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________________ के रति गुणों में प्रधान / बत्तीसपुरिसोवयारकुसला-काम-शास्त्र प्रसिद्ध पुरुष के 32 उपचारों में कुशल। णवंगसुत्तपडिबोहिया-सुप्त नव अंगों से जागृत अर्थात् जिस के नौ अंग-दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक रसना-जिव्हा, एक त्वक्-त्वचा और मन, ये नौ अंग जागे हुए हैं। अट्ठारसदेसीभासाविसारयाअठारह देशों की अर्थात् अठारह प्रकार की भाषा में प्रवीण। सिंगारागार-चारु वेसा-अंगार प्रधान वेष युक्त, जिसका सुन्दर वेष मानों शृङ्गार का घर ही हो, ऐसी। गीयरतिगंधव्वनट्टकुसला-गीत (संगीतविद्या), रति (कामक्रीड़ा), गान्धर्व (नृत्ययुक्त गीत), और नाट्य (नृत्य) में कुशल। संगतगत-मनोहर गतगमन आदि से युक्त / सुंदरत्थण-कुचादि गत सौन्दर्य से युक्त / सहस्सलंभा-गीत, नृत्य आदि कलाओं से सहस्र (हज़ार) का लाभ लेने वाली अर्थात् नृत्यादि के उपलक्ष्य में हज़ार मुद्रा लिया करती थी। ऊसियज्झया-जिसके विलास भवन पर ध्वजा फहराती रहती थी। विदिण्णछत्तचामरबालवियणियाजिसे राजा की कृपा से छत्र तथा चमर एवं बालव्यजनिका संप्राप्त थी। यावि-तथा। 'कण्णीरहप्पयायाकर्णीरथ नामक रथविशेष से गमन करने वाली। कामज्झया णाम-कामध्वजा नाम की एक। गणियागणिका। होत्था-थी, तथा। बहूणं गणियासहस्साणं-हज़ारों गणिकाओं का। आहेवच्चं-आधिपत्यस्वामित्व करती हुई। जाव-यावत्। विहरति-समय व्यतीत कर रही थी। मूलार्थ-हे भगवन् ! यदि मोक्ष-संप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन्! विपाक-श्रुत के द्वितीय अध्ययन का मोक्षसम्प्रात श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ कथन किया है ? तदनन्तर अर्थात् इस प्रश्न के उत्तर में सुधर्मा अनगार ने जम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहा कि-हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वाणिजग्राम नाम का एक समृद्धिशाली नगर था। उस नगर के ईशान कोण में दूतिपलाश नाम का एक उद्यान था, उस उद्यान में सुधर्मा नामक यक्ष का एक यक्षायतन था। उस नगर में मित्र नाम का राजा और उसकी श्री नाम की राणी थी। तथा उस नगर में अन्यून पंचेन्द्रिय शरीर युक्त यावत् सुरूपा-रूपवती,,७२ कलाओं में प्रवीण, गणिका के 64 गुणों से युक्त, 29 प्रकार के विशेषों-विषय के गुणों में रमण करने तब वह पुरुष मान वाला कहलाता है, यह मान शरीर की अवगाहना-विशेष के रूप में ही प्रस्तुत प्रकरण में संगृहीत हुआ है। तराजू पर चढ़ा कर तोलने पर जो अर्ध-भार (परिमाण विशेष) प्रमाण होता है वह उन्मान है, अपनी अगुलियों द्वारा एक सौ आठ अंगुलि परिमित जो ऊँचाई होती है वह प्रमाण है, अर्थात् उस गणिका के मस्तक से लेकर पैर तक के समस्त अवयव मान, उन्मान, एवं प्रमाण से युक्त थे, तथा जिन अवयवों की जैसी सुन्दर रचना होनी चाहिए, वैसी ही उत्तम रचना से वे सम्पन्न थे। किसी भी अंग की रचना न्यूनाधिक नहीं थी। इसलिए उस का शरीर सर्वांगसुन्दर था। उस का आकार चन्द्र के समान सौम्य था। वह मन को हरण करने वाली होने से कमनीय थी। उस का दर्शन भी अन्तःकरण को हर्षजनक था इसीलिए उस का रूप विशिष्ट शोभा से युक्त था। 1. कीरथप्रयाताऽपि, कीरथः प्रवहणविशेषः तेन प्रयातं गमनं यस्याः सा। कीरथो हि केषाञ्चिदेव ऋद्धिमतां भवति सोऽपि तस्या अस्तीत्यतिशयप्रतिपादनार्थोऽपि शब्दः। 224 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय .. [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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