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किया है। बष्ट काव्यके दृश्य और श्रव्य भेद, दृश्यके २ भेद - रूपक और उपरूपक एवम उकके नाटक आदि दश भेद, उपरूपकके नाटिका आदि १८ भेदोंक लक्षण और उदाहरण आदिका प्रदर्शन किया हैं, इसी तरह श्रव्यकाव्यके भेद, गद्य और पद्य गद्य काव्यके कथा और आख्यायिका आदि तथा पद्यकाव्यके खण्डकाव्य और महाकाव्य आदि भेदोंका वर्णन है । सप्तममें दोषका लक्षण कर पद, पदांश, वाक्य, अर्थ और रसके दोषोंका सविस्तर वर्णन है । अष्टम में काव्यके प्रसाद माधुर्य और ओज ३ गुणोंका निरूपण है, अन्य आचार्योंसे सम्मत दश शब्दगुणों और दश अर्थात तीन गुणोंमें अन्तर्भाव और कहीं कहीं खण्डन किया गया है। नवममें वैदर्भी, गोडी, पाचाली और लाटी ४ रीतियोंका सलक्षण और सोदाहरण विवेचन है । दशममें शब्दाऽलङ्कारों और अर्थाऽलङ्कारोंका तथा मिश्र - संसृष्टि और सङ्कर के तीनों भेदों का सविस्तर निरूपण किया गया है। स्थान-स्थानपर अन्य आचार्यक मतोंका खण्डन भी किया है ।
२६ रसतरङ्गिणी, रसमञ्जरी, कर्ता-भानुदत्त, समय - ई० १४ शताब्दीका आरम्भ - भानुदत्त मिथिलाके शेव ब्राह्मण थे। ये पण्डित गणेश्वरके पुत्र थे । रसतरङ्गिणी - तरङ्गों में विभक्त है। प्रथम तरङ्गमें भावका लक्षण और स्थायी भावके भेद है, द्वितीय में विभावका लक्षण और भेद है। तृनमें अनुभावका वर्णन है । चतुर्थ में ८ सात्विक भावोंका निरूपण है । पश्चममें व्यभिचारी भावका वर्णन है । षष्ठमें रसका लक्षण और शृङ्गार रसका विस्तृत वर्णन है । सप्तममें हास्य और अन्य रसोंका निरूपण है । अष्टम में स्थायी भावके ८ भेद, व्यभिचारी भावके २० भेद, रसके ८ भेद इन तीनोंसे उत्पन्न दृष्टिया और उनके कुछ उदाहरण वर्णित हैं। इस ग्रन्थकी १० टीकाएं हैं, उनमें वेणीदत्त तकंागीश ( ई० १५५३ ) की रसिकरञ्जन, जीवराजको सेतु टीका ( ई० १६७५ ), गङ्गाराम जड़े ( ई० १७३८ ) की नौका और नागेशभट्ट ( ई० १८ शताब्दी ) की टीका अधिक प्रसिद्ध हैं | भानुदत्तने अपने दोनों ही ग्रन्थों में उदाहरण प्रायः स्वरचित ही दिया है । "रसमवरी" इनकी पूर्वकृति मालूम पड़ती है । इन दो ग्रन्थोंके अतिरिक्त भानुदतने गीतगौरीपति वा गीतगौरीण काव्य, कुमारभार्गवीय, अलंकारतिलक, शृङ्गारदीपिका इतने ग्रन्थोंका निर्माण किया है ऐसा कहा जाता है। रसमञ्जरीके तृतीय भाग में केवल नायिकाभेदका विस्तृत वर्णन है । शेष भागों में दूती, शृङ्गारनायत, उनके भेद, नायकमित्र, सात्त्विक ८ गुण, शृङ्गारके २ भेद और विप्रलम्भ शृङ्गारकी १० अवस्थाएं वर्णित हैं। इसकी ११ टीकाएं हैं ।
२७ उज्ज्वलनीलमणि, कर्ता - रूपगोस्वामी, समय - ई० १५२०, रूपगोस्वाभी बंगालके वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभुके शिष्य थे । ये मुकुन्दके पौत्र और कुमारके पुत्र थे । इनके मूल पुरुष कर्नाटक ब्राह्मण थे । उज्ज्वलनीलमणिके
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