SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहते हैं। निग्रह शब्द-दण्डित करना या स्वाधीन करना-इस अर्थ का परिचायक है, यह छल, कपट एवं दमन से साध्य होता है। __साम, भेद आदि पदों के भेदोपभेदों का वर्णन आचार्य श्री अभयदेव सूरि ने श्री स्थानाङ्ग सूत्र के तीसरे स्थान और तीसरे उद्देशक में बड़ी सुन्दरता से किया है। पाठकों की जानकारी के लिए वह स्थल नीचे दिया जाता है (1) 'साम-पांच प्रकार का होता है, जैसे कि १-परस्पर के उपकारों का प्रदर्शन करना, २-दूसरे के गुणों का उत्कीर्तन करना, ३-दूसरे से अपना पारस्परिक सम्बन्ध बतलाना, ४-आयति (भविष्यत्-कालीन) आशा दिलाना अर्थात् अमुक कार्य करने पर हम को अमुक लाभ होगा, इस प्रकार से भविष्य के लिए आशा बंधाना, ५-मधुर वाणी से-मैं तुम्हारा ही हूं -इस प्रकार अपने को दूसरे के लिए अर्पण करना। (2) भेद-तीन प्रकार का होता है, जैसे कि १-स्नेह अथवा राग को हटा देनाः ' अर्थात् किसी का किसी पर जो स्नेह अथवा राग है उसे न रहने देना। २-स्पर्धा-ईर्ष्या उत्पन्न कर देना। ३-मैं ही तुम्हें बचा सकता हूं-इस प्रकार के वचनों द्वारा भेद डाल देना। (3) दण्ड-तीन प्रकार का होता है, जैसे कि १-वध-प्राणान्त करना। २-परिक्लेषपीड़ा पहुंचाना। ३-जुरमाने के रूप में धनापहरण करना। (4) दान-पांच प्रकार का होता है, जैसे कि १-दूसरे के कुछ देने पर बदले में कुछ देना। २-ग्रहण किए हुए का अनुमोदन-प्रशंसा करना। ३-अपनी ओर से स्वतन्त्ररूपेण किसी अपूर्व वस्तु को देना। ४-दूसरे के धन को स्वयं ग्रहण कर अच्छे-अच्छे कामों में लगा देना। ५-ऋण को छोड़ देना। इसके अतिरिक्त उक्त नगरी में सुदर्शना नाम की एक गणिका-वेश्या भी रहती थी जो कि गायन और नृत्य कला में बड़ी प्रवीण और धनसम्पन्न कामिजनों को अपने जाल में फंसाने के लिए बड़ी कुशल थी। उस की रूपज्वाला में बड़े-बड़े धनी, मानी युवक शलभ-पतंग की 1. सामलक्षणमिदम्-परस्परोपकाराणां दर्शनं 1 गुणकीर्तनम् 2 / सम्बन्धस्य समाख्यानं 3 आयत्याः संप्रकाशनम् 4 ॥१॥वाचा पेशलया साधुतवाहमिति चार्पणम्५ ।इति सामप्रयोगज्ञैः साम पंचविधं स्मृतम्॥२॥ अस्मिन्नेवं कते इदमावयोर्भविष्यतीत्याशाजननमायतिसम्प्रकाशनमिति। भेदलक्षणमिदम-स्नेहरागापनयनं 1 संहर्षोत्पादनं तथा 2 / सन्तर्जनं 3 च भेदज्ञैः भेदस्तु त्रिविधः स्मृतः॥३॥ संहर्षः स्पर्धा, सन्तर्जनं च अस्यास्मिन्मित्रविग्रहस्य परित्राणं मत्तो भविष्यतीत्यादिकरूपमिति।भेदलक्षणमिदम्-वधश्चैव 1 परिक्लेशो 2, धनस्य हरणं तथा ३।इति दण्डविधानज्ञैर्दण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः॥४॥प्रदानलक्षणमिदम्-१ यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः उत्तमाधममध्यमाः। प्रतिदानं तथा तस्य 2 गृहीतस्यानुमोदनम्॥ 1 // द्रव्यदानमपूर्वं च 3 स्वयंग्राहप्रवर्तनम् ४।देयस्य प्रतिमोक्षश्च 5 दानं पंचविधं स्मृतम्॥२॥धनोत्सर्गो-धनसम्पत्, स्वयंग्राहप्रवर्तनंपरस्वेषु, देयप्रतिमोक्षः ऋणमोक्ष इति / (स्थानांगवृत्तितः)। 442 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतंस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy