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________________ १-दिव्य-प्रधान को कहते हैं। २-सत्य-यक्ष की वाणी सत्यरूप होती थी, जो कहता था वह निष्फल नहीं जाता था, अतः उस का स्थान सत्य कहा गया है। ३सत्यावपात-उस का प्रभाव सत्यरूप था अर्थात् उस का चमत्कार यथार्थ ही रहता था। ४सन्निहितप्रातिहार्य-वहां के अधिष्ठायक वनमालप्रिय नामक यक्ष ने उस की महिमा बढ़ा रखी थी अर्थात् वहां पर मानी गई मनौती को सफल बनाने में वह कारण रहता था। ५यागसहस्रभागप्रतीच्छ-हजारों यज्ञों का भाग उसे प्राप्त होता था अर्थात् हजारों यज्ञों का हिस्सा वह प्राप्त किया करता था। वहां आकर बहुत लोग उस कृतवनमालप्रिय यक्ष के यक्षायतन की पूजा किया करते थे-इन भावों का परिचायक-बहुजणो अच्चेइ कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खायतणं-ये शब्द हैं। ___-महया-यहां के बिन्दु से-हिमवंतमहंतमलयमन्दरमहिंदसारे अच्चंतविसुद्धदीहरायकुलवंससुप्पसूए णिरंतरं रायलक्खणविराइअंगमंगे बहुजणबहुमाणे पूजिए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुइए मुद्धाहिसित्ते माउपिउसुजाए दयपत्ते सीमंकरे सीमंधरेखेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिंदे जणवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसवग्घे पुरिसासीविसे पुरिसपुण्डरीए पुरिसवरगन्धहत्थी अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधणबहुजायस्वरयए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियभत्तपउरभत्तपाणे बहुदासदासीगोमहिसगवेलगप्पभूए पडिपुण्णजंतकोसकोट्ठागाराउधागारे बलवं दुब्बलपच्चामित्ते ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं ओहयसत्तुं निहयसत्तुं मलियसत्तुं उद्धिअसत्तुं निज्जियसत्तुं पराइअसत्तुं ववगयदुब्भिक्खं मारिभयविप्पमुक्कं खेमं सिवं सुभिक्खं पसन्तडिम्बडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरइ-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है वह राजा महाहिमवान् अर्थात् हिमालय के समान महान् था, तात्पर्य यह है कि जैसे समस्त पर्वतों में हिमालय पर्वत महान् माना जाता है, उसी भान्ति शेष राजाओं की अपेक्षा से वह राजा महान् था, तथा मलय-पर्वतविशेष, मन्दर-मेरु पर्वत, महेन्द्र-पर्वतविशेष अथवा इन्द्र, इन के समान वह प्रधान था। वह राजा अत्यन्त विशुद्ध-निर्दोष तथा दीर्घ-चिरकालीन जो राजाओं का कुलरूप वंश था, उस में उत्पन्न हुआ था। उस का प्रत्येक अंग राजलक्षणोंस्वस्तिक आदि चिह्नों से निरन्तर-बिना अन्तर के शोभायमान रहता था। वह अनेक जनसमूहों से सम्मानित था, पूजित था। वह सर्वगुणसम्पन्न था। वह क्षत्रिय जाति का था। वह मुदित-प्रसन्न. रहने वाला था। उसके पितामह तथा पिता ने उस का राज्याभिषेक किया था। वह माता-पिता 804 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतंस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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