________________ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के तृतीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! उन्होंने दुःखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ? जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न का उनके पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी ने जो उत्तर देना आरम्भ किया उसे ही सूत्रकार ने "एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं....." इत्यादि पदों में वर्णित किया है, जिन का अर्थ नीचे दिया जाता है श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा कि हे जम्बू ! इस अवसर्पिणी काल का चौथा आरा व्यतीत हो रहा था, उस समय साहंजनी नाम की एक सुप्रसिद्ध वैभवपूर्ण नगरी थी। उस के बाहर ईशान कोण में देवरमण नाम का एक परम सुन्दर उद्यान था। उस उद्यान में अमोघ नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन-स्थान था, जो कि पुराने जमाने के सुयोग्य अनुभवी तथा निपुण शिल्पियों-कारीगरों के यश-पुंज को दिगंतव्यापी करने में सिद्धहस्त था। दूसरे शब्दों में कहें तो-अमोघ यक्ष का स्थान बहुत प्राचीन तथा नितान्त सुन्दर बना हुआ था-यह कहा जा सकता साहजनी नगरी में महाराज महाचन्द्र का शासन चल रहा था। महाराज महाचन्द्र हृदय के बड़े पवित्र और प्रजा के हितकारी थे। उन का अधिक समय प्रजा के हित-चिन्तन में ही व्यतीत होता था। प्रजाहित के लिए अपने शारीरिक सुखों को वे गौण समझते थे। शास्त्रकारों ने उन्हें हिमाचल और मेरु पर्वत आदि पर्वतों से उपमित किया है, अर्थात् जिस प्रकार हिमालय आदि पर्वत निष्पकंप तथा महान् होते हैं, ठीक उसी प्रकार महाराज महाचन्द्र भी धैर्यशील और महाप्रतापी थे, तथा जिस प्रकार पूर्णिमा का चन्द्र षोडश कलाओं से सम्पूर्ण और दर्शकों के लिए आनन्द उपजाने वाला होता है, उसी प्रकार महाचन्द्र भी नृपतिजनोचित समस्त गुणों से पूर्ण और प्रजा के मन को आनन्दित करने वाले थे। महाचन्द्र के एक सुयोग्य अनुभवी मंत्री था जो कि सुषेण के नाम से विख्यात था। वह साम, भेद, दण्ड और दाननीति के विषय में पूरा-पूरा निष्णात था, और इन के प्रयोग से वह विपक्षियों का निग्रह करने में भी पूरी-पूरी निपुणता प्राप्त किए हुए था। इसीलिए वह राज्य का संचालन बड़ी योग्यता से कर रहा था और महाराज महाचन्द्र का विशेष कृपापात्र बना हुआ था। प्रियवचनों के द्वारा विपक्षी को वश में करना साम कहा जाता है। स्वामी और सेवक के हृदय में विभिन्नता उत्पन्न करने का नाम भेद है। किसी अपराध के प्रतिकार में अपराधी को पहुंचाई गई पीड़ा या हानि दण्ड कहलाता है। अभिमत पदार्थ के दान को दान या उपप्रदान प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [441