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________________ के निमित्त भिक्षार्थ नगर में जाने की आज्ञा मांगते हैं। आचार्यश्री की तरफ से आज्ञा मिल जाने पर नगर में चले जाते हैं, इत्यादि। ___तपस्या दो प्रकार की होती है, बाह्य और आभ्यन्तर। अनशन यह बाह्य तप-तपस्या है। बाह्य तप आभ्यन्तर तप के बिना निर्जीव प्रायः होता है। बाह्य तप का अनुष्ठान आभ्यन्तर तप के साधनार्थ ही किया जाता है। यही कारण है कि श्री सुदत्त मुनि ने पारणे के दिन भी स्वाध्याय और ध्यानरूप आभ्यन्तर तप की उपेक्षा नहीं की। वास्तव में देखा जाए तो आभ्यन्तर तप से अनुप्राणित हुआ ही बाह्य तप मानव जीवन के आध्यात्मिक विकास में सहायक हो सकता है। प्रश्न-पांच सौ मुनियों के उपास्य श्री धर्मघोष स्थविर के अन्य पर्याप्त शिष्यपरिवार के होने पर भी परमतपस्वी सुदत्त अनगार स्वयं गोचरी लेने क्यों गए ? क्या इतने मुनियों में से एक भी ऐसा मुनि नहीं था जो उन्हें गोचरी ला कर दे देता? उत्तर-महापुरुषों का प्रत्येक आचरण रहस्यपूर्ण होता है, उस के बोध के लिए कुछ मनन की अपेक्षा रहती है। साधारण बुद्धि के मनुष्य उसे समझ नहीं पाते। उन की प्रत्येक क्रिया में कोई न कोई ऊंचा आदर्श छिपा हुआ होता है। सुदत्त मुनि का एक मास के अनशन के बाद स्वयं गोचरी को जाना, साधकों के लिए स्वावलम्बी बनने की सुगतिमूलक शिक्षा देता है। जब तक अपने में सामर्थ्य है तब तक दूसरों का सहारा मत ढूंढ़ो। जो व्यक्ति सशक्त होने पर भी दूसरों का सहारा ढूंढ़ता है वह आत्मतत्त्व की प्राप्ति से बहुत दूर चला जाता है,। इसी दृष्टि से श्री स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान तथा तृतीय उद्देशक में परावलम्बी को दुःखशय्या पर सोने वाला कहा है। वास्तव में आलसी बन कर सुख में पड़े रहने के लिए साधुत्व का अंगीकार नहीं किया जाता। उस के लिए तो प्रमाद से रहित हो कर उद्योगशील बनने की आवश्यकता है। श्री दशवैकालिक सूत्र के द्वितीय अध्याय में स्पष्ट शब्दों में कहा है-"-चय सोगमल्लं" अर्थात् सुकुमारता का परित्याग करो। गृहस्थ भी यदि शक्ति के होते हुए कमा कर नहीं खाता तो घर वालों को शत्रु सा प्रतीत होने लगता है। सारांश यह है कि गृहस्थ हो या साधु, १परावलम्बन सभी के लिए अहितकर है। वास्तव में विचार किया जाए तो बिना विशेष कारण के पराश्रित होना ही आत्मा को पतन की ओर ले जाने का प्रथम सोपान है। इस की तो भावना 1. स्वावलम्बन के सम्बन्ध में श्री उत्तराध्ययन सूत्र का निम्नलिखित पाठ कितना मार्गदर्शक है "-संभोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संभोगपच्चक्खाणेणं जीवे आलम्बणाइंखवेइ, निरालंबस्स य आवट्ठिया जोगा भवन्ति, सएणं लाभेणं सन्तुस्सइ, परलाभं नो आसादेइ, परलाभं नो तक्केइ, नो पीहेइ, नो पत्थेइ, नो अभिलसइ। परलाभं अणस्सायमाणे अतक्केमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे " अणभिलसेमाणे दुच्चं सुहसेजं उवसंपजित्ता णं विहरइ। (उत्तराध्ययन अ० 29, सू० 33) 880 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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