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________________ भी प्रकार के सन्देह की आवश्यकता नहीं है। __ "दारगस्स जाव आगितिमित्ते " तथा "मियादेवी जाव पडिजागरमाणी'' इन दोनों स्थलों में पढ़े गए "जाव -यावत्" पद से पूर्व पठित आगम-पाठ का ग्रहण करना ही सूत्रकार को अभिप्रेत है। "जाति-अन्धे" और "जायअन्धारूवे" इन दोनों पदों के अर्थ-विभेद पर प्रकाश डालते हुए आचार्यश्री अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं "जाति-अन्धे"त्ति-जातेरारभ्यान्धो जात्यन्धः स च चक्षुरूपघातादपि भवतीत्यत आह-'जाय-अंधारूवे' त्ति जातमुत्पन्नमन्धकं नयनयोरादित एवानिष्पत्तेः कुत्सिताङ्गं रूपं-स्वरूपं यस्यासौ जातान्धकरूपः"। तात्पर्य यह है कि "जात्यन्ध' और "जातान्धकरूप" इन दोनों पदों में प्रथम पद से तो जन्मान्ध अर्थात् जन्म से होने वाला अन्धा यह अर्थ विवक्षित है, और दूसरे से यह अर्थ अभिप्रेत है कि जो किसी बाह्यनिमित्त से अन्धा न हुआ हो किन्तु प्रारम्भ से ही जिसके नेत्रों की निष्पत्ति-उत्पत्ति नहीं हो पाई। जन्मान्ध तो जन्मकाल से किसी निमित्त द्वारा चक्षु के उपघात हो जाने पर भी कहा जा सकता है अर्थात् ऐसे व्यक्ति को भी जन्मांध कह सकते हैं जिस के नेत्र जन्मकाल से नष्ट हो गए हों, परन्तु जातान्धकरूप उसे कहते हैं कि जिसके जन्मकाल से ही नेत्रों का असद्भाव हो-नेत्र न हों। यही इन पदों में अर्थ विभेद है जिसके कारण सूत्रकार ने इन दोनों का पृथक्-पृथक् ग्रहण किया तदनन्तर अज्ञानान्धकाररूप पातक समूह को दूर करने में दिवाकर (सूर्य) के समान श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को विधि पूर्वक वन्दना नमस्कार कर भगवान् गौतम स्वामी ने उनसे सविनय निवेदन किया कि भगवन् ! यदि आप मुझे आज्ञा दें तो मैं उस मृगापुत्र नामक बालक को देखना चाहता हूं। "तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते'' इस पद में गौतम स्वामी की विनीतता की प्रत्यक्ष झलक है जो कि शिष्योचित सद्गुणों के भव्यप्रासाद की मूल भित्ति है। हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम को सुख हो, यह था प्रभु महावीर की ओर से दिया गया उत्तर / इस उत्तर में भगवान् ने गौतम स्वामी को जिगमिषा (जाने की इच्छा) को किसी भी प्रकार का व्याघात न पहुंचाते हुए सारा उत्तरदायित्व उन के ही ऊपर डाल दिया है, और अपनी स्वतन्त्रता को भी सर्वथा सुरक्षित रक्खा है। तदनन्तर जन्मान्ध और हुण्डरूप मृगापुत्र को देखने की इच्छा से सानन्द आज्ञा प्राप्त कर शान्त तथा हर्षित अन्त:करण से श्री गौतम अनगार भगवान् महावीर स्वामी के पास से 138 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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