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________________ पञ्चमः परिच्छेदः ३७९ प्रियानुरागेण या गमनस्य ,संभवात्, पुंश्चल्या वचणं प्रामाणिकं न वेति . संदिग्धासिद्धश्च । . जलकेलि-' इत्यत्र 'य आत्मदर्शनादर्शनाभ्यां चक्रथाकविघटनसंघटनकारी स.चन्द्र एवं' इत्यनुमितिरेवायमिति न वाच्यम् , उत्त्रासकादाव हेतोदोषान्तरमाह-पुंश्चल्या इति । पुश्चल्या:-कुलटायाः । प्रामाणिक = प्रमाजनक, न वेति सान्दिग्धाऽसिद्धश्च । पक्षे गोदावरीतीरे, हेतो:-सिंहसत्त्वस्य सन्देहात सन्दिग्धाऽसिरित्यर्थः ।, अलङ्काराऽनुमानं दूषयति-जलकेलीत्यत्र । जलकेलीत्यादिपद्य "राधिकावदनं, चन्द्रः, आत्मदर्शनाऽदर्शनाभ्यां कोक मिथुन विघटनसंघटनकारित्वात्" इत्यनुमानेन राधिकावदने चन्द्रत्वारोपेण रूपकाऽलङ्कारप्रतीतिः इति अनुमितिरेव न व्यंजना, इत्यपि न वाच्यं - नो वक्तव्यम्, उत्त्रासकादो = भयदादी, यस्य करतालदानादिनोवासेन पक्षिणो विघटन्ते तदभावे संघटन्ते । स उत्त्रासकः, तदादो। अनेकान्तिकत्वात् = सव्यभिचारवाद । उत्त्रासकादिनाऽपि चक्रवाकमिथुनस्य विघटनं भवति तदभावे च संघटनं च भवति अतो व्यभिचार इति भावः । सामर्थ्यसे समझाना चाहिए । इस कारणसे यहाँपर भ्रमणविधिरूप वाच्यार्य लिङ्गसे भ्रमणनिषेधरूप व्यङ्ग्याऽयं लिङ्गी ( साध्य ) का ज्ञान अनुमानमें ही पर्यवसित होता है, जैसे “पर्वतो वह्निमान धूमाद" इस अनुमानमें धूमरूप लिङ्ग (हेतु ) से पर्वतमें वह्निरूप साध्यका ज्ञान होता है वैसे ही "गोदावरीतीरं मीरुभ्रमणाऽयोग्य, सिंहसत्त्वात्" अर्थात् गोदावरीका तीर, भीरुओंके भ्रमणके योग्य नहीं है, सिंहके रहनेसे इस अनुमानसे लिङ्गरूप वाच्यार्थ सिंहसत्त्व (सिंहके रहने ) से लिङ्गो भीरुभ्रमणके निषेधरूफ अर्थका ज्ञान होता है, वह अनुमानमें ही पर्यवसित होता है, इतना अंश महिमभट्टके मतका प्रदर्शक है । अब ग्रन्थकार उसका खण्डन करते हैं । यह ठीक नहीं। क्योंकि "मम धम्मिअ" इस पद्यमें घरमें कुत्तेसे दूर होनेसे विहित भ्रमण, गोदावरीके तीरमें सिंहकी उपलब्धिसे अभ्रमण ( भ्रमण निषेध ) का अनुमान करता है, ऐसा जो वक्तव्य हैं उसमें हेतु अनेकान्तिक ( ब्यभिचारयुक्त ) है, क्योंकि भीरु पुरुषका भी गुरु वा प्रभुकी आज्ञासे अथवा प्रियाके अनुरागसे भ्रमण हो सकता है। इसी तरह कुलटाका बन . प्रामाणिक है या नहीं ऐसा सन्देह होनेसे असिद्ध नामका हेत्वाभास भी है। इसी तरह “जलकेलि." : इत्यादि पद्य में "जो ( राधिकाका मुख) अपने दर्शनसे चक्रवाकोंका वियोग और अदर्शनसे उनका संयोग करानेवाला है वह चन्द्र ही है। यहाँपर अनुमानका स्वरूप-राधिकावदनं (पक्ष ), चन्द्र ( साध्यम् ) आत्मदर्शनादर्शनाभ्यां कोकमिथुनविघटनसंघटनकारित्वात् (हेतु) ऐसा होना चाहिए । यह अनुमान ही है. ऐसा जो महिमभट्टका कथन है, वह भी उचित नहीं है। पास करानेवाले किसी..
SR No.023456
Book TitleSahityadarpanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSheshraj Sharma Negmi
PublisherKrushnadas Academy
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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