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________________ उद्योग करना चाहिए। ___महाराज सिंहसेन के जीवन में आसक्ति की मात्रा कुछ अधिक प्रमाण में दृष्टिगोचर हो रही है। महारानी श्यामा पर वे इतने आसक्त थे कि उसके अतिरिक्त किसी दूसरी विवाहिता रानी का उन्हें ध्यान तक भी नहीं आता था। तात्पर्य यह है कि महाराज सिंहसेन श्यामा के स्नेहपाश में बुरी तरह फंस गये थे। वही एक मात्र उन के हृदय पर सर्वेसर्वा अधिकार जमाये हुए थी, यद्यपि अन्य रानियों में भी पतिप्रेम और रूपलावण्य की कमी नहीं थी, परन्तु श्यामा के मोहजाल में फंसे हुए सिंहसेन उन की तरफ आंख भर देखने का भी कष्ट न करते। महाराज सिंहसेन का यह व्यवहार बाकी की रानियों को तो असह्य था ही, परन्तु जब उन की माताओं को इस व्यवहार का पता लगा तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे सब मिल कर आपस में परामर्श करती हुई इस परिणाम पर पहुँची कि हमारी पुत्रियों से इस प्रकार के दुर्व्यवहार का कारण एक मात्र श्यामा है, उसने महाराज को अपने में इतना अनुरक्त कर लिया है कि वह उन को दूसरी तरफ झांकने का भी अवसर नहीं देती, इसलिए उसी को ठीक करने से सब कुछ ठीक हो सकेगा। ऐसा विचार कर वे अग्नि, विष, अथवा शस्त्र आदि के प्रयोग से महारानी श्यामा को समाप्त कर देने की भावना से ऐसे अवसर की खोज में लग गई जिस में श्यामा को मृत्युदण्ड - देना सुलभ हो सके। प्रस्तुत कथासंदर्भ से अनेक ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश पड़ता है, जो कि निम्नोक्त हैं १-घर में हर एक के साथ समव्यवहार रखना चाहिए, किसी के साथ कम और किसी के साथ विशेष प्रेम करने से भी अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित हो जाती हैं। जहां समान अधिकारी हों वहां इस प्रकार का भेदमूलक व्यवहार अनुचित ही नहीं किन्तु अयोग्य भी है। अतः इस का परिणाम भी भयंकर ही होता है। इतिहास इस की पूरी-पूरी साक्षी दे रहा है। महाराज सिंहसेन श्यामा के साथ अनुराग करते हुए यदि शेष रानियों से भी अपना कर्त्तव्य निभाते और कम से कम उन की सर्वथा उपेक्षा न करते तो भी इतना आपत्तिजनक नहीं था, परन्तु उन्होंने तो बुद्धि से काम ही नहीं लिया। तात्पर्य यह है कि यदि वे अन्य रानियों के साथ अपना यत्किंचित् स्नेह भी व्यक्त करने का व्यावहारिक उद्योग करते तो उनकी प्रेयसी श्यामा के प्रति अन्य महिलाओं के तथा उन की माताओं के हृदयों में नारीजन-सुलभ विद्वेषाग्नि को प्रज्वलित होने का अवसर ही न आता। (2) कुलीन महिला के लिए पतिप्रेम से वंचित रहना जितना दुःखदायी होता है उतना और कोई प्रतिकूल संयोग उसे कष्टप्रद नहीं हो सकता। इस के विपरीत उसे पतिप्रेम 1. श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के नवम अध्ययन में जिनरक्षित और जिनपाल के जीवन वृत्तान्त के प्रसंग 692 ] . श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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