________________ शिक्षाव्रत सम्मिलित करने से 12 व्रतों का पालन करने वाला गृहस्थ जैनपरिभाषा के अनुसार देशविरति श्रावक कहलाता है। श्रावक के बारह व्रतों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है १-अहिंसाणुव्रत-स्वशरीर में पीड़ाकारी तथा अपराधी के सिवाय शेष द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रियों वाले जीव) आदि त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का दो करण', तीन योग से त्याग करना श्रावक का स्थूल प्राणातिपातत्यागरूप प्रथम अहिंसाणुव्रत है। दूसरे शब्दों मेंगृहस्थधर्म में पहला व्रत प्राणी की हिंसा का परित्याग करना है। स्थावर जीव सूक्ष्म और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय हिलने चलने वाले त्रस प्राणी स्थूल कहलाते हैं। गृहस्थ सूक्ष्म जीवों की हिंसा से नहीं बच पाता अर्थात् वह सर्वथा सूक्ष्म अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। इसलिए भगवान् ने गृहस्थधर्म और साधुधर्म की मर्यादा को नियमित करते हुए ऐसा मार्ग बताया है कि सामान्य गृहस्थ से लेकर चक्रवर्ती भी उस का सरलतापूर्वक अनुसरण करता हुआ धर्म का उपार्जन कर सकता है। . दूसरी बात यह है कि श्रावक-गृहस्थ के लिए सूक्ष्म हिंसा का त्याग शक्य नहीं है, क्योंकि उस ने चूल्हे का और चक्की का, कृषि तथा गोपालन आदि का सब काम करना है। यदि इसे छोड़ दिया जाए तो उस के जीवन का निर्वाह नहीं हो सकेगा। इसलिए शास्त्रकारों ने श्रावक के लिए स्थूल हिंसा का त्याग बता कर, उस में दो कोटियां नियत की हैं। एक आकुट्टी, दूसरी अनाकुट्टी, अर्थात् एक संकल्पी हिंसा दूसरी आरम्भी हिंसा। संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा का नाम संकल्पी और आरम्भ से उत्पन्न होने वाली हिंसा को आरम्भी हिंसा कहते हैं। इसे उदाहरण से समझिए 1. दो करण, तीन योग से हिंसा नहीं करनी चाहिए, ऐसा कहने का अभिप्राय निम्नोक्त है: १-मारूं नहीं मन से अर्थात् मन में किसी को मारने का विचार नहीं करना या हृदय में ऐसा मंत्र नहीं * जपना कि जिस से किसी प्राणी की हिंसा हो जाए। २-मारूं नहीं वचन से अर्थात् किसी को शाप आदि नहीं देना, जिस से उस जीव की हिंसा हो जाए अथवा जो वाणी किसी प्राणापहार का कारण बने, ऐसी वाणी नहीं बोलना। ३-मारूं नहीं काया से अर्थात् स्वयं अपनी काया से किसी जीव को नहीं मारना। ४-मरवाऊं नहीं मन से अर्थात् अपने मन से ऐसा मंत्रादि का जाप न करना जिस से दूसरे व्यक्ति के मन को प्रभावित कर के उस के द्वारा किसी प्राणी की हिंसा की जाए। ५-मरवाऊं नहीं वचन से अर्थात् वचन द्वारा कह कर दूसरे से किसी प्राणी के प्राणों का अपहरण नहीं करना। ६-मरवाऊं नहीं काया से अर्थात् अपने हाथ आदि के संकेत से किसी प्राणी की हिंसा न कराना। किसी जीव को मारूं नहीं, मरवाऊं नहीं ये दो करण और मन, वचन और काया, ये तीन योग कहलाते हैं। इस प्रकार जीवनपर्यन्त त्रस जीवों की हिंसा न करने का श्रावक के छ: कोटि प्रत्याख्यान होता है। इसी भान्ति सत्य, अचौर्य आदि व्रतों के विषय में भी भावना कर लेनी चाहिए। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [819