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________________ तेणं समएणं"जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ-यस्मिन्नेव श्रेणिको राजा तस्मिन्नेव उपागच्छतीत्यर्थः। इत्यादि उदाहरणों तथा व्याकरण के नियमों से यह स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति का प्रयोग शास्त्र-सम्मत ही है। ___ "तेणं'कालेणं तेणं समएणं" इस पाठ में काल और समय शब्द का पृथक्-पृथक् प्रयोग किया गया है जब कि काल और समय यह दोनों समानार्थक हैं, व्यवहार में भी काल तथा समय ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, फिर यहां पर सूत्रकार ने इन दोनों शब्दों का पृथक्-पृथक् प्रयोग क्यों किया है ? इसका समाधान आचार्य अभयदेव सूरि के शब्दों में इस प्रकार है "अथ काल-समयोः को विशेषः ? उच्यते, सामान्या वर्तमानावसर्पिणी चतुर्थारक-लक्षणः कालः, विशिष्टः पुनस्तदेकदेशभूतः समयः" अर्थात् सूत्रकार को काल शब्द से सामान्य वर्तमान अवसर्पिणी काल -भेद का चतुर्थ आरक अभिप्रेत है और समय शब्द से इसी अवसर्पिणी कालीन चतुर्थ आरक का एक देश अभिमत है। अर्थात् यहां पर काल शब्द अवसर्पिणी काल के चौथे आरे का बोधक है और समय शब्द से चौथे आरे के उस भाग का ग्रहण करना है जब यह कथा कही जा रही है। "होत्था" यहां पर सूत्रकार ने होत्था-अभूत् यह अतीत काल का निर्देश किया है। इस स्थान में शंका होती है कि चम्पा नाम की नगरी तो आज.भी विद्यमान है, फिर यहां अतीत काल का प्रयोग क्यों ? इसका उत्तर स्पष्ट है-यह सत्य है कि चम्पा नगरी: आज भी है तथापि अवसर्पिणी काल के स्वभाव से पदार्थों में गुणों की हानि होने के कारण वर्णन ग्रन्थ (औपपातिक सूत्र) में वर्णन की हुई चम्पानगरी श्री सुधर्मा स्वामी जी के समय में जैसे थी वैसी न रहने से 1. "कालेणं"-कलयति मासोऽयं सम्वत्सरोऽयं-इत्यादि रूपेण निश्चन्वंति तत्त्वज्ञा यमिति कलनंसंख्यानं पाक्षिकोऽयं मासिकोऽयमित्यादिरूपेण निरूपणं काल: सोऽस्मिन्नस्तीति / कालानां समयादीनां समूह इति वा कालः। वस्तुतस्तु ‘वट्टणालक्खणो कालो' इति भगवद्-वचनात् कलयति नवजीर्णादि-रूपतया प्रवर्तयति वस्तुपर्यायमिति कालस्तस्मिन् / तस्मिन् हीयमानलक्षणे समये-सम-सम्यक् अयते गच्छतीति समयोऽवसरस्तमिन्। ___ अर्थात्-तत्त्व के ज्ञाता महीना वर्ष आदि रूप से जिसका कलन (निश्चय) करते हैं उसे काल कहते हैं, अथवा पखवाड़े का है महीने का है इस प्रकार के कलन (संख्या-गिनती) को काल कहते हैं, अथवा कलाओंसमयों के समूह को काल कहते हैं, परन्तु भगवान् ने निश्चय काल का वर्तना रूप लक्षण कहा है। अर्थात् जो द्रव्य की पर्यायों को नई अथवा पुरानी करता है वही निश्चय काल है। (2) नगरी शब्द की निरुक्ति इस प्रकार है नगरी न गच्छन्तीति नगाः-वृक्षाः पर्वताश्च तद्वदचलत्वादुन्नतत्वाच्च प्रासादादयोऽपि ते सन्ति यस्यां सा इति निरुक्तिः। “नकरी" इति छायापक्षे तु-न विद्यते कर: गोमहिष्यादीनामष्टादशविधो राजग्राह्यो भागः (महसूल) यत्र सेत्यर्थः। 100 ]. श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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