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________________ ६-द्वीन्द्रियजातिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा और जिह्वा ये दो इन्द्रियां प्राप्त होती हैं। ७-त्रीन्द्रियजातिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा, जिह्वा और नासिका ये तीन इन्द्रियां प्राप्त होती हैं। ८-चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा, जिह्वा, नासिका और नेत्र ये चार इन्द्रियां प्राप्त होती हैं। ९-पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा, जिह्वा, नासिका, नेत्र और कान ये पांच इन्द्रियां प्राप्त होती हैं। १०-औदारिकशरीरनामकर्म-उदार अर्थात् प्रधान अथवा स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है, इस कर्म से ऐसा शरीर उपलब्ध होता है। ११-वैक्रियशरीरनामकर्म-जिस शरीर से एक स्वरूप धारण करना, अनेक स्वरूप धारण करना, छोटा शरीर धारण करना, बड़ा शरीर धारण करना, आकांश में चलने योग्य शरीर धारण करना, दृश्य और अदृश्य शरीर धारण करना आदि अनेकविध क्रियाएं की जा सकती हैं उसे वैक्रियशरीर कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो वह वैक्रियशरीरनामकर्म कहलाता है। १२-आहारकशरीरनामकर्म-१४ पूर्वधारी मुनि महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान तीर्थंकर से अपना सन्देह निवारण करने अथवा उन का ऐश्वर्य देखने के लिए जब उक्त क्षेत्र को जाना चाहते हैं तब लब्धिविशेष से एक हाथ प्रमाण अतिविशुद्ध स्फटिक सा निर्मल जो शरीर धारण करते हैं, उसे आहारक शरीर कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो वह आहारकशरीरनामकर्म कहलाता है। १३-तैजसशरीरनामकर्म-आहार के पाक का हेतु तथा तेजोलेश्या और शीतललेश्या के निर्गमन का हेतु जो शरीर है, वह तैजस शरीर कहलाता है। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति होती हो, वह तैजसशरीरनामकर्म कहलाता है। १४-कार्मणशरीरनामकर्म-जीव के प्रदेशों के साथ लगे हुए आठ प्रकार के कर्मपुद्गलों को कार्मणशरीर कहते हैं। इसी शरीर से जीव अपने मरणस्थान को छोड़ कर उत्पत्तिस्थान को प्राप्त करता है। जिस कर्म के उदय से इस शरीर की प्राप्ति हो वह कार्मणशरीरनामकर्म कहलाता है। १५-औदारिकअंगोपांगनामकर्म-औदारिक शरीर के आकार में परिणत पुद्गलों से अंगोपांगरूप अवयव इस कर्म के उदय से बनते हैं। 42 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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