SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पश्चात् उत्पन्न हुए 2 पुत्रों को वस्त्राभूषणादि से अलंकृत कर भगवान् गौतम के चरणों में डाल कर निवेदन किया कि भगवन् ! ये मेरे पुत्र हैं इन को आप देख लीजिए। यह सुन कर भगवान् गौतम मृगादेवी से बोले-हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे इन पुत्रों को देखने के लिए यहां पर नहीं आया हूं, किन्तु तुम्हारा ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र जो जन्मांध और जन्मांधकरूप है, तथा जिस को तुम ने एकांत के भूमिगृह में रक्खा हुआ है एवं जिस का तुम गुप्तरूप से सावधानी-पूर्वक खान-पान आदि के द्वारा पालन पोषण कर रही हो, उसे देखने के लिए आया हूं। यह सुन कर मृगादेवी ने भगवान् गौतम से (आश्चर्य-चकित हो कर) निवेदन किया-भगवन् ! वह ऐसा ज्ञानी अथवा तपस्वी कौन है, जिस ने मेरी इस रहस्य-पूर्ण गुप्त वार्ता को आप से कहा, जिस से आप ने उस गुप्त रहस्य को जाना है। टीका-भगवन् ! अन्धकरूप [जिस के नेत्रों की उत्पत्ति भी नहीं हो पाई] में जन्मा हुआ वह पुरुष कहां है ? गौतम स्वामी ने बड़ी नम्रता से प्रभु वीर के पवित्र चरणों में निवेदन किया, गौतम ! इसी मृगाग्राम नगर में मृगादेवी की कुक्षि से उत्पन्न विजयनरेश का पुत्र मृगापुत्र नाम का बालक है, जो कि अन्धकरूप में ही जन्म को प्राप्त हुआ है, अतएव जन्मांध है, तथा जिसके हाथ, पैर, नाक, आंख और कान भी नहीं हैं, केवल उन के आकार-चिन्ह ही हैं / उस की माता मृगादेवी उसे एक गुप्त भूमिगृह में रख कर गुप्तरूप से ही खान-पान पहुंचाकर उस का संरक्षण कर रही है। भगवान् ने बड़ी गम्भीरता से उत्तर दिया, जिसको यथार्थता में किसी उत्तर - ऐसी बात नहीं है, भगवान् गौतम ने जब भी भगवान् महावीर से कोई पृच्छा की है तो उस में मात्र जनहित की भावना ही प्रधान रही है। उन के प्रश्न सर्वजनहिताय एवं सुखाय ही होते थे, अन्यथा उपयोग लगाने पर स्वयं जान सकने की शक्ति के धनी होते हुए भी वे भगवान् से ही क्यों पूछते हैं ? उत्तर स्पष्ट है, भगवान् से पूछने में उन का यही हार्द है कि दूसरे लोग भी प्रभु-वाणी का लाभ लें- अन्य भावुक व्यक्ति भी जीवन को समुज्वल बनाने में अग्रसर हो सकें, सारांश यह है कि भगवान् की वाणी से सर्वतोमुखी लाभ लेने का उद्देश्य ही अनगार गौतम की पृच्छा में प्रधानतया कारण हुआ रहा है। __प्रस्तुत प्रकरण में भी उसी सद्भावना का परिचय मिल रहा है। यदि अनगार गौतम मृगापुत्र को देखने न जाते तो अधिक संभव था कि मृगापुत्र के अतीत और अनागत जीवन का इतना विशिष्ट ऊहापोह (सोच विचार) न हो पाता और न ही मृगापुत्र का जीवन आज के पापी मानव के लिए पापनिवृत्ति में सहायक बनता। यह इसी पृच्छा का फल है कि आज भी यह मृगापुत्र का जीवन मानवदेहधारी दानव को अशुभ कर्मों के भीषण परिणाम दिखाकर उन से निवृत्त करा कर मानव बनाने में निमित्त बन रहा है, एवं इसी पृच्छा के बल पर प्रस्तुत जीवन की विचित्र घटनाओं से प्रभावित होकर अनेकानेक नर-नारियों ने अपने अन्धकार-पूर्ण भविष्य को समुज्वल बना कर मोक्ष पथ प्राप्त किया है और भविष्य में करते रहेंगे। भगवान् गौतम की किसी भी पृच्छा में अविश्वास का कोई स्थान नहीं। वे तो प्रभु वीर के परम श्रद्धालु, परम सुविनीत, आज्ञाकारी शिष्यरत्न थे। उन में अविश्वास का ध्यान भी करना उन को समझने में भूल करना है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [137
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy