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________________ का कारण यही था कि वह कोई साधारण वेश्या नहीं थी। पाठकों ने सुषेण मंत्री का नाम सुन रक्खा है और सूत्रकार के कथनानुसार वह चतुर्विध नीति के प्रयोगों में सिद्धहस्त था, अर्थात् साम, दान, भेद और दण्ड इन चतुर्विध नीतियों का कब और कैसे प्रयोग करना चाहिए इस विषय में वह विशेष निपुण था। इसीलिए महाराज महाचन्द्र ने उसे प्रधान मन्त्री के पद पर नियुक्त किया हुआ था, और नरेश का उस पर पूर्ण विश्वास था। परन्तु प्रधान मन्त्री सुषेण में जहां और बहुत से सद्गुण थे वहां एक दुर्गुण भी था, वह संयमी नहीं था। ऐसे संभावित व्यक्ति का स्वदार-सन्तोषी न होना निस्सन्देह शोचनीय एवं अवांछनीय है। उस की दृष्टि हर समय सुदर्शना वेश्या पर रहती, उसका मन हर समय उस की ओर आकर्षित रहता, परन्तु वह उसे प्राप्त करने में अभी तक सफल नहीं हो पाया था। वह जानता था कि सुदर्शना केवल धन से खरीदी जाने वाली वेश्या नहीं है। उस से कई गुणा अधिक धन देने वाले वहां से विफल हो कर आ चुके हैं। इस लिए नीतिकुशल सुषेण ने शासन के बल से उस पर अधिकार प्राप्त किया और उसके प्रेमभाजन शकट कुमार को वहां से निकाल दिया और स्वयं उसे अपने घर में रख लिया। परन्तु इतना स्मरण रहे कि सुषेण मंत्री ने अपनी सत्ता के बल से सुदर्शना के शरीर पर अधिकार प्राप्त किया है, न कि उस के हृदय पर। उस के हृदय पर सर्वेसर्वा अधिकार तो शकट कुमार का है, जिसे उसने वहां से निकाल दिया है। "-जायणिंया-"के स्थान पर"-जाइणिंदुया-"ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। दोनों पदों का अर्थगत भेद निम्नोक्त है (1) जातनिंदुका-उत्पन्न होते ही जिस की सन्तति मृत्यु को प्राप्त हो जाए उसे जातनिंदुका कहते हैं। (2) जातिनिंदुका-जाति-जन्म से ही जो निंदुका-मृतवत्सा है, अर्थात्, जन्मकाल से ही जो मृतवत्सत्व के दोष से युक्त है। तथा निंदुका शब्द का अर्थ कोषकारों के शब्दों में -निंद्यते अप्रजात्वेनाऽसौ निंदुः निंदुरेव निंदुका-इस प्रकार है। अर्थात् सन्तान के जीवित न रहने से जिस की लोगों द्वारा निंदा की जाए वह स्त्री निंदुका कहलाती है। "-गणियं अब्भिंतरए ठवेति-" इस वाक्य के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं जैसे कि(१) गणिका को अभ्यन्तर-भीतर स्थापित कर दिया अर्थात् गणिका को पत्नीरूप से अपने घर में रख लिया। (2) गणिका को भीतर स्थापित कर दिया अर्थात् उसे उसके घर के अन्दर ही रोक दिया, जिस से कि उस के पास कोई दूसरा न जा सके। 462 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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