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________________ छाया-इतश्च मित्रो राजा स्नातो यावत् प्रायश्चित्तः सर्वालंकारविभूषितः मनुष्यवागुरापरिक्षिप्तो यत्रैव कामध्वजाया गणिकाया गृहं तत्रैवोपागच्छति। उपागत्य तत्रोज्झितकं दारकं कामध्वजया गणिकया सार्द्धमुदारान् भोगभोगान् यावत् विहरमाणं पश्यति, दृष्ट्वा आशुरुप्तः 4 त्रिवलिकभृकुटि ललाटे संहृत्य उज्झितकं दारकं पुरुषैाहयति ग्राहयित्वा यष्टिमुष्टिजानुकूर्परप्रहारसंभग्नमथितगात्रं करोति कृत्वा अवकोटकबन्धनं करोति कृत्वा एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति / एवं खलु गौतम ! उज्झितको दारकः पुरा पुराणाणां कर्मणां यावत् प्रत्यनुभवन् विहरति। पदार्थ-इमं च णं-और इतने में। मित्ते राया-मित्र राजा। हाते-स्नान कर। जाव-यावत् / पायच्छित्ते- दुष्ट स्वप्न आदि के फल को निष्फल करने के लिए प्रायश्चित के रूप में तिलक एवं अन्य मांगलिक कृत्य करके।सव्वालंकारविभूसिते-सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो।मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्तेमनुष्यसमूह से घिरा हुआ।जेणेव-जहां।कामज्झयाए-कामध्वजा।गणियाए-गणिका का।गिहे-घर था। तेणेव-वहीं पर। उवागच्छति 2 त्ता-आता है आकर। तत्थ णं-वहां पर। कामज्झयाए गणियाएकामध्वजा गणिका के। सद्धिं-साथ। उरालाइं-उदार-प्रधान। भोग-भोगाई-भोगपरिभोगों में। जावयावत्। विहरमाणं-विहरणशील। उज्झिययं दारयं-उज्झितक कुमार बालक को। पासति 2 त्ता-देखता है देख कर। आसुरुत्ते-क्रोध से लाल हुआ। निडाले-मस्तक पर। तिवलियभिउडिं-त्रिवलिका-तीन रेखाओं से युक्त भृकुटि (तिउड़ी) लोचनं-विकार विशेष को। साहट्ट-धारण कर अर्थात् क्रोधातुर हो भृकुटी चढ़ाकर। पुरिसेहि-अपने पुरुषों द्वारा। उज्झिययं दारयं-उज्झितक कुमार को। गेण्हावेतिपकड़वा लेता है। गेण्हावेत्ता-पकड़वा कर / अट्ठि-यष्टि लाठी। मुट्ठि-मुष्टि मुक्का, पंजाबी भाषा में इसे 'घसुन्न' कहते हैं। जाणु-जानु-घुटने। कोप्पर-कूर्पर कोहनी के। पहार-प्रहरणों से। संभग्ग-संभग्नचूर्णित तथा। महित-मथित। गत्तं-गात्र वाला। करेति-करता है। करेत्ता-करके। अवओडगबंधणंअवकोटक बन्धन [जिस में रस्सी से गला और हाथों को मोड़ कर पृष्ठ भाग के साथ बान्धा जाता है उसे अवकोटकबन्धन कहते हैं] से बद्ध। करेति-करता है अर्थात् उक्त बन्धन से बांधता है। करेत्ताबांधकर। एएणं-इस। विहाणेणं-प्रकार से। वझं आणवेति-यह वध्य है ऐसी आज्ञा देता है। गोतमा!हे गौतम ! एवं-इस प्रकार।खलु-निश्चय ही।उज्झियए-उज्झितक।दारए-बालक। पुरा-पूर्व। पोराणाणं कम्माणं-पुरातन कर्मों के विपाक-फल का। जाव-यावत्। पच्चणुभवमाणे-अनुभव करता हुआ। विहरति-विहरण करता है। मूलार्थ-इधर किसी समय मित्र नरेश स्नान यावत् दुष्ट स्वप्नों के फल को विनष्ट करने के लिए प्रायश्चित के रूप में मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो मनुष्यों से आवृत हुआ कामध्वजा गणिका के घर पर गया। वहां उसने कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य-सम्बन्धी विषय-भोगों का प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [311
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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