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________________ प्रतीति हो, वह कर्म शोक कहा जाता है। ५-भय-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण भय हो, उसे भय कहते ६-जुगुप्सा-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण मलादि वीभत्स पदार्थों को देख कर घृणा होती है, वह कर्म जुगुप्सा कहलाता है। ७-स्त्रीवेद-जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ भोग करने की अभिलाषा होती है वह स्त्रीवेद कहा जाता है। अभिलाषा में दृष्टान्त करीषाग्नि का है। करीष सूखे गोबर को कहते हैं, उस की आग जैसे-जैसे जलाई जाए वैसे-वैसे बढ़ती रहती है। इसी प्रकार पुरुष के करस्पर्शादि व्यापार से स्त्री की अभिलाषा बढ़ती जाती है। ८-पुरुषवेद-जिस कर्म के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ भोग करने की अभिलाषा होती है, वह कर्म पुरुषवेग कहलाता है। अभिलाषा में दृष्टान्त तृणाग्नि का है। तृण की आग शीघ्र ही जलती है और शीघ्र ही बुझती है, इसी भाँति पुरुष को अभिलाषा शीघ्र होती है और स्त्रीसेवन के बाद शीघ्र ही शान्त हो जाती है। ९-नपुंसकवेद-जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ भोग करने की इच्छा होती है, वह नपुंसकवेद कर्म कहलाता है। अभिलाषा में दृष्टान्त नगरदाह का है। नगर में आग लगे तो बहुत दिनों में नगर को जलाती है और उस आग को बुझाने में भी बहुत दिन लगते हैं, इसी प्रकार नपुंसकवेद के उदय से उत्पन्न हुई अभिलाषा चिरकाल तक निवृत्त नहीं होती और विषयसेवन से तृप्ति भी नहीं हो पाती। (5) आयुष्कर्म के 4 भेद होते हैं। जिस कर्म के उदय से देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक इन गतियों में जीवन को व्यतीत करना पड़ता है, वह अनुक्रम से १-देवायुष्य, २-मनुष्यायुष्य, ३-तिर्यञ्चायुष्य और ४-नरकायुष्य कर्म कहलाता है। (6) नामकर्म के 103 भेद होते हैं / इन का संक्षिप्त विवरण निम्नोक्त है १-नरकगतिनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त हो, जिस से वह नारक कहलाता है। उस कर्म को नरकगतिनामकर्म कहते हैं। 2- तिर्यञ्चगतिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव तिर्यञ्च कहलाता है। ३-मनुष्यगतिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव मनुष्यपर्याय को प्राप्त करता है। ४-देवगतिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव देव अवस्था को प्राप्त करता है। ५-एकेन्द्रियजातिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को केवल एक त्वगिन्द्रिय की प्राप्ति होती है। . प्राकथन] श्री विपाक सूत्रम् [41
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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