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काम्या कारण मानकर सलक्षण और सोदाहरण काव्य के ४ भेदोंको माना हैं । ये रस स्वरूप लिखकर उसमें ११ सिद्धान्तियोंके मत देते हैं । स्थायी भाव, विभावादिस्वरूप, ९ रस और उनके उदाहरण, रसमें अन्य ज्ञातव्य विषय, रसदोष, गुणनिरूपण, गुणमें वामन आदि आचार्योंके मत, शब्द और अर्थ के गुणोंके लक्षण, उन सबका पूर्वोक्त ३ गुणोंमें अन्तर्भाव, गुण व्यजिका रचना, रचनामें वर्जनीय, भावध्वनि, भावलक्षण, व्यभिचारी भाव, उनके लक्षण और उदाहरण, रसाभास, भावशान्ति, भावोदय, भाव. सन्धि और भावशबलता आदि विषयोंका वर्णन है। -
द्वितीय आननमें संलक्ष्मक्रमध्वनि, नानाोंमें शक्ति नियामक संयोग आदि, शब्द. शक्तिमूलक निमें अलङ्कारध्वनि, वस्तुध्वनि, अर्थशक्ति मूलकध्वनि, लक्षणामूलध्वनि, अभिधाशक्तिनिरूपण, लक्षणाक्तिनिरूपण, लाक्षणिकं वाक्योंका शाब्दबोधनिरूपण, अलङ्कारांनरूपण, उसमें उपमासे लेकर उत्तर अलङ्कारतक कुल ७० अलङ्कारोंका निरूपण है । उत्तर अलङ्कारके उदाहरणमें"किं कुर्वते दरिद्राः ? कासारवती धरा मनोज्ञतरा । कोपावनखिलोक्याम्"।
इतना ही अश उपलब्ध है। यह रसगङ्गाधरस्थ विषयोंकी आपाततः की गई सूची है । इस ग्रन्थपर पण्डितराजके ५० वर्षों के अनन्तरं महावयाकरण नागेशभट्टने "गुरुमर्मप्रकाशिका" नामकी संक्षिप्त टीका लिखी है। कहीं-कहीं इसमें अध्यय्यदीक्षितके पक्षका अनुसरण कर मूलप्रन्यका खण्डन भी है।
. पण्डित पुरुषोत्तम चतुर्वेदीने नागरीप्रचारिणी सभासे रसगङ्गाधरका हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित किया है । नवीन विद्वानोंमें भट्ट मथुरानाथ शास्त्रीने "सरला" नामक संक्षिप्त टीका की है इसमें कहीं कहीं नागेश भट्टपर आक्षेप भी किया गया है। इसी तरह कविशेखर बदरीनाथशाजीने प्रथम आननपर पण्डित मदनमोहन झाजीने द्वितीय आनन रर सविस्तर चन्द्रिका टीका हिन्दी अनुवाद साहत की है । एवम् आचार्य मधुसूदनशास्त्रीने नवीन टीका, हिन्दी अनुवाद और विस्तृत भूमिका आदि हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रकाशित किया है। इसी तरह पण्डितप्रवर श्रीकेदारनाथ ओझाजीने संस्कृतविश्वविद्यालयसे "रसन्द्रिका" नामक प्रोढ टोका प्रकाशित की है। .
पण्डितराज जगन्नाथके अन्य ग्रन्थ इस प्रकार हैं
१चित्रमीमांसाखण्डन । २ मनोरमाकुचमदिनी । ३ गङ्गालहरी। ४ अमृतलहरी ( यमुनास्तुति ) । ५ करुणालहरी (कृष्णनुति )। ६ लक्ष्मीलहरी। ७ सुधालहरी ( सूर्यस्तुति )। ८ भामिनीविलासं, इसमें प्रास्ताविकविलास, शृङ्गारविलास, कष्णविलास और शान्तविलास, कुल ४ विलास संकलित हैं। ९ सफलारी। १० प्राणाभर" ( कामरूपनरेशका प्रशंसापरक ) और ११ जगदाभरण (जयसिंह राणाका वर्णन)।