________________ समान देदीप्यमान-अग्नि जैसे लाल। सिंहासणंसि-सिंहासन पर। निसीयावेंति-बैठा देते हैं। तयाणंतरं च णं-और तत्पश्चात्। पुरिसाणं-पुरुषों के। मझगयं पुरिसं-मध्यगत उस पुरुष को। बहूहि-अनेक। तत्तेहि-तप्त-तपे हुए / अयकलसेहि-लोहकलशों से। समजोइभूतेहि-जो कि अग्नि के समान देदीप्यमान हैं तथा। अप्पेगइया-कितने एक।तंबभरिएहि-ताम्र से परिपूर्ण हैं / अप्पेगइया-कितने एक। तउयभरिएहिंत्रपु-रांगा से परिपूर्ण हैं। अप्पेगइया-कितने एक।सीसगभरिएहि-सीसक-सिक्के से परिपूर्ण हैं।अप्पेगइयाकितने एक। कलकलभरिएहि-चूर्णक आदि से मिश्रित जल से परिपूर्ण हैं अथवा कलकल शब्द करते हुए उष्णात्युष्ण पानी से परिपूर्ण हैं। अप्पेगइया-कितने एक। खारतेल्लभरिएहि-क्षारयुक्त तैल से परिपूर्ण हैं, इन के द्वारा / महया-महान्। रायाभिसेएणं-राज्ययोग्य अभिषेक से। अभिसिंचंति-अभिषिक्त करते हैं। तयाणंतरं-च णं-और तत्पश्चात्। समजोइभूयं-अग्नि के समान देदीप्यमान। तत्तं-तप्त / अयोमयं-लोहमय। हार-हार को। अओमय-लोहमय। संडासएणं-संडासी से। गहाय-ग्रहण कर के। पिणद्धति-पहनाते हैं। तयाणंतरं च णं-और तदनन्तर। अद्धहारं-अर्द्धहार को। जाव-यावत्। पढेंमस्तक पर बांधने का पट्ट-वस्त्र अथवा मस्तक का भूषणविशेष। मउडं-और मुकुट (एक प्रसिद्ध शिरोभूषण जो प्रायः राजा आदि धारण किया करते हैं-ताज) को पहनाते हैं। यह देख गौतम स्वामी को। चिन्ता-विचार उत्पन्न हुआ। तहेव-तथैव-पूर्ववत्। जाव-यावत्। वागरेति-भगवान् प्रतिपादन करने लगे। . मूलार्थ-उस काल तथा उस समय में (मथुरा नगरी के बाहर भंडीर नामक उद्यान में) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिषद् और राजा भगवद् दर्शनार्थ नगर से निकले यावत् वापस चले गए। उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी भिक्षार्थ गमन करते हुए यावत् राजमार्ग में पधारे। वहां उन्होंने हाथियों, घोड़ों, और पुरुषों को तथा उन पुरुषों के मध्यगत यावत् नर नारियों से घिरे हुए एक पुरुष को देखा। . राजपुरुष उस पुरुष को चत्वर-जहां बहुत से रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थान में अग्नि के समान तपे हुए लोहमय सिंहासन पर बैठा देते हैं, बैठा कर उस को ताम्रपूर्ण त्रपुपूर्ण, सीसकपूर्ण तथा चूर्णक आदि से मिश्रित जल से पूर्ण अथवा कलकल शब्द करते हुए गर्म पानी से परिपूर्ण और क्षारयुक्त तैल से पूर्ण, अग्नि के समान तपे हुए लोहकलशों-लोहघटों के द्वारा महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त करते हैं। . तदनन्तर उसे लोहमय संडास-सण्डासी से पकड़ कर अग्नि के समान तपे हुए अयोमय हार-अठारह लड़ियों वाले हार को, अर्द्धहार-नौ लड़ी वाले हार को तथा मस्तक के पट्ट-वस्त्र अथवा भूषणविशेष और मुकुट को पहनाते हैं। यह देख गौतम प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [515