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लक्षण और उदाहरण हैं । तृतीयमें शब्दाऽलंकारका वर्णन है, जैसे-यमक गोमूत्रिका, अर्द्धभ्रम, सर्वतोभद्र, स्वरनियम, स्थाननियम, वर्णनियम, और प्रहेलिका, इतने विषयोंका निरूपण है। काव्यादर्शके प्रारम्भमें
"चतुर्मुखमुखाऽम्भोजवनहंसवधूर्मम ।
मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्ला सरस्वती ॥" इस श्लोकसे मङ्गलानरण किया है । वस्तुतः यह श्लोक सरस्वतीरहस्योपनिषदका है, दण्डीने उसका उद्धरण किया है। काव्यादर्शमें काव्यके ३ भेदोंका उल्लेख किया है-गद्य, पद्य और मिश्र । मिश्रसे उसमें नाटक और चम्पूका निर्देश किया गया है। काव्य में प्रयोज्य भाषाको दण्डीने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश और मिश्र इस प्रकार ४ भेदों में विभक्त किया है । वे लिखते हैं
"संस्कृतं नाम देवी पागन्याख्याता महर्षिभिः । तद्भवस्तत्समो देशीत्यनेका प्राकृतक्रमः॥" १-३३ "महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः।
सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ॥” १-३४ अर्थात् महषियोंने संस्कृतको "देववाणी" कहा है । प्राकृत भाषाके ३ भेद हैंतद्भव, तत्सम और देशी । महाराष्ट्रमें व्यवहृत भाषा उत्कृष्ट प्राकृत है। सूक्तिरूप रस्नोंके समुद्रस्वरूप "सेतुबन्ध" आदि काव्य जिस महाराष्ट्र भाषामें रवित है। इसी प्रकार देशभेदसे प्राकृत भाषाके शौरसेनी, गौडी और लाटी आदि भेद हैं। आभीर आदिकी भाषा अपभ्रंश रूपमें मानी जाती है। सामान्यतः संस्कनसे भिन्न भाषा अपभ्रंश भाषा मानी जाती है ।
अलंकारशास्त्रियों के दो प्रस्थान देखे जाते हैं, उनमें एक व्यास और भरत मुनिसे उपदिष्ट प्राचीन, जिसके राजा भोज आदि मनुयायी हैं, दूसरा अभिनवगुप्ताचार्य आदि विद्वानोंसे उद्भावित अभिनव, जिसके मम्मटभट्ट आदि विद्वान् अनुगामी हैं। काव्यादर्शमें भी प्राचीन प्रस्थानका अनुगमन किया गया है । काव्यादर्श रीतिमार्गका प्रतिष्ठापक ओर अलंकारमार्गका प्रतिपादक है। कहा जाता है कि भामहने मेवीके मतका अनुसरण किया है और दण्डीने उसका खण्डन किया है । ___ दण्डीका निवास स्थान काञ्ची नगरी थीं। कुछ विद्वान् वैदर्मी रीतिके प्रशंसक होनेसे उन्हें विदर्भ ( बरार ) के निवासी कहते हैं। दण्डीकी प्रशंसा में ऐसी उक्ति है
"जाते जगति वाल्मीको कविरित्यभिधाऽभवत् । कवी इति ततो व्यासे, कवयस्त्वयि दण्डिनि ।।