SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 827
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचरणीय धर्म महाव्रतों का यथाविधि पालन करना है, तथा सागारधर्म-गृहस्थधर्म अणुव्रतों का पालन करना है। व्रत शब्द के साथ अणु और महत् शब्द के संयोजन से वह गृहस्थ और साधु के धर्म में प्रयुक्त होने लग जाता है। जैसे कि अणुव्रती श्रावक और महाव्रती साधु / इस प्रकार गृहस्थ के व्रत अणु-छोटे और साधु के व्रत महान् बड़े कहे जाते हैं। शास्त्रों में हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह से विरति-निवृत्ति करने का नाम व्रत है। उन में अल्प अंश में निवृत्ति अणुव्रत और सर्वांश में विरति महाव्रत है। दूसरे शब्दों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप व्रतों का सर्वांशरूप में पालन करना महाव्रत और अल्पांशरूप में पालन अणुव्रत कहलाता है। अहिंसा आदि व्रतों का अर्थ निम्नोक्त है १-अहिंसा-मन, वचन और शरीर के द्वारा स्थूल तथा सूक्ष्म रूप सर्व प्रकार की हिंसा से निवृत्त होना अहिंसाव्रत अर्थात् पहला व्रत है। २-सत्य-मन, वचन और शरीर के द्वारा किसी प्रकार का भी मिथ्याभाषण न करना दूसरा सत्य व्रत है। ३-अस्तेय-किसी वस्तु को उस के स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण करना स्तेयचोरी है, उस का मन, वचन और काया से परित्याग करना अस्तेय अर्थात् अचौर्य व्रत है। ..४-ब्रह्मचर्य-सर्व प्रकार के मैथुन का परित्याग करना ब्रह्मचर्यव्रत कहा जाता है। ५-अपरिग्रह-लौकिक पदार्थों में मूर्छा-आसक्ति तथा ममत्व का होना परिग्रह है। उस को त्याग देने का नाम अपरिग्रहव्रत है। ये पांचों ही अणु और महान् भेदों से दो प्रकार के हैं। जब तक इन का आंशिक पालन हो तब तक तो इन की अणुव्रत संज्ञा है और सर्वथा पालन में ये महाव्रतं कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि अहिंसा आदि व्रतों के पालन का विधान शास्त्रों में गृहस्थ और साधु दोनों के लिए है, परन्तु गृहस्थ के लिए इन का सर्वथा पालन अशक्य है, इन का सर्वथा पालन साधु ही कर सकता है। अतः गृहस्थ की अपेक्षा ये अणुव्रत हैं और साधु की अपेक्षा इन की महाव्रत संज्ञा है। अनगार महाव्रतों का पालक होता है और श्रावक अणुव्रतों का। पांच अणुव्रत और सात 1. हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेम्यो विरतिव्रतम्॥१॥देशसर्वतोऽणुमहती॥२॥(तत्त्वार्थ सूत्र अ०७) 2. श्री औपपातिक सूत्र के धर्मकथाप्रकरण में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार 12 व्रत लिखे हैं परन्तु प्रकृत में सूत्रकार ने तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों को शिक्षारूप मानते हुएसत्तसिक्खावतियं-इस पद से ही व्यक्त किया है। व्याख्यास्थल में हमने 12 व्रतों का निरूपण करते हुए औपपातिक-सूत्रानुसारिणी पद्धति को अपनाते हुए 5 अणुव्रत, तीन गुणव्रत और 4 शिक्षाव्रत, ऐसा संकलन किया / है। 818 ] श्री विपाक सत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy