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________________ है। जैसे काठ का खंभा तैलादि के द्वारा नमता है, उसी प्रकार यह मान कुछ प्रयत्न करने से ही नष्ट हो सकता है। ११-प्रत्याख्यानी माया-इस की गति, स्थिति और हानि प्रत्याख्यानी क्रोध के तुल्य है। जैसे मार्ग में चलते हुए बैल के मूत्र की रेखा धूल आदि से मिट जाती है, उसी भांति यह माया थोड़े से प्रयत्न द्वारा दूर की जा सकती है। १२-प्रत्याख्यानी लोभ-इस की गति, स्थिति और हानि प्रत्याख्यानी क्रोध के समान है। जैसे दीपक के काजल का रंग प्रयत्न करने पर ही छूटता है, उसी भांति यह भी प्रयत्न द्वारा ही दूर किया जा सकता है। १३-संज्वलन क्रोध-इस की स्थिति दो महीने की है। यह वीतरागपद का घातक होने के साथ-साथ देवगति के बन्ध का कारण बनता है। जैसे पानी पर खींची हुई रेखा शीघ्र ही मिट जाती है, उसी भांति यह क्रोध शीघ्र ही शान्त हो जाता है। .. १४-संज्वलन मान-इस की स्थिति एक मास की है, वीतरागपद का घात करने के साथ-साथ यह देवगति का कारण बनता है। जैसे-तिनके को आसानी से नमाया जा सकता है, इसी प्रकार यह मान शीघ्र दूर किया जा सकता है। १५-संज्वलन माया-इस की स्थिति 15 दिन की है। गति और हानि से यह संज्वलन क्रोध के तुल्य है। जैसे ऊन के धागे का बल आसानी से उतर जाता है इसी प्रकार यह माया भी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। १६-संज्वलन लोभ-इस की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। इस की गति और हानि संज्वलन क्रोध के समान है। जैसे हल्दी का रंग धूप आदि से शीघ्र ही छूट जाता है, इसी तरह * यह लोभ भी शीघ्र ही दूर हो जाता है। नोकषाय के 9 भेद होते हैं। इन का नाम निर्देशपूर्वक विवरण निम्नोक्त है १-हास्य-जिस कर्म के उदय से कारणवश अर्थात् भांड आदि की चेष्टा को देख कर अथवा बिना कारण (अर्थात् जिस हंसी में बाह्य पदार्थ कारण न हो कर केवल मानसिक विचार निमित्त बनते हैं) हंसी आती है, वह हास्य है। २-रति-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण पदार्थों में अनुराग हो, प्रीति हो, वह कर्म रति कहलाता है। ३-अरति-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण पदार्थों से अप्रीति हो, उद्वेग हो, वह कर्म अरति कहलाता है। ४-शोक-जिस कर्म के उदय होने पर कारणवश अथवा बिना कारण के ही शोक की 40 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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