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________________ अर्थात् देवता (वैमानिक और ज्योतिष्क देव), दानव ( भवनपतिदेव), गन्धर्व ' (स्वरविद्या के जानने वाले देव), यक्ष (व्यन्तर जाति के देव), राक्षस (मांस की इच्छा रखने वाले देव) और किन्नर (व्यन्तर देवों की एक जाति) इत्यादि सभी देव उस ब्रह्मचारी के चरणों में नतमस्तक होते हैं, जो इस दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है। ___ वास्तव में देखा जाए तो यह प्रवचन अक्षरशः सत्य है। इस में अत्युक्ति की गन्ध भी नहीं है, क्योंकि इतिहास इस का समर्थक है। ब्रह्मचर्य के ही प्रभाव से स्वनामधन्या सतीधुरीणा जनकसुता सीता का अग्नि को जल बना देना, सती सुभद्रा का कच्चे सूत के धागे से बन्धी हुई छलनी के द्वारा कूप से निकाले हुए पानी से चम्पा नगरी के दरवाज़ों का खोल देना तथा धर्मवीर सेठ सुदर्शन का शूली को सिंहासन बना देना, इत्यादि अनेकों उदाहरण इतिहास में उपलब्ध होते हैं। हुंकार मात्र से पृथ्वी को कंपा देने वाले बाहबलि तथा महाभारत के अनुपम वीर भीष्मपितामह तथा महामहिम श्री जम्बू स्वामी एवं मुनिपुंगव श्री स्थूलिभद्र जी महाराज इत्यादि महापुरुष जमीन फोड़ कर या आसमान फोड़ कर नहीं पैदा हुए थे। वे भी अन्य पुरुषों की भान्ति अपनी-अपनी माताओं के गर्भ से ही उत्पन्न हुए थे। परन्तु यह उनके ब्रह्मचर्य के तेज का प्रभाव है कि वे इतने महान् बन गए तथा यह भी उनके ब्रह्मचर्य की ही महिमा है कि आज उनका नाम लेने वाला मलिनहृदय व्यक्ति भी अपनी मलिनता दूर होती अनुभव करता है, तथा उनके जीवन को अपने लिए पथप्रदर्शक के रूप में पाता है। ब्रह्मचर्य मानव जीवन में मुख्य और सारभूत वस्तु है। यह जीवन को उच्चतम बनाने के अतिरिक्त संसारी आत्मा को कर्मरूप शत्रुओं के चंगुल से छुड़ाने में एक बलवान् सहायक का काम करता है। अधिक क्या कहें संसार में परिभ्रमण करने वाले जीवात्मा को जन्म-मरण के चक्र से छुड़ा कर मोक्ष-मन्दिर में पहुंचाने तथा सम्पूर्ण दु:खों का नाश करके उसे-आत्मा को नितान्त सुखमय बनाने का श्रेय इसी ब्रह्मचर्य को ही है, और इसके विपरीत ब्रह्मचर्य की अवहेलना से संसारी आत्मा का अधिक से अधिक पतन होता है, तथा सुख के बदले वह दुःख का ही विशेषरूप से संचय करता है। तात्पर्य यह है कि जहां ब्रह्मचर्य सारे सद्गुणों का मूल है वहां उस का विनाश समस्त दुर्गुणों का स्रोत है। ब्रह्मचर्य के विनाश से इस जीव को कितने भयंकर कष्ट सहने पड़ते हैं यह प्रस्तुत अध्ययन-गत शकट कुमार के व्यभिचारपरायण जीवनवृत्तान्तों से भलीभान्ति ज्ञात हो जाता है। मानव की हिंसाप्रधान और व्यभिचारपरायणप्रवृत्ति का जो दुष्परिणाम होता है, या होना चाहिए, उसी का दिग्दर्शन कराना ही इस चतुर्थ अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। 482 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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