SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 848
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वभाव होता है कि वे दूसरों को मारने-पीटने की तथा राजद्रोह आदि की व्यर्थ बातें कहते रहते हैं / अनर्थदण्ड के त्यागी को ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए। अनर्थदण्डविरमणव्रत का इतना ही उद्देश्य है कि श्रावक ने अणुव्रत स्वीकार करते समय जिन बातों की छूट रखी है, उस छूट का उपयोग करने में अर्थ-अनर्थ, सार्थक और निरर्थक का वह अन्तर समझ ले और निरर्थक प्रयोग से अपने को बचा ले। गुणव्रत अणुव्रतों के पोषक होते हैं, यह पहले बताया जा चुका है। पहले दिक्परिमाणव्रत ने अमर्यादित क्षेत्र को मर्यादित किया। उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत से अमर्यादित पदार्थों को मर्यादित किया गया है और अनर्थदण्डविरमणव्रत ने पहले की छूटों को क्रिया से अर्थात् कार्य के अविवेक से पुनः मर्यादित किया है। तात्पर्य यह है कि अनर्थदण्डविरमणव्रत के ग्रहण से यह मर्यादा की जाती है कि मैं निरर्थक पाप से बचा रहूंगा और "-गृहकार्य मेरे लिए आवश्यक हैं या नहीं, इस काम को करने के बिना भी मेरा जीवन चल सकता है या नहीं, यदि नहीं चलता तो विवश होकर मुझे यह काम करना ही पड़ेगा, प्रत्युत इस काम के किए बिना भी यदि मेरा जीवन निर्वाह हो सकता है तो व्यर्थ में उसे क्यों करूं, क्यों व्यर्थ में अपनी आत्मा को पाप से भारी बनाऊं" इस प्रकार का विवेक सम्प्राप्त हो जाता है और अणुव्रतों के आगारों की निष्प्रयोजन प्रवृत्तियों को रोका जा सकता है। इस के अतिरिक्त अनर्थदण्डविरमणव्रत के संरक्षण के लिए निम्नलिखित 5 कार्यों का त्याग आवश्यक है... १-कन्दर्प-कामवासना के पोषक, उत्तेजक तथा मोहोत्पादक शब्दों का हास्य या व्यंग्य में दूसरे के लिए प्रयोग करना। २-कौत्कुच्य-आंख, नाक, मुंह, भृकुटि आदि अंगों को विकृत बना कर भांड या विदूषक की भान्ति लोगों को हंसाना। तात्पर्य यह है कि भाण्डचेष्टाओं का करना। प्रतिष्ठित एवं सभ्य लोगों के लिए अनुचित होने से, इन का निषेध किया गया है। - ३-मौखर्य-निष्कारण ही अधिक बोलना, निष्प्रयोजन और अनर्गल बातें करना, थोड़ी बात से काम चल सकने पर भी व्यर्थ में अधिक बोलते रहना। ४-संयुक्ताधिकरण-कूटने, पीसने और गृहकार्य के अन्य साधन जैसे-ऊखल, मूसल आदि वस्तुओं का अधिक और निष्प्रयोजन संग्रह रखना। जिस से आत्मा दुर्गति का भाजन बने उसे अधिकरण कहते हैं अर्थात् दुर्गतिमूलक पदार्थों का परस्पर में संयोग बनाए रखना, जैसे-गोली भर कर बन्दूक का रखना, वह अचानक चल जाए या कोई उसे अनभिज्ञता के कारण चला दे तो वह जीवन के नाश का कारण हो सकती है, इसीलिए संयुक्ताधिकरण को दोषरूप माना गया है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [839
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy