणिना पाश्चाल्या दुःशासनावकृष्टं केशहस्तम्।
युधिष्ठिरः-गच्छतु भवान् , अनुभवतु तपस्विनी वेणीसंहारम् ।' इति । अनेन केशसंयमनकार्यस्यान्वेषणाद्विबोधः।
उपन्यासस्तु कार्याणां ग्रथनम् -
सन्धिमुदाहरति-भीम इति । यज्ञवेदिसंभवे हे द्रौपदि ! मुखे-मुखसन्धी ।
विबोधं लक्षयति-विबोध इतिः। कार्यमार्गणं = कार्यस्य (कर्तव्यस्य ) मार्गणम् ( अन्वेषणम् ) "विबोधः।
विबोधमुदाहरति-भीम इति । केश हस्तं = कचकलापम् । समापयामि - बध्नामि, तपस्विनी-शोचनीया, द्रौपदीति भावः । वेणीसंहारं-कबरीबन्धनम् ।
ग्रन्थनं लक्षयति-उपन्यास इति । कार्याणां-करणीयविषयाणाम, उपन्यास:उपस्थापनं "अयनम्"।
जैसे वेणीमें--भीम-'देवि" द्रोपदि ! आपको याद है जो मैंने कहा था"चशद्भुज." इत्यादि ( ६-८४ ) । इससे मुखसन्धिमें रखखे गये बीज अर्थ का फिर उपस्थापन होनेसे "सन्धि" है।
कार्य के अन्वेषणको "विबोध" कहते हैं । जैसे वहीं-भीम-आर्य मुझे एक क्षण छोड़ दें। युधिष्ठिर--और क्या बाकी है ? । भीम-बहुत कुछ बाकी है। दुर्योधनके रत्त से सिक्त इस हाथसे पाञ्चाली ( द्रौपदी ) के दुःशासनसे खींचे गये केशकलापको बांधता हूँ। युधिष्ठिर-आप जाय । शोचनीय (द्रौपदी) केशबन्धनका अनुभव करें। इस वाक्यसे केशबन्धन कार्यका अन्वेषण होने से विबोध" हुआ है। कार्यों के उपन्यास( उपस्थापन ) को "ग्रन्थन" कहते हैं ।
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४७२
साहित्यदपणे
यथा तत्रैव
'भीमः-पाञ्चालि ! न खलु मयि जीवति संहर्तव्या दुःशासनविलुलित. वेणिरात्मपाणिभ्याम् । तिष्ठ स्वयमेवाहं संहरामि ।' इति । अनेन कार्यस्योपक्षेपाद् ग्रथनम् ।
-निर्णयः पुनः ॥ ११० ।। अनुभूतार्थकथनं-- यधा तत्रैव
'भीमः-देव अजातशत्रो! अद्यापि दुर्योधनहतक १ । मया हि तस्य दुरात्मन:
भूमौ क्षिप्तं शरीरं, निहितमिदमसकचन्दनाभं निजाने, _लक्ष्मीरार्ये निषिक्ता चतुरुदधिपयासीमया सार्द्धमुा । भत्या मित्राणि योधाः कुरुकुलमनुजा दग्धमेतद्रणाग्नौ
ग्रथन मुदाहरति- यथेति। दुःशासनविलुलिता = दुःशासनेन, विलुलिता (विश्लेषिता)। संहर्तव्या = संहरणीया, बन्धनीया । संहरामि = बध्नामि ।
निर्णय लक्षयति-निर्णय इति । अनुभूताऽर्थकथनम् = अनुभूतार्थस्य ( उप. लब्धाऽर्थस्य ), कथनं ( प्रतिपादनम् ) "निर्णयः”।
निर्णयमुदाहरति-भमाविति । दुरात्मनः = दुष्टबुद्धः, तस्य = दुर्योधनस्य, शरीरं-देहः, भूमौ = भुवि, क्षिप्तं = पातितम्, चन्दनाभं = रक्तमलयजसदृशं, इदम्, असृक्-रक्तं, निजाऽङ्गे = स्वशरीरे, निहितम् = अर्पितम् । चतुरुदधिपय सोमया 3 चतुर्णाम् ( चतु संख्यकानाम् ) उदधीनां ( समुद्राणाम् ) पयांसि ( जलानि ) एव सीमानः ( अवधयः ) यस्याः, नया। उा = पृथिव्या, साधं = सह । लक्ष्मी: = राजश्रीः, आर्य-पूज्ये, भवति, निषिक्ता स्थापिता। तथा भृत्याः = भर्तव्या अमात्यादयः, मित्राणि = सुहृदः, योधाः = भटाः, कुरुकुल मनुजाः = कुरुवंशमानवाः, दुःशासनादय इति भावः । एतत् = इदं, सकलं, रणाऽऽग्नो = युद्धाऽनले, दग्धं = भस्मीकृतं,
जैसे वहीं--भीम--पाञ्चाली (द्रौपदी)! मेरे जीते जो दुःशासनसे विलुलित (विश्लेषित ) केशवेशको अपने हाथोंसे नहीं बांधना। ठहरो मैं स्वयम् इसे बांधता हूँ। इससे कार्यका उपस्थापन होनेसे "अन्यन" नामका उपसंहार सन्धिका अङ्ग है । अनुभव किये गये विषय कहनेको निर्णय" कहते हैं ।। ११०॥ . . जैसे वहीं ( वेणीसंहारमें )-भीम--महाराज अजातशत्रो ! आज भी दुर्योधन हतक है ? । मैंने उस दुरात्माके
- शरीरको जमीनपर फेंक दिया, रक्तचन्दनके सदृश इस रुधिर (खून) को अपने . अङ्गमें लेपन किया। चार समुद्रोंके जलरूप सीमाओंवाली पृथिवीके साथ राज्यलक्ष्मी.
को आर्यमें स्थापित किया। भृत्य (अमात्य आदि) मित्र, योद्धा और कुरुकुलके मानव
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पष्ठः परिच्छेदः
नामैकं यद् अवौषि क्षितिप! तदधुना धार्तराष्ट्रात शेषम् ।।
-वदन्ति परिमाषणम् । परिवादकृतं वाक्यम्-- यथा शाकुन्तले
'राजा-आर्य ! अथ सा तत्रभवती किमाल्यस्य राजर्षेः पत्नी ? तापसी-को तस्स धम्मदारपंरिटठाइणो णामं गेहिस्सदि' ।
--लब्धार्थशमनं कृतिः ॥ १११ ॥ यथा वेण्याम
'कृष्णः-एतें भगवन्तो व्यास-वाल्मीकिप्रभृतयोऽभिषेकं धारयन्त स्तिष्ठन्ति इति ।' विनाशितमिति भावः । हे क्षितिप=हे राजन !, एकम् = एकक, यत, नाम = दुर्योधन इति अभिधानं, वीषि - कथयसि, धार्तराष्ट्रस्य - दुर्योधनस्य, अधुना-इदानी, ग्वनाममात्र, शेषम् = अबशिष्टम, अस्तीति शेषः । स्रग्धरा वृत्तम् ।
अत्रानुभूताऽर्थकथनात निर्णयो नाम निर्वहणसन्धेरङ्गम् ॥
परिभाषणं लक्षयति-बदन्तीति । परिवादकतम = अपवादविहिवं. वाक्यं -- पदसमूह, "परिभाषणं" वदन्ति ।
परिभाषणमुदाहरति-पथेति। कस्तस्य धर्मदारपरित्यागिनो नाम ग्रहीष्यति ?" इति संस्कृतच्छाया।
अत्र दूष्यन्तपरिवादसूचनात्परिभाषणम् । . कृति लक्षति-लब्धाऽर्थशमनमिति। लन्धाऽर्थेन ( प्राप्तविषयेण ) शमन ( शोकादिनिवारणम् ) "कृतिः" ॥ १११॥
कृतिमुदाहरति-यथेति । अभिषेकम् अभिषेकपदार्थम् । धारयन्तः गृहन्तः । यह सब युद्धरूप अग्निमें जला डाला, हे राजन् ! एक "दुर्योधन" यह जो आप कहते - हैं, धृतराष्ट्रपूत्रका इस समय वह नाममात्र अवशिष्ट ( प्रवा) है.".
अपवाद (बदनामी ) से किये गये वाक्यको "परिभाषण" कहते हैं।
जैसे शाकुन्तलमें-राजा (दुष्यन्त.)-आर्ये! माननीया के किस नामके राजर्षिकी पस्नी है ? तपस्विनी-धर्मपत्नीका परित्याग करनेवाले उसका नाम कोन लेगा? । प्राप्त विषय से शोक आदिके निवारणको "कृति' कहते हैं ॥ १११॥
जैसे वेणीमें-कृष्ण-ये भगवान् व्यास और बाल्मीकि आदि अभिषेक जलको लेते हुए खड़े हैं।
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साहित्यदर्पणे
बनेन प्राप्तराज्याभिषेकमङ्गलः स्थिरीकरणं कृतिः ।
शुश्रूषादिः प्रसादः स्वात-- . यथा तत्रैव भीमेन द्रौपद्याः केशसंयमनम् ।
--आनन्दो वाञ्छितागमः ।। यथा तत्रत्र'द्रौपदी-विसुमरिदं एदं वावारं णाधस्स पसादेण पुणो वि सिक्खिस्स ।'
सायो दुःखनिर्याणं-- यथा रत्नावल्याम्वासवदत्ता-(रत्नावलीमालिङ्गय ) समस्सस बहिणिए ! समस्सस
--तद्भवेदुपगृहनम् ।। ११२ ।। यत् स्यादभुतसम्प्राप्तिः-- लक्ष्ये लक्षणं सगमयति-प्रनेनेति । स्थिरीकरणं = स्थैर्यसम्पादनम् । प्रसादं लक्षयति-शुभषाविरिति । शुश्रूषादिः = परिचर्यादिः ।
आनन्दं लक्षयति-मानन्द इति । वाञ्छितागमः वाञ्छितस्य (अभीष्टस्य) आगमः ( आगमनं, प्राप्तिरिति भावः ) "आनन्द:"।
मानन्दमुनाहरति--यति । विस्मृतमेनं व्यापारं नाथस्य प्रसादेन पुनरपि शिक्षिष्ये" इति सस्कृतच्छाया । व्यापार = केशसंयमनरूपं कर्म । - समयं लक्षयति--समय इति । दुःनिर्याणं = दुःखस्य निर्याणम् (अपगमः), "समयः"।
समयमुदाहरति-यथेति । "समाश्वसितु भगिनी समाश्वसितु ।" अत्र रत्नावल्या विरहदुःख निर्याणाद “समय:"।
उपगृहन लक्षयति-तविति। यत् अद्भुतसंप्राप्तिः = अद्भुतस्य संप्राप्तिः ( उपलन्धिः ) स्यात् तत् "उपगूहनं" स्यात् ।
इस वाक्यसे प्राप्त राज्यका अभिषे के मङ्गलोंसे स्थिर करना ही "कृति" है। शुश्रूषा आदिको "प्रसाद" कहते हैं । जैसे वहीं भीमसेनके द्रौपदीका केशोंको बांधना ।
अभीष्ट विषय की प्राप्तिको "आनन्द" कहते हैं । जैसे वहीं--
द्रौपदी--भूले गये इस कर्मको स्वामीके अनुग्रहसे फिर भी सीख गी। दुःखके अपगमको “समग" कहते हैं । जैसे रस्नावलीमें
वासवदत्ता--( रत्नावलीको आलिङ्गन कर ) समाश्वस्त हो बहिन ! तुम समाश्वस्त हो।
बद्भुत वस्तुकी प्राप्तिको “उपग्रहन" कहत हैं । ११२ ॥
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षष्ठः परिच्छेदः
यथा मम प्रभावत्यां नारददर्शनात् प्रद्यम्न ऊर्ध्वमवलोक्य'दधद्विद्युल्लेखामिव कुसुममालां परिमल.
भ्रमभृङ्गश्रेणीध्वनिभिरुपगीतां तत' इतः। दिगन्तं ज्योतिर्भिस्तुहिनकरगौरर्धवलयनितः कैलासादिः पतित वियतः किं पुनरिदम् ? ।'
सामदानादि भाषणम् । यथा चण्डकौशिके
'धर्म:-- तदेहि धर्मलोकमधितिष्ठ।' ___पूर्ववाक्यं तु विज्ञेयं यथोक्तार्थोग्दर्शनम् ॥ ११३॥ .
उपगृहनमुदाहरति-वविति । परिमलभ्रमद्भुङ्गश्रेणीध्वनिभिः = परिमलेन ( सुगन्धेन ) भ्रमन्ती ( भ्रमणं कुर्वती) या भाषेणी (भ्रमरपङ्क्तिः ) तस्या ध्वनिभिः (गुञ्जनः ), उपगीताम्-उपशब्दिताम् । तथा विद्युल्लेखांतडित्पङ्क्तिम्, इक कुसुममालो = पुष्पमात्य, दधत् = धारयन्, एवं च तुहिनकरगौरैः - चन्द्रसदृशशुक्लवर्णः; ज्योतिभिः देहकान्तिभिः, तत हसः = तस्मात् अस्मात्, सर्वत इति भावः ।। दिगन्तं = काष्ठाऽन्तं, धवलयन् = शुक्लीकुर्वन, कैलासाऽद्रि : कैलासपर्वतः; वियतः= आकाशाद, इतः अत्र प्रदेश, पतति = निपतति, इदं पुनः, किं - किं नाम आश्चर्यम् । शिखरिणी वृत्तम् । अत्र प्रद्युम्नस्य अद्भुतसंगप्ते रुपगृहनं नाम निर्वहरणसन्धेरङ्गम् ।
भाषणं लक्षयति-सामदानावीति । साम ( सान्स्वरूपम् ) दानं ( वितरणरूपम् ) तदादि "भाषणं" भवेत् ।
भाष ' मुदाहरति-गधेति । अत्र धर्मस्य सामरूपाक्याद्भाषणम् ।
पूर्ववाक्यं लक्षयति-पूर्ववाक्यामिति । यथोक्ताऽर्थोपदर्शनं = यथोक्तस्य ( उक्ताऽनुरूपस्य ) अर्थस्य (विषयस्य ) उपदर्शनं ( प्रदर्शनम्.) "पूर्ववाक्यं" नाम उपसंहारसन्धेरङ्गम्।
जैसे प्रन्थकारकी प्रभावती ( नाटिका ) में नारदको देखकर प्रद्युम्न ऊपर देखकर-सुगन्धसे भ्रमण करने वाली भ्रमरपङ्क्तिके गुञ्जनोंसे गाई गई, बिजलीकी कतारकी समान फूलोंकी मालाको धारण करता हुआ चन्द्रके सदृश शुक्लवोंवाली देहकी कान्तियोसे सर्वत्र दिशाओं के अन्त भागको सफेद बनाता हुआ कैलासपर्वत बाकाशसे इस प्रदेशमें आ रहा है । यह क्या है ?
साम और दान आदिको "भाषण" कहते हैं। जैसे चण्डकौशिक, धर्म-"इसलिए आओ धर्म लोक में रहो।" उक्त के अनुरूप विषयका प्रदर्शन करनेको "पूर्ववाक्य" कहते हैं ॥ ११३ ॥
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साहित्पवर्षो
यथा वेण्याम्-- -
'भीमः--बुद्धिमतिके ! क्समा भानुमती । परिभवतु सम्प्रति पाण्डव. दारान्।'
वरप्रदानसंप्राप्ति कापसंहार इष्यते । यथा सर्वत्र "किं ते भूयः प्रियमुपकरोमि ।" इति ।
नृपदेशादिशान्तिस्तु प्रशस्तिरभिधीयते ॥ ११४ ॥ यथा प्रभावत्याम--
'राजानः सुतनिर्विशेषमवुना पश्यन्तु नित्यं प्रजा
___ जीयासुः सदसद्विवेकपटवः सन्तो गुणग्राहिणः ।
सस्यस्वर्णसमृद्धयः समधिकाः सन्तु क्षमामण्डले पूर्ववाक्यमुदाहरति-यथेति । भानुमती-दुर्योधनपत्नी । पाण्डवदारान् पाण्डवपत्नी, द्रोपदीमिति भावः ।
काव्यसंहारं लक्षयति-वरप्रदानसंप्राप्तिरिति । वरप्रदानस्य ( अभीष्टवर. वितरणस्य ) संपाप्तिः ( उपलब्धिः ) "काव्यसंहार' इष्यते । काव्यसंहारमुदाहरतियथेति।
__ प्रशस्ति लक्षयति-नपदेशादिशान्तिरिति । नृपदंशादीनां (भूपराष्ट्रादीनाम्) शान्तिः ( शमाशंसा) "प्रशस्ति:" अभिधीयते ।
. प्रशस्तिमुदाहरति-राजान इति । अधुनाः- इदानी, राजानः = भूपाः, प्रजाः = जनान्, सुतनिर्विशेष -- पुत्रनिर्भेद, पुत्रसदृशमिति भावः । नित्यं = सततं, पश्यन्तु = अवलोकयन्तु । सदसद्विवेकपटवः इदं सत् (प्रशस्तम् ) इदम् असत् (अप्रशस्तम् ) इति यो विवेकः ( विवेचनम् ), तस्मिन् पटवः (कुशलाः; समर्या इति भावः ), एतादृशो गुणग्राहिणः= गुणग्राहकाः, सन्तः सज्जनाः; जीयास:-सर्वोत्कर्षण वर्तन्ताम् । क्षमामण्डले = भूचक्रवाले, समधिकाः = अतिप्रचुराः, सस्पस् समृद्धयः = धान्यकन कसंवृद्धयः, सन्तु-भवन्तु । त्रिजगतः लोकत्रयनिवासिनो जनस्य नारायणे
जैसे वेणीम - भीम-बुद्धिमति के ! वह भानुमती कहा है ? इस समय वह पाण्डवोंकी पत्नीको तिरस्कृत करे।
वरदानकी प्राप्तिको "काव्यसंहार" कहते हैं।
जैसे वहीं-'फिर तुम्हारा कौन सा अभीष्ट उपकार करूं ?" राजा और देश आदिकी शान्तिको "प्रशस्ति" कहते हैं ॥ ११४॥
जैसे प्रभावतीम-"इस समय राजालोग प्रजाओंको पुत्रोंके समान नित्य देखें। यह सद है यह असद है ऐसे विवेकमें निपुण गुणग्राहक सज्जनलोग उस्कर्षपूर्वक
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षष्ठः परिच्छेदः
भूयादव्यभिचारिणी त्रिजगतो भक्तिश्च नारायणे ।' अत्र चोपसंहारप्रशस्स्योरन्त एकेन क्रमेणैव स्थितिः। .
'इह च मुखसंधौ. उपक्षेपपरिकरपरिन्यासयुक्त्युभेदसमाधानानां, प्रतिमुखे च परिसर्पणप्रगमनवोपन्यासपुष्पाणां गर्भऽभूताहरणमार्गत्रो(तो). टकाधिवलक्षेपाणां विमर्शेऽपवादशक्तिव्यवसायप्ररोचनादानानां प्राधान्यम् । अन्येषां च यथा सम्मषं स्थितिः' इति केचित्।
चतुःषष्टिविकं तदङ्ग प्रोक्तं मनीषिभिः । कुर्यादनियते तस्य संघावपि निवेशनम् ।। ११५ ।।
रसानुगुणतां वीक्ष्य रसस्यैव हि मुख्यता । भगवति श्रीविष्णी, अव्यभिचारिणी व्यभिचाररहिता, ऐकान्तिकोति भावः । भक्तिश्च= अनुरक्तिका, भूयात् = भवतात् । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।
___ अत्र राजदेशादीनां शान्तेराशंसया प्रशस्ति मोपसंहारसन्धेरङ्गम्, तत्तत्सन्धिषु तत्तदङ्गानां प्राधान्य प्रदर्शयति-इहेति । अन्येषां = विलोमनादीनामङ्गानाम् ।
स्वीयं मतं दर्शयति-चतुःषष्टिविधर्मिति। मुखाऽङ्गानि द्वादश, प्रतिमुखाऽङ्गानि त्रयोदश, गर्भाङ्गानि, विमर्शाङ्गानि निर्वहणाऽङ्गानि च तावत्येव समष्टया चतुःषष्टिरिति निर्वहणाङ्गप्रशस्तिनिराकरणकारिणः । येषां मते प्रशस्तिस्वीकृतिस्तत्र गर्भागभूतायाः प्रार्थनाया अस्वीकृ'तः । इत्थ च पक्षद्वयेऽपि चतुःषष्टिविधान्यङ्गानि । रसाऽनुगुणतां-- रसस्य (शृङ्गारादेः ) अनुगुणताम् ( अनुकूलताम् ), वीक्ष्य दृष्ट्वा, अनियते = अनिर्दिष्टे, सन्धावपि, तस्य-अगस्य, निवेशनं = प्रवेशनं, कुर्यात् । हि= यस्मा द्धतोः रसस्यैव मुख्यता ।। ११५॥
. उदाहरति-यथेति । संधारणं कर्तव्ये युक्तिरूपं मुखसन्धे रङगम् । नियमःतत्सन्ध्यङ्गस्थ तत्सन्धावेव निवेश इत्येवरूपः लक्ष्यविरुद्ध महाकविप्रयोगविरुद्धम् । रह रहें । भूमण्डलमें अतिप्रचुर धान्य और सुवर्णों की समृद्धियां हों। तीन लोकोंके जनोंको श्रीनारायणमें अव्यभिचारिणी ( ऐकान्तिकी ) भक्ति हो ।
यहाँ अन्तमें उपसंहार और प्रशस्ति की इसी क्रमसे स्थिति होती है। इन अगोंमें मुखसन्धिमें उपक्षेप, परिकर, परिन्यास युक्ति, उद्भद और समाधानकी प्रधानता होती है इसी तरह प्रतिमुखमें परिसर्पण, प्रगमन, वज्र, उपन्यास और पुषकी, गर्भ में अभूता. हरण, मार्ग, त्रो (तो) टक, अधिबल और क्षेपकी, तथा विमर्श सन्धि में अपवाद, शक्ति, व्यवसाय, प्ररोचना और आदानकी प्रधानता होती है। अवशिष्ट अगों की यथा संभव. स्थिति रहती है। ऐसा कुछलोग कहते हैं ।
विद्वानोंने इस प्रकारसे चौसठ प्रकारके अङ्गों को माना है। रसकी अनुकूलताको देखकर अनिर्दिष्ट सन्धिमें भी अङ्गका निवेशन करें, क्योंकि उसकी ही मुख्यता है।११॥
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४७८
साहित्यदर्पणे
यथा वेणीसंहारे तृतीयाङ्के दुर्योधनकर्णयोर्महत्संप्रधारणम् । एवमयत्रापि । यत्तु रुद्रटादिभिः 'नियम एव' इत्युक्तं तल्लक्ष्य विरुद्धम् । इष्टार्थरचनार्य लाभो वृतान्तविस्तरः ।। ११६ ॥ रागप्राप्तिः प्रयोगस्य गोप्यानां गोपनं तथा ।
"
प्रकाशनं प्रकाश्यानामङ्गानां षड् विधं फलम् ।। ११७ ॥ अङ्गहीनो नरो यद्वभ वारम्भक्षमो भवेत् ।
अङ्गहीनं तथा काव्यं न प्रयोगाय युज्यते ।। ११८ ॥ . संपादयेतां संध्यचं नायकप्रतिनायकौ ।
=
अङ्गानां फलान्युद्दिशति - इष्टाऽर्थरचनेति । इष्टाऽर्थस्व (अभीष्ट विषयस्य ) रचना (निर्माणम् ) । आश्चर्यलाभः विस्मयप्राप्तिः, द्रष्टुरिति शेषः । वृत्तान्तः विस्तरः = वृत्तान्तस्थ ( उदन्तस्य ) विस्तरः ( बाहुल्यम् ) । प्रयोगस्य = अभिनयस्य -रागप्राप्ति: अभिलाषलाभः । गोप्यानां = गोपनीयानां विषयाणां गोपनंरक्षणम् ।
- तथा प्रकाशयानां = प्रकाशयोग्यानां विषयाणां प्रकाशनम्, इत्थं च षड्विधं फलं :
,
• प्रयोजनम् ।। ११७ ।।
फलदर्शन प्रयोजनमाह - श्रङ्गहीन इति । यद्वत् अङ्गहीनः हस्तपादाद्यङ्ग· रहितः, नरः - मानवः, आरम्भक्षमः = कार्यानुष्ठानसमर्थः, न भवेत् तथा काव्यम्, अङ्गहीनम् = मुखाद्यङ्गरहितं सत्, प्रयोगाय = अभिनयम्य, न युज्यते न प्रयुज्यते ॥ ११८ ॥
सन्ध्यङ्गसम्पादन हेतुता विविनक्ति-सम्पादयतामिति । नायकप्रतिनायकी, सैन्ध्यङ्ग, संपादयेतो = वचनेन विदधीयाताम् । तदभावे = सन्ध्यङ्गसम्पादनाऽभावे,
जैसे वेणीसंहार में तीसरे अमें दुर्योधन और कर्णका महत् सम्प्रधारण अर्थात कर्तव्य में युक्तिरूप मुखसन्धिका अङ्ग है । इसी तरह अन्यत्र भी जानना चाहिए । जो कि रुद्रट आदि विद्वानोंने "नियम ही है" अर्थात् इन सभीको यथास्थान नियत होना चाहिए ऐसा कहा है वह लक्ष्य के विरुद्ध है ।
अङ्गका फल कहते हैं - अभीष्ट वस्तुकी रचना, आश्चर्य की प्राप्ति, वृत्तान्तः की अधिकता ।। ११६ ॥
अनुरागकी प्राप्ति, गोपनीय विषयोंका गोपन और प्रकाश योग्य अंशोंका प्रकाशन इस प्रकार अगोंके छः फल होते हैं ।। ११७ ॥
जैसे अङ्गहीन मनुष्य कार्य के आरम्भ में समर्थ नहीं होता है, वैसे ही अङ्गहीन काव्य प्रयोग के लिए उपयुक्त नहीं होता है ।। ११८ ॥
सन्धि अङ्गको नायक और प्रतिनायक संपादित करें उनके अभाव में पताका
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षष्ठः परिच्छेदः
४७९
तदभावे पताकाद्यास्तदभाव तथेतरत् ॥ ११९ ॥ प्रायेण प्रधानपुरुषप्रयोज्यानि सन्ध्यङ्गानि भवन्ति । किन्तूपक्षेपादित्रयं बीजस्याल्पमात्रसमुद्दिष्टत्वादप्रधानपुरुषप्रयोजितमेव साधु ।
रसव्याक्तमपेक्ष्यषामङ्गानां संनिवेशनम् ।
न तु केवलया शास्त्रस्थितिसंपादनेच्छया ॥ १२० ॥ तथा च यद्वेण्या दुर्योधनस्य भानुमत्या सह विप्रलम्भो दर्शितः, तत्तादृशेऽवसरेऽत्यन्ता नुचितम्।
अविद्धं तु यद् वृत्तं रसादिव्यक्तयेऽधिकम् ।
जयन्यथयेद्धीमान वदेद्वा कदाचन ॥ १२१ ॥ पत्तकाद्या:=पता । "व्यापि प्रासङ्गिक वृत्तं पताकेत्यभिधीयते।" इत्युक्तलक्षणलक्षिता पताका, आद्यपदेन कार्यप्रकृतीरर्थप्रकृती: सम्पादयेताम्, तदभावे = तस्याऽप्य मावे तथा इतरत् = नाट्यलक्षणादिक, सम्पादयेताम् ॥ ११९ ।।
विवृणोति-प्रायति । प्रायेण = बहुधा ।
अङ्गसंनिदेशनविवेकमाह-रसव्यक्तिमिति। रसव्यक्ति = शृङ्गारादिरसप्रकाशम, अपेक्ष्य = उद्दिश्य, एषां = पूर्वोक्तानाम्, अङ्गानां, सन्निवेशनं = स्थापन, किन्तु केवलया, शास्त्रस्थितिसम्पादनेच्छया = नाट्यशास्त्रवचनपालनाऽभिलाषेण तु न - अङ्गानां संनिवेशनं न कुर्यादिति भावः ॥ १२० ॥ ___ पिवणोति-विप्रलम्भः = विप्रलम्भशृङ्गारः ।
नाट्ये इतिवृत्तस्थिति विविनक्ति--प्रविरुद्धमिति । यत् वृत्तं = वृत्तान्तः तु, रसादिव्यक्तये = रस भावादिस्फुटीकरणाय, अविरुद्ध = विरोधरहितम् अथ च अधिकम्अतिरिक्तम्. अनावश्यक प्रतीयते, धीमान् बुद्धिसम्पन्नः, कविः = नाट्यले बकः, तदपि= नायक मादि तथा उनके भी अमावमें अन्य जन सम्पादित करे ॥ ११९ ॥
सन्धिके अङ्ग अधिकार प्रधान पुरुषों के प्रयोगके योग्य होते हैं, परन्तु उपक्षेप; परिकर और परिन्यास इन तीनोंमें बीजका थोड़ा ही समुद्दिष्ट होनेसे प्रधान पुरुषोंसे ही प्रयोग होना उचित है।
इन अङ्गोंकी स्थिति रसव्यक्ति के अपेक्षा करके होनी चाहिए केवल शास्त्र: स्थितिसम्पादनकी इच्छा से नहीं होनी चाहिए ॥ १२० ॥
___ जैसे- वेणीसंहारमें दुर्योधनका भानुमतीके साथ जो विप्रलम्भशृङ्गार दिखाया है वह वैसे अबसरमें अत्यन्त अनुचित है । जो चरित्र इतिहास आदिसे विरुद्ध नहीं है तो
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४८०
साहित्यदर्पणे
अनयोरुदाहरणं सत्प्रबन्धेष्वभिव्यक्तमेव ।
अथ वृत्तयः-
शृङ्गारें कैशिकी, वीरे साच्चत्यारभटी पुनः | रसे रौद्रे च बीभत्से वृत्तिः, सर्वत्र भारती ॥ १२२ ॥ चतस्रो वृत्तयो होताः सर्वनाट्यस्य मातृकाः । स्युर्नायिकादिव्यापारविशेषा नाटकादिषु ।। १२३ ।।
तत्र केशिकी
या श्लक्ष्ण नेपथ्य विशेषचित्रा स्त्रीसंकुला पुष्कलनृत्यगीता ।
तादृशं वृत्तान्तमपि, अन्यथयेत् = अन्यथा कुर्यात्, कदाचन - जातुचिदपि न वदेत् = व प्रतिपादयेत्, रसोपयोगि वृत्त प्रदर्शयेदिति भावः ॥ १२१ ॥
विवृणोति -- प्रनयोरिति । रसाऽनुपयोगिवृत्तस्य अन्यथा करणाऽवदनयोः, प्रबन्धेषु = अभिज्ञानशाकुन्तलादिषु ।
नाट्यवृत्तीः प्रतिपादयति--शृङ्गार इति । शृङ्गारे रसे कैशिकी वृत्तिः) पुस्तकान्तरे " को शकीति पाठ: परं भारतीय नाट्यशास्त्रे दशरूपके च "कैशिकी " ति पाठ: । वीरे रसे सात्त्वती, रौद्रे बीमरसे च रसे वृतिरारमटो, सर्वत्र = अन्येषु सर्वेषु रसेषु भारती नाम वृत्तिः ॥ १२२ ॥
एताः नाटकादिषु नायका दिव्यापारविशेषाः = नायकादीनाम् (आदिपदेन नायिकाप्रतिनायकादीनाम् ) व्यापारविशेषाः (चेष्टाविशेषाः) सर्वनाट्यस्य (सकलाऽभिनयस्थ ) मातृका: = मातृव दुपजीव्याः ।। १२३ ।।
=
कैशिकीलक्षणं-येति । या श्लक्ष्णनेपथ्यविशेषचित्रा = श्लक्ष्ण: ( सूक्ष्म: ) यो नेपथ्यविशेषः ( नायिकादिभूषणविशेषः ) तेन चित्रा ( अद्भुता ), स्त्रीसङ्कुला नारी बहुला, पुष्कलनृत्यगीता- पुष्कलानि ( प्रचुराणि ) नृत्यगीतानि ( नर्तनगानानि ) श्री रस आदिको व्यञ्जनाके लिए अधिक है। विद्वान् जन उसे भी बदल दें उसे कभी न कहे ।। १२१ ।
इन दोनों उदाहरण महावीरचरित आदि उत्तम प्रबन्ध में स्पष्ट ही हैं । वृत्तियाँ - शृङ्गारमें कैशिकी, वोर, रौद्र और वीभत्स में सास्वती और आरभटो वृत्ति उपयुक्त है, परन्तु भारती वत सभी रस उपयुक्त है ।। १२२ ।। ये चार वृत्तियां संपूर्ण नाट्यकी मातृका ( आधारभूत ) है। नाटक आदि नायक और नायिका आदिके व्यापार विशेषको वृत्ति कहते हैं ।। १२३ ।
कैशिकी -- जो सूक्ष्म नेपथ्य ( वेशरचना ) विशेषसे विचित्र, प्रचुर स्त्रियोंसे
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षष्ठः परिच्छेदः
४८१
कामोपभागप्रभवोपचारा सा कैशिकी चारुविलासयुक्ता ॥१२४।।
नमें च नर्मस्फूजों नमस्फोटोऽथ नर्मगभश्च ।
चत्वायनान्यस्या-- तत्र
--चैदग्ध्यक्रीडितं नर्म ॥१२५।। इष्ट जनावर्जनकृत्तच्चापि त्रिविधं मतम् ।
विहितं शुद्धहास्येन सशृङ्गारभयेन च ॥१२६।। तत्र केवलहास्येन विहितं यथा रत्नावल्याम्यस्यां सा। कामोपभोगप्रभावोपचारा - कामोपभोगः ( शृङ्गारः ) तस्य प्रभवः (कारणभूतः ) उपचारः ( व्यवहारः ) यस्यां सा । तथा चारुविलासयुक्ता = चारवः (मनोहराः ) ये विलासा: ( शृङ्गारचेष्टाः ), तयुक्ता ( सहिता)। सा = तादृशी वृत्तिः, कैशिकी नाम ॥ १.४॥
कैशिक्या अङ्गानि निर्दिशति-नर्मति। नर्म, नम फर्जी नर्मस्फोटः, अथ च नर्मगर्भश्च, अस्या: = कैशिक्याः, चत्वार्यङ्गानि । - नर्म लमयति-वैधग्ध्यक्रीडितमिति। इष्टजनावर्जनकृत् = इष्टजनस्य ( अभीष्टलोकस्य ) आवर्जनकृत (प्रीतिकारकम् ) वैदग्ध्य क्रीडितं नैपुण्यक्रीडनं नर्मेति लमणम् ।। १२५ ॥
नर्मणस्त्रविध्यं निदिशति-तच्चाऽपीति । तच्च = नर्म च । विविध त्रि. प्रकारं, मतम् = अभिमतम् । शुद्धहास्येन विहितम् १ सशृङ्गारभयेन = शृङ्गार. हास्येन २, समयहास्येन च ३ विहितम् ।। १२३ ॥
विवृतावुदाहरति-तत्रेति । केवलहास्येनेति ? । एषाऽपि अपरा तव समीपे यथा लिखिता, इदं किमार्यवसन्त कस्य विज्ञानम् ।" इति संस्कृतच्छाया। एषाऽपि = प्रतिनिकटस्थिताऽपि, सागरिकाऽपीति भावः । विज्ञानं = क्रियाकौशलम् । युक्त उत्तम नृत्य और गीतसे सम्पन्न, कामोपभोगका कारणभूत उपचारसे युक्त तथा मनोहर विलाससे युक्त है वह कैशिकी वृत्ति है ।। १२४ ॥
कैशिकीके अङ्ग-नर्म, नर्मस्फूर्ज, नर्मस्फोट और नर्मगर्भ इस प्रकार कैशिकी वृत्तिके चार अङ्ग हैं।
नर्म-निपुणतासे युक्त क्रीडाको "नमं" कहते हैं ।। १२५ ।।
अभीष्ट जनके मन को वश में करने वाली । उसके भी तीन भेद होते हैं-स्य: विहित, शृङ्गारहास्यविहित और भयहास्यविहित !! १२६ ।।
केवलहास्यविहित नर्म जैसे रत्नावली में-- ३१ सा
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साहित्यदर्पणे
. 'वासवदत्ता-(फलकमुद्दिश्य सहासम् ) एसा वि अवरा तव समीवे जधालिहिदा एवं किं अजवसन्तस्स विण्णाणम्।
सशृङ्गारहास्येन यथा शाकुन्तले-राजानं प्रति'शकुन्तला-असंतुटठो उण किं करिस्सदि । राजा-इदम् । ( इति व्यवसितः । शकुन्तला वक्त्रं ढोकते) सभयहास्येन यथा रत्नावल्याम्-आलेख्यदर्शनावसरे।
'सुसंगता-जाणिदो मए एसो वुत्तन्तो समं चित्तफलएण । ता देवीए गदुआ निवेदइस्सम्'। एतद्वाक्यसम्बन्धि नर्मोदाहृतम्। एवं वेषचेष्टासम्बन्ध्यपि ।
नमस्फूजः सुखारम्भो भयान्तो नवसंगमः । सशृङ्गारहास्येन २ राजनं भूपं, दुष्यन्तमित्यर्थः। "असन्तुष्टः पुनः कि करिष्यति ?" इति संस्कृतच्छाया । करिष्यति = विधास्यति, भवानिति शेषः । इदम् = एतद; चुम्बनमिति भावः । व्यवसितः - चुम्बितु प्रवृत्तः, आदिकर्मणि क्तप्रत्ययः । ढोकते = परावर्तर्यान, ढोकृधातुर्यद्यपि धातुपाठे दर्शनार्थकस्तथापि "धातूपसणामनेकार्या" इति नयेनाऽत्र परावर्तनाऽर्थकः ।
सभयहास्येन ३ सुराङ्गता-"ज्ञातो मया एष वृत्तान्त: समं चित्रफलकेन । तद्देव्य गत्वा निवेदयिष्यामी"ति संस्कृतच्छाया। देव्य-वासवदत्ताय, निवेदनक्रियाग्रहणाच्चतुर्थी। बेषचेष्टासम्बन्ध्यपि = नेपथ्यप्रवृत्तिसम्बद्धमपि, नर्मेति भावः । उदाहर्तव्यमिति शेषः ।
नमस्फूर्ज लक्षयति-नर्मस्फर्ज इति। सुखारम्भः = सुखः ( आनन्दजनकः ) आरम्भः ( उपक्रमः ) यस्य सः । भयाऽन्तः = भयम् ( भीतिः ) अन्ते ( अवसाने ) यस्य सः, तादृशो नवसंगमः = नूतनसमागमः, 'नर्मस्फूर्जः" भवतीति शेषः ।
वासवदत्ता-(चित्र फलकको उद्देश्य कर हास्यपूर्वक ) "आपके समीप लिखी गई यह दूसरी भी क्या यह आर्य वसन्तककी शिल्परचना है ?"।
शुनारहास्यविहित जैसे शाकुन्तलमें--राजाके प्रति शकुन्तला-"असन्तुष्ट होकर फिर आप क्या करेंगे?"
राजा--यह ( ऐसा कहकर चुम्बन करनेका उद्योग करते हैं ) ( शकुन्तला मुंह छिपाती है)।
भयहास्यविहित जैसे-रत्नावलीमें-चित्रदर्शनके अवसरमें, "सुसंगता-" चित्रफलकके साथ इस वृत्तान्तको मैंने जान लिया है, इसलिए जाकर महारानीको निवेदन करूंगी"।
__यह वाक्यसम्बद्ध नर्मका उदाहरण है। इसी प्रकार वेष-चेष्टासम्बद्ध नर्मको भी जानना चाहिए। .. नमस्फूर्ज--प्रारम्भमें सुखकारक और अन्तमें भयकारक नवीन समागमको "नमस्फूर्ज" कहते हैं।
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षष्ठः परिच्छेदः
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यथा मालविकायां सङ्केतनायकमभिस्तायाम् 'नायक:
विसृज सुन्दरि ! सङ्गमसाध्वसं ननु चिरीत्प्रभृति प्रणयोन्मुखे । परिगृहाण गते सहकारतां त्वमतिमुक्तलताचरितं मयि ।।
मालविका-भट्टा : देवीए भएण अप्पणो वि पि कउं ण पारेमि' इत्यादि। अथ नर्मस्फोट:
नमस्फोटो भावलेशः सूचितोल्परसोमतः ॥ १२७ ।। नमस्फूर्जमुदाहरति-यथेति । सकतनायक- सकेसस्थानगतं नायकम्, उदयन. मिति भावः । नायिका = मालविकायाम् । अभिमृतायां = कृताभिसारायाम् नायकः-उदयनः।
विसजेति । उदयनो मालविका मनुनयति । नतु हे सुन्दरि ! सङ्गमसाध्वसं= सङ्गमविषये ( समागमे ) साहसं (भयम् ) विसृज-त्यज । चिरात् प्रति-बहुसमया. दारभ्य, प्रशयोन्मुखे-प्रेमाऽभिलाषुके, सहकारताम् = अतिसौरमाप्रमावं गते - प्राप्त मयि = विषये, त्वम्, अतिमुक्तलताऽऽचरितम् = अतिमुक्तलतायाः (माधवीलतायाः ) आचरितम् ( आचरणम् ), प्रतिगृहाण स्वीकुरु, अनिमुक्तलता सहकारमिव त्वं मामा लिङ्गेति भावः । द्रुतविलम्बितं वृत्तम् ।
मालविकेति । “मतः ! देव्या भयेन आत्मनोऽपि प्रियं कतुं न पारयामीति संस्कृतच्छाया। इत्यादि । न पारयानि = न शक्नोमि "पार ( तीर) कर्मसमाप्तो" इति धातोर्लट् ।
नमस्फोटं लक्षयति-नर्मस्फोट इति । भादलेशः = ईषत्प्रकाशितर्भाव , सूचितः = प्रकाशितः, अल्परसः = स्तोकशृङ्गार: “नमस्फोट:" मतः ॥ १२७ ।।
जैसे मालविकाके-सङ्केतनायक ( उदयन ) के पास अभिसार करनेपर--- नायक (राजा उदयन)-हे सुन्दरि ! समागममें भयको छोड़ो। बहुत कालसे प्रेम करनमें तत्पर मेरे सहकार ( कलमी आम )के भावको प्राप्त होनेपर तुम अतिमुक्तला के आचरण को प्राप्त करो।
मालविका--"स्वामिन् ! महारानीके भयसे मैं अपने प्रिय कार्यको भी नहीं कर सकती हूँ" । इत्यादि।
नर्मस्फोट--थोड़ेसे भावोंसे सूचित अल्परसवाले नर्मको नर्मस्पोट कहते हैं ।। १२७॥
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४८४
यथा मालतीमाधवे -
साहित्यदर्पणे
'गमनमलसं शून्या दृष्टिः, शरीरमसौष्ठवं,
श्वसितमधिकं, किन्वेतत् स्यात् किमन्यदितोऽथवा । भ्रमति भुवने कन्दर्पाज्ञा, विकारि च यौवनं
ललितमधुरास्ते ते भावाः क्षिपन्ति च धीरताम् ॥' अत्र अलसगमनादिभिर्भावलेशैर्माधवस्य मालत्या मनुरागः स्तोकः प्रकाशितः । गर्भो व्यवहृतितुः प्रच्छन्नवर्तिनः ।
यथा-तत्रैव सखीरूपधारिणा माधवेन मालत्या मरणव्यवसायवारणम् ।
नर्मस्फोटमुदाहरति- गमनमिति । माधवं प्रति मकरन्दस्योक्तिरियम् । माधवस्य गमनं == गतिः, अलसम् = आलस्ययुक्तं, मन्दमित्यर्थः ।
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दृष्टिः = दृक्, शून्या= निर्विषया, शरीरं देहः, असौष्ठवं सौष्ठवरहितं, सौन्दर्य रहितमिति भावः । श्वसितं = निःश्वासः, अत्रिकम् = अतिरिक्तम् अस्वाभाविकमितिभावः । एतत् किं नु स्यात् = भवेत्, अथवा = यद्वा इतः अस्मात्, अपरम् - अन्यत् कि, स्यात् ? यतो भुवने-लोके, कन्दर्पाज्ञा = कन्दर्पस्य ( कामदेवस्य ) आज्ञा ( अनुज्ञा ), भ्रमति = भ्रमणं करोति, यौवनं च = तारुण्यं च विकारि = मनोविकारकारि, अस्तीति शेषः । एवं च ललितमधुराः - मृदुलमनोहराः, ते ते प्रसिद्धा अनु भूतपूर्वा वा भावा: चन्द्रचन्दनादिपदार्थाः, धीरतां धेयं क्षिपन्ति = निवास्यन्ति । हरिणी वृत्तम् ।
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उदाहरणं विशदयति-प्रलसगमनाविभिरिति । तादृशैर्भावलेशैः । स्तोकः = अल्पः नर्मगर्भ लक्षपति - नर्मगर्भ इति । प्रच्छन्नवर्तिनः = अदृश्यभावेन स्थितस्य, नेतुः = नायकस्य, व्यवहृतिः = व्यवहारः, "नर्मगर्भः " ।
नगर्भमुदाहरति यथेति । तत्रैव मालतीमाधव एव । सखीरूपधारिणा वयस्थावेशधारकेण, लवङ्गिकाकालरूपधारकेणेति भावः । मरणव्यवसायवारणं मरणव्यवसायस्य ( आत्म महत्योद्योगस्य ) वारणम् ( निवारणम् ) ।
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जैसे मालतीमाधवमें गति आलस्यपूर्ण, दृष्टिशून्य, शरीर संस्काररहित, श्वास अधिक, यह इससे भिन्न क्या होगा ?
लोक में कामदेवकी आज्ञा भ्रमण कर रही है, यौवन विकारयुक्त है, कोमल और मनोहर वे भाव ( रतिचेष्टाएँ ) धर्मको हटा रहे हैं ॥
इसमें आलस्यपूर्ण गमन आदि अल्प अभिप्रायोंसे मालती में माधवका कुछ अनुराग प्रकाशित हुआ है ।
नर्मगर्भ -- प्रच्छन्न रूपसे विद्यमान नायकके व्यवहारको "नर्मगर्भ" कहते हैं । जैसे वहीं पर सखी के रूपको लेनेवाले माधवका मालतीके मरणके उद्योगको हटाना ।
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षष्ठः परिच्छेदः
४८५
अथ सात्त्वती
साचती बहुला सचशौर्यत्यागदया वैः ।। १२८ ।। महर्षा क्षुद्रशृङ्गारा विशोका साश्ता तथा। उत्थापकोऽथ सांघात्यः संलापः परिवर्तकः ॥ १२९ ।। विशेषा इति चत्वारः सावत्याः परिकीर्तिताः ।
उत्तेजनकरी शत्रो गुत्थापक उच्यते ।। १३० ।। यथा महावीरचरिते'आनन्दाय च विस्मयाय च मया दृष्टोऽसि दुःखाय वा
वैतृष्ण्यन्तु ममापि सम्प्रति कुतस्त्वदर्शने चक्षुषः । सात्त्वती लक्षयति-सात्वतीति । सात्त्वशोयंत्पागदयाऽऽजवः सत्त्वम् (अध्यवसायः ) शौयं ( शूरता ) त्यागः ( दानम् ) दया (कृपा) आर्जवम् (ऋजुता, सरलतेति भावः ) नथा च एतगुणः, बहुला - प्रचुरा ॥ १२८ ।।
सहर्षा = हर्षसहिता, क्षुद्रशृङ्गारा-अल्पशृङगारयुक्ता । विशोका-शोकरहिता तथा साद्भुता = अद्भुतरससहिता, या वृत्तिः सा "सात्वती"।
सात्वत्या भेदान्निर्दिशति-उत्थापक इति । उस्थापकः, साङ्घात्यः, संलापः परिवर्तकश्च ॥ १२९ ।
इति एवं, सात्वत्या वृत्तेश्चत्वारो विशेषाः भेदाः, परिकीर्तिताः ।
उत्थापकं लक्षयति-उत्तेजनकरीति । शत्रोः = वैरिणः, उत्तेजनकरीकोधवृद्धिकारिणी, वाक् = वाणी, "उत्थापकः" उच्यते ।। १३०॥
उत्थापकमुदाहरति-प्रानन्दायेति । श्रीराम प्रति रावणप्रेरिसस्य वालिन उक्तिरियम् । मया स्वम् आनन्दाय-हर्षोत्पादनाय, प्रियदर्शनत्वादिति शेषः । विस्मयाय= आश्चर्योत्पादनाय, रूपाऽतिशयादिति शेषः । दुःखाय वा = व्यथोत्पादनाय वा, हन्त. व्यत्वादिति शेषः । दृष्टः = अवलोकितः, असि = विद्यसे, तु = परन्तु, सम्प्रति = अधुना, त्वद्दर्शने मवद्विलोकने, मम, चक्षुषः = नेत्रस्य, वैतृष्ण्यं तृष्णाऽभावः, कुत:=
सात्वती-सत्त्व (बल), शूरता, दान, दया तथा सरलता और हर्षसे युक्त कुछ शृङ्गारसे सहित, शोकरहित और अद्भुत रससे युक्त वृत्तिको "सात्वती" कहते हैं, उसके उत्थापक, साङ्घात्य, संलाप और परिवर्तक ये चार भेद कहे गये हैं ॥ १२८-१२९ ॥
उत्थापक--शत्रुको उत्तेजना करनेशली वाणी "उत्थापक" है ।। १३०॥
जैसे महावीरचरितमें--आनन्द, आश्चर्य और दुःखके लिए तुम मुझसे देखे गये हो । आज इस समय तुह्मारा दर्शन होनेपर मुझे वितृष्णता कहाँ है ? जो कि
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४८६
साहित्यदर्पणे
त्वत्साङ्गत्रसुखस्य नाऽस्मि विषयस्तत किं वृथा व्याहृतैः
अस्मिन् विश्रुतजामदग्न्यदमने पाणी धनुजम्मताम् ।। मन्त्रार्थदेवशक्त्यादेः सांघात्यः सङ्घभेदनम् ।
मन्त्रशक्त्या यथा-मुद्राराक्षसे राक्षससहायानां चाणक्येन स्वबुद्धचा भेदनम् । अर्थशक्त्यापि तत्रैव।
देवशक्त्या यथा-रामायणे रावणाद्विभीषणस्य भेदः।
संलापः स्याद् गभीरोक्तिर्नानाभावसाश्रयः ।। १३१ ॥ कस्मादेतोः, स्यात्, न कुतोऽपीति भावः । स्वरसाङ्गत्यसुखस्य त्वत्साङ्गत्वेन ( त्वत्स गतिभावेन ) यत् सुखम् (आनन्दः ), तस्येत्यर्थः । “यत्माङ्गल्यसुखस्ये"ति पाठान्तरे माङ्गल्यसुखस्य = मङ्गलप्रयोजनकानन्दस्येत्यर्थः। विषयः = पात्रं, यत् न अस्मि; विरोधिस्वादिति शेषः । अतो बहुव्याहृतः अधिकल्पितः, किम् ?। विश्रुतजामदग्न्य. दमने-विश्रुतं प्रख्यातम् "विस्मृते"ति पाठान्तरं, तत्र विस्मृतः (विस्मरणविषयीकृतः) जामदग्न्यस्य (परशुरामस्य ) दमनं ( पराजयः) ( यस्य ) तस्मिन् । “विजये"ति पाठान्तरे विजयः ( पराजय; ) यस्य तस्मिन् । अस्मिन् एतस्मिन्, पाणी-करे, धनुःकार्मुकं, जम्भता = वर्वताम् । धनुहागेति भावः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । पत्र रामस्योत्तेजनकरवाक्यरवादुत्थापकः सात्तीभेदः ।
_ साङ्घात्यं लमयति-मन्त्राऽयंदेवशक्त्यावेरिति। मन्त्रशक्तेः (मन्त्रणाशक्तः), अर्यशक्तः (धनशक्तः) देवशक्त्यादेश (भाग्यशत्यादेश्व), सहभेदनं = सङ्घस्य (जनसमूहस्य ) भेवनं (भेदकरणम् ), साक्षात्यः" सात्वतीभेदः । [संहत्य" इति पाठान्तरम् । - साङ्घात्यमुवाहरति-मन्त्रशक्त्येति। .
संलापं लक्षयति-संलाप इति । नानाभावसमाश्रयः नानाभावानाम् (अनेकप्रकाराणामभिप्रायाणाम् ) समाश्रयः ( सम्यगाधारः ) गमीरोक्तिः गभीरा (प्रवीणजन. मात्रवेद्या ) या उक्तिः ( कथनम् ) स "संलापः" ॥ १३१॥ आपकी संगतिसे सुबका विषय नहीं हैं। बहुत वचनोंसे क्या? परशुरामकी जयसे . प्रख्यात इस बाहुमें धनुषका संबद्धन हो ।
सास्चात्य-मन्त्रशक्ति, अर्थशक्ति और देवशक्ति आदिसे समुदायके भेद करनेको "साक्षात्य" कहते हैं।
मन्त्रशक्तिसे-जैसे मुद्राराक्षसमें चाणक्यने राक्षसके सहायकोंका भेद कर दिया है। अर्थशक्तिसे भी बनींपर । देवशक्तिसे जैसे रामायण में रावणसे विभीषणका भेद हुआ है।
. संलाप अनेक भावोंके आश्रयवाली गम्भीर उक्तिको संलाप' कहते हैं ।।१३१॥
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षष्ठः परिच्छेदः
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यथा वीरचरिते
__ 'रामः-अयं सः, यः किल सपरिवारकार्तिकेयविजयावर्जितेन भगवता नीलले हितेन परिवत्सरसहस्रान्तेवासिने तुभ्यं प्रसादीकृतः परशुः । _____परशुरामः-राम दाशरथे ! स एवायमार्यपादानां प्रियः परशुः । इत्यादिः ।
प्रारब्धादन्यकार्याणां कारणं परिवर्तकः । यथा वेण्याम
'भीमः--सहदेव ! गच्छ त्वं गुरुमनुवर्तस्व । अहमप्यस्त्रागारं प्रवि. श्यायुधसहायो भवामीति यावत्। अथवा आमन्त्रयितव्यैव मया पाञ्चाली।' इति ।
संलापमुदाहरति-यथेति । सपरिवारेत्यादिः = सपरिवारः (वाधवसहितः) यः शतिकेयः ( स्कन्दः) तस्य विजयेन (पराजयेन ) आवजितेन ( वशीभूतेन ); नीललोहितेन = शङ्करेण, कण्ठे नीलो जटायां लोहितो नीललोहितः = धूर्जटिः । परिवत्सरसहस्रान्तेवासिने = परिवत्सराणां ( संवत्सराणाम् ) यत्सहस्रं - तत्कालपर्यन्तम् अन्तेवासिने (छात्राय ) प्रसादीकृतः= अनुग्रहविषयीकृतः। परशुः = परश्वधः, आर्य. पादानां = पूज्यचरणानां, भगतत. शङ्करस्येति भावः । अत्र सपरिवारकात्तिकेयविजयेन वीर्यातिशयः, परिवत्सरसहस्रमन्तेवासित्वेन महाध्यवसायत्वं चेति गभीरमावोक्तेः संलापो नाम सात्वत्या भेदः ।
__ परिवर्तकं लक्षयति-प्रारब्धादिति । प्रारब्धात् = उपक्रान्तकार्याद, अन्य. कार्याणाम् = अन्यानि ( अपराणि ) यानि कार्याणि ( कृत्यानि ), तेषां कार्यान्त राणामित्यर्थः, कारणं = हेतुः, "करणम्” इति पाठान्तरे अनुष्ठानमित्यर्थः ।
परिवर्तकमुदाहरति यथेति । गुरुं = पूजनीय, युधिष्ठिरमिति भावः । अनु. वर्तस्व = अनुसर, पाञ्चाली = द्रौपदी।
जैसे वीरचरितमें-राम-परिवारके साथ कात्तिकेयको जीतनेसे वशीभूत भगवान शङ्करसे हजारों वर्षके छात्र आपको अनुग्रहसे दिया गया यह परशु (फसी) है" परशुराम-राम ! दशरथनन्दन ! आर्यचरण ( शङ्कर ) का प्यारा यह वही परशु है।
परिवर्तक-प्रारब्ध कार्यसे अन्य कामोंको करनेको "परिवर्तक" कहते हैं ।
जैसे वेणीसंहारमें भीमसेन-सहदेव ! तुम जाओ गुरु ( युधिष्ठिर ) का अनुसरण करो। मैं भी अस्त्रगृहमें प्रवेश कर अस्त्र लेता हूं। अथवा मुझे तब तक द्रौपदीको संबोधन करना चाहिए ।
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४८८
साहित्यदर्पणे
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अथारभटी
मायेन्द्रजालसंग्रामक्रोधोद्घान्तादिचेष्टितैः ॥१३२ ॥ संयुक्ता वधवन्धाघेरुद्धतारभटी मता। वस्तूत्थापनसंफेटौ संक्षिप्तिरवपातनम् ॥ १३३ ॥ इति भेदास्तु चत्वार आरभट्याः प्रकीर्तिताः । ।
मायाद्य स्थापितं वस्तु वस्तूत्थापनमुच्यते ॥ १३४ ॥ यथोदात्तराघवे'जीयन्ते जयिनोऽपि सान्द्रतिमिरव्रातैर्वियद्वयापिभि
स्विन्तः सकला रवरपि कराः कस्मादकस्मादमी। ___. आरभटी लक्षयति-मायत्यादिः । माया (विद्याविशेष:), इन्द्रजालं (मन्त्रीष. धादिना चमत्कारसाधनम् ), संग्रामः ( युद्धम् ) क्रोधः ( कोपः ) तेन उद्घान्तं (स्वपरज्ञानराहित्यम् ) तदादिचेष्टितः ( तदादिचेष्टाभिः) ॥ १३२ ॥
वधबन्धार्थ:- हननबन्धनप्रभृतिभिर्व्यापारः, संयुक्ता = सहिता, उरता - औरत्योपेता, वृत्तिः आरमटी, मता।
मारभटीभेदाग्निदिशति-वस्त्वित्यादिः। वस्तूत्थापन, सम्फेटः, संक्षिप्तिः अवपातनम् ॥ १३३॥
इति भारभट्या वृत्तः, पत्वारो भेदाः प्रकीर्तिताः ।
· वस्तूत्थापनं लक्षयति-मायेत्यादिः। मायायु स्थापितं = मायया ( विद्या. विशेषेण ) आदिपदेन इन्द्रजालेन च, उत्थापितम् ( उत्पादित ) च वस्तु = पदाऽर्थः "वस्तूस्थापनम्" उच्यते ।। १३४ ॥
___ वस्तूत्थापनमुदाहरति-जीयन्त इति । अकस्मात् = अकित एव, कस्मात् - कुतो हेतोः, वियद्वयापिभिः = आकाशव्यापनशीलः, सान्द्रतिमिरव्रातः = निबिडितम.
स्तोमः, जयिनोऽपि = जयशीला अपि, भास्वन्तः = प्रचुरप्रकाशाः, सकला: समस्ताः, ___ अमी - एते, रवेः = सूर्यस्य, कराः = किरणाः अपि, जीयन्ते = परिभूयन्ते । उन.
प्रारभटी-माया, इन्द्रजाल, युद्ध, युद्घान्त आदि चेष्टाएँ ॥ १३२ ।। वध और बन्धन आदिसे संयुक्त उदधृत वृत्ति "आरमटी" मानी गई है। प्रारंभटी के भेद-वस्तूत्थापन, सम्फेट, संक्षिप्ति और अवपातन ॥१३३॥ आरभटीके चार भेद कहे गये हैं। . वस्तस्थापन-माया आदि से उत्पादित वस्तु "वस्तूत्थापन" होता है ॥१३४॥
जैसे उवात्तराघवमें-जयशील चमकदार सूर्यकी समस्त ये किरणें भी आकाशको व्याप्त करने वाले गाढे अन्धकारसमूहोंसे कैसे अकस्मात् जीती जा रही हैं ?
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षष्ठः परिच्छेदः
४८९
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एते चोकबन्धकण्ठरुधिरैराधमायमानोदरा
मुश्चन्त्याननकन्दरानलमुचस्तीवान् रवान् फेरवाः ॥' इत्यादि।
सम्फेटस्तु समाघातः ऋद्धसत्वरयोद योः । यथा मालत्यां माधवाघोरघण्टयोः।
संक्षिप्तिवस्तुरचना शिल्परितरथापि वा ॥ १३५ ॥ संक्षिप्तिः स्थानिवृत्तौ च नेतुनेत्रन्तरग्रहः ।
यथोदयनचरिते कलिजहस्तिप्रयोगः । द्वितीयं यथा वालिनिवृत्त्या कबन्धकण्ठरुधिरैः = उपाः ( भयङ्कराः ) ये कबन्धाः ( मस्तकहीनकलेवराणि ) तेषा कण्ठरुधिरैः (गलरक्तः) आध्मायमानोदरा:-आठमायमानानि (पूर्यमाणानि ) उदराणि ( जठराणि ) येषां, तः। तथा आननकन्दराऽनलमुचः = आननानि ( मुखानि ) एव कन्दराः ( दर्यः ), ताभ्यः अनलान् ( अग्नीन् ) मुद्धन्ति ( त्यजन्ति ) इति, तादृशाः फेरवाः = शृगालाः, तीव्रान् = कठोरान्, रवान्-शब्दान्, मुञ्चन्ति-त्यजन्ति, कुर्वन्तीति भावः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।
सम्फेट लक्षयति-सम्फेटस्त्विति । क्रुद्धसत्वरयोः= दो (कुपितो) च तो सत्वरी (स्वरायुक्ती ) तयोः समाघातः = सम्प्रहारः “सम्फेटः" ।
सम्फेटमुदाहरति-यथेति । मालत्या = मालतीमाधवे।
संक्षिप्ति लक्षयति-संक्षिप्तिरिति । शिल्पः-क्रियाकोशलः, इतरथा इतर. प्रकारेण, शिल्पेतरेणेति भावः, वस्तुरचना-पदार्थनिर्माणं, "संक्षिप्तिः" इति । इतरथाशिल्पेतरेण लक्षणान्तरं-नेतुः = एकस्य पात्रस्य, निवृत्ती = अपगमे सति, नेत्रन्तर ग्रहः = अन्यो नेता नेत्रन्तरम् (अन्यत् पात्रम् ), तस्य ग्रहः (ग्रहणम् ), "संक्षिप्तिः " ॥ १३५॥ .
संक्षिप्तिमुदाहरति-यथेति । शिल्पेन वस्तुरचना यथा--उदयनचरिते कलि. जहस्तिप्रयोगः = कनिञ्जः ( काष्ठघटितहस्ती ), तस्य प्रयोगः ( योजना)। शिल्पभयङ्कर कबन्धके कण्ठरुधिरोंसे फूले हुए पेटवाले और मुखरूप गहासे आग उगलते हुए ये स्यार तीक्ष्ण शब्दोंको कर रहे हैं इत्यादि ॥
सम्फेट-कुपित और त्वरायुक्त दो पुरुषोंके युद्धको "सम्फेट" कहते हैं । जैसे--मालतीमाधवमें माधव और अघोरघण्टका युद्ध ।
संक्षिप्ति-शिल्पसे अथवा शिल्पभिन्न उपायसे वस्तुकी रचनाको "संक्षिप्ति" कहते हैं ।। १३५ ॥
अथ एक नायककी निवृत्तिमें दूसरे नायकके ग्रहणको "संक्षिप्ति" कहते हैं ।
जैसे--। शिल्पसे वस्तुरचना--उदयन चरितमें कलज ( काष्ठनिर्मित) हाथीका प्रयोग ।
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४९०
___साहित्यदर्पणे
सुग्रीवः। यथा वा परशुरामस्यौद्धत्यनिवृत्त्या शान्तत्वापादनम्-'पुण्या ब्राह्मणजातिः-' (म० च०४-२२ ) इति । .. प्रवेशवासनिष्कान्तिहर्षविद्रयसंभवम् ।। १३६ ।।
अपातनमित्युक्तम्-- यथा कृत्यरावणे षष्ठेऽङ्के-' (प्रविश्य खड्गहस्तः पुरुषः)' इत्यतः प्रभृति निष्क्रमणपर्यन्तम।
--पूर्वमुक्तब भारती ! अथ नाट्योक्तयः- अश्राव्यं खलु यद्वस्तु तदिह "स्वगतं" मतम् ।। १३७ !! तरेण वस्तुरचनाया व्यक्तिभेदमूलको धर्मभेदमूलकश्चेति द्वौ भेदो । आद्यस्योदाहरणंबालिनिवृत्या सुग्रीवग्रहः। द्वितीयस्योदाहरणं-परशुरामस्यौद्धयनिवृत्या शान्तत्वा. पादनम् "पुण्या ब्राह्मणजाति:" इत्यादि।
अवपातनं लक्षयति--प्रवेशेत्यादिः। प्रवेशः (प्रवेशनम् ) त्रासः ( भयम् ) निष्क्रान्तिः (निष्क्रमणम् ) हर्षः (आनन्दः) विद्रवः (पलायनम् ) तस्संभवम् (तदुत्पन्नम् ) वस्तु "अवपातनम्" इत्युक्तम् ॥ १३६ ॥
अवपातनमुदाहरति-यति। ... भारतीवृत्ति निदिशति--पूर्वमिति । भारती-वृत्तिः, पूर्व-प्रथमम्, उक्ता-- "भारती संस्कृतप्रायो वाग्व्यापारो नराश्रय" इति कारिकयेति शेषः (पृ० ४०१)॥१३६।।
नाट्योक्तीनां मध्ये स्वगतं लक्षयति-प्रमाव्यमिति । यद, वस्तु-त्र क्यरूपः पदार्थः अश्राव्यं = श्राणस्य अनर्ह, तत्, इह - अस्मिन् नाट्यशास्त्र, "स्वगतं" मतम ॥१३७॥
दूसरा- बालीको निवृत्तिसे सुग्रीवका ग्रहण । धर्मनिवत्तिसे--परशुराम उक्त धर्मकी निवृत्तिसे शान्तत्व धर्मका बापादन--"पुण्या ब्राह्मण जाति:" इत्यादि ।
प्रवपातन-प्रवेश, त्रास, निष्क्रमण, हर्ष, और विद्रवकी उत्पत्तिको "अव. पातन" कहते हैं।
असे कृत्यरावणमें षष्ठ प्रक-प्रवेश कर हाथमें खड्गको लेनेवाला पुरुष) यहांसे निष्क्रमणपर्यन्त ।
भारती-भारतीको पहले ही कह चुके हैं। . " नाट्यको उक्तियाँ
स्वगत-दूसरोंको सुनानेमें अयोग्य जो बात आत्मगत होती है वह 'स्वगत" है ।। १३७॥
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षष्ठः परिच्छेदः
४९१
सर्वश्रान्यं "प्रकाश"
स्यात्तद्भवेदपवारितम् ।
यदन्यस्य परावृत्य प्रकाश्यते ॥ १३८ ॥
रहस्यं तु त्रिपताककरेणान्यानपवार्यान्तरा कथाम् । अन्योन्यामन्त्रणं यत्स्याञ्जनान्ते "जनान्तिक" ।। १३९ ।। किं वपीति यनाट्ये बिना पात्रं प्रयुज्यते । तत्स्यादाकाशभाषितम् ॥ १४० ॥ यः कश्चिदर्थो यस्माद् गोपनीयस्तस्यान्तरत ऊर्ध्वं सर्वाङ्गुलिनामिता
श्रुत्वेवानुक्तमप्यर्थं
प्रकाश लक्षयति- सर्वभाव्यमिति । सर्वश्राव्यं = सर्वै: ( सकलैः ) श्राव्यं ( श्रोतुमर्हम् ) वाक्यं "प्रकाश" स्यात् ।
अपवारितं लग्नयति - तदिति । परावृत्य परावर्तनं कृत्वा, स्थानान्तरं गत्वेति भावः । अन्यस्य = अपरस्य जनस्य समीपे यत् रहस्यं = गोपनीयं वस्तु प्रकाश्यते = प्रदर्श्यते, तत् "अपवारितं" भवेत् ॥ १३८ ॥
जनान्तिकं लक्षयति - त्रिपताककरेणेति । त्रिपताककरेण - तिस्रः ( त्रिसं-ख्यकाः ) पताका. = पताका इव, लक्षणया ( प्रसारिता अङ्गुल्य: यस्मिन् सः ) स चासो कर ( हस्तः ), येन । अन्यान् = अपरान्, अभीष्टजनभिन्नानिति भावः । अपवार्य = आच्छाद्य, कथाम् अन्तरा = कथामध्ये । जनाऽन्ते = पात्रलोकसमीपे, एवं यत् अन्योन्यामन्त्रणं = मिथो भाषणं, तत् "जनाऽन्तिकम् " ।। १३९ ।।
आकाशभाषितं लक्षयति - किमिति । नाटय = अभिनये, पात्रं विना = पात्रजन-मन्तरेण, अनुक्तम् = अकथितम् अपि, अर्थ-विषयम्, श्रुत्वा इव आकर्ण्य इव श्रवणाऽ-भिनयं कृत्वेति भावः । किं ब्रवीषि = कथयसि इति एवं यत् प्रयुज्यते = अभिधीयते - तत्, “आकाशभाषितं" स्यात् ॥ १४० ॥
विवृणोति - य इति । अर्थः = विषयः । यस्मात् = जनात्, अन्तरतः = व्यवधाने । सर्वाङ्गुलिनामितानामिकं = सर्वासाम् ( सकलानाम् ) अङ्गुलीनां ( कर
प्रकाश - सबको सुनाने के योग्य "प्रकाश" होता है ।
प्रपवारित-दूसरे से छिपाकर दूसरे पात्रको जो रहस्य प्रकाशित करते है उसे "अपवारित" कहते हैं ।। १३८ ।।
जनान्तिक- तीन उगलियों को फैलाए हुए हाथसे दूसरोंसे छिपाकर कथाके बीचमें परस्पर जो बातचीत होती है उसे "जनान्तिक" कहते हैं ।। १३९ ।।
प्राकाशभाषित - नाटयमें पात्र के विना अनुक्त अर्थको भी सुना-सा करके "क्या कहते हो ?" जो ऐसा कहा जाता है उसे " आकाशभाषित" कहते हैं ॥ १४० ॥ जो कुछ भी विषय जिससे गोपनीय है उसके बीच में ऊँची सब उंगलियोंसेट
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साहित्यदर्पणे
नामिकं त्रिपताकलक्षणं करं कृत्वान्येन सह यन्मन्त्रयते तज्जनान्तिकम् ! परावृत्यान्यस्य रहस्यकथनमपवारितम् । शेषं स्पष्टम् ।
४९२
दत्तां सिद्धां च सेनां च वेश्यानां नाम दर्शयेत् । दत्तप्रायाणि वणिजां चेटचेटथोस्तथा पुनः ॥ १४१ ॥ वसन्तादिषु वयस्य वस्तुनो नाम यद्भवेत् । वेश्या यथा वसन्तसेनादिः । वणिविष्णु दत्तादिः । चेटः कलहंसादिः । चेटी मन्दारिकादिः ।
नाम कार्य नाटकस्य गर्भितार्थप्रकाशकम् ॥ १४२ ॥
शाखानाम् ) मध्ये नामिता ( प्रह्वीकृता ) अनामिका ( अनामा ) यस्य तत्, अतस्त्रिपताकलक्षणं = प्रसारिताऽङ्गुलित्रयस्वरूपं, करं = हस्तं कृत्वा, मन्त्रयते = गुप्तरूपेणाऽऽ. लप्यते । शेषम् == अवशिष्टम्, स्वगतादिकमिति भावः स्वष्टं = व्यक्तम्, निगदसूचितमिति भावः ।
पात्राणां नामान्याह - दत्तामिति । वेश्यानां = गणिकानां, नाम, दत्त दत्ता. - पदाऽन्तं, सिद्धां = सिद्धापदाऽन्तं तथा सेनां च = सेनापदान्तं च दर्शयेत, वणिजां वाणिजकानां नामानि दत्तप्रायाणि - प्राचुर्येण दत्तपदान्तानि पुनस्तथा चेटचेटघो:- प्रेष्यप्रेष्य स्त्रियोः ॥ १४१ ॥
वसन्तादिषु = वसन्तप्रभृतिषु ऋतुषुः वर्ण्यस्य वर्णनीयस्य, वस्तुनः = पदार्थस्य, यत् नाम = कलहंसादीति भावः । भवेत् तत् दर्शयेत् ।
विवृणोनि - वेश्येति ।
नाटकनामकरणे नियममाह - नामेति । नाटकस्य नाम, गर्भितार्थप्रकाशकं = गति: ( नाटके सूचितः ) योऽर्थः ( विषयः ) तस्य प्रकाशकं ( प्रकाशकारकम् ), कार्य कर्तव्यम् ।। १४२ ।।
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अनामिकको झुकाकर "त्रिपताक” 'हाथ कर दूसरेसे जो आमन्त्रण किया जाता है उसे "जनान्तिक" कहते हैं । दूसरेसे छिपाकर रहस्य कहनेको "अपवारित" कहते है । शेष • स्पष्ट है ।
ओंके नाम के अन्त में "दत्ता" "सिद्धा" और "सेना" ऐसा दिखलावे । - बनियों के नामके अन्त में प्राय: "दत्त'" ऐसा पद दिखलावे, चेट (दास) ओर चेटी
( दासी) इनका नाम वसन्त आदि ऋतुमें वर्णनीय वस्तुका सा हो ।। १४१ ।।
वेश्या जैसे -- वसन्तसेना आदि । वणिक् ( बनिया ) - विष्णुदत्त आदि । चेट कलहंस आदि। चेटी -- मन्दारिका आदि ।
का नाम गर्भित ( प्रतिपाद्य ) अर्थका प्रकाशक रक्खे ।। १४२ ।।
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षष्ठः परिच्छेदः
४९३
यथा रामाभ्युदयादिः।
नायिकानायकाख्यानात्संज्ञा प्रकरणादिषु । यथा मालतीमाधवादिः। - नाटिकासट्टकादीनां नायिकाभिर्विशेषणम् ॥ १४३ ॥ यथा रत्नावली-कर्पूरमार्यादिः।
प्रायेण ण्यन्तकः साधिगमेः स्थाने प्रयुज्यते । यथा शाकुन्तले-ऋषी, 'गच्छावः' इत्यर्थे 'साधयावस्तावत्' ।
राजा स्वामीति देवेति भृत्यभट्टोति चाधमैः ।। १४४ ॥ राजर्षिभिवंयस्येति तथा विदूषकेण च ।
राजनित्यषिभिर्वाच्यः सोऽपत्यप्रत्ययेन च ।। १४५ ।।
प्रकरणादिषु नियममाह-नायिकानायकाख्यानामिति । प्रकरणादिषु - रुपकविशेषेषु, नायिकानायकाख्यानां - नायिकानायकसमुच्चितनाम्नां, संज्ञा नाम । ___ नाटिकासट्टकादीनां नामनियममाह-नाटिकेति । नाटिकासट्टकादीनाम्-उपरूपकविशेषप्रभृतीना, नायिकाभिः-मुख्यस्त्रीपात्रः, विशेषणं नाम, कर्तव्यमिति शेषः ।।१४३।।
. प्रायणेति-प्रायेण = बाहुल्येन, ण्यन्तकः = णिच्प्रत्ययान्तः, साधिः = "(राध) साध संसिद्धौ" इति साधधातुः, "इश्तिपो धातुनिर्देशे" इति इंक् प्रत्ययान्तः साधिः, गमेः = "गम्लु गती इति धातोः, स्थाने प्रयुज्यते - व्यवह्रियते ।
पात्राणां सम्बोधननियमानाह-राजेति । मृत्यः-मन्त्र्यादिभिः, राजा-नपः,. स्वामीति देवेति वा, वाच्यः = वक्तव्यः, अधर्मः = नीचपात्रः, भट्टति वाच्यः । १४४॥
राजर्षिभिः अन्य राजर्षिभिः, विदूषकेण-गज्ञो हास्यपात्रेण च राजा "वयस्य" जैसे-रामाऽभ्युदय आदि। प्रकरण आदिमें नायिका और नायकके नाममे नाम रक्खे । जैसे-मालतीमाधव आदि। नाटिका सट्टक आदिका नायिकाके नामसे नामकरण हो ।। १४३ ॥ जैसे-रत्नावली और कपूरमञ्जरी आदि । णिच् प्रत्ययाऽन्त 'साध' धातु “गम्" धातुके स्थानमें प्रयुक्त होता है । जैसे शाकुन्तलमें-दो ऋषि-"गच्छावः" इसके अर्थमें "साधयावस्तावत्" ।
नाटकमें सम्बोधनकी उक्तियाँ-राजाको भृत्य "स्वामी" वा "देव" शब्दसे सम्बोधन करें, निकृष्ट पात्र "गट्टा" कहें ॥ १४४ ॥
राजाको राजर्षि और विदूषक "वयस्य" कहें। राजाको ऋषि राजन्" वा
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४९४
साहित्यदर्पणे
स्वेच्छया नामभिर्विप्रेविप्र आर्येति चेतरः । वयस्येत्यथवा नाम्ना वाच्यो राज्ञा विदूषकः ।। १४६ ॥ वाच्यौ नटीसूत्रधारावार्थनाम्ना परस्परम् | सूत्रधारं वदेद्भाव इति त्रै पारिपार्श्विकः ॥ १४७ ॥ सूत्रधारो मारिषेति इण्डे इत्यधमैः समाः । मध्येरायेंति चाग्रजः ॥ १४८ ॥ स देवर्षिलिङ्गिनः ।
वयस्येत्युतमै हो भगवन्निति
क्तव्याः
--
इति वाच्यः, ऋषिभिः सः - राजा, "राजन्" इति अपत्यप्रत्ययेन च . प्रत्ययान्तेन पदेन च वाच्यः, "दाशरथे ! पाण्डव" इति ।। १४५ ।।
इवाद्यपत्य
विप्रैः - ब्राह्मणैः, विप्रः - ब्राह्मणः, स्वेच्छया - आत्मवाञ्छया, अपत्यप्रत्ययेन, : नामभिर्वा वाच्यः । इतरेः = विप्रभिः, क्षत्रियादिभिरिति भाव:, विप्रः, ' आयें" ति वाच्यः । राज्ञा विदूषकः, वयस्य, इति अथवा नाम्ना=वसंन्तकादिना वाच्यः ॥ १४६ ॥
. नटीसूत्रधारी, परस्परं = मिथः, आर्यनाम्ना, वाच्यो । नटी सूत्रधारम् "आर्य" इति सूत्रधार नटोम् "आयें" इति सम्बोधपेदिति भावः । पारिपाश्विक: सूत्रधार• सहायको नटः, सूत्रधारं = प्रधाननटं "भाव" इति वदेत् ॥ १४७ ॥
सूत्रधार: पारिपाश्विक "मारिष" ति वदेत् । अधर्मः = निकृष्टपात्रः, स्वसमाः
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• आत्मतुल्या जना " हण्डे" इति वक्तव्या: । उतमंः- उत्कृष्टपात्रः, स्वसमाः । "वयस्ये" ति वक्तव्याः । मध्यमः मध्यमपात्रः, स्वसमाः, "हंहो" इति वक्तव्याः । अग्रजः ज्येष्ठः भ्राता, कनिष्ठैर्भ्रातृभिः, “आयें "ति वक्तव्यः ॥ १४८ ॥
सर्वैः = सकलैर्जनः, दवर्षिलिङ्गिनः = देवा: ( सुरा: ) ऋषयः (सत्यवचसः, अपत्यप्रत्ययसे जैसे - "राघव " ' पौरव" ऐसे शब्दसे पुकारें ।। १४५ ।।
• ब्राह्मण को ब्राह्मण अपनी इच्छासे नामसे और अन्य ( क्षत्रिय आदि ) "आर्य" कहकर पुकारें । राजा विदूषकको "वयस्य" इस शब्द से वा नामसे पुकारे ।। १४६ ॥
नटी और सूत्रधार परस्पर "आर्य" और "आर्या" शब्दका प्रयोग करें । पारिपाश्विक (सूत्रधारका सहायक ) सूत्रधारको "भाव" कहकर पुकारे || १४७ ॥
सूत्रधार पारिपाश्विकको "मारिष" इस शब्दसे सम्बोधन करे। निम्नवर्ग परस्पर में "हृण्डे" शब्दका प्रयोग करें । उत्तमलोग परस्पर में "वयस्य" कहें। मध्यमवर्ग परस्पर में "हंहो" इस शब्दसे सम्बोधन करें। बड़े भाई को छोटा भाई "आर्य" शब्दसे पुकारें ॥ १४८ ॥
देवता, ऋषि और संन्यासी आदिको अन्य
सब लोग " भगवन् "
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षष्ठः परिच्छेदः
वदेद्राज्ञीं च चेटीं च भवतीति विदूषकः ॥ १४९ ॥ आयुष्मन् रथिनं सूतो वृद्धं तातेति चेतरः । वत्सपुत्रकतातेति नाम्ना गोत्रेण वा सुतः ॥ १५० ॥ शिष्यांऽनुजश्च वक्तव्योऽमात्य आर्येति चाधमैः । विरयममात्येति सचिवेति च भण्यते ।। १५१ ।। साधी ! इति तपखी च प्रशान्तचोच्यते बुधैः । स्वगृहीताभिधः पूज्यः शिष्याद्य विनिगद्यते ॥ १५२ ॥ वेदमन्त्रद्रष्टारः), लिङ्गिनश्च (ब्रह्मवारितापसादिचिह्नधारिणो जनाः), "भगवन्" इति वक्तव्याः । विदूषकः, राज्ञीं- राजमहिषी, चेटीं च दासीं च, "भवती"ति वदेत् ।। १४९|| सूतः - सारथि:, रथिनं रथारूढं जनम् "आयुष्मन्' इति वदेत् । इतरः = अन्यः; युवा बालकश्चेति भावः । वृद्धं जनं तातेति वदेत् । सुनः पुत्रः, पित्रेति शेषः ॥ १५० ॥
शिष्य : = अन्तेवासी, गुरुणेति शेष:, अनुजः प्रवरजः; ज्येष्ठेनेति शेषः ।
“वस्स” “पुत्रक” “तात" इति नाम्ना = राम इत्याकारकेण, गोत्रेण-अपत्यप्रत्ययेन "राघव ! दाशरथे !" इत्याकारकेण वा वक्तव्यः ॥ १५० ॥
अधर्मः - निकृष्टजनैः, अमात्यः मन्त्री, "आर्य" इति वक्तव्यः । विप्रैः ब्राह्मणैस्तु, अयम् = अमात्यः, "अमात्य" "सचिव " इति भण्यते कथ्यते ।। १५१ । बुधैः - विद्वद्भिः, तपस्वी-तानसः, प्रशान्वा = अन्तरिन्द्रियनिग्रहसम्पन्नो जनः, "साथी" इत्युच्यते । शिष्यार्थः = अन्तेवासिप्रभूतिभिः आद्यपदेन पुत्रादीनां परामर्शः । पूज्यः = पूजनीयो जनः, गुरुपित्रादिरिति भावः । अगृहीताऽभिधः - अगृहीता ( अनुच्चारिता ) अभिधा ( नाम ) यस्य सः, नामग्राहकृस्वेति भावः, "आर्य पूज्य" इत्यादिशब्देनेति शेषः । विनिगद्यते = अभिधीयते ।। १५२ ।।
इस शब्द से सम्बोधन करें। विदूषक रानी और चेटीको भी "भवती" शब्द का प्रयोग करे ।। १४९ ।
careoको सारथि "आयुष्मन्" इस पद से सम्बोधन करे । अन्य बालक और युवा) वृद्धको "तात " ऐसे शब्दका प्रयोग करे । पुत्र, शिष्य, और छोटे भाईको पिता, गुरु ओर बड़ा भाई "वत्स" "पुत्रक" और "तात" इन शब्दोंसे वा नामसे अथवा गोत्रप्रत्ययान्त शब्द से सम्बोधन करे ।। १५० ।।
निकृष्ट पात्र अमात्य ( मन्त्री ) को "आयं" पदसे सम्बोधन करे । ब्राह्मण मन्त्रीको "अमात्य" और "सचिव " इन शब्दोंसे व्यवहार करें ।। १५० ।।
विद्वान् तपस्वी और प्रशान्त ( ब्रह्मवेता ) को "साधो" इस शब्द से सम्बोधन करें । शिष्य आदि पूज्य ( गुरुजन ) को नाम न लेकर ( आर्य वा सुगृहीतनामधेय इत्यादि शब्दोंसे ) सम्बोधन करें ।। १५२ ।
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साहित्यदर्पणे
उपाध्यायेति चाचार्यों महाराजेति भूपतिः । अमीति, युवराजस्तु कुमारो भर्तृदारकः ।। १५३ ।। भद्रसौम्य मुखेत्येवमधमैस्तु कुमारकः । वाच्या प्रकृतिभी राज्ञः कुमारी भर्तृदारिका ।। १५४ ॥ पतिर्यथा तथा वाच्या ज्येष्ठमध्याधमैः खियः । हलेति सदृशी, प्रेष्या इज्जे वेश्याज्जुका तथा ।। १५५ ।। कुरिटन्यम्बेत्यनुगतैः पूज्या च जरती जनैः । आमन्त्रणैश्च पाषण्डा वाच्याः स्वतमयागतैः ।। १५६ ।।
आचार्य:, "उपाध्याय" इति छात्रेणेति शेषः । भूपतिः = राजा, "महाराज !" "स्वामीति" कथ्यते, प्रजाभिरिति शेषः । युबराजस्तु "कुमारो" "भर्तृदारका " उच्यते ।। १५३ ।।
अधर्मः=निकृष्टः, कुमारकः = युवराजः; "भद्र !" सौम्यमुख ! इति एवम् = इत्थं सम्बोधनीयः । प्रकृतिभिः = प्रजाजनंः राज्ञः = भूपस्य, कुमारी= कन्या, "कर्तृ+ दारिका" एवं वाच्या ।। १५४ ।।
=
=
ज्येष्ठ मध्याऽधर्मः = श्रेष्ठ मध्यमनिकृष्टः पात्रः स्त्रियः नार्यः, तासां पतिः = स्वामी, यथा येन प्रकारेण, वाच्यः = सम्बोधनीयः, तथैव वाच्यः = सम्बोधनीयः । सदृशी = स्वसमाना, सखीति भावः । “हला" इति "हला" शब्देन वाच्या । प्रेष्या द्वासी, 'हजे" "हजे" शब्देन वाच्या । तथा वेश्या "अज्जुका" इति वाच्या । १५५ ।। कुट्टिनी - शम्भली, "अम्बा" इति = अम्बापदेन वाच्या । अनुगतैः = सेवकैः जनैः पूज्या=मान्या, जरती = वृद्धा स्त्री, "अम्बा" इति वाच्या ।
=
पाषण्डा:- वेदाचारविरोधिनः, स्वसमयागर्तः - निजाचारप्राप्तः, आमन्त्रणः । सम्बोधनंः, वाच्या: = वक्तव्याः, 'हे चार्वाक" इत्याद्या मन्त्रणैरिति भावः ॥ १५६ ॥
=
आचार्यको "उपाध्याय" शब्दसे राजाको "महाराज" और "स्वामी" शब्दसे युवराजको "कुमार" और ' भर्तृदारक" शब्दसे पुकारे ॥ १५३ ॥
अधमवर्ग राजकुमारको “भद्र" और "सोम्यमुख" शब्दसे पुकारें । प्रजावर्ग राजकुमारकी "मर्तृदारिक" शब्दका प्रयोग करें ।। १५४ ।।
ज्येष्ठ, मध्यम और निकृष्ट पुरुष स्त्रियों को उनके पति को जैसे सम्बोधन करते हैं, वैसे ही सम्बोधन करें। स्त्री सखीको “हला" शब्दसे, दासीको "हजे" शब्द से वेश्याको "अज्जुका " शब्दसे व्यवहार करे ।। १५५ ।।
कुटनीको "अम्बा" शब्दसे अनुगतलोग पूज्या वृद्धा स्त्रीको "अम्बा" शब्दसे व्यवहार करे । पाखण्डी लोगोंको उनके आधारके अनुसार सम्बोधन करना चाहिए |१४६ |
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षष्ठः परिच्छेदः
४९७
शका(शाक्या)दयश्च संभाष्या मद्रदत्तादिनामभिः । यस्य यत्कर्म शिल्पं वा विद्या वा जातिरेव वा ॥१५७।।
तेनैव नाम्ना वाच्योऽसौ ज्ञेयाश्चान्ये यथोचितम् । अथ भाषाविभाग:
पुरुषाणामनीचानां संस्कृतं स्यात्कृतात्मनाम् ॥१५॥ सौरसेनी प्रयोक्तव्या तादृशीनां च योषिताम् ।
आसामेव .तु गाथासु महाराष्ट्री प्रयोजयेत् ॥१५९॥ शकादयश्व = शकयवनादिजातयन, भद्रदत्तादिनामभिः = भद्रदत्तादिसंज्ञाभिः, सभाष्याः = संभाषणीयाः । क्वचित "शकादयश्चे"त्यादिस्थाने "शाक्यादयश्च संभाष्या भदन्तेत्यादिनामभिः ।" इति पाठान्तरम् । तत्र शाक्यादयः : बौद्धादयः, "भदन्ते". त्यादिनामभिः, संभाष्या: = सम्बोधनीया इत्यर्थः । यस्य - जनस्य, यत् कर्म = किया, मालाकरणादिः, शिल्पं = विशिष्ट क्रियाकोशल, विद्या मीमांसादिः, जातिः = ब्राह्मण. स्वादिर्वा, असौ = सः, तेनैव = तस्कर्मादिप्रकाशकेन, नाम्ना, यथोचितम् = औचित्याऽ. नुसारं, वाच्यः = कथनीयः, ताम्बूलिक ! चित्रकर ! मीमांसक ! ब्राह्मण इत्यादिना सम्बोधनीय इति भावः ॥ १५७॥
आषाविभाग:-अनीचानां = नीभिनानाम्, उत्तममध्यमानामिति भावः । कृतात्मनां = पण्डितानां, भाषा "संस्कृतं" स्यात् । "संस्कृतं नाम देवीवागवाख्याता महर्षिभिः ।" इति दण्डिसिद्धान्ताऽनुसारं देवभाषेति भावः ॥ १५८ ।।
तादृशीनाम् = अनीचाना, कृतात्मनां = विदुषीणा, योषितां = स्त्रीणां, "सौर. सेनी" भाषा प्रयोक्तव्या = प्रयोजनीया । "शौरसेनी"ति पाठान्तरमुभयत्र प्राकृतभाषाभेदो बोद्धव्यः । शूरसेनो मथुराया निकटवर्ती देशस्तत्र भवा शौरसेनीति व्युत्पत्तिः । आसाम् एव-उक्तप्रकाराणां योषिताम् एव, गाथासु-गीतप्रबन्धेषु, महाराष्ट्री-भाषा; प्रयोजयेत=कुर्यात्।महाराष्ट्री नाम-महाराष्ट्रभाषा,प्रधानप्राकृतभाषा । "महाराष्ट्राषयां भाषा प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः ।" इति काव्यदर्श दण्डी ( १-३४) ॥ १५९ ।।
शक आदिसे भद्रदत्त आदि नामोंसे संभाषण करना चाहिए। जिसका जो कर्म, शिल्प, विद्या वा जाति है ।। १५७ । ___उसी नामसे उसे कहना चाहिए। और विषय औचित्य के अनुसार जानना चाहिए।
भाषाविभाग -उत्तम, मध्यम और शिक्षित पुरुषों की संस्कृतभाषा हो । वैसी ही ( उत्तमा, मध्यमा और शिक्षित स्त्रियों की सौरसेनी भाषाका प्रयोग होना चाहिए । वैसी ही स्त्रियोंके गानप्रबन्धोंमें महाराष्ट्री भाषाका प्रयोग हो ॥१५९॥
३२ सा०
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साहित्यदर्पणे
अत्रोक्ता मागधी भाषा राजान्तःपुरचारिणाम् । चेटानां राजपुत्राणां श्रेष्ठानां चार्धमागधी ॥१६०॥ प्राच्या विदूषकादीनां, धूर्तानां स्यादवन्तिजा । योधनागरिकादीनां दाक्षिणात्या हि दीव्यताम् ॥१६१॥ शबराणां शकादीनां शायरी संप्रयोजयेत् । पालीकभाषोदीच्यानां द्राविडी द्रविडादिषु ॥१६२॥
आभीरेषु तथाभीरी चाण्डाली पुकसादिषु । अत्र = नाटयशास्त्रे, राजाऽन्तःपुरचारिणां = राज्ञः ( भूपस्य ) यत अन्तःपुरं (शुद्धान्तः) तच्चारिणां (वामनषण्डादीनाम्); मागधी-मगधदेशोद्भवा भाषा, (चतसृणां मुख्यप्राकृतभाषाणामन्यतमा ), उक्ता = अभिहिता । चेटानां = भृत्यानां, राजपुत्राणा, श्रेष्ठानां-वणिजां; च अर्धमागधी भाषा, प्रयोक्तब्या ॥ १६०॥
विदूषकादीना,प्राच्या भाषा । गोडीयेति भावः । धूर्तानाम् अक्षक्रीडाशीलानाम्, अवन्तिजा = आवन्सी भाषा। दोन्यता = क्रीडापराणां, योधनागरिकाणां = योधानां ( भटानाम् ) नागरिकाणाम् ( पौराणाम् ) च, दाक्षिणात्या दक्षिणदेशोद्भवा, वैदर्भी भाषेति भावः । हि-निश्चयेन ॥ १६१॥ ... गबराणां-म्लेच्छविशेषाणां, शकादीनां पर्वतीयम्लेच्छविशेषाणां च, शाबरी= शबरमाणं, संप्रयोजयेत् = विदध्यात् । उदीच्यानाम् = उत्तरदिग्वासिना, नागप्रभृति जातीनामिति भावः, बालीकभाषा, द्रविडादिषु = द्रविडादिदेशनिवासिषु, द्राविडी = द्राविडी भाषा ॥ १६२॥ .. आभीरेषु = जातिविशेषेषु, महाशूद्रेष्विति भावः । आभीरी = आभीरभाषा ।
राजाके अन्तःपुर ( रनिवासा ) में चलनेवालोंकी मागधी भाषा कही गई है। दासोंका राजपुत्रोंका और सेठ लोगोंकी अर्धमागधी हो ।। १६० ॥
विदूषक आदिकी प्राच्या ( गोडी ) भाषा हो। जुआ खेलनेवालोंकी आवन्ती भाषा हो। योद्धा, नागरिक और क्रीडामें आसक्त पुरुषोंकी दक्षिणात्या ( वंदर्भी) भाषा हो । १६१ ॥
शबर और शक मादियोंकी शाबरी भाषाका प्रयोग होना चाहिए। उदीच्य = उत्तर दिशामें रहनेवालोंकी बाह्रीक भाषा और द्रविड आदियोंमें. द्रविड भाषा हो ॥१६॥
.. आभीरोंमें भारी भाषा और पुक्कस ( चाण्डालविशेष ) आदिमें चाण्डाली
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षष्ठः परिच्छेदः
४९९
आभीरी शावरी चापि काष्ठपानोपजीविषु ॥१६३॥ तथैवाङ्गारकारादौ पैशाची स्यात्पिशाचवाक् । चेटानामप्यनीचानामपि स्यात्सौरसेनिका ॥१६४।। बालानां पण्डकानां च वीचग्रहविचारिणाम् । उन्मत्तानामातुराणां सैव स्यात्संस्कृतं क्वचित् ॥१६५।। ऐश्वर्यण प्रमत्तस्य दारिद्रयौपद्रुतस्य च ।
भिक्षुवल्कधरादीनां प्राकृतं संप्रयोजयेत् ॥१६६॥ पुक्कस दिषु = चाण्डालविशेषेषु, चाण्डाली भाषा । काष्ठपात्रोपजीविषु = काष्ठपाय: (दारुभाजनैः ) उपजीविषु ( उपजीवनशीलेषु ) आभीरी शाबरी च भाषा प्रयोक्तव्या ।। १६३ ॥
अङ्गारकारादी = लोहादिधातुजीविनि, पिशाचवाक् = पैशाची भाषा, प्राकृत भाषाया निम्नतमभाषा । भनीचानां == नीभिन्नानाम्, उत्तममध्यमानामिति भावः । चेटोना-दासीनाम् अपि, सौरसेनिका भाषा, स्यात् ।। १६४ ।।
दालानां - शिशूनां, षण्डकानां = नपुंसकानां, नीचग्रहविषारिणां सीवानां ( निम्नवर्गजनानाम् ) ग्रहविचारिणां = ग्रहविचारशीलानां, देवज्ञानामिति भावः । उन्मत्तानाम् - उन्मादयुक्तानाम्, आतुराणां = रोगादिना आकुलानां बसा एव % सौरसेनिका एव, क्वचित-कुचित्, एतेषां संस्कृतं च स्यात् ।। १६५ ।।।
ऐश्वर्येण = प्रभुत्वेन, प्रमत्तस्य, दारिद्रयोपद्रुतस्य = दारिद्रण ( दौर्गत्येन ) उपद्रुतस्य ( पीडितस्य ), भिक्षुवल्कघरादीनां = मिभूषा (संन्यासिनाम् ) वल्कधरा. दीनां (वल्कलधारकप्रभृतीनाम्), प्राकृतं-प्राकृतभाषा,संप्रयोजयेत-विदध्यात ॥१६६॥ भाषा हो। काष्ठपात्रोंसे जीविका करने वालोंमें आभीरी और शायरी भाषा होना चाहिए ॥ १६३ ।।
अङ्गारकार आदिमें पैशाची भाषा हो । अनीच (उत्तम और मध्यम)शासियों में सौरसेनिका भाषा हो ॥१६४ ॥
बालक, नपुंसक और निम्नवर्गके लोगोंके ग्रहोंका विचार करनेवाले ज्योतिषियोंका, पागल और रोग आदिसे आकुलजनोंका सौरसेनिका ही वा कहींपर संस्कृत भाषा हो ।। १६५ ॥
ऐश्वर्यसे प्रमत्त; दारिद्रयसे पीडित, भिक्षुक और वल्कलधारियोंकी प्राकृत भाषा हो ॥१६६ ॥
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साहित्यदपणे
संस्कृतं संप्रयोक्तव्यं लिङ्गिनीपूत्तमासु च । देवीमन्त्रिसुतावेश्यास्वपि कैपित्तथोदितम् ॥१६७॥ यद्देश्यं नीचा तु तद्देश्यं तस्य भाषितम् । कार्यतश्चोत्तमादीनां कार्यों भाषाविपर्ययः ॥१६॥ योषित्सखीवालवेश्याकितवाप्सरसां तथा ।
वैदग्ध्यार्थ प्रदातव्यं संस्कृतं चान्तरान्तरा ॥१६९।। एषामुदाहरणान्याकरेषु बोद्धव्यानि । भाषालक्षणानि मम तातपादानां भालार्णवे।
लिङ्गिनीषु = संन्यासादिचिह्नधारिणीषु, उत्तमासु-उत्कृष्टजातिभवासु नारीषुः संस्कृतं, संप्रयोक्तव्यम् = संप्रयोजनीयम् । कैश्चित = आलङ्कारिकः, देवीमन्त्रिसुतावेश्यासु - देवी (महिषी ) मन्त्रिसुता ( सचिवकुमारी) वेश्या ( गणिका), आसु अपि, तथा संस्कृतम्, उदितम्-उक्तम् ॥ १६७॥
नीचपात्रं हीनपात्र, यद्देश्यं यद्देशभवं, तस्य-नीचपात्रस्य, तद्देश्यं तद्देशमवं, भाषितं = भाषणं कार्यम् । कार्यतः = कर्माऽनुरोधात, उत्तमादीनां = नायिकाऽऽदीनां, भाषाविपर्ययः-भाषापरिवर्तनं, कार्य:-कर्तव्यः ।। १६८ ॥
वंदग्ध्याऽयं = नैपुण्यज्ञापनाऽयं, योषिदित्यादिः = योषित् (स्त्री, नायिकेतिभाय: ), सखी ( तस्या वयस्या ) बाल: ( शिशुः ) वेश्या ( गणिका ) कितवः (धूर्तः) अप्सरसः ( स्वर्वेश्याः ), एतासाम्, अन्तरातरा = मध्ये मध्ये ! संस्कृतं, प्रदातव्यंप्रदेयं, कविनेति शेषः ।। १६९ ॥
एषामुदाहरणानि, आकरेषु = मालतीमाधवाभिज्ञानशाकुन्तलादिषु मूलग्रन्थेषु, बोद्धव्यानि-बोव्यानि । भाषालमणानीति, भाषाभेदा यथा नाट्यशास्त्रे
___"मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यद्धमागधी।
बाह्रीका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः ॥” इति संन्यास आदि चिह्नोंको धारण करनेवालियोंमें,उत्कृष्ट जाति में उत्पन्न स्त्रियों में, रानी,मन्त्रि-कुमारी और वेश्या इनका कुछलोगोंने संस्कृत भाषाका प्रयोग कहा है।१६७।
जिस देशमें उत्पन्न नीच पात्र है उसी देशको भाषा उसकी होनी चाहिए। कार्यके अनुरोधसे उत्तम नायिका आदियोंका भाषाका परिवर्तन करना चाहिए ॥१६॥
नैपुण्य दिखलानेके लिए स्त्री, सखी, वालक, वेश्या, धूर्त और अप्सराओंका वीच बीच में संस्कृत भाषाका प्रयोग होना चाहिए । १६९ ॥
इनके उदाहरण आकर ग्रन्थों में जानने चाहिए। भाषा-लक्षण ग्रन्थकारके
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षष्ठः परिच्छेदः
षट्त्रिंशल्लक्षणान्यत्र, नाटबालंकृतयस्तथा । यत्प्रियोज्यानि, वीथ्यङ्गानि त्रयोदश ॥ १७० ॥ लास्याङ्गानि दश यथालाभं रसव्यपेक्षया ।
यथालाभं प्रयोज्यानीति सम्बन्धः | अत्रेति नाटके । तत्र लक्षणानि ---
तथा ।। १७१ ।। पदोच्चयः ।
भूषणाक्षर संघातौ शोभौदाहरणं हेतु संशयदृष्टान्तास्तुल्यतर्कः निदर्शनाभिप्रायौ च प्राप्तिर्विचार एव च ।। १७२ ॥ दिष्टोपदिष्टे च गुणातिपातातिशयौ तथा । विशेषणनिरुक्ती च सिद्धिविपर्ययौ ॥ १७३ ॥
खटीये काव्यालङ्कारे
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"प्राकृत संस्कृत मागधपिशाचभाषा सूरसेनी च । षठोड भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ॥ " इति ।
a
ना प्रयोज्यानि प्रतिपादयति - षत्रिशल्लक्षणानीति । अत्र नाटके, पत्रिशल्लक्षणानि, तथा नाट्यालङ्कृतयस्त्रयस्त्रिशत्; वीथ्यङ्गानि त्रयोदश ॥ १७० ॥ लास्याङ्गानि दश एतानि रसव्यपेक्षया = रसानां (शृङ्गारादीनाम्) व्यपेक्षया ( विशेषाऽनुरोधेन ), यथालाभं यथासंभवं, प्रयोज्यानि = प्रयोजनीयानि ।
=
लक्षणान्युद्दिशति - भूषणाऽक्षरसंघाताविति । भूषणादारभ्योदाहरणं यावत् चत्वारि ।। १७१ ।।
हेतुमारभ्य विचारं यावत् तव ।। १७२ ।।
दिष्टमारभ्य विपर्ययं यावत् नव ।। १७३ ।।
पिता (चन्द्रशेखर ) के भाषार्णवमें है ।
नाटक में छत्तीस लक्षण, तेंतीस नाट्घाऽलङ्कार, वीथीके अङ्ग तेरह और लास्य के बङ्ग दश, इनको रसका विशेष अपेक्षा रख लाभके अनुसार प्रयोग करना चाहिए ।
लक्षण - भूषणसे उदाहरण तक चार ॥ १७१ ॥
हेतुसे विचार तक नौ ॥ १७२ ॥
दिष्टसे विपर्यय तक दी ।। १७३ ।।
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५०२
- साहित्यदर्पणे
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दाक्षिण्यानुनयो मालार्थापत्तिर्ग]णं तथा ।
पृच्छा प्रसिद्धिः सारूप्यं संक्षेपो गुणकीर्तनम् ॥ १७४ ॥ _ लेशो मनोरथाऽनुक्तसिद्धिः प्रियवचस्तथा।
लक्षणानि--गुणः सालंकारयोगस्तु भूषणम् ॥ १७५ ॥ यथा-'आक्षिपन्त्यरविन्दानि मुग्धे ! तव मुखश्रियम् ।
कोषदण्डसमप्राणां किमेषामस्ति दुध्करम् ॥' ____ वर्णनाऽक्षरसंघातश्चित्रार्थैरक्षरैपितैः । पाक्षिण्यादारभ्य गुणकीर्तनं यावत् दश ।। १७४ ।।
लेशमारभ्य प्रियवयी यावत चस्वारि समष्टया षट्त्रिंशत्संख्यकानि लक्षणा. युद्दिष्टानि ॥
भूषणं लक्षपति-गुणरिति । साऽलङ्कारः = उपमाबलङ्कारसहितः; गुणैः = माधुर्यादिभिः, योगः = सम्बन्धः, "भूषणम्" ॥ १७५ ॥ .
भूषणमुदाहरति-पाक्षिपन्तीति । कविनायकः काञ्चिन्नायिका कथयतिहे मुग्धे -हे सुन्दरि , परविदानि = कमलानि, तव = भवत्याः, मुखश्रियं = बदन थोमाम, बाक्षिपन्ति =निन्दन्ति । अर्थान्तरम्यासेन समर्षयते-कोषेत्यादिः । कोषदण्ड. सममाणा- कोषः (बीजकोष एव कोषः - धनापारम् ) दण्डः ( नालम् एव दण्ड:चतुर्वोपायः) ताभ्यां समग्राणाम् (सम्पूर्णानाम् ), एषाम् = अरविन्दाना, fo= कार्य, दुष्करं = दुविधेयमस्ति । बत्रायश्लेषमूलोऽर्थान्तरन्यासोऽलहारो माधुर्य व गुणः । अनुष्टुत्तम् ।।
बबरसंघातं लक्षयतिर्णनेति। वित्रायः - विविधाय:, मितेः = अल्परिति मावा, अक्षरः = वर्गः, वर्णना = वर्णनम् "अक्षरसंघातः"।.
दाक्षिण्य गुण कीर्तन तक दश ॥ १७४॥ मेशसे प्रियवयन तक, इस प्रकार समष्टि रूपसे लक्षणके छत्तीस भेद होते हैं। भवण-बलर और गुणोंके योगको "भूषण" कहते हैं ।। १७५ ॥
जैसे कोई नायक नायिकासे कहता है-कमल तुम्हारी मुखकी शोभाका हरण करते हैं । जैसे कोश (खजाना) बोर दण्ड (सेना) से युक्त राजा लोग दूसरोंकी
सुम्पत्ति हर लेते हैं उसी तरह कोश ( बीजकोष) और दण ( मृणाल ) से पूर्व 'इन (कमलों) के लिए क्या दुष्कर है ?॥
. अक्षरसंघात-विपित्र बोंवाले परिमित अक्षरोंसे वर्णन करनेको "अक्षर. संघात" गते हैं।
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षष्ठः परिच्छेदः
यथा शाकुन्तले'राजा-कश्चित्सखीं वो नातिबाधते शरीरसंतापः । प्रियंवदा-सम्पदं लधोसो उअसमं गमिस्सदि' । सिद्धैरथैः समं यत्राप्रसिद्धोऽर्थः प्रकाशते ॥ १७६ ॥
श्लिष्टश्लक्षणचित्रार्था सा शोभेत्यभिधीयते । यथा-'सद्वंशसम्भवः शुद्धः कोटिदोऽपि गुणान्वितः ।
कामं धनुरिव करो वर्जनीयः सतां प्रभुः।। . अक्षरसंघातमुदाहरति - कच्चिविति । वा-युष्माकं, सखीं-वयस्या, शकुन्तभामिति भावः । प्रियंवदा-"साम्प्रतं लब्धौषध उपशम गमिष्यति ।" इति संस्कृतपछाया । लब्घोषधः = लब्धम् (प्राप्तम् ) औषधं ( भेषजम् ), मवद्रूपमिति भावः । येन सः, तादृशः सन् । अत्रेदशैरक्षरैभिताऽभर"भवानस्याः शरीरसन्तामुपशमयतु" इति विचित्राऽर्थबोधनादक्षरसंघातः।
शोभा लक्षयति-सिद्धरिति । यत्र-यस्मिन् स्थले, सिद्धः-प्रसिद्धः, पर्थः-पदार्थैः; अप्रसिद्धः अविख्यातः, गुप्तरूप इति भावः, अर्थः, प्रकाशते--प्रकाशितो भवति ॥१७६।।
श्लिष्टलक्षणचित्रार्था-श्लिष्ट लक्षणः ( श्लेषयुक्तस्वरूपः ) चित्रः (विचित्रः) अर्थः ( अभिधेयः ) यस्याः सा, सा "शोभे' ति अभिधीयते ॥
शोभामुदाहरति-सद्वंशसंभव इति। सदंशसंभवः = सतः ( उत्तमाव) वंशात् ( कुलात, वेणीश्च ) सभवः ( उत्पत्तिः ) यस्य सः । शुद्धः ( निष्पातः, कीटाविद्धश्च ), कोटिदः = कोटि (तत्संख्यकद्रव्यम् ) ददातीति, कोटिसंख्यकं शत्रुच पतिबण्डयतीति च । गुणाऽन्वितः= गुणैः (दयादाक्षिण्यादिगुणः, गुणेन मोया च) मन्वितः ( युक्तः ) अपि, क्रूरः = निष्ठरः, वक्रश्च, प्रभुः स्वामी; धनुरिव-कामुकमिव, सता= सज्जनानां, "वर्जनीय" इति कृत्यप्रत्ययाऽन्तपदयोगे "कृत्यानां कर्तरि वा" इति विकल्पेन कर्तरि षष्ठी, पक्षे सद्भिरिति तृतीया । वर्जनीयः त्याज्यः । अत्र सिद्धरन्ययजातादिभिः अप्रसिद्धवेणुजातादिरों भासत इति शिलष्टविचित्राऽर्थत्वाच्छोभा नाम नाट्यलक्षणम् ।
जैसे शाकुन्तलमें-राजा-तुम्हारी सखीको शरीरसन्ताप ज्यादा बाधा तो नहीं कर रहा है ? प्रियंवदा-"इस समय औषध प्राप्त होनेसे शान्तिको प्राप्त होगा"।
शोभा-जहाँपर प्रसिद्ध अर्थोके साथ अप्रसिद्ध अर्थ प्रकाशित होता है ।५७६। श्लेषयुक्तस्वरूप विचित्र अर्थवाली उसे "शोभा" कहते हैं ॥ .
जैसे-उत्तम कुलमें उत्पन्न, शुद्ध ( निष्पाप ), करोड़ों रुपयोंको देनेवाला और गुणोंसे युक्त प्रभु भी क्रूर हो तो उत्तम वंश ( बांस ) में उत्पन्न, शुद्ध (कीड़ोंसे अवित) कोटिद ( करोड़ों शत्रुओं को खण्डन करनेवाला, और गुण ( प्रत्यञ्चा) से युक्त कुटिल घनुके समान सज्जनोंसे छोड़नेके लिए योग्य हो जाता है।
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५०४
साहित्यदर्पणे
यत्र तुल्याययुक्तेन वाक्येनाभिप्रदर्शनात् ।। १७७ ।। साध्यतेऽभिमतश्वार्थस्तदुदाहरणं
प्रतम् ।
यथा
'अनुयान्त्या जमातीतं कान्तं साधु त्वया कृतम् । . का दिनश्रीविनार्केण १ का निशा शशिना विना ? ' हेतुर्वाक्यं समासोक्तमिष्टकुद्धेतुदर्शनात् ।। १७८ ।। यथा वेण्यां भीम प्रति
चेटी-एवं मए भणिदं-'भाणुमदि! तुह्माणं अमुक्केसु केसेसु कह देवीए केसा संजमिअन्तित्ति'।
उदाहरणं लक्षयति-पत्रेति । यत्र, तुल्याऽर्षयुक्तेन = समानविषयसहितेन, वाक्येन, मभिप्रदर्शनाद - अभिप्रायप्रकाशनात् ॥ १७७ ।।
अभिमतः = अभीष्टः, अर्थः, साध्यते - प्रतिपायते, तद, "उदाहरणं" नाम लक्षणं मतम् ।
उदाहरणमुदाहरति-अनुयान्त्येति । पतिमनुयान्तीं कांविधायिकां प्रति तसख्या उक्तिरियम् । जनाऽतीतं = गुणगणाऽतिशयेनाऽतिकान्तलोक, कान्तं = पतिम्, अनुयान्त्या = अनुसरन्त्या, त्वया = भवत्या, साधु-समीचीनं, कृतं - विहितम् । तथा
अर्केण विना = सूर्यमन्तरेण, दिन पीः - दिवसकोभा, का? तथैव, शशिना विना= चन्द्रमन्तरेण, का, निशा = रात्रिः ?। अत्राऽक विना दिनश्रीरिव शशिनं विना निशा• श्रीरिव कान्तं विना कान्ताऽपि शोभारहितेति साध्यते, अत उदाहरणमिति भावः।
हेतु लक्षति-हेरिति। हेतुदर्शनात =कारणप्रदर्शनात्, समासोक्तं - संक्षेपेण प्रतिपादितम्, इष्टकृत = अभीष्टाऽर्थबोधकं, वाक्यं, "हेतुः" ॥ १७८ ।।
हेतुमुदाहरति-यति । एवं मया भणितं "भानुमति ! युष्माकममुक्तेषु केशेषु कथं देव्याः केशाः संयम्यन्ते"। इति संस्कृतच्छाया । अत्र द्रौपदीकेशाऽसंयमनस्य हेतुर्मानुमतीकेशाऽमोक्षणं, तच्च दुर्योधने हत एव देव्या: केशसंयमो भविष्यतीत्यभिमताऽर्थबोधः ।
उदाहरण-जहां समान विषयसे युक्त वाक्यसे अभिप्रायके प्रकाशनसे ।१७।अभीष्ट अर्थकी सिद्धि की जाती है उसे "उदाहरण" कहते हैं ।
जैसे-लोकोत्तर गुणोंसे सम्पन्न पतिको अनुसरण करनेवाली तुमने उचित किया । सूर्यके विना दिनकी शोमा क्या? और चन्द्र के विना रात्रिकी शोभा ही क्या ?
हेत-कारणके प्रदर्शनसे जहाँपर संक्षेपसे प्रतिपादित अभीष्टका बोधक वाक्य हो उसे "हेतु" कहते हैं ।। १७८॥
जैसे वेणीसंहारमें भीमके प्रति चेटी-मैंने ऐसा कहा- भानुमति ! आपोगों के मुक्त न होनेपर कैसे द्रोपदीके केश बांधे जाते हैं"।
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षष्ठः परिच्छेदः
संशयोऽश्वस्य वाक्ये स्याद्यदनिश्रयः ।
ས་
यथा ययातिविजये
'इयं स्वर्गाधिनाथस्य लक्ष्मीः किं यक्षकन्यका १ । किं चास्य विषयस्यैव देवता १, किमु पार्वती ॥' दृष्टान्तो यस्तु पक्षेऽर्थसाधनाय निदर्शनम् ॥ १७९ ॥ यथा वेण्याम्
'सहदेवः - आर्य ! उचितमेवैतत्तस्या यतो दुर्योधनकलत्रं हि सा ' इत्यादि ।
तुल्यत
यदर्थेन तर्कः प्रकृतगामिना ।
संशयं लक्षयति- संशय इति । अज्ञाततत्वस्य- अविदितविशेषस्य जनस्य । वाक्ये, यत् अनिश्चियः, स्थात “संशयः " ।
1
संशयमुदाहरति-यथेति । शर्मिष्ठां दृष्ट्वा राज्ञो ययातेरुक्तिरियम् । इयं सन्नि कृष्टस्था ललना, स्वर्गाऽधिनाथस्य - स्वर्पतेरिन्द्रस्य, लक्ष्मी:- राजश्रीः किम् ?, यक्षकन्यका= यक्षस्य ( देवयोनिविशेषस्य ) कुमारी कि, कि च, अस्य एतस्य विषयस्य = देशस्य, देवता देवी, पार्वती एव है - हैमवती एव, किमु ? अनुष्टुवृत्तम् । अत्राऽज्ञाततत्त्वस्य ययातेनिश्वयाऽभावात् संशयो नाम लक्षणभेदः ।
दृष्टान्तं लक्षयति- दृष्टान्त इति । पक्षे; अर्थसाधनाय = साध्यसाधनार्थ; निदर्शनं = हेतुप्रदर्शनं "दृष्टान्तः” ।। १७९ ।।
दृष्टान्तमुदाहरति-- यथेति । अत्र भानुमतीरूपपक्षे व्यङ्गय वाक्यरूपसाध्यस्य दुर्योधनकलत्ररूप हेतु प्रदर्शनात् दृष्टान्तः ।
तुल्यतर्क लक्षयति- प्रकृतिगामिना = प्रस्तुताऽर्थंगामुकेन, अर्थेन = विषयेण, यत तर्कः = भाव्यर्थं सूचनं स " तुल्यतर्कः " ॥
संशय - वाक्य में अज्ञात तस्वके अनियको "संशय" कहते हैं ।
जैसे ययाति विजय - शर्मिष्ठाको देखकर ययाति कहते हैं-"यह इन्द्रकी राजलक्ष्मी है वा यक्ष कन्या है ? अथवा इसी देशकी देवता पार्वती है ?
बृष्टान्त - पक्ष में साध्य के साधनके लिए हेतु दिखलानेको "दृष्टान्त " कहते हैं ॥ १७९ ॥
जैसे वेणीसंहार में -- "सहदेव - आर्य | यह उसके लिए उचित ही है, जिससे कि वह दुर्योधनकी पती है ।" इत्यादि ।
तुल्यतर्क - प्रस्तुत अर्थ में जानेवाले विषयसे जो भावी अर्थकी सचना करनी है वह " तुल्यतर्क" है ।
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१०६
साहित्यदर्पणे
यथा तव
'प्रायेणेव हि दृश्यन्ते कामं स्वप्नाः शुभाशुभाः। शतसंख्या पुनरियं सानुजं स्पृशतीव माम् ॥'
संचयोऽर्थानुरूपो यः पदानां स पदोचयः ॥ १८० ॥ यथा शाकुन्तले'अधरः किसलयरागः, कोमलविटपानुकारिणौ बाहू। कुसुममिव लोभनीयं यौवनमानेषु. संनद्धम् ।। अत्र पदपदार्थयोः सौकुमार्य सहशमेव ।
यथा तत्रैवेति-प्रायेणेति । भानुमत्याः स्वप्ने दुर्योधनस्य तोऽयम् । प्रायेव = बाहुल्येनैव, शुभाऽशुभाः, स्वप्नाः काम = पर्याप्तं, दृष्टान्ते = विलोक्यन्ते, इयम् एषा, सतसंख्या, साऽनुजं = सावरजं, मां, स्पृशति इव-आमृति इव ॥
पदोच्चयं लक्षति-संशय इति । अर्याऽनुरूप:-वाच्यसदृशः, यः पदानां = काना, सञ्चयः-समूहः, स "पदोच्चयः" ।। १८० ॥
पदोयमुदाहरति-अपर इति। शकुन्तलां दृष्ट्वा राशो दुष्यन्तस्य स्वगतोक्तिरियम् । अधरः अस्या अधरोष्ठः, किसलय रागः - किसलयस्य ( पल्लवस्य ) इव रागः (कोहिल्पम् ) यस्य सः। बाहुः भुजो, कोमलविटपाऽनुकारिणी - मृदुलशाखातुल्यौ, बनेषु - तत्तदवय वेषु, कुसुमम् इव-पुष्पम् इव, लोभनीयं = लोभयोग्य, यौवनं - वामपं, संन-सम्बनम् ॥
विष्णोति । प्रति ।
जैसे-वहीं (वेणीसंहार ) पर-यह भानुमतीके स्वप्नमे दुर्योधनका तर्क है। अकसर ही शुभ और अशुभ स्वप्न पर्याप्त रूपसे देखे जाते हैं। यह सौ संख्या भाइयोके साप मानों मुझे स्पर्श करती हैं।
पदोच्चय--अर्यके समान जो पदोंका समूह है वह "पदोच्चय" है ॥१०॥
से शाकुन्तलमें-शकुन्तलाके अधर पल्लबके समान राग (लाली , वाला हैं, बाहु कोमल पल्लवोंके समान हैं। इनके अङ्गोंमें फूलके समान छोभके योग्य तारण्य सम्बद्ध है । इसमें पद और पदार्थोकी सुकुमारता तुल्य ही है।
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षष्ठः परिच्छेदः
५०७
यत्रार्थानां प्रसिद्धानां क्रियते परिकीर्तनम् ।
परपक्षव्युदासाथ तनिदर्शनमुच्यते ॥ १८१ ॥ यथा
'क्षात्रधर्मोचितर्धमैरलं शत्रुवधे नृपाः । किं तु बालिनि रामेण मुक्तो बाणः पराङ्मुखे।।'
अभिप्रायस्तु साहश्यादभूतार्थस्य कल्पना । यथा शाकुन्तले'इदं किलाव्याजमनोहरं पुस्तपःक्लमं साधयितुं य इमछति । ध्रवं स नीलोत्पलपस्त्रधारया शमीतलं छेत्तमृषिय॑स्यनि ।'
निदर्शनं लक्षयति-पत्रेति । यत्र, परपक्षव्युदासाऽथं =परपक्षस्य ( पक्षाऽन्तरस्य ) व्युदासार्थ ( निवारणार्थम् ). प्रसिद्वाना = प्रख्यातानाम्, अर्थानां = विषयाणां; परिकीर्तनं = परिवर्णनं, क्रियते = विधीयते, तत् "निदर्शनम्" उच्यते ॥ १८१॥
निदर्शनमुदाहरति-क्षात्रधर्मोचितरिति । अत्र रामं कश्चिद्रूषयति । नपा:राजानः; क्षात्रधर्मोचितः = क्षत्रियसम्बन्धिधर्मयोग्यः, धमः = सम्मुखवतिशत्रवध. योग्ययुः ; शत्रुमधे = वैरिव्यापादने, अलं = समर्थाः, किन्तु-परन्तु, रामेण-राघवेण; पराङ्मु = स्वस्मिन् विमुखे, सुग्रीवेण समं युद्धोद्यत इति भावः । वालिनि = सूर्यपुत्र, बाणः = शरः, मुक्त = त्यक्तः, प्रहृत इति भावः ।
अत्र परपक्ष निरासार्थ प्रसिद्धानां परिकीर्तनानिदर्शनं नाम लक्षणम् ।। १८२ ॥
अभिप्राय लक्षयति-अभिप्राय इति । सादृश्यात् = तुल्यत्वाद्धेतोः, अभूताs.. यस्य = असंभविनो वस्तुनः, कल्पना = आपादनम् "अभिप्रायः"।
अभिप्रायमुदाहरति-इवमिति। यः = जनः, महषिः = कण्व इति भावः । अध्याजमनोहरं = निश्छलसुन्दरम्, इदं = पुर:स्थितं, वपुः = शरीरं, शकुन्तलादेहमित्यर्थः । तप कलमं - तपस्याक्लेशं, साधयितु = कारयितुम् इच्छति = वाञ्छति स- महषिः, नीलोत्पलपस्त्रधारया = नीलोत्पलस्य (नीलकमलस्य ) पत्रधारया (दलाऽग्रभागेन ). समिल्लता = दारुवल्ली, छेत्तुविधा कतुंम्, व्यवस्यति इच्छति ।
निवर्शन-जहाँपर परपक्षका प्रत्याख्यान करने के लिए प्रसिद्ध विषयोंका परिकीर्तन किया जाता है उसे निदर्शन" कहते हैं ॥ ११॥
जैसे-राजालोग क्षत्रिय धर्मके उचित नियमोंसे शत्रुओंके वधमें समर्थ होते हैं, परन्तु अपने साथ युद्ध में पराङ्मुख वालीपर रामने वाण छोड़ा ।।
अभिप्राय-सादृश्यसे असंभव विषयकी कलानाको "अभिप्राय" कहते हैं। जैसे शाकुन्तलमें--शकुन्तलाको देखकर राजा कहते हैं जो इस स्वभाव
.
.
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साहित्यदर्पणे
प्राप्तिः केनचिदंशेन किञ्चिद्यवानुमीयते ॥ १२ ॥ यथा मम प्रभावत्याम्
'अनेन खलु सर्वतश्वरता चचरीकेणावश्यं विदिता भविष्यति 'प्रियतमा मे प्रभावती।'
.... विचारो युक्तिवाक्थैयदप्रत्यक्षार्थसाधनम् । न्यथा मम चन्द्रकलायाम्
'राजा-नूनमियमन्तापिहितमदनविकारो वर्तते । यत:
हसति परितोषरहितं, निरीक्ष्यमाणापि नेक्षते किचित् । निदर्शनाऽलङ्कारः, वंशस्थं वृत्तम् । नीलोत्पलपत्रधारया समिल्लताच्छेदनमिव शकुन्तला. शरीरेण तपः साधनमसम्भवमिति अभिप्रायो नाम लक्षणम् ॥
प्राप्ति लक्षयति-प्राप्तिरिति । यत्र-यस्मिन् स्थले, केचित अंशेन वाक्य'मागेन, किञ्चित, अनुमीयते-अनुमितिविषयीक्रियते, सा "प्राप्तिः" क्वचित् "अप्ति". रिति पाठान्तरम् ॥ १२॥
प्राप्तिमुदाहरति--यथेति । चञ्चरीकेण - अमरेण । अत्र सर्वतचरणेन प्रमरकर्तृकं प्रभावतीज्ञानमनुमीयते ॥
विचारं लक्षयति-विचार इति। युक्तिवाक्यैः = उपपत्तियुक्तवचनः, यत् अप्रत्यक्षाऽर्थसाधनम् = अप्रत्यक्षाऽर्थस्य (परोक्षविषयस्य ) साधनम् (ज्ञापनम् ) स विगारः।
विचारमुदाहरति--यति। अन्तःपिहितमदनविकारा = अन्तराच्छादित. कामविकृतिः । हसतीति । इयं, परितोषरहितं सन्तोषरहितं तथा यथा, हसति हास्यं करोति । निरीक्ष्यमाणा अ.प = अवलोक्यमाना अपि, किञ्चित् = किमरि, न ईक्षते= सुन्दर शरीरसे तपस्याका क्लेश करना चाहते हैं, वे ऋषि ( कण्व ) निश्चय ही नील कमलके पत्तेकी धारसे समिधाको काटना चाहते हैं। .
प्राप्ति-जहाँपर किसी अंशसे किसी विषयका अनुमान किया जाता है उसे "प्राप्ति" कहते हैं ।। १२॥
जैसे अन्यकारको प्रभावती (नाटिका) में--"सर्वत्र घूमनेवाले इस • भौरेने अवश्य ही मेरी प्रियतमा प्रभावतीको जान लिया होगा।"
विचार-युक्तिसंगत वाक्योंसे अप्रत्यक्ष विषयके निरूपणको "विचार" “कहते हैं।
जैसे ग्रन्थकारकी चन्द्रकला (नाटिका ) में--राजा-निश्चय ही इस (चन्द्रकला ) के अन्त:करणको कामविकारने आच्छादित कर दिया है । क्योंकि
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षष्ठः परिच्छेदः
सख्यामुदाहरन्त्यामसमञ्जसमुत्तरं दस्ते ।। देशकालस्वरूपेण वर्णना दिष्टमुच्यते ।। १८३ ।। यथा वेण्याम्सहदेवः
यद्वधुतमिष ज्योतिरार्ये क्रुद्धेऽद्य संभृतम् ।
तत्प्रावृडिव कष्णेयं नूनं संबद्धयिष्यति ।।' उपदिष्टं मनोहारि वाक्यं शास्त्रानुसारतः । यथा शाकुन्तले
'शुश्रूषस्व गुरून् , कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने। वो विलोकयति । सख्या = वयस्यायाम्, उदाहरन्त्याम् = भाषमाणायाम् अपि, असमन्जसम् = असम्बदम्, उत्तरं-प्रतिवाक्यं, दत्ते-ददाति । अत्र नूनमित्यायुपपत्तिवाक्यः अप्रत्यक्षस्य प्रभावतीमदनविकारस्य साधनाहिचारो नाम लक्षणम् ।
विष्टं लक्षयति-देशकालस्वरूपेण = देशकालयोः ( स्थानसमयोः ) स्वरूपेण (तुल्यधर्मस्वेन ), वर्णना = वर्णनं, "दिष्टम्" उच्यते ।। १८३ ॥
दिष्टमुदाहरति-यति । यद्वद्युतमिति । अंध = अस्मिन्दिने, क्रुद्ध-कुपिते, मायें = पूज्ये, भीमसेन इति भावः, यत, ज्योतिः - तेजः, संभृतं = संभूतम्, इयम् = एषा, कृष्णा = द्रौपदी, प्रावट् इव - वर्षतु: इव, नूनं - निश्चितं, तत्-ज्योतिः, संवर्द. यिष्यति = संबद्धित करिष्यति । अनुष्टुब् वृत्तम् । अब कालस्य तुल्यधर्मस्वेन वर्णनाद्दिष्टं नाम लक्षणमुदाहृतम् ।
उपदिष्ट लक्षयति-उपविष्टमिति । शास्त्राऽनुसारतः = शास्त्रानुसाराका मनोहारि - मनोहरणशीलं, वाक्यं = पदसमूहः "उपदिष्टम्" ।
उपदिष्टमुदाहरति-शुअवस्वेति । कण्वः शकुन्तलामुपदिशति-शुभ षस्वेति । गुरुन् = पूज्यजनान्, श्वश्रूप्रभृतीनिति भावः। शुश्रूषस्व = सेवस्व, सपत्नीजने - एक(य) सन्तोषरहित होकर हंसती हैं, दूसरेके देखनेपर भी कुछ भी नहीं देखती है और सखीके बोलनेपर असम्बद्ध उत्तर देती है।
विष्ट-देश और कालके स्वरूपसे वर्णनको "दिष्ट" कहते हैं ॥१३॥ जैसे वेणी (संहार) में-सहदेव
पूज्य ( भीमसेन ) के क्रूख होनेपर जो बिजलीकी-सी ज्योति उत्पन्न हुई है। उसको वर्षाकी समान यह द्रौपदी निश्चय ही बढ़ा देगी।
उपविष्ट-शास्त्रके अनुसार मनोहर वाक्यको "उपदिष्ट" कहते हैं । जैसे शाकुन्तलमें (कण ऋषि शकुन्तलाको उपदेश देते हैं)-(हे शकुन्तले ! तुम ) सास
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५१०
साहित्यदर्पणे
भर्तुर्विप्रताप रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः । भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने, भाग्येष्वनुत्सेफिनी, यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः ॥' गुणातिपातः कार्यं द्विपरीतं गुणान्प्रति ।। १८४ ।। यथा मम चन्द्रकलायां चन्द्रं प्रति
'जइ संहरिज्जइ तमो धेय्यइ सअलेहिं ते पाओ । ससि सिरे पसुबहणो त हवि ह इत्थीअ जीअणं हरसि ॥'
पत्नीजने प्रियसखीवृत्ति - प्रियसख्या: ( अभीष्टवयस्यायाः ) वृत्ति ( व्यवहारम् ), - कुरु = विधेहि । विप्रकृता अपि = अपकृता अपि, रोषणतया कोपनत्वेन, भर्तुः = पत्युः, प्रतीपं = प्रतीकूलतां मा स्म गमः नो गच्छ, "स्मोत्तरे लङ् चे "ति स्मोत्तरे माङि - लुङ् । परिजने = सेवकजने, भूयिष्ठम् = अतिशयं, दक्षिणा - उदाराशया, भव = एधि, तथा भोगेषु = विषयोपभोगेषु, अनुत्सेकिनी = गर्वरहिता भव । एवम् इत्थं कृते -सतीति शेषः । युवतयः = तरुण्यः, गृहिणीपदं = सद्गेहिनीस्थानं, यान्ति = प्राप्नुवन्ति; यामाः = प्रतिकूलाः, एतद्विपरीतकारिण्यः स्त्रिय इति भावः । कुलस्य = वंशस्य; -आधय: = मनोव्यथा कारिप्यः भवन्तीति शेषः । अत्र धर्मशास्त्रानुसारं मनोहरवाक्यत्वादुपदिष्टम् । (४ - १७) शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।
I
गुणाऽतिपातं लक्षयति-गुणाऽतिपात इति । गुणान् प्रति, यत् विपरीतं = प्रतिकूलं कार्यं कृत्यं स " गुणाऽतिपातः । १८४ ॥
=
=
गुणाऽतिपादमुदाहरति- यथेति । 'यदि संह्रियते तमो गृह्यते सकलस्त पादः । - वससि शिरसि पशुपतेस्तथाऽपि हा ! स्त्रिया जीवनं हरसि" इति संस्कृतच्छाया । विरहिणी चन्द्रमुपालन - तमः अन्धकारं संह्रियते यदि=निराक्रियते चेत्, स्वयेति शेषः, : सकलैः = समस्तैर्जनैः, ते तब, पादः - किरणश्चरणश्च पादा रश्म्यङ्घ्रितुयशाः " इत्यमरः । गृह्यते = स्वीक्रियते, शिरसा धार्यंत इति भावः । पशुपतेः शङ्करस्य, शिरसि = मस्तके, वससि वासं करोषि तथाऽपि स्त्रियाः = नार्याः, वियोगिन्या इति भाव: । जीवनं = जीवितं हरसि = नाशयति, कामोद्दीपनेनेति शेषः । अत्र चन्द्रस्य आदिपूज्यजनोंकी शुश्रूषा करो, सीतमें प्रिय सखीके समान व्यवहार करो, पतिसे अपकृत होनेपर भी प्रतिकूल मत बनो। परिजन ( सेवक ) में अतिशय उदार होओ और भाग्य में गर्व मत करो। युवतियाँ इस प्रकार गृहिणीके पदको प्राप्त करती है, इसके विपरीत आचरण करनेवाली कुलकी मनोव्यथाको उत्पन्न करती हैं ।
गुणातिपात-गुणोंके प्रति विपरीत कार्यको "गुणाऽतिपात" कहते हैं ।। १८४ ॥ जैसे ग्रन्थकारको चन्द्रकला ( नाटिका ) में विरहिणी स्त्री चन्द्रको कहती है( हे चन्द्र ! ) तुम अन्धकारको हटाते हो तो सब लोग तुम्हारे पाद ( किरण वा चरण )
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षष्ठः परिच्छेदः
यः सामान्यगुणाद्रेकः स गुणातिशयो मतः ।
५११
यथा तव
'राजा - ( चन्द्रकलाया मुखं निर्दिश्य ) असावन्तञ्चश्वद्विकचनवनीलाब्ज युगल
स्तलस्फूर्जर कम्बुर्विलसद लिसंघात उपरि । विना दोषास सतत परिपूर्णाखिलकलः कुतः प्राप्तश्चन्द्रो विगलितकलङ्कः सुमुखि ! ते ॥' तमोहरणरूपं गुणं प्रति स्त्रीजीवनहरणरूपविपरीतकार्याद् गुणाऽतिपातो नाम नाटयालङ्कारः । गाथा वृत्तम् ।
गुणाऽतिशय लक्षयति-य इति । यः सामान्यगुणोद्रेकः = सामान्यगुणात् ( उपमानोपमेयनिष्ठसाधारणधर्मात् ) उद्रेकः ( आधिक्यम् ) उपमेयस्येति शेषः । स "गुणाऽतिषायः', मतः = अभिमतः ।
गुणाऽतिशयमुदाहरति-यथेति । तत्रैव = चन्द्रकलायामेव । असाविति । हे सुमुखि = हे रुचिरवदने !, अन्तः मध्ये, चञ्चद्विकचनवनीलाऽब्जयुगलः = चश्वत् ( चलत ) विकचं ( प्रफुल्लम् ) नवं ( नूतनम् ) नीलम् ( श्यामम् ) अब्जयुगलं ( कमलयुग्मम्, नयनद्वितयरूपमिति भावः ), यस्य सः । तथा तलस्फूर्जत्कम्बुः - तले ( अधोदेशे ) स्फूर्जन ( दीप्यमानः ) कम्बु: ( शङ्खः, ग्रीवारूप इति भावः ) यस्य सः उपरि (ऊर्ध्वभागे ) विलसदलितङ्घातः - विलसन् ( विचरन ) अलिसङ्घातः (भ्रमरसमूहः केशसमूहस्वरूप इति भावः ) यस्य सः । एवं च सततपरिपूर्णाऽखिलकल: सततं ( निरन्तरं यथा तथा ) परिपूर्णा: ( अन्यूना: ) अखिला : ( समस्ताः ) कला: ( भागा: ) यस्य सः । तथा विगलितकलङ्कः = कलङ्करहितः, असौ = अयं, चन्द्रः ( इन्दु:, मुखरूप इति भावः ) दोषासङ्ग विना = रात्रिसम्बन्धं विनाऽपि अथवा दूषणसम्पर्क विनाऽपि । ते तव, समीप इति शेषः । कुतः कस्मात् स्थानात्, प्राप्तः = उपस्थितः । अत्राऽऽह्लादकत्वादिसामान्यधर्मेभ्यो मुखस्य विगलितकलङ्कत्वादिधर्माधिक्या गुणातिशयो नाम नाटयालङ्कारः, शिखरिणी वृत्तम् ।
को शिरसे धारण कर लेते हैं । तुम शिवजी के शिरमें रहते हो, हाय ! तो भी स्त्रीके जीवनको हर लेते हो ।
१
गुणाऽतिशय साधारण धर्मसे उपमेयके आधिक्यको “गुणाऽतिशय" कहते हैं। जैसे वहीं ( चन्द्रकला ) पर राजा - ( चन्द्रकलाके मुखका निर्देश कर ) हे सुमुखि ! जिसके मध्य में खिले हुए दो नील कमल ( नेत्र ) हैं । नीचे शङ्ख ( ग्रीवा ) शोभित है । ऊपर भ्रमरसमूह ( केशकलाप ) शोभित हो रहा है। दोषासङ्ग ( दोषारात्रि के वा दोष के आसङ्ग सम्पर्क के ) बिना निरन्तर परिपूर्ण सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त, कलङ्क से रहित ऐसे चन्द्र ( मुख ) को तुमने कैसे पा लिया है ?
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५१२
यथा
साहित्यदर्पणे
सिद्धानर्थान् बहूनुक्त्वा विशेषोक्तिविशेषणम् ।। १८५ ।
' तृष्णापहारी विमलो द्विजावासो जनप्रियः । हृदः पद्माकरः किन्तु बुधस्त्वं स जलाशयः ॥' पूर्वसिद्धार्थकथनं निरुक्तिरिति कीत्यते ।
विशेषणं लक्षपति - सिद्धानिति । सिद्धान् = प्रसिद्धान्, बहून् - अनेकान बर्षात् = सामान्यधर्मान् उक्त्वा = अभिधाय विशेषोक्तिः = भेदकथनं, "विशेषण" नाम लक्षणम् ।। १८५ ।।
विशेषणमुदाहरति- तृष्णाऽपहारीति । कंचिद्युद्धं प्रति कस्यचिद्विशेषोक्तिः । हृदः - अगाधजलस्तडाग । बुधः - विद्वान् तयोर्भेदं प्रतिपादयति - तृष्णाऽपहारी = तृष्णा ( हृदपक्षे - जल पिपासा, बुधपक्षे- ज्ञानपिपासा ) अपहरतीति तच्छीलः । विक्ल: = हृदपक्षे-निर्मलः, बुधपक्षे पावशून्यः । द्विजात्रासः = ह्रदपक्षे - पक्षिमस्स्याखण्डजनिवासः, बुधपक्षे - ब्राह्मणाऽऽघारः । जनप्रियः = लोकप्रिय: हृदपक्षे शीतलस्वाद बुधपक्षे - मधुरभाषित्वादिति भावः । तथा पद्माकरः = ह्रदपक्षे- पद्मानाम् ( कमलानाम् ) बुधपक्षे - पद्माया:-लक्ष्म्याः आकर : ( आधः रस्थानम् ) एतत् सर्व सामान्यतः समानम्, किन्तुः स्वं बुधः - विद्वान्, सः - हृदस्तु, जलाशय: = जलानाम् आशयः । लडयोरभेदाद् जड: ( मूढः ) आशय : ( अभिप्रायः ) यस्य सः । अत्र तृष्णाऽपहारिस्वादिप्रसिद्धधर्मानुक्त्वा बुधजलाशयत्वेन विशेषोक्तविशेषणं नाम लक्षणम् ।
नित लक्षयति- पूर्वसिद्धाऽर्थकथनमिति । पूर्वं ( प्रथमम् ) सिद्धानाम् (निष्पन्नानाम् ) अर्थानां ( विषयाणां ) कथनम् ( प्रतिपादनम् ) " निरुक्तिः" इति कोष्यते = उच्यते ।
विशेषण -- प्रसिद्ध बहुतेरे सामान्य धर्मो को कहकर विशेषोक्ति ( भेदकथन ) - -को "विशेषण" कहते हैं ।। १८५ ।।
जैसे -- तृष्णा ( हदके पक्षमें जलकी तृष्णा, बुनके पक्ष में ज्ञानतृष्णा ) का अपहरण करनेवाला, विमल ( हृदपक्ष में निर्मल, बुधपक्ष में-- पावशून्य ), द्विजावास = ह्रवपक्षमें -- द्विजों= मत्स्यादियोंका आवास- बुधपक्ष में द्विजों ब्राह्मणों का आधार ), लोकप्रियः = हृदपक्ष में शीतल होनेसे और बुधपक्ष में मधुरभाषी होनेसे ) फिर पद्माकर ( हृदपक्षमें पद्मों अर्थात् कमलोंका आकर, बुधपक्ष में पद्मा अर्थात् लक्ष्मीका आकर ) किन्तु आप बुध अर्थात् विद्वान् हैं- वह हद ( तालाब ) तो जलाशय ( जलका आधार वाके और ल के अभेद से जडाशय अर्थात् अचेतन ) है ।
निरुक्ति -- पूर्वसिद्ध विषयोंके कथनको "निरुक्ति" कहते हैं ।
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. . षष्ठः परिच्छेदः
५१३
यथा वेण्याम्-'निहताशेषकौरव्यः-'इत्यादि ६-१०२ ।
बहूनां कीर्तनं सिद्धिरभितार्थसिद्धये ।। १८६ ।। यथा
'यद्वीयं कूर्मराजस्य यश्च शेषस्य विक्रमः ।
पृथिव्या रक्षणे राजन्नकत्र त्वयि तत्स्थेितम्।।'
दृशादीनां भवेद् भ्रंशो वाच्यादन्यतरद्वचः । यथा वेण्याम्-कञ्चुकिनं प्रति । निरुक्तिमुदाहृति-निहताऽशेषकोरव्य इत्यादि।
अत्र पूर्वसिद्धानामशेषकौरव्यघातरूपाऽर्थानां कथनाग्निरुक्तिः । सिदि लक्षतिबहनामिति । अभिप्रेताऽर्थसिद्धये - अभिप्रेतस्य ( अभीष्टस्य ) अर्थस्य ( विषयस्य) सिखये (निष्पादनाय), बहूनां (बहुलानाम्) कीर्तनं ( कथनम् ), "सिद्धि"मि लक्षणम् ।
सिद्धिमुदाहरति-यदिति । कश्चित्कवि: कंचिद्राजानं प्रशंसति । हे राजन् != हे नृप !, कूर्मराजस्य = कमठपतेः, पृथ्वीधारकशेषभारवाहकस्येति भावः । यद, वीर्य बलम् !, शेषस्य = अनन्तस्य, यः = प्रसिदः, विक्रमः = पराक्रमः । पृथिव्याः-अवनेः यत्, रक्षणे = पालने, व एकस्मिन् = एकमात्रे, त्वयि = भवति, तत् = कूर्मराजवीर्य. शेषविक्रमरूपमुभयमपि, स्थितं विद्यमानम्, आस्त इति शेषः । अत्र राजकर्तृकपृथिवीरक्षणरूपाऽभीष्टाऽर्थसिद्धये कर्मराजवीर्यशेषविक्रमरूपाऽनेकविषयकीर्तनासिद्धिर्नाम लक्षणम् । १८६ ॥ . भ्रंशं लक्षयति-दप्तादीनामिति । दृप्तादीनां = दर्पयुक्तादीनाम्, अत्राऽऽदिपदेन हृष्टदुःखितादीनां ग्रहणम् । वाध्यात्-वक्तु योग्याव, अन्यतरत्=भिन्नं, विपरीत. मिति भावः । वचः = वचनं, "भ्रशो' नाम लक्षणं भवेत् ।
जसे वेणी (संहार) में-'निहताऽशेषकौरव्यः" इत्यादि ।
सिद्धि-अभीष्ट विषयकी सिद्धिके लिए बहुतेरे धमियोंके कीर्तनको "सिद्धि" कहते हैं ॥ १८६ ॥
जैसे-हे राजन् ! कर्मराज ( शेषनागको धारण करनेवाले ) का जो बल है और जो शेषनाग ( पृथ्वीके धारण करनेवाले ) का पराक्रम है। पृथिवीके रक्षनमें एकमात्र आपमें वही बल और पराक्रम रहा हुआ है ॥ १८६ ॥
भ्रंश-दर्पयुक्त मादि जनोंके कहनेके योग्य विषयसे भिन्न वचन को "भ्रंश"
जैसे वेणी (पहार ) में दुर्योधन कञ्च की से कहता है३३ सा०
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साहित्यदर्पणे
'दुर्योधनः
सहभृत्यगणं सबान्धवं सहमित्रं ससुतं सहानुजम् । स्वबलेन निहन्ति संयुगे नचिरात्पाण्डुसुतः सुयोधनम् ॥'
विचारस्थान्यथाभावः संदेहात्त विपर्ययः ॥ १८७॥ यथा
'मत्वा लोकमदातारं संतोषे यैः कृता मतिः ।
त्वयि राजनि ते राजन्न तथा व्यवसायिनः॥' दाक्षिण्यं चेष्टया वाचा परचित्तानुवर्तनम् ।
जंगमुदाहरति-सहभृत्यगणमिति। पाण्डुसुतः = युधिष्ठिरः, स्वबले - आत्मपराक्रमेण, सहभृत्यगणं = भृत्यसमूहसहितं, सबान्धवं = बन्धुजनसहितं, सहमित्रंमुहज्जनसहितं, सहानुजं = दुःशासनाऽवरजसहितं, तादृशं सुयोधनं = दुर्योधनं, माम् । मचिरात = शीघ्रमेव, संयुगे = युद्ध, निहन्ति = व्यापादयति । अत्र दुर्योधनस्य "पाण्डः सुतं सुयोधन" इति वक्तव्येऽर्थे दप्तत्वात् “पाण्डुसुतः सुयोधनम्" इति कथनात् भ्रंशो वाम लक्षणम् ।
. विपर्ययं लक्षयति-विचारस्येति । सन्देहात = संशयात्, विचारस्य = तत्त्व. निश्चयस्य, अन्यथाभावः = परीत्यं, तु "विपर्ययः ॥ १८७ ।।
: विपर्ययमुदाहरति-मत्त्वेति । कश्चित्कवी राजानं स्तौति । यः = जनः, लोकं = जनम्, अदातारं = दातृत्वगुणरहितं, मत्त्वा = अवबुद्धय, सन्तोषे - परितोष, दातृस्तुतिरूपकर्मानाचरणेनेति शेषः, मति:-बुद्धिः, कृताः विहिता, हे राजन् ! हे नृप !, स्वयि = भवति, राजनि = नपे सति, ते = जनाः, तथा तेन प्रकारेण, प्रार्थनां विना, न दातृत्वाऽभावरूपात्सन्देहाज्जातस्य सन्तोषधारणरूपस्य विचारस्याऽन्यथाभावाद्विपर्ययः । ... दाक्षिण्यं लक्षयति-दाक्षिण्यमिति । चेष्टया - देहव्यापारेण, वाचा-वचनेन वा, परचित्ताऽनुवर्तनं % परचित्तस्य (अन्यमानसस्य ) अनुवर्तनम् (अनुसरणम् ) "दाक्षिण्यं" लक्षणम् । . . • युधिष्ठिर भृत्यगण, बान्धवजन, मित्रजन, पुत्रों और भाइयोंके साथ दुर्योधनको शीघ्र ही युद्ध में मार डालेंगे। यहांपर "पाण्डुसुतं सुयोधनः" ऐसा कहना चाहिए वक्ताके दर्पयुक्त होनेसे उलटा हुआ है।
विपर्यय-सन्देहके कारण विचारकी विपरीतताको "विपर्यय" कहते हैं :१८७।
जसे-लोकको दान नहीं करने वाला समझकर जिन्होंने सन्तोषमें बुद्धि की थी। हे राजन् ! आप ऐसे राजाके होनेपर वे वैसा व्यवसाय ( सन्तोष ) नहीं करते हैं।
दाक्षिण्य-चेष्टा और वचनसे दूसरेके मनका अनुसरण करनेको 'दाक्षिण्य"
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वाचा यथा
षष्ठः परिच्छेदः
५१५
' प्रसाधय पुरीं लङ्कां राजा त्वं हि विभीषण ! आर्येणानुगृहीतस्य न विघ्नः सिद्धिमन्तरा ॥' एवं चेष्टाऽपि ।
वाक्य : स्निग्धैरनुनयो भवेदर्थस्य साधनम् ॥ १८८ ॥ यथा वेण्याम्--- अश्वत्थामानं प्रति
'कृपः - दिव्यास्त्रग्रामकोविदे भारद्वाजतुल्यपराक्रमे किं न संभाव्यते
त्वयि ।'
=
माला स्याद्यदभीष्टार्थं नैकार्थप्रतिपादनम् ।
दाक्षिण्यमुदाहरति-वाचा-प्रसाधयेति । लक्ष्मणः सुग्रोवो वा विभीषणमनुशास्ति
1
हे विभीषण !, लङ्कां पुरीं = नगरी, प्रसाधय = शासनेन भूषय, हि यस्मात्कारणात् त्वं राजा भूपः, तस्या इति शेषः । आर्येण = पूज्येन, रामचन्द्रेणेति भावः, अनु. गृहीतस्य कृताऽनुग्रहस्य जनस्य सिद्धिम् अन्तरा = कार्य साफल्यमध्ये, सिद्धिमित्यत्र " अन्तराऽन्तरेण युक्ते" इति द्वितीया । विघ्नः = अन्तरायः न = नो भवति । अत्र वाचा विभीषणचित्तानुवर्तनाद्दाक्षिण्यम् ।
2
---
चेष्टया दाक्षिण्यं - शाकुन्तले राजा - " तदहमे नामनृणां करोमीत्यङ्गुलीयकं ददाति" । अत्राऽङ्गुलीयकदानरूपचेष्टया शकुन्तलोचित्ताऽनुवर्तनेन दाक्षिण्यम् !
अनुनयं लक्षयति- वाक्येरिति । स्निग्धेः = स्नेहयुक्तः, वाक्ये: - पदसमूहैः, अर्थस्य = प्रयोजनस्य, साधनं सम्पादनम्, "अनुनयों" भवेत् ॥ १८८ ॥
अनुनयमुदाहरति - यथेति । दिव्यास्त्रग्रामकोविदे - लोकोत्तरायुधसमूहज्ञांतरि मारद्वाजतुल्यपराक्रमे = भारद्वाजतुल्यः (द्रोणाचार्यसदृशः ) पराक्रम: (विक्रमः ) यस्थ, तस्मिन् । अत्र स्निग्धवाक्यै र्युद्धोत्तेजरूपस्य प्रयोजनस्य साधनादनुनयो नाम "लक्षणम्" । माला लक्षयति- मालेति । अभीष्टाऽर्थम् - अभीप्सित सम्पादनाऽयं यत् तपादनम् अनेकविषयज्ञापनं, सा "माला" नाम लक्षणं स्यात् ।
"
वचनसे जैसे - 'हे विभीषण ! आप लङ्कापुरीको शासनसे अलङ्कृत करें, क्योंकि आप उसके राजा हैं । पूज्य ( रामचन्द्र ) से अनुगृहीत जनको कार्यसाफल्य के मध्य में विघ्न नहीं होता है
इसी तरह से चेष्टासे भी दाक्षिण्य का उदाहरण समझें ।
अनुनय स्नेहयुक्त वाक्योंसे प्रयोजन सम्पादन को "अनुनय" कहते हैं ||१८८ ॥
जैसे वेणी ( सहार) में अश्वत्थामाको कृपाचार्य कहते हैं- "दिव्य अस्त्रों को जाननेवाले और भारद्वाज ( द्रोणाचार्य ) के समान पराक्रमवाले तुममें किस बात की आशा नहीं की जाती है ?'
माला-अभीष्ट सिद्धिके लिए अनेक विषयोंके प्रतिपादनको "माला" कहते हैं ।
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५१६
साहित्यदपणे
यथा शाकुन्तले
किं शीकरैः छमविमदिभिराद्रवात सञ्चारयामि नलिनीदलतालवृन्तम् । अङ्के निवेश्य चरणावुत पद्मताम्रौ संवाहयामि करभोरु ! यथासुखं ते ।।'
अर्थापत्तियदन्यार्थोऽर्थान्तरोक्तेः प्रतीयते ॥ १८९ ॥ यथा वेण्याम्:- द्रोणोऽश्वत्थामानं राज्येऽभिषेक्तुमिच्छतीति कथयन्त कर्ण प्रति'राजा-साधु अङ्गराज ! साधु, कथमन्यथा
दत्त्वाभयं सोऽतिरथो वध्यमान किरीटिना। मालामुदाहरति-किमिति । दुष्यन्तस्य शकुन्तल! प्रत्युक्तिरियम् (३-१८)। हेमकुन्तले !, क्लमविदिभिः-ग्लानि निवारिभिः, शीकरः = जलकर्णः, आर्द्रवातम् -
(क्लिन्नः, शीत इति भावः ) वातः ( वायुः ) यस्य तत्, नलिनीदलतालवन्तं मलिनीदलं ( कमलिनीपत्त्रम् ) एव तालवन्तं ( व्यजनम् ), सञ्चारयामि कि-सञ्चासयामि किम् ? हे करभोरु = करभो । मणिबन्धात्कनिष्ठापर्यन्तकरबहिर्भागो ) इव, पूर्वाऽनुवृत्ताविति भावः, ऊरू ( सक्यिनी ) यस्याः सा तत्सम्बुद्धी, करमोरुशब्दस्य मनुष्यजातिवाचकत्वाभावादूडोप्रवृत्तः सम्बुद्धी "करभोर" इति प्रयोगश्चिन्त्यः । उतअथवा, पद्मताम्रौ = रक्तकमलसमरक्तवणौं, ते - तव, चरणो, अरू = उत्सङ्गे, निधाय = स्थापयित्वा, यथासुखं = सुखाऽनतिक्रमपूर्वकं, संवाहयामि = मर्दयामि । बसन्ततिलकावृत्तम् । अत्र दुष्यन्तस्य सुरतरूपाऽभीष्टाऽयं तालवन्तसंचारणचरणसंवाहनरूपादनेकार्थप्रतिपादनात् माला नाम लक्षणम् ।
_ अर्थापत्ति लक्षयति-प्रर्यापत्तिरिति। अर्थान्तरोक्तेः = अन्याऽर्थकथनाद, पद, अन्याऽर्थ:-अपराऽर्षः, प्रतीयते-ज्ञायते, सा, "अर्थापत्तिः" ।। १८९॥
अर्यापत्तिमुदाहरति-यति । दत्त्वेति । दुर्योधनस्याऽङ्गराज कर्ण प्रत्युक्ति रियम् । एवं त्वदुक्तं सत्यं, न चेतनो यदि, तदा, अतिरथः = अपरिमितभंटेयुध्य.
जैसे शाकुन्तलमें राजा (दुष्यन्त) शकुन्तलाको--"ग्लानि हटाने वाले जल कणोसे ठण्डी हवासे युक्त कमलके पत्तोंकी पंखाको झलू क्या ? अर्था लाल कमलके समान (माल) तुम्हारे चरणोंको गोदमें रख कर सुखपूर्वक मर्दन करूं (दाबल)"।
अर्थापत्ति-भिन्न अर्थको कहने से जहां दूसरा ही अर्थ जाना जाता है उसे "बर्यापत्ति" कहते हैं ।। . जैसे वेणी ( संहार ) में "द्रोणाचार्य अश्वत्थामाको राज्य में अभिषिक्त करना चाहते हैं" ऐसा कहते हुए कर्णको राजा (दुर्योधन)-वाह बङ्गराज (कर्ण)! वाह । ऐसा नहीं तो (मापका बबन सब नहीं होता तो) कैसे बतिरप (अपरिमित भटोसे युद्ध
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षष्ठः परिच्छेदः
सिन्धुराजमुपेक्षेत नैवं चेत्कथमन्यथा॥'
क्षणोद्घोषणायां तु भत्सना गहणं तु तत् । यथा तत्रैव-कर्ण प्रति'अश्वत्थामानिर्वायं गुरुशापभाषितवशास्कि मे तवेवायुधं ?
सम्प्रत्येव भयाद्विहाय समरं प्राप्तःऽस्मि किं त्वं यथा ? जातोऽहं स्तुतिवंशकीर्तनविदां किं सारथीनां कुले ?
क्षुद्रारातिकृताप्रियं प्रतिकरोम्यस्रेण नास्त्रेण यत ?' मानः, सः = द्रोणः, अभयं = भयाऽभावम्, अर्जुनादिति शेषः । दत्त्वा = वितीय, किरीटिना = अर्जुनेन, वध्यमानं = व्यापाद्यमानं, सिन्धुराज-जयद्रथं, कथं = केन प्रकारेण, उपेक्षेत = उपेक्षां कुर्यात् । अत्र सिन्धुराजोवेक्षारूपस्याऽन्तरस्योक्त्या द्रोणस्य पुत्राsभिषेकाऽभिप्रायस्य प्रतीतेरापत्तिर्नाम लक्षणम् ॥ १८९ ।।
गर्हणं लक्षयति-दूषणोद्घोषणायामिति । यत् दूषणोद्घोषणाया-दूषणस्य । दोषस्य ) उद्घोषणायाम् ( उत्कीर्तने ) भर्त्सना = तर्जनं, तत्तु "महणं" नाम शक्षणम् । - गर्हणमुदाहरति-नियमिति । अवस्थामा कर्ण भत्संपते-हे कणं !, तव इव, मे - मम, आयुधम् अपि-अस्त्रम् अपि, गुरुशापभाषितवशात-गुरोः ( आचार्यस्य, परशुरामस्येति भावः) शापभाषितवशात् (दुरेषणावचनवशाद.), निर्वीय कि-निर्बलं किम् ?, त्व यथा = त्वम् इव, सम्प्रति एव = इदानीम् एव, भयात् = भीतेर्हेतोः; समरं - युद्धं, विहाय = त्यक्त्वा, प्राप्तोऽस्मि- उपागतोऽमि, कि ? शिबिर इति शेषः । बह, स्तुतिवंशकीर्तनविदां = स्तुति ( राजनुतिम ). वंशकीर्तनं ( राजकुलवर्णनम् ) विदन्ति ( जानन्ति ) इति, तेषां, तादृशानां, सारथीनां - सूतानां, कुले = वंशे, जातःउत्पन्नः, किम् ? क्षुद्राऽरातिकृताऽप्रियं = क्षुद्राऽरातिभिः (तुच्छशत्रुभिः ) कृतम् (विहितम् ) अप्रियम् ( अपकारम् ), अस्रेण - नयनस लिलेन, प्रतिकरोमि किप्रतिकारं विदधामि कि?, अस्त्रेण = आयुधेन, न प्रतिकरोमि किं ? = प्रतिकारं न करनेवाले ) वे द्रोणाचार्य अभय देकर भी अर्जुनसे मारे जाते हुए सिन्धुराज (जयद्रथ); की उपेक्षा करते है।
गहण-दोषके उत्कीर्तनमें भर्त्सना करनेको "पहण" कहते हैं। जैसे वहीं: (वेणीसंहार) पर कर्णको अश्वत्थामा-हे कर्ण| तुम्हारे अस्त्र के समान मेत अस्त्र श्री गुरुके शाप वाक्यसे निर्बल है क्या ? तुम्हारे समान में भी अभी भयसे युद्धको छोड़हर शिविर (छावनी) में आया हूं क्या ? राजाओंकी स्तुति और वंशकीर्तन करनेवाले
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साहित्यदर्पणे
अभ्यर्थनापरवाक्यैः पृच्छार्थान्वेषणं मता ॥ १९० ॥ यथा तत्रैव
'सुन्दरकः-अज्जा ! अवि णाम सारधिदुदिओ दिट्टो तुझेहिं महाराओ दुर्योधणो ण वेत्ति ।'
प्रसिद्धिोकसिद्धार्थैरुत्कृष्टैरर्थसाधनम् । यथा विक्रमोर्वश्याम्'राजा-सूर्याचन्द्रमसौ यस्य मातामहपितामहो ।
स्वयं कृतः पतिभ्यामुर्वश्या च भुवा च यः॥' विदधामि किम् ? शार्दूलविक्रीडितं वृतम् । अत्राऽऽयुधनिर्वीर्यस्वादिघोषणायां भर्त्सनातो "गहणं" नाम लक्षणम् । .. पृच्छां लक्षयति-प्रम्पर्थनापररिति । अभ्यर्थनापर:=प्रार्थनापरः, वाक्यःपदसमूहः, अर्याऽन्वेषणं = विषयगदेषण, "पृच्छा" मता ।। ६९० ॥
पृच्छामुदाहरति-प्रज्जा इति । "आर्याः । अपि नाम साथिद्वितीयो दृष्टो युष्माभिमहाराजो दुर्योधनी न "ति । संस्कृतच्छायो । सारथिद्वितीयः = सारथिना (सूतेन ) द्वितीयः ।
बत्राऽभ्यर्थनपरवाक्येन दुर्योधनाऽन्वेषणात्पृच्छा नाम लक्षणम् ।
प्रसिदि लक्षयति-प्रसिद्धिरिति । उत्कृष्टः = उत्कर्षयुक्तः, लोकसिद्धाऽर्थ:अवनसिविषयः, अर्थसाधनं = विषयप्रतिपादनं "प्रसिद्धिः"।
... प्रसिडिमुदाहरति-सूर्याचन्द्रमसाविति । यस्य-राज्ञः-पुरूरवसः, सूर्याचन्द्रः मसो = रविचन्द्रो, सूर्य, चन्द्रमा ति दन्तः । "देवताइन्द्र च' इत्यानङ् । मातामह पितामहो - मातृपिता पितृपिता इत्यर्थः । "पितृव्यमातुलमातामहपितामहा" इति निपातः । “मातृपितृभ्यां पितरि डामहच्" इति मातापितृशब्दाभ्यां डामहच् प्रत्ययेन पातामहपितामहो। एवं पः= पुरूरगः, उर्वश्या - अप्सरोविशेषण, भुवा च - पृषिव्याप, दाभ्याम् = उभाभ्यामेव, स्वयम् = आत्मना, पतिः = स्वामी, कृतः = विहितः । बत्र सूर्यादिभिः प्रसिद्धाऽर्थः पुरुरवसोऽर्थसाधनात् प्रसिद्धिः। सारथियोंके वशमें मैं पैदा हमा है क्या? जो कि मैं अद्र शत्रसे किये गये अपकारको अस्त्रसे न कर आंसूसे प्रतीकार करूंगा क्या?
पृच्छा-प्रार्थनावाले वाक्योंसे विषयके अन्वेषणको "पृच्छा" कहते हैं ।१९०॥ - वैसे यहीं (वेणीसंहार) पर-सारथि-"आर्यों ! सारपिके साथ महाराज दुर्बोधनको आपलोगोंने देख लिया है कि नहीं?
प्रसिद्धि-उत्कर्षयुक्त लोकप्रसिद्ध विषयोंसे विषयके प्रतिपादनको "प्रसिद्धि" कहते हैं । जैसे विक्रमोर्वशीमें राजा (पुरुरवा)-जिनके मातामह सूर्य, पितामह पाद्र हैं, बो कि उर्वशी और भूमिसे स्वयम् वरण किये गये पति हैं।
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षष्ठः परिच्छेदः
५१९
सारूप्यमनुरूपस्य सारूप्यात्क्षोभवधनम् ॥ ११ ॥ यथा वेण्याम्-दुर्योधनभ्रान्त्या भीमं प्रति
'युधिष्ठिरः-दुरात्मन् ! दुर्योधनहतक !-' इत्यादि ।
संक्षेपो यत्तु संक्षेपादात्मान्यार्थे प्रयुज्यते । यथा मम चन्द्रकलायाम्
'राजा-प्रिये !
___ अङ्गानि खेदयसि किं शिरीषकुसुमपरिपेलवानि मुधा। ( आत्मानं निर्दिश्य-)
अयमीहितकुसुमानां सम्पादयिता तवास्ति दासजनः॥' सारूप्यं लक्षयति -- सारूप्यमिति । अनुरूपस्य = सदृशस्य, “अभिभूतस्ये"ति पाठान्तरं तस्य पराभवं प्राप्तस्येत्यर्थः । “अनुभूतस्ये"ति पाठान्तरे तस्य कृतानुभवस्येत्यर्थः। सारूप्यातु-समानरूपत्वात; सादृश्यादिति भावः । क्षोभवर्धनं चाञ्चल्यबुद्धिः । "क्षोम. वर्तन"मिति पाठान्तरे, तस्य चाञ्चल्याचरणमित्यर्थः, "सारूप्यं" नाम लक्षणम्।।१९१।।
___सारूप्य मुदाहरति-यथा वेण्यामिति । अत्र दुर्योधनस्य सारूप्या भ्रमेण युधिष्ठिरस्य भीमदर्शने क्षोभवर्द्धनाद "सारूप्यं" नाम लक्षणम् ।
संक्षेपं लक्षयति-संक्षेप इति । संक्षेपात् = संक्षेपं कृत्वा, "ल्यब्लोपे कमव्य. धिकरणे च" इति ल्यब्लोपे कर्मणि पञ्चमी । आत्मा = स्वः, अन्याय = अपरजन. विषये, प्रयुज्यते = निर्दिश्यते, स. "संक्षेपः”।
संक्षेपमुदाहरति-अजानीति । राज्ञश्चन्द्रकला प्रत्युक्तिरियम् । हे प्रिये = हे दयिते !' शिरीषकुसुमपरिपेलवानि = शिरीषकुसुमानि (शिरीषपुष्पाणि ) इव परिपेलवानि (अतिसुकुमाराणि ), अङ्गानि-शरीराऽवयवान्, हस्तपादादीनिति भावः । मुधा-वथा, किं-किमर्थ, खेदयति = खेदयुक्तानि करोषि, पुष्गंऽवचयेन कि पीडयसीति भावः । अयं - त्वन्निकटवर्ती, दासजनः = सेवकः, तव-भवत्याः, ईहितकुसुमानाम् = अभीष्ट पुष्पाणां, सम्पादयिता = सम्पादकः, चयनकारक इति भावः । अस्ति = विद्यते । आर्या वृत्तम् ।
अत्र संक्षेपादनपार्थमात्मनः प्रयोगात् "संक्षेपः"। सारूप्य-अनुरूपके सादृश्यसे चाञ्चल्यकी वृद्धिको “सारूप्य" कहते हैं ।।१९१॥
जैसे वेणी ( संहार ) में दुर्योधनकी भ्रान्तिसे भीमके प्रति युधिष्ठिर-दुरात्मन् ! दुर्योधनहतक ! इत्यादि।
संक्षेप-संक्षेप करके अपने को दूसरेके लिए निर्देश करनेको "सक्षेप" कहते हैं।
जैसे ग्रन्थकारको चन्द्रकला (नाटिका) में राजा-"प्रिये ! शिरीषके फूलोंके समान कोमल अङ्गोंको व्यर्थ क्यों खिन्न बनाती हो ? ( अपनेको दिखलाकर ) यह दासजन तुम्हारे अभीष्ट फूलोंका सम्पादन करता है !
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साहित्यदर्पणे गुणानां कीर्तनं यत्तु तदेव गुणकीतनम् ।। १२९ ॥ यथा तत्रैव'नेत्रे खञ्जनगाने सरसिजप्रत्यर्थि--' इत्यादि । ( १३७ पृ० ) ।
स लेशो भण्यते वाक्यं यत्सादृश्यपुरःसरम् । यथा घेण्याम्
राजा--
'हते जरति गाङ्गेये पुरस्कृत्य शिखण्डिनम् । या श्लाघा पाण्डुपुत्राणां सैवाऽस्माकं भविष्यति ॥'
मनोरथस्त्वभिप्रायस्पोक्तिभङ्गधन्तरेण यत् ॥ १९३ ॥ गुणकीर्तनं लक्षयति-गुणानामिति । निगदव्याख्यातं लक्षणम् ।। १९२ ।। गुणकीर्तनमुदाहरति-"नेत्रे खञ्जनगञ्जने" इत्यादि। अन्न नेत्रादीनां खञ्जनगञ्जनत्वादीनां गुणाना कीर्तनाद् गुणकीर्तनम् ।
लेशं लक्षयति-स इति । सादृश्यपुरःसर - तुस्पधर्मनाप्रदर्शनपूर्वक, यद, पाय वचन, भव्यते = अभिधीयते, स "लेशो" नाम लक्षणम् ।
_ लेशमुदाहरति-हत इति। राजो दुर्योधनस्य कञ्चुकिनं प्रत्युक्तिरियम २.४ शिखण्डिनं - द्रुपदपुत्रं, पुरस्कृत्य = अग्रे विधाय, जरति = वृद्धे, गाङ्गेये = भीष्मे, गङ्गाया अपत्यं पुमान् गाङ्गेयस्तस्मिन् "स्त्रीभ्यो ढक्” इति ढक (आयन् ) प्रत्ययः । हो-व्यापादिते सति, पाण्डुपुत्राणां युधिष्ठिरादीनां या, श्लाघा - प्रशंसा, सा एव = तादृशी एक, अस्माकं = धार्तराष्ट्राणां, श्लाघा = प्रशंसा, भविष्यति = भविता । अत्र भीष्मवधस्येव अभिमन्युवधस्य वाक्यस्य सादृश्यपुरःसरमुक्तेलेशः।
मनोरथं लक्षयति-"मनोरथ" इति । भङ्गान्तरेण = विच्छित्तिविशेषेण, अभिप्रायस्य आशयस्य, यत् उक्तिः = कथनं, स "मनोरथः" ॥ १९३॥..
गुणकीर्तन-गुणोंके कीर्तनको "गुणकीर्तन" कहते हैं ।। १९२ ॥
जैसे वहीं (चन्द्रकला नाटिका). पर-'ने खञ्जनगञ्जने सरसिजप्राथ" इत्यादि।
लेश-सादृश्यके प्रदर्शनसे युक्त वाक्यको "लेश" कहते हैं। जैसे वेणी (संहार) पर राजा (दुर्योधन )-शिखण्डीको आगे रखकर भीष्मके मारे जाने पर पाण्डवोंकी जो प्रशंसा हुई हम धृतराष्ट्रपुत्रोंकी वैसी ही प्रशंसा होगी।
मनोरथ-दूसरी ही भङ्गिसे अभिप्रायकी उक्तिको "मनोरय" कहते हैं ॥१९३।।
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षष्ठः परिच्छेदः
५२१
यथा
'रतिकेलिकलः किंचिद्वेष मन्मथमन्थरः। पश्य सुभ्र ! समालम्भात्कादम्बश्चुम्बति प्रियाम् ॥' विशेषार्थोहविस्तारोऽनुक्तसिद्धिरुदीयते ।
यथा
गृहवृक्षवाटिकायाम्
दृश्येते तन्धि ! यावेतो चारुचन्द्रमसं प्रति ।
प्राज्ञे कल्याणनामानावुभौ तिष्यपुनर्वसू ।' .. मनोरथमुशहाति-रतिकेलिकल इति । कस्यचिनायकस्य दयितां प्रत्युक्तिरियम् । हे सुभ्र - शोभन भ्रूयुक्त सुन्दरि !, शोभने ( मनोहरे ) ध्रुगे ( नयनकोमनी) यस्याः सा, तत्सम्बुढो। अत्र "नेयकुस्थानावस्त्री" इति सूत्रेण नदीसंज्ञाऽभावात रूपमिदमसाधु । ततस "हे सुभ्रू." इदमेव साधु । रतिकेलिकल: - रतो ( रमणे) केलिकला (क्रीडाविलासः ) यस्य सः । मन्मथमन्थरः = मन्मथेन (कामसञ्चारण) मन्थरः ( मन्दगतिः ), एषः = समीपतरवर्ती, कादम्बः = कलहंसः, समालम्भात - सम्यगालम्भं कृत्वा, ल्यबलोपे पञ्चमी । सम्यक्स्पर्श कृस्वेति भावः । “समाश्वस्ताम्" इति पाठान्तरे प्रियप्राप्त्या प्रसन्नामित्यर्थः । प्रियां = दयितां, कलहसीमिति भावः । चुम्बति-वक्त्रसंयुक्तां करोति, पश्य = विलोकय, वाक्याऽर्थः कर्म । अत्र भग्यन्तरेण स्वचुम्बनोऽभिप्रायस्योक्तेमनोरथो नाम लक्षणम् ।
___ अनुक्तसिद्धि लक्षयति-विशेषार्थोहविस्तार इति। विशेषस्य (रूप. लावण्याऽतिशयज्ञापनस्य ) अर्थः ( प्रयोजनम् ), तस्मिन् कहविस्तारः (तर्काऽतिशयः ), "विशेषाऽर्थोऽतिविस्तारः" इति पाठान्तरम् । "अनुलसिद्धिः" लक्षणम्, उदीयते कथ्यते। ... अनुक्तसिदिमुदाहरति-दृश्यते इति । गृहवृक्षवाटिकायां विश्वामित्रसमीपे रामलक्ष्मणो दृष्ट्वा सीतां प्रति तत्सख्या उक्तिरियम् । हे सन्वि=हे कृशाङ्गि!, चारुचन्द्रमसं प्रति = सुन्दरचन्द्रं प्रति, यो एती, दृश्येते- अवलोक्येते, हे प्राज्ञे हे बुद्धिमति !, उभौ% दो एककल्याणनामानी-भद्राऽभिधानी, तिष्य पुनर्वसू-तिष्यपुनर्वसुनक्षत्रे, स्त इति शेषः।
जैसे- हे सुन्दरि ! रमणमें क्रीडाके विलाससे युक्त, काम सञ्चारसे मन्दगतिवाला यह हंस स्पर्शपूर्वक अपनी प्रिया ( हंसी) को चूम रहा है । देखो।"
अनुक्तसिद्धि-विशेष ( रूप और लावण्यके आधिक्यका ज्ञापन )के प्रयोजनके लिए तर्कके विस्तारको "अनुक्तसिद्धि" कहते हैं।
जैसे गहवक्षवाटिकामें सीताको उनको सखी कहती है हे शाङ्गि ! सुन्दर चन्द्रमा ( विश्वामित्र ) के पास जो ये दो देखे जाते हैं, हे बुद्धिसम्पन्न ! ये हो (राम और लक्ष्मण ) कल्याण नामवाले पृष्म और पुनर्वसु नक्षत्र हैं।
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साहित्यदर्पणे
स्यात्प्रमाणयितुं पूज्यं प्रियोक्तिहर्षभाषणम् ॥ १९४ ॥ यथा शाकुन्तले—
'उदेति पूर्वं कुसुमं ततः फलं, घनोदयः प्राक्तदनन्तरं पयः । निमित्तनैमित्तिकयोरयं विधिस्तव प्रसादस्य पुरस्तु सम्पदः ॥ ' अथ नाट्यालङ्काराः
५२२
•
आशीरा न्दकपटाक्षमा गर्वोद्यमाश्रयाः उत्प्रासन स्पृहाक्षोभपश्चात्ताप्रोपपत्तयः
1
॥ १९५ ॥
अत्र विश्वामित्र रामलक्ष्मणानां रूपलावण्याऽतिशयज्ञापनार्थं तेषु चन्द्रपुष्यपुन
सूनामभेदोक्तेरनुक्तसिद्धिर्नाम लक्षणम् ।
पितु :
प्रियोक्ति ( प्रियवचः ) लक्षयति - स्यादिति । पूज्यं - प्रतीक्ष्यजनं, प्रमाण= प्रमाण कतु, ६र्षभाषणं = हर्षेण ( आनन्देन ) भाषणम् (आलपनम् ) "प्रियोक्तिर्नाम लक्षणम् ।। १९४ ।।
प्रियोक्तिमुदाहरति- उदेतीति । शकुन्तला भरतलाभेन प्रसन्नस्य दुष्यन्तस्क भगवन्तं मारीचं ( *श्यपम् ) प्रत्युक्तिरियम् । ( ७-३० ) हे भगवन् !, पूर्व = प्रथमं कुसुमं = पुष्पम्, उदेति = विकसति । ततः = तदनन्तरं, पुष्पोदयाऽनन्तरमिति भावः । फल = सस्यम्, उदेति : उत्पद्यते । तथैव प्राक् = पूर्व, धनोदय: = मेघाविर्भावः । तदनन्तरं = तदनु, पयः = जलम्, उदेति । अयमेव निमित्तनैमित्तिकयोः = कारणकार्ययोः, विधिः = पौर्वापर्य नियमः । तु = परन्तु तव = भवतः प्रसादस्य = अनुग्रहस्य, पुरः = प्रथमम् एव, सम्पदः = सम्पत्तयः अभीष्टविषयप्राप्तिरूपा इति भावः ।
अत्र पूज्यं मारीचं प्रमाणयितुं राज्ञो दुष्यन्तस्य हर्षभाषणात् "प्रियोक्ति" नमः
छक्षणम् ।
अथ नाटयाऽलङ्काराः - प्राशीरिति । आशीः, आक्रन्दः, कपटम् अक्षमा, गर्वः उद्यम, आश्रयः, उत्प्रासनं, स्पृहा, क्षोमः पश्चात्ताप, उपपत्तिः ॥ १९५ ॥
प्रियोक्ति ( प्रियवचः ) - पूज्य जनको प्रमाण करनेके लिए हर्षसे भाषण को "प्रियोक्ति" कहते हैं ॥ १९४ ॥
जैसे शाकुन्तलमें ( राजा दुष्यन्त मारीचको कहते हैं ) - हे भगवन् ! पह फूल विकसित होता है तब फल उत्पन्न होता है। पहले मेघका उदय होता है तब जल वृष्टि होती है। कारण और कार्यमें यह विधान ( पूर्वाऽपरभाव) है, परन्तु आपके प्रसाद ( प्रसन्नता ) रूप कारणसे पहले ही कार्यरूप सम्पत्तियां ( पत्नी, पुत्र और उनकी प्रत्यासत्ति) हुई |
नाटयाऽलङ्कार - आशी:, आक्रन्द, कपट, अक्षमा, गर्व, उद्यम, आश्रय, उत्प्रासन, स्पृहा, क्षोभ, पश्चाताप और उपपत्ति ॥ १९५ ॥
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षष्ठः परिच्छेदः
५२३
आशंसाध्यवसायौ च विसर्पोल्लेखसंज्ञितौ । उत्तेजनं परीवादो नीतिरथविशेषणम् ।। १९६ ॥ प्रोत्साहनं च साहाय्यममिमानोऽनुवर्तनम् । उत्कीर्तनं तथा याच्या परिहारो निवेदनम् ॥ १६७ ॥ प्रवर्तनाख्यानयुक्तिप्रहांश्योपदेशनम् । इति नाट्यालकृतयो नाट्यभूषणहेतवः ॥ १९८ ॥
आशीरिष्टजनाशंसायथा शाकुन्तले
_ 'ययातेरिव शर्मिष्ठा पत्युबहुमता भव । पाशंसा, अध्यवसायः, विसर्प उल्लेखः, उत्तेजनं, परीवाद: नीतिः अर्थविशेषणम् ॥१९६॥
प्रोत्साहनं, साहाय्यम्, अभिमानः, अनुवर्तनम्, उत्कीर्तनं, गच्चा, परिहारः; निवेदनम् ।। १९७ ॥
प्रवर्तनम, आख्यानं युक्तिः, प्रहर्षः, उपदेशनञ्च । इत्येतानि त्रयस्त्रिंशत् नाटयभूषण-- हेतवः रूपकसौन्दर्यकारणभूताः, नाटयाऽलङ्कृतयः=नाटयालङ्काराः; प्रकीर्तिताः।।१९८।।
आशिषं लक्षयति-प्राशीरिति । इष्टजनाऽऽशंसा - इष्टजने ( अभीष्टजने ) माशंसा ( आशीर्वाद इति भावः ) "आशीः” ।
. बाशिषमुदाहरति-ययातेरिवेति । कण्वस्य महर्षेः शकुन्तला प्रत्याशीरियम् । हे शकुन्तले !, ययातेः = नहुषपुत्रस्य, चन्द्रवंशोत्पन्नस्य राज्ञः, मिष्ठा इव = वृष
. आशंसा, अध्यवसाय, विसर्प, उल्लेख, उत्तेजन, परीवाद, नीति और अर्थविशेषण ॥ १९६ ॥
प्रोत्साहन, साहाय्य, अभिमान, अनुवर्तन, उत्कीर्तन, यात्रा, परिहार और निवेदन ।। १९७ ॥
प्रवर्तन, आख्यान, युक्ति, प्रहर्ष और उपदेशन इस प्रकार नाटयके भूषणके कारणभूत ये ( छत्तीस ) नाटयाऽलङ्कार हैं ।। १९८ ॥
माशी:-अभीष्टजनमें आशीर्वाद देनेको “आशीः" कहते हैं । जैसे शाकुन्तलमें- ( कण्व शकुन्तलाको कहते हैं ) ययातिकी शर्मिष्ठाके
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५२४
साहित्यदर्पणे
.
पुत्रं त्वमपि समाज सेव पूरुमवाप्नुहि ।।'
आक्रन्दः प्रलपितं शुचा । यथा वेण्याम्- 'कन्चुकी हा देवि ! कुन्ति ! राजभवनपताके !-' इत्यादि।
कपटं मायया यत्र रूपमन्यद्विभाव्यते ॥ १९९ ॥ यथा कुलपत्य
'मृगरूपं परित्यज्य विधाय कपटं वपुः।
नीयते रक्षसा तेनलक्ष्मणोयुधि संशयम्॥' पर्वसुता इव, पत्युः स्वामिना, दुष्यन्तस्य, 'बहुमता" इत्यस्य योगे 'क्तस्य च वर्तमाने" इति षष्ठी बहुसम्मता = अतिशयादता, भव = एघि । सा = शर्मिष्ठा, पूम् इव = पूरुनामकं पुत्रम् इव, त्वम् अपि, सम्राजं - राजसूयाऽनुष्ठानपूर्वकं राजमण्डलेश्वरं, पुत्रतनयम प्राप्नुहि = लमस्व ।
अत्र सम्राटपुत्रप्राप्तिरूपाशीर्वादाशंसनादाशीरलङ्कारः । आक्रन्दं लक्षति-मानन्द इति । शुचा = शोकेन हेतुना, प्रलपितं = प्रलापः
- आक्रन्दमुदाहरति-यथेति । राजभवनपता = प्रासादध्वजसदृशि !, इत्यादि । अत्र शोकेन प्रलापादाक्रन्दो नामाऽलङ्कारः।
कपटं लक्षयति-कपटमिति । यत्र - यस्मिन् स्थले, मायया = कतवेन, अन्यत् = अपरं, रूपम् = आकारः, विभाव्यते = प्रकाश्यते, तत् "कपटम्" ।। १९९ ।।
___ कपटमुवाहरति-मगरूपमिति । तेन, रक्षसा = राक्षसेन मारीचेनेति भावः । मृगरूपं = हरिणाऽऽकृति, परित्यज्य = विहाय, कपटं = व्याजयुक्त, वपुः- शरीरं, 'विधाय =निर्माय, युधि = युद्धे, लक्ष्मणः, संशयं = जीवनसन्देह, नीयते = प्राप्यते । अत्र मारीचस्य मृगरूपत्यागपूर्व कपटवपुविधानात् "कपट" नाम नाटयाऽलङ्कारः । समान तुम भी पतिको अधिक सम्मानित हो। शर्मिष्ठाने जैसे पूरुको पाया था वैसे ही तुम भी सम्राट् पुत्रको प्राप्त करो।
प्राक्रन्द-शोकसे प्रलाप करनेको "आफन्द" कहते हैं।
जैसे वेणी (संहार ) में-कञ्च की-"हा देवि कुन्ति । राजभवनकी पताकाकी समान" इत्यादि।
कपट-मायासे दूसरा रूप प्रकाशित करनेको "कपट" कहते हैं ।। १९९॥
जैसे कुलपत्यक में-उस राक्षस ( मारीच ) ने मृगरूपको छोड़कर कपटयुक्त शरीर बनाकर युद्धमें लक्ष्मणके जीवनको संशययुक्त बनाया है।
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षष्ठः परिच्छेदः
9F
अक्षमा सा परिभवः खल्पोऽपि न विषह्यते । यथा शाकुन्तले
'राजा-भोः सत्यवादिन् ! अभ्युपगतं तावदस्माभिः। किं पुनरिमामतिसन्धाय लभ्यते।
शाङ्गरव:-विनिपातः-' इत्यादि ।
गोऽवलेप वाक्यम्यथा तत्रैव'राजा-ममापि नाम सत्त्वैरभिभूयन्ते गृहाः ? ।'
-कार्यस्यारम्भ उद्यमः ॥ २०॥ पक्षमा लक्षयति-प्रक्षमेति । यत्र, स्वल्पोऽपि = स्तोकोऽपि, परिभवः = तिरस्कारः, न विषह्यते = नो मृष्यते, सा "अक्षमा"।
अक्षमामुदाहरति-यथेति। तथ्यवादिन् = सत्यभाषिन् !' अभ्युपगतं = स्वीकृतम् । इमां - शकुन्तलाम्, अतिसन्धाय = वञ्चयित्वा, विनिपातः = अवनतिः । मत्र "सत्यवादि"निति सोल्लुण्ठनोक्त्या जातस्य परिभवस्य शाङ्गरवेणाऽसहनात् "अक्षमा" नाम नाट्याऽलङ्कारः ।
गर्व लक्षयति-गवं इति । अवलेपजम् = अहङ्कारजनितं, वाक्यं = पदसमूहः,"गर्वः" नाट्याऽलङ्कुतिः ।।
... गर्वमुदाहरति-यथेति । तत्रव = शाकुन्तल एव । सत्त्वः = दुष्टजन्तुभिः । अभिभूयन्ते = पराभाव्यन्ते । अत्र "ममापी"त्यनेन अबलेपसूचकवाक्येन गर्यो नाम नाट्याऽलङ्कारः।
उद्यम लक्षति-कार्यस्येति । कार्यस्य = कस्याऽपि कर्मणः, आरम्भः = उपक्रमः "उद्यमः" । २०० ।
प्रक्षमा-थोड़े भी तिरस्कारको न सहना "मक्षमा" है।
जैसे शाकुन्तलमें राग-हे सत्यवादिन् ! हमने मजूर कर लिया, इनको प्रतारण कर मैं क्या पाउगा? शाङ्गरव-"अवनति" इत्यादि ।
गर्व-अभिमानसे उत्पन्न वाक्यको "ग" कहते हैं।
से यहीं (शाकुन्तल ) पर-राजा-मेरे भवन भी दुष्ट जन्तुओं से अभिभूत होंगे?।
उद्यम-कार्यके आरम्पको "उखम" कहते हैं।
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साहित्यदर्पणे
-
यथा कुम्भाङ्क'रावणः-पश्यामि शोकविवशोऽन्तकमेव तावत् ।'
ग्रहणं गुणवत्कार्यहेतोराश्रय उच्यते । यथा विभीषणनिर्भत्सनाङ्के
'विभीषणः-राममेवाश्रयामि' इति ।
उत्प्रासनं तूपहासो योऽसाधौ साधुमानिनि ॥ २०१॥ यथा शाकुन्तले
'शारिवः-राजन् ! अथ पुनः पूर्ववृत्तान्तमन्यसङ्गाद्विस्मृतो भवान् । तत्कथमधर्मभीरोदरपरित्याग:--' इत्यादि।
उद्यममुदाहरति-पश्यामीति । शोकविवश:-मन्युपराधीनः, तावत् अन्तकम् एव = यमम् एव, पश्यामि । अत्र युद्धरूपकार्यस्य आरम्भसूचनात् "उद्यमः"।
आश्रयं लक्षयति-ग्रहणमिति । कार्यहेतोः कर्मकारणाद, गुणवत्-उत्कर्ष: - युक्तं; ग्रहणम् = आश्रयणम् "आश्रय" उच्यते ।
आश्रयमुदाहरति-यथेति । अत्र विभीषणस्य राज्यप्राप्तिरूपकार्यहेतोः श्रीरामस्याश्रयणात् आश्रयो नाम नाट्याऽलङ्कारः।।
उत्प्रासनं लक्षयति-उत्प्रासनमिति । साधुमानिनि = य आत्मानं साधु मन्यते तस्मिन्, वस्तुतः असाधी = असज्जने । उपहासस्तु = परिहासस्तु "उपासनं" नाम नाट्याऽलङ्कारः ॥ २०१॥
___ उत्प्रासनमुदाहरति-यथेति । पूर्ववृत्तं = प्रथममाचरणं, शकुन्तलापरिणयरूपमिति भावः । अन्यसङ्गात् अन्यस्याः ( अपरस्याः ) स्त्रियाः, सङ्गात् (संसर्गात)। अत्र "सर्वनाम्नो वृत्तिमात्र पुवद्भावः" इति नियमेन बद्भावः । अधर्मभीरो:=पापकात. रस्य, भवत इति शेषः । अथाऽसाधु परं साधुमानिनं दुष्यन्तं प्रति शाङ्गरवस्योपहासात् उत्प्रासनम्"।
जैसे कुम्भाङ्कमें-रावण-शोकसे विवश होकर यमराजका ही दर्शन
प्राश्रय-कार्यके लिए उत्कर्षयुक्त ग्रहणको "माश्रय" कहते हैं।
जैसे विभीषणनिर्भत्सनामें-विभीषण--मैं धीरामका ही पाश्रय लेता हूँ।
उत्प्रासन--अपने को सज्जन माननेवाले दुर्जनके उपहास करनेको "उत्प्रासन" कहते हैं ॥ २०१॥
- जैसे शाकुन्तलमें-शाङ्गरव--"राजन् ! दूसरी स्त्रीके सम्पर्कसे आप पूर्व वृत्तान्तको भूल गये हैं। पापभीरु वापसे कैसे पत्नीका परित्याग होगा ?" इत्यादि।
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यथा तत्रैव
यथा
मम
षष्ठः परिच्छेदः
आकाङ्क्षा रमणीयत्वाद्वस्तुनो या स्पृहा तु सा ।
-
S
'राजा
चारुणा स्फुरितेनायमपरिक्षतको मलः । पिपासतो ममानुज्ञां ददातीव प्रियाधरः ॥' अधिक्षेपवचःकारी क्षोभः प्रोक्तः स एव तु ॥ २०२ ॥
स्पृहां लक्षयति- प्राकाङ्क्षति । वस्तुनः = कस्याऽपि पदार्थस्य, रमणीयत्वात् = मनोहरत्वात्, या आकाङ्क्षा = इच्छा, सातु " स्पृहा " ।
शकुन्तलादर्शनान्तरं
स्पृहामुदाहरति- चारुणेति । राज्ञो दुष्यन्तस्य स्वगतोक्तिरियम् । अपरिक्षत कोमलः = अपरिक्षतः ( केनाऽप्यदष्टः ) अत एव कोमल: ( मृदुल : ), अयं = निकटस्य:, प्रियापरः = त्रियायाः ( दयितायाः शकुन्तलायाः ) अधर : ( ओष्ठ: ) । चारुणा रुचिरेण स्कुरितेत सञ्चलनेन, पिपासतः - पानेच्छुकस्य, दुष्यन्तस्य चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, अनुज्ञाम् = आज्ञाम् ददाति इव = वितरति इव, उत्प्रेक्षाऽलङ्कारः । अत्र शकुन्तलाsधरस्य रमणीयत्वाददुष्यन्तस्य पानाकाङ्क्षात्तः "स्पृहा " नाम नाट्याऽलङ्कारः ।
=
क्षोभं लक्षयति- श्रधिक्षेपेति । अधिक्षेपवचःकारी - तिरस्कारयुक्तवचनोस्पादकः, क्षोभः = चाञ्चल्य, सः एव "क्षोभः " प्रोक्तः अभिहितः ॥ २०२ ॥ । क्षोभमुदाहरति-त्वयेति । रामं प्रति वालिन उक्तिरियम् । हे तपस्विचाण्डाल = हे तापसमातङ्ग ; प्रच्छन्नवद्यवर्तिना अलक्षितरूपेण हिंसाकारकेण रामेण वाली = अहं, केवलम् = एव, न हतः = नो व्यापादितः अपि तु स्वात्मा च = निजात्माऽपि परलोकतः - लोकान्तरावः हतः = व्यापादितः । अत्र वालिन ईशाधिक्षेपोक्तिकारकक्षोभात् "क्षोमः” नाट्यालङ्कारः ।
स्वया
' त्वया तपस्विचाण्डाल ! प्रच्छन्नवधवर्तिना । न केवलं तो वाली स्वात्मा च परलोकतः ॥'
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५२७
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स्पृहा -- सौदर्य के कारण वस्तुकी इच्छाको "स्पृहा " कहते हैं ।
जैसे वहीं ( शाकुन्तल ) पर राजा - किसीसे दष्ट न होनेसे कोमल यह प्रियांका अंधर मनोहर स्कुरणसे पान करनेकी इच्छा रखनेवाले मुझको मानों आज्ञा दे रहा है ।
क्षोभ - तिरस्कारयुक्त वचनको प्रकट करनेवाले क्षोभको "क्षोभ" कहते हैं। २०२॥ जैसे - हे तपस्विचाण्डाल ! प्रच्छन्न होकर वध करनेवाले तुमने वालोको ही नहीं अपने को भी परलोकसे नष्ट कर डाला ।
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साहित्यदपणे
माहावीरितार्थस्य पश्चात्तापः स एव तु । यथानतापर्क
'रामःकिं देव्या न विचुम्बितोऽस्मि बहुशो मिथ्याभिशप्तस्तदा।' इति ।
उपपत्तिमता हेतारुपन्यासाऽथसिद्धये ॥ २०३ ॥ यथा वध्यशिलायाम्
'म्रियते म्रियमाणे या त्वयि जीवति जीवति । ... तां यदीच्छसि जीवन्ती रक्षात्मानं ममासुभिः ।।
पश्चात्तापं लक्षयति-मोहेति । मोहाऽवधीरिताऽर्थस्य = मोहेन ( अज्ञानेन ) अवधीरितस्य (तिरस्कृतस्य ) अर्थस्य (विषयस्य ), पश्चात्तापः = अनुतापः, स एव = "पश्चात्ताप" एव नाट्याऽलङ्कारः।
___पश्चात्तापमुदाहरति-किमिति । मिथ्याऽभिशापेन पश्चात्तापयुक्तस्य रामस्योक्तिरियम् । तदा = तस्मिन्काले । मिथ्याऽभिशप्तः = प्राप्ताऽलोकाभिशापः, अहं= रामः, देव्या :: सीतया, किं, बहुशः = अनेकवारं, विचुम्बित: = न चुम्बनविषयीकृतः अस्मि । अत्र मोहेन सीतयाऽवधीरिते चुम्बने रामस्य पश्चात्तापातु 'पश्चात्तापः"। . उपत्ति लक्षयति-उपपत्तिरिति । अर्थसिद्धये = कार्यनिष्पादनाय, हेतोः = कारणस्य, उपन्यासः = उपस्थापनम् "उपपत्तिः" ।। २०३ ॥ .
___ उपपत्तिमुदाति-नियत इति । नागानन्दे गरुडाऽयं वध्यशिलाया प्रेरित शासचूडनामकं नागं प्रति जीमूतवाहनस्योक्तिरियम् । हे शङ्खचूड !, या - त्वदीयां जननी, त्वयि = भवति, म्रियमाणे = प्राणांस्त्यजति म्रियते = प्राणांस्त्यजति, त्वयि, जीवति = प्राणान् धारयति सति, जीवति = प्राणान्धारयति । ती = स्वजननी, जीवन्ती = प्राणान्धारयन्तीम्, इच्छसि यदि = वाञ्छसि घेद, मम जीमूतवाहनस्य, असुभिः = प्राणः, आत्मानं -स्वं, रम-त्रायस्थ । अत्र तस्याः (जनन्याः) जीवना स्वप्राणरक्षणरूपहेतोपन्यासान उपपत्तिर्नाम नाट्याऽलङ्कारः ।
पश्चात्ताप-मोहसे तिरस्कृत विषयके पश्चात्ताप (पछतावा)को "पश्चात्ताप" ही कहते हैं।
जैसे अनुतापाइमें राम--उस समय झूठमूठ ही दूषित बने हुए मुझको महारानी सीताने क्यों बार वार चुम्बन नहीं किया ?
उपपत्ति--प्रयोजनकी सिद्धि के लिए हेतुके स्थापनको "उपपत्ति" कहते हैं२०३
जैसे वध्यशिलामें-(जीमूतवाहन शङ्खचूडको कहते हैं )-तुम्हारे मरने. पर जो मरती है, और तुम्हारे जीनेपर जो जोती रहती हैं उस ( माता )को जीती हुई रखना चाहते हो तो मेरे प्राणोंसे अपनी रक्षा करो।
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यथा श्मशाने
आशंसनं स्यादाशंसा
'माधव:
षष्ठः परिच्छेदः
तत्पश्येयमनङ्गमङ्गलंगृहं भूयोऽपि तस्या मुखम् ।' इति ॥ प्रतिज्ञाध्यवसायकः ।
यथा मम प्रभावत्याम्
'वज्रनाभः -
"आशंसा"
अस्य वक्षः क्षणेनैव निर्मध्य गदयानया । लीलयोन्मूलयाम्येष भुवनद्वयमद्य
वः ॥'
आशंसनम् = अभीष्टविषय सूचनम्,
आशंसां लक्षयति-- प्राशंसनमिति । नाम काव्यालङ्कारः स्यात् ॥ आशंसामुदाहरति-तदिति । अनङ्गमङ्गलग्रहम्
अनङ्गस्य ( कामदेवस्य ). मङ्गलगृह ( कल्याणावासस्थानम् ), तस्था: = मालत्याः, तत् = असकृद्दष्टं, मुखं - वदनं भूयोऽपि = पुनरपि पश्यामि = विलोकयामि ।
H
-५६९
अभीष्टस्य मालतीमुखदर्शन रूपविषयस्याशंसनात् "आशंसा" ।
"?
sarai लक्षयति- प्रतिज्ञेति । प्रतिज्ञा कर्तव्यनिश्चयः "अध्यवसायकः ' अध्यवसाय एव अध्यवसायकः । अत्र स्वार्थे कः । क्वचित् " व्यवसायकः" इति पाठान्तरं तत्राऽपि कः ।
अध्यवसायमुदाहरतिप्रस्येति । एषः = अपम्, अहमिति शेषः । अनया =
समीपवर्तिन्या, गया - कास्वपरपर्यायेणाऽऽयुधेन अस्य प्रद्य ुम्नस्य, वक्षः = उर:स्थलं, क्षणेनैत्र=अल्पकालेनंय, "अपवर्गे तृतीये. "ति तृतीया । निर्मध्य - संचूयं वः = शुष्म कं, समीप इति शेषः । लीलया - अनायासेनेव रूपमिति भावः । उन्मूलयामि = उन्मूलितं करोमि "अध्यवसायः " काव्याऽलङ्कारः ।
भुवनद्वयं लोकद्वितयं स्वर्गमर्त्य. अत्र भवनद्वयोन्मूलन रूपप्रतिज्ञात:
=
S.
श्राशंसा - किसी के अभीष्ट विषयकी सूचना करनेको 'आशंसा" कहते हैं ! जैसे श्मशान ( मरघट ) में माधव - - कामदेव के मङ्गलभवन-स्वरूप उस मालती सुखको फिर भी देख लेता हूँ" ।
अध्यवसाय -- प्रतिज्ञाको " अध्यवसाय" कहते हैं
जैसे ग्रन्थकारकी प्रभावती ( नाटिका ) में - वज्रनाम -यह मैं इस प्रस्नके वक्षःस्थल ( छाती ) को थोड़े ही समय में चूर चूरकर अनायास ही दोनों ( स्वर्ग और मार्च ) लोकोंको उन्मीलित कर देता हैं
३४ सा०
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१३०
विसर्पो यत्समारब्धं कर्मानिष्टफलप्रदम् ॥। २०४ ।।
यथा वेण्याम्
साहित्यदर्पणे
'एकस्यैव विपाकोऽयम् -' ( ६ - ९९ पृ० ) इत्यादि ।
कार्यदर्शनमुल्लेख:
यथा शाकुन्तले- राजानं प्रति
'तापसौ – समिदाहरणाय प्रस्थितावावाम् । इह चास्मद्गुरोः कुलपतेः साधिदेव इष शकुन्तलयानुमालिनीतीरमाश्रमो दृश्यते । न चेदन्य ( था ) कार्यातिपातः प्रविश्य गृह्यतामतिथिसत्कार:' इति ।
विसर्प लक्षयति- विसर्प इति । अनिष्टफलप्रदद् = अरुभीष्टपरिणामकारकं -यत्, कर्म - क्रिया, समारब्धम् अनुष्ठितं स "विसर्पः” ॥ २०४ ॥
विसमुदाहरति - एकस्येति । "एकस्यैव विपाकोऽयम्" इत्यादि ।
एकस्य = द्रौपदीकेशग्रहस्य, विपाकः परिणामः, राजसमूहक्षयरूप इति भावः । द्वितोये = घृष्टद्य म्नकृतद्रोण केशग्रहे जाते । अत्र द्रोणकेशग्रहरूपस्य अनिष्टफलप्रद कर्मणः समारम्भात् "विसर्पः"।
उल्लेख लक्षपति - कार्यदर्शनमिति । कार्यदर्शनं कर्मविलोकनम्, “उल्लेखः”, क्वचित् "कार्यग्रहणम्" इति पाठान्तरम् ।
उल्लेख मुदाहरति - यथेति । अस्मद्गुरोः = अस्मदाचार्यस्य, कुलपते महर्षि कण्य-स्येति भावः । साधिदैवत:- अधिदेवतेन ( अधिष्ठात्र्या = देव्या ) सह । अनुमालिनीतीरं = मालिनीतीरस्य समीपे, "अनुयंत्समया" इत्यव्ययीभावः । अन्यकार्याऽतिपातः = अन्यकार्यस्य (कार्यान्तरस्य ) अतिपात: ( अतिक्रमः ) । अत्र राज्ञः शकुन्तलायुक्ताऽऽश्रमप्रवेशरूपकार्यस्य दर्शनात् उल्लेखो नाम नाट्यालङ्कारः ।
विसर्प -- अनिष्ट फल देनेवाले कर्मका अनुष्ठान करने को "विसर्प" कहते हैं ॥ २०४ ॥
जैसे - " एकस्यैव विपाकोऽयम्" इत्यादि ।
=
उल्लेख -- कार्यदर्शनको " उल्लेख " कहते हैं ।
जैसे शाकुन्तल में -- राजा ( दुध्यन्त ) को दो तपस्वी कहते हैं- "समिधा लाने के लिए हम दोनोंने प्रस्थान किया है । यहाँपर मालिनी नदीके तीरके समीप शकुन्तला से अधिदेवता से युक्त के समान हमारे गुरुजीका आश्रय देखा जाता है। और कार्यका अतिक्रम न हो तो ( वहाँपर ) प्रवेश कर आप अतिथिसत्कारका ग्रहण करें ।।
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षष्ठः परिच्छेदः
५३१
-उत्तेजनामितीप्यते । स्वकार्य सिद्धयेऽन्यस्य प्रेरणाय कटोरवाक् ॥ २०५॥ यथा-'इन्द्रजिच्चण्डवीर्योऽसि नाम्नैव बलवानसि।
धिग्धिक्प्रच्छन्न रूपेण युध्यसेऽस्मद्भयाकुलः ।।'
भत्सना तु परीवादःयथा सुन्दराके
'दुर्योधनः-धिग धिक सूत ! किं कृतवानसि ।। वत्सस्य मे प्रकृतिदुर्ललितस्य पापः पापं विधास्यति-' (वे० सं०४-५) इत्यादि ।
उत्तेजनं लक्षयति-उत्तजनमिति । स्वकार्यसिद्धये = निजकर्मसिवयर्थम्, अन्यस्य = अपरजनस्य, प्रेरणाय = प्रवृत्तये, कठोरवाक् = पषवचनम्, "उत्तेजनम्" इति नाट्यालङ्कारः, इष्यते - अभिलष्यते ।। २०५॥
उत्तेजनमुदाहरति-इन्द्रजिविति। इन्द्रजितं प्रति लक्ष्मणस्योक्तिरियम् । हे इन्द्रजित् = हे मेघनाद !, त्वं, चण्डवीर्यः = चण्डं (प्रचण्डम् ) वीर्य ( पराक्रमः ) यस्य सः, तादृश = असि, किन्तु नाम्ना एव = इन्द्रजित इति समाख्यया एव, न तु कमणेति भावः । बलवान् = शक्तिसम्पन्नः, असि, तथापि, अस्मद्भयाकुलः = अस्मत मत् भयं (भीतिः ), तेन आकुल: ( व्याकुल:) सन्, प्रच्छन्नरूपेण = अलक्षितभावेन, युध्यसे = समहरसि, अत: धिक् धिक् = स्वामिति शेषः । त्वां साऽतिशयं निन्दामोति भावः । अत्र लक्ष्मणस्य इन्द्रजिषरूपस्वकार्यसिद्धये इन्द्रजितः प्रकाशयुद्धे प्रेरणाऽयं कठोरवचनात् "उत्तेजनं" नाम काव्याऽलङ्कारः। ।
परीवादं लक्षयति-भर्त्सनेति । भत्संना = तर्जनं, "परीवादः"।
परीवादमुदाहरति-यथेति । वत्सस्येति । पापः = पापी, भीमसेन इति भावः, प्रकृतिदुललितस्य = दुःखेन कृतलालनस्य मे = मम, वत्सस्य = वात्सल्यभाजनस्य, दुःशासनस्य पापम् = अनिष्ट, विधास्यति = करिष्यति । इत्यादि ।
अत्र दुर्योधनकर्तृकसूतभर्मनया परीवादो नाम नाट्याऽलङ्कारः ।
उत्तजन-अपने कार्यकी सिद्धि के निमित दूसरेको प्रेरणा करने के लिए कठार वचनको "उत्तेजन" कहते हैं । २०५॥
इन्द्रजितको लक्ष्मण कहते हैं- हे इन्द्रजिद ! तू प्रचण्ड बलवाला है, किन्तु नामसे ही इन्द्रजित है। जो कि हमारे भयसे आकुल होकर अदृश्य रूपसे तू युद्ध कर रहा है । तुझे धिक्कार है धिक्कार है ।
परीवाद-भर्सना (घुड़कने ) को "परीवाद" कहते हैं ।
जैसे सुन्दराकमें-दुर्योधन-सूत ! तुझे धिक्कार है धिक्कार है । तुमने क्या किया ? "पापी ( भीमसेन ) स्वभावसे बहुत ही लाड़पार किये गये मेरे वात्सल्यभाजन दुःशासनका पाप ( अनिष्ट ) करेगा, इत्यादि ।
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साहित्यदर्पणे
-नीतिः शास्त्रेण वर्तनम् । यथा शाकुन्तलेदुष्यन्तः-विनीतवेषप्रवेश्यानि तपोवनानि ।' इति ।
उक्तसाथस्य यत्त स्यादुत्कीतनमनेकधा ॥ २०६॥ उपालम्भविशेषेण तत् स्यादर्थविशेषणम् । यथा शाकुन्तले राजानं प्रति
'शारिवः-आः कथमिदं नाम, किमुपन्यस्तमिति ? ननु भवानेक नितरां लोकवृत्तान्तनिष्णातः।।
सतीमपि ज्ञातिकुलकसंश्रयां जनोऽन्यथा भर्तृमती विशङ्कते । अतः समीपे परिणेतुरिष्यते प्रियाप्रिया वा प्रमदा स्वबन्धुभिः ।।'
(अ० शा०५-१७) नीति लक्षति-नीतिरिति । शास्त्रेण = शास्त्रानुसारेण, वर्तन = वृत्तिः नीति म काव्याऽलङ्कारः।
नीतिमुदाहरति-यथेति। विनीतवेषप्रवेश्यानि = विनीतवेषेग ( अनुद्धतनेपथ्येन ) प्रवेश्यानि (प्रवेशयोग्यानि )। अत्र "हीनाऽन्नवस्त्रवेष: स्यात्सर्वदा गुरु. सन्निधो।" ( मनुः २-१९४ ) इति धर्मशास्त्रानुसारेण वर्तनात् "नीतिः"।
अर्थविशेषणं लक्षयति-उक्तस्येति । उक्तस्य अभिहितस्य, अर्थस्य विषयस्य, उपालम्मविशेषेण = निन्दाविशेषेण, क्वचित् "उपालम्मस्वरूपेणे"ति पाठान्तरम् । यत्तु अनेकधा-बहुवारम्, उत्कीर्तनं = संसूचनं, तत् "अर्थशिशेषणं" नाम नाट्याऽलङ्कारः ।
अर्थविशेषणमुदाहरति-यथेति। नितरां सातिशयम् । लोकवृत्तान्त निष्णातः= लोकचरित्राऽभिज्ञः ।
सतीमिति । शाङ्गरवस्य दुष्यन्तं प्रत्युक्तिरियम् । जनः = लोकः, भर्तृमती = सर्तृकां स्त्रियं, सतीम् अपि पतिव्रताम् अपि, ज्ञातिकुलंकसंश्रयां = ज्ञातिकुलं (पित्रादिबन्धुवंशः) एव एकः ( मुख्यः ) संश्रयः (आश्रयः ) यस्यास्ताम्, अन्यथा = अन्यप्रकारेण, भावान्तरेण असतीमिति भावः । विशङ्को में संशेते, अतः -
नीति--शास्त्र के अनुसार आचरण करनेको नीति' कहते हैं। जैसे शाकुन्तलमें-दुष्यन्त-'तपोवनों में विनीत बेपसे प्रवेश करना चाहिए"।
अर्थ विशषण- हे गये विषय का विशेष उलहनेसे जो अनेक प्रकारसे उत्कीर्तन है उसे “अर्थविशेषण" कहते हैं ।। २०६ ।।
जैसे शाकुन्तलमें राजाको शारिव पाहते है--ओह ! यह कैसे ? का रक्खा गया ? आप ही लोक चरित्र के अच्छी तरहसे जानकार हैं । "लोक सधवा स्त्रीको पत्रिोनेपर भी वह पितृकुलमें ही मुख्य आघय लेती है तो "यह पतिव्रता नहीं है"
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षष्ठः परिच्छेदः
प्रोत्साहनं स्यादुत्साहगिरां कस्यापि योजनम् ॥ २०७ ॥
यथा बालरामायणे
'कालरात्रिकरालेयं स्त्रीति किं विचिकित्ससि । तज्जगत्त्रितयं त्रातुं तात ! ताडय ताडकाम् ॥' साहाय्यं सङ्कटे यत्स्यात् सानुकूल्यं परस्य च ।
५३३
अस्मात्कारणात्, प्रिया = वल्लभा, अप्रिया = अवल्लमा वा, प्रमदा नारी, स्वबन्धुभि:आत्मबान्धवैः, पित्रादिभिरिति भाव: । परिणेतुः = पत्युः समीपे - निकटे, इष्यते = अभिलष्यते । वंशस्थं वृत्तम् ।
"
अत्र "किमिदमुपन्यस्तम्" इति राजवचनस्योपालम्भविशेषेणाऽनेकधोत्कीर्तनात् "अर्थ विशेषणम्” ।
-
उत्साहोत्पादक
प्रोत्साहनं लक्षयति-प्रोत्साहनमिति । उत्साहगिरा वाक्येन, कस्याऽपि = जनस्य, योजनं = प्रवर्तनं " प्रोत्साहनं" स्यात् ॥ २०७ ॥ प्रोत्साहनमुदाहरति- कालरात्रिकरालेति । यज्ञरक्षोद्यतं श्रीरामं प्रति विश्वा• मित्रस्योक्तिरियम् । हे तात हे वत्स, राम ! कालरात्रिकराला = कालरात्रि: ( प्रलयसमयरजनी ) सा इव कराला ( भीषणा ), "उपमानानि सामान्यवचनैः" इति समासः । इयं = ताडका राक्षसी, स्त्री = अबला, इति = एवं किं किमर्थं विचिकित्ससि शेषे, स्त्रीत्वेनेयम् अहन्तव्या न प्रत्युत करालवेन राक्षसीन्वेन च इन्तव्येवेति भावः । तत् = तस्मात्कारणात् । जगत्त्रितयं = लोकत्रय, त्रातु = रक्षितु, ताडकां - सुन्दस्त्रियं राक्षसों, टाडय = प्रहर । अत्र विश्वामित्रेणोत्साहगिरा ताडकावधे रामस्य योजनात् "प्रोत्साहनं" नाम नाटघालङ्कारः ।
=
=
साहाय्यं लक्षयति-साहाय्यमिति । सङ्कटे = विपदि परस्य = अन्यस्य, यत्, सानुकूल्यम् = अनुकूलता साहित्यम् । अनुकूलाचरणमिति भावः । तत् "साहाय्यम्" । ऐसा सन्देह करता है, इस कारणसे स्त्री पतिकी प्रिया हो वा अप्रिया हो उसे पिता आदि बन्धु पतिके समीप रहना ही पसन्द करते हैं ।
प्रोत्साहन - उत्साहजनक वाक्यसे किसीको किसी काममें नियुक्त करनेको "प्रोत्साहन " कहते हैं ॥ २०७ ॥
जैसे बालरामायण में - ( विश्वामित्र रामको कहते हैं ) हे क्त्स ! यह ( ताडका ) कालरात्रिके सदृश भयङ्कर हैं, यह स्त्री है ( अतः वध्य नहीं है ) ऐसी शाको आप क्यों करते हैं, इस कारणसे तीन लोकोंकी रक्षा करने के लिए इस ताड़का को मार डालिए ||
साहाय्य — सङ्कट में दूसरेके अनुकूल आचरण करनेको साहाय्य " कहते हैं ।
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५३४ .
साहित्यदपणे ।
यथा वेण्याम्-रूपं प्रति
'अश्वत्थामा-त्वमपि तावद्राज्ञः पार्श्ववर्ती भव ।' कपः-'वाञ्छाम्यहमद्य प्रतिकतुम्-' इत्यादि। . __ अभिमानः स एव स्यात्यथा तत्रैव'दुर्योधन:-मातः किमध्यसदृशं कपणं वचस्ते-' इत्यादि ।
-प्रश्रयादनुवर्तनम् ॥ २०८ ॥ अनुवृत्तिःयथा शाकुन्तले'राजा-(शकुन्तला प्रति ) अयि ! तपो वर्धते ?
साहाय्यमुदाहरति-यथेति । गशः = भूपस्य, दुर्योधनस्येत्यर्थः । पाश्ववर्ती = निकटवर्ती । प्रतिकतुं = प्रतिकार कर्तुम् ।।
." बत्र युद्धसङ्कटे कृतस्य दुर्योधनस्याऽनुकूलाचरणात् "साहाय्य" नाम नाटया.
अभिमानं लक्षति-अभिमान इति। अभिमानः = अहङ्कार, स एव "अभिमानः"।
अभिमानमुदाहरति-मातरिति। दुर्योधनस्य स्वमातरं गान्धारी प्रत्युक्मिरियम् । असदृशम-अयोग्य, कपणं - मुद्रम् । पाण्डवेभ्यो राज्यं दातु गान्धार्या उक्ते दुर्योधनस्याऽ. भिमानादभिमाको नाम नाटयाऽलङ्कारः ।
- अनुवर्तनं लक्षयति-प्रथयादिति । प्रश्रयाव = विनयाद, अनुवृत्तिः = अनु सरणम्, "अनुवर्तन" नाम नाट्याऽलङ्कारः ।। २०८ ॥
अनुवर्तनमुदाहरति-यथेति । "इदानीमतिषिविशेषलाभेने"ति संस्कृतच्छाया। पत्र राज्ञोऽनुसूयायानोभयोरपि विनयाऽनुवृत्तेरनुवर्तनम् ।
जैसे वेणी (संहार ) में-पाचार्यको अश्वत्थामा कहते हैं-"आप भी राजा (दुर्योधन) के पासमें रहें" । कृपाचार्य-मैं आज प्रतिकार करनेकी (बदला लेने की) इच्छा करता हूँ।
पभिमान-अभिमान करने को "अभिमान" ही कहते हैं । जैसे वहीं ( वेणीसंहार) पर दुर्योधन"माताजी ! आपके अयोग्य यह कैसा क्षुद्र वचन है ? अनुवर्तन-विनयसे अनुसरण करनेको "अनुवर्तन" कहते हैं ।। २०८ ॥
से शाकुन्तलम--राजा-(शकुन्तलाको कहते हैं ) "आपकी तपस्या तो बढ़ रही है ?"
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षष्ठः परिच्छेदः
अनुसूया--'दाणिं अदिधिविसेसलाहेण' इत्यादि ।
-भूतकार्याख्यानमुत्कीतनं मतम् । यथा बालरामायणे-- 'अत्रासीत्फणिपाशबन्धनविधिः शक्त्या भवदेवरे ।
गाढं वक्षसि ताडिते हनुमता द्रोणाद्रिरत्रातः ॥' इत्यादि । याच्या तु क्वापि याच्या या स्वयं दूतमुखेन वा ।। २०९॥
यथा
'अद्यापि देहि वैदेहीं दयालुस्त्वयि राघवः ।
शिरोभिः कन्दुकक्रोडां किं कारयसि वानरान् ? ॥'. उत्कीर्तनं लक्षयति-भतेति । भूतकार्याख्यान = भूतकार्यस्य (पूर्ववृत्तस्य ) आख्यानम् ( कथनम् ) "उत्कीर्तनम्"।
उदकीर्तनमुदाहरति-अत्रेति । पुष्पकविमानात् रणस्थलं दर्शयतो रामस्य मीता प्रत्युक्तिरियम् । 'हे मृगाक्षि-हे मृगनयने सीते !' अत्र-अस्मिन् स्पाने, फणिपाशवन्धनविधिः-इन्द्रजित्कृतः नागपाशबन्धनविधानम्, अवयोरिति शेषः । रावणेन, अत्र भवद्देवरे भवत्या देवरि लक्ष्मणे, शक्त्या= आयुधविशेषेण, वक्षसि = उरसि, ताडिते - प्रहृते सति, हनुमता-आञ्जनेयेन, द्रोणाऽद्रिः = गपर्वतः, आवतः = आनीतः । बत्र श्रीरामेण भूतकार्याख्यानाद "उत्कीर्तन" नाम नाटचाऽलङ्कारः।
___ याच्या लक्ष यति-याच्बति । क्वाऽपि = कुत्राऽपि जने, स्वयम् = आत्मना; दूतमुखेन = सन्देहहरद्वारा वा, या यात्रा = प्रार्थना, सा "यात्रा" नाम नाट्या:लङ्कारः ।। २०९॥
__ याच्यामुसहरति-अद्याऽपीति । अङ्गददूतमुखेन श्रीरामो रावणं याचते । हे रावण !, त्वम्, अद्याऽपि, वैदेहीं जानौं, देहि = मह्ममिति शेषः । त्वयि - विषये, राघवः, दयालुः = कमणिकः । याआऽनङ्गीकारे परिणाममाह-वानरान् = कपीन्, वानरर्वा, "हक्रोरन्यतरस्याम्" इति सूत्रेण इति विकल्पेन कर्मसंज्ञायां द्वितीया। शिरोभिः
अनुसूया-"इस समय अतिथिविशेषके लाभसे ( तपस्या बढ़ रही है ) इत्यादि । उत्कीर्तन--बीते हुए कार्यके कथनको "उत्कीर्तन" कहते हैं।
जैसे बालरामायणमें-( राम सीतासे कहते हैं )-"हे सीते ! इस स्थानमें इन्द्रजित्ने नागपाशमें फांस लिया था । यहाँपर रावणके तुम्हारे देवर (लक्ष्मण ) को शक्तिसे छातीमें ताडन करनेपर हनुमानजी द्रोणपर्वत लाये थे" । इत्यादि।
याच्या--जो कहीं स्वयम् वा दूतके मुखसे याचना की जाय उसे "याच्या" कहते हैं । २०९॥
जैसे-(अङ्गदके मुखसे श्रीराम रावणसे याचना करते हैं ) हे रावण! अभी
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साहित्यदर्पणे
परिहार इति प्राक्तः कृतानुचितमार्जनम् ।
यथा
'प्राणप्रयाणदुःखात उक्तवानरम्यनक्षरम् । तत्क्षमस्व विभो! किं च सुग्रीवस्ते समर्पितः॥'
अवधीरितकर्तव्यकथनं तु निवेदनम् ॥ २१० ॥ यथा राघवाभ्युदये--
'लक्ष्मणः-आर्य ! समुद्राभ्यर्थनया गन्तुमुद्यतोऽसि । तत्किमेतत् ?' दशसंख्यकः, स्वमस्तक, क्रीडां खेला, किं कारयसि । अत्र दूतमुखेन रामकृतयाच्नाया "याच्या"।
परिहार लक्षयति-परिहार इति । कृताऽनुचितमार्जनं कृतस्य (विहितस्य ) अनुचितस्य ( अयुक्तस्य ) कर्मणो मार्जनं परिहारः, परिहारो नाम नाट्याऽलङ्कारः।
परिहारमुदाहरति-प्राणेति । रामशराहतस्य म्रियमाणस्य वालिनः श्रीराम प्रत्युक्तिरियम्, हे राम !, प्राणप्रप्रयाणदुःखात: प्राणप्रयाणे ( असुमोक्षणसमये ) यत् दुःख ( वेदना.) तेन आर्तः ( पीडितः ) सन्, यत् अनक्षरम् = अवाच्यं, "स्वया तपस्विचाण्डाले"त्यादिवाक्यरूपम्, उक्तवान् = अभिहितवान्, अस्मि, तद् = अनक्षरं, क्षमस्वमर्षय, किंध, हे विमो = हे प्रभो! सुप्रोवः = मदनुजः, ते तुभ्यं, समर्पित:= दतः । अत्र वालिनात्मकृतस्याऽनुचितस्य मार्जनात् "परिमार्जनम्"।
निवेदनं लक्षयति-अवधीरितेति । अवधीरितकर्तव्य कथनम् = अवधीरितम् ( अवज्ञातम् ) यत् कर्तव्यं ( कृत्यम् ) तस्य कथनं ( प्रतिपादनम् ) तत् "निवेदन" नाम नाटघाऽलङ्कारः ॥ २१०॥
निवेदनमुदाहरति-यथेति । अत्र पुराऽवज्ञातस्य समुद्र समीपगमनस्य कर्तव्यत्वकथनात् "निवेदनम्"। भी सीताजीको दे दो। तुमपर रामचन्द्र जी दयालु हैं । बानरोंसे अपने मस्तकोंकी क्यों गेंदकी क्रीडा कराते हो।
परिहार--किये गये अनुचित कार्यके मार्जनको "परिहार" कहते हैं । जैसे(अन्तकालमें वाली रामको कहता है ) हे प्रभो ! प्राण जानेके समय में वेदनासे प्रीडित होकर मैंने जो अवाच्य वचन कहा है उसे आप क्षमा करें। ( भाई ) सुग्री को मैंने भापको सौंप दिया है।"
निवेदन--तिरस्कृत कर्तव्यके कथनको "निवेदन" कहते हैं ।। २१० ॥
जंसे राघवाऽभ्यदयमें--लक्ष्मण ( रामको कहते ) आर्य ! आप समुद्रकी प्रार्थनासे जानेके लिए उद्यत हो रहे हैं "यह क्या है" ?।।
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षष्ठः परिच्छेदः
"10
प्रवर्तनं तु कार्यस्य यत्स्यात्साधुप्रवर्तनम् । यथा वेण्याम्
'राजा- कञ्चुकिन् ! देवस्य देवकीनन्दनस्य बहुमानाद्वत्सस्य भीमसेनस्य विजयमङ्गलाय प्रवर्तन्तां तत्रोचिताः समारम्माः।
आख्यानं पूर्ववृत्तोक्तिःयथा तत्रैव'देशः सोऽयमरातिशोणितजलयस्मिन् हदाः पूरिता:-'
(वे० सं०३-३३)। इत्यादि।
-युक्तिरावधारणम् ।। २११।। प्रवर्तनं लक्षयति-प्रवर्तनमिति । कार्यस्य = कस्यचिकमंगः, यत् साधुप्रवर्तनं = समीचीनाऽऽरम्भः, तत् "प्रवर्तन" नाट्याऽलङ्कारः।
प्रवर्तनमुदाहरति-यति । बहुमानात-अधिकसत्कारात्, उचिता: संयोग्या: समारम्भाः = समीचीनकर्माणि । अत्र माङ्गलिककार्यस्य साधुप्रवर्तनात् "प्रवर्तनम्" ।
. आख्यानं लक्षयति-माख्यानमिति । पूर्ववृत्तोक्तिः = पूर्ववृत्तस्य ( अतीतवृत्तान्तस्य ) उक्तिः ( कथनम् ) "आख्यानं" नाम नाट्याऽलङ्कारः ।
___ आख्यानमुदाहरति-यथेति । अरातिशोणितजलः = अरातीनां (शणाम् ) शोणितानि ( रुधिराणि ) एव जलानि ( सलिलानि ) । तैः । अत्राश्वत्थाम्नः परशुरामकृतपूर्ववत्तोक्तराख्यानम् ।
युक्ति लक्षयति-यक्तिरिति । अर्थाऽवधारणम् = अर्थस्य (विषयस्य ) अवधारणं ( कर्तव्यत्वनिश्चयः ) 'युक्ति" नाम नाट्याऽलङ्कारः ।। २११ ।।
प्रवर्तन--किसी भी कार्यको अच्छी तरहसे आरम्भ करनेको प्रवर्तन" कहते हैं।
जैसे वेणी (संहार )में--राजा (युधिष्ठिर) "कञ्च किन् ! भगवान् देवकीनन्दन ( कृष्णजी ) के अधिक सम्मान करके वत्स भीमसेनके विजयमङ्गलके लिए उसमें उचित कार्य किये जायं"।
प्राख्यान-अतीत वृत्तान्तके कथनको "पाख्यान" कहते हैं ।
जैसे वहींपर-"यह वही देश है, जिसमें शत्रुओंके रुधिर जलोंसे तालाब परे गये हैं ।" इत्यादि।
यक्ति-विषयकी कर्तव्यताके निश्चयको "युकि" कहते हैं। जैसे वहीं ( वेणी संहार में )
.
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५३८
यथा तत्रैव-
'यदि समरमपास्य नास्ति मृत्योर्भयमिति युक्तमितोऽन्यतः प्रयातुम् ।
अथ मरणमवश्यमेव जन्तोः किमिति मुधा मलिनं यशः कुरुध्वम् ।।' (३६) । प्रहर्षः प्रमदाधिक्यं -
यथा शाकुन्तले-
साहित्यदर्पणे
'राजा -- तत्किमिदानीमात्मानं पूर्णमनोरथ नाभिनन्दामि ।' - शिक्षा स्यादुपदेशनम् |
यथा तत्रैव
'सहि ! ण जुत्तं अभ्समवासिणो जणस्स अकिदसक्कारं अदिधिविसेसं उअि सच्छन्ददो गमनम्' ।
P
युक्तिमुदाहरति-यदीति । कुरुक्षेत्रे समरभूमी पलायनपरान्नरपतीनुद्दिश्या• श्वत्थाम्न उक्तिरियम् । समरं युद्धम्, अपास्य = त्यक्त्वा, मृत्योः = मरणात्, भयभीतिः, नाऽस्ति यदि = नाऽस्ति चेत्, तहि इतः = अस्मात् समरादित्यर्थः । अन्यतः अन्यस्मिन् स्थले, प्रयातुं = गन्तुं युक्तम् = उचितम् । अथ = पक्षान्तरे, जन्तोः = जननशीलस्य प्राणिनः, मरणं = मृत्युः, अवश्यम् एव = ध्रुवम् एव, उहि किमिति = केन कारणेन, यशः = कीर्ति, सुधा व्यर्थ, मलिनं = मलीमसं कुरुध्वं = सम्रादयध्वम् । पुष्पिताग्रा वृत्तम् । अत्र युद्धं कर्तव्यमेवेत्यर्थावधारणात् युक्तिः ।
प्रहर्ष लक्षयति - प्रहर्ष इति । प्रमदाऽऽधिक्थं प्रमदस्य ( हर्षस्य ) आधिक्य म् ( अधिकता ) " प्रहर्षः " इति ।
यथेति । अत्र राश: पत्नीपुत्रलाभेन हर्षाधिक्यात् प्रहर्षो नाम
प्रहर्ष मुदाहरति नाटघाऽलङ्कारः' ।
=
उपदेशनं लक्षयति - शिक्षेति । शिक्षा उपदेशकरणम् " उपदेशनम् ” । उपदेशन मुदाहरति- यथेति । "सखि ! न युक्तमाश्रमवासिनो जनस्याऽकृतसस्कारमतिथिविशेष मुज्झित्वा स्वच्छन्दतो गमनम्" इति संस्कृतच्छाया । स्वच्छन्दता= आत्माऽभिप्रायानुसारेण स्वातन्त्र्येणेति भावः । अत्र शकुन्तलां प्रत्यनसूयाया उपदेशानादुपदेशनं नाम नट्याऽलङ्कारः ।
"युद्धको छोड़कर मृत्युका भय नहीं तो अन्यत्र जाना उचित है, परन्तु जन्तुका अवश्य ही मरण है तो क्यों अपने यशको मलिन करते हो ?"
प्रहर्ष -- हकी अधिकताको "प्रहर्ष" कहते हैं ।
जैसे शाकुन्तल में राजा (दुष्यन्त ) -- Maa क्यों इस समय पूर्ण मनोरथ• वाले अपनेको अभिनन्दन न करूं ?" !
उपवेशन - - शिक्षा करने को " उपदेशन" कहते हैं ।
जैसे वहीं ( शाकुन्तल ) पर - - " सखि ! आश्रम में रहनेवालेको अतिथिका सत्कार किये विना स्वच्छन्द होकर जाना उचित नहीं है" ।
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षष्ठः परिच्छेदः
५३९
एषां च लक्षणनाट्यालङ्काराणां सामान्यत एकरूपत्वेऽपि भेदेन व्यपदेशो गड्डालकाप्रवाहेण ।
एषु च केषांचिद्गुणालङ्कारभावसन्ध्यनविशेषान्तर्भावेऽपि नाटके प्रयत्नतः कर्त्तव्यत्वात्तद्विशेषोक्तिः । एतानि च-..
पञ्चसन्धि चतुर्वृत्ति चतुःषष्टयङ्गसंयुतम् ।
षट्त्रिंशल्लक्षणोपेतमलङ्कारोपशोभितम् ॥ भूषणनाट्याऽलङ्काराऽऽदिविषये विशेषमाह--एषामिति ।
एषां = पूर्वोक्तानां, लक्षणा-नाट्याऽलङ्काराणां भूषणादिलक्षगानाम्, आमीरादिनाट्याऽलङ्काराणां च, सामानात: नाट्यभूषणहेतुत्वरूपसाधारणधर्माद, एकरूपत्वेऽपि= समानस्वरूपत्वेऽपि भेदेन व्यपदेशः = इदं लक्षणमयमलङ्कार इति पार्थक्येन व्यवहारः; गड्डठिकाप्रवाहेण = गडडलिका ( मेषी ) तत्प्रवाहेण (तत्प्रचलनेन) यथा गडलिका एका अपरा, तां च अन्याम अनुगच्छति, तासां गताऽनुगतन्यायेन भेदः ।
ननु भूषणस्य यथायथं गुणेऽलङ्कारे च, शोभायाः श्लेषे, विशेषणस्य विशेषोक्त्यलङ्कारे च, एवमाशीरादिनाटाऽलङ्काराणामाशीराधलखारेषु, एवं च युक्रूयादीनां युक्त्यादिसन्ध्यङ्गेषु चाऽन्तर्भावे सिद्ध पुनरुपादानं किमर्थमिति । संशयं समाधत्ते--एष चेति । एषु लक्षण-नाटयाउन ङ्कारेषु, केषांचित् = भूषणाचागीरादीनां, गुणाऽलङ्कार भाव-सन्हाङ्गविशेषाऽन्तर्भावेऽपि = तेषु तेषु गुणेषु अलङ्कारेषु, भावेषु सन्ध्यङ्गविशेषेषु अन्तःपातित्वेऽपि. नाटके च = रूके, प्रयत्नतः = प्रयासतः, कर्तव्यत्वात्-करणीयस्वाद, विशेषोक्तिः = भेदेनोक्तिः।
एतानि च । एतानि पञ्चसन्ध्यादीनि । अवश्यं कर्तव्यानीति पदद्वयन सम्बन्धः । अवाऽर्थे भरतमुनिवाक्यं प्रमागति--पञ्चसन्धोति । पञ्चन्धि = पञ्च (पञ्चसंख्यकाः ) सन्ध्रयः ( मुखसन्ध्यादयः ) यस्मिस्तत्, तादशं "नाटकं कुर्यात्" इत्यत्र सम्बन्धः, एव परत्राऽपि । चतुर्वत्ति = चतस्रः (चतुःसंख्यकाः ) वृत्तयः (कैशिक्या. दयः ) यस्मिस्तत् । चतुःषष्पक्षसंयुतं = चतुःषष्टयङ्गः ( मुखादिपञ्चसन्ध्यङ्गः) संयुतम् ( सहितम् ) । षट्त्रिंशल्लक्षणोपेतं = षट्त्रिंशल्लक्षणः (भूषणादिभिः) उपेतम् (संयुक्तम् ) । अलङ्कारोपशोभितम् अलङ्कारः (आशीरादिमिः) उपशोभितम्
ये लक्षण और नाट्याऽलङ्कार नाट्य के भूषण रूप हैं अतः सामान्यतः एकरूप ही हैं तो भी इनका भेदसे व्यवहार भेड़िया घसान न्यायसे हैं। इनमें कई गुण, अलङ्कार, भाव और सन्धिके अलोंमें अन्तर्भूत हो सकते हैं, तो भी नाटकमें प्रयत्न पूर्वक कर्तव्य होनेसे इनकी विशेष रूपसे उक्ति हुई है । ये--पांच सन्धियोंसे; चार वृत्तियोंसे चौसठ अङ्गोंसे
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५४०
साहित्यदर्पणे
महारसं
महाभोगमुदात्तरचनाम्बितम् । महापुरुषसत्कारं साध्वाचारं जनप्रियम् ॥ सुश्लिष्टसन्धियोगं च सुप्रयोगं सुखाश्रयम् । मृदुशब्दाभिधानं च कविः कुर्यात्तु नाटकम् ॥ इति मुनिनानाटकेऽवश्यं कर्तव्यान्येव । वीध्यङ्गानि वक्ष्यन्ते ।
- लास्याङ्गान्याह-
गेयपदं स्थित पाठ्यमासीनं पुष्पगण्डिका ॥ २१२ ॥
( सञ्जात शोधम् ) | महारस महान (शृङ्गारो वीरो वा ) रस: ( अलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यः) यस्मिस्तत् । महाभोगं = महान ( विपुलः) भोगः ( विलासः ) यस्मिंस्तत् । उदात्त· रचनाऽचितम् = उदात्ता ( उत्कृष्टा ) या रचना (निर्मितिः) तथा अन्वितम् । युक्तम् । महापुरुषसत्कारं = महापुरुषस्य ( धीरोदात्तनायकस्य ) सत्कार : ( आदर, गुणवर्णनरूप इति भाव: ) यस्मिस्तत् । साध्वाचारं साधुः ( शास्त्रसम्मत: ) आचार : ( व्यवहारः ) • यस्मिस्तत् । जनप्रियं = लोकाऽभीप्सितम् सुश्लिष्टसन्धियोग = सुश्लिष्ट: ( सुबद्धः ) सन्धियोग: ( मुखादिसन्धिसम्बन्धः ) यस्मिस्तत् । सुप्रयोगं = शोभनः प्रयोग: . ( अभिनयः ) यस्मिंस्तत्, सुखाश्रयं = हर्षाऽधिकरणभूतम् । मृदुशब्दाऽभिधानं मृदुशब्दानां ( कोमलपदानाम् ) अभिधानं ( कथनम् ) यस्निस्तत् "मृदुशब्दातिपातम् " - इति पाठान्तरे मृदुशब्दानाम्, अतिपात: ( विस्तार: ) यस्मिंस्तदित्यर्थः । एतादृशं नाटकं = रूपकं, कविः कुर्यात् = विदधीत ॥
-
मुनिना = भरतमहर्षिणा । अवश्यं कर्तव्यान्येवेति । मुनिना सन्ध्यङ्गनाट्यलक्षणनाट्यालङ्काराणां पृयगभिधानात्सन्ध्यङ्गविशेषाश्च नावश्यका इति प्रागेवोक्तत्वान्नाट्यलक्षण-नाट्यालङ्काराश्चाऽवश्यं कर्तव्या इति भावः ।
वीथ्यङ्गानीति । वक्ष्यन्ते - अभिधास्यन्ते "अस्यास्त्रयोदशाऽङ्गानि " इत्यादिनेति शेषः ।
लास्याऽङ्गान्याह -- गेयपदमिति । गेयपदं स्थितपाठ्यम्, आसीनं पुष्पगण्डिका ।। २१२ ।
छत्तीस लक्षणोंसे युक्त, अलङ्कारोंसे उपशोभित, शृङ्गार आदि रससे युक्त, विपुल विलास से सम्पन्न, उत्कृष्ट रचनासे युक्त, महापुरुषके गुणोंके वर्णनस्वरूप, शास्त्रसम्मत आचारसहित, लोकप्रिय, सुबद्ध मुख आदि सन्धियोंसे युक्त, सुन्दर अभिनयवाला और कोमल
के प्रयोगसे सम्पन्न नाटककी रचना कविको करनी चाहिए मुनिके ऐसे कथन से इनको नाटक अवश्य करना ही चाहिए। वीथीके अङ्गों को पीछे कहेंगे ।
लास्य अङ्गोंको कहते हैं- गेयपद, स्थितपाठ्य, आसीन, पुष्पगण्डिका ॥ २१२ ॥
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षष्ठः परिच्छेदः
५४१
प्रच्छेदकस्निगूढं च सैन्धवाख्यं द्विगूढकस् । उत्तमोत्तमकं चान्यदुक्तप्रत्युक्तमेव च ।। २१३ ।।
लास्ये दशविधं ह्येतदङ्गमुक्तं मनीषिभिः । तत्र
तन्त्रीभाण्डं पुरस्कृत्योपविष्टस्यासने पुरः ।। २१४ ।।
शुद्धं गानं गेयपदम्यथागौरीगहे वीणां वादयन्ती मलयवती
'उत्फुल्लकमलकेसरपरागगोरगुते ! मम हि गौरि !
अभिवाञ्छित प्रसिध्यतु भगवति ! युष्मत्प्रसादेन ।' प्रच्छेदकः, त्रिगृढं, सैन्धवं, द्विगूढम्, उत्तमोत्तमकम्, उक्त-प्रयुक्तम् ।। २१३ ।।
लास्ये-सामान्य नत्ये, "स्त्रीनृत्यं लास्यमुच्यते" इत्युक्ते: स्त्रीनत्ये वा, एतत्पूर्वोक्तं, दविध--दशप्रकारम्, अङ्गम् अवयवः, मनीषिभिः = विद्भिः , उक्तं = प्रतिपादितम् ।
गेयपद लक्षयति-गेयपदमिति । तन्त्रीमाण्ड-वीणायन्त्र, पुरस्कृत्य-अग्ने निधाय, पुरः = देवाद्यये, आस-उपवेशनस्थाने, उपविष्टस्य = निषण्णस्य, जनस्य, शुष्क = नत्यरहितं, शुष्कम् अनुकरणीयमित्यनन्तदासाः । "शुद्धम्" इति पुस्तकान्तर. पाठस्तत्र निर्दोषमित्यर्थः । गानं = गीतं, "गेयपदं" नाम लास्याङ्गम्।
गेयपदमुदाहरति-उत्फुल्लेति। नागानन्दनाटकस्थं पद्यमिदम् । नायिका मलयवती गायति-उत्फुल्लेत्यादिः = उत्फुल्लकमलस्य ( विकसितपद्मस्य ) यः केसर. परागः (किजल्करजः ) स इव गोरी ( गौरवर्णा ) तिः (कान्तिः) यस्याः सा, तत्सम्बुद्धौ । हे गोरि-हे पार्वति ! युष्मत्प्रसादेन-भवदनुग्रहेण, मम, अभिवाञ्छितम्बभीष्ट, प्रसिध्यतु - सम्पयताम् । गाथा वृत्तम् । .
प्रच्छेदक, निगूढ, सैन्धव, द्विगूढक, उत्तमोतमक, उक्तप्रयुक्त ।। २१३ ।। लास्यमें विद्वानोंने इन दश अङ्गोंको कहा है । उनमें
गेयपद-बीणायन्त्र के आगे रखकर आसनमें बैठे हुए व्यक्तिके नृत्यरहित गानको 'गेयाद' कहते हैं ।। २१४ ॥
जैसे गोपीमन्दिर बीन बजाती हई मलयवती-(नागानन्दमें ) विकतिः कमलको के सरके गरायके सदश गौर कान्तिाली हे गौरि ! आपके अनुग्रहसे मेरा अभीष्ट सिद्ध हो।
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५४२
साहित्यदर्पणे
— स्थित पाठ्यं तदुच्यते ।
मदनोत्तापिता यत्र पठति प्राकृतं स्थिता ।। २१५ ।।
अभिनवगुप्तपादास्त्याहु:--
उपलक्षणं चैतत् । क्रोधो भ्रान्तस्यापि प्राकृतपाठनं स्थितपाठ्यम् । इति । निखिलातोद्यरहितं शोकचिन्तान्विताबला | अप्रसाधितगात्रं यदासीनासीनमेव तत् ॥ २१६ ॥ आतोद्यमिश्रितं गेयं छन्दासि विविधानि च ।
स्थित पाठ्य लक्षयति-स्थितपाठयमिति । यत्र यस्मिन् मदनोत्तापिता कामसन्तापिता नारी, स्थिता - उत्थिता सती, प्राकृतं = प्राकृतभाषां पठति, तत् "स्थितपाठ्य" नाम लास्याङ्गम् ।। २१५ ।।
उदाहरति - " तुज्झण प्राणे हिग्रप्रम" इत्यादि ( अभिज्ञा०३-१३ ) अभिनवगुप्तपादमते – “उपलक्षणं चैतत्" । स्वप्रतिपादकत्वं सति स्वेतरप्रतिपादकत्वम् उरलक्षणत्वम् तेन हि न केवलं मदनोत्तापिताया:, कोभ्रान्ताया अपि नार्याः प्राकृत. पठनं स्थित पाठयमिति भावः ।
आसीनं लक्षयति - निखिलेति । शोकचिन्ताऽन्विता - शीकेन ( मन्युना ) 'चिन्तया ( आध्यानेन ) च अन्विता ( युक्ता ) । अबला नारी, आसीना - उपविष्टा सती, निखिलाऽऽतोधरहितं - निखिलं ( समस्तम् ) यत् आतोद्य ( वादिनम् ) तेन रहित ( शून्यं ) यथा तथा अप्रसाधितगात्र म् = अप्रसाधितम् ( अभूषितम् ) गात्रं ( शरीरम् ) • यस्मिन् कर्मणि, तद्यथा तथा । गायतीति शेषः । तद् एव आसीनं" नाम लास्याङ्गम् उदाहरणं मृग्यम् ।। २१६ ।।
'
पुष्पगण्डिकां लक्षयति- प्रातोद्यमिश्रितमिति । यत्र, आतोद्यमिश्रितं = वादित्रसहितं गेयं = ग्रानं विविधानि = अनेकप्रकाराणि, छन्दांसि = गायत्र्यादीनि पद्यानि,
स्थितपाठय - जहाँपर कामसन्तप्त कोई स्त्री खड़ी होकर प्राकृतका पाठ करती है उसे "स्थितपाठ्य" कहते हैं ।। २११ ।।
प्रभिनवगुप्त श्राचार्यने कहा है- "यह उपलक्षण है । क्रोधसे उद्भान्त स्त्रीके प्राकृतपाठ भी स्थितपाठ्य हो सकता है" ।
प्रासीन - शोक और चिन्तासे युक्त स्त्री बैठकर शरीरको भूषित किये बिना और बाजा न बजाकर जो गाती है उसे "आसीन" कहते हैं ।। २१६ ।।
पपगण्डिका - जहाँपर बाजाके साथ गाना, और अनेक छन्द और स्त्री
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षष्ठः परिच्छेदः
स्त्रीपुसयोर्विपर्यासचेष्टितं पुष्पगण्डिका ॥ २१७॥ अन्यासक्तं पति मत्वा प्रेमविच्छेदमन्युना । वीणापुरःसरं गानं स्त्रियाः प्रच्छेदको मतः ॥ २१८ ।।
स्त्रीवेषधारिणां पुंसां नाट्यं श्लक्ष्णं त्रिगूढकम्। यथा मालत्याम्'मकरन्द:-एषोऽस्मि मालती संवृत्तः।'
कश्चन भ्रष्टसंकेतः सुव्यक्तकरणान्वितः ॥ २१९ ॥ स्त्रीपुसयोः योषापुरुषयोः, विपर्यासचेष्टितं = विपर्यासेन ( वैपरीत्येन ) चेष्टितं भवति स्त्रीकृतं पुरुषस्य, पुरुषकृतं च स्त्रियाश्चेष्टितमिति भावः, सा "पुष्पगण्डिा " नाम लास्याऽङ्गम् । उदाहरणमन्वेषणीयम् ।। २१७ ।।
प्रच्छेदक लक्षयति-प्रन्यासक्तमिति । पति- स्वामिनम्, अन्यासक्तम् = अभ्यस्याम् ( स्वभिन्नायाम् ) आसक्तम् (तत्परम् ), मत्वा = ज्ञात्वा, प्रेम विच्छेदभन्युना = प्रणयमङ्गशोकेन, वीणापुरःसरं = वीणावादनपूर्वकं, स्त्रियाः = नार्या, यद् गानं = गीतं, तत् "प्रच्छेदक" नाम- लास्याङ्गम् । उदाहरणं भर्तृहरिनिवेदे नाटके भानुमत्या गानम् ॥ २१८ ।।
त्रिगूढकं लक्षयति-स्त्रीवेषेति। स्त्रीवेषधारिणां = नारीनेपथ्यकारकाणां, पुंसां - पुरुषाणां, श्लक्ष्णं = मनोहरं, नाट्यं = स्त्रीरूपेणाऽभिनयः, "त्रिगूढक" नाम लास्याऽङ्गम् । यो वाग्वेषव्यवहाराः गूढा यस्मिस्तत् त्रिगूढकमिति व्युत्पत्तिः । शेषाद्विभाषा" इति समासान्तः कप् ।
त्रिगूढकमुदाहरति-यति । मालत्या = मालतीमाधवे।
सैन्धवं लक्षयति-कश्चनेति । भ्रष्टसङ्केतः च्युतसङ्केतः, सुव्यक्तकरणाऽन्वित:सुव्यक्तं ( सुस्पष्टम् ) यत् करणं ( वीणादिवादनक्रिया ) तेन अन्त्रितः ॥ २१९ ॥और पुरुषकी विपरीत चेष्टा होती है उसे "पुष्पगण्डिका" कहते हैं ।। २१७ ।।
प्रच्छेदक-जहाँपर पतिको दूसरी स्त्रीमें आसक्त समझकर प्रणयके भङ्गके शोकसे स्त्री बीन बजाकर गाना गाती है, उसे "प्रच्छेदक" कहते हैं ॥ २१८ ॥
त्रिगढ-स्त्रीके वेषको धारण करनेवाले पुरुषोंके मनोहर नाट्य-( स्त्रीरूपसे अभिनय ) को "त्रिगूढक" कहते हैं।
जैसे मालती (माधव)में--मकरन्द-"यह मैं मालती हुआ हूँ"।
सैन्धव--भ्रष्ट सङ्केनवाला कोई पुरुष स्पष्ट वीन आदि बाजा बजानेके कर्मसे युक्त होकर ।। २१९ ॥---
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५४४
साहित्यदर्पणे
प्राकृतं वचनं वक्ति यत्र तत्सैन्धवं मतम् । करणं वीणादिक्रिया।
चतुरस्रपदं गीतं मुखप्रतिमुखान्वितम् ॥ २२० ॥ द्विगृढं रसावभाट्यम्--
-उत्तमोत्तमकं पुनः । कोपप्रसादजमधिक्षेपयुक्तं रसोत्तरम् ॥ २२१ ॥
हावहेलान्वितं चित्रश्लामबन्धमनोहरम् । तादृशः कश्चन = जनः, यत्र = यस्मिन, प्राकृतं = प्राकृतभाषात्मक, वचनं = वाक्यं, वक्ति - परिभाषते, तत् “सैन्धवं" नाम लास्याऽङ्ग, मतम् = अभिमतम् । उदाहरणं गवेषणीयम्।
निगूढ लक्षयति-चतुरनपदमिति। चतुरस्राणि ( विदग्धमनोहराणि ) पदानि ( शब्दाः ) यस्मिस्तत् । यद्वा चतुरस्रपदं = पूर्णसप्तस्वरम्, अथवा पादचतुष्टयान्वितम्, किं वा नामाख्यातोपसगनिपातात्मकपदयुक्तम् । मुखप्रतिमुखाऽन्वितं=मुखप्रतिमुखसन्धिद्वययुक्तम् ।। २२० ॥
- रसभावाढ्यं-रसेन (भृङ्गारादिना ) भावेन ( रत्यादिना च) आढ्यं (सम्पन्नम् ) गीत "दिगूढं" नाम लास्याऽङ्गम् । द्वो रसमावी गूढी यस्मिस्तदिति व्युत्पत्तिः ।।
उत्तमोत्तम लक्षयति-उत्तमोत्तमामिति । कोपप्रसादनं कोपात (क्रोधाद) प्रसादात् (प्रसन्नतायायाः) वा जातम् ( उत्पन्नम् ), अधिक्षेपयुक्तम् = अधिक्षेपेण (तिरस्कारेण ) युक्तम् ( उपेतम् ), अस्य विशेषणस्य कोपजत्व एव अन्वितत्वम् । तथा रसोत्तरं = रसः (शृङ्गारादिः ) उत्तरः ( श्रेष्ठः ) यस्मिस्तत् । तादृशम् उत्तमोतमकं नाम लास्याङ्गम् ॥ २२ ॥
उक्तप्रत्युक्तं लक्षयति--हावहेलाऽन्वितमिति । हावहेलाऽन्वितं = हावहेलाभ्यां-तृतीयपरिच्छेदोक्ताभ्यां नायिकाया भङ्गजालङ्काराभ्याम् अन्वतम् (युक्तम् ), चित्रश्लोकबन्धमनोहरं - चित्रः (विचित्रः) यः श्लोकबाधः (पद्यप्रबन्धः) तेन
यहाँ प्राकृत भाषाका वाक्य बोलता है उसे "सैन्धव" कहते हैं। ..
द्विगढ--विदग्धोंको मनोहर पदोंसे युक्त, मुख और प्रतिमुख सन्धिरी सहित और भावसे सम्पन्न गीतको द्विगूढ" कहते हैं।
उतमोत्तमक-कोपसे वा प्रसन्नतासे युक्त, तिरस्कारसे सहित, श्रेष्ठ रससे युक्त लास्याऽङ्गको "उत्तमोत्तमः" कहते हैं ।। २२१ ॥
उक्तप्रयुक्त-भाव और हेला नामक स्त्रीके अङ्गज अलङ्कारोंसे युक्त, विचित्र
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षष्ठः परिच्छेदः
उक्तिप्रत्युक्तिसंयुक्तं सोपालम्भमलीकवत् ।। २२२ ॥ विलासान्वितगीतार्थमुक्तप्रत्युक्तमुच्यते
स्पष्टान्युदाहरणानि ।
एतदेव यदा सर्वैः पताकास्थानकैयुतम् ॥ २२३ ॥ अङ्कश्च दशमिधरा महानाटकसूचिरे ।
एतदेव नाटकम् |
यथा
बालरामायणम् ।
अथ प्रकरणम् -
भवेत्प्रकरणे वृत्तं लौकिकं कविकल्पितम् ॥ २२४
।।
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मनोहरम् (सुन्दरम् ), उक्तिप्रत्युक्तिसंयुक्तम् - वचनप्रतिवचनसहितं, सोपालम्भ: स्टोकनसहितम्, अलीकवत् - अनृतवत्, एवं च विलासाऽन्वितगीताऽयं विलासेन ( स्त्रीणामलङ्कारविशेषेण ) अन्वित: ( युक्तः ) गीताऽर्थः ( गानाऽर्थः ) यस्मिंस्तत्, तादृशं लास्याऽङ्गम्, उक्तप्रत्युक्तम् उच्यते ।
महानाटकं लक्षयति- एतदेवेति । यदा, एतत् एव - नाटकम् एव सर्वे: सकलैः, चतुभिरिति भावः । पताकास्थानक :- "यत्राऽयें चिन्तितेऽन्यस्मिस्तल्लिङ्गोऽन्यः • प्रयुज्यते । आगन्तुकेन भावेन पताकास्थानकं तु तत्" ।। ६-४५ ।। -
इत्युक्तलक्षणलक्षितं रूपकाऽङ्गः, दशभि:, अङ्कः = नाटक परिच्छेदैः, युतं = सहितं भवेत् तदा धीराः = विद्वांसः, तत् "महानाटकम् " ऊचिरे = उक्तवन्तः ।
=
प्रकरणं लक्षयति- भवेदिति । प्रकरणे = प्रकरणनामके रूपकविशेषे, ਕ वर्णनीयं नायकादिचरित्रं, लौकिकं = लोकमात्रस्थितं न पुराणेतिहासप्रसिद्धमिति भावः । अत एव कविकल्पितं = कविनिर्मितं भवेत् ॥ २२४ ॥
=
=
श्लोकबन्ध से मनोहर, उक्ति और प्रत्युक्ति के सहित उलहनावाले अप्रिय वा मिथ्या वचनसे युक्त गोतार्थवाले लास्याङ्गको "उक्तप्रत्युक्त" कहते हैं ॥ २२२ ॥
उदाहरण स्पष्ट हैं ।
महानाटक- - सब पताकास्थानोंसे युक्त ॥ २२३ ॥
और दश अङ्कोंवाले इसी नाटकको विद्वान् लोग " महानाटक" कहते हैं ।
जैसे - बालरामायण |
प्रकरण - प्रकरण में चरित्र लौकिक (पौराणिक और ऐतिहासिक नहीं) कवि, कल्पित होता है ।। २२४ ॥
३५ सा०
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५४६
. साहित्यदपणे
शृंगारोऽङ्गी, नायकस्तु विप्रोऽमात्योऽथवा वणिक् । सापायधमकामार्थपरो धीरप्रशान्तकः ॥ २२५ ॥ विप्रनायकं यथा मृच्छकटिकम् । अमात्यनायकं मालतीमाधवम् । पणिस्नायकं पुष्पभूषितम् ।
नायिका कुलजा क्यापि, वेश्या क्यापि, द्वयं क्वचित् । तेन भेदात्रयस्तस्य, तत्र मेदस्तृतीयकः ॥ २२६ ॥ कितवधूतकारादिविटचेटकसंकुलः।
शृङ्गार = आदिरसः, अजी-प्रधानम् । नायकस्तु-नेता तु, विप्रः- ब्राह्मणः; अमात्यः-ब्राह्मणेतरोऽपि राजसचिवः, अथवा = यद्वा, वणिक् %3D वाणिजकः, साऽपाय. धर्मकामाऽर्थपरः = सांऽपायाः ( अपायसहिताः - प्रतिबन्धयुक्ताः ) ये धर्मकामाऽर्थाः (त्रिवर्गः); तत्परः (तदासक्तः ) धीरप्रशान्तकः = "सामान्यगुणभूयान्विजादिको धीरशान्तः स्यात्" (११६ पृ.) इत्युक्तलक्षणलक्षितो नायकविशेष: स्यात् । ततन्नाय. कानामाधारस्थलानि दर्शयति-"विप्रनायकम्" इत्यादिभिः ।। २२५॥
... नायिकायाः प्रकारांस्तृतीयप्रकारे प्रकरणस्वरूपं च दर्शयति-नायिकेति । नायिका क्याऽपि = कुत्राऽपि प्रकरणे । कुलजा = सत्कुलप्रसूता, क्वाऽपि = कुत्राऽपि, वेश्या - साधारणी स्त्री, क्वाऽपि, दयं = द्वितयं, कुलजा वेश्या चेति भावः । तेन हेतुना; तस्य- प्रकरणस्य त्रयो भेवाः = प्रकाराः, तत्र तृतीयको भेदः = कुलजा. वेश्यापकः । २२६ ॥
कितवातकारादिविटचेटकसकुल:-फितवः (धूतः) तकारः (अक्षधूर्तः) आदिपदेन सभिकादयश्च । विटः ( सम्मोगिहीनसंपत्” (१२१ पृ०) इत्यादि लक्षणलक्षितः, चेटकः ( भत्यः ), तः सङ्कुलः (व्याप्तः)।
प्रधान रस शृङ्गार होता है। नायक ब्राह्मण, मन्त्री अपना बेश्य होता है। वह प्रतिबन्धवाले धर्म, अर्थ और कोममें आसक्त पता है और धीरप्रशान्त' होता है ॥ २२५॥
ब्राह्मण नायक जैसे, मृच्छकटिकमें, मन्त्री नायक जैसे मालवीयाधवमें और वैश्य नायक पुष्पभूषितमें।
नायिका कहीं कुलीन, और कहीं वेश्या और कहीं दोवों (कुलीन और वेश्या) होती है, अतः प्रकरणके तीन भेद होते हैं, उनमें तीसरा भेद ॥ २२६ ।।
धूर्त, धतकारक और विट, चेटक इनसे युक्त होता है।
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पष्टः परिच्छेदः
कुलस्त्री पुष्पभूषिते । वेश्या तु रजवृत्ते। द्वे अपि मृच्छकटिके। अस्य नाटकप्रकृतित्वाच्छेषं नाटकवत् ।
अथ भाण:भाणः स्याद्धृतचरितो नानावस्थान्तरात्मकः ॥ २२७॥ एकाङ्क एक एवात्र निपुणः पण्डितो विटः। . रङ्गे प्रकाशयेत्स्वेनानुभूतमितरेण वा ॥ २२८ ॥' संबोधनोक्तिप्रत्युक्ती कुर्यादाकाशभाषितैः।
तत्तन्नायिकानामाधारस्थलं प्रदर्शयति-कुलस्त्रीत्यादिना । अस्य-प्रकरणस्य, नाटकप्रकृतित्वात = नाटकम् एवं . प्रकृतिः ( मतिदेशकारणम् ) यस्य तत्, तस्य भावस्तत्वं, तस्माद, विना विशेष सर्वेषां लक्ष्यं नाटकवन्मतम् ।" ( ३८८ पृ०) इत्युक्तेरिति भावः । शेषम् = उक्तादन्यत् लक्षणं नाटक इव बोध्यमिति शेषः, "तत्र तस्येव" इति वतिप्रत्ययः ।
'भाणं लक्षयति-भाण इति । धूतंचरितः = धूर्तस्य ( नायकस्य ) परितं (चरित्रम् ) यस्मिन् सः, व्यधिकरणबहुव्रीहिः । नानावस्थाऽन्तरात्मक:-अन्या अवस्था अबस्थान्तरम् । नाना (बहुविधम् ) अवस्थान्तरं ( दशाऽन्तरम् ) यस्य सः। तादृशः "माणः" रूपकविशेषः । स्यात् ॥ २२७॥
. अयं च एकाऽङ्कः एव = एकाऽङ्कयुक्त एव, स्यात् । अत्र - भाणे, निपुणः - प्रवीणः, पण्डितः विद्वान्, विट:-पिड़गः, "सम्भोगहीनसंपद" ( १२१ पृ.) इत्यादि. लक्षणलक्षितः । स्वेन = मात्मना, वा = अथवा, इतरेण अन्येन वा बनेन, अनुभूतम्अनुभवविषयीकृतं वृत्तान्तं, रने = नाटयमवने, प्रकाशयेत् = सूचयेत् ॥ २२॥
आकाशभाषितः="f ब्रवीषीति (४९१ पृ.) यत्राट" इत्युक्तलक्षणलक्षित, सम्बोधनोक्तिप्रत्युक्ती- सम्बोधने, उक्तिप्रत्युक्ती ( वचनप्रतिवचने ), स्वयमेव कुर्याद
कुलीन नायिका जैसे पुष्प भूषितमें, वेश्या नायिका रङ्गवृत्तमें, दोनों नायिकाए (कुलीना और वेश्या) मृच्छकटिकमें हैं । प्रकरणकी प्रकृति नाटक है इसलिए इसमें उक्तसे अधिक अंश नाटकके समान जानना चाहिए।
भाण-माणमें धूर्तका चरित्र वणित होता है, इसमें अनेक प्रकारकी अवस्थाए होती हैं ।। २२७ ॥
इसमें एक ही अङ्क होता है। विपुण पण्डित विट रङ्गस्थलमें स्वानुभूत वा दूसरे, से अनुभूत विषयको प्रकाशित करता है ।। २२८ ॥
. वह आकाशभाषितोंसे सम्बोधनमें उक्ति और प्रत्युक्ति करता है क्या चौर्य और
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५४८
साहित्यदर्पणे चयेद्वीरशृङ्गारौ शौयसौभाग्यवर्णनैः ॥ २२९ ॥ तंत्रेतिवृत्तमुत्पाद्य, वृतिः प्रायेण भारती । मुखनिवहणे सन्धी लास्याङ्गानि दशापि च ॥ २३० ॥
अत्राकाशभाषितरूपपरवचनमपि स्वयमेवानुवदन्नुत्तरप्रत्युत्तरे कुर्यात् । शृङ्गारवीररसो च सौभाग्यशौयंवर्णनया सूचयेत् । प्रायेण भारती, कापि कैशिक्यपि वृत्तिर्भवति । लास्याङ्गानि गेयपदादीनि। उदाहरणंलीलामधुकरः।
अथ व्यायोग:
ख्यातेति वृत्तो ,व्यायोगः खल्पस्त्रीजनसंयुतः ।
हीनो गर्भविमर्शाभ्यां नरैबहुभिराश्रितः ॥ २३१ ॥ विदधीत । शौयंसौभाग्यवर्णनः, वीरशृङ्गारो सूचयेत्-शोर्यवर्णनेन वीरं, सौभाग्यवर्णनेन शृङ्गारं ज्ञापयेदिति भावः ।। २२९ ॥
तत्र = भाणे, इतिवृत्तं = वर्णनीयं वस्तु उत्पाद्य = कविना कल्पनीयं, प्रकरण. वदिति भावः। वृत्तिः मायिकाऽऽदिव्यापारविशेषः, सा च वृत्तिरत्र प्रायेण बाहुल्येन, भारती = "भारती संस्कृतप्रायो वाव्यापारो नराश्रयः ।" (४०१ पृ० ) इत्युक्तलक्षणलक्षिता वृत्तिः।
मुखनिर्वहणे सन्धी = स्याताम् । लास्याऽङ्गानि = गेयपदादीनि. दशाऽपि च, योजनीयानीति शेषः ।। २३०॥
विवृणोति-प्रायेण भारती' ति कथनास्कुत्र किंचिद कैशिक्यपि वृत्तिभवति ।
व्यायोगं लक्षति-ख्यातेतिवृत्त इति । ख्यातेतिवृत्त:-ख्यातम् (पुराणादिप्रसिद्धम् ) इतिवृत्तं (वर्णनीयं वस्तु ) यस्मिन् सः । स्वल्पस्त्रीजनसंयुतः - स्तोक्योः विज्जनसहितः, गर्भविमर्शाभ्यां = तदापसन्धिभ्यां, हीनः = रहित, बहुभिः, नरैः; माश्रितः ।। २३१॥ सौभाग्यके वर्णनोंसे वीर और शृङ्गार रसको सूचना करता है ।। २२९ ॥
माणमें वर्णनीय वस्तु कविकल्पित होना चाहिए, इसमें वृत्ति प्रायः भारती होती है, कहीं कहीं कैशिकी भी होती है । एवम् मुख और निर्वहण सन्धियां तथा लास्यके गेयपद आदि दशों अङ्ग होते हैं ।
उदाहरण-लीलामधुकर ॥ २३० ।।
व्यायोग-व्यायोगमें पुराण बादिमें प्रसिद्ध वर्णनीय वस्तु होती है, इसमें स्त्रियां बल्प होती हैं। व्यायोगमें गर्भ और विमर्श सन्धि नहीं होती हैं और बहुतसे पुरुष होते हैं ॥ २३१ ॥
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षष्ठः परिच्छेदः
५४९
एकाङ्कथ
भवेदस्त्रीनिमित्तसमरोदयः ।
कैशिकीवृत्तिरहितः प्रख्यातस्तत्र नायकः ॥ २३२ ॥ राजर्षिरथ दिव्यो वा भवेद्धीरोद्धतश्व सः ।
हास्य शृङ्गारशान्तेभ्य इतरेऽवाङ्गिनो रसाः ॥ २३३ ॥ यथा सौगन्धिकाहरणम् ।
अथ समवकारः
वृत्तं समवकारे तु रूपातं देवासुराश्रयम् । सन्धयोनर्विमर्शास्तु त्रयोऽङ्कास्तत्र चादिमे ॥ २३४ ॥ सन्धी द्वावन्त्ययोस्तद्वदेक एको भवेत्पुनः ।
एकrs = एकोsस्को यस्मिन् सः । अस्त्रीनिमित्तस मरोदय: = अस्त्रीनिमित्तः ( हेतुभूतनारहितः ) समरोदय : ( युद्धारम्भः ) यस्मिन् सः केशिकी वृत्तिरहितः, एतादृशो रूपकभेदो व्यायोगः । व्यायुज्यन्तेऽस्मिन्बहवो नरा इति व्यायोगः, अधिकरणे चन् । तत्र = व्यायोगे, नायकः, प्रख्यातः = प्रसिद्धो भवेत् ॥ २३२ ॥
स च नायको राजर्षिरथ वा दिव्यः = देवताविशेषो धीरोद्धतश्च "मायापरः प्रचण्ड :, ( ११५ पृ० )" इत्युक्तलक्षणलक्षितो भवेत् । हास्यशृङ्गारशान्तेभ्यः, इतरे = अन्ये रसाः, अत्र = व्यायोगे, अङ्गिनः = मुख्या भवेयुः ॥ २३३ ॥
=
समवकारं लक्षयति - वृत्तमिति । समवकारे = रूपकविशेषे तु ख्यातं प्रसिद्धं देवासुराश्रयं = सुरदैत्याधारं वृत्तं चरित्रं भवेत् । तंत्र समयकारे, निर्विगशः = विमर्शसन्धिरहिताः सन्धयः = मुखप्रतिमुख - गर्भोपसंहृतिनाम कात्वारः सन्धयः, त्रयोऽङ्काः, रचनीया इति शेषः । तत्र = अषु, आदिमे-अग्रिमेऽङ्के ॥२३४॥ द्वौ = मुखप्रतिमुखनामको उभो, सन्धी, कर्तव्याविति शेषः । अन्त्ययोः = चरमयोः द्वितीयतृतीययोरिति भावः । तद्वत् एक एको भवेत् = द्वितीयाऽङ्के गर्भसन्धिः, तृतीयाऽङ्के
=
इसमें एक अत होता है और स्त्रीके लिए युद्धका आरम्भ नहीं होता है । व्यायोग में कैशिकी वृत्ति नहीं रहती है और उसमें नायक प्रसिद्ध होता है ।। २३२ ॥
वह राजर्षि, देवता वा धीरोद्धत होता है। इसमें हाँस्य शृङ्गार और शान्तसे fe अन्य रस अङ्गी प्रधान होते हैं ॥
जैसे - सौगन्धिकाहरण ॥ २३३ ॥
समवकार - समवकार में देव और असुरोंसे आश्रित, पुराण आदिमें प्रसिद्ध चरित्र वर्णित होता है। इसमें विमर्श को छोड़कर अन्य चार सम्धियां होती हैं, और
तीन अङ्क होते हैं, उनमें प्रथम अङ्क में ॥ २३४ ॥ -
दोसन्धियां होती हैं,
पिछले दो अड्डों अर्थात् दूसरे और तीसरे अमें एक
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५५०
.
.
साहित्यदर्पणे
नायका द्वादशोदात्ताः प्रख्याता देवमानवाः ॥ २३५ ॥ फलं पृथक्पृथक्तेषां, वीरमुख्योऽखिलो रसः । वृत्यो मन्दकैशिक्यो नात्र बिन्दुप्रवेशकौ ॥ २३६ ॥ वीथ्यङ्गानि च तत्र स्युर्यथालाभं त्रयोदश । गायत्र्युष्णिक मुखान्यत्र च्छन्दांसि विविधानि च॥ २३७ ॥
त्रिशृङ्गारखिकपटः कार्यश्चार्य त्रिविद्रवः । उपसंहारसन्धिर्भवेदिति भावः ! उदाताः = धीरोदात्तलक्षणोपेता: "अविकस्थन: समावान्" इत्यादिलक्षणोपेताः (११४ पृ०), प्रख्याताः = प्रसिद्धाः, देवमानवा: - सुरमानुषाः, नायकाः स्युः ।। २३५ ॥ . तेषां = नायकानां, फलं = परिणामः, पृथक् पृथक् = मिन्नं भिनं, भवेत् : यथा पयोधिमथने विष्णुप्रभृतीनां लक्ष्म्यादिलाभफलं पृथगस्ति । वीरमुख्यः = वीर (वीररसः) मुख्यः (प्रधानम् ) यस्य सः, तादृशः, अखिलः = समस्तः, रसः = शृङ्गारादिः, भवेत् । तत्र मन्दकशिक्यः = मन्दा (अल्पा) कैशिकी ( वृत्तिः ) यासो तास्तादृश्यो वृत्तयः भारत्यादयो भवेयुः । अत्र-समवकारे, बिन्दुप्रवेशको-"अवान्तराऽपंविच्छेदे बिन्दुरच्छेदकारणम् ( ४२४ पृ०)" इत्युक्तलक्षणो बिन्दुः, "प्रवेशकोऽनुदा. तोक्स्या."४१९पृ०) इत्यादिलक्षणलक्षितः प्रवेशकः, तो दो, न-नो :.वेताम् ।।२३६।।
तत्र = समवकारे, यथालाभं - लाभाऽनुसारं, प्रयोदश वीथ्यङ्गानि = वक्ष्यमागानि उदात्यकादीनि, स्युः । अत्र गायत्र्युष्णिङ्मुखानि षडक्षरा मायत्री, सप्ताऽक्षरा उष्णिक, ते मुखे ( भादो ) येषा तानि, तादृशानि, विविधानि, छन्दांसि स्युः ॥२३७॥ ... वयं = समवहारः, विशृङ्गारः = धर्माऽर्थकामभेदस्त्रिविधः शृङ्गारः, अनु. पदं वक्ष्यमाणः, त्रिकपट: = स्वाभाविकादिभेदस्त्रिविधः कपटः, त्रिविद्रवः-अचेतनादि. कतईस्त्रिविधी विद्रवः, "शलाभयत्रासकृतः संभ्रमो विद्रवो मतः" (४५८ पृ०) इत्युक्तलक्षणलक्षितं. गर्भसन्ध्यमिति भावः। कार्यः = कर्तव्यः, कविनेति शेषः । एक सन्धि होती । समवकारमें धीरोदात्त और पुराण आदिमें प्रसिद्ध देवता और मनुष्य बारह नायक होते हैं ।। २३५ ॥
.. उनका फल पृथक् पृथक् होता है, उसमें सम्पूर्ण रस होते हैं उनमें मुख्य वीररस होता है, वृत्तियों में कैशिकी वृत्ति अल्प होती है, उसमें बिन्दु और प्रवेशक नहीं होते हैं ।। २३९॥
उसमें यथासंभव वीथीके तेरह अङ्ग होते हैं, और गायत्री तथा उष्णिक आदि बनेक छन्द होते हैं ।। २३७ ।। _ उसमें तीन प्रकारको जार, तीन प्रकारका कपट और तीन प्रकारका विद्या
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षष्ठः परिच्छेदः
५५१
वस्तु द्वादशनालोभिर्निष्पाद्यप्रथमाङ्कगम् ॥ २३८ ।।
द्वितीयेऽङ्क चतसृभिभ्यिामङ्क तृतीयके । नालिका घटिकाद्वयमुच्यते । बिन्दुप्रवेशको च नाटकोक्तावपि नेह विधातव्यो । तत्र
धर्मार्थकामैत्रिविधः शृङ्गारः, कपटः पुनः ॥ २३९ ॥ स्वाभाविकः कृत्रिमश्च दैवजो विद्रवः पुनः ।
अचेतनैश्चेतनैश्च चेतनाचेतनैः कृतः ॥ २४० ॥ प्रयमाऽङ्कगम् = आदिमावस्थित, वस्तु = इतिवत्तं, द्वादशनालीमिः = द्वादशमुहर्तेः; निष्पाद्य = संपादनीयम् ॥ २३८ ॥
द्वितीये अड्के, वस्तु, चतसृभिः, "तिसृभिः" इति पाठान्तरम् । नालीभिः; निष्पाद्यम् । तृतीयकेऽङ्के, वस्तु द्वाभ्यां = नालीभ्यां, निष्पाद्यम् ।
विवृणोति-नालिकेति । बिन्दुप्रवेशकाविति । "विना विशेष सर्वेषां लक्ष्म नाटकवन्मतम्; ( ३८८ पृ.) । इत्युक्त्या समवकारस्याऽपि नाटकप्रकृतित्वात्प्राप्तयो. बिन्दुप्रवेशकयोनिषेधः।
शृङ्गार-कपट-विद्रवान्विभज्य प्रदर्शयति-धर्माऽर्थकामैरिति । शृङ्गारः धर्माऽर्थ कामस्त्रिविधः = त्रिप्रकारः । तत्र शास्त्राऽविरोधेन = "ऋती भार्यामुपेयाव" इत्यादिशास्त्रवचनस्य, अविरोधेन = आनुकूल्येन कृतः शृङ्गारो धर्मशृङ्गारः । अर्थलार्भार थंकल्पितः शृगारः अर्थशृङ्गारः, वेश्यादिभिरिति शेषः । प्रहसनशृङ्गारः = कामशृङ्गारः, यथा लटकमेलकादौ । तत्र कामशृङ्गारः समवकारे प्रथमाऽङ्क एव, अन्ययोस्तु-द्वितीयतृतीयाऽङ्कयोस्तु न नियम इत्याहुः । पुनः कपटः ।। २३९ ।।
स्वाभाविकः = सांसिद्धिकः, कृत्रिमः - क्रियया निर्वृत्तः, देवजश्च = नियतिजन्यश्चेति कपटोऽपि त्रिविधः । पुन: -विद्रवः = शङ्काभयत्रासकृतः संभ्रमः, सोऽपि विविध:-अचेतनः काष्ठपुतलिकादिभिः कृतः एकः, चेतनैः कृतः द्वितीयः, चेतनाऽवेतनः गजादिभिः कृतस्तृतीयः। ये सब होने चाहिए, इसमें प्रथम अङ्कके इतिवृत्तिको बारह मुहूर्तोसे सम्पादन करना चाहिए ।। २३८ ॥
इसमें द्वितीय क्षङ्कके इतिवृत्तको चार मुहर्तोसे और तृतीय अङ्कके इतिवृत्तको दो मुहूर्तोंसे सम्पादन करना चाहिए। दो घटिकाओंके कालको नालिका कहते हैं। नाटकमें उक्त होनेपर भी बिन्दु और प्रवेशकको इसमें नहीं रखना चाहिए । इसमें धर्म शृङ्गार, अर्थशृङ्गार, कामशृङ्गार इस प्रकार शृङ्गारके तीनों भेद, स्वाभाविक, कृत्रिम .. (बनावटी) और देवज, तीन प्रकारका कपट और विद्रव भी अकेतनकृत, चेतनकृत और चेतनाऽचेतनकृत तीन प्रकारका होता है ।। २४० ॥
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साहित्यदर्पणे
तत्र शास्त्राविरोधेन कृतो धर्मशृङ्गारः। अर्थलाभार्थकल्पितोऽर्थशृङ्गारः। प्रहसनशृङ्गारः कामशृङ्गारः, । तत्र कामशृङ्गारः प्रथमाङ्क एव । अन्ययोस्तु न नियम इत्याहुः। चेतनाचेतना गजादयः। समवकीर्यन्ते बहवोऽर्था अस्मिन्निति समवकारः।
यथा-समुद्रमथनम् । अथ डिमः
मायेन्द्रजालसंग्रामकोधोद्घान्तादिचेष्टितैः । उपरागैश्च भूयिष्ठो डिमः ख्यातेतिवृत्तकः ॥ २४१॥ अङ्गी रौद्ररसस्तत्र सर्वेऽङ्गानि रसाः पुनः ।
चत्वारोऽका मता नेह विष्कम्भकप्रवेशको ।। २४२ ।। बहिर्व्यापाररहितानामन्तःसज्ञानां वृक्षादिस्थावराणामपेक्षयाऽधिकचेतनावत्वाद् गजादीनो चेतनत्वं, परं मनुष्यापेक्षायाऽल्प्रचेतनावत्त्वादचेतनत्वमतो गजादयः पशवनेतनाऽचेतना इति भावः । समवकीर्यन्ते = संनिवड्यन्ते बहवोऽर्था अस्मिन्निति समवकारः । यथा समुद्रमयनम् ।
_ डिमं लक्षयति-मायेन्द्रनालेति । मायेन्द्रमालेत्यादिः - मायया ( शाम्बर्या) इन्द्रजालेन ( कुहकेन ) संग्रामेण ( युद्धन ) क्रोपेन ( कोपेन ) उद्भ्रान्तादीनां चेष्टितैः ( चेष्टाभिः ), उपरागः = चन्द्रसूर्यग्रहणश्च । भूयिष्ठः - प्राचुर्ययुक्तः, ख्यातेतिवत्तकः-- ख्यातम् ( पुराणादिप्रसिद्धम् ) इतिवृत्तं ( वर्णनीयवृत्तान्तः ) यस्मिन् सः । तादृशो डिमः = तदाख्यरूपविशेषो भवति ।। २४१ ।।
तत्र = तस्मिन् डिमे अङ्गी-मुख्यः रौद्ररसः इतरे सर्वे रसाः-शृङ्गारादयः
शास्त्रके अविरोधसे किये गये शृङ्गारको धर्मशृङ्गार, अर्थलामके लिये किये गये शृङ्गारको अर्थशृङ्गार; और प्रहसनश्रृङ्गारको कामनार कहते हैं । उनमें काम श्रृङ्गार प्रथम अङ्कमें ही होता है । धर्मश्रृङ्गार और प्रहसनश्रृङ्गारमें नियम नहीं है ऐसा कहते हैं । चेतना चेतन जैसे हाथी आदि हैं, ये स्थावर वृक्ष आदिसे आधिक संवेदन शील होनेसे चेतन हैं, और मनुष्यकी अपेक्षा अल्प विवेकवाले होनेसे अचेतन भी हैं । बहुतसे विषय इसमें निबद्ध होते हैं, इसलिए इसको समवकार कहते है ।
जैसे-समुद्रमथन।
डिम-माया, इन्द्रजाल, युद्ध और उद्भ्रान्त आदिकी चेष्टाओंसे; चन्द्र और सूर्यके ग्रहणोंसे युक्त तथा पुराण आदिमें प्रसिद्ध इतिवृत्त जिसमें रहता है उसे ''डिम" कहते हैं ।। २४१॥
उसमें रौढ रस प्रधान होता है अन्य समस्त रस अङ्ग ( अप्रधान ) होते हैं ।
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षष्ठः परिच्छेदः
1
नायका देवगन्धर्वयक्षरक्षां महारगाः भूतप्रेतपिशाचाद्याः षोडशात्यन्तमुद्धताः ॥ २४३ ॥ वृत्तयः कैशिकीहीना निर्विमर्शाश्च सन्धयः ।
दीप्ताः स्युः षड्रमाः शान्तदास्यशृङ्गारवर्जिताः ।। २४४ ॥ अत्रोदाहरणं च 'त्रिपुरदाहः' इति महर्षिः ।
५५३
अहामृग:
ईहामृगों
प्रकीर्तितः ।
मिश्रवृत्तश्चतुरङ्कः मुखप्रतिमुखे सन्धी तत्र निर्वहणं तथा ।। २४५ ।।
अङ्गानि - अवयवाः, इह = अस्मिन् डिमे, चत्वारोडा मताः, विष्कम् प्रकप्रवेश को न भवतः ।। २४२ ।।
देवगन्धर्वयक्षरक्षो महोरगाः भूतप्रेतपिशाचाद्या : अत्यन्तम् उद्धताः - अविनीताः बोडश नायका भवन्ति । २४३ ॥
-
कैशिकीहीनाः कैशिकी रहिताः, वृत्तयः . भारत्याद्याः भवन्ति । निविमर्शा:= विमर्शरहिताः, सन्धयः= मूर्खप्रतिमुखगर्भोपसंहृतयः, सन्धयो भवन्ति । शान्तशृङ्गारहास्यवर्जिताः, षड् रसाः= करुणरौद्रवीरभयान कबी मत्सा मुखसंज्ञकाः, दीनाः स्फुटस्वरूपाः, भवन्ति ।। २४४ ॥
डिमस्योदाहरणं त्रिपुरदाह इति महर्षिः = भरतः ।
=
=
मृगं लक्षयति - ईहामृग इति । मिश्रवृत्तः ख्याताऽख्य' तेतिवृत्तः, चतुरङ्क:चत्वारः अङ्काः यस्मिन् सः । तादृशो रूपकविशेष ईहामृगः प्रकीर्तितः प्रवर्णितः । तत्र = तस्मिन् ईहामृगे, मुखप्रतिमुखे सन्धी, तथा निर्वहणं च सन्धिर्भवति ॥ २४५ ॥ इसमें चार अङ्क होते हैं, और विष्कम्भक और प्रवेशक नहीं रहते हैं । २४२ ॥
इसमें देवता, गन्धवं यक्ष, राक्षस, महोरग ( विशाल सर्प ), भूत, प्रेत और पिशाच आदि अत्यन्त उद्धत ( दुर्विनीत ) सोलह नायक होते हैं ।। २४३ ।।
इसमें कैशिकीको छोड़ कर और सब भारती आदि वृत्तियाँ विमर्श छोड़कर मुख आदि चार सन्धियाँ होती हैं, तथा शान्त, हास्य और शृङ्गार रसको छोड़कर करुण बादि छः रस स्फुट रूपसे रहते हैं ।। २४४ ॥
इसे में उदाहरण है "त्रिपुरदाह" यह महर्षि ( भारत ) का कथन है ।
ईहामृग - पुराण आदिमें प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध चरित्र से युक्त और चार अङ्कोंवाले रूपकको “ईहामृग " कहते हैं। इसमें मुख, प्रतिमुख और निर्वहण सन्धियाँ होती हैं ।। २४५ ।।
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साहित्यदर्पणे
नरदिव्यावनियमौ नायकप्रतिनायको। ख्याती धीरोद्धतावन्यो गूढमावादयुक्तकृत् ।। २४६ ।। दिव्यस्त्रियमनिच्छन्तीमपहारादिनेच्छतः । शृङ्गाराभासमप्यस्य किश्चित्किश्चित्प्रदर्शयेत् ।। २४७ ।। पताकानायका दिव्या मावापि दशाद्धताः । युद्धमानीय संरम्भं परं व्याज्ञान्निवर्तते ।। २४८ ।।
नायकप्रतिनायको, नरदिव्यो = मनुष्यदेवी, अनियमो = नियमरहितो, यथासंख्यानियमहिताविति भावः, नरो नायकः, दिव्यः ( देवः ) प्रतिनायकः, अथवा दिव्यः ( देवः ) नायकः, नरः प्रतिनायको भवतामिति शेषः । तादृशो तो धीरोद्धती, ख्याती प्रथिसी । अन्यः = अपरः, प्रतिनायक इति भावः। गूढभावात् = अप्रकाशभावात; अयुक्तकृत = अनुचित कार्यकारकः ।। २४६ ॥
____ अनिच्छन्ती अवाञ्छन्ती, रमणमिति शेषः। दिव्यस्त्रियं = देवीम्, अपहारादिना = अपहरणादिना, आदिपदाच्छलेन च; इच्छतः = वाञ्छतः, रमणमिति शेषः । अस्य-प्रतिनायकस्य, किञ्चित्किञ्चिद, शृङ्गाराभासम् अपि, प्रदर्शयेत्-प्रदर्शितं कुर्यात् । रूपककार इति शेषः ।। २४७ ।।
दिव्या:-देवाः, मां वाऽपि = मनुष्या वाऽपि, उद्धताः = अविनीताः, दश, पताकानायकाः="व्यापि प्रासङ्गिकं वृत्तं पताकेत्यभिधीयते ।" ( ४२५ पृ० ) इत्युक्त. लक्षणलक्षिताग अर्थप्रकृतिभेदरूपायाः पताकाया नायकाः,. नायकप्रतिनायकयोमिलिता इति शेषाः स्युः । परं = शत्ररूपं प्रतिनायक, संरम्भं क्रोधम्, आनीय = प्रापय्य; स्थितस्य नायकस्य, व्याजात-छलात अन्यकार्यस्येति शेषः, युद्धं निवर्तते ।। २४८ ।।
इसमें नायक और प्रतिनायक मनुष्य और देवता यथासंख्य नियमसे रहित होते हैं वर्षात् कहीं नायक मनुष्य और प्रतिनायक देवता तथा कहीं नायक देवता और प्रतिनायक मनुष्य होते हैं। वैसे वे नायक और प्रतिनायक धीरोद्धतके रूपमें कहे गये हैं, प्रतिनायक गुप्तरूपसे अनुचित कार्य करता है ।। २४६ ॥
वे ( नायक और प्रतिनायक) रमणकी इच्छा न करनेवाली दिव्य स्त्रीकी अरहार बादिसे इच्छा करते हैं, प्रतिनायकको कुछ कुछ शृङ्गाराभासका भी प्रदर्शन करना चाहिए ॥ २४७ ॥
इसमें देवता और मनुष्य उद्धत नायक और प्रविनायकको मिलाकर दश पताकानायक होते हैं । शत्रुरूप प्रतिनायकको क्रुद्ध बनाकर रहे हुए नायकके छलसे युद्ध टल जाता है ॥ २४ ॥
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षष्ठः परिच्छेदः
महात्मानो वधप्राप्ता अपि वध्याः स्यूरत्र नो । एकाङ्को देव एवात्र नेतेत्याहुः, परे पुनः ॥ २४९ ॥ दिव्यस्त्रीहेतुकं युद्धं, नायकाः पडितीतरे ।
मिश्र ख्याताख्यातम् । अन्यः प्रतिनायकः। पताकानायकास्तु नायकप्रतिनायकयोमिलिना दश । नायको मृगवदलभ्यां नायिकामत्र ईहते वान्छ: तीतीहामृगः।
यथा-कुसुमशेखरविजयादिः। अथाङ्क:उत्सृष्टिकाङ्क एकाङ्को नेतारः प्राकृता नराः ॥ २५० ॥
अत्र = ईहामृगे, महात्मानः = महाऽनुभावाः, वधप्राप्ता अपि-वधयोग्या अपि; नो वध्याः स्युः = वयोग्या न स्युरिति भावः । परमतं प्रदर्शयति-पुनः, परे = मन्ये आचार्याः, अयम् ईहामृगः, एकाऽङ्कः = एकोऽङ्को यस्मिन् सः, अत्र = अस्मिन्नीहामृगे, देवः = सुरः, एव नेता = नायकः, इति = एवम्, आहुः = कथयन्ति ॥ २४९ ।।
इतरे = अन्ये च, दिव्यस्त्रीहेतुकं दिव्यस्त्री (देवी) हेतुः ( कारणम् ) यस्मिस्तत; तादृशं युद्धं = संग्राम इति, तथा नायकः = नेतारः, षट् इति, आहुः ।
विवणोति-मिषमिति । नायकः = नेता, मृगवत् = हरिणवत्, अलभ्यां - दुष्प्राप्यां, नायिकामत्र ईहते वाञ्छनीति ईहामृग इति निर्वचनम् । तादृशो नायकोऽस्य (रूपकविक्षेपस्य ) अस्तीति ईहामृगः, "अर्शआदिभ्योऽच्" इत्यच्प्रत्ययः ।
अळू लक्षयति - उत्सष्टिका इति। अङ्कस्यैव केषांचिन्मते नामान्तरमुत्सृष्टिकाऽङ्कः, स एकाङ्कः, एकोऽङ्को यस्मिन् सः । अत्र-अङ्के, प्राकृताः साधारणाः; नराः = बहवो भनुष्याः, नेतारः = नायका भवन्ति ॥ २५० ।।
इसमें महात्मा लोग वधके योग्य होनेपर भी वध्य नहीं होते हैं । कुछ विद्वान्लोग इसमें एक ही अङ्क तथा देवता ही नायक होता है ऐसा कहते हैं ।। २४९ ।।
अन्य विद्वान्लोग इसमें दिव्य स्त्रीके लिए युद्ध होता है और नायक छः होते हैं. ऐसा मानते हैं ।
नायक मृगके समान अलम्य ( दुष्प्राप्य ) नायिकाकी ईहा ( इच्छा ) करता है. अतः इसे "ईहामृग" कहते हैं । जैसे कुसुमशेखरविजय आदि ।
प्रक-"उत्सृष्टिकाऽङ्क" वा "अङ्क" में एक ही अङ्क रहता है। उसमें साधारण बहुतसे मनुष्य नायक होते हैं ।। २५० ॥
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५५६
आहुः ।
साहित्यदर्पणे
रसोऽत्र करुणः स्थायी, बहुखीपरिदेवेितम् । प्रख्यातमितिवृत्तं च कविबुद्धया प्रपश्चयेत् ।। २५१ ॥ भाणवत्सन्धिवृत्यङ्गान्यस्मिञ्जय पराजयौ 1 युद्धं च वाचा कर्त्तव्यं निर्वेदवचनं बहु ॥ २५२ ॥ इमं च केचित् नाटकाद्यन्तः पात्यङ्कपरिच्छेदार्थमुत्सृष्टिकाङ्कनामानम्
अन्ये तु –'उत्क्रान्ता-विलोमरूपा सृष्टिर्यत्रेत्युत्सृष्टिकाङ्कः” । यथाशर्मिष्ठा ययातिः ।
अत्र = अस्मिन्न, स्थायी स्थैर्यशीलः, करुणो रसः, बहुस्त्रीपरिदेवितम् बहूनां (बहुलानाम् ) स्त्रीणां ( योषिताम् ) परिदेवितं ( विलापः ) भवेत् । कविः = कवयिता, प्रख्यात प्रसिद्धम्, नाट्यशास्त्र सिद्धान्ताऽनुसारं क्वचिदप्रख्यातमपि इतिवृत्तं = वर्णनीयं वस्तु, बुद्धघा = स्वमस्या, प्रपञ्चयेत् = विस्तारयेत् ॥ २५१ ॥
-
अस्मिन् = अङ्के, भाणवत् = भाणे यथा, सन्धिवृत्यङ्गानि = सन्धी ( मुख-: · प्रतिमुखे ) वृत्ती ( भारतीकैशिक्यौ ), अङ्गानि ( दशाऽपि लास्याऽङ्गानि ) भवेयुः । :जयपराजयो = नायकप्रतिनायकयोर्दर्शनीयाविति शेषः । वाचा = वचनेन; युद्धं = संग्रामश्च कर्तव्यं = विधेयं, न तु शस्त्रेणेति भाव: । बहु - अधिकं निर्वेदवचनं - स्वाऽवमाननसूचकं वाक्यं च कविना कर्तव्यमिति शेषः ।। २५२ ।।
विवृणोति - हममिति । इमम् = अङ्कनामकं रूपकविशेषं, केचित् कतिपय विद्वांसः, नाटकाद्यन्तः पात्य ङ्कपरिच्छेदाऽर्थं नाटकादीनाम् ( रूपकविशेषादीनाम् ) अन्तःपातिनः ( अन्तःपतनशीलाः ) ये अङ्का:, तेषां परिच्छेदाऽर्थम् ( व्यावृत्यर्थम् ) उत्सृष्टिकाङ्कनामानम् = उद्गता ( उत्क्रान्ता ) नाटकाद्यङ्कात् भिन्नरू, सृष्टि: ( निर्मिति : ) यस्य स उत्सृष्टिकः, स चाऽसावङ्कः इति नामान्तरमिति भावः । अन्ये तु | = अपरे तु, उत्क्रान्ता = विलोमरूपा, प्राकृतनायकत्वाद्विपरीतरूपेति भाव:, सृष्टिः = रचना यस्य स चासो अङ्क इति उत्सृष्टिकाङ्कः ।
इसमें स्थायी करुणरस होता है, और बहुतसी स्त्रियोंका विलाप रहता है । इसमें प्रसिद्ध इतिवृत्तको कवि अपनी बुद्धिसे विस्तृत करता है ।। २५१ ।।
इसमें भाणके समान मुख आदि सन्धियों, भारती आदि वृत्तियाँ और लास्के दश अङ्ग होते हैं । इसमें नायक, और प्रतिनायकके जय और पराजयको दिखानो चाहिए। वचनसे ही युद्ध करना चाहिए और अपनी अवमानना के सूचक अधिक वाक्यको दिखलाना चाहिए ।। २५२ ।।
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षष्ठः परिच्छेदः
अथ वीथीवीथ्यामेको भवेदः, कश्चिदेकोज कल्प्यते । आकाशभाषितैरुक्तश्चित्रां प्रत्युक्तिमाश्रितः ।। २५३ ॥ सूचयेद्भरि शृङ्गारं किश्चिदन्यानरसान् प्रति । मुखनिर्वहणे सन्धी अथप्रकृतयोऽखिलाः ॥ २५४ ॥
कश्चिदुत्तमो मध्यमोऽधमो वा। शृङ्गारबहुलत्वाचास्याः केशिकी वृत्तिबहुलत्वम् ।
अस्यास्त्रयोदशाङ्गानि निर्दिशन्ति मनीषिणः । उद्घात्य(त)कावलगिते प्रपञ्चस्त्रिगतं छलम् ॥ २५५ ॥
वीथी लक्षति-वीथ्यामिति । वीथ्यामेकोऽङ्को भवेत् । अत्र = वीथ्याम् । कश्चित् = कोऽपि, उत्तमो मध्यमोधमो वा, एकः = नायकः, कल्प्यते = कल्पयित्वा वर्ण्यते । स च उक्तः = अभहितप्रकारः, आकाशभाषितः = "किं ब्रवीयित्या"कारक.( ४९१ पृ०) लक्षणलक्षितर्नाटयोक्तिविशेषः, चित्राम् = अद्भुतस्वरूपा, प्रत्युक्ति = प्रतिवचनम्, आश्रितः = कृताधपः सन् ।। २५३ ।।
शृङ्गारम् = आदिरसं, भूरि = अधिक यथा तथा, अन्यान् - अपरान्, रसान् अपि, किंचित, सूचयेत् = सूचनां कुर्यात् । मुखनिर्वहणे सन्धी, स्याता = भवेतां, तथा बखिलाः = समस्ताः, अर्थप्रकृतयः = प्रयोजन सिद्धिहेतवः, बीज-बिन्दु-पताका-प्रकरीकार्यरूपाः, स्युः ।। २५४ ॥
विवृणोति-कश्चिदिति । अस्याः = वीथ्याः।
वीथ्यङ्गान्युद्दिशति-प्रस्या इति। मनीषिणः = विद्वांसः, अस्याः = वीथ्याः त्रयोदशाऽङ्गानि, निर्दिशन्ति । तानि यथा-उद्घात्यकम्, अवलगितं, प्रपञ्चः, त्रिगत, छलम् ॥ २५५ ॥
पोथी-वीथी में एक अङ्क होता है इसमें किसी उत्तम, मध्यम वा अधम नायककी कल्पना होती है । वह पूर्वोक्त प्रकारवाले आकाशभापितोंसे विचित्र प्रत्युक्तिका आश्रय कर ।। २५३ ।।
शङ्गारको अधिक भावसे और अन्य रसोंको भी सूचित करे । इसमें मुख और निर्वहण सन्धियां और बोज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य ये सब अर्थप्रकृतियां होती हैं ।। २५४ ।।
शृङ्गारकी अधिकता होनेसे इसमें कैशिकी वृत्तिकी प्रचुरता होती है । विद्वान् . लोग इसके तेरह अङ्गोंका निर्देश करते हैं
उखात्यक, अवलगित, प्रपञ्च, विगत छल ।। २५५ ॥
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साहित्यदर्पणे
वाक्केल्यधिबले गण्डमवस्यन्दितनालिके ।
असत्प्रलापव्याहारमृद(माद)वानि च तानि तु ॥ २५६ ॥ तत्रोद्घात्य(त)कावलगिते प्रस्तावनाप्रस्तावे सोदाहरणं लक्षिते ।
मिथो वाक्यमसद्भूतं प्रपश्चों हास्यकुन्मतः । यथा विक्रमोर्वश्यामबलभीस्थविदूषकचेटथोरन्योन्यवचनम् ।
त्रिगतं स्यादनेकार्थयोजनं श्रुतिसाम्पतः ॥ २५७ ॥ यथा तत्रैव'राजा--
सर्वक्षितिभृतां नाथ! दृष्टा · सर्वाङ्गसुन्दरी ।
वाक्केलिः, अधिबल, गण्डम्, अवस्यन्दितं; नालिका, असत्प्रलापः; ब्याहारा मृदवं चेति ॥ २५६ ॥
तत्रोद्घाल्यकावलगितयोः (४०३, ४०८ पृ०) प्रस्तावनाऽवसरे सोदाहरणं लक्षितत्यादवसरप्राप्त प्रपञ्च लक्षयति-मिथ इति । मिथ:-परस्परम, असतभूतं मिथ्यास्वरूप, हास्यकृत-हास्यकारकं वाक्यं पदसमूहः, प्रपञ्चः = तमामको वीथ्यङ्गभूतः, मतः ।
प्रपञ्चमुदाहरति-पथेति । वलभी = चन्द्रशाला, कर्वस्थितप्रकोष्ठविशेषः ।
विगतं लक्षयति-त्रिगतमिति । श्रुतिसाम्यतः-शन्दश्रवणसःम्यात, अनेकाऽर्थयोजनम् = अनेकाऽर्थप्रत्यायनं, 'त्रिगत' नाम वीथ्यङ्गम् ।। २५७.॥
- त्रिगतमुदाहरति-सर्वेति । प्रश्नपक्षे हे सर्वक्षितिभृतां नाथ ! = हे सकलपर्वतानां स्वामिन् ! अस्मिन्, रम्ये-रमणीये, वनान्ते-काननकमागे, मया, विरहिता= सञ्जातविरहा, सर्वाऽङ्गसुन्दरी = सकलाऽवयवमनोहरा, रामा = काऽपि स्त्री, स्वया
___ वाक्कलि, अधिवल, गण्ड, अवस्यन्दित, नालिका, अरुत्प्रलाप, व्याहार, मृदव ॥ २५६ ॥
इनमें उद्धात्यक और अवलगित प्रस्तावनाके वर्णनके अवसरमें उदाहरणके -साथ लक्षित हुए हैं।
प्रपञ्च-परस्परमें मिथ्याभूत हास्यकारक वाक्यको "प्रपञ्च" कहते हैं।
जैसे विक्रमोर्वशीमें चन्द्रशालामें रहे हुए विदूषक और चेटीका परस्पर वाक्य (प्रपञ्च ) माना गया है।
विगत-शब्दश्रवणकी तुल्यतासे वहाँपर अनेक अर्थोकी योजना होती है, उसे त्रिगत" कहते हैं ।। २५७ ॥
जैसे वहीं (विक्रमोवंशी ) पर राजा-हे संपूर्ण पर्वतोंके स्वामिन् ! इस
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षष्ठः परिच्छेदः
रामा रम्ये वनान्तेऽस्मिन् मया विरहिता त्वया ॥
(नेपथ्ये तथैव प्रतिशब्दः) राजा-कथं दृष्टेत्याह ।' अत्र प्रश्नवाक्यमेवोत्तरत्वेन योजितम् । नटादित्रितयविषयमेवेदमिति कश्चित् ।।
प्रियाभैरप्रियाक्यर्विलोभ्य च्छलना च्छलम् । यथा वेण्याम्_ 'भीमार्जुनौ
कर्ता धूतच्छलानां, जतुमयशरणोद्दीपनः, सोऽभिमानी भवता, दृष्टा = विलोकिता? इति काकुः । उत्तरपक्षे तु-हे सर्वक्षितिभृतां वाथ-समस्त भूपतिपते !; अस्मिन्, रम्ये-मनोहरे, वनान्ते-अरण्यप्रान्ते, त्वया भवता, विरहिता= संजातविरहा, सर्वाङ्गसुन्दरी रामा मया दृष्टा ।
नेपथ्य इति । तत्र एव = पर्वत एव, प्रतिशब्दः = "सर्वक्षितिभूतो नाप" इत्याचाकारकः प्रतिध्वनिः भवतीति शेषः । राज = पुरुरवाः ।
त्रिगतपदव्युत्पत्तिमाह-नटादीति । इदं - त्रिगतं, नटादित्रितयविषयं - नट: (सूत्रधारः) आदिपदेन नटीप्रतिनट्योहणं, तत्रितयविषयम् = तत्त्रयविषयम् । कश्चित् = दशरूपककारः।
छलं लक्षयति-प्रियाभरिति । प्रियामः - प्रियस्वरूपः, आपातत इति शेषः । अप्रियः अप्रियस्वरूपैः वाक्यैः पदसमूहैः, विलोभ्य-लोभं जनयित्वा, छलना-प्रतारणं, "छल" नाम वीथ्यङ्गम् । . छलमुदाहरति-कर्तेति । सुयोधनाऽनुजीविनः प्रति भीमार्जनयोक्तिरिति । धु तच्छलानाम् = अक्षक्रीडावञ्चनानां, कर्ता = कारकः, जतुमयशरणोद्दीपनः = अतुमयं वनके प्रान्तमें मेरे विरहसे युक्त सर्वाङ्गसुकरीस्त्रीको तुमने देखा है ? यहाँपर प्रश्नके पक्षमें "सर्वक्षितिभृतां नाथ" इन पदोंसे पर्वत लिया जाता है।
- उत्तर पक्ष में हे संपूर्ण राजाओंके स्वामिन् ! इस वनके प्रान्तमें तुमसे विरहिणी सर्वाङ्ग सुन्दरी स्त्रीको मैंने देखा। इस प्रकार यहाँपर "सर्वक्षितिभृतां नाथ" इन पदोसे संपूर्ण राजाओंमें श्रेष्ठ ऐसा अर्थ लिया जाता है। (नेपथ्यमें उसी तय प्रतिध्वनि गुंजती है)। राजा-कैसे "देखा" ऐसा कहा ? इस पबमें प्रश्न वाक्यको ही उत्तर वाक्यके रूपमें योजित किया है। नट (सूत्रधार) नटी और प्रतिनट (पारिपाश्विक) इन तीवोंके विषयमें यह होता है ऐसा कोई (दशरूपककार ) कहते हैं।
छल-प्रियके सदृश अप्रियवाक्योंसे लुभाकर छलनेको "छल" कहते हैं। जैसे वेणी (संहार ) में भीमसेन और मर्जुन-(दुर्योधनके अनुचरोंको
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साहित्यदर्पणे
राजा दुःशासनादेर्गुरुरनुजशतस्याङ्गराजस्य मित्रम्। कृष्णाकेशोत्तरीयव्यपनयनपटुः, पाण्डवा यस्य दासाः.
क्षाऽऽस्ते दुर्योधनोऽसौ कथयत, न रुषा द्रष्टुमभ्यागतौ स्वः ।। अन्ये त्वाहुश्छलं किश्चित्कार्यमुद्दिश्य कस्यचित् ।। २५८ ।। उदीयते यदूचनं वचनाहास्यरोषकत् ।
वाक्कलिहास्यसम्बन्धो द्वित्रिप्रत्युक्तितो भवेत् ।। २५९ ॥ ( लाक्षानिमितम् ) यत् शरणं । गृहम् ) तस्य उद्दोपनः (दाहकः ) । कृष्णाकेशोतरीयव्यपनयनपटुः = कृष्णाया: (द्रौपचाः) केशाः ( कचाः ) उत्तरीयम् ( अधोंशुकम् ) तेषां व्यपनयनम् ( बाकर्षणम् ) तस्मिन् पटुः ( कुशलः), अभिमानी अभिमानशाली, पाण्डवाः = पाण्डुपुत्रा युधिष्ठिरादयः, यस्य = दुर्योधनस्य, दासाः = भुत्या इव, अधीना इति भावः । दुःशासनादेः दुशासनप्रभृतेः, अनुजशतस्य = अवरजशतस्य, मुरुः = श्रेष्ठः, अङ्गाराजस्य = अङ्गदेशाऽधिपतेः, कर्णस्येति भावः, मित्र = सखा। राजा = भूपः, असो = विप्रकृष्टस्थः, सः = प्रसिद्धः दुर्योधनः, क्य = कुत्र, आस्ते भवतिष्ठते, कथयत = बूत, यूयमितिशेषः । एषा = कोपेन, द्रष्टुं = विलोकपितुन बभ्यागतो-न सम्मुखमायातो, स्वः - भवावः, शातिप्रणयेनेवाऽऽगती स्व इति भावः । स्रग्धरा वृत्तम् । अत्र द्रष्टमेव न रुषेति प्रियसदृशेन वाक्येन विलोभ्य प्रतारणात "छलम्"।
छले मतान्तरमाह-प्रन्ये विति । कस्यचित्-नाय, किञ्चित् किमपि, कार्यकृत्यम्, उद्दिश्य = अनूध वषनाहास्यक्त - प्रतारणाहासकारकं यत्, वचनं = वाक्यम्। वीर्यते -- उच्यते, तत् "इलं" तद् वीभ्यङ्गम् इति, अन्ये = अपरे आचार्या आहुः ।
वाक्केलिं लक्षति-वाक्कलिरिति । द्वित्रिप्रत्युक्तितः = वारद्वयं = वारत्रयप्रत्युक्तितः । “वित्रीत्युपलक्षणं, तेन बहुवारप्रत्युत्तरतः इति भावः । हास्यसम्बन्धः = हाससम्पर्कः, "वाक्कलि"नाम वीथ्यङ्गम् । वाचा (वचनेन ) केलिः (क्रीडा) इति व्युत्पत्तिः ।। १५९ ॥ कहते हैं ) जुएके छलको करनेवाला, लाखके घरको जलाने वाला, द्रौपदीके केशों और वस्त्रके आकर्षणमें कुशल, अभिमानी, और पाण्डव जिसके दास हैं दुःशासन आदि सौ भाइयोंका बड़ा भाई अङ्गराज ( कर्ण) का मित्र वह राजा दुर्योधन कहाँ है ? कहो। हमलोग क्रोधसे नहीं (प्रेमसे ) देखनेके लिए आये हैं ।।
मतान्तर-कुछलोग कहते हैं-किसीके कुछ कार्यका उद्देश्य कर प्रतारणा और हास्य करनेवाले वचनको "छल" कहते हैं ।
बाकेलि-दो बार वा तीन बार ( अधिकबार ) भक्ति और प्रत्युक्ति से जो हास्यका सम्बन्ध है उसे : वाक्कलि" कहते हैं ।। २५९ ॥
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. षष्ठः परिच्छेदः
५६११
द्वितीत्युपलक्षणम् । यथा'भिक्षो ! मांसनिषेवणं प्रकुरुषे, किं तेन मद्यं विना ?
मद्यं चापि तव ? प्रियं प्रियमहो। वाराङ्गनाभिः सह । वेश्याऽप्यर्थरुचिः कुटस्तव धनं ? द्यूतेन चौर्यण वा,
चौर्यचूतपरिग्रहोऽपि भवतो नष्टस्य कान्या गतिः ?॥' केचित-'प्रक्रान्तवाक्यस्य साकाङ क्षस्यैव निवृत्तिक्केिलिः' इत्याहुः ।
वाक्कलिमुदाहरति-"भिक्षो" इति । मांस भक्षयन्तं भिक्षु प्रति कस्यचिद् गृहिणः प्रश्ना भिक्षुकृतान्युत्तराणि । भिक्षो = भिक्षाजीविन ! मांसनिषेवणं = पसल भक्षणं, प्रकुरुषे विधत्से ?, भिक्षुरुत्तरयति-मद्य विना = सुरां विना, तेन - मांसनिषेवणेन, कि ?, गृहिण उक्तिः - मद्य-सुरा च, तव = भवतः, प्रियम् = अभीष्टं ? भिक्षुरुत्तरयति- अहो ! आचर्य, न तावदेवेति भावः । वाराङ्गनाभिः = वारस्त्रीभिः, सह = समं, मद्य मे प्रियमिति भावः ।
गृही पृच्छति- वेश्या - वारस्त्री, अर्थरुविः = अर्थे ( धने ) रुचिः ( स्पृहा) यस्या. सा, धनाऽनुरागिणीति भावः । “अमिष्वङ्गे स्पृहायां च गमस्तो च रुचिः स्त्रियाम्” इत्यमरः । तव, धनं = द्रव्यं, कुतः कस्मात्स्थानात, सम्पद्यत इति शेषः । भिक्षुत्तरयति-धू तेन अक्ष क्रीडया, चोर्येण वा = स्तेनकर्मणा वा, नं सम्पद्यत इति शेषः । गृही पृच्छति-भवतः = तव, चौर्या तपरिग्रहोऽपि-स्तेयाऽक्षक्रीडास्वीकारोऽपि, अस्तीति शेषः । भिक्षुः समादधाति-नष्टस्य-भ्रष्टस्य जनस्य अन्या = अपरा, का, गति: उपायः । अत्र बहुविधोक्तिप्रत्युक्तितो हास्यसम्बन्धाद्वावके लिः । मान्तरमाहकेचिदिति । केचित् = केऽपि विद्वांसः, साकाङ्क्षस्य एव = अभिधानाऽपर्यवसानसहित तस्य एव, प्रक्रान्तवाक्यस्य, आरब्धवचनस्य, निवृत्तिः समाप्तिः "वाक्कलिः" । अन्ये च%3
दो और तीन उपलक्षण है। जैसे
भिक्षुसे किसीकी. उक्ति और प्रत्युक्ति होती है। उक्ति-"भिक्षुक ! तुम मांसका सेवन करते हो?" प्रत्युक्ति-"मद्य के विना उस ( मांस ) से क्या होता है ?" उक्ति"मद्य भी तुम्हे प्रिय है ?" प्रत्युक्ति-"अहो ! वेश्याओंके साथ मद्य प्रिय है। उक्ति-"वेश्या तो धनमें ( मात्र ) अनुराग रखनेवाली होती है, तुम्हारे पास धन कैसे आया?"।
प्रत्यक्ति-जूएसे वा चोरीसे (धन आता है)। उक्ति-तब फिर चोरी और जुएको भी तुम सेवा करते हो ?" प्रत्युक्ति.."भ्रष्ट पुरुषका और क्या उपाय है"। . मता तर-कुछ विद्वान् आकाङ्क्षायुक्त आरब्ध वाक्यकी निवृत्ति को ३६ सा०
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५६२ .
साहित्यदपणे
बन्ये च अनेकस्य प्रश्नस्यकमुत्तरम्।'
अन्योन्यवाक्याधिक्योक्तिः स्पर्धयाधिवल मतम् । यथा मम प्रभावत्याम्वजनाभः
(अस्य वक्षः क्षणेनैव निर्मध्य गदयानया।
लीलयोन्मूलयाम्येष भुवनद्वयमद्य वः।)
प्रद्युम्नः-अरे रे असुरापसद ! अलममुना बहुप्रलापेन । मम खलु_ अद्य प्रचण्डभुजदण्डसमर्पितोरुकोदण्डनिर्गलितकाण्डसमूहपात: पास्तां समस्तदितिजक्षतजोक्षितेयं क्षोणिःक्षणेन पिशिताशनलोभनीया।।' अपरे च, अनेकस्य = बहुविधस्य, प्रश्नस्य -- अनुयोगस्य, एकम्, उत्तरं = प्रतिवाक्यं "वाक्कलिः", इति वदन्तीति शेषः । - अधिबलं लक्षयति-प्रन्योन्यति। स्पर्धया -- पऽभिभवेच्छया, अन्योन्य. वाक्याधिक्योक्ति: अन्योन्यवाक्यः ( परस्परवचनः ) आधिक्योक्तिः ( मिथः प्रधानता. प्रतिपादनम् ) "अधिबलं" नाम बीपङ्गम् ।
अधिबलमुदाहरति-प्रस्येति । अध्यवसायकनामकस्य नाटयाऽलङ्कारस्योदाहरणे व्याख्यातपूर्व पद्यमिदम् ( ५२९ पृ.)।
प्रद्युम्न इति । असुराऽपसद--हे असुराऽधम ! वज्रनाभेति भावः ।
प्रयेति । अद्य = अस्मिन् दिने, प्रचण्डेत्यादिः० प्रचण्ड: अतिकठोरः) यः भुदण्ड: ( बाहुदण्डः ) तस्मिन्, समर्पितम् (संस्थापितम् ) उरु ( महत् ) यत् कोदण्डं ( धनुः ) तस्मात् निर्गलितः (निःसृतः) यः काण्डसमूहः ( बाणवृन्दम् ); तस्य पातैः ( पतनः ) इयं = सनिकृष्टस्था, क्षोणी-भूमिः, क्षणेन = अल्पकालेनैव समस्तदितिजक्षतजोक्षिता = समस्ता: = (निखिलाः ) ये दितिजाः ( दैत्याः ) तेषां "वाक्कलि" कहते हैं । और विद्वान् अनेक प्रश्नों के एक उत्तरको "वाक्कलि" कहते हैं ।
प्रषिवल-स्पर्धा ( संघर्ष ) से परस्परमें आधिक्यकी उक्तिको अधिबल" कहते हैं।
जैसे ग्रन्थकारकी प्रभावती ( नाटिका ) में वजनाम___"इस प्रद्युम्नके वक्षस्थल (छाती) को इस नदासे लीला ( खिलवाड़) से ही मथन कर तुम्हारे दोनों लोकों ( पृथिवी और पाताल ) को यह मैं उन्मूलित कर देता हूँ।
प्रद्युम्न-अरे दैत्याऽश्म ! इस अधिक बकासको बन्द करो। मेरे-गाज प्रचण्ड बाहुदण्डोंमें रखे गये बड़े धनुषसे निकले हुए बाणोंके प्रहारोंसे
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षष्ठः परिच्छेदः
गण्डं प्रस्तुत संबन्धि भिन्नार्थं सत्वरं वचः || २६० ॥
यथा वेण्याम् -
'राजा
अध्यासितु तव चिराज्जघनस्थलस्य पर्याप्तमेव करभोरु ! ममोरु
युग्मम् ॥
.
अनन्तरम् (प्रविश्य)
कचुकी । देव ! भग्नं भग्नम् - इत्यादि ।'
अत्र रथकेतनभङ्गार्थं वचनमूरुभङ्गार्थे सम्बन्धे सम्बद्धम् |
५६३
क्षतजै: ( रुधिरैः ) उक्षिता (सिक्ता सती, पिशिताशनलाभनीया = विशिताऽशनानां (मांसभक्षकाणां शृगालादीनामिति भाव: ) लोभनीया ( लोभोत्पादिका ), आस्तां भवतु । वसन्ततिलका वृत्तम् । अत्र स्वधंया मिथ आधिक्यस्योक्तेरधिबलम् ।
गण्डं लक्षयति--- गण्डमिति । प्रस्तुतसम्बन्धि प्रकृताऽर्थसम्बद्ध, भिन्नाऽर्थं म्= अन्याऽर्थबोधकं, सत्वरं = त्वरासहित, वचः = वचनं, "गण्डम्" भवति ॥ २६० ॥
गण्ड मुदाहरति- प्रध्यासितुमिति । राज्ञो दुर्योधनस्य स्वप्रियां भानुमती अत्युक्तिरियम् । अस्य पद्यस्य पूर्वाद्धं -
"लोलांशुकस्य पवनाssकुलितांऽशुकान्तं त्वदृष्टिहारि मम लोचन बान्धवस्य । "
हे करभो ! मम ऊरुयुग्मं - सक्थियुगलं, तव जघनस्थलस्य = पूर्व भागस्य, चिरान् = बहुकालं यावत्: अध्यासितुम् = आश्रयितुं रमणाऽर्थमिति शेषः । पर्याप्तम् एव = समर्थम् एव ( बेणी० २ - २३ ) । वसन्ततिलका वृत्तम् ।
लक्ष्ये लक्षण संगमयितुमुत्तरवाक्यमाह - अनन्तरमिति । "देव ! भग्नं भग्नम् " इति वाक्यम् ।
विवृणोति--अत्रेति । अत्र अस्मिन् वाक्ये । रथकेतनभङ्गार्थे - रथकेतनस्य भङ्गार्थम् ( आमनार्थम् ) वचनं वाक्यम् उक्तं सदिति शेषः ) ऊरुभङ्गाऽर्थे दुर्यो सङ्गिरूपेऽर्थे सम्बद्धं = सम्बन्धयुक्तम् ।
यह धरती कुछ हो क्षणमें सपूर्ण दैत्योंके रुधिरसे सिक्त होकर मांसभक्षी स्यार आदि पशुओंको लोभविषय हो जाये ॥
गण्ड - प्रस्तुत से सम्बद्ध भिन्नार्थबोधक त्वरायुक्त वचनको "गण्ड" कहते हैं २६० जैसे वेणी (संहार) में राजा ( दुर्योधन ) --
'हे सुन्दरि ( भानुमति ! ) यह मेरा ऊरुयुग्म तुम्हारे जघन स्थलके बैठने के लिए पर्याप्त ( समर्थ ) है ।" इसके अनन्तर ( प्रवेश कर ) कञ्चुकी – महाराज ! टूट गया टूट गया इत्यादि । यहाँपर रथका ध्वज भङ्ग हो गया इस वात्पर्यका वचन करु. भङ्ग रूप अर्थके सम्बन्ध में सम्बद्ध है ।
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५६४
साहित्यदपणे
व्याख्यानं स्वरसोक्तस्मान्यथावस्यन्दितं भवेत् । यथा छलितरामे
'सीता-जाद ! काल्लं क्खु उ आज्झाएण गन्तव्वम् , तर्हि सो राजा विणएण पणयिदव्वो।
लवः-अथ किमावाभ्यां राजोपजीविभ्यां भवितव्यम् । सीता-जाद ! सो क्खु तुम्हाणं पिदा। लवः-किमावयो रघुपतिः पिता ?
सीता-(साशङ्कम् ) मा अण्णधा सङ्कद्धम् ,णक्खु तुम्हाणं, सअलाए ज्जेव पुहवीएत्ति'।
अवस्यन्दितं लक्षति-व्याख्यानमिति । स्वरसोक्तस्य = स्वरसेन (निजाभिप्रायेण ) उक्तस्य (कथितस्य) वाक्यस्येति शेषः । अन्यथा प्रकारान्तरेण, व्याख्यानप्रतिपादनम् "अवस्यन्दितं" भवेत् ।। १६१ ॥
अवस्यन्दितमुदाहरति-यथेति । सीता-"जात ! कल्यं खलु उपाध्यायेन गन्तव्यं तहि स राजा विनयेन पणायितव्यः ।" सीता-"जात | स खलु युष्माकं पिता"। सीता"मा बन्यथा शङ्कध्वम्। न खलु युष्माकं, सकलाया एव पृथिव्या इति" इति संस्कृतच्छाया। जात-पुत्र !, कल्यं प्रभातं, यथा तथा । "प्रत्यूषोऽहर्मुखं कल्यमुष:प्रत्युषती अपि" इत्य. मरः । उपाध्यायेन=गुरुणा सह, युवाभ्यामिति शेषः । “अओज्झाए" इति पाठान्तरे "अयो. ध्यायाम्” इति संस्कृतच्छाया । सः प्रसिद्धः, राजा-भूपाल:, राम इत्यर्थः। विनयेनःनम्रतया, पणायितव्यः स्तोतन्यः, अत्र बहुभिव्याख्यातृभिः, "पणायितव्य" इत्यस्य व्यव. हर्तव्य इति व्याख्यातं, परं तदपव्याख्यान, यतः "पण व्यवहारे स्तुती चे "ति पणधातो. व्यवहारस्तुत्यर्थकत्वेऽपि स्तुत्यर्थकादेव पणधातो: "गुपूधूपविच्छिपणिनिभ्य आय" इति सूत्रण आयप्रत्ययो भवति । अत एव"पनिसाहचर्यात्पणेरपि स्तुतावेवाऽऽयप्रत्यय" इति दीक्षितचरणाः । रजोपजीविभ्यां राजोपजीवनशीलाभ्याम् । शङ्खध्वंशकां कुरुध्वम् ।
अवस्यन्दित-अपने अभिप्रायसे कहे गये वचनका अन्यथा ( दूसरे ही अर्थ में ) व्याख्यान करनेको "अवस्यन्दित" कहते हैं। - जसे छलितराम ( रूपक)में-सीता ( लवको कहती हैं )- पुत्र ! प्रत:कालमें तुम्हें उपाध्यायके साथ जाना चाहिए। उस समय राजा ( राम ) की विनयसे स्तुति करनी चाहिए। लव-"अब क्या हम दोनों ( भाइयों ) को राजाका सेवक होना पड़ेगा?" | सीता-"पुत्र ! वे ( राजा राम ) तुम्हारे पिता हैं"। लव-क्या हम दोनोंके रघुपति ( रामचन्द्रजी ) पिता हैं ?"।
सीता-(बासनाके साथ ) दूसरी शङ्का मत करो। ( वे राम ) तुम्हारी ही
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षष्ठः परिच्छेदः
प्रहेलिकैव हास्येन युक्ता भवति नालिका ॥ २६१ ॥ संवरणकार्युत्तरं प्रहेलिका। यथा रत्नावल्याम्'सुसङ्गता-सहि ! जस्स किदे तुमं आअदा सो इद ज्जैव चिठ्ठदि । सागरिका-कस्स किदे अहं आअदा ? सुसङ्गता-णं वन चित्तफलअस्स'। . अत्र त्वं राज्ञः कृते आगतेत्यर्थः संवृतः ।
असत्प्रलापो यद्वाक्यमसंबद्धं तथोत्तरम् ।
अगृह्णतोऽपि मूर्खस्य पुरो यच्च हितं वचः ॥ २६२ ॥ बत्र "स खलु युष्माकं पितेति कथनात् लगे रामं पितरं ज्ञास्यतीत्याशया "सकलाया एव पृथिव्याः" पालकत्वेन पिता इत्यन्यथा व्याख्यानादवस्यन्दितं नाम वीव्यङ्गम् ।
नालिका लक्षयति-प्रहेलिकैवेति । हास्येन युक्ता प्रहेलिका = संवरणकारि ( अर्थगोपनकारि ) उत्तरम्, एवं "नालिका" भवति ।। २६१ ॥
___नालिकामुदाहरति-यति । सुसंगता-"सखि ! यस्य कृते त्वमागता स इह एव तिष्ठति" । सागरिका-"कस्य कृते अहमागता?" सुसंगता-"ननु खलु चित्रफलकस्य ।" इति संस्कृतच्छाया।
लक्ष्ये लक्षणं संगमयति-प्रति। अत्र = इह "राज्ञः कृते आगते"त्यर्थस्य संवरणार्थ "ननु खलु चित्रफलकस्य" इति वाक्येन संवरणकायुतराव "नालिका" नाम वीथ्यङ्गम् ।
असत्प्रलापं लक्षपति-प्रसत्प्रलाप इति । असत्प्रलापस्त्रिविधः, तत्राद्ययद्वाक्यं = पदसमूहः, असम्बद्धं = पूर्वाऽपरसम्बन्धरहितं, द्वितीयं-यह उत्तरम् असम्बद्ध, तथा तृतीयं--अगृहितः अपि = न स्वीकुर्वतः अपि, हितं वच इति शेषः, मूर्खस्य - नहीं समस्त पृथिवीके पिता ( पालक ) हैं।
नालिका-हास्यसे युक्त प्रहेलिका (पहेली) ही "नालिका" होती है ।।२६१॥ गोपन करनेवाला उत्तर "प्रहेलिका" ( पहेली ) होती है।
उदा०-जैसे रत्नावलीमें- सुसंगता ( सागरिकाको )-"हे सखि ! जिसके लिए तुम आई हो वह यहींपर रहता है।
सागरिका-"मैं किसके लिए आई हूँ?"। सुसंगता-इसी चित्रके लिए। यहाँपर "तुम राजाके लिए आई हो" यह बात संवृत (गोपित ) हैं ।
- प्रसत्प्रलाप-असत्प्रलापके तीन भेद होते हैं। १ जो वाक्य असम्बद्ध है। २ इसी तरह जो उत्तर असम्बद्ध है। ३ ग्रहण न करनेवाले मूर्खको जो हित वचन कहा
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५६६
साहित्यदर्पणे
तत्राद्यं यथा मम प्रभावत्याम् -
'प्रद्युम्नः -- ( सहका रवल्ली मवलोक्य सानन्दम् ) अहो कथमिहैव
अलिकुलमखुलकेशी परिमल बहला रसावहा तन्वी । किसलयपेशलपाणिः कोकिलकलभाषिणी प्रियतमा मे ॥'
एवमसंबद्धोतरेऽपि ।
तृतीयं यथा - वेण्यां दुर्योधनं प्रति गान्धारीवाक्यम् । बालिशस्य, पुरः - अग्रे, यच्च हितं हितकारकं वचः = वचनं, तदपि "असत्प्रलापो नाम” वीथ्यङ्गम् ।। २६२ ॥
तत्राद्यमुदाहरति यथेति । सह्कारवल्लीम् = अतिसौरभात्वताम् । प्रलिकुलेति । प्रम्नस्य सहकार वल्ली मवलोक्य प्रभावती भ्रमादुक्तिरियम् । अलिकुलमञ्जुलकेशी = अलिकुलं ( भ्रमरसमूहः ) इव मञ्जुला: ( मनोहरा . ) केशाः (कुन्तलाः) यस्याः सा, “स्वाऽङ्गच्चोपसर्जनादसयोगोपधात्" इति ङीष् ( वैकल्पिक: ) । परिम• लबहुला = परिमल: ( जनमनोहरो गन्धः ) बहल: ( प्रचुरः ) यस्याः सा । रसाबहा रसम (अनुरागम् ) आवहूति ( धारयति ) इति । तन्वी = कृशाऽङ्गी । किसलय पेशलपाणि: - किसलयम् (पल्लवम् ) इत्र पेशल: ( सुन्दर: ) पाणि: ( करः ) यस्याः सा, "चारी दक्षे च पेशल:" इत्यमरः । कोकिलकलभाषिणी = कोकिलवत् ( पिकवत् ) कलम् (अव्यक्तमधुरम् ) भाषते तच्छीला । णिनिप्रत्ययः । मे मम प्रियतमा दयिततमा, प्रभावतीति शेषः । अत्र सहकारवल्ल्यां प्रद्युम्नस्य स्वप्रियारोपकं वाक्यमसम्बद्धमतोऽसत्प्रलापस्येदमेकमुदाहरणम् ।
एवमसम्बद्धोत्तरे द्वितीयमुदाहरणम् । तृतीयं यथा वेण्यां (वेद्वारे) बुयोधनं प्रति गान्धारीवाक्यम् ।
-
जाता है वह भी असत्प्रलाप हे ।। २६२ ।।
उनमें पहला (असत्प्रलाप ) जैसे - ग्रन्थकारकी प्रभावती में प्रद्युम्न - ( कलमी आमकी लताको देखकर आनन्दके साथ, अहो ! कैसे यहींपर ।
मरसमूहके समान सुन्दर केशोंवाली वा ( सहका वल्ली - पक्ष में) प्रमर समूहरूप सुन्दर केशोंवाली, प्रचुर सुगन्धवाली, अनुरागवाली ( सहकार वल्ली - पक्ष में ) रस से परिपूर्ण, पतली, पल्लवके समान सुन्दर करवाली, 'कोकिलके समान मधुरभाषिणी, ( सहकारवल्लीपक्ष में ) जिसकी कोयल ही मधुरभाषिणी है वैसी मेरी प्रियतमा है । (१)
वैसे ही असम्बद्ध उत्तरमें भी असत्प्रलापको जानना चाहिए ( २ ) ।
तीसरा जैसा - वेणी (संहार) में दुर्योधनको गान्धारीका वाक्य (असत्प्रलाप ) है ।
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षष्ठः परिच्छेदः
व्याहारो यत्परस्यायें हास्यक्षाभकरं वचः । यथा मालविकाग्निमिमित्रे-(लास्यप्रयोगावसाने मालविका निर्गन्तुमिच्छति)।
विदूपक:-मा दाव उवदेसमुद्धा गमिस्ससि । (इत्युपकमण)
गणदासः-(विदूषकं प्रति ) आर्य ! उच्यतां यस्त्वया क्रमभेदो लक्षितः।
विदृपक:-पढमं बम्भणपूआ भोदि, सा इमाए लङधिदा (मालविका स्यमते )' इत्यादिना नायकस्य विशुद्धन्यायिकादर्शनप्रयुक्तेन हासक्षोभकारिणा वचसा व्याहारः ।
व्याहारं लक्षयति-व्याहार इति । परस्य = अन्यस्य, अर्थे = निमित्ते, यद, हाम्यक्षोभकरं = हास चाञ्चल्योत्पादक, वचः - वचनम, क्वचित् "हास्यलोभकरम्" इनि पासातरम् । तत् व्याहारो नाम वीथ्यङ्गम् ।
व्याहारमुदाहरति-ययेति । लास्यप्रयोगाऽवसाने = स्त्रीकर्तृकनृत्याऽनुष्ठानसमानी, मालविकाया निर्गन्तुमिच्छायां, विदूषकः-"म तावदुपदेशशुद्धा गमिष्यसि" इति संस्कृतच्छाया। उपदेशशुद्धा = उपदेशेन ( आचार्यशिक्षया ) शुद्धा ( निर्दोषा) सती। क्रमभेदः = कार्यपौर्वापयंव्यतिक्रमः । विदूषकः-"प्रथमं ब्राह्मणपूजा भवति । सा अनया लत्रितः ।" इति संस्कृतच्छाया । स्मयते = ईषद्धसति । "स्मिङ् ईषदसने" इति धातोलंट् । नायकस्य = राज्ञोऽग्निमित्रस्य । वचसा = वचनेन विदुषकस्येति शेषः। अत्र विदूषस्य परस्य अग्निमित्रस्य कृते मालविकाया हास्यदर्शनाऽयं प्रयुक्ताद्वाक्याव "व्याहारः"।
व्याहार-दूमरेके प्रयोजनके लिए हास्य और क्षोभ करनेवाले वचनको "व्याहार" ल हते हैं।
. जैसे मालविकाग्निमित्रमें-(नत्यके प्रयोगकी आखिरी मालविका बाहर निकलना चाहती है ) तिदूषक-आप अभी मत जायें । आचार्यके उपदेशसे शुद्ध होकर जायगी"। ( ऐसे आरम्भसे ) दास ( गणदास, नृत्याचार्य )-(विदूषकसे)-"आर्य जो आपने क्रमका भेद देखा, उसे कहिए"।
विदूषक-"पहले ब्राह्मणकी पूजा होती है, उसका इन्होंने उलङ्घन किया (नही किया )। ( मालविका मुसकुराती ) है। इत्यादिसे नायकको विशुद्ध नायिकाके दर्शन के लिए प्रयुक्त हास्य और चित्तका क्षोभ करनेवाले बचनसे को प्रतिपादन करना है वह 'व्य हार" हैं।
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५६८.
साहित्यदर्पणे
दोषा गुणा गुगा दोषा यत्र स्यु दे (मर्द ) वं हि तत् ॥ २६३।।
क्रमेण यथा
प्रिय ! जीवितताक्रौर्यं निःस्नेहत्वं कृतघ्नता । भूयस्त्वद्दर्शनादेव ममैते गुणतां गताः ॥ तस्यास्तद्रूपसौन्दर्यं भूषितं यौवनश्रिया । सुखैकायतनं जातं दुःखायैव ममाधुना ॥
मृदवं लक्षयति- दोषा इति । यत्र = दोषाः स्युः = भवेयुः तत् "मृदवं" नाम वीथ्यङ्गम् ।। २६३ ।।
,
यस्मिन् वाक्ये, दोषा गुणाः, गुणाश्व
'
मृदवमुदाहरति-यथेति । तत्र च यत्र दोषा गुणा भवन्ति तत् प्रथममुदाहरणं प्रदर्शयति- प्रियेति । कस्यश्विन्नायिकाया नायकं प्रत्युक्तिरियम् । हे प्रिय= हे बल्लभ | जीवितता = जीवन, भवद्वि रहेऽपि मम जीवनधारणमिति भावः । क्रौर्यं = काठिन्यम् । कार्याभावे सति मम जीवनं गच्छेदिति भावः । निःस्नेहत्वं = प्रेमाभाव:, विरहेऽपि जीवनधारणात् निःस्नेहत्वं प्रतीतं भवेदिति भावः । कृतठनता = कृतवेदित्वाऽभावः भवद्विर हेऽपि जीवनधारणात् मम कृतघ्नता प्रतीता भवेदिति भावः । भवद्विरहेऽपि मम जीवनात क्रौर्यादयः प्रतीयन्त इति तात्पर्यम्। भूयः = पुनरपि स्वदर्शनात् = स्वद्दर्शनं. प्राप्य एवं "ल्यैब्लोपे कर्मण्यधिकरणे च" इति ल्यबलोपे कर्मणि भी । मम =
न्याः एते = क्रौदयः, गुणतां - गुणभावं गताः = प्राप्ताः एवं च तादृशक्रौर्यनिः • स्वत्वकृत नताना सत्तायामेव मज्जीवनधारणात् भवद्दर्शनलाभेन समागमजनित हर्ष प्रकर्ष इति भावः अत्र दोषाणामपि गुणत्वप्रतीतेः प्रथमं मृदवम् ।
एवं च यत्र गुणा दोषा भवन्ति तद्वितीयमुदाहरणं प्रदर्शयति = तस्था इति । विरही नायको नायिकामुद्दिश्य स्वकीयमभिप्रायं प्रकाशयति । यौवनश्रिया = तारुण्यशोभया, भूषितम् = अलङ्कृतं तस्याः = : नायिकायाः, तत् = तादृशम्, असकृत्पूर्वानुभूवं रूपसौन्दर्यम् = आकारलावण्य, तदा = तस्मिन्समये, संयोगकाल इति भावः । मम, सुखकायतनं = सुखस्य ( आनन्दलांमस्य ) एकाऽऽयतनम् ( एकमात्रस्थानम् )
मूदव - जहांपर दोष गुण और गुण दोष हो जाते हैं वह "मृदव" है ।। २६३ ।। क्रमसे जैसे -- आपके विरहमें भी जीना जो क्रूरता है, आपके विरह में भी मेरा जीना जो अनुरागहीनता है, आपके विरहमें मेरा जीना जो कृतघ्नता है ये सब दोष फिर आपके मन से ही गुणके भावको प्राप्त हो गये हैं । यहाँवर दोष भी गुण हो गये हैं ? aroorat शोभासे अलङ्कृत उस नायिकाका वह आकार और सौन्दर्य उस समम ( संयोग काल में ) मुझे सुखमात्रका एक कारण हुआ अभी ( विरहकालमें ) दुःखके लिए ही हो गया ।
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षष्ठः परिच्छेदः
५६९
एतानि चाङ्गानि नाटकादिषु सम्भवन्त्यपि वीथ्यामवश्यं विधेयानि, स्पष्टतया नाटकादिषु विनिविष्टान्यपीहोदाहृतानि । वीथीव नानारसानां चात्र मालारूपतया स्थितत्वाद्वीथीयम् । यथा-मालविका।
अथ प्रहसनम्भाणवत्सन्धिसन्ध्यङ्गलास्याङ्गाङ्क विनिर्मितम् । भवेत्प्रहमनं तं निन्द्यानां कविकल्पितम् ॥ २६४ ॥
जात- सम्पन्नम्, अधुना-अस्मिन्समये, वियोगकाल इति भावः । दुःखाय एव=कष्टाऽनु. भवाय एब, जातं-सम्पन्नम् । अत्र गुणानामपि दोषत्वप्रतीतेद्वितीयं मृदवोदाहणं ज्ञेयम् ।
धीथ्यङ्गेषु विवेकमाह-एतानीति । एतानि = पूर्वोक्तानि उदात्यकादीनि वीथ्यङ्गानि, नाटकादिपु. = वीथीमिन्नरूप कान्तरेषु, संप्रवन्त्यपि = संभवं प्राप्नुवन्यपि, वीभ्याम् = रूपकस्य नवमभेदे, अवश्यं = नून, विधेयानि = कर्तव्यानि, इति = एवं, विनिविष्टानि अपि = विनिवेशयितु निर्दिष्टानि अपि, इह-अस्या, वीध्यामिति भावः । उदाहृतानि = निशितानि ।
वीथीपदं निर्वक्ति-वीथोवेति। वीथी इव-नानाविधोपकरणानामाधारभूता यथा वीथी (पण्यवीथिका ) तर्थव नगनारसानां = शृङ्गारादीनां; मालारूपतया = सक्स्वरूपत्वेन स्थितत्वाद, इयं = रूपकविशेषो वीथी।
प्रहसनं लक्षयति-भाणवविति। भाणवत् = भाणाख्ये रूपकविशेषे इव, सन्धिसन्ध्यङ्गलास्याऽङ्गाऽy: = सस्त्रिभ्यां ( मुखनिर्वहणसन्धिभ्याम् ) सन्ध्यङ्गः - ( अनेकसन्ध्यङ्गः ) लास्योऽङ्गः (यथासम्भव गेयपदादिभिः ) अङ्केन (एकेन बन), विनिर्मितं = रचितम् । कविकल्पितं = कविना (पककारेण ) कल्पितं (कल्पना. विषयीकृतम् ) निन्द्यानां = निन्दाऱ्याणां जनानाम्, वृत्तं = चरित्रं, भवेत् ।। २६४ ।।
यहाँपर गुण दोष हो गये हैं, अतः यह "मृदव" हुआ।
वीथीके ये अङ्ग नाटक आदि अन्य रूपकोंमें भी हो -रते हैं, परन्तु वीपीमें इनको अवश्य रखना चाहिए, अतः स्पष्ट रूपसे नाटक आदिमें इनके रहनेपर भी यहाँ इनके उदाहरण दिये गये हैं । वीथी ( वृक्ष आदिको श्रेणी ) के समान इस ( वीथी नामक रूपक) में अनेक रसोकी मालाके समान अवस्थितिसे इसको "वीथी" कहते हैं । जैसे-मालविका।
प्रहसन-भाणके समाव सन्धि और सन्धिके अङ्ग और लास्याङ्गों तथा एक अङ्गसे रचित कविकल्पित निन्दनीय जनोंका चरित्र जहाँ दिखाया जाता है उसे, "प्रहसन" कहते हैं ॥ २६४ ॥
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५७०
साहित्यदर्पणे
अत्र नारभटी, नापि विष्कम्भका वेशको 1
अङ्गी हास्यरसस्तत्र वीथ्यङ्गानां स्थितिनं वा ॥ २६५ ॥
तत्र
तपस्विभगवद्विप्रप्रभृतिष्वत्र
नायकः ।
एको यत्र भवेद्धृष्टो हास्यं तच्छुद्रमुच्यते ॥
यथा कन्दर्प केलिः ।
आश्रित्य कश्चन जनं संकीर्णमिति तद्विदुः ॥ २६६ ॥ यथा - धूर्तचरितम् ।
"1
अत्र = प्रहसने, आरभटी = "मायेन्द्रजाले त्यादिलक्षणलक्षिता (४८८ पृ० ) " वृत्तिः, न, न स्थात्, विष्कम्भकप्रवेश की अपि = "वृत्तवतिष्यमाणानाम् ०" 'प्रवेशको - .नुदासोक्त्या०' ( ४१८,४१९ पृ० ) इत्याद्विलक्षणलक्षितावर्थोपक्षेपको अपि, नं, नो भवतः । तत्र = तस्मिन् हास्यरसे । ड्रास्यरसः, अङ्गी = प्रधानम् ! बीथ्यङ्गानां - रूपकविशेष निम्, उदद्यात्यकादीनामिति भावः । स्थिति:- अवस्थानं, न स्यात्। २६५ ॥
तपस्वीति । अत्र = अस्मिन् प्रहसने, तपस्वीत्यादि: ० = तपस्विनः ( तापसाः, कृच्छ्रादिव्रताचरणपरायणा इति भावः ) भगवन्तः ( ब्रह्मज्ञाः, संन्यासिनः ) विप्राः ( ब्राह्मणा: ) तत्प्रभृतिषु ( तादिषु ), एक: अन्यतमः, नायकः = नेता, भवेत् । अस्य च भेदत्रयं भवति, शुद्धं, सङ्कीर्णं विकृतं च । यत्र घृष्टः = " कृतागा अपि० (११७ पृ० ) इत्युक्तलक्षणलक्षितो नायकों मवेत्, तत् = हास्य प्रहसनं, शुद्धम् उच्यते । शुद्धं प्रहसनमुदाहरति- यथेति । यथा कन्दर्पकेलिः |
संकीर्णप्रहसनं लखपति - प्राश्रित्येति । कंचन = धृष्टभिन्न नायकम् आश्रित्य यत् प्रहसनं भवति, तत् संकीर्ण = सङ्कीर्णप्रहसनम्, इति, विदुः = जानन्ति, विद्वांस इति शेषः ।। २६६ ।।
सङ्कीर्णं प्रहसनमुदाहरति- यथेति । यथा धूर्तचरितम् ।
इसमें आरभटी वृत्ति तथा विष्कम्भक और प्रवेशक नही रहते हैं। इसमें हास्य रस प्रधान होता है और वीथीके अङ्गों की स्थिति नहीं रहती है ।। २६५ ।।
तपस्वी, ब्रह्मवादी (संन्यासी आदि), ब्राह्मण इनमें कोई एक नायक होता है । इसके शुद्ध, सङ्कीर्ण और विकृत तीन शुद्ध प्रहसन - भेद होते हैं । जहाँपर घृष्ट नायक होता है उसे 'शुद्ध हास्य" कहते हैं । जैसे कन्दर्प केलि ।
सङ्कीर्ण प्रहसन - घृष्टसे किन किसी पुरुषको आश्रय कर जो प्रहसन होता
है उसे "सङ्कीर्ण" बहते हैं। जैसे धूर्तपरित्र ॥ २६६ ॥
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षष्ठः परिच्छेदः
वृत्तं बहूनां धृष्टानां सङ्कीर्ण केचिदूचिरे ।
तत्पुनर्भवति द्वयकमथवैकाङ्कनिर्मितम् ।।. २६७ ॥ यथा-लटकमेलकादिः। मुनिस्त्वाह
'वेश्याचेटनपुंसकविटधूर्ता बन्धकी च यत्र स्युः । अविकृतवेषपरिच्छदचेष्टितकरणं तु सङ्कीर्णम् ॥' इति । विकृतं तु विदुयत्र पण्डकञ्चकितापसाः ।
भुजङ्गचारणभटप्रभृतेषधाग्युताः ॥२६८ ॥ मतान्तरेण संकीर्ण प्रहसन लभयति--वृत्तामति । केचित् कान५ये विद्वांसः, बहूना-प्रभूताना, धृष्टाना= नायकानां, वृत्तं चरित्रं, यत्र भवति, तत्प्रट्सनं, सङ्कोण = तद्विशेषणं, प्रहसनं = रूपविशेषम्, प्राचिरेगदुः । पुनः, तत्-प्रहसनं, यङ्कम् अङ्क: द्वयोपेतम्, अथवा, एकाङ्कनिमितम् -एकाङ्केन निमितम् ( रचितम् ) भवति ।।२६७॥
पूर्वोक्तं प्रहसन मुद्राहरति-यथेति । यथा लटकमेलकादिः ।।
मुनिमतं प्रदर्शयति- वेश्यत्यादि। यत्र = यस्मिन्प्रहसने, वेश्यावेटनपुंसक. विटधूर्ताः = वेश्या ( वारस्त्री), चेटः (दासः ), नपुंसकः ( क्लीबः ), विटः - षिङ्गः, "संभोगहीनसम्पद्" ( १२१ पृ.) इत्यादिलक्षणलसितो नायकस्य शृङ्गारसहायः, धूर्तः ( अक्षतः ), बन्धको=कुलटा, प, एतादृशानि पात्राणि स्युः = भवेयुः । तत्र-अविकृतेत्यादि: अविकृतानां (विकाररहितानां, स्वाभाविकानामिति भावः) वेषाणां ( नेपथ्यानाम् ) परिच्छदानाम् ( उपकरणानाम् ), चेष्टितानां ( चेष्टनाम् ) चरणम् ( अनुकरणम् ) भवति, तत्तु-प्रहसनं तु, सङ्कीर्णम् ।
विकृतं प्रहसनं लक्षयति-विकृतं त्विति । यत्र-यस्मिन् प्रहसने, षण्ढकञ्चुकि. तापसाः = षण्डः (नपुंसकः ) कञ्चुकी (वारवाणधारी) तापसः (तपस्वी) च एते, भुजङ्गचारणमटप्रभृते = भुजङ्गः (विटः ), चारण: ( नटः ) भटः ( योद्धा), तत्प्रभृतेः = तदादेः, प्रभृतिपदेन राजपुरुषादयो गृह्यन्ते । तथा चैतेषां वेषवाग्युताः
• मतान्तरसे सङ्कीर्ण प्रहसन-कुछ आचार्य बहुतसे धृष्ट नायकोंके चरित्रको "सङ्कीर्ण प्रहसन" कहते हैं, वह दो अङ्कों से वा एक ही अङ्कसे निर्मित होता है ।।२६७॥
जैसे लटकमलेक आदि ।
मनि (भरत ) ने कहा है-जहाँपर वेश्या, दास, नपुंसक विट, धुर्त और व्यभिचारिणी इनका समावेश होता है और अधिकृत ( स्वाभाविक ) वेष, परिच्छेद और चेष्टाका अनुकरण होता है वह "सङ्कीर्ण प्रहसन" है।
विकृत प्रहसन-जहाँपर नपुसको कञ्चुकी (जामा पहननेवाला ) और
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साहित्यदर्पणे
इदं तु सङ्कीर्णेनैव गतार्थमिति मुनिना पृथक नोक्तम् । अथोपरूपकाणि । तत्र
नाटिका क्लप्सवृत्ता स्यात् स्त्रीप्राया चतुरविका । प्रख्यातो धीरललितस्तत्र स्थानायको नृपः ॥ २६९ ॥ स्यादन्तःपुरसम्बद्धा सङ्गीतव्यापृताथवा । नवानुराग कन्यात्र नायिका नृपवंशजा ॥ २७० ॥
सम्प्रवर्तेत नेतास्यां देव्यास्त्रासेन शङ्कितः । वेषवाग्मिः ( नेपथ्यभाषाभिः ) युताः ( सहिताः ) भवन्ति, तत् = प्रहसनं, विकृतं - विकृतनामकं, विदुः - जानन्ति, विद्वांस इति शेषः ।। २६८ ।।
अत्र मुनिमतं निर्दिशति-वं त्विति । इदं-विकृत प्रहसनं, तु सङ्कीर्णेन = सङ्कीर्णप्रहसनेन एवागताऽर्थम् = गतप्रयोजनं, तत्रैवाऽन्तर्भूतमिति भावः । इति = कारणेन, मुनिना= भरतेन, पृथग्नोक्तम् ।।
उपरूपकाणि तत्र चादी नाटिको लक्षयति-नाटिकेति । क्लुप्तपत्ता - जलप्तं ( कविकल्पितम् ) वृत्तं ( नाय कादिचरितम् ) यस्याः सा। स्त्रीप्राया = नारीप्रचुरा, चतुरङ्किका चत्वारः अङ्काः यस्या सा । एतादृशी नाटिका, स्थान = भवेत् । तत्र-तस्या, नाटिकायां, प्रख्यातः प्रसिद्धः, धीरललितः = "निधिन्त:" ( ११५ पृ.) इत्यादिलक्षणोपेतः, नृपः राजा; नायकः, स्यात् ।। २६९ ।।
बर-अस्यां नाटिकायाम्, अन्त.पुरसम्बद्धा = शुद्धान्तसम्बन्धयुक्ता, अथवा, सङ्गीतव्याता = नृत्यगीतवाद्यासक्ता, नवाऽनुरागा = नूतनप्रणयपरा, नृपवंशजा %D राजकुलोलाना, कन्या = कुमारी, नायका स्यात् ।। २७० ।।
नेता-बायकः, देव्याः = कृताऽभिषेकाया राज्याः, त्रासेन = भयेन, सरितः शायुक्तः सन्, अस्या = नवाऽनुरागायां नायिकायां, संप्रवर्तेत = आवरेत, प्रणय. तपस्वी ये लोग गुण्डा, नट, योगा इनके वेष और भाषाको लेकर अभिनवरते हैं, उसे "विकृत प्रहसन" कहते हैं ।। २६८ ॥
यह (विकृत प्रहसन ) सङ्कीर्ण प्रासनसे ही गतार्थ है इसलिए मुनि (परत) ने इसे पृषक नहीं कहा है।
उपरूपक-उनमें नाटिका-कविकल्पित चरित्रसे युक्त प्रचुर स्त्रियोंवाली और चार अकोंसे युक्त उपरूपकको "नाटिका" कही है। उसमें प्रख्यात बोर धीर. ललित राजा नायक होता है ।। २६९ ।।
बन्तःपुरमें सम्बद्ध वा संगीत ( नत्य, पीत और वाद्य ) में आसक्त नूतन अनुरागवाली राबवंशमें उत्पन्न कन्या इसमें नायिका होती है ।। २७० ॥
नायक इस ( कन्या ) में रानी के पाससे मङ्कित होकर बासक्त रहता है।
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________________ षष्ठः परिच्छेदः देवी भवेत्पुनज्येष्ठा प्रगल्भा नृपवंशजा // 271 // पदे पदे मानवती, तद्वशः सङ्गमो द्वयोः / वृत्तिः स्यात्कैशिकी, स्वल्पविमर्शाः सन्धयः पुनः // 272 / / द्वयोर्नायिकानायकयोः। यथा-रत्नावली-विद्धशालभञ्जिकादिः / अथ त्रोटकम् सप्ताष्टनवपञ्चाङ्क दिव्यमानुपसंश्रयम् / / - त्रोटकं नाम तत्प्राहुः प्रत्यङ्क सविदूषकम् // 273 // प्रत्यङ्कसविदूषकत्वादत्र शृङ्गारोऽङ्गी। सप्तताङ्क यथा-स्तम्भितरम्भम् / पश्चाङ्कं यथा-विक्रमोर्वशी। परायणत्वेनेति शेषः / देवी-कृताऽभिषेका राज्ञी, प्रगल्भा "स्मराऽन्धा." (138 पृ० ) इत्यादिलक्षणलक्षिता, नृपवंशजा-राजकुलोत्पन्ना, ज्येष्ठा-नवप्रणयोपेताया नायिकाया ज्यायसी, भवेत् / / 271 // सा च ज्येष्ठा नायिका, पदेपदे - प्रतिपदं, मानवती = अभिमानसंपन्ना, भवेत, द्वयोः उभयोः, नवनायिकानायकयोरिति भावः, सङ्गमः = समागमः, भवेत् / वृत्तिश्च कैशिकी = "या श्लक्षणेत्यादि ( 480 पृ० )" लक्षणलक्षिता, स्वल्पविमर्शा: = स्तोकविमर्शसन्धियुक्ताः, सन्धयः- मुखप्रतिमुखगर्भोपसंहृतिसन्धयः, भवन्तीति शेषः / / 272 // नाटिकामुदाहरति-यथा रत्नावली-विद्धशालभञ्जिकाऽऽदिः / त्रोटकं लक्षयति-सप्ताष्टेति / सप्ताऽष्टनवपञ्चाक-सप्त, अष्टो, नव पञ्च वा. अङ्काः यस्मिस्तत् / दिव्यमानुषसंश्रयं देवमनुष्योभववृत्ताश्रितं, तथा प्रत्यक्षं सर्वेष्वपि. अङ्केषु, सविदूषक-विदूषकसहितं, तत्-तादृशमुपरूपकं त्रोटकं नाम, प्राहुः // 273 / / विवृणोति-प्रत्यकेति / अत्र= त्रोटके, अङ्गी-प्रधानरसः / राजकुल में उत्पन्न रानी जेठा और प्रगल्मा होती है / / 271 / / वह ( रानी ) पद पदमें मान ( अभिमान ) करती है राजा और नई गज. कुमारी इनका सगम रानीके ही वशमें रहता है। इसमें कैशिकी वृत्ति होती है, और अल्प विमर्शवाली अन्य सन्धियाँ होती है / / 272 // ___ जंसे रत्नावली और विद्धशाल भजिका आदि / त्रोटक - सात, आठ, नो वा पांच अङ्कोंसे युक्त देवता और मनुष्यसे युक्तः तथा प्रत्येक अङ्कमें जहाँ विदूषक रहता है उसे "त्रोटक" कहते हैं / / 273 // . प्रत्येक अङ्कमें विदूषकके रहने से इसमें शृङ्गार रस प्रधान होता है। सात अजू, जैसे स्तम्भितरम्भमें, पांच अङ्क जैसे विक्रमोर्वशीमें /
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________________ साहित्यदर्पणे अथ गोष्ठीप्राकृतैनवभिः पुभिर्दशभिर्वाप्यलंकृता / नोदात्तवचना गोष्ठी कैशिकीवृत्तिशालिनी / / 274 // हीना गर्भविमर्शाम्यां पञ्चपड्योपिदन्विता / कामशृङ्गारसंयुक्ता सादेकारविनिर्मिता // 275 / / यथा-रैवतमदनिका। अथ सट्टकम्सट्टकं प्राकृताशेषपाठ्यं स्यादप्रवेशकम् / न च विष्कम्भकोऽप्यत्र प्रचुरश्चाद्भुतो रसः // 276 // गोष्ठी लक्षयति-प्राकृतरिति / प्राकृतः साधारणः, नपभिः, वा = अथवा; दशभिः, पुंभिः = पुरुषः, अलङ्कृता = भूषिता। नोदात्तवचना = न विद्यते उदात्तम् ( उत्कृष्टं; संस्कृतमिति भावः ) वचनं यस्यां सा / कशिकीवृत्तिशालिनी, गोष्ठी == उपरूपकभेदः // 274 / / गर्भविमर्शाभ्या = गर्भविमर्शसन्धिभ्यां; हीना = रहिता, मुखप्रतिमुखो. पसंहृतयः सन्धयो गोष्ठयो भवन्तीति भावः / पञ्चषडयोषिदन्विता - पञ्चभिः षड्भिर्वा योपिद्भिः (स्त्रीभिः ) अन्विता ( युक्ता ), तथा कामशङ्गार संयुक्ता = कामशृङ्गारेण (प्रहसनशृङ्गारेण ) संयुक्ता, तथा, एकाऽङ्कविनिर्मिता = एकेनाऽङ्कन विनिर्मिता ( रचिता) गोष्ठी स्यात् / / 275 // सट्टक यक्षयति - सट्टकमिति / प्राकृताऽशेषपाठयप्राकृतं (प्राकृतभाषायाम् ) अशेषं (समस्तम्) पाठय (पठनीयं, गद्यपद्यात्मक वाक्यमिति भाव.) यस्मिस्तत् तथा च अप्रवेशकम् अविद्यमानः प्रवेशको यस्मिस्तत, प्रवेशकरहितमिति भावः / तादृशमुपरूपकं सट्टक, स्यात् / अत्र-सट्टके. प्रवेशको न, अद्भुतो रस प्रचुरो भवति / / 276 // गोष्ठी-साधारण वो वा दश पुरुषोंसे अलङ्कत, इसमें संस्कृतकी उक्ति नहीं रहती है, और कंशिकी वृत्ति होती है // 274 // यह गोष्ठी गर्भ और विमर्श सन्धिसे रहित होती है, पांच छः स्त्रियाँ रहती है। कामशृङ्गार (प्रहसनमार )से युक्त या एक असे रचित होती है / / 275 // जैसे रेवतमदनिका पादि। सहक-जिसमें समस्त पाठ्य अंश प्राकृत भाषामें रहता है और प्रवेशक बोर विष्कम्भक नहीं रहते हैं। बदभुत रस प्रचूर होता है / / 276 //
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________________ षष्ठः परिच्छेदः 575 अङ्का जवानेकाख्याः स्युः स्यादन्यनाटिकासमम् / यथा कपूरमञ्जरी। अथ नाट्यरासकम्नाट्यरासकमेकाडू बहुताललयविति // 277 // उदात्तनायकं तद्वत्पीठमोपनायकम् / हास्योऽङ्गयत्र सशृङ्गारो नारी वासकसलिका // 278 // मुखनिवहणे सन्धी लास्याङ्गानि दशापि च / केवित्प्रतिमुखं सन्धिमिह नेच्छन्ति केवलम् // 279 // अत्रायाः, जवनिकाऽऽख्याः = जवनिकानामकाः, स्युः, अन्यत् = उक्ताधिकं, क्लुप्तवत्तत्वादिकमिति भावः / नाटिकासमं-नाटिकासदृशं स्यात् / यथा-कपूरमञ्जरी। नाट्यरासक्तं लक्षयति-नाटथरासकमिति / एकाऽङ्कम् = एकः अङ्कः यस्मिस्तत् / बहुताललयस्थिति = बहूनां (प्रचुराणाम ) ताललयानां ( "तालः काल. क्रियामानम्" इति लक्षणलक्षितानां तालानां, "लयः साम्यम्" इत्ये तल्लक्षणलक्षितानां लयानां च ) स्थितिः ( अवस्थानम् ) यस्मिस्तत् // 277 / / एवं च उदात्तनायकम् = उदात्तः ( धीरोदात्तः ) नायकः (नेता) यस्मिस्तत् / तद्वत् पीठमर्दोपनायकं - पीठमर्दः ( "दूराऽनुवतिनी० ( 120 पृ." ) त्यादिलक्षणलक्षितो नायकसहायः ) उपनायको यस्मिस्तत् / तादृशमुपरूपकं नाट्य रासकं स्यात् / अत्र = नाट्य रासके, सशृङ्गारः = शृङ्गारसहितः हास्यो रसः, अङ्गी - प्रधानम्, वासकसज्जिका="कुरुते मण्डनं यस्याः ( 157 पृ.)" इत्युक्तलक्षणलक्षिता, नारी = स्त्री, नायिका भवति // 278 / / . मुखनिर्वहणे सन्धी, दशाऽपि च लास्याङ्गानि-उद्घात्यकादीनि स्युः / केचित कतिपय आचार्याः, इह - अस्मिन् नाट्यरासके, प्रतिमुखं सन्धि, केवलम् = एव, न इच्छन्ति = नो वाञ्छन्ति, अन्यान् मुख-गर्भ विगशोपसंवृत्याख्यांश्चतुरः सन्धींस्तु इच्छन्तीति भाव: / / 279 // जवनिका नामवाले अङ्ग होते हैं और सब इसमें नाटिकाके समान रहते हैं / जैसे कपूरमञ्जरी। नाटपरासक-एक अङ्कवाला और जिसमें अनेक बाल और लयकी स्थिति रहती है। धीरोदात्त नायक होता है वैसे ही पीठमदं उपनायक होता है। इसमें शुङ्गारके साथ हास्य रस प्रधान होता है, वासकसञ्जिका नायिका होती है / / 278 / / इसमें मुख और निर्वहण सन्धियां होती है, लास्यके दशों अङ्ग रहते हैं / कुछ विद्वान् यहापर केवळ प्रति मुख सन्धिकी इच्छा नहीं करते हैं / / 279 //
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________________ 576 साहित्यदर्पणे तत्र सन्धि यवती यथा-नर्मवती / सन्धिचतुष्यवती यथा-विलासवती। अथ प्रस्थानकम् प्रस्थाने नायको दासो हीनः स्यादुपनायकः / दासी च नायिका, वृत्तिः कैशिकी भारती तथा // 280 / / सुरापानसमायोगादुद्दिष्टाथस्य संहतिः / अङ्कौ द्वौ लयतालादिविलासो बहुलस्तथा / / 281 // यथा-शृङ्गारतिलकम् / अथोल्लाप्यम् उदात्तनायकं दिव्यवृत्तमेकावभूषितम् / शिल्लका तं हास्यशृङ्गार करणे रसैः / / 282 / उदाहरीत-तत्रौत। प्रस्थानकं लक्षयति-प्रस्थान इति / प्रस्थाने, दासः = किङ्करः, नायकः, हीनः दासादपि निकृष्टः, उपनायकः, नायिका दासी, वृति:-कंशिकी भारती च / 280 / - सुरापानसमायोगात् = मदिरापानसम्बन्धात, उद्दिष्टाऽर्थस्य आरन्धविषयस्य, संहतिः = उपसंहारः, कर्तव्य इति भावः / द्वो अङ्को, लयतालादिः="लयः" साम्यम्, "तालः" काल क्रियामानम्, तदादिः, कर्तव्य इति शेषः / तथा बहुल:=प्रचुरः, विलासः= शृङ्गारचेष्टाविशेषः / भवेत् / / 28 / / उल्लाप्यं लक्षयति-उदात्तनायकमिति / उदात्तनायकम् = उदात्तः (धीरोदात्तः ) नायकः (नेता) यस्मिस्तत् / दिव्यवृत्तं = दिव्य ( देवविषयकम् ) वृत्तं (चरित्रम् ) यस्मिस्तत् / एकाऽङ्कभूषितम् = एकाऽङ्कन भूषितम् (अलङ्कृतम)। शिल्पकाऽङ्गः = शिल्पकस्य ( वक्ष्यमाणस्य उपरूपकविशेषस्य ) अङ्गः (आशंसाऽऽ. दिभिः ), युतं = सहितं, तथा हास्यशृङ्गारकरुण रसः, युतम् // 282 / / दो सन्धियोंसे युक्त जैसे-नर्मवती। चार सन्धियोंसे युक्त जैसे -विलासवती। - प्रस्थानक-प्रस्थानकमें नायक दास होता है और उपनायक हीन होता है। नायिका भी दासी होती है, कैशिकी और भारती दो पत्तियां रहती हैं / / 280 / / सुरापानके संयोगसे उद्दिष्ट अर्थका उपसहार होता है / इसमें दो अङ्क रहते हैं, लय और ताल आदि होते हैं और प्रचुर विलास रहता है // 281 // जैसे शृङ्गारतिलक / उल्लाप्य-उल्लाप्यमें नायक धीरोदात्त होता है, इसमें दिव्य चरित्र रहता है और वह एक अङ्कसे भूषित रहता है। शिल्पकके आशंसा आदि अङ्गोंसे और.हास्य, शृङ्गार और करुण रससे युक्त होता है / / 282 //
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________________ षष्ठः परिच्छेदः उल्लाप्यं बहुसंग्राममस्रगीतमनोहरम् / चतस्रो नायिकास्तत्र त्रयोऽङ्का इति केचन // 283 // शिल्पकाङ्गानि वक्ष्यमाणानि / यथा-देवीमहादेवम् / अथ काव्यम्-. काव्यमारभटीहीनमेकाङ्क हास्यसङ्कुलम् / खण्डमात्राद्विपदिकाभग्नतालैरलंकृतम् // 284 // वर्णमात्राछड्डलिकायुतं शृङ्गारभाषितम् / नेता स्त्री चाप्युदात्तात्र सन्धी आद्यौ तथान्तिमः।। 285 // बहुसंग्राम = बहवः (प्रचुराः ) संग्रामाः ( युद्धानि ) यस्मिस्तत् / अस्रगीतमनोहरम् - अस्रगीतेन ( "उत्तरोनररूपं यत्प्रस्तुताऽर्थपरिष्कृतम् / अन्तर्जवनिक गीतम: स्रगीतं तदुच्यते" "इत्युक्तलक्षणलक्षितेन * गानविशेषेण") मनोहरम् ( रुचिरम् ), तादशमुपरूपकम् "उल्लाप्यं" बोध्यमिति शेषः / तत्र = तस्मिन्, उल्लाप्ये, चतस्रो नायिका भवन्ति / केचन = कतिपये विद्वांसस्तु प्रयोऽङ्का इति वदन्ति // 283 // काव्यं लक्षयति-काव्यमिति। आरटीहीनम् - आरभटया ("मायेन्द्रजालेत्या"दिलक्षणलक्षितया, (488 पृ० ) वृत्या हीनम् ( रहितम् ) / कालिम् = एकोऽङ्को यस्मिस्तत् / हास्यसकुलं-हास्येन ( हास्यरसेन ), सकुलम् ( व्याप्तम् ) / खण्डमात्रेत्यादि.० = खण्डमात्रा द्विपदिका भग्नतालानि = भरतोक्ता गीतविशेषाः, तैः; अलङ्कृतं = भूषितम् // 284 / / वर्णमात्रेति / वर्णमात्राछड्डलिकायुतं = वर्णमात्राछड्डलिके (छन्दोविशेषो); ताभ्यां युतम् (सहितम्) / शृङ्गारभाषितं शृङ्गारेण (शृङ्गाररसेन) भाषितं (भाषणम्) यस्मिस्तत् / तादृशमुपरूपकं काव्यं भवेत् / अत्र नेता = नायकः, उदात्तः-धीरोदात्तः स्त्री योषित, च उदात्ता धीरोदात्तनायिका / तथा च आयो-प्रथमारतीयो, मुखप्रतिमुखे इति भावः, सन्धी / तपा, अन्तिमः-चरमः, निर्वहणम् इति भावः, सन्धिर्भवेत् // 25 // उल्लाप्यमें अनेक युटोंका प्रसङ्ग रहता है / यह असंगीतसे मनोहर होता है। चार नायिकाएं होती हैं और कुछ विद्वान इसमें तीन बहोते हैं ऐसा मानते हैं।॥२८॥ शिल्पकके अङ्ग पीछे कहे जायंगे। शिल्पकका उदाहरण-देवीमहादेव / काव्य-काव्य में आरभटी वृत्ति नहीं होती है, एक अस होता है / यह हास्य रससे व्याप्त होता है / खण्डमात्रा, द्विपदिका और भग्नताल इन गीत विशेषोंसे अलङ्कृत होता है / / 285 // इसमें वर्णमात्रा और छड्डलिका ये छन्द रहते हैं, शृङ्गार रससे पूर्ण भाषण होता है, नायक धीरोदात्त और नायिका भी धीरोदात्ता होती है। मुख, प्रतिमुख और अन्तिम निबंहण ये सन्धियां राती है।। 285 // 37 सा०
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________________ 578 साहित्यदर्पणे यथा-यादवोदयम् / अथ प्रेक्षणम् गभविमर्शरहितं प्रेङ्खणं हीननायकम् / असूत्रधारमेकाङ्कमविष्कम्भप्रवेशकम् // 286 // नियुद्धसम्फेटयुतं सर्ववृत्तिसमाश्रितम् / नेपथ्ये गीयते नान्दी तथा तत्र प्ररोचना // 287 // यथा-वालिवधम्। अथ रासकम् रासकं पञ्चपात्रं स्यान्मुखनिर्वहणान्वितम् / यथा-यादवोदयम् / प्रेखणं लक्षयति-गर्भविमर्श ति। गर्भविमर्शरहितं = गर्भविमर्शाभ्यां (तृतीयचतुर्थसन्धिभ्याम् ) रहितम् (शून्यम्), मुखप्रतिमुखनिर्वहणसंधियुतमिति भावः / हीननायकम् = हीनः ( अधमः ) नायकः ( नेता ) यस्मिस्तत् / असूत्रधार-सूत्रधाररहितम् / एकाऽङ्कम् = एक एव अङ्कः यस्निस्तत् / अविष्कम्भप्रवेशकं = विष्हम्मकप्रवेशकाख्याभ्यामर्थोपक्षेपकाभ्यां रहितम् // 286 // . नियद्धति। नियुद्धसम्फेटयुतं = नियुद्धेन ( बाहयुद्धन ), सम्फेटेन ( रोष. भाषणेन ) च युतम् ( सहितम् ) / सर्ववृत्तिसमाश्रितं = सर्वाभिः (सकलाभिः ) वृत्तिभिः (कैशिक्यादिभिश्चतुःसंख्यकाभिः) समाश्रितम् (संयुक्तम् ) तादृशमुपः रूपकं प्रेङ्खणं स्यात् / नान्दी - "आशीर्वचनसंयुक्ता" (394 पृ० ) इत्यादि लक्षणलक्षिता स्तुतिविशेषरूपा। प्ररोचना = "अत्रोन्मुखीकारः" ( 401 पृ.) इत्युक्त. लक्षणलक्षिता उन्मुखीकाररूपा। नेपथ्ये = वेषपरिवर्तनस्थाने, गीयते = गानविषयी. कियते, केनचिन्नटेनेति शेषः // 287 // रासकं लक्षयति-रासकमिति / पञ्चपात्रं = पञ्च पात्राणि (अभिनेतृजनाः) यस्मिस्तत् / मुखनिर्वहणाऽन्वितं=मुखनिर्वहणाभ्याम् (प्रयमपञ्चमसन्धिभ्याम्) अन्वितम् जैसे यादवोदय / प्रेङ्खण-प्रेङ्गणमें गर्भ और विमर्श सन्धि नहीं होती हैं, हीन नायक होता है / इसमें सूत्रधार नहीं रहता है, एक अङ्क होता है तथा विष्कम्म और प्रवेशक नहीं होते हैं / / 286 // इसमें नियुद्ध (कुश्ती ) और क्रोधपूर्ण भाषण होता है। सब कैशिकी आदि वृत्तियां रहती हैं, नान्दी और प्ररोचना नेपथ्यमें कोई नट गाता है // 287 // जैसे-वालिवध। सिक-रासकमें पांच पात्र रहते हैं, मुख और निर्बहण सन्धियां रहती हैं।
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________________ षष्ठः परिच्छेदः 579 .. भाषाविभाषाभूयिष्ठं भारतीकैशिकीयुतम् / / 288 // असूत्रधारमेकाङ्क सवीथ्यङ्गं कलान्वितम् / श्लिष्टनान्दीयुतं ख्यातनायिकं मूर्खनायकम् // 289 // उदात्तभावविन्याससंश्रित चोत्तरोत्तरम् / इह प्रतिमुखं सन्धिमपि केचित्प्रचक्षते // 290 // .. यथा-मेनकाहितम् / ( युक्तम् ) / भाषाविभाषाभूयिष्ठ = भाषाविभाषाभ्यां ( संस्कृतप्राकृतभाषाभ्याम् ) भूयिष्ठम् ( प्रचुरम् ) / भाषाविभागो यथा भाषाऽर्णवे "भाषां मध्यमपात्राणां नाटकादौ विशेषतः / महाराष्ट्री शौरसेनीत्युक्ता भाषा द्विधा बुधैः / / हीनर्भाष्या विभाषा स्यात्सा च सप्तविधा स्मृता। प्राच्याऽऽवन्ती मागधी च शाकारीच तयाऽपरा / चाण्डाली शाबरी चैव तथाऽमीरीति भेदतः // " भारतीकशिकीयुत भारतीकशिकीभ्यां (वत्तिभ्याम् ), युतम् // 28 // असूत्रधार=सूत्रधाररहितम्, एकाङ्कम् - एकोऽहो यस्मिस्तत् / सबीप्यमं- . वीथ्यङ्गः ( उद्धाल्यकादिभिः ) सहितम् / कलान्वितं = कलामिः ( नृत्यगीतादिभिः) अन्वितम् ( युक्तम् ) / श्लिष्टनान्दीयुतंश्लिष्टा (श्लेषयुक्ती ) या नान्दी (स्तुति. विशेषरूपा), तया युतम् / ख्यातनायिकख्याता (प्रसिद्धा) नायिका यस्मिस्तत् / मूर्खनायक मूर्खः ( बालिशः ) नायको यस्मिस्तत् // 289 // उत्तरोत्तरम्-उत्तरस्मात उत्तरम्, उदात्तेत्यादिः = दातमावस्य (नापिका. महत्त्वस्य ) यो विन्यासः ( संस्थितिः ), तसंश्रितम् (तत्समन्वितम् ) / तादृशमुप. रूपकं रासकं स्यात् / इह-अस्मिन रासके, केपित = बावार्याः, प्रतिमुख सन्धिमपि, प्रचक्षते वदन्ति / / 290 // यथा- मेनकाहितम् / . यह संस्कृत और प्राकृत भाषासे परिपूर्ण होता है / इसमें भारती और कैशिकी बत्ति रहती है / / 288 // ___ इसमें सूत्रधार नहीं होता है, एक अङ्क होता है, वीपीके उदात्यक आदि अङ्ग रहते हैं / नृत्य गीत बादि कलाएं होती हैं। इसमें श्लेषयुक्त नान्दी होती है / नायिका प्रसिद्ध होती है, नायक मूर्ख होता है / / 289 // उत्तरोत्तर नायिकाके महत्वकी स्थिति इसमें बरसाई जाती है। इसमें कुछ विद्वान् प्रतिमुख सन्धिको भी प्रतिपादित करते हैं // 29 // जैसे-मेनकाहित।
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________________ 580 साहित्यदर्पणे / अथ संलापकम् / संलापकेऽवाचत्वारखयो वा नायकः पुनः / पापण्डः . स्याद्रसस्तत्र : शृङ्गारकरुणेतरः // 261 // भवेयुः / पुरसंरोषच्छलसंग्रामविद्रवाः / . न तत्र वृत्तिर्भवति भारती न च कैशिकी / / 292 // यथा-मायाकापालिकम् / अथ-श्रीगदितम्प्रख्यातवृत्तमेकाङ कं प्रख्यातोदात्तनायकम् / प्रसिद्धनायिकं गर्भविमर्शाम्यां विवर्जितम् // 293 // . संलापकं लक्षयति-संलापक इति / संलापके (उपरूपकविशेषे ) चत्वारस्त्रयो वा अङ्काः स्युः / नायकः पुनः पापण्डः = आचारत्यागी, स्यात् / तत्र = तस्मिन्, संलापके, शृङ्गारकरुणेतर:-पृङ्गारकरुणाभ्याम् इतर: (अन्यः) रसः स्यात् / / 291 // पुरसंरोधेत्यादि:० = पुरसंरोधः (नगराऽवरोधः ), छलम् ("प्रियाभैरप्रियववियविलोभ्यच्छलनाच्छलम्" इत्युक्तलक्षणलक्षितः वीथ्यङ्गविशेषः) / संग्रामः (युद्धम्) वियः ("शङ्काभयत्रासकृतः संप्रमो विद्रको मतः" इत्युक्तलक्षणलक्षितः गर्भसन्धिविशेषः ) एते भवेयुः / तत्र-संलापके, भारती वृत्तिः न भवति कैशिकी वृत्तिश्च नो भवति / / 292 // . यया मायाकापालिकम् / श्रीगदितं लक्षयति-प्रख्यातवृत्तमिति / प्रख्यातवक्तं = प्रख्यातं ( प्रसिद्धम् ) वृत्तं (चरितम् ) यस्मिस्तत् / एकाङ्क, प्रख्यातोदात्तनायकं = प्रख्यातः ( प्रसिद्धः) सवात्तः (धीरोदात्तः) नायकः (नेता) यस्मिस्तत् / प्रसिद्धनायिकं = प्रसिद्धा (प्रख्याता) नायिका यस्मिस्तत् / गर्भविमर्शाभ्यां = तृतीयचतुर्थाभ्यां सन्धिभ्यां, विवजितम् ( रहितम् ) // 293 // संलापक-संलापकमें चार वा तीन अङ्क होते हैं / नायक पाखण्डी (अधर्मी) होता है, और शृङ्गार ओर करुणसे भिन्न रस रहते हैं / / 291 / / . इसमें शहरको घेरना, छल ( वीथीका अङ्ग), युद्ध, विद्रव (गर्भसन्धिविशेष) के सब होते हैं. भारती और कैशिकी वृत्ति नहीं रहती है // 292 / / . . जैसे-मायाकापालिका / श्रीगदित-इसमें प्रख्यात चरित्र होता है। एक अङ्क रहता है / नायक प्रख्यात पार धीरोदात्त होता है और नायिका भी प्रसिद्ध होती हैं, इसमें गर्भसन्धि और विमर्श सन्धि नहीं रहती है / / 293 //
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________________ षष्ठ परिच्छेदा -. .. 581 भारतीवृत्तिबहुलं श्रीतिशब्देन संकुलम् / मतं श्रीगदितं. नाम विद्वद्विरुपरूपकम् / / 294 // यथा-क्रीडारसातलम् / श्रीरासीना श्रीगदित गायत्किंचित्पठेदपि / एकाको भारतीप्राय इति केचित्प्रचक्षते / / 295 // ऊसमुदाहरणम्। अथ शिल्पकम्.. चत्वारः शिल्पकेटाः स्युश्चतस्रो वृत्तयस्तथा / .' अशान्तहास्याच रसा. नायको ब्रामणो मतः / / 296 // भारतीवृत्तिबहुलं = भारतीवृत्या बहुलम् (प्रचुरम् ) / श्रीतिशब्देन-श्रीपदेन . क्वचित् "प्रीतिपदेने"ति पाठान्तरम् / सङ्कुलम् (ज्याप्तम् ) / एतादृशमुपरूपक विद्भिः = विपत्रिद्भिः , श्रीगदितं नाम, मतम् = अभिमतम् // 294 // यथाकीडारसातलम् / . श्रीगदिते मतान्तरेण लक्षणं प्रदर्शयति-श्रीति / श्रीगदिते - उपकपकविशेषे; आसीना = उपविष्टा, श्री: - लक्ष्मीवेषशारिणी मटी, किश्चिद्गायेत्, किश्चित्पठेदपि / तथा श्रीगदिते, भारतीप्रायः = भारतीवृत्तिप्रचुरः, एकाडो भवति इति, केचित् - विद्वांसः, प्रचक्षते = प्रवदन्ति // 295 // __ शिल्पकं लक्षयति-चत्वार इति / शिल्पके = उपरूपकविशेषे, चत्वारोऽा: - सया चतस्रो वृत्तयः= कैशिक्याद्याः, अशान्तहास्याः= शान्तहास्यरहिताः; रसाः= शुजारादयः, स्युः भवेयुः / ब्राह्मणो नायकः मतः // 296 // .... * . इसमें भारती वृत्ति प्रचुर होती है इसमें 'श्री' शब्द प्रचुर रूपसे रहता है। "श्री" शब्दसे व्याप्त इस उपरूपकको विद्वानोंने श्रीगदित माना है / / 294 // जैसे-क्रीडारसातल। - मतान्तर-धीगदितमें बैठी हुई, श्रीवेष धारण करनेवाली नटी कुछ गाती है और कुछ पढ़ती भी है। इसमें भारती वृत्ति प्रचुर होती है और एक अङ्क होता है। ऐसा कुछ विद्वान् काते हैं / / 295 // . उदाहरण हूँढना चाहिए। शिल्पक-शिल्पकमें चार अङ्क होते हैं और भारती आदि चार वृत्तियां होती हैं, शान्त और हास्यको छोड़कर शृङ्गार आदि अन्य रस होते हैं, ब्राह्मण नायक शेता है / / 296 //
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________________ साहित्यदर्पणे वर्णनात्र श्मशानादेहीनः स्यादुपनायकः / सप्तविंशतिरङ्गानि भवन्त्येतस्य तानि तु / / 297 / / आशंसातकसंदेहतापोगप्रसक्तयः / / प्रयत्नाथनोत्कण्ठावहित्याप्रतिपत्त्यः // 298 / / विलासालस्यबाष्पाणि प्रहावासमूढताः / साधनानुगमोच्छवासविस्मयप्राप्तयस्तथा. // 299 / / लाभविस्मृतिसंफेटा वैशारय प्रबोधनम् / चमत्कृतिश्चेत्यमीषां स्पष्टत्वालक्ष्म नोच्यते / / 300 / / अत्र - अस्मिन् शिल्पके, श्मशानादे:-पितृवनादेः, अत्रादिपदेन शवादेग्रहणम् / 'वर्णना = कीर्तनम् / हीनः = अधमः, सपनायकः स्यात् / एतस्य = शिल्पकस्य, सप्त. विंशतिरङ्गानि भवन्ति / तानि तु / / 297 / / १आशंसा, 2 तकः, 3 सन्देहः, 4 तापः, 5 उद्वेगः, 6 प्रसक्तिः = आसक्तिः / 7 प्रयत्नः, 8 प्रथनम्, "उपन्यासस्तु कार्याणां ग्रथनम्" इत्येतल्लक्षणलक्षितः(४७१ पृ.)" निर्वहणाऽङ्गविशेषः 9 उत्कण्ठा, 10 अवहित्था, 11 प्रतिपत्तिः = ज्ञानम् / / 298 // / 12 विलासः, 13 आलस्य, 14 बाष्पं, 15 प्रहर्षः, 16 आश्वासः, 17 मूढता; 18 साधनानुगमः = अमीष्टसाधनज्ञानम, 19 उच्छ्वासः, 20 विस्मयः, 21 प्राप्तिः= सुखासादनम् / / 299 // 22 लामः = अन्यपदार्थप्राप्तिः, 23 विस्मृतिः, 24 संफेटः = रोषभाषणम् (459 पृ०)। 25 वैशारब = विद्वत्त्वं, "विद्वत्सुप्रगल्भो विशारदो" इत्यमरः / 26 प्रबोधनम्, 21 चमत्कृतिश्न, अमीवाम् = एतेषामङ्गाना, स्पष्टत्वात् = स्फुटल्यात लक्ष्म = लक्षणं, न उच्यते // 30 // इसमें श्मशान ( मरघट ) आदिका वर्णन रहता है, निकृष्ट पुरुष उपनायक होता है। इसके सत्ताईस अङ्ग होते हैं, वे ये हैं-।। 297 / / 1 आशंसा, 2 तर्क, 3 सन्देह, 4 ताप, 5 उद्वेग, 6 प्रसक्ति ( आसक्ति ); 7 प्रयत्न, 8 ग्रथन, 9 उत्कण्ठा, 10 अवहित्था ( पाकार छिपाना ), 11 प्रतिपत्ति (ज्ञान), // 298 / / 12 विलास, 13 मालस्य, 14 बाष्प, 15 प्रहर्ष, 16 आश्वास, 17 मूढता, 18 साधनाऽनुगम ( अभीष्ट साधनका ज्ञान ), 19 उच्छवास, 20 विस्मय (आश्चर्य); 21 प्राप्ति ( सुखप्राप्ति ), 22 लाभ ( अन्य पदार्थकी प्राप्ति ) / / 299 // ... 23 विस्मृति, 24 संफेट (क्रोधसे भाषण ), 25 वैशारद्य (विद्वत्ता), 26 प्रबोधन 27, चमत्कृति / स्पष्ट होने से इनका लक्षण नहीं कहते हैं / 300 / /
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________________ षष्ठः परिच्छेदः 583 संफेटप्रन्थनयोः पूर्वमुक्तत्वादेव लक्ष्म सिद्धम् / यथा-कनकावतीमाधवः। अथ विलासिका शृङ्गारबहुलकाङ्का दशलास्याङ्गसंयुता / विदूपकविटाभ्यां च पीठमर्दैन भूषिता / / 301 // हीना गर्भविमर्शाभ्यां संधिभ्यां हीननायका / स्वल्पवृत्ता सुनेपथ्या विख्याता साविलासिका।। 302 // केचित्तु तत्र विलासिकास्थाने विनायिकेति पठन्ति। तस्यास्तु 'दुर्मल्लिकायामन्त(वः" इत्यन्ये / अथ दुर्मल्लिका दुल्ली चतुरङ्का स्यात् कैशिकीभारतीयुता / यथा कनकावर्तामाधवः / विलासिकां लक्षयति-शनारबहुलेति। श्रृङ्गारबहुला = शृङ्गाररस. प्रचुरा / एकाऽङ्का, दशलास्याङ्गसंयुता = दश लास्याङ्गानि ( उद्घात्यकादीनि ) : संयुता / भूषिता = अलङ्कृता / / 301 // गर्भविमर्शाभ्यां सन्धिभ्यां होना = मुखप्रतिमुखनिर्वहणसन्धियुक्तेति भावः स्वल्पवृता = स्वल्पं ( स्तोकम् ) वृत्तं ( चरित्रं पद्य वा ) यस्यां सा "वृत्तं पद्ये चरित्र चे" त्यमरः, सुनेपथ्या = शोभनं नेपथ्यं ( वेषः ) यस्यां सा / सा "विलासिके"ति विख्याता // 302 // मतान्तरे प्रदर्शयति-केचिविति / दुमल्लिकां लक्षयति-दुर्मल्लीति / चतुरङ्का = चत्वारोऽङ्का यस्यां सा। संफेट और ग्रन्थनके पहले ही कहे जानेसे लक्षण सिद्ध है / जैसे मानकावतीमाधव / विलासिका-श्रृङ्गार रससे प्रचुर, एक अङ्कवाली, लस्य के उद्धात्यक मादि दश अङ्गोंसे युक्त, विदूषक, विट और पीठमदंसे अलङ्कृत / / 301 / / गर्भ और विमर्श सन्धि से रहित जिसमें नायक निकृष्ट है थोड़े चरित्र वा पवसे युक्त, सुन्दर वेषसे युक्त, वैसे उपरूपकको 'विलासिका' कहते हैं / / 302 // कुछ विद्वान् "विलासिका" के स्थान में "विनायिका" पढ़ते हैं / और विद्वान् - लोग उसका "दुर्मल्लिका" में अन्तर्भाव है ऐसा कहते हैं / दुर्मल्लिका-चार अलोंसे युक्त, कंशिकी और भारतीवृत्ति सहित
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________________ साहित्यदर्पणे अगंभी नागरनरा न्यूननायकभूषिता / / 303 / / त्रिनालिः प्रथमोऽङ्कास्यां विटक्रीडामयो भवेत् / पश्चनालिद्वितीयोऽको विषकविलासवान् / / 304 // पण्णालिकस्तृतीयस्तु . पीठमर्दविलासवान् / चतुर्थो दशनालिः स्यादकः क्रीडितनागरः // 305 // यथा-बिन्दुमती। कैशिकीभारतीयुता - सात्वत्यारपटीरहितेति भावः / अगर्मा = गर्भसन्धिरहिता, मुखप्रतिमुखविमर्शनिर्वहणसन्धिसहितेति भावः। नागरनराः=नागराः ( नगरमवा विदग्धा इति भावः ) नराः (जनाः) यस्यां सः / "नागरं मुस्तके शुराठयां विदग्धे नगरोद्भवे।" इति मेदिनी / न्यूननायकभूषिता - न्यूनः ( जात्याऽपकृष्टः) यो नायकस्तेन भूषिता। केचित् "नागरनरा" इत्यत्र अकारं प्रपिलष्यं "अन्यूननायकभूषिता" एतादृशं पाठं कुर्वन्ति तत्र अन्यूनः (अनिकृष्टः, उत्तम इति भावः ) यो नायकस्तेन भूषिता इत्पं व्युत्पत्ति प्रदर्शयन्ति / उत्तरत्र भूषिते"ति पदस्थितिदर्शनाद ब्याख्यानमिदं चारुतरं 'प्रतीयते // 303 / / अस्यां - दुमल्लिकायां, प्रथमोऽङ्कः विनालि:- तिस्रः नायकः यस्मिन् सः, "नालिका घटिकाद्वयमा, इति प्रागेवोक्तमतो घटिकाषट्कनिष्पाय इत्यर्थः / स च विटक्रीडामयः = विटकेलिप्रचुरः, भवेत् / द्वितीयोऽङ्कः, पञ्चनालि: = पञ्च नालयो यस्मिन, सः, घटिकादशकनिष्पाच इति भावः / स च विदूषकविलासवान् = विदूषकस्य, विलासवान (व्यवहारसम्पन्नः ) इत्यर्थः // 304 // तृतीयस्तु अङ्कः, षण्णालिक:- षट् नालयो यस्मिन्सः द्वादशटिकानिष्पाद्य इति भावः / स च पीठमविलासवान् भवेत् / चतुर्थोऽङ्कः, दशनालिः = दश नालयो यस्मिन् सः, विशतिघटिकानिष्पाच इति भावः / वक्रीडितनागरः = क्रीडिताः (क्रीडायुक्ताः ) नागराः ( नगरजनाः ) यस्मिन् सः तादृशो भवेत् / क्वचिन्नागरस्थाने "नायक" पदं दृश्यते // 304 // यथा-बिन्दुमती। गर्भसन्धिसे रहित, नगरके विदग्ध, ( रसिक) जनोंसे युक्त, निकृष्ट नायकसे युक्त उपरूपक "दुर्मल्लिका" हैं // 303 // - इसमें तीन मुहूर्तावाला प्रथम अङ्क प्रचुर विटक्रीडासे युक्त होता है / पाँच मुहूतों वाले द्वितीय अमें विदूषकका प्रचुर विलास रहता है / / 304 // छः मुहूर्तों वाले तृतीय अङ्कमें पीठमर्दका प्रचुर विलास रहता है / दश मुहूर्तो - वाले चतुर्थ अङ्कमें नगरके रसिक जनोंके कीडनका वर्णन रहता है / / 305 // , .. जैसे-बिन्दुमती। ,
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________________ षष्ठः परिच्छेदः . . अथ प्रकरणिकानाटिकैत्र प्रकरणी सार्थवाहादिनायका / समानवंशजा नेतुभवेद्यत्र च नायिका / / 306 // मृग्यमुदाहरणम् / अथ हल्लीश: हल्लीश एक एवाङ्कः, सप्ताष्टौ दश वा त्रियः / वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तिरुज्ज्वला / मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः // 307 // यथा-केलिरेवतकम्। अथ भाणिका भाणिका श्लक्ष्णनेपथ्या मुखनिर्वहणान्विता / प्रकरणिका लक्षयति-नाटिकवेति / सार्थवाहादिनायका - सार्यगहः (वणिक्) आदिः नायकः यस्यां सा / आदिशब्देन प्रवापिप्रभृतयो गृह्यन्ते / “पर्वदेहरु सार्यवाहो नंगमो वाणिजो वणिक् / " इत्यमर. / तादृशी नाटिका एव प्रकरणी भवेत् / यत्र-प्रकरण्या; नायिका, नेतुः नायकस्य, समानवश जा=सदृशकुलोत्पन्ना भवेत् / / 306 // * हल्लीश सक्षयति-हल्लोश इति / हल्लीशे = तदाख्ये उपरूपके, एक एक अङ्कः, सप्त अष्टो अथवा दश स्त्रियो भवेयुः / उदात्ता उत्कृष्टा, संस्कृतं शौरसेनी वा, वाक-भापा, भवेत् / एकपुरुषः = एक एव पुरुषः (नटः ) यस्मिन् सः / उज्ज्वला - सुव्यक्ता, कैशिकी वृत्तिः। तथा मुखान्तिमो = मुखनिवहणाख्यो, सन्धी, भवेतामिति शेषः / बहुताललयस्थितिः = बहूनाम् ( अनेकप्रकाराणाम् ) ताल न्यानां, स्थितिः = अवस्थानं, भवतीति शेषः / / 307 / / यथा-केलिरवतकम् / - माणिकां लक्षयति-भाणिकेति / श्लाक्ष्णनेपथ्या श्लक्ष्णं (सूक्ष्मम् ) नेपथ्यं (वेषः ) यस्यां सा / मुखनिर्वहणाऽन्विता-मुखनिर्वहणसन्धिभ्याम् अन्विता (युक्ता)। प्रकरणिका-जिसमें बनिया आदि नायक होते हैं वैसी नाटिका ही प्रकरपिका होती है। उसमें नायकके समान कुलमें उत्पन्न नायिका होती है / / 306 // उदाहरण दूढ़ना चाहिए। हल्लीश-हल्लीशमें एक ही अङ्क होता है / उसमें सात, आठ वा दश स्त्रियां होती हैं / उत्कृष्ट संस्कृत वा शोरसेनी भाषा होती है, उसमें एक ही नट होता है, . उज्ज्वल कशिकी वृत्ति रहती है / मुखसन्धि और निर्वहण सन्धि रहती है और बहुत से तालो और लयोंकी स्थिति होती है // 307 // जैसे केलिरैवतक / भाणिका-भाणिका सूक्ष्म नेपथ्यवाली और मुखसन्धि और निर्वहण सन्धिसे
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________________ साहित्यदपणे कैशिकीभारतीवृत्तियुक्तैकाङ्कविनिर्मिता 308 / / उदात्तनायिका भन्दपुरुषात्राङ गसप्तकम् / उपन्यासोऽथ विन्यासो विबोधः साध्वसं तथा / / 309 / / समर्पण निवृत्तिश्च संहार इति सप्तमः / उपन्यासः प्रसङगेन भवेत्कार्यस्य कीतनम् / / 310 // निदवाक्यव्युत्पत्तिविन्यासः इति स स्मृतः / भ्रान्तिनाशो विरोधः रत्यानियाख्यानं तु साध्व सम्। 311 / / सोपालम्भवचः कोपपीडयेह समपणम् / कैशिकीभारतीवृत्तियुक्ता- कैशिकीभारतीवृत्तिभ्यां युक्ता : एकाऽङ्कविनिमिता-एकाऽडून विनिर्मिता ( विरचिता) // 307 / / उदात्तनायिका-उदात्ता ( उत्तमा ) नायिका यस्यां सा। मन्दपूरुषा - मन्दः (हीनः ) पुरुषः ( नायकः ) यस्यां सा, तादृशी भाणिका भवति / अत्र = भाणिकायाम्, अङ्गसप्तकं भवेत् / तान्यङ्गानि यथा-१ उपन्यासः, 2 विन्यासः, 3 विबोधः। 4 साध्वसम् / / 309 // 5 समर्पणं, 6 निवृत्तिः, 7 संहारः, अयं सप्तमः / यथाक्रमं तान्यङ्गानि लक्षयति-उपन्यास इति / प्रसङ्गेन = उचिताऽवसरेण, कार्यस्य कीर्तनम् "उपन्यासः" भवेत् // 310 / / निर्वेदवाक्यव्युत्पत्तिः = निर्वेदवाक्यस्य ( "तत्त्वज्ञानापदादेः" ( 196 पृ.) इत्यादिलक्षणलक्षितनिवेदवचनस्य ) व्युत्पत्तिः (प्रपञ्चनम् ), स विन्यासो नाम स्मृतः / भ्रान्तिनाम: भ्रमनिवृत्तिः, "विबोधः" स्यात् / मिथ्याख्यानं अनुतकथनं तु "साध्वसं" नामाऽङ्ग भवेत् // 311 // इह-अस्या भाणिकायां, कोप्पीडया अमर्षबाधया, सोपालम्भवचः = आक्षेपयुक्त होती है / वह कैशिकी ओर भारती वृत्ति से युक्त होती है और एक अङ्कसे निर्मित होती है / / 308 // उसमें उत्तम नायिका होती है और हीन पुरुष नायक होता है। इसमें सात अङ्ग रहते हैं / जैसे-उपन्यास, विन्यास, विबोध तथा साध्वस / / 309 / / समर्पण, निवृत्ति और सातवाँ सहार ( अङ्ग) होता है / प्रसङगसे कार्यके कीर्तनको "उपन्यास" कहते हैं / / 310 // निर्वेद वचनके प्रपञ्च करनेको “दिन्यास' कहते हैं, भ्रान्ति हटाने को "विबोध" और झूठ कहनेको ' साध्वस" कहते हैं / / 311 / / / इस ( माणिका )में काधकी बाधासे उलहनावाले वचनको "समर्पण" कहते हैं।
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________________ षष्ठः परिच्छेदः / 587 निदर्शनस्योपन्यासो निवृत्तिरिति कथ्यते // 312 / / संहार इति च प्राहुर्यकार्यस्य समापनम् / स्पष्टान्युदाहरणानि / यथा-कामदत्ता / एतेषां सर्वेषां नाटकप्रकृतित्वेऽपि यथौचित्यं यथालाभं नाटकोक्तविशेषपरिप्रहः। यत्र च नाटकोक्तस्थापि पुनरुपादानं तत्र तत्सद्भावस्या नियमः। अथ श्रव्यकाव्यानि श्रव्यं श्रोतव्यमानं तत्पद्यगद्यमयं द्विधा / / 313 / / तत्र पद्यमयान्याहयुक्तवचनं "समर्पणं" नामाऽतम् / निदर्शनस्य = दृष्टान्तस्य, उपन्यासः = उपस्थापनं; "निवृत्तिः" इति कथ्यते // 312 // यत् कार्यस्य = आरब्धकृत्यस्य, समापनं = समाप्तिकरणं तत् "संहार" इति च प्राहुः / यथा-कामदत्ता // 313 // एतेषामिति / एतेषां सर्वेषां = प्रकरणादीनां रूपकविशेषाणां, नाटिकादीनाम् उपरूपकविशेषाणां समस्तानां, नाटकप्रकृतित्वेऽपि = "विना विशेष सर्वेषां लक्ष्म नाटकवन्मतम् ( 388 पृ०)" इत्युक्त्या नाटकमूलत्वेऽपीति भावः, यथोचित्यम् = औचित्यमनतिक्रम्य, ययालाभ = लाभमनतिक्रम्य, नाटकोक्तविशेषपरिग्रहः = नाटकप्रतिपादितविशेषस्वीकारः / पुनरुपादानं - पुनर्ग्रहणं, तत्र तत्सद्भावस्य = तत्सत्तायाः, नियमः = नियमन, यथा-वीथ्यां वीथ्यङ्गानाम् / सलक्षणं श्रव्यकाव्यभेदी निर्दिशति-श्रव्यमिति / श्रोतम्यमानं - श्रवणीय: मात्र, श्रव्यं =अव्यकाव्यम् / तत् = श्रव्यकाव्य, पद्यगद्यमयं = पद्यमयं गद्यमयं च / द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां, बोद्धव्यमिति शेषः / / और दृष्टान्त स्थापित करनेका "निवृत्ति" कहते हैं / / 312 / / कार्य समाप्त करनेको "संहार" कहते हैं / / उदाहरण स्पष्ट हैं / जैसे-कामदत्ता / प्रकरण आदि और नाटिका आदि इन सभीका नाटक प्रकृति होनेसे औचित्य और लाभके अनुसार नाटकमें कही गई विशेष वस्तुका परिग्रह होता है / जहाँ जहाँपर नाटकमें कहे गये विषयका भी फिर ग्रहण होता है वहां उसको ग्रहण करनेका नियम होता है। भव्य काव्य-जो केवल श्रोतव्य ( सुननेके योग्य, अभिनेय नहीं ) होता है। उसे "पव्यकाव्य" कहते हैं, वह दो प्रकारका होता है-गद्यमय और पद्यमय // 313 //
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________________ . साहित्यदर्पणे - - छन्दोबद्धपदं पद्य तेन मुक्तंन मुक्तकम् / द्वाभ्यां तु युग्मक सन्दानितकं त्रिमिरिष्यते // 314 // कलापकं चतुर्भिश्च पश्चमिः कुलकं मतम् / तत्र मुलकं यथा मम'सान्द्रानन्दमनन्तमव्ययमजं यद्योगिनोऽपि क्षणं 'साक्षात्कर्तमुपासते प्रतिमुहानेकतानाः परम् / सलक्षणं पचभेदानिर्दिशति-छन्दोबद्धपदमिति / छन्दोबद्धानि (गायत्र्यादिवृत्तबद्धानि ) पदानि (शब्दाः ) यस्मिस्तत्, तादृशं पद्यम् / मुक्तेन = पद्यान्तरा:पेक्षारहितेन, एकेन, तेन = पचन, "मुक्तकम्"। ज्ञेयमिति शेषः / "मुक्तेन" इत्यस्य स्थाने "एकेने"ति पाठान्तरम् / तत्र एकेन = पद्यान्तरनिरपेक्षेण एकमात्रण, तेन - पद्यन, इत्यर्थः / द्वाभ्यां = द्विसंख्यकाभ्यां, मिथः सापेक्षाभ्यामिति शेषः / पद्याभ्यां तु "युग्मक" शेयम् / त्रिभिः त्रिसंख्यकः, मिथः सापेक्षारितिशेषः, पद्य:, "सन्द्रानितकम्" इष्यते = अभिलष्यते / सन्दानितकमेव केचिद्विशेषक, केचिदाचार्यास्तिलकमपि कषयन्ति // 314 / / चतुभिः = चतुः संख्यकः, मिथः सापेक्षरितिशेष, पर्व: "कलापकं” विज्ञेयम् / पञ्चमिः = पञ्चसंख्यकः, मिथः सापेक्षरिति शेषः, "पञ्च" पदं पञ्चप्रभृतिसंख्यानामुपलक्षणम् / पद्य: "कुलकम्" मतम् = अभिमतम् / ___तत्र स्वकीयपद्यन मुक्तकमुदाहरति-सान्द्रानन्दमिति / प्रतिमुहुः = वारं वारं, ध्यानकतानाः = ध्याने ( चिन्तने ) एकतानाः ( एकाऽप्रवृत्तयः ) योगिनोऽपि = योगाऽभ्यसनशीला अपि, क्षणं = कञ्चित्कालम्, अपि, साक्षात्कतुं = प्रत्यक्षीकतुं, यवः सान्द्रानन्दं = धनानन्दस्वरूपम्, अनन्तं = सीमारहितम्, अव्ययं विकारहितम, अजं: 'पद्यमय-जिसमें छन्दोबद्ध पद होते हैं उसे "पद्य" कहते हैं। जिसमें और पथकी अपेक्षा नहीं रहती है उस एक पद्यको "मुक्तक" कहते हैं। दो पद्योंकी परस्पर अपेक्षा रहे तो उनको "युग्मक" और तीन पद्योंकी परस्पर अपेक्षा रहे तो उनको "सन्दानितक" कहते हैं // 314 // . चार पद्योंकी परस्पर अपेक्षा रहे तो उनको "कलापक" और पांच वा उनसे . अधिक पद्योंकी परस्पर अपेक्षा रहे तो उनको "कुलक" कहते हैं। ... ग्रन्थकारकृत मुक्तकका उदाहरण-वारंवार ध्यानमें एकाग्रवृत्तिवाले योगी भी छ काल तक साक्षात्कार करनेके लिए गाढ आनन्दस्वरूप, अनन्त, विकाररहित,
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________________ ___षष्ठः परिच्छेदः धन्यास्ता मथुरापुरीयुवतयस्तद्ब्रह्म याः कौतुका दालिङ्गन्ति समालपन्ति शतधाऽऽकर्षन्ति चुम्बन्ति च // ' युग्मकं यथा मम 'किं करोषि करोपान्ते कान्ते! गण्डस्थलीमिमाम् / प्रणयप्रवणे कान्तेऽनेकान्ते नोचिता: क्रधः॥ इति यावत्कुरङ्गाक्षी वक्तुमीहामहे वयम्।। तावदाविरभूच्चूते मधुरो ' मधुपध्वनिः // ' जन्मरहितम्, उपासते - उपासनां कुर्वन्ति / याः = मथुरापुरीयुवतयः = मथुरानगरी. तरुण्यः, 'मथुरा, स्थाने 'मधुरे ति पाठान्तरम् / कौतुकात् = कुतूहलात्, तत् = प्रसिद्ध, परं = निरुपाधिकं, ब्रह्म = शुद्धचैतन्यस्वरूपं, शतधा = अनेकप्रकारैः, आलिङ्गन्ति = आश्लिष्यन्ति, समालपन्ति = संभाषन्ते, आकर्षन्ति=आहरन्ति, बिहाराऽर्थमिति शेषः / चुम्बन्ति च = गण्डसंयोगं कुर्वन्ति च, ताः = मथुरापुरीयुवतयः, धन्याः = पुण्यवत्य, सन्तीति शेषः / शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् / अद्य पद्यान्तरनरपेक्ष्येण एकेनैव पद्यन वाक्य-- समापनान्मुक्त कस्येदमुदाहरणं बोद्धव्यम् / / युग्मकस्योदाहरणं ग्रन्थकारस्यैव यथा-कि करोषोति / सखायं प्रति मानिन्या मानभङ्गप्रकारं सूचयतः कस्यचिन्नायकस्योक्तिरियम् / हे कान्ते-हे सुन्दरि !, करोपान्त= हस्तप्रान्ते, इमा, गण्डस्थली = कपोलस्थली, कि = किमर्थं, करोषि = विदधासिा. प्रणयप्रवणे - प्रेमासक्ते, अनकान्ते = न एकया ( अन्यया, त्वद्भिन्नयेति भावः ) अन्तः ( अवसानं, रमणक्रियाया इति शेषः ) यस्य स नकान्तः ( त्वद्भिनरमण्यासक्त इति भावः), न नैकान्तः अनेकान्तस्तस्मिन् = स्वन्मात्रपरायण इति भावः, तादृशे कान्ते, धः = कोपाः, न उचिताः = नो योग्याः // अत्र श्लोके वाक्यसमाप्तावपि पद्यान्तरस्थितेनेति पदेन पूर्ववाक्येन सममुत्तरवाक्यस्य संयोजनायु ग्मकं नाम पद्य बोद्धव्यम् / * उत्तरपद्यमपि ब्याख्यायते-इति / इति यावत् एतत्पर्यन्तं, कुरङ्गाक्षी-मृगनयना; वयं, वक्तु = भाषितुम्, ईहामहे = चेष्टामहे, तावत् = तत्कालमेव, चूते-रसालतरी, जन्मरहित जिस ब्रह्मकी उपासना करते हैं। मथुरापुरीकी जो युवतियां कौतुकसे उस निरुपाधिक ब्रह्मको सैकड़ों वार आलिङ्गन करती हैं, संभाषण करती हैं, खींचती हैं और चुम्बन करती हैं, वे धन्य हैं। दूसरे पद्यकी अपेक्षा न रहनेसे यह मुक्तकका उदाहरण हैं। युग्मक-"हे सुन्दरि ! अपने कपोलको हाथमें क्यों रखती हो? प्रणयमें तत्पर और तुम्हारे सिवाय अन्य स्त्रीमें आसक्ति न रखनेवाले प्रियजनमें क्रोध करना उचित नहीं है / " मृगनयनाको हम ऐसा वचन कहना चाहते थे उसी समय आमके पेड़में मधुर भ्रमरझङ्कार आविर्भूत हो गया /
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________________ साहित्यदर्पण एवमन्यान्यपि। सर्गबन्धो महाकाव्यं तत्रैको नायकः सुरः // 315 // सद्वंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्तगुणान्वितः / एकवंशभवा भूपाः कुलजा बहवोऽपि वा // 316 // शृङ गारवीरशान्तानामेकोऽङगी रस इष्यते / अङ गानि सर्वेऽपि रसाः, सर्वे नाटकसन्धयः / / 317 / / मधुरः = माधुर्यपूर्णः; मधुपध्वनिः = भ्रमरशङ्कारः, आविरभूत् = प्रादुर्भूतः / एवमिति। अन्यान्यपि = सन्दानितक-कलापक कुलान्यपि, उदाहरणानि शिशुपालवधादिषु द्रष्टव्यानि। _____ महाकाव्यं लक्षयति-सर्गबन्ध इति / सर्गबन्धः = परिच्छेदरूपाणां सर्गाणां बन्धः ( निबन्धनम् ) महाकाव्यम् / तत्र = तस्मिन् महाकाव्ये, धीरोदात्तगुणाऽन्वितः - धीरोदात्तस्य नायकस्य गुणः ( अविकत्थनत्वादिभिः) अन्वितः ( युक्तः) सुरःदेवः // 315 // एकः = एकमात्र, नायकः = नेता, यथा हरचरितमहाकाव्ये सद्वंश = उत्तमकुलप्रसूतः; क्षत्रियः = बाहुजः, नायकः / यथा नैषधीयचरिते नलः / नायकविषये मतान्तरं प्रदर्शयति–वा = अथवा एकवंशभवाः = एककुलोत्पन्नाः कुलजाः-कुलीनाः, बहवोऽपि = धीरोदात्तगुणाऽन्विता नायकाः स्युर्यथा रघुवंशे दिलीपादयः / / 316 / / शृङ्गारवीरशान्तानां = स्सानां मध्ये, एकः = अन्यतमः, रसः, अङ्गीप्रधानम्, इम्यते-अभिलष्यते / यथा नैषधीयचरिते-शङ्गारः, शिशुपालनधे वीरः, प्रबोधचन्द्रोदये , शान्तः अङ्गीरसः / इतरे सर्वेऽपि रसाः = हास्यादयः, अङगानि = अप्रधानानि / सर्वसकलाः, नाटकसन्धयः- मुखप्रतिमुखादयो भवन्तीति शेषः // 317 / / दो श्लोकोंका परस्पर सम्बन्ध रहनेसे यह युग्मका उदाहरण है। इसी तरह सन्दानितक आदिका भी उदाहरण जानना चाहिए। महाकाव्य-परिच्छेदरूप सोका निबन्धन जिसमें रहता है उसे "महाकाव्य" कहते हैं / उसमें धीरोदात्तके गुणों से युक्त देवता // 31 // नायक होते हैं, अथवा उत्तम कुलमें उत्पन्न क्षत्रिय नायक होता है / अपवा एक वंशमें उत्पन्न कुलीन बहुतसे राजा नायक होते हैं // 316 // महाकाव्यमें शृङ्गार; वीर और शान्त इनमें एक रस प्रधान होता है, . अन्य सभी रस बग (प्रधान) होते हैं। नाटकली सभी मुख बादि सन्धियां रहती हैं / / 317 //
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षष्ठः परिच्छेदः
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इतिहासोद्भवं वृत्तमन्यदा सज्जनाश्रयम् । चत्वारस्तस्य वर्गाः स्युस्तेष्वेकं च फलं भवेत् ॥ ३१८ ॥ आदौ नमस्क्रियाशीर्वा वस्तुनिर्देश एव वा । क्वचिनिन्दा खलादीनां सतां च गुणकीर्तनम् ।। ३१९ ।। एकवृत्तमयैः पद्यरवसानेऽन्यवृत्तकैः । नातिस्वल्पा नातिदीर्घाः सर्गा अष्टाधिका इह ॥ ३२० ॥
नानावृत्तमयः क्यापि सर्गः कश्चन दृश्यते । महाकाव्ये वृत्तं = चरित्रम्, इतिहासोद्भवं = गमायणमहामारतादिमूलक, वा अन्यत् - अपरम्, इतिहासोद्भवभिन्नं, सज्जनाश्रयं - शिष्ट जनाधारं, भवतीति शेषः । तस्य = महाकाव्यस्य, चत्वारः वर्गाः = धर्माऽर्थकाममोक्षरूपाः, स्युः, तेषु - चतुर्वर्गेषु, एकं = धर्मादिषु अन्यतमं, फलं = प्रधानप्रयोजनं भवेत् ॥ ३१८ ॥
महाकाव्ये आदी = प्रारम्भे, नमस्क्रिया = प्रणतिः, यथा रघुवंशे "वागवि. वे"त्यादिः, । क्वचिद आशी:: = शुभाशंसा, वस्तुनिर्देशः = देववाचकशब्दरूपपदार्थ प्रदर्शनं भद्रवाचकशब्दरूपपदार्थप्रदर्शनं वा, यथा किरातार्जुनीय कुमारसमवादिषु । क्वचित् = कुत्रचिन्महाव्ये, खलादीनां = दुर्जनादीना, निन्दा = विगानं, सतां च = सज्जनानां च, गुणकीर्तनं = दयाराक्षिण्यादिगुणवर्णनं, क्वचिदितिपदेन सर्वत्र खलादि. निन्दा-सद्गुणकीर्तने नावश्यके इति प्रतीयते ।। ३१९ ॥
तथा च महाकाव्ये सर्गेषु एकवृत्तमयः एकच्छन्दोमयः, पद्य:वृत्तः, अवसानेसर्गसमासो, अन्यवृत्तकैः = छन्दोऽन्तरः, भाव्यमिति शेषः । इह = महाकाव्ये, नाऽतिस्वल्पाः = नाऽतिन्यूनाः, नाऽतिदीर्घाः = नाऽतिप्रचुराः, अष्टाऽधिका:-अष्टाऽतिरिक्ताः । सर्गाः, भवेयुरुिति शेषः ॥ ३२० ॥ ___ क्वाऽपि - कुत्राऽपि, महाकाव्ये, नानावृत्तमयः = अनेकच्छन्दःप्रचुरः, कश्चन -
इसमें इतिहास स्थित चरित्र वा किसी सज्जनमें स्थित चरित्र रहता है। महाकाव्यमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार वर्ग होते हैं, उनमें एक फल (प्रधान प्रयोजन) होता है ॥ ३१८॥
- महाकाव्यमें आरम्ममें नमस्कार, आशीर्वाद वा वस्तुनिर्देश रहता है। कहींपर दुर्जन आदियों की निन्दा और सज्जनोंका गुणकीर्तन राता है ॥ ३१९ ॥
महाकाव्यों सर्गोमें एक ही छन्दमें निबद्ध पद्य रहते हैं पर सर्गसमाप्तिमें भिन्न छन्दका पध होता है । इसमें सर्ग भी न बहुत छोटे और न बहुत लम्बे होते हैं । आठसे अधिक सर्ग होते हैं ।। ३२० ॥
किसी महाकाव्य में किसी एक सर्गमें अनेक छन्दोंसे निबट पन देखे जाते हैं।
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साहित्यदपणे
सर्गान्ते भाविसर्गस्य कथायाः सूचनं भवेत् ।। ३२१ ।। . संध्यास्यन्दुरजनीप्रदोषध्वान्तवासराः । प्रातमध्याह्नमृगयाशैलतु वनसागराः ॥३२२ ।। संभोगविप्रलम्भौ च मुनिस्वर्गपुराध्वराः । रणप्रयाणोपयममन्त्रपुत्रोदयादयः . ॥ ३२३ ।। वर्णनीया यथायोगं साङ्गोपाङ्गा अभी इह ।
कवेवृत्तस्य वा नाम्ना नायकस्येतरस्य वा ।। ३२४ ॥ कोऽपि, सर्गः, दृश्यते । यथा किरातार्जुनीये पञ्चमः, शिशुपालवधे-चतुर्थः सर्गः । सर्गान्तेसर्गाऽवसाने, माविसर्गस्य = आगामिसर्गस्य, कथायाः = चरित्रभागस्य, सूचनं सङ्केतः, भवेत् ॥ ३२१॥
महाकाव्ये वर्णनीयाविषयानुद्दिशति-सन्ध्यति। सन्ध्या सायंकालः, सूर्यः, इन्दुः (चन्द्रः ), रजनी ( रात्रिः), प्रदोषः ( रजनीमुखम् ), ध्वान्तम् ( अन्धकारः) वासरच (दिवस)। प्रात: (प्रभातम् ), मध्याह्नम् (अहो मध्यभागः ), मृगया (आवेटकीडा ), शैलः (पर्वतः ) ऋतुः ( हेमन्तादिः ), वनम, सागरश्च ॥३२२॥
संभोगविप्रलम्भी = संभोगशृङ्गारो विप्रलम्भश्रङ्गारश्च । मुनिस्वर्गेत्यादि:मुनिः, स्वर्गः, पुरम् ( नगरम् ) अध्वरश्न ( यज्ञश्च )। रणेत्यादि.०रणः, ( युद्धम् ) प्रयाणम् ( यात्रा ) उपयमः ( विवाहः ), मन्त्रः ( सामादिविषये कर्तव्यमन्त्रणम् ); पुत्रोत्यादिश्च ॥ ३२३ ॥
वर्णनीया इति । इह = अस्मिन् महाकाव्ये, अमी = पूर्वोक्ताः सन्ध्यादयो विगया:, साऽङ्गोपाङ्गा: अङ्गोपाङ्गसहिताः,यथायोग-यथासंभव, वर्णनीयाः कीर्तनीयाः। दिग्दर्शनं यथा-सन्ध्यङ्ग-चक्रवाकविरहः, वासराङ्ग = जलक्रीडादिः। रजन्यङ्गमधुपानादि । उपाङ्ग-तत्रव परिहासादयः, मुनिः-नारदादिः । महाकाव्यस्य नामनिर्माणप्रकारं निर्दिशति-कवेरिति। कवेः = कवयितुः, नाम्ना = आख्यया, अस्य =
सर्गके अन्त में पोछे आनेवाले सर्गकी कथाकी सूचना होनी चाहिए ।। ३२१ ॥ .
महाकाव्यमें वर्णनीय विषय-सन्ध्या (सायंकाल ), सूर्य, चन्द्र, रात प्रदोष (रात्रिका पूर्वभाग ), अन्धकार, दिन, प्रातःकाल; मध्याह्न, मृगया (शिकार ), पर्वत, ऋतु, वन और समुद्र ।। ३२२ ॥ - संभोग शृङ्गार और विप्रलम्भ शृङ्गार, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, युग, यात्रा, विवारी मन्त्र ( सामदान आदि करनेके लिए मन्त्रणा ), पुत्रोदय आदि ॥ ३२३ ।।
महाकाव्यमें इन सब विषयोंका साङ्गोपाङ्ग वर्णन करना चाहिए। कविके
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षष्ठः परिच्छेदः
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नामास्य सर्गोपादेयकथया सर्गनाम तु ।
सन्ध्यङ्गानि यथालाभमत्र विधेयानि 'अवसानेऽन्यवृत्तकैः' इति बहुवचनमविवक्षितम् । साङ्गोपाङ्गा इति जलकेलिमधुपानादयः। यथा-रघुवंश-शिशुपालवध-नैषधादि । यथा वा · मम-राधवविलासादि ।
अम्मिन्नाप पुनः सर्गा भवन्त्याख्यानसंज्ञकाः ।। ३२५ ।। अस्मिन्महाकाव्ये । यथा-महाभारतम ।
प्राकृतनिर्मित तस्मिन्सगो आश्वाससंज्ञकाः । महाकाव्यस्य, नाम, कर्तव्यमिति शेषः, यथा माघकाव्यम् ।धृत्तस्य =चरित्रस्य, नाम यथाकुमारसंभवं, रघुवंशम् इत्यादि। नायकस्य नाम-ययानपधीयचरितं विक्रमाङ्का देवचरितम् इत्यादि । वा-इतरस्य = नायकादिरस्य प्रतिनायकस्य, नाम यथारावण वध शिशुपालवधम् इत्यादि ।
महाकाव्ये सर्गनामनिर्माणप्रकारं निदिति-अस्येति । अस्य महाकाव्यस्य, सर्गनाम तु, सर्गोपादेयकथया-सर्गस्य (तत्तत्सर्गस्य) या उपादेयकथा (ग्रहणीयवृत्तान्त. भाग:), तया भवतीति शेषः । यथा रघुवशे प्रथमसर्गस्य नाम "वशिष्ठाश्रमगमन" इति ।
सन्ध्यङ्गानीति । सन्ध्यङ्गानिमुखादिसन्ध्यङ्गानि, यथालाभं यथासंभवम्, अत्रमहाकाव्ये, विधेगानिकर्तव्यानि । “अवसानेऽन्यवतकः" इति बहुवचनम्, अविवक्षितम् । बहूनि एव वृत्तानि भवेयुरिति न विवक्षितम, तेनेकद्विमात्रपद्यसत्त्वेऽपि नो दोष इति भावः।
___ आर्षमहाकाव्ये सर्गनाम प्रतिपादयति-अस्मिन्निति । आर्षे = ऋषेरिदम् आप, तस्मिन् ऋषिकर्तृके इति भावः, अस्मिन् = महाकाव्ये, सर्गा आख्यानसंज्ञका भवन्ति । आषं महाकाव्यं यथा-महाभारतम् ।। ३२५ ।।
प्राकृतकाव्ये सर्गनाम प्रतिपादयति-प्राकृतरिति । प्राकृतः-प्राकृत भाषापद्य:, नामसे, चरित्रके नामसे, नायकके नामसे वा प्रतिनायकके नाममे महाकाव्यका नाम रखना चाहिए ।। ३२४ ।।
___ सर्गके ग्रहणीय वृतान्तके अनुसार उसका नाम रखना चाहिए। महाकाव्यमें सन्धिके अङ्गोंको यथासंभव रखना चाहिए। “अवसानेऽन्यवृत्तकः" अर्थात् सर्गकी समाप्तिमें अन्य छन्दोंको रखना चाहिए। यहाँपर बहुवचन विवक्षित नहीं है, अतः एक वा दो छन्द भी हो सकते हैं । "साङ्गोपाङ्ग" कहनेसे जलक्रीडा और मदिरापान इत्यादि लिये जाते हैं । महाकाव्य जैसे = रघुवंश शिशुपालवध और नैषध आदि। अथवा ग्रन्थ. कारका राघवविलास आदि। .
पाख्यान--ऋषिप्रणीत महाकाव्यमें सर्गका "आख्यान" नाम होता है ।३२५॥ जैसे-महाभारत । पाश्वास-प्राकृत भाषाके पद्योंसे निर्मित महाकाव्यमें सर्गको "आश्वास" २८ सा०
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साहित्यदर्पणे
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छन्दसा स्कन्धकेनैतत्क्वचिद् गलिगकैरपि ।। ३२६ ।। यथा-सेतुबन्धः । यथा वा मम-कुवलयाश्वचरितम् ।
अपभ्रंशनिबद्धेऽस्मिन् सर्गाः कुडवकाभिधाः । तथापभ्रंशयोग्यानि च्छन्दांसि विविधान्यपि ।। ३२७ ।। यथा-कर्णपराक्रमः। भाषाविभाषानियकात्काव्यं सर्गसमुज्झितम् ।
एकार्थप्रवणः पद्यः सन्धिसामग्रथवर्जितम् ।। ३२८ ॥ निमिते, सस्मिन् महाकाव्ये, सर्गा आश्वाससज्ञका भवन्ति । एतत् = प्राकृत भाषामयं महाकाव्यं, क्वचित् स्कन्धकेन च्छन्दसा, क्वचिच्च गलितकश्छन्दोभिनिबद्धयते ॥३२६।।
प्राकृतमहाकाव्यमुदाहरति-सेतुबन्धः कुवलयाश्वचरितम् ।
अपभ्रंशभाषानिबद्ध महाकाव्ये विशेष प्रतिपादयति-अपभ्रंशेति । अपभ्रंशः निबढे = अपभ्रंशेन (अपभ्रंशभाषया) निबद्धे ( रचिते ), अस्मिन् = महाकाव्ये । सर्गाः; कुडवकाऽभिधाः - कुडवकन्नामानः, तथाऽपभ्रंशयोगानि विविधानि = अनेकप्रकाराणि, छन्दांसि भवन्ति ।। ३२७ ॥
अपभ्रंशमयं महाकाव्यमुदाहरति- यथा-कर्णपराक्रमः ।
भाषाविभाषामयं काव्यविशेष लक्षयति-भाषाविभाति । भाषाविभाषानियमाव-भाषा (संस्कृतम् ), विभाषा ( शौरसेन्यादिप्राकृतभाषा), 'तयोनियमात, "भाषाविशेषाऽनियमाव" इति पाठान्तरं-तत्र संस्कृतेनैव कर्तव्यं, प्राकृतेनेव कर्तव्यमिति एकातरमाषाया अनियमाद, भाषाद्वयमाश्रित्येति भावः, संस्कृतेनारब्धे संस्कृतेनंव, विभाषयाशरब्धे, तयैव कर्तव्यमिति नियमात्, कृतमिति शेषः । सर्गसमुज्झितं = सर्ग: रहितम् । एकार्थप्रवर्णः = एकविषयतत्परः, एकवाक्यताऽऽपनैरिति भावः। तादृशः फ्य रचितमिति शेषः । सन्धिसामग्र्यजितं = सन्धिसाकल्यरहितं, "काव्यं" भवति ।। ३२८॥ कहते हैं । इसमें स्कन्धक वा कहींपर गलितक छन्द होते हैं ।। ३२६ ।।
जैसे-सेतुबन्ध, जैसे ग्रन्थकारका कुवलयाश्वचरित ।
कुडवक-अपभ्रंश भाषासे निबद्ध महाकाव्यमें सर्गको "कुडवक" कहते हैं। उसमें अपभ्रंश भाषाके योग्य अनेक छन्द होते हैं ।। ३२७ ।। जैसे-कर्णपराक्रम ।
फव्य-भाषा (संस्कृतभाषा) और विभाषा (शौरसेनी आदि प्राकृत भाषा)के नियम रचित एक विषयमें तत्पर पद्योंसे रचित, सर्गसे रहित और जिसमें सब सन्धियाँ न हों ऐसे प्रबन्धको "काव्य" कहते हैं ॥ ३२८ ।।
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षष्ठः परिच्छेदः
यथा- भिक्षाटनम , आर्याक्लिामश्च ।
खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। यथा-मेघदृतादि ।
कोपः श्लोकसमूहस्तु स्यादन्योन्यानपेक्षकः ।। ३२९ ।। वाजमाक्रमेण रचितः स एवातिमनोरमः । सजानीयानामेकत्र सन्निवेशो व्रज्या । यथा मुक्तावल्यादिः। अथ गद्यकाव्यानि । तत्र गद्यम्
वृत्तगन्धोज्झितं मद्य, मुक्तकं वृत्तमन्धि च ।। ३३० ।। कामामुदाहति-भिभाटनम, आर्याविलासश्च ।
खण्डकाव्यं लक्षयति-खण्डकाव्यमिति । काव्यस्य-पूर्वलक्षितस्य महाकाव्यस्य, एकदेशानुसारि - एकदेशम् ( एकभागं, न तु सर्वामिति भावः ) अनुसरतीति तच्छीलम, अनुसरणशील, पद्य कदम्बवापिति शेषः । खण्डकाब्यं भवेत् ।
खण्डकाव्यमुदाहरति -यथा मेघदूनादि । आदिपदेन ऋतुसंहारनलोदयभर्तृहरिशतकत्रयचौरपञ्चाशिकादीनां परिग्रहः ।
कोषं लक्षयति-कोष इति । अन्योन्याऽनपेक्षकः = मिथोऽपेक्षारहितः, श्लोक. समूहः = पद्यकदम्बकं, "कोषः" ।। ३२९ ।।
व्रज्याक्रमेण = "सजातीयानामेकत्र सन्निवेशो व्रज्या"। सजातीयानां = समान. प्रकाराणाम, पद्यानाम् एकत्र = एकस्मिन् काव्ये, सनिवेशः = अवस्थानं, व्रज्या, तक्रमेण तत्परिपाट्यः = रचितः, स एव = कोष एव, अतिमनोरमः अतिशयमनोहरः' भवतीति शेषः । कोषमुदाहरति-यथा मुक्तावल्यादिः । आदिपयेन अमातकार्या. सप्तशतीप्रभृतीनां परिग्रहः ।
गद्यकाव्यानि निरूपयति । तत्राऽऽदी गद्य लक्षयति-वत्तेति । वृत्तबन्धोसितं गद्यम्" । वृत्तबन्धः ( छन्दोगुम्फनम् ), तेन उज्झितं ( रहितम् ) पदकदम्बक गद्यम् ।
जैस-भिक्षाटन और आविलास ।
खण्डकाव्य-महाकाब्यके एक भागका अनुसरण करनेवाले पद्यसमूहको "खण्डकाव्य" कहते हैं । जैसे मेघदूत आदि ।
कोष-परस्परमें अपेक्षासे रहित श्लोकसमूहको "कोष" कहते हैं ॥ ३२९ ॥
तुल्य प्रकारवाले पद्योंको क्रमसे एकत्र कर रचित वह कोष अतिशय मनोहर होता है । जैसे-मुक्तावली आदि।
गद्य काव्य । गद्य-छन्दके बन्धसे रहित पदसमूहको "ग" कहते हैं। यह गलमुक्तक वृत्तगन्धि ।। ३३० ।
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साहित्यदर्पणे
भवेदुत्कलिकाप्रायं, चूर्णकं च चतुर्विधम् । आद्य समासरहितं वृत्तभागयुतं परम् || ३३१ ॥ अन्यद्दीर्घसमासाढ्यं तुर्य चापसमासकम् ।
"
मुक्तकं यथा - 'गुरुर्वचसि पृथुरुरसि -' इत्यादि ।
वृत्तगन्धि यथा मम -
'समर कण्डूल निविडभुजदण्ड कुण्डलीकृतकोदण्डशिञ्जिनीटंकारोज्जा गरिवेरिनगर' इत्यादि । अत्र 'कुण्डलीकृतकोदण्ड' - इत्यनुष्टुब्वृत्तस्य पादः,
"बन्ध" स्थाने "गन्धेति पाठान्तरं तत्र वृत्तस्य ( छन्दस्स: ) यो गन्ध: ( लेशः ) पादादि:, तदुज्झितम् (तद्रहितमित्यर्थः) । "गद्यम्" "गन्धो गन्धक आमोदे लेशे सम्बन्धगर्वभीः ।" इति विश्वः । गद्यस्य भेदचतुष्टयमुद्दिशति - मुक्तकमिति । मुक्तक वृत्त - गन्धि ||३३० ॥ उत्कलिकाप्रायं चूर्णकं चेति गद्य चतुविधं = चतुष्प्रकारं भवतीत्यर्थं ।
मुक्तकं लक्षयति- प्राद्यमिति । आद्य = प्रथमं भेदचतुष्टयम् आदिवमित्यर्थः, मुक्तकमिति भावः । समासरहितम् = अनेकपदबन्धवर्जितं व्यस्तपदोपेतमिति भावः ।
वृत्तगन्धि लक्षयति- परम् अन्यत्, वृत्तगन्धि, वृत्तमागयुतं = पद्यांशसहितं, भवतीति भावः ।। ३३१ ।।
उत्कलिकाप्रायं लक्षयति- प्रन्यदिति । दीर्घसमासादयं = दीर्घः ( आयतः ), बहुपदसहितः यः समासः ( वृत्तिविशेष: ) तेन आढ्यम् ( सम्पन्नम् ), अन्यत् = अपरम्, उत्कलिकाप्रायम् ।
चूर्णकं लक्षयति - तुर्यमिति । अल्पसमासकं = स्तोकसमासक, द्वित्र समस्तपदोपेतमितिभावः तादृशे गद्य, तुयं = चतुर्थं, चूर्णकमिति भावः ।
तत्रादौ मुक्तक मुदाहरति-- गुरुरिति । "गुरुवंचसि पृथुरुरमि" इत्यादि । समासराहित्यात् = समस्तपदाभावात् मुक्तकमिदम् ।
वृत्तगन्धि उदाहरति- "समर कण्डूले त्यादिः ० " कंत्रिद्वनुद्दिश्य सम्बोधनोक्तिरियम । समरे ( युद्धकरणे ) कण्डूलो ( कण्डूयुक्तौ ) "कण्डूयने" ति पाठे कण्डूयनेन ( कण्डूकरणेन ) इत्यर्थः, निबिडो ( घनो ) यो भुजदण्डी ( बाहुदण्डो ) ताभ्यां कुण्डलीकृतं ( कुण्डलाकृतं प्रसारितमितिभावः ) तादृशं यत् कोदण्ड ( धनु: )
उत्कलिकाप्राय और चूर्णक इस प्रकार चार भेदोंसे युक्त है । मुक्तक-समाससे रहित गद्य को "मुक्तक" कहते हैं ।
वृत्तगन्धि - पथके अंश से युक्त गद्यको "वृत्तगन्धि" कहते हैं ।। ३३१ ।। उत्कलिकाप्राय - दीर्घ समाससे युक्त गद्यको 'उत्कलिकाप्राय" कहते हैं । चर्णक - घोड़े ( दो या तीन पदोंके ) समासवाले गद्यको "चूर्णक" कहते हैं । मुक्तकका उदाहरण - "गुरुर्वचसि पृथुरुरसि " इत्यादि ।
गन्धका उदाहरण - "समरकण्डूल" इत्यादि । युद्ध करनेके लिए खुजली
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षष्ठः परिच्छेदः
'समरकण्डूल' इति च प्रथमाक्षरद्वयरहितस्तस्यैव पादः :
उत्कलिकाप्रायं यथा मगैव – 'अणिसविसुमरणिसिदसरविसरविदलि. दसमरपरिगदपवरपरबल-' इत्यादि ।
चूर्णकं यथा मम-'गुणरत्नसागर ! जगदेकनागर ! कामिनीमदन ! जनरञ्जन !' इत्यादि ।
कथायां सरसं वस्तु गद्य रेव विनिर्मितम् ॥ ३३२॥ तस्य या शिब्जिनी ( मोर्वी ), तस्या: टङ्कारः ( टमिति ध्वनिः ) तेन उज्जागरितं (विबोधितम् ) वैरिनगर ( शत्रुपुर ) येन, तत्सम्बुद्धी । नगरपदेन नगरस्थजना लक्ष्यन्ते । “नागरे"ति पाठे उज्जागरिता: शत्रुनागराः ( शत्रुपुरवासिनः ) अयमर्यः । . प्रकृत उदाहरणे वृत्तन्धित्वं साधयति-प्रत्रेति । तस्यैव = अनुष्टुब्वत्तस्यैवेति ।
उत्कलिकाप्रायमुदाहरति--प्रणिसेति । 'अनिविसृमरनिशितशरविसर विदलितसमरपरिगतप्रवरपरबल-" इति संस्कृतच्छाया। कश्चित्कंविच्छ्रवरं संबोधयति-अनिशम् ( अविरतं यथा तथा ) विसृमरः ( विसृत्वरः ) यः निशितराणां ( तीक्ष्णबाणानाम् ) विसरः ( समूहः ) तेन विदलितानि (विमदितानि) समरपरिगतानि ( युद्धमा सानि) प्रवराणि ( श्रेष्ठानि ) परबलानि (शत्रुसैन्यानि ) येन तत्संत दी । अव दीपंसमासादकालिकाप्रायत्वम् । .
चूगंर मुवाहर त-गणरत्नसागरेति । कप्रिकश्चित्प्रवरनरं सम्बोधयतिहे गुणरसागर = गुणाः ( दयादाक्षिण्यादिधर्माः ) एव रत्नानि (मणयः ) तेषां सागरः ( रत्नाकरः, उत्पनिम्यानत्वात् ), तत्सम्बुद्धी। हे जगदेकनागर = जगति ( लोके ) एकनागरः ( मुख्यपौरः ) तत्सम्बुद्धी । हे कामिनीमदन = कामिन्या: ( रमण्य': ) मदन: ( मदोत्पादकः ) तत्सम्बुदौ । हे जनरजन = जनानां (लोकानाम्) रजनः । अनुरागहेतुः) तत्सम्बुहो।
अत्राऽल्पसमासानां पदानां सत्त्वाच्चूर्णकत्वम् । . गद्यकाव्ये कथां लक्षयति-कथायामिति । कथायां गद्यकाव्यविशेषे, सरसं= शुजारादिरसोपेत. वम्नु = इतिवृत्तं, गा रेव = वृत्तवन्धोज्झितः पदसमूहैरेव । विनिमितं = विचितं भवेत् ॥ ३३२ ॥ वाले निविड बाहुदण्डोंसे फैलाये गये धनुकी प्रत्यञ्चाके टङ्कारसे शत्रुनगरको जगाने . बाले (हे वीर !)
. उत्कलिकाप्रायका-उदाहरण--"मणिसा" इत्यादि । निरन्तर फैलनेवाले तीक्ष्ण वाणसमूहसे युद्धभूमिस्थित श्रेष्ठ शत्रुसैन्यको विमदिन करनेवाले (हे वीर!)।
. चूर्णक-हे गुणरूप रत्नों के सागर जगत्के एकमात्र नागरिक ! हे कामिनियों. को मत करनेवाले ! हे मनुष्यों के अनुरागके कारण।।
कथा-कथामें शृङ्गार आदि रससे युक्त इति वृत्त गोंगे ही रचित होता है।३.३२
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साहित्यदर्पणे
क्वचिदत्र अवेदा काद्वक्त्रापरकत्रके।
आदौ पद्य नमस्कारः खलादेवृत्तकीर्तनम् ।। ३३३ ॥ यथा-कादम्बर्यादिः।
आख्यायिका कथावत्स्यात्कवंशानुकीननम् । अस्यामन्यकवीनां च वृत्तं पद्य काचित्क्वचित् ।। ३३४ ॥ कथांशानां व्यवच्छेद आश्वास इति बध्यते ।
आर्यावक्वापवक्वाणां छन्दसा येन केनचित् ॥ ३३५ ॥
अत्र = अस्यां कथायो, क्वजित् = कुरिदशे, आर्या = मात्रात्मकच्छन्दोबद्धं पद्य भवेत् । क्वचित, वक्त्राऽपवक्त्रके - तदात्यच्छन्दोविशेपबद्ध पद्य, भवेताम् । तथा च आदो = ग्रन्थारम्भे, पद्य:-छन्दोबद्धपदैः, नमस्कारः नतिः, देवादीनामिति शेषः, बलादेः = दुर्जनादेः अाऽऽदिपदेन सज्जनपरिग्रहः । वृत्तकीर्तनं = चरित्रवर्णनं, भवेदिति शेषः ।। ३३३ ।।
अत्राख्यायिकालक्षणस्थयोः कवेवंशाऽनुकीर्तनमिति पदयोरपकर्षः । कथामुदाहरतियथा कादम्बर्यादिः।
बाख्यायिका लक्षयति-माख्यायिकेति । "आख्यायिका-तदाख्यं गद्यकाव्यं, कयावत् = कथया तुल्यं, स्यात् - भवेत् । अनेन सर्व थाम्थं लक्षणमिहाप्यनुवर्तते । विशेषमाह-वे: = कवयितुः, वंगऽनुकीर्तन = कुलाऽनुवर्णनं स्यात् । अस्याम् = आख्यायिकायाम्, अन्यकदीनां च % अपरकवितृणां च, वृत्तं -- चरित्रं, वणि स्यात् । क्वचित क्वचित्, पद्धं च भवेत् ।। ३३४ ॥
कथांऽशानाम् =: आख्यानभागानां, व्यवच्छेदः - परिच्छेदः, आश्वास इति % आश्वास इति नाम्ना, बचते = निबद्धघत । आमी-वक्त्राऽपवक्त्राणाम् = आर्याघाख्यच्छन्दमा मध्ये, येन केनचित छन्दमा । ३३५ ।।
इसमें कहीं आर्या और कही वका और अपवक्त्रक छन्द होते हैं । शुरू में पद्योंसे देवता आदिको नमस्कार किया जाता है और दुर्जन आदिके चरित्रका वर्णन होता है ३३३॥
जसे-कादम्बरी आदि।
प्राख्यायिका-आख्यायिका कथाके समान होती है, इसमें कविके वंशका कीर्तन होता है, और अन्य कवियोंका चरित्र भी रहता है, कहीं कहीं पद्य भी रहता है ॥३३४॥
माख्यानके भागोंका परिच्छेद "आश्वास" नामसे निबट होता है। आर वात्र, अपवक्त्र इन छन्दोंके मध्य में जिस किसी भी छन्दसे ॥ ३३५ ।।
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पप्ठः परिच्छेदः
अन्यापदेशेनाश्वासमुखे भाव्यथसूचनम् । यथा - हर्षचरितादिः। 'अपि त्वनियमो इप्रस्तत्राप्यन्यैरुदीरणात।' इति दण्ड्याचार्यवचनात् केचित् आख्यायिका नायकेनैव निबद्धव्या' इत्यादः, तदयुक्तम् । आख्यानादयश्च कथाश्यायिकयारेवान्दर्भावान्न पृथगुक्ताः।
यदुक्त दण्डिन --- अत्रैवान्तर्भविष्यन्ति शेषाश्चास्यान जातयः।' इति । एषामुदाहरणम्-पञ्चतन्त्रादि । अथ गद्यपद्यमयानि
गद्यपद्यायं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते ।। ३३६ ।। अन्याऽपदेशेन -: विषयान्तरवणंनच्छन, आश्वासमुखे :. आश्वासादिभागे, भाव्यर्थ पूचनं भायिनः (तिष्यतः) अर्थस्य (विषयस्य) सूचन (ज्ञापनम्) भवेत् ।
आख्यायिकामुदाहरति---यथा हर्षचरितादिः, आदिपदेन दशकुमारचरितादीना परिग्रहः ।
मतान्तरं दूपयितुमुपक्रमते-अपोति । केचित् आचार्या आख्यायिका नायकेनव निबद्धव्या ( वाच्या ) इशि यत् आहुः, तक्ष्युक्तम् । "अपी"ति काव्यादर्शकद्दण्डयाचार्यवचनात् । अपि तु = किन्तु. तत्र - आख्यायिका रूपेण प्रसिद्ध गद्यकाव्ये, अन्यरपि - अपरैरपि नायकभिन्नवक्तभिरपि उदीरणात = कथनाद, अनियमोऽपि = आख्यायिका नायकेनैव वाच्या" इति नियमाऽभावोऽपि इति दण्डयाचार्यमताकतन् ।
आख्यानादयः कथं न लक्षिता इत्याशङ्कय समाधत्ते-पाख्यानादयश्चेति । अव = आख्यायायिकायामेव । एषाम् = आख्यायिकादीनाम उदाहरणं-पञ्चतन्त्रादि।
प्रथ गद्यपद्यमयानि काव्यानि । तत्र चम्पूकाव्यं लक्षयति गद्यति । गद्यपद्यमयं = गद्यपद्यात्मकं, का व्यं, "चम्पूः" इति अभिधीयते ॥ ३३६ ॥
भिन्न विषयके वर्णनके छलसे आश्वासके आदि भागमें आनेवाले विषयकी सूचना होती है, जैसे हर्षचरित आदि ।
कुछ आचार्य "आख्यायिका नायकसे कही जानी चाहिए" ऐसा कहते हैं. वह अनुचित है, "अपि त्वनियमो दृष्टस्तत्राऽप्यन्यैरुदीरणात' ऐसा दण्डी आचार्यने कहा है। अर्थात् आख्यायिका नायकसे भिन्नजनोंसे भी कही गई है। अतः आख्यायिका नायकसे ही कही जानी चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं देखा गया है ।
आख्यान आदि कथा और आख्यायिकामें ही अन्तर्भूत हो गये हैं अतः वे पृथक् नहीं कहे गये हैं । दण्डीने जो कहा है-"अत्रैवेति०" अर्थात् शेष आख्यानजातियां आख्यायिका में ही अन्तर्भूत हो जाती हैं।
आख्यायिका आदिका उदाहरण है-पञ्चतन्त्रादि । गद्यपद्यमयकाव्य । चम्पकाव्य-गद्य पद्यमय "काव्यको चम्पू" कहते हैं ॥३३॥
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साहित्यदर्पणे
यथा-देशराजचरितम्।
गद्यपद्यमयी राजस्तुतिर्विरुदमुच्यते । यथा-विरुदमणिमाला।
करम्भकं तु भाषाभिर्विविधाभिर्विनिर्मितम् ।। ३३७ ।। यथा मम-पौडशभाषामयी प्रशस्तिरत्नावली।
एवमन्येऽपि भेदा उद्देशमात्रप्रसिद्धत्वादुक्तभेदानतिक्रमाच्च न पृथग्लक्षिताः।
इति श्रीमन्नारायणचरणारविन्दमधुवंतसाहित्यार्णवकर्णधार-ध्वनिप्रस्यापन • परमाचार्य-कविसूक्तिरनाकराऽष्टादशभाषावारविलासिनीभुजङ्गसान्धि. विग्रहिक-महापात्र-श्रीविश्वनाथकविराजकृतौ साहित्यदर्पणे
दृश्यश्रव्यकाव्यनिरूपणो नाम षष्ठः परिन्छेदः ।
विरुदं लक्षयति-गद्यपद्यमयीति । गद्यपद्यमयी गद्यपद्यात्मका, राजस्तुतिःभूपालगुणकीर्तनं, "विरुदम्" उच्यते ।
विविधभाषामयं करम्भककाव्यं लक्षयति-करम्भकं त्विति । विविधाभिः= बनेकप्रकाराभिः, भाषाभिः, विनिर्मितं काव्यं "करम्भकम्" इत्यभिधीयते।
काव्यभेदानुपसंहरति-एवमिति । अन्येऽपि = अपरेऽपि, भेदाः काव्यविशेषाः । उद्देशमात्रप्रसिद्धत्वात = उद्देशमात्रेण ( नाममात्रकीर्तनेन ) प्रसिद्धत्वात् (प्रख्यातत्वात् ), उक्तभेदाऽनतिक्रमाच्च = उक्तभेदेषु (निरुक्तकाव्यभेदेषु ) प्रसिद्धत्वात् (अनतिरिक्तत्वात यथातथं तत्रैवान्तर्भावाच्चेति भावः ) न पृथक् लक्षिताः पार्थक्येन । नो लक्षणाङ्किताः, मुख्य भेदाऽन्तःपातित्वादिति भावः । .इति श्रीशेषराजशर्मप्रणीतायां चन्द्रकलाऽभिख्यायां साहित्यदर्पण.
व्याख्यायां षष्टः परिच्छेदः ।।
जैसे-देशराजचरित। विरुद-गद्यपद्यमयी राजस्तुतिको “विरुद" कहते है । जैसे-विरुदमणिमाला।
करम्भक-अनेक भाषाओंसे रचित काव्यको "करम्भक" कहते हैं । जैखे ग्रन्थकारकी रची हुई सोलह भाषावाली-प्रशस्तिरत्नावली।
इस प्रकार और भी भेद है, उद्देश मात्रसे प्रसिद्ध होने में पूर्वोक्त भेदसे अतिरिक्त न होनेसे भी उनका पृथक् लक्षण नहीं किया गया।
साहित्यदर्पणके अनुवादमें षष्ठ परिच्छेद समाप्त हुआ।
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