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________________ अभग्गसेणेण-अभग्नसेन / चोरसेणावतिणा-चोरसेनापति के द्वारा / बहुग्गामघायावणाहि-बहुत से ग्रामों के घात-विनाश से। ताविया-संतप्त-दुःखी। समाणा-हुए। अन्नमन्नं-एक-दूसरे को। सद्दावेंति २बुलाते हैं, बुलाकर। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। देवाणु!प्रिय बन्धुओ !अभग्गसेणे-अभग्नसेन / चोरसेणावती-चोरसेनापति।पुरिमतालस्स-पुरिमताल। णगरस्सनगर के। उत्तरिल्लं-उत्तर-दिशा के / जणवयं-देश को। बहूहि-अनेक। गामघातेहि-ग्रामों के विनाश से। जाव-यावत् / निद्धणे-निर्धन-धनरहित। करेमाणे-करता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा है। देवाणुप्पिया!-हे भद्र पुरुषो। तं-इस लिए। खलु-निश्चय ही। सेयं-हम को योग्य है अथवा हमारे लिए यह श्रेयस्कर है-कल्याणकारी है कि हम। पुरिमताले-पुरिमताल। णगरे-नगर में। महब्बलस्स-महाबल नामक। रणो-राजा को। एतमटुं-यह बात या इस विचार को। विन्नवित्तते-विदित करें अर्थात् अवगत करें। तते णं-तदनन्तर। ते-वे। जाणवयपुरिसा-जनपदपुरुष अर्थात् उस देश के रहने वाले लोग। एतमटुं-यह बात या इस विचार को। अन्नमन्नं-परस्पर-आपस में। पडिसुणेति २-स्वीकार करते हैं, स्वीकार कर के। महत्थं-महाप्रयोजन का सूचन करने वाला। महग्धं-महाघ-बहु मूल्य वाला। महरिहंमहार्ह-महत् पुरुषों के योग्य, तथा। रायरिहं-राजार्ह-राजा के योग्य / पाहुडं-प्राभृत-उपायन-भेंट। गेण्हंति 2- ग्रहण करते हैं, ग्रहण करके। जेणेव-जहां। पुरिमताले-पुरिमताल। णगरे-नगर था और / जेणेवजहां पर। महब्बले राया-महाबल राजा था। तेणेव-वहीं पर। उवागते २-आ गए, आकर / महब्बलस्समहाबल। रण्णो-राजा को। तं-उस। महत्थं-महान् प्रयोजन वाले। जाव-यावत्। पाहुडं-प्राभृत-भेंट। उवणेति २-अर्पण करते हैं, अर्पण कर के। करयल अंजलिं कट्ट-दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजली करके। महब्बलं-महाबल। रायं-राजा को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। मूलार्थ-तदनन्तर अभग्नसेन नामक चोरसेनापति के द्वारा बहुत से ग्रामों के विनाश से सन्तप्त हुए उस देश के लोगों ने एक-दूसरे को बुला कर इस प्रकार कहा . हे बन्धुओ ! चोरसेनापति अभनसेन पुरिमताल नगर के उत्तर प्रदेश के बहुत से ग्रामों का विनाश करके वहां के लोगों को धन, धान्यादि से शून्य करता हुआ विहरण कर रहा है। इसलिए हे भद्रपुरुषो ! पुरिमताल नगर के महाबल नरेश को इस बात से संसूचित करना हमारा कर्तव्य बन जाता है। तदनन्तर देश के उन मनुष्यों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और महार्थ, महाघ, महार्ह और राजार्ह प्राभृत-भेंट लेकर, जहां पर पुरिमताल नगर था और जहां पर महाबल राजा विराजमान थे, वहां पर आए और दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि रख कर महाराज को वह प्राभृत-भेंट अर्पण की तथा अर्पण करने के अनन्तर वे महाबल नरेश से इस प्रकार बोले। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [389
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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