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________________ जिस में बहुत से सद्गुण विद्यमान हों, और उन सब का समुचित रूप में वर्णन न किया जा सकता हो तो उन में से एक दो प्रधान गुणों का वर्णन कर देने से बाकी के समस्त गुणों का भी बिना वर्णन किए ही पता चल जाता है। जैसे राजा के मुकुट का वर्णन कर देने से बाकी के समस्त आभूषणों के सौन्दर्य की कल्पना अपने आप ही हो जाती है। इसी प्रकार सुदत्त मुनि के प्रधानगुण-तपस्या के वर्णन से ही उन में रहे हुए अन्य साधुजनोचित सद्गुणों का अस्तित्व प्रमाणित हो जाता है। प्रश्न-एक मास के अनशन के बाद केवल एक दिन भोजन करने वाले मुनि विहार कैसे कर सकते होंगे ? क्या उन के शरीर में शिथिलता न आ जाती होगी? बिना अन्न के औदारिक शरीर का सशक्त रहना समझ में नहीं आता ? उत्तर-यह शंका बिल्कुल निस्सार है, और दुर्बल हृदय के मनुष्यों की अपनी निर्बल स्थिति के आधार पर की गई है, क्योंकि आज भी ऐसे कई एक मुनि देखने में आते हैं जो कि कई बार एक-एक या दो-दो मास का अनशन करते हैं और अपनी सम्पूर्ण आवश्यक क्रियाएं स्वयं करते हैं। तपश्चर्या के लिए शारीरिक संहनन और मनोबल की आवश्यकता है। जिस समय की यह बात है उस समय तो मनुष्यों का संहनन और मनोबल आज की अपेक्षा बहुत ही सुदृढ़ था। इसलिए श्री सुदत्त मुनि के मासक्षमण में किसी प्रकार की आशंका को अवकाश नहीं रहता। इस के अतिरिक्त आत्मतत्त्व के चिन्तक, तपश्चर्या की मूर्ति श्री सुदत्त मुनि अनशनव्रत का अनुष्ठान करते हुए शिथिल हैं या सशक्त-मज़बूत, इस का उत्तर तो सूत्रकार ने ही स्वयं यह कह कर दे दिया है कि वे मासक्षमण के पारणे के लिए हस्तिनापुर नगर में स्वयं जाते हैं और भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए उन्होंने सुमुख गृहपति के घर में प्रवेश किया। इस पर से सुदत्त मुनि के मानसिक और शारीरिक बल की विशिष्टता का अनुमान करना कुछ कठिन नहीं रहता। दूसरी बात-तपस्या करने वाले मुनि को अपने शारीरिक और मानसिक बल का पूरा-पूरा ध्यान रखना होता है। वह अपने में जितना बल देखता है उतना ही तप करता है। तपस्या करने का यह अर्थ नहीं होता कि दूसरों से सेवा करवाना और उन के लिए भारभूत हो जाना। मास-मास दो बार कहने का तात्पर्य यह है कि उन की यह तपस्या लंबे समय से चालू थी। वे वर्ष भर में बारह दिन ही भोजन करते थे, इस से अधिक नहीं। आज श्री सुदत्त मुनि के पारणे का दिन है। उन के अनशन को एक मास हो चुका है। वे उस दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, दूसरे में ध्यान, तीसरे में वस्त्रपात्रादि तथा मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करते हैं। तदनन्तर आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित हो उन्हें सविधि वन्दना नमस्कार कर पारणे द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [879
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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