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________________ अधम्मसमुदाचारे, अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे दुस्सीले, दुव्वए-"। इन पदों की व्याख्या प्रथम अध्ययन में की जा चुकी है। उस भीम नामक कूटग्राह की उत्पला नाम की भार्या थी जो कि रूप सम्पन्न तथा सर्वांगसम्पूर्ण थी। वह किसी समय गर्भवती हो गई, तीन मास पूरे होने पर उस को आगे कहा जाने वाला दोहद उत्पन्न हुआ। तीन मास के अनन्तर गर्भवती स्त्री को उस के गर्भ में रहे हुए जीव के लक्षणानुसार कुछ संकल्प उत्पन्न हुआ करते हैं जो दोहद या दोहला के नाम से व्यवहृत होते हैं। उन पर से गर्भ में आए हुए जीव के सौभाग्य या दौर्भाग्य का अनुमान किया जाता है। जिस प्रकृति का जीव गर्भ में आता है उसी के अनुसार माता को दोहद उत्पन्न हुआ करता है। अब सूत्रकार आगे के सूत्र में उत्पला के दोहद का वर्णन करते हैं मूल-धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव सुलद्धे जम्मजीवियफले, जाओ णं बहूणं नगरगोरूवाणं सणाहाण य जाव वसभाण य ऊहेहि य थणेहि य वसणेहि य छिप्पाहि य ककुहेहि य वहेहि य कन्नेहि य अच्छीहि य नासाहि य जिव्हाहि य ओढेहि य कंबलेहि य सोल्लेहि य तलितेहि य भजितेहि य परिसुक्केहि य लावणिएहि य सुरं च मधुं च मेरगं च जातिं च सीधुं च पसण्णं च आसाएमाणीओ विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ परिभुजेमाणीओ दोहलं विणेति, तंजइणं अहमवि बहूणं नगर जाव विणेज्जामि,त्ति कट्टतंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि सुक्खा भुक्खा निम्मंसा उलुग्गा उलुग्गसरीरा नित्तेया दीणविमण-वयणा पंडुल्लइयमुही ओमंथियनयणवयणकमला जहोइयं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारहारं अपरि जमाणी करयलमलिय व्व कमलमाला ओहय० जाव झियाति। इमं च णं भीमे कूडग्गाहे जेणेव उप्पला कूडग्गाहिणी तेणेव उवा० 2 ओहयः जाव पासति 2 त्ता एवं वयासी-किण्णं तुमं देवाणुप्पिए! धर्मरहितोऽधर्मिष्टः। "-अहम्मक्खाई-" अधर्मभाषणशीलः अधार्मिकप्रसिद्धिको वा। "-अहम्मपलोई-" अधर्मानेव परसम्बन्धिदोषानेव प्रलोकयति प्रेक्षते इत्येवंशीलोऽधर्मप्रलोकी। "-अहम्मपलज्जणे-" अधर्म एव हिंसादौ प्ररज्यते अनुरागवान् भवतीत्यधर्मप्ररंजनः "-अहम्मसमुदाचारो-"अधर्मरूपः समुदाचारः समाचारो यस्य स अधर्मसमुदाचारः। "-अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे-" अधर्मेण पापकर्मणा वृत्तिं जीविकां कल्पयमानःकुर्वाणः तच्छीलः। "-दुस्सीले-" दुष्टशीलः। "-दुव्वए-" अविद्यमाननियम इति। "-दुप्पडियाणंदे-" दुष्प्रत्यानन्दः बहुभिरपि सन्तोषकारणैरनुत्पद्यमानसन्तोष इत्यर्थः। [वृत्तिकारः] प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [269
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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