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________________ के मुख से अमृत की वृष्टि चाहता है। (5) एकतः काञ्चनो मेरुः बहुरत्ना वसुंधरा। एकतो भयभीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम्॥१॥ अर्थात्-एक ओर मेरु पर्वत के समान किया गया सोने और महान् रत्नों वाली पृथ्वी का दान रक्खा जाए तथा एक ओर केवल प्राणी की की गई रक्षा रखी जाए, तो वे दोनों एक समान ही हैं। (6) तिलभर मछली खाय के, करोड़ गऊ करे दान। काशी करवत लै मरे, तो भी नरक निदान॥१॥ मुसलमान मारे करद से, हिन्दू मारे तलवार। ' कहें कबीर दोनों मिली, जाएं यम के द्वार॥२॥(कबीरवाणी) (7) जे रत्त लागे कापड़े, जामा होए पलीत। जो रत्त पीवे मानुषा, तिन क्यों निर्मल चीत॥१॥ (सिक्खशास्त्र) अर्थात् यदि हमारे वस्त्र से रक्त का स्पर्श हो जाए, तो वह वस्त्र अपवित्र हो जाता है। किन्तु जो मनुष्य रक्त का ही सेवन करते हैं उनका चित्त निर्मल कैसे रह सकता है ? अर्थात् कभी नहीं। _ इत्यादि अनेकों शास्त्रों के प्रमाण उपलब्ध होते हैं, जिन में स्पष्टरूप से मांसाहार का निषेध पाया जाता है। अतः सुखाभिलाषी विचारशील पुरुष को मांसाहार जैसे दानवी कुकर्म से सदा दूर रहना चाहिए। अन्यथा छण्णिक नामक छागलिक-कसाई के जीव की भांति नरकों में अनेकानेक भीषण यातनाएं सहन करने के साथ-साथ जन्म-मरण जन्य दुस्सह दुःखों का उपभोग करना पड़ेगा। . . (2) प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित कथासन्दर्भ से दूसरी प्रेरणा ब्रह्मचर्य के पालन की मिलती है। ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन करना एक अल्पज्ञ व्यक्ति के वश की बात नहीं है। सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित शास्त्र इस की महिमा पुकार-पुकार कर गा रहे हैं। श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्र के छठे अध्याय में लिखा है तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं-अर्थात् तप नाना प्रकार के होते हैं परन्तु सभी तपों में ब्रह्मचर्य ही सर्वोत्तम तप है। ब्रह्मचर्य की महिमा महान है। मन-वचन और काया के द्वारा विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालने से मुक्ति के द्वार सहज में ही खुल जाते हैं। देवंदाणवगन्धव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा।। बम्भयारिं नमसंति, दुक्करं जे करेन्ति ते॥१६॥ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० 16) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [481
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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