________________ करने में शक्तिशाली हो सकता है। इसलिए प्रत्येक विद्यार्थी को गुरुजनों से विद्याभ्यास करते समय हर प्रकार से विनयशील रहने का यत्न करना चाहिए, अन्यथा उसका अध्ययन सफल नहीं हो सकता। जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने “एवं खलु जंबू -!" इत्यादि सूत्र में जो कुछ फरमाया है, उसका विवरण इस प्रकार है हे जम्बू ! वाणिजग्राम नाम का एक सुप्रसिद्ध और समृद्धिशाली नगर था, उस नगर के ईशान कोण में दुतिपलाश नाम का एक रमणीय उद्यान था, उस उद्यान में एक यक्षायतन भी था जो कि सुधर्मा यक्ष के नाम से प्रसिद्ध था। वहां-नगर में मित्र नाम के एक राजा राज्य करते थे जो कि पूरे वैभवशाली थे। उन की पटराणी का नाम श्री देवी था, वह भी सर्वांग-सुन्दरी और पतिव्रता थी। इस के अतिरिक्त उस नगर में कामध्वजा नाम की एक सुप्रसिद्ध राजमान्य गणिका-वेश्या रहती थी जिस के रूपलावण्य और गुणों का अनेक विशेषणों द्वारा सूत्रकार ने वर्णन किया है। वाणिज ग्राम-इस शब्द का अर्थ, षष्ठी तत्पुरुष समास से वाणिजों-वैश्यों का ग्राम ऐसा होता है, किन्तु प्रस्तुत सूत्र में "वाणिज ग्राम" यह नगर का विशेषण है, इसलिए १व्यधिकरण बहुव्रीहि समास से उसका अर्थ यह किया जा सकता है-जिस में वाणिजोंव्यापारियों का ग्राम-समूह रहे उसे "वाणिजग्राम" कहते हैं। तथा नगर शब्द की व्याख्या निम्नलिखित शब्दों में इस प्रकार वर्णित है ____ पुण्यपापक्रियाविज्ञैः दयादानप्रवर्त्तकैः, कलाकलापकुशलैः सर्व-वर्णैः समाकुलम्, भाषाभिर्विविधाभिश्च युक्तं नगरमुच्यते। अर्थात्-पुण्य और पाप की क्रियाओं के ज्ञाता, दया और दान में प्रवृत्ति करने वाले, विविध कलाओं में कुशल पुरुष, तथा जिस में चारों वर्ण निवास करते हों और जिस में विविध भाषाएं बोली जाती हों उसे नगर कहते हैं। इसकी निरुक्ति निम्नलिखित है "नगरं न गच्छन्तीति नगाः वृक्षाः पर्वताश्च तद्वदचलत्वादुन्नतत्वाच्च प्रासादादयोऽपि, ते सन्ति यस्मिन्निति नगरम्।" हमारे विचार में प्रथम वाणिज नामक एक साधारण सा ग्राम था। कुछ समय के बाद उस में व्यापारी लोग बाहर से आकर निवास करने लगे। व्यापार के कारण वहां की जनसंख्या में वृद्धि होने लगी एक समय वह आया कि जब यह ग्राम व्यापार का केन्द्र-गढ़ माना जाने लगा, और उस में जनसंख्या काफी हो गई, तब यहां राजधानी भी बन गई, उसके कारण इस 1. वाणिजानां ग्रामः-समूहो यस्मिन् स वाणिजग्राम इति व्यधिकरण-बहुव्रीहिः। 226 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - . [प्रथम श्रुतस्कंध