SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २-अनन्तानुबन्धी मान-जो मान-अहंकार जीवनपर्यन्त बना रहता है, वह अनन्तानुबन्धी मान कहलाता है। यह सम्यग्दर्शन का घातक और नरकगति का कारण बनता है। जैसे-भरसक प्रयत्न करने पर भी वज्र का खंभा नम नहीं सकता, उसी प्रकार यह मान भी किसी प्रकार दूर नहीं किया जा सकता। ३-अनन्तानुबन्धिनी माया-जो माया जीवन भर बनी रहती है, वह अनन्तानुबन्धिनी माया कहलाती है। यह माया सम्यग्दर्शन की घातिका और नरकगति के बन्ध का कारण होती है। जैसे कठिन बांस की जड़ का टेढ़ापन किसी प्रकार भी दूर नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार यह माया भी किसी उपाय से दूर नहीं होती। ४-अनन्तानुबन्धी लोभ-यह जीवन-पर्यन्त बना रहता है। सम्यग्दर्शन का घातक और नरकगति का दाता होता है। जैसे-मंजीठिया रंग कभी नहीं उतरता, उसी भांति यह लोभ भी किसी उपाय से दूर नहीं हो पाता। ५-अप्रत्याख्यानी क्रोध-यह एक वर्ष तक बना रहता है, यह देशविरतिरूप चारित्र का घातक होने के साथ-साथ तिर्यञ्च गति का कारण बनता है। जैसे-सूखे तालाब आदि में दरारें पड़ जाती हैं, वह पानी पड़ने पर फिर भर जाती हैं, इसी भांति यह क्रोध किसी कारणविशेष से उत्पन्न होकर कारण मिलने पर शान्त हो जाता है। . ६-अप्रत्याख्यानी मान-इस की स्थिति, गति और हानि अप्रत्याख्यानी क्रोध के समान है। जैसे हड्डी को मोड़ने के लिए कई प्रकार के प्रयत्न करने पड़ते हैं, उसी भांति यह मान भी बड़े प्रयत्न से दूर किया जाता है। ... ७-अप्रत्याख्यानी माया-इस की गति, स्थिति और हानि अप्रत्याख्यानी क्रोध की भांति है। जैसे-भेड़ के सींग का टेढापन बड़ी कठिनता से दूर किया जाता है, वैसे ही यह माया बड़ी कठिनाई से दूर की जाती है। ८-अप्रत्याख्यानी लोभ-इस की गति, स्थिति और हानि अप्रत्याख्यानी क्रोध के तुल्य है। जैसे-शहर की नाली के कीचड़ का रंग बड़ी कठिनाई से हटाया जा सकता है, उसी भांति यह लोभ भी बड़ी कठिनाई से दूर किया जा सकता है। ९-प्रत्याख्यानी क्रोध-इस की स्थिति 4 मास की है, यह सर्वविरतिरूप चारित्र का घातक होने के साथ-साथ मनुष्यायु के बन्ध का कारण बनता है। जैसे रेत में गाड़ी के पहियों की रेखा वायु आदि के झोंकों से शीघ्र मिट जाती है, वैसे ही यह क्रोध उपाय करने से शांत हो जाता है। .. ___१०-प्रत्याख्यानी मान-इस की स्थिति, गति और हानि प्रत्याख्यानी क्रोध के तुल्य प्राकथन] श्री विपाक सूत्रम् [39
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy