________________ को प्राप्त हो कर पहली नरक में उत्पन्न होगा। वहां अनेकानेक कल्पनातीत संकट सहेगा। वहां की दुःखपूर्ण आयु को पूर्ण कर अनेक प्रकार की योनियों में जन्म-मरण करता हुआ संसार में भटकेगा। इस प्रकार कर्मों की मार से पीड़ित होता हुआ यह उम्बरदत्त का जीव अन्त में पृथिवीकाया में लाखों बार जन्म लेगा, वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में कुक्कुट की योनि में उत्पन्न होगा, परन्तु उत्पन्न होते ही गौष्ठिकों-दुराचारियों के द्वारा वध को प्राप्त हो वह फिर वहीं पर -हस्तिनापुर नगर में नगर के एक प्रतिष्ठित सेठ के घर में पुत्ररूप से जन्मेगा, वहां सुखपूर्वक वृद्धि को प्राप्त करता हुआ युवावस्था में साधुओं के पवित्र सहवास को प्राप्त कर के उन के पास दीक्षित हो जाएगा। साधुवृत्ति में तपश्चर्या के द्वारा कर्मों की निर्जरा कर आत्मभावना से भावित हो कर जीवन समाप्त कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देव होगा। वहां के आनन्दातिरेक से आनन्दित हो सुखमय जीवन व्यतीत करेगा तथा वहां की आयु समाप्त कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा वहां पर शैशवावस्था से निकल युवावस्था को प्राप्त कर किसी विशिष्ट संयमी एवं ज्ञानी साधु के पास दीक्षा लेकर संयम का आराधन करेगा, तथा संयमाराधन के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता हुआ, कर्मबन्धनों को तोड़ देगा, जन्म और मरण का अन्त कर देगा तथा निर्वाणपद की प्राप्ति कर सिद्ध, बुद्ध, अजर और अमर हो जाएगा। अनगार श्री गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रवचन में उम्बरदत्त के अतीत, वर्तमान और अनागत जीवन को सुन कर बहुत विस्मित अथच आश्चर्य को प्राप्त होते हैं, और सोचते हैं कि यह संसार भी एक प्रकार की रंगभूमि नाट्यशाला है। जहां पर सभी प्राणी नाना प्रकार के नाटक करते हैं। कर्मरूप सूत्रधार के वशीभूत होते हुए प्राणियों को नाना प्रकार के स्वांग धारण करके इस रंगशाला में आना पड़ता है। जीवों द्वारा नाना प्रकार की ऊंच-नीच योनियों में भ्रमण करते हुए विविध प्रकार के सुखों और दुःखों की अनुभूति करना ही उन का नाट्यप्रदर्शन है। उम्बरदत्त का जीव पहले धन्वन्तरि वैद्य के नाम से विख्यात हुआ, वहां उस ने अपनी जीवनचर्या से ऐसे क्रूरकर्मों को उपार्जित किया कि जिन के फलस्वरूप उसे छठी नरक में जाना पड़ा। वहां की असह्य वेदनाओं को भोग कर वह सेठ सागरदत्त का प्रियपुत्र बना, तथा उसने सेठानी गंगादत्ता की चिरअभिलषित कामना को पूर्ण किया, वहां उसका शैशवकाल बड़ा ही सुखमय बीता, मातृ-पितृस्नेह का खूब आनन्द प्राप्त किया, परन्तु युवावस्था को प्राप्त करते ही इस पर दुःखों के पहाड़ टूट पड़े, माता पिता परलोक सिधार गए, घर से निकाल दिया गया, सारा शरीर रोगों से अभिभूत हो गया, और भिखारी बन कर दरदर के धक्के खाने पड़े, तथा इस समय की प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली भयावह दशा के बाद का जीवन भी बहुत लम्बे समय तक अन्धकारपूर्ण ही बतलाया गया है। इस में केवल हर्षजनक 614 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कंध