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________________ गर्भ धारण किए तीन मास हो चुके हैं, इस अवसर में मेरे हृदय में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि-वे माताएं धन्य तथा पुण्यशालिनी हैं जो अपनी सहचरियों के साथ यथारुचि सानन्द सहभोज करती हैं और पुरुष-वेष को धारण कर सैनिकों की भांति अस्त्र-शस्त्रादि से सुसज्जित हो नाना प्रकार के शब्द करती हुईं आनन्द पूर्वक जंगलों में विचरती हैं, परन्तु मैं बड़ी हतभाग्य हूं, जिसका यह संकल्प पूरा नहीं हो पाया। प्राणनाथ ! यही विचार है जिस ने मुझे इस दशा को प्राप्त कराया। खाना मेरा छूट गया, पीना मेरा नहीं रहा, हंसने को दिल नहीं करता, बोलने को जी नहीं चाहता, न रात को नींद है, न दिन को शान्ति / सारांश यह है कि इन्हीं विचारों में ओतप्रोत हुई मैं आर्तध्यान में समय व्यतीत कर रही हूं। स्कन्दश्री के इन दीन वचनों को सुनकर विजय के हृदय को बड़ी ठेस पहुंची। कारण कि उस के लिए यह सब कुछ एक साधारण सी बात थी, जिसके लिए स्कन्दश्री को इतना शारीरिक और मानसिक दुःख उठाना पड़ा। उसका एक जीवन साथी उसकी उपस्थिति में इतना दु:खी है और वह भी एक साधारण सी बात के लिए, यह उसे सर्वथा असह्य था। उसे दुःख भी हुआ और आश्चर्य भी। दुःख तो इसलिए कि उसने स्कन्दश्री की ओर पर्याप्त ध्यान देने में प्रमाद किया, और आश्चर्य इसलिए कि इतनी साधारण सी बात का उसने स्वयं प्रबन्ध क्यों न कर लिया। अस्तु, वह पूरा-पूरा आश्वासन देता हुआ अपनी प्रिय भार्या स्कन्दश्री से बोला प्रिये ! उठो, इस चिन्ता को छोड़ो, तुम्हे पूरी-पूरी स्वतन्त्रता है तुम जिस तरह चाहो, वैसा ही करो। उस में जो कुछ भी कमी रहे, उसकी पूर्ति करना मेरा काम है। तुम अपनी इच्छा के अनुसार सम्बन्धिजनों को निमंत्रण दे सकती हो, यहां की चोरमहिलाओं को बुला सकती हो, और पुरुष वेष में यथेच्छ विहार कर सकती हो। अधिक क्या कहूं, तुम को अपने इस दोहद की यथेच्छ पूर्ति के लिए पूरी-पूरी स्वतन्त्रता है, उस में किसी प्रकार का भी प्रतिबन्ध नहीं होगा। जिस-जिस वस्तु की तुम्हें आवश्यकता होगी वह तुम्हें समय पर बराबर मिलती रहेगी। इस सारे विचार-सन्दर्भ को सूत्रकार ने "अहासुहं देवाणुप्पिए!" -इस अकेले वाक्य में ओतप्रोत कर दिया है। इस प्रकार पति के सप्रेम तथा सादर आश्वासन को पाकर स्कन्दश्री की सारी मुाई हुईं आशा-लताएं सजीव सी हो उठीं। उसे पतिदेव की तरफ से आशा से कहीं अधिक आश्वासन मिला। पतिदेव की स्वीकृति मिलते ही उसके सारे कष्ट दूर हो गए। वह एकदम हर्षातिरेक से पुलकित हो गई। बस, अब क्या देर थी।अपनी सहचरियों तथा अन्य सम्बन्धिजनों को बुला प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [375
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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