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________________ सुबाहु / कुमारस्स-कुमार के। इमं-यह। एयारूवं-इस प्रकार के। अज्झत्थियं ५-संकल्प आदि को। जाव-यावत्। वियाणित्ता-जान कर। पुव्वाणुपुट्विं-पूर्वानुपूर्वी-क्रमशः। दूइज्जमाणे-भ्रमण करते हुए। जेणेव-जहां। हस्थिसीसे-हस्तिशीर्ष / णगरे-नगर था। जेणेव-जहां। पुष्फकरण्डे-पुष्पकरंडक नामक। उजाणे-उद्यान था। जेणेव-जहां पर। कयवणमालप्पियस्स-कृतवनमालप्रिय। जक्खस्स-यक्ष का। जक्खायतणे-यक्षायतन था। तेणेव-वहां पर / उवागच्छइ-पधारे / अहापडिरूवं-यथाप्रतिरूप। उग्गहअवग्रह। उग्गिण्हित्ता-ग्रहण कर। संजमेणं-संयम से। तवसा-तप के द्वारा। अप्पाणं-आत्मा को। भावेमाणे-भावित-वासित करते हुए। विहरइ-विहरण करने लगे। परिसा-परिषद् / राया-राजा। निग्गएनगर से निकले। तए णं-तदनन्तर। तस्स-उस। सुबाहुस्स-सुबाहु। कुमारस्स-कुमार का। तं-वह। महया०-महान् समुदाय के साथ। जहा-जैसे। पढम-पूर्ववर्णित (नगर से निष्क्रमण था)। तहा-वैसे (वह)। निग्गओ-निकला। धम्मो-धर्म का। कहिओ-प्रतिपादन किया। परिसा-परिषद् / राया-राजा। गओ-चला गया। तए णं-तदनन्तर। से-वह। सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार। समणस्स-श्रमण। भगवओ महावीरस्स-भगवान् महावीर के। अंतिए-पास। धम्म-धर्मकथा को। सोच्चा-सुन कर। निसम्म-अर्थ से अवधारण कर। हट्टतुट्टे-अत्यन्त प्रसन्न हुआ 2 / जहा-जैसे। मेहो-मेघ-महाराज श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार। तहा-उसी प्रकार। अम्मापियरो-माता पिता को। आपुच्छइ-पूछता है। निक्खमणाभिसेओनिष्क्रमणाभिषेक। तहेव-तथैव-उसी तरह। जाव-यावत्।अणगारे-अनगार। जाए-हो गया। इरियासमिएईर्यासमिति का पालक। जाव-यावत् / बंभयारी-ब्रह्मचारी बन गया। मूलार्थ-तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सुबाहुकुमार के उक्त प्रकार के संकल्प को जान कर क्रमशः ग्रामानुग्राम चलते हुए हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानान्तर्गत कृतवनमालप्रिय नामक यक्ष के यक्षायतन में पधारे और यथाप्रतिरूपअनगारवृत्ति के अनुकूल अवग्रह-स्थान ग्रहण कर के वहां अवस्थित हो गए। ___तदनन्तर परिषद् और राजा नगर से निकले, सुबाहुकुमार भी पूर्व की भांति महान समारोह के साथ भगवान के दर्शनार्थ प्रस्थित हुए। भगवान् ने धर्म का प्रतिपादन किया, परिषद् तथा राजा धर्मदेशना सुन कर वापस चले गए। सुबाहुकुमार भगवान् के पास धर्म का श्रवण कर उस का मनन करता हुआ प्रसन्नचित्त से मेघकुमार की भांति माता-पिता से पूछता है। उस का (सुबाहुकुमार का) निष्क्रमण-अभिषेक भी उसी तरह (मेघकुमार की तरह) हुआ, यावत् वे अनगार, ईर्यासमिति के पालक और ब्रह्मचारी बन गए, मुनिव्रत को उन्होंने धारण कर लिया। टीका-पुरुष और महापुरुष में भेद करने वाली एक शक्ति है, जो परोपकार के नाम से प्रसिद्ध है। पुरुष स्वार्थी होता है, वह अपना ही प्रयोजन सिद्ध करना जानता है, इस के 1. सोच्चा-यह पद मात्र श्रवणपरक है। सुने हुए का मनन करने में "निसम्म" शब्द का प्रयोग होता है। अर्थात् सुना और उसके अनन्तर मनन किया, इन भावों के परिचायक सोच्चा और निसम्म ये दोनों पद हैं। 918 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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