________________ भान्ति अपने जीवनसर्वस्व को अर्पण करने के लिए एक-दूसरे से आगे रहते थे। तथा साहंजनी नगरी में सुभद्र नाम के एक सार्थवाह भी रहते थे, वे बड़े धनाढ्य थे। लक्ष्मीदेवी की उन पर असीम कृपा थी। इसीलिए वे नगर में तथा राजदरबार में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त किए हुए थे। उन की सहधर्मिणी का नाम भद्रा था। जो कि रूपलावण्य में अद्वितीय होने के अतिरिक्त पतिपरायणा भी थी। जहां ये दोनों सांसारिक वैभव से परिपूर्ण थे वहां इनके विशिष्ट सांसारिक सुख देने वाला एक पुत्र भी था जो कि शकट कुमार के नाम से प्रसिद्ध था। शकट कुमार जहां देखने में बड़ा सुन्दर था वहां वह गुण-सम्पन्न भी था। उसकी बोल चाल बंड़ी मोहक थी। . -रिद्धस्थिमिय०-यहां के बिन्दु से जो पाठ विवक्षित है उसकी सूचना द्वितीय अध्याय में दी जा चुकी है। तथा-पुराणे०- यहां के बिन्दु से औपपातिक सूत्रगत-सहिए वित्तिए कित्तिए-इत्यादि पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ वहीं औपपातिक सूत्र में देख लेना चाहिए। तथा-महता-यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ की सूचना भी द्वितीय अध्याय में दी जा चुकी है। -सामभेयदंड०- यहां के बिन्दु से-"उवप्पयाणनीतिसुप्पउत्त-णय-विहिन्नू ईहावूहमग्गणगवेसणअत्थसत्थमइविसारए उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मियाए पारिणामिआए चउव्विहाए बुद्धीए उववेए-इत्यादि औपपातिकसूत्रगत पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों की व्याख्या औपपातिक सूत्र में देखी जा सकती है। प्रस्तुत प्रकरण में जो सूत्रकार ने -सामभेयदंडउवप्पयाणनीतिसुप्पउत्तणयविहिन्नू- यह सांकेतिक पद दिया है, इसकी व्याख्या निम्नोक्त है - साम, भेद, दण्ड और उपप्रदान (दान) नामक नीतियों का भली प्रकार से प्रयोग करने वाला तथा न्याय अथवा नीतियों की विधियों का ज्ञान रखने वाला सामभेददण्डोपप्रदाननीतिसुप्रयुक्तनयविधिज्ञ कहलाता है। . -वण्णओ- पद का अर्थ है-वर्णक अर्थात् वर्णनप्रकरण। सूत्रकार ने वर्णक पद से गणिका के वर्णन करने वाले प्रकरण का स्मरण कराया है। गणिका के वर्णनप्रधान प्रकरण का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र के दूसरे अध्ययन में किया जा चुका है। . -अड्ढे०- यहां के बिन्दु से जो पाठ विवक्षित है उस का उल्लेख द्वितीय अध्ययन में किया जा चुका है। तथा-अहीण-यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ का वर्णन भी द्वितीय अध्ययन की टिप्पण में किया जा चुका है तथा दूसरे-अहीण-के बिन्दु से अभिमत पाठ का वर्णन भी उक्त अध्ययन में ही किया गया है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [443