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________________ .( १० ) २४ साहित्यसारमें अच्युतराज कहते हैं "तत्र निर्दोषशब्दाऽर्थगुणवत्त्वे सति स्फुटम् । गद्यादिबन्धरूपत्वं काव्यसामान्यलक्षणम् ॥" अर्थात् दोषरहित शब्द और अर्थ गुणसे युक्त होकर गद्य शीर पद्यसे निबद्ध जो सन्दर्भ है वह काव्यका सामान्य लक्षण है। २५ साहित्य रत्नाकरमें धर्मसूरि लिखते हैं _ "सगुणाऽलस्कृती काव्यं पदाऽर्थों दोषवर्जितौ।" अर्थात् गुण और अलङ्कारसे सहित, दोषते रहित शब्द और अर्थको "कान्य" कहते हैं। २६ अलङ्कारचन्द्रिकामें न्यायवागीशके मत में "गुणाऽलङ्कारसंयुक्तो शब्दाऽर्थो रसभावगौ। नित्यदोषविनिर्मुक्तौ काव्यमित्यभिधीयते ।।" अर्थात् गुण और अलङ्कारसे संयुक्त, रस और भावके प्रतिपादक और नित्य: दोषसे रहित शब्द और अर्थको "काव्य" कहते हैं। २७ काव्यप्रकाशकी "प्रदीपिका" टीकाके रचयिता चण्डीदास 'आस्वादजीवातुः पदसन्दर्भः काव्यम्" रसका जीवनौषध पदसन्दर्भ "काव्य" है, ऐसा उल्लेख करते हैं। इस प्रकार यहाँ २७ आचार्योंके मतानुसार काव्यका लक्षण लिखा गया हैं, इनमें मम्मटमट्ट, विश्वनाथ कविराज और पण्डितराज जगन्नाथके मत अधिक प्रसिद्ध और विद्वज्जनोंसे समादत हैं । अब काम्य के प्रयोजनके विषय में कुछ लिखते हैं । काव्यप्रकाशमें मम्मटभट्टका वक्तव्य है "काव्यं यशसेऽर्थकते. व्यवहारविदे शिवतरक्षतये । सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥ अर्थात् काव्य यश, अर्थ ( धन ) और व्यवहारका परिज्ञान 'अकल्याणके परिवारके और तत्क्षण ( सुनने वा देखनेके अनन्तर ) ही कान्ताके समान उपदेश देनेके लिए कारण होता है। वाक्यके तीन भेद होते हैं प्रभुसम्मित, सुहृत्सम्मित और कान्तासम्मित इनमें पहला वेदवाक्य "अहरहः सन्ध्यामुपासीत' प्रतिदिन सन्ध्याकी उपासना करे ऐसा आदेशवाला वाक्य "प्रभृम्मित" है । लोकमें भी प्रभु भृत्यको इष्ट और अनिष्ट समस्त कार्य में प्रवृत्त करता है, अतः प्रभुसम्मित वाक्य में इष्ट प्राप्तिका उपाय और मनोहरता नहीं है । दूसरा शक्य सुहृत्सम्मित है, जैसे मित्र अपने मित्रको इष्टप्राप्तिमें प्रवर्तक वाक्य कहता है, इस कोटिमें इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्रके वाक्य
SR No.023456
Book TitleSahityadarpanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSheshraj Sharma Negmi
PublisherKrushnadas Academy
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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