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________________ साहित्यदर्पले मिल पा र मामा की सीमा शब्देनैव पूर्यते। न द्वितीया-यांद हि गोशब्दावाहीकार्थो न प्रतीयते, सदाऽस्य वाहीकशब्दस्य च सामानाधिकरण्यमसंगतं स्यात् । तस्मादत्र गोशब्दो मुख्यया वृत्त्या वाहीकशब्देन सहान्वयमलममानोऽज्ञत्वादिसाधर्म्यसंबन्धाद्वाहीकार्थ लक्षयति। वाहीकस्याज्ञत्वाधतिशयबोधनं प्रयोजनम् । अस्य = गोशब्दस्य, वाहीकशब्दस्य च, सामानाऽधि करण्यम् = एकार्थप्रतिपादकत्वम असंगतम् = अयुक्तं स्यात, तस्मात् = कारणाद, अत्र = अस्मिन् स्थले "गौर्वाहीक इत्यत्रेति भावः । गोशब्दः = गोरूपाऽर्थः, मुख्यया वृत्त्या = अभिधाशक्त्या, वाहीव शब्देन सह = वाहीकरूपाऽर्थेन समम्, अन्वयम् = अभेदसम्बन्धेन ससर्गम्, अलभमानः% अप्राप्नुवन्, अज्ञत्वादिः, साधर्म्यसम्बन्धात् = तुल्यधर्मतासम्बन्धात्, वाहीकाऽर्थ-वाहीक रूपाऽर्थ, लक्षयति लक्षणया प्रतिपादयति, गोसदृशत्वेन रूपेणेति शेषः वाहीकस्य "वाही कोऽज्ञा" इति प्रतिपादनादलभ्यम् अज्ञत्वातिशयं, प्रयोजनं लक्षणाफलम् । अत्राहार्याऽ भेदातीतिः प्रयोजनमिनि काव्यप्रकाशकारः । इत्थं च एतस्या गौणीवृत्त्या मुख्याऽर्थबाधाहै, यह मत भी ठीक नहीं है, क्योंकि गौ गवय, चन्द्र मुख आदि युग्म शब्दोंमें जैसेकि गो और गवयमें अवयवमें समता और चन्द्र और मुखमें प्रसाद ( आह्लादकत्व )की समता होनेपर भी गो गवय अर्थको और मुख चन्द्ररूप अर्थको अभिधा वृत्तिसे प्रतिपादन नहीं कर सकता है । वैसे ही गो शब्द जाड्याद्यतिमयकी लक्षणासे भी वाहीक अर्थको अभिधासे प्रतिपादन नहीं कर सकता है। तीसरा पक्ष-अविनाभाव (ज्याप्ति ) से गो शब्द वाहीक अर्थकी प्रतीति करता है, यह मत भी ठीक नहीं है, क्योंकि अविनाभाव (व्याप्ति). से लभ्य अर्थका शब्दजन्य अन्वयमें प्रवेश असंभव है, क्योंकि शब्दसम्बन्धिनी आकाशा शब्दसे ही पूर्ण होती है अविनाभावसे लभ्य अर्थसे नहीं, ( अर्थाऽध्याहारवादी मीमांसक आदिके मतमें तो अविनाभावलभ्य अर्थसे भी आकाङ्क्षा पूर्ण होती है)। अब द्वितीय पक्ष-गो शब्दसे वाहीक अर्थ प्रतीत नहीं होता है, इस मतका खण्डन करते है । गो शब्दसे वाहीक अर्थ प्रतीत नहीं होता है तो उसका औरवाहीक शब्दका सामानाधिकरण्य ( एक आश्रय में रहना ) असंगत होगा। अब सिवान्त पक्ष दिखलाते हैं-इस कारणसे गो शब्द मुख्य (अभिधा) वृत्तिसे . वाहीक शब्दके साथ अन्वय (अभेद सम्बन्धसे संसर्गको) न पाकर अज्ञत्व आदि साधर्म्य( तुल्यधर्मता) के सम्बन्धसे वाहीक स्वरूप अर्थको. लक्षणासे प्रतिपादन करता है। व्यञ्जनासे वाहीककी अत्यन्त अज्ञता आदिका प्रतिपावन करना प्रयोजन है। यह लक्षणा मुण (अशत्व आदि साधारण धर्म) के योगसे "गौणी" कही जाती है । पहली (सादृश्यसे अतिरिक्त सम्बन्धसे युक्त) लक्षणा उपचारके मिश्रण न होनेसे "शुद्धा" कही जाती है।
SR No.023456
Book TitleSahityadarpanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSheshraj Sharma Negmi
PublisherKrushnadas Academy
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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