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________________ समय व्यतीत करने लगा। टीका-साहस के बल से असाध्य कार्य भी साध्य हो जाता है, दुष्कर भी सुकर बन जाता है। साहसी पुरुष कठिनाइयों में भी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता ही चला जाता है, वह सुख अथवा दुःख, जीवन अथवा मरण की कुछ भी चिन्ता न करता हुआ अपने भगीरथ प्रयत्न से एक न एक दिन अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता है। इसी दृष्टि से कामध्वजा को पुनः प्राप्त करने की धुन में लगा हुआ उज्झितक कुमार भी अपने कार्य में सफल हुआ। उसे कामध्वजा तक पहुंचने का अवसर मिल गया। उसकी मुरझाई हुई आशालता फिर से पल्लवित हो गई। वह कामध्वजा के साथ पूर्व की भांति विषय-भोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द जीवन बिताने लगा। अन्तर केवल इतना था कि प्रथम वह प्रकट रूप से आता-जाता और निवास करता था, और अब उसका आना, जाना तथा निवास गुप्तरूप से था। इसका कारण कामध्वजा का मित्रनरेश के अन्त:पुर में निवास था। उसी से परवश हुई कामध्वजा उज्झितक कुमार को प्रकट रूप से अपने यहां रखने में असमर्थ थी। परन्तु दोनों के हृदयगत अनुराग में कोई अन्तर नहीं था। तात्पर्य यह है कि वे दोनों एक-दूसरे पर अनुरक्त थे। एक-दूसरे को चाहते थे। अन्यथा यदि कामध्वजा का अनुराग न होता तो उज्झितक कुमार का लाख यत्न. करने पर भी वहां प्रवेश करना सम्भव नहीं हो सकता था। अस्तु, इसके पश्चात् क्या हुआ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-इमं चणं मित्ते राया ण्हाते जाव पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिते मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते जेणेव कामज्झयाए गणियाए गेहे तेणेव उवागच्छति २त्ता तत्थ णं उज्झिययं दारयं कामज्झयाए गणियाए सद्धिं उरालाइं भोगभोगाई १जाव विहरमाणं पासति 2 त्ता आसुरुत्ते 4 तिवलियभिउडिं निडाले साहट्ट, उज्झिययं दारयं पुरिसेहिं गेण्हाविति, गेण्हावित्ता अट्ठिमुट्ठिजाणुकोप्परपहारसंभग्गमहितगत्तं करेति करेत्ता अवओडगबंधणं करेति करेत्ता एएणं विहाणेणं वझं आणवेति। एवं खलु गोतमा ! उज्झियए दारए पुरा पोराणाणं कम्माणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरति। 1. "-जाव-यावत्-" पद से "-भुंजमाणं-" इस पद का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। 2. "-जाव-यावत्-" पद से "-दुच्चिण्णाणं, दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं, पावाणं, कडाणं, कम्माणं, पावगं फलवित्तिविसेसं-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है। इन का अर्थ पीछे दिया जा चुका है। 310 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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