________________ वाली, 21 प्रकार के रति गुणों में प्रधान, 32 पुरुष के उपचारों में निपुण, जिस के प्रसुप्त नव अंग जागे हुए हैं, 18 देशों की भाषा में विशारद, जिसकी सुन्दर वेष भूषा श्रृंगार-रस का घर बनी हुई है एवं गीत, रति और गान्धर्व नाट्य तथा नृत्य कला में प्रवीण, सुन्दर गति-गमन करने वाली कुचादिगत सौन्दर्य से सुशोभित, गीत, नृत्य आदि कलाओं से सहस्र मुद्रा कमाने वाली, जिस के विलास भवन पर ऊंची ध्वजा लहरा रही थी, जिसको राजा की ओर से पारितोषिक रूप में, छत्र तथा चामर-चंवर, बालव्यजनिका-चंवरी या छोटा पंखा, मिली हुई थी, और जो कीरथ में गमनागमन किया करती थी, ऐसी कामध्वजा नाम की एक गणिका-वेश्या जोकि हजारों गणिकाओं पर आधिपत्य-स्वामित्व कर रही थी, वहाँ निवास किया करती थी। ____टीका-प्रथम अध्ययन की समाप्ति के अनन्तर श्री जम्बू स्वामी ने आर्य सुधर्मा स्वामी से बड़ी नम्रता से निवेदन किया कि भगवन् ! जिनेन्द्र भगवान् श्री महावीर स्वामी ने दुःखविपाक (जिस में मात्र पाप जन्य क्लेशों का वर्णन पाया जाए) के प्रथम [मृगापुत्र नामक] अध्ययन का जो अर्थ प्रतिपादन किया है, उस का तो मैंने आप श्री के मुख से बड़ी सावधानी के साथ श्रवण कर लिया है परन्तु भगवान् ने इसके दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है अर्थात् दूसरे अध्ययन में किस की जीवनी का कैसा वर्णन किया है, इस से मैं सर्वथा अज्ञात हूं, अत: आप उसका भी श्रवण करा कर मुझे अनुगृहीत करने की कृपा करें। यह मेरी आप के श्री चरणों में अभ्यर्थना है। यह प्रश्न जहां जम्बू स्वामी की श्रवण-विषयक तीव्र रुचि संसूचक है, वहां आर्य सुधर्मा स्वामी के कथन की सार्थकता का भी द्योतक है। प्रतिपादक की यही विशेषता है कि श्रोता की श्रवणेच्छा में प्रगति हो, श्रोता की इच्छा में प्रगति का होना ही वक्ता की विशेषता की कसौटी है। जिस प्रकार वक्ता समयज्ञ एवं सिद्धांत के प्रतिपादन में पूर्णतया समर्थ होना चाहिए, उसी प्रकार श्रोता भी प्रतिभाशाली तथा विनीत होना आवश्यक है। इस प्रकार श्रोता और वक्ता का संयोग कभी सद्भाग्य से ही होता है। इस सूत्र से भी यही सूचित होता है कि जो ज्ञान विनय-पूर्वक उपार्जित किया गया हो वही सफल होता है, वही उत्तरोत्तर विकास को प्राप्त करता है, अन्यथा नहीं। इसलिए जो शिष्य गुरुचरणों में रह कर उन से विनय-पूर्वक ज्ञानोपार्जन करने का अभिलाषी होता है, उस पर गुरुजनों की भी असाधारण कृपा होती है। उसी के फलस्वरूप वे उसे ज्ञानविभूति से परिपूर्ण कर देते हैं। इस विधि से जिस व्यक्ति ने अपने आत्मा को ज्ञान-विभूति से अलंकृत किया है, वही दूसरों को अपनी ज्ञान-विभूति के वितरण से उन की अज्ञान-दरिद्रता को दूर प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [225