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________________ का वाणिज-ग्राम नाम न रह कर वाणिजग्राम-नगर प्रसिद्ध हो गया। आज भी हम ग्रामों को नगर और नगरों को ग्राम होते हुए प्रत्यक्ष देखते हैं। जिस की जन-संख्या प्रथम हज़ारों की थी आज उसी की जन-संख्या लाखों तक पहुंच गई है। समय बड़ा विचित्र है। उसकी विचित्रता सर्वानुभव-सिद्ध है। तथा उसी विचित्रता के आधार पर ही हमने यह कल्पना की है। नगर का वर्णक (वर्णन-प्रकरण) प्रथम अध्ययन में कहा जा चुका है, एवं महाराज मित्र और महाराणी श्री देवी का वर्णक भी प्रथम अध्ययन कथित वर्णन के तुल्य ही जान लेना। केवल नाम भेद है, वर्णन पाठ में भिन्नता नहीं। तात्पर्य यह है कि वर्णक पद से नगर, राजा, राणी आदि के विषय में किसी नाम से भी सूत्र में एक बार जो वर्णन कर दिया गया है, उस वर्णन का सूचक यह "वण्णओ-वर्णक;" पद है। कामध्वजा गणिका-कामध्वजा एक प्रतिष्ठित वेश्या थी। सूत्रगत वर्णन से प्रतीत होता है कि वह रूप लावण्य में अद्वितीय, संगीत और नृत्यकला में पारंगत तथा राजमान्य थी। इस से यह निश्चित होता है कि वह कोई साधारण बाजारू स्त्री नहीं थी, किन्तु एक कलाप्रदर्शक सुयोग्य व्यक्ति की तरह प्रतिष्ठा पूर्वक कलाकार स्त्री के रूप में अपना जीवन व्यतीत करने वाली स्त्री थी। उस के अंगोपांग आदि में किसी प्रकार की न्यूनता या विकृति नहीं थी, उसका शरीर लक्षण, व्यंजनादि से युक्त, मानादि से पूर्ण और मनोहर था। . "बावत्तरीकलापंडिया-द्वासप्ततिकलापंडिता" अर्थात् वह कामध्वजा 72 कलाओं में प्रवीण थी। कला का अर्थ है किसी कार्य को भली-भांति करने का कौशल। पुरुषों में कलाएं 72 होती हैं। इन कलाओं में से अब तक कई कलाओं का विकास हुआ है और कई एक का विलोप। इन में कुछ ऐसी भी कलाएं हैं, जिन में कई प्रकार के परिवर्तन और संशोधन हुए हैं। उन कलाओं के नाम ये हैं (1) लेखन-कला-लिखने की कला का नाम है। इस कला के द्वारा मनुष्य अपने विचारों को बिना बोले दूसरे पर भली-भांति प्रकट कर सकता है। (2) गणित-कला-इस कला से वस्तुओं की संख्या और उन के परिमाण या नाप तोल का उचित ज्ञान हो जाता है। (3) रूपपरावर्तन कला-इस कला के द्वारा लेप्य, शिला, सुवर्ण, मणि, वस्त्र और चित्र आदि में यथेच्छ रूप का निर्माण किया जा सकता है। (4) नृत्य-कला-इस कला में सुर, ताल आदि की गति के अनुसार अनेकविध नृत्य के प्रकार सिखाए जाते हैं। (5) गीत कला-इस कला से "-किस समय कौन सा स्वर आलापना चाहिए? प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [227
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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