Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Shivmuni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विपाक सूत्रम् टीकाकार जैन धर्म दिवाकर, जैनागमरत्नाकर, श्रमणसंघ के प्रथम पट्टधर आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के सुशिष्य पंजाब केसरी बहुश्रुत महाश्रमण गुरुदेव श्री ज्ञान मुनि जी महाराज सम्पादक 'जैन धर्म दिवाकर, ध्यानयोगी श्रमणसंघ के चतुर्थ पट्टधर आचार्य सम्राट श्री शिवमुनि जी महाराज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥णमोसुअस्स॥ श्री विपाकसूत्रम् संस्कृतच्छाया-पदार्थान्वय-मूलार्थोपेतं आत्मज्ञानविनोदिनी हिन्दी-भाषा-टीकासहितंच व्याख्याकार जैन धर्म दिवाकर, जैनागमरत्नाकर, श्रमणसंघ के प्रथम पट्टधर आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के सुशिष्य पंजाब केसरी बहुश्रुत महाश्रमण गुरुदेव - श्री ज्ञान मुनि जी महाराज सम्पादक जैन धर्म दिवाकर, ध्यानयोगी श्रमणसंघ के चतुर्थ पट्टधर आचार्य सम्राट श्री शिवमुनि जी महाराज प्रकाशक आत्म-ज्ञान-श्रमण-शिव आगम प्रकाशन समिति (लुधियाना) भगवान महावीर मैडीटेशन एण्ड रिसर्च सेंटर ट्रस्ट (दिल्ली) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tant aft आगम : श्री विपाकसूत्रम् अदृष्ट आशीर्वाद : आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज व्याख्याकार : बहुश्रुत गुरुदेव श्री ज्ञानमुनि जी महाराज संपादक : आचार्य सम्राट डॉ श्री शिवमनि जी महाराज सहयोग : श्रमणसंघीय मंत्री, श्रमणश्रेष्ठ कर्मठयोगी श्री शिरीष मुनि जी महाराज प्रकाशक : आत्म-ज्ञान-श्रमण-शिव आगम प्रकाशन समिति लुधियाना .. . भगवान महावीर मेडीटेशन एण्ड रिसर्च सेंटर ट्रस्ट, नई दिल्ली प्रतियां : 1100 अवतरण : जुलाई 2004 सहयोग राशि : पांच सौ रुपए मात्र प्राप्ति स्थल :: (1) भगवान् महावीर मेडीटेशन एण्ड रिसर्च सेन्टर ट्रस्ट श्री आर के जैन, एस. ई 62-63, सिंहलपुर विलेज, शालिमार बाग, नई दिल्ली। दूरभाष : 32030139 (2) श्री चन्द्रकांत एम. मेहता, ए-7, मोंटवर्ट-2 सर्वे नं० 128/2ए, पाषाण सुस रोड़ पूना-411021 दूरभाष : 020-25862045 (3) श्री विनोद कोठारी, 3, श्री जी कृपा, प्रभात कॉलोनी, 6 वां मार्ग शान्ताक्रुज (वेस्ट) मुंबई-(महा:) कम्पोजिंग : स्वतन्त्र जैन 21-ए, जैन कॉलोनी, जालन्धर दूरभाष : 0181-2208436, 9855285970 मुद्रण व्यवस्था कोमल प्रकाशन, विनोद शर्मा म० नं० 2088/5, गली नं० 19, प्रेम नगर, (निकट जखीरा) नई दिल्ली-8 दूरभाष : 25873841, 9810765003 प्रथम संस्करण : महावीराब्द 2480 विक्रमाब्द 2010 ईस्वी सन् 1948 द्वितीय संस्करण : महावीराब्द 2530 विक्रमाब्द 2061 ईस्वी सन् 2004 (c) सर्वाधिकार सुरक्षित Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AISSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSS SSSSSSSSSS जैन धर्म दिवाकर जैनागम रत्नाकर ज्ञान महोदधि आचार्य समाट् श्री आत्माराम जी महाराज Page #5 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय यह अतीव हर्ष का विषय है कि जैन धर्म दिवाकर आचार्य सम्राट् श्री शिवमुनि जी महाराज के दिशानिर्देशन में जैन धर्मदिवाकर जैनागम रत्नाकर आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज द्वारा व्याख्यायित आगमों का पुनर्प्रकाशन महायज्ञ द्रुतगति से प्रगतिशील है। मात्र दो वर्ष की अल्पावधि में आगमों के ग्यारह संस्करणों का प्रकाशन कार्य पूर्ण हो चुका है। निश्चित ही यह एक दुरूह कार्य है और प्रशंसनीय भी। यह दुरूह कार्य आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज की अदृष्ट कृपा और आचार्य सम्राट् श्री शिवमुनि जी महाराज की सृजनधर्मी कार्य शैली और उत्साहमयी प्रेरणा से ही निरन्तर सफलता पूर्वक प्रगतिमान है। हम इसमें निमित्त मात्र हैं। प्रस्तुत आगम श्री विपाक सूत्रम्एक विशालकाय ग्रन्थ है।इस आगम की व्याख्या की रचना अर्द्धशती पूर्व बहुश्रुत गुरुदेव श्री ज्ञान मुनि जी महाराज ने अपने श्रद्धेय गुरुदेव आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज के दिशानिर्देशन में की। विपाक सूत्र पर ऐसी सरल और सटीक व्याख्या आज तक अन्यत्र देखने में नहीं आई। श्रमण-श्रमणी वर्ग के अतिरिक्त मुमुक्षु श्रावक-श्राविका वर्ग भी इस आगम का बड़ी श्रद्धा से स्वाध्याय करते हैं तथा कर्मसिद्धान्त के गूढ़ रहस्यों से अत्यन्त सरलता से परिचित बनते हैं। गुरुदेव श्री ज्ञानमुनि जी महाराज का मुमुक्षु अध्येता वर्ग पर यह महान उपकार है जो सदैव अभिनन्दनीय रहेगा। प्रस्तुत आगम का प्रथम बार प्रकाशन पांच दशक पूर्व हुआ था।इस सुदीर्घ कालावधि में इस आगम के स्वाध्याय से लाखों भव्यों को कल्याण का राजमार्ग प्राप्त हुआ है। वर्तमान में यह आगम अनुपलब्ध प्रायः है। इसी हेतु आचार्य देव श्री शिवमुनि जी महाराज ने कठिन परिश्रम पूर्वक इस आगम का सम्पादन करके पुनर्प्रकाशनार्थ तैयार किया। आचार्य देव की इस महान् कृपा के हम हार्दिक आभारी हैं। __ आगम प्रकाशन समिति आगम प्रकाशन के अपने अभियान पर सतत गतिमान है। अनेक सहयोगी श्रावक-रत्न समिति के सदस्य बनकर श्रुत प्रभावना के इस महान् उपक्रम में अपना सहयोग अर्पित कर चुके हैं। जैन जगत के समस्त उदारमना महानुभावों से हम साग्रह निवेदन करते हैं कि इस पुण्य प्रसंग में अपना सहयोग प्रदान कर श्रुतप्रभावना के महापुण्य के संभागी बनें। - आत्म-ज्ञान-श्रमण-शिव आगम प्रकाशन समिति लुधियाना - भगवान महावीर मेडिटेशन एण्ड रिसर्च सेंटर ट्रस्ट दिल्ली प्रकाशकीय] श्री विपाक सूत्रम् Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म, मांसाहार और अनैतिक तथा अधर्म पूर्ण आचार व व्यापार दुःख के द्वार हैं। दान, शील, तप और विशुद्ध भावनाएं सुख के द्वार हैं। व्यक्ति का सुख या दुःख किसी पराशक्ति के हाथ में नहीं है, बल्कि व्यक्ति के स्वयं के हाथ में है। भगवान महावीर का स्पष्ट उद्घोष "बंधप्प मोक्खो तुज्झत्थेव।" मानव ! तेरे दुःख रूप बन्धनों और सुख रूप मोक्ष का नियंता तू स्वयं है। लोक या परलोक की अन्य कोई शक्ति तुझे सुखी अथवा दुखी नहीं कर सकती।तू सुखी है तो उसका कारण तू स्वयं है, दुखी है तो उसका कारण भी तू स्वयं है। बहुत स्पष्ट संदेश सूत्र है भगवान महावीर का। इस संदेश को हृदयंगम करने वाला भव्य प्राणी दुःख-द्वन्द्वसेसदा-सर्वदा के लिए मुक्त हो जाता है। प्रस्तुत आगम ग्रन्थका कथ्य यही है। बीस सुमधुर और रोमांचक कथाओं में कर्मसिद्धान्त का सुन्दर संकलन हुआ है। पाठक बहुत ही सरलता से इस सत्य को समझ लेता है कि मनुष्य को सुख-दुख का दाता अन्य कोई नहीं है बल्कि उसके ही अपने कर्म हैं जो उसे सुखी और दुःखी बनाते हैं। प्रस्तुत आगम ग्रन्थ केस्वाध्याय से व्यक्ति को सहज ही प्रबल प्रेरणा प्राप्त होती है कि वह हिंसादि से मुक्त हो और दान-दयादि से युक्त हो। प्रस्तुत विशाल आगम के व्याख्याकार हैं मेरे दादा गुरुदेव पंजाब केसरी महाश्रमण श्री ज्ञानमुनि जी महाराज। श्रुतधर्म के प्रतिमान पुरुष आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज की चरणसन्निधि में बैठ कर गुरुदेव श्री ज्ञान मुनि जी महाराज आगम वाङ्मय में गहरे और गहरे पैठे। प्रस्तुत आगम की सरल, सटीक और विशद व्याख्या आगम वाङ्मय पर उनके असाधारण अधिकार केसाथ-साथ उनकी सुललित लेखन शैली का भी अनुपम उदाहरण है। ' प्रस्तुत ग्रन्थ के संपादक हैं लोक में आलोक के प्रतिमान आचार्य सम्राट्गुरुदेव श्री शिवमुनि जी महाराज।आचार्य श्री का सृजनधर्मी व्यक्तित्व जैन-जनेतर जगत में अपनी विशेष पहचान रखता है।क्षण-प्रतिक्षण सृजन-साधना में संलग्न रहना आचार्य श्री का स्वभाव है। स्वाध्याय, ध्यान और तप की त्रिपथगा में आचार्य श्री स्वयं तो गहरे पैठे ही हैं, मुमुक्षु जन समाज के लिए भी वेइसमें पैठने के लिए आमंत्रण बने हुए हैं। लाखों हृदय उनके आमंत्रण में बन्धे हैं और लाखों ने उनसे धर्म के शुद्ध स्वरूप का अमृत वरदान पाया है। ___ आचार्य श्री केमंगलमय दिशानिर्देशन में आगम सम्पादन व प्रकाशन का कार्यक्रम प्रगतिमान है।ध्यान और तप में सतत साधनाशील आचार्य श्री श्रुत सम्पादन में भी अपना समय समर्पित करते हैं। 4] श्री विपाक सूत्रम् . . [दो शब्द Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STOSTERISHNADESH BohagRRIGARDARSHURISMISTRIBUTORIGHT S RESOURCES ARRIVER BRAKE CALIPER बहुश्रुत, पंजाब केसरी, गुरुदेव श्री ज्ञान मुनि जी महाराज Page #9 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगत दो वर्षों में आचार्य देव श्री आत्माराम जी महाराज द्वारा व्याख्यायित आगमों के दशाधिक संस्करण आचार्य श्री की कलम का संस्पर्श पाकर प्रकाशित हो चुके हैं। आचार्य श्री के कार्य की यह गतिशीलता निश्चित ही चकित करने वाली है। आंगम संपादन और प्रकाशन के इस पुण्यमयी अभियान पर सभी श्रमण-श्रमणियों और श्रद्धानिष्ठ श्रावक-श्राविकाओं का पूर्ण सहयोग हमें प्राप्त हो रहा है जो अत्यन्त शुभ है।आचार्य श्री के आगम प्रकाशन रूप महत्संकल्प से चतुर्विध श्री संघ जुड़ चुका है। जिनशासन और जिनवाणी की प्रभावना का यह अपूर्व क्षण है।हम सब कितने पुण्यशाली हैं कि इस अपूर्व महाभियान में हमें भी एक कड़ी के रूप में जुड़ने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। श्रुत का प्रचुर और प्रभूत प्रचार-प्रसार और व्यवहार हो / जन-जन में श्रुताराधना की प्यास पैदा हो।जन-जन आगम-वांगमय का अवगाहन करे।आगमों में गहरे और गहरे पैठ कर अपने जीवन की मंजिल प्राप्त करे।इन्हीं सदाकांक्षाओं के साथ - शिरीष मुनि (श्रमण संघीय मंत्री) दो शब्द] श्री विपाक सूत्रम् Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जैनागम जैन धर्म परम्परा की अमूल्य धरोहर हैं / आगमों में आध्यात्मिक साधना के असंख्य अमृतसूत्र संकलित हैं। उन सूत्रों के अध्ययन, मनन व आराधन से विगत अढाई हजार वर्षों से वर्तमान पर्यंत असंख्य-असंख्य भव्यजीवों ने आत्मकल्याण का संपादन किया है। कल्याण के कारणभूत होने से जैनागम एकान्त रूप से कल्याणरूप और मंगलरूप हैं। जैनागम जैन धर्म के परमाधार हैं। जैन परम्परा के मनीषी मुनियों ने प्रारंभ से ही आगमों के संरक्षण के लिए विलक्षण प्रयास किए हैं। परन्तु काल के प्रभाव से निरन्तर ह्रासमान स्मरण शक्ति और समय-समय पर पड़ने वाले दुष्कालों की काली छाया ने आगमों के एक बृहद्भाग को जैन जगत से छीन लिया है। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् श्रुत संरक्षा के लिए समयसमय पर कई वाचनाएं समायोजित हुईं। उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण वाचना भगवान महावीर के निर्वाण के 980 वर्ष पश्चात् देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में वल्लभी नगरी में हुई। गुरु-शिष्य के द्वारा श्रुत-परम्परा से चली आ रही श्रुत राशि के संरक्षण हेतु आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने आगमों को पुस्तकारूढ़ करने का क्रांतिकारी निर्णय लिया। उनके उस निर्णय के परिणामस्वरूप ही श्रुत साहित्य में समरूपता और सुस्थिरता आई। इस दृष्टि से आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण का जिन परम्परा पर महान उपकार है। समय-समय पर विभिन्न विद्वान जैन आचार्यों और मनीषी मुनियों ने आगमों पर चूर्णियों, वृत्तियों और भाष्यों की रचनाएं की। परन्तु इन सभी रचनाओं की भाषा या तो संस्कृत रही या फिर प्राकृत ही। साधारण मुमुक्षु पाठकों का आगमों में प्रवेश जटिल ही बना रहा। विगत कुछ राताब्दियों से यह अतीव आवश्यकता अनुभव की जा रही थी कि जैनागमों का सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद हो। विगत शती में कुछ विद्वान मनीषी महामहिम मुनिराजों ने इस ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया, जिनमें कुछेक प्रमुख सुनाम हैं-आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज, आचार्य श्री घासीलाल जी महाराज और आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज। जैन धर्म दिवाकर, जैनागम रत्नाकर आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज का इस दिशा में जो श्रम और योगदान रहा वह अपने आप में अद्भुत और अनुपम है।आगम के दुरूह और दुर्गम विषय को आचार्य देव ने जिस सरल शब्दावली में निबद्ध और प्रस्तुत किया वह किसी चमत्कार से कम नहीं है। अपने जीवन काल में आचार्य श्री ने अठारह आगमों पर बृहद् टीकाएं लिखीं। उन द्वारा कृत टीकाएं आगमों को सहज ही सर्वगम्य बना देती हैं।आबाल वृद्ध और अज्ञसुज्ञ समान रूप से उनकी टीकाओं के स्वाध्याय से आगम के हार्द को सरलता से हृदयंगम कर 6 ] श्री विपाक सूत्रम् [संपादकीय Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म दिवाकर ध्यान योगी आचार्य सम्राट् डा० श्री शिवमुनि जी महाराज Page #13 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेता है। आचार्य श्री का टीकाकृत आगम साहित्य जैन जगत में सर्वाधिक समादृत और सर्वाधिक रुचि से स्वाध्याय किया जाने वाला आगम साहित्य है। जैन जगत के कोने-कोने से मैंने आचार्य श्री केटीकाकृत आगमों की निरन्तर मांग को सुना। भव्य मुमुक्षुओं की उसी मांग के परिणामस्वरूप आचार्य श्री के आगमों के पुनर्प्रकाशन का संकल्प स्थिर किया गया। परिणामतः अल्प समयावधि में ही आचार्य श्री के टीकाकृत आगमों के दशाधिक संस्करण प्रकाश में आ चुके हैं। प्रस्तुत आगम श्री विपाकसूत्रम की बृहट्टीका का आलेखन आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज के दिशानिर्देशन में उन्हीं के विद्वान् सुशिष्य पंजाब केसरी बहुश्रुत गुरुदेव श्री ज्ञानमुनि जी महाराज ने किया है। लगभग अर्द्ध शती पूर्वरचित इस टीका में गुरुदेव ने कितना महान् श्रम किया है वह इसके पठन से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अर्द्धशती पूर्व जब हिन्दी भाषा का पूर्ण विकास नहीं हो पाया था उस समय में भी गुरुदेव श्री ने सरल, सरस और सुललित हिन्दी में पूरे अधिकार से अपनी लेखनी चलाई थी। प्रस्तुत विशाल ग्रन्थ जहां स्वाध्यायिओं के लिए कर्मसिद्धानत को हृदयंगम कराने के लिए एक आदर्श ग्रन्थ सिद्ध हुआ वहीं हिन्दी भाषा के विकास में भी इस ग्रन्थ का महान् योगदान रहा। इस दृष्विठ से गुरुदेव का आगम स्वाध्यायी मुमुक्षुओं और हिन्दी साहित्य पर महान् उपकार है। . सुखविपाक और दुःखविपाकनामकदो श्रुतस्कन्धों में संकलित प्रस्तुत आगम श्री विपाकसूत्रम् कर्म विपाक का सरल, स्पष्ट और दर्पण रूपा चित्र प्रस्तुत करता है। कथात्मक रूप में प्रस्तुत आगम अज्ञ-विज्ञ पाठकों के लिए कर्मसिद्धान्त को स्पष्ट करने में पूर्ण सक्षम है। इस आगम की स्वाध्याय में स्नान करने वाले भव्य जीव न केवल कर्म सिद्धान्त के हार्द को सरलता से हृदयंगम कर सकेंगे बल्कि कर्म-कल्मष से मुक्त होकर आत्मा के भीतर प्रतिष्ठित अपने परमात्म स्वरूप को भी उपलब्ध होने की पात्रता को अर्जित कर सकेंगे ऐसा मेरा विश्वास है। - इस आगम के संपादन कार्य में मेरे अन्तेवासी शिष्य तपोनिष्ठ मुनिवर श्री शिरीष जी एवं ध्यान साधक शरी शैलेश कुमार जी का सर्वतोभावेन समर्पित सहयोग रहा है। इन दोनों के अप्रमत्त सहयोग ने इस विशाल कार्य को सरल बना दिया। दोनों के लिए शुभाशीष। इनके अतिरिक्त जैन दर्शन के समर्थ विद्वान श्री ज. प. त्रिपाठी तथा श्रद्धाशील श्री विनोद शर्मा का समर्पित श्रम भी इस आगम के सम्पादन और प्रकाशन से जुड़ा रहा है। मूल पाठ-पाठन प्रूफ पठन तथा सुन्दर प्रिंटिंग के व्यवस्थापन में इनके अमूल्य सहयोग के लिए शत-शत साधुवाद। . - आचार्य शिव मुनि संपादकीय] श्री विपाक सूत्रम् Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-ज्ञान-श्रमण-शिव आगम प्रकाशन समिति के सहयोगी-सदस्य (1) श्री महेन्द्र कुमार जी जैन, मिनी किंग लुधियाना (पंजाब) (2) श्री शोभन लाल जी जैन, लुधियाना (पंजाब) (3) स्त्री सभा रूपा मिस्त्री गली, लुधियाना (पंजाब) (4) आर. एन. ओसवाल परिवार, लुधियाना (पंजाब) (s) सुश्राविका सुशीला बहन लोहटिया, लुधियाना (पंजाब) (6) सुश्राविका लीला बहन, मोगा (पंजाब) (7) उमेश बहन, लुधियाना (पंजाब) (8) स्व. श्री सुशील कुमार जी जैन लुधियाना (पंजाब) (9) श्री नवरंग लाल जी जैन संगरिया मण्डी (पंजाब) (10) वर्धमान शिक्षण संस्थान, फरीदकोट (पंजाब) (11) एस. एस. जैन सभा, जगराओं (पंजाब) (12) एस. एस. जैन सभा, गीदड़वाहा (पंजाब) (13) एस. एस. जैन सभा, केसरी-सिंह-पुर (पंजाब) (14) एस. एस. जैन सभा, हनुमानगढ़ (पंजाब) (15) एस. एस. जैन सभा, रत्नपुरा (पंजाब) (16) एस. एस. जैन सभा, रानियां (पंजाब) (17) एस. एस. जैन सभा, संगरिया (पंजाब) (18) एस. एस. जैन सभा, सरदूलगढ़ (पंजाब) (19) श्रीमती शकुन्तला जैन धर्मपत्नी श्री राजकुमार जैन, सिरसा (हरियाणा) (20) एस. एस. जैन सभा, बरनाला (पंजाब) (21) श्री रवीन्द्र कुमार जैन, भठिण्डा (पंजाब) (22) लाला श्री श्रीराम जी जैन सर्राफ, मालेर कोटला (पंजाब) (23) श्री चमनलाल जी जैन सुपुत्र श्री नन्द किशोर जी जैन, मालेर कोटला (पंजाब) (24) श्री मूर्ति देवी जैन धर्मपत्नी श्री रतनलाल जी जैन (अध्यक्ष), मालेर कोटला (पंजाब) (25) श्रीमती माला जैन धर्मपत्नी श्री राममूर्ति जैन लोहटिया, मालेर कोटला (पंजाब) (26) श्रीमती एवं श्री रत्नचंद जी जैन एंड संस, मालेर कोटला (पंजाब) (27) श्री बचनलाल जी जैन सुपुत्र स्व. श्री डोगरमल जी जैन, मालेर कोटला (पंजाब) 8] श्री विपाक सूत्रम् [सहयोगी सदस्य Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौजन्य प्रस्तुत आगम “श्री विपाक सूत्रम्" श्रावक रत्न श्री सूर्यकान्त टी भटेवरा (पूना) के 1 सौजन्य से प्रकाशित हो रहा है। श्री भटेवरा जी पूना नगर के एक प्रतिष्ठित उद्योगपति हैं। आप ऑटो पार्ट्स उद्योग से जुड़े हुए हैं। आपके उत्पादनों की गुणवत्ता भारत-भर में विश्रुत है। व्यवसाय में प्रामाणिकता आपकी पहचान है। व्यावसायिक क्षेत्र के साथ-साथ सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में भी श्री भटेवरा जी एक प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्तित्व हैं। समाज-सेवा और धर्म-प्रभावना में आप सबसे आगे रहकर अपनी सेवाएं अर्पित करते हैं। - आचार्य सम्राट् पूज्य श्री शिव मुनि जी महाराज के आप अग्रगण्य श्रावक हैं। पूज्य आचार्य श्री के प्रति आप तथा आपके परिवार में अनन्य आस्थाभाव है। श्रमण संघ के चहुंमुखी विकास के लिए आपकी सेवाएं सदैव समर्पित रही हैं। . प्रस्तुत आगम के प्रकाशन पर्व पर आत्म-ज्ञान-श्रमण-शिव आगम प्रकाशन समिति, लुधियाना एवं भगवान महावीर मेडिटेशन एण्ड रिसर्च सेंटर ट्रस्ट, नई दिल्ली प्राप्त सौजन्य के लिए श्री भटेवरा जी के हार्दिक धन्यवादी हैं। इनका सम्पर्क सूत्र है श्री सूर्यकान्त टी. भटेवरा 68, भोसले नगर, पुणे, (महाराष्ट्र) दूरभाष-9822053391 -आत्म-ज्ञान-श्रमण-शिव आगम प्रकाशन समिति, लुधियाना एवं -भगवान महावीर मेडिटेशन एण्ड रिसर्च सेंटर ट्रस्ट, नई दिल्ली Page #17 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (28) श्री अनिल कुमार जैन, श्री कुलभूषण जैन सुपुत्र श्री केसरीदास जैन, मालेरकोटला (पंजाब) (29) श्री एस. एस. जैन सभा, मलौट मण्डी (पंजाब) (30) श्री एस. एस. जैन सभा, सिरसा (हरियाणा) (31) श्रीमती कांता जैन धर्मपत्नी श्री गोकुलचन्द जी जैन शिरडी (महाराष्ट्र) (32) किरण बहन, रमेश कुमार जैन, बोकड़िया, सूरत (गुजरात) (33) श्री श्रीपत सिंह, गोखरू, जुहू स्कीम मुम्बई (महाराष्ट्र) (34) एस. एस. जैन बिरादरी, तपावाली, मालेर कोटला (पंजाब) (35) श्री प्रेमचन्द जैन सुपुत्र श्री बनारसी दास जैन-मालेरकोटला (पंजाब) (36) श्री प्रमोद जैन, मन्त्री एस. एस. जैन सभा मालेरकोटला (पंजाब) (37) श्री सुदर्शन कुमार जैन, सैक्रेटरी एस. एस. जैन सभा मालेर कोटला (पंजाब) (38) श्री जगदीश चन्द्र जैन हवेली वाले मालेर कोटला (पंजाब) (39) श्री संतोष जैन-खन्ना मण्डी (पंजाब) (40) श्री पार्वती जैन महिला मण्डल मालेरकोटला (पंजाब) (41) श्री आनन्द प्रकाश जैन, अध्यक्ष जैन महासंघ (दिल्ली प्रदेश) (42) श्री चान्द मल जी, मण्डोत, सूरत (43) श्री शील कुमार जैन, दिल्ली . . (44) श्री राजेन्द्र कुमार जी लुंकड़, पूना (45) श्री गोविन्द जी परमार, सूरत (46) श्री शान्ति लाल जी मण्डोत, सूरत (47) श्री चान्द मल जी माद्रेचा, सूरत (48) श्री आर. डी. जैन, विवेक विहार, दिल्ली (49) श्री एस. एस: जैन, प्रीत विहार, दिल्ली (50) श्री राजकुमार जैन, सुनाम, पंजाब (51) श्री एस. एस. जैन सभा, संगरूर, पंजाब (52) श्री लोकनाथ जी जैन, नौलखा साबुन वाले, दिल्ली (53) श्री नेमचन्द जी जैन, सरदूलगढ़, पंजाब (54) श्रीमती स्नेहलता जैन, सफीदों मण्डी, (हरि.) (55) श्री सूर्यकांत टी भटेवरा पूना (महा.) (56) एस.एस. जैन सभा गांधी मण्डी पानीपत (हरि.) (57) श्रीमती किरण जैन - करनाल (हरि.) सहयोगी सदस्य] श्री विपाक सूत्रम् Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहिम मुनिराज श्री शालिग्राम जी महाराज _[जीवन और साधना की एक झांकी] पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय गुरुदेव श्री शालिग्राम जी महाराज का जीवन एक आदर्श जीवन था। पंजाब (पैप्सू) के भद्दलबड़ गांव में आपका जन्म हुआ था-संवत् 1924 में। पिता श्री कालूराम जी वैश्य-वंश के मध्यवित्त गृहस्थ थे। माता मीठे स्वभाव की एक मधुरभाषिणी महिला थी। दोनों ही सहज-शांतिमय और छल-प्रपंचहीन जीवन बिताते थे। आर्थिक स्थिति साधारण थी, परन्तु संतोष और धैर्य जैसे अद्वितीय रत्नों के मालिक वे अवश्य थे। कालूराम जी तीन पुत्रों के पिता हुए। हमारे महाराज जी उन में से मझले थे। शैशवकाल में ही आप का नाम शालिग्राम पड़ा और समूची आयु आप इसी नाम से प्रख्यात रहे। उन दिनों किसे पता था कि आगे चल कर यह बालक एक विरक्त महात्मा के रूप में सर्वत्र प्रसिद्धि प्राप्त करेगा? बहुतेरे इस से पथप्रदर्शन पाएंगे ? - छः वर्ष की आयु में बालक शालिग्राम को अपने गांव की ही पाठशाला में दाखिल करा दिया गया। विद्याग्रहण करने में आप आरम्भ से ही दत्तचित्त रहे..... पहले अक्षराभ्यास, फिर आरंभिक पाठावली का अध्ययन। पढ़ाई का क्रम इस प्रकार आगे चला। शालिग्राम जी बचपन की परिधि पार कर के किशोरावस्था में आ पहुंचे। जैसे जैसे उम्र बढ़ती गई, ज्ञान और अनुभूति के दायरे भी उसी तरह बढ़ते गए। शालिग्राम की अन्तर्दृष्टि पाठ्यपुस्तकों अथवा अध्यापकों एवं सहपाठियों तक ही सीमित नहीं रह पायी। वह अपने आप भी बहुत कुछ सोचा करते। प्रकृति उन की उस उच्छंखल आयु में भी कोमल ही थी। राह चलते समय यदि कोई कीड़ी पैर के नीचे आ जाती तो शालिग्राम की अन्तरात्मा हाय-हाय कर उठती, स्नायुओं का स्पंदन रुक सा जाता। गाड़ी में जुते बैल की पीठ पर चाबुक पड़ने की आवाज़ सुनकर उन का हृदय कांपने लगता। अपनी उम्र के दूसरे लड़कों पर मां-बाप की पिटाई पड़ती तो हमारे चरित्रनायक की आंखों के कोर गीले नज़र आते। लड़कों का स्वभाव चंचल होता है-मन चंचल, आंखें चंचल, कान और होंठ चंचल, हाथ-पैर चंचल ! दिल और दिमाग चंचल ! परन्त शालिग्राम अपनी चपलताओं पर काबू पा गए थे। इन के मुंह से कभी दुर्वाच्य नहीं निकलता था ! खेल के समय भी कुत्ते या बछड़े को या साथी को कंकड़ फैंक कर इन्होंने कभी मारा नहीं होगा ! बुद्धि बड़ी तीव्र थी, पढ़ने में जी खूब लगता था। शेष समय मां-बाप की आज्ञाओं के पालन में और साधुओं-सन्तों की परिचर्या में बीतता था। अध्यापक और पास-पड़ोस के बड़े-बूढ़े लोग भी शालिग्राम को आदर्श बालक मानते थे। उन के लिए सब के हृदय में समान स्नेह था। समझदार और योग्य जान कर पिता ने शालिग्राम को धंधे में लगा लिया। धंधे में वह लग तो गए 10] श्री विपाक सूत्रम् [श्री शालिग्राम जी म. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन पढ़ाई का जो चस्का पड़ गया था, नहीं छूटा। स्वाध्याय और संतों की संगति---अवकाश का समय वह इन्हीं कामों में लगाते। आगे चल कर ज्योतिष में उन्हें काफी दिलचस्पी हो गई थी। यह अभिरुचि शालिग्राम जी महाराज के जीवन में हमने अंत तक देखी है। ___ . माता और पिता ने विवाह के लिए तरुण शालिग्राम पर बेहद दबाव डाला, परन्तु वह टस से मस नहीं हुए। इस विषय में उन्हें साथियों ने भी काफी कुछ समझाया-बुझाया, लेकिन शालिग्राम जी ब्रह्मचर्य-पालन के अपने संकल्प से तिलमात्र भी नहीं डिगे। पीछे एक अद्भुत घटना घटी। शालिग्राम कहीं से वापस आ रहे थे। साथ में कोई नहीं था, भाई था। रास्ते में श्मशान पड़ता था। वहां संयोग से उस समय एक चिता जल रही थी। दोनों भाई चिता के करीब से गुज़र कर आगे बढ़े....... फिर एक अजीब सी अवाज़ आने लगी......सू स स स.फ फ फ फ ...... ऐसा प्रतीत हआ कि चिता के अंगारे उन दोनों का पीछा कर रहे हैं ! आगे-आगे दो तरुण पथिक और उनके पीछे चिता के अनगिनत अंगारे ! आगे-आगे जीवन और पीछे पीछे मृत्यु !! शालिग्राम इस से ज़रा भी नहीं घबराए। अपने हृदय को उन्होंने बेकाबू नहीं होने दिया। लेकिन भाई बुरी तरह डर गया था। उस के हाथ-पैर तो कांप ही रहे थे, कलेजा भी मुंह को आ रहा था। चला नहीं जाता था उस से। स्थिति बड़ी विषम हो गई थी.... . आखिर शालिग्राम जी भाई को घर उठा लाए। .: कुछ दिन बाद शालिग्राम ने अपने दूसरे भाई के मुंह पर मक्खियां भिनभिनाती देखी.... वह . समझ गए कि अब यह नहीं जीएगा। इन घटनाओं का ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि शालिग्राम को अपने पार्थिव शरीर के प्रति घोर विरक्ति हो गई। अब शीघ्र से शीघ्र साधु हो जाने का संकल्प उन्होंने मन ही मन ले लिया। .. 20 वर्ष की आयु थी, समूचा जीवन सामने था। मसें भीम रहीं थीं..... यह विशाल और विलक्षण संसार उन्हें अपनी ओर चुमकार रहा था; पुचकार रहा था बार-बार। सौभाग्य से उन्हें महामहिम वयोवृद्ध श्री स्वामी जयरामदास जी महाराज की शुभ संगति प्राप्त हो गई। महाराज जी ने इस रत्न को अच्छी तरह पहचान लिया। पहुँचे हुए एक सिद्ध को एक साधक मिला। .... अन्ततोगत्वा संवत् 1946 में खरड़ (जि अम्बाला, पंजाब) में श्री शालिग्राम जी ने जैन-मुनि की दीक्षा प्राप्त की। उक्त श्री स्वामी जयराम दास जी महाराज ही आपके दीक्षागुरु हुए। तत्पश्चात् आप का अध्ययन नए सिरे से आरम्भ हुआ। थोड़े ही समय में आपने आगमों का अनुशीलन पूरा कर लिया। मन, वचन और कर्म-सभी दृष्टियों से शालिग्राम जी भगवान् महावीर की अहिंसक एवं परमार्थी सेना के एक विशिष्ट क्षमतासंपन्न श्री शालिग्राम जी म.] श्री विपाक सूत्रम् [11 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैनिक बन गए। आपके अंदर सेवा-भावना तो बिल्कुल अनोखी थी। चाहे छोटी उम्र के हों, चाहे बड़ी उम्र केसभी प्रकार के साधु आप की सेवाओं के सुफल प्राप्त करते रहे। क्या रात, क्या दिन और क्या शाम, क्या सुबह....... बीमार साधुओं की परिचर्या में आपको अपने स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य का ध्यान नहीं रहता था। ____ आचार्य श्री मोती राम जी महाराज और गणावच्छेदक श्री गणपति राय जी महाराज की सेवा में आपके जीवन का पर्याप्त काल व्यतीत हुआ। जैनधर्मदिवाकर, आचार्यप्रवर हमारे महामान्य शिक्षक एवं सद्गुरु पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज आपके ही शिष्य हुए। पूज्य आचार्य श्री को देखकर हमें प्रातःस्मरणीय श्री शालिग्राम जी महाराज के अनुपम व्यक्तित्व का कुछ आभास अनायास ही मिल जाता था। कबीर ने कहा है: निराकार की आरसी, साधो ही की देह। - लखो जो चाहे अलख को, इन में ही लखि लेह॥ मैं तो परमश्रद्धेय श्री शालिग्राम जी महाराज के ऋणों से कभी उऋण हो ही नहीं सकता। आपकी कृपा न हुई होती तो इन आँखों के होते हुए भी मैं आज अंधा ही रह जाता। त्याग और विराग के इस महामार्ग पर आप ही मुझे ले आए..... पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज "जीवित विश्वकोष" कहे जाते थे, उन का अन्तेवासित्व मुझ मंदमति को आप की ही अनुकंपा से हासिल हुआ, अन्यथा मैं आज कहां का कहां पड़ा रह जाता! महाराज जी के अंतिम दिन लुधियाना में ही बीते। कई एक रोगों के कारण आपकी अंतिम घड़ियां बड़ी कष्टमय गुज़रीं / पर महाराज की आंतरिक शांति कभी भंग नहीं हुई, मनोबल हमेशा अजेय रहा। इन का अंतिम क्षण प्रशांत धीरता का प्रतीक बनकर आज भी इन आंखों के सामने मौजूद है: नोदेति, नाऽस्तमायाति, सुखे दुःखे मुखप्रभा। यथाप्राप्ते स्थितिर्यस्य, स जीवन्मुक्त उच्यते॥ इस प्रकार आप एक जीवन्मुक्त महात्मा थे। आप का शरीरान्त संवत् 1996 में हुआ। उस समय आप की सेवा में श्रीवर्धमानस्थानकवासी श्रमणसंघ के आचार्य परमपूज्य गुरुदेव प्रातः स्मरणीय श्री आत्माराम जी महाराज और इन की शिष्यमंडली, मंत्री परमपूज्य श्री पृथ्वी चन्द जी म०, गणी श्री श्यामलाल जी म., कविरत्न श्री अमरचन्द जी म. आदि मुनिराज भी उपस्थित थे। -ज्ञान मुनि 12 ] श्री विपाक सूत्रम् [श्री शालिग्राम जी म. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर-वर-गम्भीर आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज प्रस्तुति- श्रमण संघीय सलाहकार श्री ज्ञानमुनि जी महाराज " जैन शासन में "आचार्य पद" एक शिरसि-शेखरायमाण स्थान पर शोभायमान रहा है। जैनाचार्यों को जब मणि-माला की उपमा से उपमित किया जाता है, तब आचार्य सम्राट् आराध्य स्वरूप गुरुदेव श्री आत्माराम जी महाराज उस महिमाशालिनी मणिमाला में एक ऐसी सर्वाधिक व दीप्तिमान दिव्य-मणि के रूप में रूपायित हुए, जिसकी शुभ्र आभा से उस माला की न केवल शोभा-वृद्धि हुई. अपितु वह माला भी स्वयं गौरवान्वित हो उठी, मूल्यवान एवं प्राणवान हो गई। श्रद्धास्पद जैनाचार्य श्री आत्माराम जी म० का व्यक्तित्व जहाँ अनन्त-असीम अन्तरिक्ष से भी अधिक विराट् और व्यापक रहा है, वहाँ उनका कृतित्व अगाध-अपार अमृत सागर से भी नितान्त गहन एवं गम्भीर रहा है। यथार्थ में उनके महतो-महीयान् व्यक्तित्व और बहु आयामी कृतित्व को कतिपय पृष्ठ सीमा में शब्दायित कर पाना कथमपि संभव नहीं है। तथापि वर्णातीत व्यक्तित्व और वर्णनातीत कृतित्व को रेखांकित किया जा रहा है। भारतवर्ष के उत्तर भारत में पंजाब प्रान्त के क्षितिज पर वह सहस्रकिरण दिनकर उदीयमान हुआ। वह मयूख-मालिनी मार्तण्ड सर्व-दिशा से प्रकाशमान है। वि० सं० 1939 भाद्रपद शुक्ला द्वादशी, राहों ग्राम में, वह अनन्त ज्योति-पुंज अवतरित हुआ। आप श्री जी क्षत्रिय जातीय चौपड़ा वंश के अवतंश थे। माता-पिता का क्रमशः नाम -श्री परमेश्वरी देवी और सेठ मन्शाराम जी था। यह निर्धूम ज्योति एक लघु ग्राम में आविर्भूत हुई। किन्तु उनकी प्रख्याति अन्तर्राष्ट्रीय रही, देशातीत एवं कालातीत रही। ... महामहिम आचार्यश्री जी के जीवन का उषः काल विकट-संकट के निर्जन वन में व्यतीत हुआ। दुष्कर्म के सुतीक्ष्ण प्रहारों ने आपश्री जी को नख-शिखान्त आक्रान्त कर दिया। दो वर्ष की अल्पायु में आपश्री जी की माता जी ने इस संसार से विदाई ली और जब आप अष्टवर्षीय रहे, तब पिता जी इस लोक से उस लोक की ओर प्रस्थित हुए। उस संकटापन्न समय में आपश्री जी को एकमात्र दादी जी की छत्रच्छाया प्राप्त हुई। किन्तु इस सघन वट की छत्रच्छाया दो वर्ष तक ही रही और दादी जी का भी देहावसान हो गया। इस रूप में आपश्री जी का बाल्य-काल व्यथाकथा से आपूरित रहा। यह ध्रुव सत्य है कि माता-पिता और दादी के सहसा, असहय वियोग ने पूज्यपाद आचार्यश्री जी के अन्तर्मन-विहग को संयम-साधना के निर्मल-गगन में उड्डयन हेतु उत्प्रेरित कर दिया। उन्होंने जागतिक-कारागृह से उन्मुक्ति का निर्णय लिया और अन्ततः द्वादश वर्ष की स्वल्प आयु में संवत् 1951 में पंचनद पंजाब के बनूड़ ग्राम में जिनशासन के तेजस्वी नक्षत्र स्वामी श्री शालिग्राम जी म० के चरणारविन्द में आर्हती-प्रव्रज्या अंगीकृत की। आप श्री जी के विद्या-गुरु आचार्य श्री मोतीराम जी म० थे। आप श्री ने दीक्षा-क्षण से ही त्रिविध संलक्ष्य निर्धारित किए-संयम साधना, ज्ञान-आराधना और शासन-सेवा। आप इन्हीं क्षेत्रों में उत्तरोत्तर और अनुत्तर रूप से पदन्यास करते हुए प्रकृष्टरूपेण उत्कर्षशील रहे, वर्धमान हुए। ... आप श्री जी ने संस्कृत और प्राकृत जैसी प्रचुर प्राचीन भाषाओं पर आधिपत्य संस्थापित किया, श्री आत्माराम जी म] श्री विपाक सूत्रम् [13 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यान्य-भाषाओं का अधिकृत रूप में प्रतिनिधित्व किया। आप श्री आगम-साहित्य के एक ऐसे आदित्य के रूप में सर्वतोभावेन प्रकाशमान हुए कि आगम-साहित्य के प्रत्येक अध्याय, प्रत्येक अध्याय के प्रत्येक पृष्ठ, प्रत्येक पृष्ठ की प्रत्येक पंक्ति, प्रत्येक पंक्ति के प्रत्येक शब्द के प्रत्येक अर्थ और उसके भी प्रत्येक व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ के तल छट किंवा अन्तस्तल तक प्रविष्ट हुए। परिणाम-स्वरूप आपकी ज्ञान-चेतना व्यापक से व्यापक, ससीस से असीम और लघीयान् से महीयान् होती गई। निष्पत्तिरूपेण आप श्री जी अष्टदश-वर्षीय दीक्षाकाल में गणधर के समकक्ष "उपाध्याय" जैसे गरिमा प्रधान पद से अलंकृत हुए। यह वह स्वर्णिम-प्रसंग है, जो आपके पाण्डित्य-पयोधि के रूप में उपमान है और प्रतिमान है। आप श्री जी ने अपने संयम-साधना की कतिपय वर्षावधि में जो साहित्य-सर्जना की, वह ग्रन्थ-संख्या अर्धशतक से भी अधिक रही है। आप श्री जी विशिष्ट और वरिष्ठ निर्ग्रन्थ के रूप में भी ग्रन्थों और सूत्रों के जैन विद्यापीठ थे, विचारों के विश्वविद्यालय थे और चारित्र के विश्वकोष थे। आप यथार्थ अर्थ में एक सृजन धर्मी युगान्तकारी साहित्य-साधक थे। वास्तव में आप श्री जी अपने आप में अप्रतिम थे। आपने आगम साहित्य के सन्दर्भ में संस्कृत छाया, शब्दार्थ, मूलार्थ, सटीक टीकाएँ निर्मित की। आप द्वारा प्रणीत वाङ्मय का अध्येता इस सत्यपूर्ण तथ्य से परिचित हुए बिना नहीं रहेगा कि आप श्री विद्या की अधिष्ठात्री दिव्य देवी माता शारदा के दत्तक तनय नहीं, अपितु अंगजात आज्ञानिष्ठ यशस्वी अतिजात पुत्र थे। किं बहुना आचार्य देव प्रतिभाशाली पुरुष थे। महिमा-मण्डित आचार्यश्री वि० सं० 2003 में पंजाब-प्रान्तीय आचार्य पद से विभूषित हुए। तदनन्तर वि० सं० 2009 में आप श्री जी श्रमण-संघ के प्रधानाचार्य के पद पर समासीन हुए जो आपके व्यक्तित्व और कृतित्व की अर्थवत्ता और गुणवत्ता का जीवन्त रूपं था। यह एक ऐतिहासिक स्वर्णिम प्रसंग सिद्ध हुआ। आप श्री जी ने गम्भीर विद्वत्ता, अदम्य साहस, उत्तम रूपेण कर्तव्य निष्ठा, अद्वितीय त्याग, असीम संकल्प, अद्भुत-संयम, अपार वैराग्य, संघ-संघठन की अविचल एकनिष्ठा से एक दशक-पर्यन्त श्रमण संघ को अनुशास्ता के रूप में कुशल नेतृत्व प्रदान किया। आप श्री जी जब जीवन की सान्ध्यवेला में थे, तब कैंसर जैसे असाध्य रोग से आक्रान्त हुए। उस दारुण-वेदना में, आपने जो सहिष्णुता का साक्षात् रूप अभिव्यक्त किया, वह वस्तुतः यह स्वतः सिद्ध कर देता है कि आप सहिष्णुता के अद्वितीय पर्याय हैं, समता के जीवन्त आयाम हैं और सहनशीलता के मूर्तिमान् सजीव रूप हैं। किं बहुना, कोई इतिहासकार जब भी जैन शासन के प्रभावक ज्योतिर्मय आचार्यों का अथ से इति तक आलेखन करेगा तब आप जैसी विरल विभूति का अक्षरशः वर्णन करने में अक्षम सिद्ध होगा। जिन-शासन का यह महासूर्य वि० सं० 2019 में अस्तंगत हुआ, जिससे जो रिक्तता आई है वह अद्यावधि भी यथावत् है। ऐसे ज्योतिर्मय आलोक-लोक के महायात्री के प्रति हम शिरसा-प्रणत हैं, सर्वात्मना-समर्पण भावना से श्रद्धायुक्त वन्दना करते हैं। 14] श्री विपाक सूत्रम् [श्री आत्माराम जी म. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सम्राट श्री शिवमुनि जी महाराज : संक्षिप्त परिचय जैन धर्म दिवाकर गुरुदेव आचार्य सम्राट् श्री शिवमुनि जी म० वर्तमान श्रमण संघ के शिखर पुरुष हैं। त्याग, तप, ज्ञान और ध्यान आपकी संयम-शैया के चार पाए हैं। ज्ञान और ध्यान की साधना में आप सतत साधनाशील रहते हैं। श्रमणसंघ रूपी बृहद्-संघ के बृहद् दायित्वों को आप सरलता, सहजता और कुशलता से वहन करने के साथ-साथ अपनी आत्म-साधना के उद्यान में निरन्तर आत्मविहार करते रहते हैं। लेते। पंजाब प्रान्त के मलौट नगर में आपने एक सुसमृद्ध और सुप्रतिष्ठित ओसवाल परिवार में जन्म लिया। विद्यालय प्रवेश पर आप एक मेधावी छात्र सिद्ध हुए। प्राथमिक कक्षा से विश्वविद्यालयी कक्षा तक आप प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होते रहे। अपने जीवन के शैशवकाल से ही आप श्री में सत्य को जानने और जीने की अदम्य अभिलाषा रही है। महाविद्यालय और विश्वविद्यालय की उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी सत्य को जानने की आपकी प्यास को समाधान का शीतल जल प्राप्त न हुआ। उसके लिए आपने अमेरिका, कनाडा आदि अनेक देशों का भ्रमण किया। धन और वैषयिक आकर्षण आपको बांध न सके। आखिर आप अपने कुल-धर्म-जैन धर्म की ओर उन्मुख हुए। भगवान महावीर के जीवन, उनकी साधना और उनकी वाणी का आपने, अध्ययन किया। उससे आपके प्राण आन्दोलित बन गए और आपने संसार से संन्यास में छलांग लेने का सुदृढ़ संकल्प ले लिया। - ममत्व के असंख्य अवरोधों ने आपके संकल्प को शिथिल करना चाहा। पर श्रेष्ठ पुरुषों के संकल्प की तरह आपका संकल्प भी वज्रमय प्राचीर सिद्ध हुआ। जैन धर्म दिवाकर आगम-महोदधि आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज के सुशिष्य गुरुदेव श्री ज्ञानमुनि जी महाराज से आपने दीक्षा-मंत्र अंगीकार कर श्रमण धर्म में प्रवेश किया। आपने जैन-जैनेतर दर्शनों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। भारतीय धर्मों में मुक्ति विचार' नामक आपकां शोध ग्रन्थ जहाँ आपके अध्ययन की गहनता का एक साकार प्रमाण है वहीं सत्य की खोज में आपकी अपराभूत प्यास को भी दर्शाता है। इसी शोध-प्रबन्ध पर पंजाब विश्वविद्यालय ने आपको पी-एच डी की उपाधि से अलंकृत भी किया। - दीक्षा के कुछ वर्षों के पश्चात् ही श्रद्धेय गुरुदेव के आदेश पर आपने भारत भ्रमण का लक्ष्य बनाया और पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा, तमिलनाडु , गुजरात आदि अनेक प्रदेशों में विचरण किया। आप जहाँ गए आपके सौम्य-जीवन और सरल-विमल साधुता को देख लोग गद्गद् बन गए। इस विहार-यात्रा के दौरान ही संघ ने आपको पहले युवाचार्य और क्रम से आचार्य स्वीकार किया। आप बाहर में ग्रामानुग्राम विचरण * करते रहे और अपने भीतर सत्य के शिखर सोपानों पर सतत आरोहण करते रहे। ध्यान के माध्यम से श्री शिव मुनि जी म.]. श्री विपाक सूत्रम् [15 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप गहरे और गहरे पैठे। इस अन्तर्यात्रा में आपको सत्य और समाधि के अद्भुत अनुभव प्राप्त हुए। आपने यह सिद्ध किया कि पंचमकाल में भी सत्य को जाना और जीया जा सकता है। वर्तमान में आप ध्यान रूपी उस अमृत-विद्या के देश-व्यापी प्रचार और प्रसार में प्राणपण से जुटे हुए हैं जिससे स्वयं आपने सत्य से साक्षात्कार को जीया है। आपके इस अभियान से हजारों लोग लाभान्वित बन चुके हैं। पूरे देश से आपके ध्यान-शिविरों की मांग आ रही है। जैन जगत आप जैसे ज्ञानी, ध्यानी और तपस्वी संघशास्ता को पाकर धन्य-धन्य अनुभव करता - श्री शिरीष मुनि 16 ] श्री विपाक सूत्रम् [श्री शिव मुनि जी म. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-मीमांसा (लेखक-पंजाब प्रवर्तक उपाध्याय श्रमण श्री फूल चन्द जी महाराज) जैन शास्त्रों का विषयनिरूपण सर्वांगपूर्ण है। जड़-चेतन, आत्मा-परमात्मा, दुःखसुख, संसार-मोक्ष, आस्रव-संवर, कर्मबन्ध तथा कर्मक्षय इत्यादि समस्त विषयों का जितना सूक्ष्म, गंभीर और सुस्पष्ट विवेचन जैनागमों में है उतना अन्यत्र मिलना कठिन है। जैन विचारधारा विचार-जगत् में और आचार-जगत् में एक अपूर्व प्रकाश डालने वाली है। हम साधारणरूप से जिस को विचार समझते हैं वह विचार नहीं, वह तो स्वच्छन्द मन का विकल्पजाल है। जो जीवन में अद्भुतता, नवीनता और दिव्य दृष्टि उत्पन्न करे वही जैन विचारधारा है। - जैनसूत्र भूले भटके भव्य प्राणियों के लिए मार्गप्रदर्शक बोर्ड हैं, उन्मार्ग से हटा कर सन्मार्ग की ओर प्रगति कराने के लिए ही अरिहंत भगवन्तों ने मार्गप्रदर्शक बोर्ड स्थापन किया है। सूत्र वही होता है जो वीतराग का कथन हो। तर्क या युक्ति से अकाट्य हो। जो प्रत्यक्ष या अनुमान से विरुद्ध न हो। कुमार्ग का नाशक हो, सर्वाभ्युदय करने वाला हो और जो सन्मार्ग का प्रदर्शक हो। इत्यादि सभी लक्षण श्री विपाकसूत्र में पूर्णतया पाए जाते हैं अतः जिज्ञासुओं के लिए प्रस्तुत सूत्र उपादेय है। - इस सूत्र का हिन्दी अनुवाद प्रतिभाशाली पण्डितप्रवर श्री ज्ञान मुनि जी ने किया है। अनुवाद न अति संक्षिप्त है और न अति विस्तृत। अध्ययन करते हुए जिन-जिन विषयों पर जिज्ञासुओं के हृदय में संदेह का होना संभव था उन-उन विषयों को मुनि जी ने अपनी मस्तिष्क की उपज से पूर्वपक्ष उठा कर अनेकों प्रामाणिक ग्रन्थों के प्रमाण देकर शंकास्पद स्थलों को उत्तरपक्ष के द्वारा सुस्पष्ट कर दिया है। इसी से लेखक की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। विपाकसूत्र अङ्ग सूत्रों में ग्यारहवां सूत्र है। इस सूत्र में किस विषय का वर्णन आता है, इस का उत्तर यदि अत्यन्त संक्षेप से दिया जाए तो "विपाक"१ इस शब्द से ही दिया जा सकता 1 चूर्णीकार ने विपाकसूत्र का निर्वचन इस प्रकार किया है: विविधः पाकः, अथवा विपचनं विपाकः कर्मणां शुभोऽशुभो वा। विपचनं विपाकः शुभाशुभकर्मपरिणाम इत्यर्थः। जम्मि सुत्ते विपाको कहिज्जइ तं विपाकसुत्तं। तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है नाना प्रकार से पकना, विशेष कर के कर्मों का शुभ-अशुभ रूप में पकना, अर्थात् शुभाशुभ कर्मपरिणाम को ही विपाक कहते हैं, जिस सूत्र में विपाक कहा जाए उसे विपाकसूत्र अथवा विपाकश्रुत कहते हैं। कर्ममीमांसा] श्री विपाक सूत्रम् [17 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, अर्थात् यह शब्द सुनते ही सुज्ञजनों को विषय की प्रतीति हो सकती है। प्रस्तुत सूत्र के बीस अध्ययन हैं। पहले के दस अध्ययनों में अशुभ कर्म-विपाक का वर्णन है। पिछले दस अध्ययनों में शुभकर्म-विपाक वर्णित हैं। कर्मसिद्धान्त को सरल, सुगम तथा सुस्पष्ट बनाने के लिए आगमकारों ने यथार्थ उदाहरण दे कर भव्य प्राणियों के हित के लिए प्रस्तुत सूत्र में बीस जनों के इतिहास प्रतिपादन किए हैं। जिस से पापों से निवृत्ति और धर्म में प्रवृत्ति मुमुक्षु जन कर सकें। सदा स्मरणीय-जैनागमों में कृष्णपक्षी (अनेक पुद्गलपरावर्तन करने वाले) तथा अभव्य जीवों के इतिहास के लिए बिल्कुल स्थान नहीं है, किन्तु सूत्रों में जहां कहीं भी इतिहास का उल्लेख मिलता है तो उन्हीं का मिलता है जो चरमशरीरी हों या जिन का संसार-भ्रमण अधिक से अधिक देश-ऊन-अर्द्ध-पुद्गलपरावर्तन शेष रह गया हो, इस से अधिक जिन की संसारयात्रा है, उन का वर्णन जैनागम में नहीं आता है। जिन का वर्णन इस में आया है वह चाहे किसी भी गति में हों अवश्य तरणहार हैं। इस बात की पुष्टि के लिए भगवती सूत्र के १५वें शतक का गौशालक, तिलों के जीव, निरयावलिका सूत्र में कालीकुमार आदि दस भाई, विपाकसूत्र में दुःखविपाक के दस जीव इत्यादि आखिर में सभी मोक्षगामी हैं। ___एक जन्म में उपार्जित किए हुए पापकर्म, रोग-शोक, छेदन-भेदन, मारण-पीटन आदि दुःखपूर्ण दुर्गतिगर्त में जीव को धकेल देते हैं। यदि किसी पुण्ययोग से वह सुकुल में भी जन्म लेता है तो वहां पर भी वे ही पूर्वकृत दुष्कृत उसे पुनः पापकर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिस से पुनः जीव दुःख के गर्त में गिर जाता है। इसी प्रकार दुःखपरम्परा चलती ही रहती कर्मों का स्वरूप-कम्मुणा उवाही जायइ-(आचाराङ्ग अ० 3, उ० 1) अर्थात् कर्मों से ही जन्म, मरण, वृद्धत्व, शारीरिक दुःख, मानसिक दुःख, संयोग, वियोग, भवभ्रमण आदि उपाधियां पैदा होती हैं। कीरइ जिएण हेऊहिं जेणं तो भण्णए कम्म-अर्थात् जो जीव से किसी हेतु द्वारा किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। जब घनघातिकर्मग्रहग्रस्त आत्मा में शुभ और अशुभ अध्यवसाय पैदा होते हैं, तब उन अध्यवसायों में चुम्बक की तरह एक अद्भुत आकर्षण शक्ति पैदा होती है। जैसे चुम्बक के आसपास पड़े हुए निश्चेष्ट लोहे के छोटे-छोटे कण आकर्षण से खिंचे चले आते हैं और साथ चिपक जाते हैं, एवं राग-द्वेषात्मक अध्यवसायों में जो कशिश है, वह भाव आस्रव है। उस कशिश से कर्मवर्गणा के पुद्गल खिंचे चले आना वह द्रव्य आस्रव है। आत्मा और कर्म पुद्गलों 18 ] श्री विपाक सूत्रम् . [कर्ममीमांसा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का परस्पर क्षीरनीर भांति हिलमिल जाना बन्ध कहाता है। जीव का कर्म के साथ संयोग होने को बन्ध और उसके वियोग होने को मोक्ष कहते हैं। बन्ध का अर्थ वास्तविक रीति से सम्बन्ध होना यहां अभीष्ट है। ज्यों त्यों कल्पना से सम्बन्ध होना नहीं समझ लेना चाहिए। आगे चलकर वह बन्ध चार भागों में विभक्त हो जाता है, जैसे कि-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध। इन में से प्रकृति तथा प्रदेश बन्ध मन, वाणी और काय के योग (परिस्पन्द-हरकत) से होता है। स्थिति और अनुभाग बन्ध कषाय से होता है। मन, वाणी और काय के व्यापार को योग कहते हैं। कार्मणवर्गणा के पुद्गलों का आत्मप्रदेशों पर छा जाना, यह योग का कार्य है। उन कर्मवर्गणा के पुद्गलों को दीर्घकाल तक या अल्प काल तक ठहराना और उन में दुःख-सुख देने की शक्ति पैदा करना, कटुक तथा मधुर, मन्द रस तथा तीव्र रस पैदा करना कषाय पर निर्भर है। जहां तक योग और कषाय दोनों का व्यापार चालू है, वहां तक कर्मबन्ध नहीं रुकता, बन्ध क्षय बिना जन्मान्तर नहीं रुकता, इसी प्रकार भवपरम्परा चलती ही रहती है। यहां एक प्रश्न पैदा होता है कि क्या भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न कर्मों का बन्ध होता है ? या एक समय में सभी कर्मों का बन्ध हो जाता है? इस का उत्तर यह है कि सामान्यतया कर्मों का बन्ध इकट्ठा ही होता है, परन्तु बन्ध होने के पश्चात् सातों या आठों कर्मों को उसी में से हिस्सा मिल जाता है। यहां खुराक तथा विष का दृष्टान्त लेना चाहिए। जिस प्रकार खुराक एक ही स्थान से समुच्चय ली जाती है, किन्तु उस का रस प्रत्येक इन्द्रिय को पहुँच जाता है और प्रत्येक इन्द्रिय अपनी-अपनी शक्ति के अनुकूल उसे ग्रहण कर उस रूप से परिणमन करती है, उसमें अन्तर नहीं पड़ता। अथवा किसी को सर्प काट ले तो वह क्रिया तो एक ही जगह होती है, किन्तु उस का प्रभाव विषरूपेण प्रत्येक इन्द्रिय को भिन्न-भिन्न प्रकार से समस्त शरीर में होता है, एवं कर्म बन्धते समय मुख्य उपयोग एक ही प्रकृति का होता है परन्तु उस का बंटवारा परस्पर अन्य सभी प्रकृतियों के सम्बन्ध को लेकर ही मिलता है। . जिस हिस्से में सर्पदंश होता है उस को यदि तुरन्त काट दिया जाए तो चढ़ता हुआ विष रुक जाता है, एवं आस्रवनिरोध करने से कर्मों का बंध पड़ता हुआ भी रुक जाता है। यथा अन्य किसी प्रयोग से चढ़ा हुआ विष औषधप्रयोग से वापस उतार दिया जाता है तथैव यदि प्रकृति का रस मन्द कर दिया जाए तो उस का बल कम हो जाता है। मुख्यरूपेण एक प्रकृति बन्धती है, और इतर प्रकृतियां उस में से भाग लेती हैं, ऐसा उनका स्वभाव है। प्रश्न-सूत्रों में कर्मबन्ध करने के भिन्न-भिन्न कारण बताए हैं, वे कारण जब सेवन कर्ममीमांसा] श्री विपाक सूत्रम् [19 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किए जाएं तभी उस प्रकृति का बन्ध होता है। जैसे कि ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मों का बन्ध होता है। जब उन में से किसी का भी सेवन नहीं किया फिर उस का बन्ध कैसे हो सकता है ? उत्तर-कर्मों का बन्ध तो होता ही रहता है। प्रत्येक समय में सात या आठ कर्म संसारी जीव बांधता ही रहता है। आयुष्कर्म जीवन भर में एक ही बार बांधा जाता है। शेष सात कर्म समय-समय में बन्धते ही रहते हैं और उन का बंटवारा भी होता ही रहता है, किन्तु कर्मबन्ध के जो मुख्य-मुख्य कारण बताए हैं, उन के सेवन करने से तो अनुभागबन्ध अर्थात् फल में कटुता या मधुरता दीर्घकालिक स्थिति दोनों का बन्ध पड़ता है। यदि उन कारणों का सेवन न किया जाए तो रस में मन्दता रहती है और अल्पकालिक स्थिति होती है। प्रश्न-कर्मवर्गणा के पुद्गल क्या बन्ध होने से पूर्व ही पुण्यरूप तथा पापरूप में नियत होते हैं या अनियत ? उत्तर-नहीं। कर्मवर्गणा के पुद्गल न कोई पुण्यरूप ही हैं और न पापरूप ही। किन्तु शुभ अध्यवसाय से खींचे हुए कर्मपुद्गल अशुभ होते हुए भी शुभरूप में परिणमन हो जाते हैं, और अशुभ अध्यवसाय के द्वारा खींचे हुए कर्मपुद्गल शुभ होते हुए भी अशुभ बन जाते हैं। जैसे कि प्रसूता गौ सूखे तृण खाती है और उस को पीयूषवत् श्वेत तथा मधुर दुग्ध बना देती है। प्रत्युत उसी दुग्ध को कृष्णसर्प विषैला बना देता है। . ___ जैन सिद्धान्त मानता है कि वस्तु अनन्त पर्यायों का पिण्ड है। सहकारी साधनों को पाकर पर्याय बदलती है। कभी शुभ से अशुभ रूप में तो कभी अशुभ से शुभ रूप में हालतें बदलती ही रहती हैं, अर्थात् काल चक्र के साथ-साथ पर्यायचक्र भी घूमता रहता है। एवं कर्मपुद्गल भी सकर्मा आत्मा के शुभ अध्यवसाय को पाकर पुण्य तथा पाप रूप में परिणमन हो जाते हैं। पुण्य पाप के रस में तरतमता-शुभ योग की तीव्रता के समय पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग-रस की मात्रा अधिक होती है और पाप प्रकृतियों के अनुभाग की मात्रा हीन निष्पन्न होती है। इससे उलटा अशुभ योग की तीव्रता के समय पाप प्रकृतियों का अनुभागबन्ध अधिक होता है और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बन्ध न्यून होता है। शुभयोग की तीव्रतां में कषाय की मन्दता होती है और अशुभ योग की तीव्रता में कषाय की उत्कटता होती है, यह क्रम भी स्मरणीय है। कर्मबन्ध पर अनादि और सादि का विचार-आठों ही कर्म किसी विवक्षित संसारी जीव में प्रवाह से अनादि हैं। पूर्व काल में ऐसा कोई समय नहीं था कि जिस समय किसी एक 20 ] श्री विपाक सूत्रम् [कर्ममीमांसा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव में आठों कर्मों में से किसी एक कर्म की सत्ता नहीं थी, पीछे से वह कर्म स्पृष्ट तथा बद्ध हुआ हो। तो कहना पड़ेगा कि आठों कर्मों की सत्ता अनादि से विद्यमान है। कर्म सादि भी है, क्योंकि किसी विवक्षित समय का बन्धा हुआ कर्म अपनी-अपनी स्थिति के मुताबिक आत्मप्रदेशों में ठहर कर और अपना फल देकर आत्मप्रदेशों से झड़ जाता है, परन्तु बीच-बीच में अन्य कर्मों का बन्ध भी चालू ही रहता है। वह बन्ध नहीं रुकता जब तक कि गुणस्थानों का आरोहण नहीं होता अर्थात् जब तक जीव आत्मविकास की ओर अग्रसर नहीं होता तब तक कर्म-प्रकृतियों का बन्ध चालू ही रहता है, रुकता नहीं। तीन कार्य समय-समय में होते ही रहते हैं जैसे कि कर्मों का बन्ध, पूर्वकृत कर्मों का भोग और भुक्त कर्मों की निर्जरा। अनेकान्त दृष्टि से कर्मविचार-प्रश्न-क्या कर्म आत्मा से भिन्न है ? या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो उस का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। यदि अभिन्न है तो कर्म ही आत्मा का अपर नाम है, जीव और ब्रह्म की तरह ? उत्तर-अनेकान्तवादी इसका उत्तर एक ही वाक्य में देता है, जैसे कि आत्मा से कर्म कथंचित् भिन्नाभिन्न हैं, अथवा भेदविशिष्ट अभेद या अभेदविशिष्ट भेद ऐसा भी कह सकते हैं। इस सूक्ष्म थ्योरी को समझने के लिए पहले स्थूल उदाहरण की आवश्यकता है। हम ने स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना है। सूक्ष्म से अमूर्त की ओर जाना है, अत: पहले स्थूल उदाहरण के द्वारा इस विषय को समझिए। जैसे हमारा यह स्थूल शरीर भी आत्मा से कथंचित भिन्नाभिन्न है। यदि स्थूल शरीर को आत्मा से सर्वथा भिन्न मानेंगे तो भिन्न शरीर जीव-परित्यक्त कलेवर की तरह सुख-दुःख आदि नहीं वेद सकता, यदि स्थूल शरीर को सर्वथा अभिन्न माना जाए तो किसी की मृत्यु नहीं होनी चाहिए, अर्थात् शरीर का तीन काल में भी वियोग नहीं होना चाहिए। जैसे द्रव्य से द्रव्यत्व भिन्न नहीं किया जा सकता, क्योंकि द्रव्य से द्रव्यत्व अभिन्न है। अतः स्याद्वादी का कहना है कि सजीव स्थूल शरीर आत्मा से कथंचित् भिन्नाभिन्न है। उपरोक्त दोषापत्ति सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न मानने में है। . अब इसी विषय को दूसरी शैली से समझिए-निश्चय नय की दृष्टि से कर्म आत्मा से भिन्न है, क्योंकि आत्मा के गुण आत्मा में ही अवस्थित हैं, कर्मों के गुण कर्मों में स्थित हैं, परस्पर गुणों का आदानप्रदान नहीं होता। कर्मों की पर्याय कर्मों में परिवर्तित होती है, और आत्मा की पर्याय आत्मा में, इस दृष्टि से आत्मा और कर्म भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा और कर्म में अभेद है। जब तक दोनों में अभेदभाव न माना जाए तब तक जन्म, जरा, मरण तथा दुःख आदि अवस्थाएं नहीं बन सकतीं। अभेद दो प्रकार का होता हैकममीमांसा] . श्री विपाक सूत्रम् [21 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-एक सदा कालभावी अर्थात् अनादि अनन्त, जैसे कि आत्मा और उपयोग का अभेद, द्रव्य और गुण का अभेद, सम्यक्त्व और ज्ञान का अभेद। इसे नैत्यिक सम्बन्ध भी कह सकते हैं। २-दूसरा अभेद औपचारिक होता है, यह अभेद अनादि सान्त और सादि सान्त यों दो प्रकार का होता है। आत्मा के साथ अज्ञानता, वासना, मिथ्यात्व और कर्मों का सम्बन्ध अनादि है। इन का विनाश भी किया जा सकता है, इसलिए इस अभेद को अनादि सान्त भी कहते हैं। दूध दधि और मक्खन तीनों में घृत अभेद से रहा हुआ है, इस संबन्ध को सादि सान्त अभेद भी कह सकते हैं। हमारा प्रकृत साध्य अनादि सान्त अभेद है। कर्मों का कर्ता कर्म है या जीव?-इस के आगे अब प्रश्न पैदा होता है कि क्या कर्मों का कर्ता कर्म ही है ? या जीव है ? इस जटिल प्रश्न का उत्तर भी नयों के द्वारा ही जिज्ञासुजन समझने का प्रयत्न करें। जैसे हिसाब के प्रश्नों को हल करने के लिए तरीके होते हैं जिन्हें गुर भी कहते हैं। एवमेव आध्यात्मिक प्रश्नों को हल करने के जो तरीके हैं उन्हें नय कहते हैं या स्याद्वाद भी कहते हैं। एकान्त निश्चय नय से अथवा एकान्त व्यवहार नय से जाना हुआ वस्तुतत्त्व सब कुछ असम्यक् तथा मिथ्या है, और अनेकान्त दृष्टि से जाना हुआ तथा देखा हुआ सब कुछ सम्यक् है। अत: ये पूर्वोक्त दोनों नय जैन-दर्शन के नेत्र हैं, यदि ऐसा कहा जाए तो अनुचित न होगा। अरूपी रूपी के बन्धन में कैसे पड़ सकता है-प्रश्न-आत्मा अरूपी (अमूर्त) है और कर्म रूपी है। अरूपी आत्मा रूपी कर्म के बन्धन में कैसे पड़ सकता है ?, उत्तर-यह प्रश्न बड़े-बड़े विचारकों के मस्तिष्क में चिरकाल से घूम रहा है। अन्य दर्शनकार इस उलझी हुई गुत्थी को सुलझाने में अभी तक असमर्थ रहे, किन्तु जैनदर्शनकार जिनभद्र गणी क्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यक भाष्य की 1636 वीं गाथा तथा बृहद्वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द सूरि जी लिखते हैं-अहवा पच्चक्खं चिय जीवोवनिबंधणं जह सरीरं, चिट्ठइ कम्मयमेव भवन्तरे जीवसंजुत्तं। अथवा-यथेदं बाह्य स्थूलशरीरं जीवोपनिबंधनं जीवेन सह सम्बद्धं प्रत्यक्षोपलभ्यमानमेव तिष्ठति सर्वत्र चेष्टते एवं भवान्तरं गच्छता जीवेन सह संयुक्तं कार्मणशरीरं प्रतिपद्यस्व। अर्थात् जैसे-प्रत्यक्ष दृश्यमान स्थूल शरीर में आत्मा ठहरी हुई है एवं आत्मा कर्मशरीर में अनादिकाल से बद्ध है, अबद्ध से बद्ध नहीं, और मुक्त से भी बद्ध नहीं, अर्थात् अनादि से है। जैनागम तो किसी भी संसारी जीव को कथंचित् रूपी मानता है। एकान्त अरूपी जीव तो मुक्तात्मा ही है क्योंकि वे कार्मण शरीर तथा तैजस शरीर से भी विमुक्त हैं / वैदिक दर्शनकार भी तीन प्रकार के शरीर प्रतिपादन करते हैं, जैसे कि-स्थूलशरीर, कारणशरीर तथा सूक्ष्मशरीर / 1. सरूवी चेव अरूवी चेव। ठा० 2, उ० पहला। 22 ] श्री विपाक सूत्रम् [कर्ममीमांसा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब जीव स्थूल शरीर को छोड़ कर अन्य स्थूल शरीर को धारण करने के लिए जाता है तो उस समय भी. वह कारण तथा सूक्ष्म शरीरी होता है। शरीर भौतिक ही होता है काल्पनिक नहीं। भौतिक पदार्थ रूपवान होते हैं, जैसे पृथ्वी आदि परमाणु भी सरूपी होते हैं। उन परमाणुओं का बना हुआ सूक्ष्म शरीर होता है। जहां सशरीरता है वहां सरूपता है। जहां सरूपता नहीं वहां सशरीरता भी नहीं, जैसे मुक्तात्मा। शरीर से कर्म, कर्म से शरीर यह परम्परा अनादि से चली आ रही है। आयुष्कर्म ने आत्मा को शरीर में जकड़ा हुआ है। आयु कर्म न सुख देता है और न दुःख, किन्तु सुख-दुख, वेदने के लिए जीव को शरीर में ठहराए रखना ही उस का काम है। पहले की बांधी हुई आयु के क्षीण होने से पूर्व ही अगले भव की आयु बांध लेता है। श्रृंखलाबद्ध की तरह सम्बन्ध हो जाने पर वही आयु नवीन शरीर में आत्मा को अवरुद्ध करती है। आयुबन्ध मोहनीयकर्म के निमित्त से बांधा जाता है। आयुबंध के साथ जितने कर्मों का बन्ध होता है वह बन्ध प्रायः निकाचित बन्ध होता है। अतः कर्मबद्ध जीव कथंचित सरूपी है। एकान्त अरूपी नहीं। जो एकान्त अरूपी है, अमूर्त है, वह कदापि पौद्गलिक वस्तु के बन्धन में नहीं पड़ सकता / यदि अरूपी अशरीरी भी कर्म के बंधन में पड़ जाए तो मुक्तता व्यर्थ सिद्ध हो जाएगी, अतः संसारी जीव पहले कभी भी अशरीरी नहीं थे। सदा काल से सशरीरी हैं। जो सशरीरी हैं वे सब बद्ध हैं। : उदय अधिकार-जो कर्म परिपक्व हो कर रसोन्मुख हो जाए उसे उदय कहते हैं। उदय दो प्रकार का होता है, जैसे कि-प्रदेशोदय और विपाकोदय। प्रदेशोदय तो समस्त संसारी जीवों के प्रतिक्षण आठों कर्मों का रहता ही है, ऐसा कोई संसारी जीव नहीं जिस के प्रदेशोदय न हो / प्रदेशोदय से सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता। जैसे गगनमंडल में सूक्ष्म रजःकण या जलकण घूम रहे हैं, हमारे पर भी उन का आघात हो रहा है लेकिन हमें कोई महसूस नहीं होता एवं प्रदेशोदय भी समझ लेना। किन्तु विपाकोदय से ही सुख-दुःख का भान होता है। विपाकोदय ही विपाकसूत्र का विषय है। कर्मफल दो तरीके से वेदे जाते हैं। स्वयं उदीयमान होने से दूसरा उदीरणा के द्वारा उदयाभिमुख करने से। जैसे फल अपनी मौसम में स्वयं तो पकते ही हैं किन्तु अन्य किसी विशेष प्रयत्न के द्वारा भ. पकाए जा सकते हैं। पाठक इतना अवश्य स्मरण रक्खें कि प्रयत्न के द्वारा उन्हीं फलों को पकाया जा सकता है जो पकने के योग्य हो रहे हैं। जो फल अभी बिल्कुल कच्चे ही हों वे नहीं पकाए जा सकते हैं। ठीक कर्मफल के विषय में भी यह ही दृष्टान्त माननीय है। जो कर्म उदय के सर्वथा अयोग्य है उसे उपशान्त कहते हैं। अतः उसकी उदीरणा नहीं हो सकती। क्रममीमांसा] श्री विपाक सूत्रम् [23 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा शास्त्रीय परिभाषानुसार-जो अन्य किसी बाह्य निमित्त की अनपेक्षा से स्वयं उदय हो कर फल देवे उसे औपक्रमिक वेदना कहते हैं। जो कर्म स्वतः या परतः जीव द्वारा अथवा इष्ट अनिष्ट पुद्गल के द्वारा उदीरणा कर के उदीयमान हो उसे अध्यवगमिक वेदना कहते हैं / वेदना का तात्पर्य यहां फल भोगने से है वह चाहे दुःखरूप में हो या सुखरूप में। आठ कर्मों की प्रकृतियां पुद्गलविपाका हैं और कुछ जीवविपाका / पुद्गलविपाका उसे कहते हैं जो प्रकृति शरीररूप परिणत हुए पुद्गलपरमाणुओं में अपना फल देती हैं, जैसे कि पांचों शरीर, छः संहनन, छः संस्थान इत्यादि नामकर्म की 37 प्रकृतियां पुद्गलविपाका कहलाती हैं। जो कर्मप्रकृति जीव में ही अपना फल देती है उसे जीवविपाका कहते हैं, जैसे कि 47 घातिकर्मों की प्रकृतियां, वेदनीय, गोत्र, तीर्थंकरनाम तथा त्रसदशक तथा स्थावरदशक इत्यादि नामकर्म की प्रकृतियां जीवविपाका कहलाती हैं / जैसे कोई अनभिज्ञ व्यक्ति औषधियां खाता है। उन से होने वाले हित-अहित को वह नहीं जानता किन्तु उसे विपाककाल में दुःखसुख वेदना पड़ता है। इसी प्रकार कर्मग्रहणकाल में भविष्यत् में होने वाले हित-अहित को नहीं जानता है। परन्तु कर्मविपाककाल में विवश होकर दुःख-सुख को वेदना ही पड़ता है। दार्शनिक दृष्टि से कर्मफलविषयक प्रश्नोत्तर-प्रश्न-कर्म रूपी हैं और दुःखसुख अरूपी हैं। कारण रूपी हो और कार्य अरूपी हो, यह बात मस्तिष्क में तथा हृदय में कैसे जंच सकती है? उत्तर-दुःख और सुख आदि आत्मधर्म हैं। आत्मधर्म होने से आत्मा ही उन का समवायी कारण है। कर्म असमवायी कारण हैं / द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव निमित्त कारण हैं। दुःख-सुख आदि आत्मधर्म हैं, इस की पुष्टि के लिए आगमप्रमाण लीजिए-उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन में जीव का लक्षण करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि ....................... जीवो उवओगलक्खणं। नाणेणं च दंसणेणं चेव सुहेण य दुहेण य // 10 // अर्थात् जीव चेतना लक्षण वाला है, ज्ञान-दर्शन सुख और दुःख द्वारा पहचाना जाता है। अतः दुःख-सुख आत्मधर्म हैं। प्रश्न-दुःख यदि आत्मधर्म है तो कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने के पश्चात् दुःखानुभूति क्यों नहीं होती ? यदि होती है तो मुक्त होना व्यर्थ है ? उत्तर-जैसे कार्य के प्रति समवायी कारण अनिवार्यतया अपेक्षित है वैसे ही असमवायी 1. कइविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा वेयणा पण्णत्ता-अल्झोवगमियाय उवक्कमियाय। (प्रज्ञापना सूत्र का 35 वां पद) 24 ] श्री विपाक सूत्रम् [कर्ममीमांसा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण निमित्त कारण भी अपेक्षित हैं। असमवायी कारण तथा निमित्त कारण के बिना अर्थात् इन के सर्वथा अभाव होने पर आत्मा में दुःख अवस्तु है। क्योंकि दुःख तो केवल औदयिक अवस्था में ही होता है। औदयिक भाव के अभाव होने पर दुःख का भी आत्मा में अभाव ही हो जाता है। औदयिक भाव का और दु:ख का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। जहां औदयिक भाव है वहां दुःख है, जहां दु:ख नहीं वहां औदयिक भाव भी नहीं। प्रश्न-सुख भी आत्मधर्म है, आत्मा में सुख समवायी कारण से रहा हुआ है। उपर्युक्त असमवायी कारण कर्म तथा निमित्तकारण के सर्वथा आत्यन्तिक अभाव होने पर दुःख की तरह सुख का भी मुक्तात्मा में अभाव ही हो जाना चाहिए ? इधर मुक्तात्मा में सुख का अभाव होना आगमसम्मत नहीं, क्योंकि आगमपाठ यह है अउलं सुहं संपन्ना उवमा जस्स नत्थि उ।सिद्धाणं सुहरासी सव्वागासे न माएज॥ ऐसी स्थिति इधर कूआं उधर खाई वाली दशा होती है। उत्तर-सुख दो प्रकार का होता है, पहला औदयिक और दूसरा आध्यात्मिक। औदयिक सुख के सहकारी साधन भौतिक पदार्थ हैं / इस सुख के भाजन पुण्यात्मा हैं / मुक्तात्मा में औदयिक सुख का तो दुःख की तरह ही आत्यन्तिक अभाव है, परन्तु आध्यात्मिक सुख अनन्त है। वह सुख एक बार आविर्भूत हो कर फिर सदाकालभावी है। केवलज्ञान व केवलदर्शन की तरह एकरस है, अक्षीण है, अपर्यवसित है, अव्याबाध है। .. प्रश्न-क्या मूर्तिमान पुद्गल अपने आह्लाद, परिताप, अनुग्रह, उपघात आदि गुणों से अमूर्त आत्मा को प्रभावित कर सकता है ? . उत्तर-हां, जो आत्मा कर्म से कथंचित् अभिन्न है उस को पुद्गल अपने प्रभाव से कथंचित् प्रभावित कर सकता है। जैसे सुपथ्य भोजन करने से क्षुधानिवृत्तिजन्य आह्लादकता, .अग्नि, विद्युत, अहिविष आदि के स्पर्श से परिताप। विज्ञान, धृति, स्मृति इत्यादि आत्मधर्म होने से अमूर्त हैं। मदिरापान से विज्ञान का उपघात होता है। विष खाने से धृति का और पिपीलिका (भूरी कीड़ी) खाए जाने से स्मृति का उपघात होता है। जीवातु जैसी औषधि पीयूष आदि पदार्थ सेवन करने से विज्ञान विकसित होता है। विषाक्त शरीर निर्विष, दिल और दिमागी ताक़त को बल देने से उपनेत्र (ऐनक) आदि से अनुग्रह करता है। सिद्धात्मा पर पुद्गल . का कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि वह अशरीरी है। सशरीरी आत्मा पर ही पुद्गल का प्रभाव पड़ सकता है। कर्मविपाक संसारस्थ प्राणी भोगते हैं, अतः अब संसारस्वरूप भी समझना आवश्यकीय है। जब तक किसी के स्वरूप को न समझा जाए तब तक वह पदार्थ हेय या उपादेय कदापि कर्ममीमांसा] . श्री विपाक सूत्रम् [25 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं बन सकता है। संसार का स्वरूप-संसार शब्द सम्पूर्वक, सृ गतौ धातु घञ् प्रत्यय से बना हुआ है, जिस का अर्थ होता है-संसरण करना, स्थानान्तर होते रहना। रूपान्तर होते रहना ही संसार का उपलक्षण अर्थ है। यह संसार जन्म, मरण, जरा, रोग, शोक आदि अनन्त दुःखों से भरा हुआ है। उन अनन्त दुःखों के भाजन सकर्मा जीव ही बने हुए हैं। जैन सूत्रकारों ने जिज्ञासुओं की सुविधा के लिए संसार को चार भागों में विभक्त किया है। जैसे कि द्रव्यतः संसार, क्षेत्रतः संसार, कालतः संसार और भावतः संसार। १-चतुर्गति, चौरासी लाख योनि में जन्म धारण करना ही द्रव्यतः संसार है। . 2-14 राजूलोक में परिभ्रमण करना ही क्षेत्रतः संसार है। ३-कायस्थिति, भवस्थिति तथा कर्मस्थिति पूर्ण करना, नाना प्रकार की पर्याय धारण करना ही कालतः संसार है। ४-घनघातिकर्मों का बन्ध तथा उन का उदय ही भावतः संसार है। जो जीव द्रव्यतः संसारी हैं, वे क्षेत्रतः तथा कालतः संसारी अवश्य हैं, परन्तु भावतः संसारी वे हों और न भी हों, जैसे अरिहंत देव। वे घनघाती कर्मों से सर्वथा रहित हैं। सिर्फ भवोपग्राही कर्म शेष हैं, उन से जन्मान्तर की प्राप्ति नहीं होती। यावत् आयुस्थिति है, तावत् मनुष्यपर्याय है, अतः वे द्रव्यतः संसारी हैं, भावतः संसारी नहीं। यहां शंका हो सकती है कि सिद्ध भगवान् को क्षेत्रतः संसारी अवश्य मानना पड़ेगा, क्योंकि सिद्धशिला से ऊपर के क्रोश के छठे भाग में सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। वह स्थान भी 14 राजूलोक के अन्तर्गत ही है, फिर वे असंसारसमावर्तक कैसे रहे ? जब कि उसी स्थान में सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव भी वर्तमान हैं, उन्हें संसारी कहा है ? समाधान-सिद्ध भगवान सदैव अचल हैं, न अपने गुणों से चलित होते हैं और ना ही संसरण करते हैं, अर्थात् स्थानान्तर होते हैं। अत: वे सर्वथा असंसारी ही हैं। तनस्थ एकेन्द्रिय जीवों में घनघाती कर्म विद्यमान हैं, अत: वे सर्वथा संसारी ही हैं जो जीव भावतः संसारी हैं, वे द्रव्यतः, क्षेत्रतः तथा कालतः नियमेन संसारी ही हैं, वस्तुतः वे ही क्लेश के भाजन हैं। एक जन्म में उपार्जित किए हुए पाप कर्म जीव को रोग, शोक, छेदन, भेदन, मारण, पीड़न आदि दुःखपूर्ण दुर्गति में धकेल देते हैं। यदि किसी पुण्ययोग से जीव राजघराने में या श्रेष्ठिकुल में जन्म प्राप्त करता है, तो वहां पर भी वे ही पूर्वकृत पापकर्म उसे पुनः पापोपार्जन करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिस से वह पुनः दुःखगर्त में गिर जाता है। 26 ] श्री विपाक सूत्रम् [कर्ममीमांसा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततो वि य उवट्टित्ता, संसारं बहुं अणुपरियडंति। बहुकम्मलेवलित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं॥ यह गाथा साधक को सावधान बनाने के लिए पर्याप्त है। कारण से कार्य की उत्पत्ति-जो हमें इहभविक दुःख और सुखमय जीवन दृष्टिगोचर होता है, वह कार्य है। उस का कारण अन्य जन्मकृत पाप और पुण्य है, और जो इहभविक में क्रियमाण अशुभ और शुभ कर्म हैं, वे भविष्यत्कालिक जीवन में होने वाले दुःख-सुख के कारण हैं। कर्मवाद का अर्थ यही होता है कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार पर है, और भविष्य का निर्माण वर्तमान के आधार पर निर्भर है। हमारा कोई कर्म व्यर्थ नहीं जाता। हमें किसी प्रकार का फल बिना कर्म के नहीं मिलता। कर्म और फल का यह अविच्छेद्य सम्बन्ध ही विपाकसूत्र की नींव है। धन्यवाद-प्रस्तुत सूत्र के हिन्दी अनुवादक श्रीयुत पण्डित श्री ज्ञान मुनि जी हैं। आप की श्रुतभक्ति सराहनीय है। बेशक इस सूत्र के लेखन तथा प्रकाशन में अनेकों बाधाएं आगे आईं किन्तु आप ने एडी की जगह पर अंगूठा नहीं रखा, अग्रसर होते ही गए, आखिर में सफलतालक्ष्मी ने सहर्ष आप के कंठ में जयमाला डाली। आप की विपाकसूत्र पर आत्मज्ञानविनोदिनी नामक हिन्दीव्याख्या स्थानकवासी संप्रदाय में अभी तक अपूर्व है, ऐसा मेरा विचार है। सुललित हिन्दी व्याख्या के न होने से बहुत से जिज्ञासुगण उक्त सूत्रविषयक ज्ञान से वंचित रहे हुए थे। अब वह अपूर्णता अनथक प्रयास से आप ने बहुत कुछ पूर्ण कर दी है। एतदर्थ धन्यवाद। कर्ममीमांसा] श्री विपाक सूत्रम् [27 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्याय काल जैनशास्त्रों के पर्यालोचन से पता चलता है कि अध्यात्म जगत में स्वाध्याय भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। इस की महिमा के परिचायक अनेकानेक पद जैनागमों में यत्रतत्र उपलब्ध होते हैं / आत्मिक ज्ञानज्योति को आवृत्त करने वाले 'ज्ञानावरणीय कर्म का इस को नाशक बता कर आधिभौतिक, दैहिक तथा दैविक इन सभी दुखों का इसे विमोक्ता बताया है। सारांश यह है कि स्वाध्याय की उपयोगिता एवं महानता को जैनागमों में विभिन्न पद्धतियों से वर्णित किया गया है। यह ठीक है कि स्वाध्याय द्वारा मानव आत्मविकास कर सकता है और वह इस मानव को परम्परया जन्म-मरण के भीषण दुःखजाल से छुटकारा दिलाकर परम साध्य निर्वाण पद को उपलब्ध करवा देता है, परन्तु यह (स्वाध्याय) विधिपूर्वक होना चाहिए, विधिपूर्वक किया हुआ स्वाध्याय ही इष्टसिद्धि का कारण बनता है। यदि विधिशून्य स्वाध्याय होगा तो वह अनिष्ट का कारण भी बन सकता है। इस लिए शास्त्रों का स्वाध्याय करने से पूर्व उस की विधि अर्थात् उस के पठनीय समय असमय का बोध अवश्य प्राप्त कर लेना चाहिए। श्री स्थानांगसूत्र में अस्वाध्यायकाल का बड़ा सुन्दर विवेचन किया गया है। वहां बत्तीस अस्वाध्याय लिखे हैं। दश आकाशसम्बन्धी, दश औदारिकसम्बन्धी, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदाओं के पूर्व की पूर्णिमाएं और चार सन्ध्याएं, ये 32 अस्वाध्याय हैं। तात्पर्य यह है कि इन में शास्त्रों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अन्य ग्रन्थों में अस्वाध्यायकाल के सम्बन्ध में कुछ मतभेद भी पाया जाता है परन्तु विस्तारभय से प्रस्तुत में उसका वर्णन नहीं किया जा रहा है। प्रस्तुत में तो हमें श्री स्थानांगसूत्र के आधार पर ही बत्तीस अस्वाध्यायों का विवेचन करना है। अस्तु, बत्तीस अस्वाध्यायों का नामनिर्देशपूर्वक संक्षिप्त परिचय निनोक्त है (1) उल्कापात-आकाश में रेखा वाले तेज:पुञ्ज का गिरना, अथवा पीछे से रेखा 1. सज्झाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सज्झाएणं जीवे नाणावरणिज कम्मं खवेइ। (उत्तराध्ययन सूत्र अ० 29, सूत्र 18) 2. सज्झाए वा सव्वदुक्खविमोक्खणे- (उत्तराध्ययनसूत्र अ० 26) 3. अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने से होने वाली हानि को टीकाकार महानुभाव के शब्दों में-एतेषु स्वाध्यायं कुर्वतां क्षुद्रदेवता छलनं करोति-इन शब्दों में कहा जा सकता है। इन शब्दों का भाव इतना ही है कि अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने से कोई क्षुद्र देवता पढ़ने वाले को पीड़ित कर सकता है। 28 ] श्री विपाक सूत्रम् [स्वाध्याय Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं प्रकाश वाले तारे का टूटना उल्कापात कहलाता है। उल्कापात होने पर एक प्रहर तक सूत्र की अस्वाध्याय रहती है। (2) दिग्दाह-किसी एक दिशा-विशेष में मानों बड़ा नगर जल रहा हो, इस प्रकार ऊपर की ओर प्रकाश दिखाई देना और नीचे अन्धकार मालूम होना, दिग्दाह कहलाता है। दिग्दाह के होने पर एक प्रहर तक अस्वाध्याय रहती है। (3) गर्जित-बादल गर्जने पर दो प्रहर तक शास्त्र की स्वाध्याय नहीं करनी चाहिए। (4) विद्युत्-बिजली चमकने पर एक प्रहर तक शास्त्र की स्वाध्याय करने का निषेध है। ____ आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र तक अर्थात् वर्षा ऋतु में गर्जित और विद्युत् की अस्वाध्याय नहीं होती, क्योंकि वर्षाकाल में ये प्रकृतिसिद्ध-स्वाभाविक होते हैं। (5) निर्घात-बिना बादल वाले आकाश में व्यन्तरादिकृत गर्जना की प्रचण्ड ध्वनि को निर्घात कहते हैं। निर्घात होने पर एक अहोरात्रि तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। " (6) यूपक-शुक्लपक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया को संध्या की प्रभा और चन्द्र की प्रभा का मिल जाना यूपक है। इन दिनों में चन्द्र-प्रभा से आवृत्त होने के कारण सन्ध्या की समाप्ति मालूम नहीं होती। अतः तीनों दिनों में रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करना निषिद्ध है। . (7) यक्षादीप्त-कभी-कभी किसी दिशा विशेष में बिजली सरीखा, बीच-बीच * में ठहर कर, जो प्रकाश दिखाई देता है उसे यक्षादीप्त कहते हैं / यक्षादीप्त होने पर एक प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ..(8) धूमिका-कार्तिक से ले कर माघ मास तक का समय मेघों का गर्भमास कहा जाता है। इस काल में जो धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धूंवर पड़ती है, वह धूमिका कहलाती है। यह धूमिका कभी-कभी अन्य मासों में भी पड़ा करती है। धूमिका गिरने के साथ ही सभी वस्तुओं को जल-क्लिन्न कर देती है। अत: यह जब तक गिरती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (9) महिका-शीत काल में जो श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धूंवर पड़ती है, वह महिका कहलाती है। यह भी जब तक गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय रहता है। (10) रज-उद्घात-वायु के कारण आकाश में जो चारों ओर धूल छा जाती है, उसे रज-उद्घात कहते हैं / रज-उद्घात जब तक रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। स्वाध्याय] श्री विपाक सूत्रम् [29 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दश आकाशसम्बन्धी अस्वाध्याय हैं। (11-13) अस्थि, मांस और रक्त-पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च के अस्थि, मांस और रक्त यदि साठ हाथ के अन्दर हों तो संभवकाल से तीन प्रहर तक स्वाध्याय करना मना है। यदि साठ हाथ के अन्दर बिल्ली वगैरह चूहे आदि को मार डालें तो एक दिन-रात अस्वाध्याय रहता है। इसी प्रकार मनुष्यसम्बन्धी अस्थि, मांस और रक्त का अस्वाध्याय भी समझना चाहिए। अन्तर केवल इतना ही है कि इन का अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्रियों के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन का एवं बालक और बालिकाओं के जन्म का क्रमशः सात और आठ दिन का माना गया है। (14) अशुचि-टट्टी और पेशाब यदि स्वाध्यायस्थान के समीप हों और वे दृष्टिगोचर होते हों अथवा उन की दुर्गन्ध आती हो तो वहां स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ' (15) श्मशान-श्मशान के चारों तरफ़ सौ-सौ हाथ तक स्वाध्याय न करना चाहिए। (16) चन्द्रग्रहण-चन्द्र-ग्रहण होने पर जघन्य आठ और उत्कृष्ठ बारह प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। यदि उगता हुआ चन्द्र ग्रसित हुआ हो तो चार प्रहर उस रात के एवं चार प्रहर आगामी दिवस के-इस प्रकार आठ प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ___यदि चन्द्रमा प्रभात के समय ग्रहण-सहित अस्त हुआ हो तो चार प्रहर दिन के, चार प्रहर रात्रि के एवं चार प्रहर दूसरे दिन के-इस प्रकार बारह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए। पूर्ण ग्रहण होने पर भी बारह प्रहर स्वाध्याय न करना चाहिए। यदि ग्रहण अल्प-अपूर्ण हो तो आठ प्रहर तक अस्वाध्यायकाल रहता है। (17) सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर जघन्य बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए। अपूर्ण ग्रहण होने पर बारह और पूर्ण तथा पूर्ण के लगभग होने पर सोलह प्रहर का अस्वाध्याय होता है। सूर्य अस्त होते समय ग्रसित हो तो चार प्रहर रात के और आठ आगामी अहोरात्रि केइस प्रकार सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए। यदि उगता हुआ सूर्य ग्रसित हो तो उस दिन-रात के आठ एवं आगामी दिन रात के आठ-इस प्रकार सोलह प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (18) पतन-राजा की मृत्यु होने पर जब तक दूसरा राजा सिंहासनारूढ़ न हो, तब तक स्वाध्याय करना निषिद्ध है। नए राजा के सिंहासनारूढ़ हो जाने के बाद भी एक दिन रात तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 30 ] श्री विपाक सूत्रम् [स्वाध्याय Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा के विद्यमान रहते भी यदि अशान्ति एवं उपद्रव हो जाए तो जब तक अशान्ति रहे तब तक अस्वाध्याय रखना चाहिए। शांति एवं व्यवस्था हो जाने के बाद भी एक अहोरात्रि के लिए अस्वाध्याय रखा जाता है। राजमंत्री की, गाँव के मुखिया की, शय्यातर की तथा उपाश्रय के आस-पास में सात घरों के अन्दर अन्य किसी की मृत्यु हो जाए तो एक दिन रात के लिए अस्वाध्याय रखना चाहिए। (19) राजव्युद्ग्रह-राजाओं के बीच संग्राम हो जाए तो शान्ति होने तक तथा उस के बाद भी एक अहोरात्र तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (२०)औदारिकशरीर-उपाश्रय में पंचेन्द्रिय तिर्यंच का अथवा मनुष्य का निर्जीव शरीर पड़ा हो तो सौ हाथ के अन्दर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ये दश औदारिक-सम्बन्धी अस्वाध्याय हैं / चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण को औदारिक अस्वाध्याय में इसलिए गिना है कि उन के विमान पृथ्वी के बने होते हैं। (21-28) चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढ़ पूर्णिमा, आश्विन पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा और चैत्र पूर्णिमा-ये चार महोत्सव हैं / उक्त महापूर्णिमाओं के बाद आने वाली प्रतिपदा महाप्रतिपदा कहलाती है। चारों महापूर्णिमाओं और चारों महाप्रतिपदाओं में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। __(29-32) प्रातःकाल, दोपहर, सायंकाल और अर्द्धरात्रि-ये चार सन्ध्याकाल हैं। इन संध्याओं में भी दो घड़ी तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। इन बत्तीस अस्वाध्यायों का विस्तृत विवेचन तो श्री स्थानांगसूत्र, व्यवहारभाष्य तथा हरिभद्रीयावश्यक में किया गया है। अधिक के जिज्ञासु पाठक महानुभाव वहां देख सकते हैं। ___ आगमनन्थों में श्री विपाकसूत्र का भी अपना एक मौलिक स्थान है, अतः श्री विपाकसूत्र के अध्ययन या अध्यापन करते या कराते समय पूर्वोक्त 32 अस्वाध्यायकालों के छोड़ने का ध्यान रखना चाहिए। दूसरे शब्दों में इन अस्वाध्यायकालों में श्री विपाकसूत्र का पठन-पाठन नहीं करना चाहिए। इसी बात की सूचना देने के लिए प्रस्तुत में 32 अस्वाध्यायों का विवरण दिया गया है। 1. ऊपर कहे गए 32 अस्वाध्यायों का भाषानुवाद प्रायः कविरत्न श्री अमरचन्द्र जी महाराज द्वारा अनुवादित श्रमणसूत्र में से साभार उद्धृत किया गया है। स्वाध्याय] श्री विपाक सूत्रम् [31 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स" प्राक्कथन भारत के लब्धप्रतिष्ठ जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों ही प्राचीन धर्मों का समानरूप से यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि मानव जीवन का अन्तिम साध्य उस के आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता और उस से प्राप्त होने वाला प्रतिभाप्रकर्षजन्य पूर्णबोध अथच स्वरूपप्रतिष्ठा अर्थात् परमकैवल्य या मोक्ष है, उस के प्राप्त करने में उक्त तीनों धर्मों में जितने भी उपाय बताये गए हैं, उन सब का अन्तिम लक्ष्य आत्मसम्बद्ध समस्त कर्माणुओं का क्षीण करना है। आत्मसम्बद्ध समस्त कर्मों के नाश का नाम ही मोक्ष है। दूसरे शब्दों में आत्मप्रदेशों के साथ कर्मपुद्गलों का जो सम्बन्ध है, उससे सर्वथा पृथक् हो जाना ही मोक्ष है। सम्पूर्ण कर्मों के क्षय का अर्थ है-पूर्वबद्ध कर्मों का विच्छेद और नवीन कर्मों के बन्ध का अभाव। तात्पर्य यह है कि एक बार बांधा हुआ कर्म कभी न कभी तो क्षीण होता ही है, परन्तु कर्म के क्षयकाल तक अन्य कर्मों का बन्ध भी होता रहता है, अर्थात् एक कर्म के क्षय होने के समय अन्य कर्म का बन्ध होना भी सम्भव अथच शास्त्रसम्मत है। इसलिए सम्पूर्ण कर्मों अर्थात् बद्ध और बांधे जाने वाले समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय, आत्मा से सर्वथा पृथक् हो जाना ही मोक्ष है। यद्यपि बौद्ध और वैदिक साहित्य में भी कर्मसम्बन्धी विचार है तथापि वह इतना अल्प है कि उसका कोई विशिष्ट स्वतन्त्र ग्रन्थ उस साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। इस के विपरीत जैनदर्शन में कर्मसम्बन्धी विचार नितांत सूक्ष्म, व्यवस्थित और अति विस्तृत हैं। उन विचारों का प्रतिपादकशास्त्र कर्मशास्त्र कहलाता है। उस ने जैन साहित्य के बहुत बड़े भाग को रोक रखा है, यदि कर्मशास्त्र को जैन साहित्य का हृदय कह दिया जाए तो उचित ही होगा। कर्मशब्द की अर्थविचारणा-कर्म शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-क्रियते इति 1. कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः। (तत्त्वार्थसूत्र अ० 10, सू०३) 2. जिस में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान हों, उसे पुद्गल कहते हैं, जो पुद्गल कर्म बनते हैं वे एक प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्म रज अथवा धूलि होती है, जिस को इन्द्रियां स्वयं तो क्या यंत्रादि की सहायता से भी नहीं जान पातीं। सर्वज्ञ परमात्मा अथवा परम अवधि ज्ञान के धारक योगी ही उस रज का प्रत्यक्ष कर सकते हैं / जो रज कर्मपरिणाम को प्राप्त हो रही है या हो चुकी है उसी रज की कर्मपुद्गल संज्ञा होती है। 3. यह जीव समय-समय पर कर्मों की निर्जरा भी करता है और कर्मों का बन्ध भी करता है, अर्थात् पुराने कर्मों का विच्छेद और नवीन कर्मों का बन्ध इस जीव में जब तक बना रहता है तब तक इस को पूर्णबोधकेवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। 32 ] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-अर्थात् जो किया जाए वह कर्म कहलाता है। कर्म शब्द के लोक और शास्त्र में अनेक अर्थ उपलब्ध होते हैं / लौकिक व्यवहार या काम धन्धे के अर्थ में कर्म शब्द का व्यवहार होता है, तथा खाना-पीना, चलना, फिरना आदि क्रिया का भी कर्म के नाम से व्यवहार किया जाता है, इसी प्रकार कर्मकांडी मीमांसक याग आदि क्रियाकलाप के अर्थ में, स्मार्त विद्वान् ब्राह्मण आदि चारों वर्गों तथा ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रमों के लिए नियत किए गए कर्मरूप अर्थ में, पौराणिक लोग व्रत नियमादि धार्मिक क्रियाओं के अर्थ में, व्याकरण के निर्माता-कर्ता जिस को अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता हो अर्थात् जिस पर कर्ता के व्यापार का फल गिरता हो-उस अर्थ में, और नैयायिक लोग उत्क्षेपणादि पांच सांकेतिक कर्मों में कर्म शब्द का व्यवहार करते हैं और गणितज्ञ लोग योग और गुणन आदि में भी कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं परन्तु जैन दर्शन में इन सब अर्थों के अतिरिक्त एक पारिभाषिक अर्थ में उस का व्यवहार किया गया है, उस का पारिभाषिक अर्थ पूर्वोक्त सभी अर्थों से भिन्न अथच विलक्षण है। उस के मत में कर्म यह नैयायिकों या वैशेषिकों की भान्ति क्रियारूप नहीं किन्तु पौद्गलिक अर्थात् द्रव्यरूप है। वह आत्मा के साथ प्रवाहरूप से अनादि सम्बन्ध रखने वाला अजीव-जड़ द्रव्य है। जैन-सिद्धान्त के अनुसार कर्म के भावकर्म और द्रव्यकर्म ऐसे दो प्रकार हैं / इन की व्याख्या निम्नोक्त है- .. ... १-भावकर्म-मन, बुद्धि की सूक्ष्म क्रिया या आत्मा के रागद्वेषात्मक संकल्परूप परिस्पन्दन को भावकर्म कहते हैं। २-द्रव्यकर्म-कर्माणुओं का नाम द्रव्यकर्म है अर्थात् आत्मा के अध्यवसायविशेष से कर्माणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ सम्बन्ध होने पर उन की द्रव्यकर्म संज्ञा होती है। द्रव्यकर्म जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है इस के समझने के लिए कुछ अन्तर्दृष्टि होने की आवश्यकता है।.. - जब कोई आत्मा किसी तरह का संकल्प-विकल्प करता हैं तो उसी जाति की कार्मण वर्गणाएं उस आत्मा के ऊपर एकत्रित हो जाती हैं अर्थात् उस की ओर खिंच जाती हैं उसी को जैन परिभाषा में आस्रव कहते हैं और जब ये आत्मा से सम्बन्धित हो जाती हैं तो इन की जैन मान्यता के अनुसार बन्ध संज्ञा हो जाती है। दूसरे शब्दों में आत्मा के साथ कर्मवर्गणा के अणुओं का नीर-क्षीर की भान्ति लोलीभाव-हिलमिल जाना बन्ध कहलाता है। बन्ध के-१-प्रकृतिबन्ध, 1. उत्क्षेपणापक्षेपणाकुंचनप्रसारणगमनानि पंचकर्माणि-अर्थात् उत्क्षेपण-ऊपर फैंकना, अपक्षेपणनीचे गिराना, आकुंचन-समेटना, प्रसारण-फैलाना और गमन-चलना, ये पांच कर्म कहलाते हैं। नैयायिकों के मत में द्रव्यादि सात पदार्थों में कर्म यह तीसरा पदार्थ है और वह उत्क्षेपणादि भेद से पांच प्रकार का होता है। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [33 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२-स्थितिबन्ध, ३-अनुभागबन्ध और ४-प्रदेशबन्ध ये चार भेद हैं। सामान्यतया इसी को ही द्रव्यकर्म कहते हैं और इसके-द्रव्यकर्म के आठ भेद होते हैं। ये आठों ही आत्मा की मुख्यमुख्य आठ शक्तियों को या तो विकृत कर देते हैं या आवृत करते हैं। ये आठ भेद-१ज्ञानावरणीय, २-दर्शनावरणीय, ३-वेदनीय, ४-मोहनीय, ५-आयु, ६-नाम, ७-गोत्र और ८-अन्तराय, इन नामों से प्रसिद्ध हैं। ये द्रव्यरूप कर्म के मूल आठ भेद हैं और इन्हीं नामों से इन का जैनशास्त्रों में विधान किया गया है। इन की अर्थविचारणा इस प्रकार है १-ज्ञानावरणीय-२जिस के द्वारा पदार्थों का स्वरूप जाना जाए उस का नाम ज्ञान है। जो कर्म ज्ञान का आवरण-आच्छादन करने वाला हो, उसे ज्ञानावरणीय कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे सूर्य को बादल आवृत्त कर लेता है, अथवा जैसे नेत्रों के प्रकाश को वस्त्रादि पदार्थ आच्छादित कर देते हैं, उसी प्रकार जिन कर्माणुओं या कर्मवर्गणाओं के द्वारा इस जीवात्मा का ज्ञान आवृत (ढका हुआ) हो रहा है, उन कर्माणुओं या कर्मवर्गणाओं का नाम ज्ञानावरणीय 1. स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्तः, स्थितिः कालावधारणम्। अनुभागो रसो ज्ञेयः, प्रदेशो दलसंचयः॥१॥ अर्थात् स्वभाव का नाम प्रकृति है, समय के अवधारण-इयत्ता को स्थिति कहते हैं, रस का नाम अनुभाग है और दलसंचय को प्रदेश कहते हैं। प्रकृतिबन्ध आदि पदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निनोक्त है (क)-प्रकृतिबन्ध-जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्मपुद्गलों में भिन्न भिन्न स्वभावों अर्थात् शक्तियों का उत्पन्न होना प्रकृतिबन्ध हैं। ___ (ख)-स्थितिबन्ध-जीव के द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों में अमुक काल तक अपने स्वभावों का त्याग न कर जीव के साथ लगे रहने की कालमर्यादा को स्थितिबन्ध कहते हैं। (ग)-अनुभाग (रस) बन्ध-जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्मपुद्गलों में रस के तरतम-भाव का अर्थात् फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का उत्पन्न होना रसबन्ध कहलाता है। (घ)-प्रदेशबन्ध-जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणुओं वाले कर्मस्कन्धों का सम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध कहलाता है। अथवा-प्रकृतिबन्ध आदि पदों की व्याख्या निम्न प्रकार से भी की जा सकती है (क)-कर्मपुद्गलों में जो ज्ञान को आवरण करने, दर्शन को रोकने और सुख-दुःख देने आदि का स्वभाव बनता है वही स्वभावनिर्माण प्रकृतिबन्ध है। (ख)-स्वभाव बनने के साथ ही उस स्वभाव से अमुक समय तक च्युत न होने की मर्यादा भी पुद्गलों में निर्मित होती है, यह कालमर्यादा का निर्माण ही स्थितिबन्ध है। (ग)-स्वभावनिर्माण के साथ ही उस में तीव्रता, मन्दता आदि रूप में फलानुभव करने वाली विशेषताएं बंधती हैं, ऐसी विशेषता ही अनुभागबन्ध है। (घ)-ग्रहण किए जाने पर भिन्न भिन्न स्वभावों में परिणत होने वाली कर्मपुद्गलराशि स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिमाण में बंट जाती है, यह परिमाणविभाग ही प्रदेशबन्ध कहलाता है। 2. नाणस्सावरणिजं, दंसणावरणं तहा। वेयणिजंतहा मोहं, आउकम्मं तहेव य // 2 // नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माइं, अद्रुवु उसमासओ // 3 // (उत्तराध्ययनसूत्र, अ० 33) 34 ] श्री विपाक सूत्रम् .. [प्राक्कथन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म है। २-दर्शनावरणीय-पदार्थों के सामान्य बोध का नाम दर्शन है। जिस कर्म के द्वारा जीवात्मा का सामान्य बोध आच्छादित हो उसे दर्शनावरणीय कहा जाता है। यह कर्म द्वारपाल के समान है। जैसे-द्वारपाल राजा के दर्शन करने में रुकावट डालता है ठीक उसी प्रकार यह कर्म भी आत्मा के चक्षुर्दर्शन (नेत्रों के द्वारा होने वाला पदार्थ का सामान्य बोध) आदि में रुकावट डालता है। ३-वेदनीय-जिस कर्म के द्वारा सुख-दुःख की उपलब्धि हो उस का नाम वेदनीय कर्म है। यह कर्म मधुलिप्त असिधारा के समान है। जैसे-मधुलिप्त असिधारा को चाटने वाला मधु के रसास्वाद से आनन्द तथा जिह्वा के कट जाने से दुःख दोनों को प्राप्त करता है, उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से यह जीव सुख और दुःख दोनों का अनुभव करता है। ४-मोहनीय-जो कर्म स्व-पर विवेक में तथा स्वरूपरमण में बाधा पहुँचाता है, अथवा जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व गुण का और चारित्रगुण का घात करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। यह कर्म मदिराजन्य फल के समान फल करता है। जिस प्रकार मदिरा के नशे में चूर हुआ पुरुष अपने कर्तव्याकर्त्तव्य के भान से च्युत हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीयकर्म के प्रभाव से इस जीवात्मा को भी निज हेयोपादेय का ज्ञान नहीं रहता। . ५-आयु-जिस कर्म के अवस्थित रहने से प्राणी जीवित रहता है और क्षीण हो जाने से मृत्यु को प्राप्त करता है, उसे आयुष्कर्म कहते हैं। यह कर्म कारागार (जेल) के समान है, अर्थात् जिस प्रकार कारागार में पड़ा हुआ कैदी अपने नियत समय से पहले नहीं निकल पाता उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से यह जीवात्मा अपनी नियत भवस्थिति को पूरा किए बिना मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता। ... ६-नाम-जिस कर्म के प्रभाव से अमुक जीव नारकी है, अमुक तिर्यंच है, अमुक मनुष्य और अमुक देव है-इस प्रकार के नामों से सम्बोधित होता है, उसे नामकर्म कहते हैं। यह कर्म चित्रकार के समान है। जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्रों का निर्माण करता है। उसी प्रकार नामकर्म भी इस जीवात्मा को अनेक प्रकार की अवस्थाओं में परिवर्तित करता है। ७-गोत्र-जिस कर्म के द्वारा जीवात्मा ऊँच और नीच कुल में उत्पन्न हो अर्थात् ऊँचनीच संज्ञा से सम्बोधित किया जाए, उस का नाम गोत्रकर्म है। यह कर्म कुलाल (कुम्हार) के समान है। जैसे-कुलाल छोटे तथा बड़े भाजनों को बनाता है, उसी प्रकार गोत्रकर्म के प्रभाव से इस जीव को ऊँच और नीच पद की उपलब्धि होती है। . ८-अन्तराय-जो कर्म आत्मा के वीर्य, दान, लाभ, भोग और उपभोग रूप शक्तिओं श्री विपाक सूत्रम् [35 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का घात करता है वह कर्म अन्तराय कहलाता है। अन्तराय कर्म राजभंडारी के समान होता है। जैसे-राजा ने द्वार पर आए हुए किसी याचक को कुछ द्रव्य देने की कामना से भंडारी के नाम पत्र लिख कर याचक को तो दिया, परन्तु याचक को भंडारी ने किसी कारण से द्रव्य नहीं दिया, या भंडारी ही उसे नहीं मिला। भंडारी का इन्कार या उस का न मिलना ही अन्तराय कर्म है। कारण कि पुण्यकर्म-वशात् दानादि सामग्री के उपस्थित होते हुए भी इस के प्रभाव से कोई न कोई ऐसा विघ्न उपस्थित हो जाता है कि देने और लेने वाले दोनों ही सफल नहीं हो पाते। कर्मों की आठ मूल प्रकृतियां ऊपर कही जा चुकी हैं, इन की उत्तर प्रकृतियां 158 हैं। ज्ञानावरणीय की 5, दर्शनावरणीय को 9, वेदनीय की 2, मोहनीय की 28, आयु की 4, नाम की 103, गोत्र की 2 और अन्तराय की 5, कुल मिला कर 2158 उत्तरप्रकृति या उत्तरभेद होते हैं। इन समस्त उत्तरभेदों का विस्तृत वर्णन तो जैनागमों तथा उन से संकलित किए गए कर्मग्रन्थों में किया गया है, परन्तु प्रस्तुत में इन का प्रकरणानुसारी संक्षिप्त वर्णन दिया जा रहा है (1) ज्ञानावरणीय कर्म के 5 भेद हैं, जिनका विवरण नीचे की पंक्तियों में है १-मतिज्ञानावरणीय-इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान को आवरण-आच्छादन करने वाले कर्म को मतिज्ञानावरणीय अथवा मतिज्ञानावरण कहते हैं। २-श्रुतज्ञानावरणीय-शास्त्रों के वांचने तथा सुनने से जो अर्थज्ञान होता है, अथवामतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिस में हो ऐसा ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। इस ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को श्रुतज्ञानावरणीय या श्रुतज्ञानावरण कर्म कहते हैं। ३-अवधिज्ञानावरणीय-इन्द्रियों तथा मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिए हुए रूप वाले द्रव्य का जो ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं, इस ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को अवधिज्ञानावरणीय कहते हैं। ४-मनःपर्यवज्ञानावरणीय-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना मर्यादा कों लिए हुए जिस में संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जाना जाए उसे मन:पर्यवज्ञान कहा जाता है। इस 1. कर्मों के मूलभेद मूलप्रकृति और उत्तरभेद उत्तरप्रकृतियां कहलाती हैं। 2. इह नाणदंसणावरणवेदमोहाउनामगोयाणि। विग्धं च पणनवदुअट्ठवीसचउतिसयदुपणविहं॥३॥ (कर्मग्रन्थ भाग 1) श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को मनःपर्यवज्ञानावरणीय कहते हैं। ५-केवलज्ञानावरणीय-संसार के भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान काल के सम्पूर्ण पदार्थों का युगपत्-एक साथ जानना, केवलज्ञान कहलाता है। इस ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को केवलज्ञानावरणीय कहते हैं। (2) दर्शनावरणीय कर्म के 9 भेद हैं। इन का संक्षिप्त विवरण निम्नोक्त है १-चक्षुदर्शनावरणीय-आंख के द्वारा जो पदार्थों के सामान्य धर्म का ग्रहण होता है, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं, उस सामान्य ग्रहण अर्थात् ज्ञान को रोकने वाला कर्म चक्षुदर्शनावरणीय कहलाता है। २-अचक्षुदर्शनावरणीय-आंख को छोड़ कर त्वचा, जिह्वा, नाक, कान और मन से पदार्थों के सामान्य धर्म का जो ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं / इस के आवरण करने वाले कर्म को अचक्षुदर्शनावरणीय कहा जाता है। ३-अवधिदर्शनावरणीय-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही आत्मा को रूपी द्रव्य के सामान्य धर्म का जो बोध होता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं। इस के आवरण करने वाले कर्म को अवधिदर्शनावरणीय कहते हैं। ४-केवलदर्शनांवरणीय-संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का जो सामान्य अवबोध होता है, उसे केवलदर्शन कहते हैं। इस के आवरण करने वाले कर्म को केवलदर्शनावरणीय कहा जाता है। ५-निद्रा-जो सोया हुआ जीव थोड़ी सी आवाज से जाग पड़ता है अर्थात् जिसे जगाने में परिश्रम नहीं करना पड़ता, उस की नींद को निद्रा कहते हैं और जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आती है, उस कर्म का नाम भी निद्रा है। .६-निद्रानिद्रा-जो सोया हुआ जीव बड़े जोर से चिल्लाने पर, हाथ द्वारा ज़ोर-ज़ोर से हिलाने पर बड़ी मुश्किल से जागता है, उस की नींद को निद्रानिद्रा कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आए उस कर्म का भी नाम निद्रानिद्रा है। - ७-प्रचला-खड़े-खड़े या बैठे-बैठे जिस को नींद आती है, उस की नींद को प्रचला कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आए उस कर्म का नाम भी प्रचला है। . ८-प्रचलाप्रचला-चलते-फिरते जिस को नींद आती है, उस की नींद को प्रचलाप्रचला कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आए उस कर्म का नाम भी प्रचलाप्रचला है। ९-स्त्यानर्द्धि या स्त्यानगृद्धि-जो जीव दिन में अथवा रात में सोचे हुए काम को नींद की हालत में कर डालता है, उस की नींद को स्त्यानर्द्धि या स्त्यानगृद्धि कहते हैं। यह निद्रा प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [37 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसे आती है उस में उस निद्रा की दशा में वासुदेव का आधा बल आ जाता है। जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आती है, उस कर्म का नाम स्त्यानर्द्धि या स्त्यानगृद्धि है। (3) वेदनीय कर्म के 2 भेद हैं। उन का नामनिर्देशपूर्वक विवरण निम्नोक्त है १-सातावेदनीय कर्म-जिस कर्म के उदय से आत्मा को विषयसम्बन्धी सुख का अनुभव होता है, उसे सातावेदनीय कहते हैं। ___२-असातावेदनीय कर्म-जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की अप्राप्ति से अथवा प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति से दुःख का अनुभव होता है, उसे असातावेदनीय कहते हैं। (4) मोहनीय कर्म के-१-दर्शनमोहनीय और २-चारित्रमोहनीय, ऐसे दो भेद हैं। जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही समझना यह दर्शन है अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धान को दर्शन कहते हैं। यह आत्मा का गुण है। इस के घातक कर्म को दर्शनमोहनीय कहा जाता है और जिस के द्वारा आत्मा अपने असली स्वरूप को पाता है उसे चारित्र कहते हैं। इस के घात करने वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म के 3 भेद निम्नोक्त हैं- ... १-सम्यक्त्वमोहनीय-जिस कर्म का उदय तात्त्विक रुचि का निमित्त हो कर भी औपशमिक या क्षायिक भाव वाली तत्त्वरुचि का प्रतिबन्ध करता है, वह सम्यक्त्वमोहनीय २-मिथ्यात्वमोहनीय-जिस कर्म के उदय से तत्त्वों के यथार्थरूप की रुचि न हो, वह मिथ्यात्वमोहनीय कहलाता है। ३-मिश्रमोहनीय-जिस कर्म के उदयकाल में यथार्थता की रुचि या अरुचि न हो कर दोलायमान स्थिति रहे, उसे मिश्रमोहनीय कहते हैं। चारित्रमोहनीय के कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय ऐसे दो भेद उपलब्ध होते हैं। १-जिस कर्म के उदय से क्रोध, मान, माया आदि कषायों की उत्पत्ति हो, उसे कषायमोहनीय कहते हैं, और २-जिस कर्म के उदय से आत्मा में हास्यादि नोकषाय (कषायों के उदय के साथ जिन का उदय होता है, अथवा कषायों को उत्तेजित करने वाले हास्य आदि) की उत्पत्ति हो, उसे नोकषायमोहनीय कहते हैं। कषायमोहनीय के 16 भेद होते हैं, जो कि निम्नोक्त हैं १-अनन्तानुबन्धी क्रोध-जीवनपर्यन्त बना रहने वाला क्रोध अनन्तानुबन्धी कहलाता है, इस में नरकगति का बन्ध होता है और यह सम्यग् दर्शन का घात करता है। पत्थर पर की गई रेखा जैसे नहीं मिटती, उसी भांति यह क्रोध भी किसी भी तरह शान्त नहीं होने पाता। 38 ] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-अनन्तानुबन्धी मान-जो मान-अहंकार जीवनपर्यन्त बना रहता है, वह अनन्तानुबन्धी मान कहलाता है। यह सम्यग्दर्शन का घातक और नरकगति का कारण बनता है। जैसे-भरसक प्रयत्न करने पर भी वज्र का खंभा नम नहीं सकता, उसी प्रकार यह मान भी किसी प्रकार दूर नहीं किया जा सकता। ३-अनन्तानुबन्धिनी माया-जो माया जीवन भर बनी रहती है, वह अनन्तानुबन्धिनी माया कहलाती है। यह माया सम्यग्दर्शन की घातिका और नरकगति के बन्ध का कारण होती है। जैसे कठिन बांस की जड़ का टेढ़ापन किसी प्रकार भी दूर नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार यह माया भी किसी उपाय से दूर नहीं होती। ४-अनन्तानुबन्धी लोभ-यह जीवन-पर्यन्त बना रहता है। सम्यग्दर्शन का घातक और नरकगति का दाता होता है। जैसे-मंजीठिया रंग कभी नहीं उतरता, उसी भांति यह लोभ भी किसी उपाय से दूर नहीं हो पाता। ५-अप्रत्याख्यानी क्रोध-यह एक वर्ष तक बना रहता है, यह देशविरतिरूप चारित्र का घातक होने के साथ-साथ तिर्यञ्च गति का कारण बनता है। जैसे-सूखे तालाब आदि में दरारें पड़ जाती हैं, वह पानी पड़ने पर फिर भर जाती हैं, इसी भांति यह क्रोध किसी कारणविशेष से उत्पन्न होकर कारण मिलने पर शान्त हो जाता है। . ६-अप्रत्याख्यानी मान-इस की स्थिति, गति और हानि अप्रत्याख्यानी क्रोध के समान है। जैसे हड्डी को मोड़ने के लिए कई प्रकार के प्रयत्न करने पड़ते हैं, उसी भांति यह मान भी बड़े प्रयत्न से दूर किया जाता है। ... ७-अप्रत्याख्यानी माया-इस की गति, स्थिति और हानि अप्रत्याख्यानी क्रोध की भांति है। जैसे-भेड़ के सींग का टेढापन बड़ी कठिनता से दूर किया जाता है, वैसे ही यह माया बड़ी कठिनाई से दूर की जाती है। ८-अप्रत्याख्यानी लोभ-इस की गति, स्थिति और हानि अप्रत्याख्यानी क्रोध के तुल्य है। जैसे-शहर की नाली के कीचड़ का रंग बड़ी कठिनाई से हटाया जा सकता है, उसी भांति यह लोभ भी बड़ी कठिनाई से दूर किया जा सकता है। ९-प्रत्याख्यानी क्रोध-इस की स्थिति 4 मास की है, यह सर्वविरतिरूप चारित्र का घातक होने के साथ-साथ मनुष्यायु के बन्ध का कारण बनता है। जैसे रेत में गाड़ी के पहियों की रेखा वायु आदि के झोंकों से शीघ्र मिट जाती है, वैसे ही यह क्रोध उपाय करने से शांत हो जाता है। .. ___१०-प्रत्याख्यानी मान-इस की स्थिति, गति और हानि प्रत्याख्यानी क्रोध के तुल्य प्राकथन] श्री विपाक सूत्रम् [39 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जैसे काठ का खंभा तैलादि के द्वारा नमता है, उसी प्रकार यह मान कुछ प्रयत्न करने से ही नष्ट हो सकता है। ११-प्रत्याख्यानी माया-इस की गति, स्थिति और हानि प्रत्याख्यानी क्रोध के तुल्य है। जैसे मार्ग में चलते हुए बैल के मूत्र की रेखा धूल आदि से मिट जाती है, उसी भांति यह माया थोड़े से प्रयत्न द्वारा दूर की जा सकती है। १२-प्रत्याख्यानी लोभ-इस की गति, स्थिति और हानि प्रत्याख्यानी क्रोध के समान है। जैसे दीपक के काजल का रंग प्रयत्न करने पर ही छूटता है, उसी भांति यह भी प्रयत्न द्वारा ही दूर किया जा सकता है। १३-संज्वलन क्रोध-इस की स्थिति दो महीने की है। यह वीतरागपद का घातक होने के साथ-साथ देवगति के बन्ध का कारण बनता है। जैसे पानी पर खींची हुई रेखा शीघ्र ही मिट जाती है, उसी भांति यह क्रोध शीघ्र ही शान्त हो जाता है। .. १४-संज्वलन मान-इस की स्थिति एक मास की है, वीतरागपद का घात करने के साथ-साथ यह देवगति का कारण बनता है। जैसे-तिनके को आसानी से नमाया जा सकता है, इसी प्रकार यह मान शीघ्र दूर किया जा सकता है। १५-संज्वलन माया-इस की स्थिति 15 दिन की है। गति और हानि से यह संज्वलन क्रोध के तुल्य है। जैसे ऊन के धागे का बल आसानी से उतर जाता है इसी प्रकार यह माया भी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। १६-संज्वलन लोभ-इस की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। इस की गति और हानि संज्वलन क्रोध के समान है। जैसे हल्दी का रंग धूप आदि से शीघ्र ही छूट जाता है, इसी तरह * यह लोभ भी शीघ्र ही दूर हो जाता है। नोकषाय के 9 भेद होते हैं। इन का नाम निर्देशपूर्वक विवरण निम्नोक्त है १-हास्य-जिस कर्म के उदय से कारणवश अर्थात् भांड आदि की चेष्टा को देख कर अथवा बिना कारण (अर्थात् जिस हंसी में बाह्य पदार्थ कारण न हो कर केवल मानसिक विचार निमित्त बनते हैं) हंसी आती है, वह हास्य है। २-रति-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण पदार्थों में अनुराग हो, प्रीति हो, वह कर्म रति कहलाता है। ३-अरति-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण पदार्थों से अप्रीति हो, उद्वेग हो, वह कर्म अरति कहलाता है। ४-शोक-जिस कर्म के उदय होने पर कारणवश अथवा बिना कारण के ही शोक की 40 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीति हो, वह कर्म शोक कहा जाता है। ५-भय-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण भय हो, उसे भय कहते ६-जुगुप्सा-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण मलादि वीभत्स पदार्थों को देख कर घृणा होती है, वह कर्म जुगुप्सा कहलाता है। ७-स्त्रीवेद-जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ भोग करने की अभिलाषा होती है वह स्त्रीवेद कहा जाता है। अभिलाषा में दृष्टान्त करीषाग्नि का है। करीष सूखे गोबर को कहते हैं, उस की आग जैसे-जैसे जलाई जाए वैसे-वैसे बढ़ती रहती है। इसी प्रकार पुरुष के करस्पर्शादि व्यापार से स्त्री की अभिलाषा बढ़ती जाती है। ८-पुरुषवेद-जिस कर्म के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ भोग करने की अभिलाषा होती है, वह कर्म पुरुषवेग कहलाता है। अभिलाषा में दृष्टान्त तृणाग्नि का है। तृण की आग शीघ्र ही जलती है और शीघ्र ही बुझती है, इसी भाँति पुरुष को अभिलाषा शीघ्र होती है और स्त्रीसेवन के बाद शीघ्र ही शान्त हो जाती है। ९-नपुंसकवेद-जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ भोग करने की इच्छा होती है, वह नपुंसकवेद कर्म कहलाता है। अभिलाषा में दृष्टान्त नगरदाह का है। नगर में आग लगे तो बहुत दिनों में नगर को जलाती है और उस आग को बुझाने में भी बहुत दिन लगते हैं, इसी प्रकार नपुंसकवेद के उदय से उत्पन्न हुई अभिलाषा चिरकाल तक निवृत्त नहीं होती और विषयसेवन से तृप्ति भी नहीं हो पाती। (5) आयुष्कर्म के 4 भेद होते हैं। जिस कर्म के उदय से देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक इन गतियों में जीवन को व्यतीत करना पड़ता है, वह अनुक्रम से १-देवायुष्य, २-मनुष्यायुष्य, ३-तिर्यञ्चायुष्य और ४-नरकायुष्य कर्म कहलाता है। (6) नामकर्म के 103 भेद होते हैं / इन का संक्षिप्त विवरण निम्नोक्त है १-नरकगतिनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त हो, जिस से वह नारक कहलाता है। उस कर्म को नरकगतिनामकर्म कहते हैं। 2- तिर्यञ्चगतिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव तिर्यञ्च कहलाता है। ३-मनुष्यगतिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव मनुष्यपर्याय को प्राप्त करता है। ४-देवगतिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव देव अवस्था को प्राप्त करता है। ५-एकेन्द्रियजातिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को केवल एक त्वगिन्द्रिय की प्राप्ति होती है। . प्राकथन] श्री विपाक सूत्रम् [41 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-द्वीन्द्रियजातिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा और जिह्वा ये दो इन्द्रियां प्राप्त होती हैं। ७-त्रीन्द्रियजातिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा, जिह्वा और नासिका ये तीन इन्द्रियां प्राप्त होती हैं। ८-चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा, जिह्वा, नासिका और नेत्र ये चार इन्द्रियां प्राप्त होती हैं। ९-पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा, जिह्वा, नासिका, नेत्र और कान ये पांच इन्द्रियां प्राप्त होती हैं। १०-औदारिकशरीरनामकर्म-उदार अर्थात् प्रधान अथवा स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है, इस कर्म से ऐसा शरीर उपलब्ध होता है। ११-वैक्रियशरीरनामकर्म-जिस शरीर से एक स्वरूप धारण करना, अनेक स्वरूप धारण करना, छोटा शरीर धारण करना, बड़ा शरीर धारण करना, आकांश में चलने योग्य शरीर धारण करना, दृश्य और अदृश्य शरीर धारण करना आदि अनेकविध क्रियाएं की जा सकती हैं उसे वैक्रियशरीर कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो वह वैक्रियशरीरनामकर्म कहलाता है। १२-आहारकशरीरनामकर्म-१४ पूर्वधारी मुनि महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान तीर्थंकर से अपना सन्देह निवारण करने अथवा उन का ऐश्वर्य देखने के लिए जब उक्त क्षेत्र को जाना चाहते हैं तब लब्धिविशेष से एक हाथ प्रमाण अतिविशुद्ध स्फटिक सा निर्मल जो शरीर धारण करते हैं, उसे आहारक शरीर कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो वह आहारकशरीरनामकर्म कहलाता है। १३-तैजसशरीरनामकर्म-आहार के पाक का हेतु तथा तेजोलेश्या और शीतललेश्या के निर्गमन का हेतु जो शरीर है, वह तैजस शरीर कहलाता है। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति होती हो, वह तैजसशरीरनामकर्म कहलाता है। १४-कार्मणशरीरनामकर्म-जीव के प्रदेशों के साथ लगे हुए आठ प्रकार के कर्मपुद्गलों को कार्मणशरीर कहते हैं। इसी शरीर से जीव अपने मरणस्थान को छोड़ कर उत्पत्तिस्थान को प्राप्त करता है। जिस कर्म के उदय से इस शरीर की प्राप्ति हो वह कार्मणशरीरनामकर्म कहलाता है। १५-औदारिकअंगोपांगनामकर्म-औदारिक शरीर के आकार में परिणत पुद्गलों से अंगोपांगरूप अवयव इस कर्म के उदय से बनते हैं। 42 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६-वैक्रियअंगोपांगनामकर्म-इस कर्म के उदय से वैक्रियशरीररूप में परिणत पुद्गलों से अंगोपांगरूप अवयव बनते हैं। १७-आहारकअंगोपांगनामकर्म-इस कर्म के उदय से आहारक शरीर रूप में परिणत पुद्गलों से अंगोपांगरूप अवयव बनते हैं। १८-औदारिकसंघातननामकर्म-इस कर्म के उदय से औदारिक शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य होता है अर्थात् एक दूसरे के पास व्यवस्था से स्थापित होते हैं। १९-वैक्रियसंघातननामकर्म-इस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सामीप्य होता है। २०-आहारकसंघातननामकर्म-इस कर्म के उदय से आहारक शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य होता है। २१-तैजससंघातननामकर्म-इस कर्म के उदय से तैजस शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सामीप्य होता है। २२-कार्मणसंघातननामकर्म-इस कर्म के उदय से कार्मण शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य होता है। २३-औदारिकऔदारिकंबन्धननामकर्म-इस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत औदारिक पुद्गलों के साथ गृह्यमाण औदारिक पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध होता है। ... २४-औदारिकतैजसबन्धननामकर्म-इस कर्म के उदय से औदारिक दल का तैजस दल के साथ सम्बन्ध होता है। २५-औदारिककार्मणबन्धननामकर्म-इस कर्म के उदय से औदारिक दल का कार्मण दल के साथ सम्बन्ध होता है। - २६-वैक्रियवैक्रियबन्धननामकर्म-इस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत वैक्रियपुद्गलों के साथ गृह्यमाण वैक्रिय पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध होता है। इसी भांति-२७ वैक्रियतैजसबन्धननामकर्म, २८-वैक्रियकार्मणबन्धननामकर्म, २९-आहारकआहारकबन्धननामकर्म, ३०-आहारकतैजसबन्धननामकर्म, 31 आहारककार्मणबन्धननामकर्म,३२-औदारिकतैजसकार्मणबन्धननामकर्म१,३३-वैक्रियतैजसकार्मणबन्धननामकर्म, ३४-आहारकतैजसकार्मणबन्धननामकर्म, ३५-तैजसतैजसबन्धननामकर्म, ३६-तैजसकार्मणबन्धननामकर्म, ३७-कार्मणकार्म 1. इस कर्म के उदय से औदारिकदल का तैजस और कार्मण दल के साथ सम्बन्ध होता है। प्राकाथन] श्री विपाक सूत्रम् [43 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णबन्धननामकर्म, इन का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। इतना ध्यान रहे कि औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों के पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि ये परस्पर विरुद्ध हैं। इसलिए इन के सम्बन्ध कराने वाले नामकर्म भी नहीं हैं। ___३८-वज्रर्षभनाराचसंहनननामकर्म-वज्र का अर्थ है-कीला। ऋषभ-वेष्टनपट्ट को कहते हैं। दोनों तरफ मर्कटबन्ध-इस अर्थ का परिचायक नाराचशब्द है। मर्कटबन्ध से बंधी हुई दो हड्डियों के ऊपर तीसरी हड्डी का वेष्टन हो उसे वज्र ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त हो, उस कर्म का नम भी वज्रऋषभनाराचसंहनननामकर्म है। ३९-ऋषभनाराचसंहनननामकर्म-दोनों तरफ हाडों का मर्कटबन्ध हो, तीसरे हाड का वेष्टन भी हो, लेकिन भेदने वाले हाड का कीला न हो उसे ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त होता है उसे ऋषभनाराचसंहनननामकर्म कहते ४०-नाराचसंहनननामकर्म-जिस संहनन में दोनों ओर मर्कटबन्ध हों किन्तु वेष्टन और कीला न हो, उसे नाराचसंहनन कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त होता है, उसे नाराचसंहनननामकर्म कहते हैं। ४१-अर्धनाराचसंहनननामकर्म-जिस संहनन में एक तरफ मर्कटबन्ध हो और दूसरी तरफ कीला हो उसे अर्धनाराचसंहनन कहते हैं। जिसं कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त होता है उसे अर्धनाराचसंहनननामकर्म कहते हैं। ४२-कीलिकासंहनननामकर्म-जिस संहनन में मर्कटबन्ध और वेष्टन न हो किन्तु कीले से हड्डियां मिली हुई हों वह कीलिकासंहनन कहलाता है। जिस कर्म के उदय से इस संहनन की प्राप्ति हो उसे कीलिकासंहनननामकर्म कहते हैं। ४३-सेवार्तकसंहनननामकर्म-जिस में मर्कटबन्ध, वेष्टन और कीला न हो कर यूंही हड्डियां आपस में जुड़ी हुई हों वह सेवार्तकसंहनन कहलाता है। जिस कर्म से इस संहनन की प्राप्ति होती है, उसे सेवार्तकसंहनननामकर्म कहते हैं। ४४-समचतुरस्त्रसंस्थाननामकर्म-पालथी मार कर बैठने से जिस शरीर के चारों कोण समान हों, अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयवलक्षण शुभ हों, उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे संस्थान की प्राप्ति होती है, उसे समचतुरस्त्रसंस्थाननामकर्म कहते हैं। ४५-न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननामकर्म-बड़ के वृक्ष को न्यग्रोध कहते हैं। उस के 44 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान जिस शरीर में नाभि से ऊपर के अवयव पूर्ण हों किन्तु नाभि से नीचे के अवयव हीन हों, उसे न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से इस की प्राप्ति होती है, उसे न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननामकर्म कहते हैं। ४६-सादिसंस्थाननामकर्म-जिस शरीर में नाभि से नीचे के अवयव पूर्ण और ऊपर के अवयव हीन होते हैं, उसे सादिसंस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से इस की प्राप्ति होती है उसे सादिसंस्थाननामकर्म कहते हैं। ४७-कुब्जसंस्थाननामकर्म-जिस शरीर के साथ पैर, सिर, गरदन आदि अवयव ठीक हों किन्तु छाती, पीठ, पेट हीन हों, उसे कुब्जसंस्थान कहते हैं, जिसे कुबड़ा भी कहा जाता है। जिस कर्म के उदय से इस संस्थान की प्राप्ति होती है उसे कुब्जसंस्थाननामकर्म कहते हैं। ४८-वामनसंस्थाननामकर्म-जिस शरीर में हाथ, पैर आदि अवयव छोटे हों और छाती, पेट आदि पूर्ण हों उसे वामनसंस्थान कहते हैं। जिसे बौना भी कहा जाता है। जिस कर्म के उदय से इस की प्राप्ति होती है उसे वामनसंस्थाननामकर्म कहते हैं। - ४९-हुंडसंस्थाननामकर्म-जिस के सब अवयव बेढब हों, प्रमाणशून्य हों, उसे हुण्डसंस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे संस्थान की प्राप्ति होती है उसे हुंडसंस्थाननामकर्म कहते हैं। . ५०-कृष्णवर्णनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर कोयले जैसा काला होता है। ५१-नीलवर्णनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर तोते के पंख जैसा हरा होता है। ..५२-लोहितवर्णनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर हिंगुल या सिन्दुर जैसा लाल होता है। - ५३-हारिद्रवर्णनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर हल्दी जैसा पीला होता ____५४-श्वेतवर्णनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर शंख जैसा सफेद होता ५५-सुरभिगन्धनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव के शरीर की कपूर, कस्तूरी आदि पदार्थों जैसी सुगन्धि होती है। ___५६-दुरभिगन्धनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव के शरीर की लहसुन या सड़े प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [45 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थों जैसी गन्ध होती है। ५७-तिक्तरसनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव के शरीर का रस सोंठ या काली मिर्च जैसा चरचरा होता है। ५८-कटुरसनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव के शरीर का रस नीम या चरायते जैसा कटु होता है। . ५९-कषायरसनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव के शरीर का रस आंवले या बहेड़े जैसा कसैला होता है। ६०-आम्लरसनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव के शरीर का रस नींबू या इमली जैसा खट्टा होता है। ६१-मधुररसनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव के शरीर का रस ईख जैसा मीठा होता है। ६२-गुरुस्पर्शनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर लोहे जैसा भारी होता है। ६३-लघुस्पर्शनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर आक की रूई जैसा हलका होता है। ६४-मृदुस्पर्शनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर मक्खन जैसा कोमल होता है। ६५-कर्कशस्पर्शनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर गाय की जीभ जैसा खुरदरा होता है। ६६-शीतस्पर्शनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर कमलदण्ड या बर्फ जैसा ठण्डा होता है। ६७-उष्णस्पर्शनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर अग्नि के समान उष्ण होता है। ६८-स्निग्धस्पर्शनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर घृत के समान चिकना होता है। ६९-रूक्षस्पर्शनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर राख के समान रूखा होता है। ७०-देवानुपूर्वीनामकर्म-इस कर्म के उदय से समणि से गमन करने वाला जीव - 1. जीव की स्वाभाविक गति श्रेणि के अनुसार होती है। आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणि कहते हैं। एक शरीर को छोड़ दूसरा शरीर धारण करने के लिए जीव जब समश्रेणि से अपने उत्पत्ति-स्थान के प्रति जाने लगता 46 ] श्री विपाक सूत्रम् .. . [प्राक्कथन Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान देवगति को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि सीधे जाते हुए बैलों को जैसे नाथ के द्वारा घुमा कर दूसरे मार्ग पर चलाया जाता है, उसी तरह यह कर्म भी स्वभावतः समश्रेणि पर चलते हुए जीव को घुमा कर विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान देवगति को प्राप्त करा देता है। ___७१-मनुष्यानुपूर्वीनामकर्म-इस कर्म के प्रभाव से समणि से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान मनुष्यगति को प्राप्त करता है। ७२-तिर्यञ्चानुपूर्वीनामकर्म-इस कर्म के प्रभाव से समश्रेणी से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान तिर्यञ्चगति को प्राप्त करता है। ७३-नरकानुपूर्वीनामकर्म-इस कर्म के प्रभाव से समश्रेणि से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान नरकगति को प्राप्त करता है। ७४-शुभविहायोगतिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव की चाल शुभ होती है जैसे कि-हाथी, बैल, हंसं आदि की चाल शुभ होती है। ७५-अशुभविहायोगतिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव की चाल अशुभ होती है। जैसे कि ऊंट, गधा आदि की चाल अशुभ होती है। - ७६-पराघातनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव बड़े-बड़े बलवानों की दृष्टि में भी अजेय समझा जाता है। अर्थात् जिस जीव को इस कर्म का उदय होता है वह इतना प्रबल मालूम देता है कि बड़े-बड़े बली भी उस का लोहा मानते हैं। राजाओं की सभा में उस के दर्शन मात्र से अथवा केवल वाग्कौशल से बलवान् विरोधियों के भी छक्के छूट जाते हैं। ७७-उच्छ्वासनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव श्वासोच्छ्वासलब्धि से युक्त होता है। शरीर से बाहर की हवा को नासिका द्वारा अन्दर खींचना श्वास है और शरीर के अन्दर की हवा को नासिका द्वारा बाहर छोड़ना उच्छ्वास कहलाता है। ___७८-आतपनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वयं उष्ण न हो कर भी उष्ण प्रकाश करता है। सूर्यमण्डल के बाहर एकेन्द्रियकाय जीवों का शरीर ठण्डा होता है, परन्तु आतपनामकर्म के उदय से वह उष्ण प्रकाश करता है। सूर्यमण्डल के एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर अन्य जीवों को आतपनामकर्म का उदय नहीं होता। यद्यपि अग्निकाय के जीवों का शरीर भी उष्ण प्रकाश करता है परन्तु वह आतपनामकर्म के उदय से नहीं किन्तु उष्णस्पर्शनामकर्म है तब आनुपूर्वीनामकर्म उस को विश्रेणिपतित उत्पत्तिस्थान पर पहुँचा देता है। जीव का उत्पत्तिस्थान यदि समश्रेणि में हो तो आनुपूर्वीनामकर्म का उदय नहीं होता अर्थात् वक्रगति में आनुपूर्वी नामकर्म का उदय होता है, ऋजु गति में नहीं। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [47 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के उदय से है और लोहितवर्णनामकर्म के उदय से प्रकाश करता है। ७९-उद्योतनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर शीतल प्रकाश फैलाता है। लब्धिधारी मुनि जब वैक्रियशरीर धारण करते हैं तब उन के शरीर में से, देव जब अपने मूल शरीर की अपेक्षा उत्तरवैक्रिय शरीर धारण करते हैं तब उस शरीर में से, चन्द्रमण्डल, नक्षत्रमण्डल और तारामण्डल के पृथिवीकायिक जीवों के शरीर में से, जुगुनू, रत्न और प्रकाश वाली औषधियों से जो प्रकाश निकलता है, वह उद्योतनामकर्म के कारण होता है। . ८०-अगुरुलघुनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर न भारी होता है और न हलका, अर्थात् इस कर्म के प्रभाव से जीवों का शरीर इतना भारी नहीं होता कि जिसे संभालना कठिन हो जाए और इतना हलका नहीं होता कि हवा में उड़ जाए। ८१-तीर्थंकरनामकर्म-इस कर्म के उदय से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है। ८२-निर्माणनामकर्म-इस कर्म के उदय से अंगोपांग शरीर में अपनी-अपनी जगह व्यवस्थित होते हैं। इसे चित्रकार की उपमा दी गई है। जैसे चित्रकार हाथ, पैर आदि अवयवों को यथोचित स्थान पर बना देता है, उसी प्रकार निर्माणनामकर्म का काम अवयवों को उचित स्थान में व्यवस्थित करना होता है। ८३-उपघातनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव अपने ही अवयवों-प्रतिजिह्वा (पड़जीभ) चौरदन्त (ओठ के बाहर निस्सृत दांत), रसौली, छटी अंगुली आदि से क्लेशं पाता ८४-त्रसनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को त्रसकाय द्वीन्दिय आदि की प्राप्ति होती है। ८५-बादरनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर बादर होता है। नेत्रादि के द्वारा जिस की अभिव्यक्ति हो सके वह बादर-स्थूल कहलाता है।' ८६-पर्याप्तनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से युक्त होते हैं। पर्याप्ति का अर्थ है-जिस शक्ति के द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उन्हें आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में बदल देने का काम होता है। ८७-प्रत्येकनामकर्म-इस कर्म के उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी बनता है। जैसे-मनुष्य, पशु, पक्षी तथा आम्रादि फलों के एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता ८८-स्थिरनामकर्म-इस कर्म के उदय से दान्त, हड्डी, ग्रीवा आदि शरीर के अवयव स्थिर अर्थात् निश्चल होते हैं। 48 ] श्री विपाक सूत्रम् - [प्राक्कथन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९-शुभनामकर्म-इस कर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव शुभ होते हैं। हाथ, सिर आदि शरीर के अवयवों के स्पर्श होने पर किसी को अप्रीति नहीं होती। जैसे-कि पांव के स्पर्श से होती है, यही नाभि के ऊपर के अवयवों में शुभत्व है। * ९०-सुभगनामकर्म-इस कर्म के उदय से किसी प्रकार का उपकार किए बिना या किसी तरह के सम्बन्ध के बिना भी जीव सब का प्रीतिभाजन बनता है। ९१-सुस्वरनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और प्रीतिकर होता है। जैसे कि कोयल, मोर आदि जीवों का स्वर प्रिय होता है। ९२-आदेयनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य होता है। ९३-यश:कीर्तिनामकर्म-जिस कर्म के उदय से संसार में यश और कीर्ति फैलती है। किसी एक दिशा में नाम (प्रशंसा) हो तो उसे कीर्ति कहते हैं और सब दिशाओं में होने वाले नाम को यश कहते हैं। अथवा दान, तप आदि के करने से जो नाम होता है वह कीर्ति और शत्रु पर विजय प्राप्त करने से जो नाम होता है, वह यश कहलाता है। ९४-स्थावरनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव स्थिर रहते हैं। सर्दी, गर्मी से बचने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्वयं नहीं जा सकते। जैसे वनस्पति के जीव। ९५-सूक्ष्मनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को सूक्ष्मशरीर (जो किसी को रोक न सके और न स्वयं ही किसी से रुक सके) प्राप्त होता है। इस नामकर्म वाले जीव 5 स्थावर हैं और ये सब लोकाकाश में व्याप्त हैं, आंखों से नहीं देखे जा सकते। ___९६-अपर्याप्तनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाता। ९७-साधारणनामकर्म-इस कर्म के उदय से अनन्त जीवों को एक ही शरीर मिलता है। अर्थात् अनन्त जीव एक ही शरीर के स्वामी बनते हैं। जैसे आलू, मूली आदि के जीव। - ९८-अस्थिरनामकर्म-इस कर्म के उदय से कान, भौंह, जिह्वा आदि अवयव अस्थिर अर्थात् चपल होते हैं। . ९९-अशुभनामकर्म-इस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव पैर आदि अशुभ होते हैं। पैर का स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, यही इस का अशुभत्व है। १००-दुर्भगनामकर्म-इस कर्म के उदय से उपकार करने वाला भी अप्रिय लगता है। १०१-दुःस्वरनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश-सुनने में अप्रिय, लगता है। १०२-अनादेयनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का वचन युक्तियुक्त होते हुए भी प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [49 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादरणीय होता है। १०३-अयशःकीर्तिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का संसार में अपयश और अपकीर्ति फैलती है। (7) गोत्रकर्म के दो भेद होते हैं। इनका संक्षिप्त पर्यालोचन निम्नोक्त है१-उच्चगोत्र-इस कर्म के उदय से जीव उत्तम कुल में जन्म लेता है। २-नीचगोत्र-इस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म लेता है। धर्म और नीति की रक्षा के सम्बन्ध से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है, वह उच्चकुल कहलाता है। जैसे कि इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश, चन्द्रवंश आदि। तथा अधर्म और अनीति के पालन से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है वह नीचकुल कहा जाता है। जैसे कि-वधिककुल, मद्यविक्रेतृकुल, चौरकुल आदि। (8) अन्तरायकर्म के 5 भेद होते हैं। इन का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १-दानान्तरायकर्म-दान की वस्तुएं मौजूद हों, गुणवान् पात्र आया हो, दान का फल जानता हो, तो भी इस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता। २-लाभान्तरायकर्म-दाता उदार हो, दान की वस्तुएं स्थित हों, याचना में कुशलता हो, तो भी इस कर्म के उदय से लाभ नहीं हो पाता। ३-भोगान्तरायकर्म-भोग के साधन उपस्थित हों, वैराग्य न हो, तो भी इस कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं का भोग नहीं कर सकता है। जो पदार्थ एक बार भोगे जाएं उन्हें भोग कहते हैं। जैसे कि-फल, जल, भोजन आदि। ४-उपभोगांतरायकर्म-उपभोग की सामग्री अवस्थित हो, विरतिरहित हो, तथापि इस कर्म के उदय से जीव उपभोग्य पदार्थों का उपभोग नहीं कर पाता। जो पदार्थ बार-बार भोगे जाएं उन्हें उपभोग कहते हैं। जैसे कि-मकान, वस्त्र, आभूषण आदि। ५-वीर्यान्तरायकर्म-वीर्य का अर्थ है-सामर्थ्य / बलवान, रोगरहित एवं युवा व्यक्ति भी इस कर्म के उदय से सत्त्वहीन की भाँति प्रवृत्ति करता है और साधारण से काम को भी ठीक तरह से नहीं कर पाता। बन्ध और उस के हेतु-पुद्गल की वर्गणाएं-प्रकार अनेक हैं, उन में से जो वर्गणाएं कर्मरूप परिणाम को प्राप्त करने की योग्यता रखती हैं, जीव उन्हीं को ग्रहण करके निज आत्मप्रदेशों के साथ विशिष्टरूप से जोड़ लेता है अर्थात् स्वभाव से जीव अमूर्त होने पर भी 1. कर्मों की 158 उत्तरप्रकृतियों का स्वरूप प्रायः अक्षरशः पं० सुखलाल जी से अनुवादित कर्मग्रन्थ प्रथम भाग से साभार उद्धृत किया गया है। 50 श्री विपाक सूत्रम् .. . [प्राक्कथन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादिकाल से कर्म सम्बन्ध वाला होने से मूर्तवत् हो जाने के कारण मूर्त कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है। जैसे दीपक बत्ती के द्वारा तेल को ग्रहण कर के अपनी उष्णता से उसे ज्वालारूप में परिणत कर लेता है। वैसे ही जीव काषायिक विकार से योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर के उन्हें कर्मरूप में परिणत कर लेता है। आत्मप्रदेशों के साथ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त पुद्गलों का यह सम्बन्ध ही 'बन्ध कहलाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांच रबन्धहेतु हैं। मिथ्यात्व का अर्थ है-मिथ्यादर्शन। यह सम्यग्दर्शन से उलटा होता है। मिथ्यादर्शन दो प्रकार का होता है। पहला वस्तुविषयक यथार्थ श्रद्धान का अभाव और दूसरा वस्तु का अयथार्थ श्रद्धान। पहले और दूसरे में फ़र्क इतना है कि पहला बिल्कुल मूढ़दशा में भी हो सकता है जबकि दूसरा विचारदशा में ही होता है। विचारशक्ति का विकास होने पर भी जब अभिनिवेश-आग्रह के कारण किसी एक ही दृष्टि को पकड़ लिया जाता है, तब विचारदशा के रहने पर भी अतत्त्व में पक्षपात होने से वह दृष्टि मिथ्यादर्शन कहलाती है। यह उपदेशजन्य होने से अभिगृहीत कही जाती है। जब विचारदशा जागृत न हुई हो तब अनादिकालीन आवरण के भार के कारण सिर्फ मूढ़ता होती है, उस समय जैसे तत्त्व का श्रद्धान नहीं होता वैसे अतत्त्व का भी श्रद्धान नहीं होता, इस दशा में सिर्फ मूढ़ता होने से तत्त्व का अश्रद्धान कह सकते हैं, वह नैसर्गिक-उपदेशनिरपेक्ष होने से अनभिगृहीत कहा गया है। दृष्टि या पन्थ सम्बन्धी जितने भी ऐकान्तिक कदाग्रह हैं वे सभी अभिगृहीत मिथ्यादर्शन हैं जो कि मनुष्य जैसी विकसित जाति में हो सकते हैं और दूसरा अनभिगृहीत तो कीट, पतंग आदि जैसी मूर्च्छित चैतन्य वाली जातियों में संभव है। अविरति दोषों से विरत न होने का नाम है। प्रमाद का मतलब हैआत्मविस्मरण अर्थात् कुशल कार्यों में आदर न रखना, कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य की स्मृति के लिए सावधान न रहना। कषाय अर्थात् समभाव की मर्यादा का तोड़ना। योग का अर्थ है-मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति / ये जो कर्मबन्ध के हेतुओं का निर्देश है वह सामान्यरूप से है। यहां प्रत्येक मूलकर्मप्रकृति के बन्धहेतुओं का वर्णन कर देना भी प्रसंगोपात्त होने से आवश्यक -- 1. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः। (तत्त्वा० 8 / 2) 2. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगबन्धहेतवः। (तत्त्वा० 8 / 1) 3. बन्ध के हेतुओं की संख्या के बारे में तीन परम्पराएं देखने में आती हैं। एक परम्परा के अनुसार कषाय और योग ये दोनों ही बन्ध के हेतु हैं। दूसरी परम्परा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चार बन्धहेतुओं की है। तीसरी परम्परा उक्त चार हेतुओं में प्रमाद को और बढ़ाकर पांच बन्धहेतुओं का वर्णन करती है। इस तरह से संख्या और उसके कारण नामों में भेद रहने पर भी तात्त्विकदृष्ट्या इन परम्पराओं में कुछ भी भेद नहीं है। प्रमाद एक तरह का असंयम ही तो है, अतः वह अविरति या कषाय के अन्तर्गत ही है। इसी दृष्टि से कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में सिर्फ चार बन्धहेतु कहे गए हैं। बारीकी से देखने पर मिथ्यात्व और असंयम ये दोनों कषाय के स्वरूप से अलग नहीं पड़ते, अतः कषाय और योग इन दोनों को ही बन्धहेतु गिनाना प्राप्त होता है। प्राकथन] श्री विपाक सूत्रम् [51 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीत होता है (1) ज्ञानावरणीय कर्म के तत्प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात ये 6 बन्धहेतु होते हैं। इनका भावार्थ निम्नोक्त है १-ज्ञान, ज्ञानी. और ज्ञान के साधनों पर द्वेष करना या रखना अर्थात् तत्त्वज्ञान के निरूपण के समय कोई अपने मन ही मन में तत्त्वज्ञान के प्रति, उस के वक्ता के प्रति किंवा उस के साधनों के प्रति जलते रहते हैं। यही तत्प्रदोष-ज्ञानप्रद्वेष कहलाता है। २-कोई किसी से पूछे या ज्ञान का साधन मांगे तब ज्ञान तथा ज्ञान के साधन अपने पास होने पर भी कलुषित भाव से यह कहना कि मैं नहीं जानता अथवा मेरे पास वह वस्तु है ही नहीं वह ज्ञाननिह्नव है। ३-ज्ञान अभ्यस्त और परिपक्व हो तथा वह देने योग्य भी हो, फिर भी उस के अधिकारी ग्राहक के मिलने पर उसे न देने की जो कलुषित वृत्ति है वह ज्ञानमात्सर्य है। ४-कलुषित भाव से ज्ञानप्राप्ति में किसी को बाधा पहुँचाना ही ज्ञानान्तराय है। ५-दूसरा कोई ज्ञान दे रहा हो तब वाणी अथवा शरीर से उस का निषेध करना वह ज्ञानासादन है। ६-किसी ने उचित ही कहा हो फिर भी अपनी उलटी मति के कारण उसे अयुक्त . भासित होने से उलटा उस के दोष निकालना उपघात कहलाता है। (2) दर्शनावरणीयकर्म के बन्धहेतु-ज्ञानावरणीय के बन्धहेतु ही दर्शनावरणीय के बन्ध हेतु हैं, अर्थात् दोनों के बन्धहेतुओं में पूरी-पूरी समानता है, अन्तर केवल इतना ही है कि जब पूर्वोक्त प्रद्वेष निह्नवादि ज्ञान, ज्ञानी या उस के साधन आदि के साथ सम्बन्ध रखते हों, तब वे ज्ञानप्रद्वेष, ज्ञाननिह्नव आदि कहलाते हैं और दर्शन-सामान्यबोध, दर्शनी अथवा दर्शन के साधनों के साथ सम्बन्ध रखते हों, तब वे दर्शनप्रद्वेष, दर्शननिह्नव आदि कहलाते (3) वेदनीयकर्म की मूल प्रकृतियां-सातावेदनीय और असातावेदनीय इन दो भेदों में विभक्त हैं। जिस कर्म के उदय से सुखानुभव हो वह सातावेदनीय और जिस के उदय से दुःख की अनुभूति हो वह कर्म असातावेदनीय कहलाता है। असातावेदनीय का बन्ध दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिदेवन, इन कारणों से होता है। १-बाह्य या आन्तरिक निमित्त से पीड़ा का होना दुःख है। २-किसी हितैषी के सम्बन्ध के टूटने से जो चिन्ता वा खेद होता है वह शोक है।३-अपमान से मन कलुषित होने 1. तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघातज्ञानदर्शनावरणयोः। (तत्त्वार्थ० 6 / 11) 52 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण जो तीव्र संताप होता है वह ताप है। ४-गद्गद् स्वर से आँसु गिराने के साथ रोना, पीटना आक्रन्दन है। ५-किसी के प्राण लेना वध है। ६-वियुक्त व्यक्ति के गुणों का स्मरण होने से जो करुणाजनक रुदन होता है वह परिदेवन कहलाता है। उक्त दुःखादि 6 और उन जैसे अन्य भी ताडन, तर्जन आदि अनेक निमित्त जब अपने में, दूसरे में या दोनों में ही पैदा किए जाएं तब वे उत्पन्न करने वाले के असातावेदनीयकर्म के 'बन्धहेतु बनते हैं। सातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु-भूत-अनुकम्पा, व्रत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, क्षांति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु हैं। इनका विवेचन निम्नोक्त है ___ प्राणिमात्र पर अनुकम्पा रखना भूतानुकम्पा है अर्थात् दूसरे के दुःख को अपना ही दुःख मानने का जो भाव है वह अनुकम्पा है। अल्पांशरूप से व्रतधारी गृहस्थ और सर्वांशरूप से व्रतधारी त्यागी इन दोनों पर विशेषरूप से अनुकम्पा रखना व्रत्यनुकम्पा है। अपनी वस्तु का दूसरों को नम्र भाव से अर्पण करना दान है। सरागसंयम आदि योग का अर्थ हैसरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप इन सब में यथोचित ध्यान देना। संसार की कारणरूप तृष्णा को दूर करने में तत्पर होकर संयम स्वीकार लेने पर भी जबकि मन में राग के संस्कार क्षीण नहीं होते तब वह संयम सरागसंयम कहलाता है। कुछ संयम को स्वीकार करना संयमासंयम है। अपनी इच्छा से नहीं किन्तु परतन्त्रता से जो भोगों का त्याग किया जाता है वह अकामनिर्जरा है। बाल अर्थात् यथार्थ ज्ञान से शून्य मिथ्यादृष्टि वालों का जो अग्निप्रवेश, जलपतन, गोबर आदि का भक्षण, अनशन आदि तप है वह बालतप कहा जाता है। धर्मदृष्टि से क्रोधादि दोषों का शमन क्षांति कहलाता है। लोभवृत्ति और तत्समान दोषों का जो शमन है वह शौच कहलाता है। (4) मोहनीयकर्म की दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय ऐसी दो मूल प्रकृतियां होती हैं.१-जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा समझना दर्शन है, और दर्शन का घात करने वाला कर्म दर्शनमोहनीय है। २-जिस के द्वारा आत्मा अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, वह चारित्र है और उस का घातक कर्म चारित्रमोहनीय है। (क) दर्शनमोहनीय के बन्धहेतु-१-केवली-अवर्णवाद-केवली-केवलज्ञानी का अवर्णवाद अर्थात् केवली के असत्य दोषों को प्रकट करना। जैसे सर्वज्ञत्व के संभव का स्वीकार न करना, और ऐसा कहना कि सर्वज्ञ होकर भी उसने मोक्ष के सरल उपाय न बता कर जिन का आचरण शक्य नहीं ऐसे दुर्गम उपाय कैसे बताए ? इत्यादि। 1. दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेद्यस्य। (तत्त्वार्थ 6 / 12) 2. भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षांतिः शौचमिति सद्वेद्यस्य। (तत्त्वा० 6 / 13) प्राक्कथन श्री विपाक सूत्रम् [53 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-श्रुत का अवर्णवाद-अर्थात् शास्त्र के मिथ्या दोषों को द्वेषबुद्धि से वर्णन करना, जैसे यह कहना कि ये शास्त्र अनपढ़. लोगों की प्राकृतभाषा में, किंवा पण्डितों की जटिल संस्कृतादि भाषा में रचित होने से तुच्छ हैं, अथवा इन में विविध व्रत, नियम तथा प्रायश्चित्त का अर्थहीन एवं परेशान करने वाला वर्णन है, इत्यादि। ३-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ के मिथ्या दोषों का जो प्रकट करना है, वह संघ-अवर्णवाद कहलाता है। जैसे यों कहना कि साधु लोग व्रत नियम आदि का व्यर्थ क्लेश उठाते हैं, साधुत्व तो संभव ही नहीं, तथा उस का कुछ अच्छा परिणाम भी तो नहीं निकलता। श्रावकों के बारे में ऐसा कहना कि स्नान, दान आदि शिष्ट प्रवृत्तियां नहीं करते और न पवित्रता को ही मानते हैं, इत्यादि। ४-धर्म का अवर्णवाद-अर्थात् अहिंसा आदि महान् धर्मों के मिथ्या दोष बताना। जैसे यों कहना कि धर्म प्रत्यक्ष कहां दीखता है ? और जो प्रत्यक्ष नहीं दीखता उस के अस्तित्व का संभव ही कैसा? तथा ऐसा कहना कि अहिंसा से मनुष्यजाति किंवा राष्ट्र का पतन हुआ है, इत्यादि। ५-देवों का अवर्णवाद-अर्थात् उन की निन्दा करना, जैसे यों कहना कि देवता तो हैं ही नहीं और हों भी तो व्यर्थ ही हैं, क्योंकि शक्तिशाली हो कर भी यहां आकर हम लोगों की मदद क्यों नहीं करते ? इत्यादि। (ख) चारित्रमोहनीय के बन्धहेतुओं को संक्षेप में-कषाय के उदय से होने वाला तीव्र आत्मपरिणाम, ऐसा ही कहा जा सकता है। विस्तार से कहें तो उन्हें निम्नोक्त शब्दों में कह सकते हैं १-स्वयं कषाय करना और दूसरों में भी कषाय पैदा करना तथा कषाय के वश हो कर अनेक तुच्छ प्रवृत्तियां करना। २-सत्यधर्म का उपहास करना, ग़रीब या दीन मनुष्य की मश्खरी करना, ठट्टेबाजी की आदत रखना। ३-विविध क्रीड़ाओं में संलग्न रहना, व्रत, नियमादि योग्य अंकुश में अरुचि रखना। ४-दूसरों को बेचैन बनाना, किसी के आराम में खलल डालना, हल्के आदमी की संगति करना आदि। ५-स्वयं शोकातुर रहना तथा दूसरों की शोकवृत्ति को उत्तेजित करना। 1. केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य। (तत्त्वा० 6 / 14) 2. कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य। (तत्त्वा० 6 / 15) 54 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-स्वयं डरना और दूसरों को डराना। ७-हितकर क्रिया और हितकर आचरण से घृणा करना। ८-९-१०-स्त्रीजाति, पुरुषजाति तथा नपुंसकजाति के योग्य संस्कारों का अभ्यास करना। (5) आयुष्कर्म की नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार मूलप्रकृतियांमूल-भेद होती हैं। इन के बन्धहेतुओं का विवरण निम्नोक्त है १-नरकायुष्कर्म के बन्धहेतु-बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह, ये नरकायु के १बन्धहेतु हैं। प्राणियों को दुःख पहुँचे ऐसी कषायपूर्वक प्रवृत्ति करना आरम्भ है। यह वस्तु मेरी है और मैं इसका मालिक हूं, ऐसा संकल्प रखना परिग्रह है। जब आरम्भ और परिग्रह वृत्ति बहुत ही तीव्र हो तथा हिंसा आदि क्रूर कर्मों में सतत प्रवृत्ति हो, दूसरों के धन का अपहरण किया जाए किंवा भोगों में अत्यन्त आसक्ति बनी रहे, तब वे नरकायु के बन्धहेतु होते २-तिर्यंचायुष्कर्म के बन्धहेतु-माया तिर्यञ्चायु का बन्धहेतु है। छलप्रपंच करना किंवा कुटिलभाव रखना माया है। उदाहरणार्थ-धर्मतत्त्व के उपदेश में धर्म के नाम से मिथ्या बातों को मिला कर उनका स्वार्थबुद्धि से प्रचार करना तथा जीवन को शील से दूर रखना आदि सब माया कहलाती है और यही तिर्यञ्चायु के बन्ध का कारण बनती है। ३-मनुष्यायुष्कर्म के बन्धहेतु-अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह, स्वभाव की मृदुता और सरलता ये मनुष्यायु के रेबन्धहेतु हैं। तात्पर्य यह है कि आरम्भवृत्ति तथा परिग्रहवृत्ति को कम करना, स्वभाव से अर्थात् बिना कहे सुने मृदुता वा सरलता का होना ये मनुष्यायुष्कर्म के बन्धहेतु हैं। ...४-देवायुष्कर्म के बन्धहेतु-सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये 4 देवायु के बन्धहेतु हैं। हिंसा, असत्य, चोरी आदि महान् दोषों से विरतिरूप संयम के लेने के बाद भी कषायों का कुछ अंश जब बाक़ी रहता है तब वह सरागसंयम कहलाता है। हिंसाविरति आदि व्रत जब अल्पांशरूप में धारण किए जाते हैं तब वह संयमासंयम कहलाता है। पराधीनता के कारण या अनुसरण-अनुकरण के लिए जो अहितकर प्रवृत्ति किंवा आहारादि का त्याग है वह अकामनिर्जरा है और बालभाव से अर्थात् विवेक के बिना ही जो अग्निप्रवेश, 1. बह्वारंभपरिग्रहत्वं च नरकस्यायुषः (तत्त्वा० 6 / 16) 2. माया तिर्यग्योनस्य। (तत्त्वा० 6 / 17) 3. अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवमार्जवं च मानुषस्य। (तत्त्वा० 6 / 18) 4. सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य। (तत्त्वा०६।२०) प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [55 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलप्रवेश, पर्वतप्रपात, विषभक्षण, अनशन आदि देहदमन किया जाता है वह बालतप है। ६-नामकर्म की शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म ये दो मूलप्रकृतियां हैं। इन के बन्धहेतुओं का विवरण निम्नोक्त है १-अशुभनामकर्म के बन्धहेतु-योग की वक्रता और विसंवाद ये अशुभनामकर्म के बन्धहेतु हैं।१-मन, वचन और काया की कुटिलता का नाम योगवक्रता है। कुटिलता का अर्थ है-सोचना कुछ, बोलना कुछ और करना कुछ। २-अन्यथा प्रवृत्ति कराना किंवा दो स्नेहियों के बीच भेद डालना विसंवादन है। २-शुभनामकर्म के बन्धहेतु-इसके विपरीत अर्थात् योग की अवक्रता और अविसंवाद शुभनामकर्म के बन्धहेतु हैं। 'तात्पर्य यह है कि अशुभनामकर्म के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है उस से उल्टा अर्थात् मन, वचन और काया की सरलता-प्रवृत्ति की एकरूपता तथा संवादन अर्थात् दो के बीच भेद मिटा कर एकता करा देना किंवा उलटे रास्ते जाते हुए को अच्छे रास्ते लगा देना, ये शुभनामकर्म के बन्धहेतु हैं। ८-गोत्रकर्म के नीचगोत्र और उच्चगोत्र ऐसे दो मूलभेद हैं। इनके बन्धहेतुओं का संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है १-नीचगोत्र के बन्धहेतु-परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन और . असद्गुणों का प्रकाशन ये नीचगोत्र के बन्धहेतु हैं। दूसरे की निन्दा करना परनिन्दा है। निन्दा का अर्थ है सच्चे या झूठे दोषों को दुर्बुद्धि से प्रकट करने की वृत्ति / अपनी बड़ाई करना यह आत्मप्रशंसा है अर्थात् सच्चे या झूठे गुणों को प्रकट करने की जो वृत्ति है वह प्रशंसा है। दूसरों में यदि गुण हों तो उन्हें छिपाना और उन के कहने का प्रसंग पड़ने पर भी द्वेष से उन्हें न कहना, वही दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन है। तथा अपने में गुण न होने पर भी उन का प्रदर्शन करना यही निज के असद्गुणों का प्रकाशन कहलाता है। २-उच्चगोत्र के बन्धहेतु-परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, असद्गुणोद्भावन, स्वगुणाच्छादन, नम्रप्रवृत्ति और निरभिमानता ये उच्चगोत्रकर्म के बन्धहेतु हैं। दूसरों के गुणों को देखना परप्रशंसा कहा जाता है। अपने दोषों को देखना आत्मनिन्दा है। अपने दुर्गुणों को प्रकट करना असद्गुणोद्भावन है। अपने विद्यमान गुणों को छिपाना स्वगुणाच्छादन है। पूज्य व्यक्तियों के प्रति नम्र वृत्ति धारण करना नम्रवृत्ति है। ज्ञानसम्पत्ति आदि में दूसरे से 1. योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः। (तत्त्वा० 6 / 31) 2. विपरीतं शुभस्य। (तत्त्वा० 6 / 22) 3. परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य। (तत्त्वा० 6 / 24) 56 ] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकता होने पर भी उस के कारण गर्व धारण न करना निरभिमानता है। . इसके अतिरिक्त गोत्र के विषय में कहीं पर जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, लाभमद, विद्यामद और ऐश्वर्यमद इन आठ मदों को नीचगोत्र के बन्ध का कारण माना गया है और इन आठों प्रकार के मदों के परित्याग को उच्चगोत्र के बन्ध का हेतु कहा ८-अन्तरायकर्म के बन्धहेतु-दानादि में विघ्न डालना अन्तरायकर्म का 'बन्धहेत है। अर्थात् किसी को दान देने में या किसी से कुछ लेने में अथवा किसी के भोग-उपभोग आदि में बाधा डालना किंवा मन में वैसी प्रवृत्ति लाना अन्तरायकर्म के बन्धहेतु हैं। इस प्रकार सामान्यतया आठों ही कर्मों की मूलप्रकृतियों और बन्ध के प्रकार तथा बन्ध के हेतुओं का विवेचन करने से जैनदर्शन की कर्मसम्बन्धी मान्यता का भलीभाँति बोध हो जाता है। कर्मों के सम्बन्ध में जितना विशद वर्णन जैन ग्रन्थों में है, उतना अन्यत्र नहीं, यह कहना कोई अत्युक्तिपूर्ण नहीं है। जैनवाङ्मय में कर्मविषयक जितना सूक्ष्म पर्यालोचन किया गया है, वह विचारशील दार्शनिक विद्वानों के देखने और मनन योग्य है। अस्तु, कर्म सादि है या अनादि, यह एक बहुत पुराना और महत्त्व का दार्शनिक प्रश्न है, जिस का उत्तर भिन्न-भिन्न दार्शनिक विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्त के या विचार के अनुसार दिया है। जैन दर्शन का इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना है कि कर्म सादि भी है और अनादि . भी। व्यक्ति की अपेक्षा वह सादि और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है। जैन सिद्धान्त कहता है कि प्राणी सोते, जागते, उठते, बैठते और चलते, फिरते किसी न किसी प्रकार की चेष्टाहिलने-चलने की क्रिया करता ही रहता है, जिस से वह कर्म का बन्ध कर लेता है। इस अपेक्षा से कर्म सादि अर्थात् आदि वाला कहा जाता है, परन्तु कर्म का प्रवाह कब से चला ? इसे कोई भी नहीं बता सकता। भविष्य के समान भूतकाल की गहराई भी अनन्त (अन्तरहित) है। अनादि और अनन्त का वर्णन, अनादि और अनन्त शब्द के अतिरिक्त और किसी तरह भी नहीं किया जा सकता। इसीलिए दार्शनिकों ने इसे बीजांकुर या बीजवृक्ष न्याय से उपमित किया 1. विघ्नकरणमन्तरायस्य। (तत्त्वा०६।२६) बन्ध का स्वरूप तथा बन्धहेतुओं का जो ऊपर निरूपण * किया गया है, वह जैनजगत के महान् तत्त्वचिन्तक तथा दार्शनिक पण्डित सुखलाल जी के तत्त्वार्थसूत्र से उद्धृत किया गया है। 2. आठों कर्मों के बन्धहेतु, कर्मग्रन्थों में भिन्न-भिन्न रूप से प्रतिपादन किए हैं। नवतत्त्व में कर्मबन्ध के कारण 85 लिखे हैं। 3. संतई पप्पऽणाइया, अपज्जवसिया विय। ठिइं पडुच्च साइया, सपजवसिया वि य॥ (उत्तराध्ययन, अ० 36, गा० 131) प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [57 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। तात्पर्य यह है कि जैसे बीज से उत्पन्न हुआ वृक्ष बीज को उत्पन्न करता है अर्थात् बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज को उत्पन्न होते देखा जाता है, तब इन दोनों में प्रथम किसे कहना या मानना चाहिए? इस के निर्णय में सिवाय "-वे दोनों ही प्रवाह से अनादि हैं। इस की सम्बन्धपरम्परा अनादि है-" यह कहने के और कुछ नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जीवात्मा के साथ कर्म का जो सम्बन्ध है, उसकी परम्परा भी अनादि है। इस दृष्टि से विचार करने पर कर्मसम्बन्ध को अनादि ही कहना वा मानना होगा। इस विषय में कुछ विचारकों की ओर से यह प्रश्न होता है कि अगर कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है, अनादिकाल से चला आता है तो उस का भविष्य में भी इसी प्रकार प्रवाह रहेगा? तात्पर्य यह है कि जो वस्तु अनादि है, जिस का आदि नहीं है, तो उस का कभी अन्त भी नहीं होगा। और यदि कर्मों को अनादि अनन्त मान लिया जाए अर्थात् कर्म और जीव के सम्बन्ध को आदि और अन्त से शून्य स्वीकार कर लिया जाए तब तो उस का कभी विच्छेद ही नहीं हो सकेगा? इस विषय को समाहित करने के लिए सर्वप्रथम इन पदार्थों के स्वरूप को समझना आवश्यक है। पदार्थ चार तरह के होते हैं-१-अनादि अनन्त, २-अनादि सान्त, ३-सादि अनन्त और ४-सादि सान्त। जिस का न आदि हो और न अन्त हो उसे अनादि अनन्त कहते हैं। जिसका आदि न हो और अन्त हो वह अनादि सान्त, कहलाता है। जिस का आदि हो और अन्त न हो वह सादि अनन्त है, और जिस का आदि भी हो और अन्त भी हो वह सादि सान्त कहलाता है। इन में आत्मा और पुद्गल अनादि अनन्त हैं। आत्मा और कर्मसंयोग अनादि सान्त हैं। मोक्ष सादि अनन्त और घटपट का संयोग सादि सान्त है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध आदि होने पर बीजगत उत्पादक शक्ति की तरह सान्तअन्त वाला है। जैसे बीज में अंकुरोत्पादक शक्ति अनादि है और जब उस को (बीज को) भट्टी में भून दिया जाता है तब वह शक्ति नष्ट हो जाती है। ठीक इसी प्रकार आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बद्ध कर्मों को जब जप, तप और ध्यानरूप अग्नि के द्वारा जला दिया जाता है, उन की निर्जरा कर दी जाती है तो कर्ममल से विशुद्ध हुई आत्मा मोक्ष में जा विराजती है। फिर उसका जन्म नहीं होता, वह सदा अपने स्वरूप में ही रमण करती रहती है। एक और उदाहरण लीजिए-देवदत्त नाम के व्यक्ति के पिता, पितामह आदि की पूर्वपरम्परा के आरम्भ का निर्णय सर्वथा अशक्य होने से वह परम्परा अनादि ही रहती है, परन्तु आज उस के संन्यासी हो जाने पर उस परम्परा का अन्त हो जाता है। इसी तरह जीव और कर्म के सम्बन्ध की अनादि परम्परा का विच्छेद भी शास्त्रविहित क्रियानुष्ठान के आचरण से हो श्री विपाक सूत्रम् . . [प्राक्कथन Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है, अन्यथा कर्मसम्बन्ध के विच्छेदार्थ किया जाने वाला सदनुष्ठानमूलक सभी पुरुषार्थ निष्फल हो जाएगा। इस लिए आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर भी अन्त वाला है। ऐसी स्थिति में जीव और कर्मों के सम्बन्ध का कभी विच्छेद नहीं होगा। यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। यदि संक्षेप से कहें तो आत्मा और कर्म दोनों का संयोग प्रवाह से अनादि सान्त है, परन्तु वह अनादित्व भी निखिल कर्मसापेक्ष्य है, किसी एक कर्म की अपेक्षा वह सादि अथच सान्त है। इसलिए आत्मकर्मसंयोग अनादि सान्त भी है और सादि सान्त भी। ___'मोक्ष को सभी दार्शनिकों ने सादि अनन्त माना है। अमुक आत्मा का अमुक समय कर्मबन्धनों से आत्यन्तिक छुटकारा प्राप्त करना मोक्ष की आदि है और कर्मविच्छेद के अनन्तर फिर कभी उस आत्मा से कर्मों का सम्बन्ध नहीं होगा, यही मोक्ष की अनन्तता है। किसी भी भारतीय दर्शन ने मोक्षगत आत्मा का पुनरागमन स्वीकार नहीं किया। न स पुनरावर्तते, न स पुनरावर्तते-। (छां॰ उप० प्र० 8, खं० 15) अर्थात् जीव मुक्ति से फिर नहीं लौटता। अनावृत्तिशब्दात्-अर्थात् मुक्ति से जीव लौटता नहीं (वेदान्तसूत्र)। तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः। तदुच्छित्तिरेव पुरुषार्थः (सांख्यदर्शन)। न मुक्तस्य बन्धयोगोपि, अपुरुषार्थत्वमन्यथा, वीतरागजन्मादर्शनात् (न्यायदर्शन)। इत्यादि जैनेतर दर्शनों के भी / शतशः प्रमाण इस की पुष्टि में उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त उक्त सिद्धान्त (मोक्ष से पुनरावर्तन मानने का सिद्धान्त) युक्तियुक्त भी प्रतीत नहीं होता। कर्मविच्छेद कहो, अज्ञाननिवृत्ति कहो या अविद्यानाश कहो; इन सब का तात्पर्य लगभग समान ही है। ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति या अविद्या का नाश होता है। जिन कारणों से कर्मबन्ध या अज्ञान अथवा अविद्या का नाश होता है, वे मोक्ष में बराबर विद्यमान रहते हैं। दूसरे शब्दों में-जन्ममरणरूप संसार के कारणों का उस समय सर्वथा अभाव हो जाता है, उन का समूलघात हो जाता है, तब मोक्ष से वापस लाने .. वाला ऐसा कौन सा कारण बाकी रह जाता है जिस के आधार पर हम यह कह सकें या मान सकें कि मुक्त हुई आत्मा कुछ समय के बाद फिर इस संसार में आवागमन करती है ? यदि वहां पर किसी प्रकार के कारण के असद्भाव से भी आगमनरूप कार्य को मानें तब तो"कारणाभावे कार्यसत्त्वमिति व्यतिरेकव्यभिचारः"-अर्थात् कारण के अभाव में कार्य का उत्पन्न होना व्यतिरेकव्यभिचाररूप दोष आता है। इसलिए मोक्षगत आत्मा की पुनरावृत्ति का सिद्धान्त जहां अशास्त्रीय है वहां युक्तिविकल भी है। कुछ लोग कहते हैं कि मोक्ष कर्म का फल है और कर्म का फल सीमित अथच नियत होने से अन्त वाला है, इसीलिए मोक्ष भी अनित्य है, परन्तु वे लोग वास्तव में यह विचार नहीं करते कि जिसे कैवल्य-मोक्ष या निर्वाण कहा जाता है, वह कर्म का फल नहीं किन्तु कर्मों प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [59 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आत्यन्तिक विनाश से निष्पन्न होने वाली आत्मा की स्वाभाविक-स्वरूपस्थिति मात्र है, जिस की उपलब्धि ही कर्मों के विनाश से हो उसे कर्म का फल कहना वा मानना उस के (मोक्ष के) स्वरूप से अनभिज्ञता प्रदर्शित करना है। यदि वास्तविकरूप से विचार किया जाए तो जो लोग मुक्तात्मा का पुनरावर्तन मानते हैं वे मोक्ष को मानते ही नहीं। उन के मत में स्वर्गविशेष ही मोक्ष है और वह कर्म का फलरूप होने से अनित्य भी है। जैन दर्शन इसे कल्प-देवलोक के नाम से अभिहित करता है, तथा अन्य भारतीय दर्शन भी इसी भाँति मानते हैं। परन्तु मुक्तात्मा का-कैवल्यप्राप्त आत्मा का पुनरावर्तन किसी ने भी स्वीकार नहीं किया। कुछ लोग इस विषय में यह युक्ति देते हैं कि जहां-जहां वियोग है, वहां-वहां सम्बन्ध की सादिता है। अर्थात् संसार में जितनी संयुक्त वस्तुएं हैं उन का पूर्वरूप कभी वियुक्त भी था। वस्त्र के साथ मल का संयोग है और मल के संयोग से रहित अवस्था भी वस्त्र की उपलब्ध होती है। अतः संयोग और वियोग ये दोनों ही सादि हैं। अनादि संयोग कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होता, इस प्रश्न का समाधान निम्नोक्त है ___ सिद्धान्त कहता है कि आत्मा और पुद्गल अनादि अनन्त पदार्थ हैं। जब पुद्गल आत्मा से सम्बन्धित होता है तो उस की कर्म संज्ञा होती है। आत्मा और कर्मों का सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा अनादि और किसी एक कर्म की अपेक्षा सादि तथा अभव्य जीव की अपेक्षा अनन्त और भव्य जीव की अपेक्षा सान्त है। संयोग वियोगमूलक भी होता है और अनादि संयोग कहीं पर भी नहीं मिलता, यह कहना भ्रांतिपूर्ण है क्योंकि खान से निस्सृत सुवर्ण में मृत्तिका का संयोग अनादि देखा जाता है। जैसे यह संयोग अनादि है इस का अग्नि आदि के प्रयोग से वियोग उपलब्ध होता है, इसी भाँति आत्मा और कर्म का संयोग भी अनादि है। इस में किसी प्रकार की विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती और यह भी तप, जपादि के सदनुष्ठानों से विनष्ट किया जा सकता है। इस के अतिरिक्त जो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मा के साथ सम्बन्धित कर्मों या कर्मदलिकों का जब वियोग होता है तो क्या उन का फिर से संयोग नहीं हो सकता। लोक में दो विभक्त पदार्थों का संयुक्त होना और संयुक्तों का पृथक् होना प्रत्यक्षसिद्ध है। इसी भाँति यह कर्मसम्बद्ध आत्मा भी किसी निमित्तविशेष से कर्मों से पृथक् होने के अनन्तर किसी निमित्तविशेष के मिलने पर फिर भी कर्मों से सम्बद्ध हो सकता है। अतः मोक्ष सादि अनन्त न रह कर सादि सान्त ही हो जाता है। इस शंका का समाधान यह है कि-जहां-जहां वियोग 1. ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। (भगवद्गीता) ' 2. यद्गत्वा न निवर्तन्ते, तद्धाम परमं मम। (भगवद्गीता) 60] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है वहां-वहां सादिसंयोग है। यह व्याप्ति दूषित है अर्थात् वियुक्त पदार्थों का संयोग अवश्य होता है यह कोई नियम नहीं है। संसार में ऐसे पदार्थ भी दृष्टिगोचर होते हैं कि जहां संयोग का नाश तो होता है अर्थात् संयुक्त पदार्थ विभक्त तो होते हैं परन्तु विभक्तों का फिर संयोग नहीं होता। उदाहरणार्थ-धान्य और आम्रफल आदि को उपस्थित किया जा सकता है। जैसे-धान्य पर से उस का छिलका उतर जाने पर उस का फिर 'संयोग नहीं होता। इसी प्रकार आम्रवृक्ष पर से टूटा हुआ आम्र फल फिर उस से नहीं जोड़ा जा सकता। तात्पर्य यह है कि चावल और छिलके के संयोग का नाश तो प्रत्यक्ष सिद्ध है परन्तु इन का फिर से संयुक्त होना देखा नहीं जाता। पृथक् हुआ छिलका और चावल दोनों फिर से पूर्व की भाँति मिल जाएं, ऐसा नहीं हो सकता। इसीलिए आत्मा से विभक्त-पृथक् हुए कर्मों का आत्मा के साथ फिर कभी सम्बन्ध नहीं हो सकता। इस के अतिरिक्त आत्म-सम्बन्ध कर्मों का विनाश हो जाने के बाद उन को फिर से उज्जीवित करने वाला कोई निमित्तविशेष वहां पर नहीं होता। अत: आत्म कर्म सम्बन्ध-संयोग अनादि सान्त है और इन का वियोग सादि अनन्त है। दूसरे शब्दों में-उक्त सम्बन्ध के नाश का फिर नाश नहीं होता, यह कह सकते हैं। आत्मा कर्मपुद्गलों को किस प्रकार ग्रहण करता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जैसे उष्ण तेल की पूरी अथवा शरीर में तेल लगाकर कोई धूलि में लेटे तो धूलि उस के शरीर में चिपक जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय, योग आदि के प्रभाव से जीवात्मा के प्रदेशों में जब परिस्पन्द होता है, हलचल होती है, तब जिस आकाश में आत्मा के प्रदेश होते हैं वहीं के अनन्त पुद्गलपरमाणु जीव के एक-एक प्रदेश के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं / इस प्रकार जीव और कर्म का आपस में दूध और पानी, आग और लोहे के समान सम्बन्ध होता है। तात्पर्य यह है कि दूध और पानी तथा आग और लोहे का जैसे एकीभाव हो जाता है उसी प्रकार जीव और कर्मपुद्गल का सम्बन्ध समझना चाहिए। सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, ऊंच-नीच आदि जो अवस्थाएं दृष्टिगोचर होती हैं, उन के होने में काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि अन्यान्य कारणों की भाँति कर्म भी एक कारण है। कर्मवादप्रधान जैनदर्शन अन्य दर्शनों की भान्ति ईश्वर को उक्त अवस्थाओं का कारण नहीं मानता। जैनदर्शन तथा वैदिकदर्शन में यही एक विशिष्ट भिन्नता है। तथा जैनदर्शन को वैदिकदर्शन से पृथक् करने में यह भी एक मौलिक कारण है। . 1. जहा दड्ढाणं बीयाणं न जायंति पुणंकुरा। कम्मबीयेसु दड्ढेसु न जायन्ति भवंकुरा॥ (दशाश्रुतस्कंध दशा 5) अर्थात् जैसे दग्ध हुआ बीज अंकुर नहीं देता, उसी प्रकार कर्मरूप बीज के दग्ध हो जाने से मानव जन्म मरण रूप संसार को प्राप्त नहीं करता। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [61 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सभी प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं। कोई भी प्राणी बुरे कर्म का फल नहीं चाहता और कर्म स्वयं जड़ होने से किसी चेतन प्रेरणा के बिना फल देने में असमर्थ हैं, अतः कर्म फल भुगताने में ईश्वर नामक किसी शक्तिविशेष की कल्पना औचित्यपूर्ण ही है। अन्यथा कर्मफल असम्भव हो जाएगा? अर्थात् कर्म जड़ होता हुआ फल देने में कैसे सफल हो सकता उत्तर-यह सत्य है कि कर्म जड़ है और यह भी सत्य है कि प्राणी स्वकृत कर्म का अनिष्ट फल नहीं चाहते, परन्तु यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि चेतन के संसर्ग से कर्मों में एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिस से वह अपने अच्छे और बुरे फल को नियत समय पर प्रकट कर देता है। कर्मवाद यह मानता है कि चेतन का सम्बन्ध होने पर ही जड़ कर्म फल देने में समर्थ होता है। कर्मवाद यह भी कहता है कि फल देने के लिए ईश्वररूप चेतन की प्रेरणा को मानने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि सभी जीव चेतन हैं; वे जैसा कार्य करते हैं उस के अनुसार उन की बुद्धि वैसी ही बन जाती है, जिस से बुरे कर्म के फल की इच्छा न रहने पर भी वे ऐसा कृत्य कर बैठते हैं कि जिस से उनको अपने कर्मानुसार फल मिल जाता है। कर्म करना एक बात है और फल को न चाहना दूसरी बात है। मात्र चाह न होने से कर्म का फल मिलने से रुक नहीं सकता। कारणसामग्री के एकत्रित हो जाने पर कार्य स्वतः ही होना आरम्भ हो जाता है। उदाहरणार्थ-एक व्यक्ति मदिरापान करता है और चाहता है कि मुझे बेहोशी न हो तथा कोई व्यक्ति धूप में खड़ा हो कर उष्ण पदार्थों का सेवन करता है और चाहता है कि मुझे प्यास न लगे। ऐसी अवस्था में वह मदिरासेवी तथा आतप और उष्णतासेवी व्यक्ति क्या मूर्छा और घाम से बच सकता है ? नहीं। सारांश यह है कि न चाहने से कर्मफल नहीं मिलेगा, यह कोई सिद्धान्त नहीं है। इस के अतिरिक्त ईश्वर को किसी भी प्रमाण से कर्मफलप्रदाता सिद्ध नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष से तो यह असिद्ध है ही, क्योंकि ईश्वर को किसी भी व्यक्ति ने आज तक कर्मफल देते हुए नहीं देखा। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से ईश्वर कर्मफलदाता सिद्ध नहीं होता। अनुमान के लिए पक्ष, सपक्ष और विपक्ष का निश्चित होना अत्यावश्यक है। कारण 1. एक और उदाहरण लीजिए-जैसे कोई व्यक्ति रसनेन्द्रिय के वशीभूत हो कर अस्वास्थ्यकर भोजन करता है तो उसके शरीर में व्याधि उत्पन्न हो जाती है। वह व्यक्ति उस व्याधि का तनिक भी इच्छुक नहीं है। उसकी इच्छा तो यही है कि उसके शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न न हो परन्तु स्वास्थ्यविरुद्ध तथा हानिप्रद भोजन करने का फल व्याधि के रूप में उस को अपनी इच्छा के विरुद्ध भोगना ही पड़ता है। इसी प्रकार मनुष्य को अपने कर्मों का फल अपनी इच्छा के न होते हुए भी भोगना ही पड़ता है। 2. सन्दिग्धसाध्यवान् पक्षः, यथा-धूमवत्त्वे सति हेतौ पर्वतः। निश्चितसाध्यवान् सपक्षः-यथा 62 ] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि बिना इसके अनुमान नहीं बनता। यहां पर सपक्ष तो इस लिए नहीं है कि आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका कि ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा फल देता है। तथा विपक्ष इस लिए नहीं कि ऐसा कोई भी स्थान नहीं है कि जहां ईश्वर कर्मफलप्रदाता न हो और जीव कर्मफल भोगते हों। जिस पक्ष के साथ सपक्ष और विपक्ष न हो वह झूठा होता है। जैसे-जहां-जहां धूम है वहां-वहां अग्नि है और जहां आग नहीं वहां धूम भी नहीं। इस अन्वयव्यतिरेक रूप व्याप्तिगर्भित (पवतो वह्निमान् अर्थात् यह पर्वत वह्नि-अग्नि वाला है) अनुमान में, महानस सपक्ष और जलहद विपक्ष तथा पर्वत पक्ष का अस्तित्व अवस्थित है। इसी प्रकार ईश्वरकर्तृत्व अनुमान में अन्वयव्यतिरेकरूप से हेतुसाध्य का सम्बन्ध दृष्टिगोचर नहीं होता है, क्योंकि ईश्वरवादी कोई भी ऐसा स्थान नहीं मानता जहां कर्मफल हो और उस में ईश्वर कारण न हो। ___शब्द प्रमाण भी साधक नहीं हो सकता, क्योंकि अभी तक यह भी सिद्ध नहीं हो सका कि जिस को शब्द प्रमाण कहते हैं, वह स्वयं प्रमाण कहलाने की योग्यता भी रखता है कि नहीं / तात्पर्य यह है कि ईश्वरभाषित होने पर ही शब्द में प्रामाण्य की व्यवस्था हो सकती है परन्तु जब ईश्वर ही असिद्धं है तो तदुपदिष्ट शब्द की प्रामाणिकता सुतरां ही असिद्ध ठहरती . ईश्वर जीवों को फल किस प्रकार देता है, यह भी विचारणीय है। वह स्वयं-साक्षात् तो दे नहीं सकता क्योंकि वह निराकार है और यदि वह साकारावस्था में प्रत्यक्षरूपेण कर्मों का फल दे तो इस बात को स्वीकार करने में कौन इन्कार कर सकता है। परन्तु ऐसा तो देखा नहीं जाता। यदि वह राजा आदि के द्वारा जीवों को अपने कर्मों का दण्ड दिलाता है तो ईश्वर के लिए बड़ी आपत्तियां खड़ी होती हैं। मात्र परिचयार्थ कुछ एक नीचे दी जाती हैं १-कदाचित् ईश्वर को किसी धनिक के धन को चुरा या लुटा कर उस धनिक के पूर्वकर्म का फल देना अभिमत है, तो ईश्वर इस कार्य को खुद तो आकर करेगा नहीं किन्तु तत्रैव महानसम्। निश्चितसाध्याभाववान् विपक्षः-यथा तत्रैव महाह्रदः। (तर्कसंग्रहः) अर्थात् जिस में साध्य का सन्देह हो उसे पक्ष कहते हैं। जैसे-धूमहेतु हो तो पर्वत पक्ष है। अर्थात् इस पर्वत में अग्नि है कि नहीं? इस प्रकार से पर्वत सन्देहस्थानापन्न है, अत: वह पक्ष है। जिसमें साध्य का निश्चय पाया जाए वह सपक्ष कहलाता है। जैसेमहानस-रसोई। महानस में अग्निरूप साध्य सुनिश्चित है, अत: महानस सपक्ष है। जिस में साध्य के अभाव का निश्चय पाया जाए उसे विपक्ष कहते हैं, जैसे महाह्रद-सरोवर है। सरोवर में अग्नि का अभाव सुनिश्चित है अतः यह विपक्ष कहलाता है। 1. साध्यसाधनयोः साहचर्यमन्वयः, तद्भावयोः साहचर्य व्यतिरेकः। अर्थात् साध्य और साधन के साहचर्य को अन्वय कहते हैं और दोनों के अभाव के साहचर्य की व्यतिरेक संज्ञा है। जैसे-जहां-जहां धूम (साधन) है, वहां-वहां अग्नि (साध्य) है, जैसे-महानस / इस को अन्वय कहते हैं और जहां वह्नि का अभाव है, वहां धूम का भी अभाव है, यथा-सरोवर। इसे व्यतिरेक कहते हैं। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [63 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी चोर या डाकू से ही वह ऐसा कराएगा तो इस दशा में जिस चोर या डाकू द्वारा ईश्वर ऐसा फल उस को दिलवाएगा, वह चोर ईश्वर की आज्ञा का पालक होने से निर्दोष होगा, फिर उसे दोषी ठहरा कर जो पुलिस पकड़ती है और दण्ड देती है वह ईश्वर के न्याय से बाहर की बात होगी। यदि उसे भी ईश्वर के न्याय में सम्मिलित कर चोर की चोरी करने की सजा पुलिस द्वारा दिलाना आवश्यक समझा जाए तो यह ईश्वर का अच्छा अन्धेर न्याय है कि इधर तो स्वयं धनिक को दण्ड देने के लिए चोर को उस के घर भेजे और फिर पुलिस द्वारा उस चोर को पकड़वा दे। क्या यह-चोर से चोरी करने की कहे और शाह से जागने की कहे-इस कहावत के अनुसार ईश्वर में दोगलापन नहीं आ जाएगा? इसी प्रकार जो ईश्वर ने प्राणदण्ड देने के लिए कसाई, चाण्डाल तथा सिंह आदि जीव पैदा किए हैं, तदनुसार वे प्रतिदिन हजारों जीवों को मार कर उन के कर्मों का फल उन्हें देते हैं, वे भी निर्दोष समझने चाहिएं, क्योंकि वे तो ईश्वर की प्रेरणा के अनुसार ही कार्य कर रहे हैं। यदि ईश्वर उन्हें निर्दोष माने तब उस के लिए अन्य सभी जीव जो कि दूसरों को किसी न किसी प्रकार की हानि पहुंचाते हैं, निर्दोष ही होने चाहिएं। यदि उन्हें दोषी मानें तो महान् अन्याय होगा, क्योंकि राजा की आज्ञानुसार अपराधियों को अपराध का दण्ड देने वाले जेलर, फाँसी लगाने वाले चाण्डाल आदि जब न्याय से निर्दोष माने जाते हैं तब उन के समान ईश्वर की प्रेरणानुसार अपराधियों को अपराध का दण्ड देने वाले दोषी नहीं होने चाहिएं ? २-ईश्वर सर्वशक्तिसम्पन्न है, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, अतः उस के द्वारा दी हुई अशुभ कर्मों की सज़ा अलंघनीय, अनिवार्य और अमिट होनी चाहिए, किन्तु संसार में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता। देखिए-ईश्वर ने किसी व्यक्ति को उसके किसी अशुभकर्म का दण्ड देकर, उसके नेत्र की नज़र कमज़ोर कर दी, वह अब न तो दूर की वस्तु साफ़ देख सकता है और न छोटे-छोटे अक्षरों की पुस्तक ही पढ़ सकता है। ईश्वर का दिया हुआ यह दण्ड अमिट होना चाहिए था, परन्तु उस व्यक्ति ने नेत्र-परीक्षक डाक्टर से अपने नेत्रस्वास्थ्य के संरक्षण एवं परिवर्धन के लिए एक उपनेत्र (ऐनक) ले लिया, उस उपनेत्र को लगा कर उस ने ईश्वर से दी हुई सज़ा को निष्फल कर दिया। वह एक ऐनक से दूर की चीज़ साफ़ देख लेता है, और बारीक़ से बारीक़ अक्षर भी पढ़ लेता है। ईश्वर जापान में बार-बार भूकम्प भेज कर उस को विनष्ट करना चाहता है परन्तु जापानी लोगों ने हलके मकान बना कर भूकम्पों को बहुत कुछ निष्फल बना दिया है। इसी भाँति ईश्वर की भेजी हुई प्लेग, हैज़ा आदि बीमारियों को डाक्टर लोग, सेवासमितियां अपने प्रबल उपायों से बहुत कम कर देते हैं। इसके अतिरिक्त कर्मों का फल भुगताने के लिए भूकम्प 64] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेजते समय ईश्वर को यह भी ख्याल नहीं रहता कि जहां मेरी उपासना एवं आराधना होती है, ऐसे मन्दिर, मस्ज़िद आदि स्थानों को नष्ट कर अपने उपासकों की सम्पत्ति को नष्ट न होने दूं। ३-संसार जानता है कि चोर आदि की सहायता लोकविरुद्ध और धर्मविरुद्ध भी है। जो लोग चोर आदि की सहायता करते हैं वे शासनव्यवस्था के अनुसार दण्डित किए जाते हैं। ऐसी दशा में जो ईश्वर को कर्मफलदाता मानते हैं और यह समझते हैं कि किसी को जो दुःख मिलता है वह उस के अपने कर्मों का फल है और फल भी ईश्वर का दिया हुआ है। फिर वे यदि किसी अन्धे की, लूले लंगड़े आदि दुःखी व्यक्ति की सहायता करते हैं। यह ईश्वर के साथ विद्रोह नहीं तो और क्या है ? क्या वे ईश्वर के चोर की सहायता नहीं कर रहे हैं ? और क्या ईश्वर ऐसे द्रोही व्यक्तियों पर प्रसन्न रह सकेगा? तथा ऐसे दया, दान आदि सदनुष्ठानों का कोई महत्त्व रह सकेगा ? उत्तर स्पष्ट है, कदापि नहीं। ४-यदि ईश्वर जीवों के किए हुए कर्मों के अनुसार उनके शरीरादि बनाता है तो कर्मों की परतन्त्रता के कारण वह ईश्वर नहीं हो सकता, जैसे कि-जुलाहा। तात्पर्य यह है कि जो स्वतंत्र है, समर्थ है, उसी के लिए ईश्वर संज्ञा ठीक हो सकती है। परतन्त्र के लिए नहीं हो सकती। जुलाहा यद्यर्पि कपड़े बनाता है परन्तु परतन्त्र है और असमर्थ है। इसलिए उसे ईश्वर नहीं कह सकते। . ५-किसी प्रान्त में किसी सुयोग्य न्यायशील शासक का शासन हो तो उसके प्रभाव से चोरों, डाकुओं आदि का चोरी आदि करने में साहस ही नहीं पड़ता और वे कुमार्ग छोड़ कर सन्मार्ग पर चलना आरम्भ कर देते हैं, जिससे प्रान्त में शांति हो जाती है और वहां के लोग निर्भयता के साथ आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लग जाते हैं। इसके विपरीत यदि कोई शासक लोभी हो, कामी हो, कर्त्तव्यपालन की भावना से शून्य हो उसके शासन में अनेकविध उपद्रव होते हैं और सर्वतोमुखी अराजकता का प्रसार होता है, लोग दुःख के मारे त्राहि-त्राहि कर उठते हैं। स्वर्गतुल्य जीवन भी नारकीय बन जाता है, ऐसा संसार में देखा जाता है। परन्तु यह समझ में नहीं आता जब कि संसार का शासक ईश्वर दयालु भी है, सर्वज्ञ भी है तथा सर्वदर्शी भी है, फिर भी संसार में बुराई कम नहीं होने पाती। मांसाहारियों, व्यभिचारियों और चोरों आदि लोगों का आधिक्य ही दृष्टिगोचर होता है। धर्मियों की संख्या बहुत कम मिलती है। ऐसी दशा में प्रथम तो ईश्वर संसार का शासक है ही नहीं यह ही कहना होगा। यदि-तुष्यतु ... 1. कर्मापेक्षः शरीरादिर्देहिनां घटयेद्यदि। न चैवमीश्वरो न स्यात् पारतन्त्र्यात् कुविंदवत्। (सृष्टिवादपरीक्षा में श्री चन्द्रसैन वैद्य) प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [65 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्जनन्याय-से मान भी लें तो वह कोई योग्य शासक नहीं कहा जा सकता और वह ईश्वरत्व से सर्वथा शून्य एवं कल्पनामात्र है। ६-जो लोग ईश्वर को न्यायाधीश के तुल्य बताते हैं और कहते हैं कि जैसे न्यायाधीश अपराधियों को उन के अपराधानुसार दण्डित करता है, उसी भाँति ईश्वर भी संसार की व्यवस्था को भंग नहीं होने देता और यदि कोई व्यवस्था भंग करता है तो उसे तदनुसार दण्ड देता है। इस का समाधान निम्नोक्त है सबसे प्रथम अपराधी को दंड देने में क्या हार्द रहा हुआ है यह जान लेना आवश्यक है। देखिए-जब कोई मनुष्य चोरी करता है तो उस पर राज्य की ओर से अभियोग चलाया जाता है। यह प्रमाणित होने पर कि उस व्यक्ति ने चोरी की है, तो न्यायाधीश उस को कारागार, जुर्माना आदि का उपयुक्त दण्ड देता है। वह अपराधी व्यक्ति तथा अन्य लोग यह जान जाते हैं कि उस व्यक्ति ने चोरी की थी, इसलिए उसको दंड मिला है। चोरी का अपराध तथा उसके फलस्वरूप दंड का ज्ञान होने पर वह व्यक्ति एवं साधारण जनता डर जाती है और चोरी आदि कुवृत्तियों का साहस नहीं करती। यही उद्देश्य दण्ड देने में रहा हुआ है। परन्तु यदि किसी देश का शासक या न्यायाधीश किसी व्यक्ति को पकड़वा कर कारागार में डाल दे और उस पर न तो अभियोग चलाए, न यही प्रकट करे कि उसने क्या अपराध किया है, ऐसी दशा में जनता उस व्यक्ति को निर्दोष एवं उस शासक वा न्यायाधीश को अन्यायी, स्वेच्छाचारी समझेगी। अपराध एवं उसके फलस्वरूप दंड का ज्ञान न होने से जनता कभी भी उस व्यवस्था से शिक्षित नहीं हो सकेगी, और ना ही वह अपराध करने से डरेगी। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति मनुष्ययोनि में जन्म लेता है और जन्म से ही अन्धा, पंगु आदि दूषित शरीर धारण करता है, तो उस व्यक्ति, उसके सम्बन्धी एवं उसके देशवासियों को यह ज्ञात नहीं होगा कि उस व्यक्ति के जीव ने पूर्वजन्म में अमुक पापकर्म किया था, जिसके फलस्वरूपं उसको इस जन्म में यह दूषित शरीर मिला है। इसी प्रकार जब किसी मनुष्य के शरीर में कुष्ठ आदि रोग हो जाता है तो उस व्यक्ति या अन्य मनुष्यों को यह ज्ञात नहीं होता कि उस ने अमुक-अमुक पापकर्म पूर्व या इस जन्म में किए हैं, जिन के कारण इनकी यह दुरवस्था हो रही है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दण्ड देने का यह अभिप्राय कि मनुष्य को उसके पापकर्म का ऐसा कठोर दंड दिया जाए कि जिस से वह स्वयं तथा जनसमाज ऐसा भयभीत हो जाए कि डर कर भविष्य में उस पापकर्म को न करे-मनुष्य के दैनिक कार्यों से नहीं पाया जाता। ___इसके अतिरिक्त जो दंड देने का सामर्थ्य रखता है, उस में अपराध रोकने की शक्ति भी होनी चाहिए। यदि किसी शासक में यह बल है कि डाकुओं के दल को, उस के अपराध . प्राथन श्री विपाक सूत्रम् Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के दंडस्वरूप. कारागृह (जेल) में बन्द कर सकता है अथवा प्राणदंड दे सकता है तो उस शासक में यह भी.शक्ति होती है कि यदि उस को यह ज्ञात हो जाए कि डाकुओं का दल अमुक घर में अमुक समय पर डाका डाल कर धनापहरण एवं गृहवासियों की हत्या करेगा तो डाका डालने से पहले ही उन-उन डाकुओं के दल को पुलिस अथवा सेना के द्वारा डाका डालने के महान अपराध से रोके। कर्मफलप्रदाता ईश्वर तो सर्वशक्तिसम्पन्न, दयालु, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी है। वह जानता है कि कौन क्या अपराध करेगा। तब उसे चाहिए कि अपराध करने वाले की भावना बदल दे अथवा उसके मार्ग में ऐसी बाधाएं उपस्थित कर दे कि जिस से वह अपराध कर ही न सके। यदि वह अपराध करने वाले के इरादे को जानता है और अपराध रोकने का सामर्थ्य भी रखता है परन्तु रोकता नहीं, अपराध करने देता है, और फिर अपराध के फलस्वरूप उसे दंड देता है तो उस को दयालु वा न्यायी नहीं कहा जा सकता, उसे तो स्वेच्छाचारी और कर्त्तव्यविमुख ही कहना होगा। ७-संसार में अनन्त जीव हैं। प्रत्येक जीव मन, वचन और काया से प्रतिक्षण कुछ न कुछ कार्य करता ही रहता है / क्षण-क्षण की क्रियाओं का इतिहास लिखना एवं उनका फल देना यदि असंभव नहीं तो अत्यन्त दुष्कर अवश्य है। जब एक जीव के क्षण-क्षण के कार्य का ब्योरा रखना एवं उस का फल देना इतना कठिन है तो संसार के अनन्त जीवों की क्षण-क्षण क्रियाओं का ब्योरा रखना उनका फल देना, उस विशेष चेतन व्यक्ति के लिए कैसे सम्भव होगा? इस के अतिरिक्त संसार के अनन्त जीवों के क्षण-क्षण में कृतकर्मों के फल देने में लगे रहने से उस विशेष चेतन व्यक्ति का चित्त कितना चिन्तित या व्यथित होगा और वह कैसे शान्ति और अपने आनन्दस्वरूप में मग्न रह सकेगा, इन प्रश्नों का कोई सन्तोषजनक उत्तर समझ में नहीं आता। . ऊपर के ऊहापोह से यह निश्चित हो जाता है कि जीवों के कर्मफल भुगताने में ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं है। प्रत्युत कर्म स्वतः ही फलप्रदान कर डालता है। जैनेतर धर्मशास्त्र भी इस तथ्य का पूरा-पूरा समर्थन करते हैं। भगवद्गीता में लिखा है न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥ (अ० 5 / 14) - अर्थात् ईश्वर न तो सृष्टि बनाता है और न कर्म ही रचता है और न कर्मों के फल को ही देता है। प्रकृति ही सब कुछ करती है। तात्पर्य यह है कि जो जैसा करता है वह वैसा फल पा लेता है। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [67 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥ (अ०५ / 15) अर्थात् ईश्वर किसी का न तो पाप लेता है तथा न किसी का पुण्य ही लेता है। अज्ञान से आवृत होने के कारण जीव स्वयं मोह में फंस जाते हैं। सारांश यह है कि कर्मफलप्रदाता ईश्वर नहीं है, इस तथ्य के पोषक अनेकों प्रवचन शास्त्र में उपलब्ध होते हैं, और पूर्वोक्त युक्तियों के अतिरिक्त अन्य भी अनेकों युक्तियां पाई जाती हैं, जिनसे यह भलीभाँति सिद्ध हो सकता है कि ईश्वर कर्म का फल नहीं देता, परन्तु विस्तारभय से अधिक कुछ नहीं लिखा जाता। अधिक के जिज्ञासुओं को जैनकर्मग्रन्थों का अध्ययन अपेक्षित है। कर्मवादप्रधान जैनदर्शन सुख-दुःख में मात्र कर्म को ही कारण नहीं मानता, किन्तु साथ में पुरुषार्थ को भी वही स्थान देता है जो उसने कर्म को दिया है। कर्म और पुरुषार्थ को समकक्षा में रखने वाले अनेक वाक्य उपलब्ध होते हैं। जैसे कि यथा टेकेन चक्रेण, न रथस्य गतिर्भवेत्। एवं पुरुषकारेण विना, दैवं न सिध्यति॥१॥ अर्थात्-कर्म और पुरुषार्थ जीवनरथ के दो चक्र हैं / रथ की गति और स्थिति दो चक्रों के औचित्य पर निर्भर है। दो में से एक के द्वारा अर्थ की सिद्धि या अभीष्ट की प्राप्ति नहीं हो सकती। जैनदर्शन मात्र कर्मवादी या पुरुषार्थवादी ही है-यह कथन भी यथार्थ नहीं है। प्रत्युत जैनदर्शन कर्मवादी भी है और पुरुषार्थवादी भी। अर्थात् वह दोनों को सापेक्ष स्वीकार करता जैनदर्शन के कथनानुसार ये दोनों ही अपने-अपने स्थान में असाधारण हैं / यही कारण 1. समन्तभद्राचार्यकृत देवागमस्तोत्र में कर्मपुरुषार्थ. पर सुन्दर ऊहापोह किया गया है। जैसे कि दैवादेवार्थसिद्धिश्चेद, दैवं पौरुषतः कथम्? दैवतश्चेद् विनिर्मोक्षः, पौरुषं निष्फलं भवेत् // 48 // पौरुषार्थादेव सिद्धिश्चेत्, पौरुषं दैवतः कथम् ? पौरुषाच्चेदमोघं स्यात्, सर्वप्राणिषु पौरुषम् // 89 // भावार्थ-यदि दैव-कर्म से ही प्रयोजन सम्पन्न होता है तो पुरुषार्थ के बिना दैव की निष्पत्ति हुई कैसे? और यदि केवल दैव से ही जीव मुक्त हो जाएं तो संयमशील व्यक्ति का पुरुषार्थ निष्फल हो जाएगा। दूसरी बात यह है कि यदि पौरुष से ही कार्यसिद्धि अभिमत है तो दैव के बिना पौरुष कैसे हुआ? और मात्र पौरुष से ही यदि सफलता है तो पुरुषार्थी प्राणियों का पुरुषार्थ निष्फल क्यों जाता है ? आचार्यश्री ने इन पद्यों में कर्म और पुरुषार्थ दोनों को ही सम्मिलित रूप से कार्यसाधक बताते हुए बड़ी सुन्दरता से अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। 68] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि जैनदर्शन को अनेकान्तदर्शन भी कहा जाता है। उस के मत में वस्तु मात्र ही अनेकान्त (भिन्न-भिन्न पर्याय वाली) है और इसी रूप में उस का आभास होता है। , सामान्य रूप से कर्म दो भागों में विभक्त है-शुभकर्म और अशुभकर्म। शुभकर्म प्राणियों की अनुकूलता (सुख) में कारण होता है और अशुभकर्म जीवों की प्रतिकूलता (दुःख) में हेतु होता है। शास्त्रीय परिभाषा में ये दोनों पुण्यकर्म और पापकर्म के नाम से विख्यात हैं / पुण्य के फल को सुखविपाक और पाप के फल को दुःखविपाक कहा जाता है। सुखविपाक और दुःखविपाक के स्वरूप का प्रतिपादक शास्त्र विपाकश्रुत कहलाता है। जैनागमों की संख्या-वर्तमान में पूर्वापरविरोध से रहित अथच स्वत:प्रमाणभूत जैनागम 32 माने जाते हैं। उन में 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 4 छेद और एक आवश्यक सूत्र हैं। ये कुल 32 होते हैं। उन में 11 अङ्गसूत्र निम्नलिखित हैं १-आचाराङ्ग, २-सूत्रकृताङ्ग, ३-स्थानाङ्ग, ४-समवायाङ्ग, ५-भगवती, ६ज्ञाताधर्मकथा,७-उपासकदशा,८-अन्तकृद्दशा,९-अनुत्तरोपपातिकदशा, १०-प्रश्नव्याकरण, १११-विपाकश्रुत। - १-औपपातिक, २-राजप्रश्नीय, ३-जीवाभिगम, ४-प्रज्ञापना, ५-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति। ६-सूर्यप्रज्ञप्ति, ७-चद्रप्रज्ञप्ति, २८-निरियावलिका, ९-कल्पावतंसिका, १०-पुष्पिका, ११पुष्पचूलिका, १२-वृष्णिदशा, ये बारह उपाङ्ग कहलाते हैं। चार मूलसूत्र-१-नन्दी, २-अनुयोगद्वार, ३-दशवैकालिक, ४-उत्तराध्ययन। चार छेद सूत्र-१-बृहत्कल्प, २-व्यवहार, ३-निशीथ और ४-दशाश्रुतस्कन्ध। इस प्रकार अङ्ग, उपाङ्ग, मूल और छेद सूत्रों के संकलन से यह संख्या 31 होती है, उस में आवश्यकसूत्र के संयोग से कुल आगम 32 हो जाते हैं। ये 32 सूत्र अर्थरूप से तीर्थंकरप्रणीत हैं तथा सूत्ररूप से इन का निर्माण गणधरों ने किया है और वर्तमान में उपलब्ध आगम आर्य सुधर्मा स्वामी की वाचना के हैं, ऐसी जैन मान्यता है / अङ्गसूत्रों में श्रीविपाकश्रुत का अन्तिम स्थान है, यह बात ऊपर के वर्णन से भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है। अब रह गई यह बात कि विपाकश्रुत में क्या वर्णन है, इस का उत्तर निम्नोक्त है- . . . विपाकश्रुत यह अन्वर्थ संज्ञा है। अर्थात् विपाकश्रुत यह नाम अर्थ की अनुकूलता से रखा गया है। इस का अर्थ है-वह शास्त्र जिस में विपाक-कर्मफल का वर्णन हो। कर्मफल का 1. यद्यपि अङ्गसूत्र बारह हैं इसीलिए इस का नाम द्वादशानी है, तथापि बारहवां अङ्ग दृष्टिवाद इस समय अनुपलब्ध है, इसलिए अङ्गों की संख्या ग्यारह उल्लेख की गई है। . 2. इस का दूसरा नाम कल्पिका भी है। ,प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [69 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन भी दो प्रकार से होता है। प्रथम-सिद्धान्तरूप से, द्वितीय-कथाओं के रूप से। विपाकश्रुत में कर्मविपाक का वर्णन कथाओं के रूप में किया गया है, अर्थात् इस आगम में ऐसी कथाओं का संग्रह है, जिन का अंतिम परिणाम यह हो कि अमुक व्यक्ति ने अमुक कर्म किया था, उसे अमुक फल मिला। फल भी दो प्रकार का होता है-सुखरूप और दुःखरूप। फल के द्वैविध्य पर ही विपाकश्रुत के दो विभाग हैं। एक दुःखविपाक और दूसरा सुखविपाक। दुःखविपाक में दुःखरूप फल का और सुखविपाक में सुखरूप फल का वर्णन है। दुःखविपाक के दश अध्ययन हैं। इन में दस ऐसे व्यक्तियों का जीवनवृत्तान्त वर्णित है कि जिन्होंने पूर्वजन्म में अशुभ कर्मों का उपार्जन किया था। सुखविपाक के भी दश अध्ययन हैं। उन में दश ऐसे व्यक्तियों का जीवनवृत्तान्त अङ्कित है कि जिन्होंने पूर्वजन्म में शुभकर्मों का उपार्जन किया था। दोनों श्रेणियों के व्यक्तियों को फल की प्राप्ति भी क्रमशः दुःख और सुख रूप हुई। दोनों के समुदाय का नाम विपाकश्रुत है। आधुनिक शताब्दी में जो विपाकश्रुत उपलब्ध है उस में तथा प्राचीन विपाकश्रुत में अध्ययनगत तथा विषयगत कितनी विभिन्नता है, इस का उत्तर श्रीसमवायांग सूत्र तथा श्रीनन्दीसूत्र में स्पष्टरूप से दिया गया है। आगमोदयसमिति द्वारा मुद्रित श्री समवायांग सूत्र के पृष्ठ 125 पर विपाकश्रुत में प्रतिपादित विषय का जो निर्देश किया गया है, वह निम्नोक्त से किं तं विवागसुयं ? विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविजइ।से समासओ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-दुहविवागे चेव सुहविवागे चेव।तत्थ णं दस दुहविवागाणि दस सुहविवागाणि। से किं तं दुहविवागाणि ? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई उजाणाई चेइयाई वणखण्डा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरगमणाई संसारपबन्धे दुहपरम्पराओ य आघविजन्ति।सेतं दुहविवागाणि।से किं तं सुहविवागाणि? सुहविवागेसु सुहविवागाणं नगराई उजाणाई चेइयाई वणखण्डा रायाणो अम्मापिअरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयइड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वजाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई परियागा पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाया पुणबोहिलाहा अन्तकिरियाओ य आघविजन्ति। दुहविवागेसु णं पाणाइवायअलियवयणचोरिक्ककरणपरदारमेहुणससंगयाए महतिव्वकसायइंदियप्पमायपावप्पओयअसुहज्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पावअणुभागफलविवागा णिरयगइतिरिक्खजोणिबहुविहवसणसयपरं परापबद्धाणं मणुयत्ते वि आगयाणं जहा पावकम्मसेसेण पावगा होन्ति फलविवागा वहवसणविणासनासाकन्नुटुं 70 ] श्री विपाक सूत्रम् - [प्राक्कथन Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुढ़करचरणनहच्छेयणजिब्भछेयणअंजणकडग्गिदाहगयचलणमलणफालणउल्लंबणसूललयालउडलट्ठिभंजणतउसीसगतत्ततेलकलकलअहिसिंचणकुंभीपागकंपणथिरबंधणवेहबज्झकत्तणपतिभयकरकरपल्लीवणादिदारुणाणि दुक्खाणि अणोवमाणि बहुविविहपरंपराणुबद्धा ण मुञ्चन्ति पावकम्मवल्लीए अवेइत्ता हु णत्थि मोक्खो। तवेण धिइधणियबद्धकच्छेण सोहणं तस्स वा वि हुज्जा; एत्तो य सुहविवागेसु णं सीलसंजमणियमगुणतवोवहाणेसु साहूसु सुविहिएसु अणुकंपासयप्पओगतिकालमइविसुद्धभत्तपाणाइं पयमणसा हियसुहनीसेसतिव्वपरिणामनिच्छियमई पयच्छिऊणं पयोगसुद्धाई जह य निवत्तेंति उ बोहिलाभं जह य परित्तीकरेंति नरनरयतिरियसुरगमणविपुलपरियट्टअरइभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं अन्नाणतमंधकारचिक्खिल्लसुदुत्तारं जरमरणजोणिसंखुभियचक्कवालं सोलसकसायसावयपयंडचंडं अणाइयं अणवदग्गं संसारसागरमिणं जह य णिबंधंति आउगं सुरगणेसु जह य अणुभवन्ति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवाणि तओ य कालन्तरे चुआणंइहेव नरलोगमागयाणं आउवपुपुण्णरूवजाइकुलजम्मआरोग्गबुद्धिमेहाविसेसा मित्तजणसयणधणधन्नविभवसमिद्धसारसमुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाण सोक्खाण सुहविवागोत्तमेसु अणुवरयपरंपराणुबद्धा असुभाणं सुभाणंचेव कम्माणं भासिया बहुविहा विवागा विवागसुयम्मि भगवया जिणवरेण सम्वेगकारणत्था अन्ने वि य एवमाइया बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आघविजंति।विवागसुअस्सणं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा, जावसंखेजाओ संगहणीओ। से णं अंगट्ठयाए एक्कारसमे अंगे, वीसं.अज्झयणा, वीसं उद्देसणकाला, वीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पयसयसहस्साइं पयग्गेणं प० संखेज्जाणि अक्खराणि, अणंता गमा,अणंता पजवा जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविजंति से तं विवागसुए। ... इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है प्रश्न-विपाकश्रुत क्या है ? अर्थात् उस का स्वरूप क्या है ? उत्तर-विपाकश्रुत में सुकृत और दुष्कृत अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के फल कहे गए हैं। वह कर्मफल संक्षेप से दो प्रकार का कहा गया है। जैसे कि-दुःखविपाक-दुःखरूप कर्मफल और सुखविपाक-सुखरूप कर्मफल / दुःखविपाक के दस अध्ययन हैं। इसी भाँति सुखविपाक के भी दस अध्ययन हैं। प्रश्न-दुःखविपाक में वर्णित दस अध्ययनों का स्वरूप क्या है ? उत्तर-दुःखविपाक के दस अध्ययनों में दुःखरूप विपाक-कर्मफल को भोगने वालों के नगर, उद्यान, व्यन्तरायतन-व्यन्तरदेवों के स्थानविशेष, वनखण्ड-भिन्न भिन्न भाँति के प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [71 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृक्षों वाले स्थान, राजा, मातापिता, समवसरण-भगवान् का पधारना और बारह तरह की सभाओं का मिलना, धर्माचार्य-धर्मगुरु, धर्मकथा, नगरगमन-गौतम स्वामी का पारणे के लिए नगर में जाना, संसारप्रबन्ध-जन्म मरण का विस्तार और दुःखपरम्परा कही गई हैं। यही दुःखविपाक का स्वरूप है। प्रश्न-सुखविपाक क्या है और उस का स्वरूप क्या है ? उत्तर-सुखविपाक में सुखरूप कर्मफलों को भोगने वाले जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य-व्यन्तरायतन, वनखण्ड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक और परलोक संबन्धी ऋद्धिविशेष, भोगों का परित्याग, प्रव्रज्या-दीक्षा, श्रुतपरिग्रह-श्रुत का अध्ययन, तपउपधान-उपधान तप या तप का अनुष्ठान, पर्याय-दीक्षापर्याय, प्रतिमा-अभिग्रहविशेष, संलेखना-शरीर, कषाय आदि का शोषण अथवा अनशनव्रत से शरीर के परित्याग का अनुष्ठान, भक्तप्रत्याख्यान-अन्नजलादि का त्याग, पादपोपगमन-जैसे वृक्ष का टहना गिर जाता है और वह ज्यों का त्यों पड़ा रहता है, इसी भाँति जिस दशा में संथारा किया गया है, बिना कारण आमरणान्त उसी दशा में पड़े रहना, देवलोकगमन-देवलोक में जाना, सुकुल में-उत्तमकुल में उत्पत्ति, पुनर्बोधिलाभ-पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करना, अन्तक्रिया-जन्ममरण से मुक्त होना, ये सब तत्त्व वर्णित हुए हैं। ___दुःखविपाक में प्राणातिघात-हिंसा, अलीकवचन-असत्य वचन, चौर्यकर्म-चोरी, परदारमैथुनसंसर्ग अर्थात् दूसरे की स्त्री के साथ मैथुन का सेवन करना तथा जो महान् तीव्र कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ, इन्द्रियों का प्रमाद-असत्प्रवृत्ति, पापप्रयोग-हिंसादि पापों में प्रवृत्ति, अशुभ अध्यवसायसंकल्प होते हैं, उन सब से संचित अशुभ कर्मों के अशुभ रस वाले कर्मफल कहे गए हैं। तथा नरकगति और तिर्यंचगति में बहुत से और नाना प्रकार के सैंकड़ों कष्टों में पड़े हुए जीवों को मनुष्यगति को प्राप्त करके शेष पाप कर्मों के कारण जो अशुभ फल होते हैं, उन का स्वरूप निम्नोक्त है ___ वध-यष्टि द्वारा ताडित करना, वृषणविनाश-नपुंसक बनाना, नासिका-नाक, कर्णकान, ओष्ठ-होंठ, अंगुष्ठ-अंगूठा, कर-हाथ, चरण-पांव, नख-नाखून इन सब का छेदनकाटना, जिह्वा का छेदन, अंजन-तपी हुई सलाई से आंखों में अञ्जन डालना अथवा क्षारतैलादि से देह की मालिश करना, कटाग्निदाह-मनुष्य को कट-चटाई में लपेट कर आग लगाना, अथवा कट-घासविशेष में लपेट कर आग लगा देना, हाथी के पैरों के नीचे मसलना, कुल्हाड़े आदि से फाड़ना, वृक्षादि पर उलटा लटका कर बांधना, शूल, लता-बैंत, लकुट-लकड़ी, यष्टि-लाठी, इन सब से शरीर का भञ्जन करना, शरीर की अस्थि आदि का तोड़ना, तपे तथा 72 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकल शब्द करते हुए त्रपु-रांगा, सीसक-सिक्का और तैल से शरीर का अभिषेक करना, कुम्भीपाक-भाजनविशेष में पकाना, कम्पन अर्थात् शीतकाल में शीतल जल से छींटे दे कर शरीर को कम्पाना, स्थिरबन्धन-बहुत कस कर बांधना, वेध-भाले आदि से भेदन करना, वर्धकर्तन-चमड़ी का उखाड़ना, प्रतिभयकर-पल-पल में भय देना, करप्रदीपन-कपड़ों में लपेट कर तैल छिड़क कर मनुष्य के हाथों में आग लगाना इत्यादि अनुपम तथा दारुण दुःखों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिक्त विपाकसूत्र में यह भी बताया गया है कि दुःखफलों को देने वाली पापकर्मरूपी बेल के कारण नाना प्रकार दुःखों की परम्परा से बन्धे हुए जीव कर्मफल भोगे बिना छूट नहीं सकते, प्रत्युत अच्छी तरह कमर बांध कर तप और धीरज के द्वारा ही उस का शोधन हो सकता है। इस के अतिरिक्त सुखविपाक के अध्ययनों में वर्णित पदार्थ निम्नोक्त हैं हितकारी, सुखकारी तथा कल्याणकारी तीव्र परिणाम वाले और संशय रहित मति वाले व्यक्ति शील-ब्रह्मचर्य अथवा समाधि, संयम-प्राणातिघात से निवृत्ति, नियम-अभिग्रहविशेष, गुण-मूलगुण तथा उत्तरगुण और तप-तपस्या करने वाले, सत्क्रियाएं करने वाले साधुओं को अनुकम्पाप्रदान चित्त के व्यापार तथा देने की त्रैकालिक मति अर्थात् दान दूंगा यह विचार कर हर्षानुभूति करना, दान देते हुए प्रमोदानुभव करना तथा देने के अनन्तर हर्षानुभव करना, ऐसी त्रैकालिक बुद्धि से विशुद्ध तथा प्रयोगशुद्ध-लेने और देने वाले व्यक्ति के प्रयोग-व्यापार की अपेक्षा से शुद्ध भोजन को आदरभाव से देकर जिस प्रकार सम्यक्त्व का लाभ करते हैं और जिस प्रकार नर-मनुष्य, नरक, तिर्यंच और देव इन चारों गतियों में जीवों के गमन-परिभ्रमण के विपुल-विस्तीर्ण, परिवर्तन-संक्रमण से युक्त, अरति-संयम में उद्वेग, भय, विषाद, दीनता, शोक, मिथ्यात्व-मिथ्याविश्वास, इत्यादि शैलों-पर्वतों से व्याप्त, अज्ञानरूप अन्धकार से युक्त, विषयभोग, धन और अपने सम्बन्धी आदि में आसक्तिरूप कर्दम-कीचड़ से सुदुस्तर-जिस का पार करना बहुत कठिन है, जरा-बुढ़ापा, मरण-मृत्यु और योनि-जन्मरूप संक्षुभितविलोडित, चक्रवाल-जलपरिमांडल्य (जल का चक्राकार भ्रमण) से युक्त, 16 कषायरूप श्वापद-हिंसक जीवों से अत्यन्त रुद्र-भीषण, अनादि अनन्त संसार सागर को परिमित करते हैं, और देवों की आयु को बांधते हैं, देवविमानों के अनुपम सुखों का अनुभव करते हैं, वहां से च्यव कर इसी मनुष्यलोक में आए हुए जीवों की आयु, शरीर, पुण्य, रूप, जाति, कुल, 1. आयु की विशेषता का अभिप्राय है कि अन्य जीवों की अपेक्षा आयु का शुभ और दीर्घ होना। इसी भाँति शरीर की विशेषता है-संहनन का स्थिर-दढ होना। पण्य की विशेषता है-उसका बराबर बने रहना। रूप की विशेषता है-अति सुन्दर होना। जाति और कुल का उत्तम होना ही जाति और कुल की विशेषता है। जन्म की प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [73 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म, आरोग्य, बुद्धि तथा मेधा की विशेषताएं पाई जाती हैं। इस के अतिरिक्त मित्रजन, स्वजन-पिता, पितृव्य आदि, धन धान्यरूप लक्ष्मी-समृद्धि, नगर, अन्त:पुर, कोष-खज़ाना, कोष्ठागार-धान्यगृह, बल-सेना, वाहन-हाथी, घोड़े आदि रूप सम्पदा, इन सब के सारसमुदाय की विशेषताएं तथा नाना प्रकार के कामभोगों से उत्पन्न होने वाले सुख ये सभी उपरोक्त विशेषताएं स्वर्गलोक से आए हुए जीवों में उपलब्ध होती हैं। __ जिनेन्द्र भगवान् ने संवेग-वैराग्य के लिए विपाकश्रुत में अशुभ और शुभ कर्मों के निरन्तर होने वाले बहुत से विपाकों-फलों का वर्णन किया है। इसी प्रकार की अन्य भी बहुत सी अर्थप्ररूपणाएं (पदार्थविस्तार) कथन की गई हैं। श्रीविपाकसूत्र की वाचनाएं (सूत्र और अर्थ का प्रदान अर्थात् अध्यापन) परिमित हैं। अनुयोगद्वार-व्याख्या करने के प्रकार, संख्येय (जिनकी गणना की जा सके) हैं और संग्रहणियां-पदार्थों का संग्रह करने वाली गाथाएं, संख्येय विपाकसूत्र अङ्गों की अपेक्षा 11 वां अङ्ग है, इस के 20 अध्ययन हैं और इस के बीस उद्देशनकाल तथा बीस ही समुद्देशनकाल हैं। पदों का प्रमाण संख्यात लाख है अर्थात् इस में एक करोड़ 84 लाख 32 हज़ार पद हैं। अक्षर-वर्ण संख्येय हैं। गम अर्थात् एक ही सूत्र से अनन्तधर्मविशिष्ट वस्तु का प्रतिपादन अथवा वाच्य-पदार्थ और वाचक-पद अथवा शास्त्र का तुल्यपाठ जिस का तात्पर्य भिन्न हो, अनन्त हैं। पर्याय-समान अर्थों के वाचक शब्द भी अनन्त हैं। इसी प्रकार यावत् विपाकश्रुत में २चरण-पांच महाव्रत आदि 70 बोल और करणपिण्डविशुद्धि आदि जैनशास्त्रप्रसिद्ध 70 २बोलों की प्ररूपणा (विशेषरूप से वर्णन) की गई विशेषता का हार्द है-विशिष्ट क्षेत्र और काल में जन्म लेना। आरोग्य-नीरोगता की विशेषता उस के निरन्तर बने रहने में है। औत्पातिकी आदि चार प्रकार की बुद्धियों का चरमसीमा को प्राप्त करना बुद्धि की विशेषता है। अपूर्व श्रुत को ग्रहण करने की शक्ति की प्रकर्षता ही मेधा की विशेषता है। . 1. शिष्य के-महाराज मैं कौन सा सूत्र पढ़े? इस प्रश्न पर गुरुदेव का आचाराङ्ग आदि सूत्र के पढ़ने के लिए सामान्यरूप से कहना उद्देशन कहलाता है, परन्त गरु के किए गए"श्रीआचारांगसत्र के प्रथम श्रतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन को पढ़ो-" इस प्रकार के विशेष आदेश को समुद्देशन कहते हैं। गुरु से आदिष्ट सूत्र के अध्ययनार्थ नियतकाल को उद्देशनकाल, इसी भांति गुरु से आदिष्ट अमुक अध्ययन के पठनार्थ नियतकाल को समुद्देशन काल कहा जाता है। 2. पांच महाव्रत, दस प्रकार का यतिधर्म, 17 प्रकार का संयम, 10 प्रकार का वैयावृत्य, 9 प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्तियां, 1 ज्ञान, 2 दर्शन, 3 चारित्र, 12 प्रकार का तप, 1 क्रोधनिग्रह, 2 माननिग्रह 3 मायानिग्रह, 4 लोभनिग्रह, इन 70 बोलों का नाम चरण है। 3. चार प्रकार की पिण्डविशुद्धि, 5 प्रकार की समितियां, 12 प्रकार की भावनाएं, 12 प्रकार की प्रतिमाएं-प्रतिज्ञाएं, 5 प्रकार का इन्द्रियनिग्रह, 25 प्रकार की प्रतिलेखना, 3 प्रकार की गुप्तियां, 4 प्रकार के अभिग्रह, इन 70 बोलों को करण कहा जाता है। 74 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। श्रीसमवायांगसूत्र की भांति श्रीनन्दीसूत्र में भी श्रीविपाकसूत्रविषयक जो वर्णन उपलब्ध होता है, उस का उल्लेख निम्नोक्त है से किं तं विवागसुयं ? विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविज्जइ। तत्थ णं दस दुहविवागा, दस सुहविवागा।से किं तंदुहविवागा? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई उजाणाईवणसंडाइंचेइयाइंसमोसरणाइं रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइया इड्ढिविसेसा निरयगमणाई संसारभवपवंचा दुहपरंपराओ दुक्कुलपच्चायाईओ दुल्लहबोहियत्तं आघविजइ, से तं दुहविवागा।से किं तं सुहविवागा ? सुहविवागेसु णं सुहविवागाणं नगराई उजाणाई वणसंडाइं चेइयाई समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइया इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चागा पव्वजाओ परियागा सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइंसंलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुहपरंपराओ सुकुलपच्चायाईओ पुणबोहिलाभा अन्तकिरियाओ आघविजन्ति।विवागसुयस्स णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा, संखेजा वेढा, संखेजा सिलोगा, संखेजाओ निजुत्तीओ, संखेजाओ संगहणीओ, संखेजाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्ठयाए इक्कारसमे अंगे, दो सुयक्खंधा, वीसं अज्झयणा, वीसं उद्देसपाकाला, वीसं समुद्देसणकाला, संखिजाइं पयसहस्साई पयग्गेणं, संखेजा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पजवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजन्ति पण्णविजन्ति परूविजन्ति दंसिजन्ति निदंसिजन्ति उवदंसिज्जन्ति, से एवं आया, एवं नाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ, से तं विवागसुयं / इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है प्रश्न-श्री विपाकश्रुत क्या है ? अर्थात् उस का स्वरूप क्या है ? . उत्तर-श्री विपाकसूत्र में सुख और दुःख रूप विपाक-कर्मफल का वर्णन किया गया है और वह दश दुःख-विपाक तथा दश सुखविपाक, इन दो विभागों में विभक्त है। रहा "-दुःखविपाक के दश अध्ययनों में क्या वर्णन है-" यह प्रश्न, इस का समाधान निम्नोक्त . दुःखविपाक के दश अध्ययनों में दुःखविपाकी-दुःखरूपकर्मफल को भोगने वाले जीवों के नगरों, उद्यानों, वनखण्डों, चैत्यों, समवसरणों, राजाओं, मातापिताओं, धर्माचार्यों, धर्मकथाओं, लोक और परलोक की विशेष ऋद्धियों, नरकगमन, संसार के भवों का विस्तार, दुःखपरम्परा, नीच कुलों में उत्पत्ति, सम्यक्त्व की दुर्लभता इत्यादि विषयों का वर्णन किया प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [75 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। यही दुःखविपाक का स्वरूप है। प्रश्न-श्री विपाकश्रुतसंबन्धी सुखविपाक के दस अध्ययनों में क्या वर्णन है ? उत्तर-सुखविपाक के दश अध्ययनों में सुखविपाकी-सुखरूप कर्मफल का अनुभव करने वाले जीवों के नगर, उद्यान, वनखण्ड, चैत्य, समवसरण, राजा और मातापिता, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, लोक और परलोक की विशिष्ट ऋद्धियां, भोगों का त्याग, प्रव्रज्याएं, दीक्षापर्याय, श्रुत-आगम का ग्रहण, तपउपधान-उपधानतप अर्थात् सूत्र बांचने के निमित्त किया जाने वाला तप अथवा तप का अनुष्ठान, संलेखना-संथारा, भक्तप्रत्याख्यान-आहारत्याग, पादपोपगमनसंथारे का एक भेद, देवलोकगमन, सुखपरम्परा, अच्छे कुल में उत्पत्ति, फिर से सम्यक्त्व की प्राप्ति, संसार का अंत करना, यह सब वर्णित हुआ है। विपाकश्रुत की परिमित वाचनाएं हैं। संख्येय-संख्या करने योग्य अनुयोगद्वार हैं। संख्येय वेढ छन्दविशेष हैं। संख्येय श्लोक हैं / संख्येय नियुक्तियां हैं। नियुक्ति का अर्थ हैसूत्र के अर्थ की विशेषरूप से युक्ति लगा कर घटित करना अथवा सूत्र के अर्थ की युक्ति दर्शाने वाला वाक्य अथवा ग्रन्थ / संख्येय संग्रहणियां हैं। संग्रहणी संग्रहगाथा को कहते हैं। संख्येय प्रतिपत्तियां हैं। प्रतिपत्ति का अर्थ है-श्रुतविशेष, गति, इन्द्रिय आदि द्वारों में से किसी एक द्वार के द्वारा समस्त संसार के जीवों को जानना अथवा प्रतिमा आदि अभिग्रहविशेष। __ विपाकश्रुत अंगों में ११वां अङ्ग है। इस के दो श्रुतस्कन्ध हैं / इस के बीस अध्ययन हैं। बीस उद्देशनकाल और बीस ही समुद्देशनकाल हैं। इस के पदों का प्रमाण संख्येय हज़ार है अर्थात् इस में एक करोड़ 84 लाख 32 हज़ार पद हैं / इस में संख्येय अक्षर हैं / इस में अनन्त गम हैं / अनन्त पर्याय हैं। इस में परिमित सूत्रों और अनन्त स्थावरों का वर्णन हैं / इस में जिन भगवान् द्वारा प्रतिपादित शाश्वत-अनादि अनन्त और अशाश्वत अर्थात् कृत (प्रयोगजन्य, जैसे घटपटादि पदार्थ) तथा विस्रसा (जो प्राकृतिक हैं, जैसे संध्याभ्रराग-सायंकाल के बादलों का रंग आदि) भाव-पदार्थ कहे गए हैं, जिनका स्वरूप प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित है तथा नियुक्ति, संग्रहणी आदि के द्वारा अनेक प्रकार से जो व्यवस्थापित हैं / जो सामान्य अथवा विशेषरूप से वर्णित हुए हैं, नामादि के भेद से जिनका निरूपण-कथन किया गया है, उपमा के द्वारा जिन का प्रदर्शन किया गया है। हेतु और दृष्टान्त के द्वारा जिन का उपदर्शन किया गया है और जो निगमन द्वारा निश्चितरूपेण शिष्य की बुद्धि में स्थापित किए गए हैं। ___ इस सुखविपाकसूत्र के अनुसार आचरण करने वाला आत्मा तद्रूप अर्थात् सुखरूप हो जाता है, इसी भाँति इस का अध्ययन करने वाला व्यक्ति इस के पदार्थों का ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है। सारांश यह है कि सुखविपाक में इस प्रकार से चरण और करण की प्ररूपणा की 76 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई है। यही सुखविपाक का स्वरूप है। श्री समवायांग और नन्दीसूत्र के परिशीलन से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि आजकल जो विपाकश्रुत उपलब्ध है, वह पुरातन विपाकश्रुत की अपेक्षा अधिक संक्षिप्त तथा लघुकाय है। विपाकश्रुत के इस हास का कारण क्या है ? यह प्रश्न सहज ही में उपस्थित हो जाता है। इस का उत्तर पूर्वाचार्यों ने जो दिया है, वह निम्नोक्त है भगवान् महावीर स्वामी के प्रवचन का स्वाध्याय प्रथम मौखिक ही होता था, आचार्य शिष्य को स्मरण करा दिया करते थे और शिष्य अपने शिष्य को कण्ठस्थ करा दिया करते थे। इसी क्रम अर्थात् गुरुपरम्परा से आगमों का स्वाध्याय होता था। भगवान् महावीर के लगभग 150 वर्षों के पश्चात् देश में दुर्भिक्ष पड़ा। दुर्भिक्ष के प्रभाव से जैनसाधु भी नहीं बच पाए। अन्नाभाव के कारण, आहारादि के न मिलने से साधुओं के शरीर और स्मरणशक्ति शिथिल पड़ गई। जिस का परिणाम यह हुआ कि कण्ठस्थ विद्या भूलने लगी। जैनेन्द्र प्रवचन के इस ह्रास से भयभीत होकर जैनमुनियों ने अपना सम्मेलन किया और उसके प्रधान स्थूलिभद्र जी बनाए गए। स्थूलिभद्र जी के अनुशासन में जिन-जिन मुनियों को जो-जो आगमपाठ स्मरण में थे, उन का संकलन हुआ जो कि पूर्व की भाँति अंग तथा उपांग आदि के नाम से निर्धारित था। भगवान् महावीर स्वामी के लगभग 900 वर्षों के अनन्तर फिर दुर्भिक्ष पड़ा। उस दुर्भिक्ष में भी जैन मुनियों का काफ़ी ह्रास हुआ। मुनियों के ह्रास से जैनेन्द्र प्रवचन का ह्रास होना स्वाभाविक ही था। तब प्रवचन को सुरक्षित रखने के लिए मथुरा में स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में फिर मुनिसम्मेलन हुआ। उस में भी पूर्व की भांति आगमपाठों का संग्रह किया गया। तब से उस संग्रह का ही स्वाध्याय होने लगा। काल की विचित्रता से दुर्भिक्ष द्वारा राष्ट्र फिर आक्रान्त हुआ। इस दुर्भिक्ष में तो जनहानि पहले से भी विशेष हुई। भिक्षाजीवी संयमशील जैनमुनियों की क्षति तो अधिक शोचनीय हो गई। समय की इस क्रूरता से निर्ग्रन्थप्रवचन को सुरक्षित रखने के लिए श्रीदेवर्द्धि गणी क्षमाश्रमण (वीरनिर्वाण सं० 980) ने वल्लभी नगरी में मुनि-सम्मेलन किया। उस सम्मेलन में इन्होंने पूर्व की भांति आगमपाठों का संकलन किया और उसे लिपिबद्ध कराने का बुद्धिशुद्ध प्रयत्न किया। तथा उन की अनेकानेक प्रतियां लिखा कर योग्य स्थानों में भिजवा दीं। तब से इन आगमों का स्वाध्याय पुस्तक पर से होने लगा। आज जितने भी आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे सब देवर्द्धि गणी क्षमाश्रमण द्वारा सम्पादित पाठों के आदर्श हैं। इन में वे ही पाठ संकलित हुए हैं जो उस समय मुनियों के स्मरण में थे। जो पाठ उन की स्मृति में नहीं रहे उन का लिपिबद्ध न होना अनायास ही सिद्ध है। अतः प्राचीन सूत्रों का तथा आधुनिक काल में उपलब्ध सूत्रों का अध्ययनगत तथा विषयगत भेद कोई आश्चर्य का स्थान प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [77 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं रखता। यह भेद समय की प्रबलता को आभारी है। समय के आगे सभी को नतमस्तक होना पड़ता है। विपाकसूत्र में वर्णित जीवनवृत्तान्तों से यह भलिभाँति ज्ञात हो जाता है कि कर्म से छूटने पर सभी जीव मुक्त हो जाते हैं, परमात्मा बन जाते हैं / इस से-परमात्मा ईश्वर एक ही है, यह सिद्धान्त प्रामाणिक नहीं ठहरता है। वास्तव में देखा जाए तो जीव और ईश्वर में यही अन्तर है कि जीव की सभी शक्तियां आवरणों से घिरी हुई होती हैं और ईश्वर की सभी शक्तियां विकसित हैं, परन्तु जिस समय जीव अपने सभी आवरणों को हटा देता है, उस समय उस की सभी शक्तियां प्रकट हो जाती हैं। फिर जीव और ईश्वर में विषमता की कोई बात नहीं रहती। इस कर्मजन्य उपाधि से घिरा हुआ आत्मा जीव कहलाता है उस के नष्ट हो जाने पर वह ईश्वर. के नाम से अभिहित होता है। इसलिए ईश्वर एक न हो कर अनेक हैं। सभी आत्मा तात्त्विक दृष्टि से ईश्वर ही हैं। केवल कर्मजन्य उपाधि ही उन के ईश्वरत्व को आच्छादित किए हुए है, उस के दूर होते ही ईश्वर और जीव में कोई अन्तर नहीं रहता। केवल बंन्धन के कारण ही जीव में रूपों की अनेकता है। विपाकश्रुत का यह वर्णन भी जीव को अपना ईश्वरत्व प्रकट करने के लिए बल देता है और मार्ग दिखाता है। समवायाङ्गसूत्र के ५५वें समवाय में जो लिखा है कि-समणे भगवं महावीरे अन्तिमराइयंसि पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाइं पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाइं वागरित्ता सिद्धे बुद्धे जाव पहीणे-अर्थात् पावानगरी में महाराज हस्तिपाल की सभा में कार्तिक की अमावस्या की रात्रि में चरमतीर्थङ्कर भगवान् महावीर स्वामी ने 55 ऐसे अध्ययन-जिन में पुण्यकर्म का फल प्रदर्शित किया है और 55 ऐसे अध्ययन जिन में पापकर्म का फल व्यक्त किया गया है, धर्मदेशना के रूप में फ़रमा कर निर्वाण उपलब्ध किया, अथच जन्म-मरण के कारणों का समूलघात किया। इससे प्रतीत होता है कि 55 अध्ययन वाला कल्याणफलविपाक और 55 अध्ययन वाला पापफलविपाक प्रस्तुत विपाकश्रुत से विभिन्न है। क्योंकि इन विपाकों का निर्माण भगवान् ने जीवन की अन्तिम रात्रि में किया है और विपाकश्रुत उसके पूर्व का है। एकादश अङ्गों का अध्ययन भगवान् की उपस्थिति में 1. कल्पसूत्र में जो यह लिखा है कि उत्तराध्ययनसूत्र के 36 अध्ययन भगवान् महावीर स्वामी ने कार्तिक अमावस्या की निर्वाणरात्रि में फरमाए थे। इस पर यह आशंका होती है कि अङ्ग सूत्रों में चतुर्थ अङ्गसूत्र श्री समवायाङ्गसूत्र के 36 वें समवाय में उत्तराध्ययनसूत्र के 36 अध्ययनों का संकलन कैसे हो गया? तात्पर्य यह है कि जब अङ्गसूत्र भगवान् महावीर स्वामी की उपस्थिति में अवस्थित थे और उत्तराध्ययनसूत्र उन्होंने अपने निर्वाणरात्रि में फ़रमाया, कालकृत इतना भेद होने पर भी उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययन अङ्गसूत्र में कैसे संकलित कर लिए गए? इस प्रश्न का समाधान निम्नोक्त है 78 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता था। अतः विपाकश्रुत उन से भिन्न है और वे विपाकश्रुत से भिन्न हैं। ___श्री स्थानांगसूत्र में विपाकसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों का वर्णन मिलता है, वहां का पाठ इस प्रकार है - दस दसाओ प० तं-कम्मविवागदसाओ..... संखेवियदसाओ। कम्मविवागदसाओ-इस पद की व्याख्या वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने इस प्रकार की है- . ___कर्मण:-अशुभस्य विपाकः-फलं कर्मविपाकः, तत्प्रतिपादका दशाध्ययनात्मकत्वाद् दशाः कर्मविपाकदशाः, विपाकश्रुताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धः, द्वितीय श्रुतस्कन्धोऽप्यस्य दशाध्ययनात्मक एव, नचासाविहाभिमतः उत्तरत्र विवरियमाणत्वादिति-अर्थात् अशुभ कर्मफल प्रतिपादन करने वाले दश अध्ययनों का नाम कर्मविपाकदशा है। यह विपाकश्रुत का प्रथमश्रुतस्कन्ध है। विपाकश्रुत के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भी दश अध्ययन हैं, उन का आगे विवरण होने से यहां उल्लेख नहीं किया जाता। श्री स्थानांग सूत्र में दश अध्ययनों के जो नाम लिखे हैं, वे निम्नोक्त हैं कम्मविवागदसाणं दस अज्झयणा प० तं०-१-मियापुत्ते, २-गोत्तासे, ३-अंडे, ४-सगडे इ यावरे, ५-माहणे, ६-णंदिसेणे य, ७-सोरिए य, ८-उदुंबरे। ९सहसुद्धाहे, आमलए, १०-कुमारे लेच्छई ति य। विपाकश्रुत में इन नामों के स्थान में निम्नोक्त नाम दिए गए हैं- १-मियापुत्ते य, २-उज्झियए, ३-अभग्ग, ४-सगडे, ५-बहस्सई,६-नन्दी। ७-उम्बर, ८-सोरियदत्ते य, ९-देवदत्ता य १०-अञ्जू य॥१॥ स्थानाङ्गसूत्र में जिन नामों का निर्देश किया गया है उन नामों में से इन में आंशिक भिन्नता है। इसका कारण यह है कि श्रीस्थानाङ्गसूत्र में कथानायकों का नाम ही कहीं पूर्वजन्म की अपेक्षा से रक्खा गया है और कहीं व्यवसाय की दृष्टि से। जैसे-गोत्रास और उज्झितक। उज्झितक पूर्वजन्म में गोत्रास के नाम से विख्यात था। इसी प्रकार अन्य नामों की भिन्नता के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए। यह भेद बहुत साधारण है अतएव उपेक्षणीय है। भगवान् महावीर स्वामी के समय में 9 वाचनाएं चलती थीं, अन्तिम वाचना श्री सुधर्मा स्वामी जी की कहलाती है। आज का उपलब्ध अङ्गसाहित्य श्री सुधर्मास्वामी जी की ही वाचना है। पूर्व की 8 वाचनाओं का विच्छेद हो गया। अन्तिम वाचना श्री सुधर्मास्वामी तथा श्री जम्बूस्वामी के प्रश्नोत्तरों के रूप में प्राप्त होती है और महावीर स्वामी के निर्वाणानन्तर श्री सुधर्मास्वामी ने इस में श्री उत्तराध्ययन के 36 अध्ययनों का भी संकलन कर लिया। अतः सुधर्मा स्वामी की वाचना के अङ्गसूत्र में उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययनों का वर्णित होना कोई दोषावह नहीं है। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [79 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांगलिक विचार प्रश्न-प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गलाचरण करना आवश्यक होता है; यह बात सभी आर्य प्रवृत्तियों तथा विद्वानों से सम्मत है। मङ्गलाचरण भले ही किसी इष्ट का हो, परन्तु उस का आराधन अवश्य होना चाहिए। सभी प्राचीन लेखक अपने-अपने ग्रन्थ में मंगलाचरण का आश्रयण करते आए हैं। मंगलाचरण इतना उपयोगी तथा आवश्यक होने पर भी विपाकसूत्र में नहीं किया गया, यह क्यों ? अर्थात् इसका क्या कारण है ? उत्तर-मंगलाचरण की उपयोगिता को किसी तरह भी अस्वीकृत नहीं किया जा सकता, परन्तु यह बात न भूलनी चाहिए कि सभी शास्त्रों के मूलप्रणेता श्री अरिहन्त भगवान् हैं। ये आगम उनकी रचना होने से स्वयं ही मंगलरूप हैं। मंगलाचरण इष्टदेव की आराधना के लिए किया जाता है, परन्तु जहां निर्माता स्वयं इष्टदेव हो वहां अन्य मंगल की क्या आवश्यकता है? प्रश्न-यह ठीक है कि मूलप्रणेता श्री अरिहन्त भगवान् को मंगलाचरण की कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु गणधरों को तो अपने इष्टदेव का स्मरणरूप मंगल अवश्य करना ही चाहिए था? उत्तर-यह शंका भी निर्मूल है। कारण कि गणधरों ने तो मात्र श्री अरिहन्त देव द्वारा प्रतिपादित अर्थरूप आगम का सूत्ररूप में अनुवाद किया है। उन की दृष्टि में तो वह स्वयं ही मंगल है। तब एक मंगल के होते अन्य मंगल का प्रयोजन कुछ नहीं रहता, अतः श्री विपाकश्रुत में मंगलाचरण नहीं किया गया। . प्रस्तुत टीका के लिखने का प्रयोजन यद्यपि विपाकश्रुत के संस्कृत, हिन्दी, गुजराती और इंगलिश आदि भाषाओं में बहत से अनुवाद भी मुद्रित हो चुके हैं, परन्तु हिन्दीभाषाभाषी संसार के लिए हिन्दी भाषा में एक ऐसे अनुवाद की आवश्यकता थी जिस में मूल, छाया, पदार्थ और मूलार्थ के साथ में विस्तृत विवेचन भी हो। जिन दिनों मेरे परमपूज्य गुरुदेव प्रधानाचार्य श्री श्री 1008 श्री आत्माराम जी महाराज श्रीस्थानांग सूत्र का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे, उन दिनों मैं आचार्य श्री के चरणों में श्री विपाकश्रुत का अध्ययन कर रहा था। विपाकश्रुत की विषयप्रणाली का विचार करते हुए मेरे हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि क्या ही अच्छा हो कि यदि पूज्य श्री के द्वारा अनुवादित 1. मंगलम् इष्टदेवतानमस्कारादिरूपम्, अस्य च प्रणेता सर्वज्ञस्तस्य चापरनमस्का-भावान्मंगलकरणे प्रयोजनाभावाच्च न मंगलविधानम्। गणधराणामपि तीर्थकृदुक्तानुवादित्वान्मगलाकरणम्। अस्मदाद्यपेक्षया तु सर्वमेव शास्त्रं मंगलम्।- सूत्रकृतांग सूत्रे-शीलांकाचार्याः 80 ] श्री विपाक सूत्रम् . . [प्राक्कथन Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तराध्ययन और दशाश्रुतस्कन्ध आदि सूत्रों की भाँति विपाकश्रुत का भी हिन्दी में अनुवाद किया जाए। आचार्य श्री को इस के लिए प्रार्थना की गई परन्तु स्थानांगादि के अनुवाद में संलग्न होने के कारण आपने अपनी विवशता प्रकट करते हुए इसके अनुवाद के लिए मुझे ही आज्ञा दे डाली। सामर्थ्य न होते हुए भी मैंने मस्तक नत किया और उन्हीं के चरणों का आश्रय लेकर स्वयं ही इस के अनुवाद में प्रवृत्त होने का निश्चय किया। तदनुसार इस शुभ कार्य को आरम्भ कर दिया। प्रस्तुत विवरण लिखने में मुझे कितनी सफलता मिली है इसका निर्णय तो विज्ञ पाठक स्वयं ही कर सकते हैं। मैं तो इस विषय में केवल इतना ही कह सकता हूँ कि यह मेरा प्राथमिक प्रयास है, तथा मेरा ज्ञान भी स्वल्प है, अतः इस में सिद्धान्तगत त्रुटियों का होना भी संभव और भावगत विषमता भी असम्भव नहीं है। अन्त में इस ज्ञानसाध्य विशाल कार्य और अपनी स्वल्प मेधा का विचार करते हुए अपने सहृदय पाठकों से आचार्य श्री हेमचन्द्र जी की सूक्ति में विनम्र निवेदन करने के अतिरिक्त और कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हूँ क्वाहं पशोरिव पशुः, वीतरागस्तवः क्व च। उत्तत्तीर्घररण्यानि , पद्भ्यां पंगुरिवारम्यतः॥७॥ तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं, नोपालभ्यः स्खलन्नपि। विशृंखलापि वाग्वृत्तिः, श्रद्दधानस्य शोभते॥८॥ (वीतराग स्तोत्र) _____ अर्थात् कहां मैं पशुसदृश अज्ञानियों का भी अज्ञानी-महामूढ और कहां वीतराग प्रभु की स्तुति ? तात्पर्य यह है कि दोनों की परस्पर कोई तुलना नहीं है। मेरी तो उस पंगु जैसी दशा है जो कि अपने पांव से जंगलों को पार करना चाहता है। फिर भी श्रद्धामुग्ध-अत्यन्त श्रद्धालु होने के कारण मैं स्खलित होता हुआ भी उपालम्भ का पात्र नहीं हूँ, क्योंकि श्रद्धालु व्यक्ति की टूटी-फूटी वचनावली भी शोभा ही पाती है। नामकरण विपाकश्रुत्र की प्रस्तुत टीका का नाम "आत्मज्ञानविनोदनी" रक्खा गया है। अपनी दृष्टि में यह इस का अन्वर्थ नामकरण है / जो जीवात्मा सांसारिक विनोद में आसक्त न रह कर आध्यात्मिक विनोद की अनुकूलता में प्रयत्नशील रहते हैं तथा आत्मरमण को ही अपना सर्वोत्तम साध्य बना लेते हैं। उन के विनोद में यह कारण बने इस भावना से यह नाम रखा गया है। इस के अतिरिक्त दूसरी बात यह भी है कि यह टीका मेरे परमपूज्य गुरुदेव आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज के विनोद का भी कारण बने, इस विचार से यह नामकरण किया गया है। तात्पर्य यह है कि पूज्य आचार्य श्री आगमों के चिन्तन, मनन और अनुवाद में ही लगे प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [81 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहते हैं, आगमों का प्रचार एवं प्रसार ही उन के जीवन का सर्वतोमुखी ध्येय है। उन की भावना है कि समस्त आगमों का हिन्दीभाषानुवाद हो जाए। उस भावना की पूर्ति में विपाकश्रुत का यह अनुवाद भी कथमपि कारण बने / बस इसी अभिप्राय से प्रस्तुत टीका का उक्त नामकरण किया गया है। . टीका लिखने में सहायक ग्रन्थ इस विपाकसूत्र की टीका तथा प्रस्तावना लिखने में जिन-जिन ग्रन्थों की सहायता ली गई है, उन के नामों का निर्देश तत्तत्स्थल पर ही कर दिया गया है, परन्तु इतना ध्यान रहे कि उन ग्रन्थों के अनेकों ऐसे भी स्थल हैं जो ज्यों के त्यों उद्धृत किए गए हैं। जैसे पण्डित श्री सुखलाल जी का तत्त्वार्थसूत्र तथा कर्मग्रन्थ प्रथम भाग, पूज्य श्री जवाहरलाल जी म० की जवाहरकिरणावली की व्याख्यानमाला की पांचवीं किरण, सुबाहुकुमार तथा श्रावक के बारह व्रतों में से अनेकों स्थल ज्यों के त्यों उद्धृत किए गए हैं। जिन ग्रन्थों की सहायता ली गई है उन का नामनिर्देश करने का प्रायः पूरा-पूरा प्रयत्न किया गया है, फिर भी यदि भूल से कोई रह गया हो तो उस के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। . आभारप्रदर्शन सर्वप्रथम मैं महामहिम स्वनामधन्य श्री श्री श्री 1008 श्रीमज्जैनाचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज के सुशिष्य मंगलमूर्ति जैनाचार्य श्री मोतीराम जी महाराज के सुशिष्य गणावच्छेदकपदविभूषित पुण्यश्लोक श्री स्वामी गणपतिराय जी महाराज के सुशिष्य स्थविरपदविभूषित परिपूतचरण श्री जयरामदास जी महाराज के सुशिष्य प्रवर्तकपदालंकृत परमपूज्य श्री स्वामी शालिग्राम जी महाराज के सुशिष्य परमवन्दनीय गुरुदेव श्री जैनधर्म दिवाकर, साहित्यरत्न, जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्री वर्धमान श्रमणसंघ के आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज के पावन चरणों का आभार मानता हूँ। आप की असीम कृपा से ही मैं प्रस्तुत हिंदी टीका लिखने का साहस कर पाया हूँ। मैंने आप श्री के चरणों में विपाकश्रुत का अध्ययन करके उस के अनुवाद करने की जो कुछ भी क्षमता प्राप्त की है, वह सब आपश्री की ही असाधारण कृपा का फल है, अतः इस विषय में परमपूज्य आचार्य श्री का जितना भी आभार माना जाए उतना कम ही है। मुझे प्रस्तुत टीका के लिखते समय जहां कहीं भी पूछने की आवश्यकता हुई, आपश्री को ही उस के लिए कष्ट दिया गया और आपश्री ने अस्वस्थ रहते हुए भी सहर्ष मेरे संशयास्पद हृदय को पूरी तरह समाहित किया, जिस के लिए मैं आप श्री का अत्यन्त अनुगृहीत एवं कृतज्ञ रहूंगा। इस के अनन्तर मैं अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता, संस्कृतप्राकृतविशारद, सम्माननीय पण्डित 82 ] श्री विपाक सूत्रम् - [प्राक्कथन Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहेमचन्द्र जी महाराज का भी आभारी हूँ। आप की ओर से इस अनुवाद में मुझे पूरी-पूरी सहायता मिलती रही है। आपने अपना बहुमूल्य समय मेरे इस अनुवाद के संशोधन में लगाया है और इस ग्रन्थ के संशोधक बन कर इसे अधिकाधिक स्पष्ट, उपयोगी एवं प्रामाणिक बनाने का महान् अनुग्रह किया है, जिस के लिए मैं आपश्री का हृदय से अत्यन्तात्यन्त आभारी हूं। तथा मेरे लघुगुरुभ्राता सेवाभावी श्रीरत्नमुनि जी का शास्त्रभंडार में से शास्त्र आदि का ढूण्ढ कर निकाल कर देने आदि का पद-पद पर सहयोग भी भुलाया नहीं जा सकता। मैं मुनि श्री का भी हृदय से कृतज्ञ हूँ। इस के अतिरिक्त जिन-जिन ग्रन्थों और टीकाओं का इस अनुवाद में उपयोग किया गया है उन के कर्ताओं का भी हृदय से आभार मानता हूँ। अन्त में आगमों के पण्डितों और पाठकों से मेरी प्रार्थना है कि गच्छतः स्खलनं क्वापि, भवत्येव प्रमादतः। हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सजनाः॥ इस नीति का अनुसरण करते हुए प्रस्तुत टीका में जो कोई भी दोष रह गया हो उसे सुधार लेने का अनुग्रह करें और मुझे उस की सूचना देने की कृपा करें। इस के अतिरिक्त निम्न पद्य को भी ध्यान में रखने का कष्ट करें नात्रातीव प्रकर्त्तव्यं, दोषदृष्टिपरं मनः। दोषे ह्यविद्यमानेऽपि, तच्चित्तानां प्रकाशते॥ -ज्ञानमुनि लुधियाना, जैन स्थानक, पौष शुक्ला 12, सं० 2010 1. जिन-जिन ग्रन्थों का श्रीविपाकसूत्र की व्याख्या एवं प्रस्तावना लिखने में सहयोग लिया गया है, उन के नाम प्रस्तुत परिशिष्ट नं०१ में दिये जा रहे हैं। प्राकथन] श्री विपाक सूत्रम् [83 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविपाकसूत्रम् * विषयानुक्रमणिका 14 104 विषय पृष्ठ| पृष्ठ विषय प्रथम श्रुतस्कन्धीय प्रथम अध्याय स्वामी जी का उस को देखने के लिए चम्पानगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में जाना। 133 आर्य सुधर्मा स्वामी जी का पधारना, तथा | 12. मृगादेवी द्वारा भूमिगृह में अवस्थित मृगापुत्र आर्य जम्बू स्वामी जी का उन के चरणों का श्री गौतम स्वामी जी को दिखाना में कुछ निवेदन करने के लिए उपस्थित | 13. मुखवस्त्रिकासम्बन्धी विचार . होना। 95 / 14. मृगापुत्र की भोजनकालीन दुःस्थिति को 146 2. काल और समय शब्द का अर्थभेद 100 देख कर श्री गौतम स्वामी जी के हृदय 3. चौदह पूर्वो के नाम और उन का प्रतिपाद्य में तत्कृत दुष्कर्मों के विषय में विचार विषय 102 उत्पन्न होना। 4. पांच ज्ञानों के नाम और उन का संक्षिप्त 15. श्री गौतम स्वमी जी का मृगापुत्र के अर्थ। पूर्वभव के विषय में भगवान् महावीर से : 5. जासड्ढे जायसंसए आदि पदों का पूछना। . 156 विस्तृत विवेचन .. 107 | 16. भगवान द्वारा पूर्वभव वर्णन करते हुए 6. दु:खविपाक के दश अध्ययनों का एकादि राष्ट्रकूट (मृगापुत्र का जीव) की नामनिर्देश। अनैतिकता और अन्यायपूर्ण शासकता का 7. मृगापुत्र और उज्झितककुमार आदि का | प्रतिपादन करना। 157 सामान्य परिचय। 118 | 17. एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में उत्पन्न 16 8. मृगापुत्र की रोमांचकारी शारीरिक दशा | महारोगों का वर्णन। का वर्णन। 120 18.. एकादि राष्ट्रकूट द्वारा अपने रोगों की 9. मृगापुत्र नामक नगर के राजमार्ग में एक / चिकित्सा के लिए नगर में उद्घोषणा दयनीय अन्ध व्यक्ति का लोगों से वहां कराना और रोगों की शान्ति के लिए हो रहे कोलाहल का कारण पूछना। 124 | किए गए वैद्यों के प्रयत्नों का निष्फल 10. अन्धव्यक्ति को देख कर भगवान् गौतम रहना। 172 का तत्सदृश किसी अन्य जन्मान्ध व्यक्ति 19. एकादि राष्ट्रकूट का मृत्यु को प्राप्त हो के सम्बन्ध में भगवान् महावीर से प्रश्न , कर मृगाग्राम नगर में मृगादेवी की कुक्षि करना। 124] में उत्पन्न होना। . 184 11. मृगापुत्र का शारीरिक वर्णन और श्री गौतम | 20. एकादि राष्ट्रकूट के गर्भ में आने पर : 84 श्री विपाक सूत्रम् [ विषयानुक्रमणिका Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना। विषय पृष्ठ | विषय पृष्ठ मृगादेवी के शरीर में उग्र वेदना का होना / हुए उज्झितककुमार को देखना। 247 और उस का अपने पतिदेव को अप्रिय 36. उज्झितककुमार की दयनीय अवस्था से लगना। 187 प्रभावित हुए अनगार गौतम का भगवान 21. मृगादेवी का गर्भ को अनिष्ट समझ कर महावीर स्वामी से उस के पूर्वभव के उसे गिराने के लिए अनेकविध प्रयत्न सम्बन्ध में प्रश्न करना। 258 188 | 37. हस्तिनापुर नगर के गोमण्डप का वर्णन। 264 22. गर्भस्थ जीव के शरीर में अग्निक- | 38. भीम नामक कूटग्राह की उत्पला नामक भस्मक व्याधि का उत्पन्न होना। 191] भार्या को दोहद उत्पन्न होना। 268 23. मृगादेवी के एक जन्मान्ध और आकृति- 39. दोहद का स्वरूप और उसकी पूर्ति के मात्र बालक का उत्पन्न होना और उस | लिए उसे पति का आश्वासन देना। 269 को कूड़े कचरे के ढेर पर फैंकने के 40. भीम कूटग्राह के द्वारा अपनी भार्या के लिए दासी को आदेश देना। . 195/ दोहद की पूर्ति करना। 24. रानी की आज्ञा के विषय में दासी का 41. उत्पला के यहां बालक का जन्म और राजा से पूछना, 'अन्त में बालक का उस का गोत्रास नाम रखना, तथा भीम , भूमिगृह में पालन-पोषण किया जाना। 198| कूटग्राह का मृत्यु को प्राप्त होना। 279 25. गौतम स्वामी का मृगापुत्र के अगले भवों 42. सुनन्द राजा का गोत्रास को कूटग्राहित्व ____ के सम्बन्ध में भगवान् महावीर से पूछना। 202 पद पर स्थापित करना और गोमांस आदि 26. भगवान का मृगापुत्र के मोक्षपर्यन्त अगले / के भक्षण द्वारा गोत्रास का मर कर नरक सभी भवों का प्रतिपादन करना। 202| में उत्पन्न होना। 284 27. जातिकुलकोटि शब्द की व्याख्या। 212 | 43. गोत्रास के जीव का विजयमित्र नामक 28. प्रतिक्रमण शब्द पर विचार। सार्थवाह की सुभद्रा भार्या के यहां 29. समाधि शब्द का पर्यालोचन। 216 / बालकरूप से उत्पन्न होना और उस 30. श्री दृढ़प्रतिज्ञ का संक्षिप्त परिचय। 217 | का "उज्झितक कुमार" ऐसा नाम रखा अथ द्वितीय अध्याय जाना। 288 31. द्वितीय अध्याय की उत्थानिका के साथ 44. विजयमित्र सार्थवाह का अपने जहाज - साथ वाणिजग्राम नामक नगर में अवस्थित समेत समुद्र में डूबना और पतिवियोग से कामध्वजा वेश्या का वर्णन। 221 / दुःखित सुभद्रा सार्थवाही का भी मृत्यु 32. 72 कलाओं का विवेचन। 227 / को प्राप्त होना। 294 33. उज्झितककुमार का पारिवारिक परिचय। 242 / 45. उज्झितककुमार का घर से निकाल दिया 34. भगवान् महावीर स्वामी का वाणिजग्राम / जाना और उसका स्वच्छन्द हो कर ___ नगर में पधारना और गौतम स्वामी जी भ्रमण करने के साथ-साथ कामध्वजा का पारणे के लिए नगर में जाना। 244 वेश्या के सहवास में रहना। 35. भगवान् गौतम का वाणिजग्राम नगर के 46. महाराज विजयमित्र की महारानी श्रीदेवी ... राजमार्ग में वध के लिए ले जाए जाते | को योनिशूल का होना तथा उज्झितक 300 विषयानुक्रमणिका] श्री विपाक सूत्रम् [85 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रष्ठ विषय विषय कुमार को कामध्वजा वेश्या के घर से पापपुंज को एकत्रित किया था, परिणामनिकाल कर राजा का वेश्या को अपने स्वरूप यह तीसरी नरक में उत्पन्न हुआ महलों में रखना। इस के अतिरिक्त था। 357 उज्झितककुमार का कामध्वजा के प्रति नरक से निकल कर अण्डवाणिज के आसक्त होना। ___303/ जीव का विजयसेन चोरसेनापति की स्त्री 47. उज्झितककुमार का अवसर पाकर | स्कन्धश्री के गर्भ में आना और इसकी कामध्वजा के साथ विषयोपभोग करना। 309/ माता को एक दोहद का उत्पन्न होना। 364 48. राजा द्वारा कामभोग का सेवन करते हुए 56. स्कन्दश्री के दोहद का उत्पन्न होना और उज्झितक कुमार को देखना और अत्यन्त | एक बालक को जन्म देना। 371 क्रुद्ध हो कर उसे मरवा देना। 310/57. बालक का अभग्नसेन ऐसा नाम रखा .. 49. गौतम स्वामी का उज्झितक कुमार के | जाना। अग्रिम भवों के सम्बन्ध में पूछना तथा 58. अभग्नसेन का आठ लड़कियों के साथ - भगवान महावीर का उत्तर देना। 315 / विवाह का होना। 381 अथ तृतीय अध्याय 59. विजयसेन चोरसेनापति की मृत्यु और 50. तृतीय अध्याय की उत्थानिका और | उस के स्थान पर अभग्नसेन की नियुक्ति। 384 शालाटवी नामक चोरपल्ली तथा उस में 160. अभग्नसेन द्वारा बहुत से ग्राम नगरादि / रहने वाले चोरसेनापति विजय का वर्णन। 332 का लूटा जाना तथा पुरिमताल नगर51. विजय चोरसेनापति की दुष्प्रवृत्तियों का निवासियों का अभग्नसेनकृत उपद्रवों को विवेचन तथा उस की स्कन्धश्री. नामक शान्तं करने के लिए महाबल राजा से भार्या के अभग्नसेन नामक बालक का विनति करने के लिए उपस्थित होना। 387 निरूपण। __340 / 61. नागरिकों का राजा से विज्ञप्ति करना। 391 52. पुरिमताल नगर के मध्य में श्री गौतम 62. विज्ञप्ति सुन कर महाबल राजा का स्वामी का एक वध्य पुरुष को देखना अभग्नसेन के प्रति क्रुद्ध होना और उसे जिस के सामने उस के सम्बन्धियों पर जीते जी पकड़ लाने के लिए दण्डनायक अत्यधिक मारपीट की जा रही थी। 347 | को आदेश देना। 393 53. उस पुरुष की दयनीय अवस्था को देख 63. दण्डनायक का चोरपल्ली की ओर कर गौतम स्वामी को तत्कृत कर्मों के प्रस्थान करना। ___396 सम्बन्ध में विचार उत्पन्न होना तथा उस 64. 500 चोरों सहित अभग्नसेन का सन्नद्ध के पूर्वभव के सम्बन्ध में भगवान महावीर | हो कर दंडनायक की प्रतीक्षा करना। 398 से पूछना। 354 | 65. दोनों ओर से युद्ध का होना, दंडनायक 54. भगवान का पूर्वभव वर्णन करते हुए यह | का हारना और महाबल राजा का साम फरमाना कि इस जीव ने पूर्वभव मे निर्णय , दाम आदि उपायों को काम में लाना। 403 नामक अण्डवाणिज के रूप में नाना 66. महाबल राजा द्वारा एक महती कूटाकारप्रकार के अण्डों के जघन्य व्यापार से / शाला का बनवाना, दशरात्रि नामक उत्सव 86 ] श्री विपाक सूत्रम् [विषयानुक्रमणिका Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रष्ठ 465 470 विषय विषय का मनाया जाना और उस में सम्मिलित शकटकुमार नाम रखा जाना / माता पिता होने के लिए चोरसेनापति अभग्नसेन का मृत्यु को प्राप्त होना। शकटकुमार को आमन्त्रित करना। 411 को घर से निकाल देना, उस का सुदर्शना 67. आमंत्रित अभग्नसेन का अपने सम्बन्धियों वेश्या के साथ रमण करना। सुषेण मंत्री और साथियों समेत पुरिमताल नगर में द्वारा शकटकुमार को वहां से निकाल आना और राजा द्वारा उस का सम्मानित कर सुदर्शना को अपने घर में रख लेना। 454 किया जाना, तथा उस का कूटाकारशाला | 75. सुषेण मंत्री का शकटकुमार को सुदर्शना. में ठहराया जाना। 418/ वेश्या के साथ कामभोग करते हुए देख 68. राजा द्वारा नगर के द्वार बन्द करा देना कर क्रुद्ध होना। अपने पुरुषों द्वारा दोनों और अभग्नसेन को जीते जी पकड लेना को पकड़वाना और राजा द्वारा इन के तथा राजा की आज्ञा द्वारा उस का वध वध की आज्ञा दिलवाना। किया जाना। 422] 76. अनगार गौतम स्वामी का शकटकमार 69. चोर सेनापति के आगामी भवों के सम्बन्ध के आगामी भवों के सम्बन्ध में प्रश्न में अनगार गौतम का भगवान से पूछना / करना। और भगवान का उत्तर देना। 428/77. भगवान् महावीर का शकटकुमार के अथ चतुर्थ अध्याय आगामी भवों का मोक्षपर्यन्त वर्णन करना। 471 70. चतुर्थ अध्याय की उत्थानिका। . 438/78. मांसाहार का निषेध / 71. साहञ्जनी नामक नगरी की सुदर्शना नामक / अथ पञ्चम अध्याय वेश्या तथा सुभद्र सार्थवाह के पुत्र शकट- 79. नगरी, राजा, बृहस्पतिदत्त तथा इस के कुमार का संक्षिप्त परिचय। 438 परिवार का संक्षिप्त परिचय। 485 72. जनसमूह के मध्य में अवकोटक बन्धन 80. गौतम स्वमी का राजमार्ग में एक वध्य से युक्त स्त्रीसहित एक वध्य पुरुष को * पुरुष को देखना और उस के पूर्वभव के देख कर उस के पूर्व भव के विषय में विषय में भगवान् महावीर से पूछना। 487 अनगार गौतम स्वामी का श्री भगवान् 81. पूर्वभव को बताते हुए भगवान का महावीर से प्रश्न करना। 444 सर्वतोभद्र नगर में जितशत्रु राजा के 73. भगवान् का यह फरमाना कि वध्य व्यक्ति महेश्वरदत्त पुरोहित द्वारा किए जाने वाले पूर्व भव में छणिक नामक छागलिक क्रूरहिंसक यज्ञ का वर्णन करना। 489 (कसाई) था। वह मांस द्वारा अपनी 82. क्रूरकर्म के द्वारा महेश्वरदत्त पुरोहित का आजीविका किया करता था तथा स्वयं __पंचम नरक में उत्पन्न होना। 496 भी मांसाहारी था। फलतः उसका नरक 83. नरक से निकल कर कौशाम्बी नगरी में में उत्पन्न होना। 448 सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता नामक भार्या 74. नरक से निकल कर छण्णिक छागलिक की कुक्षि में महेश्वरदत्त पुरोहित के जीव के जीव का साहञ्जनी नगरी में सुभद्र का उत्पन्न होना। जन्म होने पर उस का सार्थवाह के घर में उत्पन्न होना / उस का बृहस्पतिदत्त यह नामकरण किया जाना। 497 479 विषयानुक्रमणिका] श्री विपाक सूत्रम् [87 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ .: 547 विषय विषय पृष्ठ 84. बृहस्पतिदत्त को रानी पद्मावती के साथ नाम से विख्यात होना।नन्दिषेण राजकुमार कामक्रीड़ा करते हुए देख कर उदयन का श्रीदाम राजा की घात करने के लिए राजा का उस के वध के लिए आज्ञा देना अवसर की प्रतीक्षा में रहना। 536 तथा राजाज्ञा द्वारा उसं का वध किया | 92. नन्दिषेण का श्रीदाम राजा की हत्या के जाना। 497 लिए चित्र नामक नापित के साथ मिल 85. गौतम स्वामी का बृहस्पतिदत्त पुरोहित कर षड्यन्त्र करना। नापित का इस उक्त के आगामी भवों के विषय में भगवान् रहस्य को राजा के प्रति प्रकट करना। . महावीर से पूछना। भगवान् द्वारा अन्त में राजकुमार का राजाज्ञा द्वारा वध बृहस्पतिदत्त के आगामी भवों का किया जाना। 540 मोक्षपर्यन्त निरूपण करना। 504 | 93. श्री गौतम स्वामी का राजकुमार नन्दिषेण अथ षष्ठ अध्याय के आगामी भवों के सम्बन्ध में भगवान् 86. छठे अध्ययन की उत्थानिका। 511 | महावीर से पूछना। 87. मथुरा नगरी के श्रीदाम नामक राजा और 94. भगवान् महावीर स्वामी का नन्दिषेण के उस की बन्धुश्री भार्या, नन्दीवर्धन नामक __ आगामी भवों के सम्बन्ध में मोक्षपर्यन्त राजकुमार और राजा के चित्र नामक वर्णन करना। नापित का संक्षिप्त परिचय। 511 अथ सप्तम अध्याय 88. श्री गौतम स्वामी जी का मथुरा नगरी के |95. सप्तम अध्याय की उत्थानिका। 553 राजमार्ग के चत्वर में एक पुरुष को 96. उम्बरदल का संक्षिप्त परिचय। 554 देखना और उस के पूर्वभव के विषय में | 97. गौतम स्वामी का एक दीन-हीन और भगवान से पूछना, जिस को अग्नितुल्य | रुग्ण व्यक्ति को देखना। लोहमय सिंहासन पर बिठाकर ताम्रपूर्ण, 98. गौतम स्वामी जी का दूसरी बार पुनः त्रपुपूर्ण तथा कलकल करते हुए गरम / उसी रोगी व्यक्ति को देखना। अन्त में गरम जल से परिपूर्ण लोहकलशों के | भगवान से उस के पूर्वभव के विषय में द्वारा राज्याभिषेक कराया जा रहा था। 513 | पूछना। फलतः भगवान का कहना। 564 89. पूर्वभव का विवेचन करते हुए भगवान |99. इस जीव का धन्वन्तरि वैद्य के भव में का दुर्योधन नामक चारकपाल-जेलर का स्वयं मांसाहार करना तथा दूसरों को तथा उस के कारागृह की सामग्री का / | मांसाहार का उपदेश देना। अन्त में नरक वर्णन करना। 518 में उत्पन्न होना। . 569 90. दुर्योधन चारकपाल द्वारा अपराधियों को 100. सागरदत्त सेठ की गंगादत्ता नामक भार्या दी जाने वाली क्रूरतापूर्ण यन्त्रणाओं का का किसी जीवित रहने वाले बालक वर्णन। 526 / अथवा बालिका को प्राप्त करने की 91. दुर्योधन चारकपाल का मर कर नरक में . कामना करना। 581 जाना तथा वहां से निकल कर श्रीदाम 101. सागरदत्त सेठ की भार्या गंगादत्ता का. राजा के घर उत्पन्न हो कर नन्दिषेण के उम्बरदत्त नामक यक्ष की सन्तानप्राप्ति 88] श्री विपाक सूत्रम् [विषयानुक्रमणिका Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ विषय विषय के लिए मनौती मनाना। 593 और भगवान् का उस के अग्रिम भवों 102. धन्वन्तरि वैद्य के जीव का नरक से का मोक्ष पर्यन्त वर्णन करना। 664 निकल कर गंगादत्ता के गर्भ में पुत्ररूप अथ नवम अध्याय से आना और गंगादत्ता को दोहद का | 114. गौतमस्वामी जी का एक अत्यन्त दुःखी उत्पन्न होना। 597 स्त्री को देख कर भगवान महावीर स्वामी 103. गंगादत्ता के पुत्र का उत्पन्न होना और से उस के पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछना। 671 उस का उम्बरदत्त नाम रखना, तथा उस 115. सिंहसेन राजकुमार का संक्षिप्त परिचय। 676 बालक के शरीर में 16 रोगों का उत्पन्न | 116. सिंहसेन राजा का श्यामादेवी रानी में होना। 603 आसक्त हो कर शेष रानियों का आदर न 104. गौतम स्वामी का भगवान् से उम्बरदत्त करना। 688 के आगामी भवों के सम्बन्ध में पूछना। 611 | 117. सिंहसेन राजा का शोकग्रस्त श्यामादेवी 105. भगवान् महावीर का उम्बरदत्त के आगामी . को आश्वासन देना, तथा अपने नगर में भवों का मोक्षपर्यन्त वर्णन करना। . 612 एक महती कूटाकारशाला का निर्माण / अथ अष्टम अध्याय / कराना। 695 106. शौरिकदत्त का संक्षिप्त परिचय। 620 | 118. सिंहसेन राजा का श्यामादेवी के अतिरिक्त 107. श्री गौतम स्वामी जी का एक दयनीय शेष रानियों की माताओं को आमंत्रित व्यक्ति को देख कर भगवान् से उस के करना और कूटाकारशाला में अवस्थित पूर्वभव के विषय में पूछना और भगवान उन माताओं को अग्नि के द्वारा जला का पूर्वभव विषयक प्रतिपादन करना। 622 | देना, अन्त में अपने दुष्कर्मों के परिणाम108. श्रीयक रसोइए का मांसाहारसम्बन्धी स्वरूप उस का नरक में उत्पन्न होना। 702 वर्णन करने के अनन्तर उस का नरक में | 119. सिंहसेन राजा के जीव का रोहितक नगर उत्पन्न होने का निरूपण करना। 627 / ' में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री भार्या के 109. मदिरापान के कुपरिणामों का निरूपण। 638 | यहां पुत्रीरूप से उत्पन्न होना। 708 110. नरक से निकल कर श्रीयक का समुद्रदत्ता |120. देवदत्ता का पुष्यनन्दी के लिए भार्यारूप के यहां उत्पन्न होना और उस का से मांगा जाना। 714 शौरिकदत्त नाम रखा जाना। 647 | 121. पुष्यनंदी राजकुमार का देवदत्ता के साथ 111. शौरिकदत्त का मच्छीमारों का मुखिया विवाहित होना। 721 बन कर मच्छी मारने के धन्धे में प्रगति- | 122. पुष्यनन्दी राजा का अपनी माता श्रीदेवी शील होना। 652 की अत्यधिक सेवाशुश्रूषा करना। 728 112. शौरिकदत्त के गले में एक मत्स्यकण्टक | 123. महारानी देवदत्ता द्वारा अपनी सास श्रीदेवी का लग जाना, परिणामस्वरूप उस का ___ का क्रूरतापूर्ण वध किया जाना। 732 अत्यन्त पीड़ित होना। 657 | 124. पुष्यनंदी राजा द्वारा महारानी देवदत्ता का 113. शौरिकदत्त के आगामी भवों के सम्बन्ध मातृहत्या की प्रतिक्रिया के रूप में वध में गौतम स्वामी का भगवान् से पूछना करवाना। विषयानुक्रमणिका] श्री विपाक सूत्रम् Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पृष्ठ विषय विषय 125. देवदत्ता के आगामी भवों के सम्बन्ध में धारण करना। * 811 गौतम स्वामी का भगवान् से पूछना। 745 | 137. श्रावक के बारह व्रतों का विवेचन। 818 126. भगवान् महावीर द्वारा मोक्षपर्यन्त देवदत्ता |138. चम्पानरेश कूणिक की प्रभुवीर दर्शनार्थ के आगामी भवों का वर्णन करना। 745 / कृत यात्रा का वर्णन। . 850 अथ दशम अध्याय | 139. श्री जमालिकुमार जी की वीरदर्शनयात्रा 127. दशम अध्याय की उत्थानिका। ___का वर्णन। 854 128. श्री गौतम स्वामी जी का एक अति 140. श्री गौतम स्वामी जी का भगवान् महावीर .. दुःखित स्त्री को देख कर उस के पूर्व- से श्री सुबाहुकुमार जी की विशाल भव के सम्बन्ध में भगवान् से पूछना। | मानवीय ऋद्धि के विषय में पूछना। 858 भगवान का पूर्वभव के विषय में 141. सुमुख गाथापति का संक्षिप्त परिचय तथा . . प्रतिपादन करना। 751 सुदत्त अनगार का सुमुख गाथापति के 129. इस जीव का पृथिवीश्री गणिका के भव। घर में पारणे के निमित्त प्रवेश करना। . .873 में व्यभिचारमूलक पाप कर्मों के कारण | 142. सुमुख गाथापति के द्वारा श्री सुदत्त मर कर नरक में जाना, वहां से निकल अनगार का आदर सत्कार करना और कर अञ्जूश्री के रूप में उत्पन्न होना विशुद्ध भावनापूर्वक मुनिश्री को आहार तथा उस का महाराज विजय के साथ देना। परिणामस्वरूप उस के घर में 5 विवाहित होना। 755 प्रकार के दिव्यों का प्रकट होना और 130. अजूश्री महारानी की योनि में शूल का मनुष्यायु.को बान्धना, मृत्यु के अनन्तर उत्पन्न होना, परिणामस्वरूप अधिका हस्तिशीर्षक नगर में अदीनशत्रु राजा की धिक वेदना का उपभोग करना। 762 | धारिणी रानी की कुक्षि में पुत्ररूप से 131. अजूश्री के आगामी भवों के सम्बन्ध में उत्पन्न होना, तथा बालक ने जन्म लेकर श्री गौतम स्वामी जी का भगवान् महावीर युवावस्था को प्राप्त कर सांसारिक सुखों स्वामी से पूछना। ___766 ___ का अनुभव करना। 884 132. भगवान् महावीर स्वामी का अञ्जूश्री के | 143. श्री गौतम स्वामी जी का भगवान महावीर आगामी भवों का मोक्षपर्यन्त वर्णन करना। 767 स्वामी से सुबाहुकुमार की अनगारवृत्ति द्वितीय श्रुतस्कन्धीय को धारण की समर्थता के विषय में पूछना। सुबाहुकुमार नामक प्रथम अध्ययन श्री सुबाहुकुमार जी का श्रमणोपासक 133. प्रथम अध्ययन की उत्थानिका। 783 होना तथा पौषधशाला में किसी समय 134. द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वर्णित दश महापुरुषों तेला-पौषध करना। 901 का नामनिर्देश तथा प्रथम अध्ययन के | 144. श्री सुबाहुकुमार के मन में इस विचार प्रतिपाद्य विषय की पृच्छा। 785 का उत्पन्न होना कि जहां भगवान 135. श्री सुबाहुकुमार जी का संक्षिप्त परिचय। 793 महावीर विहरण करते हैं वे ग्राम, नगर 136. श्री सुबाहुकुमार जी का भगवान् महावीर आदि धन्य हैं, जो भगवान महावीर के. स्वामी के पास श्रावक के बारह व्रतों को पास अनगारवृत्ति अथवा श्रावकवृत्ति को 90 ] श्री विपाक सूत्रम् [विषयानुक्रमणिका Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय विषय पृष्ठ धारण करते हैं और भगवान् की वाणी मोक्षपर्यन्त अनागत भवों का विवेचन। 964 सुनते हैं वे भी धन्य हैं। यदि भगवान् द्वितीयश्रुतस्कन्धीय चतुर्थ अध्याय . यहां पधार जाएं तो मैं भी भगवान् के |152. चतुर्थ अध्ययाय की उत्थानिका। चरणों में अनगारवृत्ति को धारण करूंगा। 911 / राजकुमार सुवासवकुमार का जीवन 145. सुबाहुकुमार के कल्याण के निमित्त श्रमण परिचय। 968 भगवान महावीर स्वामी का हस्तिशीर्ष द्वितीयश्रुतस्कन्धीय पञ्चम अध्याय नगर में पधारना तथा भगवान के चरणों 153. पञ्चम अध्याय की उत्थानिका। में श्री सुबाहुकुमार का दीक्षित होना। 917 | __राजकुमार जिनदास का जीवन परिचय। 972 146. श्रेणिकपुत्र मेघकुमार का जीवन परिचय। 924 | द्वितीयश्रुतस्कन्धीय षष्ठ अध्याय 147. श्री सुबाहुकुमार द्वारा ज्ञानाभ्यास तथा तप | 154. राजकुमार धनपति का जीवन परिचय। 976 का आराधन करना, अन्त में समाधिपूर्वक ____ द्वितीयश्रुतस्कन्धीय सप्तम अध्याय काल करके सुबाहुकुमार की प्रथम |155. राजकुमार महाबल का जीवन परिचय। 979 देवलोक में उत्पत्ति बतलाकर सूत्रकार ___ द्वितीयश्रुतस्कन्धीय अष्टम अध्याय का अन्त में "-महाविदेह क्षेत्र में जन्म | 156. राजकुमार भद्रनन्दी का जीवन परिचय। 983 लेकर मुक्त हो जाएगा-" ऐसा निरूपण द्वितीयश्रुतस्कन्धीय नवम अध्याय करना। 938 | 157. राजकुमार महाचन्द्र का जीवन परिचय। 987 148. अंग, उपांग आदि सूत्रों का सामान्य द्वितीयश्रुतस्कन्धीय दशम अध्याय परिचय। - 942 | 158. राजकुमार श्री वरदत्त का जीवन परिचय। 990 149. कल्प शब्द सम्बन्धी अर्थविचारणा। 950 | 159. विपाकसूत्रीय उपसंहार 996 द्वितीयश्रुतस्कन्धीय द्वितीय अध्याय | 160. उपधान शब्द की अर्थविचारणा। 998 150. राजकुमार भद्रनन्दी का जीवन परिचय 161. आगमों के अध्ययन के लिए आयंबिलतथा अतीत भव एवं मोक्षपर्यन्त अनागत तप की तालिका। 999 भवों का विवेचन। 957 | 162 विपाकसूत्र का परिशिष्ट भाग 1001 .. द्वितीयश्रुतस्कन्धीय तृतीय अध्याय | 163. परिशिष्ट नं. 1 1003 151. तृतीय अध्याय की उत्थानिका। राजकुमार 164. परिशिष्ट नं. 2 1005 ___ सुजातकुमार के अतीत भव और / | 165. परिशिष्ट नं०३ 1020 विषयानुक्रमणिका] श्री विपाक सूत्रम् [91 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -नमनवीर प्रभु महाप्राण, सुधर्मा जी गुणखान। अमर जी युगभान, महिमा अपार है। मोतीराम प्रज्ञावन्त, गणपत गुणवन्त। जयराम जयवन्त, सदा जयकार है॥ ज्ञानी-ध्यानी शालीग्राम जैनाचार्य आत्माराम। ज्ञान गुरु गुणधाम नमन हजार है। . ध्यान योगी शिवमुनि मुनियों के शिरोमणि। पूज्यवर प्रज्ञाधनी शिरीष नैय्या पार है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विपाकसूत्रम् हिन्दी-भाषा-टीकासहितं दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #103 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स" श्री विपाक सूत्रम् पढमं अज्झयणं प्रथममध्ययनम् मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था। वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए। वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज-सुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपन्ने, वण्णओ। चोद्दसपुव्वी चउणाणोवगए पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे जावजेणेव पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवंजाव विहरइ।परिसा निग्गया। धम्म सोच्चा निसम्म जामेव दिसंपाउन्भूया तामेव दिसंपडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मस्स अंतेवासी अज्जजंबू णामं अणगारे सत्तुस्सेहे जहा गोयमसामी तहा जाव झाणकोट्ठोवगए विहरति।ततेणं अज्जजंबूणामं अणगारे जायसड्ढे जावजेणेव अन्जसुहम्मे अणगारे तेणेव उवागए, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासति, पज्जुवासित्ता एवं वयासी। _ छाया- तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगर्य्यभूत् / वर्णकः। पूर्णभद्रं चैत्यम् / वर्णकः। तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यांतेवासी आर्यसुधा नामानगारो जातिसम्पन्नः। वर्णकः। चतुर्दशपूर्वी चतुर्ज्ञानोपगतः पञ्चभिरनगारशतैः सार्धं संपरिवृतः पूर्वानुपूर्व्या चरन् यावद् यत्रैव पूर्णभद्रं चैत्यं यथाप्रतिरूपं यावद् विहरति, परिषद् निर्गता। धर्मं श्रुत्वा निशम्य यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता। तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यसुधर्मणोऽन्तेवासी आर्यजम्बूर्नामानगारः सप्तोत्सेधो यथा गौतमस्वामी तथा यावद् ध्यानकोष्ठोपगतः प्रथमं श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [95 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरति / ततः आर्यजम्बूर्नामानगारो जातश्रद्धो यावद् यत्रैवार्यसुधर्माऽनगारस्तत्रैवोपगतः, त्रिरादक्षिण-प्रदक्षिणं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा यावत् पर्युपासते, पर्युपास्यैवमवदत्। पदार्थ-तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। चंपा णाम-चम्पा नाम की। णयरी-नगरी। होत्था-थी। वण्णओ-वर्णक-वर्णन ग्रन्थ अर्थात् नगरी का वर्णन औपपातिक सूत्र में किए गए वर्णन के समान जान लेना', उस नगरी के बाहर ईशान कोण में। पुण्णभद्दे चेइए-पूर्णभद्र नाम का एक उद्यान था। वण्णओ-वर्णक-वर्णन-ग्रन्थ पूर्ववत्। तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणंउस समय में। समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतेवासी-शिष्य। जाइसंपण्णे-जातिसम्पन्न / चोद्दसपुव्वी-चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता। चउणाणोवगए-चार ज्ञानों के धारक। वण्णओ-वर्णक पूर्ववत्। अजसुहम्मे णामं अणगारे-आर्य सुधर्मा नाम के अनगार-(अगार रहित) साधु। पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं-पांच सौ साधुओं के साथ अर्थात्-संपरिवुडे-उन साधुओं से घिरे हुए। पुव्वाणुपुल्विं चरमाणे-क्रमशः विहार करते हुए। जाव-यावत्। पुण्णभद्दे चेइए-पूर्णभद्र चैत्य उद्यान / जेणेव-जहां पर था। अहापडिरूवं-साधु-वृत्ति के अनुरूप अवग्रह-स्थान ग्रहण करके। जावयावत्। विहरइ-विहरण कर रहे हैं। परिसा-जनता। निग्गया-निकली। धम्म-धर्म-कथा। सोच्चा-सुन करके। निसम्म-हृदय में धारण करके। जामेव दिसं पाउब्भया-जिस ओर से आई थी। तामेव दिसं पडिगया-उसी ओर चली गई। तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। अजसुहम्मस्सआर्य सुधर्मा स्वामी के। अंतेवासी-शिष्य। सत्तुस्सेहे-सात हाथ प्रमाण शरीर वाले। जहा-जिस प्रकार। गोयमसामी-गौतम स्वामी, जिन का आचार भगवती सूत्र में वर्णित है। तहा-उसी प्रकार के आचार को धारण करने वाले। जाव-यावत् / झाणकोट्ठोवगए-ध्यान रूप कोष्ठ को प्राप्त हुए। विहरति-विराजमान हो रहे हैं। तते णं-उस के पश्चात् / अजजम्बूणामं अणगारे-आर्य जम्बू नामक अनगार-मुनि। जायसड्ढेश्रद्धा से युक्त। जाव-यावत्। जेणेव-जिस स्थान पर। अजसुहम्मे अणगारे-आर्य सुधर्मा अनगार विराजमान थे। तेणेव उवागए-उसी स्थान पर पधार गए। तिक्खुत्तो-तीन बार / आयाहिणपयाहिणं-दाहिनी ओर से आरम्भ करके पुनः दाहिनी ओर तक प्रदक्षिणा को। करेति-करते हैं। करेत्ता-करके। वन्दति-वन्दना करते हैं। नमंसति-नमस्कार करते हैं। वंदित्ता नमंसित्ता-वन्दना तथा नमस्कार करके। जाव-यावत् पज्जुवासति-भक्ति करने लगे। पज्जुवासित्ता-भक्ति करके। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगे। मूलार्थ-उस काल तथा उस समय में चम्पा नाम की एक नगरी थी। चम्पा नगरी का वर्णन औपपातिक सूत्रगत वर्णन के सदृश जान लेना चाहिए। उस नगरी के बाहर ईशान कोण में पूर्णभद्र नाम का एक चैत्य-उद्यान था। उस काल और उस समय में 1. 'वण्णओ' पद से सूत्रकार का अभिप्राय वर्णन ग्रन्थ से है अर्थात् जिस प्रकार श्री औपपातिक आदि सूत्रों में नगर, चैत्य आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है उसी प्रकार यहां पर भी नगरी आदि का वर्णन जान लेना चाहिए। 16 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय प्रथम श्रुतस्कंध Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य चुतर्दश पूर्व के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धारक, जाति-सम्पन्न [जिन की माता सम्पूर्ण गुणों से युक्त अथवा जिस का मातृ पक्ष विशुद्ध हो ] पांच सौ अनंगारों से सम्परिवृत आर्य सुधर्मा नाम के अनगार-मुनि क्रमशः विहार करते हुए पूर्णभद्र नामक चैत्य में अनगारोचित्त अवग्रह-स्थान ग्रहण कर विराजमान हो रहे हैं। धर्म कथा सुनने के लिए परिषद्-जनता नगर से निकल कर वहां आई, धर्म-कथा सुनकर उसे हृदय में मनन एवं धारण कर जिस ओर से आई थी उसी ओर चली गई। उस काल तथा उस समय में आर्य सुधर्मा स्वामी के शिष्य, जिनका शरीर सात हाथ का है, और जो गौतम स्वामी के समान मुनि-वृत्ति का पालन करने वाले तथा ध्यानरूप कोष्ठ को प्राप्त हो रहे हैं, आर्य 'जम्बू नामक अनगार विराजमान हो रहे हैं। तदनन्तर जातश्रद्धश्रद्धा से सम्पन्न आर्य श्री जम्बू स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में उपस्थित हुए, . 1. जम्बू कुमार कौन थे ? इस जिज्ञासा का पूर्ण कर लेना भी उचित प्रतीत होता है। सेठ ऋषभदत्त की धर्मपत्नी का नाम धारिणी थां। दम्पती सुख पूर्वक समय व्यतीत कर रहे थे। एक बार गर्भकाल में सेठानी धारिणी ने जम्बू वृक्ष को देखा। पुत्रोत्पत्ति होने पर बालक का स्वप्नानुसारी नाम जम्बू कुमार रखा गया। जम्बू कुमार के युवक होने पर आठ सुयोग्य कन्याओं के साथ इनकी सगाई कर दी गई। उसी समय श्री सुधर्मा स्वामी के पावन उपदेशों से इन्हें वैराग्य हो गया, सांसारिकता से मन हटा कर साधु जीवन अपनाने के लिए अपने आप को तैयार कर लिया, तथापि माता-पिता के प्रेम भरे आग्रह से इन का विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह में इन्हें करोड़ों की सम्पत्ति मिली थी। - कुमार का हृदय विवाह से पूर्व ही वैराग्यतरंगों से तरङ्गित था, जो सुधर्मा स्वामी के चरणकमलों का भ्रमर बन चुका था, इसीलिए नववधूओं के शृंगार, हावभाव इन्हें प्रभावति न कर सके और वे समस्त सुन्दरियां इन्हें अपने मोह-जाल में फंसाने में सफल न हो सकीं। प्रभव राजगृह का नामी चोर था। विवाह में उपलब्ध प्रीतिदान-दहेज को चुराने के लिये 500 शूरवीर साथियों का नेतृत्व करता हुआ वह कुमार के विशाल रमणीय भवन में आ धमका था। ताला तोड़ देने और लोगों ला देने की अपर्व विद्याओं के प्रभाव से उसे किसी बाधा का सामना नहीं करना पडा। भवन के आंगन में पड़े हुए मोहरों के ढेरों की गठरियां बांध ली गईं, और भवन से बाहर स्थित प्रभव ने साथियों को उन्हें उठा ले चलने का आदेश दिया। __कुमार प्रभव के इस कुकृत्य से अपरिचित नहीं थे, धन आदि की ममता का समूलोच्छेद कर लेने पर भी "चोरी होने से जम्बू साधु हो रहा है" इस लोकापवाद से बचने के लिए उन्होंने कुछ अलौकिक प्रयास किया। भवन के मध्यस्थ सभी चोरों के पांव भूमि से चिपक गए। शक्ति लगाने पर भी वे हिल न सके। इस विकट परिस्थिति में साथियों को फंसा सुन और देख प्रभव सन्न सा रह गया और गहरे विचार-सागर में डूब गया। प्रभव विचारने लगा-मेरी विद्या ने तो कभी ऐसा विश्वास-घात नहीं किया था, न जाने यह क्या सुन और देख रहा हूं, प्रतीत होता है यहां कोई जागता अवश्य है। ओह ! अब समझा, विद्या देते समय गुरु ने कहा था-इस का प्रभाव मात्र संसारी जीवन पर होगा। धर्मी पर यह कोई प्रभाव नहीं डाल सकेगी। संभव है यहां कोई धर्मात्मा ही हो, जिसने यह सब कुछ कर डाला है, देखू तो सही। प्रभव ऊपर जाने लगा, क्या देखता है-सौंदर्य की साक्षात् प्रतिमाएं प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [97 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाहिनी ओर से बाईं ओर तीन बार अञ्जलिबद्ध हाथ घुमाकर आवर्तन रूप प्रदक्षिणा करने के अनन्तर वन्दना और नमस्कार करके उनकी सेवा करते हुए इस प्रकार बोले। आठ युवतियां सो रही हैं। सांसारिकता की उत्तेजक सामग्री पास में बिखरी पड़ी है। परन्तु एक तेजस्वी युवक किसी विचारधारा में संलग्न दिखाई दे रहा है। प्रभव युवक का तेज सह न सका। और उससे अत्यधिक प्रभावित होता हुआ सीधा वहीं पहुंचा, और विनय पूर्वक कहने लगा ___ आदरणीय युवक ! जीवन में मैंने न जाने कितने अद्भुत-आश्चर्यजनक और साहस-पूर्ण कार्य किये हैं जिनकी एक लम्बी कहानी बन सकती है। साम्राज्य की बड़ी से बड़ी शक्ति मेरा बाल बांका नहीं कर सकी, मैंने कभी किसी से हार नहीं मानी, किंतु आज मैं आपके अपूर्व विद्याबल से पराजित हो गया हूं और अपनी विद्या शक्ति को आप के सन्मुख हतप्रभ पा रहा हूं। मैं आप का अपराधी होने के नाते दण्डनीय होने पर भी कुछ दान चाहता हूं, और वह है मात्र आप की अपूर्व विद्या का दान / मुझ पर अनुग्रह कीजिए और अपना विद्यार्थी बनाइए एवं विद्यादान दीजिए। कुमार प्रभव को देखते ही सब स्थिति समझ गये और उससे कहने लगे-भाई ! मैं तो स्वयं विद्यार्थी बनने जा रहा हूँ। सूर्योदय होते ही गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पास साधुता ग्रहण करना चाह रहा हूँ। संयमी बन कर जीवन व्यतीत करूँगा, संसारी जीवन से मुझे घृणा है। प्रभव के पांव तले से जमीन निकल गई, वह हैरान था, अप्सराओं को मात कर देने वाली ये सुकुमारियां त्याग दी जायेंगी ? हंत ! कितना कठिन काम है / इन पदार्थों के लिये तो मनुष्य सिर धुनता है, लोक-लाज और आत्मसम्मान जैसी दिव्य आत्म-विभूति को लुटाकर मुँह काला कर लेता है और मानव होकर पशुओं से भी अधम जीवन यापन करने के लिये तैयार हो जाता है। पर यह युवक बड़ा निराला है जो स्वर्ग-तुल्य देवियों को भी त्याग रहा है। वाह-वाह जीवन तो यह है, यदि सत्य कहूँ तो त्याग इसी का नाम है, त्याग ही नहीं यह तो त्याग की भी चरम सीमा है। ___ एक मैं भी हँ, सारा जीवन घोर पाप करते-करते व्यतीत हो रहा है, सिर पर भीषण पापों का भार लदा पड़ा है, न जाने कहाँ-कहाँ जन्म-मरण के भयंकर दु:खों से पाला पड़ेगा और कहाँ-कहाँ भीषण यातनाएं सहन करनी होंगी। अहह ! कितना पामर जीवन है मेरा! प्रभव की विचार-धारा बदलने लगी। कुमार के अनुपम आदर्श त्याग ने प्रभव के नेत्र खोल दिये। उसकी अंतर्योति चमक उठी। दानवता का अड्डा उठने लगा। बुराई का दैत्य हृदय से भाग निकला। वह दानव से मानव हो गया, लोहे से सोना बन गया। जिस अपूर्व तत्त्व पर कभी विचार भी नहीं किया था उसका स्रोत बह निकला। आग के परमाणु नष्ट होने पर जल जैसे शांत हो जाता है-अपने स्वभाव को पा लेता है, वैसे ही दुर्भावनाओं की आग शांत होते ही प्रभव शांत हो गया और अपने आप को पहचानने लगा। प्रभव सोचने लगा-इतना कोमल शरीरी युवक जब साधक बन सकता है और आत्म-साधना के कष्ट झेल सकता है तो क्या बड़े-बड़े योद्धा का मुंह मोड़ने वाला मेरा जीवन साधना नहीं कर सकेगा और उसके कष्ट नहीं झेल सकेगा? क्यों नहीं! मैं भी तो मनुष्य हूँ, इन्हीं का सजातीय हूँ, जो ये कर सकते हैं, वह मैं भी कर सकता हूँ। यह सोच कर प्रभव बोला-सम्माननीय युवक ! आप के त्यागी जीवन ने मुझ जैसे पापी को बदल दिया है और बहुत कुछ सोच समझ लेने के अनन्तर अब मैंने यह निश्चय कर लिया है कि आज से आप मेरे गुरु और मैं आपका शिष्य, जो मार्ग आप चुनोगे उसी का पथिक बनूँगा, मैं ही नहीं अपने 500 साथियों को इसी मार्ग का पथिक बनाऊंगा। 98 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-आगमों के संख्या-बद्ध क्रम में प्रश्न व्याकरण दशवां और विपाक श्रुत ग्यारहवां अंग है, अतः प्रश्रव्याकरण के अनन्तर विपाकश्रुत का स्थान स्वाभाविक ही है। वर्तमान काल में उपलब्ध प्रश्रव्याकरण नाम का दशवां अंग दश अध्ययनों में विभक्त है, जिनमे प्रथम के पांच अध्ययनों में पांच आश्रवों का वर्णन है और अन्त के पांच अध्ययनों में पांच संवरों का निरूपण किया गया है, तथा एकादशवें अंग-विपाक श्रुत में संवर-जन्य शुभ तथा आश्रव-जन्य अशुभ कर्मों के विपाक-फल का वर्णन मिलता है। इस प्रकार इन दोनों में पारस्परिक सम्बंध रहा हुआ है। प्रस्तुत सूत्र-"विपाक श्रुत" में आचार्य अभयदेव सूरि ने "तेणं कालेणं तेणं समएणं" का "तस्मिन् काले तस्मिन् समये" जो सप्तम्यन्त अनुवाद किया है वह दोषाधायक नहीं है। कारण कि अर्द्धमागधी भाषा में सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग भी देखा जाता है। किसी-किसी आचार्य का मत है कि यहां 'णं' वाक्यालंकारार्थक है और "ते" प्रथमा का बहुवचन है जो कि यहां पर अधिकरण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु दोनों विचारों में से आद्य विचार का ही बहुत से आचार्य समर्थन करते हैं / आचार्य प्रवर श्री हेमचन्द्र जी के शब्दानुशासन में भी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है, यथा-सप्तम्यां द्वितीया [8 / 3 / 137] सप्तम्याः स्थाने द्वितीया भवति। विजुज्जोयं भरइ रत्तिं / आर्षे तृतीयापि दृश्यते। तेणं कालेणं तेणं समएणं-तस्मिन् काले तस्मिन् समये इत्यर्थः। जैन सिद्धान्त कौमुदी (अर्द्धमागधि व्याकरण) में शतावधानी पंडित रत्नचन्द्र जी म० ने सप्तमी के स्थान पर तृतीया का विधान किया है, वे लिखते हैं आधारेऽपि।२।२।१९। क्वचिदधिकरणेऽपि वाच्ये तृतीया स्यात्। "तेणं कालेणं चोर जैसे अधम प्राणी भी जिस संसर्ग से सुधर गये, तो भला कुमार की उन आठों अर्धाङ्गिनियों में परिवर्तनं क्यों न होता? वे भी बदली, काफी वाद-विवाद के अनन्तर उन्होंने भी पति के निश्चित और स्वीकृत पथ पर चलने की स्वकृति दे दी और वे दीक्षित होने के लिये तैयार हो गईं। - आठों सुकुमारियां, प्रभव चोर और उसके पांच सौ साथी एवं अन्य अनेकों धर्म-प्रिय नर-नारी, जम्बूकुमार के नेतृत्व में आर्य-प्रवर श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज की शरण में उपस्थित होते हैं और उनसे संयम के साधना-क्रम को जान कर तथा अपने समस्त हानि-लाभ को विचार कर अंत में श्री सुधर्मा स्वामी से दीक्षा-व्रत स्वीकार कर लेते हैं और अपने को मोक्ष पथ के पथिक बना लेते हैं। .. मूलसूत्र में जिस जम्बू का वर्णन है, ये हमारे यही जम्बू हैं जो आठ पत्नियों कों और एक अरब 15 करोड़ मोहरों- स्वर्णमुद्राओं की सम्पत्ति को तिनके की भांति त्याग कर साधु बने थे और जिन्होंने उग्रसाधना के प्रताप से कैवल्य को प्राप्त किया था। आज का निग्रंथ-प्रवचन इन्हीं के प्रश्रों और श्री सुधर्मा स्वामी के उत्तरों में उपलब्ध हो रहा है। महामहिम श्री जम्बू स्वामी ही इस अवसर्पिणी काल के अंतिम केवली एवं सर्वदर्शी थे। इनका गुणानुवाद जितना भी किया जाए उतना ही कम है, तभी तो कहा है-"यति न जम्बू सारिखा" प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [99 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेणं समएणं"जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ-यस्मिन्नेव श्रेणिको राजा तस्मिन्नेव उपागच्छतीत्यर्थः। इत्यादि उदाहरणों तथा व्याकरण के नियमों से यह स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति का प्रयोग शास्त्र-सम्मत ही है। ___ "तेणं'कालेणं तेणं समएणं" इस पाठ में काल और समय शब्द का पृथक्-पृथक् प्रयोग किया गया है जब कि काल और समय यह दोनों समानार्थक हैं, व्यवहार में भी काल तथा समय ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, फिर यहां पर सूत्रकार ने इन दोनों शब्दों का पृथक्-पृथक् प्रयोग क्यों किया है ? इसका समाधान आचार्य अभयदेव सूरि के शब्दों में इस प्रकार है "अथ काल-समयोः को विशेषः ? उच्यते, सामान्या वर्तमानावसर्पिणी चतुर्थारक-लक्षणः कालः, विशिष्टः पुनस्तदेकदेशभूतः समयः" अर्थात् सूत्रकार को काल शब्द से सामान्य वर्तमान अवसर्पिणी काल -भेद का चतुर्थ आरक अभिप्रेत है और समय शब्द से इसी अवसर्पिणी कालीन चतुर्थ आरक का एक देश अभिमत है। अर्थात् यहां पर काल शब्द अवसर्पिणी काल के चौथे आरे का बोधक है और समय शब्द से चौथे आरे के उस भाग का ग्रहण करना है जब यह कथा कही जा रही है। "होत्था" यहां पर सूत्रकार ने होत्था-अभूत् यह अतीत काल का निर्देश किया है। इस स्थान में शंका होती है कि चम्पा नाम की नगरी तो आज.भी विद्यमान है, फिर यहां अतीत काल का प्रयोग क्यों ? इसका उत्तर स्पष्ट है-यह सत्य है कि चम्पा नगरी: आज भी है तथापि अवसर्पिणी काल के स्वभाव से पदार्थों में गुणों की हानि होने के कारण वर्णन ग्रन्थ (औपपातिक सूत्र) में वर्णन की हुई चम्पानगरी श्री सुधर्मा स्वामी जी के समय में जैसे थी वैसी न रहने से 1. "कालेणं"-कलयति मासोऽयं सम्वत्सरोऽयं-इत्यादि रूपेण निश्चन्वंति तत्त्वज्ञा यमिति कलनंसंख्यानं पाक्षिकोऽयं मासिकोऽयमित्यादिरूपेण निरूपणं काल: सोऽस्मिन्नस्तीति / कालानां समयादीनां समूह इति वा कालः। वस्तुतस्तु ‘वट्टणालक्खणो कालो' इति भगवद्-वचनात् कलयति नवजीर्णादि-रूपतया प्रवर्तयति वस्तुपर्यायमिति कालस्तस्मिन् / तस्मिन् हीयमानलक्षणे समये-सम-सम्यक् अयते गच्छतीति समयोऽवसरस्तमिन्। ___ अर्थात्-तत्त्व के ज्ञाता महीना वर्ष आदि रूप से जिसका कलन (निश्चय) करते हैं उसे काल कहते हैं, अथवा पखवाड़े का है महीने का है इस प्रकार के कलन (संख्या-गिनती) को काल कहते हैं, अथवा कलाओंसमयों के समूह को काल कहते हैं, परन्तु भगवान् ने निश्चय काल का वर्तना रूप लक्षण कहा है। अर्थात् जो द्रव्य की पर्यायों को नई अथवा पुरानी करता है वही निश्चय काल है। (2) नगरी शब्द की निरुक्ति इस प्रकार है नगरी न गच्छन्तीति नगाः-वृक्षाः पर्वताश्च तद्वदचलत्वादुन्नतत्वाच्च प्रासादादयोऽपि ते सन्ति यस्यां सा इति निरुक्तिः। “नकरी" इति छायापक्षे तु-न विद्यते कर: गोमहिष्यादीनामष्टादशविधो राजग्राह्यो भागः (महसूल) यत्र सेत्यर्थः। 100 ]. श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां पर अतीत का प्रयोग किया गया है जो उपयुक्त ही है। सारांश यह है कि चम्पा नगरी? थी, यह भूत कालीन प्रयोग असंगत नहीं है। . "वण्णओ-वर्णकः" इससे सूत्रकार को जो चम्पानगरी का वर्णन ग्रन्थ अभिप्रेत है वह औपपातिक सूत्र में देख लेना चाहिये। सूत्रकार ने मूल पाठ में “वण्णओ" पद का दोबार ग्रहण किया है। उस में प्रथम का चम्पानगरी से सम्बन्धित है और दूसरा पूर्णभद्र चैत्य के वर्णन से सम्बन्ध रखता है। पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन औपपातिक सूत्र में विस्तार पूर्वक किया गया है जिज्ञासु को अपनी जिज्ञासा वहां से पूर्ण करनी चाहिए। किसी-किसी प्रति में "वण्णओ" यह द्वितीय पद नहीं है। अर्थात् कहीं-कहीं "पुण्णभद्दे चेइए वण्णओ" इस पाठ के अन्तर्गत जो "वण्णओ" पद है वह नहीं पाया जाता, केवल "पुण्णभद्दे चेइए" इतना उल्लेख देखने में आता है। आर्य सुधर्मा स्वामी का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने "जाइसंपण्णे" इत्यादि पदों का उल्लेख किया है। "जाइ संपन्ने"-जातिसम्पन्न" शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं / (1) जिस की माता में मातृजनोचित समस्त गुण विद्यमान हों, (2) जिसका मातृपक्ष विशुद्ध-निर्मल हो। इससे आर्यसुधर्मा स्वामी की जाति (मातृपक्ष) की उत्तमता का निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त सूत्रगत "वण्णओ-वर्णक" पद से ज्ञाताधर्मकथांग सूत्रगत अन्य पाठ का समावेश करना सूत्रकार का अभिप्रेत.है। वह सूत्र इस प्रकार है. ...... कुलसंपन्ने, बल-रूप विणय-णाण-दंसण-चरित्त-लाघवसंपन्ने, ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे,जियमाए, जियलोहे, जियइंदिए, जियनिद्दे, जियपरिसहे जीवियासमरण-भयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे गुणप्पहाणे एवं करणचरण-निग्गह-णिच्छय-अजव-मद्दव-लाघव-खंति-गुत्ति-मुत्ति-विज्जामंत-बंभ-वयनय नियम-सच्च-सोय-णाण-दंसण-चरित्ते ओराले घोरे घोरव्वए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढ-सरीरे संखित्त-विउलतेउल्लेसे .........." "चोद्दसपुव्वी-चतुर्दशपूर्वी" इस पद से सूचित होता है कि आर्य सुधर्मा स्वामी (1) यद्यपि इदानीमप्यस्ति सा नगरी तथाऽप्यवसर्पिणी-कालस्वभावेन हीयमानत्वाद् वस्तुस्वभावानां . वर्णक-ग्रन्थोक्तस्वरूपा सुधर्म-स्वामिकाले नास्तीति कृत्वाऽतीतकालेन निर्देशः कृतः (वृत्तिकारः) (2) छाया-कुलसम्पन्नः बल-रूप-विनय-ज्ञान-दर्शन-चरित्र-लाघवसम्पन्नः ओजस्वी तेजस्वी वचस्वी (वर्चस्वी) यशस्वी जितक्रोधः जितमानः जितमायः जितलोभः जितेन्द्रियः जितनिद्रः जितपरिषहः जीविताशामरणभय-विप्रमुक्तः तपःप्रधानः गुणप्रधानः एवं करणचरणनिग्रह-निश्चया-र्जव-मार्दव-लाघव-क्षान्ति-गुप्ति-मुक्तिविद्यामंत्र-ब्रह्म-व्रत-नय-नियम-सत्य-शौच-ज्ञान-दर्शन चरित्र: उदार: घोर: घोरव्रतः घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्यवासी उज्झितशरीर: संक्षिप्त-विपुलतेजोलेश्यः ....., प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [101 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश पूर्वो के पूर्ण ज्ञाता थे। श्री नन्दी सूत्र में चतुर्दश पूर्षों के नामों का निर्देश इस प्रकार किया "उप्पायपुव्वं"(१) अग्गाणीयं (2) वीरियं (3) अत्थिनत्थिप्पवायं (4) नाणप्पवायं (5) सच्चप्पवायं (6) आयप्पवायं (7) कम्मप्पवायं (8) पच्चक्खाणप्पवायं(९)विजाणुप्पवायं(१०)अवंझं (११)पाणाऊ (१२)किरियाविसालं (13) लोक विंदुसारं२ (14) / (नन्दी सूत्र, पूर्वगत दृष्टिवाद-विचार) भावार्थ (1) उत्पादपूर्व-इस पूर्व में सभी द्रव्य और सभी पर्यायों के उत्पाद को लेकर प्ररूपणा की गई है। (2) अग्रायणीय-पूर्व-इसमें सभी द्रव्य पर्याय और सभी जीवों के परिमाण का वर्णन है। (3) वीर्य प्रवाद-पूर्व-इस में कर्मसहित और बिना कर्म वाले जीवों तथा अजीवों के वीर्य (शक्ति) का वर्णन है। . (4) अस्ति-नास्ति-प्रवाद-पूर्व-संसार में धर्मास्तिकाय आदि जो वस्तुएं विद्यमान हैं तथा आकाश-कुसुम आदि जो अविद्यमान हैं उन सबका.वर्णन इस पूर्व में है। (5) ज्ञान-प्रवाद-पूर्व-इसमें मति ज्ञान आदि ज्ञान के 5 भेदों का विस्तृत वर्णन है। (6) सत्य-प्रवाद-पूर्व-इसमें सत्यरूप संयम या सत्य वचन का विस्तृत विवेचन किया गया है। (7) आत्म-प्रवाद-पूर्व-इसमें अनेक नय तथा मतों की अपेक्षा से आत्मा का वर्णन है। 1. छाया-उत्पादपूर्वम् 1 अग्रायणीयम् 2 वीर्यं 3 अस्तिनास्तिप्रवादम् 4 ज्ञान-प्रवादम् 5 सत्य-प्रवादं 6 आत्मप्रवादम् 7 कर्म-प्रवादम् 8 प्रत्याख्यान-प्रवादम् 9 विद्यानुप्रवादम् 10 अवन्ध्यम् 11 प्राणायुः 12 क्रियाविशालम् 13 लोकबिंदुसारम्। 2. कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य प्रवर श्री हेमचंद्र जी ने अभिधान-चिन्तामणि ग्रन्थ-रत्न के देव नामक द्वितीयकाण्ड में जो चतुर्दश पूर्वो का उल्लेख किया है वह निम्न प्रकार से है पूर्वाणि चतुर्दशापि पूर्वगते॥१६०॥ उत्पादपूर्वमाग्रायणीयमथ वीर्यतः प्रवादं स्यात्। अस्तेर्ज्ञानात् सत्यात् तदात्मनः कर्मणश्च परम्॥१६१॥ प्रत्याख्यानं विद्या-प्रवाद-कल्याण-नामधेये च। प्राणावायं च क्रियाविशालमथ लोकबिन्दुसारमिति॥ 162 // 102 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) कर्मप्रवाद-पूर्व-इसमें आठ कर्मों का निरूपण प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश आदि भेदों द्वारा विस्तृत रूप से किया गया है। (9) प्रत्याख्यान-प्रवाद-पूर्व-इसमें प्रत्याख्यानों का भेद-प्रभेद पूर्वक वर्णन है। (10) विद्यानु-प्रवाद-पूर्व-इस पूर्व में विविध प्रकार की विद्याओं तथा सिद्धियों का वर्णन है। (11) अवन्ध्य-पूर्व-इसमें ज्ञान, तप, संयम आदि शुभ फल वाले तथा प्रमाद आदि अशुभ फल वाले अवन्ध्य अर्थात् निष्फल न जाने वाले कार्यों का वर्णन है। (12) प्राणायुष्प्रवाद-पूर्व-इसमें दश प्राण और आयु आदि का भेद-प्रभेद पूर्वक विस्तृत वर्णन है। (13) क्रिया-विशाल-पूर्व-इसमें कायिकी, आधिकरणिकी आदि तथा संयम में उपकारक क्रियाओं का वर्णन है। - (14) लोक-बिन्दु-सार-पूर्व-संसार में श्रुत ज्ञान में जो शास्त्र बिन्दु की तरह सबसे श्रेष्ठ है, वह लोक बिंदुसार है। __पूर्व का अर्थ है-तीर्थ का प्रवर्तन करते समय तीर्थंकर भगवान जिस अर्थ का गणधरों को पहले पहल उपदेश देते हैं अथवा गणधर पहले पहल जिस अर्थ को सूत्र रूप में गूंथते हैं उसे पूर्व कहते हैं। . "चउणाणोवगए-चतुर्ज्ञानोपगतः" यह विशेषण, परम-पूज्य आर्य सुधर्मा स्वामी को चतुर्विध ज्ञान के धारक सूचित करता है, अर्थात् उन में मति, श्रुत, अवधि और मनपर्यव ये चारों ज्ञान विद्यमान थे। इससे सूत्रकार को उनमें ज्ञान-सम्पत्ति का वैशिष्ट्य बोधित करना .. व्याख्या- सर्वांगेभ्यः पूर्व-तीर्थकरैरभिहितत्वात् पूर्वाणि तानि यथा-सर्वद्रव्याणां चोत्पादप्रज्ञप्तिहेतुरुत्पादम्।१ / सर्वद्रव्याणां पर्यायाणां सर्व-जीव-विशेषाणां च अग्रं परिमाणं वर्ण्यते यत्र तद् अग्रायणीयम्। 2 / जीवानामजीवानां च सकर्मे-तराणां च वीर्यं प्रवदतीति वीर्य-प्रवादम्। 3 / अस्तीति नास्तेरुपलक्षणं, ततो यल्लोके यथाऽस्ति यथा वा नास्ति अथवा स्याद्-वादाभिप्रायेण तदेवास्ति नास्तीति प्रवदति अस्ति-नास्ति-प्रवादम्। 4 / मतिज्ञानादिपञ्चकं स-भेदं प्रवदतीति ज्ञान-प्रवादम्। 5 / सत्यं संयमः सत्यवचनं वा तत् सभेदं सप्रतिपक्षं च यत् प्रवदति तत् सत्य-प्रवादम्। 6 / नयदर्शनैरात्मानं प्रवदति आत्म-प्रवादम्। 7 / ज्ञानावरणाद्यष्टविधं कर्म प्रकृतिस्थित्यनुभाग-प्रदेशादिभेदैरन्यैश्चोत्तर-भेदैभिन्नं प्रवदति कर्म प्रवादम्। 8 / सर्व प्रत्याख्यान-स्वरूपं प्रवदति प्रत्याख्यान प्रवादम्। तदेकेदशः प्रत्याख्यानम्, भीमवत्। 9 / विद्यातिशयान् प्रवदति विद्याप्रवाद। 10 / कल्याणफल-हेतुत्वात् कल्याणम् अवन्ध्यमिति चोच्यते। 11 / आयुः-प्राणविधानं सर्वं सभेदम् अन्ये च प्राणा वर्णिता यत्र तत् प्राणावायम्।१२। कायिक्यादयः संयमाद्याश्च क्रिया विशाला सभेदा यत्र तत् क्रिया-विशालम् / 13 / इहलोके श्रुतलोके वा बिंदुरिवाक्षरस्य सर्वोत्तमं सर्वाक्षरसन्निपात-परिनिष्ठितत्वेन लोकबिन्दुसारम् / 14 / (अभिधान चिन्तामणि) * प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [103 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिप्रेत है। जैनागमों में ज्ञान पांच प्रकार का बताया गया है जैसे कि (1) मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य देश में रही हुई वस्तु को जानने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है। इस का दूसरा नाम आभिनिबोधिक ज्ञान भी है। . (2) श्रुतज्ञान-वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध द्वारा शब्द से सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण कराने वाला; इन्द्रिय मन कारणक ज्ञान श्रुतज्ञान है अथवा-मतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिसमें हो ऐसा ज्ञान श्रुत-ज्ञान कहलाता है। __ (3) अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिए हुए रूंपीद्रव्य का बोध कराने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। (4) मनःपर्यवज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिए हुए संज्ञी जीवों के मनोगतभावों को जिससे जाना जाए वह मनःपर्यव ज्ञान है। (5) केवलज्ञान-मति आदि ज्ञान की अपेक्षा बिना, त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों का युगपत् हस्तामलक के समान बोध जिससे होता है वह केवलज्ञान है। इन पूर्वोक्त पंचविध ज्ञानों में से आर्य सुधर्मा स्वामी ने प्रथम के चारों ज्ञानों को प्राप्त किया हुआ था। "......चरमाणे जाव जेणेव" इस पाठ में "जाव-यावत्" पद से "गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेण विहरमाणे" [ग्रामानुग्रामं द्रवन् सुखसुखेन विहरन्] अर्थात् अप्रतिबद्धविहारी होने के कारण ग्राम और अनुग्राम [२विवक्षित ग्राम के अनन्तर का ग्राम] में चलते हुए साधुवृति के अनुसार सुखपूर्वक विहरणशील-यह जानना। "अहापडिरूवं जाव विहरइ" इस पाठ में उल्लेख किए गए "जाव-यावत्" शब्द से- "उग्गहं उग्गिण्हइ अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणंतवसा अप्पाणं भावेमाणे" [अवग्रहं उद्गृण्हाति यथा-प्रतिरूपमवग्रहमुद्गृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् ] अर्थात् साधु वृत्ति के अनुकूल अवग्रह-आश्रय उपलब्ध कर संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए-भावनायुक्त करते हुए विचरण करने लगे-यह ग्रहण करना। तब इस समग्र आगम पाठ का संकलित अर्थ यह हुआ कि-उस काल तथा उस समय में जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न (1) क-नाणं पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा-आभिणिबोहियणाणं, सुयणाणं, ओहिणाणं, मणपज्जवणाणं केवलणाणं। छाया- ज्ञान पंचविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञानम्, मन-पर्यवज्ञानम् केवलज्ञानम्। [अनुयोग-द्वार सूत्र] ख-मति-श्रुतावधि-मन:-पर्याय केवलानि ज्ञानम् ,, [तत्त्वार्थ सू. 1 / 9 / ] 2. ग्रामश्चानुग्रामश्च ग्रामानुग्रामः विवक्षित-ग्रामानन्तरग्रामः तं द्रवन् गच्छन् एकस्माद् ग्रामादनन्तरं ग्राममनुल्लंघयन्नित्यर्थः। 104 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बल, रूपादिसम्पन्न, चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता चतुर्विध ज्ञान के धारक तथा पांच सौ साधुओं के साथ क्रमशः विहार करते हुए पूर्णभद्र नामक चैत्य में साधु-वृत्ति के अनुकूल अवग्रहआश्रय ग्रहण कर विचरने लगे। आर्य सुधर्मा स्वामी के पधारने पर नगर की श्रद्धालु जनता उनके दर्शनार्थ एवं धर्मोपदेश सुनने के लिए आई और धर्मोपदेश सुनकर उसे हृदय में धारण कर चली गई। ___"अजसुहम्मस्स अन्तेवासी अज-जम्बू णामं अणगारे सत्तुस्सेहे" इस पाठ से आर्य सुधर्मा स्वामी के वर्णन के अनन्तर अब सूत्रकार उनके प्रधान शिष्य श्री जम्बूस्वामी के सम्बन्ध में कहते हैं___जम्बू स्वामी का शारीरिक मान सात हाथ का था। सूत्रकार ने इन के विषय में अधिक कुछ न लिखते हुए केवल गौतम स्वामी के जीवन के समान इनके जीवन को बता कर इनकी आदर्श साधुचर्या का संक्षेप में परिचय दे दिया है। श्री गौतम स्वामी के साधु जीव की शारीरिक, मानसिक और आत्म-सम्बन्धी विभूति का वर्णन श्री भगवती सूत्र [श. 1. उ० 1] में किया गया है। "जायसड्ढे जाव जेणेव" इस पाठ में उल्लिखित "जाव" शब्द से निम्नलिखित इतना और जान लेने की सूचना है, जैसा कि.....जायसंसए, जायकोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे, 1. जैन शास्त्रों में नापने के परिमाणों का अंगुलों द्वारा बहुत स्पष्ट वर्णन मिलता है। अंगुल तीन प्रकार के होते हैं-(१) प्रमाणांगुल (2) आत्मांगुल (3) और उत्सेधांगुल। जो वस्तु शाश्वत है-जिस का नाश नहीं होता, वह प्रमाणांगुल से नापी जाती है, ऐसी वस्तु का जहां परिमाण कहा गया हो, वहां प्रमाणांगुल से ही समझना चाहिए। आत्मांगुल से तत्तत्कालीन नगर आदि का परिमाण बतलाया जाता है। इस पांचवें आरे को साढे दस हज़ार वर्ष बीतने पर उस समय के जो अंगुल होंगे उन्हें उत्सेधांगुल कहते हैं। जम्बू स्वामी का शरीर उत्सेधांगुल से सात * हाथ का था। इस प्रकार यद्यपि जम्बू स्वामी के हाथ से उन का शरीर साढ़े तीन हाथ का ही था परन्तु पांचवें आरे के साढ़े दस हजार वर्ष बीत जाने पर यह साढ़े तीन हाथ ही सात हाथ के बराबर होंगे, इसी बात को दृष्टि में रख कर ही जम्बूस्वामी का शरीर सात हाथ लम्बा बतलाया गया है। 2. भगवती सूत्र का वह स्थल दर्शनीय एवं मननीय होने से पाठकों के अवलोकनार्थ यहाँ पर उद्धृत किया जाता है "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इदंभूती नामं अणगारे गोयमसगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंस-संठाण-संठिए वजरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगणिग्यसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे, घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे चोद्दसपुव्वी चउणाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे झाणकोडोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं-भावेमाणे विहरड"॥ . छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूति माऽनगारः प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [105 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पन्नसंसए, उप्पन्नकोउहल्ले, संजायसड्ढे , संजायसंसए, संजायकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे, समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्नकोउहल्ले उट्ठाए, उढेइ, उट्ठाए, उठूत्ता.........। [छाया-जातसंशयः, जातकुतूहलः, उत्पन्नश्रद्धः, उत्पन्नसंशयः, उत्पन्न-कुतूहलः, संजातश्रद्धः, संजातसंशयः, संजातकुतूहलः, समुत्पन्नश्रद्धः, समुत्पन्नसंशयः, समुत्पन्नकुतूहलः, उत्थायोतिष्ठति, गौतमसगोत्रः सप्तोत्सेधः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितः वज्रर्षभनाराचसंहननः कनकपुलकनिकषपद्मगौर: उग्रतपाः दीप्ततपाः तप्ततपाः उदारः घोरः घोरगुणः घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्यवासी उच्छूढशरीरः संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः चतुर्दशपूर्वी चतुर्ज्ञानोपगतः सर्वाक्षरसन्निपाती श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्ते ऊर्ध्वजानु: अध:शिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति॥ ___अर्थात् उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ-प्रधान अन्तेवासी-शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार भगवान के पास संयम और तपस्या के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं; जो कि गौतम गौत्र वाले हैं, जिन का शरीर सात हाथ प्रमाण का है, जो पालथी मार कर बैठने पर शरीर की ऊंचाई और चौड़ाई बराबर हो ऐसे संस्थान वाले हैं, जिनका वज्रर्षभनाराच संहनन है, जो सोने की रेखा के समान और पद्मपराग, कमल के रज के समान वर्ण वाले हैं, जो उग्रतपस्वी (साधारण मनुष्य जिस की कल्पना भी नहीं कर सकता उसे उग्र कहते हैं और उग्र तप के करने वाले को उग्र तपस्वी कहते हैं ), दीप्ततपस्वी (अग्नि के समान जाज्वल्यमान को दीप्त कहते हैं, कर्म रूपी गहन वन को भस्म करने में समर्थ तप के करने वाले को दीप्त तपस्वी कहते हैं) तप्ततपस्वी (जिस तप से कर्मों को सन्ताप हो-कर्म नष्ट हो जाएं, उस तप के करने वाले को तप्ततपस्वी कहते हैं), महातपस्वी (स्वर्ग प्राप्ति आदि की आशा से रहित निष्काम भावना से किए जाने वाले महान तप के करने वाले को महातपस्वी कहते हैं, जो उदार हैं, जो आत्म शत्रुओं को विनष्ट करने में निर्भीक हैं, जो दूसरों के द्वारा दुष्प्राप्य गुणों को धारण करने वाले हैं, जो घोर तप के अनुष्ठान से तपस्वी पद से अलंकृत हैं, जो दारुण ब्रह्मचर्य व्रत के धारण करने वाले हैं, जो शरीर पर ममत्व नहीं रख रहे हैं, जो अनेक योजन प्रमाण क्षेत्राश्रित वस्तु के दहन में समर्थ ऐसी विस्तीर्ण तेजोलेश्या विशिष्ट-तपोजन्य लब्धिविशेष) को संक्षिप्त किये हुए हैं, जो 14 पूर्वो के ज्ञाता हैं, जो चार ज्ञानों के धारण करने वाले हैं, जिन को समस्त अक्षर-संयोग का ज्ञान है, जिन्होंने उत्कुटुक नाम का आसन लगा रखा है, जो अधोमुख हैं, जो धर्म तथा शुक्ल ध्यान रूप कोष्ठक में प्रवेश किये हुए हैं, तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कोष्ठक में धान्य सुरक्षित रहता है उसी प्रकार ध्यान रूप कोष्ठक में प्रविष्ट हुए आत्म-वृत्तिओं को सुरक्षित किये हुए हैं, अर्थात् जो अशुभ वातावरण से रहित है, और जो विशुद्ध चित्त वाले हैं। यहां पर परमतपस्वी और परमवर्चस्वी भगवान् गौतमस्वामी के साधुंजीवन के साथ आर्य जम्बूस्वामी के जीवन की तुलना कर के उनका उत्कर्ष बतलाना ही सूत्रकार को अभिप्रेत है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिस प्रकार गौतमस्वामी अपना साधु-जीवन व्यतीत करते थे उसी प्रकार की जीवनचर्या जम्बूस्वामी ने की थी-यह बतलाना इष्ट है। (1) जैनशास्त्रों में संहनन के छ: भेद उपलब्ध होते हैं। उन में सर्वोत्तम वज्रर्षभ नाराच संहनन है। ऋषभ का अर्थ पट्टा है और वज्र का अर्थ कीली है, नाराच का अर्थ है दोनों ओर खींच कर बंधा होना, ये तीनों बातें जहां विद्यमान हों, उसे वज्रर्षभनाराच संहनन कहते हैं। जैसे लकड़ी में लकड़ी जोड़ने के लिये पहले लकड़ी की मजबूती देखी जाती है फिर कीली देखी जाती है और फिर पत्ती देखी जाती है। अर्थात् गौतम स्वामी का शरीर हड्डियों की दृष्टि से सुदृढ़ एवं सबल था। 106 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्थया उत्थाय ............ [भगवती सू० श० 1 उ० 1 सू० 8] . जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहिर लाल जी म० ने भगवती सूत्र के प्रथम शतक पर बहुत सुन्दर व्याख्यान दिए हैं, जो 6 भागों में प्रकाशित हो चुके हैं। पूर्वोक्त पदों का वहां बड़ा सुन्दर विवेचन किया गया है। पाठकों के लाभार्थ हम वहां का प्रसंगानुसारी अंश उद्धृत करते हैं जायसड्ढे (जात श्रद्धः) / जात का अर्थ प्रवृत्त और उत्पन्न दोनों हो सकते हैं। यहां जात का अर्थ प्रवृत्त है। रहा श्रद्धा का अर्थ, विश्वास करना श्रद्धा कहलाता है, लेकिन यहां श्रद्धा का अर्थ इच्छा है। तात्पर्य यह हुआ कि जम्बू स्वामी की प्रवृत्ति इच्छा में हुई। किस प्रकार की इच्छा में प्रवृत्ति ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि जिन तत्त्वों का वर्णन किया जाएगा, उन्हें जानने की इच्छा में जम्बू स्वामी की प्रवृत्ति हुई। इस प्रकार तत्त्व जानने की इच्छा में जिस की प्रवृत्ति हो उसे जातश्रद्ध कहते हैं। . जातसंशय अर्थात् संशय में प्रवृत्ति हुई। यहां इच्छा की प्रवृत्ति का कारण बताया गया है, जम्बूस्वामी की इच्छा में प्रवृत्ति होने का कारण उनका संशय है, क्योंकि संशय होने से जानने की इच्छा होती है। जो ज्ञान निश्चयात्मक न हो, जिस में परस्पर विरोधी अनेक पक्ष मालूम पड़ते हों वह संशय कहलाता है। जैसे-यह रस्सी है या सर्प इस प्रकार का संशय होने पर उसे निवारण करने के लिए यथार्थता जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। जम्बूस्वामी को तत्त्वविषयक इच्छा उत्पन्न हुई क्योंकि उन्हें संशय हुआ था। संशय संशय में भी अन्तर होता है, एक संशय श्रद्धा का दूषण माना जाता है और दूसरा श्रद्धा का भूषण। इसी कारण से शास्त्रों में संशय के सम्बन्ध में दो प्रकार की बातें कही गईं हैं। एक जगह कहा है-"संशयात्मा विनश्यति।" शंका-शील पुरुष नाश को प्राप्त हो जाता है। (1) . भगवती सूत्र में तो श्री गौतम स्वामी का और भगवान् महावीर का नामोल्लेख किया हुआ है परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में श्री जम्बू स्वामी का और श्री सुधर्मा स्वामी का प्रसंग चल रहा है, इसलिये यहां श्री जम्बू स्वामी का और श्री सुधर्मा स्वामी का नामोल्लेख करना ही उचित प्रतीत होता है। / (2) भगवान महावीर का सिद्धांत है कि-"चलमाणे चलिए" अर्थात् जो चल रहा है वह चला। यहां-'चलता है' यह कथन वर्तमान का बोधक है और 'चला' यह अतीत काल का। तात्पर्य यह है कि-'चलता है' यह वर्तमान काल की बात है, और 'चला' यह अतीत काल की। यहां पर संशय पैदा होता है कि जो बात वर्तमान काल की है, वह भूतकाल की कैसे कह दी गई ? शास्त्रीय दृष्टि से इस विरोधी काल के कथन को एक ही काल में बताने से दोष आता है, तथापि वर्तमान में अतीत काल का प्रयोग किया गया है, यह क्यों ? यह था भगवान् गौतम के संशय का अभिप्राय, जो टीकाकार ने भगवती सूत्र में बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में जम्बू स्वामी को जो संशय हुआ उससे उन को क्या अभिमत था? इसके उत्तर में टीकाकार मौन हैं। कल्पना-उद्यान में पर्यटन करने से जो कल्पना-पुष्प चुन पाया हूँ, उन्हें पाठकों के कर कमलों में अर्पित कर देता हूँ। कहाँ तक उनमें औचित्य है, यह पाठक स्वयं विचार करें। प्रथम श्रुतस्कंध ]. श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [107 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी जगह कहा है-"न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति।" संशय उत्पन्न हुए बिना -संशय किए बिना मनुष्य को कल्याण-मार्ग दिखाई नहीं पड़ता। तात्पर्य यह है कि एक संशय आत्मा का घातक होता है और दूसरा संशय आत्मा का रक्षक होता है। जम्बूस्वामी का यह संशय अपूर्व ज्ञान-ग्रहण का कारण होने से आत्मा का घातक नहीं है प्रत्युत साधक है। "जायकोउहल्ले-जातकुतूहल"। जम्बू स्वामी को कौतूहल हुआ, उनके हृदय में उत्सुकता उत्पन्न हुई। उत्सुकता यह कि मैं आर्य श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करूंगा तब वे मुझे अपूर्व वस्तुतत्त्व समझाएंगे, उस समय उन के मुखारविन्द से निकले हुए अमृतमय वचन श्रवण करने में कितना आनंद होगा! ऐसा विचार करके जम्बूस्वामी को कौतूहल हुआ। ___ यहां तक "जायसड्ढे, जायसंसए" और "जायकोउहल्ले" इन तीनों पदों की व्याख्या की गई है इससे आगे कहा गया है-"उप्पन्नसड्ढे, उप्पन्नसंसए, उप्पन्नकोउहल्ले" अर्थात् श्रद्धा उत्पन्न हुई संशय उत्पन्न हुआ और कौतूहल उत्पन्न हुआ। ___ यहां यह प्रश्न हो सकता है कि "जायसड्ढे" और "उप्पन्नसड्ढे" में क्या अन्तर है। ये दो विशेषण अलग-अलग क्यों कहे गए हैं ? इस का उत्तर यह है कि श्रद्धा जब उत्पन्न हुई तब वह प्रवृत्त भी हुई, जो श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई उसकी प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती। श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र के अनन्तर श्री विपाक सूत्र का स्थान है / प्रश्नव्याकरण में 5 आस्रवों तथा 5 संवरों का सविस्तार वर्णन है। विपाक सूत्र में 20 कथानक हैं, जिन में कुछ आश्रवसेवी व्यक्तियों के विषादान्त जीवन का वर्णन है और वहां ऐसे कथानक भी संकलित हैं, जिन में साधुता के उपासक सच्चरित्री मानवों के प्रसादान्त जीवनों का परिचय कराया गया है। जब श्री जम्बू स्वामी ने प्रश्नव्याकरण का अध्ययन कर लिया, उस पर मनन एवं उसे धारण कर लिया, तब उनके हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने आस्रव और संवर का स्वरूप तो अवगत कर लिया है परन्तु मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि कौन आस्रव क्या फल देता है ? आस्रव-जन्य कर्मों का फल स्वयमेव उदय में आता है या किसी दूसरे के द्वारा ? कर्मों का फल इसी भव में मिलता है, या परभव में ? कर्म जिस रूप में किये हैं उसी रूप में उन का भोग करना होगा, या किसी अन्य रूप में ? अर्थात् यदि यहां किसी ने किसी की हत्या की है तो क्या परभव में उसी जीव के द्वारा उसे अपनी हत्या करा कर कर्मों का उपभोग करना होगा, या उस कर्म का फल अन्य किसी दु:ख के रूप में प्राप्त होगा? इत्यादि विचारों का प्रवाह उन के मानस में प्रवाहित होने लगा। जिसे "जातसंशय" पद से सूत्रकार ने अभिव्यक्त किया है, "रहस्यं तु केवलिगम्यम्।" श्रद्धेय श्री घासी लाल जी म० अपनी विपाकसूत्रीय टीका में भी विपाकमूलक संशय का अभिप्राय लिखते हैं। उन्होंने लिखा है जात-संशयः-जातः प्रवृतः संशयो यस्य स तथा। दशमांगे प्रश्नव्याकरणसूत्रे भगवत्-प्रोक्तमास्रवसंवरयोः स्वरूपं धर्माचार्यसमीपे श्रुतं तद्विपाक-विषये संशयोत्पत्या जातसंशय इति भावः / अर्थात् श्री जम्बू स्वामी ने पहले भगवान् द्वारा प्रतिपादित दशमांग प्रश्नव्याकरण नामक सूत्र में आस्रव और संवर के भाव श्री सुधर्मा स्वामी के पास सुने थे, अत: उनके विपाक के विषय में उन्हें संशय की उत्पत्ति हुई। 108 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कथन में यह तर्क किया जा सकता है कि श्रद्धा में जब प्रवृत्ति होती है तब स्वयं प्रतीत हो जाती है कि श्रद्धा उत्पन्न हुई है। अर्थात्-श्रद्धा प्रवृत्त हुई है तो उत्पन्न हो ही गई है फिर प्रवृत्ति और उत्पत्ति को अलग-अलग कहने की क्या आवश्यकता थी? उदाहरण के लिए-एक बालक चल रहा है। चलते हुए उस बालक को देखकर यह तो आप ही समझ में आ जाता है कि बालक उत्पन्न हो चुका है। उत्पन्न न हुआ हो तो चलता ही कैसे? इसी प्रकार जम्बूस्वामी की प्रवृत्ति श्रद्धा में हुई है, इसी से यह बात समझ में आ जाती है कि उनमें श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। फिर श्रद्धा की प्रवृत्ति बताने के पश्चात् उस की उत्पत्ति बताने की क्या आवश्यकता है? इस तर्क का उत्तर यह है कि-प्रवृत्ति और उत्पत्ति में कार्य-कारणभाव प्रदर्शित करने के लिए दोनों पद पृथक्-पृथक् कहे गए हैं। कोई प्रश्न करे कि श्रद्धा में प्रवृत्ति क्यों हुई? तो इसका उत्तर होगा कि, श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। कार्य-कारण भाव बताने से कथन में संगतता आती है, सुन्दरता आती है और शिष्य की बुद्धि में विशुद्धता आती है। कार्यकारणभाव प्रदर्शित करने से वाक्य अलंकारिक बन जाता है। सादी और अलंकारयुक्त भाषा में अन्तर पड़ जाता है। अलंकारमय भाषा उत्तम मानी जाती है। अतएव कार्य कारण भाव दिखाना भाषा का दूषण नहीं है, भूषण है। इस समाधान को साक्षी पूर्वक स्पष्ट करने के लिए साहित्य-शास्त्र का प्रमाण देखिए-"प्रवृत्त-दीपामप्रवृत्तभास्करां प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरीम्' अर्थात् जिस में दीपकों की प्रवृत्ति हुई, सूर्य की प्रवृत्ति नहीं है ऐसी चन्द्रमा के प्रकाश वाली रात्रि समझी। इस कथन में भी कार्यकारणभाव की घटना हुई है। "प्रवृत्त-दीपाम्" कहने से "अप्रवृत्त-भास्करां" का बोध हो ही जाता है, क्योंकि सूर्य की प्रवृत्ति होने पर दीपक नहीं जलाए जाते। अतः जब दीपक जलाए गए हैं तो सूर्य प्रवृत्त नहीं है, यह जानना स्वाभाविक है, फिर भी यहां सूर्य की प्रवृत्ति का अभाव अलग कहा गया है। यह कार्यकारण भाव बताने के लिए ही है। कार्यकारण भाव यह है कि सूर्य नहीं है अतः दीपक जलाए गए हैं। जैसे यहां कार्य कारणभाव प्रदर्शित करने के लिए अलग दो पदों का ग्रहण किया गया है, उसी प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में भी कार्यकारण भाव दिखाने के लिए ही "जायसड्ढे" और "उप्पन्नसड्ढे" इन दो पदों का अलग-अलग प्रयोग किया गया है। श्रद्धा में प्रवृत्ति होने से यह स्वतः सिद्ध है कि श्रद्धा उत्पन्न हुई, लेकिन वाक्यालंकार के लिए जैसे उक्त वाक्य में सूर्य नहीं है यह दुबारा कहा गया है, उसी प्रकार यहां "श्रद्धा उत्पन्न हुई" यह कथन किया गया प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [109 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जायसड्ढे"और"उप्पन्नसडढे"की ही तरह "जायसंसए" और "उप्पन्नसंसए" तथा "जायकोउहल्ले" और "उप्पन्नकोउहल्ले" पदों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। इन 6 पदों के पश्चात् कहा है-"संजायसड्ढे, संजायसंसए संजायकोउहल्ले" और "समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले"। इस प्रकार 6 पद और कहे गए अर्वाचीन और प्राचीन शास्त्रों में शैली सम्बन्धी बहुत अन्तर है, प्राचीन ऋषि पुनरूक्ति का इतना ख्याल नहीं करते थे, जितना संसार के कल्याण का करते थे। उन्होंने जिस रीति से संसार की भलाई अधिक देखी, उसी रीति को अपनाया और उसी के अनुसार कथन किया, यह बात जैनशास्त्रों के लिए ही लागू नहीं होती वरन् सभी प्राचीन शास्त्रों के लिए लागू है। गीता में अर्जुन को बोध देने के लिए एक ही बात विभिन्न शब्दों द्वारा दोहराई गई है। एक सीधे-सादे उदाहरण पर विचार करने से यह बात समझ में आ जाएगी-किसी का लड़का सम्पत्ति लेकर प्रदेश जाता हो तो उसे घर में भी सावधान रहने की चेतावनी दी जाती है। घर से बाहर भी चेताया जाता है कि सावधान रहना और अन्तिम बार विदा देते समय भी चेतावनी दी जाती है। एक ही बात बार-बार कहना पुनरूक्ति ही है लेकिन पिता होने के नाते मनुष्य अपने पुत्र को बार-बार समझाता है। यही पिता पुत्र का सम्बन्ध सामने रख कर महापुरुषों ने शिक्षा की लाभप्रद बातों को बार-बार दोहराया है। ऐसा करने में कोई हानि नहीं, वरन् लाभ ही होता है। अन्तिम 6 पदों में पहले के तीन पद इस प्रकार हैं-"संजायसड्ढे, संजायसंसए, संजाय-कोउहल्ले"। इन तीनों पदों का अर्थ वैसा ही है जैसा कि "जायसड्ढे, जायसंसए और जायकोउहल्ले" पदों का बताया जा चुका है। अन्तर केवल यही है कि इन पदों में 'जाय' के साथ 'सम्' उपसर्ग लगा हुआ है। 'जाय' का अर्थ है प्रवृत्त और 'सम्' उपसर्ग अत्यन्तता का बोधक है। जैसे-मैंने कहा, इस स्थान पर व्यवहार में कहते हैं-'मैंने खूब कहा' 'मैं बहुत चला' इत्यादि। इस प्रकार जैसे अत्यन्तता का भाव प्रकट करने के लिए बहुत या खूब शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार शास्त्रीय भाषा में अत्यन्तता बताने के लिए 'सम्' शब्द लगाया जाता है, अतएव तीनों पदों का यह अर्थ हुआ कि-बहुत श्रद्धा हुई' बहुत संशय हुआ और बहुत कौतूहल हुआ और इसी प्रकार "समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए" और "समुप्पन्नकोउहल्ले" पदों का भाव भी समझ लेना चाहिए। इन पदों के इस अर्थ में आचार्यों में किंचिद् मतभेद है। कोई आचार्य इन बारह पदों का अर्थ अन्य प्रकार से भी करते हैं। वे 'श्रद्धा' पद का अर्थ'पूछने की इच्छा' करते हैं। और 110] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं कि श्रद्धा अर्थात् 'पूछने की इच्छा' संशय से उत्पन्न होती है और संशय कौतुहल से उत्पन्न हुआ। यह सामने ऊंची सी दिखाई देने वाली वस्तु मनुष्य है या ठूण्ठ है इस प्रकार का अनिश्चयात्मक ज्ञान संशय कहलाता है, इस प्रकार व्याख्या करके आचार्य एक-दूसरे पद के साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं / अर्थात् श्रद्धा के साथ संशय का, और संशय से कौतूहल का सम्बन्ध जोड़ते हैं। कौतूहल का अर्थ उन्होंने यह किया है हम यह बात कैसे जानेंगे? इस प्रकार की उत्सुकता को कौतूहल कहते हैं। इस प्रकार व्याख्या करके वे आचार्य कहते हैं कि इन बारह पदों के चार-चार हिस्से करने चाहिएं। इन चार हिस्सों में एक हिस्सा अवग्रह का है, एक ईहा का है, एक अवाय का है और एक धारणा का है। इस प्रकार इन चार विभागों में बारह पदों का समावेश हो जाता है। दूसरे आचार्य का कथन है कि इन बारह पदों का समन्वय दूसरी ही तरह से करना चाहिए। उनके मन्तव्य के अनुसार बारह पदों के भेद करके उन्हें अलग-अलग करने की आवश्यकता नहीं है। जात, संजात, उत्पन्न, समुत्पन्न इन सब पदों का एक ही अर्थ है। प्रश्न होता है कि एक ही अर्थ वाले इतने पदों का प्रयोग क्यों किया गया ? इसका वे उत्तर देते हैं कि-भाव को बहुत स्पष्ट करने के लिए इन पदों का प्रयोग किया गया है। एक ही बात को बार-बार कहने से पुनरुक्ति दोष आता है। अगर एक ही भाव के लिए अनेक पदों का प्रयोग किया गया तो यहां पर भी यह दोष क्यों न होगा? इस प्रश्न का उत्तर उन आचार्यों ने यह दिया है कि-स्तुति करने से पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता। शास्त्रकार ने विभिन्न पदों द्वारा एक ही बात कह कर श्री गौतम स्वामी की प्रशंसा की है, अतएव बारबार के इस कथन को पुनरुक्ति दोष नहीं कहा जा सकता, इसका प्रमाण यह है वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निंदन्। यत् पदमसकृद् ब्रूते तत्पुनरुक्तं न दोषाय॥ अर्थात् हर्ष या भय आदि किसी प्रबल भाव से विक्षिप्त मन वाला वक्ता, किसी की प्रशंसा या निन्दा करता हुआ अगर एक ही पद को बार-बार बोलता है तो उसमें पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता। जिन आचार्य के मतानुसार इन बारह पदों को अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में विभक्त किया गया है। उनके कथन के आधार पर यह प्रश्न हो सकता है कि अवग्रह आदि का क्या अर्थ है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाले मतिज्ञान के ये चार भेद हैं। अर्थात् हम जब किसी वस्तु को किसी इन्द्रिय या मन द्वारा जानते हैं, तो वह ज्ञान किस क्रम से उत्पन्न होता है यही प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [111 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम बताने के लिए शास्त्रों में चार भेद कहे गए हैं। साधारणतया प्रत्येक मनुष्य समझता है कि मन और इन्द्रिय से एकदम जल्दी ही ज्ञान हो जाता है। वह समझता है मैंने आंख खोली और ' पहाड़ देख लिया। अर्थात् उसकी समझ के अनुसार इन्द्रिय या मन की क्रिया होते ही ज्ञान हो जाता है, ज्ञान होने में तनिक भी देर नहीं लगती। किन्तु जिन्होंने आध्यात्मिक विज्ञान का अध्ययन किया है उन्हें मालूम है कि ऐसा नहीं होता। छोटी से छोटी वस्तु देखने में भी बहुत समय लग जाता है। मगर वह समय अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण हमारी स्थूल कल्पना शक्ति में नहीं आता। इन्द्रिय या मन से ज्ञान होने में कितना काल लगता है, यह बात नीचे दिखाई जाती है। जब हम किसी वस्तु को जानना या देखना चाहते हैं तब सर्व-प्रथम दर्शनोपयोग होता है। निराकार ज्ञान को जिस में वस्तु का अस्तित्व मात्र प्रतीत होता है, जैनदर्शन में दर्शनोपयोग कहते हैं। दर्शन हो जाने के अनन्तर अवग्रह ज्ञान होता है। अवग्रह दो प्रकार का है (1) .. व्यंजनावग्रह और (2) अर्थावग्रह / मान लीजिए कोई वस्तु पड़ी है, परन्तु उसे दीपक के बिना नहीं देख सकते। जब दीपक का प्रकाश उस पर पड़ता है, तब वह वस्तु को प्रकाशित कर देता है, इसी प्रकार इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान में जिस वस्तु का जिस इन्द्रिय से ज्ञान होता है उस वस्तु के परमाणु इन्द्रियों से लगते हैं। उस वस्तु का और इन्द्रिय का सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। व्यंजन का वह अवग्रह-ग्रहण व्यंजनावग्रह कहलाता है। यह व्यंजनावग्रह आंख से और मन से नहीं होता क्योंकि आंख और मन का वस्तु के परमाणुओं के साथ सम्बन्ध नहीं होता, ये दोनों इन्द्रियां पदार्थ का स्पर्श किए बिना ही पदार्थ को जान लेती हैं, अर्थात् अप्राप्यकारी हैं। शेष चार इन्द्रियों से ही व्यंजनावग्रह होता है अर्थात्-आंख और मन को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों से पहले व्यंजनावग्रह ही होता है। व्यंजनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह होता है। व्यंजनावग्रह द्वारा अव्यक्त-रूप से जानी हुई वस्तु को "यह कुछ है" इस रूप से जानना अर्थावग्रह कहलाता है अर्थात् अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रह की एक चरम पुष्ट अंश ही है। अवग्रह के इन दोनों भेदों में से अर्थावग्रह तो पांचों इन्द्रियों से और मन से भी होता है, अतएव उसके छह भेद हैं / व्यंजनावग्रह आंख को छोड़कर चार इन्द्रियों से होता है। वह मन एवं आंख से नहीं होता। तात्पर्य यह है कि-इन्द्रियों और मन से ज्ञान होने में पहले अवग्रह होता है। अवग्रह एक प्रकार का सामान्य ज्ञान है। जिसे यह ज्ञान होता है उसे स्वयं भी मालूम नहीं होता कि मुझे क्या ज्ञान हुआ। लेकिन विशिष्ट ज्ञानियों ने इसे भी देखा है, जिस प्रकार कपड़ा फाड़ते समय एक- एक तार का टूटना मालूम नहीं होता है लेकिन तार टूटते अवश्य हैं / तार न टूटे तो कपड़ा फट नहीं सकता। इस प्रकार अवग्रह ज्ञान 112 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं मालूम नहीं पड़ता मगर वह होता अवश्य है। अवग्रह न होता तो आगे के ईहा, अवाय, धारणा आदि ज्ञानों का होना संभव नहीं था। क्योंकि बिना अवग्रह के ईहा, बिना ईहा के अवाय और बिना अवाय के धारणा नहीं होती। ज्ञानों का यह क्रम निश्चित है। अवग्रह के बाद ईहा होती है। यह कुछ है इस प्रकार का अर्थावग्रह ज्ञान जिस वस्तु के विषय में हुआ था, उसी वस्तु के सम्बन्ध में भेद के विचार को ईहा कहते हैं। यह वस्तु अमुक गुण की है, इसलिए अमुक होनी चाहिए, इस प्रकार का कुछ-कुछ कच्चा या पक्का ज्ञान ईहा कहलाता है। ___ ईहा के पश्चात् अवाय का ज्ञान होता है। जिस के सम्बन्ध में ईहा ज्ञान हुआ है, उसके सम्बन्ध में निर्णय-निश्चय पर पहुंच जाना अवाय है। "यह अमुक वस्तु ही है" इस ज्ञान को अवाय कहते हैं। "यह खड़ा हुआ पदार्थ ठूण्ठ होना चाहिए" इस प्रकार का ज्ञान ईहा और यह पदार्थ यदि मनुष्य होता है तो बिना हिले डुले एक ही स्थान पर खड़ा न रहता, इस पर पक्षी निर्भय हो कर न बैठता, इसलिए यह मनुष्य नहीं है ठूण्ठ ही है इस प्रकार का निश्चयात्मक ज्ञान अवाय कहलाता है। अर्थात् जो है उसे स्थिर करने वाला और जो नहीं है, उसे उठाने वाला निर्णय रूप ज्ञान अवाय है। चौथा ज्ञान धारणा है। जिस पदार्थ के विषय में अवाय हुआ है, उसी के सम्बन्ध में धारणा होती है। धारणा, स्मृति और संस्कार ये एक ही ज्ञान की शाखाएं हैं। जिस वस्तु में अवाय हुआ है उसे कालान्तर में स्मरण करने के योग्य सुदृढ़ बना लेना धारणा ज्ञान है। कालान्तर में उस पदार्थ को याद करना स्मरण है और स्मरण का कारण संस्कार कहलाता है। तात्पर्य यह है कि अवाय से होने वाला वस्तुतत्त्व का निश्चय कुछ काल तक तो स्थिर रहता है और मन का विषयान्तर से सम्बन्ध होने पर वह लुप्त हो जाता है। परन्तु लुप्त होने पर भी. मन पर ऐसे संस्कार छोड़ जाता है कि जिस से भविष्य में किसी योग्य निमित्त के मिल जाने पर उस निश्चय किए हुए विषय का स्मरण हो आता है। इस निश्चय की सततधारा, धाराजन्य संस्कार तथा संस्कारजन्य स्मृति ये सब धारणा के नाम से अभिहित किए जाते हैं। यदि संक्षेप में कहें तो अवाय द्वारा प्राप्त ज्ञान का दृढ़ संस्कार धारणा है। पहले आचार्य का कथन है कि जम्बूस्वामी को प्रथम श्रद्धा, फिर संशय और कौतूहल में प्रवृत्ति हुई। ये तीनों अवग्रह ज्ञान रूप हैं। प्रश्न होता है कि यह कैसे.मालूम हुआ कि जम्बू स्वामी को पहले पहल अवग्रह हुआ? इस का उत्तर यह है-पृथ्वी में दाना बोया जाता है। दाना, पानी का संयोग पाकर पृथ्वी में गीला होता है-फूलता है और तब उस में अंकुर निकलता है। अंकुर जब तक पृथ्वी से बाहर नहीं निकलता, तब तक दीख नहीं पड़ता। मगर जब अंकुर प्रथम श्रुतस्कंध ] . श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [113 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वी से बाहर निकलता है, तब उसे देख कर हम यह जान लेते हैं कि यह पहले छोटा अंकुर था जो दिखाई नहीं पड़ता था, मगर था वह अवश्य, यदि छोटे रूप में न होता तो अब बड़ा होकर कैसे दिखाई पड़ता ? इस प्रकार बड़े को देखकर छोटे का अनुमान हो ही जाता है। कार्य को देख कर कारण को मानना ही न्याय संगत है। बिना कारण के कार्य का होना असंभव है। इसी प्रकार कार्य कारण के सम्बन्ध से यह भी जाना जा सकता है कि जो ज्ञान ईहा के रूप में आया है वह अवग्रह के रूप में अवश्य था, क्योंकि बिना अवग्रह के ईहा का होना सम्भव नहीं है। जम्बूस्वामी छद्मस्थ थे। उन्हें जो मतिज्ञान होता है वह इन्द्रिय और मन से होता है। इन्द्रिय तथा मन से होने वाले ज्ञान में बिना अवग्रह के ईहा नहीं होती। सारांश यह है कि पहले के "जायसड्ढे जायसंसए" और "जायकोउहल्ले" ये तीन पद अवग्रह के हैं। "उप्पन्नसड्ढे, उप्पन्नसंसए" और "उप्पन्नकोउहल्ले"ये तीन पद ईहा के हैं। "संजायसड्ढे, संजायसंसए" और "संजायकोउहल्ले"ये तीन पद अवाय के हैं। और "समुप्पन्नसड्ढे, समुप्पन्नसंसए" तथा "समुप्पन्नकोउहल्ले" ये तीनों पद धारणा के हैं। इसके आगे जम्बूस्वामी के सम्बन्ध में कहा है कि "उट्ठाए उठेइअर्थात् जम्बूस्वामी उठने के लिए तैयार हो कर उठते हैं। प्रश्न-होता है कि यहां "उट्ठाए उद्वेइ" ये दो पद क्यों दिए गए हैं ? इसका यह उत्तर है कि-दोनों पद सार्थक हैं। देखिए-पहले पद से सूचित किया है कि जम्बूस्वामी उठने को तैयार हुए। दूसरे पद से सूचित किया है कि वे उठ खड़े हुए। दोनों पद न देकर यदि एक ही पद होता तो उठने के आरम्भ का ज्ञान तो होता परन्तु "उठ कर खड़े हुए"-यह ज्ञान न हो पाता। जैसे-बोलने के लिए तैयार हुए, इस कथन में यह सन्देह रह जाता है कि बोले या नहीं , इसी प्रकार एक पद रखने से यहां भी सन्देह रह जाता। "आर्य जम्बू स्वामी, आर्य सुधर्मा स्वामी को विधिवत् वन्दना नमस्कार कर उन की सेवा में उपस्थित हुए और उपस्थित होकर इस प्रकार निवेदन करने लगे"- इस भावार्थ को सूचित करने वाले "नमंसित्ता जाव पन्जुवासति पंजुवासित्ता एवं वयासी" इस पाठ में आए हुए "जाव यावत्" शब्द को निम्नांकित पाठ का उपलक्षण समझना, जैसे कि ___ "अजसुहम्मस्स थेरस्स णच्चासण्णे नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहं पंजलिउडे विणएणं ......... [आर्यसुधर्मणः स्थविरस्य नात्यासन्ने नातिदूरे शुश्रूषमाणः नमस्यन् अभिमुखं प्रांजलिपुटः विनयेन...........] श्री जम्बूस्वामी ने आर्य सुधर्मास्वामी के प्रति क्या निवेदन किया अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं 114 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल-जति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणंजाव संपत्तेणं दसमस्स अंगस्स पहावागरणाणं अयमढे पण्णत्ते, एक्कारसमस्स णं भंते ! अंगस्स विवागसुयस्य समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? तते णं अजसुहम्मे अणगारे जंबुं अणगारं एवं वयासी एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं एक्कारसमस्स अंगस्स विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तंजहा-दुहविवागा य सुह-विवागा याजति णं भंते ! समणेणंजाव संपत्तेणं एक्कारसमस्स अंगस्सं विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तंजहा-दुहविवागा य सुहविवागा य। पढमस्स णं भंते ! सुयखंधस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता ? तते णं अज्जसुहम्मे अणगारे जंबुंअणगारं एवं वयासीएवं खलु जम्बू! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा-मियाउत्ते (1) उज्झियते (2) अभग्ग (3) सगडे (4) बहस्सती (5) नंदी (6) उंबर (7) सोरियदत्ते य (8) देवदत्ता य (9) अंजू या (10) // जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा-मियाउत्ते जाव अंजू य। पढ़मस्स णं भंते ! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? तते णं से सुहम्मे अणगारे जंबुं अणगारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू!। - छाया-यदि भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सम्प्राप्तेन दशमस्यांगस्य प्रश्नव्याकरणानामयमर्थः प्रज्ञप्तः। एकादशस्य भदन्त ! अंगस्य विपाकश्रुतस्य श्रमणेन यांवत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः?, ततः आर्यसुधर्माऽनगारो जम्बूमनगारमेवमवदत्एवं खलु जम्बू :! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेनैकादशस्यांगस्य विपाकश्रुतस्य द्वौ श्रुतस्कन्धौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा-दुःखविपाकाश्च सुखविपाकाश्च। यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेनैकादशस्यांगस्य विपाकश्रुतस्य द्वौ श्रुतस्कन्धौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा-दुःखविपाकाः, सुखविपाकाश्च / प्रथमस्य भदन्त! श्रुतस्कन्धस्य दुःखविपाकानां श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कत्यध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ? ततः आर्यसुधर्माऽनगारो जम्बूमनगारमेवमवादीत् एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन दुःखविपाकानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-मृगापुत्रः (1) उज्झितकः (2) अभग्नः (2) शकट: (4) बृहस्पतिः . प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [115 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नन्दी (6) उम्बर: (7) शौरिकदत्तश्च (8) देवदत्ता च (9) अंजूश्च (10) / यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन दुःखविपाकानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथामृगापुत्रो यावदञ्जूश्च / प्रथमस्य भदन्त ! अध्ययनस्य दुःखविपाकानां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? ततः सः सुधर्माऽनगारो जम्बूमनगारमेवमवादीत्-एवं खलु जम्बूः ! पदार्थ-जति-यदि। णं-यह पद वाक्य-सौन्दर्य के लिए है, ऐसा सर्वत्र जानना। भंते !-हे भगवन् ! समणेणं जाव संपत्तेणं-यावत् मोक्ष-संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने। पण्हावागरणाणंप्रश्न-व्याकरण। दसमस्स-दशम। अंगस्स-अंग का। अयमद्वे-यह अर्थ। पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है। भंते ! हे भगवन् ! विवागसुयस्स-विपाकश्रुत। एक्कारसमस्स-एकादशवें। अंगस्स-अंग का। जावयावत्। संपत्तेणं-मोक्ष-संप्राप्त। समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने। के-क्या। अटे-अर्थ। पण्णत्तेप्रतिपादन किया है। तते णं-तदनन्तर / अन्जसुहम्मे अणगारे-आर्य सुधर्मा अनगार ने। जम्बु अणगारंजम्बू नामक अनगार को। एवं-इस प्रकार / वयासी-कहा। जम्बू !-हे जम्बू ! खलु-निश्चय से। एवंइस प्रकार। जाव-यावत्। संपत्तेणं-मोक्षसंप्राप्त। समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने। विवागसुयस्सविपाकश्रुत। एक्कारसमस्स-एकादशवें। अंगस्स-अङ्ग के। दो-दो। सुयक्खंधा-श्रुतस्कन्ध। पण्णत्ताप्रतिपादन किए हैं। तंजहा-जैसे कि। दुहविवागा य-दुःख विपाक तथा। सुहविवागा य-सुखविपाक। भंते !-हे भगवन!। जति णं-यदि। जाव-यावत्। संपत्तेणं-मोक्ष-संप्राप्त। समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने। विवागसुयस्स-विपाकश्रुत नामक, एक्कारसमस्स-एकादशवें। अंगस्स-अंग के। दो-दो। सुयखंधा-श्रुतस्कन्ध। पण्णत्ता-प्रतिपादन किए हैं। तंजहा-जैसे कि / दुहविवागा य-दु:खविपाक तथा। सुहविवागा य-सुखविपाक। भंते !-हे भगवन्। पढमस्स-प्रथम। दुहविवागाणं-दुःखविपाक नामक। सुयखंधस्स-श्रुतस्कन्ध के।जाव-यावत् / संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए। समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने। कइ-कितने। अज्झयणा-अध्ययन। पण्णत्ता-प्रतिपादन किए हैं। तते णं-तदनन्तर। अजसुहम्मे अणगारे-आर्य सुधर्मा अनगार ने। जम्बु अणगारं-जम्बू अनगार को। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहा। जम्बू !-हे जम्बू ! खलु-निश्चय से। एवं-इस प्रकार / जाव-यावत्। संपत्तेणं-मोक्षसम्प्राप्त। समणेणंश्रमण भगवान् महावीर ने / दुहविवागाणं-दुःख विपाक के। दस-दश। अज्झयणा-अध्ययन। पण्णत्ताप्रतिपादन किए हैं। तं जहा-जैसे कि / मियाउत्ते य-मृगापुत्र / (1) उज्झियते-उज्झितक ।(२)अभग्गअभग्न। (3) सगडे-शकट। (4) बहस्सती-बृहस्पति। (5) नंदी-नन्दी। (6) उम्बर-उम्बर / (7) सोरियदत्ते य-शौरिकदत्त / (8) देवदत्ता य-देवदत्ता। (9) अंजू य-तथा अञ्जु / (10) भंते!-हे भगवन् ! जति णं-यदि / जाव-यावत्। संपत्तेणं-मोक्षसम्प्राप्त। समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने। दुहविवागाणं-दुःखविपाक के। दस-दश। अज्झयणा-अध्ययन / पण्णत्ता-कथन किए हैं। तंजहाजैसे कि। मियाउत्ते-मृगापुत्र / जाव-यावत्। अंजू य-और अंजू। भंते !-हे भगवन् ! / दुहविवागाणंदुःख-विपाक के। पढमस्स-प्रथम। अज्झयणस्स-अध्ययन का। जाव-यावत्। संपत्तेणं-मोक्षसम्प्राप्त। 116 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने। के अट्ठ-क्या अर्थ। पण्णत्ते-कथन किया है। तते णं-तदनन्तर / से सुहम्मे-अणगारे-वह सुधर्मा अनगार। जंबु अणगारं-जम्बू अनगार को। एवं-इस प्रकार। वयासीकहने लगे। जम्बू !-हे जम्बू! खलु-निश्चयार्थक है। एवं-इस प्रकार। मूलार्थ-हे भगवन् ! प्रश्नव्याकरण नामक दशम अंग के अनन्तर मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत नामक एकादशवें अंग का क्या अर्थ फरमाया है ? तदनन्तर आर्य सुधर्मा अनगार ने जम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहा-हे जम्बू! मोक्ष सम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत नामक एकादशवें अंग के दो श्रुतस्कन्ध प्रतिपादन किए हैं, जैसे कि-दुःखविपाक और सुखविपाक। हे भगवन् ! यदि मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने एकादशवें विपाकश्रुत नामक अंग के दो श्रुतस्कन्ध फरमाये हैं, जैसे कि दुख:विपाक और सुखविपाक, तो हे भगवन् ! दुःख-विपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध में श्रमण भगवान् महावीर ने कितने अध्ययन कथन किए हैं ? तदनन्तर इसके उत्तर में आर्य सुधर्मा अनगार जम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहने लगे-हे जम्बू! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के दश अध्ययन प्रतिपादन किए हैं जैसे कि-मृगापुत्र (1) उज्झितक (2) अभग्न (3) शकट (4) बृहस्पति (5) नन्दी (6) उम्बर (7) शौरिकदत्त (8) देवदत्ता (9) और अञ्जू (10) / हे भगवन् ! मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दुःखविपाक के मृगापुत्र आदि दश अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ? उत्तर में सुधर्मा अनगार कहने लगे-हे जम्बू ! उसका अर्थ इस प्रकार कथन किया है। ____टीका-श्री जम्बू स्वामी ने अपने सद्गुरु श्री सुधर्मा स्वामी की पर्युपासना-सेवा करते हुए बड़े विनम्र भाव से उन के श्री चरणों में निवेदन किया कि हे भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने प्रश्नव्याकरण नाम के दशवें अंग का जो अर्थ प्रतिपादन किया है वह तो मैंने आपके श्रीमुख से सुन लिया है, अब आप यह बताने की कृपा करें कि उन्होंने विपाकश्रुत नाम के ग्यारहवें अंग का क्या अर्थ कथन किया है। जम्बू स्वामी के इस प्रश्न में विपाकश्रुत नाम के ग्यारहवें अंग के विषय को अवगत करने की जिज्ञासा सूचित की गई है, जिस के अनुरूप ही उत्तर दिया गया है। "विपाकश्रुत" का सामान्य अर्थ है-विपाक-वर्णन-प्रधान शास्त्र / पुण्य और पापरूप कर्म के फल को विपाक कहते हैं, उस के प्रतिपादन करने वाला श्रुत-शास्त्र विपाकश्रुत कहलाता है। सारांश यह है कि जिस में शुभाशुभ कर्मफल का विविध प्रकार से वर्णन किया गया हो उस शास्त्र या आगम को विपाकश्रुत कहा जाता है। प्रथम श्रुतेस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [117 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां पर "समणेणं भगवया महावीरेणंजाव संपत्तेणं" इस वाक्य में उल्लेख किया गया "जाव-यावत्" यह पद भगवान् महावीर स्वामी के सम्बन्ध में उल्लेख किये जाने वाले अन्य विशेषणों को सूचित करता है, वे विशेषण "आइगरेणं तित्थगरेणं..." इत्यादि हैं, जो कि श्री भगवती, समवायाङ्ग आदि सूत्रों में उल्लेख किये गए हैं, पाठक वहां से देख लेवें। . प्राणी वर्ग के शुभाशुभ कर्मों के फल का प्रतिपादक शास्त्र आगम परम्परा में विपाकश्रुत के नाम से प्रसिद्ध है, और यह द्वादशांग रूप प्रवचन-पुरूष का एकादशवां अंग होने के कारण ग्यारहवें अंग के नाम से विख्यात है। इसके दुखविपाक और सुखविपाक नाम के दो श्रुतस्कंन्ध हैं। यहां प्रश्न होता है कि श्रुतस्कन्ध किसे कहते हैं? इस का उत्तर यह है कि विभाग-विशेष श्रुतस्कन्ध है, अर्थात् आगम के एक मुख्यविभाग अथवा कतिपय अध्ययनों के समुदाय का नाम श्रुतस्कन्ध है। प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध हैं। पहले का नाम दुःखविपाक और दूसरे का सुखविपाक है। जिसमें अशुभकर्मों के दुखरूप विपाक-परिणामविशेष का दृष्टान्त पूर्वक वर्णन हो उसे दुःखविपाक और जिसमें शुभकर्मों के सुखरूप फल-विशेष का दृष्टान्त पूर्वक प्रतिपादन हो उसे सुखविपाक कहते हैं। भगवन् ! दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के कितने अध्ययन हैं ? जम्बू स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मास्वामी ने उसके दश अध्ययनों को नामनिर्देशपूर्वक कह सुनाया। उन के "(1) मृगापुत्र, (2) उज्झितक, (3) अभग्नसेन, (4) शकट, (5) बृहस्पति (6) नन्दिवर्धन / (7) उम्बरदत्त, (8) शौरिकदत्त (9) देवदत्ता (10) और अजू" ये दश नाम हैं। मृगापुत्रादि का सविस्तार वर्णन तो यथास्थान आगे किया जाएगा, परन्तु संक्षेप में यहां इन का मात्र परिचय करा देना उचित प्रतीत होता है (1) मृगापुत्र - एक राजकुमार था, यह दुष्कर्म के प्रकोप से जन्मान्ध, इन्द्रियविकल, वीभत्स एवं भस्मक आदि व्याधियों से परिपीड़त था। एकादि के भव में यह एक प्रान्त का शासक था परन्तु आततायी, निर्दयी, एवं लोलुपी बन कर इसने अनेकानेक दानवीय कृत्यों से अपनी आत्मा का पतन कर डाला था, जिसके कारण इसे अनेकानेक भीषण विपत्तियां सहनी पड़ी। आज का जैन संसार इसे मृगालोढे के नाम से स्मरण करता है। (2) उज्झितक - विजयमित्र नाम के सार्थवाह का पुत्र था, गोत्रासक के भव में इसने गौ, बैल आदि पशुओं के मांसाहार एवं मदिरापान जैसे गर्हित पाप कर्मों से अपने जीवन को पतित बना लिया था, उन्हीं दुष्ट कर्मों के परिणाम में इसे दुःसह कष्टों को सहन करना पड़ा। (3) अभग्नसेन - विजय चोर सेनापति का पुत्र था। निर्णय के भव में यह अण्डों का अनार्य व्यापार किया करता था, (1) विपाक :-पुण्यपापरूपकर्मफलं तत्प्रतिपादनपरं श्रुतं-'आगमो' विपाकश्रुतम् [अभयदेव सूरिः] 118 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्डों के भक्षण में यह बड़ा रस लेता था जिस के कारण इसे नरकों में भयंकर दुःख सहन करने पड़े। (4) शकट - सार्थवाह सुभद्र का पुत्र था। षण्णिक के भव में यह कसाई था मांसहारी था, देवदुर्लभ अनमोल मानव जीवन को दूषित प्रवृत्तियों में नष्ट कर इसने अपनी जीवन नौका को दुःखसागर में डुबो दिया था। (5) बृहस्पति - राजपुरोहित सोमदत्त का पुत्र था, राजपुरोहित महेश्वरदत्त के भव में यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रवर्ण के हजारों जीवित बालकों के हृदयमांसपिण्डों को निकाल कर उन से हवन किया करता था, इस प्रकार के दानवी कृत्यों से इसने अपने भविष्य को अन्धकार-पूर्ण बना लिया था जिसके कारण इसे जन्म-जन्मान्तर में भटकना पड़ा।(६) नन्दीवर्धन - मथुरानरेश श्रीदाम का पुत्र था, दुर्योधन कोतवाल के भव में यह अपराधियों के साथ निर्दयता एवं पशुता पूर्ण व्यवहार किया करता था, उनके अपराधों का इसके पास कोई मापक (पैमाना) नहीं था, जो इसके मन में आया वह इसने उन पर अत्याचार किया। इसी क्रूरता से इसने भीषण पापों का संग्रह किया, जिसने इसे नारकीय दुखों से परिपीड़ित क़र डाला। (7) उम्बरदत्त - सागरदत्त सार्थवाह का पुत्र था, वैद्य धन्वन्तरी के भव में यह लोगों को मांसाहार का उपदेश दिया करता था। मांस-भक्षणप्रचार इस के जीवन का एक अंग बन चुका था। जिस के परिणामस्वरूप नारकीय दुःख भोगने के अनन्तर भी इसे पाटलिषण्ड नगर की सड़कों पर भीषण रोगों से आक्रान्त एक कोढ़ी के रूप में धक्के खाने पड़े थे। (8) शौरिक- समुद्रदत नामक मछुवे (मच्छी मारने वाले) का * पुत्र था, श्रीद के भव में यह राजा का रसोईया था, मांसाहार इस के जीवन का लक्ष्य बन चुका था, अनेकानेक मूक पशुओं के जीवन का अन्त करके इसने महान पाप कर्म एकत्रित किया था, यही कारण है कि नरक के असह्य दुःख को भोगने के अनन्तर भी इसे इस भव में तड़पतड़प कर मरना पड़ा। (9) देवदत्ता - रोहीतक-नरेश पुष्यनन्दी की पट्टराणी थी। सिंहसेन के भव में इसने अपनी प्रिया श्यामा के मोह में फंस कर अपनी मातृतुल्य 499 देवियों को आग लगा कर भस्म कर दिया था। इस क्रूर कर्म से इस ने महान् पापकर्म उपार्जित किया। इस भव में भी इसने अपनी सास के गुह्य अंग में अग्नि तुल्य देदीप्यमान लोहदण्ड प्रविष्ट करके उस के जीवन का अन्त कर दिया। इस प्रकार के नृशंस कृत्यों से इसे दुःख सागर में डूबना पड़ा। (10) अञ्जू - महाराज विजयमित्र की अर्धांगिनी थी। पृथिवीश्री गणिका के भव में इसने सदाचार वृक्ष का बड़ी क्रूरता से समूलोच्छेद किया था, जिस के कारण इसे नरकों में दुःख भोगना पड़ा और यहां भी इसे योनिशूल जैसे भयंकर रोग से पीड़ित हो कर मरना पड़ा। प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध में मृगापुत्र आदि के नामों पर ही अध्ययनों का निर्देश किया गया है। क्योंकि दश अध्ययनों में क्रमशः इन्हीं दशों के जीवन वृत्तान्त की प्रधानता है। जैसे कि प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [119 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधानरूप से राजकुमार मृगापुत्र के वृत्तान्त से प्रतिबद्ध होने के कारण प्रथम अध्ययन मृगापुत्रीय अध्ययन के नाम से विख्यात हुआ। इसी भांति अन्य अध्ययनों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। भगवन् ! दुःखविपाक नाम के प्रथमश्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों में से प्रथम के अध्ययन का क्या अर्थ है अर्थात् उस में किस विषय का प्रतिपादन किया गया है ? जम्बूस्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मास्वामी प्रथम अध्ययनगत विषय का वर्णन आरम्भ करते हैं, जैसे कि मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं मियग्गामे णामंणगरे होत्था वण्णओ। तस्स मियग्गामस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए चंदणपायवे णामं उज्जाणे होत्था।वण्णओ। सव्वोउय० वण्णओ।तत्थ णं सुहम्मस्स जक्खाययणे होत्था चिरातीए, जहा पुण्णभद्दे। तत्थ णं मियग्गामे णगरे विजए णामं खत्तिए राया परिवसति। वण्णओ। तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स मिया णामं देवी होत्था, अहीण०। वण्णओ। तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारए होत्था, जाति-अन्धे, जाति-मूए, जाति-बहिरे, जातिपंगुले, हुण्डे य वायवे। नत्थि णं तस्स दारगस्स हत्था वा पाया वा कण्णा वा अच्छी वा नासा वा केवलं से तेसिं अंगोवंगाणं आगिई आगितिमित्ते। तते णं सा मियादेवी तं मियापुत्तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सितेणं भत्तपाणएणं पडिजागरमाणी विहरति। __छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये मृगाग्रामो नाम नगरमभूत् / वर्णकः। तस्य मृगाग्रामस्य नगरस्य बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे चन्दनपादपं नामोद्यानमभवत् / सर्वर्तु - क० वर्णकः। तत्र सुधर्मणो यक्षस्य यक्षायतनमभूत्, चिरादिकं, यथा पूर्णभद्रम्। तत्र मृगाग्रामे नगरे विजयो नाम क्षत्रियो राजा परिवसति / वर्णकः। तस्य विजयस्य क्षत्रियस्य मृगा नाम देव्यभूत्, अहीन वर्णकः। तस्य विजयस्य क्षत्रियस्य पुत्रो मृगादेव्या आत्मजो मृगापुत्रो नाम दारकोऽभवत् / जात्यन्धो, जातिमूको जातिबधिरो, जातिपंगुलो, हुण्डश्च वायवः। न स्तस्तस्य दारकस्य हस्तौ वा पादौ वा कर्णौ वा अक्षिणी वा नासे वा। 1. अङ्गावयवानामाकृतिराकारः, किंविधेत्याह-आकृतिमात्रमाकारमात्रं नोचितस्वरूपेत्यर्थः। 2. स्त: के स्थान पर हैमशब्दानुशासन के "अत्थिस्त्यादिना // 8 // 3 // 148 / " इस सूत्र से 'अत्थि' यह प्रयोग निष्पन्न हुआ है। यहां अस्ति का अत्थि नहीं समझना। 120 ] [प्रथम श्रुतस्कंध श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलं तस्य तेषामंगोपांगानामाकृतिराकृतिमात्रम् / ततः सा मृगादेवी तं मृगापुत्रं दारकं राहसिके भूमिगृहे राहसिकेन भक्तपानकेन प्रतिजागरयन्ती विहरति। . पदार्थ-तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। मियग्गामे-मृगाग्राम। णाम-नामकाणगरे-नगर।होत्था-था।वण्णओ-वर्णक-वर्णन प्रकरण पूर्ववत्। तस्स-उस। मियग्गामस्समृगाग्राम नामकाणगरस्स-नगर के।बहिया-बाहिर। उत्तरपुरस्थिमे-उत्तर-पूर्व / दिसिभाए-दिग्भाग अर्थात् ईशान कोण में। चंदणपायवे-चंदनपादप। णाम-नामक। उजाणे-उद्यान। होत्था-था। सव्वोउय०-जो कि सर्व ऋतुओं में होने वाले फल पुष्पादि से युक्त था। वण्णओ-वर्णक-वर्णन प्रकरण पूर्ववत्। तत्थ णं-उस उद्यान में। सुहम्मस्स जक्खस्स-सुधर्मा नामक यक्ष का। जक्खाययणे-यक्षायतन। होत्था-था। चिरातीए-जो कि पुराना था शेषवर्णन। जहा पुण्णभद्दे-पूर्णभद्र की भांति समझ लेना। तत्थ णं-उस। मियग्गामे-मृगाग्रामीणगरे-नगर में। विजए णाम-विजय नामक।खत्तिए-क्षत्रिय। राया-राजा। परिवसतिरहता था। वण्णओ-वर्णनप्रकरण पूर्ववत्। तस्स-उस। विजयस्स-विजय नामक। खत्तियस्स-क्षत्रिय की। मिया णाम-मृगा नामक। देवी-देवी। होत्था-थी। अहीण-जिसकी पांचों इन्द्रियां सम्पूर्ण अथच निर्दोष थीं। वण्णओ-वर्णनप्रकरण पूर्ववत्। तस्स-उस। विजयस्स-विजय। खत्तियस्स-क्षत्रिय का। पुत्ते-पुत्र। मियादेवीए-मृगादेवी का। अत्तए-आत्मज / मियापुत्ते-मृगापुत्र / णाम-नमक। दारए-बालक। होत्था-था, जो कि / जातिअन्धे-जन्म से अन्धा। जातिमूए-जन्म काल से मूक-गूंगा। जाति-बहिरे-जन्म से बहरा। जातिपंगुले-जन्म से पंगुल-लूला लंगड़ा। हुण्डे य-हुंड-जिस के शारीरिक अवयव अपने अपने प्रमाण में पूरे नहीं हैं, तथा-वायवे-उसका शरीर वायुप्रधान था। तस्स दारगस्स-उस बालक के। हत्था वा-हाथ। पाया वा-पांव। कण्णा वा-कान। अच्छी वा-आंखें / नासा वा-और नाक। नत्थि णंनहीं थी। केवलं-केवल। से-उसके। तेसिं अंगोवंगाणं-उन अंगोपांगो की। आगिई-आकृति। आगितिमित्ते-आकार मात्र थी, अर्थात् उचित स्वरूप वाली नहीं थी। तते णं-तदनन्तर। सा-वह / मियादेवी-मृगादेवी। तं-उस। मियापुत्तं-मृगापुत्र / दारगं-बालक की। रहस्सियंसि-गुप्त। भूमिघरंसिभूमिगृह-भोरे में। रहस्सितेणं-गुप्तरूप से। भत्तपाणएणं-आहार-पानी के द्वारा। पडिजागरमाणी-सेवा .करती हुई। विहरति-विहरण कर रही थी। . मूलार्थ-उस काल तथा उस समय में मृगाग्राम नामक एक सुप्रसिद्ध नगर था। उस मृगाग्राम नामक नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् ईशान कोण में सम्पूर्ण ऋतुओं में होने वाले फल पुष्पादि से युक्त चन्दन-पादप नामक एक रमणीय उद्यान था। उस उद्यान में सुधर्मा नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन था, जिसका वर्णन पूर्णभद्र के समान जानना। उस मृगाग्राम नामक नगर में विजय नाम का एक क्षत्रिय राजा निवास करता था। उस विजय नामक क्षत्रिय राजा की मृगा नाम की रानी थी जो कि सर्वांगसुन्दरी, रूप-लावण्य से युक्त थी। उस विजय क्षत्रिय का पुत्र और मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नाम का एक बालक था, जो कि जन्मकाल से ही अन्धा, प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [121 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूंगा, बहरा, पंगु, हुण्ड और वातरोगी (वात रोग से पीड़ित) था। उसके हस्त, पाद, कान, नेत्र और नासिका भी नहीं थी ! केवल इन अंगोपांगों का मात्र आकार ही था और वह आकार-चिन्ह भी उचित स्वरूप वाला नहीं था।तब मृगादेवी गुप्त भूमिगृह ( मकान के नीचे का घर) में गुप्तरूप से आहारादि के द्वारा उस मृगापुत्र बालक का पालन पोषण करती हई जीवन बिता रही थी। टीका-श्री सुधर्मा स्वामी अपने प्रधान शिष्य जम्बू स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि हे जम्बू! जब इस अवसर्पिणी का चौथा आरा व्यतीत हो रहा था, उस समय मृगाग्राम नाम का एक नगर था, उसके बाहर ईशान कोण में चन्दन पादप नाम का एक बड़ा ही रमणीय उद्यान था, जो कि सर्व ऋतुओं के फल पुष्पादि से सम्पन्न था। उस उद्यान में सुधर्मा . नाम के यक्ष का एक पुरातन स्थान था। मृगाग्राम नगर में विजय नाम का एक राजा था। उसकी मृगादेवी नाम की एक स्त्री थी जो कि परम सुन्दरी, भाग्यशालिनी और आदर्श पतिव्रता थी, उसके मृगापुत्र नाम का एक कुमार था, जो कि दुर्दैववशात् जन्म काल से ही सर्वेन्द्रियविकल और अंगोपांग से हीन केवल श्वास लेने वाला मांस का एक पिंड विशेष था। मृगापुत्र की माता मृगादेवी अपने उस बालक को एक भूमि-गृह में स्थापित कर उचित आहारादि के द्वारा उसका संरक्षण और पालन पोषण किया करती थी। प्रस्तुत आगम पाठ में चार स्थान पर "वण्णओ-वर्णक" पद का प्रयोग उपलब्ध होता है। प्रथम का नगर के साथ, दूसरा उद्यान के साथ, तीसरा-विजय राजा और चौथा मृगादेवी के साथ। जैनागमों की वर्णन शैली का परिशीलन करते हुए पता चलता है कि उन में उद्यान, चैत्य, नगरी, सम्राट, सम्राज्ञी तथा संयमशील साधु और साध्वी आदि का किसी एक आगम में सांगोपांग वर्णन कर देने पर दूसरे स्थान में अर्थात् दूसरे आगमों में प्रसंगवश वर्णन की आवश्यकता को देखते हुए विस्तार भय से पूरा वर्णन न करते हुए सूत्रकार उस के लिए "वण्णओ" यह सांकेतिक शब्द रख देते हैं। उदाहरणार्थ-चम्पा नगरी का सांगोपांग वर्णन औपपातिक सूत्र में किया गया है। और उसी में पूर्णभद्र नामक चैत्य का भी सविस्तर वर्णन है। विपाकश्रुत में भी चम्पा और पूर्णभद्र का उल्लेख है, यहां पर भी उन का-नगरी और चैत्य का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है, परन्तु ऐसा करने से ग्रन्थ का कलेवर-आकार बढ़ जाने का भय है, इसलिए यहां "वण्णओ" पद का उल्लेख करके औपपातिक आदि सूत्रगत वर्णन की ओर संकेत कर दिया गया है। इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिए। प्रस्तुत पाठ में मृगाग्राम नामक नगर का वर्णन उसी प्रकार समझना जैसा कि औपपातिक सूत्र में चम्पा नगरी का वर्णन है, अन्तर केवल इतना ही है कि जहां चम्पा के वर्णन में स्त्रीलिंग का प्रयोग किया है वहां 122 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगाग्राम नामक नगर में पुल्लिग का प्रयोग कर लेना / इसी प्रकार उद्यानादि के विषय में जान लेना। विजय राजा के साथ "वण्णओ" का जो प्रयोग है उससे औपपातिक सूत्रगत राजवर्णन समझ लेना। इसी भांति मृगादेवी के विषय में "वण्णओ" पद से औपपातिक सूत्रगत राज्ञी वर्णन की ओर संकेत किया गया है। महारानी मृगादेवी ने अपने तनुज मृगापुत्र की इस नितान्त घोर दशा में भी रक्षा करने में किसी प्रकार की न्यूनता नहीं रक्खी, उस श्वास लेते हुए मांस के लोथड़े को एक गुप्त प्रदेश में सुरक्षित रक्खा और समय पर उसे खान-पान पहुंचाया तथा दुर्गन्धादि से किसी प्रकार की भी घृणा न करते हुए अपने हाथों से उसकी परिचर्या की। यह सब कुछ अकारण मातृस्नेह को ही आभारी है, इसी दृष्टि से नीतिकारों ने "पितः शतगुणा माता गौरवेणातिरिच्यते" कहा है और "मातृदेवो भव" इत्यादि शिक्षा वाक्य भी तभी चरितार्थ होते हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गर्भावास में माता-पिता के जीवित रहने तक दीक्षा न लेने का जो संकल्प किया था, उसका मातृस्नेह ही तो एक कारण था। जैनागमों में जीव के छह संस्थान (आकार) माने हैं। उन में छठा संस्थान हुण्डक है। हुण्डक का अर्थ है-जिस शरीर के समस्त अवयव बेढब हों अर्थात् जिस में एक भी अवयव शास्त्रोक्त-प्रमाण के अनुसार न हो। मृगापुत्र हुण्डक संस्थान वाला था, इस बात को बताने के लिए सूत्रकार ने उसे 'हुण्ड' कहा है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रमाण में अंग और उपांग की रचना होनी चाहिए थी, उस प्रकार की रचना का उस (मृगापुत्र) के शरीर में अभाव था, जिससे उस की आकृति बड़ी वीभत्स एवं दुर्दर्शनीय बन गई थी। . - सूत्रकार ने मृगापुत्र को "वायवे-वायव" भी कहा है। वायव शब्द से उनका अभिप्राय 'वातव्याधि से पीड़ित व्यक्ति' से है। वात-वायु के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि-रोग का नाम वातव्याधि है। चरकसंहिता (चिकित्सा-शास्त्र) अध्याय 20 में लिखा है कि वात के विकार से उत्पन्न होने वाले रोग असंख्येय होते हैं, परन्तु मुख्य रूप से उनकी (वातजन्य रोगों की) संख्या 80 है। नखभेद, विपादिका, पादशूल, पादभ्रंश, पादसुप्ति, और गुल्फग्रह इत्यादि 80 रोगों में से मृगापुत्र को कौन सा रोग था? एक था या अधिक थे ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में सूत्रकार और टीकाकार दोनों ही मौन हैं / वात-व्याधि से पीड़ित व्यक्ति के पीठ का जकड़ जाना, गरदन का टेढ़ा होना, अंगों का सुन्न रहना, मस्तकविकृत्ति इत्यादि 1. अंग शब्द से-१-मस्तक, २-वक्षःस्थल, ३-पीठ, ४-पेट, ५-६-दोनों भुजाएं, और ७-८-दोनों पांव, इन का ग्रहण होता है, तथा उपांग-शब्द से अंग के अवयवभूत कान, नाक, नेत्र एवं अंगुली आदि का बोध होता है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [123 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकों लक्षण चरक-संहिता में लिखे हैं। विस्तार भय से यहां उन का उल्लेख नहीं किया जा रहा है। जिज्ञासु वहीं से देख सकते हैं। अब सूत्रकार मृगापुत्र का वर्णन करने के अनन्तर एक जन्मान्ध पुरुष का वर्णन करते मूल-तत्थ णं मियग्गामे नगरे एगे जातिअंधे पुरिसे परिवसति। से णं एगेणं सचक्खुतेणं पुरिसेणं पुरतो दंडएणं पगड्ढिजमाणे 2 फुट्टहडाहडसीसे मच्छियाचडगरपहकरेणं अण्णिजमाणमग्गे मियग्गामे णगरे गिहे गिहे कालुणवडियाए वित्तिं कप्पेमाणे विहरति। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिते।जाव परिसा निग्गया। तते णं से विजए खत्तिए इमीसे कहाए लद्धढे समाणे जहा कूणिए तहा निग्गते जाव पज्जुवासति, तते णं से जाति-अन्धे पुरिसे तं महया जणसदं च जाव सुणेत्ता तं पुरिसं एवं वयांसीकिण्णं देवाणुप्पिया ! अज मियग्गामे इंदमहे इ वा जाव निग्गच्छति ? तते णं से पुरिसे तं जातिअंध-पुरिसं एवं वयासी- नो खलु देवा ! इंदमहे जाव निग्गए, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे जाव विहरति, तते णं एए जाव निग्गच्छन्ति। तते णं से जातिअंधपुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी-गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! अम्हे वि समणं भगवं जाव पज्जुवासामो, तते णं से जाति-अंधपुरिसे पुरतो दंडएणं पगड्ढिजमाणे 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागते, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति-नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासति।ततेणंसमणे विजयस्स तीसे य धम्ममाइक्खइ परिसा जाव पडिगया।विजए विगए।तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स जेटे अंतेवासी इंदभूती णामं अणगारे जाव विहरति। तते णं से भगवं गोयमे तं जातिअंधपुरिसं पासति पासित्ता जायसड्ढे एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! केइ पुरिसे जातिअंधे जायअंधारूवे? हंता अत्थि।कहिणं भंते ! से पुरिसे जातिअंधे जायअंधारूवे? छाया-तत्र मृगाग्रामे नगरे एको जात्यन्धः पुरुषः परिवसति।स एकेन सचक्षुष्केण पुरुषेण पुरतो दण्डेन प्रकृष्यमाणः 2 स्फुटितात्यर्थशीर्षो मक्षिकाप्रधानसमूहेनान्वीयमान 124 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गो मृगाग्रामे नगरे गृहे गृहे कारुण्यवृत्त्या वृत्तिं कल्पयन् विहरति / तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरो यावत् समवसृतः। यावत् परिषद् निर्गता। ततः स विजयः क्षत्रियोऽनया कथया लब्धार्थः सन् यथा कूणिकस्तथा निर्गतो यावत् पर्युपास्ते। ततः स जात्यन्धः पुरुषस्तं महाजनशब्दं च यावत् श्रुत्वा तं पुरुषं एवमवदत् किं ननु देवानुप्रिय ! अद्य मृगाग्रामे इन्द्रमहो वा यावन्निर्गच्छति ? ततः स पुरुषस्तं जात्यन्धपुरुष एवमवादीत्-नो खलु देवा ! इन्द्रमहो यावन्निर्गतः, एवं खलु देवानुप्रिय! श्रमणो यावत् विहरति,-तत एते यावन्निर्गच्छन्ति। ततः स जात्यन्धः पुरुषः तं पुरुषमेवमवादीत्गच्छावो देवानुप्रिय ! आवामपि श्रमणं भगवन्तं यावत् पर्युपास्वहे। ततः स जात्यन्धपुरुषः, पुरतो दण्डेन प्रकृष्माणो 2 यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागतः उपागत्य त्रिकृत्वः २आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति कृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा यावत् पर्युपास्ते। ततः श्रमणो विजयाय तस्यै च धर्ममाख्याति, परिषद् प्रतिगता। विजयोऽपि गतः। ततः तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूति मानगारो यावत् विहरति। ततः स भगवान् गौतमस्तं जात्यन्धपुरुषं पश्यति, दृष्ट्वा जातश्रद्धो यावदेवमवादीत्अस्ति भदन्त ! कश्चित्पुरुषो जात्यन्धो जातान्धकरूपः ? हन्त अस्ति। कुत्र भदन्त ! सः पुरुषो जात्यन्धो जातान्धकरूपः? पदार्थ-तत्थ णं-उस। मियग्गामे-मृगाग्राम। णगरे-नगर में। एगे-एक। जातिअंधे-जन्मान्ध। पुरिसे-पुरुष / परिवसति-रहता था। एगेणं-एक। सचक्खुतेणं-चक्षु वाले। पुरिसेणं-पुरुष से। दंडएणंदण्ड के द्वारा / पुरतो-आगे को। पगड्ढिजमाणे-ले जाया जाता हुआ। 'फुट्टहडाहडसीसे-जिस के शिर के बाल अत्यन्त अस्तव्यस्त बिखरे हुए थे। मच्छियाचडगरपहकरेणं-मक्षिकाओं के विस्तृत समूह से। अंण्णिजमाणमग्गे-जिसका मार्ग अनुगत हो रहा था अर्थात् जिसके पीछे मक्षिकाओं के बड़े-बड़े झुण्ड लगे रहते थे। से-वह-जन्मान्ध पुरुष। मियग्गामे णगरे-मृगाग्राम नगर में। गिहे २-घर-घर में। कालुणवडियाए-कारुण्य-दैन्यवृत्ति से। वित्तिं-आजीविका। कप्पेमाणे विहरति-चलाता हुआ विहरण कर रहा था। तेणं-कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान् महावीर। [ग्रामानुग्राम विहार करते हुए] जाव समोसरिते-यावद् मृगाग्राम नगर के चन्दनपादप 1. "इन्दमहे इ वा" यहां पठित 'इ' कार वाक्यालंकारार्थक है। इसलिये इस की छाया नहीं दी गई। 'वा' पद समुच्चयार्थ है। 2. आदक्षिणाद् आ दक्षिणहस्ताद् आरभ्य, प्रदक्षिणः परितो भ्राम्यतो दक्षिण एव आदक्षिण-प्रदक्षिणस्तं करोतीति भाव (भगवती सूत्रे वृत्तिकारः)। 3. स्फुटितं-स्फुटितकेशसंचयत्वेन विकीर्णकेशं हडाहडं-अत्यर्थं, शीर्ष शिरो यस्येति भावः। . प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [125 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्यान में पधार गए। जाव-यावद् / परिसा निग्गया-नगर निवासी जनता श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के दर्शनार्थ नगर से निकली। तते णं-तदनन्तर / से विजए खत्तिए-वह विजय नामक क्षत्रिय राजा। इमीसे कहाए लद्धढे समाणे-भगवान् महावीर स्वामी के आगमन वृत्तान्त को जान कर। जहा-जिस प्रकार / कूणिए-कूणिक राजा भगवान् के दर्शनार्थ गया था। तहा निग्गते-उसी प्रकार भगवान् के दर्शनार्थ नगर से चला। जाव पजुवासति-यावत् समवसरण में जाकर भगवान् की पर्युपासना करने लगा। तते णंतदनन्दर। से-वह / जातिअंधे पुरिसे-जन्मान्ध पुरुष / तं महया जणसई च-मनुष्यों के उस महान् शब्द को। जाव-यावत्। सुणेत्ता-सुनकर। तं पुरिसं-उस पुरुष को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिया ! -हे देवानुप्रिय ! किण्णं-क्या। अज-आज। मियग्गामे-मृगाग्राम में। इंदमहे इ वाइन्द्रमहोत्सव है। जाव-यावत्। निग्गच्छति-नागरिक जा रहे हैं ? तते णं-तदनन्तर / से पुरिसे-वह पुरुष। तं जाति अंधपुरिसं-उस जन्मान्ध पुरुष को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवा! हे देवानुप्रिय!। खलु-निश्चय ही। नो इंदमहे जाव निग्गहे-ये लोग इन्द्रमहोत्सव के कारण बाहर नहीं जा रहे हैं किन्तु। देवाणुप्पिया !-हे देवानुप्रिय! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। समणे जाव विहरति-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधार रहे हैं। तते णं एए जाव निग्गच्छंति-उसी कारण से ये लोग वहां जा रहे हैं / तते णं-तदनन्तर / से-वह। जातिअंधे पुरिसे-जन्मान्ध पुरुष। तं पुरिसं-उस पुरुष को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिया!-हे देवानुप्रिय ! अम्हे वि- हम दोनों भी। गच्छामो-चलते हैं और चल कर। समणं-श्रमण। भगवं-भगवान् की। जाव-यावत् (हम) / पजुवासामो-पर्युपासना-सेवा करेंगे। तते णं-तत्पश्चात् / से-वह / जातिअन्धे पुरिसे-जन्मान्ध पुरुष। दंडएणं-दण्ड द्वारा। पुरतो-आगे को। पगड्ढिजमाणे-ले जाया जाता हुआ। जेणेव-जहां। समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे। तेणेव-वहां पर। उवागते-आ गया। उवागच्छित्ता-वहां आ कर वह / तिक्खुत्तोतीन बार / आयाहिणं पयाहिणं-दक्षिण ओर से आरम्भ करके प्रदक्षिणा (आवर्तन)। करेति-करता है। करेत्ता-प्रदक्षिणा करके। वंदति-वन्दना करता है। नमसति-नमस्कार करता है। वंदित्ता नमंसित्तावन्दना तथा नमस्कार कर के। जाव-यावत्। पज्जुवासति-पर्युपासना-सेवा में उपस्थित होता है। तते णंतत्पश्चात्। समणे-श्रमण भगवान् महावीर। विजयस्स-विजय और। तीसे ब-उस परिषद् के प्रति। धम्ममाइक्खइ-धर्मोपदेश करते हैं। परिसा जाव पडिगया-धर्मोपदेश सुनकर परिषद् चली गई। विजए वि-विजय राजा भी। गए-चला गया। तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। समणस्स-श्रमण भगवान् महावीर के। जेटे अंतेवासी-प्रधान शिष्य। इंदभूती णामं अणगारे-इन्द्रभूति नामक अनगार। जाव विहरति-यावत् विहरण कर रहे हैं। तते णं-तदनन्तर / से-वे। भगवं भगवान्। गोयमे-गौतम स्वामी। तं-उस। जातिअंधपुरिसं-जन्मान्ध पुरुष को।पासति-देखते हैं। पासित्ता-देखकर। जायसड्ढे-जातश्रद्ध-प्रवृत्त हुई श्रद्धा वाले भगवान् गौतम / जाव-यावत्। एवं वयासी-इस प्रकार बोले। भंते !-हे भगवन् ! अत्थि णं केइ पुरिसे-क्या कोई ऐसा पुरुष भी है, जो कि। जातिअंधे-जन्मांध हो ? जायअन्धारूवे-जन्मान्धरूप हो ? हंता अत्थि-भगवान् ने कहा, हां, ऐसा पुरुष है। भन्ते!-हे भदन्त! कहिं णं-कहां है। से पुरिसे-वह पुरुष, जो कि / जातिअंधे-जन्मान्ध तथा। जायअन्धारूवे-जन्मान्धरूप 126 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थ-उस मृगाग्राम नामक नगर में एक जन्मान्ध पुरुष रहता था, आंखों वाला एक मनुष्य उस की लकड़ी पकड़े रहा करता था, उस लकड़ी के सहारे वह चला करता था, उस के सिर के बाल अत्यन्त बिखरे हुए थे, अत्यन्त मलिन होने के कारण उस के पीछे मक्खिओं के झुण्डों के झुण्ड लगे रहते थे, ऐसा वह जन्मान्ध पुरुष मृगाग्राम के प्रत्येक घर में भिक्षावृत्ति से अपनी आजीविका चला रहा था। उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी नगर के बाहर चन्दनपादप उद्यान में पधारे।[उन के पधारने का समाचार मिलते ही ] उनके दर्शनार्थ जनता नगर से चल पड़ी। तदनन्तर विजय नामक क्षत्रिय राजा भी महाराज कूणिक की तरह भगवान् के चरणों में उपस्थित हो कर उन की पर्युपासना-सेवा करने लगा। नगर के कोलाहलमय वातावरण को जान कर वह जन्मान्ध पुरुष, उस पुरुष के प्रति इस प्रकार बोला-हे देवानुप्रिय ! (हे भद्र !) क्या आज मृगाग्राम में इन्द्रमहोत्सव है जिस के कारण जनता नगर से बाहर जा रही है ? उस पुरुष ने कहा-हे देवानुप्रिय! आज नगर में इन्द्रमहोत्सव नहीं, किन्तु [बाहर चन्दनपादप नामा उद्यान में ] श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे हैं, वहां यह जनता उनके दर्शनार्थ जा रही है। तब उस अन्धे पुरुष ने कहा-चलो हम भी चलें, चलकर भगवान् की पर्युपासना-सेवा करेंगे। तदनन्तर दण्ड के द्वारा आगे को ले जाया जाता हुआ वह पुरुष जहां पर श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे वहां पर आ गया, आकर उस ! जन्मान्ध पुरुष ने भगवान् को तीन बार दाहिनी ओर से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर के वन्दना और नमस्कार किया, तत्पश्चात् वह भगवान् की पर्युपासनासेवा में तत्पर हुआ।तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने विजय राजा और परिषद्-जनता को धर्मोपदेश दिया। भगवान् की कथा को सुनकर राजा विजय तथा परिषद् चली गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नाम के अनगार [ गौतम गणधर ] भी वहां विराजमान थे। भगवान् गौतम स्वामी ने अन्धे पुरुष को देखा, देखकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से निवेदन किया-क्या भदन्त ! कोई ऐसा पुरुष भी है कि जो जन्मान्ध तथा जन्मान्धरूप हो ? भगवान् ने फरमाया-हां, गौतम ! है। गौतम स्वामी ने पुनः पूछा -हे भदन्त ! वह पुरुष कहां है जो जन्मान्ध (जिस के नेत्रों का आकार तो है परन्तु उस में देखने की शक्ति न हो) और जन्मान्धरूप (जिस के शरीर में नेत्रों का आकार भी नहीं बन पाया, अत्यन्त कुरूप) है ? टीका-प्रस्तुत सूत्र में एक जन्मान्ध व्यक्ति के जीवन का परिचय कराया गया है। 1. वचन से स्तुति करना वन्दना है, काया से प्रणाम करना नमस्कार कहलाता है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [127 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकार कहते हैं कि मृगाग्राम नगर में वह निवास किया करता था, उसके पास एक सहायक था जो लाठी पकड़ कर उसे चलने में सहायता देता था, पथ-प्रदर्शक का काम किया करता था। उस जन्मान्ध की शारीरिक अवस्था बड़ी घृणित थी, सिर के बाल अत्यन्त बिखरे हुए थे, पागल के पीछे जैसे सैंकड़ों उद्दण्ड बालक लग जाते हैं और उसे तंग करते हैं, वैसे ही उस व्यक्ति को मक्खियों के झुण्डों के झुण्ड घेरे हुए रहते थे जो उस की अन्तर्वेदना को बढ़ाने का कारण बन रहे थे। वह मृगाग्राम के प्रत्येक घर में घूम-घूम कर भिक्षा-वृत्ति द्वारा अपने दुःखी जीवन को जैसे-तैसे चला रहा था। "मच्छियाचडगरपहकरेणं अण्णिजमाणमग्गे-मक्षिकाप्रधानसमूहेनान्वीयमानमार्गः" 1 यह उल्लेख तो उस अन्धपुरुष की अत्यधिक शारीरिक मलिनता का पूरा-पूरा निदर्शक है। मानों वह अन्धपुरुष दरिद्र नारायण की सजीव चलती फिरती हुई मूर्ति ही थी। उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चन्दनंपादप नामा. उद्यान में पधारे, उन के आगमन का समाचार मिलते ही नगर की जनता दर्शनार्थ नगर से उद्यान की ओर प्रस्थित हुई। इधर विजय नरेश भी भगवान् महावीर स्वामी के पधारने की सूचना मिलने पर महाराजा कूणिक की भांति बड़े प्रसन्नचित्त से राजोचित महान् वैभव के साथ नगर से उद्यान की ओर चल पड़े। उद्यान के समीप आ कर तीर्थाधिपति भगवान् वर्धमान के अतिशय विशेष . को देखते हुए विजय नरेश अपने आभिषेक्य हस्तिरत्न-प्रधान हस्ती से उतर पड़े और पांच प्रकार के अभिगम (मर्यादा विशेष, अथवा सम्मान सूचक व्यापार) से श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुए। तदनन्तर भगवान् की तीन बार दाहिनी ओर से आरम्भ कर के प्रदक्षिणा की और तत्पश्चात् वन्दना नमस्कार करके कायिक, वाचिक और मानसिक रूप में उन की पर्युपासना करने लगे। 1. "मच्छियाचडगरपहकरेणं" -मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरः प्रधानो विस्तरवान् यः प्रहकरः समूहः स तथा, अथवा-मक्षिकाणां चटकराणां तद् वृन्दानां यः प्रहकरः स तथा तेन "अण्णिजमाणमग्गे" अन्वीयमानमार्गोऽनुगम्यमानमार्गः मलाविलं हि वस्तु प्रायो मक्षिकाभिरनुगम्यत एवेति भावः [वृत्तिकारः] 2. पांच प्रकार के अभिगम सम्मानविशेष का निर्देश शास्त्र में इस प्रकार किया है १-पुष्प, पुष्पमाला आदि सचित्त द्रव्यों का परित्याग करना। २-वस्त्र, आभूषण आदि अचित्त द्रव्यों का परित्याग न करना। ३-एकशाटिका-अस्यूत वस्त्र का उत्तरासंग करना, अर्थात् उस से मुख को ढ़ांपना। ४-भगवान् के दृष्टिगोचर होते ही अंजलीप्रग्रह करना अर्थात् हाथ जोड़ना। ५-मानसिक वृत्तियों को एकाग्र करना। 3. कायिक-पर्युपासना-हस्त और पाद को संकोचते हुए विनय पूर्वक दोनों हाथ जोड़कर भगवान् 128 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय .[ प्रथम श्रुतस्कंध Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "महावीरे जाव समोसरिते" यहां पर उल्लेख किए गए "जाव यावत्" पद से औपपातिक सूत्र के समस्त दशम सूत्र का ग्रहण करना। तथा "जाव परिसा निग्गया" इस आगम पाठ में पठित "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सूत्रीय 27 वां समग्र सूत्र ग्रहण करना चाहिए। इस सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने के अनन्तर नगर में उत्पन्न होने वाले आनन्दपूर्ण शुभ वातावरण का, तथा नाना प्रकार के भिन्न-भिन्न वेष बनाकर एवं भिन्न-भिन्न विचारों को लिए हुए नागरिकों का श्रमण भगवान् वीर प्रभु के चरणों में उपस्थित होने का सुन्दर रूपेण अथ च परिपूर्णरूपेण वर्णन किया गया है जो कि अवश्य अवलोकनीय "निग्गते जाव पज्जुवासति" यहां पर दिया गया "जाव-यावत्" पद औपपातिक सूत्र के 28 वें सूत्र से ले कर 32 वें सूत्र पर्यन्त समस्त आगम पाठ का सूचक है। इस पाठ में महाराजा कूणिक- अजातशत्रु का प्रारम्भ से लेकर जिनेंद्र भगवान् महावीर स्वामी के चरणार्विन्दों में पूरे वैभव के साथ उपस्थित होने का सविस्तार वर्णन दिया गया है, जिस का विस्तार भय से यहां उल्लेख नहीं किया गया। - "तते णं से जातिअंधे" इत्यादि पाठ में एक बूढ़े जन्मांध याचक व्यक्ति का वीर प्रभु के चरणों में पहुंचने का जो निर्देश किया है वह भी बड़ा रहस्य पूर्ण है। मानव हृदय की आन्तरिक परिस्थिति कितनी विलक्षण और अंधकार तथा प्रकाश पूर्ण हो सकती है इसका यथार्थ अनुभव किसी अतीन्द्रियदर्शी को ही हो सकता है। __ आज मृगाग्राम नाम के प्रधान नगर में चारों ओर बड़ी चहल पहल दिखाई दे रही है। प्रत्येक नर- नारी का हृदय प्रसन्नता के कारण उमड़ रहा है। प्रत्येक स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध और युवक आनन्द से विभोर होते हुए चन्दनपादप उद्यान की ओर जा रहे हैं। आज हमारे अहोभाग्य से श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का इस नगर में पधारना हुआ है हमें उन के पुण्य दर्शन का अलभ्यलाभ होगा, उन का पुनीत दर्शन चतुर्गति रूप संसार समुद्र से निकाल कर, कर्मजन्य दुःखों से सुरक्षित कर, एवं जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ा कर निष्कर्म बना देने वाला के सन्मुख सविवेक-विवेक पूर्वक स्थित होना कायिक पर्युपासना कहलाती है। वाचिक पर्युपासना-जिनेन्द्र भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित हुए वचनों को सुनकर, भगवन् ! आपकी यह वाणी इसी प्रकार है, यह असंदिग्ध है, यह हमें इष्ट है, इस प्रकार विनयपूर्वक धारण करना वाचिक पर्युपासना है। ____ मानसिक पर्युपासना-सांसारिक बन्धनों से भयरूप संवेग को धारण करना, अर्थात् धार्मिक तीव्र अनुराग को उपलब्ध करना ही मानसिक पर्युपासना कही जाती है। [औपपातिक-सूत्र, पर्युपासनाधिकार] प्रथम'श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [129 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। उन के पुनीत कथामृत का पान कर के हमारे विकल हृदयों को पूर्ण शांति मिलेगी। इस प्रकार की विशुद्ध भावना से भावित प्रत्येक नर-नारी एक-दूसरे से आगे निकलने का प्रयत्न कर रहा है। नगर के हर एक विभाग व मार्ग में भी यही चर्चा हो रही है, अर्थात् पुरुषसिंह, पुरुषोत्तम श्री महावीर स्वामी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए आज नगर के बाहर चन्दनपादप उद्यान में पधारे हैं यह हमारे नगर का परम अहोभाग्य है। इस प्रकार जनता आपस में कह रही है। सारांश यह है कि वीर प्रभु के पधारने का सारे नगर में आनन्दमय कोलाहल हो रहा है। _____ दर्शनार्थ जाने वाले सद्गृहस्थों में से कई एक कहते हैं कि हम गृहस्थाश्रम का परित्याग कर अनगार (साधु) वृत्ति को धारण करेंगे। कुछ कहते हैं हम तो देशविरति (श्रावक) धर्म को अंगीकार करेंगे। क्योंकि साधु वृत्ति का आचरण अत्यन्त कठिन है। हम में उस के यथावत् पालन करने की शक्ति नहीं है तथा कितने एक भगवान् की भक्ति के कारण जा रहे हैं। कई एक शिष्टाचार की दृष्टि से पहुंच रहे हैं। तात्पर्य यह है कि नगर के हर एक छोटे-बड़े व्यक्ति के हृदय में भगवान के दर्शन की लालसा बढ़ी हुई है। तदनुसार नागरिक स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त हो, यथाशक्ति वस्त्राभरणादि पहन और सुगन्धित पदार्थों से सुरभित हो कर पृथक्पृथक् यानादि के द्वारा तथा पैदल उद्यान की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। उन का मन वीर प्रभु के चरण कमलों का भुंग बनने के लिए आतुर हो रहा है। पाठक, अभी उस जन्मांध व्यक्ति को भूले न होंगे जो मृगाग्राम में भिक्षावृत्ति के द्वारा अपना जीवन निर्वाह कर रहा है। वह भिक्षार्थ नगर में घूम रहा है। उद्यान की ओर जाने वाले नागरिकों के उत्साहपूर्ण महान् शब्द को सुनकर उस ने अपने साथी पुरुष को पूछा कि महानुभाव! क्या आज मृगाग्राम में कोई इन्द्रमहोत्सव है ? अथवा स्कन्द या रुद्रादि का महोत्सव है ? जो कि ये अनेक उग्र, उग्रपुत्र आदि नागरिक लोग बड़ी सज-धज से आनन्द में विभोर होते हुए चले जा रहे हैं ? यहां पर "जणसदं च जाव सुणेत्ता" इस पाठ में उल्लिखित "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सूत्रीय 27 वें सूत्र में पठित पाठ का प्रारम्भिक अंश ग्रहण करना जिस में नगर के उत्साहपूर्ण वातावरण का सुचारु वर्णन है। "इंदमहे इ वा जावनिग्गच्छति" और "इंदमहे जाव निग्गए" इन पाठों के "जावयावत्" पद से श्री राजप्रश्नीय उपांग के उत्तरार्धगत 148 वें सूत्र के प्रारम्भिक पाठ का ग्रहण करना, जिस में इन्द्रमहोत्सव स्कन्दमहोत्सव, रुद्रमहोत्सव, मुकुन्दमहोत्सव इत्यादि 18 उत्सवों का निर्देश किया गया है तथा वहां उद्यान में जाने वाले नागरिकों की अवस्था का भी बड़ा सुन्दर चित्र खींचा है। 130 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस जन्मान्ध व्यक्ति के उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए उस के साथ वाले पुरुष ने कहा कि महानुभाव ! ये नागरकि लोगों के झुण्ड किसी इन्द्र या स्कन्दादि महोत्सव के कारण नहीं जा रहे किन्तु आज इस नगर के बाहर चन्दनपादप उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पधारना हुआ है, ये लोग उन्हीं के दर्शनार्थ उद्यान की ओर जा रहे हैं। तब तो हम भी वहां चलेंगे, वहां चलकर हम भी भगवान् की पर्युपासना से अपने आत्मा को पुनीत बनाने का अलभ्य लाभ प्राप्त करेंगे, इस प्रकार उस जन्मान्ध व्यक्ति ने बड़ी उत्सुकता से अपनी हार्दिक लालसा को अभिव्यक्त किया। तदनन्तर वह अपने साथी पुरुष के साथ चन्दनपादप उद्यान में पहुंचा और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर उन्हें सविधि वन्दना नमस्कार करके उचित स्थान पर बैठ गया। किसी भी मानवी व्यक्ति के जीवन की कीमत उस के बाहर के आकार पर से नहीं आंकी जा सकती, जीवन का मूल्य तो मानव के हृदयगत विचारों पर निर्भर रहता है। जिन का साक्षात् सम्बन्ध आत्मा से है। एक परम दरिद्र और कुरूप व्यक्ति के आन्तरिक भाव कितने मलिन अथवा विशुद्ध हैं, इस का अनुमान उस की बाहरी दशा से करना कितनी भ्रान्ति है, यह उस जन्मान्ध व्यक्ति के जीवन वृत्तान्त से भली-भांति सुनिश्चित हो जाता है। जो कि सात्विक भाव से प्रेरित होता हुआ वीर प्रभु की सेवा में उपस्थित हो रहा है, और उन की मंगलमय वाणी का लाभ उठाने का प्रयत्न कर रहा है। तदनन्तर विजय नरेश और समस्त परिषद् के उचित स्थान पर बैठ जाने पर, धर्म प्रेमी प्रजा की मनोवृत्तिरूप कुमुदिनी के राकेश-चन्द्रमा, धर्मप्राण, जनता के हृदय-कमल के सूर्य, अपनी कैवल्य विभूति से जगत को आलोकित करने वाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपनी दिव्य वाणी के द्वारा विश्वकल्याण की भावना से धर्म देशना देना आरम्भ किया। संसार के भव्यात्माओं को निष्काम बना देने वाली वीर प्रभु की धर्म देशना को सुन कर तथा उसे हृदय में धारण कर अत्यधिक प्रसन्न चित्त से भगवान् को विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर उपस्थित श्रोतृवर्ग अपने-अपने स्थान को लौट गया। तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतमस्वामी ने उस जन्मांध व्यक्ति को देखा और उन्होंने भगवान् से पूछा कि भगवन् ! कोई ऐसा व्यक्ति भी है जो कि २जन्मांध होने के अतिरिक्त जन्मांधरूप भी हो ? इस का उत्तर भगवान् ने दिया कि हां, गौतम ! ऐसा पुरुष है जो कि जन्मांध 1. भगवान् की उस धर्मदेशनारूप सुधा का पान करने की इच्छा रखने वालों को "औपपातिक सूत्र" के देशनाधिकार का अवलोकन तथा मनन करने का यत्न करना चाहिए। 2. जन्मांध का अर्थ है-जो जन्मकाल से अंधा हो, नेत्र ज्योतिहीन हो, और जिस के नेत्रों की उत्पत्ति ही नहीं हो पाई, उसे जन्मांध रूप कहते हैं। दोनों में अन्तर इतना होता है कि जन्मांध के नेत्रों का मात्र आकार होता प्रथम श्रुतस्कंध ] . श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [131 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जन्मांधरूप भी है। ___ "समणे जाव विहरति" इस पाठ के अन्तर्गत "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सूत्र के दशवें सूत्र की ओर संकेत किया गया है, उसमें वीर भगवान् के समुचित सद्गुणों का बड़े मार्मिक शब्दों में वर्णन किया गया है। "तते णं एए जाव निग्गच्छंति" पाठ के "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सूत्र के २७वें सूत्र का ग्रहण अभीष्ट है। तथा "भगवं जाव पज्जुवासामो" में आए हुए "जावयावत्" पद से औपपातिक के दशवें सूत्र का ग्रहण करना, तथा "नमंसित्ता जाव पज्जुवासति" पाठ के "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सूत्र के 32 वें सूत्र के अंतिम अंश का ग्रहण सूचित किया गया है। इसी प्रकार से "परिसा जाव-पडिगया" पाठ में उल्लिखित "जावयावत्" पद औपपातिक के 35 वें सूत्र का परिचायक है। तथा विजय नरेश के प्रस्थान में जो कूणिक नृप का उदाहरण दिया है उस का वर्णन औपपातिक के 36 वें सूत्र में है। इसके अतिरिक्त 'इदंभूती णामं अणगारे जाव विहरति' पाठ में आए हुए "जाव-यावत्" पद से गौतम स्वामी के साधु जीवन का वर्णन करने वाले प्रकरण का निर्देश है, उसका उल्लेख जम्बूस्वामी के वर्णन-प्रसंग में कर दिया गया है। ___ जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि वीर प्रभु की धर्म देशना को सुन कर परिषद् वापिस अपने-अपने स्थान में लौट गई, परन्तु वह जन्मांध वृद्ध व्यक्ति अभी तक अपने स्थान से नहीं उठा। ऐसा मालूम होता है कि भगवान् के द्वारा वर्णन किए गए कर्म जन्य सुखों एवं दुःखों के विपाक पर विचार करते हुए निज की दयनीय दशा का ख्याल करके अपने पूर्वकृत दुष्कर्मों के भार से भारी हुई अपनी आत्मा को धिक्कार रहा हो। उस समय चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता इन्द्रभूति नामा अनगार ने उसे देखा और देखते ही वे बड़े विस्मय को प्राप्त हुए। उनको उस वृद्ध व्यक्ति पर बड़ी करुणा आई, जिस के फलस्वरूप उन्होंने भगवान् से प्रश्न किया। "जायसड्ढे-जातश्रद्ध" यह पद सूचित करता है कि उस जन्मांध पुरुष के विषय में गौतमस्वामी ने जो भगवान से प्रश्न किया है उस में उस व्यक्ति की वर्तमान दयाजनक अवस्था की ही बलवती प्रेरणा है। वस्तुतः महापुरुषों में यही विशेषता होती है कि वे दूसरों के जीवन में उपस्थित होने वाले दुःखों को देखकर उनके मूल कारण को ढूंढते हैं तथा स्वंय अधिक रूप में द्रवित होते हैं, अर्थात उन का हृदय करुणा से एकदम भर जाता है। "जायसड्ढे जाव एवं" इस पाठ में दिए गए "जाव-यावत्" पद से भगवती सूत्र है, उसमें देखने की शक्ति नहीं होती, जब कि जन्मांधरूप के नेत्रों का आकार भी नहीं बनने पाता, इसलिए यह अत्यधिक कुरूप एवं वीभत्स होता है। 132 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [.प्रथम श्रुतस्कंध Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 / 1 / 7 / का आंशिक पाठ अभिप्रेत है। जिस की व्याख्या इसी अध्याय के पिछले पृष्ठों पर की जा चुकी है। प्रस्तुत प्रकरण में जो संशय का अभिप्राय है वह गौतमस्वामी ने स्वयं स्पष्ट कर दिया है। कर्मों की विचित्रता से विस्मित हुए गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से जन्मांध और जन्मांधरूप के जानने की इच्छा प्रकट की थी, उस के विषय में भगवान् ने उस का जो अनुरूप उत्तर दिया, अब सूत्रकार उस का उल्लेख करते हुए इस प्रकार कहते हैं मूल-एवं खलुगोयमा ! इहेव मियग्गामे णगरे विजयस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियाउत्ते णामं दारए जातिअंधे जातअंधारूवे णत्थि णं तस्स दारगस्स जाव आगितिमित्ते, तते णं मियादेवी जाव पडिजागरमाणी 2 विहरति। तते णं से भगवं गोतमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! अहं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते ( समाणे) मियापुत्तं दारयं पासित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! तते णं से भगवं गोतमे समणेणं भगवया अब्भणुण्णाते समाणे हट्ठतुढे समणस्स भगवओअंतितातो पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता अतुरियं जाव सोहेमाणे 2 जेणेव मियग्गामे णगरे तेणेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता, मियग्गामं नगरं मझमझेणं अणुपविस्सइ। अणुप्पविस्सित्ता जेणेव मियाए देवीए गिहे तेणेव उवागच्छति। तते णं सा मियादेवी भगवं गोतमं एजमाणं पासति पासित्ता हट्ट जाव एवं वयासीसंदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणपयोयणं ? तते णं भगवं गोतमे मियं देविं एवं वयासी- अहण्णं देवाणुप्पिए ! तव पुत्तं पासित्तुं हव्वमागते, तते णं सा मियादेवी मियापुत्तस्स दारगस्स अणुमग्गजायए चत्तारि पुत्ते सव्वालंकारविभूसिए करेति, करेत्ता भगवतो गोतमस्स पाएसुपाडेति, पाडेत्ता एवं वयासी-एएणं भंते! मम पुत्ते पासह, तते णं से भगवं गोतमे मियं देविं एवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पिए ! अहं एए तव पुत्ते पासिउं हव्वमागए, तत्थ णं जेसेतवजेटे पुत्ते मियापुत्ते दारए जातिअंधे जाव अन्धारूवेजण्णं तुमरहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी 2 विहरसि, तं णं अहं पासिउं हव्वमागते। तते णं सा मियादेवी भगवं गोतमं एवं वयासी-से के णं प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [133 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोतमा ! से तहारूवेणाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एसमढे मम ताव रहस्सकते तुब्भं हव्वमक्खाते जतो णं तुब्भे जाणह॥ छाया-एवं खलु गौतम ! इहैव मृगाग्रामे नगरे विजयस्य पुत्रः मृगादेव्या आत्मजो मृगापुत्रो नाम दारकः जात्यंधो जातान्धकरूपः, नास्तितस्य दारकस्य यावदाकृतिमात्र, ततः सा मृगादेवी यावत् प्रतिजागरयन्ती 2 विहरति / ततः स भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् इच्छामि भदन्त ! अहं युष्माभिरभ्यनुज्ञातो मृगापुत्रं दारकं द्रष्टुम् / यथासुखं देवानुप्रिय!, ततः स भगवान् गौतमः श्रमणेन भगवताऽभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टतुष्टः श्रमणस्य भगवतोऽन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य अत्वरितं यावच्छोधमानो 2 यत्रैव मृगाग्रामं नगरं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य मृगाग्रामं नगरं मध्यमध्येनानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव मृगादेव्या गृहं तत्रैवोपागच्छति / ततः सा मृगादेवी भगवन्तं गौतममायान्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्ट यावदेवमवदत्-संदिशतु देवानुप्रिय ! किमागमनप्रयोजनम् ? ततो भगवान् गौतमो मृगां देवीमेवमवदत्-अहं देवानुप्रिये! तव पुत्रं द्रष्टुं शीघ्रमागतः। ततः सा मृगादेवी मृगापुत्रस्य दारकस्यानुमार्गजातांश्चतुरः पुत्रान्.सर्वालंकारविभूषितान् करोति, कृत्वा भगवतो गौतमस्य पादयोः पातयति पातयित्वैवमवदत्- एतान् भदन्त ! मम पुत्रान् पश्यत। ततः स भगवान् गौतमो मृगां देवीमेवमवदत्-नो खलु देवानुप्रिये ! अहमेतान् तव पुत्रान् द्रष्टुं शीघ्रमागतः, तत्र यः स तव ज्येष्ठः पुत्रो मृगापुत्रो दारको जात्यन्धो यावदन्धकरूपः,यं त्वं राहसिके भूमिगृहे राहसिकेन भक्तपानेन प्रतिजागरयन्ती विहरसि, तमहं द्रष्टुं शीघ्रमागतः। ततः सा मृगादेवी भगवन्तं गौतममेवमवदत्-को गौतम ! स तथारूपो ज्ञानी वा तपस्वी वा येन तवैषोऽर्थो मम तावत् रहस्यकृतस्तुभ्यं शीघ्रमाख्यातो यतो यूयं जानीथ। पदार्थ-एवं-इस प्रकार। खलु-निश्चय से। गोतमा !-हे गौतम ! इहेव-इसी। मियग्गामे णगरे-मृगाग्राम नगर में। विजयस्स पुत्ते-विजय नरेश का पुत्र / मियादेवीए अत्तए-मृगादेवी का आत्मज / मियाउत्ते-मृगापुत्र ।णाम-नामक। दारए-बालक, जो कि / जातिअंधे-जन्म से अन्धा तथा / जातअंधारूवेजातान्धकरूप है। तस्स-उस। दारगस्स-शिशु के [हस्त आदि अवयव] नत्थि-नहीं हैं। जाव-यावत् हस्तादि अवयवों के।आगितिमित्ते-मात्र आकार-चिन्ह हैं। तते णं-तदनन्तर / सा मियादेवी-वह मृगादेवी। जाव-यावत् उस की रक्षा में। पडिजागरमाणी-सावधान रहती हुई। विहरति-विहरण कर रही है। तते 134 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णं-तदनन्तर। से-उस। भगवं गोतमे-भगवान् गौतम ने। समणं-श्रमण। भगवं-भगवान्। महावीरंमहावीर स्वामी को। वंदति-वन्दन किया। नमसति-नमस्कार किया। वंदित्ता नमंसित्ता-वन्दन तथा नमस्कार करके / एवं-इस प्रकार वे। वयासी-कहने लगे। भंते !- हे भगवन् ! अहं-मैं। तुब्भेहिं-आप श्री से। अब्भणुण्णाते समाणे-अभ्यनुज्ञात हो कर अर्थात् आप श्री से आज्ञा प्राप्त कर। मियापुत्तं-मृगापुत्र / दारयं-बालक को। पासित्तए-देखना। णं-वाक्यालंकारार्थक है। इच्छामि-चाहता हूं ? [भगवान् ने कहा] / देवाणुप्पिया !-हे देवानुप्रिय ! अर्थात् हे भद्र ! अहासुहं-जैसे तुम को सुख हो। तते णंतदनन्तर / से भगवं गोतमे-वह भगवान् गौतम, जो कि। समणेणं भगवया-श्रमण भगवान् के द्वारा। अब्भणुण्णाते समाणे-अभ्यनुज्ञात-आज्ञा प्राप्त कर चुके हैं, और / हट्ठतुढे-अति प्रसन्न हैं। समणस्सश्रमण। भगवओ-भगवान् के। अंतितातो-पास से। पडिनिक्खमइ-चल दिए। पडिनिक्खमित्ता-चल कर। अतुरियं जाव सोहेमाणे-अशीघ्रता से यावत् ईर्या-समिति पूर्वक गमन करते हुए। जेणेव-जहां। मियग्गामे णगरे-मृगाग्राम नगर था। तेणेव-उसी स्थान पर। उवागच्छति-आते हैं। उवागच्छित्ताआकर / मझमझेणं-नगर के मध्यमार्ग से। मियग्गामं णगरं-मृगाग्राम नगर में। अणुपविस्सइ-प्रवेश करते हैं। अणुप्पविस्सित्ता-प्रवेश करके। जेणेव-जहां पर। मियादेवीए-मृगादेवी का। गिहे-घर था। तेणेव- उसी स्थान पर। उवागच्छति-आते हैं। तते णं-तदनन्तर। सा मियादेवी-उस मृगादेवी ने। एजमाणं-आते हुए। भगवं गोतमं-भगवान् गौतम स्वामी को। पासति-देखा, और वह उन्हें / पासित्तादेख कर। हट्ट-प्रसन्न हुई। जाव-यावत्। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगी। देवाणुप्पिया !-हे देवानुप्रिय ! अर्थात् हे भगवन् ! किमागमणपओयणं ?-आप के पधारने का क्या प्रयोजन है ? संदिसंतु-वह बतलावें। तते णं-उस के अनन्तर। भगवं गोतमे-भगवान् गौतम। मियं देविं-मृगादेवी को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। देवाणुप्पिए!-हे देवानुप्रिये ! अर्थात् हे भद्रे ! अहं-मैं। तवतेरे। पुत्तं- पुत्र को। पासित्तुं-देखने के लिए। हव्वमागते-शीघ्र अर्थात् अन्य किसी स्थान पर न जाकर सीधा तुम्हारे घर आया हूं। तते णं-तदनन्तर। सा मियादेवी-वह मृगादेवी। मियापुत्तस्स दारगस्समृगापुत्र बालक के। अणुमग्गजायए-पश्चात् उत्पन्न हुए 2 / चत्तारि पुत्ते-चार पुत्रों को। सव्वालंकारविभूसिए-सर्व अलंकारों से विभूषित। करेति-करती है। करेत्ता-कर के।भगवतो-गोतमस्सभगवान् गौतम स्वामी के। पाएसु-चरणों में। पाडेति-डालती है। पाडेता-नमस्कार कराने के पश्चात्, वह। एवं वयासी-इस प्रकार बोली। भंते !-हे भगवन् ! एए णं-इन। मम पुत्ते-मेरे इन पुत्रों को। पासह-देख लें। तते णं-तदनन्तर। भगवं गोतमे-भगवान् गौतम ने। मियं देविं-मृगादेवी को। एवं वयासी-इस प्रकार कहा। देवाणुप्पिए !-हे देवानुप्रिये ! अहं-मैं। एए तव पुत्ते-तेरे इन पुत्रों को। पासित्तुं-देखने के लिए। नो हव्वमागए-शीघ्र नहीं आया हूं किन्तु। तत्थ णं-इन में। जे से तव जेटे पुत्ते-तुम्हारा वह ज्येष्ठ पुत्र जो कि। जातिअंधे-जन्म से अन्धा। जाव अंधारूवे-यावत् अंधकरूप है, और जो। मियापुत्ते दारए-मृगापुत्र के नाम का बालक है, तथा। जण्णं तुमं-जिंस को तू। रहस्सियंसि भूमिघरंसि-एकान्त के भूमिगृह (भौरे) में। रहस्सियएणं भत्तपाणेणं-गुप्तरूप से खान-पान आदि के द्वारा / पडिजागरमाणी विहरसि-पालन पोषण में सावधान रह रही है। तं णं-उस को। अहं-मैं। पासित्तुंदेखने के लिए। हव्वमागते-शीघ्र आया हूं। तते णं-तदनन्तर। सा मियादेवी-वह मृगादेवी। भगवं प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [135 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोतमं-भगवान् गौतम स्वामी के प्रति / एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगी। 1 गोतमा !-हे गोतम ! से के णं-वह कौन। तहारूवे-तथारूप-ऐसे।णाणी-ज्ञानी। तवस्सी वा-अथवा तपस्वी हैं / जेण-जिस ने। तव एसमढ़े-आपको यह बात, जो कि। मम ताव रहस्सकते-मैंने गुप्त रक्खी थी। तुब्भं हव्वमक्खातेतुम्हें शीघ्र ही बता दी। जतो णं-जिस से कि। तुब्भे जाणह-तुम ने उसे जान लिया। मूलार्थ-हे गौतम ! इसी मृगाग्राम नामक नगर में विजय नामक क्षत्रिय राजा का पुत्र मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नामक बालक है जो कि जन्म काल से अंधा और जन्मांधकरूप है, उसके हाथ, पांव, नेत्र आदि अंगोपांग भी नहीं हैं, केवल उन अंगोपांगों के आकार चिन्ह ही हैं। महारानी मृगादेवी उस का पालन पोषण बड़ी सावधानी के साथ कर रही हैं। तदनन्तर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में वंदना नमस्कार कर के उन से प्रार्थना की, कि भगवन् ! आप की आज्ञा से मैं मृगापुत्र को देखना चाहता हूं ? इस के उत्तर में भगवान् ने कहा कि-गौतम ! जैसे तुम्हें सुख हो [वैसा करो, इस में हमारी ओर से कोई प्रतिबन्ध नहीं है ] / अब श्रमण भगवान् द्वारा आज्ञा प्राप्त कर प्रसन्न हुए गौतम स्वामी भगवान् के पास से मृगापुत्र को देखने चले। ईर्यासमिति (विवेक पूर्वक चलना) का यथाविधि पालन करते हुए भगवान् गौतम स्वामी ने नगर के मध्यभाग से नगर में प्रवेश किया।जिस स्थान पर मृगादेवी का घर था, वे वहां पर पहुंच गए। तदनन्तर मृगादेवी ने गौतम स्वामी को आते हुए देखा और देख कर प्रसन्न-चित्त से नतमस्तक होकर उन से इस प्रकार निवेदन किया-हे देवानुप्रिय ! अर्थात् हे भगवन् ! आपके आगमन का क्या प्रयोजन है ? अर्थात् आप किस प्रयोजन के लिए यहां पर पधारे हैं? उत्तर में भगवान् गौतम स्वामी ने मृगादेवी से कहा-हे देवानुप्रिये!, अर्थात् हे भद्रे !, मैं तुम्हारे पुत्र को देखने के लिए ही आया हूं। तब मृगदेवी ने मृगापुत्र के 1. "संदिसतु णं देवाणुप्पिया!-" तथा "एए-णं भंते ! मम पुत्ते" इत्यादि पाठों में मृगादेवी ने भगवान् गौतम को देवानुप्रिय या भदन्त के सम्बोधन से सम्बोधित किया है, परन्तु इस पाठ में उस ने "गोतमा!" इस सम्बोधन से उन्हें पुकारा है, ऐसा क्यों ? गुरुओं को उन्हीं के नाम से पुकारना कहाँ की शिष्टता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यहां मृगादेवी की शिष्टता में सन्देह वाली कोई बात प्रतीत नहीं होती परन्तु अपने अत्यन्त गुप्त रहस्य के प्रकाश में आ जाने से मृगादेवी हक्की-बक्की सी रह गई, जिस के कारण उसके मुख से सहसा "गोतमा!" ऐसा निकल गया है, जो संभ्रान्त दशा के कारण शिष्टता का घातक नहीं कहा जा सकता। हृदयगत चंचलता में यह सब कुछ संभव होता है। 2. प्रश्न- चरम-तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी सर्वज्ञ थे, सर्वदर्शी थे, उन की ज्ञान ज्योति से कोई पदार्थ ओझल नहीं था। यही कारण है कि उन की वाणी में किसी प्रकार की विषमता नहीं होती थी, वह पूर्णरूपेण यथार्थ ही रहती थी। परन्तु अनगार गौतम मृगापुत्र को स्वयं अपनी आंखों से देखने जा रहे हैं जब कि भगवान् से उस का समस्त वृत्तान्त सुन लिया जा चुका है। क्या यह भगवद्-वाणी पर अविश्वास नहीं ? 136 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चात् उत्पन्न हुए 2 पुत्रों को वस्त्राभूषणादि से अलंकृत कर भगवान् गौतम के चरणों में डाल कर निवेदन किया कि भगवन् ! ये मेरे पुत्र हैं इन को आप देख लीजिए। यह सुन कर भगवान् गौतम मृगादेवी से बोले-हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे इन पुत्रों को देखने के लिए यहां पर नहीं आया हूं, किन्तु तुम्हारा ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र जो जन्मांध और जन्मांधकरूप है, तथा जिस को तुम ने एकांत के भूमिगृह में रक्खा हुआ है एवं जिस का तुम गुप्तरूप से सावधानी-पूर्वक खान-पान आदि के द्वारा पालन पोषण कर रही हो, उसे देखने के लिए आया हूं। यह सुन कर मृगादेवी ने भगवान् गौतम से (आश्चर्य-चकित हो कर) निवेदन किया-भगवन् ! वह ऐसा ज्ञानी अथवा तपस्वी कौन है, जिस ने मेरी इस रहस्य-पूर्ण गुप्त वार्ता को आप से कहा, जिस से आप ने उस गुप्त रहस्य को जाना है। टीका-भगवन् ! अन्धकरूप [जिस के नेत्रों की उत्पत्ति भी नहीं हो पाई] में जन्मा हुआ वह पुरुष कहां है ? गौतम स्वामी ने बड़ी नम्रता से प्रभु वीर के पवित्र चरणों में निवेदन किया, गौतम ! इसी मृगाग्राम नगर में मृगादेवी की कुक्षि से उत्पन्न विजयनरेश का पुत्र मृगापुत्र नाम का बालक है, जो कि अन्धकरूप में ही जन्म को प्राप्त हुआ है, अतएव जन्मांध है, तथा जिसके हाथ, पैर, नाक, आंख और कान भी नहीं हैं, केवल उन के आकार-चिन्ह ही हैं / उस की माता मृगादेवी उसे एक गुप्त भूमिगृह में रख कर गुप्तरूप से ही खान-पान पहुंचाकर उस का संरक्षण कर रही है। भगवान् ने बड़ी गम्भीरता से उत्तर दिया, जिसको यथार्थता में किसी उत्तर - ऐसी बात नहीं है, भगवान् गौतम ने जब भी भगवान् महावीर से कोई पृच्छा की है तो उस में मात्र जनहित की भावना ही प्रधान रही है। उन के प्रश्न सर्वजनहिताय एवं सुखाय ही होते थे, अन्यथा उपयोग लगाने पर स्वयं जान सकने की शक्ति के धनी होते हुए भी वे भगवान् से ही क्यों पूछते हैं ? उत्तर स्पष्ट है, भगवान् से पूछने में उन का यही हार्द है कि दूसरे लोग भी प्रभु-वाणी का लाभ लें- अन्य भावुक व्यक्ति भी जीवन को समुज्वल बनाने में अग्रसर हो सकें, सारांश यह है कि भगवान् की वाणी से सर्वतोमुखी लाभ लेने का उद्देश्य ही अनगार गौतम की पृच्छा में प्रधानतया कारण हुआ रहा है। __प्रस्तुत प्रकरण में भी उसी सद्भावना का परिचय मिल रहा है। यदि अनगार गौतम मृगापुत्र को देखने न जाते तो अधिक संभव था कि मृगापुत्र के अतीत और अनागत जीवन का इतना विशिष्ट ऊहापोह (सोच विचार) न हो पाता और न ही मृगापुत्र का जीवन आज के पापी मानव के लिए पापनिवृत्ति में सहायक बनता। यह इसी पृच्छा का फल है कि आज भी यह मृगापुत्र का जीवन मानवदेहधारी दानव को अशुभ कर्मों के भीषण परिणाम दिखाकर उन से निवृत्त करा कर मानव बनाने में निमित्त बन रहा है, एवं इसी पृच्छा के बल पर प्रस्तुत जीवन की विचित्र घटनाओं से प्रभावित होकर अनेकानेक नर-नारियों ने अपने अन्धकार-पूर्ण भविष्य को समुज्वल बना कर मोक्ष पथ प्राप्त किया है और भविष्य में करते रहेंगे। भगवान् गौतम की किसी भी पृच्छा में अविश्वास का कोई स्थान नहीं। वे तो प्रभु वीर के परम श्रद्धालु, परम सुविनीत, आज्ञाकारी शिष्यरत्न थे। उन में अविश्वास का ध्यान भी करना उन को समझने में भूल करना है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [137 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी प्रकार के सन्देह की आवश्यकता नहीं है। __ "दारगस्स जाव आगितिमित्ते " तथा "मियादेवी जाव पडिजागरमाणी'' इन दोनों स्थलों में पढ़े गए "जाव -यावत्" पद से पूर्व पठित आगम-पाठ का ग्रहण करना ही सूत्रकार को अभिप्रेत है। "जाति-अन्धे" और "जायअन्धारूवे" इन दोनों पदों के अर्थ-विभेद पर प्रकाश डालते हुए आचार्यश्री अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं "जाति-अन्धे"त्ति-जातेरारभ्यान्धो जात्यन्धः स च चक्षुरूपघातादपि भवतीत्यत आह-'जाय-अंधारूवे' त्ति जातमुत्पन्नमन्धकं नयनयोरादित एवानिष्पत्तेः कुत्सिताङ्गं रूपं-स्वरूपं यस्यासौ जातान्धकरूपः"। तात्पर्य यह है कि "जात्यन्ध' और "जातान्धकरूप" इन दोनों पदों में प्रथम पद से तो जन्मान्ध अर्थात् जन्म से होने वाला अन्धा यह अर्थ विवक्षित है, और दूसरे से यह अर्थ अभिप्रेत है कि जो किसी बाह्यनिमित्त से अन्धा न हुआ हो किन्तु प्रारम्भ से ही जिसके नेत्रों की निष्पत्ति-उत्पत्ति नहीं हो पाई। जन्मान्ध तो जन्मकाल से किसी निमित्त द्वारा चक्षु के उपघात हो जाने पर भी कहा जा सकता है अर्थात् ऐसे व्यक्ति को भी जन्मांध कह सकते हैं जिस के नेत्र जन्मकाल से नष्ट हो गए हों, परन्तु जातान्धकरूप उसे कहते हैं कि जिसके जन्मकाल से ही नेत्रों का असद्भाव हो-नेत्र न हों। यही इन पदों में अर्थ विभेद है जिसके कारण सूत्रकार ने इन दोनों का पृथक्-पृथक् ग्रहण किया तदनन्तर अज्ञानान्धकाररूप पातक समूह को दूर करने में दिवाकर (सूर्य) के समान श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को विधि पूर्वक वन्दना नमस्कार कर भगवान् गौतम स्वामी ने उनसे सविनय निवेदन किया कि भगवन् ! यदि आप मुझे आज्ञा दें तो मैं उस मृगापुत्र नामक बालक को देखना चाहता हूं। "तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते'' इस पद में गौतम स्वामी की विनीतता की प्रत्यक्ष झलक है जो कि शिष्योचित सद्गुणों के भव्यप्रासाद की मूल भित्ति है। हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम को सुख हो, यह था प्रभु महावीर की ओर से दिया गया उत्तर / इस उत्तर में भगवान् ने गौतम स्वामी को जिगमिषा (जाने की इच्छा) को किसी भी प्रकार का व्याघात न पहुंचाते हुए सारा उत्तरदायित्व उन के ही ऊपर डाल दिया है, और अपनी स्वतन्त्रता को भी सर्वथा सुरक्षित रक्खा है। तदनन्तर जन्मान्ध और हुण्डरूप मृगापुत्र को देखने की इच्छा से सानन्द आज्ञा प्राप्त कर शान्त तथा हर्षित अन्त:करण से श्री गौतम अनगार भगवान् महावीर स्वामी के पास से 138 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् चन्दन पादपोद्यान से निकल कर ईर्यासमिति का पालन करते हुए मृगाग्राम नामक नगर की ओर चल पड़े। यहां पर गौतम स्वामी के गमन के सम्बन्ध में सूत्रकार ने 'अतुरियं जाव सोहेमाणेअत्वरितं यावत् शोधमानः' यह उल्लेख किया है। इस का तात्पर्य यह है कि मृगापुत्र को देखने की उत्कण्ठा होने पर भी उन की मानसिक वृत्ति अथच चेष्टा और ईर्यासमिति आदि साधुजनोचित आचार में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आने पाया। वे मन्दगति से चल रहे हैं, इस में कारण यह है कि उन का मन स्थिर है-मानसिक वृत्ति में किसी प्रकार का क्षोभ नहीं है। वे अंसभ्रान्त रूप से जा रहे हैं अर्थात् उन की गमन क्रिया में किसी प्रकार की व्यग्रता दिखाई नहीं देती, क्योंकि उन में कायिक चपलता का अभाव है। इसीलिए वे युगप्रमाणभूत भूभाग के मध्य से ईर्यासमिति पूर्वक (सम्यक्तया अवलोकन करते हुए) गमन करते हैं। यह सब अर्थ "जाव'-यावत्" शब्द से संगृहीत हुआ है। "सोहेमाणे-शोधमानः" का अर्थ है-युग(साढ़े तीन हाथ) प्रमाण भूमि को देख कर विवेकपूर्वक चलना। इस में सन्देह नहीं कि महापुरुषों का गमन भी सामान्य पुरुषों के गमन से विलक्षण अथच आदर्श रूप होता है। वे इतनी सावधानी से चलते हैं कि मार्ग में पड़े हुए किसी क्षुद्रजीव को हानि पहुंचने नहीं पाती, फिर भी वे स्थान पर आकर उसकी आलोचना करते हैं, यह उनकी महानता है, एवं शिष्यसमुदाय को अपने कर्तव्य पालन की ओर आदर्श प्रेरणा है। तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी मृगाग्राम नगर के मध्य में से होते हुए मृगादेवी के घर में पहुंचे तथा उन को आते देख मृगादेवी ने बड़ी प्रसन्नता से उन का विधिपूर्वक स्वागत किया और पधारने का प्रयोजन पूछा। "पासित्ता हट्ट जाव वयासी" इस पाठ में उल्लेख किए गए "जाव-यावत्" पद में भगवती-सूत्रीय 15 वें शतक के निम्नलिखित पाठ के ग्रहण करने की ओर संकेत किया गया है....... हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया, पीइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाणहियया खिप्पामेव आसणाओ अब्भुढेइ गोयमंअणगारं सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ 2 तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति करित्ता वंदित्ता णमंसित्ता......। ... सारांश यह है कि महारानी मृगावती अपने घर की ओर आते हुए भगवान् गौतम 1. यावत्-करणादिदं दृश्यम्-अचवलमसंभंते जुगंतर-पलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं-तत्राचपलं कायचापल्यभावात्, क्रियाविशेषणे चैते तथा असंभ्रान्तो भ्रम-रहितः, युगं यूपस्तत्प्रमाणो भूभागोऽपि युगं तस्यान्तरे मध्ये प्रलोकनं यस्याः सा तथा तया दृष्ट्या-चक्षुषा "रियं" इति ईर्या-गमनं तद्विषयो मार्गोऽपीर्याऽतस्ताम्। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [139 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी को देख कर अत्यधिक हर्षित हुई, तथा प्रसन्न चित्त से शीघ्र ही आसन पर से उठ कर सात-आठ कदम आगे गई, और उन को दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा दे कर वन्दना तथा नमस्कार करती है, वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर विनयपूर्वक उन से पूछती है कि भगवन् ! फरमाइए आप ने किस निमित्त से यहां पर पधारने की कृपा की है ? महारानी मृगादेवी का गौतम स्वामी के प्रति आगमन-प्रयोजन-विषयक प्रश्न नितरां समुचित एवं बुद्धिगम्य है। कारण कि आगमन विषयक अवगति-ज्ञान होने के अनन्तर ही वह उन की इच्छित वस्तु देने में समर्थ हो सकेगी, तथा उपकरण आदि वस्तु का दान भी प्रयोजन के अन्तर्गत ही होता है, इस लिए महारानी मृगादेवी की पृच्छा को किसी प्रकार से अंसघटित नहीं माना जा सकता, प्रत्युत वह युक्तियुक्त एवं स्वाभाविक है। प्रयोजन-विषयक प्रश्न के उत्तर में गौतम स्वामी ने अपने आगमन का प्रयोजन बताते हुए कहा-देवी ! मैं तुम्हारे पुत्र को देखने के लिए यहां आया हूं। यह सुन मृगादेवी ने अपने चारों पुत्रों को जो कि मृगापुत्र के पश्चात् जन्मे हुए थे-वस्त्र भूषणादि से अलंकृत कर के गौतम : स्वामी की सेवा में उपस्थित करते हुए कहा कि भगवन् ! ये मेरे पुत्र हैं, इन्हें आप देख लीजिए। मृगादेवी के सुन्दर और समलंकृत उन चारों पुत्रों को अपने चरणों में झुके हुए देखकर गौतम स्वामी बोले-महाभागे ! मैं तुम्हारे इन पुत्रों को देखने की इच्छा से यहां नहीं आया, किन्तु . तुम्हारे मृगापुत्र नाम के ज्येष्ठ पुत्र-जो कि जन्मकाल से ही अन्धा तथा पंगुला है और जिस को तुमने एक गुप्त भूमिगृह में रक्खा हुआ है तथा जिस का गुप्तरूप से तुम पालन पोषण कर रही हो-को देखने के लिए मैं यहां आया हूं। गौतम स्वामी की इस अश्रुतपूर्व विस्मयजनक वाणी को सुनकर मृगादेवी एकदम अवाक् सी रह गई। उस ने आश्चर्यान्वित होकर गौतम स्वामी से कहा कि भगवन् ! इस गुप्त रहस्य का आप को कैसे पता चला ? वह ऐसा कौन सा अतिशय ज्ञानी या तपस्वी है जिस ने आप के सामने इस गुप्तरहस्य का उद्घाटन किया? इस वृत्तान्त को तो मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं जानता, परन्तु आपने उसे कैसे जाना ? मृगादेवी का गौतम स्वामी के कथन से विस्मित एवं आश्चर्यान्वित होना कोई अस्वाभाविक नहीं / यदि कोई व्यक्ति अपने किसी अन्तरंग वृत्तान्त को सर्वथा गुप्त रखना चाहता हो, और वह अधिक समय तक गुप्त भी रहा हो, एवं उसे सर्वथा गुप्त रखने का वह भरसक प्रयत्न भी कर रहा हो, ऐसी अवस्था में अकस्मात् ही कोई अपरिचित व्यक्ति उस रहस्यमयी गुप्त घटना को यथावत् रूपेण प्रकाश में ले आवे तो सुनने वाले को अवश्य ही आश्चर्य होगा। वह सहसा चौंक उठेगा, बस यही दशा उस समय मृगादेवी की हुई ! वह एकदम सम्भ्रान्त और चकित सी हो गई। इसी के फलस्वरूप उसने गौतम स्वामी के विषय में "भन्ते!" की जगह "गोयमा!" ऐसा सम्बोधन 140 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर दिया। ___ "जातिअंधेजाव अंधारूवे" में पठित "जाव-यावत्" पद से "जातिमूए, जातिबहिरे, जातिपंगुले" इत्यादि पूर्व प्रतिपादित पदों का ग्रहण करना, जो कि मृगापुत्र के विशेषण रूप हैं। तथा "हव्वमागए" इस वाक्य में उल्लेख किए गए "हव्व" पद का आचार्य अभयदेवसूरि शीघ्र अर्थ करते हैं, जैसे कि-"हव्वं त्ति शीघ्रम्"। परन्तु उपासकदसांग की व्याख्या में श्रद्धेय श्री घासी लाल जी महाराज ने उसका "अकस्मात्" अर्थ किया है और लिखा है कि मगध देश में आज भी "हव्व-हव्य" शब्द अकस्मात् (अचानक) अर्थ में प्रसिद्ध है। हव्यम्अकस्मात्, हव्यमित्ययं शब्दोऽद्यापि मागधे अकस्मादर्थे प्रसिद्धः।(पृष्ठ 114) स्वकीय गुप्त वृत्तान्त को श्री गौतमस्वामी द्वारा उद्घाटित हो जाने से चकित हुई मृगादेवी का गौतम स्वामी से किसी अतिशय ज्ञानी वा तपस्वी सम्बन्धी प्रश्न भी रहस्य पूर्ण है। नितान्त गुप्त अथवा अन्त:करण में रही हुई बात को यथार्थ रूप में प्रकट करना, विशिष्ट ज्ञान पर ही निर्भर करता है, विशिष्ट ज्ञान के धारक मुनिजनों के बिना -जिन की आत्मज्योति विशिष्ट प्रकार के आवरणों से अनाछन्न होकर पूर्णरूपेण विकास को प्राप्त कर चुकी होदूसरा कोई व्यक्ति अन्त:करण में छिपी हुई बात को प्रकट नहीं कर सकता। अतएव मृगादेवी ने भगवान् गौतम से जो कुछ पूछा है उसमें यही भाव छिपा हुआ है। मृगादेवी के उक्त प्रश्न का गौतमस्वामी ने जो उत्तर दिया अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं- मूल-तते णं भगवं गोतमे मियं देवि एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! मम धम्मायरिए समणे भगवं जाव, ततो णं अहं जाणामि।जावंच णं मियादेवी भगवया गोतमेणं सद्धिं एयमटुं संलवति तावं च णं मियापुत्तस्स दारगस्स भत्तवेला ज़ाया यावि होत्था। तते णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासीतुब्भे णं भंते! इह चेव चिट्ठह जा णं अहं तुब्भं मियापुत्तं दारयं उवदंसेमि त्ति कटु जेणेव भत्तपाण-घरए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता वत्थपरियट्टं करेति, करेत्ता कट्ठ-सगडियं गेण्हति 2 त्ता विपुलस्स असणपाण-खातिम-सातिमस्स प्रश्न-घर आदि में अकेली स्त्री के साथ खड़ा होना और उस के साथ संलाप करना शास्त्रों में निषिद्ध' है। प्रस्तुत कथासंदर्भ में राजकुमार मृगापुत्र को देखने के निमित्त गए भगवान गौतम स्वामी का महारानी मृगादेवी से वार्तालाप करने का वृत्तान्त स्पष्ट ही है। क्या यह शास्त्रीय मर्यादा की उपेक्षा नहीं ? 1. समरेसु अगारेसु, सन्धीसु य महापहे। एगो एगित्थिए सद्धिं, नेव चिढे न संलवे // 26 // (उत्तराध्ययन-सूत्र, अ० 1) प्रथम श्रुतस्कंध ]. श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [141 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरेति 2 त्ता तं कट्ठसगडियं अणुकड्ढमाणी 2 जेणेव भगवं गोतमे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता भगवं गोतमं एवं वयासी-एह णं तुब्भे भंते ! ममं [ मए सद्धिं ] अणुगच्छह जा णं अहं तुब्भं मियापुत्तं दारयं उवदंसेमि।तते णं से भगवं गोतमे मियं देविं पिट्ठओ समणुगच्छति। तते णं सा मियादेवी तं कट्ठसगडियं अणुकड्ढमाणी 2 जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छति 2 चउप्पुडेणं वत्थेणं मुहं बंधमाणी भगवं गोतमं एवं वयासी-तुब्भे वि य णं भंते! 'मुहपोत्तियाए मुहं बन्धह। तते णं भगवं गोतमे मियादेवीए एवं वुत्ते समाणे मुहपोत्तियाए मुहं बंधति।तते णं सा मियादेवी परं मुही भूमिघरस्स दुवारं विहाडेति। तते णं गंधो निग्गच्छति।से जहा नामए अहिमडे इ वा जाव ततो वि यणं अणि?तराए चेव जाव गंधे पण्णत्ते। छाया-ततो भगवान् गौतमो मृगां देवीमेवमवदत्-एवं खलु देवानुप्रिये ! मम धर्माचार्यः श्रमणो भगवान् यावत्, ततोऽहं जानामि / यावच्च मृगादेवी भगवता गौतमेन सार्द्धमेतमर्थं संलपति तावच्च मृगापुत्रस्य दारकस्य भक्तवेला जाता चाप्यभवत् / ततः सा मृगादेवी भगवन्तं गौतममेवमवादीत्-यूयं भदन्त ! इहैव तिष्ठत, यावदहं युष्मभ्यं मृगापुत्रं दारकमुपदर्शयामि, इति कृत्वा यत्रैव भक्तपानगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ____उत्तर - शास्त्रों में व्यवहार पांच प्रकार के कहे गए हैं। (1) आगम, (2) श्रुत, (3) आज्ञा, (4) धारणा और (5) जीत। मोक्षाभिलाषी आत्मा की प्रवृत्ति का नाम व्यवहार है। केवलज्ञानी, मन:पर्यायज्ञानी, अवधिज्ञानी. चतुर्दशपूर्वी दशपूर्वी और नवपूर्वी की प्रवृत्ति को आगम व्यवहार कहा.गया है। आगम-व्यवहारी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसारी होते हैं। इन पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता है। आगम व्यवहार के अभाव में शास्त्रों के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले श्रुत व्यवहारी होते हैं। इनके लिए मात्र शास्त्रीय मर्यादा ही मार्ग दर्शिका होती है। जहां शास्त्र मौन है, वहां द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावानुसारी गुरु आदि द्वारा दिया गया आदेश आज्ञा-व्यवहार है। आज्ञा-व्यवहारी को गुरु चरणों द्वारा सम्प्राप्त आज्ञा का ही अनुसरण करना होता है। आज्ञा व्यवहार की अनुपस्थिति में गुरु परम्परा से चलित व्यवहार का नाम धारणा व्यवहार है। धारणा-व्यवहारी को पूर्वजों की धारणा के अनुसार ही प्रवृत्ति करनी पड़ती है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन आदि का विचार कर गीतार्थ मुनियों द्वारा निर्धारित व्यवहार जीत व्यवहार होता है। जीत व्यवहारी के लिए अतीत समाचारी मान्य होने पर भी वर्तमान संघसमाचारी का पालन करना आवश्यक होता है। भगवान गौतम आगम व्यवहारी थे। आगमव्यवहारियों पर श्रुत व्यवहार लागू नहीं होता। अतः भगवान गौतम का महारानी मृगादेवी से किया गया संलाप आदि शास्त्र विरुद्ध नहीं है। 2. मुखपोतिका-मुखप्रोञ्छनिका, रजः प्रस्वेदादि-प्रोञ्छनार्थ यद् वस्त्रखण्डं हस्ते ध्रियते सा मुखप्रोञ्छनिकेत्युच्यते। 142 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्रपरिवर्तं करोति, कृत्वा काष्ठशकटिकां गृह्णाति, गृहीत्वा विपुलेनाशनपानखादिमस्वादिम्मा भरति, भृत्वा तां काष्ठशकटिकामनुकर्षन्ती 2 यत्रैव भगवान् गौतमस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य भगवन्तं गौतममेवमवदत् एत यूयं भदन्त ! मामनुगच्छत, यावदहं युष्मभ्यं मृगापुत्रं दारकमुपदर्शयामि। ततः स गौतमो मृगादेवीं पृष्ठतः समनुगच्छति / ततः सा मृगादेवी तां काष्ठशकटिकामनुकर्षन्ती 2 यत्रैव भूमिगृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चतुष्पुटेन वस्त्रेण मुखं बध्नाति भगवन्तं गौतममेवमवादीत्यूयमपि च भदन्त ! मुखपोतिकया मुखं बनीत। ततो भगवान् गौतमो मृगादेव्या एवमुक्तः सन् मुखपोतिकया मुखं बध्नाति। ततः सा मृगादेवी परांमुखी भूमिगृहस्य द्वारं विघाटयति। ततो गन्धो निर्गच्छति। स यथा नामाहिमृतकस्य वा यावत् ततोऽपि चानिष्टतरश्चैव यावद् गन्धः प्रज्ञप्तः। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / भगवं गोतमे-भगवान् गौतम स्वामी ने। मियं देविं-मृगादेवी को। एवं-वयासी-इस प्रकार कहा। देवाणुप्पिए !-हे देवानुप्रिये ! अर्थात् हे भद्रे ! मम धम्मायरिए-मेरे धर्माचार्य (गुरुदेव)। समणे भगवं जाव-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं। ततो णं-उन से। अहं जाणामि-मैं जानता हूं, अर्थात् प्रभु महावीर स्वामी ने मुझे यह रहस्य बताया है। जावं च णं-जिस समय। मियादेवी-मृगादेवी। भगवया गोतमेणं-भगवान् गोतम के।सद्धिं-साथ / एयमटुं-इस विषय में। संलवतिसंलाप-संभाषण कर रही थी। तावं च णं-उसी समय। मियापुत्तस्स-मृगापुत्र / दारगस्स-बालक का। भत्तवेला-भोजन समय। जाया यावि होत्था-भी हो गया था। तते णं-तब। सा मियादेवी-उस मृगादेवी ने। भगवं गोयम-भगवन् गौतम स्वामी के प्रति। एवं वयासी-इस प्रकार कहा। भन्ते ! हे भदन्त ! अर्थात् हे भगवन् ! तुब्भेणं-आप। इह चेव-यहीं पर। चिट्ठह-ठहरें। जा णं-जब तक। अहं-मैं। तुब्भंआप को। मियापुत्तं-मृगापुत्र / दारयं-बालक को। उवदंसेमि त्ति-दिखलाती हूं, ऐसे। कट्ट-कह कर। जेणेव-जहां पर / भत्तपाणघरए-भोजनालय-भोजन बनाने का स्थान था। तेणेव-वहीं पर / उवागच्छतिआती है। उवागच्छित्ता-आ कर। वत्थपरियट्ट-वस्त्र परिवर्तन / करेति-करती है। करेत्ता-वस्त्र परिवर्तन करके। कट्ठसगडियं-काठ की गाड़ी को। गेण्हति-ग्रहण करती है, ग्रहण करके। विपुलस्स-अधिक मात्रा में। असण-पाणखातिमसातिमस्स-अशन, पान, खादिम और स्वादिम से। भरेति 2 त्ता-उसे भरती है, भर कर। तं कट्ठसगडियं-उस काष्ठ-शकटी को। अणुकड्ढमाणी-बँचती हुई। जेणेव-जहां पर। भगवं गोतमे-भगवान् गौतम थे। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छति 2 त्ता-आती है, आ कर। भगवंभगवान् / गोतम-गौतम स्वामी के प्रति / एवं वयासी-इस प्रकार बोली। भंते !-हे भदन्त ! एह णं तुब्भेआप पधारें, अर्थात्। ममं अणुगच्छह-मेरे पीछे-पीछे चलें। जा णं-यावत्। अहं तुब्भं-मैं आप को। मियापुत्तं दारगं-मृगापुत्र बालक को। उवदंसेमि-दिखाती हूं। तते णं-तत्पश्चात्। से भगवं गोतमे-वे भगवान् गौतम। मियं देविं पिट्ठओ-मृगादेवी के पीछे। समणुगच्छति-चलने लगे।तते णं-तदनन्तर / सा प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [143 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मियादेवी-वह मृगादेवी। तं कट्ठसगडियं-उस काष्ठ-शकटी को।अणुकड्ढमाणी-बैंचती हुई। जेणेव भूमिघरे-जहां पर भूमि-गृह था। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छति २त्ता-आती है, आकर। चठप्पुडेणं वत्थेणं-चार पुट वाले वस्त्र से। मुहं बंधमाणी-मुख को बांधती हुई-अर्थात् नाक बांधती हुई। भगवंभगवान्। गोतमं-गौतम स्वामी को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। भंते ! हे भगवन् ! तुब्भे विय णं-आप भी। मुहपोत्तियाए-मुख के वस्त्र से। मुहं-मुख को अर्थात् नाक को। बंधह-बांध लें। तते णंतब। मियादेवीए-मृगादेवी के। एवं-इस प्रकार। वुत्ते समाणे-कहे जाने पर। भगवं गोतमे-भगवान् गौतम। मुहपोत्तियाए मुहं बन्धति-मुख के वस्त्र के द्वारा मुख को-नाक को बान्ध लेते हैं। तते णंतदनन्तर / सा मियादेवी-वह मृगादेवी। परंमुही-पराङ्मुख हुई 2 / भूमिघरस्स दुवारं-भूमीगृह के दरवाजे को। विहाडेति-खोलती है। ततो णं गंधो निग्गच्छति-उस से गन्ध निकलती है। से-वह-गन्ध। जहाजैसे। नामए-वाक्यालङ्कारार्थक है। अहिमडे इ वा जाव-यावत् मरे हुए सर्प की दुर्गन्ध होती है। ततो वि यणं-उससे भी। अणिट्ठतराए चेव-अधिक अनिष्ट (अवाञ्छनीय) / जाव-यावत् / गंधे पण्णत्ते-गन्ध थी। __ मूलार्थ-तब भगवान् गौतम स्वामी ने मृगादेवी को कहा-हे देवानुप्रिये ! अर्थात् हे भद्रे ! इस बालक का वृत्तान्त मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मेरे को कहा था, इसलिए मैं जानता हूं। जिस समय मृगादेवी भगवान् गौतम के साथ संलापसंभाषण कर रही थी, उसी समय मृगापुत्र बालक के भोजन का समय हो गया था। तब मृगादेवी ने भगवान् गौतम स्वामी से निवेदन किया कि हे भगवन् ! आप यहीं ठहरें, मैं आप को मृगापुत्र बालक को दिखाती हूं।इतना कहकर वह जिस स्थान पर भोजनालय था वहां आती है, आकर प्रथम वस्त्र परिवर्तन करती है-वस्त्र बदलती है, वस्त्र बदल कर काष्ठशकटी-काठ की गाड़ी को ग्रहण करती है, तथा उस में अशन, पान, खादिम और स्वादिम को अधिक मात्रा में भरती है, तदनन्तर उस काष्ठशकटी को बैंचती हुई जहां भगवान् गौतम स्वामी थे वहां आती है, आकर उसने भगवान् गौतम स्वामी से कहा-भगवन् ! आप मेरे पीछे आएं मैं आप श्री को मृगापुत्र बालक को दिखाती हूं। तब भगवान् गौतम मृगादेवी के पीछे-पीछे चलने लगे। तदनन्तर वह मृगादेवी काष्ठ-शकटी को बैंचती हुई जहां पर भूमिगृह था वहां पर आई, आकर चतुष्पुट-चार पुट वाले वस्त्र से अपने मुख को-अर्थात् नाक को बान्धती हुई भगवान् गौतम स्वामी से बोलीभगवन्! आप भी मुख के वस्त्र से अपने मुख को बान्ध लें अर्थात् नाक को बान्ध लें। तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी ने मृगादेवी के इस प्रकार कहे जाने पर मुख के वस्त्र से अपने मुख-नाक को बान्ध लिया। तत्पश्चात् मृगादेवी ने परांमुख हो कर (पीछे को 1. “से जहा नामए" त्ति तद्यथा नामेति वाक्यालंकारे। (वृत्तिकारः) . 144 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख करके ) जब उस भूमिगृह के द्वार-दरवाजे को खोला तब उस में से दुर्गन्ध आने लगी, वह दुर्गन्ध मृत सर्प आदि प्राणियों की दुर्गन्ध के समान ही नहीं प्रत्युत उससे भी अधिक अनिष्ट थी। - टीका-मृगादेवी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् गौतम स्वामी ने रहस्योद्घाटन के सम्बन्ध में जो कुछ कहा उसका विवरण इस प्रकार है गौतम स्वामी बोले-महाभागे! इसी नगर के अन्तर्गत चन्दन पादप नामा उद्यान में मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान हैं, वे सर्वज्ञ अथच सर्वदर्शी हैं, भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल के वृत्तान्त को जानने वाले हैं। वहां उन की व्याख्यानपरिषद् में आए हुए एक अन्धे व्यक्ति को देखकर मैंने प्रभु से पूछा-भदन्त ! क्या कोई ऐसा पुरुष भी है जो कि जन्मान्ध होने के अतिरिक्त जन्मान्धकरूप (जिस के नेत्रों की उत्पत्ति भी नहीं हुई है) भी हो? तब भगवान् ने कहा, हां गौतम! है। कहां है भगवन् ! वह पुरुष ? मैंने फिर उनसे पूछा। मेरे इस कथन के उत्तर में भगवान् ने तुम्हारे पुत्र का नाम बताया और कहा कि इसी मृगाग्राम नगर के विजयनरेश का पुत्र तथा मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नामक बालक है जो कि जन्मान्ध और जन्मान्धकरूप भी है इत्यादि / अतः तुम्हारे पुत्र-विषयक मैंने जो कुछ कहा है वह मुझे मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्राप्त हुआ है। भगवान् का यह कथन सर्वथा अभ्रांत एवं पूर्ण सत्य है, उसके विषय में मुझे अणुमात्र भी अविश्वास न होने पर भी केवल उत्सुकतावश मैं तुम्हारे उस पुत्र को देखने के लिए यहां पर आ गया हूं। आशा है मेरे इस कथन से तुम्हारे मन का भली-भांति समाधान हो गया होगा। यह था महारानी मृगादेवी के रहस्योद्घाटन सम्बन्धी प्रश्न का गौतम स्वामी की ओर से दिया गया सप्रेम उत्तर, जिसकी कि उसे अधिक आकांक्षा अथच जिज्ञासा थी। ... भगवान् गौतम स्वामी और महारानी का आपस में वार्तालाप हो ही रहा था कि इतने में मृगापुत्र के भोजन का समय भी हो गया। तब मृगादेवी ने भगवान् गौतम स्वामी से कहा कि भगवन् ! आप यहीं विराजें, मैं अभी आप को उसे (मृगापुत्र को) दिखाती हूं, इतना कहकर वह भोजन-शाला की ओर गई, वहां जाकर उसने पहले अपने वस्त्र बदले, फिर काष्ठशकटीलकड़ी की एक छोटी सी गाड़ी ली और उस में विपुल-अधिक प्रमाण में अशन (रोटी, दाल आदि) पान (पानी, खादिम, मिठाई तथा दाख, पिस्ता आदि) और स्वादिम (पान-सुपारी आदि) रूप चतुर्विध आहार को ला कर भरा, तदनन्तर उस आहार से परिपूर्ण शकटी को स्वयं बैंचती हुई वह गौतम स्वामी के पास आई और उन से नम्रता पूर्वक इस प्रकार बोली-भगवन् ! पधारिए, मेरे साथ आइए, मैं आप को उसे (मृगापुत्र को) दिखाती हूं। महारानी मृगादेवी की प्रथम श्रुतस्कंध ] . श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [145 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनीतता पूर्ण वचनावली को सुनकर भगवान् गौतम स्वामी भी महारानी मृगादेवी के पीछेपीछे चलने लगे। काष्ठशकटी का अनुकर्षण करती हुई मृगादेवी भूमिगृह के पास आई। वहां आकर उसने स्वास्थ्यरक्षार्थ चतुष्पुट-चार पुट वाले (चार तहों वाले) वस्त्र से मुख को बांधा अर्थात् नाक को बान्धा और भगवान् गौतमस्वामी से भी स्वास्थ्य की दृष्टि से मुख के वस्त्र द्वारा मुख नाक बांध लेने की प्रार्थना की, तदनुसार श्री गौतम स्वामी ने भी मुख के वस्त्र से अपने नाक को आच्छादित कर लिया। प्रश्न-जब भगवान् गौतम स्वामी ने मुखवस्त्रिका से अपना मुख बान्ध ही रखा था, फिर उन्हें मुख बान्धने के लिए महारानी मृगादेवी के कहने का क्या अभिप्राय है ? __उत्तर-जैसे हम जानते हैं कि भगवान् गौतम ने मुख-वस्त्रिका से अपना मुख बान्ध ही रखा था, वैसे महारानी मृगादेवी भी जानती थी, इस में सन्देह वाली कोई बात नहीं है, तथापि मृगादेवी ने जो पुनः मुख बान्धने की भगवान से अभ्यर्थना की है, उस अभ्यर्थना के शब्दों को न पकड़ कर उस के हार्द को जानने का यत्न कीजिए। सर्वप्रथम न्यायदर्शन की लक्षणा जान लेनी आवश्यक है। लक्षणा का अर्थ है- 'तात्पर्य (वक्ता के अभिप्राय) की उपपत्ति-सिद्धि न होने से शक्यार्थ (शक्ति-संकेत द्वारा बोधित अर्थ) का लक्ष्यार्थ (लक्षण द्वारा बोधित अर्थ) के साथ जो सम्बन्ध है। स्पष्टता के लिए उदाहरण : लीजिए "गङ्गायां घोषः" इस वाक्य में वक्ता का अभिप्राय है कि गंगा के तीर पर घोष (अभीरों की पल्ली) है, परन्तु यह अभिप्राय गंगा के शक्य रूप अर्थ द्वारा उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि गंगा का शक्यार्थ है-जल-प्रवाह-विशेष / उस में घोष का होना असंभव है, इस लिए यहां गंगा पद से उस का जल-प्रवाह रूप शक्यार्थ न लेकर उस के सामीप्य सम्बन्ध द्वारा लक्ष्यार्थ-तीर को ग्रहण किया जाता है। . इसी प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में जो "मुहपोत्तियाए मुहं बंधह" यह पाठ आता है। इस में मुख-शब्द लक्षणा द्वारा नासिका का ग्राहक है-बोधक है। क्योंकि प्रस्तुत प्रसंग में महारानी मृगादेवी का अभिप्राय गौतम स्वामी को दुर्गन्ध से बचाने का है। और यह अभिप्राय मुख के शक्यरूप अर्थ का ग्रहण करने से उत्पन्न नहीं होता है। क्योंकि गन्ध का ग्राहक घ्राण (नाक) है न कि मुख, इस लिए यहां तात्पर्य की उपपत्ति न होने से मुख शब्द द्वारा इस के शक्यार्थ को न लेकर सामीप्यरूप सम्बन्ध लक्ष्यार्थ-नाक ही का ग्रहण करना चाहिए। जो कि महारानी मृगादेवी को अभिमत है। 1. लक्षणा शक्यसम्बन्धस्तात्पर्यानुपपत्तितः (न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, कारिका-८२) 146 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा लौकिक व्यवहार भी ऊपर के विवेचन का समर्थक है। देखिए-कोई मित्रमण्डल गोष्ठी में संलग्न है, सामने से भीषण दुर्गन्ध से अभिव्याप्त एक कुष्ठी आ रहा है। मण्डल का नायक उसे देखते ही बोल उठता है, मित्रो ! मुख ढक लो। नायक के इतना कहने मात्र से साथी अपना-अपना नाक ढक लेते हैं। यह ठीक है नाक का मुख के साथ अतिनिकट का सम्बन्ध होने से मुख का ढका जाना अस्वाभाविक नहीं है, परन्तु कहने वाले का अभिप्राय नाक के ढक लेने से होता है, क्योंकि नाक ही गन्ध का ग्रहण करने वाला है। प्रश्न-यदि मुख-पद के लक्ष्यार्थ का ग्रहण न करके इसके शक्यार्थ का ग्रहण किया जाए तो क्या बाधा है ? उत्तर-प्रस्तुत प्रकरण में दुर्गन्ध से बचाव की बात चल रही है। गन्ध का ग्राहक घ्राण है। घ्राण को ढके या बान्धे बिना दुर्गन्ध से बचा नहीं जा सकता। परन्तु महारानी मृगादेवी नाक को बान्धने की बात न कह कर मुख बान्धने के लिए कह रही हैं / मुख गन्ध का ग्राहक न होने से महारानी का यह कंथन व्यवहार से विरुद्ध पड़ता है, अतः यहां तात्पर्य की उपपत्ति न होने के कारण लक्षणा द्वारा मुखपद से नाक का ग्रहण करना ही होगा। दूसरी बात यह है कि यदि यहां मुख का शक्यार्थ ही अपेक्षित होता तो "मुहपोत्तियाए मुहं बन्धेह" इस पाठ की आवश्यकता ही नहीं रहती, क्योंकि मुख को आवृत करने के लिए किसी बाह्य आवरण की आवश्यकता नहीं है, वहां तो ओंठ ही आवरण का काम दे जाते हैं। ऐसी एक नहीं अनेकोंबाधाओं के कारण यहां मुखपद से नाक का ग्रहण करना ही शास्त्रसम्मत है। प्रश्न-"मुहपोत्तियाए मुहं बन्धेह" इस पाठ में जो "बन्धेह" यह पद है, इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान गौतम के मुख पर मुख-वस्त्रिका नहीं थीं परन्तु उन्होंने महारानी मृगादेवी के कहने पर बांधी थी। पहले यह कहा जा चुका है कि भगवान् गौतम के मुखवस्त्रिका बन्धी हुई थी, यह परस्पर विरोध की बात क्यों ? उत्तर- सब से पहले जैन शास्त्रों में मुख-वस्त्रिका की मान्यता किस आधार पर है - इस पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। भगवती सूत्र में लिखा है .. पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी अपनी शिष्यमण्डली सहित राजगृह नगर में विराजमान थे। भगवान् के प्रधान शिष्य अनगार गौतम एक बार भगवान् के चरणों में नमस्कार ___1. यहां पर मुखपोतिका-मुखवस्त्रिका शब्द एक वस्त्रखण्ड का बोधक है, जिस से धूलि, पसीना आदि पोंछने का काम लिया जाता है। आठ तहों वाली मुख-वस्त्रिका का यहां पर ग्रहण नहीं, क्योंकि उसका इतना बड़ा आकार नहीं होता कि दुर्गन्ध के दुष्परिणाम से पूर्णरूपेण बचने के लिए उसे ग्रीवा के पीछे ले जाकर गांठे देकर बाँध दिया जाए। सूत्रकार "मुहपोत्तियाए मुहं बंधेह" इस पाठ में "बन्धेह" पद का प्रयोग करते हैं। "बंधेह" का अर्थ होता है-बान्ध लें। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [147 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने के अनन्तर हाथ जोड़कर सविनय निवेदन करने लगे ___ भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराज सावद्य' (पाप युक्त) भाषा बोलते हैं या निरवद्य (पाप रहित)? भगवान बोले-गौतम ! देवेन्द्र देवराज सावद्य और निरवद्य दोनों प्रकार की भाषा बोलते हैं। गौतम-भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सावध और निरवद्य दोनों प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं, यह कहने का क्या अभिप्राय है ? __ भगवान् -गौतम ! देवेन्द्र देवराज जब सूक्ष्मकाय-वस्त्र अथवा हस्तादि से मुख को बिना ढक कर बोलते हैं तो वह उन की सावध भाषा होती है, परन्तु जब वे वस्त्रादि से मुख को ढक कर भाषा का प्रयोग करते हैं तब वह निरवद्य भाषा कहलाती है। भाषा का द्वैविध्य मुख को आवृत करने और खुले रखने से होता है। खुले मुख से बोली जाने वाली भाषा वायुकाया के जीवों की नाशिका होने से सावध और वस्त्रादि से मुख को ढक कर बोले जाने वाली भाषा जीवों की संरक्षिका होने से निरवद्य भाषा कहलाती है। ___इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट है कि मुख की यतना किए बिना-मुख को वस्त्रादि से . आवृत किए बिना भाषा का प्रयोग करना सावध कर्म होता है। सावध प्रवृत्तियों से अलग रहना ही साधुजीवन का महान् आदर्श रहा हुआ है, यही कारण है कि सावद्य प्रवृत्ति से बचने के लिए साधु मुख पर मुखवस्त्रिका का प्रयोग करते आ रहे हैं। __अब जरा मूल प्रसंग पर विचार कीजिए-जब महारानी मृगादेवी अपने ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र को दिखाने के लिए भौरे में जाती है, तब वहां की भीषण एवं असह्य दुर्गन्ध से स्वास्थ्य दूषित न होने पावे, इस विचार से अपना नाक बान्धती हुई, भौरे के दुर्गन्धमय वायुमण्डल से अपरिचित भगवान् गौतम से भी नाक बान्ध लेने की अभ्यर्थना करती है। तब भगवान् गौतम ने भौरेका स्वास्थ्यनाशक दुर्गन्ध-पूर्ण वायुमण्डल जान कर और रानी की प्रेरणा पा कर पसीना आदि पोंछने के उपवस्त्र से अपने नाक को बान्ध लिया। यदि यहां बोलने का प्रसंग होता और सावध प्रवृत्ति से बचाने के लिए भगवान् गौतम को मुख पर मुखवस्त्रिका लगाने की प्रेरणा की जाती तो यह शंका अवश्य मान्य एवं विचारणीय थी परन्तु यहां तो केवल दुर्गन्ध से बचाव करने की बात है। बोलने का यहां कोई प्रसंग नहीं। "बन्धेह" पद से जो "-संयोग वियोग मूलक होता है इसी प्रकार मुख का बन्धन 2. भगवती-सूत्र शतक 16 उद्देशक 2 सूत्र 568 148 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी अपने पूर्वरूप खुले रहने का प्रतीक है-" यह शंका होती है उसका कारण इतना ही है कि शंकाशील व्यक्ति मुख का शक्यरूप अर्थ ग्रहण किए हुए है जब कि यहां मुख शब्द अपने लक्ष्यार्थ का बोधक है। मुख का लक्ष्यार्थ है नाक, नाक का बान्धना शास्त्रसम्मत एवं प्रकरणानुसारी है। जिस के विषय में पहले काफी विचार किया जा चुका है। ___ मुख-वस्त्रिका मुख पर लगाई जाती थी इस की पुष्टि जैन दर्शन के अतिरिक्त वैदिक दर्शन में भी मिलती है। शिवपुराण में लिखा है हस्ते. पात्रं दधानाश्च तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः। मलिनान्येव वस्त्राणि, धारयन्तोऽल्पभाषिणः॥ [अध्याय 21 श्लोक 95] अस्तु अब विस्तार भय से इस पर अधिक विवेचन न करते हुए प्रकृत विषय पर आते हैं तदनन्तर जब महारानी मृगादेवी ने मुख को पीछे की ओर फेर कर भूमिगृह के द्वार का उद्घाटन किया, तब वहां से दुर्गन्ध निकली, वह दुर्गन्ध मरे हुए सर्पादि जीवों की दुर्गन्ध से भी भीषण होने के कारण अधिक अनिष्ट-कारक थी। यहां पर प्रस्तुत सूत्र के - “अहिमडे इवा जाव ततो वि" पाठ में उल्लिखित हुए "जाव-यावत्" पद से निम्नोक्त पदों का ग्रहण करना अभीष्ट है- गोमडे इजाव मयकुहिय-विणट्ठ-किमिण-वावण्ण-दुरभिगंधे किमिजालाउले संसत्ते असुइ-विगय-वीभत्थ-दरिसणिजे, भवेयारूवे सिया ? णो इणढे समढे एत्तो अणिट्ठतराए चेव.....। (ज्ञाताधर्मकथांग-सूत्र अ० 12, सूत्र 91) "अणिद्वतराए चेव जाव गन्धे" पाठान्तर्गत "जाव" पद से "अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुन्नतराए चेव अमणामतराए चेव" इन पदों का भी संग्रह कर लेना चाहिए। अब सूत्रकार अग्रिम प्रसंग का वर्णन करते हुए कहते हैंमूल-तते णं से मियापुत्ते दारए तस्स विपुलस्स असण-पाण-खाइम 1. मृत गाय के यावत् (अर्थात्-कुत्ता, गिरगिट, मार्जार, मनुष्य, महिष, मूषक, घोड़ा, हस्ती, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िया), और) चीता के कुथित-सड़े हुए, अतएव विनष्ट-शोथ आदि विकार से युक्त, कई प्रकार के कृमियों से युक्त, गीदड़ आदि द्वारा खाए जाने के कारण विरूपता को प्राप्त, तीव्रतर दुर्गन्ध से युक्त, जिस में कीड़ों का समूह बिल बिला रहा है और इसीलिए स्पर्श के अयोग्य होने से अशुचि चित्त में उद्वेगोत्पत्ति का कारण होने से विकृत और देखने के अयोग्य होने से वीभत्स शरीरों से जिस प्रकार असह्य दुर्गन्ध निकलती है उससे भी अनिष्ट दुर्गन्ध वहां से निकल रही थी। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [149 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साइमस्स गंधेणं अभिभूते समाणे तंसि विपुलंसि असण-पाण-खाइमसाइमंसि मुच्छिए 4 तं विपुलं असणं 4 आसएणं आहारेति 2 खिप्पामेव विद्धंसेति।ततो पच्छा पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणामेइ तं पि य णं पूयं च सोणियं च आहारेति। तते णं भगवतो गोतमस्स तं मियापुत्तं दारयं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झत्थिते 6 समुप्पजित्था-अहो णं इमे दारए पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्ति-विसेसं पच्चणुभवमाणे विहरति,ण मे दिट्ठा णरगा वा णेरइया वा पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरय-पडिरूवियं वेयणं वेएति त्ति कट्ट मियं देविं आपुच्छति 2 मियाए देवीए गिहाओ पडिनिक्खमति 2 त्ता मियग्गामणगरं मझमझेणं निग्गच्छति 2 त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवांगच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मियग्गामंणगरं मझमझेणं अणुपविसामि 2 जेणेव मियाए देवीए गिहे तेणेव उवागते तते णं सा मियादेवी ममं एजमाणं पासति 2 त्ता हट्ट तं चेव सव्वं जाव पूयं च सोणियं च आहारेति। तते णं मम इमे अज्झत्थिते 6 समुष्पज्जित्था, - अहो णं इमे दारए पुरा जाव विहरति। ____ छाया-ततः स मृगापुत्रो दारकस्तस्य विपुलस्याशनपानखादिमस्वादिम्नो गन्धेनाभिभूतः सन्तस्मिन् विपुले अशनपानखादिमस्वादिम्नि मूर्छितः 4 तं विपुलमशनं 4 आस्येनाहरति, आहृत्य क्षिप्रमेव विध्वंसयति। ततः पश्चात् पूयतया च शोणितया च परिणमयति। तदपि च पूयं च शोणितं चाहरति / ततो भगवतो गौतमस्य तं मृगापुत्रं दारकं दृष्ट्वाऽयमेतद्पः २आध्यात्मिकः 6 समुत्पद्यत, अहो अयं दारकः पुरा ३पुराणानां दुश्चीर्णानां दुष्प्रतिक्रान्तानां अशुभानां पापानां कृतानां कर्मणां फलवृत्ति 1. 'मुच्छिए' इत्यत्र 'गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने' इति पदत्रयमन्यद् दृश्यम्, एकार्थान्येतानि चत्वार्यपीति वृत्तिकारः। 2. आध्यात्मिक पद से निम्नोक्त पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है-आध्यात्मिक-आत्मगतः, चिन्तितः-पर्यालोचितः (पुनः पुनः स्मृतः, कल्पितः-कल्पनायुक्तः, प्रार्थित:-जिज्ञासितः, मनोगतः-मनोवर्ती, संकल्प:-विचारः। ___3. पुरा पुराणानां जरठानां कक्खड़ीभूतानामित्यर्थः, पुरा पूर्वकाले दुश्चीर्णानां-प्राणातिपा 150 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषं-प्रत्यनुभवन् विहरति।न मया दृष्टा नरका वा नैरयिका वा, प्रत्यक्षं खल्वयं पुरुषो नरक-प्रतिरूपिकां वेदनां वेदयति इति कृत्वा मृगां देवीमापृच्छते, आपृच्छ्य मृगाया देव्या गृहात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य मृगाग्रामान्नगरान् मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिरादक्षिण प्रदक्षिणं करोति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्एवं खल्वहं युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् मृगाग्रामं नगरं मध्यमध्येनानुप्राविशम्। अनुप्रविश्य यत्रैव मृगाया देव्या गृहं तत्रैवोपागतः। ततः सा मृगादेवी मामायान्तं पश्यति दृष्ट्वा हृष्ट तदेव सर्वं यावत् पूयं च शोणितं चाहरति / ततो ममायमाध्यात्मिकः६ समुद्पद्यत अयं दारकः पुरा यावद विहरति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / से मियापुत्ते दारए-उस मृगापुत्र बालक ने। तस्स विपुलस्स-उस महान्। असणं-पाण खाइम-साइमस्स-अशन, पान, खादिम और स्वादिम के। गंधेणं- गन्ध से। अभिभूते समाणे-अभिभूत-आकृष्ट तथा। तंसि विपुलंसि-उस महान् / असण-पाण खाइम-साइमंसिअशन, पान, खादिम और स्वादिम में। मुच्छिए-मुर्छित हुए ने। तं विपुलं-उस महान्। असणं ४-अशन, पान, खादिम और स्वादिम का।आसएणं-मुख से।आहारेति-आहार किया, और। खिप्पामेव-शीघ्र ही। विद्धंसेति-वह नष्ट हो गया, अर्थात् जठराग्नि द्वारा पचा दिया गया। ततो पच्छा-तदनन्तर वह / पूयत्ताए य-पूय-पीब और। सोणियत्ताए-शोणित-रुधिर रूप में। परिणामेति-परिणमन को प्राप्त हो गया और उसी समय उस का उसने वमन कर दिया। तं य णं-और उस वान्त / पूयं च-पीब और। सोणियं च पिशोणित-रक्त का भी वह मृगापुत्र / आहारेति-आहार करने लगा, अर्थात् उस पीव और खून को वह चाटने लगा। तते णं-उस के पश्चात्। भगवतो गोतमस्स-भगवान् गौतम के। तं मियापुत्तं दारयं-उस मृगापुत्र बालक को। पासित्ता-देखकर। अयमेयारूवे-इस प्रकार के। अज्झस्थिते ६-विचार। समुप्पजित्थाउत्पन्न हुए।अहोणं-अहो-अहह ! इमेदारए-यह बालक। पुरा-पहले। पोराणाणं-प्राचीन / दुच्चिण्णाणंदुश्चीर्ण-दुष्टता से उपार्जन किए गए। दुप्पडिकंताणं-दुष्प्रतिक्रान्त-जो धार्मिक क्रियानुष्ठान से नष्ट नहीं किए गए हों। असुभाणं-अशुभ। पावाणं-पापमय। कडाणं कम्माणं-किए हुए कर्मों के। पावगंपापरूप। फलवित्तिविसेसं-फलवृत्ति विशेष-विपाक का।पच्चणुभवमाणे-अनुभव करता हुआ। विहरतिसमय व्यतीत कर रहा है। मे-मैंने। णरगा वा- नरक अथवा। णेरइया वा-नारकी। ण दिट्ठा-नहीं देखे। अयं पुरिसे-यह पुरुष-मृगापुत्र। नरयपडिरूवियं-नरक के प्रतिरूप-सदृश। पच्चक्खं-प्रत्यक्ष-रूपेण। वेयणं-वेदना का। वेएति-अनुभव कर रहा है। त्ति कट्ट-ऐसा विचार कर भगवान् गौतम। मियं देविं तादिदुश्चरितहेतुकानाम् दुष्प्रतिक्रान्तानाम्-दुशब्दोऽभावार्थः, तेन प्रायश्चित-प्रतिपत्त्यादिनाऽप्रतिक्रान्तानामनिवर्तितविपाकानामित्यर्थः, अशुभानाम्-असुखहेतूनां, पापानाम् दुष्टस्वभावानाम् कर्मणाम्-ज्ञानावरणादीनाम्, पापकम् अशुभम्, फलवृत्तिविशेष-फलरूपः परिणामरूप: यो वृत्तिविशेष:-अवस्थाविशेषस्तमिति भावः। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [151 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपुच्छति-मृगादेवी से जाने के लिए पूछते हैं। मियाए देवीए-मृगादेवी के। गिहाओ-गृह से। पडिनिक्खमति-निकलते हैं, निकल कर। मियग्गाम-मृगाग्राम / णगरं-नगर के। मज्झमझेणं-मध्य में से हो कर उस से। निग्गच्छति२-निकल पड़ते हैं, निकल कर। जेणेव-जहां पर। समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे। तेणेव-वहीं पर / उवागच्छति-आ जाते हैं। उवागच्छित्ताआकर। समणं भगवं-श्रमण भगवान्। महावीरं-महावीर स्वामी की। आयाहिणपयाहिणं-दक्षिण की ओर से आवर्तन कर प्रदक्षिणा। करेति-करते हैं। करेत्ता-प्रदक्षिणा करने के पश्चात्। वंदति नमंसतिवन्दना तथा नमस्कार करते हैं। वंदित्ता नमंसित्ता-वंदना तथा नमस्कार करके / एवं वयासी-इस प्रकार बोले। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। अहं-मैंने। तुब्भेहिं-आप के द्वारा। अब्भणुण्णाए समाणेअभ्यनुज्ञात होने पर। मियग्गामं णगरं-मृगाग्राम नगर के। मझमझेणं-मध्य मार्ग से हो कर, उस में। अणुपविसामि२-प्रवेश किया, प्रवेश करके / जेणेव-जहां पर। मियाए देवीए-मृगादेवी का। गिहे-घर था। तेणेव उवागते-उसी स्थान पर चला आया। तते णं-तदनन्तर / सा-वह / मियादेवी-मृगादेवी। मम एजमाणं-मुझ को आते हुए। पासति २-देखती है, देखकर। हट्ट-अत्यन्त प्रसन्न हुई और। तं चेव सव्वं-उस ने अपने सभी पुत्र दिखाए। जाव-यावत् (पूर्व वर्णित शेष वर्णन समझना)। पूयं चं सोणियं च-पूय-पीव और रुधिर का। आहारेति-उस बालक ने आहार किया। तते णं-तदनन्तर। मम-मुझे। इमे अज्झस्थिते 6- ये विचार। समुप्पज्जित्था-उत्पन्न हुए। अहो णं-अहो-आश्चर्य अथवा खेद है। इमे दारए-यह बालक। पुरा-पूर्वकृत प्राचीन कर्मों का फल भोगता हुआ। जाव-यावत्। विहरति-समय व्यतीत कर रहा है। मूलार्थ-तदनन्तर उस महान् अशन, पान, खाद्रिम, स्वादिम के गन्ध से अभिभूतआकृष्ट तथा उस में मूर्छित हुए उस मृगापुत्र ने उस महान् अशन, पान, खादिम और स्वादिम का मुख से आहार किया।और जठराग्नि से पचाया हुआ वह आहार शीघ्र ही पाक और रुधिर के रूप में परिणत-परिवर्तित हो गया और साथ ही मृगापुत्र बालक ने पाकादि में परिवर्तित उस आहार का वमन (उलटी) कर दिया, और तत्काल ही उस वान्त पदार्थ को वह चाटने लगा अर्थात् वह बालक अपने द्वारों वमन किए हुए पाक आदि को भी खा गया।बालक की इस अवस्था को देख कर भगवान् गौतम के चित्त में अनेक प्रकार की कल्पनाएं उत्पन्न होने लगीं। उन्होंने सोचा कि यह बालक पूर्व जन्मों के दुश्चीर्ण [ दुष्टता से किए गए ] दुष्प्रतिक्रान्त [ जिन के विनाश का कोई उपाय नहीं 1. भगवान् गौतम ने जो महाराणी मृगादेवी से पूछा है उसका अभिप्राय केवल महाराणी को " अब मैं जा रहा हूं" ऐसा सूचित करना है। आज्ञा प्राप्त करने के उद्देश्य से उन्होंने राणी से पृच्छा नहीं की। 2. (क)-रोटी, दाल व्यंजन, तण्डुल, चावल आदिक सामग्री अशन शब्द से विवक्षित हैं। (ख) पेय-पदार्थों का ग्रहण पान शब्द से किया गया है। (ग) दाख, पिस्ता, बादाम आदि मेवा, तथा मिठाई आदि खाने योग्य पदार्थ स्वादिम के अन्तर्गत हैं। (घ) पान, सुपारी, इलायची और लवंगादि मुखवास पदार्थ स्वादिम शब्द से गृहीत हैं। 152 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध ध्याय Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया ] और अशुभ पाप-कर्मों के पाप रूप फल को पा रह है। नरक तथा नारकी मैंने नहीं देखे। यह पुरुष-मृगापुत्र नरक के समान वेदना का प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ प्रतीत हो रहा है। इन विचारों से प्रभावित होते हुए भगवान् गौतम ने मृगादेवी से पूछ कर अर्थात् अब मैं जा रहा हूं ऐसा उसे सूचित कर उस के घर से प्रस्थान किया-वहां से वे चल दिए।नगर के मध्यमार्ग से चल कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पर पहुंच गए, पहुंच कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा कर के उन्हें वन्दना तथा नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर वे भगवान् से इस प्रकार बोले भगवन् ! आप श्री की आज्ञा प्राप्त कर मैंने मृगाग्राम नगर में प्रवेश किया, तदनन्तर जहां मृगादेवी का घर था मैं वहां पहुंच गया। मुझे देखकर मृगादेवी को बड़ी प्रसन्नता हुई, यावत् पूय-पीव और शोणित-रक्त का आहार करते हुए मृगापुत्र की दशा को देख कर मेरे चित्त में यह विचार उत्पन्न हुआ कि -अहह ! यह बालक महापापरूप कर्मों के फल को भोगता हुआ कितना निकृष्ट जीवन बिता रहा है। ___टीका-भोजन का समय हो चुका है, मृगापुत्र भूख से व्याकुल हो रहा होगा, जल्दी करूं, उस के लिए भोजन पहुंचाऊं, साथ में भगवान् गौतम भी उसे देख लेंगे, इस तरह से दोनों ही कार्य सध जाएंगे-इन विचारों से प्रेरित हुई महाराणी मृगादेवी ने जब पर्याप्त मात्रा में अशन (रोटी, दाल आदि) पान (पानी आदि पेय पदार्थ) आदि चारों प्रकार का आहार एक काठ की गाड़ी में भर कर मृगापुत्र के निवास स्थान पर पहुंचा दिया, तब भोजन की मधुर गन्ध से आकृष्ट (खिंचा हुआ) मृगापुत्र उस में मूर्छित (आसक्त) होता हुआ मुख द्वारा उस को ग्रहण करने लगा, खाने लगा, भूख से व्याकुल मानस को शान्त करने लगा। .कर्मों का प्रकोप देखिए-जो भोजन शरीर के पोषण का कारण बनता है, स्वास्थ्यवर्धक होता है, वही भोजन कर्म-हीन मृगापुत्र के शरीर में बड़ा विकराल एवं मानस को कम्पित करने वाला कटु परिणाम उत्पन्न कर देता है। मृगापुत्र ने भोजन किया ही था कि जठराग्नि के द्वारा उस के पच जाने पर वह तत्काल ही पाक और रक्त के रूप में परिणत हो गया। दुष्कर्मों के प्रकोप. को मानो इतने में सन्तोष नहीं हुआ, प्रत्युत वह उसे-मृगापुत्र को और अधिक विडम्बित करना चाह रहा है इसीलिए मृगापुत्र ने मानों पीव और खून का वमन किया और उस वान्त पीब एवं खून को भी वह चाटने लग गया। दूसरे शब्दों में कहें तो मृगापुत्र ने जिस आहार का सेवन किया था वह तत्काल ही पीव और रुधिर के रूप में बदल गया और साथ ही उस पाक और खून का उसने वमन किया। जैसे कुत्ता वमन को खा जाता है वैसे ही वह प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [153 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्र उस वमन (उल्टी) को खाने लग पड़ा। मृगापुत्र की यह दशा कितनी वीभत्स एवं करुणा-जनक है यह कहते नहीं बनता। नेत्रादि इन्द्रियों का अभाव तथा हस्तपादादि अंगोपांग से रहित केवल मांस पिंड के रूप में अवस्थित होने पर भी उसकी आहार सम्बन्धी चेष्टा को देखते हुए तो जीवोपार्जित अशुभकर्मों के विपाकोदय की भयंकरता अथवा कर्म-गति की गहनता के लिए अवाक् रह जाने के सिवाय और कोई गति नहीं है अस्तु / परम-दयनीय दशा में पड़े हुए उस मृगापुत्र को देखकर करुणालय भगवान् गौतम स्वामी के उदार हृदय में कैसे विचार उत्पन्न हुए, उस का वर्णन सूत्रकार ने "तते णं भगवतो गोतमस्स तं मियापुत्तं........ पोराणाणं जाव विहरति" इन पदों द्वारा किया है। ___मृगापुत्र की नितान्त शोचनीय अवस्था को देखकर भगवान् गौतम अनगार अत्यन्त व्यथित हुए और सोचने लगे कि इस बालक ने पूर्व जन्मों में किन्हीं बड़े ही भयंकर कर्मों का बन्ध किया है, जिन का विच्छेद या निर्जरा किसी धार्मिक क्रियानुष्ठान से भी इसके द्वारा नहीं 1. यहाँ प्रश्न होता है कि मूल में कहीं "वमइ" ऐसा पाठ नहीं है, फिर "मृगापुत्र ने पाक और रुधिर का वमन किया" ऐसा अर्थ किस आधार पर किया गया है ? इस का उत्तर लेने से पूर्व यह विचार लेना चाहिए कि "वमइ" के अभाव में सूत्रार्थ संगत रहता है या नहीं। देखिए-"मृगापुत्र ने आहार ग्रहण कर लिया, शीघ्र ही उस का ध्वंस हो गया, उस के पश्चात् वह पीव और रुधिर के रूप में परिणत हो गया, एवं उस पीव तथा रुधिर को वह खाने लग पड़ा" यह है मूलसूत्र का भावार्थ / यहां शंका होती है कि जिस भोजन को एक बार खाया जा चुका है, और जिसे जठराग्नि ने पचा डाला है एवं विभिन्न रसों में जो परिणत भी हो चुका है। उस को दोबारा कैसे खाया जा सकेगा? व्यवहार भी इस बात की पुष्टि में कोई साक्षी नहीं देता। अर्थात् एक बार भक्षित एवं रुधिरादि रूप में परिणत शरीरस्थ पदार्थ का पुनः भक्षण व्यवहार विरुद्ध पड़ता है। परन्तु सूत्रकार के "तं पि य णं पूयं च सोणियं च आहारेति" ये शब्द स्पष्टतया यह कह रहें हैं कि मृगापुत्र ने उस रुधिर तथा पीव का आहार किया। तब सूत्रार्थ के संगत न रहने पर "सिद्धस्य गतिश्चिन्तनीया" के सिद्धान्त से "वमइ" इस पद का *अध्याहार करना ही पड़ेगा। इस पद के अध्याहार से सूत्रार्थ की संगति नितरां सुन्दर रहती है और वह व्यवहार विरुद्ध भी नहीं पड़ती। आप ने देखा होगा कि-कुत्ता वमन (उलटी) करता है फिर उसे चाट लेता है, खा जाता है। ऐसी ही स्थिति मृगापुत्र की थी। उस ने भी पाकादि का वमन किया और फिर वह उसे चाटने लग पड़ा। इस अर्थ-विचारणा में कोई विप्रतिपत्ति नहीं प्रतीत होती। अथवा यह भी हो सकता है कि-सूत्र संकलन करते समय प्रस्तुत प्रकरण में "वमइ" यह पाठ छूट गया हो। रहस्यन्तु केवलिगम्यम्। * संदिग्ध अर्थ के निर्णय में अध्याहार का भी महत्वपूर्ण स्थान रहता है, देखिए अपकर्षणानुवृत्त्या वा, पर्यायेणाथवा पुनः। अध्याहारापवादाभ्यां, क्रियते त्वर्थनिर्णयः। अर्थात् अपकर्ष (आगे का सम्बन्ध), अनुवृत्ति (पीछे का सम्बन्ध), पर्याय (क्रमशः होना अथवा विकल्प से होना) अध्याहार (असंगति दूर करने के लिए संगत को अपनी ओर से जोड़ना), अपवाद (अनेक की प्राप्ति में बलवत्प्राप्ति का नियम) इन सब के द्वारा संदिग्ध अर्थ का निर्णय होता है। 154 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की जा सकी। उन्हीं अशुभ पाप कर्मों का फल प्राप्त करता हुआ यह बालक ऐसा जघन्यतम नारकीय जीवन व्यतीत कर रहा है। भगवान् गौतम के ये विचार उन की मनोगत करुणावृत्ति के संसूचक हैं। उन से यह भली-भांति सूचित हो जाता है कि उनके करुणापूरित हृदय में उस बालक के प्रति कितना सद्भावपूर्ण स्थान है ! उन का हृदय मृगापुत्र की दशा को देखकर पिह्वल हो उठा, करुणा के प्रवाह से प्रवाहित हो उठा। इसीलिए वे कहते हैं कि मैंने नरक और नारकी जीवों का तो अवलोकन नहीं किया किन्तु यह बालक साक्षात् नरक प्रतिरूप वेदना का अनुभव करता हुआ देखा जा रहा है। तात्पर्य यह है कि इसकी वर्तमान शोचनीय दशा नरक की विपत्तियों से किसी प्रकार कम प्रतीत नहीं होती। ___ इस प्रकार विचार करते हुए भगवान् गौतम महाराणी से पूछ कर अर्थात् अच्छा देवी! अब मैं जा रहा हूं, ऐसा उसे सूचित कर उसके घर से चल पड़े और नगर के मध्यमार्ग से होते हुए भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हुए। वहां उन्होंने दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा कर विधिपूर्वक वन्दना तथा नमस्कार किया, उस के अनन्तर उन से वे इस प्रकार निवेदन करने लगे भगवन् ! आपकी आज्ञानुसार मैं महाराणी मृगादेवी के घर गया, वहां पीव और रुधिर का आहार करते हुए मैंने मृगापुत्र को देखा और देख कर मुझे यह विचार उत्पन्न हुआ कि यह बालक पूर्वकृत अत्यन्त कटुविपाक वाले कर्मों के कारण नरक के समान वेदना का अनुभव करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा है। इत्यादि। - भगवान् गौतम अनगार का अथ से इति पर्यन्त समस्त वृत्तान्त का भगवान् महावीर स्वामी से निवेदन करना उनकी साधुवृत्ति में भारण्ड पक्षी से भी विशेष सावधानी तथा धर्म के मूलस्रोत विनय की पराकाष्ठा का होना सूचित करता है। महापुरुषों का प्रत्येक आचरण संसार के सन्मुख एक उच्च आदर्श का स्थान रखता है। अतः पाठकों को महापुरुषों की जीवनी से इसी प्रकार की ही जीवनोपयोगी शिक्षाओं को ग्रहण करना चाहिए। तभी जीवन का कल्याण संभव हो सकता है। .. "हट्ठः तं चेव सव्वं जाव पूयं च" यहां पठित और "पुरा जाव विहरति" यहां पठित "जाव-यावत्" पद पूर्व के पाठों का बोधक है जिन की व्याख्या पीछे की जा चुकी तदनन्तर गौतम स्वामी ने मृगापुत्र के विषय में जो कुछ पूछा और भगवान् ने उसके उत्तर में जो कुछ कहा, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [155 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल-सेणं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसी? किंनामए वा किंगोत्तए वा कयरंसि गामंसि वा नगरंसि वा किं वा दच्चा किं वा भोच्चा किं वा समायरित्ता केसिं वा पुरा पोराणाणं जाव विहरति ? छाया-स भदन्त ! पुरुषः पूर्वभवे कः आसीत् ? किंनामको वा किंगोत्रको वा कतरस्मिन् ग्रामे वा नगरे वा किं वा दत्त्वा किं वा भुक्त्वा किं वा समाचर्य केषां वा पुरा पुराणानां यावत् विहरति? पदार्थ-भंते ! भगवन् ! से णं पुरिसे-वह पुरुष मृगापुत्र / पुव्वभवे-पुर्वभव में। के आसी?कौन था ? किंनामए वा-किस नाम वाला तथा। किंगोत्तए-किस गोत्र वाला था ? कयरंसि गामंसि वाकिस ग्राम अथवा। नगरंसि वा-नगर में रहता था ? किं वा दच्चा-क्या दे कर। किं वा भोच्चा-क्या भोगकर। किं वा समायरित्ता-क्या आचरण कर। केसिं वा-पुरा-किन पूर्व / पोराणाणं-प्राचीन कर्मों का फल भोगता हुआ। जाव-यावत्। विहरति-इस प्रकार निकृष्ट जीवन व्यतीत कर रहा हैं ? मूलार्थ-भदन्त ! वह पुरुष[ मृगापुत्र] पूर्वभव में क्या था ? किस नाम का था ? किस गोत्र का था ? किस ग्राम अथवा किस नगर में रहता था ? तथा क्या दे कर, क्या भोग कर, किन-किन कर्मों का आचरण कर और किन-किन पुरातन कर्मों के फल को भोगता हुआ जीवन बिता रहा है ? टीका-प्रभो! यह बालक पूर्वभव में कौन था ? किस नाम तथा गोत्र से प्रसिद्ध था? एवं किस ग्राम या नगर में निवास करता था ? क्या दान देकर, किन भोगों का उपभोग कर, क्या समाचरण कर, तथा कौन से पुरातन पापकर्मों के प्रभाव से वह इस प्रकार की नरकतुल्य यातनाओं का अनुभव कर रहा है ? यह था मृगापुत्र के सम्बन्ध में गौतमस्वामी का निवेदन, जिसे ऊपर के सूत्रगत शब्दों में सुचारू रूप से व्यक्त किया गया है। टीकाकार महानुभाव ने नाम और गोत्र शब्द में अर्थगत भिन्नता को "-नाम यदृच्छिकमभिधानं, गोत्रं तु यथार्थकुलम्-" इन.पदों से अभिव्यक्त किया है। अर्थात् नाम यादृच्छिक होता है, इच्छानुसारी होता है। उस में अर्थ की प्रधानता नहीं भी होती, जैसे किसी का नाम है-शान्ति / शान्ति नाम वाला व्यक्ति अवश्य ही शान्ति (सहिष्णुता) का धनी होगा, यह आवश्यक नहीं है। परन्तु गोत्र में ऐसी बात नहीं होती, गोत्र पद सार्थक होता है, किसी अर्थविशेष का द्योतक होता है, जैसे-'गौतम' एक गोत्र-कुल (वंश) का नाम है। गौतम शब्द किसी (पूर्वज) प्रधान-पुरुषविशेष का संसूचक है, अतएव वह सार्थक है। "पोराणाणां जाव विहरति" यहां पठित "जाव-यावत्" पद-"दुच्चिन्नाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुहाणं पावाणं कम्माणं पावगं फलविसेसं पच्चणुब्भवमाणे-" इन [ प्रथम श्रुतस्कंध 156 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदों का बोधक है। इन की व्याख्या पीछे कर दी गई है। अब भगवान् के द्वारा दिए गए उक्त प्रश्नों के उत्तर को सूत्रकार के शब्दों में सुनिए मूल-गोयमा ! इसमणे भगवं महावीरे भगवं गोतमं एवं वयासी-एवं खलु गोतमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेवजंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारे णाम नगरे होत्था, रिद्धस्थिमिय० २वण्णओ।तत्थ णं सयदुवारेणगरे धणवती णामं राया होत्था। तस्स णं सयदुवारस्स णगरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरस्थिमे दिसीभाए विजयवद्धमाणे णाम खेडे होत्था रिद्ध तस्स णं विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई आभोए यावि होत्था। तत्थ णं विजयवद्धमाणे खेडे एक्काई नाम रट्ठकूडे होत्था, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे।से णं एक्काई रट्ठकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंचण्हंगामसयाणं आहेवच्चंजावपालेमाणे विहरति। तते णं से एक्काई विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंचगामसयाई बहुहिं करेहि य भरेहि य विद्धीहि य उक्कोडाहि य पराभवेहि य दिज्जेहि य भिज्जेहि य कुन्तेहि य लंछपोसेहि य आलीवणेहि य पंथकोट्टेहि य ओवीलेमाणे२ विहम्मेमाणे 2 तज्जेमाणे 2 तालेमाणे 2 निद्धणे करेमाणे 2 विहरति। छाया-गौतम ! "इति श्रमणो भगवान् महावीरो भगवन्तं गौतममेवमवदत् 1. मूलसूत्र के-रिद्धस्थिमिय० पद से सूत्रकार को “रिद्धस्थिमियसमिद्धे" यह पाठ अभिमत है। इस में (1) रिद्ध, (2) स्तिमित (3) समृद्ध ये तीन पद हैं / रिद्ध शब्द का अर्थ सम्पत्-सम्पन्न होता है, स्तिमित शब्द स्वचक्र और परचक्र के भय से विमुक्त का बोधक है, और समृद्ध शब्द से उत्तरोत्तर बढ़ते हुए धन एवं धान्यादि से परिपूर्ण का ग्रहण होता है। ये सब नगर के विशेषण हैं। 2. वण्णओ-वर्णकः, पद से सूत्रकार को औपपातिक सूत्र के नगर-सम्बन्धी वर्णन-प्रकरण का ग्रहण करना अभिमत है। 3. करैः क्षेत्राद्याश्रित्य राजदेयद्रव्यैः, भरैः तेषां प्राचुर्यैः, वृद्धिभिः-कुटुम्बिनां वितीर्णस्य धान्यस्य द्विगुणादेर्ग्रहणैः, लञ्चाभिः (घूस इति भाषा, पराभवैः तिरस्कारकरणैः, देयैः अनाभवद्दातव्यैः, भेद्यैः-यानि पुरुषमारणाद्यपराधमाश्रित्य ग्रामादिषु दण्डद्रव्याणि निपतन्ति, कौटुम्बिकान् प्रति च भेदेनोद्ग्राह्यन्ते तानि भेद्यानि अतस्तैः, कुन्तकैः ‘एतावद् द्रव्यं त्वया देयम्' इत्येवं नियन्त्रणया नियोगिस्य देशादेर्यत् समर्पणं तैः लञ्छपोषैःलञ्छाश्चौरविशेषाः संभाव्यन्ते, तेषां पोषा: पोषणाणि तैः, आदीपनकैः- व्याकुललोकानां मोषणार्थं ग्रामादिप्रदीपनकैः, पान्थकुट्टै:- पान्थानां शस्त्रापहारेण धनापहरणैः, अवपीलयन् बाधयन्, विधर्मयन् स्वाचारभ्रष्टान् कुर्वन्, तर्जयन्कृतावष्टम्भांस्तर्जयन् 'ज्ञास्यथ रे ! मम इदमिदं च न दत्थ, इत्येवं भेषयन्, ताडयन्-कशचेपटादिभिरिति भावः। 4. वृत्तिकार ने "गोयमा ! इ" इन पदों की व्याख्या "-गौतम ! इत्येवमामन्त्र्य इति गम्यते-" इन प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [157 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे शतद्वारं नाम नगरमभवत्, ऋद्धिस्तिमित वर्णकः / तत्र शतद्वारे नगरे धनपति म राजाऽभवत् / तस्य शतद्वारस्य नगरस्यादूरसामन्ते दक्षिणपौरस्त्ये दिग्भागे विजयवर्द्धमानो नाम खेटोऽभवत्, ऋद्ध / तस्य विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्च ग्रामशतान्याभोगश्चाप्यभवत्। तत्र विजयवर्द्धमाने खेटे एकादिर्नाम राष्ट्रकूटोऽभवद्, अधार्मिक यावत् दुष्प्रत्यानन्दः। सः एकादी राष्ट्रकूटो विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्चानां ग्रामशतानामाधिपत्यं यावत् पालयमानो विहरति / ततः स एकादिः विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्च ग्रामशतानि बहुभिः करैश्च भरैश्च वृद्धिभिश्च लञ्चाभिश्च पराभवैश्च देयैश्च भेद्यैश्च कुन्तकैश्च लंछपोषैश्चादीपनैश्च पान्थकुट्टैश्चावपीलयन् 2 विधर्मयन् 2 तर्जयन् 2 ताड़यन् निर्धनान् कुर्वन् 2 विहरति। पदार्थ-गोयमा ! इ-हे गौतम ! इस प्रकार आमंत्रण कर। समणे-श्रमण। भगवं-भगवान्। महावीरे-महावीर। भगवं-भगवान्। गोतमं-गौतम के प्रति। एवं वयासी-इस प्रकार बोले। एवं खलुइस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे दीवे- जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारतवर्ष में। सयदुवारेशतद्वार ।णाम-नामक / नगरे-नगर / होत्था-था। रिद्धस्थिमिते-जोकि गगनचुम्बी उन्नत भवनों से विभूषित, धनधान्यादि से पूर्ण तथा समृद्धिशाली और भय से रहित था। वण्णओ-वर्णनग्रन्थ पूर्ववत् / तत्थ णं-उस। सयदुवारे-शतद्वार नामक। णगरे-नगर में। धणवती-धनपति नाम का। राया-राजा। होत्था-था। तस्स णं-उस। सयदुवारस्स-शतद्वार। णगरस्स-नगर के। अदूरसामंते-थोड़ी दूर। दाहिणपुरथिमे-दक्षिण पूर्व। दिसीभाए-दिग्विभाग-अग्नि कोण में। विजयवद्धमाणे-विजयवर्द्धमान / णाम-नामक खेडे-खेटनदी और पर्वतों से वेष्टित नगर। होत्था-था, जो कि। रिद्ध-समृद्धशाली था। तस्स णं-उस। विजयवद्धमाणस्स खेडस्स-विजय वर्द्धमान खेट का। घंच गामसयाई-पांच सौ ग्रामों का। आभोएआभोग-विस्तार। यावि होत्था-था। तत्थ-उस। विजयवद्धमाणे खेडे-विजयवर्द्धमान खेट में। एक्काई नाम-एकादि नाम का। रट्ठकूडे-राष्ट्रकूट-राजा की ओर से नियुक्त प्रतिनिधि। होत्था-था जो, कि। अहम्मिए-अधार्मिक-धर्म रहित, अथवा धर्म-विरोधी। जाव-यावत् / दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द-असंतोषी जो कि किसी तरह से प्रसन्न न किया जा सके। होत्था-था। से णं एक्काई रट्ठकूडे-वह एकादि नामक राजप्रतिनिधि। विजयवद्धमाणस्स खेडस्स-विजयवर्द्धमान खेट के। पंचण्हं गामसयाणं-पांच सौ ग्रामों शब्दों में की है। अर्थात् हे गौतम ! इस प्रकार सम्बोधन करके, यह अर्थ वृत्तिकार को इष्ट है। परन्तु जब आगे "गोतमा!" ऐसा सम्बोधन पड़ा ही है फिर पहले सम्बोधन की क्या अवश्यकता थी ? इस सम्बन्ध में वृत्तिकार ने कुछ नहीं लिखा। मेरे विचार में तो मात्र सूत्रों की प्राचीन शैली ही इस में कारण प्रतीत होती है। अन्यथा "गोयमा! इ" इस पाठांश का अभाव प्रस्तुत प्रकरण में कोई बाधक नहीं था। 158 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का। आहेवच्चं-आधिपत्य कर रहा था अर्थात् विजय वर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्राम उसके सुपुर्द किए हुए थे। जाव-यावत्। पालेमाणे-पालन-रक्षण करता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा था। तते णंतदनन्तर / से-एक्काई-वह एकादि। विजयवद्धमाणस्स खेडस्स-विजयवर्द्धमान नामक खेट के। पंच गामसयाई-पांच सौ ग्रामों को। बहूहिं-बहुत से। करेहि-करों से। भरेहि य-उन की प्रचुरता से। विद्धीहि य-द्विगुण आदि ग्रहण करने से। उक्कोडाहि य-रिश्वतों से। पराभवेहि य-दमन करने से। दिजेहि यअधिक ब्याज से। भिजेहि य-हननादि का अपराध लगा देने से। कुन्तेहि य-धन ग्रहण के निमित्त किसी को स्थान आदि के प्रबन्धक बना देने से। लंछपोसेहि य-चोर आदि व्यक्तियों के पोषण से। आलीवणेहि य-ग्रामादि को जलाने से। पंथकोट्टेहि य-पथिकों के हनन (मार-पीट) से। ओवीलेमाणे २-व्यथितपीड़ित करता हुआ। विहम्मेमाणे २-अपने धर्म से विमुख करता हुआ। तजेमाणे २-तिरस्कृत करता हुआ। तालेमाणे २-कशादि से ताड़ित करता हुआ। निद्धणे करेमाणे २-प्रजा को निर्धन-धन रहित करता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा था-अर्थात् प्रजा पर अधिकार जमा रहा था। मूलार्थ-हे गौतम ! इस प्रकार आमंत्रण करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम के प्रति कहा-हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत-वर्ष में शतद्वार नाम का एक समृद्धिशाली नगर था। वहां के लोग बड़ी निर्भयता से जीवन बिता रहे थे।आनन्द का वहां सर्वतोमुखी प्रसार था।उस नगर में धनपति नाम का एक राजा राज्य करता था। उस नगर के 'अदूरसामन्त-कुछ दूरी पर दक्षिण और पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् अग्निकोण में विजय-वर्द्धमान नाम का एक खेट-नदी और पर्वत से घिरा हुआ, अथवा धूलि के प्राकार से वेष्टित नगर था, जो कि ऋद्धि समृद्धि आदि से परिपूर्ण था। उस विजयवर्द्धमान खेट का पांच सौ ग्रामों का विस्तार था, उस में एकादि नाम का एक राष्ट्रकूट-राजनियुक्त प्रतिनिधि प्रान्ताधिपति था, जो कि महा अधर्मी और दुष्पप्रत्यानन्दी-परम असन्तोषी, साधुजनविद्वेषी अथवा दुष्कृत करने में ही सदा आनन्द मानने वाला था। वह एकादि विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों का आधिपत्य-शासन और पालन करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। ___तदनन्तर वह एकादि नाम का राजप्रतिनिधि विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों को, करों-महसूलों से, करसमूहों से, किसान आदि को दिए गए धान्य आदि के द्विगुण आदि के ग्रहण करने से, दमन करने से, अधिक ब्याज से, हत्या आदि के अपराध लगा देने से, धन के निमित्त किसी को स्थानादि का प्रबन्धक बना देने से, चोर आदि के पोषण से, ग्राम आदि के दाह-कराने-जलाने से, और पथिकों का घात करने से लोगों 1. जो न तो अधिक दूर और न अधिक समीप हो उसे अदूरसामन्त कहा जाता है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [159 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को स्वाचार से भ्रष्ट करता हुआ तथा जनता को दुःखित, तिरस्कृत (कशादि से) ताड़ित और निर्धन-धन-रहित करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। टीका-मृगापुत्र के पूर्वभव सम्बन्धी किए गए गौतम स्वामी के प्रश्नों का सांगोपांग उत्तर देने के निमित्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया कि गौतम ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में शतद्वार नामक एक नगर था जोकि नगरोचित गुणों से युक्त और पूर्णरूपेण समृद्ध था। उस नगर में महाराज धनपति राज्य किया करते थे। उस नगर के निकट विजयवर्द्धमान नाम का एक खेट था जो कि वैभवपूर्ण और सुरक्षित था, उसका विस्तार पांच सौ ग्रामों का था। तात्पर्य यह है कि जिस तरह आज भी मंडल-जिले के अन्तर्गत अनेकों शहर कस्बे और ग्राम होते हैं। उसी भांति विजयवर्द्धमान खेट में भी पांच सौ ग्राम थे, अर्थात् वह पांच सौ ग्रामों का एक प्रान्त था। खेट के प्रधान अधिकारी का नाम-जिसे वहां के शासनार्थ राज्य की ओर से नियुक्त किया हुआ था, एकादी था। वह पूरा धर्म विरोधी, धार्मिक क्रियानुष्ठानों का प्रतिद्वन्द्वी और साधुपुरुषों का द्वेषी अथवा पूर्ण असन्तोषी-किसी से सन्तुष्ट . न किया जाने वाला था। यहां पर "अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे" पाठगत "जाव-यावत्" पद से - "अधम्माणुए, अधम्मिटे, अधम्मक्खाई, अधम्मपलोई, अधम्मपलजणे, अधम्मसमुदाचारे, . अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे दुस्सीले दुव्वए" [छाया-अधर्मानुगः, अधर्मिष्टः, अधर्माख्यायी, अधर्मप्रलोकी, अधर्मप्ररजनः, अधर्मसमुदाचारः अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन् दुःशील दुर्वृतः] इन पदों का भी ग्रहण कर लेना। ये सब पद उसकी-एकादि की अधार्मिकता बोधनार्थ ही प्रयुक्त किए गए हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये सब पद उसकी अधार्मिकता के व्याख्यारूप ही हैं, जैसे कि (1) अधर्मानुग-अधर्म का अनुसरण करने वाला, अर्थात् जिस में श्रुत और चारित्ररूप धर्म का सद्भाव न हो ऐसे आचार-विचार का अनुयायी व्यक्ति। (2) अधर्मिष्ट-जिस को अधर्म ही इष्ट हो-प्रिय हो, अथवा जो विशेष रूप से अधर्म का अनुसरण करने वाला हो वह अधर्मिष्ट कहलाता है। (3) अधर्माख्यायी-अधर्म का कथन, वर्णन, प्रचार करने वाला। (4) अधर्मप्रलोकी-सर्वत्र अधर्म का प्रलोकन-अवलोकन करने वाला। (5) अधर्मप्ररंजन- अधर्म में अत्यधिक अनुराग रखने वाला। 1. जिस के चारों और धूलि-मिट्टी का कोट बना हुआ हो, ऐसे नगर को खेट के नाम से पुकारा जाता है। 160 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधर्मसमुदाचार-अधर्म ही जिसका आचार हो, इसीलिए वह अधर्म से वृत्तिआजीविका को चलाने वाला, दुष्टस्वभावी और व्रतादि से शून्य-रहित होता है। ____ एकादि नामक राष्ट्रकूट विजयवर्द्धमान खेट के अन्तर्गत पांच सौ ग्रामों का शासन अथच संरक्षण करता हुआ जीवन बिता रहा था। मण्डल (प्रान्त विशेष) से आजीविका करने वाले राज्याधिकारी को राष्ट्रकूट कहा जाता है-"राष्ट्रकूटो मण्डलोपजीवी राजनियोगिकः" -वृत्तिकार। "आहेवच्चं जाव पालेमाणे" इस पाठ के "जाव-यावत्" पद से-"पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टित्तं महत्तर-गतं, अणाईसरसेणावच्चं, कारेमाणे"[पुरोवर्तित्वम्, स्वामित्वम्, भर्तृत्वम्, महत्तरकत्वम्, आज्ञेश्वरसैनापत्यं कारयन्] इन पदों का भी संग्रह करना चाहिए। सूत्रकार ने प्रथम राष्ट्रकूट को अधर्मी-धर्मविरोधी कहा है, अब सूत्रकार उसके अधर्ममूलक गर्हित कृत्यों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि एकादि राष्ट्रकूट पांच सौ ग्रामों में निवास करने वाली प्रजा को निम्नलिखित कारणों द्वारा आचार भ्रष्ट, तिरस्कृत, ताड़ित एवं पीड़ित कर रहा था जैसे कि-(१) क्षेत्र आदि में उत्पन्न होने वाले पदार्थों के कुछ भाग को कर-महसूल के रूप में ग्रहण करना (2) करों-टैक्सों में अन्धाधुन्ध वृद्धि करके सम्पत्ति को लूट लेना, (3) किसान आदि श्रमजीवी वर्ग को दिए गए अन्नादि के बदले दुगना, तिगुना कर ग्रहण करना (4) अपराधी के अपराध को दबा देने के निमित्त उत्कोच-रिश्वत लेना / (5) . अनाथ प्रजा की उचित पुकार अपने स्वार्थ के लिए दबा देना, अर्थात् यदि प्रजा अपने हित के लिए कोई न्यायोचित आवाज उठाए तो उस पर राज्य-विद्रोह के बहाने दमन का चक्र चलाना। (6) ऋणी व्यक्ति से अधिक मात्रा में ब्याज लेना (7) निर्दोष व्यक्तियों पर हत्यादि का अपराध लगाकर उन्हें दण्डित करना (8) अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए किसी अयोग्य व्यक्ति को किसी स्थान का प्रबन्धक बना देना, तात्पर्य यह है कि किसी अयोग्य पुरुष को धन लेकर किसी प्रान्त का प्रबन्धक नियुक्त कर देना (9) चोरों का पोषण करना, अर्थात् उन से चोरी करा कर उस में से हिस्सा लेना, अथवा बदमाशों के द्वारा शान्ति स्वयं भंग कराकर फिर सख्ती से नियन्त्रण करना (10) व्याकुल जनता को ठगने के लिए ग्राम आदि को जला देना। (11) मार्ग में चलने वालों को लूटना, अर्थात् पथिकों-मुसाफिरों को मरवा कर उन के धन का अपहरण करना। दुराचारी मनुष्य अपने अचिरस्थायी सुख या स्वार्थ के लिए गर्हित से गर्हित कार्य करने 1. पुरोवर्तित्व-अग्रेसरत्व (मुख्यत्व), स्वामित्व-नायकत्व भर्तृत्व-पोषणकर्तृत्व, महत्तरकत्वउत्तमत्व, आज्ञेश्वर सैनापत्य-आज्ञा की प्रधानता वाले स्वामी की सेना का नेतृत्व करता हुआ। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [161 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भी संकोच नहीं करता, यही कारण है कि वह दुःख मिश्रित सुख के लिए अनेक जन्मों में भोगे जाने वाले दुःखों का संग्रह कर लेता है। एकादि नामक राष्ट्रकूट उन्हीं पतित व्यक्तियों में से एक था, वह अपने स्वार्थ की वर्तमान कालीन सुखसामग्री को सन्मुख रखता हुआ अनाथ प्रजा को पीड़ित कर रहा था। और अपने प्रभुत्व के मद में अन्धा होता हुआ हजारों जन्मों में भोगे जाने वाले दुःखों का सामान पैदा कर रहा था। अत: बुद्धिमान् मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह केवल अपनी वर्तमान परिस्थिति का ही ध्यान न करता हुआ अपनी भूत और भावी अवस्था का भी ध्यान रक्खे, जिससे कि जीवन क्षेत्र में आध्यात्मिक विकास को भी कुछ अवकाश मिल सके। अब सूत्रकार एकादि राष्ट्रकूट की पतित मानसिक वृत्तियों द्वारा उपार्जित कर्मों के फलस्वरूप स्वरूप भयंकर रोगों का वर्णन करते हुए इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं मूल-तते णं से एक्काई रट्ठकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स .बहूणं राईसर० जाव सत्थवाहाणं अण्णेसिं च बहूणं गामेल्लगपुरिसाणं बहूसु कज्जेसु कारणेसु य मंतेसु गुज्झेसु निच्छएसु य ववहारेसु सुणमाणे भणति न सुणेमि, असुणमाणे भणति सुणेमि, एवं पस्समाणे भासमाणे गेण्हमाणे जाणमाणे। तते णं से एक्काई रट्ठकूडे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविजे, एयसमायारे सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समजिणमाणे विहरति। तते णं तस्स एगाइयस्स रटकूडस्स अण्णया कयाइ सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस रोगातंका पाउब्भूया तंजहासासे 1 कासे 2 ज़रे 3 दाहे 4 कुच्छिसूले 5 भगंदरे 6 अरिसे 7 अजीरते 8 दिट्ठी 9 मुद्धसूले 10 अकारए 11 अच्छिवेयणा 12 कण्णवेयणा 13 कंडू 14 दओदरे 15 कोढ़े 16 / / छाया-ततः स एकादी राष्ट्रकूटो विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य बहूनां राजेश्वर० यावत् सार्थवाहानामन्येषां च बहूनां ग्रामेयकपुरुषाणां बहुषु 'कार्येषु कारणेषु च मंत्रेषु गुह्येषु निश्चयेषु व्यवहारेषु च शृण्वन् भणति न शृणोमि, अशृण्वन् भणति शृणोमि, एवं पश्यन् भाषमाणो गृहन् जानन्। ततः स एकादी राष्ट्रकूटः एतत्कर्मा एतत्प्रधानः 1. 'कज्जेसु' त्ति कार्येषु प्रयोजनेषु अनिष्पन्नेषु, 'कारणेसु' त्ति सिषाधयिषितप्रयोजनोपायेषु विषयभूतेषु ये मन्त्रादयो व्यवहारान्तास्तेषु, तत्र मन्त्राः पर्यालोचनानि, गुह्यानि-रहस्यानि, निश्चयाः वस्तुनिर्णयाः, व्यवहाराः विवादास्तेषु विषयेष्विति वृत्तिकारः।। 2. "एयकम्मे" त्ति एतद्-व्यापारः, एतदेव वा काम्यं कमनीयं यस्य स तथा "एयप्पहाणे" त्ति 162 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतद्विद्यः एतत्समाचारः सुबहु पापं कर्म कलिकलुषं समर्जयन् विहरति / ततः तस्यैकादे राष्ट्रकूटस्य अन्यदा कदाचित् शरीरे युगपदेव षोड़श रोगातंकाः प्रादुर्भूताः तद्यथा श्वासः 1 कासः 2 ज्वरः 3 दाहः 4 कुक्षिशूलम् 5 भगन्दरः 6 अर्श: 7 अजीर्णम् 7 दृष्टिमूर्धशूले 9-10 अरोचकः 11 अक्षिवेदना 12 कर्णवेदना 13 कंडू 14 दकोदरः 15 कुष्ठः 16 / . पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से एक्काई रट्ठकडे-वह एकादि राष्ट्रकूट। विजयवद्धमाणस्स खेडस्स-विजयवर्द्धमान खेट के। बहूणं-अनेक। राईसर० जाव सत्थवाहाणं-राजा से लेकर सार्थवाह पर्यन्त। अन्नेसिं च-तथा अन्य। बहूणं-अनेक। गामेल्लगपुरिसाणं-ग्रामीण पुरुषों के। बहूसु-बहुत से। कज्जेसु-कार्यों में। कारणेसु य- कारणों- कार्यसाधक हेतुओं में। मंतेसु-मन्त्रों-कर्त्तव्य का निश्चय करने के लिए किए गए गुप्त विचारों में। गुज्झेसु निच्छएसु-गुप्त निश्चयों-निर्णयों में तथा। ववहारेसुव्यवहारों में-विवादों में अथवा व्यवहारिक बातों में। सुणमाणे-सुनता हुआ। भणति-कहता है। न सुणेमि-मैंने नहीं सुना। असुंणमाणे भणति-न सुनता हुआ कहता है। सुणेमि-सुनता हूं। एवं-इसी प्रकार। पस्समाणे-देखता हुआ। भासमाणे-बोलता हुआ। गेण्हमाणे-ग्रहण करता हुआ। जाणमाणेजानता हुआ [ भी विपरीत. ही कहता है।] तते णं-तदनन्तर / से एक्काई रट्ठकूडे-वह एकादि राष्ट्रकूट। एयकम्मे-इस प्रकार के कर्म करने वाला। एयप्पहाणे-इस प्रकार के कर्मों में तत्पर। एयविज्जे-इसी प्रकार की विद्या-विज्ञान वाला। एयसमायारे-इस प्रकार के आचार वाला। सुबहुं-अत्यधिक। कलिकलुसंकलह (दुःख) का कारणीभूत होने से मलिन। पावं कम्मं-पाप कर्म। समजिणमाणे-उपार्जन करता हुआ। विहरति-जीवन व्यतीत कर रहा था। ततेणं-तदनन्तर / तस्स-उस।एगाइयस्स-एकादि ।रट्ठकूडस्सराष्ट्रकूट के। अण्णया कयाइ-किसी अन्य समय। सरीरगंसि-शरीर में। जमगसमगमेव-युगपद्-एक साथ ही। सोलस-सोलह / रोयातंका-रोगातंक-कष्ट साध्य अथवा असाध्य रोग। पाउब्भूया-उत्पन्न हो गए। तंजहा-जैसे कि।सासे-श्वास।कासे-कास।जरे-ज्वर। दाहे-दाह / कुच्छिसूले-उदर-शूल। भगंदरेभगंदर। अरिसे-अर्श-बवासीर / अजीरते-अजीर्ण। दिट्ठी-दृष्टिशूल-नेत्रपीड़ा। मुद्धसूले- मस्तकशूलशिरोवेदनां। अकारए-अरुचि-भोजन की इच्छा का न होना। अच्छिवेयणा-आंख में दर्द होना। कण्णवेयणा-कर्णपीड़ा। कंडू-खुजली। दओदरे-दकोदर, जलोदर-उदर-रोग का भेद विशेष। कोढेकुष्ठरोग। मूलार्थ-तदनन्तर वह राष्ट्रकूट [प्रान्त विशेष का अधिपति ] एकादि विजयवर्द्धमान खेट के अनेक राजा-मांडलिक, ईश्वर-युवराज , तलवर-राजा के कृपापात्र, अथवा जिन्होंने राजा की ओर से उच्च आसन ( पदवी विशेष ) प्राप्त किया हो ऐसे एतत्प्रधानः एतन्निष्ठ इत्यर्थः। "एयविजे"त्ति एषेव विद्या विज्ञानं यस्य स तथा। "एयसमायारे"त्ति एतज्जीतकल्प इत्यर्थः। (वृत्तिकारः) प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [163 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरिक लोग, तथा माडंबिक-मडम्ब के अधिपति, कौटुम्बिक-कुटुम्बों के स्वामी श्रेष्ठी और सार्थवाह-सार्थनायक तथा अन्य अनेक ग्रामीण पुरुषों के कार्यों में, कारणों में, गुप्तमंत्रों-मंत्रणाओं, निश्चयों और विवादसम्बन्धी निर्णयों अथवा व्यवहारिक बातों में सुनता हुआ कहता है कि मैंने नहीं सुना, नहीं सुनता हुआ कहता है कि मैंने सुना है; इसी प्रकार देखता हुआ, बोलता हुआ, ग्रहण करता हुआ और जानता हुआ भी यह कहता है कि मैंने देखा नहीं, बोला नहीं, ग्रहण किया नहीं और जाना नहीं। तथा इससे विपरीत नहीं देखे, नहीं बोले, नहीं ग्रहण किए, और नहीं जाने हुए के सम्बन्ध में कहता है कि मैंने देखा है, बोला है, ग्रहण किया है तथा जाना है। इस प्रकार के वंचनामय व्यवहार को उसने अपना कर्त्तव्य समझ लिया था। मायाचार करना ही उसके जीवन का प्रधान कार्य था और प्रजा को व्याकुल करना ही उस का विज्ञान था, एवं उसके मत में मनमानी करना ही एक सर्वोत्तम आचरण था। वह एकादि राष्ट्रकूट कलह-दुःख के हेतुभूत अत्यन्त मलिन पापकर्मों का उपार्जन करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। तदनन्तर किसी समय उसके शरीर में एक साथ ही सोलह प्रकार के रोगातंक- जीवन के लिए अत्यन्त कष्टोत्पादक, कष्टसाध्य अथवा असाध्य रोग उत्पन्न हो गए। जैसे किश्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिमूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तकशूल, अरुचि, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, कंडू-खुजली,जलोदर और कुष्ठरोग। टीका-प्रस्तुत सूत्र में एकादि राष्ट्रकूट के नैतिक जीवन का चित्रण किया गया है। वह विजयवर्द्धमान खेट में रहने वाले मांडलिक, युवराज आदि तथा अन्य ग्रामीण पुरुषों के अनेकविध कार्यों, कारणों, गुप्त-निश्चयों और विवादनिर्णयों अथवा व्यवहारिक बातों की यथारुचि अवहेलना करने में प्रवत्त था, तदनुसार सुने हुए को वह कह देता था कि मैंने नही सुना, और नहीं सुनने पर कहता कि मैंने सुना है, इसी प्रकार देखने, बोलने, ग्रहण करने और जानने पर भी-मैंने नहीं देखा, नहीं बोला, नहीं ग्रहण किया और नहीं जाना तथा न देखने, न बोलने, न ग्रहण करने और न जानने पर कहता कि मैं देखता हूं,बोलता हूं ,ग्रहण करता और जानता हूं। सारांश यह है कि उस की प्रत्येक क्रिया मनमानी और प्रजा के लिए सर्वथा अहितकर थी। .. "राईसर० जाव सत्थवाहाणं-" के "जाव-यावत्" पद से-"तलवरमाडंबियकोडुंबियसत्थवाहाणं-" पाठ का ग्रहण कर लेना। इन पदों का अर्थ पदार्थ में 1. जिसके निकट दो दो योजन तक कोई ग्राम न हो उस प्रदेश को मडम्ब कहते हैं- "मडम्बं च योजनद्वयाभ्यन्तरेऽविद्यमानग्रामादिनिवेशाः सन्निवेशविशेषाः प्रसिद्धाः [वृत्तिकारः]" 164 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जा चुका है। तब एवंविध कर्मों में समुद्यत, एवं पातकमय कर्मों के आचरण में निपुण वह एकादि दुःखों के उत्पादक अत्यन्त नीच और भयानक पपाकर्मों का संचय करता हुआ जीवन बिता रहा था। परन्तु स्मरण रहे कि शास्त्रीय कथन के अनुसार किए हुए पाप कर्मों का फल भोगना अवश्य पड़ता है। कर्मों के बिना भोगे उन से छुटकारा कभी नहीं हो सकता। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर स्वामी इस बात का निनोक्त शब्दों द्वारा समर्थन करते हैं, जैसे कि तेणे जहा सन्धिमुहे गहीए, सकम्मणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि॥ . [उत्तराध्ययन सूत्र अ० 4-3] अर्थात् -सेंध लगाता हुआ पकड़ा जाने वाला चोर जिस प्रकार अपने किए हुए पापकर्मों से मारा जाता है, उसी प्रकार शेष जीव भी इस लोक तथा परलोक में अपने किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं पा सकते। तात्पर्य यह है कि कर्मों का फल भोगना अवश्यंभावी है, बिना भोगे कर्मों से छुटकारा नहीं हो पाता। तथा "अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव फलमश्नुते" अर्थात् यह जीव अत्यन्त उग्र पुण्य और पाप का फल यहीं पर भोग लेता हैइस अभियुक्तोक्ति के अनुसार एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में एक साथ ही सोलह रोगातंक उत्पन्न हुए। जो रोग अत्यन्त कष्टजमक हों तथा जिन का प्रतिकार कष्टसाध्य अथवा असाध्य हो उन्हें रोगातंक कहते हैं वे निम्नलिखित हैं - (1) श्वास (2) कास (3) ज्वर (4) दाह (5) कुक्षिशूल (6) भगन्दर (7) अर्शबवासीर (8) अजीर्ण (9) दृष्टि-शूल (10) मस्तकशूल (11) अरोचक (12) अक्षिवेदना (13) कर्णवेदना (14) कण्डू-खुजली (15) दकोदर-जलोदर (16) कुष्ठ-कोढ़। ये 16 रोग एकादि के शरीर में एकदम उत्पन्न हो गए। श्वास, कास आदि रोगों का सांगोपांग व्याख्यान तो वैद्यक ग्रन्थों में से जाना जा सकेगा। परन्तु संक्षेप में यहां इन का मात्र परिचय करा देना आवश्यक प्रतीत होता है (1) श्वास-अभिधान राजेन्द्र कोश में श्वास शब्द का "अतिशयत ऊर्ध्वश्वासरूपरोग-भेदः-" यह अर्थ लिखा है, इसका भाव है-तेजी से सांस का ऊपर उठना अर्थात्दम का फूलना, दमे की बीमारी। श्वास एक प्रसिद्ध रोग है, इसके-२महाश्वास, ऊर्ध्वश्वास, 1. छाया- स्तेनो यथा सन्धि-मुखे गृहीतः, स्वकर्मणा कृत्यते पापकारी। ___ एवं प्रजा प्रेत्येह च लोके, कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽस्ति // . 2. महोर्ध्वच्छिन्नतमकक्षुद्रभेदैस्तुः पंचधा। भिद्यते स महाव्याधिः श्वास एको विशेषत // 15 // प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [165 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिन्नश्वास, तमकश्वास, और क्षुद्रश्वास ये पांच भेद कहे हैं। जब वायु कफ के साथ मिलकर प्राण जल और अन्न के बहने वाले स्रोतों को रोक देता है तब अपने आप कफ से रुका हुआ वायु चारों और स्थित होकर श्वास को उत्पन्न करता है। (2) कास-कासरोग भी वात, पित्त, कफ, क्षत और क्षय भेद से पांच प्रकार का है। इस का निदान और लक्षण इस प्रकार वर्णन किया हैधूमोपघाताद्रजसस्तथैव, व्यायामरूक्षान्ननिषेवणाच्च। विमार्गगत्वाच्च हि भोजनस्य, वेगावरोधात् क्षवथोस्तथैव॥१॥ प्राणो ह्यदानानुगतः प्रदुष्टः संभिन्नकांस्यस्वनतुल्यघोषः। निरेति वक्रात् सहसा सदोषो मनीषिभिः कास' इति प्रदिष्टः॥२॥ . (माधवनिदाने कासाधिकारः) अर्थात्-नाक तथा मुख में रज और धूम के जाने से, अधिक व्यायाम करने सें, नित्य प्रति रुक्षान्न के सेवन से, कुपथ्यभोजन से, मलमूत्र के अवरोध तथा आती हुई छींक को रोकने से, प्राणवायु अत्यन्त दुष्ट होकर और दुष्ट उदान वायु से मिलकर कंफ पित्त युक्त हो सहसा मुख से बाहर निकले, उस का शब्द फूटे कांस्य पात्र के समान हो, मनीषी-वैद्यलोग उसे कासअर्थात् खांसी का रोग कहते हैं। (3) ज्वर- स्वेदावरोधः सन्तापः, सर्वांगग्रहणं तथा। युगपद् यत्र रोगे तु, स ज्वरो व्यपदिश्यते // 143 // / [बंगसेने ज्वराधिकारः] अर्थात्-पसीना न आना, शरीर में सन्ताप का होना, और सम्पूर्ण अंगों में पीड़ा का होना, ये सब लक्षण जिस रोग में एक साथ हों उस को ज्वर कहते हैं। ज्वर के वातज्वर, पित्तज्वर, कफज्वर द्विदोषज्वर इत्यादि अनेकों भेद लिखे हैं। जिन्हें वैद्यक ग्रन्थों से जाना जा सकता है। (4) दाह- एक प्रकार का रोग है, जिस से शरीर में जलन प्रतीत होती है। 1. यदा स्रोतांसि संरुध्य मारुतः कफपूर्वकः। विष्वग् व्रजति संरुद्धस्तदा श्वासान् करोति सः॥ 17 // [माधवनिदाने-श्वासाधिकार] 2. (क) कसति शिरः कंठादूर्ध्वं गच्छति वायुरिति कासः। अर्थात् जो वायु कंठ से ऊपर सिर की ओर जाए उस को कास कहते हैं। (ख) अभिधान राजेन्द्र कोष में कास शब्द का "-केन जलेन कफात्मकेन अश्यते व्याप्यते इति कासः" ऐसा अर्थ लिखा है। इस का भाव है-कफ का बढ़ना, अर्थात् खांसी का रोग। . 166) श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधवनिदान आदि वैद्यक ग्रन्थों में दाह-रोग सात प्रकार का बताया गया है। जैसे कि-प्रथम प्रकार में मदिरा के सेवन करने से पित्त और रक्त दोनों प्रकुपित हो कर समस्त शरीर में दाह पैदा कर देते हैं, यह दाह केवल त्वचा में अनुभव किया जाता है। द्वितीय प्रकार में रक्त का दबाव बढ़ जाने से देह में अग्निदग्ध के समान तीव्र जलन होती है, आंखें लाल हो जाती हैं, त्वचा ताम्बे की तरह तप जाती है, तृष्णा बढ़ जाती है और मुख से लोहे जैसी गन्ध आती है। तृतीय प्रकार में - गला, ओंठ, मुंह, नाक, पक जाते हैं, पसीना अधिक आता है, निद्राभाव, वमन, तीव्र अतिसार दस्त), मूर्छा, तन्द्रा, और कभी-कभी प्रलाप भी होने लगता है। चतुर्थ प्रकार में-प्यास के रोकने से शरीरगत अब्धातु (जल) प्रकुपित हो कर शरीर में दाह उत्पन्न करता है। गल, ओंठ और तालु सूखने लगता है एवं शरीर कांपने लग जाता है। पांचवां दाह हथियार की चोट से निसृत रक्त से जिसके कोष्ठ भर गए हैं, उसको हुआ करता है, यह अत्यन्त दुस्तर होता है। छठे प्रकार में-मूर्छा, तृष्णा होती है, स्वर मन्द पड़ जाता है, शरीर में दाह के साथ-साथ रोगी क्रियाहीनता का अनुभव करता है। सातवां दाह-मर्माभिघात होने के कारण होता है, यह असाध्य होता है। . आधुनिक वैज्ञानिकों के शब्दों में यदि कहा जाए तो-कैलशियम, पैन्टोथेनेट (Calcium, Pantothenate) नामक द्रव्य की कमी के आ जाने से हाथ तथा पांव में जलन हो जाती है- यह कह सकते हैं। (5) कुक्षिशूल-पार्श्वशूल का ही दूसरा नाम कुक्षिशूल है। शूलरोग में प्राय: वात को ही प्राधान्य प्राप्त है। वंगसेन के शूलाधिकार में लिखा है कि-वृद्धि को प्राप्त हुआ वायु हृदय, पार्श्व, पृष्ठ, त्रिक और बस्ति स्थान में शूल को उत्पन्न करता है। वायु प्रवृद्धो जनयेद्धिशूलं हृत्पार्श्वपृष्ठत्रिकवस्तिदेशे। शूल (वायु के प्रकोप से होने वाला एक प्रकार का तेज दर्द) यह एक भयंकर व्याधि है और इसकी गणना सद्यः प्राणहर व्याधियों में है। (6) भगन्दर-गुदस्य व्यंगुले क्षेत्रे, पार्श्वतः पिटिकार्तिकृत्। भिन्ना भगन्दरो ज्ञेयः, स च पंचविधो मतः॥१॥ (माधवनिदाने भगन्दराधिकारः) अर्थात्-गुदा के समीप एक बाजू पर दो अंगुल ऊंची एक पिटिका-फुन्सी होती है, जिस में पीड़ा अधिक हुआ करती है, उस पिटिका-फुन्सी के फूट जाने के अनन्तर की अवस्था को भगन्दर कहते हैं, और वह पांच प्रकार का है। अभिधान चिन्तामणी काण्ड 3 श्लोक 125 की व्याख्या में आचार्य हेमचन्द्र जी ने भगन्दर शब्द की निरुक्ति या व्युत्पत्ति इस प्रकार की * प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [167 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है "भगंदारयतीति भगन्दरः" भग अर्थात् गुह्य और मुष्क-गुदा तथा अण्डकोष के मध्यवर्ती स्थान को जो विदीर्ण करे उस का नाम भगन्दर है। किसी-किसी आचार्य का यह मत है कि भगाकार विदीर्ण होने से इस का नाम भगन्दर है, अर्थात् भगाकार विदीर्ण होता है इस कारण इस को भगन्दर कहते हैं। वास्तव में ऊपर उल्लेख किए गए भगन्दर के लक्षण के साथ भगन्दर शब्द की निरुक्ति कुछ अधिक मेल खाती है। (7) अर्श-इसका आम प्रचलित नाम बवासीर है। यह 6 प्रकार की होती है-(१) वातज (2) पित्तज (3) कफज (4) त्रिदोषज (5) रक्तज (6) सहज। इस का निदान और लक्षण इस प्रकार कहा है दोषास्त्वङ्मांसमेदांसि, सन्दूष्य विविधाकृतीन्। मांसांकुरानपानादौ, कुर्वन्त्यांसि ताजगुः॥२॥ __(माधवनिदाने अर्शाधिकारः) अर्थात्-दुष्ट हुए वातादि दोष, त्वचा, मांस और मेद को दूषित करके गुदा में अनेक प्रकार के आकार वाले मांस के अंकुरों (मस्सों) को उत्पन्न करते हैं उन को अर्श-अर्थात् बवासीर कहते हैं। उक्त षड्विध अर्श रोग में त्रिदोषज कष्टसाध्य और सहज असाध्य है। (8) अजीर्ण-जीर्ण अर्थात् किए हुए भोजनादि पदार्थ का सम्यक् पाक न होना अजीर्ण है। यह रोग जठराग्नि की मन्दता के कारण होता है। वैद्यकग्रन्थों में-मन्द-तीक्ष्ण, विषम और सम इन भेदों से जठराग्नि चार प्रकार की बताई है। इन में कफ की अधिकता से मन्द, पित्त के आधिक्य से तीक्ष्ण, वायु की विशेषता से विषम और तीनों की समानता से सम अग्नि होती है। इन में सम अग्नि वाले मनुष्य को तो किया हुआ यथेष्ट भोजन समय पर अच्छे प्रकार से पच जाता है। और मन्दाग्नि वाले पुरुष को स्वल्प मात्रा में किया हुआ भोजन भी नहीं पचता तथा जो विषमाग्नि वाला होता है उसको कभी पच भी जाता है और कभी नहीं भी पचता। तथा जो तीक्ष्ण अग्नि वाला होता है उसको तो भोजन पर भोजन, अथवा अत्यन्त भोजन भी किया हुआ पच जाता है। इन में जो मन्दाग्नि या विषम अग्नि वाला पुरुष होता है उसी पर अजीर्ण रोग का आक्रमण होता है। अजीर्ण रोग के प्रधानतया चार भेद बताए हैं जैसे कि-(१) आम अजीर्ण (2) विदग्ध अजीर्ण (3) विष्टब्ध अजीर्ण और (4) रसशेष 1. शब्दस्तोम महानिधि कोष में भग शब्द से गुह्य और मुष्क के मध्यवर्ती स्थान का ग्रहण किया हैभगन्दरम्-भगं गुह्यमुष्कमध्यस्थानं दारयतीति.... स्वनामाख्याते रोगभेद-तब भग शब्द से आचार्य हेमचन्द्र जी को भी सम्भवतः यही अभिमत होगा ऐसा हमारा विचार है। 2. मन्दस्तीक्ष्णोऽथ विषमः, समश्चेति चतुर्विधः। कफपित्तानिलाधिक्यात्तत्साम्याज्जाठरोऽनलः॥१॥ [बंगसेने अजीर्णाधिकारः] 168) श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १अजीर्ण। इन की व्याख्या निनोक्त है (1) आम-अजीर्ण में कफ की प्रधानता होती है, इस में खाया हुआ भोजन पचता नहीं (2) विदग्ध-अजीर्ण में पित्त का प्राधान्य होता है, इस में खाया हुआ भोजन जल जाता है। (3) विष्टब्ध-अजीर्ण में वायु की अधिकता होती है, इस में खाया हुआ अन्न बंध सा जाता है। (4) रसशेष-अजीर्ण में खाया हुआ अन्न भली-भांति नहीं पचता। वैद्यक ग्रन्थों में अजीर्ण रोग की उत्पत्ति के कारणों और लक्षणों का इस प्रकार निर्देश किया है अत्यम्बुपानाद्विषमाशनाच्च, संधारणात्स्वप्नविपर्ययाच्च। कालेऽपि सात्म्यं लघु चापि भुक्तमन्नं न पाकं भजते नरस्य॥ ईर्षाभयक्रोधपरिप्लुतेन लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीड़ितेन। प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक्परिपाकमेति॥ ___ [माधवनिदान में अजीर्णाधिकार] : अर्थात्-अधिक जल पीने से, भोजन समय के उल्लंघन से, मल, मूत्रादि के वेग को रोकने से, दिन में सोने और रात्रि में जागने से, समय पर किया गया हित, मित और लघुहलका भोजन भी मनुष्य को नहीं पचता। तात्पर्य यह है कि इन कारणों से अजीर्ण रोग उत्पन्न होता है। इस के अतिरिक्त ईर्ष्या, भय, क्रोध और लोभ से युक्त तथा शोक और दीनता एवं द्वेष पीड़ित मनुष्य का भी खाया हुआ अन्न पाक को प्राप्त नहीं होता अर्थात् नहीं पचता। ये अजीर्ण रोग के अन्तरंग कारण हैं। और इसका लक्षण निम्नोक्त है ग्लानिगौरवमाटोपो, भ्रमो मारुत-मूढ़ता। निबन्धोऽतिप्रवृत्तिा, सामान्याजीर्णलक्षणम्॥ (बंगसेने) अर्थात् - ग्लानि, भारीपन, पेट में अफारा और गुड़गुड़ाहट, भ्रम तथा अपान वायु का अवरोध, दस्त का न आना अथवा अधिक आना यह सामान्य अजीर्ण के लक्षण हैं। ... (9) दृष्टिशूल-इस रोग का निदान ग्रन्थों में इस नाम से तो निर्देश किया हुआ मिलता नहीं, किन्तु आम युक्त नेत्ररोग क लक्षण वर्णन में इसका उल्लेख देखने में आता है, 1. आमं विदग्धं विष्टब्धं, कफपित्तानिलैस्त्रिभिः। अजीर्णं केचिदिच्छन्ति, चतुर्थं रस-शेषतः॥ 27 // (बंगसेने) प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [169 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे कि उदीर्णवेदनं नेत्रं, रागोद्रेकसमन्वितम्।घर्षनिस्तोदशूलाश्रु युक्तमामान्वितं विदुः॥ अर्थात्-जिस रोग में नेत्रों में उत्कट वेदना-पीड़ा हो, लाली अधिक हो, करकराहट हो-रेत गिरने से होने वाली वेदना के समान वेदना हो, सुई चुभाने सरीखी पीड़ा हो, तथा शूल हो और पानी बहे, ये सब लक्षण आमयुक्त नेत्ररोग के जानने चाहिएं। (10) मूर्ध-शूल-मस्तक शूल की गणना शिरोरोग में है। यह-शिरोरोग ग्यारह प्रकार का होता है, जैसे किशिरोरोगास्तु जायन्ते वातपित्तकफैस्त्रिभिः। सन्निपातेन रक्तेन क्षयेण कृमिभिस्तथा॥१॥ सूर्यावर्तानन्त-वात-शंखकोऽर्द्धावभेदकैः।एकादशविधस्यास्य लक्षणं संप्रवक्ष्यते॥२॥ . (बंगसेने) अर्थात्-(१) वात (2) पित्त (3) कफ (4) सन्निपात (5) रक्त (6) क्षय और (7) कृमि, इन कारणों से उत्पन्न होने वाले सात तथा (8) सूर्यावर्त (9) अनन्त-वात। (10) अर्द्धावभेदक और (11) शंखक, इन चार के साथ शिरोरोग ग्यारह प्रकार का है, इन सब के पृथक्-पृथक् लक्षण निदान ग्रन्थों से जान लेने चाहिएं। यहां विस्तार भय से उनका उल्लेख नहीं किया गया। (११)अरोचक-भोजनादि में अरुचि-रुचिविशेष का न होना अरोचक का प्रधान लक्षण है। बंगसेन तथा माधवनिदान प्रभृति वैद्यक ग्रन्थों में लिखा है कि-वातादि दोष, भय, क्रोध और अति-लोभ के कारण तथा मन को दूषित करने वाले आहार, रूप और गन्ध के सेवन करने से पांच प्रकार का अरोचक रोग उत्पन्न होता है, जैसे किवातादिभिः शोकभयातिलोभक्रोधैर्मनोनाशन-रूपगंधैः अरोचकाः स्यु.......॥१॥ [बंगसेने] (12) अक्षिवेदना-यह कोई स्वतन्त्र रोग नहीं है। किन्तु वात-प्रधान नेत्र रोग में अर्थात्-वाताभिष्यन्द में यह समाविष्ट किया जा सकता है, जैसे कि- . निस्तोदनस्तंभन-रोमहर्ष-संघर्षपारुष्य-शिरोभितापाः। विशुष्कभावः शिशिरश्रुता च वाताभिपन्ने नयने भवन्ति॥५॥ [माधवनिदाने नेत्ररोगाधिकारः] अर्थात्-वाताभिष्यन्द-वातप्रधान नेत्ररोग में सूई चुभाने सरीखी पीड़ा या तोड़नेनोचने सरीखी पीड़ा होती है, इस के अतिरिक्त नेत्रों में स्तंभन, जड़ता, रोमांच, करकराहटरेता पड़ने सरीखी रड़क, और रुक्षता होती है तथा मस्तकपीड़ा और नेत्रों से शीतल आंसु गिरते 170 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (13) कर्ण वेदना-इसका अपर नाम कर्ण शूल है। इस का निदान और लक्षण इस तरह वर्णित किया गया है समीरणः श्रोत्रगतोऽन्यथाचरन्, समन्ततः शूलमतीव कर्णयोः। करोति दोषैश्च यथा स्वमावृतः, स कर्णशूलः कथितो दुरासदः॥१॥ (माधवनिदाने कर्णरोगाधिकारः) अर्थात्-कुपित हुआ वायु कान में दोषों के साथ आवृत्त हो कर कानों में विपरीत गति से विचरण करे तब उस से कानों में जो अत्यन्त शूल-वेदना (दर्द) होती है उसे कर्णशूल कहते हैं। यह रोग कष्ट साध्य बताया गया है। (14) कण्डू-यह उपरोग है और पामाका अवान्तर भेद है। इसी कारण वैद्यक ग्रन्थों में इसका स्वतन्त्र रूप से नाम निर्देश न करके भी चिकित्सा प्रकरण में इसका बराबर स्मरण किया है। (१५)दकोदर-इस का दूसरा नाम जलोदर है और उसका लक्षण यह है स्निग्धं महत्तत्परिवृद्धनाभि-समाततं पूर्णमिवाम्बुना च। यथा दृतिः क्षुभ्यति कंपते च, शब्दायते चापि दकोदरं तत्॥२४॥ (माधवनिदाने उदररोगाधिकारः) अर्थात्-जिस में पेट चिकना, बड़ा, तथा नाभि के चारों और ऊंचा हो और तना हुआ सा मालूम होता तो, पानी की पोट भरी सरीखा दिखाई दे, जिस प्रकार पानी से भरी हुई मशक हिलती है उसी प्रकार हिले अर्थात् जिस तरह मशक में भरा हुआ जल हिलता है उसी प्रकार पेट में हिले, तथा गुड़-गुड़ शब्द करे और काम्पे उस को दकोदर अथवा जलोदर कहते हैं। यह रोग प्रायः असाध्य ही होता है। . (16) कुष्ठ-कोढ़ का नाम है। यह एक प्रकार का रक्त और त्वचा सम्बन्धी रोग है, यह संक्रामक और घिनौना होता है। वैद्यक ग्रन्थों में कुष्ठ रोग के 18 प्रकार-भेद बताए हैं। उन में सात महाकुष्ठ और ग्यारह क्षुद्र कुष्ठ हैं 2 / इन में वात पित्त और कफ ये तीनों दोष . 1. पामा यह क्षुद्रकुष्ठों में परिगणित है, इसका लक्षण यह है - सूक्ष्मा वह्वयः पिटिकाः स्त्राववत्यः पामेत्युक्ताः कण्डूमत्यः सदाहाः अर्थात् -जिस में त्वचा पर छोटी-छोटी स्राव युक्त खुजली सहित दाह वाली अनेक पिटिका-फुन्सियां हों उसे पामा कहते हैं। 2. महाकुष्ठ-(१) कपाल (2) औदुम्बर (3) मण्डल (4) ऋक्षजिव्ह (5) पुंडरीक (6) सिध्म और (7) काकण, ये सात महा कुष्ठ के नाम से प्रसिद्ध हैं। और 11 क्षुद्रकुष्ठ हैं, जैसे किप्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [171 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुपित होकर त्वचा, रुधिर, मांस और शरीरस्थ जल को दूषित कर के कुष्ठ रोग को उत्पन्न करते हैं। तात्पर्य यह है कि वात, पित, कफ, रस, रुधिर, मांस तथा लसीका इन सातों के दूषित होने अर्थात् बिगड़ने से कुष्ठ रोग उत्पन्न होता है। इन में पहले के तीन-वात, पित्त और कफ तो दोष के नाम से प्रसिद्ध हैं और बाकी के चारों रस, रुधिर, मांस और लसीका-की दूष्य संज्ञा है। इस प्रकार संक्षेप से ऊपर वर्णन किए गए 16 रोगों ने एकादि नाम के राष्ट्रकूट पर एक बार ही आक्रमण कर दिया अर्थात् ये 16 रोग एक साथ ही उसके शरीर में प्रादुर्भूत हो गए। वास्तव में देखा जाए तो अत्युग्र पापों का ऐसा ही परिणाम हो सकता है। अस्तु। अब पाठक एकादि राष्ट्रकूट की अग्रिम जीवनी का वर्णन सुनें जो कि सूत्रकार के शब्दों में इस तरह वर्णित है मूल-तते णं से एक्काई रट्ठकूडे सोलसहि रोगातंकेहिं अभिभूते समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति 2 त्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विजयवद्धमाणे खेडे सिंघाडगतिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु महया 2 सद्देणं उग्घोसेमाणा 2 एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! एक्काइ सरीरगंसि सोलस रोगातंका पाउब्भूता तंजहा-सासे 1 कासे 2 जरे 3 जाव कोढ़े 16 ।तं जो णं इच्छति देवाणुप्पिया! वेजो वा वेज्जपुत्तो वा जाणओ वा जाणयपुत्तो वा तेइच्छिओ वा तेइच्छिय-पुत्तो वा एगातिस्स रहकूडस्स तेसिं सोलसण्हं रोगातंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तते, तस्स णं एक्काई रहकूडे विपुलं अत्थसंपयाणं दलयति, दोच्चं पि तच्चं पि उग्घोसेह 2 त्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणेह। तते णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणंति। तते णं से विजयवद्धमाणे खेडे इमं एयारूवं उग्घोसणं सोच्चा णिसम्म बहवे वेजा य 6 सत्थकोसहत्थगया सएहिं सएहिं गेहेहिंतो पडिनिक्खमंति 2 त्ता विजयवद्धमाणस्स खेडस्स मझमझेणं जेणेव एगाइ-रट्ठकूडस्स गेहे तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता एगाइ-सरीरयं परामुसंति 2 त्ता तेसिं रोगाणं निदाणं पुच्छंति 2 त्ता एक्काइ-रट्ठकूडस्स बहुहिं अब्भंगेहि य उव्वट्टवणाहि य सिणेहपाणेहि य (1) चर्म (2) किटिम (3) वैपादिक (4) अलसक (5) दद्रु-मंडल (6) चर्मदल (7) पामा (8) कच्छु (9) विस्फोटक (10) शतारु (11) विचर्चिक, ये ग्यारह क्षुद्रकुष्ठ के नाम से विख्यात हैं। इनके पृथक्-पृथक् लक्षण, और चिकित्सा सम्बन्धी सम्पूर्ण वर्णन चरक, सुश्रुत और वागभट्ट से लेकर बंगसेन तक के समस्त आयुर्वेदीय ग्रन्थों में पर्याप्त हैं अत: वहीं से देखा जा सकता है। 172 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वमणेहि य विरेयणाहि य सेयणाहि य अवदाहणाहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणाहि यवत्थिकम्मेहि य निरुहेहि य सिरावधेहि य तच्छणेहि य पच्छणेहि य सिरोबत्थीहि य तप्पणेहि य पुडपागेहि य छल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य पत्तेहि य पुण्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसजेहि य इच्छंति तेसिंसोलसण्हं रोयातंकाणं एगमविरोयायंकं उवसामित्तए, णो चेव णं संचाएंति उवसामित्तते। तते णं बहवे वेजा य वेजपुत्ता य 6 जाहे नो संचाएंति तेसिं सोलसण्हं रोयातंकाणं एगमवि रोयायंकं उवसामित्तए, ताहे संता तंता परितंता जामेव दिसं पाउब्भूता तामेव दिसं पडिगता। छाया-ततः स एकादी राष्ट्रकूटः षोडशभी रोगातंकैरभिभूतः सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दाययति, शब्दाययित्वा एवमवदत्-गच्छत यूयं देवानुप्रियाः ! विजयवर्द्धमाने खेटे शृंगाटकत्रिक-चतुष्क चत्वर-महापथपथेषु महता शब्देन उद्घोषयन्तः 2 एवं वदत एवं खलु देवानुप्रियाः! एकादि॰ शरीरे षोडश रोगातंकाः प्रादुर्भूताः, तद्यथाश्वासः 1 कासः 2 ज्वरः 3 यावत् कुष्ठः। तद् य इच्छति देवानुप्रियाः! वैद्यो वा वैद्यपुत्रो वा ज्ञायको वा ज्ञायक-पुत्रो वा चिकित्सकः चिकित्सकपुत्रो वा, एकादे राष्ट्रकूटस्य तेषां षोडशानां रोगातंकानामेकमपि रोगातंकमुपशमयितुम तस्य एकादी राष्ट्रकूटो विपुलमर्थ-सम्प्रदानं करोति द्विरपि त्रिरपि उद्घोषयत, उद्घोष्य एतामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पयत / ततस्ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रत्यर्पयन्ति, ततो विजयवर्द्धमाने खेटे इमामेतद्पामुद्घोषणां श्रुत्वा निशम्य बहवो वैद्याश्च शस्त्रकोषहस्तगताः स्वेभ्यः स्वेभ्यो गृहेभ्यः प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य मध्यमध्येन यत्रैव एकादिराष्ट्रकूटस्य गृहं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य एकादिशरीरं परामृशन्ति परामृश्य तेषां रोगाणां निदानं पृच्छन्ति पृष्ट्वा एकादिराष्ट्रकूटस्य बहुभिरभ्यंगैरुद्वर्तनाभिश्च स्नेहपानैश्च वमनैश्च विरेचनाभिश्च सेचनाभिश्च, अवदाहनाभिश्च अवस्नानैश्च, अनुवासनाभिश्च बस्तिकर्मभिश्च निरूहैश्च शिरावेधैश्च तक्षणैश्च प्रतक्षणैश्च शिरोबस्तिभिश्च तर्पणैश्च पुटपाकैश्च छल्लिभिश्च, मूलैश्च कन्दैश्च पत्रैश्च पुष्पैश्च फलैश्च, बीजैश्च शिलिकाभिश्च, गुटिकाभिश्च औषधैश्च भैषज्यैश्च इच्छन्ति तेषां षोडशानां रोगातंकानामेकमपि रोगातंकमुपशमयितुं, नो चैव संशक्नुवन्ति उपशमयितुं। श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [173 प्रथम श्रुतस्कंध ] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततस्ते बहवो वैद्या वैद्यपुत्राश्च 6 यदा नो संशक्नुवन्ति तेषां षोड़शानां रोगातंकानामेकमपि रोगातंकमुपशमयितुं, तदा श्रान्तास्तान्ताः परितान्ताः यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तावदिशं प्रतिगताः। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। सोलसहिं-उक्त सोलह प्रकार के। रोगातंकेहि-भयानक रोगों से। अभिभूते समाणे-खेद को प्राप्त / से एक्काई-वह एकादि नामक / रट्ठकूडे-राष्ट्रकूट। कोटुंबियपुरिसेकौटुम्बिक पुरुषों... सेवकों को। सद्दावेति 2 त्ता-बुलाता है, बुलाकर। एवं वयासी-इस प्रकार कहता है। देवाणुप्पिया !-हे देवानुप्रियो ! अर्थात् हे महानुभावो! तुब्भे णं-तुम लोग। गच्छह-जाओ तथा। विजयवद्धमाणे खेडे-विजयवर्द्धमान खेट के। सिंघाडग-त्रिकोणमार्ग। तिय-त्रिक मार्ग-जहां तीन रास्ते मिलते हों। चउक्क-चतुष्क-जहां पर चार रास्ते इकट्ठे होते हों। चच्चर-चत्वर-जहां चार से भी अधिक रास्ते मिलते हों। महापह-महापथ-राजमार्ग-जहाां बहुत से मनुष्यों का गमना-गमन होता हो और / पहेसुसामान्य मार्गों में। महया 2 सद्देणं-बड़े ऊंचे स्वर से। उग्घोसेमाणा २-उद्घोषणा करते हुए। एवं-इस प्रकार। वयह-कहो। देवाणुप्पिया !-हे महानुभावो ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। एक्काइ०एकादि राष्ट्रकूट के। सरीरगंसि-शरीर में। सोलस-सोलह। रोगातंका-भयंकर रोग। पाउब्भूता-उत्पन्न हो गए हैं। तंजहा-जैसे कि। सासे-श्वास 1 / कासे-कास 2 / जरे-ज्वर 3 / जाव-यावत्। कोढे १६कुष्ठ। तं-इसलिए। देवाणुप्पिया !-हे महानुभावो! जे-जो। वेजो वा-वैद्य-शास्त्र तथा चिकित्सा में कुशल, अथवा। वेजपुत्तो वा-वैद्य-पुत्र अथवा। जाणओ वा-ज्ञायक-केवल शास्त्र में कुशल, अथवा। जाणयपुत्तो वा-ज्ञायक-पुत्र अथवा। तेइच्छिओ वा-चिकित्सक-केवल चिकित्सा-इलाज करने में निपुण, अथवा। तेइच्छियपुत्तो वा-चिकित्सक-पुत्र / एगातिस्स रट्ठकूडस्स-एकादि नामक राष्ट्रकूट के। तेसिं- उन / सोलसण्हं-सोलह / रोगातंकाणं-रोगातंकों में से। एगमवि रोगासंकं-एक रोगातंक को भी। उवसामित्तते-उपशान्त करना ।इच्छति-चाहता है। तस्सणं-उसको। एक्काई-एकादि / रटकूडे-राष्ट्रकूट। विपुलं-बहुत सा। अत्थसंपयाणं दलयति-धन प्रदान करेगा, इस प्रकार / दोच्चं पि-दो बार। तच्चं पितीन बार। उग्घोसेह 2 त्ता-उद्घोषणा करो, उद्घोषणा कर के। एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह-इस आज्ञप्तिआज्ञा का प्रत्पर्यण करो, वापिस आकर निवेदन करो, तात्पर्य यह है कि मेरी इस आज्ञा का यथाविध पालन किया गया है, इसकी सूचना दो। तते णं-तदनन्तर। ते-वे। कोडुंबियपुरिसा-कौटुम्बिक-सेवक पुरुष। जाव-यावत् एकादि की आज्ञानुसार उद्घोषणा कर के। पच्चप्पिणंति-वापिस आकर निवेदन करते हैं अर्थात हम ने घोषणा कर दी है ऐसी सचना दे देते हैं। तते णं-तदनन्तर / से-उस।विजयवद्धमाणेविजयवर्द्धमान। खेडे-खेट में। इमं एयारूवं-इस प्रकार की। उग्घोसणं-उद्घोषणा की। सोच्चासुनकर तथा। णिसम्म-अवधारण कर / बहवे-अनेक। वेज्जा य ६-वैद्य, वैद्य-पुत्र, ज्ञायक, ज्ञायक-पुत्र, चिकित्सक, चिकित्सक-पुत्र। सत्थकोसहत्थगया-शास्त्रकोष-औजार रखने की पेटी (बक्स) हाथ में लेकर। सएहिं सएहि-अपने-अपने। गेहेहिंतो-घरों से। पडिनिक्खमंति-निकल पड़ते हैं। 2 त्तानिकल कर। विजयवद्धमाणस्स-विजय वर्द्धमान नामक। खेडस्स-खेट के। मझंमज्झेणं-मध्य भाग से जाते हुए। जेणेव-जहां। एगाइरट्ठकूडस्स-एकादि राष्ट्रकूट का। गेहे-घर था। तेणेव-वहां पर / उवागच्छंति 174 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आते हैं। 2 त्ता-आकर। एगाइसरीरं-एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का। परामुसंति 2 त्ता- स्पर्श करते हैं, स्पर्श करने के अनन्तर। तेसिं रोगाणं-उन रोगों का। निदाणं-निदान (मूलकारण)। पुच्छन्ति 2 त्तापूछते हैं, पूछ कर / एक्काइरट्ठकूडस्स-एकादि राष्ट्रकूट के।तेसिं-उन / सोलसण्हं-सोलह। रोयाकाणंरोगातंकों में से। एगमवि-किसी एक। रोयातंकं-रोगातंक को। उवसामित्तए-उपशांत करने के लिए। बहूहिं-अनेक। अब्भंगेहि य-अभ्यंग-मालिश करने से। उव्वट्टणाहि य-उद्वर्तन-वटणा वगैरह मलने से। सिणेहपाणेहि य-स्नेहपान कराने-स्निग्ध पदार्थों का पान कराने से। वमणेहि य-वमन कराने से। विरेयणाहि य-विरेचन देने-मल को बाहर निकालने से। सेयणाहि य-सेचन-जलादि सिंचन करने अथवा स्वेदन करने से। अवद्दाहणाहि य-दागने से। अवण्हाणेहि य-अवस्नान-विशेष प्रकार के द्रव्यों द्वारा संस्कारित-जल द्वारा स्नान कराने से।अणुवासणाहि य-अनुवासन कराने-अपान-गुदाद्वार से पेट में तेलादि के प्रवेश कराने से। वत्थिकम्मेहि य-बस्ति कर्म करने अथवा गुदा में वर्ति आदि के प्रक्षेप करने से। निरुहेहि य-निरुह-औषधियें डाल कर पकाए गए तेल के प्रयोग से (विरेचन विशेष से) तथा। सिरावेधेहि य-शिरावेध-नाड़ी वेध करने से। तच्छणेहि य-तक्षण करने-क्षुरक-छुरा, उस्तरा आदि द्वारा त्वचा को काटने से। पच्छणेहि य-पच्छ लगाने से तथा सूक्ष्म विदीर्ण करने से। सिरोवत्थीहि यशिरोबस्तिकर्म से। तप्पणेहि य-तेलादि स्निग्ध पदार्थों के द्वारा शरीर का उपवृंहण करने अर्थात् तृप्त करने से, एवं। पुडपागेहि य-पाक विधि से निष्पन्न औषधियों से। छल्लीहि य-छालों से अथवा रोहिणी प्रभृति वन-लताओं से। मूलेहि य-वृक्षादि के मूलों-जड़ों से। कंदेहि य-कंदों से। पत्तेहि य-पत्रों से। पुप्फेहि य-पुष्पों से। फलेहि य-फलों से। बीएहि य-बीजों से। सिलियाहि य-चिरायता से। गुलियाहि य-गुटिकाओं-गोलियों से। ओसहेहि य-औषधियों-जो एक द्रव्य से निर्मित हों, और। भेसजेहि यभैषज्यों-अनेक द्रव्यों से निर्माण की गई औषधियों के उपचारों से। इच्छंति-प्रयत्न करते हैं, अर्थात् इन पूर्वोक्त नानाविध उपचारों से एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में उत्पन्न हुए सोलह रोगों में से किसी एक रोग को शमन करने का यत्न करते हैं, परन्तु / उवसामित्तते-उपशमन करने में वे। णो चेव-नहीं। संचाएंतिसमर्थ हुए अर्थात् उन में से एक रोग को भी वे शमन नहीं कर सके। तते णं-तदनन्तर। ते-वे। बहवेबहुत से। वेजा य वेजपुत्ता य ६-वैद्य और वैद्यपुत्र आदि। जाहे-जब। तेसिं-उन। सोलसण्हं-सोलह / रोयातंकाणं-रोगातंकों में से। एगमवि रोयायंकं-किसी एक रोगातंक को भी। उवसामित्तए-उपशान्त करने में। णं-वाक्यालंकारार्थक है। णो चेव संचाएंति-समर्थ नहीं हो सके। ताहे-तब। संता-श्रान्त। (देह के खेद से खिन्न) तथा। तंता-तान्त-[मन के दुःख से दुखित] और। परितंता-परितान्त(शरीर और मन दोनों के खेद से खिन्न) हुए 2 / जामेव दिसं-जिस दिशा से अर्थात् जिधर से। पाउब्भूता-आए थे। तामेव दिसं-उसी दिशा को अर्थात् उधर को ही। पडिगता-चले गए। मूलार्थ-तदनन्तर वह एकादि राष्ट्रकूट सोलह रोगातंकों से अत्यन्त दुःखी होता हुआ कौटुम्बिक पुरुषों- सेवकों को बुलाता है और बुला कर उन से इस प्रकार कहता 1. मस्तक पर चमड़े की पट्टी बान्धकर उस में नाना विधि द्रव्यों से संस्कार किए गए तेल को भरने का नाम शिरो-बस्ती है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [175 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि हे 'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विजयवर्द्धमान खेट के शृंगाटक [ त्रिकोणमार्ग ] त्रिक त्रिपथ [ जहां तीन रास्ते मिलते हों] चतुष्क-चतुष्पथ [ जहां पर चार मार्ग एकत्रित होते हों] चत्वर [ जहां पर चार से अधिक मार्गों का संगम हो ] महापथ-राज मार्ग और अन्य साधारण मार्गों पर जा कर बड़े ऊंचे स्वर से इस तरह घोषणा करो कि-हे महानुभावो ! एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में श्वास, कास, ज्वर यावत् कुष्ठ ये 16 भयंकर रोग उत्पन्न हो गए हैं। यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, ज्ञायक या ज्ञायक-पुत्र एवं चिकित्सक या चिकित्सकपुत्र उन सोलह रोगातंकों में से किसी एक रोगातंक को भी उपशान्त करे तो एकादि राष्ट्रकूट उस को बहुत सा धन देगा। इस प्रकार दो बार, तीन बार उद्घोषणा करके मेरी इस आज्ञा के यथावत् पालन की मुझे सूचना दो। तदनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष एकादिराष्ट्रकूट की आज्ञानुसार विजयवर्द्धमान खेट में जाकर उद्घोषणा करते हैं और वापिस आकर उस की एकादि राष्ट्रकूट को सूचना दे देते हैं। तत्पश्चात् विजयवर्द्धमान खेट में इस प्रकार की उद्घोषणा का श्रवण कर अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र, ज्ञायक, ज्ञायकपुत्र, चिकित्सक और चिकित्सकपुत्र हाथ में शास्त्रपेटिका [शस्त्रादि रखने का बक्स या थैला ] लेकर अपने-अपने घरों से निकल पड़ते हैं, निकल कर विजयवर्द्धमान खेट के मध्य में से होते हुए जहां एकादि राष्ट्रकूट का घर था वहां पर आ. जाते हैं, आकर एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का स्पर्श करते हैं, शरीर-सम्बन्धी परामर्श करने के बाद रोगों का निदान पूछते हैं अर्थात् रोगविनिश्चयार्थ विविध प्रकार के प्रश्न पूछते हैं, प्रश्न पूछने के अनन्तर उन 16 रोगातंकों में से अन्यतम-किसी एक ही रोगातंक को उपशान्त करने के लिए अनेक अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नेहपान, वमन, विरेचन, सेचन, 1. जैनागमों में किसी को सम्बोधित करने के लिए प्रायः देवानुप्रिय शब्द का प्रयोग अधिक उपलब्ध होता है। इस का क्या कारण है ? इस प्रश्न के समाधान के लिए देवानुप्रिय शब्द के अर्थ पर विचार कर लेना आवश्यक रहाणव नाम के कोष में देवानुप्रिय शब्द के भद्र, महाशय, महानुभाव, सरलप्रकृति-इतने अर्थ लिखें हैं। अर्धमागधी कोषकार देव के समान प्रिय, देववत् प्यारे ऐसा अर्थ करते हैं। अभिधानराजेन्द्र कोष में सरल स्वभावी यह अर्थ लिखा है। यही अर्थ टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि ने भी अपनी टीकाओं में अपनाया है। कल्पसूत्र के व्याख्याकार समयसुदर जी गणी अपनी व्याख्या में लिखते हैं-"-हे देवानुप्रिय ! सुभग! अथवा देवानपि अनुरूपं प्रीणातीति देवानुप्रियः, तस्य सम्बोधनं हे देवानुप्रिय !-" गणी श्री जी के कहने का अभिप्राय यह है कि-देवानुप्रिय शब्द के दो अर्थ होते हैं-प्रथम सुभग। सुभग शब्द के अर्थ हैं-यशस्वी, तेजस्वी इत्यादि। दूसरा अर्थ है-जो देवताओं को भी अनुरूप-यथेच्छ प्रसन्न करने वाला हो उसे देवानुप्रिय कहते हैं। अर्थात्-वक्ता देवानुप्रिय शब्द के सम्बोधन से सम्बोधित व्यक्ति का उस में देवों को प्रसन्न करने की विशिष्ट योग्यता बता कर सम्मान प्रकट करता है। सारांश यह है कि देवानुप्रिय एक सम्मान सूचक सम्बोधन है, इसी लिए ही सूत्रकार ने यत्र तत्र इसका प्रयोग किया है। 176 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा स्वेदन, अवदाहन, अवस्नान, अनुवासन, बस्तिकर्म, निरुह, शिरावेध, तक्षण, प्रतक्षण, शिरोबस्ति, तर्पण [इन क्रियाओं से] तथा पुटपाक, त्वचा, मूल, कन्द, पत्र, पुष्प, फल और बीज एवं शिलिका (चिरायता) के उपयोग से तथा गुटिका, औषध, भैषज्य आदि के प्रयोग से प्रयत्न करते हैं अर्थात् इन पूर्वोक्त साधनों का रोगोपशांति के लिए उपयोग करते हैं। परन्तु इन पूर्वोक्त नानाविध उपचारों से वे उन 16 रोगों में से किसी एक रोग को भी उपशान्त करने में समर्थ न हो सके।जब उन वैद्य और वैद्यपुत्रादि से उन 16 रोगातंकों में से एक रोगातंक का भी उपशमन न हो सका तब वे वैद्य और वैद्यपुत्रादि श्रान्त, तान्त और परितान्त होकर जिधर से आए थे उधर को ही चल दिए। टीका-एकादि राष्ट्रकूट ने रोगाक्रान्त होने पर अपने अनुचरों को कहा कि तुम विजयवर्द्धमान खेट के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध स्थलों पर जाकर यह घोषणा कर दो कि एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में एक साथ ही श्वास कासादि 16 भीषण रोग उत्पन्न हो गए हैं, उन के उपशमन के लिए वैद्यों, ज्ञायकों, और चिकित्सकों को बुला रहे हैं। यदि कोई वैद्य, ज्ञायक, या चिकित्सक उन के किसी एक रोग को भी उपशान्त कर देगा तो उसको भी वह बहुत सा धन देकर सन्तुष्ट करेगा। अनुचरों ने अपने स्वामी की इच्छानुसार नगर में घोषणा कर दी। इस घोषणा को सुन कर खेट में रहने वाले बहुत से वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सक वहां उपस्थित हुए। उन्होंने शास्त्र विधि के अनुसार विविध प्रकार के उपचारों द्वारा एकादि के शरीरगत रोगों को शान्त करने का भरसक प्रयत्न किया, परन्तु उस में वे सफल नहीं हो पाए। समस्त रोगों का शमन तो अलग रहा, किसी एक रोग को भी वे शान्त न कर सके। तब सब के सब म्लान मुख से आत्मग्लानि का अनुभव करते हुए वापिस आ गए। प्रस्तुत सूत्र का यह संक्षिप्त भावार्थ है जो कि उस से फलित होता है। - यहां पर एकादि राष्ट्रकूट का अनुचरों द्वारा घोषणा कराना सूचित करता है कि उस के गृहवैद्यों के घरेलू चिकित्सकों के उपचार से उसे कोई लाभ नहीं हुआ। एकादि राष्ट्रकूट एक विशाल प्रान्त का अधिपति था और धनसम्पन्न होने के अतिरिक्त एक शासक के रूप में वह वहां विद्यमान था। तब उसके वहां निजी वैद्य न हों और उनसे चिकित्सा न कराई हो, यह संभव ही नहीं हो सकता। परन्तु गृहवैद्यों के उपचार से लाभ न होने पर अन्य वैद्यों को बुलाना उस के लिए अनिवार्य हो जाता है। एतदर्थ ही एकादि राष्ट्रकूट को घोषणा करानी पड़ी हो, यह अधिक सम्भव है। तथा "बहुरत्ना वसुन्धरा" इस अभियुक्तोक्त के अनुसार संसार में अनेक ऐसे गुणी पुरुष होते हैं जो कि पर्याप्त गुणसम्पत्ति के स्वामी होते हुए भी अप्रसिद्ध रहते हैं, और बिना बुलाए कहीं जाते नहीं। ऐसे गुणी पुरुषों से लाभ उठाने का भी यही उपाय प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [177 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है जिसका उपयोग एकादि राष्ट्रकूट ने किया अर्थात् घोषणा करा दी। सांसारिक परिस्थिति में अर्थ का प्रलोभन अधिक व्यापक और प्रभुत्वशाली है। १"अर्थस्य पुरुषो दासः दासस्त्वर्थो न कस्यचित्" इस नीति-वचन को सन्मुख रखते हुए नीतिकुशल एकादि ने गुणिजनों के आकरणार्थ अर्थ का प्रलोभन देने में भी कोई त्रुटि नहीं रक्खी, अपने अनुचरों द्वारा यहां तक कहलवा दिया कि अगर कोई वैद्य या चिकित्सक प्रभृति गुणी पुरुष, उसके 16 रोगों में से एक रोग को भी शान्त कर देगा तो उसे भी वह पर्याप्त धन देगा, इस से यह तो अनायास ही सिद्ध हो जाता है कि समस्त रोगों को उपशान्त करने वाला कितना लाभ प्राप्त कर सकता है। अर्थात् उस के लाभ की तो कोई सीमा नहीं रहती। दो या तीन बार बड़े ऊंचे स्वर से घोषणा करने का आदेश देने का प्रयोजन मात्र इतना ही प्रतीत होता है कि इस विज्ञप्ति से कोई अज्ञात न रह जाए। एतदर्थ ही उद्घोषणा स्थानों के निर्देश में शृङ्गाटक, त्रिपथ, चतुष्पथ और महापथ एवं साधारणपथ आदि का उल्लेख किया गया है। शृङ्गाटक-त्रिकोण मार्ग को कहते हैं। त्रिक-जहां पर तीन रास्ते मिलते हों। चतुष्कचतुष्पथ, चार मार्गों के एकत्र होने के स्थान का नाम है जिसे आम भाषा में "चौक" कहते हैं। चत्वर-चार मार्गों से अधिक मार्ग जहां पर संमिलित होते हों उसकी चत्वर संज्ञा है। . महापथ-राजमार्ग का नाम है, जहां कि मनुष्य समुदाय का अधिक संख्या में गमनागमन हो। पथ सामान्य मार्ग को कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सक, ये तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इन के अर्थविभेद की कल्पना करते हुए वृत्तिकार के कथनानुसार जो वैद्यकशास्त्र और चिकित्सा दोनों में निपुण हो वह वैद्य, और जो केवल शास्त्रों में कुशल हो वह ज्ञायक तथा जो मात्र चिकित्सा में प्रवीण हो वह चिकित्सक कहा जाता है। . यहां पर एक बात विचारणीय प्रतीत होती है वह यह कि "-वेजो वा वेजपुत्तो 1. यह सम्पूर्ण वचन इस प्रकार हैअर्थस्य पुरुषो दासो, दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज ! बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः॥१॥ कहते हैं कि दुर्योधनादि कौरवों का साथ देते हुए एक समय महारथी भीष्म पितामह से युधिष्ठर प्रभृति किसी संभावित व्यक्ति ने पूछा कि आप अन्यायी कौरवों का साथ क्यों दे रहे हो ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि संसार में पुरुष तो अर्थ का दास-धन का गुलाम है परन्तु अर्थ-धन किसी का भी दास-गुलाम नहीं, यह बात अधिकांश सत्य है, इसलिए महाराज! कौरवों के अर्थ ने-धन प्रलोभन न मुझे बान्ध रक्खा है। 2. "वेजो व" त्ति वैद्यशास्त्रे चिकित्सायां च कुशलः। "वेजपुत्तो व" त्ति तत्पुत्रः "जाणुओ व"त्ति ज्ञायकः केवल-शास्त्रकुशलः "तेगिच्छिओव" त्ति चिकित्सामात्रकुशलः [अभयदेवसूरिः] 178 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा-" इत्यादि पाठ में वैद्य के साथ, वैद्य-पुत्र का, ज्ञायक के साथ ज्ञायक-पुत्र का एवं चिकित्सक के साथ चिकित्सक-पुत्र का उल्लेख करने का सूत्रकार का क्या अभिप्राय है ? तात्पर्य यह है कि वैद्य और वैद्यपुत्र में क्या अन्तर है, जिसके लिए उसका पृथक्-पृथक् प्रयोग किया गया है ? वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि ने भी इस पर कोई प्रकाश नहीं डाला। "वैद्यपुत्र" का सीधा और स्पष्ट अर्थ है-वैद्य का पुत्र-वैद्य का लड़का। इसी प्रकार ज्ञायकपुत्र और चिकित्सक-पुत्र का भी, ज्ञायक का पुत्र चिकित्सक का पुत्र-बेटा यही प्रसिद्ध अर्थ है। एवं यदि वैद्य का पुत्र वैद्य है ज्ञायक का पुत्र ज्ञायक और चिकित्सक का पुत्र भी चिकित्सक है तब तो वह वैद्य ज्ञायक एवं चिकित्सक के नाम से ही सुगृहीत हैं, फिर इसका पृथक् निर्देश क्यों? अगर उस में-वैद्यपुत्र में वैद्योचित गुणों का असद्भाव है तब तो उसका आकारित करना तथा उसका वहां जाना ये सब कुछ उपहास्यास्पद ही हो जाता है। हां ! अगर "वैद्यपुत्र" आदि शब्दों को यौगिक न मान कर रूढ़ अर्थात् संज्ञा-वाचक मान लिया जाए-तात्पर्य यह है कि वैद्यपुत्र का "वैद्य का पुत्र" अर्थ न कर के "वैद्यपुत्र" इस नाम का कोई व्यक्ति विशेष माना जाए तब तो इस के पृथक् निर्देश की कथमपि उपपत्ति हो सकती है। परन्तु इस में भी यह आशंका बाकी रह जाती है कि जिस प्रकार वैद्य शब्द से -आयुर्वेद का ज्ञाता और चिकित्सक कर्म में निपुण यह अर्थ सुगृहीत होता है उसी प्रकार "वैद्य-पुत्र" शब्द का भी कोई स्वतंत्र एवं सुरक्षित अर्थ है ? जिसका कहीं पर उपयोग हुआ या होता हो ? टीकाकार महानुभावों ने भी इस विषय में कोई मार्ग प्रदर्शित नहीं किया। तब प्रस्तुत आगम पाठ में वैद्य पुत्र आदि शब्दों की पृथक् नियुक्ति किस अभिप्राय से की गई है ? विद्वानों को यह अवश्य विचारणीय है। . पाठकों को इतना स्मरण अवश्य रहे कि हमारे इस विचार-सन्देह में हमने अपने सन्देह को ही अभिव्यक्त किया है, इस में किसी प्रकार के आक्षेप-प्रधान विचार को कोई स्थान नहीं। हम आगमवादी अर्थात् आगम-प्रमाण का सर्वेसर्वा अनुसरण करने और उसे स्वतः प्रमाण मानने वाले व्यक्तियों में से हैं। इसलिए हमारे आगम-विषयक श्रद्धा-पूरित हृदय में उस परआगम पर आक्षेप करने के लिए कोई स्थान नहीं। और प्रस्तुत चर्चा भी श्रद्धा-पूरित हृदय में उत्पन्न हुई हार्दिक सन्देह भावना मूलक ही है। किसी आगम में प्रयुक्त हुए किसी शब्द के विषय में उसके अभिप्राय से अज्ञात होना हमारी छद्मस्थता को ही आभारी है / तथापि हमें गुरु चरणों से इस विषय में जो समाधान प्राप्त हुआ वह इस प्रकार है _ वैद्य शब्द प्राचीन अनुभवी वृद्ध वैद्य का बोधक है और वैद्यपुत्र उनकी देखरेख मेंउनके हाथ नीचे काम करने वाले लघु वैद्य का परिचायक है। . किसी विशिष्ट रोगी के चिकित्सा क्रम में इन दोनों की ही आवश्यकता रहती है। वृद्ध प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [179 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैद्य के आदेशानुसार लघु वैद्य के द्वारा रोगी का औषधोपचार जितना सुव्यवस्थित रूप से हो सकता है उतना अकेले वैद्य से नहीं हो सकता। आजकल के आतुरालयों-हस्पतालों में भी एक सिवल सर्जन और उसके नीचे अन्य छोटे डॉक्टर होते हैं। इसी भांति उस समय में भी वृद्ध वैद्यों के साथ विशेष अनुभव प्राप्त करने की इच्छा से शिष्य रूप में रहने वाले अन्य लघुवैद्य होते थे जो कि उस समय वैद्यपुत्र के नाम से अभिहित किए जाते थे। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने वैद्य के साथ वैद्यपुत्र का उल्लेख किया है। यहां पर सूत्रकार ने एकादि राष्ट्रकूट के उपलक्ष्य में उसके रुग्ण शरीर सम्बन्धी औषधोपचार के विधान में सम्पूर्ण चिकित्सा पद्धति का निर्देश कर दिया है। रोगी को रोगमुक्त करने एवं स्वास्थ्ययुक्त बनाने में इसी चिकित्सा-क्रम का वैद्यक ग्रन्थों में उल्लेख किया गया है। पाठकगण प्रस्तुत सूत्रगत पाठों में वर्णित चिकित्सा सम्बन्धी विशेष विवेचन तो वैद्यक ग्रन्थों के द्वारा जान सकते हैं, परन्तु यहां तो उस का मात्र दिग्दर्शन कराया जा रहा है- .. (1) अभ्यंग-तैलादि पदार्थों को शरीर पर मलना अभ्यंग कहलाता है, इसका दूसरा नाम तेल-मर्दन है। सरल शब्दों में कहें तो शरीर पर साधारण अथवा औषधि-सिद्ध तेल की मालिश को अभ्यंग कहते हैं। . (2) उद्वर्तन-अभ्यंग के अनन्तर उद्वर्तन का स्थान है। उबटन लगाने को उद्वर्तन कहते हैं, अर्थात्-तैलादि के अभ्यंग से जनित शरीरगत नो बाह्य स्निग्धता है उस को एवं शरीरगत अन्य मल को दूर करने के लिए जो अनेकविध पदार्थों से निष्पन्न उबटन है उस का अंगोपांगों पर जो मलना है वह भी उद्वर्तन कहलाता है। (3) स्नेहपान-घृतादि स्निग्ध-चिकने पदार्थों के पान को स्नेह-पान कहते हैं। (4) वमन-उलटी या कै का ही संस्कृत नाम वमन है। चरक संहिता के कल्प स्थान में इस की परिभाषा इस प्रकार की गई है:- तत्र दोषहरणमूर्ध्वभागं वमनसंज्ञकम्, अर्थात् ऊर्ध्व भागों द्वारा दोषों का निकालना-मुख द्वारा दोषों का निष्कासन वमन कहलाता है। यद्यपि वैद्यक-ग्रन्थों में वमन विरेचनादि से पूर्व स्वेदविधि का विधान' देखने में आता है और यहां पर उसका उल्लेख वमन तथा विरेचन के अनन्तर किया गया है, इसका कारण यह प्रतीत होता है कि सूत्रकार को इन का क्रम पूर्वक निर्देश करना अभिमत नहीं, अपितु रोग 1. येषां नस्यं विधातव्यं, बस्तिश्चैवापि देहिनाम्। शोधनीयाश्च ये केचित्, पूर्वं स्वेद्यास्तु ते मताः॥१॥ अर्थात्- जिस को नस्य (वह दवा या चूर्णादिं जिसे नाक के रास्ते दिमाग में चढ़ाते हैं) देना हो, बस्तिकर्म करना हो, अथवा वमन या विरेचन के द्वारा शुद्ध करना हो, उसे प्रथम स्वेदित करना चाहिए, उसके शरीर में प्रथम स्वेद देना चाहिए। [बंगसेन में स्वेदाधिकार] 180] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति के उपायों का नियोजन ही अभिप्रेत है, फिर वह क्रमपूर्वक हो या क्रमविकल / अन्यथा अवदाहन तथा अवस्नान के अनन्तर अनुवासनादि बस्तिकर्म का सूत्रकार उल्लेख न करते। (५)विरेचन-अधोद्वार से मल का निकालना ही विरेचन है। चरक संहिता कल्पस्थान में विरेचन शब्द की परिभाषा इस प्रकार की गई है। "अधोभागं विरेचनसंज्ञकमुभयं वा शरीरमल-विरेचनाद् विरेचनशब्दं लभते" अर्थात्- अधो भाग से दोषों का निकालना विरेचन कहलाता है, अथवा शरीर के मल का रेचन करने से ऊर्ध्वविरेचन की वमन संज्ञा है और अधोविरेचन को विरेचन कहा है। संक्षेप से कहें तो मुख द्वारा मलादि का अपसरण वमन है, और गुदा के द्वारा मल निस्सारण की विरेचन संज्ञा है। (6)1 स्वेदन-स्वेदन का सामान्य अर्थ पसीना देना है। (7) अवदाहन-गर्म लोहे की कोश आदि से चर्म (फोड़े, फुन्सी आदि) पर दागने को अवदाहन कहते हैं। बहुत सी ऐसी व्याधियां हैं जिनकी दागना ही चिकित्सा है। चरकादि ग्रन्थों में इस का कोई विशेष उल्लेख देखने में नहीं आता। (८)अवस्नान-शरीर की चिकनाहट को दूर करने वाले अनेकविध द्रव्यों से मिश्रित तथा संस्कारित जल से स्नान कराने को अवस्नान कहते हैं। (9,10,11) अनुवासना-बस्तिकर्म-निरुह-शार्ङ्गधर संहिता [अ.५] में बस्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है बस्तिर्द्विधानुवासाख्यो-निरूहश्च ततः परम्। . बस्तिभिर्दीयते यस्मात्तस्माद् बस्तिरिति स्मृतः॥१॥ अर्थात् बस्ति दो प्रकार की होती है-१-अनुवासना बस्ति, २-निरूह बस्ति। इस विधान में यथा नियम निर्धारित औषधियों का बस्ति (चर्म निर्मित कोथली) द्वारा प्रयोग किया जाता है इसलिए इसे बस्ति कहते हैं। तथा सुश्रुत-संहिता में अनुवासना तथा निरुह इन दोनों की निरुक्ति इस प्रकार की है "-अनुवसन्नपि न दुष्यति, अनुदिवसं वा दीयते इत्यनुवासनाबस्ति:-" [जो अनुवास-बासी हो कर भी दूषित न हो, अथवा जो प्रतिदिन दी जावे उसे अनुवासना-बस्ति कहते हैं]-"दोष-निर्हरणाच्छरीररोहणाद्वा निरुहः"-[दोषों का निर्हरण नाश कराने के 1. मूल में उल्लेख किए गए "सेयण" के सेचन और स्वेदन ये दो प्रतिरूप होते हैं। यहां पर सेचन की अपेक्षा स्वेदन का ग्रहण करना ही युक्ति संगत प्रतीत होता है। कारण कि चिकित्सा विधि में स्वेदन का ही अधिकार है। सेचन नाम की कोई चिकित्सा नहीं। और यदि "सेचन" प्रतिरूप के लिए ही आग्रह हो तो सेचन का अर्थ जलसिंचन ही हो सकता है। उसका उपयोग तो प्रायः मूर्छा-रोग में किया जाता है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [181 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण अथवा शरीर का नि:शेषतया सम्पूर्ण रूप से रोहण कराने के कारण इसे निरूहनिरूहबस्ति कहा है।] __आचार्य अभयदेव सूरि ने बस्ति कर्म का अर्थ चर्मवेष्टन द्वारा शिर आदि अंगों को स्निग्ध-स्नेह पूरित करना, अथवा गुदा में वर्त्ति आदि का प्रक्षेप करना-यह किया है। और अनुवास, निरूह तथा शिरो बस्ति को बस्ति कर्म का ही अवान्तर भेद माना है। इस के अतिरिक्त अनुवास और निरुह बस्ति के स्वरूप में अन्तर न मानते हुए उन के प्रयोगों में केवल द्रव्य कृत विशेषता को ही स्वीकार किया है। तात्पर्य यह है कि अनुवासना में जिन औषधिद्रव्यों का उपयोग किया जाता है, निरूह बस्ति में उनसे भिन्न द्रव्य उपयुक्त होते हैं। कषायक्षरितो बस्तिनिरूहः सन्निगद्यते। यः स्नेहैर्दीयते स स्यादनुवासन-संज्ञकः॥४॥ बस्तिभिर्दीयते यस्मात्तस्माद् बस्तिरिति स्मृतः। निरूहस्यापरं नाम प्रोक्तमास्थापनं बुधैः॥५॥ निरुहो दोषहरणा-द्रोहणादथवा तनोः।। आस्थापयेद् वयो देहं यस्मादास्थापनः स्मृतः॥६॥ निशानुवासात् स्नेहोऽन्वासनश्चानुवासनः॥७॥ विरक्तसम्पूर्णहिताशनस्य, आस्थाप्यशय्यामनुदायते यत्। तदुच्यते वाप्यनुवासनं च, तेनानुवासंश्च बभूव नाम॥८॥ उत्कृष्टावयवे दानाद् बस्तिरूत्तरसंज्ञितः // 9 // इत्यादि अर्थात्-क्वाथ और दूध के द्वारा जो बस्ति दी जाती है उस को निरूह बस्ति कहते हैं। तथा घी अथवा तैलादि के द्वारा जो बस्ति दी जाए उसे अनुवासन कहा है। मृगादि के मूत्राशय की कोथली रूप साधन के द्वारा पिचकारी दी जाती है इस कारण इस पिचकारी को बस्ति कहते हैं। विद्वानों ने निरूह बस्ति का अपर नाम "आस्थापना" बस्ति भी कहा है। निरूह बस्ति दोषों को अपहरण करती है अथवा देह को आरोपण करती है, इस कारण इसकी निरूह संज्ञा है। और आयु तथा देह को स्थापन करती है इस कारण इसे आस्थापनबस्ति कहते हैं // 6 // अनुवासनाबस्ति में रात्रि के समय स्नेह के अनुवासित होने के कारण इसको 1. "अनुवासणाहि य'ति-अपानेन जठरे तैलप्रक्षेपणैः। "बत्थिकम्मेहि य"त्ति चर्मवेष्टन-प्रयोगेण शिरः प्रभृतीनां स्नेहपूरणैः, गुदे वा वादिप्रक्षेपणैः। "निरूहेहि य" त्ति निरुहः अनुवास एव, केवलं.द्रव्यकृतो विशेषः। प्रागुक्त-बस्तिकर्माणि सामान्यानि अनुवासना - निरूह-शिरोबस्त यस्तद् भेदाः। 182 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवासनाबस्ति कहते हैं अथवा अच्छे प्रकार से विरेचन होने पर उत्तम प्रकार से पथ्य करने पर शय्या में स्थापित कर के पश्चात् यह अनुवासना दी जाती है इस लिए इसको अनुवासनाबस्ति कहते हैं // 7-8 // तथा उत्कृष्ट अवयव में दी जाने वाली बस्ति की उत्तर संज्ञा है। इस वर्णन में बस्तिकर्म के भेद और उन भेदों की निर्वचन- पूर्वक व्याख्या तथा निरूह और अनुवासना में द्रव्यकृत विशेषता आदि सम्पूर्ण विषयों का भली-भांति परिचय करा दिया गया है। तथा इससे वृत्तिकार के बस्ति-सम्बन्धी निर्वचनों का भी अच्छी तरह से समर्थन हो जाता है। (12) शिरावेध-शिरा नाम नाड़ी का है उस का वेध-वेधन करना शिरावेध कहलाता है। इसी का दूसरा नाम नाड़ी वेध है। शिरावेध की प्रक्रिया का निरूपण चक्रदत्त में बहुत अच्छी तरह से किया गया है। पाठक वहीं से देख सकते हैं। (13-14) तक्षण-प्रतक्षण-साधारण कर्तन कर्म को तक्षण, और विशेष रूपेण कर्तन को प्रतक्षण कहते हैं। वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि के कथनानुसार क्षुर, लवित्र-चाकू आदि शस्त्रों के द्वारा त्वचा का (चमड़ी का) सामान्य कर्तन-काटना, तक्षण कहलाता है और त्वचा का सूक्ष्म विदारण अर्थात् बारीक शस्त्रों से त्वचा की पतली छाल का विदारण करना प्रतक्षण है। (१५)शिरोबस्ति-सिर में चर्मकोश देकर-बान्धकर उस में औषधि-द्रव्य-संस्कृत तैलादि को पूर्ण करना-भरना, इस प्रकार के उपचार-विशेष का नाम शिरोबस्ति है [शिरोबस्तिभिः शिरसि बद्धस्य चर्मकोशस्य द्रव्य-संस्कृत तैलाद्या पूरण लक्षणाभिरिति वृत्तिकार:] चक्रदत्त में शिरोबस्ति का विधान पाया जाता है, विस्तारभय से यहां नहीं दिया जाता। पाठक वहीं से देख सकते हैं। (16) तर्पण-स्निग्ध पदार्थों से शरीर के वृंहण अर्थात् तृप्त करने को तर्पण कहते हैं 2 / चक्रदत्त के चिकित्सा-प्रकरण में तर्पण सम्बन्धी उल्लेख पाया जाता है। पाठक वहीं से देख सकते हैं। (17) पुटपाक-अमुक रस का पुट दे कर अग्नि में पकाई हुई औषधि को पुट-पाक कहते हैं। पुटपाक का सांगोपांग वर्णन चक्रदत्त के रसायनाधिकार में किया गया है। प्राकृतशब्द-महार्णव कोश में पुटपाक के दो अर्थ किए हैं-(१) पुट नामक पात्रों से औषधि का पाक-विशेष (2) पाक से निष्पन्न औषधि-विशेष / 1. "तच्छणेहि य" त्ति क्षुरादिना त्वचस्तनूकरणैः। "पच्छणेहि यं" त्ति ह्रस्वैस्त्वचो विदारणैः। 2. तर्पणैः स्नेहादिभिः शरीरस्य बृंहणैः [वृत्तिकारः] प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सत्रम् / प्रथम अध्याय [183 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (18) छल्ली-त्वचा-छाल को छल्ली कहते हैं। (19, 20) मूल, कन्द-मूलीगाजर और जिमीकन्द तथा आलू आदि का नाम है। (21) शिलिका -ये चरायता आदि औषधि का ग्रहण समझना (22) गुटिका-अनेक द्रव्यों को महीन पीस कर अमुक औषधि के रस की भावना आदि से निर्माण की गई गोलियां गुटिका कहलाती हैं / (23-24) औषधं, भैषज्य-एक द्रव्यनिर्मित औषध के नाम से तथा अनेक-द्रव्य संयोजित भैषज्य के नाम से ख्यात है। "संता, तंता, परितंता" इन तीनों पदों में अर्थगत विभिन्नता वृत्तिकार के शब्दों में निम्नलिखित है 'संत'त्ति श्रान्ता देहखेदेन 'तंत'त्ति-तान्ता मन:खेदेन, "परितंत"त्ति-उभय-खेदेनेति अर्थात् शारीरिक खेद से, मानसिक खेद से, तथा दोनों के श्रम से खेदित हुए। तात्पर्य यह है कि उन का शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का श्रम व्यर्थ जाने-निष्फल होने से वे अत्यन्त खिन्नचित्त हुए और वापिस लौट गए। इस प्रकार राष्ट्रकूट के शरीर-गत रोगों की चिकित्सा के निमित्त आए हुए वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सकों के असफल होकर वापिस जाने के अनन्तर एकादि राष्ट्रकूट की क्या दशा हुई अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं एक्काइ विजेहि य पडियाइक्खिए परियारगपरिचत्ते निविण्णोसहभेसजे सोलसरोगातंकेहि अभिभूते समाणे रज्जे य रटे य जाव अंतेउरे य मुच्छिते रजं च आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अहिलसमाणे अट्टदुहट्टवसट्टे अड्ढाइजाइं वाससयाइं परमाउं पालयित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोससागरोवम-द्वितीएसु नेरइएसु णेरइयत्ताए उववन्ने।सेणंततो अणंतरं उव्वट्ठिता इहेव मियग्गामे णगरे विजयस्स खत्तियस्स मियाए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। ____ छाया-ततः एकादिवैद्यैश्च प्रत्याख्यातः परिचारकपरित्यक्तः निर्विण्णौषधभैषज्यः षोडशरोगातंकैः अभिभूतः सन् राज्ये च राष्ट्रे च यावद् अन्त:पुरे च मूर्छित: 4 राज्यं च आस्वदमानः प्रार्थयमानः स्पृहमाणः अभिलषमाणः आर्तदुःखार्तवशातः अर्द्धतृतीयानि वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा, अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां उत्कृष्टसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतयोपपन्नः, स ततोऽनन्तरमुढत्य इहैव, मृगाग्रामे नगरे विजयस्य क्षत्रियस्य मृगाया देव्याः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः। 184] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय ' [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। विजेहि य-वैद्यों के द्वारा। पडियाइक्खिए-प्रत्याख्यात-निषिद्ध किया गया। परियारगपरिचत्ते-परिचारकों-नौकरों द्वारा परित्यक्त-त्यागा गया। निविण्णोसहभेसज्जेऔषध और भैषज्य से निर्विण्ण-विरक्त, उपराम। सोलसरोगातंकेहि-१६ रोगातंकों से।अभिभूते समाणेखेद को प्राप्त हुआ। एक्काइ-एकादि राष्ट्रकूट। रज्जे य-राज्य में। रटे य-और राष्ट्र में। जाव-यावत्। अन्तेउरे य-अन्त:पुर-रणवास में। मुच्छिते-मूर्च्छित-आसक्त तथा। रजं च-राज्य और राष्ट्र का। आसाएमाणे-आस्वादन करता हुआ। पत्थेमाणे-प्रार्थना करता हुआ।पीहेमाणे-स्पृहा-इच्छा करता हुआ। अहिलसमाणे-अभिलाषा करता हुआ। अट्ट-आर्त-मानसिक वृत्तियों से दुःखित। दुहट्ट-दुःखार्त-देह से दुखी अर्थात् शारीरिक व्यथा से आकुलित / वसट्टे-वशार्त-इन्द्रियों के वशीभूत होने से पीड़ित / अड्ढाइज्जाइं वाससयाई-अढ़ाई सौ वर्ष / परमाउं-परमायु, सम्पूर्ण आयु। पालयित्ता-पालन कर / कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल-मृत्यु को प्राप्त कर। इमीसे-इस। रयणप्पहाए-रत्नप्रभा नामका पुढवीएपृथिवी-नरक में। उक्कोस-सागरोवमट्टितीएसु-उत्कृष्ट सागरोपम स्थिति वाले। नेरइएसु-नारकों में। णेरइयत्ताए-नारकरूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। तते णं-तदनन्तर / से-वह एकादि। अणंतंर-अन्तर रहित बिना अन्तर के। उव्वट्टित्ता-नरक से निकल कर / इहेव-इसी। मियग्गामे-मृगाग्राम नामक। णगरेनगर मे। विजयस्स-विजय नामक। खत्तियस्स-क्षत्रिय की। मियाए देवीए-मृगादेवी की। कुच्छिंसिकुक्षि में-उदर में। पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। ___मूलार्थ-तदनन्तर वैद्यों के द्वारा प्रत्याख्यात[अर्थात् इन रोगों का प्रतिकार हमसे नहीं हो सकता, इस प्रकार कहे जाने पर ] तथा सेवकों से परित्यक्त, औषध और भैषज्य से निर्विण्ण-दुःखित, सोलह रोगातेंकों से अभिभूत, राज्य और राष्ट्र-देश यावत् अन्तःपुररणवास में मूर्छित आसक्त एवं राज्य और राष्ट्र का आस्वादन, प्रार्थना, स्पृहा-इच्छा, और अभिलाषा करता हुआ वह एकादि आर्त-मनोव्यथा से व्यथित, दुःखार्त-शारीरिक पीड़ा से पीड़ित और वशार्त-इन्द्रियाधीन होने से परतंत्र-स्वाधीनता रहित होकर जीवन व्यतीत करके 250 वर्ष की पूर्णायु को भोग कर यथासमय काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी-नरक में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारकी-रूप से उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् वह एकादि का जीव भवस्थिति पूरी होने पर नरक से निकलते ही इसी मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय की मृगावती नामक देवी की कुक्षि-उदर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। 'टीका-पापकर्मों का विपाक-फल कितना भयंकर होता है यह एकादि राष्ट्रकूट की इस प्रकार की शोचनीय दशा से भलीभांति प्रमाणित हो जाता है, तथा आगामी जन्म में उन मन्द कर्मों का फल भोगते समय किस प्रकार की असह्य वेदनाओं का अनुभव करना पड़ता है, यह भी इस सूत्रलेख से सुनिश्चित हो जाता है। एकादि राष्ट्रकूट अनुभवी वैद्यों के यथाविधि उपचार से भी रोगमुक्त नहीं हो सका, उसके शरीरगत रोगों का प्रतिकार करने में बड़े-बड़े अनुभवी प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [185 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सक भी असफल हुए, अन्त में उन्होंने उसे जवाब दे दिया। इसी प्रकार उसके परिचारकों ने भी उसे छोड़ दिया। और उस ने भी औषधोपचार से तंग आकर अर्थात् उससे कुछ लाभ होते न देखकर औषधि-सेवन को त्याग दिया। ये सब कुछ स्वोपार्जित अशुभ कर्मों की विचित्र लीला का ही सजीव चित्र है। अष्टांग हृदय नामक वैद्यक ग्रन्थ में लिखा है कि "-यथाशास्त्रं तु निर्णीता, यथाव्याधि-चिकित्सिताः।रोगा ये नशाम्यन्ति, ते ज्ञेयाः कर्मजा बुधैः॥१॥" अर्थात् जो रोग शास्त्रानुसार सुनिश्चित और चिकित्सित होने पर भी उपशान्त नहीं होते उन्हें कर्मज रोग समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि 16 प्रकार के भयंकर रोगों से अभिभूत अथच तिरस्कृत होने पर तथा अनेकविध शारीरिक और मानसिक वेदनाओं का प्रत्यक्ष अनुभव करने पर भी एकादि राष्ट्रकूट के प्रलोभन में कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह निरन्तर राज्य के उपभोग और राष्ट्र के शासन का इच्छुक बना रहता है। अभी तक भी उसकी काम-वासनाओं अर्थात् विषय-वासनाओं में कमी नहीं आई। इससे अधिक पामरता और क्या हो सकती है। तब इस प्रकार के पामर जीवों का मृत्यु के बाद नरक-गति में जाना अवश्यंभावी होने से एकादि राष्ट्रकूट भी मर कर रत्नप्रभा नाम के प्रथम नरक में गया। उसने एकादि के भव में 250 वर्ष की आयु तो भोगी मगर उस का बहुत सा भाग उसे आर्त, दुःखार्त और वशार्त दशा में ही व्यतीत करना पड़ा। तात्पर्य यह है कि उसकी आयु का बहुत सा शेष भाग शारीरिक तथा मानसिक दुःखानुभूति में ही समाप्त हुआ। "रजे य रटे य जाव अंतेउरे" यहां पर उल्लेख किए गए "जाव-यावत्" पद से "कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य" इन पदों का ग्रहण समझना। तथा "मुच्छिए गढिए, गिद्धे, अज्झोववन्ने" (मूर्छितः, ग्रथितः, गृद्धः, अध्युपपन्नः) इन चारों पदों का अर्थ समान हैं। इसी प्रकार "आसाएमाणे, पत्थेमाणे, पीहेमाणे, अहिलसमाणे" ये पद भी समानार्थक हैं। "अट्ट-दहट्ट-वसट्टे-आतंदुःखार्तवशात:" की व्याख्या में आचार्य अभयदेव सूरि लिखते हैं कि-"आर्तो मनसा दुखितः, दुखार्तो देहेन, वशार्तस्तु इन्द्रियवशेन पीड़ितः, अर्थात् आर्त शब्द मनोजन्य दुःख, दुखार्त शब्द देहजन्य दुःख और वशात शब्द इन्द्रियजन्य दुख का सूचक है। इन तीनों शब्दों में कर्मधारय समास है। तात्पर्य यह है कि ये तीनों विभिन्नार्थक होने से यहां प्रयुक्त किए गए हैं।" रत्नप्रभा नाम के प्रथम नरकस्थान में उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थित एक सागरोपम की मानी गई है और जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। दशकोटा-कोटि पल्योपम 186 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण काल (जिसके द्वारा नारकी और देवता की आयु का माप किया जाता है) की सागरोपम संज्ञा है। . .. "ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता" इस वाक्य में प्रयुक्त हुआ "अणंतरं" यह पद् सूचित करता है कि एकादि का जीव पहली नरक से निकल कर सीधा मृगादेवी की ही कुक्षि में आया, अर्थात् नरक से निकल कर मार्ग में उसने कहीं अन्यत्र जन्म धारण नहीं किया। नारक जीवन की स्थिति पूरी करने के अनन्तर ही एकादि का जीव मृगादेवी के गर्भ में पुत्ररूप से अवतरित हुआ अर्थात् मृगादेवी के गर्भ में आया, उसके गर्भ में आते ही क्या हुआ, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हुए प्रतिपादन करते हैं। मूल-तते णं तीसे मियाए देवीए सरीरे वेयणा पाउब्भूता, उज्जला जाव जलंता। जप्पभितिं च णं मियापुत्ते दारए मियाए देवीए कुच्छिंसि गब्भत्ताए उववन्ने, तप्पभितिं चणं मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया यावि होत्था। ____ छाया-ततस्तस्या मृगाया देव्याः शरीरे वेदना प्रादुर्भूता, उज्वला यावज्वलंती। यत्प्रभृति च मृगापुत्रो दारको मृगाया देव्याः कुक्षौ गर्भतया उपपन्नः तत्प्रभृति च मृगादेवी विजयस्य क्षत्रियस्य अनिष्टा, अकान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोमा जाता चाप्यभवत्। / पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / तीसे-उस।मियाए देवीए-मृगादेवी के।सरीरे-शरीर में। उज्जलाउत्कट। जाव-यावत्। जलंता-जाज्वल्यमान-अति तीव्र / वेयणा-वेदना। पाउब्भूता-प्रादुर्भूत-उत्पन्न हुई। णं-वाक्यालंकारार्थ में जानना / जप्पभितिं च णं-जब से। मियापुत्ते-मृगापुत्र नामक। दारए-बालक। मियाए देवीए-मृगादेवी की। कुच्छिंसि-कुक्षि-उदर में। गब्भत्ताए-गर्भरूप में। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। तप्पभिति-तब से लेकर। च णं-च समुच्चयार्थ में और णं-वाक्यालंकारार्थ में है। मियादेवी-मृगादेवी। विजयस्स खत्तियस्स-विजय नामक क्षत्रिय को। अणिट्ठा-अनिष्ट। अकंता-सौन्दर्य रहित। अप्पियाअप्रिय / अमणुण्णा-अमनोज्ञ-असुन्दर।अमणामा-मन से उतरी हुई। जाया यावि होत्था-हो गई अर्थात् उसे अप्रिय लगने लगी। मूलार्थ-तदनन्तर उस मृगादेवी के शरीर में उज्जवल यावत् ज्वलन्त-उत्कट एवं जाज्वल्यमान वेदना उत्पन्न हुई-तीव्रतर वेदना का प्रादुर्भाव हुआ।जब से मृगापुत्र नामक बालक मृगादेवी के उदर में गर्भ रूप से उत्पन्न हुआ तब से लेकर वह मृगादेवी विजय नामक क्षत्रिय को अनिष्ट, अमनोहर, अप्रिय, असुन्दर, मन को न भाने वाली-मन से उतरी हुई सी लगने लगी। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [187 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-पुण्यहीन पापी जीव जहां कहीं भी जाते हैं वहां अनिष्ट के सिवा और कुछ नहीं होता। तदनुसार एकादि का जीव नरक से निकल कर जब मृगादेवी के उदर में आया तो उसके सुकोमल शरीर में तीव्र वेदना उत्पन्न हो गई। इसके अतिरिक्त उसके गर्भ में आते ही सर्वगुण-सम्पन्न, सर्वांग-सम्पूर्ण परमसुन्दरी [जो कि विजय नरेश की प्रियतमा थी] मृगादेवी विजय नरेश को सर्वथा अप्रिय और सौन्दर्य-रहित प्रतीत होने लगी। पुण्यशाली और पापिष्ट आत्माओं की पुण्य और पापमय विभूति का इन्हीं लक्षणों से अनुमान किया जाता है। "उज्जला जाव जलंता" इस वाक्य में दिए गए "जाव-यावत्" पद से "विउला कक्कसा, पगाढा, चंडा, दुहा, तिव्वा, दुरहियासा-" इन पदों का ग्रहण करना / अर्थदृष्ट्या इन पदों में कोई विशेष भिन्नता नहीं है। इस प्रकार "अणिट्ठा, अकंता, अप्पिया, अमणुण्णा अमणामा" ये पद समानार्थक ही समझने चाहिएं। तत्पश्चात् क्या हुआ, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं तीसे मियाए देवीए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियाए जागरमाणीए इमे एयारूवे अज्झत्थिते समुप्पन्ने-एवं खलु अहं विजयस्स खत्तियस्स पुट्विं इट्ठा 6 धेजा वेसासिया अणुमया आसि, जप्पभितिं च णं मम इमे गब्भे कुच्छिंसि गब्भत्ताए उववन्ने, तप्पभितिं च णं-विजयस्स खत्तियस्स अहं अणिट्ठा जाव अमणामा जाया यावि होत्था। नेच्छति णं विजए खत्तिए मम नामं वा गोत्तं वा गिण्हित्तते, किमंग पुण दंसणं वा परिभोगं वा। तं सेयं खलु सम एयं गब्भं बहूहिं गब्भसाडणाहि य पाडणाहि य गालणाहि य मारणांहि य साडेत्तए वा 4 एवं संपेहेति 2 बहूणि खाराणि य कडुयाणि य तूवराणि य गब्भसाडणाणि य खायमाणी य पीयमाणी य इच्छति तं गब्भं साडित्तए वा 4 नो चेवणं से गब्भे सडइ वा 4 / तते णं सा मियादेवी जाहे नो संचाएति तं गब्भं साडित्तए वा ताहे संता तंता परितंता अकामिया असयंवसा तं गब्भं दुहं-दुहेणं परिवहति। छाया-ततः तस्या मृगादेव्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागर्यया जाग्रत्या अयमेतद्रूप आध्यात्मिक: 5 समुत्पन्न:- एवं खल्वहं 1. पूर्वरात्रापररात्रकालसमये, रात्रेः पूर्वभाग: पूर्वरात्रः, रात्रेरपरी भागः अपररात्रः, तावेव तदुभयमिलितो यः कालः समयः स मध्यरात्रः तस्मिन्नित्यर्थः। ___2. न मनसा अभ्यते गम्यते पुनः पुनः स्मरणतो या सा अमनोमा अर्थात् मन को अत्यन्त अनिष्ट। 188 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय ' [प्रथम श्रुतस्कंध Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयस्य क्षत्रियस्य पूर्वमिष्टा 6 ध्येया विश्वासिता अनुमताऽऽसम् / यत् प्रभृति च ममायं गर्भ: कुक्षौ गर्भतया उपपन्नः, तत्प्रभृति च विजयस्य क्षत्रियस्याहं अनिष्टा यावदमनोमा जाता चाप्यभवम्, नेच्छति विजयः क्षत्रियो मम नाम वा गोत्रं वा ग्रहीतुम्, किमंग पुनदर्शनं वा परिभोगं वा, तत् श्रेयः खलु ममैतं गर्भं बहुभिर्गर्भशाटनाभिश्च पातनाभिश्च गालनाभिश्च मारणाभिश्च शाटयितुं वा 4 एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य बहूनि क्षाराणि च कटुकानि च, तूवराणि च गर्भशाटनानि 4 खादन्ती च पिबन्ती च इच्छति तं गर्भं शाटयितुं वा 4 नो चैव स गर्भःशटति वा 4 / ततः सा मगादेवी यदा नो संशक्नोति तं गर्भं शाटयितुं वा 4 तदा श्रान्ता, तान्ता परितान्ता, अकामा अस्वयंवशा तं गर्भ दुःखदुःखेन परिवहति। पदार्थ-तते णं-तंदनन्तर / पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-मध्य-रात्रि में। कुडुम्बजागरियाएकुटुम्ब की चिन्ता के कारण। जागरमाणीए-जागती हुई। तीसे-उस। मियाए देवीए-मृग एयारूवे-यह इस प्रकार का। अज्झत्थिते-विचार। समुप्पन्ने- उत्पन्न हुआ। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। अहं-मैं। पुव्विं-पहले। विजयस्स खत्तियस्स-विजय क्षत्रिय को। इट्ठा-इष्ट-प्रीतिकारक। धेजा-चिन्तनीय। वेसासिया-विश्वासपात्र तथा।अणुमया-अनुमत-सम्मत / आसि-थी, परन्तु।जप्पभितिं च णं-ज़ब से। मम-मेरे। कुच्छिंसि-उदर में। इमे-यह / गब्भे-गर्भ। गब्भत्ताए-गर्भरूप से। उववन्नेउत्पन्न हुआ है। तप्पभितिं च णं-तब से। विजयस्स खत्तियस्स-विजय क्षत्रिय को। अहं-मैं / अणिट्ठाअप्रिय। जाव-यावत् / अमणामा-मन से अग्राह्य। जाया यावि होत्था-हो गई हूं। विजए खत्तिए-विजय क्षत्रिय तो। मम-मेरे / नामं वा-नाम तथा। गोत्तं वा-गोत्र का भी। गिण्हित्तते-ग्रहण करना-स्मरण करना भी। नेच्छति-नहीं चाहते। किमंग पुण-तो फिर / ईसणं वा-दर्शन तथा। परिभोगंवा-परिभोग-भोगविलास की तो बात ही क्या है ? / तं-अतः। खलु-निश्चय ही। मम-मेरे लिए यही। सेयं-श्रेयस्कर हैकल्याणकारी है कि मैं। एयं गब्भं-इस गर्भ को। बहहिं-अनेकविध / गब्भसाडणाहिय-गर्भ शातनाओं अर्थात् गर्भ को खण्ड-खण्ड कर के गिराने रूप क्रियाओं द्वारा / पाडणाहि य-पातनाओं-अखण्डरूप से गिराने रूपी क्रियाओं से। गालणाहि-गालनाओं-द्रवीभूत करके गिराने रूपी क्रियाओं से तथा। मारणाहि य-मारणाओं-मारण रूप क्रियाओं द्वारा। साडेत्तए वा ४-शातना, पातना, गालना, और मारणा के लिए। संपेहेइ 2 त्ता-विचार करती है, विचार करके। गब्भसाडणाणि य-गर्भ के गिराने वाली। बहूणि-अनेक प्रकार की। खराणि-खर-खारी। कडुयाणि य-कटु, कड़वी। तूवराणि य-कषाय रस युक्त, कसैली औषधियों को। खायमाणी य-खाती हुई। पीयमाणी य-पीती हुई। तं गब्भं-उस गर्भ को। साडित्तए वा ४-शातन, पातन, गालन और मारण करने की। इच्छति-इच्छा करती है, परन्तु। से गब्भे-उस गर्भ का। नो चेवणं-नहीं। सडइ ४-शातन, पातन, गालन और मारण हुआ। तते णं-तदनन्तर / सा मियादेवी-वह मृगादेवी। जाहे-जब। तं गब्भं-उस गर्भ का। साडित्तए वा ४-शातनादि करने में। नो संचाएति-समर्थ प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [189 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नही हुई। ताहे-तब। संता-श्रान्त-थकी हुई। तंता-मन से दुःखित हुई। परितन्ता-शारीरिक और मानसिक खेद से खिन्न हुई। अकामिया-अभिलाषा रहित हुई। असयंवसा-विवश-परतन्त्र हुई। तं गब्भं-उस गर्भ को। दुहं-दुहेणं-अत्यन्त दुःख से। परिवहति-धारण करती है अर्थात् धारण करने की इच्छा न होते हुए भी विवश होती हुई धारण कर रही है। मूलार्थ-तदनन्तर किसी काल में मध्य रात्रि के समय कुटुम्ब-चिन्ता से जागती हुई उस मृगादेवी के हृदय में यह संकल्प-विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पहले तो विजय नरेश को इष्ट-प्रिय, ध्येय-चिन्तनीय, विश्वास-पात्र और सम्माननीय थी परन्तु जब से मेरे उदर में यह गर्भस्थ जीव गर्भरूप से उत्पन्न हुआ है तब से विजय नरेश को मैं अनिष्ट यावत् अप्रिय लगने लग गई हूं। इस समय विजय नरेश तो मेरे नाम तथा गोत्र का भी स्मरण करना नहीं चाहते, तो फिर दर्शन और परिभोग-भोगविलास की तो आशा ही क्या है ? अतःमेरे लिए यही उपयुक्त एवं कल्याणकारी है कि मैं इस गर्भ को गर्भपात के हेतुभूत अनेक प्रकार की शातना (गर्भ को खण्ड-खण्ड कर के गिरा देने वाले प्रयोग) पातना (अखंडरूप से गर्भ को गिरा देने वाले प्रयोग) गालना (गर्भ को द्रवीभूत करके गिराने वाला प्रयोग) और मारणा (मारने वाला प्रयोग) द्वारा गिरा दूं-नष्ट कर दूं। वह इस प्रकार विचार करती है और विचार कर गर्भपात में हेतुभूत क्षारयुक्त-खारी कड़वी, और कसैली औषधियों का भक्षण तथा पान करती हुई उस गर्भ को गिरा देना चाहती है। अर्थात् शातना आदि उक्त उपायों से गर्भ को नष्ट कर देना चाहती है। परन्तु वह गर्भ उक्त उपायों से भी नाश को प्राप्त नहीं हुआ।जब वह मृगादेवी इन पूर्वोक्त उपायों से उस गर्भ को नष्ट करने में समर्थ नहीं हो सकी तब शरीर से श्रान्त, मन से दुःखित तथा शरीर और मन से खिन्न होती हुई इच्छा न रहते हुए विवशता के कारण अत्यन्त दुःख के साथ उस गर्भ को धारण करने लगी। टीका-परितपरायणा साध्वी स्त्री के लिए संसार में अपने पति से बढ़ कर कोई भी वस्तु इष्ट अथवा प्रिय नहीं होती। पतिदेव की प्रसन्नता के सन्मुख वह हर प्रकार के सांसारिक प्रलोभन को तुच्छ समझ कर ठुकरा देती है। उस की दृष्टि में पतिप्रेम का सम्पादन करना ही उसके जीवन का एकमात्र ध्येय होता है, अतः पतिप्रेम से शून्य जीवन को वह एक प्रकार का अनावश्यक बोझ समझती है। जिस को उठाए रखना उसके लिए असह्य हो जाता है। यही दशा पतिव्रता मृगादेवी की हुई जब कि उसने अपने आपको पतिप्रेम से वंचित पाया। कुछ समय पहले उसके पतिदेव का उस पर अनन्य अनुराग था। वे उसे गृहलक्ष्मी समझकर उसका हार्दिक स्वागत किया करते और उसकी आदर्श सुन्दरता पर सदा मुग्ध रहते / इसके अतिरिक्त हर एक सांसारिक और धार्मिक काम-काज में उसकी सम्मति लेते तथा उसकी सम्मति के अनुसार ही 190 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावित काम-काज को सुनिश्चित रूप प्राप्त होता। परन्तु आज वे उस से सर्वथा परांमुख हो रहे हैं। उसका नाम तक भी लेने को तैयार नहीं। आज वह प्रेमालाप मधुर-संभाषण एवं सांसारिक और धार्मिक विषयों की विनोदमयी चर्चा उसके लिए स्वप्न सी हो गई। ऐसे क्यों? क्या सचमुच मुझसे ऐसी ही कोई भारी अवज्ञा हुई है, जिस के फलस्वरूप मेरे स्वामी विजय नरेश ने एक प्रकार से मुझे त्याग ही दिया है। वह तो मुझे दिखाई नहीं देती। फिर इसका कारण क्या है ? इस विचार परम्परा में उलझी हुई मृगादेवी को ध्यान आया कि जब से मेरे गर्भ में यह कोई जीव आया है तब से ही महाराज मुझ से रुष्ट हुए हैं। अतः उन के रोष अथच परांमुखता का यही एक कारण हो सकता है। तब यदि इस गर्भ का ही समूलघात कर दिया जाए तो सम्भव है [नहीं-नहीं सुनिश्चित. है] कि महाराज का फिर मेरे ऊपर पूर्ववत् ही स्नेहानुराग हो जाएगा और उनके चरणों की उपासना का मुझे सुअवसर प्राप्त होगा, यह था मध्यरात्री के समय कौटुम्बिक चिन्ता में निमग्न हुई मृगादेवी का चिन्ता मूलक अध्यवसाय या संकल्प, जिस से प्रेरित हुई उस.ने गर्भपात के हेतुभूत उपायों को व्यवहार में लाने का निश्चय किया और तदनुसार गर्भ को गिराने वाली औषधियों का यथाविधि प्रयोग भी किया, परन्तु इस में वह सफल नहीं हो पाई। .. उस के इस प्रकार विफल होने में विपाकोन्मुख अशुभकर्म के सिवा और कोई भी मौलिक कारण दिखाई नहीं देता। अवश्यंभावी भाव का प्रतिकार कठिन ही नहीं किन्तु अशक्य अथच अपरिहार्य होता है। यही कारण है कि सर्वथा अनिच्छा होने पर भी उसेमृगादेवी को गर्भधारण करने में विवश होना पड़ा। "किमंग पुण" यह अव्यय - समुदाय अर्द्धमागधी-कोष के मतानुसार "-क्या कहना? उस में तो कहना ही क्या ? अथवा सामान्य बात तो यह है और विशेष बात तो क्या करना-'' इन अर्थों में प्रयुक्त होता है। -शातना गर्भ की खण्ड-खण्ड करके गिरा देने वाली क्रिया विशेष का नाम [शातना गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतनहेतवः] अथवा शातना गर्भ को खण्ड-खण्ड करके गिरा देने वाली औषधादि का नाम है। पातना-जिन क्रियाओं या उपायों से खण्डरूप में ही गर्भ का पात किया जा सके, वे पातन के नाम से प्रसिद्ध हैं। [पातना यैरुपायैरखण्ड एव गर्भः पतति] गालना-जिन प्रयोगों से गर्भ द्रवीभूत होकर नष्ट हो जाए उन्हें गालना कहते हैं-(यैर्गों द्रवीभूय क्षरति) तथा गर्भ की मृत्यु के कारणभूत उपाय विशेष की मारण संज्ञा है। अब सूत्रकार मृगापुत्र की गर्भगत अवस्था का वर्णन करते हैंमूल-तस्स णंदारस्स गब्भगयस्स चेव अट्ठणालीओ अब्भंतरप्पवहाओ प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [191 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठ णालीओ बाहिरप्पवहाओ अट्ठ पूयप्पवहाओ अट्ठ सोणियप्पवहाओ, दुवे दुवे कण्णंतरेसु दुवे 2 अच्छिंतरेसु दुवे 2 नक्कंतरेसु दुवे 2 धमणि-अंतरेसु अभिक्खणं 2 पूयं च सोणियं च परिस्सवमाणीओ 2 चेव चिट्ठति। तस्स णं दारगस्स गब्भगयस्स चेव अग्गिए नामं वाही पाउब्भूते। जेणं से दारए आहारेति से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छति, पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणमति। तं पि य से पूयं च सोणियं च आहारेति। छाया-तस्य दारकस्य गर्भगतस्यैवाष्ट नाड्योऽभ्यन्तरप्रवहाः, अष्ट नाड्यो बहिष्प्रवहाः, अष्ट पूयप्रवहाः, अष्ट शोणितप्रवहाः, द्वे द्वे कर्णान्तरयोः, द्वे 2 अक्ष्यन्तरयोः, द्वे 2 नासान्तरयोः, द्वे 2 धमन्यन्तरयोः। अभीक्ष्णं 2 पूयं च शोणितं. च परिस्रवन्त्यः परिस्रवन्त्यश्चैव तिष्ठन्ति / तस्य दारकस्य गर्भगतस्यैवाग्निको नाम व्याधिः प्रादुर्भूतः। यत् स दारक आहरति तत् क्षिप्रमेवविध्वंसमागच्छति पूयतया शोणिततया च परिणमति। तदपि च स पूयं च शोणितं चाहरति। पदार्थ-गब्भगयस्स चेव-गर्भगत ही। तस्स णं-उस। दारगस्स-बालक की। अट्ठ-आठ। . णालीओ-नाड़ियां जोकि / अब्भंतरप्पवहाओ-अन्दर बह रही हैं तथा। अट्ठ णालीओ-आठ नाड़ियां। बाहिरप्पवहाओ-बाहर की ओर बहती हैं उनमें प्रथम की। अट्ठणालीओ-आठ नाड़ियों से।पूयप्पवहाओपूय-पीब बह रही है। अट्ठ-आठ नाड़ियों से। सोणियप्पवहाओ-शोणित-रुधिर बह रहा है। दुवे २-दो दो। कण्णंतरेसु-कर्ण छिद्रों में। दुवे २-दो-दो। अच्छिंतरेसु-नेत्र छिद्रों में। दुवे 2- दो दो। नक्कंतरेसुनासिका के छिद्रों में। दुवे २-दो-दो। धमणीअंतरेसु-धमनी नामक नाड़ियों के मध्य में। अभिक्खणं 2- बार-बार। पूयं च-पूय और। सोणियं च -शोणित-रक्त का। परिस्सवमाणीओ २-परिस्राव करती हुई। चेव-समुच्चयार्थक है। चिटुंति-स्थित हैं अर्थात् पूय और शोणित को बहा रहीं हैं तथा। गब्भगयस्स चेव-गर्भगत ही। तस्स णं दारगस्स-उस बालक के शरीर में। अग्गिए णाम-अग्निक-भस्मक नाम की। वाही-व्याधि-रोग विशेष का। पाउब्भूते-प्रादुर्भाव हो गया। जेणं-जिसके कारण जो कुछ। से-वह। दारए-बालक। आहारेति-आहार करता है। से णं-वह। खिप्पामेव-शीघ्र ही। विद्धंसमागच्छति-नाश को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जठराग्नि द्वारा पचा दिया जाता है तथा वह / पूयत्ताए य-पूयरूप में और। सोणियत्ताए य-शोणितरूप में। परिणमति-परिणमन हो जाता है-बदल जाता है तदनन्तर। से-वह बालक / तं पि य-उस। पूर्य च-पूय-का तथा। सोणियं च-शोणित-लहू का। आहारेति-आहार-भक्षण करता है। मूलार्थ-गर्भगत उस बालक के शरीर में अन्दर तथा बाहर बहने वाली आठ नाडियों में से पूय और रुधिर बहता था। इस प्रकार शरीर के भीतर और बाहर की 16 192 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाड़ियों में से पीब और रुधिर बहा करता था।इन 16 नाड़ियों में से दो-दो नाडियां कर्ण विवरों-कर्ण छिद्रों में, इसी प्रकार दो-दो नेत्र विवरों में, दो-दो नासिका-विवरों और दो-दो धमनियों से बार-बार पूय तथा रक्त का स्त्राव किया करती थी अर्थात् इन से पूय और रक्त बह रहा था। और गर्भ में ही उस बालक के शरीर में अग्निक-भस्मक नाम की व्याधि उत्पन्न हो गई थी जिसके कारण वह बालक जो कुछ खाता वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता था, अर्थात् पच जाता था तथा तत्काल ही वह पूय-पीब और शोणित-रक्त के रूप में परिणत हो जाता था। तदनन्तर वह बालक उस पूय और शोणित को भी खारे जाता था। टीका-अत्युग्र पापकर्मों का आचरण का क्या परिणाम होता है यह जानने के इच्छुक के लिए मृगापुत्र का यह एक मात्र उदाहरण ही काफी है। गर्भावास में ही अन्दर तथा बाहर . 1. हृदयकोष्ठ के भीतर की नाड़ी का नाम धमनी है। 2. गर्भगत जीव माता के खाए हुए आहार से पुष्टि को प्राप्त होता है, यह कथन सर्व-सम्मत है परन्तु मृगापुत्र के जीव की दुष्कर्मवशात् इस से कुछ विलक्षण ही स्थिति है। मृगापुत्र का जीव माता द्वारा किए गए आहार को जहां रस के रूप में ग्रहण करता है वहां वह जठराग्नि के द्वारा रस के पचाए जाने और उस के पूय और रुधिर के रूप में परिणत हो जाने पर उस पूय और रुधिर को भी दोबारा आहार के रूप में ग्रहण करता है। जो कि स्थूल दृष्ट्या प्रकृति-विरुद्ध ठहरता है। . गर्भ के बाहर आने पर मृगापुत्र के द्वारा गृहीत आहार का पूय और रुधिर के रूप में परिणत हो जाना, उस परिणत पदार्थ का वमन हो जाना, तदनन्तर उस वान्त पदार्थ का मृगापुत्र के द्वारा ग्रहण कर लेना तो असंगत नहीं ठहरता। क्योंकि ये सब व्यवहार सिद्ध हैं ही। परन्तु गर्भस्थ जीव का दोबारा आहार ग्रहण करना कैसे संगत ठहरता है ? यह अवश्य विचारणीय है। विद्वानों के साथ ऊहापोह करने से मैं जो समाधान कर पाया हूं, वह पाठकों के सामने रख देता हूं। उस में कहाँ तक औचित्य है ? यह वे स्वयं विचार करें। सर्व-प्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि कर्मों की विलक्षण स्थिति को सम्मुख रखते हुए मृगापुत्र के जीव का जो चित्रण शास्त्रकारों ने किया है वह कोई आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि कर्मराज के न्यायालय में दुष्कर सुकर है, और सुकर दुष्कर / तभी तो कहा है-कर्मणां गहना गतिः। इस के अतिरिक्त गर्भगत जीव के आहार-ग्रहण में और हमारे आहार भक्षण में विशिष्ट अन्तर है। हम जिस प्रकार आहार ग्रहण करने में मुख, जिह्वा आदि की क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं उस प्रकार की भक्षण-क्रिया गर्भगत जीव में नहीं होती। मृगापुत्र के जीवन परिचय में "-गर्भस्थ मृगापुत्र के शरीर की आठ अन्दर की नाड़ियां और आठ बाहर की नाड़ियां पूय और रुधिर का परिस्राव कर रही थीं-" यह ऊपर कह ही दिया गया है। यहां प्रश्न होता है कि मृगापुत्र के शरीर की नाड़ियां जो पूय और रुधिर का परिस्राव कर रही थीं वह कहां जाता था ? मृगापुत्रीय शरीर के ऊपर तो जरायु का बन्धन पड़ा हुआ है जो कि प्राकृतिक है, पूय और रुधिर को बाहर जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं, तब वह क्या जरायु में एकत्रित होता रहता था या उस के निर्गमन का कोई और साधन था ? प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [193 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की ओर पूय तथा रक्त का स्राव करने वाली आभ्यन्तर और बाहर की शिराओं-नाड़ियों से , पूय और रुधिर का बहना, शरीर में भयंकर अग्निक-१भस्मक रोग का उत्पन्न होना, खाए हुए अन्नादि का उसके द्वारा शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाना अर्थात् उस का पच जाना एवं उस का पूय और रुधिर के रूप में परिणमन हो जाना और उस का भी भक्षण कर लेना ये सब इतना वीभत्स और भयावना दृश्य है कि उस का उल्लेख करते हुए लेखनी भी संकोच करती है। तब गर्भस्थ मृगापुत्र की अथवा नरक से निकल कर मृगादेवी के गर्भ में आए हुए एकादि के जीव की उपर्युक्त दशा की ओर ध्यान देते हुए भर्तृहरि के स्वर में स्वर मिलाकर "तस्मै नमः कर्मणे" . [अर्थात् कर्मदेव को नमस्कार हो] कहना नितरां उपयुक्त प्रतीत होता है। ____गर्भस्थ मृगापुत्र के शरीर में भीतर और बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली नाड़ियों में से आठ पूय को प्रवाहित करती थीं और आठ से रक्त प्रवाहित होता था। इस प्रकार पूय और रक्त को प्रवाहित करने वाली 16 नाड़ियां थीं। इनका अवान्तर विभाग इस प्रकार है दो-दो कानों के छिद्रो में, दो-दो नेत्रों के विवरों में, दो-दो नासिका के रंधों में और दो-दो दोनों धमनियों में, अन्दर और बाहर से पूय तथा रक्त को प्रवाहित कर रही थीं। यह"अट्ठ णालीओ" से लेकर "परिस्सवमाणीओ 2 चेव चिटुंति" तक के मूल पाठ का इसी प्रश्न का समाधान सूत्रकार ने-तं पि य से पूयं च सोणियं च आहारेति-इन शब्दों द्वारा किया है। अर्थात् वह मृगापुत्र का जीव उस पूय और रुधिर को आहार के रूप में ग्रहण कर लेता था। सूत्रकार का यह पूर्वोक्त कथन बड़ा गंभीर एवं युक्ति-पूर्ण है। क्योंकि-मृगापुत्र जो आहार ग्रहण करता है; वह तो पूय और रुधिर के रूप में परिणत हो जाता है, और उसके शरीर की आठ अन्दर की और आठ बाहर की नाड़ियां उस पूय और रुधिर का स्रवण कर रहीं हैं। ऐसी स्थिति में उस के शरीर का निर्माण किस तत्त्व से हो सकेगा? यह प्रश्न उपस्थित होता है, जिस का उत्तर सूत्रकार ने यह दिया है कि नाड़ियों से परिस्रवित पूय और रुधिर को वह (मृगापुत्र का जीव) ग्रहण कर लेता था, जो उस के शरीर-निर्माण का कारण बनता था। रहस्यं तु केवलि-गम्यम्। मृगापुत्र के जीव का यह कितना निकृष्ट एवं घृणास्पद वृत्तान्त है, यह कहते नहीं बनता। कर्मों का प्रकोप ऐसा ही भीषण एवं हृदय कम्पा देने वाला होता है। अतः सुखाभिलाषी पाठकों को पाप कर्मों से सदा दूर ही रहना चाहिए। 1. भस्मक रोग वात, पित्त के प्रकोप से उत्पन्न होने वाली एक भयंकर व्याधि है। इस में खाया हुआ अन्नादि पदार्थ शीघ्रातिशीघ्र भस्म हो जाता है-नष्ट हो जाता है। शार्ङ्गधर संहिता [अध्याय 7] में इस का लक्षण इस प्रकार दिया गया है: ___ अतिप्रवृद्धः पवनान्वितोऽग्नि :, क्षणाद्रसं शोषयति प्रसह्य। युक्तं क्षणाद् भस्म करोति यस्मात्तस्मादयं भस्मक-संज्ञकस्तु॥ अर्थात्- जिस रोग में बढ़ी हुई वायु युक्त अग्नि रसों को क्षणभर में सुखा देती है, तथा खाए हुए भोजन को शीघ्रातिशीघ्र भस्म कर देती है उसे भस्मक कहते हैं। 194 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य है। वृत्तिकार ने भी यही भाव अभिव्यक्त किया है ___ शरीरस्याभ्यन्तर एव रुधिरादि स्रवन्ति यास्तास्तथोच्यन्ते, शरीराद्वहिः पूयादि क्षरन्ति यास्तास्तथोक्ताः। एता एव षोडश विभज्यन्ते कथममित्याह-द्वे पूयप्रवाहे द्वे च शोणितप्रवाहे।तेच क्वेत्याह-श्रोत्ररन्ध्रयोः, एवमेताश्चतस्त्रः, एवमन्या अपि व्याख्येयाः नवरं धमन्यः कोष्ठहड्डान्तराणि। अब सूत्रकार मृगापुत्र के जन्म सम्बन्धी वृतान्त का वर्णन करते हुए इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं __ मूल-तते णं सा मियादेवी अण्णया कयाती णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया जातिअंधं जाव आगितिमित्तं। ततेणंसा मियादेवी तं दारयं हुंडं अन्धारूवं पासति 2 त्ता भीया 4 अम्मधातिं सद्दावेति 2 त्ता एवं वयासी-गच्छह णं देवा! तुमं एयं दारगं एगन्ते उक्कुरुडियाए उज्झाहि।तते णं सा अम्मधाती मियाए देवीए तहत्ति एतमटुं पडिसुणेति २त्ता जेणेव विजए खत्तिए तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! मियादेवी नवण्हं जाव आगितिमित्तं, तते णं सा मियादेवी तं हुंडं अन्धं पासति 2 त्ता भीया ममं सदावेति 2 त्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवा! एयं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झाहि, तं सन्दिसह णं सामी ! तं दारगं अहं एगते उज्झामि उदाहु मा ? ____ छाया-ततः सा मृगादेवी अन्यदा कदाचित् नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रजाता, जात्यन्धं यावत् आकृतिमात्रम् / ततः सा मृगादेवी तं दारकं हुण्डमन्धकरूपं पश्यति दृष्ट्वा भीता 4 अम्बाधात्रीं शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ त्वं देवानप्रिये! एतं दारकं एकान्ते अशुचिराशौ उज्झ / ततः सा अम्बाधात्री मृगायाः देव्याः 'तथेति', एतमर्थं प्रतिशृणोति प्रतिश्रुत्य यत्रैव विजयः क्षत्रियः तत्रैवोपागच्छति उपागत्य करतलपरिगृहीतं यावदेवमवदत्-एवं खलु स्वामिन् ! मृगादेवी नवसु यावदाकृतिमात्रम्, 1. "-करयल-" इत्यत्र "करयलपरिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थए कट्ट" इत्यादि दृश्यमिति वृत्तिकारः। 2. भीता भययुक्ता भयजनक-विकृताकारदर्शनात्, इत्यत्र त्रस्ता, उद्विग्ना, संजातभया इत्येतानि पदान्यपि द्रष्टव्यानि। त्रस्ता-त्रासमुपगता, अयमस्माकं कीदृशमशुभं विधास्यतीति चिन्तनात् / उद्विग्ना-व्याकुला, कम्पमानहृदयेति यावत् / संजातभया-भयजनितकम्पेन प्रचलितगात्रेति भावः।। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [195 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततः सा मृगादेवी तं हुण्डमन्धं पश्यति दृष्ट्वा भीता 4 मां शब्दयति शब्दयित्वा एवमवदत्गच्छ त्वं देवानुप्रिये ! एतं दारकं एकान्ते अशुचिराशौ उज्झ? तत् सन्दिशत स्वामिन् ! तं दारकं अहमेकान्ते उज्झामि उताहो मा ? पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / अण्णया कयाती-अन्य किसी समय। सा मियादेवी-उस मृगादेवी ने। नवण्हं मासाणं-नव मास। पडिपुण्णाणं-परिपूर्ण होने पर। दारगं-बालक को। पयाया-जन्म दिया जोकि- / जातिअंधं-जन्म से अन्धा। जाव-यावत्। आगितिमित्तं-आकृति मात्र था। तते णं-तदनन्तर / सा मियादेवी-वह मृगादेवी। तं-उस। हुंडं-अव्यवस्थित अंगों वाले। जातिअंध-जन्म से अंधे। दारयंबालक को। पासति-देखती है। २त्ता-देखकर। भीया ४-भय को प्राप्त हुई, त्रास को प्राप्त हुई, उद्विग्नता एवं व्याकुलता को प्राप्त हुई, और भयातिरेक से उस का शरीर काम्पने लग पड़ा। अम्मधाति-धाय माता को। सद्दावेति-बुलाती है। रत्ता-बुलाकर। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगी। देवा-!-हे देवानुप्रिये!तुम-तुम। गच्छह णं-जाओ। एयं दारगं-इस बालक को। एगंते-एकान्त में। उक्कुरुडियाए-कूड़ाकचरा डालने की जगह पर। उज्झाहि-फैंक दो। तते णं-तदनन्तर। सा-वह / अम्मधाती-धाय माता। मियाए देवीए-मृगादेवी के। एतमटुं-इस अर्थ-प्रयोजन को। तहत्ति-तथास्तु-बहुत अच्छा, इस प्रकार कह कर। पडिसुणेति-स्वीकार करती है। रत्ता-स्वीकार करके। जेणेव-जहां पर। विजए खत्तिएविजय क्षत्रिय था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छति २त्ता-आती है, आकर। करयलपरिग्गहियं-दोनों हाथ जोड़ कर। एवं वयासी-इस प्रकार बोली। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सामी !-हे स्वामिन् ! मियादेवी-मृगादेवी ने। नवण्हं-नौ मास पूरे होने पर जन्मान्ध / जाव-यावत् / आगितिमित्तं-आकृति मात्र बालक को जन्म दिया है। तते णं-तदनन्तर। सा मियादेवी-वह मृगादेवी। तं-उस। हुंडं-विकृतांग-भद्दी आकृति वाले। अंध-अन्धे बालक को। पासति 2 त्ता-देखती है, देखकर / भीया-भयभीत हुई। ममं-मेरे को। सद्दावेति 2 त्ता-बुलाती है बुलाकर। एवं वयासी-वह इस प्रकार कहने लगी। देवा.! -हे देवानुप्रिये ! तुम-तुम। गच्छह णं-जाओ। एयं दारगं-इस बालक को। एगते- एकान्त में ले जाकर। उक्कुरुडियाए-कूड़े कचरे के ढेर पर। उज्झाहि-फैंक दो। तं-इसलिए / सामी!-हे स्वामिन् ! संदिसह णं-आप आज्ञा दें कि क्या। अहं-मैं। तं दारगं-उस बालक को। एगंते-एकान्त में। उज्झामि-छोड़ दूंफैंक दूं। उदाहु-अथवा। मा-नहीं। मूलार्थ-तत्पश्चात् लगभग नौ मास पूर्ण होने पर मृगादेवी ने एक जन्मान्ध यावत् अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया। तदनन्तर हुंडविकृतांग तथा अन्ध रूप उस बालक को देख कर भय-भीत, त्रस्त, उद्विग्न-व्याकुल तथा भय से कांपती हुई मृगादेवी ने धायमाता को बुलाकर इस प्रकार कहा कि हे देवानुप्रिये ! तुम जाओ, इस बालक को ले जाकर एकांत में किसी कूड़े कचरे के ढेर पर फैंक आओ। तदनन्तर वह धायमाता मृगादेवी के इस कथन को तथास्तु-बहुत अच्छा, कह कर स्वीकृत करती हुई जहां पर विजय नरेश थे, वहां पर आई और हाथ जोड़ कर 196 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार कहने लगी कि हे स्वामिन् ! लगभग नौ मास के पूर्ण हो जाने पर मृगादेवी ने एक जन्मांध यावत् अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया है, उस हुंडरूप-भद्दी आकृति वाले जन्मान्ध बालक को देख कर वह भयभीत हुई और उसने मुझे बुलाकर कहा कि हे देवानुप्रिये ! तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकान्त में किसी कूड़े कचरे के ढेर पर फैंक आओ। अतः हे स्वामिन् ! आप बताएं कि मैं उसे एकान्त में ले जा कर फैंक आऊं या नहीं? टीका-कर्मरज के प्रकोप से जिस बच्चे के हाथ, पांव तथा आंख, कान प्रभृति कोई भी अंग प्रत्यंग सम्पूर्ण न हो, किन्तु इनकी केवल आकृति अर्थात् आकार मात्र ही हो ऐसे हुंडरूप-नितान्त भद्दे स्वरूप वाले, मात्र श्वास लेते हुए मांस-पिंड को देख कर, और जिसने गर्भस्थ होते ही मुझे पतिप्रेम से भी वञ्चित कर दिया था अब न जाने इस पापात्मा के कारण कौन-कौन सा मेरा अनिष्ट होगा इत्यादि विचारों से प्ररित होती हुई मृगादेवी का भयभीतभय संत्रस्त, व्याकुल तथा भय से कम्पित होना कुछ अस्वाभाविक नहीं है। तथा इस प्रकार के अदृष्टपूर्व, निन्दास्पद-जिसे देखकर छोटे-बड़े सभी को घृणा हो और जिस के कारण जन्म देने वाली को अपवाद हो-पुत्र को घर में रखने की अपेक्षा बाहर फैंक देना ही हितकर है, इस धारणा से धायमाता को बुलाकर उसे तत्काल के जन्मे हुए अंगप्रत्यंग-हीन केवल श्वास लेने वाले मांसपिंड-मांस के लोथड़े को बाहर ले जाकर फैंक देने को कहना भी मृगादेवी को कोई निंदास्पद प्रतीत नहीं हुआ, इसीलिए उसने धायमाता को ऐसा (पूर्वोक्त) आदेश दिया। धायमाता का मृगादेवी की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए विजय नरेश के पास जाकर सारी वस्तु-स्थिति को उसके सामने रखना और उसकी अनुमति मांगना तो उसकी बुद्धिमता और दीर्घदर्शिता का ही सूचक है। इसीलिए उसने बड़ी गंभीरता से सोचना आरम्भ किया कि मृगादेवी ने तत्काल के जन्मे हुए जिस बच्चे को बाहर फैंकने का आदेश दिया है, उसके स्वरूप को देखकर तो उसका बाहर फैंक देना ही उचित है, परन्तु जब तक महाराज की इसमें अनुमति न हो तब तक इस में प्रवृत्त होना मेरे लिए योग्य नहीं है। क्योंकि एक राजकुमार को [फिर भले ही वह किसी प्रकार का भी क्यों न हो] केवल उसकी माता के कह देने मात्र से बाहर फैंक देना पूरा-पूरा खतरा मोल लेना है। इसलिए जब तक इसके पिता विजय नरेश को इस घटना से अवगत न किया जाए और उनकी आज्ञा प्राप्त न की जाए तब तक इस बच्चे को फैंकना तो अलग रहा किन्तु फैंकने का संकल्प करना भी नितान्त मूर्खता है और विपत्ति को आमंत्रित करना है। इन्हीं विचारों से प्रेरित हो कर उस धायमाता ने विजय नरेश को बालक के जन्म-सम्बन्धी सारे वृत्तान्त को स्पष्ट शब्दों में कह सुनाया तथा अन्त में महाराणी मृगादेवी प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [197 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की उक्त आज्ञा का पालन किया जाए अथवा उस से इन्कार कर दिया जाए इसका यथोचित आदेश मांगा। इस सारे सन्दर्भ का तात्पर्य यह है कि राजा महाराजाओं के यहां जो धायमाताएं होती थीं वे कितनी व्यवहार कुशल और नीति-निपुण हुआ करती थीं तथा अपने उत्तरदायित्व कोअपनी जिम्मेदारी को किस हद तक समझा करती थीं यह महाराणी मृगादेवी की धायमाता के व्यवहार से अच्छी तरह व्यक्त हो जाता है। "जातिअंधं जाव आगितिमित्तं" यहां पठित "जाव-यावत्" पद से "जाइअंधे" से आगे "-जाइमूए-" इत्यादि सभी पदों के ग्रहण की ओर संकेत किया गया है। तथा "हुंड" शब्द का वृत्तिकार सम्मत अर्थ है जिस के अंग प्रत्यंग सुव्यवस्थित न हों अर्थात् जिस के शरीरगत अंगोपांग नितान्त विकृत - भद्दे हों उसे हुंड कहते हैं। 'हुंड' त्ति अव्यवस्थितांगावयवम्। तथा मूलगत "भीया" पद के आगे जो 4 का अंक दिया है उसका तात्पर्य -"भीया, तत्था, उव्विग्गा, संजायभया-भीता, त्रस्ता, उद्विग्ना, संजात-भया" इन चारों पदों की संकलना से है। वृत्तिकार अभयदेव सूरि के मत में ये चारों ही पद भय की प्रकर्षता के बोधक अथच समानार्थक हैं। 'भीया, तत्था, उव्विग्गा, संजायभया' भयप्रकर्षाभिधानायैकार्थाः शब्दाः। तथा "उक्कुरुडिया" यह देशीय प्राकृत का पद है, इस का अर्थ होता है अशुचिराशि, अर्थात् कूड़े कचरे का ढेर या कूड़ा करकट फैंकने का स्थान। धायमाता से प्राप्त हुए पुत्र-जन्म-सम्बन्धी सम्पूर्ण वृत्तान्त को सुनकर नरेश ने क्या किया अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं मूल-तते णं से विजए तीसे अम्म० अंतिते सोच्चा तहेव संभंते उट्ठाते उठेति उठेत्ता जेणेव मियादेवी तेणेव उवागच्छति 2 त्ता मियं देविं एवं वयासीदेवाणुः! तुझं पढम-गब्भे, तं जइ णं तुम एयं एगते उक्कुरुडियाए उज्झसि तो णं तुज्झ पया नो थिरा भविस्संति, तेणं तुमं एवं दारगं रहस्सियंसि भूमीघरंसि रहस्सितेणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी 2 विहराहि, तो णं तुज्झ पया थिरा भविस्संति। तते णं सा मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स तहत्ति एयमटुं विणएणं पडिसुणेति 2 त्ता तं दारगं रह भूमिघर भत्त पडिजागरमाणी विहरति। एवं खलु गोयमा! मियापुत्ते दारए 'पुरा पोराणाणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरति। 1. "पुरा पोराणाणं" त्ति पुरा पूर्वकाले "कृतानाम्' इति गम्यम् अत एव "पुराणानां" चिरन्तनानाम्। 198] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय * [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-ततः स विजयस्तस्या अम्बा० अन्तिकात् श्रुत्वा तथैव सम्भ्रान्त उत्थायोत्तिष्ठति उत्थाय यत्रैव मृगादेवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य मृगां देवीं एवमवदत् देवानु ! तव प्रथमगर्भः, तद् यदि त्वमेतमेकान्तेऽशुचिराशावुज्झसि, ततस्तव प्रजा नो स्थिरा भविष्यन्ति / तेन त्वं एतं दारकं राहस्यिके भूमिगृहे राहसिकेन भक्तपानेन प्रतिजाग्रती 2 विहर ततस्तव प्रजाः स्थिराः भविष्यन्ति। ततः सा मृगादेवी विजयस्य क्षत्रियस्य "तथेति" एतमर्थं विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य तं दारकं राहस्यिके भूमिगृहे राहसिकेन भक्तपानेन प्रतिजाग्रती विहरति / एवं खलु गौतम! मृगापुत्रो दारकः पुरा पुराणानां यावत् प्रत्यनुभवन् विहरति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से विजए-वह विजय नरेश। तीसे-उस। अम्म०-धाय माता के। अंतिते-पास से यह / सोच्चा-सुन कर। तहेव-तथैव अर्थात् जिस रूप में बैठा था उसी रूप में। संभंतेसम्भ्रान्त-व्याकुल हुआ। उट्ठाते-उठकर। उट्टेति-खड़ा होता है। उढेत्ता-खड़ा हो कर। जेणेव-जहां। मियादेवी-मृगादवी थी। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छति-आता है। 2 त्ता-आकर। मियं देविं-मृगादेवी को। एवं वयासी-इस प्रकार कहता है। देवाणु०!-हे देवानुप्रिये ! तुझं-तुम्हारा यह। पढमगब्भे-प्रथम गर्भ है। तं जइ णं तुम-इसलिए यदि तुम। एयं-इस को। एगंते-एकान्त। उक्कुरुडियाए-कूड़े कचरे के ढेर पर। उज्झसि-फैंक दोगी। तो णं-तो। तुझ पया-तेरी प्रजा-सन्तति / नो थिरा भविस्संति-स्थिर नहीं रहेगी। तेणं-अतः। तुम-तुम।एयंदारगं-इस बालक को।रहस्सियंसि-गुप्त। भूमिघरंसि-भूमि गृह में। रहस्सितेणं-गुप्त। भत्तपाणेणं-भात, पान-आहारादि से। पडिजागरमाणी-सेवा-पालन-पोषण करती हुई। विहराहि-विहरण करो, समय व्यतीत करो। तो णं-तब। तुझ पया-तुम्हारी प्रजा-सन्तान / थिरास्थिर-चिर स्थायी। भविस्संति-रहेंगी। तते णं-तदनन्तर। सा मियादेवी-वह मृगादेवी। विजयस्सविजय। खत्तियस्स-क्षत्रिय के। एयमटुं-इस कथन को। तहत्ति-स्वीकृति सूचक "तथेति" (बहुत अच्छा) यह कहती हुई। विणएणं-विनय पूर्वक। पडिसुणेति-स्वीकार करती है। 2 त्ता-स्वीकार करके। तं दारगं-उस बालक को। रह-गुप्त। भूमिघर-भूमि गृह में। भत्त-आहारादि के द्वारा। पडिजागरमाणी-पालन पोषण करती हुई। विहरति-समय व्यतीत करने लगी। गोयमा !-हे गौतम ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। मियापुत्ते-मृगापुत्र नामक। दारए-बालक। पुरा-प्राचीन। पुराणाणं-पूर्व काल में किए हुए कर्मों का। जाव-यावत्। पच्चणुभवमाणे-प्रत्यक्ष रूप से फलानुभव करता हुआ। विहरति-समय बिता रहा है। मूलार्थ-तदनन्तर उस धायमाता से यह सारा वृत्तान्त सुनकर संभ्रांत-व्याकुल से हो विजय नरेश जैसे बैठे थे वैसे ही उठ कर खड़े हो गए और जहां पर मृगादेवी थी वहां इह च यावत्करणात्-"दुच्चिन्नाणं दुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं"इति द्रष्टव्यमिति भावः। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [199 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर आए आकर उस से इस प्रकार बोले कि हे भद्रे ! ये तुम्हारा प्रथम गर्भ है, यदि तुम इसको किसी एकान्त स्थान में अर्थात् कूड़े कचरे के ढेर पर फिंकवा दोगी तो तुम्हारी प्रजा-सन्तान स्थिर नहीं रहेंगी, अत: फैंकने की अपेक्षा तुम इस बालक को गुप्त भूमिगृह (भौंरा ) में रखकर गुप्त रूप से भक्तपानादि के द्वारा इस का पालन पोषण करो। ऐसा करने से तुम्हारी भावी प्रजा-आगामी सन्तति स्थिर-चिरस्थायी रहेगी।तत्पश्चात् मृगादेवी ने विजय नरेश के इस कथन को विनय पूर्वक स्वीकार किया, और वह उस बालक को गुप्त भूमिगृह में स्थापित कर गुप्त रूप से आहार-खान, पान आदि के द्वारा उस का संरक्षण करने लगी। भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार मृगापुत्र स्वकृत पूर्व के पाप कर्मों का प्रत्यक्ष फल भोगता हुआ समय बिता रहा है। ____टीका-धायमाता के द्वारा सर्वांगविकल जन्मान्ध पुत्र का जन्म तथा उसे बाहर फिंकवा देने सम्बन्धी मृगादेवी का अनुरोध आदि सम्पूर्ण खेदजनक वृत्तान्त को सुनकर विजय नरेश किंकर्तव्य विमूढ़ से हो गए, हैरान से रह गए, उन का मन व्याकुल हो उठा। उन्होंने धायमाता को कुछ भी उत्तर न देते हुए उसी समय सीधा मृगादेवी की ओर प्रस्थान किया। मृगादेवी के पास आकर उसे आश्वासन देते हुए बोले कि प्रिये ! तुम्हारा यह प्रथम गर्भ है। मेरे विचार में इसे बाहर फैंकना तुम्हारे लिए हितकर न होगा। यदि तुम इसे बाहर फिंकवाने का साहस करोगी तो तुम्हारी भावी-प्रजा-आगामी सन्तति को हानि पहुंचेगी, वह चिरस्थायी नहीं होगी। अतः तुम इस बच्चे को किसी गुप्त भूमीगृह में रखकर गुप्तरूप से इसके पालन पोषण का यत्न करो ताकि इस पुण्यकर्म से तुम्हारी भावी प्रजा को चिरस्थायी होने का अवसर प्राप्त हो, मेरी दृष्टि में यह उपाय ही हितकर है। महाराज की इस सम्मति को आज्ञारूप समझकर महाराणी मृगादेवी ने बड़े नम्रभाव से स्वीकार किया और उनके कथनानुसार मृगापुत्र का यथाविधि पालन पोषण करने में प्रवृत्त हो गई। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम अनगार से कहा कि हे गौतम ! तुम्हारे पूर्वोक्त प्रश्न "- भगवन् ! यह मृगापुत्र पूर्वजन्म में कौन था ?-" इत्यादि का यह उत्तर है। इस से यह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि पुराकृत पापकर्मों के कारण ही कटुफल का प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता हुआ यह मृगापुत्र अपने जीवन को बिता रहा है। इस कथा सन्दर्भ में विजय नरेश की धार्मिकता और दयालुता की जितनी सराहना की जाए उतनी ही कम है। "जीवन देने से ही जीवन मिलता है" इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार मृगापुत्र को जीवन दान देने का फल यह हुआ कि उसके बाद मृगादेवी ने अन्य चार पुत्रों को जन्म दिया और वे सर्वांगसम्पूर्ण रूपसौन्दर्य युक्त और विनीत एवं दीघार्यु हुए। 200] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस जीव ने पूर्व भव में जितना आयुष्य बान्धा है उतने का उपभोग करने में उसे कर्मवाद के नियमानुसार पूरी स्वतन्त्रता है। उस में किसी को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। अथवा यूं कहिए कि कर्मवाद के न्यायालय में आयुकर्म की ओर से इस प्राणी को [फिर वह मनुष्य अथवा पशु या पक्षी आदि कोई भी क्यों न हो] जितना जीवन मिला है उस के व्याघात का उद्योग करना मानो न्यायोचित आज्ञा का विरोध करना है, जिसके लिए कर्मवाद की ओर से यथोचित दण्ड का विधान है। इसी न्यायोचित सिद्धान्त की भित्ति पर अहिंसावाद के भव्य प्रासाद का निर्माण किया गया है। जिसके अनुसार किसी के जीवन का अपहरण करना मानों आत्म अपहरण करना ही है। क्योंकि जीवन का इच्छुक पर-जीवन का घातक कभी नहीं हो सकता। जैन परिभाषा के अनुसार भावमूलक द्रव्यहिंसा ही कर्मबन्धन का हेतु हो सकती है, इसलिए हिंसा के भाव से हिंसा करने वाला मानव-प्राणी पर की हिंसा करने से पूर्व अपने आत्मा का अवहनन करता है ऐसे ही प्राणी शास्त्रीय दृष्टि से आत्मघाती माने जाते विजय नरेश के अन्दर धर्म की अभिरुचि थी। महापुरुषों के सहवास में उसके विवेक चक्षु कुछ उघड़े हुए थे। अहिंसा-तत्त्व को उस ने खूब समझा हुआ था। इसी के फलस्वरूप उसने महाराणी मृगादेवी को तत्काल के जन्मे हुए उक्त बालक को बाहर फैंकने के स्थान पर उसके संरक्षण की सम्मति दी। जिस से उस के पापभीरू आत्मा को सन्तोष होने के अतिरिक्त मृगादेवी की आत्मा को भी भारी शान्त्वना मिली। ___पाठक अभी यह भूले नहीं होंगे कि भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण में उपस्थित होने वाले एक जन्मान्ध व्यक्ति को देख कर गौतम स्वामी ने भगवान से "-प्रभो ! क्या कोई ऐसा पुरुष भी है जो जन्मान्ध (नेत्र का आकार होने पर भी नेत्रज्योति से हीन) होने के साथसाथ जन्मान्धकरूप (नेत्राकार से रहित) भी हो?" यह पृच्छा की थी। जिस के उत्तर में भगवान् ने विजय नरेश के ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र का नाम बताया था। उसे देखने के पश्चात् गौतम स्वामी ने भगवान् से मृगापुत्र के पूर्व जन्म का वृत्तान्त पूछा था। जिसको भगवान् ने सुनाना आरम्भ किया था। एकादि राष्ट्रकूट के रूप में मृगापुत्र के पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुना देने पर भगवान् ने कहा कि-हे गौतम ! यह तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। इससे तुम्हें अवगत हो गया होगा कि मृगापुत्र अपने ही पूर्वकृत प्राचीन कर्मों का यह अशुभ फल पा रहा है। इसी भाव को सूत्रकार ने "-एवं खलु गोयमा ! मियापुत्तं" इत्यादि शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया है। वीर प्रभु से मृगापुत्र के पूर्वभव सम्बन्धी वृत्तान्त को सुनकर परम सन्तोष को प्राप्त हुए गौतम स्वामी ने उसके-मृगापुत्र के आगामी भव के सम्बन्ध में भी जानकारी प्राप्त करने की प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [201 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा से जो कुछ भगवान् से निवेदन किया अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं मूल-मियापुत्ते णं भंते ! दारए इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? ___ छाया-मृगापुत्रो भदन्त ! दारकः इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति? कुत्रोपपत्स्यते? . पदार्थ-भंते! हे भगवन् ! मियापुत्ते-मृगापुत्र नामक। दारए-बालक। णं-वाक्यालंकारार्थक है। इओ-यहां से। कालमासे-कालमास मरणावसर में। कालं किच्चा-काल करके। कहिं-कहां। गमिहिति-जाएगा? और / कहिं-कहां पर। उववजिहिति-उत्पन्न होगा? मूलार्थ-हे भगवन् ! मृगापुत्र नामक बालक मृत्यु का समय आने पर यहां से काल कर के कहां जाएगा और कहां पर उत्पन्न होगा? ___टीका-पहली नरक से निकल कर इस नारकीय अवस्था में पड़े हुए मृगापुत्र के आगामी जन्म के सम्बन्ध में गौतम स्वामी की ओर से वीर प्रभु के चरणों में जो प्रश्न किया गया है वह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। इस प्रकार की दुरवस्था का अनुभव करने वाले जीवों की आगामी जन्मों में क्या दशा होती है, इस विषय का ज्ञान प्राप्त करना मुमुक्षु पुरुष के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना कि वर्तमान से अतीत अवस्था का। तात्पर्य यह है कि जीवों की वर्तमान ऊंच-नीच दशा से उनके पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मों का सामान्य रूप से ज्ञान होने पर भी विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा रहती है, किसी प्रकार उसकी पूर्ति हो जाने पर भविष्य की जिज्ञासा तो और भी उत्कट हो जाती है। अर्थात् यदि किसी एक व्यक्ति के पूर्व जन्म का यथावत् वृत्तान्त किसी अतिशय ज्ञानी से प्राप्त हो जाए तो उस व्यक्ति के भविष्य के विषय में अपने आप जिज्ञासा उठती है। जिसकी पूर्ति के लिए अन्त:करण लालायित बना रहता है। सद्भाग्य से उस की पूर्ति हो जाने पर विकास-गामी आत्मा को अपने गन्तव्य मार्ग को परिष्कृत करने-सुधारने का साधु अवसर मिल जाता है। इसी उद्देश्य को लेकर वीर भगवान् से गौतम स्वामी ने मृगापुत्र के आगामी भवों के सम्बन्ध में पूछने का स्तुत्य प्रयत्न किया है। गौतम स्वामी के प्रश्न को सुनकर उसके उत्तर में वीर प्रभु ने जो कुछ फरमाया अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं मूल-गोतमा ! मियापुत्ते दारए छव्वीसं वासातिं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले 202 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीहकुलंसि सीहत्ताए पच्चायाहिति।से णं तत्थ सीहे भविस्सति अहम्मिए जाव साहसिते, सुबहुं पावं कम्मं समजिणति 2 त्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोससागरोवमट्टिइएसु जाव उववजिहिति। से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववजिहिति। तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसियाए तिन्निसागरोवमट्ठिईए उववजिहिति।से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता पक्खीसु उववजिहिति। तत्थ वि कालं किच्चा तच्चाए पुढवीए सत्तसागरो / ततो सीहेसु।तयाणंतरं चउत्थीए। उरगो।पंचमीए। इत्थी।छट्ठीए। मणुओ। अहेसत्तमाए। ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता से जाइं इमाइं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छ-कच्छभ-गाह-मगर-सुंसुमारादीणं अद्धतेरसजातिकुलकोडीजोणिपमुहसतसहस्साइं तत्थ णं एगमेगंसि जोणीविहाणंसि अणेगसयसहस्सक्खुत्तो उद्दाइत्ता 2 तत्थेव भुजो 2 पच्चायाइस्सति।से णं ततो उव्वट्टित्ता चउप्पएसु एवं उरपरिसप्पेसु, भुयपरिसप्पेसु,खहयरेसु, चउरिदिएसु तेइंदिएसु, बेइंदिएसु, वणप्फइकडुयरुक्खेसु, कडुयदुद्धिएसु, वाङ, तेङ, आङ, पुढवि अणेगसतसहस्सक्खुत्तो।सेणं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता सुपतिट्ठपुरे नगरे गोणत्ताए पच्चायाहिति। से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे अण्णया कयाती पढमपाउसंसि गंगाए महाणदीए खलीणमट्टियं स्त्रणमाणे तडीए पेल्लिते समाणे कालगते तत्थेव सुपइट्ठपुरे नगरे सिट्ठिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चाया-इस्सति।सेणं तत्थ उम्मुक्क० जाव जोव्वणमणुप्पत्ते तहा-रूवाणं थेराणं अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सति। से णं तत्थ अणगारे भविस्सति इरियासमिते जाव बंभयारी।सेणं तत्थ बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववज्जिहिति। से णं ततो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे जाई कुलाइं भवंति अड्ढाइं॰ जहा दढपतिण्णे, सा चेव वत्तव्वया कलाउ जाव सिज्झिहिति। एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, त्ति बेमि। 1. 'सागरो जाव' त्ति सागरोवमट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए इति द्रष्टव्यमिति वृत्तिकारः। श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय प्रथम श्रुतस्कंध ] [203 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥पढमं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-गौतम ! मृगापुत्रो दारकः षड्विंशतिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे वैताढ्यगिरिपादमूले सिंहकुले सिंहतया प्रत्यायास्यति / स तत्र सिंहो भविष्यति अधार्मिको यावत् साहसिकः, सुबहु पापं कर्म यावत् समर्जयिष्यति। स तत्र कालमासे कालं कृत्वा, अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां उत्कृष्टसागरोपमस्थितिकेषु यावदुपपत्स्यते। स ततोऽनन्तरमुवृत्य सरीसृपेषूपपत्स्यते / तत्र कालं कृत्वा द्वितीयायां पृथिव्यां उत्कृष्टतया त्रिसागरोपमस्थितिरुपपत्स्यते / स ततोऽनन्तरमुढत्य पक्षिषूपपत्स्यते / तत्रापि कालं कृत्वा तृतीयायां पृथिव्यां सप्तसागरो / ततः सिंहेषु। तदनन्तरं चतुर्थ्याम्। उरगः। पञ्चम्याम्। स्त्री। षष्ठ्याम् / मनुजः। अधः सप्तम्याम् / ततोऽनन्तर मुद्वृत्य स यानीमानि जलचरपंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मत्स्य-कच्छप-ग्राह-मकर-सुंसुमारादीनां अर्द्ध त्रयोदश-जाति 'कुलकोटीयोनि-प्रमुखशतसहस्राणि तत्र एकै कस्मिन् योनिविधानेऽनेकशतसहस्रकृत्वो मृत्वा 2 तत्रैव भूयो भूयः प्रत्यायास्यति, स तत उद्धृत्य चतुष्पदेषु एवं उर:परिसपेषु भुजपरिसपेषु, खचरेषु, चतुरिन्द्रियेषु त्रीन्द्रियेषु, द्वीन्द्रियेषु, वनस्पतिकटुकवृक्षेषु, कटुकदुग्धेषु, वायुषु, तेजस्सु, अप्सु, पृथिवीषु, अनेकशत 1. लोक-प्रकाश नामक ग्रन्थ में कुलकोटि की परिभाषा निम्न प्रकार से की हैकुलानि योनि-प्रभवान्याहुस्तानि बहून्यपि। भवन्ति योनावेकस्यां नानाजातीयदेहिनाम्॥६६॥ कृमिवृश्चिककीटादि-नानाक्षुद्रांगिनां यथा। एक-गोमयपिण्डान्तः कुलानि स्युरनेकशः॥६७॥ योनि की परिभाषा इस प्रकार की हैतैजसकार्मणवन्तो युज्यन्ते यत्र जन्तवः स्कन्धैः। औदारिकादियोग्यैः स्थानं तद्योनिरित्याहुः॥४३॥ व्यक्तितोऽसंख्येयभेदास्ताः संख्याहर्हाः नैव यद्यपि। तथापि समवर्णादिजातिभिर्गणनां गताः॥४४॥ (लोकप्रकाश सर्ग 3, द्रव्यलोक) अर्थात्-१-जो योनि में जीव समूह पैदा होते हैं वे कुल कहलाते हैं। एक योनि में भी नानाजातीय प्राणियों के वे कुल अनेक संख्यक होते हैं। २-जिस प्रकार एक गोमय पिण्ड से कृमि, वृश्चिक, कीट आदि नाना प्रकार के क्षुद्र प्राणियों के अनेक कुल होते हैं उसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिए। ३-तैजस और कार्मण शरीर वाले प्राणी जहां औदारिक आदि शरीर के योग्य पुद्गल स्कन्धों से युक्त हों, वह स्थान योनि कहलाता है। ४-ये योनियां व्यक्ति- भेद से असंख्यात भेद वाली मानी जाती हैं अतः इन की संख्या यद्यपि नियत नहीं है, तथापि समान वर्ण, गन्ध, रस आदि की अपेक्षा एक जातीयता की दृष्टि से इन की गणना की गई है। 204 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्रकृत्व: / स ततोऽनन्तरमुवृत्य, सुप्रतिष्ठपुरे नगरे गोतया प्रत्यायास्यति, स तत्रोन्मुक्त-बालभावोऽन्यदा कदाचित् प्रथमप्रावृषि गंगाया महानद्याः खलीन-मृत्तिकां खनन् तट्यां (पतितायाम्) पीड़ितः सन् कालगतः, तत्रैव सुप्रतिष्ठपुरे नगरे श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति / स तत्र उन्मुक्त यावयौवनमनुप्राप्तः, तथारूपाणां स्थविराणामंतिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य मुण्डो भूत्वा अगारादनगारतां प्रव्रजिष्यति / स तत्र अनगारो भविष्यति, ईर्यासमितो यावद् ब्रह्मचारी।स तत्र बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे देवतयोपपत्स्यते। स ततोऽनन्तरं शरीरं त्यक्त्वा महाविदेहे वर्षे यानि कुलानि भवन्ति आढ्यानि यथा दृढ़प्रतिज्ञः, सैव वक्तव्यता, कला यावत् सेत्स्यति / एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सम्प्राप्तेन दुःख-विपाकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः। इति ब्रवीमि। प्रथमाध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-गोतमा !-हे गौतम ! मियापुत्ते-मृगापुत्र / दारए-बालक। छव्वीसं-२६ / वासातिंवर्ष की। परमाउयं-उत्कृष्ट आयु। पालइत्ता-पाल कर-भोग कर। कालमासे-मृत्यु का समय आने पर। कालं किच्चा-काल करके। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे-दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारत वर्ष में। वेयड्ढगिरि-पायमूले-वैताढ्य पर्वत की तलहटी में। सीहकुलंसि-सिंह कुल में। सीहत्ताए-सिंह रूप से। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ-वहां पर।सेणं-वह / सीहे-सिंह / अहम्मिएअधर्मी / जाव-यावत्। साहसिते-साहसी। भविस्सति-होगा। सुबहु-अनेकविध। पावं-पापरूप। कम्मकर्म / समज्जिणति 2 त्ता -एकत्रित करेगा, करके। से-वह सिंह / कालमासे-मृत्यु-समय आ जाने पर। कालं किच्चा-काल कर के। इमीसे-इस। रयणप्पभाए-रत्न-प्रभा नामक। पुढवीए-पृथिवी में -नरक में। उक्कोससागरोवमट्ठिइएसु-उत्कृष्ट सागरोपम स्थिति वाले नारकों में अर्थात् जिन की उत्कृष्ट स्थिति सागरोपमं की है, उन नारकियों में। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। ततो णं-तदनन्तर। से-वह सिंह का जीव। अणंतरं-अन्तर रहित, बिना व्यवधान के। उव्वट्टित्ता-निकल कर अर्थात् पहली नरक से निकल कर सीधा ही। 'सरीसवेसु-भुजाओं अथवा छाती के बल से चलने वाले तिर्यञ्च प्राणियों की योनियों में। उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ णं-वहां पर। कालं किच्चा-काल करके। दोच्चाए पुढवीएदूसरी नरक में। उववजिहिति-उत्पन्न होगा, वहां उसकी। उक्कोसियाए-उत्कृष्ट / तिन्निसागरोवमट्टिई 1. प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में लिखा है-स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के दो भेद हैं, जैसे किचतुष्पद और परिसर्प / परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के-भुजपरिसर्प और उर:परिसर्प ऐसे दो भेद होते हैं। भुजपरिसर्प शब्द से भुजाओं से चलने वाले नकुल, मूषकादि जीवों का ग्रहण होता है। और उर:परिसर्प शब्द छाती से चलने वाले सांप, अजगर आदि जन्तुओं का परिचायक है। परिसर्प का ही पर्यायवाची सरीसृप शब्द है प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [205 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन सागरोपम की स्थिति होगी। ततो णं-वहां से। उव्वट्टित्ता-निकलकर। अणंतरं-व्यवधान रहितसीधा ही। पक्खीसु-पक्षियों में। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ वि-वहां पर भी। कालं किंच्चाकाल करके। सत्तसागरो०-सप्त सागरोपम स्थिति वाली। तच्चाए-तीसरी। पुढवीए-नरक में उत्पन्न होगा। ततो-वहां से। सीहेसु-सिंह-योनि में उत्पन्न होगा। तयाणंतरं-उसके अनन्तर। चउत्थीए-चतुर्थ नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर। उरगो-सर्प होगा, वहां से मर करके। पंचमीए-पांचवीं नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर। इत्थी-स्त्री-रूप में जन्म लेगा, वहां से काल करके। छट्टीए-छठे नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर। मणुओ- पुरुष बनेगा, वहां पर काल करके। अहे सत्तमाएसबसे नीची सातवीं नरक में उत्पन्न होगा। ततो-वहां से। उव्वट्टित्ता-निकल कर। अणंतरं-अन्तरव्यवधान रहित।से-वह / जाइंइमाइं-जो यह / जलयर-जलचर-जल में रहने वाले।पंचिंदिय-पञ्चेन्द्रियपांच इन्द्रियों वाले जीव जिन के आंख, कान, नाक, जिव्हा-रसना और स्पर्श ये पांच इन्द्रियां हैं, ऐसे। तिरिक्खजोणियाणं-तिर्यग् योनि वाले। मच्छ-मत्स्य। कच्छभ-कच्छप कछुआ। गाह-ग्राह-नाका। मगर-मगरमच्छ।सुंसुमारादीणं-सुंसुमार आदि की।अद्धतेरसजातिकुल-कोडी-जोणिपमुहसयसहस्साइंजाति-जलचरपंचेन्द्रिय की योनियां (उत्पत्तिस्थान) ही प्रमुख-उत्पत्तिस्थान हैं जिनके ऐसी जो कुलकोटियां (कुल-जीवसमूह, कोटि प्रकार) हैं उन की संख्या साढ़े बारह लाख है। तत्थ णं- उन में से। एगमेगंसि-एक एक। जोणीविहाणंसि-योनिविधान में-योनि भेद में! अणेगसयसहस्सक्खुत्तो-लाखों बार। उद्दाइत्तार-उत्पन्न हो कर। तत्थेव-वहीं पर। भुजो २-पुनः पुनः-बार बार। पच्चायाइस्सतिउत्पन्न होगा अर्थात जन्म-मरण करता रहेगा। ततो णं- वहां से। स-वह। उव्वद्वित्ता-निकल कर। चउप्पएसु-चतुष्पदों-चौपायों में। एवं-इसी प्रकार। उरपरिसप्पेसु-छाती के बल चलने वालों मे। भुयपरिसप्पेसु-भुजा के बल चलने वालों में तथा। खहयरेसु-आकाश में उड़ने वालों में। चउरिदिएसुचार इन्द्रिय वालों में। तेइंदिएसु-तीन इन्द्रिय वालों में। बेइन्दिएसु-दो इन्द्रिय वालों में। वणप्फइवनस्पति सम्बन्धी। कडुयरुक्खेसु-कटु-कड़वे वृक्षों में। कडुयदुद्धिएसु-कटु दुग्ध वाले अर्कादि वनस्पतियों में। वाउ०-वायु-काय में। तेउ-तेजस्काय में। आउ०-अप्काय मे। पुढवी-पृथ्वी काय में। अणेगसयसहक्खुत्तो-लाखों बार जन्म-मरण करेगा।ततोणं-वहां से। उव्वट्टित्ता-निकल कर।अणंतरंव्यवधान रहित। से-वह। सुपतिट्ठपुरे-सुप्रतिष्ठपुर नामक। णगरे-नगर में / गोणत्ताए-वृषभ के रूप में। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ णं-वहां पर। उम्मुक्कबालभावे-त्याग दिया है बालभाव, बाल्य अवस्था को जिसने अर्थात् युवावस्था को प्राप्त होने पर / से-वह / अण्णया कयाती-किसी अन्य समय। पढमपाउसंसि-प्रथम वर्षा ऋतु में अर्थात् वर्षर्तु के आरम्भ काल में। गंगाए-गंगा नामक / महाणदीए जिस का प्रस्तुत प्रकरण में वर्णन चल रहा है। यहां लिखा है कि सिंह के रूप में आया हुआ मृगापुत्र का जीव आयु पूर्ण करके सरीसृपों की योनि में उत्पन्न हुआ, परन्तु प्रज्ञापनासूत्र के मतानुसार सरीसृप शब्द से सर्पादि और नकुलादि दोनों का बोध होता है, यहाँ प्रकृत में दोनों में किस का ग्रहण किया जाए यह विचारणीय है। ___ अभिधान राजेन्द्र कोष में "- सरीसृपः गोधादिषु भुजोरुभ्यां सर्पणशीलेषु तिर्यक्षु-" (पृष्ठ 560) ऐसा लिखा है, जो सरीसृप और परिसर्प को पर्यायवाची होने की ओर संकेत करता है। 206 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानदी के। खलीणमट्टियं-किनारे पर स्थित मृत्तिका-मिट्टी का। खणमाणे-खनन करता हुआ,उखाड़ता हुआ। तड़ीए-किनारे के गिर जाने पर। पेल्लित्ते समाणे-पीड़ित होता हुआ। कालगते-मृत्यु को प्राप्त होगा। मृत्यु प्राप्त करने के अनन्तर / तत्थेव-उसी। सुपइट्ठपुरे-सुप्रतिष्ठ पुर नामक / णगरे-नगर में। सिट्टिकुलंसि-श्रेष्ठि के कुल में। पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से। पच्चायाइस्सति-उत्पन्न होगा। तत्थ णं-वहां पर। उम्मुक्कल-बाल भाव का परित्याग कर। जाव-यावत्। जोव्वणमणुप्पत्ते-युवावस्था को प्राप्त हुआ। से-वह। तहारूवाणं-तथारूप-साधु जनोचित गुणों को धारण करने वाले। थेराणं-स्थविर वृद्ध जैन साधुओं के। अंतिए-पास। धम्म-धर्म को। सोच्चा-सुनकर। निसम्म-मनन कर / मुंडे भवित्ता- मुंडित होकर / अगाराओ-अगार से। अणगारियं-अनगार धर्म को। पव्वइस्सति-ग्रहण करेगा। तत्थ-वहां पर। सेणं-वह / अणगारे-अनगार साधु। इरियासमिते-ईर्यासमिति से युक्त / जाव-यावत्। बंभयारी-ब्रह्मचारी। भविस्सति-होगा। से णं-वह। तत्थ-उस अनगार धर्म में। बहूइं वासाइं-बहुत वर्षों तक। सामण्णपरियागं-यथाविधि साधुवृत्ति का / पाउणित्ता-पालन करके।आलोइयपडिक्कंते-आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर। समाहिपत्ते-समाधि को प्राप्त होता हुआ। कालमासे-काल मास में। कालं किच्चा-काल करके। सोहम्मे कप्पे-सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में। देवत्ताए-देवरूप से। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। ततो णं-तत् पश्चात् / से-वह / अणंतरं-अन्तर रहित / चयं-शरीर को। चइत्ता-छोड़ कर-देवलोक से च्यवकर। महाविदेहे वासे-महाविदेह क्षेत्र में / जाइं-जो। अड्ढाइं-आढ्य-सम्पन्न। कुलाइं-कुल। भवंति-होते हैं, उन में उत्पन्न होगा। जहा-जैसे। दढपतिण्णे-दृढ़प्रतिज्ञ था। सा चेव-वही। वत्तव्वया-वक्तव्यताकथन। कलाओ-कलाएं सीखेगा। जाव-यावत्। सिज्झिहिति-सिद्ध पद को प्राप्त करेगा अर्थात् मुक्त हो जाएगा। एवं खलु जंबू !-जम्बू ! इस प्रकार निश्चय ही। जाव-यावत्। सम्पत्तेणं-मोक्ष सम्प्राप्त। समणेणं-श्रमण। भगवया-भगवान् / महावीरेणं-महावीर ने। दुहविवागाणं-दुःख विपाक के। पढमस्सप्रथम। अज्झयणस्स-अध्ययन का। अयमढे-यह पूर्वोक्त अर्थ। पण्णत्ते प्रतिपादन किया है। त्ति-इस प्रकार / बेमि-मैं कहता हूं। पढम-प्रथम। अज्झयणं-अध्ययन / समत्तं-समाप्त हुआ। मूलार्थ-गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा कि-हे गौतम्! . यह मृगापुत्र 26 वर्ष की पूर्ण आयु भोग कर काल-मास में काल करके इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष के वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सिंह रूप से सिंहकुल में जन्म लेगा, अर्थात् यह वहां सिंह बनेगा, जोकि महा अधर्मी और साहसी बन कर अधिक से अधिक पाप कर्मों का उपार्जन करेगा। फिर वह सिंह समय आने पर काल करके इस रत्नप्रभा नाम की पृथ्वी-पहली नरक में -जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, उस में उत्पन्न होगा, फिर वह वहां से निकल कर सीधा भुजाओं के बल से चलने वाले अथवा पेट के बल चलने वाले जीवों की योनि में उत्पन्न होगा। वहां से काल कर के दूसरी पृथ्वी-दूसरी नरक-जिसकी उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है-में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर सीधा पक्षियोनि में उत्पन्न होगा, वहां पर काल करके तीसरी नरक भूमि-जिसकी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की है, में उत्पन्न प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [207 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा। वहां से निकल कर सिंह की योनि में उत्पन्न होगा। वहां पर काल करके चौथी नरक-भूमि में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर सर्प बनेगा। वहां से पांचवीं नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर स्त्री बनेगा। वहां से काल करके छठी नरक में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर पुरुष बनेगा। वहां पर काल करके सब से नीची सातवीं नरक-भूमि में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर जो ये जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मकर और सुंसुमार आदि जलचर पञ्चेन्द्रिय जाति में योनियां-उत्पत्तिस्थान हैं, उन योनियों से उत्पन्न होने वाली कुल कोटियों (कुल-जीवसमूह, कोटि-भेद) की संख्या साढ़े बारह लाख है, उन के एक-एक योनि-भेद में लाखों बार जन्म और मरण करता हुआ इन्हीं में बार-बार उत्पन्न होगा अर्थात् आवागमन करेगा। तत् पश्चात् वहां से निकल कर चौपायों में, छाती के बल चलने वाले, भुजा के बल चलने वाले तथा आकाश में विचरने वाले जीवों में एवं चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और दो इन्द्रिय वाले प्राणियों तथा वनस्पतिगत कटु वृक्षों और कटु दुग्ध वाले वृक्षों में, वायु, तेज, जल और पृथिवी काय में लाखों बार उत्पन्न होगा। ___ तदनन्तर वहां से निकल कर वह सुप्रतिष्ठ पुर नाम के नगर में वृषभ-(बैल) रूप से उत्पन्न होगा। जब वह बाल भाव को त्याग कर युवावस्था में आएगा तब गंगा नाम की महानदी के किनारे की मृत्तिका को खोदता हुआ नदी के किनारे के गिर जाने पर पीड़ित होता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा, मृत्यु को प्राप्त होने के बाद वह वहीं सुप्रतिष्ठ पुर नामक नगर में किसी श्रेष्ठी के घर पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। वहां पर बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त करने के अनन्तर वह साधु-जनोचित सद्गुणों से युक्त किन्हीं ज्ञान वृद्ध जैन साधुओं के पास धर्म को सुनेगा, सुनकर मनन करेगा, तदनन्तर मुंडित होकर अगारवृत्ति को त्याग कर अनगार धर्म को प्राप्त करेगा। अर्थात् गृहस्थावास से निकल कर साधु-धर्म को अंगीकार करेगा। उस अनगार-धर्म में ईर्यासमितियुक्त यावत् ब्रह्मचारी होगा। वहां बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय-दीक्षाव्रत का पालन कर आलोचना और प्रतिक्रमण से आत्मशुद्धि करता हुआ समाधि को प्राप्त कर समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा। तदनन्तर देवभव की स्थिति पूरी हो जाने पर वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में, जो धनाढ्य कुल हैं उन में उत्पन्न होगा, वहां उसका कलाभ्यास, प्रव्रज्याग्रहण यावत् मोक्षगमन इत्यादि सब वृत्तांत दृढ़-प्रतिज्ञ की भांति जान लेना। सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि-हे जम्बू! इस प्रकार निश्चय ही श्रमण भगवान् 208] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ने जोकि मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं, दुःख-विपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। जिस प्रकार मैंने प्रभु से सुना है उसी प्रकार मैं तुम से कहता हूं। ॥प्रथम अध्ययन समाप्त॥ ____टीका-कर्म के वशीभूत होता हुआ यह जीव संसार चक्र में घटीयन्त्र की तरह निरन्तर भ्रमण करता हुआ किन-किन विकट परिस्थितियों में से गुजरता है और अन्त में किसी विशिष्ट पुण्य के उदय से मनुष्य भव में आकर धर्म की प्राप्ति होने से उसका उद्धार होता है, इन सब विचारणीय बातों का परिज्ञान मृगापुत्र के आगामी भवों के इस वर्णन से भली-भांति प्राप्त हो जाता है। इस वर्णन में मुमुक्षु जीवों के लिए आत्मसुधार की पर्याप्त सामग्री है अतः विचारशील पुरुषों को इस वर्णन से पर्याप्त लाभ उठाने का यत्न करना चाहिए, अस्तु / सूत्रकार के भाव को मूलार्थ में प्रायः स्पष्ट कर दिया गया है। परन्तु कुछ ऐसे पारिभाषिक शब्द हैं जिन की व्याख्या अभी अवशिष्ट है अतः उन शब्दों की व्याख्या निम्न प्रकार से की जाती है वैताढ्यपर्वत-भरत क्षेत्र के मध्य भाग में वैताढ्य नाम का एक पर्वत है। जो कि 25 योजन ऊंचा और 50 योजन चौड़ा है। उस के ऊपर नव कूट हैं जिन पर दक्षिण और उत्तर में विद्याधरों की श्रेणियां हैं, उन में विद्याधरों के नगर हैं, और दो आभियोगिक देवों की श्रेणियां हैं, उन में देवों के निवास स्थान हैं। उसके मूल में दो गुफाएं हैं-एक तिमिस्रा और दूसरी खण्डप्रपात गुफा। वे दोनों बन्द रहती हैं। जब कोई चक्रवर्ती दिग्विजय करने के लिए निकलता है तब दण्डरत्न से उन का द्वार खोल कर काकिणीरत्न से मांडला लिखकर अर्थात् प्रकाश कर अपनी सेना सहित उस गुफा में से उत्तर भारत में जाता है। इन गुफाओं में दो नदियां आती हैं एक उम्मगजला, दूसरी निम्मगजला। वे दोनों तीन तीन-योजन चौड़ी हैं। चुल्लहिमवन्त नामक पर्वत के ऊपर से निकली हुई गंगा और सिंधु नामक नदियां भी इन गुफाओं में से दक्षिण भारत में प्रवेश करती हैं। . नरक-भूमियां-शास्त्रों में सात नरक-भूमियां (नरक-भूमि वह स्थान है जहां मरने के बाद जीवों को जीवित अवस्था में किए गए पापों का फल भोगना पड़ता है) कही हैं। उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं- (1) रत्नप्रभा (2) शर्कराप्रभा (3) वालुकाप्रभा (4) पंकप्रभा (5) धूमप्रभा (6) तमःप्रभा और (7) महातमःप्रभा'। इन नरकों या नरक-भूमियों में उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस.और रत्न-शकरा-वालुका-पकधूम-तमो-महातमः प्रभा भूमयो। घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः॥१॥ प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [209 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेंतीस सागरोपम की है। इन में रत्न प्रभा नाम की पहली नरक भूमि के तीन काण्ड-हिस्से हैं, और उसमें उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की बताई गई है और अन्त की सातवीं नरक की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण तेंतीस सागरोपम है। सागरोपम-यह जैनसाहित्य का कालपरिमाण सूचक पारिभाषिक शब्द है। जैन तथा बौद्ध बाङ्मय के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं पल्योपम तथा सागरोपम आदि शब्दों का उल्लेख देखने में नहीं आता। सागरोपम यह पद एक संख्याविशेष का नाम है। अंकों द्वारा इसे प्रकट नहीं किया जा सकता, अतः उसे समझाने का उपाय उपमा है। उपमा द्वारा ही उस की कल्पना की जा सकती है, इसी कारण उसे उपमासंख्या कहते हैं और इसीलिए सागर शब्द के बदले सागरोपम शब्द का व्यवहार किया जाता है। सागरोपम का स्वरूप इस प्रकार है चार कोस लम्बा और चार कोस चौड़ा तथा चार कोस गहरा एक कूआं हो, कुरुक्षेत्र के युगलिया के 7 दिन के जन्मे बालक के बाल लिए जाएं। युगलिया के बाल अपने बालों से 4096 गुना सूक्ष्म होते हैं, उन बालों के बारीक से बारीक टुकड़े काजल की तरह किए जायें, चर्मचक्षु से दिखाई देने वाले टुकड़ों से असंख्य गुने छोटे टुकड़े हों अथवा सूर्य की किरणों में जो रज दिखाई देती है उस से असंख्य गुने छोटे हों, ऐसे टुकड़े करके उस कुएं में ठसाठस भर दिए जाएं। सौ-सौ वर्ष व्यतीत होने पर एक-एक टुकड़ा निकाला जाए, इस प्रकार निकालते हुए जब वह कूप खाली हो जाए तब एक पल्योपम होता है। ऐसे दस कोटाकोटि कूप जब खाली हो जाएं तब एक सागरोपम होता है। एक करोड़ को एक करोड़ की संख्या से गुना करने पर जो गुनन फल आता है वह कोटाकोटि कहलाता है। उत्कृष्ट सागरोपम-स्थिति वाले का अर्थ है-अधिक से अधिक एक सागरोपम काल तक नरक में रहने वाला। इसका यह अर्थ नहीं कि प्रथम नरक भूमि के प्रत्येक नारकी की सागरोपम की ही स्थिति होती है, क्योंकि यहां पर जो नरक भूमियों की एक से क्रमश३३ सागरोपम तक की स्थिति बताई है, वह उत्कृष्ट-अधिक से अधिक बताई है, जघन्य तो इससे बहुत कम होती है। जैसे पहले नरक की उत्कृष्टस्थिति एक सागरोपम की और जघन्य अर्थात् रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, और महातम:प्रभा ये सात भूमियां हैं, जो घनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित हैं, एक-दूसरी के नीचे हैं और नीचे की ओर अधिक-अधिक विस्तीर्ण हैं। इन सातों नरकों की स्थिति का वर्णन निम्नोक्त है "तेष्वेकत्रिसप्तदशद्वाविंशति-त्रयोविंशत्-सागरोपमाः सत्त्वानां परा स्थितिः" अर्थात् उन नरकों में रहने वाले प्राणियों की उत्कृष्ट स्थिति क्रम से एक, तीन, सात, दश, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपॅम है। 210] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय .[प्रथम श्रुतस्कंध Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस हजार वर्ष की है, तात्पर्य यह है कि प्रथम नरक-भूमि में गया हुआ जीव वहां अधिक से अधिक एक सागरोपम तक रह सकता है और कम से कम 10 हजार वर्ष तक रह सकता यहां पर मृगापुत्र के पहली से सातवीं भूमि में जाने तथा उनसे निकल कर अमुकअमुक योनि में उत्पन्न होने का जो क्रमबद्ध उल्लेख है उसका सैद्धान्तिक निष्कर्ष इस प्रकार समझना चाहिए असंज्ञी प्राणी मर कर पहली भूमि-नरक में उत्पन्न हो सकते हैं, आगे नहीं। भुजपरिसर्प, पहली दो भूमि तक, पक्षी तीन भूमि तक, सिंह चार भूमि तक, उरग पांचवीं भूमि तक, स्त्री छठी भूमि तक और मत्स्य तथा मनुष्य मर कर सातवीं नरक भूमि तक जा सकते हैं। तिर्यंच और मनुष्य ही नरक में उत्पन्न हो सकता है, देव और नारक नहीं। इसका कारण यह है कि उन में वैसे अध्यवसाय का सद्भाव नहीं होता। तथा नारकी मर कर फिर तुरन्त न तो नरक गति में पैदा होता है और न देवगति में, किन्तु वह मर कर सिर्फ तिर्यंच और मनुष्य गति में ही उत्पन्न हो सकता है। "- अद्धतेरस-जाति कुलकोडी-जोणि-पमुह-सत-सहस्साई-अर्द्ध-त्रयोदशजाति-कुल-कोटी योनि-प्रमुख-शतसहस्राणि-" इन पदों का भावार्थ है कि-मत्स्य आदि जलचर पंचेन्द्रिय जाति में जो योनियां-उत्पत्तिस्थान हैं, उन योनियों में उत्पन्न होने वाली 1. दसवर्ष-सहस्राणि प्रथमायां / तत्त्वार्थसूत्र, 4-44 / / 2. असण्णी खलु पढमं दोच्चं पि सिरीसवा, तइय पक्खी। सीहा जंति चउत्थिं, उरगा पुण पंचमि पुढविं॥ 1 // छटुिं च इत्थियाओ, मच्छा मणुआ य सत्तमिं पुढविं। एसो परमोवाओ, बोधव्वो नरगपुढ़वीणं // 2 // [प्रज्ञापना सूत्र, छठा पद] 3. नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! णो इणढे समढे। एवं निरंतरं जाव चउरिदिएसु पुच्छा, गोयमा ! नो इणटे समढे। नेरइए णं भंते ! नेरइहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिएसु उववज्जेज्जा ? अत्थेगतिए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा................। नेरइए णं भंते ! नेरइहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता मणुस्सेसु उववजेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगत्तिए उववज्जेज्जा, अत्थेगतिए णो उववज्जेज्जा। [प्रज्ञापना सूत्र 20 / 250] . 4. इन पदों की व्याख्या टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरी के शब्दों में निम्नोक़्त है -."-जातौ पंचेन्द्रियजातौ या कुलकोटयः तास्तथा ताश्च ता योनिप्रमुखाश्च चतुर्लक्षसंख्यपञ्चेन्द्रियोत्पत्तिस्थानद्वारकास्ता जातिकुलकोटि-योनिप्रमुखाः, इह च विशेषणं परपदं प्राकृतत्वात्। इदमुक्तं भवति पञ्चेन्द्रियजातौ या योनयः तत्प्रभोः याः कुलकोट्यस्तासां लक्षाणि सार्द्धद्वादश प्रज्ञप्तानि, तत्र योनिर्यथा-गोमयः, तत्र चैकस्यामपि कुलानि विचित्राकारः कृम्यादयः।" प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [211 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलकोटियों की संख्या साढ़े बारह लाख है। जाति, कुलकोटि आदि शब्दों की अर्थ-विचारणा से पूर्वोक्त पद स्पष्टतया समझे जा सकेंगे अतः इन के अर्थों पर विचार किया जाता है जाति-शब्द के अनेकों अर्थ हैं, परन्तु प्रकृत में यह शब्द एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का परिचायक है। जलचर पंचेन्द्रिय का प्रस्तुत प्रकरण में प्रसंग चल रहा है। अतः प्रकृत में जाति शब्द से जलचरपंचेन्द्रिय का ग्रहण करना है। कुलकोटि-जीवसमूह को कुल कहते हैं, और उन कुलों के विभिन्न भेदों-प्रकारों को कोटि कहते हैं। जिन जीवों का वर्ण, गन्ध आदि सम है, वे सब जीव एक कुल के माने जाते हैं और जिन का वर्ण गन्ध आदि विभिन्न है, वे जीवसमूह विभिन्न कुलों के रूप में माने गए हैं। उत्पत्तिस्थान एक होने पर भी अर्थात् एक योनि से उत्पन्न जीवसमूह भी विभिन्न वर्ण गन्धादि के होने से विभिन्न कुल के हो सकते हैं। इस को स्थूलरूप से समझने के लिए गोमयगोबर का उदाहरण उपयुक्त रहेगा ___ वर्षतु के समय गोबर में बिच्छू आदि नाना प्रकार के विभिन्न आकार रखने वाले जीव उत्पन्न होने के कारण वह गोबर उन जीवों की एक योनि है, उस में कृमि, वृश्चिक आदि नाना / जातीय जीवसमूह अनेक कुलों के रूप में उत्पन्न होते हैं। अस्तु। यहां "-क्या गोबर के समान मत्स्यादि की योनियों में भी विभिन्न जीव उत्पन्न हो सकते हैं ?-" यह प्रश्न उत्पन्न होता है। जिस का उत्तर यह है कि विकलत्रय (विकलेन्द्रियद्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव जैसी स्थिति जलचर और पञ्चेन्द्रिय प्राणियों में नहीं है। वहां के कुलों में विभिन्न वर्णादि तथा विभिन्न आकृतियों के जलचरत्व आदि रूप ही लिए जाएंगे, हां, उन कुलों में सम्मूर्छिम (स्त्री और पुरुष के समागम के बिना उत्पन्न होने वाले प्राणी) एवं गर्भज (गर्भाशय से उत्पन्न होने वाले प्राणी) की भेद विवक्षा नहीं है। समाचार पत्र हिन्दुस्तान दैनिक में एक समाचार छपा था कि एक गाय को सिंहाकार बछड़ा पैदा हुआ है। आकृति की दृष्टि से तो वह बाह्यतः सिंह जातीय है परन्तु शास्त्र की दृष्टि से वह गोजातीय ही है। यही एक योनि से उत्पन्न जीवसमूहों की कुलकोटि की विभिन्नता का रहस्य है। योनि-का अर्थ है-उत्पत्तिस्थान। तैजस कार्मण शरीर को तो आत्मा साथ लेकर जाता है, फलतः जिस स्थान पर औदारिक और वैक्रियशरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर तत्तत् शरीर का निर्माण करता है, वह स्थान योनि कहलाता है। 212 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योनियों की संख्या असंख्य है। फिर भी जिन योनियों का परस्पर वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आदि एक जैसा है उन अनेक योनियों को भी जाति की दृष्टि से एक गिना जाता है, और इस प्रकार विभिन्न वर्णादि की अपेक्षा से योनियों के 84 लाख भेद माने जाते हैं। जैसा कि प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में लिखा है "- केवलमेव विशिष्टवर्णादियुक्ताः संख्यातीताः स्वस्थाने व्यक्तिभेदेन योनयः जातिमधिकृत्य एकैव योनिर्गण्यते-" अर्थात्-जिन उत्पत्ति-स्थानों का वर्ण, गन्ध आदि सम है वे सब सामान्यतः एक योनि हैं, और जिन का वर्ण, गन्ध आदि विषम है, विभिन्न है, वे सब उत्पत्तिस्थान पृथक्-पृथक् योनि के रूप में स्वीकार किए जाते हैं अस्तु / तब इस अर्थविचारणा से प्रकृतोपयोगी तात्पर्य यह फलित हुआ कि मृगापुत्र का जीव सातवीं नरक से निकल कर तिर्यग् योनि के जलचर पञ्चेन्द्रिय मत्स्य, कच्छप आदि जीवों (जिन की कुलकोटियों की संख्या साढ़े बारह लाख है) के प्रत्येक योनिभेद में लाखों बार जन्म और मरण करेगा। "खलीण-मट्टियं खणमाणे" इन पदों का अर्थ है- नदी के किनारे की मिट्टी को खोदता हुआ / तात्पर्य यह है कि मृगापुत्र का जीव जब वृषभ रूप में उत्पन्न होकर युवावस्था को प्राप्त हुआ तब वह गंगा नदी के किनारे की मिट्टी को खोद रहा था परन्तु अकस्मात् गंगा नदी के किनारे के गिर जाने पर वह जल में गिर पड़ा और जल प्रवाह से प्रवाहित होने के कारण वह अत्यधिक पीड़ित एवं दुःखी हो रहा था, अन्त में वहीं उस की मृत्यु हो गई। "उम्मुक्क० जाव जोव्वण-" पाठ गत "जाव-यावत्" पद से निम्नलिखित समग्र पाठ का ग्रहण समझना :"उम्मुक्कबाल-भावे, विण्णायपरिणयमित्ते२, जोव्वणमणुप्पत्ते-उन्मुक्तबालभावः, विज्ञकपरिणतमात्रो यौवनमनुप्राप्त:-" अर्थात् जिसने बाल अवस्था को छोड़ दिया है, तथा बुद्धि के विकास से जो विज्ञ-हेयोपादेय का ज्ञाता एवं युवावस्था को प्राप्त हो 1. खलीणमट्टियं-त्तिखलीनामाकाशस्थां छिन्नतटोपरिवर्तिनीं मृत्तिकामिति वृत्तिकार: ‘अर्थात्-गंगा नदी के किनारे की भूमि का निम्न भाग जल-प्रवाह से प्रवाहित हो रहा था ऊपर का अवशिष्ट भाग ज्यों का त्यों आकाश-स्थित था, जब वृषभ अपने स्वभावानुसार उस पर खड़ा हो कर मृत्तिका खोदने लगा तब उसके भार से वह आकाशस्थ किनारा गिर पड़ा जिस से वह वृषभ जल प्रवाह से प्रवाहित हो कर मृत्यु का ग्रास बन गया।. .. 1. "विण्णायपरिणयमित्ते"-तत्र विज्ञ एव विज्ञक, स चासौ परिणतमात्रश्च बुद्ध्यादिपरिणामापन्न एव च विज्ञकपरिणतमात्रः [अभयदेवसूरिः] प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [213 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुका है। "-तहारूवाणं थेराणं-" यहां पठित तथारूप और स्थविर शब्द के अर्थ निम्नोक्त हैं-तथोक्त शास्त्रानुमोदित गुणों को धारण करने वाले की तथारूप संज्ञा है, अर्थात् जिसके जीवन में आगम-विहित गुण पाए जाएं उसे तथारूप कहते हैं। स्थविर-वृद्ध को स्थविर कहते हैं। स्थविर तीन प्रकार के होते हैं (1) वय-स्थविर (2) प्रव्रज्या- स्थविर और (3) श्रुतस्थविर / साठ वर्ष की आयु वाले को वय-स्थविर कहते हैं। बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाला प्रव्रज्या-स्थविर है और स्थानांग, समवायांग, आदि आगमों के ज्ञाता की श्रुत-स्थविर संज्ञा है। इसी प्रकार मुंडित भी द्रव्यमुंडित और भावमुंडित, इन भेदों से दो प्रकार के होते हैं। (1) सिर का लोच कराने वाला या मुंडवाने वाला द्रव्यमुण्डित (2) परिग्रह आदि को त्याग कर दीक्षा ग्रहण करने वाला भाव-मुण्डित कहलाता है। तथा अगार का मतलब घर अथवा गृहस्थाश्रम से है। उस से निकल कर त्यागवृत्ति-साधुधर्म को अंगीकार करना अनगार धर्म है। जैसा कि ऊपर भी मूलार्थ में कहा गया है कि भगवान् ने फरमाया कि गौतम ! सुप्रतिष्ठपुर नगर के श्रेष्ठ कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होने वाला यह मृगापुत्र का जीव दीक्षित हो कर ईर्यासमिति का पालक तथा ब्रह्मचारी होगा, और वहां पर अनेक वर्षों तक संयम-व्रत को पाल कर आलोचना और प्रतिक्रमण द्वारा समाधिस्थ होता हुआ समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। इस कथन से विकासगामी-अर्थात् विकास मार्ग की ओर प्रस्थान करने वाला आत्मा एक न एक दिन अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त करने में सफल हो ही जाता है। यह भली-भांति सूचित हो जाता है। ___ "इरियासमिते जाव बंभयारी'' इस में उल्लिखित 'जाव-यावत्' पद से"इरियासमिया, भासासमिया, एसणासमिया, आयाणभंडमत्त- निक्खेवणासमिया, उच्चारपासवण-खेलसिंघाण-जल्लपारिट्ठावणियासमिया, मणसमिया, वयसमिया, कायसमिया, मणगुत्ता, वयगुत्ता, कायगुत्ता, गुत्ता, गुत्तिंदिया, गुत्तबंभयारी' [ईर्यासमिताः, भाषासमिताः, एषणासमिताः, आदानभाण्डमात्र- निक्षेपणासमिताः, उच्चार-प्रश्रवणखेलसिंघाणजल्ल-परिष्ठापनिकासमिताः, मनःसमिताः, वच:समिताः, कायसमिताः, मनोगुप्ताः, वचोगुप्ता, कायगुप्ताः, गुप्ताः, गुप्तेन्द्रियाः, गुप्तब्रह्मचारिणः] इस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण करना। "आलोइयपडिक्कंते-आलोचितप्रतिक्रान्तः"-अर्थात् आत्मा में लगे हुए दोषों को गुरुजनों के समीप निष्कपट भाव से प्रकाशित करके उन की आज्ञानुसार दोषों से दूर हटने 214 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले अर्थात् प्रायश्चित करने वाले को आलोचित-प्रतिकान्त कहते हैं। आलोचना-गुरुजनों के आदेशानुसार पाप निवृत्ति के लिए प्रायश्चित करना। प्रतिक्रमण-प्रमाद वश शुभयोग से गिर कर अशुभयोग को प्राप्त करने के बाद शुभ योग को प्राप्त करना अर्थात् अशुभ व्यापार से निवृत्त हो कर शुभ योगों में प्रवृत्ति करना प्रतिक्रमण है, दूसरे शब्दों-में-सावद्य प्रवृत्ति में जितने आगे बढ़े थे उतने ही पीछे हट जाना तथा निरवद्य प्रवृत्ति में सावधान हो जाना, अथवा साधु तथा गृहस्थों द्वारा प्रातः सांय करणीय एक अत्यावश्यक अनुष्ठान को प्रतिक्रमण कहते हैं। आलोचना और प्रतिक्रमण की फलश्रुति का उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र [अध्याय 29] में इस प्रकार है प्रश्न- हे भदन्त ! आलोचना से जीव किस गुण को प्राप्त करता है ? उत्तर-आलोचना से यह जीव मोक्षमार्ग के विघातक, अनन्त संसार को बढ़ाने वाले, माया, निदान और मिथ्यादर्शनरूप शल्यों को दूर कर देता है तथा ऋजुभाव-सरलता को प्राप्त करता है। ऋजुभाव प्राप्त करके माया से रहित होता हुआ यह जीव स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नहीं बान्धता और पूर्व में बन्धे हुए की निर्जरा कर देता है। प्रश्न-हे भगवान् ! प्रतिक्रमण से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ? उत्तर- प्रतिक्रमण से जीव व्रतों के छिद्रों को ढांपता है, अर्थात् ग्रहण किए हुए व्रतों को दोषों से बचाता है। फिर शुद्ध व्रतधारी होकर आस्रवों को रोकता हुआ आठ प्रवचन माताओं में [पांचसमिति और तीन गुप्ति के पालन में] सावधान हो जाता है, तथा विशुद्ध 1. प्रतीपं क्रमण प्रतिक्रमणं, एतदुक्तं भवति-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगानुपक्रान्तस्य शुभेष्वेव गमनमिति। उक्तं च"स्वस्थानाद् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशं गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते॥१॥ क्षयोषशमिकाद् भावादौदयिकस्य वशं गतः। तत्रापि च स एवार्थः प्रतिकूलगमात् स्मृतः॥२॥" . आलोयणाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? आलोयणाएणं मायानियाणमिच्छादसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अणंत-संसार-बंधणाणं उद्धरणं करेइ। उज्जुभावं च जणयइ। उ इवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेय-नपुंसग-वेयं च न बंधइ। पुव्वबद्धं च णं निजरेइ // 5 // छाया-आलोचनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आलोचनया मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यानां मोक्षमार्गविघ्नानां, अनन्तसंसारवर्द्धनानामुद्धरणं करोति / ऋजुभावं च जनयति / ऋजुभावं प्रतिपन्नश्च जीवः अमायी स्त्रीवेदनपुंसकवेदं च न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति॥५॥ 3. पडिक्कमणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि पिहेइ। पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबल-चरिते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ // 11 // प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [215 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र को प्राप्त करके उससे अलग न होता हुआ समाधि पूर्वक संयम-मार्ग में विचरता है। "-समाहिपत्ते-समाधिप्राप्त:-" पद का अर्थ है समाधि को प्राप्त हुआ। सूत्रकृतांग के टीकाकार श्री शीलांकाचार्य के मतानुसार समाधि दो प्रकार की होती है। (1) द्रव्यसमाधि और (2) भाव समाधि। मनोहर शब्द आदि पांच विषयों की प्राप्ति होने पर जो श्रोत्रादि इन्द्रियों की पुष्टि होती है, उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं, अथवा परस्पर विरोध नहीं रखने वाले दो द्रव्य अथवा बहुत द्रव्यों के मिलाने से जो रस बिगड़ता नहीं किन्तु उसकी पुष्टि होती है उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं जैसे दूध और शक्कर, तथा दही और गुड़ मिलाने से अथवा शाकादि में नमक मिर्च आदि मिलाने से रस की पुष्टि होती है। अतः इस मिश्रण को द्रव्यसमाधि कहते हैं। अथवा जिस द्रव्य के खाने और पीने से शान्ति प्राप्त होती रहे उसे द्रव्य समाधि कहते हैं / अथवा तराजू के ऊपर जिस वस्तु को चढ़ाने से दोनों बाजू समान हों उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं। ___भाव समाधि, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप भेद से चार प्रकार की है। जो पुरुष दर्शनसमाधि में स्थित है वह जिन भगवान के वचनों से रंगा हुआ अन्त:करण वाला होने के कारण वायु रहित स्थान में रखे हुए दीपक के समान कुबुद्धिरूपी वायु से विचलित नहीं किया जा सकता है। ज्ञान समाधि वाला पुरुष ज्यों-ज्यों शास्त्रों का अध्ययन करता है त्यों-त्यों वह भावसमाधि में प्रवृत्त हो जाता है। चारित्र समाधि में स्थित मुनि दरिद्र होने पर भी विषय-सुख से निस्पृह होने के कारण परमशान्ति का अनुभव करता है। कहा भी है कि-'जिस के राग, मद और मोह नष्ट हो गए हैं वह मुनि तृण की शय्या पर स्थित हो कर भी जो आनन्द अनुभव करता है, उसे चक्रवर्ती राजा भी कहां पा सकता है! तप समाधि वाला पुरुष भारी तप करने पर भी ग्लानि का अनुभव नहीं करता तथा क्षुधा और तृषा आदि से वह पीड़ित नहीं होता। अस्तु / प्रस्तुत प्रकरण में जो समाधि का वर्णन है वह भाव-समाधि का वर्णन ही समझना चाहिए। तदनन्तर मृगापुत्र का जीव प्रथम देवलोक से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में दृढ़प्रतिज्ञ की भांति धनी कुलों में उत्पन्न होगा, तथा मनुष्य की सम्पूर्ण कलाओं में निपुणता प्राप्त कर दृढ़प्रतिज्ञ की तरह ही प्रव्रज्या धारण कर अनगार वृत्ति के यथावत् पालन से अष्टविध कर्मों का विच्छेद करता हुआ सिद्धगति-मोक्ष को प्राप्त करेगा। इस कथन से संसार के आवागमन चक्र छाया-प्रतिक्रमणेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? प्रतिक्रमणेन व्रतछिद्राणि पिदधाति पिहितव्रतच्छिद्रः पुनर्जीवो निरुद्धास्रवोऽशबलचरित्रश्चाष्टसु प्रवचनमातृषूपयुक्तोऽपृथक्त्व: सुप्रणिहितो विहरति। 1. तृणसंस्तार-निविष्टोऽपि मुनिवरो भ्रष्टरागमदमोहः, यत् प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि। 216 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में घटीयन्त्र की तरह निरन्तर भ्रमण करने वाले जीव की जीवन यात्रा अर्थात् जन्म-मरण परम्परा का पर्यवसान कहां पर होता है और वह सदा के लिए सर्वप्रकार के दुःखों का अन्त करके वैभाविक परिणामों से रहित होता हुआ स्वस्वरूप में कब रमण करता है, इस की स्पष्ट सूचना मिलती है। ___१"अणंतरं चयं चइत्ता" इस के दो अर्थ हैं- (1) चयं-शरीर को, चइत्ता-छोड़ कर, अर्थात् तदनन्तर शरीर को छोड़ कर, और दूसरा / (2) चयं-च्यवन, चइत्ता-करके अर्थात् च्यवकर अणंतरं-सीधा-व्यवधानरहित (उत्पन्न होता है) ऐसा अर्थ है। महाविदेह-पूर्वमहाविदेह, पश्चिममहाविदेह, देवकुरु और उत्तरकुरु इन चार क्षेत्रों की महाविदेह संज्ञा है। इन में पूर्व के दो क्षेत्र कर्मभूमि और उत्तर के दो क्षेत्र अकर्मभूमि हैं। पूर्व तथा पश्चिम महाविदेह में चौथे आरे जैसा समय रहता है और देव तथा उत्तरकुरु में पहले आरे जैसा समय रहता है, और कृषि वाणिज्य तथा तप, संयम आदि धार्मिक क्रियाओं का आचरण जहां पर होता हो उसे कर्मभूमि कहते हैं-कृषिवाणिज्य-तपः-संयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयः। और जहां कृषि आदि व्यवहार न हों उसे अकर्मभूमि कहते हैं। ___"अड्ढाइं" इस पद से -दित्ताई, वित्ताई, विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाई, बहुधणजायरूवरययाई, आओगपओगसंपउत्ताइं,विच्छड्डियपउरभत्तपाणाइं, बहु-दासी-दासगोमहिसगवेलगप्पभूयाई,बहुजणस्स अपरिभूयाइं-" इस पाठ का ग्रहण करना ही सूत्रकार को अभिमत है। सूत्रकार महानुभाव ने "जहा दढपतिण्णे-यथा दृढ़प्रतिज्ञः" और "सा चेव वत्तव्वया-सैव वक्तव्यता" इत्यादि उल्लेख में दृढ़प्रतिज्ञ नाम के किसी व्यक्ति-विशेष का स्मरण किया है और आढ्यकुल में उत्पन्न हुए मृगापुत्र के जीव की अथ से इति पर्यन्त सारी जीवन-चर्या को उसी के समान बताया है। इस से दृढ़प्रतिज्ञ कौन था ? कहां था? जन्म के बाद उसने क्या किया, तथा अन्त में उस का क्या बना, इत्यादि बातों की जिज्ञासा का अपने आप ही पाठकों के मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इसलिए दृढ़प्रतिज्ञ के जीवन पर भी विहंगम दृष्टिपात कर लेना उचित प्रतीत होता है। ___. दृढ़प्रतिज्ञ का जीव पूर्वभव में अम्बड़ परिव्राजक संन्यासी के नाम से विख्यात था। उस की जीवनचर्या का उल्लेख औपपातिक सूत्र में किया गया है। अम्बड़ परिव्राजक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का अनन्य उपासक था। वह शास्त्रों का पारगामी और विशिष्ट आत्मविभूतियों से युक्त और देशविरति चारित्र-सम्पन्न था। इस के अतिरिक्त वह एक 1. "-अणंतरं चयं चइत्ता-"त्ति अनन्तर शरीरं त्यक्त्वा, च्यवनं वा कृत्वा, [टीकाकारः] प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [217 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रदाय का आचार्य अथच अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में और शास्त्रार्थ करने में बड़ा सिद्धहस्त था। उस की विशिष्ट लब्धि का इससे पता चलता है कि वह सौ घरों में निवास किया करता था। उसी अम्बड़ परिव्राजक का जीव आगामी भव में दृढ़प्रतिज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। माता के गर्भ में आते ही माता-पिता की धर्म में अधिक दृढ़तारे होने से उन्होंने बालक का "दृढ़प्रतिज्ञ" ऐसा गुण निष्पन्न नाम रखा / दृढ़प्रतिज्ञ का जन्म एक समृद्धिशाली प्रतिष्ठित कुल में हुआ, आठ वर्ष का होने पर विद्याध्ययनार्थ उसे एक योग्य कलाचार्य-अध्यापक को सौंप दिया गया। प्रतिभाशाली दृढ़प्रतिज्ञ के शिक्षक-गुरु ने पूरे परिश्रम के साथ उसे हर एक प्रकार की विद्या में निपुण कर दिया। वह पढ़ना, लिखना, गणित और शकुन आदि 72 कलाओं में पूरी तरह प्रवीण हो गया। इस के उपलक्ष्य में दृढ़प्रतिज्ञ के माता-पिता ने भी उसके शिक्षागुरु को यथोचित पारितोषिक देकर उसे प्रसन्न करने का यत्न किया। शिक्षासम्पन्न और युवावस्था को प्राप्त हुए दृढ़प्रतिज्ञ को देखकर उसके माता-पिता की तो यही इच्छा थी कि अब उसका किसी योग्य कन्या के साथ विवाह संस्कार करके उसे सांसारिक विषयभोगों के उपभोग करने का यथेच्छ अवसर दिया जाए। परन्तु जन्मान्तरीय संस्कारों से उबुद्ध हुए दृढ़प्रतिज्ञ को ये सांसारिक विषयभोग आपातरमणीय (जिन का मात्र आरम्भ सुखोत्पादक प्रतीत हो) और आत्म बन्धन के कारण अतएव तुच्छ प्रतीत होते थे। उनके-विषय भोगों के अचिरस्थायी सौन्दर्य का उस के हृदय पर कोई प्रभाव नहीं था। उस के पुनीत हृदय में वैराग्य की उर्मियां उठ रही थीं। संसार के ये तुच्छ विषयभोग संसारीजीवों को अपने जाल में फंसाकर उसकी पीछे से जो दुर्दशा करते हैं उस को वह जन्मान्तरीय संस्कारों तथा लौकिक अनुभवों से भली-भांति जानता था, इसलिए उसने विषय भोगों की सर्वथा उपेक्षा करते हुए तथारूप स्थविरों के सहवास में रहकर आत्म कल्याण करने को ही सर्वश्रेष्ठ माना। फलस्वरूप वह उनके पास दीक्षित हो गए, और संयममय जीवन व्यतीत करते हुए, समिति और गुप्तिरूप आठों प्रवचनमाताओं की यथाविधि उपासना में तत्पर हो गए। उन्हीं के आशीर्वाद से, अष्टविध कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करके कैवल्यविभूति को उपलब्ध करता हुआ दृढ़प्रतिज्ञ का आत्मा अपने ध्येय में सफल हुआ। अर्थात् उस ने जन्म और मरण से रहित हो कर सम्पूर्ण दुःखों का अन्त करके स्वस्वरूप को प्राप्त कर लिया। तदनन्तर शरीर त्यागने के बाद वह 1. "-तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नयरे घरसए जाव वसहिं उवेइ-।" 2. "-इमं एयारूवं गोणं गुणणिप्फण्णं नामधेनं काहिंति-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भत्थंसि चेव समाणंसि धम्मे दढपइण्णा तं होउ णं अम्हं दारए दढपइण्णे नामेणं, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेजं करेहिंति दढपइण्णेति"। 218 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धगति-मोक्षपद को प्राप्त हुआ। यह दृढ़प्रतिज्ञ के निवृत्तिप्रधान सफल जीवन का संक्षिप्त वर्णन है। दृढ़प्रतिज्ञ का जीवन वृत्तान्त ज्ञात है अर्थात् सूत्र में उल्लेख किया गया है, इसलिए उसके उदाहरण से मृगापुत्र के भावी जीवन को संक्षेप में समझा देना ही सूत्रकार को अभिमत प्रतीत होता है। एतदर्थ ही सूत्र में "जहा दढपतिण्णे" यह उल्लेख किया गया है। यहां पर "सिज्झिहिति-सेत्स्यति" यह पद निम्नलिखित अन्य चार पदों का भी सूचक है। इस तरह ये पांच पद होते हैं, जैसे कि (1) सेत्स्यति-सिद्धि प्राप्त करेगा, कृतकृत्य हो जाएगा। (2) भोत्स्यते-केवलज्ञान के द्वारा समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानेगा। (3) मोक्ष्यति-सम्पूर्ण कर्मों से रहित हो जाएगा। (4) परिनिर्वास्यति-सकल कर्मजन्य सन्ताप से रहित हो जाएगा। (5) सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति- अर्थात् सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर देगा। इस प्रकार मृगापुत्र के अतीत, अनागत और वर्तमान वृत्तान्त के विषय में गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुएं श्रमण भगवान् महावीर ने जो कुछ फरमाया उस का वर्णन करने के बाद आर्य सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दुःखविपाक के दस अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत अध्ययन में जो कुछ वर्णन है उसका मूल जम्बू स्वामी का प्रश्न है। श्री जम्बू स्वामी ने अपने गुरु आर्य सुधर्मा स्वामी से जो यह पूछा था कि-विपाकश्रुत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ है ? मृगापुत्र का अथ से इति पर्यन्त वर्णन ही आर्य सुधर्मा स्वामी की ओर से जम्बू स्वामी के प्रश्न का उत्तर है। कारण कि मृगापुत्र का समस्त जीवन वृत्तान्त सुनाने के बाद वे कहते हैं कि हे जम्बू ! यही प्रथम अध्ययन का अर्थ है कि जिस को मैंने श्रमण भगवान् महावीर से सुना है और तुम को सुनाया है। ."त्ति बेमि-इति ब्रवीमि" इस प्रकार मैं कहता हूं। यहां पर इति शब्द समाप्ति अर्थ का बोधक है। तथा "ब्रवीमि" का भावार्थ है कि मैंने तीर्थंकर देव और गौतमादि गणधरों . 1. "सेत्स्यति'' इत्यादि पदपंचकमिति, तत्र सेत्स्यति कृतकृत्यो भविष्यति, भोत्स्यते केवलज्ञानेन सकलज्ञेयं ज्ञास्यति, मोक्ष्यति-सकलकर्मवियुक्तो भविष्यति, परिनिर्वास्यति सकल-कर्म-कृतसन्ताप-रहितो भविष्यति, किमुक्तं भवति-सर्वदुखानामन्तं करिष्यतीति वृत्तिकारः। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [219 . Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से इस अध्ययन का जैसा स्वरूप सुना है वैसा ही तुम से कह रहा हूं। इस में मेरी निजी कल्पना कुछ नहीं है। इस कथन से आर्य सुधर्मा स्वामी की जो विनीतता बोधित होती है उस के उपलक्ष्य में उन्हें जितना भी साधुवाद दिया जाए उतना ही कम है। वास्तव में धर्मरूप कल्पवृक्ष का मूल ही विनय है- "विणयमूलं हि धम्मो।" सारांश-यह अध्ययन मृगापुत्रीय अध्ययन के नाम से प्रसिद्ध है। इस में मृगापुत्र के जीवन की तीन अवस्थाओं का वर्णन पाया जाता है- अतीत, वर्तमान और अनागत / इन तीनों ही अवस्थाओं में उपलब्ध होने वाला मृगापुत्र का जीवन, हृदय-तंत्री को स्तब्ध कर देने वाला है। उसकी वर्तमान दशा [जो कि अतीत दशा का विपाकरूप है] को देखते हुए कहना पड़ता है कि मानव के जीवन में भयंकर से भयंकर और कल्पनातीत परिस्थिति का उपस्थित होना भी अस्वाभाविक नहीं है। मृगापुत्र की यह जीवन कथा जितनी करुणा जनक है उतनी बोधदायक भी है। उसने पूर्वभव में केवल स्वार्थ तत्परता के वशीभूत होकर जो जो अत्याचार किए उसी का परिणाम रूप यह दण्ड उसे कर्मवाद के न्यायालय से मिला है। इस पर से विचारशील पुरुषों को जीवन-सुधार का जो मार्ग प्राप्त होता है उस पर सावधानी से चलने वाला व्यक्ति इस प्रकार की उग्र यातनाओं के त्रास से बहुत अंश में बच जाता है। अतः विचारवान पुरुषों को चाहिए कि वे अपने आत्मा के हित के लिए पर का हित करने में अधिक यत्न करें। और इस प्रकार का कोई आचरण न करें कि जिस से परभव में उन्हें अधिक मात्रा में दुःखमयी यातनाओं का शिकार बनना पड़े। किन्तु पापभीरू होकर धर्माचरण की ओर बढ़ें। यही इस कथावृत्त का सार है। मृगापुत्रीय अध्ययन विशेषतः अधिकारी लोगों के सम्मुख बड़े सुन्दर मार्ग-दर्शक के रूप में उपस्थित हो उन्हें कर्तव्य विमुखता का दुष्परिणाम दिखा कर कर्तव्य पालन की ओर सजीव प्रेरणा देता है, अतः अधिकारी लोगों को अपने भावी जीवन को दुष्कर्मों से बचाने का यत्न करना चाहिए तभी जीवन को सुखी एवं निरापद बनाया जा सकेगा। ॥प्रथम अध्ययन समाप्त॥ 220 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह बिइयं अज्झयणं अथ द्वितीय अध्याय जीवन का मूल्य कर्तव्य पालन में है। कर्त्तव्यशून्य जीवन का संसार में कोई महत्व नहीं। कर्त्तव्य की परिभाषा है-सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित नियमों को जीवन में लाना और उनके आचरण में प्रतिहारी की भांति सावधान रहना, किसी प्रकार का भी प्रमाद नहीं करना। कर्तव्यपालक व्यक्ति ही वास्तव में अहिंसा भगवती का आराधक बन सकता है। - अहिंसा सुखों की जननी है अथ च 'स्वर्गों को देने वाली है। अहिंसा की आराधना जीवात्मा को कर्मजन्य संसार चक्र से निकाल कर मोक्ष में पहुंचा देने वाली है। परन्तु अहिंसा का पालन आचरण-शुद्धि पर निर्भर है। आचरणहीन-आचरणशून्य जीवन का संसार में कोई मान नहीं और न ही उसे धर्मशास्त्र पवित्र कर सकते हैं। ___ आचरण-शुद्धि, आचरण की महानता एवं विशिष्टता के बोध होने के अनन्तर ही अपनाई जा सकती है, अथवा यूं कहें कि आचरणशुद्धि आचरणहीन मनुष्य के कर्मजन्य दुष्परिणाम का भान होने के अनन्तर सुचारुरूप से की जा सकती है, और उस में ही दृढ़ता की अधिक संभावना रहती है। इसीलिए सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र के उज्झितक नामक द्वितीय अध्ययन में आचरणहीनता का दुष्परिणाम दिखाकर आचरणशुद्धि के लिए बलवती प्रेरणा की है। द्वितीय अध्ययन का आदिम सूत्र निम्नप्रकार है मूल-जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! अज्झयणस्स दुहविवागाणं 1. का स्वर्गदा ? प्राणभृतामहिंसा-"अर्थात् स्वर्ग देने वाली कौन है ? उत्तर- प्राणिमात्र की अहिंसा-दया।" 2. आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः- अर्थात् आचारहीन मनुष्य को धर्मशास्त्र भी पवित्र नहीं कर सकते। तात्पर्य यह है कि-आचारभ्रष्ट व्यक्ति का शास्त्राध्ययन भी निष्फल है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [221 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते? तते णं से सुहम्मे अणगारे ज़म्बूअणगारं एवं वयासी-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे णाम नगरे होत्था रिद्धः। तस्स णं वाणियग्गामस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए दूतिपलासे णामं उज्जाणे होत्था। तत्थ णं दूइपलासे सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खायतणे होत्था। तत्थ णं वाणियग्गामे मित्ते णामं राया होत्था। वण्णओ। तस्स णं मित्तस्स रण्णो सिरी णामं देवी होत्था।वण्णओ।तत्थ णं वाणियग्गामे कामज्झया णामं गणिया होत्था अहीण. जाव सुरूवा। बावत्तरीकलापंडिया, चउसट्ठिगणियागुणोववेया, एगूणतीसविसेसे रममाणी, एक्कवीसरतिगुणप्पहाणा, बत्तीसपुरिसोवयारकुसला, णवंगसुत्तपडिबोहिया, अट्ठारसदेसीभासाविसारया, सिंगारागारचारुवेसा, गीयरतिगंधव्वनट्टकुसला, 'संगतगत सुंदरत्थण ऊसियज्झया सहस्सलंभा, विदिण्णछत्तचामरबालवियणिया, कण्णीरहप्पयाया याविहोत्था।बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं जाव विहरति। छाया-यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन दुःखविपाकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः। द्वितीयस्य भदन्त ! अध्ययनस्य -दुःखविपाकानां श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः? ततः स सुधर्मानगारो जम्बू-अनगारमेवमवदत्-एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिजग्राम नाम नगरमभूत्, ऋद्धि / तस्य वाणिजग्रामस्य उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे दूतिपलाशं नामोद्यानमभूत् तत्र दूतिपलाशे सुधर्मणो यक्षस्य यक्षायतनमभूत् / तत्र वाणिजग्रामे मित्रो नाम राजाऽभवत् ।वर्णकः। तस्य मित्रस्य राज्ञः श्री: नाम देवी अभूत् / वर्णकः / तत्र वाणिजग्रामे कामध्वजा नाम गणिका अभूत् / अहीन० यावत् सुरूपा, द्वासप्ततिकलापण्डिता, चतुःषष्टिगणिकागुणोपेता, २एकोनत्रिंशद्विशेष्यां रममाणा, एकविंशति रति-गुणप्रधाना, द्वात्रिंशत्-पुरुषोपचारकुशला प्रतिबोधितसुप्तनवांगा, अष्टादशदेशीभाषा-विशारदा, शृंगारागारचारुवेषा, गीतरतिगा 1. संगत-गत-हसित-भणित-विहितविलास-सललितसंलापनिपुणयुक्तोपचारकुशला, संगतेषु-समुचितेषु गतहसित-भणित-विहित-विलाससललितसंलापेषु निपुणा, तत्र गतं गमनं राजहंसादिवत्, हसितं स्मित, भणितंवचनं कोकिलवीणादिस्वरेण युक्तं, विहित चेष्टितं, विलासो नेत्रचेष्टा, सललितसंलापा: वक्रोक्त्याद्यालंकारसहितं परस्परं भाषणं तेषु निपुणा चतुरा, तथा युक्तेषु समुचितेषूपचारेषु कुशलेति भावः 2. एकोनत्रिंशद् विशेषाणां समाहार इति एकोनत्रिंशद्-विशेषी तस्यामिति भावः! 222 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्धर्वनाट्यकुशला, संगतगत सुन्दरस्तन उच्छ्रितध्वजा, सहस्रलाभा, वितीर्णछत्रचामरबालव्यजनिका; कीरथप्रजाता चाप्यभवत् / बहूनां गणिकासहस्राणामाधिपत्यं यावत् विहरति.। पदार्थ-भंते !-हे भगवन् ! जति णं-यदि / समणेणं-श्रमण / जाव-यावत् / संपत्तेणं-संप्राप्त, भगवान् महावीर ने। दुहविवागाणं-दु:ख विपाक के। पढमस्स-प्रथम। अज्झयणस्स-अध्ययन का। अयमढे-यह पूर्वोक्त अर्थ / पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है तो। भंते!-हे भगवन् ! समणेणं-श्रमण / जावयावत्। संपत्तेणं-मोक्ष प्राप्त भगवान् महावीर ने। दुहविवागाणं-दुःख विपाक गत। दोच्चस्स-दूसरे। अज्झयणस्स-अध्ययन का। के अट्ठ-क्या अर्थ। पण्णत्ते-कथन किया है। तते णं-तदनन्तर / से-वह। सुहम्मे अणगारे-सुधर्मा अनगार-श्री सुधर्मा स्वामी। जंबू-अणगारं-जम्बू अनगार के प्रति / एवं वयासीइस प्रकार बोले। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू !-हे जम्बू ! तेणं कालेणं-उस काल में तथा। तेणं समएणं-उस समय में / वाणियग्गामे-वाणिज ग्राम / णाम-नामक / नगरे-नगर ।होत्था-था। रिद्धजो कि समृद्धि पूर्ण था। तस्स णं-उस। वाणियग्गामस्स-वाणिज ग्राम के। उत्तरपरत्थिमे-उत्तर पूर्व। दिसिभाए-दिशा के मध्य भाग, अर्थात् ईशान कोण में। दूतिपलासे-दूति पलाश। णाम-नाम का। उजाणे-उद्यान। होत्था-था। तत्थ णं-उस। दूइपलासे-दूतिपलाश उद्यान में। सुहम्मस्स-सुधर्मा नाम के। जक्खस्स-यक्ष का। जक्खायतणे-यक्षायतन / होत्था-था। तत्थ णं वाणियग्गामे-उस वाणिजग्राम नामक नगर में। मित्ते-मित्र। णाम-नाम का। राया होत्था-राजा था। वण्णओ-वर्णक वर्णन प्रकरण पूर्ववत् जानना। तस्स णं-उस। मित्तस्स रणो-मित्र राजा की। सिरी णाम-श्री नाम की। देवी-देवीपटराणी। होत्था-थी। वण्णओ-वर्णन पूर्ववत् जानना। तत्थ णं वाणियग्गामे-उस वाणिज ग्राम नगर में। अहीण-सम्पूर्ण पंचेन्द्रियों से युक्त शरीर वाली। २जाव-यावत् / सुरूवा-परम सुन्दरी। बावत्तरीकलापंडिया-७२कलाओं में प्रवीण / चउसट्ठिगणिया-गुणोववेया-६४ गणिका-गुणों से युक्त। एगूणतीसविसेसे-२९ विशेषों में। रममाणी-रमण करने वाली। एक्कवीसरतिगुणप्पहाणा-२१ प्रकार 1. "-रिद्धस्थिमियसमिद्धे-ऋद्धिस्तिमितसमृद्धम्" ऋद्धं-नभः स्पर्शि-बहुल-प्रासाद-युक्तं बहुजनसंकुलं च, स्तिमितं-स्वचक्रपरचक्रभयरहितं, समृद्धं-धनधान्यादि-महर्द्धिसम्पन्नम्, अत्र पदत्रयस्य कर्मधारयः। अर्थात् नगर में गगनचुम्बी अनेक बड़े-बड़े ऊंचे प्रासाद थे, और वह नगर अनेकानेक जनों से व्याप्त था। वहां पर प्रजा सदा स्वचक्र और परचक्र के भय से रहित थी और वह नगर धन-धान्यादि महा ऋद्धियों से सम्पन्न था। 2. "जाव यावत् " पद से "-अहीण-पडिपुण्ण-पंचिंदिय-सरीरा, लक्खण-वंजण-गुणो-ववेया, माणुम्माणप्पमाण-पडिपुण्णसुजाय-सव्वंगसुंदरंगी, ससिसोमाकारा, कंता, पियदंसणा, सुरूवा-" इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है ... लक्षण की अपेक्षा अहीन (समस्त लक्षणों से युक्त), स्वरूप की अपेक्षा परिपूर्ण (न अधिक ह्रस्व और न अधिक दीर्घ, न अधिक पीन और न अधिक कृश) अर्थात् अपने अपने प्रमाण से विशिष्ट पाँचों इन्द्रियों से उस का शरीर सुशोभित था। हस्त की रेखा आदि चिन्ह रूप जो स्वस्तिक आदि होते हैं उन्हें लक्षण कहते हैं। मसा, तिल आदि जो शरीर में हुआ करते हैं, वे व्यञ्जन कहलाते हैं इन दोनों प्रकार के चिन्हों से यह गणिका सम्पन्न थी। जल से भरे कुण्ड में मनुष्य के प्रविष्ट होने पर जब उससे द्रोण (16 या 32 सेर) परिमित जल बाहर निकलता है प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [223 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के रति गुणों में प्रधान / बत्तीसपुरिसोवयारकुसला-काम-शास्त्र प्रसिद्ध पुरुष के 32 उपचारों में कुशल। णवंगसुत्तपडिबोहिया-सुप्त नव अंगों से जागृत अर्थात् जिस के नौ अंग-दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक रसना-जिव्हा, एक त्वक्-त्वचा और मन, ये नौ अंग जागे हुए हैं। अट्ठारसदेसीभासाविसारयाअठारह देशों की अर्थात् अठारह प्रकार की भाषा में प्रवीण। सिंगारागार-चारु वेसा-अंगार प्रधान वेष युक्त, जिसका सुन्दर वेष मानों शृङ्गार का घर ही हो, ऐसी। गीयरतिगंधव्वनट्टकुसला-गीत (संगीतविद्या), रति (कामक्रीड़ा), गान्धर्व (नृत्ययुक्त गीत), और नाट्य (नृत्य) में कुशल। संगतगत-मनोहर गतगमन आदि से युक्त / सुंदरत्थण-कुचादि गत सौन्दर्य से युक्त / सहस्सलंभा-गीत, नृत्य आदि कलाओं से सहस्र (हज़ार) का लाभ लेने वाली अर्थात् नृत्यादि के उपलक्ष्य में हज़ार मुद्रा लिया करती थी। ऊसियज्झया-जिसके विलास भवन पर ध्वजा फहराती रहती थी। विदिण्णछत्तचामरबालवियणियाजिसे राजा की कृपा से छत्र तथा चमर एवं बालव्यजनिका संप्राप्त थी। यावि-तथा। 'कण्णीरहप्पयायाकर्णीरथ नामक रथविशेष से गमन करने वाली। कामज्झया णाम-कामध्वजा नाम की एक। गणियागणिका। होत्था-थी, तथा। बहूणं गणियासहस्साणं-हज़ारों गणिकाओं का। आहेवच्चं-आधिपत्यस्वामित्व करती हुई। जाव-यावत्। विहरति-समय व्यतीत कर रही थी। मूलार्थ-हे भगवन् ! यदि मोक्ष-संप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन्! विपाक-श्रुत के द्वितीय अध्ययन का मोक्षसम्प्रात श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ कथन किया है ? तदनन्तर अर्थात् इस प्रश्न के उत्तर में सुधर्मा अनगार ने जम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहा कि-हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वाणिजग्राम नाम का एक समृद्धिशाली नगर था। उस नगर के ईशान कोण में दूतिपलाश नाम का एक उद्यान था, उस उद्यान में सुधर्मा नामक यक्ष का एक यक्षायतन था। उस नगर में मित्र नाम का राजा और उसकी श्री नाम की राणी थी। तथा उस नगर में अन्यून पंचेन्द्रिय शरीर युक्त यावत् सुरूपा-रूपवती,,७२ कलाओं में प्रवीण, गणिका के 64 गुणों से युक्त, 29 प्रकार के विशेषों-विषय के गुणों में रमण करने तब वह पुरुष मान वाला कहलाता है, यह मान शरीर की अवगाहना-विशेष के रूप में ही प्रस्तुत प्रकरण में संगृहीत हुआ है। तराजू पर चढ़ा कर तोलने पर जो अर्ध-भार (परिमाण विशेष) प्रमाण होता है वह उन्मान है, अपनी अगुलियों द्वारा एक सौ आठ अंगुलि परिमित जो ऊँचाई होती है वह प्रमाण है, अर्थात् उस गणिका के मस्तक से लेकर पैर तक के समस्त अवयव मान, उन्मान, एवं प्रमाण से युक्त थे, तथा जिन अवयवों की जैसी सुन्दर रचना होनी चाहिए, वैसी ही उत्तम रचना से वे सम्पन्न थे। किसी भी अंग की रचना न्यूनाधिक नहीं थी। इसलिए उस का शरीर सर्वांगसुन्दर था। उस का आकार चन्द्र के समान सौम्य था। वह मन को हरण करने वाली होने से कमनीय थी। उस का दर्शन भी अन्तःकरण को हर्षजनक था इसीलिए उस का रूप विशिष्ट शोभा से युक्त था। 1. कीरथप्रयाताऽपि, कीरथः प्रवहणविशेषः तेन प्रयातं गमनं यस्याः सा। कीरथो हि केषाञ्चिदेव ऋद्धिमतां भवति सोऽपि तस्या अस्तीत्यतिशयप्रतिपादनार्थोऽपि शब्दः। 224 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय .. [प्रथम श्रुतस्कंध Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाली, 21 प्रकार के रति गुणों में प्रधान, 32 पुरुष के उपचारों में निपुण, जिस के प्रसुप्त नव अंग जागे हुए हैं, 18 देशों की भाषा में विशारद, जिसकी सुन्दर वेष भूषा श्रृंगार-रस का घर बनी हुई है एवं गीत, रति और गान्धर्व नाट्य तथा नृत्य कला में प्रवीण, सुन्दर गति-गमन करने वाली कुचादिगत सौन्दर्य से सुशोभित, गीत, नृत्य आदि कलाओं से सहस्र मुद्रा कमाने वाली, जिस के विलास भवन पर ऊंची ध्वजा लहरा रही थी, जिसको राजा की ओर से पारितोषिक रूप में, छत्र तथा चामर-चंवर, बालव्यजनिका-चंवरी या छोटा पंखा, मिली हुई थी, और जो कीरथ में गमनागमन किया करती थी, ऐसी कामध्वजा नाम की एक गणिका-वेश्या जोकि हजारों गणिकाओं पर आधिपत्य-स्वामित्व कर रही थी, वहाँ निवास किया करती थी। ____टीका-प्रथम अध्ययन की समाप्ति के अनन्तर श्री जम्बू स्वामी ने आर्य सुधर्मा स्वामी से बड़ी नम्रता से निवेदन किया कि भगवन् ! जिनेन्द्र भगवान् श्री महावीर स्वामी ने दुःखविपाक (जिस में मात्र पाप जन्य क्लेशों का वर्णन पाया जाए) के प्रथम [मृगापुत्र नामक] अध्ययन का जो अर्थ प्रतिपादन किया है, उस का तो मैंने आप श्री के मुख से बड़ी सावधानी के साथ श्रवण कर लिया है परन्तु भगवान् ने इसके दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है अर्थात् दूसरे अध्ययन में किस की जीवनी का कैसा वर्णन किया है, इस से मैं सर्वथा अज्ञात हूं, अत: आप उसका भी श्रवण करा कर मुझे अनुगृहीत करने की कृपा करें। यह मेरी आप के श्री चरणों में अभ्यर्थना है। यह प्रश्न जहां जम्बू स्वामी की श्रवण-विषयक तीव्र रुचि संसूचक है, वहां आर्य सुधर्मा स्वामी के कथन की सार्थकता का भी द्योतक है। प्रतिपादक की यही विशेषता है कि श्रोता की श्रवणेच्छा में प्रगति हो, श्रोता की इच्छा में प्रगति का होना ही वक्ता की विशेषता की कसौटी है। जिस प्रकार वक्ता समयज्ञ एवं सिद्धांत के प्रतिपादन में पूर्णतया समर्थ होना चाहिए, उसी प्रकार श्रोता भी प्रतिभाशाली तथा विनीत होना आवश्यक है। इस प्रकार श्रोता और वक्ता का संयोग कभी सद्भाग्य से ही होता है। इस सूत्र से भी यही सूचित होता है कि जो ज्ञान विनय-पूर्वक उपार्जित किया गया हो वही सफल होता है, वही उत्तरोत्तर विकास को प्राप्त करता है, अन्यथा नहीं। इसलिए जो शिष्य गुरुचरणों में रह कर उन से विनय-पूर्वक ज्ञानोपार्जन करने का अभिलाषी होता है, उस पर गुरुजनों की भी असाधारण कृपा होती है। उसी के फलस्वरूप वे उसे ज्ञानविभूति से परिपूर्ण कर देते हैं। इस विधि से जिस व्यक्ति ने अपने आत्मा को ज्ञान-विभूति से अलंकृत किया है, वही दूसरों को अपनी ज्ञान-विभूति के वितरण से उन की अज्ञान-दरिद्रता को दूर प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [225 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने में शक्तिशाली हो सकता है। इसलिए प्रत्येक विद्यार्थी को गुरुजनों से विद्याभ्यास करते समय हर प्रकार से विनयशील रहने का यत्न करना चाहिए, अन्यथा उसका अध्ययन सफल नहीं हो सकता। जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने “एवं खलु जंबू -!" इत्यादि सूत्र में जो कुछ फरमाया है, उसका विवरण इस प्रकार है हे जम्बू ! वाणिजग्राम नाम का एक सुप्रसिद्ध और समृद्धिशाली नगर था, उस नगर के ईशान कोण में दुतिपलाश नाम का एक रमणीय उद्यान था, उस उद्यान में एक यक्षायतन भी था जो कि सुधर्मा यक्ष के नाम से प्रसिद्ध था। वहां-नगर में मित्र नाम के एक राजा राज्य करते थे जो कि पूरे वैभवशाली थे। उन की पटराणी का नाम श्री देवी था, वह भी सर्वांग-सुन्दरी और पतिव्रता थी। इस के अतिरिक्त उस नगर में कामध्वजा नाम की एक सुप्रसिद्ध राजमान्य गणिका-वेश्या रहती थी जिस के रूपलावण्य और गुणों का अनेक विशेषणों द्वारा सूत्रकार ने वर्णन किया है। वाणिज ग्राम-इस शब्द का अर्थ, षष्ठी तत्पुरुष समास से वाणिजों-वैश्यों का ग्राम ऐसा होता है, किन्तु प्रस्तुत सूत्र में "वाणिज ग्राम" यह नगर का विशेषण है, इसलिए १व्यधिकरण बहुव्रीहि समास से उसका अर्थ यह किया जा सकता है-जिस में वाणिजोंव्यापारियों का ग्राम-समूह रहे उसे "वाणिजग्राम" कहते हैं। तथा नगर शब्द की व्याख्या निम्नलिखित शब्दों में इस प्रकार वर्णित है ____ पुण्यपापक्रियाविज्ञैः दयादानप्रवर्त्तकैः, कलाकलापकुशलैः सर्व-वर्णैः समाकुलम्, भाषाभिर्विविधाभिश्च युक्तं नगरमुच्यते। अर्थात्-पुण्य और पाप की क्रियाओं के ज्ञाता, दया और दान में प्रवृत्ति करने वाले, विविध कलाओं में कुशल पुरुष, तथा जिस में चारों वर्ण निवास करते हों और जिस में विविध भाषाएं बोली जाती हों उसे नगर कहते हैं। इसकी निरुक्ति निम्नलिखित है "नगरं न गच्छन्तीति नगाः वृक्षाः पर्वताश्च तद्वदचलत्वादुन्नतत्वाच्च प्रासादादयोऽपि, ते सन्ति यस्मिन्निति नगरम्।" हमारे विचार में प्रथम वाणिज नामक एक साधारण सा ग्राम था। कुछ समय के बाद उस में व्यापारी लोग बाहर से आकर निवास करने लगे। व्यापार के कारण वहां की जनसंख्या में वृद्धि होने लगी एक समय वह आया कि जब यह ग्राम व्यापार का केन्द्र-गढ़ माना जाने लगा, और उस में जनसंख्या काफी हो गई, तब यहां राजधानी भी बन गई, उसके कारण इस 1. वाणिजानां ग्रामः-समूहो यस्मिन् स वाणिजग्राम इति व्यधिकरण-बहुव्रीहिः। 226 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का वाणिज-ग्राम नाम न रह कर वाणिजग्राम-नगर प्रसिद्ध हो गया। आज भी हम ग्रामों को नगर और नगरों को ग्राम होते हुए प्रत्यक्ष देखते हैं। जिस की जन-संख्या प्रथम हज़ारों की थी आज उसी की जन-संख्या लाखों तक पहुंच गई है। समय बड़ा विचित्र है। उसकी विचित्रता सर्वानुभव-सिद्ध है। तथा उसी विचित्रता के आधार पर ही हमने यह कल्पना की है। नगर का वर्णक (वर्णन-प्रकरण) प्रथम अध्ययन में कहा जा चुका है, एवं महाराज मित्र और महाराणी श्री देवी का वर्णक भी प्रथम अध्ययन कथित वर्णन के तुल्य ही जान लेना। केवल नाम भेद है, वर्णन पाठ में भिन्नता नहीं। तात्पर्य यह है कि वर्णक पद से नगर, राजा, राणी आदि के विषय में किसी नाम से भी सूत्र में एक बार जो वर्णन कर दिया गया है, उस वर्णन का सूचक यह "वण्णओ-वर्णक;" पद है। कामध्वजा गणिका-कामध्वजा एक प्रतिष्ठित वेश्या थी। सूत्रगत वर्णन से प्रतीत होता है कि वह रूप लावण्य में अद्वितीय, संगीत और नृत्यकला में पारंगत तथा राजमान्य थी। इस से यह निश्चित होता है कि वह कोई साधारण बाजारू स्त्री नहीं थी, किन्तु एक कलाप्रदर्शक सुयोग्य व्यक्ति की तरह प्रतिष्ठा पूर्वक कलाकार स्त्री के रूप में अपना जीवन व्यतीत करने वाली स्त्री थी। उस के अंगोपांग आदि में किसी प्रकार की न्यूनता या विकृति नहीं थी, उसका शरीर लक्षण, व्यंजनादि से युक्त, मानादि से पूर्ण और मनोहर था। . "बावत्तरीकलापंडिया-द्वासप्ततिकलापंडिता" अर्थात् वह कामध्वजा 72 कलाओं में प्रवीण थी। कला का अर्थ है किसी कार्य को भली-भांति करने का कौशल। पुरुषों में कलाएं 72 होती हैं। इन कलाओं में से अब तक कई कलाओं का विकास हुआ है और कई एक का विलोप। इन में कुछ ऐसी भी कलाएं हैं, जिन में कई प्रकार के परिवर्तन और संशोधन हुए हैं। उन कलाओं के नाम ये हैं (1) लेखन-कला-लिखने की कला का नाम है। इस कला के द्वारा मनुष्य अपने विचारों को बिना बोले दूसरे पर भली-भांति प्रकट कर सकता है। (2) गणित-कला-इस कला से वस्तुओं की संख्या और उन के परिमाण या नाप तोल का उचित ज्ञान हो जाता है। (3) रूपपरावर्तन कला-इस कला के द्वारा लेप्य, शिला, सुवर्ण, मणि, वस्त्र और चित्र आदि में यथेच्छ रूप का निर्माण किया जा सकता है। (4) नृत्य-कला-इस कला में सुर, ताल आदि की गति के अनुसार अनेकविध नृत्य के प्रकार सिखाए जाते हैं। (5) गीत कला-इस कला से "-किस समय कौन सा स्वर आलापना चाहिए? प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [227 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमुक स्वर के अमुक समय अलापने से क्या प्रभाव पड़ता है ?-" इन समस्त विकल्पों का बोध हो जाता है। (6) ताल-कला-इस कला के द्वारा संगीत के सात स्वरों (१-षड्ज, २-ऋषभ, ३-गान्धार, ४-मध्यम, ५-पंचम, ६-धैवत, ७-निषाद-के अनुसार अपने हाथ या पैरों की गति को ढोल, मृदंग या तबला पर या केवल ताली अथवा चुटकी बजा कर एवं जमीन पर पैर की डाट लगाकर साधा जाता है। (7) बाजिंत्र-कला-इस कला से संगीत के स्वरभेद और ताल, लाग, डांट आदि की गति को निहार कर बाजा बजाना सीखा जाता है। (8) बांसुरी बजाने की कला-इस कला से बांसुरी और भेरी आदि को अनेकों प्रकार से बजाना सिखाया जाता है। (9) नरलक्षण-कला-इस कला से "-कौन मनुष्य किस प्रकृति वाला है ? कौन मनुष्य किस पद और किस काम के लिए उपयुक्त एवं अनुकूल है ?-" इत्यादि बातें केवल मनुष्य के शरीर और उसके रहन-सहन एवं उसके बोल-चाल, खान-पान आदि को देख कर जानी जा सकती है। (10) नारीलक्षण-कला-इस कला से नारियों की जातियां पहचानी जाती हैं और . किस जाति वाली स्त्री का किस गुण वाले पुरुष के साथ सम्बन्ध होना चाहिए, जिस से उनकी गृहस्थ की गाड़ी सुखपूर्वक जीवन की सड़क पर चल सके। इन समस्त बातों का ज्ञान होता (11) गजलक्षण-कला-इस कला से हाथियों की जाति का बोध होता है और अमुक रंग, रूप, आकार, प्रकार का हाथी किस के घर में आ जाने से वह दरिद्री से धनी या धनी से दरिद्री बन जाएगा, यह भी इसी कला से जाना जाता है। (१२)अश्व-लक्षण-कला-इस कला से घोड़ों की परीक्षा करनी सिखाई जाती है, और श्याम पैर या चारों पैर सफेद जिसके हों ऐसे घोड़ों का शुभ या अशुभ होना इस कला से जाना जा सकता है। (13) दण्डलक्षण-कला-इस कला से किस परिमाण की लम्बी तथा मोटी लकड़ी रखनी चाहिए, राजाओं, मन्त्रियों के हाथों में कितना लम्बा और किस मोटाई का दण्ड होना चाहिए, दण्ड का उपयोग कहां करना चाहिए, इत्यादि बातों का ज्ञान हो जाता है। इस के अतिरिक्त सब प्रकार के कायदे कानूनों की शिक्षा का ज्ञान भी इस कला से प्राप्त किया जाता 228 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (14) रत्न-परीक्षाकला-इस कला से रत्नों की जाति का, उनके मूल्य का एवं रत्न अमुक पुरुष को अमुक समय धारण करना चाहिए, इत्यादि बातों का ज्ञान हो जाता है। (15) धातुवाद-कला-इस कला से धातुओं के खरा-खोटा होने की पहचान करना सिखाया जाता है। उन का घनत्व और आयतन निकालने की क्रिया का ज्ञान कराया जाता है। अमुक ज़मीन और अमुक जलवायु में अमुक-अमुक धातुएं बहुतायत से बनती रहती हैं और मिलती हैं, इत्यादि अनेकों बातों का ज्ञान इस कला से प्राप्त किया जाता है। (16) मंत्रवाद-कला-इस कला से आठ सिद्धियां और नव निधियां आदि कैसे प्राप्त होती हैं, किस मन्त्र से किस देवता का आह्वान किया जाता है, कौन मन्त्र क्या फल देता है, इत्यादि बातों का ज्ञान प्राप्त होता है। (17) कवित्व-शक्ति कला-इस कला से कविता बनानी आती है तथा उस के स्वरूप का बोध होता है। कवि लोग जो "गागर में सागर" को बन्द कर देते हैं, यह इसी कला के ज्ञान का प्रभाव है। (18) तर्क-शास्त्र-कला-इस कला से मनुष्य जगत के प्रत्येक कारण से उस के कारण का और किसी भी कारण से उस के कार्य को क्रमपूर्वक निकाल सकने का कौशल प्राप्त कर लेता है। इस कला से मनुष्य का मस्तिष्क बहुत विकसित हो जाता है। . (19) नीति-शास्त्र-कला-इस कला से मनुष्य सद् असद् या खरे-खोटे के विवेक का एवं नीतियों का परिचय प्राप्त कर लेता है। नीति शब्द से राजनीति, धर्मनीति, कूटनीति, साधारणनीति और व्यवहारनीति आदि सम्पूर्ण नीतियों का ग्रहण हो जाता है। (20) तत्त्वविचार-धर्मशास्त्र-कला-इस कला से धर्म और अधर्म क्या है, पुण्य पाप में क्या अन्तर है, आत्मा कहां से आती है, और अन्त में उसे जाना कहां है, मोक्षसाधन के लिए मनुष्य को क्या-क्या करना चाहिए, इत्यादि बातों का ज्ञान हो जाता है। ___(21) ज्योतिषशास्त्र-कला-इस कला से ग्रह क्या है, उपग्रह किसे कहते हैं, ये कितने हैं, कहां हैं और कैसे स्थित हैं, ग्रहण का क्या मतलब है, दिन-रात छोटे-बड़े क्यों होते हैं, ऋतुएं क्यों बदलती हैं, सूर्य पृथ्वी से कितनी दूर है, गणित-ज्योतिष और फलित -ज्योतिष में क्या अन्तर है, इत्यादि आकाश सम्बन्धी अनेकों बातों का ज्ञान होता है। . (22) वैद्यकशास्त्र-कला-इस कला से हमारे शरीर की भीतरी बनावट कैसी है, भोजन का रस कैसे और शरीर के कौन से भाग में तैयार होता है, हड्डियां कितनी हैं, उन के टूटने के कौन-कौन कारण हैं, और कैसे उन्हें ठीक किया जाता है, ज्वरादि की उत्पत्ति एवं उस का उपशमन कैसे होता है, इत्यादि बातों का ज्ञान हो जाता है। . प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [229 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (23) षड्भाषा-कला-इस कला से संस्कृत, शौरसेनी, मागधी, प्राकृत, पैशाची और अपभ्रंश इन छः भाषाओं का ज्ञान उपलब्ध किया जाता है। (24) योगाभ्यास-कला-इस कला से सांसारिक विषयों से मन हटाकर परमात्मभाव की ओर लगाए रखने का ज्ञान कराया जाता है। इस के द्वारा 84 आसनों की साधना की जाती है। इस कला के द्वारा योग के आठों अंगों आदि की शिक्षा दी जाती है। __ (25) रसायन-कला-इस कला से कई बहुमूल्य धातुएं जड़ी बूटियों के संयोग से तैयार की जाती हैं। (२६)अंजन-कला-इस से नेत्रज्योति में वृद्धि करने वाले तरह-तरह के अंजनों को तैयार करने की विधि सिखाई जाती है। (२७)स्वप्नशास्त्र कला-इस कला से स्वप्न कब आते हैं, क्यों आते हैं, इन का क्या स्वरूप है, कितने प्रकार के होते हैं, मध्यरात्रि के पहले और पीछे आने वाले स्वप्नों में से किस का प्रभाव अधिक होता है, स्वप्न बुरा है, या अच्छा है, यह कैसे जाना जा सकता है, इत्यादि अनेकों प्रकार की बातों का बोध होता है। (२८)इन्द्रजाल-कला-इस कला से हाथ की सफाई के अनेकों काम सीखना तथा दिखाना, किसी चीज़ के टुकड़े-टुकड़े करके पीछे उसे उस के पहले के रूप में ला दिखाना, लौकिक दृष्टि में किसी पुरुष को निर्जीव बना करके, सब के देखते-देखते फिर से उसे सजीव बना देना, किसी की दृष्टि को ऐसा बान्ध देना कि उसे जो कहा जाए वही दिखे, किसी चीज़ को टुकड़े-टुकड़े करके मुख द्वारा खा जाना और फिर उसे उस के पूर्वरूप में ही नाक या बगल या कान की ओर से निकाल कर दिखाना, इत्यादि बातों की पूरी-पूरी शिक्षा दी जाती है। . (29) कृषि-कर्म-कला-इस कला से भूमि की प्रकृति कैसी होती है, इस भूमि में कौन सी वस्तु अधिकता से उत्पन्न हो सकती है, अमुक वस्तु या अनाज या वृक्ष, लताएं अमुक समय में लगाए जाने चाहिएं, उन्हें अमुक-अमुक खाद देने से वे खूब फैलते हैं और फूलते हैं, खेती के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के किन-किन औज़ारों की आवश्यकता है, इत्यादि बातों का सांगोपांग ज्ञान कृषक लोगों को कराया जाता है। (30) वस्त्रविधि-कला-इस कला के द्वारा वस्त्र किन-किन पदार्थों से बनाए जाते हैं, उनकी उपज कहां, कब और कैसे उत्तम से उत्तम रूप में की जा सकती है, जिस कपास के तन्तु जितने ही अधिक लम्बे अधिक निकलते हैं, वह कैसा होता है, उत्तम या अधम कोटि के कपास, ऊन, टसर, रेशम, या पश्म की क्या पहचान है, इत्यादि बातों का पूरा-पूरा ज्ञान लोगों को कराया जाता है। 230 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (31) द्यूतकला-का शाब्दिक अर्थ है जूआ। जूआ भी प्राचीन काल में कलाओं में परिगणित होता था। इस का उद्देश्य केवल मनोविनोद रहता था। इस में होने वाली हार जीत शाब्दिक एवं मनोविनोद का एक प्रकार समझी जाती थी। मनोविनोद के साथ-साथ यह विजेता बनने के लिए बौद्धिक प्रगति का कारण भी बनता था। परन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया त्यों-त्यों इस कला का दुरुपयोग होने लगा। यह मात्र मनोविनोद की प्रक्रिया न रह कर जीवन के लिए अभिशाप का रूप धारण कर गई। उसी का यह दुःखान्त परिणाम हुआ कि धर्मराज युधिष्ठिर जैसे मेधावी व्यक्ति भी सती-शिरोमणी द्रौपदी जैसी आदर्श महिलाओं को दांव पर लगा बैठे और अन्त में उन्हें वनों में जीवन की घड़ियां व्यतीत करनी पड़ी। नल ने भी इसी कला के दुरुपयोग से अपने साम्राज्य से हाथ धोया था। ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं। सारांश यह है कि पहले समय में इस कला को मनोविनोद का एक साधन समझा जाता था। (32) व्यापार-कला-इस कला द्वारा, विशेषरूपेण लेन देन या खरीदने बेचने का काम करना सिखाया जाता है। व्यापार में सच्चाई और ईमानदारी की कितनी अधिक आवश्यकता है, सम्पत्ति के बढ़ाने के प्रधान साधन कौन-कौन से हैं, कल-कारखाने कहां डाले जाते हैं, कौन सा व्यापार कहां पर सुविधा-पूर्वक हो सकता है, इत्यादि बातों का भी इस कला द्वारा भान कराया जाता है। . (33) राजसेवा-कला-इस कला द्वारा लोगों को राजसेवा का बोध कराया जाता है। राजा को राज्य की रक्षा और हर प्रकार की उन्नति के लिए केवल बन्धे हुए टैक्स दे कर ही अलग हो जाना राजसेवा नहीं है, परन्तु राज्य पर या राजा पर कोई मामला आ पड़ने पर तन से, मन से और धन से सहायता पहुंचाना और उस की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व भी लगाने में संकुचित न होने का नाम राज-सेवा है। इत्यादि बातें भी इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं। . (34) शकुनविचार-कला-इस कला के द्वारा तरह-तरह के शकुन और अपशकुन को जानने की शक्ति मनुष्य में भली-भांति आ जाती है। प्रत्येक काम को आरम्भ करते समय लोग शकुन को सोचने लगते हैं। पशु-पक्षियों की बोली से उन के चलते समय दाहिने या बाएं आ पड़ने से, किसी सधवा या विधवा के सन्मुख आ जाने से, इत्यादि कई बातों से शुभ या अशुभ शकुन की जानकारी इस कला के द्वारा हो जाती है। (३५)वायुस्तम्भन कला-वायु को किस तरह रोका जा सकता है, उस का रुख मनचाही दिशा में किस प्रकार घुमाया जा सकता है, रुकी हुई वायु के बल और तोल का प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [231 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्दाजा कैसे लगाया जाता है, उनका कितना ज़बरदस्त बल होता है, उससे कौन-कौन से काम लिए जा सकते हैं, इत्यादि आवश्यक और उपयोगी अनेकों बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं। (३६)अग्निस्तम्भन कला-धधकती हुई अग्नि बिना किसी वस्तु को हानि पहुंचाए वहीं की वहीं कैसे ठहराई जा सकती है, चारों ओर से धक-धक करती हुई अग्नि में प्रवेश कर और मन चाहे उतने समय तक उस में ठहर कर बाल-बाल सुरक्षित उस से कैसे निकला जा सकता है, और आग के दहकते हुए अंगारों को हाथ या मुंह में कैसे रखा जा सकता है, इत्यादि अनेकों हितकारी बातों का ज्ञान इस कला द्वारा प्राप्त किया जाता है। (37) मेघवृष्टि-कला-मेघ कितने प्रकार के होते हैं, उनके बनने का समय कौनसा है, मूसलाधार वर्षा करने वाले मेघ कैसे रंगरूप के होते हैं, इन्द्रधनुष क्या है, वर्षा के समय ही इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है, अलग-अलग प्रकार का क्यों होता है, मध्याह्न में वह क्यों नहीं दीखता, बिजली क्या है, क्यों प्रकट होती है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा किया जाता है। (38) विलेपन-कला-विलेपन क्या है, यह देश, काल और पात्र की प्रकृति को पहचान कर शरीर को ताज़ा, नीरोग, सुगन्धित और यथोचित गर्म या ठण्डा रखने के लिए कैसे बनाया जाता है, किन-किन पदार्थों से बनता है, इस का उपयोग कब करना चाहिए, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा होता है। (39) मर्दन या घर्षण-कला-धर्मार्थकाममोक्षाणां, शरीरं मूलसाधनम्- के नियमानुसार यदि शरीर ही ठीक नहीं तो सारा मानव जीवन ही किरकिरा है। शरीर का घर्षण करने से त्वचा के सब छिद्र कैसे खोले जा सकते हैं, मर्दन करने की शास्त्रीय विधियां कौनकौन सी हैं, तेल आदि का मर्दन मास में अधिक से अधिक कितनी बार करना चाहिए, हाथ की रगड़ से शरीर में विद्युत का प्रवाह कैसे होने लगता है, तेलादि का मर्दन अपने हाथ से करने में औरों की अपेक्षा क्या विशेषता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा हो जाता है। (40) ऊर्ध्वगमन-कला-वाष्प (भांप) कैसे पैदा किया जाता है, उस की शक्ति का असर क्या किसी खास दिशा में ही पड़ सकता है या दाहिने, बाएं, ऊपर, नीचे जिधर भी चाहें उस से काम ले सकते हैं, उड़नखटोले और अनेकों प्रकार के अन्य वायुयानों की रचना कैसे होती है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा होता है। (41) सुवर्णसिद्धि-कला-इस कला के द्वारा खान से सोना निकालने के अतिरिक्त अन्य अमुक-अमुक पदार्थों के साथ-साथ अमुक-अमुक जड़ी बूटियों के रस, अमुक-अमुक 232 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्रा में मिला कर अमुक परिमाण की गरमी के द्वारा उस घोल को फूंकने से सोना बनाने की विधि का ज्ञान प्राप्त होता है। (42) रूपसिद्धि-कला-अपने रूप को कैसे निखारना चाहिए, इस के लिए शरीर के भीतर किन-किन पदार्थों को पहुंचाना होता है, और बाहिर किन-किन विलेपनों का व्यवहार करना चाहिए, ताकि चर्म में आमरण झुर्रियां न पड़ें, शरीर के डील-डौल को सुसंगठित बना कर उसे सदा के लिए वैसा ही गठीला और चुस्त बनाए रखने के लिए प्रतिदिन किस प्रकार के व्यायाम करने चाहिएं, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा हो जाता (43) घाटबन्धन-कला-घाट, पुल, नदी, नालों के बांध आदि कैसे बनाए जाते हैं, कहां बान्धना इनका आवश्यक और टिकाऊ तथा कम खर्चीला होता है, सड़कें, नालियां, मोरियां कहां और कैसे बनाई जानी चाहिएं, तरह-तरह के मकानों का निर्माण कैसे किया जाता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा किया जाता है। (44) पत्रछेदन-कला-किसी भी वृक्ष के कितने ही उंचे या नीचे या मध्य भाग वाले किसी भी निर्धारित पत्र को उस के निश्चित स्थान पर किसी भी निशाने द्वारा किसी निर्धारित समय के केवल एक ही बार में वेधने का काम इस कला के द्वारा सिखाया जाता है। - (45) मर्मभेदन कला-इस कला के द्वारा शरीर के किसी खास और निश्चित भाग को किसी आयुध द्वारा छेदन करने का काम सिखाया जाता है। (४६)लोकाचार-कला-लोकाचार-व्यवहार से अपना तथा संसार का उपकार कैसे होता है, लोकाचार से भ्रष्ट होने पर मनुष्य का सारा ज्ञान व्यर्थ कैसे हो जाता है, लोकआचार को धर्म की जड़ कहते हैं सो कैसे, आचार से दीर्घायु की प्राप्ति कैसे होती है, सुखी, दुखी पुण्यात्मा और पापात्मा इत्यादि प्रकार के जो प्राणी संसार में पाए जाते हैं, इनमें से प्रत्येक के साथ किस प्रकार का यथोचित आचार-व्यवहार किया जाए, ये सब बातें इस कला द्वारा जानी जाती हैं। ___. (47) लोकरञ्जन-कला-इस कला के द्वारा पुरुषों को भांति-भांति से लोकरञ्जन करने की व्यवहारिक शिक्षा दी जाती है। उदाहरण के लिए -कोई आदमी लोकरञ्जनार्थ इस प्रकार कई तरह से हंसता या रोता है कि दर्शकों को तो वह हंसता या रोता हुआ नज़र आता है, पर सचमुच में वह न तो आप हंसता ही है और न रोता ही है। (48) फलाकर्षण-कला-फलों का आकर्षण ऊपर, दाहिने या बाएं न होते हुए पृथ्वी की ओर ही क्यों होता है, प्रत्येक पदार्थ पृथ्वी से ऊपर की ओर चाहे फैंका जाए, या प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [233 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई अपनी मर्जी से कितना ही ऊपर क्यों न उड़ जाए, तब भी अन्त में उसे पृथ्वी पर ही गिरना पड़ता है या उसी की ओर आना पड़ता है, यह क्यों होता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा होता है। (49) अफल-अफलन-कला-वे चीजें वास्तव में फलवान् होने की योग्यता रखते हुए भी फलती नहीं हैं, मुख्यतः दो भागों में विभाजित की जाती हैं-एक तो स्थावर जैसे वृक्ष, लताएं आदि और दूसरी जंगम वस्तुएं, जो चलती फिरती हैं, जैसे मनुष्य या पशु आदि। कोई वृक्ष या लता फलती नहीं है तो क्या कारण है, कौन सा खाद उसे पहुंचाया जाए, तो वह फिर से फलवान् हो जाए या उस में कोई कीड़ा आदि न लग पाए, इसी प्रकार पुरुषों के सन्तान नहीं होती है, तो इस का मूल कारण क्या है, क्या पुरुष की जननेन्द्रिय किसी दोष से दूषित है, या पुरुष का वीर्य सन्तानोत्पादन करने में अशक्त है, अथवा स्त्री का ही रज किसी विशेष दोष से सन्तानोत्पादन करने में असमर्थ है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा किया जाता (५०)धार-बन्धन-कला-छुरे, भाले, तलवार आदि शस्त्रों की पैनी से पैनी धार को मन्त्र, तन्त्र या आत्मबल आदि किसी अन्य साधन द्वारा निष्फल बना कर उस पर दौड़तेदौड़ते चले जाना या इन शस्त्रों के द्वारा किसी पर प्रहार तो करना पर उसे तनिक भी चोट न पहुंचने देना अथवा बहते हुए पानी की धार को वहीं की वहीं रोक देना अथवा धारा को दो भागों में विभक्त करके मध्य में से मार्ग निकाल लेना, इत्यादि बातों की शिक्षा इस कला द्वारा दी जाती है। (५१)चित्र-कला-लेखक, कवि जिन बातों को लिख कर बड़े-बड़े विशाल ग्रन्थ तैयार कर देते हैं और पढ़े लिखे लोगों का मनोरञ्जन करते हैं एवं जीवन का पाठ पढ़ाते हैं, परन्तु उन सभी लम्बी, चौड़ी बातों को एक चित्रकार चित्र के द्वारा संसार के सन्मुख उपस्थित कर देता है, जिस को देख कर अनपढ़ लोग मनोरञ्जन कर लेते हैं एवं जिस से वे अपने को शिक्षित भी कर पाते हैं। इस कला में चित्र-निर्माण के सभी विकल्पों को सिखाया जाता है। (52) ग्रामवसावन-कला-ग्राम कैसे और कहां बसाए जाते हैं, पहाड़ों के ऊपर मरूभूमि में और दलदलों के पास ग्राम क्यों नहीं बसाए जाते, छोटी-छोटी पहाड़ियों और धारों की तलाइयां और मैदानों की भूमियां ही बस्तियों के लिए क्यों चुनी जाती हैं, कौन सी बस्ती बड़ी और कौन छोटी बन जाती है, इत्यादि बातों का बोध इस कला के द्वारा कराया जाता है। (53) कटक-उतारण-कला-छावनियां कहां डाली जानी चाहिएं, उन की रचना 234 ] 234 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय प्रथम श्रुतस्कंध Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे करनी चाहिए, उन के रसद का प्रबन्ध कहां, कैसे और कितना करके रखना चाहिए, शत्रु से कैसे सुरक्षित रहा जा सकता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है। (५४)शकटयुद्ध-कला-रथी का युद्ध रथी के साथ कैसे, कहां और कब तक होना चाहिए, रथी को कहां तक युद्धकला से परिचित होना चाहिए, रथ को किन-किन अस्त्र, शस्त्रों से सुसज्जित रखना चाहिए, इत्यादि बातों की शिक्षा इस कला के द्वारा दी जाती है। (55) गरुड़-युद्ध-कला-सेना की रचना आगे से छोटी, पतली और पीछे से क्रमशः मोटी क्यों रखनी चाहिए, सेना की ऐसा रचना करने से और शत्रुओं पर छापा मारने से क्या तात्कालिक प्रभाव रहता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है। (56) दृष्टियुद्ध-कला-आंखों से आंखें मिला कर परपक्ष के लोगों को कैसे बलहीन एवं निकम्मे बनाया जा सकता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता (57) वाग्-युद्ध-कला-युक्तिवाद, तर्कवाद और बुद्धिवाद की सहायता से परपक्ष के विषय का खण्डन करना और स्वपक्ष का मण्डन करना और भांति-भांति के सामान्य और गूढ़ विषयों पर शास्त्रार्थ करना, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है। (58) मुष्टि-युद्ध कला-हाथों को बान्धकर मुष्टि बना कर और उन के द्वारा नाना प्रकार से विधिपूर्वक घूसामारी खेल.करं परपक्ष को पराजित करना, इत्यादि बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं। ___(59) बाहु-युद्ध-कला-इस में मुष्टि के स्थान पर भुजाओं से युद्ध करने की शिक्षा दी जाती है। (60) दण्ड-युद्ध-कला-इस कला में दण्डों के द्वारा युद्ध करना सिखाया जाता है। कैसे और कितने लम्बे दण्ड होने चाहिएं और किस ढंग से चलाए जाने चाहिएं, ताकि शत्रु से अपने को सुरक्षितं रखा जा सके, इत्यादि बातें भी इस कला से सिखाई जाती हैं। - (61) शास्त्र-युद्धकला-इस कला के द्वारा पठित शास्त्रीय ज्ञान को खण्डनमण्डन के रूप में बोल कर या लिख कर प्रकट करने की युक्तियां सिखाई जाती हैं। (६२)सर्प-मर्दन-कला-सर्प के काटे हुओं की संजीवनी औषधियां कौन-कौन सी हैं, वे कौन सी जड़ी बूटियां हैं जिनके सूंघने या सुंघा देने मात्र से भयंकर से भयंकर ज़हरीले सर्यों का विष दूर किया जा सकता है, सो को कील कर कैसे रखा जा सकता है इत्यादि बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं। (63) भूतादि-मर्दन-कला-भूतादि क्या हैं, ये मुख्यतया कितने प्रकार के होते हैं, प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [235 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन में निर्बल और सबल जातियों के कौन से भूत होते हैं, इन को वश में करने की क्या रीति होती है, कौन से मन्त्र तथा तन्त्रों के आगे इन की शक्तियां काम नहीं कर पातीं। उन्हें कैसे, कहां, कब और कितने समय तक सिद्ध करना पड़ता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा सिखाया जाता है। (64) मन्त्रविधि-कला-मन्त्रों के जप जाप की कौन सी विधि है, कौन मन्त्र, कब, कहां, कैसे और कितने जप-जाप के पश्चात् सिद्ध होता है, जाप से जब वे सिद्ध हो जाते हैं, तब सम्पूर्ण ऐहिक इच्छाओं की पूर्ति कैसे होती है, उन से दैहिक, दैविक, और भौतिक बाधाएं निर्मूल कैसे की जाती हैं, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है। (65) यन्त्रविधि-कला-मुख से मन्त्रों का उच्चारण करते हुए किसी धातु के पत्रों या भोजपत्र या साधारण कागज़ या दीवार आदि पर नियमित खाने बनाना और उन में परिमित अंकों का भरना यन्त्र का लिखना कहलाता है। यह यन्त्र कब लिखे जाते हैं, मनोरथों के भेद से ये मुख्यतया कितने प्रकार के होते हैं, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा किया जाता (६६)तन्त्रविधि-कला-तरह-तरह के टोने करना, उतारे करना और विधान के साथ उन्हें बस्तियों के चौरास्तों पर रखना, झूठी पतलों की भोजन के पश्चात् कील को खोलना, धान की मुट्ठी आदि उतार कर किसी के सिरहाने रखना आदि-आदि कामों की विधियां इस कला के द्वारा लोगों को बताई जाती हैं। कलाकारों का कहना है कि इस कला के द्वारा कई प्रकार की दैहिक, दैविक और भौतिक बाधाएं आसानी के साथ निर्मूल की जा सकती हैं। (67) रूप-पाक-विधि-कला-अपने रूप को निखारने के लिए ऋतु, काल, देश की प्रकृति और अपनी प्रकृति का मेल मिला कर कौन-कौन पाकों का सेवन करते रहना चाहिए, ये पाक कैसे और कौन-कौन से पदार्थों के कितने-कितने परिमाण से बनते हैं, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला से लोगों को कराया जाता है। (६८)सुवर्ण-पाक-विधि-कला-इस कला के द्वारा पुरुष अनेक विधियों से नानाविध सुवर्ण के पाकों का निर्माण सीखा करते थे। इस में प्रथम विधिपूर्वक सोने को शोधना, फिर उस के नियमित परिमाण के साथ अन्यान्य आवश्यक पदार्थों तथा जड़ी बूटियों को मिलाकर पाक तैयार करना, तदनन्तर उस का विधि के अनुसार सेवन करना, इत्यादि बातें भी इस कला में बताई जाती हैं। (69) बन्धन-कला-किसी पर मन्त्र और दृष्टि आदि के बल से ऐसा प्रभाव 236 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय * [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डालना कि जिस से वह औरों की निगाह में बद्ध प्रतीत न हो सके परन्तु वह स्वयं को बद्ध समझता रहे / यही इस कला का उद्देश्य है। (70) मारण-कला-केवल मन्त्रों की सिद्धि और दृष्टिबल से बिना किसी भी प्रकार का किसी पुरुष-विशेष से युद्ध किए, यहां तक कि बिना उसे देखे भाले केवल उस का नाम और स्थान मालूम कर एवं बिना किसी भी प्रकार के शस्त्रों का उस पर प्रयोग किए उस के सिर को धड़ से अलग कर देना या अन्य किसी भी प्रकार से उसे मार गिराना इस कला का काम है। (७१)स्तम्भन-कला-किसी व्यक्ति विशेष से अपने पराए किसी वैर का बदला लेने के लिए उसे किसी निश्चित काल तक के लिए स्तम्भित कर रखना इस कला से लोग जान पाते हैं। (72) संजीवन-कला-किसी मृतप्राय या मृतक दिखने वाले व्यक्ति को जो अकाल में ही किसी कारण-विशेष से मृत्यु को प्राप्त होता दिखाई दे रहा हो, मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र आदि विधियों के बल या किसी भी प्रकार की संजीवनी जड़ी को उस के मृतप्राय शरीर से स्पर्श करा कर उसे पुनर्जीवित कर देना इस कला द्वारा लोग जान पाते हैं। शास्त्रों में 72 कलाएं पुरुषों की मानी जाती हैं, किन्तु प्रकृत सूत्र में उन कलाओं का एक नारी में सूचित करने का अर्थ है उस नारी के महान् पांडित्य को अभिव्यक्त करना, और टीकाकार का कहना है कि प्रायः पुरुष ही इन कलाओं का अभ्यास करते हैं, स्त्रियां तो प्रायः इन का ज्ञान मात्र रख सकती हैं। लेखाद्याः शकुनरुतपर्यन्ता गणित-प्रधाना कला प्रायः पुरुषाणामेवाभ्यासयोग्याः, स्त्रीणां तु विज्ञेया एव प्राय इति। "चउसट्ठि-गणिया-गुणोववेया-चतुष्पष्टिगणिका-गुणोपेता"-अर्थात् वह कामध्वजा गणिका, कामसूत्र वर्णिक गणिका के 64 गुण अपने में रखती थी। वात्स्यायन कामसूत्र . 1. यह कला वर्णन स्वर्गीय, जैनदिवाकर, प्रसिद्धवक्ता, पण्डित श्री चौथमल जी महाराज द्वारा विरचित "भगवान् महावीर का आदर्श-जीवन" नामक ग्रन्थ से उद्धृत किया गया है। शाब्दिक रचना में कुछ आवश्यक अन्तर रखा गया है और आवश्यक एवं प्रकरणानुसारी भाव ही संकलित किए गए हैं। कहीं वर्णन में स्वतन्त्रता से भी काम लिया गया है। 2. इस वर्णन से प्रतीत होता है कि टीकाकार श्री अभयदेव सूरि के मत में 72 कलाओं में से प्रथम की लेखन-कला है और अन्तिम कला का नाम शकनरुतकला है, परन्तु हमने जिन कलाओं का वर्णन ऊपर किया है, उन में पहली तो वृत्तिकार की मान्यतानुसार है परन्तु अन्तिम कला में भिन्नता है। इस का कारण यह है कि कलाओं का वर्णन प्रत्येक ग्रन्थ में प्रायः भिन्न-भिन्न रूप से पाया जाता है। ऐसा क्यों है, यह विद्वानों के लिए विचारणीय प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [237 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अष्टविध आलिंगन वर्णित हुए हैं, उन आठों में प्रत्येक के आठ-आठ भेद होने से 64 भेद गणिका के गुण कहलाते हैं। वात्स्यायनोक्तान्यालिंगनादीन्यष्टौ वस्तूनि, तानि च प्रत्येकमष्टभेदत्वाच्चतुःषष्टिर्भवन्ति चतुःषष्ट्या गणिकागुणैरुपेता या सा तथेति वृत्तिकारः। "एगूणतीसविसेसे रममाणी-एकोनत्रिंशद्विशेष्यां रममाणा-" यहां पठित जो विशेष पद है उसका अर्थ है-विषय अथवा विषय के गुण / विषय के गुण 29 होते हैं, इन में कामध्वजा गणिका रमण कर रही थी अर्थात् गणिका विषय के 29 गुणों से सम्पन्नं थी। वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में विषयगुणों का विस्तृत विवेचन किया गया है। "-एक्कवीसरतिगुणप्पहाणा-एकविंशतिरतिगुणप्रधाना-" अर्थात् कामध्वजा गणिका 21 रतिगुणों में प्रधान-निपुण थी। मोहनीयकर्म की उस प्रकृति का नाम रति है जिस के उदय से भोग में अनुरक्ति उत्पन्न होती है, अथवा मैथुनक्रीड़ा का नाम भी रति है। रति के गुण (भेद) 21 होते हैं, उन में यह गणिका निपुण थी।रतिगुणों का सांगोपांग वर्णन वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में किया गया है। "-बत्तीस-पुरिसोवयार-कुसला-द्वाविंशत्-पुरुषोपचारकुशला-" अर्थात् पुरुषों के 32 उपचारों में वह कामध्वजा गणिका कुशल थी। उपचार का अर्थ होता है-आदर, (सत्कार अथवा सभ्योचित व्यवहार। इन उपचारों में वह गणिका सिद्धहस्त थी। उपचारों का सविस्तृत व्याख्यान वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में किया गया है। "-नवंगसुत्तपडिबोहिया-प्रतिबोधितसुप्तनवांगा-" अर्थात् जगा लिए हैं सोए हुए नवांग जिसने, तात्पर्य यह है कि बाल्यकाल में सोए हुए नव अंग जिस के इस समय जागे हुए हैं अथवा जिसके नेत्र प्रभृति नव अंग पूर्णरूप से जागृत हैं। इसका भावार्थ यह है कि मानवी व्यक्ति की बाल्य अवस्था में उस के दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिह्वा, एक त्वचा और एक मन ये नौ अंग जागे हुए नहीं होते अर्थात् इन में किसी प्रकार का विकार (कामचेष्टा) उत्पन्न हुआ नहीं होता, ये उस समय निर्विकार-विकार से रहित होते हैं। यहां निर्विकार की सुप्त और विकृत की प्रबुद्ध-जागृत संज्ञा है। जिस समय युवावस्था का आगमन होता है, उस समय ये नौ ही अंग जाग उठते हैं, अर्थात् इन में विकार उत्पन्न हो जाता है। इस से सूत्रकार ने उक्त विशेषण द्वारा कामध्वजा को नवयुवती प्रमाणित किया है। "-अट्ठारस-देसीभासा-विसारया-अष्टादशदेशीभाषा-विशारदा-"अर्थात् 1 1. द्वे श्रोत्रे, द्वे चक्षुषी, द्वे घ्राणे, एका जिव्हा, एक त्वक्, एकं च मनः इत्येतानि नवांगानि सुप्तानीव सुप्तानि यौवनेन प्रतिबोधितानि-स्वार्थग्रहणपटुतां प्रापितानि यस्याः सा तथा (वृत्तिकारः)। . 238 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिलात (किरात-देश), २-बर्बर (अनार्य देशविशेष), ३-बकुश (अनार्य देशविशेष), ४यवन (अनार्य देशविशेष), ५-पह्नव (अनार्य देशविशेष), ६-इसिन (अनार्य देशविशेष), ७-चारुकिनक,८-लासक (अनार्य देशविशेष),९-लकुश (अनार्यदेशविशेष), १०-द्रविड़ (भारतीय देश), ११-सिंहल द्वीप (लंका द्वीप), 12- पुलिंद (अनार्य देशविशेष), १३-अरब (अरबदेश), १४-पक्कण (अनार्य देशविशेष), १५-बहली (भारत वर्ष का एक उत्तरीय देश), १६-मुरुण्ड (अनार्य देशविशेष), १७-शबर (अनार्य देशविशेष), १८-पारस (फारसईरान) इन 18 'देशों की भाषा-बोली से कामध्वजा गणिका सुपरिचित थी। इस वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि गणिका जहां काम-शास्त्र वर्णित विशेष रतिगुण आदि में निपुणता लिए हुए थी वहां वह भाषाशास्त्र के वैदूष्य से भी परिपूर्ण थी, और असाधारण एवं सर्वतोमुखी मस्तिष्क की स्वामिनी थी। "-सिंगारागारचारुवेसा-शृङ्गारागारचारुवेषा"-अर्थात् उसका सुन्दर वेष शृंगाररस का घर बना हुआ था। तात्पर्य यह है कि उस की वेष-भूषा इतनी मनोहर थी कि उस से वह शृङ्गार रस की एक जीतीजागती मूर्ति प्रतीत होती थी। "-गीय-रति-गन्धव्व-नट्ट कुसला-गीत-रतिगान्धर्वनाट्यकुशला-"अर्थात् वह गीत, रति, गान्धर्व और नाट्य आदि कलाओं में प्रवीण थी। तात्पर्य यह है कि वह एक ऊंचे दर्जे की कलाकार थी। गीत संगीत का ही दूसरा नाम है। रतिक्रीडाविशेष को कहते हैं। गान्धर्व-नृत्ययुक्त संगीत का नाम है, और केवल नृत्य की नाट्य संज्ञा है [गान्धर्वंनृत्ययुक्तगीतम्, नाट्यं तु नृत्यमेवेति-वृत्तिकारः] - "संगत गत" इस निर्देश से ग्रहण किया जाने वाला समस्त पाठ वृत्तिकार अभयदेव सूरि के उल्लेखानुसार निम्नलिखित है "-संगय-गय-भणिय-विहित-विलास-सललिय-संलाव-निउण-जुत्तोवयारकुसला" इति दृश्यम्, संगतान्युचितानि गीतादीनि यस्याः सा तथा सललिता प्रसन्नतोपेता ये संलापास्तेषु निपुणा या सा तथा, युक्ताः संगता ये उपचारा व्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः" अर्थात् उस के गमन, वचन और विहित-चेष्टाएं, समुचित थीं, वह मन को लुभाने वाले संभाषण में निपुण थी, और व्यवहारज्ञ एवं व्यवहार कुशल थी। "-सुन्दरत्थण." आदि समग्रपाठ का वृति में विवरणपूर्वक इस प्रकार निर्देश किया है "सुन्दर त्थण-जहण-वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-विलास-कलिया" इति 1. स्वतन्त्ररूप से 18 देशों का नाम कहीं देखने में नहीं आया परन्तु राजप्रश्नीय आदि सूत्रों में 18 देशों की दासियों का वर्णन मिलता है, उसी के आधार से ये 18 नाम संकलित किए गए हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [239 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तम् , नवरं जघनं पूर्वः कटिभागः, लावण्यमाकारस्य स्पृहणीयता, विलासः स्त्रीणां चेष्टाविशेषः"। अर्थात् उस के स्तन, 'जघन (कमर का अग्रभाग), बदन (मुख), कर (हाथ), चरण और नयन प्रभृति अंगप्रत्यंग बहुत सुन्दर थे और रूप वर्ण लावण्य (आकृति की सुन्दरता) हास तथा विलास (स्त्रियों की विशेष चेष्टा) बहुत मनोहर थे। "-ऊसियधया-उच्छ्रितध्वजा-" अर्थात् कामध्वजा गणिका के विशाल भवन पर ध्वजा (छोटा ध्वज) फहराया करती थी। ध्वज किसी भी राष्ट्र की पुण्यमयी संस्कृति का एवं राष्ट्र के तथागत पुरुषों के अमर इतिहास का पावन प्रतीक हुआ करता है। ध्वज को किसी भी स्थान पर लगाने का अर्थ है-अपनी संस्कृति एवं अपने अतीत राष्ट्रीय पूर्वजों के प्रति अपना सम्मान प्रकट करना तथा अपने राष्ट्र के गौरवानुभव का प्रदर्शन करना। ध्वज का सम्मान राष्ट्र के प्रत्येक निवासी का सम्मान होता है और उस का अपमान राष्ट्र के प्रत्येक निवासी के अपमान का संसूचक बनता है। इसी दृष्टि को सन्मुख रखते हुए राष्ट्रीय भावना के धनी लोग ध्वज को अपने मकानों पर लहरा कर अपने राष्ट्र के अतीत गौरव का प्रदर्शन करते हैं। सारांश यह है कि कामध्वजा गणिका का मानस राष्ट्रीय-भावना से समलंकृत था, वह गणिका होते हुए भी अपने राष्ट्र की संस्कृति एवं उसके इतिहास के प्रति महान् सम्मान लिए हुए थी, और साथ में वह उस का प्रदर्शन भी कर रही थी। "सहस्सलंभा-सहस्रलाभा-" अर्थात् वह कामध्वजा गणिका अपनी नृत्य, गीत आदि किसी भी कला के प्रदर्शन में हज़ार मुद्रा ग्रहण किया करती थी, अथवा सहवास के इच्छुक को एक सहस्र मुद्रा भेंट करनी होती थी अर्थात् उस के शरीर आदि का आतिथ्य उसे ही प्राप्त होता था जो हज़ार मुद्रा अर्पण करे। 1. कामी पुरुष स्त्री के स्तन, मुखादि अंगों को किन-किन से उपमित करते हैं, अर्थात् इन को किसकिस की उपमा देते हैं तथा ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में उन का वास्तविक स्वरूप क्या है, उस के लिए भर्तृहरि का निम्नोक्त श्लोक अवश्य अवलोकनीय हैस्तनौ मांस-ग्रन्थी, कनककलशावित्युपमितौ। मुखं श्लेष्मागारं, तदपि च शशांकेन तुलितम्॥ स्रवन्मूत्र-क्लिन्नं, करिवरकरस्पर्द्धि जघनम्। अहो ! निन्द्यं रूपं, कविजनविशेषैः गुरुकृतम्॥१॥[वैराग्यशतक] अर्थात्-यह कितना आश्चर्य है कि स्त्री के नितान्त गर्हित स्वरूप को कविजनों ने अत्यन्त सुन्दर पदार्थों से उपमित करके कितना गौरवान्वित कर दिया है जैसे कि-उसके वक्षस्थल पर लटकने वाली मांस की ग्रन्थियोंस्तनों को दो स्वर्ण घटों के समान बतलाया, श्लेष्मा बलगम के आगार रूप मुख को चन्द्रमा से उपमित किया और सदा मूत्र के परिस्राव से भीगे रहने वाले जघनों उरुओं को श्रेष्ठ हस्ती की सूंड से स्पर्धा करने वाले कम है। तात्पर्य यह है कि कवि जनों का यह अविचारित पक्षपात है जो कि वास्तविकता से दूर है। 240 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-विदिण्ण-छत्त-चामरवालवियणिया-वितीर्णछत्रचामरबालव्यजनिका-" अर्थात् राजा को ओर से दिया गया छत्र, चामर-चंवर और बालव्यजनिका-चंवरी या छोटा पंखा जिस को ऐसी, अर्थात् कामध्वजा गणिका की कलाओं से प्रसन्न हो कर राजा ने उसे पारितोषिकं के रूप में ये सन्मान सूचक छत्र, चामरादि दिए हुए थे। इन विशेषणों से कामध्वजा के विषय में इतना ही कह देना पर्याप्त है कि वह कोई साधारण बाज़ार में बैठने वाली वेश्या नहीं थी अपितु एक प्रसिद्ध कलाकार तथा राजमान्य असाधारण गणिका थी। "-कण्णीरहप्पयाया-कीरथप्रयाता-" अर्थात् वह गणिका कर्णीरथ के द्वारा आती जाती थी, अर्थात् उस के गमनागमन के लिए कर्णीरथ प्रधानरथ नियुक्त था। कीरथ यह उस समय एक प्रकार का प्रधान रथ माना जाता था, जो कि प्रायः समृद्धि-शाली व्यक्तियों के पास होता था। "-आहेवच्चं जाव विहरति" इस पाठ में उल्लिखित –"जाव-यावत्" पद से सूत्रकार को क्या विवक्षित है उस का सविवरण निर्देश वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है "-आहेवच्चं-" त्ति आधिपत्यम् अधिपतिकर्म, इह यावत्करणादिदं दृश्यम् "पोरेवच्चं-"पुरोवर्तित्वमग्रेसरत्वमित्यर्थः। "-भट्टित्तं-भर्तृत्वं पोषकत्वम्""-सामित्तं-" स्वस्वामि-सम्बन्धमात्रम्," -महत्तरगत्तं-" महत्तरगत्वं शेषवेश्या-जनापेक्षा महत्तमताम् "आणाईसरसेणावच्चं-" आज्ञेश्वरः आज्ञा-प्रधानो यः सेनापतिः, सैन्यनायकस्तस्य भावः कर्म वा आज्ञेश्वरसेनापत्यम्, "-कारेमाणा-"कारयन्ती परैः "-पालेमाणा-" पालयन्ती स्वयमिति। अर्थात् वह गणिका हज़ारों गणिकाओं का आधिपत्य, और पुरोवर्तित्व करती थी। तात्पर्य यह है कि उन सब में वह प्रधान तथा अग्रेसर थी। उन की पोषिका-पालन पोषण करने वाली थी। उन के साथ उस का सेविका और स्वामिनी जैसा सम्बन्ध था। सारांश यह है कि सहस्रों वेश्याएं उसकी आज्ञा में रहती थीं और वह उनकी पूरी पूरी देख रेख रखती थी। संक्षेप में कहें तो कामध्वजा वाणिजग्राम नगर की सर्व-प्रधान राजमान्य और सुप्रसिद्ध कलाकार वेश्या थी। - इस प्रकार से प्रस्तुत सूत्र में कामध्वजा गणिका के सांसारिक वैभव का वर्णन प्रस्तावित किया गया है। इस में सन्देह नहीं कि स्त्री-जाति की प्रवृत्ति प्रायः संसाराभिमुखी होती है, वह सांसारिक विषय-वासनाओं की पूर्ति के लिए विविध प्रकार के साधनों को एकत्रित करने में व्यस्त रहती है। परन्तु इस में भी शंका नहीं की जा सकती कि जब उस की यह प्रवृत्ति कभी सदाचाराभिगामिनी बन जाती है और उस की हृदय-स्थली पर धार्मिक भावनाओं का स्रोत बहने लग जाता है तो वही स्त्री-जाति संसार के सामने एक ऐसा पुनीत आदर्श उपस्थित करती है, कि जिस में संसार को एक नए ही स्वरूप में अपने आप को अवलोकन करने का पुनीत प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [241 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर प्राप्त होता है। स्त्री-जाति उन रत्नों की खान है जिन का मूल्य संसार में आंका ही नहीं जा सकता। जिन महापुरुषों की चरण-रज से हमारी यह भारत-वसुंधरा पुण्य भूमि कहलाने का गौरव प्राप्त करती है उन महापुरुषों को जन्म देने वाली यह स्त्री जाति ही तो है। हमारे विचारानुसार तो संसार के उत्थान और पतन दोनों में ही स्त्री-जाति को प्राधान्य प्राप्त है। अस्तु। अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के नायक का वर्णन करते हैं मूल-तत्थ णं वाणियग्गामे विजयमित्ते नामं सत्थवाहे परिवसति अड्ढे / तस्स णं विजयमित्तस्स सुभद्दा नाम भारिया होत्था। अहीण / तस्स णं विजयमित्तस्स पुत्ते सुभद्दाए भारियाए अत्तए उज्झितए नामंदारए होत्था, अहीण. जाव सुरूवे। छाया-तत्र वाणिजग्रामे विजय-मित्रो नाम सार्थवाहः परिवसति आढ्य / तस्य विजयमित्रस्य सुभद्रा नाम भार्याऽभूत् / अहीन / तस्य विजयमित्रस्य पुत्रः सुभद्रायाः भार्याया आत्मजः उज्झितको नाम दारकोऽभूत्। अहीन यावत् सुरूपः। ___ पदार्थ-तत्थ णं-उस। वाणियग्गामे-वाणिज-ग्राम नामक नगर में। विजयमित्ते-विजयमित्र। णाम-नाम का। सत्थवाहे-सार्थवाह-व्यापारी यात्रियों के समूह का मुखिया। परिवसति-रहता था जो कि। अड्ढे०-धनी-धनवान् था। तस्स णं-उस। विजयमित्तस्स-विजयमित्र की। अहीण-अन्यून पञ्चेन्द्रिय शरीर सम्पन्न / सुभद्दा-सुभद्रा। नाम-नाम की। भारिया-भार्या होत्था-थी। तस्स णं-उस। विजयमित्तस्स-विजयमित्र का। पुत्ते-पुत्र।सुभद्दाए भारियाए-सुभद्रा भार्या का।अत्तए-आत्मज / उज्झितएउज्झितक। नाम-नाम का। दारए-बालक। होत्था-था जोकि / अहीण-अन्यून पंचेन्द्रिय शरीर सम्पन्न। जाव-यावत्। सुरूवे-सुन्दर रूप वाला था। मूलार्थ-उस वाणिजग्राम नगर में विजयमित्र नाम का एक धनी सार्थवाह-व्यापारी वर्ग का मुखिया निवास किया करता था। उस विजय मित्र की सर्वांग-सम्पन्न सुभद्रा नाम की भार्या थी। उस विजयमित्र का पुत्र और सुभद्रा का आत्मज उज्झितक नाम का एक सर्वांग-सम्पन्न और रूपवान् बालक था। ____टीका-कामध्वजा गणिका के वर्णन के अनन्तर सूत्रकार उज्झितक के माता-पिता का वर्णन कर रहे हैं। वाणिज-ग्राम नगर में विजयमित्र नाम का एक सार्थवाह (व्यापारी वर्ग के मुख्य-नायक को अथवा यात्री-समूह के प्रधान को सार्थवाह कहते हैं) निवास किया करता था, जोकि बड़ा धनवान् था, उसकी पत्नी का नाम सुभद्रा था। तथा उनके उज्झितक नाम का एक बालक था जो कि सुन्दर शरीर अथच मनोहर आकृति वाला था। 242 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकार के "-अड्ढे-'" इस सांकेतिक पाठ से "-दित्ते, वित्थिण्ण-विउलभवण-सयणासण-जाण-वाहणाइण्णे, बहुधण-बहुजायरूवरयए, आओगपओगसंपउत्ते, विच्छड्डियविउलभत्तपाणे,बहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूए, बहुजणस्स अपरिभूए-" [छाया-दीप्तो, विस्तीर्ण-विपुल-भवन-शयनासन यान-वाहनाकीर्णो, बहुधन-बहुजातरूपरजत, आयोग-प्रयोगसंप्रयुक्तो, विच्छर्दित-विपुल-भक्तपानो, बहुदासीदास-गोमहिषगवेलकप्रभूतो, बहुजनस्य अपरिभूतः। यह ग्रहण करना। इस का अर्थ निम्नोक्त है वह विजयमित्र सार्थवाह दीप्त तेजस्वी, विस्तृत और विपुल भवन (मकान), शयन (शय्या), और आसन (चौंकी आदि), यान (गाड़ी आदि) और वाहन (घोड़े आदि) तथा धन, सुवर्ण और रजत (चान्दी) की बहुलता से युक्त था, अधमर्गों-ऋण लेने वाले को वह अनेक प्रकार से ब्याज पर रुपया दिया करता था। उसके वहां भोजन करने के अनन्तर भी बहुत सा अन्न बाकी बच जाता था, उसके घर में दास, दासी आदि पुरुष और गाय, भैंस और बकरी आदि पशु थे, तथा वह बहुतों से भी पराभव को प्राप्त नहीं हो पाता था अथवा जनता में वह सशक्त एवं सम्माननीय था। -"-अहीण-." इस संकेत से वह समस्त पाठ जो कि प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगादेवी के सम्बन्ध में वर्णित किया गया है, उसका ग्रहण समझना। ___"-अहीण. जाव सुरूवे-' इस पाठ के "जाव-यावत्" पद से- "अहीण पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरे, लक्खणवंजणगुणोववेए, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगे, ससिसोमाकारे, कंते, पियदंसणे-'" [छाया-अहीन परिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरः, लक्षणव्यंजनगुणोपेतः, मानोन्मान-प्रमाणपरिपूर्णसुजातसर्वांगसुन्दरांग: शशिसौम्याकारः, कान्तः, प्रियदर्शनः] यह समस्त पाठ ग्रहण करना अर्थात् वह उज्झितक कुमार कैसा था, इस का वर्णन इस पाठ में किया गया है। तात्पर्य यह है कि उसकी पांचों इन्द्रियां सम्पूर्ण एवं निर्दोष थीं और उसका शरीर लक्षण, व्यंजन और गुणों से युक्त था, तथा मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण एवं अंगोपांग-गत सौन्दर्य से भरपूर था, वह चन्द्रमा के समान सौम्य (शान्त), कान्त-मनोहर और प्रियदर्शन था, अर्थात् कुमार उज्झितक में शरीर के सभी शुभ लक्षण विद्यमान थे। ... 1. लक्षण-विद्या, धन और प्रभुत्व आदि के परिचायक हस्तगत (हाथ की रेखाओं में बने हुए) स्वस्तिक आदि ही यहां पर लक्षण शब्द से अभिप्रेत हैं। व्यंजन-शरीरगत मस्सा, तिलक आदि चिन्हों की व्यंजन संज्ञा है। गुण-विनय, सुशीलता और सेवा-भाव आदि गुण कहे जाते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [243 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के वाणिजग्राम नगर में पधारने के विषय में कहते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे।परिसा निग्गता राया निग्गओ जहा कूणिओ निग्गओ।धम्मो कहिओ।परिसा राया य पडिगओ।तेणं कालेणं तेणं समएणंसमणस्स भगवओ महावीरस्सजेटेअंतेवासी इंदभूती जावलेसे छटुंछटेणं जहा पण्णत्तीए पढमाए जाव जेणेव वाणियग्गामे तेणेव उवा ।वाणियग्गामे उच्चणीय अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव ओगाढे। __छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः। परिषद् निर्गता। राजा निर्गतो यथा कूणिको निर्गतः। धर्मः कथितः। परिषद् राजा च प्रतिगतः। तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूतिः यावत् लेश्यः षष्ठषष्ठेन यथा प्रज्ञप्तौ प्रथमायां यावत् यत्रैव वाणिजग्रामस्तत्रैवोपा वाणिजग्रामे उच्चनीच अटन् यत्रैव राजमार्गः तत्रैवावगाढ़ः। पदार्थ-तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। समणे-श्रमण। भगवंभगवान्। महावीरे-महावीर। समोसढे-पधारे। परिसा निग्गता-परिषद्-नगर की जनता भगवान् के दर्शनार्थ नगर से निकली। जहा-जिस प्रकार। कूणिओ निग्गओ-महाराज कूणिक नगर से निकला था उसी प्रकार / राया-वाणिजग्राम का राजा मित्र भी। निग्गओ-नगर से भगवान् के दर्शनार्थ निकला। धम्मोभगवान् ने धर्मोपदेश। कहिओ-फरमाया। परिसा य-और परिषद् -जनता तथा। राया-राजा। पडिगओवापिस चले गए। तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में / समणस्स-श्रमण / भगवओभगवान्। महावीरस्स-महावीर के। जेद्वे-ज्येष्ठ। अंतेवासी-शिष्य। इंदभूती-इन्द्रभूति। जाव-यावत्। लेसे-तेजोलेश्या को संक्षिप्त किए हुए। छटुंछट्टेणं-बेले-बेले की तपस्या करते हुए। जहा-जिस प्रकार। मान-जिसके द्वारा पदार्थ मापा जाए उसे मान कहते हैं। अथवा कोई पुरुष जल से भरे हुए कुंड में प्रवेश करे और प्रवेश करने पर यदि कुंड में से एक द्रोण-[चार आढ़क प्रमाण 16 सेर] प्रमाण जल बाहर निकल जावे तो वह पुरुष मानयुक्त कहलाता है। उन्मान-मान से अधिक अथवा अर्द्धभार को उन्मान कहते हैं। प्रमाण-अपनी अंगुलि से 108 अंगुलि पर्यन्त ऊंचाई की प्रमाण संज्ञा है, जिस पुरुष की इतनी उंचाई हो वह प्रमाणयुक्त कहलाता है। इस प्रकार मान, उन्मान और प्रमाण युक्त तथा योग्य अवयवों से संघटित शरीर वाले पुरुष को सुजातसर्वांगसुन्दर कहा जाता है। प्रियदर्शन-जिस के देखने से मन में आकर्षण पैदा हो, अथवा जिस का दर्शन मन को लभावे उसे प्रियदर्शन कहते हैं। 244 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णत्तीए-श्री भगवती सूत्र में प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार / पढमाए-प्रथम प्रहर में स्वाध्याय कर। जाव-यावत्। जेणेव-जहां / वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नगर है। तेणेव-वहीं पर। उवा०-आ जाते हैं। वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नगर में / उच्चणीयः-ऊंच, नीच सभी घरों में भिक्षार्थ। अडमाणे-फिरते हुए। जेणेव-जहां। रायमग्गे-राजमार्ग-प्रधान मार्ग है। तेणेव-वहां पर। ओगाढे-पधारे। मूलार्थ-उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वाणिजग्राम नामक नगर में [ नगर के बाहर ईशान कोण में अवस्थित दूतीपलाश नामक उद्यान में ] पधारे। प्रजा उनके दर्शनार्थ नगर से निकली और वहाँ का राजा भी कूणिक नरेश की तरह भगवान् के दर्शन करने को चला, भगवान् ने धर्म का उपदेश दिया, उपदेश को सुन कर प्रजा और राजा दोनों वापिस गए। उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार जो कि तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके अपने अन्दर धारण किए हुए हैं तथा बेले-बेले पारणा करने वाले हैं, एवं भगवती सूत्र में वर्णित जीवनचर्या चलाने वाले हैं, भिक्षा के लिए वाणिजग्राम नगर में गए, वहां ऊंच-नीच अर्थात् साधारण और असाधारण सभी घरों में भिक्षा के निमित्त भ्रमण करते हुए राजमार्ग पर पधारे। टीका-उस काल तथा समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वाणिजग्राम के बाहर ईशान कोण में स्थित दूतीपलाश नामक उद्यान में पधारे। भगवान् के आगमन की सूचना मिलते ही नागरिक लोग भगवान् के दर्शनार्थ नगर से निकले पड़े। इधर महाराज मित्र ने भी कूणिक नरेश की भांति बड़ी सजधज से प्रभुदर्शनार्थ नगर से प्रस्थान किया। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भगवान् महावीर के चम्पा नगरी में पधारने पर महाराज कूणिक बड़े समारोह के साथ उनके दर्शन करने गए थे उसी प्रकार मित्र नरेश भी गए। तदनन्तर चारों प्रकार की परिषद् के उपस्थित हो जाने पर भगवान् ने उसे धर्म का उपदेश दिया। धर्मोपदेश सुनकर राजा तथा नागरिक लोग वापस अपने-अपने स्थान को चले गए, अर्थात् भगवान् के मुखारविन्द से श्रवण किए हुए धर्मोपदेश का स्मरण करते हुए सानन्द अपने-अपने घरों को वापिस आ गए। __ प्रस्तुत सूत्र में "धम्मो कहिओ" इस संकेत से औपपातिक सूत्र में वर्णित धर्मकथा की . 1. औपपातिक सूत्र के ३४वें सूत्र में "-इसिपरिसाए, मुणिपरिसाए, जइपरिसाए, देवपरिसाए-" ऐसा उल्लेख पाया जाता है, उसी के आधार पर चार प्रकार की परिषद् का निर्देश किया है। वैसे तो परिषद् के (1) ज्ञा (2) अज्ञा (3) दुर्विग्धा ये तीन भेद होते हैं / गुण दोष के विवेचन में हंसनी के समान और गंभीर विचारणा के द्वारा पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को अवगत करने वाली को "ज्ञा" परिषद् कहते हैं। अल्प ज्ञान वाली परन्तु सहज में ही उद्देश को ग्रहण करने में समर्थ परिषद् का नाम "अज्ञा" है। इन दोनों से भिन्न को दुर्विदग्धा कहते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [245 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचना देनी सूत्रकार को अभीष्ट है। यद्यपि भगवान् का धर्मोपदेश तो अन्यान्य आगमों में भी वर्णित हुआ है, परन्तु इस में विशेष रूप से वर्णित होने के कारण सूत्रों में उल्लिखित उक्त पदों से औपपातिक सूत्रगत वर्णन की ओर ही संकेत किया गया है। इसी शैली को प्रायः सर्वत्र अपनाया गया है। "-इंदभूती जाव लेसे-" पाठान्तर गत "-जाव-यावत्-" पद से "-इन्दभूती अणगारे गोयमसगोत्ते-" से ले कर "-'संखित्तविउलतेयलेसे"-पर्यन्त समग्र पाठ का ग्रहण समझना। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ २अन्तेवासी-प्रधान शिष्य गौतम-गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार षष्ठभक्त [बेले-बेले पारना करना] की तपश्चर्या रूप तप के अनुष्ठान से आत्मशुद्धि में प्रवृत्त हुए भगवान् की पर्युपासना में लगे हुए थे। समस्त वर्णन व्याख्या-प्रज्ञप्ति में लिखा गया है। व्याख्या-प्रज्ञप्ति-भगवती सूत्र का वह पाठ इस प्रकार है छटुंछटेणं अणिक्खित्ते णं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तए णं से भगवं गोयमे छट्ठ-क्खमणपारणगंसि'- इत्यादि। "-पढमाए जाव" यहां के "-जाव-यावत्-" पद से "-पढ़माए पोरसीए सज्झायं करेति, बीयाए पोरसीए झाणं झियाति, तइयाए पोरसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेति, भायणवत्थाणि पडिलेहेति, भायणाणि पमज्जति, भायणाणि उग्गाहेति, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति 2 ता समणं 3 वंदति 2 त्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे छट्ठक्खमणपारणगंसि वाणियग्गामे णगरे उच्चणीयमज्झिमकुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।तए णं भगवं गोयमे समणेणं 3 अब्भणुण्णाते समाणे समणस्स 3 अंतियातो पडिनिक्खमति, अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाते दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे" इस पाठ का स्मरण करना ही सूत्रकार को अभिप्रेत है। इस समग्र पाठ का भावार्थ इस प्रकार है तपोमय जीवन व्यतीत करने वाले भगवान् गौतम स्वामी निरन्तर षष्ठतप-बेले-बेले पारना द्वारा आत्म-शुद्धि में प्रवृत्त होते हुए पारणे के दिन प्रथम पहर में स्वाध्याय करते, दूसरे में ध्यानारूढ़ होते, तीसरे प्रहर में कायिक और मानसिक चापल्य से रहित होकर मुखवस्त्रिका की तथा भाजन एवं वस्त्रों की प्रतिलेखना करते हैं। तदनन्तर पात्रों को झोली में रख कर और 1. इस समग्र पाठ के लिए देखो भगवती सूत्र, श० 1, उ० 1, सू० 7 / 2. अन्ते समीपे वसतीत्येवं शीलोऽन्तेवासी-शिष्यः, अन्तेवासी सम्यग् आज्ञाविधायी, इतिभावः। 246 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झोली को ग्रहण कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित होकर वन्दना नमस्कार करने के पश्चात् निवेदन करते हैं कि भगवन् ! आप की आज्ञा हो तो मैं बेले के पारणे के निमित्त भिक्षार्थ वाणिजग्राम में जाना चाहता हूं? प्रभु के "-जैसा तुमको सुख हो करो परन्तु विलम्ब मत करो-" ऐसा कहने पर वे-गौतम स्वामी भगवान् के पास से चल कर ईर्यासमिति का पालन करते हुए वाणिजग्राम में पहुंच जाते हैं, वहां साधु वृत्ति के अनुसार धनी-निर्धन आदि सभी घरों में भ्रमण करते हुए राजमार्ग में पधार जाते हैं। - वहां पहुंचने पर गौतम स्वामी ने जो कुछ देखा अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तत्थ णं बहवे हत्थी पासति, सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिते, उप्पीलियकच्छे, उद्दामियघंटे,णाणामणिरयणविविहगेविजउत्तरकंचुइज्जे, पडिकप्पिते, झयपडागवरपंचामेल-आरूढहत्थारोहे गहियाउहपहरणे।अण्णे य तत्थ बहवे आसे पासति, सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिते, आविद्धगुडे, ओसारियपक्खारे, उत्तरकंचुड्य-ओचूलमुहचंडाधर-चामरथासकपरिमंडियकडीए, आरूढअस्सारोहे, गहियाउहपहरणे। अण्णे य तत्थ बहवे पुरिसे पासति, सन्नद्धबद्धवम्मियकवए, उप्पीलियसरासणपट्टीए, पिणद्धगेवेज्जे, विमलवरबद्धचिंधपट्टे, गहियाउहपहरणे। तेसिंचणं पुरिसाणं मझगयं एगं पुरिसं पासति अवओडगबंधणं उक्कित्तकण्णनासं, नेहत्तुप्पियगत्तं, वज्झकरकडिजुयनियत्थं, कंठे गुणरत्तमल्लदामं, चुण्णगुंडियगत्तं, बुण्णयं, वज्झपाणपीयं, तिलंतिलं चेव छिज्जमाणं, काकणिमंसाइं खावियंतं पावं, कक्करसएहिं हम्ममाणं, अणेगनरनारिसंपरिवुडं, चच्चरे चच्चरे खंडपडहएणं उग्घोसिज्जमाणं इमं च णं एयारूवं उग्घोसणं सुणेति-नो खलु देवाणुप्पिया! उज्झियगस्स दारगस्स केई राया वा राय-पुत्ते वा अवरज्झति, अप्पणो से सयाई कम्माइं अवरझंति। ' छाया-तत्र बहून् हस्तिनः पश्यति सन्नद्धबद्धवर्मिकगुडितान्, उत्पीडितकक्षान्, उद्दामितघंटान्, नानामणिरत्नविविधौवेयकोत्तरकंचुकितान्, प्रतिकल्पितान् , ध्वजपताकावरपंचापीडाऽऽरूढ़हस्त्यारोहान् , गृहीतायुधप्रहरणान् , अन्यांश्च तत्र बहूनश्वान् पश्यति, सनद्धबद्धवर्मिकगुडितान्, आविद्धगुडान् ,अवसारितपक्खरान् उत्तरकंचुकिताऽवचूलकमुखचंडाधर-चामरस्थासकपरिमंडितकटिकान् , आरुढ़ाश्वारोहान् , गृहीतायुधप्रहरणान्। अन्यां च तत्र बहून् पुरुषान् पश्यति सन्नद्धबद्धवर्मितकवचान् प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [247 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पीडितशरासनपट्टिकान् , पिनद्धौवेयकान् , विमल-वर-बद्ध-चिन्ह-पट्टान्, गृहीतायुधप्रहरणान्, तेषां च पुरुषाणां मध्यगतमेकं पुरुषं पश्यति, अवकोटकबन्धनम्, उत्कृत्तकर्णनासं, स्नेहस्नेहितगात्रम् वध्यकरकटियुगनिवसितं, कंठे गुणरक्तमाल्यदामानं, चूर्णगुण्डितगात्रम्. सत्रस्तं, वध्यप्राणप्रियम् बाह्यप्राणप्रियम्) तिलंतिलं चैव च्छिद्यमानम्, काकणीमांसानि खाद्यमानम्, पापं, कर्कशतैर्हन्यमानम् , अनेकनरनारी-संपरिवृतं चत्वरे चत्वरे खण्डपटहेनोद्घोष्यमाणम्, इदं चैतद्प मुद्घोषणं शृणोति नो खलु देवानुप्रिया! उज्झितकस्य दारकस्य कश्चिद् राजा वा राजपुत्रो वाऽऽपराध्यति, आत्मनस्तस्य स्वकानि कर्माण्यपराध्यन्ति। ___ पदार्थ-तत्थ णं-वहां पर। बहवे-अनेक। हत्थी-हाथियों को। पासति-देखते हैं जो कि। सन्नद्धबद्ध-वम्मियगुडिते-युद्ध के लिए उद्यत हैं, जिन्हें कवच पहनाए हुए हैं तथा जिन्होंने शरीर रक्षक उपकरण [झूला] आदि धारण किए हुए हैं। उप्पीलिय-कच्छे-दृढ़ उरोबन्धन-उदरबन्धन से युक्त हैं। उद्दामियघंटे-जिन के दोनों ओर घण्टे लटक रहे हैं। णाणामणिरयणविविहगेविजउत्तरकंचुइजे-नाना प्रकार के मणि, रत्न, विविध-भांति के ग्रैवेयक-ग्रीवा के भूषण तथा बख्तर विशेष से युक्त। पडिकप्पितेपरिकल्पित विभूषित अर्थात् कवचादि पूर्ण सामग्री से युक्त / झयपडागवरपंचामेल-आरूढहत्थारोहेध्वज और पताकाओं से सुशोभित, पंच शिरोभूषणों से युक्त, तथा हस्त्यारोहों-हाथीवानों-हाथी को हांकने वालों से युक्त, अर्थात् उन पर महावत बैठे हुए हैं। गहियाउहपहर॑णे-आयुध और प्रहरण ग्रहण किए हुए हैं अर्थात्-इन हाथियों पर आयुध (वह शस्त्र जो फैंका नहीं जाता, तलवार आदि) तथा प्रहरण (वह शस्त्र जो फैंका जा सकता है तीर आदि) लदे हुए हैं अथवा उन हाथियों पर बैठे हुए महावतों ने आयुधों और प्रहरणों को धारण किया हुआ है। अण्णे य-और भी। तत्थ-वहां पर / बहवे-बहुत से। आसे-अश्वोंघोड़ों को। पासति-देखते हैं जो कि। सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिते-युद्ध के लिए उद्यत हैं, जिन्हें कवच पहनाये गए हैं, तथा जिन्हें शारीरिक रक्षा के उपकरण पहनाए गए हैं। आविद्धगुडे-सोने-चांदी की बनी हुई झूल से युक्त। ओसारियपक्खरे-लटकाए हुए तनुत्राण से युक्त / उत्तरकंचुइयओचूलमुहचंडाधरचामर-थासक-परिमंडियकडीए-बख्तर विशेष से युक्त, लगाम से अन्वित मुख वाले, क्रोध पूर्ण अधरों से युक्त, तथा चामर, स्थासक (आभरण विशेष) से परिमंडित-विभूषित हैं कटि-भाग जिनका ऐसे। आरूढअस्सारोहे-जिन पर अश्वारोही-घुड़सवार आरुढ हो रहे हैं। गहियाउहपहरणे-आयुध और प्रहरण ग्रहण किए हुए हैं अर्थात् उन घोड़ों पर आयुध और प्रहरण लादे हुए हैं अथवा उन पर बैठने वाले घुड़सवारों ने आयुधों और प्रहरणों को धारण किया हुआ है। अण्णे य- और भी। तत्थ णं-वहां पर। पुरिसे-पुरुषों को। पासति-देखते हैं जोकि / सन्नद्धबद्धवम्मियकवए-कवच को धारण किए हुए हैं जो कवच दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए एवं लोहमय कसूलकादि से युक्त हैं / उप्पीलियसरासणपट्टीए-जिन्होंने शरासनपट्टिका-धनुष बैंचने के समय हाथ की रक्षा के लिए बांधा जाने वाला चर्मपट्ट-चमड़े की पट्टी कस कर बांधी हुई है। पिणद्धगेविजे-जिन्होंने ग्रैवेयक-कण्ठाभरण धारण किए हुए हैं। विमलवरबद्धचिंधपट्टे 248 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्होंने उत्तम तथा निर्मल चिन्हपट्ट-निशानी रूप वस्त्र खंड धारण किए हुए हैं। गहियाउहपहरणेजिन्होंने आयुध और प्रहरण ग्रहण किए हुए हैं ऐसे पुरुषों को देखते हैं। तेसिंचणं-उन। पुरिसाणं-पुरुषों के। मझगयं-मध्यगत। एगं-एक। पुरिसं-पुरुष को। पासति-देखते हैं, अवओडगबंधणं-गले और दोनों हाथों को मोड़ कर पृष्ठभाग में जिस के दोनों हाथ रस्सी से बान्धे हुए हैं। उक्कित्तकण्णनासंजिस के कान और नाक कटे हुए हैं। नेहत्तुप्पियगत्तं-जिस का शरीर घृत से स्निग्ध किया हुआ है। वज्झकरकडिजुयनियत्थं-जिस के कर और कटिप्रदेश में वध्यपुरुषोचित वस्त्र-युग्म धारण किया हुआ है। अथवा बन्धे हुए हाथ जिस के कडियुग (हथकड़ियों) पर रखे हुए हैं अर्थात् जिस के दोनों हाथों में हथकड़ियां पड़ी हुई हैं। कंठेगुणरत्तमल्लदाम-जिस के कण्ठ में कण्ठसूत्र-धागे के समान लाल पुष्पों की माला है। चुण्णगुंडियगत्तं-जिस का शरीर गेरू के चूर्ण से पोता हुआ है। बुण्णयं-जो कि भय से त्रास को प्राप्त हो रहा है। वज्झपाणपीयं-जिसे प्राण प्रिय हो रहे हैं अर्थात् जो जीवन का इच्छुक है। तिल-तिलं चेव छिज्जमाणं-जिस को तिल तिल कर के काटा जा रहा है। काकणीमंसाइं खावियंतंजिसे शरीर के छोटे-छोटे मांस के टुकड़े खिलाए जा रहे हैं अथवा जिस के मांस के छोटे-छोटे टुकड़े काक आदि पक्षियों के खाने योग्य हो रहे हैं। पावं-पापी-पापात्मा। कक्करसएहि-सैंकड़ो पत्थरों से अथवा सैंकड़ों चाबुकों से। हम्ममाणं-मारा जा रहा है। अणेगनरनारीसंपरिवुडं-जो अनेक स्त्री-पुरुषों से घिरा हुआ है। चच्चरे चच्चरे-प्रत्येक चत्वर [जहां पर चार से अधिक रास्ते मिलते हैं उसे चत्वर कहते हैं] में। खंडपडहएणं-फूटे हुए ढोल से। उग्घोसिज्जमाणं-उद्घोषित किया जा रहा है। वहां पर / इमंच णं एयारूवं-इस प्रकार की। उग्घोसणं-उद्घोषणा को। सुणेति-सुनते हैं। एवं खलु देवाणुप्पिया!इस प्रकार निश्चय ही हे महानुभावो! उझियगस्स दारगस्स- उज्झितक नामक बालक का। केईकिसी। राया वा-राजा अथवा। रायपुत्ते वा-राजपुत्र ने। नो अवरज्झति-अपराध नहीं किया किन्तु। सेउस के। सयाइं-कम्माइं-अपने ही कर्मों का। अवरझंति-अपराध-दोष है। __मूलार्थ-वहाँ राजमार्ग में भगवान् गौतम स्वामी ने अनेक हाथियों को देखा, जो कि युद्ध के लिए उद्यत थे, जिन्हें कवच पहनाए हुए थे और जो शरीररक्षक उपकरणझूल आदि से युक्त थे अथवा जिन के उदर-पेट दृढ़ बन्धन से बान्धे हुए थे। जिनके झूले के दोनों ओर बड़े-बड़े घण्टे लटक रहे थे एवं जो मणियों और रत्नों से जड़े हुए ग्रैवेयक (कण्ठाभूषण) पहने हुए थे तथा जो उत्तरकंचुक नामक तनुत्राण विशेष एवं अन्य कवचादि सामग्री धारण किए हुए थे। जो ध्वजा, पताका तथा पंचविध शिरोभूषणों से विभूषित थे। एवं जिन पर आयुध और प्रहरणादि लदे हुए थे। इसी भांति वहां पर अनेक अश्वों को देखा, जो कि युद्ध के लिए उद्यत तथा जिन्हें . कवच पहनाए हुए थे, और जिन्हें शारीरिक उपकरण धारण कराए हुए थे। जिनके शरीर . 1. हाथी के शिर के पांच आभूषण बताए गए हैं जैसे कि-तीन ध्वजाएं और उन के बीच में दो पताकाएं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [249 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर झूलें पड़ी हुई थीं, जिनके मुख में लगाम दिए गए थे और जो क्रोध से अधरों होठों को चबा रहे थे। एवं चामर तथा स्थासक-आभरण विशेष से जिन का कटिभाग विभूषित हो रहा था और जिन पर बैठे हुए घुड़सवार आयुध और प्रहरणादि से युक्त थे अथवा जिन पर आयुध और प्रहरण लदे हुए थे। इसी प्रकार वहां पर बहुत से पुरुषों को देखा, जिन्होंने दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलकादि से युक्त कवच शरीर पर धारण किए हुए थे। उनकी भुजा में शरासन पट्टिका-धनुष बैंचते समय हाथ की रक्षा के निमित्त बाँधी जाने वाली चमड़े की पट्टी-बंधी हुई थी। गले में आभूषण धारण किए हुए थे। और उनके शरीर पर उत्तम चिन्हपट्टिका-वस्त्र खंडनिर्मित चिन्ह-निशानीविशेष लगी हुई थी तथा आयुध और प्रहरणादि को धारण किए हुए थे। उन पुरुषों के मध्य में भगवान् गौतम ने एक और पुरुष को देखा जिस के गले और हाथों को मोड़ कर पृष्ठ-भाग के साथ दोनों हाथों को रस्सी से बान्धा हुआ था। उस के कान और नाक कटे हुए थे।शरीर को घृत से स्निग्ध किया हुआ था, तथा वह वध्यपुरुषोचित वस्त्र-युग्म से युक्त था अर्थात् उसे वध करने के योग्य पुरुष के लिए जो दो वस्त्र नियत होते हैं वे पहनाए हुए थे अथवा जिस के दोनों हाथों में हथकड़ियां पड़ी हुईं थीं, उसके गले में कण्ठसूत्र के समान रक्त पुष्पों की माला थी और उसका शरीर गेरु के चूर्ण से पोता गया था। जो भय से संत्रस्त तथा प्राण धारण किए रहने का इच्छुक था, उस के शरीर को तिल-तिल करके काटा जा रहा था और शरीर के छोटे-छोटे मांसखण्ड उसे खिलाए जा रहे थे अथवा जिस के मांस के छोटे-छोटे टुकड़े काक आदि पक्षियों के खाने योग्य हो रहे थे, ऐसा वह पापी पुरुष सैंकड़ों पत्थरों या चाबकों से अवहनन किया जा रहा था और अनेकों नर-नारियों से घिरा हुआ प्रत्येक चौराहे आदि पर उद्घोषित किया जा रहा था अर्थात् जहाँ पर चार या इससे अधिक रास्ते मिले हुए हों ऐसे स्थानों पर फूटे हुए ढोल से उस के सम्बन्ध में घोषणा-मुनादी की जा रही थी जो कि इस प्रकार थी __ हे महानुभावो ! उज्झितक बालक का किसी राजा अथवा राजपुत्र ने कोई अपराध नहीं किया किन्तु यह इसके अपने ही कर्मों का अपराध है-दोष है। जो यह इस दुरवस्था को प्राप्त हो रहा है। टीका-भिक्षा के लिए वाणिजग्राम नगर में भ्रमण करते हुए गौतम स्वामी राजमार्ग पर आ जाते हैं, वहां पर उन्होंने बहुत से हाथी, घोड़े तथा सैनिकों के दल को देखा। जिस तरह 250 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी उत्सव विशेष के अवसर पर अथवा युद्ध के समय हस्तियों, घोड़ों और सैनिकों को शृंगारित, सुसज्जित एवं शस्त्र, अस्त्रादि से विभूषित किया जाता है उसी प्रकार वे हस्ती, घोड़े और सैनिक हर प्रकार की उपयुक्त वेषभूषा से सुसज्जित थे। उन के मध्य में एक अपराधी पुरुष उपस्थित था, जिसे वध्य भूमि की ओर ले जाया जा रहा था, और नगर के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध स्थानों पर उसके अपराध की सूचना दी जा रही थी। प्रस्तुत सूत्र में हस्तियों, घोड़ों और सैनिकों के स्वरूप का वर्णन करने के अतिरिक्त उज्झितक कुमार नाम के वध्य-व्यक्ति की तात्कालिक दशा का भी बड़ा कारुणिक चित्र बैंचा गया है। "-सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिते-सन्नद्धबद्धवर्मिकगुडितान्"-इस पद की टीकाकार निम्न लिखित व्याख्या करते हैं- . "-सन्नद्धाः सन्नहत्या कृतसन्नाहा: 'तथा बद्धं वर्म-त्वक्त्राण-विशेषो येषां ते बद्धवर्माणस्ते एव बद्धवर्मिकाः तथा गुडा महांस्तनुत्राणविशेषः सा संजाता येषां ते गुडितास्ततः कर्मधारयोऽतस्तान्" अर्थात् सन्नद्ध-युद्ध के लिए उपस्थित होने जैसी सजावट किए हुए हैं अथवा युद्ध के लिए जो पूर्ण रूपेण तैयार हैं। बद्धवर्मिक-जिन पर वर्म-कवच बांधा गया है उन्हें वद्धवर्मा कहते हैं। स्वार्थ में क-प्रत्यय होने से उन्हीं को बद्धवर्मिक कहा जाता है। गुडा का अर्थ है-सरीर को सुरक्षित रखने वाला महान झूल / गुडा-झूल से युक्त को गुडित कहते हैं। सन्नद्ध, बद्धवर्मिक, और गुडित इन तीनों पदों का कर्मधारय समास है। "-उप्पीलियकच्छे-उत्पीडितकक्षान् उत्पीडिता गाढतरबद्धा कक्षा उरोबन्धनं येषां ते तथा तान्' अर्थात् हाथी की छाती में बांधने की रस्सी को कक्षा कहते हैं। उन हस्तिओं का कक्षा के द्वारा उदर-बन्धन बड़ी दृढ़ता के साथ किया हुआ है ताकि शिथिलता न होने पाए। "-उद्दामियघंटे- उद्दामित-घण्टान्, उद्दामिता अपनीतबन्धना प्रलम्बिता घण्टा येषां ते तथा तान्-" अर्थात् उद्दामित का अर्थ है बन्धन से रहित लटकना, तात्पर्य यह है कि झूल के दोनों ओर घण्टे लटक रहे हैं। - "-णाणा-मणि-रयण-विविह-गेविज-उत्तरकंचुइज्जे-नाना-मणिरत्न विविध ग्रैवेयक उत्तर कञ्चुकितान् नानामणिरत्नानि विविधानि ग्रैवेयकानि ग्रीवाभरणानि उत्तरकंचुकाश्च तनुत्राणविशेषाः सन्ति येषां ते तथा तान्-" अर्थात् वे हाथी नाना प्रकार के मणि, रत्न विविध ... 1. "-सन्नाह-" पद के संस्कृत-शब्दार्थ कौस्तुभ में तीन अर्थ किए हैं, (1) कवच और अस्त्रशस्त्र से सुसज्जित होने की क्रिया को, अथवा (2) युद्ध करने जाते जैसी सजावट को भी सन्नाह कहते हैं (3) कवच का नाम भी सन्नाह है। (पृष्ठ 890) "-सन्नद्ध-" शब्द के भी अनेकों अर्थ लिखे हैं-युद्ध करने को लैस, तैयार, किसी भी वस्तु से पूर्णतया सम्पन्न होना आदि। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [251 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भांति के ग्रैवेयक-ग्रीवाभरण और उत्तरकंचुक झूल आदि से विभूषित हैं। यदि मणि रत्न पद को व्यस्त न मानकर समस्त (एक मान) लिया जाए तो उसका अर्थ चक्रवर्ती के 14 रत्नों में से "एक मणिरत्न" यह होगा। परन्तु उसका प्रकृत से कोई सम्बन्ध नहीं है। कंठ के भूषण का नाम ग्रैवेयक है। अथवा "-णाणामणिरयणविविहगेविजउत्तरकंचुइज्जे-" का अर्थ दूसरी तरह से निम्नोक्त हो सकता है। "-नानामणिरत्नखचितानि विविधग्रैवेयकानि येषां ते, नानामणिरत्नविविधौवेयकांश्च, उत्तरकंचुकाश्च इति नानामणिरत्नविविधग्रैवेयकउत्तरकंचुकाः, ते संजाताः येषां ते, तानिति भाव:-" अर्थात् हाथियों के गले में ग्रेवैयक डाले हुए हैं, जो कि अनेकविध मणियों एवं रत्नों से खचित थे, और उन हाथियों के उत्तरकंचुक भी धारण किए हुए हैं। "-पडिकप्पिए-परिकल्पितान्, कृतसन्नाहादिसामग्रीकान्-"अर्थात् परिकल्पित का अर्थ होता है सजाया हुआ। तात्पर्य यह है कि उन हाथियों को कवचादि साम्रगी से बड़ी अच्छी तरह से सजाया गया है। "झय-पडाग-वर-पंचामेल-आरूढ-हत्थारोहे-ध्वज-पताका वर-पञ्चापीडारूढहस्त्यारोहान्, ध्वजा:-गरुडादिध्वजाः, पताका:- गरुडादिवर्जितास्ताभिर्वरा ये ते तथा पञ्च आमेलकाः-शेखरकाः येषां ते तथा आरूढा हस्त्यारोहा-महामात्रा येषु ते तथा-" अर्थात् जिस पर गरुड़ आदि का चिन्ह अंकित हो उसे ध्वजा और गरुड़ादि चिन्ह से रहित को पताका कहते हैं। आमेलक-फूलों की माला, जो मुकुट पर धारण की जाती है, अथवा शिरोभूषण को भी आमेलक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उन हस्तियों पर ध्वजा-पताका लहरा रही है और उन को पांच शिरोभूषण पहनाए हुए हैं तथा उन पर हस्तिपक (महावत) बैठे हुए हैं। "-गहियाउहपहरणे-" गृहीतायुधप्रहरणान्, गृहीतानि आयुधानि प्रहरणार्थं येषु, अथवा आयुधान्यक्षेप्याणि प्रहरणानि तु क्षेप्याणीति-" अर्थात् सवारों ने प्रहार करने के लिए जिन पर आयुध-शस्त्र ग्रहण किए हुए हैं। यदि गृहीत-पद का लादे हुए अर्थ करें तो इस समस्त पद का "प्रहार करने के लिए जिन पर आयुध लादे हुए हैं" ऐसा अर्थ होता है। अथवा-आयुध का अर्थ है-वे शस्त्र जो फैंके न जा सकें गदा, तलवार, बन्दूक आदि। तथा प्रहरण शब्द से फैंके जाने वाले शस्त्र, जैसे-तीर, गोला, बम्ब आदि का ग्रहण होता है। इस अर्थ-विचारणा से उक्त-वाक्य का-जिन पर आयुध और प्रहरण अर्थात् न फैंके जाने वाले और फैंके जाने वाले शस्त्र लदे हुए हैं, या सवारों ने ग्रहण किए हुए हैं,-" यह अर्थ सम्पन्न होता है। 252 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस भांति गौतम स्वामी ने राजमार्ग में सब तरह से सुसज्जित किए हुए घोड़ों को देखा। घोड़ों के विशेषणों की व्याख्या हाथियों के विशेषणों के तुल्य जान लेनी चाहिए, परन्तु जिन विशेषणों में अन्तरं है उन की व्याख्या निम्नोक्त है -आविद्धगुडे-"आविद्धगुडान्, आविद्धा परिहिता गुडा येषां ते तथा, अर्थात् उन घोड़ों को झूलें पहना रखीं हैं। .. ऊपर के हस्तिप्रकरण में गुडा का अर्थ झूल लिखा है जो कि हाथी का अलंकारिक उपकरण माना जाता है। परन्तु प्रस्तुत अश्वप्रकरण में भी गुड़ा का प्रयोग किया है जब कि यह घोड़ों का उपकरण नहीं है। व्यवहार भी इसका साक्षी नहीं है फिर भी यहां गुड़ा का प्रयोग किया गया है, ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर स्वयं वृत्तिकार देते हैं "-गुडा च यद्यपि हस्तिनां तनुत्राणे रूढा तथापि देशविशेषापेक्षया अश्वानामपि संभवति" अर्थात् गुड़ा (झूल) यद्यपि हस्तियों के तनुत्राण में प्रसिद्ध है, फिर भी देशविशेष की अपेक्षा से यह घोड़ों के लिए संभव हो सकता है। "-ओसारियपक्खरे-" अवसारितपक्खरान्, अवसारिता अवलम्बिताः पक्खराः तनुत्राणविशेषा येषां ते. तथा, तान्-'" अर्थात् पक्खर नामक तनुत्राण-कवच लटक रहे हैं, तात्पर्य यह है कि उन घोड़ों को शरीर की रक्षा करने वाले पक्खर नामक कवच धारण करा रखे हैं। -"-उत्तरकंचुइय-ओचूलमुहचंडाधरचामरथासक-परिमंडियकडिए-" उत्तरकञ्चुकित-अवचूलक-मुखचण्डाधर-चामर-स्थासक-परिमण्डितकटिकान्, उत्तरकञ्चुकः तनुत्राणविशेष एव येषामस्ति ते तथा, तथाऽवचूलकैर्मुखं चण्डाधरं-रौद्राधरौष्ठं येषां ते तथातथा चामरैः स्थासकैश्च दर्पणैः परिमण्डिता कटी येषां ते तथा-"अर्थात् उत्तरकंचुक एक शरीर रक्षक उपकरणविशेष का नाम है, इस को वे घोड़े धारण किए हुए हैं। अवचूल कहते हैं-घोड़े के मुख में दी जाने वाली वल्गा लगाम को। उन घोड़ों के मुख लगामों से युक्त हैं इसलिए उनके अधरोष्ठ क्रोधपूर्ण एवं भयानक दिखाई देते हैं। और उन घोड़ों के कटि भाग चामरों (चामरचमरी गाय के बालों से निर्मित होता है) और दर्पणों से अलंकृत हैं। "-आरूढ-अस्सारोहे-" आरूढाश्वारोहान्, आरूढाः अश्वारोहाः येषु-" अर्थात् उन घोड़ों पर घुड़सवार आरूढ़ हैं-बैठे हुए हैं। तदनन्तर गौतम स्वामी ने नाना प्रकार के मनुष्यों को देखा। वे भी हर प्रकार से सन्नद्ध, बद्ध हो रहे हैं। पुरुषों के विशेषणों की व्याख्या निम्नोक्त है "-सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय कवए-" सन्नद्धबद्ध-वर्मिककवचान्, की व्याख्या राज प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [253 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नीय सूत्र में श्री मलयगिरि जी ने इस प्रकार की है ___ "कवचं-तनुत्राणं, वर्म लोहमय-कसूलकादिरूपं संजातमस्येति वर्मितं, सन्नद्धं शरीरारोपणात् बद्धं गाढ़तरबन्धनेन बन्धनात्, वर्मितं कवचं येन स सन्नद्ध-बद्ध वर्मितकवचः" अर्थात् प्रस्तुत पदसमूह में चार पद हैं। इन में कवच (लोहे की कड़ियों के जाल का बना हुआ पहनावा जिसे योद्धा लड़ाई के समय पहनते हैं, जिरह बख्तर) विशेष्य है और १-सन्नद्ध, 2 -बद्ध तथा ३-वर्मित ये तीनों पद विशेषण हैं / सन्नद्ध का अर्थ है-शरीर पर धारण किया हुआ। बद्ध शब्द से, दृढ़तर बन्धन से बान्धा हुआ-यह अर्थ विवक्षित है और वर्मित पद लोहमय कसूलकादि से युक्त का बोधक है। सारांश यह है कि उन मनुष्यों ने कवचों को शरीर पर धारण किया हुआ है जो कि मजबूत बन्धनों से बान्धे हुए हैं, एवं जो लोहमय कसूलकादि से युक्त हैं। "-उप्पीलियसरासणपट्टिए- उत्पीड़ित-शरासन-पट्टि कान्, उत्पीड़िता कृतप्रत्यञ्चारोपणा शरासनपट्टिका-धनुर्यष्टिर्बाहुपट्टिका वा यैस्ते तथा तान्-" अर्थात् उन पुरुषों ने धनुष की यष्टियों पर डोरियां लगा रखीं हैं, अथ च शरासनपट्टिका-धनुष बैंचने के समय भुजा की रक्षा के लिए बान्धी जाने वाली चमड़े की पट्टी को उन पुरुषों ने बान्ध रखा शरासनपट्टिका पद की "-शरा अस्यन्ते क्षिप्यन्तेऽस्मिन्निति शरासनम्, इषुधिस्तस्य पट्टिका शरासनपट्टिका-" यह व्याख्या करने पर इस का तूणीर (तरकश) यह अर्थ होगा, अर्थात् उन पुरुषों ने तूणीर को धारण किया हुआ है। ___"-पिणद्धगेविजे-'" पिनद्धग्रैवेयकान्, पिनद्धं परिहितं ग्रैवेयकं यैस्ते तथा तान्-" अर्थात् उन पुरुषों ने ग्रैवेयक-कण्ठाभूषण धारण किए हुए हैं। "-विमलवरबद्धचिंधपट्टे-" विमलवरबद्धचिन्हपट्टान्, विमलो वरो बद्धश्चिन्हपट्टोनेत्रादिमयो यैस्ते तथा तान्-" अर्थात्-उन पुरुषों ने निर्मल और उत्तम चिन्ह-पट्ट बान्धे हुए हैं। सैनिकों की पहचान तथा अधिकारविशेष की सूचना देने वाले कपड़े के बिल्ले चिन्हपट कहलाते हैं। शस्त्र-अस्त्र आदि से सुसज्जित उन पुरुषों के मध्य में भगवान् गौतम स्वामी ने एक पुरुष को देखा। उस पुरुष का परिचय कराने के लिए सूत्रकार ने उस के लिए जो विशेषण दिए हैं, उनकी व्याख्या निम्न प्रकार से है "-अवओडगबन्धणं- अवकोटकबन्धनं, रज्ज्वा गलं हस्तद्वयं च मोटयित्वा पृष्ठभागे हस्तद्वयस्य बन्धनं यस्य स तथा तम्-" अर्थात् गले और दोनों हाथों को मोड़ कर पृष्ठभाग 254 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय ...[ प्रथम श्रुतस्कंध Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर रज्जू के साथ उस पुरुष के दोनों हाथ बान्धे हुए हैं। इस बन्धन का उद्देश्य है-वध्य व्यक्ति अधिकाधिक पीड़ित हो और वह भागने न पाए। "-उक्कित्तकण्णनासं-'" उत्कृत्तकर्णनासम्, अर्थात् उस पुरुष के कान और नाक दोनों ही कटे हुए हैं। अपराधी के कान और नाक को काटने का अभिप्राय उसे अत्यधिक अपमानित एवं विडम्बित करने से होता है। "-नेहतप्पियगत्तं-" स्नेहस्नेहितगात्रम्, अर्थात् उस पुरुष के शरीर को घुत से स्निग्ध किया हुआ है। वध्य के शरीर को घृत से स्नेहित करने का पहले समय में क्या उद्देश्य होता था, इस सम्बन्ध में टीकाकार महानुभाव मौन हैं। तथापि शरीर को घृत से स्निग्ध करने का अभिप्राय उसे कोमल बना और उस पर प्रहार करके उस वध्य को अधिकाधिक पीड़ित करना ही संभव हो सकता है। "-वज्झ-करकडिजुयनियत्थं-" वध्य-करकटि-युग-निवसितम्, वध्यश्चासौ करयोः-हस्तयोः कट्यां कटीदेशे युगं-युग्मं निवसित एव निवसितश्चेति समासोऽतस्तम् अथवा वध्यस्य यत्करटिकायुगं-निन्द्यचीवरिकाद्वयं तन्निवसितो यः स तथा तम्-" अर्थात् उस मनुष्य के हाथों और कमर में वस्त्रों का जोड़ा पहनाया हुआ था। अथवा-मृत्युदण्ड से दण्डित व्यक्ति को फांसी पर लटकाने के समय दो निन्द्य (घृणास्पद) वस्त्र पहनाए जाते हैं, उन निन्दनीय वस्त्रों की करकटि संज्ञा है। उस वध्य व्यक्ति को निन्दनीय वस्त्रों का जोड़ा पहना रखा है। तात्पर्य यह है कि प्राचीन समय में ऐसी प्रथा थी कि वध्य पुरुष को अमुक वस्त्रयुग्म (दो वस्त्र) पहनाया जाता था। उस वस्त्रयुग्म को धारण करने वाला मनुष्य वध्यकर-कटि-युग -निवसित कहलाता था। "-बज्झ कर-कडि-जुय-नियत्थं-" इस पद का अर्थ अन्य प्रकार से भी किया जा सकता है, जो कि निम्नोक्त है "-बद्ध-कर-कडि-युग-न्यस्तम् बद्धौ करौ कडियुगे न्यस्तौ-निक्षिप्तौ यस्य स तथा तम्, कडि इति लौहमयं बन्धनं, हथकड़ी, इति भाषाप्रसिद्धम्-" अर्थात् उस वध्य पुरुष के दोनों हाथों में हथकड़ियां पड़ी हुई हैं। "-कंठे गुणरत्तमल्लदाम-"कण्ठे गुणरक्त-माल्य-दामानम्, कण्ठे –गले गुण इव कण्ठसूत्रमिव रक्तं लोहितं माल्यदाम पुष्पमाला यस्य स तथा तम्" अर्थात् उस वध्य पुरुष के गले में गुण-डोरे के समान लाल पुष्पों की माला पहनाई हुई है। जो "-यह वध्य व्यक्ति है-" इस बात की संसूचिका है। - "-चुण्णगुंडियगत्तं-" चूर्णगुण्डितगात्रम्, चूर्णेन गैरिकेन गुण्डितं-लिप्तं गात्रं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [255 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरं यस्य स तथा तम्-" अर्थात् उस वध्य पुरुष का शरीर गैरिक-गेरु के चूर्ण से संलिप्त हो रहा है, तात्पर्य यह है कि उस के शरीर पर गेरू का रंग अच्छी तरह मसल रखा है, जो कि दर्शक को "-यह वध्य व्यक्ति है" इस बात की ओर संकेत करता है। __"-वज्झपाणपीयं- वध्य-प्राण-प्रियम्, अथवा बाह्यप्राणप्रियम् वध्या बह्या वा प्राणाः-उच्छ्वासादयः प्रतीताः प्रिया यस्य स तथा तम्-" अर्थात् जिस को वध्य-वधार्ह (मृत्युदण्ड के योग्य). उच्छ्वास आदि प्राण प्रिय हैं, अथवा-उच्छ्वास आदि बाह्य प्राण जिस को प्रिय हैं, तात्पर्य यह है कि वह वध्य पुरुष अपनी चेष्टाओं द्वारा "-मेरा जीवन किसी तरह से सुरक्षित रह जाए-" यह अभिलाषा अभिव्यक्त कर रहा है। वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक जीव ही मृत्यु से भयभीत है। बुरी से बुरी अवस्था में भी कोई मरना नहीं चाहता, सभी को जीवन प्रिय है। इसी जीवन-प्रियता का प्रदर्शन उस वध्य-व्यक्ति द्वारा अपनी व्यक्त या अव्यक्त चेष्टाओं द्वारा किया जा रहा है। "-तिलं-तिलं चेव छिजमाणं-तिल-तिलं चैव छिद्यमानम्-" अर्थात् उस वध्य पुरुष का शरीर तिल-तिल करके काटा जा रहा है, जिस प्रकार तिल बहुत छोटा होता है उस के समान उस के शरीरगत मांस को काटा जा रहा है। अधिकारियों की ओर से जो वध्य व्यक्ति के साथ यह दुर्व्यवहार किया जा रहा है, जहां वह उन की महान् निर्दयता एवं दानवता का परिचायक है, वहां इस से यह भी भलीभांति सूचित हो जाता है कि अधिकारी लोग उस वध्य व्यक्ति को अत्यन्तात्यन्त पीड़ित एवं विडम्बित करना चाह रह हैं। "-काकणिमंसाइं खावियंतं-काकणीमांसानि खाद्यमानम्, काकणीमांसानि तद्देहोत्कृत्त- ह्रस्वमांसखण्डानि खाद्यमानम्, अर्थात्-उस वध्य पुरुष के शरीर से निकाले हुए छोटे-छोटे मांस के टुकड़े उसी को खिलाए जा रहे हैं। अथवा "-कागणी लघुतराणि मांसानि- मांसखण्डानि काकादिभिः खाद्यानि यस्य स तथा तम्-" ऐसी व्याख्या करने पर तो "उस वध्य पुरुष के छोटे-छोटे मांस के टुकड़े काक आदि पक्षियों के खाद्यभक्षणयोग्य हो रहे हैं" ऐसा अर्थ हो सकेगा। . इस के अतिरिक्त सूत्रकार ने उसे पापी कहा है जो कि उसके अनुरूप ही है। उस की वर्तमान दशा से उस का पापिष्ट होना स्पष्ट ही दिखाई देता है। तथा उसको सैंकड़ों कंकड़ों से मारा जा रहा है अर्थात् लोग उस पर पत्थरों की वर्षा कर रहे थे। इस विशेषण से जनता की उसके प्रति घृणा सूचित होती है। टीकाकार ने "-कक्करसएहिं हम्ममाणं-" के स्थान में "-खक्खरसएहिं हम्ममाणं-" ऐसा पाठ मान कर उस की निम्नलिखित व्याख्या की है 256 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खर्खरा-अश्वोत्त्रासनाय चर्ममया वस्तुविशेषाःस्फुटितवंशा वा तैर्हन्यमानं ताड्यमानम् " अर्थात् अश्व को संत्रस्त करने के लिए चमड़े का चाबुक या टूटे हुए बांस वगैरह से उसे ताड़ित किया जा रहा है। उस व्यक्ति की ऐसी दशा क्यों हो रही है ? उस के चारों और स्त्री-पुरुषों का जमघट क्यों लगा हुआ है ? वह जनता के लिए एक घृणोत्पादक घटना-रूप क्यों बना हुआ है ? इस का उत्तर स्पष्ट है, उस ने कोई ऐसा अपराध किया है जिस के फल स्वरूप यह सब कुछ हो रहा है, बिना अपराध के किसी को दण्ड नहीं मिलता और अपराधी को दण्ड भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, यह एक प्राकृतिक नियम है। इसी के अनुसार यह उद्घोषणा थी कि इस व्यक्ति को कोई दूसरा दण्ड देने वाला नहीं है किन्तु इस के अपने कर्म ही इसे दण्ड दे रहें हैं, अर्थात् राज्य की ओर से इस के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह इसी के किए हुए कर्मों का परिणाम है। मनुष्य जो कुछ करता है उसी के अनुसार उसे फल भोगना पड़ता है। देखिए भगवान् महावीर स्वामी ने कितनी सुन्दर बात कही है जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए। एगं तु दुक्खं भवमज्जणित्ता, वेदंति दुक्खी तमणंतदुक्खं // 23 // . [श्री सूत्रकृतांग० अध्ययन 5, उद्दे० 2] अर्थात् जिस जीव ने जैसा कर्म किया है, वही उस को दूसरे भव में प्राप्त होता है। जिस ने एकान्त दुःखरूप नरक भव का कर्म बान्धा है वह अनन्त दुःख रूप नरक को भोगता है। उद्घोषणा एक खण्ड पटह के द्वारा की जा रही थी। खण्डपटह फूटे ढोल का नाम है। उस समय घोषणा या मुनादि की यही प्रथा होगी और आज भी प्रायः ऐसी ही प्रथा है कि मुनादि करने वाला प्रसिद्ध-प्रसिद्ध स्थानों पर पहले ढोल पीटता है या घंटी बजाता है फिर वह घोषणा करता है। इसी से मिलता जुलता रिवाज उस समय था। - राजमार्ग पर जहां कि चार, पांच रास्ते इकट्ठे होते हैं-यह घोषणा की जा रही है कि हे महानुभावो! उज्झितक कुमार को जो दण्ड दिया जा रहा है इस में कोई राजा अथवा राज-पुत्र कारण नहीं है अर्थात् इस में किसी राज-कर्मचारी आदि का कोई दोष नहीं, किन्तु यह सब इस के अपने ही किए हुए पातकमय कर्मों का अपराध है, दूसरे शब्दों में कहें तो इस को दण्ड देने वाले हम नहीं हैं किन्तु इस के अपने कर्म ही इसे दण्डित कर रहे हैं। . 1. यद् यादृशं पूर्वमकार्षीत् कर्म तदेवागच्छति सम्पराये। एकान्तदु:खं भवमर्जयित्वा वेदयन्ति दु:खिनस्तमनन्तदुःखम्॥ प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [257 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस उल्लेख में, फलप्रदाता कर्म ही हैं कोई अन्य व्यक्ति नहीं यह भी भली-भांति सूचित किया गया है। उज्झितक कुमार की इस दशा को देखकर श्री गौतम स्वामी के हृदय में क्या विचार उत्पन्न हुआ और उस के विषय में उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से क्या कहा, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से भगवओ गोतमस्स तं पुरिसं पासित्ता इमे अज्झत्थिते 5 समुप्पज्जित्था, अहोणं इमे पुरिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं वेदेति, त्ति कट्ट वाणियग्गामे णगरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापज्जत्तं समुयाणं गेण्हति 2 त्ता वाणियग्गामं नगरं मझमझेणं जाव पडिदंसेति, समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति 2 त्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे वाणियग्गामे तहेव जाव वेएति।से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसी? जाव पच्चणुभवमाणे विहरति ? ____ छाया-ततस्तस्य भगवतो गौतमस्य तं पुरुषं दृष्ट्वाऽयमाध्यात्मिकः५ समुदपद्यत, अहो अयं पुरुषः यावद् निरयप्रतिरूपां वेदनां वेदयति, इति कृत्वा वाणिजग्रामे नगरे उच्चनीचमध्यमकुले अटन् यथापर्याप्तं समुदानं (भैक्ष्यम्) गृण्हाति गृहीत्वा वाणिजग्रामस्य नगरस्य मध्यमध्येन यावत् प्रतिदर्शयति, श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-एवं खलु अहं भदन्त ! युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् वाणिजग्रामे तथैव यावत् वेदयति। स भदन्त ! पुरुषः पूर्वभवे कः आसीत् ? यावत् प्रत्यनुभवन् विहरति ? पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / से-उस। भगवओ गोतमस्स-भगवान् गौतम को। तं पुरिसं-उस पुरुष को। पासित्ता-देख कर / इमे-यह / अज्झत्थिते-आध्यात्मिक-संकल्प। समुप्पज्जित्था-उत्पन्न हुआ। अहो णं-अहह-खेद है कि। इमे पुरिसे-यह पुरुष। जाव-यावत्। निरयपडिरूवियं-नरक के सदृश। वेयणं-वेदना का। वेदेति-अनुभव कर रहा है। त्ति कट्ट-ऐसा विचार कर। वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नामक। णगरे-नगर में। उच्चनीयमज्झिमकुले-ऊंचे-नीचे-धनिक-निर्धन तथा मध्य कोटि के गृहों में। अडमाणे-भ्रमण करते हुए। अहापजत्तं-आवश्यकतानुसार। समुयाणं-सामुदानिक-भिक्षा, गृहसमुदाय से प्राप्त भिक्षा / गेण्हति रत्ता-ग्रहण करते हैं, ग्रहण कर के। वाणियग्गामं नगरं-वाणिज-ग्राम नगर के। मझमझेणं-मध्य में से। जाव-यावत्। पडिदंसेइ-भगवान को भिक्षा दिखाते हैं तथा। समणं भगवं महावीरं-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को। वंदति णमंसति-वन्दना और नमस्कार करते हैं, वन्दना 258 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार करने के अनन्तर। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। भंते !-हे भगवन् ! अहं-मैं। तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे-आप श्री से आज्ञा प्राप्त कर।वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नगर में गया। तहेव-तथैव। जाव-यावत्, एक पुरुष को देखा जो कि नरक सदृश वेदना को। वेएतिअनुभव कर रहा है। भंते !-हे भगवन् ! से णं-वह। पुरिसे-पुरुष। पुव्वभवे-पूर्वभव में। के आसिकौन था ? जाव-यावत्। पच्चणुभवमाणे-वेदना का अनुभव करता हुआ। विहरति-समय बिता रहा है? मूलार्थ-तदनन्तर उस पुरुष को देख कर भगवान् गौतम को यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि अहो ! यह पुरुष कैसी नरक तुल्य वेदना का अनुभव कर रहा है। तत्पश्चात् वाणिजग्राम नगर में उच्च, नीच, मध्यम अर्थात् धनिक, निर्धन और मध्य कोटि के घरों में भ्रमण करते हुए आवश्यकतानुसार भिक्षा लेकर वाणिजग्राम नगर के मध्य में से होते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आए और उन्हें लाई हुई भिक्षा दिखाई। तदनन्तर भगवान् को वन्दना नमस्कार करके उन से इस प्रकार कहने लगे हे भगवन् ! आप की आज्ञा से मैं भिक्षा के निमित्त वाणिज-ग्राम नगर में गया और वहाँ मैंने नरक सदृश वेदना का अनुभव करते हुए एक पुरुष को देखा।भदन्त ! वह पुरुष पूर्व भव में कौन था ? जो यावत् नरक तुल्य वेदना का अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है ? टीका-भगवान् से आज्ञा प्राप्त कर भिक्षा के निमित्त भ्रमण करते हुए गौतम स्वामी ने वहां के राजमार्ग में जो कुछ देखा और देखने के बाद उस पुरुष की पापकर्मजन्य हीनदशा पर विचार करते हुए वे वापिस भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए और लाई हुई भिक्षा दिखाकर उन की वन्दना नमस्कार करके वहां का अथ से इति पर्यन्त सम्पूर्ण वृत्तान्त भगवान् से कह सुनाया। सुनाने के बाद उस पुरुष के पूर्व-भव-सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने की इच्छा से भगवान् से गौतम स्वामी ने पूछा कि भदन्त ! यह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? कहां रहता था ? और उस का क्या नाम और गोत्र था ? एवं किस पापमय कर्म के प्रभाव से वह इस हीन दशा का अनुभव कर रहा है? "अज्झस्थिते 5" यहां दिए हुए 5 के अंक से-"कप्पिए, चिंतिए, पत्थिए, मणोगए, संकप्पे"- इस समग्र पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है। आध्यात्मिक का अर्थ आत्मगत होता है। कल्पित शब्द हृदय में उठने वाली अनेकविध कल्पनाओं का वाचक है। चिन्तित शब्द से-बार-बार किए गए विचार, यह अर्थ अभिमत है। प्रार्थित पद का अर्थ हैइस दशा का मूल कारण क्या है इस जिज्ञासा का पुनः-पुनः होना। मनोगत शब्द-जो विचार अभी बाहर प्रकट नहीं किया गया, केवल मन में ही है-इस अर्थ का परिचायक है। संकल्प प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [259 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सामान्य विचार के लिए प्रयुक्त होता है। "-अहो णं इमे पुरिसे जाव निरय-" इस वाक्य में पठित "-जाव-यावत्-" पद से "-अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिन्नाणं दुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरइ, न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे निरय-पडिरूवियं वेयणं वेएइ त्ति कट्ट" इस समग्रपाठ का ग्रहण करना। इस पाठ की व्याख्या प्रथम अध्ययन में कर दी गई है। पाठक वहीं से देख सकते हैं। "-मझमझेणंजाव पडिदंसेइ-" यहां पठित "-जाव यावत्-" पद से "निग्गच्छति 2 त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ 2 त्ता एसणमणेसणे आलोएइ 2 त्ता भत्तपाण-इन पदों का ग्रहण समझना।''इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है- .. वाणिजग्राम नगर के मध्य में से हो कर निकले, निकल कर जहां भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पर आए, आकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट बैठ कर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया अर्थात् आने और जाने में होने वाले दोषों से निवृत्ति की। तदनन्तर एषणीय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष) आहार की आलोचना (विचारणा अथवा प्रायश्चित के लिए अपने दोषों को गुरु के सन्मुख निवेदन करना) की, तदनन्तर भगवान वीर को आहार-पानी दिखाया। "-तहेव जाव वेएति-" यहां पठित "-तहेव-तथैव-" पद का अभिप्राय है - भगवान से आज्ञा लेकर जैसे अनगार गौतम बेले के पारणे के लिए गए थे इत्यादि वैसा कह लेना अर्थात् गौतम स्वामी भगवान् से कहने लगे-प्रभो ! आप की आज्ञा लेकर मैं वाणिजग्राम नगर के उच्च, नीच और मध्य सभी घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करता हुआ राजमार्ग पर पहुंच गया, वहां मैंने हाथी देखे इत्यादि वर्णन जो सूत्रकार पहले कर आए हैं उसी का तथैव-वैसे ही, इस पद से अभिव्यक्त किया गया है। और "-जाव-यावत्-" पद से वर्णक-प्रकरण को संक्षिप्त किया गया है। वह वर्णक पाठ निम्नोक्त है "-नयरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव ओगाढे, तत्थ णं बहवे हत्थी पासति सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिते-से लेकर -अहो-णं इमे परिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या इसी अध्ययन के पृष्ठों में पीछे कर दी गई है। "-आसि 1 जाव पच्चणुभवमाणे-" यहां पठित "-जाव-यावत्-" पद से 260 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "किंनामए वा किंगोत्तए वा कयरंसि गामंसि वा नगरंसि वा किं वा दच्चा किं वा भोच्चा किं वा समायरित्ता केसिं वा पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुहाणं पावाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं-" इन पदों का ग्रहण करना। इन पदों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। __ समुदान-शब्द का कोषकारों ने "-भिक्षा , या 12 कुल की, या उच्च कुल समुदाय की गोचरी-भिक्षा-" ऐसा अर्थ लिखा है। परन्तु आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पिण्डैषणाध्ययन के द्वितीय उद्देश में आहार-ग्रहण की विधि का वर्णन बड़ा सुन्दर किया गया है। वहां लिखा है ___साधु, (1) उग्रकुल, (2) भोगकुल, (3) राजन्यकुल, (4) क्षत्रियकुल, (5) इक्ष्वाकुकुल, (6) हरिवंश कुल, (7) गोष्ठकुल, (8) वैश्यकुल, (9) नापितकुल, (10) वर्धकिकुल, (11) ग्राम रक्षककुल, (12) तन्तुवायकुल, इन कुलों और इसी प्रकार के अन्य अनिन्द्य एवं प्रामाणिक कुलों में भी भिक्षा के लिए जा सकता है। सारांश यह है कि अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी ग्रहण की गई भिक्षा को समुदान कहते हैं। तथा "भिक्षा लाकर दिखाना" इस में विनय सूचना के अतिरिक्त शास्त्रीय नियम का भी पालन होता है। गोचरी करने वाले भिक्षु के लिए यह नियम है कि भिक्षा ला कर वह सबसे प्रथम पूजनीय रात्निक रत्नाधिकं ज्ञान, दर्शन और चारित्र में श्रेष्ठ, अथवा साधुत्व-प्राप्ति की अवस्था से बड़ा, दीक्षा-वृद्ध को दिखावे, अन्य को नहीं। दूसरे शब्दों में साधु गृहस्थों से साधुकल्प के अनुसार चारों प्रकार का भोजन एकत्रित कर सर्व प्रथम रत्नाधिक को ही दिखाए / यदि वह गुरु आदि से पूर्व ही किसी शिष्य आदि को दिखाता है तो उसको आशातना लगती है। कारण कि ऐसा करना विनय-धर्म की अवहेलना करना है। आगमों में भी यही 1. स्थानांग आदि सूत्रों में निर्ग्रन्थ-साधु को नौ कोटियों से शुद्ध आहार ग्रहण करने का विधान लिखा है। नौ कोटियां निनोक्त हैं (1) साधु आहार के लिए स्वयं जीवों की हिंसा न करे, (2) दूसरे द्वारा हिंसा न कराए (3) हिंसा करते हुए का अनुमोदन न करे अर्थात् उस की प्रशंसा न करे, (4) आहार आदि स्वयं न पकावे, (5) दूसरे से न पकवावे, (6) पकाते हुए का अनुमोदन न करे, (7) आहार आदि स्वयं न खरीदे, (8) दूसरे को खरीदने के लिए न कहे, (9) खरीदते हुए किसी व्यक्ति का अनुमोदन न करे। ये समस्त कोटियां मन, वचन और काया रूप तीनों योगों से ग्रहण करनी होती हैं। 2. "आयः सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणः तस्य शातना-खण्डना इत्याशातना" अर्थात् - जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ह्रास अथवा भंग होता है उस को आशातना कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो-अविनय या असभ्यता का नाम आशातना है-यह कहा जा सकता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [261 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञा है। दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में लिखा है सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता तं पुव्वमेव सेहतरागस्स उवदंसेइ पच्छा रायणियस्स आसायणा सेहस्स 3 / [दशाश्रुत० 3 दशा, 15] अर्थात् शिष्य अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थों को लेकर गुरुजनों से पूर्व ही यदि शिष्य आदि को दिखाता है तो उस को आशातना लगती है। तथा आहार दिखाने के बाद फिर आलोचना करनी भी आवश्यक है। तात्पर्य यह है कि अमुक पदार्थ अमुक गृहस्थ के घर से प्राप्त किया। अमुक गृहस्थ ने इस प्रकार भिक्षा दी, अमुक मार्ग में अमुक पदार्थ का अवलोकन किया एवं अमुक दृश्य को देख कर अमुक प्रकार की विचार-धारा उत्पन्न हुई इत्यादि प्रकार की आलोचना भी सर्व प्रथम रत्नाधिक से ही करे अन्यथा आशातना लगती है जिस से सम्यग् दर्शन में क्षति पहुंचने की सम्भावना रहती है। इसी शास्त्रीय दृष्टि को सन्मुख रख कर गौतम स्वामी ने लाया हुआ आहार सर्वप्रथम भगवान को ही दिखाया, तदनन्तर वन्दना नमस्कार कर के अपनी गोचरी-यात्रा में उपस्थित हुआ सम्पूर्ण दृश्य उनके सन्मुख अपने शब्दों में उपस्थित किया। तदनन्तर जिज्ञासु भाव से गौतम स्वामी ने भगवान् के सन्मुख उपस्थित हो कर उस वध्य पुरुष के पूर्वभव के विषय में पूछा। ___यहां पर सन्देह होता है कि गौतम स्वामी स्वयं चतुर्दशपूर्व के ज्ञाता और चार ज्ञानमति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव के धारक थे, ऐसी अवस्था में उन्होंने भगवान् से पूछने का क्यों यत्न किया ? क्या वे उस व्यक्ति के पूर्वभव को स्वयं नहीं जान सकते थे? .. इस विषय में आचार्य अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र श० 1 उद्दे० 1 में स्वयं शंका उठा कर उस का जो समाधान किया है, उसका उल्लेख कर देना ही हमारे विचार में पर्याप्त है। आप लिखते हैं "-अथ कस्माद् भगवन्तं गौतमः पृच्छति ? विरचितद्वादशाङ्गतया, विदितसकलश्रुतविषयत्वेन, निखिलसंशयातीतत्वेन च सर्वज्ञकल्पत्वात्तस्य, आह च __संखाइए उ भवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेज्जा। ण य णं अणाइसेसी वियाणइ एस छउमत्थो॥१॥इति नैवम् उक्तगुणत्वेऽपि छद्मस्थतयाऽनाभोगसंभवाद्, यदाह 1. छाया-शैक्षोऽशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा प्रतिगृह्य तत्पूर्वमेव शैक्षतरकस्योपदर्शयति पश्चाद् रात्निकस्याशातना शैक्षस्य। 2. उज्जुष्पन्नो अणुव्विग्गो, अवक्खित्तेण चेअसा। आलोए गुरुसगासे जं जहा गहियं भवे। 90 // (दशवैकालिक सू० अ० 5 0 1) 3. संख्यातीतांस्तु भवान् कथयति यद् परस्तु पृच्छेत् / न चानतिशेषी विजानात्येष छदास्थः॥१॥ 262 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय ' [प्रथम श्रुतस्कंध Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहि नामाऽभोगः छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति।यस्माद्ज्ञानावरणंज्ञानावरणप्रकृति कर्म॥१॥ इति। अथवा जानत एव तस्य प्रश्नः संभवति, स्वकीयबोधसंवादनार्थम्, अज्ञलोकबोधनार्थम्, शिष्याणां वा स्ववचसि प्रत्ययोत्पादनार्थम्, सत्ररचनाकल्पसंपादनार्थञ्चेति-" इन शब्दों का भावार्थ निम्नोक्त है प्रश्न-गौतम स्वामी के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि द्वादशांगी के रचयिता हैं, सकलश्रुत-विषय के ज्ञाता हैं, निखिल संशयों से अतीत-रहित (जिन के सम्पूर्ण संशय विनष्ट हो चुके) हैं तथा जो सर्वज्ञकल्प अर्थात् सर्व जानातीति सर्वज्ञः -विश्व के भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन समस्त पदार्थों का यथावत् ज्ञान रखने वाला, के समान हैं। कहा भी है कि दूसरों के पूछने पर यह छद्मस्थ (सम्पूर्ण ज्ञान से वञ्चित) गौतम स्वामी संख्यातीत भवों-जन्मों का कथन करने वाले और अतिशय ज्ञान वाले हैं, फिर उन्होंने अर्थात् अनगार गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से यह प्रश्न किया-भदन्त ! यह वध्य पुरुष पूर्वभव में कौन था ? आदि क्यों पूछा ? सारांश यह है कि छद्मस्थ भगवान् गौतम जब कि दूसरों के पूछने पर संख्यातीत भवों का वर्णन करने वाले अथ च संशयातीत माने जाते हैं तो फिर उन्होंने भगवान् के सन्मुख अपने संशय को समाधानार्थ क्यों रखा ? उत्तर-उपरोक्त प्रश्न का समाधान यह है कि शास्त्र में गौतम स्वामी के जितने गुण वर्णन किए गए हैं उन में वे सभी गुण विद्यमान हैं, वे सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता भी हैं और संशयातीत भी हैं। ये सब होने पर भी गौतम स्वामी अभी छद्मस्थ हैं। छद्मस्थ होने से उन में अपूर्णता का होना असंभव नहीं अर्थात् छद्मस्थ में ज्ञानातिशय होने पर भी न्यूनता-कमी रहती ही है, इसलिए कहा है कि छद्मस्थ के अनाभोग (अपरिपूर्णता अथवा अनुपयोग) नहीं है, यह बात नहीं है, तात्पर्य यह है कि छद्मस्थ का आत्मा विकास की उच्चतर भूमिका तक तो पहुंच जाता है.परन्तु वह आत्मविकास की पराकाष्ठा को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि अभी उस में ज्ञान को आवृत करने वाले ज्ञानावरणीय कर्म की सत्ता विद्यमान है, जब तक ज्ञानावरणीय कर्म का समूल नाश नहीं होता, तब तक आत्मा में तद्गत शक्तियों का पूर्णविकास नहीं होता। इसलिए चतुर्विध ज्ञान सम्पन्न होने पर भी गौतम स्वामी में छद्मस्थ होने के कारण उपयोगशून्यता का अंश विद्यमान था जिस का केवली-सर्वज्ञ में सर्वथा असद्भाव होता है। . एक बात और है कि यह नियम नहीं है कि अनजान ही प्रश्न करे जानकार न करे। जो जानता है वह भी प्रश्न कर सकता है। कदाचित् गौतम स्वामी इन प्रश्नों का उत्तर जानते भी हों तब भी प्रश्न करना संभव है। आप कह सकते हैं कि जानी हुई बात को पूछने की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर यह है कि उस बात पर अधिक प्रकाश डलवाने के लिए अपना प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [263 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध बढ़ाने के लिए, अथवा जिन लोगों को प्रश्न पूछना नहीं आता, या जिन्हें इस विषय में विपरीत धारणा हो रही है उन के लाभ के लिए, उन्हें बोध कराने के लिए गौतम स्वामी ने यह प्रश्न पूछा है। भले ही गौतम स्वामी उस प्रश्न का समाधान करने में समर्थ होंगे तथापि भगवान् के मुखारविन्द से निकलने वाला प्रत्येक शब्द विशेष प्रभावशाली और प्रामाणिक होता है, इस विचार से ही उन्होंने भगवान के द्वारा इस प्रश्न का उत्तर चाहा है। ___ तात्पर्य यह है कि गौतम स्वामी जानते हुए भी अनजानों की वकालत करने के लिए, अपने ज्ञान में विशदता लाने के लिए, शिष्यों को ज्ञान देने के लिए और अपने वचन में प्रतीति उत्पन्न कराने के लिए यह प्रश्न कर सकते हैं। अपने वचन में प्रतीति उत्पन्न कराने का अर्थ है-मान लीजिए किसी महात्मा ने किसी जिज्ञासु को किसी प्रश्न का उत्तर दिया, लेकिन उस जिज्ञासु को यह संदेह उत्पन्न हुआ कि इस विषय में भगवान् न मालूम क्या कहते ? उस ने जा कर भगवान से वही प्रश्न पूछा। भगवान् ने भी वही उत्तर दिया। श्रोता को उन महात्मा के वचनों पर प्रतीति हुई / इस प्रकार अपने वचनों की दूसरों को प्रतीति कराने के लिए भी स्वयं प्रश्न किया जा सकता है। ___ इस के अतिरिक्त सूत्र रचना का क्रम गुरु शिष्य के सम्वाद में होता है। अगर शिष्य नहीं होता तो गुरु स्वयं शिष्य बनता है। इस तरह सुधर्मा स्वामी. इस प्रणाली के अनुसार भी गौतम स्वामी और भगवान् महावीर के प्रश्नोत्तर करा सकते हैं। अस्तु, निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि गौतम स्वामी ने उक्त कारणों में से किस कारण से प्रेरित हो कर प्रश्न किया था। श्री गौतम गणधर के उक्त प्रश्न का श्रमण भगवान् महावीर ने जो उत्तर दिया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेण तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थिणाउरे नामं नयरे होत्था, रिद्धः। तत्थ णं हत्थिणाउरे णगरे सुणंदे णामं राया होत्था महया हि / तत्थ णं हत्थिणाउरे नगरे बहुमझदेसभाए महं एगे गोमंडवे होत्था, अणेगखंभसयसंनिविटे, पासाइए 4, तत्थ णं बहवे णगरगोरूवा णं सणाहा य अणाहा य णगरगावीओ य णगरबलीवद्दा य णगरपड्डियाओ यणगरवसभा य पउरतणपाणिया निब्भया निरुवसग्गा सुहंसुहेणं परिवसंति। ___ छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे 264 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारते वर्षे हस्तिनापुरं नाम नगरमभूत् ऋद्धः / तत्र हस्तिनापुरे नगरे सुनन्दो नाम राजा बभूव महाहि / तत्र हस्तिनापुरे नगरे बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेको गोमण्डपो बभूव। अनेकस्तम्भशत-सन्निविष्टः प्रासादीयः 4 / तत्र बहवो नगरगोरूपाः सनाथाश्च अनाथाश्च नगरगव्यश्च नगरबलीवर्दाश्च नगरपड्डिकाश्च नगरवृषभाश्च प्रचुरतृणपानीयाः निर्भयाः निरुपसर्गाः सुखंसुखेन परिवसंति। ___ पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा!-हे गौतम! तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारत वर्ष में। हथिणाउरे-हस्तिनापुर / नाम-नामकाणगरे-नगर।होत्था-था। रिद्ध-अनेक विशाल भवनों से युक्त, भयरहित तथा धनधान्यादि से भरपूर था। तत्थ णं हथिणाउरेणगरे-उस हस्तिनापुर नगर में। सुणंदे-सुनन्द। णाम-नाम का। महया हि-महाहिमवान्-हिमालय के समान महान। राया-राजा। होत्था-था। तत्थ णं हत्थिणाउरे णगरे-उस हस्तिनापुर नगर के। बहुमज्झदेसभाए-लगभग मध्य प्रदेश में। एगे-एक। महं-महान / अणेगखंभसयसंनिविद्वे-सैंकड़ों स्तम्भों से निर्माण को प्राप्त हुआ। पासाइए ४-मन को प्रसन्न करने वाला, जिस को देखते-देखते आंखें नहीं थकती थीं, जिसे एक बार देख लेने पर भी पुनर्दर्शन की लालसा बनी रहती थी, जिस की सुन्दरता दर्शक के लिए देख लेने पर भी नवीन ही प्रतिभासित होती थी। गोमंडवे-गोमण्डप-गोशाला। होत्था-था। तत्थ णं-वहां पर। बहवे-अनेक। णगरगोरूवा-नगर के गाय-बैल आदि चतुष्पाद पशु। णं-वाक्यालंकारार्थक है। सणाहा य-सनाथजिसका कोई स्वामी हो।अणाहा य-और अनाथ-जिस का कोई स्वामी न हो, पशु जैसे कि-णगरगावीओ य-नगर की गायें। णगरबलीवदा य-नगर के बैल। णगरपड्डियाओ य-नगर की छोटी गायें या भैंसें, पंजाबी भाषा में पड्डिका का अर्थ होता है-कट्टियें या बच्छियें।णगर-वसभा-नगर के सांड। पउरतणपाणियाजिन्हें प्रचुर घास और पानी मिलता था। निब्भया-भय से रहित। निरुवसग्गा-उपसर्ग से रहित / सुहंसुहेणंसुख-पूर्वक। परिवसंति-निवास करते थे। मूलार्थ-हे गौतम ! उस पुरुष के पूर्व-भव का वृत्तान्त इस प्रकार है-उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में हस्तिनापुर नामक एक समृद्धिशाली नगर था। उस नगर में सुनन्द नाम का राजा था जो कि महाहिमवन्तहिमालय पर्वत के समान पुरुषों में महान था। उस हस्तिनापुर नामक नगर के लगभग मध्य प्रदेश में सैंकड़ों स्तम्भों से निर्मित प्रासादीय (मन में प्रसन्नता पैदा करने वाला, दर्शनीय जिसे बारम्बार देखने पर भी आँखें न थकें), अभिरूप (एक बार देखने पर भी जिसे पुनः देखने की इच्छा बनी रहे) और प्रतिरूप (जब भी देखा जाए तब ही वहां नवीनता प्रतिभासित हो) एक महान गोमंडप (गौशाला) था, वहां पर नगर के अनेक सनाथ और अनाथ पशु अर्थात् नागरिक गौएं, नागरिक बैल, नगर की छोटी-छोटी बछड़ियें अथवा कट्टिएं एवं सांड सुख पूर्वक रहते थे। उन को वहां घास और पानी आदि प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [265 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्त रूप में मिलता, और वे भय तथा उपसर्ग आदि से रहित हो कर घूमते। . टीका-श्री गौतम अनगार के पूछने पर वीर प्रभु बोले, गौतम ! उस व्यक्ति के पूर्वभव का वृत्तान्त इस प्रकार है इस अवसर्पिणी काल का चौथा आरा बीत रहा है जब कि इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष नामक भूप्रदेश में हस्तिनापुर नाम का एक नगर था जो कि पूर्णतया समृद्ध था, अर्थात् उस नगर में बड़े-बड़े गगनचुम्बी विशाल भवन थे, धन धान्यादि से सम्पन्न नागरिक लोग वहां निर्भय हो कर रहते थे, चोरी आदि का तथा अन्य प्रकार के आक्रमण का वहां सन्देह नहीं था। तात्पर्य यह है कि वह नगरोचित गुणों से युक्त और पूर्णतया सुरक्षित था। उस नगर में महाराज सुनन्द राज्य किया करते थे। ___"-रिद्ध-" यहां दिए गए बिन्दु से "-रिद्धस्थिमियसमिद्धे, पमुइयजणजाणवए, आइण्ण-जणमणुस्से-" से लेकर -उत्ताणणयणपेच्छणिज्जे, पासाइए, दरिसणिजे, अभिरूवे, पडिरूवे- यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों में प्रथम के -१रिद्धस्थिमियसमिद्धे-पद की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। शेष पदों की व्याख्या औपपातिक सूत्र में वर्णित चम्पानगरी के वर्णक प्रकरण में देखी जा सकती है। __"-महयाहि.-" यहां के बिन्दु से -महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे, अच्चंतविसुद्धदीहरायकुलवंससुप्पसूए णिरंतरं-से लेकर:-मारिभयविप्पमुक्कं, खेमं, सिवं, सुभिक्खं, पसंतडिम्बडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरति-यहां तक के पाठ को ग्रहण करने की सूचना सूत्रकार ने दी है। इन पदों की व्याख्या औपपातिक सूत्र के छठे सूत्र में देखी जा सकती है। प्रस्तुत प्रकरण में जो सूत्रकार ने-२महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे-इस सांकेतिक पद का आश्रयण किया है, उस की व्याख्या निम्नोक्त है महाराज सुनन्द महाहिमवान् (हिमालय) पर्वत के समान महान् थे और मलय (पर्वतविशेष), मंदर-मेरुपर्वत, महेन्द्र (पर्वतविशेष अथवा इन्द्र) के समान प्रधानता को लिए हुए थे। उसी हस्तिनापुर के लगभग मध्य प्रदेश में एक गोमंडप था, जिस में सैंकड़ों खंभे लगे हुए थे और वह देखने योग्य था। ___ उस में नगर के अनेक चतुष्पाद पशु रहते थे, उन को घास और पानी आदि वहां पर्याप्त रूप में मिलता था, वे निर्भय थे उनको वहां किसी प्रकार के भय या उपद्रव की आशंका नहीं 1. ऋद्धं-भवनादिभिर्वृद्धिमुपगतम्, स्तिमितम्-भयवर्जितम्, समृद्धम् - धनादियुक्तमिति वृत्तिकारः। 2. महाहिमवदादयः पर्वतास्तद्वत् सारः प्रधानो यः स तथेति वृत्तिकारः। . / 266 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी, इसलिए वे सुखपूर्वक वहां पर घूमते रहते थे। उन में ऐसे पशु भी थे जिन का कोई मालिक नहीं था, और ऐसे भी थे कि जिन के मालिक विद्यमान थे। यदि उसको एक प्रकार की गोशाला या पशुशाला कहें तो समुचित ही है। गोमंडप और उस में निवास करने वाले गाय, बलीवर्द, वृषभ तथा महिष आदि के वर्णन से मालूम होता है कि वहां के नागरिकों ने गोरक्षा और पशुसेवा का बहुत अच्छा प्रबन्ध कर रखा था। दूध देने वाले और बिना दूध के पशुओं के पालनपोषण का यथेष्ट प्रबन्ध करना मानव समाज के अन्य धार्मिक कर्तव्यों में से एक है। इस से वहां की प्रजा की प्रशस्त मनोवृत्ति का भी बखूबी पता चल जाता है। "-पासाइए 4-" यहां दिए गए चार के अंक से "-दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिरूवे-" इन तीन पदों का ग्रहण करना है। इन चारों पदों का भाव निम्नोक्त है "-प्रासादीयः-मनःप्रसन्नताजनकः, दर्शनीयः-यस्य दर्शने चक्षुषोः श्रान्तिन भवति, अभिरूपः-यस्य दर्शनं पुनः पुनरभिलषितं भवति, प्रतिरूप:-नवं नवमिव दृश्यमानं रूपं यस्य-" अर्थात् गोमण्डप देखने वाले के चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला था, उसे देखने वाले की आंखें देख-देख कर थकती नहीं थीं, एक बार उस गोमण्डप को देख लेने पर भी देखने वाले की इच्छा निरन्तर देखने की बनी रहती थी, वह गोमण्डप इतना अद्भुत बना हुआ था कि जब भी उसे देखो तब ही उस में देखने वाले को कुछ नवीनता प्रतिभासित होती थी। . बलीवर्द का अर्थ है-खस्सी (नपुंसक) किया हुआ बैल। पड्डिका छोटी गौ या छोटी भैंस को कहते हैं। वृषभ शब्द सांड का बोधक है। जिस का कोई स्वामी न हो वह अनाथ कहलाता है, और स्वामी वाले को सनाथ कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में "णगरगोरूवा" इस पद से तो सामान्य रूप से सभी पशुओं का निर्देश किया है, और आगे के "णगरगाविओ" आदि पदों में उन सब का विशेष रूप से निर्देश किया गया है। - अब सूत्रकार आगे का वर्णन करते हैं, जैसे कि मूल-तत्थ णं हत्थिणाउरे नगरे भीमे नामं कूडग्गाहे होत्था 'अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे। तस्सणं भीमस्स कूडग्गाहस्स उप्पला नामं भारिया होत्था, अहीण / तते णं सा उप्पला कूडग्गाहिणी अण्णया कयाती आवण्णसत्ता 1. "-अहम्मिए-"त्ति धर्मेण चरति व्यवहरति वा धार्मिकस्तन्निषेधादधार्मिक इत्यर्थः। 2. "-अहीण-" अहीणपडिपुण्णपंचेन्दियसरीरेत्यादि दृश्यमिति वृत्तिकारः। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [267 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाया यावि होथा। तते णं तीसे उप्पलाए कूडग्गाहिणीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउब्भूते। छाया-तत्र हस्तिनापुरे नगरे भीमो नाम कूटग्राहो बभूव, अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानन्दः। तस्य भीमस्य कूटग्राहस्य, उत्पला नाम भार्याऽभूत्, अहीनः / ततः सा उत्पला कूटग्राहिणी. अन्यदा कदाचित् आपन्नसत्त्वा जाता चाप्यभवत्। ततस्तस्या उत्पलायाः कूटग्राहिण्याः त्रिषु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु अयमेतद्पः दोहदः प्रादुर्भूतः। पदार्थ-तत्थ णं- उस। हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर नामक। नगरे-नगर में। भीमे-भीम। नामनामक / कूडग्गाहे-कूटग्राह। धोखे से जीवों को फंसाने वाला। होत्था-रहता था। जो कि। अधम्मिएअधर्मी। जाव-यावत्। दुप्पडियाणंदे-बड़ी कठिनता से प्रसन्न होने वाला था। तस्स णं-उस। भीमस्सभीम नामक। कूडग्गाहस्स-कूटग्राह की। उप्पला-उत्पला। नाम-नाम की। भारिया-भार्या / होत्था-थी जो कि / अहीण-अन्यून पंचेन्द्रिय शरीर वाली थी। तते णं-तदनन्तर / सा-वह। उप्पला-उत्पला नामक। कूडग्गाहिणी-कूटग्राह की स्त्री। अण्णया-अन्यदा। कयाती-किसी समय। आवण्णसत्ता-गर्भवती। जाया यावि होत्था-हो गई थी। तते णं-तदनन्तर / तीसे-उस। उप्पलाए-उत्पला नामक / कूडग्गाहिणीएकूटग्राह की स्त्री को। बहुपडिपुण्णाणं-परिपूर्ण पूरे। तिण्हं मासाणं-तीन मास के पश्चात् अर्थात् तीन मास पूरे होने पर। अयमेयारूवे-यह इस प्रकार का। दोहले-दोहद-मनोरथ जो कि गर्भिणी स्त्रियों को गर्भ के अनुरूप उत्पन्न होता है। पाउब्भूते-उत्पन्न हुआ। . मूलार्थ-उस हस्तिनापुर नगर में महान् अधर्मी यावत् कठिनाई से प्रसन्न होने वाला भीम नाम का एक कूटग्राह [ धोखे से जीवों को फंसाने वाला ] रहता था। उस की उत्पला नाम की स्त्री थी जो कि अन्यून पंचेन्द्रिय शरीर वाला थी। किसी समय वह उत्पला गर्भवती हुई, लगभग तीन मास के पश्चात् उसे इस प्रकार का दोहद-गर्भिणी स्त्री का मनोरथ, उत्पन्न हुआ। टीका-उस हस्तिनापुर नगर में भीम नाम का एक कूटग्राह रहता था जो कि बड़ा अधर्मी था। धोखे से जीवों को फंसाने वाले व्यक्ति को कूटग्राह कहते हैं [कूटेन (कपटेन) जीवान् गृण्हातीति कूटग्राहः] तथा धर्म का आचरण करने वाला धार्मिक और धर्मविरुद्ध आचरण करने वाला व्यक्ति अधार्मिक कहलाता है। "अधम्मिए, जाव दुप्पडियाणंदे" यहां पठित "जाव" पद से निम्नलिखित पदों का भी ग्रहण समझ लेना अधम्माणुए, अधम्मिट्टे, अधम्मक्खाई, अधम्मपलोई, अधम्मपलजणे, 1. "-अहम्माणुए-" अधर्मान्-पापलोकान् अनुगच्छतीत्यधर्मानुगः"-अधम्मिटे-"अतिशयेनाधर्मो 268 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधम्मसमुदाचारे, अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे दुस्सीले, दुव्वए-"। इन पदों की व्याख्या प्रथम अध्ययन में की जा चुकी है। उस भीम नामक कूटग्राह की उत्पला नाम की भार्या थी जो कि रूप सम्पन्न तथा सर्वांगसम्पूर्ण थी। वह किसी समय गर्भवती हो गई, तीन मास पूरे होने पर उस को आगे कहा जाने वाला दोहद उत्पन्न हुआ। तीन मास के अनन्तर गर्भवती स्त्री को उस के गर्भ में रहे हुए जीव के लक्षणानुसार कुछ संकल्प उत्पन्न हुआ करते हैं जो दोहद या दोहला के नाम से व्यवहृत होते हैं। उन पर से गर्भ में आए हुए जीव के सौभाग्य या दौर्भाग्य का अनुमान किया जाता है। जिस प्रकृति का जीव गर्भ में आता है उसी के अनुसार माता को दोहद उत्पन्न हुआ करता है। अब सूत्रकार आगे के सूत्र में उत्पला के दोहद का वर्णन करते हैं मूल-धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव सुलद्धे जम्मजीवियफले, जाओ णं बहूणं नगरगोरूवाणं सणाहाण य जाव वसभाण य ऊहेहि य थणेहि य वसणेहि य छिप्पाहि य ककुहेहि य वहेहि य कन्नेहि य अच्छीहि य नासाहि य जिव्हाहि य ओढेहि य कंबलेहि य सोल्लेहि य तलितेहि य भजितेहि य परिसुक्केहि य लावणिएहि य सुरं च मधुं च मेरगं च जातिं च सीधुं च पसण्णं च आसाएमाणीओ विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ परिभुजेमाणीओ दोहलं विणेति, तंजइणं अहमवि बहूणं नगर जाव विणेज्जामि,त्ति कट्टतंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि सुक्खा भुक्खा निम्मंसा उलुग्गा उलुग्गसरीरा नित्तेया दीणविमण-वयणा पंडुल्लइयमुही ओमंथियनयणवयणकमला जहोइयं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारहारं अपरि जमाणी करयलमलिय व्व कमलमाला ओहय० जाव झियाति। इमं च णं भीमे कूडग्गाहे जेणेव उप्पला कूडग्गाहिणी तेणेव उवा० 2 ओहयः जाव पासति 2 त्ता एवं वयासी-किण्णं तुमं देवाणुप्पिए! धर्मरहितोऽधर्मिष्टः। "-अहम्मक्खाई-" अधर्मभाषणशीलः अधार्मिकप्रसिद्धिको वा। "-अहम्मपलोई-" अधर्मानेव परसम्बन्धिदोषानेव प्रलोकयति प्रेक्षते इत्येवंशीलोऽधर्मप्रलोकी। "-अहम्मपलज्जणे-" अधर्म एव हिंसादौ प्ररज्यते अनुरागवान् भवतीत्यधर्मप्ररंजनः "-अहम्मसमुदाचारो-"अधर्मरूपः समुदाचारः समाचारो यस्य स अधर्मसमुदाचारः। "-अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे-" अधर्मेण पापकर्मणा वृत्तिं जीविकां कल्पयमानःकुर्वाणः तच्छीलः। "-दुस्सीले-" दुष्टशीलः। "-दुव्वए-" अविद्यमाननियम इति। "-दुप्पडियाणंदे-" दुष्प्रत्यानन्दः बहुभिरपि सन्तोषकारणैरनुत्पद्यमानसन्तोष इत्यर्थः। [वृत्तिकारः] प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [269 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओहय जाव झियासि ? तते णं सा उप्पला भारिया भीमं कूड एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! ममं तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दोहले पाउब्भूतेधण्णाओ णं 4 जाओ णं बहूणं गो अहेहि य लावणिएहि य सुरं च 5 आसा. 4 दोहलं विणिंति। तते णं अहं देवाणुः ! तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि जाव झियामि। तते णं से भीमे कूड़ा उप्पलं भारियं एवं वयासी- मा णं तुम देवाणुः! ओहय० जाव झियाहि, अहंणं तंतहा करिस्सामि जहाणं तवदोहलस्स संपत्ती भविस्सइ। ताहिं इट्ठाहिं जाव समासासेति। छाया-धन्यास्ताः अम्बाः यावत् सुलब्धं जन्मजीवितफलम्, या बहूनां नगरगोरूपाणां सनाथानां च यावत् वृषभाणां चोधोभिश्च स्तनैश्च वृषणैश्च पुच्छैश्च ककुदैश्च वहैश्च कर्णैश्च अक्षिभिश्च नासाभिश्च जिव्हाभिश्च ओष्ठैश्च कम्बलैश्च शूल्यैश्च तलितैश्च भृष्टैश्च परिशुष्कैश्च लावणिकैश्च सुरां च मधुं च मेरकं च जाति च सीधु च प्रसन्नां च आस्वादयन्त्यो विस्वादयन्त्यः परिभाजयन्त्यः परिभुंजाना दोहदं विनयन्ति, तद् यद्यहमपि बहूनां नगर० यावत् विनयामि, इति कृत्वा तस्मिन् दोहदेऽविनीयमाने शुष्का बुभुक्षा निर्मांसाऽवरुग्णाऽवरुग्णशरीरा निस्तेजस्का दीनविमनोवदना पांडुरितमुखी अवमथितनयनवदनकमला यथोचितं पुष्पगन्धमाल्यालंकारहारमपरिभुंजाना करतलमर्दितेव कमलमालाऽपहत यावत् ध्यायति / इतश्च भीमः कूटग्राहो यत्रैवोत्पला कूटग्राही तत्रैवोपा० 2 अपहत यावत् पश्यति, दृष्ट्वा एवमवदत्किं त्वं देवानुप्रिये ! अपहत यावत् ध्यायसि ? ततः सा उत्पला भार्या भीमं कूटग्राहं एवमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रिय ! मम त्रिषु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दोहदः प्रादुर्भूतः, धन्याः 4 या बहूनां गो ऊधोभिश्च लावणिकैश्च सुरां च 5 आस्वा० 4 दोहदं विनयन्ति। ततोऽहं देवानुप्रिय ! तस्मिन् दोहदेऽविनीयमाने यावत् ध्यायामि / ततः स भीम: कूट उत्पलां भार्यामेवमवदत्-मा त्वं देवानुप्रिये! अपहत० यावत् ध्यासीः। अहं तत् तथा करिष्यामि यथा तव दोहदस्य सम्प्राप्तिर्भविष्यति। ताभिरिष्टाभिर्यावत् समाश्वासयति। पदार्थ-ताओ-वे।अम्मयाओ-माताएं। धण्णाओ-धन्य हैं। जाव-यावत्। सुलद्धे-उन्होंने ही प्राप्त किया है। जम्मजीवियफले-जन्म और जीवन के फल को। णं-वाक्यालंकार में है। जाओ णं-जो। बहूणं-अनेक। सणाहाण य 5- सनाथ और अनाथ आदि। नगरगोरूवाणं- नागरिक पशुओं। जाव 270 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावत्। वसभाण य-वृषभों के। ऊहेहि य-ऊध-लेवा-वह थैली जिस में दूध भरा रहता है। थणेहि यस्तन / वसणेहि य-वृषण-अंडकोष। छिप्पाहि य-पूंछ / ककुहेहि य-ककुद-स्कन्ध का ऊपरी भाग। वहेहि य-स्कन्ध। कन्नेहि य-कर्ण। अच्छीहि य-नेत्र। नासाहि य-नासिका। जिव्हाहि य-जिव्हा। ओडेहि य-ओष्ठ। कंबले हि य-कम्बल-सास्ना-गाय के गले का चमड़ा। सोल्लेहि य-शूल्य-शूलाप्रोत मांस। तलितेहि य-तलित-तला हुआ। भज्जेहि य-भुना हुआ। परिसुक्केहि य-परिशुष्क-स्वतः सूखा हुआ। लावणिएहि य-लवण से संस्कृत मांस / सुरं च-सुरा। मधुं च-मधु-पुष्पनिष्पन्न-सुरा-विशेष / मेरगं च-मेरक-मद्य विशेष जो कि ताल फल से बनाई जाती है। जातिं च-मद्य विशेष जो कि जाति कुसुम के वर्ण के समान वर्ण वाली होती है। सीधुं च-सीधु-मद्य विशेष जो कि गुड़ और धातकी के मेल से निर्माण की जाती है। पसण्णं च-प्रसन्ना-मद्यविशेष जो कि द्राक्षा आदि से निष्पन्न होती है, इन सब का।आसाएमाणीओ-आस्वाद लेती हुईं। विसाएमाणीओ-विशेष आस्वाद लेती हुईं। परिभाएमाणीओदूसरों को देती हुईं। परिभुंजेमाणीओ-परिभोग करती हुई। दोहलं-दोहद-गर्भिणी स्त्री का मनोरथ, को। विणेति-पूर्ण करती हैं। तं जइ णं-सो यदि। अहमवि-मैं भी। बहूणं-अनेक / नगर-नागरिक। जावयावत्। विणेज्जामि-अपने दोहद को पूर्ण करूं। ति कट्ट-यह विचार कर / तंसि-उस। दोहलंसि-दोहद के।अविणिजमाणंसि-पूर्ण न होने से / सुक्खा-सूखने लगी। भुक्खा-बुभुक्षित के समान हो गई अर्थात् भोजन न करने से बल रहित हो कर भूखे व्यक्ति के समान दीखने लगी। निम्मंसा-मांस रहित अत्यन्त दुर्बल सी हो गई। उलुग्गा-रोगिणी। उलुग्गसरीरा-रोगी के समान शिथिल शरीर वाली। नित्तेया-निस्तेज तेज से रहित। दीणविमणवयणा-दीन तथा चिंतातुर मुख वाली। पंडुल्लइयमुही-जिस का मुख पीला पड़ गया है। ओमंथियनयणवयणकमला-जिस के नेत्र तथा मुख कमल मुरझा गया। जहोइयं- यथोचित। पुष्फ-वस्थगंधमल्लालंकारहारं-पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माल्य-फूलों की गुंथी हुई माला, अलंकार-आभूषण और हार का। अपरि जमाणी-उपभोग न करने वाली। करयलमलिय व्व कमलमाला-करतल से मर्दित कमल-माला की तरह। ओहय०- कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित। जाव-यावत्। झियाति-चिन्ताग्रस्त हो रही है। इमं च णं-और इधर। भीमे कूडग्गाहे-वह भीम नामक कूटग्राह। जेणेव-जहां पर / उप्पला-उत्पला नाम की। कूडग्गाहिणी-कूटग्राहिणी-कूटग्राह की स्त्री थी। तेणेववहीं पर। उवा०२-आता है, आकर कर।ओहय० जाव-उसे सूखी हुई, उत्साह रहित यावत् किंकर्तव्यविमूढ एवं चिन्ताग्रस्त। पासति-देखता है। २त्ता-देख कर। एवं वयासी-उसे इस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिए !- हे भद्रे / तुम-तुम। किण्णं-क्यों। ओहयः-जाव-इस तरह सूखी हुई यावत् चिन्ताग्रस्त हो रही हो? झियासि-आर्तध्यान में मग्न हो रही हो? तते णं-तदनन्तर / सा-वह / उप्पला भारिया-उत्पला भार्या-स्त्री। भीमं-भीम नामक। कूड-कूटग्राह से। एवं-इस प्रकार / वयासी-कहने लगी। देवाणुप्पिया!हे महानुभाव ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। ममं-मेरे को। तिण्हं-मासाणं-तीन मास के। बहुपडिपुण्णाणं-परिपूर्ण हो जाने पर। दोहले-यह दोहद / पाउब्भूते-उत्पन्न हुआ कि। धण्णाओ णं ४-धन्य हैं वे माताएं। जाओ णं-जो। बहूणं गो०-अनेक चतुष्पाद पशुओं के। ऊहेहि य०-ऊधस् आदि के, तथा। लावणिएहि य-लवणसंस्कृत मांस और। सुरं ५-सुरा आदि का। आसा० ४-आस्वादन करती हुई। दोहलं-दोहद। विणिंति-पूर्ण करती हैं। तते णं-तदनन्तर। देवाणुः !-हे महानुभाव! तंसि-उस। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [271 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहलंसि-दोहद के।अविणिजमाणंसि-पूर्ण न होने से। जाव-यावत्। किंकर्तव्यविमूढ हुई मैं! झियामिचिन्तातुर हो रही हूं। तते णं-तदनन्तर / से-वह। भीमे-भीम नामक। कूड-कूटग्राह। उप्पलं भारियंउत्पला भार्या को। एवं वयासी- इस प्रकार कहने लगा। देवाणु० ! हे सुभगे। तुमं-तूं। मा णं-मत। ओहय०-हतोत्साह। जाव-यावत्। झियाहि-चिन्तातुर हो। अहं णं-मैं। तं-उस का। तहा-तथा-वैसे। करिस्सामि-यत्न करूंगा। जहा णं-जैसे। तव-तुम्हारे / दोहलस्स-दोहद की। संपत्ती-संप्राप्ति-पूर्ति / भविस्सइ-हो जाए। ताहिं इट्ठाहि-उन इष्ट वचनों से। जाव-यावत् / समासासेति-उसे आश्वासन देता मूलार्थ-धन्य हैं वे माताएं यावत् उन्होंने ही जन्म तथा जीवन को भली-भांति सफल किया है अथवा जीवन के फल को पाया है जो अनेक अनाथ या सनाथ नागरिक पशुओं यावत् वृषभों के ऊधस्, स्तन, वृषण, पुच्छ, ककुद, स्कन्ध, कर्ण, नेत्र, नासिका, जिव्हा, ओष्ठ तथा कम्बल-सास्ना जो कि शूल्य (शूला-प्रोत), तलित (तले हुए), भृष्ट-भुने हुए, शुष्क (स्वयं सूखे हुए) और लवण-संस्कृत मांस के साथ सुरा, मधु, मेरक, जाति, सीधु और प्रसन्ना-इन मद्यों का सामान्य और विशेष रूप से आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन तथा परिभोग करती हुईं अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। काश ! मैं भी उसी प्रकार अपने दोहद को पूर्ण करूं। इस विचार के अनन्तर उस दोहद के पूर्ण न होने से वह उत्पला नामक कूटग्राह की पत्नी सूख गई-[रुधिर क्षय के कारण शोषणता को प्राप्त हो गई ] बुभुक्षित हो गई, मांसरहित-अस्थि शेष हो गई अर्थात् मांस के सूख जाने से शरीर की अस्थियां दीखने लग गईं। शरीर शिथिल पड़ गया। तेज-कान्ति रहित हो गई। दीन तथा चिन्तातुर मुख वाली हो गईं। बदन पीला पड़ गया। नेत्र तथा मुख मुरझा गया, यथोचित पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माल्य, अलंकार और हार आदि का उपभोग न करती हुई करतल मर्दित पुष्प माला की तरह म्लान हुई उत्साह रहित यावत् चिन्ता-ग्रस्त हो कर विचार ही कर रही थी कि इतने में भीम नामक कूटग्राह जहां पर उत्पला कूटग्राहिणी थी वहां पर आया और आकर उसने यावत् चिन्ताग्रस्त उत्पला को देखा, देख कर कहने लगा कि हे भद्रे ! तुम इस प्रकार शुष्क, निर्मास यावत् हतोत्साह हो कर किस चिन्ता में निमग्न हो रही हो ? अर्थात् ऐसी दशा होने का क्या कारण है ? तदनन्तर उस की उत्पला नामक भार्या ने उस से कहा कि स्वामिन् ! लगभग तीन मास पूरे होने पर यह दोहद उत्पन्न हुआ कि वे माताएं धन्य हैं कि जो चतुष्पाद पशुओं के ऊधस् और स्तन आदि के लवण-संस्कृत मांस का सुरा आदि के साथ आस्वादनादि करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। तदनन्तर हे नाथ ! उस दोहद के पूर्ण न होने पर शुष्क और निर्मास यावत् 272 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हतोत्साह हुई मैं सोच रही हूं अर्थात् मेरी इस दशा का कारण उक्त प्रकार से दोहद का पूर्ण न होना है। तब कूटग्राह भीम ने अपनी उत्पला भार्या से कहा कि भद्रे ! तू चिन्ता मत कर, मैं वही कुछ करूंगा, जिससे कि तुम्हारे इस दोहद की पूर्ति हो जाएगी। इस प्रकार के इष्ट-प्रिय वचनों से उसने उसे आश्वासन दिया। टीका-गत सूत्र पाठ में भीम नामक कूटग्राह को अधर्मी, पतित आचरण वाला और उसकी स्त्री उत्पला को सगर्भा-गर्भवती कहा गया है। अब प्रस्तुत सूत्र में उसके दोहद का वर्णन करते हैं। उत्पला के गर्भ को लगभग तीन मास पूरे हो जाने पर उसे यह दोहद उत्पन्न हुआ कि वे माताएं धन्य हैं तथा उन्होंने ही अपने जन्म और जीवन को सार्थक बनाया है जो सनाथ या अनाथ अनेकविध पशुओं जैसा कि नागरिक गौओं, बैलों, पड्डिकाओं और सांडों के ऊधस्, स्तन, वृषण, पुच्छ, ककुद, स्कन्ध, कर्ण, अक्षि, नासिका, जिव्हा ओष्ठ तथा कम्बल-सास्ना आदि के मांस जो शूलाप्रोत, तलित (तले हुए), भृष्ट, परिशुष्क और लावणिक-लवणसंस्कृत हैं- के साथ सुरा, मधु, मेरक जाति, सीधु और प्रसन्ना आदि विविध प्रकार के मद्य विशेषों का आस्वादन आदि करती हुईं अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। यदि मैं भी इस प्रकार नागरिक पशुओं के विविध प्रकार के शूल्य (शूलाप्रोत) आदि मांसों के साथ सुरा आदि का सेवन करूं तो बहुत अच्छा हो, दूसरे शब्दों में यदि मैं पूर्वोक्त आचरण करती हुई उन माताओं की पंक्ति में परिगणित हो जाऊं तो मेरे लिए यह बड़े ही सौभाग्य की बात होगी। सगर्भा स्त्री को गर्भ रहने के दूसरे या तीसरे महीने में गर्भगत जीव के भविष्य के अनुसार अच्छी या बुरी जो इच्छा उत्पन्न होती है उस को अर्थात् गर्भिणी के मनोरथ को दोहद कहते हैं। "अम्मयाओ जावसुलद्धे"इस में उल्लिखित "जाव-यावत्" पद से "कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ तासिं णं अम्मयाणं सुलद्धे जम्मजीवियफले" [वे माताएं पुण्यशाली हैं, कृतार्थ हैं, तथा शुभलक्षणों वाली हैं एवं उन माताओं ने ही जन्म और जीवन का फल प्राप्त किया है] इन पाठों का ग्रहण करना ही सूत्रकार को अभीष्ट है। "-सणाहाण य जाव वसभाण" यहां पठित "जाव-यावत्" पद से "-अणाहाण यणगर-गावीण य णगरवलीबद्दाण य-" इत्यादि पदों का ग्रहण अभिमत है। इन पदों की व्याख्या पीछे कर दी गई है। ऊधस्-गो आदि पशुओं के स्तनों के उपरी भाग को उधस् कहते हैं, जहां कि दूध भरा प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [273 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता है। पंजाब प्रांत में उसे लेवा कहते हैं। स्तन-जिस उपांग के द्वारा बच्चों को दूध पिलाया जाता है, उस उपांग विशेष की स्तन संज्ञा है। वृषण-अण्ड-कोष का नाम है। पुच्छ-या पूंछ प्रसिद्ध ही है। ककुद-बैल के कन्धे के कुब्बड को ककुद कहते हैं, तथा बैल के कन्धे का नाम वह है। कम्बल-गाय के गले में लटके हुए चमड़े की कम्बल संज्ञा है इसी का दूसरा नाम सास्ना है। शूल पर पकाया हुआ मांस शूल्य तथा तेल घृत आदि में तले हुए को तलित, भुने हुए को भृष्ट, अपने आप सूखे हुए को परिशुष्क और लवणादि से संस्कृत को लावणिक कहते सुरा-मदिरा, शराब का नाम है। मधु-शहद और पुष्पों से निर्मित मदिरा विशेष का नाम है। मेरक-तालफल से निष्पन्न मदिरा विशेष को मेरक कहते हैं। जाति-मालती पुष्प के वर्ण के समान वर्ण वाले मद्यविशेष की संज्ञा है। सीधु-गुड़ और धातकी के पुष्पों (धव के फूलों) से निष्पन्न हुई मदिरा सीधु के नाम से प्रसिद्ध है। प्रसन्ना-द्राक्षा आदि द्रव्यों के संयोग से निष्पन्न की जाने वाली मदिरा प्रसन्ना कहलाती है। सारांश यह है कि-सुरा, मधु, मेरक, जाति, सीधु, और प्रसन्ना ये सब मदिरा के ही अवान्तर भेद हैं। यद्यपि मेरक आदि शब्दों के और भी बहुत से अर्थ उपलब्ध होते हैं, परन्तु यहां पर प्रकरण के अनुसार इन का मद्यविशेष अर्थ ग्राह्य है। अतः उसी का निर्देश किया गया है। __"आसाएमाणीओ" आदि पदों की व्याख्या टीकाकार इस तरह करते हैं __"आसाएमाणीउ' त्ति ईषत् स्वादयन्त्यो बहु च त्यजन्त्य इक्षुखंडादेरिव / "विसाएमाणीउ"त्ति विशेषेण स्वादयन्त्योऽल्पमेव त्यजन्त्यः खर्जुरादेरिव / "परिभाएमाणीउ" त्ति ददत्यः। "परिभुंजेमाणीउ"त्ति सर्वमुपभुंजाना अल्पमप्यपरित्यजन्त्यः" अर्थात् इक्षुखण्ड (गन्ना) की भांति थोड़ा सा आस्वादन तथा बहुत सा भाग त्यागती हुईं, तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार इक्षुखण्ड-गन्ने को चूस कर रस का आस्वाद लेकर शेष-[रस की अपेक्षा अधिक भाग] को फेंक दिया जाता है ठीक उसी प्रकार पूर्वोक्त पदार्थों को [जिन का अल्पांश ग्राह्य और बहु-अंश त्याज्य होता है] सेवन करती हुईं, तथा खजूर-खजूर की भांति विशेष भाग का आस्वादन और अल्पभाग को छोड़ती हुईं, तथा मात्र स्वयं ही आस्वादन न कर दूसरों को भी वितीर्ण करती- बांटती हुईं और सम्पूर्ण का ही आस्वादन करती हुईं दोहद को पूर्ण कर रही हैं। प्रस्तुत सूत्र में उत्पला के दोहद का वर्णन किया गया है, उत्पला चाहती है कि मैं भी पुण्यशालिनी माताओं की तरह अपने दोहद को पूर्ण करूं, किन्तु ऐसा न होने से वह चिन्ताग्रस्त 274 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो कर सूखने लगी और उस का शरीर मांस के सूखने से अस्थिपञ्जर सा हो गया। तथा वह सर्वथा मुरझा गई। प्रस्तुत सूत्र पाठ में "-सुक्खा -शुष्का-" आदि सभी पद उस के विशेषण रूप में निर्दिष्ट हुए हैं। उन की व्याख्या इस प्रकार है १"-शुष्का-" रुधिरादि के क्षय हो जाने के कारण उस का शरीर सूख गया। 2 बुभुक्षा-भोजन न करने से बलहीन हो कर बुभुक्षिता सी रहती है। 3 निर्मांसा-भोजनादि के अभाव से शरीरगत मांस सूख गया है। 4 अवरुग्णा-उदास-इच्छाओं के भग्न हो जाने से उदास सी रहती है। 5 अवरुग्णसरीरा-निर्बल अथवा रुग्ण शरीर वाली। 6 निस्तेजस्कातेज-कांति रहित / 7 दीन-विमनो-वदना-शोकातुर अथच चिन्ताग्रस्त मुख वाली। यहांदीना चासौ विमनोवदना च"-ऐसा विग्रह किया जाता है। किसी किसी प्रति में "-दीणविमणहीणा-" ऐसा पाठान्तर मिलता है। टीकाकार इस विशेषण की निम्नोक्त व्याख्या करते हैं ___"-दीना दैन्यवती, विमनाः शून्यचित्ता हीणा च भीतेति कर्मधारयः" अर्थात् वह दीनता, मानसिक अस्थिरता तथा भय से व्याप्त थी।८-"पांडुरितमुखी-"उस का मुख पीला पड़ गया था। ९"-अवमथित-नयन-वदन-कमला-" जिस के नेत्र तथा मुखरूप कमल मुाया हुआ था। टीकाकार ने इस पद की व्याख्या इस प्रकार की है. "-अधोमुखी कृतानि नयनवदनरूपाणि कमलानि यया सा तथा-" अर्थात् जिस ने कमलसदृश नयन तथा मुख नीचे की ओर किए हुए हैं। इसीलिए वह यथोचित रूप से पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य [फूलों की माला] अलंकार-भूषण तथा हार आदि का उपभोग नहीं कर रही थी। तात्पर्य यह है कि दोहद की पूर्ति के न होने से उस ने शरीर का श्रृंगार करना भी छोड़ दिया था, और वह करतल मर्दित-हाथ के मध्य में रख कर हथेली से मसली गई कमल माला की भांति शोभा रहित, उदासीन और किंकर्तव्य विमूढ़ सी हो कर उत्साहशून्य एवं चिन्तातुर हो रही थी। "ओहयः जाव झियाति" इस वाक्य गत "जाव-यावत्" पद से "ओहयमण संकप्पा' [जिसके मानसिक संकल्प विफल हो गए हैं] "करतलपल्हत्थमुही" [जिस का मुख हाथ पर स्थापित हो] अट्टज्झाणोवगया- [आर्तध्यान को प्राप्त२] इस पाठ का ग्रहण 1. विमनस इव विगतचेतस इव वदनं यस्याः सेति भावः। 2. आर्ति नाम दु:ख या पीड़ा का है, उस में जो उत्पन्न हो उसे आर्त कहते हैं, अर्थात् जिस में दुःख का . चिन्तन हो उस का नाम आर्तध्यान है। आर्तध्यान के भेदोपभेदों का ज्ञान अन्यत्र करें। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [275 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना चाहिए। इस का सारांश यह है कि-उत्पला अपने दोहद की पूर्ति न होने पर बहुत दुःखी हुई। अधिक क्या कहें प्रतिक्षण उदास रहती हुई आर्तध्यान करने लगी। एक दिन उत्पला के पति भीम नामक कूटग्राह उस के पास आए, उदासीन तथा आर्त ध्यान में व्यस्त हुई उत्पला को देख कर प्रेमपूर्वक बोले-देवि ! तुम इतनी उदास क्यों हो रही हो? तुम्हारा शरीर इतना कृश क्यों हो गया ? तुम्हारे शरीर पर तो मांस दिखाई ही नहीं देता, यह क्या हुआ ? तुम्हारी इस चिन्ताजनक अवस्था का कारण क्या है ? इत्यादि। पतिदेव के सान्त्वना भरे शब्दों को सुन कर उत्पला बोली, महाराज ! मेरे गर्भ को लगभग तीन मास पूरे हो जाने पर मुझे एक दोहद उत्पन्न हुआ है, उस की पूर्ति न होने से मेरी यह दशा हुई है। उसने अपने दोहद की ऊपर वर्णित सारी कथा कह सुनाई। उत्पला की बात को सुनकर भीम कूटग्राह ने उसे आश्वासन देते हुए कहा कि भद्रे ! तू चिन्ता न कर, मैं ऐसा यत्न अवश्य करूंगा, कि जिस से तुम्हारे दोहद की पूर्ति भली-भांति हो सकेगी। इसलिए तू अब सारी उदासीनता को त्याग दे। "ओहय० जाव पासति"-"ओहय० जाव झियासि" "गो• सुरं च 5 आसाए०४" और "अविणिजमाणंसि जाव झियाहि" इत्यादि स्थलों में पठित "जाव-यावत्" पद से तथा बिन्दु और अंकों के संकेत से प्रकृत अध्ययन में ही उल्लिखित सम्पूर्ण पाठ का स्मरण कराना सूत्रकार को अभीष्ट है। __ "इट्ठाहिं जाव समासासेति" वाक्य के "जाव-यावत्" पद से "कंताहिं, पियाहिं, मणुन्नाहिंमणामाहि-इन पदों का ग्रहण करना। ये सब पद समानार्थक हैं। सारांश यह है किनितांत उदास हुई उत्पला को शान्त्वना देते हुए भीम ने बड़े कोमल शब्दों में यह पूर्ण आशा दिलाई कि मैं तुम्हारे इस दोहद को पूर्ण करने का भरसक प्रयत्न करूंगा। अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उत्पला. के दोहद की पूर्ति का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से भीमे कूङ अड्ढरत्तकालसमयंसि एगे अबीए सण्णद्ध जाव 1 पहरणे सयाओ गिहाओ निग्गच्छति 2 त्ता हत्थिणाउरं मझमझेणं जेणेव गोमंडवे तेणेव उवागए 2 बहूणं णगरगोरूवाणं जाव वसभाण य अप्पेगइयाणं ऊहे छिंदति जाव अप्पेगइयाणं कंबलए छिंदति, अप्पेगइयाणं अण्णमण्णाइं अंगोवंगाइं वियंगेति 2 त्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति 2 1. "-जाव-यावत्-" पद से-सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवए, उप्पीलियसरासणपट्टिए पिणद्ध-गेविजे, विमलवरबद्धचिंधपट्टे, गहियाउहपहरणे, इन पदों का ग्रहण समझना। इन की व्याख्या इसी अध्ययन में पीछे की जा चुकी है। 276 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्ता उप्पलाए कूडग्गाहिणीए उवणेति। तते णं सा उप्पला भारिया तेहिं बहूहिं गोमंसेहिं सोल्लेहिं जाव सुरं च 5 आसा०४ तं दोहलं विणेति।तते णं सा उप्पला कूडग्गाही संपुण्णदोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिण्णदोहला संपन्नदोहला तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहति। छाया-ततः स भीमः कूटग्राहोऽर्द्धरात्रकालसमये एकोऽद्वितीयः संनद्ध यावत् प्रहरणः स्वस्माद् गृहान्निर्गच्छति, निर्गत्य हस्तिनापुरं मध्यमध्येन यत्रैव गोमंडपस्तत्रैवोपागतः, उपागत्य बहूनां नगरगोरूपाणां यावद् वृषभाणां चाप्येकेषां ऊधांसि छिनत्ति, यावद् अप्येकेषां कम्बलान् छिनत्ति, अप्येकेषामन्यान्यान्यगोपांगानि विकृन्तति, विकृत्य यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य उत्पलायै कूटग्राहिण्यै उपनयति / ततः सा उत्पला भार्या तैर्बहुभिर्गोमांसैः शूल्यैः यावत् सुरां च 5 आस्वा० 4 तं दोहदं विनयति / ततः सा उत्पला कूटग्राही सम्पूर्णदोहदा, संमानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदोहदा, तं गर्भं सुखसुखेन परिवहति।। __ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। भीमे कूड०-भीम कूटग्राह। अड्ढरत्तकालसमयंसिअर्द्धरात्रि के समय। एगे-अकेला। अबीए-जिस के साथ दूसरा कोई नहीं। सण्णद्ध-दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण किए। जाव-यावत्। पहरणे-आयुध और प्रहरण ले कर। सयाओ-अपने। गिहाओ-घर से। निग्गच्छति 2 त्ता-निकलता है, निकल कर। हत्थिणाउरं-हस्तिनापुर नामक नगर के। मज्मंमझेणं-मध्य में से होता हुआ। जेणेव-जहां। गोमंडवेगोमंडप-गौशाला थी। तेणेव-वहां पर। उवागते २-आता है आकर। बहूणं-अनेक। णगरगोरूवाणं- . नागरिक पशुओं के। जाव-यावत्। वसभाण य-वृषभों के मध्य में से। अप्पेगइयाणं-कई एक के। ऊहे-ऊधस् को। छिंदति-काटता है। जाव-यावत्। अप्पेइगयाणं-कई एक के। कंबलए-कम्बलसास्ना को। छिंदति-काटता है। अप्पेगइयाणं-कई एक के। अण्णमण्णाइं-अन्यान्य। अंगोवंगाईअंगोपांगों को। वियंगेति २-काटता है काट कर। जेणेव-जहां पर / सए गेहे-अपना घर था। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छति २-आता है, आकर। कूडग्गाहिणीए-कूटग्राहिणी। उप्पलाए-उत्पला को। उवणेतिदे देता है। तते णं-तदनन्तर / सा उप्पला भारिया-वह उत्पला भार्या। तेहिं-उन / बहुहि-नाना प्रकार के। जाव-यावत् / सोल्लेहि-शूलाप्रोत / गोमंसेहि-गौ के मांसों के साथ सुरं च ५-सुरा प्रभृति मद्य विशेषों का। आसा. ४-आस्वादन आदि करती हुई। तं दोहदं-उस दोहद को। विणेति-पूर्ण करती है। तते णंतदनन्तर / संपुण्णदोहला-सम्पूर्ण दोहद वाली।संमाणियदोहला-सम्मानित दोहद वाली। विणीयदोहलाविनीत दोहद वाली। वोच्छिन्नदोहला-व्युच्छिन्न दोहद वाली। संपन्नदोहला-सम्पन्न दोहद वाली। सा उप्पला कूडग्गाही-वह उत्पला कूटग्राही। तं गब्भं-उस गर्भ को। सुहंसुहेणं-सुखपूर्वक। परिवहति प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [277 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारण करती है। मूलार्थ-तदनन्तर भीम कूटग्राह अर्द्धरात्रि के समय अकेला ही दृढ़ बन्धनों से बद्ध और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण कर आयुध और प्रहरण लेकर घर से निकला और हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ जहां पर गोमण्डप था वहाँ पर आया आकर अनेक नागरिक पशुओं यावत् वृषभों में से कई एक के ऊधस् यावत् कई एक के कम्बल-सास्ना आदि एवं कई एक के अन्यान्य अंगोपांगों को काटता है, काट कर अपने घर आता है, और आकर अपनी उत्पला भार्या को दे देता है। तदनन्तर वह उत्पला उन अनेकविध शूल्य (शूला-प्रोत) आदि गोमांसों के साथ सुरा आदि का आस्वादन प्रस्वादन आदि करती हुई अपने दोहद की पूर्ति करती है। इस भाँति सम्पूर्ण दोहद वाली,सम्मानित दोहद वाली, विनीत दोहद वाली, व्युच्छिन्न दोहद वाली, और सम्पन्न दोहद वाली वह उत्पला कूटग्राही उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है। टीका-उत्पला को अपने पति देव की ओर से दोहद-पूर्ति का आश्वासन मिला जिस से उसके हृदय को कुछ सान्त्वना मिली, यह गत सूत्र में वर्णन किया जा चुका है। उत्पला को दोहदपूर्ति का वचन दे कर भीम वहां से चल दिया, एकांत में बैठकर उत्पला की दोहद-पूर्ति के लिए क्या उपाय करना चाहिए, इस का उसने निश्चय किया। तदनुसार मध्यरात्रि के समय जब कि चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था, और रात्रि देवी के प्रभाव से चारों ओर अन्धकार व्याप्त था, एवं नगर की सारी जनता निस्तब्ध हो कर निद्रादेवी की गोद में विश्राम कर रही थी, भीम अपने बिस्तर से उठा और एक वीर सैनिक की भांति अस्त्र शस्त्रों से लैस हो कर हस्तिनापुर के उस गोमंडप में पहुंचा, जिस का कि ऊपर वर्णन किया गया है। वहां पहुंच कर उसने पशुओं के ऊधस् तथा अन्य अंगोपांगों का मांस काटा और उसे लेकर सीधा घर की ओर प्रस्थित हुआ, घर में आकर उसने वह सब मांस अपनी स्त्री उत्पला को दे दिया। उत्पला ने भी उसे पका कर सुरा आदि के साथ उसका यथारुचि व्यवहार किया अर्थात् कुछ खाया, कुछ बांटा और कुछ का अन्य प्रकार से उपयोग किया। उससे उस के दोहद की यथेच्छ पूर्ति हुई तथा वह प्रसन्न चित्त से गर्भ का उद्वहन करने लगी। सूत्रगत "एगे" और "अबीए" ये दोनों पद समानार्थक से हैं, परन्तु टीकाकार महानुभाव ने "एगे" का भावार्थ एकाकी-सहायक से रहित और "अबीए" इस पद का धर्मरूप सहायक से शून्य, यह अर्थ किया है। ["एगे"त्ति सहायताभावात्। "अबीए"त्ति धर्मरूपसहायाभावात्] तथा "सण्णद्ध जाव पहरणे" और "गोरूवाणं जाव वसभाण" एवं "छिंदति 278 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाव अप्पेगइयाणं-" इन स्थलों का "-जाव यावत्-" पद प्रकृत द्वितीय अध्ययन में ही पीछे पढ़े गए सूत्र पाठों का स्मारक है। पाठक वहीं से देख सकते हैं। उत्पला अपने मनोभिलषित पदार्थों को प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई। उस के दोहद की यथेच्छ पूर्ति हो जाने से उसे असीम हर्ष हुआ। इसी से वह उत्तरोत्तर गर्भ को आनन्द पूर्वक धारण करने लगी। सूत्रकार ने भी उत्पला की आंतरिक अभिलाषापूर्ति के सूचक उपयुक्त शब्दों का उल्लेख करके उस का समर्थन किया है। तथा उत्पला के विषय में जो विशेषण दिए हैं उनमें टीकाकार ने निम्नलिखित अन्तर दिखाया है ___ "-संपुण्णदोहल त्ति-" समस्त-वांछितार्थ-पूरणात्। "सम्माणियदोहल त्ति" वांछितार्थ-समानयनात्। “विणीयदोहल त्ति" वाञ्छाविनयनात्। “विछिन्नदोहल त्ति" विवक्षितार्थ-वांछानुबन्ध-विच्छेदात्। “संपन्नदोहल त्ति" विवक्षितार्थभोगसंपाद्यानन्दप्राप्तेरिति, अर्थात् उत्पला कूटग्राहिणी को समस्त वांछित पदार्थों के पूर्ण होने के कारण सम्पूर्णदोहदा, इच्छित पदार्थों के समानयन के कारण सम्मानितदोहदा, इच्छा-विनयन के कारण विनीतदोहदा, विवक्षितपदार्थों के वांछा के अनुबन्ध-विच्छेद (परम्परा-विच्छेद) के कारण व्युच्छिन्नदोहदा, तथा इच्छित-पदार्थों के भोग उपलब्ध कर सानन्द होने के कारण सम्पन्नदोहदा कहा गया है। - अब सूत्रकार उत्पला के गर्भ की स्थिति पूरी होने के बाद के वृत्तान्त का वर्णन करते . मूल-तते णं सा उप्पला कूड० अण्णया कयाई णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाता। तते णं तेणं दारएणं जायमेत्तेणं चेव महया सद्देणं विग्घुढे विस्सरे आरसिते। तते णं तस्स दारगस्स आरसियसदं सोच्चा निसम्म हत्थिणाउरे नगरे बहवे नगरगोरूवा जाव वसभा य भीया 4 उव्विग्गा सव्वओ समंता विप्पलाइत्था। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एयारूवं नामधेजं करेंति, जम्हा णं इमेणं दारएणं जायमेत्तेणं चेव महया 2 सद्देणं विग्घुढे विस्सरे आरसिते। तते णं एयस्स दारगस्स आरसितसई सोच्चा निसम्म हत्थिणाउरेणगरे बहवे नगरगोरूवा यजाव भीया 4 सव्वतो समंता विप्पलाइत्था, 1. टीकाकार श्री अभयदेवसूरि "- महया 2 सद्देणं विग्घुढे विस्सरे आरसिते-" इस पाठ के स्थान पर -महया 2 विग्घुढे चिच्चीसरे आरसिते- ऐसा पाठ मानते हैं। इस पाठ की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं "-महया 2 चिच्ची आरसिए-" महता महता चिच्चीत्येवं चीत्कारेणेत्यर्थः। "आरसिय" त्ति आरसितमारटितमित्यर्थः। अर्थात्- उस बालक ने "चिच्ची" इत्यात्मक चीत्कार के द्वारा महान् शब्द किया। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [279 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तम्हा णं होउ अम्हं दारए गोत्तासए नामेणं। तते णं से गोत्तासे दारए उम्मुक्कबालभावे जाव जाते यावि होत्था। तते णं से भीमे कूडग्गाहे अण्णया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते। तते णं से गोत्तासे दारए बहूणं मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरिजणेणं सद्धिं संपरिवुडे रोअमाणे कंदमाणे विलवमाणे भीमस्स कूडग्गाहस्स नीहरणं करेति, करेत्ता बहूई लोइयमयकिच्चाई करे। छाया-ततः सा उत्पला कूट० अन्यदा कदाचित् नवसु मासेसु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रजाता। ततस्तेन दारकेण जातमात्रेणैव महता शब्देन 'विघुष्टं विस्वरमारसितम्। तत एतस्य दारकस्य आरसितशब्दं श्रुत्वा निशम्य हस्तिनापुरे नगरे बहवो नगरगोरूपाश्च यावत् भीताः 4 उद्विग्ना सर्वतः समन्तात् विपलायांचक्रिरे, ततस्तस्य दारकस्याम्बापितरौ इदमेतद्रूपं नामधेयं कुरुतः, यस्माद् आवयोरनेन दारकेण जातमात्रेणैव महता 2 शब्देन विघुष्टं विस्वरमारसितम्, तत एतस्य दारकस्यारसितशब्दं श्रुत्वा निशम्य हस्तिनापुरे नगरे बहवो नगरगोरूपाश्च यावत् भीताः 4 सर्वतः समन्तात् विपलायांचक्रिरे, तस्माद् भवत्वावयोर्दारको गोत्रासो नाम्ना। ततः स गोत्रासो दारक; उन्मुक्तबालभावो यावत् . जातश्चाप्यभवत् / ततः स भीमः कूटग्राहोऽन्यदा कदाचित् कालधर्मेण संयुक्तः। ततः स गोत्रासो दारको बहुना मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनेन सार्द्ध संपरिवृतो रुदन् कन्दन् विलपन् भीमस्य कूटग्राहस्य नीहरणं करोति। नीहरणं कृत्वा बहूनि लौकिक-मृतकृत्यानि करोति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / सा-उस। उप्पला-उत्पला नामक / कूड-कूटग्राहिणी ने। अण्णया कयाती-अन्य किसी समय। नवण्हं मासाणं-नव मास। पंडिपुण्णाणं-पूरे हो जाने पर। दारगं-बालक को। पयाता-जन्म दिया। तते णं-तत्पश्चात्। जायमेत्तेणं चेव-जन्म लेते ही। तेणं दारएणं-उस बालक ने। महया-महान / सद्देणं-शब्द से। आरसिते-भयंकर आवाज़ की जो कि / विग्घुढे-चीत्कारपूर्ण 1. विघुष्टं-चीत्कृतम्, विस्वरं-कर्णकटुस्वरयुक्तम्, आरसितम् -क्रन्दितमिति भावः। 2. मित्र, ज्ञाति आदि शब्दों की व्याख्या निम्नोक्त श्लोकों में वर्णित की गई है, जैसे किमित्तं सोगरूवं हियमुवदिसेइ पियं च वितणोइ।तुल्लायारवियारी सजाइवग्गी य सम्मया णाई॥१॥ माया पिउ-पुत्ताई, णियगो सयणो पिउव्वभायाई। सम्बन्धी ससुराई, दासाई परिजणो णेओ॥२॥ एतच्छाया- मित्रं सदैकरूपं हितमुपदिशति प्रियं च वितनोति / तुल्याचारविचारी, स्वजातिवर्गश्च सम्मता ज्ञातिः॥ 1 // 280 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं। विस्सरे-कर्णकटु थी। तते णं-तदनन्तर / तस्स-उस / दारगस्स-बालक का। आरसियसद-आरसित शब्द-चिल्लाहट को। सोच्चा-सुन कर तथा। णिसम्म-अवधारण कर। हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर नामक। णगरे-नगर में। बहवे-अनेक। णगरगोरूवा-नागरिक पशु। जाव-यावत्। वसभा य-वृषभ। 'भीया ४-भयभीत हुए। उव्विग्गा-उद्विग्न हुए। सव्वओ समंता-चारों ओर। विप्पलाइत्था-भागने लगे। तते णं-तदनन्तर। तस्स दारगस्स-उस बालक के। अम्मापियरो-माता-पिता, उस का। अयमेयारूवं-इस प्रकार का / नामधेज-नाम। काति-रखने लगे। जम्हा णं-जिस कारण। अम्हं-हमारे। जायमेत्तेणं-जन्म लेते। चेव-ही। इमेणं-इस। दारएणं-बालक ने। महया २-महान। सद्देणं-शब्द से। आरसिते-भयानक आवाज़ की जो कि। विग्घुढे-चीत्कारपूर्ण थी और। विस्सरे-कानों को कटु लगने वाली थी। तते णंतदनन्तर। एयस्स-इस। दारगस्स-बालक के। आरसितसई-चिल्लाहट के शब्द को। सोच्चा-सुनकर तथा। णिसम्म-अवधारण कर। हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर। णगरे-नगर में। बहवे-अनेक। णगरगोरूवा य-नागरिक पशु। जाव-यावत् / भीया ४-भयभीत हुए। सव्वओ समंता-चारों ओर। विप्पलाइत्थाभागने लगे। तम्हा णं-इसलिए। अम्हं-हमारा। दारए-यह बालक। गोत्तासए-गोत्रास, इस / नामेणं-नाम से। होउ-हो। तते णं-तत्पश्चात् / से-वह / गोत्तासे-गोत्रास नामक।दारए-बालक। उम्मुक्कबालभावेबालभाव को त्याग कर। जाव-यावत् / जाते यावि होत्था-युवावस्था को प्राप्त हो गया। तते णंतदनन्तर / से भीमे-वह भीम नामक / कूडग्गाहे-कूटग्राह / अण्णया-अन्यदा। कयाती-कदाचित्-किसी समय। कालधम्मुणा-काल धर्म से। संजुत्ते-संयुक्त हुआ अर्थात् काल कर गया-मर गया। तते णंतदनन्दर / से-वह / गोत्तासे-गोत्रास। दारए-बालक / बहुणं-अनेक। मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं-मित्र-सुहृद्, ज्ञातिजन, निजंक-आत्मीय-पुत्रादि, स्वजन-पितृव्यादि, सम्बन्धी-श्वसुरादि, परिजन-दास-दासी आदि के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडे-संपरिवृत-घिरा हुआ। रोअमाणे-रुदन करता हुआ। कंदमाणे-आक्रन्दन करता हुआ। विलवमाणे-विलाप करता हुआ। भीमस्स कूडग्गाहस्स-भीम माता-पितृः पुत्रादिर्निजकः स्वजनः पितृव्यभ्रात्रादिः। सम्बन्धी श्वशुरादिर्दासादिः परिजनो ज्ञेयः // 2 // अर्थात् मित्र सदा एक रूप रहता है, उस के मानस में कभी अन्तर नहीं आने पाता, वह हितकारी उपदेश करता है, प्रीति को बढ़ाता है। समान विचार और आचार वालों को ज्ञाति कहते हैं। माता-पिता और पुत्र आदि निजक कहलाते हैं। पितृव्य-चाचा और भ्राता आदि को स्वजन कहते हैं। श्वशुर आदि को सम्बन्धी कहा जाता है और दास-दासी आदि को परिजन कहा जाता है। 1. ".-भीया-" यहां दिया गया 4 का अंक "-तत्था, उब्विग्गा, संजायभया-" इन तीन पदों का संसूचक है। भीत आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है "-भीता- भययुक्ताः भयजनकशब्दश्रवणाद्, त्रस्ता:-त्रासमुपगताः""-कोप्यस्माकं प्राणापहारको जन्तुः समागतः, इति ज्ञानात्, उद्विग्ना: व्याकुला:-कम्पमानहृदयाः संजातभया:-भयजनितकम्पेन प्रचलितगात्रा:-"अर्थात् हस्तिनापुर नगर के गौ, साण्ड आदि पशु भयोत्पादक शब्द को सुन कर भीत-भयभीत हुए और "-कोई हमारे प्राण लूटने वाला जीव यहाँ आ गया है-" यह सोच कर त्रस्त हुए। उन का हृदय काँपने लग पड़ा। हृदय के साथ-साथ शरीर भी कांपने लग गया। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [281 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूटग्राह का।नीहरणं-नीहरण-निकलना।करेति 2 ता-करता है करके। बहूई-अनेक। 'लोइयमयकिच्चाइंलौकिक मृतक क्रियाएं। करेइ-करता है। मूलार्थ-तदनन्तर उस उत्पला नामक कूटग्राहिणी ने किसी समय नवमास पूरे हो जाने पर बालक को जन्म दिया।जन्मते ही उस बालक ने महान कर्णकटु एवं चीत्कारपूर्ण भयंकर शब्द किया, उस के चीत्कारपूर्ण शब्द को सुन कर तथा अवधारण कर हस्तिनापुर नगर के नागरिक, पशु यावत् वृषभ आदि भयभीत हुए, उद्वेग को प्राप्त हो कर चारों ओर भागने लगे। तदनन्तर उस बालक के माता-पिता ने इस प्रकार से उस का नामकरण संस्कार किया कि जन्म लेते ही उस बालक ने महान कर्णकटु और चीत्कारपूर्ण भीषण शब्द किया है जिसे सुनकर हस्तिनापुर के गौ आदि नागरिक-पशु भयभीत हुए और उद्विग्न हो कर चारों ओर भागने लगे, इसलिए इस बालक का नाम गोत्रास [ गो आदि पशुओं को त्रास देने वाला ] रखा जाता है। तदनन्तर गोत्रास बालक ने बालभाव को त्याग कर युवावस्था में पदार्पण किया। तदनन्तर अर्थात् गोत्रास के युवक होने पर भीम कूटग्राह किसी समय कालधर्म को प्राप्त हुआ अर्थात् उस की मृत्यु हो गई। तब गोत्रास बालक ने अपने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से परिवृत हो कर रुदन, आक्रन्दन और विलाप करते हुए कूटग्राह का दाह-संस्कार किया और अनेक . लौकिक मृतक क्रियाएं की, अर्थात् और्द्धदैहिक कर्म किया। टीका-गर्भ की स्थिति पूरी होने पर भीम कूटग्राह की स्त्री उत्पला ने एक बालक को जन्म दिया, परन्तु जन्मते ही उस बालक ने बड़े भारी कर्णकटु शब्द के साथ ऐसा भयंकर चीत्कार किया कि उस को सुनकर हस्तिनापुर नगर के तमाम पशु भयभीत होकर इधर-उधर भागने लग पड़े। प्रकृति का यह नियम है कि पुण्यशाली जीव के जन्मते और उस से पहले गर्भ में आते ही पारिवारिक अशांति दूर हो जाती है तथा आसपास का क्षुब्ध वातावरण भी प्रशान्त हो जाता है एवं माता को जो दोहद उत्पन्न होते हैं वे भी भद्रं तथा पुण्यरूप ही होते हैं। परन्तु पापिष्ट जीव के आगमन में सब कुछ इस से विपरीत होता है। उस के गर्भ में आते ही नानाप्रकार के उपद्रव होने लगते हैं। माता के दोहद भी सर्वथा निकृष्ट एवं अधर्म-पूर्ण होते हैं। प्रशान्त वातावरण में भयानक क्षोभ उत्पन्न हो जाता है और उस का जन्म अनेक जीवों के भय और 1. लौकिकमृतकृत्यानि-अग्निसंस्कारादारभ्य तन्निमित्तिकदानभोजनादिपर्यन्तानि कर्माणीति भावः। अर्थात्-अग्निसंस्कार से लेकर पिता के निमित्त किए गए दान और भोजनादि कर्म लौकिकमृतक कृत्य शब्द से संगृहीत होते हैं। 282 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत्रास का कारण बनता है। तात्पर्य यह है कि पुण्यवान् और पापिष्ट जीव आते ही अपने स्वरूप का परिचय करा देते हैं, इसी नियम के अनुसार उत्पला के गर्भ से जन्मा हुआ बालक हस्तिनापुर के विशाल गोमण्डप में रहने वाले गाय आदि अनेकों मूक प्राणियों के भय और संत्रास का कारण बना। जैनागमों का पर्यालोचन करने से पता चलता है कि उत्पन्न होने वाले बालक या बालिका के नामकरण में माता-पिता का गुणनिष्पत्ति की ओर अधिक ध्यान रहता था, बालक के गर्भ में आते ही माता पिता को जिन-जिन बातों की वृद्धि या हानि का अनुभव होता, अथच जन्म समय उन्हें उत्पन्न हुए बालक में जो विशेषता दिखाई देती, उसी के अनुसार वे बालक का नामकरण करने का यत्न करते, स्पष्टता के लिए उदाहरण लीजिए श्रमण भगवान् महावीर का परमपुण्यवान् जीव जब त्रिशला माता के गर्भ में आया तब से उन के यहां धन-धान्यादि सम्पूर्ण पदार्थों की वृद्धि होने लग पड़ी। इसी दृष्टि से उन्होंने भगवान का वर्द्धमान यह गुणनिष्पन्न नामकरण किया। अर्थात् उन का वर्द्धमान यह नाम रक्खा गया। इसी भांति धर्म में दृढ़ता होने से दृढ़प्रतिज्ञ और देव का दिया हुआ होने से देवदत्त इत्यादि नाम रक्खे गए। इसी विचार के अनुसार बालक के जन्म लेने पर उस के माता-पिता उत्पला और भीम ने विचार किया कि जन्म लेते ही इस बालक ने बड़ा भयंकर चीत्कार किया, जिस के श्रवण से सारे हस्तिनापुर के गो वृषभादि जीव संत्रस्त हो उठे, इसलिए इस का गुणनिष्पन्न नाम गोत्रासक (गो आदि पशुओं को त्रास पहुंचाने वाला) रखना चाहिए, तदनुसार उन्होंने उस का गोत्रास ऐसा नामकरण किया। संसारवर्ती जीवों को पुत्र प्राप्ति से कितना हर्ष होता है, और खास कर जिन के पहले पुत्र न हो, उन को पुत्र-जन्म से कितनी खुशी होती है, इस का अनुभव प्रत्येक गृहस्थ को अच्छी तरह से होता है। बड़ा होने पर वह धर्मात्मा निकलता है या महा अधर्मी, एवं पितृभक्त निकलता है या पितृ-घातक, इस बात का विचार उस समय माता-पिता को बिल्कुल नहीं होता और ना ही इस की ओर उन का लक्ष्य जाता है किन्तु पुत्र प्राप्ति के व्यामोह में इन बातों को प्रायः सर्वथा वे विसारे हुए होते हैं। अस्तु! उत्पला और भीम को भी पुत्र प्राप्ति से बड़ा हर्ष हुआ। वे उसका बड़ी प्रसन्नता से पालन-पोषण करने लगे और बालक भी शुक्लपक्षीय चन्द्र-कलाओं की भांति बढ़ने लगा। अब वह बालकभाव को त्याग कर युवावस्था में प्रवेश कर रहा है अर्थात् गोत्रास अब बालक-शिशु नहीं रहा किन्तु युवक बन गया है। भीम और उत्पला पुत्र के रूप सौन्दर्य को देख कर फूले नहीं समाते। परन्तु समय की गति बड़ी विचित्र प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [283 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इधर तो भीम के मन में पुत्र के भावी उत्कर्ष को देखने की लालसा बढ़ रही है उधर समय उसे और चेतावनी दे रहा है। गोत्रास के युवावस्था में पदार्पण करते ही भीम को काल ने आ ग्रसा और वह अपनी सारी आशाओं को संवरण कर के दूसरे लोक के पथ का पथिक जा बना। ___पिता के परलोकगमन पर गोत्रास को बहुत दुःख हुआ, उसका रुदन और विलाप देखा नहीं जाता। अन्त में स्वजन सम्बन्धी लोगों द्वारा कुछ सान्त्वना प्राप्त कर उसने पिता का दाहकर्म किया और तत्सम्बन्धी और्द्धदैहिक कर्म के आचरण से पुत्रोचित कर्त्तव्य का पालन किया। "-नगरगोरूवा जाव वसभा-" यहां पठित "-जाव-यावत्-" पद से "-णं सणाहा य अणाहा यणगरगाविओ यणगरबलीवद्दा यणगरपड्डियाओ यणगर-" यह पाठ ग्रहण करने की सूचना सूत्रकार ने दी है। इन पदों का अर्थ पीछे दिया जा चुका है। "-णगरगोरूवा जाव भीया-" यहां का "-जाव-यावत्-" पद "-सणाहा य अणाहा य-" से लेकर "-णगरवसभा य-" यहां तक के पाठ का परिचायक है। "-बालभावे जाव जाते-" यहां पठित "-जाव-यावत्-" पद से "विण्णायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते-" इन पदों का ग्रहण होता है। सदा एकान्त हित का उपदेश देने वाले सखा को मित्र कहते हैं। समान आचार-विचार वाले जाति-समूह को ज्ञाति कहते हैं। माता, पिता, पुत्र, कलत्र (स्त्री) प्रभृति को निजक कहते हैं। भाई, चाचा, मामा आदि को स्वजन कहते हैं। श्वसुर, जामाता, साले, बहनोई आदि को सम्बंधी कहते हैं। मन्त्री, नौकर, दास, दासी को परिजन कहते हैं। अब सूत्रकार गोत्रास की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल-तते णं सुनंदे राया गोत्तासं दारयं अन्नया कयाती सयमेव कूडग्गाहत्ताए ठवेति। तते णं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहें जाए यावि होत्था, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे।तते णं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहे कल्लाकल्लि अड्ढरत्तकालसमयंसि एगे अबीए सन्नद्ध-बद्ध-कवए जाव गहियाउहपहरणे सयातो गिहातो निज्जाति, जेणेव गोमंडवे तेणेव उवा०, बहूणं णगरगोरूवाणं सणा. जाव वियंगेति 2 जेणेव सए गिहे तेणेव उवा / तते णं से गोत्तासे कूड तेहिं बहूहिं गोमंसेहि सोल्लेहि जाव सुरंच 5 आसा० 4 विहरति। तते णं से गोत्तासे कूङ एयकम्मे प्प वि. स. सुबहुं पावं कम्मं समज्जिणित्ता पंच वाससयाई परमाउं पालयित्ता अट्टदुहट्टोवगते कालमासे कालं किच्चा दोच्चाए पुंढवीए 284 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कोसं तिसागरो० णेरइयत्ताए उववन्ने। छाया-ततः स सुनन्दो राजा गोत्रासंदारकमन्यदा कदाचित् स्वयमेव कूटग्राहतया स्थापयति। ततः स गोत्रासो दारकः कूटग्राहो जातश्चाप्यभवत्, अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानंदः। ततः स गोत्रासो दारकः कूटग्राहः प्रतिदिनं अर्द्धरात्रकालसमये एकोऽद्वितीयः सन्नद्धबद्धकवचो यावद् गृहीतायुधप्रहरणः स्वस्माद् गृहाद् निर्याति, यत्रैव गोमंडपस्तत्रैवोवा बहूनां नगरगोरूपाणां सनाथानां यावत् विकृन्तति, विकृत्य यत्रैव स्वं गृहं तत्रैवोपा० / ततः स गोत्रासः कूट० तैर्बहुभिर्गोमांसैः शूल्यैर्यावत् सुरां च 5 आस्वा० 4 विहरति / ततः स गोत्रासः कूट एतत्कर्मा प्र॰ [एतत्प्रधानः] कि [एतद्विद्यः] स० [एतत्समाचारः] सुबहु पापं कर्म समर्थे पंच वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा आर्त्त-दुःखार्तोपगतः कालमासे कालं कृत्वा द्वितीयायां पृथिव्यां उत्कृष्टत्रिसागरोने नैरयिकतयोपपन्नः। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से सुनंदे राया-उस सुनन्द नामक राजा ने। अन्नया कयातिअन्यदा कदाचित्-अर्थात् किसी अन्य समय पर / गोत्तासं दारयं-गोत्रास नामक बालक को। सयमेवस्वयं-अपने आप ही। कूडग्गाहत्ताए-कूटग्राहित्वेन-कूटग्राहरूप से। ठवेति-स्थापित किया। अर्थात् सुनन्द राजा ने गोत्रास को कूटग्राह के पद पर नियुक्त किया। तते णं-तदनन्तर / गोत्तासे-गोत्रास नामक। दारए-बालक। कूडग्गाहे-कूटग्राह। जाए यावि होत्था-हो गया अर्थात् कूटग्राह के नाम से प्रसिद्ध हो गया, परन्तु। अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे-वह बड़ा ही अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द-बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। तते णं-तदनन्तर / से-वह / कूडग्गाहे-कूटग्राह / गोत्तासे-दारए-गोत्रास बालक। कल्लाकल्लिं-प्रतिदिन-हर रोज। अड्ढरत्तकालसमयंसि-अर्द्धरात्रि के समय। एगे-अकेला। अबीएजिस के साथ दूसरा कोई नहीं। सन्नद्धबद्धकवए-सन्नद्ध-सैनिक की भांति सुसज्जित एवं कवच बान्धे हुए। जाव-यावत्। गहियाउहपहरणे-आयुध और प्रहरण लेकर। सयातो-अपने। गिहातो-घर से। निज्जाति-निकलता है, निकल कर। जेणेव-जहां पर। गोमंडवे-गोमंडप है। तेणेव-वहां पर। उवाआता है, आकर। बहूणं-अनेक। णगरगोरूवाणं-नागरिक पशुओं के। सणाहाण-सनाथों के। जावयावत्। वियंगेति २-अंगों को काटता है और उनके अंगों को काट कर। जेणेव-जहां पर। सए गिहेअपना घर है। तेणेव-वहीं पर। उवा-आ जाता है। तते णं-तदनन्तर। से गोत्तासे कूड०-वह गोत्रास कूटग्राह। तेहिं-उन। बहूहिं-बहुत से। सोल्लेहि-शूलपक्व। गोमंसेहिं जाव-गो आदि यावत् नागरिक पशुओं के मांसों के साथ। सुरं च ५-सुरा आदि का। आसा० ४-आस्वादन आदि लेता हुआ। विहरति 1. "-यावत्-" पद से "अधर्मानुगः, अधर्मिष्ठः, अधर्माख्यायी,अधर्मप्रलोकी, अधर्मप्ररजनः, अधर्मशीलसमुदाचारः, अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन्, दुश्शीलः दुव्रत:-" इन शब्दों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन शब्दों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [285 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन व्यतीत करता है। तते णं-तदनन्तर / से गोत्तासे कूड-वह गोत्रास नामक कूटग्राह / एयकम्मे-इन कर्मों वाला। प्प०-इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला। वि०-इस विद्या को जानने वाला। स०एवंविध आचरण करने वाला। सुबहुं-अत्यन्त। पावं-पाप। कम्म-कर्म का। समज्जिणित्ता-उपार्जन कर। पंच वाससयाई-पांच सौ वर्ष की। परमाउं-परम आयु का / पालयित्ता-पालन कर अर्थात् उपभोग कर। अट्टदुहट्टोवगते-चिन्ताओं और दुःखों से पीड़ित होकर। कालमासे-कालमास-मरणावसर में। कालं किच्चा-काल करके। उक्कोसं-उत्कृष्ट। तिसागरो०-तीन सागरोपम स्थिति वाली। दोच्चाएदूसरी। पुढवीए-नरक में। णेरइयत्ताए-नारकरूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। मूलार्थ-तत् पश्चात् सुनन्द राजा ने गोत्रास को स्वयमेव कूटग्राह के पद पर नियुक्त कर दिया। तदनन्तर अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द वह गोत्रास कूटग्राह प्रतिदिन अर्द्धरात्रि के समय सैनिक की भांति तैयार हो कर कवच पहन कर, एवं शस्त्र अस्त्रों को ग्रहण कर अपने घर से निकलता है, निकल कर गोमंडप में जाता है, वहाँ पर अनेक गो आदि नागरिक-पशुओं के अंगोपांगों को काटकर अपने घर में आ जाता है, आकर उन गो आदि पशुओं के शूल-पक्व मांसों के साथ सुरा आदि का आस्वादन करता हुआ जीवन व्यतीत करता है। तदनन्तर वह गोत्रास कूटग्राह इस प्रकार के कर्मों वाला, इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला, एवंविध विद्या-पापरूप विद्या के जानने वाला तथा एवंविध आचरणों वाला नाना प्रकार के पाप कर्मों का उपार्जन कर पाँच सौ वर्ष की परम आयु को भोग कर चिन्ताओं और दुःखों से पीड़ित होता हुआ कालमास में-मरणावसर में काल कर के उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले दूसरे नरक में नारकरूप से उत्पन्न हुआ। टीका-अधर्मी या धर्मात्मा, पापी अथवा पुण्यवान् जीव के लक्षण गर्भ से ही प्रतीत होने लगते हैं। गोत्रास का जीव गर्भ में आते ही अपनी पापमयी प्रवृत्ति का परिचय देने लग पड़ा था। उसकी माता के हृदय में जो हिंसाजनक पापमय संकल्प उत्पन्न हुए उस का एकमात्र कारण गोत्रास का पाप-प्रधान प्रवृत्ति करने वाला जीव ही था। युवावस्था को प्राप्त होकर पितृ-पद को संभाल लेने के बाद उसने अपनी पापमयी प्रवृत्ति का यथेष्टरूप से आरम्भ कर दिया। प्रतिदिन अर्द्धरात्रि के समय एक सैनिक की भांति कवचादि पहन और अस्त्रशस्त्रादि से लैस होकर हस्तिनापुर के गोमण्डप में जाना और वहां नागरिक पशुओं के अंगोपांगादि को काटकर लाना, एवं तद्गत मांस को शूलादि में पिरोकर पकाना और उस का मदिरादि के साथ सेवन करना यह सब कुछ उस की जघन्यतम हिंसक प्रवृत्ति का परिचय देने के लिए पर्याप्त है। इसीलिए सूत्रकार ने उसे अधार्मिक, अधर्मानुरागी यावत् साधुजनविद्वेषी कहा है, तथा 286 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप-कर्मों का उपार्जन करके तीन सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले दूसरे नरक में उस का नारकरूप से उत्पन्न होना भी बताया है। बुरा कर्म बुरे ही फल को उत्पन्न करता है। पुण्य सुख का उत्पादक और पाप दुःख का जनक है, इस नियम के अनुसार गोत्रास को उस के पापकर्मों का नरकगतिरूप फल प्राप्त होना अनिवार्य था। पापादि क्रियाओं में प्रवृत्त हुआ जीव अन्त में दुःख-संवेदन के लिए दुर्गति को प्राप्त करता है। गोत्रास ने अनेक प्रकार के पापमय आचरणों से दुर्गति के उत्पादक कर्मों का उपार्जन किया और आयु की समाप्ति पर आर्तध्यान करता हुआ वह दूसरे नरक का अतिथि बना, वहां जाकर उत्पन्न हुआ। __ "अट्ट-दुहट्टोवगए" इस पद की टीकाकार महानुभाव ने निम्नलिखित व्याख्या की ", आर्तध्यानं दुर्घट-दुःखस्थगनीयं दुर्वार (र्य) मित्यर्थः उपगतः-प्राप्तो यः स तथा" अर्थात् बड़ी कठिनता से निवृत्त होने वाले आर्तध्यान' को प्राप्त हुआ। तथा प्रस्तुत सूत्रगत-"एयप्प० वि० स०" इन तीनों पदों से क्रमशः “एयप्पहाणे" "एयविजे" 1. अर्ति नाम दुःख का है, उस में उत्पन्न होने वाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं / वह चार भागों में विभाजित होता है, जैसे कि १-अमनोज्ञवियोगचिन्ता-अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, विषय एवं उन की साधनभूत वस्तुओं का संयोग होने पर उनके वियोग (हटाने) की चिन्ता करना तथा भविष्य में भी उन का संयोग न हो, ऐसी इच्छा का रखना आर्तध्यान का प्रथम प्रकार है। २-मनोज-संयोग-चिन्ता-पाँचों इन्द्रियों के मनोज विषय एवं उनके साधनरूप माता. पिता. भाई स्वजन. स्त्री, पुत्र और धन आदि अर्थात इन सुख के साधनों का संयोग होने पर उनके वियोग (अलग) न होने का विचार करना तथा भविष्य में भी उन के संयोग की इच्छा बनाए रखना, आर्तध्यान का दूसरा प्रकार है। ३-रोग-चिन्ता-शूल, सिरदर्द आदि रोगों के होने पर उन की चिकित्सा में व्यग्र प्राणी का उन के वियोग के लिए चिन्तन करना तथा रोगादि के अभाव में भविष्य के लिए रोगादि के संयोग न होने की चिन्ता करना. आर्त्तध्यान का तीसरा प्रकार है। __४-निदान (नियाना)-देवेन्द्र, चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव के रूप, गुण और ऋद्धि को देख या सुन कर उन में आसक्ति लाना और यह सोचना कि मैंने जो संयम आदि धर्मकृत्य किए हैं उन के फलस्वरूप मुझे भी उक्त गुण एवं ऋद्धि प्राप्त हो, इस प्रकार निदान (किसी व्रतानुष्ठान की फल-प्राप्ति की अभिलाषा) की चिन्ता करना, आर्तध्यान का चौथा प्रकार है। तत्वार्थ सूत्र में लिखा है आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति-समन्वहारः॥३१॥ वेदनायाञ्च // 32 // विपरीतं मनोज्ञानाम् // 33 // निदानं च // 34 // (तत्वार्थ सूत्र अ.९.) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [287 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "एयसमायारे" इन पदों का ग्रहण करना। इस तरह से-१एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विद्य और एतत्समाचार ये चार पद संकलित होते हैं। ___सागरोपम की व्याख्या पहले की जा चुकी है। स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भेद से दो प्रकार की होती है। कम से कम स्थिति को जघन्यस्थिति और अधिक से अधिक स्थिति को उत्कृष्टस्थिति कहते हैं। अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में गोत्रास की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल-तते णं सा विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभद्दा भारिया जातनिंदुया यावि होत्था। जाया जाया दारगा विनिहायमावजंति। तते णं से गोत्तासे कूड० दोच्चाओ पुढवीओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव वाणियग्गामे णगरे विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभद्दाए भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। तते णं सा सुभद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। तते णं सा सुभद्दा सत्थवाही तं दारगंजातमेत्तयं चेव एगते उक्कुरुडियाए उज्झावेति २त्ता दोच्चंपि गेण्हावेति 2 त्ता आणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवड्ढेति। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो ठितिपडियं च चंदसूरदसणं च जागरियं च महया इड्ढिसक्कारसमुदएणं करेंति। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो एक्कारसमे दिवसे निव्वत्ते, संपत्ते बारसाहे.अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेजं करेंति। जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमेत्तए चेव एगंते उवकुरुडियाए उज्झिते, तम्हा णं होउ अम्हं दारए उज्झियए नामेणं। तते णं से उझियए दारए पंचधातीपरिग्गहिते, तंजहा-खीरधातीए 1 मज्जण० 2 मंडण. 3 कीलावण० 4 अंकधातीए 5 जहा दढपतिण्णे जाव निव्वायनिव्वाघायगिरिकंदरमल्लीणे व्व चंपयपायवे सुहंसुहेणं परिवड्ढति। - छाया-ततः सा विजयमित्रस्य सार्थवाहस्य सुभद्रा भार्या जातिनिंदुका (1) १-एतत्कर्मा-जिस का "-गो आदि पशुओं की हिंसा का और मद्यापान-क्रिया का करना-" यह एक मात्र कर्त्तव्य हो। २-एतत्प्रधान-हिंसा और मद्य पानादि क्रियाओं के करने में ही जो रात-दिन तत्पर रहता हो। ३-एतद्विद्य-हिंसा और मद्य-पान करना ही जिस के जीवन की विद्या (ज्ञान) हो। ४-एतत्-समाचार-गो आदि की हिंसा करना और मदिरा के नशे में मस्त रहना ही जिस का आचरण बना हुआ हो। श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय * [ प्रथम श्रुतस्कंध 288 ] Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाप्यभवत् / जाता जाता दारकाः विनिघातमापद्यन्ते। ततः स गोत्रासः कूटग्राहो द्वितीयातः पृथिवीतोऽनन्तरमुवृत्य इहैव वाणिजग्रामे नगरे विजयमित्रस्य सार्थवाहस्य सुभद्राया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः। ततः सा सुभद्रा सार्थवाही अन्यदा कदाचित् नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रजाता। ततः सा सुभद्रा सार्थवाही तं दारकं जातमात्रमेव एकान्ते अशुचिराशौ उज्झयति, उज्झयित्वा द्विरपि ग्राहयति ग्राहयित्वाऽऽनुपूर्येण संरक्षन्ती संगोपयन्ती संवर्द्धयति। ततस्तस्य दारकस्याम्बापितरौ स्थितिपतितां च चन्द्रसूर्यदर्शनं च जागर्यां च महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन कुरुतः। ततस्तस्य दारकस्य अम्बापितरौ एकादशे दिवसे निवृते सम्प्राप्ते द्वादशाहनीदमेतद्पं गौणं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुरुतः। यस्माद् आवाभ्यामयं दारको जातमात्रक एवैकान्तेऽशुचिराशौ उज्झितः, तस्माद् भवत्वावयोर्दारक उज्झितको नाम्ना। ततः स उज्झितको दारकः पञ्चधात्रीपरिगृहीतः तद्यथा-क्षीरधात्र्या, मज्जन मण्डन क्रीडापन० अंकधात्र्या यथा दृढ़प्रतिज्ञो यावत् निर्वातनिर्व्याघातगिरिकन्दरमालीन इव चम्पकपादपः सुखसुखेन परिवर्धते।। पदार्थ-तते णं-क्दनन्तर। विजयमित्तस्स-विजयमित्र नामक। सत्थवाहस्स-सार्थवाह की। सुभद्दा-सुभद्रा नामक। सा-वह। भारिया-भार्या / जातनिंदुया-जातनिंदुका-जिसके बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाते हों। यावि होत्था-थी। जाया जाया दारगा-उसके उत्पन्न होते ही बालक। विनिहायमावजंतिविनाश को प्राप्त हो जाते थे। तते णं-तदनन्तर / से गोत्तासे-वह गोत्रास / दोच्चाए-दूसरे। पुढवीओनरक से। अणंतरं-अन्तर रहित। उव्वट्टित्ता-निकल कर / इहेव-इसी।वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नामक। णगरे-नगर में। विजयमित्तस्स-विजयमित्र। सत्थवाहस्स-सार्थवाह की। सुभद्दाए भारियाए-सुभद्रा भार्या की। कुच्छिंसि-कुक्षि में। पुत्तत्ताए-पुत्र रूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। तते णं-तदनन्तर। सा सुभद्दा-उस सुभद्रा / सत्थवाही-सार्थवाही ने। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय में / नवण्हं मासाणं-. नव मास के। बहुपडिपुण्णाणं-परिपूर्ण होने पर। दारगं-बालक को। पयाया-जन्म दिया। तते णंतदनन्तर / सा सुभद्दा-उस सुभद्रा / सत्थवाही-सार्थवाही। जातमेत्तयं चेव-जातमात्र ही-उत्पन्न होते ही। तं दारगं-उस बालक को। एगंते-एकान्त। उक्कुरुडियाए-कूड़े कर्कट के ढेर पर। उज्झावेति-डलवा देती है। दोच्चं पि-द्वितीय बार पुनः। गेण्हावेति-ग्रहण करा लेती है अर्थात् वहां से उठवा लेती है और। आणुपुव्वेणं-क्रमशः। सारक्खमाणी-संरक्षण करती हुई। संगोवेमाणी- संगोपन करती हुई। संवड्ढेतिवृद्धि को प्राप्त कराती है। तते णं-तदनन्तर। तस्स-उस। दारगस्स-बालक के। अम्मापियरो-मातापिता। ठितिपडियं च-स्थिति पतित-कुलमर्यादा के अनुसार पुत्र-जन्मोचित बधाई बांटने आदि की पुत्रजन्म-क्रिया तथा तीसरे दिन। चंदसूरदसणं च-चन्द्रसूर्य दर्शन अर्थात् तत्सम्बन्धी उत्सव विशेष। जागरियं च- (छठे दिन) जागरणमहोत्सव। महया-महान / इड्ढिसक्कारसमुदएणं-ऋद्धि और सत्कार प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [289 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ। करेंति-करते हैं। तते णं-तदनन्तर / तस्स दारगस्स-उस बालक के। अम्मापितरो-माता-पिता। एक्कारसमे ग्यारहवें। दिवसे-दिन के। निव्वत्ते-व्यतीत हो जाने पर / बारसाहे संपत्ते-बारहवें दिन के आने पर अयमेयारूवं-इस प्रकार का / 'गोण्णं-गौण-गुण से सम्बन्धित / गुणनिप्फण्णं-गुणनिष्पन्नगुणानुरूप। नामधेजं-नाम। करेंति-करते हैं। जम्हा णं-जिस कारण। जायमेत्तए चेव-जातमात्र हीजन्मते ही। अम्हं-हमारा। इमे-यह। दारए-बालक। एगंते-एकान्त। उक्कुरुडियाए-कूड़ा फैंकने की जगह पर। उज्झिते-गिरा दिया गया था। तम्हा णं-इसलिए / अम्हं-हमारा यह / दारए-बालक।उज्झियएउज्झितक। नामेणं-नाम से। होउ-ही-प्रसिद्ध हो अर्थात् इस बालक का हम उज्झितक यह नाम रखते हैं। तते णं-तदनन्तर। से उज्झियए-वह उज्झितक। दारए-बालक / पंचधातीपरिग्गहिते-पांच धायमाताओं की देखरेख में रहने लगा। तंजहा-जैसे कि अर्थात् उन धायमाताओं के नाम ये हैं- / खीरधातीएक्षीरधात्री-दूध पिलाने वाली। मज्जण-स्नानधात्री-स्नान कराने वाली। मंडण-मंडनधात्री-वस्त्राभूषण से अलंकृत कराने वाली। कीलावण-क्रीडापनधात्री-क्रीड़ा कराने वाली। अंकधातीए-अंकधात्री-गोद में खिलाने वाली, इन धायमाताओं के द्वारा। जहा-जिस प्रकार। दढपतिण्णे-दृढ़-प्रतिज्ञ का। जाव-यावत्, वर्णन किया है, उसी प्रकार।निव्वाय-निर्वात-वायुरहित। निव्वाघाय-आघात से रहित। गिरिकंदरमल्लीणेपर्वतीय कन्दरा में अवस्थित। चंपयपायवे-चम्पक वृक्ष की तरह। सुहंसुहेणं-सुखपूर्वक। परिवड्ढइवृद्धि को प्राप्त होने लगा। मूलार्थ-तदनन्तर विजयमित्र सार्थवाह की सुभद्रा नाम की भार्या जो कि जातनिंदुका थी अर्थात् जन्म लेते ही मर जाने वाले बच्चों को जन्म देने वाली थी। अतएव उसके बालक उत्पन्न होते ही विनाश को प्राप्त हो जाते थे। तदनन्तर वह कूटग्राह गोत्रास का जीव दूसरी नरक से निकल कर सीधा इसी वाणिजग्राम नगर के विजयमित्र सार्थवाह की सुभद्रा भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ-गर्भ में आया। तदनन्तर किसी अन्य समय में नवमास पूरे होने पर सुभद्रा सार्थवाही ने पुत्र को जन्म दिया।जन्म देते ही उस बालक को सुभद्रा सार्थवाही ने एकान्त में कूड़ा गिराने की जगह पर डलवा दिया और फिर उसे उठवा लिया, उठवा कर क्रमपूर्वक संरक्षण एवं संगोपन करती हुई वह उसका परिवर्द्धन करने लगी। तदनन्तर उस बालक के माता-पिता ने महान् ऋद्धिसत्कार के साथ कुल मर्यादा के अनुसार पुत्र जन्मोचित बधाई बांटने आदि की पुत्रजन्म-क्रिया और तीसरे दिन 1. गौण (गुण से सम्बन्ध रखने वाला) और गुण निष्पन्न (गुण का अनुसरण करने वाला) इन दोनों शब्दों में अर्थगत कोई भिन्नता नहीं है। यहाँ प्रश्न होता है कि फिर इन दोनों का एक साथ प्रयोग क्यों किया गया? इस के उत्तर में आचार्य श्री अभयदेव सूरि का कहना है कि गौण शब्द का अर्थ अप्रधान भी होता है, कोई इस का प्रस्तुत में अप्रधान अर्थ ग्रहण न कर ले इस लिए सूत्रकार ने उसे ही स्पष्ट करने के लिए गुणनिष्पन्न इस पृथक् पद का उपयोग किया है। 290 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रसूर्य दर्शन सम्बन्धी उत्सवविशेष, छठे दिन कुल मर्यादानुसार जागरिका-जागरण महोत्सव किया।.तथा उसके माता-पिता ने ग्यारहवें दिन के व्यतीत होने पर बारहवें दिन उसका गौण-गुण से सम्बन्धित गुणनिष्पन्न-गुणानुरूप नामकरण इस प्रकार किया चूंकि हमारा यह बालक जन्मते ही एकान्त अशुचि प्रदेश में त्यागा गया था, इसलिए हमारे इस बालक का उज्झितक कुमार यह नाम रखा जाता है। तदनन्तर वह उज्झितक कुमार क्षीरधात्री, मज्जनधात्री, मंडनधात्री, क्रीडापनधात्री और अंकधात्री इन पाँच धायमाताओं से युक्त दृढ़प्रतिज्ञ की तरह यावत् निर्वात एवं निर्व्याघात पर्वतीय कन्दरा में विद्यमान चम्पक-वृक्ष की भांति सुख-पूर्वक वृद्धि को प्राप्त होने लगा। टीका-प्रस्तुत सूत्र में गोत्रास के जीव का नरक से निकल कर मानव भव में उत्पन्न होने का वर्णन किया गया है। वह दूसरी नरक से निकल कर सीधा वाणिजग्राम नगर के विजयमित्र सार्थवाह की सुभद्रा स्त्री की कुक्षि में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ। इस का तात्पर्य यह है कि उस ने मार्ग में और किसी योनि में जन्म धारण नहीं किया। दूसरे शब्दों में उस का मानव भव में अनंतरागमन हुआ, परम्परागमन नहीं। सुभद्रा देवी पहले जातनिंदुका थी, अर्थात् उस के बच्चे जन्मते ही मर जाते थे। "जातनिंदया-जातनिंदुका" की व्याख्या टीकाकार ने इस प्रकार की है "जातान्युत्पन्नान्यपत्यानि निर्द्रतानि निर्यातानि मृतानीत्यर्थो यस्याः सा जातनिर्द्वता", अर्थात् जिस की सन्तान उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए उसे जातनिंदुआजात-निर्द्वता कहते हैं। कोषकारों के मत में जातनिंदुया पद का जातनिंदुका यह रूप भी उपलब्ध होता है। नवमास व्यतीत होने के अनन्तर सुभद्रा देवी ने बालक को जन्म दिया। उत्पन्न होने के अनन्तर उस ने बालक को कूड़े कचरे में फैंकवा दिया, फिर उसे उठवा लिया गया। ऐसा - - 1. पुत्रजन्म के तीसरे दिन चन्द्र और सूर्य का दर्शन तथा छठे दिन जागरणमहोत्सव ये समस्त बातें उस प्राचीन समय की कुलमर्यादा के रूप में ही समझनी चाहिएं। आध्यात्मिक जीवन से इन बातों का कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। 2. क्षीरधात्री के सम्बन्ध में दो प्रकार के विचार हैं-प्रथम तो यह कि जिस समय बालक के दुग्धपान का समय होता था, उस समय उसे माता के पास पहुँचा दिया जाता था, समय का ध्यान रखने वाली और बालक को माता के पास पहुँचाने वाली स्त्री को क्षीरधात्री कहते हैं। दूसरा विचार यह है कि-स्तनों में या स्तनगत दूध में किसी प्रकार का विकार होने से जब माता बालक को दूध पिलाने में असमर्थ हो तो बालक को दूध पिलाने के लिए जिस स्त्री का प्रबन्ध किया जाए उसे क्षीरधात्री कहते हैं। दोनों विचारों में से प्रकृत में कौन विचार आदरणीय है, यह विद्वानों द्वारा विचारणीय है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [291 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने का सुभद्रा का क्या आशय था, इस विचार को करते हुए यही प्रतीत होता है कि उस ने जन्मते बालक को इसलिए त्याग दिया कि उस को पहले बालकों की भांति उस के मर जाने का भय था। रूड़ी पर गिराने से संभव है यह बच जाए, इस धारणा से उस नवजात शिशु को रूड़ी पर फिंकवा दिया गया, परन्तु वह दीर्घायु होने से वहां-रूड़ी पर मरा नहीं। तब उस ने उसे वहां से उठवा लिया। ____ बालक के जीवित रहने पर उस को जो असीम आनन्द उस समय हुआ, उसी के फलस्वरूप उसने पुत्र का जन्मोत्सव मनाने में अधिक से अधिक व्यय किया, और पुत्र का गुणनिष्पन्न नाम उज्झितक रखा। नामकरण की इस परम्परा का उल्लेख अनुयोगद्वार सूत्र में भी मिलता है। वहां लिखा २से किं तं जीवियनामे ? अवकरए उक्कुरुडए उज्झियए कज्जवए सुप्पए से तं जीवियनामे। ___(स्थापना-प्रमाणाधिकार में) अर्थात जिस स्त्री की सन्तान उत्पन्न होते ही मर जाती है वह स्त्री लोकस्थिति की विचित्रता से जातमात्र (जिस की उत्पत्ति अभी-अभी हुई है) जिस किसी भी सन्तान को जीवनरक्षा के निमित्त अवकर-कूड़ा-कचरा आदि में फैंक देती है उस अपत्य का नाम अवकरक होता है। रूड़ी पर फैंके जाने से बालक का नाम उत्कुरुटक, छाज में डाल कर फैंके जाने से बालक का नाम शूर्पक, लोकभाषा में जिसे छज्जमल्ल कहते हैं, इत्यादि नाम स्थापित किए जाते हैं, इसे ही जीवितनाम कहते हैं / अवकरक आदि नामकरण में अधिकरण (आधार) की मुख्यता है और उज्झितक आदि नामकरण में क्रिया की प्रधानता जाननी चाहिए। 1. प्रस्तुत कथा-सन्दर्भ में लिखा है कि माता सुभद्रा ने नवजात बालक को रूडी पर गिरा दिया. गिराने पर वह जीवित रहा, तब उसे वहाँ से उठवा लिया। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्मराज के न्यायालय में जिसे जीवन नहीं मिला वह केवल रूड़ी पर गिरा देने से जीवन को कैसे उपलब्ध कर सकता है ? जीवन तो आयुष्कर्म की सत्ता पर निर्भर है। रूड़ी पर गिराने के साथ उस का क्या सम्बन्ध ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वास्तव में गिराए गए उस नवजात शिशु को जो जीवन मिला है उस का कारण उस का रूड़ी पर गिराना नहीं प्रत्युत उस का अपना ही आयुष्कर्म है। आयुष्कर्म की सत्ता पर ही जीवन बना रह सकता है। अन्यथा- आयुष्कर्म के अभाव में एक नहीं लाखों उपाय किए जाएं तो भी जीवन बचाया नहीं जा सकता, एवं बढ़ाया नहीं जा सकता। रही रूड़ी पर गिराने की बात, उस के सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि प्राचीन समय में बच्चों को रूड़ी आदि पर गिराने की अन्धश्रद्धामूलक प्रथा-रूढ़ि चल रही थी जिस का आयुष्कर्म की वृद्धि के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता था। 2. -"से किं तंजीवियहेउ"मित्यादि इह यस्य जातमात्रं किञ्चिदपत्यं जीवननिमित्तमवकरादिष्वस्यति, तस्य चावकरकः, उत्कुरुटक इत्यादि यन्नाम क्रियते तज्जीविकाहेतोः, स्थापनानामाख्यायते-"सुप्पए"त्ति यः शूर्पे कृत्वा त्यज्यते तस्य शूर्पक एव नाम स्थाप्यते। शेष प्रतीतमितिः-वृत्तिकारः। 292 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस के अतिरिक्त पांच धायमाताओं (वह स्त्री जो किसी दूसरे के बालक को दूध पिलाने और उसं का पालन-पोषण करने के लिए नियुक्त हो उसे धायमाता कहते हैं) के द्वारा उस उज्झितक कुमारं के पालनपोषण का प्रबन्ध किया जाना नवजात शिशु के प्रति अधिकाधिक ममत्व एवं माता-पिता का सम्पन्न होना सूचित करता है। बालक को दूध पिलाने वाली धायमाता क्षीरधात्री कहलाती है। स्नान कराने वाली धायमाता मज्जनधात्री, वस्त्राभूषण पहनाने वाली मंडन धात्री, क्रीड़ा कराने वाली क्रीड़ापनधात्री और गोद में लेकर खिलाने वाली धायमाता अंकधात्री कही जाती है। इन पांचों धायमाताओं द्वारा, वायु तथा आघात से रहित पर्वतीय कन्दरा में विकसित चम्पक वृक्ष की भांति सुरक्षित वह उज्झितक बालक दृढ़प्रतिज्ञ की तरह सुरक्षित होकर सानन्द वृद्धि को प्राप्त कर रहा था। दृढ़प्रतिज्ञ की बाल्यकालीन जीवन चर्या का वर्णन औपपातिक सूत्र अथवा राजप्रश्नीय सूत्र से जान लेना चाहिए। उक्त सूत्र में दृढ़प्रतिज्ञ की बाल्यकालीन जीवनचर्या का सांगोपांग वर्णन किया गया है। "-दढपतिण्णे जाव निव्वाय-" यहां पठित "-दढपतिण्णे-" पद से दृढ़प्रतिज्ञ का स्मरण कराना ही सूत्रकार को अभिमत है। दृढप्रतिज्ञ का संक्षिप्त जीवन-परिचय पीछे दिया जा चुका है। तथा "-जाव-यावत्-" पद से श्री ज्ञातासूत्रीय मेघकुमार नामक प्रथम अध्ययन का पाठ अभिमत है। जो कि निम्नोक्त है "-अन्नाहिं बहूहिं खुज्जाहिं चिलाइयाहिं वामणी-वडभी-बब्बरी-बउसिजोणिय-पल्हवि-इसिणिया-चाधोरुगिणी-लासिया-लउसिय-दमिलि-सिंहलि-आरबिपुलिंदि-पक्कणि-बहलि-मुरुण्डि-सबरि-पारसीहिं णाणादेसीहि विदेसपरिमण्डियाहिं इंगिय-चिन्तिय-पत्थिय-वियाणाहिं सदेसणेवत्थगहियवेसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचक्कवालवरिसधरकंचुइअमहयरग्गवंदपरिक्खित्ते हत्थाओ हत्थं संहरिज्जमाणे अंकाओ अंकं परिभुज्जमाणे परिगिज्जमाणे चालिजमाणे उवलालिज्जमाणे रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि परिममिज्जमाणे-" इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है अन्य बहुत सी कुब्जा-कुबड़ी, चिलाती-किरात देश की रहने वाली, अथवा भील जाति से सम्बन्ध रखने वाली, वामनी-बौनी (जिस का कद छोटा हो), बड़भी-पीछे या आगे ' का अंग जिस का बाहर निकल आया हो अथवा जिस का पेट बड़ा हो कर आगे निकला हुआ हो वह स्त्री, बर्बरा-बर्बर देश में उत्पन्न स्त्री, बकुशा बकुशदेश में उत्पन्न स्त्री, यवनायवनदेश में उत्पन्न स्त्री, पल्हविका-पल्हवदेशोत्पन्न स्त्री, इसिनिका-इसिनदेशोत्पन्न स्त्री, प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [293 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोरुकिनिका-देशविशेष में उत्पन्न स्त्री, लासिका-लासकदेशोत्पन्न स्त्री, लकुशिकालकुशदेशोत्पन्न स्त्री, दमिला-द्रविड़देशोत्पन्न स्त्री, सिंहलि-सिंहल- (लंका) देशोत्पन्न स्त्री, आरबी-अरबदेशोत्पन्न स्त्री, पुलिन्दी-पुलिन्ददेशोत्पन्न स्त्री, पक्कणी-पक्कणदेशोत्पन्न स्त्री, बहली-बहलदेशोत्पन्न स्त्री, मुरुण्डी-मुरुण्डदेशोत्पन्न स्त्री, शबरी-शबरदेशोत्पन्न स्त्री, पारसीफारस-(ईरानदेशोत्पन्न स्त्री), इत्यादि नाना देशोत्पन्न तथा विदेशों के परिमण्डनों (अलंकारों) से युक्त, इंगित (नयनादि की चेष्टाविशेष), चिन्तित (मन से विचारित) और प्रार्थितअभिलषित का विज्ञान रखने वाली, अपने-अपने देश का नेपथ्य (परिधान आदि की रचना और वेष पहनावा) धारण करने वाली निपुण स्त्रियों के मध्य में भी अत्यन्त कौशल्य को धारण करने वाली और विनम्र स्त्रियों से युक्त, चेटिकासमूह-दासीसमूह, वर्षधर-नपुंसकविशेष, कंचुकी-अन्त:पुर का प्रतिहारी, महत्तरक-अन्त:पुर के कार्यों का चिन्तन करने वाला / इन सब के समूह से परिक्षिप्त-घिरा हुआ, हाथों हाथ ग्रहण किया जाता हुआ, एक गोद से दूसरी गोद का परिभोग करता हुआ, बालोचित गीतविशेषों द्वारा जिस का गान किया जा रहा है, जिस को चलाया जा रहा है, क्रीड़ा आदि के द्वारा जिस से लाड़ किया जा रहा है, एवं जो रमणीय मणियों से खचित फर्श पर चंक्रमण करता है अर्थात् बार-बार इधर-उधर जिसे घुमाया जा रहा है ऐसा वह बालक। प्रस्तुत सूत्र में उज्झितक कुमार की जन्म तथा बाल्यकालीन जीवनचर्या का वर्णन किया गया है अब अग्रिम सूत्र में उस की आगे की जीवनचर्या का वर्णन किया जाता है मूल-तते णं से विजयमित्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइगणिमं च धरिमंच मेजं च परिच्छेनं च चउविहं भण्डगं गहाय लवणसमुदं पोयवहणेणं उवागते। तते णं से विजयमित्ते तत्थ लवणसमुद्दे पोतविवत्तिए णिव्वुडभंडसारे अत्ताणे असरणे कालधम्मणा संजुत्ते। तते णं से विजयमित्तं सत्थवाहं जे जहा बहवे ईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्टि-सत्थवाहा लवणसमुद्दे पोयविवत्तियं निव्वुडुभंडसारं कालधम्मुणा संजुत्तं सुणेति ते तहा हत्थनिक्खेवं च बाहिरभंडसारं च गहाय 'एगंतं अवक्कमंति। तते णं सा सुभद्दा सत्थवाही विजयमित्तं सत्थवाहं लवणसमुद्दे पोत्तविवत्तियं निव्वुड्डभंडसारं कालधम्मुणा 1. निमग्न-भाण्डसारः, निमग्नानि जलान्तर्गतानि भाण्डानि पण्यानि तान्येव साराणि-धनानि यस्य स तथेति भावः। 2. एकान्तम् अलक्षितस्थानम् अपक्रामन्ति वाणिजग्रामतः पलायित्वा प्रयान्तीत्यर्थः, अर्थात् ईश्वर और तलवर आदि लोग धरोहरादि को लेकर वाणिजग्राम से बाहर ऐसे स्थान पर चले गए जिस का दूसरों को पता न चल सके। 294 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजुत्तं सुणेति 2 त्ता महया पतिसोएणं अप्फुण्णा समाणी परसुनियत्ता विव चम्पगलता धसत्ति धरणीतलंसि सव्वंगेहिं संनिवडिया। तते णं सा सुभद्दा सत्थवाही मुहुक्तरेणं आसत्था समाणी बहूहिं मित्त जाव परिवुडा रोयमाणी कंदमाणी विलवमाणी विजय-मित्तस्स सत्थवाहस्स लोइयाइं मयकिच्चाई करेति। तते णं सा सुभद्दा सत्थवाही अन्नया कयाती लवणसमुद्दोत्तरणं च लच्छिविणासं च पोतविणासं च पतिमरणं च अणुचिंतेमाणी 2 कालधम्मुणा संजुत्ता। ___ छाया-ततः स विजयमित्रः सार्थवाहः अन्यदा कदाचित् गण्यं च धार्यं च मेयं च परिच्छेद्यं च चतुर्विधं भाण्डं गृहीत्वा लवणसमुद्रं पोतवहनेनोपागतः। ततः स विजयमित्रस्तत्र लवणसमुद्रे पोतविपत्तिको निमग्न-भांडसारोऽत्राणो-ऽशरणः कालधर्मेण संयुक्तः, ततस्तं विजयमित्रं सार्थवाहं ये यथा बहवे ईश्वर-तलवर-माडम्बिककौटुम्बिकेभ्य-श्रेष्ठिसार्थवाहाः लवणसमुद्रे पोतविपत्तिकं निमग्न-भांडसारं कालधर्मेण संयुक्तं शृण्वंति, ते तथा हस्तनिक्षेपं च बाह्यभांडसारं च गृहीत्वा एकान्तमपक्रामन्ति। ततः सा सुभद्रा सार्थवाही विजयमित्रं सार्थवाहं लवणसमुद्रे पोतविपत्तिकं निमग्नभांडसारं कालधर्मेण संयुक्तं शृणोति श्रुत्वा महता पतिशोकेनापूर्णा सती परशुनिकृत्तेव चम्पकलता धसेति धरणितले सर्वांगैः सन्निपतिता। ततः सा सुभद्रा सार्थवाही मुहूर्तान्तरेण आश्वस्ता सती बहुभिर्मित्र 2 यावत् परिवृता रुदती' क्रन्दन्ती विलपन्ती विजयमित्रस्य सार्थवाहस्य लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति / ततः सा सुभद्रा सार्थवाही अन्यदा कदाचित् लवणसमुद्रावतरणं च लक्ष्मी-विनाशं च पोतविनाशं च पतिमरणं च अनुचिन्तयन्ती कालधर्मेण संयुक्ता। ... पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / से-वह। विजयमित्ते-विजयमित्र / सत्थवाहे-सार्थवाह-व्यापारियों का मुखिया। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। पोयवहणेणं-पोतवहन-जहाज द्वारा। गणिमं चगिनती से बेची जाने वाली वस्तु, जिस का भाव संख्या पर हो, जैसे-नारियल आदि। धरिमं च-जो तराजू से तोल कर बेची जाए, जैसे-घृत, गुड़ आदि। मेजं च-जिस का माप किया जाए जैसे-वस्त्र आदि। परिच्छेजं च-जिस का क्रय-विक्रय परिच्छेद्य-परीक्षा पर निर्भर हो जैसे रत्न, नीलम आदि। चउव्विहंचार प्रकार की। भंडं-भांड-बेचने योग्य वस्तुएं / गहाय-लेकर / लवणसमुदं-लवण समुद्र में। उवागतेपहुंचा। तते णं-तदनन्तर। तत्थ-उस। लवणसमद्दे-लवण समद्र में। पोतविवत्तिए-जहाज पर आपत्ति 1. रुदती- अश्रूणि मुंचन्ती, क्रन्दन्ती-आक्रन्द-महाध्वनिं कुर्वाणा, विलपन्ती-आर्तस्वरं कुर्वतीति भावः। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [295 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आने से। निव्वुडुभंडसारे-जिस की उक्त चारों प्रकार की बेचने योग्य बहुमूल्य वस्तुएं जलमग्न हो गई हैं तथा / अत्ताणे- अत्राण', और ।असरणे-अशरण हुआ।से-वह। विजयमित्ते-विजयमित्र / कालधम्मुणाकालधर्म-मृत्यु से। संजुत्ते-संयुक्त हुआ, अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो गया। तते णं-तदनन्तर / जहा-जिस प्रकार। जे-जिन। बहवे-अनेक। ईसर-ईश्वर। तलवर-तलवर। माडम्बिय-माडम्बिक। कोडुंबियकौटुम्बिक। इब्भ-इभ्य-धनी। सेट्ठि-श्रेष्ठी-सेठ। सत्थवाहा-सार्थवाहों ने। लवणसमुद्दे-लवण-समुद्र में। पोयविवत्तियं-जिस के जहाज़ पर आपत्ति आ गई है। निव्वुड्डभंडसारं-जिस का सार-भण्ड (महामूल्य वाले वस्त्राभूषण आदि) समुद्र में डूब गया है ऐसा। कालधम्मणा संजुत्तं-काल-धर्म से संयुक्त हुए। से-उस / विजयमित्तं-विजयमित्र / सत्थवाह-सार्थवाह को। सुणेति-सुनते हैं। तहा-उस. समय। ते-वे। हत्थनिक्खेवं च-जो पदार्थ अपने हाथ से लिया हुआ हो अर्थात् धरोहर / बाहिरभंडसारं च-तथा बाह्य-धरोहर से अतिरिक्त भाण्डसार-बहुमूल्य वाले वस्त्र आभूषण आदि। गहाय-ग्रहण कर। एगंतंएकांत में। अवक्कमंति-चले जाते हैं। तते णं-तदनन्तर / सा-वह / सुभद्दा सत्थवाही-सुभद्रा सार्थवाही। विजयमित्तं-विजयमित्र। सत्थवाह-सार्थवाह को जिस के। पोतविवत्तियं-जहाज पर विपत्ति आ गई है और। निव्वुडभंडसारं-जिस का सारभाण्ड समुद्र में निमग्न हो गया है, ऐसे उस को। लवणसमुद्देलवणसमुद्र में। कालधम्मुणा-काल धर्म से। संजुत्तं-संयुक्त मरे हुए को। सुणेति 2 त्ता-सुनती है, सुन कर। महया-महान्। पतिसोएणं-पति शोक से। अप्फुण्णा समाणी-व्याप्त हुई अर्थात् अत्यन्त दुःखित हुई 2 / परसुनियत्ता विव चंपगलता-कुल्हाड़ी से काटी गई चम्पक (वृक्ष विशेष, अथवा चम्पा के पेड़) की लता-शाखा की भांति। धसत्ति-धड़ाम से। धरणीतलंसि-जमीन पर। सव्वंगेहिं-सर्व अंगों से। संनिवडिया-गिर पड़ी। तते णं-तदनन्तर। सा-वह / सुभद्दा-सुभद्रा / सत्थवाही-सार्थवाही। मुहत्तंतरेणंएक मुहूर्त के अनन्तर / आसत्था समाणी-आश्वस्त हुई-सावधान हुई। बहूहिं-अनेक। मित्त-मित्र ज्ञाति आदि। जाव-यावत् संबन्धियों से। परिवुडा-घिरी हुई। रोयमाणी-रुदन करती हुई। कंदमाणी-क्रन्दन करती हुई। विलवमाणी-विलाप करती हुई। विजयमित्तस्स-विजयमित्र / सत्थवाहस्स-सार्थवाह की। लोइयाइं-लौकिक। मयकिच्चाई-मृतक-क्रियाओं को। करेति-करती है। तते णं-तदनन्तर। सा-वह। सुभद्दा-सुभद्रा। सत्थवाही-सार्थवाही।अन्नया कयाती-किसी अन्य समय। लवणसमुद्दोत्तरणं-लवणसमुद्र में गमन / लच्छिविणासं च-लक्ष्मी-धन के विनाश / पोतविणासं च-जहाज़ के डूबने तथा। पतिमरणं च-पति के मरण का। अणुचिंतेमाणी-चिन्तन करती हुई। कालधम्मुणा-काल-धर्म से। संजुत्ता-संयुक्त 1. जिस की कोई राक्षा करने वाला न हो वह अत्राण कहलाता है। 2. जिस का कोई आश्रयदाता न हो उसे अशरण कहते हैं। 3. लता के अनेकों अर्थों में से बेल यह अर्थ अधिक प्रसिद्ध एवं व्यवहार में आने वाला है। बेल का अर्थ है- वह छोटा कोमल पौधा जो अपने बल पर ऊपर की ओर उठ कर बढ़ नहीं करता। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में परश (एक अस्त्र जिस में एक डण्डे के सिरे पर अर्द्ध चन्द्राकार लोहे का फाल लगा रहता है, कुल्हाड़ी विशेष) से काटी हुई चम्पक-लता की भांति धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ी, ऐसा प्रसंग चल रहा है, ऐसी स्थिति में यदि लता का अर्थ बेल करते हैं तो इस अर्थ में यह भाव संकलित नहीं होता क्योंकि बेल तो स्वयं ज़मीन पर होती है उस का धड़ाम से ज़मीन पर गिरना कैसे हो सकता है ? अतः प्रस्तुत प्रकरण में लता का शाखा अर्थ ही उपयुक्त प्रतीत होता है। 296 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय .[प्रथम श्रुतस्कंध Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई-मर गई। मूलार्थ-तदनन्तर किसी अन्य समय विजयमित्र सार्थवाह ने जहाज़ से गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप चार प्रकार की पण्यवस्तुओं को लेकर लवणसमुद्र में प्रस्थान किया, परन्तु लवणसमुद्र में जहाज पर विपत्ति आने से विजयमित्र की उक्त चारों प्रकार की महामूल्य वाली वस्त्र, आभूषण आदि वस्तुएं जलमग्न हो गईं, और वह स्वयं भी त्राणरहित एवं शरणरहित होने से कालधर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गया। तदनन्तर ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य-श्रेष्ठी और सार्थवाहों ने जब लवणसमुद्र में जहाज के नष्ट तथा महामूल्य वाले क्रयाणक के जलमग्न हो जाने पर त्राण और शरण से रहित विजयमित्र की मृत्यु का वृत्तान्त सुना तब वे हस्तनिक्षेप और बाह्य ( उस के अतिरिक्त) भांडसार को लेकर एकान्त स्थान में चले गए। सुभद्रा सार्थवाही ने जिस समय लवणसमुद्र में जहाज पर संकट आ जाने के कारण भांडसार के जलमग्न होने के साथ-साथ विजयमित्र की मृत्यु का वृत्तान्त सुना तब वह पतिवियोग-जन्य महान शोक से व्याप्त हुई, कुठाराहत-कुल्हाड़े से कटी हुई चम्पकवृक्ष की लता-शाखा की भांति धड़ाम से पृथिवी-तल पर गिर पड़ी। तदनन्तर वह सुभद्रा एक मुहूर्त के अनन्तर आश्वस्त हो तथा अनेक मित्र, ज्ञाति, यावत् सम्बन्धिजनों से घिरी हुई और रुदन, क्रन्दन तथा विलाप करती हुई विजयमित्र के लौकिक मृतक क्रिया-कर्म को करती है। तदनन्तर वह सुभद्रा सार्थवाही किसी अन्य समय पर लवणसमुद्र पर पति का गमन, लक्ष्मी का विनाश, पोत-जहाज का जलमग्न होना तथा पतिदेव की मृत्यु की चिन्ता में निमग्न हुई कालधर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गई। टीका-प्रत्येक मानव उन्नति चाहता है और उस के लिए वह यत्न भी करता है। फिर वह उन्नति चाहे किसी भी प्रकार क्यों न हो। एक जितेन्द्रिय साधु व्यक्ति मन तथा इन्द्रियों के दमन एवं साधनामय जीवन व्यतीत करने में ही अपनी उन्नति मानता है। एक विद्यार्थी अपनी कक्षा में अधिक अंक-नम्बर लेकर पास होने में उन्नति समझता है। इसी प्रकार एक व्यापारी की उन्नति इसी में है कि उसे व्यापार-क्षेत्र में अधिकाधिक लाभ हो। सारांश यह है कि हर एक जीव इसी लक्ष्य को सन्मुख रखकर प्रयास कर रहा है। इसी विचार से प्रेरित हुआ विजयमित्र सार्थवाह आर्थिक उन्नति की इच्छा से अवसर देख कर विदेश जाने को तैयार हुआ, तदर्थ उसने अनेकविध गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य नाम की पण्य-बेचने योग्य वस्तुओं का संग्रह किया। .. . गिनती में बेची जाने वाली वस्तु गणिम कहलाती है, अर्थात् जिस वस्तु का भाव संख्या प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [297 [297 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर नियत हो जैसे कि नारियल आदि पदार्थ, उसकी गणिम संज्ञा है। जो वस्तु तुला-तराजू से तोल कर बेची जाए, जैसे घृत, शर्करा आदि पदार्थ, उसे धरिम कहते हैं। नाप कर बेचे जाने वाले पदार्थ कपड़ा फीता आदि मेय कहलाते हैं तथा जिन वस्तुओं का क्रय-विक्रय परीक्षाधीन हो उन्हें परिच्छेद्य कहते हैं। हीरा-पन्ना आदि रत्नों का परिच्छेद्य वस्तुओं में ग्रहण होता है। विजयमित्र सार्थवाह ने इन चतुर्विध पण्य-वस्तुओं को एक जहाज में भरा और उसे लेकर वह लवणसमुद्र में विदेश-गमनार्थ चल पड़ा। चलते-चलते रास्ते में जहाज उलट गया अर्थात् किसी पहाड़ी आदि से टकराकर अथवा तूफान आदि किसी भी कारण से छिन्न-भिन्न हो गया, उस में भरी हुई तमाम चीजें जलमग्न हो गईं और विजयमित्र सार्थवाह का भी वहीं प्राणान्त हो गया। कर्म की गति बड़ी विचित्र है। मानव सोचता तो कुछ और है मगर होता है कुछ और। जिस विजयमित्र ने लाभ प्राप्त करने की इच्छा से समुद्रयात्रा द्वारा विदेशगमन किया, वह समुद्र में सब कुछ विसर्जित कर देने के अतिरिक्त अपने जीवन को भी खो बैठा। इसी को दूसरे शब्दों में भावी-भाव कहते हैं, जो कि अमिट है। विजयमित्र सार्थवाह की इस दशा का समाचार जब वहां के ईश्वर, तलवर और माडम्बिक आदि लोगों को मिला तब वे मन में बड़े प्रसन्न हुए, उन के लिए तो यह मृत्यु समाचार नहीं था किन्तु उन की सौभाग्य-श्री ने उन्हें पुकारा हो ऐसा था। उन्होंने हस्तनिक्षेप और उस के अतिरिक्त अन्य सारभांड आदि को लेकर एकान्त में प्रस्थान कर दिया, सारांश यह है कि विजयमित्र की विभूति में से जो कुछ किसी के हाथ लगा वह लेकर चलता बना। ऐश्वर्य वाले को ईश्वर कहते हैं। राजा सन्तुष्ट होकर जिन्हें पट्टबन्ध देता है, वे राजा के. समान पट्टबन्ध से विभूषित लोग तलवर कहलाते हैं अथवा नगर रक्षक कोतवाल को तलवर कहते हैं। जो बस्ती भिन्न-भिन्न हो उसे मडम्ब और उस के अधिकारी को माडम्बिक कहते हैं। जो कुटुम्ब का पालन पोषण करते हैं या जिन के द्वारा बहुत से कुटुम्बों का पालन होता है उन्हें कौटुम्बिक कहते हैं / इभ का अर्थ है हाथी। हाथी के बराबर द्रव्य जिस के पास हो उसे इभ्य कहते हैं। जो नगर के प्रधान व्यापारी हों उन्हें श्रेष्ठी कहते हैं। जो गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप खरीदने और बेचने योग्य वस्तुओं को लेकर और लाभ के लिए 1. यह प्रकृति का नियम है कि जहाँ फूल होते हैं वहां कांटे भी होते हैं, इसी भांति जहाँ अच्छे विचारों के लोग होते हैं वहाँ गर्हित विचार रखने वाले लोगों की भी कमी नहीं होती। यही कारण है कि जब स्वार्थी लोगों ने विजयमित्र का परलोक-गमन तथा उस की सम्पत्ति का समुद्र में जलमग्न हो जाना सुना तो पर-दुःख से दुःखित होने के कर्त्तव्य से च्युत होते हुए उन लोगों ने अपना स्वार्थ साधना आरम्भ किया और जिस के जो हाथ लगा वह वही ले कर चल दिया। धिक्कार है ऐसी जघन्यतम लोभवृत्ति को। 298 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशान्तर जाने वालों को साथ ले जाते हैं और योग (नई वस्तु की प्राप्ति), क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) द्वारा उन का पालन करते हैं, तथा दुःखियों की भलाई के लिए उन्हें धन देकर व्यापार द्वारा धनवान् बनाते हैं उन्हें सार्थवाह कहते हैं। __“कर्मचक्र में फंसा हुआ मनुष्य चारों ओर से दुःखी होता है। जो मित्र होते हैं वे शत्रु बन जाते हैं और अवसर मिलने पर उस की धनसम्पत्ति को हड़प करके स्वयं धनी होना चाहते हैं। सारांश यह है कि रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं, जिस का यह एक-विजयमित्र ज्वलन्त उदाहरण है। जिस समय सुभद्रा ने पति का मरण और जहाज का डूबना सुना तो वह वृक्ष से कटी हुई लता-शाखा की भांति जमीन पर गिर पड़ी और उसे कोई होश नहीं रही। थोड़ी देर के बाद होश आने पर वह रोने-चिल्लाने और विलाप करने लगी। इसी अवस्था में उस ने पतिदेव का औद्ध-दैहिक कृत्य (मरने के बाद किए जाने वाले कर्म, अन्त्येष्टिकर्म) किया, तथा कुछ समय बाद वह पति-वियोग की चिन्ता में निमग्न हुई मृत्यु को प्राप्त हो गई। दुःखी हृदय ही दुःख का अनुभव कर सकता है। पिपासु को ही पिपासाजन्य दुःख की अनुभूति हो सकती है। इसी भांति पति-वियोग-जन्य दुःख का अनुभव भी असहाय विधवा के सिवा और किसी को नहीं हो सकता। विजयमित्र सार्थवाह के परलोकगमन और घर में रही हुई धन सम्पत्ति के विनाश से सुभद्रा के हृदय को जो तीव्र आघात पहुंचा उसी के परिणामस्वरूप उस की मृत्यु हो गई। प्रस्तुत सूत्र में "-हत्थनिक्खेव-हस्तनिक्षेप-" और "-बाहिरभण्डसारबाह्यभाण्डसार-" इन पदों का प्रयोग किया गया है, आचार्य अभयदेव सूरि ने इन पदों की निम्नोक्त व्याख्या की है ___"-हत्थनिक्खेवं च त्ति हस्ते निक्षेपो न्यासः समर्पणं यस्य द्रव्यस्य तद् हस्तनिक्षेपम्, बाहिरभाण्डसारं च-""-त्ति हस्तनिक्षेपव्यतिरिक्तं च भाण्डसारमिति-" अर्थात् जो हाथ में दूसरे को सौंपा जाए उसे हस्तनिक्षेप कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो धरोहर का नाम हस्तनिक्षेप है। हस्त-निक्षेप के अतिरिक्त जो सारभाण्ड है उसे बाह्यभाण्डसार कहते हैं। तात्पर्य यह है कि किसी की साक्षी के बिना अपने हाथ से दिया गया सारभण्ड हस्तनिक्षेप और किसी की साक्षी से अर्थात् लोगों की जानकारी में दिया गया सारभाण्ड बाह्यभाण्डसार के नाम से विख्यात है। सारभण्ड शब्द से महान् मूल्य वाले वस्त्र, आभूषण आदि पदार्थ गृहीत होते हैं। और पुरातन वस्त्र, पात्र, आदि पदार्थों को असारभण्ड कहा जाता है। या यूं कहें कि-जो पदार्थ भार प्रथम श्रुतस्कंध] ___श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [299 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में लघु-हलके हों, किन्तु मूल्य में अधिक हों, जैसे रत्न, मणि आदि इन्हें सारभाण्ड कहा जाता है, इस के विपरीत जो भार में अधिक एवं मूल्य में अल्प हों जैसे लोहा, पीतल आदि पदार्थ ये असारभाण्ड कहलाते हैं। अब सूत्रकार उज्झितक सम्बन्धी आगे का वृत्तान्त लिखते हैं मूल-तते णं णगरगुत्तिया सुभदं सत्थ० कालगयं जाणित्ता उज्झियगं दारगं सातो गिहातो णिच्छुभंति, णिच्छुभित्ता तं गिहं अन्नस्स दलयंति। तते णं से उज्झियते दारए सयातो गिहातो निच्छूढे समाणे वाणियग्गामे नगरे सिंघाडग० 'जाव पहेसु, जूयखलएसु, वेसियाघरएसु, पाणागारेसु य सुहंसुहेणं विहरइ। तते णं से उज्झितए दारए अणोहट्टिए अनिवारए सच्छंदमती सइरप्पयारे मजप्पसंगी चारजूयवेसदारप्पसंगी जाते यावि होत्था। तते णं से उज्झियते अन्नया कयाती कामज्झयाए गणियाए सद्धिं संपलग्गे जाते यावि होत्था। कामज्झ्याए गणियाए सद्धिं विउलाइं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति। छाया-ततस्ते नगरगौप्तिकाः सुभद्रां सार्थवाहीं कालगतां ज्ञात्वा उज्झितकं . दारकं स्वस्माद् गृहाद् निष्कासयन्ति निष्कास्य तद्गृहमन्यस्मै दापयन्ति। ततः स उज्झितको दारकः स्वस्माद् गृहाद् निष्कासितः सन् वाणिजग्रामे नगरे श्रृंघाटक यावत् पथेषु द्यूतागारेषु वेश्यागृहेषु पानागारेषु च सुखसुखेन विहरति। ततः स दारकोऽनपघट्टकोऽनिवारक: स्वच्छन्दमतिः स्वैरप्रचारो मद्यप्रसंगी चोरङ्तवेश्यादारप्रसंगी जातश्चाप्यभवत्। ततः स उज्झितकोऽन्यदा कदाचित् कामध्वजया गणिकया सार्द्ध संप्रलग्नो जातश्चाप्यभूत्। कामध्वजया गणिकया सार्द्ध विपुलानुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुंजानो विहरति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / ते णगरगुत्तिया-वे नगररक्षक-नगर का प्रबन्ध करने वाले। सुभदंसुभद्रा / सत्थ०-सार्थवाही को। कालगतं-मृत्यु को प्राप्त हुई। जाणित्ता-जानकर। उज्झियगं-उज्झितक 1. जाव-यावत्- पद से -तिग-चउक्क-चच्चर-महापह इन पदों का ग्रहण समझना। इन पदों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। ____2. अनिवारकः-नास्ति निवारको, "-मैवं कार्षी-" रित्येवं निषेधको यस्य स तथा, प्रतिषेधकरहित इत्यर्थः। स्वछन्दमतिः, स्ववशा स्ववशेन वा मतिरस्येति स्वछन्दमतिः। अतएव स्वैरपचार:- स्वैरमनिवारिततया प्रचारो यस्य स तथेति भावः। 300 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामक।दारयं-बालक को।सातो-उसके अपने।गिहातो-घर से। णिच्छुभंति-निकाल देते हैं। णिच्छुभित्तानिकाल कर / तं गिहं-उस घर को। अन्नस्स-अन्य को। दलयंति-दे देते हैं। तते णं-तदनन्तर / से-वह। उज्झियते-उज्झितक। दारए-बालक। सयातो गिहातो-अपने घर से। निच्छूढे समाणे-निकाला हुआ। वाणियग्गामे णगरे-वाणिजग्राम नगर में। सिंघाडग-त्रिकोणमार्ग आदि। जाव-यावत्। पहेसु-सामान्य मार्गों पर / जूयखलएसु-द्यूतस्थानों-जूएखानों में। वेसियाघरएसु-वेश्यागृहों में। पाणागारेसु-मद्यस्थानोंशराब खानों में। सुहंसुहेणं-सुख-पूर्वक। विहरइ-परिभ्रमण कर रहा है। तते णं-तदनन्तर। से-वह। उज्झितए-उज्झितक / दारए-बालक। अणोहट्टिए-अनपघट्टक-बलपूर्वक हाथ आदि से पकड़ कर जिसको कोई रोकने वाला न हो। अणिवारए-अनिवारक-जिस को वचन द्वारा भी कोई हटाने वाला न हो। सच्छंदमती-स्वछंदमति-अपनी बुद्धि से ही काम करने वाला अर्थात् किसी दूसरे की न मानने वाला। सइरप्पयारे-निजमत्यनुसार यातायात करने वाला। मज्जप्पसंगी-मदिरा पीने वाला। चोर-चौर्य-कर्म। जूय-द्यूत-जूआ तथा। वेसदार-वेश्या और परस्त्री का। पसंगी-प्रसंग करने वाला अर्थात् चोरी करने, जूआ खेलने, वेश्या गमन और पर-स्त्रीगमन करने वाला। जाते यावि होत्था-भी हो गया। तते णंतदनन्तर / से-वह। उज्झियते-उज्झितक। अन्नया-अन्य। कयाती-किसी समय। कामज्झायाए-कामध्वजा नामक / गणियाए-गणिका के। सद्धिं-साथ। संपलग्गे-संप्रलग्न-संलग्न / जाते यावि होत्था-हो गया अर्थात् उसका कामध्वजा वेश्या के साथ स्नेहसम्बन्ध स्थापित हो गया, तदनन्तर वह / कामज्झयाएकामध्वजा। गणियाए-गणिका-वेश्या के। सद्धिं-साथ। विउलाइं-महान। उरालाइं-उदार-प्रधान / माणुस्सगाई-मनुष्यसम्बन्धी। भोगभोगाई-मनोज्ञ भोगों का। भुंजमाणे-उपभोग करता हुआ। विहरतिसमय बिताने लगा। मूलार्थ-तदनन्तर नगर-रक्षक ने सुभद्रा सार्थवाही की मृत्यु का समाचार प्राप्त कर उज्झितक कुमार को घर से निकाल दिया, और उस का वह घर किसी दूसरे को दे दिया। अपने घर से निकाला जाने पर वह उज्झितक कुमार वाणिजग्राम नगर के त्रिपथ, चतुष्पथ यावत् सामान्य मार्गों पर तथा द्यूतगृहों, वेश्यागृहों और पानगृहों में सुख-पूर्वक परिभ्रमण करने लगा। तदनन्तर बेरोकटोक स्वच्छन्दमति, एवं निरंकुश होता हुआ वह चौर्यकर्म, द्यूतकर्म, वेश्यागमन और परस्त्रीगमन में आसक्त हो गया। तत्पश्चात् किसी समय कामध्वजा वेश्या से स्नेह-सम्बन्ध स्थापित हो जाने के कारण वह उज्झितक उसी वेश्या के साथ पर्याप्त उदार-प्रधान मनुष्य सम्बन्धी विषय-भोगों का उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। टीका-कर्मगति की विचित्रता को देखिए। जिस उज्झितक कुमार के पालन-पोषण के लिए पांच धायमाताएं विद्यमान थीं और माता-पिता की छत्रछाया में जिसका राजकुमारों 1. जिस व्यक्ति ने उज्झितक के पिता से रुपया लेना था, अधिकारी लोगों ने उज्झितक को निकाल कर रुपये के बदले उस का घर उस (उत्तमर्ण) को सौंप दिया। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [301 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा पालन-पोषण हो रहा था, आज वह माता-पिता से विहीन-रहित धनसम्पत्ति से शून्य हो जाने के अतिरिक्त घर से भी निकाल दिया गया है। उसके लिए अब वाणिजग्राम नगर की गलियों, बाजारों तथा इसी प्रकार के स्थानों में घूमने-फिरने और जहां-तहां पड़े रहने के सिवा और कोई चारा नहीं। उसके ऊपर अब किसी का अंकुश नहीं रहा, वह जिधर जी चाहे जाता है, जहां मनचाहे रहता है, दुर्दैववशात् उसे साथी भी ऐसे ही मिल गए। उन के सहवास से वह सर्वथा स्वेच्छाचारी और स्वच्छन्दमति हो गया। उसका अधिक निवास अब या तो जूएखानों में या शराबखानों में अथवा वेश्या के घरों में होने लगा। सारांश यह है कि निरंकुशता के कारण वह चोरी करने, जूआ खेलने, शराब पीने और परस्त्रीगमन आदि के कुव्यसनों में आसक्त हो गया। "-विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः-" अर्थात् विवेकहीन व्यक्तियों के पतित हो जाने के सैंकड़ों मार्ग हैं-इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार दुर्दैववशात् उज्झितक कुमार का किसी समय वाणिजग्राम नगर की सुप्रसिद्ध वेश्या कामध्वजा से स्नेहसम्बन्ध स्थापित हो गया। उस के कारण वह मनुष्य-सम्बन्धी विषय-भोगों का पर्याप्त-रूप से उपभोग करता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा। "अणोहट्टए" पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है___ "यो बलात् हस्तादौ गृहीत्वा प्रवर्तमानं निवारयति सोऽपघट्टकस्तदभावादनपघट्टकः" अर्थात् जो किसी को बलपूर्वक हाथ आदि से पकड़ कर किसी भी कार्य-विशेष से रोक देता है वह अपघट्टक-निवारक कहलाता है और इसके विपरीत जिस का कोई अपघट्टक-रोकने वाला न हो उसे अनपघट्टक कहते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति ही कुसंगदोष से स्वच्छन्दमति और स्वेच्छाचारी हो जाता है। "वेसदारप्पसंगी"१ इस पद के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं, जैसे कि-(१) वेश्यागामी और परदारगामी तथा (2) वेश्या रूप स्त्रियों के साथ अनुचित सम्बन्ध रखने वाला। प्रस्तुत सूत्र में वेश्या और दारा ये दो शब्द निर्दिष्ट हुए हैं। इन में वेश्या अर्थ है पण्यस्त्री अर्थात् खरीदी जाने वाली बाजारू औरत। और दारा वह है जिसका विधि के अनुसार पाणिग्रहण किया गया हो। दारा शब्द की शास्त्रीय व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है "दारयन्ति पतिसम्बन्धेन पितृभ्रात्रादिस्नेहं भिन्दन्तीति दाराः" अर्थात् पति के साथ 1. "-वेसदारप्पसंगी-"त्ति वेश्याप्रसंगी कलत्रप्रसंगी चेत्यर्थः, अथवा वेश्यारूपा ये दारास्तत्प्रसंगीति वृत्तिकारः। 302 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्ध जोड़कर जो पिता-भ्राता आदि स्नेह का दारण-विच्छेद करती है वह दारा कही जाती है। दूसरे की स्त्री को पर-स्त्री कहते हैं। साहित्य-ग्रन्थों में स्वकीया, परकीया और सामान्या ये तीन भेद नायिका-स्त्री के किए गए हैं। इन में स्वकीया स्वस्त्री का नाम है, पर-स्त्री को परकीया और वेश्या को सामान्या कहा है। वेश्या न तो स्वस्त्री होती है और न परस्त्री, किन्तु सर्व-भोग्या होने से वह सामान्या कहलाती है। अतः वेश्या और परस्त्री दोनों ही भिन्न-भिन्न हैं / वेश्या का कोई एक स्वामी-मालिक या पति नहीं होता जब कि पर-स्त्री एक नियत स्वामी वाली होती है। इसी विभिन्नता को लेकर सूत्रकार ने "वेसदारप्पसंगी" इसमें दोनों का पृथक् रूप से निर्देश किया है जो कि उचित ही है। "भोगभोगाई" इस पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में "भोजनं भोगः-परिभोगः भुज्यन्त इति भोगा शब्दादयो, भोगार्हा भोगा भोग-भोगा:-मनोज्ञाः शब्दादय इत्यर्थः-" इस प्रकार है, अर्थात्-भोग शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जा सकती है, जैसे कि (1) परिभोग करना (2) जिन शब्दादि पदार्थों का परिभोग किया जाए वे शब्द, रूप आदि भोग कहलाते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में भोगभोग शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिस में से प्रथम के भोग शब्द का अर्थ है- भोगाई-भोगयोग्य और दूसरे भोग शब्द का "-शब्द रूप आदि-" यह अर्थ है। तात्पर्य यह है कि भोगभोग शब्द मनोज्ञ-सुन्दर शब्दादि का परिचायक है। अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में मित्र राजा की महारानी के योनि-शूल का वर्णन करते हुए उज्झितक कुमार की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल-ततेणं तस्स मित्तस्स रण्णो अन्नया कयाइ सिरीए देवीए जोणिसूले पाउब्भूते यावि होत्था। नो संचाएति विजयमित्ते राया सिरीए देवीए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए। तते णं से विजयमित्ते राया अन्नया कयाइ उज्झिययं दारयंकामज्झयाए गणियाए गेहाओ णिच्छुभावेइ २.त्ता कामज्झयं गणियं अब्भिंतरियं ठावेति 2 त्ता कामज्झयाए गणियाए सद्धिं उरालाइं जाव' विहरति।तते णं से उज्झियए दारए कामज्झयाए गणियाए गेहातो निच्छुब्भमाणे समाणे कामज्झयाए गणियाए मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने अन्नत्थ कत्थइ सुइंच रतिं च धितिं च अविंदमाणे तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदझवसाणे तदट्ठोवउत्ते तयप्पियकरणे तब्भावणाभाविते कामज्झयाए . 1. "जाव-यावत्" पद से "माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [303 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणियाए बहूणि अंतराणि य छिद्दाणिय विवराणि य पडिजागरमाणे 2 विहरति। ___ छाया-ततस्तस्य मित्रस्य राज्ञः अन्यदा कदाचित् श्रियाः देव्याः योनिशूलं प्रादुर्भूतं चाप्यभवत्। नो संशक्नोति विजयमित्रो राजा श्रिया देव्या सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुंजानो विहर्तुम् / ततः स विजयमित्रो राजाऽन्यदा कदाचित् उज्झितकं दारकं कामध्वजाया गणिकाया गेहाद् निष्कासयति, निष्कास्य कामध्वजां गणिकामभ्यन्तरे स्थापयति, स्थापयित्वा कामध्वजया गणिकया सार्द्धमुदारान् यावत् विहरति / ततः सः उज्झितको कामध्वजाया गणिकाया गृहाद् निष्कास्यमानः सन् कामध्वजायां गणिकायां मूर्च्छितो, गृद्धो, ग्रथितोऽध्युपपन्नोऽन्यत्र कुत्रापि स्मृतिं च रतिं च धृति चाविन्दमानस्तच्चित्तस्तन्मनास्तल्लेश्यस्तदध्यवसानस्तदर्थोपयुक्तस्तदर्पित-करणस्तद् भावनाभावितः कामध्वजाया गणिकाया बहून्यन्तराणि च छिद्राणि च विवराणि च प्रतिजागरत् 2 विहरति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / तस्स मित्तस्स-उस मित्र नामक / रण्णो-राजा की। सिरीए देवीएश्री नामक देवी के। अन्नया कयाइं- किसी अन्य समय। जोणिसूले-योनि-शूल अर्थात् योनि में उत्पन्न होने वाली तीव्र वेदना-विशेष। पाउब्भूते-उत्पन्न। यावि होत्था-हो गया, तब। विजयमित्ते रायाविजयमित्र राजा। सिरीए देवीए-श्री देवी के / सद्धिं-साथ। उरालाइं-उदार-प्रधान / माणुस्सगाई-मनुष्यसम्बन्धी। भोगभोगाई-मनोज्ञ भोगों को। भुंजमाणे-उपभोग करता हुआ। विहरित्तए-विहरण करने में। नो संचाएति-समर्थ नहीं रहा। तते णं- तदनन्तर। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। से विजयमित्ते राया-वह विजयमित्र राजा / उज्झिययं-उज्झितक।दारयं-बालक को। कामझयाए-कामध्वजा। गणियाएगणिका के। गिहाओ-घर से। णिच्छुभावेइ-निकलवा देता है। २.त्ता-निकलवा कर। कामज्झयंकामध्वजा। गणियं-गणिका को। अन्भिंतरियं-भीतर अर्थात् अन्त:पुर में। ठवेति-रख लेता है। कामज्झयाए-कामध्वजा। गणियाए-गणिका के।सद्धिं-साथ। उरालाइं-उदार-प्रधान / जाव-यावत् भोगों का उपभोग करता हुआ। विहरति-समय व्यतीत करता है। तते णं-तदनन्तर। से उज्झियए दारए-वह उज्झितक कुमार बालक।कामझयाए-कामध्वजा। गणियाए-गणिका के। गेहातो-घर से। णिच्छुब्भमाणे समाणे-निकाला हुआ। कामज्झयाए गणियाए-कामध्वजा गणिका में। मुच्छिते-मूर्छित-उसी के ध्यान में पगला हुआ। गिद्धे-गृद्ध-अकांक्षा वाला। गढिते-ग्रथित-स्नेह जाल में बंधा हुआ। अज्झोववन्नेअध्युपपन्न अर्थात् उस में आसक्त हुआ। अन्नत्थ कत्थइ-और कहीं पर भी। सुइंच-स्मृति-स्मरण अर्थात् उसे प्रतिक्षण उसी का स्मरण-याद रहता है, वह किसी और का स्मरण नहीं करता। रतिं च-रति-प्रीति अर्थात् उस वेश्या के अतिरिक्त उस का कहीं दूसरी जगह प्रेम नहीं है। धितिं च-धृति-मानसिक स्थिरता अर्थात् उस वेश्या के सान्निध्य को छोड़ कर उस का मन कहीं स्थिरता एवं शान्ति को प्राप्त नहीं होता है, ऐसा वह उज्झितक कुमार स्मृति, रति और धृति को। अविंदमाणे-प्राप्त न करता हुआ। तच्चित्ते 304 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्गतचित्त-उसी में-गणिका में चित्त वाला। तम्मणे-उसी में मन रखने वाला। तल्लेसे-तद्विषयक परिणामों वाला। तदझवसाणे-तद्विषयक अध्यवसाय अर्थात् भोगक्रिया सम्बन्धी प्रयत्न विशेष वाला। तदट्ठोवउत्ते-उसकी प्राप्ति के लिए उपयुक्त-उपयोग रखने वाला। तयप्पियकरणे-उसी में समस्त इन्द्रियों को अर्पित करने वाला अर्थात् उसी की ओर जिस की समस्त इन्द्रियां आकर्षित हो रही हैं। तब्भावणाभाविते-उसी की भावना करने वाला तथा। कामज्झयाए-कामध्वजा। गणियाए-गणिका के। बहूणि अंतराणि य-अनेक अन्तर अर्थात् जिस समय राजा का आगमन न हो। छिद्दाणि य-छिद्र-अर्थात् राजा के परिवार का कोई व्यक्ति न हो। विवराणि-विवर-कोई सामान्य मनुष्य भी जिस समय न हो। पडिजागरमाणे-ऐसे समय की गवेषणा करता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा था। मूलार्थ-तदनन्तर उस विजयमित्र नामक महीपाल-राजा की श्री नामक देवी को योनिशूल-योनि में होने वाला वेदना-प्रधान रोग विशेष उत्पन्न हो गया। इसलिए विजयमित्र नरेश रानी के साथ उदार-प्रधान मनुष्य-सम्बन्धी काम-भोगों के सेवन में समर्थ नहीं रहा। तदनन्तर अन्य किसी समय उस राजा ने उज्झितक कुमार को कामध्वजा गणिका के स्थान में से निकलवा दिया और कामध्वजा वेश्या को अपने भीतर अर्थात् अन्तःपुर-रणवास में रख लिया और उसके साथ मनुष्य-सम्बन्धी उदार-प्रधान विषयभोगों का उपभोग करने लगा। तदनन्तर कामध्वजा गणिका के गृह से निकाले जाने पर कामध्वजा वेश्या में मूर्च्छित-उस वेश्या के ध्यान में ही-मूढ़-पगला बना हुआ,गृद्ध-उस वेश्या की आकांक्षाइच्छा रखने वाला, ग्रथित-उस गणिका केही स्नेहजाल में जकड़ा हुआ, और अध्युपपन्नउस वेश्या की चिन्ता में अत्यधिक व्यासक्त रहने वाला वह उज्झितक कुमार और किसी स्थान पर भी स्मृति-स्मरण, रति-प्रीति और धृति-मानसिक शांति को प्राप्त न करता हुआ, उसी में चित्त और मन लगाए हुए, तद्विषयक परिणाम वाला, तत्सम्बन्धी काम भोगों में प्रयत्न-शील, उस की प्राप्ति के लिए उद्यत-तत्पर और तदर्पितकरण अर्थात् जिस का मन-वचन और देह ये सब उसी के लिए अर्पित हो रहे हैं, अतएव उसी की भावना से भावित होता हुआ कामध्वजा वेश्या के अन्तर, छिद्र और विवरों की गवेषणा करता हुआ जीवन बिता रहा है। टीका-प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में यह वर्णन कर चुके हैं कि वाणिजग्राम नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था, महाराज मित्र वहां राज्य किया करते थे। उन की महारानी का नाम श्री देवी था। दोनों वहां सानन्द जीवन बिता रहे थे। आगमों में इस बात का वर्णन बड़े मौलिक शब्दों में उपलब्ध किया जाता है कि पूर्वसंचित कर्मों के आधार पर ही सुख तथा दुःख का परिणाम होता है। यदि पूर्व कर्म शुभ हों प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [305 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो जीवन में आनन्द रहता है और यदि अशुभ हों तो जीवन संकटों से व्याप्त हो जाता है। जिस ओर भी प्रवृत्ति होती है वहां हानि ही हानि के दर्शन होते हैं। शरीर में एक से अधिक रोग उत्पन्न होने लग जाते हैं, फिर रोग भी ऐसे कि जिन का प्रतिकार अत्यन्त कठिन हो / अनुभवी वैद्य भी जिन की चिकित्सा न कर पाएं एवं वे भी हार मान जाएं, यह सब कुछ स्वोपार्जित अशुभ कर्मों की ही महिमा है। समय की गति बड़ी विचित्र है। आज जो जीव सुखमय जीवन बिता रहा है, कल वही असह्य दुःखों का अनुभव करने लगता है। महारानी श्री भी समय के चक्र में फंसी हुई इसी नियम का उदाहरण बन रही थी। उसे योनिशूल ने आक्रमित कर लिया। योनिगत तीव्र वेदना से वह सदा व्यथित एवं व्याकुल रहने लगी। स्त्री की जननेन्द्रिय को योनि कहते हैं, तद्गत तीव्र वेदना को योनिशूल के नाम से उल्लेख किया जाता है। यह रोग कष्टसाध्य है, अगर इस का पूरी तरह से प्रतिकार न किया जाए तो स्त्री विषय- भोगों के योग्य नहीं रहती। इसीलिए विजयमित्र नरेश श्रीदेवी के साथ सांसारिक विषय-वासना की पूर्ति में असफल रहते। दूसरे शब्दों में कहें तो श्रीदेवी विजयमित्र की कामवासना पूरी करने में असमर्थ हो गई थी। मानव पर मन का सब से अधिक नियन्त्रण है, उस की अनुकूलता जितनी हितकर है . उस से कहीं अधिक अनिष्ट करने वाली उस की प्रतिकूलता है। अनुकूल मन मानव को ऊंचे से ऊँचे स्थान पर जा बिठाता है, और प्रतिकूल हुआ वह मानव को नीचे से नीचे गर्त में गिरा देने से भी कभी नहीं चूकता। सारांश यह है कि मन की निरंकुशता अनेक प्रकार के अनिष्टों का सम्पादन करने वाली है। महाराज विजयमित्र का निरंकुश मन श्री देवी के द्वारा नियंत्रित न होने के कारण अशान्त, अथच व्यथित रहता था। काम-वासना की पूर्ति न होने से मित्रनरेश का मन नितान्त विकृत दशा को प्राप्त हो रहा था परन्तु उस का कर्तव्य उसे परस्त्री-सेवन से रोक रहा था। प्रतिक्षण कामवासना तथा कर्त्तव्य-परायणता में युद्ध हो रहा था। कभी कर्त्तव्य पर वासना विजय पाती और कभी वासना पर कर्त्तव्य को विजय लाभ होता। इस पारस्परिक संघर्ष में अन्ततोगत्वा कर्त्तव्य पर कामवासना को विजय-लाभ हुआ, उस के तीव्र प्रभाव के आगे कर्त्तव्य को पराजित-परास्त होना पड़ा। विजय नरेश के हृदय पर कर्तव्य के बदले कामवासना ने ही सर्वेसर्वा अधिकार प्राप्त कर लिया, उसके चित्त से स्वस्त्री-सन्तोष के विचार निकल गए, वहां अब परस्त्री या सामान्या स्त्री के उपभोग के अतिरिक्त और कोई लालसा नहीं रही और तदर्थ उस ने वहां पर रहने वाले कामध्वजा के कृपा-पात्र उज्झितक कुमार को निकलवाया और बाद में कामध्वजा को अपने अन्तःपुर में रख लिया। अब वह अपनी काम 306 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासना को कामध्वजा वेश्या के द्वारा पूरी करने लगा। प्रत्येक मानव की यह उत्कट इच्छा रहती है कि उस का समस्त जीवन सुखमय व्यतीत हो, इसके लिए वह यथाशक्ति श्रम भी करता है परन्तु कर्म का विकराल चक्र मानव के महान् योजनारूपंदुर्ग को आन की आन में भूमिसात् कर देता है। उज्झितक कुमार चाहता था कि कामध्वजा के सहवास में ही उस का जीवन व्यतीत हो और वह निरन्तर ही मानवीय विषयभोगों का यथेष्ट उपभोग करता रहे। परन्तु "सब दिन होत न एक समान" इस कहावत के अनुसार उज्झितक का वह सुख नष्ट होते कुछ भी देरी नहीं लगी। काम-वासना से वासित चित्त वाले मित्र नरेश ने कामध्वजा में आसक्त होते ही पांव के कांटे की तरह उसे-उज्झितक को वहां से निकलवा दिया और कामध्वजा पर अपना पूरा-पूरा अधिकार कर लिया। उज्झितक कुमार गरीब निर्धन अथच असहाय था यह सत्य है और यह भी सत्य है कि मित्र नरेश के मुकाबले में उसकी कुछ भी गणना नहीं थी। परन्तु वह भी एक मानव था और मित्र नरेश की भांति उस में भी मानवोचित हृदय विद्यमान था। प्रेम फिर वह शुद्ध हो या विकृत, यह हृदय की वस्तु है। उस में धनाढ्य या निर्धन का कोई प्रश्न नहीं रहता। यही कारण था कि कामध्वजा वेश्या ने एक निर्धन अथवा अनाथ युवक को अपने प्रेम का अतिथि बनाया और राजशासन में नियंत्रित होने पर भी वह उज्झितक कुमार का परित्याग न कर सकी। कामध्वजा के निवास-स्थान से बहिष्कृत किए जाने पर भी उज्झितक कुमार की कामध्वजागत मानसिक आसक्ति अथवा तद्गतप्रेमातिरेक में कोई कमी नहीं आने पाई। वह निरन्तर उस की प्राप्ति में यत्नशील रहता है, अधिक क्या कहें उसके मन को अन्यत्र कहीं पर भी किसी प्रकार की शांति नहीं मिलती। वह हर समय एकान्त अवसर की खोज में रहता है। विषयासक्त मानव के हृदय में अपने प्रेमी के लिए मोह-जन्य विषयवासना कितनी जागृत होती है, उसका अनुभव काम के पुजारी प्रत्येक मानव को प्रत्यक्षरूप से होता है। परन्तु इस विकृत प्रेम-विकृत राग के स्थान में यदि विशुद्ध प्रेम का साम्राज्य हो तो अन्धकार-पूर्ण मानव हृदय में कितना आलोक होता है, इसका अनुभव तो विश्वप्रेमी साधु पुरुष ही करते हैं, साधारण व्यक्ति तो उससे वंचित ही रहते हैं। ___ क़ामध्वजा वेश्या के ध्यान में लीन हुआ उज्झितक कुमार उसके असह्य वियोग से 1. इस विषय में कविकुलशेखर कालीदास की निम्नलिखित उक्ति भी नितान्त उपयुक्त प्रतीत होती कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं, दुःखमेकान्ततो वा। नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा, चक्रनेमिक्रमेण॥ [मेघदूत] प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [307 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागल सा बन गया। उसकी मानसिक लग्न को व्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने जिन शब्दों का निर्देश किया है, उनके अर्थ की भावना करते हुए वे उस की हृदयगत लग्न के प्रतिबिम्बस्वरूप ही प्रतीत होते हैं / वृत्तिकार के शब्दों में उनकी व्याख्या इस प्रकार है___"मुच्छिए" मूर्च्छितो-मूढो दोषेष्वपि गुणाध्यारोपात् “गिद्धे" तदाकांक्षावान् "गढिए" ग्रथितस्तद्विषयस्नेहतन्तुसन्दभितः, "अज्झोववन्ने" आधिक्येन तदेकाग्रतां गतोऽध्युपन्नः अतएवान्यत्र कुत्रापि वस्त्वन्तरे "सुइंच"स्मृति-स्मरणम् "रइंच" रतिम्आसक्तिम्, "धिइंच" धृतिं च चित्तस्वास्थ्यम्, "अविंदमाणे"अलभमानः,"तच्चित्ते" तस्यामेव चित्तं भावमनः सामान्येन वा मनो यस्य स तथा-"तम्मणे" द्रव्यमनः प्रतीत्य विशेषोपयोगं वा। "तल्लेसे" कामध्वजागताऽशुभात्मपरिणामविशेषः लेश्या हि कृष्णादिद्रव्यसाचिव्य-जनित आत्मपरिणाम इति, "तदझवसाणे" तस्यामेवाध्यवसानं भोगक्रियाप्रयत्नविशेषरूपं यस्य स तथा। "तदट्ठोवउत्ते" तदर्थं तत्प्राप्तये उपयुक्तः उपयोगवान् यः स तथा, "तयप्पियकरणे' तस्यामेवार्पितानि-ढौकितानि करणानीन्द्रियाणि येन स तथा, "तब्भावणाभाविए" तद्-भावनया कामध्वजाचिन्तया भावितो-वासितो यः स तथा, कामध्वजाया गणिकाया बहून्यन्तराणि च राजगमनस्यान्तराणि "छिद्दाणि य" छिद्राणि राजपरिवारविरलत्वानि "विवराणि". शेषजनविरहान्, पडिजागरमाणे, गवेषयन्। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है अचेतनावस्था का ही दूसरा नाम मूर्छा है, अथवा दोषों में गुणों का आरोपण ही मूर्छा है। मूर्छा से युक्त मूर्च्छित कहलाता है। गृद्ध शब्द से लम्पट अर्थ अभिप्रेत है। अथवा यूं समझें कि जिसकी जिस में अभिकांक्षा है वह गद्ध है। किसी भी विषय में स्नेहतन्तुओं से सम्बद्धव्यक्ति को ग्रथित कहा जाता है। किसी भी काम में अधिक एकांग्रता-प्राप्त व्यक्ति अध्युपपन्न कहलाता है। ये सारे विशेषण उज्झितक कुमार की मनोदशा के परिचायक हैं। कामध्वजा में अत्यन्त आसक्त होने से उज्झितक कुमार को अन्यत्र कहीं पर भी मानसिक विश्रान्ति उपलब्ध नहीं होती। उसका भाव तथा द्रव्यमन उसी में संलग्न हो रहा है। तद्गतचित्त और तद्गतमन इन दोनों में चित्त शब्द भाव मन का और मन शब्द द्रव्य मन का बोधक है। आत्मा का परिणाम विशेष अर्थात् कृष्णादि द्रव्यों के सान्निध्य से उत्पन्न होने वाले आत्मा के शुभ या अशुभ परिणाम को लेश्या कहते हैं, और "तल्लेश्य" शब्दगत लेश्या शब्द का अर्थ प्रकृत में अशुभ आत्म-परिणाम है। प्रस्तुत प्रकरण में अध्यवसान का अर्थ है-भोग (सांसारिक वासना ) की क्रियाएं-प्रयत्न विशेष। उस प्रयत्न-विशेष वाले व्यक्ति को तदध्यवसान कहते हैं। सारांश यह है कि उज्झितक कुमार की कामध्वजा वेश्यागत तल्लीनता इतनी बढ़ी 308 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई है कि मानो उसने कामध्वजा वेश्या की प्राप्ति में सफलता प्राप्त कर ली हो, तथा उसके साथ वह वासना-पूर्ति में लगा हुआ हो। और उस गणिका की प्राप्ति में वह सतत सावधान रहता है, यह तदर्थोपयुक्त शब्द का भाव है। एवं उसने उसी के लिए अपनी समस्त इन्द्रियां अर्पण कर दी हैं, इसी कारण से उसे तदर्पितकरण कहा है। इसी लिए वह कामध्वजा के प्रत्येक अंगप्रत्यंग तथा रूप, लावण्य और प्रेम की भावना से भावित हुआ तन्मय हो रहा था। उज्झितक कुमार किसी ऐसे अवसर की खोज में था जिस में उसका कामध्वजा से मेल-मिलाप हो जाए। एतदर्थ वह उस समय को देख रहा था कि जिस समय कामध्वजा के पास राजा की उपस्थिति न हो, राजपरिवार का कोई आदमी न हो तथा कोई नागरिक भी न हो। तात्पर्य यह है कि जिस समय किसी अन्य व्यक्ति का वहां पर गमनागमन न हो ऐसे समय की वह प्रतीक्षा कर रहा था, और उसके लिए यथाशक्ति प्रयत्न भी कर रहा था। ___अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उज्झितक कुमार के उक्त प्रयत्नों में सफल होने का उल्लेख करते हैं मूल-तए णं से उज्झियए दारए अन्नया कयाइ कामज्झयाए गणियाए अंतरं लभेति। कामज्झयाए गणियाए गिहं रहस्सियगं अणुप्पविसइ 2 त्ता कामज्झयाए गणियाए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति। - छाया-ततः स उज्झितको दारक: अन्यदा कदाचित् कामध्वजाया गणिकाया अन्तरं लभते। कामध्वजाया गणिकाया गृहं राहस्यिकमनुप्रविशति, अनुप्रविश्य कामध्वजया गणिकया सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुंजानो विहरति / पदार्थ-तए णं-तदनन्तर / अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय / से-वह / उज्झियए-उज्झितक। दारए-बालक। कामज्झयाए-कामध्वजा। गणियाए-गणिका के। अंतरं-अन्तर-जिस समय राजा वहां आया हुआ नहीं था उस समय को। लभेति-प्राप्त कर लेता है। कामज्झयाए-कामध्वजा। गणियाएगणिका के। गिह-गृह में। रहस्सियगं-गुप्त रूप से। अणुप्पविसइ-प्रवेश करता है। 2 त्ता-प्रवेश करके। कामज्झयाए गणियाए-कामध्वजा गणिका के। सद्धिं-साथ। उरालाइं-उदार-प्रधान। माणुस्सगाईमनुष्य-सम्बन्धी। भोगभोगाई-भोगपरिभोगों का। भुंजमाणे-उपभोग करता हुआ।विहरति-विहरण करने लगा-सानन्द समय बिताने लगा। मूलार्थ-तदनन्तर वह उज्झितक कुमार किसी अन्य समय में कामध्वजा गणिका के पास जाने का अवसर प्राप्त कर गुप्त रूप से उसके घर में प्रवेश करके कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य-सम्बन्धी उदार विषय-भोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [309 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय व्यतीत करने लगा। टीका-साहस के बल से असाध्य कार्य भी साध्य हो जाता है, दुष्कर भी सुकर बन जाता है। साहसी पुरुष कठिनाइयों में भी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता ही चला जाता है, वह सुख अथवा दुःख, जीवन अथवा मरण की कुछ भी चिन्ता न करता हुआ अपने भगीरथ प्रयत्न से एक न एक दिन अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता है। इसी दृष्टि से कामध्वजा को पुनः प्राप्त करने की धुन में लगा हुआ उज्झितक कुमार भी अपने कार्य में सफल हुआ। उसे कामध्वजा तक पहुंचने का अवसर मिल गया। उसकी मुरझाई हुई आशालता फिर से पल्लवित हो गई। वह कामध्वजा के साथ पूर्व की भांति विषय-भोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द जीवन बिताने लगा। अन्तर केवल इतना था कि प्रथम वह प्रकट रूप से आता-जाता और निवास करता था, और अब उसका आना, जाना तथा निवास गुप्तरूप से था। इसका कारण कामध्वजा का मित्रनरेश के अन्त:पुर में निवास था। उसी से परवश हुई कामध्वजा उज्झितक कुमार को प्रकट रूप से अपने यहां रखने में असमर्थ थी। परन्तु दोनों के हृदयगत अनुराग में कोई अन्तर नहीं था। तात्पर्य यह है कि वे दोनों एक-दूसरे पर अनुरक्त थे। एक-दूसरे को चाहते थे। अन्यथा यदि कामध्वजा का अनुराग न होता तो उज्झितक कुमार का लाख यत्न. करने पर भी वहां प्रवेश करना सम्भव नहीं हो सकता था। अस्तु, इसके पश्चात् क्या हुआ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-इमं चणं मित्ते राया ण्हाते जाव पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिते मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते जेणेव कामज्झयाए गणियाए गेहे तेणेव उवागच्छति २त्ता तत्थ णं उज्झिययं दारयं कामज्झयाए गणियाए सद्धिं उरालाइं भोगभोगाई १जाव विहरमाणं पासति 2 त्ता आसुरुत्ते 4 तिवलियभिउडिं निडाले साहट्ट, उज्झिययं दारयं पुरिसेहिं गेण्हाविति, गेण्हावित्ता अट्ठिमुट्ठिजाणुकोप्परपहारसंभग्गमहितगत्तं करेति करेत्ता अवओडगबंधणं करेति करेत्ता एएणं विहाणेणं वझं आणवेति। एवं खलु गोतमा ! उज्झियए दारए पुरा पोराणाणं कम्माणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरति। 1. "-जाव-यावत्-" पद से "-भुंजमाणं-" इस पद का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। 2. "-जाव-यावत्-" पद से "-दुच्चिण्णाणं, दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं, पावाणं, कडाणं, कम्माणं, पावगं फलवित्तिविसेसं-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है। इन का अर्थ पीछे दिया जा चुका है। 310 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-इतश्च मित्रो राजा स्नातो यावत् प्रायश्चित्तः सर्वालंकारविभूषितः मनुष्यवागुरापरिक्षिप्तो यत्रैव कामध्वजाया गणिकाया गृहं तत्रैवोपागच्छति। उपागत्य तत्रोज्झितकं दारकं कामध्वजया गणिकया सार्द्धमुदारान् भोगभोगान् यावत् विहरमाणं पश्यति, दृष्ट्वा आशुरुप्तः 4 त्रिवलिकभृकुटि ललाटे संहृत्य उज्झितकं दारकं पुरुषैाहयति ग्राहयित्वा यष्टिमुष्टिजानुकूर्परप्रहारसंभग्नमथितगात्रं करोति कृत्वा अवकोटकबन्धनं करोति कृत्वा एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति / एवं खलु गौतम ! उज्झितको दारकः पुरा पुराणाणां कर्मणां यावत् प्रत्यनुभवन् विहरति। पदार्थ-इमं च णं-और इतने में। मित्ते राया-मित्र राजा। हाते-स्नान कर। जाव-यावत् / पायच्छित्ते- दुष्ट स्वप्न आदि के फल को निष्फल करने के लिए प्रायश्चित के रूप में तिलक एवं अन्य मांगलिक कृत्य करके।सव्वालंकारविभूसिते-सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो।मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्तेमनुष्यसमूह से घिरा हुआ।जेणेव-जहां।कामज्झयाए-कामध्वजा।गणियाए-गणिका का।गिहे-घर था। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छति 2 त्ता-आता है आकर। तत्थ णं-वहां पर। कामज्झयाए गणियाएकामध्वजा गणिका के। सद्धिं-साथ। उरालाइं-उदार-प्रधान। भोग-भोगाई-भोगपरिभोगों में। जावयावत्। विहरमाणं-विहरणशील। उज्झिययं दारयं-उज्झितक कुमार बालक को। पासति 2 त्ता-देखता है देख कर। आसुरुत्ते-क्रोध से लाल हुआ। निडाले-मस्तक पर। तिवलियभिउडिं-त्रिवलिका-तीन रेखाओं से युक्त भृकुटि (तिउड़ी) लोचनं-विकार विशेष को। साहट्ट-धारण कर अर्थात् क्रोधातुर हो भृकुटी चढ़ाकर। पुरिसेहि-अपने पुरुषों द्वारा। उज्झिययं दारयं-उज्झितक कुमार को। गेण्हावेतिपकड़वा लेता है। गेण्हावेत्ता-पकड़वा कर / अट्ठि-यष्टि लाठी। मुट्ठि-मुष्टि मुक्का, पंजाबी भाषा में इसे 'घसुन्न' कहते हैं। जाणु-जानु-घुटने। कोप्पर-कूर्पर कोहनी के। पहार-प्रहरणों से। संभग्ग-संभग्नचूर्णित तथा। महित-मथित। गत्तं-गात्र वाला। करेति-करता है। करेत्ता-करके। अवओडगबंधणंअवकोटक बन्धन [जिस में रस्सी से गला और हाथों को मोड़ कर पृष्ठ भाग के साथ बान्धा जाता है उसे अवकोटकबन्धन कहते हैं] से बद्ध। करेति-करता है अर्थात् उक्त बन्धन से बांधता है। करेत्ताबांधकर। एएणं-इस। विहाणेणं-प्रकार से। वझं आणवेति-यह वध्य है ऐसी आज्ञा देता है। गोतमा!हे गौतम ! एवं-इस प्रकार।खलु-निश्चय ही।उज्झियए-उज्झितक।दारए-बालक। पुरा-पूर्व। पोराणाणं कम्माणं-पुरातन कर्मों के विपाक-फल का। जाव-यावत्। पच्चणुभवमाणे-अनुभव करता हुआ। विहरति-विहरण करता है। मूलार्थ-इधर किसी समय मित्र नरेश स्नान यावत् दुष्ट स्वप्नों के फल को विनष्ट करने के लिए प्रायश्चित के रूप में मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो मनुष्यों से आवृत हुआ कामध्वजा गणिका के घर पर गया। वहां उसने कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य-सम्बन्धी विषय-भोगों का प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [311 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपभोग करते हुए उज्झितक कुमार को देखा, देखते ही वह क्रोध से लाल-पीला हो गया, और मस्तक में त्रिवलिक-भृकुटि (तीन रेखाओं वाली तिउड़ी) चढ़ा कर अपने अनुचर पुरुषों द्वारा उज्झितक कुमार को पकड़वाया। पकड़वा कर यष्टि, मुष्टि (मुक्का), जानु और कूर्पर के प्रहारों से उसके शरीर को संभग्न, चूर्णित और मथित कर अवकोटक बन्धन से बान्धा और बान्ध कर पूर्वोक्त रीति से वध करने योग्य है ऐसी आज्ञा दी। हे गौतम ! इस प्रकार उज्झितक कुमार पूर्वकृत पुरातन कर्मों का यावत् फलानुभव करता हुआ विहरण करता है-समय यापन कर रहा है। टीका-जैसा कि ऊपर बताया गया है कि उज्झितक कुमार को उसके साहस के बल पर सफलता तो मिली, उसे कामध्वजा के सहवास में गुप्तरूप से रहने का यथेष्ट अवसर तो प्राप्त हो गया, परन्तु उसकी यह सफलता अचिरस्थायी होने के अतिरिक्त असह्य दुःख-मूलक ही निकली। उस का परिणाम नितान्त भयंकर हुआ। उज्झितक कुमार को इतना दुःख कहां से मिला ? कैसे मिला ? किसने दिया? और किस अपराध के कारण दिया ? इत्यादि भगवान गौतम के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के समाधानार्थ ही सूत्रकार ने प्रस्तुत कथासन्दर्भ का स्मरण किया है। जिस समय उज्झितक कुमार कामध्वजा के घर पर उसके साथ कामजन्य विषय-भोगों के उपभोग में निमग्न था उसी समय मित्रनरेश वहां आ जाते हैं और वहां उज्झितक कुमार को देखकर क्रोध से आग बबूला होकर उसे अनुचरों द्वारा पंकड़वा कर खूब मारते-पीटते हैं तथा 1. अद्वि-शब्द के अस्थि और यष्टि ऐसे दो संस्कृत रूप बनते हैं / अस्थि शब्द हड्डी का परिचायक है और यष्टि शब्द से लाठी का बोध होता है। यदि प्रस्तुत प्रकरण में अट्ठि-का अस्थि यह रूप ग्रहण किया जाए तो प्रश्न उपस्थित होता है कि-इस से क्या विवक्षित है ? अर्थात् यहां इस का क्या प्रयोजन है ? क्योंकि प्रकृत प्रकरणानुसारी अस्थिसाध्य प्रहारादि कार्य तो मुष्टि (मुक्का), जानु (घुटना) और कूर्पर (कोहनी) द्वारा संभव हो ही जाते हैं, और सूत्रकार ने भी इन का ग्रहण किया है, फिर अस्थि शब्द का स्वतन्त्र ग्रहण करने में क्या हार्द रहा हुआ है ? यदि अस्थि शब्द से अस्थि मात्र का ग्रहण अभिमत है तो मुष्टि आदि का ग्रहण क्यों ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान न होने के कारण हमारे विचारानुसार प्रस्तुत प्रकरण में सूत्रकार को अट्ठि पद से यष्टि यह अर्थ अभिमत प्रतीत होता है। प्रस्तुत में मार-पीट का प्रसंग होने से यह अर्थ संगत ठहरता है। व्याकरण से भी अट्ठि पद का यष्टि यह रूप निष्पन्न हो सकता है। सिद्धहैमशब्दानुशासन के अष्टमाध्याय के प्रथमपाद के 245 सूत्र से यष्टि के यकार का लोप हो जाने पर उसी अध्याय के द्वितीय पाद के 305 सूत्र से ष्ठ के स्थान पर ठकार, 360 सूत्र से टकार को द्वित्व और 361 सूत्र से प्रथम ठकार को टकार हो जाने से अट्ठि ऐसा प्रयोग बन जाता है। रहस्यं तु केवलिगम्यम्। 312 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवकोटक बन्धन से बन्धवा देते हैं और यह पूर्वोक्त रीति से वध करने के योग्य है, ऐसी आज्ञा देते हैं। .. "-हाते जाव पायच्छित्ते-" यहां पर पठित "-जाव-यावत्-" पद से "कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते-"इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों में से कृतबलिकर्मा के तीन अर्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे कि (1) शरीर की स्फूर्ति के लिए जिसने तेल आदि का मर्दन कर रखा है। (2) काक आदि पक्षियों को अन्नादि दानरूप बलिकर्म से निवृत्त होने वाला। (3) जिसने देवता के निमित्त किया जाने वाला कर्म कर लिया है। "-कृतकौतुकमंगलप्रायश्चित-" इस पद का अर्थ है- दुष्ट स्वप्न आदि के फल को निष्फल करने के लिए जिस ने प्रायश्चित के रूप में कौतुक-कपाल पर तिलक तथा अन्य मांगलिक कृत्य कर रखे हैं। _ "मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते" इस पद की व्याख्या वृत्तिकार ने निम्न प्रकार से की "मनुष्याः वागुरेव मृगबन्धनमिव सर्वतो भवनात् तया परिक्षिप्तो यः स तथा" अर्थात् मृग के फंसाने के जाल को वागुरा कहते हैं, जिस प्रकार वागुरा मृग के चारों ओर होती है, ठीक उसी प्रकार जिसके चारों ओर आत्मरक्षक मनुष्य ही मनुष्य हों, दूसरे शब्दों में मनुष्यरूप वागुरा से घिरे हुए को मनुष्यवागुरापरिक्षिप्त कहते हैं। "-आसुरुत्ते-" इस पद के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं जैसे कि- "आशु-शीघ्रं रुप्तः क्रोधेन विमोहिता यः स आशुरुप्तः, आसुरं वा असुरसत्कं कोपेन दारुणत्वाद् उक्तं भणितं यस्य स आसुरोक्तः" अर्थात् 'आशु' इस अव्ययपद का अर्थ है-शीघ्र, और रुप्त का अर्थ है क्रोध से विमोहित। तात्पर्य यह है कि शीघ्र ही क्रोध से विमोहित अर्थात् कृत्य और अकृत्य के विवेक से रहित हो जाए उसे आशुरुप्त कहते हैं। "आसुरुत्ते" का दूसरा अर्थ है-क्रोधाधिक्य से दारुण-भयंकर होने के कारण असुर (राक्षस) के समान उक्त-कथन है जिस का, अर्थात् जिस की वाणी राक्षसों जैसी हो उसे "आशुरुक्त" कहा जाता है। सारांश यह है कि "आसुरुत्ते" के "आशुरुप्तः" और "-आशुरोक्तः-" ये दो संस्कृत प्रतिरूप होते हैं। इस लिए उस से यहां पर दोनों ही अर्थ विवक्षित हैं। तथा 'आसुरुत्ते" के आगे दिए गए 4 के अंक से -“१रुटे, कुविए, चंडिक्किए" 1. इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त हैरुष्टः रोषवान्, कुपितः मनसा कोपवान् चाण्डिक्यितः दारुणीभूतः मिसिमिसीमाणो इत्यतः प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [313 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और "मिसिमिसीमाणे" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है। इन पदों से मित्र नरेश के क्रोधातिरेक को बोधित कराया गया है। "-तिवलियभिउडिं निडाले साहट्ट-" इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार ने-त्रिवलिकां भृकुटिं लोचनविकारविशेष ललाटे संहृत्य-विधाय-" इन शब्दों से की है। अर्थात् त्रिवलिका-तीन वलिओं-रेखाओं से युक्त को कहते हैं। भृकुटि-लोचनविकारविशेष भौंह को कहते हैं। तात्पर्य यह है कि मस्तक पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि (तिउड़ी) चढ़ा कर। "-अवओडगबंधणं-अवकोटकबन्धनं-" की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नलिखित है "-अवकोटनेन च ग्रीवायाः पश्चाद्भागनयनेन बन्धनं यस्य स तथा तम्-" अर्थात् जिस बन्धन में ग्रीवा को पृष्ठ-भाग में ले जा कर हाथों के साथ बान्धा जाए उस बन्धन को अवकोटक-बन्धन कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यह कथन किया गया है कि महीपाल मित्र ने उज्झितक कुमार को मथ डाला अर्थात् जिस प्रकार दही मंथन करते समय दही का प्रत्येक कण-कण मथित हो जाता है ठीक उसी प्रकार उज्झितक कुमार का भी मन्थन कर डाला। तात्पर्य यह है कि उसे इतना पीटा गया कि उसका प्रत्येक अंग तथा उपांग ताड़ना से बच नहीं सका, और राजा की ओर से नगर के मुख्य-मुख्य स्थानों पर उस की इस दशा का कारण उस का अपना ही दुष्कर्म है, ऐसा उद्घोषित करने के साथ-साथ बड़ी निर्दयता के साथ उस को ताड़ित एवं विडम्बित किया गया और अन्त में उसे वध्यस्थान पर ले जा कर शरीरान्त कर देने की आज्ञा दे दी गई। ___ मित्रनरेश की इस आज्ञा के पालन में उज्झितक कुमार की कैसी दुर्दशा की गई थी, यह हमारे सहृदय पाठक प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में ही देख चुके हैं। पाठकों को स्मरण होगा कि वाणिजग्राम नगर में भिक्षार्थ पधारे हुए श्री गौतम स्वामी ने राजमार्ग पर उज्झितक कुमार के साथ होने वाले परम कारुणिक अथच दारुण दृश्य को देख कर ही श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से उसके पूर्व-भव सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने की इच्छा प्रकट करते हुए भगवान् से कहा था कि भदन्त ! यह इस प्रकार की दुःखमयी यातना भोगने वाला उज्झितक कुमार नाम का व्यक्ति पूर्व-भव में कौन था ? इत्यादि। ___अनगार गौतम गणधर के उक्त प्रश्न के उत्तर में ही यह सब कुछ वर्णन किया गया है। क्रोधज्वालया ज्वलन्निति बोध्यम्। अर्थात् -रोष करने वाला रुष्ट, मन से क्रोध करने वाला कुपित, क्रोधाधिक्य के कारण भीषणता को प्राप्त चाण्डिक्यित, और क्रोध ज्वाला से जलता हुआ अर्थात् दान्त पीसता हुआ मिसमिसीमाण कहलाता है। 314 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय .[प्रथम श्रुतस्कंध Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी लिए अन्त में भगवान कहते हैं कि गौतम ! इस प्रकार से यह उज्झितक कुमार अपने पूर्वोपार्जित पाप-कर्मों के फल का उपभोग कर रहा है। इस कथा-सन्दर्भ से यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है कि मूक प्राणियों के जीवन को लूट लेना, उन्हें मार कर अपना भोज्य बना लेना, मदिरा आदि पदार्थों का सेवन करना एवं वासनापोषक प्रवृत्तियों में अपने अनमोल जीवन को गंवा देना इत्यादि बुरे कर्मों का फल हमेशा बुरा ही होता है। "-एएणं विहाणेणं वझं आणवेति-" यहां दिए गए "एतद्" शब्द से सूत्रकार ने पूर्व-वृत्तान्त का स्मरण कराया है। अर्थात् उज्झितक कुमार को अवकोटकबन्धन से जकड़ कर उस विधान-विधि से मारने की आज्ञा प्रदान की है जिसे भिक्षा के निमित्त गए गौतम स्वामी जी ने राजमार्ग में अपनी आंखों से देखा था। ... "एतद्"- शब्द का प्रयोग समीपवर्ती पदार्थ में हुआ करता है, जैसे किइदमस्तु संनिकृष्टे, समीपतरवर्तिनि चैतदोरूपम्। अदसस्तु विप्रकृष्टे, तदिति परोक्षे विजानीयात्॥१॥ अर्थात्-इदम् शब्द का प्रयोग सन्निकृष्ट-प्रत्यक्ष पदार्थ में, एतद् का समीपतरवर्ती पदार्थ में, अदस् शब्द का दूर के पदार्थ में और तद् शब्द का परोक्ष पदार्थ के लिए प्रयोग होता केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के धारक भगवान की ज्ञान-ज्योति में उज्झितक कुमार का समस्त वर्णन समीपतर होने से यहां एतत् शब्द का प्रयोग उचित ही है। अथवा जिसे गौतम स्वामी जी ने समीपतर भूतकाल में देखा था, इसलिए यहां एतद् शब्द का प्रयोग औचित्य रहित नहीं है। .. ' अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उज्झितक कुमार के आगामी भवसम्बन्धी जीवनवृत्तान्त का वर्णन करते हुए कहते हैं मूल-उज्झियए णं भंते! दारए इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति ? गोतमा ! उज्झियए दारए पणवीसं वासाइं परमाउं पालइत्ता अजेव तिभागावसेसे दिवसे सूलभिन्ने कए समाणे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववजिहिति। से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे. वेयड्ढगिरिपायमूले वाणरकुलंसि वाणरत्ताए उववजिहिति। से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [315 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरियभोएसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने जाते जाते वानरपेल्लए वहेहिति। तं एयकम्मे 4 कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इंदपुरे नयरे गणिया-कुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति। तते णं तं दारयं अम्मापियरो जयमेत्तयं वद्धेहिंति 2 त्ता नपुंसगकम्मं सिक्खावेहिति। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो निव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं णामधेनं करेहिंति, होउ णं पियसेणे णामं णघुसए। तते णं से पियसेणे णपुंसते उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुप्पत्ते विण्णायपरिणयमेत्ते रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठे उक्किट्ठसरीरे भविस्सति। तते णं से पियसेणे णपुंसए इंदपुरे णगरे बहवेराईसर जावपभिइओ बहूहिं विज्जापओगेहि यमंतचुण्णेहिय हियउड्डावणेहि यनिण्हवणेहि य पण्हवणेहि य वसीकरणेहि य आभिओगिएहि य अभिओगित्ता उरालाई माणुस्सयाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिस्सति। तते णं से पियसेणे णपुंसए एयकम्मे 4 सुबहुं पावं कम्मं समजिणित्ता एक्कवीसं वाससयं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववजिहिति, ततो सिरीसिवेसु संसारो तहेव जहा. पढमे जाव पुढवी०। से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए महिसत्ताए पच्चायाहिति, से णं तत्थ अन्नया कयाइ गोट्ठिल्लिएहिं जीवियाओ ववरोविए समाणे तत्थेव चंपाए नयरीए सेट्ठिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति।से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तहारूवाणं थेराणं अंतिते केवलं बोहि अणगारे. सोहम्मे कप्पे० जहा पढमे जाव अंतं काहिइत्ति निक्खेवो। ॥बिइयं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-उज्झितको भदन्त ! दारक इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति? कुत्रोपपत्स्यते ? गौतम ! उज्झितको दारकः पञ्चविंशतिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा अद्यैव त्रिभागावशेषे दिवसे शूलभिन्नः कृतः सन् कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते। स ततोऽनन्तरमुवृत्येहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे वैताढ्यगिरिपादमूले वानरकुले वानरतयोपपत्स्यते / स तत्रोन्मुक्तबालभावस्तिर्यग्भोगेषु मूर्छितो गृद्धो ग्रथितोऽध्युपपन्नो जातान् जातान् वानरडिम्भान् हनिष्यति तद् एतत्कर्मा 316 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 कालमासे कालं कृत्वा इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारतेवर्षे इन्द्रपुरे नगरे गणिका-कुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति / ततस्तं दारकं अम्बापितरौ जातमात्रकं वर्द्धयिष्यत: वर्धयित्वा नपुंसककर्म शिक्षयिष्यतः। ततस्तस्य दारकस्य अम्बापितरौ निर्वृत्तद्वादशाहस्य इदमेतद्रूपं नामधेयं करिष्यतः, भवतु प्रियसेनो नाम नपुंसकः ततः सः प्रियसेनो नपुंसकः उन्मुक्तबालभावो यौवनकमनुप्राप्तो विज्ञानपरिणतमात्रो रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च उत्कृष्ट उत्कृष्टशरीरो भविष्यति। ततः सः प्रियसेनो नपुंसकः इन्द्रपुरे नगरे बहून् राजेश्वर० यावत् प्रभृतीन् बहुभिश्च विद्या प्रयोगैश्च मंत्रचूर्णैश्च हृदयोड्डायनैश्च निह्नवनैश्च प्रस्नवनैश्च वशीकरणैश्च आभियोगिकैश्चाभियोज्य उदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुंजानो विहरिष्यति / ततः सः प्रियसेनो नपुंसक: एतत्कर्मा 4 सुबहु पापं कर्म समW एकविंशं वर्षशतं परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते / ततः सरीसृपेषु संसारस्तथैव यथा प्रथमो यावत् पृथिवी० / स ततोऽनन्तरमुढत्येहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारतेवर्षे चम्पायां नगर्यां, महिषतया प्रत्यायास्यति / स तत्रान्यदा कदाचित् गौष्ठिकैर्जीविताद् व्यपरोपितः सन् तत्रैव चम्पायां नगर्यां श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति / स तत्रोन्मुक्त- बालभावस्तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके केवलं बोहिं अनगार० सौधर्मे कल्पे० यथा प्रथमो यावदन्तं करिष्यतीति निक्षेपः। // द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् // पदार्थ-भंते !-हे भगवन् ! उज्झियएणं-उज्झितक।दारए-बालक।इओ-यहां से।कालमासेकालमास में-मृत्यु का समय आ जाने पर। कालं किच्चा-काल करके। कहिं-कहां। गच्छिहिति ?जाएगा ? कहिं-कहां। उववजिहिति ?-उत्पन्न होगा? गोतमा !-हे गौतम ! उज्झियए दारए-उज्झितक बालकापणवीसं-पच्चीस।वासाइं-वर्ष की। परमाउं-परम आयु। पालइत्ता-पालकर-भोग कर। अज्जेवआज ही। तिभागावसेसे-त्रिभागावशेष-जिस में तीसरा भाग शेष-बाकी हो। दिवसे-दिन में। सूलभिण्णे कए समाणे-शूली के द्वारा भेदन किए जाने पर। कालमासे-मरणावसर में। कालं किच्चा-काल करमृत्यु को प्राप्त हो कर। इमीसे-इस। रयणप्पहाए-रत्नप्रभा नामक। पुढवीए-नरक में। णेरइयत्ताए 1. "-एतत्कर्मा-" इस पद के आगे दिए गए चार के अंक से-एतत्प्रधानः, एतद्विद्यः, एतत्समुदाचारः-इन पदों का ग्रहण समझना। यही जिस का कर्म हो उसे एतत्कर्मा, यही कर्म जिस का प्रधान हो अर्थात् यही जिस के जीवन की साधना हो उसे एतत्प्रधान, यही जिस की विद्या विज्ञान हो उसे एतद्विद्य और यही जिस का समुदाचार-आचरण हो अर्थात् जिस के विश्वासानुसार यही सर्वोत्तम आचरण हो उसे एतत्समुदाचार कहते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [317 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकी रूप से। उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा। तते णं-वहां से।अणंतरं-अन्तर रहित।से-वह / उव्वट्टित्तानिकल कर / इहेव-इसी। जम्बुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारत वर्ष में। वेयड्ढगिरिपायमूले-वैताढ्य पर्वत की तलहटी-पहाड़ के नीचे की भूमि में। वाणरकुलंसि-वानर (बन्दर) के कुल में। वाणरत्ताए-वानर रूप से। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। से णं तत्थ-वह वहां पर। उम्मुक्कबालभावे-बालभाव को त्याग कर। तिरियभोएसु-तिर्यंच-सम्बन्धी भोगों में। मुच्छिते-मूछितआसक्त। गिद्धे-गृद्ध-आकांक्षा वाला / गढिते-ग्रथित-स्नेहजाल में आबद्ध। अज्झोववन्ने-अध्युपपन्न-जो कि अधिक संलग्नता को उपलब्ध कर रहा है, हो। जाते जाते-जातमात्र / वानरपेल्लए-वानरों के बच्चों को।वहेहिति-मार डाला करेगा। तं-इस कारण वह। एयकम्मे ४-इन कर्मों को करने वाला। कालमासेकाल मास में। कालं किच्चा-काल कर। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे दीव-जंबूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत / भारहे वासे-भारतवर्ष में। इंदपुरे-इन्द्रपुर नामक। नयरे-नगर में। गणियाकुलंसि-गणिका के कुल में। पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। ततेणं-तदनन्तर ।अम्मापितरो-माता-पिता।जायमेत्तयंपैदा होने के अनन्तर अर्थात् तत्काल ही। तं-उस। दारयं-बालक को। वद्धेहिंति २-वर्द्धितक-नपुंसककरेंगे। नपुंसगकम्मं-नपुंसक का कर्म। सिक्खावेहिति-सिखाएंगे।तते णं-तदनन्तर / तस्स-उस।दारगस्सबालक के। अम्मापितरो-माता पिता। णिव्वत्तबारसाहस्स-बारहवें दिन के व्यतीत हो जाने पर। इमं एयारूवं-यह इस प्रकार का। णामधेजं-नाम। करेहिति-करेंगे। पियसेणे-प्रियसेन। णाम-नामक। णपुंसए-नपुंसक। होउ णं-हो। तते णं-तदनन्तर। से पियसेणे-वह प्रियसेन। णंपुसए-नपुंसक। उम्मुक्कबालभावे-बाल्य अवस्था को त्याग कर। जोव्वणगमणुप्पत्ते-युवावस्था को प्राप्त हुआ। १विण्णायपरिणयमेत्ते-विज्ञान-विशेष ज्ञान और बुद्धि आदि में परिपक्वता को प्राप्त कर। रूवेण यरूप से। जोव्वणेण य-यौवन से। लावण्णेण य-लावण्य-आकृति की सुन्दरता से। उक्किद्वे-उत्कृष्टप्रधान / उक्किट्ठसरीरे-उत्कृष्टशरीर-सुन्दर शरीर वाला। भविस्सति-होगा।तते णं-तदनन्तर।से पियसेणेवह प्रियसेन। णपुंसए-नपुंसक। इंदपुरे णयरे-इन्द्रपुर नगर में। बहवे-अनेक। राईसर-राजा तथा ईश्वर। जाव-यावत्। पभिइओ-अन्य मनुष्यों को। बहूहि-अनेक। विजापओगेहि य-विद्या के प्रयोगों से। मंतचुण्णेहि य-मंत्र द्वारा मन्त्रित चूर्ण-भस्म आदि के योग से। हियउड्डावणेहि य-हृदय को शून्य कर देने वाले। णिण्हवणेहि य-अदृश्य कर देने वाले। पण्हवणेहि य-प्रसन्न कर देने वाले। वसीकरणेहि य-वशीकरण करने वाले। आभिओगिएहि य-पराधीन करने वाले प्रयोगों से। अभिओगित्ता-वश में करके / उरालाइं-उदार-प्रधान / माणुस्सयाइं-मनुष्य सम्बन्धी। भोगभोगाई-काम-भोगों का। भुंजमाणेउपभोग करता हुआ। विहरिस्सति-विहरण करेगा। तते णं-तदनन्तर! से-वह। पियसेणे-प्रियसेन / णपुंसए-नपुंसक। एयकम्मे ४-इन कर्मों के करने वाला। सुबहुं-अत्यन्त। पावं-पाप। कम्म-कर्म का। 1. यहां-विज्ञक और परिणतमात्र ये दो शब्द हैं। विज्ञक का अर्थ है-विशेष ज्ञान वाला और बुद्धि आदि की परिपक्व अवस्था को प्राप्त परिणतमात्र कहलाता है। 2. "-जाव-यावत्-" पद से -तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य श्रेष्ठी और सार्थवाह, इन पदों का ग्रहण समझना। इन पदों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। 318 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समजिणित्ता-उपार्जन करके। 'एक्कवीसं वाससयं-१२१ वर्ष की। परमाउं-परमायु को। पालयित्ताभोग कर। कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल कर के। इमीसे-इस। रयणप्पहाए-रत्नप्रभा नामक। पुढवीए-पृथिवी-नरक में। णेरइयत्ताते-नारकी रूप से। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। ततो-वहां से निकल कर। सिरीसिवेसु-सरीसृप-पेट के बल पर सर्पट चलने वाले सर्प आदि अथवा भुजा के बल पर चलने वाले नकुल आदि प्राणियों की योनि में जन्म लेगा। संसारो-संसार भ्रमण करेगा। जहा-जिस प्रकार। पढमे-प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। तहेव-उसी प्रकार / जावयावत्। पुढवी-पृथिवीकाया में उत्पन्न होगा। तओ-वहां से। अणंतरं-व्यवधान रहित। से णं-वह। उव्वट्टित्ता-निकल कर। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासेभारतवर्ष में। चंपाए-चम्पा नाम की। णयरीए-नगरी में। महिसत्ताए-महिषरूप में अर्थात् भैंसे के भव में। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। से णं-वह। तत्थ-वहां-उस भव में। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। गोट्ठिल्लिएहिं-गौष्ठिकों के द्वारा अर्थात् एक मंडली के समवयस्कों द्वारा। जीवियाओ-जीवन से। ववरोविए समाणे-रहित किया हुआ। तत्थेव-उसी। चंपाए-चम्पा नामक। णयरीए-नगरी में। सेट्टिकुलंसि-श्रेष्ठी के कुल में। पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ-वहां पर। से णं-वह। उम्मुक्कबालभावे-बाल्य अवस्था को त्याग कर अर्थात् युवावस्था को प्राप्त हुआ। तहारूवाणंतथारूप-शास्त्रवर्णित गुणों को धारण करने वाले। थेराणं-स्थविरों-वृद्ध जैन साधुओं के। अंतिए-पास। केवलं-केवल-निर्मल अर्थात् शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित / बोहिं०-बोधिलाभ सम्यक्त्वलाभ प्राप्त करेगा, तदनन्तर। अणगारे-अनगार होगा वहां से काल करके। सोहम्मे कप्पे०-सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा शेष / जहा पढमे-जिस प्रकार प्रथम अध्याय में मृगापुत्रविषयक वर्णन किया गया है वैसे ही। जाव-यावत्। अंतं-कर्मों का अर्थात् जन्म-मरण का अन्त। काहिइत्ति-करेगा, इति शब्द समाप्ति का बोधक है। निक्खेवो-निक्षेप-उपसंहार की कल्पना कर लेनी चाहिए। बिइयं-द्वितीय। अज्झयणं-अध्ययन / समत्तं-समाप्त हुआ। मूलार्थ- भदन्त ! उज्झितक कुमार यहां से कालमास में-मृत्यु का समय आ जाने पर काल करके कहां जाएगा? और कहां उत्पन्न होगा? गौतम ! उज्झितक कुमार 25 वर्ष की पूर्णायु को भोग कर आज ही त्रिभागावशेष दिन में अर्थात् दिन के चौथे प्रहर में शूली द्वारा भेद को प्राप्त होता हुआ काल-मास में काल कर के रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथ्वी-नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर सीधा इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष के वैताढ्य पर्वत के पादमूल-तलहटी (पहाड़ के नीचे की भूमि) में वानर-कुल में वानर के रूप से उत्पन्न होगा।वहां पर बाल्य भाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह तिर्यग्भोगोंपशुसम्बन्धी भोगों में मूछित, आसक्त, गृद्ध-आकांक्षा वाला, ग्रथित-भोगों के स्नेहपाश 1. कोई इन पदों का अर्थ 2100 वर्ष भी करते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [319 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से जकड़ा हुआ, और अध्युपपन्न-भोगों में ही मन को लगाए रखने वाला, होकर उत्पन्न हुए वानर-शिशुओं का अवहनन किया करेगा। ऐसे कर्म में तल्लीन हुआ वह कालमास में काल करके इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष के इन्द्रपुर नामक नगर में गणिका-कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा।माता-पिता उत्पन्न हुए उस बालक का वर्द्धितकनपुंसक करके नपुंसक कर्म सिखलावेंगे। बारह दिन के व्यतीत हो जाने पर उस के माता-पिता उस का "प्रियसेन" यह नामकरण करेंगे। बालकभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त तथा विज्ञ-विशेष ज्ञान रखने वाला एवं बुद्धि आदि की परिपक्व अवस्था को उपलब्ध करने वाला वह प्रियसेन नपुंसक रूप, यौवन और लावण्य के द्वारा उत्कृष्ट-उत्तम और उत्कृष्ट शरीर वाला होगा। ___ तदनन्तर वह प्रियसेन नपुंसक इन्द्रपुर नगर के राजा ईश्वर यावत् अन्य मनुष्यों को अनेकविध विद्याप्रयोगों से, मंत्रों द्वारा मंत्रित चूर्ण-भस्म आदि के योग से हृदय को शून्य कर देने वाले, अदृश्य कर देने वाले, वश में कर देने वाले तथा पराधीन-परवश कर देने वाले प्रयोगों से वशीभूत कर के मनुष्य-सम्बन्धी उदार-प्रधान भोगों का उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करेगा। वह प्रियसेन नपुंसक इन पापपूर्ण कामों को ही अपना कर्तव्य, प्रधान लक्ष्य, तथा विज्ञान एवं सर्वोत्तम आचरण बनाएगा। इन दुष्प्रवृत्तियों के द्वारा वह अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके 120 वर्ष की परमायु का उपभोग कर काल-मास में काल करके इस रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर सरीसृप-छाती के बल से चलने वाले सर्प आदि अथवा भुजा के बल से चलने वाले नकुल आदि प्राणियों की योनियों में जन्म लेगा। वहां से उस का संसारभ्रमण जिस प्रकार प्रथम अध्ययन-गत मृगापुत्र का वर्णन किया गया है उसी प्रकार होगा। यावत् पृथ्वी-काया में जन्म लेगा। वहां से निकल वह सीधा इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष की चम्पा नामक नगरी में महिष-रूप से उत्पन्न होगा। वहां पर वह किसी अन्य समय गौष्ठिकों-मित्रमंडली के द्वारा जीवन-रहित हो अर्थात् उन के द्वारा मारे जाने पर उसी चम्पा नगरी के श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां पर बाल्यभाव को त्याग कर यौवन अवस्था को प्राप्त होता हुआ वह तथारूप-विशिष्ट संयमी स्थविरों के पास शङ्का, कांक्षा आदि दोषों से रहित बोधि-लाभ को प्राप्त कर अनगार-धर्म को ग्रहण करेगा। वहां से कालमास में काल कर के सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। शेष जिस प्रकार प्रथम-अध्ययन में मृगापुत्र के सम्बन्ध में 320 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय * [प्रथम श्रुतस्कंध Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपादन किया गया है यावत् कर्मों का अन्त करेगा, निक्षेप की कल्पना कर लेनी चाहिए। // द्वितीय अध्याय समाप्त॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में श्री गौतम स्वामी ने पतित-पावन वीर प्रभु से विनय-पूर्वक प्रार्थना की कि भगवन् ! जिस पुरुष के पूर्व-भव का वृत्तान्त अभी अभी-आप श्री ने सुनाने की कृपा की है, वह पुरुष यहां से काल कर के कहां जाएगा और कहां उत्पन्न होगा, यह भी बताने की कृपा करें। ___इस प्रश्न में गौतम स्वामी ने उज्झितक कुमार के आगामी भवों के विषय में जो जिज्ञासा की है, उस का अभिप्राय जीवात्मा की उच्चावच भवपरम्परा से परिचित होने के साथसाथ जीवात्मा के शुभाशुभ कर्मों का चक्र कितना विकट और विलक्षण होता है, तथा संसारप्रवाह में पड़े हुए व्यक्ति को जिस समय किसी महापुरुष के सहवास से 'सम्यक्त्वरत्न की प्राप्ति हो जाती है, तब से वह विकास की ओर प्रस्थान करता हुआ अन्त में अपने ध्येय को किस तरह प्राप्त कर लेता है, इत्यादि बातों की अवगति भी भली भान्ति हो जाती है। इसी उद्देश्य से गौतम स्वामी ने वीर प्रभु से उज्झितक के आगामी भवों को जानने की इच्छा प्रकट की है। गौतम स्वामी के सारगर्भित प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया उस पर से हमारे ऊपर के कथन का भली-भान्ति समर्थन हो जाता है। अब आप प्रभु वीर द्वारा दिए गए उत्तर को सुनें। भगवान ने कहा ___गौतम ! जिस व्यक्ति के आगामी भव के विषय में तुम ने पूछा है उसकी पूर्ण आयु 25 वर्ष की है, दूसरे शब्दों में कहें तो इस उज्झितक कुमार ने पूर्वभव में आयुष्कर्म के दलिक इतने एकत्रित किए हैं जिन की आत्म-प्रदेशों से पृथंक होने की अवधि 25 वर्ष की है। अतः 25 वर्ष की आयु भोंग कर वह उज्झितक कुमार आज ही दिन के तीसरे भाग में शूली पर लटका दिया जाएगा। मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर मानव-शरीर को छोड़ कर उज्झितक कुमार का जीव रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकी-रूप से उत्पन्न होगा। वहां की भवस्थिति को पूरी करके वह इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष के वैताढ्य पर्वत की तलहटी 1. अनादि-कालीन संसार-प्रवाह में तरह-तरह के दुःखों का अनुभव करते-करते योग्य आत्मा में कभी ऐसी परिणाम-शुद्धि हो जाती है जो उस के लिए अभी अपूर्व ही होती है, उस परिणाम शुद्धि को अपूर्वकरण कहते हैं। उस से राग-द्वेष की वह तीव्रता मिट जाती है, जो तात्त्विक पक्षपात (सत्य में आग्रह) की बाधक है। ऐसी राग और द्वेष की तीव्रता मिटते ही आत्मा सत्य के लिए जागरुक बन जाता है। यह आध्यात्मिक जागरण ही सम्यक्त्व है। (पण्डित सुखलाल जी) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [321 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहाड़ के नीचे की भूमि में वानर कुल में वानर-बन्दर के शरीर को धारण करेगा। वहां युवावस्था को प्राप्त होता हुआ तिर्यंच-योनि के विषय भोगों में अत्यधिक आसक्ति धारण करेगा। तथा यौवन को प्राप्त हो कर भविष्य में मेरा कोई प्रतिद्वन्द्वी न बन जाए, इस विचारधारा से या यूं कहें अपने भावी साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिए वह उत्पन्न हुए वानर शिशुओं का अवहनन किया करेगा। तात्पर्य यह है कि -सांसारिक विषय-वासनाओं में फंसा हुआ वह बन्दर प्राणातिपात (हिंसा) आदि पाप कर्मों में व्यस्त रह कर महान् अशुभ कर्मवर्गणाओं का संग्रह करेगा। वहां की भवस्थिति पूरी होने पर वानर-शरीर का परित्याग कर के इन्द्रपुर नामक नगर में गणिका के कुल में पुत्र-रूप से जन्म लेगा अर्थात् किसी वेश्या का पुत्र बनेगा। जन्मते ही उस के माता-पिता उसे वर्द्धितक अर्थात् नपुंसक बना देंगे, और बारहवें दिन बड़े आडम्बर के साथ उस का "प्रियसेन" यह नामकरण करेंगे। प्रियसेन बालक वहां आनन्द पूर्वक बढ़ेगा और उस के माता-पिता किसी अच्छे अनुभवी योग्य शिक्षक के पास उस के शिक्षण का प्रबन्ध करेंगे और प्रियसेन वहां पर नपुंसक-कर्म की शिक्षा प्राप्त करेगा। तात्पर्य यह है कि गाना, बजाना और नाचना आदि जितने भी नपुंसक के काम होते हैं, वे सब के सब उसको सिखलाये जाएंगे, और प्रियसेन उन्हें दिल लगा कर सीखेगा तथा थोड़े ही समय में वह उन कामों में निपुणता प्राप्त कर लेगा। ____ बाल्यभाव को त्याग कर जब वह युवावस्था में पदार्पण करेगा उस समय शिक्षा और बुद्धि के परिपाक के साथ-साथ रूप, यौवन तथा शरीर लावण्य के कारण सबको बड़ा सुन्दर लगने लगेगा। तात्पर्य यह है कि वह बड़ा ही मेधावी अथच परम सुन्दर होगा। वह अपने विद्या-सम्बन्धी मन्त्र, तन्त्र और चूर्णादि के प्रयोगों से इन्द्रपुर में निवास करने वाले धनाढ्य वर्ग को अपने वश में करता हुआ आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाला होगा। इस प्रकार पूंजीपतियों को काबू में करके वह प्रियसेन सांसारिक विषय-वासनाओं से वासित होकर, किसी से किसी प्रकार का भी भय न रखता हुआ यथेच्छरूप से विषय भोगों का उपभोग करेगा। इस भांति सांसारिक सुखों का अनुभव करता हुआ वह 121 वर्ष की आयु को भोगेगा। आयु के समाप्त होने पर वह रत्नप्रभा नाम के प्रथम नरक में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर वह सरीसृपों-छाती के बल से चलने वाले सर्प आदि अथवा भुजा से चलने वाले नकुल, मूषक आदि प्राणियों की योनियों में जन्म लेगा। इस तरह से प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र के जीव की भान्ति वह उच्चावच योनियों में भ्रमण करता हुआ अन्ततोगत्वा चम्पा नाम की प्रख्यात नगरी में महिष-रूपेण-भैंसे के रूप में उत्पन्न होगा। यहां पर भी उसे शान्ति नहीं 322 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलेगी। वह गौष्ठिकों के द्वारा, अर्थात् उस नगरी की नवयुवक मण्डली के पुरुषों से मारा जाएगा और मर कर उसी चम्पा नगरी में किसी धनाढ्य सेठ के घर पुत्ररूप से जन्म लेगा। वहां उस का बाल्यकाल बड़ा सुखपूर्वक व्यतीत होगा और युवावस्था को प्राप्त होते ही वह तपोमय जीवन व्यतीत करने वाले तथारूप स्थविरों की सुसंगति को प्राप्त करेगा। उन के पास से धर्म का श्रवण करके उसे परम दुर्लभ अथच निर्मल सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, उस के प्रभाव से हृदय में वैराग्य उत्पन्न होगा और वह साधु-धर्म को अंगीकार करेगा। साधुधर्म का यथाविधि (विधि के अनुसार) पालन करके आयुष्कर्म की समाप्ति होने पर मानव-शरीर को त्याग कर सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर महाविदेह में उत्पन्न होगा। वहां युवावस्था को प्राप्त होता हुआ संयम को ग्रहण करेगा और संयमानुष्ठान से कर्मों का क्षय करता हुआ अंन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। यह उसके आगामी भवों का संक्षिप्त वृत्तान्त है, जो कि वीर प्रभु ने गौतम स्वामी को सुनाया था। इस पर से मानव प्राणी की सांसारिक यात्रा कितनी लम्बी और कितनी विकट एवं विलक्षण होती है, इस का अनुमान सहज ही में किया जा सकता है। "वेयड्ढगिरिपायमूले" इस में उल्लेख किए गए वैताढ्य पर्वत का वर्णन मृगापुत्र के अधिकार में कर दिया गया है। उसी भान्ति यहां पर भी समझ लेना चाहिए। "ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता'' इस पाठ में उल्लेख किए गए "अणंतरं" पद का अर्थ है-अनन्तर व्यवधानरहित / इसे समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए-एक जीव पूर्वकृत पाप कर्मों के फल-स्वरूप रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकीयरूप से उत्पन्न होता है। उसकी भवस्थिति पूरी होने पर वह नारकीय जीव वहां से निकल कर मनुष्यलोक में आकर मानवरूप में जन्म लेता है। वहां पर आयु समाप्त करके वह वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जा उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार एक दूसरा जीव है जो पहले नरक में गया और वहां से निकल कर सीधा वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जा उत्पन्न हुआ। अब विचार कीजिए कि दोनों ही जीव वैताढ्य पर्वत की तलहटी में उत्पन्न हो रहे हैं और दोनों ही पहली नरक से निकल कर आ रहे हैं। इन में प्रथम जीव तो परम्परा से (मध्य में मनुष्यभव करके) आया हुआ है जब कि दूसरा साक्षात्सीधा ही आया है। नरक से उद्वर्तन-निकलना तो दोनों का एक जैसा है, परन्तु पहले का उद्वर्तन तो अन्तर-उद्वर्तन है और दूसरे का अनन्तर-उद्वर्तन कहलाता है। __हमारे पूर्व-परिचित उज्झितक कुमार प्रथम नरक से निकलकर बिना किसी और भव करने के सीधे वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जन्मे, अत: इन का निकलना अनन्तर-उद्वर्तन कहलाता है। अनन्तर पद का यहां पर इसी आशय को व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया गया प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [323 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्च्छित और गृद्ध आदि पदों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। पाठक वहां से देख सकते हैं। "एयकम्मे 4" यहां पर दिया गया 4 का अंक उसके साथ के बाकी तीन पदों का ग्रहण करना सूचित करता है। वे तीनों पद इस प्रकार हैं-"एयप्पहाणे, एयविज्जे, एयसमुदायारे"। इन का भावार्थ पीछे लिखा जा चुका है, पाठक वहां पर देख सकते हैं। "वद्धेहिंति" इस क्रिया-पद के दो अर्थ देखने में आते हैं। प्रथम अर्थ-पालन पोषण करेंगे-यह प्रसिद्ध ही है और वृत्तिकार इसका दूसरा अर्थ करते हैं। वे लिखते हैं "वद्धेहिंति"त्ति वर्द्धितकं करिष्यतः अर्थात् उसे नपुंसक बनावेंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो "-उसकी पुरुषत्व शक्ति को नष्ट कर डालेंगे-" यह कह सकते हैं। आधुनिक शताब्दी (किसी सम्वत् के सैंकड़े के अनुसार एक से सौ वर्ष तक का समय) में उपलब्ध विपाकसूत्र की प्रतियों में "-तते णं तं दारयं अम्मापितरो जायमेत्तकं वद्धेहिंति 2 नपुंसगकम्मं सिक्खावेहिति। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो णिव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवंणामधेनं करेहिंति, होउणं पियसेणे णामणपुंसए-" ऐसा ही प्रायः पाठ उपलब्ध होता है। परन्तु हमारे विचारानुसार उस के स्थान में-"-तते णं. तं दारयं अम्मापितरो जायमेत्तकं वद्धेहिंति। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो णिव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवंणामधेनं करेहिंति, होउणं पियसेणे णामं नपुंसए, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो तं दारगं नपुंसगकम्मं सिक्खावेहिंति-" ऐसा पाठ होना चाहिए। इस का भावार्थ निम्नोक्त है माता पिता उत्पन्न होते उस बालक को नपुंसक-पुरुषत्व शक्ति से हीन करेंगे तथा बारहवें दिन उस बालक का प्रियसेन नपुंसक ऐसा नामकरण करेंगे, तदनन्तर उसे नपुंसक का कर्म सिखलावेंगे। यदि इस में इतना परिवर्तन या संशोधन न किया जाए तो एक महान् दोष आता है। वह यह कि जिसका अभी नामकरण संस्कार भी नहीं हुआ तथा जिसने अभी माता के दूध का भी सम्यक्तया पान नहीं किया, एवं जो सर्वथा अबोध है, ऐसे सद्योजात शिशु को किसी स्वतन्त्र विषय का अध्ययन कैसे कराया जा सकता है ? अर्थात् नपुंसक कर्म कैसे सिखाया जा सकता है ? यदि नामकरण संस्कार के अनन्तर नपुंसक-कर्म की शिक्षा का उल्लेख हो जाए तो कुछ संगत हो सकता है। उसका कारण यह है कि वहां "तते" यह पद दिया है, जिस में बड़ी गुंजाइश है। "तते" का अर्थ है-तत् पश्चात् / तात्पर्य यह है कि नामकरण संस्कार के 324 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तर बाल्यावस्था के उल्लंघन से प्रथम का काल "तत्पश्चात्" पद से ग्रहण किया जा सकता है। हमारी इस कल्पना के औचित्यानौचित्य का विशेष विचार तो आगमों के विशेषज्ञ तथा विचारशील सहृदय पाठकों के विचार-विमर्श ही पर निर्भर करता है। हमने अपने विचारानुसार अपने भाव अभिव्यक्त कर दिए हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रियसेन के द्वारा राजादि धनिकों के वश में करने आदि का जो उल्लेख किया गया है, उस की वृत्तिकार सम्मत व्याख्या इस प्रकार है विद्यामन्त्र-चूर्ण-प्रयोगैः, किंविधैः इत्याह "-हियउड्डावणेहि य-" त्ति हृदयोड्डायनैः शून्यचित्तताकारकैः,"-णिण्हवणेहि य-"त्ति अदृश्यताकारकैः किमुक्तं भवति ? अपहृतधनादिरपि परो धनापहारादिकं यैरपह्नते-न प्रकाशयति तदपह्नवता अतस्तैः।"-पण्हवणेहि य-"त्ति प्रस्नवनैर्यैः परः प्रस्तुतिं भजते प्रल्हत्तो भवतीत्यर्थः, "-वसीकरणेहि य-"त्ति वश्यताकारकैः, किमुक्तं भवति ? "आभिओगिएहि"त्ति अभियोग: पारवश्यं स प्रयोजनं येषां ते आभियोगिकाः अतस्तैः, अभियोगश्च द्वधा यदाह 'दुविहो खलु अभिओगो, दव्वे भावे स होइ नायव्वो। दव्वम्मि हुन्ति जोगा, विज्जा मंता य भावम्मि॥१॥ अर्थात् प्रस्तुत पाठ में विद्याप्रयोग और मन्त्रचूर्ण ये दो विशेष्य पद हैं और हृदयोड्डायन, निह्नवन, प्रस्नवन, वशीकरण और आभियोगिक ये विशेषण पद हैं। विद्या शब्द के "शास्त्रज्ञान, विद्वत्ता इत्यादि अनेकों अर्थ मान्य होने पर भी प्रस्तुत प्रकरण में इस का "-देवी द्वारा अधिष्ठित अक्षर-पद्धति-" यह अर्थ अभिमत है। अर्थात् प्रियसेन जो कुछ लिख देता था वह देवी के प्रभाव से निष्फल नहीं जाता था। विद्या का प्रयोग विद्याप्रयोग कहलाता है। मन्त्र शब्द देवता को सिद्ध करने की शाब्दिक शक्ति का परिचायक है। चूर्ण भस्म आदि का नाम है, तब मन्त्रचूर्ण शब्द से "-मन्त्र द्वारा मन्त्रित चूर्ण-" यह अर्थ बोधित होता है। अर्थात् प्रियसेन के पास ऐसे चूर्ण थे जिन्हें वह मन्त्रित करके रखा करता था और उन से अपना मनोरथ साधा करता था। विद्याप्रयोगों और मन्त्र-चूर्णों द्वारा प्रियसेन क्या काम लिया करता था ? इसका उत्तर सूत्रकार ने हृदयोड्डायन इत्यादि विशेषणों द्वारा दिया है। इन की व्याख्या निम्नोक्त (1) हृदयोड्डायन-हृदय को शून्य बना देने वाला अर्थात् हृदय का आकर्षण करने 1. द्विविधः खल्वभियोगो, द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः। द्रव्ये भवन्ति योगाः, विद्या मन्त्राश्च भावे // 1 // प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [325 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला। (2) निह्नवन- पदार्थों को अदृश्य करने वाला अर्थात् जिसके प्रभाव से अपहृत धन वाले धनिक भी अपने अपहृत धन का प्रकाश नहीं कर पाते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो वे विद्या-प्रयोग और मन्त्रचूर्ण ऐसे अद्भुत थे कि जिन के द्वारा किसी का धन चुराया भी गया हो, फिर भी वे अपहृत धन वाले अपने धनापहार की बात दूसरों को नहीं कहते थे-" यह कहा जा सकता है। . (3) प्रस्नवन-दूसरों को प्रसन्न करने वाले अर्थात् प्रियसेन जिन पर विद्या और मन्त्र-चूर्ण का उपयोग करता वे झटिति अपने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे। (4) वशीकरण-वश में कर लेने वाले अर्थात् प्रियसेन जिन पर विद्या और मन्त्रचूर्ण का प्रयोग करता वे उस के वश में हो जाते थे। (5) आभियोगिक-अभियोग का अर्थ है-परवशता। जिन का प्रयोजन पारवश्य हो, उन्हें आभियोगिक कहा जाता है। अभियोग द्रव्य और भाव से दो प्रकार का होता है। जिस में औषध आदि का योग हो, उसे द्रव्याभियोग कहते हैं और जिस में विद्या एवं मन्त्र का योग हो वह भावाभियोग कहलाता है। "-जहा पढमे जाव पुढवी-" यहां पठित "-जाव यावत्-" पद से प्रथम . अध्ययन गत "-उववजिहिति। तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसियाए" से लेकर "-तेउ० आउ० पुढविकाएसु अणेगसतसहस्सक्खुत्तो उववजिहिति-" यहां तक का पाठ ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र के आगामी भव-सम्बन्धी जीवन का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार . उज्झितक के विषय में भी जान लेना चाहिए। अन्तर मात्र नाम का है, अर्थात् प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का नाम निर्दिष्ट हुआ है जब कि इस में उज्झितक कुमारं का। इस के अतिरिक्त जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र की अन्तिम जीवनी का विकास-प्रधान कथन किया गया है अर्थात् जिन-जिन साधनों से श्रेष्ठी-पुत्र के भव में आकर मृगापुत्र ने अपने जीवन का उद्धार किया और वह देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में दीक्षित हो कर कर्म-रहित बना। ठीक उसी प्रकार उज्झितक कुमार ने भी तथारूप स्थविरों के पास से सम्यक्त्व को प्राप्त कर के संयम के यथाविधि अनुष्ठान से कर्म-बन्धनों को तोड़ कर निर्वाण-पद को प्राप्त किया, इन सब बातों की सूचना प्रस्तुत अध्ययन में "बोहिं. अणगारे सोहम्मे कप्पे०" और "-जहा पढमें जाव-" इत्यादि पदों के संकेत में दे दी गई है, ताकि विस्तार न होने पाए और प्रतिपाद्यार्थ समझ में आ सके। 326 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-बोहिं.-" यहां दिए गए बिन्दु से "-बोहिं बुज्झिहिति, केवलबोहिं बुज्झित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइहिति। से णं भविस्सइ (अर्थात् बोधि-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, सम्यक्त्व को प्राप्त करके वह गृहस्थावस्था को त्याग कर अनगार-धर्म में दीक्षित हो जाएगा-साधु बन जाएगा)-" यहां तक के पाठ का ग्रहण समझना। और "-अणगारे-" यहां के बिन्दु से "भविस्सइ इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी। से णं तत्थ बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्कन्ते कालमासे कालं किच्चा" यहां तक का पाठ ग्रहण करना तथा "-सोहम्मे कप्पे०-" यहां के बिन्दु से "-देवत्ताए उववजिहिति। से णं ततो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेह-वासे जाइंकुलाइं भवन्ति अड्ढाइं-यहां तक का पाठ ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है। इन पदों का अर्थ प्रथम अध्ययन में लिखा जा चुका है। "-जहा पढमे जाव अंतं-" यहां पठित "-जाव यावत्-" पद से औपपातिक सूत्र के " -दित्ताइं वित्ताइं विच्छिण्ण-विउल-भवण-सयणासण-जाणवाहणाइं-" से लेकर "-चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सव्व-दुक्खाणमंतं-" यहां तक के पाठ का परिचायक है। इस पाठ का अर्थ पाठक वहीं देख सकेंगे। पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में भी जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी के चरणकमलों में यह निवेदन किया था कि भगवन् ! दुःख-विपाक के प्रथम अध्ययन का अर्थ तो मैंने समझ लिया है, अब आप कृपया. यह बताएं कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दूसरे अध्ययन में क्या अर्थ कथन किया है ? जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने पूर्वोक्त उज्झितक कुमार के जीवन का वर्णन सुनाना आरम्भ किया था। उज्झितक कुमार के जीवन का वर्णन करने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी से कहा कि हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत के प्रथम स्कन्ध के दूसरे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कथन किया है / इस प्रकार मैं कहता हूं। तात्पर्य यह है कि भगवान् ने मुझे जिस प्रकार सुनाया है उसी प्रकार मैंने तुम्हारे प्रति कह दिया है। मैंने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। इन्हीं भावों को सूचित करने के निमित्त सूत्रकार ने "निक्खेवो" इस पद का उल्लेख किया है। निक्षेप पद के कोषकारों के मत में उपसंहार और निगमन ऐसे दो अर्थ होते हैं। उपसंहार शब्द "-मिला देना, संयोग कर देना, समाप्ति भाषण या किसी पुस्तक का अन्तिम भाग जिस में उस का उद्देश्य अथवा परिणाम संक्षेप में बताया गया है-" इत्यादि प्रथम श्रुतस्कंध] . श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [327 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकों अर्थों का परिचायक है, और निगमन शब्द परिणाम, नतीजा इत्यादि अर्थों का बोध कराता है। अब यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत प्रकरण में निक्षेप का कौन सा अर्थ अभिमत है ? हमारे विचारानुसार प्रस्तुत में निक्षेप का-उपसंहार-यह अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है, निगमन का अर्थ यहां संघटित नहीं हो पाता, क्योंकि प्रस्तुत में निक्षेप पद "-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं बिइयस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि-" इन पदों का संसूचक है। इन पदों का प्रस्तुत द्वितीय अध्ययन में प्रतिपादित कथावृत्तान्त के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, तब निगमन पद का अर्थ यहां कैसे संगत हो सकता है ? हां, यदि इन पदों में प्रस्तुत अध्ययन का परिणाम-नतीजा वर्णित होता तो निगमन पद का अर्थ संगत हो सकता था। उपसंहार पद का भी यहां पर-मिला देना- यह अर्थ संगत हो सकेगा, क्योंकि यहां पर सूत्रकार का आशय अध्ययन की समाप्ति पर पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ने से है। पूर्वापर सम्बन्ध मिलाने वाले "एवं खलु जम्बू!" इत्यादि पद हैं। इन्हें ग्रहण कर लिया जाए, यह सूचना देने के लिए ही सूत्रकार ने 'निक्खेवो' इस पद का उपन्यास किया है। दूसरे शब्दों में निक्षेप पद का अर्थ "-अध्ययन के पूर्वापर सम्बन्ध को मिलाने वाला समाप्ति-वाक्य-" इन शब्दों के द्वारा किया जा सकता है। रहस्यं तु केवलिगम्यम्। . प्रस्तुत अध्ययन में मुख्यतया दो बातों का उल्लेख किया गया है जैसे कि-(१) मांसाहार और (2) व्यभिचार / मांसाहार जीव को कितना नीचे गिरा देता है और नरक गति में कैसे कल्पनातीत दुःखों का उपभोग कराता है तथा आध्यात्मिक जीवन का कितना पतन करा देता है, यह उज्झितक कुमार के उदाहरण से भली-भान्ति स्पष्ट हो जाता है। साथ में व्यभिचार से कितनी हानि होती है, उस के आचरण से मर्त्यलोक तथा नरकगति में कितनी यातनाएं सहन करनी पड़ती हैं, यह भी प्रस्तुत अध्ययनगत उज्झितक कुमार के जीवन-वृत्तान्त से भली-भान्ति ज्ञात हो जाता है। सारांश यह है कि जीव का हिंसामय और व्यभिचार-परायण होना कितना भयंकर है इस का दिग्दर्शन कराना ही प्रस्तुत अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय पुण्य और पाप के स्वरूप तथा उस के फल-विशेष को समझाने का सरल से सरल यदि कोई उपाय है, तो वह आख्यायिकाशैली है। जो विषय समझ में न आ रहा हो, जिसे समझने में बड़ी कठिनता प्रतीत होती हो तो वहां आख्यायिका-शैली का अनुसरण राम-बाण औषधि का काम करता है। आख्यायिका-शैली को ही यह गौरव प्राप्त है कि उस के द्वारा 328 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन से कठिन विषय भी सहज में अवगत हो सकता है और सामान्य बुद्धि का मनुष्य भी उसे सुगमतया समझ सकता है। इसी हेतु से प्राचीन आचार्यों ने वस्तुतत्व को समझाने के लिए प्रायः इसी आख्यायिका-शैली का आश्रयण किया है। आख्यान के द्वारा एक बाल-बुद्धि जीव भी वस्तुतत्त्व के रहस्य को समझ लेता है, यह इस में रही हुई स्वाभाविक विलक्षणता है। प्रस्तुत सूत्र में भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है। कहानी के द्वारा पाठकों को हिंसा के परिणाम तथा व्यभिचार के फल को बहुत अच्छी तरह से समझा दिया गया है। उज्झितक कुमार की इस कथा से प्रत्येक साधक व्यक्ति को यह शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए कि किसी प्राणी को कभी भी सताना नहीं चाहिए और वेश्या आदि की कुसंगति से दूर रहने का सदा यत्न करना चाहिए। वेश्या की कुसंगति से उज्झितक कुमार को कितना भयंकर कष्ट सहन करना पड़ा था यह उसके उदाहरण से बिल्कुल स्पष्ट ही है। भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है कि__ वेश्यासौ मदनज्वाला, रूपेन्धनविवर्द्धिता। कामिभिर्यत्र यन्ते, यौवनानि धनानि च॥ अर्थात्-वेश्या रूपलावण्य से धधकती हुई कामदेव की ज्वाला है, इस में कामी पुरुष प्रतिदिन अपने यौवन और धन का हवन करके अपने जीवन को नष्ट कर लेते हैं। इस अध्ययन के पढ़ने का सार भी यही है कि इस में कहानी रूप से दी गई अमूल्य शिक्षाओं को जीवन में लाकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने का यथाशक्ति अधिक से अधिक यत्न करना चाहिए, क्योंकि मात्र पढ़ लेने से कुछ लाभ नहीं हुआ करता। . पक्षीगण आकाश में सानन्द विचरने में तभी समर्थ हो सकते हैं जब कि उन के पक्षपंख मजबूत और सही सलामत हों। दोनों में से यदि एक पक्ष-पंख भी दुर्बल या निकम्मा है तो उसका स्वेच्छा-पूर्वक आकाश में विचरण नहीं हो सकता। इसलिए दोनों पक्षों का स्वस्थ और सबल होना उसके आकाश-विहार के लिए अत्यन्त आवश्यक है। ठीक उसी प्रकार साधक व्यक्ति के लिए ज्ञान और तदनुरूप क्रिया-आचरण दोनों की आवश्यकता है अकेला ज्ञान कुछ भी कर नहीं पाता यदि साथ में क्रिया-आचरण न हो। इसी भान्ति अकेली क्रियाआचरण का भी कुछ मूल्य नहीं जब कि उसके साथ ज्ञान का सहयोग न हो। अतः ज्ञान-पूर्वक किया जाने वाला क्रियानुष्ठान आचरण ही कार्य-साधक हो सकता है। इसीलिए दीर्घदर्शी महर्षियों ने अपनी-अपनी परिभाषा में उक्त सिद्धान्त का -"-ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः-" इत्यादि वचनों द्वारा मुक्त कण्ठ से समर्थन किया है। 1. उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां. यथा खे पक्षीणां गतिः। तथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते शाश्वती गतिः॥१॥ प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [329 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारांश यह है कि पतित-पावन भगवान् महावीर स्वामी ने "-दुःखजनिका हिंसा से बचो और भगवती अहिंसा-दया का पालन करो, व्यभिचार के दूषण से अलग रहो और सदाचार के भूषण से अपने को अलंकृत करो। एवं ज्ञान-पूर्वक क्रियानुष्ठान का आचरण करते हुए अपने भविष्य को उज्ज्वल, समुज्ज्वल एवं अत्युज्वल बनाने का श्रेय प्राप्त करो -" यह उपदेश कथाओं के द्वारा संसार-वर्ती भव्य जीवों को दिया है, अतः शास्त्र-स्वाध्याय से प्राप्त शिक्षाएं जीवन में उतार कर आत्मा का श्रेय साधन करना ही मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। यह सब कुछ गुरु मुख द्वारा शास्त्र के श्रवण और मनन से ही हो सकता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने बार-बार शास्त्र के श्रवण करने पर जोर दिया है। // द्वितीय अध्याय समाप्त॥ 330 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह तइयं अज्झयणं अथ तृतीय अध्याय संसार का प्रत्येक प्राणी जीवन का अभिलाषी बना हुआ है, इसीलिए संसार की अन्य अनेकों वस्तुएं प्रिय होने पर भी उसे जीवन सब से अधिक प्रिय होता है। जीवन को सुखी बनाना उस का सब से बड़ा लक्ष्य है, जिस की पूर्ति के लिए वह अनेकानेक प्रयास भी करता रहता है। मानव प्राणी को सुख की जितनी चाह है उस से ज्यादा दुःख से उसे घृणा है। दुःख का नाम सुनते ही वह तिलमिला उठता है। इस से (दुःख से) बचने के लिए वह बड़ी से बड़ी कठोर साधना करने के लिए भी सन्नद्ध हो जाता है। तात्पर्य यह है कि सुखों को प्राप्त करने और दुःखों से विमुक्त होने की कामना प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है। इसीलिए विचारशील पुरुष दु:ख की साधन-सामग्री को अपनाने का कभी यत्न नहीं करते प्रत्युत सुख की साधनसामग्री को अपनाते हुए अधिक से अधिक आत्मविकास की ओर बढ़ने का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं। संसार में दो प्रकार के प्राणी उपलब्ध होते हैं, एक तो वे हैं-जो सभी सुखी रहना चाहते हैं, दुःखं कोई नहीं चाहता-इस सिद्धान्त को हृदय में रखते हुए किसी को कभी दुःख देने की चेष्टा नहीं करते और जहां तक बनता है वे अपने सुखों का बलिदान करके भी दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं तथा "-सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी न दुःख पावे-" इस पवित्र भावना से अपनी आत्मा को भावित करते रहते हैं। इस के विपरीत दूसरे वे प्राणी हैं, जिन्हें मात्र अपने ही सुख की चिन्ता रहती है, और उस की पूर्ति के लिए किसी प्राणी के प्राण यदि विनष्ट होते हों तो उन का उसे तनिक ख्याल भी नहीं आने पाता, ऐसे प्राणी अपने स्वार्थ के लिए किसी भी जघन्य आचरण से पीछे नहीं हटते, और वे पर पीड़ा और पर-दुःख को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं, साथ में वे बुरे कर्म का फल बुरा होता है और वह अवश्य भोगना पड़ता है, इस पवित्र सिद्धान्त को भी अपने मस्तिष्क में से निकाल देते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [331 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे मनुष्य अनेकों हैं और उन में से एक अभग्नसेन नाम का व्यक्ति भी है। प्रस्तुत तीसरे . अध्ययन में इसी के जीवन-वृत्तान्त का वर्णन किया गया है। उस का उपक्रम करते हुए सूत्रकार इस प्रकार वर्णन करते हैं मूल-तच्चस्स उक्खेवो। एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरिमतालेणाम नगरे होत्था, रिद्धः / तस्सणं पुरिमतालस्स नगरस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अमोहदंसी उज्जाणे, तत्थणं अमोहदंसिस्स जक्खस्स आययणे होत्था। तत्थ णं पुरिमताले महब्बले णामं राया होत्था। तस्स णं पुरिमतालस्स णगरस्स उत्तरपुरथिमे दिसीभाए देसप्पंते अडवीसंठिया सालाडवी णामं चोरपल्ली होत्था, विसमगिरिकंदरकोलंबसन्निविट्ठा, वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता, छिण्णसेलविसमप्पवायफरिहोवगूढा, अब्भिंतर-पाणिया, सुदुल्ल- भजलपेरंता, अणेगखण्डी, विदितजणदिण्णनिग्गमप्पवेसा, सुबहुयस्स विकूवियस्स जणस्स दुप्पहंसा यावि होत्था। तत्थ णं सालाडवीए चोरपल्लीए विजए णाम चोरसेणावती परिवसति, २अहम्मिए जाव लोहियपाणी बहुणगरणिग्गतजसे, सूरे, दढप्पहारे, साहसिते, सद्दवेही, असिलट्ठिपढममल्ले।सेणं तत्थ सालाडवीए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसताणं आहेवच्चं जाव विहरति। छाया-तृतीयस्योत्क्षेपः। एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये पुरिमतालं नाम नगरमभवत्, ऋद्ध / तस्य पुरिमतालस्य नगरस्योत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अमोघदर्शि उद्यानम्। तत्र अमोघदर्शिनो यक्षस्य आयतनमभवत् / तत्र पुरिमताले महाबलो 1. "-रिद्ध-" यहां की बिन्दु से जिस पाठ का ग्रहण सूत्रकार ने सूचित किया है उस का विवरण पीछे लिख दिया गया है। 2. "अहम्मिए" अधर्मेण चरतीत्यधार्मिकः, यावत् करणात्-"-अधम्मिटे-'" अतिशयेन निर्धर्मः अधर्मिष्टः निस्त्रिंशकर्मकारित्वात्, "अधम्मक्खाई" अधर्ममाख्यातुं शीलं यस्य स तथा, "अधम्माणुए" अधर्मकर्तव्येऽनुज्ञा-अनुमोदनं यस्यासावधर्मानुज्ञः अधर्मानुगो वा, "अधम्मपलोई" अधर्ममेव प्रलोकयितुं शीलं यस्यासावधर्मप्रलोकी "अधम्मपलजणे" अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षेण रज्यते इति अधर्मप्ररंजन: "अधम्मसीलसमुदायारे"अधर्म एव शीलं-स्वभावः, समुदाचारश्च,-यत्किंचनानुष्ठानं यस्य स तथा, "अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे" अधर्मेण-पापेन सावद्यानुष्ठानेनैव दहनाङ्कननिर्लाञ्छनादिना कर्मणा, वृत्तिं वर्तनं, कल्पयन्कुर्वाणो "हणछिन्दभिन्दनियत्तए" हन-विनाशय, छिन्दि द्विधा कुरु, भिन्द कुन्तादिना भेदं विधेहि-इत्येवं परानपि प्रेरयन् प्राणिनो विकृन्ततीति हनछिन्दभिन्दविकर्तकः, हन इत्यादयः शब्दाः संस्कृतेऽपि न विरुद्धाः अनुकरणरूपत्वादेषामिति भावः। 332 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [.प्रथम श्रुतस्कंध Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम राजाऽभूत्। तस्य पुरिमतालस्य नगरस्योत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे देशप्रान्ते अटवीसंश्रिता, शालाटवी नाम चोरपल्ल्यभवत्, विषम-गिरि-कन्दर-कोलम्बसंनिविष्टा, वंशीकलंकप्राकार-परिक्षिप्ता, छिन्नशैलविषमप्रपातपरिखोपगूढा, अभ्यन्तर-पानीया, सुदुर्लभजलपर्यन्ता, अनेक-खंडी, विदितंजनदत्तनिर्गमप्रवेशा, सुबहोरपि मोषव्यावर्तकजनस्य दुष्प्रध्वस्या चाप्यभवत् / तत्र शालाटव्यां चोरपल्ल्यां विजयो नाम चोरसेनापतिः परिवसति अधार्मिको यावत्, लोहितपाणिः, बहुनगरनिर्गतयशाः, शूरो, दृढप्रहारः, साहसिकः, शब्दवेधी, असियष्टिप्रथममल्लः। स तत्र शालाटव्यां चौरपल्लयां पञ्चानां चोरशतानामाधिपत्यं यावत् विहरति। ____ पदार्थ-तच्चस्स-तृतीय अध्ययन की। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जान लेनी चाहिए। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू !-हे जंबू ! तेणं कालेणं-उस काल में तथा। तेणं समएणं-उस समय में। पुरिमताले-पुरिमताल। णाम-नामक। णगरे-नगर। होत्था-था। रिद्ध-जोकि ऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-भय से रहित तथा समृद्ध-धनधान्यादि से सम्पन्न, था। तस्स णं-उस। पुरिमतालस्स-पुरिमताल नामक / णगरस्स-नगर के। उत्तरपुरथिमे-उत्तर पूर्व। दिसीभाए-दिग्भाग मेंदिशा में अर्थात् ईशान कोण में। अमोहदंसी-अमोघदर्शी नामक। उजाणे-उद्यान था। तत्थ णं-वहां पर। अमोहदंसिस्स-अमोघदर्शी नामक। जक्खस्स-यक्ष का। आययणे-आयतन-स्थान। होत्था-था। तत्थ णं-उस। पुरिमताले-पुरिमताल नगर में। महब्बले-महाबल। णाम-नामक। राया-राजा। होत्था-था। तस्सणं-उस परिमतालस्स-परिमतालाणगरस्स-नगर के। उत्तरपरत्थिम-उत्तरपर्व। दिसीभाए-दिग्भाग में अर्थात् ईशान कोण में। देसप्पंते-देशप्रान्त-सीमा पर। अडवीसंठिया-अटवी में स्थित / सालाडवीशालाटवी। णाम-नामक / चोरपल्ली-चोर-पल्ली-चोरों के निवास का गुप्तस्थान / होत्था-था, जो कि। विसमगिरिकन्दर-पर्वत की विषम-भयानक कन्दरा-गुफा के।कोलंब-प्रान्तभाग-किनारे पर। सन्निविट्ठासंस्थापित थी। बंसीकलंक-बांस की जाली की बनी हुई बाड़, तद्प। पागार-प्राकार-कोट से। परिक्खित्ता-परिक्षिप्त-घिरी हुई थी। छिण्ण-विभक्त अर्थात् अपने अवयवों से कटे हुए। सेल-शैलपर्वत के। विसम-विषम-ऊंचे-नीचे। प्पवाय-प्रपात-गढ़े, तद्प। फरिहोवगूढा-परिखा-खाई से युक्त। अब्भिंतरपाणिया-अन्तर्गत जल से युक्त अर्थात् उसके अन्दर जल विद्यमान था। सुदुल्लभजलपेरंताउसके बाहर जल अत्यन्त दुर्लभ था। अणेगखंडी-भागने वाले मनुष्यों के मार्गभूत अनेकों गुप्तद्वारों से युक्त। विदितजणदिण्णनिग्गमप्पवेसा-ज्ञात मनुष्य ही उस में से निर्गम और प्रवेश कर सकते थे, तथा। सुबहुयस्स वि-अनेकानेक। कूवियस्स-मोषव्यावर्तक-चोरों द्वारा चुराई हुई वस्तु को वापिस लाने के लिए उद्यत रहने वाले। जणस्स यावि-जन-मनुष्यों द्वारा भी। दुप्पहंसा-दुष्प्रध्वस्या अर्थात् उस का नाश न किया जा सके, ऐसी। होत्था-थी। तत्थ णं-वहां अर्थात् उस। सालाडवीए-शालाटवी नामक। चोरपल्लीए-चोरपल्ली में। विजए णाम-विजय नामक। चोरसेणावती-चोरसेनापति-चोरों का नायक। परिवसति-रहता था, जो कि। अहम्मिए-अधार्मिक। जाव-यावत्। लोहियपाणी-लोहितपाणि अर्थात् प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [333 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस के हाथ रक्त से लाल रहते थे। बहुणगरणिग्गतजसे-जिस की प्रसिद्धि अनेक नगरों में हो रही थी। सूरे-शूरवीर। दढप्पहारे-दृढ़ता से प्रहार करने वाला। साहसिते-साहसी-साहस से युक्त। सद्दवेहीशब्दभेदी अर्थात् शब्द को लक्ष्य में रख कर बाण चलाने वाला। असिलट्ठिपढममल्ले-तलवार और लाठी का प्रथममल्ल-प्रधान-योद्धा था।से णं-वह विजय नामक चोरसेनापति / तत्थ सालाडवीए-उस शालाटवी नामक। चोरपल्लीए-चोरपल्ली में। पंचण्हं चोरसताणं-पांच सौ चोरों का। आहेवच्चं-आधिपत्यस्वामित्व करता हुआ। जाव-यावत्। विहरति-समय बिता रहा था। मूलार्थ-तृतीय अध्ययन की प्रस्तावना पूर्व की भान्ति ही जान लेनी चाहिए। हे जम्बू ! उस काल और उस समय में पुरिमताल नामक एक नगर था, जो कि ऋद्धभवनादि की अधिकता से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र (आन्तरिक उपद्रव) और परचक्र (बाह्य उपद्रव) के भय से रहित और समृद्ध-धन धान्यादि से परिपूर्ण था। उस नगर के ईशान कोण में अमोघदर्शी नाम का एक उद्यान था। उस उद्यान में अमोघदर्शी नामक यक्ष का एक आयतन-स्थान था।पुरिमताल नगर में महाबल नाम का राजा राज्य किया करता था। ___ नगर के ईशान कोण में सीमान्त पर स्थित अटवी में शालाटवी नाम की एक चोरपल्ली (चोरों के निवास करने का गुप्त-स्थान) थी, जो कि पर्वतीय भयानक गुफाओं के प्रान्तभाग-किनारे पर स्थापित थी, बांस की बनी हुई बारूप प्राकार से परिवेष्टित-घिरी हुई थी। विभक्त-अपने अवयवों से कंटे हुए पर्वत के विषम (ऊंचे, नीचे) प्रपात-गर्त, तद्प परिखा-खाई वाली थी। उस के भीतर पानी का पर्याप्त प्रबन्ध था और उसके बाहर दूर-दूर तक पानी नहीं मिलता था। उसके अन्दर अनेकानेक खण्डी-गुप्त द्वार (चोर दरवाजे) थे, और उस चोरपल्ली में परिचित व्यक्तियों का ही प्रवेश अथच निर्गमन हो सकता था। बहुत से मोषव्यावर्तक-चोरों की खोज लगाने वाले अथवा चोरों द्वारा अपहृत धनादि के वापिस लाने में उद्यत, मनुष्यों के द्वारा भी उस का नाश नहीं किया जा सकता था। उस शालाटवी नामक चोरपल्ली में विजय नाम का चोरसेनापति रहता था, जो कि महा अधर्मी यावत् उस के हाथ खून से रंगे रहते थे, उस का नाम अनेक नगरों में फैला हुआ था। वह शूरवीर, दृढ़प्रहारी, साहसी, शब्दवेधी-शब्द पर बाण मारने वाला और तलवार तथा लाठी का प्रधान योद्धा था। वह सेनापति उस चोरपल्ली में चोरों का आधिपत्य-स्वामित्व यावत् सेनापतित्व करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। टीका-श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से विनम्र शब्दों में निवेदन किया कि भगवन् ! आप श्री ने विपाकसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के दूसरे अध्ययन का जो अर्थ सुनाया 334 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वह तो मैंने सुन लिया है। अब आप कृपया यह बताने का अनुग्रह करें कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है। यह तीसरे अध्ययन की प्रस्तावना है, जिस को सूत्रकार ने मूलसूत्र में "तच्चस्स उक्खेवो" इन पदों द्वारा सूचित किया है। इन की वृत्तिकार-सम्मत व्याख्या "-तृतीयाध्ययनस्योत्क्षेपः प्रस्तावना वाच्या, सा चैवम्-जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दोच्चस्स अज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते, तच्चस्स णं भंते ! के अटे पण्णत्ते?-" इस प्रकार है। अर्थात् उत्क्षेप शब्द प्रस्तावना का परिचायक है। प्रस्तावना का उल्लेख ऊपर कर दिया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी की प्रार्थना पर जो कुछ कथन किया है, उसका वर्णन किया गया है। श्री जम्बू स्वामी की जिज्ञासा-पूर्ति के निमित्त तृतीय अध्ययनगत अर्थ का-प्रतिपाद्य विषय का आरम्भ करते हुए श्री सुधर्मा स्वामी फरमाने लगे हे जम्बू ! जब इस अवसर्पिणी काल का चौथा आरा बीत रहा था, उस समय पुरिमताल नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था। जो कि नगरोचित समस्त गुणों से युक्त और वैभव-पूर्ण था, उसके ईशान कोण में अमोघदर्शी नाम का एक रमणीय उद्यान था। उस उद्यान में अमोघदर्शी नाम से प्रसिद्ध एक यक्ष का स्थान बना हुआ था। पुरिमताल नगर का शासक महाबल नाम का एक राजा था। महाबल नरेश के राज्य की सीमा पर ईशान कोण में एक बड़ी विस्तृत अटवी थी। उस अटवी में शालाटवी नाम की एक चोरपल्ली थी। वह चोरपल्ली पर्वत की एक विषम कन्दरा के प्रान्त भाग-किनारे पर अवस्थित थी। वह वंशजाल के प्राकार (चारदीवारी) से वेष्टित और पहाड़ी खड्डों के विषम-मार्ग की परिखा से घिरी हुई थी। उस के भीतर जल का सुचारु प्रबन्ध था परन्तु उस के बाहर जल का अभाव था। भागने या भाग कर छिपने वालों के लिए उस में अनेक गुप्त दरवाजे थे। उस चोरपल्ली में परिचितों को ही आने या जाने दिया जाता था। अथवा यूं कहें कि उस में सुपरिचित व्यक्ति ही आ जा सकते थे। अधिक क्या कहें वह शालाटवी नाम की चोरपल्ली राजपुरुषों के लिए भी दुरधिगम अथच दुष्प्रवेश थी। . इस चोरपल्ली में विजय नाम का चोरसेनापति रहता था। वह बड़े क्रूर विचारों का था, उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे। उसके अत्याचारों से पीड़ित सारा प्रान्त उसके नाम से कांप उठता था। वह बड़ा निर्भय, बहादुर और सब का डट कर सामना करने वाला था। उस का प्रहार बड़ा तीव्र और अमोघ-निष्फल न जाने वाला था। शब्द-भेदी बाण के प्रयोग में वह बड़ा निपुण था। तलवार और लाठी के युद्ध में भी वह सब में अग्रेसर था। इसी कारण वह 500 प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [335 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरों का मुखिया बना हुआ था। पांच सौ चोर उस के शासन में रहते थे। शालाटवी का निर्माण ही कुछ ऐसे ढंग से हो रहा था कि जिस के बल से वह सर्वप्रकार से अपने को सुरक्षित रक्खे हुए था। चोरपल्ली के सम्बन्ध में सूत्रकार ने जो विशेषण दिए हैं, उन की व्याख्या निम्नोक्त है "-विसम-गिरि-कन्दर-कोलंब-सन्निविट्ठा-" विषमं यगिरेः कन्दरं-कुहरं तस्य यः कोलम्बः- प्रान्तस्तत्र सन्निविष्टा-सन्निवेशिता या सा तथा, कोलंबो हि लोके अवनतं वृक्षशाखाग्रमुच्यते इहोपचारतः कन्दरप्रान्तः कोलंबो व्याख्यातः-" अर्थात् विषम भयानक को कहते हैं / गिरि पर्वत का नाम है। कन्दरा शब्द गुफा का परिचायक है। कोलम्ब शब्द से किनारे का बोध होता है। सन्निवेशित का अर्थ है-संस्थापित। तात्पर्य यह है कि चोरपल्ली की स्थापना भयानक पर्वतीय कन्दराओं-गुफाओं के किनारे पर की गई थी। भीषण कन्दराओं के प्रान्तभाग में चोरपल्ली के निर्माण का उद्देश्य यही हो सकता है कि उस में कोई शत्रु प्रवेश न कर सके और वह खोजने पर भी किसी को उपलब्ध न हो सके और यदि कोई वहां तक जाने का साहस भी करे तो उसे मार्ग में अनेकविध बाधाओं का सामना करना पड़े, जिससे वह स्वयं ही हतोत्साह हो कर वहां से वापिस लौट जाए। कोलम्ब शब्द का अर्थ है-झुकी हुई वृक्ष की शाखा का अग्रभाग। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण . में उपचार (लक्षणा) से कोलम्ब का अर्थ कन्दरा का अग्रभाग अर्थात् किनारा ग्रहण किया गया "-बंसी-कलंक-पागार-परिक्खित्ता-वंशीकलंका-वंशजालमयी वृत्तिः, सैव प्राकारस्तेन परिक्षिप्ता-वेष्टिता या सा तथा-" अर्थात् उस चोरपल्ली के चारों ओर एक वंशजाल (बांसों के समूह) की वृत्ति-बाड़ बनी हुई थी जो कि वहां चोरपल्ली की रक्षा के लिए एक प्राकार का काम देती थी। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार किले के चारों ओर प्राकारकोट (चार दीवारी) निर्मित किया हुआ होता है, जो कि किले को शत्रुओं से सुरक्षित रखता है, इसी भांति चोरपल्ली के चारों ओर भी बांसों के जाल से एक प्राकार बना हुआ था जो कि उसे शत्रुओं से सुरक्षित रखे हुए था। "-छिण्ण-सेल-विसम-प्पवाय-फरिहोवगूढा-छिन्नो विभक्तोऽवयवान्तरापेक्षया यः शैलस्तस्य सम्बन्धिनो ये विषमाः प्रपाता:-गर्तास्त एव परिखा तयोपगूढ़ा-वेष्टिता या सा तथा-" अर्थात् छिन्न का अर्थ है कटा हुआ, या यूं कहें-अपने अवयवों-हिस्सों से विभक्त हुआ। शैल पर्वत का नाम है। विषम भीषण या ऊंचे-नीचे को कहते हैं। प्रपात शब्द से गढ़े का बोध होता है। खाई के लिए परिखा शब्द प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि पहाड़ों के टूट 336 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय ..[ प्रथम श्रुतस्कंध Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने से वहां जो भयंकर गढ़े हो जाते हैं, वे ही उस चोरपल्ली के चारों ओर खाई का काम दे रहे थे। ___ पहले जमाने में राजा लोग अपने किले आदि के चारों ओर खाई खुदवा दिया करते थे। खाई का उद्देश्य होता था कि जब शत्रु चारों ओर से आकर घेरा डाल दे तो उस समय उस खाई में पानी भर दिया जाए, जिस से शत्रु जल्दी-जल्दी किले आदि के अन्दर प्रवेश न कर सके। इसी भान्ति चोरपल्ली के चारों ओर भी विशाल तथा विस्तृत पर्वतीय गर्त बने हुए थे, जो परिखा के रूप में होते हुए उसे (चोरपल्ली को) भावी संकटों से सुरक्षित रख रहे थे। "-अणेगखंडी-अनेका नश्यतां नाराणां मार्गभूताः खण्डयोऽपद्वाराणि यस्यां साऽनेकखण्डी-" अर्थात् उस चोरपल्ली में चोरों के भागने के लिए बहुत से गुप्तद्वार थे। गुप्तद्वार का अभिप्राय चोर-दरवाजों से है। चोरपल्ली में गुप्तद्वारों के निर्माण का अर्थ था कियदि चोरपल्ली किसी समय प्रबल शत्रुओं से आक्रान्त हो जाए तब शत्रुओं की शक्ति अधिक और अपनी शक्ति कम होने के कारण वहां से सुगमता-पूर्वक भाग कर अपना जीवन बचा लिया जाए। ___"-विदित-जण-दिण्ण-निग्गम-प्पवेसा-विदितानामेव प्रत्यभिज्ञातानां जनानां दत्तो निर्गमः प्रवेशश्च यस्यां सा तथा-" अर्थात् उस चोरपल्ली के अधिकारियों की ओर से वहां के प्रतिहारियों को यह कड़ी आज्ञा दे रखी थी कि चोरपल्ली में परिचित-विश्वासपात्र व्यक्ति ही प्रवेश कर सकते हैं, और परिचित ही वहां से निकल सकते हैं। अधिकारियों की ऐसी आज्ञा का अभिप्राय इतना ही है कि कोई राजकीय गुप्तचर चोरपल्ली में प्रवेश न कर पाए और वहां से कोई बन्दी भी भाग न जाए। इन विशेषणों द्वारा वहां के अधिकारियों की योग्यता, दीर्घदर्शिता, रक्षासाधनों की ओर सतर्कता एवं अनुशासन के प्रति दृढ़ता का पूरा-पूरा परिचय मिल जाता है। - "-कूवियस्स जणस्स दुप्पहंसा-" यहां पठित "कूवियस्स" के स्थान पर "कुवियस्स-" ऐसा पाठान्तर भी मिलता है। प्रथम "कूविय" पद को कोषकार देश्य पद (देश विशेष में प्रयुक्त होने वाला) बताते हैं और इसका-मोषव्यावर्तक अर्थात् चुराई हुई चीज की खोज लगा कर उसे लाने वाला-ऐसा अर्थ करते हैं। तथा दूसरा "कुविय" यह पद यौगिक है, जिस का अर्थ होता है-कुपित अर्थात् क्रोध से पूर्ण / तात्पर्य यह है कि उस चोरपल्ली में शस्त्र-अस्त्रादि का और सैनिकों का ऐसा व्यापकबल एकत्रित किया गया था कि वह चोरपल्ली मोषव्यावर्तकों से या क्रोधित शत्रुओं से भी प्रध्वस्या नहीं थी। दूसरे शब्दों में कहें तो-इन से भी उस चोरपल्ली का ध्वंस-नाश नहीं किया जा सकता था-यह कहा जा प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [337 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है। __सूत्रकार ने "कूवियस्स" का जो "सुबहुयस्स" यह विशेषण दिया है, इस से तो चोरपल्ली के रक्षा-साधनों की प्रचुरता का स्पष्टतया परिचय प्राप्त हो जाता है। सारांश यह है कि मोषव्यावर्तकों या कोपाविष्ट व्यक्तियों की चाहे कितनी बड़ी संख्या क्यों न हो फिर भी वे चोरपल्ली पर अधिकार नहीं कर सकते थे और ना ही उसको कुछ हानि पहुंचा सकते थे। इन सब बातों से उस समय की परिस्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। ऐसी अटवियों में लोगों का आना-जाना कितना भयग्रस्त और आपत्ति-जनक हो सकता था, इस का भी अनुमान सहज में ही किया जा सकता है। "अहम्मिए जाव लोहियपाणी" -यहां पठित-जाव-यावत्-पद से "अधम्मिटे, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्मपलजणे, अधम्मसीलसमुदायारे, अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ हणछिन्दभिन्दवियत्तए"-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। अधर्मी आदि पदों की व्याख्या निनोक्त है (1) अधर्मी-अधर्म-(पाप) पूर्ण आचरण करने वाला। (2) अधर्मिष्ट-अत्यधिक अधार्मिक अथवा अधर्म ही जिस को इष्ट-प्रिय है। (3) अधर्माख्यायी-अधर्म का उपदेश देना ही जिसका स्वभाव बना हुआ है। (4) अधर्मानुज्ञ या अधर्मानुग-धर्म-शून्य कार्यों का अनुमोदन-समर्थन करने वाला अथवा अधर्म का अनुगमन-अनुसरण करने वाला अर्थात् अधर्मानुयायी। (5) अधर्म-प्रलोकी-अधर्म को उपादेयरूप से देखने वाला अर्थात् अधर्म ही उपादेय-ग्रहण करने योग्य है, यह मानने वाला। (6) अधर्म-प्ररंजन-धर्म-विरुद्ध कार्यों से प्रसन्न रहने वाला। (7) अधर्मशील-समुदाचार-अधर्म करना ही जिसका शील-स्वभाव और समुदाचार-आचार-व्यवहार बना हुआ हो। (8) अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन्-का भाव है, अधर्म के द्वारा ही अपनी वृत्तिआजीविका चलाता हुआ। तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति जहां पापपूर्ण विचारों का धनी था, वहां वह अपनी उदर-पूर्ति और अपने परिवार का पालन पोषण भी हिंसा, असत्य, चौर्यकर्म आदि अधर्मपूर्ण व्यवहारों से ही किया करता था। (9) हनछिन्दभिन्दविकर्तक-इस विशेषण में सूत्रकार ने विजयसेन चोरसेनापति के हिंसक एवं आततायी जीवन का विशेष रूप से वर्णन किया है। वह अपने साथियों से कहा 338 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय .. [प्रथम श्रुतस्कंध Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता था कि-हन-इसे मारो, छिन्द-इस के टुकड़े-टुकड़े कर दो, भिन्द-इसे कुन्त (भाला) से भेदन करो-फाड़ डालो, इस प्रकार दूसरों को प्रेरणा करने के साथ-साथ वह चोरसेनापति स्वयं भी लोगों के नाक और कान आदि का विकर्तक-काटने वाला बन रहा था। (10) लोहित-पाणी-प्राणियों के अंगोपांगों के काटने से जिसके हाथ खून से रंगे रहते थे। तात्पर्य यह है कि चोरसेनापति का इतना अधिक हिंसाप्रिय जीवन था कि वह प्रायः किसी न किसी प्राणी का जीवन विनष्ट करता ही रहता था। __ (11) बहुनगरनिर्गतयशा-अनेकों नगरों में जिस का यश-प्रसिद्धि फैला हुआ था। अर्थात् विजयसेन चोरसेनापति अपने चोरी आदि कुकर्मों में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि उस के नाम से उस प्रान्त का बच्चा-बच्चा परिचित था। उस प्रान्त में उस के नाम की धाक मची हुई थी। (12) शूर-वीर का नाम है। वीरता अच्छे कर्मों की भी होती है और बुरे कर्मों की भी। परन्तु विजयसेन चोरसेनापति अपनी वीरता का प्रयोग प्रायः लोगों को लूटने और दुःख देने में ही किया करता था। (13) दृढ़-प्रहार-जिस का प्रहार (चोट पहुंचाना) दृढ़ता-पूर्ण हो, अर्थात् जो दृढ़ता से प्रहार करने वाला हो, उसे दृढ़प्रहार कहते हैं। -: (14) साहसिक-वह मानसिक शक्ति जिस के द्वारा मनुष्य दृढ़ता-पूर्वक विपत्ति . आदि का सामना करता है, उसे साहस कहते हैं / साहस का ही दूसरा नाम हिम्मत है। साहस से सम्पन्न व्यक्ति साहसिक कहलाता है। (१५)शब्दवेधी-उस व्यक्ति का नाम है जो बिना देखे हुए केवल शब्द से दिशा का ज्ञान प्राप्त कर के किसी भी वस्तु को बींधता हो। (१६)असियष्टिप्रथममल्ल-विजयसेन चोरसेनापति असि-तलवार के और यष्टिलाठी के चलाने में प्रथममल्ल था। प्रथममल्ल का अर्थ होता है-प्रधान योद्धा। - आचार्य अभयदेव सूरि के मत में १"असियष्टि" एक पद है और वे इसका अर्थ खड्गलता-तलवार करते हैं। ... "आहेवच्चं जाव विहरति"-यहां-पठित जाव-यावत्-पद से "पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टित्तं, महत्तरगत्तं, आणाईसरसेणावच्चं" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। आधिपत्य आदि पदों की व्याख्या इस प्रकार है 1. "असिलट्टि पढममल्ले"-त्ति असियष्टिः-खड्गलता, तस्यां प्रथम: आद्यः प्रधान इत्यर्थः, मल्लोयोद्धा यः स तथेति वृत्तिकारः। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [339 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) आधिपत्य-अधिपति राजा का नाम है, उस का कर्म आधिपत्य कहलाता है। अर्थात् राजा लोगों के प्रभुत्व को आधिपत्य कहते हैं। (2) पुरोवर्तित्व-आगे चलने वाले का नाम पुरोवर्ती है। पुरोवर्ती-मुख्य का कर्म पुरोवर्तित्व कहलाता है, अर्थात् मुख्यत्व को ही पुरोवर्तित्व शब्द से अभिव्यक्त किया गया है। (3) स्वामित्व-स्वामी नेता का नाम है। उस का कर्म स्वामित्व कहलाता है, अर्थात् नेतृत्व का ही पर्यायवाची स्वामित्व शब्द है। (4) भर्तृत्व-पालन-पोषण करने वाले का नाम भर्ता है। उसका कर्म भर्तृत्व कहलाता है। भर्तृत्व को दूसरे शब्दों में पोषकत्व से भी कहा जा सकता है। (5) महत्तरकत्व-उत्तम या श्रेष्ठ का नाम महत्तरक है। उसका कर्म महत्तरकत्व कहलाता है। महत्तरकत्व कहें या श्रेष्ठत्व कहें यह एक ही बात है। (6) आज्ञेश्वरसैनापत्य-इस पद के -"आज्ञायामीश्वरः आज्ञेश्वरः आज्ञाप्रधानः, आज्ञेश्वरश्चासौ सेनापतिः आज्ञेश्वरसेनापतिः, तस्य भावः कर्म वा आज्ञेश्वरसैनापत्यम्। अथवा-आज्ञेश्वरस्य आज्ञाप्रधानस्य यत् सेनापत्यं तदाज्ञेश्वरसैनापत्यम्" इन विग्रहों से दो अर्थ निष्पन्न होते हैं। वे निम्नोक्त हैं (1) जो स्वयं ही आज्ञेश्वर है और स्वयं ही सेनापति है, उसे आज्ञेश्वरसेनापति कहते . हैं। उस का भाव अथवा कर्म आज्ञेश्वरसैनापत्य कहलाता है। आज्ञेश्वर राजा का नाम है। सेना के संचालक को सेनापति कहा जाता है। (2) आज्ञेश्वर का जो सेनापति उसे आज्ञेश्वरसेनापति कहते हैं, उसका भाव अथवा कर्म आज्ञेश्वरसैनापत्य कहलाता है। प्रस्तुत प्रकरण में सूत्रकार को प्रथम अर्थ अभिमत है, क्योंकि विजयसेन चोरसेनापति स्वयं ही चोरपल्ली का राजा है, तथा स्वयं ही उसका सेनापति बना हुआ है। प्रस्तुत सूत्र में शालाटवी नामक चोरपल्ली का विवेचन तथा चोरसेनापति विजयसेन की प्रभुता का वर्णन किया गया है। अब अग्रिम सूत्र में विजयसेन चोरसेनापति के कुकृत्यों का वर्णन किया जाता है मूल-तते णं से विजए चोरसेणावती बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिछेयगाण य खंडपट्टाण य अन्नेसिं च बहूणं छिन्न-भिन्नबाहिराहियाणं कुडंगे याविहोत्था, तते णं से विजए चोरसेणावई पुरिमतालस्स णगरस्स उत्तरपुरथिमिल्लं जणवयं बहूहिं गामघातेहि य नगरघातेहि य गोग्गहणेहि य बंदीग्गहणेहि य पंथकोट्टेहि य खत्तखणणेहि य ओवीलेमाणे 2 श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध 340 ] Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहम्मेमाणे. 2 तज्जेमाणे 2 तालेमाणे 2 नित्थाणे निद्धणे निक्कणे करेमाणे विहरति, महब्बलस्स रण्णो अभिक्खणं 2 कप्पायंगेण्हति। तस्स णं विजयस्स चोरसेणावइस्स खंदसिरी णामं भारिया होत्था, अहीण / तस्स णं विजयचोरसेणावइस्स पुत्ते खंदसिरीए भारियाए अत्तए अभग्गसेणे नामं दारए होत्था, अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरे विण्णायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते। छाया-ततः स विजयः चोरसेनापतिः बहूनां चोराणां च पारदारिकाणां च ग्रन्थि-भेदकानां च सन्धिच्छेदकानां च खंडपट्टानां चान्येषां च बहूनां छिन्नभिन्नबहिष्कृतानां कुटङ्कश्चाप्यभवत्। ततः स विजयश्चोरसेनापतिः पुरिमतालस्य नगरस्योत्तरपौरस्त्यं जनपदं बहुभिामघातैश्च, नगरघातैश्च गोग्रहणैश्च, बन्दिग्रहणैश्च, पान्थकुट्टैश्च, खत्तखननैश्चोत्पीडयन्.२ विधर्मयन् 2 तर्जयन् 2 ताडयन् 2 नि:स्थानान् निर्धनान् निष्कणान् कुर्वाणो विहरति / महाबलस्य राज्ञः अभीक्ष्णं 2 कल्पायं गृह्णाति। तस्य विजयस्य चोरसेनापतेः स्कन्दश्री: नाम भार्याऽभवद् अहीन / तस्य विजयचोरसेनापत्तेः पुत्रः स्कन्दश्रियो भाया आत्मजः अभनसेनो नाम दारकोऽभवद्, अहीनपरिपूर्णपञ्चेन्द्रिय-शरीरो विज्ञातपरिणतमात्र: यौवनकमनुप्राप्तः। . पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। विजए-विजय। चोरसेणावती-चोरसेनापति-चोरों का सेनापति-नेता। बहूणं-अनेक। चोराण य-चोरों। पारदारियाण य-परस्त्रीलम्पटों। गंठिभेयगाण यग्रन्थिभेदकों-गांठ कतरने वालों। संधिछेयगाण य-सन्धिछेदकों-सेन्ध लगाने वालों। खंडपट्टाण यजिन के ऊपर पहरने लायक पूरा वस्त्र भी नहीं, ऐसे जुआरी, अन्यायी धूर्त वगैरह। अन्नेसिं च-अन्य। बहूणं-अनेक। छिन्न-छिन्न-जिन के हस्त आदि अवयव काटे गए हों। भिन्न-भिन्न-जिनके नासिका आदि अवयव काटे गए हों। बाहिराहियाणं-बहिष्कृत-जो नगर आदि से बाहर निकाल दिए गए हों, अथवा-जो शिष्ट मण्डली से बहिष्कृत किए गए हों, उन के लिए। कूडंगे-कूटङ्क था, अर्थात् वंशगहन (बांस के वन) के समान गोपक-रक्षा करने वाल था। तते णं-तदनन्तर / से विजए-वह विजय। चोरसेणावई-चोरसेनापति। पुरिमतालस्स-पुरिमताल। नगरस्स-नगर के। उत्तरपुरथिमिल्लं-ईशान कोणगत। जणवयं-जनपद-देश को। बहूहिं-अनेक / गामघातेहि य-ग्रामों को नष्ट करने से। नगरघातेहि य-नगरों का नाश करने से। गोग्गहणेहि य-गाय आदि पशुओं के अपहरण से-चुराने से। बंदिग्गहणेहि यकैदियों का अपहरण करने से। पंथकोट्टेहि य-पथिकों को लूटने से। खत्तखणणेहि य-खात (पाड़) लगा कर चोरी करने से। ओवीलेमाणे २-पीड़ित करता हुआ। विहम्मेमाणे २-धर्म-भ्रष्ट करता हुआ। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [341 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जेमाणे-तर्जित-तर्जना-युक्त करता हुआ। तालेमाणे २-चाबुक आदि से ताडित करता हुआ। नित्थाणेस्थानरहित। निद्धणे-निर्धन-धनरहित। निक्कणे-निष्कण-धान्यादि से रहित करता हुआ तथा। महब्बल्लस्स-महाबल नाम के। रणो-राजा के। कप्पायं-राजदेय कर-महसूल को। अभिक्खणं २बारम्बार / गेण्हति-ग्रहण करता था। तस्स णं-उस।विजयस्स-विजय नामक।चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति की।खंदसिरी-स्कन्दश्री।णाम-नामक। भारिया-भार्या / होत्था-थी। अहीण-जो कि अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर से युक्त थी। तस्स णं-उस। विजयचोरसेणावइस्स-विजय नामक चोरसेनापति का। पुत्ते-पुत्र / खंदसिरीए-स्कन्दश्री। भारियाए-भार्या का।अत्तए-आत्मज ।अहीणपडिपुण्णपंचिन्दियसरीरेअन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रिय वाले शरीर से युक्त। अभग्गसेणे-अभग्नसेन / नाम-नाम का। दारएबालक। होत्था-था, जोकि। विण्णायपरिणयमित्ते-विज्ञान-विशेष ज्ञान रखने वाला एवं बुद्धि आदि की परिपक्व अवस्था को प्राप्त किए हुए था और।जोव्वणगमणुपत्ते-युवावस्था को प्राप्त किए हुए था अर्थात् बुद्धिमान् अथच युवक था। मूलार्थ-तदनन्तर वह विजय नामक चोरसेनापति अनेक चोर, पारदारिक-परस्त्रीलम्पट, ग्रन्थिभेदक (गांठ कतरने वाले), सन्धिच्छेदक (सेंध लगाने वाले), जुआरी, धूर्त तथा अन्य बहुत से छिन्न-हाथ आदि जिनके काटे हुए हैं, भिन्न-नासिका आदि से रहित और बहिष्कृत किए हुए मनुष्यों के लिए कुटङ्क-आश्रयदाता था। वह पुरिमताल नगर के ईशानकोणगत देश को अनेक ग्रामघात, नगरघात, गोहरण, बन्दी-ग्रहण, पथिक-जनों के धनादि के अपहरण तथा सेंध का खनन, अर्थात् पाड़ लगाकर चोरी करने से पीड़ित, धर्मच्युत, तर्जित, ताड़ित-ताड़नायुक्त एवं स्थानरहित, धन और धान्य से रहित करता हुआ, महाबल नरेश के राज-देय कर-महसूल को भी बारम्बार स्वयं ग्रहण करके समय व्यतीत कर रहा था। उस विजय नामक चोरसेनापति की स्कन्दश्री नाम की निर्दोष पांच इन्द्रियों वाले शरीर से युक्त परमसुन्दरी भार्या थी, तथा विजय चोरसेनापति का पुत्र स्कन्दश्री का आत्मज अभग्नसेन नाम का एक बालक था, जो कि अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त अर्थात् संगठित शरीर वाला, विज्ञात-विशेष ज्ञान रखने वाला और बुद्धि आदि की परिपक्वता से युक्त एवं युवावस्था को प्राप्त किए हुए था। टीका-प्रस्तुत सूत्र-पाठ में चोरसेनापति विजय के कृत्यों का दिग्दर्शन कराया गया है तथा साथ में उसकी समयज्ञता एवं दीर्घदर्शिता को भी सूचित कर दिया गया है। विजय ने सोचा कि जब तक मैं अनाथों की सहायता नहीं करूंगा तब तक मैं अपने कार्य में सफल नहीं हो पाऊंगा। एतदर्थ वह अनाथों का नाथ और निराश्रितों का आश्रय बना। 342 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने अङ्गोपाङ्गों से रहित व्यक्तियों तथा बहिष्कृत दीन-जनों की भरसक सहायता की, इस के अतिरिक्त स्वकार्य-सिद्धि के लिए उस ने चोरों, गांठकतरों, परस्त्री-लम्पटों और जुआरी तथा धूर्तों को आश्रय देने का यत्न किया। इस से उस का प्रभाव इतना बढ़ा कि वह प्रान्त की जनता से राजदेय-कर को भी स्वयं ग्रहण करने लगा तथा प्रजा को पीड़ित, तर्जित और संत्रस्त करके उस पर अपनी धाक जमाने में सफल हुआ। __ विचार करने से ज्ञात होता है कि वह सामयिक नीति का पूर्ण जानकार था, संसार में लुटेरे और डाकू किस प्रकार अपने प्रभाव तथा आधिपत्य को स्थिर रख सकते हैं, इस विषय में वह विशेष निपुण था। "-पारदारियाण-पारदारिकाणां-" इत्यादि शब्दों की व्याख्या निम्नोक्त है "-पारदारियाण-परस्त्रीलम्पटानां-" अर्थात् जो व्यक्ति दूसरों की स्त्रियों से अपनी वासना को तृप्त करता है, या यूं कहें कि परस्त्रियों से मैथुन करने वाला व्यभिचारी पारदारिक कहलाता है। "-गंठिभेयगाण- ग्रन्थीनां भेदकाः-ग्रन्थिभेदकाः तेषां-" अर्थात् जो लोग कैंची आदि से लोगों की ग्रन्थियां-गांठे कतरते हैं, उन्हें ग्रन्थिभेदक कहा जाता है। टीकाकार श्री अभयदेव सूरि द्वारा की गई-घुघुरादिना ये ग्रन्थी: छिन्दन्ति ते ग्रन्थिभेदकाः, इस व्याख्या में प्रयुक्त घुघुर शब्द का कोषकार-सूअर की आवाज-ऐसा अर्थ करते हैं। इस से "-सूअर की आवाज जैसे शब्दों से लोगों को डरा कर उनकी गांठे कतरना-" यह अर्थ फलित होता है। "-सन्धिछेयाण- ये भित्तिसन्धीन् भिन्दन्ति ते सन्धिछेदका:-"अर्थात् सन्धि शब्द के अनेकानेक अर्थ होते हैं, परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में सन्धि का अर्थ है-दीवारों का जोड़। उस जोड़ का भेदन करने वाले-सन्धिछेदक कहलाते हैं। "खण्डपट्टाण-खण्ड: अपरिपूर्णः पट्टः परिधानपट्टो येषां मद्यद्यूतादिव्यसनाभिभूततया परिपूर्णपरिधानाप्राप्तेः ते खण्डपट्टाः-द्यूतकारादयः, अन्यायव्यवहारिणः इत्यन्ये, धूर्ता इत्यपरे" अर्थात् खण्ड का अर्थ है-अपरिपूर्ण-अपूर्ण (अधूरा)। पट्ट कहते हैं-पहनने के वस्त्र को। मदिरा-सेवन एवं जूआ आदि व्यसनों में आसक्त रहने के कारण जिन को वस्त्र भी पूरे उपलब्ध नहीं होते, उन्हें खण्डपट्ट कहते हैं / या यूं कहें कि खण्डपट्ट द्यूतकार-जुआरी या मदिरासेवीशराबी का नाम है। कोई-कोई आचार्य खण्डपट्ट शब्द की व्याख्या “अन्याय से व्यवहार-व्यापार करने वाले-" ऐसी करते हैं, और कोई-कोई खण्डपट्ट का अर्थ "धूर्त" भी करते हैं। चालबाज या धोखा देने वाले को धूर्त कहा जाता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [343 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "छिन्नभिण्णबाहिराहियाणं-छिन्ना हस्तादिषु भिन्नाः नासिकादिषु "-बाहिराहि य-" त्ति नगराद् बहिष्कृताः अथवा बाह्याः स्वाचार-परिभ्रंशाद् विशिष्टजनबहिर्वर्तिनः, "अहिय"त्ति अहिता ग्रामादिदाहकत्वाद्, अत: द्वन्द्वस्तेषाम्-" अर्थात् इस समस्त पद में तीन अथवा चार पद हैं। जैसे कि-(१) छिन्न (2) भिन्न (3) बहिराहित अथवा बाह्य और (4) अहित। छिन्न शब्द से उन व्यक्तियों का ग्रहण होता है, जिन के हाथ आदि कटे हुए हैं। भिन्न शब्द-जिन की नासिका आदि का भेदन हो चुका है-इस अर्थ का बोधक है। नगर से बहिष्कृत-बाहर निकाले हुए को बहिराहित कहते हैं। आचार-भ्रष्ट होने के कारण जो शिष्ट मण्डली-उत्तम जनों से बहिर्वर्ती-बहिष्कृत हैं, वे बाह्य कहलाते हैं। अहितकारी अर्थात् ग्रामादि को जला कर जनता को दु:ख देने वाले मनुष्य अहित शब्द से अभिव्यक्त किए गए "कुडंग-कूटङ्क इव कुटंक:-वंशगहनमिव तेषामावरकः-गोपक:-" अर्थात् बांसों के वन का नाम कुटङ्क है। कुटङ्क प्रायः गहन (दुर्गम) होता है, उस में जल्दी-जल्दी किसी का प्रवेश नहीं हो पाता। चोरी करने वाले और गांठे कतरने वाले लोग इसीलिए ऐसे स्थानों में अपने को छिपाते हैं, जिस से अधिकारी लोगों का वहां से उन्हें पकड़ना कठिन हो जाता ___ सूत्रकार ने विजयसेन चोरसेनापति को कुटंक कहां है। इस का अभिप्राय यही है कि जिस तरह बांसों का वन प्रच्छन्न रहने वालों के लिए उपयुक्त एवं निरापद स्थान होता है, वैसे ही चोरसेनापति परस्त्रीलम्पट और ग्रन्थिभेदक इत्यादि लोगों के लिए बड़ा सुरक्षित एवं निरापद स्थान था। तात्पर्य यह है कि वहां उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती थी। अपने को वहां वे निर्भय पाते थे। "गामघातेहि"-इत्यादि पदों की व्याख्या निम्नोक्त की जाती है (1) ग्रामघात-घात का अर्थ है नाश करना। ग्रामों-गांवों का घात ग्रामघात कहलाता है। तात्पर्य यह है कि ग्रामीण लोगों की चल (जो वस्तु इधर-उधर ले जाई जा सके, जैसे चान्दी, सोना रुपया तथा वस्त्रादि) और अचल-(जो इधर-उधर न की जा सके, जैसेमकानादि) सम्पत्ति को विजयसेन चोरसेनापति हानि पहुंचाया करता था। एवं वहां के लोगों को मानसिक, वाचनिक एवं कायिक सभी तरह की पीड़ा और व्यथा पहुंचाता था। (2) नगरघात-नगरों का घात-नाश नगरघात कहलाता है, इस का विवेचन ग्रामघात की भान्ति जान लेना चाहिए। (3) गोग्रहण-गो शब्द गो आदि सभी पशुओं का परिचायक है। गो का ग्रहण 344 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपहरण (चुराना) गोग्रहण कहलाता है। तात्पर्य यह है कि-विजयसेन चोरसेनापति लोगों के पशुओं को चुरा कर ले जाया करता था। (4) बन्दिग्रहण-बन्दि शब्द से उस व्यक्ति का ग्रहण होता है-जिसे कैद (पहरे में बन्द स्थान में रखना, कारावास) की सजा दी गई है, कैदी। बन्दियों का ग्रहण-अपहरण बन्दिग्रहण कहलाता है। तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति राजा के अपराधियों को भी चुरा कर ले जाता था। (5) पान्थकुट्ट-पान्थ शब्द से पथिक का बोध होता है। कुट्ट-उन को ताड़ित करना कहलाता है। तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति मार्ग में आने जाने वाले व्यक्तियों को धनादि छीनने के लिए पीटा करता था। (6) खत्तखनन-खत्त यह एक देश्य-देशविशेष में बोला जाने वाला पद है। इस का अर्थ है-सेन्ध। सेन्ध का खनन-खोदना खत्तखनन कहलाता है। तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों के मकानों में पाड़ लगा कर चोरी किया करता था। ग्रामघात, नगरघात, इत्यादि पूर्वोक्त क्रियाओं के द्वारा चोरसेनापति लोगों को दुःख दिया करता था। दुःख देने के प्रकार ही सूत्रकार ने "ओवीलेमाणे" इत्यादि पदों द्वारा अभिव्यक्त किए हैं। उन की व्याख्या निम्नोक्त है : (1) उत्पीडयन्-उत्कृष्ट पीड़ा का नाम उत्पीड़ा है। अर्थात् विजयसेन चोरसेनापति लोगों को बहुत दुःख देता हुआ। (2) विधर्मयन्-धर्म से रहित करता हुआ। तात्पर्य यह है कि दानादि धर्म में प्रवृत्ति धनादि के सद्भाव में ही हो सकती है। परन्तु विजयसेन चोरसेनापति लोगों की चल और अचल दोनों प्रकार की ही सम्पत्ति छीन रहा था, उन्हें निर्धन बनाता रहता था। तब धनाभाव होने पर दानादिधर्म का नाश स्वाभाविक ही है। इसी भाव को सूत्रकार ने विधर्मयन् पद से अभिव्यक्त किया है। (3) तर्जयन्-तर्जना का अर्थ है, डांटना, धमकाना, डपटना। तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों को धमकाता हुआ या लोगों को याद रखो, यदि तुम ने मेरा कहना नहीं माना तो तुम्हारा सर्वस्व छीन लिया जाएगा,-इत्यादि दुर्वचनों से तर्जित करता हुआ। (4) ताडयन्-ताड़ना का अर्थ है कोड़ों से पीटना। तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों को चाबुकों से पीटता हुआ। "नित्थाणे"-इत्यादि पदों का भावार्थ निनोक्त है प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [348 [345 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) नि:स्थान-स्थान से रहित अर्थात् विजय चोरसेनापति लोगों को उन के घर आदि स्थानों से निकाल देता था। (2) निर्धन-धन से रहित अर्थात् विजय चोरसेनापति लोगों को उनकी चल और अचल दोनों प्रकार की सम्पत्ति छीन कर धन से खाली कर देता था। (3) निष्कण-कण से रहित / कण का अर्थ है-गेहूं, चने आदि धान्यों के दाने। तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों का समस्त धन छीन कर उन के पास दाना तक भी नहीं छोड़ता था। "कप्पायं"-पद की व्याख्या श्री अभयदेव सूरि ने-कल्पः उचितो य आयःप्रजातो द्रव्यलाभः सकल्पायोऽतस्तम्-इन शब्दों के द्वारा की है। अर्थात् कल्प का अर्थ हैउचित। और आय शब्द लाभ-आमदनी का बोधक है। तात्पर्य यह है कि राजा प्रजा से जो यथोचित कर-महसूल आदि के रूप में द्रव्य-धन ग्रहण करता है, उसे कल्पाय कहते हैं। विजयसेन चोरसेनापति का इतना साहस बढ़ चुका था कि वह लोगों से स्वयं ही कर-महसूल ग्रहण करने लग गया था। सारांश यह है कि-प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट वर्णित है कि विजयसेन चोरसेनापति प्रजा को विपत्तिग्रस्त करने में किसी प्रकार की ढील नहीं कर रहा था। किसी को भेदनीति से, किसी को दण्डनीति से संकट में डाल रहा था, तथा किसी को स्थान-भ्रष्ट कर, किसी की गाय, भैंस आदि सम्पत्ति चुरा कर पीड़ित कर रहा था। जहां उस का प्रजा के साथ इतना क्रूर एवं निर्दय व्यवहार था, वहां वह महाबल नरेश को भी चोट पहुंचाने में पीछे नहीं हट रहा था। अनेकों बार राजा को लूटा, उसके बदले प्रजा से स्वयं कर वसूला। यही उस के जीवन का कर्तव्य बना हुआ था। विजयसेन चोरसेनापति की स्कन्दश्री नाम की बड़ी सुन्दरी भार्या थी और दोनों को सांसारिक आनन्द पहुंचाने वाला अभग्नसेन नाम का एक पुत्र भी उसके घर में उद्योत करने वाला विद्यमान था। वह जैसा शरीर से हृष्ट एवं पुष्ट था, वैसे वह विद्यासंपन्न भी था। "-अहीण.-" यहां दिए गए बिन्दु से "-पडिपुण्ण पंचिंदियसरीरा, लक्खणवंजण-गुणोववेया-" ले लेकर "-पियदंसणा सुरूवा-" यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या पीछे में की जा चुकी है। "विण्णाय-परिणयमित्ते-" इस पद की "-विज्ञातं-विज्ञानमस्यास्तीति विज्ञातः, परिणत एव परिणतमात्रः-परिणतिमापन्नः, विज्ञातश्चासौ परिणतमात्रः-इति विज्ञातपरिणतमात्रः। परिणतिः-अवस्थाविशेष इति यावत्-" ऐसी व्याख्या करने पर 346 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-विशिष्ट ज्ञान वाले व्यक्ति का नाम विज्ञात है तथा अवस्थाविशेष-प्राप्त व्यक्ति को परिणतमात्र कहते हैं-" यह अर्थ होगा। प्रस्तुत प्रकरण में अवस्था-विशेष शब्द से बाल्यावस्था के अतिक्रमण के अनन्तर की अवस्था विवक्षित है। तात्पर्य यह है कि यौवनावस्था से पूर्व की और बाल्यावस्था के अन्त की अर्थात् दोनों के मध्य की अवस्था वाले व्यक्ति का नाम परिणतमात्र होता है। __ तथा "-विज्ञातं-अवबुद्धं परिणतमात्रम्-अवस्थानन्तरं येन स तथा, बाल्यावस्थामतिक्रम्य परिज्ञातयौवनारम्भ इत्यर्थ:-" ऐसी व्याख्या करने से तो विज्ञातपरिणतमात्र पद का “-कौमारावस्था व्यतीत हो जाने पर यौवनावस्था के प्रारम्भ को जानने वाला-" यह अर्थ निष्पन्न होगा। तथा-"-विण्णयपरिणयमित्ते-ऐसा पाठ मानने पर और इस की - विज्ञ एव विज्ञकः, स चासौ परिणतमात्रश्च बुद्धयादिपरिणामापन्न एव विज्ञकपरिणतमात्रः- ऐसी श्री अभयदेव सूरि कृत व्याख्या मान लेने पर अर्थ होगा-जो विज्ञ है अर्थात् विशेष ज्ञान रखने वाला है और जो बुद्धि आदि की परिणति को उपलब्ध कर रहा है। तात्पर्य यह है कि बाल्यकाल की बुद्धि आदि का परित्याग कर यौवन कालीन बुद्धि आदि को जो प्राप्त हो रहा :: अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के प्रधान नायक की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं पुरिमताले नगरे समोसढे, परिसा निग्गया, राया निग्गओ, धम्मो कहिओ, परिसा राया य पडिगओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी गोयमे जाव रायमग्गं समोगाढे तत्थ णं बहवे हत्थी पासति, बहवे आसे, पुरिसे सन्नद्धबद्धकवए, तेसिं णं पुरिसाणं मज्झगतं एगं पुरिसं पासति अवओडय० जाव उग्धोसेजमाणं।तते णं तं पुरिसं रायपुरिसा पढमंसि चच्चरंसि निसियाति 2, अट्ठ चुल्लपिउए अग्गओ घाएंति 2 त्ता कसप्पहारेहिं तालेमाणा 2 कलुणं कागिणीमंसाइं खावेंति खावित्ता रुहिरपाणंच पाएंति। तदाणंतरं च णं दोच्चंसि चच्चरंसि अट्ठचुल्लमाउयाओ अग्गओ घाएंति 2 एवं तच्चे चच्चरे अट्ठ महापिउए, चउत्थे अट्ठ महामाउयाओ, पंचमे पुत्ते, छठे सुण्हाओ, सत्तमें जामाउया, अट्ठमे धूयाओ, नवमे णत्तुया, दसमे णत्तुईओ, एक्कारसमे णत्तुयावई, बारसमे प्रथम श्रुप्तस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [347 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णत्तुइणीओ, तेरसमे पिउस्सियपतिया, चोद्दसमे पिउस्सियाओ, पंण्णरसमे माउसियापतिया, सोलसमे माउस्सियाओ, सत्तरसमे मामियाओ, अट्ठारसमे अवसेसं मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणं अग्गओघाति 2 त्ता कसप्पहारेहि तालेमाणे 2 कलुणं कागिणीमंसाइं खावेंति, रुहिरपाणं च पाएंति। छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् पुरिमताले नगरे समवसृतः। परिषद् निर्गता। राजा निर्गतः। धर्मः कथितः। परिषद् राजा च प्रतिगतः। तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी गौतमो यावत् राजमार्ग समवगाढ़ः। तत्र बहून् हस्तिनः पश्यति, बहूनश्वान् पुरुषान् सन्नद्धबद्धकवचान् / तेषां पुरुषाणां मध्यगतमेकं पुरुषं पश्यति / अवकोटक यावद् उद्घोष्यमाणं / ततस्तं पुरुषं राजपुरुषाः। प्रथमे चत्वरे निषादयन्ति, निषाद्याष्टौ क्षुद्रपितॄनग्रतो घातयन्ति घातयित्वा कशाप्रहारैस्ताड्यमानाः करुणं काकिणीमांसांनि खादयन्ति, रुधिरपानं च पाययन्ति। तदनन्तरं च द्वितीये चत्वरे अष्ट क्षुद्रमातृरग्रतो घातयन्ति 2 एवं तृतीये चत्वरे अष्ट महापितॄन्। चतुर्थेऽष्ट महामातुंः। पञ्चमे पुत्रान्। षष्ठे स्नुषाः / सप्तमे जामातॄन् / अष्टमे दुहितः। नवमे नप्तृन्। दशमे नप्तृः एकादशे नप्तृकापतीन् / द्वादशे नप्तृभार्याः / त्रयोदशे पितृश्वसृपतीन्। चतुर्दशे पितृष्वसः। पंचदशे मातृश्वसृपतीन्। षोडशे मातृष्वसृः। सप्तदशे मातुलानी: अष्टादशेऽवशेषं मित्रज्ञाति-निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनमग्रतो घातयंति, घातयित्वा कशाप्रहारैस्ताड्यमाना 2 करुणं काकिणीमांसांनि खादयन्ति, रुधिरपानं च पाययन्ति। पदार्थ- तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। समणे-श्रमण। भगवंभगवान् महावीर स्वामी। पुरिमताले णगरे-पुरिमताल नगर में। समोसढे-पधारे। परिसा-परिषद्-जनता। निग्गया-निकली। राया-राजा। निग्गओ-निकला। धम्मो-धर्म का। कहिओ-उपदेश किया। परिसापरिषद्-जनता। राया य-और राजा। पडिगओ-वापिस चले गए। तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। समणस्स-श्रमण। भगवओ-भगवान् / महावीरस्स-महावीर स्वामी के। जेटेज्येष्ठ-प्रधान / अंतेवासी-शिष्य। गोयमे-गौतम स्वामी। जाव-यावत्। रायमग्गं-राजमार्ग में। समोगाढे 1. सन्नद्धबद्धकवचान्-सन्नद्धाश्च ते बद्धकवचा इति सन्नद्धबद्धकवचाः तान्, सन्नद्धाः शस्त्रादिभिः सुसज्जिताः। बद्धाः कवचा लोहमयतनुत्राणाः यैस्ते बद्धकवचाः तानिति भावः। 348] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधारे। तत्थ णं-वहां पर। बहवे-बहुत से। हत्थी-हस्तियों को। पासति-देखते हैं। बहवे-अनेकों। आसे-अश्वों-घोड़ों को देखते हैं और / सन्नद्धबद्धकवए-सैनिकों की भान्ति शस्त्रादि से सुसज्जित एवं कवच पहने हुए। पुरिसे-पुरुषों को देखते हैं। तेसिं णं-उन। पुरिसाणं-पुरुषों के। मज्झगतं-मध्य में। अवओडय-अवकोटकबन्धन-जिस बन्धन में ग्रीवा को पृष्ठ भाग में ले जाकर हाथों के साथ बांधा जाए उस बन्धन से युक्त। जाव-यावत् / उग्घोसेजमाणं-उद्घोषित। एग-एक। पुरिसं-पुरुष को। पासतिदेखते हैं। तते णं-तदनन्तर / तं पुरिसं-उस पुरुष को। रायपुरिसा-राजपुरुष-राजकर्मचारी। पढमंसिप्रथम। चच्चरंसि-चत्वर-चार मार्गों से अधिक मार्ग जहां सम्मिलित हों, वहां पर। निसियाति 2 त्ताबैठा लेते हैं बैठा कर। अट्ठ-आठ। चुल्लपिउए-पिता के छोटे भाई-चाचाओं को। अग्गओ-आगे से। घाएंति-मारते हैं। 2 त्ता-मार कर। कसप्पहारेहि-कशा (चाबुक) के प्रहारों से। तालेमाणा-ताडित करते हुए। कलुणं-करुणा के योग्य उस पुरुष के। कागिणीमंसाइं-शरीर से उत्कृत्त-निकाले मांस के छोटे-छोटे टुकड़ों को। खावेंति-खिलाते हैं। खावित्ता-खिला कर / रुहिरपाणं च-रुधिरपान / पाएंतिकराते हैं। अर्थात् उसे रक्त-खून पिलाते हैं। तदाणंतरं च-तदनन्तर / णं-वाक्यालंकारार्थक है। दोच्चंसिद्वितीय। चच्चरंसि-चत्वर पर ले जाते हैं, वहां पर। अट्ठ-आठ। चुल्लमाउयाओ-लघुमाताओं-चाचाओं की पत्नियों-चाचियों को।अग्गओ-आगे से। घाएंति-मारते हैं। एवं-इसी प्रकार / तच्चे-तीसरे। चच्चरेचत्वर पर। अट्ठ-आठ। महापिउए-महापिता-पिता के ज्येष्ठ भ्राताओं-तायों को। चउत्थे-चतुर्थ चत्वर पर। अट्ठ-आठ। महामाउयाओ-महामाता-पिता के ज्येष्ठ भाई की पत्नियों-ताइयों को। पंचमे-पांचवें चत्वर पर। पुत्ते-पुत्रों को। छटे-छठे चत्वर पर। सुण्हाओ-स्नुषाओं पुत्रवधुओं को। सत्तमे-सप्तम चत्वर पर। जामाउया-जामाताओं को। अट्ठमे-अष्टम चत्वर पर। धूयाओ-लड़कियों को। नवमे-नवम चत्वर पर। णत्तुया-नप्ताओं-पौत्रों अर्थात् पोतों और दौहित्रों अर्थात् दोहताओं-को। दसमे-दशमें चत्वर पर। णत्तुईओ-लड़की की पुत्रियों को और लड़के की लड़कियों को। एक्कारसमे-एकादशवें चत्वर पर। णत्तुयावई-नप्तृकापति अर्थात् पौत्रियों-पोतियों-और दौहित्रियों-दोहतियों के पतियों को। बारसमेबारहवें चत्वर पर। णत्तुइणीओ-नप्तृभार्या-पोतों और दोहताओं की स्त्रियों को। तेरसमे-तेरहवें चत्वर पर। पिउस्सियपतिया-पितृष्वसृपति-पिता की बहिनों के पतियों को अर्थात् पिता के बहनोइयों को। चोद्दसमे-चौदहवें चत्वर पर। पिउस्सियाओ-पितृष्वसा-पिता की बहिनों को। पण्णरसमे-पन्द्रहवें चत्वर पर। माउसियापतिया-मातृष्वसृपति-माता की बहिनों के पतियों को। सोलसमे-सोलहवें चत्वर पर। माउस्सियाओ-मातृष्वसा-माता की बहिनों को। सत्तरसमे-सतरहवें चत्वर पर। मामियाओ-मातुलानीमामियों को।अट्ठारसमे-अठारहवें चत्वर पर। अवसेसं-अवशेष-बाकी बचे। मित्त-मित्र / नाइ-ज्ञातिजनबिरादरी के लोग। नियग-निजक-माता आदि। सयण-स्वजन-मामा के पुत्र आदि। सम्बन्धि-सम्बन्धिश्वसुर एवं साला आदि। परियणं-परिजन-दास-दासी आदि को। अग्गओ-उस के आगे। घाति 2 त्ता प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [349 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारते हैं, मार कर। कसप्पहारेहि-कशा के प्रहारों से। तालेमाणे-ताडित करते हुए तथा। कलुणंदयनीय-दया के योग्य उस पुरुष को। कागिणीमंसाइं-उस की देह से काटे हुए मांस-खण्डों को। खाति-खिलाते हैं तथा। रुहिरपाणं च-रुधिर का पान। पाएंति-कराते हैं। मूलार्थ-उस काल तथा उस समय में पुरिमताल नगर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिषद्-जनता नगर से निकली तथा राजा भी प्रभु के दर्शनार्थ चला। भगवान् ने धर्म का प्ररूपण किया।धर्मोपदेश को श्रवण कर राजा तथा परिषद् वापिस अपने-अपने स्थान को लौट आई। उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ-बड़े शिष्य श्री गौतम स्वामी यावत् राजमार्ग में पधारे। वहां उन्होंने अनेक हस्तियों, अश्वों तथा सैनिकों की भान्ति शस्त्रों से सुसज्जित एवं कवच पहने हुए अनेकों पुरुषों को और उन पुरुषों के मध्य में अवकोटक बन्धन से युक्त यावत् उद्घोषित एक पुरुष को देखा। ___ तदनन्तर राजपुरुष उस पुरुष को प्रथम चत्वर पर बैठा कर उस के आगे लघुपिताओं-चाचाओं को मारते हैं। तथा कशादि के प्रहारों से ताड़ित करते हुए वे राजपुरुष करुणाजनक स्थिति को प्राप्त हुए उस पुरुष को-उसके शरीर में से काटे हुए मांस के छोटे-छोटे टुकड़ों को खिलाते हैं और रुधिर का पान कराते हैं। तदनन्तर द्वितीय चत्वर पर उस की आठ लघुमाताओं-चाचियों को उस के आगे ताड़ित करते हैं, इसी प्रकार तीसरे चत्वर पर आठ महापिताओं-पिता के ज्येष्ठ भ्राताओं-तायों को, चौथे पर आठ महामाताओं-पिता के ज्येष्ठ भ्राताओं की धर्मपत्नियों-ताइयों को, पांचवें पर पुत्रों को, छठे पर पुत्रवधुओं को, सातवें पर जामाताओं को, आठवें पर लड़कियों को, नवमें पर नप्ताओं को अर्थात् पौत्रों और दोहित्रों को, दसवें पर लड़के और लड़की की लड़कियों को अर्थात् पौत्रियों और दौहित्रियों को, एकादशवें पर नप्तृकापतियों को अर्थात् पौत्रियों और दौहित्रियों के पतियों को, बारहवें पर नप्तृभार्याओं को अर्थात् पौत्रों और दौहित्रों की स्त्रियों को, तेरहवें पर पिता की बहिनों के पतियों को अर्थात् फूफाओं को, चौदहवें पर पिता की भगिनियों को, पन्द्रहवें पर माता की बहिनों के पतियों को, सोलहवें पर मातृष्वसाओं अर्थात् माता की बहिनों को, सतरहवें पर मातुलानी-मामा की स्त्रियों को, अठारहवें पर शेष मित्र, ज्ञातिजन, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को उस पुरुष के आगे मारते हैं तथा कशा ( चाबुक ) के प्रहारों से ताड़ित करते हुए वे राजपुरुष दयनीय-दया के योग्य उस पुरुष को, उस के शरीर से निकाले हुए मांस के टुकड़े खिलाते और रुधिर का पान कराते हैं। 350 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-सूत्रकार उस समय का वर्णन कर रहे हैं जब कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुरिमताल नगर के किसी उद्यान में विराजमान हो रहे थे। तब वीर प्रभु के पधारने पर वहां का वातावरण बड़ा शान्त तथा गम्भीर बना हुआ था। प्रभु का आगमन सुन कर नगर की जनता में उत्साह और हर्ष की लहर दौड़ गई। वह बड़ी उत्कण्ठा से भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान की ओर प्रस्थित होने लगी। उस में अनेक प्रकार के विचार रखने वाले व्यक्ति मौजूद थे। कोई कहता है कि मैं आज भगवान् से साधुवृत्ति को समझूगा, कोई कहता है कि मैं श्रावक धर्म को जानने का यत्न करूंगा, कोई कहता है कि मैं आज जीव, अजीव के स्वरूप को पूछंगा, कोई सोचता है कि जिस प्रभु का नाम लेने मात्र से सन्तप्त हुआ हृदय शान्त हो जाता है, उसके साक्षात् दर्शनों का तो कहना ही क्या है, इत्यादि शुभ विचारों से प्रेरित हुई जनता उद्यान की ओर चली जा रही थी। प्रजा की मनोवृत्ति से ही प्रायः राजा की मनोवृत्ति का ज्ञान हो जाया करता है। प्रायः उसी राजा की प्रजा धार्मिक विचारों की होती है जो स्वयं धर्म का आचरण करने वाला हो। पुरिमताल नगर के महीपति भी किसी से कम नहीं थे। वीर भगवान् के शुभागमन का समाचार पाते ही वे भी उठे और अपने कर्मचारियों को तैयारी करने की आज्ञा फरमाई। तथा बड़ी सजधज के साथ वीर भगवान् के दर्शनार्थ नगर से निकले और वीर भगवान् के चरणों में उपस्थित हुए, तथा विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर भगवान् के सन्मुख उचित स्थान पर बैठ गए। नगर की अन्य जनता भी शान्ति-पूर्वक यथास्थान बैठ गई। .. इस प्रकार नागरिक और नरेश आदि के यथास्थान बैठ जाने के बाद भगवान् ने अपनी अमृत वाणी से अनेक सन्तप्त हृदयों को शान्त किया, उन्हें धर्म का उपदेश देकर कृतार्थ किया। तदनन्तर राजा और प्रजा दोनों ही भगवान् के चरणों में हार्दिक भाव से श्रद्धांजलि अर्पण करते हुए अपने-अपने स्थान की ओर प्रस्थित हुए। - जनता के चले जाने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी जो कि तपश्चर्या की सजीव मूर्ति थे, षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त पुरिमताल नगर में भिक्षार्थ जाने की आज्ञा मांगने लगे। आज्ञा मिल जाने पर वे नगर की ओर प्रस्थित हुए, और पुरिमताल नगर के राजमार्ग में पहुंचे। वहां उन्होंने निनोक्त दृश्य देखा . बहुत से सुसज्जित हस्ती तथा शृंगारित घोड़े एवं कवच पहने हुए.अस्त्र-शस्त्रों से सन्नद्ध अनेक सैनिक पुरुष खड़े हैं। उन के मध्य में अवकोटक-बन्धन से बन्धा हुआ एक पुरुष है, जिसके साथ अमानुषिक व्यवहार किया जा रहा है। उस के साथ ही उस को दिए गए दंड के कारण की-इसके अपने कर्म ही इस की इस दुर्दशा का कारण हैं, राजा आदि कोई अन्य नहीं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [351 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं-इस रूप से उद्घोषणा भी की जा रही थी। उद्घोषणा के अनन्तर राजकीय अधिकारी पुरुष उसे प्रथम चत्वर-चौंतरे पर बिठाते हैं, तत्पश्चात् उसके सामने उसके आठ चाचाओं (पिता के लघु भ्राताओं) को बड़ी निर्दयता के साथ मारते हैं, और नितान्त दयाजनक स्थिति रखने वाले उस पुरुष को काकिणी-मांस उस की देह से निकाले हुए छोटे-छोटे मांस-खण्ड खिलाते तथा रुधिर का पान कराते हैं। वहां से उठ कर दूसरे चौंतरे पर आते हैं, वहां उसे बिठाते हैं, वहां उस के सन्मुख उसकी आठ चाचियों को लाकर बड़ी क्रूरता से पीटते हैं इसी प्रकार तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें, नवमें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें, सोलहवें, सतरहवें, और अठारहवें चौंतरे पर भी उसके निजी सम्बन्धियों को कशा से पीटते हैं। उन सम्बन्धियों के नाम का निर्देश मूलार्थ में आ चुका है। ___ इस उल्लेख में दंड की भयंकरता का निर्देश किया गया है। दण्डित व्यक्ति के अतिरिक्त उसके परिवार को भी दंड देना, दंड की पराकाष्ठा है। "-गोयमे जाव रायमग्गं-" यहां पठित जाव-यावत् - पद से "-छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरसीए सज्झायंकरेइ-"से लेकर "-रियं सोहेमाणे जेणेव पुरिमताले णगरे तेणेव उवागच्छइ, पुरिमताले णगरे उच्चणीयमज्झिमकुलाइं अडमाणे जेणेव-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या द्वितीय अध्ययन में दी जा चुकी है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का नाम समुल्लिखित है और यहां पुरिमताल नगर का। शेष वर्णन समान है। "-अवओडय० जाव उग्रोसेजमाणं-" यहां पठित "-जाव यावत्-" पद से सूत्रकार ने सूत्रपाठ को संक्षिप्त कर के पूर्ववर्णित दूसरे अध्ययनगत "-उक्कित्तकण्णनासं, नेहतुप्पियगत्तं-" से लेकर "-चच्चरे चच्चरे खण्डपडहएणं-" यहां तक के पाठ के ग्रहण करने की सूचना दे दी है, जिस का दूसरे अध्ययन में उल्लेख किया जा चुका है। "-चच्चर-" शब्द का संस्कृत प्रतिरूप "-चत्वर-" होता है, जो कि कोषानुमत भी है। परन्तु टीकाकार श्री अभयदेव सूरि ने इसका संस्कृत प्रतिरूप “चर्चर" ऐसा माना है। "पढमंसि चच्चरंसि, प्रथमे चर्चरे स्थानविशेषे"। "-कलुणं-" यह पद क्रियाविशेषण है। इस की व्याख्या में वृत्तिकार लिखते हैं कि "-कलुणं त्ति करुणं करुणास्पदंतं पुरुषं, क्रियाविशेषणंचेदम्-"अर्थात् करुणास्पदकरुणा के योग्य को कलुण कहते हैं। "-काकिणीमांस-" का अर्थ होता है, जिस को मांस खिलाया जा रहा है, उसी मनुष्य के शरीर में से अथवा किसी भी अन्य मनुष्य के शरीर में से कौड़ी जैसे अर्थात् छोटे 352 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय - [.प्रथम श्रुतस्कंध Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोटे निकाले गए मांस के टुकड़े। ऐसे मांस खण्डों को खाना-काकिणीमांसभक्षण कहलाता -मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणं-" की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है "-मित्राणि-सुहृदाः, ज्ञातयः-समानजातीयाः, निजका:-पितामातरश्च, स्वजना:मातुलपुत्रादयः, सम्बन्धिन:-श्वशुरशालादयः, परिजन:-दासीदासादिस्ततो द्वन्द्वः अतस्तान् तत्। अर्थात् मित्र-सुहृद् का नाम है, तात्पर्य यह है कि जो साथी, सहायक और शुभचिन्तक हो, उसे मित्र कहते हैं। ज्ञाति शब्द से समान जाति (बिरादरी) वाले व्यक्तियों का ग्रहण होता है। निजक पद माता-पिता आदि का बोधक है। स्वजन शब्द मामा के पुत्र आदि का परिचायक है, श्वशुर, साला आदि का ग्रहण सम्बन्धी शब्द से होता है। परिजन दास और दासी आदि का नाम है। "-चुल्लमाउयाओ-" इस पद के दो अर्थ किए जाते हैं-एक तो पिता के छोटे भाइयों की स्त्रियां, दूसरा-माता की लघुसपत्नियां अर्थात् पिता की दो स्त्रियां हों उन में छोटी स्त्री भी क्षुद्रमाता कहलाती है। टीकाकार के शब्दों में "-पितृलघुभ्रातृजायाः अथवा मातुर्लघुसपत्नी:-" यह कहा जा सकता है। "-णत्तुयावई-" इस पद के भी दो अर्थ होते हैं, जैसे कि (१)पौत्री-पोती के पति और (2) दौहित्री-दोहती के पति। "-अट्ठ चुल्लपिउए-" इत्यादि पदों से सूचित होता है कि वध्य व्यक्ति का परिवार बड़ा विस्तृत था और उसके साथ ही रहता था, अथवा राजा से मिलने के कारण वध्य व्यक्ति ने अपने पारिवारिक व्यक्तियों को बुला लिया हो, यह भी संभव हो सकता है। राजा से मिलने आदि का समस्त वृत्तान्त अग्रिम जीवनी के अवलोकन से स्पष्ट हो जाएगा। - वध्य व्यक्ति के सामने उसके परिवार को मारने तथा पीटने का तात्पर्य तो यह प्रतीत होता है कि वध्य व्यक्ति की मनोवृत्ति को अधिक से अधिक आघात पहुंचाया जाए। अथवाइस का यह मतलब भी होता है कि उसके कामों में जो भी हिस्सेदार हैं, उन्हें भी दण्डित किया जाए। या यह कि उन की ताड़ना से दूसरी जनता को शिक्षा मिले कि भविष्य में अगर किसी ने अपराध किया तो अपराधी के अतिरिक्त उसके सगे सम्बन्धी भी दण्डित होने से नहीं बच सकेंगे ताकि आगे को अपराध की बहुलता न होने पाए, इत्यादि। अथवा "-तते णं तं पुरिसं रायपुरिसा-" इत्यादि पदों में पढ़े गए "अग्गओ" पद 1. "-णत्तुयावई-"त्ति-नप्तृकापतीन्-पौत्रीणां दौहित्रीणां वा भर्तृन्-" (टीकाकारः) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [353 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आगे "काऊणं-कृत्वा'' इस पद का सर्वत्र अध्याहार करके यह अर्थ भी संभव हो सकता है कि-उस पुरुष को राजपुरुषों ने चौंतरे पर बिठाया, और उसके आठ चाचाओं को आगे कर लिया, तथा उनके आगे अर्थात् सामने उस वध्य पुरुष को निर्दयता पूर्वक मारा, इत्यादि। सगे सम्बन्धियों के सामने मारने या पीटने का अर्थ-दोषी या अपराधी को अधिकाधिक दुःखित करना होता है। यह अर्थ इसलिए अधिक सम्भव प्रतीत होता है कि न्यायानुसार तो जो कर्म करे वही उसका फल भोगे। यह तो न्याय से सर्वथा विपरीत है कि अपराधी के साथसाथ निरपराधी भी दंडित किए जाएं। ___ वध्यव्यक्ति के पारिवारिक लोग उसके कार्यों के सहयोगी थे; अनुमोदक थे, इसलिए उन्हें उसके सामने दण्डित किया गया है। तथा- वध्यव्यक्ति को अत्यधिक दुःखित करने के लिए उसके पारिवारिक व्यक्तियों के सामने उसे मारा-पीटा गया है। इन दोनों अर्थों के अतिरिक्त तीसरा यह अर्थ भी असंभव नहीं है कि महाबल नरेश ने मात्र अपने क्रोधावेश के ही कारण वध्यव्यक्ति के निर्दोष परिवार को भी मारने की कड़ी आज्ञा दे डाली हो। रहस्यं तु केवलिगम्यम्। प्रस्तुत सूत्र में श्री गौतम स्वामी द्वारा अवलोकित करुणाजनक दृश्य का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार अग्रिम सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास श्री गौतम स्वामी द्वारा किए गए उक्त-विषय-सम्बन्धी प्रश्न का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से भगवं गोतमे तं पुरिसं पासति 2 त्ता इमे एयारूवे अज्झत्थिए 5 समुप्पन्ने जाव तहेव णिग्गते एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! तं चेव जाव, से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसि ? जाव विहरति ? ___ छाया-ततः स भगवान् गौतमः तं पुरुषं पश्यति दृष्ट्वा अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः 5 समुत्पन्नो यावत् तथैव निर्गतः एवमवदत्-एवं खलु अहं-भदन्त ! तच्चैव यावत् स भदन्त ! पुरुषः पूर्वभवे कः आसीत् ? यावद् विहरति। . पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। भगवं-भगवान्। गोतमे-गौतम। तं-उस। पुरिसं-पुरुष को। पासति-देखते हैं / 2 त्ता-देख कर / इमे-यह / एयारूवे-इस प्रकार का।अझथिए ५-आध्यात्मिकसंकल्प 5 / समुप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। जाव-यावत्। तहेव-तथैव-पहले की भान्ति। णिग्गते-नगर से निकले, तथा भगवान् के समीप आकर। एवं-इस प्रकार / वयासी-कहने लगे। भंते ! हे भगवन् ! अहंमैं। एवं-इस प्रकार आप की आज्ञा के अनुसार आहार के लिए गया। खलु-निश्चयार्थक है। तं चेव-उस देखे हुए दृश्य का। जाव-यावत् वर्णन किया तथा पूछा कि। भंते !-हे भगवन् ! से णं-वह / पुरिसे 354 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष। पुव्वभवे-पूर्वभव में। के-कौन। आसि ?-था? जाव-यावत्। विहरति ?-समय बिता रहा है ? मूलार्थ-तदनन्तर भगवान् गौतम के हृदय में उस पुरुष को देख कर यह संकल्प उत्पन्न हुआ यावत् वे नगर से बाहर निकले तथा भगवान् के पास आकर निवेदन करने लगे-भगवन् ! मैं आप की आज्ञानुसार नगर में गया, वहां मैंने एक पुरुष को देखा यावत् भगवन् ! वह पुरुष पूर्वभव में कौन था? जो कि यावत् विहरण कर रहा है-कर्मों का फल पा रहा है? ___टीका-पूर्वसूत्र में सूत्रकार ने एक ऐसे पुरुष का वर्णन किया है, जिसे राजकीय पुरुषों ने बेड़ियों से जकड़ रक्खा था, तथा जिस को बड़ी कठोरता से पीटा जा रहा था। उसे जब पतित-पावन भगवान् गौतम ने देखा तो देखते ही उनका रोम-रोम करुणाजन्य पीड़ा से व्यथित हो उठा और उनके मानस में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए कि अहो ! यह पुरुष कितनी भयानक वेदना को भोग रहा है ! यह ठीक है कि मैंने नरकों को नहीं देखा है किन्तु इस पुरुष की दशा तो नारकियों जैसी ही प्रतीत हो रही है। तात्पर्य यह है कि जैसे नरक में नारकी जीवों को परमाधर्मियों के द्वारा दुःख मिलता है, वैसे ही इस पुरुष को इन राजपुरुषों के द्वारा मिल रहा है। _____ अज्ञानी जीव कर्म करते समय कुछ नहीं सोचता किन्तु जिस समय उस को उसका फल भोगना पड़ता है, उस समय वह अपने किए पर पश्चात्ताप करता है, रोता और चिल्लाता है। पर फिर कुछ नहीं बनने पाता इत्यादि विचारों में निमग्न हुए गौतम स्वामी पुरिमताल नगर से निकले और ईर्यासमिति-पूर्वक गमन करते हुए भगवान् महावीर स्वामी के पास पहुंचे, पहुंच कर वन्दना नमस्कार करने के बाद उन्हें उक्त सारा वृत्तान्त कह सुनाया और विनय-पूर्वक उस वध्य व्यक्ति के पूर्वभव सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने की अभिलाषा प्रकट की। "अज्झथिए.५" यहां पर दिए गए 5 के अंक से -चिंतिए, कप्पिए, पत्थिए, मणोगए, संकप्पे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। "समुप्पन्ने जाव तहेव"-यहां पठित "-जाव-यावत्-" पद से "-अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरति।न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरयपडिरूवियं वेयणं वेएति त्ति कट्ट पुरिमताले णगरे उच्चनीयमज्झिमकुलेसुअडमाणे अहापजत्तं समुयाणं गिण्हइ 2 त्ता पुरिमतालस्स नगरस्स मज्झंमज्झेणं निग्गच्छति 2 जेणेव समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [355 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमणागमणाए पडिक्कमइ 2 त्ता एसणमणेसणे अलोएइ 2 त्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ 2 त्ता समणं भगवं महावीरं वन्दति नमंसति 2 त्ता- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है, इन का भावार्थ निम्नोक्त है खेद है कि यह बालक पहले प्राचीन दुश्चीर्ण-दुष्टता से उपार्जन किए गए, दुष्प्रतिक्रान्तजो धार्मिक क्रियानुष्ठान से नष्ट नहीं किए गए हों ऐसे अशुभ, पापमय, किए हुए कर्मों के पापरूप फलवृत्तिविशेष-फल का प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है। नरक तथा नारकी मैंने नहीं देखे / यह पुरुष नरक के समान वेदना का अनुभव करता हुआ प्रतीत हो रहा है। ऐसा विचार कर भगवान् गौतम पुरिमताल नगर के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए यथेष्ट सामुदानिक-अनेकविध घरों से उपलब्ध भिक्षा ग्रहण कर पुरिमताल नगर के मध्य में से होकर निकलते हैं और जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां आते हैं और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप बैठ कर गमनागमन का प्रतिक्रमण (दोष निवृत्ति) करते हैं। एषणीय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष) की आलोचना (चिन्तन या प्रायश्चित के लिए दोषों को गुरु के सन्मुख रखना) करते हैं। आलोचना कर के भगवान् को आहार-पानी दिखाते हैं। दिखा कर प्रभु को वन्दना तथा नमस्कार करके, वे इस प्रकार निवेदन करने लगे। "तं चेव जाव से" यहां पठित "जाव-यावत्" षद से "-तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पुरिमताले नयरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदापास्स भिक्खायरियाए अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव समोगाढे, तत्थ णं बहवे हत्थी पासामि बहवे आसे पासामि- से लेकर-रुहिरपाणं च पाएंति, तं पुरिसं पासामि 2 अयं एयारूवे अज्झथिए 5 समुप्पन्ने-अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणं दुच्चिण्णाणं -से लेकर -नरयपडिरूवियं वेयणं वेएति-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। परन्तु इतना ध्यान रहे कि जहां पहले पाठों में "पासति" यह पाठ आया है वहां इस प्रकरण में "पासामि" इस पद की संकलना की गई है। क्योंकि पहले वर्णन में तो सूत्रकार स्वयं भगवान् गौतम स्वामी का परिचय करा रहे हैं। जब कि इस वर्णन में भगवान् गौतम स्वयं अपना वृत्तान्त प्रभु वीर के चरणों में सुना रहे हैं। ऐसी स्थिति में "पासामि" (देखता हूं) ऐसे प्रयोग की संकलना करनी ही होगी, तभी पूर्वापर अर्थ की संगति हो सकती है। "आसि ? जाव विहरति" यहां पठित "जाव-यावत्" पद से-"-किंनामए वा किं गोत्तए वा कयरंसि गामंसि वा नगरंसि वा किं वा दच्चा किं वा भोच्चा किं वा समायरित्ता केसिं वा पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुहाणं पावाणं 356 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का भावार्थ पीछे दिया जा चुका है। गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ कथन किया, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं___मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पुरिमताले नामं नगरे होत्था, रिद्धः। तत्थ णं पुरिमताले उदिए नामं राया होत्था महयाः। तत्थ णं पुरिमताले निण्णए णामं अंडयवाणियए होत्था, अड्ढे जाव अपरिभूते, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे। तस्स णं णिण्णयस्स अंडयवाणियगस्स बहवे पुरिसा दिण्णभति-भत्तवेयणा कल्लाकल्लिं कोद्दालियाओ य पत्थियापिडए य गेण्हन्ति, पुरिमतालस्स नगरस्स परिपेरंतेसु बहवे काइअंडए य घूइअंडए य पारेवइ-टिट्टिभि-बगि-मयूरी-कुक्कुडि-अंडए य अन्नेसिं चेव बहूणं जलयर-थलयर-खहयरमाईणं अंडाइं गेण्हंति गेण्हेत्ता पत्थियापिडगाइं भरेंति,२ जेणेव निण्णए अंडवाणियए तेणेव उवा० 2 निण्णयस्स अंडवाणियगस्स उवणेति। तते णं तस्स निण्णयस्स अंडवाणियगस्स बहवे पुरिसा दिण्णभइ बहवे काइअंडए य "जाव कुक्कुडि-अंडए य अन्नेसिं च बहूणं जलयर-थलयर-खहयरमाईणं अंडए तवएसु य कवल्लीसु य कंदूसुय भजणएसु य इंगालेसु य तलेंति भजति सोल्लिंति तलेता भजेंता सोल्लंता य - 1. "रिद्ध" यहां के बिन्दु से जिन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है, उन के सम्बन्ध में दूसरे अध्याय में लिखा जा चुका है। 2. "महया०" यहां के बिन्दु से जो अपेक्षित है इस का उत्तर द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। 3. "अड्ढे जाव अपरिभूते" यहां पठित "-जाव-यावत् -" पद से जिन पदों का आश्रयण सूत्रकार को अभिमत है उनका विवरण द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। 4. "अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे" यहां पठित –जाव-यावत्- पद से ग्रहण किए जाने वाले पदों का वर्णन प्रथम अध्ययन में किया गया है। 5. यहां पठित-जाव-यावत्- पद से "-घूइ-अण्डए, पारेवइअण्डए, टिट्टिभि-अण्डए बगिअण्डए, मयूरी-अण्डए-" इन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है, तथा "-काइअण्डएहि य जाव कुक्कुडि-अण्डएहि-" यहां पठित "-जाव-यावत्-" पद से पूर्वोक्त पदों का ही आश्रयण करना चाहिए, यहां मात्र प्रथमा और तृतीया विभक्ति का अन्तर है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [357 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायमग्गे अन्तरावणंसि अंडयपणिएणं वित्तिं कप्पेमाणा विहरन्ति।अप्पणा वि यणं से निण्णयए अंडवाणियए तेहिं बहूहिं काइ-अंडएहि य जाव कुक्कुडिअंडएहि य सोल्लेहिं तलिएहिं भज्जिएहिं सुरं च 5 आसाएमाणे 4 विहरति। तते णं से निण्णए अंडवाणियए एयकम्मे 4 सुबहुं पावं कम्मं समजिणित्ता एगं वाससहस्सं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा तच्चाए पुढवीए उक्कोससत्तसागरोवमट्टितीएसुणेरइएसुणेरइयत्ताए उववन्ने। ____ छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे पुरिमतालं नाम नगरमभवत् , ऋद्ध / तत्र पुरिमताले उदितो नाम राजा अभवत् महा / तत्र च पुरिमताले निर्णयो नाम अण्डवाणिजोऽभूत् आढ्यो यावदपरिभूतः, अधार्मिको यावद् दुष्प्रत्यानन्दः। तस्य निर्णयस्याण्डवाणिजस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतना कल्याकल्यि कुद्दालिकाश्च पत्थिकापिटकानि च गृह्णन्ति पुरिमतालस्य नगरस्य परिपर्यन्तेषु बहवः काक्यंडानि च घूक्यंडानि च पारापती-टिटिभी-बकीमयूरी-कुक्कुट्यंडानि च, अन्येषां चैव बहूनां जलचर-स्थलचर-खचरादीनामंडानि गृह्णन्ति, गृहीत्वा च पत्थिकापिटकानि भरन्ति, भृत्वा च यंत्रैव निर्णयोऽण्डवाणिजस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य निर्णयस्यांडवाणिजस्योपनयन्ति। ततस्तस्य निर्णयस्यांडवाणिजस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृति बहूनि काक्यण्डानि च यावत् कुक्कुट्यंडानि च अन्येषां च बहूनां जलचरस्थलचरखचरादीनामंडानि तवकेषु च कवल्लीषु च कन्दुषु च भर्जनकेषु चांगारेषु च तलन्ति, भृजन्ति, पचन्ति, तलन्तो भृज्जन्तः पचन्तश्च राजमार्गेऽन्तरापणे अण्डपण्येन वृत्तिं कल्पमाना विहरन्ति / आत्मनापि च स निर्णयोऽण्डवाणिजस्तैर्बहुभिः काक्यण्डैश्च यावत् कुक्कुट्यण्डैश्च पक्वैस्तलितैभृष्टैः सुरां च 5 1. -सुरं च ५-यहां पर 5 इस अंक से "-मधुं च मेरगं च जातिं च सीधुंच पसन्नं च-" इन पदों का ग्रहण समझना। इन पदों की व्याख्या द्वितीय अध्ययन में की जा चुकी है।। 2. -आसाएमाणे 4- यहां दिए गए 4 के अंक से "-विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन की व्याख्या द्वितीय अध्ययन में की जा चुकी है। परन्तु इतना ध्यान रहे कि वहां स्त्रीलिङ्ग का निर्देश है, जब कि यहां पुल्लिङ्ग है। तथापि अर्थ-विचारणा में कोई अन्तर नहीं है। 3. -एयकम्मे 4- यहां के 4 अंक से "-एयप्पहाणे एयविजे-" और "-एयसमायरे-"-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। एतत्कर्मा आदि पदों का शब्दार्थ द्वितीय अध्ययन में दिया जा चुका है। 358 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्वादयन् 4 विहरति / ततः स निर्णयोऽण्डवाणिज एतत्कर्मा 4 सुबहु पापं कर्म समय॑ एकं वर्षसहस्रं परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा तृतीयायां पृथिव्यां उत्कृष्टसप्तसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतयोपपन्नः। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। इहेव-इसी। जम्बुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारत वर्ष में। पुरिमताले-पुरिमताल। नाम-नामक। नगरे-नगर। होत्था-था, जो कि। रिद्धऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से पूर्ण, स्तिमित-स्वचक्र और परचक्र के भय से रहित तथा समृद्ध-उत्तरोत्तर बढ़ते हुए धन धान्यादि से परिपूर्ण था। तत्थ णं-उस। पुरिमताले-पुरिमताल नगर में। उदिए-उदित। नाम-नामक। राया-राजा। होत्था-था। महया-जो कि महा हिमवान्-हिमालय आदि पर्वतों के सदृश महान् था। तत्थ णं पुरिमताले-उस पुरिमताल नगर में। निण्णए-निर्णय / नाम-नामक।अंडयवाणियएअंडवाणिज-अंडों का व्यापारी / होत्था-था जो कि। अड्ढे-धनी। जाव-यावत्। अपरिभूते-अतिरस्कृत अर्थात् बड़ा प्रतिष्ठित था एवं / अहम्मिए-अधार्मिक / जाव-यावत् / दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द-जो किसी तरह सन्तुष्ट न किया जा सके, ऐसा था। तस्स-उस। णिण्णयस्स-निर्णय नामक। अंडयवाणियगस्सअण्डवाणिज के। बहवे-अनेक। दिण्णभति-भत्तवेयणा-दत्तभृतिभक्तवेतन-जिन्हें वेतनरूपेण भृतिपैसे आदि तथा। भक्त-घृत धान्यादि दिए जाते हों अर्थात् नौकर। पुरिसा-पुरुष। कल्लाकल्लिं-प्रति दिन / कोद्दालियाओ य-कुद्दाल-भूमि खोदने वाले शस्त्रविशेषों को तथा। पत्थियापिडए य-पत्थिकापिटकबांस से निर्मित पात्रविशेषों -पिटारियों को। गेण्हन्ति-ग्रहण करते हैं, तथा। पुरिमतालस्स-पुरिमताल। णगरस्स-नगर के। परिपेरंतेसु-चारों ओर। बहवे-अनेक। काइअंडए य-काकी-कौए-की मादा-के अंडों को तथा। घूइअंडए य-घूकी-उल्लूकी (उल्लू की मादा) के अंडों को। पारेवइ-कबूतरी के अंडों को। टिट्टिभि-टिट्टिभि-टिटिहरी के अंडों को। बगि-बकी-बगुली के अण्डों को। मयूरी-मयूरी-मोरनी के अंडों को और / कुक्कुडिअंडए य-कुकड़ी-मुर्गी के अंडों को। अन्नेसिं चेव-तथा और / बहूणंबहुत से। जलयर-जलचर-जल में चलने वाले।थलयर-स्थलचर-पृथिवी पर चलने वाले। खहयरमाईणंखेचर-आकाश में विचरने वाले जंतुओं के।अंडाई-अण्डों को। गेण्हन्ति-ग्रहण करते हैं। गेण्हेत्ता-ग्रहण कर के। पत्थिया-पिडगाइं-बांस की पिटारियों को। भरेंति-भर लेते हैं। 2 त्ता-भर कर / जेणेव-जहां पर। निण्णए-निर्णय नामक / अण्डवाणियए-अण्डवाणिज था। तेणेव-वहां पर। उवा० 2 त्ता-आते हैं, आकर। निण्णयस्स-निर्णय नामक। अंडवाणियगस्स-अण्डवाणिज को। उवणेति-दे देते हैं। तते णंतदनन्तर। तस्स-उस। निण्णयस्स-निर्णय नामक। अंडवाणियगस्स-अण्डवाणिज के। बहवे-अनेक। दिण्णभइ०-जिन्हें वेतन रूप से रुपया तथा भोजन दिया जाता है ऐसे नौकर। पुरिसा-पुरुष / बहवेअनेक। काइअंडए य- काकी के अंडों को। जाव-कुक्कुडिअंडए य-मुर्गी के अंडों को। अन्नेसिं च प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [359 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा और। बहूणं-बहुत से। जलयर-जलचर। थलयर-स्थलचर। खहयरमाईणं-खेचर आदि जन्तुओं के। अंडए-अंडों को। तवएसु य-तवों पर। कवल्लीसु य-कवल्ली-गुड़ आदि पकाने का पात्र विशेष (कड़ाहा) में। कंदूसु य-कन्दु-एक प्रकार का बर्तन-जिस में मांड आदि पकाया जाता हो अर्थात् हांडे में, अथवा चने आदि भूनने की कड़ाही में अथवा लोहे के पात्र विशेष में। भजणएसु य-भर्जनक-भूनने का पात्र विशेष / इंगालेसु य-अंगारों पर। तलेंति-तलते थे। भज्जेंति-भूनते थे। सोल्लिंति-शूल से पकाते थे। रायमग्गे-राजमार्ग के। अंतरावणंसि-अन्तर-मध्यवर्ती, आपण, दुकान पर, अथवा राजमार्ग की दुकानों के भीतर। अंडयपणिएण-अण्डों के व्यापार से। वित्तिं-कप्पेमाणा-आजीविका करते हुए। विहरंतिसमय व्यतीत करते थे। अप्पणा-वि य णं-और स्वयं भी। से-वह। निण्णए-निर्णय नामक। अंडवाणियए-अण्डों का व्यापारी। तेहिं-उन। बहूहि-अनेक। काइअंडएहि य-काकी के अण्डों। जाव-यावत् / कुक्कुडिअंडएहि य-मुर्गी के अण्डों, जो कि। सोल्लेहि-शूल से पकाए हुए। तलिएहितले हुए। भजिएहि-भूने हुए -के साथ। सुरं च ५-पंचविध सुरा आदि मद्य विशेषों का। आसाएमाणे ४-आस्वादनादि करता हुआ। विहरति-समय बिता रहा था। तते णं-तदनन्तर / से-वह। निण्णए-निर्णय नामक। अंडवाणियए-अण्डवाणिज। एयकम्मे ४-इन्हीं पाप कर्मों में तत्पर हुआ, इन्हीं पापपूर्ण कर्मों में प्रधान, इन्हीं कर्मों के विज्ञान वाला और यही पाप कर्म उस का आचरण बना हुआ था ऐसा वह निर्णय। सुबहुं-अत्यधिक। पावं-पापरूप। कम्म-कर्म को। समन्जिणित्ता-उपार्जित करके। एगं वाससहस्संएक हजार वर्ष की। परमाउं-परम आयु को। पालइत्ता-भोग कर। कालमासे-कालमास में-मृत्यु का समय आ जाने पर / कालं किच्चा-काल कर के। तच्चाए-तीसरी।पुढवीए-पृथिवी-नरक में। उक्कोसउत्कृष्ट / सत्त-सात / सागरोवम-सागरोपम की। द्वितीएसु-स्थिति वाले।णेरइएसु-नारकों में। णेरइयत्ताएनारकीय रूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। ___ मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल तथा उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में पुरिमताल नामक एक विशाल भवनादि से युक्त, स्वचक्र और परचक्र के भय से विमुक्त एवं समृद्धिशाली नगर था। उस पुरिमताल नगर में उदित नाम का राजा राज्य किया करता था, जो कि महा हिमवान्-हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। उस पुरिमताल नगर में निर्णय नाम का एक अंडवाणिजअंडों का व्यापारी निवास किया करता था, जो कि आढ्य-धनी, अपरिभूत-पराभव को प्राप्त न होने वाला, अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द-परम असन्तोषी था। निर्णय नामक अंडवाणिज के अनेक दत्तभृतिभक्तवेतन अर्थात् रुपया, पैसा और भोजन के रूप में वेतन ग्रहण करने वाले अनेकों पुरुष प्रतिदिन कुद्दाल तथा बांस की पिटारियों को लेकर पुरिमताल नगर के चारों ओर अनेक काकी (कौए की मादा) 360 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अंडों को, घूकी ( उल्लू की मादा) के अंडों को, कबूतरी के अंडों को, टिटिभी (टिटिहरी) के अंडों को, बगुली के अंडों को, मोरनी के अंडों को और मुर्गी के अंडों को तथा और भी अनेक जलचर, स्थलचर और खेचर आदि जन्तुओं के अंडों को लेकर बांस की पिटारियों में भरते थे, भर कर निर्णय नामक अंडवाणिज के पास आते थे, आकर उस अंडवाणिज को अंडों से भरी हुई वे पिटारियां दे देते थे। ____ तदनन्तर निर्णय नामक अंडवाणिज के अनेक वेतनभोगी पुरुष बहुत से काकी यावत् कुकड़ी (मुर्गी ) के अंडों तथा अन्य जलचर, स्थलचर और खेचर आदि जन्तुओं के अण्डों को तवों पर, कड़ाहों पर, हांडों में और अंगारों पर तलते थे, भूनते थे तथा पकाते थे। तलते हुए, भूनते हुए, और पकाते हुए राजमार्ग के मध्यवर्ती आपणोंदुकानों पर अथवा-राजमार्ग की दुकानों के भीतर, अंडों के व्यापार से आजीविका करते हुए समय व्यतीत करते थे। . तथा वह निर्णय नामक अंडवाणिज स्वयं भी अनेक काकी यावत् कुकड़ी के अंडों जो कि पकाए हुए, तले हुए और भूने हुए थे, के साथ सुरा आदि पंचविध मदिराओं का आस्वादनादि करता हुआ, जीवन व्यतीत कर रहा था। तदनन्तर वह निर्णय नामक अंडवाणिज इस प्रकार के पाप कर्मों के करने वाला, इस प्रकार के कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन कर्मों का विद्या-विज्ञान रखने वाला, और इन्हीं कर्मों को अपना आचरण बना कर अत्यधिक पाप कर्मों को उपार्जित कर के एक सहस्त्र वर्ष की परम आयु को भोग कर कालमास-मृत्यु के समय में काल करके तीसरी पृथ्वी-नरक में उत्कृष्ट सात सागरोपम स्थिति वाले नारकों में नारकी रूप से उत्पन्न हुआ। . टीका-प्रस्तुत सूत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया कि गौतम ! भारतवर्ष में पुरिमताल नामक एक नगर था, जो व्यापारियों की दृष्टि से, शिल्पियों की दृष्टि से एवं आर्थिक दृष्टि से पूर्ण वैभवशाली होने के साथ-साथ काफी चहल-पहल वाला था। उस में उदित नरेश का राज्य था, जो कि महान् प्रतापी था। उस नगर में निर्णय नाम का एक अंडवाणिज-अंडों का व्यापारी रहता था, जो कि काफी धनी और अपनी जाति में सर्व प्रकार से प्रतिष्ठित माना जाता था। परन्तु धर्म-सम्बन्धी कार्यों में निर्णय बड़ा पराङ्मुख रहता था। उस के विचार सावध प्रवृत्ति की ओर अधिक झुके हुए थे। अनाथ, मूक-प्राणियों का वध करने में प्रवृत्त होने से उसके विचार अधिक क्रूर हो गए थे। उस के अन्दर सांसारिक प्रलोभन बेहद बढ़ा हुआ था। इसीलिए उस का प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [361 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। सारांश यह है कि जीव हिंसा करना उसके जीवन का प्रधान लक्ष्य बना हुआ था। उसी पर उसका जीवन निर्भर था। निर्णय के अनेकों नौकर थे, जिन्हें जीवन-निर्वाह के लिए उसकी ओर से भृतिआजीविका दी जाती थी। कई एक को अन्न दिया जाता था, अर्थात् कई एक को भोजन मात्र और कई एक को रुपया पैसा। ये नौकर पुरुष अपने स्वामी के आदेशानुसार काम करते तथा अपनी स्वामिभक्ति का परिचय देते थे। वे प्रतिदिन प्रात:काल उठते, कुद्दाल और बांस की पिटारियों को उठाते और नगर के बाहर चारों तरफ घूमते। जहां कहीं उन्हें काकी, मयूरी, कपोती और कुकड़ी आदि पक्षियों के अंडे मिलते, वहीं से वे ले लेते। इसके अतिरिक्त अन्य जलचर, स्थलचर तथा खेचर आदि जन्तुओं के अंडों की उन्हें जहां से प्राप्ति होती वहीं से लेकर वे अपनी-अपनी पिटारियों को भर लेते थे, तथा लाकर निर्णय के सुपुर्द कर देते। यह उन का प्रतिदिन का काम था। निर्णय ने जहां अंडों को खोज कर लाने के लिए आदमी रखे हुए थे, वहां साथ में उस ने ऐसे पुरुष भी रख छोड़े थे जो कि राजमार्ग में स्थित दुकानों पर बैठ; अंडों का क्रयविक्रय किया करते। अंडों को उबालकर, भून कर और पकाकर बेचते। तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष को निर्णय ने जो काम संभाल रखा था, वह उसे पूरी सावधानी से करता था। इस वर्णन से यह पता चलता है कि निर्णय ने अंडों का व्यवसाय काफी फैला रखा था। पाठक कभी यह समझने की भूल न करें कि निर्णय का यह व्यवसाय केवल व्यापार तक ही सीमित था किन्तु वह स्वयं भी मांसाहारी था। अपने प्रतिदिन के भोजन को भी वह अंडों से तैयार कराया करता और अनेक विधियों से अंडों का आहार करता। मांस के साथ मदिरा का निकट सम्बन्ध होने से वह इस का भी पर्याप्त उपभोग करता। इस प्रकार के सावध व्यापार तथा आहारादि से निः य ने अपने जीवन में पाप-कर्मों का काफी संचय किया, जिस के फलस्वरूप उसे मरकर तीसरी नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होना पड़ा। यह सच है कि जघन्य स्वार्थ मनुष्य को बुरे से बुरे काम की ओर प्रवृत्त करा देता है। स्वार्थ और मनुष्यता का अहि-नकुल (सांप और नेवले) की भान्ति सहज (स्वाभाविक) वैर है। मनुष्यता की स्थिति में स्वार्थ का अभाव होता है और स्वार्थ के आधिपत्य में मनुष्यता नहीं रहने पाती। स्वार्थी जीव दूसरों के हित का नाश करने में संकोच नहीं करता, तथा निर्दोष प्राणियों के प्राणों का अपहरण करना उसके लिए एक साधारण सी बात हो जाती है। निर्णय नामक अंडवाणिज भी इसी स्वार्थ पूर्ण वृत्ति के कारण अगणित प्राणियों की हिंसा कर रहा था। उसकी इस पापमय प्रवृत्ति ने उस के आत्मा को अधिक से अधिक भारी कर दिया। उसने 362 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे जघन्य कामों में पूरे एक हजार वर्ष व्यतीत किए। इस भयंकरातिभयंकर अपराध के कारण उसे तीसरी नरक में जाना पड़ा। तीसरी नरक की उत्कृष्ट स्थिति सात 'सागरोपम की है, अर्थात् स्वकृत कर्मों के अनुसार उस में गया हुआ जीव अधिक से अधिक सात सागरोपम काल तक रहता है। इसलिए विचारशील पुरुष को पापकर्म से पृथक् रहने का ही सदा भरसक प्रयत्न करना चाहिए। "दिण्णभतिभत्तवेयणा" इस समस्त पद की व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव सूरि लिखते हैं-"-दत्तं भूतिभक्तरूपं वेतनं मूल्यं येषां ते तथा, तत्र भृतिः-द्रम्मादिवर्तना, भक्तं तु घृतकणादि-" अर्थात् वेतन शब्द से उस द्रव्य का ग्रहण होता है जो किसी को कोई काम के बदले में दिया जाए। भृति शब्द रुपए पैसे आदि का परिचायक है तथा भक्त शब्द घृत, धान्य आदि के लिए प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि-निर्णय नामक अंडों के व्यापारी ने जिन नौकरों को रखा हुआ था, उन में से किन्हीं को वह वेतन के उपलक्ष्य में रुपया, पैसा आदि दिया करता था और किन्हीं को घृत, गेहूं आदि धान्य दिया करता था। प्रतिदिन का दूसरा नाम कल्याकल्यि है। कल्ये कल्ये च कल्याकल्यि अनुदिनमित्यर्थः। तथा जमीन खोदने वाला शस्त्रविशेष कुद्दालक कहलाता है। बांसों की बनी हुई पिटारी या टोकरी का नाम पत्थिकापिटक है। अथवा पत्थिका टोकरी और पिटक थैले का नाम है। __इसके अतिरिक्त "तवएसु" आदि पदों की तथा "तलेंति" आदि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है ___ "तवएसु य"- त्ति तवकानि-सुकुमारिकादितलनभाजनानि / “कवल्लीसु य"-त्ति कवल्यो-गुडादिपाकभाजनानि / "कंदूसुय"-त्ति कन्दवो मंडकादिपचनभाजनानि "भजणएसु य" त्ति भर्जनकानि कर्पराणि धानापाकभाजनानि, अंगाराश्च प्रतीताः, "तलेंति" अग्नौ, स्नेहेन, "भज्जेंति" भृज्जन्ति धान्यवत् पचन्ति; "सोल्लिति य" ओदनमिव राध्यन्ति, खंडशो वा कुर्वन्ति / इस पाठ का भावार्थ निम्नोक्त है सुकुमारिका-पूड़ा पकाने का लोहमय भाजन-पात्र तवा कहलाता है। गुड़, शर्करा आदि पकाने का पात्र कवल्ली कहा जाता है, हिन्दी भाषा में इसे कड़ाहा कहते हैं। कन्दु उस पात्र का नाम है जिस पर रोटी पकाई जाती है। भूनने का पात्र कड़ाही आदि भर्जनक कहा जाता है। दहकते हुए कोयले के लिए अंगार शब्द प्रयुक्त होता है। ___ अर्द्धमागधी कोषकार कन्दु शब्द के-लोहे का एक बर्तन, चने आदि भूनने की 1. सागरोपम- शब्द का अर्थ पीछे लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [363 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कड़ाही-ऐसे दो अर्थ करते हैं। प्राकृतशब्दमहार्णव के पृष्ठ 267 पर 'कन्दु' का अर्थ "-जिस में माण्ड (पकाए हुए चावलों में से निकाला हुआ लेसदार पानी) आदि पकाया जाता हो वह बर्तन हाण्डा-" ऐसा लिखा है। टीकाकार महानुभाव के मत में "तवक" और "कन्दु" दोनों में प्रथम पूड़ा पकाने का और दूसरा रोटी पकाने का पात्र है। "तलेंति"-इस क्रियापद से-अग्नि पर तेल आदि से तलते हैं-कड़कड़ाते हुए घी या तेल में डाल कर पकाते हैं- ऐसा अर्थ अभिव्यक्त होता है। "भजेति" का अर्थ है-धाना (भूने हुए यव-जौ या चावल) की तरह भूनते थे-आग पर रख कर या गरम बालू पर डाल कर पकाते थे। "सोल्लिति"-पद के दो अर्थ होते हैं, जैसे कि-१- चावल के समान पकाते थे, तात्पर्य यह है कि जिस तरह चावल पकाए जाते हैं, उसी तरह निर्णय के नौकर अंडों को पकाया करते थे। २-खण्ड-खण्ड किया करते थे। परन्तु कोषकार "सोल्लिति" इस क्रियापद का अर्थ-शूल (बड़ा लंबा और लोहे का नुकीला काण्टा) पर पकाते थे-ऐसा करते हैं। अब सूत्रकार निर्णय अंडवाणिज की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हुए कहते हैं। मूल-से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव सालाडवीए चोरपल्लीए विजयस्स चोरसेणावइस्स खंदसिरीए भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। तते णं तीसे खंदसिरीए भारियाए अन्नया कयाइ तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमे एयारूवे दोहले पाउब्भूते, धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ 4 जा णं बहूहिं मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरियणमहिलाहिं अन्नाहि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा बहाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकार-विभूसिता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च 5 आसादेमाणा 4 विहरंति। जिमियभुत्तुत्तरागयाओ पुरिसनेवस्थिया सनद्ध जाव पहरणा भरिएहिं फलएहिं, णिक्किट्ठाहिं असीहिं अंसागतेहिंतोणेहिं, सजीवेहिंधणूहिं समुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लासियाहिं दामाहिं लम्बियाहिं अवसारियाहिं उरूघंटाहिं छिप्पतूरेणं वजमाणेणं महया उक्किट्ठ जाव समुद्दरवभूयं पिव करेमाणीओ सालाडवीए चोरपल्लीए सव्वओ समंता ओलोएमाणीओ 2 आहिंडेमाणीओ 2 दोहलं विणेति।तं जइ णं अहं पि जाव विणिज्जामि, त्ति कट्ट तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि जाव झियाति। छाया-स ततोऽनन्तरमुवृत्य इहैव शालाटव्यां चोरपल्ल्यां विजयस्य 364 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [.प्रथम श्रुतस्कंध Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरसेनापतेः स्कन्दश्रियो भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः। ततस्तस्य स्कन्दश्रियो भार्यायाः अन्यदा कदाचित् त्रिषु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु अयमेतद्पः दोहदः प्रादुर्भूतः-धन्यास्ता अम्बाः-४ या बहभिर्मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबन्धि-परिजन-महिलाभिः, अन्याभिश्चोर महिलाभिः सार्द्ध संपरिवृताः स्नाता : यावत् प्रायश्चित्ताः सर्वालंकारविभूषिताः विपुलमशनं पानं खादिमं स्वादिमं सुरां च 5 आस्वादयमानाः 4 विहरन्ति। जिमितभुक्तोत्तरागताः, पुरुषनेपथ्याः सन्नद्ध० यावत् प्रहरणाः फलकैः निष्कृष्टैरसिभिः, अंसागतैस्तुणैः सजीवैर्धनुर्भिः समुत्क्षिप्तैः शरैः समुल्लासिताभिर्दामभिः लम्बिताभिरवसरिताभिरुरूघंटाभिः क्षिप्रतूरेण वाद्यमानेन महतोत्कृष्ट० यावत् समुद्ररवभूतमिव कुर्वाणाः शालाटव्यां चोरपल्ल्यां सर्वतः समन्तादवलोकयन्त्यः 2 आहिण्डमानाः 2 दोहदं विनयन्ति / तद् यद्यहमपि यावद् विनयामि इति कृत्वा तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने यावद् ध्यायति। पदार्थ-से णं-वह निर्णय नामक अण्डवाणिज-अण्डों का व्यापारी। तओ-वहां से-नरक से। अणंतरं-अन्तर रहित। उव्वट्टित्ता-निकल कर। इहेव-इसी। सालाडवीए-शालाटवी नामक। चोरपल्लीएचोरपल्ली में। विजयस्स-विजय नामा। चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति की। खंदसिरीए-स्कन्दश्री। भारियाए-भार्या की। कुच्छिंसि-कुक्षि में-उदर में। पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। तते णं-तदनन्तर। तीसे-उस। खंदसिरीए- स्कंदश्री। भारियाए-भार्या को। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। तिण्हं- मासाणं-तीन मास / बहुपडिपुण्णाणं-परिपूर्ण होने पर। इमे-यह। एयारूवे-इस प्रकार का। दोहले-दोहद-गर्भवती स्त्री का मनोरथ। पाउब्भूते-उत्पन्न हुआ। ताओ-वे। अम्मयाओ ४माताएं 4 / धण्णाओ णं-धन्य हैं। जाणं-जो। बहहिं-अनेक। मित्त-मित्र। णाइ-ज्ञातिजन। नियगनिजक-पिता, पुत्र आदि। सयण-स्वजन-चाचा, भाई आदि। सम्बन्धि-सम्बन्धी-श्वसुर, साला आदि। परियणं-परिज़न-दास आदि की। महिलाहिं-स्त्रियों के तथा। अन्नाहि य-अन्य। चोरमहिलाहिं-चोरमहिलाओं के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडा-संपरिवृत-घिरी हुईं तथा। ण्हाया-नहाई हुईं। जाव-यावत्। पायच्छित्ता-अशुभ स्वप्नों के फल को विफल करने के लिए प्रायश्चित के रूप में तिलक और . 1. "-अम्मयाओ४- यहां के 4 के अंक से -"सपुण्णाओणं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का भावार्थ निम्नोक्त है वे माताएं सपुण्या-पुण्यशालिनी हैं, वे माताएं कृतार्थ हैं-उन के प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं, वे माताएं कृतपुण्या हैं-उन्होंने ही पुण्य की उपार्जना की है, तथा वे माताएं कृतलक्षणा हैं-संपूर्ण लक्षणों से युक्त हैं। 2. "ण्हाया जाव पायच्छित्ता"-यहां पठित जाव-यावत् पद से "-कयबलिकम्मा कयकोउयमंगल-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। इन पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय में की जा चुकी है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [365 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांगलिक कार्य करने वाली। सव्वालंकारविभूसिता-सम्पूर्ण अलंकरणों से विभूषित हुईं। विपुलंविपुल-बहुत। असणं-अशन-रोटी, दाल आदि / पाणं-पान-पानी आदि पेय पदार्थ का। खाइम-खादिममेवा और मिष्टान्न आदि। साइमं-स्वादिम-पान सुपारी आदि सुगन्धित पदार्थों का। सुरं च ५-और पांच प्रकार की सुरा आदि का। आसादेमाणा ४-आस्वादन प्रस्वादन आदि करती हुईं। विहरंति-विहरण करती हैं। जिमियभुत्तुत्तरागयाओ-तथा जो भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आ गई हैं। पुरिसनेवत्थिया-पुरुष-वेष को धारण किए हुए हैं। सन्नद्ध-दृढ़ बन्धनों से बांधे हुए और लोहमय कसूलक आदि से संयुक्त कवच-लोहमय बख्तर को धारण किए हुए हैं। 'जाव-यावत्। पहरणाजिन्होंने आयुध और प्रहरण ग्रहण किए हुए हैं। भरिएहिं फलिएहि-वाम हस्त में धारण किए हुए फलक-ढालों के द्वारा। निक्किट्ठाहिं असीहिं-कोश-म्यान (तलवार कटार आदि रखने का खाना) से निकली हुईं कृपाणों के द्वारा। अंसागतेहि-तोणेहि-अंसागत-स्कन्ध देश को प्राप्त तूण-इषुधि (जिस में बाण रखे जाते हैं उसे तूण या इषुधि कहते हैं) के द्वारा / सजीवेहिं धणूहि-सजीव-प्रत्यंचा-डोरी-से युक्त धनुषों के द्वारा / समुक्खित्तेहिं सरेहि-लक्ष्यवेधन करने के लिए धनुष पर आरोपित किए गए शरों-बाणों द्वारा। समुल्लासियाहिं दामाहि-समुल्लसित-ऊंचे किए हुए पाशों-जालों अथवा शस्त्रविशेषों से।लंबियाहिलम्बित जो लटक रही हों। अवसारियाहि-तथा अवसारित-चालित अर्थात् हिलाई जाने वालीं। उरुघंटाहिजंघा में अवस्थित घंटिकाओं से। छिप्पतूरेणं वजमाणेणं-शीघ्रता.से बजने वाले बाजे के बजाने से। महया-महान्। उक्किट्ठ-उत्कृष्ट-आनन्दमय महाध्वनि आदि से। जाव-यावत् / समुद्दरवभूयं पिवसमुद्र शब्द के समान महान् शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को। करेमाणीओ-करती हुईं। सालाडवीए चोरपल्लीए-शालाटवी नामक चोरपल्ली के। सव्वओ समंता-चारों तरफ का। ओलोएमाणीओ-अवलोकन करती हुईं। आहिंडेमाणीओ-भ्रमण करती हुईं। दोहलं-दोहद को।विणेतिपूर्ण करती हैं। तं-सो। जइ णं-यदि। अहं पि-मैं भी। जाव-यावत्। विणिजामि-दोहद को पूर्ण करूं। त्ति कट्ट-ऐसा विचार करने के बाद। तंसि दोहलंसि-उस दोहद के। अविणिज्जमाणंसि-पूर्ण न होने पर। जाव-यावत्। झियाति-आर्तध्यान करती है। मूलार्थ-वह निर्णय नामक अण्डवाणिज नरक से निकल कर इसी शालाटवी नामक चोरपल्ली में विजयनामा चोरसेनापति की स्कन्दश्री भार्या के उदर में पुत्ररूप से १."सन्नद्ध. जाव पहरणा"- यहां पठित जाव-यावत् पद से "बद्धवम्मियकवया, उप्पीलियसरासणपट्टिया"-से ले कर "गहियाउह"-इन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का शब्दार्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद द्वितीयान्त तथा पुरुषों के विशेषण हैं, जब कि यहां प्रथमान्त और स्त्रियों के विशेषण हैं। 366 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न हुआ। किसी अन्य समय लगभग तीन मास पूरे होने पर स्कन्दश्री को यह दोहद (संकल्प विशेष) उत्पन्न हुआ वे माताएं धन्य हैं जो अनेक मित्रों की, ज्ञाति की, निजकजनों की, स्वजनों की, सम्बन्धियों की और परिजनों की महिलाओं-स्त्रियों तथा चोर-महिलाओं से परिवृत्त हो कर, स्नात यावत् अनिष्टोत्पादक स्वप्न को निष्फल करने के लिए प्रायश्चित के रूप में तिलक एवं मांगलिक कृत्यों को करके सर्व प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, बहुत से अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थों तथा 'सुरा, मधु, मेरक, जाति और प्रसन्ना इन मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन और परिभोग करती हुई विचर रहीं तथा भोजन करके जो उचित स्थान पर आ गई हैं, जिन्होंने पुरुष का वेष पहना हुआ है और जो दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवचलोहमय बख्तर को शरीर पर धारण किए हुए हैं, यावत् आयुध और प्रहरणों से युक्त हैं तथा जो वाम हस्त में धारण किए हुए फलक-ढालों से, कोश-म्यान से बाहर निकली हुई कृपाणों से, अंसगत-कन्धे पर रखे हुए शरधि-तरकशों से, सजीव-प्रत्यञ्चा-(डोरी) युक्त धनुषों से, सम्यक्तया उत्क्षिप्त-फैंके जाने वाले, शरों-बाणों से, समुल्लसितऊँचे किए हुए पाशों-जालों से अथवा शस्त्र विशेषों से, अवलम्बित तथा अवसारितचालित जंघाघंटियों के द्वारा, तथा क्षिप्रतूर्य (शीघ्र बजाया जाने वाला बाजा) बजाने से महान् उत्कृष्ट-आनन्दमय महाध्वनि से, समुद्र के रव-शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को ध्वनित-शब्दायमान करती हुईं; शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों तरफ का अवलोकन और उसके चारों तरफ भ्रमण कर दोहद को पूर्ण करती हैं। क्या ही अच्छा हो, यदि मैं भी इसी भांति अपने दोहद को पूर्ण करूं, ऐसा विचार करने के पश्चात् दोहद के पूर्ण न होने से वह उदास हुई यावत् आर्तध्यान करने लगी। - टीका-प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार पाठकों को पूर्व-वर्णित चोरसेनापति विजय की शालाटवी नामक चोरपल्ली का स्मरण करा रहे हैं। पाठकों को यह तो स्मरण ही होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह वर्णन आया था कि पुरिमताल नगर के ईशान कोण में एक विशाल, भयंकर अटवी थी। उस में एक चोरपल्ली थी। जिस के निर्माण तथा आकारविशेष का परिचय पहले दिया जा चुका है। 1. इन शब्दों के अर्थ द्वितीय अध्ययन में दिए जा चुके हैं। 2. इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [367 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे पूर्व परिचित निर्णय नामक अंडवाणिज का जीव जो कि स्वकृत पापाचरण से तीसरी नरक में गया हुआ था, नरक की भवस्थिति को पूर्ण कर इसी चोरपल्ली में विजय की स्त्री स्कन्दश्री के गर्भ में पुत्ररूप से उत्पन्न होता है। __ जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि जीव दो प्रकार के होते हैं, एक शुभ कर्म वाले, दूसरे अशुभ कर्म वाले। शुभ कर्म वाले जीव जिस समय माता के गर्भ में आते हैं, तो उस समय माता के संकल्प शुभ और जब अशुभ कर्म वाले जीव माता के गर्भ में आते हैं तो उस समय माता के संकल्प भी अशुभ अथच गर्हित होने लग जाते हैं। निर्णय नामक अंडवाणिज का जीव कितने अशुभ कर्म उपार्जित किए हुए था, इसका निर्णय तो पूर्व में आए हुए उसके जीवनवृत्तान्त से सहज ही में हो जाता है। वह नरक से निकल कर सीधा स्कन्दश्री के गर्भ में आता है, उस को गर्भ में आए तीन मास ही हुए थे कि उसकी माता स्कन्दश्री को दोहद उत्पन्न हुआ। जीवात्मा के गर्भ में आने के बाद लगभग तीसरे महीने गर्भिणी स्त्री को गर्भगत जीव के प्रभावानुसार मन में जो संकल्पविशेष उत्पन्न होते हैं, शास्त्रीय परिभाषा में उन्हें दोहद कहते हैं। स्कन्दश्री को निम्नलिखित दोहद उत्पन्न हुआ वे माताएं धन्य हैं जो अपनी सहेलियों, नौकरानियों, निजजनों, स्वजनों, सगे सम्बन्धियों तथा अपनी जाति की स्त्रियों एवं अन्य चोरमहिलाओं के साथ एकत्रित हो कर स्नानादि क्रियाओं के बाद अनिष्टजन्य स्वप्नों को निष्फल करने के लिए प्रायश्चित्त के रूप में तिलक और मांगलिक कार्य करके वस्त्र भूषणादि से विभूषित होकर विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों और नाना प्रकार की मदिराओं का यथारुचि सेवन करती हैं। तथा जो इच्छित भोज्य सामग्री एवं मदिरापान के अनन्तर उचित स्थान में आकर पुरुष के वेष को धारण करती हैं, और अस्त्र शस्त्रादि से सुसज्जित हो सैनिकों की तरह जिन्होंने कवचादि पहने हुए हैं, बायें हाथ में ढालें और दाहिने में नंगी तलवारें हैं। जिनके कन्धे पर तरकश, प्रत्यञ्च-डोरी से सुसज्जित धनुष हैं और चलाने के लिए बाणों को ऊपर कर रखा है, और जो वाद्य-ध्वनि से समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान आकाशमंडल को गुंजाती हुईं तथा शालाटवी नामक चोरपल्ली का सर्व प्रकार से निरीक्षण करती हुईं अपनी इच्छाओं की पूर्ति करती हैं, वे माताएं धन्य हैं, उन्हीं का जीवन सफल हैं। सारांश यह है कि स्कन्दश्री के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि जो गर्भवती महिलाएं अपनी जीवन-सहचरियों के साथ यथारुचि सानन्द खान-पान करती हैं, तथा पुरुष का वेष बनाकर अनेकविध शस्त्रों से सैनिक तथा शिकारी की भांति तैयार होकर नाना प्रकार के शब्द करती हुईं बाहर जंगलों में सानन्द बिना किसी प्रतिबन्ध के भ्रमण करती हैं, वे 368 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग्यशालिनी हैं और उन्होंने ही अपने मातृजीवन को सफल किया है, क्या ही अच्छा हो यदि मुझे भी ऐसा करने का अवसर मिले और मैं भी अपने को भाग्यशालिनी समझू। विचार-परम्परा के अविश्रान्त स्रोत में प्रवाहित हुआ मानव प्राणी बहुत कुछ सोचता है और अनेक तरह की उधेड़बुन में लगा रहता है। कभी वह सोचता है कि मैं इस काम को पूरा कर लूं तो अच्छा है, कभी सोचता है कि मुझे अमुक पदार्थ मिल जाए तो ठीक है। यदि आरम्भ किया काम पूरा हो जाता है तो मन में प्रसन्नता होती है, उसके अपूर्ण रहने पर मन उदासीन हो जाता है। परन्तु सफलता और विफलता, हर्ष और विषाद तथा हानि और लाभ ये दोनों साथ-साथ ही रहते हैं। वीतरागता की प्राप्ति के बिना मानव में हर्ष, विषाद, हानि और लाभ जन्य क्षोभ बराबर बना रहता है। स्कन्दश्री भी एक मानव प्राणी है, उस में सांसारिक प्रलोभनों की मात्रा साधारण मनुष्य की अपेक्षा अधिक है। इसलिए उस में हर्ष अथवा विषाद भी पर्याप्त है। उसके दोहद-इच्छित संकल्प की पूर्ति न होने से उस में विषाद की मात्रा बढ़ी और वह दिन प्रतिदिन सूखने लगी तथा दीर्घकालीन रोगों से व्याप्त होने की भान्ति उस की शारीरिक दशा चिन्ताजनक हो गई। उस का सारा समय आर्तध्यान में व्यतीत होने लगा। "जिमियभुत्तुत्तरागयाओ"-इस की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं... "जेमिता:-कृतभोजनाः, भुक्तोत्तरं-भोजनानन्तरं-आगता उचितस्थाने यास्ता तथा-" अर्थात् जिस ने भोजन कर लिया है, उसे जेमित कहते हैं। भोजन के पश्चात् को कहते हैं-भुक्तोत्तर। भोजन करने के अनंतर उचितस्थान में उपस्थित हुईं महिलाएं"जेमितभुक्तोत्तरागता'' कहलाती हैं। इस के अतिरिक्त “भरिएहिं फलिएहिं" इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है "भरिएहिं-हस्तपाशितैः, फलएहिं-१स्फटिकैः, निक्किट्ठाहि-कोषकादाकृष्टैः, असिहिं- खड्गैः, अंसागएहिं-स्कन्धदेशमागतैः-पृष्ठदेशे बन्धनात्, तोणेहि-शराधिभिः, सजीवेहि-सजीवै:-कोट्यारोपितप्रत्यञ्चैः, धणूहि-कोदण्डकैः, समुक्खित्तेहिं सरेहिं 1. वृत्तिकार को "फलएहिं" इस पाठ का "-स्फटिक (स्फटिक रत्न की कान्ति के समान कान्ति वाली तलवारें)-यह अर्थ अभिप्रेत है। परन्तु हैमशब्दानुशासन के "स्फटिके लः।८/१/१९७। स्फटिक टस्य लो भवति। फलिहो। और "निकषस्फटिकचिकुरे हः।८/१/१८६ / सूत्र से स्फटिक के ककार को हकारादेश हो जाता है, इस से स्फटिक का फलिह यह रूप बनता है। प्रस्तुत सूत्र में फलअ पाठ का आश्रयण है। इसीलिए हमने इसका फलक (ढाल) यह अर्थ किया है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [369 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसर्गार्थमुत्क्षिप्तैः बाणैः, समुल्लासियाहि-समुल्लसिताभिः, दामाहि-पाशकविशेषैः,दाहाहिंइति क्वचिद्-तत्र प्रहरणविशेषैर्दीर्घवंशाग्रन्य-स्तदात्ररूपैः, ओसारियाहि-प्रलम्बिताभिः, उरुघंटाहि-जंघाघंटाभिः, छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं द्रुत-तूर्येण वाद्यमानेन, "महया उक्किट्ठ' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्-"महया उक्किट्ठसीहनायबोल-कलकलरवेणं"तत्रोत्कृष्टश्चानन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्च प्रसिद्धः, बोलश्च वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलश्च व्यक्तवचनः स एव तल्लक्षणो यो रवः स तथा तेन "समुद्दरवभूयं पिव"-जलधिशब्दप्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थः "गगनमंडलं" इति गम्यते। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है (1) भरित-हस्तरूप पाश (जाल) से गृहीत अर्थात् हस्तबद्ध, (2) फलअस्फटिक मणि के समान, (3) निष्कृष्ट-म्यान से बाहर हुई, (4) असि-तलवार, (5) अंसागत-पृष्ठभाग पर बांधने के कारण कन्धे पर रखा हुआ, (6) तूण-इषुधि-तीर रखने का थैला, (7) सजीव-प्रत्यञ्चा (डोरी) से युक्त, (8) धनुष-फलदार तीर फैंकने का वह अस्त्र जो बांस या लोहे के लचीले डण्डे को झुकाकर उसके दोनों छोरों के बीच डोरी बांधकर बनाया जाता है, (9) समुत्क्षिप्त-लक्ष्य पर फैंकने लिए धनुष पर आरोपित किया गया, (१०)शर-धार वाला फल लगा हुआ एक छोटा अस्त्र जो धनुष की डोरी पर खींच कर छोड़ा जाता है-बाण (तीर), (11) समुल्लासित-ऊंची की. गई, (12) दाम-पाशक विशेष अर्थात् फंसाने की रस्सियां अथवा शस्त्रविशेष। . वृत्तिकार के मत से किसी-किसी प्रति में "दामाहि" के स्थान पर "दाहाहिं" ऐसा पाठ भी पाया जाता है। उस का अर्थ है-"वे प्रहरणविशेष जो एक लंबे बांस पर लगे हुए होते हैं- ढांगे वगैरह जो कि पशु चराने वाले ग्रामीण लोग जंगल में पशु चराते हुए अपने पास वृक्षों की शाखाएं काटने या किसी वन्य जीव का सामना करने के लिए रखते हैं। (13) लम्बिता-प्रलंबित-लटकती हुई, (14) अवसारिता-हिलाई जाने वाली अथवा ऊपर को सरकाई जाने वाली, (15) क्षिप्रतूर्य-शीघ्र-शीघ्र बजाया जाने वाला वाद्य, (16) वाद्यमान-बजाया जा रहा। ___ "महया उक्किट्ठ० जाव समुद्दरव" यहां पठित जाव-यावत् पद से सिंहनाद के, बोल के, कलकल के शब्दों से-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। उत्कृष्ट आदि पदों का अर्थ इस प्रकार है (1) उत्कृष्ट-आनन्दमय महाध्वनि। (2) सिंहनाद-सिंह का नाद-गर्जना। (3) बोल-वर्णों की अव्यक्त ध्वनि अर्थात् जिस आवाज में वर्गों की प्रतीति न हो। (4) कलकल-वह ध्वनि जिस में वर्गों की अभिव्यक्ति-प्रतीति होती है। 370 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्ट, सिंहनाद, बोल और कलकल रूप जो शब्द हैं, उनके द्वारा समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमण्डल-आकाशमण्डल को करती हुईं। __ "अहमवि जाव विणिज्जामि"-यहां पठित "-जाव-यावत्-" पद से "बहूहिं मित्तणाइनियगसयणसंबन्धिपरियणमहिलाहिं अन्नाहि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा" से लेकर "चोरपल्लीए सव्वओ समंता ओलोएमाणीओ 2 आहिण्डेमाणीओ दोहलं" यहां तक के पाठ का ग्रहण समझना चाहिए। इन पदों का अर्थ पीछे कर दिया गया है। "अविणिज्जमाणंसि जाव झियाति"-यहां पठित-जाव-यावत्-पद से "-सुक्खा, भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा नित्तेया दीणविमणवयणा पंडुइयमुही ओमंथियनयण-वयण-कमला जहोइयं पुप्फवत्थगन्धमल्लालंकारहारं अपरिभुंजमाणी करयलमलिय व्व कमलमाला, ओहयमणसंकप्पा"-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में निर्णय का नरक से निकल कर स्कन्दश्री के उदर में आने का तथा स्कन्दश्री को उत्पन्न दोहद का वर्णन सूत्रकार ने किया है। अब उसके दोहद की पूर्ति और बालक के जन्म का अंग्रिम सूत्र में वर्णन करते हैं मूल-तते णं से विजए चोरसेणावती खंदसिरिभारियं ओहत. जाव पासति 2 त्ता एवं वयासी-किंण्णं तुमं देवाणुः! ओहत जाव झियासि ? तते णं सा खंदसिरी विजयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणु० ! मम तिण्हं मासाणं जाव झियामि। तते णं से विजए चोरसेणावती खंदसिरीए भारियाए अंतिते एयमढे सोच्चा निसम्म खंदसिरिं भारियं एवं वयासी-अहासुहं देवाणुप्पिए ! त्ति एयमटुं पडिसुणेति। तते णं सा खंदसिरी भारिया विजएणं चोरसेणावतिणा अब्भणुण्णाया संमाणी हट्ट बहूहि मित्त जाव अन्नाहि य बहूहिं चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा ण्हाया जाव विभूसिता विपुलं असणं 4 सुरं च 5 आसादेमाणी 4 विहरति।जिमियभुत्तुत्तरागया पुरिसणेवत्थिया सन्नद्धबद्ध जाव आहिंडेमाणी दोहलं विणेति, तते णं सा खंदसिरी भारिया संपुण्णदोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिण्णदोहला संपन्नदोहला तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहति। तते णं सा खंदसिरी चोरसेणावतिणी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाता। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [371 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-ततः स विजयश्चोरसेनापतिः स्कन्दश्रियं भार्यामपहत यावत् पश्यति दृष्ट्वा एवमवदत्-किं त्वं देवानुप्रिये ! अपहत यावद् ध्यायसि ? ततः सा स्कंधश्री: विजयमेवमवादीत्-एवं खलु देवनु! मम त्रिषु मासेषु यावद् ध्यायामि। ततः स विजश्चोरसेनापतिः स्कन्दश्रियः भार्याया अन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य स्कन्दश्रियं भार्यामेवमवादीत् - यथासुखं देवानुप्रिये इत्येतमर्थं प्रतिश्रृणोति / ततः सा स्कन्द श्री: भार्या विजयेन चोरसेनापतिना अभ्यनुज्ञाता सती ह्रष्ट बहुभिर्मित्र० यावदन्याश्र्चि वहुभिश्चौरमहिलाभिः सार्द्ध सपरिवृता स्नाता यावद् विभूषिता विपुलमशंन 4 सुरां 5 आस्वादयन्ती 4 विहरति। जिमितभुक्तोत्तरागता पुरुषनेपथ्या सन्नद्धबद्ध यावदाहिंडमाना दोहदं विनयति / ततः सा स्कन्दश्री भार्या सम्पूर्णदोहदा, संमानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदोहदा तं गर्भं सुखसुखेन परिवहति। ततः सा स्कन्दश्री: चोरसेनापत्नी नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रयाता। ___ पदार्थ-तते णं- तदन्तर / से-वह। विजय-विजय नामक। चोरसेणावती-चोर-सेनापति चोरों का नायक। खंदसिरि भरियं-स्कन्दश्री स्त्री को जो कि। ओहत-कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के विवेक से विकल। जाव-यावत् आर्तध्यान से युक्त है। पासतिर-देखता है, देखकर। एंव-इस प्रकार। वयासीकहने लगा। देवाणु० -हे शुभगे तुमं-तू। किण्णं-क्यों। ओहत-कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के भान से शून्य हो कर / जाव०१-यावत् / झियासि-आर्तध्यान कर रही हो? तते णं-तदनन्तर। सा -वह। खंदसिरिस्कन्धश्री। विजयं- विजय के प्रति। एंव - इस प्रकार। वयासी- कहने लगी। एंव खलु- इस प्रकार निश्चय ही। देवाणु०- !-हे देवानुप्रिय! अर्थात् हे स्वामिन् ! मम्- मुझे गर्भ धारण किये हुए। तिण्हं मासाणं -तीन मास हो गए हैं, अब मुझे एक दोहद उत्पन्न हुआ है, उस की पूर्ति न होने से मैं कर्तव्याकर्त्तव्य के विवेक से रहित हुई। जाव२- यावत् / झियामि - आर्तध्यान कर रही हूं। तते णं 1. ओहत जाव पासति-यहां पठित जाव-यावत्- पद से-ओहतमणसंकप्पं-इसका ग्रहण समझना। इस पद के दो अर्थ पाए जाते हैं, जोकि निम्रोक्त हैं क-अपहतमनःसंकल्पा-अपहतो मनसः संकल्पो यस्याः सा-अर्थात् संकल्प-विकल्प रहित मन वाली। तात्पर्य यह है कि जिसके मन के संकल्प नष्ट हो चके हैं. वह स्त्री। __ ख-अपहतमनःसंकल्पा-कर्त्तव्याकर्त्तव्यविवेकविकला-अर्थात् कर्त्तव्य (करने के योग्य) और अकर्त्तव्य (न करने योग्य) के विवेक से रहित स्त्री। प्रस्तुत में -ओहतमणसंकप्पं-यह पद द्वितीयान्त विवक्षित है, अत: यहां द्वितीयान्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए। 2. "मासाणं जाव झियामि-" यहां पठित जाव-यावत्- पद से "बहुपडिपुण्णाणं इमे एयारूवे दोहले पाउब्भूते, धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ-से लेकर -तं जइ णं अहमवि जाव विणिज्जामि त्ति कट्ट तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि सुक्खा भुक्खा-से लेकर-ओहयमणसंकप्पा-यहां तक के पाठ का ग्रहण करना 372 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदन्तर। से विजय-वह विजय। चोरसेणावती-चोरसेनापति। खंदसिरीए भारियाए- स्कन्ध श्री भार्या के। अंतिते- पास से। एयमढें- इस बात को। सोच्चा- सुनकर तथा। णिसम्म-हृदय में धारण कर। खंदसिरिं भारियं-स्कन्दश्री नामक भार्या को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिए !-हे देवानुप्रिये ! अर्थात् हे सुभगे ! अहासुहं त्ति-जैसा तुम को सुख हो वैसा करो, इस प्रकार से / एयमटुं-उस बात को। पडिसुणेति-स्वीकार करता है, तात्पर्य यह है कि विजय ने स्कन्दश्री के दोहद को पूर्ण कर देने की स्वीकृति दी। तते णं-तदनन्तर। सा-वह। खंदसिरी-स्कन्दश्री। भारिया-भार्या। विजएणं-विजय नामक। चोरसेणावतिणा-चोरसेनापति के द्वारा। अब्भणुण्णाया समाणी-अभ्यनुज्ञात होने पर अर्थात् उसे आज्ञा मिल जाने पर / हट्ट०-बहुत प्रसन्न हुई और / बहूहिं-अनेक। मित्त-मित्रों की। जाव-यावत्। अन्नाहि य-और दूसरी / बहूहिं-बहुत सी। चोरमहिलाहिं-चोर-महिलाओं के / सद्धिं-साथ। संपरिवुडासंपरिवृत हुई-घिरी हुई। पहाया-स्नान कर के। जाव-यावत्। विभूसिता-सम्पूर्ण अलंकारों-आभूषणों से विभूषित हो कर। विपुलं-विपुल-पर्याप्त / असणं ४-अशनादि खाद्य पदार्थों / सुरं च ५-और सुरा आदि पंचविध मद्यों का। आसादेमाणी ४-आस्वादन, विस्वादन आदि करती हुई। विहरति-विहरण कर रही है। जिमियभुत्तुत्तरागया-भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आकर। पुरिसणेवत्थिया-पुरुष के वेष से युक्त। सन्नद्धबद्ध-दृढबन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवचलोहमय बख्तर विशेष को शरीर पर धारण किए हुए। जाव-यावत्। आहिंडेमाणी-भ्रमण करती हुई। दोहलं-दोहद को। विणेति-पूर्ण करती है। तते णं-तदनन्तर। सा खंदसिरी भारिया-वह स्कन्दश्री भार्या। संपुण्णदोहला-संपूर्णदोहदा अर्थात् जिस का दोहद पूर्ण हो गया है। संमाणियदोहला-सम्मानितदोहदा अर्थात् इच्छित पदार्थ ला कर देने के कारण जिस के दोहद का सन्मान किया गया है। विणीयदोहलाविनीतदोहदा अर्थात् अभिलाषा के निवृत्ति होने से जिस के दोहद की निवृत्ति हो गई है। वोच्छिन्नदोहलाव्युच्छिन्नदोहदा अर्थात् दोहद-इच्छित वस्तु की आसक्ति न रहने से उस का दोहद व्युच्छिन्न (आसक्तिरहित) हो गया है। सम्पन्नदोहला-सम्पन्नदोहदा अर्थात् अभिलषित अर्थ-धनादि और भोग-इन्द्रियों के विषय से सम्पादित आनन्द की प्राप्ति होने से जिस का दोहद सम्पन्न हो गया है। तं-उस। गब्भं-गर्भ को। सुहंसुहेणं-सुख-पूर्वक। परिवहति-धारण करने लगी। तते णं-तदनन्तर / सा-उस।खंदसिरी-स्कन्दश्री। चोरसेणावतिणी-चोरसेनापति की स्त्री ने। नवण्हं-मासाणं-नव मास के। बहुपडिपुण्णाणं-परिपूर्ण होने पर / दारगं-बालक को। पयाता-जन्म दिया। मूलार्थ-तदनन्तर विजय नामक चोरसेनापति ने आर्तध्यान करती हुई स्कन्दश्री को देख कर इस प्रकार कहा सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों में से बहुपडिपुण्णाणं-से लेकर-अविणिज्जमाणंसि-यहां तक के पदों का अर्थ इसी अध्याय में पीछे और सुक्खा-इत्यादि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [373 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे सुभगे ! तुम उदास हुई आर्तध्यान क्यों कर रही हो ? स्कन्दश्री ने विजय के उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा कि स्वामिन् ! मुझे गर्भ धारण किए हुए तीन मास हो चुके हैं, अब मुझे यह (पूर्वोक्त) दोहद (गर्भिणी स्त्री का मनोरथ ) उत्पन्न हुआ है, उसके पूर्ण न होने पर, कर्तव्य और अकर्त्तव्य के विवेक से रहित हुई यावत् मैं आर्तध्यान कर रही हूं। तब विजय चोरसेनापति अपनी स्कन्दश्री भार्या के पास से यह कथन सुन और उस पर विचार कर स्कन्दश्री भार्या के प्रति इस प्रकार कहने लगा कि-हे प्रिये ! तुम इस दोहद की यथारुचि पूर्ति कर सकती हो और इसके लिए कोई चिन्ता मत करो।। पति के इस वचन को सुन कर स्कन्दश्री को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह हर्षातिरेक से अपनी सहचरियों तथा अन्य चोरमहिलाओं को साथ ले स्नानादि से निवृत्त हो, सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो कर, विपुल अशन, पानादि तथा सुरा आदि का आस्वादन, विस्वादन आदि करने लगी। इस प्रकार सब के साथ भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आकर पुरुषवेष से युक्त हो तथा दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को शरीर पर धारण कर के यावत् भ्रमण करती हुई अपने दोहद की पूर्ति करती है। तदनन्तर वह स्कन्दश्री दोहद के सम्पूर्ण होने, संमानित होने, विनीत होने, व्युच्छिन्न-अनुबन्ध-(निरन्तर इच्छा-आसक्ति) रहित अथच सम्पन्न होने पर अपने उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है। तत्पश्चात् उस चोरसेनापत्नी स्कन्दश्री ने नौ मास के पूर्ण होने पर पुत्र को जन्म दिया। टीका-किसी दिन चोरसेनापति विजय जब घर में आया तो उसने अपनी भार्या स्कन्दश्री को किसी और ही रूप में देखा, वह अत्यन्त कृश हो रही है, उस का मुखकमल मुरझा गया है, शरीर का रंग पीला पड़ गया है और चेहरा कान्तिशून्य हो गया है। तथा वह उसे चिन्ताग्रस्त मन से आर्तध्यान करती हुई दिखाई दी। स्कन्दश्री की इस अवस्था को देख कर विजय को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने बड़े अधीर मन से उसकी इस दशा का कारण पूछा और कहा कि प्रिये ! तुम्हारी ऐसी शोचनीय दशा क्यों हुई ? क्या किसी ने तुम्हें अनुचित वचन कहा है ? अथवा तुम किसी रोगविशेष से अभिभूत हो रही हो ? तुम्हारे मुखकमल की वह शोभा, न जाने कहां चली गई ! तुम्हारा रूपलावण्य सब लुप्त सा हो गया है। प्रिये ! कहो, ऐसा क्यों हुआ? क्या कोई आन्तरिक कष्ट पतिदेव के इस संभाषण से थोड़ी सी आश्वस्त हुई स्कन्दश्री बोली, प्राणनाथ ! मुझे 374 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ धारण किए तीन मास हो चुके हैं, इस अवसर में मेरे हृदय में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि-वे माताएं धन्य तथा पुण्यशालिनी हैं जो अपनी सहचरियों के साथ यथारुचि सानन्द सहभोज करती हैं और पुरुष-वेष को धारण कर सैनिकों की भांति अस्त्र-शस्त्रादि से सुसज्जित हो नाना प्रकार के शब्द करती हुईं आनन्द पूर्वक जंगलों में विचरती हैं, परन्तु मैं बड़ी हतभाग्य हूं, जिसका यह संकल्प पूरा नहीं हो पाया। प्राणनाथ ! यही विचार है जिस ने मुझे इस दशा को प्राप्त कराया। खाना मेरा छूट गया, पीना मेरा नहीं रहा, हंसने को दिल नहीं करता, बोलने को जी नहीं चाहता, न रात को नींद है, न दिन को शान्ति / सारांश यह है कि इन्हीं विचारों में ओतप्रोत हुई मैं आर्तध्यान में समय व्यतीत कर रही हूं। स्कन्दश्री के इन दीन वचनों को सुनकर विजय के हृदय को बड़ी ठेस पहुंची। कारण कि उस के लिए यह सब कुछ एक साधारण सी बात थी, जिसके लिए स्कन्दश्री को इतना शारीरिक और मानसिक दुःख उठाना पड़ा। उसका एक जीवन साथी उसकी उपस्थिति में इतना दु:खी है और वह भी एक साधारण सी बात के लिए, यह उसे सर्वथा असह्य था। उसे दुःख भी हुआ और आश्चर्य भी। दुःख तो इसलिए कि उसने स्कन्दश्री की ओर पर्याप्त ध्यान देने में प्रमाद किया, और आश्चर्य इसलिए कि इतनी साधारण सी बात का उसने स्वयं प्रबन्ध क्यों न कर लिया। अस्तु, वह पूरा-पूरा आश्वासन देता हुआ अपनी प्रिय भार्या स्कन्दश्री से बोला प्रिये ! उठो, इस चिन्ता को छोड़ो, तुम्हे पूरी-पूरी स्वतन्त्रता है तुम जिस तरह चाहो, वैसा ही करो। उस में जो कुछ भी कमी रहे, उसकी पूर्ति करना मेरा काम है। तुम अपनी इच्छा के अनुसार सम्बन्धिजनों को निमंत्रण दे सकती हो, यहां की चोरमहिलाओं को बुला सकती हो, और पुरुष वेष में यथेच्छ विहार कर सकती हो। अधिक क्या कहूं, तुम को अपने इस दोहद की यथेच्छ पूर्ति के लिए पूरी-पूरी स्वतन्त्रता है, उस में किसी प्रकार का भी प्रतिबन्ध नहीं होगा। जिस-जिस वस्तु की तुम्हें आवश्यकता होगी वह तुम्हें समय पर बराबर मिलती रहेगी। इस सारे विचार-सन्दर्भ को सूत्रकार ने "अहासुहं देवाणुप्पिए!" -इस अकेले वाक्य में ओतप्रोत कर दिया है। इस प्रकार पति के सप्रेम तथा सादर आश्वासन को पाकर स्कन्दश्री की सारी मुाई हुईं आशा-लताएं सजीव सी हो उठीं। उसे पतिदेव की तरफ से आशा से कहीं अधिक आश्वासन मिला। पतिदेव की स्वीकृति मिलते ही उसके सारे कष्ट दूर हो गए। वह एकदम हर्षातिरेक से पुलकित हो गई। बस, अब क्या देर थी।अपनी सहचरियों तथा अन्य सम्बन्धिजनों को बुला प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [375 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिया। दोहद-पूर्ति के सारे साधन एकत्रित हो गए। सब से प्रथम उसने अपनी सहेलियों तथा अन्य सम्बन्धिजनों की महिलाओं के साथ विविध प्रकार के भोजनों का उपभोग किया। सहभोज के अनन्तर सभी एकत्रित होकर किसी निश्चित स्थान में गईं। सभी ने पुरुष-वेष से अपने आप को विभूषित करके सैनिकों की भान्ति अस्त्र-शस्त्रादि से सुसज्जित किया और सैनिकों या शिकारी लोगों की तरह धनुष को चढ़ा कर नाना प्रकार के शब्द करती हुईं वे शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों ओर भ्रमण करने लगीं। इस प्रकार अपने दोहद की यथेच्छ पूर्ति हो जाने पर स्कन्दश्री अपने गर्भ का यथाविधि बड़े आनन्द और उत्साह के साथ पालन-पोषण करने लगी। तदनन्तर नौ मास पूरे हो जाने पर उसने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। ___इस कथा- सन्दर्भ में गर्भवती स्त्री के दोहद की पूर्ति कितनी आवश्यक है तथा उसकी अपूर्ति से उसके शरीर तथा गर्भ पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ता है-इत्यादि बातों के.परिचय के लिए पर्याप्त सामग्री मिल जाती है। ___ "समाणी हट्ठ० बहूहिं"-यहां के बिन्दु से-तुटुचित्तमाणंदिया, पीइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाणहि यया, धाराह यकलंबुगं पिव, समुस्ससिअरोमकूवा-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का भावार्थ निम्नोक्त है (1) हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया-हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता, हृष्टं हर्षितं हर्षयुक्तं दोहदपूर्त्याश्वासनेन अतीव प्रमुदितं, तुष्टं सन्तोषोपेतं, धन्याऽहं यन्मे पति:मदीयं दोहदं पूरयिष्यतीति कृतकृत्यम्, हृष्टं तुष्टं च यच्चित्तं तेनानन्दिता, हृष्टतुष्टचित्तानंदिता-अर्थात् विजयसेन चोरसेनापति द्वारा दोहद की पूर्ति का आश्वासन मिलने से हृष्ट और "-मैं धन्य हूं जो मेरे पतिदेव मेरे दोहद की पूर्ति करेंगे-" इस विचार से सन्तुष्ट चित्त के कारण वह स्कन्दश्री अत्यन्त आनन्दित हुई। अथवा-हर्ष को प्राप्त हृष्ट और सन्तोष को उपलब्ध तुष्ट-कृतकृत्य चित्त होने के कारण जो आनन्द को प्राप्त कर रही है, उसे 'हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता' कहते हैं। चित्त के हृष्ट एवं तुष्ट होने के कारण यथा-प्रसङ्ग भिन्न-भिन्न समझ लेने चाहिएं। __ अथवा-हृष्टतुष्ट-अत्यन्त प्रमोद से युक्त चित्त होने के कारण जो आनन्दानुभव कर रही है, उसे "हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता" कहते हैं। (2) पीइमणा-प्रीतिमनाः, प्रीतिस्तृप्तिः उत्तमवस्तुप्राप्तिरूपा सा मनसि यस्याः सा प्रीतमना:-तृप्तचित्ता-अर्थात् जिस का मन अभिलषित उत्तम पदार्थों की प्राप्तिरूप तृप्ति को उपलब्ध कर रहा है, उस स्त्री को प्रीतमना कहते हैं। 376 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) “-परमसोमणस्सिया- परमसौमनस्यिता, सातिशयप्रमोदभावमापन्ना-" अर्थात् अत्यन्त हर्षातिरेक को प्राप्त परमसौमनस्यिता कही जाती है। (4) हरिसवसविसप्पमाणहियया- हर्षवशविसर्पद्धृदया, हर्षवशाद् विसर्पद् विस्तारयायि हृदयं-मनो यस्याः सा हर्षवशविसर्पद्धदया-" अर्थात् हर्ष के कारण जिस का हृदय विस्तृत-विस्तार को प्राप्त हो गया है। तात्पर्य यह है कि हर्षाधिक्य से जिसका हृदय उछल रहा है, उस स्त्री को हर्ष-वश-विसर्पद-हृदया कहते हैं। (5) धाराहयकलम्बुगं पिव समुस्ससियरोमकूवा-धाराहतकदम्बकमिव समुच्छ्वसितरोमकूपा, धाराभिः मेघवारिधाराभिः आहतं यत् कदम्बपुष्पं तदिव समुच्छ्वसितानि समुत्थितानि रोमाणि कूपेषु-रोमरंध्रेषु यस्याः सा-अर्थात् मेघ-जल की धाराओं से आहत कदम्ब-(देवताड़ नामक वृक्ष के) पुष्प के समान जो हर्ष के कारण रोमाञ्चित हो रही है। "मित्त जाव अण्णाहि-" यहां पठित जाव-यावत् पद से-"णाइ-नियग-सयणसंबन्धि-परियण-महिलाहिं-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। ज्ञाति आदि पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय के टिप्पण में कर दी गई है। "ण्हाया जाव विभसिता-"यहां पठित जाव-यावत् पद से "-कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता, सव्वालंकार-" इन पदों का ग्रहण अभिमत है। कृतबलिकर्मा और कृतकौतुकमंगलप्रायश्चित इन दोनों पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय में कर दी गई है। सर्वालंकारविभूषित पद का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। "सन्नद्धबद्ध जाव आहिँडेमाणी- यहां पठित जाव-यावत् पद से "-वम्मियकवया, उप्पीलियसरासणपट्टिया-से लेकर -गहियाउहपहरणा भरिएहिं फलएहिं-" से लेकर "-चोर पल्लीए सव्वओ समन्ता ओलोएमाणी-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए -सन्नद्धबद्धवम्मियकवया इत्यादि पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय में तथा भरिएहिं इत्यादि पदों की व्याख्या इसी अध्याय में पीछे कर दी गई है। . - प्रस्तुत सूत्र में "-संपुण्णदोहला, संमाणियदोहला, विणीयदोहला, वोच्छिण्णदोहला। संपन्नदोहला-" ये पांच पद प्रयुक्त हुए हैं। यदि इन के अर्थों पर कुछ सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए तो ये समानार्थ से ही जान पड़ते हैं / इन में अर्थ-भेद बहुत कम है, इन का उल्लेख दोहद की विशिष्ट पूर्ति के सूचनार्थ ही दिया हो, ऐसा अधिक सम्भव है। तथापि इन में जो अर्थगत सूक्ष्म भेद रहा है, उसे पदार्थ में दिखा दिया गया है। ___ अब सूत्रकार उत्पन्न बालक की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल-तते णं विजए चोरसेणावती तस्स दारगस्स महया इड्ढीसक्कार प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [377 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुदएणं दसरत्तं ठितिवडियं करेति। तते णं से विजए चोरसेणावती तस्स दारगस्स एक्कारसमे दिवसे असणं 4 उवक्खडावेति, मित्तनाति० आमंतेति 2 जाव तस्सेव मित्तनाति पुरओ एवं वयासी-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भगयंसि समाणंसि इमे एयारूवे दोहले पाउब्भूते, तम्हा णं होउ, अम्हं दारए अभग्गसेणे णामेणं। तते णं से अभग्गसेणे कुमारे पंचधाई जाव परिवड्ढति। छाया-तत: विजयश्चोरसेनापतिस्तस्य दारकस्य महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन दशरात्रं स्थितिपतितं करोति / ततः स विजयश्चोरसेनापतिस्तस्य दारकस्यैकादशे दिवसे विपुलमशनम् 4 उपस्कारयति, मित्रज्ञाति आमन्त्रयति, आमन्त्र्य यावत् तस्यैव मित्रज्ञाति पुरत एवमवादीत्-यस्मादस्माकमस्मिन् दारके गर्भगते सति अयमेतद्पो दोहद प्रादुर्भूतः। तस्माद् भवतु अस्माकं दारकोऽभग्नसेनो नाम्ना; ततः सोऽभग्नसेनः कुमारः पंचधात्री० यावत् परिवर्द्धते। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। विजए-विजय नामक। चोरसेणावती-चोरसेनापति। तस्स-उस। दारगस्स-बालक का। महया-महान / इड्ढीसक्कारसमुदएणं-ऋद्धि-वस्त्र सुवर्णादि, सत्कार-सम्मान के समुदाय से। दसरत्तं-दस दिन तक। ठिइवडियं-स्थिति-पतित-कुलक्रमागत उत्सव-विशेष। करेतिकरता है। तते णं-तदनन्तर / से-वह। विजए-विजय। चोरसेणावती-चोरसेनापति। तस्स दारगस्स-उस बालक के। एक्कारसमे-एकादशवें। दिवसे-दिन / विपुलं-महान् / असणं ४-अशन, पान, खादिम तथा 1. -मित्तनाति आमंतेति जाव तस्सेव-यहां के बिन्दु से-णियगसयणसंबन्धि-परियणं-इस पाठ का ग्रहण करना और जाव-यावत् -से "-तओ पच्छा ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्यावेसाई मंगलाई पवराई परिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकिय-सरीरे भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्तनाइनियगसंबन्धिपरिजणेणं सद्धिं तं विउलं असणपाणखाइमसाइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभुंजेमाणे परिभाएमाणे विहरति, जिमिअभुत्तुत्तरागए वि अणं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूए तं मित्तनाइनियगसयणसम्बन्धिपरिजणं विउलेणं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्माणेति सक्कारित्ता सम्माणित्ता तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंबन्धिपरिजणस्स-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ निम्नोक्त है उसके अनन्तर उस ने स्नान किया, बलिकर्म किया, दुष्ट स्वप्नों के फल को निष्फल करने के लिए प्रायश्चित के रूप में मस्तक पर तिलक लगाया और अन्य मांगलिक कार्य किए, शुद्ध तथा सभा आदि में प्रवेश करने के योग्य, मंगल-पवित्र एवं प्रधान-उत्तम वस्त्र धारण किए और मूल्य में अधिक और भार में हलके हों, ऐसे आभूषणों से शरीर को अलंकृत-विभूषित किया, तदनन्तर भोजन के समय पर भोजन-मण्डप (वह मण्डप जहां भोजन का प्रबन्ध किया गया था) में उपस्थित हो कर वह विजय उत्तम एवं सुखोत्पादक आसन पर बैठ गया और उन मित्रों ज्ञातिजनों, निजजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों के साथ विपुल (पर्याप्त) अशन-दाल रोटी आदि, 378 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वादिम को। उवक्खडावेति-तैयार कराता है, तथा। मित्तनाति-मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि लोगों को। आमंतेति-आमंत्रित करता है। जाव'-यावत्। तस्सेव-उसी। मित्तनाति-मित्र और ज्ञाति जनों के। पुरओ-सामने। एवं-इस प्रकार / वयासी-कहने लगा। जम्हा णं-जिस कारण। अम्हं-हमारे। इमंसिइस। दारगंसि-बालक के। गब्भगयंसि समाणंसि-गर्भ में आने पर / इमे-यह / एयारूवे-इस प्रकार का। दोहले-दोहद-गर्भिणी स्त्री का मनोरथ / पाउब्भूते-उत्पन्न हुआ और वह सब तरह से अभग्न रहा। तम्हा णं-इसलिए। अम्हं-हमारा। दारए-बालक। अभग्गसेणे-अभग्नसेन। नामेणं-इस नाम से। होउ-हो अर्थात् इस बालक का "अभग्नसेन" यह नाम रखा जाता है। तते णं-तदनन्तर / से-वह / अभग्गसेणेअभग्नसेन / कुमारे-कुमार। पंचधाई. जाव-५ धायमाताओं यावत् अर्थात् क्षीरधात्री-दूध पिलाने वाली, मज्जनधात्री-स्नान कराने वाली, मंडनधात्री-अलंकृत करने वाली, क्रीडापनधात्री-खेल खिलाने वाली और अंकधात्री-गोद में रखने वाली, इन पांच धाय माताओं के द्वारा पोषित होता हुआ वह / परिवड्ढति-वृद्धि को प्राप्त होने लगा। मूलार्थ-विजय नामक चोरसेनापति ने उस बालक का दश दिन पर्यन्त महान् वैभव के साथ स्थितिपतित-कुलक्रमागत उत्सव-विशेष मनाया। ग्यारहवें दिन विपुल अशनादि सामग्री का संग्रह किया और मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि लोगों को आमंत्रित किया और उन्हें सत्कार-पूर्वक जिमाया। तत्पश्चात् यावत् उनके समक्ष कहने लगा कि- भद्र पुरुषो ! जिस समय यह बालक गर्भ में आया था, उस समय इस की माता को एक दोहद उत्पन्न हुआ था (जिस का वर्णन पीछे कर दिया गया है)। उस को भग्न नहीं होने दिया गया, तात्पर्य यह है कि इस बालक की माता को जो दोहद उत्पन्न हुआ था, वह अभग्न रहा अर्थात् निर्विघ्नता से पूरा कर दिया गया। इसलिए इस बालक का "अभग्नसेन"यह नामकरण किया जाता है। तदनन्तर वह अभग्नसेन बालक क्षीरधात्री पान-पानी आदि पेय पदार्थ खादिम-आम सेब आदि और मिठाई आदि पदार्थ तथा स्वादिम-पान सुपारी आदि पदार्थों का आस्वादन (थोडा सा खाना और बहत सा छोड देना, इक्ष खण्ड गन्ने-की भांति). विस्वादन (बहत खाना और थोड़ा छोड़ना, जैसे खजूर आदि) परिभोग (जिस में सर्वांश खाने के काम आए, जैसे रोटी आदि) और परिभाजन (एक दूसरे को देना) करता हुआ विहरण करने लगा। भोजन करने के अनन्तर यथोचित स्थान पर आया और आकर आचान्त-आचमन (शुद्ध जल के द्वारा मुखादि की शुद्धि) किया, चोक्ष-मुखगत लेपादि को दूर करके शुद्धि की, इसीलिए परमशुद्ध हुआ वह विजय चोरसेनापति उन मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों का बहुत से पुष्पों, वस्त्रों, सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारों-आभूषणों के द्वारा सत्कार एवं सम्मान करता है, तदनन्तर उन मित्रों, ज्ञातिजनों आदि लोगों के सामने इस प्रकार कहता है। (1) "-पंचधाई जाव परिवडढति-"यहां पठित "-जाव-यावत-"पद से" -परिग्गहिते तंजहा-खीरधातीए मज्जण.-" से ले कर "-चंपयपायवे सुहंसुहेणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [379 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि पांच धाय माताओं के द्वारा पोषित होता हुआ यावत् वृद्धि को प्राप्त होने लगा। टीका-पुत्र का जन्म भी माता-पिता के लिए अथाह हर्ष का कारण होता है। पिता की अपेक्षा माता को पुत्र-प्राप्ति में और भी अधिक प्रमोदानुभूति होती है, क्योंकि पुत्र-प्राप्ति के लिए वह (माता) तो अपने हृदय को दृढ़ बना कर कभी-कभी असंभव को भी संभव बना देने का भगीरथ प्रयत्न करने से नहीं चूकती। ऐसी माता यदि अपने विचारों को सफलता के रूप में पाए तो वर्षा के अनन्तर विकसित कमल की भान्ति पुलकित हो उठती है, और वह स्वाभिमान में फली नहीं समाती। प्रसन्नता का कारण उस की बहत दिनों से गंथी हर्ड विचारमाला का गले में पड़ जाना ही समझना चाहिए। आज स्कन्दश्री भी उन्हीं महिलाओं में से है, जिनका हृदय प्रफुल्लित सरोज की भान्ति प्रसन्न है। स्कन्दश्री अपने नवजात शिशु की मुखाकृति का अवलोकन करके प्रसन्नता के मारे फूली नहीं समाती। पुत्र के जन्म से सारे घर में तथा परिवार में खुशी मनाई जा रही है। आज विजय के हर्ष की भी कोई सीमा नहीं, बधाई देने वालों को वह हृदय खोल कर द्रव्य तथा वस्त्र भूषणादि दे रहा है और बालक के जन्म दिन से लेकर दस दिन पर्यन्त उत्सव मनाने का आयोजन भी बड़े उत्साह के साथ किया जा रहा है। जन्मोत्सव मनाने के लिए एक विशाल मण्डप तैयार किया गया, सभी मित्रों तथा सगे-सम्बन्धियों को आमन्त्रित किया गया। सभी लोग उत्साहपूर्वक नवजात शिशु के जन्मोत्सव में सम्मिलित हुए और सब ने विजय को बधाई देते हुए बालक के दीर्घायु होने की शुभेच्छा प्रकट की। तदनन्तर विजय चोरसेनापति ने ग्यारहवें दिन सब को सहभोज दिया अर्थात् विविध भान्ति के अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थों से अपने मित्रों, ज्ञातिजनों तथा अन्य पारिवारिक व्यक्तियों को प्रेम पूर्वक जिमाया। इधर स्कन्दश्री की सहचरियों ने भी बाहर से आई हुई महिलाओं के स्वागत में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी। भोजनादि से निवृत्त होकर सभी उत्सव मण्डप में पधारे और यथास्थान बैठ गए। सब के बैठ जाने पर विजय सेनापति ने आगन्तुकों का स्वागत करते हुए कहा __आदरणीय बन्धुओ ! आप सज्जनों का यहां पर पधारना मेरे लिए बड़े गौरव और सौभाग्य की बात है, तदर्थ मैं आपका अधिक से अधिक आभारी हूं। विशेष बात यह है कि जिस समय यह बालक गर्भ में आया था उस समय इस की माता स्कन्दश्री को यह दोहद उत्पन्न हुआ था। (इसके बाद उसने दोहद-सम्बन्धी सारा वृत्तान्त कह सुनाया)। उसकी पूर्ति भी यथाशक्ति कर दी गई थी, दूसरे शब्दों में-उस दोहद को भग्न नहीं होने दिया गया अर्थात् 1. इन पदों का अर्थ प्रथम अध्याय के टिप्पण में लिखा जा चुका है। 380 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्दश्री का वह दोहद अभग्न रहा / इसी कारण-दोहद के अभग्न होने से आज मैं इस बालक का "अभग्नसेन'' यह नामकरण करता हूं, आशा है आप सब इस में सम्मत होंगे और किसी को कोई विप्रतिपत्ति नहीं होगी। विजय चोर सेनापति के इस प्रस्ताव का सभी उपस्थित सभ्यों ने खुले दिल से समर्थन किया और सब ने "अभग्नसेन" इस नाम की उद्घोषणा की। तथा सब लोग बालक अभग्नसेन को शुभाशीर्वाद देते हुए अपने-अपने घरों को चले गए। ___ तदनन्तर कुमार अभग्नसेन की सारसंभाल के लिए पांच धायमाताएं नियुक्त कर दी गईं। वह उनके संरक्षण में शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्रमा की भान्ति बढ़ने लगा। प्रस्तुत सूत्रगत-"इड्ढिसक्कारसमुदएणं" तथा "दसरत्तं ठितिवडियं" इन दोनों की व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं "ऋद्धया-वस्त्रसुवर्णादिसम्पदा, सत्कार:-पूजाविशेषस्तस्य समुदयः समुदायो यः स तथा। दशरात्रं यावत् स्थितिपतितं-कुलक्रमागतं पुत्रजन्मानुष्ठानं तत्" अर्थात् ऋद्धि शब्द से वस्त्र तथा सुवर्णादि सम्पत्ति अभिप्रेत है और पूजा-विशेष को सत्कार कहते हैं, एवं समूह का नाम समुदाय है। कुलक्रमागत-कुल परम्परा से चले आने वाले पुत्रजन्मसंबन्धी अनुष्ठानविशेष को स्थितिपतित कहते हैं, जो कि दश दिन में संपन्न होता है। अब सूत्रकार कुमार अभग्नसेन की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से अभग्गसेणकुमारे उम्मुक्कबालभावे यावि होत्था, अट्ठ दारियाओ जाव अट्ठओ दाओ उप्पिं० भुंजति। छाया-ततः सोऽभग्नसेनकुमारः उन्मुक्तबालभावश्चाप्यभवत्, अष्ट दारिका, यावदष्टको दायो, उपरि० भुंक्त। पदार्थ-ततेणं-तदनन्तर / से-वह।अभग्गसेणकुमारे-अभग्नसेन कुमार / उम्मुक्कबालभावे यावि होत्था-बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हो गया था तब उस का। अट्ठ दारियाओ-आठ लड़कियों के साथ। जाव-यावत् विवाह किया गया, तथा उसे। अट्ठओ-आठ प्रकार का। दाओप्रीतिदान-दहेज प्राप्त हुआ, वह। उप्पिं०-महलों के ऊपर / भुंजति-उन का उपभोग करने लगा। मूलार्थ-तदनन्तर कुमार अभग्नसेन ने बालभाव को त्याग कर युवावस्था में प्रवेश किया, तथा आठ लड़कियों के साथ उस का पाणिग्रहण-विवाह किया गया। उस विवाह में आठ प्रकार का उसे दहेज मिला और वह महलों में रह कर सानन्द उसका उपभोग करने लगा। टीका-पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्री गौतम से कहते हैं कि गौतम! प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [381 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार पांचों धायमाताओं के यथाविधि संरक्षण में बढ़ता और फलता-फूलता हुआ कुमार अभग्नसेन जब बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हुआ तो उस का शरीरगत सौन्दर्य और भी चमक उठा। उस को देख कर प्रत्येक नर-नारी मोहित हो जाता, हर एक का मन उस के रूप-लावण्य की ओर आकर्षित होता और विशेष कर युवतिजनों का मन उस की ओर अधिक से अधिक खिंचता। उसी के फलस्वरूप वहां के आठ प्रतिष्ठित घरों की कन्याओं के साथ उस का पाणिग्रहण हुआ। और आठों के यहां से उस को आठ-आठ प्रकार का पर्याप्त दहेज मिला, जिस को लेकर वह उन आठों कन्याओं के साथ अपने विशाल महल में रह कर सांसारिक विषय-भोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा। अथवा यूं कहिए कि उन आठ सुन्दरियों के साथ विशालकाय भवनों में रह कर आनन्द-पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। यहां एक शंका हो सकती है, वह यह कि-जब अभग्नसेन के जीव ने पूर्व जन्म में भयंकर दुष्कर्म किए थे, तो उन का फल भी बुरा ही मिलना चाहिए था, परन्तु हम देखते हैं कि उसकी शैशव तथा युवावस्था में उस के लालन-पालन का समुचित प्रबन्ध तथा प्रतिष्ठित घराने की रूपवती आठ कन्याओं से उस का पाणिग्रहण एवं दहेज में विविध भान्ति के अमूल्य पदार्थों की उपलब्धि और उन का यथारुचि उपभोग, यह सब कुछ तो उस को महान पुण्यशाली व्यक्ति प्रमाणित कर रहा है ? यह शंका स्थूल रूप से देखने से तो अवश्य उचित और युक्तिसंगत प्रतीत होती है, परन्तु जरा गम्भीर-दृष्टि से देखेंगे तो इस में न तो उतना औचित्य ही है और न युक्तिसंगतता ही। यह तो सुनिश्चित ही है कि इस जीव को ऐहिक या पारलौकिक जितना भी सुख या दुःख उपलब्ध होता है, वह उस के पूर्व संचित शुभाशुभ कर्मों का परिणाम है। और यह भी यथार्थ है कि संसारी आत्मा अपने अध्यवसाय के अनुसार शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों का बन्ध करता है। सत्तागत कर्मों में शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म होते हैं। उन में से जो कर्म जिस समय उदय में आता हैं, उस समय वह फल देता है। अगर शुभ कर्म का विपाकोदय हो तो इस जीव को सुख तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है और अशुभ कर्म के विपाकोदय में दुःख तथा दरिद्रता की उपलब्धि होती है। हम संसार में यह प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि एक ही जन्म में अनेक जीव समय-समय पर सुख तथा ऐश्वर्य और दुःख तथा दरिद्रता दोनों को ही प्राप्त कर रहे हैं। एक व्यक्ति जो आज हर प्रकार से दुःखी है कल वही सर्व प्रकार से सुखी बना हुआ दिखाई देता है और जो आज परम-सुखी नजर आता है कल वही दुःख से घिरा हुआ दिखाई देता है। यदि यह सब कुछ कर्माधीन ही है तो यह मानना पड़ेगा 382 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि जीव के स्बोपार्जित कर्मों में से शुभाशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म अपने-अपने विपाकोदय में फल देते हैं और स्थिति पूरी होने पर फल दे कर निवृत्त हो जाते हैं। ___अभग्नसेन को शिशु-काल में जो सुख मिल रहा है, वह उसके प्राक्तन किसी शुभ कर्म का फल है, और युवावस्था में उस को जो सांसारिक सुखों के उपभोग की विपुल सामग्री मिली है, वह भी उसके सत्तागत कर्मों के उदय में आए हुए किसी पुण्य का ही परिणाम है। इसके अनन्तर पुण्यकर्म के समाप्त हो जाने पर जब उसके अशुभ कर्म का विपाकोदय होगा, तो उसे दुःख भी अवश्य भोगना पड़ेगा। कर्म शुभ हो या अशुभ एक बार उस का बन्ध हो जाने पर अगर उस की निर्जरा नहीं हुई तो वह फल अवश्य देगा और देगा तब जब कि वह उदय में आएगा। इसी सिद्धान्त के अनुसार कुमार अभग्नसेन के शिशु कालीन सम्बन्धी सुख तथा युवावस्था के ऐश्वर्योपभोग का प्रश्न बड़ी सुगमता से समाहित हो जाता है। "अट्ट दारियाओंजाव अट्टओ दाओ-" इन पदों से अभिप्रेत पदार्थ का वर्णन करते हुए वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं "अट्ठ दारियाउ त्ति" अस्यायमर्थः-तए णं तस्स अभग्गसेणस्स अम्मापियरो अभग्गसेणं कुमारं सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्तंसि अट्टहिं दारियाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पाणिंगेण्हविंसुत्ति।यावत्करणाच्चेदंद्रश्यं-तएणंतस्स अभग्गसेणकुमारस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं पीइयाणं दलयन्ति त्ति। "अट्ठओ दाउ त्ति" अष्ट परिमाणमस्येति अष्टको दायो दानं 'वाच्य' इति शेषः। स चैवं "-अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ 1. किसी भी व्यक्ति की मात्र पापमयी प्रवृत्ति के दिग्दर्शन कराने का यह अर्थ नहीं होता कि उस के जीवन में पुण्यमयी प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव ही रहता है। अतः अभग्नसेन ने निर्णय के भव में मात्र पापकर्म की ही उपार्जना की थी, पुण्यं का उसके जीवन में कोई भी अवसर नहीं आने पाया, अथवा निर्णय से पूर्व के भवों में उसके जीवन में सत्तारूपेण पण्यकर्म नहीं था. यह नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसा ही होता तो अभग्नसेन के भव में उसे देव-दुर्लभ मानव भव और निर्दोष पांचों इन्द्रियों का प्राप्त होना, पांच धायमाताओं के द्वारा लालन-पालन , आठ कन्याओं का पाणिग्रहण, एवं अन्य मनुष्य-सम्बन्धी ऐश्वर्य का उपभोग इत्यादि पुण्यलब्ध सामग्री की प्राप्ति न हो पाती। अतः अभग्नसेन के कर्मों में सत्तारूपेण पुण्य प्रकृति भी थी, यह मानना ही होगा। हां, यह ठीक है कि जब पुण्य उदय में और पाप सत्तारूप में होता है तब पुण्य के प्रभाव से व्यक्ति का जीवन बड़ा वैभवशाली एवं आनन्दपूर्ण बन जाता है, इसके विपरीत जब पुण्य सत्तारूप में और पाप उदय में रहता है, तो वह पाप भीषण दुःखों का कारण बनता है। एक बात और भी है कि अभग्नसेन ने निर्णय के भव में जिन दुष्कर्मों की उपार्जना की थी उन का दण्ड उसे पर्याप्त मात्रा में तीसरी नरंक में मिल चुका था, वहां उसे सात सागरोपम के बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषण यातनाओं का उपभोग करना पड़ा था. तब दष्कर्मों का दण्ड भोग लेने के कारण होने वाली उसकी कर्म-निर्जरा भी उपेक्षित नहीं की जा सकती, फिर भले ही वह निर्जरा देशतः (आंशिक) ही क्यों न हो। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [383 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि यावद्-१अट्ट पेसण-कारियाओ अन्नं च विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइयं संतसारसावएजं"। अर्थात्-मूलसूत्र में पठित-अट्ठ दारियाओ-यह पाठ सांकेतिक है, और वह-अभग्नसेन के युवा होने के अनन्तर माता-पिता ने शुभ तिथि नक्षत्र और करणादि से युक्त शुभ मुहूर्त में अभग्नसेन का.एक ही दिन में आठ कन्याओं से पाणिग्रहण-विवाहसंस्कार करवाया-इस अर्थ का संसूचक है। -जाव यावत्-पद-आठ लड़कियों के साथ विवाह करने के अनन्तर अभग्नसेन के माता-पिता उस को इस प्रकार का (निनोक्त) प्रीतिदान देते हैं-इस अर्थ का परिचायक है। ___जिसका परिमाण आठ हो उसे अष्टक कहते हैं / दान को दूसरे शब्दों में दाय कहते हैं और वह इस प्रकार है आठ करोड़ का सोना दिया जो कि आभूषणों के रूप में परिणत नहीं था। आठ करोड़ का वह सुवर्ण दिया जोकि आभूषणों के रूप में परिणत था, इत्यादि से लेकर यावत् आठ दासियां तथा और भी बहुत सा धन कनक-सुवर्ण, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलाप्रवाल-मूंगा, रक्तरत्न और संसार की उत्तमोत्तम वस्तुएं तथा अन्य उत्तम द्रव्यों की प्राप्ति अभग्नसेन को विवाह के उपलक्ष्य में हुई। इन भावों को ही अभिव्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने-अट्ठओ दाओ-ये सांकेतिक पद संकलित किए हैं। "उप्पिं भंजति" इन पदों का अर्थ टीकाकार के शब्दों में "-उप्पिं भंजति त्ति-" अस्यायमर्थः- तएणं से अभग्गसेणे कुमारे उप्पिंपासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं बत्तीसइबद्धेहिं नाडएहिं उवगिजमाणे विउले माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरइ"- इस प्रकार है। इस का तात्पर्य यह है कि विवाह के अनन्तर कुमार अभग्नसेन उत्तम तथा विशाल प्रासाद-महल में चला जाता है, वहां मृदंग बजते हैं, वरतरुणियां-युवति स्त्रियां बत्तीस प्रकार के नाटकों द्वारा उसका गुणानुवाद करती हैं। वहां अभग्नसेन उन साधनों से सांसारिक मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करता हुआ सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। तदनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं मूल-ततेणं से विजए चोरसेणावती अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते। ततेणं से अभग्गसेणे कुमारे पंचहिं चोरसतेहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे कंदमाणे 1. पेसणकारिया-इस पद के तीन अर्थ पाए जाते हैं। यदि इस की छाया "प्रेषणकारिका" की जाए तो इस का अर्थ-संदेशवाहिका-दूती होता है। और यदि इसकी छाया "पेषणकारिका" की जाए तो-चन्दन घिसने वाली दासी, या "गेहूं आदि धान्य पीसने वाली" यह अर्थ होगा। 384 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय ' [प्रथम श्रुतस्कंध Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलवमाणे विजयस्स चोरसेणावइस्स महया इड्ढीसक्कारसमुदएणं णीहरणं करेति 2 त्ता बहूइं लोइयाइं मयकिच्चाई करेति 2 त्ता केवइयकालेणं अप्पसोए जाते यावि होत्था, तते णं ताइं पंच चोरसयाइं अन्नया कयाइ अभग्गसेणं कुमारं सालाडवीए चोरपल्लीए महया 2 इड्ढी चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति। तते णं से अभग्गसेणे कुमारे चोरसेणावती जाते अहम्मिए 'जाव कप्पायं गेण्हति। छाया-ततः स विजयश्चोरसेनापतिः अन्यदा कदाचित् कालधर्मेण संयुक्तः। ततः सोऽभग्नसेनः कुमारः पंचभिश्चोरशतैः सार्धं संपरिवृतो रुदन् क्रन्दन् विलपन् विजयस्य चोरसेनापतेर्महता 2 ऋद्धिसत्कारसमुदयेन नीहरणं करोति कृत्वा बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति कृत्वा कियत्कालेन अल्पशोको जातश्चाप्यभवत्। ततस्तानि पंचचोरशतानि अन्यदा कदाचित् अभग्नसेनं कुमारं शालाटव्यां चोरपल्ल्यां महता 2 ऋद्धिसत्कारसमुदयेन चोरसेनापतितयाभिषिञ्चन्ति / ततः सोऽभग्नसेनः कुमारः चोरसेनापतिर्जातोऽधार्मिको यावत् कल्पायं गृह्णाति। पदार्थ-ततेणं-तदनन्तर।से-वह। विजए-विजय नामक।चोरसेणावती-चोरसेनापति।अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। कालधम्मुणा-कालधर्म से। संजुत्ते-संयुक्त हुआ, अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो गया। तते णं-तदनन्तर। से-वह। अभग्गसेणे कुमारे-अभग्नसेन कुमार। पंचहिं चोरसतेहि-पांच सौ चोरों के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडे-संपरिवृत-घिरा हुआ। रोयमाणे-रुदन करता हुआ।कंदमाणे-आक्रन्दन करता हुआ, तथा। विलवमाणे-विलाप करता हुआ। विजयस्स-विजय। चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति का। महया 2 इड्ढीसक्कारसमुदएणं-अत्यधिक ऋद्धि एवं सत्कार के साथ। णीहरणं-निस्सरण। करेति-करता है, अर्थात् अभग्नसेन बड़े समारोह के साथ अपने पिता के शव को श्मशान भूमि में पहुंचाता है, तदनन्तर / बहूई-अनेक।लोइयाइं-लौकिक / मयकिच्चाई-मृतकसम्बंधी कृत्यों को अर्थात् दाहसंस्कार से ले कर पिता के निमित्त करणीय दान, भोजनादि कर्म। करेति-करता है, तदनन्तर। केवइ-कितने। कालेणं-समय के बाद। अप्पसोए जाते यावि होत्था-वह अल्पशोक हुआ अर्थात् उस का शोक कुछ 1. "अहम्मिए जाव कप्पायं" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-अधम्मिटे, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई-" से लेकर -तज्जेमाणे 2 तालेमाणे 2 नित्थाणे निद्धणे निक्कणे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का भावार्थ इसी अध्याय में पीछे दिया गया है अन्तर केवल इतना है कि वहां विजय चोरसेनापति का नाम है, जब कि प्रस्तुत प्रकरण में अभनसेन का। अतः इस पाठ में अभग्नसेन के नाम की भावना कर लेनी चाहिए। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [385 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यूनता को प्राप्त हो गया था। तते णं-तदनन्तर। ताई-उन। पंच चोरसयाई-पांच सौ चोरों ने। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। अभग्गसेणं-अभनसेन / कुमार-कुमार का। सालाडवीए-शालाटवी नामक। चोरपल्लीए-चोरपल्ली में। महया 2 इड्ढी०-अत्यधिक ऋद्धि और सत्कार के साथ / चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति-चोरसेनापतित्व से उस का अभिषेक करते हैं, अर्थात् अभग्नसेन को चोरसेनापति के पद पर नियुक्त करते हैं। तते णं-तदनन्तर अर्थात् तब से। से अभग्गसेणे-वह अभग्नसेन। कुमारे-कुमार। चोरसेणावती-चोरसेनापति। जाते-बन गया, जो कि। अहम्मिए-अधर्मी। जाव-यावत्। कप्पायं-उस प्रान्त के राजदेय कर को। गेण्हति-स्वयं ग्रहण करने लगा। मूलार्थ-तत्पश्चात् किसी अन्य समय वह विजय चोरसेनापति कालधर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गया। उस की मृत्यु पर कुमार अभग्नसेन पांच सौ चोरों के साथ रोता हुआ, आक्रन्दन करता हुआ और विलाप करता हुआ अत्यधिक ऋद्धि-वैभव एवं सत्कारसम्मान अर्थात् बड़े समारोह के साथ विजय सेनापति का निस्सरण करता है। तात्पर्य यह है कि बाजे आदि बजा कर अपने पिता के शव को अन्त्येष्टि कर्म करने के लिए श्मशान में पहुंचाता है और वहां लौकिक मृतककार्य अर्थात् दाह-संस्कार से ले कर पिता के निमित्त किए जाने वाले दान भोजनादि कार्य करता है। कुछ समय के बाद अभग्नसेन का शोक जब कम हुआ तो उन पांच सौ चोरों ने बड़े महोत्सव के साथ अभग्नसेन को शालाटवी नामक चोरपल्ली में चोरसेनापति की पदवी से अलंकृत किया। चोरसेनापति के पद पर नियुक्त हुआ अभग्नसेन अधर्म का आचरण करता हुआ यावत् उस प्रान्त के राजदेय कर को भी स्वयं ग्रहण करने लग गया। टीका-संसार की कोई भी वस्तु सदा स्थिर या एक रस नहीं रहने पाती, उस का जो आज स्वरूप है कल वह नहीं रहता, तथा एक दिन वह अपने सारे ही दृश्यमान स्वरूप को अदृश्य के गर्भ में छिपा लेती है। इसी नियम के अनुसार अभग्नसेन के पिता विजय चोरसेनापति भी अपनी सारी मानवीय लीलाओं का संवरण करके इस असार संसार से प्रस्थान कर के अदृश्य की गोद में जा छिपे।। सुख और दुःख ये दोनों ही मानव जीवन के सहचारी हैं, सुख के बाद दुःख और दुःख के अनन्तर सुख के आभास से मानव प्राणी अपनी जीवनचर्या की नौका को संसार समुद्र में खेता हुआ चला जाता है। कभी वह सुख-निमग्न होता है और कभी दुःख से आक्रन्दन करता है, उस की इस अवस्था का कारण उसके पूर्वसंचित कर्म हैं। पुण्य कर्म के उदय से उस का जीवन सुखमय बन जाता है और पाप कर्म के उदय से जीवन का समस्त सुख दुःख के रूप 386 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में बदल जाता है, तथा जीवन की प्रत्येक समस्या उलझ जाती है। पाप के उदय होते ही भाई बहिन का साथ छूट जाता है, सम्बन्धिजन मुख मोड़ लेते हैं। और अधिक क्या कहें, इसके उदय से ही इस जीव पर से माता-पिता जैसे अकारण बन्धुओं एवं संरक्षकों का भी साया उठ जाता है। पितृविहीन अनाथ जीवन पाप का ही परिणाम विशेष है। ___ अभग्नसेन भी आज पितृविहीन हो गया, उसके पिता का देहान्त हो गया। उस की सुखसम्पत्ति का अधिक भाग लुट गया, अभग्नसेन पिता की मृत्यु से अत्यन्त दुःखी होता हुआ, रोता, चिल्लाता और अत्यधिक विलाप करता है और सम्बन्धिजनों के द्वारा धैर्य बंधाने पर किसी तरह से वह कुछ शान्त हुआ और पिता का दाहकर्म उसने समारोह पूर्वक किया। एवं मृत्यु के पश्चात् किए जाने वाले लौकिक कार्यों को भी बड़ी तत्परता के साथ सम्पन्न किया। ___ कुछ समय तो अभग्नसेन को पिता की मृत्यु से उत्पन्न हुआ शोक व्याप्त रहा, परन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया त्यों-त्यों उस में कमी आती गई और अन्त में वह पिता को भूल ही गया। इस प्रकार शोक-विमुक्त होने पर अभग्नसेन अपनी विशाल अटवी चोरपल्ली में सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। पाठक यह तो जानते ही हैं कि अब चोरपल्ली का कोई नायक नहीं रहा। विजयसेन के अभाव से उसकी वही दशा है जोकि पति के परलोक-गमन पर एक विधवा स्त्री की होती है। चोरपल्ली की इस दशा को देख कर वहां रहने वाले पांच सौ चोरों के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि जहां तक बने चोरपल्ली का कोई स्वामी-शासनकर्ता शीघ्र ही नियत कर लेना चाहिए। कभी ऐसा न हो कि कोई शत्रु इस पर आक्रमण कर दे और किसी नियन्ता के अभाव में हम सब मारे जाएं। यह विचार हो ही रहा था कि उन में से एक वृद्ध तथा अनुभवी चोर कहने लगा कि चिन्ता की कौनसी बात है ? हमारे पूर्व सेनापति विजय की सन्तान ही इस पद पर आरूढ़ होने का अधिकार रखती है। यह हमारा अहोभाग्य है कि हमारे सेनापति अपने पीछे एक अच्छी सन्तान छोड़ गए हैं। कुमार अभग्नसेन हर प्रकार से उस पद के योग्य हैं, वे पूरे साहसी अथच नीतिनिपुण हैं। इसलिए सेनापति का यह पद उन्हीं को अर्पण किया जाना चाहिए। आशा है मेरे इस उचित प्रस्ताव का आप सब पूरे जोर से समर्थन करेंगे। बस फिर क्या था, अभनसेन का नाम आते ही उन्होंने एक स्वर से वृद्ध महाशय के प्रस्ताव का समर्थन किया और बड़े समारोह के साथ सब ने मिल कर शुभ मुहूर्त में अभग्नसेन को सेनापति के पद पर नियुक्त करके अपनी स्वामी भक्ति का परिचय दिया। तब से कुमार अभग्नसेन चोरसेनापति के रूप में विख्यात हो गया और वह चोरपल्ली का शासन भी बड़ी तत्परता से करने लगा। तथा पैतृक सम्पत्ति पैतृक पद लेने के साथ साथ प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [387 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभग्नसेन ने पैतृक विचारों का भी आश्रयण किया। इसीलिए वह अपने पिता की भान्ति अधर्मी, पापी एवं निर्दयता-पूर्वक जनपद (देश) को लूटने लगा। अधिक क्या कहें वह राजदेय कर-महसूल पर भी हाथ फेरने लगा। अब सूत्रकार अभग्नसेन की अग्रिम जीवनचर्या का वर्णन करते हुए कहते हैं- . मूल-तते णं जाणवया पुरिसा अभग्गसेणेण चोरसेणावतिणा बहुग्गामघायावणाहिं ताविया समाणा अन्नमन्नं सद्दावेंति 2 त्ता एवं वयासीएवं खलु देवाणु० ! अभग्गसेणे चोरसेणावती पुरिमतालस्स णगरस्स उत्तरिल्लं जणवयं बहूहिं गामघातेहिं जाव निद्धणे करेमाणे विहरति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! पुरिमताले णगरे महब्बलस्स रण्णो एतमटुं विनवित्तते, तते णं ते जाणवयपुरिसा एतमटुं अन्नमन्नं पडिसुणेति 2 त्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुडं गेहंति रत्ता जेणेव पुरिमताले णगरे जेणेव महब्बले राया तेणेव उवागते२ महब्बलस्स रण्णो तं महत्थं जाव पाहुडं उवणेति 2 करयल० ३अंजलिं कट्ट महब्बलं रायं एवं वयासी। छाया-ततस्ते जानपदाः पुरुषाः अभग्नसेनेन चोरसेनापतिना बहुग्रामघातनाभिस्तापिताः संतः अन्योन्यं शब्दाययन्ति 2 एवमवदन्-एवं खलु देवानु० ! अभग्नसेनश्चोरसेनापतिः पुरिमतालस्य नगरस्यौत्तराहं जनपदं बहुभिर्दामघातैर्यावद् निर्धनान् कुर्वन् विहरति / तच्छ्रेयः खलु देवानुप्रियाः ! पुरिमताले नगरे महाबलस्य राज्ञः एतमर्थं विज्ञापयितुं , ततस्ते जानपदपुरुषाः एतमर्थमन्योऽन्यं प्रतिशृण्वन्ति 2 महार्थं महाघु महार्हं राजाहँ प्राभृतं गृह्णन्ति 2 यत्रैव पुरिमतालं नगरं यत्रैव महाबलो राजा तत्रैवोपागता:२ महाबलाय राज्ञे तद् महार्थं यावत प्राभृतमुपनयन्ति 2 करतल० अंजलिं कृत्वा महाबलं राजानं एवमवदन्। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। ते-वे। जाणवया-जनपद-देश में रहने वाले। पुरिसा-पुरुष। 1. "गामघातेहिं जाव निद्धणे-" यहां पठित जाव-यावत्- पद से-नगरघाते हि यं गोग्गहणेहि य बंदिग्गहणेहि य पंथकोडेहि य खत्तखणणेहि य ओवीलेमाणे 2 विहम्मेमाणे 2 तज्जेमाणे 2 तालेमाणे 2 नित्थाणे-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का शब्दार्थ पीछे लिख दिया गया है। 2. "-महत्थं जाव पाहुडं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-महग्धं महरिहं रायारिहं-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। 3. "-करयल अंजलि-" यहां के बिन्दु से "-करयलपरिग्गहियं दसणहं मत्थए-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा रहा है। 388 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभग्गसेणेण-अभग्नसेन / चोरसेणावतिणा-चोरसेनापति के द्वारा / बहुग्गामघायावणाहि-बहुत से ग्रामों के घात-विनाश से। ताविया-संतप्त-दुःखी। समाणा-हुए। अन्नमन्नं-एक-दूसरे को। सद्दावेंति २बुलाते हैं, बुलाकर। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। देवाणु!प्रिय बन्धुओ !अभग्गसेणे-अभग्नसेन / चोरसेणावती-चोरसेनापति।पुरिमतालस्स-पुरिमताल। णगरस्सनगर के। उत्तरिल्लं-उत्तर-दिशा के / जणवयं-देश को। बहूहि-अनेक। गामघातेहि-ग्रामों के विनाश से। जाव-यावत् / निद्धणे-निर्धन-धनरहित। करेमाणे-करता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा है। देवाणुप्पिया!-हे भद्र पुरुषो। तं-इस लिए। खलु-निश्चय ही। सेयं-हम को योग्य है अथवा हमारे लिए यह श्रेयस्कर है-कल्याणकारी है कि हम। पुरिमताले-पुरिमताल। णगरे-नगर में। महब्बलस्स-महाबल नामक। रणो-राजा को। एतमटुं-यह बात या इस विचार को। विन्नवित्तते-विदित करें अर्थात् अवगत करें। तते णं-तदनन्तर। ते-वे। जाणवयपुरिसा-जनपदपुरुष अर्थात् उस देश के रहने वाले लोग। एतमटुं-यह बात या इस विचार को। अन्नमन्नं-परस्पर-आपस में। पडिसुणेति २-स्वीकार करते हैं, स्वीकार कर के। महत्थं-महाप्रयोजन का सूचन करने वाला। महग्धं-महाघ-बहु मूल्य वाला। महरिहंमहार्ह-महत् पुरुषों के योग्य, तथा। रायरिहं-राजार्ह-राजा के योग्य / पाहुडं-प्राभृत-उपायन-भेंट। गेण्हंति 2- ग्रहण करते हैं, ग्रहण करके। जेणेव-जहां। पुरिमताले-पुरिमताल। णगरे-नगर था और / जेणेवजहां पर। महब्बले राया-महाबल राजा था। तेणेव-वहीं पर। उवागते २-आ गए, आकर / महब्बलस्समहाबल। रण्णो-राजा को। तं-उस। महत्थं-महान् प्रयोजन वाले। जाव-यावत्। पाहुडं-प्राभृत-भेंट। उवणेति २-अर्पण करते हैं, अर्पण कर के। करयल अंजलिं कट्ट-दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजली करके। महब्बलं-महाबल। रायं-राजा को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। मूलार्थ-तदनन्तर अभग्नसेन नामक चोरसेनापति के द्वारा बहुत से ग्रामों के विनाश से सन्तप्त हुए उस देश के लोगों ने एक-दूसरे को बुला कर इस प्रकार कहा . हे बन्धुओ ! चोरसेनापति अभनसेन पुरिमताल नगर के उत्तर प्रदेश के बहुत से ग्रामों का विनाश करके वहां के लोगों को धन, धान्यादि से शून्य करता हुआ विहरण कर रहा है। इसलिए हे भद्रपुरुषो ! पुरिमताल नगर के महाबल नरेश को इस बात से संसूचित करना हमारा कर्तव्य बन जाता है। तदनन्तर देश के उन मनुष्यों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और महार्थ, महाघ, महार्ह और राजार्ह प्राभृत-भेंट लेकर, जहां पर पुरिमताल नगर था और जहां पर महाबल राजा विराजमान थे, वहां पर आए और दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि रख कर महाराज को वह प्राभृत-भेंट अर्पण की तथा अर्पण करने के अनन्तर वे महाबल नरेश से इस प्रकार बोले। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [389 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-प्राप्त हुई वस्तु का सदुपयोग या दुरुपयोग करना पुरुष के अपने हाथ की बात होती है। एक व्यक्ति अपने बाहुबल से अत्याचारियों के हाथों से पीड़ित होने वाले अनेक अनाथों, निर्बलों और पीड़ितों का संरक्षण करता है और दूसरा उसी बाहुबल को दीन अनाथ जीवों के विनाश में लगाता है। बाहुबल तो दोनों में एक जैसा है परन्तु एक तो उस के सदुपयोग से पुण्य का संचय करता है, जबकि दूसरा उसके दुरुपयोग से पापपुञ्ज को एकत्रित कर रहा चोरपल्ली में रहने वाले चोरों के द्वारा सेनापति के पद पर नियुक्त होने के बाद अभनसेन ने अपने बल और पराक्रम का सदुपयोग करने के स्थान में अधिक से अधिक दुरुपयोग करने का प्रयास किया। नागरिकों को लूटना, ग्रामों को जलाना, मार्ग में चलते हुए मनुष्यों का सब कुछ छीन लेना और किसी पर भी दया न करना, उसके जीवन का एक कर्तव्यविशेष बन गया था। सारे देश में उसके इन क्रूरता-पूर्ण कृत्यों की धाक मची हुई थी। देश के लोग उस के नाम से कांप उठते थे। ____एक दिन उसके अत्याचारों से नितान्त पीड़ित हुए देश के लोग वहां के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पुरुषों को बुला कर आपस में इस प्रकार विचार करने लगे कि चोरसेनापति अभनसेन ने तो अत्याचार की अति ही कर दी है, वह जहां जिसको देख पाता है वहां लूट लेता है। नगरों, ग्रामों और शहरों में भी उस की लूट से कोई बचा हुआ दिखाई नहीं देता, उसने तो गरीबों को भी नहीं छोड़ा। घरों को जलाना और घर में रहने वालों पर अत्याचार करना तो उसके लिए एक साधारण सी बात बन गई है। अधिक क्या कहें उसने तो हमारे सारे देश के नाक में दम कर रखा है। इसलिए हमको इसके प्रतिकार का कोई न कोई उपाय अवश्य सोचना चाहिए। अन्यथा हमें इससे भी अधिक कष्ट सहन करने पड़ेंगे और निर्धन तथा कंगाल होकर यहां से भागना पड़ेगा। इस प्रकार परस्पर विचार-विनिमय करते हुए अन्त में उन्होंने यह निश्चय किया कि इस आपत्ति के प्रतिकार का एकमात्र उपाय यही है कि यहां के नरेश महाराज के पास जाकर अपनी सारी आपत्ति का निवेदन किया जाए और उन से प्रार्थना की जाए कि वे हमारी इस दशा में पूरी-पूरी सहायता करें। तदनन्तर इस सुनिश्चित प्रस्ताव के अनुसार उन में से मुख्य-मुख्य लोग राजा के योग्य एवं बहुमूल्य भेंट लेकर पुरिमताल नगर की ओर प्रस्थित हुए और महाबल नरेश के पास उपस्थित हो भेंट अर्पण करने के पश्चात् अभग्नसेन के द्वारा किए गए अत्याचारों को सुनाकर उन के प्रतिकार की प्रार्थना करने लगे। 390 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा, वैद्य और गुरु के पास खाली हाथ कभी नहीं जाना चाहिए। तथा ज्योतिषी आदि के पास जाते समय तो इस नियम का विशेषरूप से पालन करना चाहिए, कारण यह है कि फल से ही फल की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि यदि इनके पास सफल हाथ जाएंगे तो वहां से भी सफल हो कर वापिस आएंगे। इन्हीं परम्परागत लौकिक संस्कारों से प्रेरित हुए उन लोगों ने राजा को भेंट रूप में देने के लिए बहुमूल्य भेंट ले जाने की सर्वसम्मति से योजना की। ___ "महत्थं महग्धं महरिहं"- इन पदों की व्याख्या आचार्य अभयदेव सूरि के शब्दों में "-महत्थं-"त्ति महाप्रयोजनम्, “महग्धं" त्ति महा (बहु) मूल्यम्, “महरिहं" त्ति महतो योग्यमिति-इस प्रकार है। महार्थ आदि ये सब विशेषण राजा को दी जाने वाली भेंट के हैं। पहला विशेषण यह बता रहा है कि वह भेंट महान् प्रयोजन को सूचित करने वाली है। यह भेंट बहुमूल्य वाली है, यह भाव दूसरे विशेषण का है, तथा वह भेंट असाधारण-प्रतिष्ठित मनुष्यों के योग्य है अर्थात् साधारण व्यक्तियों को ऐसी भेंट नहीं दी जा सकती, इन भावों का परिचायक तीसरा विशेषण है। राजा के योग्य जो भेंट होती है उसे राजार्ह कहते हैं। ___ प्रस्तुत सूत्र में अभग्नसेन के दुष्कृत्यों से पीड़ित एवं सन्तप्त जनपद में रहने वाले लोगों के द्वारा महाबल नरेश के पास अपना दुःख सुनाने के लिए, किए गए आयोजन आदि का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार लोगों ने राजा से क्या निवेदन किया उस का वर्णन करते हैं... मूल-एवं खलु सामी ! सालाडवीए चोरपल्लीए अभग्गसेणे चोरसेणावती अम्हे बहूहिं गामघातेहि य जाव निद्धणे करेमाणे विहरति।तं इच्छामो णं सामी ! तुब्भं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया णिरुव्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसित्तए त्ति कट्ट पादपडिया पंजलिउडा महब्बलं रायं एतमढें विण्णवेंति। 1. रिक्तपाणिर्न पश्येत्, राजानं भिषजं गुरुम्। निमित्तज्ञं विशेषेण, फलेन फलमादिशेत्॥१॥ गुरु के सामने रिक्त हाथ (खाली हाथ) न जाने की मान्यता ब्राह्मण संस्कृति में प्रचलित है, परन्तु श्रमण संस्कृति में एतद्विषयक विधान भिन्न रूप से पाया जाता है, जोकि निनोक्त है गुरुदेव से साक्षात्कार होने पर-(१) सचित्त द्रव्यों का त्याग, (2) अचित्त का अपरित्याग (3) वस्त्र से मुख को ढकना,(४) हाथ जोड़ लेना, (5) मानसिक वृत्तियों को एकाग्र करना इन मर्यादाओं का पालन करना गृहस्थ के लिए आवश्यक है। इतना ध्यान रहे कि यह पांच प्रकार का अभिगम (मर्यादा-विशेष) आध्यात्मिक गुरु के लिए निर्दिष्ट किया गया है। अध्यापक आदि लौकिक गुरु का इस मर्यादा से कोई सम्बन्ध नहीं है। 2.. जाव-यावत्- पद से विवक्षित पदों का वर्णन पीछे किया गया है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [391 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-एवं खलु स्वामिन् ! शालाटव्याश्चोरपल्ल्या: अभग्नसेनश्चोरसेनापति; अस्मान् बहुभिामघातैश्च यावद् निर्धनान् कुर्वन् विहरति / तदिच्छामः स्वामिन् ! युष्माकं बाहुच्छायापरिगृहीता निर्भया निरुद्विग्नाः सुखसुखेन परिवस्तुम्, इति कृत्वा पादपतिताः प्राञ्जलिपुटाः महाबलं राजानमेनमर्थं विज्ञपयन्ति। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सामी !-हे स्वामिन् ! सालाडवीए-शालाटवी नामक। चोरपल्लीए-चोरपल्ली का।अभग्गसेणे-अभग्नसेन नामक / चोरसेणावती-चोरसेनापति / अम्हेहम को। बहूहि-अनेक। गामघातेहि य-ग्रामों के विनाश से। जाव-यावत्। निद्धणे-निर्धन / करेमाणेकरता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा है। तं-इस लिए। सामी!-हे स्वामिन् ! इच्छामो णं-हम चाहते हैं कि। तुब्भं-आप की। बाहुच्छायापरिग्गहिया-भुजाओं की छाया से परिगृहीत हुए अर्थात् आप से संरक्षित होते हुए। निब्भया-निर्भय। णिरुब्बिग्गा-निरुद्विग्न-उद्वेगरहित हो कर हम। सुहंसुहेणं-सुखपूर्वक। परिवसित्तए-बसें-निवास करें। त्ति कट्ट-इस प्रकार कह कर वे लोग। पायपडिया-पैरों में पड़े हुए तथा। पंजलिउडा-दोनों हाथ जोड़े हुए। महब्बलं-महाबल। रायं-राजा को। एतमटुं-यह बात। विण्णवेंति-निवेदन करते हैं। मूलार्थ-हे स्वामिन् ! इस प्रकार निश्चय ही शालाटवी नामक चोरपल्ली का चोरसेनापति अभग्नसेन हमें अनेक ग्रामों के विनाश से यावत् निर्धन करता हुआ विहरण कर रहा है। परन्तु स्वामिनाथ ! हम चाहते हैं कि आप की भुजाओं की छाया से परिगृहीत हुए निर्भय और उद्वेग रहित होकर सुख-पूर्वक निवास करें। इस प्रकार कह कर पैरों में गिरे हुए और दोनों हाथ जोड़े हुए उन प्रान्तीय पुरुषों ने महाबल नरेश से अपनी बात कही। ___टीका-महाबल नरेश की सेवा में उपस्थित होकर उन प्रान्तीय मनुष्यों ने कहा कि महाराज ! यह आप जानते ही हैं कि हमारे प्रान्त में एक बड़ी विशाल अटवी है, उस में एक चोरपल्ली है जोकि चोरों का केन्द्र है। उस में पांच सौ से भी अधिक चोर और डाकू रहते हैं। उन के पास लोगों को लूटने के लिए तथा नगरों को नष्ट करने के लिए काफी सामान है। उनके पास नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं। उनसे वे सैनिकों की तरह सन्नद्ध हो कर इधर-उधर घूमते रहते हैं। जहां भी किसी नागरिक को देखते हैं, उसे डरा धमका कर लूट लेते हैं। अगर कोई इन्कार करता है, तो उसे जान से ही मार डालते हैं। उन के सेनापति का नाम अभग्नसेन है, वह बड़े क्रूर तथा उग्र स्वभाव का है। लोगों को संत्रस्त करना, उन की सम्पत्ति को लूट लेना, मार्ग में आने-जाने वाले पथिकों को पीड़ित 392 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना एवं नगरों तथा ग्रामों के लोगों को डरा धमका कर उनसे राज्यसम्बन्धी कर-महसूल वसूल करना, और न देने पर घरों को जला देना, किसानों के पशु तथा अनाज आदि को चुरा और उठा ले जाना आदि अनेक प्रकार से जनता को पीड़ित करना, उस का इस समय प्रधान काम हो रहा है। आप की प्रजा उसके अत्याचारों से बहुत दुःखी हो रही है और सबका जीवन बड़ा संकटमय हो रहा है। भय के मारे कोई बाहर भी नहीं निकल सकता। ___महाराज ! आप हमारे स्वामी हैं, आप तक ही हमारी पुकार है। हम तो इतना ही चाहते हैं कि आप की सबल और शीतल छत्र-छाया के तले निर्भय होकर सुख और शान्ति-पूर्वक जीवन व्यतीत करें। परन्तु हमारे प्रान्त में तो इस समय लुटेरों का राज्य है। चारों तरफ अराजकता फैली हुई है, न तो हमारा धन सुरक्षित है और न ही प्रतिष्ठा-आबरू। .हमारा व्यापार धंधा भी नष्ट हो रहा है। किसान लोग भी भूखे मर रहे हैं। कहां तक कहें, इन अत्याचारों ने हमारा तो नाक में दम कर रखा है। कृपानिधे ! इसी दुःख को ले कर हम लोग आप की शरण में आए हैं। यही हमारे आने का उद्देश्य है। राजा प्रजा का पालक के रूप में पिता माना जाता है, इस नाते से प्रजा उस की पुत्र ठहरती है। संकटग्रस्त पुत्र की सबसे पहले अपने सबल पिता तक ही पुकार हो सकती है, उसी से वह त्राण की आशा रखता है। पिता का भी.यह कर्त्तव्य है और होना चाहिए कि वह सब से प्रथम उसकी पुकार पर ध्यान दे और उसके लिए शीघ्र से शीघ्र समुचित प्रबन्ध करे। इसी विचार से हमने अपने दुःख को * आप तक पहुंचाने का यत्न किया है। हमें पूर्ण आशा है कि आप हमारी संकटमय स्थिति का पूरी तरह अनुभव करेंगे और अपने कर्त्तव्य की ओर ध्यान देते हुए हमें इस संकट से छुड़ाने का भरसक प्रयत्न करेंगे। . यह थी उन प्रान्तीय दुःखी जनों की हृदय-विदारक विज्ञप्ति, जिसे उन्होंने वहां के शासक महाबल नरेश के आगे प्रार्थना के रूप में उपस्थित किया। जनता की इस पुकार का महीपति महाबल पर क्या प्रभाव हुआ, तथा उसकी तरफ से क्या उत्तर मिला, और उसने इसके लिए क्या प्रबन्ध किया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं- मूल-तते णं से महब्बले राया तेसिं जाणवयाणं पुरिसाणं अन्तिए एयमटुं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसीमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहट्ट दंडं सद्दावेति 2 एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! सालाडविंचोरपल्लिं विलुपाहि 2 अभग्गसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहं गेण्हाहि 2 मम उवणेहि, तते णं से दंडे तहत्ति विणएणं एयमटुं पडिसुणेति। तते णं से दंडे बहूहिं पुरिसेहिं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [393 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्नद्ध जाव पहरणेहिं सद्धिं संपरिवुडे मगइएहिं फलएहिं जाव छिप्पतूरेणं , वज्जमाणेणं महया उक्किट्ठ जाव करेमाणे पुरिमतालं णगरं मझमझेणं निग्गच्छति 2 त्ता जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए। छाया-ततः स महांबलो राजा तेषां जानपदानां पुरुषाणामन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य आशुरुतो यावत् मिसमिसीमाणः (क्रुधा ज्वलन्) त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहृत्य दण्डं श्ब्दाययति 2 एवमवादीत्-गच्छ त्वं देवानुप्रिय! शालाटवीं चोरपल्ली विलुम्प 2 अभग्नसेनं चोरसेनापतिं जीवग्राहं गृहाण 2 मह्यमुपनय / ततः स दंडः तथेति विनयेन एतमर्थं प्रतिशृणोति। ततः स दण्डो बहुभिः पुरुषैः सन्नद्ध० यावत् प्रहरणैः सार्द्ध संपरिवृतो हस्तपाशितैः (हस्तबद्धैः) फलकैः यावत् क्षिप्रतूरेण वाद्यमानेन महतोत्कृष्ट० यावत् कुर्वन् पुरिमतालनगरात् मध्य-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव. शालाटवी चोरपल्ली तत्रैव प्रादीधरद् (प्रधारितवान्) गमनाय। पदार्थ-ततेणं-तदनन्तर।से-उस।महब्बले-महाबल। राया-राजा ने। तेसिं-उन ।जाणवयाणंजनपद-देश में रहने वाले। पुरिसाणं-पुरुषों को। अन्तिए-पास से। एयमटुं-इस बात को। सोच्चासुनकर तथा। निसम्म-अवधारण कर वह। आसुरुत्ते-आशुरुप्त-शीघ्र क्रोध से परिपूर्ण हुआ। जावयावत्। मिसिमिसीमाणे-क्रोधातुर होने पर किए जाने वाले शब्दविशेष का उच्चारण करता हुआ अर्थात् : मिसमिस करता हुआ-दांत पीसता हुआ। तिवलियं भिउडिं-त्रिवलिका-तीन रेखाओं से युक्त भृकुटिभ्रू-भंग को। निडाले-मस्तक पर। साहट्ट-धारण कर के। दंड-दंडनायक-कोतवाल को। सद्दावेति २-बुलाता है, बुला कर। एवं वयासी-इस प्रकार कहता है। देवाणुप्पिया !-हे देवानुप्रिय! अर्थात् हे भद्र! तुम-तुम / गच्छह णं-जाओ, जाकर / सालाडविं-शालाटवी। चोरपल्लिं-चोरपल्ली को। विलुपाहि २-नष्ट कर दो-लूट लो, लूट कर के। अभग्गसेणं-अभग्नसेन नामक। चोरसेणावई-चोरसेनापति को। जीवग्गाहं-जीते जी। गेण्हाहि-पकड़ लो, पकड़ कर / मम-मेरे पास। उवणेहि-उपस्थित करो। तते णंतदनन्तर / से दंडे-वह दण्डनायक। विणएणं-विनयपूर्वक। तह त्ति-तथाऽस्तु-ऐसे ही होगा, कह कर। एयमटुं- इस आज्ञा को। पडिसुणेति-स्वीकार करता है। तते णं-तदनन्तर / से दण्डे-वह दण्डनायक। सन्नद्ध-दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण किए हुए। जाव-यावत्। पहरणेहि-आयुधों और प्रहरणों को धारण करने वाले। बहूहि-अनेक। पुरिसेहि-पुरुषों के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडे-सम्परिवृत-घिरा हुआ। मगइएहिं-हाथ में बान्धी हुई। फलएहिं-फलकोंढालों से। जाव-यावत्। छिप्पतूरेणं वन्जमाणेणं-क्षिप्रतूर्य नामक वाद्य को बजाने से। महया-महान्, 1. "दंड" शब्द का अर्थ अभयदेवसूरि "दण्डनायक' करते हैं और पण्डित मुनि श्री घासीलाल जी म० "दण्ड नामक सेनापति" ऐसा करते हैं। कोषकार दण्डनायक शब्द के-ग्रामरक्षक, कोतवाल तथा दण्डदान, अपराध-विचार-कर्ता, सेनापति और प्रतिनियत सैन्य का नायक ऐसे अनेकों अर्थ करते हैं। 394 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्किट्ठ-उत्कृष्ट-आनन्दमय महाध्वनि तथा सिंहनाद आदि शब्दों द्वारा। जाव-यावत्-समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान आकाश को शब्दायमान। करेमाणे-करता हुआ। पुरिमतालं-पुरिमताल। णगरंनगर के। मझमझेणं-मध्य में से। निग्गच्छति २-त्ता-निकलता है, निकल कर। जेणेव-जिधर। सालाडवी-शालाटवी। चोरपल्ली-चोरपल्ली थी। तेणेव-उसी तरफ उसने। पहारेत्थ गमणाए-जाने का निश्चय किया। ___ मूलार्थ-महाबल नेरश अपने पास उपस्थित हुए उन जनपदीय-देश के वासी पुरुषों के पास से उक्त वृत्तान्त को सुन कर क्रोध से तमतमा उठे तथा उस के अनुरूप मिसमिस शब्द करते हुए माथे पर तिउड़ी चढ़ा कर अर्थात् क्रोध की सजीव प्रतिमा बने हुए दण्डनायक-कोतवाल को बुलाते हैं, बुला कर कहते हैं कि हे भद्र ! तुम जाओ, और जा कर शालाटवी चोरपल्ली को नष्ट भ्रष्ट कर दो-लूट लो और लूट करके उस के चोरसेनापति अभग्नसेन को जीते जी पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो। दण्डनायक महाबल नरेश की इस आज्ञा को विनय-पूर्वक स्वीकार करता हुआ दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण कर यावत् आयुधों और प्रहरणों से लैस हुए अनेक पुरुषों को साथ ले कर, हाथों में फलकढाल बांधे हुए यावत् क्षिप्रतूर्य के बजाने से और महान् उत्कृष्ट-आनन्दमय महाध्वनि, सिंहनाद आदि शब्दों द्वारा समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान आकाश को करता हुआ पुरिमताल नगर के मध्य में से निकल कर शालाटवी चोरपल्ली की ओर जाने का निश्चय करता है। टीका-करुणा-जनक दुःखी हृदयों की अन्तर्ध्वनि को व्यक्त शब्दों में सुन कर महाबल नरेश गहरे सोच विचार में पड़ गए। वे विचार करते हैं कि मेरे होते हुए मेरी प्रजा इतनी भयभीत और दुःखी हो, सुख और शान्ति से रहना उसके लिए अत्यन्त कठिन हो गया हो यह किस प्रकार का राज्य-प्रबन्ध! जिस राजा के राज्य में प्रजा दु:खों से पीड़ित हो, अत्याचारियों के अत्याचारों से संत्रस्त हो रही हो, क्या वह राजा एक क्षणमात्र के लिए राज्यसिंहासन पर बैठने के योग्य हो सकता है ! धिक्कार है मेरे इस राज्य-प्रबन्ध को और धिक्कार है मुझे जिस ने स्वयं अपनी प्रजा की देखरेख में प्रमाद किया। अस्तु, कुछ भी हो, अब तो मैं इन दुःखियों के दुःख को दूर करने का भरसक प्रयत्न करूंगा। हर प्रकार से इन को सुखी बनाऊंगा। जिन आतताइयों ने इन को लूटा है, इन के घर जलाए हैं, इन को निर्धन और कंगाल बनाया है, उन अत्याचारियों को जब तक पूरी तरह दण्डित न कर लूंगा, तब तक चैन से नहीं बैलूंगा। इस विचार-परम्परा में कुछ क्षणों तक निमग्न रहने के बाद महाराज महाबल ने अपने प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [395 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आए हुए नागरिकों का स्वागत करते हुए सप्रेम उन्हें आश्वासन दिया और उनके कष्टों को शीघ्र से शीघ्र दूर करने की प्रतिज्ञा की और उन्हें पूरा-पूरा विश्वास दिला कर विदा किया। ___ आए हुए पीड़ित जनता के प्रतिनिधियों को विदा करने के बाद अभग्नसेन के क्रूरकृत्यों से पीड़ित हुई अपनी प्रजा का ध्यान करते हुए महाबल के हृदय में क्षत्रियोचित आवेश उमड़ा। उन की भुजाएं फड़कने लगीं, क्रोध से मुख एकदम लाल हो उठा और कोपावेश से दान्त पीसते हुए उन्होंने अपने दण्डनायक-कोतवाल को बुलाया और पूरे बल के साथ चोरपल्ली पर आक्रमण करने, उसे विनष्ट करने, उसे लूटने तथा उस के सेनापति . अभग्नसेन को पकड़ लाने का बड़े तीव्र शब्दों में आदेश दिया। दण्डनायक ने भी राजाज्ञा को स्वीकार करते हुए बहुत से सैनिकों के साथ चोरपल्ली पर चढ़ाई करने के लिए पुरिमताल नगर में से निकल कर बड़े समारोह के साथ चोरपल्ली की ओर प्रस्थान करने का निश्चय किया। "आसुरुत्ते जाव मिसिमिसीमाणे"- यहां पठित जाव-यावत् पद सें-कुविए. चण्डिक्किए- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। शीघ्रता से रोषाक्रान्त हुए व्यक्ति का नाम आशुरुक्त है। मन से क्रोध को प्राप्त व्यक्ति कुपित कहलाता है। भयानकता को धारण करने वाला चाण्डिक्यित कहा जाता है। मिसिमिसीमाण शब्द-क्रोधाग्नि से जलता हुआ अर्थात् दान्त पीसता हुआ, इस अर्थ का परिचायक है। "सन्नद्ध. जाव पहरणेहिं-" यहां के जाव-यावत् पद, से-बद्धवम्मियकवएहिं उप्पीलियसरासणपट्टिएहिं पिणद्धगेविग्जेहिं विमलवरचिंधपट्टेहिं गहियाउह-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिख दिया गया है। -"फलएहिं जाव छिप्पतूरेणं"-यहां पठित जाव-यावत् पद से-णिक्किट्ठाहिं असीहिं अंसागतेहिं-से लेकर-अवसारियाहिं ऊरुघण्टाहि-यहां तक के पाठ का ग्रहण समझना / इन पदों का अर्थ पहले लिखा जा चुका है। ___-"उक्किट्ठ जाव करेमाणे"- यहां पठित जाव-यावत् पद से -सीहनायबोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूयं पिव-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ पूर्व में दिया जा चुका है। तदनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं तस्स अभग्ग० चोरसेणावइस्स चारपुरिसा इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव सालाडवी चोरपल्ली जेणेव अभग्गसेणे चोरसेणावई तेणेव उवागच्छंति 2 करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! 396 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिमताले नगरे महब्बलेणं रण्णा महया भडचडगरेणं दंडे आणत्ते-गच्छह णं तुमे देवाणु० ! सालाडविं चोरपल्लिं विलुपाहि 2 त्ता अभग्गसेणं चोरसेणावतिं जीवग्गाहं गेण्हाहि 2 त्ता ममं उवणेहि। तते णं से दंडे महया भडचडगरेणं जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए। . ___छाया-ततस्तस्याभग्नसेनस्य चोरसेनापतेश्चारपुरुषाः अनया कथया लब्धार्थाः सन्तो यत्रैवाभग्नसेनश्चोरसेनापतिस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतल यावदेवमवादिषुःएवं खलु देवानुप्रिय ! पुरिमताले नगरे महाबलेन राज्ञा महता भटवृन्देन दण्डः आज्ञप्तः। गच्छ त्वं देवानुप्रिय ! शालाटवीं चोरपल्ली विलुम्प 2 अभग्नसेनं चोरसेनापति जीवग्राहं गृहाण, गृहीत्वा मह्यमुपनय। ततः स दण्डो महता भटवृंदेन यत्रैव शालाटवी चोरपल्ली तत्रैव प्रादीधरद् गमनाय। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। तस्स-उस। अभग्ग०- अभनसेन। चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति के। चारपुरिसा-गुप्तचर पुरुष। इमीसे कहाए- इस (सारी) बात से। लट्ठा समाणा-अवगत-परिचित हुए। जेणेव-जहां पर / सालाडवी-शालाटवी नामक। चोरपल्ली-चोरपल्ली थी और। जेणेव-जहां पर। अभग्गसेणे-अभग्नसेन / चोरसेणावई-चोरसेनापति था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छंति 2 त्ता-आते हैं आकर। करयल जाव-दोनों हाथ जोड़ कर, यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। देवाणुप्पिया !-हे स्वामिन् ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। पुरिमताले णगरे-पुरिमताल नगर में। महब्बलेणं रण्णा-महाबल राजा ने। महया-महान / भडचडचरेणं'योद्धाओं के समुदाय के साथ। दंडे-दण्डनायक-कोतवाल को।आणत्ते-आज्ञा दी है कि। देवाणुप्पिया!" हे भद्र ! तुमे-तुम। गच्छह णं-जाओ, जाकर। सालाडविं-शालाटवी। चोरपल्लिं-चोर पल्ली को। विलुपाहि 2 त्ता-विनष्ट कर दो-लूट लो, लूट कर के। अभग्गसेणं-अभग्नसेन। चोर-सेणावतिचोरसेनापति को। जीवग्गाहं-जीते जी। गेण्हाहि 2 त्ता-पकड़ लो, पकड़ कर।ममं-मेरे सामने / उवणेहिउपस्थित करो। तते णं-तदनन्तर। से-उस। दंडे-दण्डनायक ने। महया-महान। भडचडगरेणं-सभटों के समूह के साथ। जेणेव-जहां पर / सालाडवी-शालाटवी। चोरपल्ली-चोरपल्ली थी। तेणेव-वहीं पर। पहारेत्थ गमणाए-जाने का निश्चय किया है। मूलार्थ-तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति के गुप्तपुरुषों को इस सारी बात का पता लगा तो वे शालाटवी चोरपल्ली में जहां पर अभग्नसेन चोरसेनापति था, वहां पर आए और दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके अभग्नसेन से इस प्रकार बोले कि हे स्वामिन् ! पुरमिताल नगर में महाबल राजा ने महान् सुभटों के समुदाय के साथ दण्डनायक-कोतवाल को बुला कर आज्ञा दी है कि तुम लोग शीघ्र प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [397 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाओ, जाकर शालाटवी चोरपल्ली का विध्वंस कर दो-लूट लो, और उसके सेनापति अभग्नसेन को जीते जी पकड़ लो, और पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो।राजा की आज्ञा को शिरोधार्य कर के दण्डनायक ने योद्धाओं के वृन्द के साथ शालाटवी चोरपल्ली में जाने का निश्चय कर लिया है। टीका-प्रस्तुत सूत्र पाठ में अभग्नसेन के गुप्तचरों की निपुणता का दिग्दर्शन कराया गया है। इधर महाबल नरेश चोरसेनापति अभग्नसेन को पकड़ने तथा चोरपल्ली को विनष्ट करके-लूट करके वहां की जनता को सुखी बनाने का आदेश देता है और उस आदेश के अनुसार दण्डनायक-कोतवाल अपने सैन्य बल को एकत्रित करके पुरिमताल नगर से निकल कर चोरपल्ली की ओर प्रस्थान करने का निश्चय करता है, इधर अभग्नसेन के गुप्तचर (जासूस) इस सारी बात का पता लगा कर चोरसेनापति के पास आकर वहां का अथ से इति पर्यन्त सारा वृत्तान्त कह सुनाते हैं। उन्होंने अपने सेनापति से जनपदीय-देशवासी पुरुषों का महाबल नरेश के पास एकत्रित हो कर जाना, उस के उत्तर में राजा की ओर से दिए जाने वाले आश्वासन तथा दण्डनायक को बुला कर चोरपल्ली को नष्ट करने एवं सेनापति को जीते जी पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करने और तदनुसार दण्डनायक के महती सेना के साथ पुरिमताल नगर से निकल कर चोरपल्ली पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान का निश्चय करने : का सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। अन्त में उन्होंने कहा कि स्वामिनाथ ! हमें जो कुछ मालूम हुआ वह सब आप की जानकारी के लिए आप की सेवा में निवेदन कर दिया, अब आप जैसा उचित समझें, वैसा करें। "-करयल जाव एवं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-करयलपरिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थए कट्ट-" अर्थात् दोनों हाथों को जोड़ कर और मस्तक पर दस नखों वाली अंजली (दोनों हथेलियों को मिला कर बनाया हुआ सम्पुट) को करके-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। गुप्तचरों की इस बात को सुन कर अभग्नसेन चोरसेनापति ने क्या किया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावती तेसिं चारपुरिसाणं अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म पंच चोरसताइंसद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वयासी,एवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले णगरे महब्बलेणं जाव तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तते णं अभग्गसेणे ताइं पंच चोरसताइं एवं वयासी-तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं तं दंडं सालाडविंचोरपल्लिं असंपत्तं अंतरा चेव पडिसेहित्तए। तते णं ताई 398 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच चोरसताइं अभग्गसेणस्स चोरसेणावइस्स तहत्ति जाव पडिसुणेति।तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावती विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेति 2 त्ता पंचहिं चोरसतेहिं सद्धिं ण्हाते जाव पायच्छित्ते भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं 4 सुरं च 5 आसाएमाणे 4 विहरति, जिमियभुत्तुत्तरागते वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूते पंचहिं चोरसतेहिं सद्धिं अल्लं चम्मं दुरुहति 2 त्ता सन्नद्ध जाव पहरणे मगइएहिं जाव रवेणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणे पुव्वावरण्हकालसमयंसि सालाडवीओ चोरपल्लीओ णिग्गच्छति 2 त्ता विसमदुग्गगहणठिते गहियभत्तपाणिए तं दंडं पडिवालेमाणे चिट्ठति। छाया-ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिः तेषां चारपुरुषाणामन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य पंच चोरशतानि शब्दाययति, शब्दाययित्वा एवमवादीत्, एवं खलु देवानुप्रियाः। पुरिमताले नगरे महाबलेन यावत्तेनैव प्रादीधरद् गमनाय / ततः सोऽभग्नसेनस्तानि पंच चोरशतान्येवमवदत्-तत् श्रेयः खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकं तं दण्डं शालाटवीं चोरपल्लीमसम्प्राप्तमंतरैव प्रतिषेद्धम् / ततस्तानि पंच चोरशतानि अभग्नसेनस्य चोरसेनापतेः "तथा'' इति यावत् प्रतिशृण्वन्ति। ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिः विपुलमशनं, पानं, खादिमं, स्वादिममुपस्कारयति, उपस्कार्य पंचभिः चोरशतैः सार्द्ध स्नातो यावत् प्रायश्चित्तो भोजनमंडपे तं विपुलमशनं 4 सुरां च 5 आस्वादयन् 4 विहरति / जिमितभुक्तोत्तरागतोऽपि च सन् आचान्तश्चोक्षः परमशुचिभूतः पञ्चभिश्चोरशतैः सार्द्धमार्दै चर्म दूरोहति 2 सन्नद्ध० यावत् प्रहरणः यावत् रवेण पूर्वापराह्णसमये शालाटवीतश्ोरपल्लीतो निर्गच्छति 2 विषमदुर्गगहने स्थितो गृहीतभक्तपानीयस्तं दंडं प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। अभग्गसेणे-अभग्नसेन। चोरसेणावती-चोरसेनापति। तेसिं चारपुरिसाणं- उन गुप्तचरों के। अंतिए-पास से। एयमटुं- इस वृत्तान्त को। सोच्चा-सुनकर। निसम्म-अवधारण कर / पंच चोरसताई-पांच सौ चोरों को। सद्दावेति-बुलाता है। सद्दावेत्ता-बुला कर। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। एवं-इस प्रकार। खलु-निश्चय से। देवाणुप्पिया !-हे भद्र पुरुषो! पुरिमताले णगरे- पुरिमताल नगर में। महब्बलेणं- महाबल ने। जाव-यावत्। तेणेव-वहीं अर्थात् चोरपल्ली में। पहारेत्थ गमणाए-जाने का निश्चय कर लिया है। तते णं-तदनन्तर / से अभग्गसेणे-वह 1. मगइएहिं-त्ति हस्तपाशितैर्यावत्करणात् फलहएहीत्यादि दृश्यमिति वृत्तिकारः। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [399 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभग्नसेन / ताइं-उन। पंच चोरसताई-पांच सौ चोरों के प्रति। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगा। . देवाणुप्पिया!-हे भद्र पुरुषो ! अम्हं-हम को।तं-यह / सेयं खलु-निश्चय ही योग्य है कि / सालाडविंशालाटवी। चोरपल्लिं-चोरपल्ली को। असंपत्तं-असंप्राप्त अर्थात् जब तक चोरपल्ली तक न पहुंचे, तब तक। तं-उस। दंडं-दंडनायक को। अंतरा चेव-मध्य में ही रास्ते में ही। पडिसेहित्तए-निषिद्ध करनारोक देना। तते णं-तदनन्तर। ताई-वे। पंच चोरसताइं- पांच सौ चोर। अभग्गसेणस्स-अभग्नसेन। चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति के उक्त कथन को। तह त्ति-तथेति- "बहुत ठीक" ऐसा कह कर। जाव-यावत्। पडिसुणेति-स्वीकार करते हैं। तते णं-तदनन्तर / से अभग्गसेणे-वह अभनसेन। चोरसेणावती-चोरसेनापति। विपुलं-बहुत।असणं-अशन / पाणं-पान।खाइमं-खादिम। साइमं-स्वादिम वस्तुओं को। उवक्खडावेति 2 त्ता-तैयार कराता है, तैयार करा के। पंचहिं चोरसतेहिं-पांच सौ चोरों के। सद्धिं-साथ। पहाते-स्नान करता है। जाव-यावत्। पायच्छित्ते-दुष्ट स्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिए प्रायश्चित के रूप में किए गए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके। भोयणमंडवंसि-भोजन के मंडप में। तं-उस। विपुलं-विपुल। असणं ४-अशन, पान, खादिम और . स्वादिम वस्तुओं का। सुरं च ५-तथा पंचविध सुरा आदि का। आसाएमाणे ४-आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ। विहरति-विहरण करने लगा। जिमियभुत्तुत्तरागते वि य णं समाणे-भोजन के अनन्तर उचित स्थान पर आकर। आयंते-आचमन किया। चोक्खे-लेप आदि को दूर करके शद्धि की इस लिए। परमसुइभूते-परमशुचिभूत-परमशुद्ध हुआ वह अभग्नसेन / पंचहिं चोरसतेहि-पांच सौ चोरों के। सद्धिं-साथ। अल्लं-आर्द्र-गीले। चम्म-चमड़े पर। दुरूहति-आरुढ़ होता है-चढ़ता है। 2 त्ता 1. अभग्नसेन और उसके साथियों ने जो आर्द्र चर्म पर आरोहण किया है उस में उन का क्या हार्द रहा हुआ है अर्थात् उन के ऐसा करने का क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्न के उत्तर में तीन मान्यताएं उपलब्ध होती हैं, वे निम्नोक्त हैं प्रथम मान्यता आचार्य श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में-"अल्लचम्मं दुरुहति,त्ति आर्दै चारोहति मांगल्यार्थमिति"- इस प्रकार है। इसका भाव है-कि अभग्नसेन और उसके साथियों ने जो, आई चर्म पर आरोहण. किया है,वह उन का एक मांगलिक अनुष्ठान था। तात्पर्य यह है कि-"विजध्वंसकामो मंगलमा-चरेत् "-अर्थात् अपने उद्दिष्ट कार्य में आने वाले विघ्नों के विध्वंस के लिए व्यक्ति सर्वप्रथम मंगल का आचरण करे। इस अभियुक्तोक्ति का अनुसरण करते हुए अभग्नसेन और उस के साथियों ने दण्डनायक को मार्ग में ही रोकने के लिए किए जाने वाले प्रस्थान से पूर्व मंगलानुष्ठान किया था। मंगलों के विभिन्न प्रकारों में से आर्द्रचर्मारोहण भी उस समय का एक प्रकार समझा जाता था। दूसरी मान्यता परम्परानुसारिणी है। इस में यह कहा जाता है कि आर्द्र चर्म पर आरोहित होने का अर्थ है-अपने को "-विकट से विकट परिस्थिति के होने पर भी पांव पीछे नहीं हटेगा, प्रत्युत-"कार्य वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्"-अर्थात् कार्य की सिद्धि करूंगा अन्यथा उसी की सिद्धि में देहोत्सर्ग कर दूंगा, की पवित्र नीति के पथ का पथिक बनूंगा-" इस प्रतिज्ञा से आबद्ध करना। तीसरी मान्यता वालों का कहना है कि जिस प्रकार आई चर्म फैलता है, वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार इस पर आरोहण करने वाला भी धन, जनादि वृद्धिरूप प्रसार को उपलब्ध करता है इसी महत्त्वाकांक्षापूर्ण भावना को सन्मुख रखते हुए अभग्नसेन और उस के 500 साथियों ने आर्द्र चर्म पर आरोहण किया था। 400 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरुढ़ हो कर। सन्नद्ध-दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण करके / जाव-यावत् / पहरणे-आयुधों और प्रहरणों से युक्त। मगइएहिं-हस्तपाशित-हाथों में बांधे हुए। जाव-यावत् / रवेणं-महान् उत्कृष्ट आदि के शब्दों द्वारा। समुद्दरवभूयं पिव-समुद्र-शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को शब्दायमान / करेमाणे-करता हुआ। पुव्वावरण्हकालसमयंसि-मध्याह्न काल में। सालाडवीओ-शालाटवी। चोरपल्लीओ-चोरपल्ली से।णिग्गच्छति-निकलता है। २त्ता-निकलकर विसमदुग्गगहणं- विषम-ऊंचा, नीचा, दुर्ग-जिस में कठिनता से प्रवेश किया जाए ऐसे गहन-वृक्षवन जिस में वृक्षों का आधिक्य हो, में। ठिते-ठहरा / गहियभत्तपाणिए-भक्त पानादि खाद्य सामग्री को साथ लिए हुए। तं-उस। दंडं-दण्डनायक-कोतवाल की। पडिवालेमाणे-प्रतीक्षा करता हुआ। चिट्ठतिठहरता है। . __मूलार्थ-तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति ने अपने गुप्तचरों (जासूसों) की बात को सुन कर तथा विचार कर पांच सौ चोरों को बुला कर इस प्रकार कहा हे महानुभावो ! पुरिमताल नगर के राजा महाबल ने आज्ञा दी है कि यावत् दंडनायक ने शालाटवी चोरपल्ली पर आक्रमण करने तथा मुझे पकड़ने को वहां (चोरपल्ली में) जाने का निश्चय कर लिया है। अतः उस दंडनायक को शालाटवी चोरपल्ली तक पहुंचने से पहले ही रास्ते में रोक देना हमारे लिए उचित प्रतीत होता है। अभग्नसेन के इस परामर्श को चोरों ने "तथेति" (बहुत ठीक है, ऐसा ही होना चाहिए) ऐसा कह कर स्वीकार किया। तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुओं को तैयार कराया तथा पांच सौ चोरों के साथ स्नान से निवृत्त हो कर, दुःस्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक तथा अन्य मांगलिक कृत्य करके, भोजनशाला में उस विपुल अशनादि वस्तुओं तथा पांच प्रकार की मदिराओं का यथारुचि आस्वादन, विस्वादन आदि करना आरम्भ किया। . . . भोजन के अनन्तर उचित स्थान पर आकर आचमन किया और मुख के लेपादि को दूर कर अर्थात् परमशुद्ध हो कर पांच सौ चोरों के साथ आर्द्र चर्म पर आरोहण किया। तदनन्तर दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण करके यावत् आयुधों और प्रहरणों से सुसज्जित हो कर, हाथों में ढालें बांध कर यावत् महान् उत्कृष्ट और सिंहनाद आदि के शब्दों द्वारा समुद्रशब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को शब्दायमान करते हुए अभग्नसेन ने शालाटवी चोरपल्ली से मध्याह्न के समय प्रस्थान किया और वह खाद्यपदार्थों को साथ लेकर विषम और दुर्ग गहन प्रथम श्रुतस्कंध] . श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [401 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृक्षवन में स्थिति करके उस दण्डनायक की प्रतीक्षा करने लगा। __टीका-प्रस्तुत सूत्र में चोर सेनापति अभग्नसेन की ओर से दण्डनायक के प्रतिरोध के लिए किए जाने वाले सैनिक आयोजन का दिग्दर्शन कराया गया है। अपने गुप्तचरों की बात सुनकर तथा विचार कर अभग्नसेन ने अपने पांच सौ चोरों को बुलाया और उन से वह सप्रेम बोला कि महानुभावो ! मुझे आज विश्वस्त सूत्र से पता चला है कि इस प्रान्त के नागरिकों ने महाबल नरेश के पास जाकर हमारे विरुद्ध बहुत कुछ कहा है, जिस के फलस्वरूप महाबल नरेश को बड़ा क्रोध आया और उसने अपने दण्डनायककोतवाल को बुला कर चोरपल्ली पर आक्रमण कर उसे विध्वंस करने-लूटने तथा मुझे जीवित पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करने आदि का बड़े उग्र शब्दों में आदेश दिया है। तब यह आदेश मिलते ही दण्डनायक ने भी तत्काल ही बहुत से सुभटों को अस्रशस्त्रादि से सुसज्जित कर के पुरिमताल नगर से निकल कर शालाटवी चोरपल्ली की ओर प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया है। उस के आक्रमण की सूचना तो हमें मिल चुकी है। अब हम को चोरपल्ली की रक्षा का विचार करना चाहिए। हमारी इस समय एक बलवान् से टक्कर है, इसलिए अधिक से अधिक बल का संचय कर के उसका प्रतिरोध करना चाहिए। इस के लिए मैंने तो यह सोचा है कि शीघ्र ही शस्त्रादि से सन्नद्ध हो कर दण्डनायक को मार्ग में ही रोकने का यत्न करना चाहिए। सेनापति अभग्नसेन के इस विचार का सब ने समर्थन किया और वे अपनी-अपनी तैयारी में लग गए। इधर अभग्नसेन ने भी खाद्यसामग्री को तैयार कराया तथा सब के साथ स्नानादि कार्य से निवृत्त होकर दुःस्वप्न आदि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके भोजनशाला में उपस्थित हो सब के साथ भोजन किया। भोजन के अनन्तर विविध भान्ति के भोज्यपदार्थों तथा सुरादि मद्यों का यथारुचि उपभोग कर वह अभग्नसेन बाहर आया और आकर आचमनादि द्वारा परम-शुद्ध हो कर पांच सौ चोरों के साथ आई चर्म पर उसने आरोहण किया और ठीक मध्याह्न के समय अस्त्र शस्त्रादि से सन्नद्ध-बद्ध होकर युद्धसम्बन्धी अन्य साधनों को साथ लेकर तथा पुरिमताल नगर के मध्य में से निकल कर शालाटवी की ओर प्रस्थान किया, तदनन्तर मार्ग में विषम एवं दुर्ग वृक्षवन में मोर्चे बना कर बैठ गया और दण्डनायक के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। "-विसमदुग्गगहणं-" इस पद की व्याख्या वृत्तिकार ने "-विषमं-निम्नोन्नतं, दुर्ग-दुष्प्रवेशं यद् गहनं वृक्षगह्वरम्-" इन शब्दों में की है। इन का भाव निम्नोक्त है 402 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पद में विषम और दुर्ग ये दो पद विशेषण हैं और गहन यह पद विशेष्य है। ऊंचे और नीचे भाव का बोधक विषम पद है और दुर्ग शब्द कठिनाई से जिस में प्रवेश किया जा सके, ऐसे अर्थ का परिचायक है, एवं गहन पद वृक्षवन का बोध कराता है। जिस में वृक्षों की बहुलता पाई जाए उसे वृक्षवन कहते हैं। "-महब्बलेणं जाव तेणेव-" यहां पठित जाव-यावत् पद से-रण्णा महया भडचडगरेणं दण्डे आणत्ते-गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया ! सालाडविं- से लेकर-जेणेव सालाडवी-इन पदों का ग्रहण समझना। इन का भावार्थ पीछे दिया जा चुका है। ___ -"तह त्ति जाव पडिसुणेति"- यहां पठित जाव-यावत् पद से-आणाए विणएणं वयणं-इन पदों का ग्रहण समझना। तह त्ति आणाए विणएणं पडिसुणेति-इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में-तह त्ति त्ति नान्यथा, आज्ञया-भवदादेशेन करिष्याम इत्येवमभ्युपगमसूचनमित्यर्थः, विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति-इस प्रकार है। इन पदों का भाव है-तथेति-जैसा आप कहेंगे वैसा ही करेंगे, इस प्रकार विनय-पूर्वक उसके वचन को स्वीकार करते हैं। -"हाते जाव पायच्छित्ते"- यहां पठित जाव-यावत् पद से-कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल-इन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ दूसरे अध्याय में किया गया है। .. असणं ४-यहां के 4 के अंक से -पाणं खाइमं साइमं- इन पदों का और -सुरं च५- यहां 5 के अंक से-मधं च मेरगं च जातिं च सीधं च पसण्णं च- इन पदों का, और-आसाएमाणे 4- यहां के 4 अंक से-विसाएमाणे, परिभाएमाणे, परिभुंजेमाणेइन पदों का और-सन्नद्ध जाव पहरणे-यहां के जाव-यावत् पद से - बद्धवम्मियकवए, उप्पीलियसरासणपट्टिए, पिणद्धगेविजे, विमलवरबद्धचिंधपट्टे गहियाउह-इन पदों का ग्रहणं करना चाहिए, और-मगडएहिं जाव रवेणं-यहां के जाव-यावत् पद से - "फलएहि, निक्किट्ठाहिं, असीहिं अंसागएहिं तोणेहिं सजीवेहिं धहिं-से लेकर-महया 2 उक्किट्ठसीहनायबोलकलकल-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। तदनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैंमूल-तते णं से दंडे जेणेव अभग्गसेणे चोरसेणावती तेणेव उवागच्छति (1) इन के अर्थ के लिए देखो प्रथम अध्याय का टिप्पण। (2) अर्थ के लिए देखो द्वितीय अध्याय। (3) अर्थ के लिए देखो द्वितीय अध्याय। (4) अर्थ के लिए देखिए द्वितीय अध्याय, परन्तु इतना ध्यान रहे कि वहां ये द्वितीयान्त हैं और यहां पर प्रथमान्त हैं, तथापि अर्थगत कोई भिन्नता नहीं है। (5) अर्थ के लिए इसी अध्ययन में पीछे देखिए। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [403 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 त्ता अभग्गसेणेणं चोरसेणावइणा सद्धिं संपलग्गे यावि होत्था, तते णं से , अभग्गसेणे चोरसे तं दण्डं खिप्पामेव हयमहिय० जाव पडिसेहेति। तते णं से दण्डे अभग्ग• चोरसे. हय. जाव पडिसेहिते समाणे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कट्ट जेणेव पुरिमताले णगरे जेणेव महब्बले राया तेणेव उवा० 2 करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी! अभग्गसेणे चोरसे विसमदुग्गगहणं ठिते गहितभत्तपाणिए नो खलु से सक्का केणइ सुबहुएणा वि आसबलेण वा हत्थिबलेण वा जोहबलेण रहबलेण वा चाउरंगेणं वि उरंउरेणं गेण्हित्तते। ताहे (महब्बले राया) सामेण य भेदेण य उवप्पदाणेण य वीसंभमाणेउं पयत्ते यावि होत्था। जे वि य से अब्भिंतरगा सीसगभमा मित्तनातिनियगसयणसंबन्धिपरियणा ते वि य णं विपुलेणं धणकणगरयणसंतसारसावतेजेणं भिंदति।अभग्गसेणस्स य चोरसे अभिक्खणं 2 महत्थाई महग्घाइं महरिहाइं रायारिहाई पाहुडाइं पेसेति।अभग्गसेणं च चोरसे वीसंभमाणेइ। छाया-ततः स दण्डो यत्रैव अभग्नसेनश्चोरसेनापतिस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य अभनसेनेन चोरसेनापतिना सार्द्ध संप्रलग्रश्चाप्यभवत् / ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिः तं दण्डं क्षिप्रमेव हतमथित० यावत् प्रतिषेधयति। ततःस दण्डोऽभग्नसेनेन चोरसेनापतिना हत यावत् प्रतिषिद्धः सन् अस्थामा अबल: अवीर्यः अपुरुषकारपराक्रमः अधारणीयमिति कृत्वा यत्रैव पुरिमतालं नगरं यत्रैव महाबलो राजा तत्रैवोपागच्छति उपागत्य करतल० यावद् एवमवादीत्-एवं खलु स्वामिन् ! अभग्नसेनश्चोरसेनापतिः विषमदुर्गगहने स्थितः गृहीतभक्तपानीयः नो खलु स शक्य: केनचित् सुबहुनापि अश्वबलेन वा हस्तिबलेन वा योधबलेन वा रथबलेन वा चतुरंगेणापि साक्षाद् ग्रहीतुम्। तदा (महाबलो राजा) साम्ना च भेदेन च उपप्रदानेन च विश्रम्भमानेतुं प्रवृत्तश्चाप्यभवत् / येऽपि च तस्याभ्यन्तरकाः शिष्यकभ्रमाः मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनास्तानपि च विपुलेन धनकनकरत्नसत्सारस्वापतेयेन भिनत्ति ।अभग्नसेनस्य च चोरसेनापते: अभीक्ष्णं 2 महार्थानि महा_णि महार्हाणि राजार्हाणि प्राभृतानि प्रेषयति। अभग्नसेनश्च चोरसेनापतिं विश्रम्भमानयति। 1. सम्प्रलग्नः-योद्धं समारब्धः अर्थात् युद्ध करना आरम्भ कर दिया। श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय 404 ] [प्रथम श्रुतस्कंध Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / से दंडे-वह दण्डनायक-कोतवाल। जेणेव-जहां। अभग्गसेणेअभग्नसेन। चोरसेणावती-चोरसेनापति था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छति 2 त्ता-आता है, आकर। अभग्गसेणेणं-अभग्नसेन / चोरसेणावइणा-चोरसेनापति के। सद्धिं-साथ। संपलग्गे यावि होत्था-युद्ध में प्रवृत्त हो गया। तते णं-तदनन्तर। से अभग्गसेणे-वह अभग्नसेन / चोरसे०-चोरसेनापति। तं-उस। दंडं-दण्डनायक को। खिप्पामेव-शीघ्र ही। हयमहिय-हतमथित कर अर्थात् उस दण्डनायक की सेना का हनन किया-मारपीट की और उस दण्डनायक के मान का मन्थन-मर्दन कर। जाव-यावत्। पडिसेहेतिभगा देता है। तते णं- तदनन्तर / से-वह। दंडे-दण्डनायक। अभग्ग०-अभग्नसेन / चोरसे०-चोरसेनापति के द्वारा। हय०-हत। जाव-यावत् / पडिसेहिते-प्रतिषिद्ध / समाणे-हुआ अर्थात् भगाया गया। अथामेतेजहीन / अबले-बलहीन / अवीरिए-वीर्यहीन / अपुरिसक्कारपरक्कमे-पुरुषार्थ तथा पराक्रम से हीन हुआ। अधारणिज्जमिति कट्ट-शत्रु सेना को पकड़ना कठिन है-ऐसा विचार कर / जेणेव-जहां। पुरिमताले णगरे-पुरिमताल नगर था और। जेणेव-जहां पर। महब्बले राया-महाबल राजा था। तेणेव-वहां पर। उवा०२-आता है, आकर। करयल-जाव-दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगा। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सामी !-हे स्वामिन् ! अभग्गसेणे-अभग्नसेन / चोरसे०-चोरसेनापति। विसमदुग्गगहणं-विषम-ऊंचा, नीचा, दुर्गजिस में कठिनता से प्रवेश किया जा सके ऐसे गहन-वृक्षवन (वह स्थान जहां वृक्षों की प्रचुरता हो) में। गहितभत्तपाणिए-भक्तपानादि को साथ में लिए हुए। ठिते-स्थित हो रहा है अतः। केणइ-किसी। सुबहुएणा वि-बहुत बड़े। आसबलेण वा-अश्वबल से। हत्थिबलेण वा-हाथियों के बल से। वाअथवा। जोहबलेण-योद्धाओं-सैनिकों के बल से। वा-अथवा। रहबलेण-रथ के बल से। वा-अथवा। चतुरंगेणा वि-'चतुरंगिणी सेना से भी। से-वह / उरंउरेणं-साक्षात् / गेण्हित्तते-ग्रहण करने-पकड़ने में। नो-नहीं। खलु-निश्चय से। सक्का -समर्थ है अर्थात् वह ऐसे विषम और दुर्गम स्थान में बैठा हुआ है कि वहां पर उसे जीते जी किसी प्रकार से पकड़ा नहीं जा सकता। ताहे-तब वह महाबल राजा उसे-अभग्नसेन को। सामेण य- सामनीति से। भेदेण य-भेदनीति से अथवा। उवप्पदाणेण य-उपप्रदान से-दान की नीति से। वीसंभमाणेउं-विश्वास में लाने के लिए। पयत्ते यावि होत्था-प्रयत्नशील हो गया। जे वि यऔर जो भी.।से-उसके-अभग्नसेन के।अब्भिंतरगा-अंतरंग-समीप में रहने वाले मंत्री आदि। सीसगभमाशिष्यकभ्रम-जिन को वह शिष्य समान मानता था, वे लोग अथवा शीर्षकभ्रम- जिन को वह शरीररक्षक होने के कारण शिर अथवा शिर के कवच के समान मानता था ऐसे अंगरक्षक लोग तथा उस के जो। मित्तणाइनियगसयणसंबन्धिपरिजणा य-मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजन थे। ते वि यणं-उनको भी। विपुलेणं-विपुल-बहुत से। धणकणगरयण-धन, सुवर्ण, रत्न तथा। संतसारसावतेन्जेणं-उत्तम सारभूत द्रव्य अर्थात् उत्तमोत्तम वस्तुओं तथा रुपये पैसे से। भिंदति-भेदन करता है, अलग करता है। य-और। अभग्गसेणस्स-अभग्नसेन / चोरसे०-चोरसेनापति को। अभिक्खणं २-बार बार। महत्थाइं-महार्थ-महाप्रयोजन वाले। महग्घाइं-महाघ-विशेष मूल्यवान और। महरिहाई-महार्ह 1. गज, अश्व, रथ और पदाति-पैदल, इन चार अंगों-विभागों वाली सेना चतुरंगिणी सेना कहलाती प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [405 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी बड़े पुरुष को देने योग्य। रायारिहाइं-राजा के योग्य। पाहुडाई-प्राभृत-भेंट। पेसेति-भेजता है। अभग्गसेणं च चोरसे०-और अभग्नसेन चोरसेनापति को। वीसंभमाणेइ-विश्वास में लाता है। मूलार्थ-तदनन्तर वह दण्डनायक जहां पर अभग्नसेन चोरसेनापति था, वहां पर आता है, आकर उसके साथ युद्ध में संप्रवृत्त हो जाता है, परन्तु अभग्नसेन चोरसेनापति के द्वारा हतमथित यावत् प्रतिषेधित होने से तेजहीन, बलहीन, वीर्यहीन, एवं पुरुषार्थ और पराक्रम से हीन हुआ वह दण्डनायक, शत्रुसेना को पकड़ना अशक्य समझ कर पुनः पुरिमताल नगर में महाबल नरेश के पास आकर दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके इस प्रकार कहने लगा। स्वामिन् ! अभग्नसेन चोरसेनापति विषम-ऊंचे-नीचे और दुर्ग गहन-वृक्षवन में पर्याप्त खाद्य तथा पेय सामग्री के साथ अवस्थित है, अत: बहुत से अश्वबल, हस्तिबल, योधबल और रथबल, तथा कहां तक कहूं- चतुरंगिणी सेना के बल से भी वह साक्षात् जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता। दण्डनायक के ऐसा कहने पर महाबल नरेश साम, भेद और उपप्रदान-दान की नीति से उसे विश्वास में लाने के लिए प्रवृत्त हुआ-प्रयत्न करने लगा। तदर्थ वह उसके शिष्यतुल्य अंतरंग-समीप में रहने वाले मंत्री आदि पुरुषों को अथवा जिन अंगरक्षकों को वह शिर या शिर के कवच के समान मानता था उनको तथा 'मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को धन, सुवर्ण, रत्न और उत्तम सारभूत द्रव्यों तथा रूपये, पैसे के द्वारा अर्थात् इन का लोभ देकर उससे भिन्न-जुदा करने का यत्न करता है और अभग्नसेन चोरसेनापति को भी बार-बार महार्थ, महाघ, महार्ह तथा राजार्ह उपहार भेजता है, भेज कर उस अभग्नसेन चोरसेनापति को विश्वास में ले आता है। ___टीका-पाठकों को तो स्मरण ही होगा कि महाबल नरेश की आज्ञा से सेनापति दंडनायक ने चुने हुए सैनिकों के साथ शालाटवी चोरपल्ली पर आक्रमण करने के लिए पुरिमताल नगर से निकल कर उस ओर प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया था। अपने निश्चय के अनुसार सेनापति दंडनायक जब पर्वत के समीप पहुंचा तो क्या देखता है कि वहां अभग्नसेन भी अपने सैन्यबल के साथ उसके अवरोध के लिए बिल्कुल तैयार खड़ा है। दूर से दोनों की चार आंखें हुईं और एक-दूसरे ने एक-दूसरे को ललकारा। बस फिर क्या था, दोनों तरफ से आक्रमण आरम्भ हो गया और एक-दूसरे पर अस्त्र शस्त्रादि से प्रहार होने लगा। दंडनायक की सेना नीचे से और अभग्नसेन की सेना ऊपर से-पर्वत पर से प्रहार करने में प्रवृत 1. इन पदों की अर्थावगति के लिए देखिए द्वितीय अध्याय का टिप्पण। 406 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो गई। दोनों तरफ से गोलियों और बाणों की वर्षा होने लगी। परन्तु जितनी अनुकूलता प्रहार करने के लिए अभग्नसेन के सैनिकों की थी, उतनी दंडनायक के सैनिकों को नहीं थी। कारण यह था कि दण्डनायक के सैनिक पर्वत के नीचे थे और अभग्नसेन के पर्वत के ऊपर। वे गोलियां और बाण मार कर वहीं छिप जाते थे जबकि इन को छिपने के लिए कोई स्थान नहीं था। इसलिए दंडनायक की सेना को इस युद्ध में सब से अधिक क्षति पहुंची। परिणामस्वरूप वह चोरसेनापति की मार को न सह सका। उसके बहुत से सैनिक मारे गए और वह स्वयं भी इस युद्ध में अत्यधिक विक्षुब्ध हुआ और परास्त होकर पीछे पुरिमताल राजधानी को लौट गया। -"हयमहिय जाव पडिसेहेति"-यहां पठित जाव-यावत् पद से-हयमहियपवरवीरघाइयविवडियचिन्धज्झयपडागं दिसो दिसिं-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की वृत्तिकार-सम्मत व्याख्या इस प्रकार है. हतः सैन्यस्य हतत्वात्, मथितो-मानस्य मन्थनात् प्रवरवीराः-सुभटाः घातिताःविनाशिताः यस्य स तथा, विपतिताश्चिह्नध्वजा गरुडादिचिह्नयक्तकेतवः पताकाश्च यस्य स तथा, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः।अतस्तं सर्वतो रणाद् निवर्तयति" अर्थात् जावयावत्-पद से विवक्षित पाठ में दण्डनायक के हत, मथित आदि चार विशेषण हैं। इन का अर्थ निम्नोक्त है (1) हत-जिस के सैन्यबल को आहत कर दिया, अर्थात् जख्मी बना डाला है। (2) मथित-जिस के मान का मन्थन-मर्दन किया गया है। (3) प्रवरवीरघातितजिसके प्रवर-अच्छे-अच्छे वीरों-योद्धाओं का विनाश कर दिया गया है। (4) विपतितचिन्हध्वजपताक-जिस की गरुडादि के चिन्हों से युक्त ध्वज और पताकाएं (झण्डियां) गिरा दी गई हैं। -"दिसो दिसिं"- इस पद के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं। जैसे कि-(१) रणक्षेत्र से सर्वथा हटा देना-भगा देना। (2) सामने की दिशा से अर्थात् जिस दिशा में मुख है उस से अन्य दिशाओं में भगा देना। पुरिमताल राजधानी की ओर लौटने के बाद दण्डनायक महाबल नरेश की सेवा में उपस्थित हुआ। अभग्नसेन द्वारा पराजित होने के कारण वह निस्तेज, निर्बल और पराक्रमहीन हो रहा था। उसने बड़े विनीत भाव से निवेदन करते हुए कहा, कि महाराज ! बड़ी विकट समस्या है। चोरसेनापति अभग्नसेन जिस स्थान में इस समय बैठा हुआ है, वहां उस पर आक्रमण करना, और उसे पकड़ कर लाना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भवप्रायः है। उसके प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [407 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा उसके सैनिकों के प्रहार अमोघ-निष्फल न जाने वाले हैं। उसके सैनिकों के भयंकर आक्रमण ने हमें वापिस लौटने पर विवश ही नहीं किया अपितु हम में फिर से आक्रमण करने का साहस ही नहीं छोड़ा। महाराज ! मुझे तो आज यह दृढ़ निश्चय हो चुका है कि उसे घुड़सवार सेना के बल से, मदमस्त हस्तियों के बल से, और शूरवीर योद्धाओं तथा रथों के समूह से भी नहीं जीता जा सकता। अधिक क्या कहूं, यदि चतुरंगिणी सेना लेकर भी उस पर आक्रमण किया जाए तो भी वह जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता। आज का दिन महाबल नरेश के लिए बड़ा ही दुर्दिन प्रमाणित हुआ। ज्यों-ज्यों वे दण्डनायक सेनापित के आक्रमण और महान असफलता को सूचित करने वाले शब्दों पर ध्यान देते हैं त्यों-त्यों उनके हृदय में बड़ा तीव्र आघात पहुंचता है और चिन्ताओं का प्रवाह उस में ठाठे मारने लगता है। उन के जीवन में यह पहला ही अवसर है कि उन्हें युद्ध में इस प्रकार के लज्जास्पद पराजय का अनुभव करना पड़ा, और वह भी एक लुटेरे से। एक तरफ तो वे नागरिकों को दिए हुए रक्षासम्बन्धी आश्वासन का ध्यान करते हैं और दूसरी तरफ अभग्नसेन पर किए गए आक्रमण की निष्फलता का ख्याल करते हैं। इन दोनों प्रकार के विचारों से उत्पन्न होने वाली आन्तरिक वेदना ने महाबल नरेश को किंकर्तव्य-विमूढ़ सा बना दिया। उन को इस पराजय का स्वप्न में भी भान नहीं था। इस समय जो समस्या उपस्थित हुई है उसे किस प्रकार सुलझाया जाए, यह एक विकट प्रश्न था। अगर अभग्नसेन का दमन करके उस के अत्याचारों से पीड़ित प्रजा का संरक्षण नहीं किया जाता तो फिर इस शासन का अर्थ ही क्या है ? और वह शासक ही क्या हुआ जिस के शासन-काल में उसकी शान्ति प्रजा अन्यायियों और अत्याचारियों के नृशंस कृत्यों से पीड़ित हो रही हो ? इस प्रकार की उत्तरदायित्वपूर्ण विचार-परम्परा ने महाबल नरेश के हृदय को बहुत व्यथित कर दिया, और वे चिन्ता के गहरे समुद्र में गोते खाने लगे। कुछ समय के बाद विचारशील महाबल नरेश ने अपने सुयोग्य मन्त्रियों से विचार विनिमय करना आरम्भ किया। मन्त्रियों ने बड़ी गम्भीरता से विचार करने के अनन्तर महाबल नरेश के सामने एक प्रस्ताव रखा। वे कहने लगे-महाराज ! नीतिशास्त्र की तो यही आज्ञा है कि जहां दण्ड सफल न हो सके वहां साम, भेद, दानादि का अनुसरण करना चाहिए, अतः हमारे विचारों में यदि आप उसे-अभग्नसेन को पकड़ना ही चाहते हैं तो उसके साथ दण्डनीति से काम न ले कर साम, भेद अथवा उपप्रदान की नीति से काम लें और इन्हीं नीतियों द्वारा उसे विश्वास में ले कर पकड़ने का उद्योग करें। मन्त्रियों की इस बात का महाबल नरेश के हृदय 408 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर काफी प्रभाव पड़ा और उन्हें यह सुझाव सुन्दर जान पड़ा। तब उन्होंने मन्त्रियों के बताए हुए नीति-मार्ग के अनुसरण की ओर ध्यान दिया और उस में उन्हें सफलता की कुछ आशाजनक झलक भी प्रतीत हुई। इसीलिए दण्डनीति के प्रयोग की अपेक्षा उन्होंने साम, दान और भेद नीति का अनुसरण ही अपने लिए हितकर समझा और तदनुसार अभग्नसेन को प्रसन्न करने का तथा उसे विश्वास में लाने का आयोजन आरंभ कर दिया और उसके विश्वासपात्र सैनिकों तथा अन्य सम्बन्धिजनों को वे अनेक प्रकार के प्रलोभनों द्वारा उससे पृथक् करने का उद्योग भी करने लगे। एवं अभग्नसेन की प्रसन्नता के लिए समय-समय पर उस विविध प्रकार के बहुमूल्य पुरस्कार भी भेजे जाने लगे जिस से कि उस के साथ मित्रता का गाढ़ सम्बन्ध सूचित हो सके। सारांश यह है कि अभग्नसेन के हृदय से यह भाव निकल जाए कि महाबल नरेश की उस के साथ शत्रुता है, प्रत्युत उसे यही आभास हो कि महाबल नरेश उस का पूरा-पूरा मित्र है, इसके अतिरिक्त उसे यह भी भान न हो कि जिन सैनिकों तथा मंत्रीजनों के भरोसे पर वह अपने आप को एक शक्तिशाली व्यक्ति मान रहा है और जिन पर उसे पूर्ण भरोसा है वे अब उसके आज्ञानुसारी नहीं रहे अर्थात् उसके अपने नहीं रहे और समय आने पर उस की सहायता के बदले उसका पूरा-पूरा विरोध करेंगे। महाबल नरेश तथा उनके मन्त्री आदि ने जिस नीति का अनुसरण किया उस में वे सफल हुए और उन के इस नीतिमूलक व्यवहार का अभग्नसेन पर यह प्रभाव हुआ कि वह महाबल नरेश को शत्रु के स्थान में मित्र अनुभव करने लगा। "अथामे"- इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में-"अथामे"- तथाविधस्थामवर्जितः -"अबले त्ति"-शरीरबलवर्जितः, -"अवीरिए त्ति" -जीववीर्यरहितः -"अपुरिसक्कारपरक्कमे त्ति"-पुरुषकारः पौरुषाभिमानः स एव निष्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमः, तयोनिषेधादपुरुषकारपराक्रमः। "अधारणिजमिति कट्ट"-अधारणीयं धारयितुमशक्यं, परबलं स्थातुं वा शक्य-मिति कृत्वा इति हेतोः। इस प्रकार है अर्थात् अस्थामा इत्यादि चारों पद दण्डसेनापति के विशेषण हैं। इन का अर्थ अनुक्रम से निम्नोक्त है (1) अस्थामा-तथाविध-युद्ध के अनुरूप स्थाम-मनोबल से रहित / (2) अबलशारीरिक शक्ति से रहित / (3) अवीर्य-जीववीर्य-आत्मबल से विहीन। (४)-अपुरुषकारपराक्रम-पुरुषत्व का अभिमान-मैं पुरुष हूं, मेरे आगे कौन ठहर सकता है, इस प्रकार का आत्माभिमान पुरुषकार कहलाता है, उस से जो स्वकार्य में सफलता होती है, उस का नाम पराक्रम है। पुरुषकार और पराक्रम से हीन व्यक्ति अपुरुषकारपराक्रम कहा जाता है। . तथा "अधारणिजं" इस पद के दो अर्थ होते हैं- (1) शत्रु की सेना अधारणीय प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ 409 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकड़ में न आने वाली (2) शत्रु की सेना के सन्मुख ठहरा नहीं जा सकता। इति कृत्वा का . अर्थ है इस कारण से। "-करयल जाव एवं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से और साथ में उल्लेख किए गए बिन्दु से जो पाठ विवक्षित है, उस को इसी अध्ययन में पीछे लिखा जा चुका है। "उरंउरेणं" यह देश्य-देशविशेष में बोला जाने वाला पद है। इस का अर्थ साक्षात् सन्मुख होता है। उरंउरेणं त्ति साक्षादित्यर्थः। शास्त्रों में नीति के, "सामनीति, दाननीति, भेदनीति और दण्डनीति" ये चार भेदप्रकार बताए गए हैं, इस में अन्तिम दण्डनीति है, जिस का कि अन्त में प्रयोग करना नीतिशास्त्र सम्मत है, और तभी वह लाभप्रद हो सकता है। महाबल नरेश ने पहले की तीनों नीतियों की उपेक्षा कर के सब से प्रथम दण्डनीति का अनुसरण किया जो कि नीतिशास्त्र की दृष्टि से समुचित नहीं था। अतः इसका जो परिणाम हुआ वह पाठकों के समक्ष ही है। तब महाबल नरेश ने अभग्नसेन के निग्रहार्थ दण्डनीति को त्याग कर पहली तीन साम, दान और भेद नीतियों के अनुसरण करने का जो आचरण किया वह नीतिशास्त्र की दृष्टि से उचित ही कहा जाएगा। साम आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है (1) प्रेमोत्पादक वचन 'साम कहलाता है। (2) राजा का सैनिकों में और सैनिकों का राजा में अविश्वास उत्पन्न करा देने का नाम भेद है। (3) दान का ही दूसरा नाम उपप्रदान है, उस का अर्थ है-अभितार्थ दान अर्थात् इच्छित पदार्थों का देना। इन तीनों से जहां कार्य की सिद्धि न हो सके वहां पर चौथी अर्थात् दण्डनीति (दण्ड दे कर अर्थात् पीड़ित करके शासन में रखने की राजाओं की नीति) का प्रयोग किया जाता है। ऐसा नीतिज्ञों का आनुभविक आदेश ___ "जे वि य से अब्भिंतरगा सीसगभमा"- इन पदों की व्याख्या आचार्य अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है येऽपिच से' तस्याभग्नसेनस्याभ्यन्तरका आसन्ना मंत्रिप्रभृतयः किम्भूताः?"सीसगभम त्ति" शिष्या एव शिष्यकास्तेषां भ्रमो-भ्रान्तिर्येषु ते शिष्यभ्रमाः, विनीततया शिष्यतुल्या इत्यर्थः अथवा शीर्षकं शिर एव शिरः कवचं वा तस्य भ्रमोऽव्यभिचारितया शरीररक्षकत्वेन वा ते शीर्षकभ्रमाः-अर्थात् प्रस्तुत सूत्र में अभ्यन्तरक शब्द से-अभग्नसेन के मन्त्री आदि सहचर, यह अर्थ ग्रहण किया गया है, और "सीसगभमाः" इस के 1. साम-प्रेमोत्पादकं वचनम्। भेदः-स्वामिनः पदातिषु पदातीनां च स्वामिनि अविश्वासोत्पादनम्। उपप्रदानम्-अभिमतार्थदानमिति टीकाकारः। 410 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "शिष्यकभ्रमा" और "शीर्षकभ्रमाः" ऐसे दो संस्कृत प्रतिरूप होते हैं। इन दोनों प्रतिरूपों को लक्ष्य में रख कर उक्त पद के तीन अर्थ होते हैं। जैसे कि (1) शिष्य अर्थ को सूचित करने वाला दूसरा शब्द शिष्यक है जिस में शिष्यत्व की भ्रान्ति हो, उसे शिष्यकभ्रम कहते हैं अर्थात् जो विनीत होने के कारण शिष्यतुल्य हैं, उन्हें शिष्यकभ्रम कहा जाता है (२)शरीररक्षक होने के नाते जिन को शरीर के तुल्य समझा जाता है वे शीर्षकभ्रम कहे जाते हैं (3) शिर का रक्षक होने के कारण जिन पर कवच का भ्रम किया जा रहा है अर्थात् जो शिर के कवच की भान्ति शिर की रक्षा करते हैं, वे भी शीर्षकभ्रम कहलाते हैं। - "-धणकणगरयणसन्तसारसावतेजेणं-" इस समस्त पद में धन, कनक, रत्न, सत्-सार, स्वापतेय ये पांच शब्द हैं। धन सम्पत्ति का नाम है। कनक सुवर्ण को कहते हैं / रत्न का अर्थ है-वह छोटा, चमकीला बहुमूल्य खनिज पदार्थ, जिस का उपयोग आभूषणों आदि में जड़ने के लिए होता है। सत्सार शब्द दुनियां की सब से उत्तम वस्तु के लिए प्रयुक्त होता है और स्वापतेय शब्द रुपए पैसे आदि का परिचायक है। महत्थाइं-इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है ".-महत्थाई-" महाप्रयोजनानि "महग्घाई" महामूल्यानि "महरिहाई" महतां योग्यानि महं वा-पूजामर्हन्ति, महान् वा, अर्हः पूजा येषां तानि तथा, एवंविधानि च कानिचित् केषांचित् योग्यानि भवन्तीत्यत आह "रायारिहाई" राज्ञामुचितानि / अर्थात् जिस का कोई महान् प्रयोजन-उद्देश्य हो उसे महार्थ कहते हैं, और अधिक मूल्य वाले को महाघ कहा जाता है। महार्ह पद के तीन अर्थ होते हैं, जैसे कि- (1) विशेष व्यक्तियों के योग्य वस्तु महार्ह कही जाती है। (2) जो पूजा के योग्य हो उसे महार्ह कहते हैं। (3) जिन की महती पूजा हो वे महार्ह कहलाते हैं। महार्थ, महाघ और महार्ह ये वस्तुएं तो अन्य कई एक के योग्य भी हो सकती हैं, इसलिए महाबल नरेश ने अभग्नसेन की मान प्रतिष्ठा के लिए उसे राजार्ह-राजा लोगों के योग्य उपहार भी प्रेषित किए। ... प्रस्तुत सूत्र में दंडनायक के युद्ध में परास्त होने पर मन्त्रियों के सुझाव से अभग्नसेन के निग्रह के लिए महाबल नरेश ने जो उपाय किया और उस में उन्होंने जो सफलता भी प्राप्त की उस का वर्णन किया गया है। अब अग्रिम सूत्र में महाबल नरेश द्वारा अभग्नसेन के निग्रह के लिए किए जाने वाले उपायविशेष का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से महब्बले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले णगरे एगं महं महतिमहालियं कूडागारसालं करेति, अणेगखंभसतसंनिविटुं पासाइयं 4 / तते णं से महब्बले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले नगरे उस्सुक्कं जाव दसरत्तं पमोयं उग्घोसावेति 2 त्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति 2 एवं वयासी-गच्छह णं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [411 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुब्भे देवाणु ! सालाडवीए चोरपल्लीए, तत्थ णं तुब्भे अभग्गसेणं चोरसे करयल जाव एवं वयह-एवं खलु देवा० ! पुरिमताले णगरे महब्बलेण रण्णा उस्सुक्के जाव दसरत्ते पमोदे उग्घोसिते। तं किण्णं देवाणु० ! विउलं असणं 4 पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारे य इहं हव्वमाणेजा उयाहु सयमेव गच्छिज्जा ? तते णं कोडुंबियपुरिसा महब्बलस्स रण्णो कर० जाव पुरिमतालाओ णगराओ पडिनिक्खमंति 2 त्ता णातिविकिट्ठेहिं अद्धाणेहिं 'सुहेहिं वसहिपायरासेहिं जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव उवा० 2 अभग्गसेणं चोरसेणावतिं करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणु० ! पुरिमताले णगरे महब्बलेण रण्णा उस्सुक्के जाव उदाहु सयमेव गच्छिज्जा ? तते णं से अभग्ग० चोरसे ते कोडुंबियपुरिसे एवं वयासी-अहण्णं देवाणुः! पुरिमतालंणगरं सयमेव गच्छामि। ते कोडुंबियपुरिसे सक्कारेति 2 पडिविसज्जेति। . छाया-ततः स महाबलो राजा अन्यदा कदाचित् पुरिमताले नगरे एकां महती महातिमहालिका (महातिमहतीं) कूटाकारशालां करोति, अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टां प्रासादीयां 4 / ततः स महाबलो राजा अन्यदा कदाचित् पुरिमताले नगरे उच्छुल्कं यावद् दशरात्रं प्रमोदमुद्घोषयति 2 कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति 2 एवमवादीत्-गच्छत यूयं देवानुप्रियाः ! शालाटव्यां चोरपल्ल्यां, तत्र यूयं अभग्नसेनं चोरसेनापतिं करतल० यावदेवं वदत-एवं खलु देवानुप्रियाः ! पुरिमताले नगरे महाबलेन राज्ञा उच्छुल्को यावत् दशरात्रः प्रमोदः उद्घोषितः तत् किं देवानुप्रियाः ! विपुलमशनं 4 पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारं चेह शीघ्रमानीयताम्, उताहो स्वयमेव गमिष्यथ ? ततः कौटुंबिकपुरुषाः महाबलस्य राज्ञः कर० यावत् पुरिमतालाद् नगराद् प्रतिनिष्क्रामति 2 नातिविकृष्टैः अध्वानैः (प्रयाणकैः) सुखैः वसतिप्रातराशैः, यत्रैव शालाटवी चोरपल्ली तत्रैवोपागताः 2 अभग्नसेनं चोरसेनापतिं करतल० यावदेवमवादिषुः-एवं खलु देवानुप्रियाः! पुरिमताले नगरे महाबलेन राज्ञा उच्छुल्को यावत्, उताहो स्वयमेव गमिष्यथ? ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिस्तान् कौटुम्बिकपुरुषान् एवमवदत्-अहं देवानुप्रियाः ! ____1. सुखैः सुखकारकैः शुभैः-प्रशस्तैः, वसतिप्रातराशैः-मार्गविश्रामस्थान- पूर्वाह्नवर्तिलघुभोजनैश्च मार्गे सुखपूर्वकं निवसनं, यामद्वयमध्ये भोजनं चेत्येतद्द्वयं पथिकाय परमहितकारकमिति भावः। 412 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिमतालं नगरं स्वयमेव गच्छामि। तान् कौटुंबिकपुरुषान् सत्कारयति 2 प्रतिविसृजति। ____-पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-उस। महब्बले-महाबल। राया-राजा ने। अन्नया कयाइकिसी अन्य समय। पुरिमताले-पुरिमताल। णगरे-नगर में। एग-एक। महं-प्रशस्त / महतिमहालियंअत्यन्त विशाल। कूडागारसालं-'कूटाकारशाला-षड्यंत्र के लिए बनाया हुआ घर। करेति-बनवाई। अणेगखंभसतसंनिविटुं-जो कि सैंकड़ों स्तम्भों से युक्त। पासाइयं 4-1. प्रासादीय-मन को हर्षित करने वाली, 2. दर्शनीय-जिसे बारम्बार देखने पर भी आंखें न थकें, 3. अभिरूप-जिसे एक बार देख लेने पर भी पुनः देखने की लालसा बनी रहे और 4. प्रतिरूप-जिसे जब भी देखा जाए तब ही वहां नवीनता ही प्रतीत हो, ऐसी थी। तते णं-तदनन्तर। से-उस। महब्बले-महाबल। राया-राजा ने। अन्नया कयाइकिसी अन्य समय। पुरिमताले-पुरिमताल। णगरे-नगर में। उस्सुक्कं-उच्छुल्क-जिस में राजदेय भागमहसूल माफ कर दिया हो। जाव-यावत् / दसरत्तं-दस दिन पर्यन्त। पमोयं-प्रमोद-उत्सव की। उग्घोसावेति 2 ता-उद्घोषणा कराई, उद्घोषणा करा कर। कोढुंबियपुरिसे-कौटुम्बिक पुरुषों को। सद्दावेति २बुलाता है, बुला कर। एवं-इस प्रकार / वयासी-कहने लगा। देवाणु० !हे भद्र पुरुषो ! तुब्भे-तुम। सालाडवीए-शालाटवी। चोरपल्लीए-चोरपल्ली में। गच्छह णं-जाओ। तत्थ णं-वहां पर / तुब्भे-तुम। अभग्गसेणं-अभग्नसेन। चोरसे०-चोरसेनापति से। करयल• जाव-दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके। एवं-इस प्रकार। वयह-कहो। देवाणु० !-हे महानुभाव! एवं-इस प्रकार। खलु-निश्चय से। पुरिमताले-पुरिमताल। णगरे-नगर में। महब्बलेणं-महाबल। रण्णा-राजा ने। उस्सुक्के-उच्छुल्क। जाव-यावत्। दसरत्ते-दस दिन का। पमोद-प्रमोद-उत्सव। उग्घोसिते-उद्घोषित किया है, तं-इस लिए। देवाणु० ! हे महानुभाव ! किण्णं-क्या। विपुलं-विपुल। असणं ४-अशन, पान, खादिम और स्वादिम तथा। पुष्फ-पुष्प। वत्थ-वस्त्र। गंध-सुगंधित द्रव्य। मल्लालंकारे-माला और अलंकार-भूषण / इहं-यहां पर ही। हव्वमाणेज्जा-शीघ्र लायें। उयाहु-अथवा। सयमेव-आप स्वयं ही। गच्छिज्जा ?-पधारेंगे ? तते णं-तदनन्तर। कोढुंबियपुरिसा-कौटुम्बिक पुरुषों ने। महब्बलस्स-महाबल। रण्णो-राजा की, उक्त आज्ञा को। कर०-दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके। जाव-यावत् स्वीकार किया और वे। पुरिमतालाओ-पुरिमताल। णगराओ-नगर से। पडिनिक्खमंति २-निकलते हैं, निकल कर। णातिविकिट्ठेहि-नातिविकृष्ट-जोकि ज्यादा लम्बे नहीं, ऐसे। अद्धाणेहि-प्रयाणकों-यात्राओं से। सुहेहि-सुखजनक। वसहिपायरासेहि-विश्रामस्थानों तथा प्रातःकालीन भोजनों द्वारा। जेणेव-जहां। सालाडवी-शालाटवी। चोरपल्ली-चोरपल्ली थी। तेणेव-वहां पर। उवा०.२-आ जाते हैं, आकर। अभग्गसेणं-अभग्नसेन / चोरसेणावतिं-चोरसेनापति को। करयल. जाव-दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके अर्थात् विनयपूर्वक। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। एवं-इस प्रकार / खलु-निश्चय से। देवाणु० !-हे महानुभाव ! पुरिमताले ___ 1. कूटस्य शिखरस्य (स्तूपिकायाः) इव आकारो यस्याः शालायाः गृहविशेषस्य सा कूटाकारशाला -अर्थात् जिस भवन का आकार पर्वत के शिखर-चोटी के समान है उसे कूटाकारशाला कहते हैं। म भुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [413 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिमताल। णगरे-नगर में। महब्बलेण-महाबल। रण्णा-राजा ने। उस्सुक्के-उच्छुल्क। जाव-यावत् दश दिन का प्रमोद-उत्सव आरंभ किया है, तो क्या आप के लिए अशनादिक यहां पर लाया जाए। उदाहु-अथवा। सयमेव-आप स्वयं ही वहां। गच्छिज्जा?-पधारेंगे ? तते णं-तदनन्तर।से-वह / अभग्गअभग्नसेन / चोरसे०-चोरसेनापति। कोडुंबियपुरिसे-उन कौटुम्बिक पुरुषों को। एवं वयासी-इस प्रकार बोले। देवाणु !-हे भद्र पुरुषो ! अहण्णं-मैं। पुरिमतालं णगरं-पुरिमताल नगर को। सयमेव-स्वयं ही। गच्छामि-चलूंगा, ऐसे कह कर / ते-उन / कोडुंबियपुरिसे-कौटुम्बिक पुरुषों का। सक्कारेति २-सत्कार करता है, करके। पडिविसज्जेति-उन को विदा करता है। मूलार्थ-तदनन्तर किसी अन्य समय महाबल नरेश ने पुरिमताल नगर में प्रशस्त एवं बड़ी विशाल और 1 प्रासादीय-मन में हर्ष उत्पन्न करने वाली, 2 दर्शनीय-जिसे देखने पर भी आंखें न थकें, 3 अभिरूप-जिसे देखने पर भी पुनः दर्शन की इच्छा बनी रहे और 4 प्रतिरूप-जिसे जब भी देखा जाए, तब ही वहां कुछ नवीनता प्रतिभासित हो, ऐसी सैंकड़ों स्तम्भों वाली एक कूटाकारशाला बनवाई। तदनन्तर महाबल नरेश ने किसी समय पर ( उस के निमित्त) उच्छुल्क यावत् दशदिन के उत्सव की उद्घोषणा कराई और कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर वे कहने लगे, हे भद्रपुरुषो! तुम शालाटवी चोरपल्ली में जाओ, वहां अभग्नसेन चोरसेनापति से दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के इस प्रकार निवेदन करो- ... हे महानुभाव ! पुरिमताल नगर में महाबल नरेश ने उच्छुल्क.यावत् दस दिन पर्यन्त प्रमोद-उत्सवविशेष की उद्घोषणा कराई है तो क्या आप के लिए विपुल अशनादिक और पुष्प, वस्त्र, माला तथा अलंकार यहीं पर उपस्थित किए जाएं अथवा आप स्वयं वहां पधारेंगे? ___तदनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष महाबल नरेश की इस आज्ञा को दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके अर्थात् विनयपूर्वक सुन कर तदनुसार पुरिमताल नगर से निकलते हैं और छोटी-छोटी यात्राएं करते हुए तथा सुखजनक विश्रामस्थानों एवं प्रातःकालीन भोजनों आदि के सेवन द्वारा जहां शालाटवी नामक चोरपल्ली थी वहां पहुंचे और वहां पर उन्होंने अभग्नसेन चोरसेनापति से दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके इस प्रकार निवेदन किया महानुभाव ! पुरिमताल नगर में महाबल नरेश ने उच्छुल्क यावत् दस दिन का प्रमोद उद्घोषित किया है, तो क्या आप के लिए अशनादिक यावत् अलंकार यहां पर उपस्थित किए जाएं अथवा आप वहां पर स्वयं चलने की कृपा करेंगे? तब अभग्नसेन 414 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरसेनापति ने उन कौटुम्बिक पुरुषों को उत्तर में इस प्रकार कहा हे भद्र पुरुषो ! मैं स्वयं ही पुरिमताल नगर में आऊंगा। तत्पश्चात् अभग्नसेन ने उन कौटुम्बिक पुरुषों का उचित सत्कार कर उन्हें विदा किया-वापिस भेज दिया। ___टीका-एक दिन नीतिकुशल महाबल नरेश ने स्वकार्यसिद्धि के लिए अपने प्रधान मंत्री को बुलाकर कहा कि पुरिमताल नगर के किसी प्रशस्त विभाग में एक कूटाकारशाला का निर्माण कराओ, जो कि हर प्रकार से अद्वितीय हो और देखने वालों का देखते-देखते जी न भर सके। उस में स्तम्भों की सजावट इतनी सुन्दर और मोहक हो कि दर्शकों की टिकटिकी बंन्ध जाए। - नृपति के आदेशानुसार प्रधान मंत्री ने शाला निर्माण का कार्य आरम्भ कर दिया और प्रान्त भर के सर्वोत्तम शिल्पियों को इस कार्य में नियोजित कर दिया गया। मंत्री की आज्ञानुसार बड़ी शीघ्रता से कूटाकार-शाला का निर्माण होने लगा और वह थोड़े ही समय में बन कर तैयार हो गई। प्रधान मंत्री ने महाराज को उसकी सूचना दी और देखने की प्रार्थना की। महाबल नरेश ने उसे देखा और वे उसे देख कर बहुत प्रसन्न हुए। द्रव्य में बड़ी अद्भुत शक्ति है, वह सुसाध्य को दुःसाध्य और दुःसाध्य को सुसाध्य बना देता है। पुरिमताल नगर की यह कूटाकारशाला अपनी कक्षा की एक ही थी। उस का निर्माण जिन शिल्पियों के हाथों से हुआ वे भारतीय शिल्प-कला तथा चित्रकला के अतिरिक्त विदेशीय शिल्पकला में भी पूरे-पूरे प्रवीण थे। उन्होंने इस में जिस शिल्प और चित्रकला का प्रदर्शन कराया वह भी अपनी कक्षा का एक ही था। सारांश यह है कि इस कुंटाकारशाला से जहां पुरिमताल नगर की शोभा में वृद्धि हुई वहां महाबल नरेश की कीर्ति में भी चार चांद लग गए। .. तदनन्तर इस कूटाकार-शाला के निमित्त महाबल नरेश ने दस दिन के एक उत्सव का आयोजन कराया, जिस में आगन्तुकों से किसी भी प्रकार का राजदेय-कर महसूल वगैरह लेने का निषेध कर दिया गया था। महाबल नरेश ने अपने अनुचरों को बुला कर जहां उक्त उत्सव में सम्मिलित होने के लिए अन्य प्रान्तीय प्रतिष्ठित नागरिकों को आमंत्रित करने का आदेश दिया, वहां चोरपल्ली के चोरसेनापति अभग्नसेन को भी बुलाने को कहा। अभग्नसेन के लिए राजा महाबल का विशेष आदेश था। उन्होंने अनुचरों से निम्नोक्त शब्दों में निवेदन करने की आज्ञा दी.. महाराज ने एक अतीव रमणीय और दर्शनीय कूटाकारशाला तैयार कराई है, वह अपनी कक्षा की एक ही है। उस के उपलक्ष्य में एक बृहद् उत्सव का आयोजन किया गया सबम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [415 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, जो कि दस दिन तक बराबर चालू रहेगा उस में और भी बहुत से प्रतिष्ठित सज्जनों को आमंत्रित किया गया है और वे पधारेंगे भी। तथा आप को आमंत्रण देते हुए महाराज ने कहा है कि आप के लिए इस उत्सवविशेष के उपलक्ष्य में अशनादिक सामग्री यहीं पर उपस्थित की जाए या आप स्वयं ही पधारने का कष्ट उठाएंगे। ____ तदनन्तर वे लोग महाबल नरेश के इस आदेश को लेकर चोरपल्ली के सेनापति अभग्नसेन के पास पहुंचे और उन्होंने विनीत शब्दों में राजा की ओर से दिए गए सन्देश को कह सुनाया। अभग्नसेन ने उन का यथोचित सत्कार किया और पुरिमताल नगर में कूटाकारशाला के निमित्त आरम्भ किए गए महोत्सव में स्वयं वहां उपस्थित हो कर सम्मिलित होने का वचन दे कर उन्हें वापिस लौटा दिया। पाठक यह तो समझते ही हैं कि महाबल नरेश का चोरपल्ली के सेनापति अभग्नसेन को पुरिमताल में बुलाने का क्या प्रयोजन है, और कौन-सी नीति उस में काम कर रही है, तथा उस में विश्वासघात जैसे निकृष्टतम व्यवहार का कितना हाथ है, बड़े से बड़ा योद्धा और वीरपुरुष भी विश्वास में आकर नितान्त कायरों (बुजदिलों) के हाथ से मात खा जाता है। जिस नीति का अनुसरण महाबल नरेश ने किया है वह नीतिशास्त्र की दृष्टि से भले ही आचरणीय हो परन्तु वह प्रशंसनीय तो नहीं कही जा सकती और धर्मशास्त्र की दृष्टि से तो उस की जितनी भी भर्त्सना की जाए, उतनी ही कम है। सूत्रगत "-महं महतिमहालियं-" इत्यादि पदों की व्याख्या प्रकृत सूत्र के व्याख्याकार श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में - "महं महतिमहालियं कूडागारसालं त्ति"-महतीं प्रशस्तां, महती चासौ अतिमहालिका च गुर्वी महातीमहालिका ताम् अत्यन्तगुरुकामित्यर्थः। "कूडागारसालं त्ति" कूटस्येव पर्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा तथा, स चासौ शाला चेति समासः अतस्ताम्। इन पदों की व्याख्या निम्नोक्त है महती का अर्थ है-प्रशस्त-सुन्दर। महातिमहालिका शब्द अत्यधिक विशाल का परिचायक है। कूट पर्वत के शिखर-चोटी का नाम है। कूट के समान जिस का आकारबनावट हो उसे कूटाकारशाला कहते हैं। कोषकार महतिमहालियं पद का संस्कृत रूप "-महातिमहतीं - " ऐसा भी बताते हैं। ___-"उस्सुक्कं जाव दसरत्तं"- यहां पठित जाव-यावत् पद से -"उक्कर अभडप्पवेसं, अदंडिमकुदंडिमं, अधरिमं, अधारणिजं, अणुळूयमुयंगं, अमिलायमल्लदाम, गणिकावरनाडइजकलियं, अणेगतालाचराणुचरियं, पमुइयपक्कीलियाभिरामं, जहारिहंइन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। उच्छुल्क आदि पदों की व्याख्या निम्नोक्त 416 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंथ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (1) उच्छुल्क-जिस उत्सव में आई हुई किसी भी वस्तु पर राजकीय शुल्कमहसूल नहीं लिया जाता उसे उच्छुल्क कहते हैं। (2) उत्कर-जिस उत्सव में दुकानों के लिए ली गई जमीन का कर-भाड़ा तथा क्रय-विक्रय के लिए लाए गए गाय आदि पशुओं का कर-महसूल न लिया जाए, उसे उत्कर कहते हैं। ___ (3) अभटप्रवेश-जिस उत्सव में राजपुरुष किसी के घर में प्रवेश नहीं कर सकते, उस का नाम अभटप्रवेश है। तात्पर्य यह है कि उस उत्सव में किसी राजपुरुष द्वारा किसी घर की तलाशी नहीं ली जा सकती। (4) अदण्डिमकुदण्डिम-राज्य की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अपराध के अनुसार जो सजा दी जाती है उसे दण्ड कहते हैं और न्यूनाधिक-कमती बढ़ती सजा को कुदंड कहा जाता है। ___ दण्ड से निर्वृत्त-उत्पन्न द्रव्य दण्डिम और कुदण्ड से निर्वृत्त द्रव्य कुदंडिम कहलाता है। इन दोनों का जिस उत्सव में अभाव हो उसे अदण्डिमकुदण्डिम कहते हैं। (5) अधरिम-धरिम शब्द ऋणद्रव्य (कर्जा) का परिचायक है। जिस उत्सव में कोई किसी से अपना कर्ज नहीं ले सकता वह अधरिम कहलाता है। तात्पर्य यह है कि इस उत्सव में कोई किसी को ऋण के कारण पीड़ित नहीं कर सकेगा। ... (6) अधारणीय-जिस उत्सव में दुकान आदि लगाने के लिए राजा की ओर से आर्थिक सहायता दी जाए उसे अधारणीय कहते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि किसी को काम करने के लिए रुपये की आवश्यकता हो तो वह किसी से कर्जा नहीं लेगा, प्रत्युत राजा अपनी * ओर से उसे रुपया देगा जोकि फिर वापिस नहीं लिया जाएगा। ऐसी व्यवस्था जिस उत्सव में हो उसे अधारणीय कहा जाता है। __(7) अनुचूतमृदंग-जिस उत्सव में वादकों-बजाने वालों ने, मृदङ्ग-तबलों को बजाने के लिए ठीक ढंग से ऊंचा कर लिया है।अथवा जिसमें बजाने वालों ने बजाने के लिए मृदंगों को परिगृहीत-ग्रहण किया हुआ हो, उस उत्सव को अनुचूतमृदंग कहा जाता है। (8) अम्लानमाल्यदामा-जिस उत्सव में अम्लान-प्रफुल्लित पुष्प और पुष्पमालाओं का प्रबन्ध किया गया हो, उसे अम्लानमाल्यदामा कहते हैं। (9) गणिकावरनाटकीयकलित-जो उत्सव प्रधान वेश्याओं और अच्छे-अच्छे नाटक करने वाले नटों से युक्त हो, अर्थात् जिस उत्सव में विख्यात वेश्याओं के गान एवं म भुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [417 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्यादि का और चित्ताकर्षक नाटकों का विशेष प्रबन्ध किया गया हो, उसे गणिकावरनाटकीयकलित कहते हैं। (10) अनेकतालाचरानुचरित-तालाचर-ताल बजा कर नाचने वाले का नाम है। जिस उत्सव में ताल बजा कर नाचने वाले अनेक लोग अपना कौशल दिखाते हैं, उस उत्सव को अनेकतालाचरानुचरित कहते हैं। (11) प्रमुदितप्रक्रीडिताभिराम-जो उत्सव प्रमुदित-तमाशा दिखाने वाले और प्रक्रीडित-खेल दिखाने वालों से अभिराम-मनोहर हो, उसे प्रमुदितप्रक्रीडिताभिराम कहते (12) यथार्ह-जो उत्सव सर्व प्रकार से योग्य-आदर्श अथवा व्यवस्थित हो उसे यथार्ह कहते हैं। तात्पर्य यह है कि यह उत्सव अपनी उपमा स्वयं ही रहेगा। इस की आदर्शता एवं व्यवस्था अनुपम होगी। "-करयल• जाव एवं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित पदों का विवरण पीछे लिखा जा चुका है। "-वसहिपायरासेहिं-" इस पद का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में-वासकप्रातभॊजनै:- इस प्रकार है। यहां वसति शब्द वासक-पड़ाव का बोधक है और प्रातराश शब्द प्रात:कालीन भोजन का परिचायक है, जिसको कलेवा या नाश्ता भी कहा जाता है। महाबल नरेश के भेजे हुए अनुचरों को सप्रेम उत्तर देकर विदा करने के बाद अभग्नसेन क्या करता है, और पुरिमताल नगर में जाने पर उसके साथ क्या व्यवहार होता है, अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से अभग्गसेणे चोरसे. बहूहिं मित्त० जाव परिवुडे पहाते जाव पायच्छित्ते सव्वालंकारभूसिते सालाडवीओ चोरपल्लीओ पडिनिक्खमति 2 त्ता जेणेव पुरिमताले णगरे जेणेव महब्बले राया तेणेव उवा० 2 त्ता करयल. महब्बलं रायं जएणं विजएणं वद्धावेति वद्धावेत्ता, महत्थं जाव पाहुडं उवणेति। तते णं से महब्बले राया अभग्गसेणस्स चोरसे तं महत्थ जाव पडिच्छति। अभग्गसेणं चोरसेणावतिं सक्कारेति संमाणेति 2 त्ता पडिविसज्जेति। कूडागारसालं च से आवसहं दलयति। तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावती महब्बलेणं रण्णा विसज्जिते समाणे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छति। तते णं से महब्बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति 2 त्ता एवं वयासी-गच्छह णं 418 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुब्भे देवाणु० ! विउलं असणं 4 उवक्खडावेह 2 तं विउलं असणं 4 सुरं च 5 सुबहुं-पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं च अभग्गसेणस्स चोरसे कूडागारसालाए उवणेह।तते णं कोडुंबियपुरिसा करयल जाव उवणेति। तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई बहूहि मित्त सद्धिं संपरिबुडे पहाते जाव सव्वालंकाराविभूसिते तं विउलं असणं 4 सुरं च 5 आसाएमाणे 4 पमत्ते विहरति। छाया-ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिर्बहुभिर्मित्र यावत् परिवृतः स्नातो यावत् प्रायश्चित्तः सर्वालंकारभूषितः शालाटवीतश्चोरपल्लीतः प्रतिनिष्क्रामति 2 यत्रैव पुरिमतालं नगरं यत्रैव महाबलो राजा तत्रैवोपागच्छति। करतल० महाबलं राजानं जयेन विजयेन वर्धयति, वर्धयित्वा महार्थं यावत् प्राभृतमुपनयति / ततः स महाबलो राजाऽभग्नसेनस्य चोरसेनापतेस्तद् महार्थं यावत् प्रतीच्छति। अभग्नसेनं चोरसेनापतिं सत्कारयति 2 संमानयति 2 प्रतिविसृजति। कूटाकारशालां च तस्यावसथं दापयति। ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिः महाबलेन राज्ञा विसर्जितः सन् यत्रैव कुटाकारशाला तत्रैवोपागच्छति। ततः स महाबलो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति एवमवादीत्गच्छत यूयं देवानुप्रियाः ! विपुलमशनं 4 उपस्कारयत 2 तद् विपुलमशनं 4 सुरां च 5 सुबहुं पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारं च अभग्नसेनस्य चोरसे कूटाकारशालायामुपनयत। ततस्ते कौटुंबिकपुरुषाः करतल० यावदुपनयन्ति। ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिः बहुभिः मित्र० साढू संपरिवृतः स्नातो यावत् सर्वालंकारविभूषितस्तद् विपुलमशनं 4 सुरां च 5 आस्वादयन् 4 प्रमत्तो विहरति / पदार्थ-तते णं-तदनन्तर।से-वह।अभग्गसेणे-अभग्नसेन। चोरसे०-चोर-सेनापति। बहूहिंबहुत से। मित्त-मित्रों से। जाव-यावत्। परिवुडे-परिवृत-घिरा हुआ। हाते-नहाया। जाव-यावत्। प्रायच्छित्ते-दुष्ट स्वप्नादि के फल को नष्ट करने के लिए प्रायश्चित के रूप में मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य किए हुए / सव्वालंकार-विभूसिते-सब आभूषणों से अलंकृत हुआ।सालाडवीओसालाटवी नामक। चोरपल्लीओ- चोरपल्ली से। पडिनिक्खमति 2 त्ता-निकलता है, निकल कर। गणेव-जहां पर। पुरिमताले-पुरिमताल। णगरे-नगर था और। जेणेव-जहां पर। महब्बले-महाबल। सिया-राजा था। तेणेव-वहां पर। उवा० २-त्ता-आ जाता है, आकर। करयल-दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजली कर के। महब्बलं-महाबल। रायं-राजा को। जएणं-जय एवं। विजएणंविजय शब्द से। वद्धावेति-बधाई देता है। वद्धावेत्ता-बधाई देकर / महत्थं-महार्थ / जाव-यावत्। पाहुडंभृत-उपहार को। उवणेति-अर्पण करता है। तते णं-तदनन्तर। से-उस। महब्बले-महाबल। रायाश्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [419 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेश। अभग्गसेणस्स-अभग्नसेन। चोरसे०-चोरसेनापति के। तं-उस। महत्थं-महार्थ। जाव-यावत्। , प्राभृत-भेंट को। पडिच्छति-स्वीकार किया और। अभग्गसेणं-अभग्नसेन / चोरसेणावतिं-चोरसेनापति का। सक्कारेति 2 संमाणेति २-सत्कार किया और सम्मान किया, सत्कार सम्मान करके उसे। पडिविसजेति-प्रतिविसर्जित किया-विदा किया। च-और। से-उसे। कूडागारसालं-कूटाकारशाला में। आवसहं-ठहरने के लिए स्थान। दलयति-दिया। तते णं-तदनन्तर / से-वह। अभग्गसेणे-अभग्नसेन / चोरसेणावती-चोरसेनापति। महब्बलेणं-महाबल। रण्णा-राजा से। विसज्जिते समाणे-विदा किया हुआ। जेणेव-जहां पर। कूडागारसाला-कूटाकारशाला थी। तेणेव-वहां पर। उवागच्छति-आता है और आकर वहां ठहर जाता है। तते णं-तदनन्तर।से-उस। महब्बले-महाबल। राया-राजा ने। कोडुंबियपुरिसेकौटुम्बिकपुरुषों को। सद्दावेति 2 त्ता-बुलाया और बुलाकर वह। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणु० !-हे भद्रपुरुषो ! तुब्भे-तुम। गच्छह णं-जाओ, जाकर। विउलं-विपुल। असणं ४-अशन, पान, खादिम और स्वादिम को। उवक्खडावेह २-तैयार कराओ, तैयार करा कर। तं-उस। विउलंविपुल / असणं ४-अशनादिक सामग्री। सुरं च ५-और सुरादिक पांच प्रकार के मद्यों को तथा। सुबहुं-. अनेकविध। पुष्फ-पुष्प। वत्थ-वस्त्र / गंध-सुगंधित द्रव्य। मल्लालंकारं च-और माला तथा अलंकारादि को।अभग्गसेणस्स-अभग्नसेन / चोरसे०-चोरसेनापति को। कूडागारसालए-कूटाकारशाला में। उवणेहपहुंचाओ। तते णं-तदनन्तर। ते-वे। कोडुंबियपुरिसा-कौटुम्बिक पुरुष। करयल०-दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के। जाव-यावत् / उवणेति-उन सब पदार्थों को वहां पहुंचा देते हैं। तते णं-तदनन्तर। से-वह। अभग्गसेणे-अभग्नसेन। चोरसेणावई-चोरसेनापति। बहूहि-अनेक। मित्त-मित्रादि के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडे-संपरिवृत-घिरा हुआ। हाए स्नान किए हुए। जाव-यावत् / सव्वालंकारविभूसिते-सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हुआ। तं-उस। विउलं-विपुल। असणं ४अशनादिक। सुरं च ५-सुरादिक-पञ्चविध-मद्यों का। आसाएमाणे ४-आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ। पमत्ते-प्रमत्त हो कर। विहरति-विहरण करता है। मूलार्थ-तदनन्तर मित्र आदि से घिरा हुआ वह अभग्नसेन चोरसेनापति स्नान से निवृत्त हो, यावत् अशुभ स्वप्न का फल विनष्ट करने के लिए प्रायश्चित के रूप में मस्तक पर तिलक और अन्य मांगलिक कार्य करके समस्त आभूषणों से अलंकृत हो शालाटवी चोरपल्ली से निकल कर जहां पुरिमताल नगर था और जहां पर महाबल नरेश था वहां पर आता है, आकर दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके महाबल नरेश को जय एवं विजय शब्द से बधाई देता है, बधाई देकर महार्थ यावत् राजा के योग्य प्राभृत-भेंट अर्पण करता है। तदनन्तर महाबल नरेश अभग्नसेन चोरसेनापति द्वारा अर्पण किए गए उस उपहार को स्वीकार करके उसे सत्कार और सन्मान पूर्वक अपने पास से विदा करता हुआ कूटाकारशाला में उसे रहने के लिए स्थान दे देता है। तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति महाबल नरेश द्वारा सत्कारपूर्वक विसर्जित हो कर कूटाकारशाला में जाता है और वहां पर निवास करता है। इधर महाबल नरेश ने 420 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटुंबिक पुरुषों को बुला कर कहा कि तुम लोग विपुल अशनादिक सामग्री को तैयार कराओ और उसे, तथा पांच प्रकार की मदिराओं एंव अनेकविध पुष्यों, मालाओं और अलंकारों को कूटाकारशाला में अभग्नसेन चोरसेनापति की सेवा में पहुंचा दो। कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की आज्ञा के अनुसार विपुल अशनादिक सामग्री वहां पहुंचा दी। तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति स्नानादि से निवृत्त हो, समस्त आभूषणों को पहन कर अपने बहुत से मित्रों और ज्ञातिजनों के साथ उस विपुल अशनादिक तथा पंचविध सुरा आदि का सम्यक् आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ प्रमत्त हो कर विहरण करने लगा। टीका-महाबल नरेश द्वारा प्राप्त निमंत्रण को स्वीकार करने के अनन्तर चोरपल्ली के सेनापति अभग्नसेन ने अपने साथियों को बुला कर महाबल नरेश के निमंत्रण का सारा वृत्तान्त कह सुनाया और साथ में यह भी कहा कि मैंने निमंत्रण को स्वीकार कर लिया है, अतः हमें वहां चलने की तैयारी करनी चाहिए, क्योंकि महाराज महाबल हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। यह सुन सब ने अभग्नसेन के प्रस्ताव का समर्थन किया और सब के सब अपनी-अपनी तैयारी करने में लग गए। स्नानादि से निवृत्त हो और अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके सब ने समस्त आभूषण पहने और पहन कर अभग्नसेन के साथ चोरपल्ली से पुरिमताल नगर की ओर प्रस्थान किया। अपने साथियों के साथ अभग्नसेन बड़ी सजधज के साथ महाबल नरेश के पास पहुंचा, पहुंच कर महाराज को "-महाराज की जय हो, विजय हो-" इन शब्दों में बधाई दी और उन को राजोचित उपहार अर्पण किया। महाराज महाबल नरेश ने भी अभग्नसेन की भेंट को स्वीकार करते हुए, साथियों समेत उस का पूरा-पूरा सत्कार एवं सम्मान किया और उसे कूटाकारशाला में रहने को स्थान दिया, तथा अपने पुरुषों द्वारा खान-पानादि की समस्त वस्तुएं उस के लिए वहां भिजवा दीं। . इधर अभग्नसेन भी उस का यथारुचि उपभोग करता हुआ अपने अनेक मित्रों और ज्ञातिजनों के साथ आमोद प्रमोद में प्रमत्त हो कर समय व्यतीत करने लगा, अर्थात् महाबल नरेश ने खान-पानादि से उस की इतनी आवभगत की कि वह उस कूटाकारशाला को अपना ही घर समझ कर मन में किसी भी प्रकार का भविष्यत्कालीन भय न करता हुआ अर्थात् निर्भय एव निश्चिन्त अपने आप को समझता हुआ, आमोद-प्रमोद में समय बिताने लगा। इन्हीं भावों को अभिव्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने पमत्ते-प्रमत्त, इस पद का प्रयोग किया है। ___ "-मित्त जाव परिवुडे-'" यहां के जाव-यावत् पद से –णाइ-णियग-सयण प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [421 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धि-परिजणेणं सद्धिं-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। मित्र आदि पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय के टिप्पण में कर दी गई है। ___ "-हाते जाव पायच्छित्ते-" यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित पदों का वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। तथा-करयल०- यहां की बिन्दु से विवक्षित पाठ पीछे इसी अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा -महत्थं जाव पाहुडं-यहां पठित जाव-यावत् पद से-महग्धं महरिहं रायारिहं-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। तथा-महत्थं जाव पडिच्छति-यहां के जाव-यावत् पद से -महग्धं- आदि पदों का ही ग्रहण करना चाहिए। -असणं ४-तथा-सुरं च ५-एवं-आसाएमाणे ४-यहां के अंकों से विवक्षित पदों की व्याख्या पीछे यथास्थान की जा चुकी है। महाबल नरेश के द्वारा चोरसेनापति अभनसेन का इतना सत्कार क्यों किया गया ? इस का उत्तर स्पष्ट है। यह सब कुछ उसे विश्वास में लाकर पकड़ने का ही उपाय-विशेष है। इसी विषय से सम्बन्ध रखने वाला वर्णन अग्रिमसूत्र में दिया गया है, जो कि इस प्रकार है मूल-ततेणं से महब्बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति 2 एवं वयासीगच्छह णं तुब्भे देवाणु० ! पुरिमतालस्स णगरस्स दुवाराई पिधेह 2 अभग्गसेणं चोरसेणा जीवग्गाहं गेण्हह 2 ममं उवणेह।तते णं ते कोडुंबिय करयल जाव पडिसुणेति 2 त्ता पुरिमतालस्स णगरस्स दुवाराई पिहेंति। अभम्गसेणं चोरसे. जीवग्गाहं गेण्हंति 2 त्ता महब्बलस्स रण्णो उवणेति। तते णं से महब्बले राया अभग्गसेणं चोरसे• एतेणं विहाणेणं वझं आणवेति। एवं खलु गोतमा ! अभग्गसेणे चोरसेणावती पुरा पुराणाणं जाव विहरति। छाया-ततः स महाबलो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति 2 एवमवादीत्गच्छत यूयं देवानुप्रियाः ! पुरिमतालस्य नगरस्य द्वाराणि पिधत्त 2 अभग्नसेनं चोरसेनापति जीवग्राहं गृह्णीत 2 मह्यमुपनयत / ततस्ते कौटुम्बिक करतल यावत् प्रतिशृण्वन्ति 2 पुरिमतालस्य नगरस्य द्वाराणि पिदधति। अभग्नसेनं चोरसनापतिं जीवग्राहं गृह्णन्ति 2 महाबलाय राज्ञे उपनयन्ति। ततः स महाबलो राजा अभग्नसेनं चोरसेनापतिं एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति / एवं खलु गौतम ! अभग्नसेनः चोरसेनापतिः पुरा पुराणानां यावत् विहरति। 422 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-उस। महब्बले-महाबल। राया-राजा ने। कोडुंबियपुरिसेकौटुम्बिक पुरुषों को। सद्दावेति 2 त्ता-बुलाया, बुलाकर। एवं-इस प्रकार / वयासी-कहा। देवाणुः!-हे भद्र पुरुषो ! तुब्भे-तुम लोग। गच्छह णं-जाओ। पुरिमतालस्स-पुरिमताल।णगरस्स-नगर के।दुवाराई-द्वारों को। पिधेह २-बन्द कर दो, बन्द करके। अभग्गसेणं-अभग्नसेन। चोरसे०-चोरसेनापति को। जीवग्गाह-जीते जी। गेण्हह २-पकड़ लो, पकड़ कर / ममं-मेरे सामने / उवणेह-उपस्थित करो। तते णं-तदनन्तर। ते-वे। कोडुंबिय-कौटुम्बिक पुरुष। करयल• जाव-दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके राजा के उक्त आदेश को। पडिसुणेति 2 त्ता-स्वीकार करते हैं, स्वीकार कर। पुरिमतालस्स-पुरिमताल। णगरस्स-नगर के। दुवाराइं-द्वारों को। पिहेंति-बन्द कर देते हैं और। अभग्गसेणं-अभग्नसेन / चोरसेणा-चोरसेनापति को। जीवग्गाहं-जीते जी। गेण्हंति २पकड़ लेते हैं, पकड़ कर / महब्बलस्स-महाबल / रण्णो-राजा के पास। उवणेति-उपस्थित कर देते हैं। तते णं-तदनन्तर। महब्बले-महाबल। राया-राजा। अभग्गसेणं-अभग्नसेन / चोरसे०-चोरसेनापति को। एतेणं विहाणेणं-इस (पूर्वोक्त) विधान-प्रकार से। वझं-यह मारा जाए-ऐसी। आणवेति-राजपुरुषों को आज्ञा देता है। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! अभग्गसेणे-अभग्नसेन। चोरसेणावती-चोरसेनापति। पुरा-पूर्वकृत। पुराणाणं जाव-पुराने दुष्कर्मों का यावत् प्रत्यक्ष फल भोगता हुआ। विहरति-जीवन बिता रहा है। मूलार्थ-तदनन्तर अभग्नसेन को सत्कारपूर्वक कूटाकारशाला में ठहराने के बाद महाबल नरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर इस प्रकार कहा कि हे भद्रं पुरुषो! तुम लोग जाओ, जाकर पुरिमताल नगर के दरवाजों को बन्द कर दो और चोरपल्ली के चोरसेनापति को जीते जी (जीवित दशा में ही) पकड़ लो, पकड़ कर मेरे पास उपस्थित करो। तदनन्तर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की इस आज्ञा को दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर दस नखों वाली अञ्जलि करके शिरोधार्य किया और परिमताल नगर के 'द्वारों को बन्द करके चोरसेनापति को जीते जी पकड़ कर महाबल नरेश के सामने उपस्थित कर दिया। तदनन्तर महाबल नरेश ने अभग्नसेन नामक चोरसेनापति को पूर्वोक्त प्रकार से-यह मारा जाए-ऐसी आज्ञा प्रदान कर दी। ____श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार निश्चित रूप से वह चोरसेनापति अभग्नसेन पूर्वोपार्जित पुरातन पापकर्मों के विपाकोदय से नरक-तुल्य वेदना का प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है। टीका-प्रस्तुत सूत्र में चोरपल्ली के सेनापति अभग्नसेन से युद्ध में दण्डनायक सेनापति के पराजित हो जाने पर मन्त्रियों के परामर्श से साम, दान और भेदनीति का अनुसरण करके महाबल नरेश ने अभग्नसेन का जिस प्रकार से निग्रह किया, उस का दिग्दर्शन मात्र कराया गया प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [423 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है महाबल नरेश ने जो कुछ किया वह धार्मिक दृष्टि से तो भले ही अनुमोदना के योग्य न हो परन्तु राजनीति की दृष्टि से उसे अनुचित नहीं कह सकते। एक आततायी अथच अत्याचारी का निग्रह जिस तरह से भी हो, कर देने की नीतिशास्त्र की प्रधान आज्ञा है। अभग्नसेन जहां शूरवीर और साहसी था, वहां वह लुटेरा, डाकू और आततायी भी था, अतः जहां उसे वीरता के लिए नीतिशास्त्र के अनुसार प्रशंसा के योग्य समझा जाए वहां उसके अत्याचारों को अधिक से अधिक निन्दास्पद मानने में भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती। . नीतिशास्त्र का कहना है कि जो राजा निरपराध और आततायियों के अत्याचारों से पीड़ित प्रजा की पुकार को सुन कर उस के दुःख निवारणार्थ अत्याचार करने वालों को शिक्षित नहीं करता, दण्ड नहीं देता, वह कभी भी शासन करने के योग्य नहीं ठहराया जा सकता। इसी लिए नीति शास्त्र के मर्मज्ञ महाबल नरेश ने अभग्नसेन चोरसेनापति का निग्रह करने के लिए राजपुरुषों को बुला कर आज्ञा दी कि भद्रपुरुषो ! अभी जाओ और जा कर पुरिमताल नगर के द्वार बन्द कर दो तथा कूटाकारशाला में अवस्थित अभग्नसेन चोरसेनापति को बन्दी बना कर मेरे सामने उपस्थित करो, परन्तु इतना ध्यान रखना कि तुम्हारा यह काम इतनी सावधानी और तत्परता से होना चाहिए कि अभग्नसेन जीवित ही पकड़ा जाए, कहीं वह अपने को असहाय पा कर आत्महत्या न कर डाले। अथवा उसकी पकड़कड़ में कहीं उस पर कोई मार्मिक प्रहार न कर देना जिस से उस का वहीं जीवनान्त हो जाए, अर्थात् उसे जीवित ही पकड़ना है, इस बात का विशेष ध्यान रखना, ताकि प्रजा को पीड़ित करने के फल को वह तथा प्रजा अपनी आंखों से देख सके। आज्ञा मिलते ही महाराज को नमस्कार कर राजपुरुष वहां से चले और पुरिमताल नगर के द्वार उन्होंने बन्द कर दिए, तथा कूटाकारशाला में जा कर अभग्नसेन चोरसेनापति को जीते जी पकड़ लिया एवं बन्दी बना कर महाराज महाबल के सामने उपस्थित किया। बन्दी के रूप में उपस्थित हुए अभग्नसेन चोरसेनापति को देख कर तथा उस के दानवीय कृत्यों को याद कर महाबल नरेश क्रोध से तमतमा उठे और दान्त पीसते हुए उन्होंने मंत्री को आज्ञा दी कि पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बैठा कर इसे तथा इस के सहयोगी सभी पारिवारिक व्यक्तियों को ताड़नादि द्वारा दण्डित करो एवं विडम्बित करो, ताकि इन्हें अपने कुकृत्यों का फल मिल जाए और जनता को चोरों एवं लुटेरों का अन्त में क्या परिणाम होता है यह पता चल जाए तथा अन्त में इसे सूली पर चढ़ा दो। ' मंत्री ने महाबल नरेश की इस आज्ञा का जिस रूप में पालन किया उस का दिग्दर्शन 424 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीछे कराया जा चुका है। पाठक वहीं से देख सकते हैं। प्रस्तुत कथा-सन्दर्भ में एक ऐसा स्थल है जो पाठकों को सन्देह-युक्त कर देता है। पूज्य श्री अभयदेव सूरि ने इस सम्बन्ध में विशिष्ट ऊहापोह करते हुए उसे समाहित करने का बड़ा ही श्लाघनीय प्रयत्न किया है। आचार्य अभयदेव सूरि का वह वृत्तिगत उल्लेख इस प्रकार "ननु तीर्थंकरा यत्र विहरन्ति तत्र देशे पंचविंशतेर्योजनानाम्, आदेशान्तरेण द्वादशानां मध्ये तीर्थंकरातिशयाद न वैरादयोऽनर्था भवन्ति, यदाह-" 'पुव्वुप्पन्ना रोगा पसमंति ईइवइरमारीओ, अइबुट्ठी अणावुट्ठी न होइ दुब्भिक्खं डमरं च॥१॥ तत्कथं श्रीमन्महावीरे भगवति पुरिमतालनगरे व्यवस्थित एवाभग्नसेनस्य पूर्ववर्णितो व्यतिकरः सम्पन्न इति ? अत्रोच्यते-"सर्वमिदमर्थानर्थजातं प्राणिनां स्वकृतकर्मणः सकाशादुपजायते, कर्म च द्वेधा-सोपक्रमं निरुपक्रमं च, तत्र यानि वैरादीनि सोपक्रमकर्मसंपाद्यानि तान्येव जिनातिशयादुपशाम्यन्ति, सदौषधात् साध्यव्याधिवत्।यानि तु निरुपक्रमकर्मसम्पाद्यानि तानि अवश्यं विपाकतो वेद्यानि, नोपक्रमकारणविषयाणि, असाध्यव्याधिवत्। अत एव सर्वातिशयसंपत्समन्वितानां जिनानामप्यनुपशान्तवैरभावा गोशालकादय उपसर्गान् विहितवन्तः" इन पदों का भावार्थ निम्नलिखित है - शास्त्रकारों का कथन है कि जिस राष्ट्र, देश वा प्रान्त में तथा जिस मंडल, जिस ग्राम और जिस भूमि में तीर्थंकर देव विराजमान हों, उस स्थान से 25 योजन की दूरी तक अर्थात् 25 योजन के मध्य में तीर्थंकर के अतिशय-विशेष से अर्थात् उन के आत्मिकतेज से वैर तथा दुर्भिक्ष आदिक अनर्थ नहीं होने पाते। जैसे कि कहा है तीर्थंकर देव के अतिशयविशेष से 25 योजन के मध्य में पूर्व उत्पन्न रोग शान्त हो जाते हैं-नष्ट हो जाते हैं और भविष्य में सात उपद्रव भी उत्पन्न नहीं होने पाते / सात उपद्रवों के नाम हैं-(१) ईति (2) वैर (3) मारी (4) अतिवृष्टि (5) अनावृष्टि (6) दुर्भिक्ष और (7) डमर। ईति आदि पदों का भावार्थ निम्नोक्त है. (1) ईति-खेती को हानि पहुंचाने वाले उपद्रव का नाम ईति है और वह (1) .. 1.. पूर्वोत्पन्ना रोगाः प्रशाम्यन्ति ईतिवैरमार्यः। अतिवृष्टिरनावृष्टिर्न भवति दुर्भिक्षं डमरं च // 1 // 2. साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ को तीर्थ कहते हैं, उसके संस्थापक का नाम तीर्थंकर है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [425 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिवृष्टि-वर्षा का अधिक होना, (2) अनावृष्टि-वर्षा का अभाव, (3) टिड्डीदल का पड़ना, (4) चूहा लगना, (5) तोते आदि पक्षियों का उपद्रव, (6) दूसरे राजा की चढ़ाई-इन भेदों से छः प्रकार का होता है। अर्द्धमागधीकोषकार ईति शब्द का अर्थ भय करते हैं और वह उसे सात प्रकार का मानते हैं। छ:- तो ऊपर वाले ही हैं, सातवां "स्वचक्रभय" उन्होंने अधिक माना है। तथा प्राकृतशब्दमहार्णवकोषकार ईति शब्द का धान्य वगैरह को नुकसान पहुंचाने वाला चूहा आदि प्राणिगण-ऐसा अर्थ करते हैं। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में ईति शब्द से-खेती को हानि पहुंचाने वाले चूहा, ट्टिडी और तोता आदि प्राणिगण, यही अर्थ अपेक्षित है क्योंकि अतिवृष्टि आदि का सात उपद्रवों में स्वतन्त्ररूपेण ग्रहण किया गया है। (2) वैर-शत्रुता, (3) मारी-संक्रामक भीषण रोग, जिस से एक साथ ही बहुत से लोग मरें, मरी, प्लेग आदि। (4) अतिवृष्टि-अत्यन्त वर्षा, (5) अनावृष्टि-वर्षा का अभाव, (6) दुर्भिक्ष-ऐसा समय जिस में भिक्षा या भोजन कठिनता से मिले-अकाल,(७) डमर-राष्ट्रविप्लव-राष्ट्र के भीतर या बाहर उपद्रव का होना। सारांश यह है कि जहां पर तीर्थंकर भगवान विराजते या विचरते हैं वहां पर उनके आस पास 25 योजन के प्रदेश में ये पूर्वोक्त उपद्रव नहीं होने पाते, और अगर हों तो मिट जाते हैं, यह उन के अतिशय का प्रभाव होता है। तब यदि यह कथन यथार्थ है तो पुरिमताल नगर में जहां कि श्री वीर प्रभु स्वयं विराजमान हैं, चोरसेनापति अभग्नसेन के द्वारा ग्रामादि का दहन तथा अराजकता का प्रसार क्यों ? एवं उसे विश्वास में लाकर बन्दी बना लेने के बाद उस के साथ हृदय को कंपा देने वाला इतना कठोर और निर्दयी व्यवहार क्यों ? जिस महापुरुष के अतिशयविशेष से 25 योजन जितने दूर प्रदेश में भी उक्त प्रकार का उपद्रव नहीं होने पाता, उनकी स्थिति में एक प्रकार से उन के सामने, उक्त प्रकार का उपद्रव होता दिखाई दे, यह एक दृढ़ मानस वाले व्यक्ति के हृदय में भी उथलपुथल मचा देने वाली घटना है। इसलिए प्रस्तुत प्रश्न पर विचार करना आवश्यक ही नहीं नितान्त आवश्यक हो जाता है। उत्तर-इस प्रकार की शंका के उत्पन्न होने का कारण हमारा अव्यापक बोध है। जिन महानुभावों का शास्त्रीय ज्ञान परिमित होता है, उन के हृदय में इस प्रकार के सन्देह को स्थान प्राप्त होना कुछ आश्चर्यजनक नहीं है। अस्तु, अब उक्त शंका के समाधान की ओर भी पाठक ध्यान दें-- संसार में अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ भी हो रहा है, उस का सब से मुख्य कारण 1. अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषकाः शुकाः। प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेते ईतयः स्मृताः॥ 426 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव का स्वकृत शुभाशुभ कर्म है। शुभाशुभ कर्म के बिना यह जीव इस जगत् में कोई भी व्यापार नहीं कर सकता। वह शुभ या अशुभ कर्म दो प्रकार का होता है। पहला-सोपक्रम और दूसरा निरुपक्रम। (1) किसी निमित्तविशेष से जिन कर्मों को क्षय किया जा सके वे कर्म सोपक्रम (सनिमित्तक) कहलाते हैं। (2) तथा जिन कर्मों का नाश बिना किसी निमित्त के अपनी स्थिति पूर्ण होने पर ही हो, अर्थात् जो किसी निमित्तविशेष से विनष्ट न हो सकें, उन कर्मों को निरुपक्रम (निर्निमित्तक) कहते हैं। ___तब जो वैरादि उपद्रव सोपक्रमकर्मजन्य होते हैं वे तो तीर्थंकरों के अतिशयविशेष से उपशान्त हो जाते हैं और जो निरुपक्रमकर्मसम्पादित होते हैं वे परम असाध्य रोग की तरह तीर्थंकर देवों की अतिशय-परिधि से बाहर होते हैं। अब इसी विषय को एक उदाहरण के द्वारा समझिए व्याधियां दो प्रकार की होती हैं। एक साध्य और दूसरी असाध्य। जो व्याधि वैद्य के समुचित औषधोपचार से शान्त हो जाए वह साध्य और जिस को शान्त करने के लिए अनुभवी वैद्यों की रामबाण औषधियां भी विफल हो जाएं, वह असाध्य व्याधि है। - तब प्रकृत में सोपक्रमकर्मजन्य विपाक तो साध्यव्याधि की तरह तीर्थंकर महाराज के अतिशय से उपशान्त हो जाता है परन्तु जो विपाक-परिणाम निरुपक्रमकर्मजन्य होता है, वह असाध्य रोग की भान्ति तीर्थंकर देव के अतिशय से भी उपशान्त नहीं हो पाता। इसी भाव को विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिए यदि यूं कह दिया जाए कि निकाचित कर्म से निष्पन्न होने वाला विपाक-फल तीर्थंकरों के अतिशय से नष्ट नहीं होता किन्तु जो विपाक अनिकाचितकर्म-सम्पन्न है उसका उपशमन तीर्थंकरदेव के अतिशय से हो सकता है। यदि ऐसा न हो तो सम्पूर्ण अतिशयसम्पत्ति के स्वामी श्रमण भगवान् महावीर जैसे महापुरुषों पर गोशाला जैसे व्यक्तियों के द्वारा किए गए उपसर्ग प्रहार कभी संभव नहीं हो सकते। इस से यह भली-भान्ति प्रमाणित हो जाता है कि तीर्थंकर देवों का अतिशयविशेष सोपक्रमकर्म की उपशान्ति के लिए है न कि निरुपक्रमकर्म का भी उस से उपशमन होता है। यदि निरुपक्रमकर्म भी तीर्थंकरातिशय से उपशान्त हो जाए तो सारे ही कर्म सोपक्रम ही होंगे, निरुपक्रम कर्म के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता। तथा ईति भीति आदि जितने भी उपद्रव-विशेष हैं ये सब सोपक्रमकर्मसम्पत्ति 1. एक उदाहरण देखिए-सेर प्रमाण की एक ओर रुई पड़ी है दूसरी ओर सेर प्रमाण का लोहा है। वायु के चलने पर रुई तो उड़ जाती है जब कि लोहे का सेर-प्रमाण अपने स्थान में पड़ा रहता है। तीर्थंकरों का अतिशय वायु के तुल्य है। सोपक्रमकर्म-सेर प्रमाण रुई के तुल्य हैं और निरुपक्रमकर्म सेर प्रमाण लोहे के तुल्य प्रथम श्रुतस्कंध] ____ श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [427 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अन्तर्भूत हैं। इस लिए उन का उपशमन भी संभव है। तब इस सारे सन्दर्भ का सारांश यह निकला कि-चोरसेनापति अभनसेन द्वारा पुरिमताल के प्रान्त में जो उपद्रव मचाया जा रहा था अर्थात् जो अराजकता फैल रही थी तथा उसके फलस्वरूप उसे जो दण्ड प्राप्त हुआ, यह सब कुछ उन प्रान्तीय जीवों तथा अभग्नसेन के पूर्वबद्ध निकाचित कर्मों का ही परिणामविशेष था, जोकि एक परम असाध्य व्याधि की तरह किसी उपायविशेष से दूर किए जाने के योग्य नहीं था। तात्पर्य यह है कि तीर्थंकरदेव के अतिशय की क्षेत्र-परिधि से यह बाहर की वस्तु थी। अथवा इस प्रश्न को दूसरे रूप से यूं भी समाहित किया जा सकता है कि वास्तव में उक्त घटनाविशेष का सम्बन्ध तो राजनीति से है इस को उपद्रवविशेष कहा ही नहीं जा सकता। उपद्रवविशेष तो ईति भीति आदि हैं, जिन का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, वे उपद्रव तीर्थंकर देव के अतिशयविशेष से अवश्य दूर हो जाते हैं परन्तु अपराधियों को दिए गए दण्ड का उपद्रवों में संकलन न होने के कारण, उसका तीर्थंकरदेव के अतिशय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। "-करयल जाव पडिसुणेति-" यहां पठित जाव-यावत पद से विवक्षित पदों का निर्देश पीछे किया जा चुका है। "-एतेणं विहाणेणं-" यहां पठित एतद् शब्द से-भिक्षा को गए भगवान् गौतम स्वामी ने पुरिमताल नगर के राजमार्ग पर जिस विधान-पकार से एक पुरुष को मारे जाने की घटना देखी थी, उस विधान का स्मरण करना ही सूत्रकार को अभिमत है। तथा एतद्-शब्दविषयक अधिक ऊहापोह द्वितीय अध्याय में किया गया है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में अभग्नसेन का। शेष वर्णन सम है। ___-पुरा जाव विहरति- यहां के जाव-यावत् पद से -पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पिडिक्कन्ताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का शब्दार्थ प्रथम अध्याय में किया जा चुका है। श्री गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से जो प्रश्न किया था, उस का उत्तर भगवान ने दे दिया। अब अग्रिम सूत्र में गौतम स्वामी की अपर जिज्ञासा का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूल-अभग्गसेणे णं भंते ! चोरसेणावती कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? गोतमा ! अभग्गसेणे चोरसे सत्ततीसं 428 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासाइं परमाउयं पालइत्ता अजेव तिभागावसेसे दिवसे सूलभिन्ने कते समाणे कालगते इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसे. नेरइएसु उवविजिहिइ। से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता, एवं संसारो जहा पढमे जाव पुढवीए / ततो उव्वट्टित्ता वाणारसीए णगरीए सूयरत्ताए पच्चायाहिति, सेणं तत्थ सोयरिएहिं जीवियाओ ववरोविए समाणे तत्थेव वाणारसीए णगरीए सेट्टिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति, से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे, एवं जहा पढमे, जाव अंतं काहि त्ति निक्खेवो। ॥तइयं अज्झयणं समत्तं॥ .. छाया-अभग्नसेनो भदन्त ! चोरसेनापतिः कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोपपस्यते? गौतम ! अभग्नसेनश्चोरसेनापतिः सप्तत्रिंशतेवर्षाणि परमायुः पालयित्वा अद्यैव त्रिभागावशेषे दिवसे शूलभिन्नः कृतः सन् कालगतोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां उत्कर्षेण नैरयिकेषूपपत्स्यते। ततोऽनन्तरमुढत्य, एवं संसारो यथा प्रथमो यावत् पृथिव्याम् / तत उद्धृत्य वाराणस्यां नगर्यां शूकरतया प्रत्यायास्यति स तत्र शौकरिकैर्जीवनाद् व्यपरोपितः सन् तत्रैव वाराणस्यां नगर्यां श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति। स तत्रोन्मुक्तबालभावः, एवं यथा प्रथमः यावदन्तं करिष्यतीति निक्षेपः। // तृतीयमध्ययनं समाप्तम् // पदार्थ-भंते !-हे भगवन् ! अभग्गसेणे णं-अभग्नसेन। चोरसेणावती-चोरसेनापति। कालमासे-कालमास में-मृत्यु के समय। कालं किच्चा-काल कर के। कहिं-कहां। गच्छिहिइ ?जाएगा? कहिं-कहां पर / उववजिहिइ-उत्पन्न होगा? गोतमा !-हे गौतम ! अभग्गसेणे-अभग्नसेन / चोरसे०-चोरसेनापति। सत्तातीसं-सैंतीस 37 / वासाइं-वर्षों की। परमाउयं-परमायु। पालइत्ता-पाल कर-भोग कर। अज्जेव-आज ही। तिभागावसेसे-त्रिभागावशेष अर्थात् जिस का तीसरा भाग बाकी हो ऐसे। दिवसे-दिन में। सूलभिन्ने-सूली से भिन्न। कते समाणे-किया हुआ। कालगते-काल-मृत्यु को प्राप्त हुआ। इमीसे-इस। रयणप्पभाए-रत्नप्रभा नामक / पुढवीए-नरक में। उक्कोसे०-जिन की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, ऐसे। नेरइएसु-नारकियों में। उववज्जिहिइ-उत्पन्न होगा। ततो-वहां सेनरक से। अणंतरं-व्यवधान रहित। उव्वट्टित्ता-निकल कर। से णं-वह। एवं-इसी प्रकार। संसारोसंसारभ्रमण करता हुआ। जहा-जैसे। पढमे-प्रथम अध्ययनगत मृगापुत्र का वर्णन किया है। जाव-यावत्। पढवीए०-पृथ्वीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। ततो-वहां से। उव्वद्वित्ता-निकल कर। वाणारसीएबनारस नामक। णगरीए-नगर में। सूयरत्ताए-शूकर रूप में। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ-वहां पर। से णं-वह। सोयरिएहिं-शूकर का शिकार करने वालों के द्वारा। जीवियाओ-जीवन से। ववरोविए समाणे-रहित किया हुआ। तत्थेव-उसी। वाणारसीए-बनारस नामक। णगरीए-नगरी में। सेट्टिकुलंसिप्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [429 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठि-कुल में। पुत्तत्ताए-पुत्र रूप से। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ-वहां पर। से णं-वह। / उम्मुक्कबालभावे-बालभाव-बाल्यावस्था को त्याग कर। जहा-जिस प्रकार। पढमे-प्रथम अध्ययन में प्रतिपादन किया गया। एवं-उसी प्रकार। जाव-यावत् / अंतं-जन्म-मरण का अन्त / काहि-करेगा अर्थात् जन्म-मरण से रहित हो जाएगा।त्ति-इति शब्द समाप्त्यर्थक है। निक्खेवो-निक्षेप अर्थात् उपसंहार पूर्ववत् जान लेना चाहिए। तइयं-तृतीय। अज्झयणं-अध्ययन। समत्तं-समाप्त हुआ। मूलार्थ-भगवन् ! अभग्नसेन चोरसेनापति कालावसर में काल करके कहां जाएगा ? तथा कहां पर उत्पन्न होगा? गौतम ! अभग्नसेन चोरसेनापति 37 वर्ष की परम आयु को भोग कर आज ही त्रिभागावशेष दिन में शूली पर चढ़ाए जाने से काल करके रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकी रूप से-जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, उत्पन्न होगा। तदनन्तर प्रथम नरक से निकले हुए का शेष संसारभ्रमण प्रथम अध्ययन में प्रतिपादित मुंगापुत्र के संसार-भ्रमण की तरह समझ लेना, यावत् पृथ्वीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर बनारस नगरी में शकर के रूप में उत्पन्न होगा, वहां पर शौकरिकों-शूकर के शिकारियों द्वारा आहत किया हुआ फिर उसी बनारस नगरी के श्रेष्ठिकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा।वहां बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ, यावत् निर्वाण पद को प्राप्त करेगा-जन्म और मरणं का अन्त करेगा। : निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। . ॥तृतीय अध्ययन समाप्त॥ ___टीका-प्रस्तुत सूत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न तथा भगवान् की ओर से दिए गए उस के उत्तर का वर्णन किया गया है। भगवन् ! अभग्नसेन चोरसेनापति यहां से काल करके कहां जाएगो, और कहां पर उत्पन्न होगा, और अन्त में उसका क्या बनेगा, ये गौतम स्वामी के प्रश्न हैं, इनके उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया वह निनोक्त है गौतम ! अभग्नसेन चोरसेनापति अपने पूर्वोपार्जित दुष्कर्मों के प्रभाव से महती वेदना का अनुभव करेगा और पुरिमताल नगर के महाबल नरेश उसे आज ही अपराह्नकाल में उसके अपराधों के परिणामस्वरूप सूली पर चढ़ा देंगे। ___प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जो यह लिखा है कि अभग्नसेन को अपराह्नकाल में सूली पर चढ़ाया जाएगा, इस पर यहां आशंका होती है कि अभग्नसेन की-पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बैठा कर चाबुकों के भीषण प्रहारों से निर्दयतापूर्वक ताड़ित करना, उसी के शरीर 430 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में से निकाले हुए मांसखण्डों का उसे खिलाना, तथा साथ में उसे रुधिर का पान कराना, वह भी एक स्थान पर नहीं प्रत्युत अठारह स्थानों पर-इस प्रकार की भीषण एवं मर्मस्पर्शी दशा किए जाने पर भी वह जीवित रहा, उस का वहां पर प्राणान्त नहीं हुआ, यह कैसे ? अर्थात् मानवी प्राणी में इतना बल कहां है कि जो इस प्रकार पर नरकतुल्य दुःखों का उपभोग कर लेने पर भी जीवित रह सके ? इस आशंका का उत्तर निम्नोक्त है. शारीरिक बल का आधार संहनन (संघयण) होता है। हड्डियों की रचनाविशेष का नाम संहनन है। वह छः प्रकार का होता है, जो कि निम्नोक्त है (1) वज्रऋषभनाराचसंहनन-वज्र का अर्थ कील होता है। ऋषभ वेष्टनपट्ट (पट्टी) को कहते हैं। नाराच शब्द दोनों ओर के मर्कटबन्ध (बन्धनविशेष) के लिए प्रयुक्त होता है। अर्थात् जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जोड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्ट की आकृति वाली हड्डी की कील हो उसे वज्रऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। यह संहनन सब से अधिक बलवान होता है। (2) ऋषभनाराचसंहनन-जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जुड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्ट की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो, पर तीनों हड्डियों का भेदन करने वाली वज्र नामक हड्डी की कील न हो उसे ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। यह पहले की अपेक्षा कम बलवान होता है। / (3) नाराचसंहनन-जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जुड़ी हुई हड्डियां हों, पर उन के चारों ओर वेष्टनपट्ट और वज्र नामक कील न हो उसे नाराचसंहनन कहते हैं। यह दूसरे की अपेक्षा कम बलवान होता है। .. (4) अर्धनाराचसंहनन-जिस संहनन में एक ओर तो मर्कटबन्ध हो और दूसरी ओर कीली हो उसे अर्धनाराचसंहनन कहते हैं / यह तीसरे की अपेक्षा कम बल वाला होता (5) कीलिकासंहनन-जिस संहनन में हड्डियां केवल कील से जुड़ी हुई हों उसे कीलिकासंहनन कहते हैं। यह चौथे की अपेक्षा कम बल वाला होता है। (6) सेवार्तकसंहनन-जिस संहनन में हड्डियां पर्यन्त भाग में एक-दूसरे को स्पर्श करती हुई रहती हैं तथा सदा चिकने पदार्थों के प्रयोग एवं तेलादि की मालिश की अपेक्षा रखती हैं, उसे सेवार्तक संहनन कहते हैं। यह सब से कमजोर संहनन होता है। इस संहनन-वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीरगत सबलता एवं निर्बलता संहनन के कारण ही होती है। संहनन यदि सबल होता है तो शरीर भी उसके अनुरूप सबल होता प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [431 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, इसके विपरीत यदि संहनन निर्बल है तो शरीर भी निर्बल होगा। अतः अभग्नसेन इतना भीषण संकट सह लेने पर भी जो जीवित रहा, अर्थात् उस का प्राणान्त नहीं होने पाया तो इस में केवल संहननगत बलवत्ता को ही कारण समझना चाहिए। आज भी संहननगत भिन्नता के कारण व्यक्तियों में न्यूनाधिक बल पाया जाता है। अपनी छाती पर शिला रखवा कर उसे हथौड़ी से तुड़वाने वाले तथा अपने वक्षस्थल पर हाथी को चलवाने वाले एवं चलते इंजन को रोकने का साहस रखने वाले वीराग्रणी राममूर्ति को कौन नहीं जानता ? सारांश यह है कि संहननगत बलवत्ता के सन्मुख कुछ भी असम्भव नहीं है। रहस्यं तु केवलिगम्यम्। अभग्नसेन चोरसेनापति कुल सैंतीस वर्ष की आयु भोग कर शूली के द्वारा कालमृत्यु को प्राप्त कर पूर्वकृत दुष्कर्मों से रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा, नरक में भी उन नारकियों में उत्पन्न होगा, जिन की उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम की है। एवं नानाविध नरक यातनाओं का अनुभव करेगा। 1. प्रस्तुत कथासन्दर्भ में लिखा है कि अभग्नसेन के आगे उसके लघुपिताओं (चाचों), महापिताओंतायों, पोतों, पोतियों, दोहतों तथा दोहतियों आदि पारिवारिक लोगों को ताडित किया गया। साथ में अभग्नसेन की आयु 37 वर्ष की बताई है। यहां प्रश्न होता है कि इतनी छोटी आयु में दोहतियों आदि का होना कैसे सम्भव हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में दो प्रकार के मत पाए जाते हैं। जो कि निम्नोक्त हैं एक-अभग्नसेन के पिता विजय चोरसेनापति का परिवार अभग्नसेन के अपने पितृपद पर आरूढ़ हो जाने के कारण उसे उसी दृष्टि से अर्थात् पिता की दृष्टि से देखता था और अभग्नसेन भी उस पितृपरिवार का पिता की भान्ति पालन पोषण किया करता था। इसी दृष्टि से सूत्रकार ने विजय चोरसेनापति के परिवार को अभग्नसेन का परिवार बताया है। दो-अभग्नसेन चोरसेनापति के ज्येष्ठ भाई की सन्तति भी उसके पोता, दोहता आदि सम्बन्धों से कही जा सकती है। अतः यहां जो अभग्नसेन के पोते, दोहते आदि पारिवारिक लोगों का उल्लेख किया गया है, उस में किसी प्रकार का अनौचित्य नहीं है। 2. एक योजन (चार कोस) गहरा, एक योजन लम्बा, एक योजन विस्तार वाला कूप हो, उसमें युगलियों के केश-बाल अत्यन्त सूक्ष्म किए हुए अर्थात् जिनके खण्ड का और खण्ड न हो सके, भर दिए जाएं, तथा वे इतने ढूंस कर भरे जावें कि जो एक वज्र की भान्ति घनरूप हो जायें, तथा जिन पर चक्रवर्ती की सेना (32 हजार मुकुटधारी राजा, 84 लाख हाथी, 84 लाख घोड़े, 84 लाख रथ तथा 96 करोड़ पैदल सेना) भ्रमण करती हुई चली जाए तब भी एक केशखण्ड मुड़ने नहीं पाए। अथवा गंगा, यमुनादि नदियों का जल उस कूप पर से बहने लग जाए, तब भी एक बाल बहाया या आर्द्र न किया जा सके, एवं जिस कूप पर उल्कापात आदि की अग्नि की वर्षा जोरों के साथ हो तब भी उन केशों में से एक भी केश दग्ध न हो सके, ऐसे ढूंस कर भरे हुए उस कूप में से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक केशखण्ड निकाला जाए। इसी भान्ति निकालते-निकालते जितने काल में वह कूप खाली हो जाए, उतने काल की एक पल्योपम संज्ञा होती है। ऐसे दस कोटाकोटि (दस करोड़ को दस करोड़ से गुणा करने पर जो संख्या हो वह) पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। सारांश यह है कि अंकों द्वारा न बताई जा सकने वाली बड़ी लम्बी आयु को सूचित करने के लिए सागरोपम शब्द का आश्रयण किया जाता है। 3. नरक में किस तरह की कल्पनातीत यातनाएं भोगनी पड़ती हैं, इस विषय का शास्त्रीय अनुभव प्राप्त करने के इच्छुकों को श्री उत्तराध्ययन सूत्र के 19 वें अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की जीवनी का साद्योपान्त अवलोकन करना चाहिए। क्योंकि मृगापुत्र ने अपने माता-पिता को स्वयं भोगी गई नरक-सम्बन्धी वेदनाओं का अपने जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा बोध कराया था। जोकि नरकसम्बन्धी सामान्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए काफी है। 432 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कंध Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठकों को स्मरण होगा कि श्री विपाक सूत्र के प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र की जीवनी का उल्लेख किया गया है। सूत्रकार उसी बात का स्मरण कराते हुए लिखते हैं. "-एवं संसारो जहा पढमे-" अर्थात् जैसा कि प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण कथन कर आए हैं, ठीक उसी तरह पृथिवीकायोत्पत्तिपर्यन्त प्रस्तुत अध्ययन में भी अभग्रसेन चोर-सेनापति के जीव का संसारभ्रमण जान लेना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तोजैसे मृगापुत्र संसार में गमनागमन करेगा उसी प्रकार अभग्नसेन का जीव भी चतुर्गतिरूप संसार में जन्म-मरण करेगा-यह कहा जा सकता है। दोनों में जो विशेष अन्तर है, उसका निर्णय सूत्रकार ने स्वयं कर दिया है। मृगापुत्र का जीव तो नरक से निकल कर प्रतिष्ठानपुर नगर में गोरूप से उत्पन्न होगा जब कि अभग्नसेनका जीव बनारस नगरी में शूकर रूप से जन्म लेगा। भगवान् कहते हैं कि गौतम ! शूकर रूप में जन्मा हुआ अभग्नसेन का जीव शिकारियों के द्वारा मारा जाकर फिर बनारस नगरी में एक प्रतिष्ठित कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां जन्म लेकर वह अपने जीवन को उन्नत बनाने का प्रयत्न करेगा। युवावस्था को प्राप्त होने पर एक संयमशील मुनि के सहवास से मानवजीवन के महत्त्व को समझेगा। तथा आध्यात्मिक विचारधाराओं के बढ़ते-बढ़ते अंततोगत्वा वह साधुवृत्ति को अंगीकार करेगा और उसके यथाविधि पालन से सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा। देवोचित सुखों का उपभोग कर के वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहां युवावस्था को प्राप्त हो कर अनगार-वृत्ति को अंगीकार करेगा। उसके सम्यक् अनुष्ठान से कर्मरूप इन्धन को तपरूप अग्नि से जलाकर आत्मगत कर्म-मल को भस्मसात् करता हुआ परम कल्याणरूप निर्वाण-पद को प्राप्त कर लेगा। तात्पर्य यह है कि सर्वप्रकार के कर्मों का अन्त करके जन्ममरण से रहित होता हुआ शाश्वत सुख को प्राप्त करेगा, आत्मा से परमात्मपद को ग्रहण कर लेगा। __-उक्कोसे- यहां का बिन्दु -उक्कोससागरोवमट्टिइएसु-इस समस्त पद का परिचायक है। इस पद का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है। _ -जहा पढमे जाव पुढवीए०- यहां पठित जाव-यावत् पद से –सरीसवेसु उववज्जिहिइ तत्थ णं कालं किच्चा-से लेकर -तेउ आउ०-यहां तक के पदों का ग्रहण समझना। इन पदों का शब्दार्थ प्रथम अध्याय में दिया जा चुका है। तथा-पुढवीए०-यहां के बिन्दु से - अणेगसतसहस्सक्खुत्तो उववज्जिहिति-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् लाखों बार पृथिवीकाया में उत्पन्न होगा। _-पढमेजाव अंतं-यहां के -जाव-यावत्-पद से-विण्णायपरिणयमित्तेजोव्वण मम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [433 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणुप्पत्ते- से लेकर -सिज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सव्वदुक्खाण-यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ प्रथम अध्ययन के अन्त में किया जा चुका -निक्खेवो-'निक्षेप- को दूसरे शब्दों में उपसंहार कहते हैं। लेखक जिस समय अपने प्रतिपाद्य विषय का वर्णन पूर्ण करता है तो अन्त में पूर्वभाग को उत्तरभाग से मिलाता है। उसी भाव को सूचित करने के लिए प्रकृत अध्ययन के अन्त में "-निक्खेवो-" यह पद दिया गया है। इस पद से अभिव्यञ्जित अर्थात् प्रस्तुत तृतीय अध्ययन के पूर्वापर सम्बन्ध को मिलाने वाला पाठ निम्न प्रकार से समझना चाहिए "एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं तइयस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि"। पाठकों को स्मरण होगा कि चम्पा नगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी-शिष्य श्री सुधर्मा स्वामी तथा इन्हीं के शिष्य श्री जम्बू स्वामी विराजमान हैं। वहां श्री जम्बू स्वामी ने अपने पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से यह प्रार्थना की थी कि भगवन् ! विपाकश्रुत के अन्तर्गत दुःखविपाक के द्वितीय अध्ययन के अर्थ को तो मैंने आप श्री से सुन लिया है, परन्तु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उसके तीसरे अध्ययन में किस अर्थ का वर्णन किया है, अर्थात् उस में किस विषय का प्रतिपादन किया है / यह मैंने नहीं सुना, अतः आप श्री उस का अर्थ सुनाने की भी मुझ पर कृपा करें-यह प्रश्न प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में किया गया था। उसी प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी अभग्नसेन का जीवनवृत्तान्त सुनाने के अनन्तर कहते हैं कि हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के तीसरे अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है। तथा हे जम्बू ! जो कुछ मैंने कहा है उस में मैंने अपनी तरफ से कुछ नहीं कहा किन्तु भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में निवास कर जो कुछ मैंने उनसे सुना, वही तुम को सुना दिया-यह-"एवं खलु जम्बू !"- इत्यादि पदों का भावार्थ है। प्रस्तुत तृतीय अध्ययन में सूत्रकार ने मानव जीवन के कल्याण के लिए अनेकानेक अनमोल शिक्षाएं दे रखी हैं। मात्र दिग्दर्शन के लिए, कुछ नीचे अंकित की जाती हैं (1) कुछ रसना-लोलुपी लोग अंडों में जीव नहीं मानते हैं। उन का कहना है कि 1. निक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। . 434 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्डा वनस्पति का ही रूपान्तर है, परन्तु उन्हें प्रस्तुत तृतीय अध्ययन में वर्णित निर्णय अंडवाणिज के जीवनवृत्तान्त से यह समझ लेना चाहिए कि अण्डा मांस है, उस में भी हमारी तरह से प्राणी निवास करता है और जिस तरह से हम अपना जीवन सुरक्षित एवं निरापद बनाना चाहते हैं, वैसे उनमें भी अपने जीवन को सुरक्षित एवं निरापद रखने के अव्यक्त अध्यवसाय अवस्थित हैं। तथा जिस तरह हमें किसी के पीड़ित करने पर दुःखानुभव एवं सुख देने पर सुखानुभव होता है उसी तरह उसे भी दुःख देने पर दुःखानुभूति और सुख देने पर सुखानुभूति होती है। फिर भले ही उसकी सुखानुभूति एवं दुःखानुभूति की सामग्री हमारी दुःखसामग्री से भिन्न हो / परन्तु अनुभव की अवस्थिति दोनों में बराबर चलती है। अतः अण्डों को नष्ट कर देना या खा जाना एवं उसके क्रयविक्रय का अर्थ है-प्राणियों के जीवन को लूट लेना। किसी के जीवन को लूट लेना पाप है, जो कि मानवता के लिए सब से बड़ा अभिशाप है। पाप दुःखों का उत्पन्न करने वाला होता है, एवं आत्मा को जन्म-मरण के परम्पराचक्र में धकेलने का प्रबल एवं अमोघ (निष्फल न जाने वाला) कारण बनता है। तभी तो अभग्नसेन के जीव को निर्णय अण्डवाणिज के भव में किए गए अंडों के भक्षण एवं उन के अनार्य एवं अधर्मपूर्ण व्यवसाय के कारण ही सात सागरोपम जैसे लंबे काल तक नरक में नारकीय असह्य एवं भीषणातिभीषण दुःखों का उपभोग करना पड़ा था। अतः सुखाभिलाषी एवं विचारशील पुरुष को प्रस्तुत अध्ययन में दी गई शिक्षा से अपने को शिक्षित करते हुए अण्डों का पापपूर्ण भक्षण एवं उन के हिंसक और अनार्य व्यवसाय से सदा दूर रहना चाहिए, अन्यथा निर्णय 1. श्री दशवैकालिक सूत्र के चतुर्थ अध्ययन में जहां त्रस प्राणियों का वर्णन किया है वहां अण्डज को उस प्राणी माना है। अण्डे से पैदा होने वाले पक्षी, मछली आदि प्राणी अण्डज कहलाते हैं। से जे पण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तंजहा-अण्डया पोयया.....। . कुछ लोग यह आशंका करते हैं कि जब अण्डे को तोड़ा जाता है तो वहां से किसी प्राणी के निकलने की बजाय तरल पदार्थ निकलता है। ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि अण्डे में जीव है ? इस आशंका का उत्तर निम्रोक्त है अण्डे से निसृत पदार्थ तरल है इसलिए उस में जीव नहीं है, यह कोई सिद्धान्त नहीं है, क्योंकि अण्डे जैसी ही स्थिति मनुष्य के गर्भ की भी होती है। तात्पर्य यह है कि यदि एक दो या तीन मास के गर्भ का पतन किया जाए तो गर्भाशय से मात्र रक्त का ही स्राव होता है, तथापि ऐसे रक्तस्वरूप गर्भ का पात करना जहां आध्यात्मिक दृष्टि से पञ्चेन्द्रियवध है महापाप है, वहां कानून (राजनियम) की दृष्टि से भी वह निषिद्ध एवं दण्डनीय है। गर्भपात का निषेध इसी लिए किया जाता है कि कुछ काल के अनन्तर उस गर्भ में से किसी प्राणी का विकसित एवं परिवृद्ध रूप उपलब्ध होना था। ठीक इसी प्रकार अण्डे से भी समयान्तर में किसी गतिशील एवं सांगोपांग प्राणी का प्रादुर्भाव अनिवार्य होता है। तब यह कहना कि अण्डे में जीव नहीं होता, यह एक भयंकर भूल है। वैज्ञानिक लोग बताते हैं कि यदि सूक्ष्म पदार्थों का निरीक्षण करने वाले यन्त्रों द्वारा अण्डे के भीतर के तत्त्व का निरीक्षण किया जाए तो उस में जीव की सत्ता का अनुभव होता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [435 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्डवाणिज के जीव की भान्ति नारकीय भीषण यातनाओं से अपने को बचाया नहीं जा . सकेगा। (2) धन-जनादि के अभिमान से मत्त हुए अज्ञानी जीव जिस समय पापकर्मों का आचरण करते हैं तो वे उस समय बड़ी खुशियां मनाते हैं और सत्पुरुषों के अनेकों बार समझाए जाने पर भी उन पाप कर्मों के दुःखद परिणाम-फल की ओर उनका तनिक भी ध्यान नहीं जाने पाता, प्रत्युत पापपूर्ण प्रवृत्तियों को ही अपने जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य बनाते हुए रात-दिन पापाचरणों में संलग्न रह कर वे अपने इस देवदुर्लभ मानवभव को नष्ट कर देने पर तुले रहते हैं, परन्तु जब उन्हें उन हिंसा-पूर्ण दुष्प्रवृत्तियों से उत्पन्न पापकर्मों का कटुफल भुगतना पड़ता है, तब वे अत्राण एवं अशरण होकर रोते हैं, चिल्लाते हैं और अत्यधिक दुर्दशा को प्राप्त करने के साथ-साथ अन्त में नरकों में नाना प्रकार के भीषण दुःखों का उपभोग करते हैं। पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बन्दी बने हुए अभग्नसेन चोरसेनापति के साथ जो अमानुषिक व्यवहार किया गया है, तथा उसे जो हृदयविदारक दण्ड दिया गया है, वह सब उसके अपने ही निर्णय अण्डवाणिज के भव में किए गए मांसाहार एवं अनार्य व्यवसाय से उत्पन्न कर्मों के कारण तथा इस भव में ग्रामों का जलाना, नगरों को दग्ध करना, पथिकों को लूट कर उनके प्राणों का अन्त कर डालना तथा उन्हें दाने-दाने का मोहताज बना देना इत्यादि भयानक दानवीय पाप कर्मों का ही कटु परिणाम है। इस लिए प्रत्येक सुखाभिलाषी पुरुष को मांसाहार और उसके हिंसापूर्ण व्यवसाय से विरत रहने के साथ-साथ ग्रामघ्रातादि दुष्कर्मों से अपने आपको सदा बचाना चाहिए और जहां तक बन सके दुःखितों के दुःख.को दूर करना, निराश्रितों को आश्रय देना आदि सत्कार्यों में अधिकाधिक भाग लेना चाहिए। तभी मानव जीवन की सफलता है एवं कृतकृत्यता है। // तृतीय अध्याय समाप्त॥ 436 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह चउत्थं अज्झयणं अथ चतुर्थ अध्याय ... ब्रह्म अर्थात् आगम-धर्मशास्त्र अथवा परमात्मा में आचरण करना 'ब्रह्मचर्य कहलाता है। तात्पर्य यह है कि परमात्मध्यान में तल्लीन होना तथा धर्मशास्त्र का सम्यक् स्वाध्याय करना, अर्थात् उसमें प्रतिपादित शिक्षाओं को जीवन में उतारना ब्रह्मचर्य कहा जाता है। ब्रह्मचर्य का यह व्युत्पत्ति-लभ्य यौगिक अर्थ है जोकि आजकल एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो चुका है। आजकल ब्रह्मचर्य का रूढ़ अर्थ-मैथुन का निरोध है, अर्थात् स्त्री का पुरुष के सहवास से पृथक् रहना और पुरुष का स्त्री के संपर्क से पृथक् रहना ब्रह्मचर्य कहलाता है। प्रकृत में हमें इसी रूढ़ अर्थ का ही ग्रहण करना इष्ट है। , ब्रह्मचर्य-मैथुन निवृत्ति से कितना लाभ सम्भव हो सकता है, यह जीवन की उन्नति के शिखर तक पहुंचने के लिए कितना सहायक बन सकता है, तथा आत्मा के साथ लगी हुई विकट कर्मार्गलाओं को तोड़ने में यह कितना सिद्धहस्त रहता है, तथा इसके प्रभाव से यह आत्मा अपनी ज्ञान-ज्योति के दिव्य प्रकाश में कितना विकास कर सकता है, इत्यादि बातों का यदि अन्वय दृष्टि की अपेक्षा व्यतिरेक दृष्टि से विचार किया जाए तो अधिक संगत होगा। तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य के यथाविधि पालन करने से साधक व्यक्ति में जिन सद्गुणों का संचार होता है उन पर दृष्टि डालने की अपेक्षा यदि ब्रह्मचर्य के विनाश से उत्पन्न होने वाले 1. ब्रह्मणि चरणम्-आचरणमिति ब्रह्मचर्यम्। 2. निम्नलिखित गाथाओं में अब्रह्मचर्य-दुराचार की निकृष्टता का दिग्दर्शन कराया गया हैअबंभचरिअंघोरं पमायं दुरहिट्ठिनायरन्ति मुणी लोए भेआययणवज्जिणो॥१६॥ छाया-अब्रह्मचर्यं घोरं प्रमादं दुरधिष्ठितम्। नाचरन्ति मुनयो लोके भेदायतन-वर्जिनः॥ मूलमेयमहम्मस्स महादोस-समुस्सयं / तम्हा मेहुणसंसग्गं निग्गंथा वज्जयन्ति णं॥१७॥ छाया-मूलमेतद् अधर्मस्य महादोषसमुच्छ्रयं / तस्माद् मैथुनसंसर्ग निर्ग्रन्थाः वर्जयन्ति / (दशवैकालिक सूत्र अ.6) अर्थात् यह अब्रह्मचर्य अनंत संसार का वर्धक है, प्रमाद का मूल कारण है और यह नरक आदि रौद्र प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [437 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुष्परिणाम का दिग्दर्शन करा दिया जाए तो यह अधिक संभव है कि साधक ब्रह्मचर्य-सदाचार. के विनाश-जन्य कटु परिणाम से भयभीत होकर दुराचार से विरत हो जाए और सदाचार के सौरभ से अपने को अधिकाधिक सुरभित करे। - इसी दृष्टि को सन्मुख रखकर प्रस्तुत चतुर्थ अध्ययन में ब्रह्मचर्य के विनाश अर्थात् मैथुन-प्रवृत्ति की लालसा में आसक्त व्यक्ति के उदाहरण से ब्रह्मचर्य-विनाश के भयंकर दुष्परिणाम का दिग्दर्शन करा कर उससे पराङ्मुख होने की साधक व्यक्ति को सूचना देकर . मानव जीवन के वास्तविक कर्त्तव्य की ओर ध्यान दिलाया गया है। उस अध्ययन का आदिम सूत्र इस प्रकार है मूल-चउत्थस्स उक्खेवो।एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं साहंजणी णामं णगरी होत्था, रिद्धस्थिमियः। तीसे णं साहंजणीए णयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए देवरमणे णामं उज्जाणे होत्था।तत्थणं अमोहस्स जक्खस्स जक्खायतणे होत्था पुराणे० / तत्थ णं साहंजणीए णयरीए महचंदे णामं राया होत्था, महता / तस्स णं महचंदस्स रण्णो सुसेणे णामं अमच्चे होत्था। सामभेयदण्ड निग्गहकुसले, तत्थ णं साहंजणीए णयरीए सुदरिसणा णामं गणिया होत्था।वण्णओ।तत्थ णं साहंजणीएणयरीए सुभद्दे णामं सत्थवाहे होत्था, अड्ढे / तस्सणं सुभद्दस्स सत्थवाहस्स भद्दा णामं भारिया होत्था अहीण। तस्स णं सुभहस्स सत्थवाहस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सगड़े नामं दारए होत्था अहीण। छाया-चतुर्थस्योत्क्षेपः। एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये साहंजनी (साभांजनी) नाम नगरी अभवत्, ऋद्धस्तिमित०। तस्याः साहजन्या नगर्याः बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे देवरमणं नामोद्यानमभवत्। तत्रामोघस्य यक्षस्य यक्षायतनमभूत्, पुराणम् / तत्र साहजन्यां नगर्या महाचन्द्रो नाम राजाऽभूत् महता / तस्य महाचन्द्रस्य राज्ञः सुषेणो नामामात्योऽभूत् सामभेददण्ड निग्रहकुशलः तत्र साहजन्यां नगर्यां सुदर्शना नाम गणिकाऽभवत् / वर्णकः। तत्र साहजन्यां नगर्यां सुभद्रो नाम सार्थवाहोऽभूदाढ्यः / गतियों में ले जाने वाला है, इसलिए संयम के भेदक रूप कारणों के त्यागी मुनिराज इसका कभी सेवन नहीं करते हैं // 16 // यह अब्रह्मचर्य सब अधर्मों का मूल है और महान् से महान् दोषों का समूह रूप है। इसीलिए निग्रंथसाधु इस मैथुन के संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं // 17 // 438 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्य सुभद्रस्य सार्थवाहस्य भद्रा नाम भार्याऽभूदहीन / तस्य सुभद्रस्य सार्थवाहस्य पुत्रः भद्राया भार्याया आत्मजः शकटो नाम दारकोऽभूदहीन। पदार्थ-चउत्थस्स-चतुर्थ अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जान लेना चाहिए। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू !-हे जम्बू ! तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। साहंजणी-साहजनी। णाम-नाम की। णगरी-नगरी। होत्था-थी, जो कि। रिद्धस्थिमिय०-द्धभवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र और परचक्र के भय से रहित, समृद्ध-धन तथा धान्यादि से परिपूर्ण थी। तीसे णं-उस। साहंजणीए-साहजनी।णयरीए-नगरी के। बहिया-बाहर / उत्तरपुरस्थिमेउत्तर तथा पूर्व / दिसीभाए-दिशा के मध्य भाग में अर्थात् ईशान कोण में। देवरमणे-देवरमण / णाम-नाम का। उजाणे-उद्यान। होत्था-था। तत्थ णं-उस उद्यान में। अमोहस्स-अमोघ नाम के। जक्खस्स-यक्ष का। जक्खायतणे-यक्षायतन-स्थान।होत्था-था। पुराणे०-जो कि पुरातन था। तत्थणं-उस।साहंजणीएसाहजनी। णयरीए-नगरी में। महचंदे-महाचन्द्र। णाम-नामक / राया-राजा। होत्था-था। महता-जो कि हिमालय आदि पर्वतों के समानं दूसरे राजाओं की अपेक्षा महान् था। तस्स णं-उस। महचंदस्स.. महाचन्द्र। रण्णो-राजा का। साम-सामनीति। भेय-भेदनीति। दंड-दंड नीति का प्रयोग करने वाला और न्याय अथवा नीतियों की विधियों को जानने वाला, तथा। निग्गह-निग्रह करने में। कुसले-प्रवीण। सुसेणे-सुषेण।णाम-नाम का।अमच्चे-अमात्य-मन्त्री। होत्था-था। तत्थ णं-उस। साहंजणीए-साहजनी। णयरीए-नगरी में। सुदरिसणा-सुदर्शना / णाम-नाम की। गणिका-गणिका-वेश्या। होत्था-थी।वण्णओवर्णक-वर्णनप्रकरण पूर्ववत् जान लेना चाहिए। तत्थ णं-उस। साहंजणीए-साहजनी। णयरीए-णगरी में। सुभद्दे-सुभद्र। णाम-नाम का। सत्थवाहे-सार्थवाह। होत्था-था, जो कि। अड्ढे०-धनी एवं बड़ा प्रतिष्ठित था। तस्स णं-उस। सुभहस्स-सुभद्र। सत्थवाहस्स-सार्थवाह की। भद्दा-भद्रा / नाम-नाम की। * भारिया-भार्या। होत्था-थी, जो कि। अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर वाली थी। तस्स णंउस। सुभद्दस्स-सुभद्र। सत्थवाहस्स-सार्थवाह का। पुत्ते-पुत्र और / भद्दाए-भद्रा। भारियाए-भार्या का। अत्तए-आत्मज। सगडे-शकट। नाम-नाम का। दारए-बालक। होत्था-था, जो कि। अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर से युक्त था। मूलार्थ-जम्बू स्वामी के "-हे भदन्त ! यदि तीसरे अध्ययन का इस प्रकार से अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ?-" इस प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी फरमाने लगे कि हे जम्बू ! उस काल और उस समय में साहंजनी नाम की एक ऋद्ध, स्तिमित एवं समृद्ध नगरी थी। उसके बाहर ईशान कोण में देवरमण नाम का एक उद्यान था, उस उद्यान में अमोघ नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन-स्थान था। उस नगरी में महाचन्द्र नाम का राजा राज्य किया करता था जो कि हिमालय आदि पर्वतों के समान अन्य राजाओं की अपेक्षा महान् तथा प्रतापी था। उस महाचन्द्र नरेश का सुषेण नाम का एक मन्त्री था जो कि सामनीति, भेदनीति प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [439 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दण्डनीति के प्रयोग को और उसकी अथवा न्याय की विधियों को जानने वाला तथा निग्रह में बड़ा निपुण था। उस नगरी में सुदर्शना नाम की एक सुप्रसिद्ध गणिका-वेश्या रहती थी। उस के वैभव का वर्णन द्वितीय अध्ययन में वर्णित कामध्वजा नामक वेश्या के समान जान लेना चाहिए, तथा उस नगर में सुभद्र नाम का एक सार्थवाह रहता था, उस सुभद्र सार्थवाह अर्थात् सार्थ-व्यापारी मुसाफिरों के समूह का मुखिया, की भद्रा नाम की एक अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर वाली भार्या थी, तथा सुभद्र सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का आत्मज शकट नाम का एक बालक था, जोकि अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर से युक्त था। टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनगारपुंगव श्री जम्बू स्वामी आचार्यप्रवर श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों की पर्युपासना करते हुए साधुजनोचित त्यागी और तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए, नित्यकर्म के अनन्तर उन से भगवत्-प्रणीत निर्ग्रन्थ प्रवचन का भी प्रायः निरन्तर श्रवण करते रहते थे। पाठकों को स्मरण होगा कि श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी को पहले प्रकरणों में उनके प्रश्नों का उत्तर दे चुके हैं। दूसरे शब्दों में-श्री जम्बू स्वामी ने विपाकश्रुत के तीसरे अध्ययन के श्रवण की इच्छा प्रकट की थी। तब श्री सुधर्मा स्वामी ने उन्हें तीसरे अध्ययन में चोरसेनापति अभग्नसेन का जीवनवृत्तान्त सुनाया था, जिसे श्री जम्बू स्वामी ने, ध्यानपूर्वक सुना और चिन्तन द्वारा उसके परमार्थ को अवगत किया था, अब उनके हृदय में चतुर्थ अध्ययन के श्रवण की उत्कंठा हुई। वे सोचने लगे कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने चतुर्थ अध्ययन में क्या प्रतिपादन किया होगा, क्या उस में भी चौर्यकर्म के दुष्परिणाम का वर्णन होगा या अन्य किसी विषय का, इत्यादि हृदयगत ऊहापोह करते हुए अन्त में उन्होंने श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में चतुर्थ अध्ययन के श्रवण की प्रार्थना की। पाठकों को स्मरण रहे कि श्री जम्बू स्वामी ने अपनी भाषा में जो कुछ श्री सुधर्मा स्वामी से प्रार्थनारूप में निवेदन किया था, उसी को सूत्रकार ने "उक्खेवो-उत्क्षेपः" शब्द से सूचित किया है। उत्क्षेप को दूसरे शब्दों में प्रस्तावना कहा गया है। सम्पूर्ण प्रस्तावना सम्बन्धी पाठ इस प्रकार से है जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, चउत्थस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ?अर्थात् श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से विनयपूर्वक निवेदन किया कि भदन्त ! यदि 440 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के तृतीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! उन्होंने दुःखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ? जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न का उनके पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी ने जो उत्तर देना आरम्भ किया उसे ही सूत्रकार ने "एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं....." इत्यादि पदों में वर्णित किया है, जिन का अर्थ नीचे दिया जाता है श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा कि हे जम्बू ! इस अवसर्पिणी काल का चौथा आरा व्यतीत हो रहा था, उस समय साहंजनी नाम की एक सुप्रसिद्ध वैभवपूर्ण नगरी थी। उस के बाहर ईशान कोण में देवरमण नाम का एक परम सुन्दर उद्यान था। उस उद्यान में अमोघ नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन-स्थान था, जो कि पुराने जमाने के सुयोग्य अनुभवी तथा निपुण शिल्पियों-कारीगरों के यश-पुंज को दिगंतव्यापी करने में सिद्धहस्त था। दूसरे शब्दों में कहें तो-अमोघ यक्ष का स्थान बहुत प्राचीन तथा नितान्त सुन्दर बना हुआ था-यह कहा जा सकता साहजनी नगरी में महाराज महाचन्द्र का शासन चल रहा था। महाराज महाचन्द्र हृदय के बड़े पवित्र और प्रजा के हितकारी थे। उन का अधिक समय प्रजा के हित-चिन्तन में ही व्यतीत होता था। प्रजाहित के लिए अपने शारीरिक सुखों को वे गौण समझते थे। शास्त्रकारों ने उन्हें हिमाचल और मेरु पर्वत आदि पर्वतों से उपमित किया है, अर्थात् जिस प्रकार हिमालय आदि पर्वत निष्पकंप तथा महान् होते हैं, ठीक उसी प्रकार महाराज महाचन्द्र भी धैर्यशील और महाप्रतापी थे, तथा जिस प्रकार पूर्णिमा का चन्द्र षोडश कलाओं से सम्पूर्ण और दर्शकों के लिए आनन्द उपजाने वाला होता है, उसी प्रकार महाचन्द्र भी नृपतिजनोचित समस्त गुणों से पूर्ण और प्रजा के मन को आनन्दित करने वाले थे। महाचन्द्र के एक सुयोग्य अनुभवी मंत्री था जो कि सुषेण के नाम से विख्यात था। वह साम, भेद, दण्ड और दाननीति के विषय में पूरा-पूरा निष्णात था, और इन के प्रयोग से वह विपक्षियों का निग्रह करने में भी पूरी-पूरी निपुणता प्राप्त किए हुए था। इसीलिए वह राज्य का संचालन बड़ी योग्यता से कर रहा था और महाराज महाचन्द्र का विशेष कृपापात्र बना हुआ था। प्रियवचनों के द्वारा विपक्षी को वश में करना साम कहा जाता है। स्वामी और सेवक के हृदय में विभिन्नता उत्पन्न करने का नाम भेद है। किसी अपराध के प्रतिकार में अपराधी को पहुंचाई गई पीड़ा या हानि दण्ड कहलाता है। अभिमत पदार्थ के दान को दान या उपप्रदान प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [441 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं। निग्रह शब्द-दण्डित करना या स्वाधीन करना-इस अर्थ का परिचायक है, यह छल, कपट एवं दमन से साध्य होता है। __साम, भेद आदि पदों के भेदोपभेदों का वर्णन आचार्य श्री अभयदेव सूरि ने श्री स्थानाङ्ग सूत्र के तीसरे स्थान और तीसरे उद्देशक में बड़ी सुन्दरता से किया है। पाठकों की जानकारी के लिए वह स्थल नीचे दिया जाता है (1) 'साम-पांच प्रकार का होता है, जैसे कि १-परस्पर के उपकारों का प्रदर्शन करना, २-दूसरे के गुणों का उत्कीर्तन करना, ३-दूसरे से अपना पारस्परिक सम्बन्ध बतलाना, ४-आयति (भविष्यत्-कालीन) आशा दिलाना अर्थात् अमुक कार्य करने पर हम को अमुक लाभ होगा, इस प्रकार से भविष्य के लिए आशा बंधाना, ५-मधुर वाणी से-मैं तुम्हारा ही हूं -इस प्रकार अपने को दूसरे के लिए अर्पण करना। (2) भेद-तीन प्रकार का होता है, जैसे कि १-स्नेह अथवा राग को हटा देनाः ' अर्थात् किसी का किसी पर जो स्नेह अथवा राग है उसे न रहने देना। २-स्पर्धा-ईर्ष्या उत्पन्न कर देना। ३-मैं ही तुम्हें बचा सकता हूं-इस प्रकार के वचनों द्वारा भेद डाल देना। (3) दण्ड-तीन प्रकार का होता है, जैसे कि १-वध-प्राणान्त करना। २-परिक्लेषपीड़ा पहुंचाना। ३-जुरमाने के रूप में धनापहरण करना। (4) दान-पांच प्रकार का होता है, जैसे कि १-दूसरे के कुछ देने पर बदले में कुछ देना। २-ग्रहण किए हुए का अनुमोदन-प्रशंसा करना। ३-अपनी ओर से स्वतन्त्ररूपेण किसी अपूर्व वस्तु को देना। ४-दूसरे के धन को स्वयं ग्रहण कर अच्छे-अच्छे कामों में लगा देना। ५-ऋण को छोड़ देना। इसके अतिरिक्त उक्त नगरी में सुदर्शना नाम की एक गणिका-वेश्या भी रहती थी जो कि गायन और नृत्य कला में बड़ी प्रवीण और धनसम्पन्न कामिजनों को अपने जाल में फंसाने के लिए बड़ी कुशल थी। उस की रूपज्वाला में बड़े-बड़े धनी, मानी युवक शलभ-पतंग की 1. सामलक्षणमिदम्-परस्परोपकाराणां दर्शनं 1 गुणकीर्तनम् 2 / सम्बन्धस्य समाख्यानं 3 आयत्याः संप्रकाशनम् 4 ॥१॥वाचा पेशलया साधुतवाहमिति चार्पणम्५ ।इति सामप्रयोगज्ञैः साम पंचविधं स्मृतम्॥२॥ अस्मिन्नेवं कते इदमावयोर्भविष्यतीत्याशाजननमायतिसम्प्रकाशनमिति। भेदलक्षणमिदम-स्नेहरागापनयनं 1 संहर्षोत्पादनं तथा 2 / सन्तर्जनं 3 च भेदज्ञैः भेदस्तु त्रिविधः स्मृतः॥३॥ संहर्षः स्पर्धा, सन्तर्जनं च अस्यास्मिन्मित्रविग्रहस्य परित्राणं मत्तो भविष्यतीत्यादिकरूपमिति।भेदलक्षणमिदम्-वधश्चैव 1 परिक्लेशो 2, धनस्य हरणं तथा ३।इति दण्डविधानज्ञैर्दण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः॥४॥प्रदानलक्षणमिदम्-१ यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः उत्तमाधममध्यमाः। प्रतिदानं तथा तस्य 2 गृहीतस्यानुमोदनम्॥ 1 // द्रव्यदानमपूर्वं च 3 स्वयंग्राहप्रवर्तनम् ४।देयस्य प्रतिमोक्षश्च 5 दानं पंचविधं स्मृतम्॥२॥धनोत्सर्गो-धनसम्पत्, स्वयंग्राहप्रवर्तनंपरस्वेषु, देयप्रतिमोक्षः ऋणमोक्ष इति / (स्थानांगवृत्तितः)। 442 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतंस्कंध Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भान्ति अपने जीवनसर्वस्व को अर्पण करने के लिए एक-दूसरे से आगे रहते थे। तथा साहंजनी नगरी में सुभद्र नाम के एक सार्थवाह भी रहते थे, वे बड़े धनाढ्य थे। लक्ष्मीदेवी की उन पर असीम कृपा थी। इसीलिए वे नगर में तथा राजदरबार में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त किए हुए थे। उन की सहधर्मिणी का नाम भद्रा था। जो कि रूपलावण्य में अद्वितीय होने के अतिरिक्त पतिपरायणा भी थी। जहां ये दोनों सांसारिक वैभव से परिपूर्ण थे वहां इनके विशिष्ट सांसारिक सुख देने वाला एक पुत्र भी था जो कि शकट कुमार के नाम से प्रसिद्ध था। शकट कुमार जहां देखने में बड़ा सुन्दर था वहां वह गुण-सम्पन्न भी था। उसकी बोल चाल बंड़ी मोहक थी। . -रिद्धस्थिमिय०-यहां के बिन्दु से जो पाठ विवक्षित है उसकी सूचना द्वितीय अध्याय में दी जा चुकी है। तथा-पुराणे०- यहां के बिन्दु से औपपातिक सूत्रगत-सहिए वित्तिए कित्तिए-इत्यादि पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ वहीं औपपातिक सूत्र में देख लेना चाहिए। तथा-महता-यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ की सूचना भी द्वितीय अध्याय में दी जा चुकी है। -सामभेयदंड०- यहां के बिन्दु से-"उवप्पयाणनीतिसुप्पउत्त-णय-विहिन्नू ईहावूहमग्गणगवेसणअत्थसत्थमइविसारए उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मियाए पारिणामिआए चउव्विहाए बुद्धीए उववेए-इत्यादि औपपातिकसूत्रगत पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों की व्याख्या औपपातिक सूत्र में देखी जा सकती है। प्रस्तुत प्रकरण में जो सूत्रकार ने -सामभेयदंडउवप्पयाणनीतिसुप्पउत्तणयविहिन्नू- यह सांकेतिक पद दिया है, इसकी व्याख्या निम्नोक्त है - साम, भेद, दण्ड और उपप्रदान (दान) नामक नीतियों का भली प्रकार से प्रयोग करने वाला तथा न्याय अथवा नीतियों की विधियों का ज्ञान रखने वाला सामभेददण्डोपप्रदाननीतिसुप्रयुक्तनयविधिज्ञ कहलाता है। . -वण्णओ- पद का अर्थ है-वर्णक अर्थात् वर्णनप्रकरण। सूत्रकार ने वर्णक पद से गणिका के वर्णन करने वाले प्रकरण का स्मरण कराया है। गणिका के वर्णनप्रधान प्रकरण का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र के दूसरे अध्ययन में किया जा चुका है। . -अड्ढे०- यहां के बिन्दु से जो पाठ विवक्षित है उस का उल्लेख द्वितीय अध्ययन में किया जा चुका है। तथा-अहीण-यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ का वर्णन भी द्वितीय अध्ययन की टिप्पण में किया जा चुका है तथा दूसरे-अहीण-के बिन्दु से अभिमत पाठ का वर्णन भी उक्त अध्ययन में ही किया गया है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [443 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के मुख्य-मुख्य पात्रों का मात्र नाम निर्देश किया गया है। इन का विशेष वर्णन आगे किया जाएगा। अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में भगवान् महावीर स्वामी के पधारने और भिक्षार्थ गए हुए गौतम स्वामी के दृश्यावलोकन के विषय का वर्णन करते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे, परिसा राया य निग्गते, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया राया वि णिग्गओ। तेणं कालेणं 2 समणस्स० जेटे अंतेवासी जाव रायमग्गे ओगाढे। तत्थ णं हत्थी, आसे, पुरिसे० तेसिं च ण पुरिसाणं मझगतं पासति एगं सइत्थियं पुरिसं अवओडगबंधणं उक्खित्तकण्णनासं, जाव उग्घोसणं चिंता तहेव जाव भगवं वागरेति। ____ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः। परिषद् राजा च निर्गतः। धर्मः कथितः। परिषद् प्रतिगता, राजापि निर्गतः। तस्मिन् काले 2 श्रमणस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी यावद् राजमार्गेऽवगाढः। तत्र हस्तिनोऽश्वान् पुरुषान् तेषां च पुरुषाणां मध्यगतं पश्यति एकं सत्रीकं पुरुषं, अवकोटकबंधनम्, उत्कृत्तकर्णनासं, यावद् उद्घोषणं, चिंता तथैव यावद् भगवान् व्याकरोति। पदार्थ-तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। समणे-श्रमण। भगवंभगवान् / महावीरे-महावीर स्वामी। समोसढे-पधारे। परिसा य-परिषद्-जनता तथा। राया-राजा, नगर से। निग्गते-निकले। धम्मो-धर्म का। कहिओ-प्ररूपण किया। परिसा-परिषद् / पडिगया-चली गई। राया-राजा। वि-भी। णिग्गओ-चला गया। तेणं कालेणं २-उस काल तथा उस समय में। समणस्सश्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। जेद्वे-ज्येष्ठ-प्रधान। अंतेवासी-शिष्य। जाव-यावत्। रायमग्गेराजमार्ग में। ओगाढे-गये। तत्थ णं-वहां पर। हत्थी-हस्तियों को। आसे-अश्वों को, तथा। पुरिसे०पुरुषों को देखते हैं। तेसिं च-और उन। पुरिसाणं-पुरुषों के। मझगतं-मध्य में। सइत्थियं-स्त्री के सहित / अवओडगबंधणं-अवकोटकबंधन अर्थात् जिस बंधन में गल और दोनों हाथों को मोड़ कर पृष्ठभाग पर रज्जु के साथ बांधा जाए उस बंधन से युक्त। उक्खित्तकण्णनासं-जिस के कान और नासिका कटे हुए हैं। जाव-यावत् / उग्घोसणं-उद्घोषणा से युक्त / एगं-एक। पुरिसं-पुरुष को। पासतिदेखते हैं, देखकर। चिंता-चिन्तन करने लगे। तहेव-तथैव। जाव-यावत्।भगवं-भगवान् महावीर स्वामी। वागरेति-प्रतिपादन करने लगे। मूलार्थ-उस काल तथा उस समय साहंजनी नगरी के बाहर देवरमण उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। नगर से भगवान् के दर्शनार्थ जनता और राजा 444 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकले। भगवान् ने उन्हें धर्मदेशना दी। तदनन्तर धर्म का श्रवण कर जनता और राजा सब चले गए। तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ शिष्य श्री गौतम स्वामी यावत् राजमार्ग में पधारे। वहां उन्होंने हाथियों, अश्वों और पुरुषों को देखा, उन पुरुषों के मध्य में अवकोटकबन्धन से युक्त, कान और नासिका कटे हुए उद्घोषणायुक्त तथा सस्त्रीकस्त्रीसहित एक पुरुष को देखा, देख कर गौतम स्वामी ने पूर्ववत् विचार किया और भगवान् से आकर निवेदन किया तथा भगवान उत्तर में इस प्रकार कहने लगे टीका-साहंजनी नगरी का वातावरण बड़ा सुन्दर और शान्त था। वहां की प्रजा अपने भूपति के न्याययुक्त शासन से सर्वथा प्रसन्न थी। राजा भी प्रजा को अपने पुत्र के समान समझता था। जिस प्रकार शरीर के किसी अंग में व्यथा होने से सारा शरीर व्याकुल हो उठता है ठीक उसी प्रकार महाराज महाचन्द्र भी प्रजा की व्यथा से विकल हो उठते और उसे शान्त करने का भरसक प्रयत्न किया करते थे। वे सदा प्रसन्न रहते और यथासमय धर्म का आराधन करने में समय व्यतीत किया करते थे। आज उन की प्रसन्नता में आशातीत वृद्धि हुई, क्योंकि उद्यानपाल-माली ने आकर इन्हें देवरमण उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने का शुभ संदेश दिया। .. माली ने कहा-पृथिवीनाथ ! आज मैं आपको जो समाचार सुनाने आया हूं, वह आप को बड़ा ही प्रिय लगेगा। हमारे देवरमण उद्यान में आज पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अपने शिष्यपरिवार के साथ पधारे हैं। बस यही मंगल समाचार आप को सुनाने के लिए मैं आप की सेवा में उपस्थित हुआ हूं, ताकि अन्य जनता की तरह आप भी उनके पुण्यदर्शन का सौभाग्य प्राप्त करते हुए अपनी आत्मा को कृतकृत्य बनाने का सुअवसर उपलब्ध कर सकें। उद्यानपाल के इन कर्णप्रिय मधुर शब्दों को सुन कर महाराज महाचन्द्र बड़े प्रसन्न हुए। तथा इस मंगल समाचार को सुनने के उपलक्ष्य में उन्होंने उद्यानपाल को भी उचित पारितोषिक देकर प्रसन्न किया, तथा स्वयं वीर प्रभु के दर्शनार्थ उन की सेवा में उपस्थित होने के लिए बड़े उत्साह से तैयारी करने लगे। इधर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के देवरमण उद्यान में पधारने का समाचार सारे शहर में विद्युत्प्रकाश की भान्ति एक दम फैल गया। नगर की जनता उन के दर्शनार्थ वेगवती नदी के प्रवाह की तरह उद्यान की ओर चल पड़ी तथा महाराज महाचन्द्र भी बड़ी सजधज के साथ भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान की ओर चल पड़े, और उद्यान में पहुंचकर वीर प्रभु के जी प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [445 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भर कर निर्निमेष दृष्टि से दर्शन करते हुए उनकी पर्युपासना का लाभ लेने लगे, तथा प्रभुदर्शनों की प्यासी जनता ने भी प्रभु के यथारुचि दर्शन कर अपनी चिरंतन पिपासा को शान्त करने का पूरा-पूरा सौभाग्य प्राप्त किया। ___आज देवरमण उद्यान की शोभा भी कहे नहीं बनती। वीर प्रभु की कैवल्य विभूति से अनुप्राणित हुए उस में आज एक नए ही जीवन का संचार दिखाई देता है। उसका प्रत्येक वृक्ष, लता और पुष्प मानो हर्षातिरेक से प्रफुल्लित हो उठा है, तथा प्रत्येक अङ्ग-प्रत्यङ्ग में सजीवता अथच सजगता आ गई है। दर्शकों की आंखें उसकी इस अपूर्व शोभाश्री को निर्निमेष दृष्टि से निहारती हुई भी नहीं थकतीं। अधिक क्या कहें, वीर प्रभु के आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त करने वाले इस देवरमणोद्यान की शोभाश्री को निहारने के लिए तो आज देवतागण भी स्वर्ग से वहां पधार रहे हैं। ___तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उनके दर्शनार्थ देवरमण उद्यान में उपस्थित. . हुई जनता के समुचित स्थान पर बैठ जाने के बाद उसे धर्म का उपदेश दिया। उपदेश क्या था? साक्षात् सुधा की वृष्टि थी, जो कि भवतापसन्तप्त हृदयों को शान्ति-प्रदान करने के लिए की गई थी। उपदेश समाप्त होने पर वीर प्रभु को भक्तिपूर्वक वन्दना तथा नमस्कार करके नागरिक और महाराज महाचन्द्र आदि सब अपने-अपने स्थानों को चले गए। . तत्पश्चात् संयम और तप की सजीव मूर्ति श्री गौतम स्वामी भगवान् से आज्ञा लेकर पारणे के निमित्त भिक्षा के लिए साहंजनी नगरी में गए। जब वे राजमार्ग में पहुंचे तो क्या देखते हैं कि हाथियों के झुंड, घोड़ों के समूह और सैनिक पुरुषों के दल के दल वहां खड़े हैं। उन सैनिकों के मध्य में स्त्रीसहित एक पुरुष है, जिस के कर्ण, नासिका कटे हुए हैं, वह अवकोटक-बन्धन से बंधा हुआ है, तथा राजपुरुष उन दोनों को अर्थात् स्त्री और पुरुष को कोड़ों से पीट रहे हैं, तथा यह उद्घोषणा कर रहें हैं कि इन दोनों को कष्ट देने वाले यहां के राजा अथवा कोई अधिकारी आदि नहीं है, किन्तु इन के अपने दुष्कर्म ही इन्हें यह कष्ट पहुंचा रहे हैं। राजकीय पुरुषों के द्वारा की गई उस स्त्री पुरुष की इस भयानक तथा दयनीय दशा को देख कर करुणा के सागर गौतम स्वामी का हृदय पसीज उठा और उनकी इस दुर्दशा से वे बहुत दुःखित भी हुए। भगवान् गौतम सोचने लगे कि यह ठीक है कि मैंने नरकों को नहीं देखा किन्तु फिर भी श्रुत ज्ञान के बल से जितना उनके सम्बन्ध में मुझे ज्ञान है उस से तो यह प्रतीत होता है कि यह व्यक्ति नरक के समान ही यातना-दुःख को प्राप्त हो रहा है। अहो ! यह कितनी कर्मजन्य बिडम्बना है ! इत्यादि विचारों से युक्त हुए वापिस देवरमण उद्यान में आए, आकर प्रभु को 446 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना की और राजमार्ग के दृश्य का सारा वृत्तान्त कह सुनाया तथा उस दृश्य के अवलोकन से अपने हृदय में जो संकल्प उत्पन्न हुए थे, उन का भी वर्णन किया। तदनन्तर उस सस्त्रीक व्यक्ति के विषय में उसके कष्ट का मूल जानने की इच्छा से उसके पूर्व-जन्म का वृत्तान्त सुनने की लालसा रखते हुए भगवान् गौतम ने वीर प्रभु से विनम्र निवेदन किया कि भगवन् ! यह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? और उसने पूर्वजन्म में ऐसा कौन सा कर्म किया था जिसके फलस्वरूप उसे इस प्रकार के असह्य कष्टों को सहन करने के लिए बाधित होना पड़ा ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया, उसका वर्णन अग्रिम सूत्र में दिया गया है। ___-समणस्स-यहां के बिन्दु से -भगवओ महावीरस्स-इन पदों का ग्रहण समझना, और-अन्तेवासी जाव रायमग्गे- यहां के जाव-यावत् पद से-इन्दभूती नामं अणगारे गोयम-सगोत्तेणं-से लेकर-संखित्तविउलतेउलेसे छटुंछद्रेणं अणिक्खेित्तेणंतवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तए णं से भगवंगोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए' से लेकर दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे-यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। -पुरिसे०- यहां के बिन्दु से-पासति सन्नद्धबद्धवम्मियकवए-से लेकर - गहियाउहपरणे-यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है। इन पदों का शब्दार्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। "-उक्खित्तकण्णनासं जाव उग्घोसणं-" यहां का जाव-यावत् पद-नेहतुप्पियगत्तं-से लेकर-इमं च एयारूवं-यहां तक के पाठ का परिचायक है। इन पदों का शब्दार्थ द्वितीय अध्याय में दे दिया गया है। . -चिंता तहेव जाव-यहां पठित चिन्ता शब्द से-तते णं से भगवओ गोतमस्स तं पुरिसं पासित्ता इमे अज्झत्थिते 5 समुप्पज्जित्था-अहोणं इमे पुरिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं वेदेति-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा-तहेव- पद से जो विवक्षित है उस का उल्लेख भी द्वितीय अध्याय में किया गया है। तथा-जाव-यावत्- पद से -साहंजणीए नगरीए उच्चनीयमज्झिमकुले-से लेकर-पच्चणुभवमाणे विहरति-यहां तक के पाठ का ग्रहण करना अभिमत है। इन का अर्थ भी पहले लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम 1. इन समस्त पदों का वर्णन प्रथम अध्याय में कर दिया गया है। 2. समस्त पद जानने के लिए देखिए द्वितीय अध्याय। 'प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [447 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर का उल्लेख है जब कि यहां साहजनी नगरी का / अवशिष्ट वर्णन समान ही है। अब सूत्रकार गौतम स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया, उस का वर्णन करते हैं मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे छगलपुरे णामं णगरे होत्था। तत्थ सीहगिरी णामं राया होत्था, महया। तत्थ णं छगलपुरे णगरे छण्णिए णामं छागलिए परिवसति, अड्ढे, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे। तस्स णं छण्णियस्स छागलियस्स बहवे अयाण य एलाण य रोज्झाण य वसभाण य ससयाण य पसयाण य सूयराण य सिंघाण य हरिणाण य मऊराण य महिसाण य सतबद्धाणि य सहस्सबद्धाणि य जहाणि वाडगंसि सन्निरुद्धाइं चिट्ठति। तत्थ बहवे परिसा दिण्णभइभत्तवेयणा बहवे अए य जाव महिसे य सारक्खमाणा संगोवेमाणा चिटुंति।अन्ने य से बहवे पुरिसा अयाण जाव महिसाण य गिहंसि निरुद्धा चिटुंति। अन्ने य से बहवे पुरिसा दिण्णभतिभत्तवेयणा बहवे अए य जाव महिसे य सयए य सहस्सए जीविताओ ववरोवेंति 2 त्ता मंसाई कप्पणी-कप्पियाइं करेंति 2 त्ता छण्णियस्स छागलियस्स उवणेति, अन्ने य से बहवे पुरिसा ताई बहुंयाइं अयमंसाइं जाव महिसमंसाइं य तवएसु य कवल्लीसु य कंदूसु य भज्जणएसु य इंगालेसु य तलेंति य भज्जेंति य सोल्लिंति य तलंता य 3 रायमग्गंसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरति / अप्पणा वि य णं से छण्णियए छागलिए तेहिं बहूहिं अयमंसेहि य जाव महिसमंसेहि य सोल्लेहिं तलिएहिं सुरं च 5 आसादेमाणे 4 विहरति। तते णं से छण्णिए छागलिए एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता सत्तवाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पुढवीए उक्कोसेणं दससागरोवमठितिएसु णेरइएसु णेरइयत्ताए उववन्ने। छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जंबूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे छगलपुरं नाम नगरमभवत्। तत्र सिंहगिरिः नाम राजाभूत्, महता / तत्र छगलपुरे नगरे छण्णिको नाम छागलिकः परिवसति, आढ्यः', अधार्मिको यावत् 448 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुष्प्रत्यानन्दः। तस्स छण्णिकस्य छागलिकस्य बहूनि अजानां चैडानां च गवयानां च वृषभाणां च शशकानां च मृगशिशूनां च शूकराणां च सिंहानां च हरिणानां च मयूराणां च महिषाणां च शतबद्धानि च सहस्रबद्धानि च यथानि वाटके संनिरुद्धानि तिष्ठन्ति / तत्र बहवः पुरुषाः दत्तभृत्तिभक्तवेतना: बहूनजांश्च यावद् महिषांश्च संरक्षन्तः संगोपयन्तस्तिष्ठन्ति / अन्ये च तस्य बहवः पुरुषाः अजानां च यावद् महिषाणां च गृहे निरुद्धास्तिष्ठन्ति / अन्ये च तस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतना बहूनजांश्च यावद् महिषांश्च शतानि च सहस्राणि जीविताद् व्यपरोपयन्ति 2 मांसानि कर्तनीकृत्तानि कुर्वन्ति 2 छण्णिकाय छागलिकायोपनयन्ति। अन्ये च तस्य बहवः पुरुषाः तानि अजमांसानि च यावद् महिषमांसानि च तवकेषु च कवल्लीषु च कन्दुषु च भर्जनकेषु च अंगारेषु च तलंति च भृजंति च पचन्ति च / तलन्तश्च 3 राजमार्गे वृत्तिं कल्पयन्तः विहरन्ति / आत्मनापि च स छण्णिकःछागलिकः तैः बहुभिरजमांसैश्च पक्वैस्तलितैर्भृष्टैः सुरां च 5 आस्वादयन् 4 विहरति। ततः स छण्णिकः छागलिकः एतत्कर्मा एतत्-प्रधानः एतद्विद्यः एतत्समाचार: सुबहु पापं कर्म कलिकलुषं समय॑ सप्तवर्षशतानि परमायुः पालयित्वा चतुर्थ्यां पृथिव्यां उत्कर्षेण दशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतयोपपन्नः। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम् ! / तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं-उस। समएणं-समय में। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारतवर्ष में। छगलपुरे-छगलपुर ।णाम-नाम का। णगरे-नगर। होत्था-था। तत्थ-वहां / सीहगिरीसिंहगिरी। णाम-नामक। राया-राजा / होत्था-था। महया-जो कि हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। तत्थ णं-उस। छगलपुरे-छगलपुर / णगरे-नगर में। छण्णिए-छण्णिक। णाम-नामक। छागलिएछागलिक-छागों-बकरों के मांस से आजीविका करने वाला वधिक-कसाई। परिवसति-रहता था, जो कि।अड्डे-धनी तथा अपने नगर में बड़ा प्रतिष्ठित था और। अहम्मे-अधर्मी। जाव-यावत् / दुप्पडियाणंदेदुष्प्रत्यानन्द अर्थात् बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। तस्स णं-उस। छण्णियस्स-छण्णिक। छागलियस्स-छागलिक के। बहवे-अनेक। अयाण य-अजों-बकरों। एलाण य-भेड़ों। रोज्झाण यरोझों-नीलगायों। वसभाण य-वृषभों। ससयाण य-शशकों-खरगोशों। पसयाण य-मृगविशेषों अथवा मृगशिशुओं। सूयराण य-शूकरों-सूअरों। सिंहाण य-सिंहों। हरिणाण य-हरिणों। मऊराण य-मयूरों और।महिसाण य-महिषों-भैंसों के।सतबद्धाणि-शतबद्ध-जिस में 100 बन्धे हुए हों। सहस्सबद्धाणिसहस्रबद्ध-जिस में हज़ार बंधे हुए हों, ऐसे। जूहाणि-यूथ-समूह / वाडगंसि-वाटक-बाड़े में अर्थात् बाड़ आदि के द्वारा चारों ओर से घिरे हुए विस्तृत खाली मैदान में। सन्निरुद्धाइं-सम्यक् प्रकार से रोके हुए। चिट्ठन्ति-रहते थे। तत्थ-वहां / बहवे-अनेक। पुरिसा-पुरुष। दिण्णभइभत्तवेयणा-जिन्हें वेतन के रूप * प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [449 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भृति-रुपए पैसे और भक्त-भोजनादि दिया जाता हो, ऐसे पुरुष / बहवे-अनेक। अए य-अजों-बकरों का। जाव-यावत्। महिसे य-महिषों का। सारक्खमाणा-संरक्षण तथा। संगोवेमाणा-संगोपन करते हुए। चिटुंति-रहते थे। अन्ने य-और दूसरे। बहवे-अनेक / पुरिसा-पुरुष। अयाण य-अजों को। जावयावत्। महिसाण य-महिषों को। गिहंसि-घर में। निरुद्धा-रोके हुए। चिट्ठति-रहते थे, तथा। अन्ने य और दूसरे। से-उस के / बहवे-अनेक। पुरिसा-पुरुष। दिण्णभतिभत्तवेयणा-जिन को वेतन के रूप में भृति-रुपया, पैसा तथा भक्त-भोजन दिया जाता हो। बहवे-अनेक। अए य-अजों। जाव-यावत्। महिसे य-महिषों को, जो कि। सयए य-सैंकड़ों तथा। सहस्सए-हज़ारों की संख्या में थे। जीवियाओ-जीवन से। ववरोवेंति २-रहित किया करते थे, करके। मंसाइं-मांस के। कप्पणीकप्पियाइं-कर्तनी-कैंची अथवा छुरी के द्वारा टुकड़े। करेंति-करते थे। 2 त्ता-कर के। छण्णियस्स-छण्णिक। छागलियस्सछागलिक को। उवणेति-ला कर देते थे। अन्ने य-और दूसरे। से-उस के। बहवे-अनेक। पुरिसापुरुष। ताइं-उन। बहुयाई-बहुत से। अयमंसाइं-बकरों के मांसों। जाव-यावत् / महिसमंसाइं-महिषों के मांसों को। तवएसु य-तवों पर। कवल्लीसु य-कड़ाहों में। कंसु य-कन्दुओं पर अर्थात् हांडों में, अथवा कड़ाहियों में अथवा लोहे के पात्र-विशेषों में। भज्जणएसु य-भर्जनकों-भूनने के पात्रों में, तथा।. इंगालेसु य-अंगारों पर। तलेंति-तलते थे। भजेति-पूंजते थे। सोल्लिंति-शूल द्वारा पकाते थे। तलंता य ३-तल कर, भूज कर और शूल से पका कर। रायमग्गंसि-राजमार्ग में। वित्तिं कप्पेमाणा-आजीविका करते हुए। विहरन्ति-समय व्यतीत किया करते थे। अप्पणा वि य णं-और स्वयं भी। से-वह। छण्णियए-छण्णिक। छागलिए-छागलिक। तेहिं-उन। बहूहि-अनेकविध। अयमंसेहि य-बकरों के मांसों। जाव-यावत्। महिसमंसेहि य-महिषों के मांसों, जो कि। सोल्लेहि-शूल के द्वारा पकाये हुए। तलिएहि-तले हुए, और। भज्जिएहि-भूने हुए हैं, के साथ। सुरं च 5 पंचविध सुराओं-मद्य-विशेषों का। आसादेमाणे ४-आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ। विहरति-जीवन बिता रहा था। तते णंतदनन्तर। से-वह। छण्णिए-छण्णिक। छागलिए-छागलिक। एयकम्मे-इस प्रकार के कर्म का करने वाला। एयप्पहाणे-इस कर्म में प्रधान / एयविज्जे-इस प्रकार के कर्म के विज्ञान वाला तथा। एयसमायारेइस कर्म को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाने वाला। कलिकलुसं-क्लेशजनक और मलिन-रूप। सुबहुंअत्यधिक। पावं-पाप। कम्म-कर्म का। समजिणित्ता-उपार्जन कर। सत्तवाससयाई-सात सौ वर्ष की। परमाउं-परम आयु। पालइत्ता-पाल कर-भोग कर। कालमासे-कालमास अर्थात् मरणावसर में। कालंकाल। किच्चा-कर के। उक्कोसेणं-उत्कृष्ट। दससागरोवमठितिएसु-दससागरोपम स्थिति वाले। णेरइएसु-नारकियों में। णेरइयत्ताए-नारकी रूप से।चउत्थीए-चौथी। पुढवीए-पृथ्वी-नरक में। उववनेउत्पन्न हुआ। मूलार्थ-हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में छगलपुर नाम का एक नगर था। वहां सिंहगिरि नामक राजा राज्य किया करता था, जो कि हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। उस नगर में छण्णिक नामक एक छागलिक-छागादि के मांस का व्यापार करने वाला वधिक रहता था, जो कि धनाढ्य, अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था। 450 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस छण्णिक छागलिक के अनेक अजों, बकरों, भेड़ों, गवयों (वृषभों), शशकों, मृगविशेषों या मृगशिशुओं, शूकरों, सिंहों, हरिणों, मयूरों और महिषों के शतबद्ध एवं सहस्रबद्ध अर्थात् सौ-सौ तथा हजार-हजार जिन में बन्धे रहते थे ऐसे यूथ वाटक-बाड़े में सम्यक् प्रकार से रोके हुए रहते थे। वहां उसके जिनको वेतन के रूप में रुपया पैसा और भोजन दिया जाता था, ऐसे पुरुष अनेक अजादि और महिषादि पशुओं का संरक्षण तथा संगोपन करते हुए उन-अजादि पशुओं को घरों में रोके रखते थे। छण्णिक छागलिक के रुपया और भोजन लेकर काम करने वाले अनेक नौकर पुरुष सैंकड़ों तथा हजारों अजों यावत् महिषों को मार कर उन के मांसों को कर्तनी से काट कर छणिक को दिया करते थे, तथा उस के अनेक नौकर पुरुष उन मांसों को तवों, कवल्लियों, भर्जनकों और अंगारों पर तलते, भूनते और शूल द्वारा पकाते हुए उन- मांसों को राजमार्ग में बेच कर आजीविका चलाते थे। छण्णिक छागलिक स्वयं भी तले हुए, भूने हुए और शूल द्वारा पकाए हुए उन मांसों के साथ सुरा आदि पंचविध मद्यों का आस्वादनादि करता हुआ जीवन बिता रहा था। उसने अजादि पशुओं के मांसों को खाना तथा मदिराओं का पीना अपना कर्त्तव्य बना लिया था। इन्हीं पापपूर्ण प्रवृत्तियों में वह सदा तत्पर रहता था, यही प्रवृत्तियां उस के जीवन का विज्ञान बनी हुई थीं और ऐसे ही पाप-पूर्ण कामों को उस ने अपना सर्वोत्तम आचरण बना रखा था, तब क्लेशजनक और मलिनरूप अत्यधिक पाप कर्म का उपार्जन कर सात सौ वर्ष की पूर्णायु पाल कर कालमास में काल करके चतुर्थ नरक में, उत्कृष्ट दस सागरोपम स्थिति वाले नारकियों में नारकीय रूप से उत्पन्न हुआ। टीकाछगलपुर नगर में भिक्षार्थ गए हुए गौतम स्वामी ने राजमार्ग में जिस दृश्य का अवलोकन किया था उस के सम्बन्ध में पूछने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी की जिज्ञासानुसार दृष्ट व्यक्ति के पूर्वभव का वर्णन कह सुनाया। उस वर्णन में छण्णिक नामक छागलिक की सावध जीवनचर्या का जो स्वरूप दिखलाया गया है, उस पर से उसको अधार्मिक अधर्माभिरुचि, अधर्मानुगामी और अधर्माचारी कहना सर्वथा उपयुक्त ही है। ___छागलिक-पद के दो अर्थ किए जाते हैं, जैसे कि-(१) छागों के द्वारा आजीविका चलाने वाला, अर्थात् बकरों को बेच कर अपना जीवन-निर्वाह करने वाला। (2) बकरों का वध करने वाला-कसाई अर्थात् बकरों को मार कर उनके मांस को बेच कर अपना जीवन चलाने वाला। परन्तु सूत्रकार को प्रस्तुत प्रकरण में छागलिक का अर्थ कसाई अभिमत है। आत्मा का उपभोग-स्थान शरीर है, शरीर तभी रहता है जब कि शरीर की रक्षा के प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [451 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन पूरे-पूरे उपस्थित हों। शरीर को समय पर भोजन भी दिया जाए और पानी भी दिया, जाए तथा अन्य उपयोगी सामग्री भी दी जाए, तब कहीं शरीर सुरक्षित रह सकता है। इस के विपरीत यदि शरीर की सारसंभाल न की जाए तो वह-शरीर ठीक-ठीक काम नहीं दे सकता। शरीर मनुष्य का हो या पशु का हो, उसके ठीक रहते ही उस में आत्मा का निवास संभव हो सकता है, अन्यथा नहीं। छण्णिक इन बातों को खूब समझने वाला था, इसलिए उसने बाड़े में बन्द किए जाने वाले अजादि पशुओं की रक्षा का पूरा-पूरा प्रबन्ध कर रखा था। उन पशुओं के खाने और पीने आदि की व्यवस्था के लिए उसने अनेकों नौकर रख छोड़े थे। वे उन अजादि पशुओं को समय पर चारा आदि देते और पानी पिलाते तथा शीतादि से सुरक्षित रखने का भी पूरा-पूरा प्रबन्ध करते। संरक्षण और संगोपन इन दोनों पदों में पालन-पोषण से सम्बन्ध रखने वाली सारी क्रियाओं का समावेश हो जाता है। सारांश यह है कि छण्णिक छागलिक के बाड़े में अज, भेड़, गवय, वृषभ, शशक; मृग-शिशु या मृगविशेष, शूकर, सिंह, हरिण, मयूर और महिष इन जातियों के सैंकड़ों तथा हज़ारों पशु बन्धे या बन्द किए रहते थे, और इन की पूरी-पूरी देख रेख की जाती थी, जिस के लिए उसने अनेक नौकर रख छोड़े थे। इस के अतिरिक्त उस पशु और मांसविक्रय संबन्धी कारोबार को चलाने के लिए उसने जो नौकर रक्खे हुए थे, उन्हें चार भागों में विभक्त किया जा सकता है, जैसे कि (1) वे नौकर जो केवल पशुओं का पालन पोषण करते अर्थात् उन को बाहर ले जाना, बाड़ों में बन्द करना, घास चारा आदि देना और उन की पूरी-पूरी देखरेख करना। (2) वे नौकर जो अपने घरों में अजादि पशुओं को रखते थे तथा अवश्यकतानुसार छणिक को देते थे। (3) वे नौकर जो मांस के विक्रयार्थ अजादि पशुओं का वध करके उनके मांस को खण्डशः (टुकड़े-टुकड़े) कर के छण्णिक के सुपुर्द कर देते थे। (4) वे अनुचर जो मांस को लेकर नाना प्रकार से तल कर, भून कर और शूल द्वारा पका कर बेचते थे। छण्णिक छागलिक केवल मांसविक्रेता ही नहीं था, अपितु वह स्वयं भी उसे भक्षण किया करता था, वह भी नाना प्रकार की मदिराओं के साथ। इस प्रकार मांसविक्रय और मांसभक्षण के द्वारा उसने जिन पापकर्मों का उपार्जन किया, उन के फलस्वरूप ही वह चौथी नरक में नारकीयरूप से उत्पन्न हुआ और वहां वह भीषणातिभीषण नारकीय असह्य दुःखों को भोगता हुआ अपनी करणी का फल पाने लगा। 452 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत कथासंदर्भ में जो अजादि पशुओं के शतबद्ध तथा सहस्रबद्ध यूथ बाड़े में बन्द रहते थे, ऐसा लिखा है। इस से सूत्रकार को यही अभिमत प्रतीत होता है कि यूथों में विभक्त अजादि पशु सैंकड़ों तथा हज़ारों की संख्या में बाड़े में अवस्थित रहते थे। यहां यूथ शब्द का ‘स्वतन्त्ररूप से अज आदि प्रत्येक पद के साथ अन्वय नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि अजों के शतबद्ध तथा सहस्रबद्ध यूथ, भेड़ों के शतबद्ध तथा सहस्रबद्ध यूथ, इसी प्रकार गवय आदि शब्दों के साथ यूथ पद का सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि सब पदों का यदि स्वतन्त्ररूपेण यूथ के साथ सम्बन्ध रखा जाएगा, तो सिंह शब्द के साथ भी यूथ पद का अन्वय करना पड़ेगा, जो कि व्यवहारानुसारी नहीं है, अर्थात् ऐसा देखा या सुना नहीं गया कि हज़ारों की संख्या में शेर किसी बाड़े में बंद रहते हों। व्यवहार तो-१सिंहों के लेहंडे नहीं-इस अभियुक्तोक्ति का समर्थक है। अतः प्रस्तुत में-यूथों में विभक्त अजादि पशुओं की संख्या सैंकड़ों तथा हज़ारों की थी-यह अर्थ समझना चाहिए। इस अर्थ में किसी पशु की स्वतन्त्र संख्या का कोई प्रश्न नहीं रहता। रहस्यं तु केवलिगम्यम्। कोषकारों के मत में पसय शब्द देशीय भाषा का है, इस का अर्थ-मृगविशेष या मृगशिशु होता है। अन्य पशुओं के संसूचक शब्दों का अर्थ स्पष्ट ही है। तथा "-दिण्णभतिभत्तवेयणा- 'की व्याख्या तृतीय अध्याय में कर दी गई है। , -महया०- यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ का वर्णन द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा–अड्ढे०- यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुके हैं। तथा-अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे-यहां के जाव-यावत् पद से अभीष्ट पदों का वर्णन प्रथम अध्याय में किया गया है। तथा-अए जाव महिसे यहां के जाव-यावत् पदों से-एले य रोज्झे य वसभे य ससए य पसए य सूयरे य सिंघे य हरिणे य मऊरे य-इन पदों का ग्रहण करना अभिमत है। इसी प्रकार-अयाण य जाव महिसाण-यहां का जाव-यावत् पद-एलाण य रोज्झाण य वसभाण य ससयाण य-इत्यादि पदों का, तथा-अयमंसाई जाव महिसमंसाइं-यहां का जाव-यावत् पद -एलमंसाइं य रोज्झमंसाइं य वसभमंसाई य-इत्यादि पदों का परिचायक है। इन में मात्र विभक्तिगत भिन्नता है, तथा मांस शब्द अधिक प्रयुक्त हुआ है। तवक, कवल्ली, कन्दु और भर्जनक आदि शब्दों की व्याख्या तृतीय अध्याय में की जा चुकी है, तथा-सुरं च ५-यहां दिए गए 5 के, और-आसादेमाणे ४-यहां दिए गए 1. सिंहों के लेहंडे नहीं, हंसों की नहीं पांत। लालों की नहीं बोरियां, साधन चलें जमात॥ प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [453 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 के अंक से अभिमत पाठ भी तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी को यह बतलाया कि जिस दृष्ट व्यक्ति के पूर्वभव का तुम ने वृत्तान्त जानने की इच्छा प्रकट की है, वह पूर्वजन्म में छण्णिक नामक छागलिक था, जो कि नितान्त सावद्यकर्म के आचरण के उपार्जित कर्म के कारण चतुर्थ नरक को प्राप्त हुआ था। वहां की भवस्थिति को पूरा करने के बाद उस ने कहां जन्म लिया, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं मूल-तते णं सा सुभद्दस्स सत्थवाहस्स भद्दा भारिया जायणिंदुया यावि होत्था। जाता जाता दारगा विणिहायमावजंति। तते णं से छण्णिए छागलिए चउत्थीए पुढवीए अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव साहंजणीए णयरीए सुभद्दस्स सत्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। तते णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया, तते णं तं दारगं अम्मापियरो जायमेत्तं चेव सगडस्स हेटुओ ठवेंति 2 त्ता दोच्चं पि गेण्हावेंति 2 त्ता आणुपुव्वेणं सारक्खंति संगोवेंति, संवड्डेति जहा उज्झियए, जाव जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमेत्तए चेव सगडस्स हेटुओ ठविते, तम्हाणं होउ णं अम्हं दारए सगडे नामेणं, सेसं जहा उज्झियए। सुभद्दे लवणे समुद्दे कालगओ माया वि कालगता, से वि सयाओ गिहाओ निच्छूढे। तते णं से सगडे दारए साओ गिहाओ निच्छूढे समाणे सिंघाडग० तहेव जाव सुदरिसणाए गणियाए सद्धिं संपलग्गे यावि होत्था,तते णं से सुसेणे अमच्चे तं सगडं दारयं अन्नया कयाइ सुदरिसणाए गणियाए गिहाओ निच्छुभावेति रसुदरिसणं दंसणियं गणियं अब्भिंतरए ठावेति 2 त्ता सुदरिसणाए गणियाए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति। छाया-ततः सा तस्य सुभद्रस्य सार्थवाहस्य भद्रा भार्या जातनिंदुका चाप्यभवत्। जाता जाता दारका विनिघातमापद्यन्ते / ततः स छण्णिक: छागलिकः चतुर्थ्याः पृथिव्या अनन्तरमुवृत्त्य इहैव साहजन्यां नगर्यां सुभद्रस्य सार्थवाहस्य भद्राया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः। ततः सा भद्रा सार्थवाही अन्यदा कदाचित् नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रयाता / ततस्तं दारकमम्बापितरौ जातमात्रं चैव शकटस्याधः स्थापयतः 2 द्विरपि गृह्णीतः 2 आनुपूर्येण संरक्षतः, संगोपयतः संवर्धयतः यथोज्झितकः यावद् यस्मादस्मा४५४ ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमयं दारको जातमात्रकश्चैव शकटस्याधः स्थापितः तस्माद् भवत्वस्माकं दारकः शकटो नाम्ना। शेषं यथोज्झितकः सुभद्रो लवणे समुद्रे कालगतः। मातापि कालगता। सोऽपि स्वाद् गृहाद् निष्कासितः। ततः स शकटो दारकः स्वाद् गृहाद् निष्कासितः सन् शंघाटक० तथैव यावत् सुदर्शनया गणिकया सार्द्ध संप्रलनश्चाप्यभवत् / ततः स सुषेणोऽमात्यः तं शकटं दारकमन्यदा कदाचित् सुदर्शनाया गणिकायाः गृहाद निष्कासयति 2 सुदर्शनां दर्शनीयां गणिकामभ्यन्तरे स्यापयति 2 सुदर्शनया गणिकया सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुंजानो विहरति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। तस्स-उस। सुभद्दस्स-सुभद्र। सत्थवाहस्स-सार्थवाह की। सावह / भद्दा-भद्रा। भारिया-भार्या। जातनिंदुया-जातनिन्दुका-जिस के बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाते हों, ऐसी। यावि होत्था-थी, उसके। जाता जाता-उत्पन्न होते 2 / दारगा-बालक। विणिहायमावजंतिविनाश को प्राप्त हो जाते थे। ततेणं-तदनन्तर।से-वह। छण्णिए-छण्णिक नामक। छागलिए-छागलिककसाई। चउत्थीए-चौथी। पुढवीए-पृथ्वी-नरक से। उव्वट्टित्ता-निकल कर। अणंतरं-व्यवधान रहितसीधा ही। इहेव-इसी। साहंजणीए-साहजनी। णयरीए-नगरी में। सुभहस्स-सुभद्र। सत्थवाहस्ससार्थवाह की। भद्दाए-भद्रा। भारियाए-भार्या की। कुच्छिंसि-कुक्षि में। पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से। उववन्नेउत्पन्न हुआ। तते णं-तदनन्तर। सा भद्दा-उस भद्रा। सत्थवाही-सार्थवाही ने। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। णवण्हं-नव। मासाणं-मासों के। बहुपडिपुण्णाणं-लगभग पूर्ण हो जाने पर। दारगंबालक को। पयाया-जन्म दिया। तते णं-तदनन्तर / तं दारगं-उस बालक को। अम्मापियरो-माता-पिता ने। जायमेत्तं चेव-उत्पन्न होते ही। सगडस्स-शकट-छकड़े के। हेट्ठओ-नीचे। ठवेंति २-स्थापित कर दिया-रख दिया, रख कर। दोच्चं पि-दूसरी बार, वे। गेण्हावेंति २-उठा लेते हैं, उठा कर।आणुपुव्वेणंअनुक्रम से। सारक्खंति-संरक्षण करने लगे। संगोवेति-संगोपन करने लगे। संवड्ढेति-संवर्धन करने लगे। जहा-जिस प्रकार / उज्झियए-उज्झितक कुमार का वर्णन है। जाव-यावत्। जम्हाणं-जिस कारण। 'अम्हं-हमारे / इमे-इस। जायमेत्तए चेव-जातमात्र ही। दारए-बालक को। सगडस्स-शकट के। हेटुओअधस्तात्-नीचे। ठविते-स्थापित किया गया है। तम्हा णं-इस कारण से। अहं-हमारा। दारए-बालक। सगडे-शकट। नामेणं-नाम से। होउ-हो, अर्थात् इस बालक का शकट-कुमार यह नाम रखा जाता है। णं-वाक्यालंकारार्थक है। सेसं-शेष। जहा-जिस प्रकार। उज्झियए-उज्झितक कुमार का वर्णन है, उसी प्रकार इस का भी जान लेना चाहिए। सुभद्दे-सुभद्र सार्थवाह / लवणसमुद्दे-लवण समुद्र में। कालगओकाल को प्राप्त हुआ तथा शकट कुमार की। माया वि-माता भी। कालगता-मृत्यु को प्राप्त हो गई। से वि-वह शकट कुमार भी। गिहाओ-घर से। निच्छूढे -निकाल दिया गया। तते णं-तदनन्तर। सयाओस्वकीय-अपने। गिहाओ-घर से।निच्छूढे समाणे-निकाला हुआ।से-वह। सगडे-शकट कुमार / दारएबालक। सिंघाडग०-शृंघाटक-त्रिकोण मार्ग। तहेव-तथैव-उसी प्रकार। जाव-यावत्। सुदरिसणाएसुदर्शना। गणियाए-गणिका के। सद्धिं-साथ। संपलग्गे-संप्रलग्न-गाढ़ सम्बन्ध से युक्त। यावि होत्था / प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [455 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी हो गया था। तते णं-तदनन्तर / से-वह। सुसेणे-सुषेण। अमच्चे-अमात्य-मंत्री। तं-उस। सगडंशकट कुमार / दारयं-बालक को।अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। सुदरिसणाए-सुदर्शना / गणियाएगणिका के। गिहाओ-घर से। निच्छुभावेति २-निकलवा देता है, निकलवा कर। दसणीयं-दर्शनीयसुन्दर। सुदरिसणं-सुदर्शना। गणियं-गणिका को। अन्भिंतरए-भीतर अर्थात् पत्नीरूप से। ठावेतिस्थापित करता है अर्थात् रख लेता है और / सुदरिसणाए-सुदर्शना। गणियाए-गणिका के। सद्धिं-साथ। उरालाइं-उदार-प्रधान / माणुस्सगाई-मनुष्यसम्बन्धी। भोगभोगाई-विषयभोगों का। भुंजमाणे-उपभोग करता हुआ, वह। विहरति-विहरण करने लगा। __मूलार्थ-तदनन्तर सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नाम की भार्या जातनिन्दुका थी, उस के बालक उत्पन्न होते ही मर जाते थे। इधर छण्णिक नामक छागलिक-वधिक का जीव चौथी नरक से निकल कर सीधा इसी साहजनी नगरी में सुभद्र सार्थवाह की भद्रा भार्या के गर्भ में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। लगभग नौ मास पूरे हो जाने पर किसी समय सुभद्रा सार्थवाही ने बालक को जन्म दिया। उत्पन्न होते ही माता पिता उस बालक को शकट-छकड़े के नीचे स्थापित करते हैं और फिर उठा लेते हैं। उठा कर उस का यथाविधि संरक्षण, संगोपन और संवर्द्धन करते हैं। उज्झितक कुमार की तरह यावत् जातमात्र-उत्पन्न होते ही हमारा यह बालक शकट-छकड़े के नीचे स्थापित किया गया था, इसलिए इसका शकट कुमार-ऐसा नामकरण किया जाता है अर्थात् माता पिता ने उस का शकंट कुमार यह नाम रक्खा। उस का शेष जीवन उज्झितक कुमार के जीवन के समान जान लेना चाहिए। जब सुभद्र सार्थवाह लवण समुद्र में काल धर्म को प्राप्त हुआ एवं शकट की माता भद्रा भी मृत्यु को प्राप्त हो गई, तब उस शकट कुमार को राजपुरुषों के द्वारा घर से निकाल दिया गया। अपने घर से निकाले जाने पर शकट कुमार साहंजनी नगरी के शृंगाटक (त्रिकोण मार्ग) आदि स्थानों में घूमता, तथा जुआरिओं के अड्डों और शराबखानों में रहता। किसी समय उसकी सुदर्शना गणिका के साथ गाढ़ प्रीति हो गई और वह उसी के वहां रह कर यथारुचि कामभोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द समय बिताने लगा। तदनन्तर महाराज सिंहगिरि का अमात्य-मंत्री सुषेण किसी अन्य समय उस शकट कुमार को सुदर्शना वेश्या के घर से निकलवा देता है और सुदर्शना को अपने घर में रख लेता है। घर में स्त्रीरूप से रक्खी हुई उस सुदर्शना के साथ मनुष्यसम्बन्धी उदार-विशिष्ट कामभोगों का यथारुचि उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता है। टीका-प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में सूत्रकार ने साहंजनी नगरी का परिचय कराया 456 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था, साथ में वहां यह भी उल्लेख किया गया था कि उस में सुभद्र नाम का एक सार्थवाहमुसाफ़िर व्यापारियों का मुखिया, रहता था। उस की धर्मपत्नी का नाम भद्रा था जो कि जातनिंदुका थी अर्थात् उसके बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाया करते थे। इसलिए संतान के विषय में वह बहुत चिन्तातुर रहती थी। पति के आश्वासन और पर्याप्त धनसम्पत्ति का उसे जितना सुख था, उतना ही उस का मन सन्तति के अभाव में दुःखी रहता था। मनोविज्ञान शास्त्र का यह नियम है कि जिस पदार्थ की इच्छा हो उस की अप्राप्ति में मानसिक व्यग्रता अशांति बराबर बनी रहती है। यदि इच्छित वस्तु प्रयत्न करने पर भी न मिले तो मन को यथाकथंचित् समझा बुझा कर शान्त करने का उद्योग किया जाता है, अर्थात् प्रयत्न तो बहुत किया, उद्योग करने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी, उस पर भी यदि कार्य नहीं बन पाया, अर्थात् मनोरथ की सिद्धि नहीं हुई तो इस में अपना क्या दोष। यह विचार कर मन को ढाढ़स बंधाया जाता है। यले कृते यदि न सिध्यति, कोऽत्र दोषः। परन्तु जिस वस्तु की अभिलाषा है, वह यदि प्राप्त हो कर फिर चली जाए-हाथ से निकल जाए तो पहली दशा की अपेक्षा इस दशा में मन को बहुत चोट लगती है। उस समय मानस में जो क्षोभ उत्पन्न होता है, वह अधिक कष्ट पहुंचाने का कारण बनता है। सुभंद्र सार्थवाह की स्त्री भद्रा उन भाग्यहीन महिलाओं में से एक थी जिन्हें पहले इष्ट वस्तु की प्राप्ति तो हो जाती हो, परन्तु पीछे वह उन के पास रहने न पाती हो। तात्पर्य यह है कि भद्रा जिस शिशु को जन्म देती थी, वह तत्काल ही मृत्यु का ग्रास बन जाता था, उसे प्राप्त हुई अभिलषित वस्तु उसके हाथ से निकल जाती थी, जो महान् दुःख का कारण बनती थी। स्त्रीजाति को सन्तति पर कितना मोह और कितना प्यार होता है, यह स्त्रीजाति के हृदय से पूछा जा सकता है। वह अपनी सन्तान के लिए शारीरिक और मानसिक एवं आर्थिक तथा अपने अन्य स्वार्थों का कितना बलिदान करती है, यह भी जिन्हें मातृहृदय की परख है, उन से छिपा हुआ नहीं है, अर्थात् सन्तान की प्राप्ति की स्त्रीजाति के हृदय में इतनी लग्न और लालसा होती है कि उस के लिए वह असह्य से असह्य कष्ट झेलने के लिए भी सन्नद्ध रहती है। और यदि उसे सन्तान की प्राप्ति और विशेष रूप पुत्र सन्तान की प्राप्ति हो जाए तो उस को जितना हर्ष होता है उसकी इयत्ता-सीमा कल्पना की परिधि से बाहर है। इस के विपरीत सन्तान का हो कर निरंतर नष्ट हो जाना तो उसके असीम दुःख का कारण बन जाता है। सन्तति का वियोग स्त्री-जाति को जितना असह्य होता है, उतना और किसी वस्तु का नहीं। यही कारण है कि भद्रादेवी निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहती है। उसे रात को निद्रा भी नहीं आती, दिन को चैन नहीं पड़ती। आज तक उस को जितनी सन्तानें हुईं सब उत्पन्न होते ही काल के विकराल प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [457 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाल में सदा के लिए जा छिपी हैं। उसने अपने आज तक के सारे जीवन में किसी शिशु को ' दूध पिलाने या जी भर कर मुख देखने तक का भी सौभाग्य प्राप्त नहीं किया। इसी आशय को प्रस्तुत सूत्र में भद्रादेवी को जातनिन्दुका कह कर व्यक्त किया गया है। जातनिन्दुका का अर्थ है-जिस के बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाएं। भद्रादेवी की भी यही दशा थी, उसके बच्चे भी उत्पन्न हो कर नष्ट हो जाते थे। कार्यनिष्पत्ति के कारणंसमवाय में समय को अधिक प्राधान्य प्राप्त है। इसकी अनुकूलता और प्रतिकूलता पर संसार का बहुत कुछ कार्यभार निर्भर रहता है। जब समय अनुकूल होता है तो अभिलषित कार्यों की सिद्धि में भी देरी नहीं लगती। एवं जब समय प्रतिकूल होता है तो बना बनाया खेल भी बिगड़ जाता है। मानव की सारी योजनाएं छिन्न-भिन्न हो कर लुप्त हो जाती हैं। इसीलिए नीतिकारों ने “१समय एव करोति बलाबलम्" यह कह कर उसकी बलवत्ता को अभिव्यक्त किया है। ___ सुभद्र सार्थवाह की भद्रा देवी भी पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों के विपाक-फल से प्रतिकूल समय के ही चक्र में फंसी हुई सन्तति के वियोग-जन्य दुःख को उठाती रही, परन्तु आज उस के किसी शुभ कर्म के उदय से उसके दुर्दिनों का अर्थात् प्रतिकूल समय का चक्र बदल गया और उसके स्थान में अब अनुकूल समय का शुभागमन हुआ। तात्पर्य यह है कि शुभ समय ने उसके जीवन में एक नवीन झांकी से अप्रत्याशित-असंभावित आशा का संचार किया और उस से उस को कुछ थोड़ा सा अश्वासन मिला। इधर छण्णिक छागलिक-वधिक का जीव अपनी नरक-सम्बन्धी भवस्थिति को पूर्ण कर के वहां से निकल कर इसी भद्रा देवी के उदर में पुत्ररूप से अवतरित हुआ। उस के गर्भ में आते ही भद्रा देवी की मुाई हुई आशालता में फिर से कुछ सजगता आनी आरम्भ हुई। ज्योंज्यों गर्भ बढ़ता गया त्यों-त्यों उसके हृदयाकाश में प्रकाश की भी मन्द सी रेखा दिखाई देने लगी। अन्त में लगभग नव मास पूरे होने पर किसी समय उसने एक सुन्दर शिशु को जन्म दिया। लोक में ऐसी किंवदन्ती आबालगोपाल प्रसिद्ध है कि “पयसा दग्धः पुमान् तक्रमपि फूत्कृत्य पिबति" अर्थात् दूध का जला हुआ पुरुष छाछ को भी फूंकें मार-मार कर पीता है। इसी भांति सुभद्रा देवी भी बहुत से बालकों को जन्म दे कर भी उन से वंचित रह रही थी। उस ने पुत्र के होते ही उसे एक गाड़े के नीचे रख दिया और फिर से उठा कर अपनी गोद में 1. समय एव करोति बलाबलम्, प्रणिगदन्त इतीव शरीरिणाम्। शरदि हंसरवाः परुषीकृत-स्वरमयूरमयू रमणीयताम्॥१॥ (शिशुपालवध). 458 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ले लिया। ऐसा करने का अभिप्राय सम्भवतः यही होगा कि यह चिरंजीवी रहे। अस्तु, कुछ भी हो इस नवजात शिशु के कुछ काल तक जीवित रहने से उसके हृदय में कुछ ढाढ़स अवश्य बन्ध गई और वह उस के पालन-पोषण के निमित्त पूरी-पूरी सावधानी रखने लगी तथा उसके संरक्षणार्थ नियत की गई धायमाताओं के विषय में भी वह बराबर सचेत रहती। इस प्रकार उस नवजात शिशु का बड़ी सावधानी के साथ संरक्षण, संगोपन और सम्वर्धन होने लगा। आज उस के नाम रखने का शुभ दिवस है, इस के निमित्त सुभद्र सार्थवाह ने बड़े भारी उत्सव का आयोजन किया। अपने सगे-सम्बन्धियों के अतिरिक्त नगर के अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भी आमंत्रित किया और सब का खान-पानादि से यथोचित स्वागत करने के अनन्तर सब के समक्ष उत्पन्न बालक के नाम-करण करने का प्रस्ताव उपस्थित करते हुए उन से कहा कि प्रिय बन्धुओ ! हमारा यह बालक उत्पन्न होते ही एक शकट-गाड़े के नीचे स्थापित किया गया था, इसलिए इस का नाम शकट कुमार रखा जाता है। उपस्थित लोगों ने भी इस नाम का समर्थन किया और उत्पन्न बालक को शुभाशीर्वाद देकर विदा हुए। सूत्रकार ने शकट कुमार के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त की सारी जीवनचर्या को द्वितीय अध्ययन में वर्णित उज्झितक कुमार के समान जानने की सूचना करते हुए "सेसं जहा उझियए' इतना कह कर बहुत संक्षेप से सब कुछ कह दिया है। जहां-जहां कुछ नामादि का भेद है, वहां-वहां उसका उल्लेख भी कर दिया है, जोकि सूत्रकार की वर्णनशैली के सर्वथा अनुरूप है। इसके अतिरिक्त उसका यहां पर यदि सारांश दिया जाए तो यह कहना होगा कि-जब 1. यहां प्रश्न होता है कि जब आत्मा के साथ आयुष्कर्म के दलिक ही नहीं तो गाड़े के नीचे रख देने मात्र से बालक चिरंजीवी कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वास्तव में बालक के चिरंजीवी होने का कारण उस का अपना ही आयुष्कर्म है। गाड़े और जीवन-वृद्धि का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि जिस का आयुष्कर्म पर्याप्त है, उसे चाहे गाड़े के नीचे रखो य न रखो उसे तो यथायु जीवित ही रहना है, परन्तु जिसका आयुष्कर्म समाप्त हो रहा है वह गाड़े आदि के नीचे रखने पर भी जीवित नहीं रह सकता। . भद्रा की सन्तति उत्पन्न होते ही मर जाती थी, इससे वह हतोत्साह हो रही थी। उसने सोचा-बहुत उपाय किए जा चुके हैं, परन्तु सफलता नहीं मिल सकी, अतः अब कि बार नवजात शिशु को गाड़े के नीचे रख कर देख लें, संभव है कि इस उपाय से वह बच जाए। इधर इस का ऐसा विचार चल रहा था और उधर गर्भ में आने वाला जीव दीर्घजीवन लेकर आ रहा था। परिणाम यह हुआ कि गाड़े के नीचे रखने पर नवजात बालक मरा नहीं। स्थूल रूप से तो भले ही गाड़ा उस में कारण जान पड़ता हो परन्तु वास्तविकता इस में नहीं है। वास्तविकता तो आयुष्कर्म की दीर्घता ही बतलाती है। क्योंकि गाड़े के नीचे रखना ही यदि जीवनवृद्धि का कारण होता तो अपने को गाड़े के नीचे रख कर प्रत्येक व्यक्ति मृत्यु से बच जाता, और मृत्यु की अचलता को चलता में बदल देता। 2. नामकरण की इस परम्परा का उल्लेख भी श्री अनुयोगद्वार सूत्र में पाया जाता है, जिसका उल्लेख द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [459 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचों धायमाताओं से पोषित हुआ शकट कुमार युवावस्था को प्राप्त हुआ तब पिता ने अर्थात् सुभद्र सार्थवाह ने विदेश-यात्रा की तैयारी की। दुर्दैववशात् समुद्रयात्रा में उसका जहाज़ समुद्र में डूब गया और वह वहां परलोक को सिधार गया। शकट कुमार ने उसका सम्पूर्ण और्द्धदैहिक कर्म किया। तदनन्तर उसकी माता भी पतिवियोगजन्य दुःख को अधिक काल तक न सह सकी। परिणामस्वरूप वह भी इस असार संसार से चल बसी। उस समय प्रायः व्यापार करने वालों का यह नियम होता था कि जिस समय व्यापार को बढ़ाते थे अथवा यूं कहिए कि व्यापार के निमित्त जब अपने देश को छोड़ कर विदेश में जाना होता था तो अपना सारा धन और हो सके तो अन्य नागरिकों से पर्याप्त ऋण लेकर अपने जहाज को माल से भर लेते और व्यापार के लिए प्रस्थान कर देते। सुभद्र नामक सार्थवाह ने भी ऐसा ही किया था। उसने वहां के धनियों से काफी ऋण ले रक्खा था। इसलिए सुभद्र सेठ और भद्रादेवी की मृत्यु ने उन सब को सचेत कर दिया, वे अपने दिए हुए धन को किसी न किसी रूप में प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगे। जिस को जो कुछ मिला वह ले गया। इसी में सुभद्र सेठ की सारी चल सम्पत्ति समाप्त हो गई। अवशेष उस की जो अचल सम्पत्ति थी, उसके लिए लेनदारों ने न्यायालय की शरण ली और राजाज्ञा के अनुसार सुभद्र की अचल सम्पत्ति पर भी अपना अधिकार कर लिया। इसके परिणामस्वरूप शकट कुमार को अपने घर से भी निकलना पड़ा। घर से निकल जाने पर मातृपितृविहीन शकट कुमार निरंकुश हाथी या बेलगाम घोड़े की तरह स्वछन्द फिरने लगा। उसकी बैठक ऐसे पुरुषों में हो गई जो कि जुआरी, शराबी और परस्त्रीलम्पट थे। उनके सहवास में आकर शकट कुमार भी उन्हीं दुर्गुणों का भाजन बन गया। उसके रहने का न तो कोई नियत स्थान था और न कोई योग्य व्यक्ति उसे किसी प्रकार का आश्रय देता था। वह प्रथम जितना धन-सम्पन्न, सुखी और प्रतिष्ठा-प्राप्त किए हुए था, उतना ही निर्धन, दुःखी और प्रतिष्ठाशून्य हो रहा था। यह तो हुई शकट कुमार की बात / अब पाठक साहंजनी नगरी की सुप्रसिद्ध सुदर्शना वेश्या की ओर भी ध्यान दें। वह एक निपुण कलाकार होने के अतिरिक्त रूपलावण्य में भी अद्वितीय थी। कामवासनावासित अनेक धनी, मानी युवक उसका आतिथ्य प्राप्त करने की लालसा से धन की थैलियां ले कर उसके दरवाज़े पर भटका करते थे। परन्तु उसके पास जाने या उससे बातचीत करने और सहवास में आने का अवसर तो किसी विरले को ही प्राप्त होता था। इधर शकट कुमार को माता और पिता छोड़ गए, धन सम्पत्ति ने उससे मुख मोड़ . लिया। परन्तु उसके शरीरगत स्वाभाविक सौन्दर्य एवं सभ्यजनोचित व्यवहार-कुशलता ने उस 460 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का साथ नहीं छोड़ा था। वह एक दिन सुदर्शना के विशाल भवन की ओर जाता हुआ उसके नीचे से गुजरा। ऊपर झरोखे में बैठी हुई सुदर्शना की जब उस पर दृष्टि पड़ी तो वह एकदम मुग्ध सी हो गई, और उसे ऐसा भान हुआ कि मानो रूप लावण्य की एक सजीव मूर्ति अपने आप को फटे पुराने वस्त्रों से छिपाए हुए जा रही है। जिसे प्राप्त करने के लिए वह ललचा उठी। उसने अपनी एक चतुर दासी को भेज कर उसे ऊपर आने की प्रार्थना की। जैसे कि प्रथम भी बतलाया जा चुका है कि प्रेम हृदय की वस्तु है। प्रेम के साम्राज्य में धनी और निर्धन का कोई प्रश्न नहीं होता। धन-हीन व्यक्ति भी अपने अन्दर हृदय रखता है, उस का हृदय भी तृषातुर जीव की तरह प्रेमोदक का पिपासु होता है। जिस सुदर्शना की भेंट के लिए नगर के अनेकों युवक धन की थैलियां लुटा देने को तैयार रहने पर भी उस की भेंट से वंचित रहते, वही सुदर्शना एक गरीब निर्धन को अपने पास बुलाने और उस से प्रेमालाप करती हुई आत्मसमर्पण करने को सन्नद्ध हो रही है। इस में इतना अन्तर अवश्य है कि यह प्रेम देहाध्यासयुक्त और अप्रशस्त राग से पूर्ण होने के कारण सुगतिप्रद नहीं है। अस्तु, दासी के द्वारा आमंत्रित शकट कुमार ऊपर चला गया। वह वेश्या के साथ स्वच्छन्द भोगों में रत हो गया। इसी भाव को सूत्रकार ने-संपलग्गे-शब्द से बोधित किया है। ___कहते हैं कि मानव के दुर्दिनों के बाद कभी सुदिन भी आ जाते हैं। सुदर्शना के प्रेमातिथ्य ने शकटकुमार के जीवन की काया पलट दी, वह अब उस मानवी वैभव का यथारुचि उपभोग कर रहा है, जिस का उसे प्राप्त होना स्वप्न में भी सुलभ नहीं था। परन्तु उस का यह सुख-मूलक उपभोग भी चिरस्थायी न निकला। राज्यसभा के अधिकारी ने उसे छिन्नभिन्न कर दिया। शासन और सम्पत्ति में बहुत अन्तर है। दूसरे शब्दों में-शासक और धनाढ्य दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। धनाढ्य व्यक्ति कितना ही गौरवशाली क्यों न हो परन्तु शासक के सामने आते ही उसका सब गौरव राहुग्रस्त चन्द्रमा की तरह ग्रस्त हो जाता है। शासन में बल है, ओज है और निरंकुशता है। इधर धन में प्रलोभन के अतिरिक्त और कुछ नहीं। राजकीय वर्ग का एक छोटा सा व्यक्ति, जिस के हाथ में सत्ता है, वह एक बड़े से बड़े धनी मानी गृहस्थ को भी कुछ समय के लिए नीचा दिखा सकता है। तात्पर्य यह है कि सत्ता के बल से मनुष्य कुछ समय के लिए जो चाहे सो कर सकता है। सुदर्शना के रूप लावण्य की धाक सारे प्रांत में प्रसृत हो रही थी। वह एक सुप्रसिद्ध कलाकार वेश्या थी। धनिकों को भी विवाह शादी के अवसर पर पर्याप्त द्रव्य व्यय कर के उस के संगीत और नृत्य के अतिरिक्त केवल दर्शन मात्र का ही अवसर प्राप्त होता था। इस प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [461 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कारण यही था कि वह कोई साधारण वेश्या नहीं थी। पाठकों ने सुषेण मंत्री का नाम सुन रक्खा है और सूत्रकार के कथनानुसार वह चतुर्विध नीति के प्रयोगों में सिद्धहस्त था, अर्थात् साम, दान, भेद और दण्ड इन चतुर्विध नीतियों का कब और कैसे प्रयोग करना चाहिए इस विषय में वह विशेष निपुण था। इसीलिए महाराज महाचन्द्र ने उसे प्रधान मन्त्री के पद पर नियुक्त किया हुआ था, और नरेश का उस पर पूर्ण विश्वास था। परन्तु प्रधान मन्त्री सुषेण में जहां और बहुत से सद्गुण थे वहां एक दुर्गुण भी था, वह संयमी नहीं था। ऐसे संभावित व्यक्ति का स्वदार-सन्तोषी न होना निस्सन्देह शोचनीय एवं अवांछनीय है। उस की दृष्टि हर समय सुदर्शना वेश्या पर रहती, उसका मन हर समय उस की ओर आकर्षित रहता, परन्तु वह उसे प्राप्त करने में अभी तक सफल नहीं हो पाया था। वह जानता था कि सुदर्शना केवल धन से खरीदी जाने वाली वेश्या नहीं है। उस से कई गुणा अधिक धन देने वाले वहां से विफल हो कर आ चुके हैं। इस लिए नीतिकुशल सुषेण ने शासन के बल से उस पर अधिकार प्राप्त किया और उसके प्रेमभाजन शकट कुमार को वहां से निकाल दिया और स्वयं उसे अपने घर में रख लिया। परन्तु इतना स्मरण रहे कि सुषेण मंत्री ने अपनी सत्ता के बल से सुदर्शना के शरीर पर अधिकार प्राप्त किया है, न कि उस के हृदय पर। उस के हृदय पर सर्वेसर्वा अधिकार तो शकट कुमार का है, जिसे उसने वहां से निकाल दिया है। "-जायणिंया-"के स्थान पर"-जाइणिंदुया-"ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। दोनों पदों का अर्थगत भेद निम्नोक्त है (1) जातनिंदुका-उत्पन्न होते ही जिस की सन्तति मृत्यु को प्राप्त हो जाए उसे जातनिंदुका कहते हैं। (2) जातिनिंदुका-जाति-जन्म से ही जो निंदुका-मृतवत्सा है, अर्थात्, जन्मकाल से ही जो मृतवत्सत्व के दोष से युक्त है। तथा निंदुका शब्द का अर्थ कोषकारों के शब्दों में -निंद्यते अप्रजात्वेनाऽसौ निंदुः निंदुरेव निंदुका-इस प्रकार है। अर्थात् सन्तान के जीवित न रहने से जिस की लोगों द्वारा निंदा की जाए वह स्त्री निंदुका कहलाती है। "-गणियं अब्भिंतरए ठवेति-" इस वाक्य के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं जैसे कि(१) गणिका को अभ्यन्तर-भीतर स्थापित कर दिया अर्थात् गणिका को पत्नीरूप से अपने घर में रख लिया। (2) गणिका को भीतर स्थापित कर दिया अर्थात् उसे उसके घर के अन्दर ही रोक दिया, जिस से कि उस के पास कोई दूसरा न जा सके। 462 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन अर्थों में प्रथम अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है। क्योंकि आगे के प्रकरण में - एवं खलु सामी ! सगडे दारए ममं अन्तेउरंसि अवरद्धे-ऐसा उल्लेख मिलता है। इस पाठ में स्पष्ट लिखा है कि मंत्री ने राजा के पास शिकायत करते हुए अपने अन्तःपुर का वर्णन किया है, जोकि ऊपर के पहले अर्थ का समर्थक ठहरता है। तथा जो आगे-जेणेव सुदरिसणागणियाए गिहे तेणेव-ऐसा लिखा है। इससे सूत्रकार को यही अभिमत है कि सुदर्शना जहां रहती थी, वहां। तात्पर्य यह है कि जब सुषेण मन्त्री ने गणिका को अपनी अर्धांगिनी ही बना लिया, तब सूत्रकार ने-जहां सुदर्शना का घर था-ऐसा उल्लेख क्यों किया? ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि इससे सूत्रकार को मात्र जो सुदर्शना को निवास करने के लिए स्थान दे रखा था, वही सूचित करना अभिमत है। __-उज्झियए जाव जम्हा-यहां पठित जाव-यावत् पद से-तए णं दस्स दारगस्स अम्मापियरो ठिइवडियंच चंदसूरदसणं-से लेकर -गोण्णं गुणनिष्फन्नं नामधेन्जं करेंतिइन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। मात्र नाम की भिन्नता है। वहां उज्झितक कुमार का नाम है जब कि यहां शकट कुमार का। . -सिंघाडग तहेव जाव सुदरिसणाए-यहां का बिन्दु-तिग-चउक्क-चच्चर महापहपहेसु-इन पदों का तथा-जाव-यावत् पद -जूयखलएसु वेसियाघरएसु- से लेकर-अन्नया कयाइ-यहां तक के पाठ का परिचायक है। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया गया है। अन्तर केवल इतना है कि प्रस्तुत में शकट कुमार का वर्णन है जब कि वहां उज्झितक कुमार का। .. -भद्दाए भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने-इस पाठ के अनन्तर श्रद्धेय पण्डित मुनि श्री घासीलाल जी म सार्थवाही भद्रा के दोहद का भी उल्लेख करते हैं / वह दोहदसम्बन्धी पाठ निम्नोक्त है.. -तए णंतीसे भद्दाए सत्थवाहीए अन्नया कयाइ तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमे एयारूवे दोहले पाउब्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, सपुण्णाओ णं कयत्थाओ णं जाव सुलद्धे तासिं माणुस्सए जम्मजीवियफले जाओ णं बहूणं णाणाविहाणं नयरगोरूवाणं पसूण य जलयरथलयर-खहयरमाईणं पक्खीण य बहूहिं मंसेहिं तलिएहिं भजिएहिं सोल्लेहिं सद्धिं सुरं च महुं च मेरगंच जाइंच सीहुंच पसन्नं च आसाएमाणीओ विसाएमाणीओ परिभुंजेमाणीओ परिभाएमाणीओ दोहलं विणेति। तं जइ णं अहमवि बहूणं जाव विणिजामि, त्ति कट्ट तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि सुक्का भुक्खा जाव प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [463 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झियाइ। तए णं से सुभद्दे सत्थवाहे भई भारियं ओहय० जाव पासति 2 त्ता एवं वयासीकिं णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहय जाव झियासि ?, तए णं सा भद्दा सत्थवाही सुभदं सत्थवाहं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम तिण्हं मासाणं जाव झियामि।तएणं से सुभद्दे सत्थवाहे भद्दाए भारियाए एयमहूँ सोच्चा निसम्म भई भारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! तुह गब्भंसि अम्हाणं पुव्वकयपावप्पभावेणं केइ अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे जीवे ओयरिए तेणं एयारिसे दोहले पाउब्भूए, तं होउ णं एयस्स पसायणं, त्ति कट्ट से सुभद्दे सत्थवाहे केण वि उवाएणं तं दोहलं विणेइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही संपुण्णदोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिन्नदोहला सम्पन्नदोहला तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहइ। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है तदनन्तर उस भद्रा सार्थवाही के गर्भ को जब तीन मास पूर्ण हो गए, तब उसको एक दोहद उत्पन्न हुआ कि वे माताएं धन्य हैं, पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं, उन्होंने ही पूर्वभव में पुण्योपार्जन किया है, वे कृतलक्षण हैं अर्थात् उन्हीं के शारीरिक लक्षण फलयुक्त हैं, और उन्होंने ही अपने धनवैभव को सफल किया है, एवं उन का ही मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन सफल है, जिन्होंने बहुत से अनेक प्रकार के नगर गोरूपों अर्थात् नगर के गाय आदि पशुओं के तथा जलचर, स्थलचर और खेचर आदि प्राणियों के बहुत मांसों, जो कि तैलादि से तले हुए, भूने हुए और शूल द्वारा पकाए गए हों, के साथ सुरा', मधु, मेरक, जाति, सीधु और प्रसन्ना इन पांच प्रकार की मदिराओं का आस्वादन विस्वादन (बार-बार आस्वादन) परिभोग करती हुई और दूसरी स्त्रियों को बांटती हुई अपने दोहद (दोहला) को पूर्ण करती हैं। यदि मैं भी बहुत से नगर के गाय आदि पशुओं के और जलचर आदि प्राणियों के बहुत से और नाना प्रकार के तले, भूने और शूलपक्व मांसों के साथ पांच प्रकार की मदिराओं को एक बार और बार-बार आस्वादन करूं, परिभोग करूं और दूसरी स्त्रियों को भी बांटूं, इस प्रकार अपने दोहद को पूर्ण करूं, तो बहुत अच्छा हो, ऐसा विचार किया। परन्तु उस दोहद के पूर्ण न होने से वह भद्रा सूखने लगी, चिन्ता के कारण अरुचि होने से भूखी रहने लगी, उस का शरीर रोगग्रस्त जैसा मालूम होने लगा और मुंह पीला पड़ गया तथा निस्तेज हो गया, एवं रात दिन नीचे मुंह किए हुए आर्तध्यान करने लगी। एक दिन सुभद्र सार्थवाह ने भद्रा को पूर्वोक्त प्रकार से आर्तध्यान करते हुए देखा, देखकर उसने उससे कहा कि भद्रे ! तुम ऐसे आर्त्तध्यान क्यों कर रही हो ? सुभद्र सेठ के ऐसा पूछने पर भद्रा बोली-स्वामिन् ! मुझे तीन मास का गर्भ होने पर यह दोहद उत्पन्न हुआ है कि 1. इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। 464 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं नगर के गाय आदि पशुओं और जलचर आदि प्राणियों के तले, भूने और शूलपक्व मांसों के साथ पंचविध सुरा आदि मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन और परिभोग करूं और उन्हें दूसरी स्त्रियों को भी दूं। मेरे इस दोहद के पूर्ण न होने के कारण मैं आर्त्तध्यान कर रही हूं। भद्रा की इस बात को सुन कर तथा सोच विचार कर सुभद्र सार्थवाह भद्रा से बोले भद्रे ! तुम्हारे इस गर्भ में अपने पूर्वसंचित पापकर्म के कारण से ही यह कोई अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द अर्थात् बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला जीव आया हुआ है, इसलिए तुम्हें ऐसा पापपूर्ण दोहद उत्पन्न हुआ है। अच्छा, इस का भला हो, ऐसा कहकर उस सुभद्र सार्थवाह ने किसी उपायविशेष से अर्थात् मांस और मदिरा के समान आकार वाले फलों और रसों को देकर भद्रा के दोहद को पूर्ण किया। तब दोहद के पूर्ण होने पर वाञ्छित वस्तु की प्राप्ति हो जाने के कारण, उसका सम्मान हो जाने पर समस्त मनोरथों के पूर्ण होने से अभिलाषा की निवृत्ति होने पर तथा इच्छित वस्तु के खा लेने पर प्रसन्नता को प्राप्त हुई भद्रा सार्थवाही उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करने लगी। प्रस्तुत सूत्र में छण्णिक छागलिक के जीव का सुभद्रा के गर्भ में आना, उसका जन्म लेने पर शकट कुमार के नाम से प्रसिद्ध होना तथा माता पिता के देहान्त एवं घर से निकालने तथा सुदर्शना के घर में प्रविष्ट होने और वहां से निकाले जाने आदि का सविस्तार वर्णन किया गया है। सुषेण मंत्री के द्वारा सुदर्शना के वहां से निकाले जाने पर शकट कुमार की क्या दशा हुई और उसने क्या किया तथा उसका अन्तिम परिणाम क्या निकला, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं- मूल-तते णं से सगडे दारए सुदरिसणाए गिहाओ निच्छूढे समाणे अन्नत्थ कत्थइ सुई वा ३अलभमाणे अन्नया कयाइ रहस्सियं सुदरिसणागिहं अणुपविसति '2 त्ता सुदरिसणाए सद्धिं उरालाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति / इमं च णं सुसेणे अमच्चे पहाते जाव सव्वालंकारविभूसिते मणुस्सवग्गुराए परिक्खित्ते जेणेव सुदरिसणागणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता सगडं दारयं सुदरिसणाए गणियाए सद्धिं उरालाई भोगभोगाइं भुंजमाणं पासति 2 त्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसीमाणे तिवलियं भिउडिं णिडाले साहट्ट सगडं दारयं पुरिसेहिं गेण्हावेति 2 अट्ठि जाव महियं करेति 2 अवओडगबंधणं कारेति 2 जेणेव महचंदे राया तेणेव उवागच्छति 2 करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! सगडे दारए ममं अंतेउरंसि अवरद्धे।तते णं महचंदेराया सुसेणं अमच्चं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [465 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं वयासी-तुमं चेव णं देवाणु० ! सगडस्स दारगस्स दण्डं वत्तेहि। तए णं से / सुसेणे अमच्चे महचंदेण रण्णा अब्भणुण्णाए समाणे सगडं दारयं सुदरिसणं च गणियं एएणं विहाणेणं वझं आणवेति।तं एवं खलु गोतमा ! सगडे दारए पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं जाव विहरति। छाया-ततः स शकटो दारकः सुदर्शनाया गृहाद् निष्कासितः सन् अन्यत्र कुत्रचित् स्मृतिं वा 3 अलभमानोऽन्यदा कदाचिद् राहस्यिकं सुदर्शनागृहं अनुप्रविशति 2 सुदर्शनया सार्द्धमुदारान् भोगभोगान् भुंजानो विहरति / इतश्च सुषेणोऽमात्यः स्नातो यावद् सर्वालंकारविभूषितो मनुष्यवागुरया परिक्षिप्तो यत्रैव सुदर्शनागणिकाया गृहं तत्रैवोपागच्छति 2 शकटं दारकं सुदर्शनया गणिकया सार्द्धमुदारान् भोगभोगान् भुंजानं पश्यति 2 आशुरुतो यावत् मिसिमिसीमाणः (क्रुधा ज्वलन्) त्रिवलिकां भृकुटि ललाटे संहत्य शकटं दारकं पुरुषैः ग्राहयति 2 यष्टि यावत् मथितं कारयति 2 अवकोटकबंधनं कारयति-२ यत्रैव महाचंद्रो राजा तत्रैवोपागच्छति 2 करतल यावद् एवमवादीत्-एवं खलु स्वामिन् ! शकटो दारकः ममान्त:पुरेऽपराधः। ततः स महाचंद्रो राजा सुषेणममात्यमेवमवादीत्-त्वमेव देवानुप्रिय ! शकटस्य दारकस्य दण्डं वर्त्तय / ततः स : सुषेणोऽमात्यः महाचन्द्रेण राज्ञाऽभ्यनुज्ञातः सन् शकटं दारकं सुदर्शनां च गणिकां एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति / तदेवं खलु गौतम ! शकटो दारकः पुरा पुराणानां दुश्चीर्णानां यावद् विहरति। पदार्थ-ततेणं-तदनन्तर / से-वह।सगडे-शकटकुमार।दारए-बालक।सुदरिसणाए-सुदर्शना के। गिहाओ-घर से। निच्छूढे समाणे-निकाला हुआ। अन्नत्थ-अन्यत्र / कत्थइ-कहीं पर भी। सुइं वा ३-स्मृति को अर्थात् वह उस वेश्या के अतिरिक्त और किसी का भी स्मरण नहीं कर रहा था, प्रतिक्षण उस के हृदय में उसी की याद बनी रहती थी और रति-प्रीति अर्थात् उस वेश्या को छोड़ कर और कहीं पर भी उसकी प्रीति नहीं थी, वह उसी के प्रेम में तन्मय हो रहा था, एवं धृति-धीरज अर्थात् वेश्या के बिना किसी भी स्थान पर उस को धैर्य नहीं आता था, प्रतिक्षण उस का मन उस के वियोग में अशांत रहता था, इस तरह वह शकट कुमार स्मृति, रति और धृति को। अलभमाणे-प्राप्त न करता हुआ। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। रहस्सियं-राहसिक-गुप्तरूप से। सुदरिसणागिह-सुदर्शना के घर में। अणुपविसति २-प्रवेश करता है प्रवेश करके। सुदरिसणाए-सुदर्शना के। सद्धिं-साथ। उरालाइंउदार-प्रधान। भोगभोगाई-भोगों का अर्थात् मनोज्ञ शब्द, रूप आदि का। भुंजमाणे-उपभोग करता हुआ। विहरति-सानन्द समय बिताने लगा। इमं च णं-और इधर / सुसेणे अमच्चे-सुषेण अमात्य-मंत्री / हाते 466 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नान किए हुए। जाव-यावत्। सव्वालंकारविभूसिते-सब प्रकार के अलंकारों-आभूषणों से विभूषित। मणुस्सवग्गुराए-मनुष्य समुदाय से। परिक्खित्ते-परिवेष्टित हुआ। जेणेव-जहाँ। सुदरिसणागणियाएसुदर्शना गणिका का। गिहे-घर था। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छति २-आ जाता है, आकर / सुदरिसणाएसुदर्शना। गणियाए-गणिका के। सद्धिं-साथ। उरालाइं-उदार-प्रधान। भोगभोगाई-काम-भोगों का। भुंजमाणं-उपभोग करते हुए। सगडं दारयं-शकटकुमार को। पासति २-देखता है, देख कर।आसुरुत्तेआशुरुप्त-अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। जाव-यावत्। मिसिमिसीमाणे-मिस-मिस करता हुआ, अर्थात् दांत पीसता हुआ। णिलाडे-मस्तक पर। तिवलियं भिउडिं-तीन बल वाली भृकुटी (तिउड़ी) को। साहट्ट-चढ़ा कर। पुरिसेहि-अपने पुरुषों के द्वारा। सगडं-शकटकुमार। दारयं-बालक को। गेण्हावेति २-पकड़ा लेता है, पकड़ा कर। अट्ठि-यष्टि से। जाव-यावत् उस, को। महियं-मथित-अत्यन्तात्यन्त ताड़ित। करेति-करता है। अवओडगबंधणं-अवकोटकबन्धन-जिस बन्धन में ग्रीवा को पृष्ठ भाग में ले जाकर हाथों के साथ बान्धा जाए, उस बंधन से युक्त। कारेति २-कराता है, करा के। जेणेव-जहां पर। महचंदे राया-महाचन्द्र राजा था। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छति २-आता है, आकर। करयल० जाव-दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगा। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सामी !-हे स्वामिन् ! / सगडे-शकटकुमार। दारए-बालक ने। ममंमेरे। अंतेउरंसि-अन्तःपुर-रणवास में प्रविष्ट होने का। अवरद्धे-अपराध किया है। तते णं-तदनन्तर। महचंदे-महाचन्द्र। राया-राजा। सुसेणं-सुषेण। अमच्चं-अमात्य को। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगा। देवाणु० !-हे महानुभाव ! तुमं चेव णं-तुम ही। सगडस्स-शकटकुमार। दारगस्स-बालक को। दंडं-दण्ड। वत्तेहि-दे डालो। तए णं-तत्पश्चात् / महचंदेणं-महाचन्द्र / रण्णा-राजा से। अब्भणुण्णातेअभ्यनुज्ञात अर्थात् आज्ञा को प्राप्त / समाणे-हुआ। से-वह। सुसेणे-सुषेण।अमच्चे-मंत्री। सगडं दारयंशकट कुमार बालक। च-और। सुदरिसणं-सुदर्शना। गणियं-गणिका को। एएणं-इस (पूर्वोक्त)। विहाणेणं-विधान-प्रकार से। वझं-ये दोनों मारे जाएं, ऐसी। आणवेति-आज्ञा देता है। गोतमा !-हे गौतम ! तं-इस लिए। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सगडे-शकट-कुमार। दारए-बालक। पुरापूर्वकृत। पोराणाणं-पुरातन, तथा। दुच्चिण्णाणं-दुश्चीर्ण-दुष्टता से किए गए। जाव-यावत् कर्मों का अनुभव करता हुआ। विहरति-समय बिता रहा है। मूलार्थ-सुदर्शना के घर से मन्त्री के द्वारा निकाले जाने पर वह शकट कुमार अन्यत्र कहीं पर स्मृति, रति और धृति को प्राप्त न करता हुआ किसी अन्य समय अवसर पाकर गुप्तरूपसे सुदर्शना के घर में पहुंच गया और वहां उसके साथ यथारुचि कामभोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द समय व्यतीत करने लगा। इधर एक दिन स्नान कर और सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो कर अनेक मनुष्यों से परिवेष्टित हुआ सुषेण मन्त्री सुदर्शना के घर पर आया, आकर सुदर्शना 1. अट्ठि-इस पद का रूप यष्टि किस कारण से किया गया है इस का उत्तर द्वितीय अध्याय की टिप्पण में दिया गया है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [467 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ यथारुचि कामभोगों का उपभोग करते हुए उसने शकट कुमार को देखा और देख कर वह क्रोध के मारे लालपीला हो, दांत पीसता हुआ, मस्तक पर तीन बल वाली भृकुटि (तिउड़ी) चढ़ा लेता है और शकट कुमार को अपने पुरुषों से पकड़वा कर उस को यष्टि से यावत् मथित कर उसे अवकोटकबन्धन से जकड़वा देता है। तदनन्तर उसे महाराज महाचन्द्र के पास ले जा कर महाचन्द्र नरेश से दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के इस प्रकार कहता है स्वामिन् ! इस शकट कुमार ने मेरे अन्तःपुर में प्रवेश करने का अपराध किया है। इसके उत्तर में महाराज महाचन्द्र सुषेण मन्त्री से इस प्रकार बोले-हे महानुभाव ! तुम ही इस के लिए दण्ड दे डालो अर्थात् तुम्हें अधिकार है जो भी उचित समझो, इसे दण्ड दे सकते हो। तत्पश्चात् महाराज महाचन्द्र से आज्ञा प्राप्त कर सुषेण मन्त्री ने शकट कुमार और सुदर्शना वेश्या को इस (पूर्वोक्त) विधान-प्रकार से मारा जाए, ऐसी आज्ञा राजपुरुषों को प्रदान की। इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! शकट कुमार बालक अपने पूर्वोपार्जित पुरातन तथा दुश्चीर्ण पापकर्मों के फल का प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है। टीका-मनुष्य जो कुछ करता है अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिए करता है। उस के लिए वह दिन रात एक कर देता है। महान् परिश्रम करने के अनन्तर भी यदि उस का अभीष्ट सिद्ध हो जाता है तो वह फूला नहीं समाता और अपने को सब से अधिक भाग्यशाली समझता है। परन्तु उस अल्पज्ञ प्राणी को इतना भान कहां से हो कि जिसे वह अभीष्ट सिद्धि समझ कर प्रसन्नता से फूल रहा है, वह उस के लिए कितनी हानि-कारक तथा अहितकर सिद्ध होगी? शकट कुमार अपनी परमप्रिया सुदर्शना को पुनः प्राप्त कर अत्यन्त हर्षित हो रहा है, तथा अपने सद्भाग्य की सराहना करता हुआ वह नहीं थकता। परन्तु उस बिचारे को यह पता नहीं था कि यह प्रसन्नता मधुलिप्त असिधारा से भी परिणाम में अत्यन्त भयावह होगी और उसका यह हर्ष भी शोकरूप से परिणत हुआ ही चाहता है। ___पाठकों को स्मरण होगा कि मंत्री सुषेण ने अपने सत्ताबल से सुदर्शना गणिका के घर से उसकी इच्छा के बिना ही शकट कुमार को बाहर निकाल कर उसे अपने घर में अपनी स्त्री के रूप में रख लिया था। परन्तु शकट कुमार अवसर देखकर गुप्तरूप से सुदर्शना के पास पहुंच गया और पूर्व की भान्ति गुप्तरूप से उसके सहवास में रहता हुआ यथारुचि विषय-भोगों में आसक्त हुआ सानन्द समय यापन करने लगा। इधर एक दिन सुषेण मंत्री जब सुदर्शना के घर में पहुंचा तो उसने वहां शकट कुमार 468 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को देख लिया। उसे देखते ही मंत्री के क्रोध का पारा एकदम ऊपर जा चढ़ा। क्रोध के मारे उस का मुख और नेत्र लाल हो उठे। उसने दान्त पीसते हुए क्रोध के आवेश में आकर अपने अनुचरों को उसे-शकट कुमार के पकड़ने और पकड़ कर बांधने तथा अधिक से अधिक पीटने की आज्ञा दी। तदनुसार पकड़ने, बांधने और मारने के बाद उसे महाराज महाचन्द्र के पास ले जाया गया। महाराज महाचन्द्र द्वारा मन्त्री को ही दण्डसम्बन्धी समस्त अधिकार दे देने पर तथा मन्त्री के द्वारा महान् अपराधी ठहरा कर एवं सारे शहर में फिरा कर उसके वध करा डालने का आयोजन किया गया। - जैसा कि प्रथम बतलाया गया है कि जिस व्यक्ति के हाथ में सत्ता हो और साथ में वह कामी एवं विषयी भी हो तब उससे जो कुछ भी अनर्थ बन पड़े वह थोड़ा है। कामी पुरुष का ऐसा करना स्वाभाविक ही है। जिस व्यक्ति पर वह आसक्त हो रहा है उसका कोई और प्रेमी उसे एक आंख भी नहीं भाता। फिर यदि उसके हाथ में कोई राजकीय सत्ता हो तब तो वह उसे यमालय में पहुंचाये बिना कभी छोड़ने का ही नहीं। कामी पुरुषों में ईर्ष्या की मात्रा सबसे अधिक होती है। कामासक्त व्यक्ति अपने प्रेम-भाजन पर किसी दूसरे का अणुमात्र भी अधिकार सहन नहीं कर सकता है और वास्तव में एक वस्तु के जहां दो इच्छुक होते हैं वहां पर सर्वदा एक के अनिष्ट की संभावना बनी ही रहती है। दोनों में जो बलवान् होता है उसका ही उस पर अधिकार रहा.करता है। निर्बल व्यक्ति या तो द्वन्द्व से परास्त हो कर भाग जाता है अथवा प्राणों की आहुति दे कर दूसरों के लिए शिक्षा का आदर्श छोड़ जाता है। मंत्री सुषेण कब चाहता था कि जिस रमणी के सहवास के लिए वह चिरकाल से आतुर हो रहा था, उसमें कोई दूसरा भी भागीदार बने। इसी कारण उसने शकट कुमार और साथ में सुदर्शना को भी कठोर से कठोर दंड दिया जिस का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। . तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी से कहा कि गौतम ! इस प्रकार यह छण्णिक छागलिक का जीव अपने पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए चौथी नरक में गया और वहां भीषण नारकीय यातनाएं भोग लेने के अनन्तर भी शकट कुमार के रूप में अवतीर्ण होकर इस दशा को प्राप्त हो रहा है। सारांश यह है कि इस समय उस के साथ जो कुछ हो रहा है वह उसके पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का ही परिणाम है। -हाते जाव सव्वालंकारविभूसिते-यहां पठित जाव-यावत् पद से अपेक्षितकयबलिकम्मे-इत्यादि पदों का उल्लेख द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। तथाआसुरुत्ते जाव मिसिमिसीमाणे-यहां पठित जाव-यावत्-पद से -रुटे कुविए चण्डिक्किए-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन की व्याख्या भी द्वितीय प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [469 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय की टिप्पण में की जा चुकी है। तथा-अट्ठि जाव महियं-यहां के जाव-यावत् पद, से-मुट्ठि-जाणु-कोप्पर-प्पहार-संभग्ग-इन पदों का ग्रहण करना अर्थात् सुषेण मंत्री शकट कुमार को यष्टि-लाठी, मुष्टि, जानु-घुटने, कूर्पर-कोहनी के प्रहारों से संभग्न-चूर्णित तथा मथित कर डालता है। दूसरे शब्दों में -जिस प्रकार दही मंथन करते समय दही का प्रत्येक कण मथित हो जाता है ठीक उसी प्रकार शकट कुमार का भी मन्थन कर डालते हैं। तात्पर्य यह है कि उसे इतना पीटा, इतना. मारा कि उस का प्रत्येक अंग तथा उपांग ताड़ना से बच नहीं सका। तथा-करयल जाव एवं-यहां के जाव-यावत् पद से अभिमत पाठ का उल्लेख पीछे . तृतीय अध्याय में किया जा चुका है। -दुच्चिण्णाणं जाव विहरति-यहां के जाव-यावत् पद से-दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है। इन पदों का अर्थ प्रथम अध्याय में किया गया है। . गत सूत्रों तथा प्रस्तुत सूत्र में शकट कुमार के विषय में पूछे गए प्रश्न का उत्तर वर्णित हुआ है। अब अग्रिम सूत्र में इसी सम्बन्ध को लेकर गौतम स्वामी ने जो जिज्ञासा की है उस का वर्णन किया जाता है मूल-सगडे णं भन्ते ! दारए कालगते कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववन्जिहिति? छाया-शकटो भदन्त ! दारकः कालगतः कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोपपत्स्यते ? पदार्थ-भंते !-हे भगवन् ! सगडे-शकट कुमार। दारए-बालक। णं-वाक्यालंकारार्थक है। कालगते-कालवश हुआ। कहिँ-कहां। गच्छिहिति ?-जाएगा ? कहिं-कहां पर। उववजिहिति?उत्पन्न होगा? मूलार्थ-हे भगवन् ! शकट कुमार बालक यहां से काल करके कहां जाएगा? और कहां पर उत्पन्न होगा? टीका-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से शकट कुमार के पूर्वभव का वृत्तान्त सुन लेने के पश्चात् गौतम स्वामी को उसके आगामी भवों के सम्बन्ध में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने की लालसा जागृत हुई। तदनुसार उन्होंने भगवान् से उसके आगामी भवों के सम्बन्ध में भी पूछ लेने का विचार किया। वे बड़े विनीतभाव के द्वारा वीर प्रभु से पूछने लगे कि हे भदन्त ! शकट कुमार यहां से काल करके कहां जाएगा? और कहां पर उत्पन्न होगा? मनोविज्ञान का यह नियम है कि जिस विषय में मन एक बार लग जाता है, उस विषय का अथ से इति पर्यन्त बोध प्राप्त करने की उस में लग्न सी हो जाती है। इसी नियम के अनुसार 470 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम स्वामी भी पुनः भगवान् से पूछ रहे हैं। उन का मन शकट कुमार के जीवन को अथ से इति पर्यन्त समझने की लालसा में व्यस्त है, वह उसके आगामी जीवन से भी अवगत होना चाहता है। यही रहस्य गौतम स्वामी के प्रश्न में छिपा हुआ है। गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया तथा शकट कुमार की भवपरम्परा का अन्त में क्या परिणाम निकला, इत्यादि विषय का अग्रिम सूत्र में वर्णन किया जाता है मूल-गोतमा ! सगडे णं दारए सत्तावण्णं वासाई परमाउँ पालइत्ता अज्जेव तिभागावसेसे दिवसे एगं महं अयोमयं तत्तं समजोइभूयं इत्थिपडिमं अवयासाविए समाणे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववजिहिति। से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता रायगिहे णगरे मातंगकुलंसिं जमलत्ताए पच्चायाहिति, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णिव्वत्तबारसाहगस्स इमं एयारूवं णामधेनं करिस्सन्ति, होउ णं दारए सगडे नामेणं, होउ णं दारिया सुदरिसणा। तते णं से सगडे दारए उम्मुक्कबालभावे जोव्वण भविस्सति। तए णं सा सुदरिसणा वि दारिया उम्मुक्कबाल-भावा विण्णय. जोव्वणगमणुप्पत्ता रूवेण जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठ-सरीरया भविस्सति। तए णं से सगडे दारए सुदरिसणाए रूवेण, य जोव्वणेण य लावण्णेण य मुच्छिते 4 सुदरिसणाए भइणीए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरिस्सति।तते णं से सगडे दारए अन्नया कयाइं सयमेव कूडगाहत्तं उपसंपज्जित्ता णं विहरिस्सति।तते णं से सगडे दारए कूडग्गाहे भविस्सति अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे। एयकम्मे 4 सुबहुं पावकम्म समजिणित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववजिहिति, संसारो तहेव जाव पुढवीए / से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता वाणारसीए णयरीए मच्छत्ताए उववजिहिति।से णं तत्थ मच्छवधिएहिं वधिए तत्थेव वाणारसीए णयरीए सेट्टिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति। बोहि, . 1. अयोमयं-त्ति अयोमयीम्, तत्तं-त्ति तप्ताम् कथमित्याह-समजोइभूयं-त्ति समातुल्या ज्योतिषावह्निना भूता या सा तथा ताम्। अवयासाविए-त्ति अवयासितः-आलिङ्गितः। ' प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [471 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्वजा०, सोहम्मे कप्पे०, महाविदेहे०, सिज्झिहिति 5 निक्खेवो। ॥चउत्थं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-गौतम ! शकटो दारकः सप्तपञ्चाशतं वर्षाणि परमायुः पालयित्वाऽद्यैव त्रिभागावशेषे दिवसे एकां महतीमयोमयां तप्तां ज्योतिस्समभूतां स्त्रीप्रतिमां अवयासितः सन् कालमासे कालं कृत्वाऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते। स ततोऽनन्तरमुढत्य राजगृहे नगरे मातंगकुले यमलतया प्रत्यायास्यति / ततस्तस्य दारकस्य अम्बापितरौ निर्वृत्तद्वादशाहस्य इदमेतद्रूपं नामधेयं करिष्यतः-भवतु दारकः शकटो नाम्ना। भवतु दारिका सुदर्शना नाम्ना। ततः स शकटो दारकः उन्मुक्तबालभावः यौवन० भविष्यति। ततः सा सुदर्शनापि दारिका उन्मुक्तबालभावा विज्ञक यौवनमनुप्राप्ता रूपेण च यौवनेन च लावण्येन चोत्कृष्टा उत्कृष्टशरीरा भविष्यति। ततः स शकटो दारक: सुदर्शनाया रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च मूर्छितः 4 सुदर्शनया भगिन्या सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरिष्यति / ततः स शकटो दारक: अन्यदा कदाचित् स्वयमेव कूटग्राहत्वमुपसम्पाद्य विहरिष्यति / ततः स शकटो दारकः कूटग्राहो भविष्यति अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानन्दः। एतत्कर्मा 4 सुबहु पापकर्म समर्ण्य कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते, संसारस्तथैव यावत् पृथिव्याम्, स ततोऽनन्तरमुवृत्य वाराणस्यां नगर्यां मत्स्यतयोपपत्स्यते / स तत्र मत्स्यवधिकैर्वधित: तत्रैव वाराणस्यां नगर्यां श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति। बोधि, प्रव्रज्या, सौधर्मे कल्पे, महाविदेहे०, सेत्स्यति 5 निक्षेपः। // चतुर्थमध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-गोतमा !-हे गौतम ! सगडे णं-शकट नामक। दारए-बालक। सत्तावण्णं वासाइं५७ वर्ष की। परमाउं-परम आयु। पालइत्ता-पाल कर-भोग कर। अजेव-आज ही। तिभागावसेसेत्रिभागावशेष अर्थात् जिस में तीसरा भाग शेष रहे ऐसे। दिवसे-दिन में। एग-एक। महं-महान् / अयोमयंलोहमय / तत्तं-तप्त। समजोइभूयं-अग्नि के समान देदीप्यमान / इत्थिपडिमं-स्त्री की प्रतिमा से। अवयासाविए-अवयासित-आलिङ्गित। समाणे-हुआ। कालमासे-कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर। कालं किच्चा-काल करके / इमीसे-इस। रयणप्पभाए-रत्नप्रभा नामक। पुढवीए-पृथ्वीनरक में। णेरइयत्ताए-नारकीय रूप से। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। तते णं-तदनन्तर अर्थात् वहां से। अणंतरं-अन्तररहित / उव्वट्टित्ता-निकल कर। से-वह, शकटकुमार का जीव। रायगिहे-राजगृह नामक। णगरे-नगर में। मातंगकुलंसि-मातंगकुल में अर्थात् चांडाल कुल में। जमलत्ताए-युगलरूप से। 472 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा, अर्थात् कन्या और बालक दो का जन्म होगा। तते णं-तदनन्तर / तस्स-उस। दारगस्स-बालक के। अम्मापियरो-माता-पिता। णिव्वत्तबारसाहगस्स-जन्म से बारहवें दिन उस का। इमं-यह। एयारूवं-इस प्रकार का। नामधेजं-नाम। करिस्संति-रक्खेंगे। दारए-यह बालक। सगडेशकट। णामेणं-नाम से। होउ णं-हो अर्थात् इस बालक का नाम शकट कुमार रखा जाता है तथा। दारिया-यह कन्या। सुदरिसणा-सुदर्शना नाम से। होउ णं-हो, अर्थात् इस बालिका का नाम सुदर्शना रखा जाता है। तते णं-तदनन्तर। से-वह। सगडे-शकट नामक / दारए-बालक। उम्मुक्कबालभावेबालभाव को त्याग कर। जोव्वण०-युवावस्था को प्राप्त होता हुआ भोगोपभोग में समर्थ / भविस्सतिहोगा। तए णं-तदनन्तर। से-वह। सुदरिसणा वि दारिया-सुदर्शना बालिका भी। उम्मुक्कबालभावाबाल भाव को त्याग कर। विण्णाय-विशिष्ट ज्ञान को प्राप्त तथा बुद्धि आदि की परिपक्वता को उपलब्ध हो। जोव्वणगमणुप्पत्ता-यौवन को प्राप्त हुई। रूवेण-रूप से। जोव्वणेण य-और यौवन से। लावण्णेण य-तथा लावण्य-आकृति की सुन्दरता, से। उक्किट्ठा-उत्कृष्ट-उत्तम तथा। उक्किट्ठसरीरया-उत्कृष्ट शरीर वाली। भविस्सति-होगी। तए णं-तदनन्तर / से-वह / सगडे-शकट / दारए-बालक / सुदरिसणाएसुदर्शना को। रूवेण य-रूप और। जोव्वणेण य-यौवन तथा। लावण्णेण य-लावण्य में। मुच्छिते ४मूर्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न हुआ। सुदरिसणाए-सुदर्शना। भइणीए-बहिन के। सद्धिं-साथ। उरालाइं-उदार-प्रधान। माणुस्सगाई-मनुष्य सम्बन्धी / भोगभोगाई-विषय भोगों का। भुंजमाणे-उपभोग करता हुआं। विहरिस्सति-विहरण करेंगा। तते णं-तदनन्तर। से-वह। सगडे-शकट। दारए-बालक। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। सयमेव-स्वयं ही। कूडग्गाहत्तं-कूटग्राहित्व-कूट-कपट से अन्य प्राणियों को अपने वश में करने की कला को। उवसंपज्जित्ता णं-संप्राप्त कर के। विहरिस्सति-विहरण करेगा। तते णं-तदनन्तर / से-वह। सगडे-शकट। दारए-बालक। कूडग्गाहे-कूटग्राह अर्थात् कपट से जीवों को वश में करने वाला। भविस्सति-होगा जो कि ।अहम्मिए-अधर्मी / जाव-यावत् / दुप्पडियाणंदेदुष्प्रत्यानन्द-कठिनता से प्रसन्न होने वाला होगा। एयकम्मे ४-एतत्कर्मा-इन कर्मों के करने वाला, एतत्प्रधान-इन कर्मों में प्रधान, एतद्विद्य-इस विद्या-विज्ञान वाला और। एतत्समाचार-इन कर्मों को ही अपना सर्वोत्तम आचरण बनाने वाला, वह / सुबहुं-अत्यधिक। पावकम्मं-पाप कर्म को। समजिणित्ताउपार्जित कर / कालमासे-कालमास में-मृत्यु का समय आने पर। कालं किच्चा-काल कर के। इमीसेइस / रयणप्पभाए-रत्नप्रभा नामक। पुढवीए-पृथ्वी-नरक में।णेरइयत्ताए-नारकी रूप से। उववजिहितिउत्पन्न होगा। तहेव-तथैव / संसारो-संसारभ्रमण। जाव-यावत्। पुढवीए०-पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। ततो-वहां से। से णं-वह / उव्वट्टित्ता-निकल कर। अणंतरं-अन्तररहित / वाणारसीएवाराणसी-बनारस। णयरीए-नगरी में। मच्छत्ताए-मत्स्य के रूप में। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। से णं-वह। तत्थ-वहां। मच्छवधिएहि-मत्स्यवधिकों-मछली मारने वालों के द्वारा। वधिए-हनन किया हुआ। तत्थेव-उसी। वाणारसीए-बनारस। णयरीए-नगरी में। सेट्ठिकुलंसि-श्रेष्ठिकुल में। पुत्तत्ताएपुत्ररूप से। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा, वहां। बोहिं०-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। पवजा-प्रवज्यासाधुवृत्ति को अंगीकार करेगा। सोहम्मे कप्पे०-सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा वहां से। आदि पदों की अर्थावगति के लिए देखो द्वितीय अध्याय। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [473 अध्याय Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, वहां पर संयम के सम्यक् आराधन से च्यव कर। सिज्झिहिति ५-सिद्धि प्राप्त करेगा अर्थात् कृतकृत्य हो जाएगा, केवल ज्ञान प्राप्त करेगा, कर्मों से रहित होगा, कर्मजन्य संताप से विमुक्त होगा और सब दुःखों का अंत करेगा। निक्खेवो-निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। चउत्थं-चतुर्थ। अज्झयणं-अध्ययन। समत्तं-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-हे गौतम !शकट कुमार 57 वर्ष की परम आयु को पाल कर-भोग कर आज ही तीसरा भाग शेष रहे दिन में एक महान् लोहमय तपी हुई अग्नि के समान देदीप्य-मान स्त्रीप्रतिमा से आलिंगित कराया हुआ मृत्यु समय में काल करके रत्नप्रभा नाम की पहली पृथ्वी-नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर सीधा राजगृह नगर में मातंग-चांडाल के कुल में युगलरूप से उत्पन्न होगा, उस युगल (वे दो बच्चे जो एक ही गर्भ से साथ उत्पन्न हुए हों) के माता पिता बारहवें दिन उन में से बालक का शकटकुमार और कन्या का सुदर्शना कुमारी यह नामकरण करेंगे। शकट कुमार बाल्यभाव को त्याग कर यौवन को प्राप्त करेगा। सुदर्शना कुमारी भी बाल्यभाव से निकल कर विशिष्ट ज्ञान तथा बुद्धि आदि की परिपक्वता को प्राप्त करती हुई युवावस्था को प्राप्त होगी। वह रूप में, यौवन में और लावण्य में उत्कृष्ट-उत्तम एवं उत्कृष्ट शरीर वाली होगी। तदनन्तर सुदर्शना कुमारी के रूप, यौवन और लावण्य-आकृति की सुन्दरता में मूर्च्छित-उस के ध्यान में पगला बना हुआ, गृद्ध-उसकी इच्छा रखने वाला, ग्रथितउसके स्नेहजाल से जकड़ा हुआ और अध्युपपन्न-उसी की लग्न में अत्यन्त ध्यासक्त रहने वाला वह शकट कुमार अपनी बहन सुदर्शना के साथ उदार-प्रधान मनुष्यसम्बन्धी कामभोगों का सेवन करता हुआ जीवन व्यतीत करेगा। तदनन्तर किसी समय वह शकट कुमार स्वयमेव कूटग्राहित्व को प्राप्त कर विहरण करेगा, तब कूटग्राह (कपट से जीवों को वश करने वाला) बना हुआ वह शकट महा अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द होगा, और इन कर्मों के करने वाला, इन में प्रधानता लिए हुए तथा इन के विज्ञान वाला एवं इन्हीं पापकर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए अधर्मप्रधान कर्मों से वह बहुत से पाप कर्मों को उपार्जित कर मृत्युसमय में काल करके रत्न-प्रभा नामक पहली पृथ्वी-नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा। उस का संसारभ्रमण पूर्ववत् ही जान लेना यावत् पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा, तदनन्तर वहां से निकल कर वह सीधा वाराणसी नगरी में मत्स्य के रूप में . जन्म लेगा, वहां पर मत्स्य-घातकों के द्वारा वध को प्राप्त होता हुआ वह फिर उसी 474 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाराणसी नगरी में एक श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां वह सम्यक्त्व को तथा अनगारधर्म को प्राप्त करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवता बनेगा, वहां से च्यव कर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, वहां पर साधुवृत्ति का सम्यक्तया पालन करके वह सिद्धि-कृतकृत्यता प्राप्त करेगा, केवल ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को जानेगा, सम्पूर्ण कर्मों से रहित हो जाएगा और सब दुःखों का अन्त करेगा। निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। ॥चतुर्थ अध्ययन समाप्त॥ - टीका-शकटकुमार के भावी जीवन के विषय में श्री गौतम स्वामी के द्वारा प्रार्थना के रूप में व्यक्त की गई जिज्ञासा की पूर्ति के लिए परम दयालु श्रमण भगवान् महावीर ने जो कुछ फरमाया वह निम्नोक्त है हे गौतम ! शकट कुमार की पूरी आयु 57 वर्ष की है अर्थात् उसने पूर्वभव में जितना आयुष्य कर्म बान्ध रखा था, उसके पूरे हो जाने पर वह आज ही दिन के तीसरे भाग में अर्थात् अपराह्न समय में कालधर्म को प्राप्त करेगा। पूर्वोपार्जित पापकर्मों के प्रभाव से उस की मृत्यु का साधन भी बड़ा विकट होगा। जिस समय राजकीय पुरुष प्रधान मंत्री सुषेण की आज्ञा से निर्दयता-पूर्वक ताड़ित करते हुए शकट कुमार को वधस्थल पर ले जाकर खड़ा करेंगे, उस समय प्रधान मंत्री के आदेश से एक लोहमयी स्त्रीप्रतिमा लाई जाएगी और आग में तपाकर उसे लाल कर दिया जाएगा, उस लोहमयी अग्नितुल्य संतप्त और प्रदीप्त प्रतिमा के साथ शकट कुमार को बलात् चिपटाया जाएगा। उसके साथ आलिंगित कराए जाने पर शकट कुमार काल को प्राप्त होगा। इस प्रकार काल को प्राप्त होकर वह रत्नप्रभा नाम की पहली नरक में जाकर जन्म लेगा। वहां पर नरकजन्य तीव्र वेदनाओं का अनुभव करेगा। ___नरक की भवस्थिति को पूरा करने के बाद वह वहां से निकल कर राजगृह नगर के एक चांडालकुल में युगलरूप में उत्पन्न होगा अर्थात् मातंग की स्त्री के गर्भ से दो जीव उत्पन्न होंगे, एक बालक दूसरी कन्या। उनके माता-पिता बालक का नाम शकट और कन्या का नाम 1. प्रस्तुत कथा सन्दर्भ में जो यह लिखा है कि शकट कुमार को वध्यस्थल पर ले जाकर अपराह्नकाल में लोहमयी तप्त स्त्रीप्रतिमा से बलात् आलिङ्गित कराया जाएगा और वहां उसकी मृत्यु हो जाएगी, इस पर यह आशंका होती है कि जब साहंजनी नगरी के राजमार्ग पर शकट कुमार के साथ बड़ा निर्दय एवं क्रूर व्यवहार किया गया था, उसके कान और नाक काट लिए गए थे, उसके शरीर में से मांसखण्ड निकाल कर उसे खिलाए जा रहे थे, और चाबुकों के भीषण प्रहारों से उसे मारा जा रहा था, तब ऐसी स्थिति में उसके प्राण कैसे बच पाए ? अर्थात् मानव प्राणी में इतना शारीरिक बल कहां है कि वह इस प्रकार के नरकसदृश दुःखों का उपभोग कर लेने पर भी जीवित रह सके ? इस आशंका का उत्तर द्वितीय अध्याय में दे दिया गया है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्नसेन के सम्बन्ध में विचार किया गया है जब कि प्रस्तुत में शकट कुमार के सम्बन्ध में। * प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [475 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शना रखेंगे। जब दोनों बालभाव को त्याग कर युवावस्था में आएंगे तो उनका शरीरगत सौंदर्य अथच रूप-लावण्य नितान्त आकर्षक होगा। उसमें भी सुदर्शना का यौवन-विकास इतना अधिक स्फुट और मोहक होगा कि उसके अद्वितीय रूप-सौन्दर्य से मोहित हुआ उसका सहोदर ही उसे अपनी सहधर्मिणी बना कर काम-वासना को उपशान्त करने का नीचतम उद्योग करेगा। तात्पर्य यह है कि सुदर्शना के रूप-लावण्य में अत्यधिक मूर्च्छित हुआ शकट कुमार परम पुनीत भगिनी-सम्बन्ध का भी उच्छेद कर डालेगा। संक्षेप में या दूसरे शब्दों में कहें तो बाल्य-काल के भाई-बहिन यौवन-काल में पति-पत्नी के रूप में आभासित होंगे। तदनन्तर इस प्रकार के सभ्यजन विगर्हित कार्यों को करता हुआ शकट कुमार स्वयं कूटग्राही अर्थात् धोखे से जीवों को फंसाने वाला, बन बैठेगा। कूटग्राही बन जाने के बाद शकट कुमार की पापपूर्ण प्रवृत्तियों में और भी प्रगति होगी, तथा अन्त में अधिक सावद्य व्यवहार से उपार्जित किए पापकर्मों के प्रभाव से वह रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में जन्म लेगा। ___पाठकों को स्मरण होगा कि सूत्रकार प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का वर्णन कर आए हैं, तब सूत्रकार ने प्रकृत सूत्र को संक्षिप्त करने के उद्देश्य से पूर्व वर्णित सूत्रपाठ का स्मरण कराने के लिए "संसारो तहेव जाव पुढवीए०" यह उल्लेख कर दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि शकट कुमार का संसारभ्रमण अर्थात् नरक से निकल कर अन्यान्य गतियों में गमनागमन करना इत्यादि तथैव-उसी प्रकार जान लेना अर्थात् मृगापुत्र की भान्ति समझ लेना। शेष जो अन्तर है उसे सूत्रकार स्वयं ही "ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता" इत्यादि शब्दों मैं कह रहे हैं। अर्थात् शकट कुमार का जीव नरक से निकल कर वाराणसी नगरी में मत्स्य के रूप में अवतरित होगा, वहां मत्स्यविघातकों के द्वारा मारा जाने पर वह उसी नगरी के एक श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां समुचित रीति से पालन पोषण और संवर्द्धन को प्राप्त होता हुआ वह युवावस्था में किसी स्थविर-वृद्ध जैनसाधु के सहवास में आकर सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा और वैराग्यभावित अन्त:करण से अनगारवृत्ति को धारण कर अन्त में सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां की देवभव-सम्बन्धी स्थिति को पूरा कर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, और वहां पर यथाविधि संयम के आराधन से अपने समस्त कर्मों का अन्त करके परम दुर्लभ निर्वाण पद को उपलब्ध करेगा। ___ मानव प्राणी की यात्रा कितनी लम्बी और कितनी विकट तथा उसका पर्यवसान कहां और किस प्रकार से होता है यह सब शकट कुमार के कथासंदर्भ से भली-भान्ति विदित हो जाता है। ____ प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में यह बताया गया था कि श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा 476 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी से विपाकश्रुत के चतुर्थ अध्ययन का अर्थ सुनने की इच्छा प्रकट की थी। आर्य सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी की इच्छानुसार प्रस्तुत चौथे अध्ययन का वर्णन कह सुनाया, जो कि पाठकों के सन्मुख है। इस पूर्वप्रतिपादित वृत्तान्त का स्मरण कराने के लिए ही सूत्रकार ने निक्खेवो-निक्षेप यह पद दिया है। निक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह द्वितीय अध्याय में कर दिया गया है। प्रस्तुत में निक्षेप शब्द से सूत्रकार को जो सूत्रांश अभिमत है, वह निनोक्त .. "एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं दुहविवागाणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि"-अर्थात् हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। इस प्रकार मैं कहता हूं। तात्पर्य यह है कि जैसा भगवान से मैंने सुना है वैसा तुमको सुना दिया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। -जोव्वण भविस्सति-यहां के बिन्दु से-जोव्वणगमणुप्पत्ते अलंभोगसमत्थे यावि-इस अवशिष्ट पाठ का बोध होता है। इस का अर्थ है-युवावस्था को प्राप्त तथा भोग भोगने में भी समर्थ होगा। ___-विण्णाय. जोव्वणगमणुप्पत्ता-यहां का बिन्दु-परिणयमेत्ता-इस पाठ का परिचायक है। इस पाठ का अर्थ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है अन्तर मात्र इतना है कि वहां यह एक बालक का विशेषण है, जब कि यहां एक बालिका का। ___-अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे-यहां के जाव-यावत् पद से संसूचित पाठ प्रथम अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा-एयकम्मे ४-यहां दिए गए 4 के अंक से विवक्षित पाठ का उल्लेख द्वितीय अध्याय के टिप्पण में किया गया है। -तहेव जाव पुढवीए०-यहां का जाव-यावत् पद प्रथम अध्याय में दिए गए-से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववजिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसियाए-से लेकर-वाउ० तेउ आउ०–इत्यादि पदों का परिचायक है। तथा पुढवीए०यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। "-बोहिं, पव्वजाल, सोहम्मे कप्पे०, महाविदेहे०, सिज्झिहिति ५-इन पदों सेबुझिहिति 2 त्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिति।से णं भविस्सइ अणगारे इरियासमिते भासासमिते एसणासमिते आयाणभण्डमत्तनिक्खेवणासमिते उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपरिट्ठावणिया-समिते मणसमिते वयसमिते कायसमिते मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिंदिए गुत्तबंभयारी। से णं तत्थ बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [477 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति। से णं ततो अणंतरं चइत्ता महाविदेहे वासे जाइं कुलाइं भवन्ति अड्ढाइं दित्ताई वित्ताई विच्छिण्णविउल-भवणसयणासणजाणवाहणाई बहुधणजायरूवरययाई आओगपओगसंपउत्ताइं विच्छड्डियपउरभत्तपाणाइंबहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूयाई बहुजणस्स अपरिभूयाइं जहा दढपतिण्णे, सा चेव वत्तव्वया कलाओ जाव सिज्झिहिति बुझिहिति मुच्चिहिति परिणव्वाहिति सव्वदुक्खाणमंतं करिहिति-" इन पदों की ओर संकेत कराना सूत्रकार को अभिमत है, इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है ___बोधि-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर के गृहस्थावास को छोड़ कर साधुधर्म में दीक्षित हो जाएगा और वह ईर्यासमित-यतनापूर्वक गमन करने वाला, भाषासमितयतनापूर्वक बोलने वाला, एषणासमित-निर्दोष आहार-पानी ग्रहण करने वाला, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा-समित-वस्त्र, पात्र और पुस्तक आदि उपकरणों को उपयोगपूर्वक ग्रहण करने और रखने वाला, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-परिष्ठापनिकासमितअर्थात् मल मूत्र, थूक, नासिकामल और पसीने का मल इन सब का यतनापूर्वक परिष्ठापन करने वाला अर्थात् परठने वाला, मनसमित-मन के शुभ व्यापार वाला, वच-समित-वचन के शुभ व्यापार वाला, कायसमित-काया के शुभ व्यापार वाला, मनोगुप्त-मन के अप्रशस्त व्यापार को रोकने वाला, वचोगुप्त-वचन के अशुभ व्यापार को रोकने वाला, कायगुप्त-काया के अशुभ व्यापार को रोकने वाला, गुप्त-मन-वचन या काया को पाप से बचाने वाला, गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों का निग्रह करने वाला, गुप्तब्रह्मचारी-ब्रह्मचर्य का संरक्षण करने वाला अनगार होगा। और वह साधुधर्म में बहुत वर्षों तक साधुधर्म का पालन कर आलोचना (गुरु के सन्मुख अपने दोषों को प्रकट करना, तथा प्रतिक्रमण (अशुभयोग से निवृत्त हो कर शुभयोग में स्थिर होना) कर समाधि-(चित्त की एकाग्रतारूप ध्यानावस्था) को प्राप्त होकर मृत्यु का समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहां से वह बिना अन्तर के च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में निनोक्त कुलों में उत्पन्न होगा वे कुल सम्पन्न-वैभवशाली, दीप्त-तेजस्वी, वित्त-प्रसिद्ध (विख्यात), विस्तृत और विपुल मकान, शयन (शय्या), आसन, यान (रथ आदि) वाहन। (घोड़ा आदि अथवा नौका जहाज़ आदि), धन, सुवर्ण और रजत-चांदी की बहुलता से युक्त होंगे। उन कुलों में द्रव्योपार्जन के उपाय प्रयुक्त किए जाएंगे अथवा अधमर्णों (कर्जा लेने वालों) को ब्याज पर रुपया दिया जाएगा। उन कुलों में भोजन करने के अनन्तर भी बहुत सा अन्न बाकी बच जाएगा। उन कुलों में दास दासी आदि पुरुष और गाय, भैंस तथा बकरी आदि पशु प्रचुर संख्या में रहेंगे 478 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा वे कुल बहुत से लोगों से भी पराभव को प्राप्त नहीं हो सकेंगे। .. शकट कुमार का जीव महाविदेह क्षेत्र में इन पूर्वोक्त उत्तम कुलों में उत्पन्न होकर दृढ़प्रतिज्ञ की भान्ति 72 कलाएं सीखेगा और युवा होने पर तथारूप स्थविरों के पास दीक्षित हो संयमाराधन कर के सिद्धि को प्राप्त करेगा, कर्मजन्य संताप से रहित हो जाएगा और सर्वप्रकार के जन्म मरण जन्य दुःखों का अन्त कर डालेगा। दृढ़प्रतिज्ञ का संक्षिप्त जीवनपरिचय प्रथम अध्ययन में दिया जा चुका है। . प्रस्तुत चतुर्थ अध्ययन में सूत्रकार ने जीवन-कल्याण के लिए दो बातों की विशेष प्रेरणा कर रखी है। प्रथम तो मांसाहार के त्याग की और दूसरे ब्रह्मचर्य के पालन की। मांसाहर गर्हित है, दुःखों का उत्पादक है तथा जन्म मरण की परम्परा का बढ़ाने वाला है। यह सभी धर्मशास्त्रों ने पुकार-पुकार कर कहा है। साथ में उस के त्याग को बड़ा सुखद, प्रशस्त एवं सुगतिप्रद माना है। मांसाहार से जन्य हानि और उस के त्याग से होने वाला लाभ शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से वर्णित हुआ है। पाठकों की जानकारी के लिए कुछ शास्त्रीय उद्धरण नीचे दिए जाते हैं जैनागम श्री स्थानांग सूत्र के चतुर्थ स्थान में नरक-आयु-बन्ध के निनोक्त चार कारण लिखे हैं (1) महारम्भ-बहुत प्राणियों की हिंसा हो, इस प्रकार के तीव्र परिणामों से कषायपूर्वक प्रवृत्ति करना महारम्भ कहलाता है। (2) महापरिग्रह-वस्तुओं पर अत्यन्त मूर्छा-आसक्ति महापरिग्रह कहा जाता है। (3) पञ्चेन्द्रियवध-५ इन्द्रियों वाले जीवों की हिंसा करना पंचेन्द्रियवध है। (4) कुणिमाहार-कुणिम अर्थात् मांस का आहार करना कुणिमाहार कहलाता ___इन कारणों में मांसाहार को स्पष्टरूप से नरक का कारण माना है, और उसी सूत्र के आयुबन्धकारणप्रकरण में प्राणियों पर की जाती दया और अनुकम्पा के परिणामों को मनुष्यायु के बन्ध का कारण माना है। जैनशास्त्रों में ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण उपलब्ध होते हैं, जिन में मांसाहार को दुर्गतिप्रद बता कर उसके निषेध का विधान किया गया है और उसके त्याग को देवदुर्लभ मानवभव का तथा परम्परा से निर्वाणपद का कारण बता कर बड़ा प्रशंसनीय संसूचित किया है। जैनधर्म की नींव ही अहिंसा पर अवस्थित है। किसी प्राणी की हत्या तो दूर की बात है वह तो किसी प्राणी के अहित का चिन्तन करना भी महापाप बतलाता है। अस्तु, जैनशास्त्र प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [479 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो मांसाहार के त्याग की ऐसी उत्तमोत्तम शिक्षाओं से भरे पड़े हैं। किन्तु जैनेतर धर्मशास्त्र भी. इस का अर्थात् मांसाहार का पूरे बल से निषेध करते हैं। उन के कुछ प्रमाण निम्नोक्त हैं (1) नकिर्देवा मिनीमसी न किरा योपयामसि। (ऋग्वेद-(१०-१३४-७) अर्थात् हम न किसी को मारें और न किसी को धोखा दें। (2) सर्वे वेदा न तत्कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत ! सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च, यत् कुर्यात् प्राणिनां दया॥१॥(महा० शा॰ पर्व प्रथमपाद) अर्थात् हे अर्जुन ! जो प्राणियों की दया फल देती है वह फल चारों वेद भी नहीं देते और न समस्त यज्ञ देते हैं तथा सम्पूर्ण तीर्थों के स्नान भी वह फल नहीं दे सकते हैं। अहिंसा लक्षणो धर्मो, ह्यधर्मः प्राणिनां वधः। तस्माद् धर्मार्थिभिर्लोकैः कर्त्तव्या प्राणिनां दया॥२॥ अर्थात् दया ही धर्म है और प्राणियों का वध ही अधर्म है। इस कारण से धार्मिक पुरुषों को सदा दया ही करनी चाहिए, क्योंकि विष्ठा के कीड़ों से लेकर इन्द्र तक सब को जीवन की आशा और मृत्यु से भय समान है। यावन्ति पशुरोमाणि, पशुगात्रेषु भारत ! तावद् वर्षसहस्राणि, पच्यन्ते पशुघातकाः॥३॥ अर्थात् हे अर्जुन ! पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने हज़ार वर्ष पशु का घात करने वाले नरकों में जाकर दुःख पाते हैं। लोके यः सर्वभूतेभ्यो ददात्यभयदक्षिणाम्। / स सर्वयज्ञैरीजानः प्राप्नोत्यभयदक्षिणाम्॥४॥ अर्थात् इस जगत में जो मनुष्य समस्त प्राणियों को अभयदान देता है वह सारे यज्ञों का अनुष्ठान कर चुकता है और बदले में उसे अभयत्व प्राप्त होता है। (3) वर्षे वर्षे अश्वमेधेन, यो यजेत शतं समाः। ___मासांनि न च खादेत्, यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥५३॥(मनु० अध्या० 5) अर्थात् वर्ष-वर्ष में किए जाने वाले अश्वमेध यज्ञ को जो सौ वर्ष तक करता है, अर्थात् सौ वर्ष में जो लगातार सौ यज्ञ कर डालता है उसका और मांस न खाने वाले का पुण्यफल समान होता है। (4) प्राणिघातात्तु यो धर्ममीहते मूढमानसः। स वाञ्छति सुधावृष्टिं कृष्णाहिमुखकोटरात् // 1 // (पुराण) . अर्थात् प्राणियों के नाश से जो धर्म की कामना करता है वह मानों श्यामवर्ण वाले सर्प 480 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कंध Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मुख से अमृत की वृष्टि चाहता है। (5) एकतः काञ्चनो मेरुः बहुरत्ना वसुंधरा। एकतो भयभीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम्॥१॥ अर्थात्-एक ओर मेरु पर्वत के समान किया गया सोने और महान् रत्नों वाली पृथ्वी का दान रक्खा जाए तथा एक ओर केवल प्राणी की की गई रक्षा रखी जाए, तो वे दोनों एक समान ही हैं। (6) तिलभर मछली खाय के, करोड़ गऊ करे दान। काशी करवत लै मरे, तो भी नरक निदान॥१॥ मुसलमान मारे करद से, हिन्दू मारे तलवार। ' कहें कबीर दोनों मिली, जाएं यम के द्वार॥२॥(कबीरवाणी) (7) जे रत्त लागे कापड़े, जामा होए पलीत। जो रत्त पीवे मानुषा, तिन क्यों निर्मल चीत॥१॥ (सिक्खशास्त्र) अर्थात् यदि हमारे वस्त्र से रक्त का स्पर्श हो जाए, तो वह वस्त्र अपवित्र हो जाता है। किन्तु जो मनुष्य रक्त का ही सेवन करते हैं उनका चित्त निर्मल कैसे रह सकता है ? अर्थात् कभी नहीं। _ इत्यादि अनेकों शास्त्रों के प्रमाण उपलब्ध होते हैं, जिन में स्पष्टरूप से मांसाहार का निषेध पाया जाता है। अतः सुखाभिलाषी विचारशील पुरुष को मांसाहार जैसे दानवी कुकर्म से सदा दूर रहना चाहिए। अन्यथा छण्णिक नामक छागलिक-कसाई के जीव की भांति नरकों में अनेकानेक भीषण यातनाएं सहन करने के साथ-साथ जन्म-मरण जन्य दुस्सह दुःखों का उपभोग करना पड़ेगा। . . (2) प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित कथासन्दर्भ से दूसरी प्रेरणा ब्रह्मचर्य के पालन की मिलती है। ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन करना एक अल्पज्ञ व्यक्ति के वश की बात नहीं है। सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित शास्त्र इस की महिमा पुकार-पुकार कर गा रहे हैं। श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्र के छठे अध्याय में लिखा है तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं-अर्थात् तप नाना प्रकार के होते हैं परन्तु सभी तपों में ब्रह्मचर्य ही सर्वोत्तम तप है। ब्रह्मचर्य की महिमा महान है। मन-वचन और काया के द्वारा विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालने से मुक्ति के द्वार सहज में ही खुल जाते हैं। देवंदाणवगन्धव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा।। बम्भयारिं नमसंति, दुक्करं जे करेन्ति ते॥१६॥ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० 16) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [481 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् देवता (वैमानिक और ज्योतिष्क देव), दानव ( भवनपतिदेव), गन्धर्व ' (स्वरविद्या के जानने वाले देव), यक्ष (व्यन्तर जाति के देव), राक्षस (मांस की इच्छा रखने वाले देव) और किन्नर (व्यन्तर देवों की एक जाति) इत्यादि सभी देव उस ब्रह्मचारी के चरणों में नतमस्तक होते हैं, जो इस दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है। ___ वास्तव में देखा जाए तो यह प्रवचन अक्षरशः सत्य है। इस में अत्युक्ति की गन्ध भी नहीं है, क्योंकि इतिहास इस का समर्थक है। ब्रह्मचर्य के ही प्रभाव से स्वनामधन्या सतीधुरीणा जनकसुता सीता का अग्नि को जल बना देना, सती सुभद्रा का कच्चे सूत के धागे से बन्धी हुई छलनी के द्वारा कूप से निकाले हुए पानी से चम्पा नगरी के दरवाज़ों का खोल देना तथा धर्मवीर सेठ सुदर्शन का शूली को सिंहासन बना देना, इत्यादि अनेकों उदाहरण इतिहास में उपलब्ध होते हैं। हुंकार मात्र से पृथ्वी को कंपा देने वाले बाहबलि तथा महाभारत के अनुपम वीर भीष्मपितामह तथा महामहिम श्री जम्बू स्वामी एवं मुनिपुंगव श्री स्थूलिभद्र जी महाराज इत्यादि महापुरुष जमीन फोड़ कर या आसमान फोड़ कर नहीं पैदा हुए थे। वे भी अन्य पुरुषों की भान्ति अपनी-अपनी माताओं के गर्भ से ही उत्पन्न हुए थे। परन्तु यह उनके ब्रह्मचर्य के तेज का प्रभाव है कि वे इतने महान् बन गए तथा यह भी उनके ब्रह्मचर्य की ही महिमा है कि आज उनका नाम लेने वाला मलिनहृदय व्यक्ति भी अपनी मलिनता दूर होती अनुभव करता है, तथा उनके जीवन को अपने लिए पथप्रदर्शक के रूप में पाता है। ब्रह्मचर्य मानव जीवन में मुख्य और सारभूत वस्तु है। यह जीवन को उच्चतम बनाने के अतिरिक्त संसारी आत्मा को कर्मरूप शत्रुओं के चंगुल से छुड़ाने में एक बलवान् सहायक का काम करता है। अधिक क्या कहें संसार में परिभ्रमण करने वाले जीवात्मा को जन्म-मरण के चक्र से छुड़ा कर मोक्ष-मन्दिर में पहुंचाने तथा सम्पूर्ण दु:खों का नाश करके उसे-आत्मा को नितान्त सुखमय बनाने का श्रेय इसी ब्रह्मचर्य को ही है, और इसके विपरीत ब्रह्मचर्य की अवहेलना से संसारी आत्मा का अधिक से अधिक पतन होता है, तथा सुख के बदले वह दुःख का ही विशेषरूप से संचय करता है। तात्पर्य यह है कि जहां ब्रह्मचर्य सारे सद्गुणों का मूल है वहां उस का विनाश समस्त दुर्गुणों का स्रोत है। ब्रह्मचर्य के विनाश से इस जीव को कितने भयंकर कष्ट सहने पड़ते हैं यह प्रस्तुत अध्ययन-गत शकट कुमार के व्यभिचारपरायण जीवनवृत्तान्तों से भलीभान्ति ज्ञात हो जाता है। मानव की हिंसाप्रधान और व्यभिचारपरायणप्रवृत्ति का जो दुष्परिणाम होता है, या होना चाहिए, उसी का दिग्दर्शन कराना ही इस चतुर्थ अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। 482 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः विचारशील पाठक इस अध्ययन के कथासंदर्भ से-हिंसा से विरत होकर भगवती अहिंसा के आराधन की तथा वासनापोषक प्रवृत्तियों को छोड़ कर सदाचार के सौरभ से मानस को सुरभित करने की शिक्षाएं प्राप्त कर अपने को दयालु अथच संयमी बनाने का श्लाघनीय प्रयत्न करेंगे, ऐसी भावना करते हुए हम प्रस्तुत अध्ययन के विवेचन से विराम लेते हैं। // चतुर्थ अध्याय समाप्त॥ प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [483 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह पंचमं अज्झयणं अथ पञ्चम अध्याय जिस प्रकार जड़ को सींचने से वृक्ष की सभी शाखा, प्रशाखा और पत्र आदि हरे-भरे रहते हैं, ठीक उसी प्रकार ब्रह्मचर्य के पालन से सभी अन्य व्रत भी आराधित हो जाते हैं अर्थात् .. इस के आराधन से तप, संयम आदि सभी अनुष्ठान सिद्ध हो जाते हैं। यह सभी व्रतों तथा नियमों का मूल-जड़ है, इस तथ्य के पोषक वचन श्री प्रश्नव्याकरण आदि सूत्रों में भगवान् ने अनेकानेक कहे हैं। जैसे ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन करना सरल नहीं है, उसी तरह ब्रह्मचर्य के विपक्षी मैथुन से होने वाली हानियां भी आसानी से नहीं कही जा सकती हैं। वीर्यनाश करने से शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक सभी प्रकार की शक्तियों का ह्रास होता है। बुद्धि मलिन हो जाती है एवं जीवन पतन के गढ़े में जा गिरता है, इत्यादि। यह अनुभव सिद्ध बात है कि जहां सूर्य की किरणें होंगी वहां प्रकाश अवश्य होगा और जहां प्रकाश का अभाव होगा वहां अन्धकार की अवस्थिति सुनिश्चित होगी। इसी भांति जहां ब्रह्मचर्य का दिवाकर चमकेगा, वहां आध्यात्मिक ज्योति की किरणें जगमगा उठेगी। इसके विपरीत दुराचार का जहां प्रसार होगा वहां अज्ञानान्धकार का भी सर्वतोमुखी साम्राज्य होगा। आध्यात्मिक प्रकाश में रमण करने वाला आत्मा कल्याणोन्मुखी प्रगति की ओर प्रयाण करता है, जब कि आज्ञानान्धकार में रमण करने वाला आत्मा चतुर्गतिरूप संसार में भटकता रहता है। गत चतुर्थ अध्ययन में शकट कुमार नाम के व्यभिचारपरायण व्यक्ति के जीवन का जो दिग्दर्शन कराया गया है, उस पर से यह बात अच्छी तरह से स्पष्ट हो जाती है। ___प्रस्तुत पांचवें अध्ययन में भी एक ऐसे ही मैथुनसेवी व्यक्ति के जीवन का परिचय कराया गया है, जो कि शास्त्र और लोक विगर्हित व्यभिचारपूर्ण जीवन बिताने वालों में से एक था। सूत्रकार ने इस कथासंदर्भ से मुमुक्ष-जनों को व्यभिचारमय प्रवृत्ति से सदा पराङ्मुख रहने का व्यतिरेक दृष्टि से पर्याप्त सद्बोध देने का अनुग्रह किया है। इस पांचवें अध्ययन का 484 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिम सूत्र इस प्रकार है ... मूल-पंचमस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी णामं नगरी होत्था, रि तत्थ णं कोसंबीए णगरीए सयाणीए णामं राया होत्था, महया। मियावती देवी। तस्स णं सयाणियस्स, पुत्ते मियावतीए अत्तए उदयणे णामं कुमारे होत्था, अहीण. जुवराया। तस्स णं उदयणस्स कुमारस्स पउमावती णामं देवी होत्था।तस्स णं सयाणियस्स सोमदत्ते नामं पुरोहिए होत्था, रिउव्वेयः। तस्सणं सोमदत्तस्स पुरोहियस्स वसुदत्ता णामं भारिया होत्था। तस्स णं सोमदत्तस्स पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए बहस्सइदत्ते नामं दारए होत्था, अहीण। छाया-पञ्चमस्योत्क्षेपः। एवं कौशाम्बी नाम नगर्यभवत्, कौशाम्ब्यां नगर्यां शतानीको नाम राजाऽभवत्, महा / मृगावती देवी। तस्य शतानीकस्य पुत्रो मृगावत्या आत्मजः उदयनो नाम कुमारोऽभूदहीन युवराजः। तस्योदयनस्य कुमारस्य पद्मावतीं नाम देव्यभवत् / तस्य शतानीकस्य सोमदत्तो नाम पुरोहितोऽभूत्, तस्य सोमदत्तस्य वसुंदत्ता नाम भार्याऽभूत्। तस्य सोमदत्तस्य पुत्रो वसुदत्ताया आत्मजो बृहस्पतिदत्तो नाम दारकोऽभूदहीन० / पदार्थ-पंचमस्स-पंचम अध्ययन का। उक्वो -उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भान्ति जान लेना चाहिए। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जम्बू !-हे जम्बू ! / तेणं कालेणं-उस काल में, तथा। तेणं समएणं-उस समय में। कोसंबी-कौशाम्बी। णाम-नाम की। णगरी-नगरी। होत्था-थी। रिद्ध-जो कि ऋद्ध-विशाल भवनादि के आधिक्य से युक्त थी, स्तिमित-आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों के भय से रहित तथा समृद्ध-धन धान्यादि से परिपूर्ण थी। बाहि-नगरी के बाहर।चन्दोत्तरणे-चन्द्रावतरण नामक / उजाणेउद्यान था। सेयभद्दे-श्वेतभद्र नामक। जक्खे-यक्ष था। तत्थ णं-उस। कोसंबीए-कौशाम्बी। णयरीएनगरी में। सयाणीए-शतानीक / णाम-नामक। राया-राजा। होत्था-था। महया-जो कि महान् हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। मियावती-मृगावती। देवी-देवी रानी थी। तस्स णं-उस।सयाणियस्सशतानीक का। पुत्ते-पुत्र। मियावतीए-मृगावती का। अत्तए-आत्मज। उदयणे-उदयन। णाम-नामक। कुमारे-कुमार। होत्था-था, जो कि। अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर वाला तथा। जुवरायायुवराज था। तस्स णं-उस। उदयणस्स-उदयन। कुमारस्स-कुमार की। पउमावती-पद्मावती। णामनाम की। देवी-देवी। होत्था-थी। तस्स णं-उस। सयाणियस्स-शतानीक का। सोमदत्ते-सोमदत्त। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [485 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाम-नामक। पुरोहिए-पुरोहित / होत्था-था, जो कि।रिउव्वेय०-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञाता था। तस्स णं-उस। सोमदत्तस्स-सोमदत्त। पुरोहियस्स-पुरोहित की। वसुदत्ता-वसुदत्ता। णाम-नाम की। भारिया-भार्या। होत्था-थी। तस्स णं-उस। सोमदत्तस्स-सोमदत्त का। पुत्ते-पुत्र। वसुदत्ताए-वसुदत्ता का। अत्तए-आत्मज। बहस्सइदत्ते-बृहस्पतिदत्त। णाम-नामक। दारए-बालक। होत्था-था। जो कि / अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर वाला था। ____मूलार्थ-पंचम अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की भावना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। हे जम्बू ! इस प्रकार निश्चय ही उस काल तथा उस समय कौशाम्बी नाम की ऋद्धभवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों के भय से शून्य, और समृद्धि से परिपूर्ण नगरी थी। उसके बाहर चन्द्रावतरण नाम का उद्यान था, उसमें श्वेतभद्र नामक यक्ष का स्थान था। उस कौशाम्बी नगरी में शतानीक नामक एक हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् प्रतापी राजा राज्य किया करता था। उस की . . मृगावती नाम की देवी-रानी थी। उस शतानीक का पुत्र और मृगावती का आत्मज उदयन नाम का एक कुमार था जो कि सर्वेन्द्रिय सम्पन्न अथच युवराज पद से अलंकृत था। उस उदयन कुमार की पद्मावती नाम की एक देवी थी। ___ उस शतानीक का सोमदत्त नाम का एक पुरोहित था जो कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का पूर्ण ज्ञाता था। उस सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता नाम की भार्या थी। तथा सोमदत्त का पुत्र और वसुदत्ता का आत्मज बृहस्पति दत्त नाम का एक सर्वांगसम्पन्न और रूपवान बालक था। टीका-विपाकश्रुत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन की समाप्ति के अनन्तर अब पांचवें अध्ययन का आरम्भ किया जाता है। इस का उत्क्षेप अर्थात् प्रस्तावना का अनुसंधान इस प्रकार है श्री जम्बू स्वामी ने अपने गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी की पुनीत सेवा में उपस्थित हो कर कहा कि भगवन् ! श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी ने निस्संदेह संसार पर महान् उपकार किया है। उन की समभावभावितात्मा ने व्यवहारगत ऊंच नीच के भेदभाव को मिटा कर सर्वत्र आत्मगत समानता की ओर दृष्टिपात करने का जो आचरणीय एवं आदरणीय आदर्श संसार के सामने उपस्थित किया है वह उन की मानवसंसार को अपूर्व देन है। प्रतिकूल भावना रखने वाले जनमान्य व्यक्तियों को अपने विशिष्ट ज्ञान और तपोबल से अनुकूल बना कर उनके द्वारा धार्मिक प्रदेश में जो समुचित प्रगति उत्पन्न की है वह उन्हीं को आभारी है, एवं परस्पर विरोधी साम्प्रदायिक विचारों को समन्वित करने के लिए जिस सर्वनयगामिनी प्रामाणिक दृष्टि 486 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दृष्टि का अनुसरण करने को विज्ञ जनता से अनुरोध करते हुए उस की भ्रान्त धारणाओं में समुचित शोधन कराने का सर्वतोभावी श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। भगवन् ! आप को तो उनके पुनीत दर्शन तथा मधुर वचनामृत के पान करने का सौभाग्य चिरकाल तक प्राप्त होता रहा है। इसके अतिरिक्त उन की पुण्य सेवा में रह कर उनके परम पावन चरणों की धूलि से मस्तक को स्पर्शित करके उसे यथार्थरूप में उत्तमांग बनाने का सद्भाग्य भी आप को प्राप्त है। इस लिए आप कृपा करें और बतलायें कि उन्होंने विपाकश्रुत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पांचवें अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ? क्योंकि उसके चतुर्थ अध्ययनगत अर्थ को तो मैंने आप श्री से श्रवण कर लिया है। अब मुझे आप से पांचवें अध्ययन के अर्थ को सुनने की इच्छा हो रही है। श्री जम्बू स्वामी ने अपनी जिज्ञासा की पूर्ति के लिए श्री सुधर्मा स्वामी से जो विनम्र निवेदन किया था, उसी को सूत्रकार ने उक्खेवो-उत्क्षेप- पद से अभिव्यक्त किया है। उत्क्षेप पद का अर्थ है-प्रस्तावना। प्रस्तावना रूप सूत्रपाठ निम्नोक्त है जति णं भन्ते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ? इन पदों का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है। जम्बू स्वामी की 'सानुरोध प्रार्थना पर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री वीरभाषित पंचम अध्ययन का अर्थ सुनाना आरम्भ किया जिस का वर्णन ऊपर मूलार्थ में किया जा चुका है, जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। -रिद्ध- यहां के बिन्दु से संसूचित पाठ तथा –महया-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ भी द्वितीय अध्याय में सूचित कर दिया गया है। तथा –अहीण जुवराया- यहां के बिन्दु से अपेक्षित-अहीण-पडिपुण्ण-पंचिंदिय-सरीरे-से लेकर -सुरूवे-यहां तक का पाठ भी द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। पाठक वहीं पर देख सकते हैं। . -रिउव्वेय०-यहां के बिन्दु से -जजुव्वेय-सामवेय-अथव्वणवेय-कुसले-इस पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। अर्थात् सोमदत्त पुरोहित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञाता था। अब सूत्रकार कौशाम्बी नगरी के बाहर चन्द्रावतरण उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने आदि का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहते हैं मूल-तेणं कालेणं 2 समणे भगवं महावीरे समोसरिए। तेणं कालेणं 2 भगवं गोतमे तहेव जाव रायमग्गं ओगाढे। तहेव पासति हत्थी, आसे, पुरिसे प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [487 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मझे पुरिसं। चिंता। तहेव पुच्छति। पुव्वभवं भगवं वागरेति। छाया-तस्मिन् काले 2 श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः। तस्मिन् काले 2 भगवान् गौतमः, तथैव यावद् राजमार्गमवगाढः। तथैव पश्यति हस्तिनः, अश्वान्, पुरुषान्, मध्ये पुरुषम् / चिन्ता। तथैव पृच्छति। पूर्वभवं भगवान् व्याकरोति / पदार्थ-तेणं कालेणं २-उस काल में तथा उस समय में। समणे-श्रमण। भगवं-भगवान् / महावीरे-महावीर स्वामी। समोसरिए-पधारे। तेणं कालेणं २-उस काल और उस समय। भगवंभगवान् / गोतमे-गौतम। तहेव-तथैव-उसी भान्ति / जाव-यावत्। रायमग्गं-राजमार्ग में। ओगाढे-पधारे। तहेव-तथैव-उसी तरह। हत्थी-हाथियों को। आसे-घोड़ों को। पुरिसे-पुरुषों को, तथा उन पुरुषों के। मज्झे-मध्य में। पुरिसं-एक पुरुष को। पासति-देखते हैं। चिन्ता-तद्दशासम्बन्धी चिन्तन करते हैं। तहेवतथैव-उसी प्रकार / पुच्छति-पूछते हैं। भगवं-भगवान्। पुव्वभवं-पूर्वभव का। वागरेति-वर्णन करते हैं। मूलार्थ-उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कौशाम्बी नगरी के बाहर चन्द्रावतरण नामक उद्यान में पधारे। उस समय भगवान् गौतम स्वामी पूर्ववत् कौशाम्बी नगरी में भिक्षार्थ गए और राजमार्ग में पधारे।वहां हाथियों, घोड़ों और पुरुषों को तथा उन पुरुषों के मध्य में एक वध्य पुरुष को देखते हैं, उसको देख कर मन में चिन्तन करते हैं और वापस आकर भगवान से उसके पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछते हैं। तब भगवान् उसके पूर्वभव का इस प्रकार वर्णन करने लगे। ' टीका-प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उद्यान में पधारने पर उनके पुण्य दर्शन के लिए नगर की भावुक जनता और शतानीक नरेश आदि का आगमन, तथा वीर प्रभु का उनको धर्मोपदेश देना, एवं गौतम स्वामी का भगवान् से आज्ञा लेकर कौशाम्बी नगरी में भिक्षार्थ पधारना और वहां राजमार्ग में श्रृंगारित हाथियों, सुसज्जित घोड़ों तथा शस्त्रसन्नद्ध सैनिकों और उनके मध्य में अवकोटकबन्धन से बन्धे हुए एक अपराधी पुरुष को देखना तथा उसे देख कर मन में उस की दशा का चिन्तन करना और भिक्षा लेकर वापस आने पर भगवान् से उक्त घटना और उत्पन्न होने वाले अपने मानसिक संकल्प का निवेदन करना, एवं निवदेन करने के बाद उक्त पुरुष के पूर्व भव को जानने की इच्छा का प्रकट करना, आदि सम्पूर्ण वर्णन पूर्व अध्ययनों में दिए गए वर्णन के समान ही जान लेना चाहिए। सारांश यह है कि पूर्व के अध्ययनों में यह सम्पूर्ण वर्णन विस्तार-पूर्वक आ चुका है। उसी के स्मरण कराने के लिए यहां पर -तहेव-इस पद का उल्लेख कर दिया गया है, जिस से प्रतिपाद्य विषय की अवगति भी हो जाए और विस्तार भी रुक जाए, एवं पिष्टपेषण भी न होने पावे। ___-तहेव जाव रायमग्गं- यहां के जाव-यावत् पद से विवक्षित पाठ की सूचना 488 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय में कर दी गई है। परन्तु इतना ध्यान रहे कि वहां पुरिमताल नगर का नामोल्लेख है, जब कि यहां कौशाम्बी नगरी का। शेष वर्णन सम ही है। 5. मूल में पढ़े गए चिन्ता शब्द "-तते णं से भगवओ गोतमस्स तं पुरिसं पासित्ता इमे अज्झत्थिए 5 समुप्पज्जित्था, अहो णं इमे पुरिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं वेदेति" इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ तथा तहेव-पद से जो विवक्षित है उस का उल्लेख द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि यहां कौशाम्बी नगरी का। तथा वहां श्री गौतम स्वामी ने वाणिजग्राम के राजमार्ग पर देखे दृश्य का वर्णन भगवान् को सुनाया था जब कि यहां कौशाम्बी नगरी के राजमार्ग पर देखे हुए दृश्य का। शेष वर्णन समान ही है। _अब सूत्रकार गौतमस्वामी द्वारा कौशाम्बी नगरी के राजमार्ग पर देखे गए एक वध्य व्यक्ति के पूर्वभवसम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया उसका वर्णन करते मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं 2 इहेव जम्बहीवे दीवे भारहे वासे सव्वओभद्दे णामं णगरे होत्था, रिद्ध / तत्थ णं सव्वओभद्दे णगरे जितसत्तू णामं राया होत्था। तस्स णं जितसत्तुस्स रण्णो महेसरदत्ते नामं पुरोहिए होत्था। रिउव्वेय-जजुव्वेय-सामवेय-अथव्वणवेय-कुसले यावि होत्था। तते णं से महेसरदत्ते पुरोहिते जितसत्तुस्स रण्णो रज्जबलविवद्धणट्ठाए कल्लाकल्लिं एगमेगं माहणदारगं एगमेगं खत्तियदारगं एगमेगं वइस्सदारगं एगमेगं सुद्ददारगं गेण्हावेति 2 त्ता तेसिं जीवंतगाणं चेव हिययउंडए गेण्हावेति 2 त्ता जितसत्तुस्स रण्णो संतिहोमं करेति, तते णं से महेसरदत्ते पुरोहिते अट्ठमीचउद्दसीसु दुवे 2 माहण-खत्तिय-वेस्स-सुद्द-दारगे, चउण्हं मासाणं चत्तारि 2, छण्हं मासाणं अट्ठ 2, संवच्छरस्स सोलस 2 / जाहे वि य णं जितसत्तू राया परबलेणं अभिजुज्झति ताहे-ताहे वि यणं से महेसरदत्ते पुरोहिए अट्ठसयं माहणदारगाणं, अट्ठसयं खत्तियदारगाणं, अट्ठसयं वइस्सदारगाणं, अट्ठसयं सुद्ददारगाणं पुरिसेहिं गिण्हावेति 2 तेहिं जीवंतगाणं चेव हिययउंडए गेण्हावेति 2 जितसत्तुस्स रण्णो संतिहोमं करेति, तते णं से परबलं खिप्पामेव विद्धंसेति वा पडिसेहिज्जति वा। छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले 2 इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [489 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वतोभद्रं नाम नगरमभवत्, ऋद्ध / तत्र सर्वतोभद्रे नगरे जितशत्रुर्नाम राजाऽभूत्। तस्य जितशत्रोः राज्ञः महेश्वरदत्तो नाम पुरोहितोऽभूत् ऋग्वेद-यजुर्वेद-सामवेदअथर्वणवेदकुशलश्चाप्यभवत् / ततः स महेश्वरदत्तः पुरोहितः जितशत्रोः राज्ञः राज्यबलविवर्धनाय कल्याकल्यि एकैकं ब्राह्मणदारकम् , एकैकं क्षत्रिय दारकम्, एकैकं वैश्यदारकम्, एकैकं शूद्रदारकं ग्राहयति 2 तेषां जीवतामेव हृदयमांसपिंडान् ग्राहयति 2 जितशत्रोः राज्ञः शान्तिहोमं करोति। ततः स महेश्वरदत्तः पुरोहितः अष्टमीचतुर्दशीषु द्वौ 2 ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्रदारको, चतुर्दा मासेषु चतुरः 2, षटसु मासेषु अष्ट 2, संवत्सरे षोडश 2 / यदा कदापि च जितशत्रुः राजा परबलेनापि युध्यते तदा तदापि च स महेश्वरदत्तः पुरोहितः अष्टशतं ब्राह्मणदारकाणाम्, अष्टशतं क्षत्रियदारकाणाम्, अष्टशतं वैश्यदारकाणाम् अष्टशतं शूद्रदारकाणाम् पुरुषैाहयति 2 तेषां जीवितामेव हृदयमांसपिंडान् ग्राहयति 2 जितशत्रोः राज्ञः शान्तिहोमं करोति / ततः स परबलं क्षिप्रमेव विध्वंसयति वा प्रतिषेधयति वा। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! तेणं कालेणं-उस काल और उस समय। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत / भारहे वासे-भारत वर्ष में। सव्वओभद्दे-सर्वतोभद्र। णाम-नामक। णगरे-नगरे। होत्था-था। रिद्ध-जो ऋद्ध-भवनादि की बहुलता से युक्त, स्तिमित-आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों के भय से रहित तथा समृद्ध-धन धान्यादि की समृद्धि से परिपूर्ण था। तत्थ णं-उस। सव्वओभद्दे-सर्वतोभद्र। णगरे-नगर में। जितसत्तू-जितशत्रु / णाम-नामक। राया-राजा।होत्था-था। तस्सणं-उस।जितसत्तुस्स-जितशत्रु / रण्णो-राजा का। महेसरदत्तेमहेश्वरदत्त। णाम-नामक। पुरोहिए-पुरोहित। होत्था-था, जो कि। रिउव्वेय-जजुव्वेय-सामवेयअथव्वणवेय-कुसले यावि-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद में भी कुशल। होत्था-था। तते णं- तदनन्तर / से-वह। महेसरदत्ते-महेश्वरदत्त / पुरोहिते-पुरोहित। जितसत्तुस्स-जितशत्रु / रण्णो-राजा के। रज्ज-राज्य, तथा। बल-बल-शक्ति। विवद्धणट्ठाए-विवर्द्धन के लिए। कल्लाकल्लिं-प्रतिदिन / एगमेगं-एक 2 / माहणदारगं-ब्राह्मण बालक। एगमेगं-एक 2 / खत्तियदारगं-क्षत्रिय बालक। एगमेगंएक 2 / वइस्सदारगं-वैश्य बालक। एगमेगं-एक 2 / सुद्ददारगं-शूद्र बालक को। गेण्हावेति-पकड़वा लेता है। 2 त्ता-पकड़वा कर। तेसिं-उन का। जीवंतगाणं चेव-जीते हुओं का ही। हिययउंडए-हृदयों के मांसपिंडों को। गेण्हावेति २-ग्रहण करवाता है, ग्रहण करवा के / जितसत्तुस्स-जितशत्रु / रण्णो-राजा के निमित्त / संतिहोम-शांतिहोम। करेति-करता है। तते णं-तदनन्तर। से-वह। महेसरदत्ते-महेश्वरदत्त / पुरोहिते-पुरोहित। अट्ठमीचउद्दसीसु-अष्टमी और चतुर्दशी को। दुवे २-दो दो। माहण-ब्राह्मण। खत्तिय 1. रिद्ध-यहां के बिन्दु से संसूचित पाठ की सूचना पहले दी जा चुकी है। 490 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रिय। वेस्स-वैश्य, तथा। सुद्ददारगे-शुद्र बालकों को। चउण्हं मासाणं-चार मास में। चत्तारि २-चारचार। छण्हं मासाणं-छ: मास में। अट्ठ २-आठ-आठ। संवच्छरस्स-वर्ष में। सोलस 2- सोलह 2 / जाहे ज़ाहे वि य णं-और जब 2 भी। जितसत्तू राया-जितशत्रु राजा। परबलेणं-परबल-शत्रुसेना के साथ। अभिजुज्झति-युद्ध करता था। ताहे ताहे वि य णं-तब तब ही। से-वह / महेसरदत्ते-महेश्वरदत्त / पुरोहिते-पुरोहित। अट्ठसयं-१०८ / माहणदारगाणं-ब्राह्मण बालकों। अट्ठसयं-१०८। खत्तियदारगाणंक्षत्रिय बालकों / अट्ठसयं-१०८ / वइस्सदारगाणं-वैश्य बालकों तथा। अट्ठसयं-१०८ / सुद्ददारगाणं-शूद्र बालकों को। पुरिसेहि-पुरुषों के द्वारा। गेण्हावेति २-पकड़वा लेता है, पकड़वा कर / जीवंतगाणं चेवजीते हुए। तेसिं-उन बालकों के / हिययउंडए-हृदयसम्बन्धी मांसपिंडों का। गेण्हावेति २-ग्रहण करवाता है, ग्रहण करवा के। जितसत्तुस्स-जितशत्रु / रण्णो-राजा के लिए। संतिहोम-शांतिहोम। करेति-करता है। तते णं-तदनन्तर। से-वह-जितशत्रु नरेश। परबलं-परबल-शत्रुसेना का। खिप्पामेव-शीघ्र ही। विद्धंसेति-विध्वंस कर देता था। वा-अथवा। पडिसेहिज्जति वा-शत्रु का प्रतिषेध कर देता था, अर्थात् उसे भगा देता था। मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में सर्वतोभद्र नाम का एक भवनादि के आधिक्य से युक्त, आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों से रहित तथा धन धान्यादि से परिपूर्ण नगर था। उस सर्वतोभद्र नामक नगर में जितशत्रु नाम का एक महा प्रतापी राजा राज्य किया करता था। उस जितशत्रु राजा का महेश्वरदत्त नाम का एक पुरोहित था जो कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों वेदों का पूर्ण ज्ञाता था। - महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु राजा के राज्य और बल की वृद्धि के लिए प्रतिदिन एक-एक ब्राह्मण बालक, एक-एक क्षत्रिय बालक, एक-एक वैश्य बालक और एक-एक शूद्र बालक को पकड़वा लेता था, पकड़वा कर जीते जी उन के हृदयों के मांसपिंडों को ग्रहण करवाता था, ग्रहण करवा कर जितशत्रु राजा के निमित्त उन से शान्तिहोम किया करता था। तदनन्तर वह पुरोहित अष्टमी और चतुर्दशी में दो-दो बालकों, चार मास में चार-चार बालकों, छः मास में आठ-आठ बालकों और संवत्सर में सोलह-सोलह बालकों के हृदयों के मांसपिंडों से शान्तिहोम किया करता। तथा जब-जब जितशत्रु नरेश का किसी अन्य शत्रु के साथ युद्ध होता तब-तब वह-महेश्वरदत्त पुरोहित 108 ब्राह्मण बालकों, 108 क्षत्रिय बालकों, 108 वैश्य बालकों और 108 शूद्र बालकों को अपने पुरुषों के द्वारा पकड़वा कर उन के जीते जी हृदयगत मांस-पिंडों को निकलवा कर जितशत्रु नरेश के निमित्त शान्तिहोम करता। उस के प्रभाव से जितशत्रु नरेश शीघ्र ही शत्रु का विध्वंस कर देता या उसे भगा देता। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय , [491 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-जिज्ञासा की पूर्ति हो जाने पर जिज्ञासु शान्त अथच निश्चिन्त हो जाता है। उस की जिज्ञासा जब तक पूरी न हो ले तब तक उसकी मनोवृत्तियां अशान्त और निर्णय की उधेड़बुन में लगी रहती हैं। भगवान् गौतम के हृदय की भी यही दशा थी। राजमार्ग में अवलोकित वध्य पुरुष को नितान्त शोचनीय दशा की विचार-परम्परा ने उन के हृदय में एक हलचल सी उत्पन्न कर रखी थी। वे उक्त पुरुष के पूर्वभव-सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने के लिए बड़े उत्सुक हो रहे थे, इसीलिए उन्होंने भगवान् से सानुरोध प्रार्थना की, जिस का कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है। तदनन्तर गौतम स्वामी की उक्त अभ्यर्थना की स्वीकृति मिलने में अधिक विलम्ब नहीं हुआ। परम दयालु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने परमविनीत शिष्य श्री गौतम अनगार की जिज्ञासापूर्ति के निमित्त उक्त वध्य पुरुष के पूर्वभव का वर्णन इस प्रकार आरम्भ किया। भगवान् बोले ___ गौतम ! इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में सर्वतोभद्र नाम का एक समृद्धिशाली सुप्रसिद्ध नगर था। उस में जितशत्रु नाम का एक महा प्रतापी राजा राज्य किया करता था। उस का महेश्वरदत्त नाम का एक पुरोहित था जोकि शास्त्रों का विशेष पण्डित था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का विशेष ज्ञाता माना जाता था। महाराज जितशत्रु की महेश्वरदत्त पर बड़ी कृपा थी। राजपुरोहित महेश्वरदत्त भी महाराज जितशत्रु के राज्य विस्तार और बलवृद्धि के लिए उचितानुचित सब कुछ करने को सन्नद्ध रहता था। इस सम्बन्ध में वह धर्माधर्म या पुण्यपाप का कुछ भी ध्यान नहीं किया करता था। संसार में स्वार्थ एक ऐसी वस्तु है कि जिस की पूर्ति का इच्छुक मानव प्राणी गर्हित से गर्हित आचरण करने से भी कभी संकोच नहीं करता। स्वार्थी मानव के हृदय में दूसरों के हित की अणुमात्र-जरा भी चिन्ता नहीं होती, अपना स्वार्थ साधना ही उस के जीवन का महान् लक्ष्य होता है। अधिक क्या कहें, संसार में सब प्रकार के अनर्थों का मूल ही स्वार्थ है। स्वार्थ के वशीभूत होता हुआ मानव व्यक्ति कहां तक अनर्थ करने पर उतारू हो जाता है इस के लिए महेश्वर दत्त पुरोहित का एक ही उदाहरण पर्याप्त है। उस के हाथ से कितने अनाथ, सनाथ बालकों का प्रतिदिन विनाश होता और जितशत्रु नरेश के राज्य और बल को स्थिर रखने तथा प्रभावशाली बनाने के निमित्त वह कितने बालकों की हत्या करता एवं जीते जी उन के हृदयगत मांसपिंडों को निकलवा कर अग्निकुण्ड में होमता हुआ कितनी अधिक क्रूरता का परिचय देता है, यह प्रस्तुत सूत्र में उल्लेख किए गए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति के बालकों के वृत्तान्त से भलीभान्ति जाना जा सकता है। इस के अतिरिक्त जो व्यक्ति बालकों का जीते 492] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी कलेजा निकाल कर उसे अपनी किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिए उपयोग में लाता है, वह मानव-है या राक्षस इस का निर्णय विज्ञ पाठक स्वयं कर सकते हैं। सूत्रगत वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय मानव प्राणी का जीवन तुच्छ पशु के जीवन जितना भी मूल्य नहीं रखता था और सब से अधिक आश्चर्य तो इस बात का है कि इस प्रकार की पापपूर्ण प्रवृति का विधायक एक वेदज्ञ ब्राह्मण था। चारों वर्गों में से प्रतिदिन एक-एक बालक की, अष्टमी और चतुर्दशी में दो-दो, चतुर्थ मास में चार-चार तथा छठे मास में आठ-आठ और सम्वत्सर में सोलह-सोलह बालकों की बलि देने वाला पुरोहित महेश्वरदत्त मानव था या दानव इस का निर्णय भी पाठक स्वयं ही करें। ... उस की यह नितान्त भयावह शिशुघातक प्रवृत्ति इतनी संख्या पर ही समाप्त नहीं हो जाती थी, किन्तु जिस समय जितशत्रु नरेश को किसी अन्य शत्रु के साथ युद्ध करने का अवसर प्राप्त होता तो उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रत्येक वर्ण के 108 बालकों के हृदयगत मांसपिंडों को निकलवा कर उन के द्वारा शान्तिहोम किया जाता। इस के अतिरिक्त सूत्रगत वर्णन को देखते हुए तो यह मानना पड़ेगा कि ऐहिक स्वार्थ के चंगुल में फंसा हुआ मानव प्राणी भयंकर से भयंकर अपराध करने से भी नहीं झिझकता। फिर भविष्य में उस का चाहे कितना भी अनिष्टोत्पादक परिणाम क्यों न हो ? तात्पर्य यह है कि नीच स्वार्थी से जो कुछ भी अनिष्ट बन पड़े, वह कम है। . महेश्वरदत्त के इस हिंसाप्रधान होम-यज्ञ के अनुष्ठान से जितशत्रु नरेश को अपने शत्रुओं पर सर्वत्र विजय प्राप्त होती, और उसके सन्मुख कोई शत्रु खड़ा न रह पाता था। या तो वहीं पर नष्ट हो जाता या परास्त हो कर भाग जाता। इसी कारण महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु नरेश का सर्वाधिक सन्मानभाजन बना हुआ था, और राज्य में उस का काफी प्रभाव था। ...यहां पर संभवतः पाठकों के मन में यह सन्देह अवश्य उत्पन्न होगा कि जब शास्त्रों में जीववध का परिणाम अत्यन्त कटु वर्णित किया गया है, और सामान्य जीव की हिंसा भी इस जीव को दुर्गति का भाजन बना देती है तो उक्त प्रकार की घोर हिंसा के आचरण में कार्यसाधकता कैसे ? फिर वह हिंसा भी शिशुओं की एवं शिशु भी चारों वर्गों के ? तात्पर्य यह है कि जिस आचरण से यह मानव प्राणी परभव में दुर्गति का भाजन बनता है, उस के अनुष्ठान से ऐहिक सफलता मिले अर्थात् अभीष्ट कार्य की सिद्धि सम्पन्न हो, यह एक विचित्र समस्या है, जिस के असमाहित रहने पर मानव हृदय का संदेह की दलदल में फंस जाना अस्वाभाविक नहीं है। - यद्यपि सामान्य दृष्टि से इस विषय का अवलोकन करने वाले पाठकों के हृदय में उक्त प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [493 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार के सन्देह का उत्पन्न होना सम्भव हो सकता है, परन्तु यदि कुछ गम्भीरता से इस विषय . की ओर ध्यान दिया जाए तो उक्त संदेह को यहां पर किसी प्रकार का भी अवकाश नहीं रहता। हिंसक या सावध प्रवृत्ति से किसी ऐहिक कार्य का सिद्ध हो जाना कुछ और बात है तथा हिंसाप्रधान अनुष्ठान का कटु परिणाम होना, यह दूसरी बात है। हिंसा-प्रधान अनुष्ठान से मानव को अपने अभीष्ट कार्य में सफलता मिल जाने पर भी हिंसा करते समय उस ने जिस पाप कर्म का बन्ध किया है उस के विपाकोदय में मानव को उस के कटु फल का अनुभव करना ही पड़ेगा। उससे उस का छुटकारा बिना भोगे नहीं हो सकता। ___ आयुर्वेदीय प्रामाणिक ग्रन्थों में राजयक्ष्मा आदि तपेदिक कतिपय रोगों की निवृत्ति के लिए कपोत प्रभृति अनेक कितनेक जंगली जीवों के मांस का विधान किया गया है। तथा वहां-उक्त जीवों के मांसरस के प्रयोग करने से रोगी का रोग दूर हो जाता है-ऐसा भी लिखा है। परन्तु रोगमुक्त हो जाने पर भी उन जीवों की हिंसा करने से उस समय रोगी पुरुष ने जिस प्रकार के पाप कर्म का बन्ध किया है, उस का फल भी उसे इस भव या परभव में अवश्य भोगना पड़ेगा। इसी प्रकार महेश्वरदत्त के इस हिंसाप्रधान पापानुष्ठान से जितशत्रु को परबल में विजयलाभ हो जाने पर भी उस भयानक हिंसाचरण का जो कटुतम फल है, वह भी उसे अवश्य भोगना पड़ेगा। इसलिए कार्यसाधक होने पर भी हिंसा, हिंसा ही रहती है और उस के विधायक को वह नरकद्वार का अतिथि बनाए बिना कभी नहीं छोड़ती। जिस का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत अग्रिम सूत्र में महेश्वरदत्त का मृत्यु के अनन्तर पांचवीं नरक में जाना वर्णित है। दूसरे शब्दों में कहें तो साधक की हिंसामूलक प्रवृत्ति जहां उस के ऐहिक स्वार्थ को सिद्ध करती है वहां उस का अधिक से अधिक अनिष्ट भी सम्पादन करती है। हिंसाजन्य वह कार्यसिद्धि उसी व्यवसाय के समान है कि जिस में लाभ एक रुपये का और हानि सौ रुपये की होती है। कोई भी बुद्धिमान व्यापारी ऐसा व्यवसाय करने को तैयार नहीं हो सकता, जिस में लाभ की अपेक्षा नुकसान सौ गुना अधिक हो। तथापि यदि कोई ऐसा व्यवसाय करता है वह या तो मूर्ख और जड़ है, या वह उक्त व्यवसाय से प्राप्त होने वाली हानि से सर्वथा अनभिज्ञ है। सांसारिक विषय-वासना के विकट जाल में उलझे हुए संसारी जीव अपने नीच स्वार्थ में अन्धे होकर यह नहीं समझते कि जो काम हम कर रहे हैं, इस का हमारी आत्मा के ऊपर क्या प्रभाव होगा। अगर उन्हें अपनी कार्य-प्रवृत्ति में इस बात का भान हो जाए तो वे कभी भी उस में प्रवृत्त होने का साहस न करें। विष के अनिष्ट परिणाम का जिसे सम्यग् ज्ञान है, वह कभी उसे भक्षण करने का साहस नहीं करता, यदि कोई करता भी है तो वह कोई मूर्ख ही हो सकता - 494 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत सूत्र में -सन्तिहोम-शान्तिहोमम्-इस पद का प्रयोग किया गया है। शान्ति के लिए.किया गया होम शान्तिहोम कहलाता है। होम का अर्थ है-किसी देवता के निमित्त मंत्र पढ़ कर घी, जौ, तिल आदि को अग्नि में डालने का कार्य। प्रस्तुत कथा-संदर्भ में लिखा है कि महेश्वरदत्त पुरोहित शान्ति-होम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्गों के अनेकानेक बालकों के हृदयगत मांस-पिंडों की आहुति डाला करता था, जो उस के उद्देश्य को सफल बनाने का कारण बनती थी। यहां यह प्रश्न होता है कि शान्तिहोम जैसे हिंसक और अधर्मपूर्ण अनुष्ठान से कार्यसिद्धि कैसे हो जाती थी, अर्थात् हिंसापूर्ण होम का और जितशत्रु नरेश के राज्य और बल की वृद्धि तथा युद्धगत विजयं का परस्पर में क्या सम्बन्ध रहा हुआ है, इस प्रश्न का उत्तर निम्नोक्त है शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि कार्य की सिद्धि में जहां अनेकों कारण उपस्थित होते हैं, वहां देवता भी कारण बन सकता है। देव दो तरह के होते हैं-एक मिथ्यादृष्टि और दूसरे सम्यग्दृष्टि / सम्यग्दृष्टि देव सत्य के विश्वासी और अहिंसा, सत्य आदि अनुष्ठानों में धर्म मानने वाले जब कि मिथ्यादृष्टि देव सत्य पर विश्वास न रखने वाले तथा अधर्मपूर्ण विचारों वाले होते हैं। मिथ्यादृष्टि देवों में भी कुछ ऐसे वाणव्यन्तर आदि देव पाए जाते हैं जो अत्यधिक हिंसाप्रिय होते हैं और मांस आदि की बलि से प्रसन्न रहते हैं। ऐसे देवों के उद्देश्य से जो पशुओं या मनुष्यों की बलि दी जाती है, उस से वे प्रसन्न होते हुए कभी-कभी होम करने वाले व्यक्ति की अभीष्ट सिद्धि में कारण भी बन जाते हैं। फिर भले ही उन देवों की कारणता तथा तज्जन्य कार्यता भीषण दुर्गति को प्राप्त कराने का हेतु ही क्यों न बनती हो। महेश्वरदत्त पुरोहित भी इसी प्रकार के हिंसाप्रिय एवं मांसप्रिय देवताओं का जितशत्रु नरेश के राज्य और बल की वृद्धि के लिए आराधन किया करता था और उन की प्रसन्नता के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्गों के अनेकानेक बालकों के हृदयगत मांसपिंडों की बलि दिया करता था। यह ठीक है कि उस होम द्वारा देवप्रभाव से वह अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर लेता था, परन्तु उसकी यह सावधप्रवृत्तिजन्य भौतिक सफलता उस के जीवन के पतन का कारण बनी और उसी के फलस्वरूप उसे पांचवीं नरक में 17 सागरोपम जैसे बड़े लम्बे काल के लिए भीषणातिभीषण नारकीय यातनाएं भोगने के लिए जाना पड़ा। मर्त्यलोक में भी शासन के आसन पर विराजमान रहने वाले मानव के रूप में ऐसे अनेकानेक दानव अवस्थित हैं, जो मांस और शराब की बलि (रिश्वत) से प्रसन्न होते हैं, और हिंसापूर्ण प्रवृत्तियों में अधिकाधिक प्रसन्न रहते हैं। ऐसे दानव भी प्रायः मांस आदि की बलि लेने पर ही किसी के स्वार्थ को साधते हैं। जब मनुष्य संसार में ऐसी घृणित एवं गर्हित स्थिति प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [495 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध होती है तो दैविक संसार में अन्यायपूर्ण विचारों के धनी देव-दानवों में इस प्रकार : की जघन्य स्थिति का होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में इस कथासंदर्भ के संकलन करने का यही उद्देश्य प्रतीत होता है कि मानव प्राणी नीच स्वार्थ के वश होता हआ ऐसी जघन्यतम हिंसापूर्ण प्रवृत्तियों से सदा अपने को विरत रखे और भूल कर भी अधर्मपूर्ण कामों को अपने जीवन में न लाए, अन्यथा महेश्वरदत्त पुरोहित की भान्ति भीषण नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ-साथ उसे जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवाहित होना पड़ेगा। हिययउंडए-यहां प्रयुक्त उण्डए यह पद देशीय भाषा का है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ हृदयसम्बन्धी मांसपिण्ड-ऐसा किया है, जो कि कोषानुमत भी है। हिययउंडए त्ति-हृदयमांसपिण्डान्। प्रस्तुत सूत्र में जितशत्रु नरेश के सम्मानपात्र महेश्वरदत्त नामक पुरोहित के जघन्यतम पापाचार का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार उसके भयंकर परिणाम का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं मूल-तते णं से महेसरदत्ते पुरोहिते एयकम्मे 4 सुबहुं पावकम्म समज्जिणित्ता तीसं वाससयाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा पंचमीए पुढवीए उक्कोसेणं सत्तरससागरोवमट्ठितिए नरगे उववन्ने। छाया-ततः स महेश्वरदत्तः पुरोहितः एतत्कर्मा 4 सुबहु पापकर्म समW त्रिंशतं वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा पञ्चम्यां पृथिव्यामुत्कर्षेण सप्तदशसागरोपमस्थितिके नरके उपपन्नः। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / से-वह / महेसरदत्ते-महेश्वरदत्त / पुरोहिते-पुरोहित। एयकम्मे ४एतत्कर्मा-इस प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, एतत्प्रधान-इन कर्मों में प्रधान, एतद्विद्य-इन्हीं कर्मों की विद्या जानने वाला और एतत्समाचार-इन्हीं पाप कर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाने वाला। सुबहुं-अत्यधिक। पावकम्मं-पाप कर्म को। समज्जिणित्ता-उपार्जित कर। तीसं वाससयाई-तीन हजार वर्ष की। परमाउं-परमाय को। पालइत्ता-पाल कर-भोग कर।कालमासे-कालावसर में। कालं किच्चाकाल करके। पंचमीए-पांचवीं। पुढवीए-पृथिवी-नरक में। उक्कोसेणं-उत्कृष्ट-अधिक से अधिक। सत्तरससागरोवमट्ठितिए-सप्तदश सागरोपम की स्थिति वाले। नरगे-नरक में। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। मूलार्थ-तदनन्तर एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विज्ञान और एतत्समाचार वह महेश्वरदत्त पुरोहित नाना प्रकार के पापकर्मों का संग्रह कर तीन हजार वर्ष की परमायु 1. इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय के टिप्पण में लिखा जा चुका है। श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध 496 ] Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाल.कर-भोग कर पांचवीं नरक में उत्पन्न हुआ, वहां उसकी स्थिति सतरह सागरोपम की होगी। टीका-"हिंसा" यह संस्कृत और प्राकृत भाषा का शब्द है। इस का अर्थ होता हैमारना, दुःख देना तथा पीड़ित करना। हिंसा करने वाला हिंसक मानव प्राणी हिंसा के आचरण द्वारा जहां इस लोक में अपने जीवन को नष्ट कर देता है, वहां वह अपने परभव को भी बिगाड़ लेता है। तात्पर्य यह है कि शुभ गति का बन्ध करने के स्थान में वह अशुभ गति का बन्ध करता है, और पंडितमरण के स्थान में बालमृत्यु को प्राप्त होता है। महाराज जितशत्रु नरेश.का पुरोहित महेश्वरदत्त भी उन्हीं व्यक्तियों में से एक है जो हिंसामूलक जघन्य प्रवृत्तियों से अपनी आत्मा का सर्वतोभावी पतन करने में अग्रसर होता है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर नीच चाण्डाल के समान कुकृत्य करने वाला राजपुरोहित महेश्वरदत्त अपनी घोरतम हिंसक प्रवृत्ति से विविध भान्ति के पापकर्मों का उपार्जन करके 3000 वर्ष की आयु भोग कर मृत्यु के अनन्तर पूर्वोपार्जित पापकर्मों के प्रभाव से पांचवीं नरक में उत्पन्न हुआ। जोकि उसके हिंसाप्रधान आचरण के सर्वथा अनुरूप ही था। इसी लिए उसे पांचवीं नरक में सतरह सागरोंपम तक भीषण यातनाओं के उपभोग के लिए जाना पड़ा है। _महेश्वरदत्त पुरोहित का पापाचारप्रधान जीव पांचवीं नरक की कल्पनातीत वेदनाओं का अनुभव करता हुआ नरकायु की अवधि समाप्त होने के अनन्तर कहां पर उत्पन्न हुआ, तथा वहां पर उसने अपनी जीवनयात्रा को कैसे बिताया, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं... मूल-से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव कोसंबीए णयरीए सोमदत्तस्स पुरोहितस्स वसुदत्ताए भारियाए पुत्तत्ताए उववन्ने। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो निव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं नामधिजं करेंति। जम्हा णं अम्हं इमे दारए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए तम्हा णं होउ अम्हं दारए बहस्सतिदत्ते नामेणं। तते णं से बहस्सतिदत्ते दारए पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति। तते णं से बहस्सतिदत्ते उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुप्पत्ते विण्णायपरिणयमेत्ते होत्था, से णं उदयणस्स कुमारस्स पियबालवयंसे यावि होत्था, सहजायए, सहवड्ढिए, सहपंसुकीलियए। तते णं से सयाणीए राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते। तते णं से उदयणे कुमारे बहूहिं राईसर० जाव सत्थवाहप्पभितीहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे, कंदमाणे, विलवमाणे सयाणियस्स रण्णो महया इड्ढिसक्कारसमुदएणं णीहरणं करेति 2 त्ता बहूइं प्रथम श्रुतस्कंध ] [497 श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय . Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोइयाइं मयकिच्चाई करेति। तते णं ते बहवे राईसर जाव सत्थवाहा उदयणं कुमारं महया 2 रायाभिसेगेणं अभिसिंचंति। तते णं से उदयणे कुमारे राया जाते महया।तते णं बहस्सतिदत्ते दारए उदयणस्स रण्णो पुरोहियकम्मं करेमाणे सव्वट्ठाणेसु, सव्वभूमियासु, अंतेउरे य दिण्णवियारे जाते यावि होत्था।तते णं से बहस्सतिदत्ते पुरोहिते उदयणस्स रण्णो अंतेउरं वेलासु य अवेलासु य काले य अकाले य राओ य वियाले य पविसमाणे अन्नया कयाइ पउमावतीए देवीए सद्धि उरालाई भुंजेमाणे विहरति।इमं चणं उदयणे राया हाए जाव विभूसिए जेणेव पउमावती देवी तेणेव उवागच्छइ 2 बहस्सतिदत्तं पुरोहितं पउमावतीए देवीए सद्धिं उरालाइं० भुंजेमाणं पासति 2 त्ता आसुरुत्ते तिवलियं णिडाले साहट्ट बहस्सतिदत्तं पुरोहितं पुरिसेहिं गेण्हावेति 2 त्ता जाव एतेणं विहाणेणं वझं आणवेति। एवं खलु गोतमा ! बहस्सतिदत्ते पुरोहिते पुरा पुराणाणं जाव विहरति। ___ छाया-स ततोऽनन्तरमुढत्य इहैव कौशाम्ब्यां नगर्यां सोमदत्तस्य पुरोहितस्य वसुदत्तायां भार्यायां पुत्रतयोपपन्नः। ततस्तस्य दारकस्याम्बापितरौ निर्वृत्तद्वादशाहस्य इदमेतद्रूपं नामधेयं कुरुतः-यस्मादस्माकमयं दारकः सोमदत्तस्य पुरोहितस्य पुत्रो वसुदत्ताया आत्मजः तस्माद् भवत्वस्माकं दारको बृहस्पतिदत्तो नाम्ना। ततः स बृहस्पतिदत्तो दारकः पंचधात्रीपरिगृहीतो यावत् परिवर्धते। ततः स बृहस्पतिदत्तः उन्मुक्तबालभावो यौवनकमनुप्राप्तः विज्ञात-परिणतमात्रः अभवत्। स उदयनस्य कुमारस्य प्रियबालवयस्यश्चाप्यभवत्, सहजातः, सहवृद्धः सहपांसुक्रीडितः। ततः स शतानीको राजा अन्यदा कदाचित् कालधर्मेण संयुक्तः। ततः स उदयनः कुमारो बहुभिः राजेश्वर यावत् सार्थवाहप्रभृतिभिः सार्धं संपरिवृतः रुदन् क्रंदन् विलपन् शतानीकस्य राज्ञो महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन नीहरणं करोति 2 बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति। ततस्ते बहवो राजेश्वर यावत् सार्थवाहाः उदयनं कुमारं महता. 2 राज्याभिषेकेणाभिषिञ्चन्ति / ततः उदयनः कुमारो राजा जातो महा। ततः स बृहस्पतिदत्तो दारकः उदयनस्य राज्ञः पुरोहितकर्म कुर्वाणः सर्वस्थानेषु सर्वभूमिकासु अन्तःपुरे दत्तविचारो जातश्चाप्यभवत्। ततः बृहस्पतिदत्तः पुरोहितः उदयनस्य राज्ञोऽन्तःपुरं 498 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेलासु चावेलासु च काले चाकाले च रात्रौ च विकाले च प्रविशन् अन्यदा कदाचित् पद्मावत्या देव्या सार्द्धमुदारान्० भुंजानो विहरति / इतश्च उदयनो राजा स्नातो यावद् विभूषितः यत्रैव च पद्मावती देवी तत्रैवोपागच्छति 2 बृहस्पतिदत्तं पुरोहितं पद्मावत्या देव्या सार्द्धमुदारान्० भुंजानं पश्यति 2 आशुरुप्तस्त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहृत्य बृहस्पतिदत्तं पुरोहितं पुरुषैाहयति 2 यावदेतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति / एवं खलु गौतम ! बृहस्पतिदत्तः पुरोहितः पुरा पुराणाणं यावद् विहरति। - पदार्थ से णं-वह-अर्थात् महेश्वरदत्त पुरोहित का जीव। ततो-वहां से अर्थात् पांचवीं नरक से।अणंतरं-व्यवधानरहित / उव्वट्टित्ता-निकल कर। इहेव-इसी। कोसंबीए-कौशाम्बी।णयरीए-नगरी में। सोमदत्तस्स-सोमदत्त / पुरोहितस्स-पुरोहित की। वसुदत्ताए-वसुदत्ता / भारियाए-भार्या के / पुत्तत्ताएपुत्ररूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। तते णं-तदनन्तर अर्थात् उत्पन्न होने के पश्चात्। तस्स-उस।दारगस्सबालक के। अम्मापितरो-माता पिता। णिव्वत्तबारसाहस्स-बालक के जन्म से लेकर बारहवें दिन / इमंयह। एयारूवं-इस प्रकार का। नामधिज्ज-नाम। कति-करते हैं। जम्हाणं-जिस कारण। अम्हं-हमारा। इमे-यह / दारए-बालक। सोमदत्तस्स-सोमदत्त / पुरोहियस्स-पुरोहित का। पुत्ते-पुत्र, और। वसुदत्ताएवसुदत्ता का। अत्तए-आत्मज है। तम्हाणं-इस कारण / अम्हं-हमारा यह। दारए-बालक। बहस्सतिदत्तेबृहस्पतिदत्त / नामेणं-नाम से। होउ-हो। तते णं-तदनन्तर / से-वह / बहस्सतिदत्ते-बृहस्पतिदत्त / दारएबालक। पंचधातीपरिग्गहिते-पांच धाय माताओं से परिगृहीत हुआ। जाव-यावत्। परिवड्ढति-वृद्धि को प्राप्त होने लगा। तते णं-तदनन्तर।से-वह / बहस्सतिदत्ते-बृहस्पतिदत्त बालक / उम्मुक्कबालभावेबालभाव को त्याग कर।जोव्वणगमणुप्पत्ते-यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ, तथा।विण्णायपरिणयमेत्तेविज्ञातपरिणतमात्र-जिस का विज्ञान परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो चुका है। होत्था-था। से णं-वहबृहस्पतिदत्त / उदयणस्स-उदयन / कुमारस्स-कुमार का।पियबालवयंसे-प्रिय बालमित्र अर्थात् बृहस्पतिदत्त उदयन कुमार को प्यारा था और उसका यह बाल्यकाल का मित्र। यावि होत्था-भी था, कारण कि। सहजायए-दोनों का जन्म एक साथ हुआ। सहवड्ढिए-दोनों एक साथ ही वृद्धि को प्राप्त हुए। सहपंसुकीलियए-साथ ही पांसुक्रीडा-धूलिक्रीडा अर्थात् बालक्रीड़ा किया करते थे। तते णं-तदनन्तर। से-वह। सयाणीए-शतानीक। राया-राजा। अन्यया कयाइ-किसी अन्य समय। कालधम्मुणा-कालधर्म को। संजुत्ते-प्राप्त हुआ। तते णं-तदनन्तर अर्थात् शतानीक के मृत्युधर्म को प्राप्त हो जाने पर। से-वह। उदयणे-उदयन / कुमारे-कुमार। बहूहिं-अनेक। राईसर-राजा-माण्डलीक अर्थात् किसी प्रान्त या मण्डल (जिला या बारह राज्यों का समह) की रक्षा या शासन करने वाला. ईश्वर-धन सम्पत्ति आदि के ऐश्वर्य से युक्त / जाव-यावत् / सत्थवाह-सार्थवाह-यात्री व्यापारियों का मुखिया अथवा संघनायक / प्पभितीहिंआदि के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडे-संपरिवृत-घिरा हुआ। रोयमाणे-रुदन करता हुआ। कंदमाणे-आक्रंदन 1. सहजातकः-समानकाले उत्पन्नः, सहवर्धितकः-सहैव वृद्धि प्राप्तः, सहपांसुक्रीडितः-सहैव कृतबालक्रीडः। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [499 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आक्रंदन करता हुआ। विलवमाणे-विलाप करता हुआ। सयाणीयस्स-शतानीक। रण्णो-राजा का। . महया-महान् / इड्ढिसक्कारसमुदएणं-ऋद्धि तथा सत्कार समुदाय के साथ। णीहरणं-निस्सरण-अर्थी निकालने की क्रिया। करेति २-करता है, निस्सरण करके।बहूइं-अनेक।लोइयाइं-लौकिक।मयकिच्चाईमतकसम्बन्धी क्रियाओं को। करेति-करता है। तते णं-तदनन्तर। बहवे-बहत से। राईसर-राजा। जाव-यावत् / सत्थवाहा-सार्थवाह, ये सब मिल कर / उदयणं- उदयन / कुमार-कुमार को। महया २बड़े समारोह के साथ। रायाभिसेगेणं-राजयोग्य अभिषेक से। अभिसिंचंति-अभिषिक्त करते हैं अर्थात् उस का राज्याभिषेक करते हैं। तते णं-तदनन्तर। से-वह / उदयणे-उदयन। कुमारे-कुमार। राया-राजा। जाते-बन गया। महया-हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् प्रतापशाली हो गया। तते णं-तदनन्तर। से-वह। बहस्सतिदत्ते-बृहस्पतिदत्त। दारए-बालक। उदयणस्स-उदयन। रणो-राजा का। परोहियकम्मेपुरोहितकर्म। करेमाणे-करता हुआ। सव्वट्ठाणेसु-सर्वस्थानों-अर्थात् भोजनस्थान आदि सब स्थानों में। सव्वभूमियासु-सर्वभूमिका-प्रासाद-महल की प्रथम भूमिका-मंजिल से लेकर सप्तम भूमि तक अर्थात् सभी भूमिकाओं में। अंतेउरे य-और अन्तःपुर में। दिण्णवियारे यावि-दत्तविचार-अप्रतिबद्ध गमनागमन .. करने वाला अर्थात् जिस को राजा की ओर से सब स्थानों में यातायात करने की आज्ञा उपलब्ध हो रही हो, ऐसा / जाते यावि होत्था हो गया था। तते णं-तदनन्तर / से-वह / बहस्सतिदत्ते-बृहस्पतिदत्त / पुरोहितेपुरोहित। उदयणस्स-उदयन। रण्णो-राजा के। अन्तेउरं-अन्तःपुर में -रणवास में। वेलासु य-वेलाउचित अवसर अर्थात् ठीक समय पर। अवेलासु-अवेला-अनवसर-बेमौके अर्थात् भोजन शयनादि के समय। काले य-काल अर्थात् प्रथम और तृतीय प्रहर आदि में। अकाले य-और अकाल में अर्थात् मध्याह्न आदि समय में। राओ य-रात्रि में। वियाले य-और सायंकाल में। पविसमाणे-प्रवेश करता : हुआ। अन्नया-अन्यदा। कयाइ-किसी समय। पउमावतीए-पद्मावती। देवीए-देवी के। सद्धिं-साथ। संपलग्गे-संप्रलग्न-अनुचित सम्बन्ध करने वाला। यावि होत्था-भी हो गया। पउमावतीए-पद्मावती। देवीए-देवी के। सद्धिं-साथ / उरालाइं०-उदार-प्रधान मनुष्यसम्बन्धी विषयभोगों का / भुंजमाणे-उपभोग करता हुआ। विहरति-समय व्यतीत करने लगा। इमं च णं-और इधर / उदयणे-उदयन। राया-राजा। ण्हाए-स्नान कर / जाव-यावत्। विभूसिते-सम्पूर्ण आभूषणों से अलंकृत हुआ। जेणेव-जहां / पउमावतीपद्मावती। देवी-देवी थी। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छइ २-आता है, आकर। बहस्सतिदत्तं-बृहस्पतिदत्त / पुरोहितं-पुरोहित को। पउमावतीए-पद्मावती। देवीए-देवी के। सद्धिं-साथ। उरालाई-उदार-प्रधान काम-भोगों का। भुंजमाणं-सेवन करते हुए को। पासति २-देखता है, देख कर। आसुरुत्ते-क्रोध से लाल-पीला हो। तिवलियं-त्रिवलिक-तीन बल वाली। भिउडिं-भृकुटि-तिउड़ी। णिडाले-मस्तक पर। साहट्ट-चढ़ा कर।बहस्सतिदत्तं-बृहस्पतिदत्त / पुरोहितं-पुरोहित को। पुरिसेहि-पुरुषों के द्वारा / गेण्हावेति २-पकड़वा लेता है, पकड़वा कर। जाव-यावत्। एतेणं-इस। विहाणेणं-विधान से। वझं-यह मारने योग्य है, ऐसी। आणवेति-आज्ञा देता है। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! बहस्सतिदत्ते-बृहस्पतिदत्त / पुरोहिते-पुरोहित। पुरा-पूर्वकाल में किए हुए। पुराणाणं-पुरातन / जावयावत् कर्मों के फल का उपभोग करता हुआ। विहरति-समय व्यतीत कर रहा है। मूलार्थ-तदनन्तर महेश्वरदत्त पुरोहित का पापिष्ट जीव उस पांचवीं नरक से 500 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकल कर सीधा इसी कौशाम्बी नगरी में सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर उत्पन्न हुए बालक के माता पिता ने जन्म से बारहवें दिन नामकरण संस्कार करते हुए सोमदत्त का पुत्र और वसुदत्ता का आत्मज होने के कारण उसका बृहस्पतिदत्त यह नाम रखा। तदनन्तर वह बृहस्पतिदत्त बालक पांच धाय माताओं से परिगृहीत यावत् वृद्धि को प्राप्त करता हुआ तथा बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ, एवं परिपक्व विज्ञान को उपलब्ध किए हुए वह उदयन कुमार का बाल्यकाल से ही प्रिय मित्र था, कारण यह था कि ये दोनों एक साथ उत्पन्न हुए, एक साथ बढ़े और एक साथ ही खेले थे। तदनन्तर किसी अन्य समय महाराज शतानीक कालधर्म को प्राप्त हो गए। तब उदयन कुमार बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ रोता हुआ, आक्रन्दन तथा विलाप करता हुआ शतानीक नरेश का बड़े आडम्बर के साथ निस्सरण तथा मृतकसम्बन्धी सम्पूर्ण लौकिक कृत्यों को करता है। तदनन्तर उन राजा ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि लोगों ने मिल कर बड़े समारोह के साथ उदयनं कुमार का राज्याभिषेक किया। तब से उदयन कुमार हिमालय आदि पर्वत के समान महाप्रतापी राजा बन गया। तदनन्तर बृहस्पतिदत्त बालक उदयन नरेश का पुरोहित बना और पौरोहित्य कर्म करता हुआ वह सर्वस्थानों, सर्वभूमिकाओं तथा अन्तःपुर में इच्छानुसार बेरोकटोक गमनागमन करने लगा। तदनन्तर वह बृहस्पतिदत्त पुरोहित का उदयन नरेश के अन्तःपुर में समय, असमय, काल, अकाल तथा रात्रि और संध्याकाल में स्वेच्छापूर्वक प्रवेश करते हुए किसी समय . पद्मावती देवी के साथ अनुचित सम्बन्ध भी हो गया। तदनुसार पद्मावती देवी के साथ वह उदार यथेष्ट मनुष्यसम्बन्धी काम-भोगों का सेवन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। इधर किसी समय उदयन नरेश स्नानादि से निवृत्त हो कर और समस्त आभूषणों से अलंकृत हो कर जहां पद्मावती देवी थी वहां पर आया,आकर उसने पद्मावती देवी के साथ कामभोगों का भोग करते हुए बृहस्पतिदत्त पुरोहित को देखा, देख कर वह क्रोध से तमतमा उठा और मस्तक पर तीन बल वाली तिउड़ी चढ़ा कर बृहस्पतिदत्त पुरोहित को पुरुषों के द्वारा पकड़वा कर यह-इस प्रकार वध कर डालने योग्य है-ऐसी राजपुरुषों को आज्ञा दे देता है। त " प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय . [501 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे गौतम ! इस तरह से बृहस्पतिदत्त पुरोहित पूर्वकृत दुष्टकर्मों के फल को . ' प्रत्यक्षरूप से अनुभव करता हुआ जीवन बिता रहा है। टीका-प्रस्तुत सूत्र में स्वोपार्जित हिंसाप्रधान पापकर्मों के प्रभाव से पांचवीं नरक को प्राप्त हुए महेश्वरदत्त पुरोहित को वहां की भवस्थिति पूरी करके कौशाम्बी नगरी के राजपुरोहित सोमदत्त की वसुदत्ता भार्या के गर्भ से पुत्ररूप से उत्पन्न होने तथा सोमदत्त का पुत्र और वसुदत्ता का आत्मज होने के कारण उस का बृहस्पतिदत्त ऐसा नामकरण करने तथा शतानीक नरेश की मृत्यु के बाद राज्यसिंहासन पर आरुढ़ हुए उदयन कुमार का पुरोहित बनने के अनन्तर उदयन नरेश की सहधर्मिणी पद्मावती के साथ अनुचित सम्बन्ध करने अर्थात् उस पर आसक्त होने का दिग्दर्शन कराया गया है, और इसी अपराध में उदयन नरेश की ओर से उसे पूर्वोक्त प्रकार से वधस्थल पर ले जा कर प्राण-दण्ड देने के आदेश का भी जो उल्लेख कर दिया गया है वह अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। __ प्रस्तुत सूत्र में बृहस्पतिदत्त के नामकरण में जो "-यह बालक सोमदत्त का पुत्र तथा वसुदत्ता का आत्मज है, इसलिए इस का नाम बृहस्पतिदत्त रखा जाता है-" यह कारण लिखा है वह उज्झितक और अभग्नसेन एवं शकटकुमार की भान्ति संघटित नहीं हो पाता, अर्थात् जिस तरह उज्झितक आदि के नामकरण में कार्य कारण भाव स्पष्ट मिलता है वैसा कार्य कारण भाव बृहस्पतिदत्त के नामकरण में नहीं बन पाता, ऐसी आशंका होती है। इस का उत्तर यह है कि पहले जमाने में कोई सोमदत्त पुरोहित और उसकी वसुदत्ता नाम की भार्या होगी, तथा उन के बृहस्पति दत्त नाम का कोई बालक होगा। उस के आधार पर अर्थात् नाम की समता होने से माता पिता ने इस बालक का भी बृहस्पति दत्त ऐसा नाम रख दिया हो। अथवा सूत्रसंकलन के समय कोई पाठ छूट गया हो यह भी संभव हो सकता है। रहस्यन्तु केवलिगम्यम्। इस कथासन्दर्भ से प्रतीत होता है कि बृहस्पतिदत्त पुरोहित को उदयन नरेश की ओर से जो दण्ड देना निश्चित किया गया है, वह नीतिशास्त्र की दृष्टि के अनुरूप ही है। जो व्यक्ति पुरोहित जैसे उत्तरदायित्व-पूर्ण पद पर नियुक्त हो कर तथा नरेश का पूर्ण विश्वासपात्र बन कर इतना अनुचित काम करे उस के लिए नीतिशास्त्र के अनुसार इस प्रकार का दण्डविधान अनुचित नहीं समझा गया है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्री गौतम अनगार से कहते हैं कि हे गौतम ! यह बृहस्पतिदत्त पुरोहित अपने किए हुए दुष्कर्मों का ही विपाक-फल भोग रहा है। तात्पर्य यह है कि यह पूर्व जन्म में महान् हिंसक था और इस जन्म में महान् व्यभिचारी तथा विश्वासघाती. था। इन्हीं महा अपराधों का इसे यह उक्त दंड मिल रहा है। यह इसके पूर्वजन्म का वृत्तान्त है। 502 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस जीव ने अपने नीच स्वार्थ के लिए अनेकानेक मानव प्राणियों का वध किया हो वह कर्मसिद्धान्त के अनुसार इसी प्रकार के दण्ड का पात्र होता है। ____"-विण्णायपरिणयमित्ते-" इस पद का अर्थ सम्बन्धी ऊहापोह द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। परन्तु वहां उल्लिखित अर्थ के अतिरिक्त कहीं "-विज्ञातं विज्ञानं तत्परिणतमात्रं यत्र स विज्ञातपरिणतमात्रः परिपक्वविज्ञान इत्यर्थः-" ऐसा अर्थ भी उपलब्ध होता है। अर्थात् विज्ञात यह पद विशेष्य है और परिणतमात्र यह पद विशेषण है। दोनों में बहुव्रीहि समास है। विज्ञात विज्ञान-विशेष ज्ञान का नाम है और परिणतमात्र पद परिपक्व अर्थ का परिचायक है। तात्पर्य यह है कि जिस का विज्ञान परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो चुका है उसे विज्ञातपरिणतमात्र कहते हैं। _ -पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति- यहां के जाव-यावत् पद से "-तंजहाखीर-धातीए 1, मजण०-से लेकर -चंपयपायवे सुहंसुहेणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। -राईसर जाव सत्थवाहप्पभितीहिं-यहां पठित जाव-यावत् पद से - तलवरमाडम्बियकोडुम्बियइब्भसेट्ठि- इन पदों का ग्रहण होता है। तलवर आदि का अर्थ तथा महया०-यहां के बिन्दु से अपेक्षित पाठ की सूचना द्वितीय अध्याय में कर दी गई है। -सव्वट्ठाणेसु-इत्यादि पदों की व्याख्या निनोक्त है.. (1) सर्वस्थान-यह शब्द सब जगह अर्थात् शयनस्थान, भोजनस्थान, मंत्रणा(विचार) स्थान, आय अर्थात् आमदनी और महसूल आदि के स्थानों के लिए प्रयुक्त होता (2) सर्वभूमिका-शब्द का अर्थ है राजमहल की सभी भूमिकाएं अर्थात् भूमिका शब्द मंज़िल का परिचायक है, और टीकाकार अभयदेव सूरि के मतानुसार-राजमहलों की अधिक से अधिक सात भूमिकाएं मानी गई हैं। उन सभी भूमिकाओं में बृहस्पतिदत्त का आना जाना बेरोकटोक था। सव्वभूमियासु त्ति, प्रासादभूमिकासु सप्तभूमिकावसानासु। अथवा -सर्वभूमिका शब्द अमात्य आदि सभी पदों के लिए भी प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि अमात्य मंत्री आदि बड़े से बड़े अधिकारी तक भी उस बृहस्पतिदत्त की पहुँच थी। (3) अन्तःपुर-वह स्थान है जहां राजा की रानियां रहती हैं-रणवास। वेला शब्द उचित अवसर-योग्य समय अर्थात् मिलने आदि के लिए जो समय उचित हो उसका बोध कराता है। अनुचित अवसर अर्थात् भोजन, शयन आदि के अयोग्य समय का परिचायक अवेला शब्द है। प्रथम और तृतीय प्रहर आदि का बोध काल शब्द से होता है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [503 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाल शब्द मध्याह्न आदि के समय के लिए प्रयुक्त होता है। रात्रि रात का नाम है। संध्याकाल को विकाल कहते हैं। -उरालाइं-यहां का बिन्दु माणुस्सगाई भोगभोगाई-इन पदों का परिचायक है। तथा-पहाए जाव विभूसिए-यहां का जाव-यावत्-पद-कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकार-इन पदों का संसूचक है। कयबलिकम्मे आदि पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय में की जा चुकी है। तथा सव्वालंकार-का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। -गिण्हावेति 2 जाव एतेणं-यहां पठित जाव-यावत् पद-अढि-मुट्ठि-जाणुकोप्पर-पहार-संभग्ग-महियगत्तं करेति 2 अवओडगबन्धणं करेति करेत्ता-इन पदों का परिचायक है। इन का अर्थ तथा एतद् शब्द से जो अभिमत है उस का वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। तथा-पोराणाणं जाव विहरति-यहां पठित जाव-यावत् पद से अपेक्षित पाठ का वर्णन प्रथम अध्याय में किया जा चुका है। भगवान् के मुख से इस प्रकार का भावपूर्ण उत्तर सुनने के अनन्तर गौतम स्वामी के चित्त में जो और जिज्ञासा उत्पन्न हुई अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-बहस्सतिदत्ते णं भंते ! पुरोहिते इओ कालगते समाणे कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति ? छाया-वृहस्पतिदत्तो भदन्त ! पुरोहित इतः कालगतः कुत्रः गमिष्यति ? कुत्रोपपत्स्यते? पदार्थ-भन्ते !-हे भदन्त !, अर्थात् हे भगवन् ! बहस्सतिदत्ते णं-बृहस्पतिदत्त। पुरोहितेपुरोहित / इओ-यहां से। कालगते-काल को प्राप्त। समाणे-हुआ। कहिं-कहां / गच्छिहिति ?-जाएगा? कहिं-कहां पर। उववजिहिति ?-उत्पन्न होगा ? मूलार्थ-हे भदन्त ! बृहस्पतिदत्त पुरोहित यहां से काल करके कहां जाएगा? और कहां पर उत्पन्न होगा? टीका-गौतम स्वामी की "-बृहस्पतिदत्त पुरोहित पूर्व जन्म में कौन था और उसने ऐसा कौन सा घोर कर्म किया था, जिस का फल उसे इस जन्म में इस प्रकार मिल रहा है?" इस जिज्ञासा को तो भगवान् ने पूर्ण कर दिया परन्तु जो व्यक्ति पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों के फलस्वरूप इस प्रकार की असह्य वेदना का अनुभव करता हुआ मृत्यु को प्राप्त होगा। उस का आगामी जन्म में क्या बनेगा अर्थात् वह आगे कहां और किस रूप को प्राप्त करेगा, इत्यादि बातों के जानने की इच्छा का उत्पन्न होना भी अस्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत इसे जानने की 504 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष उत्कण्ठा हो ही जाती है। इसी कारण से गौतम स्वामी ने बृहस्पतिदत्त के आगामी भवों के विषय में भगवान् से पूछने का प्रस्ताव किया है। इस के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-गोतमा ! बहस्सतिदत्ते णं पुरोहिते चउसटुिंवासाइं परमाउंपालइत्ता अजेव तिभागावसेसे दिवसे सूलभिण्णे कते समाणे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए- संसारो तहेव जाव पुढवीए। ततो हत्थिणाउरेणगरे मियत्ताए पच्चायाइस्सति।सेणं तत्थ वाउरिएहिं वहिते समाणे तत्थेव हत्थिणाउरे णगरे सेट्ठिकुलंसि पुत्तत्ताए० बोहिं॰ सोहम्मे महाविदेहे सिज्झिहिति ५।णिक्खेवो। . ॥पञ्चमं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-गौतम ! बृहस्पतिदत्तः पुरोहितः चतुःषष्टिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा अद्यैव त्रिभागावशेषे दिवसे शूलभिन्नः कृतः सन् कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां संसारस्तथैव यावत् पृथिव्याम्, ततो हस्तिनापुरे नगरे मृगतया प्रत्यायास्यति / स तत्र वागुंरिकै: वधितः सन् तत्रैव हस्तिनापुरे नगरे श्रेष्ठिकुले पुत्रतया बोधि सौधर्मे महाविदेहे० सेत्स्यति 5 निक्षेपः। ॥पञ्चमध्ययनं समाप्तम्॥ . पदार्थ-गोतमा !-हे गौतम ! बहस्सतिदत्ते-बृहस्पतिदत्त। पुरोहिते-पुरोहित। णं-वाक्यालंकारार्थक है। चउसटुिं-चौंसठ-६४। वासाइं-वर्षों की। परमाउं-परमायु। पालइत्ता-पाल कर-भोगकर। अजेव-आज ही। तिभागावसेसे-त्रिभागावशेष अर्थात् जिस में तीसरा भाग शेष हो, ऐसे। दिवसे-दिन में। सूलभिण्णे-सूली से भेदन। कते समाणे-किया हुआ। कालमासे-कालावसर में। कालं किच्चाकाल करके। इमीसे-इस। रयणप्पभाए-रत्नप्रभा नामक पृथिवी-नरक में उत्पन्न होगा। संसारोसंसारभ्रमण / तहेव-तथैव-वैसे ही अर्थात् पहले की भांति समझना। जाव-यावत् / पुढवीए०-पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर। हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर। णगरे-नगर में। मियत्ताएमगरूप से। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। से णं-वह। तत्थ-वहां पर। वाउरिएहिं-वागरिकों-शिकारियों के द्वारा / वहिते समाणे-मारा जाने पर।तत्थेव-उसी / हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर। णगरे-नगर में। सेट्ठिकुलंसिश्रेष्ठिकुल में। पुत्तत्ताए०-पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। बोहि-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, वहां से। सोहम्मे०सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर। महाविदेहे-महविदह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, तथा वहां से। सिज्झिहिति ५-सिद्धि प्राप्त करेगा 5 / णिक्खेवो-निक्षेप-उपसंहार पूर्व की भान्ति जान लेना चाहिए। पंचमं-पांचवां / अज्झयणं-अध्ययन / समत्तं-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-हे गौतम ! बृहस्पतिदत्त पुरोहित 64 वर्ष की परमायु को पाल कर आज प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [505 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही दिन के तीसरे भाग में सूली से भेदन किये जाने पर कालावसर में काल कर के रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथिवी-नरक में उत्पन्न होगा, एवं प्रथम अध्ययनगत मृगापुत्र की भांति संसारभ्रमण करता हुआ यावत् पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में मृग रूप से जन्म लेगा। वहां पर वागुरिकों-जाल में फंसाने का काम करने वाले व्याधों के द्वारा मारा जाने पर इसी हस्तिनापुर नगर में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूपेण जन्म धारण करेगा। ____ वहां सम्यक्त्व की प्राप्ति करेगा और काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, तथा वहां अनगारवृत्ति को धारण कर संयमाराधन के द्वारा कर्मों का क्षय करके सिद्धिपद को प्राप्त करेगा। निक्षेप-उपसंहार पूर्ववत् जान लेना चाहिए। ॥पंचम अध्ययन समाप्त॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में बृहस्पतिदत्त के आगामी भवों का वर्णन किया गया है। तथा मानवभव में बोधिलाभ के अनन्तर उसने जिस उत्क्रान्ति मार्ग का अनुसरण किया और उस के फलस्वरूप अन्त में उसे जिस शाश्वत सुख की उपलब्धि हुई उस का भी सूत्रवर्णनशैली के अनुसार संक्षेप से उल्लेख कर दिया गया है। __गौतम स्वामी को सम्बोधित करते हुए वीर प्रभु ने फरमाया कि गौतम ! बृहस्पतिदत्त पुरोहित के जीव की आगामी भवयात्रा का वृत्तान्त इस प्रकार है- ' उस की पूर्ण आयु 64 वर्ष की है। आज वह दिन के तीसरे भाग में सूली पर चढ़ाया जाएगा, उस में मृत्यु को प्राप्त हो कर वह रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा, वहां की भवस्थिति को पूरी करने के अनन्तर उस का अन्य संसारभ्रमण मृगापुत्र की भान्ति ही जान लेना चाहिए अर्थात् नानाविध उच्चावच योनियों में गमनागमन करता हुआ यावत् पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में मृग की योनि में जन्म लेगा। वहां पर भी वागुरिकों-शिकारियों से वध को प्राप्त होकर वह हस्तिनापुर नगर में ही वहां के एक प्रतिष्ठित कुल में जन्म धारण करेगा। यहां से उस का उत्क्रान्ति मार्ग आरम्भ होगा, अर्थात् 1. प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जो यह लिखा है कि बृहस्पतिदत्त को दिन के तीसरे भाग में सूली पर चढ़ा दिया जाएगा। इस पर यह आशंका होती है कि जब कौशाम्बी नगरी के राजमार्ग पर उस के साथ बड़ा क्रूर एवं निर्दय व्यवहार किया गया था। अवकोटकबन्धन से बान्ध कर, उसी के शरीर में से निकाल कर उसे मांसखण्ड खिलाए जा रहे थे। तथा चाबुकों के भीषणातिभीषण प्रहारों से उसे मारणान्तिक कष्ट पहुंचाया गया था तब वहां उस के प्राण कैसे बचे होंगे? अर्थात मानवी जीवन में इतना बल कहां है कि वह इस प्रकार के भीषण नरक-तुल्य संकट झेल लेने पर भी जीवित रह सके ? इस आशंका का उत्तर तृतीय अध्याय में दिया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्नसेन चोरसेनापति का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में बृहस्पतिदत्त का। 506 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस जन्म में उसे बोधिलाभ-सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी और वह मृगापुत्रादि की भान्ति ही विकास मार्ग की ओर प्रस्थान करता हुआ अन्त में निर्वाण पद को प्राप्त करके जन्म मरण से रहित होता हुआ शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेगा। "-रयणप्पभाए० संसारो तहेव जाव पुढवीए०-" यहां के बिन्दु से प्रथम अध्याय में पढ़े गए "-पुढवीए उक्कोससागरोवमट्टिइएसु जाव उववजिहिति-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। तथा-संसार शब्द "-संसारभ्रमण-" इस अर्थ का परिचायक है और तहेव पद "-मृगापुत्र की भान्ति संसारभ्रमण करेगा-" इस अर्थ का बोध कराता है। मृगापुत्र के संसारभ्रमण का वर्णन भी प्रथम अध्याय में किया जा चुका है। उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से सूचित किया गया है। अर्थात् यावत् पद प्रथम अध्याय में पढ़े गए-से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता सरीसवेसु-से लेकर -वाउ, तेउ आउ०-यहां तक के पदों का परिचायक है। तथा "-पुढवीए.-" यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना तृतीय अध्याय में की जा चुकी है। तथा-पुत्तत्ताए०-यहां के बिन्दु से "-पच्चायाहिति से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तहारूवाणं थेराणं अंतिते केवलं-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। इन का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। "बोहिं, सोहम्मे महाविदेहे० सिज्झिहिति 5-" इन पदों से विवक्षित पाठ का वर्णन चौथे अध्ययन में किया जा चुका है। पाठक वहीं से देख सकते हैं। - प्रस्तुत कथा-सन्दर्भ में बृहस्पतिदत्त के पूर्व और परभवों के संक्षिप्त वर्णन से मानवप्राणी की जीवनयात्रा के रहस्यपूर्ण विश्रामस्थानों का काफी परिचय मिलता है। वह जीवन की नीची से नीची भूमिका में विहरण करता-करता, जिस समय विकासमार्ग की ओर प्रस्थान करता है और उस पर सतत प्रयाण करने से उस को जिस उच्चतम भूमिका की प्राप्ति होती है, उस का भी स्पष्टीकरण बृहस्पतिदत्त के जीवन में दृष्टिगोचर होता है। इस पर से मानवप्राणी को अपना कर्तव्य निश्चित करने का जो सुअवसर प्राप्त होता है, उसे कभी भी खो देने की भूल नहीं करनी चाहिए। प्रारम्भ में श्री जम्बू स्वामी ने पांचवें अध्ययन के अर्थ को सुनने के लिए श्री सुधर्मा स्वामी से जो प्रार्थना की थी, उस की स्वीकृतिरूप ही यह प्रस्तुत पांचवां अध्ययन प्रस्तावित हुआ है। इसी भाव को सूचित करने के लिए मूल में णिक्खेवो यह पद प्रयुक्त किया गया है। निक्षेप शब्द का अर्थ सम्बन्धी विचार द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। पाठक वहीं देख सकते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में निक्षेप पद से जो पाठ अपेक्षित है वह निम्नोक्त है__ "-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं दुहविवागाणं पंचमस्स प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [507 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि-" अर्थात् हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी. ने दुःख विपाक के पांचवें अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। इस प्रकार मैं कहता हूँ अर्थात् मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से जैसा सुना है वैसा तुम्हें सुनाया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। प्रस्तुत अध्ययनगत पदार्थ के परिशीलन से विचारशील सहृदय पाठकों को अन्वयव्यतिरेक से अनेक प्रकार की हितकर शिक्षाएं उपलब्ध हो सकती हैं, जिन को जीवन में उतारने से उन्हें अधिक से अधिक लाभ सम्प्राप्त हो सकता है। उन में से कुछ शिक्षाएं निम्नोक्त (1) यदि किसी को कोई अधिकार प्राप्त हो जाए तो उसे चाहिए कि वह महेश्वर दत्त पुरोहित की तरह उस का दुरुपयोग न करे। महेश्वरदत्त पुरोहित ने राज्य में उचित अधिकार प्राप्त करने के अनन्तर भी अपनी हिंसक भावना से जो-जो अनर्थ किए, उस का' दिग्दर्शन ऊपर कराया जा चुका है। तथा उस से प्राप्त होने वाली नरकयातनाओं के उपभोग का भी ऊपर वर्णन आ चुका है। इसलिए इस प्रकार के जीवन से अधिकारी वर्ग तथा अन्य सामान्यवर्ग को सर्वथा पराङ्मुख रहने का सदा यत्न करना चाहिए। (2) संसार में हिंसा के बाद जघन्य पापों में विश्वासघात का स्थान है। मित्रद्रोह या विश्वासघात एवं मित्रपत्नी से अनुचित सम्बन्ध, यह सब कुछ घोर पाप में परिगणित होता है। इस पाप का आचरण करने वाला आत्मा इस लोक और परलोक दोनों में ही दुर्गति का भाजन बनने योग्य होता है। महेश्वर दत्त के जीव ने बृहस्पति दत्त के भव में इस जघन्य आचरण से अपनी आत्मा को निकृष्ट कर्ममल से कितना दूषित बनाया और किस सीमा तक उस के कटु विपाक का अनुभव किया इस का भी ऊपर दिग्दर्शन कराया जा चुका है। उस पर से विचारशील पाठक समझ सकते हैं कि उन्हें इस प्रकार के पापानुष्ठान से पृथक् रहने का यत्न करना चाहिए। और कर्त्तव्यपालन के लिए जागरूक रह कर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सदनुष्ठानों को जीवन में उतार कर आत्मश्रेय साधना चाहिए। ॥पंचम अध्याय समाप्त॥ (1) मित्रद्रोही कृतघ्नश्च, यश्च विश्वासघातकः। ते नरा नरकं यान्ति, यावच्चन्द्रदिवाकरौ॥१॥ अर्थात् -मित्रद्रोही-मित्र से द्रोह करने वाला, कृतघ्न-किए गए उपकार को न मानने वाला, और विश्वास का घात करने वाला, ये सब मर कर नरक में जाते हैं, और जब तक चन्द्र और सूर्य हैं तब तक वहां पर रहते हैं, . तात्पर्य यह है कि मित्रद्रोही आदि अत्यधिक काल तक अपने दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए नरकों में रहते हैं, और वहां दुःख पाते हैं। 508 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह छटुं अज्झयणं अथ षष्ठ अध्याय मानव के जीवन का निर्माण उस के अपने विचारों पर निर्भर हुआ करता है। विचार यदि निर्मल हों, स्वच्छ हों एवं धर्मपूर्ण हों तो जीवन उत्थान अथच कल्याण की ओर प्रगति करता है। इस के विपरीत यदि विचार अप्रशस्त हों, पापोन्मुखी हों तो जीवन का पतन होता है, और वे जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाने का कारण बनते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तोगिरते हैं जब ख्याल तो गिरता है आदमी, जिस ने इन्हें संभाल लिया वह संभल गया। यह कहा जा सकता है। - उन्नत तथा अवनत विचारों के आधार पर ही तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्य की संबंधकारिका में आचार्यप्रवर भी उमास्वाति सम्पूर्ण मानव जगत को छः विभागों में विभक्त करते हैं। वे छः विभाग निम्नोक्त हैं (1) उत्तमोत्तम-जो मानव आत्मतत्त्व का पूर्ण प्रकाश उपलब्ध कर स्वयं कृतकृत्य हो चुका है, पूर्ण हो चुका है, तथापि विश्वकल्याण की पवित्र भावना से दूसरों को पूर्ण बनाने के लिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि उत्तम धर्म का उपदेश देता है, वह उत्तमोत्तम मानव कहलाता है। इस कोटि में अरिहन्त भगवान् आते हैं। अरिहन्त भगवान् केवल ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कर निष्क्रिय नहीं हो जाते, प्रत्युत निःस्वार्थ भाव से संसार को धर्म का मधुर एवं सरस सन्देश देते हैं और सुपथगामी बनाकर उस को आत्मश्रेय साधने का सुअवसर प्रदान करते हैं। (2) उत्तम-जिस मानव की साधना लोक और परलोक दोनों की आसक्ति से सर्वथा रहित एवं विशुद्ध आत्मतत्व के प्रकाश के लिए होती है। भौतिक सुख चाहे वर्तमान का हो अथवा भविष्य का, लोक का अथवा परलोक का, दोनों ही जिस की दृष्टि में हेय होते ___1. कविरत्न पण्डित मुनि श्री अमर चन्द्र जी म. द्वारा अनुवादित श्रमण सूत्र में से। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [509 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। जिस का समग्र जीवन एक मात्र आत्मतत्त्व के प्रकाश के लिए सर्वथा बन्धन से मुक्त होने के लिए गतिशील रहता है। संसार का भोग चाहे चक्रवर्ती पद का हो अथवा इन्द्र पद का, परन्तु जो एकान्त निस्पृह एवं अनासक्त भाव से रहता है। संसार का कोई भी प्रलोभन जिसे वीतराग भाव की साधना के पवित्र मार्ग से एक क्षण के लिए भी नहीं भटका सकता, ऐसा मानव उत्तम कहलाता है। यह उत्तम पद उत्तम मुनि और उत्तम श्रावक में पाया जाता है। ___(3) मध्यम-जो लोक की अपेक्षा परलोक के सुखों की अधिक चिन्ता करता है। परलोक को सुधारने के लिए यदि इस लोक में कुछ-कष्ट उठाना पड़े, सुख सुविधा भी छोड़नी पड़े, तो इसके लिए जो सहर्ष तैयार रहता है। जो परलोक के सुख की आसक्ति से इस लोक के सुख की आसक्ति का त्याग कर सकता है। परन्तु वीतरागभाव की साधना में परलोक की सुखासक्ति का त्याग नहीं कर सकता। संसार की वर्तमान मोहमाया जिसे भविष्य के प्रति लापरवाह नहीं बना सकती। जो सुन्दर वर्तमान और सुन्दर भविष्य के चुनाव में सुन्दर भविष्य को चुनने का ही अधिक प्रयत्न करता है परन्तु जिस का वह सुन्दर भविष्य सुखासक्ति रूप होता है, अनासक्तिरूप नहीं, ऐसा मानव मध्यम कहा जाता है। (4) विमध्यम-जो लोक और परलोक दोनों को सुधारने का प्रयत्न करता है। लोक और परलोक के दोनों घोड़ों पर सवारी करना चाह रहा है, परन्तु परलोक के सुखों के लिए यदि इस लोक के सुख छोड़ने पड़ें तो उसके लिए जो तैयार नहीं होता / जो सुन्दर भविष्य : के लिए सुन्दर वर्तमान को निछावर नहीं कर सकता। जो दोनों ओर एक जैसा मोह रखता है। जिस का सिद्धान्त है-माल भी रखना, वैकुण्ठ भी जाना। ऐसा मानव विमध्यम कहलाता है। (5) अधम-जो परस्त्रीगमन, चोरी आदि अत्यन्त नीच आचरण तो नहीं करता परन्तु विषयासक्ति का त्याग नहीं कर सकता। जो अपनी सारी शक्ति लगा कर इस लोक के ही सुन्दर सुखोपभोगों को प्राप्त करता है और उन्हें पाकर अपने को भाग्यशाली समझता है। ऐसा जीवन धर्म को लक्ष्य में रख कर प्रगति नहीं करता प्रत्युत मात्र लोकलज्जा के कारण ही अत्यन्त नीच दुराचरणों से बचा रहता है, तथा जिस की भोगासक्ति इतनी तीव्र होती है कि धर्माचरण के प्रति किसी भी प्रकार की श्रद्धाभक्ति जागृत नहीं होने पाती, ऐसा मानव अधम कहलाता है। (6) अधमाधम-मनुष्य वह है जो लोक परलोक दोनों को नष्ट करने वाले अत्यन्त नीच पापाचरण करता है। न उसे इस लोक की लज्जा तथा प्रतिष्ठा का ख्याल रहता है और न परलोक का ही। वह पहले सिरे का नास्तिक होता है। धर्म और अधर्म के 510 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय / [प्रथम.श्रुतस्कंध Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिनिषेधों को वह ढोंग समझता है। वह उचित और अनुचित किसी भी पद्धति का ख्याल किए बिना एकमात्र अपना अभीष्ट स्वार्थ ही सिद्ध करना चाहता है। वह मनुष्य वेश्यागामी, परस्त्रीसेवन करने वाला, मांसाहारी, चोर, दुराचारी एवं सब जीवों को निर्दयतापूर्वक सताने वाला होता है। ऐसा मनुष्य अपना नीच स्वार्थ सिद्ध करना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है। भले ही फिर उस स्वार्थ की पूर्ति में किसी के जीवन का अन्त भी क्यों न होता हो। . प्रस्तुत छठे अध्ययन में एक ऐसे ही अधमाधम व्यक्ति का जीवन संकलित किया गया है जो राज्यसिंहासन के लोभ में अपने पूज्य पिता जैसे अकारण बन्धु को भी मारने की गर्हित एवं दुष्टतापूर्ण प्रवृत्ति में अपने को लगा लेता है। सूत्रकार ने इस अध्ययन में अधमाधम व्यक्ति के उदाहरण से संसार को अधमाधम जीवन से विरत रहने की तथा अहिंसा सत्य आदि धार्मिक अनुष्ठानों के आराधन द्वारा उत्तम एवं उत्तमोत्तम पद को प्राप्त करने के लिए बलवती पवित्र प्रेरणा की है। उस अध्ययन का आदिम सूत्र निम्नोक्त है मूल-छट्ठस्स उक्खेवो। एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं महुरा णगरी। भंडीरे उज्जाणे। सुदरिसणे जक्खे। सिरिदामे राया। बन्धुसिरी भारिया।पुत्तै णंदिवद्धणे णामं कुमारे अहीण जाव जुवराया।तस्स सिरिदामस्स सुबंधू नामं अमच्चे होत्था सामभेददण्ड / तस्स णं सुबन्धुस्स अमच्चस्स बहुमित्तापुत्ते नामं दारए होत्था अहीणः। तस्स णं सिरिदामस्स रण्णो चित्ते णामं अलंकारिए होत्था सिरिदामस्स रण्णो चित्तं बहुविहं अलंकारियकम्म करेमाणे सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु अंतेउरे य दिण्णवियारे यावि होत्था। - छाया-षष्ठस्योत्क्षेपः। तस्मिन् काले तस्मिन् समये मथुरा नगरी। भंडीरमुद्यानम्। सुदर्शनो यक्षः। श्रीदामा राजा। बन्धुश्री: भार्या / पुत्रो नन्दीवर्धनो नाम दारकोऽभवत्, अहीन यावद् युवराजः। तस्य श्रीदाम्नः सुबन्धुर्नामामात्योऽभवत्, सामभेददण्ड तस्य सुबंधोरमात्यस्य बहुमित्रापुत्रो नाम दारकोऽभवत् अहीन / तस्य श्रीदाम्नो राज्ञः चित्रो नाम अलंकारिकोऽभवत्। श्रीदाम्नो राज्ञः चित्रं बहुविधमलंकारिकं कर्म कुर्वाणः सर्वस्थानेषु सर्वभूमिकासु अन्तःपुरे च दत्तविचारश्चाप्यभवत्। - पदार्थ-छट्ठस्स उक्खेवो-छठे अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जम्बू !-हे जम्बू ! तेणं-उस। कालेणं-काल में। तेणं समएणं-उस समय में। महुरा-मथुरा / णगरी-नगरी थी। भंडीरे-भंडीर नाम का। उज्जाणे-उद्यान था, उस प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [511 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में। सदरिसणे-सुदर्शन नाम का। जक्खे-यक्ष था, अर्थात् उस का स्थान था। सिरिदामे-श्रीदाम नाम का। राया-राजा था, उसकी।बंधुसिरी-बंधुश्री। भारिया-भार्या थी।पुत्ते-पुत्र ।णंदिवद्धणे-नन्दीवर्धन / णामनामक। कुमारे-कुमार था, जो कि। अहीण-अन्यून-न्यूनतारहित तथा निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर से युक्त। जाव-यावत्। जुवराया-युवराज (राजा का वह सबसे बड़ा लड़का, जिसे आगे चल कर राज्य मिलने वाला हो) था। तस्स-उस। सिरिदामस्स-श्रीदाम का। सुबन्धू-सुबन्धु / नाम-नाम का।अमच्चे-अमात्यमंत्री। होत्था-था, जो कि। सामभेददंड-साम, भेद, दण्ड और दान नीति में बड़ा कुशल था। तस्स णंउस। सुबन्धुस्स-सुबन्धु। अमच्चस्स-अमात्य का। बहुमित्तापुत्ते-बहुमित्रापुत्र / णाम-नाम का। दारएदारक-बालक। होत्था-था जो कि।अहीण-अन्यून-सम्पूर्ण और निर्दोष पंचेन्द्रिय-युक्त शरीर वाला था। तस्स णं-उस। सिरिदामस्स-श्रीदाम। रण्णो-राजा का। चित्ते-चित्र। णाम-नाम का। अलंकारिएअलंकारिक-नाई।होत्था-था। सिरिदामस्स-श्रीदाम। रण्णो-राजा का।चित्तं-चित्र-आश्चर्यजनक।बहुविहंबहुविध। अलंकारियकम्म-केशादि का अलंकारिक कर्म-हजामत / करेमाणे-करता हुआ। सव्वट्ठाणेसुसर्वस्थानों में, तथा। सव्वभूमियासु-सर्वभूमिकाओं में, तथा। अन्तेउरे य-अन्तःपुर में। दिण्णवियारेदत्तविचार-अप्रतिषिद्ध गमनागमन करने वाला। यावि होत्था-भी था। मूलार्थ-छठे अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में मथुरा नाम की एक सुप्रसिद्ध नगरी थी। वहां भण्डीर नाम का एक उद्यान था। उस में सुदर्शन नामक यक्ष का यक्षायतन-स्थान था। वहां श्रीदाम नामक राजा राज्य किया करता था, उस की बन्धुश्री नाम की राणी थी। उन का सर्वांगसम्पूर्ण और परम सुन्दर युवराज पद से अलंकृत नन्दीवर्धन नाम का पुत्र था। श्रीदाम नरेश का साम, भेद, दण्ड और दान नीति में निपुण सुबन्धु नाम का एक मन्त्री था। उस मन्त्री का बहुमित्रापुत्र नाम का एक बालक था जो कि सर्वांगसम्पन्न और रूपवान था। तथा उस श्रीदाम नरेश का चित्र नाम का एक अलंकारिक-केशादि को अलंकृत करने वाला-नाई था।वह राजा का अनेकविध आश्चर्यजनक अलंकारिककर्मक्षौरकर्म करता हुआ राजाज्ञा से सर्वस्थानों में सर्वभूमिकाओं तथा अन्तःपुर में प्रतिबन्धरहित यातायात किया करता था। टीका-उपक्रम या प्रस्तावना को उत्क्षेप कहते हैं, और प्रस्तुत प्रकरणानुसारी उस का स्वरूप शास्त्रीय भाषा में निम्नोक्त है "-जति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, छट्ठस्स णं भंते ! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ?-" इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है 512 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय / [प्रथम श्रुतस्कंध Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के पञ्चम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त)अर्थ फरमाया है, तो भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःख-विपाक के छठे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है? जम्बू स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में उनके पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी ने जो कुछ कहना आरम्भ किया उसी को सूत्रकार ने -एवं खलु जम्बू !- इत्यादि पदों द्वारा अभिव्यक्त किया है। जिन का अर्थ मूलार्थ में दिया जा चुका है और जो अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। - "-अलंकारिक-" इस पद का अर्थ सजाने वाला भी होता है, परन्तु वृत्तिकार ने "-अलंकारियकम्मं-"का क्षुरकर्म-क्षौरकर्म (हजामत आदि बनाना) यह अर्थ किया है। इस पर से ज्ञात होता है कि चिंत्र नाम का एक नापित-नाई था जो कि श्रीदाम नरेश के यहां रहता था और श्रीदाम नरेश का बड़ा कृपापात्र था। महाराज श्रीदाम क्षौरकर्म उसी से करवाया करते थे, इसीलिए चित्र को राजभवन में हर एक स्थान पर जाने आने की स्वतन्त्रता थी। वह बिना रोकटोक के जहां चाहे वहां जा आ सकता था। शय्यास्थान, भोजनस्थान, मंत्रस्थान और आयस्थान आदि स्थानों तथा प्रासादादि की हर एक भूमिका-मंजिल आदि में अपनी इच्छा के अनुसार आता जाता था अर्थात् उसे किसी प्रकार की रोकटोक नहीं थी। सर्वस्थान, सर्वभूमिका और अन्तःपुर इन पदों का अर्थ पीछे पंचम अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा "-दिण्णवियारे-" इस पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में "राज्ञानुज्ञातसंचरणः, अनुज्ञातविचारणो वा-" इस प्रकार है अर्थात् दत्तविचार के दो अर्थ होते हैं, जैसे कि १-जिस को राजा की ओर से आने तथा जाने की आज्ञा मिली हुई हो। २जिस को हर किसी से विचारविनिमय अथवा वार्तालाप करने की पूर्ण आज्ञा प्राप्त हो रही हो। .. "-अहीण जाव जुवराया-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-पडिपुण्णपंचिंदियसरीरे- से लेकर "-कन्ते पियदंसणे सुरूवे-" यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया गया है। ___".-सामभेददंड०-" यहां के बिन्दु से "-उवप्पयाणनीतिसुप्पउत्तणयविहिन्नु" इत्यादि पदों का परिचायक है। इन का वर्णन चतुर्थ अध्याय में किया जा चुका है। तथा मंत्रिपुत्र के सम्बन्ध में दिए गए "-अहीण-" के बिन्दु से विवक्षित पाठ का वर्णन भी द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। प्रस्तुत सूत्रपाठ में मथुरा नगरी तथा भंडीर उद्यान आदि का नाम निर्देश किया गया है। इन से सम्बन्ध रखने वाला विशेष वर्णन अग्रिम सूत्र में किया जाता है प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [513 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे।परिसा राया य निग्गओ जाव गया राया वि णिग्गओ। तेणं कालेणं 2 समणस्स जेढे जाव रायमग्गं ओगाढे। तहेव हत्थी, आसे, पुरिसे, तेसिं चं णं पुरिसाणं मज्झगयं एगं पुरिसं पासति जाव नरनारिसंपस्विडं। तते णं तं परिसं रायपरिसा चच्चरंसि तत्तंसि अयोमयंसि समजोइ-भूयंसि सिंहासणंसि निसीयावेंति। तयाणंतरं च णं पुरिसाणं मझगयं पुरिसं बहूहिं अयकलसेहिं तत्तेहिं समजोइभूतेहिं अप्पेगइया तंबभरिएहिं, अप्पेगइया तउयभरिएहिं, अप्पेगइया सीसगभरिएहिं , अप्पेगइया कलकल-भरिएहिं, अप्पेगइया खारतेल्लभरिएहिं महयाभिसेएणं अभिसिंचंति। तयाणंतरं च णं तत्तं अयोमयं समजोतिभूयं अओमयसंडासएणं गहाय हारं पिणद्धति।तयाणंतरं चणं अद्धहारं जाव पट्ट मउडं।चिंता तहेव जाव वागरेति।. छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः। परिषद् राजा च निर्गतो यावद् गता, राजापि निर्गतः। तस्मिन् काले 2 श्रमणस्य ज्येष्ठो यावद् राजमार्गमवगाढः, तथैव हस्तिनः, अश्वान्, पुरुषान्, तेषां च पुरुषाणां मध्यगतमेकं पुरुषं पश्यति, यावद् नरनारीसंपरिवृतम्। ततस्तं पुरुषं राजपुरुषाः चत्वरे तप्तेऽयोमये समज्योतिर्भूते सिंहासने निषीदयंति। तदानन्तर च पुरुषाणां मध्यगतं पुरुषं बहुभिः अयः कलशैः तप्तैः समज्योतिर्भूतैः, अप्येके ताम्रभृतैः, अप्येके त्रपुभृतैः, अप्येके सीसकभृतैः, अप्येके कलकलभृतैः, अप्येके क्षारतैलभृतैः महाभिषेकेणाभिषिंचन्ति तदानन्तर च तप्तमयोमयं समज्योतिर्भूतमयोमयसंदंशकेन गृहीत्वा हारं पिनाहयन्ति / तदानम्तर चार्द्धहारं यावत् पढें, मुकुटम्। चिन्ता तथैव यावत् व्याकरोति। पदार्थ-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल तथा उस समय में। सामी-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी। समोसढे-पधारे। परिसा-परिषद्-जनता।राया य-तथा राजा। निग्गओ-नगर से निकले। जाव-यावत्। गया-चली गई। राया-राजा। वि-भी। णिग्गओ-चला गया। तेणं कालेणं २-उस काल तथा उस समय में / समणस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के / जेद्वे-प्रधान शिष्य गौतम स्वामी। जावयावत्। रायमग्गं-राजमार्ग में। ओगाढे-पधारे। तहेव-तथैव। हत्थी-हस्तियों को। आसे-अश्वों को। पुरिसे-पुरुषों को। तेसिं च णं-और उन। पुरिसाणं-पुरुषों के। मझगयं-मध्यगत। जाव-यावत्। नरनारिसंपरिवुडं-नर नारियों से परिवृत-घिरे हुए। एग-एक। पुरिसं-पुरुष को। पासति-देखते हैं। तते णं-तदनन्तर / रायपुरिसा-राजपुरुष। तं पुरिसं-उस पुरुष को। चच्चरंसि-चत्वर अर्थात् जहां अनेक मार्ग मिलते हों ऐसे स्थान पर। तत्तंसि-तप्त। अयोमयंसि-अयोमय-लोहमय। समजोइभूयंसि-अग्नि के [प्रथम श्रुतस्कंध 514 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय / Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान देदीप्यमान-अग्नि जैसे लाल। सिंहासणंसि-सिंहासन पर। निसीयावेंति-बैठा देते हैं। तयाणंतरं च णं-और तत्पश्चात्। पुरिसाणं-पुरुषों के। मझगयं पुरिसं-मध्यगत उस पुरुष को। बहूहि-अनेक। तत्तेहि-तप्त-तपे हुए / अयकलसेहि-लोहकलशों से। समजोइभूतेहि-जो कि अग्नि के समान देदीप्यमान हैं तथा। अप्पेगइया-कितने एक।तंबभरिएहि-ताम्र से परिपूर्ण हैं / अप्पेगइया-कितने एक। तउयभरिएहिंत्रपु-रांगा से परिपूर्ण हैं। अप्पेगइया-कितने एक।सीसगभरिएहि-सीसक-सिक्के से परिपूर्ण हैं।अप्पेगइयाकितने एक। कलकलभरिएहि-चूर्णक आदि से मिश्रित जल से परिपूर्ण हैं अथवा कलकल शब्द करते हुए उष्णात्युष्ण पानी से परिपूर्ण हैं। अप्पेगइया-कितने एक। खारतेल्लभरिएहि-क्षारयुक्त तैल से परिपूर्ण हैं, इन के द्वारा / महया-महान्। रायाभिसेएणं-राज्ययोग्य अभिषेक से। अभिसिंचंति-अभिषिक्त करते हैं। तयाणंतरं-च णं-और तत्पश्चात्। समजोइभूयं-अग्नि के समान देदीप्यमान। तत्तं-तप्त / अयोमयं-लोहमय। हार-हार को। अओमय-लोहमय। संडासएणं-संडासी से। गहाय-ग्रहण कर के। पिणद्धति-पहनाते हैं। तयाणंतरं च णं-और तदनन्तर। अद्धहारं-अर्द्धहार को। जाव-यावत्। पढेंमस्तक पर बांधने का पट्ट-वस्त्र अथवा मस्तक का भूषणविशेष। मउडं-और मुकुट (एक प्रसिद्ध शिरोभूषण जो प्रायः राजा आदि धारण किया करते हैं-ताज) को पहनाते हैं। यह देख गौतम स्वामी को। चिन्ता-विचार उत्पन्न हुआ। तहेव-तथैव-पूर्ववत्। जाव-यावत्। वागरेति-भगवान् प्रतिपादन करने लगे। . मूलार्थ-उस काल तथा उस समय में (मथुरा नगरी के बाहर भंडीर नामक उद्यान में) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिषद् और राजा भगवद् दर्शनार्थ नगर से निकले यावत् वापस चले गए। उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी भिक्षार्थ गमन करते हुए यावत् राजमार्ग में पधारे। वहां उन्होंने हाथियों, घोड़ों, और पुरुषों को तथा उन पुरुषों के मध्यगत यावत् नर नारियों से घिरे हुए एक पुरुष को देखा। . राजपुरुष उस पुरुष को चत्वर-जहां बहुत से रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थान में अग्नि के समान तपे हुए लोहमय सिंहासन पर बैठा देते हैं, बैठा कर उस को ताम्रपूर्ण त्रपुपूर्ण, सीसकपूर्ण तथा चूर्णक आदि से मिश्रित जल से पूर्ण अथवा कलकल शब्द करते हुए गर्म पानी से परिपूर्ण और क्षारयुक्त तैल से पूर्ण, अग्नि के समान तपे हुए लोहकलशों-लोहघटों के द्वारा महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त करते हैं। . तदनन्तर उसे लोहमय संडास-सण्डासी से पकड़ कर अग्नि के समान तपे हुए अयोमय हार-अठारह लड़ियों वाले हार को, अर्द्धहार-नौ लड़ी वाले हार को तथा मस्तक के पट्ट-वस्त्र अथवा भूषणविशेष और मुकुट को पहनाते हैं। यह देख गौतम प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [515 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी को पूर्ववत् चिन्ता-विचार उत्पन्न हुआ, यावत् गौतम स्वामी उस पुरुष के पूर्वजन्मसम्बधी वृत्तान्त को भगवान से पूछते हैं, तदनन्तर भगवान उस के उत्तर में इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं। टीका-प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने से लेकर गौतम स्वामी के नगरी में जाने और वहां के राजमार्ग में हस्ती आदि तथा स्त्री पुरुषों से घिरे हुए पुरुष को देखने आदि के विषय में सम्पूर्ण वर्णन प्रथम की भान्ति जान लेने के लिए सूत्रकार ने आरम्भ में कुछ पदों का उल्लेख कर के यत्र तत्र जाव-यावत् शब्दों का उल्लेख कर दिया मथुरा नगरी के राजमार्ग में गौतम स्वामी ने जिस पुरुष को देखा, उस के विषय में प्रथम के अध्ययनों में वर्णित किए गए पुरुषों की अपेक्षा जो विशेष देखा वह निम्नोक्त है- . ____ उसे श्रीदाम नरेश के अनुचर एक चत्वर में ले जाकर अग्नि के समान लालवर्ण के तपे. हुए एक लोहे के सिंहासन पर बैठा देते हैं और अग्नि के समान तपे हुए लोहे के कलशों में पिघला हुआ तांबा, सीसा-सिक्का और चूर्णादि मिश्रित संतप्त जल एवं संतप्त क्षारयुक्त तैल आदि को भर कर उन से उस पुरुष का अभिषेक करते हैं अर्थात् उस पर गिराते हैं, तथा अग्नि के समान तपे हुए हार, अर्द्धहार तथा मस्तकपट्ट एवं मुकुट पहनाते हैं। . उस की इस दशा को देख कर गौतम स्वामी का हृदय पसीज उठा तथा उस की दशा का ऊहापोह करते हुए भगवान् गौतम वहां से चल कर भगवान् के पास आए और आकर उन्होंने दृष्ट व्यक्ति का सब वृत्तान्त भगवान को कह सुनाया तथा साथ में उसके पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछा, आदि सम्पूर्ण वृत्तान्त पूर्व की भान्ति ही जान लेना चाहिए। तदनन्तर भगवान् ने गौतम स्वामी द्वारा किए गए उक्त पुरुष के पूर्व भवसम्बन्धी प्रश्न का उत्तर देना प्रारम्भ किया। ताम्र ताम्बे को कहते हैं / त्रपु शब्द रांगा, कलई, टीन, जस्ता (जिस्त) के लिए प्रयुक्त होता है। सीसक नीलापन लिए काले रंग की एक मूल धातु का नाम है, जिस को सिक्का कहा जाता है। कलकल शब्द का अर्थ टीकाकार अभयदेव सूरि के शब्दो में "-कलकलायते इति कलकलं चूर्णकादिमिश्रितजलं-" इस प्रकार है अर्थात् चूर्णक आदि से मिश्रित गरमगरम जल का परिचायक कलकल शब्द है। तथा कहीं कलकल शब्द का-कलकल शब्द करता हुआ गरम-गरम पानी, यह अर्थ भी उपलब्ध होता है। क्षार-तैल-उस तैल का नाम है जिस में क्षार वाला चूर्ण मिला हुआ हो। निग्गओ जाव गया-यहां का जाव-यावत् पद "-धम्मो कहिओ परिसा पङि-" 516 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन पदों का परिचायक है, अर्थात् भगवान् ने धर्म का उपदेश किया और परिषद्-जनता सुन * कर चली गई। .. "-जेढे जाव रायमग्गं-" यहां का जाव-यावत् पद "-अन्तेवासी गोयमे छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए,पोरिसीए-" इत्यादि पदों का परिचायक है। जिन के सम्बन्ध में तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। "-पासति जाव नरनारिसंपरिवुडं-" यहां पठित जाव-यावत् पद - अवओडगबन्धणं उक्कित्तकण्णनासं नेहत्तुप्पियगत्तं-" से ले कर "-कक्करसएहिं हम्ममाणं अणेग-" इन पदों का संसूचक है। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। "-अद्धहारं जाव पढें-" यहां के जाव-यावत् पद से "-तिसरयं पिणद्धति, पालंबं पिणद्धति, कडिसुत्तयं पिणद्धति-" इत्यादि पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। अर्द्धहार आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है १-अर्द्धहार-जिस में नौ सरी-लड़ी हों उसे अर्द्धहार कहते हैं / २-त्रिसरिकतीन लड़ियों वाले हार को त्रिसरिक कहा जाता है। ३-प्रालम्ब-गले में डालने की एक लम्बी माला के लिए प्रालम्ब शब्द प्रयुक्त होता है। ४-कटिसूत्र-कमर में पहनने की डोरी को कटिसूत्र कहते हैं। - "-चिन्ता तहेव जाव वागरेति-" यहां पठित चिन्ता शब्द का अभिप्राय चतुर्थ अध्ययन में लिखा जा चुका है। तथा-तहेव पद का अभिप्राय द्वितीय अध्याय में लिख दिया गया है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि प्रस्तुत में मथुरा नगरी का। तथा वहां भगवान् गौतम ने वाणिजग्राम के राजमार्ग पर देखे हुए दृश्य का वृत्तान्त भगवान् महावीर को सुनाया था जब कि यहां मथुरा नगरी के राजमार्ग पर देखे दृश्य का, एवं दृष्ट दृश्य के वर्णन करने वाले पाठ को तथा मथुरा नगरी के राजमार्ग पर अवलोकित व्यक्ति के पूर्वभव पृच्छासम्बन्धी पाठ को संक्षिप्त करने के लिए सूत्रकार ने जाव यावत् पद का आश्रयण किया है। जाव यावत् पद से विवक्षित पाठ निम्नोक्त है -त्ति कट्ट महुराए नगरीए उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापजत्तं समुयाणं गेण्हति 2 त्ता महुराणयरिं मझमझेण जाव पडिदंसेति, समणं भगवं महावीरं वन्दति, नमं-सति 2 त्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे महुराणयरीए तहेव जाव वेएति। से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसि ? जाव पच्चणभवमाणे विहरति?-इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। अन्तर मात्र प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [517 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि यहां मथुरा नगरी का। शेष वर्णन समान ही है। वागरेति-का भावार्थ वृत्तिकार के शब्दों में "-कोऽसौ जन्मान्तरे आसीत् ? इत्येवं गौतमः पृच्छति, भगवांस्तु व्याकरोति-कथयति-" इस प्रकार है। अर्थात् श्री गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा कि भगवन् ! वह पुरुष पूर्वजन्म में कौन था, इस के उत्तर में भगवान् उस के पूर्वजन्म का वर्णन करते हैं। अब सूत्रकार भगवान् महावीर स्वामी द्वारा बताए गए उस पुरुष के पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त का वर्णन करते हैं मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जम्बूद्दीवे दीवे भारहे वासे सीहपुरे णामं णग़रे होत्था, रिद्धः। तत्थ णं सीहपुरे णगरे सीहरहे णामं राया होत्था। तस्स णं सीहरहस्स रण्णो दुजोहणे णामं चारगपाले होत्था, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे।तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स इमे एयारूवे चारगभंडे होत्था। तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे अयकुंडीओ अप्पेगतियाओ तंबभरियाओ, अप्पेगतियाओ तउयभरियाओ, अप्पेगतियाओ सीसगभरियाओ, अप्पेगतियाओ कलकलभरियाओ, अप्लेगतियाओ खारतेल्लभरियाओ, अगणिकायंसि अद्दहियाओ चिट्ठन्ति। तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे उट्टियाओ आसमुत्तभरियाओ, अप्पेगतियाओ हत्थिमुत्तभरियाओ, अप्पेगतियाओ उट्टमुत्तभरियाओ, अप्पेगतियाओ गोमुत्तभरियाओ, अप्पेगतियाओ महिसमुत्तभरियाओ, अप्पेगतियाओ अयमुत्तभरियाओ, अप्पेगतियाओ एलमुत्तभरियाओ, बहुपडिपुण्णाओ चिट्ठन्ति। तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे हत्थंदुयाण य पायंदुयाण यहडीण य नियलाण य संकलाण य पुंजा निगरा य सण्णिक्खित्ता चिट्ठन्ति। तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे वेणुलयाण य वेत्तलयाण य चिंचालयाण य छिवाण य कसाण य वायरासीण य पुंजा णिगरा य चिट्ठन्ति। तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे सिलाण य लउडाण य मुग्गराण य कणंगराण य पुंजा णिगरा यचिट्ठन्ति।तस्सणंदुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे तंतीण य वरत्ताण य वागरजूण य बालरज्जूण य सुत्तरज्जूण य पुंजा णिगरा य चिट्ठन्ति। तस्स णं 518 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे असिपत्ताण य करपत्ताण य खुरपत्ताण य कलंबचीरपत्ताण य पुंजा णिगरा य चिट्ठन्ति। तस्स णंदुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे लोहखीलाण य कडसक्कराण य चम्मपट्टाण य अलपट्टाण य पुंजा णिगरा य चिट्ठन्ति।तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे सूईण य डंभणाण य कोहिल्लाण य पुंजा णिगरा य चिट्ठन्ति। तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे सत्थाण य पिप्पलाण य कुहाडाण य नहछेयणाण य दब्भाण य पुंजा जिंगरा य चिट्ठन्ति। ___छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे सिंहपुरं नाम नगरमभूत्, ऋद्धः / तत्र सिंहपुरे नगरे सिंहरथो नाम राजाभूत् / तस्य सिंहरथस्य राज्ञो दुर्योधनो नाम चारकपालोऽभूदधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानन्दः। तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य इदमेतद्रूपं चारकभांडमभवत्। तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवोऽयः कुण्ड्योऽप्येकास्ताम्रभृताः, अप्येकास्त्रपुभृताः, अप्येकाः सीसकभृताः, अप्येकाः कलकलभृताः, अप्येकाः क्षारतेलभृताः, अग्निकाये आदग्धास्तिष्ठति / तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बढ्याः उष्ट्रिकाः अश्वमूत्रभृताः ‘अप्येकाः हस्तिमूत्रभृताः, अप्येकाः उष्ट्रमूत्रभृताः, अप्येकाः, गोमूत्रभृताः, अप्येकाः महिषमूत्रभृताः अप्येकाः अजमूत्रभृताः, अप्येकाः एडमूत्रभृता: बहुपरिपूर्णास्तिष्ठन्ति। तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवो हस्तान्दुकानां च पादान्दुकानां च हडीनां च निगडानां च श्रृंखलानां च पुञ्जा निकराश्च संनिक्षिप्तास्तिष्ठन्ति। तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवो वेणुलतानां च वेत्रलतानां च चिंचालतानां च छिवाणां (श्लक्ष्णचर्मकशानां) च कसानां च वल्करश्मीनां च पुंजा निकराश्च तिष्ठन्ति / तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवः शिलानां च लकुटानां च मुद्गराणां च कनङ्गराणां च पुजा निकराश्च तिष्ठन्तिा तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवः तंत्रीणां च वरत्राणां च वल्करज्जूनां च वालरज्जूनां च सूत्ररज्जूनां च पुंजा निकराश्च सन्निक्षिप्तास्तिष्ठन्ति / तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवः असिपत्राणां च करपत्राणां च क्षरपत्राणां च कदम्बचीरपत्राणां च पुंजा निकराश्च तिष्ठन्ति। तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवो लोहकीलानां च कटशर्कराणां च (वंशशलाकानां च) चर्मपट्टानां च अलपट्टानां च प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [519 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंजा निकराश्च तिष्ठन्ति / तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवः सूचीनां च दम्भनानां च कौटिल्यानां च पुंजा निकराश्च तिष्ठन्ति / तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवः शस्त्राणां च पिप्पलानां च कुठाराणां च नखच्छेदनानां च दर्भाणां च पुंजा निकराश्च तिष्ठन्ति। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! तेणं कालेणं तेणं समएणंउस काल तथा उस समय में। इहेव-इसी। जम्बुद्दीवे-जम्बूद्वीप नामक। दीवे-द्वीप के अन्तर्गत / भारहे वासे-भारतवर्ष में। सीहपुरे-सिंहपुर / णाम-नाम का। णगरे-नगर। होत्था-था, जो कि। रिद्ध-ऋद्धभवनादि की बहुलता से युक्त, स्तिमित-आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों से रहित तथा समृद्ध-धन धान्यादि से परिपूर्ण, था। तत्थ णं-उस। सीहपुरे-सिंहपुर। णगरे-नगर में। सीहरहे-सिंहरथ। णाम-नाम का। राया-राजा। होत्था-था। तस्स णं-उस। सीहरहस्स-सिंहरथ। रण्णो-राजा का। दुजोहणे-दुर्योधन। णाम-नाम का। चारगपाले-चारकपाल अर्थात् कारागाररक्षक-जेलर। होत्था-था, जो कि / अहम्मिएअधर्मी। जाव-यावत्। दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द-बड़ी कठिनाई से सन्तुष्ट होने वाला था। तस्स णंउस। दुजोहणस्स-दुर्योधन। चारगपालस्स-चारकपाल का। इमे-यह। एयारूवं-इस प्रकार का। चारगभण्डे-चारकभाण्ड-कारागारसम्बन्धी उपकरण / होत्था-था। बहवे-अनेक। अयकुण्डीओ-लोहमय कुण्डियां थीं, जिन में से। अप्पेगतियाओ-कितनी एक। तंबभरियाओ-ताम्र से भरी हुई अर्थात् पूर्ण थीं। अप्पेगतियाओ-कितनी एक। तउयभरियाओ-त्रपु-रांगा से पूर्ण थीं। अप्पेगतियाओ-कई एक। सीसगभरियाओ-सीसक-सिक्के से पूर्ण थीं। अप्पेगतियाओ-कई एक / कलकलभरियाओ-चूर्णकादि मिश्रित जल से अथवा कलकल करते हुए अर्थात् उबलते हुए अत्युष्ण जल से भरी हुई थीं.। अप्पेगतियाओकितने एक। खारतेल्लभरियाओ-क्षारयुक्त तैल से परिपूर्ण थीं, जो कि। अगणिकायंसि-अग्निकायआग पर। अद्दहियाओ-स्थापित की हुई। चिट्ठन्ति-रहती थीं। तस्स णं-उस। दुजोहणस्स-दुर्योधन। चारगपालस्स-चारकपाल के। बहवे-बहुत से। उट्टियाओ-ऊंट के पृष्ठ भाग के समान बड़े-बड़े बर्तनमटके थे, जिन में से। अप्पेगतियाओ-कई एक तो। आसमुत्तभरियाओ-घोड़ों के मूत्र से भरे हुए थे। अप्पेगतियाओ-कई एक।हत्थिमुत्तभरियाओ-हाथियों के मूत्र से भरे हुए थे। अप्पेगतियाओ-कई एक। उट्टमुत्तभरियाओ-उष्ट्रों के मूत्र से भरे हुए थे। अप्पेगतियाओ-कई एक। गोमुत्तभरियाओ-गोमूत्र से भरे हुए थे। अप्पेगतियाओ-कई एक।अयमुत्तभरियाओ-अजों-बकरों के मूत्र से भरे हुए थे। अप्पेगतियाओ और कितनेक। एलमुत्तभरियाओ-भेड़ों के मूत्र से भरे हुए थे, ये सब मटके। बहुपडिपुण्णाओ-सर्वथा परिपूर्ण, अर्थात् मुंह तक भरे। चिट्ठन्ति-रहते थे। तस्स णं-उस। दुजोहणस्स-दुर्योधन। चारगपालस्सचारकपाल के। बहवे-अनेक। हत्थंदुयाण य-हस्तान्दुक-हाथ बांधने के लिए काष्ठ-निर्मित्त बन्धनविशेष। पायंदुयाण य-पादान्दुक-पादबन्धन के लिए काष्ठमय बंधनविशेष। हडीण य-हडि-काष्ठमय बन्धन-विशेष-काठ की बेड़ी। नियलाण य-निगड़-पांव में डालने की लोहमय बेड़ी। संकलाण यश्रृंखला-सांकल अथवा पांव के बांधने के लोहमय बन्धन, उन के। पुंजा-पुंज-शिखरयुक्त राशि। निगरा य-शिखररहित राशि-ढेर। सण्णिक्खित्ता-एकत्रित किए हुए। चिट्ठन्ति-रहते थे। तस्स णं-उस। 520] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय / [प्रथम श्रुतस्कंध Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुज्जोहणस्स-दुर्योधन। चारगपालस्स-चारकपाल के पास। बहवे-अनेक। वेणुलयाण य-वेणुलताबांस के चाबुक। वेत्तलयाण य-वेत्रलता-बैंत के चाबुकों / चिंचालयाण-इमली वृक्ष के चाबुकों। छिवाण य-चिक्कण चर्म के कोड़े। कसाण य-चर्मयुक्त चाबुक। वायरासीण य-वल्करश्मि अर्थात् वृक्षों की त्वचा से निर्मित चाबुक, उन के। पुंजा-समूह तथा। णिगरा य-ढेर। चिट्ठन्ति-पड़े रहते थे। तस्स णं-उस। दुजोहणस्स-दुर्योधन / चारगपालस्स-चारकपाल के पास। बहवे-अनेकविध। सिलाण य-शिलाओं। लउडाण य-लकड़ियों। मुग्गराण य-मुद्गरों। कणंगराण य-कनंगरों-जल में चलने वाले जहाज़ आदि को स्थिर करने वाले शस्त्रविशेषों के। पुंजा-पुंज-शिखरबद्ध राशि। णिगरा य-निकरशिखररहित ढेर।चिट्ठन्ति-रक्खे हुए थे। तस्स णं-उस। दुजोहणस्स-दुर्योधन / चारगपालस्स-चारकपाल के पास। बहवे-अनेक। तंतीण य-तंत्रियों-चमड़े की डोरियों। वरत्ताण य-एक प्रकार की रस्सियों। वागरन्जूण य-वल्करज्जुओं-वृक्षों की त्वचा से निर्मित रस्सियों। वालरज्जूण य-केशों से निर्मित रज्जुओं। सुत्तरज्जूण य-सूत की रस्सियों के। पुंजा-पुंज।णिगरा य-निकर-ढेर। सण्णिक्खित्ता-रक्खे।चिट्ठन्तिरहते थे। तस्स णं-उस। दुजोहणस्स-दुर्योधन। चारगपालस्स-चारकपाल के पास। बहवे-अनेक। असिपत्ताण य-कृपाणों। करपत्ताण य-आरों। खुरपत्ताण य-क्षुरकों-उस्तरों। कलम्बचीरपत्ताण य और कलंबचीर पत्र नामक शस्त्रविशेषों के। पुंजा-पुंज। णिगरा य-और निकर-ढेर। चिट्ठन्ति-रहते थे। तस्स णं-उस। दुजोहणस्स-दुर्योधन / चारगपालस्स-चारकपाल के पास / बहवे-अनेक। लोहखीलाण य-लोहे के कीलों। कडसक्कराण य-बांस की शलाकाओं-सलाइयों तथा। चम्मपट्टाण य-चर्मपट्टोंचमड़े के पट्टों। अलपट्टाण य-और अलपट्टों अर्थात् बिच्छु की पूंछ के आकार जैसे शस्त्रविशेषों के। पुंजा-सशिखर समूह। णिगरा य-सामान्य समूह। चिन्ति-रहते थे। तस्स णं-उस। दुजोहणस्सदुर्योधन / चारगपालस्स-चारकपाल के पास। बहवे-अनेक। सूईण य-सूइयों के, तथा। डंभणाण यदम्भनों अर्थात् अग्नि में तपा कर जिन से शरीर में दाग दिया जाता है-चिन्ह किया जाता है, इस प्रकार की लोहमय शलाकाओं के, तथा। कोट्टिल्लाण य-कौटिल्यों-लघु मुद्गर-विशेषों के। पुंजा-पुञ्ज / णिगरा य-और निकर। चिट्ठन्ति-रहते थे। तस्स णं-उस। दुजोहणस्स-दुर्योधन। चारगपालस्स-चारकपाल के। बहवे-अनेक। सत्थाण य-शस्त्रविशेषों। पिप्पलाण य-पिप्प्लों-छोटे-छोटे छुरों। कुहाडाणकुठारों-कुल्हाड़ों। नहछेयणाण य-नखच्छेदकों-नहेरनों। दब्भाण य-और दर्भ-डाभों अथवा दर्भ के अग्रभाग की भांति तीक्ष्ण हथियारों के। पुंजा-पुंज। णिगरा य-निकर। चिट्ठन्ति-रहते थे। मूलार्थ-हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में सिंहपुर नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित, और समृद्ध नगर था। वहां सिंहरथ नाम का राजा राज्य किया करता था। उसका दुर्योधन नाम का एक चारकपालकारागृहरक्षक-जेलर था। जो कि अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द-कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। उसके निम्नोक्त चारकभांड-कारागार के उपकरण थे। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [521 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकविध लोहमय कुंडियां थीं, जिन में से कई एक ताम्र से पूर्ण थीं, कई एक त्रपु से परिपूर्ण थीं, कई एक सीसक-सिक्के से पूर्ण थीं। कितनी एक चूर्ण मिश्रित जल से भरी हुई और कितनी एक क्षारयुक्त तैल से भरी हुई थीं जोकि अग्नि पर रक्खी रहती थीं। तथा दुर्योधन नामक उस चारकपाल-जेलर के पास अनेक उष्ट्रों के पृष्ठभाग के समान बड़े-बड़े बर्तन (मटके ) थे, उन में से कितने एक अश्वमूत्र से भरे हुए थे, तथा कितने एक हस्तिमूत्र से भरे हुए थे, कितने एक उष्ट्रमूत्र से, कितने एक गोमूत्र से, कितने एक महिष मूत्र से, कितने एक अजमूत्र और कितने एक भेड़ों के मूत्र से भरे हुए थे। तथा दुर्योधन नामक उस चारकपाल के अनेक हस्तान्दुक (हाथ में बांधने का काष्ठ-निर्मित बन्धनविशेष), पादान्दुक (पांव में बांधने का काष्टनिर्मित बन्धनविशेष) हडि-काठ की बेड़ी, निगड़-लोहे की बेड़ी और श्रृंखला-लोहे की जंजीर के पुंज (शिखरयुक्त राशि) तथा निकर (शिखररहित ढेर) लगाए हुए रक्खे थे। तथा उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेक वेणुलताओं-बांस के चाबुकों, बैंत के चाबुकों, चिंचा-इमली के चाबुकों, कोमल चर्म के चाबुकों तथा सामान्य चाबुकों (कोड़ों) और वल्कलरश्मियों-वृक्षों की त्वचा से निर्मित चाबुकों के पुंज और निकर रक्खे पड़े थे। __तथा उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेक शिलाओं, लकड़ियों, मुद्गरों और कनंगरों के पुंज और निकर रक्खे हुए थे। तथा उस दुर्योधन के पास अनेकविध चमड़े की रस्सियों, सामान्य रस्सियों, वल्कलरज्जुओं-वृक्षों की त्वचा-छाल से निर्मित रज्जुओं, केशरज्जुओं और सूत्र की रज्जुओं के पुंज और निकर रक्खे हुए थे। तथा उस दुर्योधन के पास असिपत्र (कृपाण), करपत्र ( आरा),क्षुरपत्र (उस्तरा) और कदम्बचीरपत्र (शस्त्रविशेष) के पुंज और निकर रक्खे हुए थे। तथा उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेकविध लोहकील, वंशशलाका, चर्मपट्ट, और अलपट्ट के पुंज और निकर लगे पड़े थे। तथा उस दुर्योधन कोतवाल के पास अनेक सूइयों, दंभनों, और लघु मुद्गरों के 1. चूर्णमिश्रित जल का अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि ऐसा पानी जिस का स्पर्श होते ही शरीर में . जलन उत्पन्न हो जाए और उसके अन्दर दाह पैदा कर दे। 522 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंज और निकर रक्खे हुए थे। . .. तथा उस दुर्योधन के पास अनेक प्रकार के शस्त्र, पिप्पल (लघु छुरे), कुठार, नखच्छेदक और दर्भ-डाभ के पुंज और निकर रक्खे हुए थे। ___टीका-प्रस्तुत अध्ययन में प्रधानतया जिस व्यक्ति का वर्णन करना सूत्रकार को अभीष्ट है, उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाने का उपक्रम करते हुए भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में सिंहपुर नाम का एक सुप्रसिद्ध और हर प्रकार की नगरोचित समृद्धि से परिपूर्ण नगर था। उसमें सिंहरथ नाम का एक राजा राज्य किया करता था जो कि राजोचित गुणों से युक्त एवं महान् प्रतापी था। उसका दुर्योधन नाम का एक चारकपाल-कारागार का अध्यक्ष (जेलर) था, जो कि नितान्त अधर्मी, पतित और कठोर मनोवृत्ति वाला अर्थात् भीषण दंड दे कर भी पीछा न छोड़ने वाला तथा परम असन्तोषी और साधुजन-विद्वेषी था। उसने कारागार के अन्दर-जेलखाने में दण्ड विधानार्थ नाना प्रकार के उपकरणों का संचय कर रक्खा था। उन उपकरणों को 10 भागों में बांटा जा सकता है। वे दश भाग निनोक्त हैं = (1) लोहे की अनेकों कुंडियां थीं, जो आग पर धरी रहती थीं। जिन में ताम्र, त्रपु, सीसक, कलकल और क्षारयुक्त तैल भरा रहता था। - (2) अनेकों उष्ट्रिका-बड़े-बड़े मटके थे, जो घोड़ों, हाथियों, ऊंटों, गायों, भैंसों, बकरों तथा भेड़ों के मूत्र से परिपूर्ण अर्थात् मुंह तक भरे रहते थे। (3) हस्तान्दुक, पादान्दुक, हडि, निगड और श्रृंखला इन सब के पुंज और निकर एकत्रित किए हुए रखे रहते थे। . . (4) वेणुलता, वेत्रलता, चिंचालता, छिवा-श्लक्ष्णचर्मकशा, कशा और वल्करश्मि, इन सबके पुंज और निकर रखे रहते थे। (5) शिला, लकुट, मुद्गर और कनंगर इन सब के पुंज और निकर रखे हुए रहते (6) तन्त्री, वरत्रा, वल्करज्जु, वालरज्जु और सूत्ररज्जु इन सब के पुंज और निकर रखे रहते थे। (7) असिपत्र, करपत्र, क्षुरपत्र और कदम्बचीरपत्र इन सब के पुंज और निकर रखे रहते थे। __(8) लोहकील, वंशशलाका, चर्मपट्ट और अलपट्ट इन सब के पुंज और निकर रखे रहते थे। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [523 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9) सूची, दम्भन और कौटिल्य इन सबके पुंज और निकर रखे रहते थे। (10) शस्त्रविशेष, पिप्पल, कुठार, नखच्छेदक और दर्भ इन सब के पुंज और निकर रखे रहते थे। उपरोक्त ताम्र आदि शब्दों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है- . ताम्र, त्रपु, सीसक, कलकल, क्षारतैल इन शब्दों का अर्थ पीछे लिखा जा चुका है। उष्ट्रिका का अर्थ है-"-उष्ट्रस्याकारः पृष्ठावयवः इवाकारो यस्याः सा-" अर्थात् ऊंट के आकार का लम्बी गर्दन वाला बर्तन। हिन्दी में जिसे मटका-माट कहा जाता है। हस्तान्दुकहाथ बांधने के लिए काठ आदि के बन्धनविशेष-हथकड़ी को कहते हैं। पादान्दुक का अर्थ है-पाद बांधने का काष्ठमय उपकरण-पांव की बेड़ी। हडि-शब्द काष्ठमय बंधन विशेष के लिए अर्थात् काठ की बेड़ी इस अर्थ में प्रयुक्त होता है। निगड-पांव में डालने की लोहमय बेड़ी का नाम है। श्रृंखला-सांकल को अथवा लोहे का बना हुआ पादबन्धन-बेड़ी को कहते ' हैं। शिखर-चोटी वाली राशि-ढेर को पुंज, और बिना शिखर वाली राशि को निकर कहते हैं। तात्पर्य यह है कि बहुत ऊंचे तथा विस्तृत ढेर का पुंज शब्द से ग्रहण होता है और सामान्य ढेर को निकर शब्द से बोधित किया जाता है। स्थल में उत्पन्न होने वाले बांस की छड़ी या चाबुक का नाम वेणुलता, तथा जल में उत्पन्न बांस की छड़ी या चाबुक को वेत्रलता कहते हैं। चिंचा-इमली का नाम है उसकी लकड़ी की लता-छड़ी या चाबुक को चिंचालता कहते हैं। छिवा यह देश्य-देशविशेष में बोला जाने वाला पद है, इस का अर्थ श्लक्षण कोमल चर्म का चाबुक-कोड़ा होता है। सामान्य चर्म युक्त यष्टिका-चाबुक का नाम कशा है। वल्करश्मि इस पद में दो शब्द हैं, एक वल्क दूसरा रश्मि। वल्क पेड़ की छाल को कहते हैं और रश्मि चाबुक का नाम है, तात्पर्य यह है कि वृक्षों की त्वचा से निर्मित्त चाबुक का नाम वल्करश्मि होता है। चौड़े पत्थर का नाम शिला है। लकुट लाठी, छड़ी, लक्कड़ और डण्डे का नाम है। मुद्गर एक शस्त्रविशेष को कहते हैं। कनर पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दो में-"-के पानीये ये नङ्गरा बोधिस्थनिश्चलीकरणपाषाणास्ते कनङ्गराः, कानङ्गराः वा ईषनङ्गरा इत्यर्थः-" इस प्रकार है। अर्थात् क नाम जल का है और नङ्गर उस पत्थर को कहते हैं जो समुद्र में जहाज़ को निश्चल-स्थिर करता है। तात्पर्य यह है कि समुद्र में जहाज़ को स्थिर करने वाला एक प्रकार का पत्थर कनङ्गर कहलाता है, आजकल लंगर कहा जाता है। टीकाकार के मत में कानङ्गर शब्द भी प्रयुक्त होता है, और उस का अर्थ जहाज को स्थिर करने वाले छोटेछोटे पत्थर-ऐसा होता है। 524 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंत्री शब्द चमड़े की रस्सी के लिए प्रयुक्त होता है। वरत्रा शब्द का पद्मचन्द्रकोषकार हस्तिकक्षस्थ रज्जु अर्थात् हाथी की पेटी, तथा अर्धमागधीकोषकार-चमड़े की रस्सी, तथा प्राकृतशब्दमहार्णवकोषकार-रस्सी और पण्डित मुनि श्री घासीलाल जी म० वरत्रा का-कपास के डोरों को मिला कर बटने से तैयार हुए मोटे-मोटे रस्से अथवा चमड़े का रस्सा-ऐसा अर्थ करते हैं। परन्तु प्रस्तुत में रज्जुप्रकरण होने के कारण वरत्रा शब्द चर्ममय रस्सी, या सामान्य रस्सी या कपास आदि का रस्सा-इन अर्थों का परिचायक है। वृक्षविशेष की त्वचा से निर्मित रज्जु का नाम वल्करज्जु है। केशों से निर्मित रज्जु वालरज्जुऔर सूत्र की रस्सी को सूत्ररज्जु कहते हैं। * असिपत्र तलवार को, करपत्र आरे (लोहे की दांतीदार पटरी, जिससे रेत कर लकड़ी चीरी जाती है, उसे आरा कहते हैं) को, क्षुरपत्र-उस्तरे (बाल मूंडने का औज़ार) को, और कदम्बचीरपत्र-शस्त्रविशेष को कहते हैं। असिंपत्र का अर्थ टीकाकार ने तलवार लिखा है। परन्तु इस में एक शंका उत्पन्न होती है कि असि शब्द ही जब तलवार अर्थ का बोध करा देता है तो फिर असि के साथ पत्र शब्द का संयोजन क्यों ? इस का उत्तर स्थानांग सूत्रीय टीका में दिया गया है। वहां लिखा है-जो तलवार पत्र के समान प्रतनु (पतली) होती है, वह असिपत्र कहलाती है, अर्थात् मात्र असि शब्द से तो सामान्य तलवार का बोध होता है जब कि उस के साथ प्रयुक्त हुआ पत्र यह शब्द उस में (तलवार में) पत्र के सदृश-समान प्रतनुता का बोध कराता है। इसी प्रकार करपत्र, क्षुरपत्र और कदम्बचीरपत्र के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए। ___ लोहे की कील-मेख को लोहकील कहते हैं / वंशशलाका का अर्थ बांस की सलाई होता है। अर्धमागधीकोषकार कडसक्करा-इस पद का संस्कृत प्रतिरूप "-कटशर्करा-" ऐसा मानते हैं। परन्तु प्राकृतशब्दमहार्णवकोषकार के मत में -कडसक्करा-यह देश्यदेशविशेष में बोला जाने वाला पद है। चर्मपट्ट-चमड़े के पट्टे का नाम है। अलपट्ट शब्द बिच्छू के पूंछ के आकार वाले शस्त्रविशेष के लिए अथवा बिच्छू की पूंछगत डंक के समान विषाक्त (जहरीले) शस्त्रविशेष के लिए प्रयुक्त होता है। सूची सूई का नाम है। दम्भन शब्द का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में-"यैरग्निप्रदीप्तैर्लोहशलाकादिभिः परशरीरेऽङ्क उत्पाद्यते तानि दम्भनानि-" इस प्रकार है, 1. पत्राणि पर्णानि तद्वत प्रतनुतया यानि अस्यादीनि तानि पत्राणि इति, असिः- खड्गः, स एव पत्रमसिपत्रं, करपत्रं क्रकचं येन दारु छिद्यते, क्षुरः-छुरः, स एव पत्रं क्षुरपत्रं, कदम्बचीरिकेति शस्त्रविशेष इति। (स्थानागसूत्रटीका, स्थान 4, उ०४) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [525 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् जिन संतप्त लोहशलाकाओं के द्वारा दूसरे के शरीर में चिन्ह किया जाए उन्हें दम्भन कहते हैं। स्वार्थ में क-प्रत्यय हो जाने पर दम्भनक शब्द का भी व्यवहार होता है। कौटिल्य शब्द छोटे मुद्गरों के लिए प्रयुक्त होता है। शस्त्र उस उपकरण को कहते हैं जिस से किसी को काटा या मारा जाए, अथवा गुप्ती (वह छड़ी जिस के अन्दर गुप्तरूप से किरच या पतली तलवार हो) आदि को शस्त्र कहा जाता है। पिप्पल छुरी को कहते हैं। कुल्हाड़े का नाम कुठार है। नहरनी (नाइयों का एक औज़ार जिस से नाखून काटे जाते हैं) का नाम नखच्छेदन है। दर्भ-दर्भ (बारीक घास) को कहते हैं अथवा दर्भ के अग्रभाग की तरह तीक्ष्ण हथियार का नाम भी दर्भ होता है। "-रिद्ध-" यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ को द्वितीय अध्याय में तथा "अहिम्मए जाव दुप्पडियाणंदे-" यहां के जाव-यावत् पद से विवक्षित पाठ को प्रथम अध्याय में लिखा जा चुका है। पाठक वहीं से देख सकते हैं। प्रस्तुत सूत्र में चारकपाल दुर्योधन के कारागारसम्बन्धी उपकरण-सामग्री का निर्देश किया गया है, अब अग्रिम सूत्र में उस के कृत्यों का वर्णन किया जाता है मूल-तते णं से दुजोहणे चारगपाले सीहरहस्स रण्णो बहवे चोरे य पारदारिए गंठिभेदे य रायावगारी य अणधारए य बालघाती य वीसंभघाती य जूतकारे य खंडपट्टे य पुरिसेहिं गेण्हावेति गेण्हावेत्ता उत्ताणए पाडेति 2 त्ता लोहदंडेण मुहं विहाडेति 2 त्ता अप्पेगतिए तत्ततंबं पज्जेति, अप्पेगतिए तउयं पजेति, अप्पेगतिए सीसगं पजेति, अप्पेगतिए कलकलं पजेति, अप्पेगतिए खारतेल्लं पजेति।अप्पेगतियाणं तेणंचेव अभिसेगंकारेति।अप्पेगतिए उत्ताणे पाडेति 2 त्ता आसमुत्तं पजेति, हत्थिमुत्तं पज्जेति जाव एलमुत्तं पज्जेति। अप्पेगतिए हेटामुहे पाडेति 2 त्ता घलघलस्स वम्मावेति 2 त्ता अप्पेगतियाणं तेण चेव ओवीलं दलयति। अप्पेगतिए हत्थंदुयाहिं बंधावेइ, अप्पेगतिए पायंदुयाहि बन्धावेइ, अप्पेगतिए हडिबंधणे करेति, अप्पेगतिए नियलबंधणे करेति, अप्पेगतिए संकोडियमोडियए करेति, अप्पेगतिए संकलबंधणे करेति अप्पेगतिए हत्थछिन्नए करेति जाव सत्थोवाडिए करेति, अप्पेगतिए वेणुलयाहि य जाव वायरासीहि य हणावेति। अप्पेगतिए उत्ताणए कारवेति, उरे सिलं दलावेति 2 त्ता लउलं छुभावेति 2 त्ता पुरिसेहिं उक्कंपावेति। अप्पेगतिए 526 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंतीहि य जाव सुत्तरज्जूहि य हत्थेसु य पादेसु य बंधावेति 2 त्ता अगडंसि - उच्चूलं बोलगं पज्जेति। अप्पेगतिए असिपत्तेहि य जाव कलंबचीरपत्तेहि य 'तच्छावेति खारतेल्लेणं अब्भंगावेति, अप्पेगतियाणं णिडालेसु य अवडूसु य कोप्परेसु य जाणुसु य खलुएसु य लोहकीलए य कडसक्कराओ य दवावेति, अलए भंजावेति। अप्पेगतियाणं सूईओ य दंभणाणि य हत्थंगुलियासु य पायंगुलियासु य कोट्टिल्लएहिं आओडावेति 2 त्ता भूमिं कंडूयावेति।अप्पेगतियाणं सत्थएहि य जाव नहच्छेदणएहि य अंगं पच्छावेइ, दब्भेहि य कुसेहि य उल्लचम्मेहि य वेढावेति, आयवंसि दलयति 2 त्ता सुक्खे समाणे चडचडस्स उप्पाडेति। तते णं से दुजोहणे चारगपालए एयकम्मे 4 सुबहुं पावं कम्म समजिणित्ता एगतीसं वाससताइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमट्ठितिएसु नेरइएसु उववन्ने। . छाया-ततः सः दुर्योधनः चारकपालः सिंहरथस्य राज्ञोऽपकारिणश्च ऋणधारकांश्च बालघातिनश्च विश्रम्भघातिनश्च द्यूतकारांश्च धूर्ताश्च पुरुषैाहयति ग्राहयित्वा उत्तानान् पातयति, लोहदंडेन मुखमुद्घाटयति, उदघाट्य अप्येकान् तप्ततानं पाययति, अप्येकान् वपुः पाययति, अप्येकान् सीसकं पाययति, अप्येकान् कलकलं पाययति, अप्येकान् क्षारतैलं पाययति / अप्येकेषां तेनैवाभिषेकं कारयति / अप्येकानुत्तानान् पातयति 2 अश्वमूत्रं पाययति अप्येकान् हस्तिमूत्रं पाययति, यावदेडमूत्रं पाययति। अप्येकानधोमुखान् पाययति 2 घलघलं वमयति 2 अप्येकेषां तेनैवावपीडं दापयति। अप्येकान् हस्तान्दुकैर्बन्धयति अप्येकान् पादान्दुकैः बन्धयति, अप्येकान् हडिबंधनान् करोति, अप्येकान् निगड़बन्धनान् करोति, अप्येकान् संकोचितामेडितान् करोति, अप्येकान् शृंखलाबन्धनान् करोति, अप्येकान् छिन्नहस्तान् करोति, यावच्छस्त्रोत्पाटितान् करोति, अप्येकान् वेणुलताभिश्च यावद् वल्करश्मिभिश्च घातयति / अप्येकानुत्तानान् कारयति, उरसि शिलां दापयति 2 लकुटं क्षेपयति, पुरुषैरुत्कम्पयति। अप्येकान् तन्त्रीभिश्च यावत् सूत्ररज्जुभिश्च हस्तेषु च पादेषु च बन्धयति 2 अवटेऽवचूलं ब्रोडनं पाययति / अप्येकानसिपत्रैश्च यावत् कदम्बचीरपत्रैश्च प्रतक्षयति क्षारतैलेनाभ्यंगयति। अप्येकेषां ललाटेषु च अवटुषु च कूपरेषु च जानुषु च गुल्फेषु च लोहकीलकान् प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [527 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंशशलाकांश्च दापयति, अलानि भंजयति (प्रवेशयति) अप्येकेषां सूचीश्च दम्भनानि . च हस्तांगुलिषु च पादांगुलिषु च कौटिल्यैराखोटयति 2 भूमिं कंडूयति। अप्येकेषां शस्त्रकैश्च यावत् नखच्छेदनैश्चांगं प्रतक्षयति / दर्भश्च कुशैश्चार्द्रचर्मभिश्च वेष्टयति, आतपे दापयति, शुष्के सति चडचडमुत्पाटयति। ततः स दुर्योधनः चारकपालः एतत्कर्मा 4 सुबहु पापं कर्म समर्प्य एकत्रिंशतं वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा षष्ठ्यां पृथिव्यामुत्कर्षेण द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूपपन्नः। . पदार्थ-ततेणं-तदनन्तर।से-वह। दुज्जोहणे-दुर्योधन / चारगपाले-चारकपाल अर्थात् कारागृह का प्रधान अधिकारी-जेलर। सीहरहस्स-सिंहरथ। रणो-राजा के। बहवे-अनेक। चोरे य-चोरों को। पारदारिए य-परस्त्री-लम्पटों को। गंठिभेदे य-गांठकतरों को। रायावगारी य-राजा के अपकारियोंशत्रुओं को, तथा। अणधारए य-ऋणधारकों-कर्जा नहीं देने वालों को अर्थात् जो ऋण लेकर उसे वापिस . नहीं करते हैं, उन को। बालघाती य-बालघातियों-बालकों की हत्या करने वालों को। वीसंभघाती यविश्वास-घातकों को। जूतकारे य-जुआरियों को अर्थात् जुआ खेलने वालों को। खण्डपट्टे य-और धूर्तों को। पुरिसेहि-पुरुषों के द्वारा। गेण्हावेति गेण्हावेत्ता-पकड़वाता है, पकड़वा कर। उत्ताणएऊर्ध्वमुख-सीधा, पंजाबी भाषा में जिसे चित्त कहते हैं। पाडेति-गिराता है, तदनन्तर। लोहदंडेणंलोहदण्ड से। मुहं-मुख को। विहाडेति २-खुलवाता है, खुलवा कर। अप्पेगतिए-कई एक को। तउयंतत्तं तंबं-तप्त-पिघला हुआ ताम्र-ताम्बा। पजेति-पिलाता है। अप्पेगतिए-कई एक को। त्रपु-रांगा। . पज्जेति-पिलाता है।अप्पेगतिए-कितने एक को। सीसगं-सीसक-सिक्का पन्जेति-पिलाता है।अप्पेगतिएकितने एक को। कलकलं-चूर्णमिश्रित जल को अथवा कलकल शब्द करते हुए गरम-गरम पानी को। पज्जेति-पिलाता है। अप्पेगतिए-कितने एक को। खारतेल्लं-क्षारयुक्त तेल को। पजेति-पिलाता है। अप्पेगतियाणं-कितनों का। तेणं चेव-उसी तैल से। अभिसेगं कारेति-अभिषेक-स्नान कराता है। अप्पेगतिए-कितनों को। उत्ताणे-ऊर्ध्वमुख-सीधा / पाडेति २-गिराता है, गिरा कर / आसमुत्तं-अश्वमूत्र / पजेति-पिलाता है। अप्पेगतिए-कितनों को। हत्थिमुत्तं-हस्तीमूत्र। पज्जेति-पिलाता है। जाव-यावत्। एलमुत्तं-एडमूत्र-भेड़ों का मूत्र। पन्जेति-पिलाता है। अप्पेगतिए-कितनों को। हेट्ठामुहे-अधोमुख ओंधा। पाडेति २-गिराता है, गिरा कर। घलघलस्सर-घल घल शब्द पूर्वक। वम्मावेति-वमन कराता है। अप्पेगतियाणं-कितनों को। तेणं-चेव-उसी वान्त पदार्थ से। ओवीलं-पीड़ा। दलयति-देता है। अप्पेगतिए-कितनों को। हत्थंदुयाहिं-हस्तान्दुकों-हाथ में बांधने वाले काष्ठनिर्मित बन्धनविशेषों से। बंधावेइ-बंधवाता है / अप्पेगतिए-कितनों को। पायंदुयाहिं-पादान्दुकों-पांव में बांधने योग्य काष्ठनिर्मित 1. अलानि भञ्जयति वृश्चिककण्टकान् शरीरे प्रवेशयतीत्यर्थः। (वृत्तिकारः) 2. खण्डपट्ट शब्द का विस्तार-पूर्वक अर्थ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। 3. इस पद के स्थान में कहीं-छडछडस्स-ऐसा, तथा-बलस्स-ऐसा पाठ भी मिलता है। "-छडछडस्स-" का अर्थ है -छड 2 शब्द पूर्वक, तथा "-बलस्स-" का -बलपूर्वक-ऐसा अर्थ होता है। 528 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधनविशेषों से। बंधावेइ-बंधवाता है, तथा। अप्पेगइए-कितनों को। हडिबंधणे-काष्ठमय बंधन (काठ की बेड़ी) से युक्त / करेति-करता है। अप्पेगतिए-कितनों के। नियलबंधणे-निगडबंधन-लोहमय पांव की बेड़ी से युक्त। करेति-करता है। अप्पेगतिए-कितनों के अंगों का। संकोडियमोडियए करेति* संकोचन और मरोटन करता है, अर्थात् अंगों को सिकोडता और मरोड़ता है। अप्पेगतिए-कितनों को। संकलबंधणे करेति-सांकलों के बन्धन से युक्त करता है अर्थात् सांकलों से बांधता है। अप्पेगतिएकितनों को। हत्थछिण्णए करेति-हस्तच्छेदन से युक्त करता है अर्थात् हाथ काटता है। जाव-यावत् / सत्थोवाडिए करेति-शस्त्रों से उत्पाटित-विदारित करता है अर्थात् शस्त्रों से शरीरावयवों को काटता है। अप्पेगतिए-कितनों को। वेणुलयाहि य-वेणुलताओं-बैत की छड़ियों से। जाव-यावत्। वायरासीहि य-वल्कल-वृक्षत्वचा के चाबुकों से।हणावेति-मरवाता है। अप्पेगतिए-कितनों को। उत्ताणए-ऊर्ध्वमुख। कारवेति २-करवाता है, करवा कर। उरे-छाती पर। सिलं-शिला को। दलावेति २-धरवाता है, धरवाकर। लउलं-लकुट-लक्कड़ को। छुभावेति २-रखवाता है, रखवा कर। पुरिसेहि-पुरुषों द्वारा। उक्कंपावेति-उत्कम्पन करवाता है। अप्पेगतिए-कितनों को। तंतीहि य-चर्म की रस्सियों के द्वारा। जाव-यावत्। सुत्तरज्जूहि य-सूत्ररज्जुओं से। हत्थेसु य-हाथों को, तथा। पादेसु य-पैरों को। बंधावेति २-बंधवाता है, बंधवाकर। अगडंसि-अवट-कूप में अथवा कूप के समीप गौ, भैंस आदि पशुओं को जल पिलाने के लिए बनाए गए गर्त में। उच्चूलं-अवचूल-ऊंधा सिर अर्थात् पैर ऊपर और सिर नीचे कर खड़ा किए हुए का। बोलगं'-मज्जन / पज्जेति-कराता है अर्थात् गोते खिलाता है। अप्पेगतिए-कितनों को।असिपत्तेहि य-असिपत्रों-तलवारों से। जाव-यावत्। कलंबचीरपत्तेहि य-कलंबचीरपत्रों-शस्त्रविशेषों से। तच्छावेति २-तच्छवाता है, तच्छवा कर। खारतेल्लेण-क्षारमिश्रित तैल से। अब्भंगावेति-मर्दन कराता है। अप्पेगतियाणं-कितनों के।णिडालेसु य-मस्तकों में, तथा। अवसु य-कंठमणियों-घंडियों में, तथा। कोप्परेसु य-कूपरो-कोहनियों में। जाणुसु य-जानुओं में, तथा। खलुएसु य-गुल्फों -गिट्टों में। लोहकीलए य-लोहे के कीलों को। कडसक्कराओ य-तथा बांस की शलाकाओं को। दवावेतिदिलवाता है-ठुकवाता है। अलए-वृश्चिककंटकों-बिच्छू के कांटों को। भंजावेति-शरीर में प्रविष्ट कराता है। अप्पेगतियाणं-कितनों के। हत्गुलियासु य-हाथों की अंगुलियों में, तथा। पायंगुलियासु य-पैरों की अंगुलियों में। कोट्टिल्लवएहि-मुद्गरों के द्वारा। सूइओ य-सूइयां। दंभणाणि य-दंभनों अर्थात् दागने के शस्त्रविशेषों को। आओडावेति २-प्रविष्ट कराता है, प्रविष्ट करा कर। भूमि-भूमि को। कंडूयावेति-खुदवाता है। अप्पेगइयाणं-कितनों के। सत्थएहि-शस्त्रविशेषों से। जाव-यावत् / नखच्छेदणएहिं य-नखच्छेदनक-नेहरनों के द्वारा / अंग-अंग को। तच्छावेइ-तच्छवाता है। दब्भेहि यदर्भो मूलसहित कुशाओं से। कुसेहि य-कुशाओं-मूल रहित कुशाओं से। उल्लचम्मेहि य-आर्द्रचर्मों से। 1. इस स्थान में -पाणगं-ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है, जिस का अर्थ है-पानी। तात्पर्य यह है कि दुर्योधन चारकपाल अपराधियों को कूप में लटका कर उन से उस का पानी पिलवाता था। 2. एक प्रकार के घास का नाम दर्भ या कुशा है। वृत्तिकार की मान्यतानुसार जब कि वह घास समूल हो तो दर्भ कहलाता है और यदि वह मूलरहित हो तो उसे कुशा कहते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [529 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेढावेति २-बंधवाता है, बंधवाकर। आयवंसि-आतप-धूप में। दलयति २-डलवा देता है, डलवाकर। सुक्खे समाणे-सूखने पर। चडचडस्स-चड़चड़ शब्द पूर्वक, उनका। उप्पाडेति-उत्पाटन कराता है। तते णं-तदनन्तर / से-वह / दुजोहणे-दुर्योधन। चारगपालए-चारकपाल-कारागाररक्षक। एयकम्मे ४एतत्कर्मा-यही जिस का कर्म बना हुआ था, एतत्प्रधान-यही कर्म जिसका प्रधान बना हुआ था, एतद्विद्ययही जिस की विद्या-विज्ञान था, एतत्समाचार-यही जिस के विश्वासानुसार सर्वोत्तम आचरण था, ऐसा बना हुआ। सुबहुं-अत्यधिक। पावं कम्म-पाप कर्म का। समजिणित्ता-उपार्जन कर के। एगतीसं वाससयाई३१ सौ वर्ष की। परमाउं-परम आयु को। पालइत्ता-पाल कर-भोग कर। कालमासे-कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर। कालं किच्चा-काल करके। छट्ठीए पुढवीए-छठी नरक में। उक्कोसेणं-उत्कृष्टरूप से। बावीससागरोवमट्ठितिएसु-बाईस सागरोपम की स्थिति वाले। नेरइएसुनारकियों में। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। मूलार्थ-तदनन्तर वह दुर्योधन नामक चारकपाल-कारागार का प्रधान नायक अर्थात् जेलर सिंहरथ राजा के अनेक चोर, पारदारिक, ग्रन्थिभेदक, राजापकारी, ऋणधारक, बालघाती, विश्वासघाती, जुआरी और धूर्त पुरुषों को राजपुरुषों के द्वारा पकड़वा कर ऊर्ध्वमुख गिराता है, गिरा कर लोहदंड से मुख का उद्घाटन करता है अर्थात् खोलता है, मुख खोल कर कितने एक को तप्त-ढला हुआ ताम्र-तांबा पिलाता है, कितने एक को त्रपु, सीसक, चूर्णादि मिश्रित जल अथवा कलकल करता हुआ उष्णात्युष्ण जल और क्षारयुक्त तैल पिलाता है, तथा कितनों को उन्हीं से अभिषेक कराता है। कितनों को ऊर्ध्वमुख अर्थात् सीधा गिरा कर उन्हें अश्वमूत्र, हस्तिमूत्र, यावत् एडों-भेड़ों का मूत्र पिलाता है। कितनों को अधोमुख गिरा कर घलघल शब्द पूर्वक वमन कराता है, तथा कितनों को उसी के द्वारा पीड़ा देता है। कितनों को हस्तान्दुकों, पादान्दुकों, हडियों, तथा निगड़ों के बन्धनों से युक्त करता है। कितनों के शरीर को सिकोड़ता और मरोड़ता है। कितनों को श्रृंखलाओं-सांकलों से बान्धता है।तथा कितनों का हस्तच्छेदन यावत् शस्त्रों से उत्पाटन कराता है। कितनों को वेणुलताओं यावत् वल्करश्मियों-वृक्षत्वचा के चाबुकों से पिटवाता है। कितनों को ऊर्ध्वमुख गिरा कर उनके वक्षःस्थल पर शिला और लक्कड़ धरा कर राजपुरुषों के द्वारा उस शिला तथा लक्कड़ का उत्कंपन कराता है। कितनों के तंत्रियों यावत् सूत्ररज्जुओं के द्वारा हाथों और पैरों को बंधवाता है बन्धवा कर कूप में उलटा लटकाता है, लटका कर गोते खिलाता है तथा कितनों का असिपत्रों यावत् कलम्बचीरपत्रों से छेदन कराता है और उस पर क्षारयुक्त तैल की मालिश कराता है। 530 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितनों के मस्तकों, अवटुओं-घंडियों, जानुओं और गुल्फों-गिट्टों में लोहकीलों तथा वंशशलाकाओं को ठुकवाता है, तथा वृश्चिककण्टकों-बिच्छु के कांटों को शरीर में प्रविष्ट कराता है। कितनों की हस्तांगुलियों और पादांगुलियों में मुद्गरों के द्वारा सूइयां और दम्भनों को प्रविष्ट कराता है तथा भूमि को खुदवाता है। कितनों को शस्त्रों यावत् नहेरनों से अंग छिलवाता है और दर्भो-मूलसहित कुशाओं, कुशाओं-बिना जड की कुशाओं तथा आर्द्र-चर्मों के द्वारा बंधवा देता है। तदनन्तर धूप में गिरा कर उन के सूखने पर चड़चड़ शब्द पूर्वक उनका उत्पाटन कराता है। इस प्रकार वह दुर्योधन चारकपाल इन्हीं निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों को अपना कर्म बनाए हुए, इन्हीं में प्रधानता लिए हुए, इन्हीं को अपनी विद्या-विज्ञान बनाए हुए तथा इन्हीं दूषित प्रवृत्तियों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके 31 सौ वर्ष की परमायु को भोग कर कालमास में काल करके छठी नरक में उत्कृष्ट 22 सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारकी रूप से उत्पन्न हुआ। टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह पता चलता है कि आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को उपलब्ध करना होता है। मोक्ष का एक मात्र साधन है-धर्म। धर्म के दो भेद होते हैं। पहले का नाम सागार धर्म है और दूसरे का नाम है-अनगार धर्म / सागार धर्म गृहस्थ धर्म को कहते हैं और अनगार धर्म साधुधर्म को। प्रस्तुत में हमें गृहस्थ-धर्म के पालन के सम्बन्ध में कुछ विचार करना इष्ट है। .. ___अहिंसा आदि व्रतों के पालन का विधान शास्त्रों में गृहस्थ और साधु दोनों के लिए पाया जाता है, परन्तु गृहस्थ के लिए इन का सर्वथा पालन करना अशक्य होता है, गृहस्थ संसार में निवास करता है, अत: उस पर परिवार, समाज और राष्ट्र का उत्तरदायित्व रहता है। उसे अपने विरोधी-प्रतिद्वन्द्वी लोगों से संघर्ष करना पड़ता है, जीवन-यात्रा के लिए सावध मार्ग अपनाना होता है। परिग्रह का जाल बुनना होता है। न्याय मार्ग पर चलते हुए भी अपने व्यक्तिगत या सामाजिक स्वार्थों के लिए कहीं न कहीं किसी से टकराना पड़ जाता है। अतः वह पूर्णतया निरपेक्ष स्वात्मपरिणति रूप अखण्ड अहिंसा आदि व्रतों का पालन नहीं कर सकता। . तथापि गृहस्थ इन्द्रियों का गुलाम नहीं होता, उन्हें वश में रखने में प्रयत्नशील रहता है। स्त्री के मोह में वह अपना अनासक्त मार्ग नहीं भूलता। महारंभ और महापरिग्रह से दूर रहता है। भयंकर से भयंकर संकटों के आने पर भी अपने धर्म से भ्रष्ट नहीं होता। लोकरूढ़ि का प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [531 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहारा ले कर वह भेड़चाल नहीं अपनाता प्रत्युत सत्य के आलोक में अपने हिताहित का निरीक्षण करता रहता है। श्रेष्ठ एवं निर्दोष धर्माचरण की साधना में किसी प्रकार की भी लज्जा एवं हिचकिचाहट नहीं करता। अपने पक्ष का मिथ्या आग्रह कभी नहीं करता। परिवार आदि का पालन-पोषण करता हुआ भी अन्तर हृदय से अपने को अलग रखता है। पानी में कमल बन कर रहता है। अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति में कर्त्तव्य को नहीं भूलने पाता। विवेक उसके जीवन का संगी होता है। उसके बिना जीवन के पथ पर वह एक पग भी आगे नहीं सरकता। ऐसा गृहस्थ अपने वर्तमान को जहां सुखद तथा सफल बनाता है, वहां अपने भविष्य को भी उज्ज्वल समुज्वल एवं अत्युज्ज्वल बना डालता है। विवेकी जीव पाप का बन्ध नहीं करता, जब कि अविवेकी पाप के बोझ से व्याकुल हो उठता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने विवेक को अपनाने पर और अविवेक को छोड़ने पर जोर दिया है। विवेकपूर्ण प्रवृत्तियां पापबन्ध का कारण नहीं होतीं, यह एक उदाहरण से समझिये एक डॉक्टर किसी रोगी का ऑपरेशन (Operation) करता है। रोगी रोता है, चिल्लाता है, पर डाक्टर अपना काम किए जाता है। वह स्वास्थ्यसंवर्धन के विचारों से उस के व्रणों में से पीव निकालता हुआ उसके रोने पर तनिक ध्यान नहीं देता। ऐसी स्थिति में वह अपना कर्त्तव्य निभाने का पुण्योत्पादक स्तुत्य प्रयास कर रहा है। इसके विपरीत जो डॉक्टर लोभ के कारण या किसी द्वेषादि के कारण रोगी के रोग का उपशमनं नहीं करता या उसे बढ़ाने का प्रयास करता है तो वह पाप का बन्ध करता है। इन्हीं सदसद् प्रवृत्तियों के कारण मनुष्य विवेकी और अविवेकी बन कर पुण्य और पाप का बन्ध कर लेता है। एक और उदाहरण लीजिए-कल्पना करो कि एक व्यक्ति को थानेदार बना दिया गया। थानेदार बन जाने के अनन्तर उस व्यक्ति का कर्त्तव्य हो जाता है कि वह चोर डाकू आदि को पकड़ कर उसे उसके अपराध का दण्ड दिलाए। परन्तु यदि किसी प्रकार के लालच में आकर उसे छोड़ दे या उसके अपराध की अपेक्षा उसे अधिक दण्ड दिलाए तो वह अपने कर्तव्य का पालन या अधिकार का उचित उपयोग नहीं करता। उस का यह व्यवहार अवश्य निन्दनीय, अवांछनीय एवं विवेकशून्य है, और इस आचरण से वह अवश्य ही पाप कर्म का बन्ध करेगा। तात्पर्य यह है कि लोभादि के किसी भी कारण से अपने कर्त्तव्य को भुला कर अन्याय में रत रहने से मनुष्य पाप कर्म का बन्ध करता है। दुर्योधन कारागृहरक्षक-जेलर के जीवन में इसी प्रमादजन्य अविवेक की अधिक मात्रा दिखाई देती है। अपराधियों को दण्ड देने के लिए उसने जिस साधन-सामग्री को अपने पास 532 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचित कर रक्खा है, उस को देखते हुए प्रतीत होता है कि अपराधियों को दण्ड देने में उस के परिणाम अत्यन्त कठोर और अमर्यादित रहते थे, तथा महाराज सिंहरथ के राज्य में जो लोग चोरी करते, दूसरों की स्त्रियों का अपहरण करते, लोगों की गांठ कतर कर धन चुराते, राज्य को हानि पहुँचाने का यत्न करते तथा बालहत्या और विश्वासघात करते, उन को दुर्योधन कोतवाल जो दण्ड देता उस पर से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि दुर्योधन चारकपाल के सन्मुख अपराधी के अपराध और उसके दंड का कोई मापदण्ड नहीं था। उसकी मनोवृत्ति इतनी कठोर और निर्दय बन चुकी थी कि थोड़े से अपराध पर भी अपराधी को अधिक से अधिक दण्ड देना ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन चुका था, और इसी में वह अपने जीवन को सफल एवं कृतकृत्य मानता था। अपराधी को दंड न देने का किसी धर्मशास्त्र में उल्लेख नहीं है। शासन व्यवस्था और लोकमर्यादा को कायम रखने के लिए दण्डविधान की आवश्यकता को सभी नीतिज्ञ विद्वानों ने स्वीकार किया है, परन्तु उसका मर्यादित आचरण जितना प्रशंसनीय है, उतना ही निन्दनीय उसका विवेकशून्य अमर्यादित आचरण है, जोकि भीषणातिभीषण नारकीय दुःखों के उपभोग कराने का कारण बनता हुआ आत्मा को जन्म-मरण के परंपराचक्र में भी धकेल देता है। . दुर्योधन चारकपाल ने दण्डविधान में जो प्रमादजन्य अथच मनमाना आचरण किया, उसी के फलस्वरूप उस को छठी नरक में 22 सागरोपम के बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषण यातनाओं का अनुभव करने के अतिरिक्त यहां पर नन्दीषेण के भव में भी स्वकृत पापकर्मजन्य अशुभ विपाक-फल का भयानक अनुभव करना पड़ा है। ___"-अप्पेगतियाणं तेण चेव ओवीलं दलयति-" इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार श्री अभयदेव सरि के शब्दों में "-तेनैव वान्तेन अवपीडं शेखरं, मस्तके तस्यारोपणात् उपपीडां वा वेदनां दलयति त्ति करोति-" इस प्रकार है। अर्थात् पूर्व कराई हुई वमन को अपराधी के सिर पर रख कर उसे पीड़ित करता था, अर्थात् अधिक से अधिक अपमानित करता था। परन्तु श्रद्धेय पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म० "-अप्पेगतियाणं तेणं चेव ओवीलं दलयति-" इन पदों का अर्थ निम्नोक्त करते हैं "-अप्येकान् तेन वान्ताशनादिना पुनरपि अवपीडां वेदनां दापयति कारयतीत्यर्थः-" अर्थात् कई एक को वमन कराता था पुनः उसी वान्त पदार्थ को उन्हें 1. दुर्योधन चारकपाल जिस विधि से अपराधियों को दण्डित एवं विडम्बित किया करता था, उस का वर्णन मूलार्थ में किया जा चुका है। 2. नन्दीषेण के सम्बन्ध में कुछ पहले बतलाया जा चुका है तथा शेष आगे बतलाया जाएगा। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [533 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खिलाता था, इस प्रकार वह दुर्योधन चारकपाल कई एक को प्राणान्तक कष्ट पहुँचाया करता . था। "-सत्थोवाडिए-" पद का अर्थ है-शस्त्र से उत्पाटित अर्थात् खड्ग आदि शस्त्रों से कई एक का विदारण कर डालता था, उन्हें फाड़ देता था। "-अगडंसि उच्चूलं बोलगंपज्जेति-" इन पदों में प्रयुक्त अगड़-शब्द के- "कूप अथवा कूप के समीप पशुओं को जल पिलाने के लिए जो स्थान बनाया जाता है, वह-" ऐसे दो अर्थ होते हैं। अवचूल का अर्थ है-सर को नीचे और पांव को ऊपर करके लटका हुआ। बोलग-यह देश्य-देशविशेष में बोला जाने वाला पद है। जिस का अर्थ डूबना होता है और पज्जेति-का अर्थ-पिलाता है। परन्तु प्रस्तुत में -बोलगं पजेति- यह लोकोक्ति-मुहावरा है, जो गोते खिलाता है, इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि अपराधियों को सर नीचे और पांव ऊंचे करके दुर्योधन चारकपाल कूपादि में गोते खिला कर अत्यधिक पीड़ित किया करता था। ___ -उरे सिलं दलावेइ-की व्याख्या टीकाकार ने "-उरसि पाषाणं दापयति तदुपरि लगुडं दापयति, ततस्तं पुरुषाभ्यां लगुडोभयप्रतिनिविष्टाभ्यां लगुडमुत्कंपयति, अतीव चालयति यथाऽपराधिनोऽस्थीनी दल्यन्ते इति भावः-" इस प्रकार है, अर्थात् अपराधी को सीधा लिटा कर उस की छाती पर एक विशाल शिला रखवाता है और उस पर एक लम्बा लक्कड़ धरा कर उस के दोनों ओर पुरुषों को बिठाकर उसे नीचे ऊपर कराता है, जिस से अपराधी के शरीर की अस्थियां टूट जाएं और उसे अधिक कष्ट पहुंचे। सारांश यह है कि अपराधी को अधिक से अधिक भयंकर तथा अमर्यादित कष्ट पहुंचे। सारांश यह है कि अपराधी को अधिक से अधिक भयंकर तथा अमर्यादित कष्ट देना ही दुर्योधन के जीवन का एक प्रधान लक्ष्य बन चुका था। ___ "-भमि कंड्यावेति-" इन पदों का अर्थ. वृत्तिकार के शब्दों में "अंगुलीप्रवेशितसूचीकैः हस्तैर्भूमिकंडूयने महादुःखमुत्पद्यते इति कृत्वा भूमिकंडूयनं कारयतीति-" इस प्रकार है अर्थात् हाथों की अंगुलियों में सूइयों के प्रविष्ट हो जाने पर 1. पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म०-कण्डूयावेति-का अर्थ-कण्डावयति भूमौ घर्षयतीत्यर्थः। करचरणांगुलिषु सूची: प्रवेश्य करचरणयोर्भूमौ घर्षणेन महादुःखमुत्पादयतीति भावः- इस प्रकार करते हैं। अर्थात -कंडयावेति-का अर्थ है-भूमि पर घसीटवाता है। तात्पर्य यह है कि हाथों तथा पैरों की अंगलियों में सूइयों का प्रवेश करके उन्हें भूमि पर घसीटवा कर महान् दुःख देता है। ___ अर्धमागधीकोषकार-कण्डूयन शब्द के खोदना, खड्डा करना, ऐसे दो अर्थ करते हैं। परन्तु प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में कंडूयन शब्द का अर्थ खुजलाना लिखा है। 534 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमि को खोदने में महान् दुःख उत्पन्न होता है। इसी कारण दुर्योधन चारकपाल अपराधियों के हाथों में सुइयां प्रविष्ट करा कर उन से भूमि खुदवाया करता था। "-दब्भेहि य कुसेहि य अल्लचम्मेहि य वेढावेति, आयवंसि दलयति 2 सुक्खे समाणे चडचडस्स उप्पाडेति-" अर्थात् शस्त्रादि से अपराधियों के शरीर को तच्छवा कर, दर्भ (मूलसहित घास, कुशा (मूल रहित घास) तथा आई चमड़े से उन्हें वेष्टित करवाता है, तदनन्तर उन्हें धूप में खड़ा कर देता है, जब वह दर्भ, कुशा तथा आर्द्र चमड़ा सूख जाता था तब दुर्योधन चारकपाल उन को उनके शरीर से उखाड़ता था। वह इतने ज़ोर से उखाड़ता था कि वहां चड़चड़ शब्द होता था और दर्भादि के साथ उनकी चमड़ी भी उखड़ जाती थी। . इस प्रकार के अपराधियों को दिए गए नृशंस दण्ड के वर्णन से यह भलीभान्ति पता चल जाता है कि दुर्योधन चारकपाल का मानस बड़ा निर्दयी एवं क्रूरतापूर्ण था। वह अपराधियों को सताने में, पीड़ित करने में कितना अधिक रस लेता था यह ऊपर के वर्णन से स्पष्ट ही है। उन्हीं पापमयी एवं क्रूरतामयी दूषित प्रवृत्तियों के कारण उसे छठी नरक में जाकर 22 सागरोपम तक के बड़े लम्बे काल के लिए अपनी करणी का फल पाना पड़ा। इस पर से शिक्षा ग्रहण करते हुए सुखाभिलाषी पाठकों को सदा क्रूरतापूर्ण एवं निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों से विरत रहने का उद्योग करना चाहिए, और साथ में कर्त्तव्य पालन की ओर सतत जागरूक रहना चाहिए। ... -पज्जेति जाव एलमुत्तं-यहां पठित जाव-यावत् पद से-उट्टमुत्तं, गोमुत्तं, महिसमुत्तं अयमुत्तं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही है। -करेति जाव सत्थोवाडिए-यहां के जाव-यावत् पद से-पायछिन्नए, कन्नछिन्नए नक्कछिन्नए, उछिन्नए, जिब्भछिन्नए, सीसछिन्नए-इत्यादि पदों का ग्रहण करना चाहिए। जिस के पांव काटे गए हैं उसे पादछिन्नक, जिसके कान काटे गए हों उसे कर्णछिन्नक, जिस का नाक काटा गया हो उसे नासिकाछिन्नक, जिसके होंठ काटे गए हों उसे ओष्ठछिन्नक, जिस की जिह्वा काटी गई है उसे जिह्वाछिन्नक और जिस का शिर काटा गया है उसे शीर्षछिन्नक कहते हैं। -वेणुलयाहि य जाव वायरासीहि-यहां के जाव-यावत् पद से-वेत्तलयाहि य चिञ्चालयाहि य छिवाहि य कसाहि य-इन पदों का तथा-तंतीहि य जाव सुत्तरजूहि ययहां के जाव-यावत् पद से -वरत्ताहि य वागरजूहि य वालरज्जूहि य-इन पदों का, तथा -असिपत्तेहि य जाव कलंबचीरपत्तेहि य-यहां के जाव-यावत् पद से-करपत्तेहि य खुरपत्तेहि य - इन पदों का, तथा-सत्थएहिं जाव नहछेदणएहि-यहां के जाव-यावत् पद प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [535 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से -पिप्पलेहि य कुहाडेहि य-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन सब का अर्थ पीछे इसी अध्याय में दिया जा चुका है। -एयकम्मे ४-यहां दिए गए 4 के अंक से विवक्षित पाठ का वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। ___ प्रस्तुत कथासन्दर्भ के परिशीलन से जहां "-दुर्योधन चारकपाल निर्दयता की जीती जागती मूर्ति था, उसका मानस अपराधियों को भीषण दण्ड देने पर भी सन्तुष्ट नहीं हो पाता था, अतएव वह अत्यधिक क्रूरता लिए हुए था-" इस बात का पता चलता है, वहां यह आशंका भी उत्पन्न हो जाती है कि दुर्योधन चारकपाल से निर्दयतापूर्ण दण्डित हुए लोग उस दण्ड को सहन कैसे कर लेते थे ? मानवी प्राणी में इतना बल कहां है जो इस प्रकार के नरकतुल्य दुःख भोगने पर भी जीवित रह सके ? उत्तर-अपराधियों के जीवित रहने या मर जाने के सम्बन्ध में सूत्रकार तो कुछ नहीं .. बतलाते, जिस पर कुछ दृढ़ता से कहा जा सके। तथापि ऐसी दण्ड-योजना में अपराधी का मर जाना कोई असंभव नहीं कहा जा सकता और यह भी नहीं कहा जा सकता कि अपराधी अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त कर लेते थे, क्योंकि दृढ़ संहनन वालों का ऐसे भीषण दण्ड का उपभोग कर लेने पर भी जीवित रहना संभव है। कैसे संभव है, इस के सम्बन्ध में तृतीय अध्याय में विचार किया गया है। पाठक वहां देख सकते हैं। इतना ध्यान रहे कि वहां अभग्नसेन से सम्बन्ध रखने वाला वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में अपराधियों से सम्बन्ध रखने वाला। अब सूत्रकार दुर्योधन के भावी जीवन का निम्नलिखित सूत्र में उल्लेख करते हैं मूल-से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव महुराए णयरीए सिरिदामस्स रण्णो बंधुसिरीए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। तते णं बंधुसिरी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो णिव्वत्ते बारसाहे इमं एयारूवं णामधेजं करेंति, होउ णं अम्हं दारगे णंदिसेणे नामेणं। तते णं से णंदिसेणे कुमारे पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति। तते णं से णंदिसेणे कुमारे उम्मुक्कबालभावे जाव विहरति जाव जुवराया जाते यावि होत्था। तते णं से णंदिसेणे कुमारे रज्जे य जाव अंतेउरे य मुच्छिते 4 इच्छति सिरिदामं रायं जीविताओ ववरोवित्ता सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरित्तए। तते णं से णंदिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रण्णो बहूणि अन्तराणि य छिद्दाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणे विहरति। 536 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-स ततोऽनन्तरमुढ्त्येहैव मथुरायां नगर्यां श्रीदाम्नो राज्ञो बन्धुश्रियो देव्याः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः / ततो बन्धुश्री: नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रयाता / ततस्तस्य दारकस्याम्बापितरौ निर्वृत्ते द्वादशाहे इदमेतद्रूपं नामधेयं कुरुतः-भवत्वस्माकं दारको नान्दिषेणो नाम्ना / ततः स नन्दिषेणः कुमार: पंचधात्रीपरिगृहीतो यावत् परिवर्द्धते / ततः स नन्दिषेण: कुमारः उन्मुक्तबालभावो यावद् विहरति / यावद् युवराजो जातश्चाप्यभवत्। ततः स नन्दिषेणः कुमारो राज्ये च यावदन्तःपुरे च मूछितः 4 इच्छति श्रीदामानं राजानं जीविताद् व्यपरोप्य स्वयमेव राज्यश्रियं कारयन् पालयन् विहर्तुम्। ततः स नन्दिषेणः कुमारः श्रीदाम्नो राज्ञो बहून्यन्तराणि च छिद्राणि च विरहांश्च प्रतिजागरयन् विहरति। ___ पदार्थ-से णं-वह। ततो-वहां से। अणंतरं-अन्तर रहित। उव्वट्टित्ता-निकल कर। इहेवइसी। महुराए-मथुरा। णयरीए-नगरी में। सिरिदामस्स-श्रीदाम। रणो-राजा की। बंधुसिरीए-बन्धुश्री। देवीए-देवी.की। कुच्छिंसि-कुक्षि-उदर में। पुत्तत्ताए-पुत्र-रूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। तते णंतदनन्तर। बंधुसिरी-बन्धुश्री ने। नवण्हं-नव। मासाणं-मास के। बहुपडिपुण्णाणं-लगभग पूर्ण होने पर। दारयं-बालक को। पयाया-जन्म दिया। तते णं-तदनन्तर। तस्स-उस। दारगस्स-बालक के। अम्मापितरो-माता-पिता / णिव्वत्ते बारसाहे-जन्म से बारहवें दिन / इमं-यह। एयारूवं-इस प्रकार का। णामधेनं-माम। करेंति-करते हैं। अहं-हमारा / दारए-बालक। णंदिसेणे-नन्दिषेण / नामेण-नाम से। होउ णं-हो। तते णं-तदनन्तर / से-वह / णंदिसेणे-नन्दिषेण / कुमारे-कुमार। पंचधातीपरिग्गहिते-पांच धाय माताओं से परिगृहीत हुआ। जाव-यावत् / परिवड्ढति-वृद्धि को प्राप्त होने लगा। तते णं-तदनन्तर। से-वह। णंदिसेणे-नन्दिषेण।कमारे-कुमार। उम्मक्कबालभावे-बालभाव को त्याग कर।जाव-यावत् / विहरति-विहरण करने लगा। जाव-यावत् / जुवराया यावि-युवराज पद को भी। जाते-प्राप्त। होत्थाहो गया था। तते णं-तदनन्तर / से-वह / णंदिसेणे-नन्दिषेण। कुमारे-कुमार। रज्जे य-राज्य में। जावयावत्। अंतेउरे य-अन्तःपुर में। मूच्छिते ४-मूछित अर्थात् राज्यादि के ध्यान में पगला बना हुआ, गृद्धआकांक्षा वाला, ग्रथित-स्नेहजाल में बन्धा हुआ और अध्युपपन्न-आसक्त हुआ। सिरिदाम-श्रीदाम / रायंराजा को। जीविताओ-जीवन से। ववरोवित्ता-व्यपरोपित कर-मार कर। सयमेव-स्वयं ही। रज्जसिरिराज्यश्री-राज्य की लक्ष्मी को। कारेमाणे-कराता हुआ अर्थात् अमात्य आदि के द्वारा बढ़ाता हुआ। पालेमाणे-पोषण करता हुआ। विहरित्तए-विहरण करने की / इच्छति-इच्छा करता है। तते णं-तदनन्तर / से-वह / णंदिसेणे-नन्दिषेण। कुमारे-कुमार। सिरिदामस्स-श्रीदाम। रणो-राजा के। बहूणि-अनेक। अन्तराणि य-अन्तर-अवसर। छिद्दाणि य-छिद्र-अर्थात् जिस समय पारिवारिक व्यक्ति अल्प हों। विरहाणि य-विरह-अर्थात् कोई भी पास न हो, राजा अकेला हो, इस प्रकार, अवसर, छिद्र और विरह की। पडिजागरमाणे-प्रतीक्षा करता हुआ। विहरति-विहरण करने लगा। मूलार्थ-तदनन्तर वह दुर्योधन चारकपाल नरक से निकल कर इसी मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा की बन्धुश्री देवी की कुक्षि-उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [537 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभग नवमास परिपूर्ण होने पर बन्धुश्री ने बालक को जन्म दिया। तदनन्तर बारहवें दिन माता-पिता ने उत्पन्न हुए बालक का नन्दिषेण यह नाम रक्खा। तदनन्तर पांच धाय माताओं के द्वारा सुरक्षित नन्दिषेण कुमार वृद्धि को प्राप्त होने लगा। तथा जब वह बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हुआ तब इसके पिता ने इस को यावत् युवराज पद प्रदान कर दिया अर्थात् वह युवराज बन गया। तत्पश्चात् राज्य और अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त नन्दिषेण कुमार श्रीदाम राजा को मार कर उसके स्थान में स्वयं मन्त्री आदि के साथ राज्यश्री-राज्यलक्ष्मी का सम्वर्धन कराने तथा प्रजा का पालन पोषण करने की इच्छा करने लगा। तदर्थ कुमार नन्दिषेण महाराज श्रीदाम के अनेक अन्तर-छिद्र तथा विरह की प्रतीक्षा करता हुआ विहरण करने लगा। टीका-प्रस्तुत सूत्र में दुर्योधन चारकपाल-कारागाररक्षक-जेलर का नरक से निकल. . कर मथुरा नगरी के श्रीदाम नरेश की बन्धुश्री भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न होने, और समय पाकर जन्म लेने तथा माता पिता के द्वारा नन्दिषेण-यह नामकरण के अनन्तर यथाविधि पालन पोषण से वृद्धि को प्राप्त होने का उल्लेख करने के पश्चात् युवावस्थासम्पन्न युवराज पद को प्राप्त हुए नन्दिषेण के पिता को मरवा कर स्वयं राज्य करने की कुत्सित भावना का भी उल्लेख कर दिया गया है। युवराज नन्दीषेण राज्य को शीघ्रातिशीघ्र उपलब्ध करने के लिए ऐसे अवसर की ताक में रहता था कि जिस किसी उपाय से राजा की मृत्यु हो जाए और वह उस के स्थान में स्वयं राज्यसिंहासन पर आरूढ़ हो कर राज्यवैभव का यथेच्छ उपभोग करे। इस कथा-सन्दर्भ से सांसारिक प्रलोभनों में अधिक आसक्त मानव की मनोवृत्ति कितनी दूषित एवं निन्दनीय हो जाती है, यह समझना कुछ कठिन नहीं है। पिता की पुत्र के प्रति कितनी ममता और कितना स्नेह होता है उस के पालन पोषण और शिक्षण के लिए वह कितना उत्सुक रहता है, तथा उसे अधिक से अधिक योग्य और सुखी बनाने के लिए वह कितना प्रयास करता है, इस का भी प्रत्येक संसारी मानव को स्पष्ट अनुभव है। श्रीदाम नरेश ने पितृजनोचित कर्त्तव्य के पालन में कोई कमी नहीं रखी थी। नन्दिषेण के प्रति उस का जो कर्त्तव्य था उसे उसने सम्पूर्ण रूप से पालन किया था। इधर युवराज नन्दिषेण को भी हर प्रकार का राज्यवैभव प्राप्त था। उस पर सांसारिक सुख-सम्पत्ति के उपभोग में किसी प्रकार का भी प्रतिबन्ध नहीं था। फिर भी राज्यसिंहासन पर शीघ्र से शीघ्र बैठने की जघन्यलालसा ने उस को पुत्रोचित कर्त्तव्य से सर्वथा विमुख कर 538 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया। वह पितृभक्त होने के स्थान में पितृघातक बनने को तैयार हो गया। किसी ने-ऐहिक जघन्य महत्वाकांक्षाएं मनुष्य का महान पतन कर डालती हैं, यह सत्य ही कहा है। .."-पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति-" यहां पठित जाव-यावत् पद से द्वितीय अध्याय में पढ़े गए "-तंजहा खीरधातीए 1 मज्जण० 2 मण्डण. 3 कीलावण से लेकर -सुहंसुहेणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। "-उम्मुक्कबालभावे जाव विहरति-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "जोव्वणगमणुप्पत्ते विन्नायरिणयमेत्ते-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ पंचम अध्ययन में लिखा जा चुका है।। "-अन्तराणि-" इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में "-अन्तराणि, अवसरान् छिद्राणि-अल्पपरिवारत्वानि, विरहाणि-विजनत्वानि-" इस प्रकार है, अर्थात् अन्तर अवसर का नाम है, छिद्र शब्द अल्पपरिवार का होना-इस अर्थ का बोधक है। अकेला होना-इस अर्थ का परिचायक विरह शब्द है। "-बन्धुसिरीए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने-" इस पाठ के अनन्तर पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म० बन्धुश्री देवी के दोहदसम्बन्धी पाठ का भी उल्लेख करते हैं, वह पाठ निम्नोक्त है ___"-तए णं तीसे बन्धुसिरीए देवीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमे एयारूवे दोहले पाउब्भूते-धन्नाओणं ताओ अम्मयाओ जाव जाओणं अप्पणो पइस्स हिययमंसेण जाव सद्धिं सुरं च 5 जाव दोहलं विणेति। तं जइ णं अहमवि जाव विणिज्जामि त्ति कट्ट तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि जाव झियाइ। रायपुच्छा। बन्धुसिरीभणणं। तए णं से सिरिदामे राया तीसे बन्धुसिरीए देवीए तं दोहलं केण वि उवाएणं विणेइ। तए णं सा बन्धुसिरी देवी सम्पुण्णदोहला 5 तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहइ-" इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है... गर्भस्थिति होने के अनन्तर जब बन्धुश्री देवी का गर्भ तीन मास का हो गया तब उसे इस प्रकार का दोहद (गर्भिणी स्त्री का मनोरथ) उत्पन्न हुआ कि वे माताएं धन्य हैं, यावत् पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं, कृतपुण्य हैं, उन्होंने ही पूर्वभव में पुण्योपार्जन किया है, कृत-लक्षण हैं-वे शुभ लक्षणों से युक्त हैं और कृतविभव अर्थात् उन्होंने ही अपने विभव-सम्पत्ति को दानादि शुभकार्यों में लगा कर सफल किया है, उन्हीं का मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन सफल है, जो अपने-अपने पति के मांस यावत् अर्थात् जो तलित, भजित और शूल पर रख कर पकाया गया हो, के साथ 'सुरा, मधु, मेरक, जाति, सीधु और प्रसन्ना, इन छ: प्रकार की 1. सुरा, मधु आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [539 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदिराओं का एक बार आस्वादन करती, बार-बार स्वाद लेती, परिभोग करतीं और अन्य स्त्रियों को देती हुईं दोहद को पूर्ण करती हैं। सो यदि मैं भी यावत् अर्थात् इसी प्रकार से श्रीदाम राजा के हृदय के मांस का छ: प्रकार की मदिराओं के साथ उपभोग आदि करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करूं तो अच्छा हो। ऐसा सोच कर वह उस दोहद के अपूर्ण रहने. पर यावत् अर्थात् सूखने लगी। मांसरहित, निस्तेज, रुग्ण और रोगग्रस्त शरीर वाली एवं हताश होती हुई आर्त्तध्यानमूलक विचार करने लगी। ऐसी स्थिति में बैठी हुई उस बन्धुश्री को एक समय राजा ने देखा और इस परिस्थिति का कारण पूछा। तब उस बन्धुश्री ने अपना सब वृत्तान्त कह सुनाया। तदनन्तर मथुरानरेश श्रीदाम ने उस बन्धुश्री देवी के उस दोहद को किसी एक उपाय से अर्थात् जिस से वह समझ न सके इस प्रकार अपने हृदयमांस के स्थान पर रखी हुई मांस के सदृश अन्य वस्तुओं के द्वारा पूर्ण किया। फिर बन्धुश्री देवी ऐसा करने से उस दोहद के सम्पूर्ण होने पर, सम्मानित होने पर, . ' इष्ट वस्तु की अभिलाषा के परिपूर्ण हो जाने पर उस गर्भ को धारण करने लगी। अस्तु, अब नन्दिषेण ने स्वयं राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए, अपने पिता श्रीदाम को मरवाने के लिए जो षडयन्त्र रचा और उस में विफल होने से उस को जो दंड भोगना पड़ा, उस का वर्णन अग्रिम सूत्र में किया जाता है मूल-तते णं से णंदिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रण्णो अंतरं अलभमाणे अन्नया कयाइ चित्तं अलंकारियं सद्दावेति 2 त्ता एवं वयासी-तुमं णं देवाणुप्पिए! सिरिदामस्स रण्णो सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु अन्तेउरे य दिण्णवियारे सिरिदामस्स रण्णो अभिक्खणं 2 अलंकारियं कम्मं करेमाणे विहरसि, तंणं तुमं देवाणुप्पिए! सिरिदामस्स रण्णो अलंकारियं कम्मं करेमाणे गीवाए खुरं निवेसेहि। तए णं अहं तुम अद्धरजियं करिस्सामि, तुम अम्हेहिं सद्धिं उराले भोगभोगे भुञ्जमाणे विहरिस्ससि। तते णं से चित्ते अलंकारिए णंदिसेणस्स कुमारस्स वयणं एयमढे पडिसुणेति, तते णं तस्स चित्तस्स अलंकारियस्स इमे एयारूवे जाव समुप्पजित्था-जति णं ममं सिरिदामे राया एयमढें आगमेति, तते णं ममं ण णज्जति केणइ असुभेणं कुमारेणं मारिस्सति त्ति कट्ट भीए 4 जेणेव सिरिदामे राया तेणेव उवागच्छइ 2 सिरिदामं रायं रहस्सियं करयल• जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! णंदिसेणे कुमारे रज्जे जाव मुच्छिते ४इच्छति तुब्भे जीविताओ ववरोवेत्ता सयमेव रजसिरिं कारेमाणे श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध 540] Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालेमाणे विहरित्तए।तते णं से सिरिदामे राया चित्तस्स अलंकारियस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव साहट्टणंदिसेणं कुमारं पुरिसेहिं गेण्हावेति 2 त्ता एएणं विहाणेणं वझं आणवेति। तं एवं खलु गोतमा ! णंदिसेणे पुत्ते जाव विहरति। ____ छाया-ततः स नन्दिषेणः कुमारः श्रीदाम्नो राज्ञः अन्तरमलभमानोऽन्यदा कदाचित् चित्रमलंकारिकं शब्दयति 2 एवमवादीत्-त्वं खलु देवानुप्रिय! श्रीदाम्नो राज्ञः सर्वस्थानेषु सर्वभूमिकासु अन्त:पुरे च दत्तविचारः श्रीदाम्नो राज्ञोऽभीक्ष्णम् 2 अलंकारिकं कर्म कुर्वाणो विहरसि, तत् त्वं देवानुप्रिय ! श्रीदाम्रो राज्ञः अलंकारिकं कर्म कुर्वाणो ग्रीवायां क्षुरं निवेशय। ततोऽहं त्वामर्द्धराज्यिकं करिष्यामि, त्वमस्माभिः सार्द्धमुदारान् भोगभोगान् भुंजानो विहरिष्यसि। ततः स चित्र अलंकारिको नंदिषेणस्य कुमारस्य वचनमेतदर्थं प्रतिशृणोति, ततस्तस्य चित्रस्यालंकारिकस्य अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यतयदि मम श्रीदामा राजा एनमर्थमागच्छति, ततो मम न ज्ञायते, केनचिद् अशुभेन कुमारेण मारयिष्यति, इति कृत्वा भीतो 4 यत्रैव श्रीदामा राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रीदामानं राजानं राहस्यिकं करतल यावद् एवमवादीत्-एवं खलु स्वामिन् ! नन्दिषेण: कुमारो राज्ये यावद् मूर्च्छितः 4 इच्छति युष्मान् जीविता व्यपरोप्य स्वयमेव राज्यश्रियं कारयन् पालयन् विहर्तुम् / ततः स श्रीदामा राजा चित्रस्यालंकारिकस्यान्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य, आशुरुप्तः यावत् संहृत्य नन्दिषेणं कुमारं पुरुषैाहयति 2 एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति / तदेवं खलु गौतम ! नन्दिषेणः पुत्रो यावद् विहरति। - पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / से-वह।णंदिसेणे-नन्दिषेण। कुमारे-कुमार।सिरिदामस्स-श्रीदाम। रण्णो-राजा के। अंतरं-मारने के अवसर को। अलभमाणे-प्राप्त न करता हुआ। अन्नया-अन्यदा। कयाइ-कदाचित्। चित्तं-चित्र नामक। अलंकारियं-अलंकारिक-नाई को। सद्दावेति 2 ता-बुलाता है, बुला कर। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगा। देवाणुप्पिए !-हे भद्र ! तुमं णं-तुम। सिरिदामस्सश्रीदाम। रण्णो-राजा के। सव्वट्ठाणेसु-शयनस्थान, भोजनस्थान आदि सर्व स्थानों में। सव्वभूमियासुसर्व भूमिकाओं अर्थात् राजमहल की सभी भूमिकाओं-मंजिलों में। य-तथा। अन्तेउरे-अन्तःपुर में। दिण्णवियारे-दत्तविचार हो अर्थात् राजा की ओर से जिस को आने जाने की आज्ञा मिली हुई हो, ऐसे हो, तथा। सिरिदामस्स-श्रीदाम। रण्णो-राजा का। अभिक्खणं २-पुनः 2 / अलंकारियं कम्म-अलंकारिक कर्म-क्षौरकर्म। करेमाणे-करते हुए। विहरसि-विहरण कर रहे हो। तण्णं-इस लिए। देवाणुप्पिए !-हे महानुभाव ! तुम-तुम / सिरिदामस्स-श्रीदाम। रण्णो-राजा का। अलंकारियं कम्म-अलंकारिक कर्म। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [541 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेमाणे-करते हुए उसकी। गीवाए-ग्रीवा-गरदन में। खुर-क्षुर-उस्तरे को। निवेसेहि-प्रविष्ट कर देना। तण्णं-तो। अहं-मैं। तुम-तुम को। अद्धरजियं करिस्सामि-अर्द्धराज्य से युक्त कर दूंगा अर्थात् तुम्हें आधा राज्य दे डालूंगा। तुम-तुम / अम्हेहिं-हमारे। सद्धिं-साथ। उराले -उदार-प्रधान। भोगभोगे-काम भोगों का। भुंजमाणे-उपभोग करते हुए। विहरिस्ससि-विहरण करोगे। तते णं-तदनन्तर। से-वह। चित्ते-चित्र नामक।अलंकारिए-अलंकारिक-नाई। णंदिसेणस्स-नन्दिषेण / कुमारस्स-कुमार के। एयमटुंएतदर्थक-उक्त अर्थ वाले। वचनं-वचन को। पडिसुणेति-स्वीकार करता है। तते णं-तदनन्तर। तस्सउस। चित्तस्स-चित्र नामक। अलंकारियस्स-अलंकारिक को। इमे-यह। एयारूवे-इस प्रकार के। जाव-यावत् विचार। समुप्पज्जित्था-उत्पन्न हुए। जति णं-यदि। सिरिदामे-श्रीदाम राजा। ममं-मेरी। एयमटुं-इस बात को। आगमेति-जान ले। तओ णं-तो। ममं-मुझे। ण णजति-न जाने अर्थात् यह पता नहीं कि वह। केणइ-किस। असुभेणं-अशुभ। कुमारेणं-कुमौत-कुत्सित मार से। मारिस्सति-मारेगा। त्ति कट्ट-ऐसे विचार कर। भीए ४-भीत-भयभीत हुआ, त्रस्त अर्थात् यह बात मेरे प्राणों की घातक होगी, इस विचार से त्रस्त हुआ, उद्विग्न-प्राणघात के भय से उस का हृदय कांपने लगा, संजातभय अर्थात् मानसिक कम्पन के साथ-साथ उस का शरीर भी कांपने लगा, इस प्रकार भीत, त्रस्त, उद्विग्न और. संजातभय हुआ वह / जेणेव-जहां पर। सिरिदामे-श्रीदाम। राया-राजा था। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छइ 2 त्ता-आ जाता है, आकर। सिरिदाम-श्रीदाम। रायं-राजा को। रहस्सियं-एकान्त में। करयल०-हाथ जोड़। जाव-यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजली रख कर। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगा। एवं-इस प्रकार। खलु-निश्चय ही। सामी !-हे स्वामिन् ! / णंदिसेणे-नन्दिषेण / कुमारे-कुमार। रज्जे-राज्य में। जाव-यावत्। मुच्छिते ४-मूर्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न हुआ। तुब्भे-आप को। जीविताओ-जीवन से। ववरोवेत्ता-व्यपरोपित कर अर्थात् आप को मार कर। सयमेव-स्वयं ही। रजसिरिं-राज्यश्री-राजलक्ष्मी का। कारेमाणे-संवर्धन कराता हुआ। पालेमाणे-पालन करता हुआ। विहरित्तए-विहरण करने की। इच्छति-इच्छा रखता है। तते णं-तदनन्तर / से-वह। सिरिदामे-श्रीदाम। राया-राजा। चित्तस्स-चित्र / अलंकारियस्स-अलंकारिक के। अंतिए-पास से। एयमटुं-इस बात को। सोच्चा-सुन कर, एवं। निसम्म-अवधारण-निश्चित कर। आसुरुत्ते-क्रोध से लाल पीला होता हुआ। जाव-यावत्। साहट्ट-मस्तक में तिउड़ी चढा कर अर्थात् अत्यन्त क्रोधित होता हुआ। णंदिसेणंनन्दिषेण। कुमार-कुमार को। पुरिसेहि-पुरुषों के द्वारा। गेण्हावेति 2 त्ता-पकड़वा लेता है, पकड़वा कर। एएणं-इस। विहाणेणं-विधान-प्रकार से। वझं-वह मारा जाए ऐसी राजपुरुषों को। आणवेतिआज्ञा देता है। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! / णंदिसेणे-नन्दिषेण / पुत्ते-पुत्र / जाव-यावत् अर्थात् स्वकृत कर्मों के फल का अनुभव करता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा है। मूलार्थ-तदनन्तर श्रीदाम नरेश के वध का अवसर प्राप्त न होने से कुमार नन्दिंषेण ने किसी अन्य समय चित्र नामक अलंकारिक-नाई को बुला कर इस प्रकार कहा-कि हे महानुभाव! तुम श्रीदाम नरेश के सर्वस्थानों, सर्वभूमिकाओं तथा अन्तःपुर में स्वेच्छापूर्वक आ जा सकते हो और श्रीदाम नरेश का बार-बार अलंकारिक कर्म करते रहते हो, अतः हे महानुभाव ! यदि तुम नरेश के अलंकारिक कर्म में प्रवृत्त होने के 542 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर पर उसकी ग्रीवा-गरदन में उस्तरा घोंप दो अर्थात् इस प्रकार से तुम्हारे हाथों यदि नरेश का वध हो जाए तो मैं तुम को आधा राज्य दे डालूंगा। तदनन्तर तुम हमारे साथ . उदार-प्रधान (उत्तम) कामभोगों का उपभोग करते हुए सानन्द समय व्यतीत करोगे। तदनन्तर चित्र नामक अलंकारिक ने कुमार नन्दिषेण के उक्त विचार वाले वचन को स्वीकृत किया, परन्तु कुछ ही समय के पश्चात् उस के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यदि किसी प्रकार से इस बात का पता श्रीदाम नरेश को चल गया तो न मालूम मुझे वह किस कुमौत से मारे। इस विचार के उद्भव होते ही वह भयभीत, त्रस्त उद्विग्न एवं संजात-भय हो उठा और तत्काल ही जहां पर महाराज श्रीदाम थे वहां पर आया एकान्त में दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नाखूनों वाली अंजली करके अर्थात् विनयपूर्वक श्रीदाम नरेश से इस प्रकार बोला___ हे स्वामिन् ! निश्चय ही नन्दिषेण कुमार राज्य में मूर्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन हो कर आपके वध में प्रवृत्त होना चाह रहा है। वह आप को मार कर स्वयं राज्यश्री-राज्य लक्ष्मी का संवर्धन कराने और स्वयं पालन-पोषण करने की उत्कट अभिलाषा रखता है। इसके अनन्तर श्रीदाम नरेश ने चित्र अलंकारिक से इस बात को सुन कर उस पर विचार किया और अत्यन्त क्रोध में आकर नन्दिषेण को अपने अनुचरों द्वारा पकड़वा कर इस (पूर्वोक्त) विधान-प्रकार से मारा जाए ऐसा राजपुरुषों को आदेश दिया। भगवान कहते हैं कि हे गौतम ! यह नन्दिषेण कुमार इस प्रकार अपने किए हुए अशुभ कर्मों के फल को भोग रहा है। . - टीका-राज्यशासन का प्रलोभी नन्दिषेण हर समय इसी विचार में रहता था कि उसे कोई ऐसा अवसर मिले जब वह अपने पिता श्रीदाम नरेश की हत्या करने मे सफल हो जाए। परन्तु उसे अभी तक ऐसा अवसर प्राप्त नहीं हो सका। तब एक दिन उसने उपायान्तर सोचा और तदनुसार महाराज श्रीदाम के चित्र नामक अलंकारिक को बुलाकर उसने कहा-कि महानुभाव ! तुम महाराज के विश्वस्त सेवादार हो। तुम्हारा उन के पास हर समय बेरोकटोक आना जाना है। तुम्हारे लिए वहां किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है, तब यदि तुम मेरा एक काम करो तो मैं तुम्हें आधा राज्य दे डालूंगा। तुम भी मेरे जैसे बन कर सानन्द अनायासप्राप्त राज्यश्री का यथेच्छ उपभोग करोगे। तुम जानते हो कि मैं इस समय युवराज हूँ। महाराज के बाद मेरा ही इस राज्यसिंहासन पर सर्वे सर्वा अधिकार होगा। इसलिए यदि तुम मेरे काम में - 1. मूर्च्छित, गृद्ध आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [543 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक बनोगे तो मैं भी तुम को हर प्रकार से सन्तुष्ट करने का यत्न करूंगा। दूसरी बात यह है कि महाराज को तुम पर पूर्ण विश्वास है, वह अपना सारा निजी काम तुम से ही कराते हैं। इस के अतिरिक्त उन का शारीरिक उपचार भी तुम्हारे ही हाथ से होता है, इसलिए मैं समझता हूँ कि तुम ही इस काम को पूरा कर सकते हो, और मुझे भी तुम पर पूरा भरोसा है। इसलिए मैं तुम से ही कहता हूँ कि तुम जिस समय महाराज का क्षौरहजामत बनाने लगो तो उस समय इधर उधर देख कर तेज़ उस्तरे को महाराज की गरदन में इतने ज़ोर से मारो कि उन की वहीं मृत्यु हो जाए, इत्यादि। चित्र ने उस समय तो नन्दिषेण के इस अनुचित प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, कारण कि उस के सामने जो उस समय आधे राज्य का प्रलोभन रक्खा गया था, उस ने उस के विवेक चक्षुओं पर पट्टी बांध दी थी और वह आधे राज्य का शासक होने का स्वप्न देख रहा था। परन्तु जब वह वहां से उठ कर आया तो दैवयोग से उस के विवेकचक्षु खुल गए और वह इस नीचकृत्य से उत्पन्न होने वाले भयंकर परिणाम को प्रत्यक्ष देखने लगा। देखते ही वह एकदम भयभीत हो उठा। तात्पर्य यह है कि उस के अन्तःकरण में वहां से आते ही यह आभास होने लगा कि इतना बड़ा अपराध! वह भी सकारण नहीं किन्तु एक निरपराधी अन्नदाता की हत्या, जिस ने मेरे और राजकुमार के पालन पोषण में किसी भी प्रकार की त्रुटि न रक्खी हो, उस का अवहनन क्या मैं राजकुमार के कहने से करूं, क्या इसी का नाम कृतज्ञता है ! फिर यदि इस अपराध का पता कहीं महाराज को चल गया, जिस की कि अधिक से अधिक सम्भावना है, तो मेरा क्या बनेगा, इस विचार-परम्परा में निमग्न चित्र सीधा राजभवन में महाराज श्रीदाम के पास पहुँचा और कांपते हुए हाथों से प्रणाम कर और कंपित जबान से उस ने महाराज को राजकुमार नन्दिषेण के विचारों को अथ से इति तक कह सुनाया। शास्त्रों में कहा है कि जिस का पुण्य बलवान है, उसे हानि पहुँचाने वाला संसार में कोई नहीं। प्रत्युत हानि पहुंचाने वाला स्वयं ही नष्ट हो जाता है। कुमार नन्दिषेण ने अपने पिता महाराज श्रीदाम को मारने का जो षडयंत्र रचा, उसमें उसको कितनी सफलता प्राप्त हुई, यह तो प्रत्यक्ष ही है। वह तो यह सोचे हुए था कि उसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया, परन्तु उसे यह ज्ञात नहीं था कि जितने तारे गगन में, उतने दुश्मन होंय। कृपा रहे पुण्यदेव की, बाल न बांका होय॥ महाराज श्रीदाम के पुण्य के प्रभाव से राजकुमार नन्दिषेण के पास से उठते ही चित्रनापित के विचारों में एकदम तूफान सा आ गया। उस को महाराज के वध में चारों ओर 544 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिष्ट ही अनिष्ट दिखाई देने लगा। फलस्वरूप वह घातक के स्थान में रक्षक बना। नीतिकारों ने "-रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कृतानि-" अर्थात् पूर्वकृत पुण्य ही रक्षा करते हैं, यह सत्य ही कहा है। तात्पर्य यह है कि पुण्य के प्रभाव से चित्र स्वयं भी बचा और उसने महाराज श्रीदाम को भी बचाया। ____ चित्र की बात को सुनकर पहले तो श्रीदाम नरेश एकदम चमके, पर थोड़े ही समय के बाद कुछ विचार करने पर उन्हें चित्र की बात सर्वथा विश्वसनीय प्रतीत हुई। कारण कि जब से राजकुमार युवराज बना है तब से लेकर उसके व्यवहार में बहुत अन्तर दिखाई देता था और उसकी ओर से श्रीदाम नरेश सदा ही शंकित से बने रहते थे। चित्र की सरल एवं निर्व्याज उक्ति से महाराज श्रीदाम बहुत प्रभावित हुए तथा अपने और नन्दिषेण के कर्त्तव्य का तटस्थ बुद्धि से विचार करते हुए वे एकदम क्रोधातुर हो उठे और फलस्वरूप नीतिशास्त्र के नियमानुसार उन्होंने उसे वध कर डालने की आज्ञा प्रदान करना ही उचित समझा। _ पाठकों को स्मरण होगा कि पारणे के निमित्त मथुरा नगरी में भिक्षा के लिए पधारे हुए गौतम स्वामी ने राजमार्ग में जिस वध्य व्यक्ति को राजपुरुषों के द्वारा भयंकर दुर्दशा को प्राप्त होते हुए देखा था, तथा भिक्षा लेकर वापिस आने पर उस व्यक्ति के विषय में जो कुछ प्रभु महावीर से पूछा था, उसी का उत्तर देने के बाद प्रभु वीर कहते हैं कि गौतम ! यह है उस व्यक्ति के पूर्वभवसहित वर्तमान भव का परिचय, जो कि वर्तमान समय में अपने परम उपकारी पिता का अकारण घात करके राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने की नीच चेष्टा कर रहा था। तात्पर्य यह है कि जिन अधमाधम प्रवृत्तियों से यह नन्दिषेण नामक व्यक्ति इस दयनीय दशा का अनुभव कर रहा है यह उसी का वृत्तान्त तुम को सुनाया गया है। .. प्रश्न-दुर्योधन कोतवाल के क्रूरकर्मों का फल यह हुआ कि उसे नरक में उत्पन्न होना पड़ा परन्तु नरक से निकल कर भी तो उसे किसी बुरे स्थान में ही जन्म लेना चाहिए था, पर वह जन्म लेता है एक उत्तम घराने में अर्थात् श्रीदाम नरेश के घर में, ऐसा क्यों ? . उत्तर-बुरे स्थान में तो वह मनुष्य जन्म लेता है, जिसने पूर्व जन्म में बुरे ही कर्म किए हों, अथवा अभी जिसके बुरे कर्म भोगने शेष हों। यदि किसी ने बुरे कर्मों का फल भोग लिया हो तब उसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह बुरे स्थान में ही जन्म ले। दुर्योधन ने बुरे कर्म किए, उन का फल उसने छठी नरक में नारकीरूप में प्राप्त किया, वह भी एक दो वर्ष नहीं किन्तु बाईस सागरोपम के बड़े लम्बे काल तक। कहने का तात्पर्य यह है कि जब उसके बुरे कर्मों का अधिक मात्रा में क्षयोपशम हो गया अर्थात् जो कर्म उदय को प्राप्त हुए, उन का क्षय और जो उदय में नहीं आए उन का उपशमन हो गया, अथवा उसके पूर्वकृत किसी अज्ञात प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [545 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य के उदय में आने से वह एक उत्तम राजकुल में जन्मा तो इस में कुछ भी विसंवाद नहीं ___ शास्त्रों में लिखा है कि शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म जीव के साथ होते हैं, जो कि अपने-अपने समय पर उदय में आकर फलोन्मुख हो जाते हैं। आज भी प्रत्यक्ष देखने में आता है कि एक व्यक्ति राजकुल में जन्म लेता है, राजा बनता है, परन्तु कुछ ही समय के बाद वह दर-दर की खाक छानता है और खाने को पेटभर अन्न भी प्राप्त नहीं कर पाता / यही तो कर्मगत वैचित्र्य है, जिसे देख कर कभी-कभी विशिष्ट बुद्धिबल वाले व्यक्ति भी आश्चर्य मुग्ध हो जाते हैं। अतः दुर्योधन के जीव का नन्दिषेण के रूप में अवतरित होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। "-एयारूवे जाव समुप्पजित्था-" यहां का जाव-यावत् पद "-अज्झत्थिते कप्पिए चिन्तिए पत्थिए मणोगए संकप्पे-" इन पदों का परिचायक है। इन का अर्थ द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। तथा –भीए 4- यहां पर दिए गए 4 के अंक से "-तत्थे उव्विग्गे संजातभए-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। "-करयल जाव एवं-" यहां के बिन्दु तथा जाव-यावत् पद से संसूचित पाठ को पीछे लिखा जा चुका है। तथा "-रज्जे जाव मुच्छिते 4-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-रटे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य अन्तेउरे य-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। राज्य शब्द बादशाहत का बोधक है। किसी महान् देश का नाम राष्ट्र है। कोष खज़ाने को कहते हैं। धान्यगृह अथवा भाण्डागार का नाम कोष्ठागार है। बल सेना को कहते हैं। वाहन शब्द रथ आदि यान और जहाज़, नौका आदि के लिए प्रयुक्त होता है। पुर नगर का नाम है। अन्तःपुर रणवास को कहते हैं। तथा-मुच्छिते 4- यहां दिए गए 4 के अंक से "-गिद्धे, गढिए, अझोववन्ने-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ द्वितीय अध्ययन में दिया गया है। "-आसुरुत्ते जाव साहट्ट-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-रुद्वे, कुविए,चण्डिक्किए तिवलियं भिउडिं निडाले-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। आसुरुत्ते-इत्यादि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में कर दिया गया है। 1. तृतीय अध्ययन में अभग्नसेन के सम्बन्ध में इसी प्रकार के प्रश्न का विस्तृत उत्तर दिया जा चुका है। अधिक जिज्ञासा रखने वाले पाठक वहां देख सकते हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्नसेन का नाम है जबकि प्रस्तुत में नन्दिषेण का 546 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. "-एएणं विहाणेणं-" यहां प्रयुक्त एतद् शब्द उस विधान-प्रकार का परिचायक है, जिसे भिक्षा को गए भगवान् गौतम स्वामी ने मथुरा नगरी के राजमार्ग पर देखा था। तथा एतद्-शब्द-सम्बन्धी विस्तृत विवेचन द्वितीय अध्याय में किया गया है। पाठक वहां देख सकते हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में नन्दिषेण का। "-पुत्ते जाव विहरति-" यहां पठित जाव-यावत् पद प्रथम अध्ययाय में पढ़े गए "-पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं, दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं-" इत्यादि पदों का परिचायक गत सूत्रों में गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार गौतम स्वामी की अग्रिम जिज्ञासा का वर्णन करते हैं मूल-णंदिसेणे कुमारे इओ चुते कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति? कहिं उववजिहिति ? ... छाया-नन्दिषेणः कुमारः इतश्च्युतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोपपत्स्यते ? -पदार्थ-णंदिसेणे-नन्दिषेण, कुमारे-कुमार। इओ-यहां से।चुते-च्यव कर-मर कर।कालमासे'कालमास में। कालं किच्चा-काल करके। कहि-कहां। गच्छिहिति?-जाएगा?, और।कहिं-कहां पर। उववजिहिति ?-उत्पन्न होगा? मूलार्थ-गौतम स्वामी ने भगवान् से फिर पूछा कि भगवन् ! नन्दिषेण कुमार यहां से मृत्युसमय में काल करके कहां जाएगा? और कहां पर उत्पन्न होगा? टीका-भावी जन्मों की पृच्छा के सम्बन्ध में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में काफी लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र नाम का है, कहीं मृगापुत्र का नाम है, कहीं उज्झितक कुमार का तथा कहीं शकट कुमार का / शेष वर्णन समान ही है। अतः पाठक वहीं पर देख सकते हैं। __ गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया वह निम्नोक्त है मूल-से गोतमा ! णंदिसेणे कुमारे सटुिं वासाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए० संसारो तहेव जाव पुढवीए / ततो हत्थिणाउरेणगरे मच्छत्ताए उववजिहिति।सेणं तत्थ मच्छिएहिं वहिते समाणे तत्थेव सिट्ठिकुले बोहिं॰ सोहम्मे० महाविदेहे० सिज्झिहिति, प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [547 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुझिहिति, मुच्चिहिति, परिनिव्वाहिति, सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिति।णिक्खेवो। ॥छटुं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-स गौतम ! नन्दिषेणः कुमारः षष्टिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां संसारस्तथैव यावत् पृथिव्याम् / ततो हस्तिनापुरे नगरे मत्स्यतयोपपत्स्यते / स तत्र मात्स्यिकैर्वधितः सन् तत्रैव श्रेष्ठिकुले बोधि सौधर्मे महाविदेहे० सेत्स्यति, भोत्स्यते, मोक्ष्यते, परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति। निक्षेपः। // षष्ठमध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-गोतमा !-हे गौतम ! से-वह।णंदिसेणे-नन्दिषेण / कुमारे-कुमार। सट्ठि-साठ। वासाइंवर्षों की। परमाउं-परमायु को। पालइत्ता-पालकर-भोग कर। कालमासे-मृत्यु के समय में। कालं किच्चा-काल कर के। इमीसे-इस। रयणप्पभाए-रत्नप्रभा नाम की। पुढवीए०-पृथिवी में-नरक में उत्पन्न होगा तथा अवशिष्ट। संसारो-संसारभ्रमण। तहेव-पूर्ववत् जान लेना चाहिए। जाव-यावत्। पुढवीए०-पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। ततो-वहां से अर्थात् पृथिवीकाया से निकल कर। हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर / णगरे-नगर में। मच्छत्ताए-मत्स्यरूप से। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। से णंवह। तत्थ-वहां पर। मच्छिए-हि-मात्स्यिकों-मत्स्यों का वध करने वालों से। वहिते समाणे-वध को प्राप्त होता हुआ। तत्थेव-वहीं पर। सिढिकुले०-श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा, वहां पर। बोहिं०-बोधिलाभ अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, तथा। सोहम्मे-सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर। महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा वहां पर चारित्र का आराधन कर। सिज्झिहिति-सिद्ध होगा। बुझिहिति-केवल ज्ञान को प्राप्त कर सकल पदार्थों को जानने वाला होगा। मुच्चिहिति-सम्पूर्ण कर्मों से मुक्त होगा। परिनिव्वाहिति-परम निर्वाण पद को प्राप्त करेगा। सव्वदुक्खाणं-सर्व प्रकार के दुःखों का) अंत-अन्त। करेहिति-करेगा। णिस्खेवो-निक्षेप-उपसंहार पूर्ववत् जान लेना चाहिए। छटुंछठा। अज्झयणं-अध्ययन। समत्तं-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-हे गौतम ! वह नन्दिषेण कुमार साठ वर्ष की परम आयु को भोग कर मृत्यु के समय में काल करके इस रत्नप्रभा नामक पृथिवी-नरक में उत्पन्न होगा। उस का शेष संसारभ्रमण पूर्ववत् समझना अर्थात् प्रथम अध्ययनगत वर्णन की भांति जान लेना, यावत् वह पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। पृथिवीकाया से निकलकर हस्तिनापुर नगर में मत्स्यरूप से उत्पन्न होगा, मच्छीमारों के द्वारा वध को प्राप्त होता हुआ फिर वहीं पर हस्तिनापुर नगर में एक श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा, वहां वह सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, वहां से सौधर्म नामक प्रथम देवलोक.. में उत्पन्न होगा और वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहां पर चारित्र ग्रहण करेगा 548 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उस का यथाविधि पालन कर उस के प्रभाव से सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा, और परम निर्वाण पद को प्राप्त कर सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त करेगा। निक्षेप की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। ॥छठा अध्ययन समाप्त॥ टीका-गौतम स्वामी द्वारा किए गए नन्दिषेण के आगामी जीवन सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में वीर प्रभु ने जो कुछ फरमाया उस का वर्णन मूलार्थ में कर दिया गया है। वर्णन सर्वथा स्पष्ट है। इस पर किसी प्रकार के विवेचन की आवश्यकता नहीं है। पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में छठे अध्ययन को सुनने की इच्छा प्रकट की थी, जिस को पूर्ण करने के लिए श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रस्तुत छठे अध्ययन को सुनाना प्रारम्भ किया था। अध्ययन सुना लेने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू स्वामी से फ़रमाने लगे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के छठे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने जो कुछ प्रभु वीर से सुना है, उसी के अनुसार तुम्हें सुनाया है, इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। इन्हीं भावों को अभिव्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने "-निक्खेवो-निक्षेप-" यह पद प्रयुक्त किया है। निक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी विचार द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। परन्तु प्रस्तुत में निक्षेप शब्द से जो सूत्रांश अभिमत है, वह निम्नोक्त है... एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते 'त्ति बेमि-इन पदों का भावार्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है। .. "-पुढवीए० संसारो तहेव जाव पुढवीए०-" यहां का बिन्दु प्रथम अध्याय में पढ़े गए"-उक्कोससागरोवमट्ठिइएसुजाव उववजिहिति-" इन पदों का परिचायक है। तथा -संसार- शब्द संसारभ्रमण का बोध कराता है। तहेव का अर्थ है-वैसे ही। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण वर्णित हुआ है, उसी प्रकार नन्दिषेण का भी समझ लेना चाहिए और उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से अभिव्यक्त किया गया है। जाव-यावत् पद से विवक्षित पदों तथा-पुढवीए०-के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना चतुर्थ अध्याय में दी जा चुकी है। ____ "-सिट्ठिकुले० बोहि सोहम्मे महाविदेहे०-" इत्यादि पदों से जो सूत्रकार को 1. 'बेमि' त्ति ब्रवीम्यहं भगवतः समीपेऽमुं व्यतिकरं विदित्वेत्यर्थः (वृत्तिकारः) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [549 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत है, वह चतुर्थ अध्ययन में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां शकट कुमार का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में नन्दिषेण का। विशेष अन्तर वाली कोई बात नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन में नन्दिषेण के निर्देश से मानव जीवन का जो चित्र प्रदर्शन किया गया है, उस पर से उस की विकट परिस्थितियों का खासा अनुभव हो जाता है। मानव जीवन जहां अधिक से अधिक अन्धकारपूर्ण होता है वहां उस की नितान्त उज्ज्वलता भी विस्पष्ट हो जाती है। इस जीवन-यात्रा में मानव प्राणी किस-किस तरह की उच्चावच परिस्थितियों को प्राप्त करता है, तथा सुयोग्य अवसर प्राप्त होने पर वह अपने साध्य तक पहुंचने में कैसे सफलतां प्राप्त करता है, इस विषय का भी प्रस्तुत अध्ययन में अनुगम दृष्टिगोचर होता है। राजकुमार नन्दिषेण के जीवन का अध्ययन करने से हेयोपादेय रूप से वस्तुतत्त्व का त्याग और ग्रहण करने वाले विचारशील पुरुषों के लिए उस में से दो शिक्षाएं प्राप्त होती हैं। जैसे कि (1) प्राप्त हुए अधिकार का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। (2) किसी भी प्रकार के प्रलोभन में आकर अपने कर्त्तव्य से कभी पराङ्मुख नहीं होना चाहिए। ___ आज का मानव यदि सच्चे अर्थों में उत्तम तथा उत्तमोत्तम मानव बनना चाहता है तो उसे इन दोनों बातों को विशेषरूप से अपनाने का यत्न करना चाहिए। दुर्योधन चारकपाल-कारागृह के रक्षक-जेलर की भान्ति प्राप्त हुए अधिकार का दुरुपयोग करने वाला अधम व्यक्ति क्रूर एवं निर्दय वृत्ति से मानवता के स्थान में दानवता का अनुसरण करता है। जिस का परिणाम आत्म-पतन के अतिरिक्त और कुछ नहीं। इसी प्रकार नन्दिषेण की भान्ति राज्य जैसे तुच्छ सांसारिक प्रलोभन (जिस का कि पिता के बाद उसे ही अधिकार था) में आकर पितृघात जैसे अनर्थ करने का कभी स्वप्न में भी ध्यान नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाले अधमाधम दुष्कृत्यों से सदा पृथक् रहने का यत्न करना तथा उत्तम एवं उत्तमोत्तम पद को उपलब्ध करना ही मानव जीवन का प्रधान लक्ष्य होना चाहिए। ॥षष्ठ अध्याय समाप्त। 550 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कंध Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह सत्तमं अज्झयणं अथ सप्तम अध्याय मानव संसार का सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम प्राणी माना जाता है, परन्तु जरा विचार कीजिए कि इस में सर्वश्रेष्ठता किस बात की है ? अर्थात् मानव के पास ऐसी कौन-सी वस्तु है कि जिस के बल पर यह इतना श्रेष्ठ बन गया है ? - क्या मानव के पास शारीरिक शक्ति बहुत बड़ी है या यह पूंजीपति है जिस के कारण यह मानव सर्वश्रेष्ठता के पद का भाजन बना हुआ है ? नहीं-नहीं, इन बातों में से कोई भी ऐसी बात नहीं है जो इस की महानता का कारण बन रही हो। क्योंकि संसार में हाथी आदि ऐसे अनेकानेक विराटकाय प्राणी अवस्थित हैं, जिन के सन्मुख मानव का शारीरिक बल कुछ भी मूल्य नहीं रखता, यह उन के सामने तुच्छ है, नगण्य है। .. धन मानव की उत्तमता का कारण नहीं बन सकता, क्योंकि भारत के ग्रामीण लोगों का "जहां कोई बड़ा सांप रहता है, वहां अवश्य कोई धन का बड़ा खज़ाना होता है" यह विश्वास बतलाता है कि धन से चिपटने वाला मानव सांप ही होता है, मनुष्य नहीं। इसके अतिरिक्त धन के कुपरिणामों के अनेकानेक उदाहरण इतिहास में उपलब्ध होते हैं। .. रावण के पास कितना धन था ? सारी लंका सोने की बनी हुई थी। यादवों की द्वारिका का निर्माण देवताओं के हाथों हुआ था, वह भी हीरे, पन्ने आदि जवाहरात से। भारत के धन वैभव पर मुग्ध हुए यूनान के सिकन्दर ने लाखों मनुष्यों का संहार किया। मन्दिरों को तोड़ करोड़ों का धन भारत से लूटा। उसे अपने ऐश्वर्य का कितना घमण्ड था। ऐसे ही दुर्योधन, कोणिक आदि अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं, परन्तु हुआ क्या ?, सोने की लंका ने रावण को राक्षस बना दिया और स्वर्ण और रत्नों से निर्मित द्वारिका ने यादवों को नरपशु। सिकन्दर के धनवैभव से देश संत्रस्त हो उठा था। दुर्योधन महाभारत के भीषण युद्ध का मूल बना। कोणिक ने अपने पूज्य पिता श्रेणिक को पिंजरे का कैदी बना डाला था। सारांश यह है कि धन के अतिरेक ने उन सब को अन्धा बना दिया था, उन के विवेक चक्षु ज्योतिर्विहीन हो चुके प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [551 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे। मात्र धन के आधिक्य ने मानव को सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया है, यह बात नहीं कही जा सकती। इसी भान्ति परिवार आदि के अन्य अनेकों बल भी इसे महान् नहीं बना सकते। फिर वही प्रश्न सामने आता है कि मानव के सर्वश्रेष्ठ कहलाने का वास्तविक कारण क्या है ? इस प्रश्न का यदि एक ही शब्द में उत्तर दिया जाए तो वह है-मानवता। भगवान् महावीर ने या अन्य अनेकों महापुरुषों ने जो मानव की श्रेष्ठता के गीत गाए हैं, वे मानवता के रंग से गहरे रंगे हुए सच्चरित्र मानवों के ही गाए हैं। मानव के हाथ, पैर पा लेने से कोई मानव नहीं बन जाता, प्रत्युत मानव बनता है-मानवता को अपनाने से। यों तो रावण भी मानव था, परन्तु लाखों वर्षों से प्रतिवर्ष उसे मारते आ रहे हैं, गालियां देते आ रहे हैं, जलाते आ रहे हैं। यह सब कुछ क्यों ? इसी लिए कि उसने मानव हो कर मानवता का काम नहीं किया, फलतः वह मानव हो कर भी राक्षस कहलाया। शास्त्रों में मानवता की बड़ी महिमा गाई गई है। जहां कहीं भी मानवता का वर्णन है वहां उसे सर्वश्रेष्ठ और दुर्लभ बतलाया गया है। वास्तव में यह बात सत्य भी है। जब तक मानवता की प्राप्ति नहीं होती, तब तक यह जीवन वास्तविक जीवन नहीं बन पाता। जीवन के उत्थान का सब से बड़ा साधन मानवता ही है-यह किसी ने ठीक ही कहा है। "-आत्मवत् सर्वभूतेषु-" की भावना ही मानवता है / यदि मनुष्य को दूसरे के हित का भान नहीं तो वह मनुष्य किस तरह कहा जा सकता है ? सारांश यह है कि मनुष्य वही कहला सकता है जो यह समझता है कि जिस तरह मैं सुख का अभिलाषी हूं, प्रत्येक प्राणी मेरी तरह ही सुख की अभिलाषा कर रहा है। तथा जैसे मैं दुःख नहीं चाहता, उसी तरह दूसरा भी दुःख के नाम से भागता है। इसी प्रकार सुख देने वाला जैसे मुझे प्रिय होता है और दुःख देने वाला अप्रिय लगता है, ठीक इसी भान्ति दूसरे जीवों की भी यही दशा है। उन्हें सुख देने वाला प्रिय और दुःख देने वाला अप्रिय लगता है। इसी लिए मेरा यह कर्त्तव्य हो जाता है कि मैं किसी के दुःख का कारण न बनूं। यदि बनूं तो दूसरों के सुख का ही कारण बनूं। इस प्रकार के विचारों का अनुसरण करने वाला मानव प्राणी ही सच्चा मानव या मनुष्य हो सकता है और उसी में सच्ची मानवता या मनुष्यता का निवास रहता है। इस के विपरीत जो व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरों के प्राण तक लूटने में भी नहीं सकुचाता, वह मानव मानव का आकार तो अवश्य धारण किए हुए है किन्तु उस में मानवता का अभाव है। वह मानव हो कर भी दानव है। वस्तुतः ऐसे मानव ही संसार में नाना प्रकार के दुःखों के भाजन बनते हैं, और दुर्गतियों में धक्के खाते हैं। प्रस्तुत सातवें अध्ययन में एक ऐसे व्यक्ति के जीवन का वर्णन प्रस्तावित हुआ है, जो 552 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि मानव के आकार में दानव था। मांसाहारी तथा मांसाहार जैसी हिंसा एवं अधर्म पूर्ण पापमय प्रवृत्तियों का उपदेष्टा बना हुआ था, तथा जिसे इन्हीं नृशंस प्रवृत्तियों के कारण नारकीय भीषण यातनाएं सहन करने के साथ-साथ दुर्गतियों में भटकना पड़ा था। उस अध्ययन का आदिम सूत्र इस प्रकार है मूल-सत्तमस्स उक्खेवो। छाया-सप्तमस्योत्क्षेपः। पदार्थ-सत्तमस्स-सप्तम अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जान लेना चाहिए। मूलार्थ-सप्तम अध्ययन के उत्क्षेप की भावना पहले अध्ययनों की भांति कर लेनी चाहिए। टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह पता चलता है कि प्रभुवाणीरसिक श्री जम्बू स्वामी "-'सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं-"अर्थात् मनुष्य प्रभुवाणी को सुनकर कल्याणकारी कर्म को जान सकता है और सुन कर ही पापकारी मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर सकता है-" इस सिद्धान्त को खूब समझते थे। समझने के साथ-साथ उन्होंने इस सिद्धान्त को जीवन में भी उतार रखा था। इसी लिए अपना अधिक समय वे अपने परम पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पावन चरणों में बैठ कर प्रभुवाणी सुनने में व्यतीत किया करते थे। . पाठकों को यह तो स्मरण ही है कि आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी की प्रार्थना पर विपाकसूत्र के दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों का वर्णन सुना रहे हैं। उन में छठे अध्ययन का वर्णन समाप्त हो चुका है। इस की समाप्ति पर आर्य जम्बू स्वामी फिर पूछते हैं कि भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के छठे अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है जिस का कि वर्णन आप फरमा चुके हैं, तो उन्होंने सातवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है, इस प्रश्न को सूत्रकार ने "सत्तमस्स उक्खेवो" इतने पाठ में गर्भित कर दिया है। तात्पर्य यह है कि छठे अध्ययन का अर्थ सुनने के बाद श्री जम्बू स्वामी ने जो सातवें अध्ययन के अर्थ-श्रवण की जिज्ञासा की थी, उसी को सूत्रकार ने दो पदों द्वारा संक्षेप में प्रदर्शित किया है। उन पदों से अभिव्यक्त सूत्रपाठ निम्नोक्त है "जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणंजाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, सत्तमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ?' इन पदों का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है। आर्य जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने जो कुछ फरमाना 1. सुनियां सेती जानिए, पुण्य पाप की बात। बिन सुनयां अन्धा जांके, दिन जैसी ही रात॥१॥ प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [553 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ किया, अब निम्नलिखित सूत्र में उस का उल्लेख करते हैं मूल-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं पाडलिसंडे णगरे। वणसंडे उज्जाणे। उम्बरदत्ते जक्खे। तत्थ णं पाडलिसंडे णगरे सिद्धत्थे राया। तत्थ णं पाडलिसंडे सागरदत्ते सत्थवाहे होत्था, अड्ढे / गंगादत्ता भारिया, तस्स णं सागरदत्तस्स पुत्ते गंगादत्ताए भारियाए अत्तए उंबरदत्ते नामं दारए होत्था, अहीण / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ समोसरणं, . परिसा जाव गओ। छाया-एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये पाटलिपंडं नगरं / वनषण्डमुद्यानम्। उम्बरदत्तो यक्षः। तत्र पाटलिषंडे नगरे सिद्धार्थो राजा / तत्र पाटलिषंडे सागरदत्तः सार्थवाहोऽभूद्, आढ्य / गंगादत्ता भार्या / तस्य सागरदत्तस्य पुत्रो गंगादत्तायाः भार्यायाः आत्मजः, उम्बरदत्तो नाम दारकोऽभूदहीन / तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः समवसरणं, परिषद् यावत् गतः। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जम्बू !-हे जम्बू ! तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। पाडलिसंडे-पाटलिषंड। णगरे-नगर था।वणसंडे-वनषंड नामक। उजाणेउद्यान था, वहां। उम्बरदत्ते-उम्बरदत्त नामक। जक्खे-यक्ष था अर्थात् उसका स्थान था। तत्थ णं-उस। पाडलिसंडे-पाटलिषण्ड। णगरे-नगर में। सिद्धत्थे-सिद्धार्थ नामक। राया-राजा था। तत्थ णं-उस। पाडलिसंडे-पाटलिषण्ड नगर में। सागरदत्ते-सागरदत्त नाम का। सत्थवाहे-सार्थवाह-यात्री व्यापारियों का नायक। होत्था-था। अड्ढे-जो कि धनाढ्य यावत् अपने नगर में बड़ा प्रतिष्ठित था। गंगादत्ता भारिया-उस की गंगादत्ता नाम की भार्या थी। तस्स णं-उस। सागरदत्तस्स-सागरदत्त सार्थवाह का। पुत्ते-पुत्र। गंगादत्ताए भारियाए-गंगादत्ता भार्या का। अत्तए-आत्मज-पुत्र / उंबरदत्ते-उम्बरदत्त / नामनामक। दारए-बालक। होत्था-था, जो कि। अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रियशरीर से विशिष्ट था। तेणं कालेणं २-उस काल और उस समय में। समणस्स-श्रमण। भगवओ-भगवान् महावीर स्वामी का। समोसरणं-समवसरण हुआ अर्थात् भगवान वहां उद्यान में पधारे। परिसा-परिषद् / जाव-यावत्। गओ-नागरिक और राजा चला गया। मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय ही हे जम्बू ! उस काल और उस समय में पाटलिपंड नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था। वहां वनषंड नामक उद्यान था। उस उद्यान में उम्बरदत्त नामक यक्ष का स्थान था। उस नगर में महाराज सिद्धार्थ राज्य किया करते थे। पाटलिषंड नगर में सागरदत्त नाम का एक धनाढ्य, जो कि उस नगर का बड़ा प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता था, सार्थवाह रहता था। उस की गंगादत्ता नाम की भार्या थी। उनके अन्यून 554] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर वाला उम्बरदत्त नाम का एक बालक था। - . उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वनषंड नामक उद्यान में पधारे। नागरिक लोग तथा राजा उन के दर्शनार्थ नगर से निकले और धर्मोपदेश सुन कर सब वापिस चले गए। टीका-प्रस्तुत सूत्र में सप्तम अध्ययन के प्रधान नायकों के नामों का निर्देशन किया गया है। उन में नगर, उद्यान और यक्षायतन, उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पधारना, उनके दर्शनार्थ नगर की जनता और नरेश के आगमन तथा धर्म श्रवण आदि के विषय में पूर्व वर्णित अध्ययनों की भान्ति ही भावना कर लेनी चाहिए। नामगत भिन्नता को सूत्रकार ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है। -अड्ढे-यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ तथा –अहीण- यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ द्वितीय अध्याय में लिख दिए गए हैं / तथा समोसरणं परिसा जाव गओ-यहां के जाव यावत् पद से -निग्गया, राया निग्गओ, धम्मो कहिओ, परिसा राया य पडिइन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उपदेशामृत का पान करने के अनन्तर राजा तथा जनता के अपने-अपने स्थानों को वापिस लौट जाने के पश्चात् क्या हुआ, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं ___ मूल-तेणं कालेणं 2 भगवं गोतमे तहेव जेणेव पाडलिसंडे णगरे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता पाडलिसंडं णगरं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुप्पविसति, तत्थ णंपासति एगंपुरिसं कच्छुल्लं कोढियंदाओयरियं भगंदरियं अरिसिल्लं कासिल्लं सासिल्लं सोसिल्लं सूयमुहं सूयहत्थं सूयपायं सडियहत्थंगुलियं सडियपायंगुलियं सड़ियकण्णनासियं रसियाए य पूएण य थिविथिवंतं वणमुहकिमिउत्तुयं तपगलंतपूयरुहिरं लालापगलंतकण्णनासं अभिक्खणं 2 पूयकवले य रुहिरकवले य किमिकवले य वममाणं कट्ठाइं कलुणाई वीसराइं कूयमाणं मच्छियाचडगरपहगरेणं अण्णिजमाणमग्गं फुट्टहडाहडसीसं दंडिखंडवसणं खंडमल्लयखंडघडगहत्थगयं गेहे 2 देहंबलियाए वित्तिं कप्पेमाणं पासति 2 त्ता तदा भगवं गोयमे उच्चणीयमज्झिमकुलाई अडति, अहापज्जत्तं गेहति 2 पाडलि पडिनि जेणेव समणे भगवं भत्तपाणं आलोएति, भत्तपाणं पडिदंसेति प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [555 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 त्ता समणेणं अब्भणुण्णाते समाणे बिलमिव पन्नगभूते अप्पाणेणं आहारमाहारेइ संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। छाया-तस्मिन् काले 2 भगवान् गौतमस्तथैव यत्रैव पाटलिपंडं नगरं तत्रैवोपागच्छति 2 पाटलिषंडं नगरं पौरस्त्येन द्वारेणानुप्रविशति / तत्र पश्यत्येकं पुरुषं कच्छूमन्तं कुष्ठिकं दकोदरिकं भगंदरिकमर्शसं कासिकं श्वासिकं शोफवन्तं शूनमुखं शूनहस्तं शूनपादं शटितहस्तांगुलिकं शटितपादांगुलिकं शटितकर्णनासिकं रसिकया च / पूयेन च थिविथिवायमानं व्रणमुखकृम्युत्तद्यमानप्रगलत्पूयरुधिरं लालाप्रगलत्कर्णनासम्, अभीक्ष्णं 2 पूयकवलाँश्च रुधिरकवलाँश्च कृमिकवलाँश्च वमन्तं कष्टानि करुणानि विस्वराणि कूजन्तं मक्षिकाप्रधानसमूहेनान्वीयमानमार्गं स्फुटितात्यर्थशीर्षं दंडिखंडवसनं खंडमल्लकखंडघटकहस्तगतं गेहे 2 देहिबलिकया वृत्तिं कल्पयन्तं पश्यति 2 तदा भगवान् गौतमः उच्चनीचमध्यमकुलान्यटति यथापर्याप्तं गृह्णाति 2 पाटलिपंडात् प्रतिनिष्क्रामति 2 यत्रैव श्रमणो भगवान भक्तपानमालोचयति भक्तपानं प्रतिदर्शयति 2 श्रमणेनाभ्यनुज्ञातो सन् बिलमिव पन्नगभूतः आत्मनाऽऽहारमाहारयति, संयमेन तपसा, आत्मानं भावयन् विहरति। पदार्थ-तेणं-कालेणं २-उस काल, और उस समय में। भगवं-भगवान् / गोतमे-गौतम। तहेव-तथैव अर्थात् पूर्व की भान्ति। जेणेव-जहां-जिधर। पाडलिसंडे-पाटलिषंड। णगरे-नगर था। तेणेव-वहां। उवागच्छति २-आते हैं, आकर। पाडलिसंडं-पाटलिपंड। णगरं-नगर में। पुरथिमेणंपूर्व दिशा के। दारेणं-द्वार से। अणुप्पविसति-प्रवेश करते हैं। तत्थ णं-वहां पर। एगं पुरिसं-एक पुरुष को। पासति-देखते हैं जो कि। कच्छुल्लं-कंडू-खुजली के रोग से युक्त। कोढियं-कुष्ठी-कुष्ठरोग वाला। दाओयरियं-जलोदर रोग वाला। भगंदरियं-भगंदर का रोगी। अरिसिल्लं-अर्शस-बवासीर का रोगी। कासिल्लं-कास का रोगी। सासिल्लं-श्वास रोग वाला। सोसिल्लं-शोफयुक्त अर्थात् शोफ-सूजन का रोगी। सूयमुहं-शूनमुख-जिस के मुख पर सोजा पड़ा हुआ हो। सूयहत्थं-सूजे हुए हाथों वाला। सूयपायं-सूजे हुए पांव वाला। सडियहत्थंगुलियं-जिस के हाथों की अंगुलियां सड़ी हुई हैं। सडियपायंगुलियं-जिस के पैरों की अंगुलियां सड़ी हुई हैं। सडियकण्णनासियं-जिस के कान और नासिका सड़ गए हैं। रसियाए य-रसिका-व्रणों से निकलते हुए सफेद गन्दे पानी से। पूएण य-तथा पीव से। थिविथिवंतं-थिवथिव शब्द से युक्त / वणमुहकिमिउत्तुयंतपगलंतपूयरुहिरं-कृमियों से उत्तुद्यमानअत्यंत पीड़ित तथा गिरते हुए पूय-पीव और रुधिर वाले व्रणमुखों से युक्त / लालापगलंतकण्णनासंजिस के कान और नाक क्लेदतन्तुओं-फोड़े के बहाव की तारों से गल गए हैं। अभिक्खणं २-पुनः- . 1. अर्शासि अस्य विद्यन्ते इति अर्शसः तमितिभावः अर्थात् बवासीर का रोगी। . 556 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः-बार-बार / पूयकवले य-पूय-पीव के कवलों -ग्रासों का। रुहिरकवले य-रुधिर के कवलों का। किमिकवले य-कृमिकवलों का।वममाणं-वमन करता हुआ।कट्ठाई-दु:खद / कलुणाई-करुणोत्पादक। वीसराइं-विस्वर-दीनता वाले वचन / कूयमाणं-बोलता हुआ। मच्छियाचडगरपहगरेणं-मक्षिकाओं के विस्तृत समूह से-मक्षिकाओं के आधिक्य से। अण्णिजमाणमग्गं-अन्वीयमानमार्ग अर्थात् उस के पीछे और आगे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड लगे हुए थे। फुट्टहडाहडसीसं-जिस के सिर के केश नितान्त बिखरे हुए थे। दंडिखंडवसणं-जो फटे-पुराने वस्त्रों को धारण किए हुए था।खंडमल्लयखंडघडगहत्थगयंभिक्षापात्र तथा जलपात्र जिस के हाथ में थे। गेहे २-घर-घर में। देहंबलियाए-भिक्षावृत्ति से। वित्तिंआजीविका। कप्पेमाणं-चला रहा था, उस पुरुष को। पासति-देखते हैं। तदा-तब। भगवं-भगवान्। गोयमे-गौतम स्वामी। उच्चणीयमज्झिमकुलाई-ऊँच (धनी), नीच (निर्धन) तथा मध्यम (न ऊँच तथा न नीच अर्थात् सामान्य) , घरों में। जाव-यावत् / अडति-भ्रमण करते हैं। अहापजत्तं-यथापर्याप्त अर्थात् यथेष्ट, आहार। गेण्हति 2 ता-ग्रहण करते हैं, ग्रहण करके। पाडलिक-पाटलिषंड-नगर से। पडिनि०निकलते हैं, निकल कर। जेणेव-जहां। समणे-श्रमण। भगवं-भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां आते हैं आकर। भत्तपाणं-भक्तपान की।आलोएति-आलोचना करते हैं, तथा। भत्तपाणं-भक्तपान को। पडिदंसेति-दिखलाते हैं, दिखाकर / समणेणं-श्रमण भगवान् से। अब्भणुण्णाते समाणे-आज्ञा को प्राप्त किए हुए। अप्पाणेणं-आत्मा से अर्थात् स्वयं। बिलमिव पन्नगभूते-बिल में जाते हुए पन्नक-सर्प की भान्तिः। आहारमाहारेइ-आहार का ग्रहण करते हैं, तथा। संजमेणं-संयम, और। तवसा-तप से। अप्पाणं-आत्मा को। भावेमाणे-भावित-वासित करते हुए। विहरति-विचरते हैं। .. मूलार्थ-उस काल तथा उस समय भगवान् गौतम स्वामी जी षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिए पाटलिषण्ड नगर में जाते हैं, उस पाटलिषण्ड नगर में पूर्व दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। वहां एक पुरुष को देखते हैं जिस की दशा का वर्णन निम्नोक्त है... वह पुरुष कण्डू रोग वाला, कुष्ठ रोग वाला, जलोदर रोग वाला, भगंदर रोग वाला, अर्श-बवासीर का रोगी, उस को कास और श्वास तथा शोथ का रोग भी हो रहा था, उस का मुख सूजा हुआ था, हाथ और पैर फूले हुए थे, हाथ और पैर की अंगुलियां सड़ी हुईं थीं, नाक और कान भी गले हुए थे, रसिका और पीव से थिवथिव शब्द कर रहा था, कृमियों से उत्तुद्यमान-अत्यन्त पीड़ित तथा गिरते हुए पीव और रुधिर वाले व्रणमुखों से युक्त था, उस के कान और नाक क्लेदतन्तुओं से गल चुके थे, बार-बार पूयकवल, रुधिरकवल तथा कृमिकवल का वमन कर रहा था, और जो कष्टोत्पादक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द कर रहा था, उस के पीछे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड चले आ रहे थे, सिर के बाल अत्यन्त बिखरे हुए थे, टांकियों वाले वस्त्र उसने प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [557 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओढ़ रखे थे। भिक्षा का पात्र तथा जल का पात्र हाथ में लिए हुए घर-घर में भिक्षावृत्ति के द्वारा अपनी आजीविका चला रहा था। तब भगवान गौतम स्वामी ऊँच, नीच और मध्यम घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए यथेष्ट भिक्षा लेकर पाटलिषंड नगर से निकल कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पर आये, आकर भक्त-पान की आलोचना की और लाया हुआ भक्तपान-आहार पानी भगवान को दिखलाया, दिखलाकर उन की आज्ञा मिल जाने पर बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भान्ति बिना चबाये अर्थात् बिना रस लिए ही आहार करते हैं और संयम तथा तप से अपनी आत्मा को भावित-वासित करते हुए कालक्षेप कर रहे हैं। ___टीका-संयम और तप की सजीव मूर्ति भगवान् गौतम स्वामी सदैव की भान्ति आज भी षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त पाटलिषण्ड नगर में भिक्षार्थ जाने की प्रभु से आज्ञा मांगते हैं। आज्ञा मिल जाने पर उन्होंने पाटलिषंड नगर में पूर्वदिशा के द्वार से प्रवेश किया और वहां पर एक ऐसे व्यक्ति को देखा जो कंडू, जलोदर, अर्श, भगंदर, कास, श्वास और शोथादि रोगों से अभिभूत हो रहा था। उस के हाथ-पांव और मुख सूजा हुआ था। इतना ही नहीं किन्तु उस के हाथ पांव की अंगुलियां तथा नाक और कान आदि अंग-प्रत्यंग भी गल सड़ चुके थे। सारा शरीर व्रणों से व्याप्त था, व्रणों में कृमि-कीड़े पड़े हुए थे, उन में से रुधिर और पीव बह रहा था। मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड उस के चारों ओर चक्कर काट रहे थे, वह रुधिर, पूय और कृमियों-कीड़ों का वमन कर रहा था। उस के हाथ में भिक्षापात्र तथा जलपात्र भी था और वह घर-घर में भिक्षा के लिए घूम रहा था, तथा वह अत्यन्त कष्टोत्पादक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द बोल रहा था। इस प्रकार की दशा से युक्त पुरुष को भगवान् गौतम स्वामी ने नगर में प्रवेश करते ही देखा, देख कर वे आगे चले गए और धनिक तथा निर्धन आदि सभी गृहस्थों के घरों से आवश्यक भिक्षा ले कर वे वापिस वनषंड उद्यान में प्रभु महावीर के पास आए और यथाविधि आलोचना कर के प्रभु को भिक्षा दिखला कर उनकी आज्ञा से बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भान्ति उस का ग्रहण किया और पूर्व की भान्ति संयममय जीवन व्यतीत करने लगे। यह प्रस्तुत सूत्रगत वर्णन का संक्षिप्त सार है। भगवान गौतम स्वामी द्वारा देखे हुए उस पुरुष की दयनीय दशा से पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का विपाक-फल कितना भयंकर और कितना तीव्र होता है, यह समझने के लिए अधिक विचार की आवश्यकता नहीं रहती। इस उदाहरण से उस का भलीभान्ति अनुगम हो जाता है। 558 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . "-कच्छुल्लं कोढियं-" इत्यादि पदों की व्याख्या निम्नोक्त है .१-कच्छूमान्-कच्छू-खुजली का नाम है।खुजली रोग से आक्रान्त व्यक्ति कच्छूमान् कहलाता है। कच्छू का ही दूसरा नाम कण्डू है। २-कुष्ठिक-कुष्ठ कोढ़ का नाम है। कोढ़ के रोग वाला व्यक्ति कुष्टिक कहलाता ३-दकोदरिक-दकोदर जलोदर रोग का नाम है। उस रोग वाले व्यक्ति को दकोदरिक कहते हैं। ___-दाओयरियं-के स्थान पर-दोउयरियं-ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। इसका अर्थ है-द्वयोदरिकं-द्वे उदरे इव उदरं यस्य स तथा तं जलोदररोगयुक्तमित्यर्थः-अर्थात् उदरपेट में जल अधिक होने के कारण जिस का उदर दो उदरों के समान प्रतीत होता हो उसे द्वयोदरिक कहते हैं। दूसरे शब्दों में द्वयोदरिक को जलोदरिक कहा जाता है। ४-भगंदरिक-भगंदर रोगविशेष का नाम है। भगंदर रोग वाला व्यक्ति भगंदरिक कहा जाता है। ५-अर्शस-अर्श बवासीर का नाम है। अर्श का रोगी अर्शस कहलाता है। ६-कासिक-कास रोग वाले व्यक्ति को कासिक कहते हैं। ७-श्वासिक-श्वास वाले रोगी का नाम श्वासिक है। उपरोक्त रोगों के सम्बन्ध में प्रथम अध्याय में प्रकाश डाला जा चुका है। ८-शोफवान्-शोफ-सूजन के रोग से आक्रान्त व्यक्ति का नाम शोफवान् है। ९-शूनमुख-जिस का मुख सूजा हुआ हो उसे शूनमुख कहते हैं। १०-शूनहस्त-जिस के हाथ सूजे हुए हों वह शूनहस्त कहलाता है। ११-शूनपाद-जिस के पांव सूजे हुए हों उस को शूनपाद कहा जाता है। १२-शटितहस्तांगुलिक-जिस के हाथों की अंगुलियां सड़ गई हैं, उसे शटितहस्तांगुलिक कहा जाता है। सड़ने का अर्थ है-किसी पदार्थ में ऐसा विकार उत्पन्न होना कि जिस से उस में दुर्गन्ध आने लग जाए। १३-शटितपादांगुलिक-जिस के पांव की अंगुलियां सड़ जायें, वह शटितपादांगुलिक कहलाता है। १४-शटितकर्णनासिक-जिस के कर्ण-कान और नासिका-नाक सड़ जाएं उसे शटितकर्णनासिक कहते हैं। . १५-रसिका और पूय से थिविथिवायमान-अर्थात् व्रण से निकलता हुआ दुर्गन्धपूर्ण 'प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [559 Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेत खून रसिका कहलाता है। पूय-पीव का नाम है। थिवथिव शब्द करने वाला व्यक्ति थिविथिवायमान कहलाता है। तात्पर्य यह है कि रसिका और पूय के बहने से वह व्यक्ति थिव-थिव शब्द कर रहा था। १६-व्रणमुखकृम्युत्तुद्यमानप्रगलत्पूयरुधिर-इस समस्त पद के व्रणमुख, कृमिउत्तुद्यमान, प्रगलत्पूयरुधिर, ये तीन विभाग किए जा सकते हैं। व्रण-घाव-जख्म का नाम है। मुख-अग्रभाग को कहते हैं। तब व्रणमुख शब्द से व्रण का अग्रभाग-यह अर्थ फलित हुआ। कृमियों-कीड़ों से उत्तुद्यमान-पीड़ित, कृम्युतुद्यमान कहा जाता है। जिस के पूय-पीव और रुधिर-खून बह रहा है, उसे प्रगलत्पूयरुधिर कहते हैं / अर्थात् उस व्यक्ति के कीड़ों से अत्यन्त व्यथित व्रण-मुखों से पीव और रुधिर बह रहा था। व्रणमुखानि कृमिभिरुत्तुद्यमानानि ऊर्ध्वं व्यथ्यमानानि प्रगलत्पूयरुधिराणि च यस्य स तथा तमिति वृत्तिकारोऽभयदेवसूरिः। __कहीं पर-वणमुहकिमिउन्नुयंतपगलंतपूयरुहिरं-(व्रणमुखकम्युन्नुदत्प्रगलत्पूयरुधिरम्, व्रणमुखात् कृमयः उन्नुदन्तः- प्रगलन्ति पूयरुधिराणि च यस्य स तथा तम्। इदमुक्तं भवति-यस्य व्रणमुखात् कृमयो बहिनिःसरन्ति उत्पत्य पतन्ति पूयरुधिराणि च प्रगलन्ति तमित्यर्थः)-ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। इस का अर्थ है-जिस के घावों के अग्रभाग से कीड़े गिर रहे थे और पीव तथा रुधिर भी बह रहा था। १७-१लालाप्रगलत्कर्णनास-इस पद में प्रयुक्त हुए लाला शब्द का कोषों में यद्यपि मुंह का पानी (लार) अर्थ किया गया है, परन्तु वृत्तिकार के मत में उसका क्लेदतन्तु यह अर्थ पाया जाता है। जो कि उपयुक्त ही प्रतीत होता है। कारण कि-कलेदतन्तु यह समस्त शब्द है। इस में क्लेद का प्रयोग-नमी (सील), फोड़े का बहाव और कष्ट-पीड़ा, इन तीन अर्थों में होता है। तथा तन्तु शब्द का -डोरा, सूत, तार, डोरी, मकड़ी का जाला, तांत, सन्तान, जाति, जलजन्तुविशेष, इत्यादि २अर्थों में होता है। प्रकृत में क्लेद शब्द का "फोड़े का बहाव" यह अर्थ और तन्तु का "तार" यह अर्थ ही अभिमत है। तब क्लेदतन्तु का -व्रणफोड़े के बहाव की तारें" यह अर्थ निष्पन्न हुआ, जो कि प्रकरणानुसारी होने से उचित ही है क्योंकि लार तो मुंह से गिरती हैं, नाक और कान से नहीं। फोड़ों के बहाव की तारों से जिसके कान और नासिका गल गए हैं, उसे लालाप्रगलत्कर्णनास कहते हैं। ___कहीं पर -लालामुहं पगलंतकण्णनासं-ऐसा पाठान्तर भी मिलता है। इसका अर्थ निम्नोक्त है ' 1. लालाभिः क्लेदतन्तुभिः प्रगलन्तौ कर्णी नासा च यस्य स तथा तमिति-वृत्तिकारः। 2. देखो-संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ-पृष्ठ 347 (प्रथम संस्करण)। 560 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (क) लालामुख-जिस का मुख लाला अर्थात् लार से युक्त रहता है, उसे लालामुख कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति के मुख से लारें बहुत टपका करती थीं। - (ख ) प्रगलत्कर्णनास-जिस के कान और नासिका बहुत गल चुके थे, ऐसा व्यक्ति प्रगलत्कर्णनास कहलाता है। १८-पूयकवल-पूय-पीव को कहते हैं। कवल शब्द-१-उतनी वस्तु जितनी एक बार में खाने के लिए मुंह में रखी जाए, ग्रास, तथा २-पानी आदि उतना पदार्थ जितना मुंह साफ करने के लिए एक बार मुंह में लिया जाए कुल्ली, इन दो अर्थों का परिचायक है। पीव के कवल को पूयकवल और इसी भान्ति रुधिर-खून के कवल को रुधिरकवल, तथा कृमियों-कीड़ों के कवल को कृमिकवल कहते हैं। १९-कष्ट-क्लेशोत्पादक-इस अर्थ का बोध कराने वाला कष्ट शब्द है। २०-करुण-करुणा शब्द उस मानसिक दुःख का परिचायक है जो दूसरों के दुःख के ज्ञान से उत्पन्न होता है और उनके दुःख को दूर करने की प्रेरणा करता है। अर्थात् दया का नाम करुणा है। करुणा को उत्पन्न कराने वाला करुण कहलाता है। २१-विस्वर-दीनतापूर्ण वचन विस्वर कहलाता है, अथवा खराब आवाज़ को विस्वर कहा जाता है, अर्थात् उस पुरुष की आवाज़ बड़ी दीनतापूर्ण थी अथवा बड़ी कर्णकटु ' प्रस्तुत में-कट्ठाइंकलुणाई वीसराइं-इन पदों के साथ-वयणाई-इस विशेष्य पद का अध्याहार किया जाता है। तब-कष्टोत्पादक वचन, करुणोत्पादक वचन एवं विस्वर वचन-कूजत् अर्थात् अव्यक्त रूप से बोलता हुआ, यह अर्थ निष्पन्न होता है। . २२-मक्षिकाओं के चडगर पहगर से अन्वीयमानमार्ग-अर्थात् मक्षिका मक्खी का नाम है। चडगर और पहगर ये दोनों शब्द कोषकारों के मत में देश्य-देशविशेष में बोले जाने वाले हैं। इन में चडगर शब्द प्रधानार्थक और पहगर शब्द समूहार्थक है। अन्वीयमानमार्ग शब्द-जिस के पीछे-पीछे चल रहा है, इस अर्थ का परिचायक है। अर्थात् जिस के पीछे-पीछे मक्षिकाओं का प्रधान-विस्तार वाला समूह चला आ रहा है वह, अथवा मक्षिकाओं के वृन्दों-समूहों के पहकर-समूह जिस के पीछे चले आ रहे हैं वह / तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति के पीछे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड लगे हुए थे। ... २३-फुट्टहडाहडसीसे-इस पद की व्याख्या अभयदेवसूरि के शब्दों में-फुटुं-त्ति 1. मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरः प्रधानः विस्तारवान् यः प्रहकरः समूहः स तथा, अथवामक्षिकाणां चटकराणां तद्वन्दानां यः प्रहकरः स तथा, तेन।अन्वीयमानमार्गमनुगम्यमानमार्गम्। मलाविलो हि वस्तु प्रायो मक्षिकाभिरनुगम्यत एवेति भावः। (वृत्तिकारः) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [561 Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुटितकेशसंचयत्वेन विकीर्णकेशं "हडाहडं"त्ति अत्यर्थं शीर्ष शिरो यस्य स तथाइस प्रकार है। अर्थात् केशसंचय (बालों की व्यवस्था) के स्फुटित-भंग हो जाने से जिस के केश बहुत ज्यादा बिखरे हुए हैं, उस को स्फुटितात्यर्थशीर्ष कहते हैं। हडाहड-यह देश्यदेशविशेष में बोला जाने वाला पद है, जो कि अत्यर्थ का बोधक है। श्रद्धेय पं० मुनि श्री घासीलाल जी म० के शब्दों में इस पद की व्याख्या-स्फुटद् हडाहड-शीर्षः शिरोवेदनया व्यथितमस्तकः-इस प्रकार है। अर्थात् भयंकर शिर की पीड़ा से जिस का मस्तक मानों फूटा जा रहा था वह। २४-१दंडिखण्डवसन-जिस के वस्त्र थिगली वाले हैं। थिगली का अर्थ है वह टुकड़ा जो किसी फटे हुए कपड़े आदि का छेद बन्द करने के लिए लगाया जाए, पैबन्द। पंजाबी भाषा में जिसे टांकी कहते हैं / अर्थात् उस पुरुष ने ऐसे वस्त्र पहन रखे थे जिन पर बहुत टांकियां लगी हुई थीं। अथवा-दण्डी-कंथा (गुदड़ी को धारण करने वाले भिक्षुविशेष की तरह जिसने वस्त्रों के जोड़े हुए टुकड़े ओढ़ रखे थे वह दण्डिखण्डवसन कहलाता है। ___२५-खण्डमल्लकखण्डघटकहस्तगत-खण्डमल्लक-भिक्षापात्र या फूटे हुए प्याले का नाम है। भिक्षु के जलपात्र या फूटे हुए घड़े को खण्डघटक कहा जाता है। जिस पुरुष के हाथ में खण्डमल्लक और खण्डघटक हो उसे खण्डमल्लकखण्डघटकहस्तगत कहते हैं। कहीं-रेखण्डमल्लखण्डहत्थगयं-ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। इस का अर्थ है-जिस ने खाने और पानी पीने के लिए अपने हाथ में दो कपाल-मिट्टी के बर्तन के टुकड़े ले रखे थे। २६-देहबिलका-का अर्थ कोष में भिक्षावृत्ति-भीख द्वारा आजीविका ऐसा लिखा है। किन्तु वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि जी इस का अर्थ "-देहि बलिं इत्यस्याभिधानं प्राकृतशैल्या देहंबलिया तीए देहंबलियाए-" इस प्रकार करते हैं। इस का सारांश यह है कि मुझे बलि दो-भोजन दो, ऐसा कह कर जो "-वित्तिं कप्पेमाणं-" आजीविका को चला रहा है, उस को-यह अर्थ निष्पन्न होता है, और बलि शब्द का प्रयोग-देवविशेष के निमित्त उत्सर्ग किया हुआ कोई खाद्य पदार्थ, और उच्छिष्ट-इत्यादि अर्थों में होता है। प्रकृत में तो बलि शब्द से खाद्य पदार्थ ही अभिप्रेत है। फिर भले ही वह देव के लिए उत्सर्ग किया 1. दण्डिखण्डानि-स्यूतजीर्णपटनिर्मितानि वसनानि एव वसनानि वस्त्राणि, यस्य स दण्डिखण्डवसनः, तमिति भावः। 2. दण्डिखण्डवसनं-दण्डी कन्थाधारी भिक्षुविशेषः तद्वत् खण्डवसनयुक्तम् / 3: खण्डमल्लखण्डहस्तगतम्-अशनपानार्थं शरावखण्डद्वययुक्तहस्तम्। 562 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय / [प्रथम श्रुतस्कंध Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ हो अथवा उच्छिष्टरूप से रक्खा हुआ हो। - कहीं पर देहंबलियाए इस पाठ के स्थान पर-देहबलियाए-देहबलिकया-ऐसा * पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। देह-शरीर के निर्वाह के लिए बलिका-आहार का ग्रहण देहबलिका कहलाता है। कच्छूमान्, कुष्ठिक-इत्यादि पदों को प्रथमान्त रख कर उन का अर्थ किया गया है, परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में ये सब पद द्वितीयान्त तथा देहबलिका शब्द तृतीयान्त है। अतः अर्थसंकलन करते समय मूलार्थ की भान्ति द्वितीयान्त तथा तृतीयान्त की भावना कर लेनी चाहिए। '. "-गोतमे तहेव जेणेव-" यहां पठित तहेव-तथैव पद द्वितीय अध्याय में पढ़े गए "-छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेति 2 त्ता बीयाए पोरिसीए झाणं झियाति-" से लेकर "-दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे-" इन पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में पाटलिषण्ड नगर का। . "-पाडलि." तथा "पडिनि जेणेव समणे भगवं" इन बिन्दुयुक्त पाठों से क्रमशः "-पाडलिसंडाओ नगराओ पडिनिक्खमइ, जेणेव समणे भगवं महावीरेतेणेव उवागच्छइ २त्ता गमणागमणाए पडिक्कमइ-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। ... और "बिलमिव पन्नगभूए अप्पाणेणं आहारं आहारेति" इन पदों की व्याख्या 'वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है.आत्मनाऽऽहारमाहारयति, किंभूतः सन्नित्याह-पन्नगभूतः, नागकल्पो भगवान् आहारस्य रसोपलम्भार्थमचर्वणात्, कथंभूतमाहारं ? बिलमिव असंस्पर्शनात् नागो हि बिलमसंस्पृशन्नात्मानं तत्र प्रवेशयति, एवं भगवानपि आहारमसंस्पृशन् सोपलम्भादनपेक्षः सन् आहारयतीति-"अर्थात् जिस तरह सांप बिल में सीधा प्रवेश करता है और अपनी गर्दन को इधर-उधर का स्पर्श नहीं होने देता, तात्पर्य यह है कि रगड़ नहीं लगाता, किन्तु सीधा ही रखता है, ठीक उसी प्रकार भगवान् गौतम भी रसलोलुपी न होने से आहार को मुख में रख कर बिना चबाए ही अन्दर पेट में उतार लेते थे। सारांश यह है कि भगवान् गौतम भी बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भान्ति सीधे ही ग्रास को मुख में डाल कर बिना किसी प्रकार के चर्वण से उदरस्थ कर लेते थे। 1. भगवान गौतम पाटलिषण्ड नगर से निकलते हैं और जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पर आते हैं, आकर ऐर्यापथिक-गमनागमन सम्बन्धी पापकर्म का प्रतिक्रमण (पाप से निवृत्ति) करते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [563 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कथन से भगवान् गौतम में रसगृद्धि के अभाव को सूचित करने के साथ-साथ . उनके इन्द्रियदमन और मनोनिग्रह को भी व्यक्त किया गया है, तथा आहार का ग्रहण भी वे धर्म के साधनभूत शरीर को स्थिर रखने के निमित्त ही किया करते थे, न कि रसनेन्द्रिय की तृप्ति करने के लिए-इस बात का भी स्पष्टीकरण उक्त कथन से भलीभान्ति हो जाता है। इस के अतिरिक्त यहां पर इस प्रकार आहार ग्रहण करने से अजीर्णता की आशंका करना तो नितान्त भूल करना है। भगवान् गौतम स्वामी जैसे तपस्विराज के विषय में तो इस प्रकार की संभावना भी नहीं की जा सकती। अजीर्ण तो उन लोगों को हो सकता है जो इस शरीर को मात्र भोजन के लिए समझते हैं, और जो शरीर के लिए भोजन करते हैं, उन में अजीर्णता को कोई स्थान नहीं है, और वस्तुतः यहां पर शास्त्रकार को अचर्वण से रसास्वाद का त्याग ही अभिप्रेत है, न कि चर्वण का निषेध। प्रस्तुत सूत्र में पाटलिषंड नगर के पूर्वद्वार से प्रविष्ट हुए गौतम स्वामी ने एक रोगसमूहग्रस्त नितान्त दीन दशा से युक्त पुरुष को देखा-इत्यादि विषय का वर्णन किया गया है। अब अग्रिमसूत्र में उक्त नगर के अन्य द्वारों से प्रवेश करने पर गौतम स्वामी ने जो कुछ देखा, उस का वर्णन किया जाता है____ मूल-तते णं से भगवं गोतमे दोच्चं पि छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए जाव पाडलिसंडं णगरं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसति, तं चेव पुरिसं पासति कच्छुल्लं तहेव जाव संजमे विहरति। तते णं से गोतमे तच्चं पि छट्ठ तहेव जावपच्चत्थिमिल्लेणंदुवारेणं अणुप्पविसमाणे तं चेव पुरिसं कच्छु. पासति। चउत्थं पि छ? उत्तरेणं, इमे अज्झथिए 5 समुप्पन्ने-अहो ! णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणंजाव एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! छट्ठस्स पारणयंसि जावरीयंते जेणेव पाडलिसंडे तेणेव उवागच्छामि 2 पाडलिपुत्ते पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुप्पवितु। तत्थ णं एगं पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव कप्पेमाणं। तए णं अहं दोच्चं पि छ?क्खमणपारणए दाहिणिल्लेणं दारेणं तहेव। तच्चं पि छट्ठक्खमणपारणए पच्चत्थिमेणं तहेव।तए णं अहं चउत्थं पिछलुक्खमणपारणे उत्तरदारेण अणुप्पविसामि, तं चेव पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव वित्तिं कप्पेमाणे विहरति। चिंता ममं। पुव्वभवपुच्छा। वागरेति। छाया-ततः स भगवान् गौतमो द्वितीयमपि षष्ठक्षमणपारणके प्रथमायां पौरुष्यां 564 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कंध Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावत् पाटलिषंडं नगरं दाक्षिणात्येन द्वारेणानुप्रविशति, तमेव पुरुषं पश्यति, कच्छूमन्तं तथैव यावत् संयमेन विहरति / ततः स गौतमस्तृतीयमपि षष्ठ तथैव यावत् पाश्चात्येन द्वारेणानुप्रविशन् तथैव पुरुषं कच्छू पश्यति / चतुर्थमपि षष्ठ उत्तरेण / अयमाध्यात्मिकः 5 समुत्पन्न:-अहो ! अयं पुरुषः पुरा पुराणानां यावदेवमवदत्-एवं खल्वहं भेदुन्त ! षष्ठस्य पारणके यावत् रीयमानो यत्रैव पाटलिपंडं तत्रैवोपागच्छामि 2 पाटलिपुत्रे पौरस्त्येन द्वारेणानुप्रविष्टः, तत्रैकं पुरुषं पश्यामि कच्छूमंतं यावत् कल्पयन्तम्। ततोऽहं द्वितीयमपि षष्ठक्षमणपारणके दाक्षिणात्येन द्वारेण तथैव। तृतीयमपि षष्ठक्षमणपारणके पाश्चात्येन तथैव। ततोऽहं चतुर्थमपि षष्ठक्षमणपारणे उत्तरद्वारेणानुप्रविशामि, तमेव पुरुषं पश्यामि कच्छुमन्तं यावद् वृत्तिं कल्पयन् विहरति / चिन्ता मम। पूर्वभवपृच्छा / व्याकरोति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। भगवं-भगवान्। गोतमे-गौतम। दोच्चं पि-दूसरी बार। छद्रुक्खमणपारणगंसि-षष्ठक्षमण के पारणे में भी अर्थात् लगातार दो दिन के उपवास के अनन्तर पारणा करने के निमित्त। पढमाए-प्रथम। पोरिसीए-पौरुषी-प्रहर में। जाव-यावत्। पाडलिसंडं-पाटलिषंड। णगरं-नगर में। दाहिणिल्लेणं-दक्षिण दिशा के। दुवारेणं-द्वार से। अणुप्पविसति-प्रवेश करते हैं। तं चेव-और उनी। कच्छुल्लं-कंडूयुक्त।पुरिसं-पुरुष को।पासति-देखते हैं। तहेव-तथैव-पूर्व की भान्ति। जाव-यावत्। संजमेणं-संयम और तप से आत्मा को भावित-वासित करते हुए। विहरति-विहरण करते हैं, विचरते हैं। तते णं-तदनन्तर / से-वह / गोतमे-गौतम स्वामी। तच्चं पि-तीसरी बार। छट्ट०-षष्ठक्षमण के पारणे में भी। तहेव-तथैव-पूर्ववत् / जाव-यावत्। पच्चथिमिल्लेणं-पश्चिम दिशा के। दुवारेणं-द्वार से। अणुप्पविसमाणे-प्रवेश करते हुए। तं चेव-उसी। कच्छु०-कंडू के रोग से युक्त। पुरिसं-पुरुष को। . पासति-देखते हैं। चउत्थं पि-चौथी बार भी। छट्ठ०-षष्ठक्षमण के पारणे में। उत्तरेणं०-उत्तर दिशा के द्वार से प्रवेश करते हुए वहां उसी पुरुष को देखते हैं, तब उन को। इमे-यह / अज्झथिए ५-आध्यात्मिकसंकल्प 5 / समुप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। अहो-आश्चर्य है। णं-वाक्यालंकारार्थक है। इमे पुरिसे-यह पुरुषपुरा-पूर्वकृत। पोराणाणं-पुरातन पापकर्मों के फल का उपभोग कर रह है। जाव-यावत् भगवान् के पास आकर। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगे। भंते !-हे भगवन् ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। अहं-मैं / छट्ठस्स-षष्ठक्षमण षष्ठतप के। पारणयंसि-पारणे के निमित्त (भिक्षार्थ)। जाव-यावत्।रीयंतेभ्रमण करता हुआ। जेणेव-जहां। पाडलिसंडं-पाटलिपंड। णगरं-नगर था। तेणेव-वहां। उवागच्छामिगया। पाडलिपुत्ते-पाटलिपुत्र नगर के। पुरथिमिल्लेणं-पूर्व दिशा के।दारेणं-द्वार से, मैंने।अणुष्पविद्वेप्रवेश किया तो। तत्थ णं-वहां पर / एग-एक। पुरिसं-पुरुष को। पासामि-मैंने देखा, जोकि / कच्छुल्लंकंडू के रोग से युक्त। जाव-यावत्। कप्पेमाणं-भिक्षावृत्ति से आजीविका चला रहा था। तए णं 1. इस पाठ से यह प्रमाणित होता है कि पाटलिपुत्र-यह पाटलिषंड का अपर नाम है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [565 Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनन्तर / अहं-मैं / दोच्चं पि-दूसरी बार / छट्ठक्खमणपारणए-षष्ठक्षमण के पारणे के लिए, पाटलिपंड नगर के। दाहिणिल्लेणं-दक्षिण दिशा के। दारेणं-द्वार से प्रवेश किया, तो मैंने। तहेव-तथैव-पूर्ववत् अर्थात् उसी पुरुष को देखा। तच्चं पि-तीसरी बार। छटुक्खमणपारणए-षष्ठक्षमण के पारणे में। पच्चत्थिमेणं-उसी नगर के पश्चिम दिशा के द्वार से प्रवेश किया। तहेव-तथैव-पूर्व की भांति / तए णंतदनन्तर। अहं-मैं। चउत्थं पि छट्ठक्खमणपारणे-चौथी बार षष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त भी। उत्तरदारेणं-पाटलिपंड के उत्तर दिशा के द्वार से। अणुप्पविसामि-प्रविष्ट हुआ तो। तं चेव-उसी। पुरिसं-पुरुष को। पासामि-देखता हूँ, जोकि। कच्छुल्लं-कंडू के रोग से अभिभूत हुआ। जाव-यावत्। वित्तिं कप्पेमाणे-भिक्षावृत्ति से आजीविका करता हुआ। विहरति-समय बिता रहा था, उसे देखकर। ममं-मुझे। चिंता-विचार उत्पन्न हुआ, तदनन्तर / पुव्वभवपुच्छा-गौतम स्वामी ने उसके पूर्वभव को पूछा अर्थात् भगवन् ! यह पुरुष पूर्व जन्म में कौन था, इस प्रकार का प्रश्न गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से किया, इस के उत्तर में भगवान्। वागरेति-कहने लगे। मूलार्थ-तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी ने दूसरी बार षष्ठक्षमण-बेले के पारणे के निमित्त प्रथम पौरुषी-प्रथम पहर में यावत् भिक्षार्थ गमन करते हुए पाटलिपंड नगर में दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उन्होंने कंडू आदि रोगों से युक्त उसी पुरुष को देखा और वे भिक्षा ले कर वापिस आए। शेष सभी वृत्तान्त पूर्व की भान्ति जानना अर्थात् आहार करने के अनन्तर वे तप और संयम के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। तदनन्तर भगवान् गौतम तीसरी बार षष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त उक्त नगर में पश्चिम दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं, तो वहां पर भी वे उसी पुरुष को देखते हैं। इसी प्रकार चौथी बार षष्ठक्षमण के पारणे के लिए पाटलिषंड के उत्तरदिगद्वार से प्रवेश करते हैं, तब भी उन्होंने उसी पुरुष को देखा, देखकर उन के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि अहो ! यह पुरुष पूर्वकृत अशुभ कर्मों के कटु विपाक को भोगता हुआ कैसा दुःखपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है ! यावत् वापिस आकर उन्होंने भगवान् से जो कुछ कहा, वह निम्नोक्त है भगवन् ! मैंने षष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त यावत् पाटलिपंड नगर की ओर प्रस्थान किया और नगर के पूर्वदिग्द्वार से प्रवेश करते हुए मैंने एक पुरुष को देखा, जो कि कण्डूरोग से आक्रान्त यावत् भिक्षावृत्ति से आजीविका कर रहा था।फिर दूसरी बार षष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिए उक्त नगर के दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उसी पुरुष को देखा। एवं तीसरी बार जब पारणे के निमित्तं 566 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस नगर के पश्चिमदिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उसी पुरुष को देखा और चौथी बार जब मैं बेले का पारणा लेने के निमित्त पाटलीपुत्र में उत्तरदिगद्वार से प्रविष्ट हुआ तो वहां पर भी कंडू के रोग से युक्त यावत् भिक्षावृत्ति करते हुए उसी पुरुष को देखता हूँ। उसे देख कर मेरे मानस में यह विचार उत्पन्न हुआ कि अहो ! यह पुरुष पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल पा रहा है, इत्यादि। भगवन् ! यह पुरुष पूर्व भव में कौन था जो इस प्रकार के भीषण रोगों से आक्रान्त हुआ जीवन बिता रहा है? गौतम स्वामी के इस प्रश्न को सुनकर भगवान् महावीर स्वामी उस का उत्तर देते हुए प्रतिपादन करने लगे। टीका-हम पूर्व सूत्र में देख चुके हैं कि 'षष्ठक्षमण-बेले के पारणे के निमित्त पाटलिषंड नगर में भिक्षार्थ गए हुए गौतम स्वामी ने पूर्वदिग्द्वार से प्रवेश करते हुए एक ऐसे व्यक्ति को देखा था, जिस की घृणित अवस्था का वर्णन करते हुए हृदय कांप उठता है। प्रस्तुत सूत्र में भी पूर्व की भान्ति गौतम स्वामी के दूसरी बार दक्षिण दिशा, तीसरी बार पश्चिम दिशा और चौथी बार उत्तर दिशा के द्वारों से नगर में प्रवेश करते समय उसी पुरुष को देखने का उल्लेख किया गया है। पाटलिपंड नगर के चारों दिशाओं के द्वारों से प्रवेश करते हुए गौतम स्वामी को चौथी बार अर्थात् उत्तरदिग् द्वार से प्रवेश करने पर भी जब उसी पुरुष का साक्षात्कार हुआ तब उस की नितान्त दयनीय दशा को देख कर उनका दयालु मन करुणा के मारे पसीज उठा। वे उस की भयंकर अवस्था को देखकर उस के कारणभूत प्राक्तन कर्मों की ओर ध्यान देते हुए मन ही मन में कह उठते हैं कि अहो ! यह व्यक्ति पूर्वकृत अशुभ कर्मों के प्रभाव से कितनी भयंकर यातना को भोग रहा है ! इस में संदेह नहीं कि नरकगति में अनेक प्रकार की कल्पनातीत भीषण यातनाओं का उपभोग करना पड़ता है, परन्तु इस मनुष्य की जो इस समय दशा हो रही है, वह भी नारकीय यातनाओं से कम नहीं कही जा सकती, इत्यादि। . इस प्रकार उस मनुष्य के करुणाजनक स्वरूप से प्रभावित हुए गौतम स्वामी नगर से आहारादि सामग्री लेकर वापस आते हैं और उसी दुःखी व्यक्ति की दशा का वर्णन करने के अनन्तर उस के पूर्वभव का वृत्तान्त जानने की इच्छा से प्रेरित हुए भगवान् से उसे सुनाने की अभ्यर्थना करते हैं, तथा गौतम स्वामी की इस अभ्यर्थना को मान देते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उस व्यक्ति के पूर्वभव का वर्णन करते हैं। यह प्रस्तुत सूत्रगत वर्णन का सारांश दिनों के उपवास को षष्ठक्षमण कहते हैं / जैन जगत में यह बेले के नाम से विख्यात है। इसे षष्ठतप भी कहा जाता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [567 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-पढमाए पोरिसीए जाव पाडलिसंडं-" इस पाठ में उल्लिखित जाव-यावत् पद से द्वितीय अध्याय में पढ़े गए "-सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाति, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ-" इत्यादि पाठ का ग्रहण समझना चाहिए। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नामक नगर का उल्लेख है जब कि प्रस्तुत में पाटलिषंड नगर का। शेष वर्णन समान ही है। ___ "-कच्छुल्लं तहेव जाव संजमे विहरति-" यहां पठित तहेव-तथैव पद उसी तरह अर्थात् जिस तरह पहले पूर्व दिशा के द्वार से प्रवेश करते हुए भगवान् गौतम ने एक कच्छूमान् पुरुष को देखा था, उसी तरह दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश करते हुए भी उन्होंने उस कच्छूमान् पुरुष को देखा-इस भाव का परिचायक है। तथा जाव-यावत् पद से पीछे लिखे गए "-कोढियं दाओयरियं भगंदरिअं-" से लेकर "-आहारमाहारेइ-" यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। तथा "-संजमे-" यहां के बिन्दु से भी पीछे पढ़े गए "-णं तवसा अप्पाणं भावेमाणे-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। ___ -छट्ट०-यहां के बिन्दु से "-क्खमणपारणगंसि-" इस पद का ग्रहण समझना चाहिए। तथा-तहेव जाव पच्चस्थिमिल्लेणं-यहां पठित तहेव-तथैव यह पद द्वितीय अध्याय में संसूचित किए गए"-उसी तरह अर्थात् बेले के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, द्वितीय प्रहर में ध्यान करते है-" आदि भावों का परिचायक है। तथा जाव-यावत् पद से द्वितीय अध्याय में ही लिखे हुए "-पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ-से लेकर-पुरओ रियं सोहेमाणे-इत्यादि पदों का ग्रहण समझना चाहिए।" -कच्छु०-तथा-चउत्थं पि छट्ट०-यहां का प्रथम बिन्दु इसी अध्याय में पूर्व में उल्लिखित हुए "-ल्लं कोढियं-" इत्यादि पदों का संसूचक है। तथा दूसरे बिन्दु से संसूचित पाठ ऊपर लिखा जा चुका है। तथा –उत्तरेणं०-यहां के बिन्दु से-दुवारेणं अणुप्पविसमाणे तं चेव पुरिसं कच्छुल्लं जाव पासति पासित्ता-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। -अज्झथिए 5 समुप्पन्ने- यहां पर दिए गए 5 के अंक से विवक्षित पाठ की सूचना द्वितीय अध्याय में की जा चुकी है। तथा-पोराणाणं जाव एवं वयासी-यहां पठित जावयावत् पद तृतीय अध्याय में लिखे गए-दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कन्ताणं-इत्यादि पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां पुरिमताल नगर का उल्लेख है, जब कि प्रस्तुत में पाटलिषंड का। 568] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-पारणयंसि जाव रीयन्ते-" यहां पठित जाव-यावत् पद से-तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पाडलिसंडे णगरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् यावत् पद-आप श्री से आज्ञा प्राप्त किया हुआ मैं पाटलिषंड नगर के उच्च-धनी, नीच-निर्धन और मध्यम-न नीच तथा न उच्च अर्थात् साधारण कुलों के सभी घरों में भिक्षा के लिए-इन भावों का परिचायक है। "-कच्छुल्लं जाव कप्पेमाणं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से पीछे पढ़े गए "-कोढियंदाओयरियं-" से लेकर "-देहंबलियाए वित्तिं-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। तथा "-चिन्ता-" शब्द से तृतीय अध्याय में पढ़े गए "-अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कन्ताणं-" से लेकर"-नरयपडिरूवियं वेयणं वेएति-" यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। "-पुव्वभवपुच्छा-" यह पद प्रथम अध्याय में पढ़े गए "-से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसि?-" से लेकर "-पुरा पोराणाणं जाव विहरति-" यहां तक के पदों का परिचायक है। ____अब गौतम स्वामी के पूर्वभवसम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया अग्रिमसूत्र में उस का वर्णन किया जाता है मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे विजयपुरे णाम णगरे होत्था, रिद्ध / तत्थ णं विजयपुरे णगरे कणगरहे णामं राया होत्था। तस्स णं कणगरहस्स रण्णो धन्नंतरी णामं वेज्जे होत्था, अटुंगाउव्वेदपाढए तंजहा-१-कोमारभिच्चं,२-सालागे, ३-सल्लहत्ते, ४-कायतिगिच्छा,५-जंगोले,६-भूयविजा, ७-रसायणे,८-वाजिकरणे। सिवहत्थे सुहहत्थे लहुहत्थे।ततेणं से धनंतरी वेजे विजयपुरेणगरे कणगरहस्स रण्णो अन्तेउरे य अन्नेसिंच बहूणं राईसर० जाव सत्थवाहाणं अन्नेसिं च बहूणं दुब्बलाण य गिलाणाण य वाहियाण य रोगियाण य सणाहाण य अणाहाण य समणाण य माहणाण य भिक्खुयाण य कप्पडियाण य करोडियाण य आउराण य अप्पेगतियाणं मच्छमंसाइं उवदिसति, अप्पेगतियाणं कच्छभमंसाई अप्पेगतियाणं गाहमंसाइं अप्पेगतियाणं मगरमंसाइं अप्पेगतियाणं सुसुमारमंसाई अप्पेगतियाणं अयमसाइं एवं एल-रोज्झ-सूयर-मिग-ससय-गोमहिसमंसाइं, अप्पेगतियाणं तित्तिरमंसाइं, वट्टक-लावक-कवोत-कुक्कुड प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [569 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मऊरमंसाइं अन्नेसिंच बहूणं जलयर-थलयर-खहयरमादीणं मंसाइं उवदिसति। अप्पणा वि य णं से धन्नंतरी वेज्जे तेहिं बहूहिं मच्छमंसेहि य जाव मयूरमंसेहि यअन्नेहिं बहूहिं चजलयर-थलयर खहयरमंसेहि य मच्छरसेहि य जाव मऊररसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुर च 5 आसाएमाणे 4 विहरति। तते णं से धनंतरी वेज्जे एयकम्मे 4 सुबहुं पावं कम्मं समज्जिणित्ता बत्तीसंवाससताई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइत्ताए उववन्ने। छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे विजयपुरं नाम नगरमभूद्, ऋद्ध / तत्र विजयपुरे नगरे कनकरथो नाम राजाऽभूत् / तस्य कनकरथस्य राज्ञो धन्वन्तरि म वैद्योऽभूत्, अष्टांगायुर्वेदपाठकः, तद्यथा-१-कौमारभृत्यं, २-शालाक्यं, ३-शाल्यहत्यं, ४-कायचिकित्सा, ५-जांगुलं, ६-भूतविद्या, ७-रसायनं, ८-वाजीकरणम्। शिवहस्तः, शुभहस्तः, लघुहस्तः। ततः स धन्वन्तरिवॆद्यो विजयपुरे नगरे कनकरथस्य राज्ञः अंत:पुरे च अन्येषां च बहूनां राजेश्वर यावत् सार्थवाहानामन्येषां च बहूनां दुर्बलानां च ग्लानानां च व्याधितानां च रोगिणां च सनाथानां च अनाथानां च श्रमणानां च ब्राह्मणानां च भिक्षुकाणां च करोटिकानां च कार्पटिकानां च आतुराणामप्येकेषां मत्स्यमांसानि उपदिशति, अप्येकेषां कच्छपमांसानि, अप्येकेषां ग्राहमांसानि, अप्येकेषां मकरमांसानि, अप्येकेषां सुसुमारमांसानि अप्येकेषामजमांसानि, एवमेल-गवय-शूकर-मृग-शशक-गो-महिषमांसानि, अप्येकेषां तित्तिरमांसानि वर्तक-लावक-कपोत-कुक्कुट-मयूरमांसानि, अन्येषां च बहूनां स्थलचर-जलचर-खचरादीनां मांसानि उपदिशति / आत्मनापि च स धन्वन्तरिर्वैद्यः तैर्बहूभिः मत्स्यमांसैश्च यावद् मयूरमांसैश्च, अन्यैश्च बहुभिर्जलचर-स्थलचरखचरमांसैश्च, मत्स्यरसैश्च यावद् मयूररसैश्च शूल्यैश्च तलितैश्च भर्जितैश्च सुरां च 5 1. धनुः शल्यशास्त्रं, तस्य अन्तं पारम्, इयर्ति गच्छतीति धन्वन्तरिः। अर्थात् धनु शल्यशास्त्र (अस्त्रचिकित्सा का विधायक शास्त्र) का नाम है। उस के अन्त-पार को उपलब्ध करने वाला व्यक्ति धन्वन्तरि कहलाता है। (सुश्रुतसंहिता) 2. शिवहस्तः-शिवं कल्याणं आरोग्यमित्यर्थः, तद् हस्ते यस्य स तथा, तस्य हस्तस्पर्श-मात्रेण रोगी रोगमुक्तो भवतीति भावः। शुभहस्तः-सुखहस्तो वा, शुभं सुखं वा हस्ते हस्तस्पर्शे यस्य स तथा। लघुहस्तःलघु:-व्रणचीरणशलाकादिक्रियासु दक्षो हस्तो यस्य स तथा, हस्तलाघवसम्पन्नः। 570 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्वादयन् 4 विहरति / ततः स धन्वन्तरिर्वैद्यः एतत्कर्मा 4 सुबहु पापं कर्म समर्म्य द्वात्रिंशतं वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा षष्ठ्यां पृथिव्यामुत्कर्षण द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतयोपपन्नः। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! / तेणं कालेणं तेणं समएणंउस काल तथा उस समय। इहेव-इसी। जंबूद्दीवे-जम्बूद्वीप नामक। दीवे-द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारत वर्ष में। विजयपुरे-विजयपुर। णाम-नामक। णगरे-नगर। होत्था-था, जो कि। रिद्धऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र और परचक्र के भय से रहित, एवं समृद्ध-धन धान्यादि से परिपूर्ण था। तत्थ णं-उस। विजयपुरे-विजयपुर। णगरे-नगर में। कणगरहे-कनकरथ। णाम-नाम का। राया-राजा। होत्था-था। तस्स णं-उस। कणगरहस्स-कनकरथ। रण्णो-राजा का। धनंतरी-धन्वंतरि। णाम-नामक।वेज्जे-वैद्य / होत्था-था, जो कि। अटुंगाउव्वेयपाढए-अष्टांग आयुर्वेद का अर्थात् आयुर्वेद के आठों अंगों का पाठक-ज्ञाता-जानकार था। तंजहा-जैसे कि।१-कोमारभिच्चं१-कौमारभृत्य-आयुर्वेद का एक अंग जिस में कुमारों के दुग्धजन्य दोषों का उपशमनप्रधान वर्णन हो। २-सालागे-२-शालाक्य-चिकित्साशास्त्र-आयुर्वेद का एक अंग जिस में शरीर के नयन, नाक आदि ऊर्ध्वभागों के रोगों की चिकित्सा का विशेषरूप से प्रतिपादन किया गया हो। ३-सल्लहत्ते-३शाल्यहत्य-आयुर्वेद का एक अंग जिस में शल्य-कण्टक, गोली आदि निकालने की विधि का वर्णन किया गया हो।४-कायतिगिच्छा-४-कायचिकित्सा-शरीरगत रोगों की प्रतिक्रिया-इलाज तथा उसक प्रतिपादक आयुर्वेद का एक अंग। ५-जंगोले-५-आयुर्वेद का एक विभाग जिस में विषों की चिकित्सा का विधान है। ६-भूयवेज्जे-६-भूतविद्या-आयुर्वेद का वह विभाग जिस में भूतनिग्रह का प्रतिपादन किया गया है। ७-रसायणे-७-रसायन-आयु को स्थिर करने वाली और व्याधि-विनाशक औषधियों के विधान करने वाला प्रकरणविशेष। ८-वाजीकरणे-८-वाजीकरण-बलवीर्यवर्द्धक औषधियों का विधायक आयुर्वेद का एक अंग। तते णं-तदनन्तर / से-वह। धन्नंतरी-धन्वंतरि। वेज्जे-वैद्य, जो कि। सिवहत्थे-शिवहस्त-जिसका हाथ शिव-कल्याण उत्पन्न करने वाला हो। सुहहत्थे-शुभहस्त-जिस का हाथ शुभ हो अथवा सुख उपजाने वाला हो। लहुहत्थे-लघुहस्त-जिस का हाथ कुशलता से युक्त हो। विजयपुरे-विजयपुर / णगरे-नगर में। कणगरहस्स-कनकरथ। रणो-राजा के। अंतेउरे य-अन्त:पुर में रहने वाली राणी, दास तथा दासी आदि। अन्नेसिं च-और अन्य। बहूणं-बहुत से। राईसर-राजाप्रजापालक, ईश्वर-ऐश्वर्य वाला। जाव-यावत्। सत्थवाहाणं-सार्थवाहों-संघ के नायकों को तथा। अन्नेसिं च-और अन्य। बहूणं-बहुत से। दुब्बलाण य-दुर्बलों तथा। गिलाणाण-ग्लानों-ग्लानि प्राप्त करने वालों अर्थात् किसी मानसिक चिन्ता से सदा उदास रहने वालों / य-और। रोगियाण-रोगियों। यतथा / वाहियाण य-व्याधिविशेष से आक्रान्त रहने वालों तथा। सणाहाण-सनाथों / य-और / अणाहाणअनाथों। य-और। समणाण-श्रमणों। य-तथा। माहणाण-ब्राह्मणों। य-और। भिक्खुयाण-भिक्षुकों। य-तथा। करोडियाण-करोटिक-कापालिकों-भिक्षुविशेषों। य-और। कप्पडियाण-कार्पटिकों-भिखमंगों अथवा कन्थाधारी भिक्षुओं। य-तथा। आउराण य-आतुरों की (चिकित्सा करता है, और इन में से)। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [571 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पेगतियाणं-कितनों को तो। मच्छमंसाई-मत्स्यों के मांसों का अर्थात् उनके भक्षण का। उवदिसतिउपदेश देता है। अप्पेगतियाणं-कितनों को। कच्छभमंसाई-कच्छपमांसों का-कछुओं के मांसों को भक्षण करने का। अप्पेगतियाणं-कितनों को। गाहमंसाइं-ग्राहों-जलचर विशेषों के मांसों का। अप्पेगतियाणं-कितनों को। मगरमंसाई-मगरों-जलचरविशेषों के मांसों का। अप्पेगतियाणं-कितनों को। सुंसुमारमंसाइं-सुंसमारों-जलचरविशेषों के मांसों का। अप्पेगतियाणं-कितनों को। अयमंसाइंअजों-बकरों के मांसों का। एवं-इस प्रकार। एल-भेड़ों। रोज्झ-गवयों अर्थात् नीलगायों। सूयर-शूकरोंसूअरों। मिग-मृगों-हरिणों। ससय-शशकों अर्थात् खरगोशों। गो-गौओं। महिसमंसाइं-और महिषोंभैंसों के मांसों का (उपदेश देता है)। अप्पेगतियाणं-कितनों को। तित्तिरमंसाइं-तित्तरों के मांसों का। . वट्टक-बटेरों। लावक-लावकों-पक्षिविशेषों। कवोत-कबूतरों। कुक्कुड-कुक्कड़ों-मुर्गों। मऊरमंसाइं और मयरों-मोरों के मांसों का उपदेश देता है। च-तथा। अन्नेसिं-अन्य। बहणं-बहत से। जलयरजलचरों-जल में चलने वाले जीवों। थलयर-स्थलचरों-स्थल में चलने वाले जीवों। खहयरमादीणं और खेचरों-आकाश में चलने वाले जीवों के। मंसाइं-मांसों का। उवदिसति-उपदेश देता है। अप्पणा वि य णं-तथा स्वयं भी। से-वह। धन्नंतरी-धन्वन्तरि। वेज्जे-वैद्य। तेहिं-उन। बहूहि-अनेकविध। मच्छमंसेहि य-मत्स्यों के मांसों। जाव-यावत्। मऊरमंसेहि य-मयूरों के मांसों तथा। अन्नेहि-अन्य। बहूहिं य-बहुत से। जलयर-जलचर। थलयर-स्थलचर। खहयरमंसेहि य-खेचर जीवों के मांसों से तथा। मच्छरसेहि य-मत्स्यरसों। जाव-यावत्। मऊररसेहि य-मयूररसों से, जो कि। सोल्लेहि य-पकाए हुए। तलिएहि य-तले हुए। भज्जिएहि य-और भूने हुए हैं, उन के साथ। सुरं च ५-सुरा आदि छः प्रकार की मदिराओं का। आसाएमाणे ४-आस्वादन, विस्वादनादि करता हुआ। विहरति-विचरता हैजीवन व्यतीत करता है। तते णं-तत्पश्चात्। से-वह। धनंतरी-धन्वन्तरि। वेज्जे-वैद्य। एयकम्मे ४एतत्कर्मा-ऐसा ही पाप पूर्ण जिस का काम हो, एतत्प्रधान-यही कर्म जिस का प्रधान हो अर्थात् यही जिस के जीवन की साधना हो, एतद्विद्य-यही जिस की विद्या-विज्ञान हो और एतत्समाचार-जिस के विश्वासानुसार यही सर्वोत्तम आचरण हो, ऐसा वह। सुबहुं-अत्यधिक। पावं कम्म-पाप कर्मों का। समजिणित्ताउपार्जन करके। बत्तीसं वाससयाई-बत्तीस सौ वर्षों की। परमाउं-परमायु को। पालइत्ता-पाल कर। कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल करके। छट्ठीए-छट्ठी। पुढवीए-पृथिवी नरक में। उक्कोसेणं-उत्कृष्ट। बावीससागरोवमट्ठिइएसु-२२ सागरोपम की स्थिति वाले। णेरइएसु-नारकियों में। णेरइयत्ताए-नारकीरूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में विजयपुर नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित, एवं समृद्ध नगर था। उस में कनकरथ नाम का राजा राज्य किया करता था। उस कनकरथ नरेश का आयुर्वेद के आठों अंगों का ज्ञाता धन्वन्तरि नाम का एक वैद्य था। आयुर्वेद-सम्बन्धी आठों अंगों का नामनिर्देश निम्नोक्त है (1) कौमारभृत्य (2) शालाक्य (3) शाल्यहत्य (4) कायचिकित्सा 572 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) जांगुल (6) भूतविद्या (7) रसायन और (8) वाजीकरण। . . शिवहस्त, शुभहस्त और लघुहस्त वह धन्वन्तरि वैद्य विजयपुर नगर में महाराज कनकरथ के अन्तःपुर में निवास करने वाली राणियों और दास दासी आदि तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाहों, इसी प्रकार अन्य बहुत से दुर्बल, ग्लान, व्याधित या बाधित और रोगी जनों एवं सनाथों, अनाथों तथा श्रमणों, ब्राह्मणों, भिक्षुकों, करोटकों, कार्पटिकों एवं आतुरों की चिकित्सा किया करता था, तथा उन में से कितनों को तो मत्स्यमांसों का उपदेश करता अर्थात् मत्स्यमांसों के भक्षण का उपदेश देता और कितनों को कच्छुओं के मांसों का, कितनों को ग्राहों के मांसों का, कितनों को मकरों के मांसों का, कितनों को सुंसुमारों के मांसों का और कितनों को अजमांसों का उपदेश करता। इसी प्रकार भेड़ों, गवयों, शूकरों, मृगों,शशकों, गौओं और महिषों के मांसों का उपदेश करता। कितनों को तित्तरों के मांसों का तथा बटेरों, लावकों, कपोतों, कुक्कुटों और मयूरों के मांसों का उपदेश देता।इसी भान्ति अन्य बहुत से जलचर, स्थलचर और खेचर आदि जीवों के मांसों का उपदेश करता और स्वयं भी वह धन्वन्तरि वैद्य उन अनेकविध मत्स्यमांसों यावत् मयूररसों तथा अन्य बहुत से जलचर, स्थलचर और खेचर जीवों के मांसों से तथा मस्त्यरसों यावत् मयूररसों से पकाये हुए, तले हुए और भूने हुए मांसों के साथ छः प्रकार की सुरा आदि मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ समय व्यतीत करता था। इस पातकमय कर्म में निपुण, प्रधान तथा इसी को अपना विज्ञान एवं सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए वह धन्वन्तरि नामक वैद्य अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके 32 सौ वर्ष की परमायु को भोग कर कालमास में काल करके छठी नरक में उत्कृष्ट 22 सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारकीरूप से उत्पन्न हुआ। * टीका- "कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है" यह न्यायशास्त्र का न्यायसंगत सिद्धान्त है। सुख और दुःख ये दोनों कार्य हैं किसी कारण विशेष के अर्थात् ये दोनों किसी कारण विशेष से ही उत्पन्न होते हैं। जैसे अग्नि के कार्यभूत धूम से उस के कारणरूप अग्नि का अनुमान किया जाता है ठीक उसी प्रकार कार्यरूप सुख या दुःख से भी उस के कारण का अनुमान किया जा सकता है। फिर भले ही वह कारणसमुदाय विशेषरूप से अवगत न हो कर सामान्यरूप से ही जाना गया हो, तात्पर्य यह है कि कार्य और कारण का समानाधिकरण होने से इतना तो बुद्धिगोचर हो ही जाता है कि जहां पर सुख अथवा दुःख का संवेदन है वहां पर प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [573 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस का पूर्ववर्ती कोई न कोई कारण भी अवश्य विद्यमान होना चाहिए, परन्तु वह क्या है, और कैसा है, इसका अनुगम तो किसी विशिष्ट ज्ञान की अपेक्षा रखता है। कर्मवाद के सिद्धान्त का अनुसरण करने वाले आस्तिक दर्शनों में इस विषय का अच्छी तरह से स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि आत्मा में सुख और दुःख की जो अनुभूति होती है वह उस के स्वोपार्जित प्राक्तनीय कर्मों का ही फल है, अर्थात् कर्मबन्ध की हेतुभूत सामग्री अध्यवसायविशेष से यह आत्मा जिस प्रकार के शुभ अथवा अशुभ कर्मों का बन्ध करता है, उसी के अनुरूप ही इसे विपाकोदय पर सुख अथवा दुःख की अनुभूति होती है। यह कर्मवाद का सामान्य अथच व्यापक सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के अनुसार किसी सुखी जीव को देख कर उस के प्राग्भवीय शुभ कर्म का और दुःखी जीव को देखने से उस के जन्मांतरीय अशुभ कर्म का अनुमान किया जाता है। शास्त्र चक्षु छद्मस्थात्मा की सीमित बुद्धि की पहुँच यहीं तक . हो सकती है, इस से आगे वह नहीं जा सकती। तात्पर्य यह है कि अमुक दुःखी व्यक्ति ने कौन सा अशुभ कर्म किया और किस भव में किया, किस का फल इसे इस जन्म में मिल रहा है, इस प्रकार का विशेष ज्ञान शास्त्रचक्षु छद्मस्थ आत्मा की ज्ञानपरिधि से बाहर का होता है। इस विशेषज्ञान के लिए किसी परममेधावी दूसरे शब्दों में -किसी अतीन्द्रिय ज्ञानी की शरण में जाने की आवश्यकता होती है। वही अपने आलोकपूर्ण ज्ञानादर्श में इसे यथावत् प्रतिबिंबित कर सकता है। अथवा यूं कहिए कि उसी दिव्यात्मा में इन पदार्थों का विशिष्ट आभास हो सकता है, जिस का ज्ञान प्रतिबन्धक आवरणों से सर्वथा दूर हो चुका है। ऐसे दिव्यालोकी महान् आत्मा प्रकृत में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं। भगवान् गौतम द्वारा दृष्ट दु:खी व्यक्ति के दुःख का मूलस्रोत क्या है, इसका विशेषरूप से बोध प्राप्त करने के लिए उसके पूर्वभवों के कृत्यों को देखना होगा, परन्तु उन का द्रष्टा तो कोई सर्वज्ञ आत्मा ही हो सकता है। बस इसी उद्देश्य से गौतम स्वामी ने सर्वज्ञ आत्मा वीर प्रभु के सन्मुख उपस्थित होकर सामान्य ज्ञान रखने वाले भव्यजीवों के सुबोधार्थ पूर्व दृष्ट दुःखी व्यक्ति के पूर्व भव की पृच्छा की है। प्रस्तुत सूत्र में विजयपुर नगर के नरेश कनकरथ के राजवैद्य धन्वन्तरि के आयुर्वेद सम्बन्धी विशदज्ञान के वर्णन के साथ-साथ उसकी चिकित्साप्रणाली का उल्लेख करने के बाद उसकी हिंसापरायण मनोवृत्ति का परिचय करा दिया गया है। जिस मनुष्य में हिंसक मनोवृत्ति की इतनी अधिक और व्यापक मात्रा हो, उस के अनुसार वह कितने क्लिष्ट कर्मों का बन्ध. करता है, यह समझना कुछ कठिन नहीं है। 574] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १धन्वन्तरि के जीव ने अपने हिंसाप्रधान चिकित्सा के व्यवसाय में पुण्योपार्जन के स्थान में अधिक से अधिक मात्रा में पापपुंज को एकत्रित किया अर्थात् मत्स्य आदि अनेक जाति के निरपराध मूकप्राणियों के प्राणों का अपहरण करने का उपदेश देकर और उनके 'मांसपिंड से अपने शरीरपिंड का संवर्द्धन करके जिस पापराशि का संचय किया, उसका फल नरकगति की प्राप्ति के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है, इसीलिए सूत्रकार ने मृत्यु के बाद उसका छठी नरक में जाने का उल्लेख किया है। सूत्रकार ने धन्वन्तरी वैद्य का जो मांसाहार तथा मांसाहारोपदेश से उपार्जित दुष्कर्मों के फलस्वरूप 22 सागरोपम तक के बड़े लम्बे काल के लिए छठी नरक में नारकीय रूप से उत्पन्न होने का कथानक लिखा है, इस से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि मांसाहार दुर्गतियों का मूल है और नाना प्रकार के नारकीय अथच भीषण दुःखों का कारण बनता है, अतः प्रत्येक सुखाभिलाषी मानव का यह सर्वप्रथम कर्त्तव्य बन जाता है कि वह मांसाहार के जघन्य तथा दुर्गतिमूलक आचरण से सर्वथा विमुख एवं विरत रहे। ___ मांसाहार दुःखों का स्रोत होने से जहां हेय है, त्याज्य है, वहां वह शास्त्रीय दृष्टि से गर्हित है, निंदित है एवं उसका त्याग सुगतिप्रद होने से आदरणीय एवं आचरणीय है, यह पंचम अध्याय में बतलाया जा चुका है। इस के अतिरिक्त मांस मनुष्य का प्राकृतिक भोजन नहीं है अर्थात् प्रकृति ने मनुष्य को निरामिषभोजी बनाया है, न कि आमिषभोजी। निरामिषभोजी तथा आमिषभोजी प्राणियों की शारीरिक बनावट और उनके स्वभाव में एवं जीवनचर्या में जो महान अन्तर है, वह यत्किंचित् नीचे की पंक्तियों में दिखलाया जाता है. (1) मनुष्य के पंजे, पेट की नालियां और आन्तें उन पशुओं के समान बनी हुई हैं जो मांसाहार नहीं करते हैं। किंतु मांसाहारी पशुओं के इन अंगों की रचना निरामिषभोजी पशुओं 1. प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जिस धन्वन्तरि वैद्य का वर्णन किया गया है और वैद्यकसंसार के लब्धप्रतिष्ठ वैद्यराज धन्वन्तरि ये दोनों एक ही थे या भिन्न-भिन्न, यह प्रश्न उत्पन्न होता है। इसका उत्तर निनोक्त है यह ठीक है कि नाम दोनों का एक जैसा है, परन्तु फिर भी यह दोनों भिन्न-भिन्न थे, क्योंकि इन दोनों के काल में बड़ी भिन्नता पाई जाती है। महाराज कनकरथ के राजवैद्य धन्वन्तरि अपने हिंसापूर्ण एवं क्रूरतापूर्ण मांसाहारोपदेश और मांसाहार तथा मदिरापान जैसी जघन्यतम प्रवृत्तियों के कारण छठी नरक में 22 सागरोपम जैसे बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषणातिभीषण यातनाओं का उपभोग कर लेने के अनन्तर पाटलिषंड नगर के सेठ सागरदत्त की सेठानी गंगादत्ता के उदर से उम्बरदत्त के रूप में उत्पन्न होता है, जब कि वैदिक मान्यतानुसार देवों और दैत्यों के द्वारा किए गए समुद्रमन्थन से प्रादुर्भूत हुए वैद्यकसंसार के वैद्यराज धन्वन्तरि को अभी इतना काल ही नहीं होने पाया। इसलिए दोनों की नामगत समानता होने पर भी व्यक्तिगत भिन्नता सुतरां प्रमाणित हो जाती है। 2. मत्स्य आदि पशुओं के नाम तथा उन मांसों के उपदेश का सविस्तार वर्णन मूलार्थ में पीछे किया जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [575 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से सर्वथा भिन्न प्रकार की होती है। उदाहरण के लिए जैसे गौ, घोड़ा, बन्दर आदि पशु . मांसाहारी नहीं हैं और शेर, चीता आदि पशु मांसाहारी हैं। जो शारीरिक अवयव गौ आदि पशुओं के होते हैं, शेर आदि के वैसे अवयव नहीं होते। मनुष्य के शरीर की रचना भी मांसाहारी पशुओं की शरीररचना से सर्वथा भिन्न पाई जाती है। अतः मांसाहार मानव का प्राकृतिक भोजन नहीं है। (2) मांसाहारी पशुओं की आंखें वर्तुलाकार-गोल होती हैं, जबकि मनुष्य की ऐसी / नेत्र रचना नहीं पाई जाती। (3) मांसाहारी पशु कच्चा मांस खाकर उसे पचाने में समर्थ होता है, जब कि मनुष्य . की ऐसी स्थिति नहीं होती। (4) मांसाहारी पशुओं के दान्त लम्बे और गाजर के आकार के तीक्ष्ण (पैने) होते हैं, और एक दूसरे से दूर-दूर तथा पृथक्-पृथक् होते हैं, परन्तु फलाहारी पशुओं के दान्त छोटेछोटे तथा चौड़े-चौड़े और परस्पर मिले हुए होते हैं। मनुष्य के दान्तों का निर्माण फलाहारी पशुओं के समान पाया जाता है। (5) मांसाहारी पशुओं के नवजात बच्चों की आंखें बन्द होती हैं, जब कि मनुष्य के बच्चों की ऐसी स्थिति नहीं होती। (6) मांसाहारी पशु जिह्वा से चाट कर पानी पीते हैं जब कि मनुष्य गाय, बकरी आदि पशुओं के समान घूण्ट भर-भर कर पानी पीता है। (7) मांसाहारी पशुओं तथा पक्षियों का चमड़ा कठोर होता है और उस पर घने बाल होते हैं, जब कि मनुष्य के शरीर में ऐसी बात नहीं होती है। (8) मांसाहारी पशुओं के शरीर से पसीना नहीं आता, जब कि मनुष्य के शरीर से पसीना निकलता है। (9) मांसाहारी पशुओं के मुख में थूक नहीं रहता, जब कि अन्नाहारी और फलाहारी मनुष्य तथा गौ आदि पशुओं के मुख से थूक निकलता है। (10) मांसाहारी पशु गरमी से हांपने पर जिह्वा बाहर निकाल लेता है जब कि मनुष्य ऐसा नहीं करता। (11) मांसाहारी पशु रात्रि के समय दूसरे प्राणियों का शिकार करते हैं और दिन को सोते हैं। जब कि मनुष्य की ऐसी स्थिति नहीं होती, वह रात्रि में सोता है। (12) मांसाहारी जीवों को गरमी बहुत लगती है और सांस शीघ्रता से आने लगता है परन्तु अन्नाहारी एवं फलाहारी जीवों को न तो इतनी गरमी लगती है और न ही सांस तीव्रता 576 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से चलता है। मनुष्य की गणना ऐसे ही जीवों में होती है। (13) मांसाहारी पशुओं का जीवननिर्वाह फलों से नहीं हो सकता, जब कि मनुष्य मांस के बिना ही अपने जीवन को चला सकता है। (14) मनुष्य को यदि मनोरंजन के लिए किसी स्थान में जाने की भावना उठे तो वह बागों, फुलवाड़ियों और वनस्पति से लहलहाते हुए स्थानों में जाता है, किन्तु मांसाहारी जीव वहां जाते हैं, जहां मृतक शरीरों की दुर्गन्ध से वायुमण्डल व्याप्त हो रहा हो। (15) मनुष्य को यदि ऐसे स्थान में बहुत समय तक रखा जाए कि जहां मृतक शरीरों की दुर्गन्ध से वायुमण्डल परिपूर्ण हो रहा हो तो वह शीघ्र ही रोगी हो कर जीवन से हाथ धो बैठेगा, किन्तु मांसाहारी पशुओं की इस अवस्था में भी ऐसी स्थिति नहीं होती, प्रत्युत वे ऐसे दुर्गन्धपूर्ण स्थानों में जितना काल चाहें ठहर सकते हैं, और उन के स्वास्थ्य की किसी भी प्रकार की हानि नहीं होने पाती। ऐसी और अनेकानेक युक्तियां भी उपलब्ध हो सकती हैं परन्तु विस्तारभय से वे सभी यहां नहीं दी जा रही हैं। सारांश यह है कि इन सभी युक्तियों से यह स्पष्ट प्रमाणित एवं सिद्ध हो जाता है कि मांसाहार जहां शास्त्रीय दृष्टि से त्याज्य है, वहां वह मानव की प्रकृति के भी सर्वथा विपरीत है तथा मानव की शरीर-रचना भी उसे मांसाहार करने की आज्ञा नहीं देती। अतः सुखाभिलाषी प्राणी को मांसाहार की जघन्य प्रवृत्ति से सर्वथा दूर रहना चाहिए। अन्यथा धन्वन्तरि वैद्य की भांति नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ-साथ जन्ममरण के प्रवाह में प्रवाहित होना पड़ेगा। प्रस्तुत सूत्र पाठ में धन्वन्तरि वैद्य को आयुर्वेद के आठ अंगों के ज्ञाता बतलाते हुए आठ अंगों के नामों का भी निर्देश कर दिया गया है। उन में से प्रत्येक की टीकानुसारिणी व्याख्या निम्नलिखित है (1) कौमारभृत्य-जिस में स्तन्यपायी बालकों के पालन-पोषण का वर्णन हो, तथा जिस में दूध के दोषों के शोधन का और दूषित स्तन्य-दुग्ध से उत्पन्न होने वाली व्याधियों के शामक उपायों का उल्लेख हो, ऐसे शास्त्रविशेष की कौमारभृत्य संज्ञा होती है। कुमाराणां बालकानां भृतौ पोषणे साधु कौमारभृत्यम्, तद्धि शास्त्रं कुमारभरणस्य क्षीरस्य दोषाणां संशोधनार्थं दुष्टस्तन्यनिमित्तानां व्याधीनामुपशमनार्थं चेति। (2) शालाक्य-जिस में शलाका-सलाई से निष्पन्न होने वाले उपचार का वर्णन हो और जो धड़ से ऊपर के कान, नाक और मुख आदि में होने वाले रोगों को उपशान्त करने के काम में आए, ऐसा तंत्र-शास्त्र शालाक्य कहलाता है। शलाकायाः कर्म शालाक्यम्, ' प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [577 Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्प्रतिपादकं तंत्रमपिशालाक्यम्, तद्धि ऊर्ध्वजन्तुगतानां रोगाणां श्रवणवदनादिसंश्रितानामुपशमनार्थम्। (3) शाल्यहत्य-जिस शास्त्र में शल्योद्धार-'शल्य के निकालने का वर्णन हो, अर्थात् उस के निकालने का प्रकार बतलाया गया हो, उसे शाल्यहत्य कहते हैं / शल्यस्य हत्या हननमुद्धार इत्यर्थः शल्यहत्या, तत्प्रतिपादकं शास्त्रं शाल्यहत्यमिति। (4) कायचिकित्सा-जिस में काय अर्थात् ज्वरादि रोगों से ग्रस्त शरीर की चिकित्सा-रोगप्रतिकार का विधान वर्णित हो, उस शास्त्र का नाम कायचिकित्सा है। इस में शरीर के मध्यभाग में होने वाले ज्वर तथा अतिसार-विरेचन प्रभृति रोगों का उपशान्त करना वर्णित होता है। कायस्य ज्वरादिरोगग्रस्तशरीरस्य चिकित्सा रोगप्रतिक्रिया यत्राभिधीयते तत् कायचिकित्सैव, तत्तंत्रं हि मध्यांगसमाश्रितानां ज्वरातिसारादीनां शमनार्थं चेति। (5) जांगुल-जिस में सर्प, कीट, मकड़ी आदि विषैले जन्तुओं के अष्टविध विष को उतारने-दूर करने तथा विविध प्रकार के विषसंयोगों के उपशान्त करने की विधि का वर्णन हो, उसे जांगुल कहते हैं / विषविघातक्रियाभिधायकं जंगोलमगदतंत्रम्, तद्धि सर्पकीटलूताद्यष्टविषविनाशार्थम्, विविधविषसंयोगोपशमनार्थं चेति। (6) भूतविद्या-जिस शास्त्र में भूतों के निग्रह का उपाय वर्णित हो, उसे भूतविद्या कहते हैं। यह शास्त्र देव, असुर, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस आदि देवों के द्वारा किए गए उपद्रवों को शान्ति-कर्म और बलिप्रदानादि से उपशान्त करने में मार्गदर्शक होता है। भूतानां निग्रहार्था विद्या, सा हि देवासुरगंधर्वयक्षराक्षसाधुपसृष्टचेतसां शान्तिकर्मबलिकरणादिभिर्ग्रहोपशमनार्थं चेति। (7) २रसायन-प्रस्तुत में रस शब्द अमृतरस का परिचायक है। आयन प्राप्ति को कहते हैं / अमृतरस आयुरक्षक, मेधावर्धक और रोग दूर करने में समर्थ होता है, उस की विधि आदि के वर्णन करने वाले शास्त्र को रसायन कहते हैं। रसोऽमृतरसस्तस्यायनं प्राप्तिः रसायनम्, तद्धि वयःस्थापनम्, आयुर्मेधाकरम्, रोगापहरणसमर्थं च, तदभिधायकं तंत्रमपि रसायनम्। 1. शल्य-द्रव्य और भाव से दो प्रकार का होता है। द्रव्यशल्य-कांटा, भाला आदि पदार्थ हैं, तथा माया (छल कपट), निदान (नियाना) और मिथ्यादर्शन (मिथ्याविश्वास) ये तीनों भावशल्य कहलाते हैं। प्रकृत में शल्य शब्द से द्रव्यशल्य का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। 2. काशी नगरी प्रचारिणी सभा की ओर से प्रकाशित संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर में-रसायन शब्द के(१) वैद्यक के अनुसार वह औषध जिस के खाने से आदमी वृद्ध या बीमार न हो (2) पदार्थों के तत्त्वों का ज्ञान (3) वह कल्पित योग जिस के द्वारा तांबे से सोना बनना माना जाता है-इतने अर्थ लिखे हैं, और रसायनशास्त्र 578 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (8) वाजीकरण-अशक्त पुरुष को घोड़े के समान शक्तिशाली बनाने के साधनों का जिस में वर्णन किया गया हो, अर्थात् वीर्यवृद्धि के उपायों का जिस में विधान किया गया हो, उस शास्त्र को वाजीकरण कहते हैं। यह शास्त्र अल्पवीर्य को अधिक तथा पुष्ट करने के लिए उपयुक्त होता है। अवाजिनो वाजिनः करणं वाजीकरणं शुक्रवर्द्धनेनाश्वस्येव करणमित्यर्थः, तदभिधायकं शास्त्रं वाजिकरणं, तद्धि अल्पक्षीणविशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपजनननिमित्तं प्रहर्षजननार्थं चेति। . इस के अतिरिक्त मूल पाठ में धन्वन्तरि वैद्य के लिए-शिवहस्त शुभहस्त और लघुहस्त ये तीन विशेषण दिए हैं। इन विशेषणों से ज्ञात होता है कि रोगियों की चिकित्सा में वह बड़ा ही कुशल था। जिस रोगी को वह अपने हाथ में लेता, उसे अवश्य ही नीरोगरोगरहित कर देता था, इसी लिए वह जनता में शिवहस्त-कल्याणकारी हाथ वाला, शुभहस्तप्रशस्त और सुखकारी हाथ वाला, और लघुहस्त-फोड़े आदि के चीरने फाड़ने में जो इतना सिद्धहस्त था कि रोगी को चीरने एवं फाड़ने के कष्ट का अनुभव नहीं होने पाता था, ऐसा, अथवा जिस का हाथ शीघ्र काम या आराम करने वाला हो, इन नामों से विख्यात हुआ। तथा राजवैद्य धन्वन्तरि के पास छोटे, बड़े, धनिक और निर्धन सभी प्रकार के व्यक्ति चिकित्सा के निमित्त उपस्थित रहते, जिन में महाराज कनकरथ के रणवास की रानियों के अतिरिक्त मांडलिक राजा, प्रधानमंत्री, नगर के सेठ साहूकार-बड़े महाजन या व्यापारी भी रहते थे। . दुर्बल, ग्लान आदि पदों की व्याख्या निम्नोक्त है (1) दुर्बल-कृश अर्थात् बल से रहित व्यक्ति का नाम है। २-१ग्लान-शोकजन्य पीड़ा से युक्त अर्थात् जिस का हर्ष क्षीण हो चुका हो, उसे ग्लान कहते हैं। ३-२व्याधितचिरस्थायी कोढ़ आदि व्याधियों से युक्त व्याधित कहलाता है। अथवा-सद्यप्राणघातकशीघ्र ही प्राणों का नाश करने वाले ज्वर, श्वास, दाह, अतिसार अर्थात् विरेचन आदि व्याधियों से युक्त व्यक्ति व्याधित कहा जाता है। यदि बाहियाणं-इस पद का बाधितानां-ऐसा शब्द का-वह शास्त्र जिस में यह विवेचन हो कि पदार्थों मैं कौन-कौन से तत्त्व होते हैं और उन के परमाणुओं में परिवर्तन होने पर पदार्थों में क्या परिवर्तन होता है-ऐसा अर्थ पाया जाता है। परन्तु प्रस्तुत में रसायन शब्द का टीकानुसारी ऊपर लिखा हुआ अर्थ ही सूत्रकार को अभिमत है। 1. गिलाणाणं-त्ति क्षीणहर्षाणां शोकजनितपीड़ानामित्यर्थः। 2. वाहियाणं-त्ति व्याधिश्चिरस्थायी कुष्ठादिरूपः स संजातो येषां ते व्याधिताः। बाधिता वा उष्णादिभिरभिभूताः अतस्तेषाम् / अथवा-व्याधितानां-सद्योघाति-ज्वरश्वासकासदाहातिसार भगंदरशूलाजीर्णव्याधियुक्तानामित्यर्थः। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [579 Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत प्रतिरूप मान लिया जाए तो उसका अर्थ होगा-उष्ण-गरमी आदि की बिमारी से बाधित-पीड़ित व्यक्ति / ४-१रोगी-अचिरस्थायी-देर तक न रहने वाले ज्वर आदि रोगों से युक्त व्यक्ति रोगी कहलाता है। अथवा चिरघाती अर्थात् देर से विनाश करने वाले ज्वर, अतिसार आदि रोगों से युक्त व्यक्ति रोगी कहलाता है। जिन का कोई नाथ-स्वामी हो वह सनाथ तथा जिन का कोई स्वामी-रक्षक न हो वह अनाथ कहलाता है। गेरुए रंग के वस्त्र धारण करने वाले परिव्राजक-संन्यासी का नाम श्रमण है। चारों वर्गों में से पहले वर्ण वाले को ब्राह्मण कहते हैं। अथवा-याचक विशेष को ब्राह्मण कहते हैं। भिक्षुक-भिक्षावृत्ति से आजीविका चलाने वाले का नाम है। हाथ में कपाली-खोपरी रखने वाले संन्यासी के लिए करोटक शब्द प्रयुक्त होता है। कार्पटिक शब्द जीर्ण कंथागुदड़ी को धारण करने वाला, अथवा भिखमंगा-इन अर्थों का परिचायक है। आतुर-जिस को अन्य वैद्यों ने चिकित्सा के अयोग्य ठहराया हो, अथवा-जिसे असाध्यरोग हो रहा हो उसे आतुर कहते हैं। इस के अतिरिक्त यहां पर इतना और ध्यान रहे कि मूल में मत्स्यादि जलचर और कुक्कुटादि स्थलचर एवं कपोतादि खेचर जीवों के नामोल्लेख करने के बाद भी "जलयर-थलयर-" आदि पाठ दिया है, उस का तात्पर्य यह है कि पहले जितने भी नाम बताए गए हैं, उनका संक्षेपतः वर्णन कर दिया गया है और उन के अतिरिक्त दूसरों का भी ग्रहण उक्त पाठ से समझना चाहिए। इसलिए यहां पर पुनरुक्ति दोष की आशंका नहीं करनी चाहिए। ___ -रिद्ध-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ का वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। तथा "-राईसर० जाव सत्थवाहाणं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-तलवरमाडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्टि-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। राजा प्रजापति का नाम है। ईश्वर आदि शब्दों की व्याख्या दूसरे अध्याय में लिखी जा चुकी -मच्छमंसेहि य जावमऊरमंसेहि-यहां पठित जाव-यावत् पद से"-कच्छभमंसेहि य, गाहमंसहि य, मगरमंसेहि य, सुंसुमारमंसहि य, अयमंसेहि य, एलमंसेहि य, रोज्झमंसहि य, सूयरमंसहि य, मिगमंसहि य, ससयमंसहि य, गोमंसेहि य, महिसमंसेहि य, तित्तिरमंसेहि 1. रोगियाण-य त्ति संजाताचिरस्थायिज्वरादिदोषाणाम्, अथवा चिरघातिज्वरातिसारादिरोगयुक्तानामित्यर्थः। 2. -समणाण य, त्ति-गैरिकादीनाम्। ___3. आउराण य-चिकित्साया अविषयभूतानाम् अथवा असाध्यरोगपीडितानामित्यर्थः) 580 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य वट्टकमसहि य, लावकमंसेहि य, कवोतमंसेहि, य कुक्कुडमंसहि य-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। कच्छपमांस आदि पदों का अर्थ पीछे लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र विभक्ति का है, प्रकृत्यर्थ में कोई भेद नहीं है। "-मच्छरसेहि य जाव मऊररसेहि य-" यहां पठित जाव-यावत् पद से भी ऊपर की भांति कच्छभरसेहि य-इत्यादि पदों का ही ग्रहण करना चाहिए। अन्तर मात्र मांस और रस, इन दोनों पदों का है। "-सुरं च 5-" तथा-आसाएमाणे 4, एवं-एयकम्मे ४-यहां दिए गए अंकों से ग्रहण किये गये पदों का विवरण विगत अध्ययनों में किया जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में धन्वन्तरि वैद्य के पूर्वभव का आरम्भ से समाप्ति तक का वर्णन कर दिया गया है। अब सूत्रकार उसके अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं मूल-तते णं सा गंगादत्ता भारिया जायणि या यावि होत्था, जाता जाता दारगा विणिघायमावति। तते णं तीसे गंगादत्ताए सत्थवाहीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकुडुम्बजागरियाए जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए 5 समुप्पन्ने-एवं खलु अहं सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूई वासाइं उरालाई माणुस्सगाइं भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरामि, णो चेवणं अहं दारगंवा दारियं वापयामि, तं धण्णाओणं ताओ अम्मयाओ, सपुण्णाओणं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओणं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओणं ताओ अम्मयाओ सुलद्धे णं तासिं अम्मयाणं माणुस्सए जम्मजीवियफले, जासिं मन्ने नियगकुच्छिसंभूयाई थणदुद्धलुद्धगाइं महुरसमुल्लावगाइं मम्मणपयंपियाइं थणमूला कक्खदेसभागं अतिसरमाणगाई मुद्धगाइं पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थहिं गेण्हिऊण उच्छंगनिवेसियाई दिति समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभणिते। अहं णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा एत्तो एक्कतरमवि न पत्ता। तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव जलंते सागरदत्तं सत्थवाहं आपुच्छित्ता सुबहुं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारं गहाय बहूहिं मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणमहिलाहिं सद्धिं पाडलिसंडाओणगराओ पडिणिक्खमित्ता बहिया, जेणेव उम्बरदत्तस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेव उवागच्छित्ता, तत्थ उंबरदत्तस्स जक्खस्स महरिहं पुष्फच्चणं करेत्ता जाणुपादपडियाए उवयाइत्तए-जति णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं वा प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [581 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दारियं वा पयामि, तो णं अहं तुब्भं जायं च दायं च भागं च अक्खयणिहिं च . अणुवड्ढेस्सामि, त्ति कट्ट ओवाइयं उवाइणित्तए।एवं संपेहेति संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिए ! तुब्भेहि सद्धिं जाव न पत्ता, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिए! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाता जाव उवाइणित्तए। तते णं से सागरदत्ते गंगादत्तं भारियं एवं वयासी-ममं पि णं देवाणुप्पिए ! एस चेव मणोरहे, कहं णं तुमं दारगंवा दारियं वा पयाएज्जासि।गंगादत्तं भारियं एयमटुं अणुजाणेति। छाया-ततः सा गंगादत्ता भार्या जातनिद्रुता चाप्यभवत्। जाता-जाता दारका विनिघातमापद्यन्ते / ततस्तस्या गंगादत्तायाः सार्थवाह्याः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकुटुम्बजागरिकया जाग्रत्या अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः 5 समुत्पन्न:-एवं खल्वहं सागरदत्तेन सार्थवाहेन सार्द्ध बहूनि वर्षाणि उदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुंजाना विहरामि, नो चैवाहं दारकं वा दारिकां वा प्रजन्ये, तद्धन्यास्ता अंबा: सपुण्यास्ता अंबाः, कृतार्थास्ता अंबाः, कृतलक्षणास्ता अंबाः, सुलब्धं तासामम्बानां मानुष्यकं जन्मजीवितफलम्, यासां मन्ये निजकुक्षिसंभूतानि स्तनदुग्धलुब्धकानि मधुरसमुल्लापकानि मन्मनप्रजल्पितानि स्तनमूलात् कक्षदेशभागमतिसरन्ति, मुग्धकानि, पुनश्च कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वोत्संगनिवेशितानि ददति समुल्लापकान् सुमधुरान् पुनः पुनर्मंजुलप्रभणितान्। अहमधन्या, अपुण्या, अकृतपुण्या एतेषामेकतरमपि न प्राप्ता / तच्छ्रेयः खलु मम कल्यं यावज्वलति, सागरदत्तं सार्थवाहमापृच्छ्य सुबहु पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालंकारं गृहीत्वा बहुभिः मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसंबन्धिपरिजनमहिलाभिः सार्धं पाटलिपंडात् नगरात् प्रतिनिष्क्रम्य बहिः यत्रैवोम्बरदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैवोपागत्य, तत्रोम्बरदत्तस्य यक्षस्य महाहँ पुष्पार्चनं कृत्वा १जानुपादपतितयोपयाचितुं-यद्यहं देवानुप्रिय ! दारकं वा दारिकां वा प्रजन्ये, तदाहं तुभ्यं यागं च दायं च भागं च अक्षयनिधिं चानुवर्धयिष्यामि, इति कृत्वोपयाचितमुपयाचितुम्। एवं स प्रेक्षते सम्प्रेक्ष्य कल्यं यावज्वलति यत्रैव सागरदत्तः सार्थवाहस्तत्रैवोपा 1. जानुभ्यां-जानुनी भूमौ निपात्येत्यर्थः, पादयोः यक्षचरणयोः पतितायाः-नतायाः, उपागत्य कार्यसिद्धौ सत्यां प्राभृतार्थं मानसिकं संकल्पं कर्तुमित्यर्थः। 582 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छति उपागत्य सागरदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत्-एवं खल्वहं देवानुप्रिय! युष्माभिः सार्द्धं यावत् न प्राप्ता, तदिच्छामि देवानुप्रिय ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता यावदुपयाचितुम्। - ततः स सागरदत्तो गंगादत्तां भार्यामेवमवदत्-ममापि च देवानुप्रिये! एष चैव मनोरथः, कथं त्वं दारकं वा दारिकां वा प्रजनिष्यति / गंगादत्तां भार्यामेत-दर्थमनुजानाति / पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। सा-वह। गंगादत्ता-गंगादत्ता। भारिया-भार्या। जायणिहुयाजातनिद्रुता-जिस के बालक जीवित न रहते हों। यावि होत्था-भी थी, उस के। जाता २-उत्पन्न हुए 2 / दारगा-बालक। विणिघायमावजंति-विनाश को प्राप्त हो जाते थे। तते णं-तदनन्तर। तीसे-उस। गंगादत्ताए-गंगादत्ता। सत्थवाहीए-सार्थवाही को, जो कि। पुव्वरत्तावरत्तकुडुंबजागरियाए-मध्यरात्रि के समय कुटुम्बसंबन्धी जागरिका-चिन्तन के कारण। जागरमाणीए-जागती हुई के। अन्नया-अन्यदा। कयाइ-कदाचित्-किसी समय। अयमेयारूवे-यह इस प्रकार का। अन्झथिए ५-आध्यात्मिकसंकल्पविशेष 5 / समुप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। एवं-इस प्रकार। खलु-निश्चय ही। अहं-मैं। सागरदत्तेणंसागरदत्त / सत्थवाहेणं-सार्थवाह-मुसाफिर व्यापारियों का मुखिया या संघ का नायक, के। सद्धिं-साथ। उरालाइं-उदार-प्रधान / माणुस्सगाई-मनुष्यसम्बन्धी।भोगभोगाई-कामभोगों का। जमाणी-सेवन करती हुई। विहरामि-विहरण कर रही हूं, परन्तु। अहं-मैंने आज तक एक भी। दारगं वा-बालक अथवा। दारियं वा-बालिका को। णो चेव-नहीं। पयामि-जन्म दिया अर्थात् मैंने ऐसे बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया जो कि जीवित रह सका हो।तं-इसलिए / धण्णाओणं-धन्य हैं / ताओ-वे। अम्मयाओमाताएं, तथा। सपुण्णाओ णं-पुण्यशालिनी हैं। ताओ-वे। अम्मयाओ-माताएं। कयत्थाओ णं-कृतार्थ हैं। ताओ-वे।अम्मयाओ-माताएं। कयलक्खणाओणं-कतलक्षणा हैं। ताओ-वे। अम्मयाओ-माताएं। तासिं-उन। अम्मयाणं-माताओं ने ही। सुलद्धे णं-प्राप्त कर लिया है। माणुस्सए-मनुष्यसम्बन्धी। जम्मजीवियफले-जन्म और जीवन का फल। जासिं-जिन के। नियगकुच्छिसंभूयाई-अपनी कुक्षिउदर से उत्पन्न हुई संतानें हैं, जो कि। थणदुद्धलुद्धगाई-स्तनगत दुग्ध में लुब्ध हैं। महुरसमुल्लावगाइंजिन के संभाषण अत्यंत मधुर हैं। मम्मणपयंपियाइं-जिन के प्रजल्पन-वचन मन्मन अर्थात् अव्यक्त अथच स्खलित हैं। थणमूला-स्तन के मूलभाग से। कक्खदेसभागं-कक्ष (कांख) प्रदेश तक। अतिसरमाणगाई-सरक रहीं हैं। मुद्धगाई-जो मुग्ध-नितान्त सरल हैं, और फिर / कोमल-कमलोवमेहिंकमल के समान कोमल-सुकुमार / हत्थेहिं-हाथों से। गेण्हिऊण-ग्रहण कर-पकड़ कर / उच्छंगनिवेसियाईउत्संग में-गोदी में स्थापित की हुईं हैं। पुणो-पुणो-बार बार। सुमहुरे-सुमधुर। मंजुलप्पणितेमञ्जुलप्रभणित-जिन में प्रभणित-भणनारंभ अर्थात् बोलने का प्रारम्भ मंजुल-कोमल है, ऐसे। समुल्लावएसमुल्लापों-वचनों को। दिति-सुनाते हैं, सारांश यह है कि जिन माताओं की ऐसी संताने हैं उन्हीं का जन्म तथा जीवन सफल है, ऐसा मैं। मन्ने-मानती हूं, परन्तु। अहं णं-मैं तो। अधन्ना-अधन्य हूँ। अपुण्णापुण्यहीन हूँ। अकयपुण्णा-अकृतपुण्य हूँ अर्थात्-जिसने पूर्वभव में कोई पुण्य नहीं किया, ऐसी हूँ। एत्तो-इन उक्त चेष्टाओं में से। एक्कतरमवि-एक भी। न पत्ता-प्राप्त न हुई अर्थात् बाल संबन्धी उक्त चेष्टाओं में से मुझे एक के देखने का भी आज तक सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। तं-इसलिए। खलु-निश्चय प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [583 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही। ममं-मेरे लिए यही। सेयं-कल्याणकारी है, कि। कल्लं जाव-प्रातःकाल यावत्। जलंते-सूर्य के देदीप्यमान हो जाने पर अर्थात् सूर्योदय के बाद।सागरदत्तं-सागरदत्त / सत्थवाहं-सार्थवाह को।आपुच्छित्तापूछ कर। सुबहुं-बहुत ज्यादा। पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारं-पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला तथा अलंकार ये सब पदार्थ / गहाय-लेकर। बहूहिं-बहुत से। मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरिजणमहिलाहिं-मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजन की महिलाओं के। सद्धिं-साथ। पाडलिसंडाओ-पाटलिपंड। णगराओनगर से। पडिनिक्खमित्ता-निकल कर।बहिया-बाहर / जेणेव-जहां पर। उंबरदत्तस्स-उम्बरदत्त नामक। जक्खस्स-यक्ष का। जक्खायतणे-यक्षायतन-स्थान है। तेणेव-वहां पर। उवागच्छित्ता-जाकर। तत्थ णं-वहां पर। उंबरदत्तस्स-उम्बरदत्त / जक्खस्स-यक्ष की। महरिहं-महार्ह-बड़ों के योग्य। पुष्फच्चणंपुष्पार्चन-पुष्पों से पूजन। करेत्ता-करके। जाणुपादपडियाए-घुटने टेक उनके चरणों पर पड़ी हुई। उवयाइत्तए-उन से याचना करूं कि। देवाणुप्पिया !-हे महानुभाव ! / जति णं-यदि / अहं-मैं। दारगंएक भी (जीवित रहने वाले) बालक, अथवा / दारियं-(जीवित रहने वाली) बालिका को। पयामि-जन्म दूं। तो णं-तो। अहं-मैं। तुब्भं-आप के। जायं च-याग-देवपूजा। दायं च-दान-देय अंश। भागं चभाग-लाभ का अंश तथा। अक्खयणिहिं च-अक्षयनिधि-देवभंडार की। अणुवड्ढेस्सामि-वृद्धि करूंगी। त्ति कट्ट-इस प्रकार कह कर के। ओवाइयं-उपयाचित-इष्टवस्तु की। उवाइणित्तए-प्रार्थना करने के लिए। एवं-इस प्रकार। संपेहेति संपेहित्ता-विचार करती है, विचार कर। कल्लं जाव-प्रात:काल यावत् / जलंते-सूर्य के उदित होने पर। जेणेव-जहां पर। सागरदते-सागरदत्त / सत्थवाहे-सार्थवाह था। तेणेववहीं पर। उवागच्छति उवागच्छित्ता-आती है, आकर। सागरदत्तं-सागरदत्त। सत्थवाहं-सार्थवाह को। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगी। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। देवाणुप्पिया !-हे महानुभाव! अहं-मैं ने। तुब्भेहिं-आप के। सद्धिं-साथ। जाव-यावत् अर्थात् उदार-प्रधान काम भोगों का सेवन करते हुए भी आज तक एक भी जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री को। न पत्ता-प्राप्त नहीं किया। तं-इसलिए। देवाणुप्पिए !-हे महानुभाव ! इच्छामि णं-मैं चाहती हूं कि। तुब्भेहिं-आप से। अब्भणुण्णाताअभ्यनुज्ञात हुई-अर्थात् आज्ञा मिल जाने पर। जाव-यावत् अर्थात् इष्टवस्तु की प्राप्ति के लिए उम्बरदत्त यक्ष की। उवाइणित्तए-प्रार्थना करूं अर्थात् मनौती मनाऊं। तते णं-तदनन्तर। से-वह। सागरदत्तेसागरदत्त। गंगादत्तं-गङ्गादत्ता। भारियं-भार्या के प्रति। एवं वयासी-इस प्रकार बोला। देवाणुप्पिए!-हे महाभागे !-ममं पि य णं-मेरा भी। एस चेव-यही। मणोरहे-मनोरथ-कामना है कि। कहं णं-किसी तरह भी। तुम-तुम।दारगंवा-जीवित रहने वाले बालक अथवा। दारियं वा-बालिका को। पयाएज्जासिजन्म दो, इतना कह कर। गंगादत्तं भारियं-गंगादत्ता भार्या को। एयमटुं-इस अर्थ-प्रयोजन के लिए। अणुजाणेति-आज्ञा दे देता है, अर्थात् उस के उक्त प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है। मूलार्थ-उस समय सागरदत्त की गंगादत्ता भार्या जातनिद्रुता थी, उस के बालक उत्पन्न होते ही विनाश को प्राप्त हो जाते थे।किसी अन्य समय मध्यरात्रि में कुटुम्बसम्बन्धी चिन्ता से जागती हुई उस गंगादत्ता सार्थवाही के मन में जो संकल्प उत्पन्न हुआ, वह निम्नोक्त है 584 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं चिरकाल से सागरदत्त सार्थवाह-संघनायक के साथ मनुष्यसम्बन्धी उदारप्रधान कामभोगों का उपभोग करती रही हूँ, परन्तु मैंने आज तक एक भी जीवित रहने वाले बालक अथवा बालिका को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया। अत: वे माताएं ही धन्य हैं तथा वे माताएं ही कृतार्थ अथच कृतपुण्य हैं एवं उन्होंने ही मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन को सफल किया है, जिन की स्तनगत दुग्ध में लुब्ध, मधुरभाषण से युक्त, अव्यक्त अथच स्खलित वचन वाली, स्तनमूल से कक्षप्रदेश तक अभिसरणशील, नितान्त सरल, कमल के समान कोमल-सुकुमार हाथों से पकड़ कर अंक-गोदी में स्थापित की जाने वाली और पुनः पुनः सुमधुर, कोमल प्रारंभ वाले वचनों को कहने वाली अपने पेट से उत्पन्न हुई सन्तानें हैं। उन माताओं को मैं धन्य मानती हूँ। ___मैं तो अधन्या, अपुण्या-पुण्यरहित हूं, अकृतपुण्या हूं क्योंकि मैं इन पूर्वोक्त बालसुलभ चेष्टाओं में से एक को भी प्राप्त नहीं कर पाई। अतः मेरे लिए यही श्रेयहितकर है कि मैं कल प्रातःकाल सूर्य के उदय होते ही सागरदत्त सार्थवाह से पूछ कर विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकार लेकर बहुत सी मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों,स्वजनों,सम्बन्धीजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषंड नगर से निकल कर बाहर उद्यान में जहां उम्बरदत्त यक्ष का यक्षायतन-स्थान है वहां जाकर उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना करके और उसके चरणों में नतमस्तक हो इस प्रकार प्रार्थना करूं - हे देवानुप्रिय ! यदि मैं अब जीवित रहने वाले बालक या बालिका को जन्म दूं तो मैं तुम्हारे याग, दान, भाग-लाभ-अंश और देवभंडार में वृद्धि करूंगी।तात्पर्य यह है कि मैं तुम्हारी पूजा किया करूंगी या पूजा का संवर्द्धन किया करूंगी, अर्थात् पहले से अधिक पूजा किया करूंगी।दान दिया करूंगी या तुम्हारे नाम पर दान किया करूंगी या तुम्हारे दान में वृद्धि करूंगी अर्थात् पहले से ज्यादा दान दिया करूंगी। भाग-लाभांश अर्थात् अपनी आय के अंश को दिया करूंगी या तुम्हारे लाभांश-देवद्रव्य में वृद्धि करूंगी। तथा तुम्हारे अक्षयनिधि-देवभंडार मं वृद्धि करूंगी, उसे भर डालूंगी। इस प्रकार उपयाचित-ईप्सित वस्तु की प्रार्थना के लिए उसने निश्चय किया। निश्चय करने के अनन्तर प्रातःकाल सूर्य के उदित होने पर जहां पर सागरदत्त सार्थवाह था वहां पर आई आकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी-हे स्वामिन्! मैंने तुम्हारे साथ मनुष्यसम्बन्धी सांसारिक सुखों का पर्याप्त उपभोग करते हुए आज तक एक भी जीवित रहने वाले बालक या बालिका को प्राप्त नहीं किया। अत: मैं चाहती हूं . प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [585 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषंड नगर से बाहर उद्यान में उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना कर उसकी पुत्रप्राप्ति के लिए मनौती मनाऊं? इसके उत्तर में सागरदत्त सार्थवाह ने अपनी गंग रत्ता भार्या से कहा कि-भद्रे ! मेरी भी यही इच्छा है कि किसी प्रकार से भी तुम्हारे जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री उत्पन्न हो। ऐसा कह कर उसने गंगादत्ता के उक्त प्रस्ताव का समर्थन करते हुए उसे स्वीकार किया। टीका-पाटलिपंड नगर में सिद्धार्थ नरेश का शासन था, उसके शासनकाल में प्रजा अत्यन्त सुखी थी। उसी नगर में सागरदत्त नाम का एक प्रसिद्ध व्यापारी रहता था। उस की स्त्री का नाम गंगादत्ता था, जो कि परम सुशीला एवं पतिव्रता थी। इत्यादि वर्णन प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में किया जा चुका है। इसी बात का स्मरण कराते हुए भगवान् महावीर श्री गौतम स्वामी से कहते हैं कि हे गौतम ! जिस समय धन्वन्तरि वैद्य (पूर्ववर्णित) नरक की वेदनाओं को भोग रहा था, उस समय सागरदत्त सार्थवाह की गंगादत्ता भार्या जातनिद्रुतावस्था में थी। उस के जो भी संतान होती वह तत्काल ही विनष्ट हो जाती थी। इस अवस्था में गंगादत्ता को बहुत दुःख हो रहा था। पतिगृह में सांसारिक भोगविलास का उसे पर्याप्त अवसर प्राप्त था, परन्तु किसी जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री की माता बनने का उसे आज तक भी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। वह रात दिन इसी चिन्ता में निमग्न रहती थी। . एक दिन अर्धरात्रि के समय कुटुम्बसम्बन्धी चिन्ता में निमग्न गंगादत्ता अपने गृहस्थजीवन पर दृष्टिपात करती हुई सोचने लगी कि मुझे गृहस्थ जीवन में प्रवेश किये काफ़ी समय व्यतीत हो चुका है। मैं अपने पतिदेव के साथ विविध प्रकार के सांसारिक सुखों का उपभोग भी कर रही हूँ, उनकी मुझ पर पूर्ण कृपा भी है, जो चाहती हूं सो उपस्थित हो जाता है। इतना आनन्द का जीवन होने पर भी मैं आज सन्तान से सर्वथा वंचित हूँ, न पुत्र है न पुत्री। वैसे होने को तो अनेक हुए परन्तु सुख एक का भी न प्राप्त कर पाई। पुत्र न सही पुत्री ही होती, परन्तु मेरे भाग्य में तो वह भी नहीं। धिक्कार हो मेरे इस जीवन को। वे माताएं धन्य हैं, जिन्हें अपने जीवन में नवजात शिशुओं के लालन-पालन का सौभाग्य प्राप्त है, तथा पुत्रों को जन्म देकर उनकी बालसुलभ अद्भुत क्रीड़ाओं से गदगद् होती हुईं सांसारिक आनन्द के पारावार में निमग्न हो कर स्वर्गीय सुख को भी भूल जाती हैं। स्तनपान के लिए ललचायमान शिशु के हावभाव को देखना, उसकी अव्यक्त अथच स्खलित तोतली वाचा से निकले हुए मधुर शब्दों को सुनना, स्तनपान करते-करते कक्ष-काँख की ओर सरकते हुए को अपने हाथों से उठा कर गोद में बिठाना, उनकी अटपटी अथच मंजुलभाषा 586 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को सुनने की उत्कण्ठा से उसके साथ उसी रूप में संभाषण आदि करने का सद्भाग्य निःसन्देह उन्हीं माताओं को प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने पुत्र को जन्म दे कर अपनी कुक्षि को सार्थक बनाया है, परन्तु मैं कितनी हतभागिनी हूं, कि जिसे इन में से आज तक कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाया, इस से अधिक मेरे लिए दुःख की और क्या बात हो सकती है ? अस्तु, अब एक उपाय शेष है, जिस पर मुझे विशेष आस्था है, मैं अब उसका अनुसरण करूंगी। संभव है कि भाग्य साथ दे जाए। कल प्रात:काल होते ही सेठ जी से पूछ कर तथा उनसे आज्ञा मिल जाने पर मैं नाना प्रकार की पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य तथा अलंकार आदि पूजा की सामग्री लेकर बाहर उद्यानगत उम्बरदत्त यक्षराज के मन्दिर में जाकर उनकी उक्त सामग्री से विधिवत् पूजा करूंगी और तत्पश्चात् उनके चरणों में पड़कर प्रार्थना करूंगी, मनौती मनाऊंगी कि यदि मेरे गर्भ से जीवित रहने वाले पुत्र अथवा पुत्री का जन्म हो तो मैं आपकी विधिवत् पूजा किया करूंगी, आप के नाम से दान दिया करूंगी और आपके लाभांश में तथा आप के भंडार में वृद्धि कर डालूंगी। सूत्रकार ने -जायं, दायं, भागं-और-अक्खयणिहिं-ये चार द्वितीयांत पद देकर एक अणुवड्ढेस्सामि-यह क्रियापद दिया है। सभी पदों के साथ इसका सम्बन्ध जोड़ने से "-याग-" देवपूजा में वृद्धि करूंगी, अर्थात् जितनी पहले किया करती थी, उस से और अधिक किया करूंगी, या दूसरों से करवाया करूंगी। दान में वृद्धि करूंगी अर्थात् जितना पहले देती थी उससे अधिक दान दिया करूंगी या दूसरों से दान करवाया करूंगी। भागलाभांश में वृद्धि करूंगी अर्थात् उसमें और द्रव्य डाल कर उस की वृद्धि करूंगी या दूसरों से कराऊंगी। अक्षयनिधि की वृद्धि करूंगी या दूसरों से कराऊंगी-" यह अर्थ फलित होता है। परन्तु यदि अणुवड्ढेस्सामि- इस क्रियापद का सम्बन्ध केवल -अक्खयणिहिं-इस पद के साथ. मान लिया जाए और -जायं- तथा-दायं-इन दोनों पदों के आगे-काहिमिकरिष्यामि-इस क्रियापद का अध्याहार कर लिया जाए तो अर्थ होगा-पूजा किया करूंगी, दान दिया करूंगी, एवं भागं-इस पद के आगे दाहिमि-दास्यामि-इस क्रियापद का अध्याहार करने से लाभांश का दान दूंगी अर्थात् अपनी आय का एक अंश दान में दिया करूंगी, ऐसा अर्थ भी निष्पन्न हो सकता है, अस्तु। यह है श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता के हार्दिक विचारों का संक्षिप्त सार, जिसे प्रस्तुत सूत्र में वर्णित किया गया है। गंगादत्ता के इन्हीं विचारों के उतार चढ़ाव में सूर्य देवता उदयाचल पर उदित हो जाते हैं और सेठानी गंगादत्ता अपने शय्यास्थान से उठ खड़ी होती है और सेठ सागरदत्त के पास आकर यथोचित शिष्टाचार के पश्चात् रात्रि में सोचे हुए विचार को ज्यों का प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [587 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यों सुना देती है। सेठानी गंगादत्ता के विचारों को सुनकर सेठ सागरदत्त उस से सहमत होने के साथसाथ बोले कि प्रिये ! मैं तो तुम से भी पहले इस विचार में निमग्न था कि कोई ऐसा उपाय सोचा जाए कि जिस के अनुसरण से तुम्हारी गोद भरे और तुम्हें चिरकालाभिलषित माता बनने तथा मुझे पिता बनने का सुअवसर प्राप्त हो, अत: मैं तुम्हें इस की आज्ञा देता हूँ, और उस के लिए जिस-जिस वस्तु की तुम को आवश्यकता होगी, उस का सम्पादन भी शीघ्र से शीघ्र कर दिया जाएगा, तुम निश्चिन्त हो कर अपनी कामनापूरक सामग्री जुटाओ। इस कथा-संदर्भ से नारीजीवन के मनोगत संकल्पों का भलीभान्ति परिचय प्राप्त हो जाता है। सन्तान के लिए नारीजगत् में कितनी उत्कण्ठा होती है, तथा उस की प्राप्ति के लिए वह कितनी आतुरा अथच प्रयत्नशीला बनती है, यह भी इस से अच्छी तरह जाना जा सकता प्रश्न-णो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि-(अर्थात्-मैंने किसी भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया)-इस पाठ का, तथा "-जाता जाता दारगा विणिघायमावजंति-" (अर्थात्-जन्म लेते ही उस के बच्चे मर जाया करते थे) इस पाठ के साथ विरोध आता है। प्रथम पाठ का भावार्थ है-सन्तान का सर्वथा अनुत्पन्न होना और दूसरे का अर्थ है-उत्पन्न हो कर मर जाना। यदि उत्पन्न नहीं हुआ तो उत्पन्न हो कर मरना, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? इसलिए ये दोनों पाठ परस्पर विरोधी से प्रतीत होते हैं। उत्तर-नहीं, अर्थात् दोनों पाठों में कुछ भी विरोध नहीं है। प्रथम पाठ में जो यह कहा गया है कि मैंने किसी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया उस का अभिप्राय इतना ही है कि मैंने आज तक किसी बालक को दूध नहीं पिलाया, उस को जीवित अवस्था में नहीं पाया, उस का मुख नहीं चूमा, उस की मीठी-मीठी तोतली बातें नहीं सुनीं और मुझे कोई मां कह कर पुकारने वाला नहीं-इत्यादि तथा उसने उन्हीं माताओं को धन्य बतलाया है जो अपने नवजात शिशुओं से पूर्वोक्त व्यवहार करती हैं, न कि जो जन्म मात्र देकर उन का मुख तक भी नहीं देख पाती, उन्हें धन्य कहा है। इसलिए इन दोनों पाठों में विरोध की कोई आशंका नहीं हो सकती। दूसरी बात यह है कि कहीं पर शब्दार्थ प्रधान होता है, और कहीं पर भावार्थ की प्रधानता होती है। सो यहां पर भावार्थ प्रधान है। भावार्थ की प्रधानता वाले अन्य भी अनेकों उदाहरण शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं, जिनका विस्तारभय से प्रस्तुत में उल्लेख नहीं किया जाता। तथापि मात्र पाठकों की जानकारी के लिए एक उदाहरण दिया जाता है श्री स्थानांग सूत्र के प्रथम उद्देश्य में -चउप्पतिहिते कोहे-(चतुर्षु प्रतिष्ठितः क्रोधः) 588 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा उल्लेख पाया जाता है। परन्तु चौथा भेद-अप्पतिद्विते (अप्रतिष्ठितः ) यह किया गया है। अब देखिए दोनों में क्या सम्बन्ध रहा ? जब चारों स्थानों में क्रोध स्थित होता है तो वह अप्रतिष्ठित कैसे ? सारांश यह है कि यहां पर भी भावार्थ की प्रधानता है न कि शब्दार्थ की। वृतिकार भी लिखते हैं कि-आक्रोशादिकारणनिरपेक्षः केवल क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति सोऽप्रतिष्ठितः, अयं च चतुर्थभेदः जीवप्रतिष्ठितोऽपि आत्मादिविषयेऽनुत्पन्नत्वादप्रतिष्ठितः उक्तो न तु सर्वथाऽप्रतिष्ठितः, चतुःप्रतिष्ठितत्त्वस्याभावप्रसंगात् सूत्र २४९)-अर्थात् यह चौथा भेद यद्यपि जीव में ही प्रतिष्ठित-अवस्थित होता है, तथापि इसे अप्रतिष्ठित कहने का यही कारण है कि यह किसी आत्मादि का अवलम्बन कर उत्पन्न नहीं होता, किन्तु दुर्वचनादि कारण की अपेक्षा न रखता हुआ केवल क्रोधवेदनीय के उदय से उत्पन्न होने के कारण इसे अप्रतिष्ठित कहा गया है। परन्तु सर्वथा यह भेद अप्रतिष्ठित नहीं है, क्योंकि यदि यह सर्वथा अप्रतिष्ठित हो जाए तो क्रोध में चतुःप्रतिष्ठितत्व का अभाव हो जाएगा अर्थात् क्रोध को चतुः-प्रतिष्ठित कहना असंगत ठहरेगा, जो कि सिद्धान्त को इष्ट नहीं प्रस्तुत सूत्र में-जायनिया-आदि पढ़े गए पदों की व्याख्या निम्नोक्त है १-जायनिढुया-जातनिद्रुता-अर्थात् जिस की सन्तान उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए, उसे जातनिद्रुला कहते हैं। - २-पुव्वरत्तावरत्तकुडुंबजागरियाए-पूर्वरात्रापररात्रकुटुम्बजागरिकया-" अर्थात् पूर्वरात्रापररात्र शब्द मध्यरात्रि आधीरात के लिए प्रयुक्त होता है। कुटुम्ब-परिवार सम्बन्धी जागरिका-चिन्तन, कुटुम्बजागरिका कहा जाता है।आधीरात के समय की गई कुटुम्बजागरिका पूर्वरात्रापररात्रकुटुम्बजागरिका कहलाती है। प्रस्तुत में यह पद तृतीयान्त होने से-आधीरात में किए गए परिवारसम्बन्धी चिन्तन के कारण-इस अर्थ का परिचायक है। . ३-सपुण्णाओ-सपुण्या:-" अर्थात् पुण्य से युक्त स्त्रियां सपुण्या कहलाती हैं। . ४-कयत्थाओ-कृतार्था:-" अर्थात् जिन के अर्थ-प्रयोजन निष्पन्न-सिद्ध हो चुके हैं, उन्हें कृतार्था कहा जाता है। ५-कयलक्खणाओ-कृतलक्षणा:-" अर्थात् कृत-फलयुक्त हैं लक्षण-सुखजन्य हस्तादिगत शुभ रेखाएं जिन की, उन्हें कृतलक्षणा कहते हैं। ____६-नियगकुच्छिसंभूयाइं-निजस्य कुक्षौ उदरे संभूतानि समुत्पन्नानीतिनिजकुक्षि-संभूतानि निजापत्यानीत्यर्थः-" अर्थात् निज-अपने उदर-पेट से संभूत-उत्पन्न हुईं अपत्य-सन्तानें निजकुक्षिसंभूत कहलाती हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [589 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७-थणदुद्धलुद्धगाइं-स्तनदुग्धे लुब्धकानि यानि तानि स्तनदुग्धलुब्धकानि-". अर्थात् स्तनों के दूध में लुब्धक अभिलाषा रखने वाली अपत्य-स्तनदुग्धलुब्धक कहलाती ८-महुरसमुल्लावगाई-समुल्लापः बालभाषणं स एव समुल्लापकः, मधुरः समुल्लापको येषां तानि मधुरसमुल्लापकानि-" अर्थात् मधुर-सरस समुल्लापक-बालभाषण करने वाली अपत्य मधुरसमुल्लापक कही जाती हैं। ९-मम्मणपयंपियाई-मन्मनम्-इत्यव्यक्तध्वनिरूपं प्रजल्पितं भाषणं येषां तानि मन्मनप्रजल्पितानि-" अर्थात् मन्मन इस प्रकार के अव्यक्त शब्दों के द्वारा बोलने वाली अपत्य-मन्मनप्रजल्पित कही जाती हैं। १०-थणमूला कक्खदेसभागं अतिसरमाणगाई-स्तनमूलात् कक्षदेशभागमभिसरन्ति-" अर्थात् जो स्तन के मूलभाग से लेकर कक्ष (काँख) तक के भाग में अभिसरण करते रहते हैं वे। अभिसरण का अर्थ है निर्गम-प्रवेश अर्थात् जो अपत्य कभी स्तनमूल से निकल कर कक्षभाग में प्रवेश करती हैं और कभी उस से निकल जाती हैं। ११-मुद्धगाई-मुग्धकानि, सरलहृदयानि-" अर्थात् सरलहृदय-छल कपट से रहित एवं विशुद्ध हृदय वाली अपत्य मुग्धक कहलाती हैं। १२-पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गेण्हिउण उच्छंगनिवेसियाई-पुनश्च कोमलं यत्कमलं तेनोपमा ययोस्ते तथा ताभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्संगनिवेशितानि अंके स्थापितानि-" अर्थात् जो कमल के समान कोमल हाथों द्वारा पकड़ कर गोदी में बैठा रखा है, अथवा वे अपत्य जिन्हें उन्हीं के कमल-सदृश हाथों से पकड़ कर गोदी में बैठा रखा है। तात्पर्य यह है कि माता कई बार प्रेमातिरेक से बच्चों को गोदी में लेने के लिए अपनी भुजाओं को फैलाती हैं, प्रसृत भुजाओं को देख कर बालक अपनी लड़खड़ाती टांगों से लुढ़कता हुआ या चलता हुआ माता की ओर बढ़ता है, तब माता झटिति उसे अपने कमलसदृश कोमल हाथों से पकड़ कर एवं उठा कर छाती से लगा लेती है और गोदी में बैठा लेती है, अथवा बालकों के कमलसमान कोमल छोटे -छोटे हाथों को पकड़ कर चलाती हुईं उन्हें गोदी में बैठा लेती हैं, इन्हीं भावों को सूत्रकार महानुभाव द्वारा ऊपर के पदों में अभिव्यक्त किया गया है। १३-दिति समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभणिते-इन पदों की व्याख्या में दो मत पाये जाते हैं, जो कि निम्नोक्त हैं (1) प्रथम मत में समुल्लापक के सुमधुर और मंजुलप्रभणित- ये दोनों पद 590 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषण माने गए हैं। तब-सुमधुर और मंजुलप्रभणित जो समुल्लापक उनको पुनः पुनः सुनाते हैं-यह अर्थ होगा। सुमधुर-अत्यन्त मधुर-सरस को कहते हैं। मंजुलप्रभणित शब्द मंजुल-चित्ताकर्षक प्रभणित-भणनारम्भ है जिस में ऐसे-इस अर्थ का परिचायक है। समुल्लापक-बालभाषण का नाम है। (2) दूसरे मत में -समुल्लापक-को स्वतन्त्र पद माना है और सुमधुर शब्द को मंजुल-प्रभणित का विशेषण माना गया है, और साथ में प्रभणितशब्द का-मां-मां, इस प्रकार के कर्णप्रिय शब्द-ऐसा अर्थ किया गया है। १४-अधन्ना-अधन्या, अप्रशंसनीया-" अर्थात् जो प्रशंसा के योग्य न हो, वह महिला अधन्या-कहलाती है। तात्पर्य यह है कि स्त्री की प्रशंसा प्रायः सन्तान के कारण ही होती है। संतानविहीन स्त्री आदर का भाजन नहीं बनने पाती-इन्हीं विचारों से किसी जीवित सन्तति को न प्राप्त करने के कारण गंगादत्ता अपने को अधन्या कह रही है। १५-अपुण्णा-अविद्यमानपुण्या अथवा अपूर्णा-अपूर्णमनोरथत्वात्-" अर्थात् जो पुण्य से रहित हो वह अपुण्या कहलाती है। तथा-अपुण्णा-इस पद का संस्कृत प्रतिरूप अपूर्णा-ऐसा भी उपलब्ध होता है। तब-अपुण्णा-इस पद का-जिस के मनोरथों-मानसिक संकल्पों की पूर्ति नहीं होने पाई, वह अपूर्णा कहलाती है, ऐसा अर्थ भी हो सकेगा। १६-अकयपुण्णा-अविहितपुण्या-" अर्थात् जिस ने इस जन्म अथवा पूर्व के जन्मों में पुण्य कर्म का उपार्जन नहीं किया हो वह अकृतपुण्या कही जाती है। १७-जायं-यागम् देवपूजाम्-" अर्थात् याग शब्द देवों की पूजा-इस अर्थ का बोधक है। १८-दायं-पर्वदिवसादौ दानम्-" अर्थात् पर्व के दिवसों में किए जाने वाले दान को दाय कहते हैं / अथवा किसी भी समय पर दीन दुःखियों को अन्नादि का देना या अन्य किसी * सत्कर्म के लिए द्रव्यादि का देना दान कहलाता है। १९-भागम्-लाभांशम्-" अर्थात् मन्दिर के चढ़ावे (वह सामग्री जो किसी देवता को चढ़ाई जाए) से होने वाले लाभ के अंश को भाग कहते हैं। तात्पर्य यह है कि मन्दिर में जो चढ़ावा चढ़ाया जाता है, उस से जो मन्दिर को लाभ होता है, उस लाभांश को भाग कहा जाता है। २०-अक्खयणिहिं-अव्ययं भांडागारम्, अक्षयनिधिं वा मूलधनं येन जीर्णीभूतदेवकुलस्योद्धारः क्रियते-" अर्थात् नष्ट न होने वाले देवभण्डार का नाम अक्षयनिधि है, अथवा-मूलधन (देवद्रव्य) जो कि जीर्ण हुए देवमन्दिर के उद्धार के लिए प्रयुक्त होता है, को भी अक्षयनिधि कहते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [591 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१-उववाइयं-उपयाच्यते मृग्यते स्म यत्तत् उपयाचितम्-ईप्सितं वस्तु-" अर्थात् . जिस वस्तु की प्रार्थना की जाए वह उपयाचित कही जाती है। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु ईप्सित-इष्ट हो वह उपयाचित कहलाती है। प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में उपयाचित शब्द के १-प्रार्थित, अभ्यर्थित, २-मनौती-अर्थात् किसी काम के पूरा होने पर किसी देवता की विशेष आराधना करने का मानसिक संकल्प-ऐसे दो अर्थ लिखे हैं। २२-उवाइणित्तए-उपयाचितुं प्रार्थयितुम्-'" अर्थात् उपयाचितुं-यह क्रियापद प्रार्थना करने के लिए, इस अर्थ का बोध कराता है। -अज्झथिए 5- यहां पर दिए 5 के अंक से विवक्षित पाठ का वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। कल्लं जाव जलन्ते-यहां पठित जाव-यावत् पद से पाउप्पभायाए रयणीयफुल्लुप्पलकमल-कोमलुम्मीलियम्मि अहापण्डुरे पभाए रत्तासोग-प्पगास-किंसुयसुअमुह-गुंजद्धरागबन्धुजीवग-पारावयचलण-नयण-परहुअ-सुरत्तलोअणजासुमण-कुसुम-जलिय-जलण-तवणिज-कलस-हिंगुलय-निगर-रूवाइरेगरेहन्त-सस्सिरीए दिवागरे अहक्कमेण उदिए तस्स दिणगरकरपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे बालातवकुंकुमेणं खचिय व्व जीवलोए लोयणविसयाणुयासविगसंतविसददंसियम्मि लोए कमलागरसण्डबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्स-रस्सिम्मि दिणयरे तेअसा-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है- . जिस में प्रभात का प्रकाश हो रहा है, ऐसी रजनी-रात के व्यतीत हो जाने पर अर्थात् रात्रि के व्यतीत और प्रभात के प्रकाशित हो जाने पर, विकसित पद्म और कमल-हरिणविशेष का कोमल उन्मीलन होने पर अर्थात् कमल के दल खुल जाने पर और हरिण की आंखें खुल जाने पर, अथ-अनन्तर अर्थात् रजनी के व्यतीत हो जाने के पश्चात् प्रभात के पाण्डुर-शुक्ल होने पर, रक्त अशोक-पुष्पविशेष की कान्ति के समान, किंशुक-केसू, शुकमुख-तोते की चोंच, गुंजार्द्ध-भाग-गुंजा का रक्त अर्द्ध भाग, बन्धुजीवक (जन्तुविशेष), पारापत-कबूतर के चरण और नेत्र, परभृत-कोयल के सुरक्त-अत्यन्त लाल लोचन, जपा नामक वनस्पति के पुष्प फूल, प्रज्वलित अग्नि, सुवर्ण के कलश, हिंगुल-सिंगरफ की राशि-ढेर, इन सब के रूप से भी अधिक शोभायमान है स्व-स्वकीय श्री अर्थात् वर्ण की कान्ति जिस की ऐसे दिवाकरसूर्य के यथाक्रम उदित होने पर, उस सूर्य की किरणों की परम्परा-प्रवाह के अवतार अर्थात् गिरने से अन्धकार के प्रनष्ट होने पर बालातप-उगते हुए सूर्य की जो आतप-धूप तद्रूप 592] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंकुम (केसर) से मानों जीवलोक-संसार के खचित-व्याप्त होने पर, लोचनविषय के अनुकाश-विकास (प्रसार) से लोक विकासमान (वर्धमान) अर्थात् अंधकारावस्था में संसार संकुचित प्रतीत होता है और प्रकाशावस्था में वही वर्धमान-बढ़ता हुआ सा प्रतीत होता है, एवं विशद-स्पष्ट दिखलाए जाने पर कमलाकर-ह्रद (झील) के कमलों के बोधक-विकास करने वाले, हज़ार किरणों वाले, दिन के करने वाले, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उत्थित होने पर अर्थात् उदय के अनन्तर की अवस्था को प्राप्त होने पर। .. -सद्धिं जाव न पत्ता-यहां के जाव-यावत् पद से पीछे पढ़े गए-बहूइं वासाइं उरालाई माणुस्सगाई-से लेकर-अकयपुण्णा एत्तो एक्कतरमवि न-यहां तक के पदों का परिचायक है। तथा-अब्भणुण्णाता जाव उवाइणित्तए-यहां का जाव-यावत् पद मूल में पढ़े गए-सुबहुं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारं गहाय-से लेकर-अणुवड्ढेस्सामि त्ति कटु ओवाइयं- यहां तक के पदों का परिचायक है। प्रस्तुत. सूत्र में श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता के मनौती-मन्नतसम्बन्धी विचारों का उल्लेख किया गया है। अब अग्रिम सूत्र में उन की सफलता के विषय में वर्णन करते हैं मूल-तते णं सा गंगादत्ता भारिया सागरदत्तसत्थवाहेणं एतमटुं अब्भणुण्णाता समाणी सुबहुं पुष्फल मित्त महिलाहिं सद्धिं सातो गिहातो पडिणिक्खमति पडिणिक्खमित्ता पाडलिसंडं णगरं मझमझेणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणीए तीरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छिता पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुष्फवत्थगन्धमल्लालंकारं ठवेति ठवित्ता पुक्खरिणिं ओगाहेति ओगाहित्ता जलमजणं करेति, जलकिडं करेति करित्ता हाया कयकोउयमंगला उल्लपडसाडिया पुक्खरिणीए पच्चुत्तरति पच्चुत्तरित्ता तं पुष्फ गेण्हति गेण्हित्ता 'जेणेव उम्बरदत्तस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता उंबरदत्तस्स जक्खस्स आलोए पणामं करेति करित्ता लोमहत्थं परामुसति परामुसित्ता उम्बरदत्तं जक्खं लोमहत्थएण पमजति पमज्जित्ता दगधाराए अब्भुक्खेति अब्भुक्खित्ता पम्हल० गायलढेि ओलूहेति ओलूहित्ता सेयाइं वत्थाई परिहेति परिहित्ता महरिहं पुष्फारुहणं, वत्थारुहणं, गंधारुहणं, चुण्णारुहणं करेति करित्ता धूवं डहति डहित्ता जाणुपायपडिया एवं वयासी-जति णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं वा दारिगं वा पयामि तो णं जाव उवाइणति उवाइणित्ता जामेव दिसं पाउब्भूता तामेव दिसं पडिगता। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [593 Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-ततः सा गंगादत्ता भार्या सागरदत्तसार्थवाहेनैतमर्थमभ्यनुज्ञाता सती सुबहु पुष्प मित्र महिलाभिः सार्धं स्वस्माद् गृहात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य पाटलिपंडात् नगराद् मध्यमध्येन निर्गच्छति निर्गत्य पुष्करिण्यास्तीरं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य पुष्करिण्यास्तीरे सुबहु पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारं स्थापयति स्थापयित्वा पुष्करिणीमवगाहते अवगाह्य जलमज्जनं करोति, जलक्रीडां करोति कृत्वा स्नाता . कृतकौतुकमंगला, आर्द्रपटशाटिका पुष्करिण्याः प्रत्यवतरति प्रत्यवतीर्य तं पुष्प गृह्णाति गृहीत्वा यत्रैवोम्बरदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य उम्बरदत्तस्य यक्षस्यालोके प्रणामं करोति लोमहस्तं परामृशति परामृश्य उम्बरदत्तं यक्षं लोमहस्तेन प्रमार्टि प्रमाW दकधारयाभ्युक्षति अभ्युक्ष्य पक्ष्मल० गात्रयष्टिमवरूक्षयति (शुष्कं करोति प्रोञ्छतीत्यर्थः) अवरूक्ष्य श्वेतानि वस्त्राणि परिधापयति परिधाप्य महार्ह पुष्पारोहणं, वस्त्रारोहणं, माल्यारोहणं, गन्धारोहणं, चूर्णारोहणं करोति कृत्वा धूपं दहति दग्ध्वा जानुपादपतिता एवमवादीत्-यद्यहं देवानुप्रियाः! दारकं वा दारिकां वा प्रजन्ये ततो यावदुपयाचति उपयाच्य यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तस्या एव दिशः प्रतिगता। पदार्थ-ततेणं-तदनन्तर / सा-वह / गंगादत्ता भारिया-गंगादत्ता भार्या / सागरदत्तसत्थवाहेणंसागरदत्त सार्थवाह से। एतमटुं-इस प्रयोजन के लिए। अब्भणुण्णाता समाणी-अभ्यनुज्ञात हुई अर्थात् आज्ञा प्राप्त करके। सुबहुं-बहुत से। पुष्फ-पुष्प, वस्त्र, गन्ध-सुगन्धित द्रव्य, माला और अलंकार लेकर। मित्त-मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों एवं परिजनों की। महिलाहिं-महिलाओं के।सद्धिं-साथ। सातो-अपने / गिहातो-घर से। पडिणिक्खमति पडिणिक्खमित्ता-निकलती है, निकल कर। पाडलिसंडे-पाटलिपंड। णगरं-नगर के। मझमझेणं-मध्यभाग से। निग्गच्छइ निग्गच्छित्तानिकलती है, निकल कर। जेणेव-जहां। पुक्खरिणीए-पुष्करिणी-बावड़ी का। तीरे-तट था। तेणेववहां पर। उवागच्छति उवागच्छित्ता-आ जाती है, आकर। पुक्खरिणीए तीरे-पुष्करिणी के किनारे-तट पर। सुबहुं-बहुत से। पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारं-पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, मालाओं, और अलंकारों को। ठवेति ठवित्ता-रख देती है, रख कर। पुक्खरिणिं-बावड़ी में। ओगाहेति ओगाहित्ता-प्रवेश करती है, प्रवेश करके।जलमजणं-जलमज्जन-जल में गोते लगाना। करेति-करती है, तथा। जलकिड्डं-जलक्रीड़ा। करेति-करती है। हाया-स्नान किए हुए। कयकोउयमंगला-कौतुक-मस्तक पर तिलक तथा मांगलिक कृत्य करके। उल्लपडसाडिया-आर्द्र पट तथा शाटिका पहने हुए। पुक्खरिणीए-पुष्करिणी से। पच्चुत्तरति पच्चुत्तरित्ता-बाहर आती है, बाहर आकर / तं-उस। पुष्फ-पुष्प वस्त्रादि को। गेण्हति गेण्हित्ता-ग्रहण करती है, ग्रहण कर।जेणेव-जहां उंबरदत्तस्स-उम्बरदत्त / जक्खस्स-यक्ष का। जक्खायतणे-यक्षायतनस्थान था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छइ उवागच्छित्ता-आ जाती है, आ कर। उम्बरदत्तस्स-उम्बरदत्त / 594 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथमः श्रुतस्कंध Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जक्खस्स-यक्ष का। आलोए-अवलोकन कर लेने पर। पणाम-प्रणाम। करेति करित्ता-करती है, प्रणाम करके। लोमहत्थं-लोमहस्त-मोरपिच्छी को। परामुसति-ग्रहण करती है। परामुसित्ता-ग्रहण कर। उंबरदत्तं जक्खं-उम्बरदत्त यक्ष की। लोमहत्थएणं-लोमहस्तक से-मयूरपिच्छनिर्मित प्रमार्जिनी से। पमजति पमजित्ता-प्रमार्जना करती है, उस का रज दूर करती है, प्रमार्जन कर।दगधाराए-जलधारा से। अब्भुक्खेति अब्भुक्खित्ता-स्नान कराती है, स्नान करा कर / पम्हल-पक्ष्मयुक्त-रोमों वाले तथा कषाय रंग से रंगे हुए सुगंधयुक्त सुन्दर वस्त्र से।गायलट्ठि-गात्रयष्टि को-उस के शरीर को।ओलूहेति ओलूहित्तापोंछती है, पोंछ कर। सेयाइं-श्वेत। वत्थाई-वस्त्रों को। परिहेति परिहित्ता-पहनाती है, पहना कर। महरिहं-महार्ह-बड़ों के योग्य। पुष्फारुहणं-पुष्पारोहण-पुष्पार्पण करती है, पुष्प चढ़ाती है। वत्थारुहणंवस्त्रारोहण-वस्त्रार्पण। मल्लारुहणं-मालार्पण। गंधारुहणं-गन्धार्पण और।चुण्णारुहणं-चूर्ण (नैवेद्यविशेष अर्थात् देवता को अर्पण किए जाने वाले केसर आदि पदार्थ) को अर्पण। करेति करित्ता-करती है, करके। धूवं-धूप को। डहति डहिता-जलाती है, जलाकर। जाणुपायपडिया-घुटनों के बल उस यक्ष के चरणों में पड़ी हुई। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहती है। देवाणुप्पिया !-हे देवानुप्रिय ! जति णंयदि। अहं-मैं। दारगं वा-जीवित रहने वाले बालक अथवा। दारिगं वा-बालिका को। पयामि-जन्म दूं। तो णं-तो मैं। जाव-यावत्। उवाइणति उवाइणित्ता-याचना करती है अर्थात् मन्नत मनाती है, मन्नत मनाकर। जामेव दिसं-जिस दिशा से। पाउन्भूता-आई थी। तामेव दिसं-उसी दिशा की ओर। पडिगताचली गई। मूलार्थ-तब सागरदत्त सार्थवाह से अभ्यनुज्ञात हुई अर्थात् आज्ञा मिल जाने पर वह गंगादत्ता भार्या विविध प्रकार के पुष्प वस्त्रादि रूप पूजासामग्री ले कर मित्रादि की महिलाओं के साथ अपने घर से निकली और पाटलिषण्ड नगर के मध्य से होती हुई एक पुष्करिणी-वापी के समीप जा पहुंची, वहां पुष्करिणी के किनारे पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, माल्यों और अलंकारों को रख कर उसने पुष्करिणी में प्रवेश किया, वहां जलमज्जन और जलक्रीड़ा कर कौतुक तथा मंगल (मांगलिक क्रियाएं) करके एक आर्द्र पट और शाटिका धारण किए हुए वह पुष्करिणी से बाहर आई, बाहर आकर उक्त पुष्पादि पूजासामग्री को लेकर उम्बरदत्त यक्ष के यक्षायतन के पास पहुंची और वहां उसने यक्ष को नमस्कार किया, फिर लोमहस्तक-मयूरपिच्छ लेकर उसके द्वारा यक्षप्रतिमा का प्रमार्जन किया, तत्पश्चात् जलधारा से उस को ( यक्षप्रतिमा को) स्नान कराया, फिर कषाय रंग वाले-गेरू जैसे रंग से रंगे हुए सुगन्धित एवं सरोम-सुकोमल वस्त्र से उस के अंगों को पोंछा, पोंछ कर श्वेत वस्त्र पहनाया, वस्त्र पहना कर महार्ह-बड़ों के योग्य पुष्पारोहण, वस्त्रारोहण, गन्धारोहण, माल्यारोहण और चूर्णारोहण किया। तत्पश्चात् धूप धुखाती है, धूप धुखा कर यक्ष के आगे घुटने टेक कर पांव में पड़ कर इस प्रकार निवेदन करती है प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [595 Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी ( जीवित रहने वाले ) पुत्र या पुत्री को जन्म दूं तो यावत् याचना करती है अर्थात् मन्नत मनाती है, मन्नत मना कर जिधर से आई थी उधर को चली जाती है। टीका-जिस समय श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता को उस के विचारानुसार कार्य करने की पतिदेव की तरफ से आज्ञा मिल गई और उपयुक्त सामग्री ला देने का उसे वचन दे दिया गया, तब गंगादत्ता को बड़ी प्रसन्नता हुई तथा हर्षातिरेक से वह प्रफुल्लित हो उठी। उस ने नानाविध पुष्पादि की देवपूजा के योग्य सामग्री एकत्रित कर तथा मित्रादि की महिलाओं को साथ ले पाटलिषंड नगर के बीच में से होकर पुष्करिणी-बावड़ी (जो उद्यानगत यक्षमन्दिर के समीप ही थी) की ओर प्रस्थान किया। पुष्करिणी के पास पहुंच कर उस के किनारे पुष्पादि सामग्री रखकर वह पुष्करिणी में प्रविष्ट हुई और जलस्नान करने लगी, स्नानादि से निवृत्त हो, मांगलिक क्रियाएं कर भीगी हुई साड़ी पहने हुए तथा भीगा वस्त्र ऊपर ओढ़े हुए वह पुष्करिणी से बाहिर निकलती है, निकल कर उस ने रक्खी हुई देवपूजा की सामग्री उठाई, और उम्बरदत्त यक्ष के मंदिर की ओर चल पड़ी। वहां आकर उसने यक्ष को प्रणाम किया। तदनन्तर यक्ष-मन्दिर में प्रवेश कर उस ने यक्षराज का पुष्पादि सामग्री द्वारा विधिवत् पूजन किया। प्रथम वह रोमहस्त-मोर के पंखों के झाड़ से यक्षप्रतिमा का प्रमार्जन करती है, तदनन्तर जलधारा से उस को स्नान कराती है, स्नान के बाद अत्यन्त कोमल सुगन्धित कषायरंग के वस्त्र से उस के अंगों को पोंछती है, पोंछ कर श्वेतवस्त्र पहनाती है, तदनन्तर उस पर पुष्प और मालाएं चढ़ाती है एवं उस के आगे चूर्ण-नैवेद्य रखती है और फिर धूप धुखाती है। ___इस प्रकार पूजाविधि के समाप्त हो जाने पर यक्षप्रतिमा के आगे घुटने टेक और चरणों में सिर झुकाकर प्रार्थना करती हुई इस प्रकार कहती है कि हे देवानुप्रिय ! आप के अनुग्रह से यदि मैं जीवित बालक अथवा बालिका को जन्म देकर माता बनने का सद्भाग्य प्राप्त करूं, तो मैं आप के मन्दिर में आ कर नानाविध सामग्री से आपकी पूजा किया करूंगी, और आप के नाम से दान दिया करूंगी तथा आप के देवभण्डार को पूर्णरूप से भर दूंगी, इस प्रकार उम्बरदत्त यक्ष की मन्नत मानकर वह अपने घर को वापिस आ जाती है। यह सूत्र वर्णित कथावृत्त का सार है। "-कयकोउयमंगला उल्लपडसाडिया-" इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार के 1. यहां पर इतना ध्यान रहे कि श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता ने मांगलिक क्रियाएं बावड़ी के पानी में स्थित होकर नहीं की थीं, किन्तु बाहर आकर बावड़ी की चार दीवारी पर बैठकर की थीं। तदनन्तर वह उस वापी की चार दीवारी से नीचे उतरती है, ऐसा अर्थ समझना चाहिए। 596 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दों में "-कौतुकानि मषीपंडादीनि मंगलानि दध्यक्षतादीनि उल्लपडसाडिय त्ति पटः प्रावरणम् शाटको निवसनम्-" इस प्रकार है / तात्पर्य यह है कपाल-मस्तक में किए जाने वाले तिलक का नाम कौतुक है और मंगल शब्द दधि तथा अक्षत-बिना टूटा हुआ चावल आदि का बोधक है। प्राचीन काल में काम करने से पूर्व तिलक का लगाना और दधि एवं अक्षत आदि का खाना मांगलिक कार्य समझा जाता था। एवं पट शब्द से ऊपर ओढ़ने का वस्त्र और शाटिका से नीचे पहनने की धोती का ग्रहण होता है। "-पुण्फ० मित्त महिलाहिं-" यहां का बिन्दु -वत्थगन्धमल्लालंकारं गहाय बहूहि मित्तणाइणियगसयणसंबन्धिपरिजण-इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ पीछे लिखा जा चुका है। इस का भावार्थ निम्नोक्त है पक्ष्म शब्द-अक्षिलोम आंख के बाल तथा सूत्र आदि का अल्पभाग एवं केश का अग्रभाग इत्यादि अर्थों में प्रयुक्त होता है। पक्ष्म से युक्त पक्ष्मल कहलाता है, तब उक्त पद कासुकोमल पक्ष्मल-रोम वाली सुगन्धित तथा कषायरंग से रंगी शाटिका-धोती के द्वारा यह अर्थ फलित होता है। तात्पर्य यह है कि जिस वस्त्र से देव की प्रतिमा को पोंछा गया था वह कषाय रंग का तथा बड़ा कोमल था, एवं उसमें से सुगन्ध आ रही थी। . -तोणं जाव उवाइणति- यहां पठित जाव-यावत् पद से पीछे पढ़े गए-अहं तुब्भं जायं दायं च भागं च अक्खयणिहिं च अणुवड्ढेस्सामि, त्ति कटु ओवाइयं-इन पदों का संसूचक है। इस प्रकार यक्षदेव की पूजा को समाप्त कर उस की मन्नत मानने के बाद यथासमय गंगादत्ता सेठानी को गर्भस्थिति हुई, इत्यादि वर्णन निम्नोक्त सूत्र में किया जाता है - मूल-तते णं से धन्नंतरी वेजे ततो नरगाओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव पाडलिसंडे णगरे गंगादत्ताए भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। तते णं तीसे गंगादत्ताए भारियाए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूते-धन्नाओणं ताओ अम्मयाओ जाव फले, जाओणं विउलं असणं 4 उवक्खडावेंति 2 त्ता बहूहि मित्त जाव परिवुडाओ तं विपुलं असणं 4 सुरं च 6 पुष्फ जाव गहाय पाडलिसंडं णगरं मज्झं-मझेणं पडिनिक्खमंति 2 जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छन्ति 2 पुक्खरिणिं ओगाहंति 2 बहाया जाव पायच्छित्ताओ तं विउलं असणं 4 बहूणं मित्तनाति सद्धिं आसादेंति 4 दोहलं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [597 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणेन्ति, एवं संपेहेति संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-धन्नाओ णं ताओ जाव विणेति, तं इच्छा-मि णं जाव विणित्तए। तते णं से सागरदत्ते सत्थवाहे गंगादत्ताए भारियाए एयमढे अणुजाणेति। तते णं सा गंगादत्ता सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं अब्भणुण्णाता समाणी विउलं असणं 4 उवक्खडावेति 2 त्ता तं विउलं असणं 4 सुरं च 6 सुबहुं पुष्फ० परिगेण्हावेति 2 त्ता बहूहिं जावण्हाया कय० जेणेव उंबरदत्तजक्खाययणे जाव धूवं डहति 2 त्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागता।तते णं ताओ मित्त महिलाओ गंगादत्तं सत्थवाहिं सव्वालंकारविभूसियं करेंति।ततेणं सा गंगादत्ता ताहिं मित्त अन्नाहिं य बहूहिंणगरमहिलाहिं सद्धिं तं विउलं असणं 4 सुरं च 6 आसाएमाणी 4 दोहलं विणेति 2 त्ता जामेव दिसंपाउब्भूता तामेव दिसं पडिगता।तते णं सा गंगादत्ता भारिया संपुण्णदोहला 4 तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहति। छाया-ततः स धन्वन्तरिः वैद्यः ततो नरकादनन्तरमुढ्त्येहैव पाटलिषंडे नगरे गंगादत्तायाः भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः। ततस्तस्या गंगादत्ताया भार्यायास्त्रिषु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु अयमेतद्पो दोहदः प्रादुर्भूतः-धन्यास्ता अम्बा यावत् फले, याः विपुलमशनं 4 उपस्कारयन्ति 2 बहुभिः मित्र यावत् परिवृताः तद् विपुलमशनं 4 सुरां च 6 पुष्प० यावद् गृहीत्वा पाटलिपंडाद् नगराद् मध्यमध्येन प्रतिनिष्क्रामन्ति 2 यत्रैव पुष्करिणी तत्रैवोपागच्छंति 2 पुष्करिणीमवगाहन्ते 2 स्नाता यावत् प्रायश्चित्ताः तद् विपुलमशनं 4 बहुभिः मित्रज्ञाति सार्द्धमास्वादयन्ति दोहदं विनयन्ति, एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य कल्यं यावज्वलति यत्रैव सागरदत्तः सार्थवाहस्तत्रैवोपागच्छति 2 सागरदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत्-धन्यास्ता: यावद् विनयन्ति, तदिच्छामि यावद् विनेतुम्, ततः स सागरदत्तः सार्थवाहो गंगादत्ताया भार्याया एतमर्थमनुजानाति / ततः सा गंगादत्ता सागरदत्तेन सार्थवाहेनाभ्यनुज्ञाता सती विपुलमशनं 4 उपस्कारयति 2 तद् विपुलमशनं 4 सुरां च 6 सुबहु पुष्प० परिग्राहयति 2 बहुभिर्यावत् स्नाता कृत यत्रैवोम्बरदत्तयक्षायतनं यावद् धूपं दहति 2 यत्रैव पुष्करिणी तत्रैवोपागता। ततस्ता मित्र यावद् महिला गंगादत्तां सार्थवाही सर्वालंकारविभूषितां कुर्वन्ति / ततः सा गंगादत्ता ताभिः मित्र अन्याभिश्च 598 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुभिर्नगरमहिलाभिः सार्धं तद् विपुलमशनं 4 सुरां च 6 आस्वादयन्ती दोहदं विनयति 2 यस्याः एव दिशाः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता / ततः सा गंगादत्ता भार्या संपूर्णदोहदा 4 तं गर्भं सुखसुखेन परिवहति। ___पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। धन्तरी-धन्वन्तरि / वेज्जे-वैद्य। ततो-उस। णरगाओनरक से। अणंतरं-अन्तररहित-सीधा। उव्वट्टित्ता-निकल कर। इहेव-इसी। पाडलिसंडे-पाटलिषण्ड। णगरे-नगर में। गंगादत्ताए-गंगादत्ता / भारियाए-भार्या की। कुच्छिंसि-कुक्षि-उदर में। पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। तते णं-तदनन्तर। तीसे-उस। गंगादत्ताए-गंगादत्ता। भारियाए-भार्या के। तिण्हं-तीन / मासाणं-मासों के। बहुपडिपुण्णाणं-लगभग पूर्ण होने पर। अयमेयारूवे-यह इस प्रकार का। दोहले-दोहद-गर्भिणी स्त्री का मनोरथ। पाउब्भूते-उत्पन्न हुआ। ताओ अम्मयाओ-वे माताएँ / धण्णाओ णं-धन्य हैं। जाव-यावत् / फले-उन्होंने ही जीवन के फल को प्राप्त किया हुआ है। जाओ णं-जो। विउलं-विपुल। असणं ४-अशन-पानादिक। उवक्खडावेंति २-तैयार कराती हैं, करा कर। बहूहि-अनेक। मित्त-मित्र, ज्ञातिजन आदि की। जाव-यावत् महिलाओं से। परिवुडाओ-परिवृत-घिरी हुई / तं-उस। विउलं-विपुल / असणं ४-अशनादिक चतुर्विध आहार तथा। सुरं च 6-6 प्रकार के सुरा आदि पदार्थों और / पुप्फ-पुष्पों। जाव-यावत् अर्थात् वस्त्रों, सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारों को। गहाय-लेकर। पाडलिसंडं-पाटलिषंड। णगरं-नगर के। मझमझेणं-मध्य भाग में से। पडिणिक्खमंसि २-निकलती हैं, निकल कर। जेणेव-जहां। पुक्खरिणी-पुष्करिणी है। तेणेव-वहां। उवागच्छन्ति-आती हैं, आकर। पुक्खरिणिं-पुष्करिणी का। ओगाहंति २-अवगाहन करती हैं-उस में ‘प्रवेश करती हैं, प्रवेश करके / ण्हाया-स्नान की हुईं। जाव-यावत्। पायच्छित्ताओ-अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं मांगलिक कार्य की हुईं। तं-उस। विउलं-विपुल। :.' असणं ४-अशनादि का। बहूहिं-अनेक मित्र, ज्ञातिजन आदि की महिलाओं के।सद्धिं-साथ। आसादेंति ४-आस्वादनादि करती हैं, अपने / दोहलं-दोहद को। विणेति-पूर्ण करती हैं। एवं-इस प्रकार। संपेहेति २-विचार करती है, विचार करके / कल्लं-प्रात:काल। जाव-यावत्। जलंते-देदीप्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर। जेणेव-जहां। सागरदत्ते-सागरदत्त / सत्थवाहे-सार्थवाह-संघनायक था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छति २-आती है, आकर। सागरदत्तं-सागरदत्त। सत्थवाहं-सार्थवाह को। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगी। धन्नाओणं-धन्य हैं। ताओ अम्मयाओ-वे माताएं। जाव-यावत्। विणेति-दोहद की पूर्ति करती हैं। तं-इस लिए। इच्छामि णं-मैं चाहती हूँ। जाव-यावत्। विणित्तए-अपने दोहद की पूर्ति करना। तते णं-तदनन्तर / से-वह / सागरदत्ते-सागरदत्त / सत्थवाहे-सार्थवाह / गंगादत्ताए-गंगादत्ता। भारियाए-भार्या को। एयमटुं-इस अर्थ-प्रयोजन के लिए। अणुजाणेति-आज्ञा दे देता है। तते णंतदनन्तर।सा-वह / गंगादत्ता-गंगादत्ता / सागरदत्तेणं-सागरदत्त / सत्थवाहेणं-सार्थवाह से।अब्भणुण्णाया समाणी-अभ्यनुज्ञात हुई अर्थात् आज्ञा प्राप्त कर के। विपुलं-विपुल।असणं४-अशनादिक। उवक्खडावेति २-तैयार कराती है, तैयार करा के। तं-उस। विपुलं-विपुल। असणं ४-अशनादिक और। सुरं च ६सुरा आदि छः प्रकार के मद्यों का। सुबहुं-बहुत ज्यादा। पुष्फ०-पुष्पादि को। परिगेण्हावेति २-ग्रहण प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [599 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराती है, कराकर / बहूहिं-अनेक। जाव-यावत्। व्हाया-स्नान कर। कय०-अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक तथा अन्य मांगलिक कार्य करके। जेणेव-जहां पर। उंबरदत्तजक्खाययणे-उम्बरदत्त यक्ष का आयतन-स्थान था। जाव-यावत् / धूवं-धूप। डहति २-जलाती है, जला कर / जेणेव-जहां। पुक्खरिणी-पुष्करिणी थी। तेणेव-वहां पर। उवागता-आ गई। तते णंतदनन्तर। ताओ-वे। मित्त-मित्रादि की। जाव-यावत्। महिलाओ-महिलाएं। गंगादत्तं-गंगादत्ता। सत्थवाहि-सार्थवाही को। सव्वालंकारविभूसियं-सर्व प्रकार से आभूषणों द्वारा अलंकृत। करेंति-करती हैं। तते णं-तदनन्तर। सा-वह। गंगादत्ता-गंगादत्ता। ताहि-उन। मित्त-मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों की। च-तथा। अन्नाहिं-अन्य। बहुहिं-बहुत सी। णगरमहिलाहिं- . नगर की महिलाओं के। सद्धिं-साथ। तं-उस। विपुलं-विपुल। असणं ४-अशनादिक चतुर्विध आहार। च-तथा। सुरं ६-छः प्रकार की सुरा आदि का। आसाएमाणी ४-आस्वादनादि करती हुई। दोहदं-दोहद को। विणेति-पूर्ण करती है, दोहद की पूर्ति के अनन्तर। जामेव दिसं-जिस दिशा से। पाउब्भूता-आई थी। तामेव दिसं-उसी दिशा को। पडिगता-चली गई। तते णं-तदनन्तर। सा गंगादत्ता-वह गंगादत्ता। भारिया-भार्या / संपुण्णदोहला ४-सम्पूर्णदोहदा-जिसका दोहद पूर्ण हो चुका है, सम्मानितंदोहदासम्मानित दोहद वाली, विनीतदोहदा-विनीत दोहद वाली, व्युच्छिन्नदोहदा-व्युछिन्न दोहद वाली तथा सम्पन्नदोहदा-सम्पन्न दोहद वाली। तं-उस। गब्भं-गर्भ को। सुहंसुहेणं-सुखपूर्वक / परिवहति-धारण कर रही है, अर्थात् गर्भ का पोषण करती हुई सुखपूर्वक समय बिता रही है। ___ मूलार्थ-तदनन्तर वह धन्वन्तरि वैद्य का जीव नरक से निकल कर इसी पाटलिषण्ड नगर में गंगादत्ता भार्या की कुक्षि-उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ अर्थात् पुत्ररूप से गंगादत्ता के गर्भ में आया। लगभग तीन मास पूरे हो जाने पर गंगादत्ता श्रेष्ठिभार्या को यह निम्नोक्त दोहद-गर्भिणी स्त्री का मनोरथ उत्पन्न हुआ धन्य हैं वे माताएं यावत् उन्होंने ही जीवन के फल को प्राप्त किया है जो महान् अशनादिक तैयार करवाती हैं और अनेक मित्र ज्ञाति आदि की महिलाओं से परिवृत हो कर उस विपुल अशनादिक तथा पुष्पादि को साथ ले कर पाटलिषण्ड नगर के मध्य में से निकल कर पुष्करिणी पर जाती हैं, वहां-पुष्करिणी में प्रवेश कर जलस्नान एवं अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञातिजन आदि की महिलाओं के साथ आस्वादनादि करती हुईं अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। इस तरह विचार कर प्रातःकाल तेज से देदीप्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर वह सागरदत्त सार्थवाह के पास आती है, आकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी कि हे स्वामिन् ! वे माताएं धन्य हैं, यावत् जो दोहद को पूर्ण करती हैं। अत: मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ। 600 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब सागरदत्त सार्थवाह इस बात के लिए अर्थात् दोहद की पूर्ति के लिए गंगादत्ता को आज्ञा दे देता है।सागरदत्त सेठ से आज्ञा प्राप्त कर गंगादत्ता पर्याप्त मात्रा में अशनादिक चतुर्विध आहार की तैयारी करवाती है और उपस्कृत आहार एवं 6 प्रकार की सुरा आदि पदार्थ तथा बहुत सी पुष्पादिरूप पूजा सामग्री ले कर मित्र, ज्ञातिजन आदि की तथा और अन्य महिलाओं को साथ लेकर यावत् स्नान एवं अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक अनुष्ठान करके उम्बरदत्त यक्ष के मन्दिर में आ जाती है। वहां पूर्व की भान्ति पूजा कर धूप धुखाती है। तदनन्तर पुष्करिणीबावड़ी में आ जाती है। वहां पर साथ में आने वाली मित्र ज्ञाति आदि की महिलाएं गंगादत्ता को सर्व अलंकारों से विभूषित करती हैं, तत्पश्चात् उन मित्रादि की महिलाओं तथा अन्य नगर की महिलाओं के साथ उस विपुल अशनादिक तथा षड्विध सुरा आदि का आस्वादनादि करती हुई गंगादत्ता अपने दोहद की पूर्ति करती है। इस प्रकार दोहद को पूर्ण कर वह वापस अपने घर को आ गई। तदनन्तर सम्पूर्णदोहदा, सम्मानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदोहदा वह गंगादत्ता उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती हुई सानन्द समय बिताने लगी। टीका-भगवान महावीर स्वामी कहने लगे कि गौतम ! जिस समय गंगादत्ता उक्त प्रकार का संकल्प करती है, उस समय वह धन्वन्तरि वैद्य का जीव नरकसम्बन्धी दुःसह वेदनाओं को भोगकर नरक की आयु को पूर्ण करके वहां से सीधा निकल कर इसी पाटलिपंड नगर में, नगर के प्रतिष्ठित सेठ सागरदत्त की गंगादत्ता भार्या के गर्भ में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ, और वह वहां पुष्ट होने लगा, अथच वृद्धि को प्राप्त करने लगा। . सेठानी गंगादत्ता की कुक्षि में आए हुए धन्वन्तरि वैद्य के जीव को जब तीन मास होने लगे तो उसे जो दोहद उत्पन्न हुआ उस का तथा उसकी पूर्ति का उल्लेख मूलार्थ में कर दिया गया है। जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। गर्भिणी स्त्री को गर्भ के अनुरूप जो संकल्पविशेष उत्पन्न होता है, उसे शास्त्रीय परिभाषा में दोहद कहते हैं। "-ताओ अम्मयाओ जाव फले-" यहां पठित जाव-यावत् पद पीछे पढ़े गए "-सपुण्णाओणंताओ अम्मयाओ, कयत्थाओणंताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ तासिं च अम्मयाणं सुलद्धे जम्मजीविय-" इन पदों का परिचायक "-मित्त जाव परिवुडाओ-" यहा पठित जाव-यावत् पद से-णाइ-णियग प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [601 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयण-सम्बन्धि-परिजण-महिलाहिं-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। इन का अर्थ हैमित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों एवं परिजनों की महिलाओं से। तथामित्र आदि पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय में की जा चुकी है। -पुप्फ जाव गहाय-यहां पठित जाव-यावत् पद से -वत्थगन्धमल्लालंकारंइस पाठ का तथा-पहाया जाव पायच्छित्ताओ-यहां पठित जाव-यावत् पद सेकयबलिकम्मा, कयकोउयमंगल-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। -कयबलिकम्माआदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद एक पुरुष के विशेषण हैं, जब कि प्रस्तुत में अनेक स्त्रियों के। अतः लिंगगत तथा वचनगत अर्थभेद की भावना कर लेनी चाहिए। ___ -आसादन्ति ४-यहां पर दिये गए 4 के अंक से-विसाएन्ति, परिभाएन्ति परिभुंजेन्ति-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। अर्थात् आस्वादन (थोड़ा खाना, बहुत छोड़ना इक्षुखण्ड गन्ने की भान्ति), विस्वादन (अधिक खाना, थोड़ा छोड़ना, खजूर की भान्ति), परिभाजन-दूसरों को बांटना तथा परिभोग-(सब खा जाना, रोटी आदि की भांति) करती -कल्लं जाव जलन्ते- यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित पाठ पीछे इसी अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा-ताओ जाव विणेति-यहां पठित जाव-यावत् पद से पीछे पढ़े गए -अम्मयाओ जावफले, जाओणं विउलं असणं 4 उवक्खडावेंति 2 बहूहिं मित्त जाव परिवुडाओ-से लेकर-आसादेंति 4 दोहलं-यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। -बहूहिं जाव बहाया-यहां के जाव-यावत् पद से पीछे पढ़े गए-मित्त जाव परिवुडाओ तं विउलं असणं 4 सुरं 6 पुष्फ जाव गहाय पाडलिसंडं णगरं मझमझेणं पडिनिक्खमन्ति 2 जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छन्ति 2 पुक्खरिणिं ओगाहंति २इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। _ -कय०-यहां के बिन्दु से -कोउयमंगलपायच्छित्ता-इस पाठ का ग्रहण करना चाहिए। इस का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है। ___ "-उम्बरदत्तजक्खाययणे जाव धूवं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से पीछे पढ़े गए "-तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता उंबरदत्तस्स जक्खस्स आलोए पणामं करेति 2 त्ता लोमहत्थं परामुसति परामुसित्ता उंबरदत्तं जक्खं लोमहत्थएणं पमजति पमजित्ता दगधाराए अब्भुक्खेति अब्भुक्खित्ता पम्हल गायललुि ओलूहेति ओलूहित्ता सेयाई वत्थाई 602] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहेति परिहित्ता महरिहं पुप्फारुहणं, वत्थारुहणं, गंधारुहणं, चुण्णारुहणं करेति करित्ता-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। - "-असणं ४-तथा-सुरं च ६-यहां के अंकों से विवक्षित पाठ का विवरण तृतीय अध्याय में किया जा चुका है। तथा आसाएमाणी ४-यहां पर दिये 4 के अंक से - विसाएमाणी, परिभाएमाणी, परिभुंजेमाणी-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये शब्द बहुवचनान्त हैं जब कि प्रस्तुत में एकवचनान्त। अतः अर्थ में एकवचन की भावना कर लेनी चाहिए। -सम्पुण्णदोहला ४-यहां पर दिए गए 4 के अंक से विवक्षित-सम्माणियदोहला, विणीयदोहला, वोच्छिन्नदोहला, सम्पन्नदोहला-इन पदों की व्याख्या भी द्वितीय अध्याय में की जा चुकी है। प्रस्तुत सूत्र में सेठानी गंगादत्ता के द्वारा देवपूजा करना तथा उसके गर्भ में धन्वंतरि वैद्य के जीव का आना, एवं दोहद की उत्पत्ति और उस की पूर्ति आदि का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार अग्रिम सूत्र में गर्भस्थ जीव के जन्म आदि का वर्णन करते हैं मूल-तते णं सा गंगादत्ता णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। ठिति जाव नामधेनं करेंति-जम्हा णं अम्हं इमे दारए उंबरदत्तस्स जक्खस्स उवाइयलद्धए, तं होउ णं दारए उंबरदत्ते नामेणं। तते णं से उंबरदत्ते दारए * पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्दति। तते णं से सागरदत्ते सत्थवाहे जहा - विजयमित्ते कालधम्मुणा संजुत्ते, गंगादत्ता वि, उम्बरदत्ते वि निच्छूढे जहा उज्झियए। तते णं तस्स उम्बरदत्तस्स अन्नया कयाइ सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस रोगायंका पाउब्भूया, तंजहा-१-सासे, २-कासे, जाव १६-कोढे। तते णं से उम्बरदत्ते दारए सोलसहिं रोगायंकेहिं अभिभूते समाणे सडियहत्थ. जाव विहरति। एवं खलु गोतमा ! उम्बरदत्ते दारए पुरा जाव विहरति। छाया-ततः सा गङ्गादत्ता नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रयाता। स्थिति यावद् नामधेयं कुरुतः यस्मादस्माकमयं दारकः उम्बरदत्तस्य यक्षस्योपयाचितलब्धः तद् भवतु दारकः उम्बरदत्तो नाम्ना। ततः स उम्बरदत्तो दारकः पञ्चधात्रीपरिगृहीतः यावत् परिवर्द्धते / ततः स सागरदत्तः सार्थवाहो यथा विजयमित्रः कालधर्मेण संयुक्तः। गङ्गादत्तापि। उम्बरदत्तोऽपि निष्कासितो यथोज्झितकः। ततस्तस्योम्बरदत्तस्यान्यदा प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [603 Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचित् शरीरे युगपदेव षोडश रोगातंकाः प्रादुर्भूताः। तद्यथा-१श्वासः, २-कासः / यावत् १६-कुष्ठः। ततः स उम्बरदत्तो दारकः षोडशभी रोगातंकैरभिभूतः सन् शटितहस्त यावद् विहरति / एवं खलु गौतम ! उम्बरदत्तो दारकः पुरा यावद् विहरति / पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। सा-उस। गंगादत्ता-गङ्गादत्ता ने। णवण्हं मासाणं-नवमास। बहुपडिपुण्णाणं-लगभग परिपूर्ण होने पर। दारगं-बालक को। पयाया-जन्म दिया। ठिति-माता पिता ने स्थितिपतिता-पुत्रजन्मसम्बन्धी उत्सवविशेष / जाव-यावत् / नामधेजं करेंति-नामकरण संस्कार किया। जम्हा णं-जिस कारण। अम्हं-हमारा। इमे दारए-यह बालक। उम्बरदत्तस्स-उम्बरदत्त / जक्खस्स-यक्ष की। उवाइयलद्धए-मन्नत मानने से उपलब्ध हुआ है-प्राप्त हुआ है। तं-अतः। होउ णं-हो। दारएहमारा यह बालक। उम्बरदत्ते-उम्बरदत्त। नामेणं-नाम से। तते णं-तदनन्तर। से-वह। उम्बरदत्तेउम्बरदत्त / दारए-बालक। पंचधातीपरिग्गहिते-पंच धाय माताओं से परिगृहीत हुआ। परिवड्ढति-वृद्धि को प्राप्त करने लगा। तते णं-तदनन्तर / से-वह / सागरदत्ते-सागरदत्त / सत्थवाहे-सार्थवाह-संघनायक। जहा-जिस प्रकार / विजयमित्ते-विजयमित्र का वर्णन किया है, तद्वत् / कालधम्मुणा-कालधर्म से संयुक्त हुआ अर्थात् मर गया। गंगादत्ता वि-गङ्गादत्ता भी कालधर्म को प्राप्त हुई। उम्बरदत्ते वि-उम्बरदत्त भी। निच्छूढे-घर से बाहर निकाल दिया गया। जहा-जैसे। उझियए-उज्झितक कुमार अर्थात् उस का घर से. निकलना द्वितीय अध्ययन में वर्णित उज्झितक कुमार के समान जान लेना चाहिए। तते णं-तदनन्तर। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। तस्स-उस। उम्बरदत्तस्स-उम्बरदत्त के। सरीरगंसि-शरीर में। जमगसमगमेव-एक ही समय में।सोलस-सोलह प्रकार के रोगायंका-रोगातंक-भयंकर रोग। पाउब्भूताप्रादुर्भूत हुए-उत्पन्न हो गए। तंजहा-जैसे कि।१-सासे-१-श्वास। २-कासे-२-कास-खांसी। जावयावत्। १६-कोढे-१६-कुष्ठ रोग। तते णं-तदनन्तर। से-वह। उम्बरदत्ते-उम्बरदत्त। दारए-बालक। सोलसहि-सोलह प्रकार के।रोगायंकेहि-रोगातंकों से।अभिभूते समाणे-अभिभूत हुआ।सडियहत्थगले हुए हस्तादि से युक्त। जाव-यावत्। विहरति-समय व्यतीत कर रहा है। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! उम्बरदत्ते दारए-उम्बरदत्त बालक। पुरा-पुरातन। जाव-यावत् कर्मों को भोगता हुआ। विहरति-समय बिता रहा है। मूलार्थ-तत्पश्चात् लगभग नव मास परिपूर्ण हो जाने पर गंगादत्ता ने एक बालक को जन्म दिया। माता-पिता ने स्थितिपतिता नामक उत्सवविशेष मनाया और बालक उम्बरदत्त यक्ष की मन्नत मानने से प्राप्त हुआ है, इस लिए उन्होंने इस का उम्बरदत्त यह नाम रखा, अर्थात् माता-पिता ने उस का उम्बरदत्त नाम स्थापित किया। तदनन्तर उम्बरदत्त बालक पांच धाय माताओं से सुरक्षित हो कर वृद्धि को प्राप्त करने लगा। तदनन्तर अर्थात् उम्बरदत्त के युवा हो जाने पर विजयमित्र की भान्ति सागरदत्त सार्थवाह समुद्र में जहाज के जलनिमग्न हो जाने के कारण कालधर्म को प्राप्त . हुआ तथा गंगादत्ता भी पतिवियोगजन्य असह्य दुःख से दुखी हुई कालधर्म को प्राप्त हुई, 604 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा उज्झितक कुमार की तरह उम्बरदत्त को भी घर से बाहर निकाल दिया गया। . तत्पश्चात् किसी अन्य समय उम्बरदत्त के शरीर में एक ही साथ सोलह प्रकार के रोगातंक उत्पन्न हो गए, जैसे कि-१-श्वास, २-कास यावत् १६-कुष्ठ रोग। इन सोलह प्रकार के रोगातंकों-भयंकर रोगों से अभिभूत-व्याप्त हुआ उम्बरदत्त यावत् हस्तादि के सड़ जाने से दुःखपूर्ण जीवन बिता रहा है। . भगवान कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार उम्बरदत्त बालक पूर्वकृत अशुभ कर्मों का यह भयंकर फल भोगता हुआ इस भान्ति समय व्यतीत कर रहा है। टीका-शास्त्रों में गर्भस्थिति का वर्णन लगभग सवा नौ महीने का पाया जाता है, इतने समय में गर्भस्थ प्राणी के अंगोपांग पूर्णरूप से तैयार हो जाते हैं और फिर वह जन्म ले लेता है। श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता के गर्भ का भी काल पूर्ण होने पर उसने एक नितान्त सुन्दर बालक को जन्म दिया। बालक के जन्मते ही सेठ सागरदत्त को चारों ओर से बधाइयां मिलने लगीं। सागरदत्त को भी पुत्रजन्म से बड़ी खुशी हुई और गंगादत्ता की खुशी का तो कुछ पारावार ही नहीं था। दम्पती ने पुत्र-जन्म की खुशी में जी खोलकर धन लुटाया। कुलमर्यादा के अनुसार बालक का जन्मोत्सव बड़े समारोह के साथ मनाया गया और जन्म से बारहवें दिन जब नामकरण का समय आया तो सेठ सागरदत्त ने अपनी सारी जाति को तथा अन्य सगे सम्बन्धियों एवं मित्रों आदि को आमंत्रित किया और सबको प्रीतिभोजन कराया। तत्पश्चात् सभी के सन्मुख बालक के नाम की उद्घोषणा करते हुए कहा कि प्रियबन्धुओ! मुझे यह बालक अन्तिम आयु में मिला है और मिला भी उम्बरदत्त यक्ष के अनुग्रह से है अर्थात् उसकी मन्नत मानने के अनन्तर ही यह उत्पन्न हुआ है अत: मेरे विचारानुसार इसका उम्बरदत्त (उम्बर का दिया हुआ) नाम रखना ही समुचित है। सागरदत्त के इस प्रस्ताव का सबने समर्थन किया और तब से नवजात बालक उम्बरदत्त के नाम से पुकारा जाने लगा। .. बालक उम्बरदत्त १-दूध पिलाने वाली, २-स्नान कराने वाली, ३-गोद में उठाने वाली, ४-क्रीड़ा कराने वाली, और ५-शृंगार कराने वाली-शरीर को सजाने वाली, इन पांच धाय माताओं के प्रबन्ध में पालित और पोषित होता हुआ बढ़ने लगा। शनैः-शनैः शैशव अवस्था का अतिक्रम करके युवावस्था में पदार्पण करने लगा। तात्पर्य यह है कि बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हो गया। शास्त्रों में लिखा है कि कर्मों का प्रभाव बड़ा विचित्र होता है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म समय पर अपना पूरा-पूरा प्रभाव दिखलाते हैं। इस संसारी जीव के जिस समय शुभ कर्म उदय में आते हैं तब वह हर प्रकार से सुख का ही उपभोग करता है। उस समय वह प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [605 Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि मिट्टी को भी हाथ डालता है तो वह भी सोना बन जाती है, और अशुभ कर्म के उदय में आने पर सुखी जीव भी दुःखों का केन्द्र बन जाता है। उसको चारों ओर दु:ख के सिवा और कुछ दिखाई नहीं देता। वह यदि सुवर्ण को छू ले तो वह भी उसके अशुभ कर्म के प्रभाव से मिट्टी बन जाता है। सारांश यह है कि प्राणिमात्र की जीवनयात्रा कर्मों से नियंत्रित है, उसके अधीन हो कर ही उसे अपनी मानवलीला का सम्वरण या विस्तार करना होता है। शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही संसार में सुख और दुःख का चक्र भ्रमण कर रहा है अर्थात् सुख के बाद दुःख और दुःख के अनन्तर सुख यह चक्र बराबर नियमित रूप से चलता रहता है। बालक उम्बरदत्त अभी पूरा युवक भी नहीं हो पाया था कि फलोन्मुख हुए अशुभ कर्मों ने उसे आ दबाया। प्रथम तो सेठ सागरदत्त का समुद्र में जहाज़ के जलमग्न हो जाने के कारण अकस्मात् ही देहान्त हो गया और उसके बाद पतिविरह से अधिकाधिक दुःखित हुई सेठानी गंगादत्ता ने भी अपने पतिदेव के मार्ग का ही अनुसरण किया। दोनों ही परलोक के पथिक बन. गए। तत्पश्चात् अनाथ हुए उम्बरदत्त की पैतृक जंगम तथा स्थावर सम्पत्ति पर दूसरों ने अधिकार जमा लिया और राज्य की सहायता से उसको घर से बाहर निकाल दिया गया। कुछ दिन पहले उम्बरदत्त नाम का जो बालक अनेक दास और दासियों से घिरा रहता था आज उसे कोई पूछता तक नहीं। अशुभ कर्मों के प्रभाव की उष्णता अभी इतने मात्र से ही ठंडी नहीं पड़ी थी किन्तु उसमें और भी उत्तेजना आ गई। उम्बरदत्त के नीरोग शरीर पर रोगों का आक्रमण हुआ, वह भी एक दो का नहीं किन्तु सोलह का और वह भी क्रमिक नहीं किन्तु एक बार ही हुआ। रोग भी सामान्य रोग नहीं किन्तु महारोग उत्पन्न हुए। १-श्वास, २-कास और ३-भगंदर से लेकर कुष्ठपर्यन्त 16 प्रकार के महारोगों के एक बार ही आक्रमण से उम्बरदत्त का कांचन जैसा शरीर नितान्त विकृत अथच नष्टप्राय हो गया। उसके हाथ पांव गल सड़ गए। शरीर में से रुधिर और पूय बहने लगा। कोई पास में खड़ा नहीं होने देता, इत्यादि। देखा कर्मों का भयंकर प्रभाव! कहां वह शैशवकाल का वैभवपूर्ण सुखमय जीवन और कहां यह तरुणकालीन दुःखपूर्ण भयावह स्थिति ? कर्मदेव ! तुझे धन्य है। भगवान् महावीर बोले-गौतम ! यह सेठ सागरदत्त और सेठानी गंगादत्ता का प्रियपुत्र उम्बरदत्त है, जिसे तुमने नगर के चारों दिग्द्वारों में प्रवेश करते हुए देखा है, तथा जिसे देख कर करुणा के मारे तुम कांप उठे हो। प्रमादी जीव कर्म करते समय तो कुछ विचार करता नहीं और जब उन के फल देने का समय आता है तो उसे भोगता हुआ रोता और चिल्लाता है, परन्तु इस रोने और चिल्लाने को सुने कौन ? जिस जीव ने अपने पूर्व के भवों में नाना प्रकार के जीव जन्तुओं को तड़पाया हो, दुखी किया हो तथा उन के मांस से अपने शरीर को पुष्ट किया हो, 606 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस को आगामी भवों में दुःख-पूर्ण जीवन प्राप्त होना अनिवार्य होता है। यह जो आज रोगाक्रान्त हो कर तड़प रहा है, वह इसी के पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का प्रत्यक्ष फल है। .. "-ठिति जाव नामधिजं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से द्वितीय अध्याय में पढ़े गये "-ठितिपडियं च चन्दसूरदसणं च जागरियं च महया इड्ढिसक्कारसमुदएणं करेति, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो एक्कारसमे दिवसे निव्वत्ते संपत्ते बारसाहे अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिष्फन्नं-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। "-पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति-" यहां पठित जाव-यावत् पद से द्वितीय अध्याय में पढ़े गए-तंजहा-खीरधातीए मजण-से लेकर -सुहंसुहेणं-यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। तथा प्रकृत सूत्रपाठ में उल्लेख किए गए-“जहा विजयमित्ते कालधम्मणा संजुत्ते गंगादत्ता वि-" तथा "-उम्बरदत्ते वि निच्छूढे जहा उज्झियए-" इन पदों से दुखविपाक के उज्झितक नाम के दूसरे अध्ययन का स्मरण कराया गया है। तात्पर्य यह है कि उम्बरदत्त के विषय में -माता पिता का देहान्त और घर से निकाला जाना-यह सब वर्णन उज्झितक कुमार की तरह जान लेना चाहिए। ____तथा "-१-सासे, २-कासे जाव १६-कोढे-" यहां पठित जाव-यावत् पद से प्रथम अध्ययनगत पढ़े गए "-३-जरे, ४-दाहे, ५-कुच्छिसूले, ६-भगंदरे, ७अरिसे,८-अजीरते, ९-दिट्ठी, १०-मुद्धसूले, ११-अकारए, १२-अच्छिवेयणा, १३कण्णवेयणा, १४-कण्डू, १५-दओदरे-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या प्रथम अध्ययन में की जा चुकी है। -सडियहत्थ० जाव विहरति-यहां के -जाव-यावत्-पद से पूर्व में पढ़े गए"लिए, सडियपायंगुलिए, सडियकण्णनासिए-से लेकर -देहंबलियाए वित्तिं कप्पेमाणे" यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद द्वितीयान्त हैं, जब कि प्रस्तुत में एकवचनांत पदों का ग्रहण करना अपेक्षित है। अतः अर्थ में एकवचनान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिए। -पुरा जाव विहरति- यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित पाठ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। ... प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जो यह लिखा है कि सेठ सागरदत्त तथा सेठानी गंगादत्ता ने बालक का नाम उम्बरदत्त इसलिए रखा था कि वह उम्बरदत्त यक्ष के अनुग्रह से अर्थात् उस की मनौती मानने से संप्राप्त हुआ था, इस पर यह आशंका होती है कि कर्मसिद्धान्त के अनुसार प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [607 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो नारी किसी भी जीवित संतति को उपलब्ध नहीं कर सकती, फिर वह एक यक्ष की पूजा करने या मनौती मानने मात्र से किसी जीवित संतति को कैसे उपलब्ध कर लेती है ? क्या ऐसी स्थिति में कर्मसिद्धान्त का व्याघात नहीं होने पाता ? इस आशंका का उत्तर निम्नोक्त है शास्त्रों में लिखा है कि जो कुछ भी प्राप्त होता है वह जीव के अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के कारण ही होता है। कर्महीन प्राणी लाख प्रयत्न कर लेने पर भी अभिलषित वस्तु को प्राप्त नहीं कर सकता, जब कि कर्म के सहयोगी होने पर वह अनायास ही उसे उपलब्ध कर लेता है। अत: गंगादत्ता सेठानी को जो जीवित पुत्र की संप्राप्ति हुई है, वह उसके किसी प्राक्तन पुण्यकर्म का ही परिणाम है, फिर भले ही वह कर्म उसकी अनेकानेक संतानों के विनष्ट हो जाने के अनन्तर उदय में आया था। सारांश यह है कि गंगादत्ता को जो जीवित पुत्र की उपलब्धि हुई है वह उसके किसी पूर्वसंचित पुण्यविशेष का ही फल समझना चाहिए। उसमें कर्मसिद्धान्त के व्याघात वाली कोई बात नहीं है। अस्तु, अब पाठक यक्ष की मनौती का उस बालक के साथ क्या सम्बन्ध है, इस प्रश्न के उत्तर को सुनें न्यायशास्त्र में समवायी, असमवायी और निमित्त ये तीन कारण माने गए हैं। जिस में समवाय सम्बन्ध (नित्यसंबंध) से कार्य की निष्पत्ति-उत्पत्ति हो उसे समवायी कारण कहते हैं। जैसे पट (वस्त्र) का समवायी कारण तन्तु (धागे) हैं। समवायी कारण को उपादानकारण या मूलकारण भी कहा जाता है। कार्य अथवा कारण (समवायी कारण) के साथ जो एक पदार्थ में समवायसम्बन्ध से रहता है, वह असमवायी कारण कहलाता है। जैसे तन्तुसंयोग पट का असमवायी कारण है। तात्पर्य यह है कि तन्तु में तंतुसंयोग और पट ये दोनों समवायसम्बंध से रहते हैं, इसलिए तंतुसंयोग पट का असमवायी कारण कहा गया है। समवायी और असमवायी इन दोनों कारणों से भिन्न कारण को निमित्त कारण कहा जाता है। जैसे-जुलाहा, तुरी (जुलाहे का एक प्रकार का औज़ार) आदि पट के निमित्त कारण प्रस्तुत में हमें उपादान और निमित्त इन दोनों कारणों का आश्रयण इष्ट है। जीव को जो सुख दुःख की उपलब्धि होती है उस का उपादान कारण उसका अपना पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म है, और फल की प्राप्ति में जो भी सहायक सामग्री उपस्थित होती है वह सब 1. करणं त्रिविधं समवाय्यसमवायिनिमित्तभेदात्।यत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते तत्समवायिकारणम्। यथा-तन्तवः पटस्य। पटश्च स्वगतरूपादेः। कार्येण कारणेन वा सहैकस्मिन्नर्थे समवेतं सत् कारणमसमवायिकारणम्। यथा-तन्तुसंयोगः पटस्य। तन्तुरूपं पटरूपस्य। तदुभयभिन्नं कारणं निमित्तकारणम्। यथातुरीवेमादिकं पटस्य। (तर्कसंग्रह:) 608 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त कारण से संगृहीत होती है। निमित्त कारण को अधिक स्पष्ट करने के लिए एक स्थूल उदाहरण लीजिए कल्पना करो, एक कुंभकार घट-घड़ा बनाता है। घट पदार्थ में मिट्टी उसका मूलकारण * है, और कुम्भकार-कुम्हार, चाक, डोरी आदि सब उस में निमित्त कारण हैं / इसी भान्ति अन्य पदार्थों में भी उपादान और निमित्त इन दोनों कारणों की अवस्थिति बराबर चलती रहती है। शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि शुभाशुभ कर्मफल की प्राप्ति में अनेकानेक निमित्त उपलब्ध होते हैं। उन में देव-यक्ष भी एक होता है। दूसरे शब्दों में देवता भी शुभाशुभ कर्मफल के उपभोग में निमित्तकारण बन सकता है, अर्थात् देव उस में सहायक हो सकता देव की सहायता के शास्त्रों में अनेकों प्रकार उपलब्ध होते हैं। कल्पसूत्र में लिखा है कि हरिणगमेषी देव ने गर्भस्थ भगवान् महावीर का परिवर्तन किया था। अन्तकृद्दशाङ्गसूत्र में लिखा है कि देव ने सुलसा और देवकी की सन्तानों का परिवर्तन किया था, अर्थात् देवकी की संतान सुलसा के पास और सुलसा की सन्ताने देवकी के पास पहुँचाई थीं। ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र में लिखा है कि अभयकुमार के मित्र देव ने अकाल में मेघ बना कर माता धारिणी के दोहद को पूर्ण किया था। उपासकदशांगसूत्र में लिखा है कि देव ने कामदेव श्रावक को अधिकाधिक पीड़ित किया था। इस के अतिरिक्त भगवान् महावीर को लगातार छ: महीने संगमदेवकृत उपसर्गों को सहन करना पड़ा था, इत्यादि अनेकों उदाहरण शास्त्रों में अवस्थित हैं। परन्तु प्रस्तुत में गङ्गादत्ता को जीवित पुत्र की प्राप्ति में उम्बरदत्त यक्ष ने क्या सहायता की है, इस के सम्बन्ध में सूत्रकार मौन हैं। हमारे विचार में तो प्रस्तुत में यही बात प्रतीत होती है कि गंगादत्ता के मृतवत्सात्व दोष के उपशमन का समय आ गया था और उस की कामना की पूर्ति करने वाला कोई पुण्य कर्म उदयोन्मुख हुआ। परिणाम यह हुआ कि उसे जीवित पुत्र की प्राप्ति हो गई। वह पुत्रप्राप्ति यक्ष के आराधन के पश्चात् हुई थी, इसलिए व्यवहार में वह उस की प्राप्ति में कारण समझा जाने लगा। रहस्यं तु केवलिगम्यम्। 1. स्थानांगसूत्र-के पंचम स्थान के द्वितीय उद्देश्य में लिखा है कि पुरुष के सहवास में रहने पर भी स्त्री 5 कारणों से गर्भ धारण नहीं करने पाती। उन कारणों में -पुरा वा देवकम्मणा-यह भी एक कारण माना है। वृत्तिकार के शब्दों में इस की व्याख्या-पुरा वा पूर्व वा गर्भावसरात् देवकर्मणा देवक्रियया देवानुभावेन शक्त्युपघातः स्यादिति शेषः। अथवा देवश्च कार्मणं च तथाविधद्रव्यसंयोगो देवकार्मणं तस्मादिति-इस प्रकार है अर्थात् गर्भावसर से पूर्व ही देवक्रिया के द्वारा गर्भ धारण की शक्ति का उपघात होने से, अथवा-देव और कार्मण-तंत्र आदि की विद्या अर्थात् जादू से गर्भधारण की शक्ति के विनाश कर देने से। तात्पर्य यह है कि-देवता रुष्ट हो कर गर्भधारण की सभी सामग्री उपस्थित होने पर भी गर्भको धारण नहीं होने देता। इस वर्णन में देवता शुभाशुभ कर्म के फल में निमित्त कारण बन सकता है-यह सुतरां प्रमाणित हो जाता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [609 Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो लोग किसी पुत्रादि को उपलब्ध करने के उद्देश्य से देवों की पूजा करते हैं, और पूर्वोपार्जित किसी पुण्य कर्म के सहयोगी होने के कारण पुत्रादि की प्राप्ति कर लेने पर भक्तिरसातिरेक से उसे देवदत्त ही मान लेते हैं, अर्थात् पुत्रादि की प्राप्ति में देव को उपादान कारण मान बैठते हैं, वे नितान्त भूल करते हैं, क्योंकि यदि पूर्वोपार्जित कर्म विद्यमान हैं तो उस में देव सहायक बन सकता है, इस के विपरीत यदि पूर्व कर्म सहयोगी नहीं हैं तो एक बार नहीं, अनेकों बार देवपूजा की जाए या देव की एक नहीं लाखों मनौतिएं मान ली जाएं तो भी देव कुछ नहीं कर सकता। सारांश यह है कि किसी भी कार्य की सिद्धि में देव निमित्त कारण भले ही हो जाए, परन्तु वह उपादान कारण तो त्रिकाल में भी नहीं बन सकता। अतः देव को उपादान कारण समझने का विश्वास शास्त्रसम्मत न होने से हेय है एवं त्याज्य है। . प्रश्न-किसी भी कार्य की सिद्धि में देव उपादान कारण नहीं बन सकता, यह ठीक है, परन्तु वह कर्मफल के प्रदान में निमित्त कारण तो बन सकता है, उस में कोई सैद्धान्तिक. . बाधा नहीं आती, फिर उस के पूजन का निषेध क्यों देखा जाता है ? ___ उत्तर-संसार में दो प्रकार की प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। प्रथम संसारमूलक और दूसरी मोक्षमूलक। संसारमूलक प्रवृत्ति सांसारिक जीवन की पोषिका होती है, जब कि मोक्षमूलक प्रवृत्ति उस के शोषण का और आत्मा को उस के वास्तविकरूप में लाने अर्थात् आत्मा को परमात्मा बनाने का कारण बनती है। तात्पर्य यह है कि मोक्षमूलक प्रवृत्ति मात्र आध्यात्मिकता की प्रगति का कारण बनती है जब कि संसारमूलक प्रवृत्ति जन्ममरण रूप संसार के संवर्धन का। ___ जैनधर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है, वह आध्यात्मिकता की प्राप्ति के लिए सर्वतोमुखी प्रेरणा करता है। आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम लक्ष्य परमसाध्य निर्वाणपदं को उपलब्ध करना होता है। सांसारिक जीवन उस के लिए बंधनरूप होता है, इसीलिए वह उसे अपनी प्रगति में बाधक समझता है। जन्म मरण के दु:खों की पोषिका कोई भी प्रवृत्ति उस के लिए हेय एवं त्याज्य होती है। सारांश यह है कि आध्यात्मिकता के पथ का पथिक साधक व्यक्ति आत्मा को परमात्मा बनाने में सहायक अर्थात् मोक्षमूलक प्रवृत्तियों को ही अपनाता है, और सांसारिकता की पोषक सामग्री से उसे कोई लगाव नहीं होता, और इसीलिए उससे वह दूर रहता है। देवपूजा सांसारिकता का पोषण करती है या करने में सहायक होती है, इसीलिए जैन धर्म में देवपूजा का निषेध पाया जाता है। देवपूजा सांसारिक जीवन का पोषण कैसे करती है ? इस के उत्तर में इतना ही कहना है कि देवपूजा करने वाला यही समझ कर पूजा करता है कि इस से मैं युद्ध में शत्रु को परास्त 610 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर दूंगा, शासक बन जाऊंगा, मुझे पुत्र की प्राप्ति होगी, धन की प्राप्ति होगी तथा अन्य परिवार . आदि की उपलब्धि होगी। इस से स्पष्ट है कि पूजक व्यक्ति मोहजाल को अधिकाधिक . प्रसारित कर रहा है, जो कि संसारवृद्धि का कारण होता है, परन्तु यह एक मुमुक्षु प्राणी को इष्ट नहीं होता। ___ यदि कोई यह कहे कि देवपूजा से मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा स्वर्ग की उपलब्धि होती है, तो यह उस की भ्रान्ति है। कारण यह है कि देव में ऐसा करने की शक्ति ही नहीं होती। अशक्त से शक्ति की अभ्यर्थना का कुछ अर्थ नहीं होता। धनहीन से धन की आशा नहीं की जा सकती। दूसरी बात यह है कि जब देव देवरूप से स्वयं मुक्ति में नहीं जा सकता और जब देव को देवलोक की भवस्थिति पूर्ण होने पर-आयु की समाप्ति होने पर अनिच्छा होते हुए भी भूतल पर आना पड़ता है तो वह दूसरों को मुक्ति में कैसे पहुंचा सकता है ? तथा स्वर्ग का दाता कैसे हो सकता है ? हां, यह ठीक है कि जो लोग देव को कर्मफल का निमित्त मान कर देवपूजा करने वाले पर मिथ्यात्वी का आरोप करते हैं, यह भी उचित नहीं है। पदार्थों का यथार्थ बोध ही सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व का न होना मिथ्यात्व है। देव को निमित्त मान कर पूजा करने वाले को पूर्वोक्त बोध है। वह जानता है कि मैं यह संसार बंधन का काम कर रहा हूँ और इस में मुझे अध्यात्मसंबंधी कोई भी लाभ नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में उसे सम्यक्त्व से शून्य कहना भ्रान्ति है। यदि-ऐहिक प्रवृत्तियों में देव सहायक हो सकता है-मात्र यह मान कर देवों की आराधना करने वाले व्यक्ति मिथ्यात्वी हो जाएंगे तो तेला कर के अर्थात् लगातार तीन उपवास कर देवता का आह्वान करने वाले वासुदेव कृष्ण तथा चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि सभी पूर्वपुरुष मिथ्यात्वियों की कोटि में नहीं आ जाएंगे? और क्या यह सिद्धांत को इष्ट है ? उत्तर स्पष्ट है-नहीं। . प्रस्तुत सूत्र में उम्बरदत्त का जन्म, उस के पिता सागरदत्त और माता गंगादत्ता का कालधर्म को प्राप्त होना, तथा उस को घर से निकालना एवं उस के शरीर में भयंकर रोगों का उत्पन्न होना, इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार गौतम स्वामी के द्वारा उम्बरदत्त के भावी जीवन के विषय में की गई पृच्छा का वर्णन करते हैं - मूल-तते णं से उम्बरदत्ते दारए कालमासे कालं किच्चा कहिंगच्छिहिति? कहिं उववजिहिति ? छाया-ततः स उम्बरदत्तो दारकः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ?, कुत्रोपपत्स्यते ? प्रथम श्रुतस्कंध] . श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [611 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / से-वह / उंबरदत्ते-उम्बरदत्त / दारए-बालक, यहां से। कालमासेकालमास में। कालं किच्चा-काल करके। कहिं-कहां। गच्छिहिति ?-जाएगा ? कहिं-कहां पर। उववजिहिति ?-उत्पन्न होगा? मूलार्थ-तदनन्तर गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से पूछा कि भगवन् ! यह उम्बरदत्त बालक यहां से मृत्यु के समय में काल कर के कहां जाएगा? और कहां पर उत्पन्न होगा? टीका-उम्बरदत्त की वर्तमान दशा का कारण जान लेने के बाद गौतम स्वामी को उस के भावी जन्मों के जानने की उत्कण्ठा हुई, तदनुसार वे भगवान् महावीर से पूछते हैं कि भगवन्! उम्बरदत्त का भविष्य में क्या बनेगा? क्या वह इसी प्रकार दु:खों का अनुभव करता रहेगा अथवा उसके जीवन में कभी सुख का भी संचार होगा? प्रभो! वह यहां से मर कर कहां जाएगा? और कहां उत्पन्न होगा? गौतमस्वामी के इस प्रश्न में मानव जीवन के अनेक रहस्य छुपे हुए हैं, उस की उच्चावच परिस्थितियों का अनुभव प्राप्त हो जाता है, एवं मानव जीवन को सुपथगामी बनाने में प्रेरणा मिलती है। इस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-गोतमा ! उंबरदत्ते दारए बावत्तरिं वासाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयत्ताए उववज्जिहिति, संसारो तहेव जाव पुढवीए / ततो हत्थिणाउरे णगरे कुक्कुडत्ताए पच्चायाहिति। जायमेत्ते चेव गोछिल्लवहिते तत्थेव हत्थिणाउरे णयरे सेट्टि बोहिं॰ सोहम्मे महाविदेहे सिज्झिहिति 5 / णिक्खेवो। ॥सत्तमं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-गौतम ! उम्बरदत्तो दारको द्वासप्ततिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते / संसारस्तथैव यावत् पृथिव्याम् / ततो हस्तिनापुरे नगरे कुर्कुटतया प्रत्यायास्यति। जातमात्र एव गौष्ठिकवधितस्तत्रैव हस्तिनापुरे नगरे श्रेष्ठि० बोधि सौधर्मे महाविदेहे सेत्स्यति 5 / निक्षेपः। // सप्तममध्ययनं समाप्तम्॥ 612 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय . . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पदार्थ-गोतमा !-हे गौतम ! उम्बरदत्ते-उम्बरदत्त / दारए-दारक-बालक। बावत्तरि-७२। वासाई-वर्षों की। परमाउं-परम आयु। पालइत्ता-पालकर-भोग कर। कालमासे-कालमास में-मृत्यु का समय आ जाने पर। कालं-काल। किच्चा-करके। इमीसे-इस। रयणप्पभाए पुढवीए-रत्नप्रभा नामक पहली नरक में। णेरइयत्ताए-नारकी रूप से। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। तहेव-तथैव-अर्थात् पहले की भांति। संसारो-संसारभ्रमण करेगा। जाव-यावत्। पुढवीए०-पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा अर्थात् इस का शेष संसारभ्रमण भी प्रथम अध्ययनगत मृगापुत्र की भान्ति जान लेना चाहिए, यावत् वह पृथिवीकाया में जन्म लेगा। ततो-वहां से निकल कर। हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर। णगरे-नगर में। कुक्कुडत्ताए-कुर्कुट-कुक्कुड के रूप में। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। जायमेत्ते चेव-जातमात्र अर्थात् उत्पन्न हुआ ही। गोहिल्लवहिते-गौष्ठिक-दुराचारीमंडल के द्वारा वध को प्राप्त होता हुआ। तत्थेव-वहीं। हत्थिणाउरे णयरे-हस्तिनापुर नगर में। सेट्ठि-श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा। बोहिं०-बोधि सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, तथा वहां पर मृत्यु को प्राप्त हो कर। सोहम्मे-सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर। महाविदेहे - महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा, वहां पर संयम का आराधन कर के। सिज्झिहिति ५-सिद्ध पद को प्राप्त करेगा, केवलज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को जानेगा, समस्त कर्मों से रहित हो जाएगा, सकलकर्मजन्य सन्ताप से विमुक्त होगा, सब दुःखों का अन्त कर डालेगा। णिक्खेवोनिक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। सत्तमं-सप्तम। अज्झयणं-अध्ययन। समत्तंसम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-भगवान् ने कहा कि हे गौतम ! उम्बरदत्त बालक 72 वर्ष की परम आयु पाल कर कालमास में काल कर के इसी रत्नप्रभा नामक पृथिवी-नरक में नारकीरूप से उत्पन्न होगा। वह पूर्ववत् संसारभ्रमण करता हुआ यावत् पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में कुक्कुड के रूप में उत्पन्न होगा। वहां जातमात्र ही गोष्ठिकों के द्वारा वध को प्राप्त होता हुआ वहीं हस्तिनापुर में एक श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा, वहां सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, वहां से मर कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा; वहां अनगार धर्म को प्राप्त कर यथाविधि संयम की आराधना से कर्मों का क्षय करके सिद्धपद-मोक्ष को प्राप्त करेगा। केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को जानेगा, समस्त कर्मों से रहित हो जाएगा, सकलकर्मजन्य सन्ताप से विमुक्त होगा, सब दुःखों का अन्त कर डालेगा। निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भान्ति कर लेनी चाहिए। ॥सप्तम अध्ययन समाप्त। टीका-परम विनीत गौतम स्वामी के अभ्यर्थनापूर्ण प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने फरमाया कि हे गौतम ! उम्बरदत्त बालक 72 वर्षपर्यन्त इस प्रकार से दुःखानुभव करेगा, अर्थात् 72 वर्ष की कुल आयु भोगेगा और आर्तध्यान से कर्मबन्ध करता हुआ यहां से कालधर्म प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय _[613 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्राप्त हो कर पहली नरक में उत्पन्न होगा। वहां अनेकानेक कल्पनातीत संकट सहेगा। वहां की दुःखपूर्ण आयु को पूर्ण कर अनेक प्रकार की योनियों में जन्म-मरण करता हुआ संसार में भटकेगा। इस प्रकार कर्मों की मार से पीड़ित होता हुआ यह उम्बरदत्त का जीव अन्त में पृथिवीकाया में लाखों बार जन्म लेगा, वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में कुक्कुट की योनि में उत्पन्न होगा, परन्तु उत्पन्न होते ही गौष्ठिकों-दुराचारियों के द्वारा वध को प्राप्त हो वह फिर वहीं पर -हस्तिनापुर नगर में नगर के एक प्रतिष्ठित सेठ के घर में पुत्ररूप से जन्मेगा, वहां सुखपूर्वक वृद्धि को प्राप्त करता हुआ युवावस्था में साधुओं के पवित्र सहवास को प्राप्त कर के उन के पास दीक्षित हो जाएगा। साधुवृत्ति में तपश्चर्या के द्वारा कर्मों की निर्जरा कर आत्मभावना से भावित हो कर जीवन समाप्त कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देव होगा। वहां के आनन्दातिरेक से आनन्दित हो सुखमय जीवन व्यतीत करेगा तथा वहां की आयु समाप्त कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा वहां पर शैशवावस्था से निकल युवावस्था को प्राप्त कर किसी विशिष्ट संयमी एवं ज्ञानी साधु के पास दीक्षा लेकर संयम का आराधन करेगा, तथा संयमाराधन के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता हुआ, कर्मबन्धनों को तोड़ देगा, जन्म और मरण का अन्त कर देगा तथा निर्वाणपद की प्राप्ति कर सिद्ध, बुद्ध, अजर और अमर हो जाएगा। अनगार श्री गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रवचन में उम्बरदत्त के अतीत, वर्तमान और अनागत जीवन को सुन कर बहुत विस्मित अथच आश्चर्य को प्राप्त होते हैं, और सोचते हैं कि यह संसार भी एक प्रकार की रंगभूमि नाट्यशाला है। जहां पर सभी प्राणी नाना प्रकार के नाटक करते हैं। कर्मरूप सूत्रधार के वशीभूत होते हुए प्राणियों को नाना प्रकार के स्वांग धारण करके इस रंगशाला में आना पड़ता है। जीवों द्वारा नाना प्रकार की ऊंच-नीच योनियों में भ्रमण करते हुए विविध प्रकार के सुखों और दुःखों की अनुभूति करना ही उन का नाट्यप्रदर्शन है। उम्बरदत्त का जीव पहले धन्वन्तरि वैद्य के नाम से विख्यात हुआ, वहां उस ने अपनी जीवनचर्या से ऐसे क्रूरकर्मों को उपार्जित किया कि जिन के फलस्वरूप उसे छठी नरक में जाना पड़ा। वहां की असह्य वेदनाओं को भोग कर वह सेठ सागरदत्त का प्रियपुत्र बना, तथा उसने सेठानी गंगादत्ता की चिरअभिलषित कामना को पूर्ण किया, वहां उसका शैशवकाल बड़ा ही सुखमय बीता, मातृ-पितृस्नेह का खूब आनन्द प्राप्त किया, परन्तु युवावस्था को प्राप्त करते ही इस पर दुःखों के पहाड़ टूट पड़े, माता पिता परलोक सिधार गए, घर से निकाल दिया गया, सारा शरीर रोगों से अभिभूत हो गया, और भिखारी बन कर दरदर के धक्के खाने पड़े, तथा इस समय की प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली भयावह दशा के बाद का जीवन भी बहुत लम्बे समय तक अन्धकारपूर्ण ही बतलाया गया है। इस में केवल हर्षजनक 614 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कंध Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतनी ही बात है कि अन्त में हस्तिनापुर के श्रेष्ठिकुल में जन्म लेकर बोधि-लाभ के अनन्तर उसे विकास का अवसर प्राप्त होगा और आखिर में वह अपने ध्येय को प्राप्त कर लेगा। यह संसारी जीवों की लीलाओं का चित्र है, जिन्हें वे इस संसार की रंगस्थली पर निरन्तर करते चले जा रहे हैं। इस विचारपरम्परा द्वारा संसार में रहने वाले जीव की जीवनयात्रा का अवलोकन करने के बाद गौतम स्वामी भगवान् के चरणों में वन्दना करते हैं और इस अनुग्रह के लिए कृतज्ञता प्रकट करके अपने आसन पर चले जाते हैं, वहां जाकर आत्मसाधना में संलग्न हो जाते हैं। पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में श्री जम्बू स्वामी ने अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मास्वामी से सातवें अध्ययन को सुनाने की अभ्यर्थना की थी, जिस की पूर्ति के लिए श्री सुधर्मा स्वामी ने उन्हें प्रस्तुत सातवें अध्ययन का वर्णन कह सुनाया। सातवें अध्ययन को सुना लेने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी कहने लगे कि हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सातवें अध्ययन का अर्थ बतलाया है। मैंने जो कुछ भी तुम्हें सुनाया है, वह सब प्रभुवीर से जैसे मैंने सुना था वैसे ही तुम्हें सुना दिया है, इस में मेरी अपनी कोई भी कल्पना नहीं है। इन्हीं भावों को सूत्रकार ने "निक्खेवो" इस एक पद में ओतप्रोत कर दिया है। निक्खेवो-पद का अर्थसम्बंधी ऊहापोह पहले कर आए हैं। प्रस्तुत में इस पद से.जों सूत्रांश अभिमत है, वह निम्नोक्त है . एवंखलु जम्बू!समणेणं भगवया महावीरेणंजाव सम्पत्तेणंदुहविवागाणं सत्तमस्स अझयणस्स अयमढे पण्णत्ते, त्ति बेमि-" इन पदों का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है। - "-संसारो तहेव जाव पुढवीए-" यहां पठित संसार पद संसारभ्रमण का परिचायक है। तथा -तहेव-पद का अर्थ है-वैसे ही अर्थात् जिस तरह प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसार भ्रमण वर्णित हुआ है, वैसे ही यहां पर भी उम्बरदत्त का समझ लेना चाहिए, तथा उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से ग्रहण किया गया है, अर्थात् जाव-यावत् पद प्रथम अध्याय में पढ़े गए "-से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववजिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए-से लेकर-वाउ० तेउ आउ०-" यहां तक के पाठ का परिचायक है। तथा-पुढवीए०-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना तृतीय अध्याय में दी जा चुकी है। - "-सेट्ठि०-" यहां के बिन्दु से -कुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। तथा-बोहिं, सोहम्मे महाविदेहे सिज्झिहिति ५-इन पदों से विवक्षित प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [615 Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ की सूचना चतुर्थ अध्याय में दी जा चुकी है। ___ सारांश यह है कि संसार में दो तरह के प्राणी होते हैं, एक वे जो काम करने से पूर्व उस के परिणाम का विचार करते हैं, उस से निष्पन्न होने वाले हानिलाभ का ख्याल करते हैं। दूसरे वे होते हैं, जो बिना सोचे और बिना समझे ही काम का आरम्भ कर देते हैं, वे यह सोचने का भी उद्योग नहीं करते कि इस का परिणाम क्या होगा, अर्थात् हमारे लिए यह हितकर होगा या अहितकर। इन में पहली श्रेणी के लोग जितने सुखी हो सकते हैं, उससे कहीं अधिक दुःखी दूसरी श्रेणी के लोग होते हैं। धन्वन्तरि वैद्य यदि रोगियों को मांसाहार का उपदेश देने से पूर्व, तथा स्वयं मांसाहार एवं मदिरापान करने से पहले यह विचार करता कि जिस तरह मैं अपनी जिह्वा के आस्वाद के लिए दूसरों के जीवन का अपहरण करता हूँ, उसी तरह यदि कोई मेरे जीवन के अपहरण करने का उद्योग करे तो मुझे उस का यह व्यवहार सह्य होगा या असह्य, अगर असह्य है तो मुझे भी दूसरों के मांस से अपने मांस को पुष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है। "जीवितं यः स्वयं चेच्छेत्, कथं सोऽन्यं प्रघातयेत्" इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार मुझे इस प्रकार के सावध अथच गर्हित व्यवहार तथा आहार से सर्वथा पृथक् रहना चाहिए-तो उस का जीवन इतना संकटमय न बनता। इसलिए प्रत्येक प्राणी को कार्य करते समय अपने भावी हित और अहित का विचार अवश्य कर लेना चाहिए। भावी हिताहित के विचारों को कविता की भाषा में कितना सुन्दर कहा गया है- * सोच करे सो सूरमा, कर सोचे सो सूर।' वांके सिर पर फूल हैं, वांके सिर पर धूल॥ इस दोहे में कवि ने कितने उत्तम सारगर्भित विचारों का समावेश कर दिया है। कवि का कहना है कि जो व्यक्ति किसी कार्य को करने से पहले उससे उत्पन्न होने वाले हानि-लाभ को ध्यान में रखता है, उसे दृष्टि से ओझल नहीं होने देता, वह सूरमा-वीर कहलाता है। इस के विपरीत जो बिना सोचे बिना समझे किसी काम को कर डालता है या किसी भी काम को करने के अनन्तर उसका दुष्परिणाम सामने आने पर सोचता है, वह सूर-अन्धा कहा जाता है। वीर के सिर पर फूलों की वर्षा होती है जबकि अन्धे के सर पर धूल की। इसे एक उदाहरण से समझिए सदाचार की सजीव मूर्ति धर्मवीर सुदर्शन को जब महारानी अभया के आदेश से दासी रम्भा पौषधशाला से चम्पा के राजमहलों में उठा लाती है और सोलह शृंगारों द्वारा इन्द्राणी के समान सौन्दर्य की प्रतिमा बनी हुई महाराणी अभया उनके सामने अपने वासनामूलक विचारों को प्रकट करती है तथा हावभाव के प्रदर्शन से उनके मानसमेरु को कम्पित करना चाहती है, 616] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब सेठ सुदर्शन मन ही मन बड़ी गम्भीरता से सोचने लगे सुदर्शन ! कामवासना मनुष्य का सबसे बड़ा शत्र है, जो सर्वतोभावी पतन करने के साथ-साथ उस का सर्वस्व भी छीन लेता है। इतिहास इसका पूरा समर्थक है। रावण त्रिखण्डाधिपति था, कथाकार इक लक्ख पूत सवा लक्ख नाती, रावण के घर दीया न बाती। - यह कह कर उसके परिवार की कितनी महानता अभिव्यक्त करते हैं, इसके अतिरिक्त रावण अपने युग का महान विजेता और प्रतापी राजा समझा जाता था। लक्ष्मीदेवी की उस पर पूर्ण कृपा थी, उस की लंका भी सोने से बनी हुई थी। परन्तु हुआ क्या ? एक वासना ने उस का सर्वनाश कर डाला, प्रतिवर्ष उसके कुकृत्यों को दोहराया जाता है, उसे विडम्बित किया जाता है, तथा उसे जलाया जाता है। कहां त्रिखण्डाधिपति रावण और कहां मैं ? जब वासना ने उस का भी सर्वतोमुखी विनाश कर डाला, तो फिर भला मैं किस गणना में हूँ ? अस्तु, महाराणी अभया कितना भी कुछ कहे, मुझे भूल कर कभी भी वासना के पथ का पथिक नहीं / बनना चाहिए। दूसरी बात यह है कि अभया राजपत्नी होने से मेरी माता के तुल्य है। माता के सम्मान को सुरक्षित रखना एक विनीत पुत्र का सर्वप्रथम कर्त्तव्य बन जाता है। . आज तो भला मेरा पौषध ही है, परन्तु मैं तो विवाह के समय-अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त संसार की सब स्त्रियों को माता और बहिन के तुल्य समझंगा-इस प्रतिज्ञा को धारण कर चुका हूँ। तथा शास्त्रों में परनारी को पैनी छुरी कहा है, उस का संसर्ग तो स्वप्न में भी नहीं करना चाहिए, तब महाराणी अभया के इस दुर्गतिमूलक जघन्य प्रस्ताव पर कुछ विचार करूं! यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, इत्यादि विचारों में निमग्न धर्मवीर सुदर्शन ने रानी को सदाचार के सत्पथ पर लाने का प्रयास करने के साथ-साथ उसे स्पष्ट शब्दों में कह दिया बन्दे ने तो जब से जग में कुछ-कुछ होश संभाला है, ___ माता और बहिन सम परनारी को देखा भाला है। मुझ से तो यह स्वप्नतलक में भी आशा मत रखिएगा, तैल नहीं है इस तिलतुष में चाहे कुछ भी करिएगा। स्वतः स्वर्ग से इन्द्राणी भी पतित बनाने आ जाए, तो भी वज्र मूर्ति सा मेरा मनमेरु न डिगा पाए। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [617 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापकर्म के फल से मैं तो हरदम ही भय खाता हूँ, और तुम्हें भी माता जी बस यही भाव समझाता हूँ। ___ (धर्मवीर सुदर्शन में से) सेठ सुदर्शन के उत्तर को सुनकर अभया भड़क उठी, उसने उन को बहुत बुरा भला कहा और अन्त में सेठ सुदर्शन को दण्डित करने के लिए राजा और जनता के सन्मुख अपने आप को सती साध्वी एवं पतिव्रता प्रमाणित करने के लिए उस की ओर से त्रियाचरित्र का भी पूरा-पूरा प्रदर्शन किया गया। परिणाम यह हुआ कि चम्पानरेश अभया के त्रियाचरित्र के जाल में फंस गए और उन्होंने सेठ जी को शूली पर चढ़ाने का हुक्म दे दिया। परन्तु सेठ सुदर्शन गिरिराज हिमाचल से भी दृढ़ बने हुए थे, अतः शूली पर चढ़ते हुए भी सद्भावों के झूले में बड़ी मस्ती में झूल रहे थे। इन्हें-कर्त्तव्य के पालन में आने वाली मृत्यु , मृत्यु नहीं, प्रत्युत मोक्षपुरी की सीढ़ी दिखाई देती थी, इसीलिए वहां पर भी इन का मानस कम्पित नहीं हो पाया। प्राणहारिणी तीक्ष्ण अणी पर सेठ जब आरूढ़ होने लगे ही थे कि तब धर्म के प्रभाव से पल भर में वहां का दृश्य ही बदल गया। लोहशूली के स्थान पर स्वर्णस्तम्भ पर रत्नकान्तिमय सिंहासन दृष्टिगोचर होने लगा। सेठ सुदर्शन उस पर अनुपम शोभा पाने लगे। चम्पानरेश तथा नागरिक उन के चरणों में शीश झुकाने लगे, और देवतागण उन पर पुष्पवर्षा करने लगे। इधर महाराणी अभया ने जब शूली को सिंहासन में बदल जाने की बात सुनी तो वह कांप उठी, सन्न सी रह गई, उस की आंखों में जलधारा बहने लगी; उस का मस्तक चक्र खाने लगा, वह अपने किए पर पछताने लगी कि यदि मैं समझ से काम लेती तो क्यों आज मेरा यह बुरा हाल होता ? विषय वासना में अन्धी हुई मैंने व्यर्थ में ही सेठ जी को कलंकित किया, पता नहीं राजा मुझे कैसे मारेगा? हाय ! हाय ! क्या करूं ! किधर जाऊं ! इस प्रकार रोने कल्पने और विलाप करने लगी, तथा अन्त में छत्त से कूद कर उसने अपने जीवन का अन्त कर लिया। अभया की आत्महत्या का घृणित वृत्तान्त चम्पा नगरी के घर-घर में फैल गया और सर्वत्र उस पर निन्दा एवं घृणा का धूलिप्रक्षेप होने लगा। ऊपर के उदाहरण से कवि का भाव स्पष्ट हो जाता है। अतः जो व्यक्ति सेठ सुदर्शन की तरह किसी भी काम को सोच समझ कर करता है तो उस पर फूलों की वर्षा होती है अर्थात् उस का सर्वत्र मान होता है और जो अभया राणी की भांति बिना समझे और बिना सोचे कोई काम करेगा तो उस पर धूलिप्रक्षेप होगा अर्थात् उस का सर्वत्र अपवाद होगा, और वह प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित धन्वन्तरि वैद्य की भांति दुर्गतियों में नाना प्रकार के दुःखों का उपभोग करने के साथ-साथ जन्म मरण के प्रवाह में प्रवाहित होता रहेगा। // सप्तम अध्ययन समाप्त॥ 618 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह अट्ठमं अज्झयणं अथ अष्टम अध्याय ज्ञानी और अज्ञानी की विभिन्नता का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार ने लिखा है कि ज्ञानी वही कहला सकता है जो अहिंसक है, अर्थात् हिंसाजनक कृत्यों से दूर रहता है। अज्ञानी वह है जो अहिंसा से दूर भागता है और अपने जीवन को हिंसक और निर्दयतापूर्ण कार्यों में लगाये रखता है। ज्ञानी और अज्ञानी के विभेद के कारण भी विभिन्न हैं। ज्ञानी तो यह सोचता रहेगा कि जो अपने जीवन को सुरक्षित रखना चाहता है, वह दूसरों के जीवन का नाश किस तरह से कर सकता है ? क्योंकि विचारशील व्यक्ति जो कुछ अपने लिए चाहता है वह दूसरों के लिए भी सोचता है। तात्पर्य यह है कि मनुष्यता का यही अनुरोध है कि यदि तुम सुखी रहना चाहते हो तो दूसरों को भी सुखी बनाने का उद्योग करो, इसी में आत्मा का हित निहित है। इसके विपरीत अज्ञानी यह सोचेगा कि वह स्वयं सुखी किस तरह से हो सकता है ? उसका एक मात्र ध्येय स्वार्थ-पूर्ति होता है, कोई मरता है तो मरे, उसे इसकी परवाह नहीं होती, कोई उजड़ता है तो उजड़े उसकी उसे चिन्ता नहीं होने पाती। उसे तो अपना प्रभुत्व और ऐश्वर्य कायम रखने की ही चिन्ता रहती है। इस के अतिरिक्त ज्ञानी जहां परमार्थ की बातें करेगा वहां अज्ञानी अपने ऐहिक स्वार्थ का राग आलापेगा। फलस्वरूप ज्ञानी आत्मा कर्मबन्ध का विच्छेद करता है जब कि अज्ञानी कर्म का बन्ध करता है। - प्रस्तुत अष्टम अध्ययन में शौरिकदत्त नामक एक ऐसे अज्ञानी व्यक्ति के जीवन का वर्णन है जो अपने अज्ञान के कारण श्रीदत्त रसोइए के भव में अनेकविध मूक पशुओं के जीवन 1. एवं खु नाणिणो सारं , जन हिंसइ किंचण। . अहिंसासमयं चेव, एयावंतं वियाणिया॥ (सूयगडांगसूत्र, 1-4-10) अर्थात किसी जीव को न मारना यही ज्ञानी परुष के ज्ञान का सार है। अतः एक अहिंसा द्वारा ही समता के विज्ञान को उपलब्ध किया जा सकता है। जैसे मुझे दुःख अप्रिय है, वैसे दूसरे प्राणियों को भी वह अप्रिय है, इन्हीं भावों का नाम समता है। 2. जीवितं यः स्वयं चेच्छेत्, कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् / यद् यदात्मनि चेच्छेत्, तत्परस्यापि चिन्तयेत्। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [619 Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का नाश करने के अतिरिक्त मांसाहार एवं मदिरापान जैसी दुर्गतिप्रद जघन्य प्रवृत्तियों में अधिकाधिक पापपुंज एकत्रित करता है, और फलस्वरूप तीव्रतर अशुभकर्मों का बन्ध कर लेता है और उन का फल भोगते समय अत्यधिक दुःखी होता है। सूत्रकार उसका आरम्भ इस प्रकार करते हैं मूल-अट्ठमस्स उक्वो / एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं 2 सोरियपुरं णगरं होत्था।सोरियवडिंसगं उजाणं। सोरियो जक्खो।सोरियदत्ते राया। तस्स णं सोरियपुरस्स णगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एगे मच्छबन्धपाडए होत्था। तत्थ णं समुद्ददत्ते नामं मच्छंधे परिवसति, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे। तस्स णं समुद्ददत्तस्स समुद्ददत्ता भारिया होत्था, अहीण / तस्स णं समुद्ददत्तस्स मच्छंधस्स पुत्ते समुद्ददत्ताए भारियाए अत्तए सोरियदत्ते नामं दारए होत्था, . अहीण। छाया-अष्टमस्योत्क्षेपः। एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले 2 शौरिकपुरं नगरमभवत्। शौरिकावतंसकमुद्यानम्। शौरिको यक्षः। शौरिकदत्तो राजा। तस्मात् शौरिकपुराद् नगराद् बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे एको मत्स्यबन्धपाटकोऽभूत्। तत्र समुद्रदत्तो नाम मत्स्यबन्धः परिवसति, अधार्मिको यावद् दुष्यप्रत्यानन्दः। तस्स समुद्रदत्तस्य समुद्रदत्ता भार्याऽभूदहीन / तस्य समुद्रदत्तस्य मत्स्यबन्धस्य पुत्रः समुद्रदत्ताया भार्याया आत्मजः शौरिकदत्तो नाम दारकोऽभवदहीन। पदार्थ-अट्ठमस्स-अष्टम अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू !-हे जम्बू ! तेणं कालेणं २-उस काल और उस समय में। सोरियपुरं-शौरिकपुर नाम का। णगरं होत्था-नगर था, वहां। सोरियवडिंसगं-शौरिकावतंसक नामक। उज्जाणं-उद्यान था, उस में। सोरियो जक्खो-शौरिक नामक यक्ष. था अर्थात् शौरिक यक्ष का वहां पर स्थान था। सोरियदत्ते राया-शौरिक दत्त नामक राजा था। तस्स णं-उस। सोरियपुरस्स-शौरिकपुर / णगरस्स-नगर के। बहिया-बाहर। उत्तरपुरस्थिमे-उत्तर पूर्व। दिसीभाए-दिग्विभाग में अर्थात् ईशान कोण में। एगे-एक। मच्छंधपाडए-मत्स्यबन्धपाटक-मच्छीमारों का मुहल्ला। होत्था-था। तत्थ णं-वहां पर। समुद्ददत्ते-समुद्रदत्त / नाम-नाम का। मच्छंधे-मत्स्यबन्ध-मच्छीमार। परिवसति-रहता था, जो कि। अहम्मिए-अधार्मिक। जाव-यावत्। दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द-बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। तस्स णं-उस। समुद्ददत्तस्स-समुद्रदत्त की। समुद्ददत्ता-समुद्रदता नाम की। भारिया-भार्या / होत्थाथी, जोकि / अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाली थी। तस्स णं-उस।समुद्ददत्तस्ससमुद्रदत्त / मच्छंधस्स-मत्स्यबन्ध का। पुत्ते-पुत्र / समुद्ददत्ताए-समुद्रदत्ता। भारियाए-भार्या का। अत्तए६२० ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मज। सोरियदत्ते-शौरिकदत्त / नाम-नाम का। दारए-दारक-बालक। होत्था-था, जोकि। अहीणअन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला था। मलार्थ-अष्टम अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की भावना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में शौरिकपुर नाम का एक नगर था, वहां शौरिकावतंसक नाम का उद्यान था, उस में शौरिक नामक यक्ष का आयतन-स्थान था, वहां के राजा का नाम शौरिकदत्त था। शौरिकपुर नगर के बाहर ईशान कोण में एक मत्स्यबंधों-मच्छीमारों का पाटक-मुहल्ला था, वहां समुद्रदत्त नाम का मत्स्यबंधमच्छीमार निवास किया करता था जोकि अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था। उसकी समुद्रदत्ता नाम की अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाली भार्या थी, तथा इनके शौरिकदत्त नाम का एक सर्वांगसम्पूर्ण अथच परम सुन्दर बालक था। टीका-चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य-उद्यान में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य परिवार के साथ विराजमान हो रहे हैं। नगरी की भावुकजनता उनके उपदेशामृत का प्रतिदिन नियमित रूप से पान करती हुई अपने मानवभव को कृतार्थ कर रही है। - आर्य सुधर्मा स्वामी के प्रधान शिष्य श्री जम्बू स्वामी उनके मुखारविन्द से दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन का श्रवण कर उसके परमार्थ को एकाग्र मनोवृत्ति से मनन करने के बाद विनम्र भाव से बोले कि हे भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा प्रतिपादित सप्तम अध्ययन के अर्थ.को तो मैंने आपश्री के मुख से श्रवण कर लिया है, जिस के लिए मैं आपश्री का अत्यन्तात्यन्त कृतज्ञ हूं, परन्तु मुझे अब दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन के श्रवण की उत्कण्ठा हो रही है। अतः आप दुःखविपाक के आठवें अध्ययन के अर्थ की कृपा करें, जिसे कि आपने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की पर्युपासना में रहकर श्रवण किया है-इन्हीं भावों को सूत्रकार ने अट्ठमस्स उक्खेवो-इतने पाठ में गर्भित कर दिया है। - जम्बू स्वामी की उक्त प्रार्थना के उत्तर में अष्टम अध्ययन के अर्थ का श्रवण कराने के लिए आर्य सुधर्मा स्वामी प्रस्तुत अध्ययन का "-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं-" इत्यादि पदों से आरम्भ करते हैं। आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! जब इस अवसर्पिणी काल का चौथा आरा बीत रहा था, तो उस समय शौरिकपुर नाम का एक सुप्रसिद्ध और समृद्धिशाली नगर था। वहां विविध प्रकार के धनी, मानी, व्यापारी लोग रहा करते थे। उस नगर के बाहर शौरिकावतंसक नाम का एक विशाल तथा रमणीय उद्यान था। उस में शौरिक नाम का एक बड़ा पुराना और मनोहर यक्षमन्दिर था। नगर के अधिपति का नाम महाराजा शौरिकदत्त था, जो कि पूरा नीतिज्ञ और प्रजावत्सल था। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [621 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौरिकपुर नगर के उत्तर और पूर्व दिशा के मध्य में अर्थात् ईशान कोण में मत्स्यबंधपाटक-अर्थात् मच्छियों को मार कर तथा उनके मांस आदि को बेच कर आजीविका करने वालों का एक 'मुहल्ला था। उस मुहल्ले में समुद्रदत्त नाम का एक प्रसिद्ध मत्स्यबन्धमच्छीमार रहा करता था, जो कि महान् अधर्मी तथा पापमय कर्मों में सदा निरत रहने वाला, एवं जिस को प्रसन्न करना अत्यधिक कठिन था। उस की समुद्रदत्ता नाम की भार्या थी जो कि रूप लावण्य में अत्यन्त मनोहर, गुणवती और पतिपरायणा थी। इन के शौरिकदत्त नाम का एक पुत्र था जोकि सुसंगठित शरीर वाला और रूपवान था, उस के सभी अंगोपांग सम्पूर्ण अथच दर्शनीय थे, परन्तु वह भी पिता की तरह मांसाहारी और मच्छियों का व्यापार करता हुआ जीवन व्यतीत किया करता था। -अट्ठमस्स उक्खेवो-यहां प्रयुक्त अष्टम शब्द अष्टमाध्याय का परिचायक है और उत्क्षेप पद प्रस्तावना, उपोद्घात, प्रारम्भ वाक्य-इत्यादि अर्थों का बोधक है। प्रस्तुत में उत्क्षेप पद से संसूचित प्रस्तावनारूप सूत्रांश निम्नोक्त है जति णं भंते ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं सत्तमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, अट्ठमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणंजाव सम्पत्तेणं के अटे पण्णत्ते?अर्थात् हे भगवन् ! यदि दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन का यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! यावत् मोक्ष-सम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे-यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत पाठ का विवरण प्रथम अध्याय में तथा प्रथम-समुद्रदत्ता के पाठ में पठित -अहीण-के बिन्दु से अभिमत पाठ तथा शौरिकदत्त के सम्बन्ध में पठित -अहीण-के बिन्दु से अभिमत पाठ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। __अब सूत्रकार शौरिकपुर नगर में भगवान् महावीर स्वामी के पधारने और भगवान् गौतम द्वारा देखे गए एक करुणाजनक दृश्य का वर्णन करते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव गओ, तेणं कालेणं 2 समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे जाव सोरियपुरेणगरे उच्चनीयमज्झिमकुले 1. पाटक नाम मुहल्ले का है, उस पाटक अर्थात् मुहल्ले में अधिक संख्या ऐसे लोगों की थी जो मच्छियों को मार कर अपना निर्वाह किया करते थे, इसीलिए उस मुहल्ले का नाम मत्स्यबन्धों (मच्छी मारने वालों) का पाटक-मुहल्ला पड़ गया था। 622 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अड़माणे अहापज्जत्तं समुदाणं गहाय सोरियपुराओ णगराओ पडिनिक्खमति 2 ता.तस्स मच्छंधपाडगस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे महतिमहालियाए .मणुस्सपरिसाए मझगयं एगं पुरिसं सुक्खं भुक्खं णिम्मंसं अट्ठिचम्मावणद्धं किडिकिडियाभूयं णीलसाडगनियत्थं मच्छकंटएणं गलए अणुलग्गेणं कट्ठाई कलुणाई वीसराई उक्कूवमाणं अभिक्खणं 2 पूयकवले य रुहिरकवले य किमिकवले यवममाणं पासति 2 ता इमे अज्झथिए 5 समुप्पन्ने-अहोणं इमे पुरिसे पुरा जाव विहरति।एवं संपेहेति 2 त्ता जेणेव समणे भगवंजाव पुव्वभवपुच्छा वागरणं। - छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतो, यावद् गतः / तस्मिन् काले 2 श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठो यावत् शौरिकपुरे नगरे उच्चनीचमध्यमकुलेऽटन् यथापर्याप्तं समुदानं गृहीत्वा शौरिकपुराद् नगरात् प्रतिनिष्क्रामति 2 तस्य मत्स्यबंधपाटकस्यादूरासन्ने व्यतिव्रजन् महातिमहत्यां मनुष्यपरिषदि मध्यगतमेकं पुरुषं शुष्कं, बुभुक्षितं निर्मांसमस्थिचविनद्धं किटिकिटिकाभूतं, नीलशाटकनिवसितं मत्स्यकंटकेन गलेऽनुलग्मेन कष्टानि करुणानि विस्वराणि उत्कूजंतमभीक्ष्णं 2 पूयकवलांश्च, रुधिरकवलांश्च, कृमिकवलांश्च वमन्तं पश्यति 2 अयमाध्यात्मिकः 5 समुत्पन्न:-अहो ! अयं पुरुषः यावद् विहरति। एवं सम्प्रेक्षते 2 यत्रैव श्रमणो भगवान् यावत् पूर्वभवपृच्छा, व्याकरणम्। पदार्थ-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में। सामी-स्वामी-श्रमण * भगवान् महावीर। समोसढे-पधारे। जाव-यावत् अर्थात् परिषद् और राजा। गओ-चला गया। तेणं कालेणं २-उस काल और उस समय में। समणस्स-श्रमण। भगवओ-भगवान् / महावीरस्स-महावीर स्वामी के। जेद्वे-ज्येष्ठ शिष्य गौतमस्वामी। जाव-यावत्। सोरियपुरे-शौरिकपुर। णगरे-नगर में। उच्चनीयमज्झिमकुले-उच्च-नीच तथा मध्यम-सामान्य गृहों में। अडमाणे-भ्रमण करते हुए। अहापजत्तंयथेष्ट / समुदाणं-समुदान-गृहसमुदाय से प्राप्त भिक्षा। गहाय-ग्रहण करके। सोरियपुराओ-शौरिकपुर। णगराओ-नगर से। पडिनिक्खमति २-निकलते हैं, निकल कर। तस्स-उस। मच्छंधपाडगस्समत्स्यबंधों-मच्छीमारों के पाटक मुहल्ले के। अदूरसामंतेणं-समीप से। वीइवयमाणे-गमन करते हुए। महतिमहालियाए-बहुत बड़ी। मणुस्सपरिसाए-मनुष्यों की परिषद्-समुदाय के। मझगयं-मध्यगत। एग-एक। पुरिसं-पुरुष को। सुक्खं-सूखे हुए को। भुक्खं-बुभुक्षित को। णिम्मसं-निर्मांस-मांसरहित को। अट्ठिचम्मावणद्धं-अतिकृश होने के कारण जिस का चर्म-चमड़ा हड्डियों से संलग्न है-चिपटा प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [623 Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ है। किडिकिडियाभूयं-जो किटिकिटिका शब्द कर रहा है। णीलसाडगनियत्थं-नीलशाटकनिवसित नील शाटक-धोती धारण किए हुए। मच्छकंटएणं-मत्स्यकंटक के।गलए-गले में-कण्ठ में। अणुलग्गेणंलगे होने के कारण। कट्ठाइं-कष्टात्मक। कलुणाई-करुणाजनक। वीसराइं-विस्वर दीनतापूर्ण वचन / उक्कूवमाणं-बोलते हुए को, तथा। अभिक्खणं २-बार-बार। पूयकवले य-पीव के कवलों कुल्लों का।रुहिरकवले य-रुधिरकवलों- खून के कुल्लों का। किमिकवले य-कृमिकवलों-कीड़ों के कुल्लों का।वममाणं-वमन करते हुए को।पासति २-देखते हैं, देख कर।इमे-यह। अज्झथिए ५-आध्यात्मिक संकल्प 5 / समुप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। अहो-खेद है, कि। अयं-यह। पुरिसे-पुरुष। पुरा-पुरातन। जावयावत्। विहरति-विहरण कर रहा है। एवं-इस प्रकार / संपेहेति २-विचार करते हैं, विचार कर / जेणेवजहां। समणे-श्रमण। भगवं-भगवान् महावीर स्वामी थे। जाव-यावत्। पुव्वभवपुच्छा-पूर्वभव की पृच्छा की। वागरणं-भगवान् का प्रतिपादन। मूलार्थ-उस काल और उस समय शौरिकावतंसक नामक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। यावत् परिषद् और राजा वापिस चले गए। उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ-प्रधान शिष्य गौतम स्वामी यावत् शौरिकपुरनगर में उच्च-धनी, नीच-निर्धन तथा मध्य-सामान्य घरों में भ्रमण करते हुए यथेष्ट आहार लेकर नगर से बाहर निकलते हैं, तथा मत्स्यबंध पाटक के पास से निकलते हुए उन्होंने अत्यधिक विशाल मनुष्यसमुदाय के मध्य में एक सूखे. हुए, बुभुक्षित, निर्मांस और अस्थिचर्मावनद्ध-जिस का चर्म शरीर की हड्डियों से चिपटा हुआ, उठते बैठते समय जिस की अस्थियां किटिकिटिका शब्द कर रही हैं, नीली शाटक वाले एवं गले में मत्स्यकंटक लग जाने के कारण कष्टात्मक, करुणाजनक और दीनतापूर्ण वचन बोलते हुए पुरुष को देखा, जो कि पूयकवलों, रुधिरकवलों और कृमिकवलों का वमन कर रहा था। उस को देख कर उन के मन में निम्नोक्त संकल्प उत्पन्न हुआ अहो ! यह पुरुष पूर्वकृत यावत् कर्मों से नरकतुल्य वेदना का उपभोग करता हुआ समय बिता रहा है-इत्यादि विचार कर अनगार गौतम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावत् उसके पूर्वभव की पृच्छा करते हैं। भगवान् प्रतिपादन करने लगे। टीका-एक बार शौरिकपुर नगर में चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे, वे शौरिकावतंसक उद्यान में विराजमान हुए। शौरिकपुर निवासियों ने उन के पुनीत दर्शन और परमपावनी धर्मदेशना से भूरि-भूरि लाभ उठाया। प्रतिदिन भगवान् की धर्मदेशना सुनते और उसका मनन करते हुए अपने आत्मा के कल्मष-पाप को धोने का पुण्य प्रयत्न करते / एक दिन भगवान् की धर्मदेशना को सुन कर नगर की जनता जब वापिस चली गई तो भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य श्री गौतम स्वामी जो कि भगवान् के चरणों में विराजमान थे-बेले के 624 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारणे के निमित्त नगर में भिक्षा के लिए जाने की आज्ञा मांगते हैं। आज्ञा मिल जाने पर गौतम स्वामी ने शौरिकपुर नगर की ओर प्रस्थान किया। वहां नगर में पहुँच साधुवृत्ति के अनुसार आहार की गवेषणा करते हुए धनिक और निर्धन आदि सभी घरों से यथेष्ट भिक्षा लेकर शौरिकपुर नगर से निकले और आते हुए समीपवर्ती मत्स्यबंधपाटक-मच्छीमारों के मुहल्ले में उन्होंने एक पुरुष को देखा। . उस मनुष्य के चारों ओर मनुष्यों का जमघट लगा हुआ था। वह मनुष्य शरीर से बिल्कुल सूखा हुआ, बुभुक्षित तथा भूखा होने के कारण उस के शरीर पर मांस नहीं रहा था, केवल अस्थिपंजर सा दिखाई देता था, हिलने चलने से उस के हाड किटिकिटिका शब्द करते, उस के शरीर पर नीले रंग की एक धोती थी, गले में मच्छी का कांटा लग जाने से वह अत्यन्त कठिनाई से बोलता, उस का स्वर बड़ा ही करुणाजनक तथा नितान्त दीनतापूर्ण था। इस से भी अधिक उसकी दयनीय दशा यह थी कि वह मुख में से पूय, रुधिर और कृमियों के कवलोंकुल्लों का वमन कर रहा था। उसे देख कर भगवान् गौतम सोचने लगे-ओह ! कितनी भयावह अवस्था है इस व्यक्ति की! न मालूम इसने पूर्वभव में ऐसे कौन से दुष्कर्म किये हैं, जिन के विपाकस्वरूप यह इस प्रकार की नरकसमान यातना को भोग रहा है ? अस्तु, इस के विषय में भगवान् से चल कर पूछेगे-इत्यादि विचारों में निमग्न हुए गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित होते हैं। वहां आहार को दिखा तथा आलोचना आदि से निवृत्त हो कर वे भगवान् से इस प्रकार बोले____ प्रभो ! आप श्री की आज्ञानुसार मैं नगर में पहुँचा, वहां गोचरी के निमित्त भ्रमण करते हुए मैंने एक व्यक्ति को देखा इत्यादि। उस दृष्ट व्यक्ति की सारी अवस्था को गौतम स्वामी ने कह सुनाया। तदनन्तर वे फिर बोले-भगवन् ! वह दुःखी जीव कौन है ? उसने पूर्वभव में ऐसे कौन से अशुभ कर्म किए हैं, जिन का कि वह यहां पर इस प्रकार का फल भोग रहा है? गौतम स्वामी की उक्त जिज्ञासा का ध्यान रखते हुए उस के उत्तर में भगवान् महावीर स्वामी ने जो फरमाया उस का वर्णन अग्रिम सूत्रों में किया गया है। -सुक्खं, भुक्खं-इत्यादि पदों की व्याख्या निम्नोक्त है १-सुक्खं-शुष्कम्-अर्थात् रुधिर के कम हो जाने से जो सूख रहा हो उसे शुष्क कहते हैं। २-भुक्खं-बुभुक्षितम्-अर्थात् भुक्ख यह देश्य देशविशेष में बोला जाने वाला पद है, जो बुभुक्षित इस अर्थ का परिचायक है। क्षुधा-भूख से पीड़ित व्यक्ति बुभुक्षित कहलाता प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [625 Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-णिम्मंसं-निर्मासम्-भोजनादि के अभाव से जो मांस से रहित हो रहा है उसे निर्मांस कहते हैं। ४-अट्ठिचम्मावणद्धं-अस्थिचर्मावनद्धम-अतिकृशत्वादस्थिसंलग्नचर्मकमित्यर्थः-अर्थात् अतिकृश हो जाने के कारण जिसका चर्म-चमड़ा, अस्थियों-हड्डियों से अवनद्ध-चिपट रहा है। तात्पर्य यह है कि मांस और रुधिर की अत्यधिक क्षीणता के कारण जो अस्थिचर्मावशेष दिखाई पड़ रहा है वह अस्थिचर्मावनद्ध कहा जाता है। ५-किडिकिडियाभूयं-किटिकिटिकाभूतम्, अतिकृशत्वादुपवेशनादिक्रियायां किटिकिटिकेति शब्दायमानास्थिकम्-अर्थात् अतिकृश-दुर्बल हो जाने के कारण बैठने और उठने आदि की क्रिया से जिस की अस्थियां किटिकिटिका-ऐसे शब्द करती हैं, इसलिए उसे किटिकिटिकाभूत कहते हैं। ६-णीलसाडगनियत्थं-नीलशाटकनिवसितम्, नीलशाटकं-नीलपरिधानवस्त्रं; निवसितं परिहितं येन यस्य वा स तमिति भावः-अर्थात् जिस ने नीले वर्ण का शाटकधोती या सामान्य पहनने का वस्त्र धारण कर रखा है, वह नीलशाटकनिवसित कहलाता है। इस पद में भगवान् गौतम ने जिस पुरुष को देखा है, उस के परिधानीय वस्त्र का परिचय कराया ७-मच्छकण्टएणं गलए अणुलग्गेणं-मत्स्यकंटकेन गलेऽनुलग्नेन कण्ठप्रविष्टेनेत्यर्थः- अर्थात् ये पद-मत्स्यकण्टक के कण्ठ में प्रविष्ट हो जाने के कारण-इस अर्थ के परिचायक हैं। मत्स्य का कांटा मत्स्यकण्टक कहलाता है। मत्स्य का कांटा बड़ा भीषण होता है, वह यदि कण्ठ में लग जाए तो उस का निकलना अत्यधिक कठिन हो जाता है। ८-कष्ट, करुण, विस्वर तथा पूयकवल, रुधिरकवल और कृमिकवल इन शब्दों का अर्थ पीछे सप्तम अध्याय में लिखा जा चुका है। __ प्रस्तुत में सुक्खं इत्यादि पद द्वितीयान्त हैं अतः अर्थसंकलन में मूलार्थ की भान्ति द्वितीयान्त की भावना कर लेनी चाहिए। ___समोसढे जाव गओ-यहां पठित जाव-यावत् पद तृतीय अध्याय में पढ़े गए-परिसा निग्गया राया निग्गओ, धम्मो कहिओ परिसा राया य पडि०-इन पदों का परिचायक है। ___-जेटे जाव सोरियपुरे-यहां पठित जाव-यावत् पद -अन्तेवासी गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेति-से लेकर -दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे जेणेव-इन पदों का परिचायक है। -छट्ठक्खमणपारणगंसि- इत्यादि पदों 626 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा गया है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि प्रस्तुत में शौरिक नगर का। शेष वर्णन समान ही है। -अज्झथिए ५-यहां पर दिए गए 5 के अंक से विवक्षित पाठ की सूचना तृतीय अध्याय में दी जा चुकी है। तथा-पुरा जाव विहरति-यहां पठित जाव-यावत् पद - पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिकन्ताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे-इन पदों का परिचायक है। . -भगवंजाव पुव्वभवपुच्छा वागरणं-यहां पठित-जाव-यावत् पद-महावीरेतेणेव उवागच्छइ 2 समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ 2 त्ता एसणमणेसणे आलोएइ 2 त्ता भत्तपाणं पडिदंसेति, समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति वन्दित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं भन्ते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे सोरियपुरे नयरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापजत्तं समुदाणं गहाय .. सोरियपुराओ-से लेकर-किमिकवले य वममाणं पासामि पासित्ता इमे अज्झत्थिए-से लेकर-जाव-विहरति-यहां तक के पदों का परिचायक है। तथा-पुव्वभवपुच्छा यह पदसे णं भन्ते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसि?-से लेकर -पुरा पोराणाणं जाव विहरति-यहां तक के पदों का परिचायक है। वागरणं-का अर्थ है-भगवान् का उत्तररूप में प्रतिपादन। . भगवान् गौतम का भिक्षा लेकर आना, आकर आलोचना करना और साथ में ही उस दुःखी व्यक्ति के पूर्वभवसम्बन्धी वृत्तान्त को पूछना, इस बात को प्रमाणित करता है कि उस दृश्य से अनगार गौतम स्वामी इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपने पारणे का भी ध्यान नहीं रहा, और यदि रहा भी हो तो भी उस भयंकर अथच करुणाजनक दृश्य ने उन्हें इस बात पर विवश कर दिया कि पारणे से पूर्व ही उस बिचारे की जीवनी को अवगत कर लिया जाए, ऐसा ' समझना। . प्रस्तुत सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के प्रधान पात्रों का परिचय कराया गया है, और साथ में गौतम स्वामी द्वारा देखे गए एक दुःखी पुरुष का वर्णन तथा उसके विषय में गौतम स्वामी के प्रश्न का उल्लेख भी किया गया है। अब अग्रिम सूत्र में भगवान् के द्वारा प्रस्तुत किए गए उत्तर का वर्णन किया जाता है मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं 2 इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे .. 1. अदूरसामन्ते इत्यादि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। 2. ये पद पीछे पृष्ठ पर उल्लिखित हैं। अन्तर मात्र इतना है कि पडिनिक्खमति के स्थान पर पडिनिक्खमामि-यह समझ लेना। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय . [627 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णंदिपुरे णामणगरे होत्था।मित्ते राया।तस्स णं मित्तस्स सिरीए नामं महाणसिए होत्था। अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे। तस्स णं सिरीयस्स महाणसियस्स बहवे मच्छिया य वागुरिया य साउणिया य दिन्नभतिभत्तवेयणा कल्लाकल्लिं बहवे सोहमच्छा य जाव पडागातिपडागे य अए य जाव महिसे य तित्तिरे य जाव मयूरे य जीविताओ ववरोवेंति ववरोवेत्ता सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति। अन्ने य से बहवे तित्तिरा य जाव मऊरा य पंजरंसि संनिरुद्धा चिट्ठति। अन्ने य बहवे पुरिसा दिनभतिभत्तवेयणा ते बहवे तित्तिरे य जाव मऊरे य जीवन्ते चेव निप्पंखेंति निप्पंखेत्ता सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति। तते णं से सिरीए महाणसिए बहूणं जलयरथलयरखहयराणं मंसाई कप्पणीकप्पियाई करेति, तंजहा-सण्हखंडियाणि य वट्टदीहरहस्सखंडियाणि य हिमपक्काणि य जम्मघम्ममारुयपक्काणि य कालाणि य हेरंगाणि य महिट्ठाणि य आमलगरसियाणि य मुद्दिया-कविट्ठ-दालिमरसियाणि य मच्छरसियाणि य तलियाणि य भजियाणि य सोल्लियाणि य उवक्खडावेति। अन्ने य बहवे मच्छरसए य एणेज्जरसए य तित्तिर जाव मयूररसए य, अन्नं च विउलं हरियसागं उवक्खडावेति 2 त्ता मित्तस्स रण्णो भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवणेइ।अप्पणा वि य णं से सिरीए महाणसिए तेसिंच बहूहिं जाव जलयरथलयरखहयरमंसेहिं रसएहि य हरियसागेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य सुरं च 6 आसाएमाणे 4 विहरति।तते णं से सिरीए महाणसिए एयकम्मे 4 सुबहुं पावकम्मं समजिणित्ता तेत्तीसं वाससयाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उववन्ने। ____ छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले 2 इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे नन्दिपुरं नाम नगरमभवत्। मित्रो राजा, तस्य श्रीदो नाम महानसिकोऽभूदधार्मिको यावद् दुष्प्रत्यानंदः। तस्य श्रीदस्य महानसिकस्य बहवो मात्स्यिकाश्च वागुरिकाश्च शाकुनिकाश्च दत्तभृतिभक्तवेतनाः कल्याकल्यि बहून् श्लक्ष्णमत्स्यांश्च यावत् पताकातिपताकांश्च अजांश्च यावद् महिषाँश्च तित्तिरांश्च यावद् मयूरांश्च जीविताद् व्यपरोपयन्ति व्यपरोप्य श्रीदाय महानसिकायोपनयन्ति / अन्ये च तस्य बहवः तित्तिराश्च 628 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावद्पञ्जरे सन्निरुद्धास्तिष्ठन्ति।अन्ये च बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतनाः तान् बहून् तित्तिरांश्च यावद् मयूरांश्च जीवित एव निष्पक्षयन्ति निष्पक्षयित्वा श्रीदाय महानसिकायोपनयन्ति। ततः स श्रीदो महानसिको बहूनां जलचरस्थलचरखचराणां मांसानि कल्पनीकल्पितानि करोति, तद्यथा-सूक्ष्मखंडितानि च वृत्तदीर्घह्रस्वखण्डितानि हिमपक्वानि च 'जन्मघर्ममारुतपक्वानि च कालानि च हेरंगाणि च ताक्रिकानि च आमलकरसितानि च मुद्वीककपित्थदाडिमरसितानि च मत्स्यरसितानि च तलितानि च भर्जितानि च शूल्यानि चोपस्कारयति / अन्याँश्च बहून् मत्स्यरसाँश्च एणरसाँश्च तित्तिर० यावद् मयूररसाँश्च, अन्यच्च विपुलं हरितशाकमुपस्कारयति 2 मित्राय राज्ञे भोजनमंडपे भोजनवेलायामुपनयति। आत्मनापि च श्रीदो महानसिकस्तेषां च बहभिर्यावज्जलचरस्थलचरखघरमांसैः रसैश्च हरितशाकैश्च शूल्यैश्च तलितैश्च भर्जितैश्च सुरां च 6 आस्वादयन् 4 विहरति / ततः स श्रीदो महानसिकः एतत्कर्मा 4 सुबहु पापकर्म समW त्रयस्त्रिशतं वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा षष्ठ्यां पृथिव्यामुपपन्नः। - पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! / तेणं कालेणं २-उस काल और उस समय। जंबुद्दीवे-जम्बूद्वीप नामक / दीवे-द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारतवर्ष में। णंदिपुरेनन्दिपुर / णाम-नाम का।णगरे-नगर / होत्था-था, वहां। मित्ते-मित्र नाम का। राया-राजा था। तस्स णंउस।मित्तस्स-मित्र राजा का। सिरीए-श्रीद या श्रीयक / नाम-नाम का। महाणसिए-महानसिक-रसोइया। होत्था-था, जो कि। अहम्मिए-अधर्मी। जाव-यावत्। दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द-बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। तस्स णं-उस। सिरीयस्स-श्रीद। महाणसियस्स-महानसिक-रसोइए के। बहवेबहुत से। मच्छिया य-मात्स्यिक-मच्छीमार। वागुरिया य-वागुरिक-जाल में फंसाने का काम करने वाले व्याध अर्थात् जो जालों से जीवों को पकड़ते हैं। साउणिया य-तथा शाकुनिक-पक्षिघातक अर्थात् पक्षियों का वध करने वाले। दिनभतिभत्तवेयणा-जिन्हें वेतनरूप से भृति-रुपया पैसा, भक्त-धान्य और घृतादि दिया जाता हो, ऐसे नौकर पुरुष। कल्लाकल्लिं-प्रतिदिन। बहवे-अनेक। सहमच्छा यश्लक्ष्णमत्स्यों-कोमलचर्म वाले मत्स्यों, अथवा सूक्ष्ममत्स्यों-छोटे 2 मत्स्यों, अथवा मत्स्यविशेषों / जावयावत् / पडागातिपडागे य-पताकातिपताकों-मत्स्यविशेषों। अए य-अजों-बकरों। जाव-यावत् / महिसे य-तथा महिषों। तित्तिरे-तित्तिरों / जाव-यावत् / मयूरे य-मयूरों को। जीविताओ-जीवन से। ववरोवेंति 1. जन्मपक्वं स्वयमेव पक्कीभूतमित्यर्थः। (अभिधानराजेन्द्रकोष) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [629 [629 Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववरोवेत्ता-व्यपरोपित करते हैं-पृथक् करते हैं, जीवन से पृथक् कर के।सिरियस्स-श्रीद। महाणसियस्समहानसिक को। उवणेति-अर्पण करते हैं, तथा। से-उस के। अन्ने य-अन्य। बहवे-बहुत से। तित्तिरा य-तित्तिर। जाव-यावत्। मयूरा य-मयूर। पंजरंसि-पिंजरों में। संनिरुद्धा-संनिरुद्ध-बन्द किए हुए। चिटुंति-रहते थे। अन्ने य-तथा और। बहवे-अनेक। दिनभतिभत्तवेयणा-जिन्हें वेतनरूप से रुपया पैसा और धान्य घृतादि दिया जाता था, ऐसे नौकर। पुरिसे-पुरुष। ते-उन / बहवे-अनेक। तित्तिरे यतित्तिरों। जाव-यावत्। मयूरे य-मयूरों को। जीवंतए चेव-जीते हुओं को ही। निप्पंखेंति निप्पंखेत्तापक्ष-परों से रहित करते हैं, पंखरहित करके। सिरियस्स-श्रीद। महाणसियस्स-महानसिक को। उवणेतिअर्पण करते हैं। तते णं-तदनन्तर। से-वह। सिरिए-श्रीद। महाणसिए-महानसिक। बहूणं-अनेक। जलयर-जलचरों-जल में चलने वाले जीवों। थलयर-स्थलचरों-स्थल में चलने वाले जीवों। खहयराणंखचरों-आकाश में चलने वाले जीवों के। मंसाइं-मांसों को। कप्पणी-कप्पियाई करेति-कल्पनी-छुरी से कर्तित करता है अर्थात् उन्हें काट कर खण्ड-खण्ड बनाता है। तंजहा-जैसे कि। सहखंडियाणि यसूक्ष्मखण्ड और। वट्ट-वृत्त-वर्तुल-गोल। दीह-दीर्घ-लम्बे। रहस्सखंडियाणि-तथा ह्रस्व-छोटे-छोटे खण्ड, जो कि। हिमपक्काणि-हिम-बर्फ से पकाए गए हैं / जम्म-जन्म से अर्थात् स्वतः ही। घम्म-धर्मगरमी तथा। मारुय-मारुत-वायु से। पक्काणि य-पकाए गए हैं। कालाणि य-तथा जो काले किए गए हैं। हेरंगाणि य-और हिंगुल-सिंग़रफ के समान लाल वर्ण वाले किये गए हैं। महिट्ठाणि य-जो तक्रसंस्कारित हैं, और। आमलगरसियाणि य-जो आमलक-आंवले के रस से भावित हैं, तथा। मुद्दिया-मुद्वीकाद्राक्षा। कविट्ठ-कपित्थ-कैथ। दालिमरसियाणि य-और अनार के रस से भावित हैं। मच्छरसियाणि य-तथा जो मत्स्यरस से संस्कारित हैं और जो। तलियाणि य-तैलादि में तले हुए हैं। भजियाणि यअंगारादि पर भूने हुए हैं। सोल्लियाणि य-और जो शूलाप्रोत हैं अर्थात् शूल में पिरो कर पकाए गए हैं, उन को। उवक्खडावेति-तैयार करता है। अन्ने य-और। बहवे-बहुत से। मच्छरसए य-मत्स्यों के मांसों के रस। एणेजरसए य-एणों-मृगों के मांसों के रस। तित्तिर-तित्तिरों के मांसों के रस। जाव-यावत्। मयूररसए य-मयूरों-मोरों के मांसों के रस, तैयार करता है। अन्नं च-और / विउलं-विपुल / हरियसागंहरे साग।उवक्खडावेति २-तैयार करता है, तैयार करके।मित्तस्स रण्णो-मित्र नरेश के / भोयणमंडवंसिभोजनमंडप में-भोजनालय में। भोयणवेलाए-भोजन के समय। उवणेइ-राजा को अर्पण करता थाभोजनार्थ प्रस्तुत किया करता था। अप्पणा वि यणं-और स्वयं भी। से-वह / सिरिए-श्रीद। महाणसिएमहानसिक। तेसिं च-उन। बहूहि-अनेक। जाव-यावत्। जलयर-जलचर / थलयर-स्थलचर / खहयरखेचर जीवों के। मंसेहि-मांसों से। रसेहि य-तथा रसों से। हरियसागेहि य-तथा हरे शाकों से, जो कि। सोल्लेहि य-शूलाप्रोत कर पकाए गए हैं। तलिएहि य-तैलादि में तले हुए हैं। भजिएहि य-अग्नि आदि पर भूने हुए हैं, के साथ। सुरं च ६-छः प्रकार की सुराओं-मदिराओं का। आसाएमाणे ४-आस्वादनादि 630 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता हुआ। विहरति-समय व्यतीत कर रहा था। तते णं-तदनन्तर / से-वह / सिरिए-श्रीद। महाणसिएमहानसिक। एयकम्मे ४-एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विद्य और एतत्समाचार। सुबहुं-अत्यधिक।पावकम्मपापकर्म का। समज्जिणित्ता-उपार्जन कर के। तेत्तीसं वाससयाई-तेतीस सौ वर्ष की। परमाउं-परम आयु। पालइत्ता-पाल कर-भोग कर। कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल करके। छट्ठीएछठी। पुढवीए-पृथिवी-नरक में। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। - मूलार्थ-हे गौतम ! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में नन्दिपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था। वहां के राजा का नाम मित्र था। उस का श्रीद नाम का एक महान् अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द-कठिनाई से प्रसन्न किया जा सकने वाला, एक महानसिक-रसोइया था, उस के रुपया पैसा और धान्यादि रूप में वेतन ग्रहण करने वाले अनेक मात्स्यिक, वागुरिक और शाकुनिक नौकर पुरुष थे जो कि प्रतिदिन श्लक्ष्णमत्स्यों यावत् पताकातिपताकमत्स्यों तथा अजों यावत् महिषों एवं तित्तिरों यावत् मयूरों आदि प्राणियों को मार कर श्रीद महानसिक को लाकर देते थे। तथा उस के वहां पिंजरों में अनेक तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षी बन्द किए हुए रहते थे। श्रीद रसोइए के अन्य अनेक रुपया, पैसा और धान्यादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले पुरुष जीते हुए तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षियों को पक्षरहित करके उसे लाकर देते थे। तदनन्तर वह श्रीद नामक महानसिक-रसोइया अनेक जलचर और स्थलचर आदि जीवों के मांसों को लेकर छुरी से उन के सूक्ष्मखण्ड, वृत्तखण्ड, दीर्घखण्ड और ह्रस्वखण्ड, इस प्रकार के अनेकविध खण्ड किया करता था। उन खण्डों में से कई एक को हिम-बर्फ में पकाता था, कई एक को अलग रख देता जिस से वे खण्ड स्वतः ही पक जाते थे, कई एक को धूप से एवं कई एक को हवा के द्वारा पकाता था, कई एक को कृष्ण वर्ण वाले एवं कई एक को हिंगुल के वर्ण वाले किया करता था।तथा वह उन खंडों को तक्र-संस्कारित आमलकरसभावित, मृद्वीका-दाख, कपित्थ-कैथ और दाडिम-अनार के रसों से तथा मत्स्यरसों से भावित किया करता था। तदनन्तर उन मांसखण्डों में से कई एक को तेल से तलता, कई एक को आग पर भूनता तथा कई एक को शूला से पकाता था। इसी प्रकार मत्स्यमांसों के रसों को, मृगमांसों के रसों को, तित्तिरमांसों के रसों को यावत् मयूर-मांसों के रसों को तथा और बहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, . 1. एतत्कर्मा, एतत्प्रधान-आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [631 Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैयार करके महाराज मित्र के भोजन मंडप में ले जा कर महाराज मित्र को प्रस्तुत किया . करता, तथा स्वयं भी वह श्रीद महानसिक उन पूर्वोक्त श्लक्ष्णमत्स्य आदि समस्त जीवों के मांसों, रसों, हरितशाकों जोकि शूलपक्क हैं, तले हुए हैं, भूने हुए हैं, के साथ छः प्रकार की सुरा आदि मदिराओं का आस्वादनादि करता हुआ समय व्यतीत कर रहा था। तदनन्तर इन्हीं कर्मों को करने वाला, इन्हीं कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन्हीं का विद्या-विज्ञान रखने वाला तथा इन्हीं पापकर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण मानने वाला वह श्रीद रसोइया अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर 33 सौ वर्ष की परमायु को पाल कर कालमास में काल करके छठी पृथिवी-नरक में उत्पन्न हुआ। टीका-सामान्य पुरुष और महापुरुष में यही भेद हुआ करता है कि साधारण पुरुष यदि किसी घटना-विशेष को देखता है तो उस से कुछ भी शिक्षा ग्रहण करने का यत्न नहीं करता प्रत्युत दूसरी ओर मुंह फेर लेता है और अपने उद्दिष्ट स्थान की ओर प्रस्थान कर जाता है। परन्तु इस प्रकार की उपेक्षागर्भित मनोवृत्ति महापुरुषों की नहीं होती। किसी विशेष घटना को देख कर महापुरुष उस के विषय में उचित ऊहापोह करते हैं और उस के मूल कारण को ढूंढने का यत्न करते हैं। कारण उपलब्ध होने पर उस के फल की ओर ध्यान देते हुए अपनी आत्मा को शिक्षित करने का उद्योग करते हैं। अनगार गौतम स्वामी भी उन्हीं महापुरुषों में से एक हैं, जो कि शौरिकपुर नामक नगर के राजमार्ग में देखी हुई घठनाविशेष के मूल कारण को : ढूंढ़ना चाहते हैं और इसलिए उन्होंने वीर प्रभु से पूछने का प्रयास किया था। गौतम स्वामी के पूछने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उस दृष्ट व्यक्ति के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाना प्रारंभ करते हुए कहा कि गौतम ! बहुत पुरानी बात है। इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष के अन्दर नन्दिपुर नाम का एक नगर था, जोकि परमसुन्दर एवं रमणीय था। नगर के शासक महाराज मित्र के नाम से विख्यात थे। वे पूरे प्रजाहितैषी और कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे। महाराज मित्र के यहां श्रीद नाम का रसोइया था, जो कि महा अधर्मी यावत् जिस को प्रसन्न करना अत्यधिक कठिन था। उस रसोइए ने रुपया, पैसा और धान्यादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले ऐसे अनेक नौकर रखे हुए थे, जो मच्छियों को मारते तथा अन्य पशुओं को जाल में फंसा कर पकड़ते एवं पशुपक्षियों का वध कर उसे लाकर देते। श्रीद रसोइया इन सब को उन के परिश्रम के अनुसार वेतन देता और उन को अधिक परिश्रम से काम करने की प्रेरणा करता। 1. आजकल जितना देश भारतवर्ष के नाम से ग्रहण किया जाता है, वह जैनपरम्परागत भारतवर्ष से बहुत न्यून है। जैन परिभाषा के अनुसार उस में 32 हज़ार देश हैं और वह बड़ा विशाल एवं विस्तृत है। 632] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे लोग प्रतिदिन अनेक जाति की मच्छियों को पकड़ते, तथा तित्तर, बटेर, कबूतर, मोर आदि पक्षियों एवं जलचरों, स्थलचरों, और आकाश में उड़ने वाले जानवरों को पकड़, उन का वध करके श्रीद के पास लाते। इसी प्रकार तित्तर, बटेर और कबूतर आदि पक्षियों के जीते जी पर उखाड़ कर उन्हें श्रीद के पास पहुंचाते। श्रीद भी उन जीवों के मांस के छोटे, बड़े, लम्बे और गोल अनेक प्रकार के टुकड़े करता, उन्हें श्यामवर्ण वाले एवं हिंगुल-सिंगरफ के समान वर्ण वाले करता, तथा उन में से कई एक को हिम में रख कर पकाता, कई एक को स्वतः पकने के लिए अलग रख देता, कई एक को धूप से एवं कई एक को वायु अर्थात् भाप आदि से पकाता, तथा उन मांस खण्डों में से कई एक को तक्र से संस्कारित करता, एवं कई एक को आंवलों के रसों से, कई एक को कपित्थ (कैथफल) के रसों से, कई एक को अनार के रसों से एवं कई एक को मत्स्यों के रसों से संस्कारित करता। तदनन्तर उन्हें तलता, भूनता और शूलों से पकाता। इसी भांति मत्स्यादि जीवों के मांसों का रस तैयार करता, एवं विविध प्रकार के हरे शाकों को तैयार करता और उन मांसादि पदार्थों को लाकर भोजन के समय महाराज मित्र नरेश को प्रस्तुत करता और स्वयं भी उक्त प्रकार के उपस्कृत मांसों तथा मदिराओं का यथारुचि सेवन किया करता था। इन्हीं हिंसापूर्ण जघन्य प्रवृत्तियों में अधिकाधिक व्यासक्त रहना उस का स्वभाव बन गया था। अन्त में उसे इन दुष्कर्मों के फलस्वरूप मर कर छठी नरक में उत्पन्न होना पड़ा। .. '. प्रस्तुत सूत्र में श्रीद रसोइए के हिंसापरायण व्यापार का जो दिग्दर्शन कराया गया है और उस के फलस्वरूप उस का जो छठी नरक में जाने का उल्लेख किया गया है, उस पर से हिंसक प्रवृत्ति कितनी दूषित और आत्मा का पतन करने वाली होती है, यह भलीभांति सुनिश्चित हो जाता है। श्रीद ने अपनी क्रूरतम सावध प्रवृत्ति से इतने तीव्र पापकर्मों का बन्ध किया कि उसे अत्यन्त दीर्घकाल तक कल्पनातीत यातनाएं भोगनी पड़ीं। अतः आत्मिक उत्कर्ष के अभिलाषियों को इस प्रकार की सावध प्रवृत्ति से सदा और सर्वथा परांमुख रह कर अपने देवदुर्लभ मानव भव को सार्थक करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। इस के अतिरिक्त श्रीद रसोइए के जीवनवृत्तान्त का उल्लेख कर के सूत्रकार ने सुखाभिलाषी सहृदय व्यक्तियों के लिए प्राणिवध, मांसाहार तथा मदिरापान से विरत रहने की बलवती पवित्र प्रेरणा की है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार श्रीद रसोइया अनेकानेक जीवों के प्राणों का विनष्ट करने, मांसाहार तथा मदिरापान की जघन्य प्रवृत्तियों से उपार्जित दुष्कर्मों के कारण छठी नरक में गया, वहां उसे 22 सागरोपम के बड़े लम्बे काल के लिए अपनी हिंसामूलक करणी के भीषण फल का उपभोग करना पड़ा। ठीक इसी भांति जो व्यक्ति प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [633 Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसापरायण जीवन बनाता हुआ मांसाहार और मदिरापान की दुर्गतिप्रद प्रवृत्तियों में अपने को . लगाएगा वह भी श्रीद रसोइए की तरह नरकों में दुःख पाएगा और अधिकाधिक संसार में रुलेगा-यह बतलाकर सूत्रकार ने प्राणिवध, मांसाहार तथा मदिरापान के त्याग का पाठकों को उत्तम उपदेश देने का अनुग्रह किया है। ___मांसाहार के दुष्परिणामों का वर्णन करने वाले शास्त्रों में अनेकानेक प्रवचन उपलब्ध होते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा है कि श्री मृगापुत्र अपने माता पिता से कहते हैं कि मृगादि जीवों के मांस से अपने शरीर को पुष्ट करने के जघन्य कर्म के फल को भोगने के लिए जब मैं नरकगति को प्राप्त हुआ तो वहां पर यमपुरुषों ने मुझ से कहा कि अय दुष्ट ! तुम्हें मृगादि जीवों के मांस से बहुत प्यार था। इसीलिए तू मांसखण्डों को भून-भून कर खाया करता था और उस में आनन्द मनाता था। अच्छा, अब हम भी तुझ को उसी प्रकार से निष्पन्न मांस खिलाते हैं। ऐसा कह कर उन यमपुरुषों ने मेरे शरीर में से मांस के टुकड़े काट कर और उन / को अग्नि के समान तपाकर मुझे बलात् अनेकों बार खिलाया। मेरे रोने पीटने की ओर उन्होंने तनिक भी ध्यान नहीं दिया। तब मुझे वहां इतना महान दुःख होता था कि जिस को स्मरण करते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। तात्पर्य यह है मांसाहारी व्यक्तियों की नरकों में बड़ी दुर्दशा होती है। जिस प्रकार इस भव में वे दूसरे जीवों के छटपटाने एवं चिल्लाने पर ज़रा भी ध्यान नहीं करते हैं, ठीक उसी प्रकार वैसी ही गति उन की नरक में होती है। वहां पर भी : उन के रुदन-आक्रन्दन एवं विलाप की ओर कोई ध्यान नहीं देता। ,.. ___ आहार की शुद्धि अथवा अशुद्धि भक्ष्य और अभक्ष्य पदार्थों के चुनाव पर निर्भर रहा करती है। जो भक्षण किये गए पदार्थ बुद्धि में सात्विकता पैदा करने वाले होते हैं, वे भक्ष्य और जिन के भक्षण से चित्त में तामसिकता या विकृति पैदा हो वे अभक्ष्य कहलाते हैं। आत्मा पर जिन पदार्थों के भक्षण का अधिक दोषपूर्ण प्रभाव पड़ता है, उन में प्रधानरूप से मांस और मदिरा ये दो पदार्थ माने गए हैं / मांस और मदिरा के प्रयोग से आत्मा के ज्ञान और चारित्र रूप 1. तुहं पियाई मंसाई,खण्डाई सोल्लगाणि य। खाविओमि समंसाइं, अग्गिवण्णाइंणेगसो॥ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० 19/70) हिंसे बाले मुसावाई,माइल्ले पिसुणे सढे। भुंजमाणे सुरं मासं, सेयमेयं त्ति मन्नइ॥ (उत्तराध्ययन सूत्र अ०५/९) अर्थात् अकालमृत्यु को प्राप्त करने वाला अज्ञानी जीव हिंसा करता है, झूठ बोलता है, छल कपट करता है, चुगली करता है तथा मांस एवं मदिरा का सेवन करता हुआ भी अपने इन कुत्सित आचरणों को श्रेष्ठ समझता इस वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मांस और मदिरा का सेवन करने वाले अज्ञानी जीव अकाममृत्यु को प्राप्त कर दुगर्तियों में धक्के खाते रहते हैं। अतः मांस और मदिरा का सेवन कभी नहीं करना चाहिए। 634 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों पर विरोधी एवं दुर्गतिमूलक संस्कारों का बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है और उस की उत्क्रान्ति में अधिक से अधिक बाधा पड़ती है। आत्मा शुद्ध विकसित और हल्का होने के बदले अधिक अशुद्ध और भारी होता चला जाता है, तथा उत्थान के बदले पतन की ओर ही अधिक प्रस्थान करने लगता है, और अन्त में वह अकाममृत्यु को उपलब्ध करता है। जो जीव अज्ञान के वशीभूत हो कर मृत्यु को प्राप्त करते हैं, उन की मृत्यु को अकाममृत्यु-बालमरण तथा जो जीव ज्ञानपूर्वक मृत्यु को प्राप्त होते हैं उन की यह ज्ञान गर्भित मृत्यु सकाममृत्युपण्डितमरण कहलाती है। मांस और मदिरा का सेवन करने वाले अकाममृत्यु को प्राप्त किया करते हैं जब कि अहिंसा सत्यादि सदनुष्ठानों के सौरभ से अपने को सुरभित करने वाले पुण्यात्मा जितेन्द्रिय साधु पुरुष सकाममृत्यु को। इस के अतिरिक्त बालमृत्यु दुर्गतियों के प्राप्त कराने का कारण बनती है, तथा सकाममृत्यु से सद्गतियों की प्राप्ति होती है, इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि मांस और मदिरा का सेवन कभी भी नहीं करना चाहिए। महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि जो पुरुष अपने लिए आत्यन्तिक शान्ति का लाभ करना चाहता है, उसको जगत में किसी भी प्राणी का मांस किसी भी निमित्त से नहीं खाना चाहिए। सम्पूर्ण रूप से अभयपद की प्राप्ति को मुक्ति कहते हैं। इस अभयपद की प्राप्ति उसी को होती है जो दूसरों को अभय देता है। परन्तु जो अपने उदरपोषण अथवा जिह्वास्वाद के लिए कठोर हृदयं बन कर मृगादि जीवों की हिंसा करता है, या कराता है, प्राणियों को भय देने वाला तथा उन का अनिष्ट एवं हनन करने वाला है, वह मनुष्य अभय पद को कैसे प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् कभी नहीं। भगवद्गीता ने साधना में लगे हुए साधकों के लिएसर्वभूतहिते रताः-और भक्त के लिए "-अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च-" ऐसा कह कर सर्व प्राणियों का हित और प्राणिमात्र के प्रति मैत्री और दया करने का विधान किया है। प्राणियों के हित और दया के बिना परम-साध्य निर्वाण पद की प्राप्ति तीन काल में भी नहीं हो सकती। अतः आत्मकल्याण के अभिलाषी मानव को किसी समय किसी प्रकार किञ्चित मात्र भी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। धर्म में सब से पहला स्थान भगवती अहिंसा को दिया गया है, शेष सदनुष्ठान उस के अंग हैं, परन्तु अहिंसा परम धर्म है। धर्म को मानने वाले सभी लोगों ने अहिंसा की बड़ी महिमा गाई है। वास्तव में देखा जाए तो बात यह है कि जो धर्म मनुष्य की वृत्तियों को त्याग, निवृत्ति 1. य इच्छेत् पुरुषोऽत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम्। सवर्जयेत् मांसानि, प्राणिनामिह सर्वशः॥ (महाभारत अनु० 115/55) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [635 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और संयम के पथ का पथिक बनाता है वही यथार्थ धर्म है। इस के विपरीत जो धर्म इन बातों का उपदेश या इन की प्रेरणा नहीं करता वह धर्म ही नहीं है। अहिंसा धर्म में त्यागादि की पूर्वोक्त ये सभी बातें पाई जाती हैं। अत: मांसभक्षण करने वाले अहिंसाधर्म का हनन करते हैं। इस में कोई शंका नहीं की जा सकती है। धर्म का हनन ही पाप है। पाप मानव को चतुर्गतिरूप संसार में रुलाता है और जन्म तथा मरण से जन्य अधिकाधिक दुःखों के प्रवाह से प्रवाहित करता रहता है। अतः पापों से बचने के लिए भी मांसाहार नहीं करना चाहिए। . जिन मांसाहारी लोगों का यह कहना है कि हम पशुओं को न तो मारते हैं और न उन के मारने के लिए किसी को कहते हैं, फिर हम पापी कैसे? इस का उत्तर यह है कि क़साईखाने मांस खाने वालों के लिए ही बने हैं। यदि मांसाहारी लोग मांस न खायें तो कोई प्राणिवध क्यों करे ? जहां कोई ग्राहक न हो तो वहां कोई दुकान नहीं खोला करता। दूसरी बात यह है कि केवल अपने हाथों किसी को मारने का नाम ही हिंसा नहीं है। प्रत्युत हिंसा मन, वचन और * . काया के द्वारा करना, कराना और अनुमोदन करना इस भांति नौ प्रकार की होती है। मांसाहारी का मन, वचन और शरीर मांसाहारी है फिर भला वह हिंसाजनक पाप से कैसे बच सकता है? इस के अतिरिक्त शास्त्रों में -१-मांस के लिए सलाह-आज्ञा देने वाला। २-जीवों के / अंग काटने वाला।३-जीवों को मारने वाला।४-मांस खरीदने वाला।५-मांस बेचने वाला।६-मांस पकाने वाला।७-मांस परोसने वाला और ८-मांस खाने वाला। इस भांति आठ प्रकार के क़साई बतलाए गए हैं। इन में मांस खाने वाले को स्पष्टरूप से घातक माना है। महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि एक बार भीष्मपितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे युधिष्ठिर !"-वह मुझे खाता है, इस लिए मैं भी उस को खाऊंगा-" यह मांस शब्द का मांसत्व है-ऐसा समझो / तात्पर्य यह है कि मांस पद को मां और स इन दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। मां का अर्थ होता है-मुझको और स वह-इस अर्थ का परिचायक है। अर्थात् मांस शब्द "जिस को मैं खाता हूं, एक दिन वह मुझे भी खायेगा" इस अर्थ का बोध कराता है। अतः अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए कभी भी मांस का सेवन नहीं करना चाहिए। 1. अनुमन्ता विशसिता, निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपहर्ता च, खादकश्चेति घातकाः॥ (मनुस्मृति 5/51) 2. मां स भक्षयते यस्माद् , भक्षयिष्ये तमप्यहम्। एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्धस्व भारत!॥ (महाभारत 116/35) 636 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन-" यह अभियुक्तोक्ति इस बात में सबल प्रमाण है कि भोजन से ही मन बनता है। मनुष्य जिन पशु पक्षियों का मांस खाता है, उन्हीं पशु पक्षियों के गुण, आचरण आदि उस में उत्पन्न हो जाते हैं। उन की आकृति और प्रकृति वैसी ही क्रमशः बनती चली जाती है। दूसरे शब्दों में सात्विक भोजन करने से सतोगुणमयी प्रकृति बन जाती है। राजसी भोजन करने से रजोगुणमयी और तामस भोजन करने से तमोमयी प्रकृति बन जाती है। अतः खाने के विषय में शान्तचित्त से तथा स्वच्छ हृदय से विचार करते हुए मनुष्य का यह कर्तव्य बन जाता है कि वह मानव की प्रकृति को छोड़ कर पाशविक प्रकृति का आश्रयण न करे, अन्यथा उसे नरकों में भीषणातिभीषण दुःखों का उपभोग करना पड़ेगा। शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि मांस न खाने वाला और प्राणियों पर दया करने वाला मनुष्य समस्त जीवों का आश्रयस्थान एवं विश्वासपात्र बन जाता है, उस से संसार में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होने पाता और न वह ही किसी द्वारा उद्वेग का भाजन बनता है। वह निर्भय रहता है और दीर्घायु उपलब्ध करता है। बीमारी उस से कोसों दूर रहती है। इस के अतिरिक्त मांस के न खाने से जो पुण्य उपलब्ध होता है उस के समान पुण्य न सुवर्ण के दान से होता है और न गोदान एवं न भूमि के दान से प्राप्त हो सकता है। ___मांसाहार स्वास्थ्य को भी विशेष रूप से हानि ही पहुँचाता है। मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार अधिक परिपुष्ट एवं बुद्धिशाली बनाता है। एक बार-मांसभक्षण करना अच्छा है या बुरा ?-इस बात की परीक्षा अमेरिका में दस हज़ार विद्यार्थियों पर की गई थी। पांच हज़ार विद्यार्थी शाक, फल, फूल आदि पर रखे गए थे जब कि पांच हजार विद्यार्थी मांसाहार पर। छ: महीने तक यह प्रयोग चालू रहा। इस के बाद जो जांच की गई उससे मालूम हुआ कि जो विद्यार्थी मांसाहार पर रखे गए थे उन की अपेक्षा शाकाहारी विद्यार्थी सभी बातों में अग्रेसरतेज़ रहे। शाकाहारियों में दया, क्षमा आदि मानवोचित गुण अधिक परिमाण में विकसित हुए तथा मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारियों में बल अधिक पाया गया और उन का विकास भी बहुत अच्छा हुआ। इस परीक्षा के फल को देख कर वहां के लाखों मनुष्यों ने मांस खाना छोड़ दिया। इस के अतिरिक्त आप पक्षियों पर दृष्टि डालिए। क्या आप ने कभी कबूतर को कीड़े खाते देखा है ? उत्तर होगा-कभी नहीं। परन्तु कौवे को ? उत्तर होगा-हां ! अनेकों बार / आप 1. शरण्यः सर्वभूतानां, विश्वास्यः सर्वजन्तुषु। अनुद्वेगकरो लोके, न चाप्युद्विजते सदा॥ अधृष्यः सर्वभूतानामायुष्मान्नीरुजः सदा। भवत्यभक्षयन् मांसं, दयावान् प्राणिनामिह॥ हिरण्यदानैर्गोदानभूमिदानैश्च सर्वशः। मांसस्याभक्षणे धर्मो, विशिष्ट इति नः श्रुतिः॥ (महा अनु० 115/30-42-43) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [637 Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबूतर बनना पसन्द करते हैं या कौवा ?, इस का उत्तर सहृदय पाठकों पर छोड़ता हूं। ऊपर के विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि मांसभक्षण किसी भी प्रकार से आदरणीय एवं आचरणीय नहीं है, प्रत्युत वह हेय है एवं त्याज्य है। अतः मांस खाने वाले मनुष्यों से हमारा सानुरोध निवेदन है कि इस पर भली भांति विचार करें और मनुष्यता के नाते, दया और न्याय के नाते, शरीरस्वास्थ्य और धर्मरक्षा के नाते तथा नरकगति के भीषणातिभीषण असह्य संकटों से अपने को सुरिक्षत रखने के नाते इन्द्रियदमन करते हुए मांसाहार को सर्वथा छोड़ डालें और सब जीवों को -दानों में सर्वश्रेष्ठ अभयदान-दे कर स्वयं अभयपदनिर्वाणपद उपलब्ध करने का स्तुत्य एवं सुखमूलक प्रयास करें। जिस प्रकार मांस दुर्गतिप्रद एवं दुःखमूलक होने से त्याज्य है, ठीक उसी प्रकार मदिरा का सेवन भी मनुष्य की प्रकृति के विरुद्ध होने से हेय है, अनादरणीय है। मदिरा पीने वाले मनुष्यों की जो दुर्दशा होती है उसे आबालवृद्ध सभी जानते ही हैं, अतः उस के स्पष्टीकरण करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती। मदिरा को उर्दू भाषा में शराब कहते हैं। शराब शब्द दो पदों से बना है। प्रथम शर और दूसरा आब।शर शरारत, शैतानी तथा धूर्तता का नाम है। आब पानी को कहते हैं। अर्थात् जो पानी पीने वाले को इन्सान न रहने दे, उसे शैतान बना दे, धूर्तता के गढ़े में गिरा डाले, मां और बहिन की अन्तरमूलक बुद्धि का उच्छेद कर डाले, हानि और लाभ के विवेक से शून्य कर दे तथा हृदय में पाशविकता का संचार कर दे, उसे शराब कहते हैं। शराब शब्द की इस अर्थविचारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन के निर्माण एवं कल्याण के अभिलाषी मानव को शराब से दूर एवं विरत रहना चाहिए इस के अतिरिक्त मदिरा के निषेधक अनेकानेक शास्त्रीय प्रवचन भी उपलब्ध होते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के १९वें अध्ययन में लिखा है कि राजकुमार मृगापुत्र अपने माता पिता को मदिरापान का परलोक में जो कटु फल भोगना पड़ता है, उसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि पूज्य माता पिता जी ! स्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए जब मैं नरक में उत्पन्न हुआ, तब मुझे यमपुरुषों ने कहा कि अय दुष्ट ! तुझे मनुष्यलोक में मदिराशराब से बहुत प्रेम था जिस से तू नाना प्रकार की मदिराओं का बड़े चाव के साथ सेवन किया करता था। ले फिर, अब हम भी तुझे तेरी प्यारी मदिरा का पान कराते हैं। ऐसा कह कर उन यमपुरुषों ने मुझ को अग्नि के समान जलती हुई वसा-चर्बी और रुधिर-खून का जबर्दस्ती पान 1. मांसनिषेधमूलक अन्य शास्त्रीय प्रवचन पीछे पंचम अध्ययन में दिया जा चुका है। तथा मांस मनुष्य की प्रकृति के नितान्त विरुद्ध है, इस सम्बन्ध में सप्तम अध्ययन में विचार किया जा चुका है। 638 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कंध Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराया। वह भी एक बार नहीं किन्तु अनेकों बार। यमपुरुषों के उस दु:खद एवं बर्बर दण्ड का जब मैं स्मरण करता हूं तो मेरा मानस कांप उठता है और इसीलिए मैंने यह निश्चय किया है कि कभी भी मदिरा का सेवन नहीं करूंगा तथा ऐसे अन्य सभी आपातरमणीय सांसारिक विषयों को छोड़ कर सर्वथा सुखरूप संयम का आराधन करूंगा। दशवैकालिक सूत्र के पंचम अध्ययन के द्वितीयोद्देश में मदिरापान का खण्डनमूलक बड़ा सुन्दर वर्णन मिलता है। वहां लिखा है कि आत्मसंयमी साधु संयमरूप विमलयश की रक्षा करता हुआ जिस के त्याग में सर्वज्ञ भगवान् साक्षी हैं, ऐसे रेसुरा, मेरक आदि सब प्रकार के मादक द्रव्यों का सेवन (पान) न करे। सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मजगं रसं। ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो॥३८॥ गुरु कहते हैं कि हे शिष्यो ! जो साधु धर्म से विमुख हो कर एकान्त स्थान में छिप कर मद्यपान करता है और समझता है कि मुझे यहां छिपे हुए को कोई नहीं देखता है, वह भगवान की आज्ञा का लोपक होने से पक्का चोर है। उस मायाचारी के प्रत्यक्ष दोषों को तुम स्वयं देखो और अदृष्ट-मायारूप दोषों को मेरे से श्रवण करो। पियए एगओ तेणो, न मे कोई वियाणइ। तस्स पस्सह दोनाई, नियडिं च सुणेह मे॥३९॥ / मदिरासेवी साधु के लोलुपता, छल, कपट, झूठ, अपयश और अतृप्ति आदि दोष बढ़ते जाते हैं, अर्थात् उस की निरन्तर असाधुता ही असाधुता बढ़ती रहती है, उस में साधुता का तो नाम भी नहीं रहता। वड्ढइ सुंडिया तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो। . अयसो अ अनिव्वाणं, सययं च असाहुआ॥४०॥ मंदिरासेवी दुर्बुद्धि साधु अपने किए हुए दुष्टकर्मों के कारण चोर के समान सदा उद्विग्न-अशान्तचित्त रहता है, वह अन्तिम समय पर भी संवर-चारित्र की आराधना नहीं कर सकता। निच्चुव्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। तारिसो मरणंते वि, न आराहेइ संवरं॥४१॥ .. 1. तुहं पिया सुरा सीहू, मेरओ य महूणि य। पजिओमि जलंतीओ, वसाओ रुहिराणि य॥ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० 1971) 2. सुरा, मेरक-आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [639 Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारमूढ मद्यप (मदिरा पीने वाला) साधु से न तो आचार्यों की आराधना हो सकती है और न ही साधुओं की। ऐसे साधु की तो गृहस्थ भी निंदा करते हैं क्योंकि वे उस के दुष्कर्मों को अच्छी तरह जानते हैं। आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं गरिहन्ति, जेण जाणंति तारिसं॥४२॥ शास्त्रों में प्रमाद-कर्त्तव्य कार्य में अप्रवृत्ति और अकर्तव्य कार्य में प्रवृत्ति रूप असावधानता, पांच प्रकार के बतलाए गए हैं जो कि जीव को संसार में जन्म तथा मरण से जन्य दुःखरूप प्रवाह में अनादि काल से प्रवाहित करते रहते हैं। उन में पहला प्रमाद मद्य है। मद्य का अर्थ है मदिरा-शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना। मद्य शुभ आत्मपरिणामों को नष्ट करता है और अशुभ परिणामों को उत्पन्न / मदिरा के सेवन से जहां अन्य अनेकों हानियां दृष्टिगोचर होती हैं वहां इस में अनेकों जीवों की उत्पत्ति होते रहने से जीवहिंसा का भी महान पाप लगता है। लौकिक जीवन को निंदित, अप्रमाणित एवं पाशविक बना देने के साथ-साथ परलोक को भी यह मदिरासेवन बिगाड़ देता है। आचार्य हरिभद्र ने बहुत सुन्दर शब्दों में इस से उत्पन्न अनिष्ट परिणामों का वर्णन किया है। आप लिखते हैं वैरूप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो। विद्वेषो ज्ञाननाशः रमृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः॥ पारुष्यं नीचसेवा कुलबलविलयो धर्मकामार्थहानिः।। कष्टं वै षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः॥ ___ (हरिभद्रीयाष्टक 19 वां श्लोक टीका) अर्थात्-मद्यपान से १-शरीर कुरूप और बेडौल हो जाता है। २-शरीर व्याधियों का घर बन जाता है।३-घर के लोग तिरस्कार करते हैं। ४-कार्य का उचित समय हाथ से निकल जाता है।५-द्वेष उत्पन्न हो जाता है। ६-ज्ञान का नाश होता है। ७-स्मृति और 8 बुद्धि का विनाश हो जाता है।९-सज्जनों से जुदाई होती है। १०-वाणी में कठोरता आ जाती है। ११नीचों की सेवा करनी पड़ती है। १२-कुल की हीनता होती है। १३-शक्ति का ह्रास होता है। १४-धर्म, १५-काम एवं १६-अर्थ की हानि होती है। इस प्रकार आत्मपतन करने वाले मद्यपान के दोष 16 होते हैं। जैनदर्शन की भांति जैनेतरदर्शन में भी मदिरापान को घृणित एवं दुर्गतिप्रद मान कर उस के त्याग के लिए बड़े मौलिक शब्दों में प्रेरणा दी गई है। स्मृतिग्रन्थ में लिखा है- . 640 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ कृमिकीटपतंगाना, विभुजां चैव पक्षिणाम्। . हिंस्राणां चैव सत्त्वानां सुरापो ब्राह्मणो व्रजेत्॥ (मनुस्मृति अध्याय 12, श्लोक 56) अर्थात् मदिरा के पीने वाला ब्राह्मण, कृमि, कीट-बड़े कीड़े, पतङ्ग, सूयर, और अन्य हिंसा करने वाले जीवों की योनियों को प्राप्त करता है। ब्रह्महा च सुरापश्च, स्तेयी च गुरुतल्पगः। - एते सर्वे पृथक् ज्ञेयाः, महापातकिनो नराः॥ (मनुस्मृति अध्याय 9/235) अर्थात् ब्राह्मण को मारने वाला, मदिरा को पीने वाला, चौर्यकर्म करने वाला और गुरु की स्त्री के साथ गमन करने वाला ये सब महापातकी-महापापी समझने चाहिएं। अर्थात् ब्रह्महत्या तथा मदिरापान आदि ये सब महापाप कहलाते हैं। सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णां सुरां पिबेत्।। तया स काये निर्दग्धे, मुच्यते किल्विषात्ततः। (मनुस्मृति अध्याय 11/90) अर्थात् मोह-अज्ञान से मदिरा को पीने वाला द्विज तब मदिरापान के पाप से छुटता है जब गरम-गरम जलती हुई मदिरा को पीने से उस का शरीर दग्ध हो जाता है। यस्य कायगतं ब्रह्म, मद्येनाप्लाव्यते सकृत्। तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं, शूद्रत्वं च स गच्छति॥ (मनुस्मृति अध्याय 11/97) ' अर्थात् जिस ब्राह्मण का शरीरगत जीवात्मा एक बार भी मदिरा से मिल जाता है, . तात्पर्य यह है कि एक बार भी जो ब्राह्मण मदिरा का सेवन करता है, उस का ब्राह्मणपना दूर हो जाता है और वह शूद्रभाव को उपलब्ध कर लेता है। चित्ते भ्रान्तिर्जायते मद्यपानात्, भ्रान्ते चित्ते पापचर्यामुपैति। पापं कृत्वा दुर्गतिं यान्ति मूढास्तस्मान्मद्यं नैव पेयं न पेयं // 1 // (हितोपदेश) अर्थात् मदिरा के पान करने से चित्त में भ्रान्ति उत्पन्न होती है, चित्त के भ्रान्त होने पर मनुष्य पापाचरण की ओर झुकता है, और पापों के आचरण से अज्ञानी जीव दुर्गति को प्राप्त करते हैं। इसलिए मदिरा-शराब को नहीं पीना चाहिए, नहीं पीना चाहिए। एकतश्चतुरो वेदाः, ब्रह्मचर्यं तथैकतः। एकतः सर्वपापानि, मद्यपानं तथैकतः॥ (अज्ञात) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [641 Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् तुला में एक ओर चारों वेद रख लिए जाएं, तथा एक ओर ब्रह्मचर्य रखा जाए, तो दोनों एक समान होते हैं, अर्थात् ब्रह्मचर्य का माहात्म्य चारों वेदों के समान है। इसी भांति एक ओर समस्त पाप और एक ओर मदिरा का सेवन रखा जाए तो ये भी दोनों समान ही हैं। तात्पर्य यह है कि मदिरा के सेवन करने का अर्थ है-सब प्रकार के पापों का कर डालना। ख्यातं भारतमण्डले यदुकुलं, श्रेष्ठं विशालं परम्। ___साक्षाद् देवविनिर्मिता वसुमतीभूषा पुरी द्वारिका॥ एतद् युग्मविनाशनं च युगपज्जातं क्षणात्सर्वथा। तन्मूलं मदिरा नु दोषजननी, सर्वस्वसंहारिणी॥१॥ (अज्ञात) अर्थात् यदुकुल भारतवर्ष में प्रसिद्ध, श्रेष्ठ, विशाल और उत्कृष्ट था, तथा द्वारिका नगरी साक्षात् देवों की बनाई हुई और पृथ्वी की भूषा-शोभा अथवा भूषणस्वरूप थी, परन्तु इन दोनों का विनाश एक साथ सर्वथा क्षणभर में हो गया। इस का मूलकारण दोषों को जन्म देने वाली और सर्वस्व का संहार करने वाली मदिरा-शराब ही थी। जित पीवे मति दूर होय बरल पवै नित्त आय। अपना पराया न पछाणई खस्महु धक्के खाय॥ जित पीते खस्म बिसरै दरगाह मिले सजाय। झूठा मद मूल न पीवई जेका पार बसाय॥ , (सिक्खशास्त्र) अर्थात् जिस के पीने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और हृदयस्थल में खलबली मच जाती है। इस के अतिरिक्त अपने और पराए का ज्ञान नहीं रहता और परमात्मा की ओर से उसे धक्के मिलते हैं। जिस के पीने से प्रभु का स्मरण नहीं रहता और परलोक में दण्ड मिलता है ऐसे झूठे-निस्सार नशों का जहां तक बस चले कभी भी सेवन नहीं करना चाहिए। औगुन कहीं शराब का ज्ञानवन्त सुनि लेय। मानस से पसुआ करे, द्रव्य गांठि का देय।१। अमल अहारी आत्मा, कब हुन पावे पार। कहे कबीर पुकार के, त्यागो ताहि विचार।२। उर्दू कविता में शराब को "दुखतरे रज' (अंगूर की पुत्री) के नाम से अभिहित किया जाता है। इसी बात को लक्ष्य में रख कर सुप्रसिद्ध उर्दू के कवि अकबर ने व्यंग्योक्ति द्वारा शराब की कितने सुन्दर शब्दों में निन्दा की हैउस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर। खैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ॥ 642 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १मय है इक आग, न तन इस में जलाना हर्गिज़, मय है इक नाग, करीब इस के न जाना हर्गिज़। मय है इक दाम', न दिल इस में फंसाना हर्गिज, मय है इक ज़हर, न इस जहर को खाना हर्गिज़। भूल कर भी उसे तुम मुंह न लगाना हर्गिज़, भूत की तरह यह जिस सर पर चढ़ा करती है, ___रेहदफे तीरे "बला उसको किया करती है। ६खिरमने होशो "ख़िरद को यह फ़ना करती है, क्या बताऊं तुम्हें अहबाब यह क्या करती है ? कि बयां होगा न मुझ से यह फसाना हर्गिज़। DRINK NOT WINE NOR STRONG DRINK AND EAT NOT ANY UNCLEAN THING. (JUDGES 13-4) अर्थात् ईसाइयों के धर्मग्रन्थ इंजील में लिखा है कि शराब मत पिओ, न ही किसी अन्य मादक वस्तु का सेवन करो और न ही किसी अपवित्र वस्तु का भक्षण करो। ___पाश्चात्य लोगों ने भी मदिरासेवन का पूरा-पूरा विरोध किया है। एक पाश्चात्य विद्वान् का कहना है कि-Wine in and wit out-अर्थात् मदिरा के भीतर प्रवेश करते ही बुद्धि बाहर हो जाती है। - इस के अतिरिक्त इस बात पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है कि शराब पीना स्वाभाविक है या अस्वाभाविक ? यदि शराब पीना स्वाभाविक होता तो सभी प्राणी शराबी होते। शराब न पीने वाला एक भी प्राणी न मिलता। परन्तु ऐसी बात नहीं है। सारांश यह है कि जिस के बिना जीवन-निर्वाह न हो सके वही वस्तु स्वाभाविक कहलाती है। पानी के बिना कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता, अतः पानी जीवन के लिए स्वाभाविक है। क्या शराब के सम्बन्ध में यह बात कही जा सकती है ? नहीं, क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि शराब के बिना आज करोड़ों आदमी जीवित रह रहे हैं। अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जिस तरह पानी का पीना मनुष्य के लिए स्वाभाविक होता है, वैसे मदिरापान नहीं होता, अर्थात् मदिरापान अस्वाभाविक है। शराब पीने वालों की जो शारीरिक, वाचनिक एवं मानसिक अवस्था होती है, वह सब के सामने ही है। उसकी यहां पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। मदिरापान ... 1. शराब 2. जाल 3. निशाना 4. तीर का 5. आफत के 6. खलियान 7. अक्ल प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [643 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की जितनी भी निन्दा की जाए उतनी ही कम है। मदिरा के ही कारण अनेक राजाओं तक का खून बहा है। मदिरा ने ही जोधपुर, बीकानेर और कोटा आदि के राजाओं एवं सरदारों के प्राणों का हरण किया है, ऐसा एक चारण-भाट कवि ने अपनी कविता में कहा है। इस कवि ने और भी बहुत से नाम गिनाए हैं, जो शराब के कटु परिणाम का शिकार बने हैं। इस दुष्ट मदिरा ने न जाने कितने कलेजे सड़ाए हैं ? न मालूम कितने दैवी प्रकृति वालों को राक्षसी प्रकृति वाले बना डाला है ? कौन जाने इसने कितने आबाद घर बर्बाद कर दिए हैं ? इसी की बदौलत असंख्य मनुष्य अपने सुखमय जीवन से हाथ धो कर दुःख के घर बने रहते हैं। जिस घर में . शराब पीने का रिवाज है, उस घर की अवस्था देखने पर कलेजा मुंह को आता है। उस घर की स्त्रियां और बच्चे सब के सब टुकड़े-टुकड़े के लिए हाय-हाय करते रहते हैं, पर घर का मालिक शराब के चंगुल में ऐसा फंस जाता है कि उस का उस ओर तनिक ध्यान भी नहीं जाता। वह तो मात्र मदिरा के नशे में ही मस्त हो कर झूमता रहता है। वह यह नहीं सोचने पाता कि. इस के फलस्वरूप मेरे धन का, शक्ति का और मेरे सम्पूर्ण जीवन का सर्वतोमुखी विनाश होता जा रहा है। इस लिए ऐसे अनिष्टप्रद मदिरापान से सदा विरत रहने में कल्याण एवं सुख है। सारांश यह है कि सूत्रकार ने प्रस्तुत में श्रीद रसोइए के मांसाहार तथा मदिरापान के जघन्य दुष्कर्मों के फलस्वरूप उसको छठी नरक में उत्पन्न होने के कथानक से विचारशील सुखाभिलाषी पाठकों को अनमोल शिक्षाएं देने का अनुग्रह किया है। इस पर से पाठकों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे प्राणिघात, मांसाहार तथा मदिरापान की अन्यायपूर्ण, निंदित, दुर्गतिप्रद एवं दुःखमूलक सावध प्रवृत्तियों से अपने को सदा दूर रखें और अपना लौकिक तथा पारलौकिक आत्मश्रेय साधने का सुगतिमूलक सत्प्रयास करें। अन्यथा श्रीद रसोइए की भांति प्राणिघातादि से उपार्जित दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए नरकादि गतियों में कल्पनातीत दु:खों का उपभोग करना पड़ेगा, एवं जन्ममरणरूप दुःखसागर में डूबना पड़ेगा। -अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे-यह पठित जाव-यावत् पद से अभिमत पदों का विवरण प्रथम अध्याय में किया जा चुका है। पाठक वहीं देख सकते हैं। मच्छिया-इत्यादि पदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है १-मच्छिया-मात्स्यिकाः, मत्स्यघातिनः-अर्थात् मत्स्यों को मारने वाले व्यक्ति का नाम मात्स्यिक है। ___ २-वागुरिया-वागुरिकाः, मृगाणां बन्धका:-अर्थात् मृगादि पशुओं को जाल में फंसाने वाला व्यक्ति वागुरिक कहलाता है। ३-साउणिया-शाकुनिकाः, पक्षिणां घातकाः-अर्थात् पक्षियों का घात-नाशं 644 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने वाला व्यक्ति शाकुनिक कहा जाता है। - ४-दिण्णभतिभत्तवेयणा-इस पद की व्याख्या पीछे तृतीय अध्याय में की जा चुकी है। ५-सण्हमच्छा जाव पडागातिपडागे-यहां पठित -जाव-यावत्- पद खवल्लमच्छा य जुगमच्छा य विब्भिडिमच्छा य हलिमच्छा य मग्गरिमच्छा य रोहियमच्छा य सागरमच्छा य गागरमच्छा य वडमच्छा य वडगरमच्छा य तिमिमच्छा य तिमिंगिलमच्छा य.णक्कमच्छा य तंदुलमच्छा य कण्णियमच्छा य सालिमच्छा य मणियामच्छा य लंगुलमच्छा य मूलमच्छा य-इत्यादि पदों का परिचायक है। श्लक्ष्णमत्स्य, खवल्लमत्स्य, युगमत्स्य, विब्भिडिमत्स्य, हलिमत्स्य, मग्गरिमत्स्य, रोहितमत्स्य, सागरमत्स्य, गागरमत्स्य, वडमत्स्य, वडगरमत्स्य, तिमिमत्स्य, तिमिङ्गिलमत्स्य, नक्रमत्स्य (नाका), तन्दुलमत्स्य (चावल के दाने जितना मत्स्य) कर्णिकमत्स्य, शालिमत्स्य, मणिकामत्स्य, लंगुलमत्स्य, मूलमत्स्य-ये सब मत्स्यविशेषों के ही नाम हैं। ६-अय जाव महिसे यहां पठित-जाव-यावत्-पद "-एले य रोझे य ससए य पसए सूयरे य सिंघे य हरिणे य वसभे य-" इन पदों का ग्राहक है। अज आदि शब्दों का अर्थ चतुर्थ अध्याय में किया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद षष्ठ्यन्त हैं, जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त हैं। विभक्तिगत भेद के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। तथातित्तिरे य जाव मऊरे-यहां पठित जाव-यावत् पद-वट्टए य लावए य कवोए य कुक्कुडे य-इन पदों का परिचायक है। तित्तिर तीतर को, वर्तक बटेर को, लावक लावा नामक पक्षिविशेष को, कपोत कबूतर को और कुर्कुट मुर्गे को कहते हैं। ७-कप्पणीकप्पियाई-कल्प्यते भिद्यते यया सा कल्पनी-छुरिका, कीकेत्यर्थः-अर्थात् छुरी या कैंची से काटे हुए मांस को कल्पनीकर्तित कहते हैं। - प्रस्तुत में -सण्हखण्डियाणि आदि जितने पद हैं वे सब मांस के विशेषण हैं / इन की व्याख्या निम्नोक्त है १-सण्हखण्डियाणि-सुक्ष्मरूपेण खण्डीकृतानि-अर्थात् जिसे सूक्ष्मरूप से खण्डित किया गया है। तात्पर्य यह है कि जिस के छोटे-छोटे टुकड़े किये गए हैं वह सूक्ष्मखण्डित कहलाता है। . २-वट्टदीहरहस्सखण्डियाणि-वृत्तं च दीर्घ च ह्रस्वं च एषां समाहारः वृतदीर्घह्रस्वं, वृत्तदीर्घह्रस्वरूपेण खण्डितानि। वृत्तखण्डितानि-गोलाकारेण खण्डीकृतानि, दीर्घखण्डितानि, दीर्घरूपेण खण्डितानि, ह्रस्वखण्डितानि--ह्रस्वरूपेण प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [645 Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डितानि-अर्थात् वर्तुल-गोलाकार वाले खण्डित पदार्थ वृत्तखण्डित, दीर्घ-लम्बे आकार. वाले खण्डित पदार्थ दीर्घखण्डित, ह्रस्व-छोटे-छोटे आकार वाले खण्डित पदार्थ ह्रस्व खण्डित कहलाते हैं। प्रस्तुत में ये सब पद मांस के विशेषण होने के कारण-वृत्तखण्डित मांस, दीर्घखण्डित मांस और ह्रस्वखण्डित मांस-इस अर्थ के परिचायक हैं।' ३-हिमपक्काणि-हिमपक्वानि-अर्थात् हिम बर्फ का नाम है, बर्फ में पकाये गए हिमपक्व कहलाते हैं। ४-जम्मघम्ममारुयपक्काणि-जन्मघर्ममारुतपक्वानि। प्रस्तुत में जन्मपक्व, धर्मपक्व और मारुतपक्व ये तीन पद हो सकते हैं। जन्मपक्व शब्द स्वतः ही पके हुए के लिए प्रयुक्त होता है, अर्थात् जिस के पकाने में हिम, धूप तथा हवा आदि विशेष कारण न हों, वह जन्मपक्व कहलाता है। जो धूप में पकाया गया हो उसे धर्मपक्व कहते हैं, और जो मारुत-हवा में पकाया गया हो, वह मारुतपक्व कहलाता है, अर्थात् वाष्प-भांप आदि द्वारा पक्व मारुतपक्व कहा जाता है। ५-कालाणि-कालानि, इस पद के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं। जैसे कि १-जो किसी भी साधन से कृष्णवर्ण वाला बनाया गया हो, वह काल कहलाता है। २-काल शब्द प्रस्तुत में कालपक्व इस अर्थ का बोधक है। तात्पर्य यह है कि समय के अनुसार अर्थात् शीत, ग्रीष्म, वर्षादि ऋतुओं का प्रातः, मध्याह्न आदि काल के अनुसार पके हुएं को कालपक्व कहते हैं। ६-हेरंगाणि-इस पद के भी दो अर्थ किए जाते हैं। जैसे कि १-जो हिंगुल-सिंगरफ़ के समान लाल वर्ण वाला किया गया है, उसे हेरंग कहते हैं / अथवा २-मत्स्य के मांस के साथ जो पकाया गया है वह हेरंग कहलाता है। ७-महिढाणि-कोषकारों के मत में महिट्ट यह देश्य-देशविशेष में बोला जाने वाला पद है, और तक्र से संस्कारित इस अर्थ का परिचायक है। ८-आमलगरसियाणि-आमलकरसितानि-अर्थात् जो आंवले के रस से संस्कारित हो उसे आमलकरसित कहते हैं। ९-मुद्दिआकविद्वदालिमरसियाणि मृद्वीकाकपित्थदाडिमरसितानि-अर्थात् मृद्वीका-द्राक्षा के रस से संस्कारित मृद्वीकारसित, कपित्थ-कैथ (एक प्रकार का कण्टीला पेड़ जिस में बेर के समान तथा आकार के कसैले और खट्टे फल लगते हैं) के फलों के रस से संस्कारित कपित्थरसित, और दाडिम-अनार के रस से संस्कारित दाडिमरसित कहा जाता है। १०-मच्छरसियाणि-मत्स्यरसितानि, अर्थात् मत्स्य के रस से संस्कारित मत्स्यरसित 646 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहलाता है। .११-तलियाणि य भजियाणि य सोल्लियाणि य-तलितानि च तैलादिषु, भर्जितानि च अंगारादिषु, शूल्यानि च शूलपक्वानि शूले धृत्वा अंगारादिषु पक्वानि, अर्थात् तैलादि में तले हुए को तलित, अंगारादि पर भूने हुए को भर्जित तथा शूला के द्वारा अंगारादि पर पकाया गया मांस शूल्य कहलाता है। -तित्तिर० जाव मयूररसए-यहां पठित -जाव-यावत्-पद -वट्टगरसए य लावगरसए य कपोयरसए य कुक्कुडरसए य-इन पदों का, तथा -बहूहिं जाव जलयरयहां पठित जाव-यावत् पद -सण्हमच्छमंसेहि य खवल्लमच्छमंसेहि य-से लेकरपडागातिपडागमच्छमंसेहि य-यहां तक के पदों का, तथा-अयमंसेहि य एलमंसेहि य-से लेकर-महिसमंसेहि य- यहां तक के पदों का तथा -तित्तिरमंसेहि य वट्टगमंसेहि य-से लेकर -मयूरमंसेहि य- यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। _ -सुरं च ६-यहां के अंक से-मधुं च मेरगं च जातिं च सीधुं च पसन्नं च-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ प्रथम अध्याय में लिखा जा चुका है। तथाआसादेमाणे ४-तथा –एयकम्मे 4- यहां के अंकों से अभिमत पाठ क्रमशः तृतीय अध्याय और द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अब सूत्रकार श्रीद महानसिक के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं मूल-तते णं सा समुद्ददत्ता भारिया जायनि या यावि होत्था, जाया जाया दारगा विणिघायमावजंति, जहा गंगादत्ताए चिंता। आपुच्छणा। ओवयाइयं, दोहलो जावदारगं पयाता, जाव जम्हाणं अहं इमे दारए सोरियस्स जक्खस्स उवाइयलद्धए, तम्हा णं होउ अम्हं दारए सोरियदत्ते णामेणं। तते णं से सोरिए दारए पंचधाती• जाव उम्मुक्कबालभावे विण्णयपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते याविहोत्था।तते णं से समुद्ददत्ते अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते। तते णं से सोरिए दारए बहूहि मित्त रोयमाणे 3 समुद्ददत्तस्स णीहरणं करेति 2 त्ता लोइयाइं मयकिच्चाई करेति। छाया-ततः सा समुद्रदत्ता भार्या जातनिद्रुता चाप्यभवत् / जाता जाता दारका विनिघातमापद्यते / यथा गंगादत्तायाः चिन्ता। आप्रच्छना। उपयाचितम्। दोहदो यावद् दारकं प्रजाता यावद् यस्मादस्माकमयं दारकः शौरिकस्य यक्षस्य उपयाचितलब्धः तस्माद् भवत्वस्माकं दारकः शौरिकदत्तो नाम्ना। ततः स शौरिको दारकः पञ्चधात्री प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [647 Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावदुन्मुक्तबालभावो विज्ञकपरिणतमात्रो यौवनकमनुप्राप्तश्चाप्यभवत्। ततः स समुद्रदत्तोऽन्यदा कदाचित् कालधर्मेण संयुक्तः। ततः स शौरिको दारको बहुभिर्मित्र रुदन् 3 समुद्रदत्तस्य निस्सरणं करोति 2 लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। सा-वह / समुद्ददत्ता-समुद्रदत्ता। भारिया-भार्या। जायनिढुयाजातनिद्रुता-मृतवत्सा। यावि होत्था-भी थी, उस के। जाया जाया-उत्पन्न होते ही। दारगा-बालक। विणिघायमावजंति-विनिघात-विनाश को प्राप्त हो जाते थे। जहा-जैसे। गंगादत्ताए-गंगादत्ता को। चिंता-विचार उत्पन्न हुए थे, तद्वत् समुद्रदत्ता के भी हुए। आपुच्छणा-पति से पूछना। ओवाइयंयक्षमंदिर में जाकर मन्नत मानना। दोहलो-दोहद उत्पन्न हुआ। जाव-यावत् अर्थात् उस की पूर्ति की। दारगं-बालक को। पयाता-जन्म दिया। जाव-यावत् / जम्हा णं-जिस कारण। अम्हं-हमको। इमे-यह। दारए-बालक। सोरियस्स-शौरिक। जक्खस्स-यक्ष की। उवाइयलद्धए-मन्नत मानने से उपलब्ध हुआ है। तम्हा णं-इसलिए। अम्हं-हमारा। दारए-यह बालक। सोरियदत्ते-शौरिकदत्त / णामेणं-नाम से। होउ-हो। तते णं-तदनन्तर। से-वह। सोरिए-शौरिक / दारए-बालक। पंचधाती-पांच धायमाताओं से परिगृहीत। जाव-यावत् / उम्मुक्कबालभावे-बालभाव को त्याग कर। विण्णयपरिणयमेत्ते-विज्ञान की परिणत-परिपक्व अवस्था को प्राप्त हुआ। जोव्वणगमणुप्पत्ते यावि-युवावस्था को सम्प्राप्त भी। होत्था -हो गया था। तते णं-तदनन्तर अर्थात् उस के पश्चात् / से-वह। समुद्ददत्ते-समुद्रदत्त। अन्नया-अन्य। कयाइ-किसी समय। कालधम्मुणा-कालधर्म से। संजुत्ते-संयुक्त हुआ अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो गया। तते णं-तदनन्तर अर्थात् मृत्युधर्म को प्राप्त होने के अनन्तर / से-वह / सोरिए-शौरिक। दारए-बालक। बहूहि-अनेक। मित्त-मित्रों, निजकजनों, स्वजनों-सम्बन्धिजनों और परिजनों के साथ। रोयमाणे ३रुदन, आक्रन्दन और विलाप करता हुआ। समुद्ददत्तस्स-समुद्रदत्त का। णीहरणं-निस्सरण-अरथी का निष्कासन / करेति-करता है तथा। लोइयाई-लौकिक। मयकिच्चाई-मृतकसम्बन्धी कृत्यों को। करेतिकरता है। मूलार्थ-उस समय समुद्रदत्ता भार्या जातनिद्रुता-मृतवत्सा थी, उस के बालक जन्म लेते ही मर जाया करते थे। गंगादत्ता की भान्ति विचार कर, पति से पूछ कर, मन्नत मान कर तथा दोहद की पूर्ति कर समुद्रदत्ता बालक को जन्म देती है। बालक के शौरिक यक्ष की मन्नत मानने से उपलब्ध होने के कारण माता पिता ने उस का शौरिकदत्त नाम रक्खा। तदनन्तर पांच धाय माताओं से परिगृहीत बाल्यावस्था को त्याग, विज्ञान की परिपक्व अवस्था से सम्पन्न हो वह युवावस्था को प्राप्त हुआ। तदनन्तरकिसी अन्य समय समुद्रदत्त कालधर्म को प्राप्त हुआ, तबरुदन, आक्रन्दन और विलाप करते हुए शौरिकदत्त बालक ने अनेक मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों एवं परिजनों के साथ समुद्रदत्त का निस्सरण किया-अरथी निकाली और . दाहकर्म एवं अन्य लौकिक मृतक-क्रियाएं की। 648 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-चपलता करने वाला एक वानर चाहे अपनी उमंग-खुशी में लकड़ी के चीरे हुए फट्टों में लगाई गई कीली को बैंच लेता है, परन्तु उन्हीं फट्टों के बीच में जिस समय उस की पूंछ या अण्डकोष भिंच जाते हैं तो वह चीखें मारता और अपनी रक्षा का भरसक यत्न करता है, परन्तु अब सिवाय मरने के उस के लिए कोई चारा नहीं रहता। ठीक इसी तरह पापकर्मों के आचरण में आनन्द का अनुभव करने वाले व्यक्ति चाहे कितना भी प्रसन्न हो लें परन्तु कर्मफल के भोगते समय वे उसी तरह चिल्लाते हैं, जिस तरह चपलता के कारण कीली को निकालने वाला मूर्ख वानर अण्डकोषों के पिस जाने पर चिल्लाता है। सारांश यह है कि उपार्जित किया कर्म अपना फल अवश्य देता है चाहे करने वाला कहीं भी चला जाय। श्रीद रसोइया राजा को प्रसन्न करने के लिए मच्छियों के शिकार करने और उन के मांसों को विविध प्रकार से तैयार करने तथा अपनी जिह्वा को आस्वादित करने के लिए जिस भयानक जीववध का अनुष्ठान किया करता था, उसी के फलस्वरूप उसे छठी नरक में उत्पन्न होना पड़ा। वहां पर उसे अपने कर्मानुरूप नरकजन्य भीषणातिभीषण वेदनाएं भोगनी पड़ी। भगवान् महावीर स्वामी कहने लगे कि हे गौतम ! जिस समय श्रीद रसोइया छठी नरक में पड़ा हुआ स्वकृत अशुभ कर्मों के फल को भोग कर वहां की भवस्थिति को पूरा करने वाला ही था, उस समय इसी शौरिकपुर नगर के मत्स्यबन्धक-मच्छीमारों के मुहल्ले में रहने वाले समुद्रदत्त नामक मच्छीमार की भार्या जातनिद्रुता-मृतवत्सा थी, उस के बालक उत्पन्न होते ही मर जाया करते थे। अतएव वह अपनी गोद को खाली देख कर बड़ी दुःखी हो रही थी। उस की दशा उस किसान जैसी थी, जिस की खेती-फसल पक जाने पर ओलों की वर्षा से सर्वथा नष्ट भ्रष्ट हो जाती है। सन्ततिविरह से परम दुःखी हुई समुद्रदत्ता ने भी गंगादत्ता की भान्ति रात्रि में परिवारसम्बन्धी विचारणा के अनन्तर अपने पति से आज्ञा ले कर शौरिक नामक यक्ष की सेवा में उपस्थित हो कर पुत्रप्राप्ति के लिए याचना की, और उसकी मन्नत मानी। तदनन्तर समुद्रदत्ता को भी यथासमय गर्भ रहने पर गंगादत्ता के समान दोहद उत्पन्न हुआ और उस की, गंगादत्ता के दोहद की तरह ही पूर्ति की गई। लगभग सवा नौ मास पूरे होने पर 1. अव्यापारेषु व्यापारं, यो नरः कर्तुमिच्छति। स एव निधनं याति, कीलोत्पाटीव वानरः॥ (पंचतंत्र) 2. गंगादत्ता का सारा जीवनवृत्तान्त दु:खविपाक के सप्तम अध्ययन में आ चुका है, वह भी जातनिद्रुता थी, उसने भी रात्रि में अपने परिवार के सम्बन्ध में चिन्तन किया था, जिस में उसने पति से आज्ञा लेकर उम्बरदत्त यक्ष के आराधन का निश्चय किया था और तदनुसार उसने पति की आज्ञा ले कर उम्बरदत्त यक्ष की मन्नत मानी तथा गर्भस्थिति होने पर उत्पन्न दोहद की पूर्ति की। सारांश यह है कि जिस प्रकार गंगादत्ता ने अर्द्धरात्रि में कटम्बसम्बन्धी चिन्तन किया था, तथा उस ने उम्बरदत्त यक्ष का आराधन किया था उसी प्रकार समुद्रदत्ता ने भी रात्रि में परिवारसम्बन्धी चिन्तन के अनन्तर पति से आज्ञा ले कर शौरिक यक्ष की मनौती मानने का संकल्प किया। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [649 Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रदत्ता ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। बालक के जन्म से सारे परिवार में हर्ष मनाया गया और कुलमर्यादा के अनुसार जन्मोत्सव मनाया तथा बारहवें दिन बालक का नामकरण संस्कार किया गया। शौरिक नामक यक्ष की मन्नत मानने से प्राप्त होने के कारण माता पिता ने अपने उत्पन्न शिशु का नाम शौरिकदत्त रक्खा। शौरिकदत्त बालक का -१-गोद में रखने वाली, २-क्रीड़ा कराने वाली, ३-दुग्धपान कराने वाली, ४-स्नानादिक क्रियाएं कराने वाली और ५-अलंकारादि से शरीर को सजाने वाली, इन पांच धायमाताओं के द्वारा पालन पोषण आरम्भ हुआ। वह उन की देख रेख में शुक्लपक्षीय शशिकला की भान्ति बढ़ने लगा। विज्ञान की परिपक्व अवस्था तथा युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। समय की गति बड़ी विचित्र है, इस के प्रभाव में कोई भी बाधा नहीं डाल सकता। मनुष्य थोड़ी सी आयु लेकर चाहे समय के वेगपूर्वक चलने को स्मृति से ओझल कर दे, किन्तु समय एक चुस्त, चालाक और सावधान प्रतिहारी की भांति अपने काम करने में सदा जागरूक रहता है, तथा प्रत्येक पदार्थ पर अपना प्रभाव दिखाता रहता है। तदनुसार समुद्रदत्त भी एकदिन समय के चक्र की लपेट में आ जाता है और अचानक मृत्यु की गोद में सो जाता है। पिता की अचानक मृत्यु से शौरिकदत्त को बड़ा खेद हुआ, उस के सारे सांसारिक सुखों पर पानी फिर गया। पिता के जीते जी जितनी स्वतन्त्रता उसे प्राप्त थी, वह सारी की सारी जाती रही और विपरीत इस के उस पर अनेक प्रकार के उत्तरदायित्व का बोझ आ पड़ा, जोकि उस के लिए सर्वथा असह्य था। पिता की मृत्यु से उद्विग्न हुए शौरिकदत्त ने मित्र ज्ञाति आदि के सहयोग से पिता का और्द्धदैहिक संस्कार करने के साथ-साथ विधिपूर्वक मृतक-सम्बन्धी क्रियाओं का सम्पादन कर के अपने पुत्रजनोचित कर्त्तव्य का पालन किया। -जायनिहुया-शब्द के अनेकों रूप उपलब्ध होते हैं। प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में-जायनि या-यह शब्द मान कर उसका संस्कृत प्रतिरूप "-जातनिद्रुता-" ऐसा दे कर साथ में उसका मृतवत्सा, ऐसा अर्थ लिखा है। अर्धमागधीकोष में "-जायनिंदु याजातनिद्रुता-" ऐसा मानकर उस का "जिस के जन्म पाए हुए बालक तुरन्त मर जाते हैं अथवा मृतक पैदा होते हैं वह माता" ऐसा अर्थ लिखा है। टीकाकार श्री अभयदेवसूरि - जायणिंदुया-ऐसा रूप मान कर इस की "-जातानि उत्पन्नानि अपत्यानि निर्वृतानिनिर्यातानि मृतानीत्यर्थो यस्याः सा जातनिर्द्रता-" ऐसी व्याख्या करते हैं। अर्थात् जिस की सन्तति उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए उसे जातनिर्द्वता कहते हैं। अभिधानराजेन्द्रकोषकार जायनिहुया की अपेक्षा मात्र णिन्दू-ऐसा ही मानते हैं और इस की 650 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-मृतप्रजायां स्त्रियाम्, निन्दू महेला यद् यदपत्यं प्रसूयते तत्तन्मियते, एवं यः आचार्यो यं यं प्रव्राजयति स स म्रियतेऽपगच्छति वा ततः स निन्दूरिव निन्दू:-" ऐसी व्याख्या करते हैं। अर्थात् निन्दू शब्द के १-जिस स्त्री की उत्पन्न हुई प्रत्येक सन्तान मर जाए वह स्त्री, अथवा-२-वह आचार्य जिस का प्रत्येक प्रव्रजित शिष्य या तो मर जाता है या निकल जाता है-संयम छोड़ जाता है, वह-ऐसे दो अर्थ करते हैं। तथा शब्दार्थचिन्तामणि नामक कोष में -निन्दुः-ऐसा मान कर उस की "-मृतवत्सायाम्। निंद्यतेऽप्रजात्वेनाऽसौ-" ऐसा अर्थ किया है। अर्थात् सन्तति के विनष्ट हो जाने से जो नारी निंदा का भाजन बने वह / दूसरे शब्दों में मृतवत्सा को निन्दु कहते हैं / संस्कृतशब्दार्थकौस्तुभ नामक कोष में -निन्दुः- ऐसा रूप मानते हुए उसका "-जिस के पास मरा हुआ बच्चा हो वह-" ऐसा अर्थ लिखा है। इन सभी विकल्पों में कौन सा विकल्प वास्तविक है, यह विद्वानों द्वारा विचारणीय है। _ -जहा गंगादत्ताए चिन्ता-यहां पठित चिन्ता पद सातवें अध्याय में पढ़े गए "-एवं खलु अहं. सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूई वासाइं उरालाई-से ले कर - ओवाइयं उवाइणित्तए एवं संपेहेति-" यहां तक के पदों का परिचायक है। अंतर मात्र इतना है कि वहां सेठानी गंगादत्ता तथा सागरदत्त सार्थवाह एवं उम्बरदत्त यक्ष का नामोल्लेख है, जब कि प्रस्तुत में समुद्रदत्त मत्स्यबंध मच्छीमार तथा समुद्रदत्ता एवं शौरिक यक्ष का। नामगत भिन्नता की भावना कर लेनी चाहिए। शेष वर्णन समान ही है। _ -आपुच्छणा-यह पद सप्तम अध्याय में पढ़े गए"-तं इच्छामि णं देवाणुप्पिए ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाता जाव उवाइणित्तए-" इस पाठ का बोधक है। अर्थात् जिस तरह गंगादत्ता ने सेठ सागरदत्त से उम्बरदत्त यक्ष की मनौती मानने के लिए पूछा था, उसी प्रकार समुद्रदत्ता ने मत्स्यवध-मच्छीमार समुद्रदत्त को शौरिक यक्ष की मनौती मानने की अभ्यर्थना की। ___ -ओवयाइयं-यह पद "-तते णं सा समुद्ददत्ता भारिया समुद्ददत्तेणं मच्छंधेणं एतम8 अब्भणुण्णाता समाणी सुबहुं पुष्फ मित्त० महिलाहिं-" से लेकर-तो णं जाव उवाइणति उवाइणित्ता जामेव दिसं पाउब्भूता तामेव दिसं पडिगता-यहां तक के पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ सप्तमाध्ययन में लिखा जा चुका है। अर्थात् जिस तरह गंगादत्ता ने सेठ सागरदत्त से आज्ञा मिल जाने पर उम्बरदत्त यक्ष के पास पुत्रप्राप्ति के लिए मनौती मानी थी, उसी प्रकार समुद्रदत्त मत्स्यबंधक-मच्छीमार से आज्ञा प्राप्त कर समुद्रदत्ता ने पुत्रप्राप्ति के लिए शौरिक यक्ष के सामने मनौती मानी / नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [651 Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -दोहलो जाव दारगं-यहां पठित जाव-यावत् पद से सप्तम अध्याय में पढ़े गए "-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव फले-'" से लेकर "-णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं-" यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। वर्णन समान होने पर भी नामगत भिन्नता यहां पर पूर्व की भान्ति जान लेनी चाहिए। -पयाता जाव जम्हा-यहां पठित जाव-यावत् पद सप्तम अध्याय में "-ठिति. जाव नामधिजं करेन्ति-" इन पदों का परिचायक है। तथा-पंचधाती० उम्मुक्कबालभावेयहां पठित जाव-यावत् पद द्वितीय अध्याय में पढ़े गए "परिग्गहिते तंजहा-खीरधातीए" से लेकर "-सुहंसुहेणं परिवड्ढति-" यहां तक के पदों का, तथा "तते णं से सोरियदत्ते" इन पदों का परिचायक है। ___-मित्त रोयमाणे- यहां दिए गए बिन्दु से "-णाइ-नियग-सयण-सम्बन्धिपरिजणेणं सद्धिं संपरिवुडे-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है / मित्र आदि. . पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में शौरिकदत्त के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं मूल-अन्नया कयाइ सयमेव मच्छंधमहत्तरगत्तं उवसंपज्जित्ताणं विहरति। तते णं से सोरिए दारए मच्छन्धे जाते, अधम्मिए जाव दुष्पडियाणंदे। तते णं तस्स सोरियमच्छंधस्स बहवे पुरिसा दिन्नभतिभत्तवेयणा कल्लाकल्लिं एगट्ठियाहिं जउणं महाणदिओगाहंति ओगाहित्ता बहूहिं दहगलणेहि यदहमलणेहि य दहमद्दणेहि य दहमहणेहि य दहवहणेहि य दहपवहणेहि य पयंचुलेहि य पवंपुलेहि य जम्भाहि य तिसराहि य भिसराहि य घिसराहि य विसराहि य हिल्लिरीहि य झिल्लिरीहि य लल्लिरीहि य जालेहि य गलेहि य कूडपासेहि य वक्कबंधेहि य सुत्तबंधेहि यवालबंधेहि य बहवेसण्हमच्छे यजाव पडागातिपडागे य गेण्हंति गेण्हित्ता एगट्ठियाउ भरेंति भरित्ता कूलं गाहेति गाहित्ता मच्छखलए करेंति करित्ता आयवंसि दलयंति।अन्ने य से बहवे पुरिसा दिन्नभतिभत्तवेयणा आयवतत्तेहिं मच्छेहि सोल्लेहि य तलितेहि य भजितेहि य रायमग्गंसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। अप्पणावि य णं से सोरिए बहूहिं सोहमच्छेहि जाव पडागातिपडागेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च 6 आसाएमाणे 4 विहरति। 652 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-अन्यदा कदाचित् स्वयमेव मत्स्यबन्धमहत्तरकत्वमुपसंपद्य विहरति। ततः स शौरिको दारको मत्स्यबन्धो जातः, अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानन्दः। ततस्तस्य शौरिकमत्स्यबन्धस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतना कल्याकल्यमेकास्थिकाभिर्यमुनां महानदीमवगाहन्ते अवगाह्य बहुभिर्हदगलनैश्च ह्रदमलनैश्च ह्रदमर्दनैश्च ह्रदमथनैश्च हृदवहनैश्च ह्रदप्रवहणैश्च प्रपंचुलैश्च प्रपंपुलैश्च जुंभाभिश्च त्रिसराभिश्च भिसराभिश्च घिसराभिश्च द्विसराभिश्च हिल्लिरीभिश्च झिल्लिरीभिश्च लल्लिरीभिश्च जालैश्च गलैश्च कूटपाशैश्च वल्कबन्धैश्च सूत्रबन्धैश्च वालबन्धैश्च बहून् श्लक्ष्णमत्स्यांश्च यावत् पताकातिपताकांश्च गृह्णन्ति गृहीत्वा नावो भ्रियन्ते भृत्वा कूलं गाहंते गाहित्वा मत्स्यखलानि कुर्वन्ति कृत्वा आतपे दापयन्ति ।अन्ये च तस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतनाः आतपततैर्मत्स्यैः शूल्यैश्च तलितैश्च भर्जितैश्च (भृष्टैश्च) राजमार्गे वृत्तिं कल्पयन्तो विहरन्ति। आत्मनापि च स शौरिको बहूभिः श्लक्ष्णमत्स्यैर्यावत् पताकातिपताकैश्च शूल्यैश्च तलितैश्च भर्जितैश्च सुरां च 6 आस्वादयन् 4 विहरति। ___ पदार्थ-अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय।सयमेव-स्वयं ही। मच्छंधमहत्तरगत्तं-मत्स्यबंधोंमच्छीमारों के महत्तरकत्व-प्रधानत्व को। उवसंपजित्ता णं-प्राप्त कर। विहरति-विहरण करने लगा। तते णं-तदनन्तर। से-वह। सोरिए-शौरिक। दारए-बालक। मच्छंधे-मत्स्यबन्ध-मच्छीमार। जाते-हो गया, जो कि। अधम्मिए-अधर्मी। जाव-यावत्। दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द-अति कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। तते णं-तदनन्तर। तस्स-उस। सोरियमच्छंधस्स-शौरिक मत्स्यबंध मच्छीमार के। दिनभतिभत्तवेयणा-जिन्हें वेतन रूप से रुपया पैसा और धान्यादि दिया जाता हो, ऐसे। बहवे-अनेक / पुरिसा-पुरुष। कल्लाकल्लिं-प्रतिदिन। एगट्ठियाहिं-छोटी नौकाओं के द्वारा। जउणं-यमुना नामक। महाणदि-महानदी का। ओगाहंति ओगाहित्ता-अवगाहन करते हैं-उस में प्रवेश करते हैं, अवगाहन करके। बहूहिं-बहुत से। दहगलणेहि य-हृदगलन-हृद-झील या सरोवर का जल निकाल देने से। दहमलणेहि य-हृदमलन-हृदगत-जल के मर्दन करने अर्थात् दरिया के मध्य में पौन:पुन्येन परिभ्रमण करने से अथवा जल निकालने पर उस के कीचड़ का मर्दन करने से। दहमद्दणेहि य-हृदमर्दन अर्थात् थूहर का दूध डाल कर जल को विकृत करने से। दहमहणेहि य-हृदमथन-हृदगत जल को तरुशाखाओं द्वारा विलोडित करने से। दहवहणेहि य-हृदवहन ह्रद में से नाली आदि के द्वारा जल के बाहर निकालने से। दहपवहणेहि य-हृदप्रवहण-हृदजल को विशेषरूपेण प्रवाहित करने से। पयंचुलेहि यमत्स्यबन्धनविशेषों से। पवंपुलेहि य-मत्स्यों-मच्छों को पकड़ने के जाल विशेषों से। जम्भाहि यबन्धनविशेषों से। तिसराहि य-त्रिसरा-मत्स्य बन्धनविशेषों से। भिसराहि य-मत्स्यों को पकड़ने के बन्धनविशेषों से। घिसराहि य-मत्स्यों को पकड़ने के जाल विशेषों से। विसराहि य-मत्स्यों को पकड़ने के जाल विशेषों से। हिल्लिरीहि य-मत्स्यों को पकड़ने के जालविशेषों से, तथा। झिल्लिरीहि य 'प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [653 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्स्यबन्धनविशेषों से। लल्लिरीहि य-मत्स्यों को पकड़ने के साधन विशेषों से और। जालेहि यसामान्य जालों से। गलेहि य-वडिशों-मत्स्यों को पकड़ने की कुंडियों से। कूडपासेहि य-कूटपाशों से अर्थात् मत्स्यों को पकड़ने के पाशरूप बन्धनविशेषों से। वक्कबंधेहि य-वल्कत्वचा आदि के बन्धनों से। सुत्तबंधेहि य-सूत्र के बन्धनों से, और। वालबंधेहि य-बालों-केशों के बन्धनों से। बहवे-बहुत से। सण्हमच्छे य-कोमल मत्स्यों को। जाव-यावत्। पडागातिपडागे य-पताकातिपताक, इस नाम के मत्स्यविशेषों को। गेहंति गेण्हित्ता-पकड़ते हैं, पकड़ कर। एगट्ठियाउ-छोटी नौकाओं को। भरेंति भरित्ता-भरते हैं, भर कर। कूलं-किनारे पर। गाहेति गाहित्ता-लाते हैं, लाकर बाहर की भूमि अर्थात् . बाहर के जल रहित स्थान पर। मच्छखलए-मत्स्यों के ढेर करेंति करित्ता-लगाते हैं. ढेर लगा कर उन को सुखाने के लिए। आयवंसि-धूप में। दलयंति-रख देते हैं। अन्ने य-और। से-उस के। बहवे-बहुत से। दिनभतिभत्तवेयणा-रुपया पैसा और धान्यादिरूप वेतन लेकर काम करने वाले। पुरिसा-पुरुष। आयवतत्तेहि-आतप-धूप में तपे हुए। सोल्लेहिं य-शूलाप्रोत किए हुए तथा। तलितेहि य-तले हुए, तथा। भजितेहि य-भर्जित-भूने हुए। मच्छेहि-मत्स्यमांसों के द्वारा अर्थात् धूप से तप्त-सूखे हुए मत्स्यों के मांसों को शूल द्वारा पकाते हैं, तेल द्वारा तलते हैं, तथा अंगारादि पर भूनते हैं, तदनन्तर उन को। रायमग्गंसि-राजमार्ग में, (रख कर बेचते हैं, इस तरह अपनी)। वित्तिं-आजीविका। कप्पेमाणा-करते हुए। विहरंति-समय बिता रहे हैं। अप्पणावि य णं-और स्वयं भी। से-वह। सोरिए-शौरिकदत्त / बहूहि-अनेकविध। सण्हमच्छेहि-श्लक्ष्णमत्स्यों। जाव-यावत्। पडागातिपडागेहि य-पताकातिपताक नामक मत्स्यविशेषों के मांसों, जो कि / सोल्लेहि य-शूल प्रोत किए हुए हैं, तथा। तलितेहि य-तले हुए हैं। भन्जिएहि य-भूने हुए हैं, के साथ। सुरं च ६-छः प्रकार की सुराओं का। आसाएमाणे ४आस्वादनादि करता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा है-समय व्यतीत कर रहा है। मूलार्थ-किसी अन्य समय वह-शौरिकदत्त स्वयं ही मच्छीमारों के नेतृत्व को प्राप्त करके विहरण करने लगा। वह महा अधर्मी-पापी यावत् उस को प्रसन्न करना * अत्यन्त कठिन था।इसने रुपया, पैसा और भोजनादि रूप वेतन लेकर काम करने वाले अनेक वेतनभोगी पुरुष रखे हुए थे, जो कि छोटी नौकाओं के द्वारा यमुना नदी में घूमते और बहुत से ह्रदगलन, ह्रदमलन, ह्रदमर्दन, हृदमंथन, हृदवहन तथा हृदप्रवहन से एवं प्रपंचुल, प्रपंपुल, जृम्भा, त्रिसरा, भिसरा, घिसरा, द्विसरा, हिल्लिरि, झिल्लिरि, लल्लिरि, जाल, गल, कूटपाश, वल्क-बन्ध, सूत्रबन्ध और बालबन्ध इन साधनों के द्वारा अनेक जाति के सूक्ष्म अथवा कोमल मत्स्यों यावत् पताकातिपताक नामक मत्स्यों को पकड़ते हैं और पकड़ कर उन से नौकायें भरते हैं, भर कर नदी के किनारे पर उन को लाते हैं लाकर बाहर एक स्थल पर ढेर लगा देते हैं, तत्पश्चात् उन को वहां धूप में सूखने के लिए रख देते हैं। इसी प्रकार उस के अन्य रुपया पैसा और धान्यादि ले कर काम करने वाले वेतनभोगी पुरुष धूप में सूखे हुए उन मत्स्यों-मच्छों के मांसों को शूलाप्रोत कर पकाते, 654] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलते और भूनते, तथा उन्हें राजमार्ग में विक्रयार्थ रख कर उनके द्वारा वृत्ति-आजीविका करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे। इस के अतिरिक्त शौरिकदत्त स्वयं भी उन शूलाप्रोत किए हुए, भूने हुए और तले हुए मत्स्यमांसों के साथ विविध प्रकार की सुराओं का सेवन * करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। टीका-प्रकृति का प्रायः यह नियम है कि पुत्र अपने पिता के कृत्यों का ही अनुसरण किया करता है। पिता जो काम करता है प्रायः पुत्र भी उसी को अपनाने का यत्न करता है, और अपने को वह उसी काम में अधिकाधिक निपुण बनाने का उद्योग करता रहता है। समुद्रदत्त मत्स्यबन्ध-मच्छीमार था, परम अधर्मी और परम दुराग्रही था, तदनुसार शौरिकदत्त भी पैतृकसम्पत्ति का अधिकारी होने के कारण इन गुणों से वंचित नहीं रहा। पिता की मृत्यु के कुछ दिनों के बाद शौरिकदत्तं ने पिता के अधिकारों को अपने हाथ में लिया अर्थात् पिता की भांति अब वह सारे मुहल्ले का मुखिया बन गया। मुहल्ले का मुखिया बन जाने के बाद शौरिकदत्त भी पिता की तरह अधर्मसेवी अथच महा लोभी और दुराग्रही बन गया। अपने हिंसाप्रधान व्यापार को अधिक प्रगति देने के लिए उसने अनेक ऐसे वेतनभोगी पुरुषों को रखा जो कि यमुना नदी में जा कर तथा छोटी-छोटी नौकाओं में बैठ कर भ्रमण करते तथा अनेक प्रकार के साधनों के प्रयोग से विविध प्रकार की मछलियों को पकड़ते तथा धूप में सुखाते, इसी भांति अन्य अनेकों वेतनभोगी पुरुष धूप से तप्त-सूखे हुए उन मत्स्यों को ग्रहण करते और उन के मांसों को शूल द्वारा पकाते और तैल से तलते तथा अंगारादि पर भून कर उन को राजमार्ग में रख कर उनके विक्रय से द्रव्योपार्जन करके शौरिकदत्त को प्रस्तुत किया करते थे। इस के अतिरिक्त वह स्वयं भी मत्स्यादि के मांसों तथा 6 प्रकार की सुरा आदि का निरन्तर सेवन करता हुआ सानन्द समय व्यतीत कर रहा था। .. दिनभतिभत्तवेयणा-आदि पदों का अर्थसम्बन्धी विचार निम्नोक्त है. १-दिन्नभतिभत्तवेयणा-" इस पद का अर्थ तीसरे अध्याय में लिखा जा चुका है। .२-एगट्ठिया-" शब्द का अर्धमागधीकोषकार ने -एकास्थिका-ऐसा संस्कृत प्रतिरूप देकर -छोटी नौका-यह अर्थ किया है, परन्तु प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में देश्य-देश विशेष में बोला जाने वाला पद मान कर इस के नौका, जहाज ऐसे दो अर्थ लिखे ३-दहगलणं-ह्रदगलनम् हृदस्य मध्ये मत्स्यादिग्रहणार्थं भ्रमणं जलनिस्सारणं वा-" अर्थात् ह्रद बड़े जलाशय एवं झील का नाम है, उस के मध्य में मच्छ आदि जीवों को ग्रहण करने के लिए किए गए भ्रमण का नाम ह्रदगलन है। अथवा-हृद में से जल के निकालने प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [655 Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को ह्रदगलन कहते हैं / अथवा-मत्स्य आदि को पकड़ने के लिए वस्त्रादि से ह्रद के जल को , छानना हृदगलन कहा जाता है। अर्धमागधीकोष में हृदगलन-शब्द का "-मछली आदि पकड़ने के लिए झरने पर घूमना-शोध निकालना-" ऐसा अर्थ लिखा है। ४-दहमलणं-ह्रदमलनं, ह्रदमध्ये, पौनः पुन्येन परिभ्रमणं, जले वा निस्सारिते पंकमर्दनं-" अर्थात् ह्रद के मध्य में मछली आदि जीवों को ग्रहण करने के लिए पुनः-पुन:बारम्बार परिभ्रमण करना, अथवा-ह्रद में से पानी निकाल कर अवशिष्ट पंक-कीचड़ का मर्दन करना ह्रदमलन कहलाता है। अर्धमागधीकोष में ह्रदमलन के "-१-झरने में तैरना और २-स्रोत में चक्कर लगाना-" ये दो अर्थ पाये जाते हैं। ५-दहमद्दणं-हृदमर्दनम् थोहरादिप्रक्षेपेण ह्रदजलस्य विक्रियाकरणम्-" अर्थात् ह्रद के मध्य में थूहर (एक छोटा पेड़ जिस में गांठों पर से डण्डे के आकार के डण्ठल निकलते हैं, और इस का दूध बड़ा विषैला होता है) आदि के दूध को डाल कर उस के जल को विकृत-खराब कर देना ह्रदमर्दन कहा जाता है। अर्धमागधीकोष में -ह्रदमर्दन- शब्द का अर्थ "-सरोवर में बार-बार घूमने को जाना-जलभ्रमण-" ऐसा अर्थ लिखा है। ६-दहमहणं-हृदमथनम्, हृदजलस्य तरुशाखाभिर्विलोडनम्-" अर्थात् वृक्ष की शाखाओं के द्वारा ह्रद के जल का विलोडन करना-मथना, ह्रदमथन कहलाता है। ह्रदमन्थन में मच्छीमारों का मत्स्यादि को भयभीत तथा स्थानभ्रष्ट करके पकड़ने का ही प्रधान उद्देश्य रहता है। ७-दहवहणं-ह्रदवहनम्-" इस पद के दो अर्थ होते हैं, जैसे कि १-नाली आदि के द्वारा हृद के पानी को निकालना, अर्थात् ह्रदवहन शब्द "-सरोवर में से पानी निकालने के लिए जो नालिएं होती हैं, उन में से पानी निकाल कर मत्स्य आदि को पकड़ना-" इस अर्थ का परिचायक है। २-हृद से पानी का स्वतः बाहर निकलना अर्थात् हूंद में नौकाओं के प्रविष्ट होने से पानी हिलता है और वह स्वतः ही बाहर निकल जाता है, इस अर्थ का बोध ह्रदवहन शब्द करता है। ८-दहप्पवहणं-ह्रदप्रवहनम्-" इस पद के भी दो अर्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे कि-१-मत्स्य आदि को पकड़ने के लिए हृद का बहुत सा पानी निकाल देना। २-मत्स्यादि को ग्रहण करने के लिए नौका द्वारा हृद में भ्रमण करना। इस के अतिरिक्त १-प्रपञ्चल, २-प्रपम्पुल, ३-जृम्भा, ४-त्रिसरा, ५-भिसरा, ६-घिसरा, ७-द्विसिरा, ८-हिल्लिरि, ९-झिल्लिरि, १०-जाल, ये सब मत्स्यादि के पकड़ने के भिन्न-भिन्न साधनविशेष हैं, जिन को वृत्तिकार ने "-मत्स्यबन्धनविशेष:-" 656 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह कर उल्लेख किया है-प्रपञ्चुलादयो मत्स्यबन्धनविशेषाः। कोषकारों ने इन में से कई एक की संस्कृत छाया दी है और कई एक को देश्य माना है। तथा-मछली पकड़ने के कांटों को गल कहते हैं। कूटपाश भी मछली पकड़ने का जालविशेष ही होता है। वल्कबन्ध का * अर्थ होता है-त्वचा का बना हुआ बन्धन / सूत्र से निर्मित बन्धन सूत्रबन्धन और केशों का बना हुआ बन्धन बालबन्धन कहलाता है। तात्पर्य यह है कि सर्वप्रथम मत्स्यों को अनेकविध जालों द्वारा पकड़ा जाता था फिर उन्हें वल्कल आदि के बंधनों से बांध दिया जाता था। ___कोषकार ने "-मच्छखले-मत्स्यखल-" का अर्थ "मछलियों के सुखाने की जंगह" ऐसा किया है, और टीकाकार श्री अभयदेवसूरि "-मच्छखलए करेंति-" का अर्थ करते हैं "स्थंडिलेषु मत्स्यपुंजान् कुर्वन्ति-" अर्थात् भूमि पर मछलियों के ढेर लगाते हैं। प्रकृत में ये दोनों ही अर्थ सुसंगत हैं। ___-अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे-यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित पदों का वर्णन प्रथम अध्याय में तथा-सोहमच्छे य जाव पडागातिपडागे-यहां पठित जाव-यावत् पद से अपेक्षित पाठ पीछे इसी अध्याय में तथा –सुरं च ६-यहां के अंक से अभिमत पाठ पीछे इसी अध्याय में तथा –आसाएमाणे 4- यहां दिए गए अंकों से अभिमत पाठ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अब सूत्रकार शौरिकदत्त के अग्रिम जीवन के वृत्तान्त का वर्णन करते हुए कहते हैं. मूल-तते णं तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स अन्नया कयाइ ते मच्छे सोल्ले यतलिए य भजिए आहारेमाणस्स मच्छकंटए गलए लग्गे यावि होत्था। तते णं से सोरिए महयाए वेयणाए अभिभूते समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सोरियपुरेणगरे सिंघाडग० जाव पहेसु महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सोरियस्स मच्छकंटए गलए लग्गे।तं जोणं इच्छति वेजो वा 6 सोरियमच्छियस्स मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तए, तस्स णं सोरिए विपुलं अत्थसंपयाणं दलयति।तते णं से काडुंबियपुरिसा जाव उग्घोसंति। ततो बहवे वेजा य६ इमं एयारूवं उग्घोसणं उग्घोसिजमाणं निसामंति निसामित्ता जेणेव सोरियगिहे जेणेव सोरियमच्छंधे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता बहूहिं उप्पत्तियाहि य 4 बुद्धीहि परिणामेमाणा वमणेहि य छड्डणेहि य उवीलणेहि यकवलग्गाहेहि य सल्लुद्धरणेहि य विसल्लकरणेहि य इच्छंति सोरियमच्छंधस्स प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [657 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मच्छकंटगं गलाओ नीहरित्तए, नो चेवणं संचाएंति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा।तते णं बहवे वेजा य 6 जाहे नो संचाएंति सोरियस्स मच्छकंटगं गलाओ नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा ताहे संता 3 जामेव दिसं पाउब्भूता तामेव दिसं पडिगता। तते णं से सोरियमच्छंधे वेजपडियारनिविण्णे तेणं महया दुक्खेण अभिभूते सुक्खे जाव विहरति। एवं खलु गोतमा ! सोरिए पुरा पोराणाणं जाव विहरति। ___ छाया-ततस्तस्य शौरिकदत्तस्य मत्स्यबंधस्य, अन्यदा कदाचित् तान् मत्स्यान् शूल्याँश्च तलितांश्च भर्जिताँश्च आहरतो मत्स्यकंटको गले लग्नश्चाप्यभवत्। ततः स शौरिको महत्या वेदनयाऽभिभूतः सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दाययति शब्दाययित्वा एवमवादीत्-गच्छत यूयं देवानुप्रियाः ! शौरिकपुरे नगरे शृङ्गाटक यावत् पथेषु महता महता शब्देन उद्घोषयन्तः उद्घोषयन्त एवं वदत-एवं खलु देवानुप्रियाः ! शौरिकस्य मस्त्यकंटको गले लग्नः तद् य इच्छति वैद्यो वा 6 शौरिकमात्स्यिकस्य मत्स्यकण्टकं गलाद् निस्सारयितुं तस्मै शौरिको विपुलमर्थसम्प्रदानं ददाति / ततस्ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावदुद्घोषयन्ति। ततो बहवो वैद्याश्च 6 इमामेतद्पामुद्घोषणामुद्घोष्यमाणा निशमयन्ति निशम्य यत्रैव शौरिकगृहं यत्रैव शौरिको मत्स्यबन्धस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य बहुभिः औत्पातिकीभिश्च बुद्धिभिः परिणमयन्तः वमनैश्च छर्दनैश्च अवपीडनैश्च कवलग्राहैश्च शल्योद्धरणैश्च विशल्यकरणैश्च इच्छन्ति शौरिकमत्स्यबंधस्य मत्स्यकण्टकं गलाद् निस्सारयितुं नो चैव संशक्नुवन्ति निस्सारयितुं वा विशोधयितुं वा। ततस्ते बहवो वैद्याश्च 6 यदा नो संशक्नुवन्ति शौरिकस्य मत्स्यकण्टकं गलाद् निस्सारयितुं वा विशोधयितुं वा तदा श्रान्ताः 3 यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव दिशं प्रतिगताः। ततः स शौरिको मत्स्यबंधो वैद्यप्रतिकारनिर्विण्णः तेन महता दुःखेनाभिभूतः शुष्को यावत् विहरति / एवं खलु गौतम ! शौरिकः पुरा पुराणानां यावत् विहरति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। तस्स-उस। सोरियदत्तस्स-शौरिकदत्त। मच्छंधस्स-मत्स्यबंधमच्छीमार के। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। ते-उन। सोल्ले य-शूलाप्रोत करके पकाए हुए। तलिए-तले हुए। भजिए य-भूने हुए। मच्छे-मत्स्यमांसों का। आहारेमाणस्स-आहार करते-भक्षण 1. निष्काशयितुं विशोधयितुं पूयाद्यपनेतुमित्यर्थः-वृत्तिकारः। 658 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए के। गलए-गले-कण्ठ में। मच्छकंटए-मत्स्यकण्टक-मत्स्य का कांटा। लग्गे यावि होत्थालग गया था। तते णं-तदनन्तर अर्थात् गले में कांटा लग जाने के अनन्तर। से-वह। महयाए-महती। वेयणाएं-वेदना से। अभिभूते समाणे-अभिभूत-व्याप्त हुआ। सोरिए-शौरिकदत्त। कोडुंबियपुरिसेकौटुम्बिक पुरुषों-अनुचरों को। सद्दावेति-सहावित्ता-बुलाता है, बुलाकर। एवं वयासी-इस प्रकार कहता है। देवाणुप्पिया !-हे भद्रपुरुषो ! तुब्भे-तुम लोग। गच्छह णं-जाओ। सोरियपुरे-शौरिकपुर नामक। णगरे-नगर में। सिंघाडग०-त्रिकोण मार्ग। जाव-यावत् / पहेसु-सामान्य मार्गों-रास्तों पर। महया महया-महान् ऊँचे। सद्देणं-शब्द से। उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा-उद्घोषणा करते हुए, उद्घोषणा करते हुए। एवं वयह-इस प्रकार कहो। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। देवाणुप्पिया!-हे महानुभावो!। सोरियस्स-शौरिकदत्त के। गले-कण्ठ में। मच्छकंटए-मत्स्यकण्टक-मच्छी का कांटा। लग्गे-लग गया है। तं-अतः। जोणं-जो।वेजो वा ६-वैद्य या वैद्यपुत्रादि ।सोरियमच्छियस्स-शौरिक नामक मात्स्यिकमच्छीमार के। गलाओ-कण्ठ से। मच्छकंटयं-मत्स्यकण्टक को। नीहरित्तए-निकालने की। इच्छतिइच्छा रखता है अर्थात् जो कांटे को निकालना चाहता है, और जो निकाल देगा। तस्स णं-उस को। सोरिए-शौरिक। विउलं-विपुल-बहुत सी। अत्थसंपयाणं-आर्थिक सम्पत्ति / दलयति-देगा। तते णंतदनन्तर / ते-वे। कोडुंबियपुरिसा-कौटुम्बिक पुरुष। जाव-यावत् / अर्थात् उसकी आज्ञानुसार नगर में। उग्धोसंति-उद्घोषणा कर देते हैं। ततो-तदनन्तर। बहवे-बहुत से। वेजा य ६-वैद्य और वैद्यपुत्रादि। इमं-यह। एयारूवं-इस प्रकार की। उग्धोसिज्जमाणं-उद्घोषित की जाने वाली। उग्घोसणं-उद्घोषणा को। निसामंति निसामित्ता-सुनते हैं, सुनकर / जेणेव-जहां। सोरियगिहे-शौरिकदत्त का घर था, और। जेणेव-जहां पर। सोरिए-शौरिक। मच्छंधे-मत्स्यबन्ध-मच्छीमार था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता-आ जाते हैं, आकर बहूहिं-बहुत सी। उप्पत्तियाहि य ४-औत्पातिकी बुद्धिविशेष अर्थात् बिना ही शास्त्राभ्यासादि के होने वाली बुद्धि-स्वाभावसिद्ध प्रतिभा, आदि। बुद्धिहिं-बुद्धियों से। परिणामेमाणा-परिणमन को प्राप्त करते हुए अर्थात् सम्यक्तया निदान आदि को समझते हुए उन वैद्यों ने। वमणेहि य-वमनों से तथा। छड्डुणेहि य-छर्दनों से तथा। उवीलणेहि य-अवपीडन-दबाने से और। कवलग्गाहेहि य-कवलग्राहों से, तथा। सल्लुद्धरणेहि य-शल्योद्धरणों से एवं। विसल्लकरणेहि यविशल्यकरणों से। सोरियमच्छंधस्स-शौरिक मत्स्यबन्ध के। गलाओ-कंठ में से। मच्छकंटगंमत्स्यकण्टक-मच्छी के कांटे को। नीहरित्तए-निकालने की। इच्छंति-इच्छा करते हैं, अर्थात् उक्त उपायों से गले में फंसे हुए कांटे को निकालने का उद्योग करते हैं, परन्तु वे। नो चेवणं-नहीं। संचाएंतिसमर्थ हुए। नीहरित्तए-कांटा निकालने को। विसोहित्तए वा-तथा पूय आदि के हरण को, अर्थात् उन के उक्त उपचारों से न तो उस के गले का काँटा ही निकला और ना उस के मुख से निकलता हुआ पूय-पीव तथा रुधिर ही बन्द हुआ। तते णं-तदनन्तर। ते-वे। बहवे-बहुत से। वेजा य ६-वैद्य तथा वैद्यपुत्रादि। जाहे-जब। सोरियस्स-शौरिक के। गलाओ-कण्ठ से। मच्छकंटगं-मत्स्यकण्टक को। नीहरित्तए वानिकालने और। विसोहित्तए-पूयादि के दूर करने में। नो संचाएंति-समर्थ नहीं हुए। ताहे-तब (वे)। संता ३-श्रान्त, तान्त और परितान्त हुए अर्थात् हतोत्साह होकर। जामेव दिसं-जिस दिशा से। पाउब्भूताआये थे। तामेव दिसं-उसी दिशा को। पडिगता-लौट गए-चले गए। तते णं-तदनन्तर। से-वह। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [659 Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरिए-शौरिक / मच्छंधे-मत्स्यबन्ध / वेजपडियारनिविण्णे-वैद्यों के प्रतिकार-इलाज से निराश हुआ। तेणं-उस। महया-महान्। दुक्खेणं-दुःख से। अभिभूते-अभिभूत-युक्त हुआ। सुक्खे-शुष्क हो कर। जाव-यावत्। विहरति-विहरण करता है अर्थात् दुःखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा है। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! सोरिए-शौरिक। पुरा-पूर्वकृत। पोराणाणं-पुरातन। जावयावत् अर्थात् पाप कर्मों का फल भोगता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा है-समय व्यतीत कर रहा है। मूलार्थ-तदनन्तर किसी अन्य समय पर शूला द्वारा पकाए गए, तले गए और भूने गए मत्स्यमांसों का आहार करते हुए उस शौरिक मत्स्यबन्ध-मच्छीमार के गले में मच्छी का कांटा लग गया, जिस के कारण वह महती वेदना का अनुभव करने लगा। तब नितान्त दुःखी हुए शौरिक ने अपने अनुचरों को बुलाकर इस प्रकार कहा कि हे भद्रपुरुषो ! शौरिकपुर नगर के त्रिकोण मार्गों यावत् सामान्य मार्गों पर जा कर ऊंचे शब्द से इस प्रकार उद्घोषणा करो कि हे महानुभावो ! शौरिकदत्त के गले में मत्स्य का कांटा लग गया है, यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र आदि उस मत्स्यकंटक को निकाल देगा, तो शौरिकदत्त उसे बहुत सा धन देगा। तब कौटुम्बिकपुरुषों-अनुचरों ने उस की आज्ञानुसार सारे नगर में उद्घोषणा कर दी। उस उद्घोषणा को सुन कर बहुत से वैद्य और वैद्यपुत्र आदि शौरिकदत्त के घर आये, आकर वमन, छर्दन, अवपीड़न, कवलग्राह, शल्योद्धरण और विशल्यकरण आदि उपचारों से शौरिकदत्त के गले के कांटे को निकालने तथा पूय आदि को बन्द करने का उन्होंने भरसक प्रयत्न किया, परन्तु उस में वे सफल नहीं हो सके अर्थात् उन से शौरिकदत्त के गले का कांटा निकाला नहीं जा सका और ना ही पीव एवं रुधिर ही बन्द हो सका, तब वह श्रान्त, तान्त और परितान्त हो अर्थात् निराश एवं उदास हो कर वापिस अपने-अपने स्थान को चले गए।तब वह वैद्यों के प्रतिकार-इलाज से निर्विण्णनिराश (खिन्न) हुआ 2 शौरिकदत्त उस महती वेदना को भोगता हुआ सूख कर यावत् अस्थिपंजर मात्र शेष रह गया, तथा दुःखपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार वह शौरिकदत्त पूर्वकृत यावत् अशुभ कर्मों का फल भोग रहा है। ___टीका-कर्मग्रन्थों में कर्म की प्रकृति और स्थिति आदि का सविस्तार वर्णन बड़े ही मौलिक शब्दों में पाया जाता है। कोई कर्म ऐसा होता है, जो काफी समय के बाद फलोन्मुख होता है अर्थात् उदय में आता है, तथा कोई शीघ्र ही फलप्रद होता है। यह सब कुछ बन्धसमय की स्थिति पर निर्भर करता है। कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध आदि के 660] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेदोपभेदों के वर्णन करने का यहां पर अवसर नहीं है तथा विस्तारभय से उनका उल्लेख भी नहीं किया गया। यहां तो संक्षेप से इतना ही बतला देना उचित है कि सामान्यतया कर्म दो प्रकार के होते हैं-एक वे जो जन्मान्तर में फल देने वाले, दूसरे वे जो इसी जन्म में फल दे डालते हैं। शौरिकदत्त मच्छीमार के जीवनवृत्तान्त से यह पता चलता है कि उस के तीव्रतर क्रूरकर्मों का फल उसे इस जन्म में मिल रहा है, अर्थात् वह अपने किए कर्म का फल इस जन्म में भी भुगत रहा है। शौरिकदत्त का व्यापार था पका हुआ मांस बेचना, तथा इस व्यवसाय के साथ-साथ वह उस का स्वयं भी आहार किया करता था। तात्पर्य यह है कि वह मत्स्यादि जीवों के मांस का विक्रेता भी था और स्वयं भोक्ता भी। शूलाप्रोत कर पकाए गए, तैलादि में तले और अंगारों पर भूने गए मत्स्यादि जीवों के मांसों के साथ विविध प्रकार की मदिराओं का सेवन करना, उस के व्यवहारिक जीवन का एकमात्र कर्त्तव्य सा बना हुआ था। इसी में वह अपने जीवन को सार्थक एवं सफल समझता था। किन्तु पापकर्म से यह आत्मा उसी प्रकार मलिन होनी आरंभ हो जाती है, जिस प्रकार मलिन शरीर के सम्पर्क में आने वाला नवीन श्वेत वस्त्र। वस्त्रधारी कितना भी चाहे कि उस का वस्त्र मलिन न होने पावे परन्तु जिस तरह वह वस्त्र उस मलिन शरीर के सम्पर्क में आने से अवश्य मैला हो जाता है, उसी प्रकार कर्मरूप मल के सम्पर्क में आने से यह आत्मा भी मलिन होने से नहीं बच सकती। शौरिकदत्त ने पापकर्मों के आचरण से अपने आत्मा को अधिक से अधिक मात्रा में मलिन करने का उद्योग किया और उस के फलस्वरूप उस का मानवजीवन भी अधिक से अधिक दुःख का भाजन बना। . एक दिन शौरिकदत्त शूलाप्रोत किए हुए, तले और भूने हुए मत्स्यमांस को खा रहा था, तो वहीं उस मांस में जो मच्छी का कोई विषैला-ज़हरीला कांटा रह गया था, वह उस के गले में चिपट गया। कांटे के गले में लगते ही उसे बड़ी असह्य वेदना हुई, वह तड़प उठा। अनेक प्रकार के घरेलू यत्न पर भी कांटा नहीं निकल सका, तब उसने अपने अनुचरों को बुला कर सारे नगर में मुनादी कराई कि यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, चिकित्सक या चिकित्सकपुत्र आदि शौरिकदत्त के गले में लगे हुए मच्छी के कांटे को बाहर निकाल कर उसे अच्छा कर दे तो वह उसको बहुत सा धन देकर प्रसन्न करेगा, उस का घर लक्ष्मी से भर देगा। अनुचरों ने सारे शहर में यह उद्घोषणा कर दी और उसे सुन कर नगर के अनेक प्रसिद्ध वैद्य, वैद्यपुत्र तथा चिकित्सक आदि शौरिकदत्त के घर में पहुँचे, उन्होंने उसके गले को देखा, अपनी-अपनी तीक्ष्ण और विलक्षण प्रतिभा के अनुसार उस की चिकित्सा आरम्भ की, वमन कराए गए, विधिपूर्वक गले को दबाया गया, स्थूल ग्रासों को खिला कर कांटे को नीचे प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [661 Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतारने का उद्योग किया गया, एवं यन्त्रों के द्वारा निकालने का यत्न किया गया, परन्तु वे सब के सब अनुभवी वैद्य, मेधावी चिकित्सक आदि उस कांटे को बाहर निकालने या भीतर पहुँचाने में असफल ही रहे, तब वे हताश हो शौरिकदत्त को जवाब दे कर वहां से अपने-अपने स्थान को प्रस्थान कर गए, और वैद्यादि के "हम इस कांटे को निकालने में सर्वथा असमर्थ हैं" इन निराशाजनक उत्तर को सुन कर शौरिकदत्त को बड़ा भारी कष्ट हुआ और उसी कष्ट से सूख कर वह अस्थिपंजर मात्र रह गया। उस कांटे के विषैले प्रभाव से उस का शरीर विकृत हो गया, उस के मुख से पूय और रुधिर प्रवाहित होने लगा। इस वेदना से उस का शरीर मात्र हड्डियों का ढांचा ही रह गया। प्रतिक्षण प्रतिपल वह वेदना से पीड़ित होता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा। भगवान् महावीर स्वामी फरमाने लगे कि हे गौतम ! यह वही शौरिकदत्त मच्छीमार है, जिस को तुमने शौरिकपुर नगर में मनुष्यों के जमघट में देखा है। ये सब कुछ उसके कर्मों का ही प्रत्यक्ष फल है। विचारशील मानव को उस के जीवन से उपयुक्त शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। इस की दुर्दशा को देख कर आत्मसुधार की शिक्षा ग्रहण करने वाले तो लाखों में दो चार ही मिलेंगे, किन्तु उसे देख कर दूसरी ओर मुंह फिराने वाले संसार में अनेक होंगे। परन्तु जीवन की महानता के वे ही भाजन बनते हैं जो उपयुक्त शिक्षा से अपने को शिक्षित करते हुए अपना आत्मश्रेय साधने में सदा तत्पर रहते हैं। -सिंघाडग जाव पहेसु-यहां पठित-जाव-यावत्-पद-तिय,चउक्क, चच्चर, महापह-इन पदों का परिचायक है। सिंघाडग-शृंगाटक आदि पदों का अर्थ प्रथम अध्याय में लिखा जा चुका है। पाठक वहीं पर देख सकते हैं। -वेज्जो वा ६-यहां पर दिए गए 6 के अंक से प्रथम अध्ययन में पढ़े गए-वेजपुत्तो वा, जाणओ वा, जाणयपुत्तो वा, तेइच्छिओ वा, तेइच्छियपुत्तो वा-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ वहीं पर लिख दिया गया है। -कोडुंबियपुरिसा जाव उग्घोसंति-यहां पढ़ा गया-जाव-यावत्-पद-तह त्ति विणएणं एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता सोरियपुरे णगरे सिंघाडग-तिय-चउक्कचच्चर-महापह-पहेसु महया महया सद्देणं "-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सोरियस्स मच्छकंटए गलए लग्गे, तं जो णं इच्छति वेज्जो वा 6 सोरियमच्छियस्स मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तए, तस्स णं सोरिए विउलं अत्थसंपयाणं दलयति-"त्ति-इन पदों का परिचायक है। अर्थात् कौटुम्बिकपुरुष-नौकर शौरिकदत्त मच्छीमार की बात को विनयपूर्वक तथेति (ऐसा ही होगा) ऐसा कह कर स्वीकार करते हैं, और शौरिकपुर के शृङ्गाटक त्रिक् 662] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्क, चत्वर, महापथ और पथ इन रास्तों में बड़े ऊंचे शब्द से उद्घोषणा करते हैं कि हे भद्रपुरुषो ! शौरिकदत्त के गले में मत्स्यकंटक-मच्छी का कांटा लग गया है, जो वैद्य तथा वैद्यपुत्र आदि उस को निकाल देगा तो शौरिकदत्त उस को बहुत सा द्रव्य देगा। * "बहूहिं उप्पत्तियाहि य 4 बुद्धिहिं"-यहां दिया गया चार का अंक वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी-इन तीनों अवशिष्ट बुद्धियों का परिचायक है। औत्पातिकी आदि पदों का भावार्थ निनोक्त है १-जो बुद्धि प्रथम बिना देखे, बिना सुने और बिना जाने विषयों को उसी क्षण में विशुद्ध यथावस्थितरूप में ग्रहण करती है, अर्थात् शास्त्राभ्यास और अनुभव आदि के बिना केवल उत्पात-जन्म से ही जो उत्पन्न होती है, उसे औत्पातिकी बुद्धि कहते हैं / नटपुत्र रोहा, मगधनरेश महाराज श्रेणिक के मन्त्री श्री अभयकुमार, मुगलबादशाह अकबर के दीवान बीरबल, महाकवि कालीदास आदि पूर्वपुरुष औत्पातिकी बुद्धि के ही धनी थे। २-कठिन से कठिन समस्या को सुलझाने वाली, नीतिधर्म और अर्थशास्त्र के रहस्य को ग्रहण करने वाली, तथा लोकद्वय-इस लोक और परलोक में सुख का सम्पादन करने वाली बुद्धि का नाम वैनयिकी बुद्धि है। . ३-उपयोग से-एकाग्र मन से कार्यों के परिणाम (फल) को देखने वाली, तथा अनेकविध कार्यों के अभ्यास और चिन्तन से विशाल फल देने वाली बुद्धि कर्मजा बुद्धि कहलाती है। - ४-अनुमान, हेतु और दृष्टान्त से विषय को सिद्ध करने वाली तथा अवस्था के परिपाक से पुष्ट एवं आध्यात्मिक उन्नति और मोक्षरूप फल को देने वाली बुद्धि पारिणामिकी कही जाती है। __तथा-वमणेहि-इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है -"वमणेहि यत्ति-वमनं स्वतः सम्भूतम्-" अर्थात् वमन शब्द से उस वमन का ग्रहण जानना चाहिए जो किसी उपचार से नहीं किन्तु स्वाभाविक आई है। वमन शब्द का अधिक अर्थ-सम्बन्धी ऊहापोह प्रथम अध्याय में किया जा चुका है। २-"छड्डणेहि यत्तिछर्दनं-वचादिद्रव्य-प्रयोगकृतम्-" अर्थात् छर्दन भी वमन का ही नाम है, किन्तु यह बच (एक पौधा, जिस की जड़ दवा के काम आती है) आदि (आदि शब्द से मदनफल प्रभृति 1. उप्पत्तिया 1 वेणइया 2 कम्मया 3 परिणामिया ४।बुद्धी चउव्विहा वुत्ता पंचमा नोवलब्भई(नन्दीसूत्र 26) / इन चारों बुद्धियों के विस्तृत स्वरूप को जानने की अभिलाषा रखने वाले पाठक श्री नन्दीसूत्र की टीका देख सकते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [663 Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलटी लाने वाले द्रव्यों का ग्रहण है) से कराई जाती है।३-"उवीलणेहि यत्ति-अवपीडनंनिष्पीडनम्-" अर्थात् प्रस्तुत में गले को दबाने का नाम अवपीडन है। ४-"कवलग्गाहेहि यत्ति-कवलग्राहः-कण्टकापनोदाय स्थूलकवलग्रहणम्, मुखविमर्दनार्थं वा दंष्ट्राधः काष्ठखण्डदानम्-" अर्थात् कांटे को निकालने के लिए बड़े ग्रास का ग्रहण कराना, ताकि उसके संघर्ष से गले में अटका हुआ कांटा निकल जाए, अथवा-मुख की मालिश करने के लिए दाढ़ों के नीचे लकड़ी का टुकड़ा रखना-कवलग्राह-कहलाता है। ५-सल्लुद्धरणेहि य त्ति-शल्योद्धरणम्-यंत्रप्रयोगात् कंटकोद्धारः, तै:-" अर्थात् यन्त्र के प्रयोग से कांटे को निकालना शल्योद्धार कहलाता है। ६-विसल्लकरणेहि य त्ति-विशल्यकरणम्औषधसामर्थ्यात्-"अर्थात् औषध के बल से कांटा निकालना विशल्यकरण कहलाता है। -संता ३-यहां दिए गए 3 के अंक से अवशिष्ट, १-तंता, २-परितन्ता-इन दो पदों का ग्रहण करना चाहिए। श्रान्त आदि पदों की व्याख्या प्रथम अध्याय में की जा चुकी -वेजपडियारणिव्विण्णे-वैद्यप्रतिकारनिर्विण्णः-(अर्थात् वैद्यों के प्रतिकारइलाज से निराश), यह पद शौरिकदत्त के हतभाग्य होने का सूचक है। भाग्यहीन पुरुष के लिए किया गया लाभ का काम भी लाभप्रद नहीं रहता। शल्यचिकित्सा तथा औषधिचिकित्सा आदि में प्रवीण वैद्यों का निष्फल रहना, शौरिक की मन्दभाग्यता को ही आभारी है। वस्तुत: पापिष्टों की यही दशा होती है। उन के लाभ के लिए किया गया काम भी दुःखान्त परिणाम वाला होता -सुक्खे जाव विहरति-यहां के जाव-यावत् पद से ."-भुक्खे णिम्मसे अट्ठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। शुष्क आदि पदों का अर्थ इसी अष्टम अध्ययन में किया जा चुका है। -पुराणाणं जाव विहरति-यहां पठित-जाव-यावत्-पद से अभिमत पदों का विवरण प्रथम अध्ययन में किया जा चुका है। पाठक वहां पर देख सकते हैं। अब सूत्रकार शौरिकदत्त के आगामी भवों का वर्णन करते हुए कहते हैं- . मूल-सोरिए णं भंते ! मच्छबंधे इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति ? गोतमा ! सत्तरि वासाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए० संसारो तहेव जाव पढवीए / ततो हत्थिणाउरे मच्छत्ताए उववजिहिति।सेणं ततो मच्छिएहिं जीवियाओ ववरोविते 664 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्थेव सेट्ठिकुलंसि बोहि सोहम्मे० महाविदेहे वासे सिज्झिहिति 5 निक्खेवो। ॥अट्ठमं अज्झयणं समत्तं॥ - छाया-शौरिको भदन्त ! मत्स्यबन्धः इत: कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति? कुत्रोपपत्स्यते ? गौतम ! सप्ततिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वाऽस्यां रत्नप्रभायां संसारस्तथैव यावत् पृथिव्याम् / ततो हस्तिनापुरे मत्स्यतयोपपत्स्यते / ततो मात्स्यिकैर्जीवितात् व्यपरोपितस्तत्रैव श्रेष्ठिकुले बोधि सौधर्मे महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति 5 / निक्षेपः। // अष्टमध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-भंते !-हे भगवन् ! सोरिए णं-शौरिक। मच्छबंधे-मत्स्यबन्ध-मच्छीमार। इओ-यहां से। कालमासे-कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर। कालं किच्चा-काल करके। कहिकहां। गच्छिहिति ?-जाएगा? कहिं-कहां पर। उववजिहिति ?-उत्पन्न होगा? गोतमा !-हे गौतम! सत्तर-सत्तर। वासाइं-वर्षों की। परमाउं-परमायु। पालइत्ता-पालन करके-भोग कर। कालमासे. कालमास में। कालं किच्चा-काल करके। इमीसे-इस। रयणप्पभाए-रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा। संसारो-संसारभ्रमण / तहेव-उसी भांति अर्थात् प्रथम अध्ययनगत मृगापुत्र की भांति करता हुआ। जाव-यावत्। पुढवीए:-पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। ततो-वहां से। हत्थिणाउरेहस्तिनापुर नगर में। मच्छत्ताए-मत्स्यतया-मत्स्यरूप में। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। से-वह। णंवाक्यालंकारार्थक है। ततो-वहां से। मच्छिएहिं-मच्छीमारों के द्वारा / जीवियाओ-जीवन से। ववरोवितेपृथक् किया जाने पर। तत्थेव-वहीं हस्तिनापुर में। सिट्ठिकुलंसि-श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा। बोहिं०सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। सोहम्मे-सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से। महाविदेहेमहाविदेह / वासे-क्षेत्र में जन्मेगा तथा वहां। सिज्झिहिति ५-सिद्ध पद को प्राप्त करेगा 5 / निक्खेवोनिक्षेप-उपसंहार पूर्व की भान्ति जान लेना चाहिए। अट्ठमं-अष्टम। अज्झयणं-अध्ययन। समत्तं-सम्पूर्ण हुआ।. . मूलार्थ-गौतम स्वामी के " -भगवन् ! शौरिकदत्त मत्स्यबंध-मच्छीमार यहां से कालमास में काल करके कहां जाएगा और कहां उत्पन्न होगा" इस प्रश्न के अनन्तर प्रभु वीर बोले कि हे गौतम ! 70 वर्ष की परमायु भोगकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा नामक पहली नरक में उत्पन्न होगा। उस का अवशिष्ट संसारभ्रमण पूर्ववत् ही जानना चाहिए, यावत् वह पृथिवी-काया में लाखों बार उत्पन्न होगा।वहां से हस्तिनापुर में मत्स्य बनेगा, वहां पर मात्स्यिकों-मच्छीमारों के द्वारा वध को प्राप्त हो, वहीं हस्तिनापुर में एक श्रेष्ठिकुल में जन्मेगा, वहां पर उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, वहां मृत्यु को प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [665 Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त कर सौधर्म नामक देवलोक में उत्पन्न होगा।वहां से च्युत हो कर महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा और वहां चारित्र ग्रहण कर उस के सम्यग् आराधन से सिद्ध पद को प्राप्त करेगा 5 / निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भान्ति कर लेनी चाहिए। ॥अष्टम अध्ययन सम्पूर्ण॥ टीका-संसारी जीवन व्यतीत करने वाले प्राणियों की अवस्था को देख कर एक कर्मवादी सहृदय व्यक्ति दांतों तले अंगुली दबा लेता है, और आश्चर्य से चकित रह जाता है, तथा उन जीवों की मनोगत विचित्रता पर दुःख के अश्रुपात करता है। आज का संसारी जीव क्या चाहता, उत्तर मिलेगा-आनन्द चाहता है, सुख चाहता है और परिस्थितियों की अनुकूलता चाहता है। प्रतिकूलता तो उसे जरा भी सह्य नहीं होती। सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए वह अधिक से अधिक उद्योग करता है, इसके लिए उचितानुचित अथच पुण्य और पाप का भी उसे ध्यान नहीं रहता। तदर्थ यदि उस को किसी जीव की हत्या करनी पडे तो उसे भी निस्संकोच हो कर डालता है। किसी को दुखाने में उसे आनन्द मिले तो दुखाता है, तड़पाने में सुख मिले तो तड़पाता है। सारांश यह है कि-आज के मानव की यह विचित्र दशा है कि वह पुण्य का फल (सुख) तो चाहता है परन्तु पुण्य का आचरण नहीं करता और विपरीत इसके पाप के फल की इच्छा न रखता हुआ भी पापाचरण से पराङ्मुख नहीं होता और पापों का फल भोगते हुए छटपटाता है, बिलबिलाता है। शौरिकदत्त मच्छीमार भी उन्हीं व्यक्तियों में से एक था जो कि पाप करते समय तो किसी प्रकार का विचार नहीं करते और पाप का फल (दुःख) भोगते समय सिर पीटते और रोते चिल्लाते हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से शौरिकदत्त का अतीत और वर्तमान जीवन वृत्तान्त सुन कर गौतम स्वामी को बहुत सन्तोष हुआ और वे शौरिकदत्त की वर्तमान दुःखपूर्ण दशा का कारण तो जान गए परन्तु भविष्य में उस का क्या बनेगा, इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए वे भगवान् से फिर पूछते हैं कि भगवन् ! यह मर कर अब कहां जाएगा? और कहां पर उत्पन्न होगा? तात्पर्य यह है कि घटीयंत्र की तरह संसार में निरन्तर भ्रमण ही करता रहेगा या उस के इस जन्म तथा मरण सम्बन्धी दुःख का कभी अन्त भी होगा?, गौतम स्वामी का यह प्रश्न बड़ा ही रहस्यपूर्ण है। आवागमन के चक्र में पड़ा हुआ जीव सुख और दुःख दोनों का अनुभव करता है। कभी उसे सुख की उपलब्धि होती है और कभी 1. पुण्यस्य फलमिच्छन्ति, पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः। न पापफलमिच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति / यत्नतः॥१॥ 666 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख की प्राप्ति। परन्तु विचार किया जाए तो उसका वह सुख भी दुःखमिश्रित होने से दुःखरूप ही है। वहां सुख का तो केवल आभासमात्र है। तात्पर्य यह है कि कर्मसम्बन्ध से जब तक जन्म और मृत्यु का सम्बन्ध इस जीवात्मा के साथ बना हुआ है, तब तक इस को शाश्वत सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती। उस की प्राप्ति का सर्वप्रथम साधन सम्यक्त्व की प्राप्ति है, सम्यक्त्व के बाद ही चारित्र का स्थान है। दर्शन तथा चारित्र की सम्यग् आराधना से यह आत्मा अपने कर्मबन्धनों को तोड़ने में समर्थ हो सकता है। कर्मबन्धनों को तोड़ने से आत्मशक्तियां विकसित होती हैं, उन का पूर्णविकास-आत्मा की कैवल्यावस्था अर्थात् केवलज्ञान प्राप्ति की अवस्था है, उस अवस्था को प्राप्त करने वाला जीवन्मुक्त आत्मा जैन परिभाषा के अनुसार सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता हुआ सदेह या साकार ईश्वर के नाम से अभिहित किया जा सकता है। इसके पश्चात् अर्थात् औदारिक अथच कार्मण शरीर के परित्याग के अनन्तर निर्वाण पद को प्राप्त हुआ आत्मा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अजर और अमर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। तब शौरिकदत्त का जीव इस जन्म तथा मरण की परम्परा से छूट कर कभी इस अवस्था को भी जो कि उसका वास्तविक स्वरूप है, प्राप्त करेगा कि नहीं, यह गौतम स्वामी के प्रश्न का अभिप्राय है। इसके उत्तर में भगवान महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया उसका वर्णन मूलार्थ में स्फुटरूप से कर दिया गया है, जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। अस्तु, शौरिकदत्त का जीव अन्त में समस्त कर्मबन्धनों को तोड़कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्य से युक्त होता हुआ परम कल्याण और परम सुखरूप मोक्ष को प्राप्त करेगा। __-रयणप्पभाए. संसारो तहेव जाव पुढवीए०- इन पदों से तथा इनके साथ दी गई बिन्दुओं से अभिमत पाठ पंचम अध्याय में, तथा-बोहिं, सोहम्मे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिति . ५-इन सांकेतिक पदों से अभिमत पाठ पंचम अध्याय में लिखा जा चुका है। पाठकों को स्मरण होगा कि दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन को सुन लेने के अनन्तर श्री जम्बू स्वामी ने अपने पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से उसके अष्टम अध्ययन को सुनाने की अभ्यर्थना की थी, जिस की पूर्ति के लिए श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रस्तुत अष्टमाध्याय सुनाना आरम्भ किया था। अध्ययन की समाप्ति पर आर्य सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी को जो 1. नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइयव्वं। सम्मत्तचरित्ताई जुगवं, पुव्वं वसम्मत्तं॥ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० 28/29) / ___ अर्थात् सम्यक्त्व-समकित के बिना चारित्र नहीं हो सकता और दर्शन में उसकी-चारित्र की भजना है अर्थात् जहां पर सम्यक्त्व होता है वहां पर चारित्र हो भी सकता है और नहीं भी, तथा यदि दोनों-दर्शन और चारित्र एक काल में हों तो उन में सम्यक्त्व की उत्पत्ति प्रथम होगी। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [667 Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ फरमाया, उसे सूत्रकार ने निक्खेवो-निक्षेपः-इस पद में गर्भित कर दिया है। निक्खेवोपद का अर्थसम्बन्धी विचार द्वितीय अध्याय के अंत में किया जा चुका है। प्रस्तुत में इससे जो सूत्रांश अपेक्षित है, वह निम्नोक्त है एवं खलु जम्बू! समणेणं भगवया महावीरेणंजाव सम्पत्तेणंदुहविवागाणं अट्ठमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, त्ति बेमि। अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। जम्बू ! जैसा मैंने भगवान् की परम पवित्र सेवा में रह कर उन से सुना है, . वैसा तुम्हें सुना दिया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। प्रस्तुत अष्टम अध्ययन में शौरिकदत्त नाम के मत्स्यबन्ध-मच्छीमार के अतीत, अनागत और वर्तमान से सम्बन्ध रखने वाले जीवनवृत्तान्त का उपाख्यान के रूप में वर्णन किया गया है, जिस से हिंसा और उसके कटुफल का साधारण से साधारण ज्ञान रखने वाले व्यक्ति . . को भी भली प्रकार से बोध हो जाता है। पदार्थ वर्णन की यह शैली सर्वोत्तम है, जिसे कि सूत्रकार ने अपनाया है। __ हिंसा बुरी है, दुःखों की जननी है, उससे अनेक प्रकार के पाप कर्मों का बन्ध होता है। इस प्रकार के वचनों से श्रोता के हृदय पर हिंसा के दुष्परिणाम (बुराई) की छाप उतनी अच्छी नहीं पड़ती, जितनी कि एक कथारूप में उपस्थित किए जाने वाले वर्णन से पड़ती है। इसी उद्देश्य से शास्त्रकारों ने कथाशैली का अनुसरण किया है। शौरिकदत्त के जीवनवृत्तान्त से हिंसा से पराङ्मुख होने का साधक को जितना अधिक ध्यान आता है, उतना हिंसा के मौखिक निषेध से नहीं आता। .. प्रस्तुत अध्ययनगत शौरिकदत्त के उपाख्यान से हिंसामय सावध प्रवृत्ति और उस से बान्धे गए पाप कर्मों के विपाक-फल को दृष्टि में रखते हुए विचारशील पाठकों को चाहिए कि वे अपनी दैनिकचर्या और खान-पान की प्रवृत्ति को अधिक से अधिक निरवद्य अथच शुद्ध बनाने का यत्न करें, तथा मानव भव की दुर्लभता का ध्यान रखते हुए अपने जीवन को अहिंसक अथच प्रेममय बनाने का भरसक प्रयत्न करें। ताकि उनका जीवन जीवमात्र के लिए, अभयप्रद होने के साथ-साथ स्वयं भी किसी से भय रखने वाला न बने, इसी में मानव का भावी कल्याण अथच सर्वतोभावी श्रेय निहित है। ॥अष्टम अध्याय समाप्त। 668 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह णवमं अज्झयणं अथ नवम अध्याय जैनागमों में ब्रह्मचारी की बड़ी महिमा गाई गई है। श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्यव्रत के धारक को भगवान् से उपमित किया गया है। ब्रह्मचारी शब्द में दो पद हैं-ब्रह्म और चारी। ब्रह्म शब्द का प्रयोग-"२मैथुनत्याग, आनन्दवर्द्धक, वेद-धर्मशास्त्र, तप और शाश्वत ज्ञान"-इन अर्थों में होता है, और चारी का अर्थ आचरण करने वाला है। तब ब्रह्मचारी शब्द का-ब्रह्म का आचरण करने वाला-यह अर्थ निष्पन्न हुआ। ऊपर बतलाये अनुसार यद्यपि ब्रह्म के अनेक अर्थ हैं, तथापि आजकल इसका रूढ़ अर्थ मैथुनत्याग है। इसलिए वर्तमान में मैथुन का त्याग ब्रह्मचर्य और उसका सम्यक् आचरण * करने वाला ब्रह्मचारी कहलाता है। इस अर्थविचारणा से जो व्यक्ति स्त्रीसंबन्ध से सर्वथा पृथक् रहता है, तथा प्रत्येक स्त्री को माता, भगिनी या पुत्री की दृष्टि से देखता है, वह ब्रह्मचारी है। इसी भान्ति यदि स्त्री हो तो वह ब्रह्मचारिणी है। ब्रह्मचारिणी स्त्री संसार भर के पुरुषों को पिता और भाई एवं पुत्र के तुल्य समझती है। . ब्रह्मचर्यव्रत असिधारा केतुल्य बतलाया गया है। जिस तरह तलवार की धार पर चलना कठिन होता है, उसी तरह ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना भी नितान्त कठिन होता है। तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य के पालन में मन के ऊपर बड़ा भारी अंकुश रखने की आवश्यकता होती है। इस की रक्षा के लिए शास्त्रों में अनेक प्रकार के नियमोपनियम बतलाये गए हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के सोलहवें अध्याय में लिखा है कि दस कारण ऐसे होते हैं जिन के सम्यग् आराधन से 1. "तं बंभं भगवंत......... तित्थगरे चेव मुणीणं" ( सम्वरद्वार 4 अध्ययन ) / 2. ब्रह्मेति ब्रह्मचर्यं मैथुनत्यागः। 3. बृंहति-वर्द्धतेऽस्मिन् आनन्द इति ब्रह्म। 4. ब्रह्म वेदः, ब्रह्म त पः ब्रह्म ज्ञानं च शाश्वतं तच्चरत्यर्जयत्यवश्यं ब्रह्मचारी। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [669 Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचारी अपने व्रत का निर्विघ्नता से पालन कर सकता है, वे दश 'कारण निम्नोक्त हैं १-जिस स्थान में स्त्री, पशु और नपुंसक का निवास हो, उस स्थान में ब्रह्मचर्य के पालक व्यक्ति को नहीं रहना चाहिए। २-ब्रह्मचारी स्त्री-सम्बन्धी कथा न करे अर्थात् स्त्रियों के रूप, लावण्य का वर्णन तथा अन्य कामवर्धक चेष्टाओं का निरूपण न करे। ३-ब्रह्मचारी स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे और जिस स्थान पर स्त्रियां बैठ चुकी हैं, उस स्थान पर मुहूर्त (दो घड़ी) पर्यन्त न बैठे। ४-ब्रह्मचारी स्त्रियों के मनोहर-मन को हरने वाली और मनोरम-मन में आह्लाद उत्पन्न करने वाली इन्द्रियों की ओर ध्यान न देवे। ५-ब्रह्मचारी पत्थर की या अन्य ईंट आदि की दीवारों के भीतर से तथा वस्त्र के परदे के भीतर से आने वाले स्त्रियों के कूजित शब्द (सुरत समय में किया गया अव्यक्त शब्द), रुदित शब्द (प्रेममिश्रित रोष से रतिकलहादि में किया गया शब्द), गीत शब्द (प्रमोद में आकर स्वरतालपूर्वक किया गया शब्द), हास्य शब्द और स्तनित शब्द (रतिसुख के आधिक्य से होने वाला शब्द) एवं क्रन्दित शब्द (भर्ता के रोष तथा प्रकृति के ठीक न होने से किया. गया शोकपूर्ण शब्द) भी न सुने। ६-ब्रह्मचारी पूर्वरति (स्त्री के साथ किया गया पूर्व संभोग) तथा अन्य पूर्व की गई काम-क्रीड़ाओं का स्मरण न करे। ७-ब्रह्मचारी पौष्टिक-पुष्टिकारक एवं धातुवर्धक आहार का ग्रहण न करे। ८-ब्रह्मचारी प्रमाण से अधिक आहार तथा जल का सेवन न करे। ९-ब्रह्मचारी अपने शरीर को विभूषित न करे, प्रत्युत अधिकाधिक सादगी से जीवन व्यतीत करे। १०-ब्रह्मचारी कामोत्पादक शब्द, स्त्री आदि के रूप, मधुर तथा अम्लादि रस और सुरभि-सुगन्ध और सुकोमल स्पर्श अर्थात् पांचों इन्द्रियों के पांचों विषयों में आसक्त न होने पाए। इन दश नियमों के सम्यग् अनुष्ठान से ब्रह्मचर्य व्रत का पूरा-पूरा संरक्षण हो सकता 1. इन कारणों का अर्थ सम्बन्धी अधिक ऊहापोह करने के लिए देखो, श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधानाचार्य परमपूज्य परमश्रद्धेय गुरुदेव श्री आत्मा राम जी महाराज द्वारा निर्मित श्री उत्तराध्ययन सूत्र . की आत्मज्ञानप्रकाशिका नामक हिन्दीभाषाटीका। 670 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इस के अतिरिक्त शास्त्रों में ब्रह्मचर्य को सुदृढ़ जहाज़ के तुल्य बतलाया गया है। जिस तरह जहाज यात्री को समुद्र में से पार कर किनारे लगा देता है, उसी तरह ब्रह्मचर्य भी साधक को संसार समुद्र से पार कर उसके अभीष्ट स्थान पर पहुँचा देता है, इस लिए प्रत्येक मुमुक्षु पुरुष द्वारा ब्रह्मचर्य जैसे महान् व्रत को सम्यक्तया अपनाने का यत्न करना चाहिए, इसके विपरीत जो जीव ब्रह्मचर्य का पालन न कर केवल मैथुनसेवी बने रहते हैं, तथा उसके लिए उपयुक्त साधनों को एकत्रित करने में अनेक प्रकार के क्रूरकर्म करते हैं, वे अपनी आत्मा को मलिन करते अथच चतुर्गतिरूप संसार-सागर में गोते खाते हैं, तथा नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं। ___ प्रस्तुत नवम अध्ययन में ब्रह्मचर्य से पराङ्मुख रहने वाले विषयासक्त एक कामी नारीजीवन का वृत्तान्त वर्णित हुआ है, जो विषयवासनाओं का अधिकाधिक उपभोग करने के लिए अपनी सास के जीवन का भी अन्त कर देती है, इसके अतिरिक्त साथ में एक पुरुषजीवन का भी वर्णन उपस्थित किया गया है जो मैथुन का पुजारी बन कर तथा एक स्त्री पर आसक्त होकर 499 स्त्रियों को आग में जला देता है, उस नवम् अध्ययन का आदिम सूत्र निनोक्त है मूल-उक्खेवो णवमस्स। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेण समएणं रोहीडए नाम णगरे होत्था, रिद्ध। पुढवीवडंसए उजाणे। धरणे जक्खे। वेसमणदत्ते राया।सिरीदेवी।पूसणंदी कुमारे जुवराया।तत्थ णं रोहीडए णगरे दत्ते णामं गाहावती परिवसति, अड्ढे / कण्हसिरी भारिया। तस्स णं दत्तस्स धूया कण्हसिरीए अत्तया देवदत्ता नामं दारिया होत्था, अहीण जाव उक्किदुसरीरा। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव गओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं जेटे अंतेवासी छट्ठक्खमणपारणगंसि तहेव जाव रायमग्गं ओगाढे हत्थी, आसे, पुरिसे पासति।तेसिं पुरिसाणं मझगयं पासति एगंइत्थियं अवओडगबंधणं उक्खित्तकण्णनासं जाव सूले भिजमाणं पासति पासित्ता इमे अज्झथिए 5 समुप्पन्ने तहेव णिग्गते जाव एवं वयासी-एसा णं भंते ! इत्थिया पुव्वभवे का आसि ? . छाया-उत्क्षेपो नवमस्य। एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये रोहीतकं नाम नगरमभूद् ऋद्ध॰, पृथिव्यवतंसकमुद्यानम्। धरणो यक्षः। वैश्रमणदत्तो - 1. समुद्रतरणे यद्वदुपायो नौः प्रकीर्तिता। संसारतरणे तद्वद् , ब्रह्मचर्यं प्रकीर्तितम्॥ 'प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [671 Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा। श्रीदेवी। पुष्यनन्दी कुमारो युवराजः। तत्र रोहीतके नगरे दत्तो नाम गाथापतिः परिवसति आढयः / कृष्णश्री भार्या / तस्य दत्तस्य दुहिता कृष्णश्रियः आत्मजा देवदत्ता नाम दारिका अभूदहीन यावदुत्कृष्टशरीरा / तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतो, यावद् गतः। तस्मिन् काले तस्मिन् समये ज्येष्ठोऽन्तेवासी षष्ठक्षमणपारणके तथैव यावद् राजमार्गमवगाढो हस्तिनः, अश्वान्, पुरुषान्, पश्यति / तेषां पुरुषाणां मध्यगतां पश्यत्येकां स्त्रियमवकोटकबन्धनामुत्कृत्तकर्णनासां यावच्छूले भिद्यमानां पश्यति दृष्ट्वा अयमाध्यात्मिकः 5 समुत्पन्नस्तथैव निर्गतो यावदेवमवादीत्-एषा भदन्त ! स्त्री पूर्वभवे का आसीत् ? / पदार्थ-णवमस्स-नवम अध्ययन का। उक्लेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भान्ति कर लेनी चाहिए। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू !-हे जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में। रोहीडए-रोहीतक। नाम-नाम का। णगरे-नगर। होत्था-था। रिद्धः-ऋद्धभवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र और परचक्र के उपद्रवों से रहित, एवं समृद्ध-धन धान्यादि से परिपूर्ण था। पुढवीवडंसए-पृथिव्यवतंसक नामक। उजाणं-उद्यान-बाग था। धरणे-धरण नामक / जक्खे-यक्ष, अर्थात् वहां यक्ष का स्थान था। वेसमणदत्ते-वैश्रमणदत्त नाम का। राया-राजा था। . सिरी देवी-श्रीदेवी नाम की रानी थी। पूसणंदी-पुष्यनन्दी। कुमारे-कुमार। जुवरांया-युवराज था। तत्थ णं-उस। रोहीडए-रोहीतक।णगरे-नगर में। दत्ते-दत्त / नाम-नाम का। गाहावती-एक गाथापति-गृहस्थ। परिवसति-रहता था, जो कि। अड्ढे०-धनी यावत् अपने नगर में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त किए हुए था। कण्हसिरी-उसकी कृष्णश्री। भारिया-भार्या-स्त्री थी। तस्स णं-उस। दत्तस्स-दत्त की। धूया-दुहितापुत्री। कण्हसिरीए-कृष्ण श्री की। अत्तया-आत्मजा। देवदत्ता-देवदत्ता / नाम-नाम की। दारिया-दारिकाबालिका। होत्था-थी, जोकि। अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाली। जावयावत्। उक्किट्ठसरीरा-उत्कृष्ट-उत्तम शरीर वाली थी। तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में। सामी-भगवान् महावीर स्वामी। समोसढे-पधारे। जाव-यावत्, सब। गओ-चले गए। तेणं कालेणं तेणंसमएणं-उस काल और उस समय। जेटे-प्रधान / अन्तेवासी-शिष्य। छदक्खमणपारणगंसिषष्ठतप-बेले के पारणे के लिए। तहेव-तथैव पूर्ववत्-पहले की भान्ति। जाव-यावत्। रायमग्गं-राजमार्ग में। ओगाढे-पधारे, वहां। हत्थी-हाथियों को। आसे-घोड़ों को। पुरिसे-पुरुषों को। पासति-देखते हैं। तेसिं-उन / पुरिसाणं-पुरुषों के। मझगयं-मध्यगत। एग-एक। इत्थियं-स्त्री को, जोकि।अवओडगबंधणंअवकोटक बन्धन से बन्धी हुई है, तथा। उक्खित्तकण्णनासं-जिस के कान और नाक दोनों ही कटे हुए हैं। जाव-यावत् / सूले-सूली पर / भिज्जमाणं-भिद्यमान हो रही है। पासति पासित्ता-देखते हैं, देख कर। इमे-यह। अज्झथिए ५-आध्यात्मिक-संकल्प 5 / समुप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। तहेव-तथैव-उसी भान्ति। णिग्गते-नगर से निकले। जाव-यावत् / एवं वयासी-इस प्रकार बोले। भंते !-हे भदन्त ! एसा णं-यह। इत्थिया-स्त्री। पुव्वभवे-पूर्व भव में। का आसि?-कौन थी? 672 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थ-नवम अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भान्ति कर लेनी चाहिए। हे जम्बू ! उस काल और उस समय में रोहीतक नाम का ऋद्ध, स्तिमित और समृद्ध नगर था। वहां पृथिव्यवतंसक नाम का एक उद्यान था, उस में धरण नामक यक्ष का एक आयतन-स्थान था। वहां वैश्रमणदत्त नामक राजा का राज्य था। उसकी श्रीदेवी नाम की रानी थी। उसके युवराज पद से अलंकृत पुष्यनन्दी नाम का कुमार था। उस नगर में दत्त नाम का एक गाथापति रहता था, जोकि बड़ा धनी यावत् अपनी जाति में बड़ा सम्माननीय था। उसकी कृष्णश्री नाम की भार्या थी। उन के अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त उत्कृष्ट शरीर वाली देवदत्ता नाम की एक बालिका-कन्या थी। उस काल और उस समय पृथिव्यवतंसक नामक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे, यावत् उनकी धर्मदेशना सुन कर परिषद् और राजा सब वापिस चले गए। उस समय भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य गौतम स्वामी षष्ठक्षमण-बेले के पारणे के लिए भिक्षार्थ गए यावद् राजमार्ग में पधारे, वहां पर वे हस्तियों, अश्वों और पुरुषों को देखते हैं और उनके मध्य में उन्होंने अवकोटक बन्धन से बन्धी हुई, कटे हुए कर्ण तथा नाक वाली यावत् सूली पर भेदी जाने वाली एक स्त्री को देखा। देख कर उन के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ यावत् पहले की भान्ति भिक्षा लेकर नगर से निकले और भगवान् के पास आकर इस प्रकार निवेदन करने लगे कि भदन्त ! यह स्त्री पूर्व भव में कौन थी? टीका-संख्याबद्धक्रम से अष्टम अध्ययन के अनन्तर नवम अध्ययन का स्थान आता है। नवम अध्ययन में राजपत्नी देवदत्ता का जीवनवृत्तान्त वर्णित हुआ है। नवम अध्ययन को सुनने की अभिलाषा से चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य-उद्यान में विराजमान आर्य सुधर्मा स्वामी के प्रधान शिष्य श्री जम्बू स्वामी उन से विनयपूर्वक इस प्रकार निवेदन करते हैं . वन्दनीय गुरुदेव ! आप श्री के परम अनुग्रह से मैंने दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन का अर्थ तो सुन लिया और उस का यथाशक्ति मनन भी कर लिया है, परन्तु अब मेरी दुःखविपाक के नवम अध्ययन के अर्थ को श्रवण करने की भी अभिलाषा हो रही है, ताकि यह भी पता लगे कि यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उस में किस व्यक्ति के किस प्रकार के जीवन-वृत्तांत का वर्णन किया है ? इसलिए आप नवम अध्ययन का अर्थ 1. वैयाकरणों के "-वर्तमान के समीपवर्ती भविष्यत् और भूतकाल में भी वर्तमान के समान प्रत्यय होते हैं-" इस सिद्धान्त से "भिद्यमानां" में वर्तमानकालिक प्रत्यय होने पर भी अर्थ भविष्य का-भेदन किये जाने वाली यह होगा। इस भाव का बोध कराने वाला व्याकरणसूत्र सिद्धान्त-कौमुदी में -वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा। 3/3/131/ इस प्रकार है, तथा आचार्यप्रवर श्री हेमचन्द्र सूरि अपने हैमशब्दानुशासन में इसेसत्सामीप्ये सद्वद्वा। 5/4/1 / इस सूत्र से अभिव्यक्त करते हैं। अर्थ स्पष्ट ही है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [673 / Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनाने की भी अवश्य कृपा करें। ____ तब जम्बू स्वामी की इस विनीत प्रार्थना को मान देते हुए श्री सुधर्मा स्वामी इस प्रकार फरमाने लगे कि हे जम्बू ! भव्याम्भोजदिवाकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी एक बार रोहीतक नामक नगर में पधारे और नगर के बाहर वे पृथिव्यवतंसक नामक उद्यान में विराजमान हो गए। उस उद्यान में धरण नामक यक्ष का एक यक्षायतन-स्थान था, जिस के कारण उद्यान की अधिक विख्याति हो रही थी। नगर में अनेक धनी, मानी सद्गृहस्थ रहते थे, जिन से वह धनं धान्यादि से युक्त और समृद्धिपूर्ण था। नगर में महाराज वैश्रमणदत्त राज्य . किया करते थे, वे भी न्यायशील और प्रजावत्सल थे। उन की महारानी का नाम श्रीदेवी था, और पुष्यनन्दी नाम का एक कुमार था, जो कि अपनी विशेष योग्यता के कारण उस समय युवराज पद पर प्रतिष्ठित हो चुका था। रोहीतक नगर व्यापार का केन्द्र था, वहां दूर-दूर से व्यापारी लोग आकर व्यापार. . किया करते थे। नगर के निवासियों में दत्त नाम का एक बड़ा प्रसिद्ध व्यापारी था, जो कि धनाढ्य होने से नगर में पर्याप्त प्रतिष्ठा प्राप्त किए हुए था। उसकी कृष्णश्री नाम की रूपलावण्य में अद्वितीय भार्या थी। उनके देवदत्ता नाम की एक कन्या थी, जो कि नितान्त सुन्दरी थी। उसके शरीर के किसी भी अंग प्रत्यंग में न्यूनाधिकता नहीं थी। अधिक क्या कहें उस का अपूर्व रूपलावण्य अप्सराओं को भी लज्जित कर रहा था। वास्तव में मानुषी के रूप : में वह स्वर्गीया देवी थी। रोहीतक नगर व्यापारियों के आवागमन से तथा राजकीय सुचारु प्रबंध से विशेष ख्याति को प्राप्त कर रहा था, परन्तु श्रमण भगवान् महावीर के पधारने से तो उस में और भी प्रगति आ गई। नगर का धार्मिक वातावरण सजग हो उठा। जहाँ देखो धर्मचर्चा, जहाँ देखो भगवान् के गुणों का वर्णन। तात्पर्य यह है कि प्रभु वीर के वहां पधार जाने से लोगों में हर्ष, उत्साह और धर्मानुराग ठाठे मार रहा था। उद्यान की तरफ जाते और आते हुए नागरिकों के समूह, आनन्द से विभोर होते हुए दिखाई देते थे। उद्यान में आई हुई भावुक जनता को भगवान् की धर्मदेशना ने उस के जीवन में आशातीत परिवर्तन किया। उस में धर्मानुराग बढ़ा, और वह धार्मिक बनी। उन के धर्मोपदेश को सुन कर उस ने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार धर्म में अभिरुचि उत्पन्न करते हुए धर्म सम्बन्धी नियमों को अपनाने का प्रयत्न किया। वीर प्रभु की धर्मदेशना को सुन कर जब जनता अपने-अपने स्थान को चली गई तब परम संयमी परम तपस्वी अनगार गौतम स्वामी बेले का पारणा करने के लिए भिक्षार्थ नगर में जाने की प्रभु से आज्ञा मांगते हैं। आज्ञा मिल जाने पर वे नगर में चले जाते हैं और वहां 674 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजमार्ग पर उन्होंने एक स्त्री को देखा जो कि अवकोटकबन्धन से बन्धी हुई थी। उस के कान और नाक कटे हुए थे। उसी के मांसखण्ड उसे खिलाये जा रहे थे। निर्दयता के साथ उसे मारा जा रहा था और उसके चारों ओर पुरुष, हाथी तथा घोड़े एवं सैनिक पुरुष खड़े थे। करुणाशील सहृदय गौतम स्वामी उस महिला की उक्त दुर्दशा से प्रभावित हुए नगर से यथेष्ट आहार ले कर वापिस उद्यान में आते हैं और भगवान् के चरणों में वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर राजमार्ग में देखे हुए करुणाजनक दृश्य को सुना कर उस स्त्री के पूर्वभव को जानने की जिज्ञासा करते हुए कहते हैं कि हे भदन्त ! वह स्त्री पूर्वभव में कौन थी जो नरक के तुल्य असह्य वेदनाओं का उपभोग कर रही है ? इतना निवेदन करने के बाद अनगार गौतम स्वामी भगवान् महावीर स्वामी से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। "-उक्खेवो-" इस पद का अर्थ होता है-प्रस्तावना। अर्थात् प्रस्तावना को सूचित करने के लिए सूत्रकार ने "-उक्खेवो-" इस पद का प्रयोग किया है। प्रस्तावनारूप सूत्रांश निम्नोक्त है __"-जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणंजाव संपत्तेणं दुहविवागाणं अट्ठमस्स अझयणस्स अयमढे पण्णत्ते, णवमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समजेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ?-" अर्थात् यदि भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ बतलाया है तो उन्होंने दुःखविपाक के नवम अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया . -रिद्ध-तथा-अड्ढे०-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना द्वितीय अध्याय में दी गई है। तथा-अहीण. जाव उक्किदूसरीरा-यहां पठित जाव-यावत् पद द्वितीय अध्याय में पढ़े गए-पडिपुण्णपंचिंदियसरीरा-से लेकर-पियदंसणा सुरूवा-यहां तक के पदों का, तथा चतुर्थ अध्याय में पढ़े गए-उम्मुक्कबालभावा-से लेकर-लावण्णेण य उक्किट्ठा-यहां तक के पदों का बोधक है। तथा-समोसढे जाव गओ-यहां के-जावयावत्-पद से संग्रहीत पद अष्टम अध्याय में लिख दिये गए हैं। तथा-तहेव जाव रायमग्गंयहां पठित-तहेव-पद उसी भांति अर्थात् जिस तरह पहले वर्णित अध्ययनों में वर्णन कर आये हैं, उसी तरह प्रस्तुत में भी समझना चाहिए, तथा उसी वर्णन का संसूचक जाव-यावत् पद है। जाव-यावत् पद से अभिमत पाठ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि प्रस्तुत में रोहीतक नामक नगर का उल्लेख है, जब कि वहां पु रिमताल 1. रस्सी से गले और हाथ को मोड़ कर पृष्ठ भाग के साथ बांधना अवकोटक बन्धन कहलाता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [675 Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर का। शेष वर्णन समान ही है। ___-उक्खित्तकण्णनासं जाव सूले-यहां पठित जाव-यावत् पद द्वितीय अध्याय में लिखे गए -नेहत्तुप्पियगत्तं वज्झकरकडिजुयनियत्थं-इत्यादि पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां एक पुरुष का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में एक स्त्री का। अर्थगत कोई भेद नहीं है। तथा-अज्झथिए ५-यहां के अंक से अपेक्षित पद भी द्वितीय अध्याय में लिखे जा चुके हैं। -तहेव णिग्गते जाव एवं वयासी-यहां पठित-तहेव-तथा-जाव-यावत्-पद तृतीय अध्याय में पढ़े गए -अहो णं इमे पुरिसे पुरा पुराणाणं-से लेकर-महावीरं वन्दति नमंसति २-इन पदों का तथा -तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे-से लेकर-वेएणं वेएतियहां तक के पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां पुरिमताल नगर और उसके राजमार्ग पर भगवान् गौतम ने एक वध्य पुरुष के दयनीय दृश्य को देखा था, और वह दृश्य' भगवान् को सुनाया था, जब कि प्रस्तुत में रोहीतक नगर है और उसके राजमार्ग पर एक स्त्री के दयनीय दृश्य को उन्होंने देखा और वह दृश्य भगवान् को सुनाया। अर्थात् दृश्यवर्णक पाठ भिन्न होने के अतिरिक्त शेष वर्णन समान ही है। ___अब सूत्रकार भगवान् महावीर स्वामी द्वारा दिये गए उत्तर का वर्णन करते हुए कहते मूल-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे सुपतिढे णामं नगरे होत्था, रिद्धः।महासेणे राया, तस्सणं महासेणस्स धारिणीपामुक्खं देवीसहस्सं ओरोहे यावि होत्था। तस्स णं महासेणस्स पुत्ते धारिणीए देवीए अत्तए सीहसेणे णामं कुमारे होत्था, अहीण जुवराया। तते णं तस्स सीहसेणस्स कुमारस्स अम्मापितरो अन्नया कयाइ पंचपासायवडिंसगसयाई कारेंति, अब्भुगतः। तते णं तस्स सीहसेणस्स कुमारस्स अन्नया कयाइ सामापामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकन्नगसयाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेंसु। पंचसयओ दाओ।तते णं से सीहसेणे कुमारे सामापामोक्खेहिं पंचहिं देवीसतेहिं सद्धि उप्पिं जाव विहरति।तते णं से महासेणे राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते, नीहरणं०। राया जाते महया०। छाया-एवं खलु गौतमा ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीये 676 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारते वर्षे सुप्रतिष्ठं नाम नगरमभूद्, ऋद्ध / महासेनो राजा। तस्य महासेनस्य धारिणीप्रमुखं देवीसहस्रमवरोधे चाप्यभूत् / तस्य महासेनस्य पुत्रो धारिण्या देव्या आत्मजः सिंहसेनो नाम कुमारोऽभूदहीन युवराजः। ततस्तस्य सिंहसेनस्य कुमारस्याम्बापितरौ, अन्यदा कदाचित् 'पंचप्रासादावतंसकशतानि कारयतः, अभ्युद्गत० / ततस्तस्य सिंहसेनस्य कुमारस्य अन्यदा कदाचित् श्यामाप्रमुखाणां पंचानां राजवरकन्यकाशतानामेकदिवसेन पाणिमग्राहयताम् / पंचशतको दायः। ततः स सिंहसेनः कुमारः श्यामाप्रमुखैः पंचभिः देवीशतैः सार्द्धमुपरि यावत् विहरति / ततः स महासेनो राजा, अन्यदा कदाचिद् कालधर्मेण संयुक्तः निस्सरणं / राजा जातो महा। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोयमा !-हे गौतम ! तेणं कालेणं तेणं समएणंउस काल तथा उस समय। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे-जम्बूद्वीप नामक। दीवे-द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारत वर्ष में। सुपतिद्वे-सुप्रतिष्ठ। णाम-नामक। णगरे-नगर। होत्था-था, जो कि। रिद्ध-ऋद्धभवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों के भय से रहित, तथा समृद्ध-धन धान्यादि से परिपूर्ण, था। महासेणे राया-महासेन नामक राजा था। तस्स णं-उस। महासेणस्स-महासेन की। धारिणीपामुक्खं-जिस में धारिणी प्रमुख-प्रधान हो ऐसी। देवीसहस्सं-हज़ार रानियां। ओरोहेअवरोध-अन्तःपुर में। याविहोत्था-थीं। तस्सणं-उस। महासेणस्स-महासेन का।पुत्ते-पुत्र / धारिणीएधारिणी। देवीए-देवी का। अत्तए-आत्मज। सीहसेणे-सिंहसेन / णाम-नामक / कुमारे-कुमार। होत्थाथा। अहीण-जो कि अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों वाले शरीर से युक्त, तथा। जुवराया-युवराज था। तते णं-तदनन्तर। तस्स-उस। सीहसेणस्स-सिंहसेन / कुमारस्स-कुमार के। अम्मापितरो-माता-पिता। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। अब्भुगत०-अत्यन्त विशाल। पंचपासायवडिंसगसयाई-पांच सौ प्रासादावतंसक-श्रेष्ठ महल। कारेंति-बनवाते हैं। तते णं-तदनन्तर / तस्स-उस। सीहसेणस्स-सिंहसेन। कुमारस्स-कुमार का। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। सामापामोक्खाणं-जिस में श्यामा देवी प्रधान थी ऐसी। पंचण्हं रायवरकन्नगसयाणं-पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं का। एगदिवसेणं-एक दिन में। पाणिं गेण्हावेंसु-पाणिग्रहण करवाया। पंचसयओ-पांच सौ। दाओ-प्रीतिदान-दहेज दिया। तते णंतदनन्तर। से-वह। सीहसेणे-सिंहसेन। कुमारे-कुमार। सामापामोक्खेहि-श्यामादेवीप्रमुख। पंचहिं देवीसतेहि-पांच सौ देवियों के। सद्धिं-साथ। उप्पिं-प्रासाद के ऊपर। जाव-यावत्, सानन्द। विहरतिसमय बिताता है। तते णं-तदनन्तर। से-वह। महासेणे-महासेन। राया-राजा। अन्नया कयाइ-अन्यदा कदाचित् / कालधम्मुणा-कालधर्म से। संजुत्ते-संयुक्त हुआ-मृत्यु को प्राप्त हो गया। नीहरणं०-राजा का 1. अवतंसका इवावतंसकाः शेखराः, प्रासादाश्च तेऽवतंसकाः प्रासादावतंसकाः तेषां पंचशतानीत्यर्थः / अर्थात् प्रासाद महल का नाम है। अवतंसक शब्द प्रकृत में शिरोभूषण के लिए प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि जैसे शिरोभूषण सब भूषणों में उन्नत एवं श्रेष्ठ माना गया है, उसी तरह वे प्रासाद भी सब प्रासादों में श्रेष्ठ थे, और उनकी संख्या 500 थी। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [677 Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्कासन आदि कार्य पूर्ववत् किया। राया जाते-फिर वह राजा बन गया। महया-जो कि महाहिमवान्हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। मूलार्थ-हे गौतम ! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में सुप्रतिष्ठ नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध नगर था। वहां पर महाराज महासेन राज्य किया करते थे। उस के अन्तःपुर में धारिणी प्रमुख एक हजार देवियां-रानियां थीं। महाराज महासेन का पुत्र और महारानी धारिणी देवी का आत्मज सिंहसेन नामक राजकुमार था जो कि अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला तथा युवराज पद से अलंकृत था। सिंहसेन राजकुमार के माता-पिता ने किसी समय अत्यन्त विशाल पाँच सौ प्रासादावतंसक-उत्तम महल बनवाए। तत्पश्चात् किसी अन्य समय उन्होंने सिंहसेन राजकुमार का श्यामाप्रमुख पांच सौ सुन्दर राजकन्याओं के साथ विवाह कर दिया और पाँच सौ प्रीतिदान-दहेज दिए। तदनन्तर राजकुमार सिंहसेन श्यामाप्रमुख उन पांच सौ राजकन्याओं के साथ प्रासादों में रमण करता हुआ सानन्द समय बिताने लगा। तत्पश्चात् किसी अन्य समय महाराज महासेन की मृत्यु हो गई। रुदन-आक्रंदन और विलाप करते हुए राजकुमार ने उसका निस्सरणादि कार्य किया। तत्पश्चात् राजसिंहासन पर आरूढ होकर वह हिमवान् आदि पर्वतों के समान महान् बन गया, अर्थात् राजपद से विभूषित हो हिमवन्त आदि पर्वतों के तुल्य शोभा को प्राप्त होने लगा। _____टीका-शूली पर लटकाई जाने वाली एक महिला की करुणामयी अवस्था का वर्णन कर उस के पूर्वभव का जीवनवृत्तान्त सुनने के लिए नितान्त उत्सुक हुए गौतम गणधर को देख, परम कृपालु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बोले कि हे गौतम ! यह संसार कर्म क्षेत्र है, इस में मानव प्राणी नानाप्रकार के साधनों से कर्मों का संग्रह करता रहता है। उस में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म होते हैं। यह मानव प्राणी इस कर्मभूमि में 'जिस प्रकार का बीज वपन करता है, उसी प्रकार का फल प्राप्त कर लेता है। तुम ने जो दृश्य देखा है वह भी दृष्ट व्यक्ति के पूर्वसंचित कर्मों के ही फल का एक प्रतीक है। जब तुम इस महिला के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनोगे, तो तुम्हें अपने आप ही कर्मफल की विचित्रता का बोध हो जाएगा। 1. जंजारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छइ सम्पराए। एगन्तदुक्खं भवमजिणित्ता, वेयन्ति दुक्खी तमणन्तदुक्खं // 23 // (सूय०-अ. 5. उ० 2) अर्थात् जिस जीव ने जैसा कर्म किया है, संसार में वही उस को प्राप्त होता है। जिस ने एकान्त दुःखरूप नरकभव का कर्म किया है, वह अनन्त दुःखरूप उस नरक को प्राप्त करता है। 678 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् फिर बोले-गौतम एक समय की बात है कि इसी 'जम्बूद्वीप नामक द्वीप के ' अन्तर्गत भारतवर्ष (जम्बूद्वीप का एक विस्तृत तथा विशाल प्रांत) में सुप्रतिष्ठ नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था, जो कि समृद्धिशाली तथा धन-धान्यादि सामग्री के भंडारों का केन्द्र बना हुआ था। उस में महाराज महासेन राज्य किया करते थे। महाराज महासेन के रणवास में धारिणीप्रमुख एक हज़ार रानियां थीं, अर्थात् उन का एक हज़ार राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ था। उन सब में प्रधान रानी महारानी धारिणी देवी थी, जो कि पतिव्रता, सुशीला और परमसुन्दरी थी। महारानी धारिणी की कुक्षि से एक बालक ने जन्म लिया था। बालक का नाम सिंहसेन था। राजकुमार सिंहसेन माता पिता की तरह सुन्दर, सुशील और विनीत था, उस का शरीर निर्दोष और संगठित अंग-प्रत्यंगों से युक्त था। वह माता-पिता का आज्ञाकारी होने के अतिरिक्त राज्यसम्बन्धी व्यवहार में भी निपुण था। यही कारण था कि महाराज महासेन ने उसे छोटी अवस्था में ही युवराज पद से अलंकृत करके उसकी योग्यता को सम्मानित करने का श्लाघनीय कार्य किया था। इस प्रकार युवराज सिंहसेन अपने अधिकार का पूरा-पूरा ध्यान रखता हुआ आनन्दपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। जब राजकुमार सिंहसेन ने किशोरावस्था से निकल कर युवावस्था में पदार्पण किया तो महाराज महासेन ने युवराज को विवाह के योग्य जान कर उस के लिए पाँच सौ नितान्त सुन्दर और विशालकाय राजभवनों का तथा उन के मध्य में एक परमसुन्दर भवन का निर्माण कराया, तत्पश्चात् युवराज का पाँच सौ सुन्दर राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में विवाह कर दिया और पांच सौ दहेज दे डाले। उन राजकन्याओं में प्रधान-मुख्य जो राजकन्या थी, उस का नाम श्यामा था। तात्पर्य यही है कि युवराज सिंहसेन की मुख्य रानी का नाम श्यामा देवी था, तथा इस विवाहोत्सव में महाराज महासेन ने समस्त पुत्रवधुओं के लिए हिरण्यकोटि 1. तिर्यक् लोग के असंख्यात द्वीप और समुद्रों के मध्य में स्थित और सब से छोटा, जम्बू नामक वृक्ष से उपलक्षित और मध्य में मेरुपर्वत से सुशोभित जम्बूद्वीप है। इस में भरत, ऐरावत और महाविदेह ये तीन कर्मभूमि और हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु और उत्तरकुरु ये छ: अकर्मभूमि क्षेत्र हैं। इसकी परिधि तीन लाख सोलह हज़ार दो सौ सताईस योजन, तीन कोस एक सौ अढ़ाई धनुष्य (चार हाथ का परिमाण) तथा साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। 2. इतने अधिक महलों के निर्माण से दो-तीन बातों का बोध होता है-प्रथम तो यह कि माता-पिता का पुत्रस्नेह कितना प्रबल होता है, पुत्र के आराम के लिए माता-पिता कितना परिश्रम तथा व्यय करते हैं-दूसरी यह कि महाराज महासेन कोई साधारण नृपति नहीं थे, किन्तु एक बड़े समृद्धिशाली तथा तेजस्वी राजा थे। तीसरी यह कि-हमारां भारतदेश प्राचीन समय में समुन्नत, समृद्धिपूर्ण तथा सम्पत्तिशाली था। प्रायः उसके प्रासादों में स्वर्ण और मणिरत्नों की ही बहुलता रहती थी। सारांश यह है कि पुराने जमाने में हमारे इस देश के विभवसम्पन्न होने के अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं। यह देश आज की भांति विभवहीन नहीं था। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [679 Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि पांच सौ वस्तुएं दहेज के रूप में दीं। तदनन्तर युवराज सिंहसेन अपनी श्यामा देवी प्रमुख , 500 रानियों के साथ उन महलों में सांसारिक सुखों का यथेच्छ उपभोग करता हुआ आनन्दपूर्वक रहने लगा। -रायवरकन्नगसयाणं-इस पद से सूचित होता है कि वे राजकन्याएं साधारण नहीं थीं किन्तु प्रतिष्ठित राजघरानों की थीं। इस के साथ-साथ यह भी सूचित होता है कि महाराज महासेन का सम्बन्ध बड़े-बड़े प्रतिष्ठित राजाओं के साथ था। पांच सौ कन्याओं के साथ जो विवाह का वर्णन किया है, इससे दो बातें प्रमाणित होती हैं जो कि निम्नोक्त हैं (1) प्राचीन समय में प्रायः राजवंशों में बहुविवाह की प्रथा पूरे यौवन पर थी, इस को अनुचित नहीं समझा जाता था। (2) महाराज महासेन का इतना महान् प्रभाव था कि आस-पास के सभी मांडलीक राजा उन को अपनी कन्या देने में अपना गौरव समझते थे। इस व्यवहार से वे महाराज महासेन की कृपा का संपादन करना चाहते थे। ___ "-एगदिवसेणं-" यह पद महाराज महासेन की कार्यदक्षता एवं दीर्घदर्शिता का सूचक है। इतने बड़े समारम्भ को एक ही दिन में सम्पूर्ण करना कोई साधारण काम नहीं होता। तात्पर्य यह है कि वे व्यवहार में कुशल और बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। बहुकालसाध्य कार्य को भी स्वल्प काल में सम्पन्न कर लेते थे। यह सब को विदित ही है कि घड़ी में जितनी चाबी दी हुई होती है, उतनी ही देर तक घड़ी चलती है और समय की सूचना देती रहती है। चाबी के समाप्त होते ही वह खड़ी हो जाती है, उस की गति बन्द हो जाती है। यही दशा इस मानव शरीर की है। जब तक आयु है तब तक वह चलता फिरता और सर्व प्रकार के कार्य करता है। आयु के समाप्त होते ही उसकी सारी चेष्टाएं समाप्त हो जाती हैं। वह जीवित प्राणी न रह कर, एक पाषाण की भान्ति निश्चेष्टता को धारण कर लेता है। और उस शरीर को जिस का कि बराबर पालन पोषण किया जाता था, जला दिया जाता है। इस विचित्र लीला का प्रत्येक मानव अनुभव कर रहा है। इसी के अनुसार महाराज महासेन भी अपनी समस्त मानव लीलाओं का सम्वरण करके मृत्यु की गोद में जा विराजे। राजभवनों में महाराज की मृत्यु का समाचार पहुंचा तो सारे रणवास में शोक एवं दुःख . की चादर बिछ गई। युवराज सिंहसेन को महाराज की मृत्यु से बड़ा आघात पहुंचा। शहर में इस खबर के पहुंचते ही मातम छा गया। नगर की जनता युवराज सिंहसेन के सन्मुख संवेदना 680 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकट करने के लिए दौड़ी चली आ रही है। अन्त में बड़े समारोह के साथ महाराज महासेन की अरथी उठाई गई और उन का विधिपूर्वक दाहसंस्कार किया गया। - महाराज महासेन की मृत्यु के बाद उन की लौकिक मृतक क्रियाएं समाप्त होने पर प्रजाजनों ने युवराज सिंहसेन को राज्यसिंहासन पर बिठलाने के लिए, उनके राज्याभिषेक की तैयारी की और राज्याभिषेक कर के उसे सिंहासनारूढ़ किया गया। तब से युवराज सिंहसेन महाराज सिंहसेन के नाम से प्रख्यात होने लगे। महाराज सिंहसेन भी पिता की भान्ति न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे और अपने सद्गुणों एवं सद्भावनाओं से जनता के हृदयों पर अधिकार जमाते हुए राज्यशासन को समुचित रीति से चलाने लगे। ... -रिद्ध-तथा-अहीण. जुवराय-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ क्रमशः द्वितीय तथा पंचम अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा-अब्भुग्गत०-यहां के बिन्दु से सूत्रकार को निम्नोक्त पाठ अभिमत है-- ... अब्भुग्गयमुसियपहसियाई विव मणि-कणग-रयण-भत्ति-चित्ताई वाउद्भूतविजय-वेजयंती-पडागाच्छत्ताइच्छत्तकलियाई तुंगाइं गगणतलमभिलंघमाणसिहराई जालंतरयणपंजरुम्मिल्लियाई व्व मणिकणगथूभियाई वियसितसयपत्तपुंडरीयाई तिलयरयणद्धयचंदच्चित्ताईनानामणिमयदामालंकिए अन्तो बहिं च सण्हे तवणिजरुइलवालुयापत्थरे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाइए दंसणीए अभिरूवे पडिरूवे, तेसिं णं पासादवडिंसगाणं बहुमझदेसभागे एत्थणं एगंच णं महं भवणं कारेन्ति अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलट्ठियसालभंजियागं अब्भुग्गयसुकयवइरवेइयातो-रयणवररइयसालभंजियासुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्थवेरुलियखंभनानामणिकणगरयणखचियउज्जलं बहुसमसुविभत्तनिचियरमणिज्जभूमिभागंईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं खंभुग्गयवयरवेइयापरिग्गयाभिरामं विजाहरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं कंचणमणिरयणथूभियागं नाणाविहपंचवण्णघण्टापडागपरिमण्डियग्गसिहरं धवलमिरीचिकवयं विणिम्मुयंतं लाउल्लोइयमहियं गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितलं उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावं पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुञ्जोवयारकलियं कालागरुपवरकुन्दुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामं सुगन्धवरगन्धियं गंधवट्टिभूयं पासादीयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं-इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [681 Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे महल अभ्युद्गत-अत्यन्त उच्छ्रित-ऊँचे थे और मानो उन्होंने हंसना प्रारम्भ किया / हुआ हो अर्थात् वे अत्यधिक श्वेतप्रभा के कारण हंसते हुए से प्रतीत होते थे। मणियोंसूर्यकान्त आदि, सुवर्णों और रत्नों की रचनाविशेष से वे चित्र-आश्चर्योत्पादक हो रहे थे। वायु से कंपित और विजय की संसूचक वैजयन्ती नामक पताकाओं से तथा छत्रातिछत्रों (छत्र के ऊपर छत्र) से वे प्रासाद-महल युक्त थे। वे तुङ्ग-बहुत ऊँचे थे, तथा बहुत ऊंचाई के कारण उन के शिखर-चोटियां मानो गगनतल को उल्लंघन कर रही थीं। जालियों के मध्य भाग में लगे हुए रत्न ऐसे चमक रहे थे मानो कोई आंखें खोल कर देख रहा था अर्थात् महलों के चमकते हुए रत्न खुली आंखों के समान प्रतीत हो रहे थे। उन महलों की स्तूपिकाएं-शिखर मणियों और सुवर्णों से खचित थीं, उन में शतपत्र (सौ पत्ते वाले कमल) और पुण्डरीक (कमलविशेष) विकसित हो रहे थे, अथवा इन कमलों के चित्रों से वे चित्रित थे। तिलक, रत्न और अर्धचन्द्र-सोपानविशेष इन सब से वे चित्र-आश्चर्यजनक प्रतीत हो रहे थे। नाना प्रकार' की मणियों से निर्मित मालाओं से अलंकृत थे। भीतर और बाहर से चिकने थे। उन के प्रांगणों में सोने का सुन्दर रेत बिछा हुआ था। वे सुखदायक स्पर्श वाले थे। उन का रूप शोभा वाला था। वे प्रासादीय-चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय-जिन्हें बारम्बार देख लेने पर भी आंखें न थकें, अभिरूप-जिन्हें एक बार देख लेने पर भी पुनः दर्शन की लालसा बनी रहे और प्रतिरूप-जिन्हें जब भी देखा जाए तब ही वहां नवीनता ही प्रतिभासित हो, ऐसे थे। उन पांच सौ प्रासादों के लगभग मध्य भाग में एक महान भवन तैयार कराते हैं। प्रासाद और भवन में इतना ही अन्तर होता है कि प्रासाद अपनी लम्बाई की अपेक्षा दुगुनी ऊँचाई वाला होता है। अथवा अनेक भूमियों-मंजिलों वाला प्रासाद कहा जाता है जब कि भवन अपनी लम्बाई की अपेक्षा कुछ ऊंचाई वाला होता है, अथवा एक ही भूमि-मंजिल वाला मकान भवन कहलाता है। भवनसम्बन्धी वर्णक पाठ का विवरण निम्नोक्त है उस भवन में सैंकड़ों स्तम्भ-खम्भे बने हुए थे, उस में लीला करती हुई पुतलियां बनाई हुई थीं। बहुत ऊंची और बनवाई गई वज्रमय वेदिकाएं चबूतरे, तोरण-बाहर का द्वार उस में थे, जिन पर सुन्दर पुतलियां अर्थात् लकड़ी, मिट्टी, धातु, कपड़े आदि की बनी हुई स्त्री की आकृतियां या मूर्तियां जो विनोद या क्रीड़ा (खेल) के लिए हों, बनाई गईं थीं। उस भवन में विशेष आकार वाली सुन्दर और स्वच्छ जड़ी हुईं वैडूर्य मणियों के स्तम्भों पर भी पुतलियां बनी हुई थीं। अनेक प्रकार की मणियों, सुवर्णों तथा रत्नों से वह भवन खचित तथा उज्ज्वलप्रकाशमान हो रहा था। वहां का भूभाग समतल वाला और अच्छी तरह से बना हुआ, तथा. अत्यधिक रमणीय था। ईहामृग-भेड़िया, वृषभ-बैल, अश्व-घोड़ा, मनुष्य, मगर-मत्स्य, 682 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षी, सर्प, किन्नर-देवविशेष, मृग-हरिण, अष्टापद-आठ पैरों वाला एक वन्य-पशु जो हाथी को भी अपनी पीठ पर बैठा कर ले जा सकता है, चमरी गाय, हाथी, वनलता-लताविशेष, और पद्मलता-लताविशेष, इन सब के चित्रों से उस भवन की दीवारें चित्रित हो रही थीं। स्तम्भों के ऊपर हीरे की बनी हुई वेदिकाओं से वह भवन मनोहर था। वह भवन एक ही पंक्ति में विद्याधरों के युगलों-जोड़ों की चलती फिरती प्रतिमाओं से युक्त था। वह भवन हजारों किरणों से व्याप्त हो रहा था। वह भवन अत्यधिक कान्ति वाला था। देखने वाले के मानो उस भवन में नेत्र गड़ जाते थे। उस का स्पर्श सुखकारी था। उस का रूप मनोहर था। उस की स्तूपिकाएं-बुर्जियां सुवर्णों, मणियों और रत्नों की बनी हुई थीं। उस का शिखराग्रभाग-चोटी का अगला हिस्सा, पांच वर्णों वाले नानाप्रकार के घण्टों और पताकाओं से सुशोभित था। उस में से बहुत ज्यादा श्वेत किरणें निकल रही थीं। वह लीपने पोतने के द्वारा महित-विभूषित हो रहा था। गोशीर्ष-मलयगिरि चन्दन, और सरस एवं रक्त चन्दन के उस में हस्तक-थापे लगे हुए थे। उस में चन्दन के कलश स्थापित किए हुए थे। चन्दन से लिप्त घटों के द्वारा उस के तोरण और प्रतिद्वारों-छोटे-छोटे द्वारों के देशभाग-निकटवर्ती स्थान सुशोभित हो रहे थे। नीचे से ऊपर तक बहुत सी फूलमालाएं लटक रही थीं। उस में पांचों वर्गों के ताज़े सुगन्धित फूलों के ढेर लगे हुए थे। वह कालागरु-कृष्णवर्णीय अगर नामक सुगन्धित पदार्थ, श्रेष्ठ कुन्दुरुकसुगन्धित पदार्थविशेष, तुरुष्क-सुगन्धित पदार्थविशेष इन सब की धूपों-धूमों की अत्यन्त सुगन्ध से वह बड़ा अभिराम-मनोहर था। वह भवन अच्छी-अच्छी सुगन्धों से सुगन्धित हो रहा था, मानो वह गन्ध की वर्तिका-गोली बना हुआ था। वह प्रासादीय-चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय-जिसे बारम्बार देख लेने पर भी आंखें न थकें, अभिरूप-जिसे एक बार देख लेने पर भी पुनः दर्शन की लालसा बनी रहे और प्रतिरूप-जिसे जब भी देखो तब वहां नवीनता ही प्रतिभासित हो, इस प्रकार का बना हुआ था। . "-पंचसयओ दाओ-" इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार आचार्य श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में यदि करने लगें तो "-पंचसयओदाउ-"त्ति हिरण्यकोटि-सुवर्णकोटिप्रभृतीनां प्रेषणकारिकान्तानां पदार्थानां पंचशतानि सिंहसेनकुमाराय पितरौ दत्तवन्तावित्यर्थः। स च प्रत्येकं स्वजायाभ्यो दत्तवानिति-" इस प्रकार की जा सकती है, अर्थात् माता पिता ने विवाहोत्सव पर 500 हिरण्यकोटि एवं 500 सुवर्णकोटि से लेकर यावत् 500 प्रेषणकारिकाएं युवराज सिंहसेन को अर्पित की, तब उसने उन सब को विभक्त करके अपनी 500 स्त्रियों को दे डाला। 500 संख्या वाले हिरण्यकोटि आदि पदार्थों का विस्तृत वर्णन निम्नोक्त है पंचसयहिरण्णकोडीओ पंचसयसुवण्णकोडीओ, पंचसयमउडे मउडप्पवरे प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [683 Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसयकुंडलजुए कुंडलजुयप्पवरे पंचसयहारे हारप्पवरे पंचसयअद्धहारे अद्धहारप्पवरे पंचसयएगावलीओ एगावलिप्पवराओ एवं मुत्तावलीओ एवं कणगावलीओ एवं रयणावलीओ पंचसयकडगजोए कडगजोयप्पवरे एवं तुडियजोए, पंचसयखोमजुयलाई खोमजुयलप्पवराइं एवं वडगजुयलाइं एवं पट्टजुयलाइं एवं दुगुल्लजुयलाइं, पंचसयसिरीओ पंचसयहिरीओ एवं धिईओ कित्तीओ बुद्धीओ लच्छीओ, पंचसयनंदाइं पंचसयभद्दाई पंचसयतले तलप्पवरे सव्वरयणामए, णियगवरभवणकेऊ पंचसयज्झए झयप्पवरे पंचसयवए वयप्पवरे दसगोसाहस्सिएणं वएणं, पंचसयनाडगाइं नाडगप्पवराई बत्तीसबद्रेणं नाडएणं, पंचसयआसे आसप्पवरे सव्वरयणामए सिरिघरपडिरूवए, पंचसयहत्थी हत्थिप्पवरे सव्वरयणामए सिरिघरपडिरूवए, पंचसयजाणाइं जाणप्पवराई पंचसयजुग्गाइं जुग्गप्पवराई एवं सिवियाओ एवं संदमाणीओ एवं गिल्लीओ एवं थिल्लीओ, पंचसयवियडजाणाई वियडजाणप्पवराई पंचसयरहे पारिजाणिए पंचसयरहे संगामिए पंचसयआसे आसप्पवरे पंचसयहत्थी हत्थिप्पवरे पंचसयगामे गामप्पवरे दसकुलसाहस्सिएणं गामेणं, पंचसयदासे दासप्पवरे एवं चेव दासीओ एवं किंकरे एवं कंचुइज्जे एवं वरिसधरे एवं महत्तरए, पंचसयसोवण्णिए ओलंबणदीवे पंचसयरुप्पामए ओलंबणदीवे पंचसयसुवण्णरुप्पामयओलंबणदीवे पंचसयसोवण्णिए उक्कंचणदीवे एवं चेव तिन्नि वि, पंचसयसोवण्णिए पंजरदीवे एवं चेव तिन्नि वि, पंचसयसोवण्णिए थाले पंचसयरुप्पामए थाले पंचसयसुवण्णरुप्पामए थाले, पंचसंयसोवणियाओ पत्तीओ पंचसयरुप्पामयाओ पत्तीओ पंचसयसुवण्णरुप्पामयाओ पत्तीओ पंचसयसोवणियाई थासगाई पंचसयरुप्पामयाइं थासगाइं पंचसयसुवण्णरुप्पामयाइं थासगाई पंचसयसोवणियाई मल्लगाइं पंचसयरुप्पामयाइं मल्लगाइं पंचसयसुवण्णरुप्पामयाइं मल्लगाई पंचसयसोवणियाओ तलियाओ पंचसयरुप्पामयाओ तलियाओ पंचसयसुवण्णरुप्पामयाओ तलियाओ पंचसयसोवण्णियाओ कावईआओ पंचसयरुप्पामयाओ कावइआओ पंचसयसुवण्णरुप्पामयाओ कावइआओ पंचसयसोवण्णिए अवएडए पंचसयरुप्पामए अवएडए पंचसयसुवण्णरुप्पामए अवएडए पंचसयसोवण्णियाओ अवयक्काओ पंचसयरुप्पामयाओ अवयक्काओ पंचसयसोवण्णरुप्पामयाओ अवयक्काओं पंचसयसोवण्णिए पायपीढए पंचसयरुप्पामए पायपीढए पंचसयसोवण्णरुप्पामए पायवीढए पंचसयसोवण्णियाओ भिसियाओ पंचसयरुप्पामयाओ भिसियाओ पंचसयसुवण्णरुप्पामयाओ भिसियाओ पंचसयसोवण्णियाओ करोडियाओ पंचसयरुप्पामयाओ करोडियाओ पंचसयसुवण्णरुप्पामयाओ करोडियाओ पंचसय 684 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोवण्णिए पल्लंके पंचसयरुप्पामए पल्लंके पंचसयसुवण्णरुप्पामए पल्लंके पंचसयसोवणियाओ पडिसेज्जाओ पंचसयरुप्पामयाओ पडिसेज्जाओ पंचसयसोवण्णरुप्पामयाओ पडिसेज्जाओ पंचसयहंसासणाइं पंचसयकोंचासणाइं एवं गरुलासणाई उन्नयासणाई पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई पंचसयपउमासणाइं पंचसयदिसासोवत्थियासणाइं पंचसयतेलसमुग्गे जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पंचसयसरिसवसमुग्गे पंचसयखुजाओ जहा उववाइए जाव पंचसयपारिसीओ पंचसयछत्ते पंचसयछत्तधारीओ चेडीओ पंचसयचामराओ पंचसयचामरधारीओ चेडीओ पंचसयतालियंटे पंचसयतालियंटधारीओ चेडीओ पंचसयकरोडियाओ पंचसयकरोडियाधारीओ चेडीओ पंचसय-खीरधातीओजाव पंचसयअंकधातीओ पंचसयअंगमदियाओ पंचसयउम्महियाओ पंचसयोहावियाओ पंचसयपसाहियाओ पंचसयवन्नगपेसीओ पंचसयचुनगपेसीओ पंचसयकीडागारीओ पंचसयदवकारीओ पंचसयउवत्थाणियाओ पंचसयनाडइज्जाओ पंचसयकोडुंबिणीओ पंचसयमहाणसिणीओ पंचसयभण्डागारिणीओ पंचसयअज्झाधारिणीओ पंचसयपुष्फधारिणीओ पंचसयपाणिअधारिणीओ पंचसयबलिकारीयाओ पंचसयसेज्जाकारियाओ पंचसयअब्भंतरियाओ पडिहारीओ पंचसयबाहिरपडिहारीओ पंचसयमालाकारीओ पंचसयपेसणकारीओ अन्नं वा सुबहुं हिरण्णं वा सुवण्णं वा कंसं वा दूसं वा विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावइजं अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं परिभोत्तुं पकामं परिभाएउं। अर्थात् पांच सौ हिरण्यकोटि (हिरण्यों अर्थात् आभूषणों के रूप में अपरिणत करोड़ मूल्य वाला सोना अथवा चांदी के सिक्के) पांच सौ सुवर्णकोटि (आभूषण के रूप में परिवर्तित सोना, जिस का मूल्य करोड़ हो) पांच सौ उत्तम मुकुट, पाँच सौ उत्तम कुंडलों के जोड़े, पांच सौ उत्तम हार, पांच सौ उत्तम अर्द्धहार, पाँच सौ उत्तम एकावली हार, पांच सौ उत्तम मुक्तावली हार, पाँच सौ उत्तम कनकावली हार, पाँच सौ उत्तम रत्नावली हार, पांच सौ उत्तम कड़ों के जोड़े, पांच सौ उत्तम भुजबंधों के जोड़े, पांच सौ उत्तम रेशमी वस्त्रों के जोड़े, पांच सौ उत्तम वटक-टसर के वस्त्र-युगल, पांच सौ उत्तम पट्टसूत्र के वस्त्र-युगल, पांच सौ दुकूल नामक वृक्ष की त्वचा से निर्मित वस्त्र-युगल, पांच सौ श्री देवी की प्रतिमाएं, पांच सौ ह्री देवी की प्रतिमाएं, पांच सौ धृति देवी की प्रतिमाएं, पांच सौ लक्ष्मी देवी की प्रतिमाएं, पांच सौ नन्द 1. कहीं "पांच सौ सामान्य मुकुट तथा पांच सौ उत्तम मुकुट-" ऐसा अर्थ भी देखने में आता है। इसी भांति कुण्डलादि के सम्बन्ध में भी अर्थभेद उपलब्ध होता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [685 Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांगलिक वस्तुएं अथवा लोहासन, पांच सौ भद्र-मांगलिक वस्तुएं अथवा शरासन, पांच सौ उत्तम रत्नमय तालवृक्ष अपने-अपने भवनों के चिह्नस्वरूप पांच सौ उत्तम ध्वजा, दस हज़ार गौओं का एक गोकुल होता है ऐसे पांच सौ उत्तम गोकुल, एक नाटक में 32 पात्र काम करते हैं ऐसे पांच सौ उत्तम नाटक, सर्वरत्नमय लक्ष्मी के भंडार के समान पांच सौ उत्तम घोड़े, वरत्नमय लक्ष्मी के भंडार के समान पाँच सौ उत्तम हाथी, पांच सौ उत्तम यान-गाड़ी आदि, पांच सौ उत्तम युग्य-एक प्रकार का वाहन जिसे गोल्लदेश में जम्पान कहते हैं, पांच सौ उत्तम शिविकाएं-पालकियें, पांच सौ उत्तम स्यन्दमानिका-पालकीविशेष, इसी प्रकार पांच सौ उत्तम गिल्लियें (हस्ती के ऊपर की अम्बारी-जिस पर सवार बैठते हैं उसे गिल्ली कहते हैं), पांच सौ उत्तम थिल्लियां (थिल्ली घोड़े की काठी को कहते हैं), पांच सौ उत्तम विकटयान-बिना छत की सवारी, पांच सौ पारियानिक-क्रीड़ादि के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले रथ, पांच सौ सांग्रामिक रथ, पांच सौ उत्तम घोड़े, पांच सौ उत्तम हाथी, दस हज़ार कुल परिवार जिस में रहें उसे ग्राम कहते हैं ऐसे पांच सो उत्तम गांव, पांच सौ उत्तम दास, पांच सौ उत्तम दासिएं, पांच सौ उत्तम किंकर-पूछ कर काम करने वाले, पांच सौ कंचुकी-अंत:पुर के प्रतिहारी, पांच सौ वर्षधर वह नपुंसक जो अन्तःपुर में काम करते हैं, पांच सौ महत्तर-अन्तःपुर का काम करने वाले, श्रृंखला-सांकल वाले पांच सौ सोने के दीप, सांकल वाले पांच सौ चांदी के दीप, सांकल वाले पांच सौ सोने और चांदी अर्थात् दोनों से निर्मित दीपं, ऊंचे दंड वाले पांच सौ सोने के दीप, ऊंचे दंड वाले पांच सौ चांदी के दीप, ऊंचे दंड वाले पांच सौ सोने और चांदी के दीप, पंजर-फानूस (एक दंड में लगे हुए शीशे के कमल या गिलास आदि जिन में बत्तियां जलाई जाती हैं) वाले पांच सौ सोने के दीप, पंजर वाले पांच सौ चांदी के दीप, पंजर वाले सोने और चांदी के पांच सौ दीप, पांच सौ सोने के थाल, पांच सौ चांदी के थाल, पांच सौ सोने और चांदी के थाल, पांच सौ सोने की कटोरियां, पांच सौ चांदी की कटोरियां, पांच सौ सोने और चांदी की कटोरियां, पांच सौ सुवर्णमय दर्पण के आकार वाले पात्र विशेष, पांच सौ रजतमय दर्पण के आकार वाले पात्र विशेष, पांच सौ सुवर्णमय और रजतमय दर्पण के आकार वाले पात्र विशेष, पांच सौ सुवर्णमय मल्लक-पानपात्र (कटोरा), पांच सौ रजतमय मल्लक, पांच सौ सुवर्ण और चांदी के मल्लक, पांच सौ सुवर्ण की तलिका पात्री-विशेष, पांच सौ रजत की तलिका, पांच सौ सुवर्ण और रजत की तलिका, पांच सौ सुवर्ण की कलाचिका-चमचे, पांच सौ रजत के चमचे, पांच सौ सुवर्ण और रजत के चमचे, पांच सौ सुवर्ण के तापिकाहस्तपात्रविशेष, पांच सौ रजत के तापिकाहस्त, पांच सौ सुवर्ण और रजत के तापिकाहस्त, पांच . सौ सुवर्ण के अवपाक्य-तवे, पांच सौ रजत के तवे, पांच सौ सुवर्ण और रजत के तवे, पांच 686 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ सुवर्ण के पादपीठ-पैर रखने के आसन, पांच सौ रजत के पादपीठ, पांच सौ सुवर्ण और रजत के पादपीठ, पांच सौ सुवर्ण के भिसिका-आसनविशेष, पांच सौ रजत के आसनविशेष, पांच सौ सुवर्ण और रजत के आसनविशेष, पांच सौ सुवर्ण के करोटिका-कूण्डे अथवा बड़े "मुंह वाले पात्रविशेष, पांच सौ रजत की करोटिका, पांच सौ सुवर्ण और रजत की करोटिका, पांच सौ सुवर्ण के पलंग, पांच सौ रजत के पलंग, पांच सौ सोने और रजत के पलंग, पांच सौ सुवर्ण की प्रतिशय्या-उत्तरशय्या अर्थात् छोटे पलंग, पांच सौ रजत की प्रतिशय्या, पांच सौ सुवर्ण और रजत की प्रतिशय्या, पांच सौ हंसासन-हंस के चिह्न वाले आसनविशेष, पांच सौ क्रौंचासन-क्रौंचपक्षी के आकार वाले आसनविशेष, पांच सौ गरुड़ासन-गरुड़ के आकार वाले आसनविशेष, पांच सौ उन्नत-ऊँचे आसन, पांच सौ प्रणत-नीचे आसन, पांच सौ दीर्घ-लम्बे आसन, पांच सौ भद्रासन-आसनविशेष, पांच सौ पक्ष्मासन-आसनविशेष जिन के नीचे पक्षियों के अनेकविध चित्र हों, पांच सौ मकरासन-मकर के चिह्न वाले आसन, पांच सौ पद्मासन-आसनंविशेष, पांच सौ दिशासौवस्तिकासन-दक्षिणावर्त अर्थात् स्वस्तिक के आकार वाले आसन, पांच सौ तैलसमुद्र-तेल के डब्बे, इन के अतिरिक्त राजप्रश्रीय सूत्र में कहे हुए यावत् पांच सौ सरसों रखने के डब्बे, पांच सौ कुबड़ी दासियां, इस के अतिरिक्त औपपातिकसूत्र के कहे अनुसार यावत् पांच सौ पारिसी-पारसदेशोत्पन्न दासियां, पांच सौ छत्र, पांच सौ छत्र * धारण करने वाली दासियां, पांच सौ चंवर, पांच सौ चंवर धारण करने वाली दासियां, पांचसौ पंखे, पांच सौ पंखा झुलाने वाली दासियां, पांच सौ पानदान (वे डिब्बे जिन में पान और उस के लगाने की सामग्री रखी जाती है, पनडब्बा), पांच सौ पानदान को धारण करने वाली दासियां, पांच सो क्षीरधात्रिएं-बालकों को दूध पिलाने वाली धायमाताएं, यावत् पांच सौ बालकों को गोद में लेने वाली धायमाताएं, पांच सौ अंगमर्दन करने वाली स्त्रियां, पांच सौ . उन्मर्दिका-विशेष रूप से अंगमर्दन करने वाली दासियां, पांच सौ स्नान कराने वाली दासियां, पांच सौ शृंगार कराने वाली दासियां, पांच सौ चन्दनादि पीसने वाली दासियां, पांच सौ चूर्ण पान का मसाला अथवा सुगन्धित द्रव्य को पीसने वाली दासियां, पांच सौ क्रीड़ा कराने वाली दासियां, पांच सौ परिहास-मनोरंजन कराने वाली दासियां, पांच सौ राजसभा के समय साथ रहने वाली दासियां, पांच सौ नाटक करने वाली दासियां, पांच सौ साथ चलने वाली दासियां, पांच सौ रसोई बनाने वाली दासियां, पांच सौ भाण्डागार-भण्डार की देखभाल करने वाली दासियां, पांच सौ मालिने, पांच सौ पुष्प धारण कराने वाली दासियां, पांच सौ पानी लाने वाली 1. द्वितीय अध्याय में चिलाती, वामनी आदि सभी दासियों का उल्लेख किया गया है। 2. द्वितीय अध्याय में मञ्जनधात्री तथा मण्डनधात्री आदि शेष धायमाताओं के नाम वर्णित हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [687 Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दासियां, पांच सौ बलिकर्म-शरीर की स्फूर्ति के लिए तैलादि मर्दन करने वाली दासियां, पांच सौ शय्या बिछाने वाली दासियां, पांच सौ अन्त:पुर का पहरा देने वाली दासियां, पांच सौ बाहिरका पहरा देने वाली दासियां, पांच सौ माला गूंथने वाली दासियां, पांच सौ आटा आदि पीसने वाली अथवा सन्देशवहन करने वाली दासियां, और बहुत सा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्यकांसी, वस्त्र, विपुल बहुत धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, मूंगा, रक्त रत्न, उत्तमोत्तम वस्तुएं, स्वापतेय-रुपया पैसा आदि द्रव्य, दिया जो इतना पर्याप्त था कि सात पीढ़ी तक चाहे इच्छापूर्वक दान दिया जाए, स्वयं उस का उपभोग किया जाए, या खूब उसे बांटा जाए तो भी वह समाप्त नहीं हो सकता था। -उप्पिं जाव विहरति-यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित-पासायवरगए फुट्टमाणेहिं-से लेकर-पच्चणुभवमाणे-यहां तक के पद तृतीय अध्याय में लिखे जा चुके हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्नसेन का नाम है, जब कि प्रस्तुत में सिंहसेन का। शेष वर्णन समान ही है। ___ -नीहरणं०-यहां नीहरण पद सांकेतिक है जो कि-तए णं से सीहसेणे कुमारे बहुहिं राईसर० जाव सत्थवाहप्पभितीहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे कन्दमाणे विलवमाणे महासेणस्स रण्णो महया इड्ढिसक्कारसमुदएणं नीहरणं करेइ 2 त्ता बहई लोइयाई मयकिच्चाई करेइ- इन पदों को तथा उसके आगे दिया गया बिन्दु-तते णं ते बहवे राईसर० जाव सत्थवाहा सीहसेणं कुमारं महया 2 रायाभिसेगेणं अभिसिंचंति तते णं सीहसेणे कुमारे-इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ पंचम अध्याय में किया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां शतानीक राजा तथा उदयन कुमार का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में महासेन राजा और सिंहसेन कुमार का / नामगत भिन्नता के अतिरिक्त शेष वृत्तान्त समान है। तथा-महया०-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना द्वितीय अध्याय में दी जा चुकी इसके पश्चात् क्या हुआ, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हुए कहते हैं मूल-तते णं से सीहसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिते 4 अवसेसाओ देवीओणो आढाति, णो परिजाणाति, अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे विहरति। तते णं तासिं एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एक्कूणाई पंचमाईसयाइं इमीसे कहाए लद्धट्ठाई समाणाइं एवं खलु सीहसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिते 4 अम्हं धूयाओ नो आढाति नो परिजाणाति, आणाढायमाणे, अपरिजाणमाणे 688 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरति। तं सेयं खलु अम्हं सामं देविं अग्गिप्पओगेण वा विसप्पओगेण वा सत्थप्पओगेण वा जीवियाओ ववरोवित्तए। एवं संपेहेन्ति संपेहित्ता सामाए देवीए अंतराणि य छिद्दाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणीओ पडिजागरमाणीओ विहरंति। तते णं सा सामा देवी इमीसे कहाए लट्ठा समाणी एवं वयासी-एवं खलु ममं एगूणगाण पंचण्हं सवत्तीसयाण पंचमाइसयाई इमीसे कहाए लट्ठाई समाणाइं अन्नमन्नं एवं वयासी-एवं खलु सीहसेणे जाव पडिजागरमाणीओ विहरन्ति। तं न नज्जति णं ममं केणति कुमारेणं मारेस्संति, त्ति कट्ट भीया 4 जेणेव कोवघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ओहय० जाव झियाति। छाया-ततः स सिंहसेनो राजा श्यामायां देव्यां मूर्च्छितः 4 अवशेषा देवी! आद्रियते, नो परिजानाति, अनाद्रियमाणोऽपरिजानन् विहरति / ततस्तासामेकोनानां पंचानां देवीशतानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि अनया कथया लब्धार्थानि सन्ति एवं खलु सिंहसेनो राजा श्यामायां देव्यां मूर्च्छितः 4 अस्माकं दुहितों आद्रियते नो परिजानाति, अनाद्रियमाणोऽपरिजानन् विहरति / तच्छ्रेयः खल्वस्माकं श्यामां देवीमग्निप्रयोगेण वा विषप्रयोगेण वा शस्त्रप्रयोगेण वा जीविताद् व्यपरोपयितुम् / एवं सम्प्रेक्षन्ते संप्रेक्ष्य श्यामाया: देव्याः अन्तराणि च छिद्राणि च विरहांश्च प्रतिजाग्रत्यः प्रतिजाग्रत्यो विहरन्ति। ततः सा श्यामा देवी अनया कथया लब्धार्था सती एवमवादीत्-एवं खलु मम एकोनानां पंचानां सपत्नीशतानां एकोनानि पञ्चमातृशतानि अनया कथया लब्धार्थानि सन्त्यन्योन्यमेवमववादिषुः-एवं खलु सिंहसेनो यावत् प्रतिजाग्रत्यो विहरन्ति "-तद् न ज्ञायते ' मां केनचित् कुमारेण मारयिष्यन्ति-'' इति कृत्वा भीता 4 यत्रैव कोपगृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य अपहत० यावद् ध्यायति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / से-वह। सीहसेणे राया-सिंहसेन राजा। सामाए-श्यामा। देवीएदेवी में। मुच्छिते ४-१-मूर्च्छित-उसी के ध्यान में पगला बना हुआ, २-गृद्ध-उस की आकांक्षा वाला, ३-ग्रथित-उसी के स्नेहजाल से बन्धा हआ. ४-अध्यपपन्न-उसी में आसक्त हआ 2 / अवसेसाओअवशेष-बाकी की। देविओ-देवियों का। णो आढाति-आदर नहीं करता। णो परिजाणाति-उन की ओर ध्यान नहीं देता। अणाढायमाणे-आदर नहीं करता हुआ। अपरिजाणमाणे-ध्यान न रखता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा है। तते णं-तदनन्तर / तासिं-उन। एगूणगाणं-एक कम। पंचण्हं देवीसयाणंपांच सौ देवियों की। एक्कूणाई-एक कम। पंचमाईसयाई-पांच सौ माताएं जो कि। इमीसे-इस। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [689 Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहाए-वृत्तान्त को। लट्ठाई समाणाइं-जान गई हैं, कि। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सीहसेणेसिंहसेन / राया-राजा। सामाए देवीए-श्यामा देवी में। मुच्छिते ४-१-मूर्च्छित, २-गृद्ध, ३-ग्रथित और ४-अध्यपपन्न हआ 2 / अम्हं-हमारी। धयाओ-पत्रियों का। नो आढाति-आदर नहीं करता. तथा। णो परिजाणाति-ध्यान नहीं करता, तथा। अणाढायमाणे-आदर न करता हुआ। अपरिजाणमाणे-ध्यान न रखता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा है। तं-अतः। सेयं-योग्य है। खलु-निश्चयार्थक है। अहं-हम को अर्थात् हमें अब यही योग्य है कि। सामं देविं-श्यामा देवी को। अग्गिप्पओगेण वा-अग्नि के प्रयोग से अथवा। विसप्पओगेण वा-विष के प्रयोग से अथवा। सत्थप्पओगेण वा-शस्त्र के प्रयोग से। जीवियाओजीवन से। ववरोवित्तए-व्यपरोपित करना, अर्थात् जीवनरहित कर देना। एवं-इस प्रकार। संपेहेंति संपेहित्ता-विचार करती हैं, विचार करने के बाद / सामाए देवीए-श्यामा देवी के। अंतराणि य-अन्तरअर्थात् जिस समय राजा का आगमन न हो। छिद्दाणि य-छिद्र अर्थात् जब राजा के परिवार का कोई भी व्यक्ति न हो। विरहाणि य-विरह अर्थात् जिस समय और कोई सामान्य मनुष्य भी न हो, ऐसे समय की। पडिजागरमाणीओ पडिजागरमाणीओ-प्रतीक्षा करती हुई, प्रतीक्षा करती हुई, विहरंति-विचरण करती हैं। तते णं-तदनन्तर / सा-वह / सामा देवी-श्यामा देवी, जो। इमीसे-इस। कहाए-वृत्तान्त से। लद्धट्ठा समाणा-लब्धार्थ हुई अर्थात् वह इस वृत्तान्त को जान कर / एवं-इस प्रकार / वयासी-कहने लगी। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। ममं-मुझे। एगूणगाणं-एक कम। पंचण्हं सवत्तीसयाणं-पाँच सौ सपत्नियों को। एक्कूणगाई-एक कम। पंचमाईसयाई-पांच सौ माताएं। इमीसे-इस। कहाए-कथा-वृत्तान्त को। लट्ठाइं समाणाई-जानती हुईं। अन्नमनं-परस्पर। एवं वयासी-कहने लगीं। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही।सीहसेणे-सिंहसेन / जाव-यावत् / पडिजागरमाणीओ-प्रतीक्षा करती हुईं। विहरंति-विहरण कर रही हैं। तं-अतः। न-नहीं। नजति णं-जानती अर्थात् मैं नहीं जानती हूँ कि / ममं-मुझे। केणतिकिस। कुमारेणं-कुमार अर्थात् कुमौत से। मारेस्संति-मारेंगी। त्ति कट्ट-ऐसा विचार कर। भीया ४-१भीता-भयोत्पादक बात को सुन कर भयभीत हुई, २-त्रस्ता-मेरे प्राण लूट लिये जाएंगे, यह सोच कर त्रास को प्राप्त हुई, ३-उद्विग्ना-भय के मारे उस का हृदय कांपने लगा, ४-संजातभय-हृदय के साथ-साथ उस का शरीर भी कांपने लगा, इस प्रकार १-भीत, २-त्रस्त, ३-उद्विग्न और ४-संजातभय होकर श्यामा देवी। जेणेव-जहां। कोवघरे-कोपगृह था अर्थात् जहां क्रुद्ध हो कर बैठा जाए, ऐसा एकान्त स्थान था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छति उवागच्छित्ता-आती है, आकर। ओहय०-अपहतमनःसकंल्पा-जिसके मानसिक संकल्प विफल हो गए हैं अर्थात् उत्साह से रहित मन वाली होकर / जाव-यावत्। झियातिविचार करने लगी। ___ मूलार्थ-तदनन्तर महाराज सिंहसेन श्यामा देवी में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न होकर अन्य देवियों का न तो आदर करता है और न उनका ध्यान ही रखता है, विपरीत इस के उनका अनादर और विस्मरण करता हुआ सानन्द समय बिता रहा है। तदनन्तर उन एक कम पांच सौ देवियों-रानियों की एक कम पांच सौ माताओं ने जब यह जाना कि "-महाराज सिंहसेन श्यामादेवी में मूर्छित, गृद्ध, ग्रथित और 690 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “अध्युपपन्न हो हमारी कन्याओं का न तो आदर करता है और न उनका ध्यान ही रखता है-" तब उन्होंने मिल कर निश्चय किया कि हमारे लिए यही उचित है कि हम श्यामा देवी को अग्निप्रयोग, विषप्रयोग या शस्त्रप्रयोग से जीवनरहित कर डालें। इस तरह विचार करने के अनन्तर वे श्यामादेवी के अन्तर, छिद्र तथा विरह की प्रतीक्षा करती हुईं समय व्यतीत करने लगीं। इधर श्यामादेवी को भी षड्यन्त्र का पता चल गया, जिस समय उसे यह समाचार मिला तो वह इस प्रकार विचार करने लगी कि मेरी एक कम पांच सौ सपत्नियों की एक कम पांच सौ माताएं"-महाराज सिंहसेन श्यामा में अत्यन्त आसक्त हो कर हमारी पुत्रियों का आदर नहीं करता-". यह जान कर एकत्रित हुईं और "-अग्नि, विष या शस्त्र के प्रयोग से श्यामा के जीवन का अन्त कर देना ही हमारे लिए श्रेष्ठ है-" ऐसा विचार कर वे उस अवसर की खोज में लगी हुई हैं। यदि ऐसा ही है तो न जाने वे मुझे किस कुमौत से मारें, ऐसा विचार कर वह श्यामा भीत, त्रस्त, उद्विग्न और संजातभय हो उठी, तथा जहां कोपभवन था वहां आई और आकर मानसिक संकल्पों के विफल रहने से निराश मन से बैठी हुई यावत् विचार करने लगी। टीका-जैनशास्त्रों में ब्रह्मचर्य व्रत के दो विभाग उपलब्ध होते हैं-महाव्रत और अणुव्रत / हिन्दु शास्त्रों में इस के पालक की व्याख्या नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा उपकुर्वाण ब्रह्मचारी के रूप में की गई है। जो साधु मुनिराज तथा साध्वी सब प्रकार से स्त्री तथा पुरुष के संसर्ग से पृथक् रहते हैं, वे सर्वविरति अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाते हैं, तथा जो अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त संसार की शेष स्त्रियों को माता तथा भगिनी एवं पुत्री के रूप में देखते हैं वे देशविरति या उपकुर्वाण ब्रह्मचारी कहलाते हैं। प्रस्तुत में हमें देशविरति या उपकुर्वाण ब्रह्मचारी के सम्बन्ध में कुछ विचार करना इष्ट है। . यह ठीक है कि देशविरति-गृहस्थ अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त शेष स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री के तुल्य समझे परन्तु अपनी स्त्री के साथ किए जाने वाले संसर्ग का भी यह अर्थ नहीं होता कि उस में वह इतना आसक्त हो जाए कि हर समय उसी का चिन्तन तथा ध्यान करता रहे और उस को एकमात्र कामवासना की पूर्ति का साधन ही बना डाले, ऐसा करना तो स्वदारसन्तोषव्रत की कड़ी अवहेलना करने के अतिरिक्त पाप कर्म का भी अधिकाधिक बन्ध करना है। विषयासक्ति कर्त्तव्यपालक को कर्त्तव्यनाशक, अहिंसक को हिंसक, तथा दयालु को हिंसापरायण बना देती है। आसक्ति में स्वार्थ है, संकोच है और गर्व है, वहां दूसरे के हित को कोई अवकाश नहीं, अतः विचारशील व्यक्ति को इस से सदा पृथक् ही रहने का प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [691 Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्योग करना चाहिए। ___महाराज सिंहसेन के जीवन में आसक्ति की मात्रा कुछ अधिक प्रमाण में दृष्टिगोचर हो रही है। महारानी श्यामा पर वे इतने आसक्त थे कि उसके अतिरिक्त किसी दूसरी विवाहिता रानी का उन्हें ध्यान तक भी नहीं आता था। तात्पर्य यह है कि महाराज सिंहसेन श्यामा के स्नेहपाश में बुरी तरह फंस गये थे। वही एक मात्र उन के हृदय पर सर्वेसर्वा अधिकार जमाये हुए थी, यद्यपि अन्य रानियों में भी पतिप्रेम और रूपलावण्य की कमी नहीं थी, परन्तु श्यामा के मोहजाल में फंसे हुए सिंहसेन उन की तरफ आंख भर देखने का भी कष्ट न करते। महाराज सिंहसेन का यह व्यवहार बाकी की रानियों को तो असह्य था ही, परन्तु जब उन की माताओं को इस व्यवहार का पता लगा तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे सब मिल कर आपस में परामर्श करती हुई इस परिणाम पर पहुँची कि हमारी पुत्रियों से इस प्रकार के दुर्व्यवहार का कारण एक मात्र श्यामा है, उसने महाराज को अपने में इतना अनुरक्त कर लिया है कि वह उन को दूसरी तरफ झांकने का भी अवसर नहीं देती, इसलिए उसी को ठीक करने से सब कुछ ठीक हो सकेगा। ऐसा विचार कर वे अग्नि, विष, अथवा शस्त्र आदि के प्रयोग से महारानी श्यामा को समाप्त कर देने की भावना से ऐसे अवसर की खोज में लग गई जिस में श्यामा को मृत्युदण्ड - देना सुलभ हो सके। प्रस्तुत कथासंदर्भ से अनेक ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश पड़ता है, जो कि निम्नोक्त हैं १-घर में हर एक के साथ समव्यवहार रखना चाहिए, किसी के साथ कम और किसी के साथ विशेष प्रेम करने से भी अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित हो जाती हैं। जहां समान अधिकारी हों वहां इस प्रकार का भेदमूलक व्यवहार अनुचित ही नहीं किन्तु अयोग्य भी है। अतः इस का परिणाम भी भयंकर ही होता है। इतिहास इस की पूरी-पूरी साक्षी दे रहा है। महाराज सिंहसेन श्यामा के साथ अनुराग करते हुए यदि शेष रानियों से भी अपना कर्त्तव्य निभाते और कम से कम उन की सर्वथा उपेक्षा न करते तो भी इतना आपत्तिजनक नहीं था, परन्तु उन्होंने तो बुद्धि से काम ही नहीं लिया। तात्पर्य यह है कि यदि वे अन्य रानियों के साथ अपना यत्किंचित् स्नेह भी व्यक्त करने का व्यावहारिक उद्योग करते तो उनकी प्रेयसी श्यामा के प्रति अन्य महिलाओं के तथा उन की माताओं के हृदयों में नारीजन-सुलभ विद्वेषाग्नि को प्रज्वलित होने का अवसर ही न आता। (2) कुलीन महिला के लिए पतिप्रेम से वंचित रहना जितना दुःखदायी होता है उतना और कोई प्रतिकूल संयोग उसे कष्टप्रद नहीं हो सकता। इस के विपरीत उसे पतिप्रेम 1. श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के नवम अध्ययन में जिनरक्षित और जिनपाल के जीवन वृत्तान्त के प्रसंग 692 ] . श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से अधिक कोई भी सांसारिक वस्तु इष्ट नहीं होती। श्यामा देवी के साथ जिन अन्य राजकुमारियों का महाराज सिंहसेन ने पाणिग्रहण किया था, उन का भी पतिप्रेम में भाग था, फिर उस से बिना किसी कारणविशेष के उन्हें वंचित रखना गृहस्थधर्म का नाशक होने के * साथ-साथ अन्यायपूर्ण भी है। (3) पुत्री के प्रति माता का कितना स्नेह होता है, यह किसी स्पष्टीकरण की अपेक्षा नहीं रखता। उस के हृदय में पुत्री को अपने श्वशुरगृह में सर्व प्रकार से सुखी देखने की अहर्निश लालसा बनी रहती है। सब से अधिक इच्छा उस की यह होती है कि उस की पुत्री पतिप्रेम का अधिक से अधिक उपभोग करे, परन्तु यहां तो उस का नाम तक भी नहीं लिया जाता। ऐसी दशा में उन राजकुमारियों की माताएं अपनी पुत्रियों के दुःख में समवेदना प्रकट करती हुई हत्या जैसे महान् अपराध करने पर उतारू हो जाएं तो इस में मातृगत हृदय के लिए आश्चर्यजनक कौन सी बात है.? क्योंकि अपनी पुत्रियों के साथ किए गए दुर्व्यवहार को चुपचाप सहन करने का अंश मातृहृदय में बहुत कम पाया जाता है। यह तो अनुभव सिद्ध है कि जीवन का मोह प्रत्येक व्यक्ति में पाया जाता है। संसार में कोई भी व्यक्ति इस से शून्य नहीं मिलेगा। व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, जीवन सब को प्रिय है और सभी जीवित रहना चाहते हैं। इसीलिए संसार में जिधर देखो उधर जीवनरक्षा के लिए ही हर एक प्राणी उद्योग कर रहा है। जीवन को हानि पहंचाने वाले कारणों का प्रतिरोध तथा जीवन का अपहरण करने वाले शत्रु का प्रतिकार एवं उसे सुरक्षित रखने में निरन्तर सावधान रहने का यत्न यथाशक्ति प्रत्येक प्राणी करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। महारानी श्यामा भी अपने जीवन को सुरक्षित रखने के लिए निरन्तर यत्नशील रहती है, उस के हृदय में जीवन के विषय में कुछ शंका हो रही है, इस लिए वह पूरी सावधानी से काम कर रही है। वह जानती है कि मैं ही महाराज सिंहसेन के हृदयसिंहासन पर विराज रही हूँ, और किसी के लिए अणुमात्र भी स्थान नहीं। यही कारण है कि महाराज की ओर से मेरी शेष बहिनों (सपत्नियों-सौकनों) की उपेक्षा ही नहीं किन्तु उनका अपमान एवं निरादर भी किया जाता है। संभव है कि इससे मेरी बहिनों के हृदय में तीव्र आघात पहुंचे और इस के प्रतिकार के निमित्त वे अपनी क्रोधाग्नि को मेरी ही आहुति से शान्त करने की चेष्टा करें। महाराज का उन के प्रति जो असद्भाव है, उस का मुख्य कारण मैं ही एक हूं। अत: मेरे प्रति में समुद्रगत डगमगाती हुई नौका का वर्णन करते हुए "-नव-वहू-उवरयभत्तुया विलवमाणी विव-" ऐसा लिखा है अर्थात् नौका की स्थिति उस नववधू की तरह हो रही है, जो पति के छोड़ देने पर विलाप करती है। भाव यह है कि पति से उपेक्षित नारी का जीवन बड़ा ही दुःखपूर्ण होता है। प्रकृत में ज्ञातासूत्रीय उपमा व्यवहार का रूप धारण कर रही है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [693 Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन की मनोवृत्ति में क्षोभ उत्पन्न होना अस्वाभाविक नहीं है। आत्मरक्षा की विचारधारा में निमग्न श्यामा को किसी दिन विश्वस्त सूत्र से जब "499 देवियों के साथ महाराज सिंहसेन की ओर से किए गए दुर्व्यवहार को जान कर उन की माताओं के हृदय में विरोध की ज्वाला प्रदीप्त हो उठी है और उन्होंने मिल कर श्यामा का अन्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, तदनुसार वे उस अवसर की प्रतीक्षा कर रही हैं" यह वृत्तान्त जानने को मिला तो इस से उस के सन्देह ने निश्चित रूप धारण कर लिया। उसे पूरी तरह विश्वास हो गया कि उसके जीवन का अन्त करने के लिए एक बड़े भारी षड्यन्त्र का आयोजन किया जा रहा है और वह उस की अन्य बहिनों (सपत्नियों) की माताओं की तरफ से हो रहा है। यह देख वह एकदम भयभीत हो उठी और 'कोपभवन में जाकर आर्तध्यान करने लगी। "-मुच्छिते 4-" यहां के अंक से-गिद्धे, गढिते, अज्झोववन्ने-इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका -. है, तथा अन्तर, छिद्र और विरह-इन पदों का अर्थ छठे अध्याय में लिखा जा चुका है। "-सीहसेणे जाव पडिजागरमाणीओ-" यहां पठित जाव-यावत् पद पीछे पढ़े गए-राया सामाए देवीए मुच्छिते-से लेकर-छिद्दाणि य विरहाणि य-यहां तक के पदों का परिचायक है। "-भीया 4-" यहां 4 के अंक से-तत्था, उव्विग्गा, संजातभया-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। "-ओहय० जाव झियासि-" यहां पठित जाव-यावत् पद से -मणसंकप्पा भूमीगयदिट्ठिया करतलपल्हत्थमुही अट्टल्झाणोवगया-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। जिस के मानसिक संकल्प विफल हो गए हैं उसे अपहतमनःसंकल्पा, जिसकी दृष्टि भूमि की ओर लग रही है उसे भूमिगतदृष्टिका, जिसका मुख हाथ पर स्थापित हो उसे करतलपर्यस्तमुखी तथा जो आर्तध्यान को प्राप्त हो रही हो उसे आर्तध्यानोपगता कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में महाराज सिंहसेन का महारानी श्यामा के साथ अधिक स्नेह तथा अन्य रानियों के प्रति उपेक्षाभाव और उस कारण से उन की माताओं का श्यामा के प्राण लेने का 1. राजमहलों में एक ऐसा स्थान भी बना हुआ होता है जहां पर महारानियां किसी कारणवशात् उत्पन्न हुए रोष को प्रकट करती हैं और वहां पर प्रवेश मात्र कोप-गुस्से के कारण ही किया जाता है। उस स्थान को कोपग्रह या कोपभवन कहते हैं। अथवा-महारानियां क्रोधयुक्त हो कर अपने केशादि को बिखेर कर जिस किसी भी एकान्त स्थान पर जा बैठती हैं वह कोपगृह कहलाता है। 694 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्योग एवं श्यामा का भयभीत होकर कोपभवन में जाकर आर्तध्यानमग्न होना आदि बातों का - वर्णन किया गया है। इस के पश्चात् क्या हुआ, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं सीहसेणे राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे जेणेव कोवघरे जेणेव सामा देवी तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सामं देविं ओहयमणसंकप्पं जाव पासति पासित्ता एवं वयासी-किंणं तुमं देवाणुप्पिए ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियासि ? तते णं सा सामा देवी सीहसेणेण रण्णा एवं वुत्ता समाणा उप्फेणउप्फेणियं एव सीहरायं वयासी-एवं खलु सामी ! ममं एक्कूणगाणं पंचण्हं सवत्तीसयाणं एगूणगाइं पंचमाइसयाइं इमीसे कहाए लद्धट्ठाइं समाणाई अन्नमनं सद्दावेंति सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खलु सीहसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिए 4 अहं धूयाओ नो आढाइ, नो परिजाणाइ, अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं सामं देविं अग्गिप्पओगेण वा विसप्पओगेण वा सत्थप्पओगेण वा जीवियाओ ववरोवित्तए, एवं संपेहेंति संपेहित्ता ममं अन्तराणि य छिद्दाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणीओ विहरन्ति, तं न नज्जइ णं सामी ! ममं केणइ कुमारेणं मारिस्संति त्ति कट्ट भीया 4 झियामि।ततेणं से सीहसेणे राया सामं देवि एवं वयासी-माणं तुमं देवाणुप्पिए! ओहतमणसंकप्पा जाव झियाहि, अहं णं तहा जत्तिहामि जहा णं तव नत्थि कत्तो वि सरीरस्स आवाहे वा पवाहे वा भविस्सति, त्ति कट्ट ताहिं इट्ठाहिं जाव समासासेति, ततो पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सुपइट्ठस्स नगरस्स बहिया एगं महं कूडागारसालं करेह अणेगखंभसयसंनिविटुं जाव पासाइयं 4 एयमढे पच्चप्पिणह। तते णं ते कोडुंबियपुरिसा करतल जाव पडिसुणेति पडिसुणित्ता सुपइट्ठियनगरस्स बहिया पच्चत्थिमे दिसिभागे एगं महं कूडागारसालं करेंति अणेगखंभसयसंनिविट्ठ जावपासाइयं 4 जेणेव सीहसेणे राया तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति। छाया-ततः स सिंहसेनो राजा, अनया कथया लब्धार्थः सन् यत्रैव कोपग्रह यत्रैव श्यामा देवी तत्रैवोपागच्छति उपागत्य श्यामादेवीमपहतमन:संकल्पां यावत् पश्यति प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [695 Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्ट्वा एवमवदत्-किं त्वं देवानुप्रिये ! अपहत यावत् ध्यायसि ? ततः सा श्यामा देवी / सिंहसेनेन राज्ञा एवमुक्ता सती उत्फेनोत्फेनितं सिंहसेनराजमेवमवादीत् एवं खलु स्वामिन् ! ममैकोनकानां पञ्चानां सपत्नीशतानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि अनया कथया लब्धार्थानि सन्त्यन्योन्यं शब्दयन्ति शब्दयित्वा एवमवादिषुः-एवं खलु सिंहसेनो राजा श्यामायां देव्यां मूछितः 4 अस्माकं दुहितु! आद्रियते नो परिजानाति, अनाद्रियमानः अपरिजानन् विहरति, तच्छ्रेयः खलु अस्माकं श्यामा देवीमग्निप्रयोगेन वा विषप्रयोगेन वा शस्त्रप्रयोगेन वा जीविताद् व्यपरोपयितुम्, एवं संप्रेक्षन्ते संप्रेक्ष्य ममान्तराणि च छिद्राणि च विरहाणि च प्रतिजाग्रत्यो विहरन्ति। तन्न ज्ञायते स्वामिन् ! केनचित् कुमारेण मारयिष्यन्ति इति कृत्वा भीता यावद् ध्यायामि। ततः स सिंहसेनो राजा श्यामां देवीमेवमवादीत्-मा त्वं देवानुप्रिये ! अपहतमनः संकल्पा यावद् ध्याय ? अहं तथा यतिष्ये यथा तव नास्ति कुतोऽपि शरीरस्याबाधा वा प्रबाधा वा भविष्यति, इति कृत्वा ताभिरिष्टाभिः यावत् समाश्वासयति / ततः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत् -गच्छत यूयं देवानुप्रियाः ! सुप्रतिष्ठाद् नगराद् बहिरेको महतीं कूटाकारशालां कुरुत।अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टां प्रासादीयां 4 एतमर्थं : प्रत्यर्पयत। ततस्ते कौटुम्बिकपुरुषाः करतल० यावद् प्रतिशृण्वन्ति प्रतिश्रुत्य सुप्रतिष्ठितनगराद् बहिः पश्चिमे दिग्भागे एकां महतीं कूटाकारशालां कुर्वन्ति, अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टां प्रासादीयां 4 यत्रैव सिंहसेनो राजा तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य तामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पयन्ति। __पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। सिंहसेणे-सिंहसेन / राया-राजा। इमीसे-इस। कहाएवृत्तान्त से। लद्धटे समाणे-लब्धार्थ हुआ अर्थात् अवगत हुआ। जेणेव-जहां। कोवघरे-कोपगृह था, और। जेणेव-जहां। सामा देवी-श्यामा देवी थी। तेणेव-वहां पर / उवागच्छइ उवागच्छित्ता-आता है, आकर / साम-श्यामा। देविं-देवी को, जो कि।ओहयमणसंकप्पं-अपहतमनः-संकल्पा-जिस के मानसिक संकल्प विफल हो गए हैं, को। जाव-यावत्। पासति पासित्ता-देखता है, देखकर। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहता है। देवाणुप्पिए !-हे महाभागे ! तुम-तुम। किण्णं-क्यों। ओहयमणसंकप्पा-मानसिक संकल्पों को निष्फल किए हुए। जाव-यावत्। झियासि-विचार कर रही हो ? तते णं-तदनन्तर। सावह। सामादेवी-श्यामा देवी। सीहसेणेणं-सिंहसेन ।रण्णा-राजा के द्वारा / एवं-इस प्रकार। वुत्ता समाणा 1. उत्फेनोत्फेनितं फेनोद्वमनकृते, सकोपोष्भवचनं यथा भवतीत्यर्थः (अभिधानराजेन्द्रकोषे) श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध 696 ] Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कही हुई। उप्फेणउप्फेणियं-दूध के उफान के समान क्रुद्ध हुई अर्थात् क्रोधयुक्त प्रबल वचनों से। सीहरायं-सिंहराज के प्रति। एवं वयासी-इस प्रकार बोली। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सामी !हे स्वामिन् ! ममं-मेरी। एक्कूणगाणं-एक कम। पंचण्हं सवत्तोसयाणं-पांच सौ सपत्नियों की। एक्कूणगाई-एक कम।पंच-पांच।माइसयाई-सौ माताएं। इमीसे-इस। कहाए-कथा-वृत्तान्त से।लद्धट्ठाई समाणाइं-लब्धार्थ हुईं-अवगत हुईं। अन्नमन्नं-एक दूसरे को। सद्दावेंति सद्दावित्ता-बुलाती हैं, बुलाकर। एवं वयासी-इस प्रकार कहती हैं। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सीहसेणे-सिंहसेन / राया-राजा। सामाए-श्यामा। देवीए-देवी में। मुच्छिते ४-मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न हुआ। अम्हं-हमारी। धूयाओ-पुत्रियों का।णो आढाइ-आदर नहीं करता। नो परिजाणाइ-ध्यान नहीं रखता। अणाढायमाणेआदर न करता हुआ। अपरिजाणमाणे-ध्यान न रखता हुआ। विहरइ-विहरण करता है। तं-इस लिए। सेयं-श्रेय-योग्य है। खलु-निश्चयार्थक है। अम्हं-हमें। सामं-श्यामा। देविं-देवी को। अग्गिप्पओगेण वा-अग्नि के प्रयोग से। विसप्पओगेण वा-विष के प्रयोग से। सत्थप्पओगेण वा-शस्त्र के प्रयोग से। जीवियाओ ववरोवित्तए-जीवन से रहित कर देना। एवं संपेहेंति संपेहित्ता-इस प्रकार विचार करती हैं, विचार कर। ममं-मेरे / अंतराणि य छिद्दाणि य विरहाणि य-अन्तर, छिद्र और विरह की। पडिजागरमाणीओ-प्रतीक्षा करती हुईं। विहरंति-विहरण कर रही हैं। तं-अतः। न णज्जति-मैं नहीं जानती हूँ कि / सामी!-हे स्वामिन् ! ममं-मुझे। केणइ-किस। कुमारेणं-कुमौत से। मारिस्संति-मारेंगी। त्ति कट्ट-ऐसा विचार कर। भीया ४-भीत, त्रस्त, उद्विग्न और संजातभय हुई। जाव-यावत्। झियामिविचार कर रही हूँ। तते णं-तदनन्तर / से-वह / सीहसेणे राया-सिंहसेन राजा। सामं देविं-श्यामा देवी के प्रति।एवं वयासी-इस प्रकार बोला। देवाणुप्पिए !-हे महाभागे !तुम-तुम।माणं-मत।ओहतमणसंकप्पाअपहत मन वाली हो। जाव-यावत्। झियासि-विचार करो। अहं णं-मैं। तहा-वैसे। जत्तिहामि-यत्न करूंगा। जहा णं-जैसे। तव-तुम्हारे / सरीरस्स-शरीर को। कत्तो वि-कहीं से भी।आबाहे वा-आबाधाईषत् पीड़ा। पवाहे वा-प्रबाधा-विशेष पीड़ा। नत्थि-नहीं। भविस्सति-होगी। त्ति कट्ट-इस प्रकार से अर्थात् ऐसे कह कर / ताहि-उन / इट्ठाहि-इष्ट / जाव-यावत् वचनों के द्वारा उसे। समासासेति-सम्यक्तया आश्वासन देता है-शान्त करता है। ततो-तत्पश्चात् वहां से।पडिनिक्खमति-निकलता है। पडिनिक्खमित्तानिकल कर। कोढुंबियपुरिसे-कौटुम्बिक पुरुषों को। सद्दावेति सद्दावित्ता-बुलाता है, बुलाकर। एवं वयासी-इस प्रकार कहता है। देवाणुप्पिया !-हे भद्र पुरुषो ! तुब्भे-तुम लोग। गच्छह णं-जाओ, जाकर / सुपइट्ठस्स-सुप्रतिष्ठित। णगरस्स-नगर के। बहिया-बाहिर। एगं महं-एक बहुत बड़ी। कूडागारसालं-कूटाकारशाला-षड्यन्त्र करने के लिए बनाया जाने वाला घर / करेइ-तैयार कराओ, जिस में। अणेगखंभसयसंनिविटुं-सैंकड़ों स्तम्भ-खम्भे हों और जो। पासाइयं ४-प्रासादीय-मन को हर्षित करने वाली, दर्शनीय-बारम्बार देख लेने पर भी जिस से आंखें न थकें, अभिरूप-जिसे एक बार देख लेने पर भी पुनः दर्शन की लालसा बनी रहे, तथा प्रतिरूप-अर्थात् जिसे जब भी देखा जाए तब ही वहां नवीनता ही प्रतीत हो। एयमटुं-इस आज्ञा का। पच्चपिणह-प्रत्यर्पण करो अर्थात् बनवा कर मुझे सूचना दो। तते णं-तदनन्तर / ते-वे। कोडुंबियपुरिसा-कौटुम्बिक पुरुष। करतल-दोनों हाथ जोड़। जावयावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि रख कर। पडिसुणेति पडिसुणेत्ता-स्वीकार करते हैं, प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [697 Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकार करके। सुपइट्ठियस्स-सुप्रतिष्ठित नगर के। बहिया-बाहिर। पच्चत्थिमे-पश्चिम। दिसीभागेदिग्भाग में। एगं-एक / महं-महती-बड़ी विशाल। कूडागारसालं-कूटाकार शाला। करेंति-तैयार कराते हैं, जो कि। अणेगखंभसयसंनिविट्ठ-सैंकड़ों खम्भों वाली और। पासाइयं ४-प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप थी, तैयार करा कर। जेणेव-जहां पर। सीहसेणे-सिंहसेन। राया-राजा था। तेणेव-वहां पर / उवागच्छंति उवागच्छित्ता-आते हैं, आकर। तामाणत्तियं-उस आज्ञा का। पच्चप्पिणंतिप्रत्यर्पण करते हैं अर्थात् आप की आज्ञानुसार कूटाकारशाला तैयार करा दी गई है, ऐसा निवेदन करते हैं। मूलार्थ-तदनन्तर वह सिंहसेन राजा इस वृत्तान्त को जान कर कोपभवन में जाकर श्यामादेवी से इस प्रकार बोला-हे महाभागे ! तुम इस प्रकार क्यों निराश और चिन्तित हो रही हो? महाराज सिंहसेन के इस कथन को सुन श्यामा देवी क्रोधयुक्त हो प्रबल वचनों से राजा के प्रति इस प्रकार कहने लगी-हे स्वामिन् ! मेरी एक कम पांच सौ सपलियों की एक कम पांच सौ माताएं इस वृत्तान्त को जान कर आपस में एक दूसरी को इस प्रकार कहने लगीं कि महाराज सिंहसेन श्यामा देवी में अत्यन्त आसक्त हो कर हमारी कन्याओं का आदर, सत्कार नहीं करते, उन का ध्यान भी नहीं रखते, प्रत्युत उन का आदर न करते हुए और ध्यान न रखते हुए समय बिता रहे हैं। इसलिए अब हमारे लिए यही समुचित है कि अग्नि, विष तथा किसी शस्त्र के प्रयोग से श्यामा का अंत कर डालें। इस प्रकार उन्होंने निश्चय कर लिया है और तदनुसार वे.मेरे अंतर, छिद्र और विरह की प्रतीक्षा करती हुईं अवसर देख रही हैं। इसलिए न मालूम मुझे वे किस कुमौत से मारें, इस कारण भयभीत हुई मैं यहां पर आकर आर्तध्यान कर रही हूँ। यह सुन कर महाराज सिंहसेन ने श्यामादेवी के प्रति जो कुछ कहा वह निम्नोक्त है प्रिये ! तुम इस प्रकार हतोत्साह हो कर आर्त्तध्यान मत करो, मैं ऐसा उपाय करूंगा जिस से तुम्हारे शरीर को कहीं से भी किसी प्रकार की बाधा तथा प्रबाधा नहीं होने पाएगी। इस प्रकार श्यामा देवी को इष्ट आदि वचनों द्वारा सान्त्वना देकर महाराज सिंहसेन वहां से चले गए, जाकर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर उन से कहने लगे कि तुम लोग यहां से जाओ और जाकर सुप्रतिष्ठित नगर से बाहर एक बड़ी भारी कूटाकारशाला बनवाओ जो कि सैंकड़ों स्तम्भों से युक्त और प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप हो अर्थात् देखने में नितान्त सुन्दर हो। वे कौटुम्बिक पुरुष दोनों हाथ जोड़ सिर पर दस नखों वाली अंजलि रख कर इस राजाज्ञा को शिरोधार्य करते हुए चले जाते हैं,जा कर सुप्रतिष्ठित नगर की पश्चिम दिशा में एक महती और अनेकस्तम्भों वाली तथा प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप अर्थात् अत्यन्त मनोहर 698 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूटाकारशाला तैयार कराते हैं और तैयार करा कर उस की महाराज सिंहसेन को सूचना दे देते हैं। टीका-महारानी श्यामा का (499) रानियों की माताओं के षड्यन्त्र से भयभीत होकर कोपभवन में प्रविष्ट होने का समाचार उस की दासियों के द्वारा जब महाराज सिंहसेन को मिला तो वे बड़ी शीघ्रता से राजमहल की ओर प्रस्थित हुए, महलों में पहुँचे और कोपभवन में आकर उन्होंने महारानी श्यामा को बड़ी ही चिन्ताजनक अवस्था में देखा। वह बड़ी सहमी हुई तथा अपने को असुरक्षित जान बड़ी व्याकुल सी हो रही है एवं उस के नेत्रों सें अश्रुओं की धारा बह रही है। महाराज सिंहसेन को अपनी प्रेयसी श्यामा की यह दशा बड़ी अखरी, उस की इस करुणाजनक दशा ने महाराज सिंहसेन के हृदय में बड़ी भारी हलचल मचा दी, वे बड़े अधीर हो उठे और श्यामा को सम्बोधित करते हुए बोले कि प्रिये ! तुम्हारी यह अवस्था क्यों ? तुम्हारे इस तरह से कोपभवन में आकर बैठने का क्या कारण है? जल्दी कहो! मुझ से तुम्हारी यह दशा देखी नहीं जाती, इत्यादि। पतिदेव के सान्त्वनागर्भित इन वचनों को सुन कर श्यामा के हृदय में कुछ ढाढ़स बंधी, परन्तु फिर भी वह क्रोधयुक्त सर्पिणी की तरह फुकारा मारती हुई अथवा दूध के उफान की तरह बड़े रोष-पूर्ण स्वर में महाराज सिंहसेन को सम्बोधित करती हुई इस प्रकार बोलीस्वामिन् ! मैं क्या करूं, मेरी शेष सपत्नियों (सौकनों) की माताओं ने एकत्रित होकर यह निर्णय किया है कि महाराज श्यामा देवी पर अधिक अनुराग रखते हैं और हमारी पुत्रियों की तरफ ध्यान तक भी नहीं देते। इस का एकमात्र कारण श्यामा है, अगर वह न रहे तो हमारी पुत्रियां सुखी हो जाएं। इस विचार से उन्होंने मेरे को मार देने का षड्यन्त्र रचा है, वे रात दिन इसी ध्यान में रहती हैं कि उन्हें कोई उचित अवसर मिले और वे अपना मन्तव्य पूरा करें। प्राणनाथ ! इस आगन्तुक भय से त्रास को प्राप्त हुई मैं यहां पर आकर बैठी हूँ, पता नहीं कि अवसर मिलने पर वे मुझे किस प्रकार से मौत के घाट उतारें। इतना कह कर उसने अपनी मृत्युभयजन्य आंतरिक वेदना को अश्रुकणों द्वारा सूचित करते हुए अपने मस्तक को महाराज के चरणों में रख कर मूकभाव से अभयदान की याचना की। ___ महारानी श्यामा के इस मार्मिक कथन से महाराज सिंहसेन बड़े प्रभावित हुए, उनके हृदय पर उस का बड़ा गहरा प्रभाव हुआ। वे कुछ विचार में पड़ गए, परन्तु कुछ समय के बाद ही प्रेम और आदर के साथ श्यामा को सम्बोधित करते हुए बोले कि प्रिये ! तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। तुम्हारी रक्षा का सारा भार मेरे ऊपर है, मेरे रहते तुम को किसी प्रकार के अनिष्ट की शंका नहीं करनी चाहिए। तुम्हारी ओर कोई आंख उठा कर नहीं देख सकता। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [699 Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए तुम अपने मन से भय की कल्पना तक को भी निकाल दो। इस प्रकार अपनी प्रेयसी श्यामा देवी को सान्त्वना भरे प्रेमालाप से आश्वासन दे कर महाराज सिंहसेन वहां से चल कर बाहर आते हैं तथा महारानी श्यामा के जीवन का अपहरण करने वाले षड्यन्त्र को तहस-नहस करने के उद्देश्य से कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर एक विशाल कूटाकारशाला के निर्माण का आदेश देते हैं। इस सूत्र में पति-पत्नी के सम्बन्ध का सुचारु दिग्दर्शन कराया गया है। स्त्री अपने पति में कितना विश्वास रखती है तथा दुःख में कितना सहायक समझती है, और पति भी अपनी स्त्री के साथ कैसा प्रेममय व्यवहार करता है तथा किस तरह उस की संकटापन्न वचनावली को ध्यानपूर्वक सुनता है, एवं उसे मिटाने का किस तरह आश्वासन देता है, इत्यादि बातों की सूचना भली भान्ति निर्दिष्ट हुई है, जो कि आदर्श दम्पती के लिए बड़े मूल्य की वस्तु है। इस के अतिरिक्त इस विषय में इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि दम्पती-प्रेम यदि अपनी .. मर्यादा के भीतर रहता है तब तो वह गृहस्थजीवन के लिए बड़ा उपयोगी और सुखप्रद होता है और यदि वह मर्यादा की परिधि का उल्लंघन कर जाता है अर्थात् प्रेम न रह कर आसक्ति या मूर्छा का रूप धारण कर लेता है तो वह अधिक से अधिक अनिष्टकर प्रमाणित होता है। महाराज सिंहसेन यदि अपनी प्रेयसी श्यामा में मर्यादित प्रेम रखते, तो उन से भविष्य में जो अनिष्ट सम्पन्न होने वाला है वह न होता और अपनी शेष रानियों की उपेक्षा करने का भी उन्हें अनिष्ट अवसर प्राप्त न होता। सारांश यह है कि गृहस्थ मानव के लिये जहां अपनी धर्मपत्नी में मर्यादित प्रेम रखना हितकर है, वहां उस पर अत्यन्त आसक्त होना उतना ही अहितकर होता है। दूसरे शब्दों में-जहां प्रेम मानव जीवन में उत्कर्ष का साधक है वहां आसक्ति-मूर्छा अनिष्ट का कारण बनती है। ___-उप्फेणउप्फेणियं- (उत्फेनोफेनितम्) की व्याख्या वृत्तिकार "-सकोपोष्मवचनं यथा भवतीत्यर्थ:-" इस प्रकार करते हैं / अर्थात् कोप-क्रोध के साथ गरम-गरम बातें जैसे की जाती हैं उसी तरह वह करने लगी। तात्पर्य यह है कि उस के-श्यामा के कथन में क्रोध का अत्यधिक आवेश था। अबाधा और प्रबाधा इन दोनों शब्दों की व्याख्या श्री अभयदेव सूरि के शब्दों मेंतत्राबाधा-ईषत् पीडा, प्रबाधा-प्रकृष्टा पीडैव इस प्रकार है। अर्थात् साधारण कष्ट बाधा है और महान् कष्ट-इस अर्थ का परिचायक प्रबाधा शब्द है। -ओहयमणसंकप्पंजाव पासति-तथा-ओहयमणसंकप्पा जाव झियासि-यहां पठित जाव-यावत्-पद से-भूमिगयदिद्वियं, करतलपल्हत्थमुहिं अट्टल्झाणोवगयं-ये 700] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत पद पीछे लिखे जा चुके हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वे पद प्रथमान्त दिए गए हैं, जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त अपेक्षित हैं, अतः अर्थ में द्वितीयान्त की भावना भी कर लेनी चाहिए। -भीया 4 जाव झियामि-यहां दिए गए 4 के अंक से -तत्था उव्विग्गा संजायभया-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ पीछे पदार्थ में लिखा जा चुका है। तथा-जाव-यावत्-पद पीछे पढ़े गये-ओहयमणसंकप्पा-इत्यादि पदों का परिचायक है.। तथा-ओहतमणसंकप्पा जाव झियाहि-यहां पठित जाव-यावत् पद से - भूमीगयदिट्ठिया-इत्यादि पदों का बोध होता है। .. -इट्ठाहिं जाव समासासेति-यहां पठित जाव-यावत् पद से-कंताहिं, पियाहिं, मणुण्णाहिं, मणामाहिं, मणोरमाहि, उरालाहिं, कल्लाणाहिं, सिवाहि, धन्नाहिं, मंगलाहिं, सस्सिरीयाहिं, हिययगमणिज्जाहिं, हिययपल्हायणिज्जाहिं, मिय-महुर-मंजुलाहिं वग्गूहिंइन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इष्ट आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है १-इष्ट-अभिलषित (जिस की सदा इच्छा की जाए) का नाम है। २-कान्तसुन्दर को कहते हैं / ३-जिसे सुन कर द्वेष उत्पन्न न हो उसे प्रिय कहा जाता है। ४-जिसके श्रवण से मन प्रसन्न होता है वह मनोज्ञ कहलाता है। ५-मन से जिस की चाहना की जाए उसे मनोरम कहते हैं।६-जिस के चिन्तन मात्र से मन में प्रमोदानुभव हो उसे मनोरम कहते हैं। ७-नाद, वर्ण, और उस के उच्चारण आदि की प्रधानता वाला उदार कहलाता है। ८समृद्धि करने वाला-इस अर्थ का परिचायक कल्याण शब्द है। ९-वाणी के दोषों से रहित को शिव कहते हैं। १०-धन की प्राप्ति करने वाले अथवा प्रशंसनीय वचन को धन्य कहा जाता है। ११-अनर्थ के प्रतिघात-विनाश में जो हितकर हो उसे मंगल कहते हैं। १२अलंकार आदि की शोभा से युक्त सश्रीक कहलाता है। १३-हृदयगमनीय शब्द-कोमल और सुबोध होने से जो हृदय में प्रवेश करने वाला हो, अथवा हृदयगत शोकादि का उच्छेद करने वाला हो-इस अर्थ का परिचायक है। १४-हृदयप्रह्लादनीय शब्द-हृदय को हर्षित करने वाला, इस अर्थ का बोध कराता है। १५-मितमधुरमंजुल-इस में मित, मधुर और मंजुल ये तीन पद हैं। मित परिमित को कहते हैं, अर्थात् वर्ण, पद और वाक्य की अपेक्षा से जो परिमित हो उसे मित कहा जाता है। मधुर-शब्द मधुर स्वर वाले वचन का बोध कराता है। शब्दों की अपेक्षा से जो सुन्दर है उसे मंजुल कहते हैं / १६-वाग्-वचन का नाम है। प्रस्तुत में इष्ट आदि विशेषण हैं और वाग् यह विशेष्य पद है। . -पासाइयं ४-यहां दिए गये 4 के अंक से -दंसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे-इन प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [701 Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदों का ग्रहण अभिमत है। इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। तथा-करयल जाव . पडिसुणेति-यहां के बिन्दु तथा-जाव-यावत्-पद से तृतीय अध्याय में पढ़े गएकरयलपरिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थए कट्ट-इन पदों का, तथा-तहत्ति आणाए विणएणं वयणं-इन पदों का ग्रहण कराना सूत्रकार को अभिमत है। प्रस्तुत सूत्र में महारानी श्यामा का चिन्तातुर होना तथा उस की चिन्ता को विनष्ट करने की प्रतिज्ञा कर महाराज सिंहसेन का अपने अनुचरों को नगर के पश्चिम भाग में एक विशाल कूटाकारशाला के निर्माण का आदेश देना और उसके आदेशानुसार शाला का तैयार हो जाना आदि बातों का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार उस शाला से क्या काम लिया जाता है, इस बात का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से सीहसेणे राया कयाइ एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणाई पंचमाइसयाइं आमंतेति। तते णं तासिं एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणगाइं पंचमाइसयाइं सीहसेणेणं रण्णा आमंतियाइं समाणाइंसव्वालंकारविभूसिताइं जहाविभवेणं जेणेव सुपइटे णगरे जेणेव सीहसेणे राया तेणेव उवागच्छंति। तते णं से सीहसेणे राया एगूणगाणं पंचदेवीसयाणं एगूणगाणं पंचमाइसयाणं कूडागारसालं आवसहं दलयति।तते णं से सीहसेणे राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विउलं असणं 4 उवणेह सुबहु, पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारं च कूडागारसालं साहरह। तते णं ते कोडुंबिया पुरिसा तहेव जाव साहरंति।तते णं तासिं एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणगाई पंचमाइसयाइं सव्वालंकारविभूसियाइं तं विउलं असणं 4 सुरं च 6 आसादेमाणाइं 4 गंधव्वेहि य नाडएहि य उवगिज्जमाणाई विहरन्ति।ततेणं से सीहसेणे राया अड्ढरत्तकालसमयंसि बहूहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता कूडागारसालाए दुवाराई पिहेति पिहित्ता कूडागारसालाए सव्वतो समंता अगणिकायं दलयति। ततेणं तासिं एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणगाइं पंचमाइसयाइं सीहसेणेणं रण्णा आलीवियाइं समाणाइं रोयमाणाई 3 अत्ताणाइं असरणाई कालधम्मुणा संजुत्ताई। तते णं से सीहसेणे राया एयकम्मे 4 सुबहुं पावं कम्मं समजिणित्ता चोत्तीसं वाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए [प्रथम श्रुतस्कंध 702 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कोसेणं बावीससागरोवमट्ठिइएसुनेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने। छाया-ततः स सिंहसेनो राजा अन्यदा कदाचिद् एकोनानां पञ्चानां देवीशतानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि आमंत्रयति / ततस्तासामेकोनानां पञ्चानां देवीशतानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि सिंहसेनेन राज्ञा आमन्त्रितानि सन्ति सर्वालंकारविभूषितानि यथाविभवं यत्रैव सुप्रतिष्ठं नगरं यत्रैव सिंहसेनो राजा तत्रैवोपागच्छन्ति। ततः स सिंहसेनो राजा एकोनानां पञ्चदेवीशतानामेकोनानां पञ्चमातृशतानां कूटाकारशालामावसथं दापयति। ततः स सिंहसेनो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छत यूयं देवानुप्रियाः ! विपुलमशनं 4 उपनयत, सुबहु पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालंकारं च कूटाकारशालां संहरत। ततस्ते कौटुम्बिकाः पुरुषास्तथैव यावत् संहरन्ति। ततस्तासामेकोनानां पञ्चानां देवीशतानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि सर्वालंकारविभूषितानि तद् विपुलमशनं 4 सुरां च ६आस्वादयन्ति 4 गांधर्वैश्च नाटकैश्चोपगीयमानानि विहरन्ति / ततः स सिंहसेनो राजा अर्द्धरात्रकालसमये बहुभिः पुरुषैः सार्द्ध संपरिवृतो यत्रैव कुटाकारशाला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य कूटांकारशालायाः द्वाराणि पिदधाति पिधाय कूटाकारशालायाः सर्वतः समन्ताद् अग्निकायं दापयति / ततस्तासामेकोनानां पञ्चानां देवीशतानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि सिंहसेनेन राजा आदीपितानि सन्ति रुदन्ति 3 अत्राणानि, अशरणानि कालधर्मेण संयुक्तानि। . ततः स सिंहसेनो राजा एतत्कर्मा 4 सुबहु पापं कर्म समर्प्य चतुस्त्रिंशतं वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा षष्ठ्यां पृथिव्यामुत्कर्षण द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतयोपपन्नः। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। सीहसेणे राया-सिंहसेन राजा। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। एगूणगाणं-एक कम। पंचण्हं देवीसयाणं-पांच सौ देवियों की। एगूणाई-एक कम। पंचमाइसयाई-पांच सौ माताओं को।आमंतेति-आमंत्रण देता है। ततेणं-तदनन्तर। तासिं-उन / एगूणगाणंएक कम। पंचण्हं देवीसयाणं-पांच सौ देवियों की। एगूणगाई-एक कम। पंचमाइसयाई-पांच सौ माताएं। सीहसेणेणं-सिंहसेन। रण्णा-राजा के द्वारा। आमंतियाई समाणाई-आमंत्रित की गईं। जहाविभवेणं-यथाविभव अर्थात् अपने-अपने वैभव के अनुसार / सव्वालंकारविभूसिताई-सर्व प्रकार के आभूषणों से अलंकृत हो कर। जेणेव-जहां। सुपइटे-सुप्रतिष्ठित। णगरे-नगर था। जेणेव-जहां / सीहसेणे-सिंहसेन / राया-राजा। तेणेव-वहां पर। उवागच्छंति-आ जाती हैं / तते णं-तदनन्तर / से-वह। सीहसेणे-सिंहसेन ।राया-राजा। एगूणगाणं-एक कम। पंचदेवीसयाणं-पांच सौ देवियों की।एगूणगाणं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [703 Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक कम। पंचमाइसयाणं-पांच सौ माताओं को। कूडागारसालं-कूटाकारशाला में। आवसह-रहने के , लिए स्थान। दलयति-दिलवाता है। तते णं-तदनन्तर। से-वह। सीहसेणे-सिंहसेन। राया-राजा। कोडुंबियपुरिसे-कौटुम्बिक पुरुषों-अनुचरों को। सद्दावेति सद्दावित्ता-बुलाता है, बुलाकर। एवं वयासीइस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिया!-हे भद्रपुरुषो ! तुब्भे-तुम। गच्छह णं-जाओ। विउलं-विपुल। असणं ४-अशनादि / उवणेह-ले जाओ, तथा। सुबहुं-अनेकविध। पुष्फ-पुष्प। वत्थ-वस्त्र / गंध-गंधसुगन्धित पदार्थ। मल्लालंकारं च-और माला तथा अलंकार को। कूडागारसालं-कूटाकारशाला में। साहरह-ले जाओ। तते णं-तदनन्तर / ते-वे। कोडुंबियपुरिसा-कौटुम्बिक पुरुष। तहेव-तथैव-आज्ञा के अनुसार। जाव-यावत्। साहरंति-ले जाते हैं अर्थात् कूटाकारशाला में पहुंचा देते हैं। तते णं-तदनन्तर। तासिं-उन। एगूणगाणं-एक कम। पंचण्हं देवीसयाणं-पांच सौ देवियों की। एगूणगाई-एक कम। पंचमाइसयाई-पांच सौ माताएं। सव्वालंकारविभूसियाई-सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हुईं। तं-उस। विउलं-विपुल। असणं ४-अशनादिक तथा। सुरं च 6-6 प्रकार की सुरा आदि मदिराओं का। आसादेमाणाई ४-आस्वादनादि करती हुईं। गंधव्वेहि य-गान्धर्वो-गायक पुरुषों तथा। नाडएहि यनाटकों-नर्तक पुरुषों द्वारा / उवगिजमाणाइं-उपगीयमान अर्थात् गान की गईं। विहरन्ति-विहरण करती हैं। तते णं-तदनन्तर। से-वह। सीहसेणे राया-महाराज सिंहसेन / अड्ढरत्तकालसमयंसि-अर्द्धरात्रि के समय। बहूहि-अनेक। पुरिसेहि-पुरुषों के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडे-घिरा हुआ। जेणेव-जहां। कूडागारसाला-कूटाकारशाला थी। तेणेव-वहां पर। उवागच्छति उवागच्छित्ता-आता है, आकर। कूडागारसालाए-कूटाकारशाला के। दुवाराई-द्वारों-दरवाजों को। पिहेति पिहित्ता-बन्द करा देता है, बन्द करा कर। कूडागारसालाए-कूटाकारशाला के। सव्वतो समंता-नारों तरफ से। अगणिकायंअग्निकाय-अग्नि। दलयति-लगवा देता है। तते णं-तदनन्तर। तासिं-उन। एगूणगाणं-एक कम। पंचण्हं देवीसयाणं-पांच सौ देवियों की। एगूणगाई-एक कम। पंचमाइसयाई-पांच सौ माताएं। सीहसेणेणं-सिंहसेन / रण्णा-राजा के द्वारा / आलीवियाई समाणाई-आदीप्त की गईं अर्थात् जलाई गईं। रोयमाणाई ३-रुदन, आक्रन्दन और विलाप करती हुईं। अत्ताणाई-अत्राण-जिस का कोई रक्षा करने वाला न हो, और। असरणाई-अशरण-जिसे कोई शरण देने वाला न हो। कालधम्मुणा-कालधर्म से। संजुत्ताइं-संयुक्त हुईं। ततेणं-तदनन्तर / से-वह / सीहसेणे-सिंहसेन। राया-राजा। एयकम्मे ४-१एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विद्य और एतत्समाचार होता हुआ। सुबई-अत्यधिक। पावं कम्म-पाप कर्म को। समज्जिणित्ता-उपार्जित कर के। चोत्तीसं-३४। वाससयाई-सौ वर्ष की। परमाउं-परमायु। पालइत्ताभोग कर। कालमासे-काल मास में। कालं किच्चा-काल कर के। छट्ठीए-छठी। पुढवीए-पृथिवीनरक में। उक्कोसेणं-उत्कृष्ट-अधिकाधिक। बावीससागरोवमट्ठिइएसु-बाईस सागरोपम स्थिति वाले। नेरइएसु-नारकियों में। नेरइयत्ताए-नारकीय रूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। / मूलार्थ-तत्पश्चात् वह सिंहसेन राजा किसी अन्य समय पर एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं को आमंत्रित करता है। तब सिंहसेन राजा से आमंत्रित हुईं वे एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताएं सर्व प्रकार के 1. एतत्कर्मा, एतत्प्रधान आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। . 704 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्रों एवं आभूषणों से सुसज्जित हो, सुप्रतिष्ठ नगर में महाराज सिंहसेन के पास आ जाती हैं। महाराज सिंहसेन उन देवियों की माताओं को निवास के लिए कुटाकारशाला में स्थान दे देता है। तदनन्तर कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहता है-हे भद्रपुरुषो! तुम लोग विपुल अशनादिक तथा अनेकविध पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों-सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारों को कूटाकारशाला में पहुंचा दो।कौटुम्बिक पुरुष महाराज की आज्ञानुसार सभी सामग्री कूटाकारशाला में पहुंचा देते हैं। तदनन्तर सर्व प्रकार के अलंकारों से विभूषित उन एक कम पांच सौ देवियों की माताओं ने उस विपुल अशनादिक तथा सुरा आदि सामग्री का आस्वादनादि किया-यथारुचि उपभोग किया और नाटकनर्तक गान्धर्वादि से उपगीयमान-प्रशस्यमान होती हुईं सानन्द विचरने लगीं। तत्पश्चात् अर्द्ध रात्रि के समय अनेक पुरुषों के साथ सम्परिवृत-घिरा हुआ महाराज सिंहसेन जहां कूटाकारशाला थी वहां पर आया, आकर उसने कूटाकारशाला के सभी द्वार बन्द करा दिये और उस के चारों तरफ आग लगवा दी। तदनन्तर महाराज सिंहसेन के द्वारा आदीपित-जलाई गईं, त्राण और शरण से रहित हुईं वे एक कम पांच सौ देवियों की माताएं रुदन, आक्रन्दन और विलाप करती हुईं, कालधर्म को प्राप्त हो गईं। तत्पश्चात् एतत्कर्मा, एतद्विद्य, एतत्प्रधान और एतत्समाचार वह सिंहसेन राजा अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके 34 सौ वर्ष की परमायु पाल कर कालमास में काल करके छठी नरक में उत्कृष्ट 22 सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारकीयरूप से उत्पन्न हुआ। टीका-सैंकड़ों स्तम्भों से सुशोभित तथा बहुत विशाल कुटाकारशाला के निर्माण के अनन्तर महाराज सिंहसेन ने श्यामा को छोड़ शेष 499 रानियों की माताओं को सप्रेम और सत्कार के साथ अपने यहां आने का निमंत्रण भेजा। महाराज सिंहसेन का आमंत्रण प्राप्त कर उन 499 देवियों की माताओं ने वहां जाने के लिए राजमहिलाओं के अनुरूप वस्त्राभूषणादि से अपने को सुसज्जित किया और वे सब वहां उपस्थित हुईं। महाराज सिंहसेन ने भी उनका यथोचित स्वागत और सम्मान किया, तथा कूटाकारशाला में उनके निवास का यथोचित प्रबन्ध कराया, एवं अपने राजसेवकों को बुला कर आज्ञा दी कि कूटाकारशाला में चतुर्विध(अशन, पान, खादिम और स्वादिम) आहार तथा विविध प्रकार के पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, मालाओं और अलंकारों को पहुँचा दो। महाराज सिंहसेन की आज्ञानुसार उन राजसेवकों ने सभी खाद्य पदार्थ तथा अन्य वस्तुएं प्रचुर मात्रा में वहां पहुँचा दीं। तब वे माताएं भी कूटाकारशाला में आए महार्ह भोज्यादि पदार्थों का यथारुचि भोगोपभोग करती हुईं तथा अनेक प्रकार के गान्धर्वो-गायकों प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [705 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा नाटकों से मनोरंजन और नटों के द्वारा आत्मश्लाघा का अनुभव करती हुईं सानन्द समय यापन करने लगीं। मुनि श्री आनन्दसागर जी ने अपने विपाकसूत्रीय हिन्दी अनुवाद में पृष्ठ 289 पर"एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणगाइं पंचमाइसयाइं आमंतेति" इस पाठ का-एक कम पांच सौ देवियों (श्यामा के अतिरिक्त 499 रानियों) को तथा उन की एक कम पांच सौ माताओं को आमंत्रण दिया-यह अर्थ किया है, परन्तु यह अर्थ उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि "देवीसयाणं माइसयाई" यहां पर सम्बन्ध में षष्ठी है। माता पुत्री का जन्यजनकभाव . सम्बन्ध स्पष्ट ही है। दूसरी बात-यदि देवियों (रानियों) को भी निमंत्रण होता तो जिस तरह सूत्रकार ने "आमंतेति" इस क्रिया का कर्म "माइयाई" यह द्वितीयान्त रक्खा है, उसी प्रकार "देवीसयाण" यहां षष्ठी न रख कर सत्रकार द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करते, अर्थात "देवीसयाणं" के स्थान पर "देवीसयाई" इस पाठ का व्यवहार करते। तीसरी बात-.. महारानी श्यामा के जीवन के अपहरण का उद्योग करने वाली वे 499 माताएं ही तो हैं और महाराज सिंहसेन का भी उन्हीं पर रोष है। शेष रानियों का न तो कोई अपराध है और न ही उन्हें इस विषय में श्यामा ने दोषी ठहराया है। चौथी बात यहां पर "और" इस अर्थ का सूचक कोई चकारादि पद भी नहीं है। अतः हमारे विचारानुसार तो यहां पर 'एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं को निमंत्रण दिया' यही अर्थ युक्तियुक्त और समुचित प्रतीत होता है। ___ गंधव्वेहि य नाडएहि य-(गान्धर्वैश्च नाटकैश्च) यहां प्रयुक्त गान्धर्व पद-गाने वाले व्यक्ति का बोधक है। नृत्य करने वाले पुरुष का नाम नाटक-नर्तक है। तात्पर्य यह है कि गान्धर्वो और नाटकों से उन माताओं का यशोगान हो रहा था। यह सब कुंछ महाराज सिंहसेन ने उन के सम्मानार्थ तथा मनोविनोदार्थ ही प्रस्तुत किया था ताकि उन्हें महाराज के षड्यन्त्र का ज्ञान एवं भ्रम भी न होने पावे। ___ इस प्रकार कूटाकारशाला में ठहरी हुईं उन माताओं को निश्चिन्त और विश्रब्ध आमोद-प्रमोद में लगी हुईं जान कर महाराज सिंहसेन अर्द्ध रात्रि के समय बहुत से पुरुषों को साथ लेकर कूटाकारशाला में पहुंचते हैं, वहां जाकर कूटाकारशाला के तमाम द्वार बंद करा देते हैं और उस के चारों तरफ़ से आग लगवा देते हैं। परिणामस्वरूप वे-माताएं सब की सब वहीं जल कर राख हो जाती हैं। दैवगति कितनी विचित्र है, जिस अग्निप्रयोग से वे श्यामा को भस्म करने की ठाने हुए थीं उसी में स्वयं भस्मसात् हो गईं।' महाराज सिंहसेन ने महारानी श्यामा के वशीभूत होकर कितना घोर अनर्थ किया, 706 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितना बीभत्स आचरण किया, उसका स्मरण करते ही हृदय कांप उठता है। इतनी बर्बरता तो हिंसक पशुओं में भी दृष्टिगोचर नहीं होती। एक कम पांच सौ राजमहिलाओं को जीते जी अग्नि में जला देना और इस पर भी मन में किसी प्रकार का पश्चात्ताप न होना, प्रत्युत हर्ष से फूले न समाना, मानवता ही नहीं किन्तु दानवता की पराकाष्ठा है। परन्तु स्मरण रहे-कर्मवाद के न्यायालय में हर बात का पूरा-पूरा भुगतान होता है, वहां किसी प्रकार का अन्धेर नहीं है। तभी तो सिंहसेन का जीव छठी नरक में उत्पन्न हुआ, अर्थात् उस को छठी नरक में नारकीयरूप से उत्पन्न होना पड़ा। विषयांध-विषयलोलुप जीव कितना अनर्थ करने पर उतारू हो जाते हैं इसके लिए सिंहसेन का उदाहरण पर्याप्त है। प्रस्तुत कथा से पाठकों को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि विषयवासना से सदा दूर रहें, अन्यथा तज्जन्य भीषण कर्मों से नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ-साथ जन्म मरण के प्रवाह से प्रवाहित भी होना पड़ेगा। __-असणं 4- यहां दिये गए 4 के अंक से अभिमत पाठ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा -तहेव जाव साहरंति- यहां पठित तहेव पद का अर्थ है, वैसे ही अर्थात् जैसे महाराज सिंहसेन ने अशन, पानादि सामग्री को कूटाकारशाला में पहुंचाने का आदेश दिया था, वैसे राजपुरुषों ने सविनय उसको स्वीकार किया और शीघ्र ही उस का पालन किया, तथा इसी भाव का संसूचक जो आगम पाठ है उसे जाव-यावत् पद से अभिव्यक्त किया है, अर्थात् जाव-यावत् पद-पुरिसा करयल-परिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थए कट्ट एयमटुं पडिसुणेति पडिसुणित्ता विउलं असणं 4 सुबहुं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारं च कूडागारसालं-इन पदों का परिचायक है। अर्थ स्पष्ट ही है। ___ -सुरं च ६-यहां 6 के अंक से अभिमत पाठ की सूचना अष्टम अध्याय में की जा चुकी है, तथा-आसादेमाणाई ४-यहां 4 के अंक से -विसाएमाणाइं परिभाएमाणाई, परिभुजेमाणाइं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं जब कि प्रस्तुत में नपुंसक लिंग। अर्थगत कोई भेद नहीं है। -रोयमाणाई ३-यहां 3 के अंक से -कंदमाणाई विलवमाणाइं-इन पदों का ग्रहण करना अभिमत है। रुदन रोने का नाम है। चिल्ला-चिल्ला कर रोना आक्रन्दन और आर्त स्वर से करुणोत्पादक वचनों का बोलना विलाप कहलाता है। तथा-एयकम्मे ४-यहां 4 के अंक से अभिमत पद द्वितीय अध्याय में दिए जा चुके हैं। ___प्रस्तुत सूत्र में नरेश सिंहसेन द्वारा किये गए निर्दयता एवं क्रूरता पूर्ण कृत्य तथा उन कर्मों के प्रभाव से उसका छठी नरक में जाना आदि बातों का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [707 Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं मूल-सेणं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव रोहीडएणगरे दत्तस्स सत्थवाहस्स कण्हसिरीए भारियाए कुच्छिंसि दारियत्ताए उववन्ने। तते णं सा कण्हसिरी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारियं पयाया, सुकुमालपाणिपायंजाव सुरूवं। तते णं तीसे दारियाए अम्मापितरो निव्वत्तबारसाहियाए विउलं असणं 4 जाव .. मित्त नामधेज्जं करेंति। होउ णं दारिया देवदत्ता नामेणं। तते णं सा देवदत्ता पंचधातीपरिग्गहिया जाव परिवड्ढति। तते णं सा देवदत्ता दारिया उम्मुक्कबालभावा जाव जोव्वणेण य रूवेण य लावण्णेण य अतीव उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा यावि होत्था। तते णं सा देवदत्ता दारिया अन्नया कयाइ ण्हाया जाव विभूसिया, बहूहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता उप्पिं आगासतलगंसिं कणगतिन्दूसएणं कीलमाणी विहरति / इमं च णं वेसमणदत्ते राया ण्हाते जाव विभूसिते आसंदुरूहति दुरूहित्ता बहुहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिवुडे आसवाहणियाए णिज्जायमाणे दत्तस्स, गाहावइस्स गिहस्स अदूरसामंते वीतीवयति। तते णं से / वेसमणे राया जाव वीतीवयमाणे देवदत्तं दारियं उप्पिं आगासतलगंसि जाव: पासति पासित्ता देवदत्ताए दारियाए रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जायविम्हए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वयासी-कस्स णं देवाणुप्पिया ! एसा दारिया, किं च णामधिज्जेणं ? तते णं ते कोडुम्बिया वेसमणरायं करतल जाव एवं वयासी-एस णं सामी ! दत्तस्स सत्थवाहस्स धूया कण्हसिरिअत्तया देवदत्ता णामंदारिया रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा। छाया-स ततोऽनन्तरमुवृत्य, इहैव रोहीतके नगरे दत्तस्य सार्थवाहस्य कृष्णश्रियाः भार्यायाः कुक्षौ दारिकतयोपपन्नः। ततः सा कृष्णश्री: नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारिका प्रजाता, सुकुमारपाणिपादां यावत् सुरूपां। ततस्तस्या दारिकायाः अम्बापितरौ निर्वृत्तद्वादशाहिकाया विपुलमशनं 4 यावद् मित्र नामधेयं कुरुतः-भवतु दारिका देवदत्ता नाम्ना / ततः सा देवदत्ता पंचधात्रीपरिगृहीता यावत् परिवर्धते / ततः सा देवदत्ता दारिका उन्मुक्तबालभावा यावद् यौवनेन च रूपेण च लावण्येन चातीवोत्कृष्टा उत्कृष्टशरीरा 708 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता चाप्यभवत् / ततः सा देवदत्ता दारिका अन्यदा कदाचित् स्नाता यावद् विभूषिता बहुभिः कुब्जाभिर्यावत् परिक्षिप्ता उपरि आकाशतले कनकतिन्दूसकेन क्रीडन्ती विहरति। इतश्च वैश्रमणदत्तो राजा स्नातो यावत् विभूषितः अश्वमारोहति आरुह्य बहुभिः पुरुषैः सार्द्ध सम्परिवृतो अश्ववाहनिकया निर्यान् दत्तस्य गाथापतेः गृहस्यादूरासन्ने व्यतिव्रजति ततः स वैश्रमणो राजा यावद् व्यतिव्रजन् देवदत्तां दारिकामुपरि आकाशतले यावत् पश्यति दृष्ट्वा देवदत्तायाः दारिकायाः रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च जातविस्मयः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-कस्य देवानुप्रियाः! एषा दारिका? का च नामधेयेन ? ततस्ते कौटुम्बिकाः वैश्रमणराजं करतल यावदेवमवादिषुः-एषा स्वामिन् ! दत्तस्य सार्थवाहस्य दुहिता कृष्णश्यात्मजा देवदत्ता नाम दारिका, रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च उत्कृष्टोत्कृष्टशरीरा। .. पदार्थ-से णं-वह। ततो-वहां से। अणंतरं-अन्तर रहित / उव्वट्टित्ता-निकल कर। इहेवइसी। रोहीडए-रोहीतक। णगरे-नगर में। दत्तस्स-दत्त / सत्थवाहस्स-सार्थवाह की। कण्हसिरीएकृष्णश्री। भारियाए-भार्या की। कुच्छिंसि-कुक्षि में। दारियत्ताए-बालिका रूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ अर्थात् कन्या रूप से गर्भ में आया। तते णं-तदनन्तर। सा-उस। कण्हसिरी-कृष्णश्री ने। नवण्हं मासाणं-नव मास / बहुपडिपुण्णाणं-लगभग परिपूर्ण हो जाने पर। दारियं-बालिका को। पयाया-जन्म दिया, जो कि। सुकुमालपाणिपायं-सुकुमार-अत्यन्त कोमल हाथ, पैर वाली। जाव-यावत्। सुरूवंसुरूपा-परम सुन्दरी थी। तते णं-तदनन्तर। तीसे-उस। दारियाए-बालिका के। अम्मापितरो-मातापिता। निव्वत्तबारसाहियाए-जन्म से लेकर बारहवें दिन। विउलं-विपुल। असणं ४-अशन आदि आहार। जाव-यावत्। मित्त-मित्र, ज्ञाति, निजकजन और स्वजनादि को भोजनादि करा कर। नामधेज्जेनाम। करेंति-रखते हैं। होउ णं-हो। दारिया-यह बालिका। देवदत्ता-देवदत्ता। नामेणं-नाम से अर्थात् / बालिका का नाम देवदत्ता रखा जाता है। तते णं-तदनन्तर। सा-वह। देवदत्ता-देवदत्ता। पंचधातीपरिंग्गहिया-पांच धाय माताओं से परिगृहीत। जाव-यावत्। परिवड्ढति-वृद्धि को प्राप्त होने लगी। तते णं-तदनन्तर। सा-वह / देवदत्ता-देवदत्ता। दारिया-दारिका। उम्मुक्कबालभावाउन्मुक्तबालभावा-जिस ने बाल भाव को त्याग दिया है। जाव-यावत्। जोव्वणेण य-यौवन से। रूवेण य-रूप से। लावण्णेण य-और लावण्य अर्थात् आकृति की मनोहरता से। अतीव उक्किट्ठा-अत्यन्त उत्कृष्ट-उत्तम, तथा। उक्किट्ठसरीरा-उत्कृष्ट शरीर वाली। यावि होत्था-भी थी। तते णं-तदनन्तर। सा-वह / देवदत्ता-देवदत्ता। दारिया-बालिका। अन्नया-अन्यदा। कयाइ-कदाचित् / ण्हाया-नहा कर। जाव-यावत्। विभूसिया-सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो। बहूहि-अनेक। खुजाहि-कुब्जाओं से। जाव-यावत्। परिक्खित्ता-घिरी हुई। उप्पिं-अपने मकान के ऊपर / आगासतलगंसि-झरोखे में। कणगतिंदूसएणं-सुवर्ण की गेंद से। कीलमाणी-खेलती हुई। विहरति-विहरण कर रही थी। इमं च प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [709 Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णं-और इतने में। वेसमणदत्ते-वैश्रमणदत्त / राया-राजा। हाते-नहा कर। जाव-यावत्। विभूसितेसमस्त आभूषणों से विभूषित हो कर। आसं-अश्व पर। दुरूहति दुरूहित्ता-आरोहण करता है, करके। बहूहिं-बहुत से। पुरिसेहि-पुरुषों के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडे-संपरिवृत-घिरा हुआ। आसवाहणियाएअश्ववाहनिका-अश्वक्रीडा के लिए। णिजायमाणे-जाता हुआ। दत्तस्स-दत्त / गाहावइस्स-गाथापतिसार्थवाह के। गिहस्स-घर के। अदूरसामंतेणं-नज़दीक में से। वीतीवयति-जाता है-गुजरता है। तते णंतदनन्तर। से-वह। वेसमणे-वैश्रमण। राया-राजा। जाव-यावत्। वीतीवयमाणे-जाते हुए। देवदत्तंदेवदत्ता। दारियं-बालिका को, जोकि। उप्पिं-ऊपर। आगासतलगंसि-झरोखे में। जाव-यावत् अर्थात् स्वर्ण की गेंद से खेल रही है। पासति पासित्ता-देखता है, देख कर। देवदत्ताए-देवदत्ता। दारियाएंबालिका के।रूवेण य-रूप से। जोव्वणेण य-यौवन से, तथा। लावण्णेण य-लावण्य से। जायविम्हएविस्मय को प्राप्त हो। कोडुंबियपुरिसे-कौटुंबिकपुरुषों को। सद्दावेति-बुलाता है। सद्दावित्ता-बुलाकर, उनके प्रति। एवं वयासी-इस प्रकार कहता है। देवाणुप्पिया !-हे भद्रपुरुषो ! एसा-यह / दारियाबालिका। कस्स णं-किस की है। किं च नामधिजेणं-और (इस का) क्या नाम है ? / तते णंतदनन्तर। ते-वे। कोडुंबिया-कौटुम्बिक पुरुष। वेसमणराय-महाराज वैश्रमणदत्त के प्रति। करतल०दोनों हाथ जोड़। जाव-यावत् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि रख कर। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। सामी !-हे स्वामिन् ! एस णं-यह। दत्तस्स-दत्त। सत्थवाहस्स-सार्थवाह की। धूया-पुत्री, और कण्हसिरीअत्तया-कृष्णश्री की आत्मजा है, तथा। देवदत्ता-देवदत्ता। णाम-नाम की। दारियाबालिका है, जो कि। रूवेण य-रूप से। जोव्वणेण य-यौवन से, और / लावण्णेण य-लावण्य से। उक्किट्ठा-उत्कृष्ट-उत्तम तथा। उक्किट्ठसरीरा-उत्कृष्ट शरीर वाली है। मूलार्थ-तदनन्तर वह सिंहसेन का जीव छठी नरक से निकल कर रोहीतक नगर में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री नामक भार्या के उदर में पुत्रीरूप से उत्पन्न हुआ। तब उस कृष्णश्री ने लगभग नवमास परिपूर्ण होने पर एक कन्या को जन्म दिया जो कि अत्यन्त कोमल हाथ, पैरों वाली यावत् परम सुन्दरी थी। तत्पश्चात् उस कन्या के माता पिता ने बारहवें दिन बहुत सा अशनादिक तैयार कराया, यावत् मित्र, ज्ञाति आदि को निमंत्रित कर एवं सब के भोजनादि से निवृत्त हो लेने पर कन्या का नामकरण संस्कार करते हुए कहा कि हमारी इस कन्या का नाम देवदत्ता रखा जाता है। तदनन्तर वह देवदत्ता पांच धाय माताओं के संरक्षण में वृद्धि को प्राप्त होने लगी। तब वह देवदत्ता बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् यौवन, रूप और लावण्य से अत्यन्त उत्तम एवं उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। तदनन्तर वह देवदत्ता किसी दिन स्नान करके यावत् समस्त भूषणों से विभूषित हुई बहुत सी कुब्जा आदि दासियों के साथ अपने मकान के ऊपर झरोखे में सोने की गेंद के साथ खेल रही थी और इधर स्नानादि से निवृत्त यावत् विभूषित महाराज वैश्रमण 710] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोड़े पर सवार हो कर अनेकों अनुचरों के साथ अश्वक्रीड़ा के लिए राजमहल से निकल सेठ दत्त के घर के पास से होकर जा रहे थे, तब यावत् जाते हुए वैश्रमण महाराज ने देवदत्ता कन्या को ऊपर सोने की गेंद के साथ खेलते हुए देखा, देखकर कन्या के रूप, यौवन और लावण्य से विस्मित होकर राजपुरुषों को बुलाकर कहने लगे कि हे भद्रपुरुषो! यह कन्या किस की है ? तथा इस का नाम क्या है ? तब राजपुरुष हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार कहने लगे-स्वामिन् ! यह कन्या सेठ दत्त की पुत्री और कृष्णश्री सेठानी की आत्मजा है। इस का नाम देवदत्ता है और यह रूप, यौवन और लावण्य-कान्ति से उत्तम शरीर वाली है। टीका-परम पूज्य तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी बोले कि गौतम ! तत्पश्चात् 22 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले छठे नरक में अनेकानेक दुःसह कष्टों को भोग कर वहां की भवस्थिति पूरी हो जाने पर सुप्रतिष्ठ नगर का अधिपति सिंहसेन उस नरक से निकल कर सीधा ही इसी रोहीतक नगर में, नगर के लब्धप्रतिष्ठ सेठ दत्त के यहां सेठानी कृष्ण श्री के उदर में लड़की के रूप में उत्पन्न हुआ। सेठानी कृष्णश्री गर्भस्थ जीव का यथाविधि पालन पोषण करने लगी अर्थात् गर्भकाल में हानि पहुंचाने वाले पदार्थों का त्याग और गर्भ को पुष्ट . करने वाली वस्तुओं का उपभोग करती हुई समय व्यतीत करने लगी। गर्भकाल पूर्ण होने पर कृष्णश्री ने एक सुकोमल हाथ पैरों वाली सर्वांगपूर्ण और परम रूपवती कन्या को जन्म दिया। बालिका के जन्म से सेठदम्पती को बड़ा हर्ष हुआ, तथा इस उपलक्ष्य में उन्होंने बड़े समारोह के साथ उत्सव मनाया और प्रीतिभोजन कराया, तथा बारहवें दिन नवजात बालिका का "देवदत्ता" ऐसा नामकरण किया। तब से वह बालिका देवदत्ता नाम से पुकारी जाने लगी, इस तरह बड़े आडम्बर के साथ विधिपूर्वक उसका नामकरण संस्कार सम्पन्न हुआ। देवदत्ता के पालन पोषण के लिए माता पिता ने "१-गोदी में उठाने वाली, २-दूध पिलाने वाली, ३-स्नान कराने वाली, ४-क्रीड़ा कराने वाली, और ५-श्रृंगार कराने वाली" इन पांच धाय माताओं का प्रबन्ध कर दिया था और वे पांचों ही अपने-अपने कार्य में बड़ी निपुण थीं, उन्हीं की देख-रेख में बालिका देवदत्ता का पालन पोषण होने लगा और वह बढ़ने लगी। उस ने शैशव अवस्था से निकल कर युवावस्था में पदार्पण किया। यौवन की प्राप्ति से 1. महाराज सिंहसेन का लड़की के रूप में उत्पन्न होना अर्थात् पुरुष से स्त्री बनना, उसके छल कपट का ही परिचायक है तथा छल, कपट-माया से इस जीव को स्त्रीत्व-स्त्री भव की प्राप्ति होती है। इस प्रकृतिसिद्ध सिद्धान्त को प्रस्तुत प्रकरण में व्यावहारिक स्वरूप प्राप्त हुआ है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [711 Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम सुन्दरी देवदत्ता रूप से, लावण्य से, सौन्दर्य एवं मनोहरता से अपनी उपमा आप बन गई। उस की परम सुन्दर आकृति की तुलना किसी दूसरी युवती से नहीं हो सकती थी, मानो प्रकृति की सुन्दरता और लावण्यता ने देवदत्ता को ही अपना पात्र बनाया हो। किसी समय स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त हो सुन्दर वेष पहन कर बहुत सी दासियों के साथ अपने गगनचुम्बी मकान के ऊपर झरोखे में सोने की गेंद से खेलती हुई देवदत्ता बालसुलभ क्रीड़ा से अपना मन बहला रही थी। इतने में उस नगर के अधिपति महाराज वैश्रमणदत्त बहुत से अनुचरों के साथ घोड़े पर सवार हुए अश्वक्रीड़ा के निमित्त दत्त सेठ के मकान के पास से निकले तो अकस्मात् उन की दृष्टि महल के उपरिभाग की तरफ़ गई और वहां उन्होंने स्वर्णकन्दुक से दासियों के साथ क्रीड़ा में लगी हुई देवदत्ता को देखा, देख कर उस के अपूर्व यौवन और रूपलावण्य ने महाराज वैश्रमणदत्त को बलात् अपनी ओर आकर्षित किया और वहां पर ठहरने पर विवश कर दिया। देवदत्ता के अलौकिक सौन्दर्य से महाराज वैश्रमण को बड़ा विस्मय हुआ। उन्हें आज तक किसी मानवी स्त्री में इतना सौन्दर्य देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। कुछ समय तो वे इस भ्रांति में रहे कि यह कोई स्वर्ग से उतरी हुई देवांगना है या मानवी महिला। अन्त में उन्होंने अपने अनुचरों से पूछा कि यह किस की कन्या है और इसका क्या नाम है। इस के उत्तर में अनुचरों ने कहा कि महाराज ! यह अपने नगरसेठ दत्त की पुत्री और सेठानी कृष्णश्री की आत्मजा है और देवदत्ता इस का नाम है। यह रूपलावण्य की राशि और नारीजगत् में सर्वोत्कृष्ट है। ___-उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा-इस का अर्थ है-उत्कृष्ट-उत्तम सुन्दर शरीर वाली। उत्कृष्टं सुन्दरं शरीरं यस्याः सा तथा। तथा रूप और लावण्य में इतना अन्तर है कि रूप शुक्ल कृष्ण आदि वर्ण-रंग का नाम है और शरीरगत सौन्दर्यविशेष की लावण्य संज्ञा है। अर्धमागधी कोष में आकाशतलक और आकाशतल ये दो शब्द उपलब्ध होते हैं। आकाशतलक का अर्थ वहां झरोखा तथा अकाशतल के १-आकाश का तल, २गगनस्पर्शी-बहुत ऊंचा महल, ऐसे दो अर्थ लिखे हैं। प्रस्तुत में सूत्रकार ने आकाशतलक शब्द का आश्रयण किया है, परन्तु यदि आकाशतल शब्द से स्वार्थ में क प्रत्यय कर लिया जाए तो प्रस्तुत में आकाशतलक शब्द के -आकाश का तल, अथवा गगनस्पर्शी बहुत ऊंचा महल ये दोनों अर्थ भी निष्पन्न हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि-उप्पिं आगासतलगंसि- इस पाठ के १-ऊपर झरोखे में, २-ऊपर आकाशतल पर अर्थात् मकान की छत पर तथा ३गगनस्पर्शी बहुत ऊंचे महल के ऊपर, ऐसे तीन अर्थ किए जा सकते हैं। 712 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सुकुमालपाणिपायं जाव सुरूवं-यहां पठित जाव-यावत् पद द्वितीय अध्याय के टिप्पण में पढ़े गए-अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरं-से ले कर-पियदंसणं-यहां तक के पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है वहां ये पद प्रथमान्त हैं, जब कि प्रस्तुत में ये पद द्वितीयान्त अपेक्षित हैं। अतः अर्थ में द्वितीयान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिए। ___-असणं 4 जाव मित्त नामधेजं-यहां पठित इन पदों से-पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, मित्त-जाइ-णियग-सयण-संबन्धि-परिजणं आमंतेंति, तओ पच्छा ण्हाया कयबलिकम्मा-से ले कर-मित्तणाइणियगसयणसम्बन्धिपरिजणस्स पुरओयहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। अशन पान आदि शब्दों का अर्थ प्रथम अध्याय की टिप्पणी में , तथा-मित्र इत्यादि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय की टिप्पणी में लिखा जा चुका है। तथा-तओ पच्छा-इत्यादि पदों का अर्थ तृतीय अध्याय की टिप्पणी में लिखा जा चुका है। मात्र अन्तर इतना है कि वहां विजय चोरसेनापति का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में सेठ दत्त और सेठानी कृष्णश्री का। तथा वहां-हाया-इत्यादि पद एकवचनान्त हैं, जब कि यहां ये पद बहुवचनान्त अपेक्षित हैं, अतः अर्थ में बहुवचनान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिए। पंचधातीपरिग्गहिया जाव परिवड्ढति-यहां पठित जाव-यावत् से द्वितीय अध्याय में पढ़े गए-खीरधातीए 1, मज्जण-से लेकर-चंपयपायवे सुहंसुहेणं-यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ भी वहीं लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता का। लिंगगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। ___-उम्मुक्कबालभावा जाव जोव्वणेण-यहां पठित जाव-यावत् पद से -जोव्वणगमणुप्पत्ता विण्णायपरिणयमेत्ता-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। युवावस्था प्राप्त को यौवनकानुप्राप्ता कहते हैं और विज्ञान की परिपक्व अवस्था को प्राप्त विज्ञातपरिणतमात्रा कही जाती है। . -खुजाहिं जाव परिक्खित्ता-यहां पठित जाव-यावत् पद से चिलाइयाहिं वामणीवडभीबब्बरी-से लेकर-चेडियाचक्कवाल-यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता कुमारी का। ... -हाते जाव विभूसिते-यहां के-जाव-यावत्-पद से विवक्षित पाठ का वर्णन पंचम अध्याय में लिखा जा चुका है तथा राया जाव वीतीवयमाणे-यहां पठित जाव-यावत् पद से -बहुहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिवुडे आसवाहणियाए णिज्जायमाणे दत्तस्स गाहावइस्स प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [713 Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिहस्स अदूरसामंतेणं-पीछे पढ़े गए इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। तथा-आगासतलगंसि जाव पासति-यहां पठित जाव-यावत् पद से -कणगतिंदूसएणं कीलमाणिं-इन पदों को ग्रहण करना चाहिए। तथा –करतल जाव एवं-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। दत्तपुत्री देवदत्ता के सम्बंध में अपने अनुचरों के कथन को सुनने के बाद रोहीतक नरेश ... वैश्रमण दत्त ने क्या किया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हुए कहते हैं मूल-तते णं से वेसमणे राया अस्सवाहणियाओ पडिणियत्ते समाणे अब्भिंतरट्ठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! दत्तस्स धूयं कण्हसिरीए अत्तयं देवदत्तदारियं पूसणंदिस्स जुवरण्णो भारियत्ताए वरेह, जइ वि य सा सयरजसुक्का। तते णं ते अभितरट्ठाणिजा पुरिसा वेसमणरण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल. जाव एयमटुं पडिसुणेति 2 ण्हाया जाव सुद्धप्पावेसाई वत्थाई पवरपरिहिया जेणेव दत्तस्स गिहे तेणेव उवागया। तते णं से दत्ते सत्थवाहे ते पुरिसे एजमाणे पासति, पासित्ता हट्ठतुढे आसणाओ अब्भुट्टेति 2 त्ता सत्तट्ठपयाई अब्भुग्गते आसणेणं उवनिमंतेति, उवनिमंतित्ता ते पुरिसे आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगते एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणपओयणं?, तते णं ते रायपुरिसा दत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिया ! तव धूयं कण्हसिरीअत्तयं देवदत्तं दारियं पूसणंदिस्स जुवरण्णो भारियत्ताए वरेमो, तं जति णं जाणासि देवाणुप्पिया! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिजं वा सरिसो वा संजोगो, ता दिज्जउ णं देवदत्ता पूसणंदिस्स जुवरण्णो भण देवाणुप्पिया! किं दलयामो सुक्कं ?, तते णं से दत्ते ते अभितरट्ठाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी-एतं चेवणं देवाणुप्पिया! मम सुक्कं जंणं वेसमणदत्ते राया ममंदारियाणिमित्तेणं अणुगिण्हइ, ते ठाणेजपुरिसे विउलेणं पुष्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति 2 पडिविसज्जेति। तते णं ते ठाणेजपुरिसा जेणेव वेसमणे राया तेणेव उवागच्छन्ति 2 त्ता वेसमणस्स रण्णो एतमटुं निवेदेति। छाया-ततः स वैश्रमणो राजा अश्ववाहनिकातः प्रतिनिवृत्तः सन् 714 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुषान् शब्दयति 2 एवमवादीत्-गच्छत यूयं देवानुप्रियाः! दत्तस्य दुहितरं कृष्णश्रिय आत्मजां देवदत्तां दारिकां पुष्पनन्दिनो युवराजस्य भार्यातया वृणीध्वम्। यद्यपि च सा स्वकराज्यशुल्का / ततस्ते अभ्यन्तरस्थानीयाः पुरुषाः वैश्रमणराजेन एवमुक्ताः सन्तः हृष्टतुष्टाः करतल० यावदेतमर्थं प्रतिशृण्वंति 2 स्नाताः यावत् शुद्धप्रवेश्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहिता: यत्रैव दत्तस्य गृहं तत्रैवोपागताः। ततः स दत्तः सार्थवाहस्तान् पुरुषान् आयतः पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टः आसनादभ्युत्तिष्ठति, सप्ताष्टपदानि अभ्युद्गतः आसनेनोपनिमंत्रयति उपनिमंत्र्य तान् पुरुषानास्वस्थान् विस्वस्थान् सुखासनवरगतान् एवमवादीत-संदिशन्तु देवानुप्रियाः ! किमागमनप्रयोजनम् ?, ततस्ते राजपुरुषा दत्तं सार्थवाहमेवमवादिषुः-वयं देवानुप्रिय ! तव दुहितरं कृष्णश्रिय आत्मजां देवदत्तां दारिकां पुष्यनन्दिनो युवराजस्य भार्यातया वृणीमहे, तद् यदि जानासि देवानुप्रिय ! युक्तं वा पात्रं वा श्लाघनीयं वा सदृशो वा संयोगः, तदा दीयतां देवदत्ता पुष्यनन्दिने युवराजाय 1, भण देवानुप्रिय ! किं दापयामः शुल्कम् ? ततः स दत्तस्तानभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुषानेवमवदत्-एतदेव देवानुप्रियाः ! मम शुल्कं यद् वैश्रमणदत्तो राजा मां दारिकानिमित्तेनानुगृह्णाति। तान् स्थानीयपुरुषान् विपुलेन पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारेण सत्कारयति 2 प्रतिविसृजति। ततस्ते स्थानीयपुरुषाः यत्रैव वैश्रमणो राजा तत्रैवोपागच्छंति 2 वैश्रमणाय राज्ञे एनमर्थं निवेदयन्ति। . पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। वेसमणे-वैश्रमण। राया-राजा। अस्सवाहणियाओअश्ववाहनिका-अश्वक्रीड़ा से। पडिणियत्ते समाणे-प्रतिनिवृत्त हुआ अर्थात् वापिस लौटा हुआ। अब्भिंतरट्ठाणिज्जे-अभ्यन्तरस्थानीय-निजी नौकर, खास आदमी अथवा नज़दीक के सगे सम्बन्धी। पुरिसे-पुरुषों को। सद्दावेति-बुलाता है। सद्दावित्ता-बुला कर। एवं-इस प्रकार / वयासी-कहने लगा। देवाणुप्पिया !-हे भद्र पुरुषो ! तुब्भे-तुम लोग। गच्छह णं-जाओ। दत्तस्स-दत्त की। धूयं-पुत्री। कण्हसिरीए-कृष्णश्री की।अत्तयं-आत्मजा। देवदत्तदारियं-देवदत्ता / दारिका-बालिका को। पूसणंदिस्सपुष्यनन्दी। जुवरण्णो-युवराज के लिए। भारियत्ताए-भार्यारूप से। वरेह-मांगो? जइ वि य-और यद्यपि। सा-वह / सयरजसुक्का-स्वकीय राज्यलभ्या है अर्थात् यदि राज्य के बदले भी प्राप्त की जा सके तो भी ले लेने योग्य है। तते णं-तदनन्तर। ते-वह। अन्भिंतरट्ठाणिज्जा-अभ्यन्तरस्थानीय। पुरिसा-पुरुष। वेसमणरण्णा-वैश्रमण राजा के द्वारा। एवं-वुत्ता समाणा-इस प्रकार कहे गए। हट्टतुट्ठा-अत्यधिक हर्ष 1. आस्वस्थान्-स्वास्थ्यं प्राप्तान् गतिजनितश्रमाभावात्। विस्वस्थान्-विशेषरूपेण स्वास्थ्यमधिगतान् संक्षोभाभावात्। सुखासनवरगतान्-सुखेन सुखं वा आसनवरं गतान्। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [715 Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्राप्त हो। करतल-हाथ जोड़। जाव-यावत्। एयमटुं-इस बात को। पडिसुणेति २-स्वीकार कर लेते हैं, स्वीकार कर। पहाया-स्नान कर। जाव-यावत्। सुद्धप्यावेसाइं-शुद्ध तथा राजसभा आदि में प्रवेश करने के योग्य। वत्थाई पवरपरिहिया-प्रधान-उत्तम वस्त्रों को धारण किए हुए। जेणेव-जहां। दत्तस्स-दत्त का। गिहे-घर था। तेणेव-वहां पर। उवागया-आ गये। तते णं-तदनन्तर। से-वह। दत्तेदत्त / सत्थवाहे-सार्थवाह / ते-उन। पुरिसे-पुरुषों को। एज्जमाणे-आते हुओं को। पासति-देखता है। पासित्ता-देख कर / हट्ठतुढे-बड़ा प्रसन्न हुआ और अपने। आसणाओ-आसन से। अब्भुढेति-उठता है, और। सत्तट्ठपयाई-सात आठ पैर-कदम। अब्भुग्गते-आगे जाता है, तथा। आसणेणं-आसन से। उवनिमंतेति-निमंत्रित करता है अर्थात् उन्हें आसन पर बैठने की प्रार्थना करता है। उवनिमंतेत्ता-इस प्रकार निमंत्रित कर, तथा। आसत्थे-आस्वस्थ अर्थात् गतिजन्य श्रम के न रहने से स्वास्थ्य-शान्ति को प्राप्त हुए। वीसत्थे-विस्वस्थ अर्थात् मानसिक क्षोभाभाव के कारण विशेष रूप से स्वास्थ्य को प्राप्त हुए। सुहासणवरगते-सुखपूर्वक उत्तम आसनों पर बैठे हुए। ते-इन। पुरिसे-पुरुषों के प्रति / एवं वयासी-इस प्रकार बोला। देवाणुप्पिया !-हे महानुभावो ! संदिसंतु णं-आप फरमावें। किमागमणपओयणं-आप .. के आगमन का क्या हेतु है, अर्थात् आप कैसे पधारे हैं ? तते णं-तदनन्तर / ते-वे। रायपुरिसा-राजपुरुष। दत्तं सत्थवाह-दत्त सार्थवाह के प्रति / एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। देवाणुप्पिया!-हे महानुभाव! अम्हे णं-हम। तव-तुम्हारी। धूयं-पुत्री। कण्हसिरिअत्तयं-कृष्णश्री की आत्मजा। देवदत्तं-देवदत्ता। दारियं-बालिका को। पूसणंदिस्स-पुष्यनन्दी। जुवरण्णो-युवराज के लिए। भारियत्ताए-भार्यारूप से। वरेमो-मांगते हैं ? तं-अतः। जति णं-यदि। देवाणुप्पिया-आप महानुभाव। जुत्तं वा-युक्त-हमारी प्रार्थना उचित। पत्तं वा-प्राप्त-अवसर प्राप्त। सलाहणिज्ज-श्लाघनीय तथा। संजोगो वा-वधू-वर का संयोग। सरिसो वा-समान-तुल्य। जाणासि-समझते हो। ता-तो। दिजंउ णं-दे दो। देवदत्ता-देवदत्ता को। जुवरण्णो-युवराज। पूसणंदिस्स-पुष्यनन्दी के लिए। भण-कहो। देवाणुप्पिया !-हे महानुभाव ! आप को। किं-क्या। सुक्कं-शुल्क-उपहार। दलयामो-दिलवायें ? तते णं-तदनन्तर। से-वह / दत्तेदत्त। ते-उन। अब्भिंतरट्ठाणिज्जे-अभ्यन्तरस्थानीय। पुरिसे-पुरुषों के प्रति। एवं वयासी-इस प्रकार बोले। देवाणुप्पिया !-हे महानुभावो ! एतं चेव-यही। ममं-मेरे लिए। सुक्कं-शुल्क है। जंणं-जो कि। वेसमणदत्ते राया-महाराज वैश्रमणदत्त / ममं-मुझे। दारियाणिमित्तेणं-इस दारिका-बालिका के निमित्त से। अणुगिण्हइ-अनुगृहीत कर रहे हैं, इस प्रकार कहने के बाद। ते-उन / ठाणेज्जपुरिसे-स्थानीय पुरुषों का। विउलेणं-विपुल। पुप्फ-पुष्प। वत्थ-वस्त्र / गंध-सुगंधित द्रव्य / मल्लालंकारेणं-माला तथा अलंकार से। सक्कारेति २-सत्कार करता है, सत्कार कर के। पडिविसज्जेति-उन्हें विसर्जित करता है। तते णंतदनन्तर। ते-वे। ठाणेज्जपुरिसा-स्थानीयपुरुष। जेणेव वेसमणे राया-जहां पर महाराज वैश्रमणदत्त थे। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छन्ति २-आ गये, आकर। वेसमणस्स-वैश्रमणदत्त / रण्णो-राजा को। एतमटुंइस अर्थ का अर्थात् वहां पर हुई सारी बातचीत का। निवेदंति-निवेदन करते हैं। मूलार्थ-तदनन्तर महाराज वैश्रमणदत्त अश्ववाहनिका से-अश्वक्रीड़ा से वापिस आकर अपने अभ्यन्तरस्थानीय-अन्तरंग पुरुषों को बुलाते हैं, बुलाकर उन को इस प्रकार कहते हैं 716 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे महानुभावो ! तुम जाओ, जाकर यहां के प्रतिष्ठित सेठ दत्त की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या को युवराज पुष्यनन्दी के लिए भार्यारूप से मांग करो। यद्यपि वह स्वराज्यलभ्या है अर्थात् वह यदि राज्य दे कर भी प्राप्त की जा सके तो भी ले लेने योग्य है। ____ महाराज वैश्रमण की इस आज्ञा को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर के वे लोग स्नानादि कर और शुद्ध तथा राजसभादि में प्रवेश करने योग्य एवं उत्तम वस्त्र पहन कर जहां दत्त सार्थवाह का घर था, वहां जाते हैं। दत्त सेठ भी उन्हें आते देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट करता हुआ आसन से उठ कर उनके सत्कारार्थ सात आठ कदम आगे जाता है और उनका स्वागत कर आसन पर बैठने की प्रार्थना करता है। तदनन्तर गतिजनित श्रम के दूर होने से स्वस्थ तथा मानसिक क्षोभ के न रहने के कारण विशेष रूप से स्वास्थ्य को प्राप्त करते हुए एवं सुखपूर्वक उत्तम आसनों पर अवस्थित हो जाने पर उन आने वाले सज्जनों को दत्त सेठ विनम्र शब्दों में निवेदन करता हुआ इस प्रकार बोला-महानुभावो ! आप का यहां किस तरह से पधारना हुआ है, मैं आप के आगमन का हेतु जानना चाहता हूँ। दत्त सार्थवाह के इस प्रकार कहने के अनन्तर उन पुरुषों ने कहा कि हम आप की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या को युवराज पुष्यनन्दी के लिए भार्यारूप से मांग करने के लिए आए हैं। यदि हमारी यह मांग आप को संगत, अवसरप्राप्त, श्लाघनीय और इन दोनों का सम्बन्ध अनुरूप जान पड़ता हो तो देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दी के लिए दे दो, और कहो, आप को क्या शुल्कउपहार दिलवाया जाए? उन अभ्यन्तरस्थानीय पुरुषों के इस कथन को सुन कर दत्त बोले कि महानुभावो! मेरे लिए यही बड़ा भारी शुल्क है जो कि महाराज वैश्रमण दत्त मेरी इस बालिका को ग्रहण कर मुझे अनुगृहीत कर रहे हैं। तदनन्तर दत्त सेठ ने उन सब का पुष्प , वस्त्र, गंध, माला और अलंकारादि से यथोचित सत्कार किया और उन्हें सम्मानपूर्वक विसर्जित किया। तदनन्तर वे स्थानीयपुरुष महाराज वैश्रमण के पास आए और उन्होंने उन को उक्त सारा वृत्तान्त कह सुनाया। टीका-मनोविज्ञान का यह नियम है कि मन सदा नवीनता की ओर झुकता है, नवीनता की तरफ आकर्षित होना उस का प्रकृतिसिद्ध धर्म है। किसी के पास पुरानी पुस्तक हो उसे कोई नवीन तथा सुन्दर पुस्तक मिल जाए तो वह उस पुरानी पुस्तक को छोड़ नई को स्वीकार कर लेता है, इसी प्रकार यदि किसी के पास साधारण वस्त्र है, उसे कहीं से मन को प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [717 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुभाने वाला नूतन वस्त्र मिल जाए तो वह पहले को त्याग देता है। एक व्यक्ति को साधारणरूखा सूखा भोजन मिल रहा है, इसके स्थान में यदि कोई दयालु पुरुष उसे स्वादिष्ट भोजन ला कर दे तो वह उसी की ओर ललचाता है। सारांश यह है कि चाहे कोई धार्मिक हो चाहे सांसारिक प्रत्येक व्यक्ति नवीनता और सुन्दरता की ओर आकर्षित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। उन में अन्तर केवल इतना होगा कि धार्मिक व्यक्ति आत्मविकास में उपयोगी धार्मिक साधनों की नवीनता चाहता है और सांसारिक प्राणी संसारगत नवीनता की ओर दौड़ता है। रोहीतकनरेश वैश्रमणदत्त ने जब से परमसुन्दरी दत्त पुत्री देवदत्ता को देखा है तब से वे उसके अद्भुत रूप लावण्य पर बहुत ही मोहित से हो गए। उन की चित्तभित्ति पर कुमारी देवदत्ता की मूर्ति अमिटचित्र की भांति अंकित हो गई और वे इसी चिन्ता में निमग्न हैं कि किसी तरह से वह लड़की उसके राजभवन की लक्ष्मी बने। वे विचारते हैं कि यदि इस कन्या का सम्बन्ध अपने युवराज पुष्यनन्दी से हो जाए तो यह दोनों के अनुरूप अथच सोने पर सुहागे जैसा काम होगा। प्रकृति ने जैसा सुन्दर और संगठित शरीर पुष्यनन्दी को दिया है वैसा ही अथवा उससे अधिक रूपलावण्य देवदत्ता को अर्पण किया है। तब दोनों की जोड़ी उत्तम ही नहीं किन्तु अनुपम होगी। जिस समय रूप लावण्य की अनुपम राशि देवदत्ता महार्ह वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो साक्षात् गृहलक्ष्मी की भान्ति युवराज पुष्यनन्दी के वाम भाग में बैठी हुई राजभवन की शोभाश्री का अद्भुत उद्योत करेगी तो वह समय मेरे लिए कितना आनन्दवर्धक और उत्साह भरा होगा, इस की कल्पना करना भी मेरे लिए अशक्य है। , ___ महाराज वैश्रमणदत्त के इन विचारों को यदि कुछ गम्भीरता से देखा जाए तो इन में पवित्रता और दीर्घदर्शिता दोनों का स्पष्ट आभास होता है। उन्होंने दत्त सेठ की पुत्री देवदत्ता को देखा और उस के अनुपम रूप लावण्य के अनुरूप अपने पुत्र को ठहराते हुए उस की युवराज पुष्यनन्दी के लिए याचना की है। इस से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि देवदत्ता के सौन्दर्य का उन के मन पर कोई अनुचित प्रभाव नहीं पड़ा, तथा उन की मानसिक धारणा कितनी उज्ज्वल और मन पर उन का कितना अधिकार था, यह भी इस विचारसन्दोह से स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है। महाराज वैश्रमणदत्त ने उसे हर प्रकार से प्राप्त करना चाहा परन्तु स्त्रीरूप में नहीं प्रत्युत पुत्रीसमान पुत्रवधू के रूप में। इससे महाराज के संयमित जीवन की जितनी भी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है। इन विचारों के अनन्तर उन्होंने अपने अन्तरंग पुरुषों को बुलाया और उन से दत्त सेठ के घर पर जाकर उस की पुत्री देवदत्ता को अपने राजकुमार पुष्यनन्दी के लिए मांगने को कहा। 1. अभ्यन्तर स्थान में रहने वाला पुरुष अभ्यन्तरस्थानीय कहा जाता है। अभ्यन्तरस्थानीय को 718 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनुसार वे वहां गए और दत्त से उस की पुत्री देवदत्ता की याचना की। दत्त ने भी उसे सहर्ष स्वीकार करते हुए उन्हें सम्मानपूर्वक विदा किया, एवं उन्होंने वापिस आकर महाराज वैश्रमणदत्त को सारा वृत्तान्त कह सुनाया। प्रस्तुत कथासन्दर्भ से मुख्य दो बातों का पता चलता है, जो कि निम्नोक्त हैं १-प्राचीन काल में यह प्रथा थी कि जिस लड़की का सम्बन्ध जिस लड़के के साथ उचित जान पड़ता था, उसी के साथ करने के लिए लड़की के माता पिता से लड़की की याचना की जाती थी, जो कि अपवाद रूप न हो कर शिष्टजन सम्मत तथा अनुमोदित थी। - २-उस समय (जिस समय का यह कथासंदर्भ है) कन्याओं के बदले कुछ शुल्कउपहार लेने की प्रथा भी प्रचलित थी। महाराज वैश्रमण द्वारा भेजे गए अन्तरंग पुरुषों का दत्त के प्रति यह कहना कि कहिये क्या उपहार दिलाएं, इस बात का प्रबल प्रमाण है कि उस समय कन्याओं का किसी न किसी रूप में उपहार लेने को निन्द्य नहीं समझा जाता था। यदि उस समय यह प्रथा निन्द्य समझी जाती होती तो "दत्त" इस का ज़रूर निषेध करता। उसने तो इतना ही कहा कि मेरे लिए यही शुल्क काफी है जो महाराज मेरी कन्या को पुत्रवधू बना रहे हैं। इस से स्पष्ट हो जाता है कि उस समय लड़की वालों को लड़के वालों की तरफ़ से कुछ शुल्क देना अनुचित नहीं समझा जाता था। - वर्तमान युग में इस शुल्क'-उपहार लेने की प्रथा को इस लिए निन्द्य समझा जाता है कि इससे अनेक प्रकार के अनर्थों को जन्म मिला है। वृद्धविवाह जैसी दुष्ट प्रथा को प्रगति मिलने का यही एकमात्र कारण है तथा अयोग्य वरों के साथ योग्य लड़कियों का सम्बन्ध भी इसी को आभारी है। इन्हीं कुपरिणामों के कारण यह प्रथा निन्द्य हो गई और इस लिए आज एक निर्धन कुलीन व्यक्ति अपनी लड़की के बदले लेना तो अलग रहा प्रत्युत लड़की के घर का (जहां लड़की ब्याही गई हो) जल भी पीने को तैयार नहीं होता। -जइ विसा सयरजसुक्का-इन पदों का अर्थ वृत्तिकार-यद्यपि सा स्वकीयराज्यशुल्का (स्वकीयं आत्मीयं राज्यमेव शुल्कं यस्याः सा) स्वकीयराज्यलभ्या इत्यर्थः-इस प्रकार करते हैं अर्थात् अपना समस्त राज्य भी उसके बदले में दिया जाए तो कोई बड़ी बात अन्तरंग पुरुष भी कहा जाता है। अन्तरंग पुरुष दो तरह के होते हैं, सम्बन्धिजन और मित्रजन। दोनों का ग्रहण अभ्यन्तरस्थानीय शब्द से जानना चाहिए। 1. लड़की का शुल्क-उपहार लेने की प्रथा सभी कुलों में थी-ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आगमों में ऐसे भी प्रमाण हैं, जहां लड़की के लिए शुल्क नहीं भी दिया गया है। वासुदेव श्री कृष्ण ने अपने भाई गजसुकुमार के लिए सोमा की याचना की, परन्तु उस के उपलक्ष्य में किसी प्रकार का शुल्क दिया हो, ऐसा उल्लेख अन्तगड सूत्र में नहीं पाया जाता। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [719 Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं। कहीं पर-सयं रजसुक्का-ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। इस का अर्थ है-यदि वह स्वयं राज्यशुल्का-पट्टरानी होने की भावना अभिव्यक्त करे तो भी ले लेनी योग्य है। यदि सा स्वयं राज्यशुल्का पट्टराज्ञी भवितुमिच्छति तथापि तत्स्वीकृत्य तां वृणीध्वमिति भावः। जिस का गतिजनित श्रम दूर हो गया है वह आस्वस्थ तथा जिस का हृदय संक्षोभव्यग्रता (घबराहट) से रहित है उसे विस्वस्थ कहते हैं। जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिजं वा सरिसो वा संजोगो-इन का शाब्दिक अर्थविभेद टीकाकार के शब्दों में निम्नलिखित है -जुत्तं ति-संगतम्। पत्तं व त्ति-पात्रं वा, अवसरप्राप्तं वा। सलाहणिज्जं त्ति श्लाघ्यमिदम्। सरिसो व त्ति-उचितः संयोगो वधुवरयोरिति। अर्थात् युक्त संगत को कहते हैं। पात्र योग्य अथवा अवसरप्राप्त का नाम है अर्थात् ऐसे सम्बन्ध का यह समय हैइस अर्थ का बोधक पात्र शब्द है। श्लाघनीय श्लाघा-प्रशंसा के योग्य को कहते हैं। सदृश उचित और संयोग वधु वर के संबंध का नाम है। तात्पर्य यह है कि वर कन्या के संयोग में इन सब बातों के देखने की आवश्यकता होती है। ___-हट्ट करयल जाव एयमटुं-ग्रहां के प्रथम बिन्दु से-तुटूचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलंबुगं पिव समुस्ससिअरोमकूवा-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ तीसरे अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये एक स्त्री के विशेषण हैं, जब कि प्रस्तुत में कौटुम्बिक पुरुषों के। लिंगगत तथा वचनगत भिन्नता के अतिरिक्त शेष अर्थगत कोई भेद नहीं है। तथा-जावयावत्-पद से विवक्षित पाठ उसी अध्याय में लिखा जा चुका है। -हाया जाव सुद्धप्पवेसा-यहां के जाव-यावत् पद से-कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद एकवचनांत हैं जब कि प्रस्तुत में बहुवचनान्त। __-हट्ठतु आसणाओ-यहां का बिन्दु पूर्वोक्त-चित्तमाणंदिए-से लेकरसमुस्ससियरोमकूवे- यहां तक के पदों का बोधक है। अन्तर मात्र इतना है कि प्रस्तुत में ये पद एकवचनान्त अपेक्षित हैं। ____ प्रस्तुत सूत्र में वैश्रमणदत्त नरेश के द्वारा परमसुन्दरी दत्तपुत्री देवदत्ता की याचना तथा दत्त की उस के लिए स्वीकृति देना आदि का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार देवदत्ता से सम्बन्ध रखने वाले अग्रिम वृत्तान्त का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से दत्ते गाहावती अन्नया कयाइ सोहणंसि तिहिकरण 720 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवसणक्खत्त-मुहुत्तंसि विउलं असणं 4 उवक्खडावेति 2 त्ता मित्तनाति आमंतेति।हाते जाव पायच्छित्ते सुहासणवरगते तेणं मित्त सद्धिं संपरिवुडे तं :. विउलं असणं 4 आसादेमाणे 4 विहरति। जिमियभुत्तुत्तरागते आयंते 3 तं मित्तणाइ विउलेणं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्माणेइ 2 देवदत्तं दारियं ण्हायं जाव विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहेति 2 त्ता सुबहुमित्त जाव सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्ढीए जाव नाइयरवेणं रोहीडगं णगरं मझमझेणं जेणेव वेसमणरण्णो गिहे जेणेव वेसमणे राया तेणेव उवागच्छति 2 करयल० जाव वद्धावेति 2 वेसमणरण्णो देवदत्तं दारियं उवणेइ। तएणं से वेसमणे राया देवदत्तं दारियं उवणीतं पासित्ता हट्टतुट्ठ विउलं असणं 4 उवक्खडावेति 2 मित्तनाति आमंतेति जाव सक्कारेति सम्माणेइ 2 पूसणंदिकुमारं देवदत्तं दारियं च पट्टयं दुरूहेति 2 सेयापीतेहिं कलसेहिं मज्जावेति. 2 त्ता वरनेवत्थाई करेति 2 त्ता अग्गिहोमं करेति। पूसणंदिकुमारं देवदत्ताए पाणिं गेण्हावेति। तते णं से वेसमणदत्ते राया पूसणंदिस्स कुमारस्स देवदत्ताए सव्विड्ढीए जाव रवेणं महया इड्ढीसक्कारसमुदएणं पाणिग्गहणं कारवेति 2 देवदत्ताए अम्मापियरो मित्त जाव परियणं च विउलं असणं 4 वत्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेति सम्माणेइ 2 पडिविसज्जेति। छाया-ततः स दत्तो गाथापतिः अन्यदा कदाचित् शोभने तिथिकरणदिवसनक्षत्रमुहूर्ते विपुलमशनं 4 उपस्कारयति 2 मित्रज्ञाति आमंत्रयति / स्नातो यावत् प्रायश्चित्तः सुखासनवरगतः तेन मित्र सार्द्ध संपरिवृतः तद्विपुलमशनं 4 आस्वादयन् 4 विहरति / जिमितभुक्तोत्तरागतः आचान्तः 3 तं मित्रज्ञाति विपुलेन पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारेण सत्कारयति सन्मानयति 2 देवदत्तां दारिकां स्नातां यावद् विभूषितशरीरां पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकामारोहयति 2 सुबहुमित्र यावत् सार्द्ध संपरिवृतः, सर्वर्द्धया यावद् नादितरवेण रोहीतकं नगरं मध्यमध्येन यत्रैव वैश्रमणराजस्य गृहं यत्रैव वैश्रमणो राजा तत्रैवोपागच्छति 2 करतल यावद् वधपियति 2 वैश्रमणराजाय देवदत्तां दारिकामुपनयति। ततः स . 1. सेयापीएहि-त्ति रजतसुवर्णमय इत्यर्थः (वृत्तिकारः)। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [721 Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैश्रमणो राजा देवदत्तां दारिकामुपनीतां दृष्ट्वा हृष्टतुष्ट विपुलमशनं 4 उपस्कारयति 2 मित्रज्ञाति आमंत्रयति यावत् सत्कारयति 2 सम्मानयति 2 पुष्यनन्दिकुमारं देवदत्तां दारिकां पट्टमारोहयति 2 श्वेतपीतैः कलशैर्मज्जयति 2 वरनेपथ्यौ करोति 2 अग्निहोमं करोति / पुष्यनन्दिकुमारं देवदत्तायाः पाणिं ग्राहयति। ततः स वैश्रमणो राजा पुष्यनन्दिना कुमारस्य देवदत्तायाः सर्वया यावद् रवेण महता ऋद्धिं सत्कारसमुदयेन पाणिग्रहणं कारयति 2 देवदत्ताया अम्बापितरौ मित्र यावत् परिजनं च विपुलमशनं 4 वस्त्रगन्धमाल्यालंकारेण च सत्कारयति 2 प्रतिविसृजति। .. पदार्थ-तते णं-तदनन्तर।से-वह / दत्ते-दत्त। गाहावती-गाथापति-गृहपति।अन्नया-अन्यदा। कयाइ-कदाचित् / सोहणंसि-शुभ। तिहि-तिथि। करण-करण। दिवस-दिवस-दिन। णक्खत्त-नक्षत्र, और। मुहत्तंसि-मुहूर्त में। विउलं-विपुल। असणं ४-अशनादिक। उवक्खडावेति २-तैयार कराता है, तैयार करा कर। मित्तनाति-मित्र और ज्ञातिजन आदि को। आमंतेति-आमंत्रित करता है-बुलाता है। हाते-स्नान कर। जाव-यावत्। पायच्छित्ते-दुष्ट स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य कर के। सुहासणवरगते-सुखासन पर स्थित हो। तेणं-उस। मित्तमित्र, ज्ञाति, परिजन आदि के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडे-संपरिवृत-घिरा हुआ। तं-उस। विउलं-विपुलमहान् / असणं ४-अशनादिक चतुर्विध आहार का।आसादेमाणे ४-आस्वादनादि करता हुआ। विहरतिविहरण करता है। जिमियभुत्तुत्तरागते-भोजन के अनन्तर वह उचित स्थान पर आया। आयंते ३आचान्त-आचमन किए हुए, चोक्ष-मुखगत लेपादि को दूर किए हुए, अतएव परम शुचिभूत-परम शुद्ध हुआ वह / तं-उस। मित्तणाइ-मित्र तथा ज्ञातिजन आदि का। विउलेणं-विपुल। पुष्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं-पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार से। सक्कारेति २-सत्कार करता है, करके। सम्माणेइ २-सम्मान करता है, करके। देवदत्तं-देवदत्ता। दारियं-बालिका को। पहायंस्नान। जाव-यावत्। विभूसियसरीरं-समस्त आभूषणों द्वारा शरीर को विभूषित कर।पुरिससहस्सवाहिणिंपुरुषसहस्रवाहिनी-हज़ार पुरुषों से उठाई जाने वाली। सीयं-शिविका-पालकी में। दुरूहेति २-आरुढ़ कराता है-बिठलाता है, बिठा कर। बहुमित्त-बहुत से मित्र / जाव-यावत् ज्ञातिजनादि के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडे-संपरिवृत-घिरा हुआ। सव्विड्ढीए-सर्व प्रकार की ऋद्धि से। जाव-यावत्। नाइयरवेणंनादितध्वनि से-बाजे गाजों के साथ। रोहीडयं-रोहीतक। णगरं-नगर के। मझमझेणं-बीचों बीच। जेणेव-जहां। वेसमणरण्णो -महाराज वेश्रमण राजा का। गिहे-घर था, और / जेणेव-जहां पर / वेंसमणेवैश्रमण। राया-राजा था। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छति २-आ जाता है, आकर। करयल०-हाथ जोड़। जाव-यावत्। वद्धावेति २-बधाई देता है, बधाई दे कर। वेसमणरण्णो-वैश्रमणदत्त राजा को। देवदत्तंदेवदत्ता। दारियं-दारिका को। उवणेति-अर्पण कर देता है। तते णं-तदनन्तर। से-वह / वेसमणे 1. इस पद का अर्थ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां यह स्त्रियों का विशेषण है, जबकि प्रस्तुत में एक पुरुष का। 722 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैश्रमण। राया-राजा। उवणीतं-लाई हुई। देवदत्तं-देवदत्ता। दारियं-दारिका-बालिका को। पासित्ता.देख कर। हट्ठतुट्ठ-प्रसन्न होता हुआ। विउलं-विपुल। असणं ४-अशनादि को। उवक्खडावेति 2 तैयार कराता है, तैयार करा कर। मित्तनाति-मित्र तथा ज्ञातिजन आदि को। आमंतेति-आमंत्रित करता है। जाव-यावत्। सक्कारेति २-सत्कार करता है, करके। सम्माणेइ २-सम्मान करता है, करके। पूसणंदिकुमार-कुमार पुष्यनन्दी। देवदत्तं दारियं च-और देवदत्ता बालिका को। पट्टयं-पट्टक अर्थात् फलक पर। दुरूहेति २-बिठलाता है, बिठला कर। सेयपीतेहि-श्वेत और पीत-सफ़ेद और पीले। कलसेहि-कलशों से। मज्जावेति २-स्नान कराता है, स्नान कराने के अनन्तर / वरनेवत्थाई करेति २उन को सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से अलंकृत किया, करके। अग्गिहोम-अग्निहोम-हवन / करेतिकरता है, तदनन्तर।पूसणंदिकुमार-कुमार पुष्यनन्दी को। देवदत्ताए-देवदत्ता का। पाणिं-हाथ।गिण्हावेतिग्रहण कराता है। तते णं-तदनन्तर / से-वह / वेसमणेदत्ते-वैश्रमणदत्त / राया-राजा।पूसणंदिस्स-पुष्यनन्दी। कुमारस्स-कुमार को, तथा। देवदत्ताए-देवदत्ता को। सव्विड्ढीए-सर्व ऋद्धि। जाव-यावत्। रवेणंवादित्रादि के शब्द से। महया-महान्। इड्ढिसक्कारसमुदएणं-ऋद्धि-वस्त्रालंकारादि सम्पत्ति और। सत्कार-सम्मान के समुदाय-महानता से। पाणिग्गहणं-पाणिग्रहण-विवाहसंस्कार / कारवेति-कराता है, विवाह करा कर अर्थात् उक्त विधि से विवाहसंस्कार सम्पन्न हो जाने के बाद। देवदत्ताए-देवदत्ता के। अम्मापियरो-माता पिता और उन के। मित्त-मित्र / जाव-यावत् / परियणं च-परिजन को। विउलेणंविपुल-पर्याप्त। असण० ४-अशनादिक, तथा। वत्थगंधमल्लालंकारेण य-वस्त्र, गंध, माला और अलंकारादि से। सक्कारेति २-सत्कार करता है, सत्कार करके। सम्माणेइ २-सम्मान करता है, करके, उन सबको। पडिविसजेति-विसर्जित करता है-विदा करता है। . मूलार्थ-किसी अन्य समय दत्त गाथापति-गृहस्थ शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त में विपुल अशनादिक सामग्री तैयार कर मित्र, ज्ञाति, स्वजन और सम्बन्धी आदि को आमंत्रित कर स्नान यावत् दुष्ट स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक और अन्य मांगलिक कार्य करके सुखप्रद आसन पर स्थित हो उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञाति,स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों के साथ आस्वादन, विस्वादन आदि करने के अनन्तर, उचित स्थान पर बैठ आचान्त, चोक्ष और परमशुचिभूत हो कर मित्र, ज्ञातिजन आदि का विपुल, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार से सत्कार करता है, सम्मान करता है। तदनन्तर स्नान करा कर यावत् शारीरिक विभूषा से विभूषित की गई कुमारी देवदत्ता को सहस्रपुरुषवाहिनी अर्थात् जिसे हज़ार आदमी उठा रहे हैं ऐसी शिविका में बिठा कर अनेक मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, 1. कुल्ला-कुल्ली करने वाले को आचान्त कहते हैं। मुंह में लगे हुए भक्त-भोजन के अंश को जिस ने साफ़ कर लिया है, वह चोक्ष कहलाता है, तथा परम शुद्ध (जिस का मुख बिल्कुल साफ़ हो) को परमशुचिभूत कहा जाता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [723 Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धिजनों और परिजनों से घिरा हुआ सर्व ऋद्धि यावत् वादिंत्रादि के शब्दों के साथ रोहीतक नगर के मध्य में से होता हुआ दत्त सेठ, जहां पर महाराज वैश्रमण का घर और जहां पर महाराज वैश्रमणदत्त विराजमान थे, वहां पर आया, आकर उसने महाराज को दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के महाराज की जय हो, विजय हो, इन शब्दों से बधाई दी, बधाई देने के बाद कुमारी देवदत्ता को उनके अर्पण कर दिया, सौंप दिया। महाराज वैश्रमण दत्त उपनीत-अर्पण की गई कुमारी देवदत्ता को देख कर बड़े प्रसन्न हुए, और विपुल अशनादिक को तैयार करा कर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, सम्बन्धिजनों तथा परिजनों को आमंत्रित कर उन्हें भोजनादि करा तथा उन का वस्त्र, गंध, माला और अलंकार आदि से सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, सम्मान करने के अनन्तर कुमार पुष्यनन्दी और कुमारी देवदत्ता को फलक पर बिठा कर श्वेत और पीत अर्थात् चांदी और सुवर्ण के कलशों से उनका अभिषेक-स्नान कराते हैं, तदनन्तर उन्हें सुन्दर वेष भूषा से सुसज्जित कर, अग्निहोम-हवन कराते हैं, हवन के बाद कुमार पुष्यनन्दी को कुमारी देवदत्ता का पाणिग्रहण कराते हैं, तदनन्तर वह वैश्रमणदत्त नरेश कुमार पुष्यनन्दी और देवदत्ता का सम्पूर्ण ऋद्धि यावत् महान् वाद्यध्वनि और ऋद्धिसमुदाय तथा सम्मानसमुदाय के साथ दोनों का विवाह करवाते हैं। तात्पर्य यह है कि विधिपूर्वक बड़े समारोह के साथ कुमार पुष्यनन्दी और कुमारी देवदत्ता का विवाहसंस्कार सम्पन्न हो जाता है। तदनन्तर देवदत्ता के माता पिता तथा उनके साथ आने वाले अन्य मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों का भी विपुल अशनादिक तथा वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकारादि से सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं तथा सत्कार एवं सम्मान करने के बाद उन्हें सम्मानपूर्वक विसर्जित अर्थात् विदा करते हैं। टीका-जिस तरह एक क्षुधातुर व्यक्ति क्षुधा दूर करने के साधनों को ढूंढ़ता है और प्रयत्न करने से उन के मिल जाने पर परम आनन्द को प्राप्त होता है तथा अपने को बड़ा पुण्यशाली मानता है, ठीक उसी प्रकार महाराज वैश्रमण भी परम सुन्दरी और परमगुणवती कुमारी देवदत्ता को अपनी पुत्रवधू बनाने की चिन्ता से व्याकुल थे, परन्तु अन्तरंग पुरुषों से "-देवदत्ता के पिता सेठ दत्त ने राजकुमार पुष्यनन्दी को अपना जामाता बनाना स्वीकार कर लिया है-" यह सूचना प्राप्त कर, क्षुधातुर व्यक्ति को पर्याप्त भोजन मिल जाने पर जितने. आनन्द का अनुभव होता है, उस से भी कहीं अधिक आनन्द का अनुभव उन्होंने किया। वे 724 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी भावी पुत्रवधू देवदत्ता के मोहक रूपलावण्य का ध्यान करते हुए पुलकित हो उठे। तदनन्तर वे अपने यहां विवाह की तैयारी का आयोजन करने में व्यस्त हो गये। .. इधर सेठ दत्त को भी हर्षातिरेक से निद्रा नहीं आती, जब से उसकी पुत्री कुमारी देवदत्ता का सम्बन्ध महाराज वैश्रमणदत्त के राजकुमार पुष्यनन्दी से होना निश्चित हुआ, तब से वे फूले नहीं समाते। मेरी पुत्री देवदत्ता सेठानी न बन कर रानी बनेगी, यह कितने गौरव की बात है, उसे युवराज पुष्यनन्दी जैसा वर मिले, निस्सन्देह यह उसका अहोभाग्य है। उस का इस से अधिक सद्भाग्य क्या हो सकता है कि उसे महाराज वैश्रमण के सुन्दर और सर्वगुण सम्पन्न राजकुमार जैसे सुयोग्य वर की प्राप्ति का अवसर मिला ! अस्तु, अब जहां तक बने इस का जल्दी ही विवाह कर देना चाहिए, कारण कि इस सम्बन्ध में कोई दग्धहृदय बाधा न डाल दे तथा अपनी लड़की देवदत्ता भी अब विवाह योग्य हो गई है और विवाहयोग्य होने पर लड़की को घर में रखना भी कोई बुद्धिमता नहीं है, तथा ऐसी अवस्था में उस का सुसराल में अपने पति के पास रहना ही श्रेयस्कर है, इत्यादि सोच विचार करने के अनन्तर अपनी भार्या कृष्णश्री की अनुमति ले कर शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और शुभ मुहूर्त में देवदत्ता के विवाह का कार्य आरम्भ कर दिया। सब से प्रथम उसने नाना प्रकार की भोज्य तथा खाद्य सामग्री एकत्रित कराई, तथा अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों को आमंत्रित किया। उन के आने पर उन सब का उचित स्वागत किया और विविध प्रकार से तैयार किए गए भोज्य पदार्थों को प्रस्तुत करके उन के साथ सहभोज में सम्मिलित हुआ अर्थात् अपने सभी मित्र आदि के साथ बैठ कर प्रीतिभोजन किया। तदनन्तर सब के उचित स्थान पर एकत्रित हो जाने पर विपुल वस्त्र, पुष्प और गंध तथा माला अलंकारादि से उन सब का यथोचित सत्कार किया। इस प्रकार विवाह के पूर्व होने वाला सहभोजन या प्रीतिभोजन आदि कार्य सम्पूर्ण हुआ। . तदनन्तर कुमारी देवदत्ता को स्नान करा के यावत् वस्त्रभूषणादि से अलंकृत करके हजार आदमियों से उठाई जाने वाली एक सुन्दर पालकी में बिठा कर अपने अनेक मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों एवं परिजनों को साथ ले कर बड़े समारोह के साथ दत्त सेठ ने महाराज वैश्रमणदत्त के राजमहल की ओर प्रस्थान किया और वहां जाकर 1. चन्द्रकला से युक्त काल अथवा चान्द्र दिवस तिथि कहलाता है। ज्योतिषशास्त्र में प्रसिद्ध, बव बालव आदि ग्यारह की करण संज्ञा है। ज्योतिषशास्त्र में वर्णित दोषों से रहित दिन दिवस शब्द से ग्राह्य है। ज्योतिषशास्त्र विहित-अश्विनी, भरणी आदि 28 नक्षत्रों का नक्षत्र पद से ग्रहण होता है। दो घड़ी (48 मिनट) समय अथवा 77 लवों या 37737 श्वासोच्छ्वासपरिमित काल मुहूर्त कहा जाता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [725 Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराज को बधाई दी और देवदत्ता को उन के अर्पण कर दिया। महाराज वैश्रमणदत्त परम सुन्दरी कुमारी देवदत्ता को देख कर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने भी अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों को बुला कर उन्हें विविध प्रकार के भोजनों तथा गंध, पुष्प और वस्त्रालंकारादि से सत्कृत किया। तदनन्तर वर और कन्या दोनों का अभिषेक करा और उत्तम वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर अग्निहोम कराया और विधिपूर्वक बड़ी धूमधाम के साथ उन का पाणिग्रहण-विवाह किया गया। विवाह हो जाने पर देवदत्ता के माता पिता और उन के साथ आने वाले उन के मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों को भी भोजनादि से तथा अन्य वस्त्राभूषणादि से सत्कृत कर के महाराज वैश्रमणदत्त ने सम्मानपूर्वक विदा किया। इस प्रकार कुमारी देवदत्ता और राजकुमार पुष्यनन्दी का विवाह हो जाने पर सेठ दत्त और महाराज वैश्रमण दोनों ही निश्चिन्त हो गये। कन्या को ससुराल में ले जाकर विवाह करने की उस समय की प्रथा थी। दक्षिण प्रांत के किन्हीं देशों में आज भी इस प्रथा का कुछ रूपान्तर से प्रचलन सुनने में आता है। देशभेद और कालभेद से अनेक विभिन्न सामाजिक प्रथाएं प्रचलित हैं इन में आशंका या आपत्ति को कोई स्थान नहीं। ___अग्निहोम-अग्नि में मन्त्रोच्चारणपूर्वक घृतादिमिश्रित सामग्री के प्रक्षेप को अग्निहोम कहते हैं। यह विवाहविधि का उपलक्षक है। भारतीय सभ्यता में अग्नि को साक्षी रख कर पाणिग्रहण-विवाह करने की मर्यादा व्यापक अथच चिरन्तन है। -असण० ४-यहां के अंक से पाणखाइमसाइमेणं- इस पाठ का ग्रहण करना चाहिए। तथा-मित्तनाति० आमंतेति-यहां का बिन्दु-नियगसयणसम्बन्धिपरिजणं-इस पाठ का परिचायक है। मित्र आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिख दिया गया है। तथापहाते जाव पायच्छित्ते-यहां के जाव-यावत् पद से-कयबलिकम्मे, कयकोउयमंगलइस पाठ का ग्रहण करना चाहिए। कृतबलि कर्मा आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा गया है। तथा-मित्त सद्धिं-यहां का बिन्दु-णाइ-णियग-सयण-सम्बन्धिपरिजणेणं-इस पाठ का बोधक है। तथा-आसादेमाणे ४-यहां के अंक से अभिमत पाठ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा-आयन्ते ३-यहां के अंक से-चोक्खे परमसुइभूएइन पदों का ग्रहण करना चाहिए। आचान्त आदि पदों का अर्थ पदार्थ में दे दिया गया है। -हायं जाव विभूसियसरीरं-यहां पठित जाव-यावत् पद से-कयबलिकम्म कयकोउय मंगलपायच्छित्तं सव्वालंकार-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। तथा 726 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वालंकारविभूसियसरीरं-का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है। -सव्विड्ढीए जाव नाइयरवेणं-यहां के जाव-यावत् पद से-सव्वजुईए सव्वबलेणं, सव्वसमुदएणं सव्वायरेणं सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वपुष्फगन्ध-मल्लालंकारेणं सव्वतुडियसद्दसण्णिणाएणं महया इड्ढीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं संख-पणव-पडहभेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरय-मुयंग-दुंदुहि-णिग्योस-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इन का अर्थ निम्नोक्त है सर्व प्रकार की आभरणादिगत द्युति-कान्ति से अथवा सब वस्तुओं के सम्मेलन से, सर्वसैन्य से, सर्वसमुदाय से अर्थात् नागरिकों के समुदाय से, सर्व प्रकार के आदर से अथवा औचित्यपूर्ण कार्यों के सम्पादन से, सर्व प्रकार की विभूति-सम्पत्ति से, सर्व प्रकार की शोभा से, सर्व प्रकार के संभ्रम-आनन्दजन्य उत्सुकता से, सर्व प्रकार के पुष्प, गन्ध-गन्धयुक्त पदार्थ, माला एवं अलंकारों से और सर्व प्रकार के वादित्रों के मेल से जो शब्द उत्पन्न होता है, उस मिले हुए महान् शब्द से अर्थात् बाजों की गड़गड़ाहट से तथा महती ऋद्धि से, महती कान्ति से, महान् सैन्यादि रूप बल से, महान् समुदाय से अनेक प्रकार के सुन्दर-सुन्दर साथ-साथ बजते हुए शंख (वाद्यविशेष), पणव-ढोल, पटह-बड़ा ढोल (नक्कारा) भेरी-वाद्यविशेष, झल्लरि-वलयाकार-वाद्यविशेष (झालर) खरमुखी-वाद्यविशेष, हुडुक्क-वाद्यविशेष, मुरजवाद्यविशेष, मृदंग-एक प्रकार का बाजा जो ढोलक से कुछ लम्बा होता है (तबला), दुंदुभिवाद्यविशेष के शब्दों की प्रतिध्वनि के साथ। ___-करयल जाव वद्धावेति-यहां के जाव-यावत् पद से-परिग्गहियंदसणहं अंजलिं मत्थए कट्ट वेसमणं रायं जए णं विजएणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ . मूलार्थ में कर दिया गया है। -हट्टतुटु० विउलं-यहां के बिन्दु से -चित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयकलंबुगं पिव समुस्ससियरोमकूवे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये एक स्त्री के विशेषण हैं जब कि प्रस्तुत में एक पुरुष के। अर्थगत कोई भिन्नता नहीं है। 1. प्रस्तुत में एक आशंका होती है कि जब ऋद्धि आदि के साथ पहले सर्व शब्द का संयोजन किया हुआ है, फिर उन के साथ महान् शब्द के संयोजन की क्या आवश्यकता थी? इस का उत्तर टीकाकार श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में-अल्पेष्वपि ऋद्धयादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिर्दृष्टा, अत आह-महता इड्ढीए-इस प्रकार है, अर्थात् सर्व शब्द का प्रयोग अल्प अर्थ में भी उपलब्ध होता है। अतः प्रस्तुत में ऋद्धि आदि की महत्ता दिखलाने के लिए सत्रकार ने ऋद्धि आदि शब्दों के साथ महत्ता इस पद का प्रयोग किया है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [727 Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -आमंतेति जाव सक्कारेति-यहां के पठित जाव-यावत् पद से इसी अध्याय में पीछे पढ़े गए-अहाते जाव पायच्छित्ते, सुहासणवरगते-से लेकर-जाव अलंकारेणं-यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है तथा-मित्त जाव परिजणं-यहां के जाव-यावत् पद से-णाइ-णियगसयण-संबन्धि-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। प्रस्तुत में युवराज पुष्यनन्दी का देवदत्ता के साथ विवाह बड़े समारोह से सम्पन्न हुआ, यह वर्णन किया गया है। तदनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से पूसणंदिकुमारे देवदत्ताए दारियाए सद्धिं उप्पिं पासायवरगते फुट्टमाणेहिं मुयंगमत्थएहिं बत्तीसइबद्धनाडएहिं जाव विहरइ। तते णं से वेसमणे राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते। नीहरणं जाव राया जाए पूसणंदी। तते णं से पूसणंदी राया सिरीए देवीए मायाभत्ते यावि होत्था। कल्लाकल्लिंजेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता सिरीए देवीए पायवडणं करेति। सतपागसहस्सपागेहिं तेल्लेहिं अब्भंगावेति। अट्ठिसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउव्विहाए संवाहणाए संवाहावेति।सुरहिणा गंधवट्टएणं उव्वट्टावेति 2 त्ता तिहिं उदएहिं मज्जावेति, तंजहा-उसिणोदएणं सीओदएणं गंधोदएणं।विउलं असणं 4 भोयावेति।सिरीए देवीए ण्हायाए जाव पायच्छित्ताए जाव जिमियभुत्तुत्तरागयाए ततो पच्छा पहाति वा भुंजति वा उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति। ___ छाया-ततः स पुष्यनन्दिकुमारो देवदत्तया दारिकया सार्द्धमुपरि प्रासादवरगतः स्फुट्यमानैः मृदंगमस्तकैः द्वात्रिंशद्बद्धनाटकैः यावद् विहरति / ततः स वैश्रमणो राजा अन्यदा कदाचित् कालधर्मेण संयुक्तः निस्सरणं यावद् राजा जातः पुष्यनन्दी। ततः स पुष्यनन्दी राजा श्रियो देव्याः मातृभक्तश्चाप्यभवत् कल्याकल्यि यत्रैव श्रीदेवी तत्रैवोपागच्छति 2, श्रियो देव्याः पादपतनं करोति, शतपाकसहस्रपाकाभ्यां तैलाभ्यामभ्यंगयति / अस्थिसुखया मांससुखया त्वक्सुखया रोमसुखया चतुर्विधया संवाहनया संवाहयति। सुरभिणा गन्धवर्तकेनोद्वर्तयति 2 त्रिभिरुदकैर्मज्जयति, तद्यथा-उष्णोदकेन, शीतोदकेन, गंधोदकेन।विपुलमशनं भोजयति, श्रियां देव्यां स्नातायां यावत् प्रायश्चित्तायां यावत् जिमितभुक्तोत्तरागतायां ततः पश्चात् स्नाति वा भुंक्ते वा उदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुंजानो विहरति। 728 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। पूसणंदिकुमारे-कुमार पुष्यनन्दी। देवदत्ताए-देवदत्ता। भारियाए-भार्या के। सद्धिं-साथ। उप्पिं-ऊपर। पासायवरगए-उत्तम महल में ठहरा हुआ। फुट्टमाणेहिं मुयंगमंत्थएहि-बज रहे हैं मृदंग जिन में, ऐसे। वत्तीसइबद्धनाडएहिं-३२ प्रकार के नाटकों द्वारा। जावयावत् / विहरति-विहरण करता है। तते णं-तदनन्तर / से-वह / वेसमणे-वैश्रमण / राया-राजा / अन्नयाअन्यदा। कयाइ-कदाचित्-किसी समय। कालधम्मुणा-कालधर्म से। संजुत्ते-युक्त हुआ-काल कर गया। नीहरणं-निस्सरण-अरथी का निकालना। जाव-यावत्। पूसणंदी-पुष्यनन्दी। राया-राजा। जाएबन गया। ततेणं-तदनन्तर। से-वह। पूसणंदी-पुष्यनन्दी। राया-राजा। सिरीए-श्री। देवीए-देवी का। मायाभत्ते-मातृभक्त-यह माता अर्थात् "मान्यते पूज्यते इति माता-" पूज्या है, इस बुद्धि से भक्त / याविभी।होत्था-था। कल्लाकल्लिं-प्रतिदिन / जेणेव-जहां। सिरीदेवी-श्री देवी थी। तेणेव-वहां पर। उवागच्छड़ २-आता है आकर। सिरीए-श्री। देवीए-देवी के। पायवडणं-पादवन्दन। करेति-करता है, और। सतपागसहस्स-पागतेल्लेहि-शतपाक और सहस्त्रपाक अर्थात् एक शत और एक सहस्त्र औषधियों के सम्मिश्रण से बनाये हुए तैलों से। अब्भंगावेति-मालिश करता है। अट्ठिसुहाए-अस्थि को सुख देने वाले। मंससुहाए-मांस को सुखकारी। तयासुहाए-त्वचा को सुखप्रद। रोमसुहाए-रोमों को सुखकारी, ऐसी। चउव्विहाए-चार प्रकार की। संवाहणाए-संवाहना-अंगमर्दन से। संवाहावेति-सुख-शान्ति पहुंचाता है। सुरहिणा-सुरभि-सुगन्धित। गंधवट्टएण-गन्धवर्तक-उबटन से। उव्वट्टावेति-उद्वर्तन करता है-अर्थात् बटना मलता है। तिहिं उदएहि-तीन प्रकार के उदकों-जलों से। मज्जावेति-स्नान कराता है। तंजहा-जैसे कि। उसिणोदएणं-उष्ण जल से। सीओदएणं-शीत जल से। गंधोदएणं-सुगंधित जल से, तदनन्तर। विउलं-विपुल। असणं ४चार प्रकार के अशनादिकों का। भोयावेति-भोजन कराता है, इस प्रकार। सिरीए-श्री। देवीए-देवी के / ण्हायाए-नहा लेने। जाव-यावत् / पायच्छित्ताए-अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य कर के। जाव-यावत् / १जिमियभुत्तुत्तरागयाए-भोजन के अनन्तर अपने स्थान पर आ चुकने पर और वहां कुल्ली तथा मुखगत लेप को दूर कर परमशुद्ध हो एवं सुखासन पर बैठ जाने पर। ततो पच्छा-उस के पीछे से। हाति वास्नान करता है। जति-भोजन करता है। उरालाइं-उदार-प्रधान।माणुस्सगाई-मनुष्यसम्बन्धी / भोगभोगाईभोगभोगों का, अर्थात् मनोज्ञ शब्द, रूपादि विषयों का। भुंजमाणे-उपभोग करता हुआ। विहरति-विहरण करता है। . मूलार्थ-राजकुमार पुष्यनन्दी श्रेष्ठीपुत्री देवदत्ता के साथ उत्तम प्रासाद में विविध प्रकार के वाद्य और जिन में मृदंग बज रहे हैं ऐसे 32 प्रकार के नाटकों द्वारा उपगीयमानप्रशंसित होते हुए यावत् सानन्द समय बिताने लगे। कुछ समय बाद महाराज वैश्रमण कालधर्म को प्राप्त हो गये। उन की मृत्यु पर शोकग्रस्त पुष्यनन्दी ने बड़े समारोह के साथ उन का निस्सरण किया यावत् मृतक कर्म करके प्रजा के अनुरोध से राज्यसिंहासन पर आरूढ हुए, तब से लेकर वे युवराज से राजा बन गए। 1. इस पद का सविस्तर अर्थ तृतीय अध्याय में किया जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [729 Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा बनने के अनन्तर पुष्यनन्दी अपनी माता श्री देवी की निरन्तर भक्ति करने लगे। वे प्रतिदिन माता के पास जाकर उसके चरणों में प्रणाम कर तदनन्तर शतपाक और सहस्रपाक तैलों की मालिश से अस्थि, मांस, त्वचा और रोमों को सुखकारी ऐसी चार प्रकार की संवाहनक्रिया से शरीर का सुख पहुंचाते। तदनन्तर गंधवर्तक बटने से शरीर का उद्वर्तन कर उष्ण,शीत और सुगन्धित जलों से स्नान कराते, उसके बाद विपुल अशनादि का भोजन कराते, भोजन कराने के बाद जब वह श्रीदेवी सुखासन पर विराजमान हो जाती तब पीछे से वे स्नान करते और भोजन करते तदनन्तर मनुष्यसम्बन्धी उदार भोगों का उपभोग करते हुए समय व्यतीत करने लगे। टीका-प्रस्तुत सूत्र में अन्य बातों के अतिरिक्त मातृसेवा का जो आदर्श उपस्थित किया गया है, वह अधिक शिक्षाप्रद है। पिता के स्वर्गवास के अनन्तर राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने के बाद पुष्यनन्दी ने अपने आचरण से मातृसेवा का जो आदर्श प्रस्तुत किया है; वह शाब्दिक रूप से मातृभक्त बनने या कहलाने वाले पुत्रों के लिए विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। घर में अनेक दास दासियों के रहते हुए भी अपने हाथ से माता की सेवा करना तथा उन को सप्रेम भोजनादि करा देने के बाद स्वयं भोजन करना आदि जितनी भी बातों का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में किया गया है, उस पर से पुष्यनन्दी को आदर्श मातृभक्त कहना या मानना उस के सर्वथा अनुरूप प्रतीत होता है। सूत्रगत-"सिरीए देवीए मायाभत्ते यावि होत्था"यह पाठ भी इसी बात का समर्थन करता है। ____ -वत्तीसइबद्धनाडएहिं जाव विहरति-यहां पठित जाव-यावत् पद सेणाणाविहवरतरुणीसंपउत्तेहिं उव्वनच्चिजमाणे 2 उवगिज्जमाणे 2 उवलालिजमाणे 2 पाउसा-वासारत्त-सरद-हेमन्त-वसन्त-गिम्ह-पजन्ते छप्पिं उउं जहाविभवेणं माणमाणे 2 कालं गालेमाणे 2 इढे सद्दफरिसरसरूवगन्धे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ निम्नोक्त है परम सुन्दरी युवतियों के साथ बत्तीस प्रकार के नाटकों से उपनृत्यमान-जो नृत्य कर रहा है, उपगीयमान-प्रशंसित अर्थात् जिस का गुणग्राम हो रहा है, उपलाल्यमान-उपलालित (क्रीड़ित) वह पुष्यनन्दी कुमार प्रावृट्-वर्षा ऋतु अर्थात् चौमासा, वर्षारात्र-श्रावण और भादों का महीना, शरद्-आसोज और कार्तिक का महीना हेमन्त-मार्गशीर्ष तथा पौष का महीना, बसंत-चैत्र और वैशाख मास का समय और ग्रीष्म ज्येष्ठ और आषाढ़ मास का समय, इन छ: ऋतुओं का यथाविभव अपने ऐश्वर्य के अनुसार अनुभव करता हुआ, आनन्द उठाता हुआ और समय व्यतीत करता हुआ एवं पांच प्रकार के इष्ट शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श विषयक 730 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यसम्बन्धी कामभोगों का उपभोग करता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा। -नीहरणं जाव राया-यहां का नीहरण शब्द अरथी निकालने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और यह-तए णं से पूसणंदिकुमारे बहुहिं राईसर-तलवर-माडम्बिय-कोडुम्बिय- इब्भ-सेट्ठि-सत्थवाहप्पभितीहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे कन्दमाणे विलवमाणे वेसमणस्स रण्णो महया इड्ढीसक्कारसमुदएणं-इन पदों का परिचायक है। तथा-जाव-यावत्- पद से-करेति 2 बहूई लोइयाइं मयकिच्चाई करेति, तएणं ते बहवे राईसर-तलवर-माडम्बियकोडुम्बिय-इब्भ-सेट्ठि-सत्थवाहा पूसनन्दिकुमारं महया रायाभिसेएणं अभिसिंचन्ति।तए णं-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। अर्थात् महाराज वैश्रमण की मृत्यु के अनन्तर बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, सेठ और सार्थवाह आदि से घिरा हुआ पुष्यनन्दी कुमार रुदन, क्रन्दन और विलाप करता हुआ महान् ऋद्धि और सत्कार समुदाय के साथ महाराज वैश्रमणदत्त के शव को बाहर ले जा कर शमशान पहुंचाता है। तदनन्तर अनेकों लौकिक मृतक सम्बन्धी कृत्य करता है। तदनन्तर राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी और सार्थवाह मिल कर पुष्यनन्दी कुमार का महान् समारोह के साथ राज्याभिषेक करते हैं। तब से पुष्यनन्दी कुमार राजा बन गया। शतपाक-के चार अर्थ होते हैं, जैसे कि -(1) जिस में प्रक्षिप्त औषधियों का सौ बार पाक किया गया हो। (2) जो सौ औषधियों से पका हुआ हो। (3) जिस तेल को सौ बार पकाया जाए। (4) अथवा जो सौ रुपये के मूल्य से पकाया जाता हो। इसी प्रकार सहस्रपाक के अर्थों की भावना कर लेनी चाहिए। संवाहना-अंगमर्दन का नाम है। इस से चार प्रकार का शारीरिक लाभ होता है। इस के प्रयोग से अस्थि, मांस, त्वचा और रोमों को सुख प्राप्त होता है अर्थात् इन चारों का उपबृंहण होता है। इसीलिए सूत्रकार ने "-३अद्विसुहाए, मंससुहाए, तयासुहाए, रोमसुहाए-" यह उल्लेख किया है। . किसी-किसी प्रति में "-अद्विसुहाए मं० तया० चम्म० रोमसुहाए चउव्विहाए 1. ईश्वर, तलवर-आदि शब्दों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। 2. १-शतं पाकानाम् औषधिक्वाथानां पाके यस्य। २-औषधिशतेन वा सह पच्यते यत्। ३शतकृत्वो वा पाको यस्य। ४-शतेन वा रूप्यकाणां मूल्यतः पच्यते यत्तत् पाकशतम्। एवं सहस्रपाकमपि। (स्थानांगसूत्र-स्थान 3, उद्देश० 1, सूत्र 135, वृत्तिकारोऽभयदेवसूरिः) इस विषय में अधिक देखने के जिज्ञासु आयुर्वेदीय ग्रंथों के तैलपाकप्रकरणों को देख सकते हैं। 3. अस्थां सुखहेतुत्वात् अस्थिसुखया, एवं मंससुखया, त्वक्सुखया, रोमसुखया संवाधनयासंवाहनया ( अंगमर्दनेन वा विश्रामणया) संवाहिता। (कल्पसूत्रकल्पलता वृत्तिः) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [731 Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवाहणाए-" ऐसा पाठ है, परन्तु यह पाठ ठीक प्रतीत नहीं होता। जब सूत्रकार स्वयं चार प्रकार की संवाहना कहते हैं तो फिर पांच प्रकार (अस्थि, मांस, त्वचा, चर्म, रोम) की संवाहना कैसे संभव हो सकती है? दूसरी बात-त्वचा से ही चर्म का ग्रहण हो सकता है। अतः पाठ में चम्म-चर्म का अधिक अथच अनावश्यक सन्निवेश किया गया है। तथा "-गंधवट्टएणं-गंधवर्तकेन-" इस का अर्थ टीकाकार श्री अभयदेव सूरि ने "गन्धचूर्णेन" अर्थात् गंधचूर्ण किया हैं, जिस का तात्पर्य सुगन्धित चूर्ण अर्थात् उबटना-बटना -असणं ४-यहां के अंक से अभिमत पद तृतीय अध्याय में लिखे जा चुके हैं। तथा-हाए जाव पायच्छित्ताए जाव जिमियभुत्तुत्तरागयाए-यहां पठित प्रथम -जावयावत्-पद से -कयबलि-कम्माए कयकोउयमंगल-इस पाठ का तथा द्वितीय जावयावत्-पद से -सुद्धप्पवेसाई मंगलाई पवराई वत्थाई परिहियाए अप्पमहग्याभरणालंकियसरीराए भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगयाए असणपाणखाइमसाइमं आसाएमाणाए विसाएमाणाए परिभुंजेमाणाए परिभाएमाणाए-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। प्रस्तुत सूत्र में राजकुमार पुष्यनन्दी का कुमारी देवदत्ता के साथ विवाह हो जाने के बाद मानवोचित सांसारिक मनोज्ञ विषयों का उपभोग करना, महाराज वैश्रमण की मृत्यु एवं रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी का मातृभक्ति करना आदि विषयों का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार देवदत्ता के हृदय में होने वाली विचारधारा का वर्णन करते हैं मूल-तते णं तीसे देवदत्ताए देवीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए इमे एयारूवे अज्झथिए 5 समुप्पजित्थाएवं खलु पूसणंदी राया सिरीए देवीए माइभत्ते समाणे जाव विहरति। तं एएणं वक्खेवेणं नो संचाएमि अहं पूसणंदिणा रण्णा सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरित्तए।तं सेयं खलु ममं सिरिं देविं अग्गिप्पओगेण वा सत्थप्पओगेण वा विसप्पओगेण वा जीवियाओ ववरोवेत्ता पूसणंदिणा रण्णा सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणीए विहरित्तए, एवं संपेहेति 2 त्ता सिरीए देवीए अन्तराणि य 3 पडिजागरमाणी 2 विहरति। तते णं सा सिरी देवी अन्नया कयाति 'मजाविया विरहियसयणिजंसि सुहप्पसुत्ता 1. टीकाकार अभयदेवसूरि मजाविया के स्थान पर मज्जावीया ऐसा पाठ मान कर उस का अर्थ पीतमद्या-अर्थात् जिस ने शराब पी रखी है-ऐसा करते हैं। 732 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाया यावि होत्था। इमं च णं देवदत्ता देवी जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छति 2 सिरि देविं मजावियं विरहियसयणिजंसि सुहप्पसुत्तं पासति 2 त्ता दिसालोयं करेति 2 जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता लोहदंडं परामुसति 2 लोहदंडं तावेति 2 तत्तं समजोतिभूतं फुल्लंकिंसुयसमाणं संडासएणं गहाय जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छइ 2 सिरीए देवीए अवाणंसि पक्खिवेति।तते णं सा सिरी देवी महता 2 सद्देण आरसित्ता कालधम्मुणा संजुत्ता। तते णं तीसे सिरीए देवीए दासचेडीओ आरसियसदं सोच्चा निसम्म जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छन्ति 2 देवदत्तं देविं ततो अवक्कममाणिं पासंति। जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छन्ति 2 सिरिं देविं निप्पाणं निच्चेटुंजीवविप्पजढं पासंति 2 हा हा अहो अकज़मिति कट्ट रोयमाणीओ 2 जेणेव पूसणंदी राया तेणेव उवागच्छन्ति 2 पूसणंदिरायं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! सिरी देवी देवदत्ताए देवीए अकाले चेव जीवियाओ ववरोविया। छाया-ततस्तस्या: देवदत्ताया देव्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्या अयमेतद्पः आध्यात्मिकः५ समुदपद्यत-एवं खलु पुष्यनन्दी राजा श्रिया देव्या मातृभक्तः सन् यावद् विहरति, तदेतेनावक्षेपेण नो संशक्नोम्यहं पुष्यनन्दिना राज्ञा सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुंजाना विहर्तुम्।तच्छ्रेयः खलु मम श्रियं देवीमग्निप्रयोगेण वा शस्त्रप्रयोगेण वा विषप्रयोगेण वा जीविताद् व्यवरोप्य पुष्यनन्दिना राज्ञा सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुंजानाया विहर्तुम् / एवं संप्रेक्षते 2 श्रिया. देव्या अन्तराणि च 3 प्रतिजाग्रती 2 विहरति। ततः सा श्रीदेवी अन्यदा कदाचित् मज्जिता विरहितशयनीये सुखप्रसुप्ता जाता चाप्यभवत् / इतश्च देवदत्ता देवी यत्रैव श्रीर्देवी तत्रैवोपागच्छति 2 श्रियं देवीं मज्जितां विरहितशयनीये सुखप्रसुप्तां पश्यति 2 दिशालोकं करोति 2 यत्रैव भक्तगृहं तत्रैवोपागच्छति 2 लोहदंडं परामृशति 2 लोहदंडं तापयति 2 तप्तं ज्योतिःसमभूतं फुल्लकिंशुकसमानं संदंशकेन गृहीत्वा यत्रैव श्रीदेवी तत्रैवोपागच्छति 2 श्रिया देव्या अपाने प्रक्षिपति। ततः सा श्रीदेवी महता 2 शब्देनारस्य कालधर्मेण संयुक्ता / ततस्तस्याः श्रियो देव्याः दासचेट्यः आरसितशब्द श्रुत्वा निशम्य यत्रैव श्रीदेवी तत्रैवोपागच्छंति 2 देवदत्तां देवीं ततोऽपक्रामन्तीं पश्यति / प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [733 Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्रैव श्रीदेवी तत्रैवोपागच्छन्ति 2 श्रियं देवीं, निष्प्राणां, निश्चेष्टां, जीवविप्रहीणां पश्यन्ति 2, हा हा अहो ! अकार्यमिति कृत्वा रुदत्यः 2 यत्रैव पुष्यनन्दी राजा तत्रैवोपागच्छन्ति 2 पुष्यनंदिराजमेवमवदन्-एवं खलु स्वामिन् ! श्रीदेवी देवदत्तया देव्या अकाले एव जीविताद् व्यपरोपिता। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। तीसे-उस। देवदत्ताए-देवदत्ता। देवीए-देवी के। अन्नया-अन्यदा। कयाइ-कदाचित्। पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-मध्यरात्रि के समय / कुडुम्बजागरियं-कौटुम्बिक चिन्ता के कारण। जागरमाणीए-जागती हुई के। इमे-यह। एयारूवे-इस प्रकार का। अज्झत्थिते ५-संकल्पविचार 5 / समुप्पजित्था-उत्पन्न हुआ। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। पूसणंदी-पुष्यनन्दी। रायाराजा। सिरीए देवीए माइभत्ते-श्रीदेवी का, यह पूज्या है, इस बुद्धि से भक्त। समाणे-बना हुआ। जावयावत्। विहरति-विहरण करता है। तं-अतः। एएणं-इस। वक्खवेणं-व्यक्षेप-बाधा से। नो-नहीं। संचाएमि-समर्थ हूँ। अहं-मैं। पूसणंदिणा-पुष्यनन्दी। रण्णा-राजा के। सद्धिं-साथ। उरालाइं-उदारप्रधान। माणुस्सगाई-मनुष्यसम्बन्धी।भोगभोगाई-विषयभोगों का। जमाणी-सेवन करती हुई। विहरित्तएविहरण करने को, अर्थात् ऐसी दशा में मैं महाराज पुष्यनन्दी के साथ पर्याप्तरूप से विषयभोगों का उपभोग नहीं कर सकती। तं-इसलिए। सेयं-योग्य है। खलु-निश्चयार्थक है। ममं-मुझे। सिरि देविंश्रीदेवी को। अग्गिप्पओगेण वा-अग्नि के प्रयोग से, अथवा। सत्थप्पओगेण वा-शस्त्र के प्रयोग से, अथवा। विसप्पओगेण-विष के प्रयोग द्वारा। जीवियाओ-जीवन से। ववरोवित्ता-व्यपरोपित कर, पृथक् करके। पूसणंदिणा-पुष्यनन्दी। रण्णा-राजा के।सद्धिं-साथ।उरालाइं-उदार-प्रधान ।माणुस्सगाईमनुष्यसम्बन्धी। भोगभोगाई-विषयभोगों का। भुंजमाणी-सेवन करते हुए। विहरित्तए-विहरण करना। एवं-इस प्रकार। संपेहेति २-विचार करती है, विचार कर। सिरीए देवीए-श्री देवी के। अन्तराणि य ३-१-अन्तर-जिस समय राजा का आगमन न हो, २-छिद्र-जिस समय राजपरिवार का कोई आदमी न हो, ३-विरह-जिस समय कोई सामान्य मनुष्य भी न हो, ऐसे अवसर की। पडिजागरमाणी २-प्रतीक्षा करती हुई 2 / विहरति-विहरण करने लगी-अवसर की प्रतीक्षा में रहने लगी। तते णं-तदनंतर / सावह। सिरी-श्री। देवी-देवी। अन्नया-अन्यदा। कयाइ-कदाचित्। मजाविया-स्नान कराए हुए। विरहियसयणिजंसि-एकान्त में अपनी शय्या पर / सुहप्पसुत्ता जाया यावि-सुखपूर्वक सोई हुई। होत्थाथी। इमं च णं-और इधर अर्थात् इतने में लब्धावकाश। देवदत्ता-देवदत्ता। देवी-देवी। जेणेव-जहां। सिरीदेवी-श्रीदेवी थी। तेणेव-वहां पर। उवागच्छति २-आती है, आकर। मजावियं-स्नान कराये हुए। विरहियसयणिजंसि-एकान्त में अपनी शय्या पर। सुहप्पसत्तं-सुख से सोई हुई। सिरि देविं-माता श्रीदेवी को। पासति २-देखती है, देखकर। दिसालोयं-दिशा का अवलोकन करती है अर्थात् कोई देखता तो नहीं, यह निश्चय करने के लिए वह चारों ओर देखती है, तदनन्तर / जेणेव-जहां। भत्तघरेभक्तगृह-रसोई थी। तेणेव-वहां पर। उवागच्छइ २-आ जाती है, आकर। लोहदंड-लोहे के दंड को। परामुसति २-ग्रहण करती है, ग्रहण कर। लोहदंडं-लोहदण्ड को। तवावेति २-तपाती है, तपा कर। तत्तं-तपा हुआ। समजोतिभूतं-अग्नि के समान देदीप्यमान। फुल्लकिंसुयसमाणं-विकसित-खिले हुए, 734 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंशुक-केसू के कुसुम के समान लाल हुए लोहदण्ड को। संडासएणं-संडसा-एक प्रकार का लोहे का चिमटा था औज़ार जिस से गरम चीजें पकड़ी जाती हैं, पंजाब में इसे संडासी कहते हैं। गहाय-पकड़ कर। जेणेव-जहां पर। सिरीदेवी-श्रीदेवी (सोई हुई थी)। तेणेव-वहां पर। उवागच्छइ २-आ जाती है, आकर, सिरीए-श्री। देवीए-देवी के। अवाणंसि-'अपान-गुह्यस्थान में। पक्खिवेति-प्रविष्ट कर देती है। तते णं-तदनन्तर / सा-वह। सिरीदेवी-श्रीदेवी। महता २-अति महान्। सद्देणं-शब्द से। आरसित्ताआक्रन्दन कर, चिल्ला-चिल्ला कर / कालधम्मुणा-कालधर्म से। संजुत्ता-संयुक्त हुई-काल कर गई। तते णं-तदनन्तर। तीसे-उस। सिरीए देवीए-श्रीदेवी की। दासचेडीओ-दास, दासियां। आरसियसइंआरसितशब्द-आक्रन्दनमय शब्द को अर्थात् राड़ को। सोच्चा-सुन कर। निसम्म-अवधारण कर। जेणेव-जहां पर। सिरीदेवी-श्रीदेवी थी। तेणेव-वहां पर। उवागच्छन्ति २-आ जाती हैं, आकर। ततोवहां से। देवदत्तं-देवदत्ता। देविं-देवी को। अवक्कममाणिं-निकलती-वापिस आती हुई को। पासंतिदेखती हैं, और। जेणेव-जिधर। सिरीदेवी-श्रीदेवी थी। तेणेव-वहां पर। उवागच्छन्ति २-आती हैं, आकर / सिरिदेविं-श्रीदेवी को। निप्पाणं-निष्प्राण-प्राणरहित।निच्चेटुं-निश्चेष्ट-चेष्टारहित।जीवविप्पजढंजीवनरहित। पासंति २-देखती हैं, देख कर। हा हा अहो-हा ! हा ! अहो ! अकजमिति-बड़ा अनर्थ हुआ, इस प्रकार / कट्ट-कह कर। रोयमाणीओ २-रुदन, आक्रन्दन तथा विलाप करती हुई। जेणेव-जहां पर।पूसणंदी-पुष्यनन्दी। राया-राजा था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छंति २-आती हैं, आकर।पूसणंदिरायंमहाराज पुष्यनन्दी के प्रति। एवं-इस प्रकार / वयासी-कहने लगीं। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सामी !-हे स्वामिन् ! सिरीदेवी-श्रीदेवी को। देवदत्ताए-देवदत्ता। देवीए-देवी ने। अकाले चेवअकाल में ही। जीवियाओ-जीवन से। ववरोविया-पृथक् कर दिया, मार दिया। - मूलार्थ-तदनन्तर किसी समय मध्यरात्रि में कुटुम्बसम्बन्धी चिन्ताओं से व्यस्त हुई देवदत्ता के हृदय में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि महाराज पुष्यनन्दी निरन्तर श्रीदेवी की सेवा में लगे रहते हैं, तब इस अवक्षेप-विन से मैं महाराज पुष्यनन्दी के साथ उदार मनुष्यसम्बन्धी विषयभोगों का उपभोग नहीं कर सकती, अर्थात् उन के श्रीदेवी की भक्ति में निरंतर लगे रहने से मुझे उन के साथ पर्याप्तरूप में भोगों के उपभोग का यथेष्ट अवसर प्राप्त नहीं होता। इसलिए मुझे अब यही करना योग्य है कि अग्नि के प्रयोग, शस्त्र अथवा विष के प्रयोग से श्रीदेवी का प्राणांत करके महाराज पुष्यनन्दी के साथ उदार-प्रधान मनुष्यसम्बन्धी विषयभोगों का यथेष्ट उपभोग करूं, ऐसा विचार कर वह श्रीदेवी को मारने के लिए किसी अन्तर, छिद्र और विरह की अर्थात् उचित अवसर की प्रतीक्षा में सावधान रहने लगी। तदनन्तर किसी समय श्रीदेवी स्नान किए हुए एकान्त शयनीय स्थान में सुखपूर्वक सोई हुई थी। इतने में देवी देवदत्ता ने स्नपित-जिसे स्नान कराया गया हो, एकान्त 1. अपान शब्द का अर्थ कोषों में गुदा लिखा है, परन्तु कहीं-कहीं योनि अर्थ भी पाया जाता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [735 Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शयनागार में विश्रब्ध-निश्चिन्त हो कर सोई हुई श्रीदेवी को देखा और चारों दिशाओं का. अवलोकन कर जहां भक्तगृह था वहां आई, आकर एक लोहे के दंडे को लेकर अग्नि में तपाया, जब वह अग्नि जैसा और केसू के फूल के समान लाल हो गया तो उसे संडास से पकड़ कर जहां श्रीदेवी थी वहां आई, उस तपे हुए लोहे के दंडे को श्रीदेवी के गुह्यस्थान में प्रविष्ट कर दिया। उस के प्रक्षेप से बड़े भारी शब्द से आक्रन्दन करती हुई श्रीदेवी काल कर गई। तदनन्तर उस भयानक चीत्कार शब्द को सुन कर श्रीदेवी की दास दासियां वहां दौड़ी हुई आईं, आते ही उन्होंने वहां से देवदत्ता को जाते हुए देखा और जब वे श्रीदेवी के पास गईं तो उन्होंने श्रीदेवी को प्राणरहित, चेष्टाशून्य और जीवनरहित पाया। तब मरी हुई श्रीदेवी को देख कर वे एकदम चिल्ला उठीं, हाय ! हाय ! महान् अनर्थ हुआ, ऐसा कह कर रोती, चिल्लाती एवं विलाप करती हुईं वे महाराज पुष्यनन्दी के पास आईं और उस से इस प्रकार बोलीं कि हे स्वामिन् ! बड़ा अनर्थ हुआ।देवी देवदत्ता ने माता श्रीदेवी को जीवन से रहित कर दिया-मार दिया। टीका-शास्त्रों में लिखा है कि जैसे 'किम्पाक वृक्ष के फल देखने में सुन्दर, खाने में मधुर और स्पर्श में सुकोमल होते हैं, किन्तु उनका परिणाम वैसा सुन्दर नहीं होता अर्थात् जितना वह दर्शनादि में सुन्दर होता है, खा लेने पर उसका परिणाम उतना ही भीषण होता है, गले के नीचे उतरते ही वह खाने वाले के प्राणों का नाश कर डालता है। सारांश यह है कि जिस प्रकार किम्पाक फल देखने में और खाने में सुन्दर तथा स्वादु होता हुआ भी भक्षण करने वाले के प्राणों का शीघ्र ही विनाश कर डालता है ठीक उसी प्रकार विषयभोगों की भी यही दशा होती है। ये आरम्भ में (भोगते समय) तो बड़े ही प्रिय और चित्त को आकर्षित करने वाले होते हैं परन्तु भोगने के पश्चात् इन का बड़ा ही भयंकर फल होता है। तात्पर्य यह है कि आरम्भिक काल में इन की सुन्दरता और मनोज्ञता चित्त को बड़ी लुभाने वाली होती है और इन के आकर्षण का प्रभाव सांसारिक जीवों पर इतना अधिक पड़ता है कि प्राण देकर भी वे इन को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। संसार में बड़े से बड़े युद्ध भी इस के लिए हुए हैं। रामायण और महाभारत जैसे महान् युद्धों का कारण भी यही है। ये छोटे बड़े और सभी को सताते हैं। मनुष्य, पशु , पक्षी यहां तक कि देव भी कोई बचा नहीं है। भर्तृहरि ने वैराग्य 1. जहा किम्पागफलाणं, परिणामो न सुन्दरो। एवं भुत्ताणं भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो॥ (उत्तराध्ययन सू० अ० 19/18) 736 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक' में एक स्थान पर लिखा है कि निर्बल, काणा, लंगड़ा, पूंछरहित, जिस के घावों से राध बह रही है, जिस के शरीर में कीड़े बिलबिल कर रहे हैं, जो बूढ़ा तथा भूखा है जिस के गले में मिट्टी के बर्तन का घेरा पड़ा हुआ है, ऐसा कुत्ता भी काम के वशीभूत हो कर भटकता है। “जब भूखे, प्यासे और बूढ़े तथा दुर्बल कुत्ते की यह दशा है, तो दूध, मलाई, मावा-मिष्टान्न उड़ाने वाले मनुष्यों की क्या दशा होगी? वास्तव में काम का आकर्षण है ही ऐसा, परन्तु यह कभी नहीं भूल जाना चाहिए कि यह आकर्षण पैनी छुरी पर लगे हुए शहद के आकर्षण से भी अधिक भीषण है। यही कारण है कि शास्त्रों में किम्पाक फल से इसे उपमा दी गई है। जीवन की कड़ी साधनाओं से गुजरने वाले भारत के स्वनामधन्य महामहिम महापुरुषों ने बड़े प्रबल शब्दों में यह बात कही है कि वासनाएं उपभोग से न तो शान्त होती हैं और न कम, किन्तु उन से इच्छा में और अधिक वृद्धि होती है। कामी पुरुष कामभोगों में जितना अधिक आसक्त होगा, उतनी ही उस की लालसा बढ़ती चली जाएगी। विषयभोगों के उपभोग से वासना के उपशान्त होने की सोचना निरी मूर्खता है। विषय भोगों में प्रगति तो होती है, ह्रास नहीं। जिस प्रकार प्रदीप्त हुई अग्निज्वाला घृत के प्रक्षेप से वृद्धि को प्राप्त होती है, उसी भांति कामभोगों के अधिक सेवन करने से कामवासना निरन्तर बढ़ती चली जाती है, घटती नहीं। विपरीत इस के कई एक विवेक विकल प्राणी एक मात्र कामवासना से वासित होकर निरन्तर कामभोगों के सेवन में लगे हुए कामवासना की पूर्ति के स्वप्न देखते हैं और उस के लिए विविध प्रकार के आयास उठाते हैं, परन्तु उससे वासना तो क्या शान्त होनी थी प्रत्युत उस के सेवन से वे ही शान्त हो जाते हैं, तभी तो कहा है-भोगा न भुक्ता, वयमेव भुक्ताः / यह तो प्रायः अनुभव सिद्ध है कि विषयलोलुपी मानव को कर्त्तव्याकर्त्तव्य या उचितानुचित का कुछ भी ध्यान नहीं होता। उस का एकमात्र ध्येय विषयवासना की पूर्ति होता है, फिर उसके लिए भले ही उसे बड़े से बड़ा अनर्थ भी क्यों न करना पड़े और भले ही उस का परिणाम उस के लिए विशेष हानिकर एवं अहितकर निकले, किन्तु इसकी उसे पर्वाह नहीं होती, वह तो पापाचरण में ही तत्पर रहता है। रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी की परमप्रिया देवदत्ता से पाठक सुपरिचित हैं। उस के रूपलावण्य और अनुपम सौन्दर्य ने ही उसे एक राजमहिषी बनने का अवसर दिया है। उस में जहां शरीरगत बाह्य सौन्दर्य का आधिक्य है वहां उसके अन्तरात्मा में विषयवासना की भी कमी नहीं। वह मानवोचित कामभोगों के उपभोग की 1. कृशः काणः खंजः श्रवणरहितः पुच्छविकलो, व्रणी पूयक्लिन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः। क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरजकपालार्पितगलः,शनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः॥ (वैराग्यशतक, श्लोक 18) 2. न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते॥ . प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [737 Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लालसा को इतना अधिक बढ़ाए हुए है कि महाराज पुष्यनन्दी का क्षणिक वियोग भी उसे, असह्य हो उठता है। वह नहीं चाहती कि रोहीतकनरेश उस से थोड़े समय के लिए भी पृथक् हों। उसकी इसी तीव्र वासना ने ही उस से मातृघात जैसे बर्बर एवं जघन्य अनर्थ कराने के लिए सन्नद्ध किया, जिस का स्मरण करते ही मानवता कांप उठती है। पृथिवी तथा आकाश रो उठते हैं। पति की पूज्य माता को इसलिए प्राणरहित कर देना कि उसकी सेवा में लगे रहने से पतिसहवास से प्राप्त होने वाले आमोद-प्रमोद में विघ्न पड़ता है, कितना नृशंसतापूर्ण घृणित विचार है ? वास्तव में यह सब कुछ मानवता का पतन करने वाली आत्मघातिनी कामवासना का ही दूषित परिणाम है। जो मानव इस पिशाचिनी कामवासना के चंगुल में नहीं फंसे या नहीं फंसते, वे ही वास्तव में मानव कहलाने के योग्य हैं, बाकी के तो सब प्रायः पाशविक जीवन बिताने वाले केवल नाम के ही मानव हैं। विषयवासना की भूखी, विवेकशून्य देवदत्ता ने अपने प्राणवल्लभ की चाह में, जिस का. कि विषय पूर्ति के अतिरिक्त कोई भी उद्देश्य नहीं था, उस की तीर्थसमान पूज्य माता का जिस विधि और जिस निर्दयता से प्राणान्त किया, उसका वर्णन मूलार्थ में आ चुका है। इस पर से इतना समझने में कुछ भी कठिनता नहीं रहती कि ऐहिक स्वार्थ में अंधा हुआ मानव भयानक से भयानक अनर्थ करने में भी संकोच नहीं करता। -विरहियसयणिजंसि-इस पद की व्याख्या अभयदेवसूरि के शब्दों में-विरहिते विजनस्थाने शयनीयं विरहितशयनीयं तत्र-इस प्रकार है। अर्थात् सोने की वह शय्या, जहां पर दूसरा कोई भी मनुष्य नहीं है-उस पर। -सुहप्पसुत्ता-का अर्थ आजकल के मुहावरे के अनुसार-आराम की नींद सोना, होता है। वास्तव में इस प्रकार का प्रयोग निश्चिन्त अवस्था में आई हुई निद्रा के लिए होता है। -फुल्लकिंसुयसमाणं-का अर्थ है -केसू के फूल के समान लाल। इस कथन से तपे हुए लोहदण्ड के अग्निस्वरूप में परिवर्तित हुए रूप का दिग्दर्शन कराना ही सूत्रकार को अभिमत है। -अज्झस्थिते ५-यहां दिए 5 के अंक से अभिमत पाठ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा-माइभत्ते समाणे जाव विहरति-यहां के जाव-यावत् पद से -कलाकल्लिं जेणेव सिरीदेवी तेणेव-से लेकर-भोगभोगाइं भुंजमाणे-यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। तथा अन्तराणि य ३-यहां दिये गए 3 के अंक से-छिद्दाणि य विरहाणि य-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। अन्तर आदि पदों का अर्थ पदार्थ में लिखा जा चुका है। तथा-रोयमाणीओ ३-यहां दिए गये 3 'के अंक से-कंदमाणीओ विलवमाणीओ-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। हाय मां ! इस प्रकार कहकर रुदन करती हुई, 738 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रंदन-ऊंचे स्वर से रुदन करती हुईं और मस्तक आदि पीट कर हमारा क्या होगा, ऐसा कहकर विलाप करती हुईं-इन अर्थों के परिचायक रोयमाणीओ आदि शब्द हैं। राजमाता श्रीदेवी की मृत्यु का समाचार देने वाली दासियों ने श्री देवी की मृत्यु को "एवं खलु सामी ! सिरीदेवी देवदत्ताए देवीए अकाले चेव जीवियाओ ववरोविया(एवं खलु स्वामिन् ! श्रीदेवी देवदत्तया देव्या अकाले एव जीविताद् व्यपरोपिता)-" इन शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया है। इस कथन से अकालमृत्यु का अस्तित्व प्रमाणित होता है, तथा अकालमृत्यु से कालमृत्यु अपने आप ही सिद्ध हो जाती है। तात्पर्य यह है कि काल और अकाल ये दोनों शब्द एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं, एवं एक दूसरे के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। तब मृत्यु के-कालमृत्यु और अकालमृत्यु ऐसे दो स्वरूप फलित हो जाते हैं। सामान्य रूप से कालमृत्यु का अर्थ अपने समय पर होने वाली मृत्यु है और अकालमृत्यु का व्यवहार नय की अपेक्षा समय के बिना होने वाली मृत्यु है, परन्तु वास्तव में काल और अकाल से क्या अभिप्रेत है और उससे सम्बन्ध रखने वाली मृत्यु का क्या विशेष स्वरूप है, जिसमें कि दोनों का विभेद स्पष्ट हो, यह प्रश्न उपस्थित होता है। उस के सम्बन्ध में किया गया विचार निनोक्त है . आयु दो प्रकार की होती है अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय। जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले ही शीघ्र भोगी जा सके वह अपवर्तनीय और जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले न भोगी जा सके वह अनपवर्तनीय, अर्थात् जिस का भोगफल बंधकालीन स्थिति-मर्यादा से कम हो वह अपवर्तनीय और जिसका भोगफल उक्त मर्यादा के बराबर ही हो वह अनपवर्तनीय आयु कही जाती है। अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय आयु का बन्ध स्वाभाविक नहीं है किन्तु परिणामों के तारतम्य पर अवलम्बित है। भावी जन्म की आयु ‘वर्तमान जन्म में निर्माण की जाती है, उस समय यदि परिणाम मन्द हों तो आयु का बंध शिथिल हो जाता है, जिस से निमित्त मिलने पर बन्धकालीन कालमर्यादा घट जाती है। इसके विपरीत अगर परिणाम तीव्र हों तो आयु का बन्ध गाढ़ हो जाता है, जिससे निमित्त मिलने पर भी बन्धकालीन कालमर्यादा नहीं घटती और न वह एक साथ ही भोगी जा सकती है। जैसे अत्यन्त दृढ़ होकर खड़े हुए पुरुषों की पंक्ति अभेद्य और शिथिल होकर खड़े हुए पुरुषों की पंक्ति भेद्य होती है। अथवा सघन बोए हुए बीजों के पौधे पशुओं के लिए दुष्प्रवेश और विरले-विरले बोए हुए बीजों के पौधे उनके लिए सुप्रवेश होते हैं। वैसे ही तीव्र परिणामजनित गाढ़बन्ध आयु शस्त्र, विष आदि का प्रयोग होने पर भी अपनी नियतकाल-मर्यादा से पहले पूर्ण नहीं होती और मन्द परिणामजनित शिथिल आयु उक्त प्रयोग होते ही अपनी नियत-कालमर्यादा समाप्त प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [739 Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने के पहले ही अन्तर्मुहूर्त मात्र में भोग ली जाती है। आयु के इस शीघ्र भोग को ही अपवर्तना या अकालमृत्यु कहते हैं और नियतस्थितिक भोग को अनपवर्तना या कालमृत्यु कहते हैं। __ अपवर्तनीय आयु सोपक्रम-उपक्रमसहित होती है। तीव्र शस्त्र', तीव्र विष, तीव्र अग्नि आदि जिन निमित्तों से अकालमृत्यु होती है, उन निमित्तों का प्राप्त होना उपक्रम है। ऐसा उपक्रम अपवर्तनीय आयु में अवश्य होता है। क्योंकि वह आयु नियम से कालमर्यादा समाप्त होने के पहले ही भोगने के योग्य होती है, परन्तु अनपवर्तनीय आयु सोपक्रम और निरुपक्रम दो प्रकार की होती है अर्थात् उस आयु को अकालमृत्यु लाने वाले उक्त निमित्तों का सन्निधान होता भी है और नहीं भी होता, परन्तु उक्त निमित्तों का सन्निधान होने पर भी अनपवर्तनीय आयु नियत कालमर्यादा के पहले पूर्ण नहीं होती। सारांश यह है कि अपवर्तनीय आयु वाले प्राणियों को शस्त्र आदि का कोई न कोई निमित्त मिल ही जाता है, जिस से वे अकाल में ही मर जाते हैं और अनपवर्तनीय आयु वालों को कैसा भी प्रबल निमित्त क्यों न मिले, वे अकाल में नहीं मरते। प्रश्न-नियत काल मर्यादा से पहले आयु का भोग हो जाने से कृतनाश (किए हुए का नाश), अकृताभ्यागम (जो नहीं किया उस की प्राप्ति) और निष्फलता (फल का अभाव) दोष लगेंगे, जो शास्त्र में इष्ट नहीं, उन का निवारण कैसे होगा? उत्तर-शीघ्र भोग होने में उक्त दोष नहीं आने पाते, क्योंकि जो कर्म चिरकाल तक भोगा जा सकता है, वही एक साथ भोग लिया जाता है। उस का कोई भी भाग बिना विपाकानुभव किए नहीं छूटता, इसलिए न तो कृतकर्म का नाश है और न बद्धकर्म की निष्फलता ही है, इसी तरह कर्मानुसार आने वाली मृत्यु ही आती है। अतएव अकृत कर्म का आगम भी नहीं। जैसे-घास की सघन राशि में एक ओर छोटा सा अग्निकण छोड़ दिया जाए तो वह अग्निकण एक-एक तिनके को क्रमशः जलाते-जलाते सारी उस राशि को विलम्ब से जला सकता है, किन्तु यदि वे ही अग्निकण घास की शिथिल और विरल राशि में चारों ओर छोड़ दिये जाएं तो एक साथ उसे जला डालते हैं। 1. श्री स्थानांगसूत्र में आयुभेद के सात कारण लिखे हैं, जो कि निम्नोक्त हैं -सत्तविधेआउभेदे पण्णत्ते तंजहा-१-अज्झवसाणे,२-निमित्ते,३-आहारे,४-वेयणा५-पराघाते, ६-फासे, ७-आणापाणू, सत्तविधं भिजए आउ। (7/3/561) अर्थात् १-अध्यवसान-राग, स्नेह, और भयात्मक अध्यवसाय-संकल्प, २-निमित्त-दण्ड, कशा-चाबुक शस्त्र आदि रूप। ३-आहार-अधिक भोजन, ४-वेदना-नेत्र आदि की पीड़ा, ५-पराघात-गर्भपात आदि के कारण लगी हुई विशेष चोट,६-स्पर्श-सर्प आदि का डसना, ७-श्वासोश्वास-का रुक जाना, ये सात आयु भेद-नाश के कारण होते हैं। 2. जीवाणं भंते ! किं सोवक्कमाउया, निरुवक्कमाउया ? गोयमा ! जीवा सोवक्कमाउया वि निरुवक्कमाउया वि। (भगवती सूत्र शत० 20 उद्दे०१०) 740] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी बात को विशेष स्पष्ट करने के लिए शास्त्र में और भी दो दृष्टान्त दिए गये हैं। पहला-गणितक्रिया का और दूसरा वस्त्र सुखाने का। जैसे कोई विशिष्ट संख्या का लघुतम छेद निकालना हो तो इस के लिए गणित प्रक्रिया में अनेक उपाय हैं / निपुण गणितज्ञ अभीष्ट फल ' लाने के लिए एक ऐसी रीति का उपयोग करता है, जिस से बहुत ही शीघ्र अभीष्ट परिणाम निकल आता है, दूसरा साधारण जानकार मनुष्य भागाकार आदि विलम्बसाध्य प्रक्रिया से उस अभीष्ट परिणाम को देरी से ला पाता है। ___ इसी तरह से समान रूप में भीगे हुए कपड़ों में से एक को समेट कर और दूसरे को फैलाकर सुखाया जाए, तो पहला देरी से और दूसरा जल्दी से सूखेगा। पानी का परिमाण और शोषणक्रिया समान होने पर भी कपड़े के संकोच और विस्तार के कारण उसके सूखने में देरी और जल्दी का फ़र्क पड़ जाता है। समान परिमाण से युक्त अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय आयु के भोगने में भी सिर्फ देरी और जल्दी का ही अन्तर पड़ता है और कुछ नहीं। इसलिए यहां कृत का नाश आदि उक्त दोष नहीं आते। उपरोक्त चर्चा से अकालमृत्यु और कालमृत्यु की समस्या अनायास ही सुलझाई जा सकती है, तथा दोनों प्रकार की मृत्यु का वर्णन शास्त्रसम्मत है। तब ही राजमाता श्रीदेवी की मृत्यु को अकालमृत्यु के नाम से प्रस्तुत सूत्रपाठ में अभिहित किया गया है। दास और दासियों के द्वारा राजमाता श्रीदेवी की हत्या का समाचार मिलने के अनन्तर महाराज पुष्यनन्दी के हृदय पर उस का क्या प्रभाव पड़ा और उसने क्या किया, अब अग्रिम सूत्र में उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से पूसणंदी राया तासिं दासचेडीणं अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म महया मातिसोएणं अप्फुण्णे समाणे परसुनियत्ते विव चंपगवरपायवे धसत्ति धरणीतलंसि सव्वगेहि संनिपडिते।तते णं से पूसणंदी राया मुहुत्तंतरेणं आसत्थे समाणे बहूहिं राईसर० जाव सत्थवाहेहिं मित्त जाव परियणेण य सद्धिं रोयमाणे 3 सिरीए देवीए महता इड्ढिसक्कारसमुदएणं नीहरणं करेति 2 आसुरुत्ते 4 देवदत्तं देविं पुरिसेहिं गेण्हावेति 2 एतेणं विहाणेणं वझं आणावेति। एवं खलु गोतमा ! देवदत्ता देवी पुरा जाव विहरति। छाया-ततः स पुष्यनन्दी राजा तासां दासचेटीनामन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य 1. औपपातिक-चरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः। (तत्त्वार्थसूत्र-अ० 2, सूत्र 52 के विवेचन में पंडितप्रवर श्री सुखलाल जी) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [741 Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महता मातृशोकेनाक्रांतः सन् परशुनिकृत्त इव चम्पकवरपादपो धसेति धरणीतले सर्वांगैः सन्निपतितः। ततः स पुष्यनन्दी राजा मुहूर्तान्तरे श्वस्तः सन् बहुभी राजेश्वर यावत् सार्थवाहै : मित्र यावत् परिजनेन च सार्द्धं रुदन् 3 श्रियो देव्याः महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन निस्सरणं करोति 2 आशुरुप्तः 4 देवदत्तां देवीं पुरा यावद् विहरति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर।से-वह। पूसणंदी-पुष्यनन्दी। राया-राजा। तासिं-उन।दासचेडीणंदास और चेटियों-दासियों के। अंतिए-पास से। एयमटुं-इस वृत्तान्त को। सोच्चा-सुन कर। निसम्मउस पर विचार कर। महया-महान्। मातिसोएणं-मातृशोक से। अप्फुण्णे समाणे-आक्रान्त हुआ। परसुनियत्ते-परशु-कुल्हाड़े से काटे हुए। चंपगवरपायवे-चम्पकवरपादप-श्रेष्ठ चम्पक वृक्ष की। विवतरह। धसत्ति-धस (गिरने की ध्वनि का अनुकरण), ऐसे शब्द से अर्थात् धड़ाम से। धरणीतलंसिपृथ्वीतल पर। सव्वंगेहि-सर्व अंगों से। संनिपडिते-गिर पड़ा। तते णं-तदनन्तर। से-वह। पूसणंदीपुष्यनन्दी। राया-राया। मुहत्तंतरेण-एक मुहूर्त के बाद। आसत्थे समाणे-आश्वस्त होने पर। बहूहिंअनेक / राईसर-राजा-नरेश, ईश्वर-ऐश्वर्ययुक्त / जाव-यावत्। सत्थवाहेहि-सार्थवाहों यात्री व्यापारियों के नायकों अथवा संघनायकों, और। मित्त-मित्र आदि। जाव-यावत्। परियणेण य-परिजन के। सद्धिं-साथ। रोयमाणे ३-रुदन, आक्रन्दन और विलाप करता हुआ। सिरीए देवीए-श्री देवी का। महता-महान्। इड्ढिसक्कारसमुदएणं-ऋद्धि तथा सत्कार समुदाय के साथ।नीहरणं करेति २-निष्कासनअरथी (सीढ़ी के आकार का ढांचा जिस पर मुर्दे को रख कर श्मशान ले जाते हैं) निकालता है, निकाल करके। आसुरुत्ते ४-क्रोध के आवेश में लाल पीला हुआ। देवदत्तं देविं-देवदत्ता देवी को। पुरिसेहिंराजपुरुषों से। गेण्हावेति २-पकड़वाता है, पकड़ा कर। एतेणं-इस। विहाणेणं-विधान से। वझं-यह वध्या-हन्तव्या है, ऐसी राजपुरुषों को। आणावेति-आज्ञा देता है। तं-अतः। एवं-इस प्रकार। खलुनिश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! देवदत्ता-देवदत्ता। देवी-देवी। पुरा-पुरातन / जाव-यावत्। विहरतिविहरण कर रही है। मूलार्थ-तदनन्तर पुष्यनन्दी राजा उन दास और दासियों के पास से इस वृत्तान्त को सुन कर और विचार कर महान् मातृशोक से आक्रान्तं हुआ परशु से निकृत्त-काटे हुए चम्पक वृक्ष की भान्ति धस शब्द पूर्वक भूमि पर सम्पूर्ण अंगों से गिर पड़ा।तत्पश्चात् मुहूर्त के बाद वह पुष्यनन्दी राजा आश्वस्त हो-होश में आने पर राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह इन सब के साथ और मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों के साथ रुदन, क्रन्दन और विलाप करता हुआ महान् ऋद्धि एवं सत्कारसमुदाय से श्रीदेवी की अरथी निकालता है। तदनन्तर क्रोधातिरेक से लाल पीला हो वह देवदत्ता देवी को राजपुरुषों से पकड़ा कर इस विधान से वध्या-मारी जाए, ऐसी आज्ञा 742 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देता है अर्थात् गौतम ! जैसे तुम ने देवदत्ता का स्वरूप देखा है, उस विधान से देवदत्ता हन्तव्या है, यह आज्ञा राजा पुष्यनन्दी की ओर से राजपुरुषों को दी जाती है। इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! देवदत्ता देवी पूर्वकृत पाप कर्मों का फल भोगती हुई विहरण कर रही है। ____टीका-दासियों के द्वारा राजमाता श्रीदेवी की मृत्यु का वृत्तान्त सुनने तथा उसकी परम प्रेयसी देवदत्ता द्वारा उसका वध किए जाने के समाचार ने रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी की वही दशा कर दी जो कि सर्वस्व के लुट जाने पर एक साधारण व्यक्ति की होती है। माता की इस आकस्मिक और क्रूरतापूर्ण मृत्यु से उस के हृदय पर इतनी गहरी चोट लगी कि वह कुठार के आघात से काटी गई चम्पकवृक्ष की शाखा की भान्ति धड़ाम से पृथिवी पर गिर गया। उस का शरीर निश्चेष्ट होकर मुहूर्तपर्यन्त पृथिवी पर पड़ा रहा। उस के अंगरक्षक तथा दरबारी लोग चित्रलिखित मूर्ति की तरह निस्तब्ध हो खड़े के खड़े रह गए। अन्त में अनेक प्रकार के उपचारों से जब पुष्यनन्दी को होश आया तो वह फूट-फूट कर रोने लगा। मंत्रिगण तथा अन्य सम्बन्धिजनों के बार-बार आश्वासन देने पर उसे कुछ शान्ति मिली। तदनन्तर उसने राजोचित विधि से राजमाता का निस्सरण किया अर्थात् रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी माता की अरथी निकालता है और दाहसंस्कार के अनन्तर विधिपूर्वक उसका मृतककर्म कराता है। पुष्यनन्दी ने अपनी पूज्य मातेश्वरी श्रीदेवी के शव के दाहसंस्कार आदि करने के अनंतर जब मातृघात करने वाली अपनी पट्टरानी देवदत्ता की ओर ध्यान दिया तो उसमें दुःख और क्रोध दोनों ही समानरूप से जाग उठे। दुःख इसलिए कि उसे अपनी पूज्य माता के वियोग की भान्ति देवदत्ता का वियोग भी असह्य था और क्रोध इस कारण कि उस की सहधर्मिणी ने वह काम किया कि जिस की उस से स्वप्न में भी सम्भावना नहीं की जा सकती थी। अन्त में उसे देवदत्ता के विषय में बड़ा तिरस्कार उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगा-मेरी तीर्थ के समान पूज्य माता को इस भान्ति मारना और वह भी किसी विशेष अपराध से नहीं; किन्तु मैं उसकी सेवा करता हूँ केवल इसलिए। धिक्कार है ऐसी स्त्री को! धिक्कार है उस के ऐसे निर्दयतापूर्ण क्रूरकर्म को! क्या देवदत्ता मानवी है ? नहीं-नहीं साक्षात् राक्षसी है। रूपलावण्य के अन्दर छिपी हुई हलाहल है। अस्तु, जिसने मेरी पूज्य माता का इतनी निर्दयता से वध किया है, उसे भी संसार में रहने का कोई अधिकार नहीं। उसे भी उसके इस पैशाचिक कृत्य के अनुसार ही दण्ड दिया जाना चाहिए, यही न्याय है, यही धर्मानुप्राणित राजनीति है। इन विचारों से क्रोध के आवेश से महाराज पुष्यनन्दी का मुख लाल हो जाता है और वह अपने राजपुरुषों को देवदत्ता को पकड़ लाने का आदेश देता है, तथा आदेशानुसार पकड़ कर लाये जाने पर उसे प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [743 Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमुक प्रकार से वध करने की आज्ञा देता है। ___ चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर बोले-गौतम ! आज तुम ने जिंस भीषण दृश्य को देखा है और जिस स्त्री की मेरे पास चर्चा की है, यह वही देवदत्ता है। देवदत्ता के लिए ही महाराज पुष्यनन्दी ने इस प्रकार से दण्ड देने तथा वध करने की आज्ञा प्रदान की है। अतः गौतम ! यह पूर्वकृत कर्मों का ही कटु परिणाम है। इस तरह रोहीतक नगर के राजपथ में देखी हुई स्त्री के पूर्वभवसम्बन्धी गौतमस्वामी के प्रश्न का वीर भगवान् की तरफ से उत्तर दिया गया, जो कि मननीय एवं चिन्तनीय होने के साथ-साथ मनुष्य को विषयों से विरत रहने की पावन प्रेरणा भी करता है। -राईसर० जाव सत्थवाहेहिं मित्त जाव परिजणेणं-यहां पठित प्रथम जावयावत् पद तलवरमाडम्बियकोडुम्बियइब्भसेट्ठि-इन पदों का, तथा द्वितीय जाव-यावत् पद-णाइनियगसयणसम्बन्धि-इन पदों का परिचायक है। राजा नरेश का नाम है। ईश्वर. . तथा मित्र आदि शब्दों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। -रोयमाणे ३-यहां 3 के अंक से-कंदमाणे विलवमाणे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। आंसुओं का बहना रुदन, ऊंचे स्वर में रोना क्रन्दन और आर्तस्वरपूर्वक रुदन विलाप कहलाता है। तथा आसुरुत्ते ४-यहां के अंक से अभिमत पद द्वितीय अध्याय में लिखे जा चुके हैं। -एतेणं विहाणेणं-यहां प्रयुक्त एतद् शब्द का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां यह उज्झितक के दृश्य का बोधक लिखा है जब कि प्रस्तुत में रोहीतक नगर के राजमार्ग पर भगवान् गौतम स्वामी के द्वारा अवलोकित शूली पर भेदन की जाने वाली एक स्त्री के वृत्तान्त का परिचायक है। तथा पुरा जाव विहरतिभहां के जाव-यावत् पद से विवक्षित पाठ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है।' प्रस्तुत सूत्र में देवदत्ता के द्वारा राजमाता की मृत्यु तथा उस के इस कृत्य के दण्डविधान आदि का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार देवदत्ता के ही अंग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं: मूल-देवदत्ता णं भंते ! देवी इतो कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति? कहिं उववजिहिति? छाया-देवदत्ता भदन्त ! देवी इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति। कुत्रोपपत्स्यते? पदार्थ-भंते ! भगवन् ! देवदत्ता णं देवी-देवदत्ता देवी। इतो-यहां से। कालमासेकालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आने पर। कालं-काल। किच्चा-करके। कहिं-कहां। गमिहिति? 744] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाएगी? कहिं-कहां पर। उववजिहिति ?-उत्पन्न होगी? - मूलार्थ-भगवन् ! देवदत्ता देवी यहां से कालमास में काल करके कहां जाएगी? कहां पर उत्पन्न होगी? टीका-रोहीतक नगर के राजमार्ग पर शस्त्र-अस्त्रों से सन्नद्ध सैनिक पुरुषों के मध्य स्थित अवकोटकबन्धन से बन्धी हुई तथा कर्ण और नासिका जिसकी काट ली गई थीं, ऐसी शूली पर चढ़ाई जाने वाली एक वध्य नारी के करुणाजनक दृश्य को देखकर भगवान् गौतमस्वामी के हृदय में जो उसके पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त जानने की इच्छा उत्पन्न हुई, तदनुसार उन्होंने भगवान् महावीर से जो पूछा था उसका उत्तर मिल जाने पर भगवान् गौतम उस स्त्री के आगामी भवों का वृत्तान्त जानने की लालसा से फिर प्रभु वीर से पूछने लगे। वे बोले प्रभो ! यह देवदत्ता नामक स्त्री यहां से मृत्यु को प्राप्त हो कर कहां जाएगी, और कहां उत्पन्न होगी ? तात्पर्य यह है कि यह इसी भान्ति कर्मजन्य सन्ताप से दुःखोपभोग करती रहेगी तथा जन्ममरण के प्रवाह में प्रवाहित होती रहेगी, या इस के दुःखों का कहीं अन्त भी होगा, और कभी संसार सागर से पार भी हो सकेगी? श्री गौतम स्वामी के द्वारा किए गए प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं_मूल-गोतमा ! असीतिं वासाइं परमाउं पालयित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उववजिहिति। संसारो जाव वणस्सइ। ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता गंगापुरे णगरे हंसत्ताए पच्चायाहिति। से णं तत्थ साउणिएहिं वहिते समाणे तत्थेव गंगापुरे सेट्टि बोहि सोहम्मे महाविदेहे. सिज्झिहिति 5 णिक्खेवो। ॥णवमं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-गौतम ! अशीति वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यामुपपत्स्यते।संसारस्तथैव यावद् वनस्पति / ततोऽनन्तरमुढत्य गंगापुरे नगरे हंसतया प्रत्यायास्यति / स तत्र शाकुनिकैहतस्तत्रैव गंगापुरे श्रेष्ठि॰ बोधि सौधर्मे महाविदेहे० सेत्स्यति 5 निक्षेपः। // नवममध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-गोतमा ! हे गौतम ! असीति-अस्सी (80) / वासाइं-वर्षों की। परमाउं-परमायु। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [745 Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालयित्ता-पाल कर-भोग कर। कालमासे-कालमास में-मृत्यु का समय आ जाने पर। कालं-काल। . किच्चा-करके / इमीसे-इस / रयणप्पभाए-रत्नप्रभा नाम की। पुढवीए-पृथ्वी-नरक में। उववजिहितिउत्पन्न होगी। संसारो-शेष संसारभ्रमण कर। वणस्सइ०-वनस्पतिगत निम्ब आदि कटुवृक्षों तथा कटु दुग्ध वाले अर्कादि पौधों में लाखों बार उत्पन्न होगी। ततो-वहां से। अणंतरं-अंतर रहित / उव्वट्टित्ता-निकल कर। गंगापुरे-गंगापुर। णगरे-नगर में। हंसत्ताए-हंसरूप से। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगी। से णं-वह हंस। तत्थ-वहां पर। साउणिएहि-शाकुनिकों-शिकारियों के द्वारा। वहिते-वध किया। समाणे-हुआ। तत्थेव-वहीं। गंगापुरे-गंगापुर में। सेट्ठि-श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा। बोहि-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। सोहम्मे०-सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से। महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, वहां से। सिज्झिहिति ५-सिद्धि प्राप्त करेगा, केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को जानेगा, सम्पूर्ण कर्मों से रहित हो जाएगा, सकल कर्मजन्य सन्ताप से विमुक्त हो जाएगा तथा सर्व प्रकार के दु:खों का अन्त कर डालेगा। णिक्खेवो-निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। णवमं-नवम। अझयणंअध्ययन। समत्तं-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-हे गौतम ! देवदत्ता देवी अशीति (80) वर्षों की परम आयु पाल कर कालमास में काल करके इस रत्नप्रभा नाम की पृथिवी-नरक में उत्पन्न होगी। शेष संसारभ्रमण पूर्ववत् करती हुई-प्रथम अध्ययनवर्ती मृगापुत्र की भांति यावत् वनस्पतिगत निम्ब आदि कटु वृक्षों में तथा कटु दुग्ध वाले अर्क आदि पौधों में लाखों बार उत्पन्न होगी। वहां से अंतर रहित निकल कर गंगापुर नगर में हंसरूप से उत्पन्न होगी। वहां शाकुनिकों द्वारा वध किये जाने पर वह हंस उसी गंगापुर नगर में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से जन्म लेगा, वहां सम्यक्त्व को प्राप्त कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां चारित्र ग्रहण कर सिद्धि प्राप्त करेगा, केवल ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को जानेगा, सम्पूर्ण कर्मों से विमुक्त हो जाएगा, समस्त कर्मजन्य सन्ताप से रहित हो जाएगा तथा सब दुःखों का अन्त करेगा। निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। ॥नवम अध्ययन समाप्त॥ टीका-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा वर्णित देवदत्ता के पूर्वजन्म सम्बन्धी वृत्तान्त को सुन लेने के बाद गौतम स्वामी को उसके आगामी भवों की जिज्ञासा हुई, तदनुसार उन्होंने भगवान् से उस के भावी जीवनवृत्तान्त का वर्णन करने की प्रार्थना की। गौतम स्वामी की प्रार्थना से भगवान् ने देवदत्ता के भावी जीवन के वृत्तान्त को सुनाते हुए जो कुछ कहा, उस का वर्णन मूलार्थ में किया जा चुका है। यह वर्णन भी प्रायः पूर्व वर्णन जैसा ही है, अतः यह अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। वास्तव में मानव जीवन एक पहेली है। उस में सुख दुःख की अवस्थाओं का घटीयंत्र 746 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की तरह आना जाना निरन्तर बना रहता है। विविध प्रकार की परिस्थितियों में गुज़रता हुआ यह जीवात्मा जिस समय बोधि-सम्यक्त्व का लाभ प्राप्त करता है, उस समय इसका उत्क्रान्ति मार्ग की ओर प्रस्थान करने का रुख होता है, वहीं से इस की ध्येयप्राप्ति का कार्य आरम्भ होता है। सम्यक्त्व की प्राप्ति के अनन्तर शुभ संयोगों के सन्निधान से प्रगति मार्ग की ओर प्रस्थान करने वाले साधक की आत्मा कर्मबन्धनों को तोड़ कर एक न एक दिन अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर लेती है। वहां उसकी जन्म मरण परम्परा की विकट यात्रा का पर्यवसान हो जाता है और उसे शाश्वत सुख प्राप्त हो जाता है। यही इस कथा का सारांश है। -संसारो तहेव जाव वणस्सइ०-यहां पठित संसार शब्द-संसारभ्रमण, इस अर्थ का बोधक है। तथा तहेव-तथैव-पद वैसे ही अर्थात् जिस तरह प्रथम अध्ययन में राजकुमार मृगापुत्र का संसारभ्रमण वर्णित कर चुके हैं, वैसे ही देवदत्ता का भी संसारभ्रमण समझ लेनाइन भावों का परिचायक है। उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से बोधित किया गया है, अर्थात् जाव-यावत् पद प्रथम अध्याय में पढ़े गए-सा णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववजिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा-से लेकर-तेइन्दिएसु, बेइन्दिएसु-यहां तक के पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां पर मृगापुत्र का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता का। तथा-वणस्सइ-यहां के बिन्दु से-कडुयरुक्खेसु कडुयदुद्धिएसु अणेगसतसहस्सक्खुत्तो, उववजिहिति-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् निम्बादि कटु वृक्षों तथा कटु दुग्ध वाली अर्क आदि वनस्पति में लाखों बार जन्म मरण किया जाएगा। तथा "-सेट्टि बोहि सोहम्मे महाविदेहे सिज्झिहिति 5-" इन पदों में सेट्ठि-यहां के बिन्दु से-कुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति-इन पदों का ग्रहण करना अभिमत है। तथा बोहिं० आदि पदों से विवक्षित पाठ चतुर्थ अध्याय में लिखा जा चुका है। . पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह बतलाया गया था कि श्री जम्बू स्वामी ने अपने परम पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से दुःखविपाक सूत्र के अष्टमाध्ययन को सुनने के अनन्तर नवम अध्ययन को सुनाने की अभ्यर्थना की थी, जिस पर श्री सुधर्मा स्वामी ने उन्हें नवम अध्ययन सुनाना आरम्भ किया था। उस अध्ययन की समाप्ति पर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू अनगार से जो कुछ फरमाया, उसे सूत्रकार ने "निक्खेवो" इस पद से अभिव्यक्त किया है। निक्खेवो का संस्कृत प्रतिरूप निक्षेप होता है। निक्षेप का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह द्वितीय अध्ययन में किया जा चुका है। प्रस्तुत में निक्षेपशब्द से संसूचित सूत्रांश निनोक्त है एवं खलु जम्बू! समणेणं भगवया महावीरेणंजाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं नवमस्स प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [747 Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि। अर्थात्-हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के नवम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। सारांश यह है कि भगवान् महावीर ने अनगार गौतम स्वामी के प्रति जो देवदत्ता का आद्योपान्त जीवनवृत्तान्त सुनाया है, यही नवम अध्ययन का अर्थ है, जिस का वर्णन मैं अभी तुम्हारे समक्ष कर चुका हूँ, परन्तु इसमें इतना ध्यान रहे कि यह जो कुछ भी मैंने तुम को सुनाया है, वह मैंने वीर प्रभु से सुना हुआ ही सुनाया है, इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं। प्रस्तुत अध्ययन में विषयासक्ति के दुष्परिणाम का दिग्दर्शन कराया गया है। कामासक्त व्यक्ति पतन की ओर कितनी शीघ्रता से बढ़ता है और किस हद तक अनर्थ करने पर उतारू हो जाता है तथा परिणामस्वरूप उसे कितनी भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ती हैं, इत्यादि बातों का इस कथासन्दर्भ में सुचारु रूप से निदर्शन मिलता है। लाखों मनुष्यों पर शासन करने वाला सम्राट भी जघन्य विषयासक्ति से नरकगामी बनता है, तथा रूपलावण्य की राशि एक महारानी. भी अपनी अनुचित कामवासना की पूर्ति की कुत्सित भावना से प्रेरित हुई महान् अनर्थ का सम्पादन करके नरकों का आतिथ्य प्राप्त कर लेती है। इस पर से मानव में बढ़ी हुई कामवासना के दुष्परिणाम को देखते हुए उस से निवृत्त होने या पराङ्मुख रहने की समुचित शिक्षा मिलती है। कामवासना से वासित जीवन वास्तव में मानवजीवन नहीं किन्तु पशुजीवन बल्कि उस से भी गिरा हुआ जीवन होता है, अतः विचारशील पुरुषों को जहां तक बने वहां तक अपने जीवन को संयमित और मर्यादित बनाने का यत्न करना चाहिए, तथा विषयवासनाओं के बढ़े हुए जाल को तोड़ने की ओर अधिक लक्ष्य देना चाहिए, यही इस कथासंदर्भ का ग्रहणीय सार है। // नवम अध्याय समाप्त॥ 748 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह दसमं अज्झयणं अथ दशम अध्याय संसार में अनन्त काल से भटकती हुई आत्मा जब विकासोन्मुख होती है, तब यह अनन्त पुण्य के प्रभाव से निगोद में से निकल कर क्रमशः प्रत्येक वनस्पति, पृथ्वी, जलादि योनियों में जन्म लेती हुई द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय तथा नारक, तिर्यंच आदि जीवों की विभिन्न योनियों के सागर को पार करती हुई किसी विशिष्ट पुण्य के बल से मनुष्य के जीवन को उपलब्ध करती है। इस से मानव जीवन कितना दुर्लभ है, तथा कितना महान् है, इत्यादि बातों का भलीभान्ति पता चल जाता है। जैन तथा जैनेतर सभी शास्त्रों तथा ग्रन्थों में मानव जीवन की कितनी महिमा वर्णित हुई है, इसके उत्तर में अनेकानेक शास्त्रीय प्रवचन उपलब्ध होते हैं। पाठकों की जानकारी के लिए कुछ उद्धरण दिए जाते हैं कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुव्वी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुपत्ता, आययंति मणुस्सयं // (उत्तराध्ययन सूत्र अ० 3-7) अर्थात् जब अशुभ कर्मों का भार दूर होता है, आत्मा शुद्ध और पवित्र बनता है तब कहीं वह मनुष्य की गति को उपलब्ध करता है। दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं। गाढा य विवागकम्मुणो, समयं गोयम! मा पमायए ॥(उत्तराध्ययन सू० अ० 10-4) अर्थात् संसारी जीवों को मनुष्य का जन्म चिरकाल तक इधर उधर की अन्य योनियों में भटकने के अनन्तर बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, इस का मिलना सहज नहीं है। दुष्कर्म का फल बड़ा ही भयंकर होता है, अतः हे गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत कर। नरेषु चक्री त्रिदिवेषु वज्री, मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेषु। मतों महीभृत्सु सुवर्णशैलो, भवेषु मानुष्यभवः प्रधानम्॥ (श्रावकाचार 10-12) अर्थात् जिस प्रकार मनुष्यलोक में चक्रवर्ती, स्वर्गलोक में इन्द्र, पशुओं में सिंह, व्रतों में प्रशमभाव और पर्वतों में स्वर्णगिरि-मेरू प्रधान है, श्रेष्ठ है, ठीक उसी प्रकार संसार के सब प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [749 Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मों में मनुष्य जन्म सर्वोत्तम है। जातिशतेन लभते किल मानुषत्वम्। (गरुडपुराण) अर्थात् गर्भ की सैंकड़ों यातनाएं भुगतने के अनन्तर मनुष्य का शरीर प्राप्त होता है। गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि, नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्॥ . अर्थात् महाभारत में व्यास जी कहते हैं कि आओ, मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताऊं। यह अच्छी तरह मन में दृढ़ निश्चय कर लो कि संसार में मनुष्य से बढ़ कर और कोई श्रेष्ठ नहीं है। "-द्विभुजः परमेश्वरः-" अर्थात् मनुष्य दो हाथ वाला परमेश्वर है। "स्वर्गी चे अमर इच्छिताती देवा मृत्युलोकी ह्वावा जन्म आम्हां" (सन्त तुकाराम.जी) अर्थात् स्वर्ग के देवता इच्छा करते हैं कि प्रभो! हमें मर्त्य-लोक में जन्म चाहिए अर्थात् हमें मनुष्य बनने की चाह है। नरतन सम नहिं कविनिउ देही।जीव चराचर जाचत जेही। बड़े भाग मानुष तन पावा। सुरदुर्लभ सब ग्रंथन गावा॥ (तुलसीदास) दुर्लभ मानव जन्म है, देह न बारम्बार। तरवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार॥ (कबीर वाणी) जो फरिश्ते करते हैं, कर सकता है इन्सान भी। पर फरिश्तों से न हो जो काम है इन्सान का॥ फरिश्ते से बेहतर है इन्सान बनना, मगर इस में पड़ती है मेहनत ज्यादा। इत्यादि अनेकों प्रवचन उपलब्ध होते हैं, जिन से मानव जीवन की दुर्लभता एवं महानता सुतरां प्रमाणित हो जाती है। इस के अतिरिक्त जैन शास्त्रों में मानव जीवन की दुर्लभता का निरूपण बड़े विलक्षण दश दृष्टान्तों द्वारा किया गया है, जिन का विस्तारभय से प्रस्तुत में उल्लेख नहीं किया जा रहा है। ऊपर के विवेचन में यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव का जन्म दुर्लभ है, महान् है। अतः प्रत्येक मानव का कर्तव्य हो जाता है कि इस अनमोल और देवदुर्लभ मनुष्यभव को प्राप्त कर इस से सुगतिमूलक लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए, और आत्मश्रेय साधना चाहिए परन्तु इस के विपरीत जो लोग जीवन को पतन की ओर ले जाने वाले कृत्यों में मग्न रहते हैं तथा सुकृत्यों से दूर भाग कर असदनुष्ठानों में प्रवृत्त रहते हैं, वे दुर्गतियों में अनेकानेक दुःख भोगने. के साथ-साथ जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवाहित होते रहते हैं, ऐसे प्राणी अनेकों हैं, उन में से 750 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ्जूश्री नामक एक नारी भी है, जिस ने पृथिवीश्री गणिका के भव में अपने देवदुर्लभ मानव जीवन को विषय-वासना के पोषण में ही अधिकाधिक लगाया और अनेकानेक चूर्णादि के प्रयोगों द्वारा राजा, ईश्वर आदि लोगों को वश में ला कर उन्हें दुराचार के पथ का पथिक बनाया, * एवं अपनी वासनामूलक कुत्सित भावनाओं से जन्म-मरण रूपी वृक्ष को अधिकाधिक पुष्पित एवं पल्लवित किया। प्रस्तुत दशम अध्ययन में उसी अंजू देवी का जीवन वर्णित हुआ है, जिस का आदिम सूत्र निम्नोक्त है मूल-दसमस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं 2 वद्धमाणपुरे णामं णगरे होत्था। विजयवड्ढमाणे उज्जाणे। माणिभद्दे जक्खे विजयमित्ते राया। तत्थ णं धणदेवो णामं सत्थवाहे होत्था अड्ढे / पियंगू भारिया। अंजू दारिया जाव सरीरा। समोसरणं। परिसा जाव गओ। तेणं कालेणं 2 जेढे जाव अडमाणे विजयमित्तस्स रण्णो गिहस्स असोगवणियाए अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे पासति एगं इत्थियं सुक्खं भुक्खं निम्मंसं किडिकिडियाभूयं अट्ठिचम्मावणद्धं णीलसाडगनियत्थं कट्ठाइं कलुणाई वीसराई कूवमाणिं पासित्ता चिन्ता। तहेव जाव एवं वयासी सा णं भंते ! इत्थिया पुव्वभवे का आसि ? वागरणं। .. - छाया-दशमस्योत्क्षेपः। एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले 2 वर्धमानपुरं नाम, नगरमभूत्। विजयवर्धमानमुद्यानम् / माणिभद्रो यक्षः। विजयमित्रो राजा / तत्र धनदेवो नाम सार्थवाहोऽभूदाढ्यः। प्रियंगूः भार्या / अञ्जूः दारिका यावत् शरीरा / समवसरणम्। परिषद् यावद् गता। तस्मिन् काले 2 ज्येष्ठो यावद् अटन् विजयमित्रस्य राज्ञो गृहस्याशोकवनिकाया, अदूरासन्ने व्यतिव्रजन् पश्यत्येकां स्त्रियं शुष्कां बुभुक्षितां निर्मासां किटिकिटिभूतां चर्मावनद्धां नीलशाटकनिवसितां कष्टानि करुणानि विस्वराणि कूजन्ती दृष्ट्वा चिन्ता। तथैव यावदेवमवादीत्-सा भदन्त ! स्त्री पूर्वभवे कासीद् ? व्याकरणम्। पदार्थ-दसमस्स-दशम अध्ययन के। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भान्ति जान लेनी चाहिए। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू !-हे जम्बू ! तेणं कालेणं २-उस काल और उस समय में। वद्धमाणपुरे-वर्धमानपुर / णाम-नामक / णगरे-नगर / होत्था-था। विजयवड्ढमाणे-विजयवर्धमान नामक / उज्जाणे-उद्यान था, वहां। माणिभद्दे-माणिभद्र। जक्खे-यक्ष का स्थान था। विजयमित्ते-विजयमित्र। राया-राजा था। तत्थ णं-वहां पर। धणदेवो-धनदेव। णाम-नाम का। सत्थवाहे-यात्री व्यापारियों का मुखिया अथवा संघनायक। होत्था-रहता था, जोकि। अड्ढे-बड़ा धनी तथा अपनी जाति में महान् प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [751 Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा प्राप्त किए हुए था, उस की। पियंगू भारिया-प्रियंगू नाम की भार्या थी। अंजू-अंजू नामक। दारिया-दारिका-बालिका। जाव-यावत्। सरीरा-उत्कृष्ट-उत्तम शरीर वाली थी। समोसरणं-भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिसा-परिषद् / जाव-यावत्। गओ-चली गई। तेणं कालेणं-उस काल और उस समय। जेट्टे-ज्येष्ठ शिष्य। जाव-यावत्। अडमाणे-भ्रमण करते हुए। विजयमित्तस्स-विजयमित्र / रण्णो-राजा के। गिहस्स-घर की। असोगवणियाए-अशोकवनिका-अशोक वृक्ष प्रधान बगीची के। अदूरसामंतेणं-समीप से। वीइवयमाणे-गमन करते हुए। पासति-देखते हैं। एग-एक। इत्थियं-स्त्री को, जो कि। सुक्खं-सूखी हुई। भुक्खं-बुभुक्षित। निम्मंसं-मांस से रहित-जिस के शरीर का मांस समाप्तप्रायः हो रहा है। किडिकिडियाभूयं-किटिकिटि शब्द से युक्त-अर्थात् जिस की शरीरगत अस्थियां किटि-किटि शब्द कर रही हैं। अट्ठिचम्मावणद्धं-जिस का चर्म अस्थियों से चिपटा हुआ है अर्थात् अस्थिचर्मावशेष। णीलसाडगणियत्थं-और जो नीली साड़ी पहने हुए है, ऐसी उस। कट्ठाइंकष्टात्मक-कष्टप्रद / कलुणाई-करुणोत्पादक। वीसराइं-दीनतापूर्ण वचन / कूवमाणिं-बोलती हुई को। . पासित्ता-देखकर। चिन्ता- विचार उत्पन्न हुआ। तहेव-तथैव-उसी प्रकार। जाव-यावत् वापिस आ कर। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। भंते! हे भदंत ! सा णं-वह। इत्थिया-स्त्री। पुव्वभवे-पूर्व भव में। का आसि ?-कौन थी ? इस के उत्तर में भगवान् महावीर स्वामी का। वागरणं-प्रतिपादन करना। मूलार्थ-दशम अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भान्ति जान लेनी चाहिए।हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वर्द्धमानपुर नाम का एक नगर था। वहाँ विजयवर्द्धमान नामक उद्यान था। उस में माणिभद्र नामक यक्ष का स्थान था। विजयमित्र वहाँ के राजा थे। वहाँ धनदेव नाम का सार्थवाह रहता था जोकि बहुत धनी और नगरप्रतिष्ठित था, उस की प्रियंगू नाम की भार्या थी, तथा उस की सर्वोत्कृष्ट शरीर से युक्त अञ्जू नाम की एक बालिका थी। उस समय विजयवर्द्धमान उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे, यावत् परिषद् धर्मदेशना सुन कर वापिस चली गई। उस समय भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य यावत् भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए विजयमित्र राजा के घर की अशोकवनिका के समीप जाते हुए एक सूखी हुई, बुभुक्षित, निर्मांस, किटिकिटि शब्द करती हुई अस्थिचर्मावनद्ध, नीली साड़ी पहने हुए, कष्टमय, करुणाजनक तथा दीनतापूर्ण वचन बोलती हुई एक स्त्री को देखते हैं, देखकर विचार करते हैं। शेष पूर्ववत् यावत् भगवान् से आकर इस प्रकार बोले-भगवन् ! यह स्त्री पूर्वभव में कौन थी ? इस के उत्तर में भगवान् प्रतिपादन करने लगे। 752 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-विपाकसूत्र के नवम अध्ययन में वर्णित दत्त सेठ की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता के वृत्तान्त का आद्योपान्त, कर्मगत विचित्रता से गर्भित जीवनवृत्तान्त का चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य-उद्यान में विराजमान आर्य सुधर्मा स्वामी के अन्तेवासी-शिष्य श्री जम्बू स्वामी ध्यानपूर्वक मनन करने के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर विनयपूर्वक निवेदन करने लगे-भगवन् ! आप के परम अनुग्रह से मैंने विपाकश्रुत के दुःखविपाक के नवम अध्ययन के अर्थ का श्रवण किया और उस का चिन्तन तथा मनन भी कर लिया है। अब मेरी इच्छा उस के दसवें अध्ययन के अर्थश्रवण की हो रही है, अत: आप श्री उस को भी सुनाने की कृपा करें। सर्वज्ञप्रणीत निर्ग्रन्थप्रवचन के महान् जिज्ञासु आर्य जम्बू स्वामी की उक्त विनीत प्रार्थना को सुन कर परमदयालु श्री सुधर्मा स्वामी बोले-जम्बू! पुराने समय की बात है, जब कि वर्द्धमानपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था, उस के बाहर ईशान कोण में अवस्थित विजयवर्द्धमान नाम का एक रमणीय उद्यान था, उस में माणिभद्र नाम के यक्ष का एक सुप्रसिद्ध स्थान था, जिस के कारण उद्यान में बड़ी चहल पहल रहती थी। नगर के शासक विजयमित्र नाम के नरेश थे। इस के अतिरिक्त उस नगर में धनदेव नाम का एक सुप्रसिद्ध धनी, मानी सार्थवाह रहता था, उसकी प्रियंगू नाम की भार्या और अंजू नाम की एक अत्यंत रूपवती कन्या थी। . उस समय विजयवर्धमान उद्यान में चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी का पधारना हुआ, उन की धर्मदेशना सुन कर जनता के चले जाने के बाद उन के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी भगवान् से आज्ञा ले कर जब भिक्षा के लिए नगर में जाते हैं तब उन्होंने महाराज विजयमित्र के महल की अशोकवाटिका के समीप से जाते हुए वहां एक स्त्री को देखा। उस की दशा बड़ी दयाजनक थी। शरीर सूखा हुआ, भूख के कारण शरीरगत रुधिर और मांस भी शरीर में दिखाई नहीं देता था, केवल चमड़े में लिपटा हुआ अस्थिपंजर ही नज़र आता था, इस के अतिरिक्त उस का शब्द भी बड़ा करुणोत्पादक और दीनतापूर्ण था, उसके शरीर पर नीली साड़ी थी। गौतम स्वामी इस दृश्य से बड़े प्रभावित हुए, उन्होंने वापिस आकर भगवान् से सारा वृत्तान्त कहा और उस स्त्री के पूर्वभव की जिज्ञासा की। यही सूत्रगत वर्णन का संक्षिप्त सार है। उक्खेव-उत्क्षेप प्रस्तावना का नाम है। विपाक सूत्र के दुःखविपाक के दशम अध्ययन का प्रस्तावनासम्बन्धी सूत्रपाठ निम्नोक्त है जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं नवमस्स अझयणस्स अयमढे पण्णत्ते, दसमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं के अटे पण्णत्ते ?-" अर्थात् यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [753 Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर स्वामी ने दुःख-विपाक के नवम अध्ययन का यदि भदन्त ! यह (पूर्वोक्त) : अर्थ प्रतिपादन किया है तो भदन्त ! यावत् मोक्ष-सम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के दशम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ? अड्ढे०-यहां के बिन्दु से संसूचित पाठ का विवरण द्वितीय अध्याय में तथा-परिसा जाव गओ-यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत पाठ का विवरण सप्तम अध्ययन में यथास्थान दिया जा चुका है। तथा-जेटे जाव अडमाणे-यहां का जाव-यावत् पद -अन्तेवासी इन्दभूती नामं अणगारे गोयमसगोत्ते- से लेकर-चउणाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाईयहां तक के पदों का तथा-छटुं-छट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तते णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेति, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाति-से लेकर-दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे-यहां तक के पदों का, तथा-जेणेव वद्धमाणपुरे णगरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वद्धमाणपुरे नगरे उच्चनीयमज्झिमकुलाइं-इन पदों का परिचायक है। अन्तेवासी इन्दभूती-इत्यादि पदों का अर्थ यथास्थान टिप्पण में, तथा-छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं-इत्यादि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां भगवान् गौतम वीर प्रभु से पारणे के निमित्त वाणिजग्राम नगर में जाने की आज्ञा मांगते हैं, जब कि प्रस्तुत में वर्धमानपुर नगर में जाने की। नगरगत भिन्नता के अतिरिक्त और कोई अन्तर नहीं है / तथा-जेणेव वद्धमाणपुरेइत्यादि पदों का अर्थ है-जहां वर्धमानपुर नामक नगर था वहां पर चले जाते हैं और जा कर उच्च (धनी), नीच (निर्धन) तथा मध्यम (सामान्य) कुलों में.....। . ____ -सुक्खं भुक्खं-इत्यादि पदों का अर्थ अष्टमाध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद एक पुरुष के विशेषण हैं, जब कि प्रस्तुत में एक नारी के / तथा-चिंता तहेव जाव एवं वयासी-यहां पठित चिन्ता शब्द से विवक्षित पाठ की सूचना चतुर्थाध्ययन में दी जा चुकी है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां एक पुरुष के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है, जब कि प्रस्तुत में एक नारी के सम्बन्ध में। तथा तहेव-तथैव पद का अर्थ है-वैसे ही, अर्थात् गौतम स्वामी उस स्त्री के सम्बन्ध में उक्त विचार करते हुए वर्द्धमानपुर नगर में उच्च (धनी), नीच (निर्धन) और मध्यम (सामान्य) कुलों में भ्रमण करते हुए यथेष्ट सामुदानिकगृहसमुदाय से प्राप्त भिक्षा को लेकर वर्धमानपुर नामक नगर के मध्य में होते हुए जहां भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां आते हैं, आकर भगवान् के निकट गमनागमनसम्बन्धी प्रतिक्रमण (कृत पाप का पश्चात्ताप) कर तथा आहारसम्बन्धी आलोचना (विचारणा या प्रायश्चित के लिए अपने दोषों को गुरु के सन्मुख रखना) की, आहार-पानी दिखाया, 754 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनन्तर प्रभु को वन्दना नमस्कार किया और निवेदन किया-प्रभो! आप से आज्ञा प्राप्त कर के मैं वर्धमानुपर नगर में गया, वहाँ उच्च आदि कुलों में भ्रमण करते हुए मैंने विजयमित्र नरेश की अशोकवाटिका के निकट बड़ी दयनीय अवस्था को प्राप्त एक स्त्री को देखा, उसे देख कर मेरे मन में "- अहह ! यह स्त्री पूर्वकृत पुरातनादि कर्मों का फल पा रही है। यह ठीक है कि मैंने नरक नहीं देखे किन्तु यह स्त्री तो प्रत्यक्ष नरकतुल्य वेदना को भोग रही है-" ऐसे विचार उत्पन्न हुए, इन भावों का बोधक तहेव-तथैव पद है, और इन्हीं भावों के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से अभिव्यक्त किया गया है, तथा जाव-यावत् पद से अभिमत पद निम्नोक्त पाठ का परिचायक है। __-त्ति कट्ट वद्धमाणपुरेणगरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापजत्तं समुयाणं गेहति 2 त्ता वद्धमाणपुरं णगरं मझमझेणं निग्गच्छइ 2 त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ 2 त्ता एसणमणेसणे आलोएइ 2 त्ता भत्तपाणं पडिदंसेति। समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति 2 त्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे वद्धमाणपुरेणगरे उच्चनीयमज्झिमकुले घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे पासामि एग इत्थियं सुक्खं..... वीसराई कूवमाणिं पासित्ता इमे अज्झित्थिते 5 समुप्पजित्था-अहो णं एसा इत्थी पुरा पुराणाणां दुच्चिण्णाणंदुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणी विहरति। न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा पच्चक्खं खलु एसा इत्थी निरयपडिरूवियं वेयणं वेयइ। इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही है। तथा वागरणं-का अर्थ है-गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का प्रतिपादन। .. श्री गौतम स्वामी की जिज्ञासापूर्ति के लिए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया, अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उसका वर्णन करते हुए कहते हैं मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं 2 इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे इन्दपुरे णामं णगरे होत्था। तत्थ णं इंददत्ते राया पुढवीसिरी णामं गणिया। वण्णओ। तते णं सा पुढवीसिरी गणिया इंदपुरे णगरे बहवे राईसर० जाव प्पभियओ चुण्णप्पओगेहि य जाव अभिओगित्ता उरालाई माणुसभोगभोगाई भुंजमाणी विहरति। तते णं सा पुढवीसिरी गणिया एयकम्मा 4 सुबहुं पावं कम्मं समजिणित्ता पणतीसं वाससताइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [755 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं णेरइयत्ताए उववन्ना। साणं तओ उव्वट्टित्ता इहेव वद्धमाणे णगरे धणदेवस्स सत्थवाहस्स पियंगू--भारियाए कुच्छिंसि दारियत्ताए उववन्ना। तते णं सा पियंगू भारिया णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारियं पयाया। नामं अंजूसिरी। सेसं जहा देवदत्ताए। तते णं से विजए राया आसवा जहेव वेसमणदत्ते तहेव अंजुंपासति, णवरं अप्पणो अट्ठाए वरेति जहा तेतली, जाव अंजूए दारियाए सद्धिं उप्पिं जाव विहरति। छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले 2 इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे इन्द्रपुरं नाम नगरमभूत्। तत्रेन्द्रदत्तो राजा। पृथिवीश्री: नाम गणिका / वर्णकः / ततः सा पृथिवीश्री: गणिका, इन्द्रपुरे नगरे बहून् राजेश्वर यावत् प्रभृतीन् चूर्णप्रयोगैश्च यावद् अभियोज्य उदारान् मानुषभोगभोगान् जाना विहरति / ततः सा पृथिवीश्री: गणिका एतत्कर्मा 4 सुबहु पापं कर्म समय॑ पंचत्रिंशत् वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा षष्ठ्यां पृथिव्यामुत्कर्षेण नैरयिकतयोपपन्ना / सा तत उद्धृत्येहैव वर्धमाने नगरे धनदेवस्य सार्थवाहस्य प्रियंग--भार्यायाः कुक्षौ दारिकातयोपपन्ना। ततः सा प्रियंगू भार्या नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु दारिकां प्रजाता। नाम अंजू शेषं यथा देवदत्तायाः। ततः स विजयो राजा अश्ववाहनिकया यथैव वैश्रमणदत्तः, तथैवांजूं पश्यति। केवलमात्मनोऽर्थाय वृणीते। यथा तेतलिः। यावद् अंज्वा दारिकया सार्द्धमुपरि यावद् विहरति। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! तेणं कालेणं २-उस काल तथा उस समय। जंबुद्दीवे-जम्बूद्वीप नामक। दीवे-द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारत वर्ष में। इंदपुरेइन्द्रपुर / णाम-नामक। णगरे होत्था-नगर था। तत्थ णं-वहां पर। इंददत्ते-इन्द्रदत्त नामक। राया-राजा था। पुढविसिरी-पृथिवीश्री। णाम-नाम की। गणिया-गणिका-वेश्या थी।वण्णओ-वर्णक-वर्णनप्रकरण पूर्ववत् जानना चाहिए। तते णं-तदनन्तर। सा-वह। पुढविसिरी-पृथिवीश्री। गणिया-गणिका। इदंपुरेइन्द्रपुर / णगरे-नगर में। बहवे-अनेक।राईसर०-राजा-नरेश, ईश्वर-ऐश्वर्ययुक्त / जाव-यावत्। प्पभियओसार्थवाह-यात्री व्यापारियों का मुखिया अथवा संघनायक प्रभृति-आदि लोगों को। चुण्णप्पओगेहि यचूर्णप्रयोगों से। जाव-यावत्। अभिओगित्ता-वश में करके। उरालाइं-उदार-प्रधान। माणुसभोगभोगाईमनुष्यसम्बन्धी विषय भोगों का। भुंजमाणी-उपभोग करती हुई। विहरति-समय व्यतीत कर रही थी। तते णं-तदनन्तर / सा-वह। पुढविसिरी-पृथिवीश्री नामक। गणिया-गणिका। एयकम्मा ४-एतत्कर्मा, एतद्विद्य, एतत्प्रधान और एतत्समाचार बनी हुई। सुबह-अत्यधिक। पावं-पाप। कम्म-कर्म का। 756 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतंस्कन्ध Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समजिणित्ता-उपार्जन कर। पणतीसं वाससताई-३५ सौ वर्ष की। परमाउं-परम आयु को। पालइत्तापाल कर -भोग कर। कालमासे-काल-मास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर। कालं किच्चाकाल करके / छट्ठीए-छठी। पुढवीए-पृथ्वी-नरक में। उक्कोसेणं-जिन की उत्कृष्ट स्थिति 22 सागरोपम “की है, ऐसे नारकियों में। णेरइयत्ताए-नारकी रूप से। उववन्ना-उत्पन्न हुई। सा णं-वह। तओ-वहां से। उव्वट्टित्ता-निकल कर। इहेव-इसी। वद्धमाणे-वर्धमान। णगरे-नगर में। धणदेवस्स-धनदेव / सत्थवाहस्स-सार्थवाह की। पियंगूभारियाए-प्रियंगू नामक भार्या की। कुच्छिंसि-कुक्षि-उदर में। दारियत्ताए-कन्या रूप से। उववन्ना-उत्पन्न हुई। तते णं-तदनन्तर ।सा-उस।पियंगू भारिया-प्रियंगूभार्या के। णवण्हं-नौ। मासाणं-मास। बहुपडिपुण्णाणं-लगभग परिपूर्ण होने पर। दारियं-दारिका-बालिका का। पयाया-जन्म हुआ, उस का। नाम-नाम / अंजूसिरी-अञ्जूश्री रक्खा गया। सेसं-शेष। जहा-जैसे। देवदत्ताए-देवदत्ता का वर्णन किया गया है, वैसे ही जानना। तते णं-तदनन्तर। से-वह। विजएविजयमित्र / राया-राजा। आसवा०-अश्ववाहनिका-अश्वक्रीड़ा के लिए गमन करता हुआ। जहेव-जैसे। वेसमणदत्ते-वैश्रमणदत्त / तहेव-उसी भान्ति / अंजु-अंजूश्री को। पासति-देखता है। णवरं-उस में इतनी विशेषता है कि वह उसे। अप्पणो-अपने / अट्ठाए-लिए। वरेति-मांगता है। जहा-जिस प्रकार। तेतलीतेतलि। जाव-यावत् / अंजूए-अंजूश्री नामक। दारियाए-बालिका के / सद्धिं-साथ, (महलों के)। उप्पिंऊपर। जाव-यावत्। विहरति-विहरण करने लगा। मूलार्थ-गौतम! इस प्रकार निश्चय ही उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था। वहाँ इन्द्रदत्त नाम का राजा राज्य किया करता था।नगर में पृथिवीश्री नाम की एक गणिकावेश्या रहती थी। उस का वर्णन पूर्ववर्णित कामध्वजा वेश्या की भान्ति जान लेना चाहिए।इन्द्रपुर नगर में वह गणिका अनेक ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि लोगों को चूर्णादि के प्रयोगों से वश में करके मनुष्यसम्बन्धी उदार-मनोज्ञ कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करती हुई आनन्दपूर्वक समय बिता रही थी।तदनन्तर एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विद्य, तथा एतत्समाचार वह पृथिवीश्री वेश्या अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर 35 सौ वर्ष की परम आयु भोग कर कालमास में काल करके छठी नरक के 22 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकियों के मध्य में नारकीय रूप से उत्पन्न हुई। वहाँ से निकल कर वह इसी वर्धमानपुर नगर के धनदेव नामक सार्थवाह की प्रियंगू भार्या के उदर में कन्यारूप से उत्पन्न हुई अर्थात् कन्यारूप से गर्भ में आई। तदनन्तर उस प्रियंगू भार्या ने नव मास पूरे होने पर कन्या को जन्म दिया और उस का अंजूश्री नाम रक्खा। उस का शेष वर्णन देवदत्ता की तरह जानना। तदनन्तर महाराज विजयमित्र अश्वक्रीडा के निमित्त जाते हुए वैश्रमण दत्त की भान्ति ही अंजूश्री को देखते हैं और तेतलि की तरह उसे अपने लिए मांगते हैं, यावत् वे अजूश्री के साथ उन्नत प्रासाद में प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [757 Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावत् सानन्द विहरण करते हैं। टीका-गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में उन के द्वारा देखी हुई स्त्री के पूर्वभवसम्बन्धी जीवन-वृत्तान्त का आरम्भ करते हुए श्रमण भगवान् महावीर बोले कि-गौतम ! बहुत पुरानी बात है, इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में अर्थात् भारत वर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक नगर था, वहां पर महाराज इन्द्रदत का शासन था। वह प्रजा का बड़ा ही हितचिन्तक और न्यायशील राजा था। उस के शासन में प्रजा को हर एक प्रकार से सुख तथा शान्ति प्राप्त थी। उसी इन्द्रपुर नगर में पृथिवीश्री नाम की एक गणिका रहती थी। वह कामशास्त्र की विदुषी, अनेक कलाओं में निपुण, बहुत सी भाषाओं की जानकार और शृङ्गार की विशेषज्ञा थी। इस के अतिरिक्त नृत्य और संगीत कला में भी वह अद्वितीय थी। इसी कला के प्रभाव से वह राजमान्य हो गई थी। हज़ारों वेश्याएं उस के शासन में रहती थीं। उस का रूप लावण्य तथा शारीरिक सौन्दर्य एवं कलाकौशल्य उस के पृथिवीश्री नाम को सार्थक कर रहे थे। पृथिवीश्री अपने शारीरिक सौन्दर्य तथा कलाप्रदर्शन के द्वारा नगर के अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति-आदि धनी मानी युवकों को अपनी ओर आकर्षित किए हुए थी। किसी को सौन्दर्य से, किसी को कला से और किसी को विलक्षण हावभाव से वह अपने वश में करने के लिए सिद्धहस्त थी, और जो कोई इन से बच जाता उसे वशीकरणसम्बन्धी चूर्णादि के प्रक्षेप से अपने वश में कर लेती। इस प्रकार नगर के रूप तथा यौवन सम्पन्न धनी मानी गृहस्थों के सहवास से वह मनुष्यसम्बन्धी उदार-प्रधान विषयभोगों का यथेष्ट उपभोग करती हुई सांसारिक सुखों का अनुभव कर रही थी। वशीकरण के लिए अमुक प्रकार के द्रव्यों का मंत्रोच्चारपूर्वक या बिना मंत्र के जो सम्मेलन किया जाता है, उसे चूर्ण कहते हैं। इस वशीकरणचूर्ण का जिस व्यक्ति पर प्रक्षेप किया जाता है अथवा जिसे खिलाया जाता है, वह प्रक्षेप करने या खिलाने वाले के वश में हो जाता है। इस प्रकार के वशीकरणचूर्ण 2 उस समय बनते या बनाए जाते थे और उनका प्रयोग भी किया जाता था, यह प्रस्तुत सूत्रपाठ से अनायास ही सिद्ध हो जाता है। पृथिवीश्री नामक 1. भरतक्षेत्र अर्ध चन्द्रमा के आकार का है। उसके तीन तरफ लवण समुद्र और उत्तर में चुल्लहिमवन्त पर्वत है अर्थात् लवण समुद्र और चुल्लहिमवंतपर्वत से उस की हद बंधी है। भरत के मध्य में वैताढ्य पर्वत है, और उस के दो भाग होते हैं। वैताढ्य की दक्षिण तरफ़ का दक्षिणार्ध भरत और उत्तर की तरफ का उत्तरार्द्ध भरत कहलाता है। चुल्लहिमवन्त के ऊपर से निकलने वाली गंगा और सिन्धु नदी वैताढ्य की गुफाओं में से निकल कर लवण समुद्र में मिलती हैं, इससे भरत के छः विभाग हो जाते हैं। इन छ: विभागों में साम्राज्य प्राप्त करने वाला व्यक्ति चक्रवती कहलाता है। तीर्थंकर वगैरह दक्षिणाध के मध्य खण्ड में होते हैं। (अर्धमागधी कोष) 2. तान्त्रिकग्रन्थों में स्त्रीवशीकरण, पुरुषवशीकरण और राजवशीकरण आदि अनेकविध प्रयोगों का उल्लेख है। उन में केवल मंत्रों, केवल तंत्रों और मंत्रपूर्वक तंत्रों के भिन्न-भिन्न प्रकार वर्णित हैं, परन्तु 758 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कन्ध Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्या ने काममूलक विषयवासना की पूर्ति के लिए गुप्त और प्रकट रूप में जितना भी पापपुंज एकत्रित किया, उसी के परिणामस्वरूप वह छठी नरक में गई और उस ने वहां नरकगत वेदनाओं का उपभोग किया। प्रश्न-यह ठीक है कि मैथुन से मनुष्य के शरीर में अवस्थित सारभूत पदार्थ वीर्य का क्षय होता है। वीर्यनाश से शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक शक्ति का ह्रास होता है। बुद्धि मलिन हो जाती है। किसी भी काम में उत्साह नहीं रहने पाता, तथा यह भी ठीक है कि मैथुनसेवी व्यक्ति दूसरों के अनुचित दबाव से झुक जाता है, उस की प्रवृत्ति दब्बू हो जाती है, वह लोगों के अपमान का भाजन बन जाता है, तथा और भी अनेकों दुर्गुण हैं जिन का वह शिकार हो जाता है। इस के अतिरिक्त क्या विषयसेवन में हिंसा (प्राणिवध) की संभावना भी रहती है ? उत्तर-हां, अवश्य रहती है। शास्त्रों में लिखा है कि जिस समय काम-प्रवृत्तिमूलक स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध होता है, उस समय असंख्यात (संख्यातीत) जीवों की विराधना होती है। स्त्री पुरुष के सम्बन्ध के समय होने वाले प्राणिविनाश के लिए शास्त्रों में एक बड़ा ही मननीय उदाहरण दिया है। वहां लिखा है कि कल्पना करो कि कोई पुरुष एक बांस की नलिका में रुई या बूर को भर कर उसमें अग्नि के समान तपी हुई लोहे की सलाई का प्रवेश कर दे, तो उससे रुई या बूर जल कर भस्म हो जाता है। इसी तरह स्त्री पुरुष के संग में भी असंख्यात संमूर्छिम त्रस जीवों का विनाश होता है। यहां नलिका के समान स्त्री की जननेन्द्रिय और शलाका के समान पुरुषचिन्ह तथा तूल-रुई के सदृश वे संमूर्छिम जीव हैं, जो दोनों के संगम से मर जाते हैं। इसलिए विषय-मैथुन-प्रवृत्ति जहां अन्य अनर्थों की उत्पादिका है, वहां वह हिंसामूलक भी है। इसी जीवविराधना को लक्ष्य में रखकर ही तत्त्ववेत्ता महापुरुषों ने सामान्यरूप से इस के दो प्रकार होते हैं। प्रथम यह कि इस का प्रयोग दैविकशक्ति को धारण करता है। इस प्रयोग से जो भी कुछ होता है वह देवबल से होता है अर्थात देवता के प्रभाव से होता है। इस मान्यता के अनुसार इस का प्रयोग वही कर सकता है जिस के वश में दैविक शक्ति हो। दूसरी मान्यता यह है कि इस का प्रयोग करने वाला ऐसे पुद्गलों-परमाणुओं का संग्रह करता है कि जिन में आकर्षण शक्ति प्रधान होती है, और उन के प्रयोग से जिस पर भी प्रयोग होता है वह दास की तरह आज्ञाकारी तथा अनुकूल हो जाता है। प्रथम में देवदृष्टि को प्राधान्य प्राप्त है और दूसरे में मात्र आकर्षक परमाणुओं का प्रभाव है। इस में देवदृष्टि को कोई स्थान नहीं। 1. मेहुणेणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसिए असंजमे कज्जइ ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे रुयनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं कणएणं समविद्धंसेजा, एरिसेणं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ। (भगवतीसूत्र श० 2 उद्दे 05, सू० 106) / इस के अतिरिक्त मैथुन के सम्बन्ध में श्री दशवैकालिक सूत्र में क्या ही सुन्दर लिखा है मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं। तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वजयन्ति णं ॥अ०६/१७। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [759 Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य के पालन का उपदेश दिया है। इस के विपरीत जो मानव प्राणी ब्रह्मचर्य से पराङ्मुख होकर निरन्तर विषयसेवन में प्रवृत्त रहते हैं, वे अपना शारीरिक और मानसिक बल खोने के साथ-साथ जीवों की भी भारी संख्या में विराधना करते हुए अधिक से अधिक आत्मपतन की ओर प्रस्थान करते हैं। तब पापकर्मों के उपचय से उन की आत्मा इतनी भारी हो जाती है कि उन को ऊर्ध्वगति की प्राप्ति असंभव हो जाती है और उन्हें नारकीय दुःखों का उपभोग करना पड़ता है। पृथिवीश्री नाम की वेश्या के नरकगमन का कारण विषयासक्ति ही अधिक रहा है। . उस ने इस जघन्य सावध प्रवृत्ति में इतने अधिक पापकर्म उपार्जित किए कि जिन से अधिक प्रमाण में भारी हुई उस की आत्मा को छठी पृथ्वी में उत्पन्न हो कर अपनी करणी का फल पाना पड़ा। भगवान् कहते हैं कि गौतम ! नरक की भवस्थिति पूरी कर फिर वह इसी वर्धमानपुर * नगर में धनदेव सार्थवाह की भार्या प्रियंगूश्री के उदर में कन्यारूप से उत्पन्न हुई अर्थात् गर्भ में आई। लगभग नवमास पूरे होने के अनन्तर प्रियंगूश्री ने एक कन्यारत्न को जन्म दिया। जन्म के बाद नामसंस्कार के समय उस का अंजूश्री नाम रक्खा गया। उस का भी पालन-पोषण और संवर्धन देवदत्ता की तरह सम्पन्न हुआ, तथा उस का रूपलावण्य और सौन्दर्य भी देवदत्ता की भांति अपूर्व था। एक दिन अंजूश्री अपनी सहेलियों और दासियों के साथ अपने उन्नत प्रासाद के झरोखे में कनक-कन्दुक अर्थात् सोने की गेंद से खेल रही थी। इतने में वर्धमानपुर के नरेश महाराज विजयमित्र अश्वक्रीड़ा के निमित्त भ्रमण करते हुए उधर से गुजरे तो अचानक उन की दृष्टि अंजूश्री पर पड़ी। उस को देखते ही वे उस पर इतने मुग्ध हो गए कि उन को वहां से आगे बढ़ना कठिन हो गया। अंजूश्री के सौन्दर्यपूर्ण शरीर में कन्दुक-क्रीड़ा से उत्पन्न होने वाली विलक्षण चंचलता ने अश्वारूढ विजय नरेश के मन को इतना चंचल बना दिया कि उस के कारण वे अंजूश्री को प्राप्त करने के लिए एकदम अधीर हो उठे। मन पर से उन का अंकुश उठ गया और वह अंजूश्री की कन्दुकक्रीड़ाजनित शारीरिक चंचलता के साथ ऐसा उलझा कि वापिस आने का नाम ही नहीं लेता। सारांश यह है कि अंजूश्री को देख कर महाराज विजयनरेशं उस पर मोहित हो गए और साथ में आने वाले अनुचरों से उस के नाम, ठाम आदि के विषय में पूछताछ कर येन केन उपायेन उसे प्राप्त करने की भावना के साथ वापिस लौटे अर्थात् आगे जाने के विचार को स्थगित कर स्वस्थान को ही वापिस आ गए। इनके आगे का अर्थात् अंजूश्री को प्राप्त करने के उपाय से ले कर उस की प्राप्ति तक 760 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सारा वृत्तान्त अक्षरशः वही है जो वैश्रमणदत्त के वर्णन में आ चुका है। केवल नामों में अन्तर है। वहां देवदत्ता यहां अंजूश्री, वहां दत्त यहां धनदेव एवं वहां वैश्रमण दत्त और यहां विजय नरेश है। इसके अतिरिक्त वैश्रमणदत्त और विजयमित्र की याचना में कुछ अन्तर है। वैश्रमणदत्त ने तो देवदत्ता को पुत्रवधू के रूप में मांगा था जब कि विजयमित्र अंजूश्री की याचना महाराज कनकरथ के प्रधानमन्त्री तेतलि कुमार की भान्ति भार्यारूप से अपने लिए कर रहे हैं। तदनन्तर अजूश्री के साथ विजय नरेश का पाणिग्रहण हो जाता है और दोनों मानवसम्बन्धी उदार विषयभोगों का उपभोग करते हुए सानन्द जीवन व्यतीत करने लगे। __-गणिया वण्णओ-यहां पठित -वर्णक- पद का अर्थ है-वर्णनप्रकरण, अर्थात् गणिका-सम्बन्धी वर्णन पहले किया जा चुका है। इस बात को सूचित करने के लिए सूत्रकार ने -वण्णओ-इस पद का प्रयोग किया है। प्रस्तुत में इस पद से संसूचित-होत्था, अहीण. जाव सुरूवा बावत्तरीकलापंडिया-से लेकर-आहेवच्चं जाव विहरति-यहां तक के पाठ का अर्थ द्वितीयाध्याय में लिखा जा चुका है। राईसर जाव प्पभियओ तथा-चुण्णप्पओगेहि य जाव अभिओगित्ता-यहां पठित प्रथम-जाव-यावत् पद-तलवरमाडम्बियकोडुम्बियइब्भसेट्ठिसत्थवाह-इन पदों का तथा द्वितीय जाव-यावत् पद-हियउड्डावणेहि य निण्हवणहि य पण्हवणेहि य वसीकरणहि य आभिओगिएहि य-इन पदों का परिचायक है। तलवर-आदि शब्दों का अर्थ तथाहियउड्डावणेहि-इत्यादि पदों का अर्थ तथा-एयकम्मा ४-यहां के अङ्क से अभिमत पाठ द्वितीय अध्ययन में दिए जा चुके हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये एक पुरुष के विशेषण हैं, जब कि प्रस्तुत में एक स्त्री के। लिंगगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। 1. तेतलिपुत्र या तेतलि कुमार का वृत्तान्त "ज्ञाताधर्मकथाङ्ग" नाम के छठे अंग के 14 वें अध्ययन में वर्णित हुआ है। उस का प्रकृतोपयोगी सारांश इस प्रकार है - तेतलि कुमार तेतलिपुर नगर के अधिपति महाराज कनकरथ का प्रधानमंत्री था, जो कि राजकार्य के संचालन में निपुण और नीतिशास्त्र का परममर्मज्ञ था। उस के नीतिकौशल्य ने ही उसे प्रधानमंत्री के सुयोग्य पद पर आरूढ़ होने का समय दिया था। उसी तेतलिपुर नगर में कलाद नाम का एक सुवर्णकार (सुनार) रहता था जो कि धनसम्पन्न और बुद्धिमान् था, परन्तु तेतलिपुर में उस की "मूषिकाकार दारक" के नाम से प्रसिद्धि थी। उस की स्त्री का नाम भद्रा था। भद्रा भी स्वभाव से सौम्य और पतिपरायणा थी। इन के पोटिला नाम की एक रूपवती कन्या थी। जन्म से लेकर युवावस्था पर्यन्त पोट्टिला का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा आदि का प्रबन्ध भी योग्य धायमाताओं द्वारा सम्पन्न हुआ था। वह भी रूपलावण्य और शारीरिक सौन्दर्य में अपूर्व थी। इस के आगे का अर्थात् उन्नत महल के झरोखे में दासियों के साथ कंदुकक्रीड़ा करना, और प्रधान मंत्री तेतलि कुमार का उसे देखना एवं निजार्थ याचना करना अर्थात् उसे अपने लिए मांगना आदि संपूर्ण वृत्तान्त पूर्व वर्णित वैश्रमणदत्त या विजयमित्र की तरह ही उल्लेख किया है। अधिक के जिज्ञासु ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र में ही उक्त कथासंदर्भ का अवलोकन कर सकते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [761 Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -उक्कोसेणं णेरइयत्ताए-यहां का बिन्दु-बावीससागरोवमद्विइएसु नेरइएसु-इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। ___-सेसे जहा देवदत्ताए-इन पदों से सूत्रकार ने अञ्जूश्री के जीवनवृत्तान्त को देवदत्ता के तुल्य संसूचित किया है, अर्थात् जिस प्रकार दुःखविपाक के नवम अध्ययन में देवदत्ता के पालन, पोषण, शारीरिक सौन्दर्य तथा कुब्जादि दासियों के साथ विशाल भवन के ऊपर झरोखे में सोने की गेंद से खेलने का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार अञ्जूश्री के सम्बन्ध में भावना कर लेनी चाहिए। ___-आसवा-यहां का बिन्दु-हणियाए णिजायमाणे-इस पाठ का बोधक है। तथाजहेव वेसमणदत्ते तहेव अंजू-इन पदों से सूत्रकार ने नवम अध्ययन में वर्णित पदार्थ की ओर संकेत किया है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार नवमाध्याय में वर्णित रोहीतकनरेश वैश्रमणदत्त गाथापति के घर के निकट जाते हुए सोने की गेंद से खेलती हुई देवदत्ता को देखते हैं और उसके . रूपादि से विस्मित एवं मोहित होते हैं, वैसे ही वर्धमाननरेश विजय धनदेव के घर के निकट जाते हुए अञ्जूश्री को देख कर उस के रूपादि से विस्मित एवं मोहित हो जाते हैं। -णवरं अप्पणो अदाए वरेति-यहां प्रयुक्त णवरं-इस अव्यय पद का अर्थ हैकेवल अर्थात् केवल इतना अन्तर है। तात्पर्य यह है कि वैश्रमणदत्त और विजयमित्र में इतना अन्तर है कि वैश्रमणदत्त नरेश ने देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दी के लिए मांगा था जब कि : विजय नरेश ने अंजूश्री को अपने लिए अर्थात् अपनी रानी बनाने के लिए याचना की थी। ___-जाव अंजूए-यहां पठित जाव-यावत् पद से श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के १४वें अध्ययन में वर्णित तेतलिपुत्र ने जिस तरह पोटिल्ला को अपने लिए मांगा था-आदि कथासंदर्भ के संसूचित पाठ को सूचित किया गया है, जिसे श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग में देखा जा सकता है। -उप्पिं जाव विहरति-यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत-पासायवरगए फुट्टमाणेहि-से लेकर-पच्चणुभवमाणे-यहां तक के पद तृतीय अध्याय में लिखे जा चुके हैं / अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्नसेन का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में विजय नरेश का। अब सूत्रकार अंजूश्री के आगामी जीवनवृत्तान्त का वर्णन करते हैं मूल-तते णं तीसे अंजूए देवीए अन्नया कयाइ जोणिसूले पाउब्भूते यावि होत्था।तते णं से विजए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति 2 त्ता एवं वयासीगच्छह णं देवाणुप्पिया ! वद्धमाणपुरे नगरे सिंघा० जाव एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अंजूए देवीए जोणिसूले पाउन्भूते जो णं इच्छति वेजो वा 6. जाव उग्घोसेंति। तते णं ते बहवे वेजा वा 6 इमं एयारूवं उग्घोसणं सोच्चा 762 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसम्म जेणेव विजए राया तेणेव उवागच्छन्ति अंजूए देवीए बहूहिं उप्पत्तियाहिं 4 बुद्धिहिं परिणामेमाणा इच्छंति अंजूए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तए, नो . संचाएंति उवसामित्तए। तते णं ते बहवे वेजा य 6 जाहे नो संचाएंति अंजूए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तए, ताहे संता तंता परितंता जामेव दिसं पाउन्भूता तामेव दिसं पडिगता। तते णं सा अंजू देवी तीए वेयणाए अभिभूया समाणी सुक्का भुक्खा निम्मंसा कट्ठाइं कलुणाई वीसराइं विलवति। एवं खलु गोयमा! अंजू देवी पुरा जाव विहरति। छाया-ततस्तस्या अंज्वा देव्या अन्यदा कदाचित् योनिशूलं प्रादुर्भूतं चाप्यभूत्। ततः स विजयो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दाययति 2 एवमवादीत्-गच्छत देवानुप्रियाः! वर्धमानपुरे नगरे शृंघाटक यावद् एवमवदत-एवं खलु देवानुप्रियाः ! अंज्वा देव्या योनिशूलं प्रादुर्भूतं य इच्छति वैद्यो वा 6 यावदुद्घोषयन्ति / ततस्ते बहवो वैद्या वा 6 इमामेतद्रूपामुदघोषणां श्रुत्वा निशम्य यत्रैव विजयो राजा तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य अंज्वा देव्या बहुभिः औत्पातिकीभि 4 बुद्धिभिः परिणमयन्त इच्छन्ति, अंज्वा देव्या योनिशूलमुपशमयितुम्। नो संशक्नुवन्ति उपशमयितुम्। ततस्ते बहवो वैद्याः६ यदा नो संशक्नुवन्ति अंज्वा देव्या योनिशूलमुपशमयितुम्, तदा श्रान्ताः तान्ताः परितान्ताः यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव दिशं प्रतिगताः। ततः सा अंतर्देवी तया वेदनया अभिभूता सती शुष्का बुभुक्षिता निर्मांसा कष्टानि करुणानि विस्वराणि विलपति / एवं खलु गौतम! अंजूदेवी पुरा यावद् विहरति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। तीसे-उस। अञ्जूए-अंजू। देवीए-देवी के। अन्नया-अन्यदा। कयाइ-कदाचित् / जोणिसूले-योनिशूल-योनि में होने वाली असह्य वेदना। पाउब्भूते-प्रादुर्भूत-उत्पन्न / यावि होत्था-हो गई थी। तते णं-तदनन्तर / से-वह। विजए-विजयमित्र / राया-राजा। कोडुंबियपुरिसेकौटुम्बिक पुरुषों-पास में रहने वाले अनुचरों को। सद्दावेति 2 त्ता-बुलाता है और बुलाकर। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिया !-हे भद्र पुरुषो ! गच्छह णं-तुम जाओ। वद्धमाणपुरेवर्धमानपुर। णगरे-नगर के। सिंघा०-शृङ्गाटक-त्रिपथ। जाव-यावत् सामान्य मार्गों में। एवं-इस प्रकार। वयह-कहो-उद्घोषणा करो। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। देवाणुप्पिया!-हे महानुभावो ! अंजूएअंजू। देवीए-देवी के। जोणिसूले-योनिशूल-रोगविशेष। पाउब्भूते-प्रादुर्भूत हो गया है-योनि में तीव्र वेदना उत्पन्न हो गई, तब। जो णं-जो कोई। वेजो वा ६-वैद्य या वैद्यपुत्र आदि। इच्छति-चाहता है। जाव-यावत् अर्थात् उपशान्त करने वाले को महाराज विजयमित्र पर्याप्त धनसम्पत्ति से सन्तुष्ट करेगा, इस प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय . [763 Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार / उग्घोसेंति-उद्घोषणा करते हैं। तते णं-तदनन्तर (नगरस्थ)। ते-वे। बहवे-बहुत से। वेजा वा ६-वैद्य आदि / इमं-यह / एयारूवं-इस प्रकार की। उग्घोसणं-उद्घोषणा को।सोच्चा-सुन कर। निसम्मअर्थरूप से अवधारण कर। जेणेव-जहां पर। विजए-विजयमित्र। राया-राजा था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छन्ति 2 त्ता-आ जाते हैं, आकर। अतए-अंजू। देवीए-देवी के पास उपस्थित होते हैं, और। बहूहि-विविध प्रकार से। उप्पत्तियाहि-औत्पातिकी आदि। बुद्धिहिं-बुद्धियों के द्वारा। परिणामेमाणापरिणाम को प्राप्त कर अर्थात् निदान आदि द्वारा निर्णय करते हुए वे वैद्य। अञ्जूए देवीए-अंजूदेवी के (नाना प्रकार के प्रयोगों द्वारा)। जोणिसूलं-योनिशूल को। उवसामित्तए-उपशान्त करना। इच्छंतिचाहते हैं, अर्थात् यत्न करते हैं, परन्तु। उवसामित्तए-उपशान्त करने में। नो संचाएंति-समर्थ नहीं होते अर्थात् अंजूदेवी के योनिशूल को उपशांत दूर करने में सफल नहीं हो पाए। तते णं-तदनंतर। ते वेजा य ६-वे वैद्य आदि। जाहे-जब। अञ्जूए-अंजू। देवीए-देवी के / जोणिसूल-योनिशूल को। उवसामित्तएउपशान्त करने में। नो संचाएंति-समर्थ नहीं हो सके। ताहे-तब। तंता-तांत-खिन्न। संता-श्रांत, और। परितंता-हतोत्साह हुए 2 / जामेव-जिस। दिसं-दिशा से। पाउब्भूता-आए थे। तामेव-उसी.। दिसंदिशा को। पडिगता-वापिस चले गए। तते णं-तदनन्तर। सा-वह। अञ्जू देवी-अंजू देवी। ताए-उस। वेयणाए-वेदना से। अभिभूया-अभिभूत-युक्त। समाणी-हुई 2 / सुक्का-सूख गई। भुक्खा -भूखी रहने लगी। निम्मंसा-मांसरहित हो गई। कट्ठाई-कष्टहेतुक। कलुणाई-करुणोत्पादकं / वीसराइं-दीनतापूर्ण वचनों से। विलवति-विलाप करती है। गोयमा !-हे गौतम ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। अजू देवी-अंजूदेवी। पुरा जाव विहरति-पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का फल भोग रही है। . मूलार्थ-किसी अन्य समय अंजूश्री के शरीर में योनिशूल नामक रोग का प्रादुर्भाव हो गया। यह देख विजयनरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा कि तुम लोग वर्धमानपुर में जाकर वहां के त्रिपथ, चतुष्पथ यावत् सामान्य रास्तों पर यह उद्घोषणा कर दो कि देवी अंजूश्री के योनिशूल रोग उत्पन्न हो गया है, अतः जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र आदि उस को उपशांत कर देगा तो उसे महाराज विजयमित्र पुष्कल धन प्रदान करेंगे। तदनन्तर राजाज्ञा से अनुचरों के द्वारा की गई इस उद्घोषणा को सुन कर नगर के बहुत से अनुभवी वैद्य, वैद्यपुत्र आदि विजयमित्र के पास आते हैं और वहां से देवी अंजूश्री के पास उपस्थित हो कर औत्पातिकी आदि बुद्धियों के द्वारा परिणाम को प्राप्त करते हुए विविध प्रकार के आनुभविक प्रयोगों के द्वारा देवी अंजूश्री के योनिशुल को उपशान्त करने का यत्न करते हैं, परन्तु उन के प्रयोगों से देवी अंजूश्री का योनिशूल उपशान्त नहीं हो पाया। तदनन्तर जब वे अनुभवी वैद्य अंजूश्री के योनिशूल को शमन करने में विफल हो गए, तब वे खिन्न, श्रान्त और हतोत्साह हो कर जिधर से आए थे उधर को ही चले गए। तत्पश्चात् देवी अंजूश्री उस शूलजन्य वेदना से दुःखी हुई सूखने लगी, भूखी रहने लगी और मांसरहित होकर कष्ट, करुणाजनक और दीनतापूर्ण शब्दों में 764 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलाप करती हुई जीवन यापन करने लगी। .. .भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार देवी अंजूश्री अपने पूर्वोपार्जित पाप कर्मों के फल का उपभोग करती हुई जीवन व्यतीत कर रही है। टीका-सुख और दुःख दोनों प्राणी के शुभ और अशुभ कर्मों के फलविशेष हैं, जो कि समय-समय पर प्राणी उन के फल का उपभोग करते रहते हैं। शुभकर्म के उदय में जीव सुख और अशुभ के उदय में जीव दुःख का अनुभव करता है। एक की समाप्ति और दूसरे का उदय इस प्रकार चलने वाले कर्मचक्र में भ्रमण करने वाले जीव को दुःख के बाद सुख और सुख के अनन्तर दुःख का निरंतर अनुभव करना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जब तक आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध है तब तक उन में समय-समय पर सुख और दुःख दोनों की अनुभूति बनी रहती है। उक्त नियम के अनुसार अंजूश्री के जब तक शुभ कर्मों का उदय रहा तब तक तो उसे शारीरिक और मानसिक सब प्रकार के सुख प्राप्त रहे, महाराज विजयमित्र की महारानी बन कर मानवोचित सांसारिक वैभव का उस ने यथेष्ट उपभोग किया, परन्तु आज उस के वे शुभ कर्म फल देकर प्रायः समाप्त हो गए। अब उनकी जगह अशुभ कर्मों ने ले ली है। उन के फलस्वरूप वह तीव्रवेदना का अनुभव कर रही है। योनिशूल के पीड़ा ने उस के शरीर को सुखा कर अस्थिपंजर मात्र बना दिया। उसके शरीर की समस्त कान्ति सर्वथा लुप्त हो गई। वह शूलजन्य असह्य वेदना से व्याकुल होकर रात-दिन निरन्तर विलाप करती रहती है। महाराज विजयमित्र ने उस की चिकित्सा के लिए नगर के अनेक अनुभवी चिकित्सकों, निपुण वैद्यों को बुलाया और उन्होंने भी अपने बुद्धिबल से अनेक प्रकार के शास्त्रीय प्रयोगों द्वारा उसे उपशान्त करने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु वे सब विफल ही रहे। किसी के भी उपचार से कुछ न बना। अन्त में हताश होकर उन वैद्यों को भी वापिस जाना पड़ा। यह है अशुभ कर्म के उदय का प्रभाव, जिस के आगे सभी प्रकार के आनुभविक उपाय भी निष्फल निकले। . श्रमण भगवान् महावीर फरमाने लगे कि गौतम ! तुम ने महाराज विजयमित्र की अशोकवाटिका के समीप आन्तरिक वेदना से दुःखी हो कर विलाप करती हुई जिस स्त्री को देखा था, वह यही अंजूश्री है, जो कि अपने पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों के कारण दुःखमय विपाक का अनुभव कर रही है। -सिघा. जाव एवं-यहां पठित जाव-यावत् पद-दुग-तिय-चउक्क-चच्चरमहापह-पहेसु महया 2 सद्देणं उग्घोसेमाणा-इन पदों का तथा-वेजा वा ६-यहां का अङ्क-वेजपुत्तो वा जाणओ वा जाणयपुत्तो वा तेइच्छिओ वा तेइच्छियपुत्तो वा-इन पदों प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [765 Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का परिचायक है। इन पदों का अर्थ प्रथमाध्याय में लिखा जा चुका है। -जाव उग्घोसंति-यहां का जाव-यावत् पद -अंजूए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तते, तस्स णं विजए राया विउलं अत्थसंपयाणं दलयति, दोच्चं पितच्चं पि उग्घोसेह उग्घोसित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणेह।तते णं ते कोडुंबिया पुरिसा, एयमटुं करयलपरिग्गहियं मत्थए दसणहं अंजलिं कट्ट पडिसुणेति पडिसुणित्ता वद्धमाणपुरे सिंघाडग० जाव पहेसु महया 2 सद्देणं एवं खलु देवाणुप्पिया ! अंजूए देवीए जोणिसूले पाउब्भूते, तं जो णं इच्छति वेजो वा 6 अंजूए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तते, तस्स णं विजए राया विउलं अत्थसंपयाणं दलयति त्ति-इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही है। -उप्पत्तियाहिं 4 बुद्धिहिं-यहां के अंक से अभिमत अवशिष्ट वैनयिकी आदि तीन बुद्धियों की सूचना अष्टमाध्याय में की जा चुकी है। तथा-श्रान्त, तान्त और परितान्त पदों का अर्थ प्रथमाध्याय में तथा-शुष्का-इत्यादि पदों का अर्थ पीछे अष्टमाध्याय में, तथा-पुरा / जाव विहरति-यहां के जाव-यावत् पद से विवक्षित पदों का विवरण तृतीयाध्याय में किया जा चुका है। ___ अञ्जूश्री के जीवनवृत्तान्त का श्रवण कर और उसके शरीरगत रोग को असाध्य जान कर मृत्यु के अनन्तर उस का क्या बनेगा, इस जिज्ञासा को लेकर गौतम स्वामी प्रभु से फिर पूछते हैं मूल-अंजूणं भंते ! देवी इओ कालमासे कालं किच्चा कहिंगच्छिहिति?, कहिं उववजिहिति ? छाया-अजूः भदन्त ! देवी इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ?, कुत्र उपपत्स्य ते ? पदार्थ-भंते !-हे भगवन् ! अंजू णं देवी-अजूदेवी। इओ-यहां से। कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल करके। कहिं-कहां। गच्छिहिति?-जाएगी? कहिं-कहां पर। उववजिहितिउत्पन्न होगी? मूलार्थ-भगवन् ! अंजूदेवी यहां से कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर काल करके कहां जाएगी? और कहां पर उत्पन्न होगी? टीका-वर्धमान नरेश विजयमित्र के अशोकवाटिका के निकट जाते हुए गौतम स्वामी ने जो एक स्त्री का दयनीय दृश्य देखा था, तथा उस से उन के मन में उस के पूर्वजन्मसम्बन्धी 1. अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद द्वितीयान्त तथा पुरुषवर्णन में उपन्यस्त हैं। 766 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्तान्त को जानने के जो संकल्प उत्पन्न हुए थे, उन की पूर्ति हो जाने पर वे बड़े गद्गद् हुए और फिर उन्होंने भगवान् से उस के आगामी भवों के सम्बन्ध में पूछना आरम्भ किया। वे बोले-"भदन्त ! अंजूश्री यहां से मर कर कहाँ जाएगी? और कहां उत्पन्न होगी ? तात्पर्य यह है कि अञ्जूश्री इसी भान्ति संसार में घटीयन्त्र की तरह जन्म-मरण के चक्र' में पड़ी रहेगी या इस का कहीं उद्धार भी होगा? इस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया, अब सूत्रकार उस का उल्लेख करते हैं . मूल-गोतमा ! अंजू णं देवी नउई वासाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववजिहिइ। एवं संसारो जहा पढमो तहा णेयव्वं जाव वणस्सति / सा णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता सव्वओभद्दे णगरे मयूरत्ताए पच्चायाहिति।सेणंतत्थ साउणिएहिं वधिते समाणे तत्थेव सव्वओभद्दे णगरे सेट्टिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति। से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुझिहिति।पवजा / सोहम्मे / ततो देवलोगाओ आउक्खएणं कहिंगच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति? गोतमा ! महाविदेहे जहा पढमे जाव सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति।एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते। सेवं भंते ! सेवं भंते ! - दुहविवागेसु दससु अज्झयणेसु पढमो सुयक्खंधो समत्तो॥ छाया-गौतम ! अजूदेवी नवतिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते, एवं संसारो यथा प्रथमः तथा ज्ञातव्यो यावद् वनस्पति ।सा ततोऽनन्तरमुढ्त्य सर्वतोभद्रे नगरे मयूरतया प्रत्यायास्यति। स तत्र शाकुनिकैर्हतः सन् तत्रैव सर्वतोभद्रे नगरे श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति।स तत्र उन्मुक्तबालभावः तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके केवलं बोधिं भोत्स्यते प्रव्रज्या / सौधर्मे / ततो देवलोकाद् आयुःक्षयेण कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोपपत्स्यते? गौतम ! 1. अहो ! संसारकूपेऽस्मिन् जीवाः कुर्वन्ति कर्मभिः / __ अरघट्टघटीन्यायेन एहिरेयाहिरां क्रियाम् // 1 // अर्थात् आश्चर्य है कि इस संसाररूप कूप में जीव (प्राणी) कर्मों के द्वारा अरघट्टघटी-न्याय के अनुसार गमनागमन की क्रिया करते रहते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [767 Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविदेहे यथा प्रथमः यावत् सेत्स्यति, यावद् अन्तं करिष्यति। एवं खलु जम्बू ! ' श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन दु:खविपाकानां दशमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! // दुःखविपाकेषु दशस्वध्ययनेषु प्रथमः श्रुतस्कन्धः समाप्तः॥ पदार्थ-गोतमा ! हे गौतम ! अजू णं देवी-अंजू देवी। नउइं-नवति (90) / वासाइं-वर्षों की। परमाउं-परम आयु। पालइत्ता-पाल कर। कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल करके। इमीसे-इस। रयणप्पभाए-रत्नप्रभा नामक। पुढवीए-पृथिवी में। णेरइयत्ताए-नारकीयरूप से। उववजिहिइ-उत्पन्न होगी। एवं-इस प्रकार। संसारो-संसारभ्रमण। जहा-जैसे। पढमो-प्रथम अध्ययन में प्रतिपादन किया है। तहा-तथा-उसी तरह।णेयव्वं-जानना चाहिए। जाव-यावत्।वणस्सति-वनस्पतिगत निम्बादि कटुवृक्षों तथा कटु दुग्ध वाले अर्कादि पौधों में लाखों बार उत्पन्न होगी। सा णं-वह / ततो -वहां से।अणंतरं-व्यवधानरहित। उव्वट्टित्ता-निकल कर। सव्वओभद्दे-सर्वतोभद्र / णगरे-नगर में। मयूरत्ताए- ' मयूर-मोर के रूप में। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगी। से णं-वह मोर। तत्थ-वहां पर। साउणिएहिशाकुनिकों-पक्षिघातक शिकारियों के द्वारा ।वधिते समाणे-वध किया जाने पर।तत्थेव-उसी।सव्वओभद्देसर्वतोभद्र। णगरे-नगर में। सेट्ठिकुलंसि-श्रेष्ठिकुल में। पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। से णं-वह। तत्थ-वहां पर। उम्मुक्कबालभावे-बालभाव को त्याग कर-यौवनावस्था को प्राप्त हुए तथा विज्ञान की परिपक्व अवस्था को प्राप्त किए हुए। तहारूवाणं-तथारूप। थेराणं-स्थविरों के। अंतिए-समीप। केवलं-केवल अर्थात् शंका, आकांक्षा आदि दोषों से रहित। बोधिं-बोधि (सम्यक्त्व) को। बुज्झिहिति-प्राप्त करेगा, तदनन्तर। पव्वजा-प्रव्रज्या ग्रहण करेगा, उस के अनन्तर। सोहम्मे०सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। ततो-तदनन्तर / देवलोगाओ-वहां की अर्थात देवलोक की। आउक्खएणं-आयु पूर्ण कर। कहिं-कहां। गच्छिहिति ?-जाएगा? कहिं-कहां? उववजिहिइ?उत्पन्न होगा? गोतमा !-हे गौतम! महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्र में (जाएगा और वहां उत्तम कल में जन्मेगा)। जहा पढमे-जैसे प्रथम अध्ययन में वर्णन किया है, तद्वत्। जाव-यावत् / सिज्झिहिति-सिद्ध पद को प्राप्त करेगा। जाव-यावत्। अंतं काहिति-सर्व दु:खों का अन्त करेगा। एवं-इस प्रकार। खलुनिश्चय ही। जम्बू !-हे जम्बू ! समणेणं-श्रमण। जाव-यावत्। संपत्तेणं-सम्प्राप्त ने। दुहविवागाणंदुःखविपाक के। दसमस्स-दसवें। अज्झयणस्स-अध्ययन का। अयमढे-यह अर्थ। पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है। भंते !-हे भगवन् ! सेवं-वह इसी प्रकार है। भंते !-हे भगवन् ! सेवं-वह इसी प्रकार है। दुहविवागेसु-दुःखविपाक के। दससु-दस। अज्झयणेसु-अध्ययनों में। पढमो-प्रथम। सुयक्खंधोश्रुतस्कन्ध। समत्तो-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-हे गौतम ! अंजूदेवी 90 वर्ष की परम आयु को भोग कर कालमास में काल करके इस रत्नप्रभा नामक पृथ्वी में नारकीयरूप से उत्पन्न होगी। उस का शेष संसारभ्रमण प्रथम अध्ययन की तरह जानना चाहिए, यावत् वनस्पतिगत निम्बादि कटुवृक्षों 768 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा कटुदुग्ध वाले अर्क आदि पौधों में लाखों बार उत्पन्न होगी, वहां की भवस्थिति को पूर्ण कर वह सर्वतोभद्र नगर में मयूर-मोर के रूप में उत्पन्न होगी।वहां वह मोर पक्षिघातकों के द्वारा मारा जाने पर उसी सर्वतोभद्र नगर के एक प्रसिद्ध श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां बालभाव को त्याग, यौवन अवस्था को प्राप्त तथा विज्ञान की परिपक्व अवस्था को उपलब्ध करता हुआ वह 'तथारूप स्थविरों के समीप बोधिलाभसम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। तदनन्तर प्रव्रज्या-दीक्षा ग्रहण करके, मृत्यु के बाद सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होगा। गौतम-भगवन् ! देवलोक की आयु तथा स्थिति पूरी होने के बाद वह कहाँ जाएगा? कहां उत्पन्न होगा? भगवान्-गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जाएगा और वहां उत्तम कुल में जन्म लेगा, जैसे कि प्रथम अध्ययन में वर्णन किया गया है, यावत् सर्व दुःखों से रहित हो जाएगा। हे जम्बूं ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के दशवें अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। - जम्बू-भगवन् ! आप का यह कथन सत्य है, परम सत्य है। ॥दशम अध्ययन सम्पूर्ण॥ ॥दुःखविपाकीय प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त॥ टीका-परमदुःखिता अंजूदेवी के भावी भवों को गौतम स्वामी द्वारा प्रस्तुत की गई जिज्ञासा की पूर्ति में भगवान् ने जो कुछ फरमाया है, उस का उल्लेख ऊपर मूलार्थ में किया जा चुका है, जो कि सुगम होने से अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। .. महापुरुषों की जिज्ञासा भी रहस्यपूर्ण होती है, उस में स्वलाभ की अपेक्षा परलाभ को बहुत अवकाश रहता है। अंजूदेवी के विषय में उस के अतीत, वर्तमान और भावी जीवन के विषय में जो कुछ पूछा है, तथा उस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया है, उस का ध्यानपूर्वक अवलोकन और मनन करने से विचारशील व्यक्ति को मानव जीवन के उत्थान के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध होते हैं / इस के अतिरिक्त आत्मशुद्धि में प्रतिबन्धरूप से उपस्थित होने वाले काम, मोह आदि कारणों को दूर करने में साधक को जिस बल एवं साहस की आवश्यकता होती है, उस की काफी सामग्री इस में विद्यमान है। . मूलगत "एवं संसारो जहा पढमो, जहा णेयव्वं"-इस उल्लेख से सूत्रकार ने मृगापुत्र नामक प्रथम अध्ययन को सूचित किया है। अर्थात् जिस प्रकार विपाकसूत्रगत प्रथम .. 1. तथारूप स्थविर का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह प्रथमाध्याय में किया जा चुका है। 'प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [769 Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन में मृगापुत्र का संसार-भ्रमण प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार अंजूश्री के जीव, का भी समझ लेना चाहिए। अंजूश्री और मृगापुत्र के जीव का शेष संसारभ्रमण समान है, ऐसा बोधित करना सूत्रकार को इष्ट है, तथा मृगापुत्र का संसारभ्रमण पूर्व के प्रथम अध्ययन में वर्णित हो चुका है। प्रश्न-सूत्रकार ने प्रत्येक स्थान पर "संसारो जहा पढमो"-का उल्लेख कर के सब का संसारभ्रमण समान ही बताया है, तो क्या सब के कर्म एक समान थे? क्या कर्मबन्ध के समय उन के अध्यवसाय में कोई विभिन्नता नहीं थी ? उत्तर-सामान्यरूप से तो यह सन्देह ठीक मालूम देता है, परन्तु यदि कुछ गम्भीरता से विचार किया जाए तो इस का समाहित होना कुछ कठिन नहीं है। आगमों में लिखा है कि संसार में अनन्त आत्माएं हैं। किसी का कर्ममल भिन्न तथा किसी का अभिन्न साधनों में संगृहीत होता है, इसी प्रकार कर्मफल भी भिन्न और अभिन्न दोनों रूप से मिलता है। मान लो-दो आदमियों ने जहर खाया तो उन को फल भी बराबर सा हो यह आवश्यक नहीं, क्योंकि विष किसी के प्राणों का नाशक होता है और किसी का घातक नहीं भी होता। सारांश यह है कि कर्मगत समानता होने पर भी फलजनक साधनों में भिन्नता हो सकती है। जैसा-जैसा कर्म होगा, वैसा-वैसा फल होगा। कई बार एक ही स्थान मिलने पर फल भिन्न-भिन्न होता है। जैसे-अनेकों अपराधी हैं किन्तु दण्ड-विभिन्न होने पर भी स्थान एक होता है, जिसे कारागार जेल के नाम से पुकारा जाता है। इसी तरह जीवों का संसारभ्रमण एक सा होने पर भी फल भिन्न-भिन्न हो तो इस में कौन सी आपत्ति है ? अथवा-जो बराबर के कर्म करने वाले हैं तो उन का संसारभ्रमण तथा फल भी बराबर होगा। इस सूत्र में उन आत्माओं का वर्णन है जिन्होंने भिन्न-भिन्न कर्म किए हैं, और उन का दण्ड भी भिन्न-भिन्न है परन्तु स्थान अर्थात् संसार एक है। तभी तो यह वर्णन किया है कि संसारभ्रमण के अनन्तर कोई महिष बनता है, कोई मृग तथा कोई मोर और कोई हंस बनता है। इसी तरह मच्छ और शूकर आदि का भी उल्लेख है। तब यदि दण्डगत भिन्नता न होती तो महिष आदि विभिन्न रूपों में उल्लेख कैसे किया जाता ? इसलिए सूत्र में उल्लेख की गई संसारभ्रमण की समानता स्थानाश्रित है जोकि युक्तियुक्त और आगमसम्मत है। तात्पर्य यह है कि सूत्रकार के उक्त कथन से परिणामगत विभिन्नता को कोई क्षति नहीं पहुँचती।। अंजूश्री का जीव वनस्पतिकायगत कटुवृक्षों तथा कटुदुग्ध वाले अर्कादि पौधों में लाखों बार जन्म-मरण करने के अनन्तर सर्वतोभद्र नगर में मोर के रूप में अवतरित होगा। 1. देखो-श्री भगवतीसूत्र शतक 29, उद्देश० 1 / / 770 1 श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहां पर भी उसके दुष्कर्म उस का पीछा नहीं छोड़ेंगे। वह शाकुनिकों-पक्षिघातकों के हाथों मृत्यु को प्राप्त हो कर उसी नगर के एक धनी परिवार में उत्पन्न होगा। वहां युवावस्था को प्राप्त कर विकास-मार्ग की ओर प्रस्थित होता हुआ वह विशिष्ट संयमी मुनिराजों के सम्पर्क में आकर सम्यक्त्व को उपलब्ध करेगा। अन्त में साधुधर्म में दीक्षित होकर कर्मबन्धनों के तोड़ने का प्रयास करेगा। जीवन के समाप्त होने पर वह सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवस्वरूप से उत्पन्न होगा। वहां के दैविक सुखों का उपभोग करेगा। इतना कह कर भगवान् मौन हो गए। तब गौतम स्वामी ने फिर पूछा कि भगवन् ! देवभवसम्बन्धी आयु को पूर्ण कर अंजूश्री का जीव कहाँ जाएगा और कहाँ उत्पन्न होगा? इसके उत्तर में भगवान् बोले-गौतम! महाविदेह क्षेत्र के एक कुलीन घर में वह जन्मेगा, वहां संयम की सम्यक् आराधना से कर्मों का आत्यंतिक क्षय करके सिद्धगति को प्राप्त होगा। तात्पर्य यह है कि यहां आकर उस की जीवनयात्रा का पर्यवसान हो जाएगा। . सौधर्म देवलोक में अंजूश्री के जीव की उत्पत्ति बता कर मौन हो जाने और गौतम स्वामी के दोबारा पूछने पर उस की अग्रिम यात्रा का वर्णन करने से यही बात फलित होती है कि स्वर्ग में गमन करने पर भी आत्मा की सांसारिक यात्रा समाप्त नहीं हो जाती। वहां से च्यव कर उसे कहीं अन्यत्र उत्पन्न होकर अपनी जीवनयात्रा को चालू रखना ही पड़ता है। अन्त में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बू स्वामी से कहने लगे-जम्बू ! पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के अंजूश्री नामक दसवें अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने भगवान् से जैसा श्रवण किया है वैसा ही तुम को सुना दिया है। इस में मेरी निजी कल्पना कुछ नहीं है। आर्य सुधर्मा स्वामी के उक्त वचनामृत का कर्णपुटों द्वारा सम्यक् पान कर संतृप्त हुए जम्बू स्वामी आर्य सुधर्मा स्वामी के पावन चरणों में सिर झुकाते हुए गद्गद् स्वर में कह उठते हैं-"सेवं भंते ! सेवं भंते !" अर्थात् भगवन् ! जो कुछ आपने फरमाया है, वह सत्य है, यथार्थ -णेयव्वं जाव वणस्सइ०-यहां का जाव-यावत् पद प्रथमाध्याय में पढ़े गए-सा णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववजिहिइ।तत्थणं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीएसे लेकर-तेइंदिएसु बेइन्दिएसु-यहां तक के पदों का, तथा-वणस्सइ०-यहां का बिन्दुकडुयरुक्खेसु कडुयदुद्धिएसु...अणेगसतसहसक्खुत्तो उववजिहिइ-इन पदों का परिचायक है। तथा उम्मुक्कबालभावे०-यहां का बिन्दु-जोव्वणगमणुपत्ते विण्णायपरिणयमेत्ते-इन पदों का परिचायक है। इन का अर्थ छठे अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा-पव्वजा. प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [771 Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहम्मे- ये पद पंचमाध्याय में पढ़े गए-२(बुझिहित्ता)अगाराओ अणगारियं पव्वइहिइसे लेकर-कप्पे देवत्ताए उववजिहिइ-इन पदों के परिचायक हैं। ___-महाविदेहे जहा पढमे जाव सिज्झिहिइ-अर्थात् अंजूश्री का जीव देवलोक से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, उस का अवशिष्ट वर्णन प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की तरह समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सूत्रकार ने -"जहा पढमे"-यहां प्रयुक्तयथा तथा प्रथम- इन शब्दों का ग्रहण कर प्रथमाध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की ओर संकेत किया है, और जो "-अंजू श्री के जीव का महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होने के अनन्तर मोक्षपर्यन्त जीवनवृत्तान्त मृगापुत्र की भान्ति जानना चाहिए-" इन भावों का परिचायक है। तथा महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष जाने तक के कथावृत्त को सूचित करने वाले पाठ का बोधक जाव-यावत् पद है। यावत् पद से बोधित होने वाला-वासे जाइं कुलाइं भवन्ति अड्ढाइं-से लेकर-वत्तव्वया जाव-यहां तक का पाठ पंचमाध्याय में लिखा जा चुका है। __-सिज्झिहिति जाव अन्तं काहिति-यहां पठित जावत्-यावत् पद से-बुझिहिति मुच्चिहिति, परिणिव्वाहिति सव्वदुक्खाणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। सिज्झिहिति इत्यादि पदों का अर्थ निम्नोक्त है १-सिज्झिहिति-सब तरह से कृतकृत्य हो जाने के कारण सिद्ध पद को प्राप्त करेगा। २-बुझिहिति-केवलज्ञान के आलोक से सकल लोक और अलोक का ज्ञाता होगा। ३-मुच्चिहिति-सर्व प्रकार के ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों से विमुक्त हो जाएगा। ४-परिणिव्वाहिति-समस्त कर्मजन्य विकारों से रहित हो जाएगा। ५-सव्वदुक्खाणमंतं काहिति-मानसिक, वाचिक और कायिक सब प्रकार के दुःखों का अन्त कर डालेगा, अर्थात् अव्याबाध सुख को उपलब्ध कर लेगा। -समणेणं जाव सम्पत्तेणं-यहां पठित जाव-यावत् पद से-भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयं संबुद्धेणं पुरिसुत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपुण्डरीएणं पुरिसवरगन्धहत्थिणा लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोगपज्जोयगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं बोहिदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायएणं धम्मसारहिणा धम्मवरचउरंतचक्कवट्टिणा दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा अप्पडिहयवरनाणदंसणधरेणं वियदृच्छउमेणं जिणेणं जाणएणं तिण्णेणं तारएणं बुद्धेणं. बोहएणं मुत्तेणं मोयएणं सव्वण्णुणा सव्वदरिसिणा सिवमयलमरुअमणंतमख्यमव्वा 772 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। श्रमण आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है. १-श्रमण-तपस्वी अथवा प्राणिमात्र के साथ समतामय-समान व्यवहार करने वाले को श्रमण कहते हैं। २-भगवान्-जो ऐश्वर्य से सम्पन्न और पूज्य होता है, वह भगवान् कहलाता है। . ३-महावीर-जो अपने वैरियों का नाश कर डालता है, उस विक्रमशाली पुरुष को वीर कहते हैं। वीरों में भी जो महान् वीर है, वह महावीर कहलाता है। प्रस्तुत में यह भगवान् वर्धमान का नाम है, जो कि उन के देवाधिकृत संकटों में सुमेरु की तरह अचल रहने तथा घोर परीषहों और उपसर्गों के आने पर भी क्षमा का त्याग न करने के कारण देवताओं ने रखा था। आगे कहे जाने वाले आदिकर आदि सभी विशेषण भगवान् महावीर के ही हैं। ४-आदिकर-आचारांग आदि बारह अंगग्रन्थ श्रुतधर्म कहे जाते हैं। श्रुतधर्म के अदिकर्ता अर्थात् आद्य उपदेशक होने के कारण भगवान् महावीर को आदिकर कहा गया है। ५-तीर्थंकर-जिस के द्वारा संसाररूपी मोह माया का नद सुविधा से तिरा जा सकता है, उसे तीर्थ कहते हैं और धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाला तीर्थंकर कहलाता है। ६-स्वयंसम्बुद्ध-अपने आप प्रबुद्ध होने वाला, अर्थात् क्या ज्ञेय है, क्या उपादेय है और क्या उपेक्षणीय है (उपेक्षा करने योग्य) है-यह ज्ञान जिसे स्वतः ही प्राप्त हुआ है वह स्वयंसंबुद्ध कहा जाता है। ७-पुरुषोत्तम-जो पुरुषों में उत्तम-श्रेष्ठ हो, उसे पुरुषोत्तम कहते हैं, अर्थात् भगवान् के क्या बाह्य और क्या आभ्यन्तर, दोनों ही प्रकार के गुण अलौकिक होते हैं, असाधारण होते हैं, इसलिए वे पुरुषोत्तम कहलाते हैं। . ८-पुरुषसिंह-भगवान महावीर पुरुषों में सिंह के समान थे। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मृगराज सिंह अपने बल और पराक्रम के कारण निर्भय रहता है, कोई भी पशु वीरता में उस का सामना नहीं कर सकता, उसी प्रकार भगवान् महावीर भी संसार में निर्भय रहते थे, तथा कोई भी संसारी प्राणी उन के आत्मबल, तप और त्याग संबन्धी वीरता की बराबरी नहीं कर सकता था। ९-पुरुषवरपुंडरीक-पुण्डरीक श्वेत कमल का नाम है। दूसरे कमलों की अपेक्षा श्वेत कमल, सौन्दर्य एवं सुगन्ध में अत्यन्त उत्कृष्ट होता है। हजारों कमल भी उस की सुगन्धि की बराबरी नहीं कर सकते। भगवान् महावीर पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान थे अर्थात् भगवान् मानव-सरोवर में सर्वश्रेष्ठ कमल थे। उन के आध्यात्मिक जीवन की सुगन्ध अनन्त प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [773 Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी और उस की कोई बराबरी नहीं कर सकता था। १०-पुरुषवरगन्धहस्ती-भगवान् पुरुषों में गन्धहस्ती के समान थे। गन्धहस्ती एक विलक्षण हाथी होता है। उस में ऐसी सुगन्ध होती है कि सामान्य हाथी उस की सुगन्ध पाते ही त्रस्त हो भागने लगते हैं। वे उस के पास नहीं ठहर सकते। भगवान् को गन्धहस्ती कहने का अर्थ यह है कि जहां भगवान् विचरते थे वहां अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि कोई भी उपद्रव नहीं होने पाता था। ११-लोकोत्तम-लोकशब्द से स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताललोक, इन तीनों का ग्रहण होता है। तीनों लोकों में जो ज्ञान आदि गुणों की अपेक्षा सब से प्रधान हो, वह लोकोत्तम कहलाता है। १२-लोकनाथ-नाथ शब्द का अर्थ है-योग (अप्राप्त वस्तु का प्राप्त होना) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की संकट के समय पर रक्षा करना) करने वाला नाथ कहलाता है। लोक का नाथ लोकनाथ कहा जाता है। सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों की प्राप्ति कराने के कारण तथा उन से स्खलित होने वाले मेघकुमार आदि को स्थिर करने के कारण भगवान् को लोकनाथ कहा गया है। १३-लोकहित-लोक का हित करने वाले को लोकहित कहते हैं। भगवान् महावीर मोहनिद्रा में प्रसुप्त विश्व को जगा कर आध्यात्मिकता एवं सच्चरित्रता की पुण्यविभूति से मालामाल कर उस का हित सम्पादित करते थे। १४-लोकप्रदीप-लोक के लिए दीपक की भान्ति प्रकाश देने वाला लोकप्रदीप कहा जाता है। भगवान् लोक को यथावस्थित वस्तु स्वरूप दिखाते हैं, इसलिए इन्हें लोकप्रदीप कहा जाता है। १५-लोकप्रद्योतकर-प्रद्योतकर सूर्य का नाम है। भगवान् महावीर लोंक के सूर्य थे। अपने केवलज्ञान के प्रकाश को विश्व में फैलाते थे और जनता के मिथ्यात्वरूप अन्धकार को नष्ट कर के उसे सन्मार्ग सुझाते थे। इसलिए भगवान् को लोकप्रद्योतकर कहा गया है। १६-अभयदय-अभय-निर्भयता का दान देने वाले को अभयदय कहते हैं। भगवान् महावीर तीन लोक के अलौकिक एवं अनुपम दयालु थे। विरोधी से विरोधी के प्रति भी उनके हृदय में करुणा की धारा बहा करती थी। चण्डकौशिक जैसे भीषण विषधर की लपलपाती ज्वालाओं को भी करुणा के सागर वीर ने शांत कर डाला था। इसलिए उन्हें अभयदय कहा गया है। १७-चक्षुर्दय-आंखों का देने वाला चक्षुर्दय कहलाता है। जब संसार के ज्ञानरूप 774 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्रों के सामने अज्ञान का जाला आ जाता है, उसे सत्यासत्य का कुछ विवेक नहीं रहता, तब भगवानू संसार को ज्ञाननेत्र देते हैं, अज्ञान का जाला साफ करते हैं। इसीलिए भगवान को चक्षुर्दय कहा गया है। १८-मार्गदय-मार्ग के देने वाले को मार्गदय कहते हैं। सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है। भगवान् महावीर ने इस का वास्तविक स्वरूप संसार के सामने रखा था, अतएव उन को मार्गदय कहा गया है। १९-शरणदय-शरण त्राण को कहते हैं। आने वाले तरह-तरह के कष्टों से रक्षा करने वाले को शरणदय कहा जाता है। भगवान् की शरण में आने पर किसी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं रहने पाता था। २०-जीवदय-संयम जीवन के देने वाले को जीवदय कहते हैं। भगवान् की पवित्र सेवा में आने वाले अनेकों ने संयम का आराधन करके परम साध्य निर्वाण पद को उपलब्ध किया था। २१-बोधिदय-बोधि सम्यक्त्व को कहते हैं। सम्यक्त्व का देने वाला बोधिदय कहलाता है। २२-धर्मदय-धर्म के दाता को धर्मदय कहते हैं। भगवान् महावीर ने अहिंसा, संयम तथा तपरूप धर्म का संसार को परम पावन अनुपम सन्देश दिया था। २३-धर्मदेशक-धर्म का उपदेश देने वाले को धर्मदेशक कहते हैं / भगवान् श्रुतधर्म और चारित्रधर्म का वास्तविक मर्म बताते हैं, इसलिए उन्हें धर्मदेशक कहा गया है। २४-धर्मनायक-धर्म के नेता का नाम धर्मनायक है। भगवान् धर्ममूलक सदनुष्ठानों का तथा धर्मसेवी व्यक्तियों का नेतृत्व किया करते थे। . २५-धर्मसारथि-सारथि उसे कहते हैं जो रथ को निरुपद्रवरूप से चलाता हुआ उस की रक्षा करता है, रथ में जुते हुए बैल आदि प्राणियों का संरक्षण करता है। भगवान् धर्मरूपी रथ के सारथि हैं। भगवान् धर्मरथ में बैठने वालों के सारथि बन कर उन्हें निरुपद्रव स्थान अर्थात् मोक्ष में पहुँचाते हैं। २६-धर्मवर-चतुरन्त-चक्रवर्ती-पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीनों दिशाओं में समुद्र-पर्यन्त और उत्तर दिशा में चूलहिमवन्त पर्वतपर्यन्त के भूमिभाग का जो अन्त करता है अर्थात् इतने विशाल भूखण्ड पर जो विजय प्राप्त करता है, इतने में जिस की अखण्ड और अप्रतिहत आज्ञा चलती है, उसे चतुरन्तचक्रवर्ती कहा जाता है। चक्रवर्तियों में प्रधान चक्रवर्ती को वरचतुरन्तचक्रवर्ती कहते हैं। धर्म के वरचतुरन्तचक्रवर्ती को धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्ती प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [775 Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जाता है। भगवान् महावीर स्वामी नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों का अन्त कर संपूर्ण विश्व पर अपना अहिंसा और सत्य आदि का धर्मराज्य स्थापित करते हैं। अथवा-दान, शील, तप और भावरूप चतुर्विध धर्म की साधना स्वयं अन्तिम कोटि तक करते हैं और जनता को भी इस धर्म का उपदेश देते हैं अतः वे धर्म के वरचतुरन्तचक्रवर्ती कहलाते हैं। अथवा-जिस प्रकार सब चक्रवर्ती के अधीन होते हैं, चक्रवर्ती के विशाल साम्राज्य में ही सब राजाओं का राज्य अन्तर्गत हो जाता है अर्थात् अन्य राजाओं का राज्य चक्रवर्ती के राज्य का ही एक अंश होता है, उसी प्रकार संसार के समस्त धर्मतत्त्व भगवान् के तत्त्व के नीचे आ गए हैं। भगवान् का अनेकान्त तत्त्व चक्रवर्ती के विशाल साम्राज्य के समान है और अन्य धर्मप्ररूपकों के तत्त्व एकान्तरूप होने के कारण अन्य राजाओं के समान हैं। सभी एकान्तरूप धर्मतत्व अनेकान्त तत्त्व के अन्तर्गत हो जाते हैं। इसीलिए भगवान् को धर्म का श्रेष्ठ चक्रवर्ती कहा गया है। २७-द्वीप, त्राण, शरण, गति, प्रतिष्ठा-द्वीप टापू को कहते हैं, अर्थात् संसारसागर में नानाविध दुःखों की विशाल लहरों के अभिघात से व्याकुल प्राणियों को भगवान् सान्त्वना प्रदान करने के कारण द्वीप कहे गए हैं। अनर्थों-दुःखों के नाशक को त्राण कहते हैं। धर्म और मोक्षरूप अर्थ का सम्पादन करने के कारण भगवान् को शरण कहा गया है। दुःखियों के द्वारा सुख की प्राप्ति के लिए जिस का आश्रय लिया जाए उसे गति कहते हैं। प्रतिष्ठा शब्द "-संसाररूप गर्त में पतित प्राणियों के लिए जो आधाररूप है-" इस अर्थ का परिचायक है। दुःखियों को आश्रय देने के कारण गति और उन का आधार होने से भगवान् को प्रतिष्ठा कहा गया है। मूल में भगवया इत्यादि पद तृतीयान्त प्रस्तुत हुए हैं, जब कि दीवो इत्यादि पद प्रथमान्त / ऐसा क्यों है ? यह प्रश्न उत्पन्न होना अस्वाभाविक नहीं है, परन्तु औपपातिकसूत्र में वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने-नमोऽथु णं अरिहन्ताणं भगवन्ताणं-इत्यादि षष्ठ्यन्त पदों में पढ़े गए-दीवो ताणं सरणं गई पइट्टा-इन प्रथमान्त पदों की व्याख्या में-दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा इत्यत्र जे तेसिं नमोऽत्थु णमित्येवं गमनिका कार्येति- इस प्रकार लिखा है। अर्थात् वृत्तिकार के मतानुसार-दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा-ऐसा ही पाठ उपलब्ध होता है और उस के अर्थसंकलन में-जे तेसिं नमोऽत्थु णं-(जो द्वीप, त्राण, शरण, गति और प्रतिष्ठा रूप हैं उन को नमस्कार हो), ऐसा अध्याहारमूलक अन्वय किया है। प्रस्तुत में जो प्रश्न उपस्थित हो रहा है, वह भी वृत्तिकार की मान्यतानुसार-दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा, इत्यत्र जो तेण त्ति(जो द्वीप, त्राण, शरण, गति तथा प्रतिष्ठा रूप है, उस ने) इस पद्धति से समाहित हो जाता है। 776 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८-अप्रतिहतज्ञानदर्शनधर-अप्रतिहत का अर्थ है-किसी से बाधित न होने वाला, किसी से न रुकने वाला। ज्ञान, दर्शन के धारक को ज्ञानदर्शनधर कहते हैं। तब भगवान् महावीर स्वामी अप्रतिहत ज्ञान, दर्शन के धारण करने वाले थे, यह अर्थ फलित हुआ। २९-व्यावृत्तछम-छद्म शब्द के-१-आवरण और २-छल, ऐसे दो अर्थ होते हैं। ज्ञानावरणीय आदि चार घातक कर्म आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि मूल शक्तिओं को आच्छादित किए अर्थात् ढके हुए रहते हैं, इस लिए वे छद्म कहलाते हैं। जो छद्म से अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि चार घातक कर्मों से तथा छल से अलग हो गया है, उसे व्यावृतछद्म कहते हैं। भगवान् महावीर छद्म से रहित थे। ३०-जिन-राग और द्वेष आदि आत्मसन्बन्धी शत्रुओं को पराजित करने वाला, उन का दमन करने वाला जिन कहलाता है। ३१-ज्ञायक-सम्यक् प्रकार से जानने वाला ज्ञायक कहलाता है। तात्पर्य यह है कि भगवान् राग आदि विकारों के स्वरूप को जानने वाले थे। रागादि विकारों को जान कर ही जीता जा सकता है। - कहीं-जावएणं-ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। जापक का अर्थ है-जिताने वाला। अर्थात् भगवान् स्वयं भी रागद्वेषादि को जीतने वाले थे और दूसरों को भी जिताने वाले थे। . ३२-तीर्ण-जो स्वयं संसार सागर से तर गया है, वह तीर्ण कहलाता है। ३३-तारक-जो दूसरों को संसारसागर से तराने वाला है, उसे तारक कहते हैं। . भगवान् महावीर स्वामी ने अर्जुनमाली आदि अनेकानेक भव्य पुरुषों को संसारसागर से तारा था। .. ३४-बुद्ध-जो सम्पूर्ण तत्त्वों के बोध को उपलब्ध कर रहा हो, वह बुद्ध कहलाता ३५-बोधक-जो दूसरों को जीव, अजीव आदि तत्त्वों का बोध देने वाला हो, उसे बोधक कहते हैं। जीव आदि तत्त्वों का बोध देने के कारण भगवान् को बोधक कहा गया है। ३६-मुक्त-जो स्वयं कर्मों से मुक्त है, अथवा-जो बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार की ग्रन्थियों गांठों-से रहित हो, उसे मुक्त कहा जाता है। भगवान महावीर स्वामी आभ्यन्तर और बाह्य ग्रन्थियों से रहित थे। ३७-मोचक-जो दूसरों को कर्मों के बन्धनों से मुक्त करवाता है, उसे मोचक कहते ३८-सर्वज्ञ-चर और अचर सभी पदार्थों का ज्ञान रखने वाला और जिस में अज्ञान प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [777 Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सर्वथा अभाव हो, वह सर्वज्ञ कहलाता है। भगवान् घट-घट के ज्ञाता होने के कारण सर्वज्ञ / कहे गए हैं। ३९-सर्वदर्शी-चर और अचर सभी पदार्थों का द्रष्टा, सर्वदर्शी कहा जाता है। भगवान् सर्वदर्शी थे। ४०-शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त / अर्थात् शिव आदि पद सिद्धगति (जिस के सब काम सिद्ध-पूर्ण हो जाएं उसे सिद्ध कहते हैं। आत्मा निष्कर्म एवं कृतकृत्य होने के अनन्तर जहां जाता है उसे सिद्धगति कहा जाता है) नामक स्थान के विशेषण हैं / शिव आदि पदों का अर्थ निनोक्त है १-शिव-कल्याणरूप को कहते हैं / अथवा-जो बाधा, पीड़ा और दुःख से रहित हो वह शिव कहलाता है। सिद्धगति में किसी प्रकार की बाधा या पीड़ा नहीं होती, अत: उसे शिव कहते हैं। २-अचल-चल रहित अर्थात् स्थिर को कहते हैं। चलन दो प्रकार का होता है, एक स्वाभाविक दूसरा प्रायोगिक। दूसरे की प्रेरणा बिना अथवा अपने पुरुषार्थ के बिना मात्र स्वभाव से ही जो चलन होता है, वह स्वाभाविकचलन कहा जाता है। जैसे जल में स्वभाव से चंचलता है, इसी प्रकार बैठा मनुष्य भले ही स्थिर दिखता है किन्तु योगापेक्षया उस में भी चंचलता है, इसे ही स्वाभाविकचलन कहते हैं। वायु आदि बाह्य 'निमित्तों से जो चंचलता उत्पन्न होती है, वह प्रायोगिकचलन कहलाता है। मुक्तात्माओं में न स्वभाव से ही चलन होता है और न प्रयोग से ही। मुक्तात्माओं में गति का अभाव है, इसलिए भी वह अचल है। ३-अरुज-रोगरहित को अरुज कहते हैं। शरीररहित होने के कारण मुक्तात्मा को वात, पित्त और कफ़ जन्य शारीरिक रोग नहीं होने पाते और कर्मरहित होने से भाव रोग रागद्वेषादि भी नहीं होते। ४-अनन्त-अन्तर रहित का नाम है। मुक्तात्माएं सभी गुणापेक्षया समान होती हैं। अथवा मुक्तात्माओं का ज्ञान, दर्शन अनन्त होता है और अनन्त पदार्थों को जानता तथा देखता है, अत एव गुणापेक्षया वे अनन्त हैं / अथवा-अन्तरहित को अनन्त कहते हैं। सिद्धगति प्राप्त करने की आदि तो है, परन्तु उसका अन्त नहीं, इसलिए उस को अनन्त कहते हैं। ५-अक्षय-क्षयरहित का नाम है। मुक्तात्माओं की ज्ञानादि आत्मविभूति में किसी प्रकार की क्षीणता नहीं आने पाती, इसलिए उसे अक्षय कहते हैं। ६-अव्याबाध-पीडारहित को अव्याबाध कहते हैं। मुक्तात्माओं को सिद्धगति में . किसी प्रकार का कष्ट या शोक नहीं होता और न वे किसी दूसरे को पीड़ा पहुँचाते हैं। 778 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७-अपुनरावृत्ति-पुनरागमन से रहित का नाम है, अर्थात् जो जन्म तथा मरण से रहित हो कर एक बार सिद्धगति में पहुँच जाता है, वह फिर लौट कर कभी संसार में नहीं आता। विपाकश्रुत के दो विभाग हैं, पहला दुःखविपाक और दूसरा सुखविपाक / जिस में हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन आदि द्वारा उपार्जित अशुभ कर्मों के दुःखरूप विपाक-फल वर्णित हों, उसे दुःखविपाक कहते हैं, और जिसमें अहिंसा, सत्य आदि से जनित शुभ कर्मों का विपाक वर्णन किया गया हो, उसे सुखविपाक कहते हैं। दुःखविपाक में-१-मृगापुत्र, २उज्झितक, ३-अभग्नसेन, ४-शकट, ५-बृहस्पति, ६-नन्दिवर्धन, ७-उम्बरदत्त, ८-शौरिकदत्त, ९-देवदत्ता और १०-अंजू-ये दश अध्ययन हैं। मृगापुत्र, उज्झितक आदि का वर्णन पीछे कर दिया गया है। अंजूश्री नामक दसवें अध्ययन की समाप्ति के साथ विपाकश्रुत का दशाध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त होता है। ____ मृगापुत्र से लेकर अंजूश्री पर्यन्त के दश अध्ययनों में वर्णित कथासंदर्भ से ग्रहणीय सार को यदि अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में कहा जाए तो वह इतना ही है कि मानव जीवन को पतन की ओर ले जाने वाले हिंसा और व्यभिचारमूलक असत्कर्मों के अनुष्ठान से सर्वथा पराङ्मुख हो कर आत्मा की आध्यात्मिक प्रगति में सहायकभूत धर्मानुष्ठान में प्रवृत्त होने का यत्न करना और तदनुकूल चारित्र संगठित करना। बस इसी में मानव का आत्मश्रेय निहित है। इस के अतिरिवत अन्य जितनी भी सांसारिक प्रवृत्तियां हैं, उन से आत्मकल्याण की सदिच्छा में कोई प्रगति नहीं होती। इस भावना से प्रेरित हुए साधक व्यक्ति यदि उक्त दशों अध्ययनों का मननपूर्वक अध्ययन करने का यत्न करेंगे तो आशा है उन को उस से इच्छित लाभ की अवश्य प्राप्ति होगी। बस इतने निवेदन के साथ हम श्री विपाकश्रुतस्कन्ध के प्रथम श्रुतस्कन्ध सम्बन्धी विवेचन को समाप्त करते हुए पाठकों से प्रस्तुत प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों से प्राप्त शिक्षाओं को जीवन में उतार कर साधनापथ में अधिकाधिक अग्रेसर होने का प्रयत्न करेंगे, ऐसी आशा करते हैं। ॥दशम अध्ययन समाप्त॥ ॥विपाकश्रुत का प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त॥ प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [779 Page #789 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विपाकसूत्रम् हिन्दी-भाषा-टीकासहितं सुखविपाक नामक द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #791 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह पढमं अज्झयणं अथ प्रथम अध्याय भारतवर्ष धर्मप्रधान देश है / यहां धर्म को बहुत अधिक महत्व प्रदान किया गया है। छोटी से छोटी बात को भी धर्म के द्वारा ही परखना भारत की सब से बड़ी विशेषता रही है। इसके अतिरिक्त धर्म की गुणगाथाओं से बड़े-बड़े विशालकाय ग्रन्थ भरे पड़े हैं / जीवन समाप्त हो सकता है परन्तु धर्म की महिमा का अन्त नहीं पाया जा सकता / धर्म का महत्व बहुत व्यापक है / धर्म दुर्गति का नाश करने वाला है। मनुष्य के मानस को स्वच्छ एवं निर्मल बनाने के साथ-साथ उसे विशाल और विराट बनाता है / अनादि काल से सोई मानवता को यह जागृत कर देता है / हृदय में दया और प्रेम की नदी बहा देता है। यदि बात ज्यादा न बढ़ाई जाए तोधर्म की महिमा अपरम्पार है, इतना ही कहना पर्याप्त होगा / - शास्त्रों में धर्म के दान, शील, तप और भावना ये चार प्रकार बताये गये हैं। इन में पहला प्रकार दान धर्म है। जैन धर्म में दान की महिमा बहुत मौलिक शब्दों में अभिव्यक्त की गई है / दान देने वाले को स्वर्ग और मोक्ष का अधिकारी बताया है। दान देने से संसार में कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं रहती है / दान जीवन के समग्र सद्गुणों का मूल है, अतः उस का विकास पारमार्थिक दृष्टि से समस्त सद्गुणों का आधार है,तथा व्यावहारिक दृष्टि से मानवी व्यवस्था के सामंजस्य की मूलभित्ति है / दान का मतलब है-न्यायपूर्वक अपने को प्राप्त हुई वस्तु का दूसरे के लिए अर्पण करना / यह अर्पण उस के कर्ता और स्वीकार करने वाले दोनों का उपकारक होना चाहिए / अर्पण करने वाले का मुख्य उपकार तो यह है कि उस वस्तु पर से उस की ममता हट जाए, फलस्वरूप उसे सन्तोष और समभाव की प्राप्ति हो। स्वीकार करने 1. दाणं सीलं च तवो भावो, एवं चउव्विहो धम्मो। . सव्वजिणेहिं भणिओ, तहा...................॥ 296 // द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [783 Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले का उपकार यह है कि उस वस्तु से उस की जीवन यात्रा में मदद मिले और परिणामस्वरूप . सद्गुणों का विकास हो। ___ सभी दान दानरूप एक जैसे होने पर भी उन के फल में तरतम भाव रहता है। यह तरतम भाव दान धर्म की विशेषता के कारण होता है और यह विशेषता मुख्यता दान धर्म के चार अंगों की विशेषता के अनुसार होती है। इन चार अंगों की विशेषता निम्नोक्त है। 1- विधिविशेषता-विधि की विशेषता में देश काल का औचित्य और लेने वाले के सिद्धांत को बाधा न पहुंचे,ऐसी कल्पनीय वस्तु का अर्पण करना,इत्यादि बातों का समावेश होता है / २-द्रव्यविशेषता-द्रव्य की विशेषता में दी जाने वाली वस्तु के गुणों का समावेश होता है / जिस वस्तु का दान किया जाए वह वस्तु लेने वाले पात्र की जीवन यात्रा में पोषक हो कर परिणामतः उसके निजगुण विकास में निमित्त बने, ऐसी होनी चाहिए / ३-दातृविशेषता-दाता की विशेषता में लेने वाले पात्र के प्रति श्रद्धा का होना, उस के प्रति तिरस्कार या असूया का न होना, तथा दान देते समय या दान देने के बाद में विषाद न करना, इत्यादि गुणों का समावेश होता है / ४-पात्रविशेषता-दान लेने वाले व्यक्ति का सत्पुरुषार्थ के लिए ही सतत जागरूक रहना पात्र' की विशेषता है / दूसरे शब्दों में-जो दान ले रहा है उस का अपने आप को . मानवीय आध्यात्मिक विकास की चरम सीमा की ओर झुकाव तथा सदनुष्ठान में निरन्तर सावधानी ही पात्र की विशेषता है / / पात्रता की विशेषता वाले को सुपात्र कहते हैं, तथा सुपात्र को जो दान दिया जाता है, उसे सुपात्रदान कहते हैं। सुपात्रदान कर्मनिर्जरा का साधक है और दाता के लिए संसार समुद्र से पार कर परमात्मपद को प्राप्त करने में सहायक बनता है / सुपात्रदान की सफलता के लिए भावना महान सहायक होती है / भावना जितनी उत्तम एवं सबल होती है, उतना ही सुपात्रदान जीवन के विकास में उपयोगी एवं हितावह रहता है / प्रस्तुत सूत्र के सुखविपाक नामक द्वितीय श्रुतस्कंध के इस प्रथम अध्ययन में स्वनामधन्य परम पुण्यवान श्री सुबाहु कुमार जी का परम पवित्र जीवनवृत्तांत प्रस्तावित हुआ है , जिन्होंने सुमुख गाथापति के भव में महामहिम तपस्विराज श्रीसुदत्त अनगार को उत्कृष्ट परिणामों से दान देकर संसार को परिमित और मनुष्यायु का बन्ध किया था, दूसरे शब्दों में उन्होंने उत्कृष्ट 1. अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्। विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः। तत्त्वार्थसूत्र अ० 7, सूत्र 33/34, के हिन्दी विवेचन में पण्डितप्रवर श्री सुखलाल जी। 784 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना के साथ एक सुपात्र को दान देकर अपने भविष्य को उज्ज्वल, समुज्ज्वल एवं अत्युज्वल बनाया था / इस अध्ययन का आरम्भ इस प्रकार होता है तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे गुणसिलए चेइए, सुहम्मे समोसढे।जंबू जाव पज्जुवासइ,एवं वयासी जइणं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं अयमढे पण्णत्ते,सुहविवागाणं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते? तए णं से सुहम्मे अणगारे जंबुमणगारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा (1) सुबाहू, (2) भद्दनंदी य (3) सुजाए, (4) सुवासवे, (5) तहेव जिणदासे, (6) धणवइ य (7) महब्बलो, (८)भद्दनंदी य (9) महचंदे, (१०)वरदत्ते।जइणं भंते !समणेणंजाव संपत्तेणं सुहविवागाणंदसअज्झयणा पण्णत्ता,पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स सुहविवागाणं जाव संपत्तेणं के अद्वे पण्णत्ते ? तए णं से सुहम्मे जंबुमणगारं एवं वयासी / - छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे नगरे गुणशिले चैत्ये सुधर्मा समवसृतः। जम्बूः यावत् पर्युपास्ते एवमवादीत्-यदि भदन्त! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन दुःखविपाकानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, सुखविपाकानां भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? ततः स सुधर्माऽनगारो जम्बूमनगारमेवमवादीत्-एवं खलु जम्बू:! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन सुखविपाकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-१ सुबाहुः, २भद्रनन्दी च, ३-सुजातः, ४-सुवासवः, ५-तथैव जिनदासः, ६-धनपतिश्च, ७महाबलः, ८-भद्रनन्दी, ९-महाचन्द्रः, १०-वरदत्तः। यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन, सुखविपाकानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य भदन्त ! अध्ययनस्य सुखविपाकानां यावत् संप्राप्तेन, कोऽर्थः प्रज्ञप्तः? ततः स सुधर्मा जम्बूमनगारमेवमवादीत्। पदार्थ:- तेणं-उस।कालेणं-काल। तेणं-उस।समएणं-समय। रायगिहे-राजगृह। णगरेनगर के। गुणसिलए- गुणशील। चेइए-चैत्य में। सुहम्मे-सुधर्मा स्वामी। समोसढे-पधारे। जंबू- जंबू स्वामी। जाव-यावत्। पज्जुवासइ-पर्युपासना-भक्ति करने लगे। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगे। जइ णं-यदि। भंते-हे भगवन् / समणेणं-श्रमण। जाव-यावत्। संपत्तेणं-मोक्ष संप्राप्त महावीर ने। दुहविवागाणं- दुःख विपाक का। अयमढ़े-यह अर्थ / पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है,तो। सुहविवागाणंसुखविपाक का। भंते-हे भगवन्। समणेणं-श्रमण। जाव-यावत्। संपत्तेणं-मोक्ष संप्राप्त ने / के अटे द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [785 Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या अर्थ। पण्णत्ते?-प्रतिपादन किया है ? तएणं-तदनन्तर / से-वह। सुहम्मे-सुधर्मा स्वामी। अणगारेअनगार / जंबु-जम्बू / अणगारं-अनगार के प्रति / एवं वयासी-इस प्रकार बोले। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबु-जम्बू / समणेणं-श्रमण। जाव-यावत् / संपत्तेणं-संप्राप्त महावीर द्वारा। सुहविवागाणंसुखविपाक के। दस-दश। अज्झयणा-अध्ययन। पण्णत्ता-प्रतिपादन किये गये है। तंजहा-जैसे कि। १-सुबाहू-१-सुबाहु।२-भद्दनन्दी य-और २-भद्रनन्दी।३-सुजाए-३-सुजात।४-सुवासवे-४-सुवासव। तहेव-तथैव-उसी प्रकार। 5- जिणदासे-५-जिनदास। ६-धणवइ-६-और धनपति। ७-महब्बलोमहाबल। ८-भद्दनन्दी य-८-और भद्र नन्दी। ९-महचंदे-महाचन्द्र। १०-वरदत्ते-१०-वरदत्त / जइणंयदि। भंते-भदन्त ! समणेणं-श्रमण / जाव-यावत् ।संपत्तेणं-मोक्ष संप्राप्त ने ।सुहविवागाणं-सुखविपाक के। दस-दश। अज्झयणा- अध्ययन। पण्णत्ता-कथन किये हैं तो। पढमस्स-प्रथम। अज्झयणस्सअध्ययन का। भंते-हे भगवन् / सुहविवागाणं-सुखविपाक के। जाव-यावत्। संपत्तेणं-मोक्ष संप्राप्त महावीर स्वामी ने। के अट्ठ-क्या अर्थ। पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है ? तएणं-तदनन्तर। से -वह। सुहम्मे-सुधर्मा स्वामी। अणगारे-अनगार। जंबु-जम्बू / अणगारं-अनगार के प्रति / एवं वयासी-इस प्रकार बोले। मूलार्थ-उस काल और उस समय राजगृह नगर के अन्तर्गत गुणशील नामक चैत्य में अनगार श्री सुधर्मा स्वामी पधारे। तब उन की पर्युपासना में रहे हुए जम्बू स्वामी ने उन के प्रति इस प्रकार कहा कि हे भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यदि दुःखविपाक का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? इस के उत्तर में श्री सुधर्मा अनगार श्री जंबू अनगार के प्रति इस प्रकार बोलेजम्बू! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के दस अध्ययन प्रतिपादन किये हैं, जैसे कि १-सुबाहु, २-भद्रनन्दी, ३-सुजात, ४-सुवासव, ५-जिनदास, ६-धनपति, ७-महाबल, ८-भद्रनन्दी, ९-महाचन्द्र, १०-वरदत्त। भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यदि सुखविपाक के सुबाहु कुमार आदि दश अध्ययन प्रतिपादन किए हैं तो भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ? तदनन्तर इस प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहने लगे। ___टीका-संशय का विपक्षी निश्चय है, इसी भान्ति दुःख का विपक्षी सुख है। सुख की प्राप्ति सुख-जनक कृत्यों को अपनाने से होती है। जब तक सुख के साधनों को अपनाया नहीं जाता तब तक सुख की उपलब्धि केवल स्वप्नमात्र होती है। सुखप्राप्ति के लिए दुःख.के साधनों 786 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रृंतस्कन्ध Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का त्याग उतना ही आवश्यक है जितना कि सुख के साधनों को अपनाना / दुःख के साधनों का त्याग तभी संभव है जब कि दुःख जनक साधनों का विशिष्ट बोध हो। कष्ट के उत्पादक साधनों के भान बिना उन का त्याग भी संभव नहीं हो सकता, इसी प्रकार सुखमूलक साधनों को अपनाने के लिए उनका ज्ञान भी आवश्यक है। ___ मनुष्य से ले कर छोटे से छोटे कीट, पतंग तक संसार का प्रत्येक प्राणी सुख की अभिलाषा करता है। सभी जीवों की सभी चेष्टाओं का यदि सूक्ष्मरूप से अवलोकन किया जाए तो प्रतीत होगा कि उन की प्रत्येक चेष्टा सुख की अभिलाषा से ओतप्रोत है। तात्पर्य यह है कि इस विशाल विश्व के आंगन में जीवों की जितनी भी लीलाएं हैं वे सब सुखमूलक हैं। सुख की उपलब्धि के लिए जिस मार्ग के अनुसरण का उपदेश महापुरुषों ने दिया है, उस का दिग्दर्शन अनेक रूपों में कराया गया है। श्री विपाक सूत्र में इसी दृष्टि से दुःखविपाक और सुखविपाक ऐसे दो विभाग करके दुःख और सुख के साधनों का एक विशिष्ट पद्धति के द्वारा निर्देश करने का स्तुत्य प्रयास किया गया है।दुःखविपाक के दश अध्ययनों में दुःख और उसके साधनों का निर्देश करके साधक व्यक्ति को उन के त्याग की ओर प्रेरित करने का प्रयत्न किया गया है। इसी भान्ति उस के दूसरे विभाग-सुखविपाक में सुख और उसके साधनों का निर्देश करते हुए साधकों को उन के अपनाने की प्रेरणा की गई है। दोनों विभागों के अनुशीलन से हेयोपादेयरूप में साधक को अपने लिए मार्ग निश्चित करने की पूरी-पूरी सुविधा प्राप्त हो सकती है। पूर्ववर्णित दुःखविपाक से साधक को हेय का ज्ञान होता है और आगे वर्णन किये जाने वाले सुखविपाक से वह उपादेय वस्तु का बोध प्राप्त कर सकता है। पूर्व की भान्ति राजगृह नगर के गुणशील चैत्य-उद्यान में अपने विनीत शिष्यवर्ग के साथ पधारे हुए आर्य सुधर्मा स्वामी से उन के विनयशील अन्तेवासी-शिष्य आर्य जम्बू स्वामी उन के मुखारविन्द से विपाकश्रुत के दुःखविपाक के दश अध्ययनों का श्रवण करने के अनन्तर प्रतियोगी अर्थात् प्रतिपक्षी रूप से प्राप्त होने वाले उस सुखविपाकमूलक अध्ययनों के श्रवण की जिज्ञासा से उनके चरणों में उपस्थित होकर प्रार्थना रूप में इस प्रकार बोले भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत के अन्तर्गत दुःखविपाक के दश अध्ययनों का जो विषय वर्णन किया है, उस का तो श्रवण मैंने आप श्री के श्रीमुख से कर लिया है, परन्तु विपाकश्रुतान्तर्गत सुखविपाक के विषय में भगवान् ने जो कुछ प्रतिपादन किया है, वह मैंने नहीं सुना, अत: आप श्री यदि उसे भी सुनाने की कृपा करें तो अनुचर पर बहुत अनुग्रह होगा। तब अपने शिष्य की बढ़ी हुई जिज्ञासा को देख आर्य सुधर्मा स्वामी ने फ़रमाया किजम्बू! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत के सुखविपाक में दश अध्ययन द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [787 Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन किये हैं, जिन का नाम निर्देश इस प्रकार है १-सुबाहु, २-भद्रनन्दी, ३-सुजात, ४-सुवासव,५-जिनदास,६-धनपति,७-महाबल, ८-भद्रनन्दी, ९-महाचन्द्र और १०-वरदत्त / पूज्य श्री सुबाहुकुमार आदि महापुरुषों का विस्तृत वर्णन तो यथास्थान अग्रिम पृष्ठों पर किया जाएगा, परन्तु संक्षेप में इन महापुरुषों का यहां परिचय करा देना उचित प्रतीत होता १-सुबाहुकुमार-यह हस्तिशीर्ष नगर के स्वामी महाराज अदीनशत्रु और माता श्री धारिणी के पुत्र थे। ये 72 कला के जानकार थे। पुष्पचूला जिनमें प्रधान थी ऐसी 500 उत्तमोत्तम राजकन्याओं के साथ इन का विवाह सम्पन्न हुआ था। प्रथम भगवान् महावीर स्वामी से श्रावक के बारह व्रत धारण किये थे। फिर उन्हीं के चरणों में दीक्षित हो कर संयम का आराधन कर के देवलोक में उत्पन्न हुए। वर्तमान में आप देवलोक में विराजमान हैं। वहां से च्यव कर आप 11 भव करते हुए अन्त में मुक्ति को प्राप्त कर लेंगे। प्रस्तुत सुखविपाकीय प्रथम अध्ययन में आप श्री का ही जीवन प्रस्तावित हुआ है। पूर्व के भव में आप ने श्री सुदत्त तपस्विराज को आहार दे कर संसार परिमित किया था और मनुष्यायु का बन्ध किया था। २-भद्रनन्दी-ये ऋषभपुर नामक नगर में उत्पन्न हुए थे। इन के पूज्य पिता का नाम महाराज धनावह तथा माता का नाम महारानी सरस्वती था। पूर्व के भव में श्री युगबाहु तीर्थंकर को आहारदान दे कर इन्होंने अपना भविष्य उन्नत बनाया था। वर्तमान में पतितपावन महावीर स्वामी के नेतृत्व में इन के जीवन का निर्माण हुआ। संयमाराधन से आप देवलोक में गये। वहां से च्यव कर 11 भव करते हुए निर्वाणपद प्राप्त करेंगे। ३-सुजात-इन्होंने वीरपुर नामक नगर को जन्म लेकर पावन किया था। पिता का नाम वीरकृष्णमित्र और माता का नाम श्रीदेवी था। जिन में राजकुमारी बालश्री मुख्य थी, ऐसी 500 राजकन्याओं के साथ आप का पाणिग्रहण हुआ था। पूर्व के भव में आप इषुकार नामक नगर में ऋषभदत्त गाथापति के रूप में थे और वहां आप ने तपस्विराज मुनिपुङ्गव श्री पुष्पदन्त जी जैसे सुपात्र को भावनापूर्वक आहारदान दे कर संसारभ्रमण परिमित और मनुष्यायु का बन्ध किया था। वर्तमान भव में पतितपावन वीर प्रभु के चरणों में दीक्षित हुए और देवलोक में उत्पन्न हुए, वहां से च्यव कर 11 भव करते हुए अन्त में मुक्ति में विराजमान हो जाएंगे। , ४-सुवासव-आप ने विजयपुर नगर में जन्म लिया था। महाराज वासवदत्त आप के पूज्य पिता थे। महारानी कृष्णादेवी आप की मातेश्वरी थी। आप का जिन 500 राजकुमारियों, के साथ पाणिग्रहण हुआ था, उन में भद्रादेवी प्रधान थी। पूर्वभव में आप ने महाराज धनपाल 788 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के रूप में तपस्विराज श्री वैश्रमणदत्त जी महाराज का पारणा कराया था। वर्तमान भव में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित हो संयम के आराधन से सिद्ध पद उपलब्ध किया ५-जिनदास-आप सौगन्धिकनरेश महाराज अप्रतिहत के पौत्र थे। पिता का नाम श्री महाचन्द्र तथा माता का नाम श्री अर्हदत्ता देवी था। महाराज मेघरथ के भव में आप ने श्री सुधर्मा स्वामी प्रतिलाभित किए थे। वर्तमान भव में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित हुए और संयम आराधन से आप ने निर्वाणपद प्राप्त किया। ६-धनपति-आप कनकपुरनरेश महाराज प्रियचन्द के पौत्र थे। आप की पूज्य दादी का नाम श्री सुभद्रादेवी था। आप के पिता का नाम श्री वैश्रमणदत्त था। माता श्रीदेवी थी। पूर्वभव में आप ने तपस्विराज श्री संभूतविजय मुनिराज को भावनापुरस्सर दान दिया था। वर्तमान भव में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास दीक्षित हो निर्वाणपद प्राप्त किया। ७-महाबल-महापुरनरेश महाराज बल के आप पुत्र थे। आप की माता का नाम सुभद्रादेवी था। रक्तवतीप्रमुख 500 राजकुमारियों के साथ आप का विवाह सम्पन्न हुआ था। नागदत्त गाथापति के भव में आप ने तपस्विराज श्री इन्द्रदत्त मुनिवर्य का पारणा करा कर संसार को परिमित किया था। वर्तमान भव में भगवान महावीर स्वामी के पवित्र चरणों में साधु बन कर उस के यथाविधि आराधन से मुक्ति प्राप्त की। ८-भद्रनन्दी-आप के पूज्य पिता का नाम सुघोषनरेश महाराज अर्जुन था और मातेश्वरी दत्तवती जी थीं। आप का 500 राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ था, उन में श्रीदेवी मुख्य थी। श्री धर्मघोष के भव में आप ने श्री धर्मसिंह मुनिराज को निर्दोष एवं शुद्ध भावों के साथ आहार पानी देकर, पारणा करा कर अपने संसारभ्रमण को परिमित किया था। वर्तमान भव में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित हो कर सिद्ध पद को प्राप्त किया। प्रस्तुत द्वितीय श्रुतस्कन्धीय द्वितीय अध्याय के भद्रनन्दी इन से भिन्न थे। जन्मस्थान तथा माता पिता आदि की भिन्नता ही इन के पार्थक्य को प्रमाणित कर रही है। ९-महाचन्द्र-आप का जन्म चम्पा नगरी में हुआ था, पिता का नाम महाराज दत्त तथा माता का दत्तवती था। श्रीकान्ता जिन में प्रधान थी ऐसी 500 राजकन्याओं के साथ आप का पाणिग्रहण हुआ था। चिकित्सिकानरेश महाराज जितशत्रु के भव में आप ने तपस्विराज श्री धर्मवीर्य का पारणा करा कर अपने भविष्य को उन्नत बनाते हुए मनुष्यायु का बन्ध किया और वर्तमान भव में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित हो कर साधुधर्म के सम्यक् आराधन से परम साध्य निर्वाण पद को प्राप्त किया। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [789 Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०-वरदत्त-आप के पूज्य पिता का नाम साकेतनरेश महाराज मित्रनन्दी था। माता श्रीकान्तादेवी थी। आप का जिन 500 राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण हुआ था, उन में वरसेना राजकुमारी प्रधान थी, अर्थात् यह आप की पट्टरानी थी। शतद्वारनरेश महाराज विमलवाहन के भव में आप ने तपस्विराज श्री धर्मरुचि जी महाराज का विशुद्ध परिणामों से पारणा करा कर संसार को परिमित करने के साथ साथ मनुष्यायु का बन्ध किया था। वर्तमान भव में चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के पवित्र चरणों में साधुव्रत धारण कर तथा उस के सम्यक् पालन से कालमास में काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुए। वर्तमान में आप दैविक संसार में अपने पुण्यमय शुभ कर्मों का सुखोपभोग कर रहे हैं। वहां से च्यव कर आप 11 भव करेंगे और अन्त में महाविदेह क्षेत्र में दीक्षित हो कर जन्म-मरण का अन्त कर डालेंगे। सिद्ध, बुद्ध, अजर और अमर हो जाएंगे। द्वितीय श्रुतस्कन्ध सुखविपाक के पूर्वोक्त दश अध्ययनों में महामहिम श्री सुबाहुकुमार जी आदि समस्त महापुरुषों का ही जीवन वृत्तान्त क्रमशः प्रस्तावित हुआ है, इसीलिए सूत्रकार ने सुबाहुकुमार आदि के नामों पर अध्ययनों का नामकरण किया है, जो कि उचित ही है। ___ आर्य जम्बू स्वामी के "- भदन्त ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक का क्या अर्थ वर्णन किया है, अर्थात् उस में किन-किन महापुरुषों का जीवनवृत्तान्त उपन्यस्त हुआ है-" इस प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी ने "-सुखविपाक में भगवान् ने श्री सुबाहुकुमार, श्री भद्रनन्दी आदि दश अध्ययन फ़रमाये हैं, तात्पर्य यह है कि इन दश महापुरुषों के जीवनवृत्तान्तों का उल्लेख किया है-" यह उत्तर दिया था, परन्तु इतने मात्र से प्रश्नकर्ता श्री जम्बू स्वामी की जिज्ञासा पूर्ण नहीं होने पाई, अतः फिर उन्होंने विनम्र शब्दों में अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पावन चरणों में निवेदन किया। वे बोले-भगवन् ! यह ठीक है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के दश अध्ययन फ़रमाये हैं, परन्तु उस के सुबाहुकुमार नामक प्रथम अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? इस प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी ने जो कुछ फरमाया, उस का वर्णन अग्रिम सूत्र में किया गया है। लोकोत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण अर्थात् समूह को धारण करने वाले तथा जिनेन्द्र प्रवचन की पहले पहल सूत्ररूप में रचना करने वाले महापुरुष गणधर कहलाते हैं। चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के-१-इन्द्रभूति,२-अग्निभूति,३-वायुभूति, ४-व्यक्तस्वामी, ५-सुधर्मा स्वामी, ६-मण्डितपुत्र, ७-मौर्यपुत्र, ८-अकम्पित, ९अचलभ्राता, १०-मेतार्य, ११-प्रभास-ये 11 गणधर थे। ये सभी वैदिक विद्वान् ब्राह्मण थे। अपने-अपने मत की पुष्टि के लिए शास्त्रार्थ करने के लिए भगवान् महावीर के पास आये 790 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे। अपने-अपने संशयों' का भगवान् से सन्तोषजनक उत्तर पाकर सभी उन के शिष्य हो गये .. थे, तथा भगवान् के चरणों में ज्ञानाराधन; दर्शनाराधन तथा चारित्राराधन की उत्कर्षता को प्राप्त कर उन्होंने गणधर पद को उपलब्ध किया था। प्रस्तुत में जो श्री सुधर्मा स्वामी का वर्णन किया गया है, ये भगवान् महावीर स्वामी के ही पूर्वोक्त पांचवें गणधर हैं / आज का जैनेन्द्र प्रवचन इन्हीं की वाचना कहलाता है। यही आर्य जम्बू स्वामी के परमपूज्य गुरुदेव हैं। इन्हीं के श्रीचरणों में रहकर श्री जम्बूस्वामी अपनी ज्ञान-पिपासा को जैनेन्द्र प्रवचन के जल से शान्त करते रहते हैं। श्री जम्बूस्वामी का जीवनपरिचय पीछे दिया जा चुका है, पाठक वहीं से देख सकते हैं। विपाकश्रुत के दुःख-विपाक और सुखविपाक ऐसे दो श्रुतस्कन्ध हैं। दुःखविपाक आदि पदों का अर्थ भी प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्याय में लिख दिया गया है। दुख-विपाक के अनन्तर सुखविपाक का स्थान है। इस में सुबाहुकुमार आदि दश अध्ययन हैं। प्रस्तुत में - सुबाहु कुमार कौन था, उसने कहां जन्म लिया था, वह किस नगर में रहता था, उस के माता पिता का क्या नाम था, उसने किस तरह जीवन का निर्माण एवं कल्याण किया, मानव से महामानव वह कैसे बना, इत्यादि प्रश्न श्री जम्बूस्वामी की ओर से श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में रखे गये हैं, उन का उत्तर ही प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है। -जम्बू जाव पंजुवासइ-यहां पठित जाव-यावत् पद से-णामं अणगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वजरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगणिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे चोद्दसपुव्वी चउणाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाई अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं अज्ज जम्बू णामं अणगारे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले उठाए उठेइ उठाए उद्वेत्ता जेणामेव अजसुहम्मे थेरे तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अजसुहम्मे थेरे तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ नमसइ वन्दित्ता नमंसित्ता अज्जसुहम्मस्स थेरस्स नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है 1. संशय तथा उनके उत्तरों का विवरण श्री अगरचन्द भैरोंदान सेठिया बीकानेर द्वारा प्रकाशित 'जैनसिद्धान्त बोलसंग्रह' के चतुर्थ भाग में देखा जा सकता है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [791 Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आर्य जम्बू अनगार आर्य सुधर्मा स्वामी के पास संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे थे, जो कि काश्यप गोत्र वाले हैं, जिन का शरीर सात हाथ प्रमाण का है, जो पालथी मार कर बैठने पर शरीर की ऊँचाई और चौड़ाई बराबर हो ऐसे संस्थान वाले हैं, जिन को वज्रर्षभनाराच संहनन है, जो सोने की रेखा के समान और पद्मपराग (कमलरज) के समान वर्ण वाले हैं, जो उग्र तपस्वी-साधारण मनुष्य की कल्पना से अतीत को उग्र कहते हैं, ऐसे उग्र तप के करने वाले, दीप्ततपस्वी-कर्मरूपी गहन वन को भस्म करने में समर्थ तप के करने वाले, तप्ततपस्वी-कर्मसंताप के विनाशक तप के करने वाले और महातपस्वी- . स्वर्गादि की प्राप्ति की इच्छा बिना तप करने वाले हैं, जो उदार-प्रधान हैं, जो आत्मशत्रुओं के विनष्ट करने में निर्भीक हैं, जो दूसरों के द्वारा दुष्प्राप्य गुणों को धारण करने वाले हैं, जो घोरविशिष्ट तपस्वी हैं, जो दारुण-भीषण ब्रह्मचर्य व्रत के पालक हैं, जो शरीर पर ममत्व नहीं रख रहे हैं, जो तेजोलेश्या-विशिष्ट तपोजन्य लब्धिविशेष को संक्षिप्त किये हुए हैं, जो 14 पूर्वो. . के ज्ञाता हैं, जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान, इन चारों ज्ञानों के धारक हैं, जिन को समस्त अक्षरसंयोग का ज्ञान है, जिन्होंने उत्कुटुक नामक आसन लगा रखा है, जो अधोमुख हैं, जो धर्म तथा शुक्ल ध्यानरूप कोष्ठक में प्रवेश किए हुए हैं अर्थात् जिस प्रकार कोष्ठक में धान्य सुरक्षित रहता है उसी प्रकार ध्यानरूप कोष्ठक में प्रविष्ट हुए आत्म वृत्तियों को सुरक्षित रख रहे हैं। तदनन्तर आर्य जम्बू स्वामी के हृदय में विपाकश्रुत के द्वितीय श्रुतस्कन्धीय सुखविपाक में वर्णित तत्त्वों के जानने की इच्छा उत्पन्न हुई और साथ में यह संशय भी उत्पन्न हुआ कि दुःखविपाक में जिस तरह मृगापुत्र आदि का विषादान्त जीवन वर्णित किया गया है, क्या उसी तरह ही सुखविपाक में किन्हीं प्रसादान्त जीवनों का उपन्यास किया है, या उस में किसी भिन्न पद्धति का आश्रयण किया गया है, तथा उन्हें यह उत्सुकता भी उत्पन्न हुई कि जब विपाकसूत्रीय दुःखविपाक में मृगापुत्रादि का दुःखमूलक जीवनवृत्तान्त प्रस्तावित हो चुका है और उसी से सुखमूलक जीवनों की कल्पना भी की जा सकती है, तो फिर देखें भगवान् सुखविपाक में सुखमूलक जीवनों का कैसे वर्णन करते हैं। 1. 14 पूर्वो के नाम तथा उन का भावार्थ प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथमाध्याय में लिखा जा चुका है। 2. प्रस्तुत में सुखविपाक के सम्बन्ध में श्री जम्बू स्वामी को क्या संशय उत्पन्न हुआ था या उस का क्या स्वरूप था, इस के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिल रहा है। इस सम्बन्ध में टीकाकार महानुभाव भी सर्वथा मौन हैं। तात्पर्य यह है कि जिस तरह भगवती सूत्र में टीकाकार ने भगवान् गौतम के संशय का स्वरूप वर्णित किया है, उसी भांति प्रस्तुत में कोई वर्णन नहीं पाया जाता, तथापि ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के प्रथम अध्ययन में / प्रतिपादित संशयस्वरूप की भांति प्रस्तुत में कल्पना की गई है। 792 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत में जो जात, संजात, उत्पन्न तथा समुत्पन्न ये चार पद दिये हैं, इन में प्रथम जात शब्द साधारण तथा संजात शब्द विशेष, इसी भान्ति उत्पन्न शब्द सामान्य और समुत्पन्न शब्द विशेष का बोध कराता है। जात और उत्पन्न शब्दों में इतना ही भेद है कि उत्पन्न शब्द उत्पत्ति का और जात शब्द उस की प्रवृत्ति का सूचक है। तात्पर्य यह है कि पहले श्रद्धा, संशय, कौतूहल इन की उत्पत्ति हुई और पश्चात् इन में प्रवृत्ति हुई। जातश्रद्ध, जातसंशय, जातकौतूहल, संजातश्रद्ध, संजातसंशय, संजातकौतूहल, उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय, उत्पन्नकौतूहल, समुत्पन्न श्रद्ध, समुत्पन्नसंशय तथा समुत्पन्नकौतूहल श्री जम्बू स्वामी अपने स्थान से उठ कर खड़े होते हैं, खड़े होकर जहां सुधर्मा स्वामी विराजमान थे, वहां पर आते हैं, आकर श्री सुधर्मा स्वामी की दक्षिण ओर से तीन बार प्रदक्षिणा (परिक्रमा) की, प्रदक्षिणा कर के स्तुति और नमस्कार किया, स्तुति तथा नमस्कार कर के आर्य सुधर्मा स्वामी के थोड़ी सी दूरी पर सेवा और नमस्कार करते हुए सामने बैठे और हाथों को जोड़ कर विनयपूर्वक उन की भक्ति करने लगे। आर्य सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी की जिज्ञासापूर्ति के लिए जो कुछ फ़रमाया, उस का आदिम सूत्र इस प्रकार से है मूल-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे णामंणगरे होत्था, रिद्धः / तस्स णं हत्थिसीसस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे पुप्फकरंडए णामं उज्जाणे होत्था, सव्वोउयः। तत्थ णं कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था, दिव्वे / तत्थ ण हत्थिसीसे णगरे अदीणसत्तू नामं राया होत्था, महयाः। तस्स णं अदीणसत्तुस्स रण्णो धारिणीपामोक्खं देवीसहस्सं ओरोहे यावि होत्था। तए णं सा धारिणीदेवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासभवणंसि सीहं सुमिणे जहा मेहजम्मणं तहा भाणियव्वं। सुबाहुकुमारे जाव अलंभोगसमत्थं यावि जाणेति जाणित्ता अम्मापियरो पंच पासायवडिंसगसयाइं कारेंति, अब्भुग्गय भवणं, एवं जहा महब्बलस्स रण्णो, णवरं पुष्फचूलापामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकण्णगसयाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेंति, तहेवपंचसइओ दाओ जाव उप्पिं पासायवरगए फुट्ट जाव विहरइ। - छाया-एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिशीर्षं नाम नगरमभूत्, ऋद्धः / तस्माद् हस्तिशीर्षाद् नगराद् बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे पुष्पकरंडक नाम द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [793 Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्यानमभूत्, सर्वर्तुः / तत्र कृतवनमालप्रियस्य यक्षस्य यक्षायतनमभूत्, दिव्यम् / तत्र . हस्तिशीर्षे नगरे अदीनशत्रुर्नाम राजाऽभूत्, महता / तस्यादीनशत्रोः राज्ञः धारिणीप्रमुखं देवीसहस्रम्, अवरोधे चाप्यभवत् / ततः सा धारिणी देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् तादृशे वासभवने सिंहं स्वप्ने यथा मेघजन्म तथा भणितव्यम्। सुबाहुकुमारो यावत् अलंभोगसमर्थं चापि जानीतः ज्ञात्वा अम्बापितरौ पञ्च प्रासादावतंसकशतानि कारयतः, अभ्युद्गत०, भवनम् / एवं यथा महाबलस्य राज्ञः नवरं पुष्पचूलाप्रमुखाणां पंचानां राजवरकन्याशतानामेकदिवसे पाणिं ग्राहयतः। तथैव पंचशतको दायो यावद् उपरि प्रासादवरगतः स्फुट यावद् विहरति। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जम्बू !-हे जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय। रिद्ध-ऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र और परचक्र के ' भय से रहित तथा समृद्ध-धन, धान्यादि से परिपूर्ण / हत्थिसीसे-हस्तिशीर्ष / णाम-नाम का। णगरे-नगर। होत्था-था। तस्सणं-उस / हत्थिसीसस्स-हस्तिशीर्ष। णगरस्स-नगर के।बहिया-बाहर। उत्तरपुरस्थिमेउत्तरपूर्व / दिसीभागे-दिशा के मध्य भाग में अर्थात् ईशान कोण में। पुप्फकरंडए-पुष्पकरण्डक। णामनाम का। उज्जाणे-उद्यान / होत्था-था, जो कि। सव्वोउय-सर्व ऋतुओं में होने वाले फल, पुष्पादि से युक्त था। तत्थ णं-वहां। कयवणमालपियस्स-कृतवनमालप्रिय। जक्खस्स-यक्ष का। जक्खायतणेयक्षायतन-स्थान / होत्था-था, जो कि। दिव्वे-दिव्य अर्थात् प्रधान एवं परम सुन्दर था। तत्थ णं-उस। हत्थिसीसे-हस्तिशीर्ष / णगरे-नगर में। अदीणसत्त-अदीनशत्र। णाम-नाम का। राया-राना। होत्था-था. जो कि। महया०-हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। तस्स णं-उस। अदीणसत्तुस्स-अदीनशत्रु / रण्णो-राजा की। धारिणीपामोक्खं-धारिणीप्रमुख अर्थात् धारिणी है प्रधान जिन में ऐसी। देवीसहस्संहजार देवियां-रानियां। ओरोहे यावि होत्था-अन्त:पुर में थीं। तए णं-तदनन्तर। सा-वह। धारिणीधारिणी। देवी-देवी। अन्नया-अन्यदा। कयाइ-कदाचित्। तंसि-उस। तारिसगंसि-तादृश-राजोचित। वासभवणंसि-वासभवन में-वासगृह में। सुमिणे-स्वप्न में। सीहं-सिंह को (देखती है)। जहा-जैसे ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र में वर्णित / मेहजम्मणं-मेघकुमार का जन्म कहा गया है। तहा-तथा-उसी प्रकार। भाणियव्वं-वर्णन करना अर्थात् उस के पुत्र का जन्म मेघकुमार के समान ही जानना चाहिए। सुबाहुकुमारेसुबाहुकुमार को। जाव-यावत्। अलंभोगसमत्थं-यावि-भोगों के उपभोग करने में सर्वथा समर्थ हुआ। जाणेति जाणित्ता-जानते हैं, भोगों के उपभोग में समर्थ जान कर। अम्मापियरो-माता और पिता। पंचपासायवडिंसगसयाई-जिस प्रकार भूषणों में मुकुट सर्वोत्तम होता है, उसी प्रकार महलों में उत्तम पाँच सौ प्रासादों का निर्माण / करेंति-करवाते हैं। अब्भुग्गय०-जो कि अत्यन्त उन्नत थे और उन के मध्य में। भवणं०-एक भवन तैयार कराते हैं। एवं-इस प्रकार। जहा-यथा अर्थात् जैसे भगवती सूत्र में वर्णित / महब्बलस्स रण्णो- महाबल राजा का कथन किया गया है तद्वत् जानना चाहिए। णवरं-केवल . इतना विशेष है कि। पुष्फचूलापामोक्खाणं-पुष्पचूला है प्रमुख-प्रधान जिन में ऐसी। पंचण्हं७९४ ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्थ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायवरकन्नगसयाणं-पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ। एगदिवसेणं-एक दिन में। पाणिं गेण्हावेंतिपाणिग्रहण-विवाह करा देते हैं। तहेव-उसी प्रकार अर्थात् महाबल की भान्ति। पंचसइओ-पांच सौ की संख्या वाला। दाओ-दहेज प्राप्त हुआ। जाव-यावत् / उप्पिं पासायवरगए-ऊपर सुन्दर प्रासादों में स्थित। फुट्ट-जिस में मृदंग बजाए जा रहे हैं, ऐसे नाटकों द्वारा। जाव-यावत् / विहरइ-विहरण करने लगा। मूलार्थ-हे जम्बू ! उस काल और उस समय हस्तिशीर्ष नाम का एक बड़ा ही ऋद्ध, स्तिमित एवं समृद्धिपूर्ण नगर था। उस के बाहर उत्तर और पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् ईशान कोण में सर्व ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले फल, पुष्पादि से युक्त पुष्पकरण्डक नाम का बड़ा ही रमणीय उद्यान था। उस उद्यान में कृतवनमालप्रिय नाम के यक्ष का एक बड़ा ही सुन्दर यक्षायतन-स्थान था। उस नगर में अदीनशत्रु नाम के राजा राज्य किया करते थे, जो कि राजाओं में हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् थे।अदीनशत्रु नरेश के अन्तःपुर में धारिणीप्रमुख एक हज़ार रानियां थीं। ___एक समय राजोचित वासभवन में शयन करती हुई धारिणी देवी ने स्वप्न में सिंह को देखा।इस के आगे जन्म आदि का संपूर्ण वृत्तान्त मेघकुमार के जन्म आदि की भान्ति जान लेना चाहिए, यावत् सुबाहुकुमार सांसारिक कामभोगों के उपभोग में सर्वथा समर्थ हुआ जान कर माता-पिता ने सर्वोत्तम पांच सौ बड़े ऊँचे प्रासाद और उनके मध्य में एक अत्यन्त विशाल भवन का निर्माण कराया, जिस प्रकार भगवतीसूत्र में वर्णित महाबल नरेश का विवाह सम्पन्न हुआ था, उसी भांति सुबाहुकुमार का भी विवाह कर दिया गया, उस में अन्तर इतना है कि पुष्पचूला प्रमुख पांच सौ उत्तम राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में उस का विवाह कर दिया गया और उसी तरह पृथक्-पृथक् पांच सौ प्रीतिदान-दहेज में दिए गए।तदनन्तर वह सुबाहुकुमार उस विशाल भवन में नाट्यादि से उपगीयमान होता हुआ उन देवियों के साथ मानवोचित मनोज्ञ विषयभोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा। __टीका-अनगार श्री जम्बू की अभ्यर्थना को सुन कर आर्य श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा कि हे जम्बू ! इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में हस्तिशीर्ष नाम का एक नगर था जो कि अनेक विशाल भवनों से समलंकृत, धन, धान्य और जनसमूह से भरा हुआ था। वहां के निवासी बड़े सम्पन्न और सुखी थे। कृषक लोग कृषि के व्यवसाय से ईख, जौ, चावल और गेहूं आदि की उपज करके बड़ी सुन्दरता से अपना निर्वाह करते थे। नगर में गौएं और भैंसें आदि दूध देने वाले पशु भी पर्याप्त थे, एवं कूप, तालाब और उद्यान आदि से वह नगर चारों ओर से सुशोभित हो रहा था। उस में व्यापारी, कृषक, राजकर्मचारी, नर्तक, गायक, मल्ल, द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [795 Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदूषक, तैराक, ज्योतिषी, वैद्य, चित्रकार, सुवर्णकार तथा कुम्भकार आदि सभी तरह के लोग रहते थे। नगर का बाज़ार बड़ा सुन्दर था, उस में व्यापारि-वर्ग का खूब जमघट रहता था। वहां के निवासी बड़े सज्जन और सहृदय थे। चोरों, उचक्कों, गांठकतरों और डाकुओं का तो उस नगर में प्रायः अभाव सा ही था। तात्पर्य यह है कि वह नगर हर प्रकार से सुरक्षित तथा भयशून्य था। नगर के बाहर ईशान कोण में पुष्पकरण्डक नाम का एक विशाल और रमणीय उद्यान था। उस के कारण नगर की शोभा और भी बढ़ी हुई थी। वह उद्यान नन्दनवन के समान रमणीय तथा सुखदायक था, उस में अनेक तरह के सुन्दर-सुन्दर वृक्ष थे। प्रत्येक ऋतु में फलने और फूलने वाले वृक्षों और पुष्पलताओं की मनोरम छाया और आनन्दप्रद सुगन्ध से दर्शकों के लिए वह उद्यान एक अपूर्व आमोद-प्रमोद का स्थान बना हुआ था। उस में कृतवनमालप्रिय नाम के यक्ष का एक सुप्रसिद्ध स्थान था जो कि बड़ा ही रमणीय एवं दिव्य-प्रधान था। ' हस्तिशीर्ष नगर उस समय की सुप्रसिद्ध राजधानी थी। उस में अदीनशत्रु नाम के परम प्रतापी क्षत्रिय राजा का शासन था। अदीनशत्रु नरेश शूरवीर, प्रजाहितैषी और पूरे न्यायशील थे। उन के शासन में प्रजा हर प्रकार से सुखी थी। वे स्वभाव से बड़े नम्र और दयालु थे, परन्तु अपराधियों को दण्ड देने, दुष्टों का निकंदन और शत्रुओं का मानमर्दन करने में बड़े क्रूर थे। उन की न्यायशीलता और धर्मपरायणता के कारण राज्यभर में दुष्काल और महामारी आदि का कहीं भी उपद्रव नहीं होता था। अन्य माण्डलीक राजा भी उन से सदा प्रसन्न रहते थे। तात्पर्य यह है कि उन का शासन हर प्रकार से प्रशंसनीय था। महाराज अदीनशत्रु के एक हज़ार रानियां थीं, जिन में धारिणी प्रधान महारानी थी। धारिणीदेवी सौन्दर्य की जीती जागती मूर्ति थी। इस के साथ ही वह आदर्श पतिव्रता और परम विनीता भी थी, यही कारण था कि महाराज के हृदय में उस के लिए बहुत मान था। एक बार धारिणी देवी रात्रि के समय जब कि अपने राजोचित शयनभवन में सुखशय्या पर सुखपूर्वक सो रही थी तो अर्द्धजागृत अवस्था में अर्थात् वह न तो गाढ़ निद्रा में थी और न सर्वथा जाग ही रही थी, ऐसी अवस्था में उस ने एक विशिष्ट स्वप्न देखा। एक सिंह जिस की गर्दन पर सुनहरी बाल बिखर रहे थे, दोनों आंखें चमक रही थी, जिसके कंधे उठे हुए थे और पंछ टेढी थी ऐसा सिंह जंभाई लेता हुआ आकाश से उतरता है और उस के मुंह में प्रवेश कर जाता है। इस स्वप्न के अनन्तर जब धारिणी देवी जागी तो उस का फल जानने की उत्कण्ठा से वह उसी समय अपने पतिदेव महाराज अदीनशत्रु के पास पहुँची और मधुर तथा कोमल शब्दों से उन्हें . जगा कर अपने स्वप्न को कह सुनाया। स्वप्न सुनाने के बाद वह बोली कि प्राणनाथ ! इस 796 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंन्ध Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न का फल बताने की कृपा करें। . .महारानी धारिणी के कथन को सुन कर कुछ विचार करने के अनन्तर महाराज अदीनशत्रु ने कहा कि प्रिये ! तुम्हारा यह स्वप्न बहुत उत्तम और मंगलकारी एवं कल्याणकारी है। इस का फल अर्थलाभ, पुत्रलाभ और राज्यलाभ होगा। विशेषरूप से इस का फल यह है कि तुम्हारे एक विशिष्टगुणसम्पन्न और बड़ा शूरवीर पुत्र उत्पन्न होगा। दूसरे शब्दों में तुम्हें एक सुयोग्य पुत्र की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा। इस प्रकार पतिदेव से स्वप्न का शुभ फल सुन कर धारिणी को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह उन्हें प्रणाम कर वापस अपने स्थान पर लौट आई। किसी अन्य दुःस्वप्न से उक्त शुभ स्वप्न का फल नष्ट न हो जाए इस विचार से फिर वह नहीं सोई, किन्तु रात्रि का शेष भाग उस ने धर्मजागरण में ही व्यतीत किया। ___ गर्भवती रानी जिन कारणों से गर्भ को किसी प्रकार का कष्ट या हानि पहुँचने की संभावना होती है उन से वह बराबर सावधान रहने लगी। अधिक उष्ण, अधिक ठंडा, अधिक तीखा या अधिक खारा भोजन करना उस ने त्याग दिया। हित और मित भोजन तथा गर्भ को पुष्ट करने वाले अन्य पदार्थों के यथाविधि सेवन से वह अपने गर्भ का पोषण करने लगी। बालक पर गर्भ के समय संस्कारों का अपूर्व प्रभाव होता है। विशेषतः जो प्रभाव उस पर उस की माता की भावनाओं का पड़ता है, वह तो बड़ा विलक्षण होता है। तात्पर्य यह है कि माता की अच्छी या बुरी जैसी भी भावनाएं होंगी, गर्भस्थ जीव पर वैसे ही संस्कार अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेंगे। बालक के जीवन का निर्माण गर्भ से ही प्रारम्भ हो जाता है, अतः गर्भवती माताओं को विशेष सावधान रहने की आवश्यकता होती है। भारतीय सन्तान की दुर्बलता के कारणों में से एक कारण यह भी है कि गर्भ के पालन-पोषण और उस पर पड़ने वाले संस्कारों के विषय में बहुत कम ध्यान रखा जाता है। गर्भधारण के पश्चात् पुरुषसंसर्ग न करना, वासना-पोषक प्रवृत्तियों से अलग रहना, मानस को हर तरह से स्वच्छ एवं निर्मल बनाए रखना ही स्त्री के लिए हितावह होता है, परन्तु इन बातों का बहुत कम स्त्रियां ध्यान रखती हैं। उसी का यह दूषित परिणाम है कि आजकल के बालक दुर्बल, अल्पायुषी और बुरे संस्कारों वाले पाए जाते हैं। परन्तु महारानी धारिणी इन सब बातों को भली भान्ति जानती थी। अतएव वह गर्भस्थ शिशु के जीवन के निर्माण एवं कल्याण का ध्यान रखती हुई अपने मानस को दूषित प्रवृत्तियों से सदा सुरक्षित रख रही थी। - तदनन्तर लगभग नवमास के परिपूर्ण होने पर उसने एक सर्वांगसुन्दर पुत्ररत्न को जन्म दिया। जातकर्मादि संस्कारों के कराने से उस नवजात शिशु का "सुबाहुकुमार" ऐसा गुणनिष्पन्न नाम रक्खा / तत्पश्चात् दूध पिलाने वाली क्षीरधात्री, स्नान कराने वाली मज्जनधात्री, वस्त्राभूषण द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [797 Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहनाने वाली मंडनधात्री, क्रीड़ा कराने वाली क्रीडापनधात्री और गोद में रखने वाली अंकधात्री, इन पांच धाय माताओं की देखरेख में वह बालक गिरिकन्दरागत लता तथा द्वितीया के चन्द्र की भान्ति बढ़ने लगा। इस प्रकार यथाविधि पालन और पोषण से वृद्धि को प्राप्त होता हुआ सुबाहुकुमार जब आठ वर्ष का हो गया तो माता-पिता ने शुभ मुहूर्त में एक सुयोग्य कलाचार्य के पास उस की शिक्षा का प्रबन्ध किया। कलाचार्य ने भी थोड़े ही समय में उसे पुरुष की 72 कलाओं में निपुण कर दिया और महाराज को समर्पित किया। अब सुबाहुकुमार सामान्य बालक न रह कर विद्या, विनय, रूप और यौवन सम्पन्न होकर एक आदर्श राजकुमार बन गया तथा मानवोचित भोगों के उपभोग करने के सर्वथा योग्य हो गया। तब माता पिता ने उस के लिए पाँच सौ भव्य प्रासाद और एक विशाल भवन तैयार कराया और पुष्पचूलाप्रमुख पांच सौ राजकुमारियों के साथ उस का विवाह कर दिया। प्रेमोपहार के रूप में सुवर्णकोटि आदि प्रत्येक वस्तु 500 की संख्या में दी। तदनुसार सुबाहुकुमार भी उन पांच सौ प्रासादों में उन राजकुमारियों के साथ यथारुचि मानवोचित विषयभोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द समय व्यतीत करने लगा। यह है सूत्रवर्णित कथासन्दर्भ का सार जिसे सूत्रानुसार अपने शब्दों में व्यक्त किया गया है। हस्तिशीर्ष नगर तथा उस के पुष्पकरंडक उद्यान का जो वर्णन सूत्र में दिया है, उस पर से भारत की प्राचीन वैभवशालीनता का भलीभान्ति अनुमान किया जा सकता है। आज तो यह स्थिति भारतीय जनता की कल्पना से भी परे की हो गई है, परन्तु आज की स्थिति को सौ दो सौ वर्ष पूर्व के इतिहास से मिला कर देखा जाए तथा इसी क्रम से अढ़ाई, तीन हजार वर्ष पूर्व की स्थिति का अन्दाज़ा लगाया जाए तो मालूम होगा कि यह बात अत्युक्तिपूर्ण नहीं किन्तु वास्तविक ही है। कुछ विचारकों का "-साधु-मुनिराजों को नारी के सौन्दर्य तथा इसी प्रकार अन्य वस्तुओं के सौन्दर्य वर्णन से क्या प्रयोजन है-" यह विचार कुछ गौरव नहीं रखता, क्योंकि वास्तविकता को प्रकट करना दोषावह नहीं होता, बल्कि उसे छिपाना दोषप्रद हो सकता है। हां, वस्तु पर रागद्वेष करना दोष है, न कि उस का यथार्थरूप में वर्णन करना / आज के साधु की तो बात ही जाने दीजिए, परमपूज्य गणधर देवों ने भी ऐसे वर्णन किए हैं। उन्होंने सब बातों का, फिर वे बातें चाहे नगरसौन्दर्य से सम्बन्ध रखती हों, स्त्री अथवा पुरुष के सौन्दर्यविषय की हों, पूरी तरह से वर्णन किया है। 1. 72 कलाओं का विस्तृत वर्णन प्रथम श्रुतस्कंध के द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। 2. सुवर्णकोटि आदि का विस्तृत वर्णन प्रथम श्रुतस्कंध के नवम अध्याय में किया गया है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां कुमार सिंहसेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में सुबाहुकुमार का। 798 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महारानी धारिणी देवी का रात्रि के समय महाराज अदीनशत्रु के पास स्वप्न का फल पूछने के लिए अपने शयनागार से उठ कर जाना, यह सूचित करता है कि पूर्वकाल में पतिपत्नी एक स्थान पर नहीं सोया करते थे, इससे तथा इसी प्रकार के शास्त्रों में वर्णित अन्य कथानकों से यह सिद्ध होता है कि उस समय प्रायः सभी लोगों की यही नीति थी, जिस से कि उन की दीर्घदर्शिता एवं विषयविरक्ति सूचित होती है। इस नीति के पालन से दम्पती भी अधिकाधिक सदाचारी रहने के कारण प्रायः नीरोग रहते और उन की सन्तति भी सशक्त अथच दीर्घजीवी होती थी। आज इस नीति का पालन तो शायद ही कहीं पर होता हो, तब इस का परिणाम भी वही हो रहा है जो नीति के भंग करने से होता है। आज के स्त्री और पुरुषों का दुर्बल होना, अनेक रोगों का घर होना तथा उत्साहहीन होना मात्र इस पूर्वोक्त पवित्र नीति के उल्लंघन का ही कुपरिणाम समझना चाहिए। राजकुमार होते हुए भी सुबाहुकुमार कृषिविद्या, कपड़ा बुनना और इसी प्रकार अन्यान्य दस्तकारी के कामों को जानते थे, यह उन के 72 कलाओं के ज्ञान से सूचित होता है। सुबाहुकुमार आज के धनी, मानी युवकों की भान्ति कृषि आदि धन्धों के करने में अपना अपमान नहीं समझते थे। वे जानते थे कि जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं, कभी जीवन सुखी तथा कभी दुःखी होता है। अनुकूल और प्रतिकूल दोनों तरह की स्थितियां जीवन में चलती रहती हैं, तदनुसार कभी अच्छा व्यवसाय मिल जाता है, तो कभी साधारण व्यवसाय से ही जीवन का निर्वाह करना होता है। यदि पास में कृषि आदि धन्धों का ज्ञान ही नहीं होगा, फिर भला समय पड़ने पर उन का उपयोग कैसे हो सकेगा? पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के विभाजन के उदाहरण ने इस तथ्य को व्यवहार का रूप दे दिया है। धन के विनष्ट हो जाने के कारण जो मनुष्य अर्थसाध्य व्यवसाय नहीं कर पाए वो यदि कुछ शिल्प-दस्तकारी का काम नहीं जानते थे तो उन्हें उदरपूर्ति करनी कठिन हो गई, परन्तु जब कि हाथ का उद्योग करने वालों ने अपने पुरुषार्थ से अपने जीवन की गाड़ी को बड़ी सुविधा के साथ चलाया और अपना भविष्य निराशापूर्ण एवं दुःखपूर्ण होने से बचा लिया। इसके अतिरिक्त कृषि आदि धन्धों का ज्ञान सांसारिक मनुष्य की स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखता है और उसे आजीविकासम्बन्धी किसी भी कष्ट का भाजन नहीं बनने देता..... इत्यादि विचारों से प्रेरित हुए सुबाहुकुमार ने 72 कलाओं का शिक्षण प्राप्त किया था। . माता-पिता ने सुबाहुकुमार का विवाह उस समय किया जब कि वह पूरा युवक हो गया था। इस से बाल्यकाल का विवाह अनायास ही निषिद्ध हो जाता है तथा जो माता-पिता अपनी संतान का योग्य अवस्था प्राप्त करने से पहले ही विवाह कर देते हैं वे अपनी सन्तान द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [799 Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के हितचिन्तक नहीं किन्तु उसके अनिष्ट के सम्पादक हैं, यह भी प्रस्तुत कथासन्दर्भ से सूचित हो जाता है। सुबाहुकुमार के 500 विवाह क्यों? और किस लिए? यह प्रश्न विचारणीय है। जैन शास्त्रों के पर्यालोचन से पता चलता है कि अधिक विवाह कराने वाले दो वर्ग हैं। एक तो वे जो वैक्रियलब्धि के धारक या वैक्रियलब्धिसम्पन्न होते हैं। अपने ही जैसे अनेक रूपों को बना लेना और उन से काम भी ले लेना, यह वैक्रियलब्धि का पुण्यकर्मजन्य प्रभाव होता है। लब्धिधारियों का ऐसा करना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। रही दूसरे वर्ग की बात, सो इस के विषय में भी यह निर्णय है कि उस समय में ऐसा करना राजा-महाराजाओं के वैभव का प्रतीक समझा जाता था। उस समय के विचारकों की दृष्टि में इस प्रथा को गर्हित नहीं समझा. गया था, प्रत्युत आदर की दृष्टि से देखा जाता था। इसलिए सुबाहुकुमार का एक साथ 500 राजकुमारियों के साथ विवाह का होना , उस समय की प्रचलित बहुविवाहप्रथा को ही आभारी है। उस समय विशालसाम्राज्य के उपभोक्ता का इसी में गौरव समझा जाता था कि उस के अधिक से अधिक विवाह हुए हों। किसी विशाल साम्राज्य के अधिपति के कम विवाह हों, यह उस समय के अनुसार वहां के नरेश का अपमान समझा जाता था। यही कारण है कि सुबाहुकुमार के पिता अदीनशत्रु के रनिवास को एक हज़ार रानियां सुशोभित कर रही थीं। जिन में प्रधान-पट्टरानी धारिणी देवी थी, परन्तु ध्यान रहे कि जहां अधिक विवाह करना गौरव का अंग बना हुआ था, वहां सदाचारी रहना भी उतना ही. आवश्यक था। सुबाहुकुमार के सदाचारी जीवन का परिचय आगे चल कर सूत्रकार स्वयं ही करा देंगे। पहले से ही यह युग धर्मयुग कहलाता था, उस में धर्म का प्रचार था, चारों ओर धर्म की दुन्दुभि बजती थी। जिधर देखो उधर ही धर्म की चर्चा हो रही थी। उस के कारण मनोवृत्तियों का स्वच्छ रहना और कामोपासना से विमुख होना स्वाभाविक ही है। आजकल का वासना का पुजारी मानव तो इसे झटिति असंभव कह देता है, परन्तु उसे क्या पता है कि सदाचारी अपने को कामदेव के चंगुल से कितनी सावधानी से बचा लेता है और अपने में कितना दृढ़ रहता है। आज के मनुष्य की दशा तो कूप के मंडूक की भान्ति है, जो कूप के विस्तार को ही सर्वोपरि मानता है, सच तो यह है कि जिस का आत्मा आध्यात्मिक सुख को न देख कर केवल भोग का कलेवर बना हुआ है, वह अपने मानव जीवन को निस्सार कर लेता 1. सूत्रकार ने जो सुबाहुकुमार के 500 राजकुमारियों के साथ विवाह का कथानक उपन्यस्त किया है, इस का यह अर्थ नहीं है कि जैनशास्त्र बहुविवाह की प्रथा का समर्थन या विधान करते हैं, परन्तु प्रस्तुत में तो मात्र . घटनावृत्त का वर्णन करना ही सूत्रकार को इष्ट है। 800 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और वह उपलब्ध हुए बहुमूल्य अवसर को यों ही खो डालता है। इस के विपरीत सदाचार के सौरभ से सुरभित मानव अपने जीवन में अधिकाधिक सदाचारमूलक प्रवृत्तियों का पोषण कर के अपना भविष्य उज्ज्वल, समुज्ज्वल और अत्युज्वल बना डालता है। पांच सौ कन्याओं के साथ एक ही दिन में विवाह करने का यह अर्थ है कि लोगों के समय, शक्ति और स्वास्थ्य आदि का बचाव किया जाए। एक-एक कन्या का अलग-अलग समय में विवाह किया जाता तो न जाने कितना समय लगता, कितनी शक्ति व्यय होती एवं लगातार गरिष्ट भोजनादि के सेवन से कितनों का स्वास्थ्य बिगड़ता। इस के अतिरिक्त राज्य के प्रबन्ध में भी अमर्यादित प्रतिबन्ध के उपस्थित होने की संभावना रहती। इसी विचार से महाराज अदीनशत्रु ने एक ही दिन में और एक ही मण्डप में विवाह का आयोजन करना उचित समझा, जो कि उन की दीर्घदर्शिता का परिचायक है। इस के अतिरिक्त इस से समय का उपयोग कितनी निपुणता तथा बुद्धिमत्ता से करना चाहिए इस बात की ओर स्पष्ट संकेत मिलता है। एक मेधावी व्यक्ति के समय का मूल्य कितना होता है तथा उस का उपयोग किस रीति से करना चाहिए, ये बातें प्रस्तुत वर्णन से जान लेनी चाहिएं। ___-रिद्ध- यहां के बिन्दु से-त्थिमियसमिद्धे पमुइयजणजाणवए आइण्णजणमणुस्से हलसयसहस्ससंकिट्ठविकिट्ठलट्ठपण्णत्तसेउसीमे कुक्कुडसंडेयगामपउरे उच्छुजवसालिकलिए गोमहिसगवेलगप्पभूए आयारवन्तचेइयजुवइविविहसन्निविट्ठबहुले उक्कोडियगायगंठिभेयभडतक्करखंडरक्खरहिए खेमे णिरुवद्दवे सुभिक्खे वीसत्थसुहावासे अणेगकोडिकुडुंबियाइण्णणिव्वुयसुहे णडणट्टगजल्लमल्लमुट्ठियवेलंबयकहगपवगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंबवीणियअणेगतालायराणुचरिए आरामुजाणअगडतलागदीहियवप्पिणिगुणोववेए नंदणवणसन्निभप्पगासे उव्विद्धविउलगंभीरखायफलिहे चक्कगयमुसुंढिओरोहसयग्घिजमलकवाडघणदुप्पवेसे धणुकुडिलवंकपागारपरिक्खित्ते कविसीसगवट्टरइयसंठियविरायमाणे अट्टालयचरियदारगोपुरतोरणउण्णयसुविभत्तरायमग्गे छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीले विवणिवणिच्छेत्तसिप्पियाइण्णाणिव्वुयसुहे सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरपणियावणविविहवत्थुपरिमण्डिए सुरम्मे नरवइपविइण्णमहिवइपहे अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपहकरसीयसंदमाणीयाइण्णजाणजुग्गे विमउलणवणलिणिसोभियजले पण्डुरवरभवणसण्णिमहिए उत्ताणणयणपेच्छणिज्जे पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है वह नगर ऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र और परचक्र के भय 'द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [801 Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से विमुक्त तथा समृद्ध-धन-धान्यादि से परिपूर्ण था। उस में रहने वाले लोग तथा जनपद-बाहर से आए हुए लोग, बहुत प्रसन्न रहते थे। वह मनुष्यसमुदाय से आकीर्ण-व्याप्त था, तात्पर्य यह है कि वहां की जनसंख्या अत्यधिक थी। उस की सीमाओं पर दूर तक लाखों हलों द्वारा क्षेत्रखेत अच्छी तरह बाहे जाते थे तथा वे मनोज्ञ, किसानों के अभिलषित फल के देने में समर्थ और बीज बोने के योग्य बनाए जाते थे। उस में कुक्कुटों, मुर्गों, और सण्डों-सांडों के बहुत से समूह रहते थे। वह इक्षु-गन्ना, यव-जौ और शालि-धान से युक्त था। उन में बहुत सी गौएं, भैंसे और भेड़ें रहती थीं। उस में बहुत से सुन्दर चैत्यालय और वेश्याओं के मुहल्ले थे। वह उत्कोच-रिश्वत लेने वालों, ग्रन्थिभेदकों-गांठ कतरने वालों, भटों-बलात्कार करने वालों, तस्करों-चोरों और खण्डरक्षों-कोतवालों अथवा कर-महसूल लेने वालों से रहित था। अर्थात् उस नगर में ग्रन्थिभेदक आदि लोग नहीं रहते थे। वह नगर क्षेमरूप था, अर्थात् वहां किसी का अनिष्ट नहीं होता था। वह नगर निरुपद्रव-राजादिकृत उपद्रवों से रहित था। उस में भिक्षुकों को भिक्षा की कोई कमी नहीं थी। वह नगर विश्वस्त-निर्भय अथवा धैर्यवान् लोगों के लिए सुखरूप आवास वाला था, अर्थात् उस नगर में लोग निर्भय और सुखी रहते थे। वह नगर अनेक प्रकार के कुटुम्बियों और सन्तुष्ट लोगों से भरा हुआ होने के कारण सुखरूप था। नाटक करने वाले, नृत्य करने वाले, रस्से पर खेल करने वाले अथवा राजा की स्तुति करने वाले चारण, मल्ल-पहलवान, मौष्टिक-मुष्टियुद्ध करने वाले, विदूषक, कथा कहने वाले और तैरने वाले, रासे गाने वाले अथवा "-आप की जय हो-" इस प्रकार कहने वाले, ज्योतिषी, बांसों पर खेल करने वाले, चित्र दिखा कर भिक्षा मांगने वाले, तूण नामक वाद्य बजाने वाले, वीणा बजाने वाले, ताली बजा कर नाचने वाले आदि लोग उस नगर में रहते थे। आराम-बाग, उद्यान-जिस में वृक्षों की बहुलता हो और जो उत्सव आदि के समय बहुत लोगों के उपयोग में लाया जाता हो, कूप-कूआं, तालाब, बावड़ी, उपजाऊ खेत इन सब की रमणीयता आदि गुणों से वह नगर युक्त था। नन्दनवन-एक वन जो मेरुपर्वत पर स्थित है, के समान वह नगर शोभायमान था। उस विशाल नगर के चारों ओर एक गहरी खाई थी जो कि ऊपर से चौड़ी और नीचे से संकुचित थी, चक्र-गोलाकार शस्त्रविशेष, गदा-शस्त्रविशेष, भुशुण्डी-शस्त्रविशेष, अवरोध-मध्य का कोट, शतघ्नी-सैंकड़ों प्राणियों का नाश करने वाला शस्त्रविशेष (तोप) तथा छिद्ररहित कपाट, इन सब के कारण उस नगर में प्रवेश करना बड़ा कठिन था, अर्थात् शत्रुओं के लिए वह दुष्प्रवेश था। वक्र धनुष से भी अधिक वक्र प्राकारकोट से वह नगर परिक्षिप्त-परिवेष्टित था। वह नगर अनेक सुन्दर कंगूरों से मनोहर था। ऊंची अटारियों, कोट के भीतर आठ हाथ के मार्गों, ऊंचे-ऊंचे कोट के द्वारों, गोपुरों-नगर के द्वारों, 802 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोरणों-घर या नगर के बाहर फाटकों और चौड़ी सड़कों से वह नगर युक्त था। उस नगर का अर्गल-वह लकड़ी जिससे किवाड़ बन्द करके पीछे से आड़ी लगा देते हैं (अरगल), इन्द्रकील (नगर के दरवाजों का एक अवयव जिस के आधार से दरवाजे के दोनों किवाड़ बन्द रह सकें) दृढ़ था और निपुण शिल्पियों द्वारा उन का निर्माण किया गया था, वहां बहुत से शिल्पी निवास किया करते थे, जिन से वहां के लोगों को प्रयोजनसिद्धि हो जाती थी, इसीलिए वह नगर लोगों के लिए सुखप्रद था। शृङ्गाटकों-त्रिकोण मार्गों, त्रिकों-जहां तीन रास्ते मिलते हों ऐसे स्थानों, चतुष्कों-चतुष्पथों, चत्वरों-जहां चार से भी अधिक रास्ते मिलते हों ऐसे स्थानों और नाना प्रकार के बर्तन आदि के बाजारों से वह नगर सुशोभित था। वह अतिरमणीय था। वहां का राजा इतना प्रभावशाली था कि उस ने अन्य राजाओं के तेज को फीका कर दिया था। अनेक अच्छे-अच्छे घोड़ों, मस्त हाथियों, रथों, गुमटी वाली पालकियों, पुरुष की लम्बाई जितनी लम्बाई वाली पालकियों, गाड़ियों और युग्यों अर्थात् गोल्लदेश में एक प्रकार की पालकियां जिन के चारों ओर फिरती चौरस दो हाथ प्रमाण की वेदिका (कठहरा) होती है, से वह नगर युक्त था। उस नगर के जलाशय नवीन कमल और कमलिनियों से सुशोभित थे। वह नगर श्वेत और उत्तम महलों से युक्त था। वह नगर इतना स्वच्छ था कि अनिमेष-बिना झपके दृष्टि से देखने को दर्शकों का मन चाहता था। वह चित्त को प्रसन्न करने वाला था, उसे देखते-देखते आँखें नहीं थकती थी, उसे एक बार देख लेने पर भी पुन: देखने की लालसा बनी रहती थी, उसे जब देखा जाए तब ही वहां नवीनता ही प्रतिभासित होती थी, ऐसा वह सुन्दर नगर था। -सव्वोउय०-यहां का बिन्दु-सव्वोउयपुप्फफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासाइए दंसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे-इस पाठ का परिचायक है। सब ऋतुओं में होने वाले पुष्पों और फलों से परिपूर्ण एवं समृद्ध सर्वर्तुकपुष्पफलसमृद्ध कहलाता है। रम्य रमणीय को कहते हैं। मेरुपर्वत पर स्थित नन्दनवन की तरह शोभा को प्राप्त करने वाला-इस अर्थ का परिचायक नन्दनवनप्रकाश शब्द है। प्रासादीय शब्द-मन को हर्षित करने वाला इस अर्थ का, दर्शनीय शब्द-जिसे बार-बार देख लेने पर भी पुनः देखने की लालसा बनी रहे-इस अर्थ का एवं प्रतिरूप शब्द-जिसे जब भी देखा जाए तब ही वहां नवीनता ही प्रतीत हो, इस अर्थ का बोध कराता है। ___-दिव्वे-यहां का बिन्दु-सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे जागसहस्सभागपडिच्छए बहुजणो अच्चेइ कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खायतणं-इन पदों का संसूचक है। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय - [803 Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-दिव्य-प्रधान को कहते हैं। २-सत्य-यक्ष की वाणी सत्यरूप होती थी, जो कहता था वह निष्फल नहीं जाता था, अतः उस का स्थान सत्य कहा गया है। ३सत्यावपात-उस का प्रभाव सत्यरूप था अर्थात् उस का चमत्कार यथार्थ ही रहता था। ४सन्निहितप्रातिहार्य-वहां के अधिष्ठायक वनमालप्रिय नामक यक्ष ने उस की महिमा बढ़ा रखी थी अर्थात् वहां पर मानी गई मनौती को सफल बनाने में वह कारण रहता था। ५यागसहस्रभागप्रतीच्छ-हजारों यज्ञों का भाग उसे प्राप्त होता था अर्थात् हजारों यज्ञों का हिस्सा वह प्राप्त किया करता था। वहां आकर बहुत लोग उस कृतवनमालप्रिय यक्ष के यक्षायतन की पूजा किया करते थे-इन भावों का परिचायक-बहुजणो अच्चेइ कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खायतणं-ये शब्द हैं। ___-महया-यहां के बिन्दु से-हिमवंतमहंतमलयमन्दरमहिंदसारे अच्चंतविसुद्धदीहरायकुलवंससुप्पसूए णिरंतरं रायलक्खणविराइअंगमंगे बहुजणबहुमाणे पूजिए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुइए मुद्धाहिसित्ते माउपिउसुजाए दयपत्ते सीमंकरे सीमंधरेखेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिंदे जणवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसवग्घे पुरिसासीविसे पुरिसपुण्डरीए पुरिसवरगन्धहत्थी अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधणबहुजायस्वरयए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियभत्तपउरभत्तपाणे बहुदासदासीगोमहिसगवेलगप्पभूए पडिपुण्णजंतकोसकोट्ठागाराउधागारे बलवं दुब्बलपच्चामित्ते ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं ओहयसत्तुं निहयसत्तुं मलियसत्तुं उद्धिअसत्तुं निज्जियसत्तुं पराइअसत्तुं ववगयदुब्भिक्खं मारिभयविप्पमुक्कं खेमं सिवं सुभिक्खं पसन्तडिम्बडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरइ-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है वह राजा महाहिमवान् अर्थात् हिमालय के समान महान् था, तात्पर्य यह है कि जैसे समस्त पर्वतों में हिमालय पर्वत महान् माना जाता है, उसी भान्ति शेष राजाओं की अपेक्षा से वह राजा महान् था, तथा मलय-पर्वतविशेष, मन्दर-मेरु पर्वत, महेन्द्र-पर्वतविशेष अथवा इन्द्र, इन के समान वह प्रधान था। वह राजा अत्यन्त विशुद्ध-निर्दोष तथा दीर्घ-चिरकालीन जो राजाओं का कुलरूप वंश था, उस में उत्पन्न हुआ था। उस का प्रत्येक अंग राजलक्षणोंस्वस्तिक आदि चिह्नों से निरन्तर-बिना अन्तर के शोभायमान रहता था। वह अनेक जनसमूहों से सम्मानित था, पूजित था। वह सर्वगुणसम्पन्न था। वह क्षत्रिय जाति का था। वह मुदित-प्रसन्न. रहने वाला था। उसके पितामह तथा पिता ने उस का राज्याभिषेक किया था। वह माता-पिता 804 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतंस्कन्ध Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विनीत होने के कारण सुपुत्र कहलाता था। वह दयालु था। वह विधान आदि की मर्यादा का निर्माता और अपनी मर्यादाओं का पालन करने वाला था। वह उपद्रव करने वाला नहीं था और न ही वह उपद्रव होने देता था। वह मनुष्यों में इन्द्र के समान था तथा उन का स्वामी था। देश का हितकारी होने के कारण वह देश का पिता समझा जाता था। वह देश का रक्षक था। शान्तिकारक होने से वह देश का पुरोहित माना जाता था। वह देश का मार्गदर्शक था। वह देश के अद्भुत कार्यों को करने वाला था। वह श्रेष्ठ मनुष्यों वाला था और वह स्वयं मनुष्यों में उत्तम था। वह पुरुषों में वीर होने के कारण सिंह के समान था। वह रोषपूर्ण हुए पुरुषों में व्याघ्रबाघ के समान प्रतीत होता था। अपने क्रोध को सफल करने में समर्थ होने के कारण वह पुरुषों में आशीविष-सर्पविशेष के समान था। अर्थीरूपी भ्रमरों के लिए वह श्वेत कमल के समान था। गजरूपी शत्रुराजाओं को पराजित करने में समर्थ होने के कारण वह पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान था। वह आढ्य-समृद्ध अर्थात् सम्पन्न था। वह आत्म-गौरव वाला था। उस का यश बहुत प्रसृत हो रहा था। उस के विशाल तथा बहुसंख्यक भवन-महलादि शयन-शय्या, आसन, यान, वाहन-रथ तथा घोड़े आदि से परिपूर्ण हो रहे थे। उस के पास बहुत सा धन तथा बहुत सा चांदी, सोना था। वह सदा अर्थलाभ-आमदनी के उपायों में लगा रहता था। वह बहुत से अन्न-पानी का दान किया करता था। उस के पास बहुत सी दासियां, दास, गौएं, भैंसे तथा भेड़ें थीं। उस के पास पत्थर फैंकने वाले यन्त्र, कोष भण्डार, कोष्ठागार-धान्यगृह तथा आयुधागार-शस्त्रशाला, ये सब परिपूर्ण थे, अर्थात् यंत्र पर्याप्त मात्रा में थे और उन से कोषादि भरे हुए रहते थे। उस के पास विशाल सेना थी, उस के पड़ोसी राजा निर्बल थे अर्थात् वह बहुत बलवान् था। उस ने स्पर्धा रखने वाले समानगोत्रीय व्यक्तियों का विनाश कर डाला था, इसी भान्ति उसने उन की सम्पत्ति छीन ली थी, उन का मान भंग कर डाला था, तथा उन्हें देशनिर्वासित कर दिया था, इसीलिए उस के राज्य में कोई स्पर्धा वाला समानगोत्रीय व्यक्तिरूप कण्टक नहीं रहने पाया था। उसने अपने शत्रुओं-असमानगोत्रीय स्पर्धा रखने वाले व्यक्तियों का विनाश कर डाला था, उन की सम्पत्ति छीन ली थी, उन का मान भंग कर डाला था, तथा उन्हें देश से निकाल दिया था, उस राजा ने शत्रुओं को जीत लिया था तथा उन्हें पराजित अर्थात् पुनः राज्य प्राप्त करने की सम्भावना भी जिन की समाप्त कर दी गई हो ऐसा कर डाला था। वह ऐसे राज्य का शासन करता हुआ विहरण कर रहा था, जिस में दुर्भिक्ष-अकाल नहीं था, जो मारी-प्लेग के भय से रहित था, क्षेमरूप था, अर्थात् वहां लोग कुशलतापूर्वक रहते थे। शिवरूप-सुखरूप था। जिस में भिक्षा सुलभ थी, जिस में डिम्बों-विघ्नों और डमरों-विद्रोहों का अभाव था। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [805 Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-सीहं सुमिणे जहा मेहजम्मणं तहा भाणियव्वं-" इस पाठ में सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के जीवन की जन्मगत समानता मेघकुमार से की है। मेघकुमार कौन था, उसने कहां पर जन्म लिया था, और उस के माता-पिता कौन तथा किस नाम के थे, इत्यादि बातों के जानने की इच्छा सहज ही उत्पन्न होती है। तदर्थ मेघकुमार के प्रकृतोपयोगी जीवनवृत्तान्त को संक्षेप से वर्णन कर देना भी आवश्यक प्रतीत होता है राजगृह नाम की एक प्रसिद्ध नगरी थी। उस के अधिपति-नरेश का नाम श्रेणिक था। उन की रानी का नाम धारिणी था। एक बार महारानी धारिणी राजोचित उत्तम वासगृह में आराम कर रही थी। उस ने अर्धजागृत अवस्था में अर्थात् स्वप्न में एक परम सुन्दर तथा जम्भाई लेते हुए, आकाश से उतर कर मुँह में प्रविष्ट होते हाथी को देखा। इस शुभ स्वप्न के देखने से रानी की नींद खुल गई। तदनन्तर वह अपना उक्त स्वप्र पति को सुनाने के लिए अपनी शय्या से उठ कर पति के शयनस्थान की ओर चली। पति की शय्या के समीप पहुँच कर धारिणी देवी ने अपने पति महाराज श्रेणिक को जगाया और उन से अपना स्वप्न कह सुनाया। तदनन्तर फलजिज्ञासा से वह वहां बैठ गई। धारिणी से उस के स्वप्र को सुन कर महाराज श्रेणिक को बहुत हर्ष हुआ। वे धारिणी से बोले कि प्रिये ! यह स्वप्न बड़ा शुभ है, इस के फलस्वरूप तुम्हारी कुक्षि से एक बड़े भाग्यशाली पुत्र का जन्म होगा जो कि परम यशस्वी और कुल का प्रदीप होगा। पति के मुख से उक्त शब्दों को सुनकर उन को प्रणाम कर के रानी धारिणी अपने शयनागार में चली गई और कोई अनिष्टोत्पादक स्वप्र न आए इन विचारों से शेष रात्रि को उसने धर्मजागरण से ही व्यतीत किया। दूसरे दिन प्रात:काल आवश्यक कार्यों से निवृत्त हो कर महाराज श्रेणिक ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा स्वप्रशास्त्रियों को आमंत्रित किया और धारिणी देवी के स्वप्न को सुना कर उन से उस के शुभाशुभ फल की जिज्ञासा की। इस के उत्तर में स्वप्रशास्त्रों के वेत्ता विद्वानों ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया महाराज ! स्वप्रशास्त्र में 72 प्रकार के शुभ स्वप्न कहें हैं। उन में 42 साधारण और 30 विशेष माने हैं, अर्थात् 42 का तो शुभ फल सामान्य होता है और 30 विशिष्ट फल देने वाले होते हैं। जिस समय अरिहंत या चक्रवर्ती अपनी माता के गर्भ में आते हैं, तब उन की माताएं इन तीस प्रकार के विशिष्ट स्वप्नों में से 14 स्वप्नों को देख कर जागती हैं, प्रत्युत जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तब उन की माताएं इन चौदह स्वप्नों में से किन्हीं सात स्वप्नों को देखती हैं। जब बलदेव गर्भ में आते हैं तब चार स्वप्नों को देख कर जागती हैं। इसी प्रकार किसी मांडलिक राजा के गर्भ में आने पर उन की माताएं इन चौदह स्वप्नों में से किसी एक स्वप्न को देख कर 806 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागती हैं। सो महारानी धारिणी देवी भी इन्हीं चौदह स्वप्नों में से एक को देख कर जागी हैं, इसलिए इन के गर्भ से पुत्ररत्न का जन्म होगा। वह बालक अपने शिशुभाव को त्याग कर युवावस्था-सम्पन्न होने पर सर्वविद्यासम्पन्न और सर्वकलाओं का ज्ञाता होगा। युवावस्था में प्रवेश करने पर या तो वह बालक दानशील और राज्य को बढ़ाने वाला होगा या आत्मकल्याण करने वाला परमतपस्वी और अखण्ड ब्रह्मचारी मुनि होगा। तदनन्तर महाराज श्रेणिक ने स्वप्रशास्त्रियों को बहुमूल्य वस्त्राभूषणादि से सम्मानित कर विदा किया। स्वप्रशास्त्री भी महाराज श्रेणिक को प्रणाम करके अपने-अपने स्थान को चले गए। - गर्भ के तीसरे मास में महारानी को अकालमेघ का दोहद उत्पन्न हुआ, जिस के अपूर्ण रहने से महारानी हतोत्साह हुई आर्तध्यान में ही रहने लगी। महाराज श्रेणिक को जब इस वृत्तान्त का पता चला, तब उन्होंने उस को पूर्ण कर देने का आश्वासन देकर शान्त किया। अन्त में अभयकुमार के प्रयास से देवता के आराधन से उसे पूर्ण कर दिया गया। तदनन्तर समय आने पर धारिणी ने एक सर्वाङ्गसम्पूर्ण पुत्ररत्न को जन्म दिया तथा उस का बड़े समारोह के साथ अकालमेघदोहद के कारण "-मेघकुमार-" ऐसा गुणनिष्पन्न नाम रक्खा गया। पुत्ररत्न के हर्ष में महाराज श्रेणिक और महारानी धारिणी ने अपने वैभव के अनुसार गरीबों, अनाथों को जी खोल कर दान दिया। घर-घर में मंगलाचार किया गया। मेघकुमार का पालन-पोषण उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार राजा, महाराजाओं के बालकों का हुआ करता है। पाँचों धायमाताओं की देखरेख में द्वितीया के चन्द्र की भान्ति सम्वर्द्धन को प्राप्त होता हुआ, योग्य शिक्षकों की दृष्टि तले 72 कलाओं की शिक्षा प्राप्त करता हुआ, विद्या और विनयसम्पत्ति प्राप्त करने के साथ ही वह युवावस्था को प्राप्त हुआ। यह है मेघकुमार का प्रकृतोपयोगी संक्षिप्त जीवनवृत्तान्त / अधिक के जिज्ञासु श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम अध्ययन का अवलोकन कर सकते हैं। . 'सुबाहुकुमार और मेघकुमार के गर्भ में आने पर माता को आए हुए स्वप्नों में इतना ही अन्तर है कि महाराज श्रेणिक की अर्धांगिनी ने स्वप्न में हस्ती को देखा और अदीनशत्रु की 1. गर्भ के तीसरे महीने गर्भस्थ जीव के भाग्यानुसार जो माता को अमुक प्रकार का मनोरथ उत्पन्न होता है, उस की दोहद संज्ञा है। तदनुसार धारिणी को उस समय यह इच्छा हुई कि मेघों से आच्छादित आकाश को देखू। परन्तु वह समय मेघों के आगमन का नहीं था, इसलिए मेघाच्छन्न आकाश को देखना बहुत कठिन था। ऐसी दशा में उक्त दोहद की पूर्ति कैसे हो? तब ज्ञात होने पर महामंत्री अभयकुमार ने देवता के आराधन द्वारा इस दोहद को पूर्ण किया अर्थात् दैवी शक्ति के द्वारा मेघों से आकाश को आच्छादित कर धारिणी देवी को दिखलाया और उस के दोहद को सफल किया ताकि गर्भ में कोई क्षति न पहुंचे। 2. 72 कलाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्याय में किया जा चुका है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [807 Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानी ने सिंह के दर्शन किए। इसी विभिन्नता को दिखाने के लिए मूल में "-सीहं . सुमिणे-" ऐसा उल्लेख कर दिया है। इस के अतिरिक्त अकालमेघ के दोहद से श्रेणिक के पुत्र का मेघकुमार नाम रखना और अदीनशत्रु की रानी धारिणी को वैसे दोहद का उत्पन्न न होना और सुबाहुकुमार यह नाम रखना, दोनों की नामगतविभिन्नता को सूचन कर रहा है। ___"-सुबाहुकुमारे जाव अलंभोगसमत्थं-" यहां उल्लिखित जाव-यावत्-पद से"बावत्तरीकलापंडिए, 'नवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए गीयरइगन्धव्वनट्टकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलंभोगसमत्थे साहसिए वियालचारी जाए यावि होत्था, तए णं तस्स सुबाहुकुमारस्स अम्मापिअरो सुबाहुकुमारं बावत्तरिकलापण्डियं नवंगसुत्तपडिबोहियं अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारयं गीयरइंगंधव्वनट्टकुसलं हयजोहिं गयजोहिं रहजोहिं बाहुजोहिं बाहुप्पमहिं"-इन पदों का तथा-अलंभोगसमत्थं-यहां के बिन्दु से-साहसियं वियालचारि जायं-इन पदों . का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है सुबाहुकुमार 72 कलाओं में प्रवीण हो गया। यौवन ने उस के सोए हुए-दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिह्वा, एक त्वचा और एक मन-ये नव अंग जागृत कर दिए थे, अर्थात् बाल्यावस्था में ये नव अंग अव्यक्त चेतना-ज्ञान वाले होते हैं, जब कि यौवनकाल में यही नव अंग व्यक्त चेतना वाले हो जाते हैं, तब सुबाहुकुमार के नव अंग प्रबोनित हो रहे थे। यह कहने का अभिप्राय इतना ही है कि वह पूर्ण-रूपेण युवावस्था को प्राप्त कर चुका था। वह अठारह देशों की भाषाओं में प्रवीण हो गया था। उस को गीत-संगीत में प्रेम था, तथा गाने और नृत्य करने में भी वह कुशल-निपुण हो गया था। वह घोड़े, हाथी और रथ द्वारा युद्ध करने वाला हो गया था। वह बाहुयुद्ध तथा भुजाओं को मर्दन करने वाला एवं भोगों के परिभोग में भी समर्थ हो गया था। वह साहसिक-साहस रखने वाला और अकाल अर्थात् आधी रातं आदि समय में विचरण करने की शक्ति रखने में भी समर्थ हो चुका था। तदनन्तर सुबाहुकुमार के मातापिता उस को 72 कलाओं में प्रवीण आदि, (जाणेति जाणित्ता-जानते हैं तथा जानकर) यह अर्थ निष्पन्न होता है। -अब्भुग्गय०-तथा-भवणं०-इन सांकेतिक पदों से अभिमत पाठ की सूचना पीछे प्रथम श्रुतस्कंध के नवमाध्ययन में कर दी गई है। अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां महाराज महासेन के पुत्र श्री सिंहसेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में महाराज अदीनशत्रु के सुपुत्र श्री 1. नवांगानि-श्रोत्र २चत्रुरघ्राणश्रसनाश्त्वक् मनोरलक्षणानि सुप्तानि सन्ति प्रबोधितानि यौवनेन . यस्य स तथा। (वृत्तिकारः) 808 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबाहुकुमार का / शेष वर्णन समान ही है। तथा वहां मात्र-अब्भुग्गय०-इतना ही सांकेतिक पद दिया है जब कि प्रस्तुत में उसी के अन्तर्गत-भवणं-इस पद का भी स्वतन्त्र ग्रहण किया गया - "-एवं जहा महब्बलस्स रण्णो-" इन पदों से सूत्रकार ने प्रासादादि के निर्माण में तथा विवाहादि के कार्यों में राजा महाबल की समानता सूचित की है, अर्थात् जिस तरह श्री महाबल के भवनों का निर्माण तथा विवाहादि कार्य सम्पन्न हुए थे, उसी प्रकार श्री सुबाहुकुमार के भी हुए। प्रस्तुत कथासन्दर्भ में श्री महाबल का नाम आने से उसके विषय में भी जिज्ञासा का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अतः प्रसंगवश उस के जीवनवृत्तान्त का भी संक्षिप्त वर्णन कर देना समुचित होगा। हस्तिनापुर नगर के राजा बल की प्रभावती नाम की एक रानी थी। किसी समय उस ने रात्रि के समय अर्द्धजागृत अवस्था में अर्थात् स्वप्न में आकाश से उतर कर मुख में प्रवेश करते हुए एक सिंह को देखा। तदनन्तर वह जाग उठी और उक्त स्वप्न का फल पूछने के लिए अपने शयनागार से उठ कर समीप के शयनागार में सोए हुए महाराज बल के पास आई और उन को जगा कर अपना स्वप्न कह सुनाया। स्वन को सुनकर नरेश बड़े प्रसन्न हुए तथा कहने लगे कि प्रिये ! इस स्वप्न के फलस्वरूप तुम्हारे गर्भ से एक बड़ा प्रभावशाली पुत्ररत्न उत्पन्न होगा। महारानी प्रभावती उक्त फल को सुन कर हर्षातिरेक से पतिदेव को प्रणाम कर वापिस अपने शयनभवन में आ गई और अनिष्टोत्पादक कोई स्वप्न न आ जाए, इस विचार से शेष रात्रि उसने धर्मजागरण में ही बिताई। स्नानादि की आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त होकर महाराज बल ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों-राजपुरुषों द्वारा स्वप्रशास्त्रियों को आमन्त्रित किया और उन के सामने महारानी प्रभावती का पूर्वोक्त स्वप्न सुना कर उस का फल पूछा। स्वप्रशास्त्रियों ने भी "-आप के घर में एक सर्वाङ्गपूर्ण पुण्यात्मा पुत्र उत्पन्न होगा, जो कि महान् प्रतापी राजा होगा या अखण्डब्रह्मचारी मुनिराज होगा.... आदि शब्दों द्वारा स्वप्र का फलोदय कथन किया। तदनन्दर राजा ने यथोचित पारितोषिक देकर उन्हें विदा किया। लगभग नवमास के परिपूर्ण होने पर महारानी ने एक सर्वाङ्गसुन्दर पुत्ररत्न को जन्म दिया। राजदम्पती ने बड़े आनन्द मंगल के साथ पुत्र का जन्मोत्सव मनाया तथा बड़े समारोह के साथ उस का नामकरण-संस्कार किया और "महाबल" ऐसा नाम रखा। तदनन्तर पांच धायमाताओं के संरक्षण में वृद्धि तथा किसी योग्य शिक्षक से शिक्षा को प्राप्त करता हुआ युवावस्था को प्राप्त हुआ। तब महाराज बल ने महाबल के लिए विशाल और उत्तम आठ * द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [809 Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-महल बनवाए और उन के मध्य में एक विशाल भवन तैयार कराया। तदनन्तर शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में सुयोग्य आठ राजकन्याओं के साथ उस का एक ही दिन में विवाह कर दिया गया। विवाह के उपलक्ष्य में राजा बल ने आठ करोड़ हिरण्य, आठ करोड़ सुवर्ण, आठ सामान्य मुकुट, आठ सामान्य कुण्डलों के जोड़े, इस प्रकार की अनेकविध उपभोग्य सामग्री दे कर श्री महाबल कुमार को उन महलों में निवास करने का आदेश दिया और महाबलकुमार भी प्राप्त हुई दहेज की सामग्री को आठों रानियों में विभक्त कर उन महलों में उन के साथ सानन्द निवास करने लगा। यह है महाबल कुमार का प्रकृतप्रकरणानुसारी संक्षिप्त परिचय। विशेष जिज्ञासा रखने वाले पाठक महानुभावों को भगवतीसूत्र के ग्यारहवें शतक का ग्यारहवां उद्देशक देखना चाहिए। वहां पल्योपम और सागरोपम के क्षयापचयमूलक प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर स्वामी ने सुदर्शन को उसी का महाबलभवीय वृत्तान्त सुनाया था। राजकुमार महाबल का आठ राजकुमारियों से विवाह हुआ-इस बात से विभिन्नता सूचित करने वाला सूत्रगत "-पुष्फचूलापामोक्खाणं-" इत्यादि उल्लेख है। इस में सुबाहुकुमार का 500 राजकन्याओं से विवाह होने का प्रतिपादन है तथा पाँच सौ प्रीतिदान-दहेज देने का वर्णन है। सारांश यह है कि जिस प्रकार भगवती सूत्र में महाबल के लिए भवनों का निर्माण और उस के विवाहों का वर्णन किया है, उसी प्रकार श्री सुबाहुकुमार के विषय में भी जानना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि महाबलकुमार का कमलाश्री प्रभृति आठ राजकन्याओं से विवाह हुआ और सुबाहुकुमार का पुष्पचूलाप्रमुख 500 राजकन्याओं से। इसी प्रकार वहां आठ और यहां 500 दहेज दिए गए। __-पंचसइओ दाओ जाव उप्पिं-यहां पठित-पंचसइओ दाओ-ये पद प्रथम श्रुतस्कंध के नवमाध्याय में लिखे गए-पंचसयहिरण्णकोडी ओपंचसयसुवण्णकोडीओ-से लेकरआसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं-" इन पदों के परिचायक हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वहां सिंहसेन का वर्णन प्रस्तावित हुआ है जब कि यहां सुबाहुकुमार का। शेष वर्णन समान ही है। तथा जाव-यावत् पद-तए णं से सुबाहुकुमारे एगमेगाए भज्जाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयइ। एगमेगं सुवण्णकोडिं दलयइ। एगमेगं मउडं दलयइ एवं चेव सव्वं जाव एगमेगं पेसणकारिंदलयइ।अन्नं च सुबहुं हिरण्णं जाव परिभाएउंदलयइ।तए णं से सुबाहुकुमारे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इन पदों का अर्थ इस प्रकार है तदनन्तर सुबाहुकुमार ने अपनी प्रत्येक भार्या-पत्नी को एक-एक करोड़ का हिरण्य 810] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और एक-एक करोड़ का सुवर्ण दिया, एवं एक-एक मुकुट दिया, इसी प्रकार पीसने वाली दासियों तक सब वस्तुएं बांट दी तथा अन्य बहुत-सा सुवर्णादि भी उन सब को बांट कर दे दिया। उस के पश्चात् सुबाहुकुमार.....। __-फुट्टमाणेहिं जाव विहरइ-यहां के जाव-यावत् पद से विवक्षित-मुइंगमत्थएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं-से लेकर-पच्चणुभवमाणे-यहां तक के पदों का विवरण प्रथम श्रुतस्कंध के तृतीयाध्याय में दिया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां चोरसेनापति अभग्नसेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में श्री सुबाहुकुमार का। __ अब सूत्रकार सुबाहुकुमार के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हुए कहते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे परिसा निग्गया। अदीणसत्तू निग्गए जहा कूणिए।सुबाहू वि जहा जमाली, तहा रहेणं णिग्गए, जाव धम्मो कहिओ। राया परिसा गया। तते णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्टतुढे उट्ठाए उढेइ उद्वित्ता समणं भगवंतं महावीरं वंदइ नमसइ वन्दित्ता नमंसित्ता एवं वयासीसदहामि गं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर जाव प्पभिइओं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजामि।अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह। तएणं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जइ पडिवजित्ता तमेव रहं दुरूहइ दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। ____ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः। परिषद् निर्गता। अदीनशत्रुः निर्गतः यथा कूणिकः। सुबाहुरपि यथा जमालिस्तथा रथेन निर्गतः। यावद् धर्मः कथितः। राजा परिषद् गता। ततः सः सुबाहुकुमारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अंतिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः उत्थाय उत्तिष्ठति उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वंदते वन्दित्वा नमस्यति नमस्यित्वा एवमवादीत्-श्रद्दधामि भदन्त ! निर्ग्रन्थं प्रवचनम्। यथा देवानुप्रियाणामन्तिके बहवो राजेश्वर यावद् प्रभृतयः द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [811 Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुण्डा: भूत्वा अनगाराद् अनगारितां प्रव्रजिताः, नो खलु अहं तथा शक्नोमि मुंडो भूत्वा अगारादनगारितां प्रव्रजितुम्।अहं देवानुप्रियाणामन्तिके पंचाणुव्रतिकं, सप्तशिक्षाव्रतिकं, द्वादशविधं गृहिधर्मं प्रतिपद्ये। यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धं कुर्याः। ततः स सुबाहुकुमारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पंचाणुव्रतिकं, सप्तशिक्षाव्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्मं प्रतिपद्यते प्रतिपद्य तमेव रथं आरोहति आरुह्य यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः। पदार्थ-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में। समणे-श्रमण। भगवंभगवान् / महावीरे-महावीर स्वामी। समोसढे-पधारे। परिसा-परिषद्-जनता। निग्गया-नगर से निकली। अदीणसत्तू-अदीनशत्रु। निग्गए-निकले। जहा कूणिए-जैसे महाराज कूणिक निकला था। सुबाहू विसुबाहुकुमार भी। जहा-जैसे। जमाली-जमालि। तहा-उसी प्रकार। रहेणं-रथ से। णिग्गए-निकला। जाव-यावत्। धम्मो-धर्म। कहिओ-प्रतिपादन किया। राया-राजा (चला गया और)। परिसा-परिषद्। गया-चली गई। तए णं-तदनन्तर। से-वह। सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार। समणस्स-श्रमण। भगवओभगवान् / महावीरस्स-महावीर स्वामी के।अंतिए-पास से। धम्म-धर्म को। सोच्चा-श्रवण कर। निसम्मअर्थरूप से अवधारण कर। हट्ठतुढे-अत्यन्त प्रसन्न होकर। उट्ठाए-स्वयंकृत उत्थान क्रिया के द्वारा। उद्वेइ-उठते हैं। उद्वित्ता-उठ कर। समणं भगवंतं महावीर-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को। वंदइ वन्दित्ता-वन्दना करते हैं, कर के। नमसइ नमंसित्ता-नमस्कार करते हैं, करके। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगे। भंते !-हे भदन्त ! निग्गंथं पावयणं-निग्रंथ प्रवचन पर। सद्दहामि णं-मैं श्रद्धा करता हूँ। जाव-यावत्। जहा णं-जैसे। देवाणुप्पियाणं-आप श्री जी के। अंतिए-पास। बहवे-अनेक। राईसर-राजा, ईश्वर / जाव-यावत् / मुंडा भवित्ता-मुण्डित हो कर। अगाराओ-घर छोड़ कर।अणगारियं पव्वइया-मुनिधर्म को धारण किया है। खलु अहं-निश्चय से मैं। तहा-उस प्रकार / मुंडे भवित्ता-मुण्डित होकर। अगाराओ अणगारियं-घर छोड़ कर अनगार अवस्था को। पव्वइत्तए-धारण करने में। नो संचाएमि-समर्थ नहीं हूँ। अहं णं-मैं तो।देवाणुप्पियाणं-आप श्री के अंतिए-पास से। पञ्चाणुव्वइयंपाँच अणुव्रतों वाला। सत्तसिक्खावइयं-सात शिक्षाव्रतों वाला।दुवालसविहं-बारह प्रकार के। गिहिधम्मगृहस्थ धर्म को। पडिवजामि-स्वीकार करना चाहता हूँ। उत्तर में भगवान् ने कहा। अहासुहं-यथा अर्थात् जैसे तुम को सुख हो।मा-मत।पडिबंध-देर करो। तए णं-तदनन्तर।से-वह। सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार। समणस्स-श्रमण। भगवओ-भगवान्। महावीरस्स-महावीर स्वामी के। अंतिए-पास। पंचाणुव्वइयंपांच अणुव्रतों वाले। सत्तसिक्खावइयं-सात शिक्षाव्रतों वाले। गिहिधम्म-गृहस्थ-धर्म को। पडिवजइ पडिवज्जित्ता-स्वीकार करता है, स्वीकार कर के। तमेव-उसी। रह-रथ पर। दुरूहइ दुरूहित्ता-सवार होता है, सवार हो कर। जामेव दिसं-जिस दिशा से। पाउन्भूए-आया था। तामेव दिसं-उसी दिशा को। पडिगए-चला गया। मूलार्थ-उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हस्तिशीर्ष 812 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्धः Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर में पधारे। परिषद् नगर से निकली। कूणिक की भांति महाराज अदीनशत्रु भी नगर से चले, तथा जमाली की तरह सुबाहुकुमार ने भी भगवान् के दर्शनार्थ रथ के द्वारा प्रस्थान किया, यावत् भगवान् ने धर्म का निरूपण किया। परिषद् और राजा धर्मकथा सुन कर चले गए। तदनन्तर भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्मकथा का श्रवण तथा मनन कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ सुबाहुकुमार उठ कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन, नमस्कार करने के अनन्तर कहने लगा भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, यावत् जिस तरह आप के श्री चरणों में अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि उपस्थित होकर, मुंडित हो कर तथा गृहस्थावस्था से निकल कर अनगार धर्म में दीक्षित हुए हैं अर्थात् जिस तरह राजा, ईश्वर आदि ने पांच महाव्रतों को ग्रहण किया है, वैसे मैं पांच महाव्रतों को ग्रहण करने के योग्य नहीं हूँ, अतः मैं पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों का जिस में विधान है ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थधर्म का आप से अंगीकार करना चाहता हूँ। तब भगवान के "-जैसे तुम को सुख हो, किन्तु इस में देर मत करो-" ऐसा कहने पर सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास पंचाणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के गृहस्थधर्म को स्वीकार किया, अर्थात् उक्त द्वादशविध व्रतों के यथाविधि पालन करने का नियम ग्रहण किया।तदनन्तर उसी रथ पर सवार होकर जिधर से आया था, उधर को चल दिया। टीका-जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी पुष्पकरण्डक उद्यान में पधारे तो उन के पधारने का समाचार हस्तिशीर्ष नगर में विद्युत्-बिजली की भान्ति फैल गया। नगर की जनता में हर्ष तथा उत्साह की लहर दौड़ गई। सभी भावुक नरनारी प्रभु के दर्शनार्थ उद्यान की ओर प्रस्थान करने की तैयारी में लग गए। इधर महाराज अदीनशत्रु भी भगवान् के आगमन को सुन कर बड़े प्रसन्न हुए और प्रभुदर्शनार्थ पुष्पकरण्डक उद्यान में जाने की तैयारी करने लगे। उन्होंने अपने हस्तिरत्न और चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित हो तैयार रहने का आदेश दिया और स्वयं स्नानादि आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त हो वस्त्राभूषण पहन कर हस्तिरत्न पर सवार हो महारानी धारिणी देवी को तथा सुबाहुकुमार को साथ ले चतुरंगिणी सेना के साथ बड़ी सजधज से भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान की ओर चल पड़े। उद्यान के समीप पहुंच कर जहां उन्होंने पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को देखा वहां उन्होंने हस्तिरत्न से नीचे उतर कर अपने पांचों ही, १-खड्ग, २-छत्र, ३-मुकुट, ४-चमर और ५-उपानत् इन राजचिह्नों को द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [813 Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग दिया और पाँच अभिगमों के साथ वे भगवान् के चरणों में उपस्थित होने के लिए पैदल चल पड़े। भगवान् के चरणों में उपस्थित होकर यथाविधि वन्दना, नमस्कार करने के अनन्तर उचित स्थान पर बैठ गए। महाराज अदीनशत्रु के यथास्थान पर बैठ जाने के अनन्तर महारानी और उनकी अन्य दासियां भी प्रभु को वन्दना नमस्कार कर के यथास्थान बैठ गईं। प्रभु महावीर स्वामी के समवसरण में उन के पावन दर्शन तथा उपदेश श्रवणार्थ आई हुई देवपरिषद्, ऋषिपरिषद्, मुनिपरिषद्, और मनुजपरिषद् आदि के अपने-अपने स्थान पर अवस्थित हो जाने के बाद श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मदेशना आरम्भ की। भगवान् बोले यह जीवात्मा कर्मों के बन्धन में दो कारणों से आता है। वे दोनों राग और द्वेष के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये राग और द्वेष इस आत्मा को घटीयंत्र की तरह संसार में घुमाते रहते हैं और विविध प्रकार के दु:खों का भाजन बनाते हैं। जब तक संसारभ्रमण के हेतुभूत इस राग-द्वेष को साधक आत्मा अपने से पृथक् करने का यत्न नहीं करता, तब तक उस की सारी शक्तियां तिरोहित रहती हैं, उस का आत्मविकास रुका रहता है। आत्मा की प्रगति में प्रतिबन्धरूप इस राग और द्वेष का जब तक समूलघात नहीं होने पाता तब तक इस आत्मा को सच्ची शान्ति का लाभ नहीं हो सकता। इस के लिए साधक पुरुष को संयम की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। संयमशील आत्मा ही राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करके आत्मशक्तियों के विकास द्वारा शान्तिलाभ कर सकता है। मानवजीवन का वास्तविक उद्देश्य आध्यात्मिक शांति प्राप्त करना है। उसके लिए मानव को त्यागमार्ग का अनुसरण करना होगा। त्यांग के दो स्वरूप हैं, देशत्याग और सर्वत्याग। सर्वत्याग का ही दूसरा नाम सर्वविरतिधर्म या अनगारधर्म है। इसी प्रकार देशविरति और सरागधर्म को देशत्याग के नाम से कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो देशविरतिधर्म गृहस्थधर्म है और सर्वविरतिधर्म मुनिधर्म कहलाता है। जब तक साधक-आत्मा सर्व प्रकार के सावध व्यापार का परित्याग करके संयममार्ग का अनुसरण नहीं करता, तब तक उसे सच्ची शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती। यह ठीक है कि सभी साधक एक जैसे पुरुषार्थी नहीं हो सकते, अत: संयममार्ग में प्रवेश करने के लिए द्वाररूपं द्वादशविध गृहस्थधर्म जिस का दूसरा नाम देशविरतिधर्म है, प्रविष्ट हो कर मोक्षमार्ग के पथिक होने का प्रयत्न करना भी उत्तम है। देशत्याग सर्वत्याग के लिए आरम्भिक निस्सरणी है। पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत इस तरह बारह व्रतों के पालन की प्रतिज्ञा करने वाला साधक भी विकास-मार्ग की ओर ही प्रस्थान करने वाला हो सकता है। १-अहिंसा, २-सत्य, ३-अस्तेय, ४-ब्रह्मचर्य और ५-अपरिग्रह इन पांच व्रतों की 1. अभिगमों का स्वरूप प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथमाध्याय में लिखा जा चुका है। 814 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरतमभाव से अणु और महान् संज्ञा है। इन का आंशिकरूप में पालन करने वाला व्यक्ति अणुव्रती कहलाता है और सर्व प्रकार से पालन करने वाले की महाव्रती संज्ञा है। महाव्रती अनगार होता है जब कि गृहस्थ को अणुव्रती कहते हैं। परन्तु जब तक कोई साधक इन के पालन करने का यथाविधि नियम, ग्रहण नहीं करता तब तक वह न तो महाव्रती और न ही अणुव्रती कहा सकता है। ऐसी अवस्था में वह अव्रती कहलाएगा। अतः आत्मश्रेय के अभिलाषी मानव प्राणी को यथाशक्ति धर्म के आराधन में उद्योग करना चाहिए। यदि वह सर्वविरतिधर्म-साधुधर्म के पालन में असमर्थ है तो उसे देशविरतिधर्म-श्रावकधर्म के अनुष्ठान या आराधन में यत्न करना चाहिए। जन्ममरण की परम्परा से छुटकारा प्राप्त करने के लिए धर्म के आलम्बन के सिवा और कोई उपाय नहीं है.......। 'इत्यादि वीर प्रभु की पवित्र सुधामयी देशना को अपने-अपने कर्णपुटों द्वारा पान कर के संतृप्त हुई जनता प्रभु को यथाविधि वन्दना तथा नमस्कार करके अपने-अपने स्थान को वापस चली गई और महाराज अदीनशत्रु तथा महारानी धारिणी देवी भी अपने अनुचरसमुदाय के साथ प्रभु को सविधि वन्दना-नमस्कार कर के अपने महल की ओर प्रस्थित हुए। __भगवान् की देशना का सुबाहुकुमार के हृदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा, वह उन के सन्मुख उपस्थित हो कर बड़ी नम्रता से बोला कि भगवन् ! अनेक राजा-महाराजा और धनाढ्य आदि अनेकानेक पुरुष सांसारिक वैभव को त्याग कर आप श्री की शरण में आकर सर्वविरतिरूप संयम का ग्रहण करते हैं, परन्तु मुझ में उस के पालन की शक्ति नहीं है, इसलिए मुझे तो गृहस्थोचित देशविरतिधर्म के पालन का ही नियम कराने की कृपा करें ? सुबाहुकुमार के इस कथन के उत्तर में भगवान् ने कहा कि जिस में तुम्हारी आत्मा को सुख हो, वह करो, परन्तु धर्मकार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिए। तदनन्तर सुबाहुकुमार ने भगवान् के समक्ष पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों के पालन का नियम करते हुए देशविरति धर्म को अंगीकार किया, और वह भगवान् को यथाविधि वन्दना-नमस्कार करके अपने रथ पर सवार हो कर अपने स्थान को वापिस चला गया। प्रस्तुत सूत्र में जो कुछ लिखा है, उस का यह सारांश है। इस पर से विचारशील व्यक्ति को अनेकों उपयोगी शिक्षाओं का लाभ हो सकता है। उन में कुछ निम्नोक्त हैं १-धर्म केवल सुनने की वस्तु नहीं किन्तु आचरण में लाने योग्य पदार्थ है। जैसे औषधि का बार-बार नाम लेने या पास में रख छोड़ने से रोगी पर उस का कोई प्रभाव नहीं 1. धर्मदेशना का विस्तृत वर्णन श्री औपपातिक सूत्र में किया गया है। अधिक के जिज्ञासु पाठक वहां देख सकते हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [815 Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता और ना ही वह रोगमुक्त हो सकता है, इसी प्रकार धर्म के केवल सुन लेने से किसी को लाभ प्राप्त नहीं हो सकता जब तक सुने हुए धर्मोपदेश को जीवन में उतारने अर्थात् आचरण में लाने का यत्न न किया जाए। जिस तरह रोग की निवृत्ति औषधि के निरन्तर सेवन से होती है, उसी प्रकार भवरोग की निवृत्ति के लिए धर्म-औषध का सेवन करना आवश्यक है न कि केवल श्रवण कर लेना। इसलिए जो व्यक्ति गुरुजनों से सुने हुए सदुपदेश को उनके कथन के अनुसार आचरण में लाता है वही सच्चा श्रोता अथवा जिज्ञासु हो सकता है। सुबाहुकुमार ने भगवान् की धर्मदेशना को केवल सुन लेने तक ही सीमित नहीं रक्खा किन्तु उस को आचरण में लाने का भी स्तुत्य प्रयास किया। २-दिये गए उपदेश का ग्रहण अर्थात् आचरण में लाना श्रोता की रुचि, शक्ति और विचार पर निर्भर करता है। सभी श्रोता एक जैसी रुचि, शक्ति और विचार के नहीं होते। बहुतों की श्रवण करने से धर्म में अभिरुचि तो हो जाती है, परन्तु वे उस के यथाविधि पालन में असमर्थ होते हैं। इसी प्रकार बहुतों में शक्ति तो होती है परन्तु अभिरुचि-श्रद्धा का अभाव होता है और कई एक में रुचि और शक्ति के होने पर भी विचार-विभेद होता है, जिस के कारण वे धर्मानुष्ठान से वंचित रहते हैं। इसी दृष्टि को सन्मुख रखते हुए शास्त्रकारों ने अधिकारिवर्ग की रुचि और शक्ति के अनुसार धर्म को भी तरतमभाव से अनेक स्वरूपों में विभाजित कर दिया है। ___ जैन परम्परा में सामान्यतया धर्म को दो स्वरूपों में विभाजित किया है। प्रथम साधुधर्म है तथा दूसरा गृहस्थधर्म। इन्हीं दोनों को जैनपरिभाषा में सर्वविरतिधर्म और देशविरतिधर्म कहते हैं। सर्वविरतिधर्म-मुनिधर्म सर्वश्रेष्ठ है परन्तु सभी की इस के ग्रहण में रुचि नहीं हो सकती, तथा रुचि होने पर भी उसके सम्यक् अनुष्ठान की शक्ति नहीं होती। तब क्या गृहस्थ धर्म से वंचित ही रह जाए ? नहीं, यह बात नहीं है, क्योंकि उस के लिए देशविरतिधर्म का विधान है अर्थात् वह देशविरतिधर्म को अंगीकार करता हुआ आत्मा को विकासमार्ग में प्रतिष्ठित कर सकता है। तात्पर्य यह है कि यथारुचि और यथाशक्ति धर्म का आराधन करने वाला व्यक्ति भी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। सुबाहुकुमार की भगवदुपदिष्ट अनगारधर्म पर पूरी-पूरी आस्था है, उस पर विश्वास होने के साथ-साथ वह उसे सर्वश्रेष्ठ भी मानता है परन्तु उसके यथाविधि अनुष्ठान में वह अपने को असमर्थ पाता है, इसलिए उस ने अपने आप को श्रावकधर्म में दीक्षित होने की भगवान् से प्रार्थना की और भगवान् ने उसे स्वीकार करते हुए उसे श्रावकधर्म में दीक्षित किया। सारांश. यह है कि व्रतग्रहण करने से पूर्व अपनी शक्ति का ध्यान अवश्य रख लेना चाहिए। यदि किसी 816 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट तप के आराधन की शक्ति नहीं है तो उस से कम भी तप किया जा सकता है, परन्तु इतना ध्यान रहे कि यदि शक्ति है तो उस का धर्मपालन में अधिकाधिक सदुपयोग कर अपना आत्मश्रेय अवश्य साधना चाहिए, उसे छुपाना नहीं चाहिए। ३-प्रस्तुत कथासन्दर्भ में सब से अधिक आकर्षक तो भगवान् का वह कथन है जो कि उन्होंने सुबाहुकुमार को श्रावकधर्म में दीक्षित होने की इच्छा प्रकट करने के सम्बन्ध में किया है। सुबाहुकुमार को उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं "-अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह-" अर्थात् हे भद्र ! जैसे तुम को सुख हो वैसा करो, परन्तु इस में विलम्ब मत करो। भगवान् के इस उत्तर में दो बातें बड़ी मौलिक हैं १-धर्म के ग्रहण में पूरी-पूरी मानसिक स्वतन्त्रता अपेक्षित है, उस के बिना ग्रहण किया हुआ धर्म आत्मप्रगति में सहायक होने के स्थान में उस की अवनति का साधक भी बन जाता है। जो वस्तु इच्छापूर्वक ग्रहण की जाए, ग्रहणकर्ता को उसके संरक्षण का जितना ध्यान रहता है उतना अनिच्छया (किसी प्रकार के दवाब से) गृहीत वस्तु के लिए नहीं होता। सम्भवतः इसीलिए ही जैन शास्त्रों में उपदेशक मुनिराजों के लिए उपदेश तक सीमित रहने और आदेश न देने की मर्यादा रखी गई है। १अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्। गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्॥१॥ इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार मृत्यु को हर समय सन्मुख रखते हुए अविलम्बरूप से धर्म के आराधन में लग जाना चाहिए। जो मानव व्यक्ति यह सोचते हैं कि अभी तो विषयभोगों के उपभोग करने की अवस्था है, जब कुछ बूढ़े होने लगेंगे, उस समय धर्म का आराधन कर लेंगे, वे बड़ी भूल करते हैं। मृत्यु का कोई भरोसा नहीं, कल सूर्य को उदय होते देखेंगे कि नहीं, इस का कोई निश्चय नहीं है। प्रतिदिन ऐसी अनेक घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं, जिन से मानव शरीर की विनश्वरता और क्षणभङ्गरता निस्संदेह प्रमाणित हो जाती है। इसी दृष्टि से भगवान् ने सुबाहुकुमार को धर्माराधन में विलम्ब न करने का उपदेश दिया प्रतीत होता है। भगवान् के उक्त कथन में ये दोनों बातें इतनी अधिक मूल्यवान हैं कि इन को हृदय में निहित करने से मानव में विचारसंकीर्णता को कोई स्थान नहीं रहता। ऊपर अनगारधर्म और सागारधर्म का उल्लेख किया गया है। अनगार-साधु का 1. मैं अजर हूं, मैं अमर हूँ, ऐसा समझ कर तो मनुष्य विद्या और धन का उपार्जन करे और मृत्यु ने मेरे को केशों से पकड़ कर अभी पटका कि अभी पटका, ऐसा जान कर मनुष्य धर्म का आचरण करे। तात्पर्य यह है कि धर्माचरण में विलम्ब नहीं करना चाहिए। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [817 Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचरणीय धर्म महाव्रतों का यथाविधि पालन करना है, तथा सागारधर्म-गृहस्थधर्म अणुव्रतों का पालन करना है। व्रत शब्द के साथ अणु और महत् शब्द के संयोजन से वह गृहस्थ और साधु के धर्म में प्रयुक्त होने लग जाता है। जैसे कि अणुव्रती श्रावक और महाव्रती साधु / इस प्रकार गृहस्थ के व्रत अणु-छोटे और साधु के व्रत महान् बड़े कहे जाते हैं। शास्त्रों में हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह से विरति-निवृत्ति करने का नाम व्रत है। उन में अल्प अंश में निवृत्ति अणुव्रत और सर्वांश में विरति महाव्रत है। दूसरे शब्दों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप व्रतों का सर्वांशरूप में पालन करना महाव्रत और अल्पांशरूप में पालन अणुव्रत कहलाता है। अहिंसा आदि व्रतों का अर्थ निम्नोक्त है १-अहिंसा-मन, वचन और शरीर के द्वारा स्थूल तथा सूक्ष्म रूप सर्व प्रकार की हिंसा से निवृत्त होना अहिंसाव्रत अर्थात् पहला व्रत है। २-सत्य-मन, वचन और शरीर के द्वारा किसी प्रकार का भी मिथ्याभाषण न करना दूसरा सत्य व्रत है। ३-अस्तेय-किसी वस्तु को उस के स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण करना स्तेयचोरी है, उस का मन, वचन और काया से परित्याग करना अस्तेय अर्थात् अचौर्य व्रत है। ..४-ब्रह्मचर्य-सर्व प्रकार के मैथुन का परित्याग करना ब्रह्मचर्यव्रत कहा जाता है। ५-अपरिग्रह-लौकिक पदार्थों में मूर्छा-आसक्ति तथा ममत्व का होना परिग्रह है। उस को त्याग देने का नाम अपरिग्रहव्रत है। ये पांचों ही अणु और महान् भेदों से दो प्रकार के हैं। जब तक इन का आंशिक पालन हो तब तक तो इन की अणुव्रत संज्ञा है और सर्वथा पालन में ये महाव्रतं कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि अहिंसा आदि व्रतों के पालन का विधान शास्त्रों में गृहस्थ और साधु दोनों के लिए है, परन्तु गृहस्थ के लिए इन का सर्वथा पालन अशक्य है, इन का सर्वथा पालन साधु ही कर सकता है। अतः गृहस्थ की अपेक्षा ये अणुव्रत हैं और साधु की अपेक्षा इन की महाव्रत संज्ञा है। अनगार महाव्रतों का पालक होता है और श्रावक अणुव्रतों का। पांच अणुव्रत और सात 1. हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेम्यो विरतिव्रतम्॥१॥देशसर्वतोऽणुमहती॥२॥(तत्त्वार्थ सूत्र अ०७) 2. श्री औपपातिक सूत्र के धर्मकथाप्रकरण में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार 12 व्रत लिखे हैं परन्तु प्रकृत में सूत्रकार ने तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों को शिक्षारूप मानते हुएसत्तसिक्खावतियं-इस पद से ही व्यक्त किया है। व्याख्यास्थल में हमने 12 व्रतों का निरूपण करते हुए औपपातिक-सूत्रानुसारिणी पद्धति को अपनाते हुए 5 अणुव्रत, तीन गुणव्रत और 4 शिक्षाव्रत, ऐसा संकलन किया / है। 818 ] श्री विपाक सत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षाव्रत सम्मिलित करने से 12 व्रतों का पालन करने वाला गृहस्थ जैनपरिभाषा के अनुसार देशविरति श्रावक कहलाता है। श्रावक के बारह व्रतों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है १-अहिंसाणुव्रत-स्वशरीर में पीड़ाकारी तथा अपराधी के सिवाय शेष द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रियों वाले जीव) आदि त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का दो करण', तीन योग से त्याग करना श्रावक का स्थूल प्राणातिपातत्यागरूप प्रथम अहिंसाणुव्रत है। दूसरे शब्दों मेंगृहस्थधर्म में पहला व्रत प्राणी की हिंसा का परित्याग करना है। स्थावर जीव सूक्ष्म और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय हिलने चलने वाले त्रस प्राणी स्थूल कहलाते हैं। गृहस्थ सूक्ष्म जीवों की हिंसा से नहीं बच पाता अर्थात् वह सर्वथा सूक्ष्म अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। इसलिए भगवान् ने गृहस्थधर्म और साधुधर्म की मर्यादा को नियमित करते हुए ऐसा मार्ग बताया है कि सामान्य गृहस्थ से लेकर चक्रवर्ती भी उस का सरलतापूर्वक अनुसरण करता हुआ धर्म का उपार्जन कर सकता है। . दूसरी बात यह है कि श्रावक-गृहस्थ के लिए सूक्ष्म हिंसा का त्याग शक्य नहीं है, क्योंकि उस ने चूल्हे का और चक्की का, कृषि तथा गोपालन आदि का सब काम करना है। यदि इसे छोड़ दिया जाए तो उस के जीवन का निर्वाह नहीं हो सकेगा। इसलिए शास्त्रकारों ने श्रावक के लिए स्थूल हिंसा का त्याग बता कर, उस में दो कोटियां नियत की हैं। एक आकुट्टी, दूसरी अनाकुट्टी, अर्थात् एक संकल्पी हिंसा दूसरी आरम्भी हिंसा। संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा का नाम संकल्पी और आरम्भ से उत्पन्न होने वाली हिंसा को आरम्भी हिंसा कहते हैं। इसे उदाहरण से समझिए 1. दो करण, तीन योग से हिंसा नहीं करनी चाहिए, ऐसा कहने का अभिप्राय निम्नोक्त है: १-मारूं नहीं मन से अर्थात् मन में किसी को मारने का विचार नहीं करना या हृदय में ऐसा मंत्र नहीं * जपना कि जिस से किसी प्राणी की हिंसा हो जाए। २-मारूं नहीं वचन से अर्थात् किसी को शाप आदि नहीं देना, जिस से उस जीव की हिंसा हो जाए अथवा जो वाणी किसी प्राणापहार का कारण बने, ऐसी वाणी नहीं बोलना। ३-मारूं नहीं काया से अर्थात् स्वयं अपनी काया से किसी जीव को नहीं मारना। ४-मरवाऊं नहीं मन से अर्थात् अपने मन से ऐसा मंत्रादि का जाप न करना जिस से दूसरे व्यक्ति के मन को प्रभावित कर के उस के द्वारा किसी प्राणी की हिंसा की जाए। ५-मरवाऊं नहीं वचन से अर्थात् वचन द्वारा कह कर दूसरे से किसी प्राणी के प्राणों का अपहरण नहीं करना। ६-मरवाऊं नहीं काया से अर्थात् अपने हाथ आदि के संकेत से किसी प्राणी की हिंसा न कराना। किसी जीव को मारूं नहीं, मरवाऊं नहीं ये दो करण और मन, वचन और काया, ये तीन योग कहलाते हैं। इस प्रकार जीवनपर्यन्त त्रस जीवों की हिंसा न करने का श्रावक के छ: कोटि प्रत्याख्यान होता है। इसी भान्ति सत्य, अचौर्य आदि व्रतों के विषय में भी भावना कर लेनी चाहिए। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [819 Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाड़ी में बैठने का उद्देश्य मार्ग में चलने फिरने वाले कीड़े-मकौड़ों को मारना नहीं, होता। फिर भी प्रायः गाड़ी के नीचे कीड़े-मकौड़े मर जाते हैं, इस प्रकार की हिंसा आरम्भी या आरम्भजा हिंसा कहलाती है। इसी भान्ति एक आदमी चींटियों को जान-बूझ कर पत्थर से मारता है, इस प्रकार की हिंसा संकल्पी या संकल्पजा कही जाती है। सारांश यह है कि त्रस जीवों को मारने का उद्देश्य न होने पर भी गृहस्थसम्बन्धी काम-काज करते समय जो अबुद्धिपूर्वक हिंसा होती है वह आरम्भजा और संकल्पपूर्वक अर्थात् इरादे से जो हिंसा की जाए वह संकल्पजा है। इन में पहले प्रकार की अर्थात् आरम्भजा हिंसा का त्याग करना गृहस्थ के लिए अशक्य है। घर का कूड़ा-कचरा निकालने, रोटी बनाने, आटा पीसने, और खेती-बाड़ी करने तथा फलपुष्पादि के तोड़ने में त्रस जीवों की हिंसा असम्भव नहीं है। इसलिए गृहस्थ को संकल्पी हिंसा के त्याग का नियम होता है, अन्य का नहीं। इस के अतिरिक्त अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए १-बन्ध,२-वध,३-छविच्छेद,४-अतिभार और ५-भक्तपानव्यवच्छेद इन पांच कार्यों के त्याग करने का ध्यान रखना भी अत्यावश्यक है। बन्ध आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है। १-बन्ध-रस्सी आदि से बांधना बन्ध कहलाता है। बन्ध दो प्रकार का होता हैद्विपदबन्ध और चतुष्पदबन्ध / मनुष्य आदि को बांधना द्विपदबन्ध और गाय आदि पशुओं को बांधना चतुष्पदबन्ध कहा जाता है। अथवा-बन्ध अर्थबन्ध और अनर्थबंध, इन विकल्पों से भी दो प्रकार का होता है। किसी अर्थप्रयोजन के लिए बांधना अर्थबन्ध है तथा बिना प्रयोजन के ही किसी को बांधना अनर्थबन्ध कहलाता है। अर्थबन्ध के भी १-सापेक्षबन्ध, और २निरपेक्षबन्ध, ऐसे दो भेद होते हैं। किसी प्राणी को कोमल रस्सी आदि से ऐसा बांधना कि अग्नि लगने आदि का भय होने पर शीघ्र ही सरलता से छोड़ा जा सके, उसे सापेक्षबन्ध कहते हैं। तात्पर्य यह है कि पढ़ाई आदि के लिए आज्ञा न मानने वाले बालकों, चोर आदि अपराधियों को केवल शिक्षा के लिए बांधना तथा पागल को, गाय आदि पशुओं को एवं मनुष्यादि को अग्नि आदि के भय से उन के संरक्षणार्थ बान्धना सापेक्षबंध कहलाता है, जब कि मनुष्य पशु आदि को निर्दयता के साथ बांधना निरपेक्षबंध कहा जाता है। अनर्थबन्ध तथा निरपेक्षबन्ध श्रावकों के लिए त्याज्य एवं हेय होता है। २-वध-कोड़ा आदि से मारना वध कहलाता है। वध के भी बन्ध की भान्ति द्विपदवध-मनुष्य आदि को मारना, तथा चतुष्पदवध-पशुओं को मारना, अथवा-अर्थवधप्रयोजन से मारना और अनर्थवध-बिना प्रयोजन ही मारना, ऐसे दो भेद होते हैं। अनर्थवध . श्रावक के लिए त्याज्य है। अर्थवध के सापेक्षवध और निरपेक्षवध ऐसे दो भेद हैं। अवसर 820 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ने पर प्राणों की रक्षा का ध्यान रखते हुए मर्म स्थानों में चोट न पहुँचा कर सापेक्ष ताडन सापेक्षवध और निर्दयता के साथ ताडन करना निरपेक्षवध कहलाता है। श्रावक को निरपेक्षवध नहीं करना चाहिए। ३-छविच्छेद-शस्त्र आदि से प्राणी के अवयवों-अंगों का काटना छविच्छेद कहा जाता है। छविच्छेद के द्विपदछविच्छेद-मनुष्यादि के अवयवों को काटना, तथा चतुष्पदछविच्छेदपशुओं के अवयवों को काटना, अथवा-अर्थछविच्छेद-प्रयोजन से अवयवों को काटना तथा अनर्थछविच्छेद-बिना प्रयोजन ही अवयवों को काटना, ऐसे दो भेद होते हैं। अनर्थछविच्छेद श्रावक के लिए त्याज्य है। अर्थछविच्छेद-सापेक्षछविच्छेद और निरपेक्षछविच्छेद इन भेदों से दो प्रकार का होता है। कान, नाक, हाथ, पैर आदि अंगों को निर्दयतापूर्वक काटना निरपेक्षछविच्छेद कहलाता है जोकि श्रावक के लिए निषिद्ध है तथा किसी प्राणी की रक्षा के लिए घाव या फोड़े आदि का जो चीरना तथा काटना है वह सापेक्षछविच्छेद कहा जाता है, इस का श्रावक के लिए निषेध नहीं है। ४-अतिभार-शक्ति से अधिक भार लादने का नाम अतिभार है। मनुष्य, स्त्री, बैल, घोड़े आदि पर अधिक भार लादना अथवा असमय में लड़कों, लड़कियों का विवाह करना, अथवा प्रजा के हित का ध्यान न रख कर कानून का बनाना अतिभार कहा जाता है। अथवाबन्ध आदि की भान्ति अतिभार के द्विपदअतिभार-मनुष्यादि पर प्रमाण से अधिक भार लादना, तथा चतुष्पदअतिभार-पशुओं पर प्रमाण से अधिक भार लादना, अथवा-अर्थअतिभारप्रयोजन से अतिभार लादना तथा अनर्थअतिभार-बिना प्रयोजन ही अतिभार लादना, ऐसे दो भेद होते हैं / अनर्थअतिभार श्रावक के लिए त्याज्य होता है। अर्थअतिभार सापेक्षअतिभार तथा निरपेक्षअतिभार-इन भेदों से दो प्रकार का होता है। गाड़े आदि में जुते हुए बैलों आदि की तथा किसी भी भारवाहक मनुष्य आदि की शक्ति की परवाह न कर के निर्दयतापूर्वक परिमाण से अधिक बोझ लाद देना, अथवा उन की शक्ति से अधिक काम उन से लेना निरपेक्षअतिभार और सद्भावनापूर्वक अतिभार लादना सापेक्षअतिभार कहा जाता है। निरपेक्षअतिभार का श्रावक के लिए निषेध किया गया है। ५-भक्तपानव्यवच्छेद-अन्न-पानी का न देना, अथवा उस में बाधा डालना भक्तपानव्यवच्छेद कहलाता है। भक्तपानव्यवच्छेद द्विपदभक्तपानव्यवच्छेद-मनुष्य आदि 1. प्रस्तुत में सद्भावना पूर्वक अतिभार लादने का अभिप्राय इतना ही है कि उद्दण्ड पशु आदि को शिक्षित करने, अथवा उसे अंकुश में लाने के लिए, अथवा-किसी विशेष परिस्थिति के कारण, अथवा उपायान्तर के न होने से उन्मत्त व्यक्ति पर कदाचित् अतिभार रखना ही पड़ जाए तो उस में निर्दयता के भाव न होने से वह सापेक्षबन्ध आदि की भान्ति गृहस्थ के धर्म का बाधक नहीं होता। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [821 Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को भक्तपान न देना, और चतुष्पदभक्तपानव्यवच्छेद-पशुओं को आहार-पानी न देना, . अथवा-अर्थभक्तपानव्यवच्छेद और अनर्थभक्तपानव्यवच्छेद इन भेदों से दो प्रकार का होता है। किसी प्रयोजन को लेकर आहार-पानी न देना अर्थभक्तपानव्यवच्छेद और बिना कारण ही आहार- पानी न देना अनर्थभक्तपानव्यवच्छेद कहलाता है। अनर्थभक्तपानव्यवच्छेद श्रावक के लिए त्याज्य होता है, तथा अर्थभक्तपानव्यवच्छेद के सापेक्षभक्तपानव्यवच्छेद-रोगादि के कारण से आहार-पानी न देना तथा निरपेक्षभक्तपानव्यवच्छेद-निर्दयतापूर्वक आहार-पानी का न देना, ऐसे दो भेद होते हैं। श्रावक के लिए निरपेक्षभक्तपानव्यवच्छेद का निषेध किया गया कुछ विचारकों का "-अहिंसा कायरता है-" यह कहना नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है और उन के अहिंसासम्बन्धी अबोध का परिचायक है। अहिंसा का गम्भीर ऊहापोह करने से उस में कोई तथ्य प्रतीत नहीं होता। देखिए-कायरता का प्रतिपक्षी वीरता है। वीरता का अर्थ यदि-. . अस्त्रशस्त्रहीन एवं दीन दुःखियों के जीवन को लूट लेना, जो मन में आए सो कर डालना या निरंकुश बन जाना, इतना ही है, तो दिन भर झूठ बोलने वाला, दूसरों की धनादि सम्पत्ति चुराने वाला, सतियों के सतीत्व को लूटने वाला, दुनिया भर की जघन्य प्रवृत्तियों से धन कमा कर अपनी तिजोरियां भरने वाला, क्या वीर नहीं कहलाएगा? और क्या ऐसे वीरों से सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन सुरक्षित रह सकेगा ? उत्तर स्पष्ट है, कभी नहीं। क्योंकि जिस समाज या राष्ट्र में ऐसे नराधम व्यक्ति उत्पन्न हो जाएंगे, वह समाज या राष्ट्र अपने अन्तःस्वास्थ्य तथा बाह्यस्वास्थ्य से हाथ धो बैठेगा। जैसे स्वास्थ्यनाश का अन्तिम कटु परिणाम मृत्यु होता है, वैसे ही समाज और राष्ट्र के स्वास्थ्यनाश का अन्तिम परिणाम उसका सर्वतोमुखी पतन होगा। अतः वीरता किसी के जीवनापहरण में नहीं होती, प्रत्युत अपना कर्त्तव्य निभाने में, दीन, दुःखियों के जीवन के संरक्षण एवं पोषण में तथा प्रत्येक दुःखमूलक प्रवृत्ति से सुरक्षित रहने में होती है। जो मानस वीरता के पावन सौरभ से सुरभित होता है वह किसी भी कार्य को करने से पहले उस में न्याय-अन्याय की जांच करता है। अन्याय से उसे घृणा होती है, जब कि न्याय को वह अपना आराध्यदेव समझता है, जिस के मान को सुरक्षित रखने के लिए यदि उसे अपने जीवन का बलिदान करना पड़े तो भी वह उस से विमुख नहीं होता। ऐसी ही वीरता का मूलस्रोत भगवती अहिंसा है। इतिहास बताता है कि अहिंसा के वीरों ने हर समय न्याय की रक्षा की है। न्याय की रक्षा के लिए शत्रुओं का दमन करना उन्होंने अपना कर्त्तव्य समझा था। राम रावण के साथ न्याय को जीवित रखने के लिए ही लड़े थे। रावण ने सती सीता को चुराकर एक अन्यायपूर्ण 822 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षम्य अपराध किया था। सीता लौटाने के लिए उसे समझाया गया परन्तु जब वह नहीं माना तो उस की अन्यायपूर्ण प्रवृत्तियों को ठीक करने के लिए तथा सतियों के सतीत्व की रक्षा के लिए राम जैसे अहिंसक ने अपने को युद्ध के लिए सन्नद्ध करने में जरा संकोच नहीं किया। वास्तव में न्याय की रक्षा वीर ही कर सकता है, कायर के बस का वह काम नहीं होता। इस के अतिरिक्त अहिंसा के अग्रगण्य सन्देशवाहक भगवान् महावीर स्वामी तथा भारत के अन्य महामहिम महापुरुषों का अपना साधक जीवन भी-अहिंसा वीरों का धर्म हैइस तथ्य को प्रमाणित कर रहा है। जिन जंगलों को शेर अपनी भीषण मर्मभेदी गर्जनाओं से व्याप्त कर रहे हों, जहां हाथी चिंघाड़े मार रहे हों, इसी भान्ति बाघ आदि अन्य हिंसक पशुओं का जहां साम्राज्य हो, उन जंगलों में एक कायर व्यक्ति अकेला और खाली हाथ ठहर सकता है ? उत्तर होगा, कभी नहीं। परन्तु अहिंसा की सजीव प्रतिमाएं भगवान् महावीर आदि महापुरुष इन सब परिस्थितियों में निर्भय, प्रसन्न तथा शान्त रहते थे। अधिक क्या कहूं, आज का वीर कहा जाने वाला मानव जिन देवताओं के मात्र कथानक सुन कर कंपित हो उठता है, रात को सुख से सो भी नहीं सकता, उन्हीं देवताओं के द्वारा पहुंचाए गए भीषणातिभीषण, असह्य दुःख अहिंसा के अग्रदूतों ने हंस-हंस कर झेले हैं। सारांश यह है कि अहिंसा वीरों का धर्म है, उस में कायरता और दुर्बलता को कोई स्थान नहीं है। एक हिंसक से अहिंसक बनने की आशा तो की जा सकती है परन्तु कायर कभी भी अहिंसक नहीं बन सकता। २-सत्याणुव्रत-इसे स्थूलमृषावादविरमणव्रत भी कहा जाता है। मृषावाद झूठ को कहते हैं, वह सूक्ष्म और स्थूल इन भेदों से दो प्रकार का होता है। मित्र आदि के साथ मनोरंजन के लिए असत्य बोलना, अथवा कोई व्यक्ति बैठा-बैठा ऊंघने लग गया, निकटवर्ती कोई मनुष्य उसे सावधान करता हुआ बोल उठा-अरे ! सोते क्यों हो? इसके उत्तर में वह कहता है, नहीं भाई ! तुम्हारे देखने में अन्तर है, मैं तो जाग रहा हूँ... इत्यादि वाणीविलास सूक्ष्म मृषावाद के अन्तर्गत होता है। स्थूल मृषावाद पांच प्रकार का होता है जो कि निम्नोक्त है . १-कन्यासम्बन्धी-अर्थात् कुल, शील, रूप आदि से युक्त, सर्वांगसम्पूर्ण सुन्दरी, निर्दोष कन्या को कुलादि से हीन बताना तथा कुलादि से हीन कन्या को कुलादि से युक्त बताना कन्यालीक है। २-भूमिसम्बन्धी-अर्थात् उपजाऊ भूमि को अनुपजाऊ कहना तथा अनुपजाऊ को उपजाऊ कहना, कम मूल्य वाली को बहु मूल्य वाली और बहु मूल्य वाली को कम मूल्य वाली कहना भूमि-अलीक है। ३-गोसम्बन्धी-अर्थात् गाय, भैंस, घोड़ा आदि चौपायों में जो प्रशस्त हों उन्हें द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [823 Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रशस्त कहना और जो अप्रशस्त हैं उन को प्रशस्त कहना / अथवा-बहु मूल्य वाले गाय आदि पशुओं को अल्प मूल्य वाले बताना तथा अल्प मूल्य वाले को बहुमूल्य बताना। अथवा-अधिक दूध देने वाले गाय, भैंस आदि पशुओं को कम दूध देने वाला तथा अल्प दूध देने वालों को अधिक दूध देने वाला कहना, इसी भान्ति शीघ्रगति वाले घोड़े आदि पशुओं को कम गति वाले और कम गति वालों को शीघ्रगति वाले कहना, इत्यादि सभी विकल्प गोअलीक के अन्तर्गत हो जाते हैं। ४-न्याससम्बन्धी-अर्थात् कुछ काल के लिए किसी विश्वस्त पुरुष आदि के पास सोना, चान्दी, रुपया, वस्त्र, धान्यादि को पुनः वापस लेने के लिए रखने का नाम न्यास या धरोहर है। उस के सम्बन्ध में झूठ बोलना न्यास-अलीक है। तात्पर्य यह है कि किसी की धरोहर रख कर, देने के समय तुम ने मेरे पास कब रखी थी, उस समय कौन साक्षी-गवाह था, मैं नहीं जानता, भाग जाओ-ऐसा कह देना न्याससम्बन्धी असत्य भाषण होता है। ५-साक्षिसम्बन्धी-अर्थात् झूठी गवाही देना। तात्पर्य यह है कि आँखों से देख लेने पर कहना कि मैं वहां खड़ा था, मैंने तो इसे देखा ही नहीं। अथवा न देखने पर कहना कि मैंने स्वयं इसे अमुक काम करते हुए देखा है...... इत्यादि वाणीविलास साक्षिसम्बन्धी झूठ कहलाता है। कन्यासम्बन्धी, भूमिसम्बन्धी, गोसम्बन्धी, न्याससम्बन्धी तथा साक्षिसम्बन्धी स्थूल असत्य का दो करण तीन योग से त्याग करना स्थूलमृषावादत्यागरूप द्वितीय सत्याणुव्रत कहलाता है। अनन्त काल से आत्मा असत्य भाषण करने के कारण दुःखोपभोग करती आ रही है। नाना प्रकार के क्लेश पाती आ रही है, अतः दुख और क्लेश से विमुक्ति प्राप्त करने के लिए असत्य को छोड़ना होगा तथा सत्य की आराधना करनी होगी। बिना सत्य के आराधन से आत्मश्रेय साधना असंभव है। संभव है इसीलिए पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी ने सत्य को भगवान् कहा है। सत्य की आराधना भगवान् की आराधना है। अतः सत्य भगवान् की सेवा में आत्मार्पण कर के परम साध्य निर्वाणपद की उपलब्धि में किसी प्रकार का विलम्ब नहीं करना चाहिए। इस के अतिरिक्त सत्याणुव्रत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त पांच कार्यों से सदा बचते रहना चाहिए १-विचार किए बिना ही अर्थात् हानि और लाभ का ध्यान न रख कर आवेश में आकर किसी पर तू चोर है, इस विवाद का तू ही मूल है, इत्यादि वचनों द्वारा मिथ्यारोप लगाना, दोषारोपण करना। 824 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-दूसरों की गुप्त बातों को प्रकट करना। अथवा एकान्त में बैठ कर कुछ गुप्त .. परामर्श करने वाले व्यक्तियों पर राजद्रोह आदि का दोष लगा देना। ३-एकान्त में अपनी पत्नी द्वारा कही हुई किसी गोपनीय-प्रकट न करने योग्य बात को दूसरों के सामने प्रकट कर देना। अथवा पत्नी, मित्र आदि के साथ विश्वासघात करना। ४-किसी को झूठा उपदेश या खोटी सलाह देना। तात्पर्य यह है कि लोक तथा परलोक सम्बन्धी उन्नति के विषय में किसी उत्पन्न सन्देह को दूर करने के लिए कोई किसी से पूछे तो उसे अधर्ममूलक जघन्य कार्य करने का कभी उपदेश नहीं देना चाहिए। प्रत्युत जीवन के निर्माण एंव कल्याण की बातें ही बतानी चाहिएं। ५-झूठे लेख लिखना, जालसाजी करना, तात्पर्य यह है कि दूसरे की मोहर आदि लगा देना या हाथ की सफाई से दूसरों के अक्षरों के तुल्य उस ढंग से अक्षर बना देने आदि प्रकारों से कूटलेख नहीं लिखने चाहिएं। ३-अस्तेयाणुव्रत-इसे स्थूलअदत्तादानविरमणव्रत भी कहा जा सकता है। क्षेत्रादि में सावधानी से या असावधानी से रखी हुई या भूली हुई किसी सचित्त (गाय, भैंस आदि), अचित्त (सुवर्ण आदि) स्थूल वस्तु का ग्रहण करना जिस के लेने से चोरी का अपराध लग सकता है। अथवा दुष्ट अध्यवसायपूर्वक साधारण वस्तु का उस के स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण करना स्थूल अदत्तादान कहलाता है। खात खनना, गांठें खोल कर चीज निकालना, जेब काटना, दूसरे के ताले को बिना आज्ञा के खोल लेना, पथिकों को लूटना, स्वामी का पता होते हुए भी किसी पड़ी वस्तु को ले लेना, आदि सभी विकल्प स्थूल अदत्तादान में अन्तर्गत हो जाते हैं। ऐसे स्थूल अदत्तादान का दो करण और तीन योग से त्याग करना स्थूलअदत्तादानत्यागरूप तृतीय अस्तेयाणुव्रत कहलाता है। . दूसरे की सम्पत्ति पर अनुचित अधिकार करना चोरी है। मनुष्य को अपनी आवश्यकताएं अपने पुरुषार्थ से प्राप्त हुए साधनों के द्वारा पूर्ण करनी चाहिएं। यदि प्रसंगवश दूसरों से कुछ लेने की आवश्यकता प्रतीत हो तो वह सहयोगपूर्वक मित्रता के भाव से दिया हुआ ही ग्रहण करना चाहिए। किसी भी प्रकार का बलात्कार अथवा अनुचित शक्ति का प्रयोग कर के कुछ लेना, लेना नहीं है प्रत्युत वह छीनना ही है, जो कि लोकनिंद्य होने के साथ-साथ आत्मपतन का भी कारण बनता है। अतः सुखाभिलाषी मनुष्यों को चौर्यकर्म की जघन्य प्रवृत्तियों से सदा . 1. पत्नी की गोपनीय बात प्रकट न करने में यही हार्द प्रतीत होता है कि वह अपनी गुप्त बात प्रकट हो जाने से लज्जा तथा क्रोधादि के कारण अपने या दूसरों के प्राणों की घातिका बन सकती है। इसलिए उस की गोपनीय बात को प्रकट करने का निषेध किया गया है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [825 Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचते रहना चाहिए। इस के अतिरिक्त अस्तेयाणुव्रत के संरक्षण के लिए निम्नलिखित पांच कर्मों का त्याग अवश्य कर देना चाहिए १-चोर द्वारा चोरी कर के लाई हुई सोना, चांदी आदि वस्तु को लोभवश अल्प मूल्य में खरीदना अर्थात् चोरी का माल लेना। __२-चोरों को चोरी के लिए प्रेरणा करना या उन को उत्साह देना या उनकी सहायता करना अर्थात् तुम्हारे पास खाना नहीं है तो मैं देता हूँ, तुम्हारी अपहृत वस्तु यदि कोई बेचता नहीं तो मैं बेच देता हूँ, इत्यादि वचनों द्वारा चोरों का सहायक बनना। ३-विरोधी राज्य में उस के शासक की आज्ञा बिना प्रवेश करना या अपने राजा की आज्ञा के बिना शत्रुराजाओं के राज्य में आना तथा जाना या राष्ट्रविरोधी कर्म करना। अथवा कर-महसूल आदि की चोरी करना। .. ___ ४-झूठे माप और तोल रखना, तात्पर्य यह है कि तोलने के बाट और नापने के गज . . आदि हीनाधिक रखना, थोड़ी वस्तु देना और अधिक लेना। ५-बहु मूल्य वाली बढ़िया वस्तु में उसी के समान वर्ण वाली अल्प मूल्य वाली वस्तु मिला कर असली के रूप में बेचना। अथवा असली वस्तु दिखा कर नकली देना। अथवा नकली को ही असली के नाम से बेचना। ४-ब्रह्मचर्याणुव्रत-इसे स्वदारसन्तोषव्रत भी कहा जा सकता है। विधिपूर्वक विवाहिता स्त्री में सन्तोष करना तथा अपनी विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त शेष औदारिकशरीरधारी अर्थात् मनुष्य और तिर्यञ्च के शरीर को धारण करने वाली स्त्रियों के साथ एक करण, एक योग से अर्थात् काय से परस्त्री का सेवन नहीं करूंगा, इस प्रकार तथा वैक्रियशरीरधारीदेवशरीरधारी स्त्रियों के साथ दो करण, तीन योग से मैथुनसेवनत्यागरूप चतुर्थ ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है। विषयवासनाएं जीवन का पतन करने वाली हैं और उन का त्याग जीवन को उन्नत एवं समुन्नत बनाने वाला है, अतः विवेकी पुरुष को इन्द्रियजन्य विषयों से सदा विरत रहना चाहिए। इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न भोग दुःख के ही कारण बनते हैं। इस तथ्य का गीता में बड़ी सुन्दरता से वर्णन किया गया है। वहां लिखा है ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय ! न तेषु रमते बुधः॥ (अध्ययन 5/22) अर्थात् जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को भ्रम से सुखरूप प्रतीत होते हैं, परन्तु ये निःसन्देह दुःख के ही कारण हैं और 826 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि अन्त वाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिए हे कौन्तेय ! अर्थात् हे अर्जुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष इन में रमण नहीं करता। इस के अतिरिक्त ब्रह्मचर्याणुव्रत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त 5 कार्यों का त्याग अवश्य कर देना चाहिए १-कुछ काल के लिए अधीन की गई स्त्री के साथ, अथवा जिस स्त्री के साथ वाग्दान-सगाई हो गई है उस के साथ, अथवा अल्प वय वाली अर्थात् जिस की आयु अभी भोगयोग्य नहीं हुई है ऐसी अपनी विवाहिता स्त्री के साथ संभोग आदि करना। २-विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त शेष वेश्या, विधवा, कन्या, कुलवधू आदि स्त्रियों के साथ, अथवा जिस कन्या के साथ सगाई हो चुकी है, उस कन्या के साथ संभोग करना। ३-कामसेवन के जो प्राकृतिक अंग हैं उन के अतिरिक्त अन्य अंगों से कामसेवन करना / हस्तमैथुन आदि सभी कुकर्म इस के अन्तर्गत हो जाते हैं। ४-अपनी सन्तान से भिन्न व्यक्तियों का कन्यादान के फल की कामना से, अथवा स्नेह आदि के वश हो कर विवाह कराना। अथवा दूसरों के विवाह-लग्न कराने में अमर्यादित भाग लेना। ___५-पांचों इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्ति रखना, विषयवासनाओं में प्रगति लाने के लिए वीर्यवर्धक औषधियों का सेवन करना, कामभोगों में अत्यधिक आसक्त रहना। . ५-अपरिग्रहाणुव्रत-१-क्षेत्र-खेत, २-वास्तु-घर, गोदाम आदि, ३-हिरण्य-चांदी की बनी वस्तुएं, ४-सुवर्ण-सुवर्ण से निर्मित वस्तुएं, ५-द्विपद-दास, दासी आदि, ६चतुष्पद-गाय, भैंस आदि, ७-धन-रुपया तथा जवाहरात इत्यादि, ८-धान्य-२४ प्रकार का धान्य, तथा ९-कुप्य ताम्बा, पीतल, कांसी, लोहा आदि धातु तथा इन धातुओं से निर्मित वस्तुएं-इन नव प्रकार के परिग्रह की एक करण तीन योग से मर्यादा अर्थात् मैं इतने मनुष्य, गज, अश्व आदि रखूगा, इन से अधिक नहीं, इसी भान्ति सभी पदार्थों की यथाशक्ति मर्यादा करना अर्थात् तृष्णा को कम करना, इच्छापरिमाणरूप पञ्चम अपरिग्रहाणुव्रत कहा जाता है। मूर्छा अर्थात् आसक्ति का नाम परिग्रह है। दूसरे शब्दों में किसी भी वस्तु में चाहे वह छोटी, बड़ी, जड़, चेतन या किसी भी प्रकार की हो, अपनी हो, पराई हो उस में आसक्ति रखना, उस में बन्ध जाना, उस के पीछे पड़ कर अपने विवेक को नष्ट कर लेना ही परिग्रह है। धन आदि वस्तुएं मूर्छा का कारण होने से भी परिग्रह के नाम से अभिहित की जाती हैं, 1. एक करण, एक योग से भी मर्यादा की जा सकती है। मर्यादा में मात्र शक्ति अपेक्षित है। केवल तृष्णा के प्रवाह को रोकना इस का उद्देश्य है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [827 Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु वास्तव में उन पर होने वाली आसक्ति का नाम ही परिग्रह है। परिग्रह भी एक बड़ा भारी पाप है। परिग्रह मानव की मनोवृत्ति को उत्तरोत्तर दूषित ही करता चला जाता है। और किसी भी प्रकार का स्वपर हिताहित एवं लाभालाभ का विवेक नहीं रहने देता। सामाजिक एवं राष्ट्रीय विषमता, संघर्ष, कलह, एवं अशान्ति का प्रधान कारण परिग्रह ही है। अतः स्व और पर की शान्ति के लिए अमर्यादित स्वार्थवृत्ति एवं संग्रहबुद्धि पर नियन्त्रण का रखना अत्यावश्यक है। इस के अतिरिक्त अपरिग्रहाणुव्रत के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए निम्नोक्त 5 बातों के त्याग का विशेष ध्यान रखना चाहिए १-धान्योत्पत्ति की जमीन को क्षेत्र कहते हैं, वह सेतु-जो कूप के पानी से सींचा जाता है, तथा केतु-वर्षा के पानी से जिसमें धान्य पैदा होता है, इन भेदों से दो प्रकार का होता है। भूमिगृह-भोयरा, भूमिगृह पर बना हुआ घर या प्रासाद, एवं सामान्य भूमि पर बना हुआ घर आदि वास्तु कहलाता है। उक्त क्षेत्र तथा वास्तु की जो मर्यादा कर रखी है, उस का उल्लंघन करना। तात्पर्य यह है कि यदि भूमि दस बीघे की, अथवा दो घर रखने की मर्यादा की है तो उस से अधिक रखना। अथवा मर्यादित क्षेत्र या घर आदि से अधिक क्षेत्र या घर आदि मिलने पर बाड़ या दीवाल वगैरा हटाकर मर्यादित क्षेत्र या घर आदि से मिला लेना। २-घटित (घड़ा हुआ) और अघटित (बिना घड़ा हुआ) सोना, चांदी के परिमाण का एवं हीरा, पन्ना, जवाहरात आदि परिमाण का उल्लंघन करना। राजा की प्रसन्नता से प्राप्त धनादि नियत मर्यादा से अधिक होने के कारण व्रतभंग के भय से पुनः वापिस लेने के लिए किसी दूसरे के पास रख देना। ३-घी, दूध, दही, गुड़, शक्कर आदि धन तथा चावल, गेहूं, मूंग, उड़द, जौ, मक्की आदि धान्य कहे जाते हैं। इन दोनों के विषय में जो मर्यादा की है, उस का उल्लंघन करना। अथवा मर्यादा से अधिक धन-धान्य की प्राप्ति होने पर उसे स्वीकार कर लेना, परन्तु व्रतभंग के भय से उन्हें धान्यादि के बिक जाने पर ले लूंगा, यह सोच कर दूसरे के घर पर रहने देना। ४-द्विपद-सन्तान, स्त्री, दास, दासी, तोता, मैना आदि तथा चतुष्पद-गाय, भैंस, घोड़ा, ऊंट, हाथी आदि के परिमाण का उल्लंघन करना। ५-सोने, चांदी के अतिरिक्त कांसी, पीतल, ताम्बा, लोहा आदि धातु तथा उन से निर्मित बर्तन आदि, आसन, शयन, वस्त्र, कम्बल, तथा बर्तन आदि घर के सामान की जो मर्यादा की है, उस का भंग करना। अथवा नियमित कांसी आदि की प्राप्ति होने पर दो-दो को मिला कर वस्तुओं को बड़ी करा देना और नियमित संख्या कायम रखना। अथवा नियत काल की मर्यादा वाले का व्रतभंग के भय से अधिक कांसी आदि पदार्थों को न खरीद कर 828 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः खरीदने के लिए उनके स्वामी को "-तुम किसी को नहीं देना, अमुक समय के अनन्तर मैं ले लूंगा-" ऐसा कहना। पूर्वोक्त 5 अणुव्रतों के पालन में गुणकारी, उपकारक तथा गुणों को पुष्ट करने वाले व्रत गुणव्रत कहलाते हैं, और वे तीन हैं। उन की नामनिर्देशपूर्वक व्याख्या निम्नोक्त है १-दिक्परिमाणव्रत-दिक् दिशा को कहते हैं। दिशा-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् इन भेदों से तीन प्रकार की होती है। अपने से ऊपर की ओर को ऊर्ध्व दिशा, नीचे की ओर को अधोदिशा, तथा इन दोनों की बीच की ओर को तिर्यदिशा कहते हैं। तिर्यदिशा केपूर्व पश्चिम, उत्तर और दक्षिण ऐसे चार भेद होते हैं। जिस ओर सूर्य निकलता है वह पूर्व दिशा, जिस ओर छिपता है वह पश्चिम-दिशा, सूर्य की ओर मुंह करके खड़ा होने पर बाएं हाथ की ओर उत्तर दिशा और दाहिने हाथ की ओर दक्षिण दिशा कहलाती है। चार दिशाओं के अतिरिक्त चार विदिशाएं भी होती हैं, जो ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य इन नामों से अभिहित की जाती हैं। उत्तर और पूर्व दिशा के बीच के कोण को ईशान, पूर्व तथा दक्षिण दिशा के बीच के कोण को आग्नेय, दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच के कोण को नैऋत्य तथा पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच के कोण को वायव्य कहा जाता है। इन सब ऊर्ध्व, अधः आदि भेदोर्पभेद वाली दिशाओं में गमनागमन करने अर्थात् जाने और आने के सम्बन्ध में जो मर्यादा की जाती है, तात्पर्य यह है कि जो यह निश्चय किया जाता है कि मैं अमुक स्थान से अमुक दिशा में अथवा सब दिशाओं में इतनी दूर से अधिक नहीं जाऊंगा, उस मर्यादा या निश्चय को दिक्परिमाणव्रत कहा जाता है। __ आगे बढ़ना ही जीवन का प्रधान लक्ष्य होता है, परन्तु आगे बढ़ने के लिए चित्त की शान्ति सर्वप्रथम अपेक्षित होती है। चित्त की शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है-इच्छाओं का संकोच। जब तक इच्छाएं सीमित नहीं होंगी तब तक चित्त की शान्ति भी नहीं हो सकती। इस लिए भगवान् ने व्रतधारी श्रावक के लिए दिक्परिमाणव्रत का विधान किया है। इस से कर्मक्षेत्र की मर्यादा बांधी जाती है अर्थात् सीमा निश्चित की जाती है, उस निश्चित सीमा के बाहर जा कर हिंसा, असत्य आदि पापाचरण का त्याग करना इस का प्रधान उद्देश्य रहा करता है। इस के अतिरिक्त दिक्परिमाणव्रत के संरक्षण के लिए निम्नलिखित 5 बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए १-ऊर्ध्व दिशा में गमनागमन करने के लिए जो क्षेत्र मर्यादा में रखा है, उस का उल्लंघन न करना। २-नीची दिशा के लिए किए गए क्षेत्रपरिमाण का उल्लंघन न करना। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [829 Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-तिर्यदिशा अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशा आदि के लिए गमनागमन का जो परिमाण किया गया है, उस का उल्लंघन न करना। ४-एक दिशा के लिए की गई सीमा को कम कर के उस कम की गई सीमा को दूसरी दिशा की सीमा में जोड़ कर दूसरी दिशा नहीं बढ़ा लेना। इसे उदाहरण से समझिए किसी व्यक्ति ने व्रत लेते समय पूर्व दिशा में गमनागमन करने की मर्यादा 50 कोस की रखी है, परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् उस ने सोचा कि मुझे पूर्व दिशा में जाने का इतना काम नहीं पड़ता और पश्चिम दिशा में मर्यादित क्षेत्र से दूर जाने का काम निकल रहा है, इस लिए काम चलाने के लिए पूर्व दिशा में रखे हुए 50 कोश में से कुछ कम कर के पश्चिम दिशा के मर्यादित क्षेत्र को बढ़ा लूं। इस तरह विचार कर एक दिशा के सीमित क्षेत्र को कम कर के दूसरी दिशा के सीमित क्षेत्र में उसे मिला कर उस को नहीं बढ़ाना चाहिए। ... ५-क्षेत्र की मर्यादा को भूल कर मर्यादित क्षेत्र से आगे नहीं बढ़ जाना, अथवा मैं शायद अपनी मर्यादित क्षेत्र की सीमा तक आ चुका हूंगा कि नहीं, ऐसा विचार करने के पश्चात् भी निर्णय किए बिना आगे नहीं बढ़ना चाहिए। ___ ऊपर कहा जा चुका है कि गुणव्रत अणुव्रतों को पुष्ट करने वाले, उन में विशेषता लाने वाले होते हैं / दिक्परिमाणवत अणुव्रतों में विशेषता किस तरह लाता है, इस के सम्बन्ध में किया गया विचार निम्नोक्त है १-श्रावक का प्रथम अणुव्रत अहिंसाणुव्रत है। उस में स्थूल हिंसा का त्याग होता है। सूक्ष्म हिंसा का श्रावक को त्याग नहीं होता और उस में किसी क्षेत्र की मर्यादा भी नहीं होती। सूक्ष्म हिंसा के लिए सभी क्षेत्र खुले हैं / दिक्परिमाणव्रत उसे सीमित करता है, उसे असीम नहीं रहने देता। दिक्परिमाणव्रत से जाने और आने के लिए सीमित क्षेत्र के बाहर की, सूक्ष्म हिंसा भी छूट जाती है। इस तरह दिक्परिमाणव्रत अहिंसाणुव्रत में विशेषता लाता है। २-श्रावक का दूसरा अणुव्रत सत्याणुव्रत है। उस में स्थूल झूठ का त्याग होता है परन्तु सूक्ष्म झूठ का त्याग नहीं होता। वह सभी क्षेत्रों के लिए खुला रहता है। दिक्परिमाणव्रत सत्याणुव्रत के उस सूक्ष्म झूठ की छूट को सीमित करता है, जितना क्षेत्र छोड़ दिया गया है उतने क्षेत्र में सूक्ष्म झूठ के पाप से बचाव हो जाता है। ३-श्रावक का तीसरा अणुव्रत अचौर्याणुव्रत है। इस में स्थूल चोरी का त्याग तो होता है परन्तु सूक्ष्म चोरी का त्याग नहीं होता। इस के अतिरिक्त वह सभी क्षेत्रों के लिए खुली रहती है, दिक्परिमाणव्रत उसे सीमित करता है, उसे अमर्यादित नहीं रहने देता। ४-श्रावक का चतुर्थ अणुव्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इस में परस्त्री आदि का सर्वथा तथा 830 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वत्र त्याग होने पर भी स्वस्त्री की जो मर्यादा है वह सभी क्षेत्रों के लिए खुली होती है, उस पर किसी प्रकार का क्षेत्रकृत नियंत्रण नहीं होता, परन्तु दिक्परिमाणव्रत उसे भी सीमित करता है। दिक्परिमाणव्रत धारण करने वाला व्यक्ति मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्वस्त्री के साथ भी दाम्पत्य व्यवहार नहीं कर सकेगा। इस प्रकार दिक्परिमाणव्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत के पोषण का कारण बनता है। ५-श्रावक का पांचवां परिग्रहाणुव्रत है। इस में भी दिक्परिमाणव्रत विशेषता उत्पन्न कर देता है, क्योंकि दिक्परिमाणव्रत ग्रहण करने वाला व्यक्ति मर्यादित परिग्रह का संरक्षण, अथवा उस की पूर्ति उसी क्षेत्र में रह कर कर सकेगा जो उसने दिक्परिमाणव्रत में जाने और आने के लिए रखा है, उस क्षेत्र से बाहर न तो मर्यादित परिग्रह का रक्षण कर सकेगा और न उस की पूर्ति के लिए व्यवसाय / इस प्रकार दिक्परिमाणव्रत सीमित तृष्णा को और सीमित करने में सहायक एवं प्रेरक होता है। २-उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत-जो एक बार भोगा जा चुकने के बाद फिर न भोगा जा सके, उस पदार्थ को भोगना, काम में लाना उपभोग कहलाता है। जैसे एक बार जो भोजन खाया जा चुका है या जो पानी एक बार पीया जा चुका है, वह भोजन या पानी फिर खाया या पीया नहीं जा सकता, अथवा अंगरचना या विलेपन की जो वस्तु एक बार काम में आ चुकी है, जैसे वह फिर काम में नहीं आ सकती, इसी भान्ति जो-जो वस्तुएं एक बार काम में आ चुकने के अनन्तर फिर काम में नहीं आतीं, उन वस्तुओं को काम में लाना उपभोग कहलाता है। विपरीत इस के जो वस्तु एक बार से अधिक काम में ली जा सकती है, उस वस्तु को काम में लेना परिभोग कहलाता है। जैसे आसन, शय्या, वस्त्र, वनिता आदि। अथवा जो चीज शरीर के आन्तरिक भाग से भोगी जा सकती है, उस को भोगना उपभोग है और जो चीज शरीर के बाहरी भागों से भोगी जा सकती है, उस चीज का भोगना परिभोग है। सभी उपभोग्य और परिभोग्य वस्तुओं के सम्बन्ध में यह मर्यादा करना कि मैं अमुक-अमुक वस्तु के सिवाय शेष वस्तुएं उपभोग और परिभोग में नहीं लाऊंगा, उस मर्यादा को उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत कहा जाता है। __ इच्छाओं के संकोच के लिए दिक्परिमाणव्रत की अपेक्षा रहती है, जिस का वर्णन ऊपर किया जा चुका है, उस के आश्रयण से मर्यादित क्षेत्र से बाहर का क्षेत्र और वहां के पदार्थादि से निवृत्ति हो जाती है, परन्तु इतने मात्र से मर्यादित क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों के उपभोग और परिभोग की मर्यादा नहीं हो पाती है। मर्यादाहीन जीवन उन्नति की ओर प्रस्थित न होकर अवनति की ओर प्रगतिशील होता है। इसी दृष्टि को सामने रखते हुए आचार्यों ने सातवें व्रत द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [831 Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विधान किया है। इस व्रत के आराधन से छठे व्रत द्वारा मर्यादित क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों के उपभोग और परिभोग की भी मर्यादा हो जाती है। यह मर्यादा एक, दो, तीन दिन आदि के रूप में सीमित काल तक या यावजीवन के लिए भी की जा सकती है। उक्त मर्यादा के द्वारा पञ्चम व्रत के रूप में परिमित किए गए परिग्रह को और अधिक परिमित किया जाता है तथा अहिंसा की भावना को और अधिक विराट एवं प्रबल बनाया जाता है। यही इस की अणुव्रतसम्बन्धिनी गुणपोषकता है। उपभोग और परिभोग में आने वाली वस्तुएं तो अनेकानेक हैं तथापि शास्त्रकारों ने उन वस्तुओं का 26 बोलों में संग्रह कर दिया है। इन बोलों में प्रायः जीवन की आवश्यक सभी वस्तुएं संगृहीत कर दी गई हैं। इन बोलों की जानकारी से व्रतग्रहण करने वाले को बड़ी सुगमता हो जाती है। वह जब यह जान लेता है कि जीवन के लिए विशेषरूप से किन पदार्थों की आवश्यकता रहती है, तब उन की तालिका बना कर उन्हें मर्यादित करना उस के लिए सरंल / हो जाता है। अस्तु, 26 बोलों का विवरण निम्नोक्त है १-उल्लणिया-विधिपरिमाण-आर्द्र शरीर को या किसी भी आई हस्तादि अवयवों के पोंछने के लिए जिन वस्त्रों की आवश्यकता होती है, उन की मर्यादा करना। २-दन्तवणविधिपरिमाण-दान्तों को साफ करने के लिए जिन पदार्थों की आवश्यकता होती है, उन पदार्थों की मर्यादा करना। ३-फलविधिपरिमाण-दातुन करने के पश्चात् मस्तक और बालों को स्वच्छ तथा शीतल करने के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती है, उन की मर्यादा करना, या बाल आदि धोने के लिए आंवला आदि फलों की मर्यादा करना या स्नान करने से पहले मस्तक आदि पर लेप करने के लिए आंवले आदि फलों की मर्यादा करना। ४-अभ्यङ्गनविधिपरिमाण-त्वचासम्बन्धी विकारों को दूर करने के लिए और रक्त को सभी अवयवों में पूरी तरह संचारित करने के लिए जिन तेल आदि द्रव्यों का शरीर पर मर्दन किया जाता है उन द्रव्यों की मर्यादा करना। ५-उद्वर्त्तनविधिपरिमाण-शरीर पर लगे हुए तेल की चिकनाहट को दूर करने तथा शरीर में स्फूर्ति एवं शक्ति लाने के लिए जो उबटन लगाया जाता है, उस की मर्यादा करना। ६-मज्जनविधिपरिमाण-स्नान के लिए जल तथा स्नान की संख्या का परिमाण करना। ७-वस्त्रविधिपरिमाण-पहनने ओढ़ने आदि के लिए वस्त्रों की मर्यादा करना। वस्त्रमर्यादा में लज्जारक्षक तथा शीतादि के रक्षक वस्त्रों का ही आश्रयण है, विकारोत्पादक 832 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतंस्कन्ध Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्र तो कभी भी धारण नहीं करने चाहिएं। ८-विलेपनविधिपरिमाण-चंदन, केसर आदि सुगन्धित तथा शोभोत्पादक पदार्थों की मर्यादा करना। ९-पुष्पविधिपरिमाण-फूल तथा फूलमाला आदि की मर्यादा करना, अर्थात् मैं अमुक वृक्ष के इतने फूलों के सिवाय दूसरे फूलों को तथा वे भी अधिक मात्रा में प्रयुक्त नहीं करूंगा, इत्यादि विकल्पपूर्वक पुष्प-सम्बन्धी परिमाण निश्चित करना। १०-आभरणविधिपरिमाण-शरीर पर धारण किए जाने वाले आभूषणों की मर्यादा करना कि मैं इतने मूल्य या भार के अमुक आभूषण के सिवाय और आभूषण शरीर पर धारण नहीं करूंगा। ११-धूपविधिपरिमाण-वस्त्र और शरीर को सुगन्धित करने के लिए या वायुशुद्धि के लिए धूप देने योग्य अगर आदि पदार्थों की मर्यादा करना। ऊपर उन पदार्थों के परिमाण का वर्णन किया गया है जिन से या तो शरीर की रक्षा होती है या जो शरीर को विभूषित करते हैं। अब नीचे ऐसे पदार्थों के परिमाण का वर्णन किया जाता है, जिन से शरीर का पोषण होता है, उसे बल मिलता है तथा जो स्वाद के लिए भी काम में लाए जाते हैं १२-पेयविधिपरिमाण- जो पीया जाता है उसे पेय कहते हैं। दूध, पानी आदि पेय पदार्थों की मर्यादा करना। . १३-भक्षणविधिपरिमाण-नाश्ते के रूप में खाए जाने वाले मिठाई आदि पदार्थों की, अथवा पकवान की मर्यादा करना। १४-ओदनविधिपरिमाण-ओदन शब्द से उन द्रव्यों का ग्रहण करना अभिमत है जो . विधिपूर्वक उबाल कर खाए जाते हैं। जैसे-चावल, खिचड़ी आदि इन सब की मर्यादा करना। . १५-सूपविधिपरिमाण-सूप शब्द उन पदार्थों का परिचायक है, जो दाल आदि के रूप में खाए जाते हैं, तथा जिन के साथ रोटी या भात आदि खाया जाता है अर्थात् मूंग, चना आदि दालों की मर्यादा करना। १६-विकृतिविधिपरिमाण-विकृति शब्द, दूध, दही, घृत, तेल, गुड़ और शक्कर आदि का परिचायक है, इन सब की मर्यादा करना। १७-शाकविधिपरिमाण-शाक, सब्जी आदि शाक की जाति का परिमाण करना। ऊपर के पन्द्रहवें बोल में उन दालों की प्रधानता है जो अन्न से बनती हैं। शेष सूखे या हरे साग का ग्रहण शाक पद से होता है। , द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [833 Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८-माधुरविधिपरिमाण-आम, जामुन, केला, अनार आदि हरे फल और दाख, .. बादाम, पिश्ता आदि सूखे फलों की मर्यादा करना। १९-जेमनविधिपरिमाण-जेमन शब्द उन पदार्थों का बोधक है जो भोजन के रूप में क्षुधा के निवारण के लिए खाए जाते हैं, जैसे-रोटी, पूरी आदि। अथवा बड़ा, पकौड़ी आदि पदार्थ जेमन शब्द से संगृहीत होते हैं, इन सब की मर्यादा करना। २०-पानीयविधिपरिमाण-शीतोदक, उष्णोदक, गन्धोदक, अथवा खारा पानी, मीठा पानी आदि पानी के अनेकों भेद हैं, इन सब की मर्यादा करना। २१-मुखवासविधिपरिमाण-भोजनादि के पश्चात् स्वाद या मुख को साफ करने के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले पान, सुपारी, इलायची, चूर्ण आदि पदार्थों की मर्यादा करना। २२-वाहनविधिपरिमाण-वाहन अर्थात्-१-चलने वाले-घोड़ा, ऊँट, हाथी आदि तथा २-फिरने वाले गाड़ी, मोटर, ट्राम, साइकल आदि, इन सब वाहनों की मर्यादा करना। २३-उपानविधिपरिमाण-पैरों की रक्षा के लिए पैरों में पहने जाने वाले जूता, खड़ाऊं आदि पदार्थों का परिमाण करना। २४-शयनविधिपरिमाण-शयन शब्द से उन वस्तुओं का ग्रहण होता है, जो सोने, बैठने के काम आती हैं, जैसे-पलंग, खाट, पाट, आसन, बिछौना, मेज, कुर्सी आदि इन सब की मर्यादा करना। २५-सचित्तविधिपरिमाण-आम आदि सचित्त पदार्थों की मर्यादा करना। तात्पर्य यह है कि पदार्थ दो तरह के होते हैं। एक सचित्त-जीवसहित और दूसरे अचित्त-जीवरहित। सचित्त और अचित्त दोनों ही अनेकानेक पदार्थ हैं। श्रावक यदि सचित्त का त्याग नहीं कर सकता तो उस को सचित्त पदार्थों की मर्यादा अवश्य कर लेनी चाहिए। , २६-द्रव्यविधिपरिमाण-खाने के काम में आने वाले सचित्त या अचित्त द्रव्यों की मर्यादा करना। तात्पर्य यह है कि ऊपर के बोलों में जिन पदार्थों की मर्यादा की गई है, उन पदार्थों को द्रव्यरूप में संग्रह करके उन की मर्यादा करना। जैसे-मैं एक समय में, एक दिन में या आयु भर में इतने द्रव्यों से अधिक का उपभोग नहीं करूंगा। जो वस्तु स्वाद की भिन्नता के लिए अलग मुंह में डाली जाएगी, अथवा-एक ही वस्तु स्वाद की भिन्नता के लिए दूसरी वस्तु के संयोग के साथ मुंह में डाली जाएगी, उस में जितनी वस्तुएं मिली हुई हैं, वे उतने द्रव्य कहे जाएंगे। उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की उपलब्धि के लिए धन की आवश्यकता होती है। . धन के लिए गृहस्थ को कोई न कोई व्यवसाय चलाना ही होता है। अर्थात् कोई धन्धा-रोजगार 834 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना ही पड़ता है। बिना कोई धन्धा किए गृहस्थ जीवन की आवश्यकताएं पूर्ण नहीं हो सकतीं। अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जीवन को चलाने के लिए गृहस्थ को कोई न कोई व्यापार करना ही होगा। व्यापार आर्य-प्रशस्त और अनार्य-अप्रशस्त इन विकल्पों से दो प्रकार का होता है। प्रशस्त का अभिप्राय है-जिस में पाप कर्म कम से कम लगे और अप्रशस्त का अर्थ है-जिस में पाप अधिकाधिक लगे। तात्पर्य यह है कि कुछ व्यापार अल्पपापसाध्य होते हैं. जबकि कुछ अधिकपापसाध्य। श्रावक अधिकपापसाध्य व्यापार न करे, इस बात को ध्यान में रखते हुए सूत्रकार ने उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के दो भेद कर दिए हैं। एक भोजन से दूसरा कर्म से। भोजन शब्द से उपभोग्य और परिभोग्य सभी पदार्थों का ग्रहण कर लिया जाता है। भोजनसम्बन्धी परिमाण किस भान्ति होना चाहिए, इस के सम्बन्ध में पहले लिखा जा चुका है। रही बात कर्मसम्बन्धी परिमाण की। कर्म का अर्थ हैआजीविका। आजीविका का परिमाण कर्मसम्बन्धी उपभोगपरिभोगपरिमाणवत कहलाता है। तात्पर्य यह है कि उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की प्राप्ति के लिए अधिकपापसाध्यजिस में महाहिंसा हो, व्यापार का परित्याग कर के अल्प पाप-साध्य व्यापार की मर्यादा करना। . भोजनसम्बन्धी उपभोगपरिभोगपरिमाणवत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त 5 कार्यों का सेवन नहीं करना चाहिए १-सचित्ताहार-जिस खान-पान की चीज में जीव विद्यमान हैं, उस को सचित्त कहते हैं। जैसे-धान, बीज आदि। जिस सचित्त का त्याग किया गया है उस का सेवन करना। २-सचित्तप्रतिबद्धाहार-वस्तु तो अचित्त है परन्तु वह यदि सचित्त वस्तु से सम्बन्धित हो रही है, उस का सेवन करना। तात्पर्य यह है कि यदि किसी का सचित्त पदार्थ को ग्रहण करने का त्याग है तो उसे सचित्त से सम्बन्धित अचित्त पदार्थ भी नहीं लेना चाहिए। जैसेमिठाई अचित्त है परन्तु जिस दोने में रखी हुई है वह सचित्त है, तब सचित्तत्यागी व्यक्ति को उस का ग्रहण करना निषिद्ध है। ३-अपक्वौषधिभक्षणता-जो वस्तु पूर्णतया पकने नहीं पाई और जिसे कच्ची भी नहीं कहा जा सकता, ऐसी अर्धपक्व वस्तु का ग्रहण करना। तात्पर्य यह है कि यदि किसी ने सचित्त वस्तु का त्याग कर रखा है तो उसे जो पूरी न पकने के कारण मिश्रित हो रही है, उस वस्तु का ग्रहण करना नहीं चाहिए। जैसे-छल्ली, होलके (होले) आदि। ___४-दुष्पक्वौषधिभक्षणता-जो वस्तु पकी हुई तो है परन्तु बहुत अधिक पक गई है, पक कर बिगड़ गई है, उस का ग्रहण करना। अथवा-जिस का पाक अधिक आरम्भसाध्य द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [835 Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो उस वस्तु का ग्रहण करना। ५-तुच्छौषधिभक्षणता-जिस में क्षुधानिवारक भाग कम है, और व्यर्थ का भाग अधिक है, ऐसे पदार्थ का सेवन करना / अथवा-जिस वस्तु में खाने योग्य भाग थोड़ा हो और फैंकने योग्य भाग अधिक हो, ऐसी वस्तु का ग्रहण करना। उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत का दूसरा विभाग कर्म है अर्थात् श्रावक को उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की प्राप्ति के लिए जिन धन्धों में गाढ़ कर्मों का बन्ध होता है वे धन्धे नहीं करने चाहिएं। अधिक पापसाध्य धन्धों को ही शास्त्रीय भाषा में कर्मादान कहते हैं। कर्मादान-कर्म और आदान इन पदों से निर्मित हुआ है, जिस का अर्थ है-जिस में गाढ़ कर्मों का आगमन हो। कर्मादान 15 होते हैं। उन के नाम तथा उन का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त १-इङ्गालकर्म-इसे अङ्गारकर्म भी कहा जाता है। अङ्गारकर्म का अर्थ है-लकडियों के कोयले बनाना और उन्हें बेच कर आजीविका चलाना। इस कार्य से 6 काया के जीवों की महान् हिंसा होती है। २-वनकर्म-जंगल का ठेका लेकर, वृक्ष काट कर उन्हें बेचना, इस भान्ति अपनी आजीविका चलाना। इस कार्य से जहां स्थावर प्राणियों की महान् हिंसा होती है, वहां त्रस जीवों की भी पर्याप्त हिंसा होती है। वन द्वारा पशु पक्षियों को जो आधार मिलना है, उन्हें इस कर्म से निराधार बना दिया जाता है। ३-शाकटिक कर्म-बैलगाड़ी या घोड़ा गाड़ी आदि द्वारा भाड़ा कमाना। अथवागाड़ा-गाड़ी आदि वाहन बना कर बेचना या किराए पर देना। __ ४-भाटीकर्म-घोड़ा, ऊंट, भैंस गधा, खच्चर, बैल आदि पशुओं को भाड़े पर दे कर, उस भाड़े से अपनी आजीविका चलाना। इस में महान हिंसा होती है, क्योंकि भाड़े पर लेने वाले लोग अपने लाभ के सन्मुख पशुओं की दया की उपेक्षा कर डालते हैं। ५-स्फोटीकर्म-हल, कुदाली आदि से पृथ्वी को फोड़ना और उस में से निकले हुए पत्थर, मिट्टी, धातु, आदि खनिज पदार्थों द्वारा अपनी आजीविका चलाना। ६-दन्तवाणिज्य-हाथी आदि के दान्तों का व्यापार करना। दान्तों के लिए अनेकानेक प्राणियों का वध होता है, इसलिए भगवान् ने श्रावकों के लिए इस का निषेध किया है। ____७-लाक्षावाणिज्य-लाख वृक्षों का मद होता है, उस के निकालने में त्रस जीवों की बहुत हिंसा होती है। इसलिए श्रावक को लाख का व्यापार नहीं करना चाहिए। ८-रसवाणिज्य-रस का अर्थ है-मदिरा आदि द्रव पदार्थ, उन का व्यापार करना। 836 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ मनुष्य को उन्मत्त बनाते हैं, जिन के सेवन से बुद्धि नष्ट होती है, ऐसे पदार्थों का सेवन अनेकानेक हानियों का जनक होता है, अतः ऐसे व्यापार को नहीं करना चाहिए। ९-विषवाणिज्य-अफीम, संखिया आदि जीवननाशक पदार्थों का व्यवसाय करना, जिन के खाने या सूंघने से मृत्यु हो सकती है। १०-केशवाणिज्य-केश का अर्थ है-केश-बाल। लक्षणा से दास-दासी आदि द्विपदों का ग्रहण होता है, उन का व्यापार करना केशवाणिज्य है। प्राचीन काल में अच्छे केश वाली स्त्रियों का क्रय, विक्रय होता था और ऐसी स्त्रियां दासी बना कर भारत से बाहर यूनान आदि देशों में भेजी जाती थीं, जिस से अनेकानेक जघन्य प्रवृत्तियों को जन्म मिलता था। इसलिए श्रावक के लिए यह निन्द्य व्यवसाय भगवान् ने त्याज्य एवं हेय बताया है। ११-यन्त्रपीडनकर्म-यंत्रों-मशीनों द्वारा तिल, सरसों आदि या गन्ना आदि का तेल या रस निकाल कर अपनी आजीविका करना। इस व्यवसाय से त्रस जीवों की भी हिंसा होती . १२-निर्लाञ्छनकर्म-बैल, भैंसा, घोड़ा आदि को नपुंसक बनाने की आजीविका करना। इस से पशुओं को अत्यन्तात्यन्त पीड़ा होती है, इसलिए भगवान् ने श्रावक के लिए इस का व्यवसाय निषिद्ध कहा है। .. १३-दवाग्निदापनकर्म-वनदहन करना। तात्पर्य यह है कि भूमि साफ करने में श्रम न करना पड़े, इसलिए बहुत से लोग आग लगा कर भूमि के ऊपर का जंगल जला डालते हैं और इस प्रकार भूमि को साफ कर या करा कर अपनी आजीविका चलाते हैं, किन्तु प्रवृत्ति महान् हिंसासाध्य होने से श्रावक के लिए हेय है, त्याज्य है। . १४-सरोह्रदतडागशोषणकर्म-तालाब, नदी आदि के जल को सुखाने का धन्धा करना। तात्पर्य यह है कि बहुत से लोग तालाब, नदी का पानी सुखा कर, वहां की भूमि को कृषियोग्य बनाने का धन्धा किया करते हैं, इस से जलीय जीव मर जाते हैं। अथवा बोए हुए धान्यों को पुष्ट करने के लिए सरोवर आदि से जल निकाल कर उन्हें सुखा देने की आजीविका करना, इस में त्रस और स्थावर जीवों की महान् हिंसा होती है। इसीलिए यह कार्य श्रावक के लिए त्याज्य है। १५-असतीजनपोषणकर्म-असतियों का पोषण कर के उन से आजीविका चलाना। तात्पर्य यह है कि कुछ लोग कुलटा स्त्रियों का इसलिए पोषण करते हैं कि उनसे व्यभिचार करा कर धनोपार्जन किया जाए, यह धन्धा अनर्थों का मूल और पापपूर्ण होने से त्याज्य है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [837 Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) अनर्थदण्डविरमणव्रत-क्षेत्र, धन, गृह, शरीर, दास, दासी, स्त्री, पुत्री आदि के लिए जो दण्ड-हिंसा किया जाता है, उसे अर्थदण्ड कहते हैं और बिना प्रयोजन की गई हिंसा अनर्थदण्ड कहलाती है। जैसे-रास्ते में जाते हुए व्यर्थ ही हरे पत्ते तोड़ते रहना, किसी कुत्ते आदि को छड़ी मार देना..... इत्यादि सभी विकल्प अनर्थदण्ड के अन्तर्गत हो जाते हैं। ऐसे अनर्थदण्ड को त्यागने की प्रतिज्ञा का करना अनर्थदण्डविरमणव्रत है। शास्त्रों में अनर्थदण्ड के 4 भेद पाए जाते हैं, जिन के नाम तथा अर्थ निम्नोक्त हैं १-अपध्यानाचरित-जो अप्रशस्त-बुरा ध्यान (अन्तर्मुहूर्त मात्र किसी प्रकार के विचारों में एकाग्रता) है, वह अपध्यान कहलाता है। तात्पर्य यह है कि आर्त्तध्यान और २रौद्रध्यान के वश हो कर किसी प्राणी को निष्प्रयोजन क्लेश पहुंचाना अपध्यानाचरित कहा जाता है। २-प्रमादाचरित-असावधानी से काम करना, तेल तथा घी आदि के बर्तन बिना ढके, खुले मुंह रखना आदि। अथवा-मद, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा, ये 5 प्रमाद होते हैं। अहंकार या मदिरा आदि मद्य पदार्थ का मद शब्द से ग्रहण होता है। पांच इन्द्रियों के तेईस विषयों का ग्रहण विषय शब्द से किया जाता है। क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों की कषाय संज्ञा है। निद्रा नींद को कहते हैं। जिन के कहने, सुनने से कोई लाभ न हो उन बातों की गणना विकथा में होती है / इन प्रमादों का सर्वथा त्याग संसारी व्यक्ति के लिए तो अशक्य होता है, इसलिए इस के निष्कारण और सकारण ऐसे दो भेद कर दिए गए हैं। सकारण प्रमाद अर्थदण्ड में है जब कि निष्कारण प्रमाद अनर्थदण्ड से बोधित होता है। अनर्थदण्डविरमणव्रत में निष्कारण प्रमाद का त्याग किया जाता है। ____३-हिंसाप्रदान-बिना प्रयोजन तलवार, शूल, भाला आदि हिंसा के साधनभूत शस्त्रों को क्रोध से भरे हुए, अथवा जो अनभिज्ञ हैं उन के हाथ में दे देना। , ४-पापकर्मोपदेश-जिस उपदेश के कारण पाप में प्रवृत्ति हो, उपदेश सुनने वाला पापकर्म करने लगे, वैसा उपदेश देना। तात्पर्य यह है कि बहुत से मनचले लोगों का ऐसा 1. आर्ति दुःख कष्ट, या पीड़ा को कहते हैं। आर्ति के कारण जो ध्यान होता है उसे आर्तध्यान कहा जाता है। यह ध्यान-१-अनिष्ट वस्तु के संयोग होने पर, २-इष्ट वस्तु के वियोग होने पर, ३-रोग आदि के होने पर तथा ४-भोगों की लालसा के कारण उत्पन्न हुआ करता है। इस ध्यान के कारण मन में एक प्रकार की विकलता सी अर्थात् सतत कसक सी हुआ करती है। 2. हिंसा आदि क्रूर. भावों की जिस में प्रधानता हो उस व्यक्ति को रुद्र कहते हैं। रुद्र व्यक्ति के मनोभावों को रौद्रध्यान कहा जाता है। रौद्र ध्यान वाला व्यक्ति हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और सम्प्राप्त विषयभोगों के संरक्षण में ही तत्पर रहा करता है और उस के लिए वह छेदन, भेदन, मारण-ताड़न आदि कठोर प्रवृत्तियों का ही चिन्तन करता रहता है। 838 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव होता है कि वे दूसरों को मारने-पीटने की तथा राजद्रोह आदि की व्यर्थ बातें कहते रहते हैं / अनर्थदण्ड के त्यागी को ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए। अनर्थदण्डविरमणव्रत का इतना ही उद्देश्य है कि श्रावक ने अणुव्रत स्वीकार करते समय जिन बातों की छूट रखी है, उस छूट का उपयोग करने में अर्थ-अनर्थ, सार्थक और निरर्थक का वह अन्तर समझ ले और निरर्थक प्रयोग से अपने को बचा ले। गुणव्रत अणुव्रतों के पोषक होते हैं, यह पहले बताया जा चुका है। पहले दिक्परिमाणव्रत ने अमर्यादित क्षेत्र को मर्यादित किया। उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत से अमर्यादित पदार्थों को मर्यादित किया गया है और अनर्थदण्डविरमणव्रत ने पहले की छूटों को क्रिया से अर्थात् कार्य के अविवेक से पुनः मर्यादित किया है। तात्पर्य यह है कि अनर्थदण्डविरमणव्रत के ग्रहण से यह मर्यादा की जाती है कि मैं निरर्थक पाप से बचा रहूंगा और "-गृहकार्य मेरे लिए आवश्यक हैं या नहीं, इस काम को करने के बिना भी मेरा जीवन चल सकता है या नहीं, यदि नहीं चलता तो विवश होकर मुझे यह काम करना ही पड़ेगा, प्रत्युत इस काम के किए बिना भी यदि मेरा जीवन निर्वाह हो सकता है तो व्यर्थ में उसे क्यों करूं, क्यों व्यर्थ में अपनी आत्मा को पाप से भारी बनाऊं" इस प्रकार का विवेक सम्प्राप्त हो जाता है और अणुव्रतों के आगारों की निष्प्रयोजन प्रवृत्तियों को रोका जा सकता है। इस के अतिरिक्त अनर्थदण्डविरमणव्रत के संरक्षण के लिए निम्नलिखित 5 कार्यों का त्याग आवश्यक है... १-कन्दर्प-कामवासना के पोषक, उत्तेजक तथा मोहोत्पादक शब्दों का हास्य या व्यंग्य में दूसरे के लिए प्रयोग करना। २-कौत्कुच्य-आंख, नाक, मुंह, भृकुटि आदि अंगों को विकृत बना कर भांड या विदूषक की भान्ति लोगों को हंसाना। तात्पर्य यह है कि भाण्डचेष्टाओं का करना। प्रतिष्ठित एवं सभ्य लोगों के लिए अनुचित होने से, इन का निषेध किया गया है। - ३-मौखर्य-निष्कारण ही अधिक बोलना, निष्प्रयोजन और अनर्गल बातें करना, थोड़ी बात से काम चल सकने पर भी व्यर्थ में अधिक बोलते रहना। ४-संयुक्ताधिकरण-कूटने, पीसने और गृहकार्य के अन्य साधन जैसे-ऊखल, मूसल आदि वस्तुओं का अधिक और निष्प्रयोजन संग्रह रखना। जिस से आत्मा दुर्गति का भाजन बने उसे अधिकरण कहते हैं अर्थात् दुर्गतिमूलक पदार्थों का परस्पर में संयोग बनाए रखना, जैसे-गोली भर कर बन्दूक का रखना, वह अचानक चल जाए या कोई उसे अनभिज्ञता के कारण चला दे तो वह जीवन के नाश का कारण हो सकती है, इसीलिए संयुक्ताधिकरण को दोषरूप माना गया है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [839 Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-उपभोगपरिभोगातिरिक्त-उबटन, आंवला, तैल, पुष्प, वस्त्र, आभूषण तथा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आदि उपभोग्य तथा परिभोग्य पदार्थों को अपने एवं आत्मीय जनों के उपभोग से अधिक रखना। उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत स्वीकार करते समय जो पदार्थ मर्यादा में रखे गए हैं, उन में अत्यधिक आसक्त रहना, उन में आनन्द मान कर उन का पुनः पुनः प्रयोग करना अर्थात् उन का प्रयोग जीवननिर्वाह के लिए नहीं किन्तु स्वाद के लिए करना, जैसे-पेट भरा होने पर भी स्वाद के लिए खाना। श्रावक जो व्रत ग्रहण करता है वह देश से ग्रहण करता है, सर्व से नहीं। उस में त्याग की पूर्णता नहीं होती। इसलिए उस की त्यागबुद्धि को सिंचन का मिलना आवश्यक होता है। बिना सिंचन के मिले उस का पुष्ट होना कठिन है। इसीलिए सूत्रकार ने अणुव्रतों के सिंचन के लिए तीन गुणव्रतों का विधान किया है। गुणव्रतों के आराधन से श्रावक की आवश्यकताएं सीमित हो जाती हैं और श्रावक पुद्गलानंदी न रह कर मात्र जीवननिर्वाह के लिए पदार्थों का उपभोग करता है तथा जीवन में अनावश्यक प्रवृत्तियों के त्याग के साथ-साथ आवश्यक प्रवृत्तियों में भी वह निवृत्तिमार्ग के लिए सचेष्ट रहता है, परन्तु उस की उस निवृत्तिप्रधान चेष्टा को सदैव बनाए रखने के लिए और उस में प्रगति लाने के लिए किसी शिक्षक एवं प्रेरक सामग्री की आवश्यकता रहती है। बिना इस के शिथिलता का होना असंभव नहीं है। इसीलिए सूत्रकार ने 4 शिक्षाव्रतों का विधान किया है। ये चार शिक्षाव्रत पूर्वगृहीत व्रतों को दृढ़ करने में एवं उन की पालन की तत्परता में सहायक होते हैं। उन चार शिक्षाव्रतों के नाम और उन की व्याख्या निम्नोक्त है। १-सामायिकव्रत-जिस के अनुष्ठान से समभाव की प्राप्ति होती है, राग-द्वेष कम पड़ता है, विषय और कषाय की अग्नि शान्त होती है, चित्त निर्विकार हो जाता है, सावद्य प्रवृत्तियों को छोड़ा जाता है, तथा सांसारिक प्रपंचों की ओर आकर्षित न हो कर आत्मभाव में रमण किया जाता है, उस व्रत अर्थात् अनुष्ठान को सामायिक व्रत कहते हैं। जैनशास्त्रों में सामायिक का बहुत महत्त्व वर्णित हुआ है। सामायिक का यदि वास्तविक 1. जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसुय। ___तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं // (श्री अनुयोगद्वारसूत्र) अर्थात् जो साधक त्रस-स्थावर रूप सभी जीवों पर समभाव रखता है, उसी की सामायिक शुद्ध होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे णियमे तवे। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं॥ (आवश्यकनियुक्ति) अर्थात् जिस की आत्मा संयम में, तप में, नियम में सन्निहित-संलग्न हो जाती है, उसी की शुद्ध . सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। 840 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप साधक के जीवन में आ जाए तो उस का जीवन सुखी एवं आदर्श बन जाता है। सामायिक जीवन भर के लिए भी की जाती है और कुछ समय के लिए भी। कम से कम उस का समय .48 मिनट है। उद्देश्य तो जीवनपर्यन्त ही सावध प्रवृत्तियों के त्याग का होना चाहिए, परन्तु यदि यह शक्य नहीं है तो गृहस्थ को कम से कम 48 मिनटों के लिए तो अवश्य सामायिक करनी चाहिए। यदि मुहूर्त भर के लिए पापों का त्याग कर लिया जाएगा तो आंशिक लाभ होने के साथ-साथ इस के द्वारा अहिंसा एवं समता की विराट झांकी के दर्शन अवश्य हो जाएंगे, जो भविष्य में उस के जीवन को जीवनपर्यन्त सावध प्रवृत्तियों से अलग रखने का कारण बन सकती है। सामायिक दो घड़ी का आध्यात्मिक स्नान है, जो जीवन को पापमल से हल्का करता है और अहिंसा, सत्यादि की साधना को स्फूर्तिशील बनाता है। अतः जहां तक बने सामायिकव्रत का आराधन अवश्य किया जाना चाहिए और इस सामायिक द्वारा किए जाने वाले पापनिरोध और आत्मनिरीक्षण की अमूल्य निधि को प्राप्त कर परमसाध्य निर्वाणपद को पाने का स्तुत्य प्रयास करना चाहिए। इस के अतिरिक्त सामायिकव्रत के संरक्षण के लिए निम्रोक्त 5 कार्यों का अवश्य त्याग कर देना चाहिए १-मनोदुष्प्रणिधान-मन को बुरे व्यापार में लगाना अर्थात् मन का समता से दूर हो जाना तथा मन का सांसारिक प्रपञ्चों में दौड़ना एवं अनेक प्रकार के सांसारिक कर्मविषयक संकल्पविकल्प करना। - २-वचोदुष्प्रणिधान-सामायिक के समय विवेकरहित कटु, निष्ठुर, असभ्य वचन बोलना, तथा निरर्थक या सावध वचन बोलना। ३-कायदुष्प्रणिधान-सामायिक में शारीरिक चपलता दिखाना, शरीर से कुचेष्टा करना, बिना कारण शरीर को फैलाना, सिकोड़ना या बिना पूंजे असावधानी से चलना। ४-सामायिक का विस्मरण- मैंने सामायिक की है, इस बात का भूल जाना। अथवा कितनी सामायिक की हैं, यह भूल जाना। अथवा-सामायिक करना ही भूल जाना। तात्पर्य यह है कि जैसे मनुष्य को अपने दैनिक भोजनादि का ध्यान रहता है, वैसे उसे दैनिक अनुष्ठान सामायिक को भी याद रखना चाहिए। ५-अनवस्थितसामायिककरण-अव्यवस्थित रीति से सामायिक करना, सामायिक की व्यवस्था न रखना अर्थात् कभी करना, कभी नहीं करना, यदि की गई है तो उस से ऊबना, सामायिक का समय पूरा हुआ है या नहीं, इस बात का बार-बार विचार करते रहना, सामायिक का समय होने से पहले ही सामायिक पार लेना आदि। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [841 Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-देशावकाशिक व्रत- श्रावक के छठे व्रत में दिशाओं का जो परिमाण किया गया है, उस का तथा अन्य व्रतों में की गई मर्यादाओं को प्रतिदिन कम करना। तात्पर्य यह है / कि किसी ने आजीवन, वर्ष या मासादि के लिए "-मैं पूर्व दिशा में सौ कोस से आगे नहीं जाऊँगा-" यह मर्यादा की है, उस का इस मर्यादा को एक दिन के लिए, प्रहर आदि के लिए और कम कर लेना अर्थात् आज के दिन मैं पूर्व दिशा में दस कोस से आगे नहीं जाऊँगा, इस तरह पहली मर्यादा को संकुचित कर लेना या मर्यादित उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों में से अमुक का आज दिन के लिए या प्रहर आदि के लिए सेवन नहीं करूंगा, इस भान्ति पूर्वगृहीत व्रतों में रखी मर्यादाओं को दिन भर या दोपहर आदि के लिए मर्यादित करना देशावकाशिक व्रत कहलाता है। उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों का 26 बोलों में संग्रह किया गया है, यह पूर्व कहा जा चुका है। परन्तु श्रावक के लिए प्रतिदिन चौदह नियमों के चिन्तन या ग्रहण करने की जो हमारी समाज में प्रथा है वह भी इस देशावकाशिक व्रत का ही रूपान्तर है। अतः यथाशक्ति उन चौदह नियमों का ग्रहण अवश्य होना चाहिए। इस नियम के पालन से महालाभ की प्राप्ति होती है। चौदह नियमों का विवरण निम्नोक्त है १-सचित्त-पृथ्वी, पानी, वनस्पति, सुपारी, इलायची, बादाम, धान्य, बीड़ा आदि सचित्त वस्तुओं का यथाशक्ति त्याग अथवा परिमाण करना चाहिए कि मैं इतने द्रव्य और इतने वजन से अधिक उपयोग में नहीं लाऊंगा। २-द्रव्य-जो पदार्थ स्वाद के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से तैयार किए जाते हैं, उन के विषय में यह परिमाण होना चाहिए कि आज मैं इतने द्रव्यों से अधिक का उपयोग नहीं करूंगा। ३-विगय-दूध, दही, घृत, तेल और मिठाई ये पांच सामान्य विगय हैं। इन पदार्थों का जितना भी त्याग किया जा सके उतनों का त्याग कर देना चाहिए, अवशिष्टों की मर्यादा करनी चाहिए। ___मधु, मक्खन ये दो विशेष विगय हैं / इन का निष्कारण उपयोग करने का त्याग करना तथा सकारण उपयोग करने की मर्यादा करना। मद्य और मांस ये दो महाविगय हैं, इन दोनों का सेवन अधर्ममूलक एवं दुर्गतिमूलक होने से इनको सर्वथा छोड़ देना चाहिए। ४-पन्नी-पांव की रक्षा के लिए जो जूते, मोजे, खड़ाऊं, बूट, चप्पल आदि चीजें धारण की जाती हैं, उन की मर्यादा करना। ५-ताम्बूल-जो वस्तु भोजनोपरान्त मुखशुद्धि के लिए खाई जाती है, उन की गणना ताम्बूल में है। जैसे-पान, सुपारी, चूर्ण आदि इन सब की मर्यादा करना। 842 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-वस्त्र-पहनने, ओढ़ने के वस्त्रों की यह मर्यादा करना कि मैं अमुक जाति के अमुक वस्त्रों से अधिक वस्त्र नहीं लूंगा। ७-कुसुम-फूल, इत्र, (अतर), तेल तथा सुगन्धादि पदार्थों की मर्यादा करना। ८-वाहन-हाथी, घोड़ा, ऊंट, गाड़ी, तांगा, मोटर, रेल, नाव, जहाज आदि सब वाहनों की मर्यादा करना। ९-शयन-शय्या, पाट, पलंग आदि पदार्थों की मर्यादा करना। १०-विलेपन-शरीर पर लेपन किए जाने वाले केसर, चन्दन, तेल, साबुन, अंजन, मञ्जन आदि पदार्थों की मर्यादा करना। .११-ब्रह्मचर्य-स्वदारसन्तोष की मर्यादा को यथाशक्ति संकुचित करना। पुरुष का पत्नीसंसर्ग के विषय में और स्त्री का पतिसंसर्ग के विषय में त्याग अथवा मर्यादा करना। १२-दिशा-दिक्परिमाणव्रत स्वीकार करते समय आवागमन के लिए मर्यादा में जो क्षेत्र जीवन भर के लिए रखा है, उस क्षेत्र का भी संकोच करना तथा मर्यादा करना। १३-स्नान-देश या सर्व स्नान के लिए मर्यादा करना। शरीर के कुछ भाग को धोना देश-स्नान है तथा शरीर के सब भागों को धोना सर्वस्नान कहलाता है। १४-भत्त-भोजन, पानी के सम्बन्ध में मर्यादा करना कि मैं आज इतने प्रमाण से अधिक न खाऊंगा और न पीऊंगा। कई लोग इन चौदह नियमों के साथ असि,मसि और कृषि इन तीनों को और मिलाते हैं। ये तीनों कार्य आजीविका के लिए किए जाते हैं। आजीविका के लिए जो कार्य किये जाते हैं उन में से पन्द्रह कर्मादानों का तो श्रावक को त्याग होता ही है, शेष जो कार्य रहते हैं उन के विषय में भी यथाशक्ति मर्यादा करनी चाहिए। असि आदि पदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है . .१-असि-शस्त्र-औजार आदि के द्वारा परिश्रम कर के अपनी आजीविका चलाना। . २-मसि-कलम दवात, कागज के द्वारा लेख या गणित कला का उपयोग कर के जीवन चलाना। ३-कृषि-खेती के द्वारा या पदार्थों के क्रयविक्रय से आजीविका चलाना। देशावकाशिक व्रत की एक व्याख्या ऊपर दी जा चुकी है, परन्तु इस के अन्य व्याख्यान के दो और भी प्रकार मिलते हैं, जो कि निम्नोक्त हैं __(1) जिस प्रकार 14 नियमों के ग्रहण करने से स्वीकृत व्रतों से सम्बन्धित जो मर्यादा रखी गई है, उस में द्रव्य और क्षेत्र से संकोच किया जाता है, इसी प्रकार 5 अणुव्रतों द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [843 Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असा है। में काल की मर्यादा नियत करके एक दिन-रात के लिए आस्रवसेवन का त्याग किया जाए, वह भी देशावकाशिक व्रत कहलाता है, जिस को आज का जैन संसार दया या छःकाया के नाम से अभिहित करता है। दया करने के लिए आस्रवसेवन का एक दिन-रात के लिए त्याग कर के विरतिपूर्वक धर्मस्थान में रहा जाता है। ऐसी विरति त्यागपूर्ण जीवन बिताने का अभ्यासरूप है। दया उपवास कर के भी की जा सकती है। यदि उपवास करने की शक्ति न हो तो आयंबिल आदि करके भी की जा सकती है। यदि कारणवश ऐसा कोई भी तप न किया जा सके तो एक या एक से अधिक भोजन करके भी की जा सकती है। सारांश यह है कि दया में जितना तप, त्याग किया जा सके उतना ही अच्छा है। दया में किए जाने वाले प्रत्याख्यान जितने करण और योग से करना चाहें, कर सकते हैं। कोई दो करण और तीन योग से 5 आस्रवसेवन का त्याग करते हैं। उन की प्रतिज्ञा का रूप होगा कि मैं मन, वचन और काया से 5 आस्रवों का सेवन न करूंगा, न दूसरे से कराऊंगा। यह प्रतिज्ञा करने वाला व्यक्ति सावध कार्य को स्वयं न कर सकेगा न दूसरों से करा सकेगा, परन्तु इस तरह की प्रतिज्ञा करने वाले व्यक्ति के लिए जो वस्तु बनी है, उस का उपयोग करने से उस की वह प्रतिज्ञा नहीं टूटने पाती। . दया को एक करण तीन योग से भी धारण किया जाता है। एक करण तीन योग से ग्रहण करने वाला जो व्यक्ति आस्रव का त्याग करता है वह स्वयं अस्रव नहीं करेगा परन्तु दूसरों से कराता है, तथापि उस का त्याग भंग नहीं होता क्योंकि उसने दूसरे के द्वारा आरम्भ कराने का त्याग नहीं किया। इसी तरह इस व्रत को स्वीकार करने के लिए जो प्रत्याख्यान किया जाता है वह एक करण और एक योग से भी हो सकता है। ऐसा प्रत्याख्यान करने वाला व्यक्ति केवल शरीर से ही आरम्भ के कार्य नहीं कर सकता। मन, वचन से करने-कराने और अनुमोदने का उस ने त्याग नहीं किया, परन्तु यह त्याग बहुत अल्प है। इस में आस्रवों का बहुत कम अंश त्यागा जाता है। (2) थोड़े समय के लिए आस्रवों के सेवन का त्याग भी-देशावकाशिक व्रतकहलाता है, आजकल इसे सम्वर कहते हैं। सम्वर करने वाला व्यक्ति जितने थोड़े समय के लिए उसे करना चाहे कर सकता है। जैसे सामायिक के लिए कम से कम 48 मिनट निश्चित होते हैं, वैसी बात सम्वर के लिए नहीं है। अर्थात् इच्छानुसार समय के लिए आस्रव से निवृत्त होने के लिए सम्वर किया जा सकता है। आज कल देशावकाशिक व्रत चौविहार उपवास न कर के कई लोग प्रासुक पानी का उपयोग करते हैं और इस प्रकार से किए गए देशावकाशिक 844 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रत को पौषध कहते हैं, परन्तु वास्तव में इस तरह का पौषध देशावकाशिकव्रत ही है। ग्यारहवें (11) व्रत का पौषध तो तब होता है जब चारों प्रकार के आहारों का पूर्णतया त्याग किया जाए और चारों प्रकार के पौषधों को पूरी तरह अपनाया जाए, जो इस तरह नहीं किया जाता प्रत्युत सामान्यरूप से अपनाया जाता है। उस की गणना दशवें देशावकाशिक व्रत में ही होती है। इस के अनुसार तप कर के पानी का उपयोग करने अथवा शरीर से लगाने, मलने रूप तेल का उपयोग करने पर दशवां व्रत ही हो सकता है, ग्यारहवां नहीं। श्रावक अहिंसा, सत्य आदि अणुव्रतों को प्रशस्त बनाने एवं उन में गुण उत्पन्न करने के लिए जो दिक्परिमाणव्रत तथा उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत स्वीकार करता है, उस में अपनी आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार जो मर्यादा करता है, वह जीवन भर के लिए करता है। तात्पर्य यह है कि दिक्परिमाणव्रत और उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत जीवन भर के लिए ग्रहण किए जाते हैं, और इसलिए इन व्रतों को ग्रहण करते समय जो छूट रखी जाती है वह भी जीवन भर के लिए होती है, परन्तु श्रावक ने व्रत लेते समय जो आवागमन के लिए क्षेत्र रखा है तथा भोगोपभोग के लिए जो पदार्थ रखे हैं उन सब का उपयोग वह प्रतिदिन नहीं कर पाता, इसलिए परिस्थिति के अनुसार कुछ समय के लिए उस मर्यादा को घटाया भी जा सकता है अर्थात् गमनागमन के मर्यादित क्षेत्र को और मर्यादित उपभोग्य-परिभोग्य पदार्थों को भी कम किया जा सकता है। उन का कम कर देना ही देशावकाशिक व्रत का उद्देश्य रहा हुआ है। इस शिक्षाव्रत के आराधन से आरम्भ कम होगा और अहिंसा भगवती की अधिकाधिक सुखद साधना सम्पन्न होगी। अतः प्रत्येक श्रावक को देशावकाशिक व्रत के पालन से अपना भविष्य उज्ज्वल, समुज्ज्वल एवं अत्युज्वल बनाने का स्तुत्य प्रयास करना चाहिए। इस के अतिरिक्त देशावकाशिक व्रत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त 5 कार्यों का त्याग आवश्यक है- १-आनयनप्रयोग-दिशाओं का संकोच करने के पश्चात् आवश्यकता उपस्थित होने पर मर्यादित भूमि से बाहर रहे हुए पदार्थ किसी को भेज कर मंगाना। तात्पर्य यह है कि जहां तक क्षेत्र की मर्यादा की है उस से बाहर कोई पदार्थ नहीं मंगाना चाहिए और तृष्णा का संवरण करना चाहिए। दूसरे के द्वारा मंगवाने से प्रथम तो मर्यादा का भंग होता है और दूसरे श्रावक जितना स्वयं विवेक कर सकता है उतना दूसरा नहीं कर सकेगा। २-प्रेष्यप्रयोग-दिशाओं के संकोच करने के कारण व्रती का स्वयं तो नहीं जाना परन्तु अपने को मर्यादा भंग के पाप से बचाने के विचारों से कोई वस्तु वहां पहुंचाने के लिए नौकर को भेजना। पहले भेद में आनयन प्रधान है जब कि दूसरे में प्रेषण। ३-शब्दानुपात-मर्यादा में रखी हुई भूमि के बाहर का कोई कार्य होने पर मर्यादित द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [845 Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमि में रह कर छींक आदि ऐसा शब्द करना जिस से दूसरा शब्द का आशय समझ कर उस ' कार्य को कर दे। इस में शब्द की प्रधानता है। ४-रूपानुपात-मर्यादित भूमि से बाहर कोई कार्य उपस्थित होने पर इस तरह की शारीरिक चेष्टा करना कि जिस से दूसरा व्यक्ति आशय समझ कर उस काम को कर दे। ५-बाह्यपुद्गलप्रक्षेप-मर्यादित भूमि से बाहर कोई प्रयोजन होने पर दूसरे को अपना आशय समझाने के लिए ढेला, कंकर आदि पुद्गलों का प्रक्षेप करना। ३-पौषधोपवासव्रत-धर्म को पुष्ट करने वाला नियमविशेष धारण कर के उपवाससहित पौषधशाला में रहना पौषधोपवासव्रत कहलाता है। वह चार प्रकार का होता है। उन चारों के भी पुनः देश और सर्व ऐसे दो-दो भेद होते हैं। उन सब का नामपूर्वक विवरण निम्नोक्त है १-आहारपौषध-एकासन, आयंबिल करना देश-आहारत्यागपौषध है, तथा एक दिन-रात के लिए अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम इन चारों प्रकार के आहारों का सर्वथा त्याग करना सर्वआहारत्यागपौषध कहलाता है। २-शरीरपौषध-उद्वर्तन, अभ्यंगन, स्नान, अनुलेपन आदि शरीरसम्बन्धी अलंकारों के साधनों में से कुछ त्यागना और कुछ न त्यागना देश-शरीरपौषध कहलाता है तथा दिनरात के लिए शरीर-सम्बन्धी अलंकार के सभी साधनों का सर्वथा त्याग करना सर्वशरीरपौषध है। ३-ब्रह्मचर्यपौषध-केवल दिन या रात्रि में मैथुन का त्याग करना देश-ब्रह्मचर्यपौषध और दिन-रात के लिए सर्वथा मैथुन का त्याग कर धर्म का पोषण करना सर्व-ब्रह्मचर्यपौषध कहलाता है। ४-अव्यापारपौषध-आजीविका के लिए किए जाने वाले कार्यों में से कुछ का त्याग करना देश-अव्यापारपौषध और आजीविका के सभी कार्यों का दिन-रात के लिए त्याग करना सर्व-अव्यापारपौषध कहलाता है। इन चारों प्रकार के पौषधों को देश या सर्व से ग्रहण करना ही पौषधोपवास कहलाता है। जो पौषधोपवास देश से किया जाता है वह सामायिक (सावद्यत्याग) सहित भी किया जा सकता है और सामायिक के बिना भी। जैसे-केवल आयंबिल आदि करना, शरीरसम्बन्धी अलंकार का आंशिक त्याग करना, ब्रह्मचर्य का कुछ नियम लेना या किसी व्यापार का त्याग करना परन्तु पौषध की वृत्ति धारण न करना, इस प्रकार के पौषध (त्याग) दशवें व्रत के . अन्तर्गत माने गए हैं प्रत्युत ग्यारहवां व्रत तो चारों प्रकार के आहारों का सर्वथा त्याग 846 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिकपूर्ण दिन-रात के लिए करने से होता है, उसे ही प्रतिपूर्ण पौषध कहते हैं। प्रतिपूर्ण पौषध का अर्थ संक्षेप में-आठ प्रहर के लिए चारों आहार, मणि, सुवर्ण तथा आभूषण, . पुष्पमाला, सुगन्धित चूर्ण आदि तथा सकल सावध व्यापारों को छोड़ कर धर्मस्थान में रहना और धर्मध्यान में लीन हो कर शुभ भावों के साथ उक्त काल को व्यतीत करना-ऐसे किया जा सकता है - प्रतिपूर्ण पौषधव्रत के पालक की स्थिति साधुजीवन जैसी होती है। इसीलिए उस में कुरता, कमीज, कोट, पतलून आदि गृहस्थोचित वस्त्र नहीं पहने जाते। पलंग आदि पर सोया नहीं जाता और स्नान भी नहीं किया जाता, प्रत्युत कमीज आदि सब उतार कर शुद्ध धोती आदि पहन कर मुख पर मुखवस्त्रिका लगा कर तथा सांसारिक प्रपंचों से सर्वथा अलग रह कर साधुजीवन की भान्ति एकान्त में स्वाध्याय, ध्यान तथा आत्मचिन्तन आदि करते हुए जीवन को पवित्र बनाना ही इस व्रत का प्रधान उद्देश्य रहता है। इस के अतिरिक्त पौषधोपवासव्रत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त 5 कार्यों को अवश्य त्याग देना चाहिए १-पौषध के समय काम में लिए जाने वाले पाट, बिछौना, आसन आदि की प्रतिलेखना (निरीक्षण) न करना। अथवा मन लगा कर प्रतिलेखना की विधि के अनुसार प्रतिलेखना नहीं करना तथा अप्रतिलेखित पाट का काम में लाना। - २-पौषध के समय काम में लिए जाने वाले पाट, आसन आदि का परिमार्जन न करना। अथवा विधि से रहित परिमार्जन करना। ... प्रतिलेखन और परिमार्जन में इतना ही अंन्तर होता है कि प्रतिलेखन तो दृष्टि द्वारा किया जाता है, जब कि परिमार्जन रजोहरणी-पूंजनी या रजोहरण द्वारा हुआ करता है, तथा प्रतिलेखन केवल प्रकाश में ही होता है, जबकि परिमार्जन रात्रि को भी हो सकता है। तात्पर्य यह है कि कल्पना करो दिन में पाट का निरीक्षण हो रहा है। किसी जीव जन्तु के वहां दृष्टिगोचर होने पर रजोहरणी आदि से उसे यतनापूर्वक दूर कर देना इस प्रकार प्रकाश में प्रतिलेखन तथा परिमार्जन होता है परन्तु रात्रि में अंधकार के कारण कुछ दीखता नहीं तो यतनापूर्वक रजोहरणादि से स्थान को यतनापूर्वक परिमार्जन करना अर्थात् वहां से जीवादि को अलग करना। यही परिमार्जन और प्रतिलेखन में भिन्नता है। ३-शरीरचिन्ता से निवृत्त होने के लिए त्यागे जाने वाले पदार्थों को त्यागने के स्थान की प्रतिलेखना न करना। अथवा उस की भलीभान्ति प्रतिलेखना न करना। __४-मल, मूत्रादि गिराने की भूमि का परिमार्जन न करना, यदि किया भी है तो भली प्रकार से नहीं किया गया। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [847 Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-पौषधोपवासव्रत का सम्यक् प्रकार से उपयोगसहित पालन न करना अर्थात् पौषध में आहार , शरीरशुश्रूषा, मैथुन, तथा सावध व्यापार की कामना करना। ४-अतिथिसंविभागवत-जिस के आने का कोई समय नियत नहीं है, जो बिना सूचना दिए, अनायास ही आ जाता है उसे अतिथि कहते हैं। ऐसे अतिथि का सत्कार करने के लिए भोजन आदि पदार्थों में विभाग करना अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है। अथवाजो आत्मज्योति को जगाने के लिए सांसारिक खटपट का त्याग कर संयम का पालन करते हैं, सन्तोषवृत्ति को धारण करते हैं, उन को जीवननिर्वाह के लिए अपने वास्ते तैयार किए गए१-अशन, २-पान, ३-खादिम, ४-स्वादिम,५-वस्त्र, ६-पात्र, ७-कम्बल (जो शीत से रक्षा करने वाला होता है), ८-पादपोंछन (रजोहरण तथा रजोहरणी), ९-पीठ (बैठने के काम आने वाले पाट आदि), १०-फलक (सोने के काम आने वाले लम्बे-लम्बे पाट), ११-शय्या (ठहरने के लिए घर), १२-संथार (बिछाने के लिए घास आदि), १३-औषध (जो एक चीज़ को कूट या पीस कर बनाई जाए) और १४-भोजन (जो अनेकों के सम्मिश्रण से बनी है) ये चौदह प्रकार के पदार्थ निष्काम बुद्धि के साथ आत्मकल्याण की भावना से देना तथा दान का संयोग न मिलने पर भी सदा ऐसी भावना बनाए रखना अतिथिसंविभागवत कहलाता हैं। __ भर्तृहरि ने धन की दान, भोग और नाश ये तीन गतियां मानी हैं। अर्थात् धन दान देने से जाता है, भोगों में लगाने से जाता है या नष्ट हो जाता है। जो धन न दान में दिया गया और न भोगों में लगाया गया उस की तीसरी गति होती है अर्थात् वह नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि धन ने जब एक दिन नष्ट हो ही जाना है तो दान के द्वारा क्यों न उस का सदुपयोग कर लिया जाए, इस का अधिक संग्रह करना किसी भी दृष्टि से हितावह नहीं है। अधिक बढ़े हुए धन को नख की उपमा दी जा सकती है। बढ़ा हुआ नख अपने तथा दूसरे के शरीर पर जहां भी लगेगा वहां घाव ही करेगा, इसी प्रकार अधिक बढ़ा हुआ धन अपने को तथा अपने आसपास के दूसरे साथियों को तंग ही करता है, अशान्ति ही बढ़ाता है। इसलिए बुद्धिमान बढ़े हुए नाखून को जैसे यथावसर काटता रहता है, इसी भान्ति धन को भी मनुष्य यथावसर दानादि के शुभ कार्यों में लगाता रहे। जैन धर्म धनपरिमाण में धर्म बताता है और उस परिमित धन में से भी नित्य प्रति यथाशक्ति दान देने का विधान करता है। जिस का स्पष्ट प्रमाण श्रावक के बारह व्रतों में बारहवां तथा शिक्षाव्रतों में से चौथा अतिथिसंविभाग व्रत है। जो व्यक्ति जैनधर्म के इस परम पवित्र उपदेश को जीवनांगी बनाता है वह सर्वत्र सुखी होता है। इस के अतिरिक्त अतिथिसंविभागवत के संरक्षण के लिए निम्रोक्त 5 कार्यों का त्याग कर देना चाहिए १-सचित्तनिक्षेपन-जो पदार्थ अचित्त होने के कारण मुनि-महात्माओं के लेने 848 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्य हैं उन अचित्त पदार्थों में सचित्त पदार्थ मिला देना। अथवा अचित्त पदार्थों के निकट सचित्त पदार्थ रख देना। २-सचित्तपिधान-साधुओं के लेने योग्य अचित्त पदार्थों के ऊपर सचित्त पदार्थ ढांक देना, अर्थात् अचित्त पदार्थ को सचित्त पदार्थ से ढक देना। ३-कालातिक्रम-जिस वस्तु के देने का जो समय है वह समय टाल देना / काल का अतिक्रम होने पर यह सोच कर दान में उद्यत होना कि अब साधु जी तो लेंगे ही नहीं पर वह यह जानेंगे कि यह श्रावक बड़ा दातार है। ___४-परव्यपदेश-वस्तु न देनी पड़े, इस उद्देश्य से वस्तु को दूसरे की बताना। अथवा दिए गए दान के विषय में यह संकल्प करना कि इस दान का फल मेरे माता, पिता, भाई आदि को मिले। अथवा वस्तु शुद्ध है तथा दाता भी शुद्ध है परन्तु स्वयं न देकर दूसरे को दान के लिए कहना। ५-मात्सर्य-दूसरे को दान देते देख कर उस की ईर्ष्या से दान देना, अर्थात् यह बताने के लिए दान देना कि मैं उस से कम थोड़े हूं, किन्तु बढ़ कर हूं। अथवा मांगने पर कुपित होना और होते हुए भी न देना। अथवा कषायकलुषित चित्त से साधु को दान देना। श्रावक जो व्रत अंगीकार करता है वह सर्व से अर्थात् पूर्णरूप से नहीं किन्तु देशअपूर्णरूप से स्वीकार करता है। इसलिए श्रावक की आंशिक त्यागबुद्धि को प्रोत्साहन मिलना आवश्यक है। पांचों अणुव्रतों को प्रोत्साहन मिलता रहे इसलिए तीन गुणव्रतों का विधान किया गया है। उन के स्वीकार करने से बहुत सी आवश्यकताएं सीमित हो जाती हैं। उन का संवर्द्धन रुक जाता है। बहुत से आवश्यक पदार्थों का त्याग कर के नियमित पदार्थों का उपभोग किया जाता है, परन्तु यह वृत्ति तभी स्थिर रह सकती है जब कि साधक में आत्मजागरण की लग्न हो तथा आत्मानात्मवस्तु का विवेक हो। एतदर्थ बाकी के चार शिक्षा-व्रतों का विधान किया गया है। आत्मा को सजग रखने के लिए उक्त चारों ही व्रत एक सुयोग्य शिक्षक का काम देते हैं। इसलिए इन चारों का जितना अधिक पालन हो उतना ही अधिक प्रभाव पूर्व के व्रतों पर पड़ता है और वे उतने ही विशुद्ध अथच विशुद्धतर होते जाते हैं। सारांश यह है कि श्रावक के मूलव्रत पांच हैं, उन में विशेषता लाने के लिए गुणव्रत और गुणव्रतों में विशेषता प्रतिष्ठित करने के लिए शिक्षाव्रत हैं। कारण यह है कि अणुव्रती को गृहस्थ होने के नाते गृहस्थसम्बन्धी सब कुछ करना पड़ता है। संभव है उसे सामायिक आदि करने का समय ही न मिले तो उस का यह अर्थ नहीं होता कि उस का गृहस्थधर्म नष्ट हो गया। गृहस्थधर्म का विलोप तो पांचों अणुव्रतों के भंग करने से होगा, वैसे नहीं। सो पांचों अणुव्रतों की पोषणा बराबर होती रहे। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [849 Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसीलिए तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत आचार्यों ने संकलित किए हैं। वे सातों व्रत भी . नितान्त उपयोगी हैं। इसी दृष्टि से अणुव्रतों के साथ इन को परिगणित किया गया है। ___ -समणं भगवं-यहां का बिन्दु-महावीरं आइगरं-इत्यादि पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंध के दशमाध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद तृतीयान्त हैं जबकि प्रस्तुत में द्वितीयान्त। विभक्तिगत विभिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। . ___ -जहा कूणिए-यथा कूणिकः-इस का तात्पर्य यह है कि जिस तरह चम्पा नामक नगरी से महाराज कूणिक बड़ी सजधज के साथ भगवान् को वन्दना करने के लिए गए थे, उसी भान्ति महाराज अदीनशत्रु भी हस्तिशीर्ष नगर से बड़े समारोह के साथ भगवान् को वन्दना करने के लिए गए। चम्पानरेश कूणिक के गमनसमारोह का वर्णन श्री औपपातिक सूत्र में किया गया है, पाठकों की जानकारी के लिए उसका सारांश नीचे दिया जाता है- .. ___ श्रेणिक पुत्र महाराज कूणिक मगधदेश के स्वामी थे। चम्पानगरी उन की राजधानी थी। एक बार आप को एक सन्देशवाहक ने आकर यह समाचार दिया कि जिन के दर्शनों की आप को सदैव इच्छा बनी रहती है, वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चम्पानगरी के बाहर उद्यान में पधार गए हैं। चम्पानरेश इस सन्देश को सुन कर पुलकित हो उठे। सन्देशवाहक को पर्याप्त पारितोषिक देने के अनंतर स्नानादि से निवृत्त हो तथा वस्त्रालंकारादि से अलंकृत हो कर वे अपने सभास्थान में आए, वहां आकर उन्होंने सेनानायक को बुलाया और उस से कहा कि हे भद्र ! प्रधान हाथी को तैयार करो तथा घोड़ों, हाथियों, रथों और उत्तम योद्धाओं वाली चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित करो। सुभद्राप्रमुख रानियों के लिए भी यान आदि तैयार करके बाहर पहुंचा दो और चम्पानगरी को हर तरह से स्वच्छ एवं निर्मल बना डालो। जल्दी जाओ और अभी मेरी इस आज्ञा का पालन करके मुझे सूचित करो। इस के पश्चात् सेनानायक ने राजा की इस आज्ञा का पालन करके उन्हें संसूचित किया। चम्पानरेश अपनी आज्ञा के पालन की बात जान कर बड़े प्रसन्न हुए। तदनन्तर महाराज कूणिक व्यायामशाला में गए। वहां पर नाना विधियों से व्यायाम करने के अनन्तर शतपाक और सहस्रपाक आदि सुगन्धित तैलों के द्वारा उन्होंने अस्थि, मांस, त्वचा और रोमों को सुख पहुंचाने वाली मालिश कराई। तदनन्तर स्नानगृह में प्रवेश किया और वहां स्नान करने के पश्चात् उन्होंने स्वच्छ वस्त्रों और उत्तमोत्तम आभूषणों को धारण किया। तदनन्तर गणनायकगण का मुखिया, दण्डनायक-कोतवाल, राजा-मांडलिक (किसी प्रदेश का स्वामी), ईश्वरयुवराज, तलवर-राजा ने प्रसन्न होकर जो पट्टबन्ध दिया है उस से विभूषित, माडम्बिक 850] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मडम्ब (जो बस्ती भिन्न-भिन्न हो) के नायक, कौटुम्बिक-कुटुम्बों के स्वामी, मन्त्री-वजीर, महामन्त्री प्रधानमन्त्री, ज्योतिषी-ज्योतिष विद्या के जानने वाले, दौवारिक-प्रतिहारी (पहरेदार), अमात्य-राजा की सारसंभाल करने वाला, चेट-दास, पीठमर्द-अत्यन्त निकट रहने वाला सेवक अथच मित्र, नगर-नागरिक लोग, निगम-व्यापारी, श्रेष्ठी-सेठ, सेनापति-सेना का स्वामी, सार्थवाह-यात्री व्यापारियों का मुखिया, दूत-राजा का आदेश पहुंचाने वाला, सन्धिपालराज्य की सीमा का रक्षक-इन सब से सम्परिवृत्त-घिरे हुए चम्पानरेश कूणिक उपस्थानशालासभामंडप में आकर हस्तिरत्न पर सवार हो गए। जिस हाथी पर चम्पानरेश बैठे हुए थे उस के आगे-आगे-१-स्वस्तिक, २श्रीवत्स, ३-नन्दावर्त, ४-वर्धमानक, ५-भद्रासन, ६-कलश-घड़ा,७-मत्स्य,८दर्पण-ये आठ मांगलिक पदार्थ ले जाए जा रहे थे। हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना यह चतुरङ्गिणी सेना उन के साथ थी, तथा उन के साथ ऐसे बहुत से पुरुष चल रहे थे जिन के हाथों में लाठियां, भाले, धनुष, चामर, पशुओं को बांधने की रज्जुएं, पुस्तकें, फलकें-ढालें, आसनविशेष, वीणाएं, आभूषण रखने के डिब्बे अथवा ताम्बूल आदि रखने के डिब्बे थे। तथा बहुत से दण्डी-दण्ड धारण करने वाले, मुण्डी-मुण्डन कराए हुए, शिखण्डी-चोटी रखे हुए, जटी-जटाओं वाले, पिच्छी-मयूरपंख लिए हुए, हासकर-उपहास (दुःखद हंसी) करने वाले, डमरकर-लड़ाई-झगड़ा करने वाले, चाटुकर-प्रिय वचन बोलने वाले, वादकर-वाद करने वाले, कन्दर्पकर-कौतूहल करने वाले, दवकर-परिहास (सुखद हंसी) करने वाले, भाण्डचेष्टा करने वाले अर्थात् मसखरे, कीर्तिकर-कीर्ति करने वाले, ये सब लोग कविता आदि पढ़ते हुए, गीतादि गाते हुए, हंसते हुए, नाचते हुए, बोलते हुए और भविष्यसम्बन्धी बातें करते हुए, अथवा राजा आदि का अनिष्ट करने वालों को बुरा भला कहते हुए, राजा आदि की रक्षा करते हुए, उन का अवलोकन-देखभाल करते हुए, "महाराज की जय हो, महाराज की जय हो" इस प्रकार शब्द बोलते हुए यथाक्रम चम्पानरेश कूणिक की सवारी के आगे-आगे चल रहे थे। इस के अतिरिक्त नाना प्रकार की वेशभूषा और शस्त्रादि से सुसज्जित नानाविध हाथी और घोड़े दर्शन-यात्रा की शोभा को चार चांद लगा रहे थे। __वक्षःस्थल पर बहुत से सुन्दर हारों को धारण करने वाले, कुण्डलों से उद्दीप्तप्रकाशमान मुख वाले, सिर पर मुकुट धारण करने वाले, अत्यधिक राजतेज की लक्ष्मी से दीप्यमान अर्थात् चमकते हुए चम्पानरेश कूणिक पूर्णभद्र नामक उद्यान की ओर प्रस्थित हुए। जिन के ऊपर छत्र किया हुआ था तथा दोनों ओर जिन पर चमर दुलाए जा रहे थे एवं चतुरङ्गिणी सेना जिन का मार्गप्रदर्शन कर रही थी। तथा सर्वप्रकार की ऋद्धि से युक्त, समस्त द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [851 Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभरणादिरूप लक्ष्मी से युक्त, सर्वप्रकार की द्युति-सकल वस्त्राभूषणादि की प्रभा से युक्त, . सर्व प्रकार के बल-सैन्य से युक्त, सर्वप्रकार के समुदाय-नागरिकों के और राजपरिवार के समुदाय से युक्त, सर्व प्रकार के आदर-उचित कार्यों के सम्पादन से युक्त, सर्व प्रकार की विभूति-ऐश्वर्य से युक्त, सर्वप्रकार की विभूषा-वेषादिजन्य शोभा से युक्त, सर्वप्रकार के संभ्रम-भक्तिजन्य उत्सुकता से युक्त, सर्वपुष्पों, गन्धों-सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारोंभूषणों से युक्त, इसी प्रकार 'महान् ऋद्धि आदि से युक्त चम्पानरेश कूणिक शंख, पटह आदि अनेकविध वादित्रों-बाजों के साथ महान् समारोह के साथ चम्पानगरी के मध्य में से हो कर निकले। इन के सन्मुख दासपुरुषों ने श्रृंगार-झारी उठा रखी थी, इन्हें उपलक्ष्य कर के दासपुरुषों ने पंखा उठा रखा था, इन के ऊपर श्वेत छत्र किया हुआ था तथा इन के ऊपर छोटेछोटे चमर ढुलाए जा रहे थे। . जब चम्पानरेश चम्पानगरी के मध्य में से हो कर निकल रहे थे तब बहुत से अर्थार्थीधन की कामना रखने वाले, भोगार्थी-भोग (मनोज्ञ गन्ध, रस और स्पर्श) की कामना करने वाले, किल्विषिक-दूसरों की नकल करने वाले नकलिए, कारोटिक-भिक्षुविशेष अथवा पानदान को उठाने वाले, लाभार्थी-धनादि के लाभ की इच्छा रखने वाले, कारवाहिक - महसूल से पीड़ित हुए, शंखिक-चन्दन से युक्त शंखों को हाथों में लिए हुए, चक्रिक-चक्राकार शस्त्र को धारण करने वाले, अथवा कुम्भकार-कुम्हार और तैलिक-तेली आदि, नङ्गलिककिसान, मुखमाङ्गलिक-प्रिय वचन बोलने वाले, वर्धमान-स्कन्धों पर उठाए पुरुष; पुष्यमानवस्तुतिपाठक, छात्रसमुदाय ये सब इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोऽम, मनोअभिराम और हृदयगमनीय वचनों द्वारा, "-महाराज की जय हो, विजय हो-" इस प्रकार के सैंकड़ों मंगल वचनों के द्वारा निरन्तर अभिनन्दन-सराहना तथा स्तुति करते हुए इस प्रकार बोलते हैं हे समृद्धिशाली महाराज ! तुम्हारी जय हो, हे कल्याण करने वाले महाराज ! तुम्हारी विजय हो, आप फूलें और फलें। न जीते हुए शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें, जो जीते हुए हैं उन का पालन-पोषण करें और सदा जीते हुओं के मध्य में निवास करें। देवों में इन्द्र के समान, असुरों में चमरेन्द्र के समान, नागों में धरणेन्द्र के समान, ताराओं में चन्द्रमा के समान, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती के समान बहुत से वर्षों, बहुत से सैंकड़ों वर्षों, बहुत से हजार वर्षों, बहुत से लाखों वर्षों तक निर्दोष परिवार आदि से परिपूर्ण और अत्यन्त 1. प्रस्तुत में सब प्रकार की ऋद्धि से युक्त आदि विशेषण ऊपर दिए ही जा चुके हैं। फिर महान् ऋद्धि से युक्त आदि विशेषणों की क्या आवश्यकता है ? यह प्रश्न उपस्थित होता है। इस का उत्तर प्रथम श्रुतस्कंध के . नवम अध्याय के टिप्पण में दिया जा चुका है। 2. इष्ट, कान्त, प्रिय आदि पदों की व्याख्या भी पीछे नवम अध्याय में की जा चुकी है। . 852 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्न रहते हुए आप उत्कृष्ट आयु का उपभोग करें, इष्ट जनों से सम्परिवृत होते हुए चम्पानग़री का तथा अन्य बहुत से ग्रामों-गावों, आकरों-खानों, नगरों-शहरों, खेटों (जिस का कोट मिट्टी का बना हुआ हो उसे खेट कहते हैं), कर्वटों-छोटी बस्ती के स्थानों, मडम्बोंभिन्न-भिन्न बस्ती वाले स्थानों, द्रोणमुखों-जल और स्थल के मार्ग से युक्त नगरों, पत्तनोंकेवल जल के अथवा स्थल के मार्ग वाले नगरों, आश्रमों-तापस आदि के स्थानों, निगमोंव्यापारियों के नगरों, संवाहों-दुर्गविशेषों जहां किसान लोग सुरक्षा के लिए धान्यादि रखते हैं, सन्निवेशों-नगर के बाहर के प्रदेशों, जहां आभीर-दूध बेचने वाले लोग रहते हैं अथवा यात्रियों के पड़ाव, इन सब का आधिपत्य अग्रेसरत्व, भर्तृत्व, स्वामित्व, महत्तरकत्व, आज्ञेश्वरसैनापत्य कराते हुए अथवा स्वयं करते हुए आप बहुत से नाटकों, गीतों, वादित्रों, वीणाओं, तालियों और मेघ जैसी आवाज करने वाले तथा चतुर पुरुषों के द्वारा बजाए गए मृदङ्गों के शब्दों के साथ विशाल भोगों का उपभोग करते हुए विहरण करें-इस प्रकार से कहने के साथ-साथ "-आप की जय हो, विजय हो-" ऐसे शब्द बोलते थे। ___ इस के अनन्तर हजारों नेत्रमालाओं-नयनपंक्तियों के द्वारा अवलोकित, हजारों हृदयमालाओं के द्वारा अभिनन्दित-प्रशंसित, हजारों मनोरथमालाओं के द्वारा अभिलषित, हजारों वचनमालाओं के द्वारा अभिस्तुत आप कान्ति और सौभाग्य रूप गुणों को प्राप्त करें। इस भाँति प्रार्थित हजारों नरनारियों की हजारों अंजलिमालाओं को दाहिने हाथ से स्वीकार करते हुए, अति मनोहर वचनों के द्वारा नागरिकों से क्षेम कुशल आदि पूछते हुए, हजारों भवनपंक्तियों को लांघते हुए श्रेणिकपुत्र चम्पानरेश कूणिक चम्पानगरी के मध्य में से निकलते हुए जहां पर पूर्णभद्र उद्यान था, वहां पर आए, आकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के थोड़ी दूर रहने पर छत्रादिरूप तीर्थंकरों के अतिशय (तीर्थंकरनामकर्मजन्य विशेषताएं) देख कर * प्रधान हाथी को ठहरा कर नीचे उतरते हैं और १-खड्ग-तलवार, २-छत्र, ३-मुकुट, ४-उपानत्-जूता, तथा ५-चमर, इन पांच राजचिन्हों को छोड़ते हैं, तथा जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पर पांच प्रकार के अभिगमों के द्वारा उन के सन्मुख उपस्थित होते हैं। तदनन्तर भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना तथा नमस्कार करते हैं, तदनन्तर कायिक, वाचिक और मानसिक उपासना के द्वारा भगवान् महावीर स्वामी की पर्युपासना-भक्ति करते हैं। यह है चम्पानरेश कूणिक का दर्शनयात्रावृत्तान्त जो कि श्री 1. आधिपत्य आदि शब्दों का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंध के तृतीयाध्याय में लिखा जा चुका है। 2. पांच अभिगमों का तथा (3) तीन उपासनाओं का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथमाध्याय में लिखा जा चुका है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [853 Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सूत्र में बड़े विस्तार के साथ वर्णित हुआ है। प्रस्तुत में इतनी ही भिन्नता है कि वहां हस्तिशीर्षनरेश महाराज अदीनशत्रु पुष्पकरण्डक उद्यान में जाते हैं। नगर, राजा, रानी तथा उद्यानगत भिन्नता के अतिरिक्त अवशिष्ट प्रभुवीरदर्शनयात्रा का वृत्तान्त समान है अर्थात् श्री औपपातिक सूत्र में चम्पानगरी, श्रेणिकपुत्र महाराज कूणिक, सुभद्राप्रमुख रानियाँ और पूर्णभद्र उद्यान का वर्णन है, जबकि सुबाहुकुमार के इस अध्ययन में हस्तिशीर्ष नगर, महाराज अदीनशत्रु, धारिणीप्रमुख रानियां और पुष्पकरण्डक उद्यान का उल्लेख है। . तथा "-सुबाहू वि जहा जमाली तहा रहेणं णिग्गए जाव-" इस का तात्पर्य वृत्तिकार के शब्दों में "-येन भगवतीवर्णितप्रकारेण जमाली भगवद्भागिनेयो भगवद्वन्दनाय रथेन निर्गतः, अयमपि तेनैव प्रकारेण निर्गत इति, इह यावत्करणादिदं दृश्य-समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्ताइच्छत्तं पडागाइपडागं विजाचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे य पासइ, पासित्ता रहाओ पच्चोरुहइ पच्चारुहित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ-" इत्यादि, इस प्रकार है। अर्थात्-भगवान् के भागिनेय-भानजा जमालि का भगवान् को वन्दना करने के लिए चार घंटों वाले रथ पर सवार हो कर जाने का जैसा वर्णन भगवती सूत्र में किया गया है, ठीक उसी तरह सुबाहुकुमार भी चार घंटों वाले रथ पर सवार हो कर भगवद्वन्दनार्थ नगर से निकला। इस अर्थ के परिचायक-सुबाहू वि जहा जमाली तहा रहेणं णिग्गए-ये शब्द हैं और जाव-यावत् शब्द-श्रमण भगवान् महावीर के छत्र के ऊपर के छत्र को, पताका के ऊपर की पताकाओं को देख कर विद्याचारण और जूंभक देवों को ऊपर-नीचे जाते-आते देख कर रथ से नीचे उतरा और उतर कर भगवान् को भावपूर्वक वन्दना नमस्कार किया, इत्यादि भावों का परिचायक है। तात्पर्य यह है कि भगवद्वन्दनार्थ सुबाहुकुमार उसी भाँति गया जिस तरह जमालि गया था। जमालि के जाने का सविस्तार वर्णन भगवती सूत्र (शतक 9, उद्दे० 33, सू० 383) में किया गया है, परन्तु प्रकरणानुसारी जमालि का संक्षिप्त जीवनपरिचय निनोक्त है ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के पश्चिम में क्षत्रियकुण्डग्राम एक नगर था। वह नगर नगरोचित सभी ऋद्धि, समृद्धि आदि गुणों से परिपूर्ण था। उस नगर में जमालि नामक क्षत्रियकुमार रहता था। वह धनी, दीप्त-तेजस्वी यावत् किसी से पराभव को प्राप्त न होने वाला था। एक दिन वह अपने उत्तम महल के ऊपर जिस में मृदंग बज रहे थे, बैठा हुआ था। सुन्दर युवतियों के द्वारा आयोजित बत्तीस प्रकार के नाटकों द्वारा उस का नर्तन कराया जा रहा था अर्थात् वह नचाया जा रहा था, उस की स्तुति की जा रही थी, उसे अत्यन्त प्रसन्न किया . 854 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा रहा था, अपने वैभव के अनुसार प्रावृट्', वर्षा, शरद्, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म इन छ: ऋतुओं के सुख का अनुभव करता हुआ, समय व्यतीत करता हुआ, मनुष्य सम्बन्धी पांच प्रकार के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध रूप कामभोगों का अनुभव कर रहा था। इधर क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के रेशृंङ्गाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख-चार द्वारों वाला प्रासाद अथवा देवकुलादि, महापथ और अपथ इन सब स्थानों पर महान् जनशब्दपरस्पर आलापादि रूप, जनव्यूह-जनसमूह, जनबोल-मनुष्यों की ध्वनि, अव्यक्त शब्द, जनकलकल-मनुष्यों के कलकल-व्यक्त शब्द, जनोर्मि-लोगों की भीड़, जनोत्कलिकामनुष्यों का छोटा समुदाय, जनसन्निपात (दूसरे स्थानों से आकर लोगों का एक स्थान पर एकत्रित होना) हो रहे थे, और बहुत से लोग एक-दूसरे को सामान्यरूप से कह रहे थे कि भद्रपुरुषो! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जो कि धर्म की आदि करने वाले हैं, यावत् सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी हैं, ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के बाहर बहुशालक नामक उद्यान में यथाकल्पकल्प के अनुसार विराजमान हो रहे हैं। हे भद्रपुरुषो ! जिन तथारूप-महाफल को उत्पन्न करने के स्वभाव वाले, अरिहन्तों भगवन्तों के नाम और गोत्र के सुनने से भी महाफल की प्राप्ति होती है, तब उन के अभिगमनसन्मुख गमन, वन्दन-स्तुति, नमस्कार, प्रतिप्रच्छन-शरीरादि की सुखसाता पूछना और पर्युपासनासेवा से तो कहना ही क्या ! अर्थात् अभिगमनादि का फल कल्पना की परिधि से बाहर है। इसके अतिरिक्त जब एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन के श्रवण से महान फल होता है, तब विशाल अर्थ के ग्रहण करने से तो कहना ही क्या ! अर्थात् उस का वर्णन करना शक्य नहीं है। इसलिए हे. भद्रपुरुषो ! चलो, हम सब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की स्तुति करें, उन्हें नमस्कार तथा उन का सत्कार एवं सम्मान करें। भगवान् कल्याण करने वाले हैं, मंगल करने वाले हैं, आराध्यदेव हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, अतः इन की सेवा करें। भगवान् को की हुई वन्दना आदि हमारे लिए परलोक और इस लोक में हितकारी, सुखकारी, क्षेमकारी, मोक्षप्रद होने के साथ-साथ सदा के लिए जीवन को सुखी बनाने वाली होगी। इस प्रकार बातें करते हुए बहुत से उग्र-प्राचीन काल के क्षत्रियों की एक जाति जिस की भगवान् श्री ऋषभदेव ने आरक्षक पद पर नियुक्ति की थी, उग्रपुत्र-उग्रक्षत्रियकुमार, भोग-श्री ऋषभदेव प्रभु द्वारा गुरुस्थान पर स्थापित कुल, भोगपुत्र, राजन्य-भगवान श्री ऋषभ प्रभु द्वारा मित्रस्थान पर स्थापित वंश, राजन्यपुत्र, क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणपुत्र, भट-शूरवीर, भटपुत्र,योधा-सैनिक, योधपुत्र, 1. प्रावृट् आदि शब्दों का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंध के नवमाध्याय में लिख दिया गया है। 2. शृंगाटक आदि शब्दों का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथमाध्याय में लिखा जा चुका है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [855 Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशास्ता-धर्मशास्त्र के पढ़ने या पढ़ाने वाला, प्रशास्त्रपुत्र, मल्लकी-नृपविशेष, मल्लकिपुत्र, लेच्छकि-नृपविशेष, लेच्छकिपुत्र, इन सब के अतिरिक्त और बहुत से राजा, ईश्वर-युवराज, तलवर-परितुष्ट राजा से दिए गए पट्टबन्ध से विभूषित नृप, माडम्बिक-मडम्ब (जिस के चारों ओर एक योजन तक कोई ग्राम न हो) का स्वामी, कौटुम्बिक-कई एक कुटुम्बों का स्वामी, इभ्य-बहुत धनी, श्रेष्ठी-सेठ, सेनापति-सेनानायक; सार्थवाह-संघनायक आदि इन में कई एक भगवान् को वन्दना करने के लिए, कई एक पूजन-आदर, सत्कार, सम्मान, दर्शन, कौतुहल के लिए, कई एक पदार्थों का निर्णय करने के लिए, कई एक अश्रुत पदार्थों के श्रवण और श्रुत के सन्देहापहार के लिए, कई एक जीवादि पदार्थों को अन्वयव्यतिरेकयुक्त हेतुओं, कारणों, व्याकरणों अर्थात् दूसरे के प्रश्नों के उत्तरों को पूछने के लिए, कई एक दीक्षित होने के लिए, कई एक श्रावक के 12 व्रत धारण करने के लिए, कई एक तीर्थंकरों की भक्ति के अनुराग से, कई एक अपनी कुलपरम्परा के कारण वहां जाने के लिए स्नानादि कार्यों से निवृत्त हो तथा अनेकानेक वस्त्राभूषणों से विभूषित हो, कई एक घोड़ों पर सवार हो कर, इसी भाँति कई एक हाथी, रथ, शिविका-पालकी पर सवार हो कर तथा कई एक पैदल ही इस प्रकार उग्रादि पुरुषों के झुण्ड के झुण्ड नाना प्रकार के शब्द तथा अत्यधिक कोलाहल करते हुए क्षत्रिय-कुण्डग्राम नामक नगर के मध्य में से निकलते हैं, निकल कर जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर था और जहां बहुशालक नामक उद्यान था, वहां पहुंचे और भगवान् के छत्रादि रूप अतिशयों को देख कर अपने-अपने वाहन से नीचे उतरे और भगवान् के चरणों में उपस्थित हुए, वहां वन्दना, नमस्कार करने के पश्चात् यथास्थान बैठ कर भगवान् की पर्युपासना करने लगे। अपने महल में आनन्दोपभोग करते हुए जमालि ने जब यह कोलाहलमय वातावरण जाना तब उस के हृदय में यह इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि आज क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में क्या इन्द्र का महोत्सव है अथवा स्कन्द-कार्तिकेय, मुकुन्द-वासुदेव अथवा बलदेव, नाग, यक्ष, भूत, कूप, तडाग, नदी, ह्रद, पर्वत, वृक्ष, चैत्य अथवा स्तूप का महोत्सव है जो ये बहुत से उग्रवंशीय, भोगवंशीय आदि लोग स्नान, वस्त्राभूषणादि द्वारा विभूषा किए हुए तथा नाना प्रकार के वाहनों पर आरूढ़ हुए एवं अनेकानेक शब्द बोलते हुए क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर के मध्य में से निकल रहे हैं। इस प्रकार विचार कर उस ने द्वारपाल को बुलाया और उससे पूछा कि हे भद्र पुरुष ! आज क्या बात है जो अपने नगर में यह बड़ा कोलाहल हो रहा है ? क्या आज कोई उत्सव है ? जमालि के इस प्रश्न के उत्तर में वह बोला कि महाराज! उत्सवविशेष तो कोई नहीं है किन्तु नगर के बाहर बहुशालक नामक उद्यान में श्री श्रमण 856 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर स्वामी पधारे हुए हैं। ये लोग उन्हीं के चरणों में अपनी-अपनी भावना के अनुसार उपस्थित होने के लिए जा रहे हैं। द्वारपाल की इस बात को सुन कर जमालि पुलकित हो उठा और उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर उन्हें चार घण्टों वाले अश्वयुक्त रथ को शीघ्रातिशीघ्र तैयार करके अपने पास उपस्थित कर देने की आज्ञा दी। कौटुम्बिक पुरुषों ने जमालि की इस आज्ञा के अनुसार रथ को शीघ्रातिशीघ्र तैयार कर उस के पास उपस्थित कर दिया। ___तदनन्तर जमालि कुमार स्नानादि से निवृत्त हो तथा वस्त्राभूषणादि से विभूषित हो कर, जहां रथ तैयार खड़ा था, वहां पहुँचा, वहां पहुँच कर वह चार घण्टों वाले अश्वयुक्त रथ पर चढ़ा तथा सिर के ऊपर धारण किए गए कोरण्ट पुष्पों की माला वाला, छत्रों सहित, महान् योद्धाओं के समूह से परिवृत वह जमालि क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर के मध्य भाग में से होता हुआ बाहर निकला, निकल कर जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर का बहुशालक नामक उद्यान था वहां आया, आकर रथ से नीचे उतरा तथा पुष्प, ताम्बूल, आयुध-शस्त्र तथा उपानत् को छोड़ कर एक वस्त्र से उत्तरासन कर और मुखादि की शुद्धि कर, दोनों हाथों को जोड़ मस्तक पर अंजलि रख कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां आया, आकर उसने श्री वीर प्रभु को तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणा की तथा कायिक', वाचिक एवं मानसिक पर्युपासना द्वारा भगवान् की सेवा भक्ति करने लगा-यह है जमालि कुमार का वीरदर्शनयात्रावृत्तान्त, जिस की सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के वीरदर्शनयात्रावृत्तान्त से तुलना की है। जमालि और सुबाहुकुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त में अधिक साम्य होने के कारण ही सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त को बताने के लिए जमालि कुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त की ओर संकेत कर दिया है। अन्तर मात्र नामों का है। जैसे जमालि क्षत्रियकुण्डग्राम नगर का निवासी था जबकि सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर का। इसी भाँति जमालि कुमार ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बहुशालक उद्यान में भगवान् महावीर के पधारने आदि का जनकोलाहल सुन कर वहां गया था जबकि श्री सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यान में प्रभु के पधारने आदि का जनकोलाहल सुन कर गया था। सारांश यह है कि नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। "सदहामिणं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव"-इस पाठ में दिए गए जाव-यावत् इस पद से-पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं एवं रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, 1. कायिक आदि त्रिविध पर्युपासना का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथमाध्याय में टिप्पणी में किया गया है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [857 Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुटेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! जणं तब्भे वदह त्ति कट्ट एवं वयासी-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। सद्दहामि णं भंते ! इत्यादि पदों का शब्दार्थ निनोक्त है हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा रखता हूं। हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रीति-स्नेह रखता हूँ। हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन मुझे अच्छा लगता है। हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन को मैं स्वीकार करता हूं। हे भगवन् ! जैसा आप ने कहा है, वैसा ही है। हे भगवन् ! आप का प्रवचन जैसी वस्तु है उसी के अनुसार है। हे भगवन् ! आप का प्रवचन सत्य है। भगवन् ! आप का प्रवचन सन्देहरहित है। हे भगवन् ! आप का प्रवचन इष्ट है। भगवन् ! आप का प्रवचन बारम्बार इष्ट है / हे भगवन् ! आप जो कहते हैं वह इष्ट तथा अत्यधिक इष्ट हैइस प्रकार कह कर सुबाहुकुमार फिर बोले। -राईसर जाव प्पभिइओ-यहां पठित जाव-यावत् पद से-तलवरमाडंबियकोडुंबि- . . यसेट्ठिसेणावइसत्थवाह-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। राजा प्रजापति को कहते हैं। सेना के नायक का नाम सेनापति है। अवशिष्ट ईश्वर आदि पदों का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंधीय द्वितीयाध्याय में लिखा जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में हस्तिशीर्ष नगर के बाहर पुष्पकरण्डक उद्यान में भगवान् महावीर स्वामी का पधारना, उन के दर्शनार्थ जनता तथा अदीनशत्रु आदि का आना और उन के चरणों में उपस्थित हो कर सुबाहुकुमार का देशविरति-श्रावकधर्म को अंगीकार करना आदि बातों का उल्लेख किया गया है। अब सूत्रकार अग्रिम सूत्र में सुबाहुकुमार के रूप-लावण्य से विस्मय को प्राप्त हुए भगवान् के प्रधान शिष्य श्री गौतम स्वामी की जिज्ञासा के विषय में प्रतिपादन करते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं जेढे अंतेवासी इंदभूई जाव एवं वयासी-अहो णं भंते ! सुबाहुकुमारे इढे इट्ठरूवे कंते कंतरूवे पिए पियरूवे मणुण्णे मणुण्णरूवे मणामे मणामरूवे सोमे सुभगे पियदंसणे सुरूवे।बहुजणस्स वि य णं भंते ! सुबाहुकुमारे इढे जाव सुरूवे। साहुजणस्स वि य णं भंते ! सुबाहुकुमारे इढे जाव सुरूवे।सुबाहुणा भंते ! कुमारेणं इमा इमारूवा उराला माणुसरिद्धी किण्णा लद्धा ? किण्णा पत्ता ? किण्णा अभिसमन्नागया ? को वा एस आसी पुव्वभवे ? जाव समन्नागया ? " 858 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूतिर्यावदेवमवादीत्अहो भदन्त ? सुबाहुकुमार इष्ट इष्टरूपः कान्तः कान्तरूपः प्रियः प्रियरूपः मनोज्ञः मनोज्ञरूपः मनोमः मनोमरूपः सोमः सुभगः प्रियदर्शनः। बहुजनस्यापि च भदन्त ! सुबाहुकुमार इष्टो यावत् सुरूपः। साधुजनस्यापि च भदन्त ! सुबाहुकुमार इष्ट इष्टरूपः यावत् सुरूपः। सुबाहुना भदन्त ! कुमारेणेयमेतद्पा मानुषर्द्धिः केन लब्धा ? केन प्राप्ता ? केनाभिसमन्वागता? को वा एष आसीत् पूर्वभवे ? यावत् समन्वागता? * पदार्थ-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में। जेद्वे-ज्येष्ठ-प्रधान। अंतेवासी-शिष्य। इंदभूई-इन्द्रभूति। जाव-यावत्। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगे। अहो !अहो-आश्चर्य है। णं-वाक्यालंकार में है। भंते ! हे भगवन् ! सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार। इ8-इष्ट। इट्ठरूवे-इष्टरूप। कन्ते-कान्त / कन्तरूवे-कान्तरूप। पिए-प्रिय। पियरूवे-प्रियरूप। मणुण्णे-मनोज्ञ / मणुण्णरूवे-मनोज्ञरूप। मणामे-मनोम। मणामरूवे-मनोमरूप। सोमे-सोम-सौम्य। सुभगे-सुभग। पियदंसणे-प्रियदर्शन, और। सुरूवे-सुरूप है। भंते!-हे भगवन् ! बहुजणस्स वि य णं-और बहुत से जनों को भी। सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार। इढे जाव-इष्ट यावत्। सुरूवे-सुरूप है। भंते !-हे भगवन् ! साहुजणस्स वि य णं-साधुजनों को भी। सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार। इ8-इष्ट। इट्ठरूवे-इष्टरूप। जाव-यावत्। सुरूवे-सुरूप है। सुबाहुणा-सुबाहु / कुमारेणं-कुमार ने। भंते !-हे भगवन् ! इमा-यह। एयारूवा-इस प्रकार की। उराला-उदार-प्रधान। माणुसरिद्धी-मानवी ऋद्धि। किण्णा-कैसे। लद्धा?उपलब्ध की ? किण्णा-कैसे। पत्ता ?-प्राप्त की ? और। किण्णा-कैसे। अभिसमण्णागया ?समुपस्थित हुई ? को वा-और कौन। एस-यह। पुव्वभवे-पूर्वभव में। आसि-था। जाव-यावत् / समन्नागया-मानव ऋद्धि समुपस्थित हुई। मूलार्थ-उस काल तथा उस समय भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम . अनगार यावत् इस प्रकार कहने लगे-अहो ! भगवन् ! सुबाहुकुमार बालक बड़ा ही इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप-सुन्दर रूप वाला है। भगवन् ! यह सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट, इष्टरूप यावत् सुरूप लगता है। भदन्त ! सुबाहुकुमार ने यह अपूर्व मानवी ऋद्धि कैसे उपलब्ध की ? कैसे प्राप्त की ? और कैसे उस के सम्मुख उपस्थित हुई ? और यह पूर्वभव में कौन था? यावत् समृद्धि जिस के सन्मुख उपस्थित हो रही है ? ____टीका-भगवान् के समवसरण-व्याख्यानसभा में अनेकानेक परमपूज्य साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाएं उपस्थित थीं। सुबाहुकुमार के वार्तालाप के समय भी उन में से अनेकों वहां विद्यमान होंगे। सुबाहुकुमार के सौम्य स्वभाव और आकर्षक मुद्रा को देख कर कौन जाने द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [859 Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस-किस के हृदय में किस-किस प्रकार की भावनाएं उत्पन्न हुई होंगी? उन सभी का उल्लेख यहां पर नहीं किया गया, परन्तु भगवान् के प्रधान शिष्य श्री इन्द्रभूति जो कि गौतम के नाम से प्रसिद्ध हैं, को वहां बैठे-बैठे जो विचार आए उन का वर्णन यहां पर किया गया है। सुबाहुकुमार की रूपलावण्यपूर्ण भद्र और मनोहर आकृति तथा सौम्य स्वभाव एवं मृदु वाणी आदि को देख कर गौतम स्वामी विचारने लगे कि सुबाहुकुमार ने ऐसा कौन सा पुण्य किया है, जिस के प्रभाव से इस को इस तरह की लोकोत्तर मानवी ऋद्धि संप्राप्त हुई है ? इसके अतिरिक्त इस की सुदृढ़ धार्मिक भावना और चारित्रनिष्ठा की अभिरुचि तो इस को और भी पुण्यशाली सूचित कर रही है। उस में एक साथ इतनी विशेषताएं बिना कारण नहीं आ सकतींइत्यादि मनोगत विचारपरम्परा से प्रेरित हुए गौतम स्वामी ने इस विषय की जिज्ञासा को भगवान् के पास व्यक्त करने का विचार किया और भगवान् से सुबाहुकुमार में एक साथ उपलब्ध होने वाली विशेषताओं का मूलकारण जानना चाहा। अन्त में वे भगवान् से बोलेप्रभो ! सुबाहुकुमार इष्ट है, इष्ट रूप वाला है, कान्त है, कान्त रूप वाला है, प्रिय है, प्रिय रूप वाला है, मनोज्ञ है, मनोज्ञ रूप वाला है, मनोम है, मनोम रूप वाला है, सौम्य है, सुभग है, प्रियदर्शन और सुरूप है। भगवन् ! सुबाहुकुमार को यह मनुष्य-ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई ? यह पूर्वभव में कौन था? इस का नाम क्या था? गोत्र क्या था ? इस ने क्या दान दिया था ? कौन सा भोजन खाया था ? क्या आचरण किया था ? किस वीतरागी पुरुष की वाणी को सुन कर इस के जीवन का निर्माण हुआ था ? इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सोम, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप इन की व्यापकता के लिए मूल में बहुजन और साधुजन ये दो पद दिए हैं। इस तरह उक्त इष्ट आदि 14 पदों का इन दो के साथ पृथक्-पृथक् सम्बन्ध करने से बहुजन इष्ट, बहुजन इष्टरूप, बहुजन कान्त, बहुजन कान्तरूप-इत्यादि तथा-साधुजन इष्ट, साधुजन इष्टरूप, साधुजन कान्त, साधुजन कान्तरूप इत्यादि सब मिला कर 28 भेद होते हैं, इन सब का अर्थ सम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है जिस का प्रत्येक व्यापार या व्यवहार अनुकूल हो वह इष्ट होता है, सुबाहुकुमार का व्यावहारिक जीवन सब को प्रिय होने के नाते वह बहुजनइष्ट कहलाया और उस का (सुबाहुकुमार का) धार्मिक जीवन साधुओं को अनुकूल होने के कारण वह साधुजनइष्ट बना। जिसे जिस से स्वार्थ होता है अथवा जिस की जिस के प्रति आसक्ति होती है उसे उस का रूप इष्ट प्रतीत होता है, परन्तु सुबाहुकुमार का रूप ऐसा इष्ट नहीं था, इस बात को विस्पष्ट . करने के लिए ही यहां साधुजन शब्द का प्रयोग किया गया है। अर्थात् सुबाहुकुमार का रूप 860 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुजनों को भी इष्ट था। साधुजन न तो स्वार्थपरायण होते हैं और न ही आसक्तिप्रिय। फिर भी उन्हें जो रूप इष्ट प्रतीत होता है वह कुछ साधारण नहीं अपितु अलौकिक होता है। उस की इष्टता कुछ विभिन्न ही होती है। गौतम स्वामी ने सुबाहुकुमार के रूप को जो इष्ट बताया है, उस का आशय यह है कि जो रूप दूसरों को कल्याणमार्ग में इष्ट प्रतीत हो और जिसे देख कर दर्शक की कल्याणमार्ग की ओर प्रवृत्ति बढ़े, वह रूप इष्ट है। जिस रूप पर दृष्टिपात होते ही पाप कांप उठता है या प्रस्थान कर जाता है और अन्तरंग में दबी हुई विशुद्ध धर्मभावना खिल उठती है, वह रूप इष्टकारी है। इस बात की पुष्टि के लिए पाठकों को अपने पूर्वजों के जीवनवृत्तान्त पर दृष्टिपातं करना होगा। एक ओर वल्कलवस्त्रधारी महाराज राम हों और दूसरी ओर अनेक उत्तमोत्तम बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित रावण हो, तब इन दोनों में किस का रूप इष्ट है? सोचिए और विचार कीजिए कि राम का रूप इष्ट है या रावण का ? विचारक की दृष्टि में राम का रूप ही इष्ट हो सकता है, कारण कि उस में नैतिक और आध्यात्मिक सौन्दर्य है। उस की अपेक्षा रावण के कृत्रिम शारीरिक सौन्दर्य या विभूषा का कुछ भी मूल्य नहीं है। इसी दृष्टि से गौतम स्वामी सुबाहुकुमार के रूप को इष्ट, कान्त और मनोज्ञ शब्दों से विशेषित कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो-बहुजनसमाज को जो प्रिय लगता है, वह इष्ट कहलाता है-यह कह सकते हैं / जिस का रूप देख कर जनसमाज-यह मेरा है-यह मेरा है-कह उठे, पुकार उठे वह इष्टरूप है। इष्टकारी रूप नीतिज्ञता, सुशीलता और धार्मिकता पर निर्भर रहा करता है। जो व्यक्ति जितना नीतिज्ञ, सुशील और धर्मनिष्ठ होगा उस का रूप उतना ही इष्टकारी होता है। इस के विपरीत जिस व्यक्ति के देखने से दर्शक के हृदय में पाप वासनाओं का प्रादुर्भाव हो वह देखने में भले ही सुन्दर मालूम दे परन्तु वह इष्ट या कांतरूप नहीं कहा जा सकता है। . इष्ट और कान्त में क्या अन्तर है ? इसे भी समझ लेना चाहिए। कोई वस्तु इष्टकारी तो होती है परन्तु वह किसी के लिए इच्छा करने योग्य नहीं भी होती, अथवा देशकाल के अनुसार कमनीय है मगर कभी-कभी कमनीय नहीं भी रहती। इसे उदाहरण से समझिए घी और दूध को लें। घी और दूध इष्टकारी माना जाता है, परन्तु पर्याप्त भोजन कर लेने के पश्चात् क्या कोई उस को चाहता है नहीं। उस समय घी, दूध कमनीय नहीं रहता, क्योंकि उस में रुचि का अभाव होता है, उस में रुचि नहीं होती। यह दोष श्री सुबाहुकुमार में नहीं था। वह कभी अरुचिजनक रूप वाला नहीं होता। उस का रूप सदैव आल्हादजनक रहता है। अतः सुबाहुकुमार इष्ट, इष्टरूप, कान्त और कान्त रूप वाला कहा गया है, अर्थात् वह इष्टकारी होने के साथ-साथ सदा कमनीय भी है। इस से इष्ट और कान्त में जो विभिन्नता है, द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [861 Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह स्पष्ट हो जाती है। ___ इष्ट रूप अनुकूल होता है और कान्त मनोहरता को लिए हए होता है। तथा प्रिय और प्रियरूप का हार्द यह है कि कोई वस्तु इष्ट और कान्त होने पर भी प्रीति के योग्य नहीं होती। उदाहरण के लिए-एक बर्तन में पके हुए आमों का रस और दूसरे में मूंगी की पकी हुई दाल है। क्षुधातुर व्यक्ति के सामने दोनों के उपस्थित किए जाने पर दोनों में भूख को शान्त करने की समान शक्ति होने पर भी वह आम रस को चाहेगा। इसी तरह संसार में इष्ट और कमनीय तो बहुत हैं या होंगे परन्तु मुद्गरूप और आम्ररस में जो अन्तर है वही अन्य सांसारिक मनुष्यों और सुबाहुकुमार में दृष्टिगोचर होता है। जहां अन्य लोगों का रूप किसी को भाता और किसी को नहीं भाता है वहां सुबाहुकुमार सब को प्रिय लगता है। इसी प्रकार मनोज्ञ और मनोज्ञरूप के विषय में भी निम्नलिखित विवेक है कई वस्तुएं ऐसी होती हैं, जिन से प्रीति तो होती है परन्तु वे मनोज्ञ नहीं होती अर्थात् उन से मन और इन्द्रियों को शान्ति नहीं मिलती। कोई भोज्य वस्तु ऐसी भी होती है जो इष्टकमनीय और प्रिय होने पर भी खाने के पश्चात् विकार उत्पन्न कर देने के कारण मनोज्ञ नहीं रहती। जैसे आमातिसार के रोगी को प्रिय होने पर भी आम का रस हानिप्रद होता है। ज्वर के रोगी को गरिष्ट भोजन स्वादिष्ट होने पर भी अहितकर होता है। सारांश यह है कि संसार में अनेक वस्तुएं हैं जो किसी के लिए मनोज्ञ और किसी के लिए अमनोज्ञ होती हैं। एक ही वस्तु मनोज्ञ होने पर भी सब के लिए मनोज्ञ नहीं होती, परन्तु सुबाहुकुमार इस त्रुटि से रहित है। उस का रूप तथा स्वयं वह सब के लिए मनोज्ञ है। तदनन्तर गौतम स्वामी ने सुबाहुकुमार को मनोम और मनोमरूप कहा है, अर्थात् सुबाहुकुमार लाभदायक और लाभदायक रूप वाला है। इस का तात्पर्य भी स्पष्ट है। कई वस्तु मनोज्ञ और पथ्य होने पर भी शक्तिप्रद नहीं होती। जिस वस्तु के सेवन से शरीरगत अस्थियोंहड्डियों को शक्ति मिले, वे मोटी हों, खून और चर्बी में पतलापन आवे वे उत्तम होती हैं। इस के विपरीत जो वस्तु शरीरगत अस्थियों-हड्डियों में पतलापन पैदा कर के, रुधिर आदि को गाढ़ा बनाती है वह अधर्म अर्थात् अनिष्टप्रद होती है। तात्पर्य यह है कि कोई वस्तु शरीर के किसी अंग को लाभ पहुंचाती है और किसी को हानि, परन्तु सुबाहुकुमार सभी को लाभ पहुंचाने वाला है, उस के यहां से कोई भी निराश हो कर नहीं लौटता, इसीलिए वह मनोम और मनोमरूप कहलाया। __ शीतल-सौम्य प्रकृति वाले को सोम कहते हैं। सोम नाम चन्द्रमा का भी है। जिस प्रकार उस की किरणें सब को प्रकाश और शीतलता पहुंचाती हैं, उसी प्रकार सुबाहुकुमार भी 862 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी गुणसम्पदा से सब को सन्तापरहित करने में समर्थ है। ... सौभाग्ययुक्त सुभग कहलाता है। जिस का रूप-आकृति सौभाग्य प्राप्ति का हेतु हो वह सुभगरूप है। चन्द्रमा देखने में प्रिय होता है, सब में शीतलता का संचार करता है परन्तु उस में सौभाग्यवर्धकता नहीं है। वह भूख के कष्ट को नहीं मिटा सकता, किन्तु सुबाहुकुमार में यह त्रुटि भी नहीं थी। वह सब के दुःखों को दूर करने में व्यस्त रहता है, इसलिए वह सुभगरूप है। ___ उत्तमोत्तम स्वादिष्ट भोजन करना, बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहनना और यथारुचि आमोदप्रमोद करना मात्र ही आकर्षक नहीं होता, उस के लिए तो प्रेम और अच्छे स्वभाव की भी आवश्यकता होती है। एतदर्थ ही सुबाहुकुमार के लिए प्रियदर्शन और सुरूप ये दो विशेषण दिए हैं। प्रेम का आदर्श उपस्थित करने वाली दिव्य मूर्ति का प्रियदर्शन के नाम से ग्रहण होता है और स्वभाव की सुन्दरता का सूचक सुरूप पद है। __भगवान् गौतम के कथन से स्पष्ट है कि श्री सुबाहुकुमार में उपरिलिखित सभी विशेषताएं विद्यमान थीं, वे उसे समस्त जनता का प्यारा कहते हैं। इतना ही नहीं किन्तु साधुजनों को भी प्रिय लगने वाला सुबाहुकुमार को बता रहे हैं। ___ जनता तो कदाचित् भय और स्वार्थ से भी प्यार कर सकती है परन्तु साधुओं को किस से भय ? और किस से स्वार्थ ? उन्हें किसी की झूठी प्रशंसा से क्या प्रयोजन ? गौतम स्वामी कहते हैं कि सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, सौम्य और प्रियदर्शन है। इस से प्रतीत होता है कि वास्तव में ही वह ऐसा था। जो निस्पृह आत्मा आरम्भ से दूर हैं, जिन का मन तृण, मिट्टी, मणि और कांचन के लिए समान भाव रखता है, जो कांचन, कामिनी के त्यागी हैं, जिन्होंने संसार के समस्त प्रलोभनों पर लात मार रखी है, उन्हें भी सुबाहुकुमार इष्ट, कान्त और मनोज्ञ प्रतीत होता है। इस से सुबाहुकुमार की विशिष्ट गुणगरिमा के प्रमाणित होने में कोई भी सन्देह बाकी नहीं रह जाता। "-इटे-" आदि पदों की व्याख्या श्री अभयदेवसूरि के शब्दों में निम्नोक्त है___ इष्यते स्मेति इष्टः (जो चाहा जाए, वह इष्ट होता है) स च कृतविवक्षितकार्यापेक्षयापि स्यादित्याह-इष्टरूपः-इष्टस्वरूप इत्यर्थः (किसी की चाह उस के विशेष कृत्य को उपलक्षित कर के भी हो सकती है, इस इष्टता के निवारणार्थ इष्टरूप यह विशेषण दिया गया है, अर्थात् उस की आकृति ही ऐसी थी जो इष्ट प्रतीत होती थी) इष्ट इष्टरूपो वा कारणवशादपि स्यादित्यत आह-कान्तः-कमनीय, कान्तरूप:-कमनीयरूपः,शोभन: शोभनस्वभावश्चेत्यर्थः (इष्टता और इष्टरूपता किसी कारणविशेष से भी हो सकती है, इस द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [863 Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपत्ति को दूर करने के लिए कान्त आदि पद दिए हैं, कान्त का अर्थ होता है-कामनीयसुन्दर और कान्तरूप का अर्थ है-सुन्दर स्वभाव वाला। सुबाहुकुमार की इष्टता में उस का सुन्दर स्वभाव ही कारण था) एवंविधोऽपि कश्चित् कर्मदोषात् परेषां प्रीतिं नोत्पादयेदित्यत आह-प्रियः-प्रेमोत्पादक;, प्रियरूप:-प्रीतिकारिस्वरूपः (सुन्दर स्वभाव होने पर भी कर्म के प्रभाव से कोई दूसरों में प्रीति उत्पन्न करने में असमर्थ रह सकता है, इस आशंका के निवारणार्थ प्रिय और प्रियरूप ये विशेषण दिए हैं। प्रेम का उत्पादक प्रिय और जिस का रूप प्रिय-प्रीति का उत्पादक हो उसे प्रियरूप कहते हैं) एवंविधश्च लोकरूढितोऽपि स्यादित्यत आह-मनोज्ञः-मनसाऽन्तः संवेदनेन शोभनतया ज्ञायत इति मनोज्ञः एवं मनोज्ञरूपः (कोईकोई लोगों के व्यवहार में प्रियरूप होता है और वास्तव में नहीं होता, इस आशंका के निवारणार्थ मनोज्ञादि का प्रयोग किया गया है। आन्तरिक वृत्ति से जिस की शोभनता अनुभव में आए वह मनोज्ञ, उस के रूप वाला मनोज्ञरूप कहलाता है) एवंविधश्चैकदापि स्यादित्यत आह"मणोमेति" मनसा अम्यते गम्यते पुनः पुनः संस्मरणतो यः स मनोमः, एवं मनोमरूपः (किसी की मनोज्ञता तात्कालिक हो सकती है, यह ऐसा सुबाहुकुमार के विषय में न समझ लिया जाए, एतदर्थ मनोम विशेषण दिया है, जिस की सुन्दरता का स्मरण पुनः पुन:-बारंबार किया जाए, वह मनोम और उसके रूप को मनोमरूप कहते हैं) एतदेव प्रपंचयन्नाह"सोमे"त्ति अरौद्रः सुभगो वल्लभः,"पियदंसणे"त्ति प्रेमजनकाकारः किमुक्तं भवति? "सुरूवे"त्ति शोभनाकारः सुस्वभावो वेति-(इस पूर्वोक्त सुन्दरता के विस्तार के लिए ही सोम इत्यादि पदों का संनिवेश किया गया है। रुद्रतारहित व्यक्ति सोम-सौम्य स्वभाव वाला होता है और वल्लभता वाला-इस अर्थ का सूचक सुभगशब्द है, प्रेम का जनक-उत्पादक आकार और उस आकार वाला प्रियदर्शन कहलाता है। सुन्दर आकार तथा सुन्दर स्वभाव वाले को सुरूप कहते हैं) एवंविधश्चैकजनापेक्षयापि स्यादित्यत आह-"बहुजणस्स य वि" इत्यादि (सुबाहुकुमार की सुन्दरता, प्रियता और मनोज्ञता आदि गुणसंहति-गुणसमूह एक व्यक्ति की अपेक्षा भी मानी जा सकती है, इस के निराकरण के लिए बहुजन विशेषण दिया है अर्थात् सुबाहुकुमार किसी एक व्यक्ति को ही प्रिय नहीं था किन्तु बहुत से लोगों को वह प्रिय था ) एवंविधश्च प्राकृतजनापेक्षयापि स्यादित्यत आह -“साहुजणस्स यावि" इत्यादि (अनेकों मनुष्यों की प्रियता का अर्थ प्राकृतपुरुषों-साधारण मनुष्यों तक ही सीमित हो, ऐसा भी हो सकता है। इसलिए सूत्रकार ने साधुजन विशेषण दे कर उस का निराकरण कर दिया है। तात्पर्य यह है कि सुबाहुकुमार केवल सामान्य जनता का ही प्रियभाजन नहीं था अपितु साधुजनों को भी वह प्यारा था। साधु शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं-१-विशिष्टप्रतिभाशाली 864 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति, २-मुनिजन-त्यागशील या यति लोग। प्रकृत में ये दोनों ही अर्थ सुसंगत हैं।) . सुबाहुकुमार की उक्त रूपविशिष्ट गुणसम्पदा से आकृष्ट हुए गौतम स्वामी उस के चले जाने के अनन्तर भगवान् महावीर से पूछते हैं कि भगवन् ! सुबाहुकुमार ने ऐसा कौन सा पुण्य उपार्जित किया है, जिस के फलस्वरूप इसे इस प्रकार की उदार मानवीय ऋद्धि की उपलब्धि-संप्राप्ति और समुपस्थिति हुई है ? गौतम स्वामी के प्रश्नों को टीकाकार के शब्दों में कहें तो-किण्णा लद्धा ? केन हेतुनोपार्जिता ? किण्णा पत्तेति ? केन हेतुना प्राप्ताउपार्जिता सती प्राप्तिमुपगता? किण्णा अभिसमन्नागया ?त्ति-प्राप्तापि सती केन हेतुना आभिमुख्येन सांगत्येन चोपार्जनस्य च पश्चात् भोग्यतामुपगतेति-अर्थात् किस कारण से इस ने उपार्जित की है, और किस हेतु से उपार्जित की हुई को प्राप्त किया है ? तथा उपार्जित और प्राप्त का उपभोग में आने का क्या कारण है ?-ऐसा कहा जा सकता है। मूल में - "लद्धा, पत्ता, अभिसमन्नागया"-ये तीन पद दिए हैं, जिन का संस्कृत प्रतिरूप-लब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्वागता-होता है। तब लब्धा, प्राप्ता और समन्वागता में जो अन्तर अर्थात् अर्थविभेद है, उस को समझ लेना भी आवश्यक है। इन की अर्थविभिन्नता को निनोक्त उदाहरण के द्वारा पाठक समझने का यत्न करें ___ कल्पना करो कि किसी मनुष्य को उस के काम के बदले राजा की तरफ से उसे पारितोषिक-इनाम के रूप में कुछ धन देने की आज्ञा हुई। द्रव्य देने वाले खजांची को भी आदेश कर दिया गया, पर अब तक वह पारितोषिक-इनाम उस को मिला नहीं। इस अवस्था में उस इनाम को लब्ध कहेंगे, अर्थात् इनाम देने की आज्ञा तक तो वह लब्ध है और उस के मिल जाने पर वह प्राप्त कहलाता है। यह तो हुआ लब्ध और प्राप्त का भेद। अब "समन्वागत" के अर्थविभेद को देखिए-लब्ध और प्राप्त हुए द्रव्य का उपभोग करना, उसे अपने व्यवहार में लाना अभिसमन्वागत कहलाता है। मानवीय ऋद्धि के रूप में इन तीनों का समन्वय इस प्रकार है-मनुष्य शरीर की प्राप्ति के योग्य कर्मों का बांधना तो लब्ध है, और उस शरीर का मिल जाना है-प्राप्त, और मनुष्य शरीर को सेवादि कार्यों में लगाना उस का अभिसमन्वागत है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि एक मनुष्य को राजा की तरफ़ से इनाम देने का हुक्म हुआ और खजाने से उसे मिल भी गया, परन्तु बीमार पड़ जाने या और किसी अनिवार्य प्रतिबन्ध के उपस्थित हो जाने से वह उस का उपभोग नहीं कर.पाया, उसे अपने व्यवहार में नहीं ला सका, तब उस इनाम का उपलब्ध और प्राप्त होना, न होने के समान है। अतः प्राप्त हुए का यथारुचि सम्यक्तया उपभोग करने का नाम ही अभिसमन्वागत है अर्थात् जो भली प्रकार से उपभोग में आ सके उसे अभिसमन्वागत कहते हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [865 Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वोपार्जित पुण्य से सुबाहुकुमार को मानवशरीर की पूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है तथा उसे सुरक्षित रखने के साधन भी मिले हैं और वह उस सामग्री का यथेष्ट उपभोग भी कर रहा है। तब इस प्रकार के मानव शरीर में प्रत्यक्षरूप से उपलभ्यमान गुणसंहति से आकर्षित हुआ व्यक्ति यदि उस के मूलकारण की शोध के लिए प्रयत्न करे तो वह समुचित ही कहा जाएगा। गौतम स्वामी भी इसी कारण से सुबाहुकुमार की गुणसंहति के प्रत्यक्षस्वरूप की मौलिकता को जानने के लिए उत्सुक हो कर भगवान् से पूछ रहे हैं कि हे भगवन् ! यह सुबाहुकुमार पूर्वभव में कौन था ? कहां था ? किस रूप में था ? और किस दशा में था ? इत्यादि। ___ -इन्दभूती जाव एवं-यहां पठित जाव-यावत् पद प्रथम श्रुतस्कंधीय प्रथम अध्ययन में टिप्पणी में पढ़े गए-नामं अणगारे गोयमसगोत्तेणं सत्तुस्सेहे-से लेकर-झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ-इन पदों का तथा-तए णं से भगवं गोयमे सुबाहुकुमारं पासित्ता जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे उप्पन्नसंसए' उप्पन्नकोउहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले उट्ठाए उठेइ उठाए उठ्ठित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरेतेणेवे उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ वंदइ नमसइ वन्दित्ता नमंसित्ता णच्चासन्नेणाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे २-इन पदों का परिचायक है। तए णं से भयवं गोयमे सुबाहुकुमारं-इत्यादि पदों का अर्थ निम्नोक्त है सुबाहुकुमार को देखने के अनन्तर भगवान् गौतम को उस की ऋद्धि के मूल कारण को जानने की इच्छा हुई और साथ में यह संशय भी उत्पन्न हुआ कि सुबाहुकुमार ने क्या दान दिया था, क्या भोजन खाया था, कौन सा उत्तम आचरण किया था, क्या सुबाहुकुमार ने किसी मुनिराज के चरणों में रह कर धर्म श्रवण किया था या कोई और सुकृत्य किया था, जिस के कारण इन को इस प्रकार की ऋद्धि सम्प्राप्त हो रही है, तथा गौतम स्वामी को यह उत्सुकता भी उत्पन्न हुई कि देखें प्रभु वीर सुबाहुकुमार की गुणसम्पदा का मूल कारण दान बताते हैं या कोई अन्य उत्तम आचरण, अथवा जब प्रभुवीर मेरे संशय का समाधान करते हुए अपने अमृतमय वचन सुनाएंगे तब उन के अमृतमय वचन श्रवण करने से मुझे कितना आनन्द होगा, इन विचारों से गौतम स्वामी के मानस में कौतूहल उत्पन्न हुआ। प्रस्तुत में जो जात, संजात, उत्पन्न तथा समुत्पन्न ये चार पद दिए हैं, इन में प्रथम जात शब्द साधारण तथा संजातशब्द विशेष का, इसी भांति उत्पन्न शब्द भी सामान्य का और समुत्पन्न शब्द विशेष का ज्ञान कराता है। तात्पर्य यह है कि इच्छा हुई, इच्छा बहुत हुई, संशय 866 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ, संशय बहुत हुआ, कौतूहल हुआ, बहुत कौतूहल हुआ, इसी भांति-इच्छा उत्पन्न हुई, बहुत इच्छा उत्पन्न हुई, संशय उत्पन्न हुआ, बहुत संशय उत्पन्न हुआ, कौतूहल उत्पन्न हुआ, बहुत कौतूहल उत्पन्न हुआ-इस सामान्य विशेष की भिन्नता को सूचित करने के लिए ही जात और उत्पन्न शब्द के साथ सम् उपसर्ग का संयोजन किया गया है। जात और उत्पन्न शब्दों में इतना ही अन्तर है कि उत्पन्न शब्द उत्पत्ति का और जात शब्द उसकी प्रवृत्ति का संसूचक है। अर्थात् पहले इच्छा, संशय और कौतूहल उत्पन्न हुआ तदनन्तर उस में प्रवृत्ति हुई। इस भांति उत्पत्ति और प्रवृत्ति का कार्यकारणभाव सूचित करने के लिए जात और उत्पन्न ये दोनों पद प्रयुक्त किए गए हैं। जातश्रद्ध आदि शब्दों का अधिक अर्थसंबन्धी ऊहापोह प्रथम श्रुतस्कंधीय प्रथमाध्याय में किया गया है। पाठक वहीं पर देख सकते हैं। जातश्रद्ध, जातसंशय, जातकौतूहल, संजातश्रद्ध, संजातसंशय, संजातकौतूहल, उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय, उत्पन्नकौतूहल, समुत्पन्नश्रद्ध, समुत्पन्नसंशय तथा समुत्पन्नकौतूहल श्री गौतम स्वामी उत्थानक्रिया के द्वारा उठ कर जिस ओर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, उस ओर आते हैं, आकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ कर के प्रदक्षिणा करके वन्दन करते हैं, नमस्कार करते हैं, नमस्कार कर के बहुत पास, न बहुत दूर इस प्रकार शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए विनय से ललाट पर अञ्जलि रख कर भक्ति करते हुए। .. -इढे जाव सुरूवे-यहां पठित जाव-यावत् पद-इट्ठरूवे, कन्ते, कन्तरूवे, पिए, पियरूवे, मणुण्णे, मणुण्णरूवे, मणोमे, मणोमरूवे, सोमे, सुभगे, पियदसणे, सुरूवेइन पदों का परिचायक है। - -इमा एयारूवा-इन दोनों का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में-इयं प्रत्यक्षा एतद्पा , उपलभ्यमानस्वरूपैव अकृत्रिमेत्यर्थः-इस प्रकार है। अर्थात् यह प्रत्यक्षरूप से उपलब्ध होने वाली अकृत्रिम-जिस में किसी प्रकार की बनावट नहीं-ऐसी उदार मानवी ऋद्धि सुबाहुकुमार ने कैसे प्राप्त की? 1. १-ग्रसते बुद्धयादीन् गुणान् यदि वा गम्यः-शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामः। २-न विद्यते करो यस्मिन् तन्नगरम्।३-निगमः-प्रभूततरवणिग्वर्गवासः।४-राजाधिष्ठानं नगरं राजधानी। ५-प्रांशुप्राकारनिबद्धंखेटम्।६-क्षुल्लप्राकारवेष्टितं कर्वटम्।७-अर्धगव्यूततृतीयान्तनामान्तररहितं मडम्बम्। ८-पट्टनं-जलस्थलनिर्गमप्रदेशः, (पट्टनं शकटैः गम्यं घोटकैः नौभिरेव च। नौभिरेव तु यद्गम्यं पत्तनं तत्प्रचक्षते), ९-द्रोणमुखं-जलनिर्गमप्रवेशं पत्तनमित्यर्थः। १०-आकरो हिरण्याकरादिः। ११:-आश्रमः तापसावसथोपलक्षितः आश्रमविशेषः। १२-संवाधो यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः। १३-संनिवेश:तथाविधप्राकृतलोकनिवासः। -(राजप्रश्नीय सूत्रं-वृत्तिकारो मलयगिरि सूरिः) द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [867 Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -को वा एस आसि पुव्वभवे जाव समन्नागया-यहां पठित जाव-यावत् पद सेकिंनामए वा, किं वा गोएणं, कयरंसि वा गामंसि वा, नगरंसि वा, निगमंसि वा, रायहाणीए वा, खेडंसि वा, कव्वडंसि वा, मडंबंसि वा, पट्टणंसि वा, दोणमुहंसि वा, आगरंसि वा, आसमंसि वा, संवाहंसि वा, संनिवेसंसि वा, किं वा दच्चा, किं वा भोच्चा, किं वा किच्चा, किं वा समायरित्ता, कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म सुबाहुकुमारेणं इमा एयारूवा उराला माणुसिड्ढी लद्धा ? पत्ता ? अभिसमन्नागया ?-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का भावार्थ इस प्रकार है भगवन् ! यह पूर्वभव में कौन था? इस का नाम और गोत्र क्या था ? किस ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्वट, मडम्ब, पट्टन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, संवाध तथा किस संनिवेश में कौन सा दान दे कर, क्या भोजन कर, कौन सा आचरण करके, किस तथारूप (विशिष्टज्ञानी) श्रमण या माहन (श्रावक) से एक भी आर्य वचन सुन कर और हृदय में धारण कर सुबाहुकुमार ने इस प्रकार की यह उदार-महान् मानवी स्मृद्धि को उपलब्ध किया, प्राप्त किया और उसे यथारुचि उपभोग्य-उपभोग के योग्य बनाया अर्थात् वह उस के यथेष्टरूप से उपभोग में आ रही है ? इस प्रश्नावली में बहुत सी मौलिक सैद्धान्तिक बातों का समावेश हुआ प्रतीत होता है। अतः प्रसंगवश उन का विचार कर लेना भी अनुचित नहीं होगा। संक्षेप से गौतम स्वामी के प्रश्नों को आठ भागों में विभक्त किया जा सकता है-१-यह पूर्वभव में कौन था, २-इस का नाम क्या था, ३-इस का गोत्र क्या था, ४-इस ने क्या दान दिया था, ५-इस ने क्या भोजन किया था, ६-इस ने क्या कृत्य किया था, ७-इस ने क्या आचरण किया था, ८-इस ने किस तथारूप महात्मा की वाणी सुनी थी, अर्थात् इस ने क्या सुना थी। ___इन में नाम और गोत्र का पृथक्-पृथक् निर्देश सप्रयोजन है। एक नाम के अनेक व्यक्ति हो सकते हैं। उन की व्यावृत्ति के लिए गोत्र का निर्देश करना भी परम आवश्यक है। इसी विचार से गौतम स्वामी ने नाम के बाद गोत्र का प्रश्न किया है। गोत्र कुल या वंश की उस संज्ञा को कहते हैं जो उस के मूलपुरुष के अनुसार होती है। चौथा प्रश्न दान से सम्बन्ध रखता है अर्थात् सुबाहुकुमार ने पूर्वभव में ऐसा कौन सा दान किया था जिस के फलस्वरूप उसे इस प्रकार की लोकोत्तर मानवीय विभूति की संप्राप्ति 1. श्रावक-गृहस्थ को भी धर्मोपदेश-धर्मसम्बन्धी व्याख्यान करने का अधिकार प्राप्त है, यह बात इस पाठ से भलीभान्ति सिद्ध हो जाती है। 868 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई है। गौतम स्वामी के इस प्रश्न में दान की महानता तथा विविधता प्रतिबोधित की गई है। जैनशास्त्रों में दस प्रकार के दान प्रसिद्ध हैं। उन का नाम निर्देशपूर्वक अर्थसम्बन्धी ऊहापोह इस प्रकार है १-अनुकम्पादान। २-संग्रहदान। ३-भयदान। ४-कारुण्यदान। ५लज्जादान।६-गर्वदान७-अधर्मदान।८-धर्मदान।९-करिष्यतिदान।१०-कृतदान। १-किसी दीन दुःखी पर दया करके उस की सहायतार्थ जो दान दिया जाता है. उसे १अनुकम्पादान कहते हैं। जैसे- भूखे को अन्न, प्यासे को पानी और नंगे को वस्त्र आदि का प्रदान करना। २-व्यसनप्राप्त मनुष्यों को जो दान दिया जाता है, उसे संग्रहदान कहते हैं। अथवा बिना भेद भाव से किया गया दान संग्रहदान कहलाता है। ३-भय के कारण जो दान दिया जाता है, उसे भयदान कहते हैं। जैसे कि ये हमारे स्वामी के गुरु हैं, इन्हें आहारादि न देने से स्वामी नाराज़ हो जाएगा, इस भय से साधु को आहार देना। - ४-किसी प्रियजन के वियोग में या उस के मर जाने पर दिया गया दान कारुण्यदान कहलाता है। ... ५-लज्जा के वश ही कर दिया गया दान लज्जादान कहलाता है। जैसे-यह साधु हमारे घर आए हैं, यदि इन्हें आहार न देंगे तो अपकीर्ति होगी, इस विचार से साधु को आहार देना। ६-गर्व या अहंकार से जो दान दिया जाता है वह "गर्वदान है। जैसे-जोश में आकर एक-दूसरे की स्पर्धा में भांड आदि को देना। . ७-अधर्म का पोषण करने के लिए जो दान दिया जाता है उसे अधर्मदान कहते हैं। जैसे-विषयभोग के लिए वेश्या आदि को देना या चोरी करवाने अथवा झूठ बुलवाने के लिए देना। ८-धर्म के पोषणार्थ दिया गया दान धर्मदान है। जैसे-सुपात्र को देना। त्यागशील (1) कृपणेऽनाथदरिद्रे व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते। यद्दीयते कृपार्थादनुकम्पा तद्भवेद्दानम्॥१॥ (2) अभ्युदये व्यसने वा यत्किञ्चिद्दीयते सहायार्थम्। तत्संग्रहतोऽभिमतं मुनिभिर्दानं न मोक्षाय // 1 // (3) राजारक्षपुरोहितमधुमुखमावल्लदण्डपाशिषु च। यद्दीयते भयार्थात्तदभयदानं बुधैर्जेयम्॥१॥ (4) अभ्यर्थितः परेण तु यद्दानं जनसमूहमध्यगतः। परचित्तरक्षणार्थं लजायास्तद्भवेद्दानम्॥१॥ (5) नटनर्तकमुष्टिकेभ्यो दानं सम्बन्धिबन्धुमित्रेभ्यः। यहीयते यशोऽर्थं गर्वेण तु तद्भवेद्दानम्॥१॥ (6) हिंसानृतचौर्योद्यतपरदारपरिग्रहप्रसक्तेभ्यः / यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्माय॥१॥ (7) समतृणमणिमुक्तेभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रेभ्यः। अक्षयमतुलमनन्तं तद्दानं भवति धर्माय // 1 // द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [869 Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिराजों को धर्म के पोषक समझ कर श्रद्धापूर्वक आहारादि का प्रदान करना। ९-किसी उपकार की आशा से किया गया दान करिष्यतिदान कहलाता है। __१०-किसी उपकार के बदले में किया गया दान कृतदान है। अर्थात् इस ने मुझे पढ़ाया है। इसने मेरा पालन पोषण किया है, इस विचार से दिया गया दान कृतदान कहलाता है। चौथा प्रश्न भगवान गौतम की-दस दानों में से सुबाहुकुमार ने कौन सा दान दिया था - इस जिज्ञासा का संसूचक है। पांचवां प्रश्न भोजन से सम्बन्ध रखता है। संसार में दो प्रकार के जीव हैं / एक वे हैं जो खाने के लिए जीते हैं, दूसरे वे जो जीने के लिए खाते हैं। पहली कक्षा के जीवों की भावना यह रहती है कि यह शरीर खाने के लिए बना है और संसार में जितने भी खाद्य पदार्थ हैं सब मेरे ही खाने के लिए हैं, इसलिए खाने-पीने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखनी चाहिए। इस भावना के लोग न तो भक्ष्याभक्ष्य का विचार करते हैं और न समय कुसमय को देखते हैं। भोजन की शुद्धता या अशुद्धता का उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता। जो लोग भक्ष्य और अभक्ष्य के विवेक से शून्य होते हैं, उन के लिए ही अनेकानेक मूक प्राणियों-पशुपक्षियों का वध किया जाता है, ऐसे मांसाहारी लोग इस बात का बिल्कुल ख्याल नहीं करते कि उन की भोजन-सामग्री कितने अनर्थ का कारण बन रही है ! वास्तव में देखा जाए तो संसार में पाप की वृद्धि भूखे मरने वालों की अपेक्षा खाने के लिए जीने वालों ने विशेष की है। यदि इन बातों को कहां ध्यान में लाते हैं। जो लोग जीने के लिए खाते अर्थात् भोजन करते हैं, उन का ध्येय यह नहीं होता कि हम खाकर शरीर को शक्तिशाली बनाएं और पापाचरण करें, किन्तु वे इसलिए खाते हैं कि जिस से उन का शरीर टिका रहे और वे उस के द्वारा अधिक से अधिक धर्म का उपार्जन कर सकें। उन को भक्ष्याभक्ष्य का पूरा-पूरा ध्यान रहता है, तथा वे इस बात के लिए सदा चिन्तित रहते हैं कि उन के भोजन के निमित्त किसी जीव को अनावश्यक कष्ट न पहुंचे और वे उस दिन की भी प्रतीक्षा में रहते हैं कि जिस दिन उन के निमित्त किसी भी जीव को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंच सके। यद्यपि भोजन दोनों ही करते हैं परन्तु एक पापप्रकृति को बांधता है, जबकि दूसरा पुण्य का बन्ध करता है। इस प्रकार भोजन के लिए जीने वालों का आहार धर्म के स्थान में अधर्म का पोषक होता है और जीने 1. करिष्यति कंचनोपकारं ममाऽयमिति बुद्ध्या। यद्दानं तत्करिष्यतीति दानमुच्यते। 2. शतशः कृतोपकारो दत्तं च सहस्रशो ममानेन।अहमपि ददामि किञ्चित्प्रत्युपकाराय तद्दानम्॥ 3. मांसाहार धार्मिक दृष्टि से निन्दित है, गर्हित है, अतः हेय है, त्याज्य है तथा मनुष्य की प्रकृति के भी प्रतिकूल है आदि बातों का विचार प्रथमश्रुतस्कंधीय सप्तमाध्याय में कर आए हैं। 870 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए खाने वालों का आहार पुण्योपार्जन में सहायक होता है। यही दृष्टि गौतम स्वामी के भोजन सम्बन्धी प्रश्न में अवस्थित है। छठा प्रश्न सुबाहुकुमार के कृत्यविषयक है। यह प्रश्न बड़े महत्त्व का है। मानव के प्रत्येक कृत्य-कार्य से दोनों की प्रकृतियों अर्थात् पुण्य और पाप की प्रकृतियों का बन्ध होता है। कर्मबन्ध का आधार मानव की भावना है। मानवीय विचारधारा की शुभाशुभ प्रेरणा से आस्रव संवर और संवर आस्रव हो जाता है। वास्तव में देखा जाए तो मानव की बाह्यक्रिया मात्र से वस्तुतत्त्व का यथार्थ निश्चय नहीं हो सकता। आत्मशुद्धि या उस की अशुद्धि की सम्पादिका मानवीय भावना है। इसी के आधार पर शुभाशुभ कर्मबन्ध की भित्ति प्रतिष्ठित है। सांसारिक कृत्यों-कार्यों से पाप-पुण्य इन दोनों का प्रादुर्भाव होता रहता है, परन्तु ज्ञानपूर्वकविवेक के साथ जिस काम के करने में पुण्यकर्मबन्ध होता है, उसी काम को यदि अज्ञानपूर्वक अर्थात् अविवेक से किया जाए तो उस में पापकर्म का बन्ध होता है। मनुष्य की प्रवृत्तियाँ उस की उन्नति एवं अवनति का कारण बना करती हैं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि किसी भी कार्य को करने से पहले उस की कृत्यता तथा अकृत्यता का विचार कर ले। यदि कार्य कृत्यता से शून्य है तो उसे कभी नहीं करना चाहिए, चाहे कितना भी संकट आ पड़े। 'नीतिकारों ने इस तथ्य का पूरे जोर से समर्थन किया है, अतः जीवन को पापजनक प्रवृत्तियों से बचाना चाहिए और धर्मजनक प्रवृत्तियों को अपनाना चाहिए। श्री गौतम स्वामी के प्रश्न का भी यही अभिप्राय है कि सुबाहुकुमार ने विशुद्ध मनोवृत्ति से ऐसा कौन सा पुण्यजनक कृत्य किया। जिस के कारण आज वह प्रत्यक्षरूप में जगद्वल्लभ बना हुआ है। सातवां प्रश्न उस के समाचरण-शीलसम्बन्धी है। अर्थात् सुबाहुकुमार ने ऐसे कौन से शीलव्रत का आराधन या अनुष्ठान किया है, जिस के प्रभाव से उस को ऐसी सर्वोच्च मानवता की प्राप्ति हुई है। आजकल शील शब्द का व्यवहार बहुत संकुचित अर्थ में किया जाता है। उस का एकमात्र अर्थ पुरुष के लिए स्त्रीसंसर्ग का त्याग ही समझा जाता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। उस की अर्थपरिधि इस से बहुत अधिक व्यापक है। "स्त्रीसंसर्ग का त्याग" यह शील का मात्र एक आंशिक अर्थ है। इस से अतिरिक्त अर्थों में भी वह व्यवहृत होता है। 1. कर्त्तव्यमेव कर्त्तव्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि।अकर्त्तव्यं न कर्त्तव्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि॥ अर्थात्-जब प्राण कण्ठ में आ जाएं तब भी अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, उस समय भी कर्तव्य को छोड़ना उचित नहीं है। इसके विपरित चाहे प्राण कण्ठ में आ जाएं तब भी अकर्त्तव्य कर्म का आचरण नहीं करना चाहिए। सारांश यह है कि कर्त्तव्यनिष्ठा में जीवनोत्सर्ग कर देना अच्छा है, परन्तु अकर्त्तव्य-अकृत्य को कभी भी जीवन में नहीं लाना चाहिए। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [871 Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुच्चयरूप से उस का अर्थ निषिद्ध बुरे कामों से निवृत्त होना और विहित-अच्छे कामों में प्रवृत्ति करना है। अर्थात् शास्त्रगर्हित हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, द्यूत और मदिरापानादि से निवृत्त होना और शास्त्रानुमोदित-अहिंसा, सत्य, अस्तेय और स्वस्त्रीसन्तोष एवं सत्संग और शास्त्रस्वाध्याय आदि में प्रवृत्ति करना शील कहलाता है। परस्त्रीत्याग और स्वस्त्रीसन्तोष तो शील के अनेक अर्थों में से दो हैं। इतना मात्र आचरण करने वाला शीलव्रत के मात्र एक अंग का आराधक माना जा सकता है, सम्पूर्ण का नहीं। ___गौतम स्वामी का आठवां प्रश्न श्रवण के सम्बन्ध में है। अर्थात् उस ने ऐसे कौन से कल्याणकारी वचनों का श्रवण किया है जिन के प्रभाव से उस को इस प्रकार की लोकोत्तर कीर्ति का लाभ एवं संप्राप्ति हुई है। इस कथन से त्यागशील धर्मपरायण मुनिजनों या गुरुजनों का बड़ा महत्त्व प्रदर्शित होता है, कारण कि धर्मगुरुओं के मुखारविन्द से निकला हुआ धर्मोपदेश जितना प्रभावपूर्ण होता है और उसका जितना विलक्षण असर होता है, उतना ' प्रभावशाली सामान्य पुरुषों का नहीं होता। आचरणसम्पन्न व्यक्ति के एक वचन का श्रोता पर जितना असर होता है, उतना आचरणहीन व्यक्ति के निरन्तर किए गए उपदेश का भी नहीं होता। तपोनिष्ठ त्यागशील गुरुजनों की आत्मा धर्म के रंग में निरन्तर रंगी हुई रहती है, उन के वचनों में अलौकिक सुधा का संमिश्रण होता है, जिस के पान से श्रोतृवर्ग की प्रसुप्त हृदयतंत्री में एक नए ही जीवन की नाद प्रतिध्वनित होने लगता है। वे आत्मशक्ति से ओतप्रोत होते हैं। जिन के वचनों में आत्मिक शक्ति का मार्मिक प्रभाव नहीं होता, वे दूसरों को कभी प्रभावित नहीं कर सकते। उन का तो वक्ता के मुख से निकल कर श्रोताओं के कानों में विलीन हो जाना, इतना मात्र ही प्रभाव होता है। इसलिए चारित्रशील व्यक्ति से प्राप्त हुआ सारगर्भित सदुपदेश ही श्रोताओं के हृदयों को आलोकित करने तथा उन के प्रसुप्त आत्मा को प्रबुद्ध करने में सफल हो सकता है। हाथी का दान्त जब उस के पास अर्थात् मुख में होता है, तो वह उस से नगर के मजबूत से मजबूत किवाड़ को भी तोड़ने में समर्थ होता है। तात्पर्य यह है कि हाथी के मुख में लगा हुआ दान्त इतना शक्तिसम्पन्न होता है कि उस से दृढ़ किवाड़ भी टूट जाता है, पर वह दान्त जब हाथी के मुख से पृथक् हो कर, खराद पर चढ़े चूड़े का रूप धारण कर लेता है तब वह सौभाग्यवती महिलाओं के करकमलों की शोभा बढ़ाने के अतिरिक्त और कुछ भी करने लायक नहीं रहता। उस में से वह उग्रशक्ति विलुप्त हो जाती है। यही दशा धर्मप्रवचन या धर्मोपदेशक की है। चारित्रनिष्ठ त्यागशील गुरुजनों का प्रवचन हाथी के मुख में लगे हुए दान्त . के समान होता है और स्त्रियों के हाथ में पहने हुए दान्त के चूड़े के समान चारित्ररहित सामान्य 872 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषों का प्रवचन होता है। एक अपने अन्दर उग्रशक्ति रखता है, जबकि दूसरा केवल शोभा मात्र है। सुबाहुकुमार पूर्वभव में किसी विशिष्ट व्यक्ति के प्रवचन में मार्मिक बोध को प्राप्त करके तदनुसार आचरण करता हुआ पुनीत होता है। इस का निश्चय उस के ऐहिक मानवीय वैभव से प्राप्त होता है। विशिष्ट बोधसम्पन्न व्यक्ति की दृष्टि में आत्मा की उत्पत्ति या विनाश नहीं होता है। अर्थात् "किसी समय में उस की उत्पत्ति हुई होगी और किसी समय उस का विनाश होगा" इस साधारणजनसम्मत अतात्त्विक कल्पना को उन के हृदय में कोई स्थान नहीं होता। वे जानते हैं कि कोई पुरुष पुराने वस्त्र को त्याग नवीन वस्त्र धारण करने पर नया नहीं हो जाता, उसी प्रकार नवीन शरीर ग्रहण कर लेने पर आत्मा भी नहीं बदलता। आत्मा की सत्ता त्रैकालिक है। वह आदि, अन्त हीन और काल की परिधि से बाहर है। शरीर उत्पन्न होते हैं और विनष्ट भी हो जाते हैं, परन्तु शरीरी-आत्मा अविनाशी है। वह नानाविध आभूषणों में व्याप्त सुवर्ण की भांति ध्रुवं है। इस अबाधित सत्य को ध्यान में रखते हुए सुबाहुकुमार के पूर्वभव की पृच्छा की गई है। तथा "किं वा दच्चा, किं वा भोच्चा"-इत्यादि अनेकविध प्रश्नों का तात्पर्य यह है कि ये सभी पुण्योपार्जन के साधन हैं। इन में से किसी का भी सम्यग् अनुष्ठान पुण्यप्रकृति के बन्ध का हेतु हो सकता है, परन्तु सुबाहुकुमार ने इनमें से किस का आराधन किया था, यही प्रस्तुत में प्रष्टव्य है। .. प्रस्तुत सूत्र में सुबाहुकुमार को देख कर गौतम स्वामी के विस्मित होने तथा उसे प्राप्त हुई मानवीय ऋद्धि का मूल कारण पूछते हुए उस के पूर्वभव की जिज्ञासा करने आदि का वर्णन किया है। इस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया अब सूत्रकार उस का प्रतिपादन करते - मूल-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थिणाउरे णामं णगरे होत्था, रिद्धः। तत्थ णं हत्थिणाउरे णगरे सुमुहे णामं गाहावई परिवसइ अड्ढे / तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा णाम थेरा जाइसंपन्ना जाव पंचहिं समणसएहिं सद्धिं संपरिवुडा पुव्वाणुपुट्विं चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा जेणेव हत्थिणाउरेणगरे जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता अहापंडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसाणं थेराणं अन्तेवासी सुदत्ते अणगारे मासखमणपारणगंसि द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [873 Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमपोरिसीए सज्झायं करेइ, जहा गोयमसामी तहेव सुदत्ते धम्मघोसे थेरे / आपुच्छइ, जाव अडमाणे सुमुहस्स गाहावइस्स गिहं अणुपविठे।। छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे हस्तिनापुरं नाम नगरमभूद्, ऋद्ध / तत्र हस्तिनापुरे नगरे सुमुखो नाम गाथापतिः परिवसति, आढ्यः / तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मघोषा नाम स्थविरा जातिसम्पन्ना यावत् पञ्चभिः श्रमणशतैः सार्धं संपरिवृत्ताः पूर्वानुपूर्वी चरन्तो ग्रामानुग्रामं द्रवंतो यत्रैव हस्तिनापुरं नगरं यत्रैव सहस्राम्रवनमुद्यानं तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति / तस्मिन् काले तस्मिन समये धर्मघोषाणां स्थविराणामन्तेवासी सुदत्तो नाम अनगार उदारो यावत् तेजोलेश्यो मासंमासेन क्षममाणो विहरति / ततः स सुदत्तोऽनगारो मासक्षमणपारणके प्रथमपौरुष्यां स्वाध्यायं करोति, यथा गौतमस्वामी तथैव सुदत्तःधर्मघोषात् स्थविरात् आपृच्छति यावदटन् सुमुखस्य गाथापतेर्गृहमनुप्रविष्टः। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोयमा !-हे गौतम। तेणं कालेणं तेणं समएणंउस काल और उस समय। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत। भारहे-भारत। वासे-वर्ष में। हथिणाउरे-हस्तिनापुर / णाम-नाम का। णगरे-नगर / होत्था-था, जो कि। रिद्ध-ऋद्धभवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र और परचक्र के भय से मुक्त और समृद्ध-धनधान्यादि से परिपूर्ण था। तत्थ णं-उस। हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर। णगरे-नगर में। सुमुहे-सुमुख। णाम-नाम का। गाहावई-गाथापति-गृहस्थ। परिवसइ-रहता था, जोकि / अड्ढे०-बड़ा धनी यावत् अपने नगर में बड़ा प्रतिष्ठित माना जाता था। तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय। धम्मघोसा-धर्मघोष। णाम-नाम के। थेरा-स्थविर / जाइसंपन्ना-जातिसम्पन्न-श्रेष्ठ मातृपक्ष वाले।जाव-यावत् / पंचहि-पांच। समणसएहि-सौ श्रमणों के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडा-सम्परिवृत। पुव्वाणुपुट्विं-पूर्वानुपूर्वी-क्रमशः। चरमाणा-विचरते हुए। गामाणुगाम-ग्रामानुग्राम-एक ग्राम से दूसरे ग्राम में। दूइजमाणा-गमन करते हुए। जेणेव-जहां। हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर। णगरे-नगर था, और। जेणेव-जहां पर। सहसंबवणेसहस्राम्रवन नामक। उजाणे-उद्यान था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छंति-आते हैं। उवागच्छित्ता-आकर। अहापडिरूवं-यथाप्रतिरूप-अनगारधर्म के अनुकूल / उग्गह-अवग्रह-आश्रय-बस्ती को। उग्गिण्हित्ताग्रहण कर। संजमेणं-संयम, और। तवसा-तप के द्वारा / अप्पाणं-आत्मा को। भावेमाणा-भावित करते हुए। विहरंति-विचरण करते हैं / तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में। धम्मघोसाणंधर्मघोष। थेराणं-स्थविर के।अन्तेवासी-शिष्य।सुदत्ते-सुदत्त / नाम-नामक।अणगारे-अनगार / उराले- . उदार-प्रधान। जाव-यावत्। तेउलेस्से-तेजोलेश्या को संक्षिप्त किए हुए। मासंमासेणं-एक-एक मास 874 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का। खममाणे-क्षमण-तप करते हुए अर्थात् एक मास के उपवास के बाद पारणा करने वाले। विहरइविहरण कर रहे थे। तएणं-तदनन्तर।से-वह।सुदत्ते-सुदत्त ।अणगारे-अनगार।मासक्खमणपारणगंसिमासक्षमण के पारणे में। पढमपोरिसीए-प्रथमपौरुषी में। सज्झायं-स्वाध्याय। करेइ-करते हैं। जहायथा। गोयमसामी-गौतमस्वामी। तहेव-तथैव / धम्मघोसे-धर्मघोष। थेरे-स्थविर को। आपुच्छइ-पूछते हैं। जाव-यावत्-भिक्षार्थ। अडमाणे-भ्रमण करते हुए उन्होंने। सुमुहस्स-सुमुख। गाहावइस्स-गाथापति के। गिह-घर में। अणुपविटे-प्रवेश किया अर्थात् भ्रमण करते हुए सुमुख गाथापति के घर में प्रविष्ट हुए। __ मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध नगर था। वहां सुमुख नाम का एक धनाढ्य गाथापति रहता था जोकि यावत् नगर का मुखिया माना जाता था। . ___ उस काल और उस समय जातिसम्पन्न यावत् पांच सौ श्रमणों से परिवृत्त हुए धर्मघोष नामक स्थविर क्रमपूर्वक चलते हुए और ग्रामानुग्राम विचरते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्रवन नामक उद्यान में पधारे।वहां यथाप्रतिरूप अवग्रह-बस्ती को ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे। ___ उस काल और उस समय श्री धर्मघोष स्थविर के अन्तेवासी-शिष्य उदार यावत् तेजोलेश्या को संक्षिप्त किए हुए सुदत्त नाम के अनगार मासिक क्षमण-तप करते हुए विहरण कर रहे थे, साधुजीवन बिता रहे थे। तदनन्तर सुदत्त अनगार मासक्षमण के पारणे में पहले प्रहर में स्वाध्याय करते हैं। जैसे गौतमस्वामी प्रभुवीर से पूछते हैं वैसे ही ये श्री धर्मघोष स्थविर से पूछते हैं, यावत् भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए उन्होंने सुमुख गाथापति के घर में प्रवेश किया। टीका-श्री गौतम अनगार के प्रश्र के उत्तर में भगवान् ने सुबाहुकुमार के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाना आरम्भ करते हुए काल और समय इन दोनों का कथन किया है। इस से स्पष्ट सिद्ध है कि ये दोनों अलग-अलग पदार्थ हैं। जैसे-लोक में व्यापारी लोग खाते में सम्वत् और मिति दोनों का उल्लेख करते हैं। उस में केवल सम्वत् लिख दिया जाए और मिति न लिखी जाए तो वह बहीखाता प्रामाणिक नहीं माना जाता, उस की प्रामाणिकता के लिए दोनों का उल्लेख आवश्यक होता है। वैसे ही सूत्रकार ने काल और समय दोनों का प्रयोग किया है। काल शब्द सम्वत् के स्थानापन्न है और समय मिति के स्थान का पूरक है। तब उस काल और समय का यह अर्थ निष्पन्न होता है कि इस अवसर्पिणी के चतुर्थकाल-चौथे आरे में और उस समय जब कि सुबाहुकुमार सुमुख गाथापति के भव से इस भव में आया था। जब तक स्थान को न जान लिया जाए तब तक उस स्थान पर होने वाली किसी भी द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [875 Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटना का स्वरूप भलीभाँति जाना नहीं जा सकता। इसलिए स्थान का निर्देश करना नितान्त आवश्यक होता है, फिर भले ही वह कहीं हो या कोई भी हो। इसी उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त जम्बूद्वीपान्तर्गत भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध नगर हस्तिनापुर का उल्लेख किया गया है। हस्तिनापुर बहुत प्राचीन नगर है। भारतवर्ष के इतिहास में इस को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह नगर पहले भगवान् शान्तिनाथ और कुन्थुनाथ की राजधानी बना रहा है। फिर पांडवों की राजधानी का भी इसे गौरव प्राप्त रहा है। यहां पर अनेक तीर्थंकरों के कल्याणक हुए और हमारे चरितनायक सुबाहुकुमार के जीव ने भी अपने को सुबाहुकुमार के रूप में जन्म लेने की योग्यता का सम्पादन इसी नगर में किया था। संभवतः इसी कारण प्राचीन हस्तिनापुर सुदूर पूर्व से लेकर आज तक भारत का भाग्यविधाता बना रहा है। इसी हस्तिनापुर में सुबाहुकुमार अपने पूर्वभव में सुमुख गाथापति के नाम से विख्यात था। सुमुख-जिस का मुख नितान्त सुन्दर हो, जिस के मुख से प्रिय वचन निकलें, अर्थात् जिस के मुख से अश्लील, कठोर, असत्य और अप्रिय वचनों के स्थान में सभ्य, कोमल, सत्य और प्रिय वचनों का निस्सरण हो, वह सुमुख कहा वा माना जाता है। गाथापति-गाथा नाम घर का है, उस का पति-संरक्षक गाथापति-गृहपति कहलाता है। वास्तव में प्रतिष्ठित गृहस्थ का ही नाम गाथापति है। सुमुख गाथापति आढ्य-सम्पन्न, दीप्त-तेजस्वी और अपरिभूत था अर्थात् नागरिकों में उस का कोई पराभव-तिरस्कार नहीं कर सकता था। तात्पर्य यह है कि धनी, मानी होने के साथ-साथ वह आचरण सम्पन्न भी था। इसलिए उसका तिरस्कार करने का किसी में भी साहस नहीं होता था। सुमुख गाथापति पूरा-पूरा सदाचारी था, अतएव अपरिभूत था। . धन, धान्य की प्रचुरता से किसी मनुष्य का महत्त्व नहीं बढ़ता। उस की प्रचुरता तो कृपण और दुःशील के पास भी हो सकती है। सुमुख का घर धन, धान्यादि से भरपूर था, मगर उस की विशेषता इस बात में थी कि उस का धन परोपकार में व्यय होता था। दीपक अपने प्रकाश से स्वयं लाभ नहीं उठाता। वह जलता है तो दूसरों को प्रकाश देने के लिए ही। सुमुख गाथापति भी दीपक की भांति अपने वैभव का विशेषरूप से दूसरों के लिए ही उपयोग करता था। उस की वदान्यता-दानशीलता देश देशान्तरों में प्रख्यात थी। उस की धनसम्पत्ति के विशेष भाग का व्यय अनुकम्पादान और सुपात्रदान में ही होता था। ___धर्मघोष-सहस्राम्रवन नामक उद्यान में 500 शिष्यपरिवार के साथ पधारने वाले आचार्यश्री का धर्मघोष, यह गुणसम्पन्न नाम था। धर्मघोष का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है-धर्म की घोषणा करने वाला। तात्पर्य यह है कि जिस के जीवन का एकमात्र उद्देश्य धर्म की घोषणा करना, धर्म का प्रचार करना हो, वह धर्मघोष कहा जा सकता है। उक्त आचार्यश्री के जीवन 876 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्थ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में यह अर्थ अक्षरशः संघटित होता है और उन की गुणसम्पदा के सर्वथा अनुरूप है। ...स्थविर-स्थविर शब्द का अर्थ सामान्यरूप से वृद्ध-बूढ़ा या बड़ा होता है। प्रकृत में इस का "वृद्ध या बड़ा साधु-" इस अर्थ में प्रयोग हुआ है। 'आगमों में तीन प्रकार के स्थविर बताये गए हैं-जातिस्थविर, सूत्र-श्रुतस्थविर और पर्यायस्थविर। साठ वर्ष की आयु वाला जातिस्थविर, श्री स्थानांग और समवायांग का पाठी-जानकार सूत्रस्थविर और बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला पर्यायस्थविर कहलाता है। यद्यपि धर्मघोष अनगार में इन तीनों में से कौन सी स्थविरता थी, इस का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में नहीं है और न ही टीका में है, तथापि सूत्रगत वर्णन से उन में उक्त तीनों ही प्रकार की स्थविरता का होना निश्चित होता है। पांच सौ शिष्य परिवार के साथ विचरने वाले महापुरुष में आयु, श्रुत और दीक्षापर्याय इन तीनों की विशिष्टता होनी ही चाहिए। इस के अतिरिक्त जैनपरम्परा के अनुसार स्थविरों को तीर्थंकरों के अनुवादक कहा जाता है। तीर्थंकर देव के अर्थरूप संभाषण को शाब्दी रचना का रूप देकर प्रचार में लाने का काम स्थविरों का होता है। गणधरों या स्थविरों को यदि तीर्थंकरों के अमात्य-प्रधानमन्त्री कहा जाए तो अनुचित न होगा। जैसे राजा के बाद दूसरे स्थान पर प्रधानमंत्री होता है, उसी प्रकार तीर्थंकरों के बाद दूसरे स्थान पर स्थविरों की गणना होती है, और जैसे राज्यसत्ता को कायम तथा प्रजा को सुखी रखने के लिए प्रधानमन्त्री का अधिक उत्तरदायित्व होता है, उसी प्रकार अरिहन्तदेव के धर्म को दृढ़ करने और फैलाने का काम स्थविरों का होता है। तब तीर्थंकर देव के धर्म को आचरण और उपदेश के द्वारा जो स्थिर रखने का निरन्तर उद्योग करता है, वह स्थविर है, यह अर्थ भी अनायास ही सिद्ध हो जाता है। जातिसम्पन्न-धर्मघोष स्थविर को जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न और बलसम्पन्न आदि विशेषणों से विशेषित करने का अभिप्राय उन के व्यक्तित्व को महान् सूचित करता है। जाति शब्द माता के कुल की श्रेष्ठता का बोधक है और कुल शब्द पिता के वंश की उत्तमता का बोधक होता है। धर्मघोष स्थविर को जातिसम्पन्न और कुलसम्पन्न कहने से उन की मातृकुलगत तथा पितृकुलगत उत्तमता को व्यक्त किया गया है। अर्थात् वे उत्तम कुल और उत्तम वंश के थे, वे एक असाधारण कुल में जन्मे हुए थे। ___प्रश्न-एक ही नगर में एक साथ पाँच सौ मुनियों को लेकर श्री धर्मघोष जी महाराज का पधारना, यह सन्देह उत्पन्न करता है कि एक साथ पधारे हुए पांच सौ मुनियों का वहां 1. तओ थेरभूमीओ प० त०-जाइथेरे, सुत्तथेरे, परियायथेरे.... वीसवासपरियाएणं समणे णिग्गंथे परियायथेरे (स्थानांगसूत्र स्थान 3, उ० 3, सू० 159 / 2. श्री ज्ञातासूत्र आदि में गणधरदेवों को भी स्थविरपद से अभिव्यक्त किया गया है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [877 Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाह कैसे होता होगा ? इतने मुनियों को निर्दोष भिक्षा कैसे मिलती होगी ? उत्तर-उस समय आर्यावर्त में अतिथिसत्कार की भावना बहुत व्यापक थी। अतिथिसेवा करने को लोग अपना अहोभाग्य समझते थे। भिक्षु को भिक्षा देने में प्रत्येक व्यक्ति उदारचित्त था। ऐसी परिस्थिति में हस्तिनापुर जैसे विशाल क्षेत्र में 500 मुनियों का निर्वाह होना कुछ कठिन नहीं किन्तु नितान्त सुगम था। इस में कोई आशंका वाली बात नहीं है। अथवा पांच सौ मुनियों को साथ ले कर विचरने का यह भी तात्पर्य हो सकता है कि धर्मघोष आचार्य की निश्राय में, उन की आज्ञा में 500 मुनि विचरते थे। दूसरे शब्दों में उन का शिष्य मुनिपरिवार 500 था, जिस के साथ वे ग्रामानुग्राम विचरते और धर्मोपदेश से जनता को कृतार्थ करते थे। इस में कुछ मुनियों का साथ में आना, कुछ का पीछे रहना और कुछ का अन्य समीपवर्ती ग्रामों में विचरण करना आदि भी संभव हो सकता है। इस प्रकार भी ऊपर का प्रश्न समाहित किया जा सकता है। __ साधुओं का जीवन बाह्य बन्धनों से विमुक्त होता है, उन पर-"आज इसी ग्राम में ठहरना है या इसे छोड़ ही देना है" इस प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता, इसी बात को सूचित करने के लिए "पुव्वाणुपुव्विं" यह पद दिया है। अर्थात् धर्मघोष आचार्य मुनियों के साथ पूर्वानुपूर्वी-एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरते थे। उन्हें किसी ग्राम को छोड़ने की जरूरत नहीं होती थी। वे तो जहां जाते वहां धर्मसुधा की वर्षा करते, उन्हें किसी को वंचित रखना अभीष्ट नहीं था। वास्तव में संयमशील मुनिजनों के ग्रामानुग्राम विचरने से ही धर्म को विशेष प्रोत्साहन मिलता है। इसीलिए साधु को चातुर्मास के बिना एक स्थान पर स्थित न रह कर सर्वत्र विचरने का शास्त्रों में आदेश दिया गया है। धर्मघोष स्थविर के प्रधान शिष्य का नाम सुदत्त था। सुदत्त अनगार जितेन्द्रिय और तपस्वी थे। तपोमय जीवन के बल से ही उन्हें तेजोलेश्या की उपलब्धि हो रही थी। उन की तपश्चर्या इतनी उग्र थी कि वे एक मास का अनशन करते और एक दिन आहार करते. अर्थात महीने-महीने पारणा करना उन की बाह्य तपस्या का प्रधानरूप था और इसी चर्या में वे अपने साधुजीवन को बिता रहे थे। ___अन्तेवासी का सामान्य अर्थ समीप में रहने वाला होता है, पर समीप रहने का यह अर्थ नहीं कि हर समय गुरुजनों के पीछे-पीछे फिरते रहना, किन्तु गुरुजनों के आदेश का सर्वथा पालन करना ही उनके समीप रहना है। गुरुजनों के आदेश को शिरोधार्य कर के उस का सम्यग् अनुष्ठान करने वाला शिष्य ही वास्तव में अन्तेवासी (अन्ते समीपे वसति तच्छीलः) होता है। 878 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस में बहुत से सद्गुण विद्यमान हों, और उन सब का समुचित रूप में वर्णन न किया जा सकता हो तो उन में से एक दो प्रधान गुणों का वर्णन कर देने से बाकी के समस्त गुणों का भी बिना वर्णन किए ही पता चल जाता है। जैसे राजा के मुकुट का वर्णन कर देने से बाकी के समस्त आभूषणों के सौन्दर्य की कल्पना अपने आप ही हो जाती है। इसी प्रकार सुदत्त मुनि के प्रधानगुण-तपस्या के वर्णन से ही उन में रहे हुए अन्य साधुजनोचित सद्गुणों का अस्तित्व प्रमाणित हो जाता है। प्रश्न-एक मास के अनशन के बाद केवल एक दिन भोजन करने वाले मुनि विहार कैसे कर सकते होंगे ? क्या उन के शरीर में शिथिलता न आ जाती होगी? बिना अन्न के औदारिक शरीर का सशक्त रहना समझ में नहीं आता ? उत्तर-यह शंका बिल्कुल निस्सार है, और दुर्बल हृदय के मनुष्यों की अपनी निर्बल स्थिति के आधार पर की गई है, क्योंकि आज भी ऐसे कई एक मुनि देखने में आते हैं जो कि कई बार एक-एक या दो-दो मास का अनशन करते हैं और अपनी सम्पूर्ण आवश्यक क्रियाएं स्वयं करते हैं। तपश्चर्या के लिए शारीरिक संहनन और मनोबल की आवश्यकता है। जिस समय की यह बात है उस समय तो मनुष्यों का संहनन और मनोबल आज की अपेक्षा बहुत ही सुदृढ़ था। इसलिए श्री सुदत्त मुनि के मासक्षमण में किसी प्रकार की आशंका को अवकाश नहीं रहता। इस के अतिरिक्त आत्मतत्त्व के चिन्तक, तपश्चर्या की मूर्ति श्री सुदत्त मुनि अनशनव्रत का अनुष्ठान करते हुए शिथिल हैं या सशक्त-मज़बूत, इस का उत्तर तो सूत्रकार ने ही स्वयं यह कह कर दे दिया है कि वे मासक्षमण के पारणे के लिए हस्तिनापुर नगर में स्वयं जाते हैं और भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए उन्होंने सुमुख गृहपति के घर में प्रवेश किया। इस पर से सुदत्त मुनि के मानसिक और शारीरिक बल की विशिष्टता का अनुमान करना कुछ कठिन नहीं रहता। दूसरी बात-तपस्या करने वाले मुनि को अपने शारीरिक और मानसिक बल का पूरा-पूरा ध्यान रखना होता है। वह अपने में जितना बल देखता है उतना ही तप करता है। तपस्या करने का यह अर्थ नहीं होता कि दूसरों से सेवा करवाना और उन के लिए भारभूत हो जाना। मास-मास दो बार कहने का तात्पर्य यह है कि उन की यह तपस्या लंबे समय से चालू थी। वे वर्ष भर में बारह दिन ही भोजन करते थे, इस से अधिक नहीं। आज श्री सुदत्त मुनि के पारणे का दिन है। उन के अनशन को एक मास हो चुका है। वे उस दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, दूसरे में ध्यान, तीसरे में वस्त्रपात्रादि तथा मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करते हैं। तदनन्तर आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित हो उन्हें सविधि वन्दना नमस्कार कर पारणे द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [879 Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के निमित्त भिक्षार्थ नगर में जाने की आज्ञा मांगते हैं। आचार्यश्री की तरफ से आज्ञा मिल जाने पर नगर में चले जाते हैं, इत्यादि। ___तपस्या दो प्रकार की होती है, बाह्य और आभ्यन्तर। अनशन यह बाह्य तप-तपस्या है। बाह्य तप आभ्यन्तर तप के बिना निर्जीव प्रायः होता है। बाह्य तप का अनुष्ठान आभ्यन्तर तप के साधनार्थ ही किया जाता है। यही कारण है कि श्री सुदत्त मुनि ने पारणे के दिन भी स्वाध्याय और ध्यानरूप आभ्यन्तर तप की उपेक्षा नहीं की। वास्तव में देखा जाए तो आभ्यन्तर तप से अनुप्राणित हुआ ही बाह्य तप मानव जीवन के आध्यात्मिक विकास में सहायक हो सकता है। प्रश्न-पांच सौ मुनियों के उपास्य श्री धर्मघोष स्थविर के अन्य पर्याप्त शिष्यपरिवार के होने पर भी परमतपस्वी सुदत्त अनगार स्वयं गोचरी लेने क्यों गए ? क्या इतने मुनियों में से एक भी ऐसा मुनि नहीं था जो उन्हें गोचरी ला कर दे देता? उत्तर-महापुरुषों का प्रत्येक आचरण रहस्यपूर्ण होता है, उस के बोध के लिए कुछ मनन की अपेक्षा रहती है। साधारण बुद्धि के मनुष्य उसे समझ नहीं पाते। उन की प्रत्येक क्रिया में कोई न कोई ऊंचा आदर्श छिपा हुआ होता है। सुदत्त मुनि का एक मास के अनशन के बाद स्वयं गोचरी को जाना, साधकों के लिए स्वावलम्बी बनने की सुगतिमूलक शिक्षा देता है। जब तक अपने में सामर्थ्य है तब तक दूसरों का सहारा मत ढूंढ़ो। जो व्यक्ति सशक्त होने पर भी दूसरों का सहारा ढूंढ़ता है वह आत्मतत्त्व की प्राप्ति से बहुत दूर चला जाता है,। इसी दृष्टि से श्री स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान तथा तृतीय उद्देशक में परावलम्बी को दुःखशय्या पर सोने वाला कहा है। वास्तव में आलसी बन कर सुख में पड़े रहने के लिए साधुत्व का अंगीकार नहीं किया जाता। उस के लिए तो प्रमाद से रहित हो कर उद्योगशील बनने की आवश्यकता है। श्री दशवैकालिक सूत्र के द्वितीय अध्याय में स्पष्ट शब्दों में कहा है-"-चय सोगमल्लं" अर्थात् सुकुमारता का परित्याग करो। गृहस्थ भी यदि शक्ति के होते हुए कमा कर नहीं खाता तो घर वालों को शत्रु सा प्रतीत होने लगता है। सारांश यह है कि गृहस्थ हो या साधु, १परावलम्बन सभी के लिए अहितकर है। वास्तव में विचार किया जाए तो बिना विशेष कारण के पराश्रित होना ही आत्मा को पतन की ओर ले जाने का प्रथम सोपान है। इस की तो भावना 1. स्वावलम्बन के सम्बन्ध में श्री उत्तराध्ययन सूत्र का निम्नलिखित पाठ कितना मार्गदर्शक है "-संभोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संभोगपच्चक्खाणेणं जीवे आलम्बणाइंखवेइ, निरालंबस्स य आवट्ठिया जोगा भवन्ति, सएणं लाभेणं सन्तुस्सइ, परलाभं नो आसादेइ, परलाभं नो तक्केइ, नो पीहेइ, नो पत्थेइ, नो अभिलसइ। परलाभं अणस्सायमाणे अतक्केमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे " अणभिलसेमाणे दुच्चं सुहसेजं उवसंपजित्ता णं विहरइ। (उत्तराध्ययन अ० 29, सू० 33) 880 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी साधक के लिए वांछनीय नहीं है। बस इसी दृष्टि से श्री सुदत्त मुनि ने स्वयं पारणे के लिए प्रस्थान किया और वे हस्तिनापुर नगर के साधारण और असाधारण सभी घरों में भ्रमण करते हुए अन्त में वहां के सुप्रसिद्ध व्यापारी श्री सुमुख गाथापति के घर में प्रविष्ट हुए। - -रिद्ध-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ इसी अध्याय में तथा-अड्ढे०-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ प्रथम श्रुतस्कंधीय द्वितीयाध्याय में लिखा जा चुका है। तथा-जातिसंपन्ना जाव पंचहिं-यहां पठित जाव-यावत् पद-कुलसम्पन्ने बलरूवविणयणाणदंसणचरित्तलाघवसम्पन्ने ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोहे जियइन्दिए जियनिद्दे जियपरीसहे जीवियासामरणभयविप्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे एवं करणचरणणिग्गहणिच्छयअज्जवमद्दवलाघवखन्तिगुत्तिमुत्तिविज्जामंतबंभवेयनयनियमसच्चसोयणाण-दंसणंचरित्तप्पहाणे उराले घोरे घोरव्वए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउल्लेसे चउद्दसपुव्वी चउणाणोवगए-इन पदों का परिचायक है। जातिसम्पन्न आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है धर्मघोष मुनिराज जातिसम्पन्न-उत्तम मातृपक्ष से युक्त, अथवा जिस की माता सच्चरित्रता आदि सद्गुणों से सम्पन्न हो, कुलसम्पन्न-उत्तम पितृपक्ष से युक्त, अथवा जिस का पिता सच्चरित्रता आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न हो, बल-शारीरिक शक्ति, रूप-शारीरिक सौन्दर्य, विनय-नम्रता, ज्ञान-बोध, दर्शन-श्रद्धान, चारित्र-संयम तथा लाघव-द्रव्य से अल्प उपकरण का होना तथा भाव से ऋद्धि, रस और साता के अहंकार का त्याग, से सम्पन्न-युक्त ओजस्वीमनोबल वाले, तेजस्वी-शारीरिक प्रभा से युक्त, वचस्वी-सौभाग्यादि से युक्त वचन वाले, अथवा वर्चस्वी-प्रभा वाले, यशस्वी-यश वाले, जितक्रोध-क्रोध के विजेता, जितमान-मान को जीतने वाले, जितमाय-माया (छलकपट) को जीतने वाले, जितलोभ-लोभ पर विजय . प्राप्त करने वाले, जितेन्द्रिय-इन्द्रियों के विजेता, जितनिद्र-निद्रा-नींद के विजेता, जितपरीषहपरिषहों (क्षुधा, पिपासा आदि) के विजेता, जीविताशामरणभयविप्रमुक्त-जीवन की आशा और मृत्यु के भय से रहित, तपप्रधान-अन्य मुनियों की अपेक्षा जिन का तप उत्कृष्ट था, गुणप्रधान-अन्य मुनियों की अपेक्षा जिन में गुणों की विशेषता थी, ऐसे थे। इसी भाँति वे धर्मघोष मुनिवर करण-पिण्डविशुद्धि (आहारशुद्धि), समिति, भावना आदि जैनशास्त्र के प्रसिद्ध 70 बोलों का समुदाय, चरण-महाव्रत आदि, निग्रह-अनाचार में प्रवृत्ति न करना, निश्चय-तत्त्वों का निर्णय, आर्जव-सरलता, मार्दव-मान का निग्रह, लाघव कार्यों में दक्षता, शान्ति-क्रोधं का न करना, गुप्ति-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति आदि 3 गुप्तियां, मुक्ति-निर्लोभता, विद्या-शास्त्रीय ज्ञान अथवा देवों से अधिष्ठित साधनसहित अक्षरपद्धति, मंत्र-हरिणगमेषी द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [881 Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि देवों से अधिष्ठित अक्षरपद्धति, ब्रह्म-ब्रह्मचर्य अथवा सब प्रकार का कुशलानुष्ठान-सद् आचरण, वेद-आगम शास्त्र, नय-नैगम आदि नय, नियम-अभिग्रहविशेष, सत्य-सत्यवचन, शौच-द्रव्य से निर्लेप-विशुद्ध और भाव से पाप के आचरण से रहित होना, ज्ञान-मतिज्ञान, श्रुतज्ञानादि पंचविध ज्ञान, दर्शन-चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन आदि चतुर्विध दर्शन, चारित्र-सामायिक आदि पञ्चविध चारित्र, इन सब में प्रधानता रखने वाले थे। तथा जो उदार-प्रधान, घोर-राग द्वेषादि आत्मशत्रुओं के लिए भयानक, घोरव्रत-दूसरों से दुरनुचर व्रतों-महाव्रतों के धारक, घोरतपस्वी-घोर तप के करने वाले, घोरब्रह्मचर्यवासी-घोर ब्रह्मचर्य व्रत के धारक, उत्क्षिप्तशरीरशरीरगत ममत्व से सर्वथा रहित, संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्य-अनेक योजनप्रमाण वाले क्षेत्र में स्थित वस्तुओं को भस्म कर देने वाली तेजोलेश्या-घोर तप से प्राप्त होने वाली लब्धिविशेष को अपने में संक्षिप्त-गुप्त किए हुए, चतुर्दश पूर्वी-१४ पूर्वो के ज्ञाता तथा चतुर्ज्ञानोपगतमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान इन चार ज्ञानों को प्राप्त हो रहे थे। . . ___ -अहापडिरूवं-का अर्थ है शास्त्रानुमोदित अनगारवृत्ति के अनुसार, और-उग्गहअवग्रहम्-का अवग्रह या आवासस्थान रहने की जगह-यह अर्थ होता है। तथा-उग्गिण्हित्ताका-ग्रहण करके-यह अर्थ समझना चाहिए। तब इस का संकलित अर्थ यह हुआ कि धर्मघोष स्थविर अपने शिष्य परिवार के साथ सहस्राम्रवन नामक उद्यान में शास्त्रविहित साधुवृत्ति के अनुसार आवासस्थान को ग्रहण करके वहां अवस्थित हुए। . -उराले जाव लेस्से-यहां पठित-जाव-यावत् पद से-घोरे घोरगुणे घोरव्वए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउ-इत्यादि पदों का ग्रहण करना चाहिए। घोर आदि पदों का अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद श्री धर्मघोष जी महाराज के विशेषण हैं, जबकि प्रस्तुत में श्री सुदत्त मुनि के। नामगतभिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। -जहा गोयमसामी तहेव सुहम्मे थेरे आपुच्छइ जाव अडमाणे-इस में पारणे के दिन पहले प्रहर से लेकर हस्तिनापुर में भिक्षार्थ जाने तक का सुदत्त मुनि का जितना वृत्तान्त है, उसे गौतम स्वामी के गतवृत्तान्त की तरह जान लेने का सूत्रकार ने जो निर्देश किया है, तथा जावयावत् पद से गौतमस्वामी के समान किए गए सुदत्त मुनि के आचार के वर्णक पाठ को जो 1. गौतम स्वामी का वर्णन प्रथम श्रुतस्कंधीय द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। पारणे के लिए जिस विधि से वे गए थे उसी विधि का समस्त अनसरण सदत्त मुनि करते हैं। अन्तर मात्र इतना है कि गौतम स्वामी भिक्षा के लिए वाणिजग्राम नगर में जाने से पहले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछते हैं, जबकि सुदत्त मुनि हस्तिनापुर में भिक्षार्थ जाने के लिए धर्मघोष या सुधर्मा स्थविर से आज्ञा मांगते हैं। नगरादि की नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। 882 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसूचित किया है, वह निम्नोक्त है- -सुहम्मे थेरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुहम्मं थेरं वंदइ नमसइ, वन्दित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासक्खमणपारणगंसि हत्थिणाउरेणगरे उच्चनीयमज्झिमघरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह, तए णं सुदत्ते अणगारे सुहम्मेणं थेरेणं अब्भणुण्णाए समाणे सुहम्मस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे जेणेव हत्थिणाउरे णगरे तेणेव उवागच्छइ, हत्थिणाउरे णयरे उच्चनीयमज्झिमकुलाइं। इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है तपस्विराज श्री सुदत्त अनगार मासक्षमण के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते, दूसरे में ध्यान करते, तीसरे प्रहर में कायिक और मानसिक चपलता से रहित हो कर मुखवस्त्रिका की, भाजन एवं वस्त्रों की प्रतिलेखना करते, तदनन्तर पात्रों को झोली में रख कर और झोली को ग्रहण कर सुधर्मा स्थविर के चरणों में उपस्थित हो कर वन्दना तथा नमस्कार करने के अनन्तर निवेदन करते हैं कि हे भगवन् ! आप की आज्ञा होने पर मैं मासक्षमण के पारणे के लिए हस्तिनापुर नगर में उच्च-धनी, नीच-निर्धन और मध्यम-सामान्य गृहों में भिक्षार्थ जाना चाहता हूँ। सुधर्मा स्थविर के "-जैसे-तुम को सुख हो, वैसे करो, परन्तु विलम्ब मत करो-" ऐसा कहने पर वे सुदत्त अनगार श्री सुधर्मा स्थविर के पास से चल कर कायिक तथा मानसिक चपलता से रहित अभ्रान्त और शान्तरूप से तथा स्वदेहप्रमाण दृष्टिपात कर के ईर्यासमिति का पालन करते हुए जहां हस्तिनापुर नगर था वहां पहुंच जाते हैं, और निम्न तथा मध्यम स्थिति के कुलों में-। -सुहम्मे थेरे आपुच्छइ-सुधर्मणः स्थविरानापृच्छति। अर्थात् सुदत्त मुनि सुधर्मा स्थविर को पूछते हैं / इस पाठ के स्थान में यदि "-धम्मघोसे थेरे आपुच्छइ-" यह पाठ होता तो बहुत अच्छा था। कारण कि प्रकृत में सुधर्मा स्थविर का कोई प्रसंग नहीं है। कथासन्दर्भ के आरम्भ में भी सूत्रकार ने सुदत्त मुनि को धर्मघोष स्थविर का अन्तेवासी बताया है। अतः 1. संयमशील संसारत्यागी मुनि की दृष्टि में धनी और निर्धन, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शूद्र सब बराबर हैं, पर यदि इन में आचारसम्पत्ति हो। साधु के लिए ऊंच और नीच का कोई भेदभाव नहीं होता। उच्च, नीच और मध्यमकुल में भिक्षार्थ साधु का भ्रमण करना शास्त्रसम्मत है। अतः उच्चकुल में गोचरी करना और नीच कुल में या सामान्य कुल में न करना साधुधर्म के विरुद्ध है। साधु प्राणिमात्र पर संमभाव रखते हैं, किन्तु जो आचारहीन हैं तथा आचारहीनता के कारण लोक में अस्पृश्य या घृणित समझे जाते हैं, उन के यहां भिक्षार्थ जाना लोकदृष्टि से निषिद्ध है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [883 Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां पर "-सुहम्मे-" यह पाठ कुछ संगत नहीं जान पड़ता और यदि "-स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया-" इस न्याय के अनुसार सूत्रगत पाठ पर विचार किया जाए तो सूत्रकार ने "सुधर्मा" यह "धर्मघोष" का ही दूसरा नाम सूचित किया हुआ प्रतीत होता है। अर्थात् सुदत्त अनगार के गुरुदेव धर्मघोष और सुधर्मा इन दोनों नामों से विख्यात थे। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने धर्मघोष के बदले "सुहम्मे-सुधर्मा" इस पद का उल्लेख किया है। इस पाठ के सम्बन्ध में वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि "-सुहम्मे थेरे-" त्ति धर्मघोषस्थविरमित्यर्थः। धर्मशब्दसाम्यात् शब्दद्वयस्याप्येकार्थत्वात्-इस प्रकार कहते हैं। तात्पर्य यह है कि "सुधर्मा और धर्मघोष" इन दोनों में धर्म शब्द समान है, उस समानता को लेकर ये दो शब्द एक ही अर्थ के परिचायक हैं। सुधर्मा शब्द से धर्मघोष और धर्मघोष से सुधर्मा का ग्रहण होता है। यहां पर उल्लेख किए गए "-सुहम्मे थेरे-" शब्द से जम्बूस्वामी के गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के ग्रहण की भूल तो कभी भी नहीं होनी चाहिए। उन का इन से कोई सम्बन्ध नहीं है। .. सुमुख गृहपति के घर में प्रवेश करने के अनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तए णं से सुमुहे गाहावई सुदत्तं अणगारं एज्जमाणं पासइ पासित्ता हठ्ठतुढे आसणाओ अब्भुट्टेइ अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ ओमुइत्ता एगसाडियं उत्त० सुदत्तं अणगारं सत्तट्ठपयाई पच्चुग्गच्छइ पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आया वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयहत्थेणं विउलेणं असणं पाणं 4 पडिलाभेस्सामि त्ति कट्ट तुढे 3 / तए णं तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धेणं 3 तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं सुदत्ते अणगारे पडिलाभिए समाणे संसारे परित्तीकए, मणुस्साउए निबद्धे, गिहंसि य से इमाइं पञ्च दिव्वाइं पाउब्भूयाई, तंजहा-१-वसुहारा वुट्ठा, २-दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए, ३चेलुक्खेवे कए, ४-आहयाओ देवदुन्दुहीओ, ५-अंतरा वि य णं आगासंसि अहोदाणं अहोदाणं घुटुं।हत्थिणाउरे सिंघाडग० जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ ४-धन्ने णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई जाव तं धन्ने 5 / से सुमुहे गाहावई बहूई वाससयाइं आउयं पालेइ पालित्ता कालमासे कालं किच्चा इहेव हत्थिसीसए णगरे अदीणसत्तुस्स रण्णो धारिणीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए 884 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववन्ने। तए णं सा धारिणी देवी सयणिज्जंसि सुत्तजागरा 'ओहीरमाणी 2 तहेव सीहं पासइ / सेसं तं चेव जाव उप्पिं पासाए विहरइ / एवं खलु गोयमा! - सुबाहुणा इमा एयारूवा मणुस्सरिद्धी लद्धा 3 / छाया-ततः स सुमुखो गाथापतिः सुदत्तमनगारमायान्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टः आसनादभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्य पादुके अवमुञ्चति अवमुच्य एकशाटिकमुत्त० सुदत्तमनगारं सप्ताष्टपदानि प्रत्युद्गच्छति प्रत्युद्गत्य त्रिवारमादक्षिण वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव भक्तगृहं तत्रैवोपागच्छति; उपागत्य स्वहस्तेन विपुलेन अशनपान० 4 प्रतिलम्भिष्यामीति तुष्ट: 3 / ततस्तेन सुमुखेन गाथापतिना तेन द्रव्यशुद्धेन 3 त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन सुदत्तेऽनगारे प्रतिलम्भिते सति संसारः परीतीकृतः, मनुष्यायुर्निबद्धम् / गृहे च तस्य इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-१-वसुधारा वृष्टा। २-दशार्द्धवर्णकुसुमं निपातितम्। ३-चेलोत्क्षेपः कृतः। ४-आहता देवदुन्दुभयः।५-अन्तरापि चाकाशे अहोदानमहोदानं घुष्टं च / हस्तिनापुरे शृंगाटक यावत् पथेषु बहुजनोऽन्योऽन्यं एवमाख्याति ४-धन्यो देवानुप्रियाः ! सुमुखो गाथापतिः यावद् तद्धन्यः 5 / स सुमुखो गाथापतिः बहूनि वर्षशतानि आयुः पालयति पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा इहैव अदीनशत्रोः राज्ञो धारिण्या देव्याः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः। ततः सा धारिणी देवी शयनीये सुप्तजागरा (निद्राति) 2 हस्तिशीर्षके नगरे तथैव सिंहं पश्यति / शेषं तदेव यावत् उपरि प्रासादे विहरति / तदेवं खलु गौतम! सुबाहुना इयमेतद्रूपा मनुष्यर्द्धिर्लब्धा 3 / पदार्थ-तएणं-तदनन्तर।से-वह। सुमुहे-सुमुख।गाहावई-गाथापति / सुदत्तं-सुदत्त ।अणगारंअनगार को। एजमाणं-आते हुए को। पासइ-देखता है। पासित्ता-देख कर। हट्ठतुढे-हृष्टतुष्ट-अत्यन्त प्रसन्न हुआ 2 / आसणाओ-आसन से। अब्भुटेइ-उठता है।अब्भुट्ठित्ता-आसन से उठकर / पायपीढाओपादपीठ-पांव रखने के आसन से। पच्चोरुहइ-उतरता है। पच्चोरुहित्ता-उतर कर / पाउयाओ-पादुकाओं को।ओमुयइ-छोड़ता है। ओमुइत्ता-छोड़ कर / एगसाडियं-एकशाटिक-एक कपड़ा जो बीच में सिया हुआ न हो, इस प्रकार का / उत्त०-उत्तरासंग (उत्तरीय वस्त्र का शरीर में न्यासविशेष) करता है, उत्तरासंग करने के अनन्तर। सुदत्तं-सुदत्त। अणगारं-अनगार के। सत्तट्ठपयाई-सात-आठ कदम, सत्कार के लिए। पच्चुग्गच्छइ-सामने जाता है। पच्चुग्गच्छित्ता-सामने जा कर। तिक्खुत्तो-तीन-बार। आया० 1. वारं वारमीषन्निद्रां गच्छन्तीत्यर्थः (वृत्तिकारः)। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [885 Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदक्षिण प्रदक्षिणा करता है, कर के। वंदइ-वन्दना करता है। नमसइ-नमस्कार करता है। वंदित्ता नमंसित्ता-वंदना तथा नमस्कार कर के। जेणेव-जहां। भत्तघरे-भक्तगृह था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छइ उवागच्छित्ता-आता है, आकर। सयहत्थेणं-अपने हाथ से। विउलेणं-विपुल। असणं पाणं ४-अशन, पान आदि चतुर्विध आहार का। पडिलाभेस्सामि त्ति-दान दूंगा अथवा दान का लाभ प्राप्त करूंगा, इस विचार से। तुढे ३-प्रसन्नचित्त हुआ अर्थात् अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त होता हुआ। तए णं-तदनन्तर। तस्स-उस। सुमुहस्स-सुमुख। गाहावइस्स-गाथापति के। तेणं-उस। दव्वसुद्धेणं-शुद्ध द्रव्य से, तथा। तिविहेणं-त्रिविध / तिकरणसुद्धेणं-त्रिकरणशुद्धि से। सुदत्ते-सुदत्त / अणगारे-अनगार के। पडिलाभिए समाणे-प्रतिलाभित होने पर अर्थात् सुदत्त अनगार को विशुद्ध भावना द्वारा शुद्ध आहार के दान से अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुए सुमुख गाथापति ने। संसारे-संसार को-जन्म मरण की परम्परा को। परित्तीकएबहुत कम कर दिया, और। मणुस्साउए-मनुष्य आयु का-उत्तम मानव भाव का। निबद्धे-बन्ध किया अर्थात् मनुष्य जन्म देने वाले पुण्यकर्मदलिकों को बांधा। य-और। से-उस के। गिहंसि-घर में। इमाईये। पंच-पांच। दिव्वाइं-दिव्य-देवकृत। पाउब्भूयाई-प्रकट हुए। तंजहा-जैसे कि। १-वसुहारावसु-सुवर्ण की धारा की। वुट्ठा-वृष्टि हुई।२-दसद्धवण्णे-पांच वर्षों के। कुसुमे-पुष्पों को निवाइएगिराया गया। ३-चेलुक्खेवे-वस्त्रों का उत्क्षेप। कए-किया गया। ४-देवदुंदुभीओ-देवदुन्दुभियां। आहयाओ-बजाई गईं।५-आगासंसि अंतरा वि य णं-और आकाश के मध्य में। अहोदाणं अहोदाणं च-अहोदान अहोदान, ऐसी। घुटुं-उद्घोषणा हुई। हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर में। सिंघाडग-त्रिपथ / जावयावत्। पहेसु-सामान्य रास्तों में। बहुजणो-बहुत से लोग। अन्नमन्नस्स-एक-दूसरे को। एवं-इस प्रकार। आइक्खइ ४-कहते हैं, 4 / धन्ने णं-धन्य है। देवाणुप्पिया !-हे महानुभावो ! सुमुहे-सुमुख। गाहावई-गाथापति। जाव-यावत्। तं-वह। धन्ने ५-धन्य है, 5 / से-वहं। सुमुहे-सुमुख। गाहावईगाथापति। बहूई-बहुत। वाससयाई-सैंकड़ों वर्षों की। आउयं-आयु का। पालेइ पालित्ता-उपभोग करता है, उपभोग कर के।कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल कर के।इहेव-इसी। हत्थिसीसएहस्तिशीर्षक / णगरे-नगर में। अदीणसत्तुस्स-अदीनशत्रु / रण्णो-राजा की। धारिणीए-धारिणी। देवीएदेवी की। कुच्छिंसि-कुक्षि में-उदर में। पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ-पुत्ररूप से गर्भ में आया। तए णं-तदनन्तर। सा-वह। धारिणी-धारिणी। देवी-देवी। सयणिज्जंसि-अपनी शय्या पर। सुत्तजागरा-कुछ सोई तथा कुछ जागती हुई, अर्थात् / ओहीरमाणी २-ईषत् निद्रा लेती हुई। तहेव-तथैवउसी तरह। सीहं-सिंह को। पासइ-देखती है। सेसं-बाकी सब। तं-चेव-उसी भांति जानना। जावयावत्। उप्पिं पासाए-ऊपर प्रासादों में। विहरइ-भोगों का उपभोग करता है। तं-अतः। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोयमा !-हे गौतम ! सुबाहुणा-सुबाहुकुमार ने। इमा-यह। एयारूवा-इस प्रकार की। मणुस्सरिद्धी-मानवी समृद्धि / लद्धा ३-उपलब्ध की है। मूलार्थ-तदनन्तर सुमुख गाथापति आते हुए सुदत्त अनगार को देखता है, देख 1. परीतीकृतः। परि समन्तात् इतः-गतः इतिः परीतः। अपरीतः परीतः कृत इति परीतीकृतः, पराङ्मुखीकृतः प्रतिनिवर्तित इत्यर्थः / अल्पीकृत इति यावत्। 886 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर अत्यन्त प्रसन्नचित्त से आसन पर से उठता है, उठ कर पादपीठ से उतरता है, उतर कर पादुका को त्याग कर एकशाटिक उत्तरासंग के द्वारा सुदत्त अनगार के स्वागत के लिए सात-आठ कदम सामने जाता है, सामने जाकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है, करके वन्दना-नमस्कार करता है, वन्दना-नमस्कार करने के अनन्तर जहां पर भक्तगृह है-रसोई है, वहां आता है, आकर आज मैं अपने हाथ से विपुल अशन, पानादि के द्वारा सुदत्त अनगार को प्रतिलाभित करूंगा अर्थात् सुपात्र को दान दूंगा, ऐसा विचार कर नितान्त प्रसन्न होता है। तदनन्तर उस सुमुख गृहपति ने उस शुद्ध द्रव्य तथा त्रिविध त्रिकरणशुद्धि से सुदत्त अनगार को प्रतिलाभित करने पर संसार को संक्षिप्त किया और मनुष्य आयु का बन्ध किया, तथा उस के घर में -१-सुवर्ण वृष्टि, २-पांच वर्षों के फूलों की वर्षा, ३-वस्त्रों का उत्क्षेप, ४-देवदुंदुभियों का आहत होना, ५-आकाश में अहोदान, अहोदान, ऐसी उद्घोषणा का होना-ये पांच दिव्य प्रकट हुए। ___ हस्तिनापुर नगर के त्रिपथ यावत् सामान्य मार्गों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर आपस में एक-दूसरे से कहते थे-हे देवानुप्रियो ! धन्य है सुमुख गाथापति यावत् धन्य है सुमुख गाथांपति। तदनन्तर वह सुमुख गृहपति सैंकड़ों वर्षों की आयु भोग कर कालमास में काल करके इसी हस्तिशीर्षक नगर में महाराज अदीनशत्रु की धारिणी देवी की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह धारिणी देवी अपनी शय्या पर किंचित् सोई और किंचित् जागती हई स्वप्न में सिंह को देखती है। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना यावत् उन्नत प्रासादों में विषयभोगों का यथेच्छ उपभोग करने लगा। टीका-शास्त्रों में भिक्षा तीन प्रकार की बताई गई है। पहली-सर्वसम्पत्करी, दूसरी वृत्ति और तीसरी पौरुषघातिनी। जिन मुनियों ने सांसारिक व्यवहार का सर्वथा परित्याग कर दिया है, जो पांच महाव्रतों का सम्यक्तया पालन करते हैं और जिन का हृदय करुणा से सदा ओतप्रोत रहता है, वे मुनि केवल संयमरक्षा के लिए जो भिक्षा लेते हैं, वह भिक्षा सर्वसम्पत्करी कहलाती है। यह भिक्षा लेने और देने वाले, दोनों के लिए हितसाधक और आत्मविकास की जनिका होती है। इस के अतिरिक्त यह भिक्षा स्वयं साधक की आत्मा में, समाज में तथा राष्ट्र में सदाचार का प्रचण्ड तेज संचारित करने वाली होती है। जो मनुष्य लूला, लंगड़ा या अंधा है, स्वयं कमा कर खाने में असमर्थ है, वह अपने जीवननिर्वाह के लिए जो भिक्षा मांगता है वह वृत्ति भिक्षा कहलाती है। जैसे दूसरे लोग कमा कर खाते हैं उसी तरह वह भी भिक्षा के द्वारा अपनी आजीविका चलाता है। तात्पर्य यह है कि यह भिक्षा ही उस की आजीविका है द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [887 Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए यह भिक्षा वृत्ति के नाम से प्रसिद्ध है। जो मनुष्य हट्टा-कट्टा और स्वस्थ है, बलवान् है, कमा कर खाने के योग्य है परन्तु कमाना न पड़े इस अभिप्राय से मांग कर खाता है, उस की भिक्षा पुरुषार्थ की घातिका होने से पौरुषघातिनी मानी जाती है। सुदत्त अनगार की भिक्षा पहली श्रेणी की है अर्थात् सर्वसम्पत्करी भिक्षा है। यह भिक्षा के श्रेणीविभाग से अनायास ही सिद्ध हो जाता है। इस के अतिरिक्त इस भिक्षा में भी अध्यवसाय की प्रधानता के अनुसार फल की तरतमता होती है। भिक्षा देने वाले गृहस्थ के जैसे भाव होंगे उस के अनुसार ही फल निष्पन्न होता है। सुदत्त अनगार को घर में प्रवेश करते देख सुमुख गृहपति बड़ा प्रसन्न हुआ। उस का मन सूर्य-विकासी कमल की भाँति हर्ष के मारे खिल उठा। वह अपने आसन पर से उठ कर, नंगे पांव सुदत्त मुनि के स्वागत के लिए सात-आठ कदम आगे गया और उसने तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा कर के मुनि को भक्तिभाव से वन्दन-नमस्कार किया। तदनन्तर श्री सुदत्त * . मुनि का उचित शब्दों में स्वागत करता हुआ बोला कि प्रभो ! मेरा अहोभाग्य है। आज मेरा घर, मेरा परिवार सभी कुछ पावन हो गया। आप की चरणरज से पुनीत हुआ सुमुख आज अपने आप की जितनी भी सराहना करे उतनी ही कम है। इस प्रकार कहते हुए उसने श्री सुदत्त मुनि को भोजनशाला की ओर पधारने की प्रार्थना की और अपने हाथ से उन्हें निर्दोष आहार दे कर अपने आप को परम भाग्यशाली बनाने का स्तुत्य प्रयास किया। आहार देते समय उस के भाव इतने शुद्ध थे कि उन के प्रभाव से उस ने उसी समय मनुष्यभवसंबंधी आयु का पुण्य बन्ध कर लिया। तपस्विराज मुनि सुदत्त का सुमुख गृहपति के घर अकस्मात् पधारना भी किसी गंभीर आशय का सूचक है। सन्तसमागम किसी पुण्य से ही होता है। यह उक्ति आबालगोपाल प्रसिद्ध है और सर्वानुमोदित है। फिर एक तपोनिष्ठ संयमी एवं जितेन्द्रिय मुनिराज का समागम तो किसी पूर्वकृत महान् पुण्य को प्रकट करता है। श्री सुदत्त मुनि अनायास ही सुमुख गृहपति के घर आते हैं, इस का अर्थ है कि सुमुख का पूर्वोपार्जित शुभ कर्म उन्हें-सुदत्तमुनि को ऐसा करने की प्रेरणा करता है। अथवा प्रभावशाली तपस्विराज मुनिजनों का चरणन्यास वहीं पर होता है जहां पर पूर्वकृत शुभकर्म के अनुसार उपयुक्त समस्त सामग्री उपस्थित हो। वर्षा का जल किसी उपजाऊ भूमि में गिरे तभी लाभदायक होता है। बंजर भूमि में पड़ा हुआ वह फलप्रद नहीं होता। यही कारण है कि श्री सुदत्त मुनि सुमुख जैसी उपजाऊ भूमि में अनुग्रहरूप वर्षा बरसाने के लिए सजल मेघ के रूप में उस के घर में पधारे हैं। सच्चे दाता को दान का प्रसंग उपस्थित होने पर तीन बार हर्ष उत्पन्न होता है। 1 888 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज मैं दान दूंगा, आज मुझे बड़े सद्भाग्य से दान देने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। २-दान देते समय हर्षित होता है, और ३-दान देने के पश्चात् सन्तोष और आनन्द का अनुभव करता है। साधु ने इतना आहार लिया, जिस के मन में ऐसे भाव आते हैं, उसने दान का महत्त्व ही नहीं समझा, ऐसा समझना चाहिए। देय पदार्थ शुद्ध हो, उस में किसी प्रकार की त्रुटि न हो, दाता भी शुद्ध अर्थात् निर्मल भावना से युक्त हो और दान लेने वाला भी परम तपस्वी एवं जितेन्द्रिय अनगार हो। दूसरे शब्दों में-देय वस्तु, दाता और प्रतिग्रहीता-पात्र ये तीनों ही शुद्ध हों तो वह दान जन्म-मरण के बन्धनों को तोड़ने वाला और संसार को संक्षिप्त करने-कम करने वाला होता है-ऐसा कहा जा सकता है। सुमुख गृहपति के यहां ये तीनों ही शुद्ध थे। इसलिए उसने अलभ्य लाभ को संप्राप्त किया। ___ वैदिकसम्प्रदाय में गंगा, यमुना और सरस्वती इन को पुण्यतीर्थ माना गया है। इन तीनों के संगम को पुण्य त्रिवेणी कहा है। इसी को दूसरे शब्दों में तीर्थराज कहा जाता है और उसे पुण्य का उत्पादक माना गया है। किन्तु जैनपरम्परा में शुद्ध दाता, शुद्ध देय वस्तु और शुद्ध पात्र ये तीन तीर्थ माने गए हैं। इन तीनों के सम्मेलन से तीर्थराज बनता है। इस तीर्थराज की यात्रा करने वाला अपने जीवन का विकास करता हुआ दुर्गतियों में उपलब्ध होने वाले नानाविध दुःखों से छूट जाता है / इस के अतिरिक्त वह मनुष्यों तथा देवों का भी पूज्य बन जाता है। देवता लोग भी उस के चरणों के.स्पर्श से अपने को कृतकृत्य समझते हैं। सुमुख गृहपति ने इसी पुण्य त्रिवेणी में स्नान करके फलस्वरूप संसार को कम कर दिया और आगामी भव के लिए मनुष्य की आयु का बन्ध किया। इस के अतिरिक्त उस के घर में जो मोहरों की वृष्टि, पांच वर्ण के पुष्पों की वर्षा, वस्त्रों की वर्षा, दुन्दुभि का बजना तथा "अहोदान अहोदान" की घोषणा होना-ये पांच दिव्य प्रकट हुए, यह विधिपुरस्सर किए गए सुपात्रदानरूप तीर्थ में स्नान करने का ही प्रत्यक्ष फल है। जैसा कि प्रथम भी कहा गया है कि प्रत्येक कर्त्तव्य के पीछे करने वाले की जो अपनी भावना होती है, उसी के अनुसार कर्त्तव्य-कर्म के फल का निर्धारण होता है। मानव की भावना जितनी शुद्ध और बलवती होगी, उतना ही उस का फल भी विशुद्ध और बलवान् होगा। यह बात ऊपर के कथासन्दर्भ से स्पष्ट हो जाती है। जीवन के आन्तरिक विकास में देय वस्तु के परिमाण का कोई मूल्य नहीं होता अपितु भावना का मूल्य है। देय वस्तु समान होने पर भी भावना की तरतमता से उसके फल में विभेद हो जाता है। मानव जीवन के विकासक्षेत्र में भावना को जितना महत्त्व प्राप्त है उतना और किसी वस्तु को नहीं। भावना के प्रभाव से ही मरुदेवी माता, भरत चक्रवर्ती, प्रसन्नचन्द्र राजर्षि और कपिलमुनि प्रभृति आत्माओं ने केवलज्ञान द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [889 Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त कर निर्वाणपद को प्राप्त कर लिया था। तात्पर्य यह है कि मानव जीवन का उत्थान और पतन भावना पर ही अवलम्बित है। "यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी"-इस अभियुक्तोक्ति में अणुमात्र भी विसंवाद दिखाई नहीं देता अर्थात् इस की सत्यता निर्बाध है। प्रश्न-सुदत्त मुनि ने महीने की तपस्या का पारणा किया, आहार देने वाले सुमुख के घर सुवर्ण की दृष्टि हुई, यह ठीक है परन्तु आजकल दो-दो महीनों की तपस्या होती है और पारणा भी होता है मगर कहीं पर भी इस तरह से स्वर्ण की वृष्टि देखी वा सुनी नहीं जाती, ऐसा क्यों? उत्तर-सब से प्रथम ऐसा प्रश्न करने वालों या सोचने वालों को यह जान लेना चाहिए कि सुवर्णवृष्टि की लालसा ही उस वृष्टि में एक बड़ा भारी प्रतिबन्ध है, रुकावट है। जो लोग तपस्वी मुनि को आहार देकर मोहरों की वर्षा की अभिलाषा करते हैं, वे थोड़ा देकर बहुत की इच्छा करते हैं / यह तो स्पष्ट ही एक प्रकार की सौदेबाज़ी है जिस की पारमार्थिक जगत् / में कुछ भी कीमत नहीं। देव किसी व्यापारी या सौदेबाज़ के आंगन में मोहरों की वर्षा नहीं करते। मोहरों की वर्षा तो दाता के घर में हुआ करती है। सच्चा दाता दान के बदले में कुछ भी पाने की अभिलाषा नहीं करता, वह तो देने के लिए ही देता है, लेने के लिए नहीं। ऐसा दाता तो कोई विरला ही होता है और वसुधारा का वर्षण भी उसी के घर होता है। . इसके अतिरिक्त अगर कोई पुरुष भूख से पीड़ित हो रहा है तो उस की भूख मिटाने के लिए उसे कुछ खाने को देना, उस की अपेक्षा वह अपने लिए अधिक लाभकारी होता है। तात्पर्य यह है कि दान लेने वाले की अपेक्षा दान देने वाला अधिक लाभ उठाता है, इत्यादि बातों का स्पष्टीकरण प्रस्तुत में वर्णित सुमुख गृहपति के जीवन से अनायास ही हो जाता है। ___ प्रश्न-जिस समय सुमुख गृहपति ने सुदत्त मुनि के पात्र में आहार डाला तो उस समय देवताओं ने वसुधारा आदि की वृष्टि की और आकाश से अहोदान अहोदान की घोषणा की, इस में क्या हार्द है ? उत्तर-इस के द्वारा देवता यह सूचित करते हैं कि हे मनुष्यो! तुम बड़े भाग्यशाली हो, तुम को ही इस दान की योग्यता प्राप्त हुई है। हमारा ऐसा सद्भाग्य नहीं कि किसी सुपात्र को दान दे सकें। सब कुछ होते हुए भी हम कुछ नहीं कर सकते। तुम को ऐसा सुअवसर अनेक बार प्राप्त होता है, इसलिए तुम धन्य हो तथा तुम्हें योग्य है कि उस को हाथ से न जाने दो। सारांश यह है कि देवता लोग इस सुवर्णवृष्टि द्वारा शुद्ध हृदय से किए गए सुपात्रदान की भूरिभूरि प्रशंसा कर रहे हैं। प्रश्न-जिस समय श्री सुमुख गृहपति ने सुदत्तमुनि को दान दिया था वह समय 890 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष का सुवर्णमय युग था, जिसे लगभग तीन हजार वर्ष से भी अधिक समय हो चुका है। उस समय जितना सस्तापन था उसकी तो आज कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसे सस्तेपन के ज़माने में सुमुख गृहपति के द्वारा दिए आहार की कीमत भी बहुत कम ही होगी, तब इतनी साधारण चीज़ के बदले में देवों ने सुवर्ण जैसी महाद्य वस्तु की वृष्टि की इस का क्या कारण - उत्तर-इस का मुख्य कारण यही था कि दाता के भाव नितान्त शुद्ध थे। इसी कारण दान का मूल्य बढ़ गया, अतः देवों ने स्वर्ण की वर्षा की। वास्तव में देखा जाए तो देय वस्तु का मूल्य नहीं आंका जाता, वह स्वल्प मूल्य की हो या अधिक की। मूल्य तो भावना का होता है। बिना भावना के तो जीवन अर्पण किया हुआ भी किसी विशिष्ट फल को नहीं दे सकता। इस लिए दानादि समस्त कार्यों में भावना ही मूल्यवती है। प्रश्न-सुमुख गृहपति ने श्री सुदत्त मुनि को दान देने पर मनुष्य का आयुष्य बांधा, इस कथन से स्पष्ट सिद्ध होता है कि उस ने मिथ्यात्व की दशा में दान दिया, दूसरे शब्दों में वह मिथ्यात्वी था या होना चाहिए। उत्तरः-श्री सुमुख गृहपति को मिथ्यात्वी या मिथ्यादृष्टि कहना भूल करना है। संयमशील मुनिजनों में उस की जैसी अनन्य श्रद्धा थी, वैसी तो आजकल के उत्कृष्ट श्रावकों में भी दृष्टिगोचर नहीं होती। इस प्रकार की आन्तरिक भक्ति सम्यग्दृष्टि में ही हो सकती है और इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के जो-जो चिन्ह होते हैं, उन से वह सर्वथा परिपूर्ण था। प्रश्न-श्री भगवती सूत्र शतक 30 उद्देश्य 1 में लिखा है कि सम्यग्दृष्टि मनुष्य तथा पशु वैमानिक देवगति के अतिरिक्त अन्य किसी भी गति का बन्ध नहीं करता, परन्तु सुमुख गृहपति ने सम्यग्दृष्टि होते हुए भी मनुष्य आयु का बन्ध किया, देवगति का नहीं। इस से प्रमाणित होता है कि वह सम्यग्दृष्टि नहीं था। अगर सम्यग्दृष्टि होता तो वैमानिक देव बनता, मनुष्य नहीं। ___उत्तर-श्री भगवतीसूत्र में जो कुछ लिखा है, उस से सुमुख गृहपति का सम्यग्दृष्टि होना निषिद्ध नहीं हो सकता। वहां लिखा है कि जो मनुष्य और तिर्यंच विशिष्ट क्रियावादी (सम्यग्दृष्टि) होते हैं और निरतिचार व्रतों का पालन करते हैं वे ही वैमानिक की आयु का बन्ध करते हैं। इस से स्पष्ट विदित होता है कि भगवती सूत्र का उक्त कथन सामान्य सम्यग्दृष्टि के लिए नहीं किन्तु विशेष के लिए है। प्रश्न-श्री भगवती सूत्र में इस विषय का जो पाठ है उस में मात्र "क्रियावादी" पद है विशिष्ट क्रियावादी नहीं। ऐसी दशा में उस का विशिष्ट क्रियावादी अर्थ मानने के लिए कौन द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [891 Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा शास्त्रीय आधार है। उत्तर-यहां पर विशिष्ट क्रियावादी का ही ग्रहण करना उचित है। इस के लिए श्री दशाश्रुतस्कन्ध का उल्लेख प्रमाण है। वहां लिखा है कि महारंभी और महापरिग्रही सम्यग्दृष्टि नरक में जाता है। यदि श्री भगवती सूत्रगत क्रियावादी पद से विशिष्ट सम्यग्दृष्टि अर्थ गृहीत न हो तो उस का भी दशाश्रुतस्कन्ध के साथ विरोध होता है। तात्पर्य यह है कि यदि सामान्यरूप से सभी सम्यग्दृष्टि वैमानिक की आयु का बन्ध करते हैं-यह आशय श्री भगवतीसूत्र के उल्लेख का हो तो श्री दशाश्रुतस्कन्धगत आरम्भ और परिग्रह की विशेषता रखने वाले सम्यग्दृष्टि को नरकप्राप्ति का उल्लेख विरुद्ध हो जाता है जो कि सिद्धान्त को इष्ट नहीं है और यदि क्रियावादी से विशिष्ट क्रियावादी अर्थ ग्रहण करें तो विरोध नहीं रहता। कारण कि जो विशिष्ट सम्यग्दृष्टि है उसी के लिए वैमानिक आयु के बन्ध का निर्देश है न कि सभी के लिए। दूसरे शब्दों में कहें तो श्री भगवतीसूत्र में जिस सम्यग्दृष्टि के लिए वैमानिक आयु के बन्ध का कथन है, वह सामान्य क्रियावादी के लिए नहीं अपितु विशिष्ट क्रियावादी-सम्यग्दृष्टि के लिए है, और जो श्री दशाश्रुतस्कंध सूत्र में महारम्भी तथा महापरिग्रही के लिए नरकप्राप्ति का उल्लेख है वह सामान्य सम्यग्दृष्टि के लिए है, विशिष्ट सम्यग्दृष्टि के लिए नहीं। उस में तो महारम्भ और महापरिग्रह का सम्भव ही नहीं होता। प्रश्न-क्या श्री दशाश्रुतस्कन्धसूत्र के अतिरिक्त श्री भगवतीसूत्र में भी इस विषय का समर्थक कोई उल्लेख है ? उत्तर-हां है। भगवतीसूत्र में ही (श० 1, उ० 2) लिखा है कि विराधक श्रावक की उत्पत्ति जघन्य भवनवासी देवों में और उत्कृष्ट ज्योतिषी देवों में होती है। श्रावक के विराधक होने पर भी उसका सम्यक्त्व सुरक्षित रहता है अर्थात् वह क्रियावादी होने पर भी वैमानिक देवों में उत्पन्न न हो कर भवनवासी तथा ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होता है। इस से भी स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि भगवतीसूत्रगत उक्त क्रियावादी पद से विशिष्ट क्रियावादी का ही ग्रहण करना अभीष्ट है, सामान्य का नहीं। इसलिए श्री सुमुख गाथापति के सम्यग्दृष्टि होने में कोई सन्देह नहीं है। प्रश्न-यदि श्री सुमुख गाथापति को मिथ्यादृष्टि ही मान लिया जाए तो क्या हानि है? उत्तर-यही हानि है कि सुमुख गृहपति का परित्तसंसारी-परिमितसंसारी होना समर्थित नहीं होगा और यह बात शास्त्रविरुद्ध होगी। मिथ्यादृष्टि जीव का सदनुष्ठान अकामनिर्जरा (कर्मनाश की अनिच्छा से भूख आदि के सहन करने से जो निर्जरा होती है वह) का कारण 892 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनता है और वह-१अकामनिर्जरा वाला संसार को परित्त-परिमित नहीं कर सकता। संसार को परिमित करने के लिए तो सम्यक्त्व की आवश्यकता है। सम्यग्दृष्टि जीव का सदनुष्ठानशुभ कर्म ही सकामनिर्जरा (कर्मनाश की इच्छा से ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करने से होने वाली निर्जरा) का कारण है और उस से ही संसार परिमित होता है। ___ दूसरी बात-अनन्तानुबंधी क्रोधादि के नाश हुए बिना संसार परिमित नहीं हो सकता और अनन्तानुबंधी क्रोध का नाश सम्यक्त्व पाए बिना नहीं हो सकता। तब सुमुख गृहपति को परित्तसंसारी प्रमाणित करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उसे सम्यग्दृष्टि स्वीकार किया जाए। इस के अतिरिक्त एक बात और भी ध्यान देने योग्य है वह यह कि मिथ्यादृष्टि और उस की क्रिया को भगवान् की आज्ञा से बाहर माना है, जो कि युक्तिसंगत है। इसी न्याय के अनुसार सुमुख गृहपति की दानक्रिया को भी आज्ञाबाह्य ही कहना पड़ेगा, परन्तु वस्तुस्थिति इस के विपरीत है। अर्थात् सुमुख को मिथ्यादृष्टि और उस के सुपात्रदान को आज्ञाविरुद्ध नहीं माना गया है। अगर सुमुख मिथ्यादृष्टि है तो उस की दानक्रिया को आज्ञानुमोदित कैसे माना जा सकता है ? अतः जहां सुमुख की दानक्रिया भगवदाज्ञानुमोदित है वहां उसका सम्यग्दृष्टि होना भी भगवान् के कथनानुकूल ही है। प्रश्न-देवों का सुवर्णवृष्टि करना और "अहोदान अहोदान" की घोषणा करना क्या पापजनक नहीं है ? . - उत्तर-नहीं। इसे एक लौकिक उदाहरण से समझिए / कल्पना करो कि कोई गृहस्थ अपने पुत्र या पुत्री की सगाई करता है। यदि उस ने पुत्र की सगाई की है तो वह लड़की वालों के सम्मान का भाजन बनता है। लड़की का पिता उसे अपनी लड़की का श्वशुर जान कर उस का आदर, सम्मान करता है तथा सभ्य भाषण और भोजनादि से उसे प्रसन्न करने का यत्न * करता है। इस सम्मानसूचक व्यवहार से लड़के का पिता यह निश्चय कर लेता है कि सगाई पक्की हो गई। इन्हें मेरा लड़का और मेरा घर आदि सब कुछ पसन्द है। इसी प्रकार लड़की की सगाई में समझिए। यदि वह अपनी लड़की के श्वशुर का सम्मान करता है और वह उस के सम्मान को स्वीकार कर लेता है तो सगाई पक्की अन्यथा कच्ची समझ ली जाती है। बस इसी से मिलती जुलती बात की पुनरावृत्ति देवों की सुवर्णवृष्टि और देवकृत हर्षघोषणा ने की 1. श्री औपपातिकसूत्र के मूलपाठ में सम्वररहित निर्जरा की क्रिया को मोक्षमार्ग से अलग स्वीकार किया है। उस क्रिया का अनुष्ठान करने वाले मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव को मोक्षमार्ग का अनाराधक माना गया है। विशेष की जिज्ञासा रखने वाले पाठक श्री स्थानांग सूत्र (स्थान 3, उद्दे० 3) तथा श्री भगवती सूत्र के शतक पहले और उद्देश्य चतुर्थ को देख सकते हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [893 Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। हर्षध्वनि सुपात्रदान की प्रशंसासूचक है और सुवर्णवृष्टि उस की सफल अनुमोदना है। अब रही पुण्य और पाप की बात ? सो इस का उत्तर स्पष्ट है। जबकि सुपात्रदान कर्मनिर्जरा का हेतु है तो उस की प्रशंसा या अनुमोदना को पापजनक कैसे माना जा सकता है ? सारांश यह है कि स्वर्णवृष्टि और हर्षध्वनि से देवों ने किसी प्रकार के पाप का संचय नहीं किया प्रत्युत पुण्य का उपार्जन किया है। इस कथासंदर्भ से यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि जो लोग यह समझते या सोचते हैं कि हाय! हम न तो करोड़पति हैं, न लखपति / यदि होते तो हम भी दान करते, वे भूल करते हैं। सुमुख गाथापति ने कोई करोड़ों या लाखों का दान नहीं किया किन्तु थोड़े से अन्न का दान दिया था। उसी ने उस के संसार को परिमित कर दिया। अतः इस सम्बन्ध में किसी को भी निराश नहीं होना चाहिए। दान की कोई इयत्ता नहीं होती, वह थोड़ा भी बहुत फल देता है और बहुत भी निष्फल हो सकता है। दान की सफलता और विफलता का आधार - तो दाता के भावों पर निर्भर ठहरता है। देय वस्तु स्वल्प हो या अधिक इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता, अन्तर का कारण तो भावना है। दान देते समय दाता के हृदय में जैसी भावना होगी उसी के अनुसार ही फल मिलेगा। भावना का वेग यदि साधारण होगा तो साधारण फल मिलेगा और यदि वह असाधारण होगा तो उस का फल भी असाधारण ही प्राप्त होगा। तात्पर्य यह है कि पाप-पुण्य और निर्जरा में सर्वप्राधान्य भावना को ही प्राप्त है। भावनाशून्य हर एक अनुष्ठान निस्सार एवं निष्प्रयोजन है। संसार में दान का कितना महत्त्व है यह सुमुख गाथापति के जीवन से सहज ही में ज्ञात हो जाता है। वास्तव में दान के महत्त्व को समझाने के लिए ही इस कथासन्दर्भ का निर्माण किया गया है, अन्यथा गौतमस्वामी अपने ज्ञानबल से स्वयमेव सब कुछ जान लेने में समर्थ थे। ऐसा न कर सब के सन्मुख सुमुख गृहपति के जीवन को भगवान् से पूछने का यत्न करना निस्संदेह सांसारिक प्राणियों को दान की महिमा समझाने के लिए ही उन का पावन प्रयास है, तथा दान के प्रभाव को दिखाने के निमित्त ही सूत्रकार ने सुमुख गृहपति को, कई सौ वर्ष तक सानंद जीवन व्यतीत करने के अनन्तर मृत्युधर्म को प्राप्त हो कर महाराज अदीनशत्रु की सती साध्वी धारिणी देवी के गर्भ में पुत्ररूप से उत्पन्न होने और जन्म लेकर वहां के विपुल ऐश्वर्य का उपभोग करने वाला कहा है। 1. भावना के सम्बन्ध में निम्नोक्त वीरवाणी मननीय है-' भावणाजोगसुद्धप्पा, जले नावा हि आहिया। नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ॥ (सूयगडांगसूत्र श्रुतस्कंध 1, अ० 15, गाथा 6) 894] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् कहते हैं-गौतम! इस सुमुख गृहपति का पुण्यशाली जीव ही धारिणी देवी के गर्भ में आकर सुबाहुकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ है। इस से यह सुबाहुकुमार पूर्वजन्म में कौन था? इत्यादि प्रश्नों का उत्तर भली-भांति स्फुट हो जाता है। प्रस्तुत कथासन्दर्भ के उत्तर में गौतम स्वामी की ओर से किए गए प्रश्नों के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया, उस से निष्पन्न होने वाले सारांश की तालिका नीचे उद्धृत की जाती है- गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर १-प्रश्न-सुबाहुकुमार पूर्वभव में कौन था ? उत्तर-एक प्रसिद्ध गाथापति-गृहस्थ था। २-प्रश्न-इसका नाम क्या था ? उत्तर-सुमुख गाथापति। ३-प्रश्न-इसका गोत्र क्या था ? उत्तर-(सूत्रसंकलन के समय छूट गया है) ४-प्रश्न-इसने क्या दान दिया ? उत्तर-सुदत्त अनगार को आहार दिया था। ५-प्रश्न-इसने क्या खाया था ? उत्तर-मानवोचित सात्त्विक भोजन। ६-प्रश्न-इसने क्या कृत्य किया था ? उत्तर-भावनापुरस्सर दानकार्य किया था। ७-प्रश्न-इस ने किस शील का पालन किया उत्तर-पांचों शीलों का। था? ८-प्रश्न-इस ने किस तथारूप मुनि के वचन उत्तर-तपस्विराज श्री सुदत्त मुनि जी __ सुने थे? . महाराज के। सुबाहुकुमार के पूर्वभवसम्बन्धी जीवनवृत्तान्त में अधिकतया सुपात्रदान का महत्त्व वर्णित हुआ है, जोकि प्रत्येक मुमुक्षु जीव के लिए आदरणीय तथा आचरणीय है। .. शास्त्रों में चार प्रकार के मेघ बताये गए हैं। जैसे कि-१-क्षेत्र में बरसने वाले, 2 अक्षेत्र में बरसने वाले, ३-क्षेत्र-अक्षेत्र दोनों में बरसने वाले, ४-क्षेत्र-अक्षेत्र दोनों में न बरसने वाले। इसी प्रकार चार तरह के दाता होते हैं। जैसे कि-१-क्षेत्र-सुपात्र को देने वाले, २अक्षेत्र-कुपात्र को देने वाले, ३-क्षेत्र-अक्षेत्र-सुपात्र तथा कुपात्र दोनों को देने वाले, ४-क्षेत्रअक्षेत्र-सुपात्र और कुपात्र दोनों को न देने वाले। इस में तीसरी श्रेणी के दाता बड़े उदार होते हैं। वे सुपात्र को तो देते ही हैं परन्तु प्रवचनप्रभावना आदि के निमित्त कुपात्र को भी दान देते हैं / कुपात्र कर्मनिर्जरा की दृष्टि से चाहे दान के अयोग्य होता है परन्तु अनुकम्पा-करुणा बुद्धि से वह भी योग्य होता है। सभी दानों में सुपात्रदान प्रधान है, यह महती कर्मनिर्जरा का हेतु होता है, तथा दाता को जन्ममरणपरम्परा के भयंकर रोग से विमुक्त करने वाली रामबाण औषधि है। इस के सेवन से साधक आत्मा एक न एक दिन जन्म और मृत्यु के बन्धन से सदा के लिए छूट जाता है। इसके अतिरिक्त घर में आए हुए मुनिराज का अभ्युत्थानादि से किस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [895 Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वागत करना चाहिए और उनको आहार देते समय कैसी भावना को हृदय में स्थान देना चाहिए एवं आहार दे चुकने के बाद मन में किस हद तक सन्तोष प्रकट करना चाहिए इत्यादि गृहस्थोचित सद्व्यवहार की शिक्षा के लिए सुमुख गाथापति के जीवनवृत्तान्त का अध्ययन पर्याप्त है। हृष्ट तुष्ट-शब्द के १-हृष्ट-मुनि के दर्शन से हर्षित तथा तुष्ट-सन्तोष को प्राप्त अर्थात् मैं धन्य हूँ कि आज मुझे सुपात्रदान का सुअवसर प्राप्त होगा, इस विचार से सन्तुष्ट / २-अत्यन्त प्रमोद से युक्त, ऐसे अनेकों अर्थ पाए जाते हैं। सिंहासन के नीचे पैर रखने के एक आसनविशेष की पादपीठ संज्ञा होती है। पादुका खड़ाऊं का ही दूसरा नाम है। __-उत्त-यहां के बिन्दु से-उत्तरासंगं करेइ करित्ता-इस पाठ का ग्रहण करना चाहिए। उत्तरासंग का अर्थ होता है-एक अस्यूत वस्त्र के द्वारा मुख को आच्छादित करना। -सत्तटुपयाइं-सप्ताष्टपदानि-इस का सामान्य अर्थ-सात-आठ पांव-यह होता है। यहां पर मात्र सात या आठ का ग्रहण न करके सूत्रकार ने जो सात और आठ इन दोनों का एक साथ ग्रहण किया है, इस में एक रहस्य है, वह यह है कि जब आदमी दोनों पांव जोड़ कर खड़ा होता है, तब चलने पर एक पांव आगे होगा और दूसरा पांव पीछे / चलते-चलते जब अगले पांव से सात कदम पूरे हो जाएंगे तब उसी दशा में स्थित रहने से एक कदम आगे और एक पीछे, ऐसी स्थिति होगी, और तदनन्तर पिछले पांव को. उठा कर दूसरे पांव के साथ मिलाने से खड़े होने की स्थिति सम्पन्न होती है। ऐसे क्रम में जो पांव आगे था उस से तो सात कदम होते हैं और जिस समय पिछला पांव अगले पांव के साथ मिलाया जाता है, उस समय आठ कदम होते हैं / तात्पर्य यह है कि एक पांव से सात क़दम रहते हैं और दूसरे से आठ क़दम होते हैं। इसी भाव को सूचित करने के लिए सूत्रकार ने केवल सात या आठ का उल्लेख न कर के-सत्तट्ठपयाई-ऐसा उल्लेख किया है, जो कि समुचित ही है। _-तिक्खुत्तो आया०-यहां का बिन्दु-हिणं पयाहिणं करेइ करित्ता-इन पदों का संसूचक है। इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। प्रस्तुत में पढ़े गए-तिक्खुत्तो-इत्यादि पद वन्दना-विधि के पाठ का संक्षिप्त रूप है। वन्दना का सम्पूर्ण पाठ निम्नोक्त है "-तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि वंदामि नमसामि सक्कारेमि सम्माणेमि 1. वन्दना के द्रव्य और भाव से दो भेद पाए जाते हैं। उपयोगशून्य होते हुए शरीर के-दो हाथ, दो पैर और एक मस्तक-इन पांच अंगों को नत करना द्रव्यवन्दन कहलाता है, तथा जब इन्हीं पांचों अंगों से भावसहित विशुद्ध एवं निर्मल मन के उपयोग से वन्दन किया जाता है तब वह भाववन्दन कहलाता है। 896 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण वंदामि-" अर्थात् मैं तीन बार गुरु महाराज की.दक्षिण की ओर से लेकर प्रदक्षिणा (हाथों का आवर्त-घुमाना) करता हूं, स्तुति करता हूँ, नमस्कार करता हूं, सत्कार करता हूँ, सम्मान करता हूँ, गुरु महाराज कल्याणकारी हैं, मंगलकारी हैं, धर्म के देव हैं और ज्ञान के भण्डार हैं, ऐसे गुरु महाराज की मन, वचन और काया से सेवा करता हूँ, श्री गुरु महाराज को मस्तक झुका कर वन्दना करता हूँ। _ -सयहत्थेणं विउलेणं असणं पाणं ४-यहां के 4 से खाइमं और साइमं इन दो का भी ग्रहण जानना चाहिए। इस उल्लेख में-सयहत्थेणं-का यह भाव है कि सुमुख गृहपति के मानस में इस विचार से परम हर्ष हुआ कि मैं आज स्वयं अपने हाथों से मुनि महाराज को आहार दूंगा।आजकल के श्रावक को इस से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। जब भी साधु महाराज घर पर पधारें तो स्वयं अपने हाथ से दान देने का संकल्प तथा तदनुसार आचरण करना चाहिए। जो लाभ अपने हाथ से देने में होता है, वह किसी दूसरे के हाथ से दिलवाने में प्राप्त नहीं होता, यह बात श्री सुमुख गाथापति के जीवन से भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है। फलतः जो श्रावक नौकरों से ही दान कराते हैं, वे भूल करते हैं। _-तुठे ३-यहां पर उल्लेख किए गए 3 के अंक से-पडिलार्भमाणे तुट्टे, पडिलाभिए वि तुढे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का भावार्थ है कि सुमुख गृहपति दान देते समय मुदित-प्रसन्न हुआ और दान देने के पश्चात् भी हर्षित हुआ। दान देने के पूर्व, दान देने के समय और दान देने के पश्चात् भी प्रसन्नता का अनुभव करना, यही दाता की विशेषता का प्रत्यक्ष चिह्न होता है। .. -दव्वसुद्धेणं ३-यहां दिए गए 3 के अंक से-गाहगसुद्धेणं, दायगसुद्धेणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अभिप्राय ग्राहकशुद्धि से और दाता की शुद्धि से है, अर्थात् दान देने वाला और दान लेने वाला, दोनों ही शुद्ध होने चाहिएं। दान के सम्बन्ध में जैसा कि पहले बताया गया है, दाता, देय और ग्राहक-ये तीनों जहां 1. पहले समय में तीर्थंकर या गुरुदेव समवसरण के ठीक बीच में बैठा करते थे, अतः आगन्तुक व्यक्ति भगवान् को या गुरुदेव के चारों ओर घूम कर फिर सामने आकर पांचों अङ्ग नमा कर वन्दन किया करता था। घूमना गुरुदेव के दाहिने हाथ से आरम्भ किया जाता था, इन सारे भावों को आदक्षिण-प्रदक्षिणा, इन पदों द्वारा सूचित किया गया है, परन्तु आज यह परम्परा विच्छिन्न हो गई है, आज तो गुरुदेव के दाहिनी ओर से बाईं ओर अंजलिबद्ध हाथ घुमा कर आवर्तन किया जाता है। आवर्तन ने ही प्रदक्षिणा का स्थान ले लिया है। आजकल की इस प्रकार की प्रदक्षिणा-क्रिया का स्पष्ट रूप आरती उतारने की क्रिया में दृष्टिगोचर होता है। अञ्जलिबद्ध हाथों का आवर्तन प्राचीन प्रदक्षिणा का मात्र प्रतीक है। 2. अशन, पान,खादिम और स्वादिम इन पदों का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथमाध्याय में टिप्पणी में दिया जा चुका है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [897 Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देय और श्री सुदत्त मुनि आदाता-ग्राहक हैं। ये तीनों ही शुद्ध थे। अर्थात् दाता की भावना ऊंची थी, देय वस्तु-आहारादि प्रासुक-निर्दोष थी और ग्राहक सर्वोत्तम था। इसलिए दान भी सर्व प्रकार से फलदायक सम्पन्न हुआ। ___-तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स-यहां तृतीया के स्थान में-हैमशब्दानुशासन शब्दशास्त्र के-क्वचिद् द्वितीयादेः।८-३-१३४। इस सूत्र से षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। -तिविहेणं-तिकरणसुद्धेणं-(तीन प्रकार की करणशुद्धि से) इन पदों का भावार्थ है कि जिस समय सुमुख गृहपति आहार दे रहा था, उस समय उस के तीनों करण-मन, वचन और काया शुद्ध थे। आहार देते समय सुमुख गृहपति की मनोवृत्ति, वाणी का व्यापार, शारीरिक चेष्टा-ये तीनों ही संयत, प्रशस्त अथच निर्दोष थीं। ___ -परित्तीकते-इस का भावार्थ है-सुमुख गृहपति ने उक्त सुपात्रदान से संसारजन्ममरणरूप परम्परा को परिमित-स्वल्प कर दिया। इस के अतिरिक्त जैनपरिभाषा के अनुसार "परित्तसंसारी" उसे कहते हैं, जिस का जघन्य (कम से कम) काल अन्तर्मुहूर्त हो और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) काल देशोन-थोड़ा सा कम, अर्धपुद्गलपरावर्तन हो। अर्थात् जिस का जन्ममरणरूप संसार कम से कम 'अन्तर्मुहूर्त का, अधिक से अधिक देशोनअर्धपुद्गलपरावर्तन तक रह जाए उसे परित्तसंसारी-परिमित संसार वाला कहते हैं। संसार अपरिमित है। उस की कोई इयत्ता नहीं है। यह प्रवाह से अनादि अनन्त है। इस अपरिमित जन्ममरण-परम्परा को अपने लिए परिमित कर देना किसी विशिष्ट आत्मा को ही आभारी होता है। परिमित संसारी का मोक्षगमन सुनिश्चित हो जाता है, इसलिए यह बड़े महत्त्व की वस्तु दिव्य का अर्थ है-देवसम्बन्धी या देवकृत। वसु का अर्थ है-सुवर्ण / उस की वृष्टि धारा कहलाती है। वास्तव में देवकृत सुवर्णवृष्टि को ही वसुधारा कहते हैं। कृष्ण, नील, पीत, श्वेत और रक्त ये पांच रंग पुष्पों में पाए जाते हैं। देवों से गिराए गए पुष्प वैक्रियलब्धिजन्य होते 1. द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठी भवति क्वचित्।सीमाधरस्स वन्दे। तिस्सा मुहस्स भरिमो। अत्र द्वितीयायाः षष्ठी। धणस्स लद्धो-धनेन लब्ध इत्यर्थः। चिरेण. . . (वृत्तिकारः) . ___2. एक जीव जितने समय में लोक के समस्त पुद्गलों को औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण इन शरीरों के रूप से तथा मन, वचन और काय के रूप से ग्रहण कर परिणमित कर ले अर्थात् लोक के सब पुद्गलों को औदारिक शरीर के रूप में, फिर वैक्रिय, फिर तैजस, फिर कार्मण शरीर के रूप में, फिर मन इसी भांति वचन और काय के रूप में समस्त पुद्गलों का ग्रहण करके परिणत करे। उतने काल को पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। उस के अर्धकाल को अर्धपुद्गलपरावर्तन कहते हैं। दूसरे शब्दों में-अनन्त अवसर्पिणी और अनन्त उत्सर्पिणी प्रमाण का एक कालविभाग अर्धपुद्गलपरावर्तन कहलाता है। 898 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। अतएव ये अचित्त होते हैं। यही इनकी विशेषता है। चेलोत्क्षेप-चेल नाम वस्त्र का है, उस का उत्क्षेप-फैंकना चेलोत्क्षेप कहलाता है। आश्चर्य उत्पन्न करने वाले दान की अहोदान संज्ञा है। सुवर्णवृष्टि, पुष्पवर्षण और चेलोत्क्षेप एवं दुन्दुभिनाद, ये सब ही आश्चर्योत्पादक हैं। इसलिए जिस दान के प्रभाव से ये प्रकट हुए हैं उसे अहोदान शब्द से व्यक्त करना नितरां समीचीन है। -सिंघाडग. जाव पहेसु-यहां पठित-जाव-यावत्-पद से-तियचउक्कचच्चरमहापह-इन पदों का ग्रहण होता है। त्रिकोण मार्ग की श्रृंगाटक संज्ञा है। जहां तीन रास्ते मिलते हों उसे त्रिक कहते हैं। चार रास्तों के सम्मिलित स्थान की चतुष्क-चौक संज्ञा है। जहां चार से भी अधिक रास्ते हों वह चत्वर कहलाता है। जहां बहुत से मनुष्यों का यातायात हो वह महापथ और सामान्यमार्ग की पथ संज्ञा होती है। __-एवं आइक्खइ ४-इस पाठ में उपन्यस्त 4 का अंक-एवं आइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ-इन चार पदों के बोध कराने के लिए दिया गया है। इस पर वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि कहते हैं कि प्रथम के-एवं आइक्खइ-(इस प्रकार कथन करते हैं), एवं भासइ (इस प्रकार भाषण करते हैं-इन दोनों पदों के अनुक्रम से व्याख्यारूप हीएवं पण्णवेइ (इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं), एवं परूवेइ (इस प्रकार प्ररूपण करते हैं)ये दो पद प्रयुक्त किए गए हैं। अथवा इन चारों का भावार्थ "-आइक्खइ-" सामान्यरूप में कहते हैं। भासइ-विशेषरूप में कहते हैं। पण्णवेइ-प्रमाण और युक्ति के द्वारा बोध कराते हैं। परूवेइ-भिन्न-भिन्न रूप से प्रतिपादन करते हैं, इस प्रकार समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सुमुख गृहपति के विषय में हस्तिनापुर की जनता इस प्रकार कहती है, इस प्रकार से बोलती है, इस प्रकार से बोध कराती है और विभिन्नरूप से निरूपण करती है। यदि कुछ गम्भीरता से विचार किया जाए तो "आख्याति, भाषते" इन दोनों के व्याख्यारूप में ही "प्रज्ञापयति और प्ररूपयति" ये दोनों पद प्रयुक्त हुए हैं या होने चाहिएं। वृत्तिकार का पहला कथनएतच्च पूर्वोक्तपदद्वयस्यैव क्रमेण व्याख्यानार्थं पदद्वयमवगन्तव्यम्-कुछ अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। आख्यान और भाषण की प्रज्ञापन और प्ररूपण अर्थात् युक्तिपूर्वक बोधन और विभिन्न प्रकार से निरूपण-यही सुचारु व्याख्या हो सकती है। 1. एवं आइक्खइ त्ति सामान्येनाचष्टे, इह चान्यदपि पदत्रयं द्रष्टव्यम्-एवं भासइ त्ति विशेषतः आचष्टे।एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ-एतच्च पदद्वयं पूर्वोक्तपदद्वयस्यैव क्रमेण व्याख्यानार्थं पदद्वयमवगन्तव्यम्। अथवा आख्यातीति तथैव, भाषते व्यक्तवचनैः, प्रज्ञापयातीति युक्तिभिर्बोधयति, प्ररूपयति तु भेदतः कथयतीति। (वृत्तिकारः) द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [899 Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -धन्ने णं देवा० सुमुहे गाहावई जाव तं धन्ने ५-इस स्थान में उल्लिखित जावयावत् पद से तथा 5 के अंक से भगवतीसूत्रानुसारी-धन्ने णं देवाणुप्पिया! सुमुहे गाहावई, कयत्थे णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई, कयपुण्णे णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई, कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया! सुमुहे गाहावई, कया णं लोया देवाणुप्पिया ! सुमुहस्स गाहावइस्स, सुलद्धे णं देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जन्मजीवियफले सुमुहस्स गाहावइस्स, जस्स णं गिहिंसि तहारूवे साहू साहुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाइंपंच दिव्वाइं पाउब्भूयाइं तंजहा-१-वसुहारा वुट्ठा, २-दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए, ३-चेलुक्खेवे कए, ४आहयाओ देवदुन्दुहीओ,५-अन्तरा वि यणं आगासे अहोदाणमहोदाणं च घुटुं, तं धन्ने कयत्थे कयपुन्ने कयलक्खणे कया णं लोया सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले सुमुहस्स गाहावइस्स सुमुहस्स गाहावइस्स-इस पाठ की ओर संकेत कराया गया है। अर्थात् हे महानुभावो ! यह सुमुख गाथापति धन्य है, कृतार्थ है-जिस का प्रयोजन सिद्ध हो गया है, कृतपुण्य-पुण्यशील है, कृतलक्षण है (जिस ने शरीरगत चिह्नों को सफल कर लिया है), इस ने दोनों लोक सफल कर लिए हैं, इसने अपने मनुष्य जन्म तथा जीवन को सफल कर लिया है-जन्म तथा जीवन का फल भलीभांति प्राप्त कर लिया है। जिस के घर में सौम्य आकार वाले तथारूप साधु (शास्त्रों में वर्णित हुए आचार का पालक मुनि के प्रतिलाभित होने पर अर्थात् मुनि को दान देने से-१-सोने की वर्षा, २-पांच वर्ण के पुष्पों की वर्षा, ३-वस्त्रों की वर्षा, ४-देवदुन्दुभियों का बजना, ५-आकाश में अहो (आश्चर्यकारक) दान, अहोदान-इस प्रकार की उद्घोषणा, ये पांच दिव्य प्रकट हुए हैं, इसलिए सुमुख गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है, इस ने दोनों लोक सफल कर लिए हैं, इस ने मनुष्य का जन्म तथा जीवन सफल कर लिया है। प्रस्तुत में प्रथम धन्य आदि पद देकर पुनः जो धन्य आदि पद पठित हुए हैं वे वीप्सा के संसूचक हैं। एक पाठ को एक से अधिक बार उच्चारण करने का नाम वीप्सा है। प्रस्तुत में वीप्सा के रूप में ही उक्त पाठ को दोबारा उच्चारण किया गया है। संभ्रम या आश्चर्य में वीप्सा दोषावह नहीं होती। 1. शाकटायन व्याकरण में लिखा है कि सम्भ्रम अर्थ में पदों का अनेक बार प्रयोग हो जाता है। जैसे कि-५५९-संभ्रमेऽसकृत्। २-३-१।संभ्रमे वर्तमानं पदं वाक्यं वा असकृदनेकवारं प्रयुज्यते। जय जय जय। जिन जिन जिन।अहिरहिरहिः। सर सर सर। हस्त्यागच्छति हस्त्यागच्छति हस्त्यागच्छति। लघु पलायध्वं लघु पलायध्वं लघु पलायध्वमित्यादि।इस के अतिरिक्त सिद्धान्त कौमुदी में लिखा है-"संभ्रमेण प्रवृत्तो यथेष्टमनेकधा प्रयोगो न्यायसिद्धः" (वा० 5056) सर्प सर्प सर्प। बुध्यस्व बुध्यस्व बुध्यस्व। इत्यादि पद दिए हैं जो कि वीप्सा के संसूचक हैं। प्रस्तुत में नगरनिवासी सुमुख गाथापति की जो पुनः पुनः प्रशंसा कर रहे हैं तथा इस में पदों का / अनेक बार जो प्रयोग हुआ है, वह भी वीप्सा के निमित्त ही है। 900 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -तहेव सीहं पासति-यहां पठित तथैव यह पद "-वैसे ही अर्थात् प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में माता धारिणी ने स्वप्न में मुख में प्रवेश करते हुए सिंह को देखा था, उसी भांति यहां भी समझ लेना चाहिए-" इस अर्थ का परिचायक है। तथा बालक का जन्म, उसका सुबाहुकुमार नाम रखना, पांच धायमाताओं के द्वारा सुबाहुकुमार का पालनपोषण, विद्या का अध्ययन, युवक सुबाहुकुमार के लिए 500 उत्तम महलों तथा उन में एक विशाल रमणीय भवन का निर्माण, पुष्पचूलाप्रमुख 500 राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण, माता-पिता का 500 की संख्या में प्रीतिदान-दहेज देना, सुबाहुकुमार का उस प्रीतिदान का अपनी पत्नियों में विभक्त करना तथा अपने महलों के ऊपर उन तरुण रमणियों के साथ 32 प्रकार के नाटकों के द्वारा सानन्द सांसारिक कामभोगों का उपभोग करना, इन सब बातों को संसूचित करने के लिए सूत्रकार ने-सेसं तं चेव जाव उप्पिं पासाए विहरइ-इन पदों का संकेत कर दिया है। इन सब बातों का सविस्तार वर्णन प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में किया जा चुका है। पाठक वहीं देख सकते हैं। लद्धा ३-यहां पर दिए गए 3 के अंक से-पत्ता अभिसमन्नागया-इन शेष पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ पूर्व में लिख दिया गया है। इस प्रकार सुबाहुकुमार के अतीत और वर्तमान जीवनवृत्तान्त का परिचय करा देने के बाद अब सूत्रकार उस.के भावी जीवनवृत्तान्त का वर्णन करते हैं- मूल-पभू णं भंते ! सुबाहुकुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ? हंता पभू। तए णं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वन्दित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं से समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ हत्थिसीसाओ णगराओ पुप्फकरंडाओ उजाणाओ कयवणमालजक्खायतणाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयं विहरइ। तए णं से सुबाहुकुमारे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ। तए णं सुबाहुकुमारे अन्नया चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छड्. उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ पमजित्ता उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथरेइ दब्भसंथारं दुरूहइ। अट्ठमभत्तं पगेण्हइ, पोसहसालाए पोसहिए अट्ठमभत्तिए पोसहं पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे विहरइ। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [901 Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-प्रभुः भदन्त ! सुबाहुकुमारो देवानुप्रियाणामन्तिके मुंडो भूत्वाऽगारादनगारतां प्रव्रजितुम् ? हन्त प्रभुः। ततः स भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति / ततःस श्रमणो भगवान् महावीरः अन्यदा कदाचित् हस्तिशीर्षाद् नगराद् पुष्पकरंडादुद्यानात् कृतवनमालयक्षायतनात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदं विहरति / ततः स सुबाहुकुमारः श्रमणोपासको जातः, अभिगतजीवाजीवो यावत् प्रतिलम्भयन् विहरति। ततः स सुबाहुकुमारोऽन्यदा चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपौर्णमासीषु यत्रैव पौषधशाला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य पौधषशालां प्रमाटि प्रमाW उच्चारप्रस्रवणभूमिं प्रतिलेखयति प्रतिलेख्य दर्भसंस्तारं संस्तृणोति, दर्भसंस्तारमारोहति / अष्टमभक्तं प्रगृण्हाति। पौषधशालायां पौषधिकोऽष्टमभक्तिकः पौषधं प्रतिजाग्रत् 2 विहरति। पदार्थ-भंते ! हे भदन्त! सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार। देवाणुप्पियाणं-आपश्री के। अंतिएपास। मुंडे भवित्ता-मुंडित हो कर। अगाराओ-अगार-घर को छोड़ कर। अणगारियं-अनगारधर्म को। पव्वइत्तए-प्राप्त करने में। पभू?-समर्थ है ? णं-वाक्यालंकारार्थक है। हंता-हां। पभू-समर्थ है। तए णं-तदनन्तर। से-वह। भगवं-भगवान्। गोयमे-गौतम। समणं-श्रमण। भगवं-भगवान् महावीर स्वामी को। वंदइ-वन्दना करते हैं। नमसइ-नमस्कार करते हैं। वंदित्ता जमंसित्ता-वंदना, नमस्कार करके। संजमेणं-संयम और। तवसा-तप के द्वारा। अप्पाणं-आत्मा को / भावेमाणे-भावित करते हुए। विहरइ-विहरण करने लगे। तए णं-तदनन्तर। से-वे। समणे-श्रमण। भगवं-भगवान् महावीर स्वामी। अन्नया-अन्यदा। कयाइ-किसी समय / हत्थिसीसाओ-हस्तिशीर्ष। णगराओ-नगर के। पुण्फंकरंडाओपुष्पकरंडक नामक / उज्जाणाओ-उद्यान से।कृतवणमालजक्खायतणाओ-कृतवनमाल नामक यक्षायतन से। पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता-निकलते हैं, निकल कर। बहिया-बाहर। जणवयं-जनपद-देश में। विहरइ-विहरण करने लगे। तए णं-तदनन्तर / से-वह। सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार। समणोवासएश्रमणोपासक-श्रावक-जैनगृहस्थ / जाए- हो गया। अभिगयजीवाजीव-जीव और अजीव आदि तत्त्वों का मर्मज्ञ / जाव-यावत्। पडिलाभेमाणे-आहारादि के दानजन्य लाभं को प्राप्त करता हुआ। विहरइविहरण करने लगा। तए णं-तदनन्तर / से-वह। सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार। अन्नया-अन्यदा। चाउद्दसट्ठमुट्ठिपुण्णमासिणीसु-चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट-अमावस्या और पूर्णमासी इन तिथियों में से किसी एक तिथि के दिन / जेणेव-जहां। पोसहसाला-पौषधशाला-पौषधव्रत करने का स्थान था। तेणेव-वहां / उवागच्छइ उवागच्छित्ता-आता है, आकर। पोसहसालं-पौषधशाला का / पमज्जइ पमजित्ताप्रमार्जन करता है, प्रमार्जन कर।उच्चारपासवणभूमि-उच्चारप्रस्रवणभूमि-मलमूत्र के स्थान की। पडिलेहेइप्रतिलेखना करता है, निरीक्षण करता है, देखभाल करता है। दब्भसंथारं-दर्भसंस्तार-कुशा का संस्तारआसन। संथारेइ-बिछाता है। दब्भसंथारं-दर्भ के आसन पर। दुरूहइ-आरूढ़ होता है। अट्ठमभत्तं 902 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमभक्त-तीन दिन का अविरत उपवास। पगेण्हइ-ग्रहण करता है। पोसहसालाए-पौषधशाला में। पोसहिए-पौषधिक-पौषधव्रत धारण किए हुए वह। अट्ठमभत्तिए-अष्टमभक्तिक-अष्टमभक्तसहित। पोसहं-पौषध-अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथि में करने योग्य जैन श्रावक का व्रतविशेष, अथवा आहारादि के त्यागपूर्वक किया जाने वाला धार्मिक अनुष्ठानविशेष का। पडिजागरमाणे पडिजागरमाणेपालन करता हुआ, 2 / विहरइ-विहरण करने लगा। ___मूलार्थ-भगवन् ! सुबाहुकुमार आपश्री के चरणों में मुंडित हो कर गृहस्थावास को त्याग कर अनगारधर्म को ग्रहण करने में समर्थ है ? .. भगवान्-हां गौतम ! है, अर्थात् प्रव्रजित होने में समर्थ है। तदनन्तर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार कर संयम और तप के द्वारा आत्मभावना करते हुए विहरण करने लगे, अर्थात् साधुचर्या के अनुसार समय बिताने लगे। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने किसी अन्य समय हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानगत कृतवनमाल नामक यक्षायतन से विहार कर अन्य देश में भ्रमण करना आरम्भ कर दिया। इधर सुबाहुकुमार जो कि श्रमणोपासक-श्रावक बन चुका था और जीवाजीवादि पदार्थों का जानकार हो गया था, आहारादि के दान द्वारा अपूर्व लाभ प्राप्त करता हुआ समय बिता रहा था। तत्पश्चात् किसी समय वह सुबाहुकुमार चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी के दिनों में से किसी एक दिन पौषधशाला में जाकर वहां की प्रमार्जना कर, उच्चार और प्रस्रवण भूमि का निरीक्षण करने के अनन्तर वहां कुशासन बिछा कर, उस पर आरूढ़ हो कर अष्टमभक्त-तीन उपवास को ग्रहण करता है, ग्रहण कर के पौषधशाला में पौषधयुक्त हो कर यथाविधि उस का पालन करता हुआ अर्थात् तेलापौषध कर के विहरण करने लगा-धार्मिक क्रियानुष्ठान में समय व्यतीत करने लगा। .. टीका-प्रस्तुत मूलपाठ में सुबाहुकुमार से सम्बन्ध रखने वाली मुख्य-१-गौतम स्वामी का प्रश्न और भगवान् का उत्तर। २-सुबाहुकुमार का तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाला सम्यक् बोध / ३-ग्रहण किए गए देशविरतिधर्म का सम्यक् पालन-इन तीन बातों का वर्णन किया गया है। इन तीनों का ही यहां पर क्रमशः विवेचन किया जाता है १-क्या भगवन् ! यह सुबाहुकुमार जिस ने आपश्री की सेवा में उपस्थित हो कर गृहस्थधर्म को स्वीकार किया है, वह कभी आपश्री से सर्वविरतिधर्म-साधुधर्म को भी अंगीकार करेगा? वह सर्वविरतिधर्म के पालन में समर्थ होगा ? तात्पर्य यह है कि आपश्री के पास मुण्डित हो कर अगार-घर को छोड़ कर अनगारता को प्राप्त करने-गृहस्थावास को त्याग द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [903 Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिधर्म को स्वीकार करने में प्रभु-समर्थ होगा कि नहीं ? यह था प्रश्न जो गौतम स्वामी ने भगवान् से किया था। गौतम स्वामी के इस प्रश्न में प्रयुक्त किए गए १-मुण्डित, २अनगारता, ३-प्रभु-ये तीनों शब्द विशेष भावपूर्ण हैं। ये तीनों ही उत्तरोत्तर एक-दूसरे के सहकारी तथा परस्पर सम्बद्ध हैं। इन का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है १-मुण्डित-यहां पर सिर के बाल मुंडा देने से जो मुण्डित कहलाता है, उस द्रव्यमुण्डित का ग्रहण अभिमत नहीं, किन्तु यहां भाव से मुण्डित हुए का ग्रहण अभिप्रेत है। जिस साधक व्यक्ति ने सिर पर लदे हुए गृहस्थ के भार को उतार देने के बाद हृदय में निवास करने वाले विषयकषायों को निकाल कर बाहर फैंक दिया हो वह भावमुण्डित कहलाता है। श्रमणता-साधुता प्राप्त करने के लिए सबसे प्रथम बाहर से जो मुंडन कराया जाता है वह आन्तरिक मुंडन का परिचय देने के लिए होता है। यदि अन्तर में विषयकषायों का कीच भरा पड़ा रहे तो बाहर के इस मुंडन से श्रमणभाव-साधुता की प्राप्ति दुर्घट ही नहीं किन्तु असम्भव भी है। इसीलिए शास्त्रकार स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं कि "-'न वि मुंडिएण समणो-" अर्थात् केवल सिर के मुंडा लेने से श्रमण नहीं हो सकता, पर उसके लिए तो भावमुंडितविषयकषाय रहित होने की आवश्यकता है। तब गौतम स्वामी के पूछने का भी यह अभिप्राय है कि क्या श्री सुबाहुकुमार भाव से मुंडित हो सकेगा? तात्पर्य यह है कि द्रव्य से मुंडित होने वालों, बाहर से सिर मुंडाने वालों की तो संसार में कुछ भी कमी नहीं। सैंकड़ों नहीं बल्कि हजारों ही निकल आएं तो भी कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है, परन्तु भाव से मुण्डित होने वाला तो कोई विरला ही वीरात्मा निकलता है। २-अनगारता-गृहस्थ और साधु की बाह्य परीक्षा दो बातों से होती है। घर से और ज़र से। ये दोनों गृहस्थ के लिए जहां भूषणरूप बनते हैं वहां साधु के लिए नितान्त दूषणरूप हो जाते हैं। जिस गृहस्थी के पास घर नहीं वह गृहस्थी नहीं और जिस साधु के पास घर है वह साधु नहीं। इस लिए मुण्डित होने के साथ-साथ घर सम्बन्धी अन्य वस्तुओं के त्याग की भी साधुता के लिए परम आवश्यकता है। वर्तमान युग में घरंबार आदि रखते हुए भी जो अपने आप को परिव्राजकाचार्य या साधुशिरोमणि कहलाने का दावा करते हैं, वे भले ही करें, परन्तु शास्त्रकार तो उस के लिए (साधुता के लिए) अनगारता (घर का न होना) को ही प्रतिपादन 1 उत्तराध्ययनसूत्र अध्याय 25, गा० 31 / तथा श्री स्थानाङ्ग सूत्र में भी इस सम्बन्ध में लिखा है दस मुंडा पं० तंजहा-सोइन्दियमुंडे जाव फासिंदियमुण्डे, कोह जाव लोभमुण्डे सिरमुण्डे। 2. यहां पर घर शब्द को स्त्री, पुत्र तथा अन्य सभी प्रकार की धन सम्पत्ति का उपलक्षण समझना चाहिए। 904 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं। गृह के सुखों का परित्याग करके, सर्वथा गृहत्यागी बन कर विचरना एवं नानाविध परीषहों को सहन करना एक राजकुमार के लिए शक्य है कि नहीं, अर्थात् सुबाहुकुमार जैसे सद्गुणसम्पन्न सुकुमार राजकुमार के लिए उस कठिन संयमव्रत के पालन करने की संभावना की जा सकती है कि नहीं, यह गौतम स्वामी के प्रश्न में रहा हुआ अनगारता का रहस्यगर्भित भाव है। ३-प्रभु-पाठकों को स्मरण होगा कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित हो कर उन की धर्मदेशना सुनने के बाद प्रतिबोध को प्राप्त हुए श्री सुबाहुकुमार ने भगवान् से कहा था कि प्रभो! इस में सन्देह नहीं कि आप के पास अनेक राजा-महाराजा और सेठ साहूकारों ने सर्वविरतिधर्म-साधुधर्म को अंगीकार किया है परन्तु मैं उस सर्वविरतिरूप साधुधर्म को ग्रहण करने में समर्थ नहीं हूँ, इसलिए आप मुझे देशविरतिधर्म को ग्रहण कराने की कृपा करें, अर्थात् मैं महाव्रतों के पालन में तो असमर्थ हूँ अतः अणुव्रतों का ही मुझे नियम कराएं। श्री सुबाहुकुमार के उक्त कथन को स्मृति में रखते हुए ही श्री गौतम स्वामी ने भगवान् से "-पभू णं भन्ते ? सुबाहकुमारे देवाणु० अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए-" यह पूछने का उपक्रम किया है। इस प्रश्न में सब से प्रथम प्रभु शब्द का इसी अभिप्राय से प्रयोग किया जान पड़ता है। ___ भगवान्-हां गौतम ! है। अर्थात् सुबाहुकुमार मुण्डित हो कर सर्वविरतिरूप साधुधर्म के पालन करने में समर्थ है। उस में भावसाधुता के पालन की शक्ति है। भगवान् के इस उत्तर में गौतम स्वामी की सभी शंकाएं समाहित हो जाती हैं। _-हंता पभू-हंत प्रभुः-यहां हंत का अर्थ स्वीकृति होता है। अर्थात् हंत अव्यय स्वीकारार्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रभु समर्थ को कहते हैं। ... -संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे-अर्थात् संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करना। संयम के आराधन और तप के अनुष्ठान से आत्मगुणों के विकास में प्रगति लाने का यत्नविशेष ही आत्मभावना या आत्मा को वासित करना कहलाता है। जनपद-यह शब्द राष्ट्र, देश, जनस्थान और देशनिवासी जनसमूह आदि का बोधक है, किन्तु प्रकृत में यह राष्ट्र-देश के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। २-से सुबाहुकुमारे समणोवासए जाए अभिग़यजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ-इन पदों में श्रमणोपासक का अर्थ और उस की योग्यता के विषय में वर्णन किया गया है। श्रमणोपासक शब्द का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ क्या है तथा जीवाजीवादि पदार्थों का अधिगम करने वाला श्रमणोपासक कैसा होना चाहिए इन बातों पर विचार कर लेना भी उचित प्रतीत द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [905 Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। श्रमणों के उपासक को श्रमणोपासक कहते हैं। जो धर्मश्रवण की इच्छा से साधुओं के पास बैठता है, उस की उपासक संज्ञा होती है। उपासक-१-द्रव्य, २-तदर्थ, ३-मोह और ४-भाव इन भेदों से चार प्रकार का माना गया है। जिस का शरीर उपासक होने के योग्य हो, जिस ने उपासकभाव के आयुष्कर्म का बन्ध कर लिया हो तथा जिस के नाम गोत्रादि कर्म उपासकभाव के सम्मुख आ गए हों, उसे द्रव्योपासक कहते हैं। जो सचित्त, अचित्त और मिश्रित पदार्थों के मिलने की इच्छा रखता है, उन की प्राप्ति के लिए उपासना (प्रयत्न-विशेष) करता है, उसे तदर्थोपासक कहते हैं। अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए युवती-युवक की और युवक-युवती की उपासना करे, परस्पर अन्धभाव से एक दूसरे की आज्ञा का पालन करें तथा मिथ्यात्व की उत्तेजनादि करें उसे मोहोपासक कहा जाता है। जो सम्यग्दृष्टि जीव शुभ परिणामों से ज्ञान, दर्शन और चारित्र के उपासक श्रमण-साधु की उपासना करता है उसे भावोपासक कहते हैं। इसी भावोपासक की ही श्रमणोपासक संज्ञा होती है। तात्पर्य यह है कि भावोपासक और श्रमणोपासक ये दोनों समानार्थक हैं। प्रश्न-जैनसंसार में श्रावक (जो धर्म को सुनता है-जैन गृहस्थ) शब्द का प्रयोग सामूहिक रूप से देखा जाता है। चतुर्विध संघ में भी श्रावकपद है, किन्तु सूत्र में "श्रमणोपासक" लिखा है। इस का क्या कारण है ? और इन दोनों में कुछ अर्थगत विभिन्नता है, कि नहीं? यदि है तो क्या ? उत्तर-श्रावक शब्द का प्रयोग अविरत सम्यग्दृष्टि के लिए किया जाता है और श्रमणोपासक, यह शब्द देशविरत के लिए प्रयुक्त होता है। सूत्रों में जहां श्रावक का वर्णन आता है वहां तो "-दंसणसावए-दर्शनश्रावक-" यह पद दिया गया है और जहां बारह व्रतों के आराधक का वर्णन है वहां पर "-समणोवासए-श्रमणोपासक-" यह पाठ आता है। सारांश यह है कि व्रत, प्रत्याख्यान आदि से रहित केवल सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है और द्वादशव्रतधारी की "श्रमणोपासक" संज्ञा है। यही इन दोनों में अर्थगत भेद है। वर्तमान में तो प्रायः श्रावकशब्द ही दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत दोनों का ही ग्रहण श्रावक शब्द से किया जाता है। -अभिगयजीवाजीवे३-इस विशेषण से श्री सुबाहुकुमार को जीवाजीवादि पदार्थों 1. उप-समीपम् आस्ते-निषीदति धर्मश्रवणेच्छया साधूनामिति उपासकः। (वृत्तिकारः) 2. इन चारों की विशद व्याख्या के लिए देखो-जैनधर्मदिवाकार आचार्यप्रवर परमपूज्य गुरुदेव श्री आत्माराम जी महाराज द्वारा अनुवादित श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, पृष्ठ 273 / 3. अभिगत सम्यक्तया ज्ञात: जीवाजीवादिपदार्थ:-पदार्थस्वरूपो येन स तथा। अर्थात् जिस ने 906] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सम्यग् ज्ञाता प्रमाणित किया गया है। चेतना-विशिष्ट पदार्थ को जीव और चेतनारहित जड़ पदार्थ को अजीव कहते हैं। इन दोनों का भेदोपभेद सहित सम्यग् बोध रखने वाला व्यक्ति अभिगतजीवाजीव कहलाता है। इस के अतिरिक्त श्री सुबाहुकुमार के सात्त्विक ज्ञान और चारित्रनिष्ठा एवं धार्मिक श्रद्धा के द्योतक और भी बहुत से विशेषण हैं, जिन्हें सूत्रकार ने "जाव-यावत्" पद से सूचित कर दिया है। वे सब इस प्रकार हैं उवलद्धपुण्णपावे, आसवसंवरनिज्जरकिरियाहिगरणबन्धमोक्खकुसले, असहेजदेवयासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिजे, निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए निव्वितिगिच्छे लद्धढे गहियढे पुच्छियढे अहिगयढे विणिच्छियढे अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अटे, अयं परमेढे, सेसे अणट्टे, ऊसियफलिहे अवंगुयदुवारे चियत्तंतेउरघरप्पवेसे बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोपवासेहिं चाउद्दसट्ठाविट्ठपुण्णमासिणीसुपडिपुण्णं पोसहं सम्अणुपालेमाणे समाणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिगहकेबलपायपुंछणेणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं ओसहभेसज्जेण य पडिलाभेमाणे अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे विहरइ। इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है वह सुबाहुकुमार जीव, अजीव के अतिरिक्त पुण्य (आत्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीर की भांति मिले हुए शुभं कर्मपुद्गल) और पाप (आत्मप्रदेशों से मिले हुए अशुभ कर्मपुद्गल) के स्वरूप को भी जानता था। इसी प्रकार आस्रव', संवर२, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण', बन्ध और मोक्ष के स्वरूप का ज्ञाता था, तथा किसी भी कार्य में वह दूसरों की सहायता की आशा नहीं रखता था। अर्थात् वह निर्ग्रन्थप्रवचन में इतना दृढ़ था कि देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, * राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवविशेष भी उसे निग्रंथ प्रवचन से विचलित नहीं कर सकते थे। उसे निर्ग्रन्थप्रवचन में शंका (तात्त्विकी शंका), कांक्षा (इच्छा) जीव, अजीव, प्रभृति पदार्थों का सम्यग् बोध प्राप्त कर लिया है, उसे अभिगतजीवाजीव कहते हैं। श्री सुबाहुकुमार को इन का सम्यग् बोध था, इसलिए उस के साथ यह विशेषण लगाया गया है। १-शुभ और अशुभ कर्मों के आने का मार्ग आस्रव होता है। २-शुभ और अशुभ कर्मों के आने के मार्ग को रोकना सम्वर कहलाता है। ३-आत्मप्रदेशों से कर्मवर्गणाओं का देशतः या सर्वतः क्षीण होना निर्जरा कहलाती है। ४-कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टाओं को क्रिया कहते हैं और वह 25 प्रकार की होती हैं। ५कर्मबन्ध के साधन-उपकरण या शस्त्र को अधिकरण कहते हैं। अधिकरण जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण भेद से दो प्रकार का होता है। ६-कर्मपुद्गलों का जीवप्रदेशों के साथ दूध पानी की तरह मिलने अर्थात् जीवकर्म संयोग को बन्ध कहते हैं। ७-कर्मपुद्गलों का जीवप्रदेशों से आत्यन्तिक सर्वथा क्षीण हो जाना मोक्ष कहलाता है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [907 Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और विचिकित्सा (फल में सन्देह लाना) नहीं थी। उस ने शास्त्र के परमार्थ को समझ लिया था, वह शास्त्र का अर्थ-रहस्य निश्चितरूप से धारण किए हुए था। उस ने शास्त्र के सन्देहजनक स्थलों को पूछ लिया था, उन का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उन का विशेषरूप से निर्णय कर लिया था, उस की हड्डियां और मज्जा सर्वज्ञदेव के प्रेम-अनुराग से अनुरक्त हो रही थी अर्थात् निग्रंथप्रवचन पर उस का अटूट प्रेम था। हे आयुष्मन् ! वह सोचा करता था कि यह निग्रंथप्रवचन ही अर्थ (सत्य) है, परमार्थ है (परम सत्य है), उस के बिना अन्य सब अनर्थ (असत्यरूप) हैं। उस की उदारता के कारण उस के भवन के दरवाजे की अर्गला ऊंची रहती थी और उसका द्वार सब के लिए सदा खुला रहता था। वह जिस के घर या अन्तःपुर में जाता उस में प्रीति उत्पन्न किया करता था, तथा वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण-रागादि से निवृत्तिप्रत्याख्यान, पौषध, उपवास तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन परिपूर्ण पौषधव्रत किया करता था। श्रमणों-निर्ग्रन्थों को निर्दोष और ग्राह्य अशन, पान, खादिम और ' स्वादिम आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ, फलक, शय्या, संस्तार, औषध और भेषज आदि देता हुआ महान् लाभ को प्राप्त करता तथा यथाप्रगृहीत तपकर्म के द्वारा अपनी आत्मा को भावित-वासित करता हुआ विहरण कर रहा था। इस वर्णन में श्रमणोपासक की तत्त्वज्ञानसम्बन्धी योग्यता, प्रवचननिष्ठा, गृहस्थचर्या और चारित्रशुद्धि की उपयुक्त धार्मिक क्रिया आदि अनेक ज्ञातव्य विषयों का समावेश किया गया है। गृहस्थावास में रहते हुए धर्मानुकूल गृहसम्बन्धी कार्यों का यथाविधि पालन करने के अतिरिक्त उस का आत्मश्रेय साधनार्थ क्या कर्तव्य है और उस के प्रति सावधान रहते हुए नियमानुसार उस का किस तरह से आचरण करना चाहिए इत्यादि अनुकरणीय और आचरणीय विषयों का भी उक्त वर्णन से पर्याप्त बोध मिल जाता है। ३-पौषधोपवास-धर्म केवल सुनने की वस्तु नहीं अपितु आचरण की वस्तु है। जैसे औषधि का नाम उच्चारण करने से रोग की निवृत्ति नहीं हो सकती और तदर्थ उस का सेवन आवश्यक है। इसी प्रकार धर्म का श्रवण करने के अनन्तर उस का आचरण करना आवश्यक होता है। बिना आचरण के धर्म से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। जब तक धर्म का श्रवण कर के पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ उस का आचरण न किया जाए तब तक उस से किसी प्रकार का भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकेगा। इसी दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में कुशल श्री सुबाहुकुमार ने उन दोनों के अनुसार चारित्रमूलक पौषधोपवास व्रत का अनुष्ठान करने में 1. शीलव्रत से पांचों अणुव्रतों का ग्रहण करना चाहिए। शीलव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों की व्याख्या - इसी अध्ययन में पीछे की जा चुकी है। 908 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद नहीं किया। सुबाहुकुमार अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा इन पुण्य तिथियों में पौषधोपवासव्रत करता था और धर्मध्यान के द्वारा आत्मचिन्तन में निमग्न हो कर गृहस्थधर्म का पालन करता हुआ समय व्यतीत कर रहा था। -पोसह-यह प्राकृत भाषा,का शब्द है। इस की संस्कृत छाया 'पोषध होती है। पौषधशब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ "-पोषणं पोषः-पुष्टिरित्यर्थः तं धत्ते गृह्णाति इति पोषधम्" इस प्रकार है। अर्थात् जिस से आध्यात्मिक विकास को पोषण-पुष्टि मिले उसे पोषध कहते हैं। यह श्रावक का एक धार्मिक कृत्यविशेष है, जो कि पौषधशाला में जाकर प्रायः अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों में किया जाता है। इस में सर्व प्रकार के सावध व्यापार के त्याग से लेकर मुनियों की भाँति सारा समय प्रमादरहित हो कर धर्मध्यान करते हुए व्यतीत करना होता है। इस में आहार का त्याग करने के अतिरिक्त शरीर के शृंगार तथा अन्य सभी प्रकार के लौकिक व्यवहार या व्यापार का भी नियमित समय तक परित्याग करना होता है। इस व्रत की सारी विधि पौषधशाला या किसी पौषधोपयोगी स्थान पर की जा सकती है। इस के अतिरिक्त पौषधव्रत शास्त्रों में १-आहारपौषध, २-शरीरपौषध, ३-ब्रह्मचर्यपौषध और ४-अव्यवहारपौषध या अव्यापारपौषध, इन भेदों से चार प्रकार का वर्णन किया गया है, ये चारों भी सर्व और देश भेद से दो-दो प्रकार के कहें हैं। इस तरह सब मिला कर पौषध के आठ भेद हो जाते हैं। इन आठों भेदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पीछे किया जा चुका है। . सामान्यरूप से तो इस के दो ही भेद हैं-देशपौषध और सर्वपौषध / देशपौषध का ग्रहण दसवें व्रत में और ग्यारहवें व्रत में सर्वपौषध का ग्रहण होता है। पौषध लेने की जो विधि है उस में ऐसा ही उल्लेख पाया जाता है। सर्वपोषध में पूरे आठ प्रहर के लिए प्रत्याख्यान होता 1. पोषध शब्द से व्याकरण के "प्रज्ञादिभ्यश्च"।५-४-३६ (सिद्धान्त कौमुदी) इस सूत्र से स्वार्थ में अण्प्रत्यय करने से पौषध शब्द भी निष्पन्न होता है। आज पौषध शब्द का ही अधिक प्रयोग मिलता है। इसीलिए हमने इस का अधिक आश्रयण किया है। . 2. पोसहोववासे चउव्विहे पण्णत्तेतंजहा-आहारपोसहे, सरीरपोसहे, बम्भपोसहे, अववहारपोसहे। 3. पौषध का सूत्रसम्मत पाठ इस प्रकार है एकारसमे पडिपुण्णे पोसहोववासवए सव्वओ असणं-पाण-खाइम-साइम-पच्चक्खाणं, अबम्भ-पच्चक्खाणं, मणिसुवण्णाइपचक्खाणं मालावन्नगविलेवणाइपच्चक्खाणं, सत्थमुसलवावाराइसावज्जजोगपच्चक्खाणं जाव अहोरत्तं पजुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। इस पाठ में चारों प्रकार के आहार का, सब प्रकार की शारीरिक विभूषा का तथा सर्व प्रकार के मैथुन एवं समस्त सावद्य व्यापार का अहोरात्रपर्यन्त त्याग कर देने का विधान किया गया है। प्रात:काल सूर्योदय से लेकर अगले दिन सूर्योदय तक का जितना काल है वह अहोरात्र काल माना जाता है। दूसरे शब्दों में पूरे आठ प्रहर तक आहार, शरीरविभूषा, मैथुन तथा व्यापार का सर्वथा त्याग सर्वपौषध कहलाता है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [909 Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इस से कम काल का पौषध सर्वपौषध नहीं कहलाता। सुबाहुकुमार का पौषध सर्वपौषध ' था और वह उसने पौषधशाला में किया था और वहीं पर इस ने अष्टमभक्त-तेला व्रत सम्पन्न किया था। यह बात मूलपाठ से स्पष्ट सिद्ध हो जाती है। तात्पर्य यह है कि श्री सुबाहुकुमार ने लगातार तीन पौषध करने का नियम ग्रहण किया। परन्तु इतना ध्यान रहे कि पौषधत्रय करने से पूर्व उस ने एकाशन किया तथा उस की समाप्ति पर भी एकाशन किया। इस भाँति उस ने आठ भोजनों का त्याग किया। कारण कि पौषध में तो मात्र दिन-रात के लिए आहार का त्याग होता है। दैनिक भोजन द्विसंख्यक होने से पौषधत्रय में छ: भोजनों का त्याग फलित होता है। सूत्रकार स्वयं ही-पोसहिए-इस विशेषण के साथ-अट्ठमभत्तिए-यह विशेषण दे कर उस के आठ भोजनों का त्याग संसूचित कर रहे हैं। प्रश्न-पौषध और उपवास इन दोनों में क्या भिन्नता है ? उत्तर-धर्म को पुष्ट करने वाले नियमविशेष का धारण करना पौषध कहलाता है। पौषध के भेदोपभेदों का वर्णन पीछे किया जा चुका है। और उपवास मात्र त्रिविध या चतुर्विध आहार के त्याग का नाम है। तथा उपवासपूर्वक किया जाने वाला पौषधव्रत पौषधोपवास कहलाता है। पौषधव्रत में उपवास अवश्यंभावी है जब कि उपवास में पौषधव्रत का आचरण आवश्यक नहीं। अथवा पौषधोपवास एक ही शब्द है। पौषधव्रत में उपवास-अवस्थिति पौषधोपवास कहलाता है। पौषधशाला-जहां बैठ कर पौषधव्रत किया जाता है, उसे पौषधशाला-कहते हैं / जैसे भोजन करने के स्थान को भोजनशाला, पढ़ने के स्थान को पाठशाला कहते हैं; उसी भाँति पौषधशाला के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए। मलमूत्रादि परित्याग की भूमि को उच्चारप्रस्रवणभूमि कहा जाता है। प्रश्न-सूत्रकार ने जो पुरीषालय का निर्देश किया है, इस की यहां क्या आवश्यकता थी? क्या यह भी कोई धार्मिक अंग है ? उत्तर-जहां पर मलमूत्र का त्याग किया जाता हो उस स्थान को देखने से दो लाभ होते हैं। प्रथम तो वहां के जीवों की यतना हो जाती है। दूसरे वहां की सफाई से भविष्य में होने वाली जीवों की विराधना से बचा जा सकता है और तीसरी बात यह भी है कि यदि किसी समय अकस्मात् बाधा (मलमूत्र त्यागने की हाजत) उत्पन्न हो जाए तो उस से झटिति निवृत्ति 1. पोषणं पोषः पुष्टिरित्यर्थः तं धत्ते गृह्णाति इति पोषधः, स चासावुपवासश्चेति। यद्वोक्त्यैव व्युत्पत्त्या पोषधमष्टम्यादिरूपाणि पर्वदिनानि तत्रोप आहारादित्यागरूपं गुणमुपेत्य वासः-निवसनमुपवास इति पोषधोपवासः। (उपासकदशांग संजीवनी टीका पृष्ठ 257) 910 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की जा सकती है। यदि उक्त स्थान को पहले न देखा जाए तो काम कैसे चलेगा ? बाधा को रोकने से शरीर अस्वस्थ हो जाएगा, शरीर के अस्वस्थ होने पर धार्मिक अनुष्ठान में प्रतिबन्ध . उपस्थित होगा... इत्यादि सभी बातों को ध्यान में रखते हुए सूत्रकार ने उच्चारप्रस्रवणभूमि के निरीक्षण का निर्देश किया है। इस से इस की धार्मिक पोषकता सुस्पष्ट है। -संथार-संस्तार, इस शब्द का प्रयोग आसन के लिए किया गया है। दर्भ कुशा का नाम है, कुशा का आसन दर्भसंस्तार कहलाता है। अष्टमभक्त यह जैनसंसार का पारिभाषिक शब्द है। जब इकट्ठे तीन उपवासों का प्रत्याख्यान किया जाए तो वहां अष्टमभक्त का प्रयोग किया जाता है। अथवा अष्टम शब्द आठ का संसूचक है और भक्त भोजन को कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस तप में आठ भोजन छोड़े जाएं उसे अष्टमभक्त कहा जाता है। एक दिन में भोजन दो बार किया जाता है। प्रथम दिन सायंकाल का एक भोजन छोड़ना अर्थात् एकाशन करना और तीन दिन लगातार छ: भोजन छोड़ने, तत्पश्चात् पांचवें दिन प्रातः का भोजन छोड़ना, इस भाँति आठ भोजनों को छोड़ना अष्टमभक्त कहलाता है। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के धार्मिक ज्ञान और धर्माचरण का वर्णन करते हुए उसे एक सुयोग्य धार्मिक राजकुमार के रूप में चित्रित किया है। अब उस के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं. मूल-तए णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमे एयारूवे अझस्थिए 4 समुप्पज्जित्था-धन्ना णं ते गामागर जाव सन्निवेसा, जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरइ, धन्ना णं ते राईसर० जे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडा जाव पव्वयन्ति।धन्ना णं ते राईसर० जे णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्म पडिवजन्ति। धन्ना णं ते राईसर जे णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सुणेति। तं जइ णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुव्विं जाव दूइज्जमाणे इहमागच्छेजा जाव विहरिजा, तए णं अहं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वएज्जा। छाया-ततस्तस्य सुबाहोः कुमारस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले धर्मजागर्यया जाग्रतोऽयमेतद्प आध्यात्मिकः 4 समुत्पद्यत-धन्यास्ते' ग्रामाकर० यावत् सन्निवेशा 1. जहां महापुरुषों के चरणों का न्यास होता है वह भूमि भी पावन हो जाती है, यह बात बौद्धसाहित्य में भी मिलती है। देखिएद्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [911 Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्र श्रमणो भगवान् महावीरो विहरति। धन्यास्ते राजेश्वर० ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके मुंडा यावत् प्रव्रजन्ति, धन्यास्ते राजेश्वर० ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पञ्चाणुव्रतिकं यावद् गृहिधर्मं प्रतिपद्यन्ते, धन्यास्ते राजेश्वर ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्मं शृण्वन्ति, तद् यदि श्रमणो भगवान् महावीरः पूर्वानुपूर्व्या यावद् द्रवन् इहागच्छेत् यावद् विहरेत्, ततोऽहं श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके मुंडो भूत्वा यावत् प्रव्रजेयम्। पदार्थ-तए णं-तदनन्तर / तस्स-उस। सुबाहुस्स-सुबाहु / कुमारस्स-कुमार को। पुव्वरत्तावरत्तकाले-मध्यरात्रि में। धम्मजागरियं-धर्मजागरण-धर्मचिन्तन में। जागरमाणस्स-जागते हुए को। इमे-यह। एयारूवे-इस प्रकार का। अज्झत्थिए ४-संकल्प 4 / समुप्पज्जित्था-उत्पन्न हुआ। धन्ना णं-धन्य हैं। ते-वे।गामागर-ग्राम, आकर। जाव-यावत् / सन्निवेसा-सन्निवेश। जत्थ णं-जहां। समणेश्रमण।भगवं-भगवान् / महावीरे-महावीर स्वामी।विहरइ-विचरते हैं। धन्नाणं-धन्य हैं / ते-वे। राईसरराजा, ईश्वर आदि। जे णं-जो। समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिए-पास। मुंडा-मुंडित हो कर। जाव-यावत्। पव्वयंति-दीक्षा ग्रहण करते हैं। धन्ना णं-धन्य हैं। ते-वे। राईसर-राजा और ईश्वरादि। जे णं-जो। समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिए-पास। पंचाणुव्वइयं-पंचाणुव्रतिक। गिहिधम्म-गृहस्थधर्म को। पडिवजंति-स्वीकार करते हैं। धन्ना णं-धन्य हैं / ते-वे। जे णं-जो। समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिए-समीप। धम्म-धर्म का। सुणंति-श्रवण करते हैं। तं-अतः। जइ णं-यदि। समणेश्रमण। भगवं-भगवान्। महावीरे-महावीर। पुव्वाणुपुव्विं-पूर्वानुपूर्वी-क्रमशः / जाव-यावत् / दूइजमाणेगमन करते हुए। इहमागच्छेज्जा-यहां आ जाएं। जाव-यावत्। विहरिज्जा-विहरण करें। तए णं-तब। अहं-मैं। समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिए-पास / मुंडे-मुंडित। भवित्ता-हो कर। जाव-यावत्। पव्वएज्जा-प्रव्रजित हो जाऊं-दीक्षा ग्रहण कर लूं। मूलार्थ-तदनन्तर मध्यरात्रि में धर्मजागरण के कारण जागते हुए सुबाहुकुमार के मन में यह संकल्प उठा कि वे ग्राम, नगर, आकर, जनपद और सन्निवेश आदि धन्य हैं कि जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते हैं, वे राजा, ईश्वर आदि भी धन्य हैं कि जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित हो कर प्रवजित होते हैं तथा वे राजा, ईश्वर आदिक भी धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर के पास पञ्चाणुव्रतिक (जिस में पांच अणुव्रतों का विधान है) गृहस्थधर्म को अंगीकार करते हैं, एवं वे राजा, ईश्वरादि भी धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप धर्म का श्रवण करते हैं। hoto गामे वा यदि वा रज्जे, निन्ने वा यदि वा थले। यथारहन्तो विहरन्ति, तं भमिं रामणेय्यकं // 1 // (धम्मपद अर्हन्तवर्ग) 912 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी यावत् गमन करते हुए, यहां पधारें तो मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर प्रव्रजित हो जाऊं-दीक्षा धारण कर लूं। - टीका-दर्भसंस्तारक-'कुशा के आसन पर बैठ कर पौषधोपवासव्रत को अंगीकार कर के धर्म चिन्तन में लगे हुए श्री सुबाहुकुमार के हृदय में एक शुभ संकल्प उत्पन्न होता है। जिस का व्यक्त स्वरूप इस प्रकार है धन्य हैं वे ग्राम, नगर, देश और सन्निवेश आदि स्थान जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का विचरना होता है। वे राजा, महाराजा और सेठ साहुकार भी बड़े पुण्यशाली हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में मुंडित हो कर दीक्षा ग्रहण करते हैं और जो उन के चरणों में उपस्थित हो पंचाणुव्रतिक गृहस्थधर्म को अंगीकार करते हैं, वे भी धन्य हैं। उन के चरणों में रह कर धर्मश्रवण का सौभाग्य प्राप्त करने वाले भी धन्य हैं। यदि सद्भाग्य से भगवान् यहां पधारें तो मैं भी उन के पावन श्रीचरणों में उपस्थित हो कर संयमव्रत को अंगीकार करूं। सुबाहुकुमार का संकल्प कितना उत्तम और कितना पुनीत है यह कहने की आवश्यकता नहीं। तरणहार जीवों के संकल्प प्रायः ऐसे ही हुआ करते हैं, जो स्व और पर दोनों के लिए कल्याणकारी हों / हृदय के अन्दर जब सात्विक उल्लास उठता है तो साधक का मन विषयासक्त न हो कर आत्मानुरक्तं होने का यत्न करता है और तदनुकूल साधनों को एकत्रित करने का प्रयास करता है। पौषधशाला के प्रशान्त प्रदेश में एकाग्र मन से धर्मध्यान करते हुए सुबाहुकुमार के हृदय में उक्त प्रकार के संकल्प का उत्पन्न होना उस के मानव जीवन के सर्वतोभावी आध्यात्मिक विकास को उपलब्ध करने की पूर्वसूचना है। परिणामस्वरूप इस के अनुसार . प्रवृत्ति करता हुआ वह अवश्य उसे प्राप्त करने में सफलमनोरथ होगा। . प्रश्न-श्री सुबाहुकुमार ने यह विचार किया कि यदि भगवान् हस्तिशीर्ष नगर में पधारेंगे तो मैं उन के पास दीक्षित हो जाऊंगा। इस पर यह आशंका होती है कि सुबाहुकुमार भगवान् के पास स्वयं क्यों न चला गया अथवा उसने भगवान् के पास कोई निवेदनपत्र ही क्यों न भेज दिया होता जिस में यह लिख दिया होता कि मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ, अत: आप यहां 1. सुबाहुकुमार का रेशम आदि के नर्म और कोमल आसन को त्याग कर कुशा के आसन पर बैठ कर धर्म का आराधन करना उस की धर्ममय मनोवृत्ति की दृढता को तथा उस की सादगी को सूचित करता है। साधक व्यक्ति में देहाध्यास (देहासक्ति) की जितनी कमी होगी उतनी ही उस की विकासमार्ग की ओर प्रगति होगी। इस के अतिरिक्त कुशासन पर बैठने से अभिमान नहीं होता और इस में यह भी गुण है कि उस से टकरा कर जो वायु निकलती है, उस से योगसाधन में बड़ी सहायता मिलती है। वैदिक परम्परा में कुशा का बड़ा महत्त्व प्राप्त है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [913 Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधारें ! उत्तर-सुबाहुकुमार न तो स्वयं गया और न उस ने कोई प्रार्थनापत्र भेजा, इसके अंदर भी कई कारण हैं। भला, एक परम श्रद्धालु व्यक्ति कोई ऐसा कृत्य कर सकता है जो सत्य से शून्य हो तथा निरर्थक हो ? सुबाहुकुमार समझता है कि यदि मेरी इस भावना पर भगवान् पधार जाएं तो मैं समझ लूंगा कि मैं दीक्षित होने के योग्य हूँ और यदि मेरे में दीक्षाग्रहण करने की योग्यता नहीं होगी तो मेरी इस भावना पर भी भगवान् नहीं पधारेंगे। कारण कि भगवान् सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी हैं, वे जो कुछ भी करेंगे वह मेरे लाभ के लिए होगा। दूसरे शब्दों में भगवान् महावीर स्वामी के पधारने का अर्थ यह होगा कि मेरा मनोरथ सफल है, भवितव्यता मेरा साथ दे रही है और यदि भगवान न पधारे तो उस का यह अर्थ होगा कि अभी मैं दीक्षा के अयोग्य हूँ। सुबाहुकुमार के ये विचार महान् विनय के संसूचक हैं। सुबाहुकुमार यदि अपने नगर को छोड़ कर अन्यत्र जा कर दीक्षा लेता तो उस का वह प्रभाव नहीं हो सकता था, जो कि वहां अर्थात् अपने नगर में हो सकता है। एक राजकुमार का दीक्षा लेने की अभिलाषा से अन्यत्र जाने की अपेक्षा अपनी राजधानी में दीक्षित होना अधिक प्राभाविक है। राजकुमार के दीक्षित होने पर हस्तिशीर्ष की प्रजा पर जो प्रभाव हो सकता है वह अन्यत्र होना संभव नहीं है। इसीलिए सुबाहुकुमार भगवान् के पास नहीं गया। निवेदनपत्र के विषय में यह बात है कि सुबाहुकुमार को यह मालूम है कि भगवान् सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं। तब सर्वज्ञ से जो प्रार्थना करनी है वह आत्मा के द्वारा सुगमता से की जा सकती है और उसी के द्वारा ही करनी चाहिए। सर्वज्ञ के पास निवेदनपत्र भेजना, सर्वज्ञता का अपमान करना है और अपनी मूर्खता अभिव्यक्त करनी है। निवेदनपत्र तो छद्मस्थों के पास भेजे जाते हैं, न कि सर्वज्ञ के पास / बस इन्हीं कारणों से सुबाहुकुमार न तो भगवान् के पास गया और न उन के पास किसी के हाथ प्रार्थनापत्र भेजने को ही उसने उचित समझा। ___-धम्मजागरियं-धर्मचिन्तन के लिए किये जाने वाले जागरण को धर्मजागरिका कहते हैं, तथा इस पद से सूत्रकार ने यह भी सूचित किया है कि जो काल भोगियों के सोने का होता है वह योगियों के आध्यात्मिक चिन्तन का होता है। 1. सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरन्ति। (आचारांग सूत्र, अ० 3, उद्दे० 1) अर्थात्-सोना और जागना द्रव्य एवं भावरूप से दो तरह का होता है। हम प्रतिदिन रात में सोते हैं और दिन में जागते हैं. यह तो द्रव्यरूप से सोना और जागना है. परन्त पाप में ही प्रवत्ति करते रहना भाव सोना है 3 धार्मिक प्रवृत्ति करते रहना भाव जागना है। इस प्रकार जो अमुनि हैं-पापिष्ट हैं, दुष्ट वृत्ति वाले हैं, वे तो सदैव सोए हुए ही हैं और जो मुनि हैं, सात्त्विक वृत्ति वाले हैं वे सदैव जागते रहते हैं। यही मुनि और अमुनि में अन्तर है, विशिष्टता है। 914 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . -अज्झथिए 5- यहां पर उल्लेख किये गए 5 के अंक से-चिंतिए, कप्पिए, पत्थिए मणोगए संकप्पे-इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण करना चाहिए। स्थूलरूप से इन का अर्थ समान ही है और सूक्ष्म दृष्टि से इन का जो अर्थविभेद है वह इसी ग्रन्थ में पीछे लिखा जा चुका है। -गामागर० जाव सन्निवेसा-यहां पठित जाव-यावत् पद से-नगरकव्वडमडंबखेडदोणमुहपट्टणनिगमआसमसंवाहसंनिवेसा-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। ग्राम आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है ___ ग्राम-गांव को अथवा बाड़ से वेष्टित प्रदेश को कहते हैं। सुवर्ण एवं रत्नादि के उत्पत्तिस्थान को आकर कहा जाता है। नगर शहर का अथवा कर-महसूल से रहित स्थान का नाम नगर है। खेट शब्द धूली के प्राकार से वेष्टित स्थान-इस अर्थ का परिचायक है। अढ़ाई कोस तक जिस के बीच में कोई ग्राम न हो-इस अर्थ का बोधक मडम्ब शब्द है। जल तथा स्थल के मार्ग से युक्त नगर द्रोणमुख कहलाता है। जहां सब वस्तुओं की प्राप्ति की जाती हो उस नगर को पत्तन कहते हैं। वह जलपत्तन-जहां नौकाओं द्वारा जाया जाता है तथा स्थलपत्तन-जहां गाड़ी आदि द्वारा जाया जाता है, इन भेदों से दो प्रकार का होता है। अथवा जहां गाड़ी आदि द्वारा जाया जाए वह पत्तन और जहां नौका आदि द्वारा जाया जाता है वह पट्टन कहलाता है। जहां अनेकों व्यापारी रहते हैं वह नगर निगम, जहां प्रधानतया तपस्वी लोग निवास करते हैं वह स्थान आश्रम कहा जाता है। किसानों के द्वारा धान्य की रक्षा के लिए बनाया गया स्थलविशेष अथवा पर्वत की चोटी पर रहा हुआ जनाधिष्ठित स्थलविशेष अथवा जहां इधर उधर से यात्री लोग निवास एवं विश्राम करें उस स्थान को संवाह कहते हैं। सन्निवेश छोटे गांव का नाम है अथवा अहीरों के निवासस्थान का, अथवा प्रधानतः सार्थवाह . 'आदि के निवासस्थान का नाम संनिवेश है। -राईसर०-यहां दिए गए बिन्दु से-तलवरमाडंबियकोडुबियसेडिसेणावइसत्थवाहपभियओ-इस पाठ का ग्रहण समझना चाहिए। राजा प्रजापति का नाम है। सेना के नायक को सेनापति कहते हैं / अवशिष्ट ईश्वर आदि पदों का अर्थ पीछे यथास्थान लिखा जा चुका -मुंडा जाव पव्वयंति-यहां पठित जाव-यावत् पद से-भवित्ता अगाराओ अणगारियं-(अर्थात्-दीक्षित हो कर अनगारभाव को धारण करतें हैं)-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। तथा-"पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्म"-इस में उल्लिखित जाव-यावत् पद से-सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं-इस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण जानना चाहिए। इस का द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [915 Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ है-पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत अर्थात् बारह प्रकार के व्रतों वाला गृहस्थधर्म। . धर्मशब्द के अनेकों अर्थ हैं, किन्तु प्रकृत में शुभकर्म-कुशलानुष्ठान, यह अर्थ समझना चाहिए। धर्म का संक्षिप्त अर्थ सुकृत है। ___ -पुव्वाणुपुव्विं जाव दूइज्जमाणे-यहां पठित जाव-यावत् पद से-चरमाणे गामाणुगाम-इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण जानना चाहिए। अर्थात् ये पद "-क्रमशः चलते हुए और एक ग्राम से दूसरे ग्राम में जाते हुए-" इस अर्थ के बोधक हैं। तथा-इहमागच्छेज्जा जाव विहरिजा-इस वाक्यगत जाव-यावत् पद से-इहेवणयरे अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् यदि भगवान् महावीर यहां पधारें और इसी नगर में अनगारवृत्ति के अनुसार आश्रय स्वीकार कर के तप और संयम के द्वारा आत्मभावना से भावित होते हुए विहरण करें-निवास करें। तथा-मुंडे भवित्ता जाव पव्वएजा-यहां पठित जाव-यावत् पद से-अगाराओ अणगारियं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ स्पष्ट ही है। सारांश यह है कि मेरा शरीर सर्वाङ्गपरिपूर्ण है। किसी अंग में भी किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है। ऐसा सर्वांगसन्दर शरीर किसी विशिष्ट पुण्य के उदय से ही प्राप्त होता है। संसार में अनेकों प्राणी हैं। उन में यदि बोलने की शक्ति है तो देखने की नहीं, देखने की है तो सुनने की नहीं, सुनने की है तो सूंघने की नहीं, यदि सब कुछ है तो भले-बुरे को पहचानने की शक्ति नहीं। इसी प्रकार हाथ हैं तो पांव नहीं, कान हैं तो नाक नहीं और नाक है तो जिह्वा नहीं। अगर अन्य सब कुछ है तो प्रतिभा नहीं है। तात्पर्य यह है कि संसारी प्राणियों में प्रायः कोई न कोई त्रुटि अवश्य देखने में आती है, परन्तु मेरा शरीर सब तरह से परिपूर्ण है। तब इस प्रकार के अविकृत शरीर को प्राप्त करके भी यदि मैं जन्म-मरण के दुःखजाल से छूटने का उपाय नहीं करूंगा तो मेरे से बढ़ कर प्रमादी कौन हो सकता है ? चिन्तामणि रत्न के समान प्राप्त हुए इस मानव शरीर को यूं ही कामभोगों में लगा कर व्यर्थ खो देना तो निरी मूर्खता है। ऐसे उत्तम शरीर से तो अच्छे से अच्छा काम लेने में ही इस की सफलता है। इस के द्वारा तो किसी ऐसे पुण्यकार्य का संपादन करना चाहिए कि फिर इस संसार की अन्धकारपूर्ण गर्भ की कालकोठरी में आने का अवसर ही न मिले। ऐसा कार्य तो धर्म का सम्यक् अनुष्ठान ही है। जन्म-मरण के भय से त्राण देने वाला और कोई पदार्थ नहीं है। परन्तु धर्म का सम्यक् पालन तभी शक्य हो सकता है जब कि आरम्भ और परिग्रह का त्याग किया जाए। गृहस्थ में रह कर आरम्भ और परिग्रह का सर्वथा त्याग करना तो किसी तरह भी शक्य नहीं है। वहां तो अनेकों प्रकार के प्रतिबन्ध . सामने आ खड़े होते हैं, जिन का निवारण करना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव सा हो जाता 916 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अतः इस के लिए सब से अधिक और सुन्दर तथा सरल उपाय तो यही है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर संयमव्रत को अपना लूं, मुनिधर्म को अंगीकार कर लूं। इसी में मेरा हित है, इसी में मेरा मंगल है, इसी में मेरा मंगल और कल्याण है। पहले तो कई एक कारणों से उस अनमोल अवसर से लाभ नहीं उठा सका परन्तु अब कि ऐसी भूल नहीं करूंगा। अवश्य जीवन को साधुता के सौरभ से सुरभित करूंगा और अपना भविष्य उज्ज्वल एवं समुज्ज्वल बनाने का प्रयास करूंगा। ये थे तेले की तपस्या के साथ आत्मचिन्तन करने वाले सुबाहुकुमार के मनोगत विचार, जिन के अनुसार वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने पर अपने आप को संयमव्रत के लोकोत्तर रंग में रंगने का स्वप्न देख रहा है। इस के अनन्तर क्या हुआ अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तए णं समणे भगवं महावीरे सुबाहुस्स कुमारस्स इमं एयारूवं अज्झस्थियं जाव वियाणित्ता दूइज्जमाणे पुव्वाणुपुट्विं जेणेव हस्थिसीसे णगरे जेणेव पुष्फकरंडे उजाणे जेणेव कयवणमालप्पियस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।परिसा राया निग्गए।तए णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स तं महया० जहा पढमंतहा निग्गओ।धम्मो कहिओ।परिसा राया गओ। तए णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुढे जहा मेहो तहा अम्मापियरो आपुच्छइ।निक्खमणाभिसेओ तहेव जाव अणगारे जाए, इरियासमिए जाव बम्भयारी।' छाया-ततः श्रमणो भगवान् महावीरः सुबाहोः कुमारस्य इममेतद्रूपमाध्यात्मिकं यावद् विज्ञाय पूर्वानुपूर्व्या द्रवन् यत्रैव हस्तिशीर्ष नगरं, यत्रैव पुष्पकरण्डमुद्यानं यत्रैव कृतवनमालप्रियस्य यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति / परिषद् राजा निर्गतः। ततस्तस्य सुबाहोः कुमारस्य तद् महता यथा प्रथमं तथा निर्गतः। धर्मः कथितः परिषद् राजा गतः। ततः स सुबाहुकुमारः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्यांतिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्ट यथा मेघस्तथा अम्बापितरौ आपृच्छति / निष्क्रमणाभिषेकस्तथैव यावद् अनगारो जातः ईर्यासमितो यावद् ब्रह्मचारी। पदार्थ-तएणं-तदनन्तर। समणे-श्रमण।भगवं-भगवान्। महावीरे-महावीर स्वामी। सुबाहुस्सद्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [917 Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबाहु / कुमारस्स-कुमार के। इमं-यह। एयारूवं-इस प्रकार के। अज्झत्थियं ५-संकल्प आदि को। जाव-यावत्। वियाणित्ता-जान कर। पुव्वाणुपुट्विं-पूर्वानुपूर्वी-क्रमशः। दूइज्जमाणे-भ्रमण करते हुए। जेणेव-जहां। हस्थिसीसे-हस्तिशीर्ष / णगरे-नगर था। जेणेव-जहां। पुष्फकरण्डे-पुष्पकरंडक नामक। उजाणे-उद्यान था। जेणेव-जहां पर। कयवणमालप्पियस्स-कृतवनमालप्रिय। जक्खस्स-यक्ष का। जक्खायतणे-यक्षायतन था। तेणेव-वहां पर / उवागच्छइ-पधारे / अहापडिरूवं-यथाप्रतिरूप। उग्गहअवग्रह। उग्गिण्हित्ता-ग्रहण कर। संजमेणं-संयम से। तवसा-तप के द्वारा। अप्पाणं-आत्मा को। भावेमाणे-भावित-वासित करते हुए। विहरइ-विहरण करने लगे। परिसा-परिषद् / राया-राजा। निग्गएनगर से निकले। तए णं-तदनन्तर। तस्स-उस। सुबाहुस्स-सुबाहु। कुमारस्स-कुमार का। तं-वह। महया०-महान् समुदाय के साथ। जहा-जैसे। पढम-पूर्ववर्णित (नगर से निष्क्रमण था)। तहा-वैसे (वह)। निग्गओ-निकला। धम्मो-धर्म का। कहिओ-प्रतिपादन किया। परिसा-परिषद् / राया-राजा। गओ-चला गया। तए णं-तदनन्तर। से-वह। सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार। समणस्स-श्रमण। भगवओ महावीरस्स-भगवान् महावीर के। अंतिए-पास। धम्म-धर्मकथा को। सोच्चा-सुन कर। निसम्म-अर्थ से अवधारण कर। हट्टतुट्टे-अत्यन्त प्रसन्न हुआ 2 / जहा-जैसे। मेहो-मेघ-महाराज श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार। तहा-उसी प्रकार। अम्मापियरो-माता पिता को। आपुच्छइ-पूछता है। निक्खमणाभिसेओनिष्क्रमणाभिषेक। तहेव-तथैव-उसी तरह। जाव-यावत्।अणगारे-अनगार। जाए-हो गया। इरियासमिएईर्यासमिति का पालक। जाव-यावत् / बंभयारी-ब्रह्मचारी बन गया। मूलार्थ-तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सुबाहुकुमार के उक्त प्रकार के संकल्प को जान कर क्रमशः ग्रामानुग्राम चलते हुए हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानान्तर्गत कृतवनमालप्रिय नामक यक्ष के यक्षायतन में पधारे और यथाप्रतिरूपअनगारवृत्ति के अनुकूल अवग्रह-स्थान ग्रहण कर के वहां अवस्थित हो गए। ___तदनन्तर परिषद् और राजा नगर से निकले, सुबाहुकुमार भी पूर्व की भांति महान समारोह के साथ भगवान के दर्शनार्थ प्रस्थित हुए। भगवान् ने धर्म का प्रतिपादन किया, परिषद् तथा राजा धर्मदेशना सुन कर वापस चले गए। सुबाहुकुमार भगवान् के पास धर्म का श्रवण कर उस का मनन करता हुआ प्रसन्नचित्त से मेघकुमार की भांति माता-पिता से पूछता है। उस का (सुबाहुकुमार का) निष्क्रमण-अभिषेक भी उसी तरह (मेघकुमार की तरह) हुआ, यावत् वे अनगार, ईर्यासमिति के पालक और ब्रह्मचारी बन गए, मुनिव्रत को उन्होंने धारण कर लिया। टीका-पुरुष और महापुरुष में भेद करने वाली एक शक्ति है, जो परोपकार के नाम से प्रसिद्ध है। पुरुष स्वार्थी होता है, वह अपना ही प्रयोजन सिद्ध करना जानता है, इस के 1. सोच्चा-यह पद मात्र श्रवणपरक है। सुने हुए का मनन करने में "निसम्म" शब्द का प्रयोग होता है। अर्थात् सुना और उसके अनन्तर मनन किया, इन भावों के परिचायक सोच्चा और निसम्म ये दोनों पद हैं। 918 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपरतिमहापुरुष परमार्थी होता है, अपने हित से भी वह दूसरों के हित का विशेष ध्यान रखता है। दोनों के साध्य भिन्न-भिन्न होते हैं, इसीलिए दोनों विभिन्न साधनसामग्री को जुटाने का भी विभिन्न प्रकार से प्रयास करते हैं। स्वार्थी पुरुष तो उस साधनसामग्री को ढूंढ़ता है जिस से अपना स्वार्थ सिद्ध हो, उस में दूसरे की हानि या नाश का उसे बिल्कुल ध्यान नहीं रहता, उसे तो मात्र अपने प्रयोजन से काम होता है, परन्तु महापुरुष ऐसा नहीं करता, वह तो ऐसी सामग्री को ढूंढेगा जिस से किसी दूसरे को हानि न पहुंचती हो, प्रत्युत लाभ ही प्राप्त होता हो। महापुरुषों का प्रत्येक प्रयास दूसरों को सुखी बनाने, दूसरों का कल्याण सम्पादित करने के लिए होता है। वे "-परोपकाराय सतां विभूतयः-." इस लोकोक्ति का बड़े ध्यान से संरक्षण करते हैं और अपनी धनसम्पत्ति या ज्ञानविभूति का वे दीन-दुःखी प्राणियों के दुःखों तथा कष्टों को दूर करने में ही उपयोग करते हैं। यही कारण है कि संसारसमुद्र में गोते खाने वाले दुःखसन्तप्त मानव प्राणी ऐसे महापुरुषों का आश्रय लेते हैं और उन्हें अपना उपास्य बना कर जीवन व्यतीत करने का उद्योग करते हैं। - सुबाहुकुमार जैसे भावुक तथा विनीत व्यक्ति की अपने उपास्य के प्रति कितनी श्रद्धा एवं विशुद्ध भावना है इस का वर्णन ऊपर हो चुका है। अपने उपासक की निर्मल भावना को जिस समय सुबाहुकुमार के परम उपास्य भगवान् महावीर स्वामी ने जाना तो सुबाहुकुमार के उद्धार की इच्छा से भगवान् ने हस्तिशीर्ष नगर की ओर प्रस्थान कर दिया। ग्रामानुग्राम विचरते हुए भगवान् हस्तिशीर्ष नगर में पधारे और पुष्पकरण्डक नामक उद्यानगत कृतवनमालप्रिय यक्ष के मन्दिर में विराजमान हो गए। तदनन्तर उद्यानपाल के द्वारा भगवान् के पधारने की सूचना मिलते ही नगरनिवासी जनता को बड़ा हर्ष हुआ। भावुक नगरनिवासी लोग प्रसन्न मन से भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान की ओर चल पड़े। इधर नगरनरेश भी सुबाहुकुमार को साथ ले कर बड़े समारोह के साथ उद्यान की ओर प्रस्थान करते हुए भगवान् की सेवा में उपस्थित हो जाते हैं तथा विधिपूर्वक वन्दनादि करके यथास्थान बैठ जाते हैं। प्रश्न-क्या भगवान् महावीर स्वामी के पास शिष्य नहीं थे ? यदि थे तो क्या वे भगवान् की सेवा नहीं करते थे ? यदि करते थे तो केवल एक शिष्य की लालसा से उन्हें स्वयं पैदल विहार कर इतना बड़ा कष्ट उठा कर हस्तिशीर्ष नगर में आने की आवश्यकता क्यों प्रतीत हुई? उत्तर-भगवान् महावीर स्वामी के शिष्यों की कुल संख्या 14 हजार मानी जाती है और उन में गौतम स्वामी जैसे परमविनीत, परमतपस्वी और मेधावी अनगार मुख्य थे। सब के सब भगवान् के चरणकमलों के भ्रमर थे और भगवान् के हित के लिए अपना सर्वस्व अर्पण द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [919 Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने वाले थे। तात्पर्य यह है कि उनका शिष्यपरिवार पर्याप्त था और वह भी परम विनीत। अत: उन की सेवा भी होती थी कि नहीं इस प्रश्न का उत्तर अनायास समझा जा सकता है। अब रही शिष्यलालसा की बात, उस का उत्तर यह है कि भगवान् को शिष्य बनाने की न तो कोई लालसा थी और न ही उन के आत्मसाधन में यह सहायक थी। केवल एक बात थी जिस के लिए भगवान ने वहां कष्ट उठा कर भी पधारने का यत्न किया। वह थी"-जगतहित की भावना-"। सुबाहुकुमार मेरे वहां जाने से दीक्षा ग्रहण करेगा और दीक्षित हो कर जनता को सद्भावना का मार्ग प्रदर्शित करेगा तथा अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई जनता को उज्ज्वल प्रकाश देगा एवं अपने आत्मा का कल्याण साधन करता हुआ अन्य आत्माओं को भी शान्ति पहुँचाएगा और स्वात्मा के उत्थान से अनेक पतित आत्माओं का उद्धार करने में समर्थ होगा... इत्यादि शुभ विचारणा से प्रेरित होकर भगवान् ने विहार कर वहां पधारने का यत्न किया। भगवान् के हृदय में सुबाहुकुमार से निष्पन्न होने वाले दूसरों के हित का ही ध्यान था। तब इतने परम : उपकारी वीरप्रभु के विषय में शिष्यलालसा की कल्पना तो निरी अज्ञानमूलक है। इस की तो वहां संभावना भी नहीं की जा सकती। इस के अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि हर एक कार्य समय आने पर बनता है, समय के आए बिना कोई काम नहीं बनता। यदि समय नहीं आया तो लाख यत्न करने पर भी कार्य नहीं होता और समय आने पर अनायास हो जाता है। भगवान् तो घट-घट के ज्ञाता हैं, अतीत और अनागत उन के लिए वर्तमान है। वे तो पहले ही कह चुके हैं कि सुबाहुकुमार उन के पास दीक्षित होगा, उन की वाणी तथ्य से कभी शून्य नहीं हो सकती थी. किन्तु उस की सत्यता या पूर्ति की प्रत्यक्षता के लिए कुछ समय अपेक्षित था। समय आने पर सुबाहुकुमार को न तो किसी ने प्रेरणा की और न किसी ने दीक्षित होने का उपदेश दिया, किन्तु अन्तरात्मा से उसे प्रेरणा मिली और वह दीक्षा के लिए तैयार हो गया तथा भगवान् के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। मनष्य की शुभ भावनाएं और दृढ़ निश्चय अवश्य फल लाता है। इस अनुभवसिद्ध उक्ति के अनुसार सुबाहुकुमार की शुभभावना भी अपना फल लाई। जिस समय उस के किसी अनुचर ने पुष्पकरण्डक उद्यान में प्रभु के पधारने का समाचार दिया तो सुबाहुकुमार को जो प्रसन्नता हुई उस का व्यक्त करना इस क्षुद्र लेखनी की सामर्थ्य से बाहर की वस्तु है। 1. भगवान् को "तिण्णाणं तारयाणं" इसलिए कहा जाता है कि जहां भगवान् स्वयं संसार सागर से पार होते हैं, वहां वे संसारी प्राणियों को भी संसार सागर से पार करते हैं। "तारयाणं" यह पद भगवान की महान् दयालुता, कृपालुता एवं विश्वमैत्रीभावना का एक ज्वलन्त प्रतीक है। 920 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवान् का आगमन सुनते ही वह पहले की तरह, जिस तरह प्रस्तुत अध्ययन में वर्णन किया गया है, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हो जाता है और विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर भगवान् की पर्युपासना में यथास्थान बैठ जाता है। सब के यथास्थान बैठ जाने पर उन की धर्मामृतपान करने की बढ़ी हुई अभिलाषा को देख कर भगवान् बोले भव्यपुरुषो! जिस प्रकार नगरप्राप्ति के लिए उस के मार्ग को जानना और उस पर चलने की आवश्यकता है, उसी प्रकार मोक्षमन्दिर तक पहुंचने की इच्छा रखने वाले साधकों को भी उस के मार्ग का बोध प्राप्त करके उस पर चलने की आवश्यकता होती है। किसी प्रकार की लालसा का न होना मोक्ष का मार्ग है। जब तक लालसाएं बनी हुई हैं। तब तक मोक्ष की इच्छा करना, वायु को मुट्ठी में रोकने की चेष्टा करना है। इसलिए सर्वप्रथम सांसारिक लालसाओं से पिंड छुड़ाना चाहिए। लालसाओं से पीछा छुड़ाने के लिए सब से प्रथम महापिशाचिनी हिंसा को त्यागना होगा। बिना हिंसा के त्याग किये लालसाएं विनष्ट नहीं हो सकतीं। हिंसात्याग के लिए पहले असत्य को त्यागना होगा। जहां झूठ है वहां हिंसा है। जहां हिंसा है वहां लालसा है। लालसा मिटाने के लिए हिंसा के साथ झूठ का भी परित्याग करना पड़ता है। इसी प्रकार झूठ के त्यागार्थ चोरी का त्याग करना आवश्यक है। चोरी करने वाला झूठ, हिंसा और लालसा का ही उपासक होता है। इसलिए झूठ के साथ स्तेयकर्म का भी परित्याग कर देना चाहिए और चोरी के त्याग के निमित्त ब्रह्मचर्य का पालन करना जरूरी है। बिना ब्रह्मचर्य पालन किये, बिना इन्द्रियों को वश में किए, न तो चोरी छूट सकती है और न असत्य-झूठ, और न ही हिंसा। इसलिए हिंसा से लेकर झूठपर्यन्त सभी दुर्गुणों के त्यागार्थ मैथुन का त्याग और ब्रह्मचर्य का पालन नितान्त आवश्यक है। जैसे हिंसादि के त्यागार्थ ब्रह्मचर्य का पालन अर्थात् इन्द्रियों का निग्रह करना आवश्यक है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य के लिए परिग्रह का त्याग करना होगा। सब प्रकार के पापों का मूलस्रोत परिग्रह ही है। दूसरे शब्दों में इस आत्मा को जन्म-मरण रूप संसार में फिराने और भटकाने वाला परिग्रह ही है। इसी से सर्वप्रकार के पापाचरणों में यह जीव प्रवृत्त होता है। इसलिए परिग्रह का परित्याग करो। उस के त्यागने से लालसा का अपने आप त्याग हो जाएगा। मूर्छा या ममत्व का नाम परिग्रह है। संसार की जिस वस्तु पर आत्मा का ममत्व है, आत्मा के लिए वही परिग्रह है। अतः मोक्षरूप आनन्दनगर में प्रवेश करने के लिए परिग्रह का परित्याग परम आवश्यक है। जो भव्यात्मा परिग्रह का जितने अंश में त्याग करेगा, उस की लालसाएं उतने ही अंश में कम होती जाएंगी और जितनी-जितनी लालसाएं कम होंगी उतना-उतना यह आत्मा मोक्षमन्दिर के समीप आता द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [921 Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चला जाएगा। मोक्ष में दुःख तो लेशमात्र भी नहीं है। वह तो आनंदस्वरूप है। वहां पर आत्मानुभूति के अतिरिक्त और किसी भी प्रकार की दुःखानुभूति को स्थान नहीं है। अतः मोक्षाभिलाषी जीवों के लिए यह परम आवश्यक है कि वे इस सारगर्भित सिद्धान्त का मनन करें और उस को यथाशक्ति आचरण में लाने का उद्योग करें। भगवान् की इस मर्मस्पर्शी देशना को सुन कर नागरिक लोग और महाराज अदीनशत्रु आदि जनता भगवान् को वन्दना तथा नमस्कार करके नगर को वापिस चली गई। विश्ववन्द्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण में उन के आज के उपदेश का विचारपूर्वक मनन करने और उस के अनुसार आचरण करने वालों में से एक सुबाहुकुमार का ही इतिवृत्त हमें उपलब्ध होता है। शेष श्रोताओं के मन में क्या-क्या विचार उत्पन्न हुए और उन्होंने किस सीमा तक भगवान् के सदुपदेश को अपनाया या अपनाने का यत्न किया, इस का उत्तर हमारे पास नहीं है। हां ! सुबाहुकुमार जी के जीवन पर उस का जो प्रभाव हुआ, वह हमारे सामने अवश्य उपस्थित है। भगवान् की इस धर्मदेशना से सुबाहुकुमार के हृदयगत उन विचारों को बहुत पुष्टि मिली जो कि उस ने तेले की तपस्या करते समय अपने हृदय में एकत्रित कर लिए थे। अब उसने अपने उन संकल्पों को और भी दृढ़ कर लिया और वह शीघ्र से शीघ्र उन्हें कार्यान्वित करने के लिए उत्सुक हो उठा। तदनन्तर वह विधिपूर्वक वन्दना, नमस्कार करके भगवान् के चरणों में बड़े विनीतभाव से इस प्रकार बोला प्रभो ! आपश्री जब यहां पहले पधारे थे, तो उस समय मैंने अपने आप को मुनिधर्म के लिए असमर्थ बतलाया था और तदनुसार आप से श्रावकोचित अणुव्रतों का ग्रहण कर के अपने आत्मा को सन्तोष दिया था। वास्तव में ही उस समय मैं मुनिधर्म का यथाविधि पालन करने में असमर्थ था। परन्तु अब मैं आपश्री के असीम अनुग्रह से अपने आप को मुनिधर्म के योग्य समझता हूँ। अब मुझ में मुनिधर्म के पालन करने का सामर्थ्य हो गया है, ऐसा मैं अनुभव करता हूँ। इसलिए कृपा करके मुझे मुनिधर्म में दीक्षित करके अपने चरणों में निवास करने का सुअवसर प्रदान करने का अनुग्रह करें, यही आपश्री के पुनीत चरणों में मेरी विनम्र प्रार्थना है। आशा है कि आप इसे अवश्य स्वीकार करेंगे। तदनन्तर सुबाहुकुमार फिर बोले-भगवन् ! मैंने अपने दूर तथा निकट के सांसारिक सम्बन्धों पर अपनी बुद्धि के अनुसार खूब विचार कर लिया है। विचार करने के अनन्तर मैं 1. भगवान् की धर्मदेशनारूप सुधा का विशेषरूप से पान करने वालों को श्री औपपातिक सूत्र का धर्मदेशनाधिकार देखना चाहिए। 922 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी परिणाम पर पहुंचा हूँ कि संसार में धर्म के अतिरिक्त इस जीव का कोई रक्षक नहीं है। माता, पिता, भाई और बहन तथा पुत्रकलत्रादि जितने भी सम्बन्धी कहे व माने जाते हैं, वे अपने अपने स्वार्थ को लेकर सम्बन्ध की दुहाई देने वाले हैं। समय आने पर कोई भी किसी का साथ नहीं देता। साथ देने वाला तो एकमात्र धर्म है। प्रभो ! अब मैं चाहता हूँ कि जिन कष्टों को मैं अनन्त बार सह चुका हूँ, उन से किसी प्रकार छुटकारा प्राप्त कर लूं। दीनबन्धो! मेरी धर्म पर जैसी अब आस्था है वैसी पहले भी थी, किन्तु उस को आचरण में लाने का इस से पूर्व मुझे बल नहीं मिला था। अब आप श्री की कृपा से वह मिल गया है। अब अगर इस सुअवसर को हाथ से खो दूं तो फिर यह मुझे प्राप्त होने का नहीं है और इसे खो देना मेरी नितान्त मूर्खता होगी। इसलिए मुझे अब मुनिधर्म में दीक्षित करने की शीघ्र से शीघ्र कृपा करें। इस के लिए यदि माता-पिता की आज्ञा अपेक्षित है तो मैं उसे प्राप्त कर लूंगा।"-जैसे तुम को सुख हो, वैसा करो, परन्तु विलम्ब मत करो-" भगवान् के इन वचनों को सुन कर प्रसन्नचित्त हुआ सुबाहुकुमार भगवान् की विधिपूर्वक वन्दना-नमस्कार करने के अनन्तर जिस रथ पर आया था, उसी पर सवार हो कर माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करने के लिए अपने महल की ओर चल दिया। -अज्झत्थियं जाव वियाणित्ता-यहां पठित जाव-यावत् पद से-चिंतियं, कप्पियं, पत्थियं, मणोगयं, संकप्पं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ पीछे यथास्थान लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां ये पद प्रथमान्त हैं जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त / अतः अर्थ में द्वितीयान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिए। - -महया जहा पढमंतहा णिग्गओ-ये शब्द सूत्रकार की इस सूचना को सूचित करते हैं कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह वर्णन किया गया था कि भगवान् महावीर स्वामी नगर में पधारे तो उस समय सुबाहुकुमार बड़े वैभव के साथ जमालि की तरह भगवान के दर्शनार्थ नगर से निकला, इत्यादि विस्तृत वर्णन न करते हुए सूत्रकार ने संकेत मात्र कर दिया है कि सुबाहुकुमार जैसे पहले बड़े समारोह के साथ भगवान् के चरणों में उपस्थित होने के लिए आया था, उसी प्रकार अब भी आया। ___-हद्वतद्धे जहा मेहो तहा अम्मापियरो आपुच्छइ,णिक्खमणाभिसेओ तहेव जाव अणगारे जाए-इस पाठ से सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि सुबाहुकुमार का धर्म सुन कर प्रसन्न होना तथा दीक्षार्थ माता-पिता से पूछना, निष्क्रमणाभिषेक इत्यादि सभी बातें मेघकुमार के समान जान लेनी चाहिएं, तथा दीक्षार्थ निष्क्रमण और अनगारवृत्ति का धारण करना आदि भी उसी के समान जान लेना चाहिए। मेघकुमार का जीवनवृत्तान्त श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [923 Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रथम अध्ययन में वर्णित हुआ है। विस्तारभय से उस का सम्पूर्ण उल्लेख यहां पर नहीं हो सकता, तथापि प्रकृतोपयोगी स्थलमात्र का संक्षेप से यहां पर वर्णन कर दिया जाता है। . राजगृह नामक सुप्रसिद्ध राजधानी में महाराज श्रेणिक का शासन था। उन की महारानी का नाम श्री धारिणीदेवी था। महारानी धारिणी की पुनीत कुक्षि से जिस पुण्यशाली बालक ने जन्म लिया वह मेघकुमार के नाम से संसार में विख्यात हुआ। मेघकुमार का लालन-पालन प्रवीण धायमाताओं की पूर्ण देखरेख में बड़ी उत्तमता से सम्पन्न हुआ। सुयोग्य कलाचार्य की छाया तले बालक मेघकुमार ने 72 कला आदि का उत्तम शिक्षण प्राप्त किया और युवावस्था को प्राप्त करते ही अपने मानवोचित हर प्रकार के कर्त्तव्य को पूरी तरह समझने लगा और तदनुसार ही व्यवहार करने लगा। मेघकुमार को युवक हुआ जान कर महाराज श्रेणिक ने उस के लिए आठ उत्तम महल और उन के मध्य में एक विशाल भवन बनवाया। तदनन्तर उत्तम तिथि, करण, नक्षत्रादि में आठ सुयोग्य राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण करवाया और प्रीतिदान में हिरण्यकोटि आदि अनेकानेक बहुमूल्य पदार्थ दिए और मेघकुमार बत्तीस प्रकार के नाटकों के साथ उन महलों में राजकुमारियों के साथ यथारुचि भोगोपभोग करने लगा। एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते-विचरते राजगृह नगरी में पधारे और गुणशील नामक चैत्य-उद्यान में विराजमान हो गए। सारे नगर में भगवान के पधारने की खबर बिजली की भांति फैल गई। सब लोग भगवान् का दर्शन करने, उन्हें वन्दना-नमस्कार करने तथा भगवान् के मुखारविन्द से निकले हुए अमृतमय उपदेश को सुनने के लिए गुणशील नामक उद्यान में बड़े समारोह के साथ जाने लगे। इधर मेघकुमार भी अपने पूरे वैभव के साथ भगवान् को वन्दन करने तथा उन का धर्मोपदेश सुनने के लिए वहां पहुँचा। सारी जनता के उचित स्थान पर बैठ जाने के बाद भगवान् ने उसे धर्मोपदेश देना आरम्भ किया। उपदेश क्या था। मानों जीवन के धार्मिक विकास का साक्षात् मार्ग दिखाया जा रहा था। भगवान् के सदुपदेश ने मेघकुमार के हृदय पर अपूर्व प्रभाव डाल दिया। उस के हृदयसरोवर में वैराग्य की तरंगें निरंतर उठने लगीं। उस के मन पर से मानवोचित सांसारिक वैभव की भावना इस तरह उतर गई जैसे सांप के शरीर पर से पुरानी कांचली उतर जाती है। तात्पर्य यह है कि भगवान् की धर्मदेशना से मेघकुमार के विषयवासना-वासित हृदय पर वैराग्य का न उतरने वाला रंग चढ़ गया। उस का हृदय जहां विषयान्वित था वहां अब वैराग्यान्वित होकर संसार को घृणास्पद समझने और मानने लगा। सब के चले जाने पर मेघकुमार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के सम्मुख उपस्थित 924 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो कर बड़े नम्रभाव से बोला-भगवन् ! आप श्री जी का प्रवचन मुझे अत्यन्त प्रिय और यथार्थ लगा, मेरी इच्छा है कि मैं आपश्री के चरणों में मुण्डित हो कर प्रव्रजित हो जाऊं, संयम व्रत को ग्रहण कर लूं। माता तथा पिता से पूछना शेष है, अत: उन से पूछ कर मैं अभी उपस्थित होता हूँ। इस के उत्तर में भगवान् ने-जैसे तुम को सुख हो, विलम्ब मत करो-इस प्रकार कहा। यह सुन कर मेघकुमार जिस रथ पर चढ़ कर आया था उस पर सवार होकर घर पहुंचा और माता-पिता को प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगा .. मैंने आज भगवान् महावीर स्वामी के उपदेशामृत का खूब पान किया। उस से मुझे जो आनन्द प्राप्त हुआ वह वर्णन में नहीं आ सकता। उपदेश तो अनेकों बार सुने परन्तु पहले कभी हृदय इतना प्रभावित नहीं हुआ, जितना कि आज हो रहा है। मां ! भगवान् के चरणों में आज मैंने जो उपदेश सुना है, उस का मेरे हृदयपट पर जो पावन चित्र अंकित हुआ है उसे मैं ही देख सकता हूँ, दूसरे को दिखलाना मेरे लिए अशक्य है। पुत्र के इन वचनों को सुन कर महारानी धारिणी बोली-पुत्र ! तू बड़ा भाग्यशाली है जो कि तूने श्रमण भगवान् महावीर की वाणी को सुना और उस में तेरी अभिरुचि उत्पन्न हुई। इस प्रकार के धर्माचार्यों से धर्म का श्रवण करना और उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न करना किसी भाग्यशाली का ही काम हो सकता है। भाग्यहीन व्यक्ति को ऐसा पुनीत अवसर प्राप्त नहीं होता। इसलिए पुत्र ! तू सचमुच ही भाग्यशाली है। मां ! मेरी इच्छा है कि मैं भगवान् के चरणों में उपस्थित हो कर दीक्षा ग्रहण कर लूं। मेघकुमार ने बड़ी नम्रता से माता के सामने अपना मनोभाव व्यक्त किया और स्वीकृति मांगी। अपने प्रिय पुत्र मेघकुमार की यह बात सुनकर महारानी अवाक् सी रह गई। उसे क्या खबर थी कि उस के पुत्र के हृदयपट को श्रमण भगवान् महावीर की धर्मदेशना ने अपने * वैराग्यरंग से सर्वथा रंजित कर दिया है और अब उस पर मोह के रंग का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, उसे मेघकुमार के उक्त विचार से पुत्रवियोगजन्य कल्पना मात्र से बहुत दुःख हुआ। - माता-पिता अपनी विवाह के योग्य पुत्री का विवाह अपनी इच्छा से करते हैं, तब भी विदाई के समय उन्हें मातृपितृस्नेह व्यथित कर ही देता है। इसी प्रकार मेघकुमार की धर्मपरायणा माता धारिणी देवी, दीक्षा को सर्वश्रेष्ठ मानती हुई भी तथा साधुजनों की संगति और संयम को आदर्श रूप समझती हुई भी मेघकुमार के मुख से दीक्षित होने का विचार सुन उस के हृदय को पुत्र की ममता ने हर प्रकार से व्यथित कर दिया। वह बेसुध हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ी। जब दास-दासियों के उपचार से वह कुछ सचेत हुई तो स्नेहपूर्ण हृदय से मेघकुमार को सम्बोधित करती हुई इस प्रकार बोली द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [925 Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र ! तू ने यह क्या कहा ? मैं तो तुम्हारा मुख देख-देख कर ही जी रही हूं। मेरे स्नेह का एकमात्र केन्द्र तो तू ही है। मैंने तो तुम्हें उस रत्न से भी अधिक संभाल कर रखा है, जिसे सुरक्षित रखने के लिए एक सुदृढ़ और सुन्दर डिब्बे की ज़रूरत होती है। मैं तो तुम्हारे आते का मुख और जाते की पीठ देखने के लिए ही खड़ी रहती हूँ। ऐसी दशा में तुम्हारे दीक्षित हो जाने पर मेरी जो अवस्था होगी उस का भी पुत्र गम्भीरता से विचार कर! माता का भी पुत्र पर कोई अधिकार होता है। इसलिए बेटा ! अधिक नहीं तो मेरे जीते तक तो तू इस दीक्षा के विचार को अपने हृदय से निकाल दे। अभी तेरा भर यौवन है, इस के उपयुक्त सामग्री भी घर में विद्यमान है, यह सारा वैभव तेरे ही लिए है, फिर तू इस का यथारुचि उपभोग न कर के दीक्षा लेने की क्यों ठान रहा है ? छोड़ इन विचारों को, तू अभी बच्चा है, संयम के पालने में कितनी कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं, इस का तुझ को अनुभव नहीं है। संयमव्रत का ग्रहण करना कोई साधारण बात नहीं है। इस के लिए बड़े दृढ़ मनोबल की आवश्यकता होती है।' तेरा कोमल शरीर, सुकुमार अवस्था और देवदुर्लभ राज्यवैभव की संप्राप्ति आदि के साथ दीक्षा जैसे कठोर व्रत की तुलना करते हुए मुझे तो तू उसके योग्य प्रतीत नहीं होता। इस पर भी यदि तेरा दीक्षा के लिए ही विशेष आग्रह है तो मेरे मरने के बाद दीक्षा ले लेना। इस प्रकार माता की और महाराज श्रेणिक के आ जाने पर उन की ओर से कही गई इसी प्रकार की स्नेहपूर्ण ममता-भरी बातों को सुन कर माता-पिता को सम्बोधित करते हुए मेघकुमार बोले आप की पुनीत गोद में बैठ कर मैंने तो यह सीखा है कि जिस काम में अपना और संसार का कल्याण हो, उस काम के करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए। परन्तु आप कह रहे हैं कि हमारे जीते जी दीक्षा न लो, यह क्यों ? फिर क्या यह निश्चित हो चुका है कि हम में से पहले कौन मरेगा? क्या माता-पिता की उपस्थिति में पुत्र या पुत्री की मृत्यु नहीं हो सकती? मेघकुमार के इस कथन का उत्तर माता-पिता से कुछ न बन पड़ा। तब उन्होंने उसे घर में रखने का एक और उपाय करने का उद्योग किया। महारानी धारिणी और महाराज श्रेणिक बोले बेटा ! यदि तुम को हमारा ध्यान नहीं, तो अपनी नवपरिणीता वधुओं का तो ख्याल करो। अभी तुम इन्हें ब्याह कर लाये हो, इन बेचारियों ने तो अभी तक कुछ भी सुख नहीं देखा। तुम यदि इन्हें इस अवस्था में छोड़ कर चले गए तो इन का क्या बनेगा ? इन की रक्षा करना तुम्हारा प्रधान कर्त्तव्य है। इन के विकसित हुए यौवन का विनाशकर दीक्षा के लिए उद्यत होना कोई बुद्धिमत्ता नहीं। यदि साधु ही बनना है तो अभी बहुत समय है, कुछ दिन घर में . रह कर सांसारिक सुखों का भी उपभोग करो। वंश-वृद्धि का सारा भार तुम पर है बेटा! 926 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघकुमार बोला-यह कामभोग तो जीवन को पतित कर देने वाले हैं। स्वयं मलिन . हैं और अपने उपासक को भी मलिन बना देते हैं / यह जो रूप-लावण्य और शारीरिक सौन्दर्य है, वह भी चिरस्थायी नहीं है, और यह शरीर जिसे सुन्दरता का निकेतन समझा जाता है, निरा मलमूत्र और अशुचि पदार्थों का घर है। ऐसे अपवित्र शरीर पर आसक्ति रखना निरी मूर्खता है। इस के अतिरिक्त ये शरीर, धन और कलत्रादि कोई भी इस जीव के साथ में जाने वाले नहीं हैं। समय आने पर ये सब साथ छोड़ कर अलग हो जाते हैं। फिर इन पर मोह करना या विश्वास करना या विश्वास रखना कैसे उचित हो सकता है ? पूज्य माता और पिता जी! इस अस्थिर सांसारिक सम्बन्ध के व्यामोह में पड़ कर आप मुझे अपने कर्त्तव्य के पालन से च्युत करने का यत्न न करें। सच्चे माता-पिता वे ही होते हैं, जो पुत्र के वास्तविक हित की ओर ध्यान देते हैं। मेरा हित इसी में है कि एक वीर क्षत्रिय के नाते कर्मरूप आत्मशत्रुओं को पराजित कर के आत्मस्वराज्य को प्राप्त करूं / इस के लिए साधन है-संयम व्रत का सतत पालन। अतः यदि उस की आप मुझे आज्ञा दे दें, तो मैं आप का बहुत आभारी रहूंगा। आप यदि सांसारिक प्रलोभनों के बदले मुझे यह आशीर्वाद दें कि जा बेटा ! तू संयम व्रत को ग्रहण करके एक वीर क्षत्रिय की भांति कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सफल हो, तो कैसा अच्छा हो मां ! मुझे शीघ्र आज्ञा दो कि मैं भगवान् के पास दीक्षित हो जाऊं। पिता जी ! कहो न कि दीक्षा लेना चाहते हो तो भले ही ले लो, हमारी आज्ञा है। . मेघकुमार के इस आग्रह भरे वचनसन्दर्भ को सुनने के बाद उस की माता ने संयमव्रत की कठिनाइयों का वर्णन करते हुए फिर कहा, पुत्र ! संयमव्रत लेने की तेरे अन्दर जो भावना है, वह तो प्रशंसनीय है, परन्तु जिस मार्ग का तू पथिक बनने की इच्छा कर रहा है, उस का सम्यक्तया बोध भी प्राप्त कर लिया है ? संयम कहने में तो तीन चार व्यञ्जनों की समुदाय है, पर इस के वाच्य को जीवनसात् करना-जीवन में उतारना, बहुत कठिन होता है। संयम लेने का अर्थ है-उस्तरे की धार को चाटना और साथ में जिह्वा को कटने न देना, तथा नदी के प्रबल वेग के प्रतिकूल गमन करना, महान् समुद्र को भुजाओं से पार करना। इसी भाँति संयम का अर्थ है-बड़े भारी पर्वत को सिर पर उठा कर चलना। इसलिए पुत्र ! सब कुछ सोच-समझ ले, फिर संयम ग्रहण की ओर बढ़ना / कहीं ऐसा न हो कि इधर सांसारिक वैभव से भी हाथ धो बैठो और उधर संयम भी न पाल सको। माता धारिणी फिर बोली, पुत्र ! संयमव्रत में सब से बड़ी कठिनाई यह है कि उस में भोजन की व्यवस्था बड़ी कठिन है। कच्चा पानी इस में त्याज्य होता है। संसारभर के जितने मधुर से मधुर एवं कोमल से कोमल फल-फूल हैं, उन सब का ग्रहण इस में वर्जित होता है। भोजन के ग्रहण में बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। भिक्षा द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [927 Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से जीवननिर्वाह करना होता है। इस विषय में तो इतनी अधिक कठिनाई है कि जो तेरे जैसे राजसी ठाठ में पले हुए सुकुमार युवक की कल्पना में भी नहीं आ सकती। नीरस भोजन, पृथ्वी पर सोना, दंशमशकादि का काटना और शीतातप का लगना आदि ऐसे अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं कि जिन को तेरे जैसे राजकुमार को कभी कल्पना भी नहीं हो सकती। ऐसे विकट मार्ग में गमन करने से पहले अपने आत्मबल को भी देख लेना चाहिए। कहीं इस नवीन वैराग्य की बाढ़ में तरने के बदले अपने आप को खो देने की भूल न कर बैठना। तू अभी बच्चा है। तेरा अनुभव इतना विशद नहीं। प्रत्येक कार्य में उस के आरम्भ से पहले उस से निष्पन्न होने वाले हानि-लाभ का विचार करना नितान्त आवश्यक होता है। इसलिए पुत्र ! मेरी तो इस समय तेरे लिए यही सम्मति है कि तू अभी दीक्षा के विचार को स्थगित कर दे। माता-पिता के इस उपदेश का भी मेघकुमार के हृदय पर कुछ असर नहीं हुआ, प्रत्युत कठिनाई की बातों को सुन कर वह बोला, माता जी ! संयम महान् कठिन है, यह मैं जानता . हूं और यह भी जानता हूँ कि इस के धारक वीर पुरुष ही हो सकते हैं। यह काम कायरों और कमजोरों का नहीं, वे तो आरम्भ में ही फिसल जाते हैं। परन्तु मैं तो एक वीर क्षत्रियाणी का वीरपुत्र हूं और क्षात्रधर्म का जीता-जागता प्रतीक हूँ। वीरांगना के आत्मजों में दुर्बलता की शंका करना भ्रम मात्र है। मां ! एक सिंहनी अपने पुत्र को रणसंग्राम से पीछे हटने का उपदेश दे, यह देख मुझे तो आश्चर्य होता है। एक क्षत्रिय कुमार होता हुआ मैं संयम की कठिनता से भयभीत हो जाऊं, यह तो आप को स्वप्न में भी ख्याल नहीं करना चाहिए। "तेजस्विनः क्षणमसूनपि संत्यजन्ति। सत्यव्रतप्रणयिनो न पुनः प्रतिज्ञाम्" अर्थात् तेजस्वी, धीर और वीर पुरुष अपने प्राणों का त्याग कर देते हैं, परन्तु ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा को भंग नहीं होने देते। भला मां ! यह तो बतलाओ कि संसार में कोई ऐसा काम भी है जिस में किसी न किसी प्रकार का कष्ट न उठाना पड़े? माता बच्चे को जन्म देते समय कितनी व्यापक वेदना का अनुभव करती है ? यदि वह उस असह्य वेदना को सह लेती है तभी तो अपनी गोद को बच्चे से भरी हुई पाती है और "-मां ! मां !-" इस मधुर ध्वनि से अपने कर्णविवरों को पूरित करने का हर्षपूर्ण पुण्य अवसर प्राप्त करती है। माता जी ! मुझे संयम की कठिनाइयों से भयभीत करके संयम से पराङ्मुख करने का प्रयास मत करो। मैं तो "कार्यं वा साधयामि देहं वा पातयामि"-इस प्रतिज्ञा का पालन करने वाला हूँ। इसलिए मुझे संयम में उपस्थित होने वाली कठिनाइयों से अणुमात्र भी भय नहीं 1. कार्य को सिद्ध कर लूंगा या उस की सिद्धि में जीवन को अर्पण कर दूंगा, अर्थात् कार्यसिद्धि के लिए / इतनी दृढ़ता है तो उसके लिए मृत्युदेवी का सहर्ष आलिंगन कर लूंगा। 928 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। आप इस विषय में सर्वथा निश्चिन्त रहें। आप का यह वीर बालक आप की शुभकीर्ति में किसी प्रकार का लांछन नहीं लगने देगा। अतः मुझे दीक्षाग्रहण करने की आज्ञा प्रदान करो। माता के चुप रहने पर वह फिर बोला वीर माता अपने पुत्र को रणक्षेत्र में जाने के लिए स्वयं सजा कर भेजती है, परन्तु आज न जाने उसे क्या हो गया ? मां ! मैं तो कर्मरूपी शत्रुओं के महान् दल को विध्वंस करने जा रहा हूँ, मुझे उस के लिए स्वयं तैयार करो। योग्य माताओं के आदर्श को अपना कर अपने इस वीर बालक को संयमयात्रा की आज्ञा प्रदान करो। अब तो सौभाग्यवश मुझे श्रमण भगवान् महावीर जैसे सेनानायक का संयोग प्राप्त हो रहा है। मैं उन के शासन में अवश्य विजय प्राप्त करूंगा। ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। इसलिए मां ! उठो तुम स्वयं चल कर मुझे भगवान् के चरणों में जाकर उन्हें अर्पण कर दो और अन्ततोगत्वा यही समझ लेना कि मेरा वीर पुत्र अपनी आन को बचाने की खातिर रणक्षेत्र में कूद पड़ा है। मेघकुमार के पिता महाराज श्रेणिक बड़े नीतिज्ञ थे। उन्होंने सोचा कि कभी-कभी अनेक युवक भावुकता के प्रवाह में बहते हुए अंतरंग में स्थायी और दृढ़ संकल्पों के अभाव में भी स्थायी प्रभाव रखने वाले कार्यों में जुट जाते हैं। उस का फल यह होता है कि तीर तो हाथ से छूट जाता है मात्र पश्चात्ताप पल्ले रह जाता है। यद्यपि मेघकुमार बुद्धिमान् और सुशील है तथापि युवक ही तो है। अस्तु, इस की दृढ़ता की प्रथम जांच करनी चाहिए। यह सोच कर महाराज श्रेणिक मेघकुमार को सम्बोधित करते हुए बोले.. पुत्र ! तू वीर है, संसार में वीरता का आदर्श उपस्थित कर तू संयमी-साधु बन कर दुनिया को कायरता का सन्देश क्यों देता है ? संसार का जितना कल्याण तलवार से हो सकता है, उतना साधुवृत्ति से नहीं होगा। अपने ऊपर आये हुए गृहस्थी के भार से भयभीत हो कर भागना कायरों का काम है, तेरे जैसे वीरात्मा का नहीं। लोग तुझे क्या समझेंगे? तेरी शक्ति का संसार को क्या लाभ हुआ? यदि तू संसार का कल्याण चाहता है तो अपने हाथ में शासन की बागडोर ले और प्रजा का नीतिपूर्वक पालन कर। ऐसा करने से तेरा और जगत् दोनों का हित सम्पन्न होगा। .. पिता की यह बात सुन कर मेघकुमार बोला-पिता जी ! यह आप ने क्या कहा ? क्या संयम धारण करना कायरों का काम है ? नहीं नहीं। उस के धारणं के लिए तो बड़ी शूरवीरता की आवश्यकता होती है। तलवार चलाने में वह वीरता नहीं जो संयम के ग्रहण करने में है। तलवार के बल से जनता के मन को भयभीत किया जा सकता है, उसे व्यथित एवं संत्रस्त किया जा सकता है, परन्तु अपनाया या उठाया नहीं जा सकता। तलवार से वश होने वाले, द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [929 Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलवार की स्थिति तक ही वश में रह सकते हैं, पीछे से वे शत्रु बनते हैं और समय आने पर. सारा बदला चुका लेते हैं। राम अकेला था, निस्सहाय था, जंगल का विहारी था और रावण था लंकेश, परन्तु प्रजा ने किस का साथ दिया ? राम का, न कि रावण का / सारांश यह है कि तलवार चलाने में वीरता नहीं, वीरता तो उस काम में है जिस से अपना और दूसरों का हित सम्पन्न हो, कल्याण हो। दूसरी बात यदि बाहरी शत्रुओं को जीता तो क्या जीता? इस में तो कोई असाधारण वीरता नहीं, वीरता तो आन्तरिक शत्रुओं की विजय में है। उन का दमन करने वाला ही सच्चा वीर है। काम, क्रोधादि जितने भी आन्तरिक शत्रु हैं वे तलवार से कभी जीते नहीं जा सकते, इन पर तलवार का कोई असर नहीं होता। उन के जीतने का तो एकमात्र साधन संयमव्रत है। संयम की तलवार में जितना बल है उस से तो शतांश या सहस्रांश भी इस बाहर से चमकने वाली लोहे की जड़ तलवार में नहीं है। संयम की तलवार जहां अन्दर के काम, क्रोधादि को मार भगाने में शक्तिशाली है, वहां बाहर के शत्रुओं को पराजित करने में भी वह सिद्धहस्त है। मैं तो इसी उद्देश्य से अर्थात् इन्हीं अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने आप को संयम की तलवार से सन्नद्ध कर रहा हूँ, परन्तु आप उस में प्रतिबन्ध बन रहे हैं। क्या आप के हृदय में मेरी इस आदर्श वीरोचित तैयारी के लिए प्रोत्साहन देने की भावना जागृत नहीं होती ? अवश्य होनी चाहिए। क्या ही अच्छा हो, यदि आप अपने हाथ से मेरा निष्क्रमणाभिषेक करावें और प्रसन्नचित्त से मुझे भगवान् के चरणों में समर्पित करें। मेघकुमार के सदुत्तर ने महाराज श्रेणिक को भी मौन करा दिया और माता ने भी समझ लिया कि मेघकुमार अब रुक नहीं सकेगा। तब इस से तो यही अच्छा है कि इस के श्रेयसाधक कार्य में अब प्रतिबन्ध उपस्थित न किया जाए। इस विचार के अनन्तर मेघकुमार को संबोधित करते हुए माता बोली-अच्छा, बेटा ! यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो जाओ, वीरोचित धर्म का वीरवेष पहन कर उस की प्रतिष्ठा को अधिक से अधिक बढ़ाने का उद्योग करते हुए, इच्छित विजय प्राप्त करो, यही मेरा हार्दिक आशीर्वाद है। . दीक्षा के लिए उद्यत हुए मेघकुमार को इस तरह से माता-पिता का समझाना भी रहस्य से खाली नहीं है। उस में माता-पिता के एक कर्त्तव्य की सूचना निहित है। इस के अतिरिक्त माता-पिता इस बात की जांच भी करते हैं कि हमारा पुत्र किसी अमुक सांसारिक वस्तु की कमी से तो साधु नहीं बन रहा है ? इस के अतिरिक्त जांच करने से "-अमुक का पुत्र अमुक कमी से साधु बन गया" इस अपवाद से अपने आप को बचाया जा सकता है। इसीलिये माता ने अन्य बातों के कहने के साथ-साथ अन्त में यह भी कह डाला कि बेटा ! कम से कम एक दिन की राज्यश्री का उपभोग तो अवश्य करो-ऐसा कहने से "संयम को श्रेष्ठ समझता है या 930] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य को" इस बात का भी भलीभाँति निर्णय हो जाएगा। इस के अतिरिक्त राज्य को त्याग कर संयम लेने से संसार पर विशिष्ट प्रभाव पड़ेगा और संयम के महत्त्व का संसार को पता लगेगा। मेघकुमार भी माता के उक्त कथन (एक दिन की राज्यश्री का उपभोग अवश्य करो) का अभिप्राय समझ गया और जैसे सोने की असली परीक्षा अग्नि में तपा कर ही होती है वैसे ही मुझे भी अपनी दृढ़ता की परीक्षा राज्य लेकर देनी होगी। यह सोच उस ने राज्य लेने की स्वीकृति दे दी और माता के अनुरोध को शिरोधार्य कर उस की भावना को पूरा किया। दूसरे दिन मेघकुमार का बड़ा समारोह के साथ राज्याभिषेक करके उसे राजा बना दिया गया। मेघकुमार राज्यसिंहासन पर बैठा और उसके ऊपर छत्र और दोनों ओर चामर ढुलाये जाने लगे। राज्यसत्ता मेघकुमार को अर्पण कर दी गई। दूसरे शब्दों में उसे राज्यशासन का सारा भार सौंप दिया गया। महाराज श्रेणिक और महारानी धारिणी अपने पुत्र को राजगृहनरेश के रूप में देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुए और सप्रेम कहने लगे कि पुत्र ! किसी वस्तु की इच्छा है ? तब मेघ नरेश ने उत्तर दिया-मुझे रजोहरण और पात्र चाहियें और शिरोमुंडन के लिए एक नाई चाहिए। __महाराज श्रेणिक तथा माता धारिणी ने जब यह देखा कि मेघकुमार अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया है और उसे किसी ढंग से आपात्रमणीय सांसारिक कामभोगों में फंसाया नहीं जा सकता। अब तो यह प्रभु वीर के चरणों में दीक्षित हो कर अपना आत्मश्रेय साधने में अत्यधिक उत्सुक एवं उस के लिए सन्नद्ध हो रहा है। तब उन्होंने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा कि भद्र पुरुषो ! राज्य के कोष में से तीन लाख मोहरें निकाल लो। उन में से दो लाख मोहरों द्वारा रजोहरण और पात्र ले आओ, एक लाख मोहरें नापित-नाई को दे डालो, * 'जो दीक्षित होने के पूर्व कुमार का शिरोमुण्डन करेगा। कौटुम्बिक पुरुषों ने महाराज की इच्छा के अनुसार वह सब कुछ कर दिया। तब दीक्षामहोत्सव की तैयारी होने लगी। सब से प्रथम मेघकुमार को एक पट्टासन पर बैठा कर सोने और चांदी के कलशों से स्नान कराया गया। शरीर को पोंछ कर सुन्दर से सुन्दर तथा बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहनाये गए। सुगन्धित द्रव्यों का लेपन किया गया। तत्पश्चात् सेवकों को पालकी लाने की आज्ञा दी गई। आज्ञा मिलते ही सेवकवृन्द एक सुन्दर सुसज्जित और एक हज़ार आदमियों के द्वारा उठाई जाने वाली पालकी ले आये। उस पालकी में पूर्व की ओर मुख कर के मेघकुमार बैठ गये। उन के पास ही महारानी धारिणीं भी अच्छे-अच्छे वस्त्रालंकार पहन कर बैठ गई। मेघकुमार के बाईं ओर उन की धाय माता रजोहरण और पात्र ले कर बैठ - द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [931 Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई। एक तरुण महिला छत्र लेकर उस के पीछे बैठ गई। दो युवतियां हाथों में चंवर लेकर मेघकुमार पर ढुलाने लगीं। एक अन्य तरुण सुन्दरी पंखा लेकर पालकी में आई और वहां मेघकुमार के उष्णताजन्य संताप को दूर करने का यत्न करने लगी। एक स्त्री झारी लेकर वहां आई, वह भी वहां पूर्व-दक्षिण दिशा की ओर खड़ी हो गई। ऐसे वैभव से मेघकुमार को उस पालकी में बिठलाया गया। पालकी की तैयारी होने पर महाराज श्रेणिक ने समान रंग, समान आयु और समान वस्त्र वाले एक हजार पुरुषों को बुलाया। आज्ञा मिलने पर वे पुरुष स्नानादि से निवृत्त हो, वस्त्राभूषण पहन कर वहां उपस्थित हो गए। महाराज श्रेणिक की ओर से पालकी उठाने की आज्ञा मिलने पर उन्होंने पालकी को अपने कंधों पर उठा लिया और राजगृह के बाज़ार की ओर चलने लगे। एक राजा अपने राज्य को त्याग कर दीक्षा ले रहा है, ऐसी सूचना मिलने पर कौन ऐसा भाग्यहीन आदमी होगा जो इस पावन दीक्षामहोत्सव में सम्मिलित न हुआ होगा ? सारे / नागरिक दीक्षामहोत्सव को देखने के लिए जलप्रवाह की भांति उमड़ पड़े। राज्य की समस्त सेना भी उपस्थित हुई। सारांश यह है कि वहां महान् जनसमूह एकत्रित हो गया तथा सब लोग जय-जयकार से आकाश को प्रतिध्वनित करते हुए दीक्षायात्रा की शोभा में वृद्धि करने लगे। ___मेघकुमार की सहस्रपुरुषवाहिनी पालकी बड़े वैभवपूर्ण समारोह के साथ नगर के बीच में से होकर चली। सब के आगे सेना थी और महाराज श्रेणिक भी उसी के साथ थे। सेना के पीछे मंगलद्रव्य थे और उनके पीछे मेघकुमार की पालकी थी। पालकी के पीछे जनता थी। इस प्रकार धूमधाम से मेघकुमार की पालकी जहां महामहिम, करुणा के सागर, दीनों के नाथ, पतितपावन, दयानिधि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे उस ओर अर्थात् गुणशिलक उद्यान की ओर चली। वहां उद्यान के समीप पहुँचने पर पालकी नीचे रक्खी गई और मेघकुमार तथा उस की माता आदि सब उस में से उतर पड़े। मेघकुमार को आगे करके महाराज श्रेणिक और महारानी धारिणी जहां पर भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पहुंचे। सब ने विधिपूर्वक भगवान् को वन्दन किया। तदनन्तर मेघकुमार की ओर संकेत कर के महारानी धारिणी तथा महाराज श्रेणिक ने बड़े विनम्रभाव से भगवान् से प्रार्थित स्वर में कहा ____भगवन् ! हम आप को एक शिष्य की भिक्षा देने लगे हैं, आप इसे स्वीकार करने की कृपा करें। यह मेघकुमार हमारा इकलौता बेटा है / यह हमें प्राणों से भी अधिक प्रिय है, परन्तु इस की भावना आप श्री के चरणों में दीक्षित हो कर आत्मकल्याण करने की है। यद्यपि यह राज्यवैभव के अनुपम कामभोगों में पला है तथापि कीच में पैदा हो कर कीच से अलिप्त रहने 1. माता धारिणी के एक ही पुत्र होने के कारण मेघकुमार को इकलौता बेटा कहा गया है। . 932 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले कमल की भाँति यह कामभोगों में आसक्त नहीं हुआ। जिन दुःखों को इस ने अतीत जन्मों में अनेक बार सहा है, उन से यह विशेष भयभीत है। अनागत में अतीत के समान दुःखों को न पाऊं, इस भावना से यह आपश्री के चरणों में उपस्थित हो रहा है। अतः इस की इस पुनीत भावना को पूर्ण करने की आप इस पर अवश्य कृपा करें। माता-पिता के इस निवेदन के अनन्तर भगवान् महावीर स्वामी की ओर से शिष्यभिक्षा की स्वीकृति मिलने पर मेघकुमार भगवान् के पास से उठ कर ईशान कोण में चले जाते हैं, वहां जाकर उन्होंने शरीर पर के सारे बहुमूल्य वस्त्राभूषणों को उतारा और उन्हें माता के सुपुर्द किया। माता धारिणी ने भी उन्हें सुरक्षित रख लिया। तदनन्तर माता और पिता मेघकुमार को सम्बोधित करते हुए बोले * पुत्र ! हमारी आन्तरिक इच्छा न होने पर भी हम विवश हो कर तुम को आज्ञा दे रहे हैं, किन्तु तुम ने इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखना है कि जिस कार्य के लिए तुम ने राज्यसिंहासन को ठुकराया है उस को सफल करने के लिए पूरा-पूरा उद्योग करना और पूरी सफलता प्राप्त करनी। तुम क्षत्रिय-कुमार हो, इसलिए संयमव्रत के सम्यक् अनुष्ठान में कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में पूरी-पूरी आत्मशक्ति का प्रयोग करना और अपने कर्तव्यपालन में प्रमाद को कभी स्थान न देना / उस से हर समय सावधान रहना। हम भी उसी दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब तेरी ही तरह संयमशील बन कर कर्मरूपी शत्रुओं के साथ युद्ध करने के लिए अपने आप को प्रस्तुत करेंगे। इस प्रकार पुत्र को समझा कर महाराज श्रेणिक और महारानी धारिणी भगवान् को वन्दना-नमस्कार कर के अपनी राजधानी की ओर प्रस्थित हुए। माता-पिता के चले जाने के बाद मेघकुमार ने पंचमुष्टि लोच कर के भगवान् के पास आकर विधिपूर्वक वन्दन किया और हाथ जोड़ कर इस प्रकार प्रार्थना की . प्रभो ! यह संसार जरामरणरूप अग्नि से जल रहा है। जिस तरह जलते हुए घर में से सर्वप्रथम बहुमूल्य पदार्थों को निकालने का यत्न किया जाता है, उसी प्रकार मैं भी अपनी अमूल्य आत्मा को संसार की अग्नि से निकालना चाहता हूँ। मेरी उत्कट इच्छा यही है कि मुझे इस अग्नि में न जलना पड़े। इसीलिए मैं आपश्री के चरणों में दीक्षित होना चाहता हूँ। कृपया मेरी इस कामना को पूरा करो। मेघकुमार की इस प्रार्थना पर भगवान् ने उसे मुनिधर्म की दीक्षा प्रदान की और मुनिधर्मोचित शिक्षाएं देकर उसे मुनिधर्म की सारी चर्या समझा दी तथा मेघकुमार भी भगवान् वीर के आदेशानुसार संयमव्रत का यथाविधि पालन करते हुए समय व्यतीत करने लगे। यह है मेघकुमार का दीक्षा तक का जीवनवृत्तान्त, जिस से श्री सुबाहुकुमार की दीक्षा द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [933 Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक की चर्या को उपमित किया गया है। तात्पर्य यह है कि जिस तरह मेघकुमार के हृदय में दीक्षा लेने के भाव उत्पन्न हुए तथा माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करने का उद्योग किया और माता-पिता ने परीक्षा लेने के अनन्तर उन्हें सहर्ष आज्ञा प्रदान की और अपने हाथ से समारोहपूर्वक निष्क्रमणाभिषेक करके उन्हें भगवान् को समर्पित किया उसी तरह श्री सुबाहुकुमार के विषय में जान लेना चाहिए। यहां पर केवल नामों का अन्तर है। शेष वृत्त यथावत् है। मेघकुमार के पिता का नाम श्रेणिक है और सुबाहुकुमार के पिता का नाम अदीनशत्रु है। दोनों की माताएं एक नाम की थीं। मेघकुमार राजगृह नगर में पला और उस ने गुणशिलक नामक उद्यान में दीक्षा ली, जब कि सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर में पला और उस ने दीक्षा पुष्पकरण्डक नामक उद्यान में ली। शेष वृत्तान्त एक जैसा है। -हट्ठतुट्टे०-यहां के बिन्दु से-समणं भगवं महावीरं-इत्यादि पाठ का ग्रहण है। समग्रपाठ के लिए श्रीज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम अध्याय के 23 वें सूत्र से ले कर 26 . वें सूत्र तक के पाठ को देखना चाहिए। इतने पाठ में श्री मेघकुमार का समस्त वर्णन विस्तारपूर्वक वर्णित हुआ है। निष्क्रमण नाम दीक्षा का है और अभिषेक का अर्थ है-दीक्षासम्बन्धी पहली तैयारी। तात्पर्य यह है कि दीक्षा की आरंभिक क्रियासम्पत्ति को निष्क्रमणाभिषेक कहा जाता है। जिस ने घर-बार आदि का सर्वथा परित्याग कर दिया हो, वह अनगार कहलाता है। तथाइरियासमिए जाव बंभयारी-यहां पठित जाव-यावत् पद से-भासासमिए, एसणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिए, मणसमिए, वयसमिए, कायसमिए, मणगुत्ते, वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्ते, गुत्तिदिए, गुत्तबंभयारी-इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ इस प्रकार है १-ईर्यासमिति-युगप्रमाणपूर्वक भूमि को एकाग्रचित्त से देख कर जीवों को बचाते 1. आगमोदयसमिति पृष्ठ 46 से ले कर पृष्ठ 60 तक का सूत्रपाठ देखना चाहिए। 2. न विद्यते अगारादिकं द्रव्यजातं यस्यासौ अनगारः (वृत्तिकारः)। 3. ईर्या नाम गति या गमन का है। विवेकयुक्त हो कर प्रवृत्ति करने का नाम समिति है। ठीक प्रवचन के अनुसार आत्मा की गमनरूप जो चेष्टा है उसे ईर्यासमिति कहते हैं। यह इस का शाब्दिक अर्थ है। ईर्यासमिति के-आलम्बन, काल, मार्ग और यतना ये चार भेद होते हैं। जिस को आश्रित करके गमन किया जाए वह आलम्बन कहलाता है। दिन या रात्रि का नाम काल है। रास्ते को मार्ग कहते हैं और सावधानी का दूसरा नाम यतना है। आलम्बन के तीन भेद होते हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र। पदार्थों के सम्यग बोध का नाम ज्ञान है। तत्त्वाभिरुचि को दर्शन और सम्यक आचरण को चारित्र कहते हैं। काल से यहां पर मात्र दिन का ग्रहण है। साधु के लिए गमनागमन का जो समय है, वह दिवस है। रात्रि में आलोक का अभाव होने से चक्षुओं का पदार्थों से साक्षात्कार नहीं हो सकता। अतएव साधुओं के लिए रात्रि में विहार करने की आज्ञा नहीं है। मार्ग शब्द उत्पथरहित पथ का बोधक है। उसी में गमन करना शास्त्रसम्मत अथच युक्तियुक्त है। उत्पथ में गमन करने से आत्मा और संयम दोनों की विराधना 934 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए यतनापूर्वक गमन करने का नाम ईर्यासमिति है। २-भाषासमिति सदोष वाणी को छोड़ कर निर्दोष वाणी अर्थात्, हित, मित, सत्य, एवं स्पष्ट वचन बोलने का नाम भाषासमिति है। ३-एषणासमिति-आहार के 42 दोषों को टाल कर, शुद्ध आहार तथा वस्त्र, पात्र आदि उपधि का ग्रहण करना, अर्थात् एषणा-गवेषणा द्वारा भिक्षा एवं वस्त्र-पात्रादि का ग्रहण करने का नाम एषणासमिति है। ४-आदानभांडमात्रनिक्षेपणासमिति-आसन, संस्तारक, पाट, वस्त्र, पात्रादि उपकरणों को उपयोगपूर्वक देख कर एवं रजोहरण से पोंछ कर लेना एवं उपयोगपूर्वक देखी और प्रतिलेखित भूमि पर रखने का नाम आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति है। ५-उच्चारप्रस्त्रवणखेलसिंघाणजल्लपरिष्ठापनिकासमिति-उच्चार-मल, प्रस्रवणमूत्र, खेल-थूक, सिंघाण-नाक का मल, जल्ल-शरीर का मल इन की परिष्ठापना-परित्याग में सम्यक् प्रवृत्ति का नाम उच्चारप्रस्रवणखेलसिंघाणजल्लपरिष्ठापनिकासमिति है। ६-मनःसमिति-पापों से निवृत्त रहने के लिए एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक् एवं प्रशस्त मानसिक प्रवृत्ति का नाम मनःसमिति है। ७-वचःसमिति-पापों से बचने के लिए एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक् एवं प्रशस्तवाचनिक प्रवृत्ति का नाम वचः-समिति है। ... ८-कायसमिति-पापों से सुरक्षित रहने के लिए एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक् एवं प्रशस्त कायिक प्रवृत्ति का नाम कायसमिति है। ९-मनोगुप्ति-आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान रूप मानसिक अशुभ व्यापार को रोकने का नाम मनोगुप्ति है। १०-वचनगुप्ति-वाचनिक अशुभ व्यापार को रोकना अर्थात् विकथा न करना, झूठ न बोलना, निंदा-चुगली आदि दूषित वचनविषयक व्यापार को रोक देना वचनगुप्ति शब्द का अभिप्राय है। ११-कायगुप्ति-कायिक अशुभ व्यापार को रोकना अर्थात् उठने, बैठने, हिलने, चलने, सोने आदि में अविवेक न करने का नाम कायगुप्ति है। संभावित है। यतना के-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार भेद हैं। जीव, अजीव आदि द्रव्यों को नेत्रों से देख कर चलना द्रव्य यतना है। साढ़े तीन हाथ प्रमाण भूमि को आगे से देख कर चलना क्षेत्र यतना है। जब तक चले तब तक देखे यह काल यतना है। उपयोग-सावधानी पूर्वक गमन करना भाव यतना है। तात्पर्य यह है कि चलने के समय शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि जो इन्द्रियों के विषय हैं उन को छोड़ देना चाहिए और चलते हुए वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, धर्मकथा और अनुप्रेक्षा इन पांच प्रकार के स्वाध्यायों का भी परित्याग कर देना चाहिए। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [935 Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वोक्त 8 समितियों और तीन गुप्तियों से युक्त और गुप्त-मन, वचन और काया को सावद्य प्रवृत्तियों से इन्द्रियों को रोकने वाला और गुप्तेन्द्रिय-कच्छप की भाँति इन्द्रियों को वश में रखने वाला तथा ब्रह्मचर्य का संरक्षण करने वाला। प्रश्न-समिति और गुप्ति में क्या अन्तर है ? उत्तर-योगों में विवेकपूर्वक प्रवृत्ति का नाम समिति है और अशुभ योगों से आत्ममंदिर में आने वाले कर्मरज को रोकना गुप्ति कहलाती है। दूसरे शब्दों में मन:समिति का अर्थ हैकुशल मन की प्रवृत्ति। मनोगुप्ति का अर्थ है-अकुशल मनोयोग का निरोध करना। यही इन में अन्तर है। सारांश यह है कि गुप्ति में असत् क्रिया का निषेध मुख्य है और समिति में सत् क्रिया का प्रवर्तन मुख्य है। अतः समिति केवल सम्यक् प्रवृत्ति रूप ही होती है और गुप्ति निवृत्तिरूप। प्रश्न-महाराज श्रेणिक ने ओघे और पात्रों का मूल्य दो लाख मोहरें दिया तथा नाई को एक लाख मोहरें मेघकुमार के शिरोमुण्डन के उपलक्ष्य में दीं। इस में क्या रहस्य रहा हुआ उत्तर-एक साधारण बुद्धि का बालक भी जानता है कि एक पैसे के मूल्य वाली चीज़ एक पैसे में ही खरीदी जा सकती है, दो पैसों में नहीं। नीतिशास्त्र के परम पण्डित, पुरुषों की 72 कलाओं में प्रवीण और परम मेधावी मगधेश साधारण मूल्य वाले.पदार्थ का अधिक मूल्य कैसे दे सकते हैं ? तब ओघे और पात्रों की अधिक कीमत दो लाख मोहरें देने का अभिप्राय और है जिस की जानकारी के लिए मनन एवं चिन्तन अपेक्षित है। ___ मेघकुमार के लिए जिस दुकान से ओघा और पात्र खरीदे गए थे, उस दुकान का नाम शास्त्रों में "कुत्तियावण-कुत्रिकापण२" लिखा है। कु नाम पृथिवी का है। त्रिक शब्द से 1. -"गुत्ता गुत्तिंदिय त्ति"-गुप्तानि शब्दादिषु रागादिनिरोधात्, अगुप्तानि च आगमश्रवणेर्यासमित्यादिष्वनिरोधादिन्द्रियाणि येषां ते तथा। (औपपातिकसूत्रे वृत्तिकारः) 2. "-कुत्तियावण उ त्ति-" देवताधिष्ठितत्वेन स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणभूत्रितयसंभविवस्तुसम्पादक आपणो-हट्टः कुत्रिकापणः। (औपपातिकसूत्रे वृत्तिकारः) इस का भावार्थ यह है कि देवता के अधिष्ठाता होने से स्वर्गलोक, मनुष्यलोक और पाताललोक इन तीन लोकों में उत्पन्न होने वाली वस्तुओं की जहां उपलब्धि हो सके उस दुकान को कुत्रिकापण कहते हैं। ___ अभिधानराजेन्द्र कोष में कुत्रिकापण की छाया कुत्रिजापण ऐसी भी की है। वहां का स्थल मननीय होने से यहां दिया जाता है कुत्रिकापणः-कुरिति पृथिव्याः संज्ञा।कूनां स्वर्गपातालमर्त्यभूमीनां त्रिकं तात्स्थ्यात्तद्-व्यपदेशः इति कृत्वा लोका अपि कुत्रिकमुच्यते। कुत्रिकमापणायति व्यवहरति यत्र हट्टेऽसौ कुत्रिकापणः। अथवा धातुमूलजीवलक्षणः त्रिभ्यो जातं त्रिजं सर्वमपि वस्त्वित्यर्थः। कौ पृथिव्यां त्रिजमापणायति-व्यवहरति यत्र हट्टेऽसौ कुत्रिजापणः। 936 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक का ग्रहण होता है। अथवा पृथ्वी शब्द से अधः, मध्य / और ऊर्ध्व इन तीनों भागों का ग्रहण करना इष्ट है। तात्पर्य यह है कि जिस दुकान में भूमि के निम्नभाग तथा ऊर्ध्वभाग (पर्वतादि) एवं मध्य भाग (सम भूमि) इन तीनों भागों में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु उपलब्ध हो सके उसे कुत्रिकापण कहते हैं। इस दुकान में एक ऐसा भी विभाग होता था जहां धार्मिक उपकरण होते थे जो सब के काम आते थे। वे उपकरण धार्मिक प्रभावना के लिए बिना मूल्य भी वितरण किये जाते थे। मूल्य देने वाला मूल्य देकर भी ले जा सकता था और उस मूल्य से फिर वही सामग्री तैयार की जाती थी, जो कि धार्मिक कार्यों के उपयोग में आ जाया करती थी। इस के अतिरिक्त स्वतंत्र रूप से भी दान दे कर उस में वृद्धि की जा सकती थी। महाराज श्रेणिक ने दो लाख मोहरें देकर रजोहरण और पात्रों का मूल्य देने के साथ-साथ धर्मप्रभावना के लिए उसे धर्मोपकरणविभाग में दीक्षामहोत्सव के सुअवसर में अवशिष्ट मोहरें दान में दे डाली जो कि उन की दानंभावना एवं धर्मभावना का एक उज्ज्वल प्रतीक था, तथा अन्य धनी-मानी गृहस्थों के सामने उन के कर्त्तव्य को उन्हें स्मरण कराने के लिए एक आदर्श प्रेरणा थी। ऐसा हमारा विचार है। रहस्यन्तु केवलिगम्यम्। दीक्षा-एक महान् पावन कृत्य है। महानता का प्रथम अंक है। इसीलिए यह उत्सव बड़े हर्ष से मनाया जाता है। इस उत्सव में विवाह की भांति आनन्द की सर्वतोमुखी लहर दौड़ जाती है। अन्तर मात्र इतना ही होता है कि विवाह में सांसारिक जीवन की भावना प्रधान होती है, जब कि इस में आत्मकल्याण की एवं परमसाध्य निर्वाणपद को उपलब्ध करने की मंगलमय भावना ही प्रधान रहा करती है। इसीलिए इस में सभी लोग सम्मिलित हो कर धर्मप्रभावना का अधिकाधिक प्रसार करके पुण्योपार्जन करते हैं और यथाशक्ति दानादि सत्कार्यों में अपने धन का सदुपयोग करते हैं। इसी भाव से प्रेरित हो कर महाराज श्रेणिक ने नाई को एक लाख मोहरें दे डालीं। लाख मोहरें दे कर उन्होंने यह आदर्श उपस्थित किया कि पुण्यकार्यों में जितना भी प्रभावनाप्रसारक एवं पुण्योत्पादक लाभ उठाया जा सके उतना ही कम है। इस के अतिरिक्त आगमों में वर्णन मिलता है कि जिस समय भगवान् महावीर चम्पानगरी में पधारते हैं, उस समय उन के पधारने की सूचना देने वाले राजसेवक को महाराज कोणिक ने लाखों का पारितोषिक दिया। यदि पुत्र-दीक्षामहोत्सव के समय खुशी में आकर मगधेश श्रेणिक ने नाई को पारितोषिक के रूप में एक लाख मोहरें दे दी तो कौन सी आश्चर्य की बात 1. संस्कारविशेष या किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए आत्मसमर्पण करना ही दीक्षा का भावार्थ है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [937 Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है? महाराज श्रेणिक ने जो कुछ किया वह अपने वैभव के अनुसार ही किया है, ऐसा करने से व्यवहारसम्बन्धी अकुशलता की कोई बात नहीं है। बड़ों की खुशी में छोटों को खुशी का अवसर न मिले तो बड़ों की खुशी का तथा उन के बड़े होने का क्या अर्थ ? कुछ नहीं। संभव है इसीलिए आजकल भी दीक्षार्थी के केशों को थाली में रख कर नाई सभी उपस्थित लोगों से दान देने के लिए प्रेरणा करता है और लोग भी यथाशक्ति उस की थाली में धनादि का दान देते हैं। धार्मिक हर्ष में दानादि सत्कार्यों का पोषित होना स्वाभाविक ही है। इस में विसंवाद वाली कोई बात नहीं है। प्रश्न-मेघकुमार की दीक्षा से पूर्व ही उसके माता-पिता वहां से चले गये, दीक्षा के समय वहां उपस्थित क्यों नहीं रहे ? उत्तर-माता-पिता का हृदय अपनी संतति के लिए बड़ा कोमल होता है। जिस सन्तति . को अपने सामने सर्वोत्तम वेशभूषा से सुसज्जित देखने का उन्हें मोह है, उसे वे समस्त वेशभूषा को उतार कर और अपने हाथों से केशों को उखाड़ते हुए भी देखें, यह माता-पिता का हृदय स्वीकार नहीं कर सकता, यही कारण है कि वे दीक्षा से पूर्व ही चले गए। प्रस्तुत सूत्र में यह वर्णन किया गया है कि श्रमणोपासक श्री सुबाहुकुमार ने विश्ववन्द्य, दीनानाथ, पतितपावन, चरमतीर्थंकर, करुणा के सागर भगवान् महावीर की धर्मदेशना को सुन कर संसार से विरक्त हो कर उन के चरणों में प्रव्रज्या ग्रहण कर ली, गृहस्थावास को त्याग कर मनिधर्म को स्वीकार कर लिया। मुनि बन जाने के अनन्तर सुबाहुकुमार का क्या बना, इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए अब सूत्रकार महामहिम मुनिराज श्री सुबाहुकुमार की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल-तएणं से सुबाहू अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूहिं चउत्थ० तवोविहाणेहिं अप्पाणं भावेत्ता, बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सर्टि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने।सेणं तओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिइ लभिहित्ता केवलं बोहिं बुज्झिहिइ बुज्झिहित्ता तहारूवाणं थेराणं अन्तिए मुंडे जाव पव्वइस्सइ। से णं तत्थ बहूई 938 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासाइं सामण्णं पाउणिहिइ पाउणिहित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिं पत्ते कालगए सणंकुमारे कप्पे देवत्ताए उववज्जिहिइ। तओ माणुस्सं। पवज्जा। बंभलोए।माणुस्सं।महासुक्के।माणुस्सं।आणए।माणुस्सं।आरणे।माणुस्सं। सव्वट्ठसिद्धे।सेणंतओ अणंतरं उव्वट्टित्ता महाविदेहे जाव अड्डाइं जहा दढपइण्णे सिज्झिहिइ ५।तं एवं खलु जम्बू! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं पढमस्स अन्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। त्ति बेमि। ॥पढमं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-ततः स सुबाहुरनगारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके सामायिकादीनि, एकादशाङ्गानि अधीते / बहुभिश्चतुर्थ तपोविधानैः आत्मानं भावयित्वा, बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा मासिक्या संलेखनयाऽऽत्मानं जोषयित्वा षष्टिं भक्तान्यनशनतया छेदयित्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधि प्राप्त:कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे देवतयोपपन्नः। स ततो देवलोकायु:क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं त्यक्त्वा मानुषं विग्रहं लप्स्यते लब्ध्वा केवलं बोधिं भोत्स्यते बुध्वा तथारूपाणां स्थविराणामंतिके मुण्डो यावत् प्रव्रजिष्यति। स तत्र बहूनि वर्षाणि श्रामण्यं पालयिष्यति पालयित्वा आलोचित-प्रतिक्रान्तः समाधि प्राप्तः कालगतः सनत्कुमारे कल्पे देवतयोपपत्स्यते, ततो मानुष्यं, प्रव्रज्या। ब्रह्मलोके। मानुष्यं / महाशुक्रे।मानुष्यं / आनते। मानुष्यं / आरणे। मानुष्यं / सर्वार्थसिद्धे। स ततोऽनन्तरमुवृत्य महाविदेहे यावदाढ्यानि यथा दृढ़प्रतिज्ञः सेत्स्यति 5 / तदेवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन सुखविपाकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः। इति ब्रवीमि। ॥प्रथममध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-तए णं-तदनन्तर। से-वह। सुबाहू-सुबाहु। अणगारे-अनगार। समणस्स-श्रमण। भगवओ-भगवान् / महावीरस्स-महावीर स्वामी के।तहारूवाणं-तथारूप।थेराणं-स्थविरों के।अंतिएपास। सामाइयमाइयाइं-सामायिक आदि / एक्कारस-एकादश। अंगाई-अंगों का। अहिज्जइ-अध्ययन करता है। बहूहि-अनेक। चउत्थ०-व्रत, बेला आदि। तवोविहाणेहि-नानाविध तपों के आचरण से। अप्पाणं-आत्मा को। भावेत्ता-भावित-वासित करके / बहूइं-अनेक।वासाइं-वर्षों तक / सामण्णपरियागंश्रामण्यपर्याय अर्थात् साधुवृत्ति का।पाउणित्ता-पालन कर।मासियाए-मासिक-एक मास की। संलेहणाएसंलेखना (एक अनुष्ठानविशेष जिस में शारीरिक और मानसिक तप द्वारा कषायादि का नाश किया जाता द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [939 Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ) के द्वारा। अप्पाणं-अपने आप को। झुसित्ता-आराधित कर। सटुिं-साठ। भत्ताई-भक्तों-भोजनों / का। अणसणाए-अनशन द्वारा। छेदित्ता-छेदन कर। आलोइयपडिक्कन्ते-आलोचितप्रतिक्रान्त अर्थात् आलोचना और प्रतिक्रमण को कर के। समाहि-समाधि को। पत्ते-प्राप्त हुआ। कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल करके। सोहम्मे-सौधर्म। कप्पे-देवलोक में। देवत्ताए-देवरूप से। उववन्नेउत्पन्न हुआ। से णं-वह / तओ-उस। देवलोगाओ-देवलोक से। आउक्खएणं-आयु के क्षय होने से। भवक्खएणं-भव के क्षय होने से। ठिइक्खएणं-और स्थिति का क्षय होने से। अणंतरं-अन्तररहित। चयं-देवशरीर को। चइत्ता-छोड़ कर / माणुस्सं-मनुष्य के। विग्गह-शरीर को। लभिहिइ-प्राप्त करेगा। लभिहित्ता-प्राप्त करके, वहां। केवलं-निर्मल-शंका, आकांक्षा आदि दोषों से रहित। बोहि-सम्यक्त्व को। बुझिहिइ-प्राप्त करेगा। बुझिहित्ता-प्राप्त करके। तहारूवाणं-तथारूप। थेराणं-स्थविरों के। अंतिए-पास। मुंडे-मुण्डित होकर। जाव-यावत् अर्थात् साधुधर्म में। पन्वइस्सइ-प्रव्रजित-दीक्षित हो जाएगा। सेणं-वह। तत्थ-वहां पर। बहूई-अनेक / वासाइं-वर्षों तक।सामण्णं-संयमव्रत को। पाउणिहिइपालन करेगा। आलोइयपडिक्कन्ते-आलोचना और प्रतिक्रमण कर। समाहिं पत्ते-समाधि को प्राप्त .. हुआ। कालगए-काल करके। सणंकुमारे-सनत्कुमार नामक। कप्पे-तीसरे देवलोक में। देवत्ताएदेवतारूप से। उववजिहिइ-उत्पन्न होगा। तओ-वहां से। माणुस्सं-मनुष्य भव प्राप्त करेगा, वहां से। महासुक्के-महाशुक्र नामक देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर। माणुस्सं-मनुष्य भव में जन्मेगा, वहां से मर कर। आणए-आनत नामक नवम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से। माणुस्सं-मनुष्यभव में जन्म लेगा, वहां से। आरणे-आरण नाम के एकादशवें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से। माणुस्सं-मनुष्य भव में जन्मेगा और वहां से। सव्वट्ठसिद्धे-सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न होगा। से. णं-वह। तओ-वहां से। अणंतरं-व्यवधानरहित। उव्वट्टित्ता-निकल कर। महाविदेहे-महाविदेहे क्षेत्र में उत्पन्न होगा। जावयावत् / अड्ढाइं-आढ्य कुल में। जहा-जैसे। दढपइण्णे-दृढ़प्रतिज्ञ। सिज्झिहिइ ५-सिद्ध पद को प्राप्त करेगा, 5 / तं-सो। एवं-इस प्रकार / खलु-निश्चय ही। जंबू!-हे जम्बू ! समणेणं-श्रमण। जाव-यावत् / संपत्तेणं-संप्राप्त ने। सुहविवागाणं-सुख-विपाक के। पढमस्स-प्रथम। अज्झयणस्स-अध्ययन का। अयमद्वे-यह अर्थ। पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है। त्ति-इस प्रकार। बेमि-मैं कहता हूँ।,पढम-प्रथम। अज्झयणं-अध्ययन। समत्तं-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-तदनन्तर वह सुबाहु अणगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि एकादश अंगों का अध्ययन करने लगा, तथा उपवास आदि अनेक प्रकार के तपों के अनुष्ठान से आत्मा को भावित करता हुआ, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का यथाविधि पालन कर के एक मास की संलेखना से अपने 1. आलोचना-शब्द प्रायश्चित के लिए अपने दोषों को गुरुओं को बतलाना-इस अर्थ का परिचायक है, और प्रमादवश शुभ योग से गिर कर अशुभ योग प्राप्त करने के अनन्तर फिर से शुभयोग को प्राप्त करने तथा साधु और श्रावक के प्रातः सायं करने के एक आवश्यक अनुष्ठानविशेष की प्रतिक्रमण संज्ञा है। ___2. तथारूप तथा स्थविर पदों की व्याख्या प्रथम श्रुतस्कंधीय प्रथमाध्याय में की जा चुकी है। . 940 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप.को आराधित कर 26 उपवासों-अनशनव्रतों के साथ आलोचना और प्रतिक्रमण करके आत्मशुद्धि द्वारा समाधि प्राप्त कर कालमास में काल करके सौधर्म नामक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह सुबाहुकुमार का जीव सौधर्म देवलोक से आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर देव-शरीर को छोड़ कर व्यवधानरहित मनुष्यशरीर को प्राप्त करेगा। वहां पर कांक्षा, आकांक्षा आदि दोषों से रहित सम्यक्त्व को प्राप्त कर तथारूप स्थविरों के पास मुंडित हो यावत् दीक्षित हो जाएगा,वहां पर अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधिस्थ हो मृत्युधर्म को प्राप्त कर सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य भव को प्राप्त कर दीक्षित हो मृत्यु के पश्चात् ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य भव को धारण करके अनगारधर्म का आराधन कर शरीरान्त होने पर महाशुक्र नामक सातवें देवलोक में उत्पन्न होगा।वहां से च्यव कर मनुष्य भव में आकर दीक्षित हो, काल करके आनत नामक नवमें देवलोक में जन्मेगा। वहां की भवस्थिति को पूरी करके फिर मनुष्य भव को प्राप्त हो दीक्षाव्रत का पालन करके मृत्यु के अनन्तर आरण नामक ग्यारहवें देवलोक में उत्पन्न होगा। तदनन्तर वहां से च्यव कर पुनः मनुष्य भव को प्राप्त करेगा और श्रमणधर्म का पालन करके मृत्यु के पश्चात् सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में ( 26 वें देवलोक में) उत्पन्न होगा और वहां से च्यव कर सुबाहुकुमार का वह जीव व्यवधानरहित महाविदेह क्षेत्र में किसी धनिक कुल में उत्पन्न होगा। वहां दृढ़प्रतिज्ञ की भाँति चारित्रं प्राप्त कर सिद्ध पद को ग्रहण करेगा। अर्थात् जन्म-मरण से रहित हो कर परम सुख को प्राप्त कर लेगा। * आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। ऐसा मैं कहता ॥प्रथम अध्ययन समाप्त॥ टीका-सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास साधुधर्म ग्रहण कर लिया यह पहले बताया जा चुका है, उसके पहले के और इस समय के जीवन में बहुत परिवर्तन हो गया है। कुछ दिन पहले वह राजकुमार था। घर में नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन किया करता था परन्तु आज वह अकिंचन है, सर्व प्रकार के राज्यवैभव से रहित है, रूखा-सूखा भोजन करने वाला है वह भी पराये घरों से मांग कर। उस का शरीर इस समय राज्य वेषभूषा द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [941 Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के स्थान में त्यागशील मुनिजनों की वेषभूषा से सुशोभित हो रहा है। जहां राग था, वहां त्याग है। जहां मोह था, वहां विराग है। इसी प्रकार खान-पानादि का स्थान अब अधिकांश उपवास आदि तपश्चर्या को प्राप्त है। सागारता ने अब अनगारता का आश्रय प्राप्त किया है। यही उस के जीवन का प्रधान परिवर्तन है। सुबाहुकुमार अहिंसा आदि पांचों महाव्रतों के यथाविधि पालन में सतत जागरूक रहता है। उस में किसी प्रकार का भी अंतिचार-दोष न लगने पाए, इस का उसे पूरा-पूरा ध्यान रहता है। जीवन के बहुमूल्य धन ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए भी वह विशेष सजग रहता है। कारण कि यही जीवन का सर्वस्व है। जिस का यह सुरक्षित है, उस का सभी कुछ सुरक्षित है। संक्षेप में कहें तो सुबाहु मुनि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्राप्त हुए संयम धन को बड़ी दृढ़ता और सावधानी से सुरक्षित किए हुए विचर रहा था। ज्ञान से ही आत्मा अपने वास्तविक उद्देश्य को समझ सकता है और तदनन्तर उसके साधनों से उसे सिद्ध कर लेता है। शास्त्रों में ज्ञान की बड़ी महिमा गाई गई है। श्री भगवती सूत्र में लिखा है कि परलोक में साथ जाने वाला ज्ञान ही है, चारित्र तो इसी लोक में रह जाता है। गीता में लिखा है कि संसार में ज्ञान के समान पवित्र और उस से ऊंची कोई वस्तु नहीं है। "नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते"। अतः छः महीने लगातार श्रम करने पर भी यदि एक पद का अभ्यास हो तब भी उस का अभ्यास नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि ज्ञान का अभ्यास करते-करते अन्तर के पट खुल जाएं, केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाए, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। स्वनामधन्य महामहिम श्री सुबाहुकुमार जी महाराज ज्ञानाराधना की उपयोगिता को एवं अभिमत साध्यता को बहुत अच्छी तरह जानते थे। इसीलिए जहां उन्होंने साधुजीवनचर्या के लिए पूरी-पूरी सावधानी से काम लिया वहां ज्ञानाराधना भी पूरी शक्ति लगा कर की। पूज्य तथारूप स्थविरों के चरणों में रह कर उन्होंने सामायिक आदि 11 अंगों का अध्ययन किया, उन्हें याद किया, उन का भाव समझा और तदनुसार अपना साधुजीवन व्यतीत करना आरम्भ किया। एकादश अंग-जैनवाङ्मय अङ्ग, उपांग, मूल और छेद इन चार भागों में विभक्त है। उन में 11 अङ्ग, 12 उपांग, 4 मूल और 4 छेद सूत्र हैं। इन की कुल संख्या 31 होती है। इन में आवश्यक सूत्र के संकलन से कुल संख्या 32 हो जाती है। ग्यारह अंगों के नाम निम्नोक्त १-आचारांग-इस में श्रमणों-निर्ग्रन्थों के आहार-विहार तथा नियमोपनियमों का 942 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। - २-सूत्रकृतांग-इस में जीव, अजीव आदि पदार्थों का बोध कराया गया है। इस के अतिरिक्त 363 एकान्त क्रियावादी आदि के मतों का उपपादन और निराकरण करके जैनेन्द्र प्रवचन को प्रामाणिक सिद्ध किया गया है। वर्णन बड़ा ही हृदयहारी है। ३-स्थानांग-इस में जीव, अजीव आदि पदार्थों का तथा अनेकानेक जीवनोपयोगी उपदेशों का विशद वर्णन मिलता है और यह दश भागों में विभक्त किया गया है। यहां विभाग शब्द के स्थान पर "स्थान" शब्द का व्यवहार मिलता है। __४-समवायांग-इस सूत्र में भी जीव, अजीव आदि पदार्थों का स्वरूप संख्यात और असंख्यात विभागपूर्वक वर्णित है। ५-भगवती-इस सूत्र को विवाहपण्णत्ति-व्याख्याप्रज्ञप्ति भी कहते हैं। इस में जीव, अजीव, लोक, अलोक, स्वसिद्धान्त, परसिद्धान्त आदि विषयों से सम्बन्ध रखने वाले 36 हजार प्रश्न और उनके उत्तर वर्णित हैं। ६-ज्ञाताधर्मकथांग-इस में अनेक प्रकार की बोधप्रद धार्मिक कथाएं संगृहीत की गई हैं। ७-उपासकदशांग-इस में श्री आनन्द आदि दश श्रावकों के धार्मिक जीवन का वर्णन करते हुए श्रावकधर्म का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। ८-अन्तकृदशांग-इस में गजसुकुमाल आदि महान् जितेन्द्रिय महापुरुषों के तथा पद्मावती आदि महासतियों के मोक्ष जाने तक की साधना का वर्णन किया गया है। ९-अनुत्तरोपपातिकदशांग-इस में जाली आदि महातपस्वियों के एवं धन्ना आदि महापुरुषों के विजय, वैजयन्त आदि अनुत्तर विमानों में जन्म लेने आदि का वर्णन किया गया १०-प्रश्नव्याकरण-इस में अंगुष्टादि प्रश्नविद्या का निरूपण तथा पांच आश्रवों और पांच संवरों के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया था, परन्तु समयगति की विचित्रता के कारण वर्तमान में मात्र पांच आश्रवों और पांच संवरों का ही वर्णन उपलब्ध होता है। अंगुष्टादि प्रश्रविद्या का वर्णन वर्तमान में अनुपलब्ध है। ११-विपाकश्रुत-इस में मृगापुत्र आदि के पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का अशुभ परिणाम तथा सुबाहुकुमार आदि के पूर्वसंचित शुभ कर्मों के शुभ विपाक का वर्णन किया गया है। ___ कालदोषकृत बुद्धिबल और आयु की कमी को देख कर सर्वसाधारण के हित के लिए अंगों में से भिन्न-भिन्न विषयों पर गणधरों के पश्चाद्वर्ती श्रुतकेवली या पूर्वधर आचार्यों ने जो द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [943 Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र रचे हैं वे उपांग कहलाते हैं। उपांग 12 हैं। उन का नामपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त .. ' १-औपपातिकसूत्र-यह पहले अङ्ग आचाराङ्ग का उपांग माना जाता है। इस में चंपा नगरी, पूर्णभद्र यक्ष, पूर्णभद्र चैत्य, अशोकवृक्ष, पृथ्वीशिला, कोणिक राजा, राणी धारिणी, भगवान् महावीर तथा भगवान् के साधुओं का वर्णन करने के साथ-साथ तप का, गौतमस्वामी के गुणों, संशयों, प्रश्नों तथा सिद्धों के विषय में किये प्रश्नोत्तरों का वर्णन किया गया है। २-राजप्रश्नीय-यह सूत्रकृतांग का उपाङ्ग है। सूत्रकृतांग में क्रियावादी, अक्रियावादी आदि 363 मतों का वर्णन है। राजा प्रदेशी अक्रियावादी था, इसी कारण उसने श्री केशी श्रमण से जीवविषयक प्रश्न किये थे। अक्रियावाद का वर्णन सूत्रकृतांग में है। उसी का दृष्टान्तों द्वारा विशेष वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र में है। ३-जीवाजीवाभिगम-यह तीसरे अंग स्थानांग का उपांग है। इस में जीवों के 24 स्थान, अवगाहना, आयुष्य, अल्पबहुत्व, मुख्यरूप से अढ़ाई द्वीप तथा सामान्यरूप से सभी द्वीप समुद्रों का वर्णन है। स्थानांगसूत्र में संक्षेप से कही गई बहुत सी वस्तुएं इस में विस्तारपूर्वक बताई गई हैं। ४-प्रज्ञापना-यह समवायांगसूत्र का उपांग है। समवायांग में जीव, अजीव, स्वसमय, परसमय, लोक, अलोक आदि विषयों का वर्णन किया गया है। एक-एक पदार्थ की वृद्धि करते हुए सौ पदार्थों तक का वर्णन समवायांगसूत्र में है। इन्हीं विषयों का वर्णन विशेषरूप से प्रज्ञापना सूत्र में किया गया है। इस में 36 पद हैं। एक-एक पद में एक-एक विषय का वर्णन ५-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-इस में जम्बूद्वीप के अन्दर रहे हुए भरत आदि क्षेत्र, वैताढ्य आदि पर्वत, पद्म आदि द्रह, गंगा आदि नदियां, ऋषभ आदि कूट तथा ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती का वर्णन विस्तार से किया गया है। ज्योतिषी देव तथा उन के सुख आदि भी बताए गए हैं। इस में दस अधिकार हैं। ६-चन्द्रप्रज्ञप्ति-चन्द्र की ऋद्धि, मंडल, गति, गमन, संवत्सर, वर्ष, पक्ष, महीने, तिथि, नक्षत्र का कालमान, कुल और उपकुल के नक्षत्र, ज्योतिषियों के सुख आदि का वर्णन इस सूत्र में बड़े विस्तार से है। इस सूत्र का विषय गणितानुयोग है। बहुत गहन होने के कारण यह सरलतापूर्वक समझना कठिन है। ७-सूर्यप्रज्ञप्ति-यह उत्कालिक उपांग सूत्र है। इस में सूर्य की गति, स्वरूप, प्रकाश, . आदि विषयों का वर्णन है। इस में 20 प्राभृत हैं। 944 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ८-निरयावलिका-यह आठवां उपांग है, इसके दस अध्ययन हैं और यह कालिक (जिसकी.स्वाध्याय का समय नियत हो) है। ९-कल्पावतंसिका-यह नौवां उपांग है, इस के दस अध्ययन हैं और यह कालिक १०-पुष्पिका-यह सूत्र कालिक है और इसके दस अध्ययन हैं। ११-पुष्पचूलिका-यह सूत्र कालिक है, इस के दस अध्ययन हैं। .. १२-वृष्णिदशा-यह सूत्र कालिक है, इस के बारह अध्ययन हैं। मूलसूत्र 4 हैं, जिन का नामपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है १-उत्तराध्ययन-इस में विनयश्रुत आदि 36 उत्तर-प्रधान अध्ययन होने से यह उत्तराध्ययन कहलाता है। २-दशवैकालिक-यह सूत्र दश अध्ययनों और दो चूलिकाओं में विभक्त है। इस में प्रधानतया साधु के 5 महाव्रतों तथा अन्य आचारसम्बन्धी विषयों का वर्णन किया गया है, और यह उत्कालिक है। ३-नन्दीसूत्र-इस में प्रधानतया मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान इन पांच ज्ञानों का वर्णन किया गया है और यह उत्कालिक (जिसकी स्वाध्याय का समय नियत न हो) सूत्र है। ४-अनुयोगद्वार-अनुयोग का अर्थ है-व्याख्यान करने की विधि। उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय इन चार अनुयोगों का जिस में वर्णन हो उसे अनुयोगद्वार कहते हैं। __छेदसूत्र भी 4 हैं। इन का नामपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है १-दशाश्रुतस्कंध-इस सूत्र में दश अध्ययन होने से इस का नाम दशाश्रुतस्कंध है और यह कालिक है। / २-बृहत्कल्प-कल्प शब्द का अर्थ मर्यादा होता है। साधुधर्म की मर्यादा का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन होने से यह सूत्र बृहत्कल्प कहलाता है। ३-निशीथ-इस सूत्र में बीस उद्देशक हैं। इस में गुरुमासिक, लघुमासिक तथा गुरु चातुर्मासिक तथा लघु चातुर्मासिक प्रायश्चितों का प्रतिपादन है। ४-व्यवहारसूत्र-जिसे जो प्रायश्चित आता है उसे वह प्रायश्चित देना व्यवहार है। इस सूत्र में प्रायश्चितों का वर्णन किया गया है। इसलिए इसे व्यवहारसूत्र कहते हैं। ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल और चार छेद ये सब 31 सूत्र होते हैं। इन में आवश्यक सूत्र के संयोजन करने से इन की संख्या 32 हो जाती है। साधु और गृहस्थ को द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [945 Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिदिन दो बार करने योग्य आवश्यक अनुष्ठान या प्रतिक्रमण आवश्यक कहलाता है। सामायिक शब्द चारित्र के पंचविध विभागों में से प्रथम विभाग-पहला चारित्र, श्रावक का नवम व्रत आवश्यक सूत्र का प्रथम विभाग तथा संयमविशेष इत्यादि अनेकों अर्थों का परिचायक है। प्रकृत में सामायिक का अर्थ-आचारांग-यह ग्रहण करना अभिमत है। कारण कि मूल में-सामाइयमाइयाइं-सामायिकादीनि-यह उल्लेख है। यह-एकारस अंगाईएकादशांगानि-इस का विशेषण है। अर्थात् सामायिक है आदि में जिन के ऐसे ग्यारह अंग। प्रश्न-सुबाहुकुमार को ग्यारह अंग पढ़ाए गए-यह वर्णन तो मिलता है परन्तु उसे श्री आवश्यकसूत्र पढ़ाने का वर्णन क्यों नहीं मिलता, जो कि साधुजीवन के लिए नितान्त आवश्यक होता है ? उत्तर-"श्री आवश्यक सूत्र"- यह संज्ञा ही सूचित करती है कि साधुजीवन के लिए यह अवश्य पठनीय, स्मरणीय और आचरणीय है। अत: उस के उल्लेख की तो आवश्यकता ही नहीं रहती। उस का अध्ययन तो सुबाहुकुमार के लिए अनिवार्य होने से बिना उल्लेख के ही उल्लिखित हो ही जाता है। ___ प्रश्न-ग्यारह अंगों में विपाक श्रुत का भी निर्देश किया गया है, उस के द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार का जीवनचरित्त वर्णित है। तो क्या वह सुबाहुकुमार यही था या अन्य ? यदि यही था तो उस ने विपाकसूत्र पढ़ा, इस का क्या अर्थ हुआ? जिस का निर्माण बाद में हुआ हो उस का अध्ययन कैसे संभव हो सकता है ? , उत्तर-विपाकसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में जिस सुबाहुकुमार का वृत्तान्त वर्णित है, वह हमारे यही हस्तिशीर्षनरेश महाराज अदीनशत्रु के परमसुशील पुत्र सुबाहुकुमार हैं। अब रही बात पढ़ने की, सो इस का समाधान यह है कि भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर थे, जो कि अनुपम ज्ञानादि गुणसमूह के धारक थे। उन की नौ वाचनाएं (आगमसमुदाय) थीं जो कि इन्हीं पूर्वोक्त अंगों, उपांगों आदि के नाम से प्रसिद्ध थीं। प्रत्येक में विषय भिन्न-भिन्न होता था और उन का अध्ययनक्रम भी विभिन्न होता था। वर्तमान काल में जो वाचना उपलब्ध हो रही है वह भगवान् महावीर स्वामी के पट्टधर परमश्रद्धेय श्री सुधर्मा स्वामी की है। ऊपर जो अंगों का वर्णन किया गया है वह इसी से सम्बन्ध रखता है। सुधर्मा स्वामी की वाचनागत विभिन्नता सुबाहुकुमार के जीवनवृत्तान्त से स्पष्ट हो 1. आज भी देखते हैं कि सब प्रान्तों में शास्त्री या बी. ए. आदि परीक्षाएं नाम से तो समान हैं परन्तु उस की अध्ययनीय पुस्तकें विभिन्न होती हैं एवं पुस्तकगत विषय भी पृथक्-पृथक् होते हैं। यह क्रम प्राचीनता का प्रतीक है। 946 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाती है। तथा सुबाहकुमार के जीवन से यह भी स्पष्ट होता है कि सुबाहुकुमार का अध्ययन किसी अन्य गणधर की देख-रेख में निष्पन्न हुआ और उस ने उस की वाचना के ही एकादश अंग पढ़े, उन का अर्थ सुधर्मा स्वामी की वाचना से भिन्न था। अतः सुबाहुकुमार ने जो विपाक पढ़ा वह भी अन्य था जो कि दुर्भाग्यवश अनुपलब्ध है। आचार्यप्रवर अभयदेवसूरि ने भगवतीसूत्र की व्याख्या में स्कन्दककुमार के विषय से सम्बन्ध रखने वाले विचारों का जो प्रदर्शन किया है वह मननीय एवं प्रकृत में उपयोगी होने से नीचे दिया जाता है नन्वनेन स्कन्दकचरितात् प्रागेवैकादशांगनिष्पत्तिरवसीयते पंचमांगान्तर्भूतं च स्कन्दकचरितमुपलभ्यते, इति कथं न विरोधः ? उच्यते-श्रीमन्महावीरतीर्थे किल नव वाचना, तत्र च सर्ववाचनासु स्कन्दकचरितात् पूर्वकाले ये स्कन्दकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते। स्कन्दकचरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानं स्वशिष्यमंगीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्दकचरितमेवाश्रित्य तदर्थं प्ररूपणा कृतेति न विरोधः। अथवा सातिशायित्वाद् गणधराणामनागतकालभाविचरितनिबन्धनमदुष्टमिति, भाविशिष्यसन्तानापेक्षया, अतीतकालनिर्देषोऽपि न दुष्ट इति। (भगवती सूत्र शतक 2, उद्दे० 1, सू० 93). अर्थात्-प्रस्तुत में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि स्कन्दक चरित से पहले ही एकादश अंगों का निर्माण हो चुका था। स्कन्दकचरित्र पंचम अंग (भगवती सूत्र) में संकलित किया गया है। तब स्कन्दक ने 11 अंग पढ़े, इस का क्या अर्थ हुआ? क्या उस ने अपना ही जीवन पढ़ा ? इस का उत्तर निम्नोक्त है भगवान् महावीर के तीर्थ-शासन में नौ वाचनाएं थीं। प्रत्येक वाचना में स्कन्दक के जीवन का अभिधेय-अर्थ (शिक्षारूप प्रयोजन) समान रूप से अवस्थित रहता था। अन्तर इतना होता था कि जीवन के नायक तथा नायक के साथी भिन्न होते थे। सारांश यह है कि जो शिक्षा स्कन्दक के जीवन में मिलती थी, उसी शिक्षा को देने वाले अन्य जीवनों का संकलन सर्ववाचनाओं में मिलता था। सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बू स्वामी को लक्ष्य बना कर अपनी इस वाचना में स्कन्दक के जीवन से ही उस अर्थ की प्ररूपणा कर डाली, जो अर्थ अन्य वाचनाओं में गर्भित था। अत: यह स्पष्ट है कि स्कन्दक ने जो अंगादि शास्त्र पढ़े थे वे सुधर्मा स्वामी की वाचना में नहीं थे। अथवा दूसरी बात यह भी हो सकती है कि श्री गणधर महाराज अतिशय अर्थात् ज्ञानविशेष के धारक होते थे। इसलिए उन्होंने अनागत काल में होने वाले चरित्रों का संकलन कर दिया। इस के अतिरिक्त अनागत शिष्यवर्ग की अपेक्षा से अतीत काल का निर्देश भी दोषावह नहीं है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [947 Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा के अनन्तर सुबाहुकुमार को तथारूप स्थविरों के पास शास्त्राध्ययनार्थ छोड़ . दिया गया और श्री सुबाहुकुमार मुनि ने भी अपनी विनय तथा सुशीलता से शीघ्र ही आगमों के अध्ययन में सफलता प्राप्त कर ली, पर्याप्त ज्ञानाभ्यास कर लिया। ज्ञानाभ्यास के पश्चात् सुबाहुकुमार ने तपस्या का आरम्भ किया। उस में वे व्रत, बेला, तेला आदि का अनुष्ठान करने लगे। अधिक क्या कहें-सुबाहुमुनि ने अपने जीवन को तपोमय ही बना डाला। आत्मशुद्धि के लिए तपश्चर्या एक आवश्यक साधन है। तप एक अग्नि है जो आत्मा के कषायमल को भस्मसात् कर देने की शक्ति रखती है। "-तपसा शुद्धिमाप्नोति-". अन्त में एक मास की संलेखना-२९ दिन का संथारा करके आलोचना तथा प्रतिक्रमण करने के अनन्तर समाधिपूर्वक श्री सुबाहु मुनि इस औदारिक शरीर को त्याग कर देवलोक में पधार गए। दूसरे शब्दों में श्री सुबाहुकुमार पर्याप्तरूप से साधुवृत्ति का पालन कर परलोक के यात्री बने और देवलोक में जा विराजे / -चउत्थ० तवोविहाणेहि-यहां दिए गए बिन्दु से-छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं-इस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण करना चाहिए। इस का अर्थ यह है कि व्रत, बेले, तेले, चौले और पंचौले के तप से तथा 15 दिन, एक महीने की तपस्या से एवं और अनेक प्रकार के तपोमय अनुष्ठानों से। चतुर्थभक्त-इस पद के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे. किं-१-उपवास, २-जिस दिन उपवास करना हो उस के पहले दिन एक समय खाना और उपवास के दूसरे दिन भी एक समय खाना। इस प्रकार ये दो भक्त-भोजन हुए। दो भक्त उपवास के और दो आगे-पीछे के। इस प्रकार दो दिनों के भक्त मिला कर चार भक्त होते हैं। इन चार भक्तों (भोजनों) का त्याग चतुर्थभक्त कहलाता है। आजकल इस का प्रयोग दो वक्त आहार छोड़ने में होता,है जो कि व्रत के नाम से प्रसिद्ध है। पूर्वसंचित कर्मों के नाश करने वाले अनुष्ठान विशेष की तप संज्ञा है, उस का विधान तपोविधान कहलाता है। श्रामण्य साधुता का नाम है। पर्याय भाव को कहते हैं। श्रामण्यपर्याय का अर्थ होता है-साधुभाव-साधुवृत्ति। संलेखना-जिस तप के द्वारा शरीर तथा क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों को कृश-निर्बल किया जाता है उसके अनुष्ठान को संलेखना कहते हैं। -अप्पाणं झूसित्ता-आत्मानं जोषयित्वा-यहां झूसित्ता का प्रयोग-आराधित कर के-इस अर्थ में किया गया है। संलेखना से आराधित करने का अर्थ है-संलेखना द्वारा अपने 1. तवेणं भंते ! जीवे किं जणयइ। तवेणं जीवे वोदाणं जणयइ॥२७। (उत्तरा० अ० 29) 2. संलिख्यते कृशी क्रियते शरीरकषायादिकमनयेति संलेखनेति भावः। (वृत्तिकारः). . 948 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मोक्षमार्ग के अनुकूल बनाना। महीने की संलेखना के स्पष्टीकरणार्थ ही मूल में-सर्टि भत्ताई-षष्टिं भक्तानि-इस का उल्लेख किया गया है। अर्थात् महीने की संलेखना का अर्थ है-साठ भक्तों-भोजनों का परित्याग। प्रश्न-सूत्रकार ने -मासियाए संलेहणाए-का उल्लेख करने के बाद-सर्द्वि भत्ताइंइस का उल्लेख क्यों किया ? जब कि उससे ही काम चल सकता था, कारण कि मासिक संलेखना और साठ भक्तों का त्याग-दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं। उत्तर-शास्त्र का कोई भी वचन व्यर्थ नहीं होता, केवल समझने की त्रुटि होती है। प्रत्येक ऋतु में मासगत दिनों की संख्या विभिन्न होती है। तब जिस ऋतु में जिस मास के 29 दिन होते हैं, उस मास के ग्रहण करने की सूचना देने के लिए सूत्रकार ने-मासियाए संलेहणाए-ये पद देकर भी-सर्टि भत्ताइं-ये पद दे दिए हैं जोकि उचित्त ही हैं। क्योंकि 29 दिनों के व्रतों में ही 60 भक्त-भोजन छोड़े जा सकते हैं। -आलोइयपडिक्कन्ते-आलोचितप्रतिक्रान्तः-आत्मा में लगे हुए दोषों को गुरुजनों के समीप निष्कपट भाव से प्रकाशित कर के उन की आज्ञानुसार उन दोषों से पृथक् होने के लिए प्रायश्चित करने वाले को आलोचितप्रतिक्रान्त कहते हैं। इस पद का सविस्तार विवेचन पीछे यथास्थान किया जा चुका है। . समाधि-इस पद का निक्षेप-विवेचन नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से चार प्रकार का " होता है। १-किसी का नाम समाधि रख दिया जाए तो वह नामसमाधि है। २-समाधि नाम वाले व्यक्ति की आकृति-आकार को स्थापना समाधि कहते हैं / ३-मनोज्ञ शब्दादि पञ्चविध विषयों की सम्प्राप्ति पर श्रोत्रादि इन्द्रियों की जो तुष्टि होती है, उस का नाम द्रव्यसमाधि है। अथवा-दूध और शक्कर के मिलाने से रस की जो पुष्टि होती है उसे, अथवा-किसी द्रव्य के सेवन से जो शान्ति उपलब्ध होती है उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं / अथवा-यदि तुला के ऊपर किसी वस्तु को चढ़ाने से दोनों भाग सम हो जाएं उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं। जिस जीव को जिस क्षेत्र में रहने से शान्ति उपलब्ध होती है, वह क्षेत्र की प्रधानता के कारण क्षेत्रसमाधि कहलाती है। जिस जीव को जिस काल में शान्ति मिलती है, वह शान्ति उस के लिए कालसमाधि है। जैसे-शरद् ऋतु में गौ को, रात्रि में उल्लू को और दिन में काक को शान्ति प्राप्त होती है, वह शान्तिकाल की प्रधानता के कारण काल समाधि कही जाती है। ४भावसमाधि-भावसमाधि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन भेदों से चार प्रकार की कही गई है। १-जिस गुण-शक्ति के विकास से तत्त्व-सत्य की प्रतीति हो, अथवा जिस से छोड़ने और ग्रहण करने योग्य तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो, वह दर्शन भावसमाधि है। 2 द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [949 Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय और प्रमाण से होने वाला जीवादि पदार्थों का यथार्थ बोध ज्ञानभावसमाधि है।३-सम्यग् ज्ञान पूर्वक काषायिक भाव राग, द्वेष और योग की निवृत्ति होकर जो स्वरूपरमण होता है वही चारित्र भावसमाधि है। ४-ग्लानिरहित किया गया तथा पूर्वबद्ध कर्मों का नाश करने वाला तप नामक अनुष्ठानविशेष तपभावसमाधि है। सारांश यह है कि जिस के द्वारा आत्मा सम्यक्तया मोक्षमार्ग में अवस्थित किया जाए वह अनुष्ठान समाधि' कहलाता है। प्रकृत में इसी समाधि का ग्रहण अभिमत है। समाधि को प्राप्त करने वाला व्यक्ति समाधिप्राप्त कहलाता है। कालमास-का अर्थ है-समय आने पर। इस का प्रयोग सूत्रकार ने अकाल मृत्यु के परिहार के लिए किया है। इस का तात्पर्य यह है कि श्री सुबाहुकुमार की अकाल मृत्यु नहीं हुई है। कल्प-इस शब्द के अनेकों अर्थ हैं-१-समर्थ, २-वर्णन, ३-छेदन, ४-करण, ५सादृश्य,६-अधिवास-निवास,७-योग्य,८-आचार, ९-कल्प-शास्त्र, १०-कल्प-राजनीति इत्यादि व्यवहार जिन देवलोकों में हैं वे देवलोक...। इन अर्थों में से प्रकृत में अन्तिम अर्थ का ग्रहण अभिमत है। देवलोक 26 माने जाते हैं। 12 कल्प और 14 कल्पातीत। इन में १-सौधर्म, २ईशान, ३-सनत्कुमार, ४-महेन्द्र, ५-ब्रह्म, ६-लान्तक, ७-महाशुक्र;८-सहस्रार, ९-आनत, १०-प्राणत, ११-आरण, १२-अच्युत, ये बारह कल्प देवलोक कहलाते हैं। तथा कल्पातीतों में पुरुषाकृतिरूप लोक के ग्रीवास्थान में अवस्थित होने के कारण, १-भद्र, २-सुभद्र, ३सुजात, ४-सुमनस, ५-प्रियदर्शन, ६-सुदर्शन, ७-अमोघ, ८-सुप्रतिबद्ध, ९-यशोधर ये 9 ग्रैवेयक कहलाते हैं। सब से उत्तर अर्थात् प्रधान होने से पांच अनुत्तर विमान कहलाते हैं। जैसे कि-१-विजय, २-वैजयंत, ३-जयन्त, ४-अपराजित, ५-सर्वार्थसिद्ध। सौधर्म से अच्युत देवलोक तक के देव, कल्पोपपन्न और इन के ऊपर के सभी देव इन्द्रतुल्य होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं। मनुष्य लोक में किसी निमित्त से जाना हुआ तो 1. सम्यगाधीयते-मोक्षः तन्मार्ग वा प्रत्यात्मा योग्यः- क्रियते व्यवस्थाप्यते येन धर्मेणासौ धर्मः समाधिः। (श्री सूत्रकृताङ्गवृत्तौ) 2. कल्पशब्दोऽनेकार्थाभिधायी-वचित्सामर्थ्य , यथा-वर्षाष्टप्रमाणः चरणपरिपालने कल्पः समर्थः इत्यर्थः। कचिद् वर्णनायाम्-यथा-अध्ययनमिदमनेन कल्पितं वर्णितमित्यर्थः / क्वचिच्छेदने-यथा केशान् कर्तर्या कल्पयति-छिनत्ति इत्यर्थः। कचित् करणे-क्रियायाम्-यथा-कल्पिता मयाऽस्याजीविका कृता इत्यर्थः।वचिदौपम्ये-यथा-सौम्येन तेजसा च यथाक्रममिन्दुसूर्यकल्पाः साधवः।क्वचिदधिवासे-यथासौधर्मकल्पवासी शक्रः सुरेश्वरः। उक्तं च-सामर्थ्य वर्णनायां छेदने करणे तथा। औपम्ये चाधिवासे च कल्पशब्दं विदुर्बुधाः॥(बृहत्कल्पसूत्र भाष्यकार) 950 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंन्ध Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पोपपन्न देव ही जाते आते हैं। कल्पातीत देव अपने स्थान को छोड़ कर नहीं जाते। हमारे सुबाहुकुमार अपनी आयु को पूर्ण कर कल्पोपपन्न देवों के प्रथम विभाग में उत्पन्न हुए, जो कि सौधर्म नाम से प्रसिद्ध है। सारांश यह है कि सुबाहुकुमार मुनि ने जिस लक्ष्य को ले कर राज्यसिंहासन को ठुकराया था तथा संसारी जीवन से मुक्ति प्राप्त की थी, आज वह अपने लक्ष्य में सफल हो गए और साधुवृत्ति का यथाविधि पालन कर आयुपूर्ण होने पर पहले देवलोक में उत्पन्न हो गए और वहां की दैवी संपत्ति का यथारुचि उपभोग करने लगे। श्रमण भगवान् महावीर बोले-गौतम ! सुबाहु मुनि का जीव देवलोक के सुखों का उपभोग करके वहां की आयु, वहां का भव और वहां की स्थिति को पूरी कर के वहां से च्युत हो मनुष्यभव को प्राप्त करेगा और वहां अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त कर तीसरे देवलोक में उत्पन्न होगा। तदनन्तर वहां की आयु को समाप्त कर फिर मनुष्यभव को प्राप्त करेगा। वहां भी साधुधर्म को स्वीकार कर के उस का यथाविधि पालन करेगा और समय आने पर मृत्यु को प्राप्त हो कर पांचवें कल्प-देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य और वहां से सातवें देवलोक में, इसी भांति वहां से फिर मनुष्यभव में, वहां से मृत्यु को प्राप्त कर नवमें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर फिर मनुष्य और वहां से ग्यारहवें देवलोक में जाएगा। वहां से फिर मनुष्य बनेगा तथा वहां से सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न होगा। वहां के सुखों का उपभोग कर वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहां पर तथारूप स्थंविरों के समीप मुनिधर्म की दीक्षा को ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करता हुआ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्तया भावचारित्र की आराधना से आत्मा के साथ लगे हुए कर्ममल को जला कर, कर्मबन्धनों को तोड़ कर अष्टविध कर्मों का क्षय करके परमकल्याणस्वरूप सिद्धपद को प्राप्त करेगा। दूसरे शब्दों में 'सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परमात्मपद को प्राप्त कर के आवागमन के चक्र से सदा के लिए मुक्त हो जाएगा, जन्म-मरण से रहित हो जाएगा। . -आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं-इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में इस प्रकार है ___ -आउक्खएणं त्ति-आयुष्कर्मद्रव्यनिर्जरणेण।भवक्खएणं त्ति-देवगतिनिबंधनदेवगत्यादिकर्मद्रव्यनिर्जरणेण।ठितिक्खएणं त्ति-आयुष्कर्मादिकर्मस्थितिविगमेन।अर्थात् आयु शब्द से आयुष्कर्म के दलिकों (परमाणुविशेषों) का ग्रहण होता है। दलिकों या कर्मवर्गणाओं का क्षय आयुक्षय है। भव शब्द से देवगति को प्राप्त करने में कारणभूत नामकर्म की पुण्यात्मक देवगति नामक प्रकृति के कर्मदलिकों का ग्रहण है, अर्थात् देवगति को प्राप्त द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [951 Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने में पुण्यरूप नामकर्म की देवगति प्रकृति कारण होती है। उस प्रकृति के कर्मदलिकों का नाश भवनाश कहलाता है। स्थिति शब्द से आयुष्कर्म के दलिकों की अवस्थानमर्यादा का ग्रहण है। अर्थात् आयुष्कर्म के दलिक जितने समय तक आत्मप्रदेशों से संबन्धित रहते हैं उस काल का स्थिति शब्द से ग्रहण किया जाता है। उस काल (स्थिति) का नाश स्थितिनाश कहा जाता है। यही इन तीनों में भेद है। -अणंतरं-कोई जीव पुरातन दुष्ट कर्मों के प्रभाव से नरक में जा उत्पन्न हुआ, वहां की दुःख-यातनाओं को भोग कर तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न हुआ, वहां की स्थिति को पूरी कर फिर मनुष्यगति में आया, उस जीव का मनुष्यभव को धारण करना सान्तर-अन्तरसहित है। एक ऐसा जीव है जो नरक से निकल कर सीधा मानव शरीर को धारण कर लेता है, उस का मानव बनना अनन्तर-अन्तररहित कहलाता है। सुबाहुकुमार की देवलोक से मनुष्यभवगत अनन्तरता को सूचित करने के लिए सूत्रकार ने "अणन्तरं" यह पद दिया है, जो कि उपयुक्त . ही है। भगवतीसूत्र में लिखा है कि ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना (दर्शन-सम्यक्त्व की आराधना) और शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित होकर आचार का पालन करने वाला व्यक्ति कम से कम तीन भव करता है, अधिक से अधिक 15 भव-जन्म धारण करता है। 15 भवों के अनन्तर वह अवश्य निष्कर्म-कर्मरहित हो जाएगा। सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर डालेगा। ऐसा शास्त्रीय सिद्धान्त है। इस सिद्धान्तसम्मत वचन से यह सिद्ध हो जाता है कि सुबाहुकुमार ने सुमुख गाथापति के भव में सुदत्त नामक एक अनगार को दान देकर जघन्य ज्ञानाराधना तथा दर्शनाराधना का सम्पादन किया, उसी के फलस्वरूप वह पन्द्रहवें भव में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो जाएगा। यह उस का अन्तिम भव है। इस के अनन्तर वह जन्म धारण नहीं करेगा। देवलोकों का संख्याबद्ध वर्णन पहले किया जा चुका है। सर्वार्थसिद्ध से च्युत हो कर सुबाहुकुमार का महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्धगति को प्राप्त होना, यह महाविदेह क्षेत्र की विशिष्टता सूचित करता है। महाविदेह कर्मभूमियों का क्षेत्र है। इस में चौथे आरे जैसा अवस्थित काल है। महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सुबाहुकुमार ने क्या किया, जिस से कि वह सर्व कर्मों से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त हुआ, इस सम्बन्ध में कुछ भी न कहते हुए सूत्रकार 1. आराधना-निरतिचारतपानुपालना। (वृत्तिकारः) 2. जहन्निए णं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कइहिं भवग्गहणेहि सिज्झइ जाव अंतं करेइ ? गोयमा! अत्थेगइए तच्चेणं भवग्गहणे सिज्झइ जाव अंतं करेइ। सत्तट्ठभवग्गहणाई पुण नाइक्कमइ।एवं दंसणाराहणं पि एवं चरित्ताराहणं पि। (भग० श० 6, उ० 1, सू० 311) 952 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने इतना ही लिख दिया है कि-जहा दढपइण्णे-अर्थात् इस के आगे का सारा जीवन वृत्तान्त दृढ़प्रतिज्ञ की तरह जान लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेने के बाद सुबाहुकुमार ने वही कुछ किया जो कुछ श्री दृढ़प्रतिज्ञ ने किया था। इस से दृढ़प्रतिज्ञ के वृत्तान्त की जिज्ञासा स्वतः ही उत्पन्नः हो जाती है। दृढ़प्रतिज्ञ का सविस्तर वर्णन तो औपपातिक सूत्र में किया गया है। उस का प्रकरणानुसारी संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है गौतम-भदन्त ! अम्बड़ परिव्राजक का जीव देवलोक से च्युत हो कर कहां जाएगा? कहां पर जन्म लेगा? भगवान्-गौतम ! महाविदेह नाम का एक कर्मभूमियों का क्षेत्र है। उस में अनेकों धनाढ्य एवं प्रतिष्ठित कुल हैं। अम्बड़ परिव्राजक का जीव देवलोक से च्युत हो कर उन्हीं कुलों में से एक विख्यात कुल में जन्म लेगा। जिस समय वह माता के गर्भ में आएगा, उस समय उस के माता-पिता की श्रद्धा धर्म में विशेष दृढ़ होने लगेगी। गर्भ काल के पूर्ण होने पर जब वह जन्म लेगा तो उस का शारीरिक सौन्दर्य बड़ा अद्भुत और विलक्षण होगा। उस के गर्भ में आने से माता-पिता की धार्मिक श्रद्धा में विशेष दृढ़ता उत्पन्न होने के कारण माता-पिता अपने नवजात बालक का दृढ़प्रतिज्ञ-यह गुणनिष्पन्न नाम रखेंगे। माता-पिता के समुचित पालनपोषण से वृद्धि को प्राप्त करता हुआ दृढ़प्रतिज्ञ बालक जब आठ वर्ष का हो जाएगा तो उसे एक सुयोग्य कलाचार्य को सौंपा जाएगा। विनयशील दृढ़प्रतिज्ञ कुशाग्रबुद्धि होने के कारण थोड़े ही समय में विद्यासम्पन्न और कलासम्पन्न होने के साथ-साथ युवावस्था को भी प्राप्त हो जाएगा। तदनन्तर प्रतिभाशाली युवक दृढ़प्रतिज्ञ को सांसारिक विषयभोगों के उपभोग में समर्थ हुआ जान कर उसके उसे सांसारिक बन्धन में फंसाने का यत्न करेंगे, परन्तु वह अनेक प्रकार के प्रयत्न करने पर भी इस बन्धन में आने के लिए सहमत नहीं होगा। अपने ब्रह्मचर्य को अखण्डं रखने का वह पूरा-पूरा ध्यान रखेगा। तदनन्तर किसी तथारूप श्रमण की संगति से उसे सम्यक्त्व का लाभ होगा। उस की प्राप्ति से उस में वैराग्य की भावना जागृत होगी और अन्त में वह मुनिधर्म को अंगीकार कर लेगा। गृहीत संयम व्रत का यथाविधि पालन करता हुआ मुनि दृढ़प्रतिज्ञ ज्ञान, दर्शन और चारित्र की निरतिचार आराधना से कर्ममल का नाश करके आत्मविकास की पराकाष्ठा-केवलज्ञान को प्राप्त कर लेगा। भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! तदनन्तर अनेकों वर्ष केवली अवस्था में रह कर अनगार दृढ़प्रतिज्ञ मासिक संलेखना (आमरण अनशनव्रत) से शरीर को त्याग कर अपने ध्येय को प्राप्त करेगा। अर्थात् जिस प्रयोजन के लिए उस ने सर्व प्रकार के सांसारिक पदार्थों से मोह द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [953 Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को तोड़ कर साधुजीवन को अपनाया था, उस का वह प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। दूसरे शब्दों में सर्वप्रकार के कर्मबन्धनों का आत्यन्तिक विच्छेद कर वह कर्मरहित हो कर जन्म-मरण के दुःखों से सर्वथा छूट जाएगा, आत्मा से परमात्मा बन जाएगा। यह है दृढ़प्रतिज्ञ का संक्षिप्त जीवनवृत्तान्त। इसी वृत्तान्त की समानता बताने के लिए सूत्रकार ने-जहा दढपइपणे-यह उल्लेख किया है। सारांश यह है कि सुबाहुकुमार भी दृढ़प्रतिज्ञ की भांति मुक्ति को प्राप्त कर लेंगे। -अंतिए मुण्डे जाव पव्वइस्सइ-यहां पठित-जाव-यावत् पद से-भवित्ता अणगारिअं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए / इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। तथामहाविदेहे जाव अड्ढाइं-यहां के जाव-यावत् पद से-वासे जाइंकुलाइं भवंति-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। अर्थ स्पष्ट ही है। __-सिज्झिहिइ ५-यहां पर दिए गए 5 के अंक से-बुझिहिइ, मुच्चिहिइ, परिनिव्वाहिइ, सव्वदुक्खाणमंतं करिहिइ-इन पदों को संगृहीत करना चाहिए। इन का अर्थ निम्नोक्त है सिद्ध होगा-सकल कर्मों के क्षय से निष्ठितार्थ-कृतकृत्य होगा। बुद्ध होगा, केवलज्ञान से सम्पूर्ण वस्तुतत्त्व को जानेगा। मुक्त होगा-भवोपग्राही (जन्मग्रहण में निमित्तभूत) कर्मांशों से छूट जाएगा। परिनिवृत्त होगा-कर्मजन्य जो ताप (दुःख) है उस के विरह (अभाव) हो जाने से शान्त होगा। जन्म-मरण आदि के दुःखों का अन्त करेगा। सारांश यह है कि सुबाहुकुमार का जीव अपने पुनीत आचरणों से जन्म-मरण आदि के दुःखों का अन्त करेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो सुबाहुकुमार का जीव अपने पुनीत आचरणों से जन्म तथा मरण रूप भवपरम्परा का उच्छेद कर डालेगा और वह सदा के लिए इस से मुक्त हो जाएगा तथा आत्मा की स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त कर लेगा जो कि अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्य-शक्ति रूप है"-यह कह सकते हैं। सुपात्र दान की महानता और पावनता सुबाहुकुमार के सम्पूर्ण जीवन से सिद्ध हो जाती है। सुमुख गाथापति के भव में उस ने सुपात्र में भिक्षा डाली थी, उसी का यह महान् फल है कि आज वह परम्परा से सब का आराध्य बन गया है। इस जीवन से भावना की मौलिकता भी स्पष्ट हो जाती है। किसी भी कार्य में सफलता तभी प्राप्त होती है यदि उस में विशुद्ध भावना को उचित स्थान प्राप्त हो। जब तक भावगत दूषण दूर नहीं होता तब तक आत्मा आनन्दरूप भूषण को हस्तगत नहीं कर सकता। अतः श्री सुबाहुकुमार के जीवन को आचरित करके मोक्षाभिलाषियों को मोक्ष में उपलब्ध होने वाले सुख को प्राप्त करने का यत्न करना चाहिए। यही इस कथासंदर्भ से ग्रहणीय सार है। 954 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार सुबाहुकुमार के जीवनवृत्तान्त को सुनाने के बाद आर्य सुधर्मा स्वामी बोले कि हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। जम्बू ! प्रभु वीर के पावन चरणों में रह कर जैसा मैंने सुना था वैसा ही तुम्हें सुना दिया, इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। इस के मूलस्रोत तो परम आराध्य मंगलमूर्ति भगवान् महावीर स्वामी ही हैं। आर्य सुधर्मा स्वामी के इस कथन में प्रस्तुत अध्ययन की प्रामाणिकता सिद्ध की गई है। सर्वज्ञभाषित होने से उस का प्रामाण्य सुस्पष्ट है। ___-समणेणं जाव संपत्तेणं-यहां पर उल्लेख किए गए जाव-यावत् पद से अभिमत पदों का वर्णन पूर्व में कर दिया गया है। सुख प्राप्ति के लिए कहीं इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं है। उस की उपलब्धि अपनी ही ओर देखने से, अपने में ही लीन होने से होती है। बाह्य पदार्थ सुख के कारण नहीं बन सकते, उन में जो सुख मिलता है, वह सुख नहीं, सुखाभास है, सुख की भ्रान्त कल्पना है। मधुलिप्त असिधारा (शहद से लिपटी हुई तलवार की धारा) को चाटने से क्षणिक सुख का आभास जरूर होता है किन्तु उस का परिणाम सुखावह नहीं होता। मधुर रस के आस्वादन के साथ-साथ जिह्वा का भेदन भी होता चला जाता है। यही बात संसार की समस्त सुखजनक सामग्री की है। जब सुख के साधन अचिरस्थायी और विनश्वर हैं तो उन से प्राप्त होने वाला सुख स्थायी कैसे हो सकता है ? इस के अतिरिक्त ज्ञानी पुरुषों का यह कथन सोलह आने सत्य है कि संसारवर्ती राजपाट, महल अटारी, गाड़ी, घोड़ा, वस्त्राभूषण, और भोजनादि जितने भी पदार्थ हैं, उन में अनुराग या आसक्ति ही स्थायी दुःख का कारण है। इन से विरक्त हो कर आत्मानुराग ही वास्तविक सुख का यथार्थ साधन है। मानव प्राणी इन बाह्य पदार्थों से जितना भी मोह कम करेगा, उतना ही वास्तविक सुख की उपलब्धि में अग्रेसर होगा और आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त करता चला जाएगा। सांसारिक पदार्थों के संसर्ग में रागद्वेषजन्य व्याकुलता का अस्तित्व अनिवार्य है और जहां व्याकुलता है, वहां कभी सुख का क्षणिक आभास भले हो परन्तु सुख नहीं है, निराकुलता नहीं है। इसलिए स्थायी सुख या निराकुलता प्राप्त करने के लिए सांसारिक पदार्थों के संसर्ग अर्थात् इन पर से अनुराग का त्याग करना परम आवश्यक है। बस यही प्रस्तुत अध्ययनगत सुबाहुकुमार के कथासन्दर्भ का रहस्यमूलक ग्रहणीय सार है। श्री सुबाहुकुमार का जीवनवृत्तान्त साधकों या मुमुक्षु जनों को सर्वथा उपादेय है। शाश्वत सुख के अभिलाषियों के लिए सुप्रसिद्ध राजमार्ग है। जो साधक विकास की ओर द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [955 Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्थान करने वाले हैं उन्हें इस के दिव्यालोक में सुख का वास्तविक स्वरूप अवश्य उपलब्ध होगा। यह आत्मा सुख और आनन्द का अथाह सागर है। ज्ञान की अनन्त राशि है। शक्तियों का अखूट भंडार है। जिस को यह अपना वास्तविक रूप उपलब्ध हो जाता है, उस के लिए फिर कुछ भी अप्राप्य या अनुपलभ्य नहीं रहता। परन्तु इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए जिन साधनों को अपनाने की आवश्यकता होती है, वे सब प्रस्तुत अध्ययन के प्रतिपाद्य अर्थ में निर्दिष्ट हैं। जो साधक इन को आदर्श रख कर अपने जीवनपथ को निश्चित करेगा, वह महामहिम श्री सुबाहुकुमार की भांति एक न एक दिन अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त कर लेगा। यह निर्विवाद और निस्सन्देह है। ॥प्रथम अध्ययन समाप्त॥ 956 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह बिइअं अज्झयणं अथ द्वितीय अध्याय अनेकविध साधनसामग्री के उपयोग से सुखप्राप्ति की वाञ्छा करने वाले मानव प्राणियों से भरा हुआ यह संसार सागर के समान है, जिस का किनारा मुक्तनिवास है। संसारसागर को पार कर उस मुक्तनिवास तक पहुंचने के लिए जिस दृढ़ तरणी-नौका की आवश्यकता रहती है, वह नौका सुपात्रदान के नाम से संसार में विख्यात है। अर्थात् संसार- सागर को पार करने के लिए सुदृढ़ नौका के समान सुपात्रदान है और उस पर सवार होने वाला संस्कारी जीव-सुघड़ मानव है। तात्पर्य यह है कि भवसागर से पार होने के लिए मुमुक्षु जीव को सुपात्रदानरूप नौका का आश्रयण करना परम आवश्यक है। बिना इस के आश्रयण किए मुक्तनिवास तक पहुँचना संभव नहीं है। . मानव जीवन का आध्यात्मिक विकास सुपात्रदान पर अधिक निर्भर रहा करता है, पर उस में सद्भाव का प्रवाह पर्याप्त प्रवाहित होना चाहिए। बिना इस के इष्टसिद्धि असंभव है। हर एक कार्य या प्रवृत्ति में, फिर वह धार्मिक हो या सांसारिक, भावना का ही मूल्य है। कार्य 'की सफलता या निष्फलता का आधार एकमात्र उसी पर है। सद्भावनापूर्वक किया गया सुपात्रदान ही महान् फलप्रद होता है तथा जीवनविकास के क्रम में अधिकाधिक सहायता प्रदान करता है। प्रस्तुत सुखविपाकगत द्वितीय अध्याय में राजकुमार भद्रनन्दी के जीवनवृत्तान्त द्वारा सुपात्रदान की महिमा बता कर सूत्रकार ने सुपात्रदान के द्वारा आत्मकल्याण करने की पाठकों को पवित्र प्रेरणा की है। भद्रनन्दी का जीवनवृत्तान्त सूत्रकार के शब्दों में निम्नोक्त है___ मूल-बिइयस्स उक्खेवो। एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभपुरे णगरे।थूभकरंडगं उजाणं। धन्नो जक्खो ।धणावहो राया। सरस्सई देवी। सुमिणदंसणं। कहणा। जम्मं / बालत्तणं। कलाओ य। जोव्वणं। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [957 Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिग्गहणं। दाओ। पासाय भोगा य जहा सुबाहुस्स, नवरं भद्दनंदीकुमारे। सिरीदेवीपामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं। सामिस्स समोसरणं।सावगधम्म।पुव्वभवपुच्छा।महाविदेहे वासे पुण्डरीगिणी णगरी। विजयकुमारे। जुगबाहू तित्थगरे पडिलाभिए। मणुस्साउए बद्धे। इहं उववन्ने। सेसं जहा सुबाहुस्स जाव महाविदेहे सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ, परिणिव्वाहिइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेहिइ। निक्खेवो। ॥बिइयं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-द्वितीयस्योत्क्षेपः। एवं खलु जम्बूः! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वृषभपुरं नगरम् / स्तूपकरंडकमुद्यानम्। धन्यो यक्षः। धनावहो राजा। सरस्वती देवी। स्वप्नदर्शनम्। कथनम्। जन्म। बालत्वम्। कलाश्च / यौवनम्। पाणिग्रहणम्। दायः। प्रासाद भोगाश्च, यथा सुबाहोः। नवरम्, भद्रनन्दीकुमारः। श्रीदेवी-प्रमुखाणां पञ्चशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणम्। स्वामिनः समवसरणम्। श्रावकधर्मः। पूर्वभवपृच्छा। महाविदेहे, . पुण्डरीकिणी नगरी। विजयकुमारः। युगबाहुस्तीर्थंकरः प्रतिलाभितः। मनुष्यायुर्बद्धम्। इहोत्पन्नः। शेषं यथा सुबाहोः यावत् महाविदेहे सेत्स्यति, भोत्स्यते, परिनिर्वास्यति, सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति। निक्षेपः। ॥द्वितीयं अध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-बिइयस्स-द्वितीय अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जाननी चाहिए। एवं-इस प्रकार। खलु-निश्चय ही। जंबू !-हे जम्बू ! तेणं-उस। कालेणं-काल में। तेणं समएणं-उस समय में। उसभपुरे-ऋषभपुर नामक। णगरे-नगर था। थूभकरंडयं-स्तूंपकरंडक। उज्जाणं-उद्यान था। धन्ने-धन्य नामक / जक्खो-यक्ष था। धणावहो-धनावह। राया-राजा था। सरस्सई देवी-सरस्वती देवी थी। सुमिणदंसणं-स्वप्न का देखना। कहणं-कथन-पति से कहना / जम्मं-बालक का जन्म। बालत्तणंबाल्यावस्था। कलाओ य-कलाओं का सीखना / जोव्वणं-यौवन को प्राप्त करना। पाणिग्गहणं-पाणिग्रहणविवाह का होना। दाओ-प्रीतिदान-दहेज की प्राप्ति। पासाय०-महलों में। भोगा य-भोगों का सेवन करने लगा। जहा-जैसे। सुबाहुस्स-सुबाहुकुमार का वर्णन है। नवरं-विशेष यह है कि। भद्दनन्दी-भद्रनन्दी। कुमारे-कुमार था। सिरीदेवीपामोक्खाणं-श्रीदेवीप्रमुख। पंचसयाणं-पांच सौ। रायवरकन्नगाणं-श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ। पाणिग्गहणं-विवाह हुआ।सामिस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का। समोसरणंसमवसरण-पधारना हआ। सावगधम्म-श्रावकधर्म का ग्रहण करना। पव्वभवपच्छा-पर्वभव की पच्छा। महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्र में। पुण्डरीगिणी-पुण्डरीकिणी नाम की। णगरी-नगरी थी। विजए-विजय 958 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामक। कुमारे-कुमार था। जुगबाहू-युगबाहु। तित्थगरे-तीर्थंकर। पडिलाभिए-प्रतिलाभित किए। मणुस्साउए-मनुष्य आयु का। बद्धे-बन्ध किया। इहं-यहां। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। सेसं-शेष। जहा जैसे। सुबाहुस्स-सुबाहुकुमार का वर्णन है। जाव-यावत्। महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्र में। सिज्झिहिइ* सिद्ध होगा। बुझिहिइ-बुद्ध होगा। मुच्चिहिइ-कर्मबन्धनों से मुक्त होगा। परिनिव्वाहिइ-निर्वाण पद को प्राप्त होगा। सव्वदुक्खाणमन्तं-सर्व दुःखों का अन्त। करेहिइ-करेगा। निक्खेवो-निक्षेप की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। बिइअं-द्वितीय। अज्झयणं-अध्ययन / समत्तं-समाप्त हुआ। " मूलार्थ-द्वितीय अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। जम्बू ! उस काल तथा उस समय ऋषभपुर नामक नगर था, वहां पर स्तूपकरंडक नामक उद्यान था, वहां धन्य नाम के यक्ष का यक्षायतन था। वहां धनावह नाम का राजा राज्य किया करता था, उस की सरस्वती देवी नाम की रानी थी। महारानी का स्वप्न देखना और पति से कहना, समय आने पर बालक का जन्म होना, और बालक का बाल्यावस्था में कलाएं सीख कर यौवन को प्राप्त करना, तदनन्तर विवाह का होना, माता-पिता द्वारा दहेज का देना, तथा राजभवन में यथारुचि भोगों का उपभोग करना आदि सब कुछ सुबाहुकुमार की भाँति जानना चाहिए। इस में इतना अन्तर अवश्य है कि बालक का नाम भद्रनन्दी था। उसका श्रीदेवीप्रमुख 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ।.महावीर स्वामी का पधारना, भद्रनन्दी का श्रावकधर्म ग्रहण करना, गौतम स्वामी का पूर्वभवसम्बन्धी प्रश्न करना, तथा भगवान् का कथन करना महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत पुण्डरीकिणी नाम की नगरी में विजय नामक कुमार था, उस का युगबाहु तीर्थंकर को प्रतिलाभित करना, उस से मनुष्य आयु का बन्ध करना और यहां पर भद्रनन्दी के रूप में उत्पन्न होना। शेष वर्णन सुबाहुकुमार के सदृश ही जान लेना चाहिए। यावत् महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर चारित्र पाल कर सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा, निर्वाण पद को प्राप्त होगा और सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त करेगा। निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। ॥द्वितीय अध्ययन सम्पूर्ण॥ टीका-राजगृह नगरी के गुणशिलक नामक उद्यान में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य परिवार के साथ पधारे हुए हैं। उन के प्रधान शिष्य का नाम जम्बू अनगार था। जम्बू मुनि जी घोर तपस्वी, परममेधावी, परम संयमी, विनीत, साधुओं में विशिष्ट प्रतिभा के धनी और परमविवेकी मुनिराज थे। आप प्रायः आर्य सुधर्मा स्वामी के चरणों में अधिक निवास किया करते थे। आप का अधिक समय शास्त्रस्वाध्याय में ही व्यतीत हुआ करता था। अभी आप सुखविपाक के सुबाहु नामक प्रथम अध्ययन का मनन करके उठे हैं। अब आप का मन द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [959 Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखविपाक के द्वितीय अध्ययन के अर्थ को सुनने के लिए उत्कंठित हो रहा है। आगे बढ़ने वाले को आगे ही बढ़ना पसन्द होता है। उसे उदासीन होना नहीं आता। उस की प्रकृति ही उसे प्रगति के लिए उत्साहित करती रहती है। श्री जम्बू मुनि भी इसी तरह प्रयत्नशील हुए और आर्य सुधर्मा स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर बोले-भदन्त ! आप श्री के अनुग्रह से मैंने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का अर्थ सुन लिया है और उस का यथाशक्ति चिन्तन तथा मनन भी कर लिया है। अब आप उसके दूसरे अध्ययन के अर्थ का श्रवण कराने की भी कृपा करें, मुझे उस का अर्थ सुनने की भी बहुत उत्सुकता हो रही है। इसी भाव को सूत्रकार ने-बिइयस्स उक्खेवो-इस संक्षिप्त वाक्य में गर्भित कर दिया है। -उक्खेव-उत्क्षेप प्रस्तावना का नाम है। प्रस्तुत सुखविपाकगत द्वितीय अध्ययन का प्रस्तावनारूप सूत्रांश निम्नोक्त है -जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, बिइयस्स णं भंते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समजेणं भगवया महावीरेणंजाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते?-अर्थात्-यदि भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ वर्णन किया है तो भदन्त ! यावत् मेक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? जम्बू स्वामी की उक्त प्रार्थना पर दूसरे अध्ययन के अर्थ का प्रतिपादन.करते हुए आर्य सुधर्मा स्वामी बोले कि हे जम्बू ! ऋषभपुर नाम का एक समृद्धिशाली नगर था। उस के ईशानकोण में स्तूपकरंडक नाम का एक रमणीय उद्यान था, उस में धन्य नाम के यक्ष का एक विशाल मन्दिर था। उस नगर के शासक-नृपति का नाम धनावह था। उस की सरस्वती देवी नाम की रानी थी। किसी समय शयनभवन में सुखशय्या पर सोई हुई महारानी सरस्वती ने स्वप्न में एक सिंह को देखा जो कि आकाश से उतर कर उस के मुख में प्रवेश कर गया। वह तुरन्त जागी और उसने अपने पति के पास आ कर अपने स्वप्न को कह सुनाया। स्वप्न को सुन कर महाराज धनावह ने कहा कि इस स्वप्न के फलस्वरूप तुम्हारे एक सुयोग्य पुत्र होगा। महारानी ने महाराज के मंगलवचन को बड़े सम्मान से सुना और नमस्कार कर के वह अपने शय्यास्थान पर जा कर अवशिष्ट रात्रि को कोई अनिष्टोत्पादक स्वप्न न आ जाए इस विचार से धर्मजागरण में ही व्यतीत करने लगी। समय आने पर महारानी ने एक रूप गुण सम्पन्न बालक को जन्म दिया। माता-पिता. ने उस का नाम भद्रनन्दी रखा। योग्य लालन-पालन से शुक्लपक्षीय शशिकला की भाँति वृद्धि 960 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्राप्त करता हुआ वह शिशुभाव को त्याग युवावस्था को प्राप्त हुआ। इस के मध्य में उस ने सुयोग्य विद्वानों की देख-रेख के कारण उचित शिक्षा में निपुणता प्राप्त कर ली। यौवनप्राप्त श्री भद्रनन्दी के माता-पिता ने उस का एक साथ श्रीदेवी प्रमुख 500 राजकन्याओं के साथ विवाह कर दिया और सब को पृथक्-पृथक् दहेज दिया। तदनन्तर उन राजकन्याओं के साथ उन्नत प्रासादों में रह कर सांसारिक कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करता हुआ भद्रनन्दी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। किसी समय ऋषभपुर नगर में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी पधारे और शिष्य परिवार के साथ स्तूपकरंडक उद्यान में विराजमान हो गए। नगर की भावुक जनता उन के दर्शन और धर्मोपदेश श्रवण करने के लिए उद्यान में आई। भगवान् ने सब की उपस्थिति में धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुन कर जनता अपने-अपने स्थानों को वापिस लौट गई। सब के चले जाने के बाद वहां धर्मश्रवणार्थ आए हुए भद्रनन्दी ने भगवान् के सम्मुख उपस्थित हो कर सुबाहुकुमार की भाँति साधुवृत्ति के ग्रहण में असमर्थता प्रकट करते हुए उन से पञ्चाणुव्रतिक गृहस्थधर्म का ग्रहण किया। जब गृहस्थधर्म का नियम ग्रहण करके भद्रनन्दी अपने स्थान को चला गया, तब गौतम स्वामी ने सुबाहुकुमार की तरह भद्रनन्दी के रूप, लावण्य और गुणसम्पत्ति की प्रशंसा करते हुए उस के पूर्वभव के सम्बन्ध में भगवान् से पूछा कि भदन्त ! यह भद्रनन्दी पूर्वभव में कौन था तथा किस पुण्य के आचरण से इसने इस प्रकार की मानवीय गुणसमृद्धि प्राप्त की है ? इत्यादि। गौतम स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो फरमाया, वह निम्नोक्त है गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में पुण्डरीकिणी नाम की एक सुप्रसिद्ध नगरी थी। वहां के शासक के पुत्र का नाम विजयकुमार था। विजयकुमार प्रतिभाशाली और त्यागशील साधु महात्माओं का बड़ा अनुरागी था। एक बार उस नगरी में युगबाहु नाम के तीर्थंकर महाराज पधारे। विजयकुमार ने बड़ी विशुद्ध भावना से उन्हें आहार दिया। आहार का दान करने से उस ने उसी समय मनुष्य की आयु का बन्ध किया। तथा वहां की भवस्थिति पूरी करने के बाद उस सुपात्रदान के प्रभाव से वह यहां आकर भद्रनन्दी के रूप में अवतरित हुआ। तब भद्रनन्दी को इस समय जो मानवीय ऋद्धि सम्प्राप्त हुई है, वह विशुद्ध भावों से किए गए उसी आहारदानरूप पुण्याचरण का विशिष्ट फल है। तदनन्तर गौतम स्वामी के-भदन्त ! क्या यह भद्रनन्दी मुनिधर्म में भी प्रवेश करेगा अर्थात् मुनिधर्म की दीक्षा लेगा कि नहीं -इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् बोले-हां गौतम ! लेगा। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहां से अन्यत्र विहार कर गए। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [961 Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन श्रमणोपासक भद्रनन्दी पौषधशाला में जा कर पौषधोपवास करता है। वहां तेले की तपस्या से आत्मचिन्तन करते हुए भद्रनन्दी को सुबाहुकुमार की तरह विचार उत्पन्न हुआ कि धन्य हैं वे नगर और ग्रामादिक, जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी भ्रमण करते हैं, धन्य हैं वे राजा, महाराजा और सेठ साहुकार जो उन के चरणों में दीक्षित होते हैं और वे भी धन्य हैं जिन्होंने भगवान् महावीर से पञ्चाणुव्रतिक गृहस्थधर्म को स्वीकार किया है। तब यदि अब की बार भगवान् यहां पधारेंगे तो मैं भी उन के पास मुनिदीक्षा को धारण करूंगा-इत्यादि। तदनन्तर अपने उक्त विचार को निश्चित रूप देने की भावना के साथ-साथ गृहीतव्रत की अवधि समाप्त होने पर भद्रनन्दी ने व्रत का पारणा किया और वह भगवान् के आगमन की प्रतीक्षा में समय बिताने लगा। कुछ समय के बाद भगवान् महावीर स्वामी जब वहां पधारे तो भद्रनन्दी ने उन के चरणों में मुनिवृत्ति को धारण करके अर्थात् मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण करके अपने शुभ विचार को सफल किया, तथा गृहीत संयमव्रत के सम्यग् आराधन से आत्मशुद्धि द्वारा विकास को भी सम्प्राप्त किया। इस के अतिरिक्त निर्वाण पद प्राप्ति तक भद्रनन्दी का सम्पूर्ण इतिवृत्त सुबाहुकुमार की भाँति ही जान लेना चाहिए। प्रथम अध्याय में सुबाहुकुमार के जीवन का जो विकासक्रम वर्णित हुआ है, वहीं सब भद्रनन्दी का है। जहां कहीं कुछ विभिन्नता थी, उस का उल्लेख मूल में सूत्रकार द्वारा स्वयं ही कर दिया गया है। शेष जीवन, जन्म से लेकर मोक्षपर्यन्त सब सुबाहुकुमार के जीवन के समान ही होने से सूत्रकार ने उसका उल्लेख नहीं किया। इसीलिए विवेचन में भी उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा गया। कारण कि सुबाहुकुमार के जीवन-वृत्तान्त में प्रत्येक बात पर यथाशक्ति पूरा-पूरा प्रकाश डालने का यत्न किया गया है। सूत्रकार ने पुण्यश्लोक परमपूज्य श्री सुबाहुकुमार के जीवनवृत्तान्त से स्वनामधन्य श्री भद्रनन्दी के जीवनवृत्तान्त से अधिकाधिक समानता के दिखाने के लिए ही मात्र-उसभपुरे णगरे थूभकरंडगं-इत्यादि पद, तथा-पासाय० सावगधम्म०-यहां बिन्दु-सुबाहुस्स जाव महाविदेहे-यहां जाव-यावत् पद दे कर वर्णित विस्तृत पाठ की ओर संकेत कर दिया है। अतः सम्पूर्ण पाठ के जिज्ञासु पाठकों को सुबाहुकुमार के अध्ययन का अध्ययन अपेक्षित है। नामगत भेद के अतिरिक्त अर्थगत कोई अन्तर नहीं है। ___ -निक्खेवो-का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पीछे किया जा चुका है। प्रस्तुत में उस से संसूचित सूत्रांश निम्नोक्त है ___-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं सुहविवागाणं बिइयस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते।त्ति बेमि-अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसंप्राप्त 962 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के द्वितीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कथन किया है। मैंने जैसा भगवान् से सुना था, वैसा तुम्हें सुना दिया है। इस में मेरी अपनी कोई .कल्पना नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन में भी प्रथम अध्ययन की तरह सुपात्रदान का महत्त्व वर्णित हुआ है। सुपात्रदान से मानव प्राणी की जीवन नौका संसारसागर से अवश्य पार हो जाती है। यह बात इस अध्ययन की अर्थविचारणा से स्पष्टतया प्रमाणित हो जाती है। इसलिए मुमुक्षु जीवों के लिए उस का अनुसरण कितना आवश्यक है, यह बताने की विशेष आवश्यकता नहीं रहती। ॥द्वितीय अध्याय सम्पूर्ण॥ द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [963 Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह तइयं अज्झयणं अथ तृतीय अध्याय दान पद का निर्माण दो व्यञ्जनों और दो स्वरों के समुदाय से हुआ है। यह छोटा सा पद बड़े विशद और गम्भीर अर्थ से गर्भित एवं ओतप्रोत है। इस अर्थ को जीवन में लाने वाला व्यक्ति दानी कहलाता है। कोई-कोई व्यक्ति अपनी सेवा या प्रशंसा के उद्देश्य से भी दान देते हैं, परन्तु इस भावना से किया गया दान, दान के महत्त्व से शून्य होता है। वास्तविक दान में तो किसी भी ऐहिक स्वार्थ को स्थान नहीं होता। उस में तो नितान्त शुद्धि की आवश्यकता रहती है। दान देने वाला, दान लेने वाला और देय वस्तु, ये तीनों जहां शुद्ध हों, निर्दोष हों, किसी भी प्रकार के स्वार्थ से रहित हों, वहीं पर किया गया दान सफल होता है। प्रस्तुत तीसरे अध्ययन में भी ऐसी ही दानप्रणाली का वर्णन करने के लिए श्रद्धाशील, दानी व्यक्ति श्री सुजातकुमार का जीवन संगृहीत हुआ है, जिस का विवेचन निम्नोक्त है- . . मूल-तच्चस्स उक्खेवो।वीरपुर नगरं।मणोरमं उज्जाणं।वीरकण्हमित्ते राया। सिरी देवी। सुजाए कुमारे। बलसिरीपामोक्खाणं पञ्चसयकन्नगाणं पाणिग्गहणं। सामी समोसरिए। पुव्वभवपुच्छा। उसुयारे णगरे। उसभदत्ते गाहावइ। पुष्फदत्ते अणगारे पडिलाभिए। माणुस्साउए निबद्धे। इहं उप्पन्ने जाव महाविदेहे सिज्झिहिइ ५।निक्खेवो। तइयं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-तृतीयस्योत्क्षेपः। वीरपुरं नगरम्। मनोरममुद्यानम्। वीरकृष्णमित्रो राजा। श्रीदेवी। सुजातः कुमारः। बलश्रीप्रमुखाणां पञ्चशतकन्यकानां पाणिग्रहणम्। स्वामी समवसृतः। पूर्वभवपृच्छा / इक्षुकारं नगरम्। ऋषभदत्तो गाथापतिः। पुष्पदत्तोऽनगारः प्रतिलाभितः / मनुष्यायुर्निबद्धम् / इहोत्पन्नो यावत् महाविदेहे सेत्स्यति 5 / निक्षेपः। 964 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [द्वितीय श्रृंतस्कंध Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . // तृतीयमध्ययनं समाप्तम्॥ - पदार्थ-तच्चस्स-तृतीय अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भांति जान लेना चाहिए। वीरपुरं-वीरपुर। णगरं-नगर था। मणोरमं-मनोरम। उज्जाणं-उद्यान था। वीरकण्हमित्तेवीरकृष्णमित्र। राया-राजा था। सिरीदेवी-श्रीदेवी थी। सुजाए-सुजात। कुमारे-कुमार था। बलसिरीपामोक्खाणं-बलश्रीप्रमुख।पंचसयकन्नगाणं-पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ / पाणिग्गहणंपाणिग्रहण-विवाह हुआ। सामी-महावीर स्वामी। समोसरिए-पधारे। पुव्वभवपुच्छा-पूर्वभव की पृच्छा की गई। उसुयारे-इक्षुसार नामकाणगरे-नगर था। उसभदत्ते-ऋषभदत्त / गाहावई-गाथापति-गृहस्थ था। पुष्पंदत्ते-पुष्पदत्त / अणगारे-अनगार। पडिलाभिए-प्रतिलाभित किए। माणुस्साउए निबद्धे-मनुष्यायु का बन्ध किया। इह-यहां / उप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। जाव-यावत् / महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्र में। सिज्झिहिइ ५-सिद्ध होगा, 5 / निक्खेवो-निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। तइयंतृतीय। अज्झयणं-अध्ययन / समत्तं-समाप्त हुआ। मूलार्थ-तृतीय अध्ययन का उत्क्षेप पूर्व की भांति जान लेना चाहिए। जम्बू ! वीरपुर नामक नगर था। वहां मनोरम नाम का उद्यान था। महाराज वीरकृष्णमित्र राज्य किया करते थे। उन की रानी का नाम श्रीदेवी था।सुजात नाम का कुमार था। बलश्रीप्रधान पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ उस-सुजात कुमार का पाणिग्रहण हुआ। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। सुजात कुमार का गृहस्थधर्म स्वीकार करना, भगवान् गौतम द्वारा उस का पूर्वभव पूछना। भगवान् का प्रतिपादन करना कि इक्षुसार नगर था। वहां ऋषभदत्त गाथापति निवास किया करता था। उसने पुष्पदत्त अनगार को प्रतिलाभित किया-आहारदान दिया।मनुष्य की आयु को बान्धा।आयु पूर्ण होने पर यहां सुजातकुमार के रूप में वीरपुर नामक नगर में उत्पन्न हुआ। यावत् महाविदेह क्षेत्र में चारित्र ग्रहण कर सिद्धपद प्राप्त करेगा-सिद्ध होगा।निक्षेप की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। . ॥तृतीय अध्ययन समाप्त॥ टीका-प्रस्तावना तथा उपसंहार ये दोनों पदार्थ वर्णनशैली के मुख्य अंग हैं। इस सम्बन्ध में पहले भी कहा जा चुका है। प्रस्तुत में सूत्रकार के शब्दों में प्रस्तावना जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणंजाव सम्पत्तेणंसुहविवागाणं बितियस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। तइयस्स णं भंते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं के अटे पण्णत्ते?-इस प्रकार है। अर्थात् भदन्त ! यदि यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के दूसरे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ वर्णन किया है तो भदन्त ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [965 Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार तीसरे अध्ययन का वर्णन करने के अनन्तर सूत्रकार ने एवं खलु जम्बू! ' समणेणं भगवया महावीरेणंजाव संपत्तेणं सुहविवागाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते।त्ति बेमि। अर्थात् हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के तीसरे अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है, इस प्रकार मैं कहता हूं-यह कह कर निक्षेप या उपसंहार संसूचित कर दिया है। सूत्रकार ने एक स्थान पर इन दोनों का निरूपण करके अन्यत्र इन के (उपक्रम और उपसंहार के) सूचक क्रमशः उक्खेवो-उत्क्षेपः, और निक्लेवो-निक्षेपः ये दो पद दे दिए हैं, जिन में उक्त अर्थ का ही समाहार-संक्षेप है। तीसरे अध्ययन का पदार्थ भी प्रथम अध्ययन के समान ही है। केवल नाम और स्थानादि का भेद है। प्रथम अध्ययन का मुख्य नायक सुबाहुकुमार है जब कि तीसरे का सुजातकुमार। इस के अतिरिक्त पूर्वभव में ये दोनों सुमुख और ऋषभदत्त गाथापति के नाम से विख्यात थे। अर्थात् सुबाहुकुमार सुमुख गाथापति के नाम से प्रसिद्ध था और सुजात ऋषभदत्त के नाम से प्रख्यात था। इसी तरह सुबाहुकुमार को तारने वाले सुदत्तमुनि और सुजात के उद्धारक पुष्पदत्त हुए। इस के सिवा माता-पिता के नाम को छोड़ कर बाकी सारा जीवनवृत्तान्त दोनों का जन्म से लेकर मोक्षपर्यन्त एक ही जैसा है। अर्थात्-गर्भ में आने पर माता का स्वप्न में मुख में प्रवेश करते हुए सिंह को देखना, जन्म के बाद बालक का शिक्षण प्राप्त करना, युवा होने पर राजकन्याओं से विवाह करना। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने पर उन से पञ्चाणुव्रतिक गृहस्थधर्म की दीक्षा लेना। उन के विहार करने के अनन्तर पौषधशाला में धर्माराधन करते हुए मन में शुभ विचारों का उद्गम होना और फलस्वरूप भगवान् के दोबारा पधारने पर मुनिधर्म की दीक्षा लेना और संयम का यथाविधि पालन करने के अनन्तर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होना तथा वहां से च्यव कर फिर मनुष्य भव को प्राप्त करना और इसी प्रकार आवागमन करते हुए अन्त में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो कर संयम व्रत के सम्यग् अनुष्ठान से कर्मबन्धनों को तोड़ कर सिद्धपद-मोक्षपद को प्राप्त करना, आदि में अक्षरशः समानता है। __-उप्पन्ने जाव सिज्झिहिइ ५-यहां पठित जाव-यावत् पद गौतम स्वामी का वीर प्रभु से-सुजातकुमार आपश्री के चरणों में दीक्षित होगा कि नहीं -ऐसा प्रश्न पूछना तथा भगवान् महावीर स्वामी का उत्तर देना और अन्त में प्रभु का विहार कर जाना। सुजात कुमार का तेला पौषध करना, उस में साधु होने का विचार करना, भगवान् का वीरपुर नामक नगर. में आना, सुजातकुमार का दीक्षित होना, संयमाराधन से उस का मृत्यु के अनन्तर देवलोक में 966 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न होना, वहां से सुबाहुकुमार की भाँति अनेकानेक भव करते हुए वह अन्त में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, आदि भावों का परिचायक है। तथा 5 के अंक से अभिमत पद श्री सुबाहुकुमार नामक सुखविपाक के प्रथम अध्ययन में लिखे जा चुके हैं। पाठक वहीं देख सकते हैं। नामगत भेद के अतिरिक्त अर्थगत कोई अन्तर नहीं है। // तृतीय अध्ययन सम्पूर्ण॥ * द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [967 Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह चउत्थं अज्झयणं अथ चतुर्थ अध्याय प्रत्येक अनुष्ठान में विधि का निर्देश होता है। विधिपूर्वक किया गया क्रियानुष्ठान ही हितप्रद, लाभप्रद और फलदायक हो सकता है। विधिहीन अनुष्ठान से फलाप्राप्ति के अतिरिक्त. . विपरीत फल की संभावना भी रहती है और वह सुखप्राप्ति के स्थान में संकट का उत्पादक भी बन जाता है। दान भी एक प्रकार का पवित्र अनुष्ठान है। उस का भी विधिपूर्वक ही आचरण करना चाहिए। विधि का स्वरूप नीचे की पंक्तियों में है। ___दान देते समय भावना उच्च और निर्मल हो तथा साथ में प्रेम का संचार हो। तभी दानविधि सम्पन्न होती है। किसी को अनादर या अपमान से दिया हुआ दान दाता को उस के अच्छे फल से वंचित कर देता है, प्रस्तुत अध्ययन में इसी प्रकार के विधिपूर्ण दान और उस से निष्पन्न होने वाले मधुर फल की चर्चा की गई है, जिस को सुवासव कुमार के जीवनवृत्तान्त द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। सुवासव कुमार का परिचय निम्नोक्त है मूल-चउत्थस्स उक्खेवो।विजयपुरंणगरं। नन्दणवणं उज्जाणं।असोगो जक्खो। वासवदत्ते राया। कण्हा देवी। सुवासवे कुमारे। भद्दापामोक्खाणं पंचसयाणं जाव पुव्वभवे।कोसम्बीणगरी।धणपाले राया।वेसमणभद्दे अणगारे पडिलाभिए। इहं उप्पन्ने जाव सिद्धे।निक्खेवो। ॥चउत्थं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-चतुर्थस्योत्क्षेपः। विजयपुरं नगरम्। नन्दनवनमुद्यानम्। अशोको यक्षः। वासवदत्तो राजा। कृष्णादेवी। सुवासवः कुमारः। भद्राप्रमुखाणां पंचशतानां यावत् पूर्वभवः। कौशाम्बी नगरी। धनपालो राजा वैश्रमणभद्रोऽनगारः प्रतिलाभितः। इहोत्पन्नो. यावत् सिद्धः। निक्षेपः। 968 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // चतुर्थमध्ययनं समाप्तम्॥ - पदार्थ-चउत्थस्स-चतुर्थ अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भांति जान लेना चाहिए। विजयपुरं-विजयपुर।णगरं-नगर था। नंदणवणं-नन्दनवन नामक। उजाणं-उद्यान था।असोगोअशोक नामक। जक्खो-यक्ष था। वासवदत्ते-वासवदत्त। राया-राजा था। कण्हा-कृष्णा। देवी-देवी थी। सुवासवे-सुवासव नामक। कुमारे-कुमार था। भद्दापामोक्खाणं-भद्राप्रमुख। पंचसयाणं-पांच सौ यावत् अर्थात् श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ। पुव्वभवे-पूर्वभवसम्बन्धी पृच्छा की गई। कोसंबीकौशांबी। णगरी-नगरी थी। धणपाल-धनपाल। राया-राजा था। वेसमणभद्दे-वैश्रमणभद्र / अणगारेअनगार को। पडिलाभिए-प्रतिलाभित किया। इहं-यहां। उप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। जाव-यावत्। सिद्धेसिद्ध हुआ। निक्खेवो-निक्षेप-उपसंहार पूर्व की भांति जान लेना चाहिए। चउत्थं-चतुर्थ। अज्झयणंअध्ययन / समत्तं-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-चतुर्थ अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भाँति जान लेना चाहिए। जम्बू! विजयपुर नाम का एक नगर था।वहां नन्दनवन नाम का उद्यान था।वहां अशोक नामक यक्ष का यक्षायतन था। वहां के राजा का नाम वासवदत्त था। उस की कृष्णादेवी नाम की रानी थी और सुवासव नामक राजकुमार था। उस का भद्राप्रमुख 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ।तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी पधारे।तब सुवासव कुमार ने उन के पास श्रावकधर्म को स्वीकार किया। गौतम स्वामी ने उस के पूर्वभव का वृत्तान्त पूछा। प्रभु ने कहा.. गौतम! कौशाम्बी नगरी थी, वहां धनपाल नाम का राजा था, उस ने वैश्रमणभद्र नामक अनगार को आहार दिया और मनुष्य आयु का बन्ध किया। तदनन्तर वह यहां पर सुवासवकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ यावत् मुनिवृत्ति को धारण कर के सिद्धगति को प्राप्त हुआ। निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। ॥चतुर्थ अध्ययन समाप्त॥ टीका-जम्बू स्वामी की-भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है उसे भी सुनाने की कृपा करें, इस अभ्यर्थना के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी बोले-जम्बू ! विजयपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था। उस के बाहर ईशान कोण में नन्दनवन नाम का उद्यान था। उस में अशोक यक्ष का एक विशाल यक्षायतन था। वहां के नरेश का नाम वासवदत्त था। उस की कृष्णा देवी नाम की रानी थी। उन के राजकुमार का नाम सुवासव था। वह बड़ा ही सुशील तथा सुन्दर था। एक बार विजयपुर के उक्त उद्यान में तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी पधारे। तब सुवासव ने उन से गृहस्थधर्म की पञ्चाणुव्रतिक दीक्षा ग्रहण की। सुवासव के सद्गुणसम्पन्न मानवीय वैभव को देख कर गणधर द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [969 Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव गौतम स्वामी ने भगवान् से उस के पूर्वभव को जानने की इच्छा प्रकट की। इस के उत्तर में भगवान् ने कहा-गौतम ! कौशाम्बी नाम की एक विशाल नगरी थी। वहां धनपाल नाम का एक धार्मिक राजा था। उस का संयमशील साधुजनों पर बड़ा अनुराग था। एक दिन उस के यहां वैश्रमण नाम के तपस्वी मुनि भिक्षा के निमित्त पधारे। धनपाल नरेश ने उन को विधिपूर्वक वन्दन किया और अपने हाथ से नितान्त श्रद्धापूरित हृदय से निर्दोष प्रासुक आहार का दान दिया। उस के प्रभाव से उस ने मनुष्य आयु का बन्ध कर के उस भव की आयु को पूर्ण कर यहां आकर सुवासव के रूप में जन्म लिया। इस के आगे का प्रभु वीर द्वारा वर्णित उस का सारा जीवनवृत्तान्त अर्थात् जन्म से ले कर मोक्षपर्यन्त का सारा इतिवृत्त सुबाहुकुमार की भाँति जान लेना चाहिए। इस में इतनी विशेषता है कि वह उसी जन्म में मोक्ष को प्राप्त हुआ, इत्यादि वर्णन करने के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन ' किया है। प्रस्तुत अध्ययन में चरित्रनायक के नाम, जन्मभूमि, उद्यान, माता-पिता, परिणीता स्त्रियां तथा पूर्वभवसम्बन्धी नाम और जन्मभूमि तथा प्रतिलाभित मुनिराज आदि का विभिन्नतासूचक निर्देश कर दिया गया है और अवशिष्ट वृत्तान्त को प्रथम अध्ययन के समान समझ लेने की सूचना कर दी है। -नंदणं वणं-इस पाठ के स्थान में कहीं-मणोरमं-ऐसा पाठ भी है। तथा उत्क्षेप और निक्षेप शब्दों का अर्थ सम्बन्धी ऊहापोह पीछे कर चुके हैं। प्रस्तुत में उत्क्षेप से-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं सुहविवागाणं तइयस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते , चउत्थस्स णं भंते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं के अटे पण्णत्ते ?-अर्थात् यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यदि भदन्त ! सुखविपाक के तृतीय अध्ययन का यह अर्थ फरमाया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ? इन भावों का, तथा निक्षेप पद-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं सुहविवागाणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते। त्ति बेमि-अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है-इन भावों का परिचायक है। ___-पाणिग्गहणं जाव पुव्वभवे-यहां पठित जाव-यावत् पद-सुवासवकुमार का. अपने महलों में भद्राप्रमुख 500 राजकुमारियों के साथ आनंदोपभोग करना, भगवान् महावीर 970 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी का विजयपुर नगर में पधारना। राजा, सुवासवकुमार तथा नागरिकों का धर्मोपदेश सुनने के लिए प्रभु के चरणों में उपस्थित होना, धर्मकथा श्रवण करने के अनन्तर राजा तथा जनता के चले जाने पर सुवासवकुमार का साधुधर्म को ग्रहण करने में अपनी असमर्थता बताते हुए श्रावकधर्म को ग्रहण करना और वन्दना तथा नमस्कार करने के अनन्तर वापिस अपने नगर को चले जाना, आदि भावों का तथा सुवासवकुमार के पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त को पूछना, भगवान् का उसे सुनाना, अन्त में विजयपुर में अवतरित होना, इन भावों का परिचायक है। __ -उप्पन्ने जाव सिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद सुवासवकुमार के सम्बन्ध में भगवान् से गौतम का "यह साधु बनेगा या नहीं" ऐसा प्रश्न पूछना, भगवान् का-"हां, बनेगा" ऐसा उत्तर देना। तदनन्तर भगवान् का विहार कर जाना, इधर सुवासवकुमार का तेलापौषध में साधु होने का निश्चय करना, अन्त में भगवान महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित होना तथा संयमाराधन द्वारा अधिकाधिक आत्मविकास करके केवलज्ञान प्राप्त करना, आदि भावों का परिचायक है। सुबाहुकुमार और सुवासवकुमार के जीवन-वृत्तान्त में इतना अन्तर है कि सुबाहुकुमार पहले देवलोक से मनुष्य भव करके इसी भाँति अन्य अनेकों भव करके अन्तं में महाविदेह क्षेत्र में दीक्षित हो सिद्ध बनेगा, जब कि श्री सुवासव कुमार ने इसी जन्म में सिद्ध पद को उपलब्ध कर लिया। . प्रस्तुत अध्ययन भी सुपात्रदान के महत्त्व का बोधक है। इस से भी उस की महिमा प्रदर्शित होती है। लोक में जैसे-नदियों में गंगा, पशुओं में गाय और पक्षियों में गरुड़ तथा वन्य जीवों में सिंह आदि महान् और प्रधान माना जाता है, उसी प्रकार सभी प्रकार के दानों में सुपात्रदान सर्वोत्तम, महान् तथा प्रधान होता है। तब भावपुरस्सर किया गया सुपात्रदान कितना उत्तम फल देता है, यह इस अध्ययन से स्पष्ट ही है। // चतुर्थ अध्ययन सम्पूर्ण॥ द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [971 Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह पंचमं अज्झयणं अथ पञ्चम अध्याय भारतीय धार्मिक वाङ्मय में दानधर्म का बड़ा महत्त्व पाया जाता है। दान एक सीढ़ी है जो मानव प्राणी को ऊर्ध्वलोक तक पहुँचा देता है। जिस तरह मकान के ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी की आवश्यकता होती है, ठीक उसी तरह मुक्तिरूप विशाल भवन पर आरोहण करने के लिए भी सीढ़ी की आवश्यकता है। वह सीढ़ी शास्त्रीय परिभाषा में दान के नाम से विख्यात है। दान के आश्रयण से मनुष्य ऊर्ध्वगति प्राप्त कर सकता है, परन्तु जिस प्रकार सीढ़ी के द्वारा ऊपर चढ़ने वाले को भी सावधान रहना पड़ता है, ठीक उसी भाँति मोक्ष के सोपानरूप इस दान के विषय में भी बड़ी सावधानी की ज़रूरत है। वह सावधानी दो.प्रकार की होती है। एक पात्रापात्र सम्बन्धी तथा दूसरी आवश्यकता और अनावश्यकता सम्बन्धी। पात्र की विचारणा में दाता को पहले यह देखना होता है कि जिस को मैं वस्तु दे रहा हूं, वह उस का अधिकारी भी है या कि नहीं। दूसरे शब्दों में-मेरी दी हुई वस्तु का यहां सदुपयोग होगा या दुरुपयोग। पात्र में डाली हुई वस्तु जैसे अच्छा फल देने वाली होती है वैसे कुपात्र में डालने से उस का विपरीत फल भी होता है। इसी प्रकार ग्रहण करने वाले को उस की आवश्यकता भी है या नहीं इस का विचार करना भी ज़रूरी है। जैसे समुद्र में वर्षण और तृप्त को भोजन ये दोनों अनावश्यक होने से निष्फल होते हैं, उसी तरह बिना आवश्यकता के दिया गया पदार्थ भी फलप्रद नहीं होता। सारांश यह है कि जहां दाता और प्रतिग्राही-ग्रहण करने वाला दोनों ही शुद्ध हों वहां पर ही देय वस्तु से समुचित लाभ हो सकता है, अन्यथा नहीं। प्रस्तुत अध्ययन में दान के महत्त्वप्रदर्शनार्थ जिस जिनदास नामक भावुक व्यक्ति का जीवन अंकित हुआ है, उस में दाता, प्रतिग्रहीता और देय वस्तु तीनों ही निर्दोष हैं, अतएव वहां फल भी समुचित ही हुआ। प्रस्तुत अध्ययन के पदार्थ का उपक्रम निम्नोक्त है मूल-पञ्चमस्स उक्खेवो। सोगन्धिया णगरी। णीलासोगे उज्जाणे। 972 ] श्री विपाक सूत्रम् / पञ्चम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकालो जखो। अपडिहओ राया। सुकण्हा देवी। महचंदे कुमारे। तस्स अरहदत्ता भारिया। जिणदासो पुत्तो। तित्थगरागमणं। जिणदासपुव्वभवो। मज्झमिया णगरी। मेहरहे राया। सुधम्मे अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे। निक्खेवो। ॥पंचमं अज्झयणं समत्तं॥ ____ छाया-पञ्चमस्योत्क्षेपः। सौगन्धिका नगरी। नीलाशोकमुद्यानम्। सुकालो यक्षः। अप्रतिहतो राजा। सुकृष्णा देवी। महाचन्द्रः कुमारः। तस्य अर्हदत्ता भार्या / जिनदासः पुत्रः। तीर्थंकरागमनम्। जिनदासपूर्वभवः। माध्यमिका नगरी। मेघरथो राजा। सुधर्मा अनगारः प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः। निक्षेपः। . ॥पंचममध्ययनं समाप्तम् // पदार्थ-पंचमस्स-पंचम अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भाँति जानना चाहिए। सोगन्धिया-सौगन्धिका नामक। णगरी-नगरी थी। णीलासोगे-नीलाशोक नामक। उज्जाणेउद्यान था। सुकाले-सुकाल नामक / जक्खे-यक्ष-यक्ष का स्थान था। अपडिहओ-अप्रतिहत। राया-राजा था। सुकण्हा-सुकृष्णा। देवी-देवी थी। महचंदे-महाचन्द्र। कुमारे-कुमार था। तस्स-उस की महाचन्द्र की। अरहदत्ता-अर्हदत्ता। भारिया-भार्या थी। जिणदासो-जिनदास। पुत्तो-पुत्र था। तित्थगरागमणंतीर्थंकर भगवान् का आगमन हुआ। जिणदासपुव्वभवो-जिनदास का पूर्वभव पूछना। मज्झिमियामाध्यमिका। णगरी-नगरी थी। मेहरहे-मेघरथ। राया-राजा था। सुधम्मे-सुधर्मा। अणगारे-अनगार। पडिलाभिए-प्रतिलाभित किए गए। जाव-यावत्। सिद्धे-सिद्ध हुआ। निक्खेवो-निक्षेप अर्थात् उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। पंचम-पांचवां / अज्झयणं-अध्ययन / समत्तं-सम्पूर्ण हुआ। . मूलार्थ-पञ्चम अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिए। जम्बू ! सौगन्धिका नाम की नगरी थी।वहां नीलाशोक नाम का एक उद्यान था, उस में सुकाल नामक यक्ष का यक्षायतन था। नगरी में महाराज अप्रतिहत राज्य किया करते थे, उन की रानी का नाम सुकृष्णा देवी था और पुत्र का नाम महाचन्द्र कुमार था। उस की अर्हदत्ता भार्या थी, इन का जिनदास नाम का एक पुत्र था। उस समय तीर्थंकर भगवान का आगमन हुआ-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। जिनदास का भगवान से पंचाणुव्रतिक गृहस्थधर्म स्वीकार करना, गणधर देव श्री गौतम स्वामी द्वारा उस का पूर्वभव पूछना और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी प्रतिपादन करने लगे गौतम ! माध्यमिका नाम की नगरी थी।महाराज मेघरथ वहां के राजा थे।सुधर्मा अनगार को महाराज मेघरथ ने आहार दिया, उस से मनुष्य आयु का बन्ध किया और द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / पञ्चम अध्याय [973 Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां पर जन्म लेकर यावत् इसी जन्म में सिद्ध हुआ।निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। ॥पञ्चम अध्ययन समाप्त॥ टीका-प्रस्तुत अध्ययन में जिनदास का जीवनवृत्तान्त संकलित किया गया है। जिनदास महाचन्द्र का पुत्र और अर्हदत्ता का आत्मज था। इस के पितामह का नाम अप्रतिहत और पितामही का सुकृष्णादेवी था। इस की जन्मभूमि सौगन्धिका नगरी थी। जिनदास पूर्वभव में मेघरथ नाम का राजा था। इस की राजधानी का नाम माध्यमिका था। मेघरथ नरेश प्रजापालक होने के अतिरिक्त धर्म में भी पूरी अभिरुचि रखता था। एक दिन उस के पूर्वपुण्योदय से उस के घर में सुधर्मा नाम के एक परम तपस्वी मुनि का आगमन हुआ। मुनि को देख कर मेघरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई, उसने बड़े भक्तिभाव से मुनि को अपने हाथ से आहार दिया। विशुद्ध भाव और विशुद्ध आहार से उक्त मुनिराज को प्रतिलाभित करने से मेघरथ ने मनुष्य आयु का बन्ध किया और समय आने पर मृत्युधर्म को प्राप्त करने के अनन्तर वह इसी सौगन्धिका नगरी में जिनदास के रूप में उत्पन्न हुआ। किसी समय नीलाशोक उद्यान में तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी का पधारना हुआ। उस समय यह जिनदास भी जनता के साथ भगवान् का दर्शन करने और धर्मश्रवण करने के लिए आया। धर्मदेशना को सुन कर उस के हृदय में धर्म के आचरण की अभिरुचि उत्पन्न हुई और उस ने भगवान् से गृहस्थधर्म की दीक्षा प्रदान करने की अभ्यर्थना की। भगवान् ने भी उसे श्रावकधर्म की दीक्षा प्रदान कर दी। तब से जिनदास श्रमणोपासक बन गया। इस के अनन्तर उस के श्रमणधर्म में दीक्षित होने से लेकर मोक्षगमन पर्यन्त सारी जीवनचर्या श्री सुबाहुकुमार की तरह ही है। यह है पांचवें अध्ययन का पदार्थ जिस की जिज्ञासा श्री जम्बू स्वामी ने अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से की थी। इस पांचवें अध्ययन के कथासन्दर्भ का तात्पर्य भी मानवभव प्राप्त प्राणियों को दानधर्म और विशेष कर सुपात्रदान में प्रवृत्त कराना है। शास्त्रकारों ने जो सुपात्रदान का फल मनुष्य आयु का बन्ध यावत् मोक्ष की प्राप्ति लिखा है, उस को हृदयंगम कराने के लिए यह कथासन्दर्भ एक उत्तम शिक्षक का काम देता है। -पडिलाभिए जाव सिद्धे-इस संक्षिप्त पाठ में जाव-यावत् पद से आहार देने से लेकर मोक्ष जाने तक के प्रथम अध्ययन में उल्लेख किए गए समस्त इतिवृत्त को संगृहीत करने की ओर संकेत किया गया है। विशेष बात यह है कि वह उसी भव में मोक्ष गया। इस के अतिरिक्त अध्ययन की प्रस्तावना में दान धर्म को मोक्ष का सोपान बताते हुए जो उस के महत्त्व 974 ] श्री विपाक सूत्रम् / पञ्चम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का वर्णन किया था, प्रस्तुत कथासंदर्भ से उस की सम्यग् रूप से उपपत्ति हो जाती है। ___उत्क्षेप का अर्थ है-प्रस्तावना। प्रस्तुत में प्रस्तावनारूप सूत्रांश-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं चउत्थस्स अल्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। पंचमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ?-अर्थात् श्री जम्बू स्वामी अपने गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से कहने लगे कि यदि भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ फरमाया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के पञ्चम अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ?-" - निक्षेप का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पीछे किया जा चुका है। निक्षेप शब्द से संसूचित सूत्रपाठ निम्नोक्त है___ एवंखलु जम्बू!समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते।त्ति बेमि। अर्थात् सुधर्मा स्वामी कहने लगे कि हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के पञ्चम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। इस प्रकार मैं कहता हूँ अर्थात् जैसा मैंने भगवान् से सुना है वैसा तुम्हें सुना दिया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। . -पडिलाभिए जाव सिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद-मेघरथ राजा का संसार को परिमित करने के साथ-साथ मनुष्यायु को बांधना, मृत्यु के अनन्तर उस का जिनदास के रूप में अवतरित होना, गौतम स्वामी का भगवान् महावीर से-जिनदास आप श्री के चरणों में दीक्षित होगा या नहीं ?-ऐसा पूछना, भगवान् का-हां होगा, ऐसा उत्तर देना तथा विहार कर जाना, जिनदास का तेला पौषध करना, उस में भगवान् के चरणों में साधु बनने का निश्चय करना, तदनन्तर भगवान् महावीर स्वामी का वहां पर पधारना तथा जिनदास का माता-पिता से आज्ञा ले कर दीक्षित हो कर आत्मसाधना में संलग्न होना तथा समय आने पर केवलज्ञान को प्राप्त करना, आदि भावों का परिचायक है। सुबाहुकुमार और जिनदास के जीवनवृत्तान्त में इतना ही अन्तर है कि सुबाहुकुमार प्रथम देवलोक से च्युत हो कर अनेकों भव करके महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध पद प्राप्त करेंगे जब कि जिनदास उसी जन्म में सिद्ध हो गए। ॥पंचम अध्ययन समाप्त॥ द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / पञ्चम अध्याय [976 [975 Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह छटुं अज्झयणं अथ षष्ठ अध्याय प्रथम अध्ययन से लेकर पांचवें अध्ययन तक सुपात्रदान की महिमा को श्री सुबाहुकुमार आदि नाम के विशिष्ट व्यक्तियों के जीवनवृत्तान्तों से समझाने का प्रयत्न किया गया है। उन्हीं अध्ययनों के विशद इतिवृत्त को ही इस अध्ययन में संक्षिप्त कर के श्री धनपति के जीवनवृत्तान्त द्वारा सुपात्रदान का महत्त्व दर्शाया गया है, जिस का विवरण निम्नोक्त है मूल-छट्ठस्स उक्खेवो। कणगपुरं णगरं। सेयासोयं उजाणं। वीरभद्दो जक्खो। पियचंदो राया। सुभद्दादेवी। वेसमणे कुमारे जुवराया। सिरीदेवीपामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं। तित्थगरागमणं। धणवई जुवरायपुत्ते जाव पुव्वभवे।मणिचइया णगरी।मित्तेराया।संभूयविजए अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे। निक्खेवो। - ॥छटुं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-षष्ठस्योत्क्षेपः। कनकपुरं नगरम् / श्वेताशोकमुद्यानम्। वीरभद्रो यक्षः। प्रियचन्द्रो राजा / सुभद्रा देवी। वैश्रमणः कुमारो युवराजः। श्रीदेवीप्रमुखाणां पंचशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणम्। तीर्थंकरागमनम्। धनपतिर्युवराजपुत्रो यावत् पूर्वभवः। मणिचयिका नगरी। मित्रो राजा। संभूतविजयोऽनगारः प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः। निक्षेपः। // षष्ठमध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-छट्ठस्स-छठे अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भाँति जानना चाहिए। कणगपुर-कनकपुर / णगरं-नगर था। सेयासोयं-श्वेताशोक नामक। उज्जाणं-उद्यान था, उस में। वीरभद्दो-- वीरभद्र नाम के। जक्खो-यक्ष का यक्षायतन था। पियचन्दो-प्रियचन्द्र / राया-राजा था। सुभद्दा-सुभद्रा 976 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय - [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम की। देवी-देवी थी। बेसमणो-बै श्रमण नाम का। कुमार-कुमार। जुवरापा-युवराज था। सिरीदेवीपामोक्वाण-श्रीदेवीप्रमुख / पंचसपाण-पांच सौ। रापवरकनगाण-श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ। पाणिग्गहणं-पाणिग्रहण हुआ। तित्थगरागमण-तीर्थकर भगवान का आगमन हुआ। धणवा-धनपति / गुवरापपुस-युवराजपुत्र वहां उपस्थित हुआ। जाव-यावत्। पुष्वभवे-पूर्वभव की पृच्छा की गई। मणिपापा-मणिचयिका। णगरी-नगरी थी। मिते-मित्र / रापा-राजा था। संभूपविजए-संभूतविजय। अणगारे-अनगार / पहिलाभिए-प्रतिलाभित किए। जाव-पावत्। सिद्ध-सिद्ध हुए। निक्खेबो-निक्षेपउपसंहार की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। f-छठा / अापण-अध्ययन / समत-सम्पूर्ण हुआ। ___ मूलार्थ-छठे अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिए।हे जम्बू / कनकपुर नाम का नगर था। वहां श्वेताशोक उद्यान था और उस में वीरभद्र नाम के पक्ष का मन्दिर था। वहां महाराज प्रिपचन्द्र का राज्य था, उस की रानी का नाम सुभद्रा देवी था, पुवराजपदालंकृत कुमार का नाम वैश्रमण था, उस ने श्रीदेवीप्रमुख 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह किया। उस समय तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी पधारे। पुवराज के पुत्र धनपतिकुमार ने भगवान् से भावक के व्रतों को ग्रहण किया। पूर्वभव की पृच्छा की गई। धनपतिकुमार पूर्वभव में मणिपिका नगरी का राणा था, उस का माम मित्र था। उसने श्री संभूतविजय नाम के मुनिराजको आहार से प्रतिलाभित किया। पावत् इसी जन्म में वह सिद्धगति को प्राप्त हुआ। निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। ॥छठा अध्याय समाप्त॥ ॥हाभार - टीका-प्रस्तुत अध्ययन में धनपतिकुमार का जीवनवृत्तान्त अंकित किया गया है। उस ने भी सुबाहुकुमार की तरह पूर्वभव में सुपात्रदान से मनुष्यायु का बन्ध किया, तथा तीर्थकर * भगवान् महावीर स्वामी से श्रावकधर्म और तदनन्तर मुनिधर्म की दीक्षा ले कर संयम के सम्यग् आराधन से कर्मबन्धनों को तोड़ कर निर्वाणपद प्राप्त किया। इस भव तथा पूर्वभव में नामादि की भिन्नता के साथ-साथ सुबाहुकुमार और धनपति कुमार के जीवन-वृत्तान्त में केवल इतना ही अन्तर है कि सुबाहुकुमार तो देवलोकों में जाता हुआ और मनुष्यभव को प्राप्त करता हुआ अन्त में महाविदेह क्षेत्र में सिद्धपद प्राप्त करेगा जब कि धनपतिकुमार ने इसी जन्म में कर्मों के बन्धनों को तोड़ कर निर्वाणपद प्राप्त किया और बह सिद्ध बन गया। मूल में पढ़ा गया उत्क्षेप पद-जाणे भते / समणेण भगवपा महावीरण जाब संपत्तेणे सुहषिबागाणं पंचमस्स अापणस अपना पण्णते, णमण भते | समणेणे वित्तीय श्रुतस्कंध] श्री विधाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [177 Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवया महावीरेणंजाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते?-अर्थात् यदि भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के पंचम अध्याय का यह (पूर्वोक्त) अर्थ फरमाया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के छठे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादित किया है. ?-इन भावों का, तथा निक्षेप पद-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते-अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने छठे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है-, इन भावों का परिचायक है। ___-जुवरायपुत्ते जाव पुव्वभवे-यहां पठित जाव-यावत् पद धनपतिकुमार का भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में धर्मोपदेश सुनने के अनन्तर साधुधर्म को अंगीकार करने में अपना असामर्थ्य प्रकट करते हुए श्रावक धर्म को ग्रहण करना और जिस रथ पर सवार हो कर आया था, उसी रथ पर बैठ कर वापिस चले जाना। तदनन्तर गौतम स्वामी का उस के पूर्वजन्मसम्बन्ध में भगवान् से पूछना और भगवान् का पूर्वजन्म वृत्तान्त सुनाना इत्यादि भावों का, तथापडिलाभिए जाव सिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद-मित्र राजा का संसार को परिमित करने के साथ-साथ मनुष्य आयु का बन्ध करना, और मृत्यु के अनन्तर युवराजपुत्र धनपतिकुमार के रूप में अवतरित होना तथा राजकीय ऐश्वर्य का उपभोग करते हुए जीवन व्यतीत करना। गौतम स्वामी का भगवान् महावीर से-धनपतिकुमार आपश्री के चरणों में साधु होगा, या कि नहीं ऐसा प्रश्न पूछना, भगवान का-हां गौतम ! होगा, ऐसा उत्तर देना। तदनन्तर भगवान् महावीर का वहां से विहार करना। एक दिन धनपतिकुमार का पौषधशाला में तेला पौषध करना, उस में भगवान् के चरणों में दीक्षित होने का निश्चय करना तथा भगवान् का कनकपुर नगर के श्वेताशोक उद्यान में पधारना, राजा, धनपतिकुमार तथा नागरिकों का प्रभुचरणों में धर्मोपदेश श्रवण करने के लिए उपस्थित होना और उपदेश सुन लेने के अनन्तर राजा तथा नागरिकों के चले जाने पर साधुधर्म में दीक्षित होने के लिए धनपतिकुमार का तैयार होना, तथा माता-पिता की आज्ञा मिलने पर भगवान् का उसे दीक्षित करना और मुनिराज धनपतिकुमार का बड़ी दृढ़ता तथा संलग्नता से संयमाराधन कर के अंत में केवलज्ञान प्राप्त करना, आदि भावों का परिचायक है। ॥षष्ठ अध्याय समाप्त॥ 978 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह सत्तमं अज्झयणं अथ सप्तम अध्याय यह अध्याय भी छठे अध्याय की भाँति सुपात्रदान की महिमार्थ ही वर्णित हुआ है। इस के मुख्यनायक श्री महाबलकुमार हैं। इन की जीवनगाथा इस में अंकित की गई है। इनका विवरण निम्नोक्त है मूल-सत्तमस्स उक्खेवो। महापुरं णगरं। रत्तासोगं उज्जाणं। रत्तपाओ जक्खो।बले राया।सुभद्दा देवी।महब्बले कुमारे।रत्तवईपामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं।तित्थगरागमणंजाव पुव्वभवो।मणिपुरंणगरं। णागदत्ते गाहावई। इंददत्ते अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे। निक्खेवो। ॥सत्तमं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-सप्तमस्योत्क्षेपः। महापुरं नगरम् / रक्ताशोकमुद्यानम्। रक्तपादो यक्षः। बलो राजा। सुभद्रा देवी। महाबलः कुमारः। रक्तवतीप्रमुखाणां पंचशतानां . राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणम्। तीर्थंकरागमनम्। यावत् पूर्वभवः। मणिपुरं नगरम्। नागदत्तो गाथापतिः। इन्द्रदत्तोऽनगारः प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः। निक्षेपः। ॥सप्तमध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-सत्तमस्स-सप्तम अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिए। महापुरं-महापुर। णगरं-नगर था। रत्तासोगं-रक्ताशोक। उजाणं-उद्यान था। रत्तपाओ-रक्तपाद नामक। जक्खो -यक्ष का यक्षायतन था। बले-बल नामक। राया-राजा था। सुभद्दा-सुभद्रा नामक। देवी-देवीरानी थी। महब्बले-महाबल।कुमारे-कुमार था।रत्तवईपामोक्खाणं-रक्तवतीप्रमुख। पंचसयाणं-५०० / रायवरकन्नगाणं-श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ। पाणिग्गहणं-पाणिग्रहण-विवाह हुआ। तित्थगरागमणंतीर्थंकर भगवान का आगमन हुआ। जाव-यावत्। पुव्वभवो-पूर्वभव की पृच्छा की गई। मणिपुरंमणिपुर / णगरं-नगर था। णागदत्ते-नागदत्त / गाहावई-गाथापति था। इंददत्ते-इन्द्रदत्त / अणगारे-अनगार द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [979 Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को। पजिलाभिए-प्रतिलाभित किया गया। जाब-यावत् / सिद्ध-सिद्ध हुआ। मिक्खयो-निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। सत्तर्म-साता / अपर्ण-अध्ययन / समत-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-सप्तम अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भांति जान लेना चाहिए। जम्बू। महापुर नामक नगर था। वहां रक्ताशोक नाम का उपान था, उस में रक्तपाद यक्ष का विशाल स्थान था। नगर में महाराज बल का राज्य था। उन की रानी का नाम सुभद्रा देवी था।इन के महाबल नाम का राजकुमार था। उस का रक्तवतीप्रधान 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण-विवाह किया गया। उस समय तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी पधारे। तदनन्तर महाबल राजकुमार का भावकधर्म भगवान् से अंगीकार करना और गणधर देव का भगवान् से उस का पूर्वभव पूछना तथा भगवान् का प्रतिपादन करते हुए कहना कि गौतम मणिपुर नाम का एक नगर था।वहाँ नागदात नामक गृहपति रहता था, उस ने इन्द्रदत नाम के अनगार को निर्मल भावनाओं के साथ शुद्ध आहार के द्वारा प्रतिलाभित किया तथा मनुष्य आपुका बन्ध करके वह यहां पर महाबल के रूप में उत्पन्न हुआ। तदनन्तर उस ने साधुधर्म में वीक्षित हो कर पावत् सिद्ध पद को-मोक्ष को प्राप्त किया। निक्षेप की कल्पना पूर्व की भौतिकर लेनी चाहिए। ॥सप्तम अध्ययन समाप्त॥ . टीका-छठे अध्ययन के अनन्तर सप्तम अध्ययन का स्थान है। सप्तम अध्ययन में श्री महाबल कुमार का जीवनवृत्तान्त संकलित हुआ है। महाबल कुमार महापुर-नरेश महाराज बल के पुत्र थे, इन की माता का नाम सुभद्रा देवी था। माता-पिता ने महाबल का शिक्षण सुयोग्य कलाचार्यों की छत्रछाया तले करवाया था। युवक महाबल का 500 श्रेष्ठ राजकुमारियों के साथ विवाह सम्पन्न हुआ था। 500 रानियों में मुख्य रानी रक्तवती थी जो कि परम सुन्दरी अथच पतिपरायणा थी। ___एक दिन चरम तीर्थंकर पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का महापुर नगर के रक्ताशोक नामक उद्यान में पधारना हुआ। नागरिक तथा राजा एवं महाबलकुमार भगवान् के चरणों में उपस्थित हुए। भगवान् ने धर्मोपदेश किया। उपदेश सुनने के अनन्तर राजा तथा नागरिकों के चले जाने पर महाबल ने श्रावकोचित व्रतों का नियम ग्रहण किया। गणधरदेव के पूछने पर भगवान् ने उसके पूर्वभव का वर्णन करते हुए कहा कि वह पूर्वभव में मणिपुर नगर का गाथापति था। उस ने इन्द्रदत्त नाम के एक तपस्वी अनगार को आहारादि से प्रतिलाभित करके मनुष्यायु क्का बन्ध किया था। वहां की आयु समाप्त कर वह बल्लनरेश की धर्मपत्नी सुभद्रा श्री विधाक्क सूत्रम् / सक्षम अध्याय [द्वितीय श्रुतम्बंध Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवी के गर्भ से महाबल के रूप में उत्पन्न हुआ। तथा इस भव में मुनिधर्म के अनुष्ठान से सुबाहुकुमार की भाँति सब प्रकार के कर्मबन्धनों का विच्छेद कर के इसी जन्म में मोक्षगामी बनेगा। उक्षेप शब्द प्रस्तावना का बोधक है। प्रस्तावना सूत्रकार के शब्दों में-जाणं भंते / समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणे सुहविवागाणं णास्स अापणस अपम8 पण्णते, सत्तमस्स भते / अायणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तण के अ पण्णते?-अर्थात् जम्बू स्वामी अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से निवेदन करने लगे कि भगवन् / यदि यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के छठे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् / यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर नै सुखविपाक के सप्तम अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ? इस प्रकार है। तथा निक्षेप शब्द उपसंहार का सूचक है। उपसंहाररूप सूत्रपाठ निनोक्त है. एवं खलु जम्बू / समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तेण सुहविवागाणं सत्तमस्स अापणस्स अपमढे पण्णत्तेति बेमि। अर्थात् श्री सुधर्मा स्वामी कहने लगे कि है जम्बू ! यावत् मोक्षसंप्राप्त भगवान् महावीर स्वामी ने सुखषिपाक के सप्तम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ फरमाया है। इस प्रकार मैं कहता हूँ। अर्थात् हे जम्बू | मैंने जो कुछ कहा है वह प्रभु वीर के कथनानुसार ही कहा है, इस में मेरी अपनी ओर से कोई कल्पना नहीं की गई . -तिथपरागमर्ण जाव पुष्वभवो-यहाँ पठित जाव-पावत् पद-तीर्थकर भगवान् के आने के पश्चात् बलनरेश तथा जनता एवं महाबल कुमार आदि का आना, उपदेश सुनना, उपदेश सुनने के अनन्तर महाबल कुमार का भगवान् से श्रावकधर्म का अंगीकार करना आदि सुबाहुकुमार के अध्ययन में वर्णित विस्तृत कथासन्दर्भ का तथा "-पडिलाभिए जाब सिद्धे" यहाँ पठित जाब-पावत् पद-नागदत्त गाथापति का इन्द्रदत्त मुनि का पारणा कराने के अनन्तर मनुष्य आयु का बोधना, संसार को परिमित करना और वहां से मृत्यु को प्राप्त हो जाने के अनन्तर महापुर नगर में महाराज बल के घर में महाबल के रूप में उत्पन्न होना और भगवान् . महावीर स्वामी के पास दीक्षित होना आदि सुबाहुकुमार के अध्ययन में वर्णित वृत्तान्त का परिचायक है / अन्तर मात्र इतना ही है कि सुबाहुकुमार देवलोक तथा मनुष्य लोक मैं कई एक जन्म ले कर अन्त मैं महाविदेह क्षेत्र में साधु हो कर मुक्तिलाभ करेंगे जब कि महाबल कुमार प्रभु चौर के चरणों में दीक्षित हो कर इसी जन्म में सिद्ध हो गए। ऊपर के कथासन्दर्भ से यह भलीभाँति प्रमाणित हो जाता है कि सुपात्र को दिया गया द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विधाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनापूर्वक निर्दोष आहार जीवन के विकास का कारण बनता है और परम्परा से इस मानव प्राणी को जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्ति दिलवाकर परमसाध्य निर्वाणपद को उपलब्ध कराने में महान सहायता प्रदान करता है। अतः मुमुक्षु प्राणियों को सुपात्रदान का अनुसरण एवं आचरण करना चाहिए, यही इस अध्याय में वर्णित जीवनवृत्तान्त से ग्रहणीय सार है। ॥सप्तम अध्याय समाप्त॥ 982 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय द्वितीय श्रुतस्कंध Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह अट्ठमं अज्झयणं अथ अष्टम अध्याय ___ इस अध्ययन की रचना भी सुपात्रदान के महत्त्वबोधनार्थ ही हुई है। धर्म का आराधन इस मानव को कितना ऊंचा ले जाता है तथा उसे अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त कराने में कितना सहायक होता है, यह भद्रनन्दी के जीवनवृत्तान्तों से सहज ही हृदयंगम हो सकता है। भद्रनन्दी का विवरण निम्नोक्त है मूल-अट्ठमस्स उक्खेवो। सुघोसं णगरं। देवरमणं उजाणं। वीरसेणो जक्खो। अजुणो राया। तत्तवई देवी। भद्दनंदी कुमारे। सिरीदेवीपामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं जाव पुव्वभवे। महाघोसे णगरे। धम्मघोसे गाहावई। धम्मसीहे अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे। निक्खेवो। ॥अट्ठमं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-अष्टमस्योत्क्षेपः। सुघोषं नगरम्। देवरमणमुद्यानम्। वीरसेनो यक्षः। अर्जुनो राजा। तत्त्ववती देवी। भद्रनन्दी कुमारः। श्रीदेवीप्रमुखाणां पंचशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणम्। यावत् पूर्वभवः। महाघोषं नगरम्। धर्मघोषो गाथापतिः। धर्मसिंहोऽनगारः प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः। निक्षेपः। ॥अष्टमाध्ययनम् समाप्तम्॥ पदार्थ-अट्ठमस्स-अष्टम अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भान्ति जान लेना चाहिए। सुघोसं-सुघोष नाम का। णगरं-नगर था। देवरमणं-देवरमण नामक। उजाणं-उद्यान था। वीरसेणो-वीरसेन। जक्खो-यक्ष का आयतन-स्थान था। अजुणो-अर्जुन। राया-राजा था। तत्तवईतत्त्ववती। देवी-देवी थी। भद्दनन्दी-भद्रनन्दी नामक। कुमारे-कुमार था। सिरीदेवीपामोक्खाणंश्रीदेवीप्रधान। पंचसयाणं-५०० / रायवरकन्नगाणं-श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ। पाणिग्गहणं-पाणिग्रहण किया गया। जाव-यावत्। पुव्वभवे-पूर्वभव की पृच्छा की गई। महाघोसे-महाघोष नामक। णगरे-नगर द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् /अष्टम अध्याय [983 Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धा। धम्मपोसे-धर्मघोष / गाहावा-गाधापति था / धम्मसीह-धर्मसिंह / अणगारे-अनगार को। पडिलाभिए- .. प्रतिलाभित किया गया। जाब-यावत्। सिद्ध-सिद्ध हो गया। निक्लेवा-निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। भकुर्म-अहम / अझपण-अध्ययन / समत-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-अष्टम अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। सुपोष नामक नगर था। वहां देवरमण नामक उपान था। उस में वीरसेन नामक पक्ष का स्थान था। नगर में अर्जुन नाम के राजा का राज्य था। उसकी तत्ववती रानी और भवनन्दी नामक कुमार था। उसका श्रीदेवी प्रमुख 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ। उस समय तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी उद्यान में पधारे। तदनन्तर भद्रनन्दी का भगवान् से भावकधर्म स्वीकार करना। गणधरदेव गौतम स्वामी का भगवान् से उस के पूर्वभव के सम्बन्ध में पृच्छा करनी और भगवान का उत्तर देते हुए फरमाना कि गौतम / महापोष नगर था। वहां धर्मघोष नामक गाथापति रहता था। उसने : धमसिंह नामक अनगार को प्रतिलाभित किया और मनुष्य आयु का बन्ध करके वह पहां पर उत्पन्न हुआ, पावत् उस ने सिद्धगति को उपलब्ध किया। निक्षेप की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। टीका-प्रस्तुत अध्ययन के चरितनायक का नाम भद्रनन्दी है। भद्रनन्दी का जन्म सुघोषनगर में हुआ। पिता का नाम महाराज अर्जुन और माता का नाम तत्त्ववती देवी था। भद्रनन्दी का पालन-पोषण बड़ी सावधानी से हुआ। योग्य कलाचार्य के पास उस ने विद्याध्ययन किया। माता-पिता द्वारा युवक भद्रनन्दी का श्रीदेवी प्रमुख 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह सम्पन्न हुआ और भद्रनन्दी भी उन राजकुमारियों के साथ अपने महलों में सांसारिक सुखोपभोग करता हुआ सानन्द जीवन व्यतीत करने लगा। एक दिन चरम तीर्थकर पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी संसार में अहिंसा का ध्वज फहराते हुए सुघोष नगर के देवरमण नामक उद्यान में विराजमान हो जाते हैं। भगवान् के पधारने की सूचना नागरिकों को मिलने की ही देर थी, नागरिक बड़े समारोह के साथ वहां जाने लगे। राजा, भद्रनन्दी कुमार तथा नागरिकों के यथास्थान उपस्थित हो जाने पर भगवान् नै धर्मोपदेश दिया। उपदेश सुन कर लोग, राजा तथा नागरिक अपने-अपने स्थान को वापस चले गए, तब भद्रनन्दी कुमार ने साधुधर्म को ग्रहण करने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए भगवान् से श्रावकब्रतों को ग्रहण किया और तदनन्तर वह जिस रथ से आया था उस पर बैठ कर अपने स्थान को वापस चला गया। भवनन्दी के चले जाने पर गौतम स्वामी नै भद्रनन्दी को मानवीय ऋद्धि के मूल कारण 144] श्री विषाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [द्वितीय श्रुतर्क Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को जानने की इच्छा से भगवान् महावीर के चरणों में उस के पूर्वभव को बतलाने का निवेदन कियान गौतम स्वामी के विनीत निवेदन का उत्तर देते हुए भगवान् कहने लगे कि गौतम ! यह पूर्वभव में महाघोष नगर का प्रतिष्ठित गृहपति था। इस का नाम धर्मघोष था। इस ने धर्मसिंह नाम के एक तपस्वी मुनिराज को श्रद्धापूर्वक आहार देने से जिस विशिष्ट पुण्य का उपार्जन किया, उसी के फलस्वरूप यह यहां आकर भद्रनन्दी के रूप में उत्पन्न हुआ और इसे सर्व प्रकार की मानवीय संपत्ति प्राप्त हुई। . श्रावकधर्म और तदनन्तर साधुधर्म का यथाविधि अनुष्ठान करके श्री भद्रनन्दी अनगार ने बन्धे हुए कर्मों की निर्जरा करके मोक्षपद को प्राप्त किया। इस का समस्त जीवनवृत्तान्त प्रायः सुबाहुकुमार के समान ही है, जो अन्तर है वह सूत्रकार ने स्वयं ही अपनी भाषा में स्पष्ट कर दिया है। उक्खेवो-उत्क्षेप पद प्रस्तावना का संसूचक है। सूत्रकार के शब्दों में प्रस्तावना-जा भते / समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तेणे सुहविवागाणं सत्तमस्स अणायणस्स अपमडेपण्णते,अहमस्सणे भन्ते / अगमपणस्स सुहविवागाणं समणेण भगवमा महावीर जाव संपत्तेणं के अड्डे पण्णते ? अर्थात् यदि भगवन् / यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने सुखविपाक के सप्तम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् / यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के अष्टम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस प्रकार है। तथा-निक्खेवो-निक्षेप शब्द से अभिमत पाठ निनोक्त है एवं खलु जम्बू / समणेणं भगवया महावीरण जाव संपत्तेणे सुहविवागाणं अgमस्स अापणस अपमड्ढे पण्णत्ते, ति बेमि-अर्थात् हे जम्बू / इस प्रकार यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने जैसा धीर प्रभु से सुना है वैसा ही तुम्हे सुनाया है। इस में मेरी ओर से अपनी कोई कल्पना नहीं की गई है। पाणिग्रहणं जाव पुब्बभवे-यहाँ पठित जाव-पावत् पद श्रीभद्रनन्दी का श्री सुबाहुकुमार की भांति अपने महलों में अपनी विवाहित स्त्रियों के साथ सांसारिक कामभौगों का उपभोग करते हुए विहरण करना, भगवान् महावीर स्वामी का बहाँ आना, राजा, भद्रनन्दी तथा नगर की जनता का प्रभुचरणों में उपस्थित होना तथा उपदेश सुन कर वापिस अपने-अपने स्थान को चले जाना / तदनन्तर भद्रनन्दी का साधुवृत्ति के लिए अपने को अशक्त बता कर द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् /अष्ठम अध्याय [985 Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् से श्रावकधर्म अंगीकार करना और वहां से उठ कर वापस अपने महलों में चले जाना .. इत्यादि भावों का तथा-पडिलाभिए जाव सिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद-धर्मघोष गाथापति का संसार को परिमित करने के साथ-साथ मनुष्यायु का बान्धना, आयुपूर्ण होने पर महाराज अर्जुन के घर या भद्रनन्दी के रूप में उत्पन्न होना। गौतम स्वामी का-भगवन् ! क्या भद्रनन्दी आपश्री के चरणों में दीक्षित होगा, यह प्रश्न करना, भगवान् का-'हां' में उत्तर देना। तदनन्तर भगवान् का विहार कर जाना, भद्रनन्दी का तेलापौषध करना, उस में भगवान के पास दीक्षित होने का निश्चय करना, भगवान् का फिर पधारना, भगवान् का धर्मोपदेश देना, उपदेश सुन कर भद्रनन्दी का माता-पिता से आज्ञा लेकर साधुधर्म को अंगीकार करना और उग्र साधना द्वारा केवलज्ञान की प्राप्ति करना-आदि भावों का परिचायक है। सुबाहुकुमार और भद्रनन्दी जी के जीवनवृत्तान्त में इतना ही अन्तर है कि श्री . . सुबाहुकुमार जी देवलोक आदि के अनेकों भव करने के अनन्तर मुक्ति में जाएंगे जब कि श्री भद्रनन्दी इसी भव में मुक्ति में पहुंच जाते हैं। ॥अष्टम अध्याय समाप्त॥ 986 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह नवमं अज्झयणं अथ नवम अध्याय .. इस अध्ययन में श्री महाचन्द्र कुमार का जीवनवृत्तान्त वर्णित हुआ है। इस का पदार्थ भी पूर्व अध्ययनों के समान ही है, केवल नाम और स्थानादि में अन्तर है, जो कि नीचे के सूत्रपाठ से ही सुस्पष्ट हो जाता है मूल-नवमस्स उक्खेवो। चम्पा नगरी। पुण्णभद्दे उज्जाणे। पुण्णभद्दे जक्खे।दत्ते राया।रत्तवई देवी।महचंदे कुमारे जुवराया।सिरीकंतापामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं। जाव पुव्वभवे तिगिच्छिया णगरी। जितसत्तू राया। धम्मवींरिए अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे। निक्खेवो। ॥नवमं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-नवमस्योत्क्षेपः। चम्पा नगरी / पूर्णभद्रमुद्यानम् / पूर्णभद्रो यक्षः। दत्तो राजा। रक्तवती देवी। महाचन्द्रः कुमारो युवराजः। श्रीकान्ताप्रमुखाणां पंचशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणम् / यावत् पूर्वभवः। चिकित्सिका नगरी। जितशत्रू राजा। धर्मवीर्योऽनगारः प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः। निक्षेपः। ॥नवममध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-नवमस्स-नवम। अज्झयणस्स-अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिए। चंपा नगरी-चंपा नाम की नगरी थी, वहां। पुण्णभद्दे-पूर्णभद्र नामक। उज्जाणे-उद्यान था, उस में। पुण्णभद्दे-पूर्णभद्र / जक्खे-यक्ष का स्थान था। दत्ते-दत्त नाम का। राया-राजा था। रत्तवईरक्तवती। देवी-देवी-रानी थी। महचंदे-महाचन्द्र। कुमारे-कुमार / जुवराया-युवराज था। सिरीकंतापामोक्खाणं-श्रीकान्ताप्रमुख।पंचसयाणं-५०० / रायवरकन्नगाणं-श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ। पाणिग्गहणं-पाणिग्रहण हुआ।जाव-यावत्। पुव्वभवे-पूर्वभव की पृच्छा की गई। तिगिच्छिया-चिकित्सिका नामक। णगरी-नगरी थी। जितसत्तू-जितशत्रु नामक। राया-राजा था। धम्मवीरिए-धर्मवीर्य / अणगारे द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [987 Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगार को। पहिलाभिए-प्रतिलाभित किया गया। जाब-पावत् / सिद्ध-सिद्ध हुआ। निवखेबो-निक्षेष- . उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। नवम-नवम। अापण-अध्ययन / समत्तसम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-नवम अध्यपन का उक्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भाँति जान लेना चाहिए। जम्बू / चम्पा नामक नगरी थी, वहां पूर्णभद्र नामक उपान था, उस में पूर्णभद्र पक्ष का आपतन-स्थान था। वहां के राजा का नाम दत्त था और रानी का नाम रक्तवती था, उन के पुवराजपदालंकृत महाचन्द्र नाम का कुमार था, उस का श्रीकान्ता प्रमुख 500 राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ था। एक दिन पूर्णभद्र उद्यान में तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी पधारे। महाचन्द्र ने उम से श्रावक के बारह व्रतों का ग्रहण किया। गणधर देव गौतम स्वामी ने दत्त के पूर्वभव की पृच्छा की। भगवान् महावीर ने उत्तर देते हुए कहा कि चिकित्सिका नामक नगरी थी। महाराज जितशत्रु वहां का राजा था। उस ने धर्मवीपं अनगार को प्रतिलाभित किया। पावत् सिद्धपद-मोक्षपद को प्राप्त किया। ॥नवम अध्ययन समाप्त। टीका-अष्टम अध्ययन के अनन्तर नवम अध्ययन का स्थान है। नवम अध्ययन की प्रस्तावना को सूचित करने के लिए सूत्रकार ने-उक्खेवो-यह पद दिया है। उत्क्षेप पद से अभिमत प्रस्तावनारूप सूत्राश-जाण भंते / समणेण भगवपा महावीरेण जाव सम्पत्तण सुहविवागाणं अतुमस्स अझपणस्स अपमड्ढे पण्णते, नवमस्स भंते / अझपणस्स समणेण भगवया महावीरण जाव सम्पत्तण के अहे पण्णते? अर्थात् यदि भदन्त / यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के नवम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ?-इस प्रकार है। प्रस्तुत अध्ययन के पदार्थ में चरित्रनायक का नाम महाचन्द्र या महचन्द्र है। यह महाराज दत्त का पुत्र और रक्तवती का आत्मज तथा युवराज पद से अलंकृत था। इस का 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ था। इस की पटरानी का नाम श्रीकान्तादेवी था। पूर्वभव में यह चिकित्सिका नगरी का जितशत्रु नामक राजा था। प्रजापरायण होने के अतिरिक्त यह धर्मपरायण भी था। इस ने धर्मवीर्य नाम के एक अनगार को श्रद्धापूर्वक आहारदान दिया। उस के प्रभाव से यह इस चम्पानगरी में महाचन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। जब तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी चम्पा के पूर्णभद्र उद्यान में पधारे तो महाचन्द्र ने श्रावक के बारह व्रतों का नियम 948 ] श्री विषाक्क सूत्रम् / नवम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहण किया, इत्यादि मोक्षपर्यन्त सम्पूर्ण वृत्तान्त प्रथम अध्ययन गत सुबाहुकुमार के वर्णन के समान ही समझना चाहिए। केवल नाम और स्थानादि का अन्तर है। अन्त में यह इसी भव में सिद्ध गति को प्राप्त हो जाता है। निक्षेप-शब्द का अर्थ पूर्व में किया जा चुका है। प्रस्तुत में निक्षेप शब्द से अभिमत सूत्रपाठ निम्नोक्त है ___-एवं खल जम्बू / समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तण सहविवागार्ण भवमस्स अमायणस्स अपमड़े पण्णते, तिबेमि-अर्थात् आर्य सुधर्मा स्वामी फरमाने लगे कि हे जम्बू / यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के नवम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने जैसा भगवान् से सुना था वैसा तुम्हें सुना दिया है। इस में मेरी अपनी ओर से कोई कल्पना नहीं की गई है। ___ -पाणिग्गाणं जाव पुव्वभवो-तथा-पडिलाभिए जाव सिद्ध-यहाँ पठित जावपावत् पद से संसूचित पदार्थ आठवें अध्ययन में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना ही है कि वहाँ श्री भद्रनन्दी का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में श्री महाचन्द्र कुमार का। तथा वहाँ भद्रनन्दी के नगर का, माता-पिता का, उस के पूर्वभवगत नामादि का उल्लेख है, जब कि यहाँ महायन्द्र के नगर का, माता-पिता का, तथा महाचन्द्र के पूर्वभवीय नाम आदि का। सारांश यह है कि नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन में भी सुपात्रदान को सर्वोत्तम प्रमाणित करने के लिए एक धार्मिक आख्यान की संक्षिप्त रूप से संकलना की गई है। यह नवम अध्ययन का पदार्थ है। ॥नवम अध्ययन समाप्त // वित्तीय श्रुतस्कंध] श्री विधाक सूत्रम् / मवा अध्याय Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह दसमं अज्झयणं अथ दशम अध्याय यह दसवां अध्ययन भी पहले नौ अध्ययनों की भाँति सुपात्रदान और संयमाराधन के परिणाम को हृदयंगम कराने के लिए एक धार्मिक कथासंदर्भ के रूप में अंकित किया गया . . है। इस अध्ययन में वर्णित हुए वरदत्त कुमार के जीवनवृत्तान्त का विवरण निम्नोक्त है मूल-दसमस्स उक्खेवो। एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं साएयं णामं णगरं होत्था। उत्तरकुरू उजाणे। पासामिओ जक्खो। मित्तणंदी राया। सिरीकन्तादेवी। वरदत्ते कुमारे। वरसेणापामोक्खाणं पंचदेवीसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं। तित्थगरागमणं।सावगधम्म (पुव्वभवो।सयदुवारे णगरे। विमलवाहणे राया। धम्मरुई अणगारे पडिलाभिए। मणुस्साउए बद्धे। इहं उप्पन्ने। सेसं जहा सुबाहुस्स कुमारस्स। चिन्ता जाव पव्वज्जा। कप्पंतरे। तओ जाव सव्वट्ठसिद्धे। तओ महाविदेहे जहा दढपइण्णे जाव सिज्झिहिइ 5 / एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, त्ति बेमि। सेवं भंते ! सेवं भंते ! सुहविवागा। ॥दसमं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-दशमस्योत्क्षेपः। एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये साकेतं नाम नगरमभूत् / उत्तरकुरु उद्यानम्। पाशामृगो यक्षः। मित्रनन्दी राजा। श्रीकान्ता देवी। वरदत्तः कुमारः। वरसेनाप्रमुखाणां पंचदेवीशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणं। तीर्थंकरागमनम्। श्रावकधर्मम्। पूर्वभवः। शतद्वारं नगरम्। विमलवाहनो राजा। धर्मरुचिरनगारः प्रतिलाभितः। मनुष्यायुर्बद्धम् / इहोत्पन्नः। शेषं यथा सुबाहो: कुमारस्य 990 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्ता / यावत् प्रव्रज्या कल्पान्तरे ततो यावत् सर्वार्थसिद्धे / ततो महाविदेहे यथा दृढप्रतिज्ञो यावत् सेत्स्यति 5 / एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेण भगवता महावीरेण यावत् संप्राप्तेन -सुखविपाकानां दशमस्य अध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः। इति ब्रवीमि। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! सुखविपाकाः। // दशममध्ययनं समाप्तम् // पदार्थ-दसमस्स-दशम अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिए। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू !-हे जम्बू ! तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। साएयं-साकेत।णाम-नामक / णगरं-नगर / होत्था-था। उत्तरकुरू-उत्तरकुरु नाम का। उज्जाणेउद्यान था, वहां। पासामिओ-पाशामृगं नामक। जक्खो-यक्ष-यक्ष का यक्षायतन था। मित्तणंदी-मित्रनन्दी। राया-राजा था। सिरीकंता-श्रीकान्ता नामक। देवी-देवी अर्थात् रानी थी। वरदत्ते-वरदत्त नामक। कुमारेकुमार था। वरसेणापामोक्खाणं-वरसेनाप्रमुख। पंचदेवीसयाणं रायवरकन्नगाणं-पाँच सौ श्रेष्ठ राजकुमारियों का। पाणिग्गहणं-पाणिग्रहण-विवाह हुआ। तित्थगरागमणं-तीर्थंकर महाराज का आगमन हुआ। सावगधम्म-श्रावक धर्म का अंगीकार करना। पुव्वभवो-पूर्वभव की पृच्छा की गई। सयदुवारेशतद्वार नामक / णगरे-नगर था। विमलवाहणे राया-विमलवाहन नामक राजा था। धम्मरुई-धर्मरुचि। अणगारे-अनगार को। पडिलाभिए-प्रतिलाभित किया गया, तथा। मणुस्साउए-मनुष्य आयु का। बद्धेबन्ध किया।इहं-यहां पर। उप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। सेसं-शेष वर्णन / जहा-जैसे। सुबाहुस्स-सुबाहु / कुमारस्सकुमार का है, वैसे ही जानना चाहिए। चिन्ता-चिन्ता अर्थात् पौषध में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित होने का विचार। जाव-यावत्। पव्वजा-प्रव्रज्या-साधुवृत्ति का ग्रहण करना। कप्तरे-कल्पान्तर में-अन्यान्य देवलोक में उत्पन्न होगा। तओ-वहां से। जाव-यावत्। सव्वटुसिद्धे-सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में उत्पन्न होगा। तओ-वहां से। महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा। जहा-जैसे। दढपइण्णेदृढ़प्रतिज्ञ। जाव-यावत्। सिज्झिहिइ ५-सिद्ध होगा, 5 / एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू !-हे जम्बू! समणेणं-श्रमण। भगवया-भगवान्। महावीरेणं-महावीर। जाव-यावत्। संपत्तेणं-मोक्षसंप्राप्त ने। सुहविवागाणं-सुखविपाक के। दसमस्स-दशम। अज्झयणस्स-अध्ययन का। अयमढे-यह अर्थ / पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है। सेवं भंते ! भगवन् ! ऐसा ही है। सेवं भंते ! भगवन् ! ऐसा ही है। सुहविवागा-सुखविपाकविषयक कथन। दसमं-दशम। अज्झयणं-अध्ययन / समत्तं-सम्पूर्ण हुआ। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। ___ मूलार्थ-जम्बू स्वामी ने निवेदन किया-भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने यदि सुखविपाक के नवम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त ) अर्थ वर्णन किया है तो भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के दशम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? सुधर्मा स्वामी ने फरमाया-जम्बू ! उस काल और उस समय में साकेत नाम का द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [991 Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध नगर था। वहां उत्तरकुरु नामक उद्यान था, उस में पाशामृग नाम के पक्ष का / पक्षायतन-स्थान था। साकेत नगर में महाराज मित्रनन्दी का राज्य था। उस की रानी का नाम श्रीकान्ता और पुत्र का नाम वरदत्त था। कुमार का वरसेनाप्रमुख 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण-विवाह हुआ था। तदनन्तर किसी समय उत्तरकुरा उपान में तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी का आगमन हुआ। वरदत्त ने भगवान् से भावकधर्म को ग्रहण किया। गणधरदेव के पूछने पर भगवान् महावीर वरदात के पूर्वभव का वर्णन करते हुए कहने लगे कि हे गौतम ! शतद्वार नामक नगर था। उस मैं विमलवाहन नाम का राजा राज्य किया करता था। उसने धर्माधि नाम के अनगार को आहारादि से प्रतिलाभित किया तथा मनुष्य आयु को बांधा। वहां की भवस्थिति को पूर्ण कर के वह इसी साकेतनगर में महाराज मित्रनन्दी की रानी श्रीकान्ता के उदर से वरदात के रूप में उत्पन्न हुआ।शेष वृत्तान्त सुबा कुमार की भाँति समझना अर्थात् पौषधशाला में धर्मध्यान करते हुए उसका विचार करना और तीर्थकर भगवान् के आने पर दीक्षा अंगीकार करना। मृत्युधर्म को प्राप्त कर वह अन्यान्य अर्थात् सौधर्म आदि देवलोकों में उत्पन्न होगा। वरदात कुमार का जीव स्वर्गीय तथा मानवीय अनेकों भव धारण करता हुआ अन्त में सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर महाविदेहक्षेत्र में उत्पन्न हो दलप्रतिज्ञ की तरह पावत् सिद्धगति को प्राप्त करेगा। हे जम्बू / इस प्रकार पावत् मोक्षसंप्राप्त भ्रमण भगवान महावीर में सुखविपाक के दशवें अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। ऐसा मैं कहता हूँ। ___जम्बू स्वामी बोले-भगवन् ! आप का यह सुखविपाकविषयक कथन जैसा कि आपने फ़रमाया है, वैसा ही है, वैसा ही है। ॥दशम अध्ययन समाप्त॥ ___टीका-दसमस्स उक्खेवो-दशमस्योत्क्षेपः-इन पदों से सूत्रकार ने दशम अध्ययन की प्रस्तावना सूचित की है, जो कि सूत्रकार के शब्दों में-जाणं भंते / समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुरुविवागाणं णवमस्स अपमयणस्स अपमढे पण्णत्ते, दसमस्स ण भते / अझपणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तण के अड्डे पण्णते ? इस प्रकार है। इन पदों का अर्थ मूलार्थ में दिया जा चुका है। प्रस्तुत अध्ययन का चरित्रनायक बरदत्तकुमार है। घरदत्त का जीवनवृत्तान्त भी प्रायः सुबाहु कुमार के समान ही है। जहां कहीं नाम और स्थानादि का अन्तर है, उस का निर्देश सूत्रकार ने स्वयं कर दिया है। यह अन्तर नौच्चे की पंक्तियों में दिया जाता है श्री विधाक सूत्रम् / वशम अध्याय [वित्तीय श्रुतस्कंध Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबाहुकुमार वरदत्तकुमार १-जन्मभूमि-हस्तिशीर्ष। १-जन्मभूमि-साकेत। २-उद्यान-पुष्पकरंडक। २-उद्यान-उत्तरकुरु। ३-यक्षायतन-कृतवनमालप्रिय। ३-यक्षायतन-पाशामृग। ४-पिता-अदीनशत्रु। ४-पिता-मित्रनन्दी। ५-माता-धारिणी देवी। ५-माता-श्रीकान्तादेवी। .६-प्रधानपत्नी-पुष्पचूला। ६-प्रधानपत्नी-वरसेना। ७-पूर्वभव का नाम-सुमुख गाथापति। ७-पूर्वभव का नाम-विमलवाहन नरेश। ८-जन्मभूमि-हस्तिनापुर। ८-जन्मभूमि-शतद्वार नगर। ९-प्रतिलाभित अनगार-श्री सुदत्त। ९-प्रतिलाभित अनगार-श्री धर्मरुचि। इस के अतिरिक्त दोनों की धार्मिक चर्या में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही राजकुमार थे। दोनों का ऐश्वर्य समान था। दोनों में श्रमण भगवान् महावीर की धर्मदेशना के श्रवण से धर्माभिरुचि उत्पन्न हुई थी। दोनों ने प्रथम श्रावकधर्म के नियमों को ग्रहण किया और भगवान् के विहार कर जाने के अनन्तर पौषधशाला में पौषधोपवास किया तथा भगवान् के पास दीक्षित होने वालों को पुण्यशाली बताया एवं भगवान् के पुनः पधारने पर मुनिधर्म में दीक्षित होने का संकल्प भी दोनों का समान है। तदनन्तर संयमव्रत का पालन करते हुए मनुष्य भव से देवलोक और देवलोक से मनुष्यभव, इस प्रकार समान रूप से गमनागमन करते हुए अन्त में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर और वहां पर चारित्र की सम्यग् आराधना से कर्मरहित हो कर मोक्षगमन भी दोनों का समान ही होगा। ऐसी परिस्थिति में दूसरे अध्ययन से लेकर दसवें अध्ययन के अर्थ को यदि प्रथम अध्ययन के अर्थ का संक्षेप कह दिया जाए तो कुछ अनुचित न होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो इस अध्ययन में प्रथम अध्ययन के अर्थ को ही प्रकारान्तर या नामान्तर से अनेक बार दोहराया गया है, ताकि मुमुक्षु जनों को दानधर्म और चारित्रधर्म में विशेष अभिरुचि उत्पन्न हो तथा वे उन का सम्यग्रुप से आचरण करते हुए अपने ध्येय को प्राप्त कर सकें। प्रश्न-सेसं जहा सुबाहुस्स-इतने कथन से वरदत्त के अवशिष्ट जीवनवृत्तान्त का बोध हो सकता था, फिर आगे सूत्रकार ने जो-चिन्ता जाव पव्वज्जा-आदि पद दिये हैं, इन का क्या प्रयोजन है, अर्थात् इन के देने में क्या तात्पर्य रहा हुआ है ? उत्तर-सेसं-इत्यादि पदों से काम तो चल सकता था, पर सूत्रकार द्वारा-जहायथा-शब्द से-यत्तदोः नित्यसम्बन्धः-इस न्याय से सम्प्राप्त तहा शब्द से जिन पाठों अथवा जिन बातों का ग्रहण करना अभिमत है, उन के स्पष्टीकरणार्थ ही इन-चिन्ता-आदि पदों का द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [993 Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहण किया गया है। इस में उस समय की लेखनप्रणाली या प्रतिपादनशैली ही कारण कही या . मानी जा सकती है। -सावगधम्म चिन्ता जाव पव्वजा-इत्यादि संक्षिप्त पाठों में मूलपाठगत आदि और अन्त के मध्यवर्ती पाठों के ग्रहण की ओर संकेत किया गया है। सूत्रकार की यह शैली रही है कि एक स्थान पर समग्र पाठ का उल्लेख करके अन्यत्र उसके उल्लेख की आवश्यकता होने पर समग्र पाठ का उल्लेख न करके आरम्भ के पद के साथ जाव-यावत् पद दे कर अन्त के पद का उल्लेख कर देना, जिस से कि मध्यवर्ती पदों का संग्रह करना सूचित हो सके। इसी शैली का आगमों में प्रायः सर्वत्र अनुसरण किया गया है। -सावगधम्म-यहां के बिन्दु से द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में पढ़े गएपडिवज्जइ 2 त्ता तमेव रहं-इत्यादि पद का तथा-चिन्ता जाव पव्वजा-यहां पठित जावयावत् पद द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में पढ़े गये-धन्ने णं ते गामागर जाव सन्निवेसा-इत्यादि पदों का तथा-तओ जाव सव्वट्ठसिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद से द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में ही पढ़े गए-देवलोयाओ आउक्खएणं भवक्खएणंइत्यादि पदों का संसूचक है। -दढपइण्णे जाव सिज्झिहिइ-यहां पठित जाव-यावत् पद-औपपातिक सूत्र में वर्णित दृढ़प्रतिज्ञ के जीवन के वर्णक पाठ की ओर संकेत करता है। दृढ़प्रतिज्ञ का जीवनवृत्तान्त पीछे लिखा जा चुका है। तथा-सिज्झिहिइ ५-यहां के अंक से भी अभिमत पाठ तथा महावीरेणं जाव संपत्तेणं-यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत-आइगरेणं-इत्यादि पाठ पीछे पृष्ठों पर वर्णित हो चुका है। -सेवं भंते ! सेवं भंते ! सुहविवागा-इन पदों से जम्बू स्वामी की विनयसम्पत्ति और श्रद्धा-संभार का परिचय मिलता है। गुरुजनों के मुखारविन्द से सुने हुए निर्ग्रन्थप्रवचन पर शिष्य की कितनी आस्था होनी चाहिए, यह इन पदों से स्पष्ट भासमान हो रहा है। जम्बू स्वामी कहते हैं कि हे भगवन् ! आपने जो कुछ फरमाया है, वह सर्वथा-अक्षरशः यथार्थ है, असंदिग्ध है, सत्य है। विपाकश्रुत के सुखविपाक नामक द्वितीयश्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों में भिन्न-भिन्न धार्मिक व्यक्तियों के जीवनवृत्तान्तों के वर्णन में एक ही बात की बार-बार पुष्टि की गई है। सुपात्रदान और संयमव्रत का सम्यग् आराधन मानवजीवन के आध्यात्मिक विकास में कितना उपयोगी है और उस के आचरण से मनुष्य अपने साध्य को कैसे सिद्ध कर लेता है, इस विषय . का इन अध्ययनों में पर्याप्त स्पष्टीकरण मिलता है। विकासगामी साधक के लिए इस में 994 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्त सामग्री है। सुपात्रदान यह दान के ऐहिक और पारलौकिक फल में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इस लिए सुखविपाक के दशों अध्ययनों में इस के महत्त्व को एक से अधिक बार प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया गया है। अंग ग्रंथों में विपाकश्रुत ग्यारहवां अंगसूत्र है। विपाकसूत्र दुःखविपाक और सुखविपाक इन दो विभागों में विभक्त है। दुःखविपाक में मृगापुत्र आदि दस अध्ययन वर्णित हैं और सुखविपाक में सुबाहुकुमार आदि दस अध्ययन। प्रस्तुत वरदत्त नामक अध्ययन सुखविपाक का दसवां अध्ययन है। इस में श्री वरदत्त कुमार का जीवनवृत्तान्त प्रस्तावित हुआ है, जिस का विवरण ऊपर दिया जा चुका है। इस अध्ययन की समाप्ति पर सुखविपाक समाप्त हो जाता ॥दशम अध्याय समाप्त॥ द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [995 Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार सूत्रकार ने जैसे प्रत्येक अध्ययन की प्रस्तावना और उस का उपसंहार करते हुए उत्क्षेप और निक्षेप इन दो पदों का उल्लेख करके प्रत्येक अध्ययन के आरम्भ और समाप्ति का बोध . कराया है, उसी क्रम के अनुसार श्री विपाकश्रुत का उपसंहार करते हुए सूत्रकार मंगलपूर्वक समाप्तिसूचक पदों का उल्लेख करते हैं मूल-नमो सुयदेवयाए। विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा-दुहविवागो य सुहविवागो यातत्थ दुहविवागे दस अज्झयणा एक्कसरगा दससुचेव दिवसेसु उद्दिसिजन्ति। एवं सुहविवागे वि। सेसं जहा आयारस्स। ॥एक्कारसमं अंगं सम्मत्तं॥ छाया-नमः श्रुतदेवतायै। विपाकश्रुतस्य द्वौ श्रुतस्कन्धौ-दुःखविपाकः सुखविपाकश्च। तत्र दुःखविपाके दश अध्ययनानि एकसदृशानि दशस्वेव दिवसेषु उद्दिश्यन्ते / एवं सुखविपाकेऽपि। शेषं यथा आचारस्य। // एकादशांगं समाप्तम्॥ पदार्थ-नमो-नमस्कार हो। सुयदेवयाए-श्रुतदेवता को। विवागसुयस्स-विपाकश्रुत के। दोदो। सुयक्खंधा-श्रुतस्कंध हैं, जैसे कि / दुहविवागो य-दुःखविपाक और। सुहविवागो य-सुखविपाक / तत्थ-वहां। दुहविवागे-दुःखविपाक में। दस-दस।अज्झयणा-अध्ययन। एक्कसरगा-एक जैसे। दंससु चेव-दस ही। दिवसेसु-दिनों में। उद्दिसिजंति-कहे जाते हैं। एवं-इसी प्रकार। सुहविवागे वि-सुखविपाक में भी समझ लेना चाहिए। सेसं-शेष वर्णन। जहा-जैसे।आयारस्स-आचारांग सूत्र का है, वैसे यहां पर भी समझ लेना चाहिए। एक्कारसमं-एकादशवां। अंग-अंग। सम्मत्तं-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-श्रुतदेवता को नमस्कार हो। विपाकश्रुत के दो श्रुतस्कंध हैं। जैसे कि१-दुःखविपाक और २-सुखविपाक। दुःखविपाक के एक जैसे दश अध्ययन हैं जो 996 ] श्री विपाक सूत्रम् / उपसंहार [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि दस दिनों में प्रतिपादन किये जाते हैं। इसी तरह सुखविपाक के विषय में भी जानना चाहिए अर्थात् उस के भी दश अध्ययन एक जैसे हैं और दश ही दिनों में वर्णन किए जाते हैं। शेष वर्णन आचारांग सूत्र की भाँति समझ लेना चाहिए। टीका-मंगलाचरण की शिष्ट परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। ग्रन्थ के आरम्भ और समाप्ति के अवसर पर मंगलाचरण करना यह शिष्ट सम्मत आचार है। इसी शिष्ट प्रथा का अनुसरण करते हुए सूत्रकार ने सूत्र की समाप्ति पर-नमो सुयदेवयाए-नमः श्रुतदेवतायै-इन पदों द्वारा मंगलाचरण का निर्देश किया है। इन का अर्थ अग्रिम पंक्तियों में किया जा रहा है। किसी-किसी प्रति में यह पाठ उपलब्ध नहीं भी होता। श्री विपाकश्रुत के दुःखविपाक और सुखविपाक ये दो श्रुतस्कन्ध हैं। दुःखविपाकजिस में दुष्ट कर्मों का दुःखरूप विपाक-परिणाम कथाओं के रूप में वर्णित हो वह दुःखविपाक है। सुखविपाक-जिस में शुभ कर्मों का सुखरूप विपाक-फल का विशिष्ट व्यक्तियों के जीवन वृत्तान्तों से बोध कराया जाए उसे सुखविपाक कहते हैं। दुःखविपाक के और सुखविपाक के दस-दस अध्ययन हैं। इस प्रकार कुल बीस अध्ययनों में श्रुतविपाक नाम के ग्यारहवें अंग का संकलन हुआ है। विपाकश्रुत के पूर्वोक्त 20 अध्ययनों के अध्ययनक्रम का भी सूत्रकार ने स्वयं ही स्पष्ट उल्लेख कर दिया है। सूत्रकार का कहना है कि विपाकसूत्रगत दुःखविपाक के दस अध्ययन दस दिनों में बांचे जाते हैं और सुखविपाक के दस अध्ययन भी दुःखविपाक की भाँति दस दिनों में प्रतिपादन किये जाते हैं। ... उपसंहार में सर्वप्रथम सूत्रकार ने श्रुतदेवता को नमस्कार किया है। यह नमस्कार अभिमतग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति पर किया जाता है और यह मंगल का सूचक तथा ग्रन्थ के निर्विघ्न पूर्ण हो जाने के कारण उत्पन्न हुए हर्षविशेष का परिचायक है। मनोविज्ञान का यह * सिद्धान्त है कि सफलता, सफल व्यक्ति को अपने इष्टदेव का स्मरण अवश्य कराया करती है। उसी के फलस्वरूप यह मङ्गलाचरण है। * श्रुतदेवता-यह शब्द तीर्थंकर या गणधर महाराज का बोधक है। अर्थात् इन पदों से सूत्रकार ने अर्थरूप से जैनेन्द्र वाणी के प्रदाता तीर्थंकर महाराज तथा सूत्ररूप से जैनेन्द्रवाणी के प्रदाता गणधर महाराज का स्मरण करके अपने पुनीत श्रद्धासंभार का परिचय दिया है। 1. श्रुत आगम शास्त्र को और स्कन्ध उस शास्त्र के खण्ड या विभाग को कहते हैं अर्थात् आगम या शास्त्र के खण्ड या विभाग का नाम श्रुतस्कन्ध है। इस के अपर विभाग अध्ययन के नाम से अभिहित किये जाते 2. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में श्रुतदेवता एक देवी मानी जाती है जो कि श्रुत की अधिष्ठात्री के रूप में इन के यहां प्रसिद्ध है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / उपसंहार [997 Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -एक्कसरगा-एकसदृशानि-इन पदों का अर्थ होता है-एक समान, एक जैसे। तात्पर्य यह है कि दुःखविपाक में जितने भी अध्ययन संकलित हैं वे सब एक समान हैं, इसी प्रकार सुखविपाक के दश अध्ययन भी एक जैसे हैं। यहां पर समानता परिणामगामिनी है अर्थात् प्रथम श्रुतस्कन्ध में वर्णित अध्ययनों का अन्तिम परिणाम दुःख और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वर्णित अध्ययनों का अन्तिम परिणाम सुख है। इस दुःख और सुख की वर्णित व्यक्तियों के जीवन में समानता होने से इन को एक समान कहा गया है। अथवा वर्णित व्यक्तियों के आचार में अधिक समानता होने की दृष्टि से भी एक समान-एक जैसे कहे जा सकते हैं। अथवा दस दिनों में इन दस अध्ययनों में वर्णित मृगापुत्र आदि तथा सुबाहुकुमार आदि सभी महापुरुष अन्त में परमसाध्य निर्वाण पद को प्राप्त कर लेते हैं। इस दृष्टि से भी ये सभी अध्ययन समान कहे गए हैं। विपाकश्रुत के अध्ययनादि क्रम को विशेष रूप से जानने के लिए श्री आचारांग सूत्र का अध्ययन अपेक्षित है। यह बात-सेसं जहा आयारस्स-इन पदों से ध्वनित होती है। अतः जिज्ञासु पाठकों को भी आचारांग सूत्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। सूत्रकार ने-सेसं जहा आयारस्स-यह कह कर जो विपाकश्रुत के शेष वर्णन को आचाराङ्ग सूत्र के समान संसूचित किया है, इस से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि सूत्रकार को आचाराङ्ग सूत्र की विपाकसूत्र के साथ कौन सी समानता अभिमत है, तथा आचारांग सूत्र के कौन से वर्णन के समान विपाकसूत्र का वर्णन समझा जाए। इस सम्बन्ध में आचार्य,अभयदेवसूरि भी मौन हैं / तथापि विद्वानों के साथ विचार करने से हमें जो ज्ञात हो सका है वह पाठकों की सेवा में अर्पित है। इस में कहां तक औचित्य है, यह पाठक स्वयं विचार करें। नन्दीसूत्र आदि सूत्रों में वर्णित श्री उपासकदशाङ्ग आदि सूत्रों के परिचय में श्रुतग्रहण के अनन्तर उपधान तप का वर्णन किया गया है। उपधान के अनेकों अर्थों में से "-उप समीपे धीयते क्रियते सूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानम्। अथवा-अङ्गोपाङ्गानां सिद्धान्तानां पठनाराधनार्थमाचाम्लोपवासनिर्विकृत्यादिलक्षणः तपोविशेष उपधानम्।" अर्थात् जिस तप के द्वारा सूत्र आदि की शीघ्र उपस्थिति हो वह तप उपधान तप कहलाता है। तात्पर्य यह है कि तप निर्जरा का सम्पादक होने से ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय तथा क्षयोपशम का कारण बनता है। जिस से सूत्रादि की शीघ्र अवगति हो जाती है तथा साथ में सूत्राध्ययन निर्विघ्नता से समाप्त हो जाता है। अथवा अङ्ग तथा उपाङ्ग सिद्धान्तों के पढ़ने और आराधन करने के लिए आयंबिल, उपवास और निर्विकृति आदि लक्षण वाला तपविशेष-" ये दो अर्थ उपलब्ध होते हैं, इन्हीं अर्थों की पोषक मान्यता आज भी प्रत्येक सूत्राध्ययन के साथ-साथ या अन्त में की 998 ] श्री विपाक सूत्रम् / उपसंहार [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाती आयंबिल तपस्या के रूप में पाई जाती है। यह ठीक है कि वर्तमान में उपलब्ध आगमों में किस सूत्राध्ययन में कितना आयंबिल आदि तप होना चाहिए, इस सम्बन्ध में कोई निर्देश . नहीं मिलता, तथापि उन में उपधान तप के वर्णन से पूर्वोक्त मान्यता की प्रामाणिकता निर्विवाद सिद्ध हो जाती है। आगमों के अध्ययन के समय आयंबिल तप की गुरुपरम्परा के अनुसार जो मान्यता आज उपलब्ध एवं प्रचलित है, उस की तालिका पाठकों की जानकारी के लिए नीचे दी जाती है. ११-अङ्गशास्त्र-१-आचाराङ्गसूत्र 40 आयंबिल। २-सूत्रकृताङ्गसूत्र 30 आयंबिल। ३-स्थानांगसूत्र 18 आयंबिल। ४-समवायांगसूत्र 3 आयंबिल।५-भगवतीसूत्र 186 आयंबिल। ६-ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 33 आयंबिल। ७-उपासकदशाङ्ग 14 आयंबिल। ८-अन्तकृद्दशाङ्ग 12 आयंबिल / ९-अनुत्तरोपपातिकदशा 7 आयंबिल। १०-प्रश्नव्याकरण 5 आयंबिल / ११विपाक सूत्र 24 आयंबिल। १२-उपाङ्गशास्त्र-१-औपपातिक 3 आयंबिल। २-राजप्रश्नीय 3 आयंबिल। ३जीवाभिगम 3 आयंबिल। ४-प्रज्ञापना 3 आयंबिल। ५-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 30 आयंबिल। ६निरयावलिका 7 आयंबिल।७-कल्पावतंसिका 7 आयंबिल। ८-पुष्पिका 7 आयंबिल / ९पुष्पचूला 7 आयंबिल। १०-वृष्णिदशा 7 आयंबिल। ११-चन्द्रप्रज्ञप्ति 3 आयंबिल। १२सूर्यप्रज्ञप्ति 3 आयंबिलां . ४-मूलसूत्र-१-दशवैकालिक 15 आयंबिल / २-नन्दी 3 आयंबिल।३-उत्तराध्ययन 29 आयंबिल। ४-अनुयोगद्वार 29 आयंबिल। ४-छेदसूत्र-१-निशीथ 10 आयंबिल / २-बृहत्कल्प 20 आयंबिल।३-व्यवहार 20 आयंबिल। ४-दशाश्रुतस्कन्ध 20 आयंबिल। .11 अङ्ग, 12 उपाङ्ग, 4 मूल और 4 छेद ये 31 सूत्र होते हैं। आवश्यक 32 वां सूत्र है, उस के लिए 6 आयंबिल होते हैं। . प्रस्तुत में विपाक का प्रसंग चालू है। अतः विपाक के अध्ययन आदि करने वाले महानुभावों के लिए गुरुपरम्परा के अनुसार आज की उपलब्ध धारणा से 24 आयंबिलों का 1. आयंबिल शब्द के अनेकों संस्कृतरूपों में से आचाम्ल, यह भी एक रूप है। आचाम्ल में दिन में एक बार रुक्ष, नीरस एवं विकृतिरहित एक आहार ही ग्रहण किया जाता है। दूध, घी, दही, तेल, गुड़, शक्कर, मीठा और पक्वान्न आदि किसी भी प्रकार का स्वादु भोजन आचाम्लव्रत में ग्रहण नहीं किया जा सकता। इस में लवणरहित चावल, उड़दं अथवा सत्तू आदि में से किसी एक के द्वारा ही आचाम्ल किया जाता है। आजकल भूने हुए चने आदि एक नीरस अन्न को पानी में भिगो कर खाने का भी आचाम्ल प्रचलित है। इस तप में रसलोलुपता पर विजय प्राप्त करने का महान् आदर्श है। वास्तव में देखा जाए तो रसनेन्द्रिय का संयम एक बहुत बड़ा संयम है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / उपसंहार [999 Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुष्ठान अपेक्षित रहता है। इसी बात को संसूचित करने के लिए सूत्रकार ने विपाकसूत्र के अन्त में-सेसं जहा आयारस्स-इन पदों का संकलन किया है। अर्थात् विपाकसूत्र के सम्बन्ध में अवशिष्ट उपधान तप का वर्णन आचारांग सूत्र के वर्णन के समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि आचाराङ्गसूत्रगत उपधानतप तपोदृष्ट्या समान है। जैसे आचारांग सूत्र के लिए उपधानतप निश्चित है वैसे ही विपाकसूत्र के लिए भी है, फिर भले ही वह भिन्न-भिन्न दिनों में सम्पन्न होता हो। दिनगत भिन्नता ऊपर बताई जा चुकी है। किसी-किसी प्रति में ग्रंथानं-१२५०, ऐसा उल्लेख देखा जाता है। यह पुरातन शैली है। उसी के अनुसार यहां भी उस को स्थान दिया गया है। ग्रंथ के अग्र को ग्रन्थान कहते हैं। ग्रन्थ का अर्थ स्पष्ट है, और अग्र नाम परिमाण का है। तब ग्रंथ-शास्त्र का अग्र-परिमाण ग्रंथाग्र कहलाता है। तात्पर्य यह है कि ग्रन्थगत गाथा या श्लोक आदि का परिमाण का सूचक ग्रंथान शब्द है। प्रस्तुत सूत्र का परिमाण 1250 लिखा है, अर्थात् गद्यरूप में लिखे गए विपाकश्रुत का यदि पद्यात्मक परिमाण किया जाए तो उसकी संख्या 1250 होती हैं। परन्तु यह कहां तक ठीक है, यह विचारणीय है। क्योंकि वर्तमान में उपलब्ध विपाकसूत्र की सभी प्रतियों में प्रायः पाठगत भिन्नता सुचारुरूपेण उपलब्ध होती है, फिर भले ही वह आंशिक ही क्यों न हो। उपलब्ध अंगसूत्रों में विपाकसूत्र का अन्तिम स्थान है तथा आप्तोपदिष्ट होने से इस की प्रामाणिकता पर भी किसी प्रकार के सन्देह को अवकाश नहीं रहता। तथा इस निग्रंथप्रवचन से जो शिक्षा प्राप्त होती है उस का प्रथम ही भिन्न-भिन्न स्थानों पर अनेक बार उल्लेख कर दिया गया है और अब इतना ही निवेदन करना है कि मानवभव को प्राप्त कर जीवनप्रदेश में अशुभकर्मों के अनुष्ठान से सदा पराङ्मुख रहना और शुभकर्मों के अनुष्ठान में सदा उद्यत रहना, यही इस निर्ग्रन्थप्रवचन से प्राप्त होने वाली शिक्षाओं का सार है। अन्त में हम अपने सहृदय पाठकों से पूज्य अभयदेवसूरि के वचनों में अपने हार्द को अभिव्यक्त करते हुए विदा लेते हैं इहानुयोगे यदयुक्तमुक्तं, तद्धीधनाः द्राक् परिशोधयन्तु। नोपेक्षणं युक्तिमदन येन, जिनागमे भक्तिपरायणानाम्॥१॥ ॥श्री विपाकसूत्र समाप्त॥ 1. अर्थात् आचार्य श्री अभयदेवसूरि का कहना है कि मेरी इस व्याख्या में जो अयुक्त-युक्तिरहित कहा . गया है, जैनागमों की भक्ति में परायण-लीन मेधावी पुरुषों को उस का शीघ्र ही संशोधन कर लेना चाहिए, क्योंकि व्याख्यागत अयुक्त-युक्तिशून्य स्थलों की उपेक्षा करनी योग्य नहीं है। 1000] श्री विपाक सूत्रम् / उपसंहार [द्वितीय श्रुतस्कंध Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचाव . 1. व्याख्या में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची 2. विपाक सूत्रीय शब्दकोष 3. शब्दचित्र एवं साहित्य सूची Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 प्रस्तावना तथा सूत्रव्याख्या में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची १-अर्धमागधी कोष २४-जवाहरकिरणावली (छठी किरण) २-अनुयोगद्वार सूत्र २५-जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह ३-अभिधानचिंतामणि कोष (आचार्य हेमचन्द्र) (अगरचंद भैरोंदान सेठिया बीकानेर) ४-अभिधानराजेन्द्र कोष २६-जैनसिद्धान्तकौमुदी ५-अष्टांग हृदय __ (शतावधानी श्री रत्नचंद जी महाराज) ६-अन्तकृद्दशांग सूत्र २७-तर्कसंग्रह ७-आचारांग सूत्र - २८-तत्त्वार्थ सूत्र (पं० सुखलाल जी) ८-आत्मरहस्य (श्री रतनलाल जी जैन) २९-तत्त्वार्थ सूत्र (भाष्य) ९-आवश्यकनियुक्ति ३०-दशवैकालिक सूत्र १०-इंजील (ईसाई धर्मग्रन्थ) (आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज) ११-उत्तराध्ययन सूत्र ३१-दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र (आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज) (आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज) १२-उपासकदशांग सूत्र ३२-दीवाने अकबर (पण्डित प्रवर मुनि श्री घासीलाल जी म०) | ३३-देवागम स्तोत्र (समन्तभद्र आचार्य) १३-ऋग्वेद ३४-धम्मपद (बौद्ध ग्रन्थ) १४-औपपातिक सूत्र (सटीक) ३५-धर्मवीर सुदर्शन १५-कबीरवाणी (कविरत्न श्री अमरचंद जी महाराज) १६-कर्मग्रन्थ (पण्डित सुखलाल जी) ३६-न्यायसिद्धान्तमुक्तावली १७-कल्पसूत्र (सटीक) ३७-नवतत्त्व १८-गरुड़ पुराण ३८-नालन्दाविशालशब्दसागर (कोष) १९-गुरुग्रन्थ साहिब (सिक्ख धर्मशास्त्र) ३९-नंदीसूत्र (सटीक) २०-चक्रदत्त ४०-पंचतन्त्र २१-चरकसंहिता . ४१-पद्मकोष २२-जम्बूचरित्र ४२-प्रज्ञापना सूत्र (सटीक) २३-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ४३-प्रश्नव्याकरण सूत्र (सटीक) "वद परिशिष्ट 1] श्री विपाक सूत्रम् [1003 Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४-प्राकृतशब्दमहार्णव (कोष) ४५-भगवती सूत्र सटीक (श्री अभयदेव सूरि) ४६-भगवती सूत्र प्रथम शतक-६ भाग (आचार्य श्री जवाहर लाल जी म०) ४७-भगवती सूत्र (पं० श्री बेचरदास जी) ४८-भगवान महावीर का आदर्श जीवन (प्रसिद्धवक्ता श्री चौथमल जी महाराज) ४९-भगवद्गीता ५०-मनुस्मृति (सटीक) ५१-महाभारत ५२-माधवनिदान ५३-मेघदूत ५४-योगशास्त्र (आचार्य हेमचन्द्र) ५५-राजप्रश्नीय सूत्र (सटीक) ५६-रामचरितमानस (तुलसीदास) ५७-लोक प्रकाश ५८-बंगसेन ५९-वाग्भट्ट ६०-वाणी संत तुकाराम जी ६१-वात्स्यायन कामसूत्र ६२-विपाकसूत्र (श्री अभयदेव सूरि) ६३-विपाकसूत्र (मुनि आनन्द सागर जी) / ६४-विपाकसूत्र (पण्डितप्रवर मुनि श्री घासी लाल जी महाराज) ६५-विपाक सूत्र (अंग्रेजी अनुवाद सहित) ६६-वीतरागदेवस्तोत्र (आचार्य हेमचन्द्र जी) ६७-बृहत्कल्प सूत्र (सटीक) ६८-वैराग्य शतक (भर्तृहरि) ६९-बृहत् हिन्दी कोष ७०-शब्दस्तोममहानिधि (कोष) ७१-शब्दार्थचिन्तामणि (कोष) ७२-शाकटायन व्याकरण ७३-शार्ङ्गधरसंहिता ७४-शिवपुराण ७५-शिशुपालवध ७६-श्रमणसूत्र (कविरत्न श्री अमरचन्द जी महाराज) ७७-श्रावक के बारह व्रत (आचार्य श्री जवाहर लाल जी महाराज) ७८-श्रावकाचार ७९-समवायांग सूत्र (सटीक) ८०-संस्कृतशब्दार्थकौस्तुभ (कोष) ८१-संक्षिप्त हिन्दीशब्दसागर . (काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित) ८२-सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र ८३-सिद्धहेमशब्दानुशासन (आचार्य हेमचन्द्र) ८४-सिद्धान्तकौमुदी (भट्टोजि दीक्षित) ८५-सुभाषितरत्नभाण्डागार (संस्कृतश्लोकसंग्रह) ८६-सुश्रुतसंहिता. ८७-सूयगडांग सूत्र (सटीक) | ८८-सृष्टिवाद समीक्षा ८९-स्थानांग सूत्र (सटीक) ९०-हरिभद्रीयाष्टक ९१-हितोपदेश ९२-ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र (सटीक) ***** 1004 ] श्री विपाक सूत्रम् [परिशिष्ट Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट नं. 2 विपाकसूत्रीय शब्दकोष शब्द .अ our m" 3.09. अकज्ज अकन्त अकामिय अकारए अक्खयणिहि अक्खाय अगड 8. अगणिकाय 9 अग्गओ अग्गपुरिस 11 अग्गिअ 12 अङ्ग 13 अङ्ग 14 अच्छि 15 अजीरए 16 अज्ज.. 17 अज 18 अज्झथिए 19 अज्झयण 20 अज्झवसाण 21 अज्झोववन्न 22 अट्ट 23 अट्ठ 24 अट्ठ 25 अट्ठम 26 अट्ठम 'परिशिष्ट नं.२] शब्द 27 अट्ठमी 28 अट्ठारस्स 29 अट्ठारसम 30 अट्ठि 31 अड् (अट्) . 32 अडवी 33 अड्ढ 34 अड्ढरत्त 35 अड्ढहार .36 अड्ढाइन 37 अणगार 38 अणंतर 39 अणधारय 40 अणाह 41 अणिट्ठ 42 अणिट्ठतर 43 अणुकड्ढ 44 अणुगिण्ह 45 अणुपत्त 46 अणुमग्ग अणुमय 48 अणुवड्द 49 अणुवासण 50 अणेग 51 अणेगखण्डी 52 अणोहट्टिए 53 अण्डअ शब्द अण्डयवाणिय अण्ण 56 अण्णया अण्णिजमाण अतिसरमाण 59 अईव 60 अतुरिय 61 अत्तए अत्ताण अत्थसम्पयाण अस्थि अथाम 66 अदूरसामन्त अद्दहिय 68 अद्ध अद्धाण 70 अन्तरावण अन्तिए अन्तियाओ 73 अन्तेवासी अन्नत्थ अन्नमन्न 76 अपुण्णा 77 अप्पाण अप्पिया 79 अप्पेगइय 80 अप्फुण्णा श्री विपाक सूत्रम् [1005 Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द शब्द 81 अबीय 82 अब्भंग 83 अब्भणुण्णाए 84 अब्भंग 85 अब्भंतर 86 अभिंतरिय 87 अब्भुक्ख 88 अब्भुग्गय 89 अब्भुढेइ 90 अभिक्खण 91 अभिभूय 92 अभिसेय 93 अभिसेग 94 अमच्च 95 अमणाम 96 अमणुण्ण 97 अम्मधाइ 98 अम्म 99 अय 100 अयोमय 101 अरिस 102 अरिसिल्ल 103 अलंकारिय 104 अलंभोगसमत्थ 105 अलए 106 एल्ल 107 अलपट्ट 108 अल्लीण 109 अवओडग 110 अवक्कम 111 अवण्हाण 112 अवडू 113 अवदाहण 114 अवयासाव 115 अवरज्झ 116 अवसेस 117 अवीरिए 118 असण 119 असयंवस 120 अस्सारोह 121 असिपत्त 122 असिलट्ठि 123 असुह 124 अंसागय 125 अहम्मिए 126 अहापज्जत्त 127 अहापडिरूव 128 अहासुह 129 अहिमड 130 अहिलस 131 अह .. शब्द 144 आढा 145 आणत्तिय 146 आणव 147 आणुपुव्व 148 आपुच्छ 149 आवाह 150 आभिओगि 151 आभोअ 152 आमंत 153 आमल .. 154 आमेल 155 आयन्त 156 आयव 157 आयाहिणपयाहिण 158 आवण्णसत्ता 159 आरंसिय 160 आलीवण 161 आलीविय 162 आलोअ. 163 आलोइय 164 आवज . 165 आस 166 आसअ 167 आसत्थ 168 आसवाहणी 169 आसाअ 170 आसुरुत्त 171 आहिण्ड 172 आहिय 173 आहेवच्च आ 132 आइक्ख 133 आउ 134 आउय 135 आउर 136 आउव्वेय 137 आउह 138 आओडाव 139 आगय 140 आगम 141 आगार 142 आगिइमित्त 143 आगिई 7 174 इ 1006 ] श्री विपाक सूत्रम् [परिशिष्ट नं.२ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्द 175 इओ 176 इंगाल 177 इच्छ 178 इट्ट 179 इड्ढी 180 इत्थी 181 इन्दमह 182 इब्भ 183 इरियासमित. 184 इरियासमिय 185 ईसर शब्द 238 उव्वट्ट 239 उव्वट्टण 240 उव्वट्टाव 241 उसिण 242 उस्सुक्क 243 उस्सेह 244 उसिय 245 उह xxkk F 186 उउय 187 उक्कंप 188 उक्किट्ठ . 189 उकित्त 190 उक्कुरुडिया 191 उक्कोडा 192 उक्कोस 193 उक्खे व . 194 उग्गाह 195 उग्घोस 196 उच्चार 197 उच्छंग 198 उज्जल 199 उज्जाण 200 उज्झ 201 उट्ट 202 उट्टिया 203 उट्ठ . 204 उट्ठाय 205 उत्तरकंचुइज्ज शब्द 206 उत्तरपुरत्थिम 207 उत्तरासंग 208 उत्तरिल्ल 209 उत्ताण 210 उदअ 211 उद्दिटु 212 उदाहु 213 उद्दाअ -214 उद्दामिय 215 उप्पत्तिया * 216 उप्पाड 217 उप्पीलिय 218 उप्फेणउप्फेणिय 219 उरपरिसप्प 220 उराल 221 उरुघंट 222 उरंउर 223 उल्ल 224 उलुग्ग 225 उवउत्त 226 उवगअ 227 उवगूढ 228 उवंग 229 उवदंस 230 उवदिस 231 उवप्पयाण 232 उवयार 233 उववन्न 234 उववेय 235 उवसाम 236 उवागअ 237 उवीलण 246 एक्कवीस 247 एक्कारसम 248 एक्कारसम 249 एग 250 एगट्ठिय 251 एगतीस 252 एगसाडिय 253 एगमेग 254 एगूण 255 एगूणतीस 256 एज्जमाण 257. एणेज्ज 258 एत्तो 259 एयकम्म 260 एल ओ 261 ओगाढ 262 ओगाह . 263 ओट्ठ 264 ओमंथिय . 265 ओमुय 266 ओरोह 267 ओलूह परिशिष्ट नं 2] श्री विपाक सूत्रम् [1007 Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द शब्द 268 ओवाइय 269 ओवील 270 ओवील 271 ओवीलेमाण 272 ओसह 273 ओसारिय 274 ओहय 275 ओहीर क 276 कइ 277 ककुह 278 कक्करस 279 कक्ख 280 कच्छ 281 कच्छभ 282 कच्छुल्ल 283 कज्ज 284 कटु 285 कट्ठ 286 कड 287 कडसक्कर 288 कडीअ 289 कडुय 290 कणग 291 कणङ्गर 292 कण्डू 293 कण्ण 294 कणीरह 295 कत्तो 296 कत्थ 297 कत्थइ 298 कन्त 299 कन्दू 300 कप्प 301 कप्प 302 कप्पडिय 303 कप्पणी 304 कप्पाय 305 कप्पिय 306 कमलोवम 307 कंबल 308 कम्म 309 कयत्थ 310 कयर 311 कयलक्खण 312 कयाइ 313 कर 314 करकडि 315 करपत्त 316 करयल 317 करोडिय 318 कलकल 319 कलंबचीरपत्त 320 कलुस 321 कल्लाकल्लि 322 कवअ 323 कवल्ली 324 कवोय 325 कवलग्गाह 326 कविट्ठ 327 कस 328 कहा 329 कहिं 330 कहिं शब्द 331 काइ 332 काकणिमंस 333 कायतिगिच्छा 334 कारण 335 काल 336 काल 337 कालधम्म 338 कालमास 339 कालुण्णवडिया 340 कास 341 कासिल्ल 342 किडिकिडियाभूय 343 किमि 344 किंसुअ 345 किड्ड 346 कील 347 कीलावण 348 कीलिय 349 कुक्कुडि 350 कुच्छि 351 कुच्छि 352 कुडंग 353 कुडुम्बजागरिया 354 कुन्त 355 कुमार 356 कुहाड 357 कूडपास 358 कूल 359 कूविय 360 कूयमाण 361 कोउय 362 कोट्टिल्ल . 1008 ] श्री विपाक सूत्रम् [परिशिष्ट नं.२ Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द 425 गेह 426 गेविज्ज 427 गोठिल्लिअ 428 गोणत्त 429 गोण्ण 430 गोत्त 431 गोत्तास 432 गोमण्डव शब्द 363 कोडी 364 कोडुंबिय 365 कोढ 366 कोढिय 367 कोद्दालिया 368 कोप्पर 369 कोमारभिच्च 370 कोलंब 371 कोवघर ख - 372 खण 373 खणण 374 खण्डपट्ट 375 खण्डपडह 376 खण्डमल्ल. 377 खण्डिय 378 खण्डी 379 खत्त 380 खत्तिय 381 खम्भ 382 खलअ . 383 खलीणमट्टिय 384 खलुअ 385 खर 386 खहयर 387 खातिम 388 खाय 389 खिप्प 390 खीर 391 खील 392 खुज 393 खुर शब्द 394 खुरपत्त 395 खेड ग 396 गढिय 397 गणिम 398 गणिया 499 गण्ठिभेय 400 गय 401 गत्त 402 गन्धवट्टअ 403 गन्धव्व 404 गब्भ 405 गल 406 गामेल्ल 407 गायलट्टि . 408 गालण 409 गावी 410 गाह 411 गाह 412 गाहावइ 413 गिद्ध 414 गिलाण 415 गिह 416 गिह 417 गिहिधम्म 418 गीवा 419 गुज्झ 420 गुडा 421 गुडिय 433 घड 434 घर 435 घलंघल 436 घाय 437 घायावणा 438 घिसर 439 घुट्ठ 440 घुइ 441 चउक्क 442 चउणाण 443 चउत्थ 444 चउद्दसी 445 चउप्पअ 446 चउप्पुड 447 चउरिंदिअ 448 चउव्विह 449 चउसट्ठि 450 चक्खु 451 चडयर 452 चच्चर 453 चंदसूरदसण 454 चम्पग गुंडिय गुत्तिय 424 गुलिया परिशिष्ट नं.२] श्री विपाक सूत्रम् [1006 Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द शब्द 486 छिद्द 487 छिप्प 488 छिप्पतूर 489 छिव 490 छुभावेइ शब्द 455 चम्म 456 चम्मपट्ट 457 चय 458 चाउद्दस 459 चाउरंग 460 चारग 461 चारगपाल 462 चारुवेस 463 चिंचा 464 चिच्चिसर 465 चिट्ठ 466 चिंधपट्ट 467 चिराईअ 468 चुय 469 चुलपिउअ 470 चुल्लमाउआ 471 चेइअ 472 चेलुक्खेव 473 चोक्ख 474 चोद्दसपुवि 475 चोद्दसम 476 चोरपल्ली 491 जक्ख 492 जक्खाययण 493 जंगोल 494 जण 495 जत्त 496 जइ 497 जओ 498 जप्पभिइ 499 जंभा 500 जमगसमग 501 जम्म 502 जम्म 503 जम्मपक्क 504 जर 505 जलयर 506 जहण 507 जहा 508 जहानामए 509 जहाविभव 510 जहोइय 511 जा 512 जाइ 513 जाइअंध 514 जाइसंपन्न 515 जागरिया 516 जाण 517 जाणअ 518 जायनिंदुआ 519 जामाउआ . 520 जाणु 521 जायअ 522 जायमेत्त 523 जायसड्ढ 524 जाव 525 जाहे 526 जिह्व 527 जिमिय 528 जमलत्त 529 जुत्त / 530 जुय 531 जुवराया 532 जूय 533 जूयकार 534 जूह , 535 जे? 536 जोणिसूल 537 जोव्वण 538 झय . 539 झाणकोट्ठ 540 झियाइ 541 झिल्लरी 542 झूस 477 छ? 478 छट्ठक्खमण 479 छटुं छ? 480 छडछडस्स 481 छड्डण 482 छत्त 483 छल्ली 484 छागलिय 485 छिज्ज ट 543 टिट्टिभि 544 ढाणिज 545 ठव 1010] श्री विपाक सूत्रम् [परिशिष्टं नं 2 Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द 546 ठित 547 ठिइ 548 ठिइवडिय 549 डम्भण शब्द 607 तुप्पिय 608 तूवर 609 तेइन्दिअ 610 तेइच्छिओ 611 तेउ 612 तेत्तीस 613 तेरस 614 तेरसम 615 तेल्ल 616 त्ति 575 तए 576 तओ 577 तत्थ 578 तन्त 579 तन्ती 580 तप्पण 581 तप्पभिइ 582 तम्ब 583 तलवर 584 तलिय 585 तवअ 586 तवस्सी 587 तहत्ति 588 तहा 589 तहारूव 550 डह 551 णक्खत्त 552 णज्जति 553 णयरी 554 णरग। 555 णवरं 556 णाइ 557 णाणी 558 णाली 559 णिक्किट्ठ 560 णिच्छुभइ : 561 णिज्जायमाण 562 णिव्वुड 563 णेयव्व 564 णेरइय 565 णेरइयत्ता 566 णं 567 ण्हाय 617 थण 618 थलयर 619 थासक 620 थिमिय 621 थिर 622 थिविथिवंत 623 थेर .. 591 ताल 592 ताव 593 ताहे 594 ति 595 तिकरण 596 तिक्खुत्तो 597 तिन्दूस 598 तिय 599 तिरिक्ख 600 तिरिय 601 तिलंतिल 602 तिवलिय 603 तिविह 604 तिसिर 605 तिहि 606 तुट्ठ 568 तउय 569 तच्च 570 तच्छण 571 तज्ज 572 तडि 573 तण 574 तत्त 624 दग 625 दच्चा 626 दढप्पहार 627 दण्डअ 628 दंडिखण्डवसण 629 दब्भ. 630 दब्भाण 631 दसद्धवण्ण 632 दंसण 633 दरिसणिज्ज 634 दलय 635 दवावेइ 636 दव्वसुद्ध परिशिष्ट 2] श्री विपाक सूत्रम् [1011 Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शब्द 669 दुहट्ट 670 दुइज्जमाण 671 देवाणुप्पिय 672 देसप्पन्त 673 देसीभासा 674 देहंबलि 675 दो 676 दोच्च 637 दसम 638 दसरत्त 639 दह 640 दाअ 641 दाओयरिअ 642 दाम 643 दाय 644 दारअ 645 दारग 646 दारिय 647 दालिम 648 दाह 649 दाहिणपुरत्थिम 650 दिज्ज 651 दिट्ठ 652 दिट्ठी 653 दिण्ण 654 दिसिभाअ 655 दीह 656 दुग्ग 657 दुच्चिण्ण 658 दुद्ध 659 दुद्धिय 660 दुप्पडिक्कंत 661 दुप्पडियाणंद 662 दुप्पहंस 663 दुब्बल 664 दुरूह 665 दुल्लभ 666 दुवार 667 दुवे 668 दुह 677 धमणि 678 धम्म 679 धम्मायरिय 680 धरणीयल . 681 धरिम 682 धसत्ति 683 धाइ 684 धिई शब्द 699 नाडअ 700 नामधेज 701 नास .. 702 निक्कण 703 निक्खमण 704 निक्खेव 705 निगर 706 निग्गच्छइ 707 निग्गन्थ 708 निग्गम 709 निग्गम 710 निच्चे? 711 निच्छूढ 712 निडाल 713 निच्छअ 714 नित्तेय . 715 नित्थाण 716 निदाण' 717 निद्धण . 718 निप्पक्ख 719 निप्पाण 720 निप्फन 721 निब्भय 722 नियग 723 नियत्त 724 नियत्थ 725 नियल 726 निरुवसग्ग 727 निरूह 728 निवाइए 729 निविण्ण 730 निवेस .. 688 नक्क 689 नगर 690 नत्तुअ 691 नत्तुइणीअ 692 नत्तुई 693 नत्तुयावई 694 नत्थि 695 नई 696 नपुंसगकम्म 697 नमंसित्ता 698 नहच्छेयण 1012 ] श्री विपाक सूत्रम् [परिशिष्ट नं.२ Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्द 731 निवेसिय 732 निव्वत्त 733 निव्वाघाअ 734 निव्विण्ण 735 निसियाव 736 नीहरण 737 नेह प 738 पउर 739 पयोयण 740 पक्खार, 741 पक्खी 742 पगडिज्जमाण .743 पगलंत 744 पंगुल . 745 पच्चक्ख * 746 पच्चणुभव . 747 पञ्चणुव्वइया :: 748 पच्चाया 749 पंचिन्दिय 750 पच्चुत्तर . 751 पच्छण्ण 752. पच्छा 753 पच्छाव 754 पज्ज 755 पज्जुवास 756 पट्ट 757 पट्टय 758 पड 759 पडाग 760 पडागाइपडाग 761 पडिकप्पिय शब्द 762 पडिक्कंत 763 पडिगय 764 पडिजागरमाण 765 पडिनिक्खम 766 पडिणियत्त 767 पडिबंध 768 पडिबोहिय 769 पडियाइक्ख 770 पडियार 771 पडिलाभ 772 पडिवज 773 पडिबाल 774 पडिविसज्ज 775 पडिसुण 776 पडिसेह 777 पड्डिय 778 पढम 779 पढममल्ल 780 पण्णत्त 781 पणतीस 782 पणवीस 783 पंडिय 784 पंडुल्लइय 785 पण्हवण 786 पण्हावागरण 787 पत्त 788 पत्त 789 पत्त 790 पइ 791 पत्थ 792 पत्थिय 793 पंथकोट्ट शब्द 794 पंथकोट्ट 795 पभणित 796 पभिइ 797 पभू 798 पमज्ज 789 पमोद 800 पम्हल 801 पया 802 पया 803 पयाय 804 पयाया 805 पयार 806 पयोग 807 परसु 808 परंमुह 809 पराभव 810 परामुस 811 परक्कम 812 परिक्खित्त 813 परिग्गहिय 814 परिचत्त 815 परिछेज्ज 816 परिजण 817 परिजाण 818 परिणय 819 परिणाम 820 परितंत . 821 परित्तीकय 822 परिपेरन्त . 823 परिभाअ 824 परियट्ट 825 परियाग परिशिष्ट नं 2] श्री विपाक सूत्रम् [1013 Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द 826 परिवस 827 परिवुडा 828 परिस्सव 829 परिसा 830 परिसुक्क 831 परिहे 832 पवह 833 पवाह 834 पवहण 835 पवाय 836 पव्व 837 पसण्ण 838 पसय 839 पस्स 840 पंसु 841 पह 842 पहकर 843 पहरण 844 पहाण 845 पहार 846 पाउण 847 पाउब्भूय 848 पाउया 849 * पाउस 850 पाग 851 पागार 852 पाड 853 पाड 854 पाडण 855 पाडल 856 पाण 857 पाणि शब्द 858 पाणिग्गहण 859 पाणिय 860 पामुक्ख 861 पाय . 862 पायच्छित्त 863 पायन्दुय 864 पायरास 865 पायपडिया 866 पायपीढ 867 पारणग 868 पारदारिय 869 पारेवइ 870 पाले 871 पाव 872 पावयण 873 पास 874 पासवण 875 पासाईय 876 पासाय 877 पासायवडंसग 878 पाहुड 879 पि 880 पिअ 881 पिट्ठओ 882 पिडअ 883 पिउस्सियापइय 884 पिप्पल 885 पिव 886 पिह 887 पीय 888 पीय 889 पीह शब्द 890 पुक्खरिणी 891 पुच्छ 892 पुंज 893 पुडपाग 894 पुढवी 895 पुढवीकाय 896 पुण्ण 897 पुत्त 898 पुत्तताअ 899 पुष्फ 900 पुरओ 901 पुरापोराण 902 पुरिस . 903 पुरिसक्कार 904 पुरोहिअ 905 पुव्व .906 पुव्वरत्तावरत्तकाल 907 समय , 908 पुव्वाणुपुल्वि 909 पुव्वावरण्ह 910 पूय 911 पूयत्त ' 912 पोरंत 913 पेल्ल 914 पेल्लअ 915 पोय 916 पोरिसी 917 पोसहिअ 918 पोसह 919 पोसहसाला फ 920 फरिह .. 1014 ] श्री विपाक सूत्रम् [परिशिष्टं नं.२ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 921 फलह 922 फलवित्तिविसेस 923 फुट्ट 924 फुल्ल 925 बत्तीस 926 बंदीगहण 927. बम्भयारी 928 बहिया . 929 बारस 930 बालत्तण 931 बालघाई 932 बावत्तरी 933 बाहिर 934 बीअ. 935 बुज्झ 936 बेइन्दिअ 937 बेमि शब्द 951 भर 952 भर 953 भाग 954 भारिया 955 भास 956 भिउडि 957 भिक्खुय 958 भिज्ज 959 भिसर 960 भिय 961 भुक्खा 962 भुज्जो 963 भुयपरिसप्प 964 भूमिघर 965 भूमिया 966 भूयविजा 967 भेय शब्द 982 मज्जण 983 मज्जाविया 984 मज्जाव 985 मज्झ 986 मज्झमझेण 987 मणाम 988 मणुअ 989 मणुण्ण 990 मणुस्स 991 मंडण 992 मण्डव 993 मन्त 994 मन्त 995 मधु 996 मन्ने 997 मम्मण 998 मयकिच्च 999 मलण 1000 मलिय 1001 मल्ल 1002 मह 1003 महतिमहालिय 1004 महग्घ 1005 महण 1006 महय 1007 महत्थ 1008 महापह 1009 महापिउ 1010 महामाउअ 1011 महाणसिय 1012 महिट्ठ 1013 महिय 968 भेसज्ज 969 भोच्चा 970 भोयण 971 भोयाव 938 भगवं 939 भगंदर 940 भगंदरिय 941 भज्जणअ 942 भजित 943 भण्डग 944 भइ 945 भत्त 946 भत्तपाण 947 भत्तबेला 948 भत्तघर 949 भत्तपाणघर 950 भन्ते 972 मउड 973 मगर 974 मग्ग 975 मग्गइअ 976 मच्छ 977 मच्छखलअ 978 मच्छंध 979 मच्छिय 980 मच्छिया 981 मज्ज परिशिष्ट नं२] श्री विपाक सूत्रम् [1015 Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द 1014 महुर 1015 माई 1016 माउसिया 1017 माउसियापइ 1018 माडंबिय 1019 माणुस्सग 1020 मामिया 1021 मायाभत्त 1022 मारुय 1023 माहण 1024 मित्त 1025 मिसिमिसीमाण 1026 मुग्गर 1027. मुच्छिय 1028 मुत्त 1029 मुद्दिया 1030 मुद्ध 1031 मुद्ध 1032 मुह 1033 मुहपोत्ति 1034 मुहुत्त 1035 मुअ 1036 मेज्ज 1037 मेरग 1038 मोडिय शब्द 1044 रत्त 1045 रत्ति 1.046 रयणप्पभा 1047 रसायण 1048 रहस्स 1049 रहस्सिय 1050 रहस्सकय 1051 राअ 1052 रायमग्ग 1053 राया 1054 रायरिह 1055 रायावगारी 1056 रिउव्वेय 1057 रिद्ध 1058 रिद्धि 1059 रुक्ख 1060 रुहिर 1061 रूव 1062 रोगिय 1063 रोज्झ 1064 रोयातंक नाम 43 44 4 लू / शब्द 1075 लावक 1076 लुद्ध 1077 लेसे 1078 लोइय 1079 लोमहत्थ 1080 लोहियपाणी व 1081 वइस्स 1082 वक्कबंध 1083 वक्खेव 1084 वज 1085 वज्झ 1086 वज्झ . 1087 वट्ट 1088 वट्टक 1089 वडिया 1090 वड्ढिअ 1091 वण , 1092 वणप्फइ 1093 वण्णअ 1094 वस्त 1095 वत्तव्वया 1096 वत्थिकम्म .1097 वद्धाव 1098 वंद 1099 वमण 1100 वम्माव 1101 वम्मिय 1102 वय 1103 वयंस 1104 वयासी 1105 वरत्त 1065 लउड 1066 लच्छि 1067 लंछपोस 1068 लट्ठि 1069 लता 1070 लद्ध 1071 लंबिय 1072 लम्भ 1073 लहुहत्थ 1074 लावणिअ 4 4 4 3 4 *का 1039 य 1040 यावि 1041 रज्जसिरि 1042 रह 1043 रट्टकूड 1016 ] श्री विपाक सूत्रम् [परिशिष्ट नं.२ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1106 चलीवद्द 1107 ववरोविय 1108 ववहार 1109 वसट्ट 1110 वसण 1111 वसभ 1112 वसहि 1113 वसीकरण 1114 वंसीकलंक 1115 वह 1116 वह 1117 वहण 1118 वहिर 1119 वाउ .. 1120 वाउरिय. 1121 वागरेइ 1122 वागुरिया 1123 वाजिकरण 1124 वाडग 1125 वायरासी. 1126 वायव 1127 वाल 1128 वाल 1129 वावीस 1130 वास 1131 वास . 1132 वासभवण 1133 वाहिय 1134 विकिट्ठ 1135 वियाल 1136 विग्घुट्ठ 1137 विज्ज शब्द 1138 विणास 1139 विणेति 1140 विण्णाय 1141 वित्ति 1142 विदिण्ण 1143 विदित 1144 विद्धी 1145 विद्धंस 1146 विद्धंस 1147 विणिहाय 1148 विप्पजढ 1149 विप्पालाइत्था 1150 विउल 1151 विमण 1152 विम्हय * 1153 वियंग 1154 वियाणिय 1155 वियार 1156 वियाल 1157 विरहिय 1158 विरेयण 1159 विलव 1160 विवत्ती 1161 विवाग 1162 विवागसुय 1163 विसत्थ 1164 विसम 1165 विसर 1166 विसल्लकरण 1167 विसारय 1168 विसेस 1169 विसोह शब्द 1170 विसर 1171 विहम्म 1172 विहरइ 1173 विहाडेइ 1174 विहाण 1175 विहाण 1176 वीइवयमाण 1177 वीसम्भ 1178 वीसम्भघाई 1179 वीसर 1180 वुटु 1181 वुत्त 1182 वेज 1183 वेढाव 1184 वेत्त 1185 वेय 1186 वेय 1187 वेयण 1188 वेयणा 1189 वेसासिय 1190 वेसिया 1191 वोच्छिण्ण स 1192 स 1193 सअ 1194 सअ 1195 सइर 1196 सक्कार 1197 सगड .1198 सगडिय 1199 संकला 1200 संकोडिय परिशिष्ट नं 2] श्री विपाक सूत्रम् [1017 Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द 1201 संगय 1202 संगीव 1203 सचक्खु 1204 सच्छंद 1205 सयण 1206 संजाय. 1207 संजम 1208 संजुत्त 1209 संजोग 1210 सड 1211 सडियं 1212 सणाह 1213 संठिया 1214 संडास 1215 सण्ह 1216 सत्त 1217 सत्तम 1218 सत्तरस 1219 सत्तरसम 1220 सत्तसिक्खावइय 1221 सत्तावण्ण 1222 सत्तुस्सेह 1223 सत्थकोस 1224 सत्थवाह 1225 सत्थोवाडिअ 1226 सद्द 1227 सद्दवेही 1228 सद्दह 1229 सद्दाव 1230 सद्धिं 1231 संत 1232 संत शब्द 1233 संतिहोम 1234 संथर 1235 संथारग 1236 संदिस 1237 संधिछेय 1238 सन्निविट्ठ 1239 समअ 1240 समण 1241 समजिण 1242 समजोइभूय 1243 समाण 1244 समायर 1245 समायार 1246 समासास 1247 समाहि 1248 समुक्खित्त 1249 समुदय 1250 समुद्द 1251 समुप्पज्ज 1252 समुयाण 1253 समुल्लावक 1254 समुल्लासिय 1255 समोसढ 1256 समोसर 1257 संपत्त 1258 संपरिवुड 1259 संपत्ति 1260 संपेह 1261 संभग्ग 1262 संभंत 1263 संमाणिय 1264 सय शब्द 1265 सयणिज्ज 1266 सयहत्थ 1267 सयरजसुक्का 1268 सर 1269 सरासण 1270 सरिस 1271 सरीरग 1272 सरीसव 1273 सलाहणिज्ज 1274 संलेहणा ... 1275 संलवइ 1276 सल्लहत्त 1277 सवत्ती 1278 सव्व 1279 सव्वओ 1280 सव्वोउय * 1281 संवच्छर 1282 संवड्ढं 1283 ससय . 1284 सुंसमार 1285 सहस्स 1286 सहस्सखुत्तो 1287 सहस्सलम्भा 1288 साउणिया 1289 साग 1290 सागरोवम 1291 साडग 1292 साडण 1293 साडिया 1294 साइम 1295 साम 1296 सामण्ण .. 1018 ] श्री विपाक सूत्रम् [परिशिष्ट नं.२ Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द शब्द 1360 सोणिय 1361 सोणियत्त 1362 सोलस 1363 सोलसम 1364 सोल्ल 1365 सोल्ल 1366 सोह - शब्द 1297 सामी 1298 सारक्ख 1299 सालाग 1300 सावएज 1301 सास 1302 सासिल्ल 1303 साहटु 1304 साहर 1305 साहसिय 1306 सिक्खाव 1307 सिंघ. 1308 सिंघाडग . 1309 सिज्झ 1310 सिट्ठिकुल 1311 सिणेह 1312 सिणेहपाण 1313 सिरावेह . - 1314 सिरोवत्थि 1315 सिला 1316 सिलिया 1317 सिवहत्थ 1318 सीअ 1319 'सीहु 1320. सीय 1321 सीस 1322 सीसग 1323 सीसगभम 1324 सीह 1325 सुइ 1326 सुक्क 1327 सुक्ख 1328 सुण 1329 सुण्हा 1330 सुत्त 1331 सुत्त 1332 सुत्तजागर 1333 सुत्तबन्धण 1334 सुद्द 1335 सुद्धप्पवेस - 1336 सुमिण 1337 सुयक्खंध 1338 सुलद्ध 1339 सुर 1340 सुरूव 1341 सुह 1342 सुहप्पसुत्ता 1343 सुहंसुहेण 1344 सुहहत्थ 1345 सुहासण 1346 सूय 1347 सूल 1348 सूल 1349 सूर 1350 सूयरत्ताए 1351 सूइ 1352 सेय 1353 सेय 1354 सेयापीय 1355 सेल 1356 सेवं 1357 सोअ 1358 सोसिल्ल 1359 सोम 1367 हट्ट 1368 हडाहड 1369 हडीण 1370 हत्थ 1371 हत्थछिन्न 1372 हत्थंदुय 1373 हत्थारोह 1374 हत्थी 1375 हता 1376 हम्म 1377 हरिय 1378 हव्व 1379 हियउड्डावण 1380 हिययउंडअ 1381 हिल्लरी 1382 हुण्ड 1383 हेट्ठओ 1384 हेट्ठामुह 1385 हेरंग * 1386 होत्था परिशिष्ट नं 2] श्री विपाक सूत्रम् [1016 Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म दिवाकर, आचार्य सम्राट श्री आत्माराज जी महाराज : शब्द चित्र जन्म भूमि पिता माता वंश जन्म दीक्षा दीक्षा स्थल दीक्षा गुरु विद्या गुरु साहित्य सृजन आगम अध्यापन कुशल प्रवचनकार शिष्य सम्पदा राहों (पंजाब) लाला मनसारामजी चौपड़ा श्रीमती परमेश्वरी देवी क्षत्रिय विक्रम सं०1939 भाद्र सुदि वामन द्वादशी (12) वि० सं० 1951 आषाढ़ शुक्ला 5 बनूड़ (पटियाला) मुनि श्री सालिगराम जी महाराज आचार्य श्री मोतीराम जी महाराज (पितामह गुरु) अनुवाद, संकलन-सम्पादन-लेखन द्वारा लगभग 60 ग्रन्थ / शताधिक साधु-साध्वियों को। तीस वर्ष से अधिक काल तक। समाज सुधारक श्री खजान चन्द्र जी म., पंडित प्रवर श्री ज्ञान चन्द्र जी म०, प्रकाण्ड पंडित श्री हेमचन्द्र जी म०, श्रमण संघीय सलाहकार श्री ज्ञान मुनि जी म., सरल आत्मा श्री प्रकाश मुनि जी म, श्रमण संघीय सलाहकार सेवाभावी श्री रत्न मुनि जी म०, उपाध्याय श्री मनोहर मुनि जी मा, तपस्वी श्री मथुरा मुनि जी महाराज पंजाब श्रमण संघ, वि. सं. 2003, चेत्र शुक्ला 13 लुधियाना। अखिल भारतीय श्री वर्ध.स्था. जैन श्रमण संघ . सादड़ी (मारवाड़) 2009 वैशाख शुक्ला 3 बाग खजानचीयां लुधियाना वि० सं० 2011 मार्ग शीर्ष शुक्ला 3 67 वर्ष लगभग। वि० सं० 2019 माघवदि 9 (ई० 1962) लुधियाना। 79 वर्ष 8 मास, ढाई घंटे। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि। विनम्र-शान्त-गंभीर-प्रशस्त विनोद। नारी शिक्षण प्रोत्साहन स्वरूप कन्या महाविद्यालय एवं पुस्तकालय आदि की प्रेरणा आचार्य पद आचार्य सम्राट् पद आचार्य सम्राट् चादर समारोह - संयम काल - स्वर्गवास आयु विहार क्षेत्र स्वभाव समाज कार्य 1020 ] श्री विपाकसूत्रम् [परिशिष्टं नं.३ Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनभूषण, पंजाब केसरी, बहुश्रुत, गुरुदेव श्री ज्ञान मुनि जी महाराज : शब्द चित्र - जन्म भूमि जन्म तिथि दीक्षा दीक्षा स्थल - - गुरुदेव अध्ययन परमशिष्य सृजन - - , प्रेरणा साहोकी (पंजाब) कि सं. 1979 वैशाख शुक्ला 3 (अक्षय तृतीया) वि० सं० 1993 वैशाख शुक्ला 13 रावलपिंडी (वर्तमान पाकिस्तान) आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज प्राकृत, संस्कृत, उर्दू, फारसी, गुजराती, हिन्दी, पंजाबी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के जानकार तथा दर्शन एवं व्याकरण शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित, भारतीय धर्मों के गहन अभ्यासी। आचार्य सम्राट् श्री शिव मुनि जी महाराज। हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण पर भाष्य, अनुयोगद्वार, प्रज्ञापना आदि कई आगमों पर बृहद् टीका लेखन तथा तीस से अधिक ग्रन्थों के लेखक। विभिन्न स्थानकों, विद्यालयों, औषधालयों, सिलाई केन्द्रों के प्रेरणा स्रोत। आपश्री निर्भीक वक्ता थे, सिद्धहस्त लेखक थे, कवि थे।समन्वय तथा शान्तिपूर्ण क्रान्त जीवन के मंगलपथ पर बढ़ने वाले धर्मनेता थे, विचारक थे, समाज सुधारक थे, आत्मदर्शन की गहराई में पहुंचे हुए साधक थे, पंजाब तथा भारत के विभिन्न अंचलों में बसे हजारों जैन-जैनेतर परिवारों में आपके प्रति गहरी श्रद्धा एवं भक्ति थी। आप स्थानकवासी जैन समाज के उन गिने-चुने प्रभावशाली संतों में प्रमुख थे जिनका वाणी-व्यवहार सदा ही सत्य का समर्थक रहा है। जिनका नेतृत्व समाज को सुखद, संरक्षक और प्रगति पथ पर बढ़ाने वाला रहा है। मन्डी गोबिन्दगढ़ (पंजाब) 23 अप्रैल 2003 (रात 11.30 बजे) श्री विपाकसूत्रम् विशेष स्वर्गवास - परिशिष्ट नं.३] [1021 Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सम्राट् (डॉ.) श्री शिवमुनि जी महाराज : शब्द चित्र जन्म स्थान - जन्म माता पिता वर्ण वंश दीक्षा मलौटमंडी, जिला फरीदकोट (पंजाब) 18 सितम्बर 1942 (भादवा सुदी सप्तमी) श्रीमती विद्यादेवी जैन स्व. श्री चिरंजीलाल जैन वैश्य ओसवाल भाबू ___ 17 मई, 1972 समय : 12.00 बजे मलौटमंडी (पंजाब) बहुश्रुत, जैनागम रत्नाकर राष्ट्र संत श्रमणसंघीय सलाहकार श्री ज्ञानमुनि जी महाराज / श्री शिरीष मुनि जी, श्री शुभम मुनि जी, श्री श्रीयश मुनि जी, श्री सुव्रत मुनि जी, श्री शमित मुनि जी, श्री शशांक मुनि जी श्री निशांत मुनि जी, श्री निरंजन मुनि जी, श्री निपुण मुनि जी 13 मई, 1987 पूना-महाराष्ट्र दीक्षा स्थान दीक्षा गुरु शिष्य पौत्र शिष्य युवाचार्य पद श्रमणसंघीय आचार्य पदारोहण चादर महोत्सव 9 जून, 1999 अहमदनगर, (महाराष्ट्र) 7 मई 2001 ऋषभ विहार, नई दिल्ली डबल एम.ए., पी-एच.डी., डी.लिट् , आगमों का गहन गंभीर अध्ययन, ध्यान-योग-साधना में विशेष शोध कार्य अध्ययन 1022 ] श्री विपाकसूत्रम् [परिशिष्ट नं.३ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण श्रेष्ठ कर्मठयोगी,साधुरत्न श्रमणसंघीय मन्त्री श्री शिरीष मुनि जी महाराज का शब्द चित्र पिता जन्म स्थान नाई (उदयपुर राज.) जन्मतिथि : 19-02-1964 माता श्रीमती सोहनबाई श्रीमान् ख्यालीलाल जी कोठारी वंश, गोत्र : ओसवाल, कोठारी दीक्षा तिथि : 7 मई 1990 दीक्षा स्थल .. : यादगिरि (कर्नाटक) श्रमण संघ के चतुर्थ पट्टधर आचार्य (डॉ) श्री शिवमुनि जी म. दीक्षार्थ प्रेरणा : ‘दादी जी मोहन बाई कोठारी द्वारा। शिक्षा . : एम ए (हिन्दी साहित्य) अध्ययन : आगमों का गहन गंभीर अध्ययन, जैनेतर दर्शनों में सफल प्रवेश तथा हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, प्राकृत, मराठी, गुजराती भाषाविद् / उपाधि : श्रमण श्रेष्ठ कर्मठ योगी, साधुरत्न एवं मन्त्री श्रमण संघ शिष्य सम्पदा श्री निशांत मुनि जी, श्री निरंजन मुनि जी, श्री निपुण मुनि जी विशेष प्रेरणादायी कार्य : ध्यान योग साधना शिविरों का संचालन, बाल संस्कार शिविरों और स्वाध्याय शिविरों के कुशल संचालक, आचार्य श्री के अन्यतम सहयोगी। परिशिष्ट नं.३] श्री विपाकसूत्रम् [1023 Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-शिव साहित्य आगम संपादन *श्री उपासकदशांग सूत्रम् (व्याख्याकार आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज) *श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् (भाग एक) *श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् (भाग दो) * श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् (भाग तीन) *श्री अन्तकृद्दशांग सूत्रम् *श्री दशवैकालिक सूत्रम् * श्री अनुत्तरोपपातिक सूत्रम् *श्री आचारांग सूत्रम् (प्रथम श्रुतस्कंध) *श्री आचारांग सूत्रम् (द्वितीय श्रुतस्कंध) *श्री नन्दीसूत्रम् *श्री जैन तत्व कलिका विकास *श्री निरयावलिका सूत्रम् *श्री विपाक सूत्रम् *श्री तत्वार्थसूत्र जैनागम समन्वय साहित्य (हिन्दी)*भारतीय धर्मों में मुक्ति (शोध प्रबन्ध) * ध्यान : एक दिव्य साधना (ध्यान पर शोध-पूर्ण ग्रन्थ) ध्यान-पथ (ध्यान सम्बन्धी चिन्तनपरक विचारबिन्दु) *योग मन संस्कार (निबन्ध) *जिनशासनम् (जैन तत्त्व मीमांसा) पढम णाणं (चिन्तन परक निबन्ध) * अहासुहं देवाणुप्पिया (अन्तकृद्दशांग-सूत्र प्रवचन) *शिव-धारा (प्रवचन) . * अन्तर्यात्रा नदी नाव संजोग * अनुश्रुति * मा पमायए * अमृत की खोज *आ घर लौट चलें संबुज्झह किं ण बुज्झह *सद्गुरु महिमा * प्रकाश पुञ्ज महावीर (संक्षिप्त महावीर जीवन-वृत्त) * अध्यात्म सार (आचाराङ्ग सूत्र के रहस्यों पर एक बृहद् आलेख) साहित्य (अंग्रेजी) *दी जैना पाथवे टू लिब्रेशन *दी फण्डामेन्टल प्रिंसीपल्स ऑफ जैनिज्म * दी डॉक्ट्रीन ऑफ द सेल्फ इन जैनिज्म दी जैना ट्रेडिशन *दी डॉक्ट्रीन ऑफ लिब्रेशन इन इंडियन रिलिजन विथ रेफरेंस ट जैनिज्म स्परीच्युल प्रक्टेसीज़ ऑफ लॉर्ड महावीरा 1024 ] श्री विपाकसूत्रम् [परिशिष्ट नं.३ Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- _