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________________ और दण्डनीति के प्रयोग को और उसकी अथवा न्याय की विधियों को जानने वाला तथा निग्रह में बड़ा निपुण था। उस नगरी में सुदर्शना नाम की एक सुप्रसिद्ध गणिका-वेश्या रहती थी। उस के वैभव का वर्णन द्वितीय अध्ययन में वर्णित कामध्वजा नामक वेश्या के समान जान लेना चाहिए, तथा उस नगर में सुभद्र नाम का एक सार्थवाह रहता था, उस सुभद्र सार्थवाह अर्थात् सार्थ-व्यापारी मुसाफिरों के समूह का मुखिया, की भद्रा नाम की एक अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर वाली भार्या थी, तथा सुभद्र सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का आत्मज शकट नाम का एक बालक था, जोकि अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर से युक्त था। टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनगारपुंगव श्री जम्बू स्वामी आचार्यप्रवर श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों की पर्युपासना करते हुए साधुजनोचित त्यागी और तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए, नित्यकर्म के अनन्तर उन से भगवत्-प्रणीत निर्ग्रन्थ प्रवचन का भी प्रायः निरन्तर श्रवण करते रहते थे। पाठकों को स्मरण होगा कि श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी को पहले प्रकरणों में उनके प्रश्नों का उत्तर दे चुके हैं। दूसरे शब्दों में-श्री जम्बू स्वामी ने विपाकश्रुत के तीसरे अध्ययन के श्रवण की इच्छा प्रकट की थी। तब श्री सुधर्मा स्वामी ने उन्हें तीसरे अध्ययन में चोरसेनापति अभग्नसेन का जीवनवृत्तान्त सुनाया था, जिसे श्री जम्बू स्वामी ने, ध्यानपूर्वक सुना और चिन्तन द्वारा उसके परमार्थ को अवगत किया था, अब उनके हृदय में चतुर्थ अध्ययन के श्रवण की उत्कंठा हुई। वे सोचने लगे कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने चतुर्थ अध्ययन में क्या प्रतिपादन किया होगा, क्या उस में भी चौर्यकर्म के दुष्परिणाम का वर्णन होगा या अन्य किसी विषय का, इत्यादि हृदयगत ऊहापोह करते हुए अन्त में उन्होंने श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में चतुर्थ अध्ययन के श्रवण की प्रार्थना की। पाठकों को स्मरण रहे कि श्री जम्बू स्वामी ने अपनी भाषा में जो कुछ श्री सुधर्मा स्वामी से प्रार्थनारूप में निवेदन किया था, उसी को सूत्रकार ने "उक्खेवो-उत्क्षेपः" शब्द से सूचित किया है। उत्क्षेप को दूसरे शब्दों में प्रस्तावना कहा गया है। सम्पूर्ण प्रस्तावना सम्बन्धी पाठ इस प्रकार से है जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, चउत्थस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ?अर्थात् श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से विनयपूर्वक निवेदन किया कि भदन्त ! यदि 440 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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