________________ महामहिम मुनिराज श्री शालिग्राम जी महाराज _[जीवन और साधना की एक झांकी] पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय गुरुदेव श्री शालिग्राम जी महाराज का जीवन एक आदर्श जीवन था। पंजाब (पैप्सू) के भद्दलबड़ गांव में आपका जन्म हुआ था-संवत् 1924 में। पिता श्री कालूराम जी वैश्य-वंश के मध्यवित्त गृहस्थ थे। माता मीठे स्वभाव की एक मधुरभाषिणी महिला थी। दोनों ही सहज-शांतिमय और छल-प्रपंचहीन जीवन बिताते थे। आर्थिक स्थिति साधारण थी, परन्तु संतोष और धैर्य जैसे अद्वितीय रत्नों के मालिक वे अवश्य थे। कालूराम जी तीन पुत्रों के पिता हुए। हमारे महाराज जी उन में से मझले थे। शैशवकाल में ही आप का नाम शालिग्राम पड़ा और समूची आयु आप इसी नाम से प्रख्यात रहे। उन दिनों किसे पता था कि आगे चल कर यह बालक एक विरक्त महात्मा के रूप में सर्वत्र प्रसिद्धि प्राप्त करेगा? बहुतेरे इस से पथप्रदर्शन पाएंगे ? - छः वर्ष की आयु में बालक शालिग्राम को अपने गांव की ही पाठशाला में दाखिल करा दिया गया। विद्याग्रहण करने में आप आरम्भ से ही दत्तचित्त रहे..... पहले अक्षराभ्यास, फिर आरंभिक पाठावली का अध्ययन। पढ़ाई का क्रम इस प्रकार आगे चला। शालिग्राम जी बचपन की परिधि पार कर के किशोरावस्था में आ पहुंचे। जैसे जैसे उम्र बढ़ती गई, ज्ञान और अनुभूति के दायरे भी उसी तरह बढ़ते गए। शालिग्राम की अन्तर्दृष्टि पाठ्यपुस्तकों अथवा अध्यापकों एवं सहपाठियों तक ही सीमित नहीं रह पायी। वह अपने आप भी बहुत कुछ सोचा करते। प्रकृति उन की उस उच्छंखल आयु में भी कोमल ही थी। राह चलते समय यदि कोई कीड़ी पैर के नीचे आ जाती तो शालिग्राम की अन्तरात्मा हाय-हाय कर उठती, स्नायुओं का स्पंदन रुक सा जाता। गाड़ी में जुते बैल की पीठ पर चाबुक पड़ने की आवाज़ सुनकर उन का हृदय कांपने लगता। अपनी उम्र के दूसरे लड़कों पर मां-बाप की पिटाई पड़ती तो हमारे चरित्रनायक की आंखों के कोर गीले नज़र आते। लड़कों का स्वभाव चंचल होता है-मन चंचल, आंखें चंचल, कान और होंठ चंचल, हाथ-पैर चंचल ! दिल और दिमाग चंचल ! परन्त शालिग्राम अपनी चपलताओं पर काबू पा गए थे। इन के मुंह से कभी दुर्वाच्य नहीं निकलता था ! खेल के समय भी कुत्ते या बछड़े को या साथी को कंकड़ फैंक कर इन्होंने कभी मारा नहीं होगा ! बुद्धि बड़ी तीव्र थी, पढ़ने में जी खूब लगता था। शेष समय मां-बाप की आज्ञाओं के पालन में और साधुओं-सन्तों की परिचर्या में बीतता था। अध्यापक और पास-पड़ोस के बड़े-बूढ़े लोग भी शालिग्राम को आदर्श बालक मानते थे। उन के लिए सब के हृदय में समान स्नेह था। समझदार और योग्य जान कर पिता ने शालिग्राम को धंधे में लगा लिया। धंधे में वह लग तो गए 10] श्री विपाक सूत्रम् [श्री शालिग्राम जी म.