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( २२ ) अनुप्रासयमक के १० भेद, चित्र काव्य के ७ भेद, प्रहेलिकाके १६ भेद, गोमूत्रिका और सर्वतोभद्र आदि बन्ध, उपमा, रूपक, सहोक्ति आदि अर्थाऽलङ्कार, शब्दाऽर्थाऽलङ्कार, कान्यके गुण और दोष : इत्यादि बहुतसे विषयोंका वर्णन अग्निपुराणमें उपलब्ध होता है।
२ नाट्यशास्त्र, कर्ता-भरत मुनि, समय-त्रेतायुग, नवीन मतमें ई० पू० प्रथम शताब्दी । भरत मुनि इस सम्प्रदायके सबसे प्राचीन आचार्य हैं। नाटयशास्त्र में संगीत, नृत्य नादि विषयोंका विस्तृत निरूपण है। भरत मुनिने उपमा, रूपक, दीपक गोर यमक ४ अलंकारोंका विवेचन किया है। इसमें नाटकको लक्ष्य कर शृङ्गार बादि रसोंका (शान्तको छोड़कर) निरूपण किया गया है। नाट्यशास्पके नये संस्करणमें ३७ अध्याय और चौखम्बासंस्कृतसोरीज के संस्करण में ३६ अध्याय पलब्ध होते हैं, अभिनवगुप्ताचार्यने इसकी "अभिनवभारती” नामकी उत्कृष्ट टीकाकी रचना की है। उनके मताऽनुसार इसकी प्रलोकसंख्या ६००० है । भवभूतिने उत्तररामचरितके चतुर्थ अङ्क में भरतमुनिकी "तौर्यत्रिकसूत्रकार" लिखा है । नाटय. शास्त्रके प्रथम अध्याय में नाटककी उत्पत्तिका वर्णन मिलता है । सत्ययुगमें नाटककी बावश्यकता नहीं थीं, पीछे भनुष्योंकी प्रीतिके लिए. "जग्राह पाठ्यमृग्वेदात्सामभ्यो गीतमेव च ।
यजुर्वेदादभिनयान रसानाथर्वणादपि ॥" अर्थात् ऋग्वेदसे पाठय, सामवेदसे गीत, यजुर्वेदसे अभिनय और अथर्ववेदसे रसोंको लेकर नाटकका प्रणयन हुआ है । इसीमें लिखा है कि शिवजीने ताण्डव, पार्वतीने लास्य नत्य विष्णुने नाटयरीतिका दान किया, तब भरतमुनिने नाटयशास्त्र. की रचना कर मनुष्यलोकमें प्रचार किया। इस प्रकार प्रकृत नाटयशास्त्र भारतीय साहित्य, संगीत और नृत्यकलाके महान् कोषके रूपमें है। इसमें नाटयकी प्रधानता होनेपर भी उसके उपकारक छन्द, अलंकार और संगीतके मूल सिद्धान्तका भी प्रति. पादन किया गया है। इसमें कारिका, सूत्र और अनुवंश्य श्लोकके रूपमें ३ प्रकार. की रचनाएँ पाई जाती हैं ! अभिनवगुप्तकी टीका के अनुसार अनुवंश्य श्लोक प्राचीन प्राचार्योसे निर्मित है ऐसा प्रतीत होता है । अभिनवगुप्तने नाट्यशास्त्रको "भरतसूत्र" मोर नान्यदेव नाम के विद्वान्ने भरतको “सूत्रकृत्" शब्दसे उल्लेख किया है।
मेधावी भामहने अपने ग्रन्थमें "मेधावी" नामके अलंकारशास्त्रीका दो वार उल्लेख किया है । संप्रति इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।
३ विष्णुधर्मोत्तर पुराण, कर्ता-ज्यासमुनि, समय द्वापरका अन्त्य भाग इसके