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श्रीः उदाहार
साहित्यदर्पणके विषय में कुछ लिखनेके पहले हम "साहित्य" पदके विषयमें कुछ विचार करते हैं। "सहितस्य भावः कर्म वा साहित्यम्" इस व्युत्पत्तिसे सहित पदसे ध्यन् प्रत्यय होकर "साहित्य" पद निष्पन्न होता है। इस प्रकार साहित्य पदका सामान्य अर्थ होता है सहितका भाव वा कर्म । यह हुआ इसका योगिक अर्थ । परन्तु संस्कृत. वाल्मयमें "हितेन सहिती शब्दाऽयो सहिनी, तयोर्भावः कर्म वा साहित्यम्" ऐसी व्युत्पत्तिसे पूर्ववत् ष्यम् प्रत्ययसे यह पद योगरूढ हो जाता है। इस प्रकार साहित्यका अर्थ हुआ काव्य । राजर्षि भर्तृहरिने अपने नीतिशतकमें
"साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः। .
तृणं न खादपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥" . ऐसा लिखकर काव्यके अर्थमें साहित्य शब्दका प्रयोग किया है। इसी प्रकार महाकवि विलणने भी अपने विक्रमादेवचरितकाम्यमें
"साहित्यपाथोनिधिमन्थनोत्थं कर्णाऽमृतं रक्षत हे कवीन्द्राः!
यदस्य दैत्या इव लुण्ठनाय काव्याऽर्थचौरा: प्रगुणीभवन्ति ॥ १-११
ऐसा लिखकर साहित्यका अर्थ काव्य ही मान लिया है। साहित्यदर्पणके . रचयिता विश्वन थ कविराजने भी इसी अर्थमें साहित्य शब्दका व्यवहार किया है। जैसे दर्पणसे मुखमण्डलका पूर्ण रूपसे दर्शन होता है उसी प्रकार साहित्यदर्पणसे हमें काव्यका लक्षण, काव्यशरीर-शब्द और अर्थ, अर्थबोधक अभिधा आदि वृत्तियां; रसधर्म प्रसाद आदि गुण, काव्य लक्षणमें घटित रस, रसाभास, भाव, ध्वनि और काव्यके भेद दृश्य और बग्य आदि, काव्यमें परित्याज्य श्रुतिकटु आदि दोष, पदसंघटना वंदर्मी मादि रोतियां, काव्यसौन्दर्यके आधायक शब्दाऽलङ्कार और अर्थाऽलङ्कार आदि, तन्मूलक संसृष्टि और संकर इत्यादि समस्त आलङ्कारिक विषयोंका आमूलचूड दर्शन मिलता है। अतः साहित्यदर्पण साहित्यका लक्षणग्रन्थ अर्थात् अलङ्कारशास्त्र वा साहित्यविद्या है । इसे आधुनिक संकेतके अनुसार "काव्यशास्त्र" भी कह सकते हैं। काव्यमीमांसाकार राजशेखरने भी "शन्दाऽयोर्यथावत्सहभावेन विद्या साहित्यविद्या" ऐसा लिखकर काव्यके अर्थमें साहित्यका सकृत कर "साहित्यविद्या" पदसे अलङ्कारशास्त्रका निर्देश किया है। अंग्रेजीमें इसे रिटोरिक्स (Rhetorics) कहते हैं । अब "अलङ्कारशास्त्र" के विषयमें कुछ कहना मावश्यक