________________ “अध्युपपन्न हो हमारी कन्याओं का न तो आदर करता है और न उनका ध्यान ही रखता है-" तब उन्होंने मिल कर निश्चय किया कि हमारे लिए यही उचित है कि हम श्यामा देवी को अग्निप्रयोग, विषप्रयोग या शस्त्रप्रयोग से जीवनरहित कर डालें। इस तरह विचार करने के अनन्तर वे श्यामादेवी के अन्तर, छिद्र तथा विरह की प्रतीक्षा करती हुईं समय व्यतीत करने लगीं। इधर श्यामादेवी को भी षड्यन्त्र का पता चल गया, जिस समय उसे यह समाचार मिला तो वह इस प्रकार विचार करने लगी कि मेरी एक कम पांच सौ सपत्नियों की एक कम पांच सौ माताएं"-महाराज सिंहसेन श्यामा में अत्यन्त आसक्त हो कर हमारी पुत्रियों का आदर नहीं करता-". यह जान कर एकत्रित हुईं और "-अग्नि, विष या शस्त्र के प्रयोग से श्यामा के जीवन का अन्त कर देना ही हमारे लिए श्रेष्ठ है-" ऐसा विचार कर वे उस अवसर की खोज में लगी हुई हैं। यदि ऐसा ही है तो न जाने वे मुझे किस कुमौत से मारें, ऐसा विचार कर वह श्यामा भीत, त्रस्त, उद्विग्न और संजातभय हो उठी, तथा जहां कोपभवन था वहां आई और आकर मानसिक संकल्पों के विफल रहने से निराश मन से बैठी हुई यावत् विचार करने लगी। टीका-जैनशास्त्रों में ब्रह्मचर्य व्रत के दो विभाग उपलब्ध होते हैं-महाव्रत और अणुव्रत / हिन्दु शास्त्रों में इस के पालक की व्याख्या नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा उपकुर्वाण ब्रह्मचारी के रूप में की गई है। जो साधु मुनिराज तथा साध्वी सब प्रकार से स्त्री तथा पुरुष के संसर्ग से पृथक् रहते हैं, वे सर्वविरति अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाते हैं, तथा जो अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त संसार की शेष स्त्रियों को माता तथा भगिनी एवं पुत्री के रूप में देखते हैं वे देशविरति या उपकुर्वाण ब्रह्मचारी कहलाते हैं। प्रस्तुत में हमें देशविरति या उपकुर्वाण ब्रह्मचारी के सम्बन्ध में कुछ विचार करना इष्ट है। . यह ठीक है कि देशविरति-गृहस्थ अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त शेष स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री के तुल्य समझे परन्तु अपनी स्त्री के साथ किए जाने वाले संसर्ग का भी यह अर्थ नहीं होता कि उस में वह इतना आसक्त हो जाए कि हर समय उसी का चिन्तन तथा ध्यान करता रहे और उस को एकमात्र कामवासना की पूर्ति का साधन ही बना डाले, ऐसा करना तो स्वदारसन्तोषव्रत की कड़ी अवहेलना करने के अतिरिक्त पाप कर्म का भी अधिकाधिक बन्ध करना है। विषयासक्ति कर्त्तव्यपालक को कर्त्तव्यनाशक, अहिंसक को हिंसक, तथा दयालु को हिंसापरायण बना देती है। आसक्ति में स्वार्थ है, संकोच है और गर्व है, वहां दूसरे के हित को कोई अवकाश नहीं, अतः विचारशील व्यक्ति को इस से सदा पृथक् ही रहने का प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [691