________________ पाप-कर्मों का उपार्जन करके तीन सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले दूसरे नरक में उस का नारकरूप से उत्पन्न होना भी बताया है। बुरा कर्म बुरे ही फल को उत्पन्न करता है। पुण्य सुख का उत्पादक और पाप दुःख का जनक है, इस नियम के अनुसार गोत्रास को उस के पापकर्मों का नरकगतिरूप फल प्राप्त होना अनिवार्य था। पापादि क्रियाओं में प्रवृत्त हुआ जीव अन्त में दुःख-संवेदन के लिए दुर्गति को प्राप्त करता है। गोत्रास ने अनेक प्रकार के पापमय आचरणों से दुर्गति के उत्पादक कर्मों का उपार्जन किया और आयु की समाप्ति पर आर्तध्यान करता हुआ वह दूसरे नरक का अतिथि बना, वहां जाकर उत्पन्न हुआ। __ "अट्ट-दुहट्टोवगए" इस पद की टीकाकार महानुभाव ने निम्नलिखित व्याख्या की ", आर्तध्यानं दुर्घट-दुःखस्थगनीयं दुर्वार (र्य) मित्यर्थः उपगतः-प्राप्तो यः स तथा" अर्थात् बड़ी कठिनता से निवृत्त होने वाले आर्तध्यान' को प्राप्त हुआ। तथा प्रस्तुत सूत्रगत-"एयप्प० वि० स०" इन तीनों पदों से क्रमशः “एयप्पहाणे" "एयविजे" 1. अर्ति नाम दुःख का है, उस में उत्पन्न होने वाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं / वह चार भागों में विभाजित होता है, जैसे कि १-अमनोज्ञवियोगचिन्ता-अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, विषय एवं उन की साधनभूत वस्तुओं का संयोग होने पर उनके वियोग (हटाने) की चिन्ता करना तथा भविष्य में भी उन का संयोग न हो, ऐसी इच्छा का रखना आर्तध्यान का प्रथम प्रकार है। २-मनोज-संयोग-चिन्ता-पाँचों इन्द्रियों के मनोज विषय एवं उनके साधनरूप माता. पिता. भाई स्वजन. स्त्री, पुत्र और धन आदि अर्थात इन सुख के साधनों का संयोग होने पर उनके वियोग (अलग) न होने का विचार करना तथा भविष्य में भी उन के संयोग की इच्छा बनाए रखना, आर्तध्यान का दूसरा प्रकार है। ३-रोग-चिन्ता-शूल, सिरदर्द आदि रोगों के होने पर उन की चिकित्सा में व्यग्र प्राणी का उन के वियोग के लिए चिन्तन करना तथा रोगादि के अभाव में भविष्य के लिए रोगादि के संयोग न होने की चिन्ता करना. आर्त्तध्यान का तीसरा प्रकार है। __४-निदान (नियाना)-देवेन्द्र, चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव के रूप, गुण और ऋद्धि को देख या सुन कर उन में आसक्ति लाना और यह सोचना कि मैंने जो संयम आदि धर्मकृत्य किए हैं उन के फलस्वरूप मुझे भी उक्त गुण एवं ऋद्धि प्राप्त हो, इस प्रकार निदान (किसी व्रतानुष्ठान की फल-प्राप्ति की अभिलाषा) की चिन्ता करना, आर्तध्यान का चौथा प्रकार है। तत्वार्थ सूत्र में लिखा है आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति-समन्वहारः॥३१॥ वेदनायाञ्च // 32 // विपरीतं मनोज्ञानाम् // 33 // निदानं च // 34 // (तत्वार्थ सूत्र अ.९.) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [287