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________________ है। अतः इस के लिए सब से अधिक और सुन्दर तथा सरल उपाय तो यही है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर संयमव्रत को अपना लूं, मुनिधर्म को अंगीकार कर लूं। इसी में मेरा हित है, इसी में मेरा मंगल है, इसी में मेरा मंगल और कल्याण है। पहले तो कई एक कारणों से उस अनमोल अवसर से लाभ नहीं उठा सका परन्तु अब कि ऐसी भूल नहीं करूंगा। अवश्य जीवन को साधुता के सौरभ से सुरभित करूंगा और अपना भविष्य उज्ज्वल एवं समुज्ज्वल बनाने का प्रयास करूंगा। ये थे तेले की तपस्या के साथ आत्मचिन्तन करने वाले सुबाहुकुमार के मनोगत विचार, जिन के अनुसार वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने पर अपने आप को संयमव्रत के लोकोत्तर रंग में रंगने का स्वप्न देख रहा है। इस के अनन्तर क्या हुआ अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तए णं समणे भगवं महावीरे सुबाहुस्स कुमारस्स इमं एयारूवं अज्झस्थियं जाव वियाणित्ता दूइज्जमाणे पुव्वाणुपुट्विं जेणेव हस्थिसीसे णगरे जेणेव पुष्फकरंडे उजाणे जेणेव कयवणमालप्पियस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।परिसा राया निग्गए।तए णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स तं महया० जहा पढमंतहा निग्गओ।धम्मो कहिओ।परिसा राया गओ। तए णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुढे जहा मेहो तहा अम्मापियरो आपुच्छइ।निक्खमणाभिसेओ तहेव जाव अणगारे जाए, इरियासमिए जाव बम्भयारी।' छाया-ततः श्रमणो भगवान् महावीरः सुबाहोः कुमारस्य इममेतद्रूपमाध्यात्मिकं यावद् विज्ञाय पूर्वानुपूर्व्या द्रवन् यत्रैव हस्तिशीर्ष नगरं, यत्रैव पुष्पकरण्डमुद्यानं यत्रैव कृतवनमालप्रियस्य यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति / परिषद् राजा निर्गतः। ततस्तस्य सुबाहोः कुमारस्य तद् महता यथा प्रथमं तथा निर्गतः। धर्मः कथितः परिषद् राजा गतः। ततः स सुबाहुकुमारः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्यांतिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्ट यथा मेघस्तथा अम्बापितरौ आपृच्छति / निष्क्रमणाभिषेकस्तथैव यावद् अनगारो जातः ईर्यासमितो यावद् ब्रह्मचारी। पदार्थ-तएणं-तदनन्तर। समणे-श्रमण।भगवं-भगवान्। महावीरे-महावीर स्वामी। सुबाहुस्सद्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [917
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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