________________ संस्कृत प्रतिरूप मान लिया जाए तो उसका अर्थ होगा-उष्ण-गरमी आदि की बिमारी से बाधित-पीड़ित व्यक्ति / ४-१रोगी-अचिरस्थायी-देर तक न रहने वाले ज्वर आदि रोगों से युक्त व्यक्ति रोगी कहलाता है। अथवा चिरघाती अर्थात् देर से विनाश करने वाले ज्वर, अतिसार आदि रोगों से युक्त व्यक्ति रोगी कहलाता है। जिन का कोई नाथ-स्वामी हो वह सनाथ तथा जिन का कोई स्वामी-रक्षक न हो वह अनाथ कहलाता है। गेरुए रंग के वस्त्र धारण करने वाले परिव्राजक-संन्यासी का नाम श्रमण है। चारों वर्गों में से पहले वर्ण वाले को ब्राह्मण कहते हैं। अथवा-याचक विशेष को ब्राह्मण कहते हैं। भिक्षुक-भिक्षावृत्ति से आजीविका चलाने वाले का नाम है। हाथ में कपाली-खोपरी रखने वाले संन्यासी के लिए करोटक शब्द प्रयुक्त होता है। कार्पटिक शब्द जीर्ण कंथागुदड़ी को धारण करने वाला, अथवा भिखमंगा-इन अर्थों का परिचायक है। आतुर-जिस को अन्य वैद्यों ने चिकित्सा के अयोग्य ठहराया हो, अथवा-जिसे असाध्यरोग हो रहा हो उसे आतुर कहते हैं। इस के अतिरिक्त यहां पर इतना और ध्यान रहे कि मूल में मत्स्यादि जलचर और कुक्कुटादि स्थलचर एवं कपोतादि खेचर जीवों के नामोल्लेख करने के बाद भी "जलयर-थलयर-" आदि पाठ दिया है, उस का तात्पर्य यह है कि पहले जितने भी नाम बताए गए हैं, उनका संक्षेपतः वर्णन कर दिया गया है और उन के अतिरिक्त दूसरों का भी ग्रहण उक्त पाठ से समझना चाहिए। इसलिए यहां पर पुनरुक्ति दोष की आशंका नहीं करनी चाहिए। ___ -रिद्ध-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ का वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। तथा "-राईसर० जाव सत्थवाहाणं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-तलवरमाडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्टि-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। राजा प्रजापति का नाम है। ईश्वर आदि शब्दों की व्याख्या दूसरे अध्याय में लिखी जा चुकी -मच्छमंसेहि य जावमऊरमंसेहि-यहां पठित जाव-यावत् पद से"-कच्छभमंसेहि य, गाहमंसहि य, मगरमंसेहि य, सुंसुमारमंसहि य, अयमंसेहि य, एलमंसेहि य, रोज्झमंसहि य, सूयरमंसहि य, मिगमंसहि य, ससयमंसहि य, गोमंसेहि य, महिसमंसेहि य, तित्तिरमंसेहि 1. रोगियाण-य त्ति संजाताचिरस्थायिज्वरादिदोषाणाम्, अथवा चिरघातिज्वरातिसारादिरोगयुक्तानामित्यर्थः। 2. -समणाण य, त्ति-गैरिकादीनाम्। ___3. आउराण य-चिकित्साया अविषयभूतानाम् अथवा असाध्यरोगपीडितानामित्यर्थः) 580 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध